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आयोजन
व्यक्तित्व
कही-अनकही
सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक को 'जीवन गौरव सम्मान'
ये रातें नई पुरानी
जिसने बिखरे चीन को जोड़ा
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
बदलते भारत का साप्ताहिक
वर्ष-2 | अंक-38 |03 - 09 सितंबर 2018
सामाजिक बदलाव का पवित्र बंधन
सुलभ परिवार की महिला सदस्यों से राखी बंधवाते प्रधानमंंत्री नरेंद्र मोदी। भगवती, उषा शर्मा, आभा कुमार, आकांक्षा शर्मा, नित्या पाठक और ज्योत्सना पाठक (बाएं से दाएं)
ह
उरूज फातिमा
र साल, त्योहारी मौसम आते ही हम में से अधिकतर लोग खुशियों से भर जाते हैं और उम्मीद करते हैं कि इस साल यह त्योहार हमारे लिए शानदार रहेगा। हम में से अधिकतर लोग बहुत सी उम्मीदों और आकांक्षाओं के साथ सोचते हैं कि इस साल त्योहार हम सबसे अच्छे तरीके से मनाएंगे और खुशियों से हमारा घर भर जाएगा। यही
उम्मीद, आकांक्षा और प्रार्थना, कुछ साल पहले तक पूर्व स्कैवेंजर्स और विधवा माताओं की भी थी, जब वे उत्सव के रंगों से अपने जीवन को भरने की इच्छा रखती थीं। किसे पता था कि एक दिन उनकी इन इच्छाओं की पूर्ति भगवान के द्वारा इस तरह की जाएगी। जब सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक जैसा कोई मानवतावादी व्यक्ति उनकी सुरक्षा और खुशियों के लिए उन्हें अपनी 'सुलभ छतरी' के
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आवरण कथा
03 - 09 सितंबर 2018
खास बातें 26 अगस्त को पूरे देश में पवित्र रक्षाबंधन का त्योहार मनाया गया रक्षाबंधन श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है 2014 से विधवा माताएं और पूर्व स्कैवज ें र्स पीएम को राखी बांध रही हैं
आश्रय में ले लेगा। और अब पिछले कुछ वर्षों से, वही महिलाएं जिन्हें लोग अस्पृश्य और अशुभ मानते थे, हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रक्षा बंधन का पवित्र धागा बांध रही हैं। वृंदावन और वाराणसी की विधवा माताएं, जिनके परिवार ने अकेले, दुखी और निराशाजनक जीवन की अंधेरी गली में गली में छोड़ दिया था, उन्हें डॉ. विन्देश्वर पाठक और पीएम नरेंद्र मोदी जैसे लोग भाई और संरक्षक के रूप में मिल गए। यह बिलकुल किसी कहानी की तरह है, लेकिन यह सच है। ये पूर्व स्कैवजर्स ें और विधवा माताएं हर वर्ष डॉ. पाठक को राखी बांधती हैं और अब प्रधानमंत्री मोदी को भी पवित्र धागा बांध रही हैं। प्रेम, एकता और भाईचारे की मिसाल का त्योहार, यही तो रक्षाबंधन है।
रक्षाबंधन है क्या?
रक्षाबंधन का अर्थ है – ‘सुरक्षा का धागा’। यह एक प्राचीन हिंदू त्योहार है। यह हर वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। आमतौर पर यह हर साल अंग्रेजी महीने अगस्त में पड़ता है। भाई-बहन को स्नेह की डोर में बांधने वाले इस पवित्र त्योहार में बहन अपने भाई के मस्तक पर टीका लगाकर रक्षा का बंधन बांधती है, जिसे राखी कहते हैं। यह त्योहार उन कई अवसरों में से एक है, जिसमें भारत के पारिवारिक और सामाजिक संबंधों की दृढ़ता दिखती है। कई लोगों के लिए, त्योहार उनके जैविक परिवार से आगे बढ़कर, धर्मों, विविध जातीय समूहों में पुरुषों और महिलाओं को एक साथ लाता है और सबके साथ सद्भावना और प्यार पर बल देता है। रक्षा बंधन को अब एक भाई और बहन के पवित्र संबंध का उत्सव मनाने का एक दिन माना जाता है। फिर भी इतिहास में ऐसे उदाहरण हैं जहां राखी सिर्फ रक्षा या सुरक्षा रही हैं। यह पत्नी, बेटी या मां द्वारा
भावना को बढ़ावा देने के साथ, एक दूसरे की रक्षा करने और सामंजस्यपूर्ण सामाजिक जीवन को प्रोत्साहित करने में सहायता मिलेगी। आज के परिदृश्य में, रक्षा बंधन का एक अलग परिप्रेक्ष्य है। आज यह दिन नैतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक मूल्यों के जीवन भर रक्षा की प्रतिज्ञा दिलाता है। इस त्योहार के अनुष्ठानों से जुड़े मूल्य और भावनाएं पूरी मानव जाति के लिए एक बड़ा संदेश हैं, जो सद्भावना और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व पर टिका है। रक्षा बंधन का त्योहार सुरक्षा, धार्मिकता और सभी पापों के विनाशक के सभी प्रतिरूपों को दिखाते हुए खुशियां मनाता है।
सामाजिक कलंक की बेड़ियों को तोड़ना
डॉ. पाठक का मानना है कि ऐसी पहल न सिर्फ इन महिलाओं के जीवन में खुशियां लाएगी, बल्कि लोगों के सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव लाने में भी मदद करेगी
बांधा जा सकता है। यह त्योहार सिर्फ सगे भाई-बहनों के बीच पवित्र धागे के बंधन तक सीमित नहीं है, बल्कि चचेरे भाई-बहन या दूर परिवार के सदस्यों के बीच भावनात्मक संबंधों और कभी-कभी जैविक रूप से अलग पुरुषों और महिलाओं के बीच भी खुशियों और आपसी संबंधों की डोर थामे रिश्तों के साथ खुशियां मनाने का मौका देता है। रक्षा बंधन को अब भले ही एक भाई और बहन के बीच पवित्र-रिश्ते का जश्न मनाने के लिए एक दिन माना जाता हो। लेकिन इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां राखी का संबंध सिर्फ रक्षा या सुरक्षा से रहा है। हिंदू परंपराओं में ऋषि उन लोगों
को राखी बांधते थे, जो उनके पास आशीर्वाद लेने आते थे। ऋषि लोगों को बुराइयों से बचाने के लिए उन्हें पवित्र धागा बांधते थे। इसे 'पाप तोड़क, पुण्य प्रदायक पर्वा' कहा जाता था, जिस दिन सभी पाप खत्म हो जाते हैं और वरदान प्राप्त होता है। पहले, राखी का त्योहार भाईयों-बहनों के बीच सौहार्द को दर्शाता था, लेकिन अब यह उससे आगे बढ़ चुका है। कुछ लोग राखी के पवित्र धागे से पड़ोसियों और करीबी दोस्तों को जोड़ते हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को दर्शाता है। राखी उत्सव को सबसे पहले लोकप्रिय बनाने का प्रयास रवींद्र नाथ टैगोर द्वारा किया गया था। उनका मानना था कि इस त्योहार से एकता की
संस्कारों को निभाते हुए, 26 अगस्त को रक्षा बंधन के अवसर पर, पूर्व स्कैवेंजर्स उषा चौमर (अब उषा शर्मा) और भगवती के साथ सुलभ संस्था के सदस्य आभा कुमार, नित्या सिंह, ज्योत्सना पाठक और आकांक्षा शर्मा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और उनको राखी बांधी। यह पहली बार नहीं था, जब पूर्व स्कैवेंजर्स ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ रक्षाबंधन का पवित्र पर्व मनाया हो। डॉ. विन्देश्वर द्वारा मुक्त कराए गए, हाथों से मैला ढोने वाले कई पूर्व स्कैवेंजर्स, पिछले वर्ष रक्षा बंधन के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मिले थे और उन्हें राखी बांधी थी। इनके साथ वृंदावन और वाराणसी की विधवा माताएं भी अतीत में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राखी बांध चुकी हैं।
2014 में और उसके बाद
वृंदावन की विधवा माताओं को लंबे समय तक समाज से बहिष्कृत रखा गया। उन्हें रक्षाबंधन जैसे त्योहारों को मनाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन समाज में अपनी जगह पुनः प्राप्त करने के लिए उन्होंने एक छोटा सा कदम उठाया और सार्वजनिक रूप से रक्षाबंधन का त्योहार मनाया, साथ ही उनमें से कुछ ने 1000 पवित्र राखियों के साथ ‘भाई’ नरेंद्र मोदी से मिलने की तैयारी की। फिर छह विधवा माताओं का एक दल, जिनमें वृंदावन और वाराणसी से तीन-तीन थीं, को प्रधानमंत्री से मिलने की अनुमति मिली। वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोटो वाली ‘मोदी राखी’ अपने साथ ले कर गईं। इन राखियों को 100 विधवा माताओं
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आवरण कथा
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मन की बात
मे
इस देश के लोगों के विचारों, व्यवहार और रवैये को भारत की विधवाओं के प्रति कैसे बदलना है, जो उनकी मां और बहने हैं। डॉ. पाठक वाराणसी, वृंदावन और केदारनाथ घाटी में रह रही लगभग 1,500 विधवाओं के जीवन को बेहतर बनाने के लिए मदद कर रहे हैं
द्वारा स्वयं बनाया गया था, इन विधवा माताओं में अधिकतर 80 वर्ष के आसपास के उम्र की थीं। उन्होंने पीएम मोदी को राखी बांधी और उम्मीद जताई कि विधवाओं का जीवन अब बेहतर होगा। मोदी के साथ बैठक ने इन महिलाओं के बढ़ते आत्मविश्वास को जगजाहिर किया। साथ ही समाज की दमनकारी रीति-रिवाजों को पीछे धकेलते हुए, पिछले 2 सालों (2012 से) में इनके द्वारा की गयी प्रगति भी नजर आई । इस परंपरा को साल 2015 में भी निभाया गया, जब वृंदावन और वाराणसी की विधवा माताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए लगभग 1,000 विशेष राखी तैयार की और रक्षा बंधन के अवसर पर 29 अगस्त को पीएम के लिए भेजा। मीरा सहभागिनी आश्रम में रहने वाली बुजुर्ग महिलाओं ने नरेंद्र मोदी की तस्वीरों वाली राखी प्रधानमंत्री को भेजी। हाथों से मैला ढोने वाली पृष्ठभूमि से नाता रखने वाली 5 महिलाओं के एक समूह ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राखी बांधी। साल 2017 में भी, पांच पूर्व स्कैवेंजर्स महिलाओं के समूह ने 1,000 राखियां उन्हें भेंट की।
इन राखियों को सुलभ इंटरनेशनल द्वारा सहायता प्राप्त उत्तर प्रदेश के वृंदावन और वाराणसी की विधवा माताओं द्वारा डिजाइन किया गया था। प्रधानमंत्री को राखी बांधना, मैनुअल स्कैवेंजिंग जैसे कलंक के खिलाफ एक प्रमुख प्रतीकात्मक कदम होगा। यह एक बहुत दुखद बात है कि विधवाओं को अशुभ और मैला ढोने वालों को अस्पृश्य माना जाता है। सुलभ इंटरनेशनल की सहायता से, मैला ढोने की जगह इन लोगों को ब्यूटीशियन, सिलाई-कढ़ाई और पेंटिंग जैसे काम मिलने लगे हैं। इससे पहले, रक्षाबंधन के मौके पर, सैकड़ों मैनुअल स्कैवेंजर्स और विधवा माताओं ने भी हिंदू पुजारियों और संस्कृत के विद्वानों की कलाई पर राखी बांधी थी। वृंदावन में पांच शताब्दी पुराने गोपीनाथ मंदिर में एक विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जहां मिठाईयों के साथ खूबसूरती से सजाई गई टोकरी में राखी को पैक किया गया था। वृंदावन के ‘मीरा सहभागिनी’ आश्रम में रहने वाली विधवा माताओं ने पवित्र धागों के निर्माण में बड़ा योगदान दिया।
प्रधानमंत्री मोदी ने रक्षा बंधन की शुभकामनाएं दीं
रे प्यारे देशवासियों, नमस्कार। आज पूरा देश रक्षाबंधन का त्योहार मना रहा है। सभी देशवासियों को इस पावन पर्व की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। रक्षाबंधन का पर्व बहन और भाई के आपसी प्रेम और विश्वास का प्रतीक माना जाता है। यह त्योहार सदियों से सामाजिक सौहार्द का भी एक बड़ा उदाहरण रहा है। देश के इतिहास में अनेक ऐसी कहानियां हैं, जिनमें एक रक्षा सूत्र ने दो अलग-अलग राज्यों या धर्मों से जुड़े लोगों को विश्वास की डोर से जोड़ दिया था। अभी कुछ ही दिन बाद जन्माष्टमी का पर्व भी आने वाला है। पूरा वातावरण हाथी, घोड़ा, पालकी – जय कन्हैयालाल की, गोविंदा-गोविंदा की जयघोष से गूंजने वाला है। भगवान कृष्ण के रंग में रंगकर झूमने का सहज आनंद अलग ही होता है। देश के कई हिस्सों में और विशेषकर महाराष्ट्र में दहीहांडी की तैयारियां भी हमारे युवा कर रहे होंगे। सभी देशवासियों को रक्षाबंधन एवं जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं। ‘प्रधानमन्त्रि - महोदय! नमस्कारः | अहं चिन्मयी, बेंगलुरु-नगरे विजयभारती-विद्यालये दशम-कक्ष्यायां पठामि | महोदय अद्य संस्कृत-दिनमस्ति | संस्कृतं भाषां सरला इति सर्वे वदन्ति | संस्कृतं भाषा वयमत्र वह: वह: अत्र: सम्भाषणमअपि कुर्मः | अतः संस्कृतस्य महत्व: - विषये भवतः गह: अभिप्रायः इति रुपयावदतु |’ भगिनी ! चिन्मयि !! भवती संस्कृत – प्रश्नं पृष्टवती | बहूत्तमम् ! बहूत्तमम् !! अहं भवत्या: अभिनन्दनं करोमि | संस्कृत – सप्ताह – निमित्तं देशवासिनां सर्वेषां कृते मम हार्दिक-शुभकामना: मैं बेटी चिन्मयी का बहुत बहुत आभारी हूं कि उसने यह विषय उठाया। साथियों, रक्षाबंधन के अलावा श्रावण पूर्णिमा के दिन संस्कृत दिवस भी मनाया जाता है। मैं उन सभी लोगों का अभिनंदन करता हूं, जो इस महान धरोहर को सहेजने, संवारने और जन सामान्य तक पहुंचाने में जुटे हुए हैं। हर भाषा का अपना माहात्म्य होता है। भारत इस बात का गर्व करता है कि तमिल भाषा विश्व की सबसे पुरानी भाषा है और हम सभी भारतीय इस बात पर भी गर्व करते हैं कि वेदकाल से वर्तमान तक संस्कृत भाषा ने भी ज्ञान के प्रचार-प्रसार में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। लंबे समय से समाज से बहिष्कृत और त्योहारों व खुशियों से दूर की गई इन महिलाओं को, समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए किए जा रहे प्रयासों का यह कार्यक्रम एक हिस्सा था। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक का मानना है कि ऐसी पहलें न सिर्फ इन महिलाओं के जीवन में खुशियां लाएंगी, बल्कि लोगों के सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव लाने में भी मदद करेगी। अपने पति की मृत्यु के बाद विधवाओं को अभी भी परिवार से अपमान सहना पड़ता है। वे अपने परिवारों में किसी भी शुभ कार्य में भाग लेने से भी प्रतिबंधित हैं। उन्हें रंगीन साड़ियां और गहने पहनने की अनुमति नहीं है और वह केवल सफेद कपड़े ही पहन सकती हैं। इसीलिए, मेरा विचार यह है कि इस देश के लोगों के विचारों, व्यवहार और रवैये को भारत की विधवाओं के प्रति कैसे बदलना है, जो उनकी मां और बहने हैं। डॉ.
पाठक वाराणसी, वृंदावन और केदारनाथ घाटी में रह रही लगभग 1,500 विधवाओं के जीवन को बेहतर बनाने के लिए मदद कर रहे हैं। सामाजिक कलंक की बेड़ियों को तोड़ते हुए, अब ये महिलाएं होली, दिवाली, दुर्गा पूजा जैसे त्योहारों में भाग लेकर खुशियां मनाती और बांटती हैं। पूरी दुनिया में कम लागत वाले शौचालयों और स्वच्छता का प्रचार-प्रसार कर रही गैर-सरकारी संस्था सुलभ इंटरनेशनल ने विधवाओं के कल्याण के लिए कई पहलों की शुरुआत की है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी आश्रयों में रह रही विधवाओं के मरने के बाद जिस तरह से उनका अंतिम संस्कार किया जाता था, उसपर गहरी आपत्ति जताई थी। इन सब के पीछे यही विचार है कि किस तरह से इस देश के लोगों का व्यवहार और नजरिया विधवाओं के प्रति बदला जाए।
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सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक को 'जीवन गौरव सम्मान' समाज के प्रति अमूल्य योगदान के लिए डॉ. विन्देश्वर पाठक को भाजपा नेता और महाराष्ट्र विधान सभा के अध्यक्ष हरिभाऊ बागडे ने सम्मानित किया
डॉ.
एसएसबी ब्यूरो
बाबा साहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय औरंगाबाद ने 23 अगस्त 2018 को अपना 60 वां स्थापना दिवस मनाया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलपति, प्रोफेसर बी.ए. चोपडे ने सुलभ सैनिटेशन और सामजिक सुधार आंदोलन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक को समाज के प्रति उनके योगदान के लिए ‘जीवन गौरव सम्मान’ से नवाजा और उन्हें एक स्मृति चिन्ह, मानपत्र और शाल भेंट की। भाजपा नेता और महाराष्ट्र विधान सभा के अध्यक्ष हरिभाऊ बागडे ने डॉ. पाठक को यह प्रतिष्ठित सम्मान दिया। विश्वविद्यालय हर साल उन प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों को ‘जीवन गौरव सम्मान’ से सम्मानित करता है, जो सामाजिक, शैक्षणिक, चिकित्सा, पर्यटन और पत्रकारिता आदि के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। पुरस्कार ग्रहण करते हुए अपने संबोधन में डॉ. पाठक ने विश्वविद्यालय, प्रोफेसर बीए चोपडे और पुरस्कार स्क्रीनिंग कमेटी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की। उन्होंने खुद को यह पुरस्कार और विशेष
मैं उन सभी चीजों का समर्थन करता हूं जो हमारे प्यार, करुणा और मानवता की समझ को गहरा करते हैं -डॉ. विन्देश्वर पाठक पहचान देने के लिए आभार जताया। उन्होंने कहा, ‘मैं विनम्र और आभारी हूं, क्योंकि यह सम्मान सामाजिक कार्यों और मानवता की सेवा करने के लिए मेरी प्रतिबद्धता को और अधिक मजबूत करेगा।’ डॉ. पाठक ने कहा कि वह उत्साहित महसूस कर रहे हैं, क्योंकि यह पुरस्कार उन्हें उस शैक्षणिक उत्कृष्टता के केंद्र द्वारा दिया जा रहा है, जिसका नाम आधुनिक भारत के सबसे महान बेटों में से एक डॉ. भीमराव आंबेडकर के नाम पर रखा गया है। आंबेडकर, पीड़ित और दबे-कुचले समाज के सबसे बड़े मुक्तिदाता थे। मानवतावादी डॉ. पाठक ने आगे कहा, ‘मैं उन सभी चीजों का समर्थन करता हूं जो हमारे प्यार, करुणा और मानवता की समझ को गहरा करते हैं। यह मेरे जीवन दर्शन और सक्रिय समाजशास्त्र को सहारा देता है और मजबूत बनाता है। मैं जितना
कुछ करने में सक्षम हूं, यह मुझे उससे और अधिक करने की ताकत देते हुए और अधिक योग्य बनाता है। कुछ लोग कहते हैं कि सभी के लिए प्यार और करुणा के मेरे आदर्श ने ही मुझे असंभव चीजों को संभव बनाने का अधिकार दिया है, ठीक उसी तरह जैसे मैला ढोने वालों को घृणित कार्य से मुक्त कराना और विधवाओं को दुःख से भरे जीवन से बाहर निकालना संभव हो पाया। वैसे भी, मैं दुखी लोगों के लिए प्यार और करुणा के बिना, कुछ भी बड़ा और बेहतर करने में सक्षम नहीं हो पाता। मैं दिल की गहराई और बेहद जुनून से एक ऐसा भारतीय माहौल चाहता हूं जो स्वस्थ हो, एक ऐसा भारतीय समाज चाहता हूं जो सामंजस्यपूर्ण हो और एक ऐसा भारतीय दिल चाहता हूं जो सबके लिए प्यार और करुणा से भरा हुआ हो।’ स्वच्छता के अग्रदूत डॉ. पाठक ने अपने संबोधन में जोर देकर कहा, ‘डॉ. आंबेडकर का
महाराष्ट्र विधान सभा के अध्यक्ष हरिभाऊ बागडे के हाथों सम्मान ग्रहण करते डॉ. पाठक (बाएं) सम्मान समारोह को संबोधित करते डॉ. पाठक (दाएं)
नाम आशावाद को दिखाता है, साथ ही यह उम्मीद देता है कि हमारे भारतीय समाज का भविष्य हमारे जाति से भरे अतीत से बेहतर और उज्ज्वल होगा। मुझे उम्मीद है कि विश्वविद्यालय के 60 वें स्थापना दिवस का यह उत्सव सामाजिक सेवा और राष्ट्रीय कल्याण के लिए हमारे युवा छात्रों और विद्वानों को प्रेरित और उत्साहित करेगा।’ इसके साथ ही इस मौके पर डॉ. पाठक ने अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन, संघर्ष और उपलब्धियों के कुछ पहलुओं को भी साझा किया, जो उपस्थित विद्वानों और छात्रों की विशिष्ट सभा के लिए खासतौर पर बड़ी सामाजिक प्रासंगिकता रखता है। इस अवसर पर अन्य पुरस्कार विजेता सकल सोशल फाउंडेशन के अध्यक्ष और पदमश्री प्रताप पवार, प्रसिद्ध मराठी लेखक राव साहेब रंगराव बोरडे, बुलदाना शहरी सहकारी क्रेडिट सोसाइटी के अध्यक्ष राधेश्याजी चंदक, यूनेस्को के निदेशक डॉ. राजेंद्र शेंडे, नामदेव कमबल, भास्कर पेरे और तुकाराम जनपदकर गुरुजी उपस्थित थे।
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सुलभ
विधवाओं की स्थिति सुधार के पथ प्रदर्शक
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महान समाज सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर के वंशज, नीलाद्रि बनर्जी ने सुलभ ग्राम का दौरा किया
‘ज
खास बातें
एसएसबी ब्यूरो
ब तक इन लाभ उठाने वाली प्रथाओं को खत्म नहीं किया जाएगा, तब तक वेश्यावृत्ति, व्यभिचार, परस्त्रीगमन और भ्रूण हत्या के अपराध हमेशा बढ़ते रहेंगे... तब तक विधवा की पीड़ा तपती आग में जलती रहेगी...’ भारतीय समाज में हिंदू विधवाओं के उत्थान के लिए यह ईश्वर चंद्र विद्यासागर का मत था। महान शिक्षाविद, मानवतावादी और बंगाल के सामाजिक सुधारक ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अथक प्रयासों के कारण ही 1856 में, सिपाही विद्रोह से ठीक एक साल पहले, अंग्रेजी हुकूमत ने एक ऐतिहासिक कानून पारित किया था। विद्यासागर का पूरा जीवन संघर्ष, हिंदू विधवाओं को सम्मानजनक जीवन दिलाने के लिए था और उन लोगों के लिए समानता और गरिमा सुनिश्चित करना था, जिन्हें जाति व्यवस्था नीच, अशुद्ध और अपवित्र मानती थी। इस महान सुधारक की कहानी प्रतिबद्धता और करुणा की है - समाज को बेहतर बनाने की प्रतिबद्धता, विधवाओं की दुर्दशा (विशेष रूप से बाल विधवाओं) के प्रति करुणा। इसी ने उनके भावनात्मक और महत्वाकांक्षी अभियान को प्रभावित किया और उन्होंने युवा लड़कियों और महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने के लिए बड़ी लड़ाई लड़ी। ईश्वर चंद्र विद्यासागर 1891 में गुजर गए, लेकिन उसके बाद भी विधवाओं को उनके सामाजिक, निजी और आर्थिक अधिकारों से वंचित रखा गया। लेकिन साल 2012 में सुलभ संस्था के संस्थापक और सामाज सुधारक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने विद्यासागर की विरासत को आगे बढ़ाते हुए विधवाओं के लिए काम करना शुरू किया। विद्यासागर की पांचवीं पीढ़ी की वंशज नीलाद्रि बनर्जी ने जब सुलभ ग्राम का दौरा किया, तो वह अपने पूर्वजों की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए किए जा रहे कामों के प्रति डॉ. पाठक के समर्पण को देखकर बेहद खुश हुए। बनर्जी ने इस मौके पर कहा, ‘विधवा शब्द अपने आप में ही समस्या है। जब एक औरत अपने पति को खोती है, तो उसे विधवा कहा जाता है, लेकिन जब एक आदमी अपनी पत्नी को खोता है, तो उसे कुछ नहीं कहा जाता है। मुझे लगता है कि सबसे महत्वपूर्ण और अनूठी बात यह है कि
विद्यासागर ने विधवाओं के सम्मान के लिए संघर्ष किया विद्यासागर की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं डॉ. पाठक डॉ. पाठक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए डॉ. बनर्जी
‘आप भले ही इन कार्यों के बारे में जानते हैं, लेकिन डॉ. पाठक जैसे जमीनी स्तर पर काम करना, एक लेख पढ़कर सीखने से बहुत अलग है।’
विधवाओं के जीवन में सुधार लाने के लिए 150 साल लग गए हैं और अभी भी इस दिशा में किसी को काम करने की जरुरत पड़ रही है। इससे यह साफ है कि कितनी धीमी गति से उनके लिए काम हुआ है और 150 साल पहले यह काम कितना कठिन रहा होगा। निश्चित रूप से जो डॉ. पाठक कर रहे हैं, वह इन कल्याणकारी कामों को आगे बढ़ाएगा।’ उन्होंने आगे कहा, ‘आप इन गतिविधियों के बारे में जानते हैं, लेकिन डॉ. पाठक जैसे जमीनी स्तर पर काम करना, एक लेख पढ़कर सीखने से बहुत अलग है। और यही डॉ. पाठक का सबसे प्रमुख योगदान है। वह सच में रिसर्च और व्याख्याओं से इतर, जमीनी स्तर पर कुछ खास कर रहे हैं।’ डॉ. पाठक अभी भी अगस्त 2012 के उस दिन को याद करते हैं, जब रक्षाबंधन के आस-पास वह वृंदावन गए थे और वहां वैधव्य का जीवन जीने वाली माताओं से मिले थे। उनमें से अधिकतर वृंदावन की गलियों में भीख मांगने के लिए मजबूर
थीं। विधवा माताओं ने डॉ. पाठक को अपनी दुर्दशा की कहानी बयां की। उन्होंने बताया कि किस तरह उन्हें बिना पैसे, खाने और मूलभूत सुविधाओं के जीवन बिताना पड़ रहा है। डॉ. बनर्जी को सुलभ के अथक प्रयासों के बारे में बताते हुए डॉ. पाठक ने कहा, ‘जब भी कोई विधवाओं के लिए किए गए कामों का इतिहास में पन्ना पलटता है, तो राजा राम मोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर का नाम सबसे ऊपर दिखाई देता है। विद्यासागर के इस घृणित और अमानवीय प्रथा के खिलाफ किये गए प्रयासों से हमें आज भी साहस मिलता है।’ डॉ. पाठक ने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि किस तरह एक 7 साल की बच्ची को उसके ही घर में खाना देने से मना कर दिया गया, जब उसके पति की मौत हो गई। उससे कहा गया कि वह अब विधवा हो चुकी है, इसीलिए अब दूसरों की तरह पूरी-खीर नहीं खा सकती है। साथ ही, वह दूसरों की तरह सार्वजानिक रूप से लोगों के बीच में नहीं जा सकती है और न ही शुभ अवसरों पर भाग ले सकती है। जब विद्यासागर उस बच्ची के घर गए, उन्होंने उस बच्ची से बात की और उससे कहा कि अगर तुम नहीं खा सकती हो, तो मैं भी नहीं खाऊंगा। डॉ. पाठक ने बताया, ‘महिलाओं के विधवा होते ही उन्हें अशुभ घोषित करने की कुप्रथा के
खिलाफ ईश्वर चंद्र विद्यासागर पूरी जिंदगी लड़ते रहे। सुलभ भी उसी दिशा में काम कर रहा है। हम वृंदावन और वाराणसी की विधवाओं की देखभाल कर रहे हैं। वैधव्य का जीवन जीने वाली माताएं यहां सुलभ द्वारा सहायता प्राप्त आश्रमों में रह रही हैं और उन्हें गुजारे के लिए 2000 रुपए प्रति महीने भी दिए जा रहे हैं। डॉ. पाठक ने कार्यक्रम में मौजूद सभी लोगों से आग्रह किया कि वह सभी यह सुनश्चित करें कि समाज से ऐसी कुप्रथाओं को मिटाया जाएगा। उन्होंने कहा, ‘सामाजिक कार्य स्वयं के प्रयासों से शुरू होते हैं। सभी छोटे-छोटे प्रयास मिलकर ऐसी बुराईयों के खिलाफ बड़ी ताकत बन जाते हैं और प्रत्येक ऐसा प्रयास इतिहास में दर्ज होने चाहिए। डॉ. नीलाद्रि बनर्जी ने सुलभ की सुबह के वक्त होने वाली प्रार्थना में भी भाग लिया। बनर्जी का स्वागत पारंपरिक तरीके से शाल और माला के साथ किया गया और उन्हें मधुबनी पेंटिंग भेंट दी गई। प्रार्थना के बाद बनर्जी ने पूरे सुलभ ग्राम का दौरा किया। सुलभ टेक्नोलॉजी के बारे जानने और समझने के बाद उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि सुलभ तकनीक में बहुत ज्यादा सामर्थ्य है। यह टिकाऊ और सस्ती है इसीलिए इसे हर जगह अपनाया जाना चाहिए।’ बनर्जी ने अंत में कहा, ‘किसी भी समाज को विकसित होने के लिए, मुझे लगता है कि हम सभी को चाहे वह डॉक्टर हों, इंजीनियर हों या वैज्ञानिक, समाज में बहुत सक्रिय रोल निभाना है। सुलभ आना, बहुत कुछ सीखने के बराबर है। जो कुछ भी सुलभ और डॉ. पाठक कह रहे हैं, अगर हम उसे निभाएं तो निश्चित ही बड़ा बदलाव ला सकते हैं।’
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संरक्षण
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जेल में गौरैया का बसेरा तिहाड़ जेल के हेड वॉर्डर योगेंद्र कुमार ने जेल में बसाया गौरैया का नया संसार
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ना जाता है कि, गौरैया अब दिल्ली से बिल्कुल गायब हो चुकी है लेकिन यह पूरा सच नहीं है। दिल्ली से जब धीरे-धीरे गौरैया के आशियाने उजड़े तो फड़फड़ाते पंखों को नया ठिकाना जेल में मिला। दिल्ली की राजपक्षी गौरैया कहीं दूर नहीं गई, बल्कि दिल्ली में ही मंडोली जेल में रहती हैं। इनके उजड़े घोंसलों को फिर से तिहाड़ जेल के हेड वॉर्डर योगेंद्र कुमार ने बसाया। नतीजतन अब हजारों गौरैया जेल में बेफिक्र दाना चुग रही हैं। 1971 से योगेंद्र ख्याला के रघुवीर नगर में रह रहे योगेंद्र के परिवार में पत्नी सुनीता व बेटा- बेटी हैं। 1996 में जेल वॉर्डर भर्ती हुए। अब तिहाड़ जेल में हेड वॉर्डर हैं। परिंदों से योगेंद्र का रिश्ता ऐसे ही नहीं बना, एक जख्मी चिड़िया ने इनके मन को विचलित कर दिया था। योगेंद्र बताते हैं कि किस्सा साल 2006 का है जब तिहाड़ जेल के सीलिंग फैन से टकराकर एक चिड़िया बुरी तरह जख्मी हो
गई। एक वार्डर उस जख्मी चिड़िया को ऑफिसर के पास लेकर आया। तब योगेंद्र की उस अफसर के दफ्तर में ड्यूटी थी। योगेंद्र देख रहे थे। अफसर ने उस वार्डर से कहा कि इसे अस्पताल ले जाओ, लेकिन वह लड़का राजा गार्डन के उस अस्पताल से अनजान था। योगेंद्र टकटकी लगाए देखते रहे मगर कुछ बोल न सके। वह वार्डर जख्मी परिंदे को ले गया। उस रात मन उन्हें कचोटता रहा, क्योंकि योगेंद्र के घर के पास ही राजा गार्डन स्थित ऐनिमल एंड बर्ड्स केयर अस्पताल है। तब से योगेंद्र ने पूरी जिदंगी परिंदों के लिए लगा दी। अपने वेतन
16 जेलों में गौरैया दिवस मनाया गया। तिहाड़ जेल के डीआईजी एसएस परिहार ने कराया था। खुद योगेंद्र पांच साल में 37 स्कूलों में जाकर गौरैया के प्रति जागरुकता और कंप्टीशन करा चुके हैं
से हर महीने 10 प्रतिशत रकम वे परिंदों पर खर्च करते हैं। योगेंद्र ने बताया, शुरू से तिहाड़ जेल तैनात रहे हैं। मगर मंडोली जेल के शुरू होने पर साल 2016 में आठ महीने यहां तैनाती रही। तभी एक दिन गायब गौरैया नजर आईं। पहले तो गौरैया आने से डरीं। मगर दाना-पानी का जुगाड़ किया। दुकानों पर जा-जाकर पैकिंग वाले खाली गत्ते के डिब्बे इकठ्ठे किए। उन्हें घोंसलों की शक्ल देकर जेल परिसर के सुरक्षित जगहों पर फिट किया। दो चार दिन में ही गौरैया तिनके जोड़ते ही उन डिब्बों में घोंसले तैयार करने शुरू कर दिए। आज मंडोली जेल में करीब 70 डिब्बों में गौरैया के घोंसले हैं। गौरैया की देखभाल, उनके रखरखाव की इस मुहिम में योगेंद्र के साथ जेल प्रशासन व कैदी इस कदर जुड़े कि जेल नंबर 14 में बची हुई लकड़ियों को जोड़कर घोंसले बनाकर तैयार कर दिए। योगेंद्र की मुहिम को सराहा डेप्युटी सुपरिंटेंडेंट राजेंद्र कुमार ने। अब उनकी देखरेख में जेल प्रशासन व कैदी हजारों गौरैया का खूब ख्याल रखते हैं। पिछले साल 20 मार्च को गौरैया दिवस पर मंडोली जेल नंबर 13 में पहली बार बड़ा आयोजन किया गया। यह आयोजन मील का पत्थर साबित हुआ। सभी कैदी, जेल प्रशासन जुड़ गए। इसी साल 20 मार्च को तिहाड़ जेल के डीआईजी ने सर्कुलर जारी किया। सभी 16 जेलों में गौरैया दिवस मनाया गया। तिहाड़ जेल के डीआईजी एसएस परिहार ने कराया था। खुद योगेंद्र पांच साल में 37 स्कूलों में जाकर गौरैया के प्रति जागरुकता और कंप्टीशन करा चुके हैं। स्कूलों की तरफ से 50 से ज्यादा सर्टिफिकेट मिले हैं। कई पुरस्कार मिले हैं। योगेंद्र की मानें तो बीते कुछ सालों से ऊंची और फैलती इमारतों के दायरे, शहरीकरण, रहन-सहन में बदलाव, मोबाइल टावरों से निकलते रेडिएशन, कम हरियाली की वजहों से गौरैया की संख्या कम होती जा रही है। योगेंद्र बताते हैं, मंडोली जेल की तैनात के समय कोई गौरैया जख्मी हो जाए तो उसे डिब्बे में पैक करके वाया मेट्रो राजा गार्डन स्थित ऐनिमल केयर ऐंड बर्ड्स केयर सेंटर में भर्ती कराते थे। योगेंद्र ने अपने तौर पर तिहाड़ जेल में भी चिड़ियों की बाकी प्रजातियों को सरंक्षण किया हुआ है। अब तक अस्पताल में जख्मी परिंदों को 500 से अधिक बार ऐडमिट करा चुके हैं। घर में अलग से एक कमरा भी बनाया हुआ है। इसी 15 अगस्त के दिन चाइनीज मांझे से घायल चार चिड़ियों को बचाया था। घर लाकर इलाज किया। सुबह ठीक होने पर उन्हें आसमान में आजाद कर दिया। योगेंद्र ने दवाईयां घर में रखी हुई हैं। इस काम में पत्नी और बच्चे भी भरपूर सहयोग देते हैं। योगेंद्र का इस साल पदमश्री अवॉर्ड के लिए ऑन लाइन नाम भेजा गया है। (एजेंसी)
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पशुपालन
दूध उत्पादन हो जाएगा दोगुना
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आबादी और बढ़ते जीवनस्तर को देखते हुए अगले पांच साल में देश में दूध की मांग तेजी से बढ़ेगी। अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार ने समय रहते इसके लिए योजना तैयार कर ली है
रखा गया है। 19वीं पशुधन संगणना, 2012 के अनुसार भारत में 300 मिलियन बोवाईन (गोजातीय) आबादी है। 190 मिलियन गोपशु आबादी में से 20 प्रतिशत विदेशी तथा वर्ण संकरित (39 मिलियन) हैं तथा लगभग 80 प्रतिशत देसी तथा नॉन-डिस्क्रिप्ट नस्लोंं के हैं। हालांकि भारत में विश्व आबादी के 18 प्रतिशत से भी अधिक गाय हैं, लेकिन गरीब किसान की सामान्या भारतीय गाय प्रतिदिन मुश्किल से 1 से 2 लीटर दूध देती है। 80 प्रतिशत गाय महज 20 प्रतिशत दूध का योगदान देती हैं।
राष्ट्रीय गोकुल मिशन
सरकार का मानना है कि
दे
एसएसबी ब्यूरो
श में दूध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए गांवों स्तर पर दूध उत्पादन, दूध की खरीद और दूध से बनने वाले उत्पादों को बढ़ाने के जापान सहयोग करने जा रहा है। केंद्र सरकार ने अगले पांच वर्षों तक किसानों की आय को दोगुना करने के सरकार के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राष्ट्रीय डेयरी अवसंरचना योजना के लिए जापान अंतरराष्ट्रीय सहयोग एजेंसी (जाईका) से 20,057 करोड़ रुपए का कर्ज लेने का प्रस्ताव तैयार किया है। केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह के मुताबिक जापान के आर्थिक कार्य विभाग ने इस प्रस्ताव को
खास बातें 2021-22 तक 200-210 मिलियन मीट्रिक टन का उत्पादन करना होगा जाईका की मदद से पुराने दुग्ध संयंत्रों का होगा नवीनीकरण सरकार का 2022 तक किसानों की आय को भी दोगुना करने का लक्ष्य
अपनी सैद्धांतिक सहमति भेज दी है। जाईका से पैसा मिलने पर देश के 121.83 लाख दुग्ध उत्पादकों को जोड़कर गांव के स्तर पर 524.20 लाख किलोग्राम दूध प्रतिदिन की दूध शीतन क्षमता का सृजन किया जाएगा। भारत 1998 से विश्व के दूध उत्पादक देशों में पहले स्थान पर है।
सबसे ज्यादा गाय
गौरतलब है कि भारत में विश्व की सबसे बड़ी गोपशु आबादी है। देश में 1950-51 से लेकर 2014-15 के दौरान दूध उत्पादन 17 मिलियन टन से बढ़कर 146.31 मिलियन टन हो गया है। 201516 के दौरान दूध उत्पादन 155.49 मिलियन टन था। देश में उत्पादित दूध का लगभग 54 प्रतिशत घरेलू बाजार में बिकता है, जिसमें से मात्र 20.5 प्रतिशत ही संगठित सेक्टर में प्रसंस्कृत हो पाता है। ऐसे में देश के दुग्ध उत्पादक किसानों को इसका पूरा लाभ नहीं मिल पाता है। कृषि विभाग के एक आंकड़े के अनुसार देश में बढ़ती हुई दूध की मांग को पूरा करने के लिए 2021-22 तक 200-210 मिलियन मीट्रिक टन का उत्पादन करना होगा। ऐसे में देश में दुग्ध उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग ने डेयरी विकास के लिए राष्ट्रीय कार्य योजना का प्रारूप तैयार किया है जिसमें थोक मिल्क कूलिंग, प्रसंस्करण, डेयरी सहकारिता सोसाइटियों, दूध ढुलाई सुविधा और दूसरी सुविधाओं को बढ़ाने के लिए काम किया जाएगा।
भारत ने दूध उत्पादन देश में उत्पादित में अपने उच्च स्तर दूध का लगभग 54 प्रतिशत को बनाए रखा है घरेलू बाजार में बिकता है, जिसमें से फिर भी दूसरी मात्र 20.5 प्रतिशत ही संगठित सेक्टर ओर देसी तथा न ॉ न - डिस्क्रि प ्ट में प्रसंस्कृत हो पाता है। ऐसे में देश (जो किसी के दुग्ध उत्पादक किसानों को वर्ग में न आए) नस्ल के लगभग जापान की एजेंसी इसका पूरा लाभ नहीं 80 प्रतिशत गोपशु जाईका से मिले ऋण मिल पाता है कम उत्पादकता वाले के बाद ऑपरेशन फ्लड के समय के जर्जर 20-30 वर्षों पहले बनाए गए पुराने दुग्ध उत्पाद संयंत्रों का नवीनीकरण और विस्तार किया जाएगा। जिससे देश के लगभग 160 लाख दुग्ध उत्पादक किसानों को लाभ होगा।
गायों की दूध उत्पादकता
भारत फिलहाल दूध उत्पादन में दुनिया में पहले स्थान पर है। इसके बावजूद सरकार दुग्ध उत्पादन की मात्रा को बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास कर रही है और इस बार सरकार ने कृत्रिम गर्भाधान के लक्ष्य को बढ़ाने के साथ-साथ दूध उत्पादन के लक्ष्य को भी बढा कर 2023-24 तक 300 मिलियन टन पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। सरकारी आंकड़ो के मुताबिक भारत में 201516 के दौरान 155.48 मिलियन टन वार्षिक दूध का उत्पादन हुआ, जो विश्व- के उत्पादन का 19 प्रतिशत है। पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन विभाग, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने 2023-24 तक 300 मिलियन टन दूध उत्पादन का राष्ट्रीय लक्ष्य रखा है तथा उसके साथ-साथ इसी अवधि के दौरान 40.77 मिलियन प्रजनन योग्य नॉन-डिस्क्रिप्ट (जो किसी वर्ग में न आए) गायों की दूध उत्पादकता को 2.15 किग्रा प्रतिदिन से बढ़ाकर 5.00 किग्रा प्रतिदिन करने का भी लक्ष्य
हैं, जिनकी उत्पादकता में उपयुक्त प्रजनन तकनीकों को अपनाकर सुधार किए जाने की आवश्यकता है। दुग्ध उत्पादकता में वृद्धि करने की महत्वपूर्ण कार्यनीति कृत्रिम गर्भाधान (एआई) सुनिश्चित करना है। कृत्रिम गर्भाधान देश में बोवाईनों (गोजातीय) की आनुवंशिक क्षमता का बढ़ाते हुए उनके दूध उत्पादन और उत्पादकता को बढ़ाकर बोवाइन (गोजातीय) आबादी की उत्पादकता में सुधार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इस मूल गतिविधि को राष्ट्रीय गोकुल मिशन की एकछत्र योजना के अंतर्गत चल रही अग्रणी योजनाओं, राष्ट्रीय बोवाईन प्रजनन (एनपीबीबी) तथा देसी नस्लों संबंधी कार्यक्रम (आईबी) के माध्यम से पोषित किया जाता है। इन योजनाओं में दोहरे लाभ का विचार किया गया है, जैसे उत्पादकता में सुधार करना और दूध उत्पादन को बढ़ाना तथा किसानों की आय को बढ़ाना जिससे 2020 तक उनकी आय को दोगुना करने के सरकार के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। हालांकि योजना के अंतर्गत किसानों के घर तक सीएमएन पहुचाने की व्यवस्था में काफी सुधार किया गया है उसके बावजूद कृत्रिम गर्भाधान कवरेज अभी तक प्रजनन योग्य आबादी का 26 प्रतिशत ही है।
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जेंडर
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महिला सशक्तीकरण का निर्भीक अखबार
सबसे पहले वर्ष 2008 में बुंदेलखंड कुछ जागरूक ग्रामीण महिलाओं ने ‘खबर लहरिया’ नामक अपना टैब्लॉयड साइज का अखबार निकाला। आज यह अखबार देश के दो राज्यों तक ग्रामीण महिलाओं के सशक्तीकरण की बुलंद आवाज बन चुका है
‘ख
एसएसबी ब्यूरो
बर लहरिया’, यह आज न सिर्फ एक ऐसे अखबार का नाम है, जिसे महिलाएं निकालती हैं, बल्कि आज यह पूरे देश में महिला सशक्तीकरण के एक अभियान का नाम है। सबसे पहले वर्ष 2008 में बुंदेलखंड के एक छोटे-से गांव से वहां की जागरूक महिलाओं ने ‘खबर लहरिया’ नामक टैब्लॉयड साइज का अखबार निकाला। इस अखबार को जब वर्ष 2009 में यूनेस्को से ‘किंग सेन्जोंग’ अवॉर्ड मिला, तो इसकी चर्चा देश में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुई।
खास बातें
‘खबर लहरिया’ की पत्रकार
ग्रामीण परिवेश तथा ग्रामीण जन के प्रति भारतीय जनमानस में गहरी संवेदनाएं हैं। प्रेमचंद, रेणु, शरतचंद्र, नागाजरुन जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों ने ग्रामीण परिवेश पर काफी कुछ लिखा है, परंतु ग्रामीण पत्रकारिता की दयनीय स्थिति काफी कचोटती है। ये महिला पत्रकार हर मुश्किल का सामना कर दूरदराज के क्षेत्रों में जाती हैं, जहां बड़े-बड़े अखबारों के संवाददाता नहीं पहुंच पाते। उनके खबर लिखने का अंदाज भी काफी अलग होता है।
सबसे पहले बुदं ल े खंड के एक छोटेसे गांव से शुरू हुआ यह अखबार ‘खबर लहरिया’ को यूनेस्को से ‘किंग सेन्जोंग’ अवॉर्ड मिल चुका है
खांटी खबरों की दुनिया
खबरों के लिए अखबार के पत्रकार कई मुश्किलों का सामना करते हैं
आज देश में कई नामी-गिरामी महिला पत्रकार हैं, पर इनमें से शायद ही कोई हो जिनकी पत्रकारिता सीधे और पूरे तौर पर ग्रामीण अंचलों की महिलाओं की समस्याओं से जुड़ी हो और वे उनसे जुड़े सरोकारों और संघर्ष की बात मुखरता से करती हों। पर ‘खबर लहरिया’ ने करके दिखाया है। ग्रामीण परिवेश की ये महिला पत्रकार भले कम चर्चा में रहती हों पर ये अपनी जीवन स्थितियों से जिस तरह जूझते हुए खांटी खबरों की दुनिया को आबाद करती है, उसका कद अपने आप सबसे ऊंचा हो जाता है।
करते हुए कई दशक पहले झारखंड के दुमका के गौरीशंकर रजक ने अपनी बात अनसुनी रह जाने के बाद पन्नों पर अपनी पीड़ा व्यक्त कर उन्हें जगहजगह बांटना शुरू किया और धीरे-धीरे लोगों ने उनकी बातों पर ध्यान देना शुरू कर दिया। पत्रकारिका के जरिए शुरू हुई ग्रामीण सरोकारों के लिए शुरू हुई संघर्ष की यह यात्रा आज ‘खबर लहरिया’ के तौर पर कामयाबी का एक प्रेरक मॉडल है।
70,000 से ज्यादा पाठक
वैकल्पिक मीडिया
बुंदेलखंड से शुरू हुआ यह समाचार-पत्र वर्ष 2011 से बिहार के सीतामढ़ी और शिवहर जिलों से स्थानीय भाषा में न सिर्फ प्रकाशित होना शुरू हुआ, बल्कि यह 70,000 से ज्यादा पाठकों की पसंद भी बन गया। ग्रामीण पत्रकारिता का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत
बुंदेलखंड की व्यथा-कथा जानने और उसके गांवों को राह दिखाने में वैकल्पिक मीडिया से ही अब कुछ उम्मीदें रह गई हैं। वहां के आकड़े दिल दहला कर रख देते हैं। भव्य भारत से भरोसा उठ जाता है। जब ऐसी खबरों पर मुख्यधारा का मीडिया पर्दा
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आठ वर्ष पहले बिहार पहुंचा अखबार
डालने लगता है, तब भारत के अन्य ग्रामीण इलाकों की तरह यहां भी उम्मीद वैकल्पिक मीडिया से ही रह जाती है। ‘खबर लहरिया’ जैसे अखबारों से, जिसके ग्रामीण मीडिया नेटवर्क में उत्तर प्रदेश के दर्जनभर जिलों में रिपोर्टर सिर्फ महिलाएं हैं। उनकी चुनौतियां भी बड़ी अजीब किस्म की होती हैं। इन महिला पत्रकारों को अनजान नंबरों से लगातार अश्लील संदेश और धमकियां मिलती रहती हैं। चालीस
बिहार में दो जगहों से ‘खबर लहरिया’ का प्रकाशन हो रहा है। यहां भी इसका न केवल संपादकीय विभाग खुद महिला संभालती है, बल्कि इसकी बिक्री की जिम्मेदारी भी महिलाओं के हाथ में है
पत्रकारिता की पैदल राह
लक्ष्मी कहती हैं कि इस काम में सभी महिलाओं को प्रतिदिन आठ से दस किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। अखबार की खास विशेषता का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि यह अखबार बज्जिका भाषा में प्रकाशित किया जाता है। स्थानीय भाषा में ग्रामीण बेहतर तरीके से खबरों को समझ सकते हैं। गौरतलब है कि बज्जिका भाषा तिरहुत प्रमंडल के चार जिलों शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, वैशाली और दरभंगा प्रमंडल के समस्तीपुर और मधुबनी जिला के कुछ भागों में बोली जाती है। वह कहती हैं कि अन्य अखबारों के संवाददाता की तरह इस अखबार के भी संवाददाता ग्रामीण क्षेत्रों में घूम-घूमकर लोगों की समस्या जानते है और फिर उसके बारे में अधिकारियों से पूछते है। लक्ष्मी कहती है कि यह अखबार उन क्षेत्रों की खबरों को प्रमुखता देता है जो आज भी मीडिया से दूर है। से अधिक महिलाओं द्वारा चलाया जानेवाला यह अखबार आज उत्तर प्रदेश और बिहार से स्थानीय भाषाओं में छपता है। ‘खबर लहरिया’ को संयुक्त राष्ट्र के 'लिट्रेसी प्राइज' समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।
‘खबर लहरिया’ की पत्रकार
‘खबर लहरिया’ की पहली पत्रकार और संपादक कविता चित्रकूट के कुंजनपुर्वा गांव के एक मध्यवर्गीय दलित परिवार से आती हैं। बचपन में उनकी पढ़ाई नहीं हुई। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वो जिंदगी में कभी पत्रकार बनेंगी। वर्ष 2002 में उन्होंने ‘खबर लहरिया’ में पत्रकार के रूप में काम शुरू किया। वह कहती हैं, ‘इस अखबार ने मेरी जिंदगी बदल दी है। मेरे पिताजी ने बचपन से मुझे पढ़ाया नहीं और कहा कि तुम पढ़कर क्या करोगी, तुम्हें कलेक्टर नहीं बनना है। मैंने छुप-छुप कर पढ़ाई की। पहले था कि मैं किसी की बेटी हूं या फिर किसी की पत्नी हूं। आज मेरी खुद की पहचान है और लोग मुझे संपादक के तौर पर जानते हैं।
डकैतों के दबदबे वाले क्षेत्र
चित्रकूट और बांदा डकैतों के दबदबे वाले क्षेत्र हैं और कविता कहती हैं कि ऐसे इलाकों में दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं के लिए एक पुरुष प्रधान व्यवसाय में काम करना आसान नहीं है। वह कहती हैं कि हम पर लोगों का काफी दबाव था कि महिलाएं होकर हमारे खिलाफ छापती हैं। ज्यादातर लोग जो उच्च जाति के लोग थे, वो कहते थे कि आपके अखबार को बंद करवा देंगे।
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हार के सीतामढ़ी और शिवहर से प्रकाशित ‘खबर लहरिया’ इन दिनों न केवल महिलाओं में, बल्कि पुरुषों में भी काफी लोकप्रिय है। यहां भी इसका न केवल संपादकीय विभाग खुद महिला संभालती हैं, बल्कि इसकी बिक्री की जिम्मेदारी भी महिलाओं के हाथ में है। इस अखबार की सह-संपादक लक्ष्मी शर्मा बताती हैं कि जब उन्होंने आठवीं कक्षा पास की थी, तभी उनका विवाह हो गया। पति और जेठ का सहयोग मिला और आज वह स्नातक पास होकर महिलाओं के लिए कुछ कर पा रही है। प्रारंभ में ई-मेल करने को एक अजूबा कार्य समझने वाली लक्ष्मी आज फर्राटे से अपने कंप्यूटर पर उंगलियां चलाती है। शिवहर के तरियाणी क्षेत्र की रहने वाली लक्ष्मी बताती है कि ‘खबर लहरिया’ की शुरुआत अक्टूबर 2010 में ‘निरंतर ट्रस्ट’ और ‘प्रगति : एक प्रयास फेडरेशन-सामाख्या’ द्वारा
किया गया।
नौ महिलाओं की टीम
सीतामढ़ी के डुमरा थाना क्षेत्र के शांतिनगर में रहने वाली एक अन्य सह-संपादक समेत कुल नौ महिलाएं हैं, जो न केवल समाचार एकत्रित करती है, बल्कि खुद अखबार भी बेचती हैं। इनमें छह महिलाएं सीतामढ़ी जिले की, जबकि तीन महिलाएं शिवहर जिले की है। आठ पृष्ठों वाले इस अखबार में पहले पृष्ठ पर ताजा खबरें होती है तो अन्य पृष्ठों पर गांव, शहर, मनोरंजन और देश-विदेश की खबरों का भी समावेश होता है। अखबार का एक पृष्ठ महिलाओं के लिए होता है, जबकि अंतिम पृष्ठ पर संपादकीय आलेख होता है। एक हजार छपने वाले इस पाक्षिक अखबार में चार पृष्ठ रंगीन होते है। सहयोग राशि दो रुपए रखा गया है।
चालीस से अधिक महिलाओं द्वारा चलाया जानेवाला यह अखबार आज उत्तर प्रदेश और बिहार से स्थानीय भाषाओं में छपता है। ‘खबर लहरिया’ को संयुक्त राष्ट्र के 'लिट्रेसी प्राइज' समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है बड़े अखबारों ने हमारे खिलाफ कुछ नहीं निकाला तो फिर आपकी हिम्मत कैसे हुई। शायद इन्हीं दबावों का नतीजा है कि अखबार में बायलाइन नहीं दी जाती। इससे ये पता नहीं चलता कि किस खबर को किसने लिखा है।
निर्भीक पत्रकारिता
परेशानियों के बावजूद ये महिलाएं डटकर खबरें लिखती हैं- चाहे वो दलितों के साथ दुर्व्यवहार का मामला हो, खराब मूलभूत सुविधाएं हों, मनरेगा की जांच-पड़ताल हो, पंचायतों के काम करने के तरीके
पाक्षिक से साप्ताहिक
भविष्य की अपनी योजनाओं के विषय में लक्ष्मी कहती है कि उनकी टीम ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याएं इस अखबार के जरिए उठाना चाहती है। वह कहती है कि पाक्षिक से शुरू होने वाले अखबार को हम साप्ताहिक करना चाहते हैं। आम तौर पर आज मीडिया भी केवल शहरों की खबरों को प्राथमिकता दे रहा है, जिस कारण ऐसे अखबारों की आवश्यकता महसूस की गई। अधिकारियों या सरकार से मदद मिलने के विषय में पूछने पर वह कहती है कि मदद की बात तो दूर, कई बार तो वे कई समस्याओं पर जवाब देने से भी कतराते है। लक्ष्मी कहती है कि ‘खबर लहरिया’ का पहली बार प्रकाशन वर्ष 2002 में उत्तर प्रदेश के चित्रकूट से हुआ। फिर वर्ष 2006 में इसका प्रकाशन बांदा जिले से भी होने लगा। आज इन स्थानों पर इस अखबार के पाठकों की संख्या काफी है। पर टिप्पणी हो, या फिर सूखे की मार से परेशान किसानों और आम आदमी की समस्या हो। ये महिला पत्रकार हर मुश्किल का सामना कर दूर दराज के क्षेत्रों में जाती हैं, जहां बड़े-बड़े अखबारों के संवाददाता नहीं पहुँच पाते। उनके खबर लिखने का अंदाज भी काफी अलग होता है। साथ ही इनका कहना है कि वो अपने अखबार में नकारात्मक खबर ही नहीं, सकारात्मक खबरें भी छापती हैं। गैर सरकारी संगठन निरंतर की शालिनी जोशी, जो अखबार की प्रकाशक भी हैं, कहती हैं कि जिस तरह ये महिलाएं खबरें लाती हैं, वह कई लोगों को अचंभे में डाल देती हैं।
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स्वच्छता
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आइवरी कोस्ट
शौचालय और साफ पानी का लक्ष्य
सुरक्षित पेयजल और उपयुक्त स्वच्छता की पहुंच लोगों तक न होने से स्वास्थ्य के साथ पर्यावरण पर भी गंभीर असर पड़ता है
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एसएसबी ब्यूरो
इवरी कोस्ट (कोटे डी आइवर) में स्वच्छता और जल गुणवत्ता के संबंध में अधिकतर परेशानियों के लिए 2007 में समाप्त हुए गृह युद्ध को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। इस संघर्ष ने, देश में महत्वपूर्ण जल आपूर्ति बुनियादी ढांचे को नुकसान पहुंचाया। उसके बाद संघर्ष पुनर्निर्माण ने इस व्यवस्था के रखरखाव और उन्नत जल व स्वच्छता प्रणालियों की मरम्मत की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। आइवरी कोस्ट में 80 लाख से अधिक लोगों को पर्याप्त स्वच्छता सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं, जिससे पानी से संबंधित बीमारियों का खतरा बढ़ा दिया है। 40 लाख से अधिक लोगों की सुरक्षित पेयजल तक पहुंच नहीं है। जबकि ग्रामीण इलाकों में ये संख्या और बड़ी हो जाती है, जहां 46 प्रतिशत ग्रामीण आबादी की पहुंच साफ पानी तक नहीं है और 87 फीसदी लोग पर्याप्त स्वच्छता की पहुंच से दूर हैं। आइवरी कोस्ट में पानी की गुणवत्ता के संकट के पीछे दो प्रमुख समस्याएं हैं। पहली, कई समुदायों, विशेष रूप से ग्रामीण लोगों को, न केवल सुरक्षित पेयजल तक पहुंचने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, बल्कि पर्याप्त मात्रा में जितना पानी मिलना चाहिए वो भी नहीं मिल पा रहा है। दूसरी समस्या है, सीवेज इंफ्रास्ट्रक्चर और स्नानगृह की,
खास बातें
समुदायों तक सुरक्षित पेयजल पहुंचाने में कठिनाई सीवेज और शौचालयों की पहुंच बहुत सीमित है स्वच्छ पानी और उचित स्वच्छता के बिना, स्थायी विकास असंभव है
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जो विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में भी पहुंचने में कई कठिनाइयों का सामना कर रही हैं। यह समस्या बहुमुखी है, और शहरी और ग्रामीण दोनों समुदायों को अलग-अलग तरीकों से प्रभावित करती है। यही समस्याएं दरअसल कालरा जैसी पानी की वजह से पैदा होने बीमारियों के संचरण का खतरा बढ़ा देती हैं। 2007 में ही जिसके उन्मूलन का दावा का किया जाता है, वह गिनी कृमि रोग भी यहां है। असुरक्षित पेयजल की वजह बाल मृत्यु दर बढ़ जाती है। वर्तमान में, कई बच्चे डायरिया और इसी तरह की अन्य बीमारियों से काल के गाल में समा जाते हैं। तेजी से शहरीकरण वर्तमान जल संकट के मुख्य कारणों में से एक है। गृह युद्ध के बाद, आइवरी कोस्ट की राजधानी यमौसौकोरो में आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों का बड़े पैमाने पर आना हुआ। शहर में मौजूदा समस्याओं को बढ़ाते हुए, जनसंख्या में इस वृद्धि ने स्थिति और खराब कर दी। क्योंकि बढ़ी हुई जनसंख्या के लिए शहर में पर्याप्त कुएं या पर्याप्त सीवेज और स्वच्छता सुविधाएं नहीं हैं। जल संकट का असर शिक्षा पर भी पड़ता है। यूएसएआईडी के अनुसार, ‘स्कूल जाने से पहले पीने और नहाने के लिए पानी इकट्ठा करने के परिणामस्वरूप, पड़ोस के सभी बच्चे लगातार थके हुए और बीमार रहते थे, और इससे उनके अकादमिक प्रदर्शन पर बहुत असर पड़ता था।’ इसका सबसे बड़ा नुकसान लड़कियों को हुआ, जो मुख्य रूप अपने परिवारों के लिए पानी लाने
40 पेयजल उत्पादन इकाइयों को स्थापित करेगा एसयूईजेड
सयूईजेड और आइवरी कोस्ट के आर्थिक आधारभूत संरचना मंत्रालय ने 40 कॉम्पैक्ट मॉड्यूलर पेयजल उत्पादन इकाइयों की आपूर्ति और स्थापना के लिए 1 9 मिलियन यूरो के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए हैं। 92,000 m3/ दिन की कुल उत्पादन क्षमता के साथ, ये इकाइयां 17 क्षेत्रों में 18 कस्बों को आपूर्ति करेंगी। वे सभी चयनित की गई प्राथमिकता वाली साइटों पर, 10 से 24 महीने की अवधि में स्थापित की जाएंगी। यह परियोजना आइवरी कोस्ट की 20162020 राष्ट्रीय विकास योजना का हिस्सा है और लगभग 450,000 निवासियों की पेयजल आवश्यकताओं को पूरा करेगी। 2013 से, एसयूईजेड ने आइवरी कोस्ट में इस प्रकार की कई इकाइयों को स्थापित किया है। इसी अनुभव के आधार पर आगे के निर्माण पर योजनाएं बनाई जा रही हैं। इस व्यवस्था ने एक ऐसा मॉडल विकसित किया है, जिसे बड़े पैमाने पर अपनाया जा सकता है। वितरित की जाने वाली पहली दस इकाइयों
का बोझ उठाती थीं। साथ ही जब वे किसी तरह स्कूल जाती थीं, तो उनके लिया स्वच्छता सुविधाएं नहीं होती थीं। देश-दुनिया के कई संगठन, आइवरी कोस्ट में पानी की गिरती गुणवत्ता के संकट को दूर करने में जुटे हैं। चैरिटी वॉटर ने इससे निपटने के लिए देश में 190 अलग-अलग परियोजनाओं को वित्त पोषित किया है और नवंबर 2017 तक 1,146,687 डॉलर का निवेश कर चुकी है। यूनिसेफ जल और स्वच्छता ने भी एक बहुपक्षीय दृष्टिकोण अपनाते हुए स्वच्छ पेयजल, सीधे समुदायों, स्कूलों और
को, उन स्थानों पर स्थापित किया जाएगा, जहां पानी की समस्या अन्य जगहों की अपेक्षा अधिक है। साथ ही, उन स्थानों को भी चिन्हित किया जा रहा है, जहां एक आपूर्ति व्यवस्था सुगम नहीं है या मौजूदा उपचार संयंत्र दोषपूर्ण अथवा अप्रचलित होने के कारण पेयजल की आपूर्ति में ज्यादा परेशानियां आ रही हैं। यूसीडी® जल उपचार इकाइयां प्रमापीय होती हैं और स्थिति के अनुरूप ढल जाती हैं, उन्हें जल्दी से वितरित और स्थापित किया जा सकता है, और यह विभिन्न प्रकार के सतही जल के लिए उपयुक्त है। वे यूरोपीय गुणवत्ता मानकों को पूरा करती हैं, और पानी का एक अत्यंत विश्वसनीय स्रोत प्रदान करती हैं। अस्पतालों को आपूर्ति कर रहा है। साथ ही स्वच्छता और स्वास्थ्यकर चीजों को बढ़ावा देते हुए, वह पानी से संबंधित बीमारियों को रोकने के लिए कम पानी की गुणवत्ता से महामारी संबंधी प्रभाव का सर्वेक्षण भी कर रहा है। शहरी जल आपूर्ति परियोजना का लक्ष्य जल गुणवत्ता को सुधारना और लोगों तक पानी की पहुंच बनना है। साथ ही शहरी जल आपूर्ति क्षेत्र में राष्ट्रीय जल एजेंसी की वित्तीय प्रबंधन और वित्तीय नियोजन क्षमता को मजबूत करना भी इसके लक्ष्य में शामिल है।
03 - 09 सितंबर 2018
स्वास्थ्य
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बुजुर्गों के बीच 'अडल्टकेयर' सेवाएं लोकप्रिय बुजुर्गों की संख्या वर्ष 2050 तक बढ़कर 34 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है, जो संयुक्त राष्ट्र के 31.68 करोड़ के अनुमान से अधिक है
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प्रज्ञा कश्यप
रत भले ही दुनिया का सबसे युवा देश है, लेकिन एक हकीकत यह भी है कि भारत में बुजुर्गों की आबादी उम्मीद से अधिक तेजी से बढ़ रही है। बुजुर्गों की संख्या 2050 तक बढ़कर 34 करोड़ तक पहुंचने की संभावना है, जो संयुक्त राष्ट्र के 31.68 करोड़ के अनुमान से अधिक है। यह एक स्पष्ट संकेत है कि भारत अनुमान से अधिक तेजी से बूढ़ा हो रहा है। इन अनुमानों ने स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा किया है कि क्या हम तेजी से बढ़ रही बुजुर्गो की आबादी को गुणवत्तापूर्ण चिकित्सा व समुचित देखभाल के लिए तैयार हैं? बढ़ती उम्र न केवल शारीरिक, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती है। इसीलिए विदेशों की तर्ज पर अडल्टकेयर व होमकेयर कॉन्सेप्ट भारत में तेजी से लोकप्रिय हो रहा है। इसके तहत घर पर ही बुजुर्गों का इलाज और स्वास्थ्य की देखभाल के साथ उनका अकेलापन भी दूर किया जाता है। नई दिल्ली के पंचशील पार्क स्थित मैक्स हॉस्पिटल के जीरियाट्रिक्स व वरिष्ठ सलाहकार डॉ. जी.एस. ग्रेवाल ने कहा, ‘बुजुर्गों में अकेलापन अवसाद का सबसे बड़ा कारण है। मौजूदा समय में हर दूसरा युवा नौकरी के लिए दूसरे शहरों या विदेश का रुख कर रहा है, जिससे उनके वृद्ध मां-बाप अकेले रह जाते हैं। कई बार जब माता-पिता अपने बच्चों के साथ कहीं बाहर जाते हैं तो वे अजनबी माहौल में खुद को ढाल नहीं पाते हैं, ऐसे में उन बुजुर्गों के लिए एडल्टकेयर सेवाएं अच्छा विकल्प हैं।’ बुजुर्गों में अवसाद ने खुद को भारत के लिए एक उभरती स्वास्थ्य चुनौती के तौर पर पेश किया
है। विभिन्न रिपोर्टों के मुताबिक, भारत में बुजुर्गों में अवसाद का औसत प्रतिशत 16 है जो विश्व के चार प्रतिशत के औसत से बहुत अधिक है। ग्रेवाल ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया, "55 वर्ष से ऊपर की आयु के अवसादग्रस्त लोगों को अन्य सामान्य लोगों के मुकाबले मस्तिष्क आघात या हृदयाघात से मरने की आशंका चार गुना अधिक रहती है। होम केयर सर्विस को भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का एक आवश्यक हिस्सा बनाए जाने की जरूरत है, ताकि बुजुर्गों की बीमारियों के बढ़ते बोझ से निपटा जा सके।" ये सेवाएं क्या हैं और कैसे काम करती हैं? इस बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ‘विदेशों के साथ ही भारत में भी बुजुर्गों की देखभाल के लिए होमकेयर और एडल्टकेयर सेवाएं काफी लोकप्रिय
हो रही हैं। इसके तहत देश के बड़े अस्पताल और चिकित्सा केंद्र प्रशिक्षित लोगों के जरिए बुजुर्गों की काउंसलिंग के साथ समाज में उन्हें मेल-जोल बढ़ाने को प्रेरित करते हैं।’ जनकपुरी स्थित वर्ल्ड ब्रेन सेंटर हॉस्पिटल के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. नीलेश तिवारी ने बताया, ‘वृद्ध लोगों में अवसाद मानसिक रोगों के सबसे आम कारणों में से एक है। जैविक और मनोवैज्ञानिक कारकों के अलावा वातावरण भी अवसाद एक महत्वपूर्ण कारण है। जब लोग अकेले रहते हैं और सामाजिक रूप से सक्रिय नहीं होते हैं तो उनमें नकारात्मकता घर कर जाती है और धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य गिरता चला जाता है। हर किसी को और खासकर वृद्ध लोगों को अकेलेपन से दूर रहना चाहिए और मेल-जोल के अपने दायरे को बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए।’
चिकत्सीय सेवा प्रदाता आईवीएच सीनियरकेयर के प्रबंधक स्वदीप श्रीवास्तव कहते हैं, ‘अकेलापन, अवसाद और अकाल मृत्यु काफी हद तक आपस में जुड़े होते हैं। इस समस्या से निजात पाने के लिए कई विकल्प और सेवाएं आ रही हैं। जो लोग अपने करियर और व्यक्तिगत प्रतिबद्धताओं के कारण अपने मां-बाप को समय नहीं दे पा रहे हैं, वे इन सेवाओं के जरिए अपने अभिभावकों को न केवल स्वस्थ, बल्कि खुश भी रख सकते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘यही नहीं, बुजुर्गों की सहायता के लिए प्रशिक्षित लोग उन्हें वाक पर ले जाते हैं, किताबें पढ़कर सुनाते हैं और उनसे बातें भी करते हैं। चूंकि यह काम चिकित्सा क्षेत्र में प्रशिक्षित हुए लोग करते हैं, इसीलिए इसका बुजुर्गों पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ता है और उनका शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य भी अच्छा रहता है।’
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पुस्तक अंश
8 महात्मा गांधी के बारे में जिस एक बात पर पर गांधीजनों और गांधी विचार के अध्येताओं में भी तकरीबन सहमति है, वह यह कि उनके अंदर धर्म और संस्कार के बीज शुरुआत में ही बहुत गहरे पड़ गए थे। यही नहीं, रामायण और भागवत जैसे ग्रंथों को लेकर भी उनके मन में आकर्षण रहा। अच्छी बात यह कि 20वीं सदी के इस महानायक के जीवन के शुरुआती प्रसंगों को जब देखते हैं तो उसमें बार-बार लगता है कि विचलन के शिकार होने के बावजूद वे स्वयं को बार-बार नीति और सेवा के मार्ग पर लाते हैं
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अपगुण केडे जो गुण करे, तो जगमां जीत्यो सही प्रथम भाग
10. धर्म की झांकी
छह या सात साल से लेकर सोलह साल की उम्र तक मैंने पढ़ाई की, पर स्कूल में कहीं भी धर्म की शिक्षा नहीं मिली। यों कह सकते है कि शिक्षकों से जो आसानी से मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। फिर भी वातावरण से कुछ-न-कुछ तो मिलता ही रहा। यहां धर्म का उदार अर्थ करना चाहिए। धर्म अर्थात आत्मबोध, आत्मज्ञान। मैं वैष्णव संप्रदाय में जन्मा था, इसीलिए हवेली में जाने के प्रसंग बार-बार आते थे। पर उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई। हवेली का वैभव मुझे अच्छा नहीं लगा। हवेली में चलनेवाली अनीति की बातें सुनकर उसके प्रति उदासीन बन गया। वहां से मुझे कुछ भी न मिला। पर जो हवेली से न मिला, वह मुझे अपनी धाय रंभा से मिला। रंभा हमारे परिवार की पुरानी नौकरानी थी। उसका प्रेम मुझे आज भी याद है। मैं ऊपर कह चुका हूं कि मुझे भूत-प्रेत आदि का डर लगता था। रंभा ने मुझे समझाया कि इसकी दवा रामनाम है। मुझे तो रामनाम से भी अधिक श्रद्धा रंभा पर थी, इसीलिए बचपन में भूत-प्रेतादि के भय से बचने के लिए मैंने रामनाम जपना शुरू किया। यह जप बहुत समय तक नहीं चला। पर बचपन में जो बीज बोया गया, वह नष्ट नहीं हुआ। आज रामनाम मेरे लिए अमोघ शक्ति है। मैं मानता हूं कि उसके मूल में रंभाबाई का बोया हुआ बीज है। इसी अरसे में मेरे चाचा जी के एक लड़के ने, जो रामायण के भक्त थे, हम दो भाइयों को रामरक्षा का पाठ सिखाने का व्यवस्था की। हमने उसे कंठाग्र कर लिया और स्नान के बाद उसके नित्यपाठ का नियम बनाया। जब तक पोरबंदर रहे, यह नियम चला। राजकोट के वातावरण में यह टिक न सका। इस क्रिया के प्रति भी खास श्रद्धा नहीं था। अपने बड़े भाई के लिए मन में जो आदर था उसके कारण और कुछ शुद्ध उच्चारणों के साथ राम-रक्षा का पाठ कर पाते है इस अभिमान के कारण पाठ चलता रहा।
लाधा महाराज का कंठ मीठा था। वे दोहा-चौपाई गाते और उसका अर्थ समझाते थे। स्वयं उसके रस में लीन हो जाते थे और श्रोताजनों को भी लीन कर देते थे। उस समय मेरी उम्र तेरह साल की रही होगी, पर याद पड़ता है कि उनके पाठ में मुझे खूब रस आता था। यह रामायण-श्रवण रामायण के प्रति मेरे अत्याधिक प्रेम की बुनियाद है। आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्ति मार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूं
03 - 09 सितंबर 2018
पर जिस चीज का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा, वह था रामायण का पारायण। पिताजी की बीमारी का थोड़ा समय पोरबंदर में बीता था। वहां वे रामजी के मंदिर में रोज रात के समय रामायण सुनते थे। सुनानेवाले थे बीलेश्वर के लाधा महाराज नामक एक पंडित थे। वे रामचंद्र जी के परम भक्त थे। उनके बारे में कहा जाता था कि उन्हें कोढ़ की बीमारी हुई तो उसका इलाज करने के बदले उन्होंने बीलेश्वर महादेव पर चढ़े हुए बेलपत्र लेकर कोढ़वाले अंग पर बांधे और केवल रामनाम का जप शुरू किया। अंत में उनका कोढ़ जड़मूल से नष्ट हो गया। यह बात सच हो या न हो, हम सुननेवालों ने तो सच ही माना। यह सच भी है कि जब लाधा महाराज ने कथा शुरू की तब उनका शरीर बिलकुल नीरोग था। लाधा महाराज का कंठ मीठा था। वे दोहा-चौपाई गाते और उसका अर्थ समझाते थे। स्वयं उसके रस में लीन हो जाते थे और श्रोताजनों को भी लीन कर देते थे। उस समय मेरी उम्र तेरह साल की रही होगी, पर याद पड़ता है कि उनके पाठ में मुझे खूब रस आता था। यह रामायण-श्रवण रामायण के प्रति मेरे अत्याधिक प्रेम की बुनियाद है। आज मैं तुलसीदास की रामायण को भक्ति मार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूं। कुछ महीनों के बाद हम राजकोट आए। वहां रामायण का पाठ नहीं होता था। एकादशी के दिन भागवत जरूर पढ़ी जाती थी। मैं कभी-कभी उसे सुनने बैठता था। पर भट्टजी रस उत्पन्न नहीं कर सके। आज मैं यह देख सकता हूं कि भागवत एक ऐसा ग्रंथ है, जिसके पाठ से धर्म-रस उत्पन्न किया जा सकता है। मैंने तो उसे गुजराती में बड़े चाव से पढ़ा है। लेकिन इक्कीस दिन के अपने उपवास काल में भारत-भूषण पंडित मदनमोहन मालवीय के शुभ मुख से मूल संस्कृत के कुछ अंश जब सुने तो ख्याल हुआ कि बचपन में उनके समान भगवद-भक्त के मुंह से भागवत सुनी होती तो उससे उसी उम्र में उसके प्रति मेरा प्रेम गाढ़ा हो जाता। बचपन में पड़े शुभ-अशुभ संस्कार बहुत गहरी जड़ें जमाते हैं। इसे मैं खूब अनुभव करता हूं और इस कारण उस उम्र में मुझे कई उत्तम ग्रंथ सुनने का लाभ नहीं मिला, सो अब अखरता है। राजकोट में मुझे अनायास ही सब संप्रदायों के प्रति समान भाव रखने की शिक्षा मिली। मैंने हिंदू धर्म के प्रत्येक संप्रदाय का आदर करना सीखा, क्योंकि माता-पिता वैष्णव-मंदिर में, शिवालय में और राम-मंदिर में भी जाते और हम भाइयों को भी साथ ले जाते या भेजते थे। फिर पिताजी के पास जैन धर्माचार्यों में से भी कोई न कोई हमेशा आते रहते थे। पिताजी के साथ धर्म और व्यवहार की बातें किया करते थे। इसके अलावा पिताजी के मुसलमान और पारसी मित्र भी थे। वे अपने-अपने धर्म की चर्चा करते और पिताजी उनकी बातें सम्मानपूर्वक सुना करते थे। ऐसी चर्चा के समय मैं अक्सर हाजिर रहता
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पुस्तक अंश
भागवत एक ऐसा ग्रंथ है, जिसके पाठ से धर्म-रस उत्पन्न किया जा सकता है। मैंने तो उसे गुजराती में बड़े चाव से पढ़ा है। लेकिन इक्कीस दिन के अपने उपवास काल में भारतभूषण पंडित मदनमोहन मालवीय के शुभ मुख से मूल संस्कृत के कुछ अंश जब सुने तो खयाल हुआ कि बचपन में उनके समान भगवद-भक्त के मुंह से भागवत सुनी होती तो उससे उसी उम्र में उसके प्रति मेरा प्रेम गाढ़ा हो जाता
था। इस सारे वातावरण का प्रभाव मुझ पर पड़ा कि मुझ में सब धर्मों के लिए समान भाव पैदा हो गया। एक ईसाई धर्म अपवादरूप था। उसके प्रति कुछ अरुचि थी। उन दिनों कुछ ईसाई हाईस्कूल के कोने पर खड़े होकर व्याख्यान दिया करते थे। वे हिंदू देवताओं की और हिंदू धर्म को माननेवालों की बुराई करते थे। मुझे यह असह्य मालूम हुआ। मैं एकाध बार ही व्याख्यान सुनने के लिए खड़ा रहा होऊंगा। दूसरी बार, फिर वहां खड़े रहने की इच्छा ही न हुई। उन्हीं दिनों एक प्रसिद्ध हिंदू के ईसाई बनने की बात सुनी। गांव में चर्चा थी कि उन्हें ईसाई धर्म की दीक्षा देते समय गोमांस खिलाया गया और शराब पिलाई गई। उनकी पोशाक भी बदल दी गई और ईसाई बनने के बाद वे भाई कोट-पतलून और अंग्रेजी टोपी पहनने लगे। इन बातों से मुझे पीड़ा पहुंची। जिस धर्म के कारण गोमांस खाना पड़े, शराब पीनी पड़े और अपनी पोशाक बदलनी पड़े, उसे धर्म कैसे कहा जाय? मेरे मन ने यह दलील की। फिर यह भी सुनने में आया कि जो भाई ईसाई बने थे, उन्होंने
अपने पूर्वजों के धर्म की, रीति-रिवाजों और देश की निंदा करना शुरू कर दिया था। इन सब बातों से मेरे मन में ईसाई धर्म के प्रति अरुचि उत्पन्न हो गई। इस तरह यद्यपि दूसरे धर्मों के प्रति समभाव जागा, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि मुझ में ईश्वर के प्रति आस्था थी। इन्हीं दिनों पिताजी के पुस्तक संग्रह में से मनुस्मृति की भाषांतर मेरे हाथ में आया। उसमें संसार की उत्पत्ति आदि की बातें पढ़ी। उन पर श्रद्धा नहीं जमी, उलटे थोड़ी नास्तिकता ही पैदा हुई। मेरे चाचा जी के लड़के की, जो अभी जीवित है, बुद्धि पर मुझे विश्वास था। मैंने अपनी शंकाएं उनके सामने रखीं, पर वे मेरा समाधान न कर सके। उन्होंने मुझे उत्तर दिया : ‘सयाने होने पर ऐसे प्रश्नों के उत्तर तुम खुद दे सकोगे। बालकों को ऐसे प्रश्न नहीं पूछने चाहिए।’ मैं चुप रहा। मन को शांति नहीं मिली। मनुस्मृति के खाद्य-विषयक प्रकरण में और दूसरे प्रकरणों में भी मैंने वर्तमान प्रथा का विरोध पाया। इस शंका का उत्तर भी मुझे लगभग ऊपर के जैसा ही मिला। मैंने यह सोचकर अपने मन को समझा
लिया कि ‘किसी दिन बुद्धि खुलेगी, अधिक पढूंगा और समझूंगा।’ उस समय मनुस्मृति को पढ़कर में अहिंसा तो सीख ही न सका। मांसाहार की चर्चा हो चुकी है। उसे मनुस्मृति का समर्थन मिला। यह भी खयाल हुआ कि सर्पादि और खटमल आदि को मारना नीति है। मुझे याद है कि उस समय मैंने धर्म समझकर खटमल आदि का नाश किया था। पर एक चीज ने मन में जड़ जमा ली यह संसार नीति पर टिका हुआ है। नीतिमात्र का समावेश सत्य में है। सत्य को तो खोजना ही होगा। दिन-पर-दिन सत्य की महिमा मेरे निकट बढ़ती गई। सत्य की व्याख्या विस्तृत होती गई, और अभी हो रही है। फिर नीति का एक छप्पय दिल में बस गया। अपकार का बदला अपकार नहीं, उपकार ही हो सकता है, यह एक जीवन सूत्र ही बन गया। उसमे मुझ पर साम्राज्य चलाना शुरू किया। अपकारी का भला चाहना और करना, इसका मैं अनुरागी बन गया। इसके अनगिनत प्रयोग किए। वह चमत्कारी छप्पय यह है : पाणी आपने पाय, भलुं भोजन तो दीजे आवी नमावे शीश, दंडवत कोडे कीजे। आपण घासे दाम, काम महोरोनुं करीए आप उगारे प्राण, ते तणा दुखमां मरीए। गुण केडे तो गुण दश गणो, मन, वाचा, कर्मे करी अपगुण केडे जो गुण करे, तो जगमां जीत्यो सही।
(जो हमें पानी पिलाए , उसे हम अच्छा भोजन कराएं। जो हमारे सामने सिर नवाए, उसे हम उमंग से दंडवत प्रणाम करें। जो हमारे लिए एक पैसा खर्च करे , उसका हम मुहरों की कीमत का काम कर दें। जो हमारे प्राण बचाए , उसका दुख दूर करने के लिए हम अपने प्राणों का निछावर कर दें। जो हमारा उपकार करे, उसका हमें मन, वचन और कर्म से दस गुना उपकार करना ही चाहिए। लेकिन जग में सच्चा और सार्थक जीना उसी का है, जो अपकार करनेवाले के प्रति भी उपकार करता है।) (अगले अंक में जारी)
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पहल
03 - 09 सितंबर 2018
दिल्ली की पहली महिला डाकिया अपनी जिंदगी के तीन दशक दिल्ली की इंद्रावती ने इस काम को पूरी मेहनत और ईमानदारी के साथ किया। बहुत से लोगों को पहले विश्वास ही नहीं होता था कि वह एक डाकिया हैं
खास बातें
दिल्ली की पहली महिला डाकिया हैं इंद्रावती जब नौकरी शुरू की तो दफ्तर में सिर्फ दो महिलाएं थीं परिवार में वह पहली व्यक्ति थी, जिसे सरकारी नौकरी मिली थी
इं
निशा
द्रावती, यह नाम भले कोई बहुत जाना-सुना नाम न हो, पर यह महिला सशक्तीकरण के लिहाज से एक बड़ा और प्रेरक नाम है। इंद्रावती दिल्ली की पहली महिला डाकिया है। डाक वितरण का कार्य शुरू से पुरुषों माना गया है, इसलिए यह कार्य रहा भी है शुरू से पुरुषों के हवाले। पर अब अब वक्त बदल गया है। आज धरती, समुद्र, पहाड़ की चोटी से लेकर अंतरिक्ष तक कुछ भी ऐसा नहीं हैं, जो महिलाएं नहीं कर रही हैं। यही नहीं, वह तमाम क्षेत्रों में नई कामयाबी के परचम भी लहरा रही हैं। अपनी जिंदगी के तीन दशक दिल्ली की इंद्रावती ने इस काम को पूरी मेहनत और ईमानदारी के साथ किया। बहुत से लोगों को पहले विश्वास ही नहीं होता था कि वे एक डाकिया हैं। क्योंकि हमारे देश में औरतें थोड़े-ही डाकिया होती हैं! दरअसल, डाक वितरण का काम आसान नहीं है। इस काम को करते हुए फुर्सत बहुत कम मिलती है। यही वजह है कि इंद्रावती के जीवन में समय का एक सख्त अनुशासन है। हर रोज सुबह पांच बजे उठकर फटाफट घर का काम खत्म करके दफ्तर के लिए निकलना। फिर एक भारी-सा चिट्ठियों का झोला उठाकर हर दिन एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक कम से कम आठ किलोमीटर पैदल चलना ताकि किसी की कोई जरूरी सुचना पहुंचाने में देरी न हो जाए। बहुत से और रोजगार के क्षेत्रों जैसे ही डाकिया
का यह काम भी पुरुष प्रधान है। पर देश की राजधानी दिल्ली की पहली महिला डाकिया इंद्रावती ने इस तथ्य को बदल दिया। हाल ही में, 60 साल की उम्र में रिटायर हुई इंद्रावती ने अपनी नौकरी साल 1982 में शुरू की थी। कुछ समय पहले दिए अपने एक साक्षात्कार में इंद्रावती ने अपनी नौकरी व जीवन के बहुत से पहलुओं को साझा किया। एक गांव से ताल्लुक रखते हुए भी, जहां लड़कियों की शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं देता है, इंद्रावती ने विस्तार से बताया कि उन्होंने अपनी शिक्षा कैसे पूरी की। उनके ही शब्दों में, ‘मेरी मां की असामयिक मौत हो गई थी, जिसकी वजह से मुझे स्कूल भेजा गया। शायद घर के बाकी लोग नहीं चाहते थे कि पूरा वक़्त मैं घर पर रहूं। पर जो कुछ भी हुआ, वो मेरे भले के लिए ही हुआ। यहां तक कि इस नौकरी के लिए भी गलती से आवेदन हो गया था। और मैं खुश हूं कि ऐसा हुआ। इस कार्य को करते हुए मुझे जहां मेरे अंदर जहां एक आत्मविश्वास आया, वहीं यह भी लगा कि औरत अगर चाहे तोवही परिवार की आर्थिक धुरी बन सकती है।’ डाकिया के रूप में अपने काम और शुरुआती अनुभव को लेकर अत्यंत विनम्रता से इंद्रवती कहती
हैं, ‘13 सितंबर, 1982 को, जब मैंने नौकरी शुरू की, तो मुझे नहीं लगा था कि मै परंपरा से हटकर कुछ कर रही हूं। यह बस मेरे लिए एक रोजगार था, जो हमें जीवन-यापन का साधन दे रहा था।’ उस समय पोस्ट ऑफिस में केवल दो महिलाएं थी, जिनमें से एक इंद्रावती थी। इंद्रवती का मानना है कि वह तब से एक लंबा सफर तय कर चुकी हैं। उन्होंने एक डाकिये के रूप में शुरुआत की और उसी रूप में वे रिटायर हुई। उनकी पहली और आखिरी पोस्टिंग एक ही जगह रही। वह नई दिल्ली में कनॉट प्लेस के पास गोल डाकखाने में नियुक्त थीं। उन्होंने बताया, ‘जब मैंने नौकरी शुरू की तब वक्त बहुत अलग था। एक औरत होने के साथ-
उस समय इस विभाग में महिला डाकिया होना अजीब बात थी। उस वक्त दूसरे सेक्शन से लोग मुझे देखने आते थे कि मैं कैसी हूं और कैसे अपना काम करती हूं - इंद्रावती
साथ मैं अपने परिवार में वह पहली व्यक्ति थी, जिसे सरकारी नौकरी मिली थी तो इस नौकरी से गर्व भी जुड़ा हुआ था।’ वह आगे बताती हैं, ‘उस समय इस विभाग में महिला डाकिया होना अजीब बात थी। उस वक्त दूसरे सेक्शन से लोग मुझे देखने आते थे कि मैं कैसी हूं और कैसे अपना काम करती हूं।’ हालांकि, बाद में काफी कुछ बदल गया। इंद्रावती ने बताया कि कुछ समय में लोग उन्हें जानने लगे। उनके इसी काम की तारीफ होने लगी। बल्कि उनकी नियुक्ति के 7-8 साल बाद एक और महिला डाकिया आईं और धीरे-धीरे संख्या बढ़ने लगी। शुरू-शुरू में जब इंद्रावती चिट्ठी देने जाती, तो कोई यकीन ही नहीं करता कि वह डाकिया हैं। एेसे में उन्हें अपना कार्ड दिखाना पड़ता था। वह मुस्कुराते हुए कहती हैं कि कई बार आस-पास के लोग उन्हें रूककर देखने लगते थे। दो बच्चों की मां और चार बच्चों की दादी, इंद्रावती ने सुनिश्चित किया कि शादी के बाद भी उनकी बहु की पढ़ाई जारी रहे और उन्होंने उसकी पढ़ाई पूरी करवाई। उन्होंने बताया कि उन्होंने पोस्ट ऑफिस में लगभग सभी विभागों में काम किया है तो उन्हें सभी कार्यों के बारे में अच्छे से पता है। लोगों के साथ अपनी जिंदगी के अनुभवों के बारे में बताते हुए इंद्रावती कहती हैं, ‘मुझे अपने पढ़े-लिखे होने की खुशी उस वक्त सबसे ज्यादा हुई जब मैंने लोगों को चिट्ठियां पढ़कर सुनाईं। कई लोग खासकर बुजुर्ग पढ़ नहीं पाते थे। जब मैं उनकी चिट्ठी पढ़ती तो वो खुश होकर मुझे आशीर्वाद देते।’ हाल ही में जब वे रिटायर हुईं तो उनके दफ्तर व घर में कार्यक्रम रखा गया, जहां उनसे वे लोग भी मिलने आये जिनके घर वे रेगुलर चिट्ठियां पहुंचाती थीं। इंद्रावती कहती हैं, ‘शायद अब वक़्त है कि हमें ‘पोस्ट-मैन’ की जगह ‘पोस्ट-पर्सन’ शब्द का इस्तेमाल शुरू कर देना चाहिए ताकि यहां भी लैंगिक समानता को बढ़ावा मिले।’
03 - 09 सितंबर 2018
मिसाल
एक हाथ में बंदूक, दूसरे में बांसुरी
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सीआरपीएफ के जवान ज्योतिमोन का संगीत से भी अटूट नाता है। जब वे अपनी ड्यूटी पर नहीं होते तो वे बांसुरी से मीठी तान निकालने की तपस्या में लीन हो जाते हैं मिल सकेगी।
दिल्ली से खरीदी 20 हजार की बांसुरी
साधारण बांसुरी बजाने के बाद उन्होंने हाल ही देश की राजधानी दिल्ली जाकर मशहूर बांसुरी प्रतिष्ठान से बीस हजार रुपए की बांसुरी का सेट खरीदा है, जिसमें 12 बेहतरीन किस्म की बांसुरी है जो अलगअलग स्केल की है। एक सिपाही का दिल्ली जा कर बेहद महंगी बांसुरी खरीदना उनके संगीत के प्रति जुनून को ही दर्शाता है।
बजाते हैं कई भाषाओं की धुन
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चूंकि ज्योतिमोन दक्षिण भारतीय से हैं, तो पहले तो वे दक्षिण भारतीय भाषाओं की धुनों को ही बजाते थे, पर सीआरपीएफ की 116 बटालियन की नौकरी के दौरान वे 6 साल तक कश्मीर में रहे और अभी बटालियन 188 में लगभग तीन सालों से बस्तर में है, तो वे हिंदी फिल्मों व लोकगीतों की भी धुनों को शानदार तरीके से बजाते हैं। हीरो फिल्म की सिग्नेचर बांसुरी की धुन तो ऐसे बजाते हैं, जैसे वह उनकी ही बनाई धुन हो। हाल ही में सीआरपीएफ ने अपना 79वां स्थापना दिवस मनाया। इस मौके पर 188वीं बटालियन ने एक बड़ा आयोजन किया, जिसमें पूरी सीआरपीएफ के अलावा उनके आनुसांगिक बल, पुलिस अधीक्षक कोंडागांव, नगर के गणमान्य नागरिक, मीडिया वर्ग, प्रबुद्ध वर्ग व स्थानीय जनप्रतिनिधियों की मौजूदगी में ज्यातिमोन ने बांसुरी से समां बांध दिया। सभी ने उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की।
मनोज शर्मा
स तरह द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने एक हाथ में चक्र यानी हथियार और दूसरे हाथ में बांसुरी यानी प्रेम संगीत के साथ जनमानस को सत्य की जीत का एक संदेश दिया था, ठीक उसी तरह केरल के एक छोटे से गांव पिथनापिरम जिला कोलम के निवासी ज्योतिमोन अपना जीवन जी रहे हैं। आजीविका के रूप में देशभक्ति की राह चुनने वाले ज्योतिमोन का संगीत से भी अटूट नाता है। जब वे अपनी ड्यूटी पर नहीं होते तो भी वे एक और तपस्या कर रहे होते हैं बांसुरी से मीठी तान निकालने की। उनके सहकर्मियों ने बताया कि ज्योतिमोन जिस निष्ठा से भारत ही नहीं, पूरे विश्व के सबसे बड़े अर्धसैन्य बल सीआरपीएफ की सेवाओं में समर्पण भाव से कर्तव्य निर्वहन करते हैं, बिल्कुल वही भाव ड्यूटी से फारिग होकर एक और ड्यूटी संगीत सेवा के लिये भी समर्पित हो जाते हैं।
अभ्यास को ही बनाया अपना गुरु
ज्योतिमोन ने बताया कि उनके परिवार में कोई भी बांसुरी नहीं बजाता है। संगीत के नाम पर छोटे चाचा ढोलक व तबला बजाते हैं। पर बचपन से ही उनके कानों में बांसुरी की मीठी स्वर लहरियां गूंजती थी। कहीं बांसुरी बजे तो मन नाच उठता और इच्छा होती कि वे भी बांसुरी बजाएं। गांव में बांसुरी बेचने वाला जब बांसुरी बजाता तो वे भाव विहोर हो जाते। कालांतर में यही आवाज उनके जीवन में आनंद व तपस्या का हिस्सा बन गई। उम्र के 25वें साल में
ज्योतिमोन ने दिल्ली जाकर मशहूर बांसुरी प्रतिष्ठान से बीस हजार रुपए की बांसुरी का सेट खरीदा है, जिसमें 12 बेहतरीन किस्म की बांसुरी है जो अलग-अलग स्केल की है यह इच्छा इतनी प्रबल हुई कि खुद ही बांसुरी बजाने का प्रयास करने लगे। किसी एकलव्य की भांति खुद के अभ्यास को ही अपना गुरु बना लिया है। घंटों प्रयास करने पर जब अभ्यास के रंग बिखरने लगे तो सुनने वाले भी मोहित होने लगे।
अधिकारी भी हुए प्रभावित
सीआरपीएफ 188वीं बटालियन में सिपाही के पद पर अपनी सेवाएं दे रहे ज्योतिमोन से बटालियन के बड़े अफसर भी खासे प्रभावित हैं। इतने कि बल के किसी भी रंगारंग आयोजन में ज्योतिमोन को अवसर
दिया जाना सबसे पहले तय कर दिया जाता है। आमतौर पर उनका बांसुरी बादन ही कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण भी बन जाता है।
चाहत है रेवी मुरली को गुरु बनाने की
ऐसा नहीं है कि ज्योतिमोन अपना गुरु किसी को बनाना ही नहीं चाहते। अपने दिल की बात शेयर करते हुए उन्होंने कहा कि वे केरल के ही एल्लपी जिला के आडूर निवासी प्रख्यात बांसुरी वादक रेवी मुरली के सानिध्य में बांसुरी सीखना चाहते हैं, पर सीआरपीएफ की नौकरी के चलते फुर्सत नहीं
बच्चों को भी सिखाएंगे बांसुरी
ज्योतिमोन कहते हैं कि वह अपने बच्चों को भी बांसुरी बजाना सिखाना चाहते हैं। जब भी अवकाश में घर जाते हैं तो घर-परिवार के लोगों से मिलने के बाद पूरा खाली समय बांसुरी को ही मिलता है। जब तक घर से बांसुरी की आवाज आते रहती है, पड़ोसी जानते हैं कि ज्योतिमोन घर पर है। जैसे ही बांसुरी की धुनें आना बंद हो जाती है, पड़ोसी भी समझ जाते हैं कि ज्योतिमोन ड्यूटी पर चले गए हैं। परिजन भी उनके संगीत प्रेम को सम्मान देते है और उन्हे प्रोत्साहित करते हैं। सीआरपीएफ 188 जिला कोंडागांव के कमांडेट कवींद्र कुमार चंद ने कहा, ‘ज्योतिमोन बेहद अनुशासित व कर्तव्य निष्ठ सिपाही हैं। संगीत के गहरे जानकार व संगीत के प्रति समर्पित व्यक्तित्व हैं। हम उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।’
16 खुला मंच
03 - 09 सितंबर 2018
जो बात सिद्धांत में गलत है, वह व्यवहार में भी उचित नहीं है – डॉ. राजेंद्र प्रसाद
बेहतर इलाज के लिए फीडबैक
अभिमत
रचना मिश्रा
लेखिका युवा पत्रकार हैं और देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखती हैं
भारतीय ज्ञान परंपरा का आधुनिक सर्ग
पौराणिकता और परंपरा से आगे आधुनिक दौर की बात करें तो भारत में जिस गुरु या शिक्षक का स्मरण सबसे पहले होता है, वे हैं डॉ. राधाकृष्णन
सरकारी अस्पतालों में इलाज का स्तर सुधारने के लिए सरकार नया फीडबैक सिस्टम शुरू करने जा रही है
स्वा
स्थ्य और शिक्षा, ये दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिसमें भारत में सबसे ज्यादा काम करने की जरूरत है। मौजूदा सरकार का स्वच्छ भारत मिशन इसी अपेक्षा को पूरा करने के लिए उठाया गया बड़ा कदम है। यह कदम सरकारी अस्पतालों में इलाज का स्तर सुधारने से जुड़ा है। आमतौर पर सरकारी अस्पतालों में इलाज कराने में लोगों को किसी न किसी तरह की परेशानी रहती है। सरकार उन लोगों से अब ऐसे सवाल पूछने की पहल करने जा रही है जो सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवाएंगे। इस फीडबैक का मकसद देश के सरकारी अस्पतालों को अधिक से अधिक चुस्त-दुरुस्त बनाना है। आमतौर पर सरकारी अस्पतालों को लेकर यह धारणा है कि यहां इलाज के लिए समुचित सुविधाओं की कमी होती है और मरीजों को अपेक्षित उपचार नहीं मिल पाता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वास्थ्य के क्षेत्र को हर प्रकार से चाक चौबंद करने का जो बीड़ा उठाया है, उसी का एक हिस्सा यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मरीजों को उनकी आवश्यकता के अनुरूप इलाज मिले। इसीलिए सरकार मरीजों से लिए जाने वाले फीडबैक को लेकर एक सही सिस्टम तैयार करने जा रही है, जिसमें सरकारी अस्पताल में अपने इलाज को लेकर कोई मरीज अपनी बात खुलकर रख सकता है। सरकार इस फीडबैक के आधार पर सरकारी अस्पतालों की सुविधाओं को लोगों के अनुकूल बनाने की दिशा में हरसंभव कदम उठाएगी। आने वाले समय में देश के सभी सरकारी अस्पतालों से इस फीडबैक सिस्टम को जोड़ा जाएगा। जब मरीजों से यह पूछा जाएगा कि उनका इलाज कैसा हुआ, तो इस पर मिलने वाले जवाब से यह जाहिर हो सकेगा कि सरकारी अस्पताल और वहां के चिकित्साकर्मियों ने मर्ज को लेकर कितनी गंभीरता दिखाई है। मौजूदा सरकार ने सरकारी अस्पतालों में सिस्टम की बेहतरी के लिए दो साल पहले ‘मेरा अस्पताल’ नाम से एक और पहल की थी। इस पहल के भी सकारात्मक परिणाम आए हैं और यह मरीजों के अनुभव को पहले से बेहतर बनाने में मददगार रही है। स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक अब फीडबैक का यह सिस्टम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और कम्युनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी) के अलावा अन्य सभी सरकारी अस्पतालों पर जल्द ही लागू करने की योजना है।
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(उत्तर प्रदेश)
जि
डॉ. राधाकृष्णन जयंती (शिक्षक दिवस) पर विशेष
स संस्कृति और दर्शन में गुरु को ईश्वर से भी पहले स्थान दिया गया हो, उसमें गुरुओं की महानता के आख्यान आपवादिक हों, ऐसा नहीं हो सकता। पौराणिकता और परंपरा से आगे आधुनिक दौर की बात करें तो भारत में जिस गुरु या शिक्षक का स्मरण सबसे पहले होता है, वे हैं डॉ. राधाकृष्णन। अपने इस आदर्श शिक्षक की जयंती (5 सितंबर) को देश ‘शिक्षक दिवस’ के तौर पर मनाता है। डॉ. राधाकृष्णन पूरे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिए अपने भाषण में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था, ‘मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शांति की स्थापना का प्रयत्न हो।’ डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से पूर्ण व्याख्याओं, आनंददायक अभिव्यक्ति और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वे अपने छात्रों को देते थे। वे जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और
प्रिय बना देते थे। जब उनको मैसूर से कलकत्ता में स्थानांतरित होना था, तब विदाई का कोई भी कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया। इसके लिए उन्होंने मना कर दिया। इनके विद्यार्थियों ने बग्घी के द्वारा उन्हें स्टेशन तक पहुंचाया था। इस बग्घी में घोड़े नहीं जुते थे, बल्कि विद्यार्थियों के द्वारा ही उस बग्घी को खींचकर रेलवे स्टेशन तक ले जाया गया। उनकी विदाई के समय मैसूर स्टेशन का प्लेटफार्म ‘सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जय हो’ के नारों से गूंज उठा था। वहां पर मौजूद लोगों की आंखों में आंसू थे। राधाकृष्णन भी उस अदभुत प्रेम के वशीभूत होकर अपने आंसू रोक नहीं पाए थे। गुरु एवं विद्यार्थियों का ऐसा संबंध कम ही देखने को मिलता है। राधाकृष्णन की महात्मा गांधी से प्रथम भेंट 1915 में हुई थी। उनके विचारों से प्रभावित होकर राधाकृष्णन ने राष्ट्रीय आदोलन के समर्थन में लेख भी लिखे। वह कभी भी किसी पार्टी से नहीं जुड़े, लेकिन निर्भय होकर राष्ट्रप्रेम को अभिव्यक्त करते थे। बाद में इन्होंने गांधी जी को अभिव्यक्त करते हुए कहा था – ‘मनुष्य के सर्वोत्तम प्रयासों में गांधी जी की आवाज सदैव अनश्वर रहेगी ।’ इसी तरह जुलाई, 1918 में मैसूर प्रवास के समय उनकी भेंट रवींद्रनाथ टैगोर से हुई। इस मुलाकात के बाद वे गुरुदेव से काफी अभिभूत हुए। उनके विचारों की अभिव्यक्ति के लिए डॉ. राधाकृष्णन ने
जब उनको मैसरू से कलकत्ता में स्थानांतरित होना था तो विद्यार्थियों ने बग्घी से उन्हें स्टेशन तक पहुंचाया था। इस बग्घी में घोड़े नहीं जुते थे, बल्कि विद्यार्थियों के द्वारा ही उसे खींचकर रेलवे स्टेशन तक ले जाया गया उनकी विदाई के समय मैसरू स्टेशन का प्लेटफार्म ‘सर्वपल्ली राधाकषृ ्णन की जय हो’ के नारों से गूज ं उठा था
03 - 09 सितंबर 2018 1918 में ‘रवींद्रनाथ टैगोर का दर्शन’ शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इसके बाद उन्होंने दूसरी पुस्तक ‘द रीन ऑफ रिलीजन इन कंटेंपॅररी फिलॉस्फी’ लिखी। इस पुस्तक ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। इस पुस्तक को भारत के शिक्षार्थियों ने ‘आत्मतत्व ज्ञान’ की पुस्तक के रूप में स्वीकार किया। यही नहीं, इसे इंग्लैंड तथा अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भी बेहद पसंद किया गया। एक बार मैसूर में छात्रों ने उनसे पूछा था- ‘क्या आप उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पसंद करेंगे?’ तब इनका प्रेरक जवाब था– ‘नहीं, लेकिन वहां शिक्षा प्रदान करने के लिए अवश्य ही जाना चाहूंगा।’ डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को स्टालिन से भेंट करने का दुर्लभ अवसर दो बार प्राप्त हुआ। 14 जनवरी, 1945 के दिन वह पहला अवसर आया, जब स्टालिन के निमंत्रण पर वह उनसे मिले। स्टालिन के हृदय में 'फिलॉस्फर राजदूत' के प्रति गहरा सम्मान था। इनकी दूसरी मुलाकात 5 अप्रैल, 1952 को हुई। जब भारतीय राजदूत सोवियत संघ से विदा होने वाले थे। विदा होते समय राधाकृष्णन ने स्टालिन के सिर और पीठ पर हाथ रखा। तब स्टालिन ने कहा था– ‘तुम पहले व्यक्ति हो, जिसने मेरे साथ एक इंसान के रूप में व्यवहार किया हैं और मुझे अमानव अथवा दैत्य नहीं समझा है। तुम्हारे जाने से मैं दुख का अनुभव कर रहा हूं। मैं चाहता हूं कि तुम दीर्घायु हो। मैं ज्यादा नहीं जीना चाहता हूं।’ इस समय स्टालिन की आंखों में नमी थी। फिर छह माह बाद ही स्टालिन की मृत्यु हो गई। 1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉ. राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी संभाला। 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाए गए। बाद में पंडित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफी सराहा। एक बार विख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा थाराजाओं का दार्शनिक होना चाहिए और दार्शनिकों को राजा। प्लेटो के इस कथन को 1962 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने तब सच कर दिखाया, जब वह भारत के दूसरे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। बर्टेड रसेल जो विश्व के जाने-माने दार्शनिक थे, वह राधाकृष्णन के राष्ट्रपति बनने पर अपनी प्रतिक्रिया को रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा था– यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है कि महान भारतीय गणराज्य ने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में चुना और एक दार्शनिक होने के नाते मैं काफी खुश हूं। प्लेटो ने भी कहा था कि दार्शनिकों को राजा होना चाहिए और महान भारतीय गणराज्य ने एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाकर प्लेटो को सच्ची श्रृद्धांजलि अर्पित की है।
ओशो
लीक से परे
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महान दार्शनिक और विचारक
दिशा क्रांति
वास्तविक समस्या है। विचार को इसीलिए मैं मारने को नहीं कहता हूं। मैं उसके गर्भाधान को समझने और उससे मुक्त होने को कहता हूं। जो विचार के गर्भाधान के विज्ञान को समझ लेता है, वह उससे मुक्त होने का मार्ग सहज ही पा जाता है। जो यह नहीं समझता है, वह स्वयं ही एक ओर विचार पैदा किए जाता है और दूसरी ओर उनसे लड़ता भी है। इससे विचार तो नहीं टूटते, विपरीत वह स्वयं ही टूट जाता है। मैं पुन: दोहराता हूं कि विचार समस्या नहीं,
rat.com sulabhswachhbha
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सवच्छ्ता
गरीबी और असवच्छ्ता िे िाझा िंघर्ष
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विचार की उत्पत्ति के सत्य को जाने बिना ही तथाकथित साधक उनके दमन में लग जाते हैं। इससे विक्षिप्त तो कोई हो सकता है, विमुक्त नहीं हो सकता है
ख खुलती है तो बाहर देखते हैं, आंख बंद होती है तो बाहर देखते हैं, क्योंकि बाहर से अंकित रूप और चित्र आंख बंद होने पर जाग जाते हैं, हमें घेर लेते हैं। वस्तुओं का घेरा आत्मा के लिए बाधा नहीं है। बाधा विचार का घेरा है। वस्तुएं आत्मा को घेर भी कैसे सकती हैं? पदार्थ केवल पदार्थ को घेरता है। आत्मा विचार से घिरी है। दर्शन की, चैतन्य की धारा विचार की ओर बह रही है। विचार और केवल विचार हमारे सन्मुख है। दर्शन उनसे ही आच्छादित है। विचार से विमुख और निर्विचार (थॉटलेसनेस) होना ही ‘दिशा क्रांति’ है। यह कैसे होगा? इसके लिए यह जानना जरूरी है कि विचार कैसे पैदा होते हैं? विचार की उत्पत्ति के सत्य को जाने बिना ही तथाकथित साधक उनके दमन में लग जाते हैं। इससे विक्षिप्त तो कोई हो सकता है, विमुक्त नहीं हो सकता है। विचार के दमन से कोई अंतर नहीं पड़ता है, क्योंकि वे प्रतिक्षण नए-नए उत्पन्न हो जाते हैं। वे पौराणिक कथाओं के उन राक्षसों की भांति हैं, जिनके एक सिर को काटने पर दस सिर पैदा हो जाते थे। मैं विचारों को मारने को नहीं कहता हूं। वे स्वयं ही प्रतिक्षण मरते रहते हैं। कौन सा विचार बहुत देर टिकता है? विचार बहुत अल्पजीवी है। कोई भी विचार कहां ज्यादा जीता है? विचार तो नहीं टिकता, पर विचार प्रक्रिया टिकती है। एक विचार मर भी नहीं पाता है कि दूसरा उसका स्थान ले लेता है। विचार की मृत्यु नहीं, उसकी त्वरित उत्पत्ति
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खुला मंच
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न्यूजमेकर
त्ािदी पर भारी ्तारणिार
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नोबेल मसिला वैज्ासनक का िंघर्ष
241/2017-19
डाक पंजी्न नंबर-DL(W)10/2
/2016/71597 आरएनआई नंबर-DELHIN
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बदल्ते भार्त का िाप्ासि
वर्ष-2 | अंक-37 |27अगस्त
सुलभ के आकर्षण में
- 02सि्तंबर 2018
बंधे इंद्ेश
रंग में लभ के सनम्षल और पसवत् िुलभ ग्ाम पधारे और िु इंद्ेश कुमार सप्छले सदनों प्ेम में वे डूबे हुए सदिे भार्ती् का््षकाररणी िदस् असभभयू्त हुआ और िुलभ आतमी््ता िे िुलभ ग्ाम राष्टी् सव्ंिेवक के असिल की िुई्ां थम-िी गईं। उनकी कु्छ ऐिे रंग गए सक घडी
कुछ कर गुजरने की प्रेरणा अगर सच कहूं तो ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ आज के दौर में एक क्रांति है। जिस दौर में खबरें सिर्फ चटपटी गॉसिप और जुर्म की गलियों तक सिमट कर रह गईं हैं, उस दौर में भी अगर कोई पत्रकारिता की मशाल हाथों में लिए आगे बढ़ रहा है, तो वह निश्चित ही ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ है। सकारात्मक खबरों से भरे आलेख, समाज को कुछ कर गुजरने की सीख देते महापुरुषों के जीवन की कहानियों से भरे पन्ने, सच में हमें आगे बढ़ने और कुछ बेहतर कर दुनिया को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। रमेश प्रसाद, बलिया, उत्तर प्रदेश
विचार की उत्पत्ति समस्या है। वह कैसे पैदा होता है, यह सवाल है। उसकी उत्पत्ति पर विरोध हो या कहें कि विचार का जन्म-निरोध हो तो पूर्व से जन्मे विचार तो क्षण में विलीन हो जाते हैं। यह हम सब जानते हैं कि चित्त चंचल है। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि कोई भी विचार दीर्घजीवी नहीं है। विचार पलजीवी है। वह तो जन्मता है और मर जाता है। उसके जन्म को रोक लें तो उसकी हत्या की हिंसा से भी बच जाएंगे और वह अपने आप विलीन भी हो जाता है। मैं एक फूल को देखता हूं। ‘ देखना’ कोई विचार नहीं है और यदि मैं देखता ही रहूं तो कोई विचार पैदा नहीं होगा। पर मैं देखते ही कहता हूं कि ‘फूल बहुत सुंदर है’, इतना कहते ही विचार का जन्म हो जाता है। मैं यदि मात्र देखूं तो सौंदर्य की अनुभूति तो होगी, पर विचार का जन्म नहीं होगा। पर अनुभूति होते ही हम उसे शब्द देने लग जाते हैं। अनुभूति को शब्द देते ही विचार का जन्म हो जाता है। यह प्रतिक्रिया, यह शब्द देने की आदत, अनुभूति और दर्शन को विचार से आच्छादित कर देती है। अनुभूति दब जाती है, दर्शन दब जाता है। शब्द चित्त में तैरते रह जाते हैं। ये शब्द ही विचार हैं। पर जो बाह्य जीवन के लिए सहयोगी है, वही अंतस जीवन को जानने में बाधक हो जाता है। इसीलिए एक बार फिर वृद्धों को भी नवजात शिशु के शुद्ध दर्शन को जगाना पड़ता है, ताकि वे स्वयं को जान सकें। शब्द से जगत को जाना, फिर शून्य से स्वयं को जानना होता है।
फ्री मेडिसिन स्कीम भारत आजादी के बाद से ही स्वास्थ्य क्षेत्र में कमजोर आधारभूत ढांचे की वजह से फिसड्डी रहा है। इसका खामियाजा भारत की जनता आज भी भुगत रही है। दूरदराज के इलाकों में मेडिकल सुविधाओं की पहुंच न के बराबर है। शहरी क्षेत्रों में भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं हैं, वहां सुविधाएं तो हैं, लेकिन वो इतनी महंगी हैं कि आम आदमी के लिए सुलभ रूप से उपलब्ध नहीं हो पाती हैं। मध्य प्रदेश में चलाई जा रही फ्री मेडिसिन स्कीम सच में एक बेहतर और कल्याणकारी योजना है। इसको बारे में बताने के लिए धन्यवाद, साथ ही योजना की सफलता के लिए डॉ. संजय गोयल को बधाई। तनिषा कुमारी, जींद, हरियाणा
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फोटो फीचर
03 - 09 सितंबर 2018
एशियाड में भारतीय दमखम जकार्ता में आयोजित हुए 18वें एशियाई खेल में भारतीय एथलीटों ने शानदार प्रदर्शन किया है। इन एथलीटों ने सिर्फ कई पदक ही अपने नाम नहीं किए बल्कि कई स्पर्धाओं में रिकार्ड प्रदर्शन कर वाहवाही भी लूटी
फोटोः शिप्रा दास
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फोटो फीचर
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विज्ञान
03 - 09 सितंबर 2018
अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम... एक अध्ययन से पता चला है कि लंबी उम्र की चाहत रखने वालों को आराम तलब होना चाहिए
पोर्टेबल पेट्रोल पंप को मंजूरी
आपको जल्द ही सड़कों के किनारे 'मिल्क बूथ' की तरह पेट्रोल पंप भी मिलेंगे, जहां से आप खुद अपनी गाड़ी में पेट्रोल, डीजल या सीएनजी भर सकते हैं
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जगर करै न चाकरी, पंछी करै न कामभक्त कवि मलूक दास के इस दोहे का इस्तेमाल जनजीन में आलसी लोगों का उपहास उड़ाने के लिए किया जाता रहा है। लेकिन नए शोध से पता चला है कि मलूक दास बड़े पते की बात इस दोहे में बता गए। इसीलिए अगर आप सोफे पर लेटकर पूरा वक्त ऐसे ही बिता देना चाहते हैं बिना कोई काम किए तो टेंशन की कोई बात नहीं है, क्योंकि ईवॉल्यूशन यानी विकास का क्रम भी आप ही जैसे लोगों का फेवर कर रहा है। एक नए शोध में बताया गया है कि अब ईवॉल्यूशन 'सर्वाइवल ऑफ द लेजीएस्ट' का फेवर कर रहा है। शोधकर्ताओं ने करीब 299 प्रजातियों की आदतों के बारे में अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है। उनका मानना है कि मेटाबॉलिज्म की रेट अधिक होने से उस प्रजाति के जीव के विलुप्त होने का खतरा रहता है। प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर ल्यूक स्टॉज ने बताया, हमें भी यह जानकार आश्चर्य हुआ कि किसी प्रजाति
मोलस्क प्रजाति के वे जीव जो अधिक सक्रिय थे, वे 50 लाख साल पहले ही विलुप्त हो गए और जो प्रजाति अभी पाई जा रही है, वह आलसियों की तरह चुपचाप पड़ी रहती है
के अधिक एनर्जी का इस्तेमाल करने से उस पर विलुप्त होने का खतरा कैसे हो सकता है। मगर सच्चाई यही है। हमने मोलस्क प्रजाति के जीवों के बारे में अपना अध्ययन किया। मोलस्क प्रजाति में घोंघा और सीप आते हैं जो समुद्र के किनारे चुपचाप पड़े रहते हैं। शोध में यह पाया गया कि मोलस्क प्रजाति के वे जीव जो अधिक सक्रिय थे वे 50 लाख साल पहले ही विलुप्त हो गए और जो प्रजाति अभी पाई जा रही है वह आलसियों की तरह चुपचाप पड़ी रहती है। इनकी मेटाबॉलिज्म की रेट काफी कम होती है। इससे शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि जिन
प्रजातियों की मेटाबॉलिक रेट अधिक होती है वो आलसी जीवों की तुलना में कम जी पाते हैं। शोध से जुड़े प्रफेसर ब्रूस लीवरमैन का कहना है कि इस शोध के परिणामों से इस बात को बल मिलता है कि ईवॉल्यूशन के नए सिद्धांत में सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट नहीं बल्कि सर्वाइवल ऑफ द लेजीऐस्ट अधिक प्रभावी होगा। अगर लांग टर्म में देखा जाए तो अधिक दिन तक जीवित रहने के लिए लोगों को अब अधिक सक्रिय रहने की नहीं, बल्कि आलसी बने रहने की सलाह भी दी जा सकती है। यह स्टडी 'प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी' जर्नल में प्रकाशित की गई हैं। (एजेंसी)
रत सरकार ने पिछले दिनों पोर्टेबल पेट्रोल पंप के कॉन्सेप्ट को मंजूरी दे दी है। जल्द ही आपको सड़कों के किनारे 'मिल्क बूथ' की तरह ये पेट्रोल पंप मिलेंगे, जहां से आप खुद अपनी गाड़ी में पेट्रोल, डीजल या सीएनजी भर सकते हैं। यह दुनिया के करीब 35 देशों में पहले से मौजूद और पहली बार भारत में इसका प्रयोग होने जा रहा है। जैसा की इसके नाम से ही जाहिर है, पोर्टेबल पेट्रोल पंप को आसानी से किसी स्थान पर ले जाया जा सकता है। इसमें कंटेनर के साथ फ्यूल डिस्पेंसिंग मशीन जुड़ी होती है। पूरे यूनिट को ट्रक पर लाद कर सड़क किनारे रख दिया जाता है। इसे किसी स्थान पर लगाने या हटाने में महज 2 घंटे का समय लगता है। इसके लिए जमीन भी बहुत कम चाहिए। इसका इस्तेमाल मिल्क बूथ या एटीएम की तरह ही किया जाता है। आप कुछ बटन प्रेस करके पेट्रोल-डीजल या गैस का ऑप्शन चुनेंगे और फिर मात्रा के मुताबिक पेमेंट करके फ्यूल ले सकते हैं। पॉर्टेबल पेट्रोल पंप पर कैशलेस पेमेंट की व्यवस्था होगी। आप डेबिट-क्रेडिट कार्ड, ई-वॉलेट, यूपीआई आदि से कैशलेस पेमेंट करेंगे। पॉर्टेबल पेट्रोल पंप 'सेल्फ सर्विस' मॉडल पर काम करता है। यहां आपको पेट्रोल देने के लिए कोई कर्मचारी नहीं होगा। आपको खुद ही अपनी गाड़ी में फ्यूल भरना होगा। कंपनी भारत सरकार और तेल कंपनियों से बातचीत में जुटी है। कंपनी ने अगले 5-7 साल में 50 हजार पोर्टेबल पेट्रोल पंप यूनिट तैयार करने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए 400 करोड़ रुपए प्रति यूनिट निवेश के साथ 4-7 यूनिट लगाने की तैयारी की जा रही है। ग्रामीण इलाकों में लोगों को पेट्रोल पंप के लिए काफी दूर जाना पड़ता है। पोर्टेबल पेट्रोल पंप ऐसे इलाकों के लिए वरदान साबित हो सकते हैं। (एजेंसी)
03 - 09 सितंबर 2018
गुड न्यूज
अब गाड़ी करेगी शराबी की पहचान
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बिहार की ऐश्वर्य प्रिया ने एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया है, जो न केवल 'अल्कोहल' की पहचान करता है, बल्कि अगर कोई शराब पीकर गाड़ी चलाएगा तो गाड़ी अपने आप बंद भी हो जाएगी महीनों की कड़ी मेहनत के बाद उन्हें यह सफलता मिली है। उन्होंने कहा, "अगर सरकार वाहनों में इस यंत्र का इस्तेमाल करे तो शराब पीकर कोई गाड़ी नहीं चला पाएगा। शराब पीकर आए दिन होने वाली दुर्घटना को भी इस यंत्र के वाहनों में प्रयोग से रोका जा सकेगा।" ऐश्वर्य ने इस सफलता का पूरा श्रेय अपने पिता रवि गुप्ता व माता इंदु देवी को देते हुए कहती हैं कि इनके उत्साहवर्धन से आज वह इतनी दूर पढ़कर यह सफलता पाई है। ऐश्वर्य को इस सफलता के लिए पुणे में आयोजित राष्ट्रीय स्तर पर इनोवेटिव मॉडल एवं प्रोजेक्ट
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मनोज पाठक
हार में शराबबंदी के बाद यहां के छात्र भी अब सरकार की मदद के लिए आगे आए हैं। इसी क्रम में पूर्णिया जिले के भावनीपुर प्रखंड की ऐश्वर्य प्रिया ने वाहनों में लगने वाले एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया है, जो न केवल 'अल्कोहल' (शराब) की पहचान करता है, बल्कि अगर आप शराब पीकर गाड़ी चलाएंगे तो गाड़ी स्वत: बंद भी हो जाएगी। बिहार में शराबबंदी के बाद पूर्णिया की ऐश्वर्य
ऐश्वर्य को इस सफलता के लिए पुणे में आयोजित राष्ट्रीय स्तर पर इनोवेटिव मॉडल एवं प्रोजेक्ट प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिला लगातार इस पर काम कर रही थीं। ऐश्वर्य का मानना है कि इस यंत्र को राज्य के वाहनों में लगाए जाने से वाहन दुर्घटना को भी रोका जा सकता है। पूर्णिया जिला के पत्रकार रवि गुप्ता की बेटी ने यह आविष्कार कर न सिर्फ पूर्णिया का बल्कि बिहार का नाम भी रौशन किया है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के लक्ष्मी नारायण कॉलेज ऑफ टेक्नोलॉजी एंड साइंस से बीटेक कर रही ऐश्वर्य प्रिया ने बताया कि कई
झारखंड के 26 किसान इजरायल रवाना
झा
रखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास ने कृषि तकनीक का अध्ययन करने के लिए 26 सदस्यीय किसानों का दल इजरायल रवाना किया है। दास ने टीम को विदा करने के दौरान कहा, "आप (किसान) रक्षा बंधन के पावन दिन किसानों की आय बढ़ाने के उद्देश्य से इजरायल जा रहे हैं। इजरायल की खेती की तकनीक सीखें और उसे अपने राज्य में अपनाएं और दूसरों के साथ अपने अनुभव साझा करें।" उन्होंने कहा, "क्षेत्रफल के हिसाब से इजरायल झारखंड से छोटा है, लेकिन खेती के कारण देश की प्रति व्यक्ति आय भारत से अधिक है। हमें हमेशा ऐसी जगह से सीखना चाहिए, जहां कुछ बेहतर हो रहा है। जहां तक खाद्यान्न
है। आज तीनों बच्चियां उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। उन्होंने बताया कि बेटी ऐश्वर्य शुरू से ही तेज बुद्धि की रही है। वह 10वीं और 12वीं की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की है, उन्हें अपनी बेटी पर गर्व है। इस मशीन के विषय में पूछे जाने पर ऐश्वर्य प्रिया ने बताया कि यह एक छोटी सी मशीन है, जिसे गाड़ी के डेस्क बोर्ड पर लगाया जा सकता है। इस यंत्र का एक तार गाड़ी के बैटरी से जबकि दूसरा तार गाड़ी के इंजन में लगा होता है। जैसे ही कोई ड्राइवर या वाहन चालक शराब पीकर गाड़ी चलाएगा, सामने लगा अल्कोहल डिटेक्टर मशीन उसके सांस से अल्कोहल को पकड़ लेगा। पकड़ने के बाद मशीन इंजन को बंद कर देगा।
प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिला है। इस प्रतियोगिता में देशभर के 125 प्रविष्टियां प्राप्त हुई एवं 84 का चयन प्रतियोगिता के लिए किया गया। ऐश्वर्य ने बताया कि इस प्रोजेक्ट का नाम 'अल्कोहल डिटेक्टर एवं अटोमेटिक इंजन लकिंग सिस्टम' रखा गया है। ऐश्वर्य प्रिया के पत्रकार पिता रवि ने बताया कि उनकी तीन बेटियां हैं और तीनों के पालन पोषण और संस्कार देने में कोई कमी नहीं की
उत्पादन का सवाल है, आज झारखंड इसमें काफी पिछड़ा हुआ है। लेकिन, वह दिन दूर नहीं है जब झारखंड आत्मनिर्भर हो जाएगा और अन्य राज्यों को खाद्यान्न खेती की तकनीक निर्यात करेगा।" किसान डेयरी, सीखने झारखंड के सब्जियों, फलों किसानों का दल के उत्पादन, ड्रिप इजरायल गया सिंचाई और अन्य कृषि तकनीकों के बारे में सीखेंगे। इस दल की अगुवाई कृषि सचिव पूजा सिंघल कर रही हैं। (आईएएनएस)
सबसे बड़ी बात है कि जब तक शराब सेवन किया व्यक्ति वाहन से उतर नहीं जाएगा, तक तक गाड़ी स्टार्ट ही नहीं होगी। ऐश्वर्य ने बताया कि बिहार में शराबबंदी के बाद शराबी को पकड़ने के लिए ब्रेथलाइजर मशीन को मुंह में लगाया जाता है। इस मशीन में मुंह लगाने की जरूरत ही नहीं है। सिर्फ सांस के बदबू से ही अल्कोहल को डिटेक्ट किया जा सकता है, जो अल्कोहल का लेबल भी बताएगा। उन्होंने बताया कि अगर सरकार इस प्रोजेक्ट पर काम करे तो महज आठ से नौ सौ रुपए में मशीन बनाकर वाहनों में लगा सकती है।
22 ट्री ग्रैबर के जरिए महिला सशक्तीकरण जेंडर
03 - 09 सितंबर 2018
नए समय में नारियल के पेड़ों पर चढ़ने के लिए नए-नए तरीके ईजाद हो रहे हैं। इसके लिए नए उपकरण तैयार किए जा रहे हैं, जिससे महिलाएं भी इन पेड़ों से नारियल तोड़कर अपनी आजीविका चला रही हैं
खास बातें
नारियल के पेड़ों पर चढ़ने के लिए सुविधाजनक तकनीक ईजाद भारत में 90 फीसदी नारियल की आपूर्ति दक्षिण के चार प्रदेशों से महिलाएं भी अब नारियल की बागवानी में दिलचस्पी ले रही हैं
पॉलिथीन का विकल्प
हमारा देश पॉलिथीन के इस्तमेला के कारण कई पर्यावरणीय समस्याओं से जूझ रहा है। पॉलिथीन को हटाकर हम नारियल की जटा से बने थैलों का उपयोग कर सकते हैं
ना
ना
एसएसबी ब्यूरो
रियल और केरल की पहचान एकदूसरे से जुड़ी है। आज भी भारत में सबसे अच्छा नारियल केरल के तटीय इलाकों का ही माना जाता है। केरल के साथ पूरे दक्षिण भारतीय खानपान में नारियल का विशेष स्थान हैं। केरल सहित दूसरे दक्षिण भारतीय तटीय राज्यों में आप किसी घर में जाएं या रेस्त्रां में, आपको हर जगह नारियल के बने कई व्यंजन मिलेंगे। यहां के लोग खाने के अलावा नारियल का केश तेल के तौर पर भी इस्तेमाल पारंपरिक तरीके से करते हैं। पूजापाठ में तो खैर नारियल का इस्तेमाल केरलवासी तो क्या पूरे देश के लोग पारंपरिक तौर पर करते रहे हैं।
नारियल तोड़ने का पारंपरिक तरीका
वक्त के साथ नारियल की साथ इसे पैदा करने वालों का रिश्ता बदला है। वह जमाना गया जब जब पेड़ से नारियल तोड़ने वाले के पैर रस्सी के एक पाश में फंसा होते थे, जिससे उसे पेड़ की ऊंचाई तक पहुंचने में आसानी होती थी। इस पारंपरिक विधि से वह नारियल के लच्छों तक बड़ी आसानी से पहुंचकर वहां से नारियल तोड़ा करता। वह उसी धुन में नीचे उतरता और फिर अगले पेड़ का रुख करता जहां उसे वैसे ही अंदाज में चढ़कर नारियल तोड़ने
होते। आदमी एक दिन में पूरे झुरमुट के नारियल तोड़ लिया करता। अब नारियल के एक तो चुनिंदा बगीचे बचे हैं और कुछ ही लोग उन पर चढऩे के लिए उपलब्ध हैं।
नए दौर में नए तरीके
नए समय में नारियल के इन बड़े पेड़ों पर चढ़ने के लिए नए-नए तरीके ईजाद हो रहे हैं। इनके लिए नए उपकरण तैयार किए जा रहे हैं, जिससे महिलाएं भी इन पेड़ों से नारियल तोड़कर अपनी आजीविका चला रही हैं। यहां तक कि इसके लिए रोबोटिक तकनीक का भी इस्तेमाल किया जा रहा है। इस तकनीक के मार्फत वहां से भी नारियल तोड़ लिए जाते हैं, जहां तक पहुंचना इंसान के लिए बेहद मुश्किल है। दरअसल, आज भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां महिलाओं के लिए कृषि सहित अन्य क्षेत्रों में समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए काफी प्रयास हुए हैं। इन प्रयासों में यह भी ध्यान रखा जाता है कि कैसे महिलाएं कम से कम श्रम में वही काम कर सकती हैं जिसके लिए उन्हें अधिक मेहनत करनी पड़ती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) का कोझिकोड स्थित इकाई भारतीय मसाला अनुसंधान संस्थान (आईआईएसआर) चाय की पत्तियां चुनने में लगी महिलाओं को प्रशिक्षित करने
रियल के इस्तेमाल का दायरा काफी बढ़ गया है और ऐसा अकेले भारत में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हो रहा है। आए दिन सरकार और विभिन्न संस्थाओं द्वारा नारियल से बनी विभिन्न वस्तुओं की प्रदर्शनियां लगाई जाती हैं। नारियल एक ऐसा फल है, जिसके प्रत्येक भाग का हम तरहतरह से उपयोग करते हैं। आजकल हमारा देश पॉलिथीन के कहर से गुजर रहा है, जो सड़ता नहीं है और नालों, रेल पटरियों तथा सड़क के किनारों को गंदा एवं प्रदूषित कर देता है। पॉलिथीन को हटाकर हम नारियल की जटा से बने थैलों का उपयोग कर सकते हैं। नारियल हर तरह से हमारे लिए उपयोगी हैं।
चार दक्षिणी राज्यों में सघन खेती
नारियल की खेती हमारे देश में लगभग एक करोड़ लोगों को रोजगार प्रदान करती है। देश के चार दक्षिणी प्रदेश केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में नारियल की सघन खेती की जाती है। देश का 90 प्रतिशत तक नारियल यहीं से प्राप्त किया जाता है। यह नमकीन मिट्टी में समुद्र के किनारे उगाया जाता है। यह नारियल-पानी पौष्टिक एवं
स्वास्थ्यवर्द्धक होता है।
कई इस्तेमाल
गर्मी के मौसम में नारियल-पानी पीकर हम अपनी प्यास बुझाते हैं। जब नारियल पकता है, तो इसमें अंदर से सफेद नारियल का फल प्राप्त होता है। यह पूजा में काम आता है। सफेद नारियल हम कच्चा भी खाते हैं, मिठाई और कई पकवान बनाने में भी इस्तेमाल करते हैं। नारियल के रेशों से गद्दे, थैले तथा और भी कई प्रकार की उपयोगी चीजें बनाई जाती हैं।
470 करोड़ रुपए की राष्ट्रीय आमदनी
नारियल को विभिन्न प्रकार से उपयोग कर हम भिन्न-भिन्न वस्तुएं बनाते हैं और देश के साथसाथ दुनिया के अन्य देशों में इनका व्यापार भी करते हैं। इससे बनी वस्तुओं के निर्यात से हमारे देश को लगभग 470 करोड़ रुपए की राष्ट्रीय आमदनी होती है। नारियल का उपयोग धार्मिक कर्मकांडों में भी किया जाता हैं। भारत में इस लिए यह पवित्र माना गया है।
03 - 09 सितंबर 2018 के लिए तकनीकी प्रशिक्षण मुहैया करा रहा है। पेरूवन्नामुझी स्थित कृषि विज्ञान केंद्र में नारियल विकास बोर्ड के साथ मिलकर आईआईएसआर इस 'ट्री ग्रैबर' तकनीक के जरिये पेड़ पर चढ़ने के लिए 20 से ज्यादा महिलाओं के समूह को प्रशिक्षित कर चुका है।
स्मार्ट गांव में अशक्तों का सशक्तीकरण उदयपुर के समीप स्थित एक गांव में शारीरिक रूप से अशक्त लोगों को एक नई जिंदगी बसर करने के लिए सशक्त बनाया जा रहा है
खास बातें
पैडल से पेड़ पर
नई मशीन पेड़ पर चढ़ने वाले को ऊपर चढ़ाने में मदद करती है। इसमें दो पैडल होते हैं जो पेड़ से लगे होते हैं। जैसे-जैसे पैडल पर जोर पड़ेगा, उसके जरिए ऊपर जाने वाला और ऊपर चढ़ेगा। यह एक अतिशय उदाहरण है। कई दूसरे ऐसे साधारण काम हैं जहां मशीनी दखल के दबाव की दरकार है। आमतौर पर मशीन को मनुष्य का दुश्मन माना जाता है, जो लोगों का काम छीनकर उन्हें बेरोजगार कर देती हैं। साथ ही मशीन आमदनी की नई राहें भी खोलती हैं।
अशक्तों का ईलाज के साथ जीविका के साधन भी उपलब्ध हैं गांव में अस्पताल सहित आधुनिक जीवन की समस्त सुविधाएं हैं कैलाश अग्रवाल 'मानव' ने की नारायण सेवा संस्थान की स्थापना
खेती के लिए और भी मशीनें
आईसीएआर की कृषि में महिलाओं की राष्ट्रीय अनुंसंधान परिषद ने ओडिशा में कई महत्वपूर्ण शुरुआत की हैं जिनके तहत मशीनों के जरिए महिलाओं का श्रम काफी कम हो गया है। केंद्र ने रोपाई से लेकर गहाई (भूसी अलग करना) जैसी खेती की प्रक्रियाओं के लिए मशीनें बनाई हैं। ऐसे भी कई मददगार दखल देखने को मिले हैं जिनका पूरी तरह से खेती से वास्ता नहीं है। मिसाल के तौर पर संस्थान ने एक ऐसा आइसक्रीम मेकर बनाया है जिससे आइसक्रीम बनाने के लिए बिजली की जरूरत नहीं पड़ती।
महिलाओं के लिए वरदान
ओडिशा के गांव में पशुओं के चारे में निवेश करने वाली किसी महिला के लिए यह वरदान हो सकता है। वैसे तो नवाचारों की कोई कमी नहीं है, लेकिन ये बमुश्किल ही जरूरतमंदों तक पहुंच पाते हैं। भारत सरकार के राष्ट्रीय नवप्रवर्तन फाउंडेशन ने पिछले हफ्ते तीन पुरस्कार देने का ऐलान किया जो विशेषरूप से कृषि-श्रम से संबंधित नवाचार से जुड़े होंगे। तीन श्रेणियों में दिए जाने वाले इन पुरस्कारों में 10 लाख रुपए की धनराशि दी जाएगी। जिन तीन श्रेणियों में ये पुरस्कार वितरित किए जाएंगे, वे हैं धान रोपाई के लिए कोई मशीनी समाधान, चाय की पत्ती चुनने के लिए खास तकनीक और लकड़ी से चलने वाले चूल्हे का नया प्रतिरूप।
यांत्रिक विकल्प
फाउंडेशन को भरोसा है इन पुरस्कारों के जरिए कई और यांत्रिक विकल्प सामने आएंगे। हालांकि अभी इस क्षेत्र में काफी प्रयास करने की जरूरत है। आखिर क्या कारण है जो चीनी गांवों को तकरीबन हर चीज का निर्माता बना दिया है। भारत में इस लिहाज से अभी काफी प्रयास किए जाने हैं। अभी तो सिर्फ यह हुआ है कि अब कृषि-बागवानी जैसे क्षेत्रों में न सिर्फ महिलाएं न सिर्फ अपना उद्यम दिखा रही हैं, बल्कि इससे जरिए इन तमाम क्षेत्रों में महिला सशक्तीकरण का सर्वथा नया अध्याय लिखा जा रहा है।
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पहल
गां
अर्चना शर्मा
व में अशक्तों को अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाने के मकसद से न सिर्फ उनकी शारीरिक विकृतियों को दूर करने के लिए उनकी सर्जरी के साथ-साथ अन्य उपचार नि:शुल्क किया जा रहा है, बल्कि उन्हें रोजगार के साधन भी मुहैया करवाए जा रहे हैं। इसके लिए उन्हें कंप्यूटर और मोबाइल की मरम्मत से लेकर सिलाईकटाई का भी प्रशिक्षण दिया जा रहा है। गांव में स्थित नारायण सेवा संस्थान के परिसर में अत्याधुनिक उपकरण से सुसज्जित अस्पताल, अनाथालय, स्मार्ट स्कूल, कौशल प्रशिक्षण संस्थान और पुनर्वास, भौतिक चिकित्सा व प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र भी हैं। इस गांव को स्मार्ट गांव का खिताब मिला है, क्योंकि ग्रामवासियों के लिए इस परिसर के भीतर एटीएम मशीन, इंटरनेट और खुद के टॉय ट्रेन समेत जीविका के सारे साधन व सुविधाएं हैं। विशिष्ट सेवा के लिए पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित कैलाश अग्रवाल 'मानव' द्वारा स्थापित इस संगठन का एकमात्र मकसद अशक्तों को इस योग्य बना देना है कि संस्थान छोड़ने के बाद वे अपनी आजीविका का साधन खुद बना सकें। नारायण सेवा संस्थान के अध्यक्ष, प्रशांत अग्रवाल ने बताया कि संगठन द्वारा न सिर्फ पोलियोग्रस्त मरीजों की सर्जरी की जाती है, बल्कि अन्य जन्मजात विकृतियों से ग्रस्त मरीजों का भी इलाज करवाया जाता है। कैलाश अग्रवाल के पुत्र प्रशांत ने बताया, ‘गरीबों, जरूरतमंदों और शारीरिक रूप अशक्त लोगों के पुनर्वास के लिए उनकी देखभाल की सुविधा मुहैया करवाने के अलावा हम उनके परिचारकों को भी कंप्यूटर और मोबाइल मरम्मत करने और सिलाई-कटाई करने का प्रशिक्षण प्रदान करते हैं। अब तक 4,276 लोगों ने हमारी इस सुविधा का लाभ उठाया है।’ जोड़ों की विकृति से पीड़ित होने के कारण
शारीरिक रूप से अशक्त आगरा के विनोद कुमार मोबाइल मरम्मत करने का प्रशिक्षण पाकर उत्साहित हैं। उन्होंने कहा, ‘मैं आगरा वापस जाने पर एक दुकान खोलकर खुद कमाई करना चाहता हूं। यहां जो सबसे अच्छी चीज मुझे मिली, वह यह है कि मैंने उपचार के दौरान प्रशिक्षण प्राप्त किया।’ आशा देवी के पोते का यहां ऑपरेशन हुआ है। उन्होंने बताया, ‘हालांकि मेरी उम्र 60 साल हो चुकी है फिर भी मुझे विभिन्न डिजाइन के फ्रॉक और कुर्ती की सिलाई करने में आनंद का अनुभव हो रहा है। हमारे गांव में किसी के पास यह हुनर नहीं है। इसलिए मुझे विश्वास है कि मेरी अच्छी कमाई होगी।’ उन्होंने बताया कि नारायण सेवा संस्थान ने उनको गांव लौटते समय सिलाई मशीन देने का वादा किया है। उन्होंने बताया, ‘यहां हमारे लिए रहना, खाना, प्रशिक्षण और इलाज सबकुछ नि:शुल्क है। इस प्रकार यह संस्थान हमारे के लिए मंदिर जैसा है, जहां हमारी सारी प्रार्थना सुनी गई।’ संस्थान की ओर से शारीरिक रूप से अशक्त और सुविधा विहीन पृष्ठभूमि के युवाओं की शादी के लिए साल में दो बार सामूहिक विवाह समारोह का भी आयोजन किया जाता है। अबतक 1,298 जोड़ों की यहां शादियां हो चुकी हैं। 1985 में संगठन की नींव रखने वाले कैलाश
संस्थान के मुख्यालय उदयपुर में 1,100 बिस्तरों का एक अस्पताल है। इस संगठन द्वारा नारायण चिल्ड्रन एकेडमी का भी संचालन किया जाता है, जिसमें आसपास के जनजातीय छात्रों के लिए सारी सुविधाओं से सुसज्जित कक्षाएं चलती हैं
अग्रवाल ने 1976 में सिरोही जिले में हुए एक भीषण हादसे को देखकर मानवता की सेवा का कार्य शुरू किया। उस हादसे में सात लोगों की मौत हो गई थी। प्रशांत ने बताया, ‘मेरे पिताजी डाकखाने में किरानी थे। सिरोही के पिंडवाड़ा में बस की टक्कर के बारे में सुनने के बाद वह दफ्तर से छुट्टी लेकर वहां गए तो हादसे में खून से लथपथ लोगों को देख विचलित हो गए। लोगों की मदद से उन्होंने घायलों को जनरल अस्पताल में भर्ती करवाया। वह उनकी देखभाल की जरूरतों को पूरा करने के लिए रोज अस्पताल जाते थे।’ प्रशांत ने कहा, ‘अस्पताल में उन्हें लोगों के कष्टों का अनुभव हुआ। उन्होंने देखा कि पैसे के अभाव में लोग दवाई तक नहीं खरीद पाते थे।’ उन्होंने बताया, ‘लोगों की मदद के लिए उन्होंने दानपात्र पर नारायण सेवा की पर्ची चिपकाकर अपने रिश्तेदारों और परिचतों के बीच उसे वितरित किया, जिसमें लोगों से रोज थोड़ा आटा मांगा जाता था। हर दिन सुबह में मेरी मां और पिताजी आटा जमाकर भूखों को खाना खिलाते थे। मेरी बहन और मैंने भी इस कार्य में उनका साथ दिया।’ बाद में 1985 में उन्होंने नारायण सेवा संस्थान की स्थापना की। यह एक गैर-लाभकारी संगठन है, जो समाज के अत्यंत गरीब वर्ग के मरीजों की मदद करता है। यह संस्थान अब दुनिया के उन संस्थानों में शुमार है, जहां रोज 100 से अधिक पोलियो और मस्तिष्क पक्षाघात से पीड़ित मरीजों की सर्जरी होती है। इस संस्थान ने अब तक पोलियो से ग्रस्त 3,25,000 मरीजों का इलाज कर उन्हें नई जिंदगी प्रदान की है। संस्थान का मुख्यालय उदयपुर में है, जहां 1,100 बिस्तरों का एक अस्पताल है। इस अस्पताल में देश-विदेश से आए मरीजों का उपचार होता है। इस संगठन द्वारा नारायण चिल्ड्रन एकेडमी का भी संचालन किया जाता है, जिसमें आसपास के जनजातीय छात्रों के लिए सारी सुविधाओं से सुसज्जित कक्षाएं चलती हैं। प्रशांत ने कहा, ‘हमारा मकसद शारीरिक रूप से अशक्त सभी लोगों को अपने पैरों पर खड़े होने लायक बनाना है।’
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व्यक्तित्व
03 - 09 सितंबर 2018
कन्फ्यूशियस
जिसने बिखरे चीन को जोड़ा
चीन के बिखरे हुए समाज को जोड़ने में कन्फ्यूशियस का अहम योगदान है। कन्फ्यूशियस ने उस वक्त चीन के टूटते हुए समाज के लिए सेतु का काम किया
दु
एसएसबी ब्यूरो
निया की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक का दम भरने वाले चीन ने दुनिया को कई महान दार्शनिक भी दिए हैं। चीन के शानदोंग प्रदेश में ईसा मसीह के जन्म से करीब 550 वर्ष पहले एक बच्चा पैदा हुआ, जो आगे चलकर कन्फ्यूशियस के नाम से जाना गया और महान दार्शनिक बना। आज दुनिया उनकी गिनती सबसे महान विचारकों में करती है। कन्फ्यूशियस सिर्फ दार्शनिक ही नहीं, बल्कि एक राजनीतिज्ञ और महान शिक्षक भी थे। उनका उद्भव चीन में स्प्रिंग ऑफ ऑटम पीरियड, जिसे झगड़ते राज्यों का काल कहा जाता है, के वक्त हुआ। अपने कार्यों और सिद्धांतों की वजह से एक अलग पहचान रखने वाले कन्फ्यूशियस के विचार आज भी लोगों की जिंदगी को प्रभावित कर रहे हैं। उनके बौद्धिक, सामाजिक और राजनीतिक विचारों पर आधारित विचारधारा को कन्फ्यूशियसवाद कहा जाता है।
मुश्किल बचपन
कम उम्र में ही अपने पिता को खो देने वाले कन्फ्यूशियस का बचपन बेहद मुश्किलों से भरा था। माना जाता है कि उनका जन्म 551 ईसा पूर्व 28 सितंबर को चीन के पूर्वी प्रांत शानडोंग के क्यूफू शहर (छ्वी फु) में हुआ था। उस वक्त चीन में झोऊ राजवंश की सत्ता थी। यह लगभग वही वक्त था, जब भारत में भगवान महावीर और भगवान बुद्ध लोगों के सामने नए विचार रख रहे थे और उन्हें शांति के पथ अग्रसर कर रहे थे। कन्फ्यूशियस के पिता कोंग ही राज्य की सेना में कमांडेंट के पद पर थे। कन्फ्यूशियस जब 3 साल के थे, उनके पिता की एक युद्ध में मौत हो गई। फिर उनका पालन-पोषण
उनकी मां ने बेहद गरीबी में किया।
भविष्य के संघर्ष की शुरुआत
संसाधनों से दूर बेहद गरीबी में बचपन बिताते हुए भी कन्फ्यूशियस के अंदर ज्ञान को पाने की असीम ललक थी, इसीलिए उन्हें किताबों से प्यार हो गया। मुश्किल के दिनों में भी किसी तरह उन्होंने समाज, इतिहास दर्शन और अर्थशास्त्र का खूब अध्ययन किया। 17 वर्ष की उम्र में ही उन्हें एक सरकारी नौकरी मिल गई। लेकिन कुछ सालों बाद ही उन्होंने नौकरी छोड़ दी और शिक्षण का कार्य करने लगे। घर में ही एक विद्यालय खोलकर उन्होंने विद्यार्थियों को शिक्षा देना प्रारंभ कर दिया। वे खुद पहले पुस्तकों से अध्ययन करते और फिर अपने छात्रों को ज्ञान देते। 19 साल की उम्र में उन्होंने क्यूगोंन नाम की एक लड़की से विवाह कर लिया। इतिहासकारों के अनुसार उनके दो बेटियों का जन्म हुआ, जिसमें से एक की पैदा होते ही मृत्यु हो गई थी। 22 वर्ष की अवस्था में कन्फ्यूशियस ने एक विद्यालय की भी स्थापना की। कन्फ्यूशियस जब 23 साल के थे, उनकी मां गुजर गईं। फिर परंपरानुसार उन्होंने शोक में 3 साल बिताए। इस शोक की वजह से एकांत में बिताए गए पलों में उन्होंने दार्शनिक आदर्शों पर ध्यान केंद्रित किया।
कन्फ्यूशियस के दर्शन का चीन सहित पूर्वी एशिया और विश्व के अन्य भागों पर भी गहरा प्रभाव है। कन्फ्यूशियस की शिक्षाओं में सदाचार पर अधिक बल मिलता है राजनीतिक जीवन
कन्फ्यूशियस के समय चीन में कई नए राज्यों का निर्माण होने की वजह से पूरे देश में जंग जैसा माहौल था। चीन में झोऊ राजवंश के कमजोर होने के बाद अराजकता का माहौल था। छोटे-छोटे राज्य आपस में लड़ रहे थे और चीनी जनता की जिंदगी बेहद मुश्किलों से गुजर रही थी। इन्हीं मुश्किल हालात में चीन के लोगों को कन्फ्यूशियस ने नैतिकता का पाठ पढ़ाया और महान सिद्धांतों की रचना की। 53 वर्ष की उम्र में कन्फ्यूशियस चीन के लू राज्य में एक शहर के शासनकर्ता बने, बाद में वे मंत्री पद पर भी नियुक्त किए गए। मंत्री होने के नाते, उन्होंने कई महत्वपूर्ण सुधार किए और दंड के बदले मनुष्य के चरित्र सुधार पर अधिक बल दिया। कन्फ्यूशियस ने अपने शिष्यों को सत्य, प्रेम और न्याय का संदेश दिया। उनकी राजनीतिक समझ का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक किसी प्रदेश के
शासनसूत्र के संचालन का भार सौंपा जाए, तो वह सबसे पहला कौन सा महत्वपूर्ण कार्य करेंगे, इसके लिए उनका उत्तर था – 'नामों में सुधार'। उनके अनुसार यदि कोई नाम के पद पर प्रतिष्ठित हो उसे उस पद से संलग्न सभी कर्तव्यों का विधिवत पालन करना चाहिए, जिससे उसका वह नाम सार्थक हो।
कन्फ्यूशियस का दर्शन
कन्फ्यूशियस के दर्शन का चीन सहित पूर्वी एशिया और विश्व के अन्य भागों पर भी गहरा प्रभाव है। कन्फ्यूशियस की शिक्षाओं में सदाचार पर अधिक बल मिलता है। कन्फ्यूशियस को श्रेष्ठ पांच चीनी ग्रंथों को संपादित करने का श्रेय जाता है। कन्फ्यूशियस के मरने के बाद उनकी शिक्षाओं से संबंधित उद्धरण एफोरिज्म्स में संकलित है। चीनी परंपराओं और विश्वास के आधार पर टिके हुए उनके सिद्धांत बहुत हद तक व्यवहारिक जान पड़ते हैं।
03 - 09 सितंबर 2018 वे लोगों को विनयी, परोपकारी, गुणी और चरित्रवान बनने की प्रेरणा देते रहे। कन्फ्यूशियस के पूरे दर्शन के चिंतन का मूल यही है कि व्यक्ति क्या है और समाज में उसके कर्तव्य क्या है। उनका मानना था कि जो व्यक्ति मानव की सेवा नहीं कर सकता वह धर्म की सेवा भी नहीं कर पाएगा। आदर्श सरकार के रूप में उन्होंने परिवार को आधार बनाने पर सबसे अधिक जोर दिया। सबसे अहम बात यह है कि कन्फ्यूशियस एक समाज सुधारक थे, लेकिन धर्म प्रचारक नहीं थे। कन्फ्यूशियस ने ईश्वर के बारे में कभी कोई उपदेश नहीं दिया, लेकिन फिर भी लोग उन्हें धार्मिक गुरू समझने लगे। कन्फ्यूशियस ने अपने शिष्यों को सत्य, प्रेम और न्याय का संदेश दिया। वे सदाचार पर अधिक बल देते तथा लोगों को विनयी, परोपकारी, गुणी और चरित्रवान बनने की प्रेरणा देते थे। उनके मत को ‘कन्फ्यूशियसवाद’ या ‘कुंगफुल्सीवाद’ कहा जाता है। कंफ्यूशियस ने स्व:अनुशासन, बेहतर जीवनचर्या और परिवार में सामंजस्य पर जोर दिया था। उनकी शिक्षाओं का आज भी चीन के लोग पालन करते हैं। सभ्यता के इतिहास में मानवता को प्रभावित करने वाले सबसे प्रभावशाली व्यक्ति के रूप में कन्फ्यूशियस को माना जाता रहा है। उनकी मानवीय शिक्षाएं और दर्शन आज भी लोगों को प्रभावित करती हैं। कन्फ्यूशियस के दर्शन को अपने समय में राजधर्म माना गया। आज भी चीनी शिक्षा में उनके दर्शन का प्रभाव साफ देखा जा सकता है। वह मानते थे कि अच्छे शासन से ही शांति की स्थापना संभव है। शासक सही अर्थों में शासक बने और उसके मंत्रियों को कर्तव्य परायणता का पाठ पढ़ाया जाए। कन्फ्यूशियस के अनुसार शासन तंत्र के आदर्शों से ही प्रजा के आचरण में सुधार आता है। अगर राजतंत्र बेहतर तरीके से काम करेगा तो नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक होंगे और अपने दायित्वों का ईमानदारी से पालन करेंगे। कन्फ्यूशियस का स्पष्ट मत था कि किसी भी राष्ट्र की शक्ति वहां के निवासियों की सत्य निष्ठा और दृढ़ नैतिकता पर आधारित होती है। उनके दर्शन में जिक्र है कि बुरा आदमी चाहे जितना शक्ति से भरा हुआ हो, लेकिन कभी भी वह शासन करने के योग्य नहीं बन सकता।
कन्फ्यूशियसवाद
कन्फ्यूशियस ने अपने शिष्यों को सत्य, प्रेम और न्याय का संदेश दिया। वे सदाचार पर अधिक बल देते थे और लोगों को विनयी, परोपकारी, गुणी और चरित्रवान बनने की प्रेरणा दी। उनकी विचारधार को ‘कन्फ्यूशियसवाद’ या ‘कुंगफुल्सीवाद’ कहा जाता है। कन्फ्यूशियसवाद के अनुसार समाज का संगठन पांच प्रकार के संबंधों पर खड़ा है- 1-शासक और शासित, 2-पिता और पुत्र, 3-ज्येष्ठ भ्राता और कनिष्ठ भ्राता, 4-पति और पत्नी, 5-इष्ट मित्र। धर्मनिरपेक्षता भी कन्फ्यूशियसवाद की शिक्षा का मूल मंत्र है। कन्फ्यूशियसवाद का मूल सिद्धांत कहता है, ‘दूसरों के प्रति वैसा ही व्यवहार करो, जैसा तुम उनके द्वारा अपने प्रति किए जाने की इच्छा रखते हो।’ उनकी यह बात आज भी उतनी
कन्फ्यूशियस के अनमोल विचार
हमारा वह
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व्यक्तित्व
जन्म: 551 ईपू मृत्यु: 479 ईपू प्रसिद्धि: महान चीनी दार्शनिक, चीनी शिक्षा पर आज भी प्रभाव, उनके राजनीतिक दर्शन को आज भी मौजूं माना जाता है, अपने विचारों से चीन की दिशा बदली, उनके सम्मान में यूनेस्को कन्फ्यूशियस पुरस्कार दिया जाता है
जीवन बहुत सरल है, लेकिन हम उसे जटिल बनाते रहते हैं।
जो स्वयं पर विजय प्राप्त करते हैं। वह सबसे बड़े पराक्रमी योद्धा है।
प्रतिशोध-रथ पर सवार हो तो, यात्रा प्रारंभ करने से पहले दो कब्र खोदिए। कमी धैर्य
एक
के साथ एक हीरा, बिना किसी कमी के पत्थर से बेहतर है।
से आप बड़ी से बड़ी कठिनाईयों से भी बाहर निकल सकते हैं।
गलती करने के बाद, जो आदमी उसे सुधारता नहीं है, वह असल में दूसरी गलती कर रहा होता है। बुराई
को देखना और सुनना ही बुराई की शुरुआत होती है।
केवल
सम्मान की भावना ही आदमी को जानवरों से अलग करती है।
वास्तविक
ज्ञान किसी के अज्ञान की हद का पता करने के लिए है।
ही चरितार्थ है।
बिखरे चीन को जोड़ना
कन्फ्यूशियस का चीन के बिखरे हुए समाज को जोड़ने में बहुत अहम योगदान है। इतिहासकारों का मानना है कि कन्फ्यूशियस ने उस चीन के टूटते हुए समाज के लिए सेतु का काम किया। उनके उपदेशों के कारण चीनी समाज में एक स्थिरता आयी और समाज में एकता पनपी। कन्फ्यूशियस का दर्शन शास्त्र आज भी चीनी शिक्षा के लिए एक अहम कड़ी है और उसे चीन की शिक्षा व्यवस्था में पथ प्रदर्शक के रूप में देखा जाता है। जब-जब मुश्किल आई, उनकी शिक्षाओं ने
कन्फ्यूशियस के अनुसार शासन तंत्र के आदर्शों से ही प्रजा के आचरण में सुधार आता है। अगर राजतंत्र बेहतर तरीके से काम करेगा तो नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक होंगे
चीनी जनता को एकजुट किया ही। चीन के नेताओं ने भी जब भी कोई बड़ा संकट देश के सामने आया, कन्फ्यूशियस की शिक्षाओं के सहारे ही सीख ली और जनता को सही राह दिखाई। आज भी उनकी शिक्षाएं उतनी ही कारगर हैं, जितनी उस जमाने में थीं।
रचनाएं
कन्फ्यूशियस ने अपने विचारों को लिखित रूप में कभी नहीं संकलित किया। उनका मानना था कि व्यक्ति विचारों का वाहक है। कन्फ्यूशियस के पौत्र त्जे स्जे द्वारा लिखित 'औसत का सिद्धांत' (डाक्ट्रिन ऑव द मीन) और उसके शिष्य त्सांग सिन द्वारा लिखित 'महान शिक्षा' (द ग्रेट लर्निंग) नामक पुस्तकों में कन्फ्यूशियस के विचार संबंधी सूचनाएं प्राप्त होती हैं। वहीं 'वसंत और पतझड़' (स्प्रिंग ऐंड आटम) नामक एक ग्रंथ है, जिसे कन्फ्यूशियस का लिखा हुआ बताया जाता है। इस रचना को चीन के संक्षिप्त इतिहास के लिए आदर्श माना जाता रहा है।
मौत का सामना
इतिहासकारों का मानना है कि कन्फ्यूशियस को अपनी मौत के बारे में पहले ही पता चल गया था। कहा जाता है कि 479 ईसा पूर्व में उन्होंने एक हिरण को अपने सामने दम तोड़ते देखा था। उसके बाद
ही, उन्होंने अपने शिष्यों से बोल दिया था कि अब उनका अंत समय आने वाला है। इतिहासकार मानते हैं कि इसके अगले ही दिन कन्फ्यूशियस की मौत हो गई थी।
चीन में कन्फ्यूशियस की धरोहर
चीन ने कन्फ्यूशियस की विरासत को संजोने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। कन्फ्यूशियस के अपने शहर क्यूफू शहर में जहां उनका जन्म हुआ था, वहां कन्फ्यूशियस स्मारक, कन्फ्यूशियस मंदिर और कन्फ्यूशियस भवन समेत कई प्रसिद्ध इमारत हैं। वर्ष 1982 में चीन सरकार द्वारा निर्धारित प्रसिद्ध ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर घोषित किया गया। वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक व सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने कन्फ्यूशियस स्मारक कन्फ्यूशियस मंदिर और कन्फ्यूशियस भवन को विश्व सांस्कृतिक विरासत में भी शामिल कर लिया। इस दार्शनिक के नाम से चीन की सरकार एक शांति पुरस्कार भी प्रदान करती है।
भारत पर असर
भारत में भी कन्फ्यूशियस का दर्शन बहुत महत्त्व रखता है। कई विद्यालयों में उनके दर्शन को पढ़ाया जाता है। भारत के बड़े विचारक और अध्यात्मिक गुरु ओशो भी कन्फ्यूशियसवाद से प्रभावित थे और उनकी शिक्षाओं के बारे में अपने शिष्यों से चर्चा करते रहते थे। ओशो कहते थे, कन्फ्यूशियस के नीतिवादी विचार अधिक प्रभावी सिद्ध हुए हैं। ओशो कन्फ्यूशियस को सुकरात, महावीर, बुद्ध और चीन के एक अन्य महान विचारक लाओत्से तुंग के समकालीन बताया करते थे।
यूनेस्को कन्फ्यूशियस पुरस्कार
कन्फ्यूशियस के सम्मान और उनकी शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार के लिए, संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को), साक्षरता के लिए हर साल यूनेस्को कन्फ्यूशियस पुरस्कार देता है। चीन द्वारा प्रायोजित यह पुरस्कार वैश्विक साक्षरता में उत्कृष्टता और नवाचार में उच्च प्रदर्शन के सम्मान में दिए जाते हैं। इसकी स्थापना चीन की सरकार के सहयोग से यूनेस्को ने साल 2005 में की थी।
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पुस्तक अंश
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कैलिफोर्निया, यूएसए
भारतीय डायस्पोरा ने भारत-यूएसए संबंधों को मजबूत बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। हमें हमारे समुदाय की उपलब्धियों पर बहुत गर्व है, जिसने हमारे दोनों समाजों में बहुत योगदान दिया है। मुझे विश्वास है कि मेरी अमेरिकी यात्रा लाभदायक होगी और यह दुनिया के सबसे पुराने और सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों के बीच बंधन को और मजबूत करेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
सितंबर 2015ः कैलिफोर्निया की अपनी यात्रा से पहले
टेस्ला मोटर्स में एक इलेक्ट्रिक कार में सवारी करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
सैन जोस, कैलिफोर्निया, अमेरिका: टेस्ला मोटर्स परिसर की अपनी यात्रा के दौरान टेस्ला मोटर्स के सीईओ एलन रीव मस्क के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
प्र
धानमंत्री बनने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका की अपनी दूसरी यात्रा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमेशा की तरह, अपने लिए एक व्यस्त कार्यक्रम निर्धारित किया। उनकी इस यात्रा का महत्व, संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए गए उनके संबोधन में उतना नहीं दिखता, जितना कैलिफोर्निया की उनकी यात्रा के दौरान दिखाई दिया। कैलिफोर्निया में उन्होंने दो दिनों में अपनी कई गतिविधियों के माध्यम से बड़े मुद्दों को छुआ। मोदी ने सूचना प्रौद्योगिकी और स्टार्ट-अप
का वैश्विक केंद्र होने के संदर्भ में कैलिफोर्निया का उल्लेख करते हुए प्रमुखता से उसके योगदान के बारे में बताया। इन व्यावसायिक उद्यमों में भारतीय डायसपोरा की मजबूत उपस्थिति है और पीएम मोदी इसी का फायदा उठाना चाहते थे। प्रधानमंत्री मोदी ने गूगल परिसर का दौरा किया और उसके सीईओ सुंदर पिचई से मुलाकात की। मोदी को गूगल के नवाचारों और भविष्य की योजनाओं के बारे में जानकारी दी गई। मोदी ने अपनी इस यात्रा में, ऐप्पल इंक के सीईओ टिम कुक, एडोब सिस्टम्स के
सीईओ शांतनु नारायण और कैलिफोर्निया स्थित बहुराष्ट्रीय निगमों के अन्य प्रमुखों के साथ चर्चा की। भारतीय स्टार्ट-अप के नवाचारों को प्रदर्शित करने वाले मंच, कोनेक्ट (Konnect) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम को प्रधानमंत्री ने संबोधित किया। कैलिफोर्निया के पालो आल्टो शहर में फेसबुक इंक के मुख्यालय में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसके अध्यक्ष और सीईओ मार्क जुकरबर्ग के साथ टाउन हॉल की बैठक में भाग लिया। प्रश्नोत्तर सत्र में तमाम विषयों पर उन्होंने बात की। प्रधानमंत्री ने आशावाद के माहौल पर ध्यान केंद्रित किया और यही आशावादी दृष्टिकोण अब भारत के बारे में वैश्विक व्यापार समुदाय में प्रचलित है। साथ ही मोदी अपने देश को 20 ट्रिलियन अमरीकी डालर अर्थव्यवस्था में परिवर्तित करने के अपने दृष्टिकोण के बारे में बिलकुल सुनश्चित और स्पष्ट थे। उन्होंने सोशल मीडिया की ताकत को
24 सितंबर, 2015: न्यूयॉर्क में मास्टर कार्ड के सीईओ और यूएसआईबीसी के अध्यक्ष अजय बंगा से मुलाकात करते हुए प्रधानमंत्री मोदी
स्वीकार करते हुए कहा, ‘हम हर पांच साल पर चुनाव करते थे और अब हम उनसे हर पांच मिनट पर संपर्क कर सकते हैं।’ प्रधानमंत्री ने सैन जोस के सैप सेंटर एरिना में भी भारतीय समुदाय को संबोधित किया। मोदी को सुनने के लिए 45,000 से अधिक लोग उपस्थित थे।
03 - 09 सितंबर 2018
24 सितंबर, 2015: न्यूयॉर्क में एईसीओएम के सीईओ और अध्यक्ष माइक बर्क से मुलाकात करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
माउंटेन व्यू, कैलिफोर्निया: गूगल के सीईओ सुंदर पिचई से हाथ मिलाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
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पुस्तक अंश
24 सितंबर, 2015: न्यूयॉर्क में लॉकहीड मार्टिन की चेयरमैन मेरीलिन हेसन से मिलते हुए पीएम मोदी
कैलिफोर्निया के सैन जोस में एक बैठक के दौरान, ऐप्पल के सीईओ टिम कुक से हाथ मिलाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
हम उत्साहित हैं कि आखिरकार भारत में एक ऐसी सरकार है, जो देश के विकास पर ध्यान केंद्रित कर रही है। प्रधानमंत्री की सिलिकॉन वैली की यात्रा, भारत सरकार में नवाचार और प्रौद्योगिकी के माध्यम से एक बहुत ही आवश्यक परिवर्तन की प्रतीक है। प्रकाश भालेराव उच्च तकनीक से जुड़े उद्यमी सैप सेंटर, सैन जोस, कैलिफ़ोर्निया में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण से दस उद्धरण
भारतीय मूल के गूगल के सीईओ सुंदर पिचई ने कहा कि गूगल भारत में शुरुआत में 100 रेलवे स्टेशनों पर हाई स्पीड इंटरनेट सेवाएं प्रदान करेगा और फिर अगले वर्ष तक इसे 400 से ज्यादा स्टेशनों तक बढ़ाएगा।
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जब आखिरी बार मैं यहां आया था, तब से इन 25 सालों में बहुत कुछ बदल गया है। मैंने कैलिफोर्निया में भारत की एक जीवंत छवि का अनुभव किया है। -
की- बोर्ड पर आपकी उंगलियों के जादू ने भारत को एक नई पहचान दी है। आप दुनिया को बदलने के लिए मजबूर कर रहे हैं। -
क्या किसी ने कभी सोचा था कि ब्रेन ड्रेन (प्रतिभा पलायन), ब्रेन गेन बन सकता है ? यह ब्रेन ड्रेन नहीं है, बल्कि ब्रेन डिपॉजिट करना है।
द इंडियन एक्सप्रेस -
इसे ब्रेन ड्रेन बिलकुल न समझें। जब अवसर आएंगे, तो यह भारत मां की सेवा में ब्याज के साथ वापस आएगा।
सैन जोस, कैलिफोर्निया: डिजिटल इंडिया और डिजिटल टेक्नोलॉजी डिनर समारोह के दौरान, माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्य नाडेला, सिस्को के कार्यकारी अध्यक्ष जॉन टी चेम्बर्स, क्वालकॉम के कार्यकारी अध्यक्ष पॉल ई. जैकब्स और गूगल के सीईओ सुंदर पिचई के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी -
ऐसा माना जा रहा है कि 21 वीं शताब्दी, भारत की शताब्दी है। -
मुझे देश में विश्वास है, क्योंकि भारत युवा है। हमारी आबादी का 65 प्रतिशत, 35 वर्ष से कम आयु का है। -
आज 16 महीने बाद, मैं आपसे प्रमाणपत्र चाहता हूं। क्या मैं अपना वादा निभा रहा हूं? क्या मैं दिन-रात कड़ी मेहनत कर रहा हूं?
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उपनिषद से हम उपग्रह की ओर चले गए हैं। भारत पहले ही प्रयास में अपने मंगल मिशन में सफल रहा है। -
मैंने महसूस किया है कि ई-शासन प्रणाली आसान, प्रभावी और आर्थिक रूप से सफल है। -
जब आतंकवाद को परिभाषित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने 15 वर्षों का समय लिया, तो आतंकवाद से लड़ने में कितना समय लेगा? (जारी अगले अंक में)
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खेल
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'पापा ने कहा तू आगे बढ़, जो होगा देखा जाएगा' कोच मोहिंदर सिंह ढिल्लन के मार्गदर्शन में अभ्यास करने वाले तेजेंदरपाल ने पुरुषों की गोला फेंक स्पर्धा में एशियाई रिकॉर्ड के साथ पहला स्थान हासिल किया
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मोनिका चौहान
सर से जूझ रहे मेरे पिता ने कहा, ‘तू आगे बढ़, जो होगा देखा जाएगा'। इसीलिए, एशियाई खेलों का यह स्वर्ण पदक मेरे पिता और मेरे परिवार को समर्पित है।’ यह कहना है इंडोनेशिया में जारी 18वें एशियाई खेलों में गोला फेंक (शॉट पुट) स्पर्धा का स्वर्ण पदक जीतने वाले भारतीय एथलीट तेजेंदरपाल सिंह तूर का। बातचीत में उन्होंने अपने खेल जीवन से जुड़ी कई अहम बातों पर चर्चा की। स्वर्ण पदक की सफलता को अपने पिता करम सिंह और अपने परिवार को समर्पित करते हुए
तेजेंदरपाल ने कहा, ‘मेरे पिता पिछले दो साल से कैंसर से जूझ रहे हैं। लेकिन उन्होंने मुझे कभी भी अस्पताल दवाई लेने के लिए नहीं भेजा और न ही मुझे घर पर बुलाया। उन्होंने कहा कि तू अपना प्रशिक्षण जारी रख। आगे की चिंता न कर, जो होगा देखा जाएगा। इसीलिए, यह जीत मेरे पिता को समर्पित है।’ बकौल तेजेन्दरपाल, ‘मेरे परिवार ने मेरा इसमें पूरा साथ दिया। उनके समर्थन के बिना यह बिल्कुल भी संभव नहीं था। इसीलिए, मैंने भी अपना प्रयास कड़ी मेहनत के साथ जारी रखा और स्वयं को लक्ष्य से भटकने नहीं दिया। ऐसे में मेरे परिवार को भी मेरी यह जीत समर्पित है।’ उल्लेखनीय है कि अपने कोच मोहिंदर सिंह ढिल्लन के मार्गदर्शन में अभ्यास करने वाले तेजेंदरपाल ने पुरुषों की गोला फेंक स्पर्धा में एशियाई रिकॉर्ड के साथ पहला स्थान हासिल किया। उन्होंने 20.75 मीटर के साथ भारत का परचम लहराया। एशियाई खेलों में यह एक नया रिकॉर्ड है। इससे पहले 20.57 मीटर का रिकार्ड था, जो सऊदी अरब के अब्दुलमजीद अल्हाबाशी ने 2010 एशियाई खेलों में बनाया था। भारतीय नौ सेना में काम करने वाले पंजाब के मोगा जिले के तेजेंदरपाल ने पिछले साल भुवनेश्वर में आयोजित एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में रजत पदक जीता था। वह गोल्ड कोस्ट राष्ट्रमंडल
खेलों में हालांकि निराशाजनक तौर पर आठवें स्थान पर रहे थे। तेजेंदरपाल ने गोल्ड कोस्ट की नाकामी को अपने राह में रोड़ा नहीं बनने दिया और चैंपियन बनकर उभरे। अपनी खुशी जाहिर करते हुए तेजेंदरपाल ने कहा, "स्वर्ण जीतकर बेहद खुशी हो रही है, क्योंकि सभी का लक्ष्य इस पदक को हासिल करना होता है। इसके साथ-साथ एशियाई रिकॉर्ड
बनाया है। सबसे अधिक खुशी इस बात की है कि 16 साल बाद पंजाब की झोली में स्वर्ण पदक आया है।" एशियाई खेलों के इतिहास में पुरुषों के शॉट पुट में भारत का यह नौवां स्वर्ण पदक है। इससे पहले, मदन लाल ने 1951 में, प्रद्युम्न सिंह ने 1954 और 1958 में, जोगिन्दर सिंह ने 1966 और 1970 में, बहादुर सिंह चौहान ने 1978 और 1982 में तथा बहादुर सिंह सागू ने 2002 के एशियाई खेलों के शॉट पुट स्पर्धा में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता था। तेजेन्द्रपाल शुरुआत में क्रिकेट खेलते थे, लेकिन उनके पिता ने ही उन्हें एथलेटिक्स की ओर जाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा, "मैं अपने गांव के टूर्नामेंटों में क्रिकेट खेलता था। मेरे पिता ने कहा कि कोई और खेल खेलो। उस समय मेरे चाचा गुरुदेव सिंह गोला फेंक खेलते थे और उनके साथ मैंने अभ्यास के लिए जाना शुरू कर दिया। वह मेरे पहले कोच थे।"
इसके बाद गोला फेंक स्पर्धा में तेजेन्द्रपाल की लगन बढ़ती गई और वह इसमें रम गए। पंजाब के मोगा जिले के निवासी तेजेन्द्रपाल मे 2017 एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में रजत पदक जीता था। एशियाई
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खेलों में प्रतिस्पर्धा के बारे में तेजेन्द्रपाल ने कहा, "एशियाई खेलों की प्रतियोगिता बराबर का होता है, लेकिन मैं पहले ही प्रयास में आश्वस्त हो गया था कि मैं स्वर्ण पदक जीत सकता हूं। पांचवें प्रयास में मैंने एशियाई रिकॉर्ड और राष्ट्रीय रिकॉर्ड बना लिया था और आखिरकार सोना जीता।" अपने भविष्य की योजनाओं के बारे में तेजेन्द्रपाल ने कहा, "अगले साल विश्व चैम्पियनशिप में पदक जीतना मेरा लक्ष्य है। इसके बाद 2020 टोक्यो ओलम्पिक खेलों का आयोजन होगा, जिसमें जीत हासिल कर मैंने अपने देश का झंडा पूरी दुनिया में लहराना है।"
दुती को देगी 1.5 करोड़ रुपए का पुरस्कार
डिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने एशियाई खेलों में रजत पदक जीतने वाली महिला धावक दुती चंद को 1.5 करोड़ रुपए का ईनाम देने की घोषणा की है। दुती ने इंडोनेशिया के जकार्ता में जारी 18वें एशियाई खेलों में रविवार को महिलाओं की 100 मीटर स्पर्धा में दूसरा स्थान हासिल किया था। दुती ने 100 मीटर की रेस में 11.32 सेकेंड का समय निकाला था। वह 0.02 सेकेंड से स्वर्ण पदक से चूक गई थीं। 100 मीटर में राष्ट्रीय रिकार्ड धारक दुती को ओडिशा के मुख्यमंत्री ने बधाई दी है।
मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा जारी बयान के मुताबिक, ‘यह गर्व की बात है कि ओडिशा की खिलाड़ी ने 20 साल बाद देश का नाम रोशन किया है। 1998 के एशियाई खेलों में ओडिशा की खिलाड़ी रचिता पांडा मिस्त्री ने कांस्य पदक जीता था।’ बयान के मुताबिक, उनकी मेहनत, प्रतिबद्धता के कारण मुख्यमंत्री ने दुती को 1.5 करोड़ का ईनाम देने की घोषणा की है। राज्य का खिलाड़ियों पर विशेष ध्यान है। ओडिशा नई हाई परफॉर्मेस रीजनल एथलेटिक्स अकादमी खोलने को पूरी तरह से तैयार है। (आईएएनएस)
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कही-अनकही
रीता भादुड़ी
‘ये रातें नई पुरानी’
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अभिनेत्री रीता भादुड़ी का अभिनय संसार सघन है। भले ही स्टार अभिनेत्री का तगमा उन्हें कभी नहीं मिला, पर उन्होंने बड़े से लेकर छोटे पर्दे तक खूब काम किया
शिशिर कृष्ण शर्मा
को अभिनय करते देखा तो उन्हें अपनी फिल्मों क्रमश: ‘नर्तकी’ और ‘बंदिनी’ में ले लिया। ये दोनों ही फिल्में 1963 में रिलीज हुई थीं। फिल्म ‘बंदिनी’ में जेल वार्डन के किरदार से मां को पहचान मिली और वो फिल्मों में व्यस्त होती चली गयीं। आगे चलकर उन्होंने ‘तीसरा कौन’, ‘रिश्ते-नाते’, ‘शराफत’, ‘सावन भादों’, ‘नन्हीं कलियां’, ‘लाल पत्थर’ और ‘आनंद आश्रम’ जैसी करीब 30 फिल्मों में काम किया। मां की ही तरह रीता भादुड़ी का भी रूझान अभिनय की तरफ था। वह कॉलेज के जमाने से ही नाटकों में काम करती आ रही थीं। साल 1971 में उन्होंने फिल्म इंस्टिट्यूट, पुणे में दाखिला ले लिया, जहां पार्श्वगायक शैलेन्द्र सिंह, शबाना आजमी और कंवलजीत जैसे कलाकार उनके बैचमेट थे। दो साल का कोर्स पूरा करके रीता पासआउट हुईं तो जो पहली फिल्म उन्हें मिली, वो थी ‘आईना’। इस फिल्म के निर्देशक के.बालाचंदर और नायक-नायिका राजेश खन्ना और मुमताज थे। संगीत नौशाद का था। यह फिल्म 1974 में बनी थी। उन्हीं दिनों फिल्म इंस्टिट्यूट के अपने एक बैचमेट मोहन शर्मा के जरिए रीता भादुड़ी की मुलाकात साउथ के जाने-माने
ई बार लोग जीते-जी हमारी स्मृतियों में इस तरह दाखिल हो जाते हैं, जैसे उनका दौर पुराना रहा हो और वो हमें छोड़कर बहुत पहले चले गए हों। ऐसा ही हुआ अभिनेत्री रीता भादुड़ी के साथ। कहने को तो उनका निधन बीते माह ही हुआ पर उनके बारे में लोग या तो सोचना-बात करना बंद कर चुके थे या फिर उनकी याद भूले-भटके ही लोगों को आती थी। उनके करीबी लोगों से संपर्क किया तो पता चला कि उन्हें कई सालों से डायबिटीज थी, जिससे उनकी किडनियां ख़राब हो गई थीं। रीता जी से मेरी मुलाकात साल 2003-04 में दूरदर्शन के धारावाहिक ‘शिकवा’ के सेट पर पारिवारिक मित्र अलका आश्लेषा के जरिए हुई थी। अलका भी इस धारावाहिक में एक अहम किरदार निभा रही थीं। निर्माता-निर्देशक राकेश चौधरी के इस धारावाहिक की शूटिंग अंधेरी (पश्चिम) के मिल्लतनगर इलाके में स्थित पार्श्वगायिका हेमलता के बंगले में होती थी। रीता भादुड़ी के पिता रमेशचंद्र भादुड़ी तत्कालीन अंग्रेज सरकार में जागीरों के कमिश्नर थे और नौकरी के सिलसिले में उनका अधिकांश समय मध्य भारत की विभिन्न रियासतों में गुजरता था। लेकिन एक समय ऐसा आया कि स्थायित्व के लिए उन्हें इंदौर शहर में बस रीता भादुड़ी के बारे में जाना पड़ा। रीता का जन्म 11 जनवरी 1950 को इंदौर में हुआ एक आम धारणा यह था। 3 बहनों और 1 भाई में वो है कि वो जया भादुड़ी सबसे छोटी थीं। बातचीत के की बहन हैं। लेकिन दौरान रीता ने बताया था, ‘1950 के दशक के मध्य में हम लोग ये बात बिल्कुल मुंबई घूमने आए। ये शहर हमें गलत है। हकीकत इतना पसंद आया कि 1957 में इंदौर छोड़कर हम मुंबई शिफ्ट में अभिनेत्री रीता हो गए। उस वक्त मेरी उम्र 7 भादुड़ी का जया साल थी। मुंबई आने पर मेरी मां से कोई भी रिश्ता चंद्रिमा भादुड़ी को हिन्दी पत्रिका ‘नवनीत’ में उप सम्पादिका की नहीं है। दरअसल नौकरी मिल गई।’ जया भादुड़ी की मुंबई में बसे बंगाली परिवारों बहन का नाम भी से संपर्क हुआ तो हम लोग दुर्गापूजा के दौरान होने वाले रीता है, लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी वो एक अलग बढ़चढ़कर हिस्सा लेने लगे। ऐसे शख्सियत हैं ही एक कार्यक्रम के दौरान हुए नाटक में उस ज़माने के मशहूर निर्देशकों नितिन बोस और विमल रॉय ने मेरी मां
निर्देशक सेतुमाधवन से हुई। उन्होंने रीता भादुड़ी को अपनी मलयालम फिल्म ‘कन्याकुमारी’ की मुख्य भूमिका के लिए चुन लिया। इस फिल्म में रीता के हीरो कमल हासन थे। इसके बाद जब सेतुमाधवन ने अपनी मलयाली फिल्म ‘चट्टकारी’ पर हिंदी में ‘जूली’ बनाई तो उसकी एक अहम भूमिका रीता भादुड़ी को ऑफर की। रीता का कहना था, ‘इस फिल्म का गाना ‘ये रातें नई पुरानी, कहती हैं कोई कहानी’ मुझ पर फिल्माया गया था। लेकिन ‘जूली’ में मैंने बहन की भूमिका क्या की कि कैरेक्टर आर्टिस्ट ही बनकर रह गई। ‘उधार का सिन्दूर’, ‘प्रतिमा और पायल’, ‘अनुरोध’ जैसी कुछ फिल्मों में मैंने कैरेक्टर रोल्स किये। लेकिन अचानक ही कुछ ऐसा हुआ कि मैं गुजराती फिल्मों की टॉप की हिरोईन बन गई।’ अपने अभिनय सफर को लेकर आगे रीता भादुड़ी का कहना था, ‘तमाम व्यस्तताओं के बीच मेरे करियर ने अचानक ही एक नया मोड़ ले लिया। साल 1984 में निर्माता-निर्देशक राकेश चौधरी वडोदरा आकर मुझसे मिले। टी.वी. धारावाहिकों का दौर उस वक़्त अपने शुरुआती चरण में था। राकेश चौधरी ने मुझे दूरदर्शन धारावाहिक ‘बनतेबिगड़ते’ की एक अहम भूमिका ऑफर की। इस ध ा र ा व ा हि क से मैंने छोटे परदे पर एंट्री ली
खास बातें
रीता का जन्म 11 जनवरी 1950 को इंदौर में हुआ था रीता से पहले उनकी मां का भी रुझान अभिनय की तरफ था उन्होंने ‘लाल पत्थर’ और ‘आनंद आश्रम’ जैसी फिल्मों में काम किया और फिर इस क्षेत्र में भी व्यस्त होती चली गई। रीता भादुड़ी ने ‘खानदान’, ‘मुजरिम हाजिर’, ‘तारा’, ‘कुमकुम’, ‘संजीवनी’, ‘हद कर दी’, ‘एक महल हो सपनों का’, ‘भागोंवाली’, ‘एक नई पहचान’ जैसे बेशुमार टीवी धारावाहिकों में काम किया और इस तरह वो हर घर में एक जाना-पहचाना चेहरा बन गयीं। निधन के समय भी उनका धारावाहिक ‘निमकी मुखिया’ ‘स्टार भारत’ चैनल पर ऑन एयर था, जिसमें वो दादी की भूमिका निभा रही थीं। टी.वी के साथ साथ वो ‘युद्धपथ’, ‘बेटा’, ‘आतंक ही आतंक’, ‘घरजमाई’, ‘रंग’, ‘कभी हां कभी ना’, ‘राजा’ और ‘विरासत’ जैसी फिल्में भी करती रहीं। रीता भादुड़ी के बारे में एक आम धारणा यह है कि वो जया भादुड़ी की बहन हैं। लेकिन ये बात बिल्कुल गलत है। हकीकत में अभिनेत्री रीता भादुड़ी का जया से कोई भी रिश्ता नहीं है। दरअसल जया भादुड़ी की बहन का नाम भी रीता है लेकिन वो एक अलग शख्सियत हैं। उनके पति अर्थात जया के बहनोई राजीव वर्मा एक जाने माने चरित्र अभिनेता हैं। जबकि स्वर्गीय अभिनेत्री रीता भादुड़ी अविवाहित थीं। इंटरनेट पर दी गई जानकारियों की संदिग्धता और अविश्वसनीयता का ज्वलंत उदाहरण स्वर्गीय अभिनेत्री रीता भादुड़ी के नाम का विकिपीडिया पेज है, जिसमें उनके बेटों के नाम (शिलादित्य वर्मा और तथागत वर्मा) तक दे दिए गए हैं। जाहिर है ये दोनों नाम अभिनेता राजीव वर्मा और उनकी पत्नी रीता भादुड़ी (जया की बहन) के बेटों के हैं।
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सुलभ संसार
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लोबॉरो यूनिवर्सिटी, यूनाइटेड किंग्डम में भौतिकी विभाग में लेक्चरर डॉ. निलाद्रि बनर्जी के साथ सैंट थॉमस स्कूल, इंदिरापुरम, गाजियाबाद के दसवीं कक्षा के 36 छात्र और उनके दो शिक्षक, मदनपुर खादर और गौतमपुरी वॉश कमेटी के 70 सदस्य और दो अधिकारी, ईकोराइट बोर्ड्स की घ्रीताश्री, अरुण गोयल और प्रतीक नरूला तथा नोवोजाइम्स के शांतनु कश्यप और एंद्रिला दासगुप्ता तथा अन्य आगंतुकों ने किया सुलभ ग्राम का दौरा।
ऑस्ट्रिया की अनूठी आध्यात्मिक, प्रेरक और भावनात्मक वक्ता मास्टर एली हो के साथ सत्यजीत दत्ता, इंदिरा, रचना और कुछ अन्य आगंतुकों ने किया सुलभ ग्राम का दौरा।
कृष्ण-सुदामा की मित्रता
कृ
कल्पना
ष्ण-सुदामा की मित्रता बहुत प्रचलित है। सुदामा गरीब ब्राह्मण थे। एक दिन उनकी पत्नी ने सुदामा से कहा, ‘आप कई बार कृष्ण की बात करते हो। आपकी उनके साथ बहुत मित्रता है । वे तो द्वारका के राजा हैं। वहां क्यों नहीं जाते ? जाइए न ! वहां कुछ भी मांगना नहीं पड़ेगा !’ सुदामा को पत्नी की बात सही लगी। पत्नी से कहा, ‘ठीक है, मैं कृष्ण के पास जाऊंगा। लेकिन उसके बच्चों के लिए क्या लेकर जाऊं ?’ सुदामा की पत्नी पड़ोस में से चिड़वा ले आई। उसे फटे हुए कपडे में बांधकर उसकी पोटली बनाई। सुदामा उस पोटली को लेकर द्वारका जाने के लिए निकल पड़े। द्वारका देखकर सुदामा तो दंग रह गए। पूरी नगरी सोने की थी। लोग बहुत सुखी थे। सुदामा पूछते-पूछते कृष्ण के महल तक पहुंचे। दरवान ने साधू जैसे लगने वाले सुदामा से पूछा, " यहां क्या काम है ?" सुदामा ने जवाब दिया, "मुझे कृष्ण से मिलना है। वह मेरा मित्र
है। दरवान को सुदामा के वस्त्र देखकर हंसी आई। उसने जाकर कृष्ण को बताया। सुदामा का नाम सुनते ही कृष्ण खड़े हो गए ! और सुदामा से मिलने दौड़े । सभी आश्चर्य से देख रहे थे ! कृष्ण सुदामा को महल में ले गए। सुदामा कृष्ण की समृद्धि देखकर शर्मा गए। सुदामा चिड़वा की पोटली छुपाने लगे, लेकिन कृष्ण ने खिंच ली। कृष्ण ने उसमें से चिड़वा निकाला। और खाते हुए बोले, ‘ऐसा अमृत जैसा स्वाद मुझे और किसी में नहीं मिला।’ सोने की थाली में अच्छा भोजन परोसा गया। सुदामा का दिल भर आया। उन्हें याद आया कि घर पर बच्चों को पूरा पेट भर खाना भी नहीं मिलता है। वे कृष्ण के पास कुछ मांग नहीं सके। तीसरे दिन वापस घर जाने के लिए निकले। कृष्ण सुदामा के गले लगे और थोड़ी दूर तक छोड़ने गए। घर जाते हुए सुदामा को विचार आया, ‘घर पर पत्नी पूछेगी कि क्या लाए ? तो क्या जवाब दूंगा ?’ सुदामा घर पहुंचे। वहां उन्हें अपनी झोपड़ी नज़र ही नहीं आई! उतने में ही एक सुंदर घर में से उनकी पत्नी बाहर आई। उसने सुंदर कपड़े पहने थे। पत्नी ने सुदामा से कहा, ‘देखा कृष्ण का प्रताप! हमारी गरीबी चली गई कृष्ण ने हमारे सारे दुःख दूर कर दिए।’ सुदामा को कृष्ण का प्रेम याद आया। उनकी आंखों में खुशी के आंसू आ गए। देखा दोस्तों, कृष्ण और सुदामा का प्रेम यानी सच्चा मित्र प्रेम। तो दोस्तों सच्चे प्रेम में ऊंच या नीच नहीं देखी जाती और न ही अमीरी-गरीबी देखी जाती है। इसीलिए आज इतने युगों के बाद भी दुनिया कृष्ण और सुदामा की दोस्ती को सच्चे मित्र प्रेम के प्रतीक के रूप में याद करती है।
रोटी जावा मंडल
सब की भूख मिटाती है रोटी, सब के मन को भाती है रोटी। हर किसी की चाहत है रोटी, हर किसी को हंसा - हंसा कर रुलाती है रोटी। एक देश को बेचता है तो एक देश के लिए सीने पर गोली खाता है, दोनों की चाहत भी है रोटी। कहीं बच्चे भूख से मर रहे है तो कही एक पिल्ले के लिए बिस्तर पर आती है रोटी। कैसे कैसे नाच नचाती है रोटी, फिर भी मन को कितनी भंति है रोटी। कहीं इज्जत डुबाती है रोटी तो कही लाज बचाती है रोटी, फिर भी मन को कितनी भाती है रोटी। कभी भूखा सुलाती है रोटी तो कभी पेट भरकर भी बच जाती है रोटी। कैसे कैसे दिन दिखाती है रोटी, सब को ऊंगली पर नचाती है रोटी। हर दुखों का नाश करके चेहरे पर खुशी ले आती है रोटी। जिंदगी में कुछ करने का अहसास जगाती है रोटी। जिंदगी की मुश्किल घड़ियों में जीना सिखाती है रोटी। कैसे कैसे दिन दिखाती है रोटी, फिर भी मन को कितनी भाति है रोटी, हंसा- हंसा कर रुलाती है रोटी। जिंदगी के इस सफर का एक खास हिस्सा है रोटी।
03 - 09 सितंबर 2018
आओ हंसें
6 कहां है? शिक्षक : 1 से 10 तक गिनती सुनाओ। संता : 1, 2, 3, 4, 5, 7, 8, 9, 10 शिक्षक : 6 कहां है ? संता : जी, वो तो मर गया। शिक्षक : मर गया? कैसे मर गया? संता : जी मैडम, आज सुबह टीवी पर न्यूज में बता रहे थे कि डेंगू में 6 की मौत हो गई। शिक्षक बेहोश।
31
इंद्रधनुष
जीवन मंत्र
सु
बुरा वक्त कभी बताकर नहीं आता है लेकिन सिखाकर बहुत जाता है
डोकू -38
रंग भरो
सादा लव लेटर टटू ाराम खाली पेपर को बार-बार चूम रहा था। फूटाराम : ये क्या है? टटू ाराम : लव लेटर है। फूटाराम : मगर ये तो खाली है। टटू ाराम : आजकल बोलचाल बंद है।
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सुडोकू-37 का हल
महत्वपूर्ण तिथियां
• 4 सितंबर दादा भाई नौरोजी जयंती • 5 सितंबर शिक्षक दिवस (सर्वपल्ली राधाकृष्णन जन्म दिवस), स्वामी हरिदास जयंती महोत्सव (वृंदावन), मदर टेरेसा स्मृति दिवस • 8 सितंबर विश्व साक्षरता दिवस
बाएं से दाएं
1. चमकीला (3) 3. विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य (5) 6. दुनिया (3) 8. दया के योग्य (4) 10. छोटा कमल (4) 11. श्याम (2) 13. चित्र (3) 15. वेणी, पुष्पगुच्छ (3) 17. सूर्य (2) 19. प्रलय (4) 20. चावल की एक प्रजाति (4) 23. अधिक (3) 24. कमल की नाल (जड़) (5) 25. मुस्तैद, उद्यत (3)
विजेता का नाम सोहन प्राजंल दिल्ली
वर्ग पहेली-37 का हल
ऊपर से नीचे
1. प्रभु का भोग, कृपा (3) 2. प्रिया प्रेमिका (3) 3. इनकार (2) 4. दौड़-धूप (5) 5. अँगूठे और मध्यमा के बीच की उँगली (3) 7. पीहर (3) 9. कीर्तिमान (3) 12. लघुता (3) 14. दयालू (5) 16. पैदाइश (3) 18. सुदृढ़ बाहों वाला (3) 19. टीस (3) 21. निरंतर (3) 22. एक छोटा शिकारी पक्षी (3) 23. कटौती (2)
कार्टून ः धीर
वर्ग पहेली - 38
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न्यूजमेकर
03 - 09 सितंबर 2018
रो
ही म ा न अ
राजेश कुमार सुमन
जज्बे को सलाम
मुंबई छोड़ बिहार में ग्रामीण युवाओं को मुफ्त शिक्षा दे रहे हैं राजेश कुमार सुमन
शि
क्षा उस सुगंध की तरह होती है, जो हर जगह फैलती है और समाज में सकारात्मक बदलाव का कारण बनती है। इन्हीं बातों को समझते हुए छात्रों को शिक्षा प्रदान करने और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाने के मिशन में लगे हैं राजेश कुमार सुमन। सुमन ने बिहार में रहते हुए इतिहास में स्नातकोत्तर किया है। वे शुरू से ही गरीब बच्चों को पढ़ाने में रूचि रखते थे। कुछ समय बाद सुमन को विदेश मंत्रालय में नौकरी मिल गई।
वो अपनी नौकरी से खुश तो थे, लेकिन उनके मन में गरीब छात्रों के लिए जमीनी स्तर पर काम करने की इच्छा अब भी बाकी थी। वे चाहते थे कि अपने गृह क्षेत्र रोसड़ा के लिए कुछ करें। यह बिहार का एक पिछड़ा क्षेत्र है। यही सोचकर सुमन ने अपनी नौकरी छोड़ दी और 2008 में ‘बीएसएस क्लब : नि:शुल्क शैक्षणिक संस्थान’ की स्थापना की। शुरूआत में सुमन के पास केवल 4 छात्र थे, जिन्हें सुमन ने मुफ्त पढ़ाना शुरू किया। सुमन
प्रवीण परदेशी
मददगार अफसर केरल के बाढ़ पीड़ितों की स्वास्थ्य सहायता और पुनर्वास में महाराष्ट्र के आईएएस अधिकारी प्रवीण परदेशी की बड़ी भूमिका
के
रल में आई बाढ़ से जहां जानमाल की अपार क्षति हुई है, वहीं इस आपदा की घड़ी में पीड़ितों की मदद के लिए लोग प्रेरक तरीके से सामने आए। ऐसे लोगों में सेना और स्वयंसेवी संस्था के लोग तो शामिल हैं ही कई सरकारी अधिकारियों ने भी बाढ़ पीड़ितों की मदद में जी-जीन एक कर दिया। महाराष्ट्र सरकार के अतिरिक्त मुख्य सचिव प्रवीण परदेशी ऐसे ही एक अधिकारी हैं। केरल में बाढ़ की स्थिति की गंभीरता स्पष्ट हो जाने के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने राज्य के सबसे भरोसेमंद और कुशल आईएएस अधिकारियों में से एक प्रवीण परदेशी को केरल की मदद का कार्यभार सौंपा। महाराष्ट्र सरकार के विभिन्न विभागों से राहत
की लगन और जुनून ही था कि धीरे-धीरे इलाके में उनका नाम फैलने लगा और दूर-दूर से बच्चे उनके इंस्टीट्यूट में पढ़ने आने लगे। आज सुमन की कोचिंग में 300 बच्चे विभिन्न प्रतियोगिताओं के लिए मुफ्त कोचिंग ले रहे हैं। यहां से ट्रेनिंग लिए छात्र विभिन्न प्रतियोगिताओं में सफल भी हो रहे हैं, इसके साथ ही अपना और अपने परिवार का नाम रौशन कर रहे हैं। रेलवे, एसएससी, सेना और बिहार पुलिस विभाग के विभिन्न पदों के लिए सुमन छात्रों को ट्रेनिंग देते हैं। सुमन बताते हैं कि बिहार में काफी लोग फौज में हैं और देश की सेवा में लगे हुए हैं, ऐसे में हम अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए शहीदों के बच्चों को मुफ्त में कोचिंग देते हैं साथ ही
न्यूजमेकर
विधवाओं, गरीबों, किसानों और विकलांग के बच्चों को मुफ्त में कोचिंग दी जाती है । सुमन को जब भी समय मिलता है वे ग्रामीण इलाकों में जाकर शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए काम करते हैं। वे छात्रों को गाइड करते हैं और शिक्षा संबंधी उनकी हर समस्या को हल करते हैं। वे ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को जागरुक करते हैं और उन्हें जिंदगी में शिक्षा के महत्व को बताते हैं। इस काम में वे पिछले कई वर्षों से लगे हुए हैं जिस कारण समस्तीपुर में सुमन का काफी नाम है और दूर-दूर से लोग उनसे सलाह लेने आते हैं। सुमन मानते हैं कि लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक करना ही अब उनकी जिंदगी का लक्ष्य है।
सौम्या अग्रवाल
वर्ल्ड रिकार्ड का जंप
डबल अंडर रोप इवेंट में एक मिनट में 170 जंप करके उज्जैन की सौम्या ने बनाया वर्ल्ड रिकॉर्ड
अधिकारियों और पुनर्वास, राजस्व, सार्वजनिक स्वास्थ्य, चिकित्सा शिक्षा और परिवहन के अलावा वरिष्ठ अधिकारियों के साथ राज्य के प्रमुख एनजीओ के अलावा, परदेशी ने केरल के भी विभिन्न विभागों के प्रमुखों के साथ राहत और पुनर्वास प्रयासों को संभाला है। इसके अलावा उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि मुंबई और पुणे के अस्पतालों के डॉक्टरों को वायुसेना की मदद से केरल ले जाया जाए। यह पहली बार नहीं है जब 1985 बैच के इस आईएएस अधिकारी ने बड़े पैमाने पर राहत प्रयास में भूमिका निभाई है। उन्होंने कलक्टर के रूप में महाराष्ट्र के लातूर में सितंबर 1993 के विनाशकारी भूकंप में पीड़ितों के पुनर्वास में सहायता की, जिसमें 30,000 लोगों की मौत हुई थी और 52 गांव बर्बाद हो गए थे।
म
ध्य प्रदेश के उज्जैन की सौम्या अग्रवाल ने डबल अंडर रोप इवेंट में एक मिनट में 170 जंप करते हुए जंप में रोप को दो बार अपने पैरों के नीचे से निकाल कर करीब 340 बार रोप को निकालने का वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाकर इतिहास रच दिया है। सौम्या के इस वर्ल्ड रिकॉर्ड के बाद उनके परिवार सहित पूरे मध्य प्रदेश में खुशी की लहर है। उज्जैन के सेंट मेरी स्कूल में पढ़ने वाली सौम्या अग्रवाल 11वीं की छात्रा हैं। इससे पहले भी सौम्या 2016 में रोप जंप में गोल्डन बुक ऑफ रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज करा चुकी हैं। सौम्या के नए करतब को देखने के लिए वर्ल्ड बुक ऑफ रिकार्ड की टीम सौम्या के स्कूल आई थी। वर्ल्ड बुक की टीम और सभी छात्र-छात्रओं ने रिकॉर्ड बनने की सौम्या को बधाई दी। इस दौरान सौम्या के कोच को भी सभी लोगों ने बधाई दी। दिलचस्प है कि जंपिंग करती सौम्या के विडियो को बारीकी से देखा
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 38
गया और फिर आखिर में वर्ल्ड बुक की टीम द्वारा रिकॉर्ड अनाउंस किया गया। सौम्या ने अपने कोच मुकुंद झाला सहित अपने माता पिता को यह रिकॉर्ड समर्पित किया है।