Atalsparsh by Santlal Karun

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संस्करण : प्रथम, 2002 मल् ू य

© संतलाल प्रकाशक :

: रु. 112.00 करुण

नीलकमल प्रकाशन

अवतार कॉलोनी, ट्रोपो रोड

ननकट मेमौरा छावनी, पो. ऑ.- बन्थरा लखनऊ –227101

मद्र ु क :

काकोरी ऑफसेट प्रेस

डॉ. बी.एन. वमा​ा रोड, लखनऊ दरू भाष : 229616

ववतरक :

दद इण्डडयन बक ु डडपो

आददत्य भवन, प्रथम तल

पोस्ट ऑफफस के सामने

अमीनाबाद, लखनऊ -226018

दरू भाष – 230160 _______________________________________________

ATALSPARSH Pomes by Santlal Karun


समर्प ण हे र्रमसर्प क ! लो, तुम्हें अर्र्प त करता हूँ, तुम्हारा ही र्िया िर्प -िर्प ण, रूर्-अर्रूर् अर्ना-तुम्हारा वह सब, र्ो तुमने र्िया वह भी, र्ो तुमने नहीं र्िया मैंने स्वयं रचा, तुम्हारा अनभ ु त ू सत्य, तुम्हारे र्लए । -- ‘सवाप र्पण’ से



वक्तव्य : प्रथम संस्करण यह मेरा प्रथम कववता-संकलन है | इसके प्रकाशन के ललए मैं वषों से प्रयास करता रहा-- इलाहाबाद, वाराणसी तथा ददल्ली के प्रमुख ननजी

प्रकाशनों, नागरी प्रचाररणी सभा काशी, दहन्दी सादहत्य सम्मलेन प्रयाग, सादहत्य अकादमी नई ददल्ली, भारतीय ज्ञानपीठ नई ददल्ली, प्रकाशन ववभाग नई ददल्ली आदद को पत्र ललखा; पर फकसी ने ढं ग से हाथ नहीं बढ़ाया | प्रयास के क्रम में मैं ददल्ली गया और वहा​ाँ के कुछ प्रकाशन-गह ृ ों में जाकर सनम्र

अपनी

बात

कही,

पर

फकसी

ने

पाडडुललवप

दे खने

भर

की

औपचाररकता भी नहीं ननभाई | लखनऊ में भी प्रयास फकया, पर बात नहीं बनी | अन्ततः कृतसंकल्प होकर इसके प्रकाशन का प्रबन्ध मुझे स्वयं करना पड़ा | मैं प्रयास-पथ में आनेवाले सभी सरकारी-गैरसरकारी प्रकाशन-संस्थाओं के स्वालमयों या कता​ा-धता​ाओं को धन्यवाद दे ता हूाँ फक उनसे मुझे दहन्दी की

सादहण्त्यक पाडडुललवपयों के प्रकाशन की व्यावहाररकता का पता चला और मैं आगे बढ़ सका |

यदद बन्धज ु न श्री ववजय चक्रवती, श्री ववनोदकुमार लमश्र, डॉ.

प्रदीपकुमार श्रीवास्तव तथा श्री सोमन ने मुझे बार-बार उत्सादहत न फकया

होता तो यह कृनत इस वषा भी प्रकाश में न आ पाती | ऐसे सद्भावपूणा प्रेरणा

के ललए मैं चारों बन्धुओं के प्रनत आत्मीय आभार व्यक्त करता हूाँ | श्री उमेशचन्द्र पाल ने इसके ललए आवरण तैयार फकया था, पर उसे ज्यों-का-त्यों


ग्रहण न फकया जा सका, ण्जसके ललए खेदपव ा मैं उनका आभार मानता हूाँ | ू क ‘काकोरी ऑफसेट प्रेस’ के स्वामी श्री हस्मान नोमानी तथा प्रेस के समस्त कमाचाररयों के प्रनत हाददा क साधुवाद प्रकट करता हूाँ फक उन्होंने इस सज ृ न को सुन्दर कलेवर प्रदान फकया | हृदय से आभार प्रकट करता हूाँ ‘नीलकमल प्रकाशन’ के श्री बनवारीलाल श्रीवास्तव के प्रनत फक उन्होंने मेरे काव्यसज ृ न

को प्रकाशकीय मंच दे कर एक बड़ी बाधा दरू की | हृदय से कृतज्ञ हूाँ श्री सुशीलकुमार श्रीवास्तव के प्रनत फक ‘दद इण्डडयन बुक डडपो’ की ओर से प्रस्तुत ग्रंथ के ववतरण का सहयोग प्राप्त हुआ |

अंत में स्नेदहल आभार घर के आबाद चारों कोनों के प्रनत फक ण्जनकी यह रट लगी रही फक संग्रह शीघ्र-से-शीघ्र प्रकालशत हो | -- संतलाल करुण मेमौरा, लखनऊ १ जनवरी, २००२


दलशाका पूवा​ापर : आत्म से परात्म की ओर

9

सवा​ापण ा

17

कस लो कलाई, मेरे गा​ाँव !

19

मैं मील का पत्थर हूाँ

25

वह कौन-सी ननश्छलता है !

28

बहुत हुआ 31 पहचानो मैं कौन हूाँ !

34

काली नदी के उस पार

42

साबुत बदलाव के ललए

45

भीतर का ददन

51

खल ु ा अपहार

53


तप रही दोपहरी बीच 55 दस ू रा चेहरा

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नत्ृ यताल 67 रक्तदीप 69 पथवक्ष 72 ृ एललसी पैलस से लौटे राष्ट्ट्राध्यकयक्ष 75 यह क्या हो गया है ! 79 शंबक ू की खोपड़ी

82

बबक रही हैं लड़फकया​ाँ

90

जंगल के हर मुहाने पर 95 खण्डडत नीलपवात 100 संभव तण ृ रूप हररत, संभव

104

वे महान नहीं थे

106

तुम कहा​ाँ हो गीतात्मा ! 109


पव ू ा​ापर : आत्म से परात्म की ओर काव्यशास्त्र की समस्त अवधारणाएाँ समय की सामर्थया से पराभूत रही हैं | ववषय, ववषयी और प्रनतववषयी सब समय के आवेग में अपनी नततीषा​ा पूरी करते रहे हैं और उन सब के समानान्तर शास्त्रीय मानदडड भी अपना स्वरूप पररवनतात करता रहा है | फफर भी युग-युगीन शास्त्रीय ननष्ट्कषों के ववलभन्न अलभमत इस तर्थय पर अधधकतर एकजुट फकए जा सकते हैं फक संवेदनाओं से पुष्ट्ट भावोत्कषा का ववश्वोन्मुख अवतरण ही काव्य है | वह गहरी अनुभूनतयों की अत्यन्त सष्ट्ु ठु, सान्द्र तथा ध्यकवनन–सक्ष् ू म अलभव्यण्क्त है | सख ु -दःु ख की अनुभूनतयों पर सौन्दया की स्थापना उसका उद्देश्य है | संवेदनशीलता उसकी मुख्य प्रफक्रया है, जो आस्वादमय होती है तथा सौन्दया-बोध उसकी प्रफक्रया का अंनतम चरण है | कवव की संवेदना ही वाणी और अथा की सम्पक् ृ तता में व्यक्त होकर जब काव्य-रूप में पररणत होती है , तो प्रमाता का आस्वाद्य बन जाती है | यही कारण है फक कवव ण्जन संवेदनाओं को ण्जन रूपों में भोगता है , उनको ठीक उन्हीं रूपों में प्रमाता के धचत्त में उरे हकर उसकी इण्न्द्रयों में झंकृत करना चाहता है | इस प्रकार प्रमाता का आस्वाद्य उसकी पूवत ा ी प्रफक्रया में कवव द्वारा आस्वाददत होता है | अतलस्पशा

9


काव्य का वो आस्वाद इंदद्रयगोचर संवेदनाओं के रूप में उपभुक्त होता है , वह है भाव, वही है अनभ ु नू त, वही है रस, वही रसध्यकवनन है और वही रसाचायों के यहा​ाँ काव्य की आत्मा है | वस्तु वही है , वास्तववकता भी वही है , उसे ही कहीं ईश्वरीय सत्ता की अनक ु ृ नत, कहीं सावाभौलमक सत्य, कहीं सहजानभ ु नू त, तो कहीं जीवन की आलोचना कहा गया है | उसे ही कभी चेतन मन का अहं तो कभी अचेतन मन में दलमत वासनाओं का संचय बताया गया है | उसी के प्रवाह में कभी सामाण्जक चीत्कार और मानवीय एकता का समय आया है, तो कभी उसी की सम्प्रेषणीयता भोग-मद्र ु ाओं में सरकती हुई उपण्स्थत हुई है | उसे ही कभी औदात्य, तो कभी अलभजात्य के उच्च सौधासनों पर समादृत फकया गया है , तो उसे ही समय-समय पर स्फोट, अलभव्यंजना आदद आन्तररक पक्ष के आन्दोलनों में प्रभावकारी नेतत्ृ व करते दे खा गया है | काव्य में सूक्ष्मतः ननदहत वही ‘एकोऽहं बहु स्याम’-जैसी संवेददत चेतनता प्रमाता के ललए आस्वादनीय होती है | फकन्तु शरीर के बबना आत्मा रूप नहीं धारण करती | शरीर अनभ ु ूनत और आस्वाद में व्यक्तकारक योगदान दे ता है | वह अन्तननादहत संवेदनाओं के व्यक्तीकरण में आस्वादनीय

हो जाता है | भावोन्मेष के फलस्वरूप गनतशील

अंतव्यंजना कंठांचल तक आते-आते ण्जस शरीर को धारण करती है , उसे ही सादहत्य की साकारता में शब्द का अलभधान प्रदान फकया गया है | अलभव्यण्क्त वही है, रूप वही है, लशल्प और शैली भी वही है | उसके आकार-प्रकार, रं ग-ढं ग, गनत-लय आदद की स्पह ृ णीय स्थूलता अधधकतर कलापूणा होती है | अलंकार, रीनत, वक्रोण्क्त-जैसे कानयक लसद्ांत उसी के पोषक रहे हैं | अशरीरी लसद्ांतों ने भी उसे संबल ददया है | समस्त कालान्तररत काव्यधाराओं की भाषागत ववलशष्ट्टताएाँ उसी की ववकास-कडड़या​ाँ हैं | उसी में पररवेण्ष्ट्टत आत्मा सारे लौफकक नननाद करती है , उसे ही पाकर आस्वाद रूपवान होता है और उसी के माध्यकयम से सारा सौन्दया प्रभालसत होता है | 10

अतलस्पशा


इस प्रकार बदहजागत ् में अनेक शास्त्र-सम्मत पदधचह्नों का अनुसरण करते हुए मेरा काव्य-पधथक सारी पररक्रमा के उपरान्त थक-हारकर खाली हाथ जहा​ाँ पहुाँचता है, वहा​ाँ मेरे अंतलोक का प्रमाता-कवव पहले से ही कववतामग्न होता है | तब वहा​ाँ संस्पशा और एकात्मकता के गहन क्षणों में मुझ में यह अंतबोध उभरता है फक अन्तरं ग और बदहरं ग के पथ ृ क्करण में सौन्दया को ववदीणा करने की यात्रा गंतव्य तक नहीं ले जाती | तब मेरी दृण्ष्ट्ट से दोनों पक्षों के ववभाजक तत्व यकायक हट जाते हैं और कववता इतनी एकाकार ददखाई दे ती है फक उसे खडड-खडड दे खने–पाने का खण्डडत प्रयत्न शवोच्छे दन लगने लगता है | फफर अन्त में यह मान्यता मेरे मानस में घर कर जाती है फक जीवनसागर का अतल छूकर वहा​ाँ से परावनतात संवेदना जब पन ु ः कवव का अतल नापती शब्द-रूप में उदभत ू होती है , तो उसके दरस-परस से अतल-स्पशा तक के मौललक, मालमाक तथा ज्योनतत सौन्दया को उसकी पररपूणत ा ा के साथ हृदयंगम कर पाना सहृदय प्रमाता को ही आता है | सादहत्य को समाज का दपाण कहा गया है | परन्तु सादहत्य और समाज के परस्पर आमने-सामने, ऊपर-नीचे, नतयाक-अनतयाक होने फक ण्स्थनतयों, समाज के धरातल और उसकी पष्ट्ृ ठभूलम पर भी ध्यकयान दे ना आवश्यक है | यह भी दे खना आवश्यक है फक दपाण फकतना समतल या अवतल या उत्तल है और साथ ही यह भी फक वह फकन हाथों में है | नहीं तो ऐसा क्यों है फक प्राचीन काव्य ने राजप्रासाद और उससे जुड़ी घटनाओं को ही जीवन का पया​ाय मान ललया था | सादहत्य सहस्राण्ब्दयों तक लघु मानव को राजन्य वगा का ननलमत्त मानता रहा | तब क्या लघु मानव में वेदना का आभाव था ? तब दपाण की दृण्ष्ट्ट लघु मानव की ओर न्यूनतम और अननष्ट्टकर क्यों रही ? आखखर क्या कारण है फक नया कवव पुराने संवेदन-सूत्रों की ववश्वसनीयता पर ही संदेह व्यक्त करता है—

अतलस्पशा

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“लोहे का स्वाद लोहार से मत पछ ू ो उस घोड़े से पछ ू ो ण्जसके मुाँह में लगाम है |” (धूलमल, कल सन ु ना मुझ,े प.ृ 109) और फफर लगाम लगे घोड़े की वेदनाओं से कववता के अभूतपव ू ा प्रनतमान खड़े होने लगते हैं | सादहत्य की ददशा बदलने लगती है | परम्परागत समाज का लुका-नछपा कुत्स्य रूप सामने आने लगता है | फकतना आश्चया होता है जब आज भी यह कहा जाता है फक शंबक ू वध वणाधमा-उल्लंघन का न्यायोधचत राजदडड था; फक अंगुष्ट्ठ-दक्षक्षणा उधचत थी, क्योंफक एकलव्य ने ज्ञान की चोरी की थी; फक पूवा जन्म की पापात्माएाँ ही शोवषत-पीडड़त के रूप में जन्म पाती हैं ! तो क्या जो अंग्रेज शासक सददयों तक भारत का शोषण करते रहे , वे सब-के-सब पूवा जन्म की पड ु यात्माएाँ थे और उनके मागा में बाधा बनकर खड़े होनेवाले हमारे बललपंथी पव ू ा जन्म की पापात्माएाँ ? फकन्तु मझ ु े नहीं लगता फक अब इक्कीसवीं सदी में स्मनृ तयों, संदहताओं, पुराकथाओं आदद का हवाला दे ती ऐसी दमनकारी नीनतयों-तकानाओं का भववष्ट्य रह गया है | बण्ल्क इन सब को ध्यकवस्त करती शोषणवादी भोगेच्छा और दरु ाग्रह के ववरुद् चेतनामल ू क सादहत्य की सजानात्मक अब ददनोंददन और प्रबल होगी | अब कुचले-दबे मानव-जीवन की चेतना भी सादहत्य के पष्ट्ृ ठ से नए-नए संवेद्य बबंब उद्घादटत करने में सक्षम हो रही है | गुण और पररमाण दोनों दृण्ष्ट्टयों से कववता का ऐसा क्षेत्र तो और भी अधधक संभावनाओं के साथ खाडडव प्रदे श की नाईं नए हलधरों, नए भीमों और नए गाडडीवधाररयों की प्रतीक्षा कर रहा है | जहा​ाँ तक इक्कीसवीं सदी में कववता से समाज के लगाव का प्रश्न है तो उस पर पहले से ही भौनतकता और बाजारवाद का प्रहार हो रहा है , ण्जसके 12

अतलस्पशा


और अधधक तीव्र हो जाने की आशंका है | उसके समक्ष दो ववरोधी ववकल्प हैं-या तो वह अपनी ण्जजीववषा के साथ अपनी अण्स्मता भी बनाए रखे या बाजारवाद के अनुरूप ढलकर बबकाऊ मुद्रा धारण कर ले | पहले ववकल्प में ननवा​ासन का संकट है और दस ू रे में अण्स्मता और अण्स्तत्व का | सभ्यता और संस्कृनत पहले से ववलशष्ट्ट वगा के ववषय रहे हैं | अब फ़ैशन उसका वप्रय ववषय है | रस, अलंकार, वक्रता सब उसी से जुड़ गए हैं | रूप, आस्वाद, सौन्दया सब उसी के संग नाच रहे हैं | पेंदटंग में उभरते दःु ख-दै न्य का बाजार इसललए है फक ररसते घाव जन-जीवन से उठकर ववलशष्ट्ट वगा की दीवारों पर लटक सकते हैं | जन सामान्य का हषा-ववषाद कववता के ननवषद् क्षेत्र में प्रववष्ट्ट तो हुआ, फकन्तु बाजार उसके हाथ में कब और कहा​ाँ रहा ! ऐसे में बाजार के हत्थे चढ़ते जाना ननण्श्चत ही कववता के ललए घातक होगा | उसी के चलते महाकाव्यत्व उससे ववमुख हो चला है और क्षणवाद अपने पा​ाँव पसर रहा है | वैसे भी कववता का परागण प्रायः कवव के जीवन-काल में नहीं होता | इसललए इस आधधभौनतक युग में कंटकाकीणा होते हुए भी अण्स्मता और अण्स्तत्व का ननवा​ासन-मागा ही कववता के ललए श्रेयस्कर है | छं द और स्वच्छन्दता का अंतर ववगत सदी में दे खा जा चक ु ा है | दोनों की गनतववधधयों से यह भी स्पष्ट्ट हो चुका है फक यदद अनत-छं दोबद्ता कववता के ललए स्वणा-रजत की बोखझल श्रंख ृ ला बन जाती है तो अनतस्वच्छन्दता उसके पैरों को उच्छृंखल बना दे ती है | नवीनता सज ृ न का अपररहाया धमा है | संवेदना जीवन-सापेक्ष होती है और जीवन ननत नवीन होता है | इसललए संवेदना को आकार दे ते समय कववता में नवीन भाषा और नवीन लशल्प की अपेक्षा सदै व बनी रहती है | अनतवाद तो नहीं, फकन्तु सहजत: व्यापक और दरू गामी अथा-ध्यकवनन की शब्द-साधना सवाथा नवीन और कालजयी रचना को जन्म दे ती है | उपमान, प्रतीक, फ़ंतासी आदद की नवीनता ही नहीं, बण्ल्क इनके आगे की अजन्मा रं ग-रे खाएाँ और क्या-कुछ हो सकती हैं, यह भी उसी शब्द-साधना पर ननभार करता है | अतलस्पशा

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और अब बात ‘स्वान्त: सख ु ाय’ की, तो कोई कब तक स्वान्त: सख ु ाय सज ु ाय की धारणा अत्यन्त संकुधचत ृ नशील रह सकता है ! क्या स्वान्त: सख और अखखल सण्ृ ष्ट्ट के प्रनतकूल नहीं है ? क्या सहधमी प्रमाताओं की परख, उनकी गुणग्राह्यता और धचत्ताकषाण के प्रनत स्वत: पहल करती एक सहज, उपालंभननदहत, ववपरीताथाक ध्यकवनन भक्तकवव की आत्मव्यंजना में गुणीभूत नहीं है ? जब क्रौंच-वध से ववह्वल आददकवव के उच्​्वास से हठात ् जन्मी आददम कववता तथा उसकी परान्त: वेधी मालमाकता से ही यह लसद् हो गया था फक यदद कवव के दै दहक-आण्त्मक अण्स्तत्व में जकड़ी पीड़ा क्रांनतमुखी होकर अपनेपन का बंधन तोड़ती कववता बन जाती है , तो आत्म की पराकाष्ट्ठा पारकर परात्म के ववस्तार तक जा पहुाँचती है , तब क्या स्वान्त: सुखाय की बात वपंजरे से उड़े पंछी को अन्ततः ऊपर से छतनम ु ा जाल तने बाड़े में फाँसाए रखना नहीं है ! इसललए मेरे ववननश्चय को यह कतई स्वीकार नहीं है फक अपेक्षाकृत कई गुणा अधधक वेदनानुभूनत के ललए अलभशप्त कवव को आत्म-सुख के ललए वाणी का वरदान लमला होगा | शेष ‘अतलस्पशा’ के ववषय में मुझे कुछ नहीं कहना है | क्योंफक अतलस्पशा अब स्वछन्द लोकाकाश में पहुाँचकर उस वपंजरमुक्त पंछी के समान है , ण्जसके अब तक के ददन बंधन की यातना और मण्ु क्त की आकांक्षा में बीते हैं | इसललए आत्म से परात्म की ओर उड़े व्याकुल पंछी को अब फफर से ननजता के फल-फूल क्या ददखाना ! बस, उसके चतुथा पुरुषाथा के सम्बन्ध में इतना ही फक जब कोई अदम्य संधचत अनभ ु नू त बार-बार कवव के अन्तस्तल से उभरने के ललए जोर मारती है, तब उसकी सा​ाँसों से फकसी कववता का आववभा​ाव होता है | परन्तु उसका आववभा​ाव तभी साथाक होता है , जब वह प्रमाता की सा​ाँसों में द्रववत होकर उसके अन्तस्तल तक उतरने में सफल होती है | अतएव कवव के अत्लस्पशा की सारी गहराई प्रमाता के अन्तस्तल में ही मापी जानी

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चादहए | क्योंफक दस ू रा समीचीन अतल वही है और सारे पररच्छे द वहीं ववनष्ट्ट होते हैं — “परस्य न परस्येनत ममेनत न ममेनत च | तदास्वादे ववभावादे : पररच्छे दो

न ववद्यते ||”

(सादहत्यदपाण, 3/12) -- संतलाल करुण

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अतलस्पशा

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सवा​ापण ा हे परमेश्वर !

अपने समान तन-मन, बल-बवु द् ज्ञान-वववेक, दृण्ष्ट्ट-दशान

अपने समान हाथ-पा​ाँव, गण ु -धमा ध्यकवंस-ननमा​ाण का परु ु षाथा तम ु ने ही ददया । तम ु ने ही ददया

अपने जैसा हृदय, वेदना

वैसी ही भावना, अनभ ु नू त शब्द, वाणी, रोदन-हास्य श्रवण-कथन का माधय ु ा

वेद-परु ाण, गीता-गायत्री । तम ु ने ही तो ददया

कमाक्षेत्र अपनी तरह

बहुरूप कत्ता​ा-धता​ा बनाया कमाफल ददए मधुर-ववषाक्त आकषा-ववकषा ददया

सब कुछ भोगने के ललए ।

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तम ु ने सब कुछ तो ददया घर-आाँगन, लहर-पतवार स्वणा-रजत, फूल-का​ाँटे

लमलन-ववछोह, शैल-लसकता

दरू ागत आलोक-पथ की अंतहीन यात्रा जीवन-नाद का अपने-जैसा संधान । तम ु ने क्या-क्या नहीं ददया

सय ू -ा चन्द्र, नभ-नक्षत्र, अण्ग्न-जल ददवा-राबत्र, ऋतए ु ,ाँ वाय-ु प्रवाह अनमोल समय का सहचार सवोवारा रत्नगभा​ा धरती

अपना रचा-गढ़ा सारा संसार । हे परमसजाक !

लो, तम् ु हें अवपात करता हूाँ, तम् ु हारा ही ददया दपा-दपाण, रूप-अपरूप अपना-तम् ु हारा वह सब, जो तम ु ने ददया

वह भी, जो तम ु ने नहीं ददया

मैंने स्वयं रचा, तम् ु हारा अनभ ु त ू सत्य, तम् ु हारे ललए ।

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अतलस्पशा


कस लो कलाई, मेरे गा​ाँव ! कभी पा​ाँव धाँस,े टूट गए

खजरू के का​ाँटों-जैसे तीखे

कभी भरतू बा​ाँस की तेल पी हुई लाठी की मार-जैसे कठोर मगर मौके पर

कुएाँ की दब ू -जैसे नरम

मन के जल में झा​ाँकते मेरे गा​ाँव !

तम् ु हारी मदार के फूलों-जैसी ननरलभमान सोंधी लमट्टी-जैसी ॠतग ं ा ु ध

नीम की छाया-जैसी शीतल

बरगद की जटाओं-जैसी धरतीपकड़ बस्ती सरीखी डाल से

सेमल की रूई की तरह उखड़कर भख ू , प्यास, पैसे की

नई कसबबन हवाओं के साथ मैं उड़ा तो उड़ता ही रहा

पर तम ु बबसरे कहा​ाँ, मेरे गा​ाँव !

इस उड़ान में मैं फकतना बदला

पर तम ु भी कम नहीं बदले, मेरे गा​ाँव ! जैसे झील सख ू गई हो

और पानी की जगह पैसा अतलस्पशा

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और मछललयों की जगह भीड़

और कमलों की जगह धत ू ा मख ु ड़े भर ददए गए हों

नेता, अफ़सर, माफफ़या मछुआरों की भलू मका में हों मैं और तम ु एक-दस ू रे से दरू होते गए मेरे गा​ाँव !

तम् ु हारे वे सादगी भरे घर-मह ु ारे

लौकी-कुम्हड़े के फूलों से लदे छान-छप्पर काली-डीह के थान

जेठ-बैसाख के ददन

सावन-भादों की बरसातें रातें पस ू -माघ की

परु ु वा-पछुवा​ाँ के झोंके

मचान और पयाल पर सोने का नैसधगाक सख ु मकई की रोटी, बथए ु की दाल

राब का लसखरन, दहें ड़ी की खुरचन अलस सा​ाँझ पीठ पर फफरते

दादी मा​ाँ के सख ु द खरु दरे हाथ

मझ ु े याद है, मझ ु े याद है मेरे गा​ाँव !

मझ ु े याद है मेरे गा​ाँव !

लट्टू-भाँवरे की तरह नाचता नरकुल-अमोले की वपवपहरी की तरह बजता गल् ु ली-डंडे की तरह व्यस्त

लच्चीडा​ाँड़ी की तरह उल्ललसत 20

अतलस्पशा


फकन्तु हड़ा-हड़वाई की तरह

इधर से आया, उधर को गया तम् ु हारा धूसर-मटीला बचपन

जो दीवाली पर फुलझड़ी-सा हाँसता-हाँसाता

होली पर बा​ाँस की वपचकारी-सा छूटता-रं ग बरसाता तम् ु हारी अबोध अलभलाषाएाँ

आाँखलमचौनी-सी फकतनी ननश्छल, फकतनी सरल होतीं कुछ ददन के ललए

माटी के छोटे -से घर-घरौंदे में हाथी-घोड़े तक पालती-पोसतीं वे कभी गल ु ता-गल ु ेल

कभी गोली-धगट्टक, कौड़ी-कंजे की

अपनी दनु नया में बबना फकसी का दहस्सा हड़पे

न जाने फकतने सपने स्वप्नलोक से उतार लेतीं तम ु अपने नन्हें हाथों में कभी धनह ु ी-तीर

कभी बीन-बा​ाँसरु ी

तो कभी फफरकी के रूप में

आम के पत्ते का सद ु शान चक्र साधे

गद्गद भाव से ननष्ट्काम कैसे तन्मय रहते मझ ु े याद है, मझ ु े सब याद है I

मझ ु े अच्छी तरह याद है मेरे गा​ाँव ! दटकोरे का मौसम

ण्जसे तम ु नमक-लमचा के साथ गा​ाँठते अतलस्पशा

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महुआरी की मादक गंध जो दरू से ही मन तक भर जाती जामन ु , बेल, फ़ालसे से

ननहाल होती तम् ु हारी कच्ची उम्र आाँवले-करौंदे की खटास

ण्जनसे माँह ु कैसे बन-बन जाता माँह ु चढ़ी-मजेदार मकोय

ण्जसे तम ु इधर-उधर खोजते फफरते एक-एक पें हटुल्ले के ललए

तम् ु हारी छीना-झपटी, मारा मारी

डहकाती-लभ ु ाती नततललयों के पीछे मग्ु धमन दरू -दरू तक की धमा-चौकड़ी केंचआ दे ख जी लमचलाना ु राम की घोड़ी को छे ड़ना

ग्वाललन को गोल होने के ललए तंग करना मझ ु े याद है, मझ ु े अच्छी तरह याद है

मैं तम् ु हारी सा​ाँसों की कतरनों का पलु लंदा हूाँ I

मझ ु े खूब याद है

तम ु धान की जरई के संग कैसे जनम लेते

ज्वार-बाजरे के गाभे से कढ़ती कलाँ गी के साथ कैसे फकशोर होते

सा​ाँवा-काकुन की झम ू ती बाललयों बीच कैसे जवान हो जाते

लेफकन घाम-बतास, सा​ाँझ-सकारे 22

अतलस्पशा


हल से छूट कुदाल से ववश्राम करते तम ु असमय ही कैसे ढल जाते मझ ु े खूब याद है परू ी उमर एड़ी-चोटी एक करता पसीने-पसीने होता

पेट-अधपेट खेत-खललयानों में

अथ होता, अस्त होता तम् ु हारा कदठन जीवन

मैं तम् ु हारे ददा का जीता-जागता टुकड़ा हूाँ I

मेरे गा​ाँव ! मैं हाररल की लकरी की तरह अब भी तम् ु हें जी रहा हूाँ

तम ु जैसे सेठे की कलम से

दद् ु ी से पत ु ारे , घोटे -चमकाए लकड़ी की तख्ती पर

खडड़या से ललखे दधू धया अक्षरों के समान मेरे भीतर अंफकत हो

और मैं भोली नजरों से तम् ु हें पढ़ रहा हूाँ पर तम ु कहा​ाँ खो गए

और कहा​ाँ खो गया मैं

तम् ु हें फकसकी नजर लग गई

और मझ ु े फकन हरकतों ने पचा ललया मैं सेमल की रूई की तरह तम् ु हारा बीज ललये-ललये

कब तक उड़ता रहूाँ मेरे गा​ाँव ! शहरों के गमले सेमल का बोझ अतलस्पशा

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नहीं सह सकते

और न ही उनकी लमट्टी मझ ु े रास आएगी I

मेरे गा​ाँव ! मैं तम् ु हें जीना चाहता हूाँ इससे पहले फक तम् ु हारी ओर बढ़ती शहरों से ललपटी नागफनी

तम् ु हारे रहे -सहे अण्स्तत्व को बींध डाले मैं तम् ु हें सचमच ु जीना चाहता हूाँ भरपरू दधधका​ाँदो के समवेत स्वरों में हाथी, घोड़ा, पालकी

जै कन्है यालाल की सारी अनग ु ाँज ू जैसे मेरे कानों में घल ु रही है

मेरे भीतर गल ू र का एक फूल जैसे मख ु ररत हो रहा है

तम ु कस लो कलाई, मेरे गा​ाँव !

और मझ ु े मटकी-फोड़ घोवषत करो लौटा दो मेरा जीवन

मेरी धरती, मेरा आकाश, मेरा मक् ु त हास

मैं तम् ु हारे जीवन का भटका हुआ दहस्सा हूाँ I

24

अतलस्पशा


मैं मील का पत्थर हूाँ मैं मील का पत्थर हूाँ जमीन में आधा गड़ा

आधा ण्जन्दा, आधा मद ु ा​ा चल नहीं सकता

लसफ़ा दे ख सकता हूाँ राहगीरों को आते-जाते । मैं कैसे चलाँ ू

सड़क भटक जाए

मैं कैसे दौड़ूाँ चौराहा ददशाएाँ भल ू जाए

मेरी फकस्म्त में गनत कहा​ाँ ! मैं दर ननगोड़ा हूाँ बस एक जगह

ननराधश्रत ठूाँठे गड़े रहना मेरी ननयनत है । मील का पत्थर होना

मझ ु े बहुत भारी पड़ा लोग सरपट चलते चले गए चढ़ गए ऊाँची-ऊाँची मंण्जलें मेरे एक इशारे पर

अतलस्पशा

25


लेफकन ठहर गया समय जैसे मर गया मेरे ललए मेरे मद ु ा​ा गड़े पैरों में

मेरी कोई मंण्जल नहीं । मैं मील का पत्थर ऐसे नहीं बना

क्रूर बारूदों ने तोड़ा

अलग कर ददया मझ ु े मेरी हमजमीन से

बेरहम हथौड़े पड़े तन-मन पर माथे पर इबारत डाल

मझ ु े गाड़ ददया गया सरे -आम । मझ ु े हर मौसम ने पथराया ठं डी, गमी, बरसात सब ने ददल बैठ गया

ददमाग सन् ु न हो गया खून जम गया

मैं मील-मील होता गया सारे दख ु -ददा सहता रहा

मगर मेरे पथराए लसर पर फकसी ने हाथ न रखा ।

मैं मील का पत्थर हूाँ 26

अतलस्पशा


जहा​ाँ थूक भी दे ते हैं लोग-बाग मझ ु पर

जहा​ाँ उठा दे ते हैं टा​ाँग कुत्ते तक मेरे ऊपर वहीं मेरे इशारे पर

अपनी राह तय करती ननगाहें मझ ु े सलाम करती हैं ।

अतलस्पशा

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वह कौन-सी ननश्छलता है ! संसार में आम के पेड़ बहुत हैं तो बबल ू के भी कम नहीं या यों कहें

बबल ू के पेड़ बहुत हैं तो आम के भी हैं

ग्रह-नक्षत्रों से भरा आकाश पराया तो नहीं

पर फकतना अपना है

हाथ उठाने पर पता चलता है | पीड़ा जब सई ु बनकर हृदय में सालती है तो पलकें बोखझल हो जाती हैं

आाँखों पर स्याह पदा​ा छाने लगता है मन गहराने लगता है

हाथ-पा​ाँव बाँध-से जाते हैं

और ण्जन्दगी-जैसे कफ़न ओढ़कर लेट जाती है हठ करके न उठने के ललए | कौन होता है तब उस समय पास कोई तो नहीं

भरे -परू े संसार में सगे-से-सगा भी नहीं न अपना, न पराया, न धन-दौलत 28

अतलस्पशा


न घर-बार, न पद-प्रनतष्ट्ठा कोई नहीं, कुछ भी नहीं

तन-मन तक उस समय साथ छोड़े हुए होते हैं |

उस उचाट में इस लोक से

भागने की ववधचत्र इच्छा होती है पर ऐसा क्यों होता है यह पता नहीं होता

भख ू -प्यास कुछ नहीं लगती

रोना भी नहीं आता, न कुछ कह पाना बस बहुत गहरी नींद में सो जाने की अधूरी कोलशश होती है | मैंने आम के पेड़ से

एक परी उतरते दे खा

सा​ाँवले झा​ाँईदार चेहरे वाली परी घट ु ने तक अधोवस्त्र

हाथों में मंजरी ललये हुए वह कौन-सी ननश्छलता है

ण्जसे बाहों में भरकर मैं रोता हूाँ वह दे र तक सीने से लगी रही | फफर एक बबयाबान

एक रास्ता, एक पगडडडी अतलस्पशा

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ण्जस पर बैलगाड़ी के चक्कों की लकीरें हैं दरू -दरू इक्की-दक् ु की झोपडड़या​ाँ

बबल ू के तमाम का​ाँटेदार बड़े-बड़े झपके पेड़ नदी का ऊबड़-खाबड़ कछार जहा​ाँ हर साल बाढ़ आती है उसी में वह कहीं खो गई |

पहले तो मैं उसे इधर-उधर खोजता हूाँ आवाजें लगता हूाँ पर जब वह नहीं लमलती

तो बबल ू की टहननया​ाँ नोचने लगता हूाँ का​ाँटों को कोसने लगता हूाँ

बड़बड़ाने लगता हूाँ पागलों-जैसी हरकतें करने लगता हूाँ तभी बबल ू की कुछ टहननया​ाँ मेरी ओर बढ़ीं मझ ु े पकड़कर ऊपर हवा में उठा ललया आकाश की ऊाँचाई तक ले गईं ग्रह-नक्षत्र हाँसते रहे

फफर फटकारते हुए नीचे पटक ददया – मरना है तो मरो पर इस तरह चीखो-धचल्लाओ नहीं

तम् ु हें पता नहीं, तम् ु हारी इन हरकतों से वातावरण भंग होता है |

30

अतलस्पशा


बहुत हुआ मद्द ु ों की बात मत करो

बहुत हुआ | अब मत उछालो हवा में

मद्द ु ों के संखखया भरे हरे -हरे गोलगप्पे

हम इन्हें आाँख उठा-उठाकर दे खते रहे

माँह ु बाते रहे , दौड़ते रहे , खाते रहे , मरते रहे पर अब बहुत हुआ | तम् ु हारी लसयासत की दक ु ान पर बेइंतहा मजमे का लगे रहना

तम् ु हारे वोटों की मरु ादाबादी नतजोरी का भरते रहना

तम् ु हारे मद्द ु ों के शो-रूम का रह-रहकर दमकते रहना बहुत हुआ, बहुत हुआ, बहुत हुआ |

एक अरसा हुआ मद्द ु ों का चलन घावों पर मरहम-पट्टी का ददखावा बहुत हुआ | तम ु पीटते हो दढंढोरा दे श की अखडडता का

और घोंपते हो दे श के अंग-अंग में जहर-बझ ु े भाले तम ु करते हो मन ु ादी स्थायी सरकार की

और लंगड़ी मार-मारकर धगराते हो सरकारें तम ु डुगडुगी बजाते हो राममंददर की

और ठहाका मारते हो सोने की लंका में अतलस्पशा

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तम ु दहु ाई दे ते हो धमा-ननरपेक्षता की

और तोड़ते-तड़ ु वाते हो अम्बेडकर की मनू ता गांधी की समाधध

ननवास्त्र कर गा​ाँव भर में घम की औरत ु ाते हो बध ु आ ु ऊपर से पंडडताऊ हवाला दे ते हो वेद-परु ाण का तल ु सी-चाणक्य का

बरकरार रखना चाहते हो बाबरी लमजाज कदम-कदम पर धरम की आड़ में अहं का कृपाण चमकाना चाहते हो लोकसभा के बीचोबीच

तम ु धचल्लाते हो डंके की चोट पर दे श बचाओ ग़रीबी हटाओ /राष्ट्ट्रभाषा /समाजवाद साक्षरता /रोजगार /आरक्षण

मगर करते हो मछ ाँू ाबोर दे श-भक्षण

अब मत गमा​ाओ मद्द ु ों का बाजार

ओ मद्द ु ेबाजो ! ओ आदमखोरो !

बहुत हुआ, बहुत हुआ, बहुत हुआ |

लोकतन्त्र के झडडाबरदार बबजक ू ो,

अब बहुत हुआ | तम ु कब तक भेड़-खाल में नछपकर पैदा होते रहोगे क्या तम् ु हारी ठग-ववद्या हमेशा कामयाब रहे गी अब हम मह ु र मारकर ननठल्ले बैठनेवाले नहीं

अब सरे बाजार तम् ु हारी दोग़ली खाल उतारी जाएगी अब तम् ु हारी ददण्ग्वजय का काला घोड़ा गाहे-बेगाहे हर चौराहे पर रोका जाएगा

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अतलस्पशा


अब केवल तम् ु हारी पगड़ी का अब केवल तम् ु हारी टोपी का अब केवल तम् ु हारी दाढ़ी का

अब केवल तम् ु हारे क्लीन फ़ेस का

जाद ू चलनेवाला नहीं

बहुत हुआ, बहुत हुआ, बहुत हुआ |

अतलस्पशा

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पहचानो मैं कौन हूाँ ! कभी जाड़े की धूप

कभी बरसाती घाम

कभी दप ु हररया गमी की होती हूाँ रहती हूाँ वैसे पस ू ी चा​ाँदनी के भेष में |

आाँचल में दध ू नहीं डडब्बे का दध ू है

आाँखों में पानी नहीं पस ू ी बरसात है

ण्स्मत में सब ु ह नहीं जहर छहर जाता है

हाथों में कोंपल नहीं शल ू ों की चुभन है वक्ष के घरौंदे में

फूल नहीं, कली नहीं, मौसम नहीं फकसी मरू त की गढ़न नहीं पत्थर-ही-पत्थर है | पा​ाँव तले रहते

चौराहों के पा​ाँवड़े रहती हूाँ नए 34

अतलस्पशा


कन्हइयों के गा​ाँव रे बवु द्-गोरू-सी

नंगेपन में आसण्क्त है रुपहली-जगमगी

दनु नया से भण्क्त है | पैरों में रुनझन ु नहीं

में हदी की ववहाँस नहीं फफर भी तो बहुत-से पीछे लगे रहते हैं घघ ूाँ ट-आली नहीं हूाँ नक़ाबवाली नहीं हूाँ

क्रीम से, पाउडर से, सेंट से कजरारी धार से

ललवपण्स्टक की गाढ़ से अलभनव संस्कार से

छाती के दाग़ नछपा लेती हूाँ

चेहरे पर रं ग चढ़ा लेती हूाँ | कठमस्त आाँखों से चा​ाँद नहीं ददखता

अमावस के तारे ही चन ु ती-बदलती हूाँ वैसे तो अधरों का

डडनर बहुत भाता है अतलस्पशा

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फफर भी कोई स्वाद नहीं दटकता

नाचते हैं उं गललयों पर बहुतेरे लीलाकलम इकहरे सग ु न्ध से मन नहीं भरता कोई ददल तक नहीं उतरता |

बच्चों की झंझट की होती कम चाह मझ ु े रं ग उतर जाता है

साख बबगड़ जाती है होते जो मझ ु े नहीं

आया को रोते-ननहारते हैं

मेरे हसबैंड रात एक बजे

झूमते-झामते घर पहुाँचते हैं उनके मख ु ड़े पर

काजल के सब चीन्हे लाली के सब धब्बे

दे खती हूाँ अच्छी तरह पछ ू ती नहीं | लशव के इकार में लसंदरू ी भार में 36

अतलस्पशा


फकतना कुछ बची हूाँ फकतना चक ु गई हूाँ

इसका एहसास यही— कोकीनी राहों में

गता-गता हो-होकर

चढ़ती हूाँ डोली पर गन्ने की खोई-सी

आगे फफर पेरते हैं

सेंठा-सा सख ू ा मन लौट वही अाँधधयारे

फफर उन्हीं मख ु ौटों से

फफर उन्हीं गललयारों में | बेहया की पौध हुई चलनी-सी प्यास मेरी बझ ु ा नहीं पाते ण्जसे अपनों के फ़ासले ररश्ते-नातों के

डीह पड़े मक़बरे

बाहरी उजालों में

जो कुछ भी हाथ लगा हा​ाँफ रही उसे ललये

भाग रही शहर-शहर | भोगे हुए सच अतलस्पशा

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मझ ु े बेगाने लगते हैं बीते की पाटी पर फकसी भी पल के

कहीं कोई धचह्न नहीं रुक पाते फफर भी ननचोड़ती हूाँ रीते ननश्शेष को कटी पतंग की तरह ओर-छोर ववहीन

बे-लसर-पैर की ण्जंदगी बेहद पसंद मझ ु े |

मैं पावाती नहीं

मरती रहूाँ जनम-जनम एक बौरहे पर सोने की लंका में

बाट जोहूाँ सीता नहीं संख्या में बाँध जाऊाँ सम्मख ु समाज के ऐसी द्रोपदी नहीं उवाशी नहीं

जो एक परू ु रवा के ललए इन्द्रपरु ी छोड़ दाँ ू

छल्ले की क्या बबसात कई दश्ु यन्त हैं

मेरी ननगाहों में | 38

अतलस्पशा


मैं ववकृनत हूाँ लसनेमा-हॉल की बहुरं गी रूपसी चौपाटी-ढाल की

घटती हूाँ छद्म–सी नतलस्म-सी, ऐय्यारी-सी पावों में टूट गए

नागफनी का​ाँटे-सी

कभी-कभी पेड़ पर छाई अमरबेल-सी

कभी-कभी माँह ु बोली

ललपट गई घघ ुाँ ची-सी और कभी राह चले लसगरे टी धुआ-ाँ सी

रत्ती भर ददा को

क्षण का भी टुकड़ा नहीं सख ु की दहलीज पर मनचाही यायावरी |

मैं नागरी राधा बताती हूाँ अपने हर चहे ते से

पर सखखयों से तननक भी इजहार नहीं करती हूाँ हर छललया कृष्ट्ण का

कुछ ही समय भोगती हूाँ अतलस्पशा

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फकसी के छलावे की

आह नहीं भरती हूाँ | वार-वननता नहीं हूाँ

परू ी तरह घरे लू भी नहीं पर बाजार हूाँ

अब तो बताओ

मैं फकतनी साकार हूाँ फकतनी मौललक हूाँ फकतनी नवीन हूाँ ?

क्या नहीं जानते पहचानते नहीं

मैं फकतनी सवामान्य हूाँ नवजन-आकषा की

ववकलसत आन-बान हूाँ ! आखखर क्यों नहीं बोलते

क्या अब भी अजनबी हूाँ सोच क्या रहे हो –

मैं पंचवटी की छलना हूाँ ? अपने ही अण्स्तत्व की ववरोधनी

यग ु -यग ु ीन पररत: पोवषत नारी-अनतमा ? नहीं, नहीं --

दे खो मेरी फकतनी लंबी नाक है 40

अतलस्पशा


रोज-बरोज बढ़ रही है

मझ ु े पहचानने के ललए भी नव दृण्ष्ट्ट चादहए

सब के बस की नहीं नवीनों की प्यारी हूाँ ओवर-सट ू वालों की

दहप्पी हे यरवालों की

डडस्को-बबअर वालों की कैबरे मतवालों की

तम ु से तो बाज आई ओ भारत-भोंद,ू बाय ! बाय !

अतलस्पशा

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काली नदी के उस पार जो मैं खोजता रहा अपने आकाश का घनसार-पाटल अपनी धरती का काँवल-पंख

तो बस मैं खोजता ही रहा

सबकुछ उड़ाए ललए जाती हवाओं के बहकावे में एकटक आाँखों में सन ू ा आसमान साधे

कटी नालभवाले अधमरे जवान मग ृ की तरह | काले बदलों ने चा​ाँद ढक ललया पहले अधाधध ुं अंधड़

दसों ददशाएाँ लमलकर एक हो गई

फफर मस ू लाधार वषा​ा ण्जसने रात-ददन एक कर ददया ण्जसमें भीगता-भागता, धगरता-पड़ता

उखड़े-पख ु ड़े पेड़-पौधों पर आाँसू बहाता मैं बस नापता रहा मत्ृ य-ु पथ

कहीं कोई मददगार न लमला | एक-एक कर सारे रास्ते आाँखें माँद ू ने लगे न मोड़, न चौराहे , न कोई अंत

का​ाँटों, रोड़ों, कत्तलों से लहूलह ु ान मेरे धड़ाम से ढे र हुए पत्थर हो गए बोझ को छोड़ समय चलता चला गया दरू बहुत दरू न तो उसने मड़ ु कर दे खा 42

अतलस्पशा


न रुका

न मेरी गह ु ार सन ु ी | सन ु ा है फकसी दरू दे श में

मेरे मन का हरलसंगार खखलता है अपने रं ग-सगंध के साथ

मैं वहा​ाँ जाना चाहता हूाँ बड़ा अनोखा मौसम है उस दे श का

मैं ननहारना चाहता हूाँ उस दे श का आकाश दे खना चाहता हूाँ उस दे श की धरती मैं ह्रदय से छूना चाहता हूाँ

उस पष्ट्ु पवक्ष ृ का तना, डालें, पण्त्तया​ाँ और मन ण्जसके बबना मैं यहा​ाँ पत्थर-सा रह गया हूाँ | मेरे और उस दे श के बीच एक नदी बहती है काली नदी

जो हर सा​ाँझ, हर सब ु ह वासंती हो जाती है

जन्म लेने लगती है उसमे सन ु हरी तरं गें और वह नदी हाँस उठती है

बाकी समय उसकी स्याह सरू त से

बहुत डर लगता है साहस नहीं होता उसके तट तक जाने का |

अतलस्पशा

43


पर अब सा​ाँझ को

या सब ु ह को क्या दे खना

अब क्या दे खना घड़ी की सइ ु या​ाँ बार-बार

मैंने कमा के दे वता को क़रीब से जाना है भाग्य के दे वता को बहुत परखा है अब तो हर समय सा​ाँझ है हर समय सब ु ह है मेरे ललए मैं इस झठ ू ी धरती इस झूठे आकाश

और इन झूठी हवाओं के बहकावे में और अधधक नहीं ठहरना चाहता |

44

अतलस्पशा


साबत ु बदलाव के ललए धमा और मजहब से कहीं बहुत ऊपर आजाद और आबाद होने की चाहत ने

उठाना चाहा अपना लसर ण्जंदाददल करना चाहा अपना सीना

मगर चल गई

मजहब की तलवार

हो गए उसके टुकड़े फफर टुकड़े से

टुकड़ा पैदा फकया

कुछ वैसी ही तलवार ने अब फफर

कुछ वैसी ही तलवार टे स्ट-ट्यब ू टुकड़ों के

गभा​ाधान में लगी है | क्या आजाद

दहन्दस् ु तान की संसद में अंग्रेजों से अधधक

सफ़ेद अंग्रज े नहीं ? पफकस्तान में

अतलस्पशा

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गैर मजहबी औललया नहीं ? बंगलादे श में

बागी और तानाशाह नहीं ? क्या खाललस्तान

जम्म-ू कश्मीर के नाम

खौफ़नाक सरगमी बन ु ती शराफ़त की नजरें

लसक्ख-मण्ु स्लम घरों की बहू-बेदटयों पर नहीं ? जो गल ु ामी में कद्दावर थे

वे ही आजादी में भी क्यों ? जो दहन्दस् ु तान में बदहाल थे

वे ही पाफकस्तान में भी क्यों ? वे ही बंगलादे श में भी क्यों ? आखखर क्यों ?

चश्मा बदलने से

बदलती नहीं ननगाह धूप-छा​ाँह के नजारे बदलाव नहीं होते

झोपड़पदट्टयों में बच्चे जहा​ाँ मरते भख ू से

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अतलस्पशा


पा​ाँच-लसतारा रौनक को रौनक नहीं कहते

सोती हो जहा​ाँ भीड़ फुटपाथ पर नंगी

सीमेडट के जंगल को बाँबीठा ही कहें गे | हथकड़ी भी टूटी बेड़ी भी टूटी

कैदखाना भी टूटा कैदी भी छूटे

खद ु ाई भी हुई जुदाई भी हुई

वतन भी बाँटा

सरहद भी खखंची

मगर हालाSत ? न बदले

तो न बदले ! भेडड़यों की रहनम ु ाई

उनकी पाक-साफ़ डकारें

उनके गोलम-गोल हाजमें आदम भीड़ को

आगे कहा​ाँ बढ़ाते हैं

वे तो सब्जबाग ददखाते हुए अतलस्पशा

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बड़ी सफ़ाई से लंगड़ी मारकर

उसे वहीं-की-वहीं

हजम कर जाते हैं

जहा​ाँ वह खड़ी होती है

वह तो तक़दीर होती है कभी उसकी मौत

दो क़दम आगे भी होती है | आदमी पहुाँचा है कहा​ाँ-से-कहा​ाँ

तो अपने बल-बत ू े पहुाँचा है आदलमयत के बल-बत ू े पहुाँचा है जो हाथ उठाकर कहती रही है

मदद की बात मत करो पहले अपनी मदद करो डरो नहीं बबल्कुल

शैतान की आाँत में ऐसे-वैसे नहीं

परू ा जहर बन मरो | आया था कभी समय

तख़्तोताज के मक़ ु ाबले

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अतलस्पशा


रहनम ु ाई का

कभी का आया है समय रहनम ु ाई के मक़ ु ाबले आम आदमी का उसकी भीड़ का शाही पंजों से

अधधक खख ूाँ ार

हो चुके रहनम ु ाई मख ु ौटे तो क्या हुआ –भीतर उतरो

अपने-अपने भीतर आदमी

बाललग होना चादहए उसकी भीड़ का हर दहस्सा

बाललग होना चादहए | असम के

जम्म-ू कश्मीर के नस् ु खे रहनम ु ाई नस् ु खे हैं नए फकस्म के

कुछ और नस् ु खे हरे -भरे हफ़ों में

सब्जाजार के इण्श्तहार ! हालात

अतलस्पशा

49


बदलने के नस् ु खे तो लसफ़ा

आम आदमी के पास हैं उसकी सोच में

उसकी मेहनत-मशक्क़त में आदमखोरों के खखलाफ़

उसकी अपनी कुव्वत में | शाही नस् ु खे कब के

इनतहास बन चक ु े

रहनम ु ाई नस् ु खों की पोल भी

अब खुलने लगी है

साबत ु बदलाव के ललए | कोई दरख़्त कम नहीं

साबत ु बदलाव के ललए हर दरख़्त जंगल है

साबत ु बदलाव के ललए शता लसफ़ा इतनी है –खून बहे जंगल का हरे कटे दरख़्त से

हर दरख़्त अपने में

खून तो महसस ू करे

साबत ु बदलाव के ललए | 50

अतलस्पशा


भीतर का ददन आज भी, मन, मन न रहा

कमबख़्त इराक़ होता गया | आज भी, ददल चौतरफा नघरा

सारा ददन दमखुश्क सैननक-जैसा

जलती रे त से ही प्यास बझ ु ाता रहा | आज भी, सारी रात

जमीनी हमले के ललए

खंदक़ खोदता रहा ददमाग ‘बश ु ’ कहीं का |

आज भी, सैकड़ों काले सरू ज उतरे उम्मीदों के बीमार ण्जस्म पर

उसकी कोख नेस्त-नाबद ू करने | आज भी, उबाल खाया खून

खाड़ी में बहते कच्चे तेल की तरह धमननयों से सा​ाँसों तक फैलता गाँदला करता रहा जी-जहान |

आज भी, बंकरी मख ु ौटों की पनाह में भख ू ी-प्यासी आदम-भीड़ के माननंद

अतलस्पशा

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धचथड़े-धचथड़े होती रहीं इंसानी सोचें | आज भी, बेवा होती आदलमयत हलाक बच्चा छपटाए

मलबों की मातम भरी भीड़ में

तलाशती रही हमददा के ण्जस्मानी टुकड़े | आज भी, ददन रहा लसयासत का पहलू बदला रहा

‘सद्दाम’ बदस्तरू कोई

भीतर दर-भीतर मेरे आज भी |

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अतलस्पशा


खल ु ा अपहार हे मेरे दे श !

तम् ु हारे गदा-गब ु ार भरे बबखरे -बबखरे बाल धुाँधली, ननस्तेज, उदास-उदास आाँखें

झुरीदार, वपचके-वपचके गाल तब्दील फकए जा रहे हैं इमामों-मठाधीशों के कढ़े -सवरें बालों तेली के बैल की बड़ी-ढकी आाँखों

उधार के भरे -उजले यरू ोवपयन गालों में

ऐसा करके तम् ु हारा गौरव बढ़ाया जा रहा है वे कहते है |

हे मेरे दे श !

तम् ु हारी टूक-टूक होती घायल छाती बेदहसाब बोझ से झक ु ी नंगी पीठ

भन ु ाई जा रही हैं नव नगद न तेरह उधार के रास्ते ण्जससे धन्नासेठों के आसमान चढ़ते पेट

भावी भारत–रत्नों की पीठें उतान-ववतान हो रहे हैं

ऐसा करके तम् ु हारी साख बढ़ाई जा रही है वे कहते हैं |

हे मेरे दे श !

काटकर तम् ु हारी जबान प्रनतण्ष्ट्ठत कर दी गई है राजमण्न्दर में राजपज ु ारी जबरदस्ती पज ू ा में तल ु े हैं

अतलस्पशा

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जबफक राजभवन के वपछवाड़े से लपलपाती

एक दस ू री जबान तेल लगाकर छोड़ दी गई है समच ू े राजनगर को चाटने के ललए

ऐसा करके तम् ु हें अंतर-राष्ट्ट्रीय ऊाँचाई दी जा रही है वे कहते हैं |

हे मेरे अपने दे श !

वे कुछ भी कहें , पर खुलआ े म –-

क्या तम् ु हारा चेहरा दाग़ी नहीं फकया जा रहा !

क्या तम् ु हारा यथाथा अाँधेरे में नहीं घसीटा जा रहा !

क्या तम् ु हारे ववचारों की बोलती बंद नहीं की जा रही !

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अतलस्पशा


तप रही दोपहरी बीच मेरी नघग्गी बाँधी है

घट ु -घट ु कर मर रहा हूाँ | जैसे कोई आत्म-हत्यारा नदी में कूदकर

फफर फकनारा पाने के ललए तड़फड़ा रहा हो !

जैसे कोई खद ु कश

फा​ाँसी का फंदा लगाकर

फफर पैरों के आधार के ललए छटपटा रहा हो ! मैं भौनतकता की

तप रही दोपहरी बीच

अपनी आत्महं ता उठा-पटक में झल ु स रहा हूाँ |

मेरी चढ़ती उसा​ाँस

लगातार टूट रही --

एक रत्ती सा​ाँझ के ललए एक रत्ती चा​ाँद के ललए

एक रत्ती भोर के ललए |

अतलस्पशा

55


दस ू रा चेहरा धरती नारी

प्रकृनत

मेरी हवस का

सबसे ज़्यादा लशकार हुईं | आकाश पवात

समद्र ु

मैंने फकसी को नहीं छोड़ा | अंतररक्ष

चा​ाँद-लसतारे ग्रह-उपग्रह

सब मेरी पहुाँच के दायरे में हैं |

मैं ननचोड़ता हूाँ ब्रह्माडड

अपने सख ु के ललए | अंधे-मरकहे बैल की

सींग-जैसी 56

अतलस्पशा


अपनी महत्त्वाकांक्षा के तपते-भन ु ते

तंग चौबारे से मैं अपने

भारी-भरकम

आणववक शब्द दनु नया के कानों पर

ववस्फोट करता हूाँ | मैं कभी धमा

कभी आपद्मा और कभी

धमायद् ु के

जैव-रासायननक अस्त्र फेकता हूाँ उनकी सोच की माँड ु रे ों पर

जो मेरे द्वारा

गढ़ी गई पररभाषाएाँ ला​ाँघने की

जुअत ा करते हैं | राज

उसकी गद्दी अतलस्पशा

57


समाज

उसके चबत ू रे

मैंने बनाए हैं

कल-बल-छल के तंब-ू कनात

मैंने खड़े फकए हैं

मंददर-मण्स्जद के छतखम्भ

मैंने तराशे हैं

मजबत ू गाड़े हैं | प्रनतबद् दे वता उनकी सत्ता

शैतान-मसान उनका भय सब को

अण्स्तत्व

मैंने ददया है सब पर

सत्य-असत्य की कलई

मैंने चढ़ाई है | धरती मा​ाँ है

आसमान वपता है मझ ु े पता है 58

अतलस्पशा


पर मेरी ननगाह आसमान पर

अच्छी तरह है और धरती

मेरे पैरों के नीचे है

उसकी कोख पर उसकी गोद पर गोद की

फकलकाररयों पर मेरे तेवर

ननगरानी रखते हैं सब को

मेरे दहसाब से बड़ा होना है जो बड़े हैं

मेरे दहसाब से हाँसना-रोना है या मेरी

त्योररयों के कोप से नेपर्थय में

दफ़न होना है | जब मझ ु े

परु ु षाथा कोई अतलस्पशा

59


दरू नजर आता है

बाधाएाँ बढ़-चढ़कर

लाग-डा​ाँट करती हैं तब मेरी

आाँखों में

खून उतर आता है मख ु -वववर

ववषदं त काढ़

फैल-फैल जाता है हाथ-पैर

बहुगन ु े हो दहंसक हो जाते हैं तब इंसान क्या

उसकी दो पल की जान क्या

सारा आचार-ववचार सारी इंसाननयत मेरे ललए

महज मल ू ी-गाजर हो जाती है मैं उसे

बथुए की तरह एक झटके में

उखाड़ फेंकता हूाँ |

60

अतलस्पशा


मैं बहुत सभ्य ऊपर-ऊपर हूाँ

भीतर नाखून बड़े दा​ाँत बड़े

आाँत बड़ी

पश-ु जैसे बाल बड़े मन के

अाँधेरे में

काले पहाड़ बड़े अंधी गफ ु ाएाँ हैं जंगल हैं

ववकट बड़े

भीतर-ही-भीतर मैं नग्न

ववकल रीछ-सा बाहर से

ददखने में

मदा की औलाद हूाँ | मैं समय के घोड़े पर

चाबक ु बरसाता हूाँ

दौड़ाता हूाँ अपनी मनमानी राह पर गा​ाँव पड़े

अतलस्पशा

61


शहर पड़े सख ु -चैन नींद पड़े ददा-आह

चीख पड़े

बेकाबू टाप

कहा​ाँ रुकते हैं

बनते-बबगड़ते हैं राज व समाज

मेरे कदमों के साथ मगर खून के ननशान छोड़

आगे बढ़ जाता हूाँ | आते उग बाल जब सअ ु र के

मेरी आाँखों में वपता-पत्र ु

भ्राता-पनत

कोई नहीं होता मैं अपने-पराए का

भेद नहीं होता कुछ आते हैं मौके तो खुद को

खा जाता हूाँ | 62

अतलस्पशा


न इस पार का

न उस पार का लोक-परलोक मैं कहीं का

कभी होता नहीं न राजा का न प्रजा का न घर का

न बननज का

हर घेरे-बसेरे में

मतलब का यार हूाँ | झुकते संबध ं सब आकर

मेरी शतों पर बाकी को

झाड़ू लगा कूड़े की राह

ददखा दे ता हूाँ

सब की आशा

सब की ननष्ट्ठा सब की सेवा

नाम-दाम वाली ऊाँची बोली के

झटपट बाजार में अतलस्पशा

63


बेच-बाचकर मैं अपने

मन के नाचघर में अहं की

नताकी के आगे

घोर ननजता का मदप्याला थामे बस झूमता रहता हूाँ

झम ू ता रहता हूाँ | प्रश्न यह नहीं है फक मैं

फकस दे श का हूाँ

फकस धमा का हूाँ फकस जानत का हूाँ प्रश्न यह है फक इस

भीड़-भाड़ में मेरी पक्की

पहचान क्या है

और यह परू ी भीड़ जो मेरी

धमा-चौकड़ी से

एड़ी से चोटी तक 64

अतलस्पशा


लहू-लह ु ान है मेरी पहचान

मेरी लप्ु तमद्र ु ा की पक्की पहचान

जरा मैं भी तो सन ु ाँू बताती क्या है | “नीच ! नराधम ! दरु ात्मा!”

क्या कहा ? अरे भाई,

मैं आदमी नहीं हूाँ मैं कोई

पापी-दरु ाचारी नहीं कोई दष्ट्ु कमा

मैंने नहीं फकया दनु नया का

कोई अधमा-अपराध मेरे नाम

नहीं ललखा जा सकता मैं परू ी तरह बेदाग़ हूाँ |

मैं न आदमी हूाँ न ही नर-कापाललक अतलस्पशा

65


न ही मैं

नर-वपशाच हूाँ मैं तो लसफ़ा

चेहरा हूाँ, चेहरा

वह भी गायब चेहरा जो अक्सर

ददखाई नहीं दे ता लेफकन होता है

सभ्य आदमी के पास होता है

उसका चेहरा

उसका दस ू रा चेहरा |

66

अतलस्पशा


नत्ृ यताल भग ू ोल लगा घम ू ने अब

तम् ु हारे भी क़दमों के साथ मगर इनतहास ?

उसकी तो हमेशा से

अंगारनम ु ा आाँखें तम ु पर नई पीढ़ी भी

ददखाती नए-नए तेवर

सावधा S न !

शंबक ू / रामबाण

मंगल पाडडेय / बंदक ू की गोली एकलव्य / अंगष्ट्ु ठ-दक्षक्षणा

नमक-सत्याग्रह / कारागार

तम् ु हारे जेल की दोहरी दीवार

नायक-अम्बेडकर-से जल उठे मशाल उठा दललत का नाम ललंबाराम, ललंबाराम,

परु स्का S र !

फफर भी

पत्थर-पर-पत्थर

नीचे दबी दब ू -घास अब भी अतलस्पशा

67


मडडेला / गोरी सरकार अब भी

नाम तम् ु हारे अपमान-ननंदा के रटं ता नए याज्ञवल्क्य-मनु

तल ु सी-कौदटल्य अब भी

कैक्टसी पंजे कल-बल-छल सदहत संघषा ! संघषा !

लहूलह ु ान लशरोच्छे दन बाँद ू -बाँद ू लहू आकाश लहू-लहू अाँगठ ू ा-दान लहू-लहू दब ू -घास

तननक हरी हुई घास त्यों ही यों नेत्र-आग ? दलन-दमन चक्रवात ?

ओ नीलकंठ, हाथ-पैर रुद्रकर

नत्ृ यताल ! नत्ृ यताल !

68

अतलस्पशा


रक्तदीप वह रक्तदीप जलता आया सारी उम्र

अाँधेरों से जूझता

कभी झठ ू तो कभी झठ ू े सच से नघरा ननपट अकेला

भीड़–भाड़ भरी बस्ती में | वह मंददर का

धातु का बना

दे वत्व उजागर करता पववत्र घत ृ दीप नहीं |

न तेल, न बाती, न दीवट कच्ची बेरंग लमट्टी का छोटा-सा रक्तदीप

जो माटी के घरौंदे में

झक ु -झक ु जाता लहर साँभालता

नतल-नतल संघषा करता बस जलता आया | ण्जन हाथों ने बाती दी अतलस्पशा

69


स्नेह डाला

ज्योनत जगाई

हथेली से ओट फकया उनके साए उठ गए

जो झूमती लौ के साथ कुछ क्षण मस् ु कुराए

छोड़कर जाने कहा​ाँ चले गए काठ का जजार दीवट

दो ददन दटका, ढह गया औचक धगरा जमीन पर

तेल-बाती सब बबखर गए पर जलता आया

वह जीवट का धनी रक्तदीप | अपना रक्त पीता वह हठी रक्तदीप

रोशनी की भा​ाँग खाए बस जलता आया | लसतारे हाँसते

चा​ाँद हाँसता

जुगनू कानों तक हाँस-हाँस जाते कभी-कभी अभागेपन की मार से आहत

संज्ञाहीन होकर

वह स्वयं पागल हाँसी हाँसता 70

अतलस्पशा


पर जलता आया, जलता आया जलता ही आया | वह रक्दीप

छलनाओं के आगे आाँख मद ाँू े ननरन्तर जलता आया

अबोध ववश्वास के साथ आलोक-पथ के ललए तत्वज्ञान के ललए

संसार-सार के ललए

और छलनाएाँ ठगी–ठगी दे खती रहीं उसे जलते हुए |

अतलस्पशा

71


पथवक्ष ृ लट्टू नचाकर अलग हुई हवा में लहर खाती डोर-सा

मैं का​ाँप रहा हूाँ और नाच-नाचकर ननढाल हुए लट्टू की तरह मैं ही धरती पर पसरा हूाँ तम ु जा सकते हो, बाँधु ! क्योंफक मैं हाथ नहीं हूाँ |

सौगन्ध ! भरी रातों में

भर-भर आए उन होठों की

ण्जन पर झक ु े गाढ़-मादक चंब ु नों में

दनु नया के सारे रस, गंध, वैभव, गौरव एक साथ समादहत हो जाते मैंने कब चाहा

फक प्यार, दोस्ती, साथ मझ ु से दरू चले जाएाँ

फकन्तु भरी भीड़ में मैं अकेला हूाँ और मेरी मट्ठ ु ी खाली है |

सघन-काँटीली झाडड़यों में भरजोर फेंके गए कच्चे ढे ले की तरह

बबन घाव, बबन खन ू , बबन आाँसू

72

अतलस्पशा


मैं भीतर तक नछल रहा हूाँ क्योंफक मैं हाथ नहीं हूाँ | हाथ लमलाने का साथ हाँसने-हाँसाने का साथ

दख ु ों का बोझ दहल-लमल उठाने का साथ या फफर गमा बा​ाँहों के घेरे में

चढ़ती सा​ाँसों के परस्पर संजीवन का साथ जीवन इन सब का होता है

इन सब का हाथ गहकर चलता है फकन्तु एक झटके में तोड़

अपनी रौ में नोच-नोचकर

फेंकते जाने के खेल में कुशल हाथ फकतनी ननष्ट्ठुरता से

तार-तार करके चले गए और मैं सन ू ी राह पर

उखड़ी पंखडु ड़यों की तरह बबखरा हूाँ जीवन की इस ववडम्बना पर फक कोई साथ अंततः ठहरता नहीं एक और हस्ताक्षर करके

तम ु जा सकते हो, बाँधु ! क्योंफक मैं हाथ नहीं हूाँ |

मैं हाथ नहीं हूाँ, बाँधु ! पथ हूाँ, पैर हूाँ, दृण्ष्ट्ट हूाँ अतलस्पशा

73


पर डग नहीं हूाँ

गनत नहीं हूाँ मेरा ददा हवा की उन का​ाँपती हुई पागल तरं गों से क्यों नहीं पछ ू ते

ण्जसमें फूल की गंध ववद्यमान रह गई है

हर बार अपना लसर पटकती उन्हीं वाय-ु तरं गों-सा टूटकर शेष रह गया हूाँ मैं | समय के घोड़े पर सवार

सारे प्यार, सारी दोस्ती, सारे साथ मेरे हृदय-पथवक्ष ृ की डाल-डाल झकझोर कर भाग खड़े हुए और संवेदनाओं की मेरी जड़ें इतनी जड़ हो गई हैं

फक एक क़दम भी नहीं चल सकतीं | इसललए जाओ बाँधु ! जाओ

मैं अलभशप्त हूाँ तम् ु हें भी जाते हुए दे खने के ललए क्योंफक मैं हाथ नहीं हूाँ |

74

अतलस्पशा


एललसी पैलेस से लौटे राष्ट्ट्राध्यकयक्ष मैं एक अछूत हूाँ अछूत राष्ट्ट्रपनत के रूप में भी

मेरी फ्ांस-यात्रा ऐनतहालसक रही वहा​ाँ के लोग

जानत-व्यवस्था से पररधचत नहीं पर यहा​ाँ के लोगों ने

जानकारी दे ने में कोई कसर नहीं छोड़ी नहीं तो मेरा अछूतपन इस तरह कहा​ाँ उजागर हो पाता !

वहा​ाँ के अखबारों ने वही ललखा जो भारतीय अखबार

वपछले तीन सालों से ललखते रहे मझ ु े ऐसी दटप्पखणयों से फ़क़ा नहीं पड़ता

मैं इनका आदी हो चक ु ा हूाँ

अब तो फ्ांसवाले भी जान गए फक भारत में अस्पश्ृ यता राष्ट्ट्रपनत-भवन तक

पीछा नहीं छोड़ती | मझ ु े शंबक ू ों-एकलव्यों-जैसे

अपने चहरे -मोहरे का पता है अतलस्पशा

75


मझ ु े अच्छी तरह पता है

मेरा दे श अछूतपन के बबना

मझ ु े सटीक पहचान नहीं दे ता

मैं अध्यकयापन, पत्रकाररता, राजनय कुलाचायात्व के कमों से

जीवन भर जुड़ा रहकर भी अछूत-का-अछूत ही रहा

मैं इंग्लैडड, आस्ट्रे ललया, ववयतनाम चीन, तक ु ी, थाइलैडड

और जहा​ाँ कहीं भी गया

अछूतपन से मेरा वपडड कहा​ाँ छूटा | व्यवस्था की आड़ में

राज, समाज, धमा को खड़ाकर मेरे जीवन को बा​ाँधे रखने की अनेक नागपाश नीनतया​ाँ

कब नहीं प्रायोण्जत की गईं

ण्जन्हें अपने जीवन से बार-बार मेटकर भी मैं अछूतपन से कब उबर पाया

लशक्षा-दीक्षा, धन-धाम, पद-प्रनतष्ट्ठा

फकसी से भी मेरा फकतना उद्ार हो सका कोई मझ ु े भीतर तक छूकर दे ख सके तो दे खे मैं इस दे श का

सबसे बड़ा अछूत हूाँ | 76

अतलस्पशा


मैं एक अछूत हूाँ मझ ु -जैसे अछूतों का यह हाल है

तो उन अछूतों का क्या होता होगा जो अछूतपन के चक्रव्यह ू में चारों ओर से नघरे हैं

ण्जनके खून-पसीने का रं ग यहा​ाँ सबसे सस्ता है

ण्जनके बच्चों के गले में पैदा होते ही

अछूत के नाम का पट्टा डाल ददया जाता है

अपना मतलब गा​ाँठने के ललए | मैं एक अछूत हूाँ मैं दनु नया से नहीं डरता दनु नया के बड़े-से-बड़े झठ ू से नहीं डरता

ज्ञान, संघषा, वववेक सब मझ ु से बराबर हाथ लमलाते हैं पर मैं इस दे श को अपने ही दे श को

छूने से डरता हूाँ मेरे ननकट मत आओ मेरे पास मत बैठो मझ ु े छुओ मत

अतलस्पशा

77


मझ ु े छूने भर से पाप लगता है मेरा छुआ

अन्न, जल, भलू म सब कुछ अपववत्र हो जाता है

अब तो मैं घर-बाहर, दे श-ववदे श हर कहीं अछूत हूाँ |

78

अतलस्पशा


यह क्या हो गया है ! यह हमारी जबान को क्या हो गया है

फक इस पर से सजी-साँवरी धप ू का ववश्वास उठ रहा है इससे सोंधी लमट्टी की आशा टूट रही है

इस पर नक्षत्र चढ़ते कदम भरोसा नहीं करते

इससे नई ननगाहों को आगे राह नहीं ददखती | यह हमारी जबान को क्या हो गया है

फक इसके रहते एक सफ़ेद माँह ु चढ़ी जबान दे श की अललण्जह्वा तक का रं ग

सफ़ेद डाई की तरह बदल रही है

वह शब्दों के तैलीय तरण-ताल में नहाकर

गावों तक आधनु नकता की कुला​ाँचे मार रही है जगह-जगह भम ू डडलीकरण के कैम्प लगाकर सब की नसों में कोकीन डाल रही है

और एक अरब लोगों की चेतना कोम ्-आ में पहुाँचाकर उनके खून-पसीने की सारी रं गत दहु रही है | यह हमारी जबान को क्या हो गया है

फक इसके ऊपर एक तेजी से फैलनेवाली बहुत महीन असाध्यकय, परजीवी पता उग आई है जो ददनोंददन और ढीठ होती जा रही है | लसर पर माँडरा रही है

आाँखों में धूल झोंक रही है अतलस्पशा

79


कानों में कौड़ी डाल रही है होंठों पे धथरक रही है

छाती पर माँग ू दल रही है

जो हाथों को धोखे से बा​ाँध रही है पैरों पर कुल्हाड़ी चला रही है और जो ववषकन्या की तरह

हमारे दे श के साथ अपघात कर रही है | यह हमारी जबान को क्या हो गया है

फक केवल पन्द्रह वषों का झा​ाँसा दे नेवाली जैसे अब घर-बैठा बैठने पर तल ु गई है वह आज भी हमारी जीभ पर

षड्यन्त्र का कच्चा जमींकंद पीस रही है

हमारी सारी सोच-समझ हलक़ के गता में ढकेल खुद बाहर बेलगाम हो रही है

जो हमारे मन की नहीं कहती हमारे मख ु को नहीं खोलती हमारे चेहरे की नहीं लगती

और जो आकाशबेल की तरह

हमारे दे श के मानसवक्ष ृ पर फैलती जा रही है | यह हमारी जबान को क्या हो गया है

फक इसे सभी राजनगर हर साल एक बार अपनी कमर झक ु ाकर प्रणाम करते हैं स्तनु त का आयोजन करते हैं

80

अतलस्पशा


गले में वचन-मालाएाँ लाद दे ते हैं

कुछ ददनों के तपाण से फकतना तप्ृ त करते हैं

फफर परू े साल यह वपछलग्गू बनी दौड़ी फफरती है राजमदहषी का पद छोड़ चाकरी करती है

और जो दस ू री लसरचढ़ी है, ण्जसकी तत ू ी बोलती है दे श की बोलती बंद करने का दहशत फैलाती है | यह हमारी जबान को क्या हो गया है

जो रूपवान-गण ु वती लभखाररन की तरह गली-कूचे में धक्के खा रही है हर कहीं बे-आबरू हो रही है

हर मोड़ पर आाँसू बहा रही है

ण्जसे दे ख पालतू कुत्ते भौंकते हैं आवारा दौड़ा-दौड़कर नोचते हैं

आखखर, यह सब क्या हो गया है

यह हमारी जबान को क्या हो गया है |

अतलस्पशा

81


शंबक ू की खोपड़ी पंडडतों की दृण्ष्ट्ट में शंबक ू का लसर मेघनाद के लसर-सा नहीं था न ही कुम्भकणा के लसर-सा न ही रावण के लसर-सा

पंडडतों ने रामकथा-वटवक्ष ृ के नीचे रावणों के लसरों को

श्रद्ा-सम्मान सदहत दफ़नाया पर शंबक ू की खोपड़ी को

नीच बता उसी वटवक्ष ृ पर टांग ददया | तपोवद् ृ ऋवष सत्याग्रही

कोपभाजन पंडडतों का बन गया |

संवेदना लसफ़ा रामों की पीड़ा समझती सल ु ोचनाओं की महाघा पात्रता कनक-प्रासादों में ननबद् थी

लेखनी उपनयन में थी बाँधी

नहीं तो शंबक ू लसर हतभाग्य भी

लसद् होता तपोगनत गौरव अमत्या | रक्तरं ण्जत जा धगरा उत्तरापथ में अंत-श्रद्ा का भी न प्रारब्ध पाया

यग ु -ववधाता पंडडतों के नीनत-बल से रामकथा-वक्ष ृ पर टा​ाँगा गया | 82

अतलस्पशा


लशरोच्छे दन का सबक पा गया था संतोष नहीं था पंडडतों को शंबक ू तो शंबक ू ठहरा

उसकी नराधम खोपड़ी तक को लसखाना चाहते थे पाठ ऐसा

वंशज भी कोई न कर सके साहस कभी | खोजी पंडडतों ने टा​ाँग दी

उसी वट में खोपड़ी शंबक ू की ण्जसकी जड़ों पर पीठ पावन

सत्य का, सद्मा का, सन्मागा का प्रनतण्ष्ट्ठत कीनता-प्रनतमा राम की झुकाते शीश सरु , नर, मनु न चढ़ाते दे वराज पष्ट्ु प

बत्रदे व भी करबद् वंदना करते जहा​ाँ उस पीठ के समतल ु

दफ़न थे रावणों के लसर | समय की लशला पर से

यग ु ों के भारी क़दम-के-क़दम गज ु रे कूट-धचह्न लमटे नहीं पंडडतों के

आज भी कथावक्ष ृ पर टाँ गी वह खोपड़ी

आज भी वही​ीँ प्रनतण्ष्ट्ठत कीनता-प्रनतमा राम की आज भी वहीं समादृत रावणों के लसर सभी | पर शंबक ू की खोपड़ी अतलस्पशा

83


हाँसती ठहाके की हाँसी

यग ु -यग ु ीन यातना के बाद भी नसीहत नहीं स्वीकार की

हाँसती सदा भेदक हाँसी - -

“धन्य, धन्य, राम ! धन्य राम-पंडडतो !” लगाती कहकहे बार-बार

हाँसना उसकी ननयनत हो जैसे हाँसना उसका कमा हो जैसे

हाँसना उसका कमा-फल हो जैसे | वह हाँसती जब पंडडत कोई

उसे टा​ाँगता एक से दस ू री डाल पर जब छद्म की रस्सी टूट जाने से डालों से टकराती धगर आती नीचे जब नए पंडडत

उसे फफर टा​ाँग दे ते नए जतन से जब बड़े पंडडत

छे ड़ते धमा, दशान, व्यवस्था, अध्यकयात्म की बड़ी-बड़ी लण्ग्गयों से | जब मझोले पंडडत

उसे न छे ड़ने की दे ते सलाह जब अधुनातन पंडडत

उसे सदा के ललए डाल से उतार जमीन की गहराईं में 84

अतलस्पशा


गाड़ दे ने की चलाते हाल की चचा​ा जब सनातन पंडडत

उसे ऊपर ही टा​ाँग रखने की परम्परा पर दे ते जोर | क्या कहा जाए शंबक ू की

चोटी-नाक मडुं डत ननगोड़ी खोपड़ी को पंडडतों के ब्रह्ममान्य इंधगत पर राम-जैसे राजा के राजदडड का

उनके-जैसे न्यायी के न्याय का उनके परम अचूक बाण का

मजा चखकर भी हाँसती है | वह शंबक ू पर भी हाँसती शंबक ू के ललए बेहतर

नम आाँखे ददखानेवालों पर भी

ऐसे शंबक ू पर भी जो शंबक ू की तरह न जी सकते, न मर सकते

ऐसे भी जो शंबक ू से पंडडत हो आपाद-मस्तक पंडडत हो गए | वह खुलकर खूब हाँसी जब द्रोण ने

एकलव्य से अंगष्ट्ु ठ-दक्षक्षणा मा​ाँगी जब मंगल पाडडेय को

बब्रदटश पंडडतों ने फा​ाँसी चढ़ाया अतलस्पशा

85


जब नमक-सत्याग्रही गांधी को उन्होंने बंदी बनाया | जब फुले ने

आया​ावता की धरती पर पाठशाला खोली जब अम्बेडकर ने

मनस् ु मनृ तवाले दे श का संववधान ललखा जब ललंबाराम को

बीसवीं सदी के हण्स्तनापरु ने स्वीकार फकया वह हाँसती रही, हाँसती रही

ऊाँचे कानों को बा​ाँग दे ती अजान पागल हाँसी अनेक कालातीत गब ुं दों से अनवरत | शंबक ू की खोपड़ी की

अजान पागल हाँसी से ऊाँचे कानवाले भी

पागल हुए बबना न रह सके एक समय तो उसकी लाजवाब हाँसी से पंडडतों की चौहद्दी का​ाँप उठी |

फफर उसे रामकथा के बरगद से उतार जमीन में गाड़ने का टोटका शरू ु हुआ पर उसे सघ ूं कर खोद ननकालनेवाले फफर से उसी पेड़ पर टा​ाँगनेवाले उसी पेड़ के नीचे

रामराज्य की स्थापना में

ठोकरें लगा-लगाकर खेलनेवाले 86

अतलस्पशा


पंडडतों की भी कमी नहीं रही | वह कभी पेड़ पर कभी जमीन पर

कभी जमीन के भीतर

बत्रताप झेलती हुई कभी हाँसती, कभी मौन कभी ठोकरें खाती

कभी अपने, कभी राम के कभी रामपंडडतों के

कथा-गफ ंु में शाश्वत उत्तर-सी

जीती रही, जीती रही, जीती रही | तल ु सी बाबा ने आसन जमाने से पहले रामकथा के वटवक्ष ृ से चुपचाप उतार जमीन की गहराई में गाड़ दी खोपड़ी

मगर बाबा पंडडत ही नहीं महापंडडत थे बड़ी सफ़ाई से लेनी चाही खबर

खोपड़ी की आद-औलाद तक की | जब बाबा लगे फेंकने

शब्द-बाण अप्रत्यक्ष --

“शद्र ू गाँवार ढोल पशु नारी”

खोपड़ी भीतर से ही हाँस पड़ी ठठाकर | जब बाबा की सवाजनीन मंगलाशा व्यक्त होने लगी

कौदटल्य की तजा पर -अतलस्पशा

87


“शद्र ू न गन ु गन ग्यान प्रवीना”

तो फफर उन पर परु जोर ठठाई | जब बाबा ने पैंतरा बदला -“नीच-नीच सब तरर गए जे रहे नाम लवलीन”

तो हाँस पड़ी फफर एक बार जमीन-फाड़ हाँसी --

फकसके नाम में बाबा, भगवान के या भगवान के पंडडतों के !

तल ु सी, याज्ञवल्क्य, कौदटल्य, मनु कोई भी नहीं बचा

शंबक ू की खोपड़ी से

वह सब पर हाँसती आ रही

आज नए तल ु सी, नए याज्ञवल्क्य

नए कौदटल्य, नए मनु की बबसात क्या ! अब तो राम-कथा के शाखा-पत्रों पर भी

ललवपबद् होने लगा

उसकी हाँसी का ममा -मेरे सत्याग्रह पर

रामबाण सधवानेवाले पंडडतो ! मझ ु े धड़ से अलग करवाकर

तम ु सतत पराण्जत हो चुके हो

वह लसर तो तम् ु हारे ननशाने पर ही था | 88

अतलस्पशा


वह छाती तो नंगी थी ही

तम ु फकतने ही गांधधयों को भन ू ो

सत्याग्रह कभी नहीं मरता, कभी नहीं वह ददनोंददन और अमर होता है

फैलता-उठता, अपना ववतान तानता हर कहीं | अब तो रामकथा के शाखा-पत्र बा​ाँचने भी लगे हैं

उसकी हाँसी का ममा -यग ु -ववधाता पंडडतो ! मैं शंबक ू की खोपड़ी

शोवषत मानवता की परु ातन शण्क्त हूाँ यदद शोषकों के काँटीले हाथ दनु नया से जाने का नाम नहीं लेते तो मैं भी रामकथा की ऊाँचाई से उनके काँटीले हाथो को

अपनी अपराजेय हाँसी से आहत करती कभी चुप नहीं रहूाँगी |

अतलस्पशा

89


बबक रही हैं लड़फकया​ाँ बबक रही हैं लड़फकया​ाँ

धड़ल्ले से वेश-वनृ त में

बस उनका खरीद-फ़रोख्त कोठे -मज ु रे से हटकर सौन्दया के नाम पर अंग-प्रनतयोधगताओं

अंग-मॉडललंग, अंग-लसनेमा

अंग-प्रदशान के और तमाम

नए-से-नए कामक ु लक-दक में बड़ी सफ़ाई से

तब्दील हो गया है | बबक रही हैं लड़फकया​ाँ

धड़ल्ले से वेश-वनृ त में लशखर आधुननकता के शौकीन महाजनों की

अनत सम्माननत, भद्र भड़ुओं की पारखी ननगाहें उनकी जवानी पर

उनके अंग-अंग पर

अंगों के उतर-चढ़ाव पर

अच्छी तरह लगी हुई हैं 90

अतलस्पशा


सहभागी डडजाइनरों ने उनके खानतर

ऊाँची एड़ी की सैंडल

कामक ु ता के उत्थान में इसललए डडजाइन की फक चलते समय

वक्षोज और आगे उभर आएाँ

ननतम्ब और पीछे उभर जाएाँ

कमर में और अधधक लचक आ जाए चाल हं स की तरह हो जाए

ण्जससे बबकवाली में तेजी आए सेंसेक्स ऊपर उठे

और ननवेशकों के कारोबार में भारी इजाफ़ा हो | बबक रही हैं लड़फकया​ाँ

धड़ल्ले से वेश-वनृ त में अब तो उनके वजन लम्बाई–कमर

टांगों-जाघों के

बाकायदा मानदडड ननधा​ाररत फकए गए हैं ननधा​ाररत मानदडड के ललए

‘योगा’, व्यायाम, डायदटंग की

लोकल, राष्ट्ट्रीय, अंतर-राष्ट्ट्रीय दक ु ानें तेजी के साथ फल–फूल रही हैं |

अतलस्पशा

91


रं डी शब्द अपने आप में फकतना अश्लील है फकतना भोंडा है

फकतना बबकाऊ अथा​ात ् ललये हुए है समाज में इसकी बेहतरी के ललए कारपोरे ट-जगत के

दे वताओं के इशारों पर

मॉडान बाजारवाद के नाम से

पलु लस परु ाने ढं ग के कोठों पर रे ’ड डालती है पीटती है

परु ाने ढं ग की रं डडयों को

उनके परु ाने पड़ गए भड़ुओं को लेफकन नए जमाने का लाइसेंस ललये भारी भीड़ के सामने भरी जवानी में

अंगों का शो करनेवाली लड़फकया​ाँ

पलु लस के सरु क्षा घेरे में चलती हैं कमाती हैं लाखों-करोड़ों

पाती हैं बड़े-बड़े परु स्कार उनके टीम के गाजे-बाजों के

उनके सारे तमाशों के

आधनु नक आयोजकों को

लमलता है बड़ा-बड़ा नाम 92

अतलस्पशा


नोटों की बड़ी-बड़ी गड्डडया​ाँ | बबक रही हैं लड़फकया​ाँ

धड़ल्ले से वेश-वनृ त में उनके अंग-प्रत्यंग

अलग-अलग कोणों से

नए-नए फ़ैशन-ग्लैमर के साथ वैभव की ऊाँची-से-ऊाँची

खखलखखलाती साज-सज्जा में

रं गीन रोशनी के घने चकमक में जुटाई गई

खास भीड़ के सामने अधा नग्न बबकते हैं

ऊपर-नीचे के लज्जा-अंग

बहुत महीन, बहुत पारदशी, बहुत कम डडजाइन फकए गए कपड़ों में बहुतायत से बबकने लगे हैं जबफक कमतरीन कपड़ों को बखा​ास्त कर

अत्याधुननक शैली के चहे ते सैर-सपाटे के खुलेपन तक परू ी नग्नता के फ़ैशन की एक और नई फकस्म खोज चुके हैं

बाजार में उस नई फकस्म के अतलस्पशा

93


आने भर की दे र है | नामदारों के हस्ताक्षर क्या नहीं कर सकते

पैसा और यौवन और बवु द् और बल अगर एक ही ध्रुव पर इकट्ठे हो जाएाँ

उनकी सरु क्षा का पहरा शासन के हाथ में हो तो फकसकी मजाल

तननक माँह ु बबचका सके

उन पर उाँ गली उठा सके

इसललए बबक रही हैं लड़फकया​ाँ धड़ल्ले से वेश-वनृ त में |

94

अतलस्पशा


जंगल के हर मह ु ाने पर यदद एक भेडड़या मारने पर लाखों का इनाम घोवषत हो

तब भी भेड़ें कोई भेडड़या नहीं मार सकतीं बकरी, खरगोश, दहरन

सब के दांत गोंदठल हैं ज़्यादा-से-ज़्यादा वे चर सकते हैं

दब ू और मल ु ायम पण्त्तया​ाँ या चाभ सकते हैं

फेंकी हुई घास अधधक-से-अधधक भर सकते हैं चौकड़ी अपने मेमनों के साथ बबरों-गब्बरों के ललए

खाई खोदने. गाड़ा बैठने, जागने की फफ़तरत उनमें कहा​ाँ उन्हें तो हर रात

मैथुन और नींद चादहए | आहार खोजते हुए आहार हो जाता है

उनकी भीड़ का कुछ दहस्सा हर रोज लेफकन वे नहीं धगरा सकते

अतलस्पशा

95


एक भी बाघ, एक भी चीता

अगर सोता हुआ लमल जाए तब भी बण्ल्क उसके दम ु के नीचे की जगह चाट-चाटकर उसे जगा दे ते हैं और जब वह उठ बैठता है तो उसके आगे

ननपोरते हैं दांत भीड़ के ही लसयार दहलाते हैं दम ु भीड़ के ही कुत्ते

ण्जससे राँगे हाथ पकड़ा जाकर भी वह डरता नहीं

माँछ ू ें फुलाकर गरु ा​ाता है

फक मेरी असललयत जानने के ललए

कुनतयों का इस्तेमाल क्यों फकया गया | इसके ललए जल्द-से-जल्द धगद्राज को पकड़ा जाए

फोड़ दी जाएाँ उसकी आाँखें काट ददए जाएाँ

उसके पंख, पंजे और जननांग | धगद्ों का काम

अब तीन बंदरों से ललया जाए ण्जनमें से एक की आाँखों पर दस ू रे के कानों पर तीसरे के माँह ु पर

उनके अपने ही हाथों का सख्त पहरा हो |

96

अतलस्पशा


पेड़ से धगरे हुए लकड़बग्घों की हर बार मरहम-पट्टी करती हैं लोमडड़या​ाँ ऑक्सीजन दे ते हैं अजगर जल्दी भल ू जाते हैं गधे उनका काला कारनामा

पेड़ पर फफर चढ़ा दे ते हैं उन्हें

चह ू ों, चींदटयों, गोरुओं के भींड़-हाथ और कानों तक फटे खख ूाँ ार माँह ु पेड़ की ऊाँचाई से

अपनी आसमानी भाषा बोलते हैं कान लगाकर सन ु ती हैं जंगल की जमातें

हर बार वही आप्तवचन –-

फक जंगल में घास की कमी नहीं है

फक इस साल अच्छी बाररश के आसार हैं फक अब हररयाली में

दो-से-तीन गन ु ा तक की बढ़ोत्तरी होगी फक जंगल का हरापन

तबाह करनेवाली नीलगायों को मख् ु यधारा में लाया जा रहा है

फक सीमा-पार से आनेवाले गैंडों से सख्ती से ननपटा जाएगा

की कहीं से धचंता की कोई बात नहीं | भेडड़यों के प्राण उनके दा​ाँतों में होते हैं अतलस्पशा

97


उनके खून लगे दा​ाँतों में

और उनकी ताक़त भेड़ों के खन ू में मोटे तौर पर एक भेडड़या इतना चालाक होता है

फक एक करोड़ भेड़ों को मात दे सकता है यदद फकसी तरह फाँसकर

एक-आध लशकार होता भी है तो जमीन पर

रक्तबीज टपकाए बबना नहीं मरता

ण्जससे भेड़ों की करोड़ों-करोड़ की संख्या उनका कुछ नहीं बबगाड़ पाती जो कोई आगे बढ़ता है

वह उनके जबड़ों-बीच शहीद होता है | भेड़-चाल में महज ददनौंधी होती है रतजगा बबल्कुल नहीं होता

भय और फुटमत के कारण

जंगल की इससे बड़ी ववडम्बना और क्या हो सकती है

फक हर हाल में मारी जाती हैं भेड़ें और उनके भाई-बंद

चरते हुए, सोते-सस् ु ताते हुए खोह-खड्ड में नछपे हुए

या सारे जंगल के सामने बाग़ी करार करके और आाँसू बहाया जाता है घडड़यालों द्वारा 98

अतलस्पशा


शोक-संवेदना प्रकट करते हैं तें दए ु

श्रद्ा के फूल चढ़ाता है बड़कन्ना लसंह जबफक अधधसंख्य भेड़-भीड़ ठगी आाँखों से

हर रोज दे खती-सन ु ती है जंगल के हर मह ु ाने पर

धत ू ों का उठता, लहराता, स्थावपत

वही भेडड़या–पताका, नारा और हाथी-दा​ाँत |

अतलस्पशा

99


खण्डडत नीलपवात अब भी

उन सद ु रू नील पवातों से बातें करता मन

ननस्संज्ञ हो जाता है बातों-बातों में

मधुमय ननश्शब्दता

असंख्य अस्फुट नप ू रु ों से छमकते छाया-लास्य की तरह

मझ ु े तन्मय कर दे ती है

फफर उन ववराट क्षणों में उन नीली ऊाँचाइयों तक उन्हीं के बराबर

मैं बहुत ऊपर उठ जाया करता हूाँ | अब भी

वे नीलकांत चोदटया​ाँ अपनी ऊाँचाई पर

कसकर बा​ाँध लेती हैं मझ ु े जीवन-संस्पशा दे ती उनकी उत्फुल्ल

नील-लोदहत आभा का

100

अतलस्पशा


उनकी वप्रयदशान

घादटयों की सघ ु ढ़ता का वैसे ही धथर

अलभराम सौन्दया मझ ु े दे र-दे र तक टस-से-मस

नहीं होने दे ता | अब भी

वे अप्रनतम एकांत पहाडड़या​ाँ

जीवन का रं गस्थल लगती हैं उनका नील-हररत आाँचल

उतना ही ननकट लगता है उतनी ही हृदमाल

लगती हैं उनकी मद ु बा​ाँहें ृ ल धुाँधले-धुाँधले क्षक्षनतज से ऊपर उठती

बहुरं गी धचत्रलेख की तरह ढे रों बातें करतीं वे पवात लशखाएाँ

फकतनी मौन, फकतनी मख ु र होती हैं परू ी तरह अब भी

मेरा सामना फकए हुए | पर अब

उन नील पवातों से अतलस्पशा 101


भल ू कर भी नहीं उभरता एक भी इन्द्रधनष ु

नहीं कौंधती एक भी तडड़त

अब उनकी लशखाओं पर नहीं नघरते शीतल, जलद मेघ

अब उनकी चोदटयों की फा​ाँकों में नहीं उगता चंदमख ु

अब वहा​ाँ

तारा कोई नहीं ददखता | ओ मेरे मन के दे वता ! मैंने ऐसा

टूटा हुआ नीलधगरर नहीं मा​ाँगा था मैंने नहीं मा​ाँगी थी ऐसी नेत्रववहीन

लसर-कटे धड़-जैसी सपनीली चोदटया​ाँ जहा​ाँ से ननदा य बेहेललए के समान

सारे स्वखणाम-रजतमय सौन्दया पर वज्रपात कर

मेघ, चन्द्र, तारक, तडड़त तम ु ने सब काटकर फेंक ददए |

102

अतलस्पशा


हे दे वता !

तम ु अपने फकस दे वत्व के बल पर मझ ु े इस ऊाँचाई पर

इस नीले, अंध शन् ू य में उठा लाए हो

जहा​ाँ से न धरती ददखती है न धरातल

न ही आसमान का वह आलोक ण्जसे पाने का

मैंने वरदान मा​ाँगा था |

(लो ! अब हर लो तम ु ,

अपना यह खण्डडत नीलपवात भी )

अतलस्पशा 103


संभव तण ृ रूप हररत, संभव सन ु ो वप्रये, अब नहीं चहकते प्राणों के पा​ाँखी होठों पर नहीं सरसते लय-नीड़ों में सा​ाँसों के सहमे सव ु ास

कैसे तम् ु हें सहे जाँू वप्रय, अब बढ़कर पात-पात से आगे मग ृ छौनों से भीतर-बाहर सारे गरल कुला​ाँच रहे |

ओ प्राण वप्रये ! ओ हृद-लनतके ! ओ कुक्षक्ष-ज्योनत संसनृ त की ! अब बवु द्-वण्ह्न की दाहकता अंतस्तल में भी व्याप गई

चलो नछपा दाँ ू त्याग तम् ु हें उस अदृश ् दे व के अन्तःपरु में

जहा​ाँ से आई हो धरती पर मझ ु मण ृ मय की साध सजाने | तम ु दे ख रही यग ु खींच रहा परमाणु सधी बम-प्रत्यंचा आ रहा चला कैसा प्रवात उच्छृंखल अट्टहास लेकर

छल-बल का डंका पीट रहा ननमाम हाथों से क्रूर काल

ववकललत ननरीह संवालसननयों-सी डरी ददशाएाँ का​ाँप रहीं | ओ सन ु ो सध ु ,े अच्छा ही है आ रहे ददवस काले भी हों धरती से फूटे मातंड बबन नभ की नील-वपछौरी के

न अमाननशा कंु तल खोले फैला हो फफर भी अंधकार

फकतना भी राकाशलश चमके पन ू म फफर भी धुर काली हो | अच्छा है ननदा य ववज्ञ दनज ु बरसा दे संधचत आयध ु सब और स्वयं हो जाय भस्म अपने वैभव के फूत्कार में

ववषधर वरदानी मखणमाया में झम ू उठे दानव-प्रनतभा 104

अतलस्पशा


और उठाकर धरे हाथ फफर वही स्वयं अपने लसर पर | फफर ववहान के नव नभ में जब खखल आये नव नीलकला जब नवल उषा ण्स्मत फेरे , जब नव संध्यकया संकेत करे फफर सोहर गाती इठलाती जब नव ऋतए ु ाँ नाचें -गाएाँ

जब सरू ज हाँस सोना बा​ाँटे, जब चंदा चा​ाँदी नछतराए | धर रूप वप्रये, तण ृ की हरीनतमा का आना मैं भी मोती बन आ तम ु पर छा जाऊाँगा तम ु पलकों से छूकर अमरत्व वपला दे ना

मैं होठों से तम ु को छू फफर जी जाऊाँगा |

अतलस्पशा 105


वे महान नहीं थे यदद तम् ु हारा आशय

लसकन्दर और उसके जैसे महानों से है तो मझ ु से मत पछ ू ो महानों के नाम |

ण्जन्होंने अपने खेतों में काम फकया अपने घर का अन्न खाया अपने घड़े का पानी वपया

अपने गा​ाँव की सीमा कभी पार नहीं की ऐसों के हत्यारे हैं तम् ु हारे महान |

सब ु ह की हवा ऐसे कधथत महानों को कभी ताजा नहीं लगी होगी

सा​ाँझ कभी उतरी नहीं होगी उनके घर उन्होंने कभी जाना नहीं होगा फकतनी भोली होतीं हैं रातें

फकतने हाँसमख ु होते हैं ददन

उनके तो चौबीसों घडटे कानों में बजता रहा होगा बाजा अहं के जय-पराजय का

वे कैसे महान हो सकते हैं | फकताबें भला फकसी की शत्रु हो सकतीं हैं

वे तो अनमोल अक्षरों के मोती बबखेरकर 106

अतलस्पशा


सच्चे लमत्र-जैसा खुल जाती हैं सामने सब के ऐसे लमत्रों के गढ़ जलाकर खाक कर दे ना राज, ताज और जवान बोटी के ललए दनु नया के खखले, आबाद दहस्सों में

भख ू े भेडड़यों की तरह घात लगाना, चक्कर काटना कभी महानता नहीं हो सकती |

उन्हें वीर कहना वीरता का अपमान है

असल में उनकी ददमाग़ी हालत ठीक नहीं थी जब उन्हें जरूरत थी दवा-दारू की

तब वे अपने ही बीमार सपनों से टकराए और टकराहट की राह में आनेवाले

खेत-खललहान, घर-बार, बाग़-बगीचे उजाड़ते गए | कभी दे खा है पाकड़ की कोंपलें या नीम की फूली डाल

आम का बौर ध्यकयान से दे खा है

जो कभी फकसी को नक ु सान नहीं पहुाँचाते इतराते हैं तो अपनी सीमाओं में जीते हैं तो लसफ़ा औरों के ललए

क्या ऐसे ननदोष थे तम् ु हारे वे महान | तम ु तो बस

खून से भीगे सा​ाँय-सा​ाँय करते यद् ु -क्षेत्रों में कटे लसरों के बीच शीषा​ासन लगाकर अपने बाएाँ पैर के अाँगठ ू े से

अतलस्पशा 107


हवा में महानता का इनतहास ललखते रहे हो | अब भी समय है

दरु ु स्त करो महानता की अपनी पररभाषा

ण्जसे तोतों की तरह लोग सददयों से रट रहे हैं शीषा​ासन छोड़ सीधी करो अपनी दृण्ष्ट्ट कम-से-कम बालपोधथयों में

तम ु उन्हें महान मत ललखो |

108

अतलस्पशा


तम ु कहा​ाँ हो गीतात्मा ! तम ु नहीं हो –ददन गया सा​ाँझ हुई रात बीती

सबेरा हुआ तम ु नहीं हो | तम ु नहीं हो –मैं हूाँ

घर-बार

फूल-पण्त्तया​ाँ हैं लोग हैं

दनु नया है

दनु नयावी धन्धे हैं तम ु नहीं हो | तम ु नहीं हो –होता हूाँ कभी घर

कभी बाहर कभी यहा​ाँ कभी वहा​ाँ

अतलस्पशा 109


हर कहीं

तम् ु हारा भ्रम है तम ु नहीं हो |

तम ु नहीं हो –मौसम आया लीची का

चला गया

दीवाली आई चली गई

तम ु नहीं हो | तम ु नहीं हो –भख ू है

मरी हुई नींद है

कुचली गई सबेरा है

उजड़ा हुआ अधमरे ददन हैं ननयनत है

तम ु नहीं हो | तम ु नहीं हो –वह अंत

वह सा​ाँझ 110

अतलस्पशा


वह रात

वह सब ु ह वे सा​ाँसें

वह प्यास वह डूबती एक आस सब कुछ

फकतना सामने है तम ु नहीं हो | तम ु नहीं हो

अदे ह गीते ! पर तम् ु हारी ये अथागाँज ू

नहीं जाती, नहीं जाती

ये अनश्वर

ये हृदव्यापी

ये कालजयी

गाँसीली अथागाँज ू नहीं जाती |

ओ सन ु ो,

तम ु कहा​ाँ हो गीतात्मा !

अतलस्पशा 111


ये भावपष्ट्ृ ठ

ये नेह-वेदना ये अक्षर ये शब्द

ये ब्रह्म ये सारा

अतल-स्पशा ये मेरे सारे स्वर-संभार

तम् ु हारे ललए हैं मेरे जन्म – जन्म का

पडय-फल

तम् ु हारा है |

112

अतलस्पशा



10

अतलस्पशा


अतलस्पशा

11


अतलस्पशा 12


अतलस्पशा

13


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