वर्ष9 अंक 20 n 16-31 अक्तूबर 2016 n ~ 20
दीपावली ववशेष
स्मरण। शताब्दी वर्ष आत्मकथ्य। पुस्क अंश कहानियां। कनवताएं
नयी-पुरानी लिखावट
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वर्ष 9 अंक 20 n 16 से 31 अक्तबू र 2016 स्वत्वािधकारी, मुद्क एवं प््काशक क््मता सिंह प््बंध िंपादक आशुतोष सिंह िंपादक अंबरीश कुमार िंपादकीय िलाहकार मंगलेश डबराल राजनीसतक िंपादक सववेक िक्िेना फोटो िंपादक पवन कुमार
दीपावली पर ववशेष
िंपादकीय िहयोगी
िसवता वम्ाा अंजना सिंह िुनीता शाही (लखनऊ) अिनल चौबे (रायपुर) पूजा ििंह (भोपाल) िंजीत स््िपाठी (रायपुर) अिवनाश ििंह (िदल्ली) अिनल अंशुमन (रांची) कुमार प््तीक
कला
प््वीण अिभषेक
महाप््बंधक
एि के सिंह +91.8004903209 +91.9793677793 gm.shukrawaar@gmail.com
िबजनेि हेड
नयी-पुरानी विखावट गद्् ● ●
शरद कुमार शुक्ला +91. 9651882222
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ब््ांिडंग
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कॉमडेज कम्युिनकेशन प््ा़ िल़
प््िार प््बंधक
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यती्द्कुमार ितवारी +91. 9984269611, 9425940024
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सिज््ापन प््बंधक
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सजते्द्समश््
सिसध िलाहकार
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शुभांशु सिंह
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+91. 9971286429 सुयश मंजुल
िंपादकीय काय्ाालय
एमडी-10/503, िहारा ग््ेि, जानकीपुरम लखनऊ, उत््र प््देश-226021 टेलीफैक्ि : +91.522.2735504 ईमेल : shukrawaardelhi@gmail.com www.shukrawaar.com DELHIN/2008/24781 स्वत्वािधकारी, प्क ् ाशक और मुदक ् क्म् ता सिंह के सिए अमर उजािा पब्लिकेशि ं सिसमटेड, िी-21, 22, िेकट् र-59, नोएडा, उत्र् प्द् श े िे मुस्दत एवं दूिरी मंसजि, ल्ाी-146, हसरनगर आश्म् , नयी सदल्िी-110014 िे प्क ् ासशत.
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शताब्दी वष्ष: अमृतलाल नागर: मै् लेखक कैसे बना शताब्दी वष्ष: व््िलोचन: चंपा काले-काले अक््र नही् चीन्हती स्मृवत: गुरदयाल वसंह: सांझ आत्मवृत्: शेखर जोशी: फ्सलो् का सुनहरा सरोवर कहानी: प््याग शुक्ल: रात मे् ढलती शाम कहानी: कुमार अंबुज: जीभी कहानी: शव्माला बोहरा जालान: पंेग कहानी: सुभाष चंद् कुशवाहा: मवलकार की मार स्मरण: व््पयदश्ान: इक बस््ी िी इक बाबा िे जीवनी: यती्द् वमश््: दो नवदयां सुरो् की
कववताएं ● ● ● ● ●
कुंवर नारायण ● मलय ● ववनोद कुमार शुक्ल ● रवी्द् वम्ाा ● शुभा पंकज चतुुव्ेदी ● अनीता वम्ाा ● वकरण अग््वाल ● कात्यायनी नीलेश रघुवंशी ● चंद्ेश्र ● संजय कुंदन ● केशव वतवारी वशव प््साद जोशी ● वमविलेश श््ीवास््व ● कृष्णमोहन झा अनुराधा वसंह ● वववपन चौधरी ● प््ेरणा प््िम वसंह ● जवसंता केरकेट्ा
िंपादक : अंबरीश कुमार (पीआरल्ाी अिधसनयम के तहत िमाचारो्के चयन के ििए िजम्मेदार) िभी कानूनी िववादो्के ििए न्याय क््ेत्िदल्िी होगा.
शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
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आपकी डाक
सौदे का सच
सब़क लीजिए
प््धानमंत्ी नरे्द्मोदी या उनकी टीम अगर सहंदी पत््-पस््तकाये्पढ्ती है तो उिे शुक्वार के एक िे 15 अक्टूबर के अंक मे्छपे कुमार प््शांत के िेख को पढऩा चासहये और उििे िबक िेना चासहये. यद््सप उनके अतीत को देखते हुए िगता नही्है सक वे इसतहाि िे कोई िबक िेते है्िेसकन अगर वह िे्गे तो यह देश के सहत मे् होगा. सफिहाि पासकि््ान पर पय्ााप्त दबाव बन चुका है, अगर उिे कायम रखने मे् मदद समिती है तो इििे बेहतर कुछ नही्हो िकता. देश आज सनण्ाायक बढ्त हासिि करने की ब्सथसत मे्आ चुका है. अगर अभी यह बढ्त गंवा दी गयी तो दोबारा यहां तक पहुच ं ने मे्िंबा वक्त िगेगा. कुममर गौरव, इलमहमबमि
श््ेय की होड्
िस्जाकि स्ट्ाइक के हल्िे ने कश्मीर िमस्या और पासकि््ान की भूसमका को एक बार सफर बहि के के्द् मे् िा सदया है. भारतीय िेना के िस्जाकि स्ट्ाइक को िेकर अभूतपूव्ा चच्ाा देखने को समिी. पासकि््ान कहता रहा सक
सोशल मीडिया ख्ूबसूरत बस््र
बि््र के वन प्ा्ंतर पर आधासरत यात््ा वृतांत ने देश के एक अत्यंत चस्चात िेसकन कम घूमे सफरे गये क््ेत् के बारे मे् नये सिरे िे उत्िुकता पैदा कर दी है. बि््र की अशांसत दूर हो और वह एक जाना माना पय्ाटक स्थि बनकर देश के पय्टा न मानसचत््पर उभरे, यह भावना वृतांत पढक़र उभरी. भूतनमथ, फेिबुक 4
क््वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
सपछिे सदनो्पूरे देश मे्राफेि िौदे की धूम रही. शुक्वार ने इिे अपनी आवरण कथा का सवषय बनाकर पाठको् को इिे बेहतर िमझने का मौका सदया. एक िे 15 अक्टूबर के अंक की आवरण कथा 'सकि कीमत पर राफेि' ने इि िौदे के पीछे का पूरा खेि िामने िा सदया, वरना तो िूचनाओ् की बमबारी के इि दौर मे् सकिी मीसडया ने पाठको्को यह बताया ही नही् सक कैिे कंपनी इि िौदे के होने के पहिे घाटे की सशकार थी और कैिे इि िौदे ने उिे नयी सजंदगी िौ्पी है.
यह िौदा काफी महंगा भी पड्रहा है. यह भी पता चिा सक राफेि की पहिी खेप सजि वक्त तक देश को समिेगी, उि वक्त तक वह देश के सिए बहुत असधक िामसरक महत्व् वािा नही् रह जायेगा. राफेि िौदे के िाथ ही मेक इन इंसडया के आड्मे्इिके किपुज्े बनाने का काम सरिायंि की उि रक््ा कंपनी को दे सदया गया है सजिे अस््ित््व मे् आये जुमा-जुमा चार सदन ही हुए है्. यह िारा वाकया बताता है सक दाि मे्कुछ न कुछ कािा जर्र है.
िस्जाकि स्ट्ाइक जैिी कोई घटना हुई ही नही् वही् देश मे् भाजपा पर इि कार्ावाई का राजनीसतक फायदा उठाने के आरोप िगे. इन आरोपो्मे्काफी हद तक िचाई भी थी. यह िच है सक देश ने पहिे भी आतंक के सखिाफ ऐिी ही कार्ावाई की है िेसकन उि वक्त इिे िेना के अनुशािन के दायरे मे् रहने सदया गया. यह पहिा मौका है जब िेना ने िंवाददाताओ्को बुिाकर बताया सक उिने यह कार्ावाई की है. इििे भी बुरी बात तब हुई जब कसतपय भाजपा नेताओ् ने इिका श््ेय प््धानमंत्ी मोदी और रक््ा मंत्ी मनोहर पस्राकर को दे डािा. यह वाकई देश के इसतहाि मे् पहिी बार हुआ है और ऐिा नही्हुआ होता तो बेहतर कहिाता. रमजेश दिंह, भोपमल
बढ्ाने के आंकड्ेहै्तो दूिरी तरफ उन आंकड्ो् को मुंह सचढ्ाते भूखे-नंगे बच््ो्का िच. िेसकन राज्य का मीसडया पता नही् क्यो् इन खबरो् मे् र्सच नही्िेता है. वैिे सजि राज्य के मीसडया ने व्यापम जैिे घोटािे को उसचत तवज््ो न दी हो उिके बारे मे्क्या कहा जाये? बहरहाि, राज्य िरकार अगर अब भी चेत रही है और कुपोषण के सखिाफ श््ेत पत्् िा रही है तो यह अच्छी बात है, बशत््े सक यह श््ेत पत्् की कार्ावाई केवि कागजी उपाय बनकर न रह जाये.
कुपोषण का कुचक््
मध्य प््देश की िामासजक ब्सथसत पर करीबी नजर रखने वािो् के सिए यह सरपोट्ा चौ्काने वािी नही् है सक वहां बच््े भूख और कुपोषण िे अपनी जान गंवा रहे है्. वहां यह ब्सथसत आज िे नही् बब्लक सपछिे कई वष््ो् िे बनी हुई है. एक तरफ राज्य िरकार के सनरंतर पैदावार
शुज्कया शुक्वार
राफेि सवमान िौदे को कवर स्टोरी बनाने के सिए शुक्वार का बहुत-बहुत शुस्कया. ऐिे िौदो्की तरफ असधक िे असधक ध्यान सदिाये जाने की आवश्यकता है. वृजेश दिंह, फेिबुक
िीपीएस से हमला
िेना के पाि जीपीएि गाइडेड बम भी है सजनकी मदद िे पांच िे िात सकिोमीटर दूर तक महज कंधे पर रखे जाने वािे िॉन्चर िे सकिी सठकाने पर एक फुट तक की एक्यूरेिी िे हमिा सकया जा िकता है. अिि मे्िस्जाकि
हनुमंत शम्मा, नयी दिल्ली
प््मोि दमश््, भोपमल
पाठको्से वनवेदन
शुक्वार मे्प््कािशत सरपोट््ो्और रचनाओ् पर पाठको्की प््सतसक््या का स्वागत है़ आप अपने पत््नीचे िदए गए पते पर या ईमेि िे भेज िकते है् एमडी-10/503, िहारा ग््ेि, जानकीपुरम, िखनऊ, उत््र प््देश-226021 टेिीफैक्ि : +91.522.2735504 ईमेि :shukrawaardelhi@gmail.com
स्ट्ाइक का हमिा उिी िे सकया गया था.
शोधपरक रपट
पंकज चतुव्ेिी, फेिबुक
राफेि िौदे का िच सकिी िे सछपा नही् था. िेसकन शुकव् ार ने इिे शोधपरक अंदाज मे्पेश सकया है. दरतेश जमयिवमल, फेिबुक
ज्र्री जवश्लेषण
क्या बात है? राफेि का सवश्िेषण आवश्यक था. देश यह जानना चाहता है सक यह िौदा िामसरक और आस्थाक दृस्ि िे भारत के सिए सकतना फायदेमंद है. निीम एि अख्तर, फेिबुक
ववशेष संपादकीय
सावहत्य के आईने मे् समाज ि
अंबरीश कुमार
जिस आजिवासी समाि का साजित्य संजिताबद्् निी् िै वि भी अपनी किाजनयो् के माध्यम से जिंिा िै. जिंिा रिना िै तो किानी की ताकत पर भरोसा करना िोगा.
भी पाठको् को दीपाविी की बहुत बहुत शुभकामनाये.् यह अंक िासहत्य पर केस््दत है. यह िाि अमृत िाि नागर का यह शताल्दी वष्ा है तो अगिा वष्ा स््तिोचन का. दोनो् आम िोगो् मे् भी बहुत िोकस््पय रहे है.् अमृत िाि नागर तो िखनऊ की पहचान रहे. कहा जाता है उनके िेखन मे् चौक की गसियां बोिती थी. उनकी कहासनयो् मे् िखनऊ की बोिी और मुहावरा नजर आता है. एक िाक््ात्कार मे्अमृत िाि नागर ने कहा था, 'मै् तो भाई जनता जो यहां बोिती है, उि बोिी का िेखक हू.ं न मै् सहंदी जानता हूं और न उद्.ाू मै्पढ्त-े पढ्ते थोड्ी भाषा ज्रर् िीख गया हू.ं ' उनकी रचनाओ् मे् तुििी और िूर का मध्ययुगीन िमाज, स्वाधीनता िंघष्ाका िखनऊ और उिके बाद का जासतव्यवस्था िे ग््सित िमाज िब नजर आते है.् 'मानि का हंि', 'खंजन नैन', 'नाच्यो बहुत गोपाि' जैिे उपन्याि इिके उदाहरण है.् कथाकार जब वाि््सवक पात््ो् के माध्यम िे रचना करता है तो वह सकिी इसतहािकार िे ज्यादा िफि होता है और जब कोई इसतहािकार वाि्स्वक पात््ो्के िाथ िंवदे नशीि दृस्ि रखता है तो वह उपन्यिाकार िे ज्यादा रोचक िृजन करता है. अमृतिाि नागर ने 'गदर के फूि' के माध्यम िे अवध के क्त्े ् मे् सबखरी गदर यानी 1857 के सवद््ोह की स्मसृ तयो्को प्ि ् त्ु सकया है और वह इसतहाि िेखन भी है पत्क ् ासरता भी है और िासहत्य िेखन भी. बहुत कम िोगो्को पता होगा सक जनित््ा मे् जब िती प््था के िमथ्ान मे् िंपादकीय आया तो देश के अिग अिग सहस्िो्मे्सवरोध हुआ. युवा भारत िंगठन ने िखनऊ सवश््सवद््ािय के छात््-छात््ाओ् की एक बडी रैिी िािबाग के पाक्कमे्आयोसजत की तो मुखय् वक्ता अमृतिाि नागर थे. देश मे्ऐिे बहुत िे मौके आये है् जब कसव-िेखको् ने ित््ा की सनरंकश ु ता का पुरजोर सवरोध सकया. आपातकाि मे् बाबा नागाज्ाुन ने न सिफ्क सिखा बब्लक िाव्ज ा सनक िभाओ्मे्आपातकाि के सखिाफ खुिकर बोिा भी. ' इंदु जी इंदु जी क्या हुआ आपको ' उनकी मशहूर कसवता है. इिी सवरोध के चिते वे जेि भेज सदये गये थे. आज सफर हासशये के िमाज पर हमिा तेज हो रहा है. दसित, अल्पिंख्यक, मसहिाओ् और आसदवासियो्पर हमिे बढ रहे है.् िेसकन इिका प्स्तरोध भी हो रहा है. ऐिे मे्िासहत्य क्त्े ्कैिे अछूता रह िकता है. यह प्स्तरोध िासहत्य मे्भी
नजर आता रहा है. पुरानी पीढी मे्भी, नयी पीढी के रचनाकारो्मे्भी. आधुसनक युग का दसित आंदोिन दया पवार, शरण कुमार सिंबािे, नामदेव ढिाि, राजा ढािे, ओम प््काश वाल्मीसक, कौशल्या वैितं ्ी, डीआर नागराज और श्योराज सिंह बेचनै की रचनाओ्मे्ढूढं ा जा िकता है. श्योराज सिंह बेचनै ने अगर 'मेरा बचपन मेरे कांधो्पर' जैिी आत्मकथा के माध्यम िे गांव के दसित जीवन का िमाजशास््ीय वण्ना सकया है तो ओम दया पवार का 'बिूत' महाराष्् के दसित िंघष्ाको प्क ् ट करता है. इिी तरह स््ी जीवन का िंघष्ा सचत््ा मुद्ि के 'आंवा' और मृदुिा गग्ा के 'सचतकोबरा' मे्देखा जा िकता है. उिे अगर गैर औपन्यासिक शैिी मे्देखना होता तो अनासमका द््ारा सिखी गयी पंसडता रमाबाई की जीवनी मे् देखा जा िकता है. वैश्ीकरण के बुरे प्भ् ावो्को देखना हो तो काशीनाथ सिंह के काशी का अस्िी और रेहन पर रग्घू मे्ढूढं ा जा िकता है. सजि आसदवािी िमाज का िासहत्य िंसहताबद्् नही् है वह भी अपनी कहासनयो् के माध्यम िे सजंदा है. सजंदा रहना है तो कहानी की ताकत पर भरोिा करना होगा. कहानी पढ्ते िमय यह याद रहता है सक इिमे् एक युग की िंवदे ना और चेतना दौड्रही है. यह महज िंयोग नही् है सक गुजराती के प््सिद्् उपन्यािकार गोवध्ान राम स््तपाठी ने स््ी सवमश्ा पर ग््ंथ सिखने के बजाय िरस्वती चंद्नाम का उपन्याि सिखा जो एक क्िासिक बन गया. आसदवािी िंसक ् सृ त और सवकाि का जो यथाथ्ामाक्िवा् ादी और गैर माक्िवा् ादी बहिो्िे नही्िमझ मे्आता वह महाश्त्े ा देवी के 'जंगि के दावेदार', 'चोटी मुंडा' और 'उनका तीर' जैिे उपन्यािो् और द््ोपदी, बूनो कािी और पूजा की डािी व नून सनमक जैिी कहासनयो् िे िहज िंप्ेषणीय हो जाता है. महाश््ेता देवी ने माक्ि्ावादी सिद््ांत नही्पढ्ेिेसकन उनकी कहासनयो्मे्आसदम और उपेस्कत भारतीयो्का ितत सवद््ोह हुक ं ार भर रहा है. उन्हे् पढ्कर िगता है सक उिगुिान अभी शांत नही् हुआ है. महुआ माझी के उपन्याि 'मरंग घोड्ा नीिकंठ हुआ' आसदवािी सवस्थापन की पीड्ा को िशक्त असभव्यब्कत देता है. वीएि नायपाि के शल्दो्मे्सजन्हे्भारतीय िमाज की समसियन म्यूसटनीज नही् िमझ मे् आती वे महाश्त्े ा देवी की कहासनयो् और उपन्यािो् मे् झांकगे् े तो िहज ही िमझ मे्आ जायेगा. n ambrish2000kumar@gmail.com शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
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दीपावली ववशेष
शताब्दी वर्ष
िुप्सिद््कथासशल्पी. जन्म: 17 अगि््1916 सनधन: 23 फरवरी, 1990. कहानी, उपन्याि, नाटक, सरपोत्ााज, सनबंध, िंस्मरण, व्यंग्य, बाि िासहत्य, अनुवाद, िंपादन आसद सवधाओ्मे्कई कृसतयां प््कासशत. प््मुख उपन्याि: ‘बूंद और िमुद्’,‘शतरंज के मोहरे’,‘िुहाग के नुपूर’,‘अमृत और सवष’, ‘मानि का हंि’, ‘नाच्यौ बहुत गोपाि’. िम्मान : िेसवयत िै्ड नेहर् पुरस्कार, िासहत्य अकादेमी पुरस्कार,उत््र प््देश शािन का राज्य िासहब्तयक पुरस्कार, उत््र प््देश िंगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, उ.प््. सहंदी िंस्थान का िव््ोच्च भारत भारती िम्मान.
मै् लेखक कैिे बनम
आत्मवृत्
पाि रहा. एक बार कुछ अंगज ्े अफिर हमारे यहां दावत मे्आनेवािे थे, तभी मेरे बाबा ने वह सचत््घर िे हटवा सदया. मुझे बड्ा दुख हुआ था. मेरे सपता जी अमृतलाल नागर आसद पूजय् माधव जी के सनद्श ्े न मे्असभनय किा िीखते थे, वह सचत््भी मेरे मन मे्स्पष्ट है. हो िकता है सक बचपन मे्इन महापुरष् ो्के दश्ना ो्के पने बचपन और नौजवानी के सदनो्का मानसिक वातावरण देखकर पुणय् प्त् ाप िे ही आगे चिकर मै्िेखक बन गया होऊं. वैिे किम के क्त्े ् यह तो कह िकता हूँ सक अमुक-अमुक पसरब्सथसतयो्ने मुझे िेखक मे्आने का एक स्पष्ट कारण भी दे िकता हू.ं बना सदया, परंतु यह अब भी नही्कह िकता सक मै्िेखक ही क्यो्बना. मेरे िन 28 मे्इसतहाि प्स्िद््िाइमन कमीशन दौरा करता हुआ िखनऊ बाबा जब कभी िाड्मे्मुझे आशीव्ादा देते तो कहा करते थे सक 'मेरा अमृत नगर मे्भी आया था. उिके सवरोध मे्यहां एक बहुत बड्ा जुिि ू सनकिा जज बनेगा.' कािांतर मे्उनकी यह इच्छा मेरी इच्छा भी बन गई. अपने बाबा था. पं. जवाहर िाि नेहर्और पं. गोसवंद बल्िभ पंत आसद उि जुिि ू के के िपने के अनुिार ही मै्भी कहता सक सविायत जाऊंगा और जज बनूगं ा. अगुवा थे. िड्काई उमर के जोश मे्मै्भी उि जुिि ू मे्शासमि हुआ था. हमारे घर मे् िरस्वती और गृहिक्मी ् नामक दो मासिक पस््तकाएं जुिि ू मीि डेढ् मीि िंबा था. उिकी अगिी पंबक् त पर जब पुसिि की सनयसमत र्प िे आती थी्. बाद मे्किकत्ते िे प्क ् ासशत होनेवािा पास््कक िासठयां बरिी्तो भीड्का रेिा पीछे की ओर िरकने िगा. उधर पीछे िे या िाप्तासहक सहंद-ू पंच भी आने िगा था. उत्र् भारतेद् ु काि के िुपस्िद्् भीड्का रेिा आगे की ओर बढ्रहा था. मुझे अच्छी तरह िे याद है सक दो हास्य-व्यंगय् िेखक तथा आनंद िंपादक पं. सशवनाथजी शम्ाा मेरे घर के चक्की के पाटो्मे्सपिकर मेरा दम घुटने िगा था. मेरे पैर जमीन िे उखड् पाि ही रहते थे. उनके ज्येष्पुत्िे मेरे सपता की घसनष्ठ मैत्ी थी. उनके यहां गए थे. दांय-े बांय,े आगे पीछे, चारो्ओर की उन्मत्त भीड्टक्करो्पर टक्करे् िे भी मेरे सपता जी पढ्ने के सिए अनेक पत्-् पस््तकाएं िाया करते थे. वे भी मै् देती थी. उि सदन घर िौटने पर मानसिक उत्तेजनावश पहिी तुकबंदी फूटी. पढ्ा करता था. सहंदी रंगमंच के उन्नायक राष्ट््ीय कसव पं. माधव शुकि ् अब उिकी एक ही पंबक् त याद है : ‘कब िौ्कहो िाठी खाया करे,् कब िौ् िखनऊ आने पर मेरे ही घर पर ठहरते थे. मुझे कहौ्जेि िहा कसरये.’ काशी मेंउन दिनोंअनेक महान उनका बड्ा स्नेह प््ाप्त हुआ. आचाय्ाश्यामिुदं रदाि वह कसवता तीिरे सदन दैसनक आनंद मे्छप भी सादहतंयिकार रहा करते थे.साल गयी. छापे के अक्र् ो्मे्अपना नाम देखा तो नशा उन सदनो् स्थानीय कािीचरण हाई स्कूि के हेडमास्टर थे. उनका एक सचत््मेरे मन मे्आज तक आ गया. बि मै्िेखक बन गया. मेरा खयाि है दोमेंिो चकंकर लगा आता था. स्पष्ट है - िुबह-िुबह नीम की दातुन चबाते हुए मेरे तीन प््ारंसभक तुकबंसदयो्के बाद ही मेरा र्झान गद्् शरतचंदंचटंंोपाधंिाि के िशंशन घर पर आना. इिाहाबाद बैक ् की कोठी (सजिमे् की ओर हो गया. कहासनयां सिखने िगा. पं. पाकर मैंसंफूदंतश से भर जाता था. र्पनारायण जी पांडये 'कसवरत्न' मेरे घर िे थोड्ी हम रहते थे) के िामने ही कंपनी बाग था. उिमे् टहिकर दातून करते हुए वे हमारे यहां आते, वही् दूर पर ही रहते थे. उनके यहां अपनी कहासनयां हाथ-मुहं धोते सफर चांदी के वक्कमे्सिपटे हुए आंविे आते, दुगधपान ् होता, िेकर पहुचं ने िगा. वे मेरी कहासनयो्पर किम चिाने के बजाय िुझाव सदया तब तक आचाय्ाप्व् र का चपरािी 'अधीन' उनकी कोठी िे हुक्ा, िेकर करते थे. उनके प््ारंसभक उपदेशो्की एक बात अब तक गांठ मे्बंधी है. छोटी हमारे यहां आ पहुच ं ता. आध-पौन घंटे तक हुक्ा, गुडग् डु ्ाकर वे चिे जाते कहासनयो्के िंबधं मे्उन्हो्ने बतिाया था सक कहानी मे्एक ही भाव का थे. उद्ाूके िुपस्िद््कसव पं. बृजनारायण चकबस्त के दश्ना भी मैन् े अपने िमावेश करना चासहए. उिमे्असधक रंग भरने की गुज ं ाइश नही्होती. यहां ही तीन-चार बार पाये. पं. माधव शुकि ् की दबंग आवाज और उनका िन 1929 मे्सनरािा जी िे पसरचय हुआ और तब िे िेकर 1939 तक हाथ बढ्ा-बढ्ाकर कसवता िुनाने का ढंग आज भी मेरे मन मे्उनकी एक वह पसरचय सदनो्सदन घसनष्ठतम होता ही चिा गया. सनरािा जी के व्यब्कतत्व सदव्य झांकी प्स् तु् त कर देता है. जसियांवािा बाग कांड के बाद शुकिजी ् वहां ने मुझे बहुत असधक प्भ् ासवत सकया. आरंभ मे्यदा-कदा दुिारेिािजी भाग्वा की खून िे रंगी हुई समट््ी एक पुसडया मे्िे आये थे. उिे सदखाकर उन्हो्ने के िुधा काय्ाि ा य मे्भी जाया-आया करता था. समश््बंधु बड्ेआदमी थे. जाने क्या-क्या बाते्मुझिे कही थी्. वे बाते्तो अब तसनक भी याद नही्पर तीनो्भाई एक िाथ िखनऊ मे्रहते थे. तीन-चार बार उनकी कोठी पर भी उनका प्भ् ाव अब तक मेरे मन मे्स्पष्ट र्प िे अंसकत है. उन्हो्ने जसियांवािा दश्ना ाथ्ागया था. अंदरवािे बैठक मे्एक तखत पर तीन मिनदे्और िकड्ी बाग कांड की एक सतरंगी तस्वीर भी मुझे दी थी. बहुत सदनो्तक वो सचत््मेरे के तीन कैशबाक्ि रक्खे थे. मिनदो् के िहारे बैठे उन तीन िासहब्तयक
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शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
महापुरष् ो्की छसव आज तक मेरे मानि पटि पर ज्यो्की त्यो्अंसकत है. रावराजा पंसडत श्यामसबहारी समश््का एक उपदेश भी उन सदनो्मेरे मन मे् घर कर गया था. उन्हो्ने कहा था, िासहत्य को टके कमाने का िाधन कभी नही्बनाना चासहए. चूसं क मै्खाते-पीते खुशहाि घर का िड्का था, इिसिए इि सिद््ातं ने मेरे मन पर बड्ी छाप छोड्ी. इि तरह िन 29-30 तक मेरे मन मे्यह बात एकदम स्पष्ट हो चुकी थी सक मै्िेखक ही बनूगं ा. काशी मे् उन सदनो् अनेक महान िासहब्तयकार रहा करते थे. वहां भी जाना-आना शुर् हुआ. िाि मे् दो चक्कर िगा आता था. शरतचंद् चट््ोपाध्याय के दश्ना पाकर मै्स्फूसत् ा िे भर जाता था. शरत बाबू सहंदी मजे की बोि िेते थे. मुझिे कहने िगे, ‘स्कूि कॉिेज मे्पढ्ते िमय बहुत िे िड्के कसवताएं-कहासनयां सिखने िगते है,् िेसकन बाद मे् उनका यह अभ्याि छूट जाता है. इििे कोई िाभ नही्. पहिे यह सनश्चय करो सक तुम आजन्म िेखक ही बने रहोगे.’ मैन् े िोत्िाह हामी भरी. शरत बाबू ने अपना एक पुराना सक़्सिा ् िुनाया. 18-19 वष्ाकी आयु मे्उन्हो्ने िेखक के र्प मे् ख्यासत प््ाप्त कर िी थी. क्म् शः उनकी दो-तीन सकताबे् छपी् और वो चमत्कासरक र्प िे प्स्िद््हो गये... तब एक सदन रास्ते मे्शरत बाबू को अपने कॉिेज जीवन के एक अध्यापक समि गये. उनका नाम बाबू पांच कौड्ी (दत्,् दे या बनज््ी) था. वे बांगिा ् िासहत्य के प्स्तस््षत आिोचक भी थे. अपने पुराने सशष्य को देखकर उन्हो्ने कहा : ‘शरत, मैन् े िुना है सक तुम बहुत अच्छे िेखक हो गये हो िेसकन तुमने अपनी सकताबे्पढ्ने को नही्दी.’ शरत बाबू िंकसु चत हो गये, सवनयपूवक ा् बोिे : ‘वे पुसतके ् ्इि योग्य नही्सक आप जैिे पंसडत उन्हे्पढ्.े्’ पांच कौड्ी बाबू बोिे : ‘खैर, पुसतके ् ् तो मै् कही् िे िेकर पढ् िूगं ा, पर चूसं क अब तुम िेखक हो गये हो इिसिए मेरी तीन बाते्ध्यान मे्रखना. एक तो जो सिखना िो अपने अनुभव िे सिखना. दूिरे अपनी रचना को सिखने के बाद तुरतं ही सकिी को सदखाने, िुनाने या ििाह िेने की आदत मत डािना. कहानी सिखकर तीन महीने तक अपनी दराज मे्डाि दो और सफर ठंडे मन िे स्वयं ही उिमे्िुधार करते रहो. इििे जब यथेष्िंतोष समि जाए, तभी अपनी रचना को दूिरो्के िामने िाओ.’ पांच कौड्ी बाबू का तीिरा आदेश यह था सक अपनी किम िे सकिी की सनंदा मत करो. अपने गुर्की ये तीन बाते्मुझे देते हुए शरत बाबू ने चौथा उपदेश यह सदया सक यसद तुमहारे ् पाि चार पैिे हो्तो तीन पैिे जमा करो और एक खच्.ा यसद असधक खच््ीिे हो तो दो जमा करो और दो खच्.ा यसद बेहद खच््ीिे हो तो एक जमा करो और तीन खच्.ा इिके बाद भी यसद तुमहारा ् मन न माने तो चारो्खच्ाकर डािो, मगर सफर पांचवां पैिा सकिी िे उधर मत मांगो. उधार की वृस्त िेखक की आत्मा को हीन और मिीन कर देती है. मै्यह तो नही्कह िकता सक इन चारो्उपदेशो्को मै्शतप्स्तशत अमि मे्िा िकता हू,ं सफर भी यह अवश्य कह िकता हूं सक प््ायः नल्बे फीिदी मेरे आचरण पर इन उपदेशो्का प्भ् ाव पड्ा है. िन 30 िे िेकर 33 तक का काि िेखक के र्प मे्मेरे सिए बड्ेही िंघष्ाका था. कहासनयां सिखता, गुरज ् नो्िे पाि भी करा िेता परंतु जहां कही्उन्हे्छपने भेजता, वे गुम हो जाती थी्. रचना भेजने के बाद मै्दौड्दौड्कर पत्-् पस््तकाओ्के स्टाि पर बड्ी आतुरता के िाथ यह देखने को जाता था सक मेरी रचना छपी है या नही्. हर बार सनराशा ही हाथ िगती. मुझे
बड्ा दुख होता था, उिकी प्स्तस््कया मे्कुछ महीनो्तक मेरे जी मे्ऐिी िनक िमाई सक सिखता, िुधारता, िुनाता और सफर फाड्डािता था. िन 1933 मे्पहिी कहानी छपी. िन 1934 मे्माधुरी पस््तका ने मुझे प््ोत्िाहन सदया. सफर तो बराबर चीजे्छपने िगी्. मैन् े यह अनुभव सकया है सक सकिी नये िेखक की रचना का प्क ् ासशत न हो पाना बहुधा िेखक के ही दोष के कारण न होकर िंपादको्की गैर-सजम्मेदारी के कारण भी होता है, इिसिए िेखक को हताश नही्होना चासहए. िन 1935 िे 37 तक मैन् े अंगज ्े ी के माध्यम िे अनेक सवदेशी कहासनयो् तथा गुसताव ् फ्िाबेर के एक उपन्याि मादाम बोवेरी का सहंदी मे्अनुवाद भी सकया. यह अनुवाद काय्ामै्छपाने की सनयत िे उतना नही्करता था, सजतना सक अपना हाथ िाधने की नीयत िे. अनुवाद करते हुए मुझे उपयुकत् सहंदी शल्दो्की खोज करनी पड्ती थी. इििे मेरा शल्द भंडार बढ्ा. वाक्यो्की गठन भी पहिे िे असधक सनखरी. दूिरो् की रचनाएं, सवशेष र्प िे िोकमान्य िेखको्की रचनाएं पढ्ने िे िेखक को अपनी शब्कत और कमजोरी का पता िगता है. यह हर हाित मे्बहुत ही अच्छी आदत है. इिने एक सवसचत््तड्प भी मेरे मन मे्जगाई. बार-बार यह अनुभव होता था सक सवदेशी िासहत्य तो महमकदव दनरमलम: प््ेरणम के स््ोत अंगज ्े ी के माध्यम िे बराबर हमारी दृस्ि मे्पड्ता रहता है, सकंतु देिी िासहत्य के िंबधं मे्हम कुछ नही्जान पाते. उन सदनो् सहंदीवािो् मे् बांगिा ् पढ्ने का चिन तो सकिी हद तक था, िेसकन अन्य भारतीय भाषाओ् का िासहत्य हमारी जानकारी मे् प््ायः नही्के बराबर ही था. इिी तड्प मे् मैन् े अपने देश की चार भाषाएं िीखी्. आज तो दावे िे कह िकता हूं सक िेखक के र्प मे् आत्मसवश्वाि बढ्ाने के सिए मेरी इि आदत ने मेरा बड्ा ही उपकार सकया है. सवसभन्न वातावरणो्को देखना, घूमना, भटकना, बहुशत्ु और बहुपसठत होना भी मेरे बड्ेकाम आता है. यह मेरा अनुभवजन्य मत है सक मैदान मे् िड्नवे ािे सिपाही को चुसत-दु ् रि ् ्रखने के सिए सजि प्क ् ार सनत्य की कवायद बहुत आवश्यक होती है, उिी प्क ् ार िेखक के सिए उपरोक्त अभ्याि भी सनतांत आवश्यक है. केवि िासहब्तयक वातावरण ही मे् रहनेवािा कथा िेखक मेरे सवचार मे्घाटे मे्रहता है. उिे सनस्िंकोच सवसवध वातावरणो्िे अपना िीधा िंपक्कस्थासपत करना ही चासहए.
आईने के िममने
अपनी गद््ी पर बैठ गया. कागज, किम िंभािी, पर सिखने न बना. क्या सिखू?ं स्मृसतयो्का हुजमू मन की दृस्ि के आगे िे गुजर रहा है. मैन् े बीते 46 वष््ो्मे्सकतने रंग अपने ऊपर चढ्ाए, सकतने उतारे और सकतने मेरे भीतर िे सखिे, सनखरे, इिका सहिाब भिा चटपट कैिे हो िकता है. एक रेखासचत््- असधक िे असधक एक रंगीन रेखासचत््बनाने की गुज ं ाइश है चिो, यो्ही खेि,ूं नाक-नक्श बनाऊं, आंखे्कान-सिर पूरा स्वर्प आंक.ूं मेरे सिर पर बाि घने है.् नाई जब काटता है, तब तो बहुत िे िफेद बाि भी िामने आ जाते है,् पर जासहरा तौर पर कािी रैन मे्सदन के उजािे िे सछपे रहते है.् चांद मे्हल्का गंजापन भी घुन की तरह िग चुका है. िेसकन शुक्है सक अभी कोई भांप नही्पाता. कानो्के पाि दशरथ महाराज को चौ्कानेवािे कुछ िफेद बाि अवश्य ही पाि बैठनेवािे को सदखिाई पड्िकते है.् मांग बीच िे दो फांको्सवभासजत करता हू.ं पहिे िीधे बाि काढ्ता था, सफर एक शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
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दीपावली ववशेष बार सदि की मजबूरी िे सदमाग मे्बंटवारे का िमय आया तो, बीच िे मांग किर रह गयी है. अपने भीतरवािी वह 'कही्' मै्अब जानने िगा हूं और काढ्ने िगा. मराठी भाषा मे्'मांग' को 'भांग' कहते है यानी भंग करना. वो वही्जूझ भी रहा हू.ं इिकी तस्वीर तो जीवन पूरा होने पर ही पूरी हो िकती बंटवारा तो अब सफर नए 'िमन्वय' मे्िय हो गया है, पर मांग ज्यो्की त्यो् है. सिहाजा हार-जीत के पसरणाम की बात नही्जानता. अब पश्चात््ाप वािा भंग होती है. यो्सिर पर रोज ही शाम को भंग भवानी भी िहराती है.् ित है - प््ारंसभक वष््ो्का स्वभाव भी बदि चुका है. वह हार की सनशानी थी. मै्उि इल्ित ही िही - अब कोई क्यो करे? ची्टी की तरह हू,ं जो बार-बार सगरने के बावजूद चढ्ती है. हार-जीत की बाजी कपाि बहुत चौड्ा नही्, बहुत िंकरा भी नही्. कभी पूजा-प्ि ् गं मे्रोिी प््ाणो्को उमंग देकर िड्ाती तो है, पर हार अब उतना सनराश नही्करती. या चंदन का टीका िगाता हूं तो फबता है. बहुत िंकरे कपाि पर यह सबंदी 'दद्ाका हद िे गुजरना है दवा है जाना' यह उब्कत िच्ची है. फि की आशा या गंजी चांद िे समिे चौड्ेकपािो्पर सटका चुगिी खाता है, यह प्म् ाण है. िे स्फूसत् ा मे्भर-भरकर जान िड्ा-िड्ा कर काम सकया, सदया - स्वप्न देख.े दासहनी भौ्के ऊपरवािा भाग कुछ उभरा हुआ है, उि पर कािा सति है. जब मेरी आशा फिवती न हुई तो कुसं ठत होता था. बरिो्यह राग रहा. इिके ज्योसतषी बताते है्सक शसन का प्भ् ाव है, उम््के 49वे्बरि मे्सितारे िा ऊफान के बाद सफर जब सकए हुए काम पर नजर जाती, तो िंतोष समिता चमकेगा. काश, ऐिी कोई तरकीब होती, सजििे आयु के तीन वष्ाआज ही था. अब तो यह जानता हूं सक आत्महत्या कर नही्िकता, इिसिए सनयत बढ्जाते! काि अपनी गसत िे चिता है. खैर, भंवे्घनी और कािी है.् अपनी आयु तक जीना है. काम न करं्तो सजयूं कैि.े इिसिए शांत हू,ं अपनी मौज आंखे्मुझे अपेक्ाकृत छोटी िगती है.् मै्बड्ी और रिीिी आंखो्का आसशक मे्फि की ओर िे िापरवाह हो चिा हू.ं अपनी िगन के सिए अपनी प्ब् ि हू.ं एक बार पान मे्चूना कुछ तेज िग जाने पर परम स््पय बंधवु र नरेद् ्जी ने उमंग को िीधे रखना ही मेरी एक मात््महत्व् कांक्ा है. सिखने-पढ्ने के िमय ताना सदया सक चूना िगाना मेरा स्वभाव है. इि पर आदरणीय पंत जी कह तो बात ही न्यारी है, यो्भी चाहे बच्चो्के िाथ खेिूं या नाटको्के सरहि्ि ा उठे - ‘नही्, बंधु की आंखो्मे्यह बात नही्, चुटकी मे्होगी.’ इििे बड्ा कराऊं, चाहे पुरातत्व् की झो्क मे्टीिे खंडहर झांकूं या गिी-कूचो्मे्बड्ीप्म् ाण भिा क्या दू?ं हां, कच्चापन कह दू.ं मेरे जान पहचानी एक पुराने खां बूसढयो्िे, बूढ्ो,् तजरबेकारो्िे इंटरव्यू िेता हू.ं कमोबेश हर काम मे्अपना िाहब यह कहा करते थे सक िखनऊवािो्मे्और कोई नही्, पुराने खां िाहब प््ाण स्पश्ाकराने का अब अभ्यस्त हो गया हू.ं उिी की मस्ती है, बदमि््ी कहा करते थे सक िखनऊवािो्मे्और कोई नही्, महज नजर का ऐब होता तसनक भी नही्है. इि मस्तीजनक शांसत रि को यसद रंग दूं तो अपनी शैव है. मेरी नजरो्मे्वह रोमानी ऐब कही्कोने कतरे िे चोर-िा झांकता हुआ आस्था के अनुिार भस्मावृत श्याम, चांदनी-भरे आकाश जैिा दूगं ा. स्वयं अब भी नजर आ जाता है. एक हसवि के तौर पर. वैिे अब मेरी दृस्ि बहुत प्क ् सृ त ने ही मेरा पोट्ट्ा सवसवध रि-रंगो् के प्ज् वसित ् अणुओ् की िचि िाफ है.् उिमे्मे्सवद््ोह और प्श् न् की-िी पैनी चमक िहज नेह की आब के बुदं सकयो्और रेशो्िे रंगने के बावजूद मेरा िव्वा यापी ् भाव प्भ् ाव शांत ही िाथ-िाथ समिती है. आंखो्की पुतसियां तो अभ्याि क्म् िे अब अपनी अंसकत सकया है. मै्अब यह जानने िगा हूं सक प्क ् सृ त को पहचानकर उिके चंचिता छोड्कर ब्सथरता पा गई है,् पर उनके अंदर प्क ् ाश सकरणो्की गसत अनुिार ही ढि जाना ही प्क ् सृ त पर सवजय पाना है. अब भी बड्ी चंचि है बब्लक अब तो उिकी तीव्त् ा और स््कप्त् ा की मुझे महत्वकांक्ाओ्की िािी भी मुझमे्चमकती है, धन की िाििा है, पर तड्पाती है. इि र्प मे्प्क ् ाश भी क्म् शः व्यापकता धन कमाने की महत्वकां ् क्ा नही्. यश और आदर और गहराई िे केद् ्ीभूत हो गया है, पर अभी हुआ मेरी एक तमनंना जरंर है दक एक का िदा िे भूखा रहा. काम की िगन पा िेने के नही्. दिन अपनी दकताबोंकी राॅिलंटी बावजूद वह भूख आज भी कभी-कभी िताती है. मेरी गािो्की हस््ियां उभरी है.् सवद््ोही व्यब्कतत्व की एक तमन्ना जर्र है सक एक सदन अपनी सकताबो्की पर ही दनरंाशह करने लािक बन िूचक है.् नाक, नुकीिी है, देख कर कोई भी रायल्टी पर ही सनव्ाहा करने िायक बन जाऊं. जी जाऊं. जी चाहने पर दकताब िमझदार यह मान जाएगा सक नाकवािा है और चाहने पर सकताब खरीद िकू,ं घूम िकू.ं अपनी खरीि सकूं, घूम सकूं. नाक के बािो्वािा भी है. हो्ठ न पतिे, न मोटे, मुहं सफल्म कमाई मे् मैन् े यही िबिे बड्ा िुख और छोटा, सनचिे हो्ठ पर एक सति भी है. अनुभवी िंतोष पाया था. मुझे सकताबो् की आमदनी, पत्-् िोगो्िे िुना है सक ऐिे सतिवािे को रिीिे भोजन, पानो्और रिीिे हो्ठो् पस््तकाओ्िे फुटकर रचनाओ्का आया हुआ पैिा जैिा गव्-ा भरा िंतोष देता का िुख समिता है. मै्अपना अनुभव भी उिमे्जोड्ता हू.ं हो्ठो्पर पान की है वैिा और कोई धन नही्. मैन् े स्वेचछा ् िे सि्लम् और रेसडयो की आमदनी छसव तथा िहज मुसकान ् की रेखा प््ातः हर िमय अंसकत रहती है. दांत पानो् छोड्ी, सकिी ने मुझे मजबूर नही्सकया था. िच पूछो तो बि एक ही िाध है, के प्त् ाप िे कािे तो हुए है,् पर सदन मे्दो बार मंजन करने की आदत ने उन्हे् सिखते-सिखते कोई ऐिी चीज किम िे सनकि जाए सक मै्िदा के सिए सदखनौट मे्भद््ा नही्बनने सदया. कान बड्ेहै,् उनकी िवे्आगे की ओर झुकी इनिान के सदि मे्जगह पा िू.ं इि िगन का रंग गुिाबी या हल्का िाि हुई है. कहते है्सक बड्ेकानो्वािे की आयु िंबी होती है. मेरे सपता के कान नही्, बब्लक गहरा िाि है - खूऩ का रंग. भी बड्ेथे, िेसकन 40 होते न होते वे स्वग्वा ािी हो गए. सिहाजा अपने कानो् शैव, आस््िक हू,ं घरेिू िंसकारो् ् िे. धास्मक ा हूं अपने ढंग िे. मेरा सकिी को जानबीमा की िनद नही्मानता. ठोड्ी नुकीिी और आगे की ओर उभरी धम्,ा सकिी जासत िे परहेज नही्. मेरा धम्ामुझे मानव मात््िो बांधता है. रंग हुई है. मेरे हठी स्वभाव की पसरचािक है. चटक पीिा. िब समिाकर चेहरा बुरा नही्है,् िोगो्का ध्यान एक बार तो अपनी ओर मेरी तस्वीर को बदरंग बनानेवािा आिस्य का मटमैिा रंग है. कुठं ाओ् खी्च िेता है. कुछ औरते्भी इि पर रीझ चुकी है.् तिल्िी है. िबिे बड्ी की कासिमा भी मौजूद है, मगर क््ीण. इिीसिए द्ष्े , घृणा, ईष्या, ्ा िािच मेरे तिल्िी तो इि बात की है सक मेरे चेहरे पर इश्क फरमाते रहने को धंधा या पाि असधक देर तक नही् सटक पाते. क््ोध कािा-िाि-सिंदरू ी-धुएं और िफंगापन अपना िाइनबोड्ानही्टांग पाया. देखते ही सकिी को सवश्वाि हो िपटो्-जैिा िव्गा ्ाही. बहुत तेज आता है और बहुत तेजी िे जाता है. गुसिा ् जाएगा सक आदमी भिा और शरीफ है. िेसकन आईने के िामने 'जो मुख इि बात पर भी आता है सक क््ोध क्यो्आया, इिसिए प्च ् डं होता है. मै्उि देखा अपना, मुझ-िा बुरा न कोय'. िमय पागि होता हू,ं कुछ भी कर िकता हू.ं ऐिा क््ोध तभी आता है जब िब समिाकर यो्तो मै्खुश रंग हूं पर अपने बदरंग भी नजर आते है.् मै् व्यब्कतगत या िामासजक अन्याय के कारण मेरे स्वासभमान को करारा आघात पत्थर पर उकेरी गई ऐिा मूसत् ा हू,ं जो कही्-कही्अनपढ्छूट गई हो - ऐिी िगता हैा उि ब्सथसत मे्घर, पसरवार, िंिार सकिी िे भी मेरा िमझौता नही् ् ाश की गसत िे चिते-सफरते अब्सथर सक बुरा िगे. क्यो्यह िुदं र मूसत् ा अधूरी रह गई, क्यो्पूरी नही्हुई? इिकी हो िकता. िेसकन यह िारे रंग प्क झुझ ं िाहट मेरे सनकट आनेवािा हर व्यब्कत अनुभव करता है. मेरे बड्ेप्स्ेमयो् तूसिका के है,् स्थायी भाव शांत है, िीिामय है. n मै्िमझता हू,ं पोट्ट्ा पूरा हो गया. और अंतरंगो्को भी अकिर झटका िग जाता है. मुझ मे्कही्एक आंच की 8
शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
शताब्दी वर्ष िुप्सिद््कसव और िॉनेट सवधा के िाधक. जन्म : 20 अगि््1917 सनधन: 9 सदिंबर 2007. प््मुख कृसतयां: ‘धरती’, ‘गुिाब और बुिबुि’, ‘सदगंत’, ‘ताप के ताये हुए सदन’, ‘शल्द’, ‘उि जनपद का कसव हूं’, ‘अरघान’, ‘तुम्हे्िौ्पता हूं’,‘चैती और मेरा घर’. कई भाषाओ्के जानकार. िासहत्य अकादेमी पुरस्कार के अिावा शिाका िम्मान िसहत अनेक प््सतस््षत िम्मानो्िे सवभूसषत.
चंपा कािे-कािे अक््र नही्चीन्हती
कजवता
ज््िलोचन चंपा कािे कािे अच्छर नही्चीन्हती मै्जब पढ्ने िगता हूं वह आ जाती है खड्ी-खड्ी चुपचाप िुना करती है उिे बड्ा अचरज होता है: इन कािे सचह्नो्िे कैिे ये िब स्वर सनकिा करते है् चंपा िुंदर की िड्की है िुंदर ग्वािा है: गाय-भैिे्रखता है चंपा चौपायो्को िेकर चरवाही करने जाती है चंपा अच्छी है चंचि है नटखट भी है कभी-कभी ऊधम करती है कभी कभी वह किम चुरा देती है जैिे-तैिे उिे ढूंढ कर जब िाता हूं पाता हूं - अब कागज गायब परेशान सफर हो जाता हूं चंपा कहती है: तुम कागद ही गोदा करते हो सदन भर क्या यह काम बहुत अच्छा है यह िुनकर मै्हंि देता हूं सफर चंपा चुप हो जाती है उि सदन चंपा आयी, मै्ने कहा सक चंपा, तुम भी पढ्िो हारे गाढ्ेकाम िरेगा गांधी बाबा की इच्छा है िब जन पढ्ना सिखना िीखे् चंपा ने यह कहा सक
मै्तो नही्पढूंगी तुम तो कहते थे गांधी बाबा अच्छे है् वे पढ्ने-सिखने की कैिे बात कहे्गे मै्तो नही्पढूंगी मैने कहा चंपा, पढ्िेना अच्छा है ल्याह तुम्हारा होगा , तुम गौने जाओगी कुछ सदन बािम िंग िाथ रह चिा जायेगा जब किकत््ा बड्ी दूर है वह किकत््ा कैिे उिे िंदेिा दोगी कैिे उिके पत््पढ्ोगी चंपा पढ्िेना अच्छा है
कमि िे, िागर िे, िसरता िे िबिे क्या करते कसवगण तब? आंिुओ्मे्बूड्-बूड् िांिो्मे्उड्-उड्कर मनमानी कर- धर के क्या करते कसवगण तब अगर चांद मर जाता झर जाते तारे िब क्या करते कसवगण तब?
चंपा बोिी: तुम सकतने झूठे हो, देखा, हाय राम, तुम पढ्-सिख कर इतने झूठे हो मै्तो ल्याह कभी न करं्गी और कही्जो ल्याह हो गया तो मै्अपने बािम को िंग-िाथ रखूंगी किकत््ा मे्कभी न जाने दूंगी किकत््ेपर बजर सगरे.
आज मै्अकेिा हूं अकेिे रहा नही्जाता
अगर चांद मर जाता अगर चांद मर जाता झर जाते तारे िब क्या करते कसवगण तब?
खोजते िौ्दय्ानया? देखते क्या दुसनया को? रहते क्या, रहते है् जैिे मनुष्य िब? क्या करते कसवगण तब? प््ेसमयो्का नया मान उनका तन-मन होता अथवा टकराते रहते वे िदा चांद िे, तारो्िे, चातक िे, चकोर िे
आज मै्अकेिा हूं जीवन समिा है यह रतन समिा है यह धूि मे् सक फूि मे्समिा है तो समिा है यह मोि-तोि इिका अकेिे कहा नही्जाता िुख आये दुख आये सदन आये रात आये फूि मे्सक धूि मे्आये जैिे जब आये िुख-दुख एक भी अकेिे िहा नही्जाता चरण है्चिता हूं चिता हूं चिता हूं फूि मे् सक धूि मे्चिता मन चिता हूं ओखी धार सदन की अकेिे बहा नही्जाता.
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शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
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दीपावली ववशेष
स्मृवत पंजाबी के िुप्सिद््उपन्यािकार और कथाकार. जन्म: 10 जनवरी 1933. सनधन: 16 अगि््2016. प््मुख कृसतयां: ‘मढ्ी दा दीवा’, ‘अध चाननी रात’, ‘परिा’, ‘अन्हे घोड्ेदा दान’, ‘की जाणा मै् कौण’, ‘दोजे देही’, ‘तीन कदम धरती’ आसद. बच््ो्के सिए भी कहासनयां सिखी्. िासहत्य अकादेमी पुरस्कार, पद््श्ी और भारतीय ज््ानपीठ पुरस्कार िे िम्मासनत.
िमंझ व
ह औरत अभी-अभी गाडी िे उतरी थी और असनश््य की ब्सथसत मे् स्टेशन के चारो् ओर देख रही थी. बंटू उिे ठीक िे देख पाने के सिए आगे झुका. उिकी आंखे्कमजोर थी्और वह दूर िे देखने पर िोगो्को पहचान नही्पाता था. जब वह उि औरत के थोडा करीब आया, उिे महिूि हुआ सक वह जय कौर हो िकती थी. ‘कौन है वहां?’ ‘यह मै्हूं, जय कौर’. ‘तुम यहां कैिे?’ बंटू का चेहरा सखि गया
10 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
कहानी गुरदयाल जसंह
अनुवाद: रश्मि भारद््ाज
था.
जय कौर कुछ पिो् के सिए सझझकी सफर कहा, ‘मै् शहर िे आई हूं. बडी बहू वहां अस्पताि मे्भत््ी है’. ‘िब ठीक तो है न?’ ‘हां, उिे बच््ा होने वािा है’. ‘आओ, गांव तक िाथ चिे्’. जय कौर को िमझ नही् आया सक उि सनमंत्ण पर क्या प््सतस््कया दे ! िूरज डूब रहा था और उनके गांव पहुंचने तक रात सघर जाने वािी थी. िौभाग्य िे कोई और यहां नही्उतरा
था.
ट््ेन कभी इतनी देर िे नही् पहुंची थी. िामान्यतः यह िूरज डूबने िे पहिे पहुच ं जाया करती थी िेसकन आज यह देर िे चि रही थी. जय कौर ने पहिे शहर मे्ही अपनी भतीजी के यहां रात गुजारने की िोची िेसकन सफर उिका अपने गांव घूमने का मन हो आया और वह यहां आ गयी. उिने बंटू की ओर देखा. उिकी आंखे् चमक रही्थी्और वह भद््िग रहा था. ‘ठीक है, आओ चिे्,’ जय कौर ने सहम्मत बटोरते हुए कहा. उत्िाह िे भरे बंटू ने इतनी िंबा डग भरी सक उिके माथे पर रखी िामान की गठरी सफििते-सफििते बची . उिे अपने हाथो् िे िंभािने के चक््र मे्वह इतनी जोर िे उछिा
जैिे सकिी बेक़ाबू हो रखे जानवर को अपने सनयंत्ण मे् िेने की कोसशश कर रहा हो. सफर वह कुछ बुदबुदाया और अपने आप मे् ही मुस्कुराया. ‘और बताओ, जय कौर?’ बंटू ने िाथ चिते हुए उत्िासहत स्वर मे्कहा. ‘िब ठीक है न’. ‘हां, वाहे गुर्की कृपा िे िब ठीक है’. ‘शुक्है रब का’. बंटू खांिा. उिने डूबते िूरज के िुकनू देने वािे नजारे को सनहारा. दूर स््कसतज पर गुिाबी और नारंगी रंग के शेड्ि सबखरे थे. उिे बहुत गहरी ख़ुशी महिूि हुई. िेसकन बाजरे की िंबी डािे् जो हल्की रोशनी मे् चमक रही् थी् पर नजर पडते ही उिने अपनी नजरे्झुका िी्. पूरी दुसनया जैिे थमी हुई थी िेसकन कभीकभी जंगिी पौधो्मे्सछपी गौरेया उनके कदमो् की आहट िुनकर चौ्कती और चहचहाने िगती. जब उनका चहचहाना बंद होता तो सफर शांसत छा जाती. बंटू चिता हुआ आगे सनकि गया, उिे पीछे आती जय कौर के कदमो् की आहट िाि आ रही थी. उिके पैरो् की आहट उिे गुर्द्ारा के बजने वािे झांझ िे सनकिने वािी मधुर ध्वसन की तरह महिूि हो रही थी. ‘बहुत िाि हो गये न हमे् समिे हुए, जय कौर?’ ‘हां,’ जय कौर ने धीमे िे कहा. ‘मुझे िगता है सक तुम सपछिे छह या िात िाि िे अपने छोटे भतीजे के िाथ राजस्थान मे् रह रही हो न,’ बंटू ने पूछा. ‘हां!’ जय कौर ने बंटू की ओर देखा और अवाक रह रह गयी. िमय ने उि पर अपना ख़ािा प््भाव डािा था. वह र्क गया था और अपने जूतो्मे्घुि आई रेत को झाड कर सनकाि रहा था. उिकी आंखो् मे् डूबते हुए िूरज की िासिमा थी. िेसकन उिकी पकी हुई दाढी को देखकर जय कौर का सवचसित मन थोडा शांत हुआ. अब उिे बंटू िे डर या सझझक नही् महिूि हो रही थी. जैिे उिे अभी तक इि बात का एहिाि ही नही् हुआ हो सक बंटू बूढा हो चुका है. जब बंटू हंि कर आगे बढा, उिके पीछे चिती हुई वह उिे बहुत गौर िे िर िे पैर तक देखने िगी. बंटू की सपंडसियां सिकुड कर िूखी िकडी की तरह सदखाई दे रही् थी्. गद्ान का मांि िटक कर झूि गया था. उिकी कमर झुक आई थी, कभी मजबूत रहे कंधे अब ऐिे सदख रहे थे जैिे बछडे के नए िी्ग सनकिे हो्. उिके कपडे भी बहुत ही गंदे थे. तभी अतीत का बंटू उिकी आंखो्के आगे आकर खडा हो गया. वह तब सकिी राजा की तरह िजीिा हुआ करता था. िंबा और गठीिा,
िुख से उबरने का एक ही तरीका है दक उसे िूसरोंके साथ बांटा जाए. और ख़ास बात िह थी दक रह अपने िुख जि कौर के साथ बाँट रहा था. आंखो्मे्सचंगारी िी चमकती रहती और उिकी नजरो्का िामना करना मुब्शकि हो जाता था. उिे यही बंटू याद रह गया था. अचानक जय कौर की धडकने्तेज चिने िगी् और उिे बेचैनी िे बंटू की ओर देखा. िेसकन अगिे ही पि उिके हो्ठो् पर एक मुस्कान सतर आई. ‘तुम इतने कमजोर कैिे हो गये?’ जय कौर ने पूछा, उिकी िहानुभूसत भरे स्वर ने उन दोनो् के बीच सघर आए िन्नाटे को तोडने की पहि की. ‘क्या तुम बीमार थे या कोई और सदक््त’? बंटू ने एक तेज आह भरते हुए कहा, ‘मै् तुम्हे् क्या बताऊं, जय कौर? हािात बहुत ख़राब है्’. ‘कोई बात नही्, सदि छोटा मत करो’, जय कौर ने उिे िांतव् ना दी. ‘यह हर घर की कहानी है. अपने पसरवार की देखभाि करना और िारे ख़च््ेपूरे करना आिान काम नही्है’. ‘िच कह रही हो, जय कौर, िेसकन िमय इतना ख़राब है सक सकिी को भी दूिरे की परवाह नही् बची. मै् मेहनत के कामो् के सिए बहुत ही बूढा हो चुका हूं. दि िाि पहिे मै्ने जमीन अपने बेटो् के बीच बांट दी थी. उिके बाद िे उन्हो्ने मेरी परवाह करना ही छोड सदया. मेरी दो बहुएं इतनी मतिबी है् सक मुझ बूढे िे
जो भी काम सनकाि िकती्, सनकिवा िेती् है् िेसकन कभी भी मुझे नहाने का पानी देने या मेरे कपडे िाि कर देने की जहमत नही् उठाती्. िेसकन मै्सकिे दोष दूं, हमारी सकस्मत तो भाग्य ही तय करता है’. बंटू एक छोटे बच््े की तरह प्त् ीत हो रहा था सजिे घर मे्सपटाई िगी हो और वह सकिी शुभसचंतक के िामने सशकायत िगा रहा हो. ‘कोई बात नही्, भाग्य िे मत हारो!’ जय कौर ने मजबूत आवाज मे्कहा, ‘मुझे देखो. मेरे पाि तो अपना घर भी नही्और मुझे दूिरो्की दया पर रहना पडता है. ईश््र ने मेरी प््ाथ्ाना िुनी ही नही्. अब मुझे अपने भतीजे के िाथ रहना पड रहा’. ‘जब मेरे भाई सजंदा थे तब ब्सथसत कुछ और थी. इि िंिार मे्हर कोई दुखी है. गुर्नानक ने कहा तो है सक इि जगत का आधार ही दुख है. कोई क्या कर िकता है! हम जो बोते है,् वही काटते है. बीज की गुणवत््ा फिि का भसवष्य तय करती है, हमारे जीवन की सनयसत भी कुछ ऐिी ही है’. जय कौर बोिती जा रही थी और उिके शल्द बंटू के दग्ध ह्दय पर मरहम का काम कर रहे थे . दुख िे उबरने का एक ही तरीका है सक उिे दूिरो्के िाथ बांटा जाए. और इि राजदारी की िबिे ख़ाि बात यह थी सक वह अपने दुख जय कौर के िाथ बांट रहा था. वह दोनो् एक दूिरे के सिए गहरी आपिी िमझ रखते आए थे. बंटू ने बांयी ओर देखा. िूरज का सवसवध शेड्ि वािा िाि रंग अंधेरे मे्गुम हो गया था और कुछ नन्हे तारे आिमान मे् सझिसमिाने िगे थे. थोडी देर पहिे चि रही मस््दम हवा अब सबिकुि बंद हो गयी थी और इतना िन्नाटा छा गया था सक पस््तयो् की िरिराहट भी िुनाई नही्दे रही थी. राि््ा िंकरा हो आया था िेसकन जय कौर बेखौि उिके पीछे चिी आ रही थी. जय कौर की मजबूत आवाज, उिका भरा शरीर, चौडी भवे्, गोरा रंग और ढिता हुआ शरीर, सजिका औरताना आकष्ाण अभी बाकी था बंटू को अपनी ओर खी्च रहा था. वह चाहता था सक एक एक बार र्क कर जय को जी भर कर देख िे. ‘जय कौर, यह हमारा खेत है’, बंटू ने अपने पैरो्को आपि मे्रगडा और जूतो्मे्सफर िे घुि आई रेत को झाडते हुए, कपाि की फिि की ओर इशारा करते हुए कहा. ‘हमने िाढे पांच टन बीज उि शीशम के पेड तक बोए है्. जय कौर एकाएक र्क गयी. उिका सदि जोर-जोर िे धडकने िगा और उिकी िांिे् भारी हो्आयी्. सजि शीशम के पेड की ओर बंटू इशारा कर रहा था, वह वही था जो तीि- पैत् ीि शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 11
दीपावली ववशेष
िाि पहिे उनके बीच के मधुर पिो्का िाक््ी बना था. यह वही पेड था, जहां बंटू ने उिका हाथ पकड कर उिे रोक सिया था. एक पि को जय कौर डर गयी थी िेसकन सफर उिे िगा सक काश बंटू उिके हाथ को जीवन भर थामे रहता. उन पिो् को याद कर जय कौर के िारे शरीर मे्सिहरन दौड गयी. बंटू शांत खडा अब भी अपने जूतो्की रेत झाडने का नाटक करता उिे िगातार सनहारता जा रहा था. जय कौर ने उिकी ओर एक बार देखा सफर अपनी आंखे् झुका िी्. उिे अचानक बंटू िे डर िगने िगा और उिका झुस्रायो् िे भरा चेहरा उिे ख़तरनाक नजर आने िगा. ‘उि शीशम के पेड के आगे बाजरे की फिि है,’ बंटू कहे जा रहा था हािांसक वह ख़ुद भी अपने अतीत की उि शरारत को याद कर रहा था. ‘मै्ने बेटो्को वहां भी कपाि ही उगाने को कहा िेसकन तुम तो अच्छी तरह जानती हो सक बुड्ो्की कोई िुनता कहां है!’ ‘कोई बात नही्, मत परेशान हो’. ‘जय कौर, तुमह् े्पता है मेरे सपता मेरी शादी के िमय इि शीशम के पेड को बेचने का िोच रहे थे? िेसकन मै्ने कहा सक यह नही्होने दूंगा मै्. मै्ने उन्हे्कहा सक भिे ही जमीन सगरवी रख दो िेसकन मै् आपको यह शीशम का पेड नही् छूने दूंगा’. जय कपूर के पूरे शरीर मे्सिहरन की एक िहर दौड गयी. बंटू िगातार उि शीशम के पेड के बारे मे्ही क्यो्चच्ाा सकए जा रहा? जब वह चिने िगे तो जय कौर जानबूझ थोडा पीछे हो गयी और उनके बीच थोडी दूरी बन गयी. बंटू 12 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
‘तुम जो कह रही वह िही है. िेसकन जीवन मे्यूं सघिटते रहने का क्या मतिब है? घर मे्हर कोई मुझिे छुटकारा ही पाना चाहता है. कोई मुझे दो वक्त का खाना भी नही् देना चाहता’. जय कौर को िगा सक बंटू िही ही बोि रहा. उिे आज भी उनके बीच वही आपिी िमझ महिूि हुई जो उिने 30 –35 िाि पहिे अनुभव की थी. उि िमय वह दोनो् जवान और अकेिे थे. अब वह जवान नही्रहे थे िेसकन आज भी अकेिे ही थे और दूिरो्की दया के मुहताज थे. िगातार बीि िाि जाय कौर ने दुआ की थी और आशा नही् छोडी थी सक उिकी भी एक िंतान होगी. पसत की आकब्समक मृत्यु ने वह आशा भी नि््कर दी. सपछिे िात िािो् मे् वह कुछ सदनो् के सिए अपने पसत के पसरवार वािो् के पाि जाकर रहती थी और सफर अपने भतीजे के दरवाजे पर िौट जाया करती. उिे दो वक्त के भोजन के सिए भी उनके अधीन रहना पडता था. ‘मै् अपने बच््ो् और पोतो् के रहमो् करम पर जी रहा हूं. चुपचाप उनकी िेवा करता रहता को अब उिके पैरो्की आहट नही्िुनाई दे रही हू ं नही् तो वे कब का मुझे मेरी खाट के िाथ खेत थी. वह वही्र्क गया और पीछे मुड कर देखा. ‘जल्दी आओ, िाथ चिो, हम पहुंचने ही की मरैया मे्डाि आए होते’. बंटू अब भी अपनी दुख भरी कहानी जारी वािे है्’. जय कौर ने ऊपर देखा, गांव िच मे्करीब रखता हुआ, ख़ुद के सिए उपजी दया की गहराई ही था. वह तेज कदमो्िे चिी और बंटू के िाथ मे्ही डूबता जा रहा था. जय कौर, यह भी कोई जीवन है! और जब हो िी. ‘जय कौर, जब िे तुम्हारी भाभी का देहांत हुआ है न, मुझे अपने जीने का कोई मै् मरं्गा, मुझे कोई याद भी नही् करेगा. एक अकेिे आदमी की यही दुग्ासत होती है’. मकिद ही नजर नही्आता’. बंटू बोिता जा रहा था िेसकन जय कौर उिके मुंह िे अपनी पत्नी का सजक्् और उिे अपनी भाभी और ख़ुद को अनजाने मे् ही अब कुछ नही्िुन रही थी. वह गांव मे् जि रहे िै्प िे आती रोशनी उिका भाई बुिाए जाने की बात िुनकर जय को दे ख रही थी जो उिे सकिी जिती सचता िे कौर के हो्ठो्पर एक मुस्कान दौड गयी. उठती िौ की मासनंद ‘िही कहा, जय िग रही थी. कौर! बंटू ने सफर कहा. उसे अपनी भाभी और ख़ुि वह बंटू को ‘िमय के िाथ चीजे् को अनजाने मेंही उसका देखने के सिए मुडी. बदिती है्. जब हम भाई बुलाए जाने की बात उिके पतिी टांगे् जवान थे, हमने कभी सुनकर जि कौर के होंठोंपर अंधेरे मे् गुम हो चुकी ईश््र को याद नही् एक मुसंकान िौड़ गिी. थी् और उिका िूखा सकया िेसकन अब उििे हुआ शरीर ढुिमुि रात-सदन यही दुआ करते सक वह हमारे अस््ित्व का अंत कर डािे. िग रहा था. जय कौर को उिके सिए बहुत अििोि हुआ. िेसकन मांगने िे मौत कहां आती है’! ‘ठीक है बंटू, मै् गांव की ओर जाने वािा ‘ऐिा मत बोिो! तुम अभी िे मौत की दुआ क्यो् मांग रहे?’ जय कौर ने उिे बीच मे् ही बाहरी राि््ा िूंगी,’ सफर उिने आगे जोडा, टोका. ‘क्या तुम्हे् अपने पोतो् की शादी नही् ‘इतना परेशान मत हो. जो चंद सदन जीवन के देखनी और अपने पडपोतो्के िाथ नही्खेिना बचे है्, चिो हंि कर ही गुजार िेते है्. कुछ बदिने वािा नही् है तो हर िमय सशकायत है? पडपोतो्के स्पश्ामे्ही मुब्कत है’. करके भी क्या हासिि होगा?’ जय कौर के शल्दो्का बंटू पर सवसचत््प्भ् ाव ‘िही कह रही हो! सबिकुि िही!’ बंटू ने पड रहा था. वह एक पि मे् मौत की कामना कर रहा था और अगिे ही पि जीने की दुआ कहा और गांव की ओर जाने वािे दूिरे राि््े n की ओर मुड गया. कर रहा था.
दीपावली ववशेष
वसरष््कहानीकार और कसव. प््मुख कृसतयां: ‘कोिी का घटवार’, ‘दाज्यू’, ‘नौरंगी बीमार है’, ‘बच््ेका िपना’, ‘मेरा पहाड्’, ‘एक पेड् की याद’ और ‘िाथ के िोग’. दाज्यू कहानी पर बाि सफल्म िसमसत द््ारा सफल्म का सनम्ााण. कोिी का घटवार पर फीचर सफल्म सनम्ााणाधीन. िंपक्क: 9161916840
फ़सलो़ का सुनहरा सरोवर आत्मवृत शेखर िोशी
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ल्मोड्ा जनपद की पट््ी पल्िा बौरारौ के गणनाथ रेज ् की उत्र् -पूवा्सदशा मे्प््ाय: 5500 फुट की ऊंचाई पर बिा मेरा ओसियगांव दो भागो्मे्सवभासजत है. इि छोटे िे गांव मे्मात्् ग्यारह घर है.् गांव की बिाित ऊंचाई वािे भाग मे्बांज, फयांट, बुरश ्ं , पयां और काफि के वृक्ो् िे सघरी है. ऊपर की पहासडय़ो्मे्चीड्का घना जंगि है. 'कुमाऊं का इसतहाि' के िेखक पंसडत बद््ीदत््पांडे के अनुिार उन्नाव जनपद अन्तग्ता डोसडया खेड्ा नामक स्थान के प्क ् ांड ज्योसतषी पंसडत िुधासनसध चौबे ने कुवं र िोमचंद िे एक भसवष्यवाणी की थी. वह यह थी सक यसद वह उत्र् ाचखंड की यात््ा करे,् तो उन्हे् राज्य की प््ाब्पत हो िकती है. तो, कुवं र 22 िोगो्के िाथ उत्र् ाखंड की यात््ा पर चिे और ज्योसतषी जी की वाणी िच िासबत हुई. कुवं र िोमचंद ने कुमाऊं मे् चंद वंश की स्थापना की. िुधासनसध चौबे ने राज्य का दीवान बनकर चंद राज्य को सवि््ार और स्थासयत्व प्द् ान सकया. िुधासनसध के वंशज इि राज्य के पुशत् नै ी दीवान रहे. ज्योसतषी जी के गग्ागोत््ीय वंशज सझजाड्गांव के जोशी कहिाये. अनुमान सकया जा िकता है सक सझजाड्िे कुछ पसरवार नौ पीढ्ी पूवा्सकिी िुरम्य स्थान की खोज मे्ओसियागांव मे्आकर बि गये. काठगोदाम-गर्ड्मोटरमाग्ापर मनाण और िोमेशर् के बीच एक स्थान रनमन है. िड्क के दांई ओर खेतो्िे आगे कोिी नदी प्व् ासहत होती है. दड्समया का पुि पार कर जंगिात की िड्क पर आगे बढ्,े् तो मात््आधा सकिोमीटर चिने पर देवदार्का घना जंगि शुर्हो जाता है, जो प््ाय: एक सकिोमीटर तक फैिा है और उिके 14 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
बाद चीड्वन प््ारम्भ होता है. इिी चीड्वन िे सघरा है ओसियागांव शस्य श्यामि भूसम पर एक कटोरे के आकार मे.् गांव के दोनो्भागो्के बीच कि-कि करती हुई एक छोटी नदी बहती है और उि पार चार मकानो्के बाद सगसरखेत का मैदान, देवी थान और सफर िीधी चढ्ाई. इिी पहाड्पर बहुत ऊपर बहता है, एक झरना. बरिात के मौिम मे् उि छोटी अनाम नदी की तेज धारा और इि झरने के शुशाट के कारण गांव के आरपार के घरो्तक अपनी आवाज पहुच ं ना मुबश् कि हो जाता है. गांव की पूरब सदशा मे्बहुत दूरी पर भटकोट के सशखर सदखाई देते है,् सजन पर िूया्की सकरण पड्ती है् तो सदन के आरंभ की प््तीसत होती है. इन्ही् सशखरो् पर शीतकाि मे् पहिी बफ्कबारी
होती है, तो ये रजत सशखर चमकने िगते है.् ऋतु पसरवत्ान के िाथ यह कटोरा सभन्न प्क ् ार के धान्य िे भर उठता है. पहिे धानी रंग के पादप, सफर खड्ी फिि की हसरयािी और जब फिि पक जाती, तो धान्य का यह कटोरा िुनहरे िरोवर का र्प िे िेता है. घाि के हाते ऊंची- ऊंची घाि का कंबि ओढ्िेते है.् मै् भाग्यशािी था सक इिी गांव मे् श््ी दामोदर जोशी और श््ीमती हसरस््पया जोशी के घर मे्िन 1932 के सपतर पक््मे्तृतीया के सदन मेरा जन्म हुआ. नामकण्ाके सदन पुरोसहतजी ने मुझे चंद्दत््नाम सदया था, परन्तु वष्ा1944 मे्मामा ने स्कि ू मे्मेरा नाम चंद्शेखर सिखवाया. चंद् का सदया हुआ नही्, शीष्ा पर चंद् धारण करने वािे सशवजी का पय्ाया बना सदया.
हम तीन भाई-बहन थे. मै्उनमे्िबिे छोटा था. कहा जाता है सक जब मै्पैदा हुआ, तब मेरी नाक बहुत चपटी और सिर हांडी जैिा था. िेसकन माता-सपता को अपनी िंतान कैिी भी हो, बहुत प्यारी होती है. मै्िबका िाड्िा था. गांव मे्हर घर के िाथ फि-फूिो्के बगीचे थे, पेड्थे. हम िोगो्का बचपन पेड्ो्के िाथ, पशुओ्के िाथ और फूि-पस्त ् यो्के िाथ बीता. हमने यह भी िीखा सक सकि तरह िे अनाज बोया जाता है, अनाज उगता है और अनाज काटा जाता है. खेती मे् िड्कपन मे् हमारा कोई सवशेष योगदान नही् होता था, िेसकन हमे् इिमे् बहुत आनंद आता था, खाि तौर िे जब धान की रोपाई होती थी. एक छोटे खेत मे्बेहन बोया जाता था. उिमे्खूब घने पौधे होते थे. जब वे बड्ेहो जाते
थे, करीब 6-7 इंच के, तो उनको वहां िे उखाड्कर दूिरे खेतो् मे् रोपते थे. उििे पहिे सजन-सजन खेतो्मे्रोपाई होनी होती, उनको पानी िे खूब िी्चा जाता. पानी िे भरे खेत मे् दांता चिाया जाता, जो सक समट््ी के ढेिो् को तोड् देता. उििे खेत की समट््ी िमति हो जाती थी. धान रोपाई का काम पूरे सदन का होता था. बहुत िे खेतो्मे्रोपाई होती थी, तो खूब िारे मजदूर िगते थे. वे िोग भी उिको एक उत्िव की तरह िे मनाते थे, क्यो्सक उि सदन उनको खूब अच्छा खाना समिता था-रोपाई वािा. उि सदन हिवाहे की सवसशि्् भूसमका होती थी. अगर हिवाहा हुडस्कया भी होता, तब तो उिकी भूसमका और भी महत्वपूणा्हो जाती थी. हुडस्कये का मतिब यह है सक वह डमर्नमु ा वाद््'हुडक ् ी' को हाथ
मे् िेकर बजाता और पगड्ी बांध कर खेत मे् थूथन िे खेत की समट््ी को खोद कर न जाने क्या सिफ्क गाता सफरता. कतार मे् औरते् पूिो् मे् िे ढूढं त् े रहते. िीिाधर ताऊजी के पाि एक भरवां पौधे िेकर रोपती जाती्. अिग-अिग जगहो्पर बंदक ू थी, सजिमे्बार्द, िाबुत उड्द के दाने, पूिे रख सदये जाते. औरते्पूिे खोिकर उनमे्िे कपड्े का ित््ा, ठूि ं -ठूि ं कर स््टगर के ऊपरी पौधे् सनकािती् और रोपती जाती्. हुड्सकया सिरे पर टोपी चढ्ाने के बाद फायसरंग की जाती, चंद्ाकार या िीधे पीछे हटता जाता और हुडक ् ी तो िुअर भाग जाते. यह काम देर रात मे्सकया बजाता हुआ गाता जाता. वह कोई कथानक िगा जाता था. देता-राजा भत्हाृ सर या राजा हसरश्न्द् ्का, बमइि बंदूक िे जुड्ा एक रोचक प््िंग है, बम्म-बम... हुडक ् ी की आवाज के िाथ. औरते् सजिने हमे्बचपन मे्बहुत गुदगुदाया था. हमारी आसखर मे्टेक िेती्और वे भी िाथ मे्गाती्. खेत माधवी बुआ की ििुराि मल्िा स्यनू रा मे्थी, मे्जाने िे पहिे हरेक को रोिी और अक्त् का जो हमारे गांव िे असधक दूरी पर नही्था. टीका िगाया जाता. उि सदन उनके सिए सवशेष उि बार उनका पोता राम अकेिा ही अपनी सकस्म का किेवा बनाया जाता-मोटी रोसटयां दादी के मायके मे्आया था. वह 14-15 वष्ाका होती है,् बेडव् ा मतिब मंडवु ा और गेहूं की समिी सकशोर बहुत ही दुसि ् ाहिी था. ताऊजी की भरवां हुई् रोसटयां, कुछ पूसडय़ां और िल्जी. किेवा बंदक ू उनके शयनकक््मे्कोने पर टंगी रहती थी. हुड्सकया के सिए अिग, हिवाहे के सिए एक सदन महाशय राम की नजर उि पर पड्ी. अिग, हिवाहे की पत्नी के सिए अिग और उिने िाबुत उड्द के दाने, पुराने सचथड्,े कुछ आम मसहिाओ् के सिए अिग बनता. सदन मे् कठोर पत्थर के टुकड्े जमा सकये. उिे न जाने िभी के सिए खेत मे् ही दाि-भात पहुंचाया कैिे बार्द का पाउडर भी आिमारी मे् समि जाता. िभी भर पेट खाना खाते और उनके बच््े गया था. उिने खूब ठूि ं कर बार्द िे िना यह भी आ जाते. शाम को जब औरते्काम खत्म कर िामान बंदक ू की नाि मे्भरा. अब िमस्या स््टगर देती थी्, तो हाथ-पैरो्मे्िगाने के सिए उनको (घोड्ी) मे्पहनाने वािी टोपी की थी. वह नही् थोड्ा-थोड्ा तेि सदया जाता था. समिी, तो राम ने स््टगर उठा कर छेद के मुहं के खेतो्मे्बने सबिो्मे्पानी भर जाने िे बड्-े िामने जिता चैिा (सछिुक) रख सदया. बड्ेचूहे सनकिते थे. शाम को अगर खेत बकाया बंदूक ऊंचाई पर सटकाई हुई थी. उिके रह जाता, तो मासिक नाराज न हो जाये, इिसिए अंदर भरे मिािे मे् आग िगी, तो बार्द हुडस्कया हुक ं ारी िगाता था—'धार मे्सदन है गो, सवस्फोट करता हुआ, दीवार के ऊपर रखे ल्वासरयो.... छेक करो, छेक करो.' मतिब सक ताऊजी के जूते िे टकराया. दूिरी तरफ सछद््िे चोटी पर िूरज पहुच ं गया है. जल्दी करो, बहुओ, सनकिी सचंगारी के छी्टे राम के कपाि पर जा जल्दी करो. िगे. खैसरयत यह थी सक उिकी आंखे्िुरस््कत कास्तक ा मे् जब धान की फिि पक जाती रही्. गांव के िड्को् की तरह वह टोपी पहने थी, तो उिकी पूसियां खेत मे्ही जमा करके रख रहता था. उि सदन राम ने अपनी टोपी आंख की दी जाती थी्. धान की पेराई के सिए इि््ेमाि भंवो्तक खी्च रखी थी. हादिे के बाद वह बंदक ू होने वािी बांि की को यथास्थान रख चटाइयो् को 'मोस्ट' आया . कहा जाता है दक जब मैंपैिा कहते थे. ये पतिे बांि बाद मे् ताऊजी हुआ, तब मेरी नाक बहुत चपटी की नरिि की चटाइयां जब अपना जूता पहनने और दसर हांडी जैसा था. लेदकन िगे, तो उिमे होती थी्, जो सक 10 फुट ्बड्ा-िा माता-दपता को अपनी संतान बाई 10 फुट या 8 फुट छेद देख कर वह चौ्क.े कैसी भी हो, बहुत पंिारी होती है. राम ने उन्हे्बताया सक बाई 8 फुट की होती थी्. ये चटाइयां बड्े खेत मे् एक कािा कुत्ा जूतो् सबछा दी जाती थी् और उनमे् धान के पूिे रख के पाि बैठा था. शायद उिी की यह कारि््ानी सदये जाते थे. िकड्ी का बड्ा-िा कुदं ा रखकर हो. िेसकन जब सकिी ने राम की टोपी को ऊपर उिमे् धान को पछीटा जाता था. पूसियो् मे् जो सखिका कर ठीक िे पहनाने की कोसशश की, तो धान रह जाता, उिे पतिी िंसटयो्िे झाड्ा जाता ििाट मे् चानमारी के सनशानो् ने उिकी पोि था. धान के खािी पराि को अिग करते. खोि दी. राम अपने गांव भाग गया. चांदनी रात को पूरी रात यह काय्ाक्म चिता. पकी फििो्, सवशेषकर धान के खेतो् के एकाध बार मै् भी सजद करके इि तरह के बीच िे गुजरने का अपना आनंद होता था. पके काय्क ा म् मे्गया. कई मजदूर िगे थे. हमारी ईजा धान की मादक गंध तन-मन को एक नयी स्फसू त् ा भी गई थी्. धान की वह खुशबू और चांदनी रात, िे भर देती थी. धान की पेराई के अिावा मुझे गेहूं की मड्ाई बहुत आनंद आता था. धान की पकी फििो्को नुकिान पहुच ं ाने मे्भी बहुत आनंद आता था. गेहूं की पूसियां घर मे्जंगिी िुअरो्का बड्ा हाथ रहता. वे अपनी के आंगन के ऊपर वािे खेत मे्िाकर जमा कर शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 15
दीपावली ववशेष दी जाती थी्. आंगन की खूब अच्छे िे िफाई हम बच््ेबचपन िे ही खेती-बाड्ी के बारे करके सिपाई कर दी जाती थी. जब आंगन िूख मे् जान जाते थे और अपनी क्म् ता के अनुिार जाता, तो पूसियां आंगन मे्फैिा दी जाती्. सफर कुछ करते भी रहते थे. जैि-े गस्मया ो्मे्बैग् न और बैिो्को गेहूं की बासियो्के ढेर के ऊपर चिाया समच्ाकी पौध िगाते. हम अपनी-अपनी क्यासरयां जाता था. हम बच््ेउनके पीछे-पीछे हाथ मे्िंटी बनाते थे. सफर उनमे् समच््ी और बै्गन के पौध िेकर चिते थे-'हौ िे बल्दा, हौ िे- हौ िे... रोपते थे. सभंडी की पौध नही्होती थी. सभंडी के कासन कै िािै बल्दा... पुसठ कै िािै, हौ िे-हौ बीज बोये जाते. शाम को हम पौधो्मे्सगिाि िे िे... ' मतिब बैि राजा चि/धीरे-धीरे चि/ पानी डािते थे. सफर पौधो् का क्स्मक सवकाि कंधे मे् िाद कर िायेगा, पीठ पर िाद कर देखते थे-पौधे बड्े होते जाते. सफर उनमे् फूि िायेगा/ बल्दा चि. बैि गेहूं की पूसियो् को िगते. इिके बाद उनमे्फि िगते. जब पौधो्मे् अपने पैरो्िे कुचिकर दानो्को अिग कर देते पहिा फि सदखाई देता, तो हमे्बहुत खुशी होती. थे. बैि गेहूं न खा िे्, इिसिए उनके मुंह मे् अगर कोई िीधी उंगिी िे फि की तरफ इशारा जािी बांधी जाती थी. बाद मे्िूपो्िे या चादरो् कर देता, तो हम टोकते सक ऐिा करने िे िड् िे हवा करके भूिे को उड्ाया जाता. एक ियाना जायेगा. उंगिी टेढ्ी करके सदखाना होता था सक इधर िे, तो दूिरा उधर िे चादर पकड्ता और वह देखो, फि आ गया है. चादर को तेज-तेज ऊपर-नीचे कर हवा करते. इि तरह का मनोसवज््ान और िगाव बचपन इििे भूिा उड्ता जाता और गेहूं नीचे सगरता िे वनस्पसतयो्के िाथ था. जाता. पहाड्ो् मे् मैदानी इिाको् की तरह पतिी उिके बाद हम बच््े जहां गाय-भैि ् चरने ककड्ी नही्होती. वहां बड्ा खीरा होता है सजिे जाती्, वहां िे िूखा हुआ गोबर िेकर आते. कहते ककड्ी ही है्. खीरे की बेि को कोई पहाड्मे्गोबर का ई्धन के र्प मे्इि्म्े ाि नही् िहारा देना पड्ता है. बेिो्के िहारे के सिए कोई होता था, क्यो्सक गोबर खेती के सिए बहुत छोटा पेड् काटकर या पुराने पेड् की टहनी को जर्री होता है, इिसिए उिे बरबाद नही्सकया काटकर उिे िगाया जाता था. बेि उि पर जाता. गोशािा की रोज िफाई होती. गोबर को सिपट कर चढ्जाती. पेड्के िहारे खीरे िटके गोशािा के बाहर डाि सदया जाता. वहां खाद का रहते थे. जब फिि िमाप्त हो जाती, तो बेि ढेर िगा रहता. जो घाि पशुओ्के नीचे सबछाई को सनकाि सदया जाता. उिमे् छोटे-छोटे खीरे जाती, वह उनके पेशाब और गोबर मे्िन कर िगे रहते थे. इनकी अब बढऩे की िम्भावना िुनहरी खाद हो जाती. नही्रहती थी. हम बच््े पौधोंमेंपहला फल दिखाई िेता, उनको सनकािकर उन वही जैसवक खाद खेतो् मे् डािी जाती थी. वह तो बहुत खुशी होती. अगर कोई पर िीको् की टांगे् खाद फस्टििाइजर िे िगाकर बकरे की तरह सीधी उंगली से फल की तरफ कही्ज्यादा अच्छा होती िे उनकी बसि देते थे. इशारा कर िेता, तो हम टोकते थी. ऐिा हमने मंसदरो् मे् दक ऐसा करने से सड़ंजािेगा. हम बच््े िूखा देखा होता था, जहां हुआ गोबर िेकर आते बसि दी जाती थी. मेरी थे. उि गोबर का ढेर िगा करके उिमे्आग िगा एक कसवता है-दी जाती थी. उिके जिने िे राख बनती. बांि कािी की बसि पूजा का स्वांग, की चटाइयां सबछा कर और उन पर गेहूं डाि कर रचा िगा सतनको्की टाँग उिमे् राख डािी जाती. सफर पैरो् िे उिको हरी ककड्ी के अंतर को छेद समिाया जाता. राख कीटनाशक दवा का काम सछन्न कर उिका मि्क ् बांटा प्ि ् ाद करती थी. यह गांव की सवसध थी सक सकि तरह न रखा छूत-अछूत का भेद. िे अनाज को िुरस््कत सकया जाता था. खट््े अनार को दासड्म कहते है्. सजन चटाइयो्पर खेती का काम होता था, पंिारी के यहां चटनी के सिए जो अनार दाना उनको ऐिे ही िपेट कर नही्रखा जाता था. उन सबकता है, वह दासड्म का ही बीज होता है. चटाइयो्के सिए बकायदा गोशािाओ्मे्गाय का दासड्म का फूि सिंदरू ी रंग का होता है. आरी के या अन्य पशुओ्का मूत्कनि्र् मे्इकठ््ा सकया दांतो् की तरह सतकोनी उिकी चार-पांच जाता था. पशुओ् के मूत् को इन चटाइयो् पर पंखसु ्डयां होती है.् उिको उल्टा करके रख देने सछड्का जाता था. उििे एक तो चटाइयो् मे् िे फूि खड्ा हो जाता. वे फूि पेड्ो्के नीचे खूब िचीिापन आ जाता था. दूिरा, कीड्ेनही्िगते सगरे रहते थे. हम उनको इकठ््ा करके िाते और थे. इििे ये चटाइयां वष््ो्चिती थी्. मूत्िूखने कतार मे्रखकर बारात सनकािते थे. उनमे्िी्के् पर चटाइयो् को िपेटकर टांड् के ऊपर डाि िगाकर डोिी वगैरह बना िेत.े इि तरह के खेि सदया जाता. जब जर्रत हुई, तब सनकाि सिया होते थे हमारे जो वनस्पसत िंिार िे हमको जाता. जोड्ते थे. 16 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
दबगौत की िमवत
ह
मारे घर मे्गाये्थी्. हमारी िबिे स््पय गाय का नाम बिंती था. वह ईजा के मायके िे आयी हुई गाय की तीिरी पीढ्ी की थी, इिसिए ईजा उिको बहुत प्यार करती थी्. हम भाई-बहन उिको मौिी कहते थे. मै्जब थोड्ा बड्ा हुआ, तो कभी-कभी गायो्को ग्वािे के पाि छोडऩे के सिए िे जाता था. एक बार मै् बिंती के िाथ छेड-् छाड्कर रहा था-कभी उिके थन मे्हाथ िगा देता, तो कभी उिकी पूंछ को पकड् कर सिर पर िगा देता. बिंती ने िी्ग सहिाकर मना सकया, िेसकन मेरी शैतानी बढ्ती गयी. पहाड्ी राि््ेघुमावदार होते है.् आसखर मे्तंग आकर बिंती ने सिर नीचा करके मेरी टांगो्के नीचे िे िी्ग डािे और मुझे उठाकर ऊपर घुमावदार राि््े पर रख सदया. जैि-े मुझे िजा दे दी हो. तब मे्िमझ गया सक ज्यादा छेड-् छाड्नही्करनी चासहए. यह बात बिंती के प्ि ् गं मे्िमझ मे्आयी सक पशु मनुष्य की भाषा कैिे िमझते थे. जब खेतो्मे्फिि कट जाती थी, तो पशुओ्को कुछ सदनो्तक उन्ही्खेतो्मे्चरने के सिए छोड्सदया जाता था. एक बार कोई मेहमान आये, तो उि िमय घर मे्चाय के सिए दूध नही्था. ईजा ने खेत की तरफ जाकर बिंती को हांक दी. बिंती ने सिर उठाकर ऊपर देखा. ईजा ने कहा, 'आ बिंती. ' वह नजदीक आ गयी. ईजा के हाथ मे् सगिाि था. ईजा ने उि सगिाि मे्थोड्ा दूध दुहा. सफर ईजा ने बिंती िे कहा, ''अभी ठहर' और बिंती खड्ी रही. जैि-े िब कुछ िमझ रही हो. ईजा घर आयी्. सगिाि अिमारी मे् रखा. कटोरदान िे एक रोटी सनकाि कर बिंती के सिए िे गयी्. ईजा ने बिंती को रोटी सखिाकर उिकी पीठ थपथपाकर कहा, ''जाओ' तो वह चिी गयी. इि तरह का िंवाद पशुओ् और
मनुषय् ो्के बीच होता था. और थोड्ा बड्ेहोने पर एक और घटना मेरे जीवन मे् घटी. हमारे गांव के एक पसरवार की गाय िुरमा थी. िफेद रंग की बड्ी खूबिूरत गाय थी. हमारे पंचायती ग्वािे मोहनदा को उि गाय िे बहुत िगाव था. िुनते है्सक वह अपने सदन के किेवे िे एक रोटी बचाकर िुरमा को सखिाते थे. िुरमा भी उनको बहुत प्यार करती होगी. एक बार मोहनदा काफि तोड्ते हुए पेड्िे नीचे सगर गये. वह शाम को जब जंगि िे िौटते थे, तो बच््ो्के सिए मौिम के सहिाब िे जंगिी फि िेकर आते थे. वह हम बच््ो् के सिए काफि िाने के सिए पेड्पर चढ्ेहो्ग,े सगर गये. शाम हो गयी. िारी गाये्अपने-अपने बच््ो्की याद कर घर चिी आयी्, िेसकन िुरमा मोहनदा के पाि ही रह गयी. मोहनदा उठने मे् िाचार थे. गांव वािो् ने देखा सक िभी गाये् चिी आयी है्, िेसकन मोहनदा िाथ मे् नही् है्. िुरमा के घरवािो्ने देखा सक िुरमा भी नही्आयी है. िब िोग दौड्-े दौड्ेजंगि की तरफ गये. वहां देखा सक मोहनदा सगरे हुए है्और िुरमा उनको चाट रही है. मोहनदा को उठा कर िाया गया और पीछे-पीछे िुरमा भी आ गयी. वह ऐिे आयी, जैि— े मोहनदा की मां हो. हमारे ईजा-बाबू मे्एक गाय को िेकर खूब मतभेद हुआ था. इिकी याद मुझे आज भी है. हुआ यह सक एक सदन बाबू कही्जा रहे थे. उन्हो्ने देखा सक पड्ोिी गांव का एक आदमी अपने ढोरो् को चरा रहा है. िभी पशु बहुत दुबि ा् हो रहे थे. पैिागी-आशीष के बाद बाबू ने उन पशुओ् की हाित पर सचंता जतायी, तो वह व्यब्कत अपने पाि घाि-चारा न होने का रोना रोने िगा. उिने आग्ह् सकया सक एक गाय बाबू रख िे.् बाबू ने सवनोद के िहजे मे्कहा, 'अब इि हाड्के सपंजर का गोदान िेने के सिए मै्ही रह गया हू?ं ' उि व्यब्कत ने सफर सजद की, ''आप वैिे न रखो, तो कुछ दाम दे देना, िेसकन आपके घर मे्
यह पि जायेगी. मेरे घर मे् तो यह भूखी मर जायेगी और मुझे गोहत्या िगेगी. अच्छी नस्ि की गाय है, पर मुझ अभागे के घर आ मरी. ' बाबू तब भी िहमत नही् हुए तो वह सगड्सगड्ाया, 'आप 15 र्पये ही दे देना. उििे मै् दूिरे पशुओ्के सिए घाि खरीद िूगं ा. मेरे दोनो् 'िुट' इन्हो्ने चट कर सदये है.्' उिकी इि दिीि पर बाबू पिीज गये. उन्हो्ने उिे 15 र्पये देकर गाय हमारे घर पहुच ं ाने का आदेश सदया. वह िफेद रंग की कद््ावर गाय थी. उिके िी्ग बैिो्की तरह खूब बड्ेथे. थनो्के अिावा उिमे् कोई भी िक्ण ् स्ण ्ै होने का नही् सदख रहा था. ईजा की पहिी प्स्तस््कया हुई, 'यह गाय है या बैि?' वह व्यब्कत गाय को गोशािा मे् खूंटे पर बांधकर चिा गया. कहां ईजा की िुदं र ििोनी बिंती गाय और कहां यह हस््ियो्का ढांचा! नयी गाय उपेस्कत ही रही. उि गाय को िेकर ईजा के अिावा दूिरा सवरोध पंचायती ग्वािे मोहनदा का था. यह एक असिसखत सनयम था सक गांव मे् सकिी गृहस्थ मे् सकिी पशु की खरीद-फरोख्त हो, तो उिमे् मोहनदा की िहमसत जर्री मानी जाती थी. इि बार ऐिा नही् हुआ था. मोहनदा गुसि ् ाये हुए थे. दूिरे सदन एक आंख के धनी मोहनदा ने पशुओ् को जंगि िे जाते हुए इि गरीब जीव को हांक कर भगा सदया. वह इधर-उधर डोिती रही. बाबू ने मोहनदा को पूरी बात बतायी, तो वह नरम पड्े, िेसकन ईजा के सवचारो् मे् कोई पसरवत्ान नही् हुआ. वह घर की जूठन पूव्ावत अपनी िाड्िी बिंती को देती रही् और इिकी भरपूर उपेक्ा करती रही्. िेसकन बाबू हार मानने वािे व्यब्कत नही् थे. वह सभगोये हुए भट और दूिरी पौस््िक चीजे्गो-ग््ाि के सपंड मे्रखकर उिे सखिाते और उिके सिए अच्छा चारा छांटकर अिग रखते. कुछ सदनो्बाद उि गाय की काया मे्िुधार आने िगा. उिके दूध की मात््ा भी बढ्गयी. बाबू कहते, 'इिका दूध अिग िे गम्ाकर उिे दूिरी ठेकी मे्जमाया करो. यह अच्छी नस्ि की गाय है. इिके दूध मे् सचकनाई ज्यादा है. इिके मक्खन मे् ज्यादा घी सनकिेगा.' ईजा मुंह सबचकाती, िेसकन बाद मे्यह बात िच सनकिी. उि गाय को हमारे गोठ मे् मान्यता प््ाप्त करने मे् काफी िमय िगा. इिका एक कारण शायद उिका कद और बड्े िी्ग भी थे और बिंती की तुिना तो थी ही! गोधूसि मे्गिे मे्बंधी घंसटयो्के िाथ गायो् का जंगि िे िौटना बड्ा मोहक होता था. एक मुख्य गाय होती थी. उिके गिे मे् एक गोि खोखि ताम्बे या पीति का पाइप जैिा होता था.
उिके अन्दर टकराने वािा िकड्ी का एक टुकड्ा होता था. जब गाय चिती थी, तो घनघन-घन-घन-घन की आवाज आती थी. अन्य गाये्मुखय् गाय के पीछे-पीछे आती थी्. यह एक िंकते होता था सक गाये्िौट आयी है.् घन-घनघन की आवाज को बछड्ेभी िुनते हो्ग,े तो वे भी अपनी भाषा मे्खुशी जताने िगते थे. गाय के गिे मे्बंधे पाइपनुमा वाद््की घन-घन सचसडय़्ो् की चहचहाट के िाथ एक मधुर िांगीसतक रचना प्ि ् त्ु कर देती थी. गाये्जब जंगि िे िौटती्, तो कभी-कभी, कोई गाय बेचनै -िी सदखाई देती. घर वािे उिकी बेचनै ी का कारण िमझ जाते और एक छोटे टब मे् पानी िाकर उिमे् मुट्ीभर नमक घोिकर उिके िामने रख देत.े वह ज्यो् ही पानी पीती, उिकी नाक के दोनो्छेदो्िे िपिपाती हुई जो्के् बाहर सनकिती्, सजन्हे् हाथ िे खी्चकर बाहर फेक ् सदया जाता. जो जो्के्नमकीन पानी मे्सगर जाती्, वे तत्काि सविीन हो जाती्. जो्को् िे मुबक् त पाकर गाये्सफर िहज हो जाती थी्. पहाड्ो् मे्गीिी जगहो्पर जो्के्रहती है्और पैदि चिने वािो्के पैरो्िे सचपक कर खून चूिने के बाद मोटी होकर अपने आप सगर जाती है.् आदमी को जब पैर मे् खुजिी होने िगती है, तब उिे इि शोषण का पता चिता. मेरे िाथ जब भी ऐिा हुआ, खुजिाने पर उि जगह िूजन आ जाती थी. जब गाये् सबयाती थी्, तो ियाने िोग 22 सदनो् तक उनका दूध नही् पीते थे. गाय सबयाने के 22वे् सदन िापिी बनाई जाती थी और चमू देवता के थान पर चढ्ाई जाती थी. चमू पशुओ् के देवता होते है.् उिके बाद ियाने िोग भी दूध पीने िगते थे. िेसकन इि बीच दूध को गम्ाकरने पर वह छेने जैिा हो जाता था. पहाड् मे् उिे सबगौत कहते है् और मैदानी इिाके मे् सखजरी. प््ाय: गाय दूध कम देती थी. ऐिा होता नही्था सक पूरे गांव के बच््ो्को सखजरी खाने के सिए एक िाथ बुिा सिया जाए. ऐिे मे्एक-एक घर के बच््ो्को बुिाया जाता था. उनको सखजरी दी जाती थी. सफर दूिरे सदन अगिे घर के बच््ो्को बुिा सिया जाता. ऐिे मौके कई आते थे. िोगो् की गाय सबयाती थी, तो दूध फेक ् ा नही्जाता था, बच््ो्को सदया जाता था. आज भी सखजरी खाने की इच्छा होती है. गायो् के नवजात बछड्ो् को कुिाँचे भरते देखने का िुख और उनके िाथ हाथ-पैरो् के िहारे उछि-कूद करने का िुख सजन बच््ो् ने उठाया है, वे ही इिकी ताईद कर िकते है.् अन्न और गोरि के प््सत बहुत आदर भाव प््दस्शात सकया जाता था, क्यो्सक ये दोनो् ही जीवनदायी तत्व माने जाते थे. दूध या दही यसद भूसम पर सगर जाता, तो उिे तत्काि पो्छ सदया जाता था तासक सकिी का पैर उि पर न पड्.े इिी प्क ् ार अन्न को भी पसवत््माना जाता था. n (क्म् श:) शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 17
दीपावली ववशेष
जाने-माने कसव, कहासनकार और किा िमीक््क. प््मुख कृसतयां: ‘कसवता िंभव’, ‘अधूरी चीजे् तमाम’, ‘बीते सकतने बरि’,’यह जो हरा है’, ‘यहां कहां थी छाया’, ‘गठरी’, ‘िौट कर आने वािे सदन’, ‘स्मृसतयां बहुतेरी’, ‘िम पर िूय्ााि्’, ‘िुरगांव बंजारी’, ‘अध्ासवराम’ और ‘आज की किा’. बच््ो्के सिए भी िेखन. इन सदनो्िंगीत नाटक अकादेमी की पस््तका िंगना के िंपादक है्. िंपक्क: 9810973590 कहानी प््याग शुक्ल
ए
क बार मधुर की नज्रे्सफर बगि की गहरे ग््े रंग गाड्ी की ओर चिी गयी्. िगभग पहिे जैिा दृश्य था. िात-आठ िाि का वह िड्का कभी सवंडो स्क््ीन की ओर झूि-िा जाता, कभी िीट की पीठ पर सटक जाता, कभी मां की ओर झुक जाता. इि वक्त वह मां िे कुछ कह रहा था. और मां मुस्करा रही थी उिकी बातो् पर. सफर अगिे ही क््ण मां के चेहरे पर पहिी जैिी सदखी बैचेनी उभर आयी और वह िामने की गांसड्यो् की िंबी कतारो् की ओर देखने िगी. न जाने कब खत्म होगा यह ट््ासफक जाम! मधुर ने एक गहरी उिांि के िाथ िोचा! इिी तरह इिी जगह फंिे हुए आधा घंटा हो गया है और ऑसफि िे सनकिे हुए दो घंटे हो चुके है.् कुि समिाकर अब दो-ढाई घंटे हो रहे है्ट््ासफक जाम मे्उिके फंिे होने के. गाड्ी सखिकती भी है उिकी तो बि दो-एक इंच. बासरश हो गयी तो िड्को्पर यह जो नदी-िी बह रही है, वह और उफना जायेगी. ए.िी. उिने बंद कर सदया है. िामने वािी दोनो्सखड्सकयां थोड्ा-िा खोि दी है.् सजधर देखो गासड्यां ही गास्डयां है्और उनके नीचे िे पानी वह रहा है. पर, उिका कंठ प्याि िे िूखा जा रहा है. पीने का पानी वह रखता है, 18 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
रमत मे् ढलती
गाड्ी मे,् पर आज ही रखना भूि गया है. कुछ खाने-पीने का िामान पीछे की िीट पर है, वह भी सबल्कुि िंयोग िे. मां इिाहाबाद िे परिो् ही आयी है.् उन्हो्ने कुछ चीजे्मंगायी थी्, सजनमे् सबस्कुट, चीज् आसद कुछ और चीज्े् जोड्कर उिने िारी खरीदारी िुबह ही कर िी थी उि स्टोर िे, जो जाते िमय िड्क के दायी् ओर पड्ता है, यानी जहां गाड्ी पाक्ककरके जाया जा िकता है. िौटती बार उि तक पहुच ं ने के सिए, एक यू टन्ा िेकर जाना पड्ता है. िो, उिने िोचा था सक जाती बार ही िामान िे िेना ठीक रहेगा. [ऐिी तमाम बाते् ‘मेट्ी सिरीज’ वािे ध्यान मे्रखते ही है-् ‘यू टन्ाकी’ ‘िेफट् -राहट’ की, ‘वन वे’ आसद की] पर, कहां पता था सक वह बरती गयी एहसतयात शाम तक सकिी काम की न रहेगी, और घर पहुंचना देर िे ही नही्, पता नही्सकतनी देर िे होगा. िहिा उिने पीछे की िीट की ओर मुड्कर देखा, नीभ अंधेरे मे् कुछ छोटे-बड्े पैकटे ि ् नज्र आये. [चीज्ो् की भी अपनी ब्सथसतयां होती है.्] मां का ि्ोन दो-तीन बार तो आ ही चुका है. पर उिने मां िे यही कहा है सक आप सचंता न करे,् जाम के खुिते ही मै्खुद फोन करंग् ा. यह भी सक जैिी जाम है, उििे िगता यही है सक दोतीन घंटे भी और िग िकते है.् रह-रह कर वह गास्डयो्की कतार की ओर देख िेता है, पर उनकी भीतरी गसतसवसधयां न तो नज्र मे् पड्ती है्, न उनके भीतर झांकना ही
उसचत है. बि, बगि वािी गाड्ी ही है, सजिकी ओर नज्रे्थोड्ी-थोड्ी देर मे्अपने आप मुहतू ा् भी के सिए चिी ही जाती है.् दूरी भी सकतनी कम रह गयी है. कोई एक फुट की या उििे भी कम. िगता तो ऐिी ही न, जैिे उिकी, और बगि वािी गाड्ी, सकिी पास्कगि् िॉट मे्पाक्ककी हुई हो्. इि बार जब उिने सफर ‘उधर, देखा तो पाया सक मां ने बेटे को सबस्कुट का एक पैकटे थमाया है् और झुककर उििे कुछ कर रही है, और पिट कर जब वह अपनी िीट पर िीधी होने जा रही थी तो उिकी आंखे् एक क््णांश के सिए मधुर की आंखे्िे समिी है,् मानो्यह कहती हुई सक उिे भान है सक बगि की गाड्ी उिी की है. मां की उम्् यही कोई पै्तािीि-सछयािीि की होगी. ऐिा ही अनुमान मधुर ने िगया है. उिका चेहरा अब भी एक युवा चेहरा है- एक युवा मां का चेहरा. वह ‘हाउि वाइफ’ भी हो िकती है् और कामकाजी मसहिा भी, चुसत-दु ् रस् त् है्और कपड्े भी उनके ‘युवापन’ को अपेक्ाकृत और असधक उभार रहे है.् आजकि यह भेद करना कइ् र बार मुब्शकि हो जाता है सक कोई स्त््ी कामकाजी है या सफर वह गृहब्सथन है. सनश्चय ही िमाज मे् आया यह एक बड्ा बदिाव है. स््सयां हो, िड्सकयां हो्- िब प््ाय: अपने को खुद भी िंभािती है,् और अपने कामकाज को, या अपनी गृहस्थी को, तो िंभािती ही है.् मधुर जहां रहता है, वही्तीिरी मंसजि मे्रहने वािी महुआ नाम की बांगिाभाषी अपेकक ् तृ एक युवा
हो तो कुछ माएं अपने कामकाज िे दो-तीन वष्ा का ‘अवकाश’ िे िेती है,् तासक उनके बच्चे की देखभाि ठीक िे हो िके. पर, महुआ (जी) ने तो अपने बच्चे की सकशोर उम्् मे् उिका िाथ देने के सिए ऐिा सनण्या सिया है.्] वह इिी िब मे्खोया था सक तभी पता नही् कहां िे एक िड्का कुछ गुल्बारे हाथ मे् सिये हुए गासड्यो् के बीच िे, उन्हे् ‘चीरता’ हुआ, उिकी गाड्ी के पाि आकर खड्ा हो गया और बगि की गाड्ी के शीशे पर ठक-ठक करने िगा. शीशा तो एकदम िे नीचे सकया नही्गया, पर चौ्कती-िी नज्रो्िे बेटे और मां ने गुलबारो् ् की ओर देखा. बेटे ने कुछ कहा मां िे और अंतत: उिे मनाने मे्वह िफि हो गया. मां ने गुलबारे ् वािे िे कीमत पूछी, पैिे उिे थमाये गये, बदिे मे् बच्चे को पकड्ाया गया और सफर मुसकराते ् हुए बेटे के िाथ, शीशा ऊपर उठाया जाना था सक न जाने सकि प््ेरणा िे बच्चे की ओर देखकर अपने हाथ िे उिने ‘चुल्िू’ की एक मुद्ा बनायी, और क््ण भर उिकी ओर ताकता रहा. ऐिा करके वह मानो एक िंकोच और अचंभे मे् गड्ा रहा क्यो्सक ऐिा करने िे पहिे बहुत िोचा-सवचारा तो गया नही्था- यह मुद्ा मानो स्वत: घसटत हो गयी थी. बच्चे ने तो िमझा या नही् िमझा, पर ‘चूल्िू’ का िंकेत मां ने तो अपनी जॉब िे एक बष्ाकी छुट्ी िी है, मां की िमझ मे् पूरी तरह आ गया, शीषा पूरा अपने बेटे के सिए. आते-जाते मधुर की उनिे, खुिा, ‘श्योर’ कहते हुए बच्चे के सिर के पाि और उनके पसत िे भेट् हो जाती थी ओर िौरभ िे मां ने समनरि वाटर की बोति मधुर की ओर नाम के उनके बारह-तेरह िाि के िड्के िे भी बढ्ायी, और ‘प्िीज कीप इट, वी हैव िम मोर’ वह खड्े-खड्े कुछ देर बसतया िेता है. कभी (कृपया रख िीसजए, हमारे पाि और है)् जैिा उिके स्कूि के बारे मे,् कभी ‘स्वीसमंग पूि’ के कुछ कहा. मधुर ने भी अंग्ेज्ी मे् कुछ ‘नाा् पानी बारे मे् यही सक पूि कब िे खुि रहा है, और नुकरु ’ की, पर अंतत: उिने कृतज्त् ापूवक की बोति रख िी. उन दोनो् के बीच अब जाम वह गम््ी की छुस्टयो् मे् यही रहने वािा है या अपने दादा-नाना के पाि जाने वािा है. महुआ की परेशानी के सिए भी कुछ शल्दो्का आदान(जी) ने एक सदन उिे स्वयं बताया था सक इन प्द् ान हुआ सफर दोनो् ही न जाने इिे कब तक सदनो्वे ऑसफि नही्जा रही है,् उन्हो्ने छुट्ी िे भुगतना है वािे अंदाज मे,् अपनी अपनी िीटो् ् गं ने दोनो्कारो्की रखी है्क्यो्सक िौरभ सजि उम््मे्है,् उिमे्एक पर ब्सथर हो गये. पर इि प्ि ् खाि तरह की देखरेख की जर्रत है. मधुर को कुछ तनाव-मुकत् तो सकया ही था. बच्चा गुलबारे के िाथ खेि मे् व्यस्त कुछ आशंका हुई थी सक कही् िौरभ के िाथ अंधेरा दघरने लगा है. बािल छंट हो गया था, पर अब कुछ अस््पय तो नही्घटा गिे हैं. पर पानी तो नीचे भरा है. रह-रहकर मधुर की ओर देखता था, और है्या कही्उिका िंगसंमाटंशफोन पर ही कुछ संगीत समत्् भाव िे मुस्कराता िाथ कुछ ऐिे सकशोरो् सुनने की इचंछा उसकी हो रही है, था. [ऐिे ही तमाम िे तो नही् हो गया है्, पर दफर फंोन की घंटी बजी हैं. प््िंग हमारे जीवन मे् जो सकिी नशे-वशे की गु ंजते जाते है्.... और सगरफ्त मे् हो् या क्िािेज बंक करने वािे हो्, पर नही्ऐिा कोई वह आगे बढ्ता है. सदन-रात-माह-वष्ाबीतते है.्] िंकेत कभी सकिी ओर िे नही् समिा था और तभी मोबाइि की घंटी बजी. फोन माया ने सकया महुआ (जी) के प्स्त उिमे्और असधक िम्मान था. मधुर और माया की बाते्ि्ोन पर दो-तीन भाव जागा था सक वे अपने बेटे के प्स्त, सकि हद समनट तक तो होती ही रही्. जब ि्ोन रख सदया तक अपनी सजम्मेवारी महिूि कर रही है.् [यह गया तो थोड्ी देर बाद सफर फोन की घंटी बजी. तो हम िभी जानते है्सक अब कई दंपसत शहरो् सशकायत थी सक उिका फोन इतनी देर तक मे्दुकि े े ही रहते है,् और उनके यहां कोई िंतान व्यस्त क्यो् था. उिने ‘जाम’ की बाबत फोन
शमम
करके कुछ बताया क्यो्नही्! मधुर ने िि्ाई दी. फोन माया का था. ‘कौन माया?’ उधर िे मां ने पूछा था. उिने ‘कुिीग’ जैिा कुछ कहा, कुछ और न िूझने पर. वैिे माया िे उिकी भे्ट एक कुिीग के िंग ही तो हुई थी. वह अपने एक कुिीग के िाथ एक रेसतरां ् मे्भोजन करने गया था. वही् पहिी बार उििे समिा था. सफर कई प्ि ् गं ो्मे्यह भेट् बढ्ती गयी थी और कोई महीना भर पहिे अपने जन्मसदन पर अपने समत््ो्और ऑसफि वािो्को जब उिने घर पर बुिाया था तो कई िोगो्ने यह नोट सकया था सक माया चीज्ो् को परोिने मे् बत्ानो् को रखनेिजाने मे,् अल्मारी िे चीज्े्समकािने मे्िबिे आगे थी! मां को इि बार कुछ तो बतायेगा ही. मां इिाहाबाद मे् है.् वही् पढ्ाती है.् सपता रहे नही्. मां मधुर के पाि सरटायर होकर भी- उिमे्िमय ही सकतना बचा है- इिाहाबाद मे् ही रहना चाहती है,् जहां मधुर की सववासहत दीदी भी रहती है, िपसरवार. कभी-कभी उिके पाि सकिी छुट्ी मे्चिी आती है.् [गासड्यां ही गासड्यां, सफर मधुर ने गाड्ी-कतारो्की ओर देखा- भांसत-भांसत की, रंग सबरंगी, छोटी-बड्ी झंझीिी! सदल्िी और एनिीआर के िोग पहिे परेशान रहते है सक बासरश नही्हो रही, और जब वह हो जाती है तो थर्ाता े है.् कैिी बदइंतजामी है सक ....... पड्ता है. गुर्ग्ाम-नोएडा-सदल्िी का यह कैिा कोहराम है! और इि िाि तो हद ही हो गयी है, बेग् िुर,् मुबं ई, भोपाि और नाथ्ाईस्ट – कहॉ नही्है पानी. उिने अपनी चुलिू ् -मुद्ा प्ि ् गं पर एक बार सफर िोचा. इि बार उिने पाया सक मुबं ई मे्कुछ िाि पहिे आयी बाढ्जैिी ब्सथसत की याद वह कर रहा है सक सकि प््कार ‘मुंबईकरो्’ ने अनजान घरो् मे् शरण िी थी और वह उन्हे् समिी भी थी. यह िब िोचकर मानो उिको अपनी हरकत- ‘चुलिू ् ’ हरकत पर- कुछ अजीब नही्िगा. उिने एक िांतवना् िी महिूि की. बि इि बीच ही यह हो गया है सक ‘असवश्वाि’ एक-दूिरे पर, िहयात््ी िे िेकर, िड्क पर िाथ चिते व्यब्कत तक पर, बढ् गया है. पर, अंत मे्तो ‘पसरसचत-अपसरसचत ही एक-दूिरे के काम आते है!् अंधरे ा सघरने िगा है. बादि छंट गये है.् पर पानी तो नीचे भरा है. स्माट्ा फोन पर ही कुछ िंगीत िुनने की इच्छा उिकी हो रही है, पर सफर ि्ोन की घंटी बजी है.् मां ही है.् वह सकतना भी मना करे, मां मानने वािी कहां है्. हाि चाि पूछे्गी ही. ि्ोन उठाते हुए उिकी नज्रे् सफर बगि की गाड्ी की ओर चिी गयी्. बेटे के िाथ गुलबारे ् िे ‘खेिने’ मे्उिकी मां भी अब शासमि n हो गयी थी. शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 19
दीपावली ववशेष
स
नयी पीढ्ी के जाने-माने कसव और कथाकार. प््कासशत कृसतयां: ‘सकवाड्’, ‘असतक््मण’, ‘कू्रता’, ‘अनंसतम’, ‘अमीरी रेखा’. कहानी िंग्ह: ‘इच्छाएं’. भारत भूषण अग््वाि पुरस्कार, श््ीकांत वम्ाा िम्मान, केदार िम्मान, वागीश््री पुरस्कार, माखनिाि चतुव्ेदी पुरस्कार िे िम्मासनत. िंपक्क: 9424474678
जीभी
20 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
मृसत का मूलय् सवस्मसृ त िे ही है. और सवस्मसृ त मु् झमे्आनुवांसशक र्प िे मौजूद है. मेरी मां भी सपताजी को भुिक्ड ् कहती थी. वे यात््ा पर जाये् और कुछ भूिकर न आये, ऐिा हो नही् िकता था. अब यही बात मेरी पत्नी मेरे बारे मे् दावे िे कहती है. िंतोष यही है सक ऐिा कहते हुए उिे दूिरी स््सयो् िे पता चिता है सक िगभग िभी िोग यात््ा पर जाते है्, प््वाि िे िौटते है्तो कुछ न कुछ भूिकर ही आते है.् इि तरह यह सवस्मसृ त मनुषय् का आनुवांसशक िक्ण ् है. इिमे्कुछ चीजे्मनुषय् अपने पराक्म् िे भी अस्जता कर िेता है. सपछिी कुछ यात््ाओ् िे मै्ने सवरिे उदाहरण पेश सकये है.् मै्कुछ भी भूिकर नही् आता. अंडरसवयि्,ा जेटमेट, चप्पि, पायजामा, नेिकटर, टूथब््श, तौसिया, चश्मे का घर, शेसवंग क््ीम, पानी की बॉटि, कंघा. और हां अब तो मोबाइि भी. वापिी यात््ा मे् जो अखबार खरीदता हू,ं वह भी बैग मे्डािकर िे आता हू.ं दो-तीन िािो्िे मै्अपनी याददाश्त का सिक््ा जमा चुका हू.ं िेसकन इि बार दो चूके्हो गयी्. एक, मै् जीभी भूि आया. दूिरे, बाथर्म िे
कहानी कुमार अंबुि
आवाज िगाकर मै्ने पत्नी िे कहा सक मेरे शेसवंग सकट मे् िे जीभी उठाकर दो. इि तरह पत्नी को िबिे पहिे मािूम हुआ सक मै्जीभी भूिकर आ चुका हूं. वष््ो् मे् हुई इि भूि को पत्नी ने क्म् ा कर सदया. तीन-चार सदन जीभी के सबना ही सनकि गये. रोज िुबह उिकी याद आती, जैिे-तैिे टूथब््श िे कुछ काम सनकािता िेसकन वह तिल्िी और िफाई कहां जो जीभी िे ही मुमसकन होती है. आसखर, मोबाईि पर शाम िात बजे का सरमांइडर िगाया. तय सकया सक आज ऑसफि िे जल्दी उठूगं ा. न्यू माक्ट्े मे्िब तरह की दुकाने्है.् मैन् े दो काउंटरवािे एक सडपाट्मा टे् ि स्टोि्ापर जाकर कहाः ‘जीभी सदखाये.्’ शाम का वक्त था. जासहर है, कुछ भीडभाड भी थी. सजि काउंटर पर मैन् े यह कहा, उि िमय वहां खडा आदमी सकिी दम्पती के सिए काजू तौि रहा था. उिने कुछ कठोर िहजे मे् जवाब सदयाः ‘यहां जीभी नही् समिती.’ मुझे कुछ आश्य् ा्हुआ. उि दुकान मे् तरह-तरह का िामान भरा हुआ था. टूथपेस्ट और टूथब्श ् भी एक रैक मे्जमे हुए सदख रहे थे. तो क्या जीभी इतनी छोटी-मोटी, बेकार िी चीज है सक उिकी कोई जगह नही्रह गयी है? अथवा यह दुकानदार सकिी असतपसवत्त् ावादी सवचार िे पीसडत है. िेसकन मै्ने देखा सक उिके यहां
हास्पक ा भी रखा था और टॉयिेट िाफ करनेवािे ब्श ् भी िटके हुए थे. मुझे िगा, शायद काजू जैिे महत्वपूणा्और असभजात्य खाद््को तौिे जाते िमय जीभी जैिी चीज के बारे मे्पूछना ठीक नही्रहा होगा. सफर भी मै्ग््ाहक था और मुझे ठीक तरह उत्र् सदया जाना चासहए था. मै्दूिरे काउंटर पर भी जाकर दरयाफ्त कर िकता था और मुझे नमकीन, सबब्सकट्ि भी खरीदना था, िेसकन उिके जवाब के िहजे ने मुझे आहत कर सदया था इिसिए तय सकया सक इि ‘अक्खड स्टोि्ा’ िे कुछ नही् खरीदना. क््ॉकरी की दुकान पार करने के बाद एक छोटी िी जनरि स्टोि्ा की दुकान थी. वहां भी चार-पांच ग््ाहक खडे थे. दो स््सयां भी थी्. मै् एक कोने मे्खडा होकर अपनी बारी का इंतजार जैिा कुछ करने िगा. दुकानदार एक बुजुग्ा व्यब्कत था और एक कमउम्् िडका, जो नाकनक्श िे उिका बेटा िगता था, शाम की भीड के मद््ेनजर उिकी मदद कर रहा था. िडके की सनगाह मुझ पर पडी, वह पांच-छह जेबो्वािी, नयी काट की जी्ि, काग््ो, पहने था सजिमे्दो जेबे्घुटनो्के बगि मे्जैिे असनवाय्ा र्प िे होती है.् उिने भवे्मटकाकार इशारे मे् पूछा सक क्या चासहए. मैन् े कुछ िकुचाते हुए और इि तरह सक कही् बहुत जोर िे न बोि जाऊं, कहाः ‘जीभी सदखाओ.’ िुनकर उिने अजीब िा चेहरा बनाया और िुन-िमझ न पाने का भाव िाते हुए पूछाः ‘क्या चासहए?’ अनावश्यक ही मै्कुछ घबरा गया. सफर भी मैन् े गिा खखारते हुए कुछ जोर िे कहाः ‘जीभी. जीभी सदखाओ.’ हो िकता है, मेरा उच््ारण दोष रहा हो अथवा उिकी अपनी कोई िमझ रही हो, उिने कहाः ‘मै्जीभ क्यो्सदखाऊं? आपको क्या चासहए, वह बताइए.’ अब तक पाि खडे एक बुजुग्ा ग््ाहक का ध्यान हमारे इि िंस्कप्त वात्ाि ा ाप पर चिा गया था. उन्हो्ने हि््क्ेप करते हुए कहाः ‘बेटा, ये जीभ सदखाने का नही्कह रहे है,् बब्लक जीभी, टंग क्िीनर मांग रहे है.्’ मैन् े तुरतं उनकी बात के िमथ्ान मे् जोर िे सिर सहिाया और मुस्कराया भी. उिने कुछ अज््ानजन्य आकब्समक सनराशा और िज््ा िे अपने सपता की तरह सदखनेवािे की तरफ देखा और पूछाः ‘हम टंग क्िीनर रखते है् क्या?’ उिके सपतानुमा ने जवाब मुझे सदयाः ‘कि ही खत्म हो गई्. अब तो जीभी की मांग भी कुछ कम हो गयी है. इि बार काफी सदनो्मे्स्टॉक खत्म हो पाया.’ ‘अच्छा!’ मै्ने मन ही मन कहा. तो बात ‘सडमांड और िप्िाई’ तक आ गयी है. जीभी की सडमांड कम हो गयी है, यह तो बडी बुरी खबर है. क्या जबान की िफाई की जर्रत खत्म हो गयी थी? या जबान अब गंदी ही नही् होती या
कुछ कौ्धा और मैन् े बडी नफाित िे पूछाः ‘डू यू हेव टंग क्िीनर?’ नौकर ने पिके्झपकायी्. मैन् े कुछ जोर िे सफर दोहराया. ‘डू यू हैव टंग क्िीनर्?ा वहां राउंड िगा रहे एक गोरे, सचकने, बैकहम हेयर स्टाईिधारी युवा ने, जो दुकान के मासिको् मे् िे ही कोई रहा होगा, मेरी तरफ ध्यान सदया और इशारे िे नौकर को अपना काम करते रहने को कहा. वह तत्परता िे मेरी तरफ मुखासतब हुआ और बोिाः ‘वेट फॉर वन समनट िर!’ सफर उिने शीशे की दो-तीन ऊंची अिमासरयो् की तरफ इि तरह देखा जैिे हम सकिी िुंदर रात मे् सिर ऊंचा कर सितारो् की तरफ या चांद की तरफ देखते है.् बगि मे्एक छोटी िी, खूबिूरत, ढाई-तीन फुट की िीढी रखी थी, उि पर चढा. एक अिमारी का शीशा िाइड मे् सखिकाया, कुछ चीजो् को उिटायह गंदगी खाने-पीने के िाथ सनगि िी जाती पिटा. ओठो्को गोि करते हुए उतरा और हाथ है? क्या इिसिए यह दुसनया बदजबान बनती जा झटककर बोिाः ‘िॉरी िर! िगता है दुकान के रही है! मुझे इि तरह वहां िोच-सवचार मे्खडा सरनोवेशन मे्कही्रखी हो गयी है.् आप हमारा देखकर दुकानदार ने कहा सक इिी िाइन मे्चार फोन नंबर िे िीसजए. कि पता कर िीसजएगा. दुकान छोडकर ‘िब कुछ आपका’ जनरि छोटी िी चीज है, नही्, तो मै् आपके घर ही स्टोि्ामे्देख,े् वहां जीभी समि जायेगी. या सफर सभजवा देता. आजकि होम सडिेवरी भी शुर् परिो् तक इंतजार करे् तो हमारे पाि भी आ कर दी है. मगर इतनी िी चीज की सडिेवरी नही् जायेगी. हो पायेगी.’ कहते हुए उिने अपनी दुकान का मै् जीभी का और इंतजार नही् कर िकता काड्ा मेरी तरफ कर सदया. मै्ने एक झटके मे् था. कुछ किैिा, गंदा िा स्वाद मुझे अपनी जीभ उििे काड्ा िे सिया. ऊंह! फोन पर मािूम पर सतरता महिूि हो रहा था. इि एहिाि के करं्सक बताइए, जीभी आ गयी है क्या. िाथ मै्कुछ भी नही्कर िकता था. बब्लक मुझे इतनी चमक-दमक. इतनी रौनक. तरहिोचकर हैरत हो रही थी सक सपछिे तीन सदनो्िे तरह की दुकाने्. न्यू माक््ेट! न्यू माक््ेट!! मै् सकि तरह जीभी सकये सबना अपनी सदनचय्ाा आसखर यह माक््ेट सकि काम का, जब यहां सनबटाता रहा. हािांसक, भारी किैिी जीभ का जीभी नही्समि िकती. इिे न्यू कहना तो िानत खयाि मेरे िाथ हमेशा बना रहा. िेसकन अब, है. मेरे पाि ताकत हो और कुछ नही्तो एक बम अब मै् जीभी सिये सबना हो तो अभी इि न्यू घर नही्जा िकता. घर माक््ेट को उडाकर कुछ कसैला, गंिा सा संराि जाकर िबिे पहिा फेक ् दू.ं जीभी नही् है. मुझे अपनी जीभ पर दतरता काम सक अपनी जबान कहते हुए शम्ा नही् महसूस हो रहा था. इस एहसास आती इन्हे्. सडमांड िाफ करं्गा. तब ही के साथ मैंकुछ भी नहींकर चाय पी िकूंगा. सबना कम हो गयी है. जीभी सकये अब कुछ भी सरनोवेशन मे्कही्रखी सकता था. खाना-पीना मेरे सिए हो गयी. हम जीभी नही् हराम है. रखते. इन दुकानदारो्के सखिाफ कायदे िे तो ‘िब कुछ आपका’ जनरि स्टोि्ामेरा देखा एफ आई आर होना चासहए. अरे, जब दुसनया भर हुआ था. उिे अब देखकर मै्चौ्का. उिमे्नए का अल्िम-गल्िम रखते हो. न जाने कैिी काट का काउंटर बन गया था और बहुत िारी सचपसचपी, मिाई भरी, मीठी-नमकीन चीजे् अिमासरयां कांच की बन गयी थी्. कुछ सहस्िो् रखते हो, चाकिेट्ि, पुसडंग, सपज््ा, आईस्ड मे् सडस्पि ् े की जगह भी सनकि आयी थी. एक केक रखते हो, सजन्हे् आदमी खायेगा तो जीभी आधुसनक स्टोि्ाकी झिक उिमे्भर चुकी थी. भी करना ही पडेगा. जब हर तरह की अनापउिमे्घुिते हुए मुझे आशंका हुई सक यहां जीभी शनाप चीजे् दुकान मे् भर िेते हो तो सफर एक समि िकेगी! काफी पुकार करने के बाद एक जीभी के सिए जगह क्यो्नही्रखते! नौकर मेरी तरफ आया, उिके हाथो्मे्कैडबरी अगि-बगि, आमने-िामने अब जो के चाकिेटि ् थे. मुझे िगा सक इििे पूछगूं ा तो दुकाने् सदख रही थी्, वे थी्- जूतो् की दुकान, एक बार सफर कुछ सवरोधाभािी, सविोम या क््ॉकरी की दुकान, िोफे के कपडे और पद््ो की सवद्प्ू हो िकता है. सवद्त्ु गसत िे मेरे सदमाग मे् दुकान, िासडयो् की तीन दुकाने् सजनमे् िे एक शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 21
दीपावली ववशेष पर चािीि प्स्तशत छूट का बोड्ादमक रहा था, दवाई की दुकान, बैग-अटैची की दुकान, नकिी गहने बेचनेवािे की दुकान, स्पोट्िा्की दुकान, सबजिी के िामान की दुकान, उि कोने मे् ििवार-िूट-दुपट््े ही दुपट््े की रंगीन दुकान और समक्िर िुधारनेवािे की छोटी िी दुकान. उधर आइिक््ीम की दुकान, नीचे मोची बैठा है और उििे थोडा आगे सवष्णु भगवान का प्स्िद्् मंसदर. इन िब दुकानो् मे् िे सकिी भी जगह जीभी नही् समि िकती. पीछे की तरफ मुख्य िडक पर भी ऐिी ही दुकानो्की भरमार है. वे कुछ शो-र्म स्टाइि मे्है.् इनमे्भी जीभी नही् समिेगी. उधर रेमड ं ि की दुकान पर भी नही्, जो ‘कंपिीट मैन’ का सवज््ापन िंिार भर मे् प््चासरत करती है्. अरे हो! सबना जीभी का कंपिीट मैन! क्या अब मेरे पाि एक ही सवकल्प रह गया है सक उि कस्बे मे,् जहां मै्प्व् ाि पर गया था, अपने दोि्् को फोन िगाऊं और उििे कहूं, यार, देख, मै् वहां अपनी जीभी भूि आया हूं. उधर बेसिन के ऊपर ही कही्भूि गया था. चूसं क िुबह िात बजे की ही बि थी इिसिए हडबडी मे्भूि आया. भाभी ने सनस््शत ही उठाकर उिे रख दी होगी. फे्की तो नही् होगी. स््सयां इि तरह िे चीजो्को फेक ् ती नही्है.् िो, तू पूछ जरा सक कहां रख दी है. और ‘राजपूत बि िस्वि ा ’ की कि िुबह की बि पर ड््ायवर के हाथ पैकटे बनाकर रख दे या सफर कूसरयर ही कर दे. पैसकट ऐिे बनाना सक िगे कोई दूिरी काम की चीज है, जीभी नही्. नही्तो िोग सकतना मजाक बना िकते है,् इिका कुछ अंदाजा मुझे यहां िग रहा है. यहां मुझे जीभी नही् समि रही है. तू यकीन नही् करेगा, िेसकन यह िच है. नही् तो तुझे तीन-चार र्पये की चीज के सिए क्यो् फोन करता. यकीन कर मेरा, मै्यहां न्यू माक्ट्े मे्ही खडा होकर फोन कर रहा हू.ं मै् यही िब िोच रहा था सक िामने एक सवशाि सवज््ापन सदखा. सजििे याद आया सक शहर मे् एक मॉि खुि चुका है. जहां िूई िे िेकर हाथी तक चीजे्उपिल्ध है.् और हर चीज पर या तो सडस्काउंट है अथवा सफर हर एक के िाथ कुछ मुफत् . यहां िे डेढ-दो सकिोमीटर दूर है. अभी आठ बजने मे्दि समनट की देर थी और सबना जीभी के मै्घर नही्जाना चाहता था. िो मै्ने दो र्पये पेड पास्कि्ग पर चुकाये और मोटरिाइसकि स्ट्ााट कर मॉि की तरफ चि सदया. वहां पांच र्पये की पास्कगि् थी. मैन् े कोई परवाह नही्की. आसखर मुझे जीभी चासहए थी. मेरी नही् इि मॉि की अब्गनपरीक््ा होनी थी. चार मंसजिा सवशाि इमारत मे् घुिते हुए मैन् े िोचा सक यहां जीभी नही्समिी तो मै्उत्पात मचा दूगं ा. वहां अनेक िोग अपनी महासवशाि सरटेि श््ंखिा का काड्ा गिे मे् िटकाये 22 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
अच्छा है. उपयोग के बाद वापि बंद कर दे.् ‘ठीक है.’ ‘िेसकन भाई, वे टंग क्िीनर है् क्या जो स्टीि के बनते है्, जो दो-तीन-चार र्पये मे्आते है.् वी या यू के आकार के.’ ‘हां, िमझ गया िाहब, िेसकन वे पुरानी सकस्म की, नॉन-हॉयसजसनक चीजे्है.् हम वे नही् मंगाते.’ इििे पहिे सक मै्पूछता सक वे जीसभयां क्यो् नॉन-हॉयसजसनक है् और इनमे् कैिा हायजीन है, वह तेज गसत िे बाये् मुडकर िगभग अदृशय् हो गया. मै् बेहद सनराश, दुखी, आवेसशत और परासजत घर िौट आया. सबना जीभी के. मुहं मे् किैिा स्वाद और ज्यादा तहिका मचाने िगा. इि िोने की िंका को आग िगा देना चासहए. ऐिा स्वण्-ा राज्य सकि काम का, सजिमे्स्टीि की एक जीभी नही्समि िकती. भूख मर चुकी थी. अब मै्खाना तो छोसडए, चाय भी पी िकने एग्ज्यूकेसटव्ि की तरह घूम रहे थे और िोग की मनःब्सथसत मे् नही् था. कुछ वमन जैिा ट््ॉसियो्मे्चुन-चुनकर पिंद का िामान भर रहे एहिाि भी हो रहा था. थे. मैन् े एक काड्ध ा ारी को अपनी तरफ बुिाया मुंह धोने और कुल्िा करने के सवचार िे और कहाः ‘मुझे जीभी चासहए. टंग क्िीनर. सकि बेसिन पर गया तो देखा सक वहां एक जीभी रखी तरफ समिेग् ी?’ मुझमे् कुछ गुसि ् ा भर गया था हुई है. मोटे स्टीि की. ठीक वैिी, जैिी मेरे पाि और मै् िगभग इि हाित मे् था सक यसद वह थी और जैिी मुझे पिंद है. सजिे खोजने मे्मेरी मना करता तो मै् उिे मुक्ा मार िकता था. पूरी शाम बरबाद हो गयी. अच्छा तो, श््ीमती जी और िबिे बडी बात उिके गिे मे् िटकता को मेरे शेसवंग सकट मे् िे बाद मे् यह जीभी हुआ वह काड्ाडोरी िमेत खी्च िकता था. बरामद हुई. कोई भी चीज यह ठीक िे नही्खोज उि आदमी ने मुसक ् राकर कहा ‘िीधे जाये.् िकती. मैन् े गुसि ् े मे्आवाज िगाईः ‘अच्ना ा!’ तीिरी रो मे्दासहनी तरफ, एकदम कोने मे.्’ मै् ‘क्या बात है?’ पत्नी आयी. सजतना प्ि ् न्न हुआ, उतना ही अंचसभत भी. यह ‘यह जीभी कहां िे समिी?’ मॉि अब्गनपरीक््ा मे् ‘समिेगी कहां? बेदसन पर गिा तो िेखा दक खरा उतरा. वहां जाकर यही्िामने फुटपाथ पर रहां एक जीभी रखी हुई है. देखा. ‘ओरि हायजीन’ फुटकर िामान के नाम िे एक कोना बे च ने व ािे जो ठेिे मोटे संटील की. ठीक रैसी, था, सजिमे् टूथ ब््श, िगते है,् उनिे दोपहर जैसी मेरे पास थी और जैसी टूथ पेस्ट, माउथवॉश, मे् खरीदकर िाई हूं. मुझे पसंि है. मंजन वगैरह रखे हुए तुम तीन सदनो् िे थे. जीसभयां कही् नही् परेशान थे, मै् कुछ सदखी्. वहां टहिते एक और काड्ध ा ारी को मैन् े िामान खरीदने गयी थी, वहां जीभी सदख गयी आवाज दी. पूछाः ‘टंग क्िीनर कहां है?् ’ उिने तो िे आयी.’ एकदम बतायाः ‘ये है्न! ये आपके ठीक िामने ‘अच्छा, तो अभी ये जीसभयां इि िंिार मे,् टंगे है्.’ देखा तो चम्मचो् की तरह कुछ चीजे् इि शहर मे्समि िकती है!् ’ मैन् े कुछ अचरज िटक रही् थी्. हाड्ापैपर मे् िील्ड पैक. जैिे िे कहा. या पूछा. या खुश हुआ. या सनस््शतं . ल्िेड के, चाकुओ् के और शेसवंग क््ीम के अच्ाना ने मेरी तरफ इि तरह देखा सक पैकटे ि ् आजकि समिते है.् आकृसत कुछ बॉटि आसखर मेरे इि वाक्य का मतिब क्या है. ओपनर की तरह. हर एक की कीमत पंदह् र्पये मै्भी नही्िमझ पाया सक मेरी इि बात का, की थी. मैन् े पूछा सक यह सकि तरह की जीसभयां िवाि, शंका या आश्स््ि का आसखर मतिब है्. उिने िमझाया सक ये हे्सडिवािे हाड्ा क्या है. कंधे उचकाकर मैन् े जीभी उठायी, जबान प्िाब्सटक के नये टंग क्िीनि्ाहै.् एक हाथ िे ही को तबीयत िे दो-तीन बार िाफ सकया. कुछ आप जीभ िाफ कर िकते है्. और यह दूिरा खो्-खो् और हो्-हो् की जोरदार आवाजे् मॉडि है, उिने बगि मे्िटके एक दूिरे बंच सनकिी्, सजन्हे्िुनकर अच्ना ा को भी िगा होगा की तरफ इशारा सकया. इिमे् इि िीवर को सक अब िब कुछ ठीक-ठाक है. दबाने िे यह ‘क्िीनर’ खुि जाता है. जैिे झटके आईने मे् जबान चमक रही थी. सजिे िे चाकू खुिता है. यह िफर वगैरह के सिए देखकर मै्वाकई खुश हुआ. n
दीपावली मास्ट हेववशे ड ष कहानी शज्मिला बोहरा िालान
नयी पीढ्ी की िुपरसचत कहानीकार और उपन्यािकार. प््कासशत कृसतयां: ‘शादी िे पेश्तर’ और ‘बूढ्ा चांद’. कोिकाता मे्अध्यापन. सफल्म िमीक््ाएं भी सिखती है्. िंपक्क: sharmilajalan@gmail.com
पेंग
वह जो हजार िाि पुरानी व्यवस्था है, सजिमे्दो कमरे होते एक पुरष् ो्का. एक स््सयो् का. जैिे दो शहर जैिे दो प््ांत. जैिे दो देश, दो िभ्यता. दो िंस्कृसत. दो महागाथा. टो्हो गये. दोनो्चुप है्. बोिने िे शोर हो, दो महाकाव्य. ऐिा जर्री नही्है, पर आन्या और तान्या दो मे्एक की िल्तनत. के बीच जब चुप्पी नही्होती, शोर होता. तान्या और वह एक िनातन काि िे हावी. कहती तुम, हां, तुमने मुझे कहा. इिसिए अपनी ऊंची आवाज, बसिष्् तन, और 'ऐिा'हो गया. अगर ऐिा नही्कहती तो 'वैिा' नही् होता. आन्या पूछती कब कहा 'ऐिा' और कू्र तन्त्द््ारा. वही पुर्षो्, और उि पुर्ष का कमरा. कब हुआ 'वैिा'. तान्या कहती- उि सदन कहा तान्या के अंदर कई तान्या. और उि पहर हुआ 'वैिा'. हजारो् िाि िे जन्म िेती तान्या. वह जो यह ऐिा-वैिा उि सदन, इि सदन, ही दो मन के आत् ानाद के िाथ खड्ी है. सजिे कोई बहनो्का िंिार. आन्या बड्ी तान्या छोटी. बु द ् राह नही् सदखाते. जो आम््पल्िी नही् तान्या को उिके जीवन मे् आयी िारी बनती. वही तान् य ा िसदयो् िे अनुव्ार भूसम मे् परेशानी िारी तकिीफो् पीड्ा और कि््ो् का पड्ी है. गुमिुम. चुप. उदाि. कारण आन्या िगती. आन्या बुद् की शरण मे्. आम््पल्िी बन आन्या हंिती. यह हंिना ही तान्या को गयी. आन्या िे दूर िे जाता. वह है झूिे पर. पे्ग भरती. वह हंिती तो चांद गाता. तान्या आन्या को अपने िे दूर बहुत दूर वह हंिती तो औचक हो जाती नी्द. जाते देखती, महिूि करती. और अपने होने वह हंिती तो जंगि झर जाता. आन्या दीदी के जीवन मे् हंिी है. वह हंि अकेिपे न मे्सिमट जाती. अपने द््ीप पर अकेिे िकती है. वह हंिते हुए हंिी की यात््ा कर रह जाती. वह आन्या िे कहती मै्यहां इिसिए ही हूं िकती है. हंिी का सहंडोिा उिे ऊंचा उठाता. सक तु म यहां िे चिी गयी. तुमने उड्ान भरी. पे्ग भरती और आकाश मे् िमा जाती. उिकी तुमने पे्ग भरी. मेरी उड्ान, उिका तैरना अिफिता, मेरी हं स ी का दहं ड ोला उसे ऊं च ा तान्या को उििे दूर िे सनराशा, मे र ा दद् ा िब जाता है. तान्या वही है उठाता. पेंग भरती और आकाश तु म हो. जहां थी. उिके आिमेंसमा जाती. उसकी उड़ंान, यह िच नही् है पाि हंिी के बुिबुिे उसका तैरना तानंिा को उससे तान्या. तुम्हे् भी उड्ान नही् फूटते. हंिी के िूर ले जाता है. भरनी थी. भरनी है. अंकुर नही्पनपते. हंिी आओ, तान्या हम के बीज आन्या सगराती है पर तान्या की बंजर भूसम मे्वे बीज िड्जाते समिकर उड्े. देखो, ऐिे जोर िगाते है्. हां करो प््याि. है.् आन्या ने उिी बंजर भूसम िे यात््ा की है. उिे इि तरह... िांिो्मे्है भसवष्य. उव्रा बनाया. पर तान्या के सिए वह भूसम अनुवरा् देखो, ऐिे पे्ग भरनी चासहए. ही रह गयी.
घं
24 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
तान्या जोर िे कहती -नही् होगा. मुझिे नही्होगा. मुझे छोड्दो. तुम्हारे सिए आिान है ऐिा करना. मेरे सिए नही्. तुम्हे् हवा समिी उपजाऊ समट््ी. खुिा आिमां. मुझे नही्. यह िच नही्तान्या, यह तुम्हारा वरण है. तुमने बंद कमरा चुना. यह उव्ार समट््ी,
कृदत: शरि दिंह
जमीन, वायु, पय्ावा रण, तुमने इिे देखा ही नही्. कमरे िे जाती तुम कोठरी मे्. कोठरी िे िुरंग मे्, िुरंग िे तहखाने मे्. जो बंद कर दे, इंिान को यह िब तुमने ही सकया. ओह, आन्या दीदी, तुम जानती हो ब््ह्मांड घूमता है पे्ग भरने िे. अिंख्य तारे मंडराने
िगते. रक्त-स््ाव बढ् जाता. आंखे् चढ् जाती्. देखा है. दांत भी्च जाते. तन ऐ्ठने िगता. पुरानी समरगी आन्या तान्या के पाि बैठी है. की बीमारी. सनिरती है गूंज. आन्या दीदी, वह आकाश मै् क्या छू पिरा है मौन. सजिने अपनी भाषा धारण पाऊंगी? मेरी धड्कन बढ्जाती है. वह आकाश की है. मौन को कौन िुन िकता है? मौन को मेरे सिए नही्और यह पाताि मुझे छोड्सकिी आन्या अनिुना नही् कर िकती. आन्या उन का नही्. मै्सिपटी- सचपकी रह जाती हूं. श्िेष हाथो् का बदिता र्प देखती है. एक ऐिी की तरह. वही घर, वही सबछौना, सगिाफ वही, दुसनया, जहां तान्या को समरगी के दौरे नही् मै् वही् की वही्. अंदर बहती तपती नदी. आग पड्े्गे. की नदी. उिमे् सहंिा, ईष्या,उदािी, मायूिी, आन्या अपने वक््ो् को अजीब सनगाहो् िे कि््पीड्ा, उफान मारते, बुिबुिो्की तरह. ये नही्देखेगी. जहां वह अपनी योसन को शरीर िे कमरे, ये प््देश, सपता, दादा, परदादा, ये दूर करना नही्चाहेगी. उि पर हुए हमिे को िे पसरवार-व्यवस्था, यह िंताप नही्करेगी. स््ी पुर्षो् का जुदा जहां उिका मौन मौन को आनंिा अनसुना नहींकर िंिार. यह पुर्ष का आन् य ा िे यह प््श्न सकती. आनंिा उन हाथोंका िंिार. नही् करेगा सक मेरा बिलता रंप िेखती है. एक ऐसी जन्म क्यो् हुआ? वह आन्या कुछ नही् िुदनिा, जहां तानंिा को दमरगी के भी योसन और वक््के पूछती. तान्या कुछ नही् िौरे नहींपड़ंेंगे. कहती. न कहने और िाथ! पूछने मे् जो अनकही मै्ने तो जन्म कथा है, वह दोनो्के बीच बार-बार िाकार र्प सिया एक 'मन'के िाथ. तुमने भी तो जन्म िेती. दोनो्उन अिंखय् हाहाकार की कहानी को सिया था मन के िाथ. मै्और तुम असभन्न नही् अिंख्य बार देखती्. है्. आन्या बड्ी बहन है. तान्या छोटी. तान्या आन्या दीदी कब चाहा मै्ने जन्म िेना? िुंदर. तान्या प्यारी. तुम्हारे अंदर भी वही आत्ानाद है और हाहाकार. तान्या को िाइसकि पर घूमना अच्छा पूरा िंिार तुम्हे्देख मुझे सधक््ारता. िगता. तान्या को मां दूधवािे की िाइसकि पर सक मै्क्यो्नही्भरती पे्ग! बैठने िे मना नही्करती. वह घुमा िायेगा उिे सक मै्क्यो्हूं िुरंग मे्! थोड्ी दूर और तान्या प््फुल्ि. वह िाइसकि पर सक मै्क्यो्हूं वही! बैठी है. वह पे्ग भर रही. वह सचस्डया बन रही. ओह, मुझे नही्होना था. वह तारे को छू रही. हां उिे कोई छू रहा. उिे सवरक्त हूं मै्स्वयं िे. जो छू रहा. वह क्यो्छू रहा? वह तारे सितारे को सवक््ोभ है मेरे मन मे्. छूना चाहती. पर उिकी देह मे् रे्गता है कोई नफरत है मुझे स्वयं िे हाथ. उिके ऊपर उठते मन को, उिके मन को नफरत. नफरत. कुचि डािता. आन्या चुप. िहोदर है् हम. तुम्हारा मरना वह िाइसकि पर बैठी है और दो हाथ उिे मेरा मरना भी है. इि धरती का मरना भी है. छू रहे. यह र्पक है. यह िसदयो्िे चिे आ रहे तान्या चुप. दोनो्ने एक शल्द भी नही्कहा. मौन तन को छूने का र्पक है. िनातन र्पक. स्पंसदत हो रहा है, और तैर रही आत्महत्या मृत्यु मां ने उिे भेजा था बाहर, पर मां को पता की कथाएं. इि िमाज मे्वक््और योसन िेकर नही्'बाहर'की दुसनया मे्उिके िाथ क्या हुआ. पैदा होने की कहासनयां. वह भीतर की दुसनया मे्िुट गयी. वह र्ग्ण हो आन्या तान्या के सिर पर हाथ रख उिके गयी. यह बात आन्या जानती. आन्या वष््ो्िे तन िारे ताप को अपने अंदर िमा पे्ग भरती है. पर रे्गते हाथ को महिूि करती है. तान्या एक िृस्ि करतीहै, रचती है कोमि मन. रचना एक िंिार. वह िंिार, जहां िाइसकि पर बैठी वह और उिे छूते पुर्ष नदी, नदी ही होगी. जहां िुबह की सखिती के हाथ. एक व्यवस्था. तान्या वह द््ार, जहां धूप होगी. तान्या रात मे् बरिती ओि की हमिा होता. जहां हमिा सकया जाता. जहां बूंद होगी. वह महानगर के सकिी पागिखाने तान्या का तान्या होना एक स््ी मे् तल्दीि हो मे् पड्ी मरीज नही् होगी.वह अनंत शून्य जाता. वह स््ी सजि पर हमिा कर सजिे तहि- नही्है. नहि कर सजिकी आत्मा उिके तन िे अिग जाये नही्जायेगी यह प््ाथ्ाना. नही्है सकिी को सनवेसदत. कर दी जाती. यह बेचैन आत्मा शरीर मे् रह यह है शून्य का सखिना, शरीर मे् न रहने जैिी है. यह आत्मा शरीर मे् n यह है दीप है मंसदर का, आती-जाती रहती. इि आत्मा को सबिखते हुए शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 25
दीपावली ववशेष
जाने-माने कथाकार. प््मुख कृसतयां: ‘आशा’,’कैद मे्है सजन्दगी’, ‘गांव हुए बेगाने अब’, ‘हासकम िराय का आसखरी आदमी’, ‘बूचडखाना’, ‘होसशयारी खटक रही है’, ‘िािा हरपाि के जूते’. िोकरंग वास्षाकी का 1998 िे िंपादन. िंपक्क: 9415582577
मललकार की मार कहानी
सुभाष चंद्कुशवाहा
म
सिकार एकदमे्बदि गये है्हो?’ बेर के छतनार के नीचे, ‘िो्’ की आवाज िे सचिम का कश खी्चते, आंखो् और नाक िे धुंआ सनकािते दल्िू ने आिमान की ओर ताकते, िामने घुटसनयाये छल्बे िे कहा था. छल्बे की सनगाहे्जमीन की ओर थी्. उिका मन दल्िू की वासहयात बातो् िे ज्यादा सचिम को अपनी ओर िपकने के सिए ितक्कथा. ‘इ तू कइिे जाने?’ उिने पूछ सिया. ‘मनोहर बाबा को खैच ् ी देने गया था तो वो भी यही कह रहे थे.’ ‘का कह रहे थे?’ ‘यही सक ठाकुर िाहब ही तुम िोगो् के अििी गोियां है,् िुरश े राम नाही्.’ ‘अच्छा! पंसडत की बात जल्द िमझ मे्आ गयी तुमको? बकवाि बंद करो और हमको सचिम दो?’ छल्बे का गुस्िा, आवाज की सनष्र्ु ता और चेहरे के सखंचाव मे्सदखाई दे रहा था. ‘इ दल्िवु ा िरवा हमको मूरख िमझता है. सचिम का पूरा स्वाद अकेिे िेता है. हमको इधर-उधर की बातो् मे् उिझाये रखता है, मसिकार का रंग-ढंग िीख सिया है. जोर िे कश िगाता है और िारा तम्बाकू िुडक िेता है. हमको समिती है सिफ्क राख, जइिे हम इिकी परजा हो्. ...स्वाथ््ी कही् का?’ छल्बे का मन, िूअरबाडे की कचकच िे बेपरवाह, सवचारो्के तािाब मे्मंथर-मंथर पंवड रहा था. दोपहर का िमय था और डोम टोिी मे् नाथे की महतारी बांि की खैच ् ी तैयार करने मे् जुटी थी. तीन बजे तक खै्ची तैयार हो गई तो कस्बे के बाजार मे् पचाि र्पए समि जाये्गे. उधर गजाधरबो िूप बीन रही थी. िूप, खैच ् ी िे मंहगी सबकती थी. परती और बंजर जमीनो् के 26 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
खत्म हो जाने िे िी्क जुटाना मुब्शकि था. दसितो् का हाथ और हुनर, पेट के काम आता है. सकिी के पाि जमीन नही्है और न युवको् के पाि रोजगार. नरेगा की मजदूरी िे िाि मे् िौ के बजाय तीि सदन काम समि जाये तो प्ध् ान की जय . बेरोजगार िडके बंिवारी मे् ताश फेट् ने मे मि््रहते है्. ‘धम्ाात्मा हो गये है् मसिकार! एक दम धम्ाता म् ा! कह रहे थे मनोहर बाबा. अब बेगार के
सिए बुिाते है्तो कम िे कम खाने भर को देते है.् मसिकाइन जर्र िख्त और कंजि ू है्मगर मसिकार दयािु हो गये है्. अब सकिी डोमचमार को पहिे की तरह मारते-गसरआते नही्. उनके तीनो् बेटे जर्र मनबढुई करते है् पर मसिकार सनयाय करने िगे है.् बाबा िाहब के पके्भगत हो गये है.् देखे नही्, सपछिे िोमवार को? बाबा िाहब को गसरयाने पर अपने ही औिाद को मारने के सिए छडी उठा सिए थे.’ िाफा और सचिम को छल्बे के हाथ मे्पकडाते हुए दल्िू ने होठो्को गोि बनाकर, धुआ ं ऊपर उडा सदया था. ‘िो्...िो्... िो्ऽऽ’ चीिम पर दम िगाते हुए छल्बे को हंिी आ गई थी. ‘खो्..खो्...खो्...’ हंिने और अंदर भरे धुएं को बाहर सनकािने के घािमेि मे् दम उखड गया था. वह िगातार खांि रहा था. ‘ए मरदवा! काहे् हंि रहे हो? सचिमवा बेकार कर सदये न? न पीना हो तो हमे्पकडाओ. गांजा मंहगा हो गया है.’ ‘हंिे न? ...आं? तू ििुर कह रहे हो सक मसिकार, बाबा िाहब के भगत हो गये है?् िौ टका मूरख हो? पंसडत जी के िमझाने पर िमझ गये, िुरश े िमझाता है तो नही्िमझते?... खैच ्ी
का पैिा समिा सक आशीव्ााद मे् ही रख सिए बाबा? बाबा िाहब के भगत, िोहंग के बाभन और मसिकार? ...हू.ं .. सजनगीभर गसरआते रहे. कहते रहे, अम्बड े करवा ने ही डोम-चमारो् का सदमाग खराब सकया. नही् तो एक को बुिाओ, दि धावते थे बेगार के सिए. इनकी बहन की िरकार बनी तब िे हाथी...हाथी...सकये रहते है.् पसहिे मेरी हाथी देख, हाथी...हाथी...कहते थे, अब अपनी बहन की हाथी देखते है,् बहन चो...’ ‘इतना गुस्िा काहे् करते हो छल्बे भाई? सजि सदन मसिकार आंख उठा दे्गे, उि सदन गांड फट जायेगी. अरे, मसिकार, बाबा िाहेब को मानते है् तो बुरा का है? आदमी बदि भी जाता है . कािीदाि बदिे थे की ना? बदिे थे न? हो िकता है मसिकाइन की बीमारी की वजह िे मसिकार भी...’ दल्िू ने सचिम को िपकते हुए अपनी बात का बचाव सकया था. ‘मसिकार की मार भुिा गये हो का! पाखाना सनकि आता था? बीमारी की वजह िे हारी-बेगारी मे् नागा हो जाये तो िारी दयािुता पेशाब के राि््ेबह जाती थी...हू!ं बडा धम्ाता म् ा अउर भगत बने है?् ’ छल्बे की सनगाह सचिम की िसियाई आग पर जमी थी. मन के सवचार माहुर हो, बाहर सनकि रहे थे. वह एक बार सफर दचत््कृदत: िवी िमवरकर
सचिम की ओर िपका. खेिते. िूअरो्को दौडाते. पदाते. मूज ं की आड, ‘सबिवाि करो, मसिकार िधुवाये िगते डोम टोिी को स्वायत््ता प््दान करती. डोम, है.्’ जमीन पर पच््िे थूकने के बाद दल्िू की जानवरो् की हस््ियो् को बटोर कर िाते और दिीि जारी थी. पता नही्वह यह बात सवश््ाि मैदान के कोने मे् ढेर िगाते. िमय के िाथ िे कह रहा था या बेटे को मसिकार के ट्क्ै ट् र की हस््ियां बीनने का काम खत्म हो गया. ट्क्ै ट् र और ड््ाइवरी समि जाने िे. कम्बाइनो् ने जानवरो् की उपयोसगता खत्म कर ‘परधान कहता है, िौ मूि खाई के सबिार दी्. भई भगसतन. कोई बडा दांव खेिना होगा, तभी मैदान के पूरब मे् दो ताड के पेड थे. ताड भगताये है.्’ छल्बे का मन पिीजने का नाम न की ताडी िे डोम टोिी चहक उठती. डोम िे रहा था. उिने िाफा और चीिम दल्िू के चहकते तो ठाकुर के बेटे दुआर िे बमकते-‘रे हाथ मे् पकडाया और िािे डोमवा, चुपाओगे उठकर िूअर बाडे की मैिान के बीचो-बीच बेर के िो टेढंे सक आकर गांड पर ओर चिा गया था. बजाये् दो जूता?’ पेड़ंथे, दछतरािे और पतंंोंमें शायद िूअरो्को चराने की दुआर िे कांटे दछपािे हुए . बेर जब पकती मसिकार जाना था. आती आवाज मे् खौफ तो बचंंेकांटोंसे बेपरराह हो पेड़ और दंभ होता. मैदान िोहंग गांव के ठाकुर टोिे के दब्कखन की चहक को मसिकार पर चढते-उतरते . का अंसतम घर अक््य का दुआर सनयंस्तत प््ताप सिंह का था. पुरानी जमी्दारी की ठिक करता. वहां की एक आवाज िे डोम टोिी मे् ओढे, ठाकुरो्की नई पीढी िम्पटई और गुड ं ई िे मरघट िी चुपप् ी पिर जाती. मसिकार की मार िराबोर थी. अपनढ दसितो्पर अब भी हंटर िे जेहन मे्उतर आती. हुकम् चिता था. ठाकुर टोिे के दब्कखन मे्डोम मैदान के बीचो-बीच, दो बेर के टेढे पेड थे, टोिी थी. आरक््ण की बदौित परधान बने सछतराये और पत््ो्मे्कांटे सछपाये हुए . बेर जब िुरेश राम ने डोम टोिी का नाम ‘मान्यवर पकती तो बच्,्े कांटो् िे बेपरवाह हो, पेड पर कांशीराम टोिा’ कर सदया था मगर ठाकुर िोग चढते-उतरते . बेर पेड के नीचे िूअर िोटते . इतना िम्बा नाम बांचने को तैयार न थे. उनके छल्बे वही्चटाई सबछा िेता. रात मे्मसहिाएं भी सिए डोम टोिी ही बेहतर थी. पिर िेती्. कभी-कभी ताश, कभी देशी पाउच, पहिे ठाकुर टोिा और डोम टोिी मे्तसनक तो कभी चीिम की चुहि, बेर गाछ को कदंब मे् फाििा था. गांव की आबादी बढने िे मकानो् बदि देती. वहां तरह-तरह के सवचार जनमते. की िंखय् ा बढी थी. मकानो्की िंखय् ा बढने िे िूअर बाडे गुिजार रहते. रात मे्वह परधान के डोम टोिी और ठाकुर टोिे का फाििा कम सिए जे.एन.यू. का ए.डी. सबब्लडंग बन जाता. हुआ था. दोनो्धीरे-धीरे िटते गये थे. यह केवि अक्य् प्त् ाप सिंह के दुआर पर पहिे हाथी भौगोसिक िटाव था. और घोडे सहनसहनाते थे. जमी्दारी गयी तो हाथी अक्य् प्त् ाप सिंह का दुआर, डोम टोिी की और घोडे भी गये. उनकी जगह ट््ैक्टर, ओर था. पहिे दुआर बडा था. दुआर की िीमा, कम्बाइन, कार और ट्क ् आये. अक्य् प्त् ाप सिंह आम के पेड और डोम टोिी के मेड पर पनपे के छोटे भाई, अिग हुए तो दुआर बंट गया. मूज ं तक जाती थी. मेड िे उत्र् , ठाकुर टोिा बीचो-बीच दीवार खडी हुई. दुआर पहिे की और दब्कखन मे् एक मैदान था. मूंज की घनी तुिना मे्आधा रह गया. जब अक्य् प्त् ाप सिंह झुरमुटे्, टाटी का काम करती्. इििे मसिकार के तीन बेटो्मे्बडे, चंद्प्त् ाप ने अपनी गृहस्थी के दुआर िे चमरटोिी के िूअरबाडे सदखाई न अिग की तो दुआर और छोटा हुआ. एक ट्क्ै ट् र देत.े िूअर बाडे सदखाई न देते तो ठाकुर िाहब की जगह, दरवाजे पर दो ट्क्ै ट् र और दो कम्बाइन को िुकनू समिता. मैदान के दब्कखनी सकनारे पर आ गये. पसरवार और नौकर-चाकर भी बढे. दल्ि,ू छल्ब,े नाथे और दूिरे डोमो्की झोपसडयां पुि्ैनी मकान तोडकर बनाये गये नये मकान थी्. छल्बे और दल्िू को एक-एक कमरे का का आकार पहिे की तुिना मे् छोटा हो गया. इंसदरा आवाि समिा हुआ था जो बमुबश् कि एक दुआर का हाता छोटा पडने िे पहिे जैिी शानोचारपाई सबछाने भर का. शौकत का आभाि न होता. यह बात ठाकुर पहिे जब गांव मे् गाय, बैि या भैिो् को िाहब को खटकती और िामने के मैदान पर पािने का काम होता, तब मरे जानवरो् की उनकी सनगाह अटक जाती. हस््ियां बटोरने का काम डोम टोिी का था. इि बीच परधानी का चुनाव हुआ. परधानी िूअरो् के मि िे भरा मैदान, डोम टोिी का िीट, दसित वग्ा के सिए आरस््कत थी. दसित े राम परधान बना. स्टसे डयम था. मैदान बडा था और डोम टोिी का बि््ी का बी.ए. पाि िुरश दसितो्मे्िुरश े राम एकिौता ग्ज ्े एु ट था. प््ाण था. वहां उनकी बैठकी होती. रात गुजरती, े कर िेवा िसमसत’ का गठन सकया. झगडे और सववाद होते, िुिगते. दसितो्के बच््े उिने ‘आंबड शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 27
दीपावली ववशेष िसमसत की बैठक मे् एक सदन तय सकया सक दसितो्को सशक््ा िे जोडने के सिए सनजी स्कि ू खोिा जाये. डोम टोिी के मैदान का इििे बेहतर उपयोग और क्या हो िकता था? छल्बे ने िुरेश राम का िमथ्ान सकया. परधान ने ग््ाम िभा की बैठक मे्एक और प्ि ् ्ाव रखा. वह यह सक िरकार की योजना के मुतासबक, खुिे मे् शौच रोकने के सिए दसितो्के सिए िामुदासयक शौचािय बनवा सदया जाये. िुरश े राम ने अक्य् प्त् ाप सिंह के िामने प्ि ् ्ाव रखा. मसिकार के घर के िामने, उनकी मज््ी के सबना स्कि ू चिाना िंभव न था. ‘तुम एकदम बैि हो िुरेश! िडकपन है तुममे् ! अच्छा ये बताओ, तुम हमारे डोमो् के सहतैषी हो सक दुशम् न?’ ठाकुर अक्य् प्त् ाप सिंह ने अपनी छडी िे जमीन ठुकठुकाते, िुरश े राम पर आंखे गडा दी थी्. ‘हम कुछ बूझे ना महराज?’ िुरेश राम तसनक िहम गया. िगा जैिे कोई अपराध कर सदया हो. ‘अरे का बूझोगे तुम? अकि हो तब न? दसितो् की खामोशी देख प््धान के होश आरक््ण िे अकि नही् आती? इन डोमो् के उड गये थे. आंबेडकर िेवा िसमसत मे् रखे िडको् को िरकारी स्कि ू मे् पढने िे मुफत् मे् ् ्ाव पर सकिी ने बोिने का िाहि न सकया. खाना समि जाता है. ड्ि ्े समि जाता है. सकताब प्ि और कापी भी. पहिे तो वजीफा भी समिता था. मसिकार की बात िुन, दसितो्को िांप िूघं गया ये िब बंद कर, तुम इनका सहत करोगे सक था. ‘मसिकार गित नही् कह िकते . मनोहर नुकिान?... बताओ?’ मसिकार अपनी छडी, बाबा भी कहते है् सक इ परधान हम िोगो् का हवा मे्सहिाते, िगातार चहिकदमी की मुद्ा मे् भिा नही्िोच रहा .’ दल्िू का मन दोिन गसत थे. ‘बुिाओ पूरी डोम टोिी को... यही्बुिाओ? की तरह इधर-उधर हो रहा था. उिका बेटा ... छल्बे...ऽ.’ मसिकार ने ऊंची आवाज दी. िरकारी स्कूि मे् पढता था. वह भी मुफ्त मे् डोम टोिी के कान पहिे िे खडे थे. मूंज के समि रहे समड-डे-मीि, सकताब और ड््ेि मे् फांको्िे इशारे को भांपते ही िभी मरद-मेहरार्, उिझा था. ‘दसितो् का भिा, अच्छी सशक््ा िे होगा, मसिकार के दुआर पर डुगरु आये थे. ‘...बोिो समड-डे -मीि िे नही्? िरकारी स्कि ू मे्पढाई छल्बे? तुम बोिो? तुम्ही् परधान के खाि हो तो होती नही् है ? ’ िु र श े राम के उपदे श अब भी न? बताओ परधान तुम्हारा सहतैषी है सक दसितो् के अं त र मन मे ् गू ज ं रहे थे . ‘बडे िोगो् दुशम् न? पहिे तुमह् ारे दो बच््ो् को जो वजीफा ू मे्पढते है्और समिता था, उिी िे तुम नून-तेि खरीदते थे न? के बच््ेबाजार के सनजी स्कि माना सक इधर दो-तीन िाि िे वजीफा बंद है, तुम्हारे बच््े िरकारी स्कूि मे् सखचडी खाने जाते है.् यह पढाई का मगर कब समिने िगे, आंबेडकर सेरा सदमदत में सरजरवेशन नही्तो का कौन जाने? ...यह रखे पंंसंार पर दकसी ने है? पूछो अपने बच््ो् तुमह् ारा परधान, प्ा्इवेट िे सक क...ख...ग भी बोलने का साहस न दकिा . स्कूि खोिने को कह याद है क्या? इि पढाई रहा है? पूछो इििे सक मदलकार की बात सुन िदलतों िे हमारे बच््े नरेगा मुफत् मे्पढायेगा? फीि को सांप सूंघ गिा था. मजदूर के अिावा िगेगी की नही्? कापीक्या बनेगे्? िरकार सकताब और ड््ेि, तो चाहती है सक दसित गांव मे् रहे्. आगे न िरकारी स्कूि की तरह मुफ्त मे् समिेगा? बढे . ् नरे ग ा इन् ह ी् के सिए है.’ छल्बे के मन को परधान का काम िरकारी स्कि ू को बचाना होता िु र े श राम के सवचार उकिा रहे थे मगर वह है, बंद कराना नही्?’ अक्य् प्त् ाप सिंह सबगड िाहि न कर पा रहा था. परधान ने फुिफुिाते पडे थे. छल्बे कुछ बोिा नही्. गजाधर, नाथे, दल्िू हुए मान्यवर काशीराम टोिे के हर मरद, िब के िब, उिकी ओर ताकते रहे. मसिकार मेहरार्के चेहरो्को सनहारा. छल्बे को आंखो्िे अपनी छडी सहिाते, हवेिी के अंदर चिे गये थे. इशारा सकया. मगर उिने महिूि सकया सक 28 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
दसितो्के चेहरो्पर कोई हिचि न हुई. िगा, उिके तक्कबरिात के बुिबुिे िासबत हो रहे है.् उिे सशक््ा की जर्रत और सिद््त िे महिूि होने िगी. ‘तुम सनरा मूरख हो िुरश े राम! तुम परधान िायक तो थे नही्? हम िोगो् ने तुम्हे् परधान इिसिए तो नही्बनाया सक डोम टोिी को उजाड दो? सजिको पढना होगा, वह िरकारी स्कि ू मे् पढ िेगा. नही्पढना होगा तो अमेसरका भेज दो तब भी न पढेगा. िमझे!’ हवेिी िे बाहर सनकिते ही अक््य प््ताप सिंह ने प््धान को घुडका था. ‘शौचािय बनवा कर का करोगे? पूरे डोम टोिी िे पूछ िो. कौन उिमे् शौच करने जायेगा? ...खुिी हवा को छोडकर बंद शौचािय मे्जाओगी दल्िू बो? ...बताओ अपने परधान को? इ शहर ना है सक जमीन की कमी है?’ ठाकुर ने अपना दायां हाथ हवा मे्सहिाते, कहा था. िुरेश राम का मन कठेि हो गया था. बोिा, ‘मसिकार! खुिे मे् शौच न करने को टी.वी. पर िमझाया जाता है.’ ‘अरे टी.वी. पर तो बहुत कुछ अंट-शंट बताया जाता है? वही देख-िुन कर तो तुम िोगो् का सदमाग खराब हो गया है.’ मसिकार गरजे थे. ‘हमको ना जाना है िैटसरन मे.्’ दल्िू की मेहरार्, मसिकार की बात िुन, हाथ सहिा कर मना करती, भाग खडी हुई थी. ‘बताओ छल्बे बो? तुम जाओगी िुरि े वा के बनवाये शौचािय मे?् ...सक िामने की बंिवारी मे?् ’ बोिते-बोिते ठाकुर की आवाज धीमी हो गयी थी. छल्बे की मेहरार् िजा कर अपनी झोपडी की ओर चिी गयी थी. ‘हमको तो बंद कमरा मे्उतरेगा ही नही्.’ दल्िू का ड््ाइवर बेटा पम्मा बोिा. ‘रमेशवा के बाबूजी तो पसहिे भड िे पादते है्तब उनका उतरता है. घर के पाि िैटसरन मे् जाये्गे तो भड की आवाज बाहर िुनाई देगी.’ नाथे के बेटे की बात िुन, िभी हंिने िगे थे. िुरेश राम अकेिा, खामोश खडा था. मसिकार खुश थे. डोम टोिी पर उनकी धाक जम चुकी थी. ‘आसखर महेश बाबा और मसिकार मे्ऐिा कुछ है सजििे उनकी एक आवाज पर पूरी डोम टोिी भागे चिी आती है. उन्ही्की िुनती है, मेरी नही्. दोनो्, सदनभर गन्ने के खेत मे् खटाते है्. बाबा, बािी भात के अिावा कुछ नही् देते. मसिकार आधा-आधा सकिो चना पकडा देते है.्’ िुरश े राम िोच रहा था. कुछ सदन बाद ठाकुर िाहब ने अपनी बैठक मे् बाबा िाहब आंबेडकर की फोटो िगा िी. फोटो िगाते ही उनके बेटो्ने उिे वाट्िएप पर
वायरि कर सदया था. वह िोमवार और नवरास््त का पहिा सदन था. ठाकुर िाहब ने डोम टोिी को अपने दरवाजे पर बुिाया. अपनी योजना का खुिािा सकया और उद्घाटन भी. डोम टोिी के मैदान को पम्मा िे िाफ कराया. मैदान के बीचोबीच एक कुि्ी रखवायी और उि पर बाबा िाहब अम्बेडकर की फोटो भी. ठाकुर िाहब ने नवरास््त के बावजूद डोम टोिी के िभी िदस्यो्के सिए मीट और बाटी बनाने का सजम्मा छल्बे को िौ्पा था. नाथे को भेजकर देशी पाउच मंगा रखे थे. पाउच बांटने का सजम्मा दल्िू का था. कुि समिाकर एक मेिे जैिा जश्न का माहौि था उि सदन. दसितो् को दो अविरो् पर मुफत् मे् पाउच समिती है. एक परधानी चुनाव मे्, दूिरा जब मसिकार कोई खाि काम कराना चाहते है.् मसिकार के इशारे पर डा. आंबेडकर के फोटो के पाि बैठकर दसित मसहिाओ् ने गीत गाना शुर्सकया. सटमुकी और नगाडे की खनक िे वातावरण आनंदमय हो गया था. इिी बीच ठाकुर िाहब ने बाबा िाहब आंबड े कर की फोटो पर मािा पहनायी। उनके छोटे बेटे ने इि दृशय् को भी वाट्िएप पर फैिाया. उि सदन ठाकुर िाहब ने घोषणा की, ‘उनकी इच्छा है सक दसितो्के मिीहा के सिए इि मैदान मे्एक भव्य मंसदर बनवाया जाये. वह बाबा िाहब के मंसदर के सिए आठ-दि िाख खच्ाकरेग् .े अपने पैिे िे पूरे मैदान की बाउंड्ी बनवायेग् ,े बाद मे्भव्य मंसदर. आप िभी को इि पुणय् काम मे्िहयोग देना होगा.’ ‘मसिकार की जय... मसिकार के बािगोपाि की जय...’ नारो् िे िोहंग गांव का दब्कखन टोिा मचि उठा था. ‘मसिकार का खानदान हमार गोियां है. मसिकार की मार, आशीव्ााद है ?’ मीट और बाटी के स्वाद के िाथ, आवाज भी मधुर हो चिी थी. जय जयकार करते दसित अपने घरो् को गये और बेिध ु हो िो गये थे. परधान, िुरश े राम को भी ठाकुर िाहब ने
बुिाया था मगर वह नही् आया था. उिके दो दोि््ो् ने भी ठाकुर िाहब की दावत का बसहष्कार सकया था. ‘स्कूि मे् भी बाबा िाहब का स्मारक बनेगा. हमे् ठाकुर िाहब की चाि िे ितक्क रहना चासहये.’ िुरेश राम ने अपनी बि््ी को िमझाने का प्य् ाि सकया था. ‘इ दल्िवु ा बूझे तब न? पम्मवा को ड््ाइवरी समि गयी है, उिी िे खुश है.’ छल्बे ने मुंह खोिा. िुरेश राम ने बताने की कोसशश की, ‘बाबा िाहेब आंबड े कर के बहाने ठाकुर िाहब दो तीर चिा रहे है.् एक तो मैदान पर कल्जा कर, हमारी िोच-िमझ पर अंकुश िगाने का और दूिरा अगिे चुनाव मे्अपने पािे मे्रखने का.’ िुरश े राम की कोसशशो्के बावजूद मान्यवर कांशीराम टोिे मे्हिचि न हुई. वह ठाकुर के अगिे कदम का इंतजार करता रहा. कुछ महीने बाद डोम टोिी के मैदान का उन्मकु त् सवि््ार, िीमाओ् मे् कैद हो गया. उन
िीमाओ् मे् दसितो् के सिए न स्कूि था, न शौचािय. उनके बच््ो्का स्टसे डयम और िूअरो् की शौय्ाभूसम गायब थी. डोम टोिी िे मसिकार का दुआर, जो मूंज की झुरमुटो् िे भव्यता सबखेरता, ओझि हो चुका था. बाउंड्ी की आड मे्डोम टोिी और उन्मकु त् हो चुकी थी. बेर पेड के नीचे सबछी चटाई पर छल्बे और दल्िू के चीिम का कश, बेपरवाह जारी था. ‘िो् ...िो्...’ के बाद खां..खां....खी्के िाथ, आंख और नाक िे सनकिते धुंए के िंग, दमा जैिी खांिी थी या मार के बाद की र्िाई, िमझना कसठन था. खांिते-खांिते जब आंखो्मे्र्िाई के आंिू सनकि आते तब दोनो्, परधान को िौिौ गासियां िुनाते. कहते, ‘िािे ने बाबा िाहब के मंसदर का सवरोध सकया है. पुसिि मे्सशकायत की है. मसिकार िे बैर िेकर हम िोगो्का भिा करेगा का?’ डोम टोिी का मैदान, ऊंची बाउंड्ी िे सघर चुका था. बाउंड्ी ने मसिकार की कभी-कभार की मार को सछपा सदया था. उिमे्िगा बडा गेट, मसिकार की दुआर की ओर था. अब मसिकार का दुआर पहिे की तरह बडा सदखने िगा था. बाउंड्ी के अंदर अभी मंसदर नही् बना था. एक चबूतरे पर बाबा िाहब की फोटो जर्र िगी हुई थी. बाउंड्ी के अंदर ठाकुर िाहब और उनके बडे बेटे के ट्क्ै ट् र और कम्बाइन, खडे थे. वहां उनके ट्क्ै ट् र ड््ाइवर, पम्मा के सिए एक कोठरी भी बन चुकी थी. िोहंग मे् यह चच्ाा हर जुबान पर थी, ‘परधान ने डोम टोिी मैदान का गेट, मसिकार के दुआर की ओर होने का फोटो खी्चकर डी.एम. और मुखय् मंत्ी िे सशकायत की है. वह बाबा िाहेब आंबड े कर के बहाने, मैदान हडपने का मुकदमा भी ठोक सदया है. चच्ाा तो यह भी थी सक आिपाि के गांवो् के दसितो् का बटोर होने वािा है. ‘िरवा बउरा गया है.’ ठाकुर अक्य् प्त् ाप सिंह बेचनै है.् महेश बाबा िे उनकी कानाफूिी बढ गयी है. n
शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 29
दीपावली ववशेष
इक बस््ी थी इक बमबम थे स्मरण
ज््पयदश्िन थी. तब फ्िटै ो्के भीतर भी पीने के िाि्पानी का इंतज्ाम नही्था और िोग एक िोिाइटी के भीतर ही िगे एक िाव्ज ा सनक नि िे िुबह-िुबह पीने का पानी भरा करते थे. बब्लक उन्ही् सदनो् गंदा पानी पीने की वजह िे अर्ण स््तपाठी बुरी तरह बीमार पड्गए थे. िगभग िबके छोटे-छोटे बच््ेथे जो स्कि ू की सबल्कि ु शुरआ ् ती कक््ाओ्मे्थे. िोिाइटी के भीतर िड्क नही् थी और ऊबड्-खाबड्घाि-समट््ी के बीच कभी पांव मे्कांच गड्जाने का डर होता था और कभी िांप सनकिने का. वाकई उन सदनो्कई बार हमने िोिाइटी के भीतर िांप देखे थे. तब बिे्िोिाइटी के दरवाजे तक नही्आती ् ी तो दूर, सरक्शा तक नही् समिा करता था और हम िब ि 2001 मे् जब अर्ण कुमार पानीबाबा गास्जयाबाद के अधबिे थी्, ऑटो-टैकि विुधं रा इिाक़े्की जनित््ा िोिाइटी मे्रहने आए तो यह एक तरह िगभग पैदि थे. असमताभ पाराशर के पाि बेशक एक कार थी िेसकन तब िे उनके जीवन की दूिरी पारी थी. तब जनित््ा बि नाम की िोिाइटी थी, तक वे उिे चिाना नही्जानते थे. बाकी िब ने धीरे-धीरे अपने स्कटू र खरीद दरअिि वह एक उजाड्के बीच बन रही इमारत थी सजिके आधे-अधूरे सिए थे. अर्ण कुमार के पाि ज्रर् एक पुरानी सफएट थी सजिे वे बहुत ठिक मकानो्मे्िन्नाटा रहता था, मज्दरू रहते थे और बहुत िारी अव्यवस्था रहती िे चिाते थे. दरअिि वह जीवन बहुत चुनौती भरा था, िेसकन उिे हमने अपनी थी. िेसकन पूसण ् मा ा जी और तब बहुत छोटे बेटे बटुक के िाथ अपने नए जीवन िामू स हकता िे इि तरह बदिा था सक आज की तारीख मे्वह रोज्ाना सकिी का सबरवा रोपने के सिए शायद अर्ण जी को ऐिा ही उजाड्चासहए था. उि उत् ि व की तरह याद आता है. और यह कहना कही्िे असतशयोब्कत भरा नही् िाि उि उजाड्बि््ी मे्कुि 12 पसरवार अपनी-अपनी मजबूसरयो्मे्रहने है सक वह उत् ि वधस् मता ा उि छोटे िे िामूसहक िंिार मे्अगर िंभव हो पाई चिे आए थे. पांच खंडो्के एक िौ दि फ्िटै ो्मे्बंटी उि िोिाइटी के चंद घरो्मे्सटमसटमाती रोशसनयां जैिे एक-दूिरे का हाथ थामे उि अंधरे े मे्एक तो इिका िबिे ज्य् ादा श्य्े अर्ण कुमार को जाता है. उन्हो्ने कई िाझा ् ते्की्. कभी िबको नाश्ते पर बुिाते और कभी कही्रात के िाझा िामूसहक राि््ेकी तिाश सकया करती थी्. 32 फ्िटै ो्वािे ल्िॉक ए की शुरआ भांय-भांय करती आठमंस्जिा इमारत के तीिरे मािे पर अकेिे अर्ण कुमार भोजन का आयोजन करवाते. अपने-अपने पेशवे र खोिो्िे सनकि कर एक रहते थे. 32 फ्िटै ो्वािे ऐिे ही ल्िॉक बी मे्दूिरे मािे पर असमताभ पाराशर पासरवासरक आत्मीयता का जो माहौि जनित््ा के उि िन्नाटे मे्िहज भाव भी अपनी पत्नी और बेटे सचंटू के िाथ रहते थे. िी ल्िॉक मे्कुि दो पसरवार िे सवकसित हुआ, उिके बीज भी अर्ण कुमार ने डािे थे. वे अपनी उम््के थे- नीचे आिोक और सपंकी, और तीिरे मािे पर राजेश नायक और उनकी िाथ-िाथ इि आत्मीयता की वजह िे हम िबके बाबा हो गए. अगिे कई पत्नी ममता जी. िबिे आबाद 16 फ्िटै ो्वािा डी ल्िॉक था सजिमे्6 पसरवार महीने जैिे हम िबने एक-दूिरे का हाथ बहुत कि कर थाम रखा था. उन सदनो्हम िबकी शाम एक-दूिरे के घरो्मे्कटा थे- मनोज समश्,् आय्द्े ्उपाध्याय, अर्ण स््तपाठी, एक पादररादरक आयं म ीिता का करती. सकिी को जुकाम भी होता तो िब उिके घर राजेश वम्ा,ा राकेश अरोड्ा और जैन. ई ल्िॉक मे् इकट् ा ् हो जाते. बच््ो्का खयाि ख़्ाि तौर पर रखा सनचिे मािे पर ही हम दो पसरवार थे- मेर,े ब्समता जो माहौल जनसतंंा के उस जाता. आिपाि कोई डॉक्टर नही्था या हमे्उिका और प्ख ् र के अिावा- अर्ण पांडये -पुति ु और सनंनाटे मेंसहज भार से पता नही् था. ऐिे मे्दो-तीन घरो्मे्होम्योपैथी की गौरी बृजसबहारी चौबे-गुड्और ििोनी. बाद के सदनो् दरकदसत हु आ , उसके बीज भी जानी-पहचानी कु छ दवाएं होती्सजन्हे्फौरन हम मे्ित्यदे् ्रंजन-पम्मी-स््पयांश, कुमार रंजन-रीता जी अरं ण कु म ार ने डाले थे . एक-दूिरे को सदया करते. अर्ण कुमार पानीबाबा और रजनी नागपाि-मनमोहन जी इि कतार का बाकी सवषयो् की तरह होम्योपैथी के जानकार थे सहस्िा हुए. अब िोचता हूं तो िगता है सक अपने-अपने शहरो्िे उजड्ने और और कई बुजगु ्ो्की तरह इन दवाइयो्के एक बक्िा उनके पाि हुआ करता सकराये के अिग-अिग मकान बदिने के बाद यह िगभग हम िबके सिए था और इिका फायदा हम िोगो्के अिावा िाथ रहने वािे मजदूर पसरवार नए सिरे िे बिने की शुरआ ् त थी. यह बहुत चुनौती भरी शुरआ ् त थी. हम भी उठाते थे. उन सदनो् रिोईघरो् िे सनकिने वािी खुशबुएं दूिरे घरो् मे् ं ती्और प्िटे े्और तश्तसरयां िाने-िे जाने का सििसििा चिता रहता. िब ऐिी जगह रह रहे थे जहां बुसनयादी िुसवधाएं तक नही्थी्. उन सदनो् पहुच कहने की ज्रर् त नही्सक उन सदनो्की िबिे ज्य् ादा मेजब् ानी अर्ण जनित््ा िोिाइटी के फ्िटै ो्मे्सबजिी के मीटर नही्थे और एक अकेिे व्याविासयक कनेकश ् न िे तार खी्च कर िभी घरो्मे्सबजिी पहुच ं ाई जाती कुमार के खाते मे्ही रही होगी. वे बेहतरीन मेहमाननवाज्थे. िेसकन इि
िुपसरसचत कसव-कहानीकार और पत््कार. प््मुख कृसतयां: ‘बासरश,धुआं और दोि््’, ‘उिके सहस्िे का जादू’, ‘नि्् कुछ भी नही्होता’, ‘इसतहाि गढ्ता िमय’. स्पंदन िम्मान िे िम्मासनत. इन सदनो्एनडीटीवी मे्काय्ारत. िंपक्क: 9811901398
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30 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
मेहमाननवाज्ी मे्ितही शौकीनी शासमि नही्थी, बब्लक एक पासरवासरक िंपण ू ता् ा थी जो अक्िर परंपरा या भारतीयता के उनके आग्ह् िे बंधी रहती. वे तरह-तरह के शरबतो्, घरेिू नुसख ् ो्िे बनी चायो्और ऐिे ही व्यज ं नो्िे हमारा पसरचय कराते जो िेहत और स्वाद दोनो्के सिहाज्िे बेहतर होते. उन सदनो्आिपाि िल्जी भी नही्समिा करती थी और अक्िर इिके सिए हम घर िे ढाई सकिोमीटर दूर िगने वािी मंडी पर सनभ्रा रहते. अर्ण कुमार वहां िे खूब ताज्ा िल्स्जयां ख़्रीद िाते और अक्िर इतनी ज्य् ादा मात््ा मे्सक वह िोिाइटी के घरो्मे्ही नही्, वहां रह रहे मज्दरू ो्के यहां भी कच््ी या पक््ी बंटा करती्. जनित््ा िोिाइटी का वह पहिा िाि उन िाझा अनुभवो् का िाि है सजिके कई िारे सकस्िे दूिरो्के पाि हो्ग.े यह शायद अर्ण कुमार की ही ििाह थी सक िप्ताह मे्कम िे कम हम एक बार िाथ खाना खाएं और इिके सिए अिग-अिग घरो्िे िोग अिग-अिग व्यज ं न पका कर िाएं. यह सििसििा तब र्का, जब िगा सक ऐिे आयोजनो्की वजह िे मसहिाओ् पर ज्य् ादा बोझ पड्ता है. सफर बाहर िे रिोइया बुिाकर यह सििसििा चिाया गया. जनित््ा के उि उजाड् मे् आिपाि का िन्नाटा भी एक तरह का
अर्ण कुममर पमनीबमबम: िममूदहकतम और िद््भमव अकेिापन भरता था. अब इंसदरापुरम और विुधं रा-वैशािी को बांटने वािी नहर के दोनो्तरि्जो हसरत पट््ी है, वह उन सदनो्कम िे कम इि तरफ नही्हुआ करती थी और उिकी जगह बेतरतीब झाड्-झंखाड्था जो डराता था. उन्ही्सदनो्स्थानीय प्श ् ािन की मदद िे इि पट््ी को िाि्कर वहां पेड् िगाने की योजना बनी. इि योजना मे्भी अर्ण कुमार आगे-आगे थे. सफर वह सदन आया जब िोिाइटी के िारे बच््ो्ने उि पट््ी मे्छोटे-छोटे पौधे िगाए- हम िबने यह उम्मीद की थी सक ये पौधे इन बच््ो्को यहां िे जोड्े रखेग् .े अर्ण कुमार ताकीद कर रहे थे सक हर बच््ा अपने पौधे को पहचान िे और उिका ध्यान रखे. योजना बाद मे्पेड्ो्के िाथ इन बच््ो्के नाम सिखने की भी थी. मुझे याद है, ये वे सदन थे जब बासरश का नामो्-सनशान नही्था और तपती हुई धूप तंग सकया करती थी. िेसकन उि सदन अचानक आिमान मे्बादि आ गए, हल्की-हल्की बूदं ाबांदी होने िगी- मैन् े िुझाव सदया सक इि पट््ी का नाम मेघदूतम रखा जाए- क्यो्सक पेड् बादिो् को पुकारते है.् उि सदन इि पूरे असभयान मे्िबिे िस््कय मािी ने बताया सक यहां पेड्ो्की तीन कतार िग रही है- जामुन की, नीम की और पीपि की-
जो बच््ो्के सिए, बूढो्के सिए और सचस्डयो्के सिए है.् यह एक भावुक िा सदन था जो बीत गया- और रीतते-रीतते बीत भी गया. बच््ो्के रोपे हुए पौधे बड्ेहो गए हो्ग,े िेसकन अब उनिे हमारी पहचान बाकी नही्है. सजन बच््ो् ने ये पौधे रोपे थे, वे भी बड्े हो गए है,् िेसकन उनकी सदिचब्सपयो् और िरोकारो्का िंिार भी बदि चुका है. बहरहाि, अर्ण कुमार पानीबाबा पर िौटे.् दरअिि या पानीबाबा के िंबोधन और अपनी उम््के बावजूद वे कभी दूरस्थ बुजग्ु ा्नही्िगते थे. उनमे् अपनी तरह की ऊष्मा थी सजििे वे सबल्कि ु नौजवानो्के िाथ ख़्ड्ेहो िकते थे. वे दोि््ी कर िकते थे, झगड्ेकर िकते थे, बहि कर िकते थे और अचानक इन िबिे ऊपर उठ भी िकते थे. उनकी स्जदं ासदि शब्खियत का एक बौस््दक पहिू भी था. यह मुझे ठीक-ठीक अंदाज्ा नही्है सक वे पत्क ् ार कैिे थे. िेसकन उनकी भाषा मे्एक तरह की नि्ाित थी. वे मूितः सहंदीभाषी थे और राजस्थान के सहंदी-केस््दत माहौि मे्रहे. शायद उि दौर के पढ्-े सिखे िोगो्मे्थे जब उद्ाूका चिन ज्य् ादा था. मगर पत्क ् ासरता उन्हो्ने अंगज ्े ी की की थी. इि समिी-जुिी सवराित की वजह िे उनकी वासचक सहंदी मे्अपनी तरह की चुि्ी सदखती और सवसवधता भी. बात करते-करते वे बीच-बीच मे् अंगज ्े ्ी वाक्यो्का भी इि्म्े ाि करते िेसकन जब वे बहुत देिी ढंग िे सकिी अंगज ्े ी शल्द का अनुवाद करते- या उिके पुराने प्च ् सित इि्म्े ाि की ओर हमारा ध्यान खी्चते तो उनको िुनने का अपना एक िुतफ ् बनता था. इिके अिावा वे िामासजक-राजनीसतक कई मोच््ो्पर िस््कय थे. उनके अपने दावे कई बार इतने बड्ेहोते सक उन पर भरोिा करना एकबारगी मुबश् कि होता, िेसकन उनका अनुभव िंिार इतना िमृद्था सक उनके सकस्िे िुनने का अपना आनंद हुआ करता था. और उनके स्क़स्िे जैिे ख़्तम् होते ही नही्थे. राजनीसत मे्जनता पाट््ी, जन मोच्ा,ा एनिीपी- िबका बनना उन्हो्ने क़्रीब िे देखा था. कई िंगठनो् िे जुड्ेरहे. एक सकस्िा यह बताते सक सकि तरह सकिी छात््आंदोिन के दौरान इंसदरा गांधी ने उनका कॉिर पकड्सिया था. वे कई पुराने नेताओ्को क़्रीब िे जानते रहे और उनके आगे बढ्ने को िेकर भी कई अि्िाने उनके पाि थे. इिी तरह िामासजक जीवन मे्पानी को िेकर जब उन्हो्ने अपने काम की जानकारी दी तब मैन् े पहिी बार जाना सक वे पानीबाबा के नाम िे भी पहचाने जाते है.् मेरा और उनका नाता सजन चीज्ो्िे बनता था, उनमे्इन सकस्िो्के अिावा और भी बहुत कुछ था. हम िोग दो पीस्ढयो् और दो सवचारो् की नुमाइंदगी करते थे. अर्ण कुमार के पाि अगर आजादी के बाद िे िेकर अस्िी के दशक तक की पत्क ् ासरता और राजनीसत के सकस्िे थे तो मेरे पाि नल्बे के दशक के बाद का अनुभव. उनकी दुसनया अंगज ्े ्ी पत्क ् ासरता के अनुभवो्िे बनती थी तो मेरी सहंदी पत्क ् ासरता के. सवचारधारा के ि्र् पर अपने-अपने उिझाव हम दोनो्के थे. वे देशज परंपराओ्के आग्ह् ी थे और आधुसनकता की पूरी पसरयोजना को िंदहे िे देखते थे. मै्कभी खुद को देशज भारतीयता के पक््मे्खड्ा पाता तो कभी आधुसनकता का िाथ देता, कभी दोनो्को िंदहे िे देखता. बेशक, वाम केस््दत िमाजवाद िे अपने प्यार और िंघ पसरवार िे अपनी सवतृषण ् ा को मै्छुपा नही्पाता. िंघ पसरवार िे घोसषत तौर पर वे भी दूरी बरतते और िमाजवाद मे्आस्था जताते िेसकन हम िोग कई बार आपि मे्उिझे रहते. िेसकन इि उिझाव ने हमे्करीब िाने का ही काम सकया. हम ख़्बू बहिे्करते. एक-दूिरे को जैिे वैचासरक चुनौती देते रहते. शायद इििे कुछ िमृद्भी हुए और िस््कय भी. वह जीवन मे्एक तरह की ब्सथरता का भी िमय था. अर्ण कुमार ने इि दौर मे्ख़्बू सिखा- इतना ज्य् ादा सक उिको िमेटना भी अब एक चुनौती है. उन्हो्ने पहिे आज्ादी के बाद की सहंदी पत्क ् ासरता पर एक उपन्याि सिखना शुर्सकया. उनके वैचासरक मानि के सिहाज िे यह कुछ श्म् िाध्य था- क्यो्सक वे मूितः पत्क ् ासरता या वैचासरक िेखन के आदमी थे- िृजनात्मक िेखन की कल्पनाशीिता उनमे्नही्थी, यह कहना गित होगा, िेसकन उनकी तक्श क ीिता इिको िहज ढंग िे शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 31
दीपावली ववशेष आत्मिात नही्कर पाती थी. बहरहाि, यह उपन्याि बड्ा होता गया. पचाि और िाठ के दशको्को िमेटने मे्ही िाढ्ेतीन िौ िे ज्य् ादा पेज सनकि गए सजनका एक पाठक मै्रहा. सफर यह सकताब अर्ण कुमार ने बीच मे्छोड्दी. एक दूिरी सकताब पर काम शुर्सकया. उिका वाि््ा िमकािीन राजनीसत िे था. वह भी िंबी होती चिी गई. वे सकतने सवि््ार िे सिखते थे, इिकी कल्पना बि इि िूचना िे की जा िकती थी सक इि दूिरी सकताब की भूसमका ही उन्हो्ने 100 पेज िे ऊपर की सिख डािी. जासहर है, इन िबको पढ्ने के अिावा इन िबकी चच्ाा का अपना िुख था. ऐिी ही चच्ाओ ा ्के बीच कभी मुझे िूझा सक उनिे जनित््ा के सिए भी सिखवाना चासहए. शायद यह 2002 का िाि रहा होगा जब गस्मया ो्मे्हम सकिी कवर स्टोरी की तिाश मे्थे. ये वे सदन थे जब सवदेशी पूज ं ी और सवदेशी खानपान के आगे भारत का आत्मिमप्ण ा आज की तरह िंपण ू ा्नही्था. यह बहि बची हुई थी सक भारत सवदेशो्िे कंपय् टू र सचप्ि िे या आिू की ही सचप्ि िे. केट् क ु ी, केएफिी और मैकडोनाल्ड तब आज की तरह जाने हुए नाम नही् थे. हम सवश््व्यापार वात्ाओ ा ्के ख़्तरो्पर बहि सकया करते थे और डंकि प्ि ् ्ावो्के सखिाि्सनकिने वािे जुिि ू ो्को आत्मीयता िे देखा करते थे. हािांसक उन सदनो्भी ठंडा मतिब कोकोकोिा हो चुका था और उदारीकृत सहंदि ु ्ान उपभोक्तावाद की वैस्शक दौड्मे्शासमि होने को मचि रहा था. इन िबके बीच मैन् े अर्ण कुमार िे आग्ह् सकया सक वे शरबतो्की परंपरा पर सिखे.् वे िहष्ातैयार हो गए और उन्हो्ने तरह-तरह के देिी शरबतो्पर पूरी कवर स्टोरी सिखी. उनके इि आिेख का खािा स्वागत हुआ. उनका एक देशज सववेक था सजिमे्मूितः राजस्थान की िंसक ् सृ त िमाई हुई थी, िेसकन वह अपने चसरत््मे्असखि भारतीय और सवश्ज ् नीन दोनो्थी. बाद के वष््ो् मे् उन्हो्ने ‘जनित््ा’ के िंसक ् सृ त मम्जा ् िंपादक ओम थानवी के कहने पर ‘जनित््ा’ मे् 'अन्न जि' के नाम िे एक सनयसमत कॉिम सिखा. वैिे तो सहंदी मे्इन सवषयो्पर सिखने वािे िोग हमेशा िे कम रहे और जो रहे, वे मूितः अंगज ्े ी मे्पाक किा के नाम पर जो सिखा जाता रहा, उिी को सहंदी मे् उतारते रहे. िेसकन अर्ण कुमार इि मायने मे् काफी सभन्न थे. ‘अन्न जि’ नाम ओम थानवी का सदया हुआ था जो अर्ण कुमार के िेखन के सहिाब िे बहुत िाथ्क ा था. अर्ण कुमार इि ि्भ्ं को सिफ्कभोजन या पाक किा के कौशि और तरीक़्ो्तक िीसमत नही् रखा, उिको उि बहुत िमृद्देशज परंपरा के पूरे आचार-व्यवहार िे जोड् सदया जो इन सदनो् िुपत् होती जा रही है. कई बार िगता रहा सक इिमे् खानपान कम है और खानपान का सवसध-व्यवहार ज्यादा है. वे अिग-अिग मौिमो्की बात करते, देिी महीनो्और पव्-ा त्योहारो्की बात करते, उि दौरान िुझाए गए व्यज ं नो् की बात करते, उनके िेहत िंबध ं ी िाभ और नुकिान की चच्ाा करते, उन बत्ना ो्का स्जक््करते सजनमे्उनको पकाया जाना होता और अंत मे्छोटी िी सवसध सकिी पकवान की सिख देत.े िेसकन यह िब इतना सवसशि््होता, परंपरासनबद््होकर भी इतना मौसिक िगता सक जल्द ही एक ि्भ्ं कार के र्प मे्उनकी पहचान नए सिरे िे पुखत् ा हो गई. यह दरअिि व्यज ं न या पाक कौशि का िेखन नही् था, एक पूरा िभ्यता सवमश्ा था सजिमे् एक ओसरएंटसिस्ट- पौव्ता य् वादी- मानि को आिानी िे पढ्ा जा िकता था. इिके बाद अर्ण कुमार पानी बाबा को िगातार सकताब सिखने के प्ि ् ्ाव समिते रहे. कई प्क ् ाशको्ने उनिे िंपक्किाधा जो इन ि्भ्ं ो्को िीधे छापने को तैयार थे. मगर सकिी िंपण ू ता् ा को- परफेकश ् न को- िाधने की अर्ण कुमार पानीबाबा की इच्छा और उच्छख ृं ि सवि््ार के उनके अभ्याि के बीच सकताब का एक बेहतर िंसक ् रण बनाने की उनकी योजना िगातार टिती रही. कई िेखो्को उन्हो्ने छोटा-बड्ा सकया िेसकन पूरी सकताब को अंसतम शक्ि नही्समिी. बीच मे्कोई समत््पांडसु िसप उठाकर िे गए और भूि गए. आसखरकार कई बरि सनकि जाने के बाद सकिी अन्य समत््की मदद िे वह सकताब नेशनि बुक ट्स् ट् िे प्क ् ासशत हो पाई. 32 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
जब अर्ण कुमार पानीबाबा 70 पार कर चुके थे, तब सकताब नाम की यह उपिब्लध उनके जीवन मे्आई. मेरे खयाि िे शायद यह उनकी पहिी पूरी सकताब थी. वे िमथ्ाथे, िंपक्कवािे थे, ित््ा केद् ्ो् के क़्रीब भी थे, िगातार िस््कय भी थे, िेसकन इिके बावजूद प्क ् ाशन मे्यह सविंब बताता है सक वे सकन्ही्िीसमत अथ््ो्मे्महत्व् ाकांक्ी नही्थे. वे एक तरह िे जीवन का रि िे रहे थे. सकताब सिखना उनके सिए इिी जीवन रि को िाधने का काम था- जब मन होता था करते थे, जब नही्होता तो टाि जाते. कभीकभी सिखते-सिखते कुछ नया सिखने की योजना बन जाती तो उि पर शुर् हो जाते. बहरहाि, जब सकताब आई तो सकताब के िाथ वे मेरे घर आए. पूसण ् मा ा जी िाथ थी्. वे ख़्श ु थे, चाहते थे कही्इिकी चच्ाा भी हो. मैन् े सकताब हाथ मे्सिया उनका एक फोटो खी्चा. फेिबुक पर एक बहुत िंस्कप्त सटप्पणी के िाथ ये तस्वीर िगाई. िोचता रहा सक इि सकताब पर कभी सवि््ार मे् सिखूगं ा. िेसकन जो िोचा हुआ होता है, वह पूरा कब होता है. मैन् े उिी सदन गपशप मे्कहा सक अब बाबा नया बाद मे्सिखे,् पहिे पुराने को िहेजे्और दूिरी सकताबो्का राि््ा बनाएं. इि बात पर हम िब िहमत थे. िेसकन यह शुरआ ् त बदस्क़स्मती िे ऐिे िमय आई, जब स्जदं गी और उम््उन पर कई तरह िे हमिे कर रही थी. वे िेहत िंबधं ी बीमासरयो्िे गुजर् रहे थे. दो बार सगर गए, और दोनो्बार कूलह् े की हि््ी टूट गई. दूिरी बार तो सबल्कि ु मरणांतक तकिीि्के िम्हे थे. उनके सिए करवट तक बदिना मुबश् कि था. दद्ना ाशक टैबिेट वे अपनी दूिरी बीमासरयो्की वजह िे िे नही्िकते थे. उन सदनो्उनकी कराह िुनना भी दहिा देने जैिा िगता था. सफर यह उि आदमी की कराह थी सजिे अपना दद्ाबयान करना कभी गवारा नही्हुआ. एक तरह िे यह दोहरी तकिीि्थी. उन्हो्ने अपने अनुभव िे कहा सक उन्हे्मास्फनक की ज्रर् त है. िेसकन इस््तफाक िे दद्ाप्ब् धं न का एक और तरीका सनकिा और एक पट््ी समिी जो उनको कुछ घंटे की राहत
अर्ण कुममर: पमंरपदरक भोजन की िममग््ी देती थी. िेसकन जीवट उनका तब भी अद्त् था. दद्ाकी उन घस्डयो्मे्मैन् े बहुत थोड्ा वक्त् उनके पाि बैठकर गुज्ारा. िेसकन जैिे ही दद्ाकी िहर बैठती, वे देश और िमाज की राजनीसत के बारे मे्चच्ाा छेड्देत.े कांगि ्े बीजेपी, मोदी-िोसनया, िािू-नीतीश, ममता-िेफट् - ये िब जैिे उनके सजस्म के मैदान पर चि रही जंग मे्उि रिद का काम करते सजनिे थोड्ा आराम समिा करता है. दरअिि यह बाबा के पूरे पसरवार के सिए बहुत बुरा वक्त् था. उिके ठीक पहिे पूसण ् मा ा जी एक िड्क हादिे की सशकार हो अपना पंजा तुड़्ा बैठी थी्. उिके पहिे बाबा भी एक हादिे िे उठ कर खड्ेहुए थे. िेसकन ये दूिरा हादिा तो हौिनाक था. ईमानदारी िे कहूं तो मुझे डर िगता था. िगता था सक दुबारा वे नही् उठ पाएंग.े िेसकन सफर उन्हो्ने मुझे गित िासबत सकया. वे अपने हौििे और जीवट िे उठ खड्ेहुए. 'शुकव् ार' नामक िाप्तासहक मे्अब उनका कॉिम चि रहा था. वे एक सदन हमारे घर टीवी देखने भी आए. ऐिा वे अक्िर करते थे. कई सदनो्, कई बार महीनो्के अंतराि पर एक सदन अचानक चिे आते, अख़्बार पिटते, बहि करते और टीवी देखते रहते. ऐिे मौक़्ो्पर ब्समता अचानक एक नए उत्िाह िे भर जाती. भोजनस््पय बाबा ना ना करते रहते, िेसकन बहुत थोड्ा िा ही िही, कुछ न कुछ उन्हे्खाना पड्ता. उनकी एक और सकताब तैयार हो चुकी थी- छप कर आ चुकी थी. 'भारत का जि धम्'ा नाम की यह सकताब उन्हो्ने भारत के बढ्ते जि िंकट के िंदभ्ा मे्सिखी थी और अपने पुराने सवश््ाि के िाथ यह दुहराया था सक जि िे हमारा एक आध्याब्तमक सरश्ता जब तक नही्बनेगा, हम पानी नही्बचा पाएंग.े उनका फोन आया था सक वे बटुक िे सकताब सभजवा रहे है.् उि सदन मै्दफ्त् र जाने की हड्बड्ी मे्था. मैन् े कहा सक मै्ख़्दु आकर िे जाता हू.ं बड्ी हड्बड्ी मे्उनके घर गया. उन्हो्ने मुझे अपनी सकताब दी और सिखा, 'इिकी िख्त् टीका करना.' दरअिि अर्ण कुमार पानीबाबा िे वह मेरी आस्ख़री मुिाकात थी. हम िबकी हड्बड्ाई स्जदं सगयो्की भागती-दौड्ती मुिाकातो्की तरह.
मैन् े कहा था सक पढ्कर आऊंगा और हम िोग इि पर बात करेग् .े वह बात नही्हो पाई और वह टीका स्थसगत है अभी तक. हम क़्रीब पंदह् िाि िाथ रहे. बहुत िारी घटनाओ् के िाक््ी और िाझेदार रहे. उनकी मां का देहांत हुआ तो उनको फूट-फूट कर रोते भी देखा. शुर्मे्ज्य् ादा, बाद मे्कम, और कुछ और बाद मे,् कुछ और कम, एकदूिरे के घर आते-जाते रहे. िेसकन एक-दूिरे के अपने होने का भरोिा हमेशा बना रहा. अर्ण जी कुछ मायनो्मे्ख़्श ु स्क़स्मत थे. उन्हे्कुछ बहुत अच्छे दोि््समिे थे. सवजय प्त् ाप का पसरवार इनमे्िव््ोपसर था. उनकी पत्नी पूसण ् मा ा जी सबल्कि ु िमप्ण ा के िाथ अर्ण कुमार पानीबाबा के पीछे-पीछे- बब्लक आगे-आगे चिती रही्. बाबा के जीते-जी उनके सबखरे, सछतराए जीवन को वे िमेटती रही्और अब उनके जाने के बाद उनका सिखा हुआ सबखरा हुआ एकत््और िंयोसजत कर रही है.् पूसण ् मा ा जी का िखाभाव अन्यत््दुिभा् है. वे बहुत िहजता िे हर सकिी की मदद के सिए खड्ी हो जाती है.् उिी असधकार िे हर सकिी िे मदद िे सिया करती है.् उनके िाथ िगता ही नही्सक वे कही्िे बाहरी है.् िोिाइटी की मसहिाओ्िे उनकी मैत्ी सबल्कि ु घरेिू ि्र् पर है. ब्समता के िाथ भी अिग िी आत्मीयता है. अपने एमजेएमिी कोि्ाके दौरान ब्समता ने अचानक जब एक िघु सफल्म बनाने की स्जम्मदे ारी िंभािी तो पूसण ् मा ा जी िे असभनय भी करा सिया. हािांसक िोिाइटी के और भी िोग इि सफल्म मे्शासमि थे, िेसकन पूसण ् मा ा जी ने अपने िहज स्वभाव िे जैिे सफल्म की ख़्ािी सजम्मदे ारी िंभाि िी. मै् इिका िाक््ी नही् था, िेसकन ब्समता इिको बार-बार याद करती है. अर्ण जी और पूसण ् मा ा जी कई मायनो्मे्अनूठे रहे. बाद के वष््ो्मे्शायद कुछ िाधनहीनता भी उन्हो्ने झेिी िेसकन उनके चेहरे पर हमने कभी सशकन नही्देखी. कुछ िाि पहिे अचानक उन्हो्ने सवषरसहत भोजन की एक श्ख ं िा हर रसववार को िोिाइटी मे्शुर्की. कुछ हफ्त् े ये सििसििा चिा था सक अर्ण कुमार बीमार हो गए और सफर िबकुछ छूटता गया. पूसण ् मा ा जी जब पहिी बार बटुक का ऐडसमशन कराने गई्तो उन्हो्ने स्कि ू वािो्के िामने शत्ारखी सक उनका बेटा जब तक नही्चाहेगा, तब तक पेस्िि का इि्म्े ाि नही् करेगा. वे मानती थी् सक जो काम उिे जीवन भर करना है, उिकी शुरआ ् त बचपन मे्थोप कर नही्होनी चासहए. अपने सवश््ािो्के मुतासबक उन्हो्ने बटुक को मौजूदा सशक््ा व्यवस्था के आम चिन िे दूर रखा. उिको अपनी तरह िे पढ्ने का मौक़्ा सदया. इि दुधषा् ा्प्य् ोगशीिता को िोिाइटी के बहुत िारे िोग िंदहे िे देखते और उन्हे्िगता सक अपने बेटे के िाथ ही यह प्य् ोग पसरवार को महंगा न पड्जाए, िेसकन आज बटुक िोिाइटी के दूिरे बच््ो्िे सकिी भी मायने मे्उन्नीि नही्है. वह खूब पढ्ता और बाते्करता हुआ नौजवान है सजिके भीतर सपता की अनुपब्सथसत मे्भी घर-पसरवार को िंभाि िकने का आत्मसवश््ाि है. अब जनित््ा एक उजाड्िोिाइटी का नाम नही्है. िड्क बन भी चुकी, टूट भी चुकी, सफर िे बनाने के पैिे जुटाए जा रहे है.् िोिाइटी मे्पावर बैक अप है, इंटरकॉम है,् करीब िौ पसरवार है.् गास्डयां इििे ज्य् ादा हो्गी. ज्य् ादातर घरो्मे्एअर कंडीशनर िगा हुआ है. 2001 मे्तो जैिे हम कल्पना ही नही्कर पाते थे सक यह िोिाइटी कभी बि पाएगी. िेसकन वह बिी हुई है और सहंदी पत्क ् ासरता की छोटी िी सबरादरी के भीतर इि ठिक के िाथ बिी हुई है सक यहां कई नए-पुराने िंपादक, िेखक और कसव रहते है.् कुछ खुरा्टा पत्क ् ार भी. िेसकन इतना कुछ होते हुए कुछ छूट गया है- टूट गया है. अब िोगो्िे मुिाकात हुए महीनो्बीत जाते है.् कुछ हम बदि गए है,् कुछ वक्त् बदि गया है. सफर विुधं रा-वैशािी और इंसदरापुरम के इिाके मे्इतने मॉि और मल्टीप्िके ि ् खुि गए है्सक िोगो्को वहां अपनी शामे्ज्य् ादा गुिज्ार िगती है.् यह नया ज्माना अर्ण कुमार के सिए नही्था. वे पुराने ढब के आदमी थे. िेसकन जब वे गए तो वे िारे पुराने िोग जुट.े पुराना िमय याद आया. याद आया सक हम सकि तरह एक उजाड्मे्बि रहे थे और कैिे एक भरीn पूरी बि््ी मे्अब उजड्रहे है.् शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 33
दीपावली ववशेष
िुपसरसचत कसव और कई िंगीतकारो् के जीवनीकार. प््मुख कृसतयां: ‘अयोध्या तथा अन्य कसवताएं’, ‘ड््ोढ्ी पर आिाप’, ‘िुर की बारादरी’, ‘सगसरजा’, ‘सवस्मय का बखान’. िंस्कृसत की पस््तका स्वर मुद्ा का िंपादन. िंपक्क: 9935191485 िीवनी यती्द्जमश््
पं
सडत रसवशंकर द््ारा िंगीतबद्् ‘अनुराधा’ (1960) का एक कण्सा ्पय गीत है- ‘कैिे सदन बीते कैिे बीती रसतयां, सपया जाने न’. मुझे गहरा सवश््ाि है सक इि गीत को िुनकर कोई भी रसिक और िंगीत प्म्े ी, अगर सिनेमा गीतो्िे थोड्ा दूरी भी बरतता रहा है, तो िहज ही उिके मोहपाश मे् बंधकर रह जायेगा. इिको िेकर कभी-कभी ऐिा एहिाि भी होता है सक वाद्् मंगश े कर ‘कैिी बीती रसतयां’ कहती है.् आमतौर पर ऐिी मान्यता है सक वाद््हमेशा गासयकी का अनुिरण करता है. इि गीत मे् एक िुदं र बात यह देखने को समिती है सक सकि तरह गासयकी, वाद््के प्भ् ाव मे्अपना स्वर्प सवकसित करती है. आप इि गीत को िुन,े् तो इि बात को महिूि सकये बगैर रह नही्पायेग् े सक इिका अंसतम र्प कही् पंसडत जी के सितार की मनोहारी छाया िेकर पसरदृश्य पर आया है. यह मेरा एक अनुमान ही था, सजिमे् शास््ीय गासयक शुभा मुदि ् की िहमसत भी मौजूद रही है. िता जी िे इि गीत की िंरचना को िेकर हुई बातचीत मे् यह बात स्पि्् भी हुई सक धुन बनाने के सिए पंसडत रसवशंकर ने इिे सितार पर बजाकर अवश्य ही देखा होगा. िता जी याद करती है् ‘मुझे ऐिा िगता है सक पंसडत जी ने इि सफल्म के हर गाने को सितार पर बनाया होगा, क्यो्सक सजि तरह गाने के स्वर सवकसित होते है,् उनमे् सितार अपने आप झिकती हुई सदखायी पड्ती है. खािकर, ‘जाने कैिे िपनो् मे् खो गयी 34 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
अंसखयां’ और ‘कैिे सदन बीते कैिे बीती रसतयां’ मे’् (सितार की स्वर-िंगसत के सिहाज िे गीत को गुनगुनाकर बताती है)् . मेरे सिये यह खुशी और आश््य्ासमस््शत खोज िे कम नही्, सक सकिी गीत को उिके बनने की प््स्कया के दौरान जो आज िे कई दशको् पहिे िंभव हो चुकी है, मै् कोई ऐिा िांगीसतक िूत् भी ढूढं पा रहा हू,ं जो सफल्म िे अिग एक बेजोड् िंगीतकार और अप््सतम गासयका के मध्य आपिी िहकार के कारण िंभव हुई हो. इि गीत को िेकर शुभा जी की यह स्थापना ध्यान िे पढ्ने िायक है- ‘कैिे सदन बीते कैिे बीती रसतयां’ मे्‘हाए’ अत्यन्त नाजुक व र्मान िे भरे हुए अंदाज मे् व्यक्त हुआ है, जबसक इि शल्द का प्य् ोग अब तक भय, दया और गहरे सवषाद की मनोदशाओ्मे्होता रहा है. जिप्प् ात की तरह अवरोहात्मक स्वरो्मे्सनबद्् गीत की इि पंब्कत को िता मंगेशकर सजि िहजता िे सबना सकिी असतसरक्त मेहनत के सनभा
के बोि कोई सिखता है, धुन कोई दूिरा तैयार करता है और उिे िजाने-िंवारने का काम कोई तीिरा व्यब्कत करता है. जासहर है, िमूह मे्सकये गये ऐिे प्य् ािो्के तहत अनेको्बार कई तरह के सदग्गज किाकार भी अपनी सवसशि्् अदायगी और तैयारी के िाथ उपब्सथत रहते है.् ‘अनुराधा’ के इि गीत के सिहाज िे यह बात मन मे्िहज ही उठती है सक ऐिे िैकड्ो् और भी गीत हो्ग,े सजन पर सकिी फनकार के तबिे की थाप, सकिी उत्िाद की मी्ड मुरसकयो् का सजक््और सकिी गीतकार के कुछ सवसशि््शल्दो्िे र्हानी प्म्े का मामिा भी शाया हुआ होगा. हो िकता है सितार और तबिे, िरोद और िारंगी िे अिग भी िंगीत के कुछ ऐिे अिग मुकाम रहे हो्, जहां सिफ्क एक गायक या गासयका ही जाने का जोसखम उठा पाते है.् एक ऐिे सतसिस्म को तोड् पाने की चाबी ढूंढ् िकने का मामिा, जहां रसवशंकर और सितार भी सतरोसहत हो गये हो्, केवि गासयका का कण्ठ और उिकी अपनी
िो नदियमं िुरो् की
पंदित रदवशंकर, लतम मंगेशकर और मुकेश: िंगीत की द््तयेणी
िे जाती है्, िुनना िुख िे भर देता है. गीत के अंसतम अंतरे मे्, जहां यह पंब्कत ‘बरखा न भाए, बदरा न िोहे’ आती है, सजि िुदं र ढंग िे असत-तार पर पहुंची है, उिे िता जी की बड्े दायरे मे् फैिी हुई आवाज के िंदभ्ामे्देखा जा िकता है.’ यह िव्ासवसदत है सक सफल्म िंगीत का सनम्ाण ा एक िामूसहक प्य् ाि होता है, सजिमे्गीत
यात््ा मुखर होकर उभर आयी हो. यह अकारण नही् है सक गाहे-ब-गाहे िता जी िासहर िुसधनायवी के सजि एक शेर को बार-बार कोट करती रहती है,् वह कुछ ऐिे ही खानकाहो्िे गुजरने के कारण उनकी असभव्यब्कत और तिव्वरु मे्जगह पा गया है. शेर कुछ यूं है-‘जो तार िे सनकिी है वो धुन िबने िुनी है/ जो िाज पे गुजरी है वो सकि सदि को पता है.’
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िता मंगश े कर और िुरयै के िंदभ्ामे्िबिे मनोहारी बात यह रही है सक जब िुरैया अपने कॅसरयर के सशखर पर थी्, िता जी की आमद उिी वक्त सहंदी सिनेमा की दुसनया मे्हुई. पचाि का िगभग उतरता हुआ दशक इि बात की गवाही देता है सक सकि तरह एक ही सफल्म के सिए दोनो् ही गासयकाएं अपने फन िे मौिीकी का जादू सबखेर रही थी्. सफर वह चाहे हुसन् िाि भगतराम के िंगीत वािी सफल्म हो या नौशाद के िुरीिे शाहकार िे सनकिी कोई अद्््भुत कृसत. कई सफल्मे्इि बात का िाजवाब उदाहरण है्सक कैिे िुरैया और िता मंगेशकर गासयकी का अपना अिग-अिग सशल्प रचते हुए उन सफल्मो् को िंगीत के सिहाज िे बेहतर बना रही थी्. जासहर है, ऐिी ज्यादातर सफल्मो्मे्वे दोनो्िाथ रही्, मगर अिग-अिग गीतो्की एकि आवाजो् के र्प मे् उन्हो्ने कुछ अभूतपूव्ा सिरजा है. समिाि के तौर पर हम ‘गजरे’ (असनि सवश््ाि, 1948), ‘नाच’ (हुस्निािभगतराम, 1949), ‘शायर’ (गुिाम मुहम्मद, 1949), ‘दो सितारे’ (असनि सवश््ाि, 1951) जैिी सफल्मो्को देख िकते है.् मगर मै्यहां सजि बात को कहना चाहता हू,ं वह इतनी िी है सक यह दोनो्गासयकाएं मुबश् कि िे सजन चार गीतो्मे्एक िाथ आयी है,् उनकी रचनात्मकता मे् िंगीतकारो् की बड्ी भूसमका नजर आती है. मै् इन चारो् ही गीतो् को िता मंगश े कर और िुरयै ा की जोड्ी के िुदं र नमूनो्मे् सगनता हू,ं सजिमे्यह पता िगा पाना सदिचस्प खेि होगा सक कौन िा गीत सकि गासयका के पिड्ेमे्भारी पड्ता है. दोनो्ही अनोखे ढंग िे िुरीिी गासयकाएं रही है.् दोनो्ही के पाि उि दौर के मेहनतकश िंगीतकारो् िे िीखी हुई व्यावहासरक तािीम िाथ मे्गुथं ी हुई है और दोनो् ही ने अपनी आवाज के पद््ेमे् खुद का िंगीत उकेरा है. अब यह हमेशा ही बहि और सवश्िषे ण के खाते मे्जायेगा सक हम इन चारो्गीतो्को दो अद्््भुत गासयकाओ् के िहकार के र्प मे् सवकसित होता हुआ सकि तरह देखते है.् जहां तक व्यब्कतगत पिंद की बात होगी, उिमे् मै् एक प््शंिक की सनगाह िे हुस्निाि भगतराम द््ारा रचे गये और कमर जिािाबादी जैिे शायर की किम िे जुबां पाये हुए ‘िनम’ (1951) सफल्म के गीत ‘बेदद्ा सशकारी, अरे बेदद्ा सशकारी, िुन बात हमारी, अरे बेदद्ा सशकारी’ को अिग िे रेखांसकत करना चाहूगं ा. यह गीत इि बात का भी बेहतर उदाहरण है सक सकतने िुंदर ढंग िे िता और िुरैया अपने – अपने सहस्िे मे्आये हुए गीत के टुकड्ो्को बेहद िुरीिे तौर पर आपिी मैत्ी के तहत गाकर अमर बनाती है.् यसद आपने यह गीत न िुना हो, तो उिे िुनकर तिल्िी करनी चासहए सक ‘बेदद्ा
मुिासफर, सकिे करता है इशारे’ (बािम-1949, हुसन् िाि भगतराम, कमर जिािाबादी), ‘ओ दूर देि िे आ जा रे’ (शोसखयां- 1951, जमाि िेन, केदार शम्ा)ा तथा ‘मेरे चांद मेरे िाि, तुम सजयो हजारो् िाि’ (दीवाना- 1952, नौशाद शकीि बदायूंनी) को भी हर िता मंगेशकर प्श ्ि ं क को िुनना चासहए. अिग िे अगर वह पुराने दौर के गीतो्मे्िुरयै ा को भी िुनता रहा है, तब उिके सिए इन गीतो्को िुनना कही्असधक अथ्ापूण्ा होगा. ऐिे मे् वह यह देख पायेगा सक किा मे्डूबी हुई हस््ियां सकि तरह अपना मेयार खड्ा करती है… ् और शायद यह भी सक िंगीत आसखरकार िंगीत ही रहता है, उिमे्कुछ अथ्ा और कुछ भावो्की गसरमा ढेरो्फनकार अपनेअपने कण्ठ के िुरीिे जि िे भरते रहते है.् ●●●
िंदन मे् जा बिे भारत के मशहूर सितार वादक महमूद समज्ाा िाहब िे बात हो रही थी. सशकारी’ मे् भावनाओ् और असभव्यब्कत की चच्ाा के दौरान बातचीत जब िता जी के िंगीत सकतनी िच््ी सनस्मसा त बन िकी है. गीत के बोि की ओर मुड्ी, तो उनका मानना था- ‘िता को भी सजि तरह कथानक के िाथ व्यक्त होते हुए िुनकर िोग पहिे-पहि शास््ीय िंगीत मे् भी अिग िे अपना गहरा अथ्ाभरा िंदश े रखते आये. उनके कारण यसद कोई गाना हमीर, बहार है्, वह कासबिेतारीफ है. मुझे यह देखकर या यमन राग क्या होता है?’ और उिके बाद ं ,े तो वही्के होकर रह आश्य् ा् होता है सक अभी िता जी को सफल्म जब उि््ादो्के पाि पहुच ् ती दौर मे्िोगो्की इंडस्ट्ी मे्आये हुए मुबश् कि िे तीन-चार िाि गये. उनके कारण ही शुरआ ही हुए है,् सफर भी वे िन 1951 तक आकर इतनी र्सच पैदा हुई शास््ीय िंगीत मे.् मेरा मतिब पसरपक्व और अदायगी मे् अपनी सवसशि्् छाप मध्यवग््ीय पसरवारो्मे,् जहां सिनेमा का िंगीत रखने वािी सदखने िगती है,् सजिकी थाह िे बहुत सिर चढ्कर बोिता था, वहां पर यह बात बन िकी. उनका यह बड्ा योगदान है.’ पाना बाद मे्कसठन िे दुषक ् र होता जाता है. इि तक्कके उजािे मे्बहुत िारी बातो्पर हािांसक इि िमय यह देखना भी जर्री है खु श नु मा ढंग िे रोशनी पड्ती हुई सदखायी देती सक बाकी की अन्य िमकािीन और पूव्ावत््ी है . सवशे ष तौर पर शास््ीय िंगीत का मध्य-वग्ा गासयकाओ्, सवशेषकर- अमीरबाई कन्ााटकी, िमाज पर प््भाव के अथ्ा मे्. एकबारगी समज्ाा जोहराबाई अंबािावािी, शमशाद बेगम और राजकुमारी की तरह िुरयै ा भी िता मंगश े कर की िाहब का यह व्यब्कतगत मत ही माना जाये, तो भी इि बात के पक््मे्यह दिीि वजनदार है सक गासयकी के फैिाव के चिते सिनेमा के पसरदृशय् िे धीरे-धीरे पीछे सखिकती जाती है्, बावजूद भारतीय सफल्म िंगीत, खािकर सहंदी सफल्म इिके, िुरयै ा के गिे का उजिा दौर अभी बहुत िंगीत का शास््ीय िंगीत िे दोि््ाना रहा है. तमाम िारे गुणी कुछ देने के सिए भी िोनोंगादिकाएं मुतंककल से दजन किावंतो्ने सफल्मो्के बचा रह जाता है. आप चार गीतोंमेंएक साथ आिी हैं, सिए िंगीत सदया है अगर िुरैया और िता और उिी तरह उि््ादो् मंगश े कर के दोगानो् की उनकी रचनायंमकता में ने गाहे-ब-गाहे गाया इि छोटी िी िूची िे संगीतकारोंकी बड़ंी भूदमका भी है. िता मंगेशकर होकर गुजरे,् तो इि बात नजर आती है . िे पहिे भी कुदं निाि िे िहमत हो्गे सक िहगि की आवाज ने िुरैया ने जो सशखर जन-मानि को शास् ी ् यता का स् व ाद चखा सदया अपने पूरे कॅसरयर मे्पचि के दशक के उत्र् ा्द ् ा् तक पा सिया था, वही्िे िता मंगश े कर अपने था, जब वे ‘तानिेन’ (1943), ‘देवदाि’ कॅसरयर की शुरआ ् त करती है-् जब वे मास्टर (1935 ) और ‘भक्त िूरदाि’ (1942) जैिी गुिाम हैदर, हुस्निाि भगतराम, असनि सफल्मो्के जसरये रागो्िे िजी हुई बंसदशे्गा रहे े कर सवश््ाि, िी. रामचन्द्और नौशाद के िाब्ननध्य थे. इिी िीक पर आगे चिकर िता मंगश की प्भ् ावमयी उपब्सथसत ने सफल्म िंगीतकारो्को मे्गाना शुर्करती है.् ‘बेदद्ासशकारी’ जैिे गीत की िुदं र बुनावट एक ऐिी आवाज िुिभ करा दी थी, जो तीन िे अिग बाकी के तीन गीतो्- ‘ओ परदेिी समनट के आिान िे िगते गीत मे्कोई सफरत या शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 35
दीपावली ववशेष
हरकत, िोच व ियकारी, तान िेने का काम आिानी िे कर डािती थी्. यह पहिी बार िंभव हो रहा था सक सकिी गासयका की गमकती हुई आवाज पहिे की तरह तीखे िगते िुरो्िे अिग सबल्कुि िुरीिे एवं शांत ढंग िे गाने क सिए प््ि्ुत थी. जासहर है, ऐिे मे् शास््ीयता की जानकारी और राग का दामन थामकर सफल्म िंगीत की दुसनया मे्थोड्ा असतसरक्त रंग भरने का कौशि िता मंगश े कर ने ही आरंभ सकया. असनि सवश््ाि की तो यह स्वीकारोब्कत ही रही है सक िता के आने के बाद िे उन्हे्यह िगने िगा था सक अब गीतो् मे् कुछ नया और िंगीत के सिहाज िे रोचक काम सकया जा िकता है. उन्ही् की तरह नौशाद, िी. रामचंद,् िज््ाद हुिनै , एि.डी बम्ना और मदन मोहन का भी िगभग यही मानना था सक िता मंगश े कर अगर सफल्म इंडस्ट्ी मे् न आयी होती्, तो कुछ बेहद जसटि और िीक िे हटकर गानो् को बनाने के बारे मे् वे िोग िोच ही नही् िकते थे. यही् िे वह नी्व पड्ती है, जब हम महमूद समज्ाा जैिे फनकार के तक्क िे िहमत होने िगते है.् यह एक हद तक ठीक ही िगता है सक सफल्मी गीतो् मे् मौजूद रागो् पर आधासरत धुनो् िे उपजी िोकस््पयता ही अिग िे इि बात के सिए सकिी िामान्य व्यब्कत को आकस्षात कर िकती है सक वह यह जानना चाहे सक अमुक राग मे् बाकी चीजे् कैिी हो्गी, यसद वह तीन समनट की अदायगी मे् इतनी िुंदर नजर आती है. शायद इिीसिए रागदारी िीखने की िामान्य मध्यवग््ीय पसरवारो् के िड्केिड्सकयो्की आमद की शत्ाभी शुरआ ् ती दौर मे् इन्ही्पा्श ् -ा् गायक-गासयकाओ्की वजह िे शुर् हुई होगी. िता मंगेशकर के िंदभ्ा मे् तो यह बात इिसिए भी सदिचस्प ढंग िे िही िगती है 36 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
िांगीसतक यात््ा मे् िैकड्ो् ऐिे गीत गाये है्, सजनमे् रागो् की स्वरावसियां अपने उच््तम ि्र् ो्पर जाकर आरोह-अवरोह के िुरीिे उतारचढ्ावो्मे्आम जन मे्स्वीकृत ही हुई है.् ऐिे मे्, िोगो् का सफल्म िंगीत िुनकर शास््ीय घरानो्की ओर देखना िुखद िगता है. एक ऐिे िीमांत की ओर देखना, जहां िे तीनचार समनट वािे िता मंगेशकर के बारे मे्, सवशेषकर िंगीत को िेकर एक खाि बात मुझे यह नजर आती है सक उनका जो िंगीत है, वह दूिरो्के सिए है. मेरा मतिब है सक उन्हो्ने जो भी गया है – वह दूिरो्के सिए गाया है, दूिरो् की आवाजो्के सिए गाया है, दूिरा बनकर गाया है. आप जब शास््ीय िंगीत की ओर देखते है,् तो वह स्वयं के सिए खुद को िंबोसधत और खुद की आवाज का गायन है. मििन चाहे एम.एि. िुल्बुिक््मी हो् या उि््ाद फैयाज खां, चाहे लतम, िुरैयम और दिलीप कुममर: स्वद्णाम िौर उि््ाद अमीर खां िाहब हो् या सक पंसडत क्यो्सक वह अकेिी ऐिी गासयका रही है,् सजन्हो्ने भीमिेन जोशी… िबका गायन स्वयं के सिए है. िंबे िमय तक ढेरो्िंगीतकारो्के िाथ अिग- इिी ि््र पर िता मंगेशकर का गायन अिग रागो्पर आधासरत धुनो्को गाकर अमर मधुबािा, मीनाकुमारी, नरसगि, नूतन, वहीदा ा ा टैगोर और दूिरी असभनेस्तयो्के बनाया है. याद करने के सिहाज िे बहुत िारे रहमान, शस्मि सिए है , जहां स् वयं का िंबोधन एक हद तक उि गीतो्पर ध्यान जाता है, जहां रागो्का काम बेहद िुघर ढंग िे शास््ीयता के आंगन मे् सिस््द पा असभनेस्तयो् के सकरदार और भावनाओ् के िका है. आप याद करे,् तो दज्ना ो् गीत तो अभी प्द् श्ना का िंबोधन बन जाता है. इि सिहाज ही स्मरण मे् कौ्धने िगे्गे, जो रागो् का शुद् िे दूिरो् का िंबोसधत और दूिरे की आवाज चेहरा प्द् स्शता करते है.् मै्अगर समज्ाा िाहब के बनकर भी िता मंगेशकर अिग िे अपनी तक्कके आिोक मे्ही िता मंगश े कर के िंगीत- िांगीसतक छसव उकेरने मे्िफि गासयका रही है.् जीवन के सबल्कुि आरंसभक वष््ो् के गीतो् का उनकी आवाज को सिनेमा िे अिग करते हुए उल्िेख करं्, तो ऐिे मं ‘चंदा रे जा रे जा रे’ ग््ामोफोन या रेसडयो पर िुनकर भी यह अंदाजा (सजद््ी – 1948, राग-छायानट), ‘गरजत िगाया जा िकता है सक प््िासरत हो रहा गीत बरित भीजत अइिो’ (मल्हार- 1951, राग- सकि असभनेत्ी के सकरदार के सिए रचा गया है. आप भिे ही वह सफल्म गौड् मल्हार), ‘बांध उनकी आराज को दसने म ा से न देखे हो्, मगर िता प््ीती फूि डोर’ ( मा ि ती - मा ध व अलग करते हुए भी िह अंिाजा मंगेशकर की आवाज 1951, रागलगािा जा सकता है दक पंंसादरत को उन गानो् के भीतर अंतरधारा की तरह जयजयवन्ती), ‘मरना हो रहा गीत दकस अदभनेतंी के बहते हुए पाकर भी यह तेरी गिी मे’् (शबाब – दकरिार के दलए रचा गिा है. देख िे्गे सक यह गीत 1954, राग-पहाड्ी), नरसगि को िंबोसधत है ‘हमारे सदि िे न जाना’ (उड्नखटोिा- 1955, राग-सबहाग), ‘िुनो या सफर वह मीनाकुमारी के सिए अस््ित्व मे् छोटी िे गुस्डया की िंबी कहानी’ आया है. िता मंगश े कर के सिए िबिे बड्ी चुनौती (उड्नखटोिा- 1955, राग-भैरवी), ‘सपया ते कहां गयो नेहरा िगाय’ (तूफान और दीया- भी यही रही होगी सक वे गाते हुए अपने स्वयं को ं जाये,् जहां 1956, राग-आिावरी), ‘जा रे बदरा बैरी जा’ सतरोसहत करके उि ऊंचाई पर पहुच (बहाना-1960, राग-यमन), ‘मोहे पनघट पे पर उि धुन की स्वर-िंगसत िे बनने वािा नन्दिाि छेड् गयो रे’ (मुगि-ए-आजम- चेहरा, उि गीत मे् अंत:िसिि होकर स्वयं 1960, राग-गारा) और ‘जाओ-जाओ नन्द के असभनेत्ी का चेहरा बन जाता है. और िता िािा’ (रंगोिी- 1962, बागेश्ी) जैिे कण्सा ्पय मंगेशकर का चेहरा मधुबािा, नरसगि, मीनाकुमारी िे होता हुआ हर दूिरी असभनेत्ी के गीतो्को देखा जा िकता है. n यह िूची धीरे-धीरे सवि्त्ृ ही होती है और चेहरे मे्दीप्त हो उठता है. (वाणी प्क ् ाशन िे शीघ््प्क ् ाश्य पुिक ् का राग आधासरत धुनो् के आधार पर देखने पर अचरज होता है सक िता जी ने अपने पूरी एक अंश.)
दीपावली ववशेष
हमारे पाि एक भाषा है सजिमे्मै्ने जीना िीखातुम िोचते हो इिसिए िगता है कही्न कही्तुम्हारे शल्द मेर इच्छाओ्को व्यक्त करते है्
कुंवर नारायण वसरष््तम कसव और सवचारक. ‘आत्मजयी’ िे ‘कुमारजीव’ तक कई पुि्के्प््कासशत. िासहत्य अकादेमी, भारतीय ज््ानपीठ पुरस्कार और पद््भूषण िे िम्मासनत. िंपक्क: 26272508
उतना ही असमाप्त
अगर मै्िचाई हूं तो कुछ भी खोया नही्. घूमते-सफरते सजन जगहो्मे्वाि सकया वहां यसद िौटूं तो अपने को कोई नयी पहचान दे िकता हूं पुनः आरंभ हो िकता हूं सकिी भी िंकल्प िे उतना ही िही, उतना ही प््ामासणक, उतना ही आसद जीवन जो नि््नही्होता नया होता चिता है क््म एक शब्कत जो न चाहती, न पछताती, न सजिके सिए केवि घटनाओ्और िंपक््ो्की अपेक्ा बीतते रहने की मजबूरी िोचता हूं सजि शून्य को वह भी आकांक्ी है उिी भौसतक अनुभव का सजिने मुक्त सकया था अकेिे स््ि्ा को अकेिेपन िे, और ढाि दी थी पृथ्वी पर अकूत जीवनरासश एक स्वतंत्वत्ामान और असनस््शत भसवष्य जो मै्हूं, और वह िब जो अभी हो िकता हूं, यसद अपने को टूटने न दूं अपने को सकिी तरह दूिरो्िे बांधे हुए एक िाहि - एक ढीठ उत्िव
हम समिते है् कभी युद्ो्की छाया मे् कभी शांत वनो्मे् खोजते हुए मैत्ी के उन िबिे िंवेदनशीि िूत्ो्को जो िही अथो्मे्वैस्शक हो् हम खडे है् एक सनध्ाासरत िमझौते की चमकती िंसध-रेखा पर जो तिवार की धार की तरह पैनी है
मलय
वसरष््कसव. प््मुख कृसतयां: ‘हथेसियो् का िमुद्’, ‘फैिती दरार मे्’, ‘शासमि होता हूं’, ‘सिखने का नक््त्’, ‘काि घूरता है’. भवानी प््िाद समश््पुरस्कार, भवभूसत अिंकरण.
जिते हुए िोग
सकतना रहस्यमय है तुम्हारा स्पश्ा सक इतना जीकर भी उतना ही प्यािा हूं, इतना पाकर भी उतना ही आकांक्ी, िब कुछ जान कर भी उतना ही अनसभज्् बार-बार चाह हुई चीजो्को भरपूर पाकर भी उतना ही अतृप्त, हर क््ण िमाप्त होते हुए भी उतना ही अिमाप्त.
बातो्की बरिाती आग मे् चट््ाने्सपघिकर बह िकती है् राख भी हो िकती है् हवाओ्की ऐिी बेहोशी मे् उड्ते हुए पंख भी मौत के पाि िे जा िकते है्
शब्द तक
जमीन पर बहती सपघिती फौिादी धार बहते गरम कीचड्की मां हो गयी है
व्यथ्ाहै बहुत दूर तक उिे िोचना जो आिमान मे्एक सबंदु भर जगह और पि भर िमय मे्िंसचत है
पानी नही्है बहती धार िल्फाज धुिी पीने को सववश है आदमी शरीर खांकड्हो गया है पानी नही्बचा है
मै्तब की बात कर रहा हूं जब तुम र्कोगे कुछ देर, अभी तुम बहुत उताविी मे्हो कही्और जाने की कुछ और पाने की कुछ-िे-कुछ और हो जाने की बात तब की है जब केवि मेरे शल्द हो्गे मेरी जगह तब उि सवकिता को िमझोगे जो िब कुछ - शल्द तक यही्छोड्जाने मे्होती है.
िुरस््कतो्को बोतिो्मे्सबकता है बि ज्यादा िोचने की जर्रत ही क्या है? n
सवकट जीवन मे् प्याि िे जिते हुए िोग आत्मा की ठंडी तिाश मे् इिी देश मे्रहते है् मौत इनके पाि आती है और छोड्देती है प्याि मे्डूबकर पिीना बहाकर मरते-जीते है्िोग.
हम समझ नही्पाते
इि प््दश्ानी मे् डरावने चेहरे छुपे है् 38 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
घर पर हूं पर हूं नही् िच मे्मै्नही्सदख रहा हूं और कही्छुपा नही् घर की सखड्की िे सफर बाहर सनकि कर पड्ोसियो्को आते-जाते देखता हूं वे इधर-उधर देख रहे जैिे मै्नही्सदख रहा देसखए- मै्ने उनिे आसखर कहा उन्हो्ने नही्देखा
बातूनी अंधकार मे् रंगो्की रेवस्डयां बांटी गयी है् यहां किा सचत््ो्का प््वेश ही सनसषद््है उभरने का अविर कैिे समिेगा!
जवनोद कुमार शुक्ल
अंधेरे मे् आकाश िे टूटते तारो्की तरह धरती मे्धंिकर गायब है किा यहां भी सियाित का प््चार प््भाव अंदर िे भय पैदा करता है
वसरष््कसव और उपन्यािकार. ‘िब कुछ होना बचा रहेगा’, ‘असतसरक्त नही्’, ‘नौकर की कमीज’ आसद. बच््ो्के सिए भी िेखन. कई पुरस्कारो्िे िम्मासनत. िंपक्क: 09425515382
एक
पार््ी नािा पार सकया सशवनाथ पार सकया बहुत कम उछि-कूद वािे बचपन को कुछ कसठनाई िे पार सकया गृहस्थी और प््ेम को थामे यहां तक सक कुि दूरी बची नही् पता नही्कौन िा एक िुख बचा रह गया है एक िुख का दुख और कोई दुख नही्.
ओ्ठ खुिे के खुिे रह जाते है् कूसचयां कांपती रहती है् अपनी राह बनाने की अनसदखी तड्प मे् इन िमारोहो्मे् टकिािी कागज के तािे चमकते है् िमय की आवाजे् स्वाथ्ाके गुंबज मे् गूंजती रहती है् िमझ नही्पाते िबूत को ठीक-ठीक हम िुन पाये्कैिे?
दो
िगता है मै्कुछ सदख नही्रहा शुर्आत घर िे हुई धीरे-धीरे इि तरह तक हुई सक मै्
यह बचपन की इच्छा गायब होने का जादू बुढ्ापे मे्समिा.
तीन
यह कैिा याद करना और सकतने अकेिे याद करना सकिी को नही्मािूम सजिे याद करता हूं उिे भी नही्.
चार
बादि मेरे घर आओ बाहर जि बरिाओ तुम मत भीगो मेरे घर बैठो पानी सपयो बहुत बरि कर खेतो्को भर दो इतना धान उगाओकोई भूखा न हो थोड्ी देर बि बैठो मेरा छाता िेकर सफर अपने घर जाओ तुम मत भीगो.
n
देसखए न कसवताएं भी सिंहािन पर फूि होकर बरिने िगी है् जन-जन की खुसशयां कंटीिे राि््ो्िे सघरी है् सववश है् रंगो्मे्खून और स्याही मे्खून और स्याही के बीच की फक्ककी खाई बढ्ती ही जाती है ऐिी प््दश्ानी मे् डरावने चेहरे छुपे खड्ेरहते है्
n शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 39
दीपावली ववशेष
रवी्द्वम्ाि
वसरष््उपन्यािकार और कसव. प्म् ख ु कृसतयां: ‘सकस्िा तोता सिफ्कतोता’, ‘मै् अपनी झांिी नही्दूगं ा’, ‘क््ासं तकक््ा की जन्म शताल्दी’, ‘घाि का पुि’. िंपक्:क 05222308103
कुत्े का चेहरा
परदे पर राजनेता का प््िन्न चेहरा यह कहता हुआ उभरा सक देश जीडीपी के पुछल्िे पर आगे बढ्रहा है, िड्ता जा रहा है, बढ्ता जा रहा है सफर परदे पर एक रोटी फैिी और रोटी पर िंवाददाता का चेहरा उिने रोटी चबाकर थूकी और बताया सक उिे सिफ्ककुत्ा खा िकता है अगिा दृश्य बुंदेिखंड के एक गांव मे् एक बच््ेका था जो वही घाि की रोटी हाथ मे्सिये खा रहा था मेरे देखते-देखते बच््ेका चेहरा कुत्े का चेहरा हो गया उिी के बगि मे्खड्ा िरकारी अफिर बता रहा था सक इि इिाके मे् इिी रोटी का सरवाज है.
आईना
कोई दोि््नही् सजिके िामने सदि की पोटिी खोिूं इिीसिए अक्िर बेचैन बाग मे् एक पेड्िे दूिरे पेड्तक घूमता हूं गोया कोई आईना हो.
मांस का टुकड्ा
जब अखिाक* के घर के िामने िंसदग्ध मांि का टुकड्ा समिा
40 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
तो मै्ने िहिा अपनी भीतर की जेब मे्रखा मांि का टुकड्ा टटोिा जो िंदेह के परे था जो हि््ी िे सघरा था जो मुझे एहिान जाफरी के घर के िामने समिा था जब मै्2003 की एक खािी दोपहर वीरान गुिबग्ािोिाइटी मे्अकेिा कुछ ढूंढ्रहा था मै्कब िे हैरान हूं सक मेरे भीतर रखा मांि का टुकड्ा अखिाक के घर के िामने कौन रख आया. * दादरी का अखिाक, सजिकी हत्या हुई
त्यौहार
मै्चसकत हूं सक मै्नही्रोया गोया कुछ खोया न हो सिवाय एक आवाज के जो मेरे भीतर गूंज रही है
जानी-मानी कसव और िमाजकम््ी. सवसभन्न पत्-् पस््तकाओ्और िोशि मीसडया मे्कसवताएं प्क ् ासशत. स््ी सवमश्ा पर केस््दत रंगकम्ािे गहरा जुड्ाव. िंपक्:क 9896310916
नया र्प-ववधान
हाहाकार करती आत्मा िे अच्छी मानी जाती है एक सववेकशीि शांत आत्मा पर सववेक पहुंचता है हर आत्मा तक एक अिग राि््ेिे
सपता उम््पूरी करके मरे जैिे कोई पका िेब पेड्िे जमीन पर सगरा हो और मै्ने उिे न्यूटन की तरह देखा हो
जैिे फूिो्के बीज पहुंचते है् पत्थर, पानी या समट््ी तक अपने ही तरीको्िे ये यात््ाएं आज भी रहस्य है् कोई आत्मा हाहाकार िे गुजरकर पहुंचती है एक सववेक तक
यूरेका, यूरेका मै्बोिा पूण्ामृत्यु ऐिा त्यौहार है जो एक ऋ तु को दूिरी ऋ तु िे जोड्ता है एक उच्छ्ाि की तरह त्यौहार पर रोना अपशकुन है.
जिती दुसनया के बीच एक शहतीर की तरह जिती चटख़्ती हुई
छायाएं
सगराती है अपना कोयिा जैिे चटख़्कर खुिती है बीज की फिी
िुबह-िुबह बाग मे्दूर मै्ने उिे आते देखा: वह मेरा युवा दोि््था वह इिी तरह अकड्िे चिता था मगर अगिे क््ण ही मै्ने जाना सक यह पचाि बरि पहिे का दृश्य था और अब मेरा दोि्् इि दुसनया मे्नही्था क्या यह उिकी छाया थी?
इिी कोयिे मे्है इिकी शांसत आग का एक नया र्प-सवधान.
िाडिी की तैयारी
चासचयो् मौसियो् नासनयो्को कसवता मे्िाने िे क्या होगा अगर वहां भी वे स््ी की तरह नही्पहचानी जाती्
मुझे कभी-कभी इिी तरह दूिरो्का धोखा होता है जैिे दूिरो्को मेरा गोया हम िब िमय के पार एक-दूिरे की छायाएं है् सफर यह हंगामा क्या है*. * गासिब की अनुगूंज
शुभा
n
असधक िे असधक वे एक पृष्भूसम मे्टंगे पद््ेकी तरह सदखाई पडती्है् सजिकी छाया मे्युवा स््ी की बजाय सदखाई पडती है एक िाडिी
क्यो्सक वह क़ायम रहा तो एक सदन िासिमा िब ओर छा िकती है जैिे सकिी विंत मे् पिाश के फूि
िाडिी का इतराना बताता है उिने नही्पहचाना स््ी को अभी हां उि बाजार िे उिकी पहचान अच्छी है जो स््ी के नये-नये ब््ांड पेश कर रहा है वह ख़्ुद एक ब््ांड बनने की तैयारी मे्है.
मेरा समय
कभी मै्थक जाती हूं उम््मेरी यो्तो ज्यादा नही् पर उिका सहिाब िगाने की कोसशश एकदम औ्धे मुंह सगरती है
पंकि चतुव्ेदी
जाने-माने कसव-आिोचक. कृसतयां: ‘एक िंपूण्ाता के सिए’, ‘एक ही चेहरा’, ‘सनराशा मे्िामथ्य्ा’. देवी शंकर अवस्थी पुरस्कार िे िम्मासनत. िंपक्क: 9425614005
अब मै्थकी हूं क्यो्सक मै्ने पचाि िाि पीछे का एक काम सनकािा देखा-िमझा और िात िौ िाि पहिे छूटा एक छोटा िा काम सकया सफर इधर आयी आज के िमय मे् और एक पच्ाा सिखा अभी फेरी वािो्की सहमायत मे्
आड
िंसवधान के प््सत सनष््ा की शपथ िेता है शािक इिसिए नही् सक वह उिे मान्य है बब्लक इिसिए सक उिकी आड मे् अवज््ा आिान है.
बोन डे्सिटी टेस्ट कराने के बाद अचानक मेरे िामने िे गुजरा ‘िाहब बीवी और गुिाम’ मे्देखा छोटी बहू का सपंजर
देखना
ित््ा अगर तुम्हारी िराहना करे तो देखना सक जनता िे तुम सकतनी दूर आ गये हो
एक सदन मै्सघर गयी पुरसखनो्िे उन्हो्ने न जाने सकतने-सकतने राज बताये अपनी सकतनी-सकतनी हस््ियो्के बारे मे् सकिी तरह उन्हे्धकेि कर उठी्हूं और अब सिख रही हूं एकि स््सयो्पर होने वािी सहंिा के बारे मे्
देश जनता ही है वह सकिी भू-भाग का नाम नही्.
वववशता
मुझे िमय नही्समि रहा ब््ेसकंग न्यूज िुनने का और िच कहूं तो मै्जाना चाहती हूं िल्जी मंडी
जब कभी िुनता हूं सकिी का उन्मादी स्वर : 'िंसवधान न होता तो हम िाखो्का सिर उतार िेते'
वहां नये आिू आ गये हो्गे समट््ी िसहत शिजम और मूसियो्के ढेर आंविे और हरी समच््ेहो्गी कई तरह की नी्बू खूब किे और दमकते
तब यही िमझता हूं सक िभ्यता उिका स्वभाव नही् सववशता है.
गम््ी की मार और बाढ के बाद आसख़्र िस्दायां आयी है् मंडी आबाद होगी पुकारे्मौजूद हो्गी
वे िमझते है् सक वे तुम्हे्समटा चुके
सपछिी िदी की एक दि््क़ को मै्अभी नजरअंदाज करती हूं.
अजीब
n
इिसिए उनका हमिा तुम्हारे वजूद पर नही् नजसरये पर है
वे तुम्हे्अपशल्द कहते है् क्यो्सक डरते है् तक्ककी तेजब्सवता ही नही् िौ्दय्ाकी िंभावना िे भी क््ुद्ता तुम्हे्अपनी तरह बना िेना चाहती है तासक तुम उििे उबरना न चाहो और सगरना ही उठना मािूम हो यह सकतना अजीब है सक सहंिा वही करता है जो दयनीय है सजिे िगता है सक ईश््र भी उिके राज्यासभषेक के सिए सनद््ोष िोगो्की हत्या कर िकता है जो अपनी आत्मा को नही्बचा पाया कर्णा के अभाव िे वह उत्पीडन के अस््िे देश को बचाना चाहता है.
अफ़सोस
ित््ा कल्पना करती है देश की सजिमे्उििे अिहमत िोग न रहते हो् देश को अििोि रहता है सक उिने सकन हाथो्मे् अपने को िौ्प सदया है.
हाय
बडे-बडे मुद्ो्िे शुर्सकया था तुमने चुनाव अध्याय अंत मे्बची रह गयी गाय हाय हाय !
भारतमाता
मां कहती है : कोई तुम्हारे िाथ बुरा करे तो भी तुम अच्छा ही करना वही मेरी भारतमाता है.
n
शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 41
दीपावली ववशेष
सफर सदखाई सदये कोस्ढयो्के पैर सजनके जूतो्के मुंह आगे िे खुिे रहते है् उनपर बंधी होती है्पस््टयां वे पैर घिीट कर चिते है् मां कहती है दूर रहो इनिे
अनीता वम्ाि जानी-मानी कसव. प््कासशत कृसतयां: ‘एक जन्म मे्िब’ और ‘रोशनी के राि््ेपर’. बनारिी दाि भोजपुरी िम्मान और केदार िम्मान िे िम्मासनत. िंपक्क: 9931511753
जूता
एक आदमी कॉफी शॉप मे्बैठा है दूर िे चमकते है्उिके जूते महंगी पॉसिश िे सचकने, खूबिूरत उिके हाथ मे्सिगरेट है और आंखो् पर कािा चश्मा आिपाि बैठे है्कुछ पुर्ष और मसहिाएं वे िभी हंि रहे है्, बातो्मे्मशगूि मुझे सिफ्कउिके जूते सदखाई देते है् चमकीिे कािे आईने की तरह कही्कोई धूि नही्, कोई ििवट नही् मानो शो केि िे सनकिकर िीधे िज गये हो्पैरो्मे् मुझे याद आते है्प््ेमचंद और उनके फटे जूते सजन्हे्पहनकर उन्हो्ने तस्वीर सखंचवायी थी जूते िे बाहर सनकिा हुआ था अंगूठा सजतनी गद्ाजूतो्पर थी उतनी ही चेहरे पर पर कही्कोई मिाि नही्था वहां जूते की जगह एक पूरा मनुष्य था
एक जूता स्कूि जाते हुए बच््ेका भी है समट््ी और कीचड्िे भरा हुआ बरिात के सदनो्मे्छुट्ी के बाद पानी िे भरे गड््ो्मे्छपाके मारता हंिता, सखिसखिाता जीसवत जूता सफर याद आयी एक कहानी एक राजा सजिके पांवो्मे्पत्थर चुभे उिने आदेश सदया सक पूरी जमीन चमड्ेिे ढंक दी जाये इि अिंभव आदेश का हि सनकािा सकिी बुस्दमान ने क्यो्नही्पैरो्को ही चमड्ेिे ढंक सदया जाये इि तरह बना एक आसदम जूता कुछ िोग चमड्ा सिये जा रहे है् जूते बनाने के सिए पता नही्वे इंिान है्या दसित कुछ शब्कतशािी हाथ उन्हे्पीट रहे है्बब्ारता िे पुसिि खामोश है और राजनीसत गम्ा क्या इिी चमड्ेिे बना होगा वह आसदम जूता सजिकी चमक पहनकर कॉफी शॉप मे्बैठा है एक आदमी?
भीतर भी एक िड्क है यह जहां र्की है्दरअिि वही्िे चि रही है दूर तक जाती हुई एक धुंधिा िा राि््ा जहां बहुत कम रोशनी है सकनारो्पर रहस्य जैिे पेड्खड्ेहै् राि््ेपर सदखते है्पानी और घाि कुछ सगरे हुए पीिे िफेद फूि झड्ते हुए िूखे पत््े सकिी प््ाचीन पैरो्के सनशान है्इि पर सजन पर हमे्बार-बार चिना होता है.
खोई हुई चीज्ंे
मेरा पानी कहां है कहां है मेरी हवा िूरज की वह सनब्ााध रोशनी चंद्मा की शीतिता कहां चिे गये है्सितारे बादिो्ने भी अपना घर बदि सिया है नसदयां िमा गयी है्समट््ी के भीतर बफ्कने सपघिना छोड्सदया है ये िब हमे्छोड्गये है् जैिे आत्मा ने छोड्सदया है शरीर.
एक सड्क धुंधिी-सी
एक िड्क बाहर है सजिके बारे मे्पता है वह कहां तक जायेगी कौन िी जगहे्हो्गी उिके आिपाि कहां बाजार होगा और कहां खेि उिके सकनारे कई बस््ियां है कई गांव और शहर उि पर चिकर िोग बड्ेशहरो्तक पहुंचते है् कई घर है्सजनमे्सहंदू, मुििमान या कई दूिरे धम््ो्के िोग रहते है् अपने जीवन मे्मशगूि अपने दाि-चावि पकाते हुए उनका िड्क िे चिने भर का नाता है कही्-कही्दूर तक सदखाई देते है्पेड् सजिकी छाया मे् कोई पैदि चिनेवािा मुिसफर थककर बैठा सदख जाता है अक्िर बासरश िे पहिे
42 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
िुधार दी जाती है िड्क सकनारे के पेड्भी छांट सदये जाते है् जगह-जगह िगा सदये जाते है् सबजिी के बल्ब कुछ िड्के्पुरानी है्पुराने मनुष्यो्की तरह गड््ो्िे भरी, ऊबड्-खाबड् जो गरीबो्के घरो्तक जाती है्
जकरण अग््वाल
िुपसरसचत कसव. प््मुख कृसतयां: ‘धूप मेरे भीतर’, ‘जो इन पन्नो्पर नही्है’, ‘गोि-गोि घूमती एक नाव’. िंपक्क: 9997380924
तस्वीर
िन्नाटे मे्पहाड खडे है् चीडो्ने धकेि सदया है पीछे बांझ और बुरांश को िन्नाटे मे्पहाड खडे है्
n
तो गिे मे्अंटके शल्द और नम आंखे्उठाकर िामने वािे को देखना भी दुसनया की िबिे ईमानदार आत्मािोचना बन जाती है.
सगर रही है्चीखे् दूर तक सवि््ीण्ाघासटयो्मे् सकिी आतंकी हमिे के बाद सछतराये अंग-प््त्यंगो्िी कुछ मृत प््सतध्वसनयां है् अभी-अभी अतीत हुए वत्ामान की कंदराओ्िे सनकिती हुई िडखडाकर कुछ सचह्न है्अवशेष आंखो्की कोर पर िूख चुके झरनो्के मै्जी नही्पा रही नही्जी पा रही मै्पहाड को, क्या करं् एकांत बह रहा है मेरे चारो्ओर वेगवती नदी िा और होश खोती जा रही हूं मै् नही्आया धारा के िाथ तैरना कभी कमरे की सखडकी के कांच मे् तस्वीर हो गयी हूं पहाड की.
इस दीवािी को
इि दीवािी को मै्नही्गयी मंसदर दीपदान करने एक अंसधयारे घर को बना सिया मै्ने मंसदर वहां चढाये खीि-बताशे, र्पये-पैिे, वस््ाभूषण वहां बारे दीपक मंसदर मे्कभी भगवान नजर नही्आये मुझे उि अंधेरे घर मे्मै्ने भगवान को देखा भगवान की आंखो्मे्आंिू थे उन्हो्ने भर-भर कर मुझे आशीव्ााद सदया इि दीवािी को मै्ने नही्छुडाये पटाखे नही्दी और असधक यातना इि िुंदर प््कृसत और जीवनदासयनी हवा को नही्की रोशनी अनार, सघरनी, फुिझसडयो्िे अंधेरे के बासशंदे कुछ बच््ो्को बैठाकर पढाया मै्ने दी्सकताब, कॉपी, पे्सििे्, समठाई और उन्हे्अंधेरे का पुि पार कराने का वादा सकया अपने आपिे इि दीवािी को मै्ने नही्िगायी् घर मे्रंगीन बल्बो्की िसडयां नही्जिायी्मोमबस््तयां सिफ्कबारा समट््ी का एक छोटा िा दीया सजिमे्िगी थी आस्था की बाती कम्ाके तेि मे्डूबी हुई और उि एक दीपक िे इतनी रोषनी फैिी सक एक िाइटहाउि बन गया मेरा घर. n
कवठन समय की ख्ुशी
कात्यायनी जानी-मानी कसव और राजनीसतकम््ी. प््मुख कृसतयां: ‘िात भाइयो्के बीच चंपा’, ‘इि पौर्षपूण्ािमय मे्’, ‘जादू नही्कसवता’, ‘फुटपाथ पर कुि्ी’. िंपक्क: 9936650658
ग्िवतयां
ग्िसतयो्ने मुझे कई बार ख़्तरो्और िंकटो्िे बचाया ग्िसतयो्ने मुझे एहिाि करना स्वीकारना और पश्चाताप करना सिखाया ग्िसतयो्ने हमेशा िही होने के आत्ममुग्ध भ््म िे बचाया ग्िसतयो्ने मुझे आंिुओ्का मोि बताया ग्िसतयो्ने मुझे पुरस्कृत और प््सतस््षत होने के महापाप िे बचाया ग्िसतयो्ने मुझे िुिंस्कृतो्के िभाभवन िे बाहर सफंकवाया ग्िसतयो्की क़्ीमत तभी पता चिती है जब हम जान जाये्सक वे ग्िसतयां है् ग्िसतयां हमे्िगातार मनुष्य बनाती है् और आम मनुष्यो्िे जोड्ेरहती है् ग्िसतयां हमे्िाधारणता की महत्ता िे पसरसचत कराती है् ग्िसतयो्का यसद गहरा एहिाि हो ह्दय को चीरता हुआ ची्थता हुआ,
इन सदनो्हम रोज्देशभब्कत मे्भीगते रहते है् पहिे यह मौका िाि मे् सििक्दो बार आता था दि्तर मे्रोज्बॉि की नज्रो्मे् चढ्ने की तरक़्ीब िोचते है् पड्ोिी िे जिने और उिे जिाने के कारण ढूंढ्ते रहते है् जवान होते बेटे पर शक़्करते रहते है् और बेटी पर नये-नये पहरे सबठाने की जुगत सभड्ाते रहते है् गुंडो्, िरकार और पुसिि िे डरते हुए हम शराि्त की सज्ंदगी बिर करते है् और चाहते है्सक कम िे कम कुछ िोग ऐिे हो्जो हमिे डरे् हड्ताि और िड्क-जाम और अशांसत और बात-बात मे्तक्ककरने वािो्िे हम घृणा करते है् दि्तर िे िौटकर पत्नी िे पकौसड्यां तिवाते है् और टीवी का सरमोट हाथ मे्िेकर देश-दुसनया की जानकारी िेते है् और हंिी-मज्ाक के प््ोग््ाम देखते है् यूं एक बेहद कसठन िमय मे्भी हम एक कत्ाव्यसनष्ठ नागसरक की तरह जीते है् और नागसरक खुशी को एक नया अथ्ादेते है्.
कववता मंे दरवाज्े
और सफर वह कसठन अंधकारमय िमय आ ही गया सजिकी कुछ िोग आशंका प््कट कर रहे थे और कुछ प््तीक््ा कर रहे थे तब बहुिंख्यक कसवताएं ऐिी थी् सजनमे्कोई दरवाज्ा नही्था और अगर था भी तो बंद थ कुछ कसवताएं थी्सजनमे्दरवाज्ेकी कामना थी, या स्मृसतयां कुछ कसवताएं कही्सकिी दरवाज्ेपर बैठकर सिखी जा रही थी् ढूंढ्ने पर, यहां-वहां कुछ ऐिी कसवताएं सफर भी समि ही जाती थी् जो दरवाज्ो्िे बाहर थी् िड्को्पर भटकती हुई् कुछ खोजती हुई शायद अपनी िाथ्ाकता, या बनने की कोसशश करते हुई् एक सवकि पुकार. n शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 43
दीपावली ववशेष क्या वो जान गयी है सक मै्भी िुध-बुध खोना चाहती हूं उिकी तरह.
जहां का धरो है
नीलेश रघुवंशी जानी-मानी कसव. प््मुख कृसतयां: ‘घरसनकािी’, ‘पानी का स्वाद’, ‘अंसतम पंब्कत मे्और एक कस्बे के नोट्ि’. भारतभूषण अग््वाि िम्मान. िंपक्क: 9826701393
बुरादे की वसगडी
मेरा हर सदन भारतीय रेि की जनरि बोगी िा तंगहाि है सिगडी मे्बुरादे की तरह ठुंिी हुई है्इच्छाएं जिती नही्है यह सिगडी रात होते-होते िी्मू जाता है इिका बुरादा गीिे बुरादे िे ठुंिी हुई सिगडी िा जीवन है मेरा चांद िे अबोिा है कई बरिो्िे जाने सकि बात पर पीठ फेर िी है उिने तारो्को टूटते देखा इतना सक मै्खुद बदि गयी एक टूटते तारे मे् क्या करं्सक सठठुरते जीवन मे्आ जाये थोडी िी आंच िुध-बुध खोनी होगी क्या उिकी तरह मनचिो्के हुजूम िे बेपरवाह झूम रही थी जो अफरा-तफरी िे भरे चौराहे पर सजिके अनगढ नृतय् िे िमूचे माहौि मे्खुशी छा रही थी मुझे देखकर हंिती है बहुत ज्यादा
बुआ हमे्पहचानती नही्थी हमे्क्या वो सकिी को नही्पहचान रही थी कई सदनो्िे बूढी जज्ार बुआ को ठंड िग गयी ‘कब तक भोगती, अच्छा हुआ जो उिकी िुधर गयी’ यह वाक्य चाय पीते जिाता है जीभ को बुआ बहुत गरम चाय पीती थी बुआ िे पांच िाि छोटे सपता पहिे चिे गये उिके बद्ााश्त के बाहर था यह ‘उम्दा चिो गओ, अब मै्भी आयी जात हूं जहां का धरो है....’ अंदाज िे िुपारी कतरते इि तरह कहती सक उिके अिावा कोई और िुन न पाये उडते हवाई जहाज को देख बुआ िे कहा था मै्ने ‘फुफू , बडे होकर मै्तुम्हे्इिमे्सबठाऊंगी तुम ऊपर आिमान िे हाथ सहिाना’ ‘और्ा, मै्बि िे हाथ नही्सनकाि पाऊं जा चीिगाडी मे्तो िर्ािे मेरे प््ाण सनकि जे्ये!’ मै्बडी भी हो गयी और हवाई जहाज मे् एक बार नही्कई बार बैठ भी गयी िेसकन बुआ को सबठाना भूि ही गयी उडते हवाई जहाज को देख क्या िोचती होगी बुआ मेरे बारे मे्? बुआ सपता िे बहुत प्यार करती थी सपता भी बुआ िे बहुत प्यार करते थे िे्सकन बुआ और सपता जैिा प्यार हम भाई-बहनो्के बीच नही्आ पाया.
साइवकि पर
िाइसकि चिाते हुए जमीन पर रहते हुए भी जमीन िे ऊपर उठी मै् अंधे मोड को काटा ऐिे सक राि््ा काटती सबल्िी भी र्क गयी दम िाधकर ढिान िे ऐिे उतरी िमूची दुसनया को छोड रही हूं जैिे पीछे चढाई पर ऐिे चढी सक पहाडो्को पारकर पहुंचना है िपनो्के टीिो्तक 44 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
िाइसकि चिाते ही जाना सकतनी जल्दी पीछे छूट जाता है शहर शहर को पार करते हुए जाना नदी न होती तो शहर की िांिे्जाने कब की उखड गयी्होती् पहिा पसहया न होता तो कुछ करने की जीतने की सजद न होती खडी हूं आज उिी िडक पर बगि मे्िाइसकि बढ्ाये पैदि चिते िोगो्को देख घबरा जाती है्अब िडके् राि््ा काटने िे पहिे दि बार िोचती है्सबब्लियां गाय और कुत्े भी पहिे की तरह नही्बैठते अब िडक के बीचो्-बीच देखा नही्आज तक िडक पर सकिी बंदर को घायि अवस्था मे् मृत्यु का आभाि होते ही पेड की खोह मे्चिे जाते है्वे क्या िाइसकि चिाते और पैदि चिते िोग भी चिे जाये्गे ऐिी ही सकिी खोह मे् रोप दी जायेगी क्या िाइसकि भी सकिी स्मृसत वन मे्. िाइसकि मे्जंग भी नही्िगी और राि््ेपथरीिे हुए सबना खत्म हो गये सफर भी भोर के िपने की तरह सदख ही जाती है िडक पर िाइसकि.
n
चंद्ेश्र िुपसरसचत कसव. प््मुख कृसतयां: ‘अब भी’, ‘जन नाट््आंदोिन’ और ‘इप्टा आंदोिन’. कसवता के अिावा रंगमंच मे्भी िस््कय. िंपक्क: 9236183787
गंदी बात
राजा अगर रोता है प््जा का दुख देखकर तो बात ये गंदी है राजा अगर हंिता है प््जा की सनरीहता पर तो
बात ये गंदी है राजा अगर पड्ा है सनकि दुसनया मे् नाम और पुरस्कार के चक््र मे् सबिखती प््जा को छोड्कर तो बात ये गंदी है राजा अगर उपदेशक है देता है बात-बात मे्उपदेश सकिी िंत की तरह सवपदा मे्पड्ी प््जा को तो बात ये गंदी है राजा अगर करता है मन की बात कपट-भाव िे िीधी-िरि प््जा िे तो बात ये गंदी है राजा अगर बदिता है सदन भर मे्दि पोशाक अकाि वेिा मे् भूखी प््जा के िामने तो बात ये गंदी है
वह कोई िंत या वीतरागी नही्है हर चीज मे्उिकी गहरी सदिचस्पी है इिसिए वह हर सकिी को अच्छा-अच्छा कहता रहता है उिके सहिाब िे हर व्यब्कत अच्छा होता है हर सवचार अच्छा होता है हर कसवता अच्छी
संिय कुंदन जानेमाने कसव, कथाकार और पत््कार. प््मुख कृसतयां: ‘कागज के प््देश मे्’, ‘चुप्पी का शोर’, ‘बॉि की पाट््ी’, ‘हीरािाि’, ‘टूटने के बाद’. िंपक्क: 9910257915
तानाशाह का नाटक
नसदयां िूखती जा रही थी् पर आंखो्मे्थोड्ा पानी अब भी बचा हुआ था इि बात को िमझता था तानाशाह इिसिए वह कभी-कभी भावुक हो जाता था वह अपनी मां के बारे मे्बात करते हुए आंिू पो्छने िगता या सपता का कोई प््िंग छेड्देता
राजा अगर धुनता है सिर िुनकर िमस्याएं प््जा की तो बात ये गंदी है राजा अगर बड्बड्ाता है ख़्ािी करता है वादे पर वादे प््जा िे तो बात ये गंदी है प््जा अगर िहती रहती है ऐिे राजा को एक िमय के बाद तो बात ये गंदी है कसवता पढ्कर या िुनकर आप भी बने रहे ख़्ामोश तो बात ये गंदी है!
िड्ाइयां ठंडी पड्ने िगी थी् पर एक कमजोर आदमी के रक्त मे् अब भी बची हुई थी थोड्ी आग इि बात को िमझता था तानाशाह इिसिए कभी-कभी वह अपने दैन्य की चच्ाा करता था और बताता था सक सकि तरह मेहनत-मजदूरी करके उिने अपना पेट पािा और अब भी मौजूद है् उिकी पीठ पर छािे
आिोचना का एक कोना
बचा ही रहता है एक अदद कोना आिोचना का िदा अपने बेहद क़्रीबी सरश्तो्के बीच भी होना इि कोने का गवाही है हमारी स्जंदासदिी की हज्ार बातो्के बाद भी रहती है बची थोड्ी -िी बात जो करती है पैदा उम्मीद अगिी मुिाक़्ात के सिए जैिे हम सिखते थे पहिे चाहे सजतनी भी सचस््टयां पर हर अगिी सचट््ी मे्रह जाता था यही एक अधूरा वाक्य सक शेष सफर कभी...!
उिके दरबारी िोगो्को यह बताने मे् जुट जाते थे सक हां, उन्हो्ने खुद अपनी आंख िे देखे है् हुजूर की पीठ के छािे.
अच्छा आदमी
वह आदमी अच्छा कैिे हो िकता है जो हर चीज को अच्छा कहता है
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आकाश भी अच्छा, पाताि भी अच्छा रोशनी भी अच्छी, अंधेरा भी अच्छा उिके भीतर एक ही धुन बजती रहती है अच्छा-अच्छा माफ करना
एक सदन तो उिने एक हत्यारे तक को अच्छा बता सदया कहा सक सनजी जीवन मे्वह बहुतो्िे ज्यादा िह्दय है िोचता हूं उि अच्छा-अच्छा बोिने वािे की पोि खोिकर रख दूं पर यह इतना आिान नही् वह इतना िोकस््पय है सक कुछ भी बोिूंगा उिके सखिाफ तो िोग कहे्गे एक अच्छे आदमी को खामखां परेशान सकया जा रहा है.
वसरविरे
अनुशािन-स््पय और आज््ाकारी िोगो्ने दुसनया को कुछ नही्सदया उनका सिर हमेशा तैयार रहा हर रंग की टोपी मे्िमाने के सिए वे करते रहे हर आदेश का पािन भब्कत मे्इतने िीन रहे सक यह भी नही्देखा सक कौन है उनका सनयंता वे न खुद बदिते है् न सकिी को बदिने देते है् सकिी िभ्यता का जमा पानी तो तब सहिता है जब आते है्कुछ सिरसफरे घर-पसरवार िे हकाि सदये गये सकिी भी दफ्तर मे्न अंट पाने वािे सशि््ाचार को पान की तरह चबाते हुए सजनिे नही्होगी मोहल्िे को कोई उम्मीद वही बने्गे िबिे बड्ी उम्मीद वही हमारी भाषा को भी बचाये्गे वही, जो कसव बनने के सिए नही् अपने दुख को सचढ्ाने के सिए कसवता सिखे्गे.
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शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 45
दीपावली ववशेष जमुना को िौपती है देखा टुटही झोपडी िे झांकती कर्णा मे्डूबी दो आंखे् कटोरा भर सपिान एक भूखे को देती औरत
केशव जतवारी िुपसरसचत कसव. प््मुख कृसतयां: ‘इि समट््ी िे बना’, ‘आिान नही्सवदा कहना’, ‘तो काहे का मै्’. िूत्िम्मान िे िम्मासनत.
स्वीकृवत
मै अपनी माटी िे कट रहा हूं ये कौन िी आरी है सजििे धीरे-धीरे रेते जा रहे है मेरी स्मृसतयो्के तंत् अब याद ही नही्अता कब िुना था महोख की स्मृसतयो्आवाज कि सटसटहरी देखा मै्ने बेचैन हो उठा और वो सबना बोिे ही उड गयी क्या मै स्मृसतयो्के सिए िड रहा हूं क्या िूखे ताि मे् तैरने का असभनय कर रहा हूं कि एक िहयात््ी पूछ पडा कोङरा ताि का नाम और मै्उिे देख शम्ाा गया सक मै्बुंदेिी और महोसबया हूं मै्अपनी आवाज अपनी महक िे कट रहा हूं ये पाथेय का सिकहर खािी क्यो्िटका है मेरे िामने ये खोरे मे्डूबी भोर एक दूर जाती पदचाप िुन रहा हूं
सकतनी बार िुना अिगोजे के िुरो्मे्डूबे उि नौजवान चरवाहे को
झंडा
उि सटटहरी को िुनता हूं जो एकांत मे्अपनी ही आवाज िुन-िुन दोहरा रही है
नक़्ाब नही्होता न ही मुखौटा न कोई पद्ाा न िास्जश दम घो्टने की
जब भी मन सकया जाने को बाहर इन िबने बांह पकड्कर कहा तुम अकेिे ही नही्थके हो इन दुखो्के बोझ िे हम थके भी है
एक झंडा फड्फड्ाता है मेरे कानो्मे् सफर िहराता हुआ सगरता है मुझ पर.
हम जैिे िहते है्िहो हमारी बात कहो पर कसव हमारे िाथ रहो.
आधार काड्ष
मै्आपका का कवव नही् जाने सकि ऋ तु के गरब मे् छुपा है वो फूि और सकि कंठ मे् सछपी है वो आवाज जो सठठकी है कही मेरे आिपाि
कवव हमारे साथ रहो
मै गया केन के िाथ-िाथ सचल्िा घाट तक जहां वह अपनी िमि््जिरासश
मुझे इन्ही उिर बांगर पठारो्मे् भटकना है यही खोया है मेरा कुछ जेठ के समग््ीसिरा का रीता बादि भादव मे्हसथया की िरन चाहता हूं मै आपका कसव नही्हूं ये कैिे िमझाऊ आपको.
46 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
युवा कसव, पत््कार और अनुवादक. िंचार माध्यमाे्पर कई पुि्के् प््कासशत. पहिा कसवता िंग्ह शीघ्् प््काश्य. िंपक्क: 9756121961
और आज तक न गुन पाया सक िुर उिकी िांि मे्है मे्है या सफर बांि मे्
मेरे ऊपर उि औरत का बोझ है जो जीवन भर रोती रही पर चुका नही्उिका दुख अब दुखते है मेरे कांधे मै इिे और नही्उठा िकता नही्उठा िकता आपकी प््शंिा सनंदा मह्त्वाकांक्ा का बोझ
मै गया सवंध्य के िाथ वहां तक गया जहां वह अपनी उचाई ितपुडा को िौ्पता है
जशव प््साद िोशी
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(एक) अपनी तब की चस्चात ब्सथरता मे् प््धानमंत्ी ने जब अमेसरका िे ज्ोर िे हाथ समिाया तो यक़्ीनन इिका कोई आधार था और इि दबाव मे्सनकिा आधार काड्ा इि भारत देश मे् पहचान का एक िाव्ाभौसमक उपाय असभयान के प््मुख ने इिे न जाने सकि भाषा मे् देश की तरक््ी के आधार िे जोड्ा प््धान िेवक पहुंचे तो उचककर बोिेः जय राष््वाद. (दो) आधार तो क्या था उि िंबी डगमगाती िाइन मे्िगने का गया मै्बदहवाि िपसरवार एक जज्ार हॉि के एक कोने मे् सछन्नसभन्न हाित मे्बैठे वे सदहाड्ी के युवा अपने िे भी बुरे हाि मे्रखे मेज पर उतने ही जज्ार कंप्यूटर के िामने सजनके स्क्ीन तक धुंधिा गये थे और छापे वािी मशीने् िारी की िारी अंगुसियो्के सनशान भरने िे
कतराती थी् सफर भी सरज्ल्ट सदखता था स्क्ीन पर ओके कुछ काग्ज्उड्ते थे मेज्पर एक कैमरा आपका चेहरा िेता था यूसनवि्ाि बायोमीस््टक्ि के इद्ासगद्ा धूि ही धूि और उखड्ा हुआ था ि्श्ा पर पे्टागन को इििे क्या. (तीन) वे युवा िड्के और िड्सकयां इंजीसनयर होते वैज्ासनक या सशक््क होते असधकारी हो िकते थे िेखक कसव होते बेशक विीम था उनका नाम कभी राजू कभी स््पयंका कभी माधुरी ये है सहंदुि्ान की नयी वक्कि्ोि्ा सनजी कंपसनयो्के सिए बेशुमार काम करती उनकी सदहाड्ी का िंबंध क्या वे जाने्गे एक बहुराष््ीय कॉरपोरेट सिस्टम के बड्ेमुनािे्िे है टूटी हुई िगातार इि तरह के तेवर सदखाती जैिे िरकारी काय्ाािय मे्काय्ारत आधार के ि्ायदे िमझाती बुज्ुग्ो्को डांटती थामती अपने युवाओ्के हुनर पर पिके्झपकाते्िाइन मे् आसखर तक िगे रहने की जद््ोजहद िे दीप्त रहते इि देश के बूढ्े. n
चाय बेचने वािो्की िरकार के सवर्द् गाये्चराने वािो्की िरकार के सवर्द् मुझे नही्चासहए बीपीएि काड्ा मुझे एक नागसरक का िम्मान चासहए यह कैिा अंधेरा है हम एक-दूिरे को देख नही्िकते सिि्कमहिूि कर िकते है् वे िोग भी अपने-अपने बीपीएि काड्ािे बाहर सनकिना चाहते है्
कृष्णमोहन झा सहंदी और मैसथिी के िुपसरसचत कसव. ‘एक िंपूण्ाता के सिए’ कसवता िंग्ह प््कासशत. अिम सवश््सवद््ािय, सििचर मे्अध्यापन. िंपक्क: 9435073896
गरीबो्की िरकार चाहती है हम बीपीएि काड्ाधारण सकये्रहे् िि््ेगेहूं के आटे पर अपना जीवन जीते रहे् िोचते रहे्हम गरीब है् हमारा उद््ार सकया जाना बाकी है.
रोटी और वतब्बत
(दिाई िामा के सिए) अपनी थािी मे् जब भी रोटी देखता हूं एक िुिगते प््श्न की तरह हठात मेरे िामने आकर खडा हो जाता है सतल्बत
अच्छा नही्िगता
मै्ने उिको आज कहा आपके पाि आना और सगडसगडाना अच्छा नही्िगता है आपको ख़ुदा और अन्नदाता कहना अच्छा नही्िगता है आप मुझे छुये्गे और मै्पत्थर िे इंिान बन जाऊंगा ऐिा िोचना अच्छा नही्िगता है
खाते हुए जब भी सतल्बत की याद आती है तो न जाने क्यो् मेरी थािी की रोसटयां सजबह सकये गये याक मे्बदि जाती है् पता नही् मेरी रोटी और सतल्बत के बीच यह कैिा सरश्ता है!
अच्छा नही्िगता है सक आप हंिे और कहे् आपका स्वागत है
मेरा डर
अपनी कसवताओ्मे्अब या तो चांद का सजक््करं्गा या तारो्का चांद और तारो्को अगर गिती िे सबठा भी सदया िाथ-िाथ तो उन्हे्कभी नही्िाऊंगा हरे रंग के पाि मुझे डर है चांद और तारे और हरे रंग का िंयोजन पहुंचा देगा मुझे देशद््ोह की िरहद तक सफिहाि तो मै्सजंदा रह िूं चाहे न हो मेरी कसवता मे्बरकत.
कभी मै्ने नही्चाहा मेरी उदािी मे् आप अपनी हंिी समिाये् मेरी गरीबी के बारे मे्िोचे् और अपनी िहासनभूसत सदखाये्
जमजिलेश श््ीवास््व
िुपसरसचत कसव. प््मुख कृसतयां: सकिी उम्मीद की तरह, पुतिे पर गुस्िा, कसव का कहा. िाक्किासहब्तयक पुरस्कार िे िम्मासनत. िंपक्क: 9868628602
अब हंसने का समय नही् अब हंिने का िमय नही्है एकजुट होने का िमय है इि मुंह सचढाने वािी गरीबो्की िरकार के सवर्द्
वैिे इि देश मे्कोई कही् िहानुभूसत नही्सदखाता आपके सबना जी िकता है तो जी िेता है आपकी हंिी के बगैर हंि िकता है तो हंि िेता है िेसकन मेरा यह िब कहना भी अच्छा नही्िग रहा होगा मै्नही्कहता यसद मुझे नी्द आ गयी होती तब तो मै् एक अच्छा िपना देख रहा होता.
आप भी तो शावमि नही्?
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आपके भी चेहरे पर नही्है शम्ा आपकी भी आंखो्मे्बेचैनी नही् आपके भी िहजे मे्िाचारी नही्कही् इन दंगो्मे्कही्आप भी तो शासमि नही्? n शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 47
दीपावली ववशेष तमाम तैनात तैयार तोपो्के िामने आजन्म वे जो तनी है्दुसनया की िात अरब औरतो्पर हर िमय
अनुराधा जसंह युवा कसव. सवसभन्न पत््-पस््तकाओ्और ल्िॉग मे्कसवताएं प््कासशत. मुंबई मे् प््बंधन कक््ाओ्मे्अध्यापन. िंपक्क: 9930096966
बुद्त्व
शल्द सिखे जाने िे अहम था मनुष्य बने रहना कसठन था क्यो्सक मुझे मेरे शल्दो्िे पहचाना जाए या मनुष्यत्व िे यह तय करने का असधकार तक नही्था मेरे पाि शल्द बहुत थे मेरे चटख चपि कुशि कोमि मनुष्यत्व मेरा र्खा-िूखा सवरि था उन्हो्ने वही चुना सजिका मुझे डर था सचर यौवन चुना मेरे शल्दो्का और चुनी वाक्पटुता वे उत्िव के िाथ थे मेरा मनुष्य अकेिा रह गया बुढाता िमय के िाथ पकता पाता वही बुद्त्व जो उनके सकिी काम का नही्.
दूरबीन/ख्ुद्षबीन
मुझिे बहुत दूर पूरब की ओर एक बािकनी मे्एक दूरबीन रखी है मै्जानती हूं सक मुझ पर नजर रखती है वह सदन-रात उिे क्या मािूम सक मै्भी उि पर नजर रखती हूं अक्िर कभी-कभी वह एक तोप िी तनी िगती है मेरी जासनब मुझे नही्पडता है फक्क ऐिी सकिी भी दूरबीन तोप या आंख िे अब सजिमे्मै् आकष्ाक अनाकष्ाक शािीन अशािीन होती ही रहती्हूं गाहे-बगाहे क्यो्सक हम तो चिी सफरी िोयी जागी ही है् 48 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
सफर एक रात जब चीजे्चमकती है्अंतर के दाह िे या चंद्मा के प््काश मे् मै्ने देखा उि तोप को तने हुए आिमान की छाती पर ओह! तो वह दूरबीन नही्खुद्ाबीन थी एक अदृश्य दुपट््ा िम्हाि सिया है मै्ने अभी-अभी अपनी भंगुर अब्समता पर घर के बेशम्ापद््ेखी्च कर ठो्क सदये है् पेशानी और सखडसकयो्पर क्यो्सक यह जो खुद्ाबीन है यह कुव्वत रखती है आिमान की हजार प््काश वष्ािंबी ओढनी चीर कर सितारो्को भेद देने की मै्तो सफर नाचीज हूं बि चार िौ मीटर दूर दुसनया की िात अरब औरतो्मे्िे बि एक.
जवजपन चौधरी युवा कसव. सवसभन्न ल्िॉगो्पर कसवताएं और सटप्पसणयां प््कासशत. एक कसवता िंग्ह शीघ््प््काश्य. िंपक्क: 9899865514
पहिा प््ेम
जाने सकतने दफा सकये गये प््ेम की यादे् पतझड के पत््ो्की तरह उिके भीतर झड चुकी थी् वह हर बार प््ेम करता भूिता नया प््ेम करता उिे भूिने मे्अपनी ऊज्ाा खच्ाकरता
बचा िो
मनोसचसकत्िक ने बतिाया ‘यह पहिे अिफि प््ेम िे उपजी खीझ है उकिाती है जो हर बार नये प््ेम की ओर’
मै्कहती हूं बचा िो यह प््ेम जो दुि्ाभ है इस्पात और कंक्ीट िे बनी इि दुसनया मे् तुम बचा िेते हो अहम का फौिाद दो कांच आंखो्मे्एक पत्थर िीने मे्
जानता नही्वह बेबि यादो्के पत््ो्को बुहारने की तरकीब बि जानता है हर बार नये प््ेम मे्खोना उिकी यादो्के झरते पत््ो्को एकटक देखना.
मै्कहती हूं बचा िो हमारे िाथ का अध्ाउन्मीसित सबंब कांपता मेरी आंखो्की बेिुध झीि मे् तुम बचा िेते हो दद्ाकी हद पर िर धुनता मेरा पोट््ेट
दुख की आंख
तब दुख के सिए मेरे पाि आंख नही्थी
चाहती हूं सक अपने मौन के नीचे सपिता वह नाजुक िोनजुही शल्द बचा िो जो महमहाता हो प््ेम तुम सिफ्कबचा पाते हो अनंत प््तीक््ा मेरे सिए दुसनया मे्जब बहुत िोग बहुत कुछ बचाने की कोसशश मे्है् मुझे िग रहा है तुम्हारी नीयत ही नही् इि िुप्तप््ाय प््ेम को बचाने की सजिे कर पा रही है पृथ्वी की एक दुि्ाभ प््जासत बि यदा-कदा.
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अक्िर दुख को मै् अपने रिायन शास््के सशक््क की आंख िे देखती ल्िैक बोड्ापर सिखते हुए र्क जाते थे जो और अपनी आखो्मे्दुख का जि सिये कहते 'हम सिफ्कअसवष्कारो्को पढाते हुए ही मर जाये्गे कोई असवष्कार फिीभूत नही्कर पाये्गे'
प््ेरणा प््िम जसंह
एक दुख चाची की आंख िे छिकता देखा जब कहती वो मेरे खूबिूरत हाथ राख िे बत्ान िफा करते ख़राब हो जाये्गे
युवा कसव और पत््कार. सवसभन्न ल्िॉगाे् पर कसवताएं प््कासशत. इन सदनो् सहंदुि्ान टाइम्ि के िंपादकीय सवभाग मे् काय्ारत. िंपक्क: 8010618065
इि घडी मेरे दुख के पाि भी दो आंखे्है् जो भीतर की तरफ खुिती है् जहां प््ेम ने खूब तबाही मचा रखी है भूकंप के बाद उजडे मंजर िी
शहर की िडकी
कई सदनो्के खािी कनि््र ई्ख िे िंबे वादे्मन- भीतर कुचिे पडे है् आज दुख की आंख का होना ही मेरे सिए िबिे बडा दुख है.
अवभसावरका
ढेरो्िाब्तवक अंिकारो्िंग हवा रोशनी ध्वसन िे भी तेज भागते मन को थामे िूरजमुखी िे सखिे फूि िी चिी स््पय-समिन-स्थि की ओर पूरे चांद की छांह तिे िांप सबच्छुओ्तूिान डाकू िुटेरो के भय को त्वसरत िांघ एक दुसनया िे दूिरी दुसनया मे्रंग भरती असभिासरका िोचती हुई, होगी धीरोसचत प््ेमी िे समि तन-मन की िारी गसतयां स्थसगत सनस्वाकार सचत मे्प््ेम शीशे मे्पड्े बाि िा प््ेमी को यथास्थान न पा िौटी जब उन्ही्पांव घर की देहरी पर तब तुम्हारी सनभ््ीकता को दाये्हाथ िे क्या सकिी ने थामा असभिासरका ? या तुमने भी अकेिे ही वरण सकया अपने हौििे का स्याह पसरणाम आज िी बोल्ड बािाओ्की तरह कहते हुए अनायाि ‘इट्ि माई िाइफ!’
शहर की वो अिमि््िडकी स्कूटी पर फर्ााटे मारती हुई यूसनवस्िाटी के आगे जब सनकिती है तो कोने मे्र्क कर पटेि चेस्ट के आगे बने नािे के पाि कुछ रोसटयां डाि देती है भूखे जानवरो्के सिए पहिा सनवािा खाने िे पहिे बुदबुदा देती है शुस्कया और िरस्वती पूजा के सदन चुपके िे सछपा देती है एक किम एक अधगढी मूस्ता के पैरो्तिे क्यो्सक शहर की वो िडकी अब भी याद करती है सक अम्मा िुबह िुबह के सनवािे बांटा करती थी् गाय और कौवे के सहस्िो्मे् और झाडू बुहारी के बाद सदया-बत््ी करती् अम्मा सिखाती थी् सक अंधेरा चाहे सजतना घना हो, दूर सकया जा िकता है इिसिए शहर की वो िडकी सदि मे्अम्मां को बिाये आज भी एक छोटा िा गांव सिये चिती है अपने चारो्ओर और उिी धूप िे सघरी हुई फर्ााटे मारती सनकि जाती है पीछे कुछ यादो्की सझस्रायां सबखेरती हुई और िोग कहते है् - इन शहर की िडसकयो्का कुछ नही्हो िकता.
आपातकाि n
यह अघोसषत आपातकाि है जहां िवाि मुद्ाा हो चुके और जवाब अनाथाियो्मे्सघिट रहे है्
बेवाओ्की तरह किपते सिद््ांतो्िे छीन िी गयी है्िाशे् जमीर और ईमान के चीथडो्िसहत यहां स्याही मे्जहर घोटा जा रहा है और िथेड दी जा रही है् अनसगनत सकताबे् सजनके आवरण पर इंद्धनुष और िुंदर सपल्िे बने हुए है् जहां िूई और तिवार का फक्कसमट गया है और इि््ेमाि करने वािो्के हाथ सरमोट कंट्ोिो्िे चि रहे है् धमाके नही्सकये जा रहे फैिाई जा रही है्भूसमगत िुरंगे् सजनमे्भरा जा रहा है बार्द आसहि््ा-आसहि््ा खदानो्मे्नौकसरयां देने वािे इंतजार कर रहे है् जमीन के धंिने का तासक मरते वक्त कामगारो्के चेहरे पर मुस्कान बनी रहे और बार्द का धुआं जमीन िे ऊपर उठने न पाये वे कर रहे है्इंतजार सक जब तक कोई कुरेद कर सनकाि पायेगा इन मुस्कुराती िाशो्को तो भी यही िोचेगा यह िभ्यता सकतनी खुशहाि रही होगी और कोई नही्ताड पायेगा सछपी हुई बार्दी िुरंगो्का षड््ंत् इिीसिए तो यह अघोसषत आपातकाि है!
पापा
उन्हो्ने पकडायी मुझे अपनी बीि िाि पुरानी टी शट्ा जब मै्छोड रही थी अपना शहर और जा रही थी सदल्िी के एक कॉिेज भीड का एक सहस्िा बन कर समि जाने को उन्हो्ने कहा था मुझे अनजान िोगो्िे बात न करने को और मुझे िुरस््कत रखने के सिए दी थी वो छोटी िी सनशानी सजिे मै्एक िुरक््ा कवच की तरह ओढ िकूं जब महिूि हो मुझे अकेिापन और डर इि तरह उन्हो्ने अपना थोडा िा सपतृत्व मुझ पर मि सदया था चंदन की धूि की तरह.
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शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016 49
दीपावली ववशेष
िजसंता केरकेट्ा आसदवािी िंवेदना की युवा कसव. एक कसवता िंग्ह अगोर सहंदी और जम्ान मे् प््कासशत. कई भाषाओ्मे्कसवताओ्का अनुवाद. आजीसवका के सिए पत््कासरता. िंपक्क: 7250960618
धुआंती िकडी
बासरश मे्खडी है धुआंती िकडी यानी उम्मीद है सक आग सफर िे धधकेगी यह िबक है उन पत्थरो्के सिए रगड िे सजनके पैदा हो िकती है आग मगर खडे है्जो एक दूिरे के सखिाफ इिसिए बासरश के बीच भी अडी है खडी है धुआंती िकडी पड जाती है उिपर िबकी नजर मच जाता है कोहराम कहां िे आयी वह धुआंती िकडी िगा देगी आग जंगि मे् बुझा दो इिे उि आदमी को पकडो जो इिके पीछे खडा है उिे िजा दो सजिने इिे देखकर भी अनदेखा सकया िभी गांव वािो्को िे िो शक के दायरे मे् अब धुंए िे ढंका जा रहा है जंगि, गांव, आदमी, आिमान गुम है धुआंती िकडी अब चारो्ओर है धुआं ही धुआं िग चुकी है आग झुिि रहे है् आग पैदा करने वािे मूक पत्थर भी.
कोई वदवस चावहए
िािेन चाहता है मै्एक बार उिके गांव आऊं मेरे आने की खबर िे आ जायेगी सबजिी, पानी, राि््ा मगर मै्क्या करं् वहां तक पहुंचने के सिए मुझे कोई सदवि चासहए 50 शुक्वार | 16 िे 31 अक्तूबर 2016
सबन बरिात तो िािेन भी रोपा नही्रोपता मुझे भी तैयार करने है्वहां अपने खेत जहां िग िकती हो मेरी रणनीसत फि िकती हो मेरी राजनीसत उग िकते हो्फिि िपनो्के मै्िगाऊंगा सवकाि के िपने िािेन के गांव मे् बि, मुझे कोई सदवि चासहए मै्आऊंगा चिकर देखने पहाड्पर बिा िािेन का गांव सदल्िी िे सदखती है थोड्ी धुंधिी उिके घर के सपछवाड्ेकी जमीन मै्िाफ कराऊंगा जंगि ये रोकती है मुझे उि तक िीधे पहुंचने िे हि और हसथयार िे मै् मुक्त करं्गा उिके हाथ तब उगाऊंगा उिके खेतो्मे् अपने कारखाने और अपने हसथयार मनाऊंगा उिकी मुब्कत और शहादत एक िाथ बि मुझे वो सदवि चासहए.
जंगि कहता है
जंगि का आदमी िीखता है पगडंसडया िे चिना पेडो्िे सवकसित होना बासरश िे नाचना और गीत खुखसडयो्की तरह उग आते है्खुद ब खुद जंगि कहता है वह िमुद्नही्हो िकता क्यो्सक िमुद्छीन िेता है
नसदयो्की पहचान जंगि ही सजंदा रखता है हर चीज उिकी पहचान के िाथ जंगि के आदमी को जंगि मे्मारना आिान नही् इिसिए बनाये जाते है्उिके सिए जंगि िे बाहर सनकिने के राि््े यह जानते हुए सक एक सदन पीछा करते हुए उन राि््ो्का समटने िगेगी पगडंसडयो्िी उनकी चाि बासरश की तरह उनके नाच पेडो्की तरह उनका सवकाि और खुखसडयो्की तरह उग आते उनके गीत.
कैसे करोगे खावरज
िाहेब ! ओढ्ेगये छद््सवषयो्की तुम कर िकते हो अिंकासरक व्याख्या पर क्या होगा एक सदन जब शहर आयी जंगि की िड्की सिख देगी अपनी कसवता मे्िारा िच, सजिे अपनी सकताबो्के आवरण के नीचे तुमने सछपाकर रखा है तुम्हारी सघनौनी भाषा मंच िे तुम्हारे उतरने के बाद इशारो्मे्जो बोिी जाती है तुम्हारी वे िच््ाइयां तुम्हे्िगता है जो िमय के िाथ बदि जाये्गी सकिी भ््म मे् िाहेब! एक सदन जंगि की कोई िड्की कर देगी तुम्हारी व्याख्याओ्को अपने िच िे नंगा सिख देगी अपनी कसवता मे् कैिे तुम्हारे जंगि के रखवािो्ने 'तिाशी' के नाम पर खी्चे उिके कपड्े कैिे दरवाजे तोड्कर घुि आती है तुम्हारी फौज उनके घरो्मे् कैिे बच््ेथामने िगते है् गुल्िी–डंडे की जगह बंदूके् और कैिे भर आता है उिके किेजे मे्बार्द िाहेब! एक सदन जंगि की हर िड्की सिखेगी कसवता क्या कहकर खासरज करोगे उन्हे्? क्या कहोगे िाहेब? यही सक यह कसवता नही्िमाचार है?
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