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सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है!- मीना चोपड़ा (कविता संकलन ) ( Adieu to the Dawn)
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49आनन्द मठ
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हाथों की िो छु अन और िरमाहटेंबन्द है मुट्ठी में अब तक
ज्योितमसय हो चल हैंहथेल में रक्िी रेिाएँ।
लािों जुिनू हिाओीं में भर िए हैं तक़द रें उड़ चल हैं आसमानों में
सहदसयों की कोसी धूप िछटक रह है दहल ज़ तक,
और तुम – कह ीं दूर – मेर रूह में अींककत
आकाश-रेिा पर चलते हु ए – एक बबींदु में ओझल होते चले िए।
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डू ब चुके होजहाँ िनयित –
सािर की बूँदों में तैरती है।
मेर मुट्ठी में बींधी रेिाएँ ज्योितमसय हो चुकी हैं। तुम्हार धूप
मुझमें आ रुकी है।
50 सुबह का सूरज अब मेरा नह ीं है।
ऊँ चाई
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नीले आकाश के बीच से लटकती रग्स्सयाँ
धरती की ओर ग्जनके छोर ऊँ चे हैं बहु त
छोट हैं बहु त
मेरे हाथों की लींबाइयाँ शायद —
उस छलाँि की ऊँ चाई
क्या होिी – ग्जसे लिाकर रग्स्सयों के छोर
हाथों में पकड़कर बहती हिा के झोंकों की उठती लहरों के साथ
लहरा पाऊँ िी मैं?
55 सुबह का सूरज अब मेरा नह ीं है।
तीिि
सौंधी हिा का झोंका मेरे आँचल में किसल कर आ गिरा। िक्त का एक मोहरा हो िया। और किर कफ़ज़ाओीं को चादर पर बैठा हिाओीं को चूमता आसमानों की सरहदों में कह ीं जा के थम िया। एहसास को एक नई िोज र्मल ियी। एक नया िजूद मेर देह से िुज़र िया।
आसग्क्त से अनासग्क्त तक की दौड़, भोि से अभोि तक की चाह, जीिन से मृत्यु तक की प्रिाह रेिा के बीच की दूररयों को तय करती हु ई मैं इस िोने और पाने की होड़ को अपने में विसग्जसत करती िई।
56 सुबह का सूरज अब मेरा नह ीं है।