कु छ गीत कु छ ग़ज़ल, कु छ न म, कुछ क वताय...
लेखन : रजनीश सचान संकलन :
नेहा गु ता
एक उदासी कौन सी मेर उदासी कौन सी तेर उदासी रात क काल गु फा के प थर पर व न क बार क आकृ तयाँ उकेर ं हमने हर करदार को जी भर नहारा और हर करदार ने आँख तरे र ं रह गयी दोन क हर इक चाह यासी कौन सी तेर उदासी , कौन सी मेर उदासी …. ?? वा त वकता क सु लगती रे त पर थी व न क कोमल बदन वाल ख़ुमार िजंदगी आसान होती भी तो कैसे मर गयी आसान होने म बेचार रह गयी इक ट स दोन म ज़रा सी, कौन सी तेर उदासी, कौन सी मेर उदासी ?? मु त होकर आ माएं खु श बहु त थीं र त जाने पर घटाय खु श बहु त थीं खु श बहु त थे हरहराते सारे जंगल झू मती गाती हवाएं खु श बहु त थीं क पना से थी परे अपनी नकासी कौन सी तेर उदासी कौन सी मेर उदासी ?? ***
ग़ज़ल अ क़ बे-आब
से घर आये ,
द रया सा हल से लौट कर आये … झील के हाथ लग गया आँचल, चाँद -तारे ज़मीन पर आये … तत लयाँ ले उडीं धनक के रं ग, रौशनी जु गनू लू ट कर आये … यक-ब-यक बदला मौसम का मज़ाज, टह नय को अभी शजर आये म तो हर तौर उसके जैसा हू ँ , उसपे भी कु छ मेरा असर आये… आग म िज म रात भर सु लगा, और
वाब म गुलमु हर आये …
आँख करदार म रह ले कन, ज़ म आवाज़ म उभर आये ... एक दौर-ए- वसाल आया था, दौर-ए-उ मीद उ
भर आये
जब वो आये तो इस क़दर आये, अपने आने से पे तर आये … तु म भी 'रजनीश' दन उतरते ह , अपनी औकात पर उतर आये … ***
~~~ अनकह ~~~ अब जो मले ह हम एक ल बे अरसे बाद तो सोचता हू ँ ये कहू ँ , ये छूट गया था नह ं कहता वो बात कह दूँ , वो रह गयी थी फर नह ं कहता कभी कभी सोचता हू ँ वापस भी तो नह ं मोड़ सकता व त को चु प रह जाता हू ँ ***
~~~ श द:तु हारे और मेरे ~~~ पता है श द कहाँ से आते ह?? तु हारे, कसी शानदार / कर ने से उगाये गए बेहतर न उ नत क म के बीज से अंकु रत एकदम उ चत अनु पात म सद गम और बा रश के बीच वक सत कये गए दु नया के सबसे आला फलदार वृ
के
पु ट / व थ/ चमक ले/ आकषक फल क तरह और मेरे .......... अनायास उग आई जंगल क झरबेर के बेर जैसे ***
ग़ज़ल तू जब से कु छ आसपास सी है, हमार दु नया उदास सी है … हर एक भंवरा है बावरा सा, हर इक कल बदहवास सी है … ग़म अपने
यू ँ आहनी ह सारे?
ख़ु शी भी है तो ,कपास सी है … ज़बान क है ये बदगु मानी, या ज़हर ह म मठास सी है ?? है तेर चाहत क़बू ल, ले कन , ये चाहत इक इि तमास सी है … ये बात अब आम हो गयी है, म ख़ास सा हू ँ, तू ख़ास सी है … हज़ार बात ह ज़हन म और, हर एक बात इक क़यास सी है … हमारा र ता है आइना, पर, अब आईने म खटास सी है … तू दे ख ले गर, न कोई दे खे तेर नज़र इक लबास सी है … ***
~~~ आदमी अकेला नह ं मरता ~~~ आदमी अकेला नह ं मरता भू ख से
होने को तो कु छ भी हो सकता था
उससे पहले ….
म… तु म हो सकता था
मरते ह
तु म हो सकते थे, म
जू ठन खाने वाले कौ वे
चाँद … सू रज हो सकता था
मरते ह मेहनत क फसल हराम म उड़ाने वाले चू हे मरती है घात लगाकर दूध पी जाने वाल
~~~ 'होने' के पार ~~~
ब ल
मरता है फके हु ए टु कड़ पर पलने वाला वफादार कु ता मरता है पड़ोस मरता है मोह ला मरता है गाँव मरता है िजला मरते ह अ धकार मरती है सरकार मरता है दे श
रात… दन, और शैतान भी हो सकता था ई वर … बस एक सपना/ एक
दे खने भर क ह तो दे र थी … और कौन जानता है क जो ' है ' ये वह नह ं है जो 'हो सकता था' ?? या पता कसी ने हक कत म सपना दे ख ह
मरता है संसार
हो ….
मरते ह हम सब
कौन जाने ??
आदमी अकेला नह ं मरता भू ख से
***
उससे पहले समू ची स यता मर जाती है ***
वाब
लया
ग़ज़ल
िज म ने
ह बु ला र खी है,
तु झसे उ मीद लगा र खी है... उसको दे खो तो खफा र खी है, इक हं सी कस के दबा र खी है .. मौत है कब से खड़ी चौखट पर, दद ने जी त उठा र खी है .. तेर आँख म वफ़ा हो के न हो, मेरे सीने म दुआ र खी है ... संग दल है तू, बड़ी झू ठ खबर, दु नया वाल ने उड़ा र खी है ... चाँद म दाग़ नह ं है जानम, तेर त वीर छुपा र खी है... व ल क रात सतम तो दे खो, जाने क रट सी लगा र खी है ... सांस पकड़ी है तेर साँस ने, ज़ु फ़ ने जान फंसा र खी है... अपने नाखू न लगा कर तून,े मेरे ज़ म पे दवा र खी है ... है लहू मेरा, तेरे हाथ म, लोग कहते ह हना र खी है ..
इतनी तार फ़ न कर ऐ जा लम, हमने ल ज़ म सदा र खी है ... रात भर झूमते ह ये तारे , चाँद ने सब को पला र खी है ... कतने मासू म बने फरते ह, िजनक आँख म बला र खी है .. वो समंदर है मु ह बत का मगर, उसक आँख म हया र खी है .. जो है तकद र मटाता..... हमने, उससे तकद र लखा र खी है .. सादगी उसने अदा म अपनी, कस सल के से मला र खी है .. उसक बात म शकायत है बहु त, उसके लहजे म दुआ र खी है ... उसको चाहा, तो, जहां ने कैसी , हाय तौबा सी मचा र खी है?? उस सतमगर क हमाकत दे खो, मेर ग़ज़ल म भी आ र खी है ... ***
म नह ं चाहता क वताओं म जीना/ क वताओं म मर जाना चाहता हू ँ … नह ं चाहता क क वता मरे कह ं मेरे अ दर चाहता हू ँ वो सांस ले सपने दे खे और फर उ ह सच होते दे खने का भी सपना दे खे जी उठे अ दर ह कह ं … *** ~~~ सफ़र ~~~ म पैदा हु आ तो गीता हाथ म थी और तू लेकर पैदा हु आ कु र'आन फर िजंदगी भर इस एक फक के लए झगड़ते रहे हम मगर मेरे यार … न मु झे लोक पढना आया न आयत ह उतर सक तु झमे …. मेरे साथ जल गयी गीता और तेरे साथ मटट हो गयी कु र'आन …. ***
सच ..! मु ह बत आपको हु ई नह ं ? कभी नह ?ं ? हमने भी ये कह दया ....अजी नह ं , कभी नह ं ... रोम-रोम चीखता ... 'अभी नह -ं कभी नह 'ं , ले कन उसक रट रह ... कभी नह -ं कभी नह ं ... जो हमेशा आप-आप करके बात करता हो, ऐसे बदजु बां से दो ती ? नह ं ... कभी नह ं ... क़ैद कर सके कसी बना पे कोई, आज तक, दल ने ऐसी वारदात क नह ,ं कभी नह ं ... जो न होना तय है, तय है -होना है नह ं वह , यू ँ नह ं के, हो ये आज ह नह ं ... कभी नह ं ... तू ने हाथ से गुलाब रख़ के, बंद कर द जो, इ क़ क
कताब फर खुल नह ं , कभी नह ं ...
***
ग़ज़ल
इतना सादापन मेर जाँ ये भी कोई बात है ..?? सब क हाँ म आपक हाँ,ये भी कोई बात है ...?? है फ़ होता, सोग़ होता, फर तो कोई बात थी, िजंदगी और इतनी आसाँ ..!! ये भी कोई बात है ...?? पबत का खू न द रया बन मु सलसल बह रहा, लहलहाते स ज़ मैदाँ , ये भी कोई बात है ?? मु त लफ कहलाने का ऐसा भी
या इतना जू नू न,
त हा हो बैठा है इ सां , ये भी कोई बात है ?? कौन सा ल हा गु ज़ारे, कस ल हे को रोक दे , व त खु द इतना परे शां ये भी कोई बात है ??? आप आये आके बैठे और उठकर चल दए, सार मह फ़ल हैराँ-है राँ ...ये भी कोई बात है ?? आप भी तो शेख जी ईमानदार कु छ रखो, हम ह लाय सारा ईमां ये भी कोई बात है ?? कतने मजनू ं कतने फरहाद और कतने रो मयो, फर भी अब तक चाँद वीरां ये भी कोई बात है ?? ***
सल के से हारे हो तु म भी, शराफत के मारे हो तु म भी ... कसी के, सहारे , हो तु म भी, कसी के सहारे हो, तु म भी ... बहु त हो चु के कु
उठो अब,
जह नु म को यारे हो तु म भी ... मु ह बत से तौबा है रजनीश, यहाँ इक बेचारे हो तु म भी ... *** बना दे इ क म पागल ज़रा मशहू र कर दे, खु दा का वा ता तु झको,मु झे मजबू र कर दे ... है क ची उ ,क चा दल,मु ह बत भी है क ची , लगा दे आग सीने म इसे तंदरू करदे ... बहु त यारा है दल को ज़ म जो तू ने दया है , लगा दे हाथ सीने पर इसे नासू र कर दे ... शराब इस तौर ग द शै है तो वाइज़ से कह दो, पलट दे व त का द रया इसे अंगरू कर दे ... कलम क नोक से म जंग का ऐलान कर दूँ , तम ना है, यह ऐलान इक मजदूर कर दे ... जो इंसान को इंसान का दज़ा दे न पाए, ये मज़हब ऐसी अज है तो ना-मंज़ू र कर दे ... वो झू ठा इि कलाबी है महज़ आतंकवाद , मु ह बत से जो अपनी िजंदगी को दूर कर दे ...
म तु हारा दे वता हू ँ , सु न रह हो ? हाँ तु ह से कह रहा हू ँ .. सु न रह हो ...?? आइना इक आइने के
-ब-
है ,
म भी तु मको सु न रहा हू ँ ...सु न रह हो ...?? जानता हू ँ क़ैद है हर इक समा'अत, गो क ये भी जानता हू ँ ..सु न रह हो ... मेर खा तर तु मने ठु कराया है िजनको, म तो उनसे भी बु रा हू ँ ... सु न रह हो ?? मर भी जाऊं मट भी जाऊं तु मने चाहा,
या क ँ झू ठ हं सी चपकाई है, जब रोते-रोते थक गया हू ँ .. सु न रह हो?? ऐसी अफवाह ''न सु न कर भी म तु मको'' सु न रहा हू,सु ँ न रहा हू ँ ... सु न रह हो ??
लो तु ह पे मर मटा हू ँ ... सु न रह हो ?? तु मको अंदाजा नह ं है जान मेर , तु मसे कतना भागता हू ँ ... सु न रह हो??
मु झसे होकर ह तु हे जाना है सु न लो, म तु हारा रा ता हू,..ँ सु न रह हो?? रोज़ सु नता हू ँ क तु म सब दे खती हो , रोज़ तु मको दे खता हू ँ , सु न रह हो ... जब भी उसके नाम क न म सु नाऊं, सफ इतना चाहता हू ँ, सु न रह हो ... खु द से नफरत कर रहा हू ँ आजकल जो, म तु ह सा हो गया हू,ँ सु न रह हो ?? लोग कहते ह ख़ु दा हू ँ सु न रह हो?? या म इतना भी बु रा हू?ँ ..सु न रह हो ..?? ***
आँख उठाई जाए हाथ उठाया जाए , और कहाँ तक ज़ु म से घबराया जाए ... सू ख रह ह न दयाँ फसल जलती ह , ऐसे म वािजब है खू न बहाया जाए ... टू ट पड़ो फुटपाथो अपना हक़ छ नो, कब तक महल का ईमान जगाया जाए ... ई वर तो ई वर है कह ं भी रह लेगा, मं दर-मि जद तोड़ के घर बनवाया जाए ... इ कलाब आने म ग़र है व त अभी, और नह ं कु छ तो माहौल बनाया जाए ... *** म इक दन िजंदगी और िजंदगी क खाई नापू ँगा, है आ खर मौत क दहशत म कतनी काई नापू ँगा ... म ज़रा-ज़रा नापू ँगा म पाई-पाई नापू ँगा, धनक नापू ँगा खु शबु नापू ँगा पु रवाई नापू ँगा ... खु दा को नाज़ है त ल क़ पर खु द क अगर इतना, म तेर बा लय से चाँद क गोलाई नापू ँगा ... वो िजसको िजंदगी ने एक पल तनहा नह ं छोड़ा, वो मु झसे कह रहा है 'म तेर त हाई नापू ँगा ... सु ना है आपक चतु राई का कोई नह ं सानी, म अपने भोलेपन से आपक चतु राई नापू ँगा ... तु हार मज़हबी अ या शय से आज तक वाइज़, हमार न ल क
कतनी हु ई
सवाई नापू ँगा ...
िजसे आना था वो आया नह ं अब तक, मेरा भी स
मु रझाया नह ं अब तक ...
म इक साया हू ँ ... त हा,रगता साया, मेरा कोई भी हमसाया नह ं अब तक ... ख़ुदा इक कसी को
वाब है इक आसमानी
वाब,
वाब ये आया नह ं अब तक ...
नकलने को ह सब सै याद के कस-बल, प रंद को तरस आया नह ं अब तक ... तू मेरा है नह ,ं फर भी है कहलाता, म तेरा हो के- कहलाया नह ं अब तक ... हम, नानी सु नाती थी जो क से, याद आते ह,
कसीदे काढ़ते हो इ क के रजनीश !!
मगर नानी को भी मासू म ब चे याद आते ह?
ये धोखा आपने खाया नह ं अब तक ...?? ***
डसा करती है मु दा से टर क चहलक़दमी जब, धड़कते, गाँव के टोले-मु ह ले याद आते ह ... कु एं के पास वाल ख ी इमल याद आती है , कभी लू टे हु ए जामु न के गु छे याद आते ह ... ये
वामी लोग, बापू लोग जब
वचन सु नाएं तो,
गल म भ कते आवारा कु ते याद आते ह ... हज़ार और पांच सौ के नोट भी खु शयाँ नह ं दे त,े वो हँसते खल खलाते खोटे स के याद आते ह ... ग़ज़ल कहते हु ए रजनीश मु झको वाइज़-ओ-पं डत, न जाने
यू ँ यह उ लू के प े याद आते ह .... ***
मेर सार ग़ज़ल, सार न म, सार क वताय, सारे गीत .... इन सब ने मलकर एक सािज़श क ...और वो सब कह डाला जो-जो नह ं कहना चाहा था मने और जो कहना चाहा था ... बस वह हमेशा ल ज़ क पकड़ से दूर रहा ...
- रजनीश सचान
रजनीश क रचनाएँ ***