सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 46)

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स्मरण

अनूठे थे सरदार

24

29

व्यक्तित्व

खेल

करुणा और संघर्ष की अक्षर दुनिया

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

‘ग्रीन ट्रेल’

अनाथ आश्रम से पैरा एशियन गेम्स में गोल्ड तक

बदलते भारत का साप्ताहिक

वर्ष-2 | अंक-46 |29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018 मूल्य ` 10/-

हिमालय को स्वच्छ बनाने का अभियान

हिमालय क्षेत्र की रमणीयता पर्यटकों को काफी लुभाती है तो रोमांच के दीवानों के लिए भी यह बड़ा आकर्षण है। पर लोगों की लापरवाही से यहां गंदगी फैल रही है। पर्वतारोहियों की संस्था ‘इंडिया हाइक्स’ का ‘ग्रीन ट्रेल’ अभियान हिमालय क्षेत्र को कचरा मुक्त करने की एक अनूठी पहल है


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आवरण कथा

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

खास बातें आठ साल पहले ‘ग्रीन ट्रेल’ प्रोजेक्ट शुरू हुआ था रेन वाटर हार्वेस्टिंग और कंपोस्टिंग से जुड़ा ‘ग्रीन ट्रेल’ रॉक क्लाइंबिंग व माउंटेन बाइकिंग की लोकप्रियता में तेजी

रॉबिन केशव

ह दृश्य किसी का भी ध्यान खींचेगी। 12 हजार फीट की ऊंचाई पर विशंसर झील के पास लोग रोमांच और पर्यटकीय शौक के कारण आते हैं, पर वहां कुछ अलग ही नजारा है। नयन और उसकी ट्रैकर्स की टीम वहां एक ऐसे काम में लगी है कि देखकर अचरज तो होता ही है, प्रेरक संतोष भी मिलता है। वैसे कोई व्यक्ति जो पहली बार यह सब देखेगा, उसे यह सब थोड़ा विचित्र भी लगेगा। नयन ‘इंडिया हाइक्स’ के 24 ट्रैकर्स के टीम लीडर हैं। वह उत्तरी कश्मीर की विश्व प्रसिद्ध झीलों के पास अपनी टीम के साथ पहुंचे हैं। सवेरे करीब 7 बजे, हरे-भरे हरे परिवेश के बीच प्रत्येक पर्वतारोही एक हरे वेस्ट फिटिंग बैग से लैस वे अपने शिविर के आसपास के क्षेत्र से प्लास्टिक, गैर-जैवीय कचरे एकत्र कर रहे हैं। कचरा जमा करने वाले थैलों पर ‘इको बैग’ लिखा है। इन ट्रैकर्स ने यहीं रात बिताई है। आमतौर पर यहीं बाकी ट्रैकर्स भी रात के पड़ाव के लिए रुकते हैं। पर सुबह में पड़ाव छोड़ते हुए ज्यादातर ट्रैकर्स रात में इस्तेमाल किए गए सामान यहीं छोड़कर चले जाते हैं। नतीजतन आसपास के पूरे क्षेत्र में

प्लास्टिक उत्पादों सहित गैर-जैवीय कचरे यहां-वहां बिखरे रह जाते हैं। यह अच्छी और रमणीक जगह है। यह प्राचीन पहाड़ी स्थल है और यहां इस तरह की लापरवाही अच्छी बात नहीं है। इस बारे में नयन बताते हैं, ‘यहां कई लोग प्रकृति का सुंदर सानिध्य पाने के लिए आते हैं। पर लोग यह भूल जाते हैं कि इस सुरम्य क्षेत्र में अगर वे इस तरह कचरे छोड़कर जाएंगे तो यहां की सुंदरता तो बिगड़ेगी है, यह यहां के पर्यावरण के लिए भी असुरक्षित है। पहाड़ों पर पलास्टिक के लिए कोई जगह नहीं है। बेहतर यह हो कि लोग अपने इस्तेमाल किए हुए सामान अपने साथ लेकर जाएं।’ वे आगे बताते हैं, ‘इंडिया हाइक्स’ ने ‘जीरो वेस्ट’ की नीति अपनाई है। हम कचरा

छोड़कर आगे नहीं ही बढ़ते हैं, हम इस बात की भी जवाबदेही उठाते हैं कि बाकी लोगों के छोड़े कचरों को भी यहां से हटाएं।’ एक बार जब पर्वतारोही इको बैग को रैपर्स, पॉलिथिन थैलों, वेट वाइप्स आदि से भर लेता है तो वह उसे फिर किसी बड़ी बोरी में खाली करता है। नयन अंदाजा करके बताते हैं कि बड़ी बोरी में 5.5 किलो से ज्यादा कचरा अभी तक की तारीख में कभी जमा नहीं हुआ है। भरने के बाद इस बोरी को एक खंभे से बांध दिया जाता है। फिर इसे बेस कैंप में ले जाया जाएगा जहां ट्रैक अवधि के दौरान एकत्रित कई अन्य बोरियों के साथ खाली किया जाएगा। ‘इंडिया हाइक्स’ के लिए यह उसके ‘ग्रीन ट्रेल’ कार्यक्रम का हिस्सा है, जो ट्रैकिंग के साथ हिमालय क्षेत्र को भी सुरक्षित बनाने के लिए शुरू किया गया है।

रोमांच का पर्वत

हाल के दिनों में भारत में पर्वतारोहण को लेकर रूझान बढ़ता दिख रहा है। इस बारे में अभी तक कोई पुख्ता जानकारी नहीं और न ही इसके लिए कोई गंभीर प्रयास हुए हैं, जिनसे पता चले कि कितने पर्वतारोहियों ने पहाड़ों का रुख किया है। एडवेंचर टूर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एटीओएआई) के मुताबिक देश में पर्वतारोहण में 30 फीसदी तक की वृद्धि देखी जा रही है, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वृद्धि की यह दर 10 फीसदी है। 2016 में निलसन ने पर्यटन मंत्रालय को एक रिपोर्ट सौंपी थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि जमीन पर होने वाले रोमांचक खेलों की बात करें तो रॉक क्लाइंबिंग और माउंटेन बाइकिंग सबसे तेजी से लोकप्रिय होने वाले रोमांचक खेल हैं।


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आवरण कथा

हिमालय तक पहुंची ट्रैफिक की समस्या

मनाली-लेह हाईवे के आसपास सल्फर की उच्च स्तर पर मौजूदगी का पता चला है जिसकी वजह डीजल से चलने वाले वाहन हैं

हिमालय दर्शन पर पड़ी धुंध

भा

रत में ट्रैफिक से होने वाला प्रदूषण अब केवल शहरों की समस्या नहीं रह गया। इसका असर समुद्र की सतह से 4,000 मीटर ऊपर हिमालय पर भी देखने को मिल रहा है। भू-वैज्ञानिकों के मुताबिक मनाली-लेह हाईवे के आसपास सल्फर की उच्च स्तर पर मौजूदगी का पता चला है जिसकी वजह डीजल से चलने वाले वाहन हैं। 480 किमी लंबे हाईवे के आसपास 4 जगहों से मिट्टी के सैंपल लिए गए। उनमें सल्फर और अन्य रसायनों समेत 10 हेवी मेटल की मौजूदगी जांचने के लिए परीक्षण किया गया। परीक्षण से पता चला कि मिट्टी में सल्फर की मात्रा अधिक है जिसकी वजह डीजल उत्सर्जन है। भारत में इस्तेमाल होने वाले डीजल में सल्फर ज्यादा होता है। एक अनुमान के मुताबिक भारत की सड़कों पर चलने वाले 70 प्रतिशत ऑटोमोबाइल्स में डीजल का उपयोग किया जाता है। विज्ञान पत्रिका ‘आर्काइव ऑफ

असंगठित क्षेत्र

‘इंडिया हाइक्स’ के अलावा ‘ट्रैक द हिमालय’, ‘ट्रेवल द हिमालय’ और ‘सिल्वर स्टेप्स’ उन कुछ संस्थाओं में शामिल हैं, जो विशिष्ट पर्वतीय क्षेत्रों में ट्रैकिंग का आयोजन करती हैं। वैसे अभी भी यह क्षेत्र संगठित नहीं हैं, जबकि इस क्षेत्र में आजीविका के लिहाज से स्थानीय गाइड से लेकर रसोइए तक हजारों लोग शामिल हैं। हालांकि राज्य वन विभाग इस बात का ख्याल रखता है कि सुरक्षित क्षेत्रों में बिना उनकी अनुमति के कोई प्रवेश न करे। बावजूद इसके कई लोग पर्वतीय क्षेत्रों में बगैर

एनवायरनमेंटल कॉन्टेमिनेशन एंड टॉक्सीकोलॉजी’ में छपे शोध-पत्र के मुताबिक डीजल वाहनों से होने वाला प्रदूषण यहां की मिट्टी पर बुरा असर डाल रहा है। यूनिवर्सिटी ऑफ सिनसिनाती में जूलॉजी के प्रोफेसर और शोध के सह-लेखक ब्रुक क्राउले का कहना है कि मनाली-लेह हाईवे के आसपास मिट्टी में सल्फर की मौजूदगी बहुत ज्यादा है जो कि चिंताजनक बात है। सल्फर की कम मात्रा भी मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को खत्म कर देती है, जबकि इसकी अधिक मात्रा इंसानों और जानवरों के लिए जहर की तरह घातक है। शोध के मुख्य लेखक राजऋषि दासगुप्ता ने कहा कि आर्थिक विकास की गतिविधियों के कारण पूरी दुनिया में पर्यावरण पर और ज्यादा दुष्प्रभाव पड़ना तय है। उनका कहना है कि मनाली-लेह हाईवे के आसपास डीजल वाहनों से होने वाले प्रदूषण और इससे इंसानी स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव की निगरानी की जानी चाहिए। उनकी जानकारी के पहुंच जाते हैं। एक बार अगर कोई व्यक्ति इन क्षेत्रों में दाखिल हो गया तो फिर इस बात की निगरानी या जांच की कोई व्यवस्था नहीं है जिससे इस बात का पता चले कि वे लोग अपने साथ गैर-जैवीय सामान किस मात्रा में रखे हुए हैं, जिनका बाद में कचरे के रूप में निपटान बड़ी समस्या पैदा करेगा।

हाई कोर्ट का फैसला

इस खतरे का संज्ञान लेते हुए उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश के अनुसार उच्च हरित क्षेत्रों में रात्रि विराम

नै

धुंध के आवरण से नैनीताल समेत ऊंचाई वाले इलाकों से हिमालय की आभा आंखों से ओझल है

नीताल से विराट हिमालय के दर्शन में वायु प्रदूषण व नमी की बाधा आड़े आ रही है। अक्टूबर बीतने को है और धुंध के आवरण से नैनीताल समेत ऊंचाई वाले इलाकों से हिमालय की आभा आंखों से ओझल है। नैनीताल की मनोहारी सुंदरता के साथ हिमालय दर्शन यहां के पर्यटन का मुख्य आकर्षण रहा है। यहां चार स्थान हैं, जहां से हिमालय नजर आता है। मानसून थमने के बाद अमूमन सितंबर के अंत से हिमालय साफ चांदी की तरह चमकता नजर आने लगता है और अक्टूबर शुरू होते ही इसकी चमक में चार चांद लग जाते हैं। इसे निहारने के लिए इस दौरान देशी-विदेशी सैलानी यहां पहुंचते हैं। परंतु इस बार हिमालय की चमक धुंधला गई है। दशहरे से हिमालय दिखना शुरू तो हुआ, लेकिन उसकी चमक में अभी तक निखार नहीं आ पाया है। सुबह सूर्य की किरणें हिमालय की

चोटियों पर पड़ते ही, जो लालिमा नजर आती थी, वह नदारद है। स्थानीय लोग इसके पीछे काफी हद तक वायु प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराते हैं। यहां से नजर आने वाली चोटियों में सबसे ऊंची चोटी नंदा देवी है। यह समुद्रतल से 6611 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। चौखंबा, पंचाचूली, त्रिशूल, छोटी नंदा देवी व नंदा घुटी प्रमुख हैं जिन्हें स्नो व्यू, नयनापीक, टीफिनटॉप व हिमालय दर्शन से देखा जा सकता है। आर्यभट्ट प्रक्षेपण विज्ञान शोध संस्थान एरीज के वायुमंडीय वैज्ञानिक डॉ. नरेंद्र सिंह का कहना है कि मानसून के अंतिम चरण में हुई बारिश के कारण हिमालय के वातावरण में नमी बरकरार है। इस कारण हिमालय स्पष्ट नजर नहीं आ रहा है। यह नमी ज्यादा दिन तक नहीं रहेगी। ड्राई होते ही चमक भी नजर आनी शुरू हो जाएगी।

‘इंडिया हाइक्स’ के अलावा ‘ट्रैक द हिमालय’, ‘ट्रेवल द हिमालय’ और ‘सिल्वर स्टेप्स’ उन कुछ संस्थाओं में शामिल हैं, जो विशिष्ट पर्वतीय क्षेत्रों में ट्रैकिंग का आयोजन करती हैं। वैसे अभी भी यह क्षेत्र संगठित नहीं हैं, जबकि इस क्षेत्र में आजीविका के लिहाज से स्थानीय गाइड से लेकर रसोइए तक हजारों लोग शामिल हैं नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने इस बात की भी व्यवस्था करने को कहा है कि एक समय में तय संख्या से ज्यादा पर्यटक इन क्षेत्रों में प्रवेश न करें। बुग्यालों में रात्रि विश्राम पर उत्तराखंड हाई कोर्ट की रोक से राज्य के पर्यटन उद्योग पर दूरगामी असर पड़ने की भी आशंका जताई जा रही है। पर पर्वतीय क्षेत्र के पर्यावरण की सुरक्षा के लिहाज से इस फैसले

की खूब सराहना भी हो रही है। राज्य में एडवेंचर टूरिज्म और ट्रैकिंग व्यवसाय से जुड़े ऑपरेटरों में इस आदेश के बाद भारी हलचल है। राज्य में तमाम बुग्यालों की ट्रैकिंग से ये ऑपरेटर अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। इनका कहना है कि इस हालिया प्रतिबंध से राज्य में ही करीब एक लाख से अधिक ट्रैकिंग व्यवसाय से जुड़े लोग इसकी जद में आएंगे।


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आवरण कथा

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1953 से अब तक एवरेस्ट पर चढ़ने की ख्वाहिश रखने वाले 250 पर्वतारोही मारे जा चुके हैं। इनमें से कई के शव आज भी एवरेस्ट और उसके रास्ते में बिखरे पड़े हैं पहली बार माउंट एवरेस्ट से आठ टन कूड़ा हटाया गया। कुछ समय पहले आई इस खबर को मीडिया में जितनी अहमियत मिलनी चाहिए, नहीं मिली। वैसे है यह काफी प्रेरक खबर और इससे इस बात की जानकारी मिलती है कि माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई का रोमांच मन में लिए पर्वतारोहियों को भी यहां फैला कचरा अखर रहा है।

10 टन कचरा हटाया

माउंट एवरेस्ट पर कचरा

एवरेस्ट पर कचरे को लेकर खुद कई पर्वतारोही चिंता जता चुके हैं। हाल में 29 नेपाली पर्वतारोहियों ने एवरेस्ट की तलहटी पर कचरे की सफाई भी की है

वरेस्ट पर 10 टन कचरा अभी और है। यह आंकड़ा अभी और बढ़ने की उम्मीद है। गौरतलब है कि जब सर एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे 1953 में माउंट एवरेस्ट के शीर्ष पर पहुंचे थे तब माउंट एवरेस्ट धरती पर शायद सबसे अकेली जगह थी। अकेला यूं कि हिलेरी और तेनजिंग से पहले तक वहां कभी कोई पहुंचा ही नहीं था। माउंट एवरेस्ट बिलकुल एक ऑक्सीजनवंचित 29,000 फुट की सीढ़ी पर चढ़ाए गए बर्फीले रेगिस्तान की तरह था। पिछले छह दशकों में 4,000 से अधिक पर्वतारोहियों ने हिलेरी और तेनजिंग की उपलब्धि को दोहराया है। हर वसंत में दो महीने के चढ़ाई के मौसम के दौरान जब माउंट एवरेस्ट खुला होता है तो सैकड़ों लोग माउंट एवरेस्ट को फतह करने का प्रयास करते हैं। इसी प्रयास के दौरान रास्ते में लोग अपने ऑक्सीजन कैनिस्टर, टूटे हुए चढ़ाई के उपकरण,

रात्रि विश्राम पर पाबंदी

बीते 21 अगस्त को हाई कोर्ट ने एक वक्त में एक बुग्याल में 200 लोगों को जाने की अनुमति देने की सीमा तय करने के साथ ही इन बुग्यालों में रात्रि विश्राम करने पर पाबंदी लगा दी है। ट्रैकर्स बताते हैं कि राज्य में जितने भी पर्वतारोहण अभियान आयोजित होते हैं, उनके रास्ते में कोई न कोई बुग्याल पड़ता ही है। इस अभियान के लिए पर्वतारोही किसी न किसी बुग्याल में रात बिताते हैं। यही नहीं, यहां की प्रसिद्ध धार्मिक यात्रा नंदा देवी राजजात, जो कि बारह साला

कचरा, मानव मल और यहां तक कि मृत शरीर को भी छोड़ जाते हैं। पर्वतारोहियों ने एक प्राचीन शिखर को एक कचरे के ढेर में बदल दिया है। पर्वतारोही मार्क जेनकिंस ने 2013 में नेशनल जियोग्राफिक में लिखा, ‘दो बड़े मार्ग, पूर्वोत्तर रिज और दक्षिणपूर्व रिज न केवल खतरनाक रूप से भीड़ वाले हैं, बल्कि बुरी तरह से प्रदूषित हैं। ग्लेशियरों से बड़ी मात्रा में यह कचरा पानी के साथ बाहर आता है। नेपाल पर्वतारोहण संघ के अध्यक्ष एंग शेरिंग ने भी चेतावनी दी थी कि प्रदूषण विशेष रूप से मानव मलमूत्र खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है और दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर बीमारी फैला सकता है। माउंट एवरेस्ट पर पर्वतारोहियों के पास शौचालय के ड्रम होते हैं जो भरने के बाद खाली कर दिए जाते हैं। पर्वतारोही आम तौर पर अपने शौच के लिए बर्फ में छेद करते हैं और उसे खुला छोड़ देते हैं। अब यह कचरा चार शिविरों के

आस पास वर्षों से फैल रहा है। सीजन में मानव विसर्जन 26,500 पाउंड से भी अधिक होता है। इसमें से अधिकांश कचरे को एक जमी हुई झील या 16,942 फीट पर बसे गांव के पास मिट्टी के गड्ढे में ले जा कर दफना देते हैं। 2008 से एवरेस्ट क्लीनअप अभियानों का नेतृत्व करने वाले स्टीवन शेरपा ने बताया कि कुछ पर्वतारोही उच्च ऊंचाई पर अपने साथ डिस्पोजेबल टॉयलेट बैग ले जाते हैं, लेकिन सब नहीं। एवरेस्ट समीटर एसोसिएशन ने पर्वत से कई टन मलबे को एवरेस्ट से इकट्ठा किया है। उसका अनुमान है कि एवरेस्ट पर 10 टन कचरा अभी और है। यह आंकड़ा अभी और बढ़ने की आशंका है। सरकार के पर्वतारोहण विभाग के प्रमुख पुष्पा राज कटवाल का कहना है कि नेपाली सरकार ने अभी तक पर्वतारोहियों द्वारा छोड़े गए मानव अपशिष्ट की मात्रा को निपटाने के लिए रणनीति विकसित नहीं की है।

29 नेपाली पर्वतारोहियों के दल के मुताबिक सागरमाथा चोटी और उसके आसपास अब भी 50 टन कचरा बिखरा है। इनमें पर्वतारोहियों के भी शव हैं। 1953 से अब तक एवरेस्ट पर चढ़ने की ख्वाहिश रखने वाले 250 पर्वतारोही मारे जा चुके हैं। इनमें से कई के शव आज भी एवरेस्ट और उसके रास्ते में बिखरे पड़े हैं। कड़ाके की ठंड की वजह से शव पत्थर की तरह ठोस हो चुके हैं। उन्हें नीचे लाना अकेले पर्वतारोही के बस की बात नहीं है। लेकिन इन दुश्वारियों के बावजूद 29 नेपाली पर्वतारोहियों का दल 42 दिन तक एवरेस्ट की सफाई में जुटा रहा। याक की मदद से दल ने 8,110 किलोग्राम कूड़ा साफ किया। कचरे को नीचे लाकर याकों की मदद से ढोया गया। टीम की अागुवाई करने वाले पसांग शेरपा ने कहा, ‘हमसें से 19 लोग एवरेस्ट के बेस कैंप में काम कर रहे थे। हम रोज सात घंटे सफाई कर कचरे को नीचे लाते रहे। हर कोई अपने साथ कम से कम 30 किलोग्राम कूड़ा नीचे लाया।’ एवरेस्ट की तलहटी पर 75 याक और 65 कुलियों की मदद से कचरे को नामचा बाजार में भेजा गया। विशेषज्ञों के मुताबिक एवरेस्ट में अब भी 50 टन कचरा है। एवरेस्ट सफाई अभियान 2008 से शुरू किया गया है। पिछले तीन सालों से एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाले पर्वतारोहियों को अपना और कुछ अतिरिक्त कूड़ा वापस लाने के लिए कहा जाता है। नेपाल में माउंट एवरेस्ट को सागरमाथा कहा जाता है। उत्सव है, में तो कई दिनों तक बुग्यालों में यह यात्रा चलती है। ऋषिकेश में ट्रैकिंग और फोटोग्राफी व्यवसाय से जुड़े पीएस चौहान का कहना है कि उत्तराखंड में जो भी ट्रैक रूट हैं, उनमें एक न एक तरफ से जाते हुए कोई न कोई बुग्याल जरूर पड़ता है, जिसमें से होकर जाना ही पड़ता है। उत्तरकाशी में एडवेंचर अभियानों से जुड़े लोकेंद्र सिंह बिष्ट का कहना है कि पर्यावरण सुरक्षा को लेकर प्लास्टिक और अन्य ऐसे साजो-सामान ले जाने पर बैन ठीक है।


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आवरण कथा

‘ग्रीन ट्रेल’ की स्थापना और मकसद

हिमालय क्षेत्र में बदली पर्यावरण की स्थिति और ट्रैकिंग से उसके संबंध को लेकर ‘इंडिया हाइक्स’ के संस्थापक अर्जुन मजूमदार कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि इसका एकमात्र समाधान है जिम्मेदार और सुरक्षित ट्रैकिंग। हम अपने कचरों से पर्वतों के स्वाभाविक भूगोल को बदल नहीं सकते। ऐसा करना खतरनाक होगा। तकरीबन 8 साल पहले हमने ग्रीन ट्रेल प्रोजेक्ट शुरू किया था। यह अब अपने आप में एक छोटे संगठन का रूप ले चुका है। हमारी कोशिश है कि हम क्रांतिकारी तरीके से ट्रैकिंग को ईको-फ्रेंडली बनाएं, ताकि हमारी गतिविधियों का पर्यावरण पर न्यूनतम असर हो।’ ‘ग्रीन ट्रेल’ के कार्य करने के तरीके में सबसे अहम है शिविर क्षेत्र से लेकर ट्रैकिंग की राह में स्वच्छता को प्राथमिकता। इकट्ठा किए गए कचरे को लोहाजंग और जौबहरी में उनके किस्मों के आधार पर अलगाया जाता है। यहां इसके लिए विशेष व्यवस्था है। खासतौर पर प्लास्टिक कचरे को दोबारा इस्तेमाल, रिसाइकल और अपसाइकल करने के लिए अलग रखा जाता है। जमीन के किसी हिस्से या जमीन के अंदर प्लास्टिक कचरों को जमा करने से पूरी तरह बचने के लिए स्थानीय टीम ने कई दिलचस्प वैकल्पिक तरीके ढूंढ निकाले हैं। प्लास्टिक कचरे की सफाई करने के बाद इन्हें छोटे

उत्तराखंड हाई कोर्ट ने उच्च हरित क्षेत्रों में रात्रि विराम करने पर रोक लगा रखी है। कोर्ट ने इस बात की भी व्यवस्था करने को कहा है कि एक समय में तय संख्या से ज्यादा पर्यटक इन क्षेत्रों में प्रवेश न करें। हाई कोर्ट की रोक से राज्य के पर्यटन उद्योग पर दूरगामी असर पड़ने की भी आशंका है दौरान कहीं भी लाने ले जाने में आसान होते हैं। लोग इन तकियों को ‘इंडिया हाइक्स’ के केंद्रों से खरीद सकते हैं।

कचरे का रचनात्मक उपयोग

टुकड़ों में काट लिया जाता है। फिर इनसे प्लास्टिक से बने ऐेसे तकिए तैयार किए जाते हैं, जो यात्रा के

प्लास्टिक कचरे का एक और बेहतरीन इस्तेमाल इको-ब्रिक्स (ईंट) बनाने में हो रहा है। इस तरह से बनी ईंटों का उपयोग छोटे निर्माणों के अलावा उद्यानों और सार्वजनिक जगहों पर सजावटी निर्माण के तौर पर किया जा सकता है। अलग-अलग ट्रैकिंग रास्तों पर ‘इंडिया हाइक्स’ ग्रीन ट्रेल्स के स्वयंसेवकों की मदद से कचरा जमा करने का अभियान चलाता रहता है। अब तक इस तरह के अभियानों से 32 हजार किलो कचरा पहाड़ों से जमा किया जा चुका है। ‘इंडिया हाइक्स’ कचरा जमा करने, उसके सुरक्षित निपटान के अलावा कंपोस्टिंग

और रेन वाटर हार्वेस्टिंग के क्षेत्र में भी कार्य कर रहा है। संगठन अब तक पहाड़ों से जमा 20 हजार किलो से ज्यादा गीले कचरे को कंपोस्ट कर चुका है। स्वच्छता के लिहाज से यह बड़ा कार्य है और इसका लोगों पर अनुकरणीय प्रभाव भी पड़ रहा है।

टिकाऊ मॉडल

हालांकि मजूमदार को ऐसा जरूर लगता है कि असली बदलाव शिक्षा और जागरूकता के जरिए ही आएगा। इसीलिए वे गांवों में कचरा जमा, उसकी छंटाई और फिर उसके दोबारा इस्तेमाल करने के तरीके को लेकर टिकाऊ मॉडल विकसित करने के लिए तत्परता से जुटे हैं। वे स्कूलों को भी ‘ग्रीन ट्रेल’ अभियान से जोड़ने में लगे हैं। स्कूलों में स्वच्छता को लेकर आयोजित होने वाले सत्रों का असर यह है कि छात्र खुद से कचरा इकट्ठा करने और


06 पौधरोपण के कार्य से जुड़ने लगे हैं। ट्रैकिंग को स्वच्छता से जोड़ने के अभियान का नतीजा यह है कि अब ट्रैकिंग के लिए आने वाले लोग इस बदलाव को खुद महसूस कर रहे हैं और इसका हिस्सा बन रहे हैं। हैदराबाद के भवेश अकुला ऐसे ही एक पर्वतारोही हैं। वे ‘इंडिया हाइक्स’ के साथ मार्च 2018 को संडकफू ट्रैक पर गए थे। वे ग्रीन ट्रेल्स अभियान के अभिप्राय और उद्देश्यों से खासे प्रभावित हुए। इसका नतीजा यह हुआ कि हैदराबाद लौटकर उन्होंने कंपोस्टिंग का कार्य शुरू किया अपने किचन गार्डन को हरा-भरा किया। भवेश कहते हैं, ‘हमारे रोमांच की कीमत प्रकृति को अगर उठानी पड़ती है तो यह गलत है। हम अपनी शहरी जीवनशैली में इस बात का कतई ख्याल नहीं करते कि हमारे कारण हर साल टनों कचरा जमा होता है। इस लापरवाही को लेकर हमारे अंदर कोई अपराधबोध भी नहीं पनपता। मेरे लिए इससे बाहर निकलने का पहला कदम है कंपोस्टिंग। इसके जरिए हम अपना कचरा कम करने की दिशा में आगे बढ़े हैं। यहां-वहां जमीन के ऊपर या भीतर प्लास्टिक कचरा जाम हो, इससे बचने के लिए भी हमने उपाय निकाला है। पहले हम हर दूसरे दिन बाहर से खाना मंगाते थे। पर पिछले छह महीने में ऐसा हमने सिर्फ दो बार किया है।’ अपने ट्रैकिंग अनुभव के बारे में कुछ और बातें बताते हुए भवेश कहते हैं, ‘इस दौरान रास्ते में

कचरा न फैलाना और पहले से बिखरे कचरे को इकट्ठा करने की मेरी आदत हैदराबाद लौटकर भी बहाल है। लोग मुझे हैरत भरी नजर से देखते हैं, पर मुझे लगता है कि मुझे यह सब करते देखकर उनके अंदर कुछ न कुछ तो जरूर बदलेगा।’ भवेश का उदाहरण प्रेरक और उम्मीद जगाने वाला है। छोटे बदलाव से ही बड़े परिवर्तन तक पहुंचा जा सकता है। एक व्यक्ति या एक संगठन पहाड़ों को कचरा मुक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इस साल जून में एटीओएआई के साथ मिलकर इंडियन एडवेंचर टूरिज्म गाइडलाइन जारी किया गया है। पहाड़ी क्षेत्रों में कचरे को लेकर जो समस्या है, उससे निपटने के लिए इनसे जुड़े राज्यों में लोगों और संसाधनों की अभी भी काफी कमी है।

आवरण कथा

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

भवेश की तरह ही एक और उदाहरण प्रदीप सांगवान का है। ट्रैकिंग के दौरान उन्हें पहाड़ों की पीड़ा का अहसास हुआ। 2009 में उन्होंने फैसला किया कि वे हिमालय के बीच ही रहेंगे और यहां रहकर इस दिशा में कुछ सार्थक करने की कोशिश करेंगे। मनाली को अपना नया ठिकाना बनाते हुए उन्होंने हीलिंग हिमालय फाउंडेशन नाम से एक संस्था शुरू की। इस संस्था का लक्ष्य पहाड़ों को स्वच्छ रखने में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के साथ मिलकर इसके लिए अभियान छेड़ना है।

जलवायु परिवर्तन और हिमालय क्षेत्र

विश्व के वैज्ञानिकों के बीच भी हिमालय के कार्बन उत्सर्जन की स्थिति साफ नहीं है। वैसे एक अनुमान के मुताबिक हिमालय विश्व का 13 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जित करता है

प्रदीप को कोर टीम के सदस्य अभी तक अपने अभियान के साथ खीरगंगा, चंद्रताल, मणिमहेश, श्रीखंड महादेव, जोगिनी प्रपात, पंपता दर्रा सरीखे लोकप्रिय ट्रैकिंग रूट्स और धार्मिक स्थलों तक पहुंच चुके हैं। इसी तरह की एक और संस्था ‘वेस्ट वैरियर्स’ है, जो देहरादून, धर्मशाला और कार्बेट इलाके में कचरा इकट्ठा करने के लिए अभियान चला रही है। इस संस्था के जन्म की कहानी बहुत दिलचस्प है। दिसंबर 2008 में जोडी अंडरहिल एक विदेशी पर्यटक के तौर पर भारत भ्रमण पर आई थीं। यहां के पर्यटक स्थलों पर कचरे की समस्या ने उन्हें काफी बेचैन किया। फिर उन्होंने धर्मशाला के तिब्बती गांव में अपना डेरा जमाया। अप्रैल 2009

र्ल्ड बैंक की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन भारत की अर्थव्यवस्था पर काफी भारी पड़ सकता है और इसका असर देश के जीडीपी पर भी पड़ेगा। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते तापमान और मानसूनी बारिश के बदलते प्रतिमान की कीमत भारत को जीडीपी में 2.8 फीसदी कमी के रूप में चुकानी पड़ेगी। इससे 2050 तक देश की लगभग आधी आबादी का जीवन स्तर प्रभावित होगा।’ इसके अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण भारत के औसत सालाना तापमान में 2050 तक 1-2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने का अनुमान है। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में जल प्रलय भी जलवायु परिवर्तन का ही दुष्परिणाम है। यह निष्कर्ष सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) का है। 2005 की मुंबई में आई बाढ़, 2010 में लेह में बादल फटने तथा 2013 की उत्तराखंड आपदा और अब जम्मू-कश्मीर में जल प्रलय की असामान्य घटनाओं के अध्ययन पर आधारित चार साल पहले आई सीएसई की रिपोर्ट में कहा गया है कि ये घटनाएं बारिश के स्वरूप में आ रहे बदलाव का संकेत हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि कश्मीर का जल प्रलय इस बात का दुखद संकेत है कि भारत में जलवायु परिवर्तन का दौर तेजी से चल रहा है। पिछले में उन्होंने दलाई लामा के मैक्लोडगंज गांव में सार्वजनिक स्वच्छता अभियान छेड़ा। इस अभियान में उनके साथ सौ से ज्यादा लोग थे। अंडरहिल बताती हैं, ‘कचरे का चुनाव मैंने नहीं किया, बल्कि

दस साल में पूरे देश में कई स्थानों पर अतिवृष्टि की घटनाएं सामने आई हैं। शोधकर्ता व वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. समीर तिवारी बताते हैं कि विश्व के वैज्ञानिकों के बीच भी हिमालय के कार्बन उत्सर्जन की स्थिति साफ नहीं है। वैसे एक अनुमान के मुताबिक हिमालय विश्व का 13 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जित करता है। जलवायु परिवर्तन और अन्य कारणों का असर हिमालयी क्षेत्र की परंपरागत फसलों पर भी पड़ने लगा है। पिछले बीस वर्षों में केवल पिथौरागढ़ और उसके आसपास के क्षेत्र में 25 तरह की परंपरागत फसलें खत्म हो गई हैं। देहरादून के वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट अॉफ इंडिया में विगत सितंबर माह में आयोजित तीसरे हिमालयी शोध सम्मेलन के दौरान शोधार्थी ऋषभ श्रीकर ने इस बात का खुलासा किया। श्रीकर ने कहा कि पिछले बीस सालों में वहां करीब 28 प्रतिशत तक खेती कम हुई है तथा 25 परंपरागत फसलें खत्म हो गई हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण इन फसलों का उत्पादन घट गया। जिन फसलों को कम पानी की जरूरत होती थी, ज्यादा बारिश के कारण उनका उत्पादन गिर गया। ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलों को पर्याप्त पानी नहीं मिलने से उनका उत्पादन घट गया। इस कारण काश्तकारों ने इन फसलों को उगाना बंद कर दिया। इस मौके पर शोधार्थी अंकिता सिन्हा ने कहा कि ऋषिकेश से गंगोत्री तक नदी किनारे मानव दखल बढ़ने, जलस्तर कम होने, पादपों में बदलाव से पक्षियों की कई प्रजातियां खत्म होने के कगार पर हैं। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट के डीन डा. जेएस रावत ने कहा कि पिथौरागढ़ और आसपास के क्षेत्र में चार प्रकार का मंडुआ उगाया जाता था, लेकिन अब एक ही प्रकार का मंडुआ रह गया। कौंड़ी, चीना भी खत्म हो गई हैं। उन्होंने कहा कि यह शोध अभी जारी है, जिसमें और परिणाम सामने आएंगे। रावत ने कहा कि संस्थान अब एग्रो-इको सिस्टम पर भी शोध कर रहा है, जिससे खेती के इको-सिस्टम पर क्लाइमेट चेंज का असर और उससे बचने के उपाय किए जा सकेंगे। इसने मेरा चुनाव किया। जब मैंने भारत में कचरे के कारण हुई बदहलाली देखी तो यह मेरे लिए एक हृदय विदारक अनुभव था। अब तो इससे निपटने का मिशन ही मेरी जिंदगी है।’


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सम्मान

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सियोल शांति पुरस्कार से नवाजे गए पीएम मोदी अंतरराष्ट्रीय सहयोग, वैश्विक आर्थिक विकास, दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के माध्यम से भारत के लोगों के विकास में गति और सामाजिक एकीकरण के प्रयासों के माध्यम से भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने में अहम योगदान के लिए मोदी को यह सम्मान दिया गया है

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धानमंत्री नरेंद्र मोदी को देश-दुनिया में बेहतर आर्थिक विकास और भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों में मजबूती के योगदान के लिए प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय सियोल शांति पुरस्कार 2018 से नवाजा गया है। पीएम मोदी की आर्थिक नीतियों को 'मोदीनॉमिक्स' के रूप में जाना जाता है। दक्षिण कोरिया की तरफ से दिए जाने वाले इस पुरस्कार के प्रशस्ति पत्र में कहा गया है कि विश्व में शांति स्थापित करने, मानव विकास की दिशा में प्रगति और भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह पुरस्कार दिया जाएगा। पीएम मोदी यह अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले 14वीं शख्सियत हैं। इस संदर्भ में विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी कर कहा, 'सियोल शांति पुरस्कार कमेटी ने 2018 सियोल शांति पुरस्कार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देने का ऐलान किया है। अंतरराष्ट्रीय सहयोग,

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी को हार्दिक बधाई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रतिष्ठित ‘अंतरराष्ट्रीय सियोल शांति पुरस्कार 2018’ मिलने पर उन्हें मेरी और समस्त सुलभ परिवार की तरफ से विशेष बधाई। उनके पुरस्कृत होने से पूरा देश अपने आप को सम्मानित महसूस कर रहा है। अच्छी बात यह भी है कि इस पुरस्कार ने उनकी आर्थिक नीतियों और विचारों को एक बड़ी वैश्विक स्वीकृति मिली है। वैश्विक आर्थिक विकास, दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के माध्यम से भारत के लोगों के विकास में गति, भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम और सामाजिक एकीकरण के प्रयासों के माध्यम से भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने में अहम योगदान के लिए उनको इस पुरस्कार से सम्मानित

सूरज के ताप से बनेगी सस्ती बिजली

सस्ती बिजली बनाने के लिए वैज्ञानिकों ने एक नए तरह का पदार्थ विकसित किया है

वै

ज्ञानिकों ने एक ऐसा पदार्थ विकसित किया है जो सूर्य के ताप से बिजली बना सकता है और रात के वक्त एवं आसमान में बादल छाए रहने वाले दिनों में सस्ती सौर ऊर्जा पैदा करने का रास्ता साफ करता है। अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि यह नई खोज सौर ताप से बिजली बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है जो

जीवाश्म ईंधनों से बनने वाली बिजली में आने वाली लागत से सीधा मुकाबला करेगी, अर्थात ज्यादा किफायती होगी। अमेरिका के पुरड्यू विश्वविद्यालय के प्राध्यापक केनेथ सैंडहेज ने कहा, 'ताप के रूप में सौर ऊर्जा को संरक्षित करना बैटरी के जरिए ऊर्जा संरक्षित करने से सस्ता पहले से ही है, इसीलिए अगला कदम सौर

डॉ. विन्देश्वर पाठक

संस्थापक, सुलभ स्वच्छता व सामाजिक सुधार आंदोलन

किया जाएगा।' पीएम नरेंद्र मोदी ने इस अवॉर्ड के लिए आभार प्रकट करते हुए कहा है कि कोरिया गणराज्य के साथ भारत के संबंध मजबूत हो रहे हैं। विदेश मंत्रालय के मुताबिक दोनों ही पक्षों की समय के लिहाज से सुविधा को देखते हुए सियोल शांति ताप से बिजली पैदा करने में आने वाले खर्च को कम करना है साथ ही इस फायदे के साथ कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन शून्य हो।' संकेंद्रित सौर ऊर्जा संयंत्र सौर ऊर्जा को बिजली में बदलने के लिए शीशे या लेंसों के जरिए एक छोटे से स्थान पर प्रकाश को केंद्रित करते हैं जो ताप पैदा करता है, जिसे एक मॉल्टन सॉल्ट में स्थानांतरित किया जाता है। मॉल्टन सॉल्ट मानक तापमान एवं दबाव में ठोस रहने वाला वह नमक है जो तापमान बढ़ने के साथ ही द्रव्य में बदल सकता है और उसे ताप को स्थानांतरित करने वाले तरल पदार्थ के तौर पर

पुरस्कार फाउंडेशन द्वारा यह पुरस्कार दिया जाएगा। इस संबंध में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कई ट्वीट कर कहा, 'ये 130 करोड़ भारतीयों के लिए बेहद प्रसन्नता और गौरव का विषय है कि पीएम नरेंद्र मोदी को प्रतिष्ठित सियोल शांति पुरस्कार से नवाजा गया है....मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि अवॉर्ड कमेटी ने मोदीनॉमिक्स का जिक्र किया है। वास्तव में इसकी बुनियाद समाज के सभी तबकों में समानता और सशक्तीकरण की भावना से प्रेरित है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी की साहसिक और नवोन्मुखी विदेश नीति जिसमें एक्ट ईस्ट पॉलिसी भी शामिल है, उसको भी सराहा गया है।' इस पुरस्कार की स्थापना 1990 में की गई थी। उस दौरान सियोल में 24वें ओलंपिक खेलों का सफल आयोजन हुआ था। उस आयोजन में 160 देशों ने हिस्सा लेकर भाईचारे और शांति का पैगाम दुनिया को दिया। उसी भावना के तहत इस पुरस्कार की स्थापना की गई। प्रयोग किया जा सकता है। मॉल्टन सॉल्ट की गर्मी को फिर वर्किंग फ्लुड सुपरक्रिटिकल कार्बन डायऑक्साइड में स्थानांतरित किया गया जो बिजली पैदा करने वाले यंत्र को चलाने का काम करता है। सौर ऊर्जायुक्त बिजली को सस्ता बनाने के लिए टर्बाइन इंजन को उसी मात्रा के ताप में ज्यादा बिजली पैदा करनी होगी और इसके लिए इंजन को ज्यादा तेज चलना होगा पर समस्या यह है कि ताप स्थानांतरित करने वाली वस्तु स्टेनलेस स्टील या निकल आधारित मिश्र धातु की बनी होती है जो ज्यादा तापमान पर बहुत नरम हो जाते हैं। (एजेंसी)


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सरदार अपने कर्मों से बहुत बड़े थे और अपने समय के परिदृश्य में सर्वाधिक सच्चे थे। पता नहीं ऐसी कोई दूसरी शख्सियत कब आएगी

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सरदार वल्लभभाई पटेल जयंती (31 अक्टूबर) पर विशेष

अनूठे थे सरदार

हमारे पांच हजार साल के उतारचढ़ाव से भरे इतिहास में सम्राट विक्रमादित्य, अकबर महान और अशोक के समय में भी भारत में इतना बड़ा परिवर्तन देखने नहीं को मिला। आजादी के बाद सरदार के नेतृत्व में देश पहली बार प्रशासनिक तौर पर युगों की सांस्कृतिक और भौगोलिक वि​िवधता के बावजूद एकीकृत हुआ

जयप्रकाश नारायण

म कांग्रेस समाजवादी, जो भारत को समाजवाद की राह पर ले जाना चाहते थे, उन्हें ‘प्रतिक्रियावादी’ और पूंजीवाद का पोषक और समर्थक मानते रहे। सरदार को लेकर हमारी असहमति उसी तरह की थी, जैसे मार्क्सवादी होने के कारण मैं गांधी जी के विचारों की आलोचना करता था, जबकि ऐसा करते हुए भी मेरे मन में हमेशा उनके लिए श्रद्धा की हद तक सम्मान बना रहा। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का जन्म तब तक नहीं हुआ था, जब सरदार ने काफी शानदार ढंग से बारदोली सत्याग्रह किया था। इस अनूठे संघर्ष का सरदार होने के नाते हमारे मन में उनके लिए खास सम्मान था। हम जानते थे कि वे एक ऐसे अचूक कमांडर की तरह हैं, जो किसी भी शर्त पर कभी ​िब्रटिश साम्राज्यवाद के साथ समझौते के लिए राजी नहीं होगा। विचारधारा के मतभेद के बावजूद उनको लेकर मन में एक शीतल भाव हमेशा बना रहा। पूंजीवाद का समर्थक और समाजवाद का शत्रु मानते हुए भी हम उनका सम्मान करते थे। आजादी के बाद जिस चतुराई के साथ सरदार ने प्रिंस्ली स्टेट्स का विलय भारत के साथ उनके शासकों की सहमति के साथ शांतिपूर्ण तरीके से कराया, वह अनूठा प्रयोग था। किसी और नेता ने नहीं, बल्कि सरदार ने इसके लिए साहस के साथ कदम बढ़ाया। हैदराबाद और जूनागढ़ के शासकों के अड़ियल रवैए ने पूरे देश में एक तरह की व्याकुलता पैदा कर दी थी। पर इस नीति को सामने रखते हुए कि राज्य की जनता ही यह तय करेगी कि वह भारत के साथ जाना पसंद करेगी कि या पाकिस्तान के

महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय अनुभव है। भारत का विभाजन हो चुका था और सरदार पटेल देश के गृह के साथ भारतीय राज्यों के मंत्री थे। समाजवादी कांग्रेसियों ने तब तक कांग्रेस नहीं छोड़ी थी। यह अगस्त या सितंबर का समय था। सरदार बिड़ला हाउस में रह रहे थे। जहां गांधी जी ठहरते थे। मैं गांधी जी से मिलने के लिए वहां गया था। उनके कमरे से बाहर आने के दौरान, मैं सरदार की तरफ भागा। उन्होंने स्नेह के साथ मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा और कहा, ‘जिस तरह से तुमने 1942 के आंदोलन में भूमिका निभाई, उसने तुम्हारे और मेरे बीच के सभी मतभेदों को मिटा दिया है।’ उन्होंने आगे कहा, ‘कांग्रेस समाजवादियों की कांग्रेस सरकार से क्या अपेक्षाएं हैं? मुझे यह जानना चाहिए कि क्या आपके पास कोई विशिष्ट कार्यक्रम है, जिसको लेकर आपको लगता है कि हमें उस पर चलना चाहिए।’ मुझे सरदार के प्रस्ताव में गंभीरता लगी। बाद में मैंने इस मामले पर आचार्य नरेंद्र देव, अच्युत पटवर्धन, राममानोहर लोहिया और अन्य सहयोगियों के साथ चर्चा की। फिर हमने एक कार्यक्रम के

साथ, या कि वह दोनों ही देशों से अलग अस्तित्व बनाए रखना चाहेगी। सरदार पटेल ने लोगों की राय को अहमियत देकर वहां के शासकों के विरोध के बावजूद इन राज्यों का भारत के साथ विलय वहां की जनता की सहमति के साथ कराया। सरदार समस्याओं का निपटान कैसे करते थे, इस बारे में वे लोग बेहतर बता सकते हैं जो उनके निकटस्थ रहे। वैसे यह कहना भी आसान नहीं क्योंकि सरदार अपने सोचने के ढंग के बारे में

बहुत बातें नहीं करते थे। यों भी कह सकते हैं कि वे काफी व्यावहारिक थे और जब तक कोई समस्या समाधान के लिए उनके पास नहीं लाया जाता था, तब तक वे उसके बारे में किसी तरह कोई विचार करना निरर्थक मानते थे। एक बार कोई समस्या हाथ में लेने के बाद वे निस्संदेह उसके हर आयाम का अध्ययन करते थे और फिर वे उस पर खासी विवेचना के बाद एक पुख्ता निर्णय पर पहुंचते थे। मुझे एक घटना याद है, जो मेरे लिए एक

तौर पर एक पॉलिसी स्टेटमेंट तैयार किया और इसे सरदार को भेज दिया। इसकी प्रति पंडितजी और कांग्रेस अध्यक्ष आचार्य कृपलानी को भी भेजी गई। निस्संदेह बापूजी को हमने यह भेजा। जहां तक मुझे याद है कि इस दस्तावेज पर कुछ चर्चा बापू की मौजूदगी में हुई थी। जवाहरलाल जी ने इसमें बहुत दिलचस्पी नहीं ली। सरदार तब उपस्थित नहीं थे, लेकिन यह स्पष्ट था कि उन्हें यह सब अव्यावहारिक और अकादमिक लगा। बाद में उन्होंने इस मामले पर आचार्य कृपलानी के साथ चर्चा की। पर इसमें कुछ ठोस नहीं निकला। अपने कार्यकाल में सरदार कांग्रेस संगठन, कांग्रेस के मंत्रियों और उनके व्यवहार पर करीबी नजर रखते थे। उन्हें जहां भी भ्रष्टाचार दिखा उन्होंने उसे अपने लौह हाथों से रोका। उनकी सांगठनिक क्षमता अद्वितीय थी और वे राजनीतिक भिड़ंत से कोसों दूर थे। इन दिनों बेहद अनैतिक साधनों को शक्ति के केंद्रों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो उनके दिनों में असंभव था। उन्हें लोगों की कमाल की पहचान थी। वे योग्य लोगों का पक्ष लेते थे। भ्रष्टाचार और खुदगर्जी के पीछे अप्रत्याशित रूप से भागना विनोबा के शब्दों में आज सामाजिक कायदा


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स्मरण

सरदार की स्मृति में स्टैच्यू ऑफ यूनिटी 2990 करोड़ की लागत से बनाई जा रही सरदार की 182 मीटर ऊंची मू‍र्ति का निर्माण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट रहा है

त्री और गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल देशकीकेयादपहलेमें गुउप-प्रधानमं जरात में 182 मीटर लंबी ऊंची उनकी मू‍र्ति लगाई जा

तट पर किया जा रहा है। इसकी ऊंचाई 212 मीटर होगी। सरदार पटेल और शिवाजी की मूर्तियों पर करीब 7086 करोड़ रुपए खर्च रही है। सरदार सरोवर डैम में इस मू‍र्ति को बनाया जा रहा है। किए जा रहे हैं। इस कार्य में 2500 से ज्यादा मजदूर लगे हैं। खास बात ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम यह है कि इन मजदूरों में काफी सारे चीन के हैं। चीनी प्रोजेक्ट है। वर्ष 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री सरदार पटेल की यह मजदूरों के हाथों से बनी ये मू‍र्ति दुनिया की मौजूदा बनने के बाद इस प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई सबसे बड़ी मू‍र्ति यानी चीन के स्प्रिंग टेंपल बुद्ध को थी। पीएम मोदी का मानना है कि 'स्टैच्यू प्रतिमा अमेरिका की भी पछाड़ देगी। स्प्रिंग टेंपल बुद्ध प्रतिमा की लंबाई ऑफ लिबर्टी' की तरह ही पटेल की ये स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी 128 मीटर है। मू‍र्ति सैलानियों के लिए भारत में मुख्य से दोगुनी होगी 2990 करोड़ की लागत से बनाई जाने वाली आकर्षण का केंद्र होगा। सरदार पटेल इस मू‍र्ति को 'स्टैच्यू ऑफ यूनिटी' नाम दिया गया है। की यह प्रतिमा अमेरिका की स्टैच्यू ऑफ बनने के बाद ये दुनिया की सबसे बड़ी मू‍र्ति होगी। सरदार लिबर्टी से दोगुनी होगी। पटेल की यह प्रतिमा अमेरिका की स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी से दोगुनी 2013 में अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी मोदी होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 31 अक्टूबर को इस प्रतिमा का लोकार्पण ने इसका जिक्र किया था। उन्होंने कहा था, ‘हर करेंगे। हालांकि, 2021 में भारत में ही सरदार पटेल की मू‍र्ति से भी भारतीय को इस बात का दुख है कि सरदार पटेल बड़ी मू‍र्ति छत्रपति शिवाजी की होगी। इसका निर्माण मुंबई के समुद्र भारत के पहले प्रधानमंत्री नहीं बने।’

 सरदार वल्लभ भाई पटेल देश के पहले गृहमंत्री और उप-प्रधानमंत्री थे।  गुजरात में बारदोली सत्याग्रह करने वाले वल्लभ भाई को सत्याग्रह के सफल होने पर वहां की महिलाओं ने सरदार की उपाधि प्रदान की थी। 

सरदार पटेल पूर्ण स्वराज के पक्षधर थे। महात्मा गांधी के साथ मिलकर उन्होंने 'भारत छोड़ो' आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके लिए वे जेल भी गए थे।

 आजादी के बाद अलग-अलग रियासतों में बिखरे भारत के भू-राजनीतिक एकीकरण में केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए पटेल को भारत का ‘बिस्मार्क’ और ‘ लौह पुरुष’ भी कहा जाता है।

सरदार की खास बातें बन चुका है, इसे वे कभी सहन नहीं करते। स्वाधीनता संघर्ष के दिनों में हमारी यह प्रबल इच्छा थी कि पूरे भारत को राजनीतिक रूप से एक केंद्रीय शासन के तहत राजनीतिक सूत्र में बांधा जाए, इसके लिए अक्सर उत्साह से हम लोग ‘कश्मीर से

 वीपी मेनन के साथ मिलकर सरदार पटेल ने लगभग 565 रजवाड़ों को भारत में शामिल होने के लिए तैयार किया था। पहले कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ भारत में शामिल नहीं होना चाहते थे। इन्हें भारत में शामिल कराने के पीछे भी सरदार पटेल की ही नीतियां थीं।

कन्याकुमारी’ का आनुप्रासिक नारा इस्तेमाल करते थे। जैसा कि हम कह चुके हैं वर्षों के इस सपने को हकीकत की शक्ल देने में महारती शिल्पकार के तौर पर सरदार का कोई सानी नहीं है। यह सब कार्य अपनी विलक्षण राजनीतिक

कुशलता के साथ तीन साल के भीतर तत्परता के साथ तथा शांतिपूर्ण व अहिंसक तरीके से कर दिखाने वाले कोई और नहीं, बल्कि अजेय सरदार थे। निस्संदेह न

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विश्व की सबसे ऊंची मूर्तियां

स्टैच्यू अॉफ यूनिटी (सरदार पटेल) भारत

182 मीटर

सिर्फ भारत बल्कि विश्व के इतिहास में भी इस तरह की दक्षता अद्वितीय है। हमारे पांच हजार साल के उतार-चढ़ाव से भरे इतिहास में सम्राट विक्रमादित्य, अकबर महान और अशोक के समय में भी भारत में इतना बड़ा परिवर्तन देखने नहीं को मिला। देश पहली बार प्रशासनिक तौर पर युगों की सांस्कृतिक और भौगोलिक वि​िवधता के बावजूद एकीकृत हुआ। मैं इस पुनर्मूल्यांकन को भारतीय संसद में सरदार को श्रद्धांजलि स्वरूप दिए गए जवाहरलाल के अलंकृत और भावपूर्ण भाषण को उद्धृत करते हुए समाप्त करना चाहता हूं- ‘इतिहास सरदार की सेवाओं को कई पन्नों में दर्ज करेगा और उन्हें नए भारत के निर्माता और इसे समेकित रूप देने वाले सहित उनके बारे में कई और बातें लिखेगा। हममें से कइयों के लिए वे हमारी फौज के महान कप्तान की तरह थे, जो हमें स्वाधीनता संघर्ष के मुश्किल और विजय के क्षणों में ठोस सुझाव देते थे। वे एक ऐसे मित्र और सहयोगी की तरह थे, जिन पर भरोसा हम कर सकते थे क्योंकि वे काफी सशक्त थे और साहसी हृदय के थे।’ सरदार अपने कर्मों से बहुत बड़े थे और अपने समय के परिदृश्य में सर्वाधिक सच्चे थे। पता नहीं ऐसी कोई दूसरी शख्सियत कब आएगी? (वल्लभभाई पटेल जन्म शताब्दी वर्ष में एक स्मारिका के लिए लिखे गए जेपी के विशेष आलेख का संपादित अंश)

स्प्रिंग टेंपल चीन

153 मीटर

उशिकू दायबुत्सू, जापान

120 मीटर

स्टैच्यू अॉफ लिबर्टी, अमेरिका

93 मीटर

द मदरलैंड कॉल्स, रूस

85 मीटर

क्राइस्ट द रिडीमर, ब्राजील

39.6 मीटर

एकजुटता का शिल्पकार

स्व-अनुशासन का मंत्र गांधी ने दिया था, लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन के लिए बेहद जरूरी सांगठनिक अनुशासन और एकजुटता को सरदार पटेल लेकर आए प्रियदर्शी दत्ता

रीब 100 साल पहले अहमदाबाद में जब महात्मा गांधी और सरदार पटेल दोनों मिले तो उम्मीद थी की राजनीति पर गरम बहस होगी, लेकिन यहां तो धर्म-कर्म पर काफी देर तक चर्चा होती रही। पर 41 साल के बेहद सख्त मिजाज के बैरिस्टर में उस मुलाकात के बाद कुछ बेहद स्थायी बदलाव आए। गांधी के शब्द उनके कानों में तब तक गुंजते रहे, जब तक वो सत्याग्रह आंदोलन में खुद शामिल नहीं हो गए। हालांकि बेहद व्यावहारिक इंसान होने की वजह से वो अपने झुकाव के बावजूद खुलकर आंदोलन में 1917 में जाकर शामिल हुए। उसी साल चंपारण आंदोलन के बाद गांधी देश के राजनीतिक मसीहा बन चुके थे। बैरिस्टर उसके बाद गांधी के विश्वासपात्र बन गए और आगे चलकर धीरे-धीरे गांधी के दायां हाथ हो गए। जो भी गांधी सोचते या रणनीति बनाते, बैरिस्टर उसको हुबहू पूरा करते। बैरिस्टर अपना

यूरोपीय सूट-बूट जलाकर खादी का धोती-कुर्ता पहनने लगे। उस बैरिस्टर का नाम था सरदार वल्लभभाई झावेरीभाई पटेल (1875-1950), भारत के लौहपुरुष। माना जाता है कि उनके पूर्वज लड़ाके थे। इस समुदाय की शौर्यता और कठिन परिश्रम का इतिहास रहा है। किसान परिवार के पटेल का बचपन भी खेतीबाड़ी के माहौल में बीता। कानूनी और राजनीतिक क्षेत्र में शीर्ष मुकाम तक पहुंचने के बावजूद वे खुद को हमेशा किसान/खेतिहर बताते। पटेल के परिवार में उनके तीन भाई और एक बहन थीं। जिनमें से एक भाई विट्ठलभाई जावेरीभाई पटेल (1873-1933), लॉ बार, सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेंबली के पहले भारतीय प्रेसिडेंट (स्पीकर) बने। कई बार पटेल की सांगठनिक क्षमता को इम्तहान से गुजरना पड़ा। एक समय भारत पर विभाजन का खतरा मंडरा रहा था। करीब 565 रियासतें बंटवारे के समय भारत में शामिल होने को तैयार नहीं थी। त्रावणकोर जैसी कुछ रियासतें स्वतंत्र रहना चाहती थीं जबकि भोपाल

और हैदराबाद जैसी कुछ रियासतें पाकिस्तानी सीमा से दूर होने के बावजूद उसके साथ जाने के षड्यंत्र में शामिल थीं। रणनीतिक कुशलता और दबाव का प्रयोग कर पटेल ने रियासतों को भारत के साथ लाने की लड़ाई आखिरकार जीत ली। हैदराबाद में जब बातचीत से मामला नहीं सुलझा और छोटे-छोटे गुटों में प्रदर्शनकारी आतंकी गतिविधियों में शामिल होने लगे तो सेना का भी इस्तेमाल करना पड़ा। स्वतंत्र भारत के पहले गृहमंत्री के तौर पर पाकिस्तान से विस्थापित हुए हिंदू और सिख शरणार्थियों के पुनर्वास कार्य कराने के साथ ही देश में सिविल सेवा की शुरुआत का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। आईसीएस फिलिप मैसन ने एक बार कहा था कि पटेल एक जन्मजात प्रशासक हैं और उन्हें कोई कार्य करने के लिए पुराने अनुभव की जरूरत नहीं है। गांधी जी के बेहद करीबी काका कालेलकर ने कहा था कि पटेल उसी प्रतिष्ठित जमात के हिस्सा हैं जिसके शिवाजी और तिलक हैं। वैसे गांधी जी के प्रति उनकी निष्ठा को हमेशा असंदिग्ध माना गया।


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गुड न्यूज

श्रमिकों के पुस्तकालय से बदल रहा बच्चों का संसार

जयदीप सरीन

हली नजर में यह एक छोटा-सा कमरा दिखता है, जिसकी एक तरफ की दीवार जर्जर हालत में है, लेकिन 25 वर्ग गज की यह जगह पंजाब की औद्योगिक नगरी लुधियाना के कारखाना श्रमिकों के बच्चों के लिए काफी मायने रखती है। कमरा छोटा जरूर है, मगर इसमें समाहित है ज्ञान का अगाध सागर। दरअसल, यह कमरा नहीं, बल्कि पुस्तकालय है। इसका संचालन खुद कारखाना मजदूरों के सहयोग से हो रहा है। बगैर किसी कॉरपोरेट या सरकारी अनुदान या सहायता के लुधियाना के औद्योगिक क्षेत्र के मध्य स्थित जमालपुर कॉलोनी इलाके के निवासी कामगारों और दिहाड़ी मजदूरों के इस प्रयास से बच्चों के जीवन में उजाला आ रहा है। बच्चे यहां रोज अपने माता-पिता के साथ पढ़ने आते हैं। 'शहीद भगत सिंह पुस्तकालय' को न तो किसी नामी-गिरामी व्यापारिक घराने से मदद मिलती है और न ही किसी गैर-सरकारी संगठन के संसाधनों का लाभ ही मिला है। फिर भी, यह एक मिशन है, जिसका लक्ष्य समाज के कमजोर तबके के बच्चों के जीवन में शिक्षा के माध्यम से बदलाव लाना है। भगत सिंह, सफदर हाशमी और अन्य शहीदों के संदेशों से पुस्तकालय की दीवारें अटी पड़ी हैं। कमरे के बाहर एक बोर्ड पर लिखा है- ‘बेहतर जिंदगी की राह बेहतर किताबों से होकर गुजरती है।’ कारखाना मजदूरों के बच्चों के सुनहरे भविष्य की कामना के साथ इस मिशन के सूत्रधार बने लखविंदर सिंह ने कहा, ‘हमने अप्रैल में इस पुस्तकालय की स्थापना की। यह पूर्ण रूप से लुधियाना की औद्योगिक इकाइयों में काम करने वाले उन कामगारों और मजदूरों के प्रयासों का परिणाम है, जो आसपास के एलआईजी फ्लैट्स और राजीव गांधी कॉलोनी में रहते हैं।’

पुस्तकालय की स्थापना कारखाना मजदूर यूनियन के तत्वावधान में मजदूरों से इकट्ठा किए गए धन से की गई है। मजदूरों ने इसमें 100 रुपए से लेकर 5000 रुपए तक का योगदान दिया है, जबकि अधिकतर मजदूरों की मासिक आय 10,000 रुपए से भी कम है। लखविंदर ने चंडीगढ़ के केंद्रीय संस्थान से डाइ और मोल्ड निर्माण में डिप्लोमा हासिल किया है। वह 2006 से यहां निवास कर रहे हैं, और इस पुस्तकालय परियोजना के वही सूत्रधार हैं। उनकी शादी हो चुकी है, लेकिन उनका कोई बच्चा नहीं है। लखविंदर ने कहा, ‘हमने हर काम छोटे स्तर पर शुरू किया। हमें सरकार या किसी कॉरपोरेट से कोई धन नहीं मिला है। यहां आने वाले बच्चों पर भी इसके लिए दबाव नहीं डाला जाता है। वे खुद यहां आते हैं और यहां की शिक्षण शैली को पसंद करते हैं।’ लुधियाना एशिया की बड़ी औद्योगिक नगरी में शुमार है। यहां की आबादी 35 लाख है। साइकिल उद्योग, कपड़ा उद्योग, ऑटो पार्ट्स निर्माण और अनेक अन्य कारोबारों के लिए यह शहर मशहूर है। ज्यादातर मजदूर यहां दूसरे प्रांतों से आए हैं। खासतौर से उत्तर प्रदेश और बिहार से। वे यहां दशकों से निवास कर रहे हैं। पुस्तकालय रोजाना शाम चार बजे से सात बजे तक खुला रहता है। यहां बच्चे पढ़ने के लिए रोज आते हैं। स्वयंसेवी शिक्षक कृष्ण कुमार व्यावहारिक संकल्पनाओं का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें फिल्में दिखाना, जागरूकता पैदा करना और शिक्षा प्रदान करना शामिल है। पुस्तकालय में हिंदी और पंजाबी भाषा की 500 से अधिक किताबें हैं, जो लोहे की आलमारियों

लुधियान में कारखाना मजदूरों के सहयोग से संचालित हो रहे पुस्तकालय से बच्चों का जीवन संवर रहा है

में रखी हुई हैं। सरकारी स्कूल में छठी कक्षा में पढ़ने वाले छात्र अर्जुन ने कहा, ‘पुस्तकालय में हमारे कई मित्र बनते हैं। यह परिवार की तरह है।’ लखविंदर ने बताया कि अधिकतर बच्चों के माता-पिता सातवीं से ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं या निरक्षर हैं। लेकिन अपने बच्चों को अपने जैसा नहीं रखना चाहते हैं। उन्होंने कहा, ‘कमरे में 30 बच्चे आ सकते हैं। कभी-कभी हमें रोक लगानी पड़ती है, क्योंकि ज्यादा बच्चे कमरे में नहीं आ सकते हैं।’ उन्होंने बताया, ‘पुस्तकालय का सालाना शुल्क 50 रुपए है, जिसमें बच्चों को एक पुस्तकालय कार्ड दिया जाता है। बच्चे इस कार्ड पर एक बार में दो किताबें अपने घर ले जा सकते हैं। बच्चे यहां आना पसंद करते हैं, क्योंकि उनको खुल कर अपनी बात रखने की आजादी होती है। साथ ही उनको शिक्षा प्रदान की जाती है।’ यहां आने वाले बच्चों में भी अपने कार्य के प्रति काफी उत्साह दिखता है। सातवीं कक्षा की छात्रा खुशी ने बताया, ‘यहां आना बेहद अच्छा और स्फूर्तिदायक है, क्योंकि यहां की पढ़ाई काफी मजेदार है।’ यह पुस्तकालय अपने तरीके से बच्चों के जीवन में बदलाव ला रहा है।

अब जनरल टिकटों की होगी ऑनलाइन बुकिंग एक नवंबर से आप ट्रेन का जनरल टिकट ऑनलाइन खरीद सकेंगे

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लवे स्टेशन पर लंबी कतारों में लगकर टिकट खरीदने के लिए इंतजार करना अब बीते समय की बात होगी। दरअसल एक नवंबर से रेलवे पूरे देश में यूटीएस मोबाइल ऐप की शुरुआत कर रहा है जहां अनारक्षित टिकटों को ऑनलाइन खरीदा जा सकता है। यह योजना चार साल पहले शुरू हुई लेकिन मुंबई को छोड़कर अन्य जगहों पर यह सफल नहीं हो पाई। मुंबई में इसे सबसे पहले शुरू किया गया जहां बड़ी संख्या में लोग लोकल ट्रेनों से आते-जाते हैं। मुंबई के बाद इसे दिल्लीपलवल और चेन्नई महानगर में शुरू किया गया। रेलवे ने अभी तक योजना को अपने 15 जोन में लागू किया है। यह योजना उन लोगों के लिए भी है जो लंबी दूरी की यात्रा करने के लिए टिकट खरीदना चाहते हैं। रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, ‘हम लोगों को यूटीएस मोबाइल ऐप ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रहे हैं। संख्या बढ़ रही है और हमें उम्मीद है कि यात्रियों को जब इस ऐप के फायदे समझ में आएंगे तो वे ऑनलाइन टिकट खरीदेंगे।’ उन्होंने कहा कि पिछले चार सालों में इस ऐप के करीब 45 लाख रजिस्टर्ड यूजर्स थे और इस पर औसतन प्रतिदिन करीब 87 हजार टिकट खरीदे जाते थे। इस ऐप का इस्तेमाल करने के लिए यात्रियों को स्टेशन से करीब 25 से 30 मीटर की दूरी पर रहना जरूरी है और इसके माध्यम से केवल चार टिकट खरीदने की अनुमति होगी। ऐप पर रजिस्टर्ड यूजर टिकट के अलावा प्लेटफॉर्म टिकट और मासिक पास भी खरीद सकता है। (एजेंसी)


12 सिर्फ पांच रुपए में भरपेट भोजन हल्द्वानी में मिलता है पांच रुपए में भरपेट भोजन। शारीरिक रूप से अक्षम और मानसिक रूप से बीमारों को मिलता है मुफ्त में भोजन

रुण कुमार अपनी प्लेट का पूरा खाना खत्म करने के बाद एक संतोषजनक डकार लेते हैं। इसके बाद वह मिड डे मील देने वाले समूह को दुआ देते हैं। अरुण प्रवासी हैं जो पूर्व से हल्द्वानी आए हैं और यहां रिक्शा चलाते हैं। अरुण उन हजारों लोगों में से हैं जिन्हें दिन के वक्त का खाना 'थाल सेवा' समूह द्वारा मिलता है। इस भरपेट भोजन के लिए उन्हें सिर्फ पांच रुपए देने होते हैं। थाल सेवासमूह द्वारा खाना विशेष खानसामाओं की निगरानी में तैयार किया जाता है। थाल सेवा स्थानीय नागरिकों की एक पहल है जिसे सोशल मीडिया द्वारा क्राउड फंड किया जाता है। हल्द्वानी के 10 नागरिकों के समूह ने एक साथ मिलकर यह सेवा चलाई है, जिसमें 400 ग्राम मात्रा में चावल, सब्जी, दाल और सलाद होती है। इस ग्रुप के फाउंडर में घरेलू स्त्रियां, प्रोफेशनल और स्थानीय व्यापारी शामिल हैं जो वॉट्सऐप और फेसबुक के जरिए फंड इकट्ठा करते हैं। उन्हें इस नेक काम की बदौलत कनाडा, दुबई और मॉरीशस से भी डोनेशन मिलता है। इस पहल का नेतृत्व करने वाले दिनेश मनसेरा बताते हैं, 'हमने इस विचार के साथ इस मुहिम की शुरुआत की कि जो लोग अपने पारिवारिक सदस्य या किसी रिश्तेदार का हल्द्वानी के सरकारी अस्पताल में इलाज कराने आते हैं, उनको भोजन उपलब्ध कराया जा सके।' वह आगे कहते हैं, 'उनमें से कई ऐसे हैं जो भरपेट भोजन नहीं वहन कर सकते। इस तरह हमने प्रोजेक्ट का स्कोप बढ़ाकर उन सभी लोगों को इसमें शामिल किया जिन्हें उचित मात्रा में भोजन नहीं मिल पाता है।' अस्पताल में अपने किसी करीबी का इलाज कराने आए पान सिंह बताते हैं, 'मील सर्विस उन लोगों के लिए बड़ी मदद है जिन पर अपने किसी पारिवारिक सदस्य की देखभाल करने का जिम्मा होता है।' सोशल मीडिया में इस पहल को देखकर डोनेट करने वाले स्कॉटलैंड के सॉफ्टवेयर इंजीनियर आतिन अरोड़ा बताते हैं, 'इस तरह दान करना संतोषजनक है जिससे लोगों को मदद मिले।' यह समूह विकलांगों और मानसिक रूप से बीमार लोगों से पैसे नहीं लेता है। (एजेंसी)

गुड न्यूज

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

पानी लिख रहा खुशहाली की इबारत बुंदेलखंड और पानी की समस्या एक दूसरे के पूरक हैं, बुंदेलखंड की चर्चा भी सूखा और पानी संकट को लेकर होती है। लेकिन अब बुंदेलखंड में पानी और खुशहाली की कहानी लिखी जाने लगी है संदीप पौराणिक

में कहते हैं कि 'पानी है तो खुशहाली बुदेहैं लऔरखंडजवानी है।' जीवन के इस सूत्र वाक्य

को हमीरपुर जिले के बसरिया गांव में पहुंचकर समझा और महसूस किया जा सकता है, क्योंकि यहां पानी की उपलब्धता ने खुशहाली की नई इबारत लिखनी शुरू कर दी है। बुंदेलखंड के सबसे समस्याग्रस्त जिलों में से एक है हमीरपुर। यहां के सरीला विकासखंड मुख्यालय से जब उबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए और लगभग दो किलोमीटर पैदल चलने के बाद बरसाती नाले पड़वार पर ठहरा हुआ पानी नजर आता है, जो एक तरफ मन को सुकून देता है तो दूसरी ओर सवाल खड़े कर जाता है कि क्या इस क्षेत्र के बरसाती नाले में बरसात गुजर जाने के बाद भी पानी ठहरा मिल सकता है? बुंदेलखंड और पानी की समस्या एक दूसरे के पूरक हैं, बुंदेलखंड की चर्चा भी सूखा और पानी संकट को लेकर होती है। पड़वार नाले में ठहरे पानी की कहानी जब हरदास केवट सुनाते हैं तो उनके चेहरे पर बिखरी खुशी और आने वाले समय की संभावनाओं को साफ पढ़ा जा सकता है। हरदास कहते हैं कि बरसात गुजर जाने के बाद इस नाले में पानी मिलेगा, इसकी कल्पना भी

नहीं की जा सकती थी, मगर यह संभव हुआ है। इसके चलते यहां किसान आसानी से दो फसल तो लेने ही लगेंगे, साथ ही मछली भी लोगों को मिल जाएगी। माधव सिंह की मानें तो इस नाले पर चेकडैम बनाने के लिए गांव के लोगों के बीच संवाद किया गया। पानी पंचायत बनी, लोगों ने तय किया कि अगर पड़वार नाले के पानी को रोक दिया जाए तो 100 से अधिक किसानों की खेती को आसानी से पानी मिल जाएगा, वे साल में एक नहीं दो खेती कर सकेंगे। यह कोशिश कामयाब हुई, चेकडैम बना, पानी रुका और भरोसा है कि किसानों को भरपूर पानी मिल जाएगा, जिससे उन्हें किसी तरह की समस्या से नहीं जूझना होगा। हरिशंकर बताते हैं कि पड़वार नाले में पानी ठहरने से हुए लाभ को कुओं के जलस्तर में हुई बढ़ोत्तरी के जरिए देखा और समझा जा सकता है। इस बार बारिश के बाद नाले के आसपास के कुओं का जलस्तर पिछले वर्षों की तुलना में एक से डेढ़ मीटर तक बढ़ा हुआ है। इसीलिए यह उम्मीद की जा सकती है कि मार्च तक यहां पानी का संकट नहीं रहेगा। यह बताना लाजिमी है कि बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश के सात और मध्य प्रदेश के छह जिले आते हैं। यहां बारिश कम होने के कारण एक

तरफ खेती चौपट है तो दूसरी ओर रोजगार के अवसर न होने के कारण मेहनती लोगों का पलायन बड़ी संख्या में होता है। पानी की उपलब्धता जिन भी इलाकों में बढ़ी है, वहां पलायन तो रुका ही है, साथ में खेती बेहतर होने लगी है। गैर सरकारी संगठन परमार्थ समाजसेवी संस्थान के कार्यक्रम निदेशक अनिल सिंह ने बताया कि बुंदेलखंड में पानी की उपलब्धता के लिए पड़वार नाले पर बनाया गया चेकडैम बसरिया गांव में बड़ा बदलाव लाने वाला है। यह 35 मीटर लंबा और ढ़ाई मीटर ऊंचा है। इस चेकडैम में 96,000 क्यूबिक मीटर पानी रोका गया है। 72 किसानों की 125 एकड़ जमीन की सिंचाई हो रही है। इसमें 20 एकड़ ऐसी जमीन है, जिसकी आज तक कभी सिंचाई हो ही नहीं पाई। सिंह बताते हैं कि पड़वार नाले में बारिश में आने वाले पानी और बहकर बेतवा नदी में चले जाने का अध्ययन किए जाने के बाद कोका कोला के सहयोग से यह चेकडैम बनाया गया और अब इसमें रोके गए पानी से बदलाव नजर आने लगा है। इस गांव की खुशहाली में यह चेकडैम बड़ी भूमिका निभाएगा। बुंदेलखंड में पानी, पलायन और बेरोजगारी बड़ी समस्याएं बन गई हैं। जिन इलाकों में पानी की उपलब्धता है, वहां लोगों का जीवन बदल चला है। काश, बुंदेलखंड पैकेज का भी बेहतर इस्तेमाल हुआ होता तो बुंदेलखंड पानीदार हो गया होता।

स्टीफन हॉकिंग की व्हीलचेयर होगी नीलाम लं

दन की नीलामी कंपनी क्रिस्टी ने दिवंगत भौतिकविद् स्टीफन हॉकिंग से जुड़ी 22 चीजों की ऑनलाइन बिक्री की घोषणा की है। क्रिस्टी के किताब और पांडुलिपि विभाग के प्रमुख थॉमस वेनिंग ने कहा कि इन वस्तुओं में हॉकिंग की व्हीलचेयर और कुछ दस्तावेज शामिल हैं, जिसमें उनकी वर्ष 1965 की पीएचडी थीसिस की पांच प्रतियां भी हैं, जिनकी कीमत 1,30,000 से 1,95,000 डॉलर है। समाचार एजेंसी ​िशन्हुआ की रिपोर्ट के अनुसार, थॉमस ने कहा कि हॉकिंग की हाईटेक व्हीलचेयर को भी 10,000 से 15,000 पाउंड में बिक्री के लिए सूचीबद्ध किया जाएगा। व्हीलचेयर से प्राप्त आय धर्मार्थ संस्थाओं को दान कर दी जाएगी। हॉकिंग की बेटी लूसी हॉकिंग ने कहा, ’यह हमारे पिता के असाधारण जीवन के स्मृति चिन्हों को प्राप्त करने का मौका है।’ 31 अक्टूबर को नीलामी के लिए बोली शुरू होगी। (एजेंसी)


29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

स्वास्थ्य

बिना बुखार के भी हो सकता है डेंगू

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'एफेब्रिल डेंगू' यानी बिना बुखार वाला डेंगू। आम तौर पर होने वाले डेंगू में मरीज तेज बुखार की शिकायत करता है। उसके शरीर में भयानक दर्द होता है। लेकिन मधुमेह के मरीजों, बूढ़े लोगों और कमजोर इम्यूनिटी वाले लोगों में बुखार के बिना भी डेंगू हो सकता है

स वर्ष अगस्त महीने के अंत में एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति डॉक्टर आशुतोष विश्वास के पास आया और उसने कहा कि कुछ देर काम के बाद ही मुझे थकान महसूस होने लगती है। मेरी उम्र 50 वर्ष है। पिछले 12 साल से मुझे डाय​िबटीज है और मैं बरसों से दवाई पर ही जिंदा हूं। एम्स में मेडिसिन विभाग के डॉ. आशुतोष विश्वास को ये बड़ी ही सामान्य-सी बीमारी लगी। डॉक्टर ने मरीज का शुगर टेस्ट किया जो खतरे के निशान के पार था। फिर क्या था, डॉ. विश्वास ने शुगर का इलाज किया और 24 घंटे के अंदर शुगर काबू में ले आए। शुगर काबू में लाने के बाद मरीज के खून के नमूने जांच के लिए भेजे गए। जांच रिपोर्ट आने के बाद पता चला कि उनके प्लेटलेट्स काउंट बहुत कम हैं। डॉक्टर ने तुरंत उस मरीज का डेंगू टेस्ट कराया, जिसमें पता चला कि मरीज को डेंगू है। ये अपने आप में डॉक्टर विश्वास और उनकी

टीम के लिए बेहद चौंकाने वाला तथ्य था। क्योंकि मरीज को तो कभी बुखार आया ही नहीं था। यानी ये बिना बुखार वाला डेंगू था, जिसका मरीज उनकी जानकारी में इससे पहले नहीं देखा गया था। हालांकि नौ दिन बाद उपचार के बाद मरीज ठीक हो गया। जरनल ऑफ फिजिशियन ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक शोधपत्र के मुताबिक, डॉक्टर विश्वास और उनकी टीम ने इस केस के बारे में पूरा एक शोधपत्र लिखा है। 'ए क्यूरियस केस ऑफ एफेब्रिल डेंगू' नाम से प्रकाशित इस शोधपत्र में डॉक्टर विश्वास ने विस्तार से इसके बारे में लिखा है। 'एफेब्रिल डेंगू' यानी बिना बुखार वाला डेंगू। आम तौर पर होने वाले डेंगू में मरीज तेज बुखार की शिकायत करता है। उसके शरीर में भयानक दर्द होता है। लेकिन मधुमेह के मरीजों, बूढ़े लोगों और कमजोर इम्यूनिटी वाले लोगों में बुखार के बिना भी

इन्हें है बिना बुखार वाले डेंगू का खतरा • बुजुर्गों, छोटे बच्चों • कमजोर इम्यूनिटी वाले लोगों • मधुमेह के मरीज • कैंसर के मरीज • या जिनका ट्रांसप्लांट हुआ हो

डेंगू हो सकता है। ऐसे मरीजों को बुखार तो नहीं होता, लेकिन डेंगू के दूसरे लक्षण जरूर होते हैं। ये लक्षण भी काफी हल्के होते है। एम्स में डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसिन के डॉक्टर आशुतोष विश्वास कहते हैं, ‘इस तरह का डेंगू खतरनाक हो सकता है, क्योंकि मरीज को पता ही नहीं होता कि उसे डेंगू हो गया है. कई बार वो डॉक्टर के पास भी नहीं जाते।’ इस तरह के डेंगू में बहुत हल्का इंफेक्शन होता है। मरीज को बुखार नहीं आता, शरीर में ज्यादा दर्द नहीं होता, चमड़ी पर ज्यादा चकत्ते भी नहीं होते। कई बार मरीज को लगता है कि उसे नॉर्मल वायरल हुआ। लेकिन टेस्ट कराने पर उनके शरीर में प्लेटलेट्स की कमी, व्हाइट और रेड ब्लड सेल्स की कमी होती है। जरनल ऑफ फिजिशियन ऑफ इंडिया की एक स्टडी के मुताबिक थाईलैंड में बच्चों में बिन बुखार वाले डेंगू के बहुत से मामले आए हैं। स्टडी के मुताबिक वहां के 20 फीसदी बच्चों में इस तरह का डेंगू पाया गया है। लोगों को इस तरह का डेंगू होने का खतरा रहता है। इसीलिए इस मौसम में कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है। डॉक्टरों के मुताबिक इस सीज़न में यानी अगस्त-सितंबरअक्टूबर में अगर किसी को शरीर में दर्द, थकान, भूख ना लगना, हल्का-सा रैश, लो ब्लड प्रेशर जैसी समस्या हो, लेकिन बुखार की हिस्ट्री ना हो, तो उसे डेंगू हो सकता है। इसलिए डॉक्टर की सलाह अवश्य लें। उनके मुताबिक अगर मरीज सही समय पर प्लेटलेट्स चेक नहीं कराता, तो दिक्कत हो सकती है। अगर प्लेटलेट्स कम हो गए हैं तो ये खतरे की बात हो सकती है। डॉक्टर टिकू कहते हैं कि आम तौर पर डेंगू

में तेज बुखार, शरीर में भयंकर दर्द, सिरदर्द, उल्टी, शरीर पर चकत्ते हो जाते हैं। लेकिन कुछ एक मामलों में ऐसे लक्षण नहीं होते। ऐसे असाधारण मामले हर साल आते हैं। ऐसे मरीजों को हम टेस्ट कराने की सलाह देते हैं और कई मामलों में टेस्ट पॉजिटिव भी होता है। डॉक्टर टिकू कहते हैं कि कई बार जब डेंगू का मच्छर काटता है तो वो खून में बहुत कम वायरस छोड़ता है। इसीलिए डेंगू के लक्षण भी बहुत हल्के होते हैं। यादा वायरस छोड़ेगा तो ज़्यादा लक्षण देखने को मिलेंगे और कम वायरस छोड़ेगा तो कम लक्षण देखने को मिलेंगे या हो सकता है कि लक्षण नजर ही ना आएं। इसके अलावा कई लोगों में बुखार की हिस्ट्री नहीं होती, इसीलिए भी उन्हें बुखार नहीं होता। उनके मुताबिक इस साल डेंगू के मरीजों में ज्यादा कॉम्प्लिकेशन देखने को नहीं मिल रही है। इस साल डेंगू काफी माइल्ड है। इसीलिए लोगों को सतर्क रहने की जरूरत है। डॉक्टर कहते हैं कि पानी पीना डेंगू का कारगर इलाज है। आपको माइल्ड डेंगू हो या सीवियर डेंगू, अगर आप खूब पानी पीएंगे तो जल्दी ही ठीक हो जाएंगे। पानी ना पीने या कम पीने की वजह से डेंगू बढ़ जाता है। इसीलिए इस बात का खास ध्यान रखें। पानी पीते रहने और आराम करने से कई बार डेंगू खुद ही ठीक हो जाता है। दिल्ली नगर निगम की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक इस साल 20 अक्टूबर तक डेंगू के एक हजार बीस मामले दर्ज किए गए हैं। डॉक्टरों के मुताबिक बीते सालों के मुकाबले इस साल डेंगू के कम ही मामले सामने आए हैं। इसकी एक वजह इस साल डेंगू के वायरस का माइल्ड होना है। आपको बता दें कि 2015 में डेंगू के 15 हजार 867 मामले देखने को मिले थे। (एजेंसी)


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पुस्तक अंश

14 एक साधारण मनुष्य के महापुरुष बनने की यात्रा असाधरण होती है, फिर अगर यह यात्रा अगर महापुरुष से आगे महात्मा बनने की है तो फिर उसके जीवन से जुड़े अनुभव और भी प्रेरक व पठनीय हो जाते हैं। गांधीजी की आत्मकथा में उनका विलायत प्रवास ऐसे ही प्रेरक अनुभवों से भरा है। यहां आहार से लेकर स्त्री-पुरुष संबंध तक वे हर मोर्चे पर भीतरी संघर्ष से गुजरते हैं

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

संबंध, हिचक और आत्मबल

वि

प्रथम भाग

लायत में सार्वजनिक रूप से बोलने का अंतिम प्रयत्न मुझे विलायत छोड़ते समय करना पड़ा था। विलायत छोड़ने से पहले मैंने अन्नाहारी मित्रों को हॉबर्न भोजन-गृह में भोज के लिए निमंत्रित किया था। मैंने सोचा कि अन्नाहारी भोजन-गृहों में तो अन्नाहार मिलता ही है, पर जिस भोजनगृह में मांसाहार बनता हो वहां अन्नाहार का प्रवेश हो तो अच्छा। यह विचार करके मैंने इस गृह के व्यवस्थापक के साथ विशेष प्रबंध करके वहां भोज दिया। यह नया प्रयोग अन्नाहारियों में प्रसिद्धि पा गया। पर मेरी तो फजीहत ही हुई। भोज मात्र भोग के लिए ही होते है। पर पश्चिम में इनका विकास एक कला के रूप में किया गया है। भोज के समय विशेष आडंबर की व्यवस्था रहती है। बाजे बजते हैं, भाषण दिए जाते हैं। इस छोटे से भोज में भी यह सारा आडंबर था ही। मेरे भाषण का समय आया। मैं खड़ा हुआ। खूब सोचकर बोलने की तैयारी की थी। मैंने कुछ ही वाक्यों की रचना की थी, पर पहले वाक्य से आगे न बढ़ सका। एडीसन के विषय में पढ़ते हुए मैंने उसके लज्जाशील स्वभाव के बारे में पढ़ा था। लोकसभा (हाउस ऑफ कॉमन्स) के उसके पहले भाषण के बारे में यह कहा जाता है कि उसने ‘मेरी धारणा है’, ‘मेरी धारणा है’, ‘मेरी धारणा है’, यों तीन बार कहा, पर बाद में आगे न बढ़ सका। जिस अंग्रेजी शब्द का अर्थ ‘धारणा है’, उसका अर्थ ‘गर्भ धारण करना’ भी है। इसीलिए जब एडीसन आगे न बढ़ सका तो लोकसभा का एक मखसरा सदस्य कह बैठा कि ‘इन सज्जन ने तीन बार गर्भ धारण किया, पर ये कुछ पैदा तो कर ही न सके!’ मैंने यह कहानी सोच रखी थी और एक छोटा-सा विनोदपूर्ण भाषण करने का मेरा इरादा था। इसीलिए मैंने अपने भाषण का आरंभ इस कहानी से किया, पर हो जाता है। ‘मैं भी बोलना चाहता हूं’, इस आशय की चिट्ठी किस सभापति गाड़ी वहीं अटक गई। सोचा हुआ सब भूल गया और विनोदपूर्ण तथा गूढ़ार्थभरा को नहीं मिलती होगी? फिर उसे जो समय दिया जाता है वह उसके लिए पर्याप्त भाषण करने की कोशिश में मैं स्वयं विनोद का पात्र बन गया। अंत में ‘सज्जनों, नहीं होता। वह अधिक बोलने देने की मांग करता है और अंत में बिना अनुमति आपने मेरा निमंत्रण स्वीकार किया, इसके लिए मैं आपका आभार मानता हूं,’ के भी बोलता रहता है। इन सब लोगों के बोलने से दुनिया को लाभ होता है, इतना कहकर मुझे बैठ जाना पड़ा। ऐसा क्वचित ही पाया जाता है। पर उतने समय की बर्बादी तो स्पष्ट ही देखी मै कह सकता हूं कि मेरा यह शर्मीला स्वभाव दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर जा सकती है। इसीलिए यद्यपि आरंभ में मुझे अपनी लज्जाशीलता दुख देती थी, ही दूर हुआ। बिलकुल दूर हो गया, ऐसा तो आज भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन आज उसके स्मरण से मुझे आनंद होता है। यह लज्जाशीलता मेरी ढाल बोलते समय सोचना तो पड़ता ही है। नए समाज के सामने बोलते हुए मैं थी। उससे मुझे परिपक्व बनने का लाभ मिला। सत्य की अपनी पूजा में मुझे सकुचाता हूं। बोलने से बचा जा सके, तो जरूर बच जाता हूं। और यह स्थिति उससे सहायता मिली। तो आज नहीं है कि मित्र-मंडली के बीच बैठा होने पर कोई खास बात कर 19. असत्यरूपी विष ही सकूं अथवा बात करने की इच्छा होती हो। अपने इस शर्मीले स्वभाव के चालीस साल पहले विलायत जानेवाले हिंदुस्तानी विद्यार्थी आज की तुलना में कारण मेरी फजीहत तो हुई पर मेरा कोई नुकसान नहीं हुआ; बल्कि अब तो मैं कम थे। स्वयं विवाहित होने पर भी अपने को कुंआरा बताने का उनमें रिवाजदेख सकता हूं कि मुझे फायदा हुआ है। पहले बोलने का यह संकोच मेरे लिए सा पड़ गया था। उस देश में स्कूल या कॉलेज में पढ़नेवाले कोई विद्यार्थी दुखकर था, अब वह सुखकर हो गया है। एक बड़ा फायदा तो यह हुआ कि विवाहित नहीं होते। विवाहित के लिए विद्यार्थी जीवन नहीं होता। हमारे यहां मैंने शब्दों का मितव्यय करना सीखा। तो प्राचीन काल में विद्यार्थी ब्रह्मचारी ही कहलाता था। बाल-विवाह की प्रथा मुझे अपने विचारों पर काबू रखने की आदत सहज ही पड़ गई। मैं अपने तो इस जमाने में ही पड़ी है। कह सकते हैं कि विलायत में बाल-विवाह जैसी आपको यह प्रमाण-पत्र दे सकता हूं कि मेरी जबान या कलम से बिना तौले कोई चीज है ही नहीं। इसीलिए भारत के युवकों को यह स्वीकार करते हुए शायद ही कोई शब्द कभी निकलता है। याद नहीं पड़ती कि अपने किसी भाषण शर्म मालूम होती है कि वे विवाहित हैं। विवाह की बात छिपाने का दूसरा एक या लेख के किसी अंश के लिए मुझे कभी शर्माना या पछताना पड़ा हो। मैं कारण यह है कि अगर विवाह प्रकट हो जाए, तो जिस कुटुंब में रहते हैं उसकी अनेक संकटों से बच गया हूं और मुझे अपना बहुत-सा समय बचा लेने का जवान लड़कियों के साथ घूमने-फिरने और हंसी-मजाक करने का मौका लाभ मिला है। नहीं मिलता। यह हंसी-मजाक अधिकतर निर्दोष होता है। माता-पिता इस तरह अनुभव ने मुझे यह भी सिखाया है कि सत्य के प्रत्येक पुजारी के लिए मौन का सेवन इष्ट है। मनुष्य जाने-अनजाने भी प्रायः अतिशयोक्ति करता है, अथवा जो कहने योग्य है उसे सोचा हुआ सब भूल गया और विनोदपूर्ण तथा गूढ़ार्थभरा भाषण करने की छिपाता है या दूसरे ढंग से कहता है। ऐसे संकटों से कोशिश में मैं स्वयं विनोद का पात्र बन गया। अंत में ‘सज्जनों, आपने मेरा बचने के लिए भी मितभाषी होना आवश्यक है। कम बोलनेवाला बिना विचारे नहीं बोलेगा; वह अपने प्रत्येक निमंत्रण स्वीकार किया, इसके लिए मैं आपका आभार मानता हूं,’ इतना कहकर शब्द को तौलेगा। अक्सर मनुष्य बोलने के लिए अधीर मुझे बैठ जाना पड़ा


29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

की मित्रता पसंद भी करते हैं। वहां युवक और युवतियों के बीच ऐसे सहवास की आवश्यकता भी मानी जाती है, क्योंकि वहां तो प्रत्येक युवक को अपनी सहधर्मचारिणी स्वयं खोज लेनी होती है। अतएव विलायत में जो संबंध स्वाभाविक माना जाता है, उसे हिंदुस्तान का नवयुवक विलायत पहुंचते ही जोड़ना शुरू कर दे तो परिणाम भयंकर ही होगा। कई बार ऐसे परिणाम प्रकट भी हुए हैं। फिर भी हमारे नवयुवक इस मोहिनी माया में फंस पड़े थे। हमारे नवयुवकों ने उस सोहबत के लिए असत्याचरण पसंद किया, जो अंग्रेजों की दृष्टि से कितनी ही निर्दोष होते हुए भी हमारे लिए त्याज्य है। इस फंदे में मैं भी फंस गया। पांच-छह साल से विवाहित और एक लड़के का बाप होते हुए भी मैंने अपने आपको कुंआरा बताने में संकोच नहीं किया! पर इसका स्वाद मैंने थोड़ा ही चखा। मेरे स्वभाव ने, मेरे मौन ने मुझे बहुत कुछ बचा लिया। जब मैं बोल ही न पाता था, तो कौन लड़की ठाली बैठी थी जो मुझसे बात करती? मेरे साथ घूमने के लिए भी शायद ही कोई लड़की निकलती। मैं जितना शर्मीला था उतना ही डरपोक भी था। वेंटनर में जिस परिवार में मैं रहता था, वैसे परिवार में घर की बेटी हो तो वह, सभ्यता के विचार से ही सही, मेरे समान विदेशी को घुमाने ले जाती। सभ्यता के इस विचार से प्रेरित होकर इस घर की मालकिन की लड़की मुझे वेंटनर के आसपास की सुंदर पहाड़ियों पर ले गई। वैसे मेरी चाल कुछ धीमी नहीं थी, पर उसकी चाल मुझसे तेज थी। इसीलिए मुझे उसके पीछे घसीटना पड़ा। वह तो रास्ते भर बातों के फव्वारे उड़ाती चली, जबकि मेरे मुंह से कभी ‘हां’ या कभी ‘ना’ की आवाज भर निकती थी। बहुत हुआ तो ‘कितना सुंदर है!’ कह देता। इससे ज्यादा बोल न पाता। वह तो हवा में उड़ती जाती और मैं यह सोचता रहता कि घर कब पहुंचूंगा। फिर भी यह कहने की हिम्मत न पड़ती कि ‘चलो, अब लौट चलें।’ इतने में हम एक पहाड़ की चोटी पर जा खड़े हुए। पर अब उतरा कैसे जाए? अपने ऊंची एड़ीवाले बूटों के बावजूद बीस-पचीस साल की वह रमणी बिजली की तरह ऊपर से नीचे उतर गई, जब कि मैं शर्मिंदा होकर अभी यही सोच रहा था कि ढाल कैसे उतरा जाए! वह नीचे खड़ी हंसती है, मुझे हिम्मत बंधाती है, ऊपर आकर हाथ का सहारा देकर नीचे ले जाने को कहती है! मैं इतना पस्तहिम्मत तो कैसे बनता? मुश्किल से पैर जमाता हुआ, कहीं कुछ बैठता हुआ, मैं नीचे उतरा। उसने मजाक में 'शा..बा..श!' कहकर मुझ शर्माए हुए को और अधिक शर्मिंदा किया। इस तरह के मजाक से मुझे शर्मिंदा करने का उसे हक था। लेकिन हर जगह मैं इस तरह कैसे बच पाता? ईश्वर मेरे अंदर से असत्य का विष निकालना चाहता था। वेंटनर की तरह ब्राइटन भी समुद्र किनारे हवाखोरी का मुकाम है। एक बार मैं वहां गया था। जिस होटल में मैं ठहरा था, उसमें

साधारण खुशहाल स्थिति की एक विधवा आकर टिकी थी। यह मेरा पहले वर्ष का समय था, वेंटनर के पहले का। यहां सूची में खाने की सभी चीजों के नाम फ्रेंच भाषा में लिखे थे। मैं उन्हें समझता न था। मैं वृद्धावाली मेज पर ही बैठा था। वृद्धा ने देखा कि मैं अजनबी हूं और कुछ परेशानी में भी हूं। उसने बातचीत शुरू की, ‘तुम अजनबी से मालूम होते हो। किसी परेशानी में भी हो। अभी तक कुछ खाने को भी नहीं मंगाया है।’ मैं भोजन के पदार्थों की सूची पढ़ रहा था और परोसनेवाले से पूछने की तैयारी कर रहा था। इसीलिए मैंने उस भद्र महिला को धन्यवाद दिया और कहा, ‘यह सूची मेरी समझ में नहीं आ रही है। मैं अन्नाहारी हूं। इसीलिए यह जानना जरूरी है कि इनमें से कौन सी चीजें निर्दोष हैं।’ उस महिला ने कहा, ‘तो लो, मैं तुम्हारी मदद करती हूं और सूची समझा देती हूं। तुम्हारे खाने लायक चीजें मैं तुम्हें बता सकूंगी।’ मैंने धन्यवाद पूर्वक उसकी सहायता स्वीकार की। यहां से हमारा जो संबंध जुड़ा सो मेरे विलायत में रहने तक और उसके बाद भी बरसों तक बना रहा। उसने मुझे लंदन का अपना पता दिया और हर रविवार को अपने घर भोजन के लिए आने को न्योता। वह दूसरे अवसरों पर भी मुझे अपने यहां बुलाती थीं, प्रयत्न करके मेरा शर्मीलापन छुड़ाती थीं, जवान स्त्रियों से जान-पहचान कराती थीं और उनसे बातचीत करने को ललचाती थीं। उसके घर रहनेवाली एर स्त्री के साथ बहुत बातें करवाती थीं। कभी कभी हमें अकेला भी छोड़ देती थीं। आरंभ में मुझे यह सब बहुत कठिन लगा। बात करना सूझता न था। विनोद भी क्या किया जाए! पर वह वृद्धा मुझे प्रवीण बनाती रही। मैं तालीम पाने लगा। हर रविवार की राह देखने लगा। उस स्त्री के साथ बातें करना भी मुझे अच्छा लगने लगा। वृद्धा भी मुझे लुभाती जाती। उसे इस संग में रस आने लगा। उसने तो हम दोनों का हित ही चाहा होगा। अब मैं क्या करूं? सोचा, ‘क्या ही अच्छा होता, अगर मैं इस भद्र महिला से अपने विवाह की बात कह देता? उस दशा में क्या वह चाहती कि किसी के साथ मेरा ब्याह हो? अब भी देर नहीं हुई है। मैं सच कह दूं, तो अधिक संकट से बच जाऊंगा।’ यह सोचकर मैंने उसे एक पत्र लिखा। अपनी स्मृति के आधार पर नीचे उसका सार देता हूं: ‘जब से हम ब्राइटन में मिले, आप मुझ पर प्रेम रखती रही हैं। मां जिस तरह अपने बेटे की चिंता रखती है, उसी तरह आप मेरी चिंता रखती हैं। आप तो यह भी मानती हैं कि मुझे ब्याह करना चाहिए और इसी खयाल से आप मेरा परिचय युवतियों से कराती हैं। ऐसे संबंध के अधिक आगे बढ़ने से पहले ही मुझे आपसे यह कहना चाहिए कि मैं आपके प्रेम के योग्य नहीं हूं। मैं आपके घर आने लगा तभी मुझे आप से यह कह देना चाहिए था कि मैं विवाहित हूं। मैं जानता हूं कि हिंदुस्तान

पुस्तक अंश

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उस महिला ने कहा, ‘तो लो, मैं तुम्हारी मदद करती हूं और सूची समझा देती हूं। तुम्हारे खाने लायक चीजें मैं तुम्हें बता सकूंगी।’ मैंने धन्यवाद पूर्वक उसकी सहायता स्वीकार की। यहां से हमारा जो संबंध जुड़ा सो मेरे विलायत मे रहने तक और उसके बाद भी बरसों तक बना रहा के जो विद्यार्थी विवाहित होते हैं, वे इस देश में अपने ब्याह की बात प्रकट नहीं करते। इससे मैंने भी उस रिवाज का अनुकरण किया। पर अब मैं देखता हूं कि मुझे अपने विवाह की बात बिलकुल छिपानी नहीं चाहिए थी। मुझे साथ में यह भी कह देना चाहिए कि मेरा ब्याह बचपन में हुआ है और मेरे एक लड़का भी है। आपसे इस बात को छिपाने का अब मुझे बहुत दुख है, पर अब भगवान ने सच कह देने की हिम्मत दी है, इससे मुझे आनंद होता है। क्या आप मुझे माफ करेंगी? जिस बहन के साथ आपने मेरा परिचय कराया है, उसके साथ मैंने कोई अनुचित छूट नहीं ली, इसका विश्वास मैं आपको दिलाता हूं। मुझे इस बात का पूरा-पूरा खयाल है कि मुझे ऐसी छूट नहीं लेनी चाहिए। पर आप तो स्वाभाविक रूप से यह चाहती हैं कि किसी के साथ मेरा संबंध जुड़ जाए। आपके मन में यह बात आगे न बढ़े, इसके लिए भी मुझे आपके सामने सत्य प्रकट कर देना चाहिए। यदि इस पत्र के मिलने पर आप मुझे अपने यहां आने के लिए अयोग्य समझेंगी, तो मुझे जरा भी बुरा नहीं लगेगा। आपकी ममता के लिए तो मैं आपका चिरऋणी बन चुका हूं। मुझे स्वीकार करना चाहिए कि अगर आप मेरा त्याग न करेंगी

तो मुझे खुशी होगी। यदि अब भी मुझे अपने घर आने योग्य मानेंगी तो उसे मैं आपके प्रेम की एक नई निशानी समझूंगा और उस प्रेम के योग्य बनने का सदा प्रयत्न करता रहूंगा।’ पाठक समझ लें कि यह पत्र मैंने क्षण भर में नहीं लिख डाला था। न जाने कितने मसविदे तैयार किए होंगे। पर यह पत्र भेज कर मैंने अपने सिर का एक बड़ा बोझ उतार डाला। लगभग लौटती डाक से मुझे उस विधवा बहन का उत्तर मिला। उसने लिखा था : ‘खुले दिल से लिखा तुम्हारा पत्र मिला। हम दोनों खुश हुईं और खूब हंसी। तुमने जिस असत्य से काम लिया, वह तो क्षमा के योग्य ही है। पर तुमने अपनी सही स्थिति प्रकट कर दी यह अच्छा ही हुआ। मेरा न्योता कायम है। अगले रविवार को हम अवश्य तुम्हारी राह देखेंगी, तुम्हारे बालविवाह की बातें सुनेंगी और तुम्हारा मजाक उड़ाने का आनंद भी लूटेंगी। विश्वास रखो कि हमारी मित्रता तो जैसी थी वैसी ही रहेगी।’ इस प्रकार मैंने अपने अंदर घुसे हुए असत्य के विष को बाहर निकाल दिया और फिर अपने विवाह आदि की बात करने में मुझे कहीं घबराहट नहीं हुई। (अगले अंक में जारी)


16 खुला मंच

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

बेशक कर्म पूजा है किन्तु हास्य जीवन है। जो कोई भी अपना जीवन बहुत गंभीरता से लेता है उसे एक तुच्छ जीवन के लिए तैयार रहना चाहिए – सरदार पटेल

अभिमत

अरुण तिवारी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण कार्यकर्ता हैं

प्रकृति और गंगा

हम प्रकृति को नहीं छेड़गें ,े तो प्रकृति हमें नहीं छेडग़े ी। हम प्रकृति से जितना लें, उसी विनम्रता और मान के साथ उसे उतना और वैसा लौटाएं भी। यही साझेदारी है और मर्यादित भी। इसके बिना प्रकृति के गुस्से से बचना संभव नहीं है

देश का दुनिया में बढ़ा सम्मान

जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अावे​े, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने निजी बंगले में रात्रिभोज देंगे। ऐसा पहली बार होगा कि जापानी प्रधानमंत्री दुनिया के किसी नेता को सरकारी आवास पर नहीं, बल्कि निजी बंगले पर रात्रिभोज देंगे

प्र

धानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में देश का रुतबा लगातार बढ़ रहा है और भारत एक विश्व शक्ति बनकर उभर रहा है। प्रधानमंत्री मोदी 28 अक्टूबर को दो दिनों की जापान यात्रा पर जा रहे हैं और इस दौरान जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे उन्हें यामानाशी स्थित अपने प्राइवेट विला में निजी रात्रिभोज देंगे। ऐसा पहली बार होगा कि जापानी प्रधानमंत्री दुनिया के किसी नेता को सरकारी आवास पर नहीं, बल्कि निजी बंगले पर रात्रिभोज देंगे। यह किसी भी विदेशी नेता के लिए आयोजित किया जा रहा इस तरह का पहला स्वागत भोज होगा। यामानशी को माउंट फुजी ज्वालामुखी के लिए जाना जाता है। पीएम मोदी के नेतृत्व में भारत न केवल विश्व क्षितिज पर दमदार स्थिति में आया है, बल्कि ग्लोबल ताकत बन गया है। अमेरिका ने भारत को रणनीतिक सहयोगी देश का दर्जा दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि भारत के साथ कारोबारी रिश्तों को नाटो के सदस्य देशों के साथ कारोबार के तर्ज पर ही वरीयता दी जाएगी। इस फैसले के बाद भारत को अब अमेरिका से उच्चतम रक्षा तकनीक लाइसेंसिंग प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ेगा। विदेश नीति के तौर पर प्रधानमंत्री मोदी की उपलब्धियां आंकी जाए तो इस बात से अंदाजा लग जाएगा कि किस तरह उन्होंने इजरायल और फिलीस्तीन जैसे आपस में दुश्मन देशों के बीच संतुलन स्थापित किया। विशेष यह कि प्रधानमंत्री ने बारी-बारी दोनों ही देशों का दौरा किया और भारत की विदेश नीति के अपने स्टैंड पर कायम रहे। दोनों ही देशों ने भारत के बारे में सकारात्मक प्रतिक्रिया दी है। 10 फरवरी को जब प्रधानमंत्री ने फिलीस्तीन का दौरा किया तो ऐसा अद्भुत नजारा दिखा जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। जॉर्डन के हेलिकॉप्टर पर सवार प्रधानमंत्री मोदी फिलीस्तीन के आसमान में उड़ रहे थे और उन्हें सुरक्षा प्रदान कर रही थी इजरायल की वायुसेना। विश्व राजनीति के लिए ऐसा अनोखा काम कोई और नहीं हो सकता है।

टॉवर फोनः +91-120-2970819

(उत्तर प्रदेश)

दु

निया के शक्तिशाली कहे जाने वाले देश जिस तरह दूसरे देशों के संसाधनों से आर्थिक लूट का खेल चला रहे हैं, बिगड़ते पर्यावरण के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है। महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि धरती हमारे असीमित लालच और भोग का भार नहीं सह सकती है। हमें इस बारे में अब निर्णायक तरीके से सोचना ही होगा। आज संकट साझा है, पूरी धरती का है। अतः प्रयास भी सभी को साझे करने होंगे। समझना होगा कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक करने से नहीं, बल्कि ’वसुधैव कुटुंबकम’ की पुरातन भारतीय अवधारणा को लागू करने से ही धरती और इसकी संतानों की सांसें सुरक्षित रहेंगी। यह नहीं चलने वाला कि विकसित को साफ रखने के लिए वह अपना कचरा विकासशील देशों में भेजें। निजी जरूरतों को घटाए और भोग की जीवनशैली को बदले बगैर इस भूमिका को बदला नहीं जा सकता है। ‘प्रकृति हमारी हर जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक का भी नहीं।’ – बापू का यह संदेश इस संकट का समाधान है। यह मानवीय भी है और पर्यावरणीय भी। बात भारत की करें तो देश में गंगा का प्रदूषण एक ऐसा मुद्दा है, जिसको लेकर सरकार और समाज दोनों ही चिंतित हैं। वैसे अब यह एक स्थापित तथ्य है कि यदि गंगाजल में वर्षों रखने के बाद भी खराब न होने का विशेष रासायनिक गुण है, तो इसकी वजह है इसमें पाई जाने वाली एक अनन्य रचना। इस रचना को हम सभी ‘बैक्टीरियोफेज’ के नाम

से जानते हैं। बैक्टीरियोफेज, हिमालय में जन्मा एक ऐसा विचित्र ढांचा है कि जो न सांस लेता है, न भोजन करता है और न ही अपनी किसी प्रतिकृति का निर्माण करता है। बैक्टीरियोफेज, अपने मेजबान में घुसकर क्रिया करता है और उसकी नायाब मेजबान है गंगा की सिल्ट। गंगा में मूल उत्कृष्ट किस्म की सिल्ट में बैक्टीरिया को नाश करने का खास गुण है। गंगा की सिल्ट का यह गुण भी खास है कि इसके कारण, गंगाजल में से कॉपर और क्रोमियम स्रावित होकर अलग हो जाते हैं। अब यदि गंगा की सिल्ट और बैक्टीरियोफेजेज को बांधों अथवा बैराजों में बांधकर रोक दिया जाए और उम्मीद की जाए कि आगे के प्रवाह में वर्षों खराब न होने वाला गुण बचा रहे, तो क्या यह संभव है? मछलियां, नदियों को निर्मल करने वाले प्रकृति प्रदत्त तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं। धारा के विपरीत चलकर अंडे देने वाली माहसीर और हिल्सा जैसी खास मछलियों के मार्ग में क्रमशः चीला और फरक्का जैसे बांध-बैराज खड़े करके हम अपेक्षा करें कि वे नदी निर्मलता के अपने कार्य को जारी रखेंगी, यह सही नहीं है। हैदराबाद स्थित ‘नीरी’ को पर्यावरण इंजीनियरिंग के क्षेत्र में शोध करने वाला सबसे अग्रणी शासकीय संस्थान माना जाता है। ‘नीरी’ द्वारा जुलाई, 2011 में जारी एक रिपोर्ट स्थापित करती है कि बैक्टीरियोफेज की कुल मात्रा का 95 प्रतिशत हिस्सा, टिहरी बांध की झील में बैठी सिल्ट

यदि गंगा की सिल्ट और बैक्टीरियोफेजज े को बांधों अथवा बैराजों में बांधकर रोक दिया जाए और उम्मीद की जाए कि आगे के प्रवाह में वर्षों खराब न होने वाला गुण बचा रहे, तो क्या यह संभव है


29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018 के साथ ही वहीं बैठ जाता है। मात्र पांच प्रतिशत बैक्टीरियोफेज ही टिहरी बाँध के आगे जा पाते हैं। सभी को मालूम है कि गंगा में ग्लेशियरों से आने वाले कुल जल की लगभग 90 प्रतिशत मात्रा, बैराज में बंधकर हरिद्वार से आगे नहीं जा पाती है। शेष 10 प्रतिशत को बिजनौर और नरोरा बैराजों से निकलने वाली नहरें पी जाती हैं। इस तरह गंगा के मूल से आए जल, बैक्टीरियोफेज और सिल्ट की बड़ी मात्रा बांध-बैराजों में फंसकर पीछे ही रह जाती है। प्रख्यात नदी वैज्ञानिक स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद दुखी थे कि गंगोत्री से आई एक बूंद भी प्रयागराज (इलाहाबाद) तक नहीं पहुंचती। परिणामस्वरूप, इलाहाबाद की गंगा में इसके जल का मौलिक मूल गुण विद्यमान नहीं होता। यही कारण है कि इलाहाबाद का गंगाजल, गर्मी आते-आते अजीब किस्म के कसैलेपन से भर उठता है। निस्संदेह, इस कसैलेपन में हमारे मल, उद्योगों के अवजल, ठोस कचरे तथा कृषि रसायनों में उपस्थित विष का भी योगदान होता है। लेकिन सबसे बड़ी वजह तो गंगाजल को मौलिक गुण प्रदान करने वाले प्रवाह, सिल्ट और बैक्टीरियोफेज की अनुपस्थिति ही है। साफ है कि यदि गंगाजल के विशेष मौलिक गुण को बचाना है, तो गंगा उद्गम से निकले जल को सागर से गंगा के संगम की स्थली- गंगासागर तक पहुंचाना होगा; गंगा की त्रिआयामी अविरलता सुनिश्चित करनी होगी। त्रिआयामी अविरलता का मतलब है, गंगा प्रवाह और इसकी भूमि को लंबाई, चौड़ाई और गहराई में अप्राकृतिक छेड़छाड़ से मुक्त रखना। इस त्रिआयामी अविरलता को सुनिश्चित किए बगैर, गंगा को निर्मल करने का हर प्रयास विफल होगा। यह सर्वविदित तथ्य है कि गंगा में प्रवाहित होने वाले जल की कुल मात्रा में ग्लेशियरों का योगदान 35-40 प्रतिशत ही है। शेष 65-60 प्रतिशत मात्रा सहायक नदियों और भूजल प्रवाहों की देन है। सहायक नदियों और भूजल प्रवाहों में जल की मात्रा बढ़ाने के प्रयास से ही गंगा की स्वच्छता और अविरलता संभव है। गंगा को लेकर हम जिस तरह की चुनौती और संकट से दो-चार हो रहे हैं वह प्रकृति के साथ हमारे सलूक को लेकर एक बड़ी सीख भी है। यदि हम सचमुच प्रकृति के गुलाम नहीं बनना चाहते, तो जरूरी है कि प्रकृति को अपना गुलाम बनाने का हठ और दंभ छोड़ें। कुदरत को जीत लेने में लगी प्रयोगशालाओं को प्रकृति से प्राप्त सौगातों को और अधिक समृद्ध, सेहतमंद व संरक्षित करने वाली धाय मां में बदल दें। नदियों को तोड़ने, मरोड़ने और बांधने की कोशिश न करें। पानी, हवा और जंगलों को नियोजित करने के बजाय प्राकृतिक रहने दें। बाढ़ और सुखाड़ के साथ जीना सीखें। जीवनशैली, उद्योग, विकास, अर्थव्यवस्था आदि के नाम पर जो कुछ भी करना चाहते हैं करें, लेकिन प्रकृति के चक्र में कोई अवरोध या विकार पैदा किए बगैर। उसमें असंतुलन पैदा करने की मनाही है। हम प्रकृति को नहीं छेड़ेंगे, तो प्रकृति हमें नहीं छेड़ेगी। हम प्रकृति से जितना लें, उसी विनम्रता और मान के साथ उसे उतना और वैसा लौटाएं भी। यही साझेदारी है और मर्यादित भी। इसके बिना प्रकृति के गुस्से से बचना संभव नहीं है।

माता अमृतानंदमयी देवी आध्यात्मिक गुरु

करुणा की गलत व्याख्या

rat.com sulabhswachhbha

स्वच्छता

यूएन तक पहुंचा सुलभ का स्वच्छता आंदोलन

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ल​ीक से परे

हर युग में साहसी महिलाओं का अस्तित्व रहा है, जो क्रांति की शुरुआत करने के लिए पुरुष समाज द्वारा बनाए गए पिंजरों को तोड़कर बाहर आई हैं

रतें कमजोर नहीं हैं और उन्हें कमजोर मानना भी नहीं चाहिए। उनकी स्वाभाविक करुणा और सहानुभूति की अक्सर गलत तरीके से व्याख्या की जाती है और इसे उनकी कमजोरी समझा जाता है। अगर औरत अपने भीतर की ताकत को समेट ले तो वह एक पुरुष से भी ज्यादा है। अगर हम अपनी आंतरिक शक्ति को अपने पक्ष में कर लें तो यह संसार स्वर्ग बन सकता है। युद्ध, संघर्ष और आतंकवाद समाप्त हो जाएगा। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्यार और करुणा जीवन का एक अभिन्न अंग बन जाएगा। हर युग में साहसी महिलाओं का अस्तित्व रहा है, जो क्रांति की शुरुआत करने के लिए पुरुष समाज द्वारा बनाए गए पिंजरों को तोड़कर बाहर आई हैं। भारत में ही कई साहसी महिलाएं रह चुकी हैं, जैसे- रानी पद्मावती, हाथी रानी, मीराबाई और झांसी की रानी। इनमें से कोई भी महिला कमजोर नहीं थी। ये सभी वीरता, शौर्यता और पवित्रता की अवतार थीं। इनके समान ही कई नारियों का अस्तित्व दूसरे देशों में भी रहा है। उदाहरण के तौर पर फ्लोरेंस नाइटिंगेल, जॉन ऑफ आर्क और हेरिएट टबमेन का नाम लिया जा सकता है। वास्तव में पुरुष को खुद को न तो रक्षक और न ही सजा देने वाली की स्थिति में रखना चाहिए। उनका साथ औरतों के प्रति तत्परता और ग्रहणशीलता का होना चाहिए, जिससे महिलाओं

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खुला मंच

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खेल

दररद्रता और दद्द के बीच सफलता की इबारत

गांतबया

राजनीततक अससथिरता से स्वच्छता अप्रभात्वत

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डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/22

/2016/71597 आरएनआई नंबर-DELHIN

बदलते भारत का साप्ाति

्वर्द-2 | अंक-45 |22 -

` 10/28 अक्टूबर 2018 मूलय

संयुक्त राष्ट्र

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शांति से लेकर स्वच्छ

अंतरराष्ट्रीय सतर और सेित की तचंता के तलए शांतत से लेकर स्वच्छता सफलता के ने स्वा्दतिक पिल के साथि पर अगर तकसी एक संसथिा िै संयुक्त राष्ट्र आखयान तलखे िैं, तो ्वि

को समाज की मुख्यधारा में अगुआ की भूमिका मिल सके। कई लोग पूछते हैं, ‘इस बात के लिए पुरुषों में अहंकार कैसे आया?’ वेदांत के अनुसार इसका मुख्य कारण माया हो सकता है, लेकिन केवल आधारभूत स्तर पर। इसका कोई दूसरा स्रोत भी हो सकता है। प्राचीन समय में मानव जाति जंगलों में, गुफाओं में या पेड़ पर घर बनाकर रहते थे। चूंकि पुरुष शारीरिक रूप से महिलाओं से अधिक बलवान थे, इसीलिए शिकार और जंगली जानवरों से परिवार को बचाने की जिम्मेदारी उनकी होती थी। महिलाएं मुख्य रूप से घर पर रहकर बच्चों की देखभाल और घर के काम-काज करती थीं। पुरुष भोजन और पहनने के लिए जानवर की खाल घर लाते थे। इस अनुसार उन्होंने खुद ही यह विचारधारा विकसित कर ली कि जीविका के लिए औरतें उनपर निर्भर हैं। इस तरह से औरतों ने भी पुरुषों को अपने रक्षक की तरह देखना शुरू कर दिया।

शायद इसी तरह इस अहंकार का विकास हुआ होगा। एक बार एक अफ्रीकी देश में युद्ध की घटना हुई। इस युद्ध में अनगिनत पुरुष मारे गए। औरतों की आबादी 70 प्रतिशत की हो गई, लेकिन इस नुकसान से उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं खोई। वो मिलकर एक हो गईं। व्यक्तिगत स्तर पर और समूह में उन्होंने छोटा-छोटा व्यापार करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने बच्चों और अनाथ बच्चों दोनों का पालनपोषण करना शुरू कर दिया। जल्द ही उन्होंने खुद की स्थिति को सशक्त और बेहतर पाया। यह प्रमाणित करता है कि महिलाएं विनाश को पलट सकती हैं और गंभीरता के साथ विचार कर एक शक्ति बन सकती हैं। इस तरह की घटना के कारण ही लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं, ‘अगर औरतें शासन करती हैं तो कई लड़ाइयों और दंगों को टाला जा सकता है।’ अगर औरतें एकजुट हों जाएं तो एक साथ मिलकर वो कई आश्चर्यजनक बदलाव इस समाज में ला सकती हैं। लेकिन पुरुषों को भी उन्हें एक साथ लाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। समाज को बचाने के लिए औरतों और पुरुषों को अपना हाथ मिलाना होगा, केवल तभी आने वाली पीढ़ी एक बड़ी आपदा से बच पाएगी। अगर वो हाथ मिलाते हैं तो इससे समाज और दुनिया की तरक्की होगी। हम सभी को इस लक्ष्य को पाने के लिए काम करना चाहिए।

कुछ कर गुजरने की प्रेरणा पूरी दुनिया के लोगों की जिंदगी सुलभ बनाने के लिए काम कर रहे संयुक्त राष्ट्र पर केंद्रित पिछले अंक का आलेख ‘शांति से लेकर स्वच्छता तक’ बहुत ही तथ्यपरक और जानकारियों से भरपूर लगा। साथ ही स्वच्छता के क्षेत्र में भारत की प्रगति को संयुक्त राष्ट्र ने किस तरह सराहा है, यह जानकर भी सुखद आश्चर्य हुआ। अब इस पूरी विकास प्रक्रिया को देश के बहुत ही दूर-दराज के क्षेत्रों में पहुंचाने की जरुरत है।

क्रांतिकारी लेखन साहित्य के क्षेत्र में बुकर और नोबेल पुरस्कार की क्या हैसियत है, ये दुनिया जानती है। अब अगर किसी लेखक को ये दोनों पुरस्कार मिले हों, तो वह लेखक कितने आला दर्जे का होगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। क्रांतिकारी लेखन के अगुआ वीएस नायपॉल ऐसे ही लेखक थे। उनकी कृतियां सिर्फ किताब भर नहीं हैं, बल्कि वह शब्द हैं जिनमें क्रांतिकारी वि‍चारों का सागर समाया हो। ‘नए सभ्यता विमर्श की लेखनी’ की विषय वस्तु पढ़कर अनन्य प्रसन्नता का अहसास हुआ। ‘इनए फ्री स्टेट’, ‘हाफ ए लाइफ’ और ‘मैजिक सीड्स’ जैसी किताबों ने कइयों की दुनिया बदली है।

राम विलास, मध्य प्रदेश

गुरिंदर चड्ढा, पंजाब


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फोटो फीचर

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

वाइल्ड-लाइफ फोटोग्राफर अॉफ द ईयर नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम ने विश्व प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में शामिल हुई 45 हजार फोटोग्राफरों की प्रविष्टियों में से विभिन्न श्रेणियों में बेहतरीन फोटो का चुनाव किया

साभार : बीबीसी

इस विश्व प्रसिद्ध प्रतियोगिता के विजेता रहे डच फोटोग्राफर मार्शल वेन ओस्टेन, उनकी फोटो का शीर्षक था- ‘द गोल्डन कपल’

अंडरवाटर : माइकल पैट्रिक, अमेरिका (‘ओ’नील की नाइट फ्लाइट’)

एनिमल पोर्ट्रेट एंड ग्रैंड टाइटल: मार्शल वेन ओस्टेन, नीदरलैंडस, (‘द गोल्डन कपल’)

15-17 आयुवर्ग : स्की मीकर, दक्षिण अफ्रीका (‘लाउंजिंग लेपर्ड)’

पक्षी : थॉमस पेशाक, जर्मनी/दक्षिण अफ्रीका (‘ब्ल्डथ्रस्टी’)

उभयचर और सरीसृप : डेविड हेरासिम्टस्चुक, अमेरिका (‘हेलबेंट’)


29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

उदीयमान प्रतिभा : मिशेल डॉल्टरमोल्ट, बेल्जियम (‘ड्रीम’)

पौधे और कवक : जेन ग्यूटॉन, जर्मनी/अमेरिका (‘डेजर्ट’)

10 वर्ष से कम आयुवर्ग : अर्शदीप सिंह, भारत (पाइप आउल्स)

श्याम-श्वेत : जेन वेन डेर ग्रीफ (नीदरलैंड्स)

पृथ्वी का पर्यावरण : ओर्लेंडो फर्नांडीज, स्पेन (विंड्सवीप)

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फोटो फीचर

स्तनधारी : रिकार्डो मोंटेरो, स्पेन (‘कुहिरवा मॉर्न्स हर बेबी’)

अशक्त: डॉर्जिनिया स्टेटलर, अॉस्ट्रेलिया (मड-रोलिंग मड डाउबर)

वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर पोर्टफोलियो : जेवियर गोंजाल्ज, स्पेन (मदर डिफेंडर) विनिंग फोटो स्टोरी : अल्जेंडरो प्रिटो , मेक्सिको (सिग्नेचर ट्री)

पर्यावरण में पशु : क्रिस्टोबेल सेर्रेनो, स्पेन (बेड अॉफ सील्स)


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मिसाल

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

चीन में योग सिखा रहा है यूपी के बुंदेलखंड का मौड़ा

कंप्यूटर में डॉक्टरेट करने के लिए सोहन चीन पहुंचे, जहां उन्होंने नौकरी के साथ योग की कक्षाएं लेनी शुरू कीं। समय के साथ हालात बदलते गए और आज उनकी जिंदगी के लिए योग ही सब कुछ है

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संदीप पौराणिक

रत करत अभ्यास के जड़ मति होत सुजान, रसिरि आवत जात है, सिल पर होत निशान' रहीम ने भले ही यह दोहा दशकों पहले लिखा हो, मगर बुंदेलखंड के 'मौड़ा' (लड़का) सोहन सिंह पर एकदम सटीक बैठता है, क्योंकि उन्होंने पढ़ाई तो की है कंप्यूटर की, मगर अभ्यास ने उन्हें चीन में 'योगगुरु' के तौर पर पहचान दिलाई है। सोहन सिंह मूलरूप से बुंदेलखंड के ललितपुर जिले के विरधा विकास खंड के बरखेड़ा गांव के रहने वाले हैं, किसी दौर में उनके लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम आसान नहीं था। उन्होंने कंप्यूटर की पढ़ाई की और इंदौर फिर थाईलैंड में जाकर नौकरी की। उनके जीवन में योग रचा-बसा था और वे नया कुछ करना चाहते थे । सोहन सिंह ने कहा कि जब वे सागर के हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे तब एक शिक्षक ने योग को लेकर मार्ग दर्शन किया, जो उनके जीवन का आधार बन गया। उसके बाद उनका योग पर ध्यान गया, पढ़ाई करने के बाद उनके लिए कंप्यूटर की कंपनी में नौकरी करना प्राथमिकता थी और योगा दूसरे क्रम पर था। वे रात में नौकरी करते और दिन में लाेगों को योग सिखाने का काम करते थे। वक्त गुजरने के साथ वे चीन पहुंच गए, यहां उन्होंने योग को पहली प्राथमिकता दी और कंप्यूटर की नौकरी को द्वितीय। ललितपुर जिले के गरीब परिवार में जन्मे और कंप्यूटर में पीएचडी करने के बाद चीन में 'योग गुरु' के तौर पर पहचान बना चुके सोहन सिंह का कहना है कि चीन में लोग सेहत के प्रति ज्यादा सजग हैं। उन्होंने कहा कि यही कारण है कि वहां किशोरावस्था और युवावस्था से ही लोग योग करने लगते हैं। योग ही उनकी तंदुरुस्त सेहत का राज है। भारत प्रवास पर आए सोहन सिंह ने कहा, ‘भारत में लोग योग मजबूरी में करते हैं। वे उम्र बढ़ने और बीमारी होने पर योग की तरफ बढ़ते हैं, जबकि चीन में लोग तब योग करते हैं, जब वे पूरी तरह स्वस्थ्य होते हैं। यही कारण है कि वहां योग करने वालों में किशोर और युवाओं की संख्या ज्यादा है। चीनी लोगों की सेहत का राज ही योग है।’ एक सवाल के जवाब में सिंह ने कहा कि सिर्फ कपाल भाथी, प्राणायाम, भ्रामरी ही योग नहीं है, योग की ये क्रियाएं हैं, योग तो विस्तृत हैं, विशाल है, विज्ञान है, जो इंसान के जीवन को बदलने का

योग गुरु ने कहा, ‘योग जीवन को जीने की कला है, भारत में लोग योग तब करते हैं, जब बीमार हो जाते हैं, मगर चीन में लोग योग तब करते हैं, जब वे जवान होते हैं, स्वस्थ होते हैं। 15 साल की उम्र में बच्चे को योग कराने लगें तो वह वही बन जाएगा , जो वह बनना चाहता है काम करता है। हमारे देश में क्रियाओं को ही योग के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। हमारे देश में लोग टीवी पर खेल की तरह योग को देखते हैं, मगर चीन में लोग योग करते हैं। योग देखने नहीं, करने की विधा है। योग की खूबियों का जिक्र करते हुए योग गुरु ने कहा, ‘योग जीवन को जीने की कला है, भारत में लोग योग तब करते हैं, जब बीमार हो जाते हैं, मगर चीन में लोग योग तब करते हैं, जब वे जवान होते हैं, स्वस्थ होते हैं। 15 साल की उम्र में बच्चे को योग कराने लगें तो वह वही बन जाएगा, जो वह

बनना चाहता है, यह क्षमता है योग में। समाज और देश के प्रति इतना सम्मान पैदा हो जाएगा कि वह अच्छा नागरिक, अच्छा बेटा और अच्छा पति-पत्नी हो जाएगा।’ अपनी भारत यात्रा के बारे में उन्होंने कहा कि भारत के युवाओं को वह योग से जोड़ना चाहते हैं। चूंकि युवाओं को लगता है कि योग बोरिंग विषय है, इसीलिए उन्होंने ग्वालियर की आईटीएम यूनिवर्सिटी

के साथ समझौता किया है। आगे चलकर वह देश के अन्य हिस्सों में भी युवाओं को जोड़ने के प्रयास जारी रखेंगे। अपने जीवन के अनुभवों के बारे में सोहन गुरु ने कहा कि उनके लिए पढ़ाई और पेट भरने का इंतजाम एक बड़ी चुनौती थी, मगर योग ने उनके जीवन को बदल दिया। उन्होंने कंप्यूटर की पढ़ाई की है, मगर योग उनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा है। वह ललितपुर के बरखेड़ा गांव के गरीब परिवार की समस्याओं से गुजरते हुए वर्तमान में चीन में सोहन योगा संस्थान के प्रमुख हैं। वह नौ क्लब चल रहे हैं, हजारों लोगों को योग का पाठ पढ़ा रहे हैं। यह सब योग विधा को जीवन में उतारने से संभव हुआ है। कंप्यूटर में डॉक्टरेट करने के लिए सोहन चीन पहुंचे, जहां उन्होंने नौकरी के साथ योग की कक्षाएं लेनी शुरू कीं। समय के साथ हालात बदलते गए और आज उनकी जिंदगी के लिए योग ही सब कुछ है। वह कहते हैं कि योग से इंसान की जिंदगी को बदला जा सकता है, चित्त तो स्थिर होता ही है, व्यक्ति स्वस्थ भी रहता है। वह चीन के अलावा भारत में भी लोगों को प्रशिक्षण देते हैं। उनके लिए योग प्राथमिकता है, पैसा मायने नहीं रखता।


29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

विज्ञान

चीन ने बनाया 'अपना चांद'!

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चीन के अखबार पीपल्स डेली के अनुसार चेंगडु इलाके में स्थित एक निजी एयरोस्पेस संस्थान में अधिकारियों ने कहा कि वे साल 2020 तक पृथ्वी की कक्षा में एक चमकदार सेटेलाइट भेजने की योजना बना रहे हैं, जिससे स्ट्रीट लाइट लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी

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दहवीं का चांद और चांदनी रात की बात हम अक्सर फिल्मी गीतों में सुनते रहते हैं। कवि, लेखक और शायर पूरे चांद के इंतजार पर अपनी रचनाएं रच गए, लेकिन अब चीन के आसमान पर हर रात पूरा चांद दिखने का दावा किया गया है। चीनी कंपनी ने घोषणा की है कि वो एक नकली चांद को चीन के आसमान पर भेजने की योजना बना रही है, जिससे रात में चीन का आसमान चांदनी रात से गुलजार रहेगा। चीन के अखबार पीपल्स डेली के अनुसार चेंगडु इलाके में स्थित एक निजी एयरोस्पेस संस्थान में अधिकारियों ने कहा कि वे साल 2020 तक पृथ्वी की कक्षा में एक चमकदार सेटेलाइट भेजने की योजना बना रहे हैं, जिससे स्ट्रीट लाइट लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इस खबर के सामने आते ही वैज्ञानिकों के बीच कौतुहल और संदेह दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आने लगीं। अभी तक इस योजना के बारे में बहुत अधिक जानकारियां सार्वजनिक नहीं हुई हैं और जितनी भी जानकारी सामने आई है उन पर भी कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। सबसे पहले पिछले सप्ताह पीपल्स डेली ने इस खबर को प्रकाशित किया था। इसमें उसने वु चेनफेंग का बयान प्रकाशित किया था। वु चेनफेंग चेंगडु एयरोस्पेस साइंस इंस्टीट्यूट में माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक सिस्टम रिसर्च इंस्टीट्यूट के चेयरमैन हैं।

वु ने कहा था कि इस योजना पर पिछले कुछ सालों से काम चल रहा है और अब यह अपने अंतिम चरण में है। साल 2020 तक इस सेटेलाइट को भेजने की योजना है। चाइना डेली ने वु के हवाले से लिखा है कि साल 2022 तक चीन ऐसे तीन और सेटेलाइट भेज सकता है। हालांकि किसी भी रिपोर्ट में यह नहीं बताया गया है कि क्या इस योजना के पीछे सरकारी हाथ है या नहीं। चाइना डेली के अनुसार यह नकली चांद एक शीशे की तरह काम करेगा, जो सूर्य की रौशनी को प्रतिबिंबित कर धरती पर भेजेगा। यह धरती से 500 किलोमीटर की धुरी पर स्थित होगा, लगभग इतनी ही दूरी पर अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन भी स्थित है। इसके मुकाबले धरती के असली चांद की दूरी तीन लाख 80 हजार किलोमीटर है। रिपोर्टों में यह नहीं बताया गया है कि यह चांद दिखने में कैसा होगा, लेकिन वु के हवाले से इतना जरूर बताया गया है कि इस चांद की रौशनी 10 किलोमीटर से 80 किलोमीटर के बीच फैली होगी और यह असली चांद के मुकाबले आठ गुना अधिक रौशनी देगा। वु के अनुसार इस नकली चांद की रौशनी को नियंत्रित भी किया जा सकेगा। चेंगडु एयरोस्पेस के अधिकारियों की मानें तो इस नकली चांद का मकसद पैसा बचाना है। यह बात सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन अधिकारियों का कहना है कि जितना खर्च स्ट्रीट लाइट पर आता है उसकी तुलना में यह चांद सस्ता पड़ेगा।

चाइना डेली ने वु के हवाले से लिखा है कि नकली चांद से 50 वर्ग किलोमीटर के इलाके में रौशनी करने से हर साल बिजली में आने वाले खर्च में 1.2 अरब युआन यानी 17.3 करोड़ डॉलर बचाए जा सकते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा जैसे भूकंप या बाढ़ जैसे हालात में जब ब्लैक आउट हो जाता है, उस समय भी यह नकली चांद रौशनी दे सकता है। ग्लास्गो यूनिवर्सिटी में स्पेस सिस्टम इंजीनियरिंग के प्रवक्ता डॉक्टर मैटियो सिरिओटी ने बताया कि इस योजना को एक निवेश के तौर पर देखा जा रहा है। उन्होंने कहा, 'रात के वक़्त बिजली पर बहुत अधिक खर्च होता है। ऐसे में अगर कोई चीज़ 15 सालों तक एकमुश्त खर्चे पर मुफ्त बिजली देने लगे तो यह आने वाले वक्त में काफी सस्ता पड़ेगा।' डॉक्टर सिरिओटी मानते हैं कि वैज्ञानिक तौर पर ऐसा करना मुमकिन है। लेकिन इसके सामने समस्या है इसकी दूरी। इस नकली चांद को चेंगडु इलाके के ऊपर ऐसी जगह स्थापित किया जाएगा, जिससे इसकी रौशनी इसी छोटे से इलाके को मिल सके। इस तरह पूरी धरती के मुकाबले यह बहुत ही कम इलाका है। इसका मतलब यह हुआ कि इसे एक स्थिर कक्षा की ज़रूरत भी होगी जो धरती से 37 हज़ार किलोमीटर दूर है। डॉक्टर सिरिओटी कहते हैं, 'सबसे बड़ी समस्या यह है कि एक ख़ास इलाक़े में रौशनी करने के लिए इस सेटेलाइट को बिलकुल निश्चित जगह पर रखना होगा।' 'अगर आप 10 किलोमीटर तक के

इलाके को रौशन करना चाह रहे हैं, लेकिन आपकी दिशा में एक डिग्री के 100वें हिस्से की भी चूक हुई तो नकली चांद की रौशनी किसी दूसरे इलाके में पहुंच जाएगी।' हार्बिन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के निदेशक कैंग वीमिन ने पीपल्स डेली से कहा है कि यह नकली चांद धुंधला सा दिखेगा और जानवरों के दैनिक कामों पर इसका असर नहीं पड़ेगा। लेकिन चीन में सोशल मीडिया पर इस चांद के बारे में चर्चाएं और चिंताएं गरम हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस चांद की वजह से रात को जागने वाले जानवरों पर असर पड़ेगा। वहीं कुछ लोग मानते हैं कि चीन में पहले से ही रौशनी से जुड़ा प्रदूषण है और इस चांद से इसमें वृद्धि होगी। इंटरनेशनल डार्क स्काई एसोसिएशन में पब्लिक पॉलिसी के निदेशक जॉन बैरेनटीन ने बताया, 'इस चांद की वजह से निश्चित तौर पर रात के वक्त रौशनी बढ़ेगी जिस वजह से पहले से ही रौशनी से जुड़े प्रदूषण का सामना कर रहे चेंगडु वासियों को और तकलीफ होगी। यहां रहने वाले लोग पहले ही रात के वक्त गैरजरूरी रौशनी से परेशान हैं।' डॉक्टर सिरिओटी ने कहा कि अगर इस नकली चांद की रौशनी बहुत अधिक होगी तो इसका असर प्रकृति पर पड़ेगा और जानवर इसका शिकार बनेंगे। वे कहते हैं, 'इसके उलट अगर इसकी रौशनी बहुत ज्यादा नहीं होती है तो सवाल उठेगा कि आखिर इसे लगाने की जरूरत ही क्या है?' (एजेंसी)


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स्वच्छता

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

नामीबिया

स्वच्छता दायरे में अब तक इस देश की तकरीबन 50 फीसदी आबादी ही आ पाई है। यानी स्वच्छता के पूर्ण लक्ष्य से यह देश अभी आधी दूरी पर खड़ा है खास बातें दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका में उपसहारा देश है नामीबिया नामीबिया पृथ्वी पर सबसे कम घनी आबादी वाला देश है भूमिगत जल का नया स्रोत मिलने से जल संकट दूर होने की आशा

नां

सूखा-स्वच्छता के संकट से जूझता देश एसएसबी ब्यूरो

बिया या नामीबिया, नाम कोई भी लें पर इस दक्षिण अफ्रीकी देश की पूरी दुनिया में एक ही पहचान है- रेत और गरीबी। दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका के इस उप-सहारा देश की राजधानी विंडहॉक है, जहां थोड़ी आधुनिकता भले दिख जाए पर यह शहर भी अपने स्लम इलाकों में अपने देश की स्थिति का सच अच्छे से बयां करता है। नामीबिया अपने संविधान में पर्यावरण संरक्षण

को शामिल करने वाला दुनिया का पहला देश है, पर दुर्भाग्य से सीधे पर्यावरण से ज्यादा संकट यहां पानी और स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाओं को लेकर है। लिहाजा, जिन हालात में लोग रह रहे हैं, वे खासे अस्वास्थ्यकर हैं। यह संकट यहां इस कारण ज्यादा जानलेवा नहीं क्योंकि नामीबिया पृथ्वी पर सबसे कम घनी आबादी वाला देश है।

स्वच्छता लक्ष्य से कोसों दूर

बात स्वच्छता की करें तो नामीबिया इसमें काफी

पिछड़ा हुआ है। ऐसा यहां दो वजहों से रहा है। पहली वजह है पानी की कमी और दूसरी है गरीबी। स्वच्छता दायरे में अब तक इस देश की तकरीबन 50 फीसदी आबादी ही आ पाई है। यानी स्वच्छता के पूर्ण लक्ष्य से यह देश अभी आधी दूरी पर खड़ा है। जिस 50 फीसदी आबादी तक यहां अब भी उन्नत और सुरक्षित शौच के साथ सुरक्षित पेयजल की सुविधा पहुंचनी है, उसके लिए यहां की सरकार तो प्रयास कर ही रही है। साथ ही इसके लिए यूनिसेफ सहित विश्व की कई संस्थाएं मदद कर


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स्वच्छता

रही हैं। लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवनस्तर को ऊपर उठाने के लिए कुछ संपन्न देश भी मदद कर रहे हैं।

सबसे पुराना रेगिस्तान

नामीबिया का नाम नामीब रेगिस्तान पर पड़ा है। यह रेगिस्तान दुनिया का सबसे पुराना रेगिस्तान है। वैज्ञानिकों की मानें तो नामीब रेगिस्तान दस लाख से अधिक वर्षों से रेगिस्तान में रेत अस्तित्व में है। नामीबिया के पड़ोसी देश हैं- अंगोला, बोत्सवाना और दक्षिण अफ्रीका। देश का पश्चिमी भाग कालाहारी मरुस्थल के क्षेत्रों में से एक है। यहां के मूल वासियों में बुशमैन, दामाका जातियों का नाम सर्वप्रमुख है। जर्मनी ने 1884 में इसको अपना उपनिवेश बनाया था और प्रथम विश्युद्ध के बाद यह दक्षिण अफ्रीका का क्षेत्र बन गया।

पार्क और उल्का

यहां स्थित एटोशा नेशनल पार्क अफ्रीका के सबसे अच्छे पार्कों में से एक है। यह आकार और वन्य जीवन की विविधता के लिए जाना जाता है अफ्रीका के सबसे ऊंचे हाथियों, लुप्तप्राय काले राइनो और 91 अन्य स्तनपायी प्रजातियां इनमें शामिल हैं। गिबोन उल्काशोथ बौछार पृथ्वी पर सबसे बड़ा उल्का बौछार है। यह प्रागैतिहासिक काल में हुआ था, लेकिन केंद्रीय नामीबिया में 100 किलोमीटर की दूरी पर एक बड़े क्षेत्र को कवर किया था। यह एक लोहे का उल्कापात था। नामीबिया, सैन या बुशमैन के शुरुआती निवासियों ने हथियारों और उपकरणों को बनाने के लिए उल्का की सामग्री का इस्तेमाल किया। उल्का के कुछ अवशेष नामीबिया की राजधानी विंडहोक शहर के केंद्र में प्रदर्शित होते हैं।

प्यास बुझने की उम्मीद

करीब छह साल पहले प्यास बुझाने के लिए संघर्ष करते इस देश के लिए अच्छी खबर आई। नामीबिया की स्थिति को लेकर फिक्रमंद बाकी दुनिया के लिए भी यह बड़ी खबर थी कि अफ्रीकी रेगिस्तान सहारा के दक्षिणी इलाके में स्थित इस सूखाग्रस्त देश में भूमिगत जल का एक नया स्रोत पाया गया है। माना जा रहा है कि इस खोज से नामीबिया के विकास पर असरदायक सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। अनुमानों के अनुसार वर्तमान खपत के आधार पर ये जल भंडार नामीबिया के उत्तरी इलाके की अगले 400 साल तक की पानी की जरूरत को पूरा कर सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि खोजे गए भंडार का पानी कम से कम दस हजार साल पुराना है, हालांकि ये अभी भी वर्तमान स्रोतों से मिले पानी से ज्यादा शुद्ध है। अधिकारियों को अब चिंता ये सता रही है कि कहीं पानी की जानकारी पाकर लोग अनधिकृत खुदाई न शुरू कर दें। उत्तरी नामीबिया के इलाकों में जगह-जगह पानी के स्रोतों की अधिकता है या कुछ जगह बिल्कुल ही नहीं हैं। इस इलाके में रहने वाले आठ लाख लोग अपने पीने के पानी की जरूरत की पूर्ति के लिए चालीस साल पुरानी एक नहर पर निर्भर

नामीबिया में खोजे गए नए भूमिगत जल भंडार का पानी कम से कम दस हजार साल पुराना है। हालांकि ये अभी भी वर्तमान स्रोतों से मिले पानी से ज्यादा शुद्ध है। अधिकारियों को अब चिंता ये सता रही है कि कहीं पानी की जानकारी पाकर लोग अनाधिकृत खुदाई न शुरू कर दें हैं। पिछले लगभग एक दशक से नामीबिया की सरकार इस समस्या से निबटने के लिए जर्मनी और यूरोपीय संघ के वैज्ञानिकों की मदद ले रही है। एक अरसे तक मेहनत के बाद वैज्ञानिकों के दल ने इस जलाशय ओहैंगवेना-2 को खोज निकाला जो अंगोला और नामीबिया के सीमावर्ती इलाकों

पर स्थित है। नामीबिया की सीमा में जलाशय का हिस्सा 2,800 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है।

400 वर्षों तक के लिए पानी

जर्मनी के वैज्ञानिक और नामीबिया में चल रहे इस प्रोजेक्ट के मैनेजर मार्टिन कूइंगर कहते हैं कि

पाया गया पानी का भंडार काफी बड़ा है। उन्होंने कहा, ‘यहां जितना पानी जमा है उससे नामीबिया के उत्तरी इलाके में चार सौ सालों तक वर्तमान जरूरत भर के पानी की आपूर्ति की जा सकता है।’ उन्होंने यह भी कहा, ‘हम कोशिश कर रहे हैं कि इस जलाशय से उतना ही पानी निकाला जाए जितने की पूर्ति प्राकृतिक तौर पर ही हो जाए।’ उत्तरी नामीबिया में पानी की आपूर्ति दो नदियों के माध्यम से की जाती है इसलिए वहां की खेती नदियों के किनारों तक ही सिमट कर रह गई है। कूइंगर का मानना है कि इस जलाशय से इलाके में कृषि की दशा-दिशा बदल सकती है। इस जलाशय का सबसे बड़ा फायदा ये है कि ये पर्यावरण में हो रहे बदलावों के बीच देश के पानी की जरूरतों को पूरा कर सकता है। भूमिगत पानी में अच्छे दबाव होने का मतलब है कि इसे निकालना आसान और कम खर्चीला होगा। लेकिन नए जलाभृत के ऊपर एक नमकीन पानी की भी सतह है जो अनधिकृत खुदाई को और खतरनाक बना देती है। पानी के लिए बेतरतीब खुदाई से पानी की शुद्धता को नुकसान पहुंच सकता है।

वैज्ञानिक राय

कूइंगर बताते हैं, ‘अगर खुदाई करते वक्त तकनीकी मापदंडों का पालन नहीं किया गया तो दो जलाभृतों के बीच रिसाव की जगह बन सकती है जिससे जमीन के भीतर अलग-अलग परतों में जमा पानी मिश्रित हो जाएगा।’ इस जलाशय का सबसे बड़ा फायदा ये है कि ये पर्यावरण में हो रहे बदलावों के बीच देश के पानी की जरूरतों को पूरा कर सकता है। वैज्ञानिकों के एक शोध के अनुसार ये जलाशय नामीबिया को 15 साल तक लगातार सूखा पड़ने की स्थिति से उबार सकता है।


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व्यक्तित्व

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

नादीन गोर्डिमर

करुणा और संघर्ष की अक्षर दुनिया

नादीन की पहचान एक कथाकार के तौर पर है, जिसने स्त्री संवेदना की दुनिया में फिर से करुणा को केंद्र में लाने का धैर्यपूर्ण यत्न न सिर्फ किया, बल्कि इसमें उन्हें खासी सफलता और सराहना भी मिली खास बातें नादीन गोर्डिमर ने 30 से ज्यादा किताबें लिखी हैं नेल्सन मंडेला के साथ उनकी दोस्ती काफी मशहूर रही उन्हें 1991 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया

बी

प्रेम प्रकाश

सवीं सदी को भले महिला लेखन की सदी न कहा जाए, पर इन सौ सालों में महिला संवेदना की दुनिया ने सबसे प्रगतिशील व क्रांतिकारी रूप से अपने को प्रस्तुत किया। खासतौर पर सदी के उत्तरार्ध आते-आते कई ऐसी महिला साहित्यकारों ने अपनी तरफ दुनिया का ध्यान खींचा, जो अपने परिवेश और देशकाल को लेकर सर्वथा नए विचारसूत्र के साथ साहित्य सृजन के क्षेत्र में उतरीं। ऐसी ही महान आधुनिक महिला साहित्यकारों में एक बड़ा नाम है नादीन गोर्डिमर।

करुणा और सृजन

साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त नादीन की पहचान एक कथाकार के तौर पर है, जिसने स्त्री संवेदना की दुनिया में फिर से करुणा को केंद्र में लाने का धैर्यपूर्ण यत्न न सिर्फ किया, बल्कि इसमें उन्हें खासी सफलता और सराहना भी मिली। बड़ी बात यह भी रही कि ऐसा करते हुए वह अपने देशकाल से लगातार संवादरत रहीं। यही वजह है कि रंगभेद जैसी समस्या के खिलाफ भी उनकी मुखरता बनी रही।

रंगभेद के खिलाफ संघर्ष

साहित्य आलोचकों की नजर में दक्षिण अफ्रीका में जन्मी, पली-पढ़ी नादीन व्यापक मनुष्य संवेदना के बारीक-शिल्प की कथाकार हैं। रंगभेद और उपनिवेशवाद के विरूद्ध काले बहुसंख्यकों के अधिकार और आजादी के लिए उन्होंने जो संघर्ष

किया, वह काबिले तारीफ है। न सिर्फ अपने दौर में, बल्कि उसके बाद भी एक लेखिका के तौर पर इस तरह की रचनात्मक भूमिका निभाने वाली दूसरी महिला साहित्यकारों के लिए वह आज भी एक प्रेरणा हैं।

भावुकता रहित शैली

नादीन गोर्डिमर ने अपनी कहानियों-उपन्यासों में स्त्री की वासना-छवि की पारंपरिकता को खंडित करते हुए कथावस्तु और कथा-शिल्प की एक भावुकता रहित शैली रची। गौरतलब है कि नादीन यह दूरदर्शिता खुले बाजार का दौर शुरू होने से पहले दिखा रही थीं। खासतौर पर बीसवीं सदी के आखिर आते-आते दुनिया भर में ऐसे साहित्य की बाढ़ आ गई, जिसमें महिला का अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष उसकी देह की सीमा को लांघता नहीं, बल्कि वह उसे भी अपनी युद्धनीति में शरीक करता है। यही कारण है कि उनके औपन्यासिक आख्यानों की नायिका घर से लेकर कार्यस्थल तक अपने लिए सम्मानजनक स्पेस की दरकार को खासे तार्किक लेकिन विश्वसनीय तरीके से पेश करती है। उन्हें 1991 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और तब तक उनकी ख्याति दक्षिण अफ्रीकी लेखिका से आगे रंगभेद के खिलाफ दुनिया की सबसे प्रभावशाली लेखकों में से एक के रूप में होने लगी थी।

विपुल साहित्य

नादीन ने 30 से ज्यादा किताबें लिखी हैं। उनकी और दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति

नादीन के औपन्यासिक आख्यानों की नायिका घर से लेकर कार्यस्थल तक अपने लिए सम्मानजनक स्पेस की दरकार को खासे तार्किक लेकिन विश्वसनीय तरीके से पेश करती है नेल्सन मंडेला के बीच करीबी दोस्ती थी। मंडेला ने उनके बारे में कहा भी है कि उनकी कलम रंगभेद के खिलाफ हमारे संघर्ष में हमेशा साहस के साथ शामिल रही। यह इसलिए भी बड़ी बात है, क्योंकि नादीन खुद अश्वेत नहीं थीं।

विमर्शीय हस्तक्षेप

नदीन गोर्डिमर की एक बड़ी खासियत यह भी रही कि उन्होंने महिला लेखन को नई शैली, विषय वस्तु का नया विस्तार और संवेदना की आधुनिक जमीन तो दी ही, उन्होंने अपने समय के वैचारिक और रचनात्मक विमर्श को भी खासा प्रभावित किया। उन्होंने अपने समय में उठने वाले हर मुद्दे और चुनौतियों पर अपने विचार मुखरता के साथ रखे। मसलन सेंसरशिप के सवाल पर वह कहती हैं‘सेंसरशिप उन लोगों के लिए कभी भी खत्म नहीं होती, जिन्होंने इसका अनुभव किया हो। ये कल्पनाशक्ति पर दाग है, जिसका इसे भोगने वाले इंसान पर हमेशा के लिए असर रहता है।’ हम देख सकते हैं कि एक मुद्दे से जुड़े संदर्भों को लेकर वह कितनी गहराई तक उतरती हैं।


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व्यक्तित्व

लेखन हमारे समय का जरूरी संकेत है! ‘अतीत और वर्तमान के पुरस्कार विजेताओं के बीच में होने से लगता है कि कम से कम हम सब एक दुनिया के हैं’

नादीननामा

जन्म : निधन : भाषा : विधाएं : महत्वपूर्ण कृतियां : सम्मान-पुरस्कार :

20 नवंबर 1923, ट्रांसवॉल, दक्षिण अफ्रीका 13 जुलाई 2014, जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका अंग्रेजी उपन्यास, नाटक द कंजरवेशनिस्ट, बर्गर्स डाउटर, जूलीज पीपुल बुकर पुरस्कार- 1974, नोबेल पुरस्कार (साहित्य)- 1991

लेखन को लेकर विचार

अपने लेखन को लेकर नादीन का कहना था‘लेखन, जीवन का मतलब समझना है। आप सारी उम्र काम करते हैं और शायद तब आप जिंदगी के एक छोटे से हिस्से को समझ पाते हैं।’ अपने सृजन को लेकर साहस और यकीन देखिए इस महान लेखिका का कि वह एक तरफ जिंदगी को गहराई से समझने की चुनौती को इतना बड़ा मानती हैं, वहीं जब वह अपने लिखे साहित्य की बात करती हैं तो गर्व के साथ कहती हैं- ‘मेरी लिखी या कही गई कोई भी सच्ची बात कभी भी उतनी सच्ची नहीं होगी जितनी कि मेरा फिक्शन या कहानियां।’ नादीन के लिए अपने लेखन को लेकर इस तरह के गर्व और संतोष तक पहुंचना आसान नहीं था। उनका सृजन ईश्वरीय उपहार नहीं, बल्कि एक संघर्ष है, जिसे उन्होंने अपने भीतर और बाहर बराबरी से और पूरी शिद्दत से लड़ा है। छायावादी दौर की महान कवयित्री महादेवी ने पीड़ा और दुख को जिस तरह अपने लेखन से लेकर पूरे व्यक्तित्व में साध लिया था, उसकी झलक थोड़े

और आधुनिक व क्रांतिकारी तरीके से नादीन में मिलती है। इस संदर्भ में नोबेल पुरस्कार ग्रहण करते हुए दिए गए उनके भाषण को पढ़ना-सुनना चाहिए। इसमें वह कहती हैं- ‘वास्तव में, लेखन एक तरह का दुख है, जो सबसे ज्यादा अकेलेपन और आत्मविश्लेषण की मांग करने वाला पेशा है। मुझे महसूस होता है और मैंने पाया है कि हम लेखकों में उतना प्रोत्साहन और पागलपन नहीं है, जितना उन लोगों में देखने को मिलता है जो सामूहिक कार्यों में लगे हैं।’ अपनी लेखकीय आस्था को प्रकट करते हुए नादीन जो शिकायत नए लेखकों से करती हैं, दरअसल वही हमारे समय के साहित्य का सबसे बड़ा संकट है। 21वीं सदी का साहित्य अचानक लोकप्रियता और बेस्ट सेलर जैसे तमगों से आंका जाने लगा है, जो जाहिर है कि वह लेखकीय निष्ठा और शपथ से कोसों दूर पहुंच गया है। नादीन का साहित्य संसार इस दूरी को पाटने के जोखिम को तो कबूल करता ही है, वह इसमें सफल भी होता है।

नादीन गोर्डिमर

ब मेरे एक दोस्त की छह वर्षीय बेटी ने उसके पिता को किसी को यह कहते हुए सुना कि मुझे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, तो उसने पूछा कि क्या वह पुरस्कार मुझे कभी पहले भी मिला था। उन्होंने उत्तर दिया कि पुरस्कार केवल एक बार मिल सकता है। बच्ची ने इस पर पल भर सोचा : ‘ओह’ उसने कहा, ‘यह तो चेचक की तरह है।’ हालांकि, फ्लाबेर ने कहा था कि ‘सम्मान से लेखकों का अपमान’ होता है, और ज्यां पॉल सात्र ने इस विशेष सम्मान को लेने से इनकार कर दिया था, मगर इसे चाहे अभिशाप कहा जाए या रोग माना जाए, मैं जीवन में दोनों अनुभवों से गुजरने के बाद अब निश्चित रूप से, इस पुरस्कार के जश्न भोज को बहुत सुखद और फायदेमंद पाती हूं। लेकिन वह बच्ची पूरी तरह से गलत नहीं थी। वास्तव में, लेखन एक तरह का दुख है जो सबसे ज्यादा अकेलेपन और आत्मविश्लेषण की मांग करने वाला पेशा है। मुझे महसूस होता है और मैंने पाया है कि हम लेखकों में उतना प्रोत्साहन और पागलपन नहीं है, जितना उन लोगों में देखने को मिलता है जो सामूहिक कार्यों में लगे हैं। हम मिलकर नहीं लिखते हैं; कवि अकेले गाते हैं, और गद्य लेखकों को कुछ पता नहीं होता कि क्या लिखा जाए, हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति का साधन अलग होता है जिससे वह तारतम्य या असंगति का निर्माण करेगा। हमें अपने लेखन कार्य के लिए सामग्री जुटाने के लिए भरपूर जीना चाहिए, लेकिन हमें अकेले काम करना है। रोलों बार्थेस ने इस विरोधाभासी आंतरिक एकांत की वजह से हमारे लेखन को, जिन लोगों के बीच हम रहते हैं उनके और दुनिया के प्रति ‘जरूरी संकेत’ बताया है; यह

सर्वोत्तम वस्तु देने के लिए आगे बढ़ा हुआ हाथ है। जब मैंने युवावस्था में एक कट्टर जातिवादी और संकोची औपनिवेशिक समाज में लिखना शुरू किया, तब कई अन्य लोगों की तरह, मैंने महसूस किया कि मेरा अस्तित्व विचारों, कल्पना और सौंदर्य की दुनिया के छोर पर बहुत मामूली है। कविता और उपन्यास, नाटक, चित्रकला और मूर्तिकला को आकार देने के काम दूरदराज के क्षेत्र के विशिष्ट लोगों के लिए थे जिन्हें ‘विदेशी’ के रूप में जाना जाता था। यह मेरे श्वेत और अश्वेत समकालीनों का सपना था कि हम कलाकारों की दुनिया में प्रवेश करने के लिए एकमात्र तरीके के तौर पर इस काम में जुट जाएं। तब अहसास हुआ कि रंगभेद - जिसके लिए मैं नस्लवाद की पुरानी, ठोस छवि का इस्तेमाल करना चाहूंगी, वह काफ्का के दृष्टांत में ‘कानून के उस फाटक’ की तरह था, जो प्रार्थी के लिए उसकी पूरी जिंदगी बंद था, क्योंकि वह यह नहीं समझ पाया कि उसे केवल वह खोल सकता है। इससे हमने जाना कि हमें बस यह करना था कि पूरी दुनिया की तलाश से पहले अपनी ही दुनिया में पूरी तरह से प्रवेश करें। हमें अपनी ही खास जगह की त्रासदी के माध्यम से प्रवेश करना था। अगर नोबेल पुरस्कारों का कोई विशेष महत्व है, तो यह है कि वे इस अवधारणा को आगे बढ़ाते हैं। वे अपनी वैश्विक उदारता से इस बात को मानते हैं कि कोई भी अकेला समाज, देश या महाद्वीप पूरी दुनिया के लिए एक सही मायने में मानव संस्कृति का निर्माण करने की धृष्टता नहीं कर सकता है। अतीत और वर्तमान के पुरस्कार विजेताओं के बीच में होने से लगता है कि कम से कम हम सब एक दुनिया के हैं। (10 दिसंबर 1991 को नोबेल भोज में नदीन गोर्डिमर के भाषण का संपादित अंश)


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पुस्तक अंश

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बांग्लादेश

भारत और बांग्लादेश ने 41 वर्षीय सीमा विवाद सुलझाने और अन्य क्षेत्रों में अधिक सहयोग के वादे के साथ, अपने संबंधों का एक नया अध्याय शुरू किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पड़ोसी देश को 2 अरब (2 बिलियन) डाॅलर की नई क्रेडिट लाइन देने की घोषणा की

भा

6 जून, 2015: ढाका में आईएनएस विक्रांत की मुख्य स्टीयरिंग व्हील को बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना को भेंट करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

रत और बांग्लादेश ने 41 वर्षीय सीमा विवाद सुलझाने और अन्य क्षेत्रों में अधिक सहयोग के वादे के साथ, अपने संबंधों का एक नया अध्याय शुरू किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पड़ोसी देश को 2 अरब (2 बिलियन) डाॅलर की नई क्रेडिट लाइन देने की घोषणा की।

प्रधानमंत्री मोदी ने 6 और 7 जून, 2015 को बांग्लादेश की दो दिवसीय यात्रा की, इस यात्रा के दौरान उन्होंने अपने बांग्लादेशी समकक्ष शेख हसीना के साथ व्यापक चर्चा की। इस यात्रा का ध्यान मौजूदा द्विपक्षीय संबंधों और भारत के ‘लुक ईस्ट’, (अब ‘एक्ट ईस्ट’) सामरिक नीति को व्यापक कर और आगे बढ़ाना था।

दोनों सरकारों के संयुक्त बयान घोषणा की गई कि द्विपक्षीय संबंधों ने एक नए चरण में प्रवेश किया है, जिसमें ‘तथ्यात्मक, परिपक्व और व्यावहारिक दृष्टिकोण’ शामिल हैं। इस दौरान बीस द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए गए और सबसे महत्वपूर्ण निर्णय था, लंबे समय से लंबित और विवाद-ग्रस्त

भूमि सीमा समझौते (एलबीए) को लागू करने का निर्णय। एलबीए के तहत, दोनों राष्ट्र 200 सीमावर्ती क्षेत्रों के आदान-प्रदान के माध्यम से अपनी 4,000 किमी लंबी सीमा को सरल बनाने के लिए सहमत हुए। इस आदानप्रदान में यह सहमति बनी कि भारत को 92 क्षेत्र मिलेंगे, जबकि बांग्लादेश को 106 दिए जाएंगे। एलबीए मूल रूप से भारतीय और


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पुस्तक अंश

ढाका में प्रतिनिधिमंडल स्तरीय वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी अपने समकक्ष पीएम हसीना के साथ

अपने बांग्लादेशी समकक्ष शेख हसीना को भूमि सीमा समझौते पर संसदीय बहस की प्रतिलिपि प्रस्तुत करते हुए प्रधानमंत्री मोदी

ढाका में एक बैठक में बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री बेगम खालिदा जिया के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बांग्लादेश के राष्ट्रपति हामिद से मिलते हुए प्रधानमंत्री मोदी

बांग्लादेशी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और शेख मुजीबुर्रहमान के बीच 1974 में हस्ताक्षर किए गए थे, लेकिन विपक्षी दबाव के चलते भारतीय सरकारें इसे लागू करने में लगातार नाकाम रहीं। आखिरकार, मई 2015 में भारतीय संसद में देश के बड़े भूगर्भीय हितों को ध्यान में रखते हुए एलबीए को मंजूरी देने के लिए राजनीतिक सहमति मिली। दोनों सरकारों ने व्यापार और कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने के लिए एक तटीय नौवहन समझौते पर भी हस्ताक्षर किए, और बंगाल की खाड़ी में समुद्री आधार पर ‘ब्लू इकोनॉमी एंड मैरीटाइम कोऑपरेशन’ के विकास पर बारीकी से काम करने पर सहमत हुए। अन्य द्विपक्षीय समझौतों में असैनिक परमाणु ऊर्जा समझौता, पेट्रोलियम और बिजली में सहयोग शामिल है। यह सहमति भी बनी कि दो भारतीय कंपनियां बांग्लादेश में छह बिजली संयंत्रों के विकास में 4.5 अरब डॉलर से अधिक का निवेश करेंगी। मोदी ने भारत से बांग्लादेश में बिजली निर्यात को दोगुना करने का भी वादा किया। भारत ने बांग्लादेश के लिए दो अरब डॉलर की नई क्रेडिट सुविधा की घोषणा भी की। बदले में, ढाका ने भी भारत के लिए मंगला और भरमरा में दो विशेष

आर्थिक क्षेत्र स्थापित करने की पेशकश की। चीन का मुकाबला करने के लिए भारत की तरफ से ये स्पष्ट उठाए गए कदम थे। चीन ने बांग्लादेश में भारी निवेश किया है और कई विशेष आर्थिक क्षेत्र बना रखे हैं। मोदी और शेख हसीना ने लंबे समय से प्रतीक्षित भारत-बांग्लादेश अंतरराष्ट्रीय बस सेवाओं (अगरतला-ढाका-कोलकाता, ढाका-शिलांग-गुवाहाटी) को हरी झंडी दिखाई, जिससे दोनों देशों के बीच 1000 किलोमीटर से अधिक की जमीनी दूरी कम हो जाएगी। अब कम समय में यात्राएं नई दिल्ली को उत्तर-पूर्व में रणनीतिक सीमा क्षेत्रों पर उसकी पकड़ को मजबूत करने में सक्षम बनाएंगी। भारत और बांग्लादेश ने 54 आम नदियों के पानी के साझाकरण के मुद्दे पर चर्चा की और आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहनशीलता बनाए रखने का वादा भी किया। प्रधानमंत्री मोदी ने बढ़ते व्यापार घाटे के मुद्दे पर भी बात सुनी और इसे अधिक संतुलित बनाने के लिए अपनी सरकार के सहयोग का आश्वासन दिया। हालांकि तीस्ता नदी के ‘जल साझाकरण’ पर कोई समझौता नहीं हुआ, क्योंकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, जो ढाका की यात्रा पर मोदी के साथ

ही थीं, ने इस समझौते पर अपना विरोध बनाए रखा। इसपर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कि जल साझा करने वाले विवाद के लंबा चलने पर, ढाका के साथ निकट आर्थिक और सुरक्षा संबंधों को सुरक्षित करने के दिल्ली के प्रयासों में परेशानी आ सकती है प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘हमारी नदियों को हमारे रिश्तों को पोषित करना चाहिए, न कि विवाद का स्रोत बनना चाहिए। इस सबसे ऊपर, जल समझौता, एक मानवीय मुद्दा है।’ बांग्लादेश की यात्रा के अन्य मुख्य आकर्षण में स्मरणीय लम्हों का आदान-प्रदान शामिल था। ऐतिहासिक श्री श्री दक्षेश्वर मंदिर और रामकृष्ण मिशन मठ की यात्रा, भारतीय उच्चायोग के नए चांसरी परिसर में छह अनुदान सहायता परियोजनाओं का उद्घाटन, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरफ से ‘लिबरेशन वार ऑनर अवॉर्ड प्राप्त करना’, ढाका में बंगबंधु अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन केंद्र में भारत-बांग्लादेश सांस्कृतिक कार्यक्रम में भागीदारी, बांग्लादेश के राष्ट्रपति अब्दुल हामिद से मुलाकात, विपक्ष की नेता बेगम रौशन इरशाद और वाणिज्य और उद्योग के विभिन्न बांग्लादेश चेंबर के अध्यक्षों के साथ बातचीत भी यात्रा का हिस्सा रही।

आज का दिन सभी भारतीयों के लिए बहुत गर्व का विषय है कि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे महान नेता को सम्मानित किया जा रहा है। उन्होंने अपना पूरा जीवन देश की सेवा में समर्पित किया और उन्होंने आम आदमी के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। साथ ही राजनीतिक दृष्टिकोण से भी, वह मेरे जैसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक प्रेरणा थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अटल बिहारी वाजपेयी की ओर से बांग्लादेश लिबरेशन वार सम्मान प्राप्त करने पर भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केवल 36 घंटों के लिए बांग्लादेश का दौरा किया, लेकिन दशकों से भारतबांग्लादेश संबंधों में अविश्वास का जो बीज पड़ा हुआ था उसे हटाते हुए एक बड़ा प्रभाव छोड़ा। इतनी छोटी यात्रा में इतना बड़ा प्रभाव डालकर, और इतनी उम्मीदों को बढ़ाने का श्रेय दोनों नेताओं, प्रधानमंत्री मोदी और शेख हसीना को जाता है। के. अनीस अहमद बांग्लादेशी लेखक और प्रकाशक (अगले अंक में जारी)


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पर्यावरण

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प्रदूषण के खिलाफ जंग

‘हरियाणा में वर्तमान कटाई सीजन के दौरान 100 में से 99 किसानों ने धान की पराली नहीं जलाई है। वहीं पंजाब में भी धान की पराली जलाने के मामले में 2016 के मुकाबले 2017 में 45 फीसदी कमी आई है’ के 80,879 मामले सामने आए, जबकि 2017 में 43,814 मामले सामने आए थे। इस तरह एक साल में पराली जलाने के मामलों में 45 फीसदी कमी आई है।"उन्होंने बताया कि 2017 में गेहूं के फसल अवशेष जलाने के 15,378 मामले सामने आए थे, जबकि 2018 में 11,095 मामले सामने आए। इस प्रकार, इसमें 28 फीसदी की कमी आई है। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार द्वारा चलाए गए जागरूकता

प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी ने देश के वैज्ञानिकों से पराली जलाने की समस्या का ठोस समाधान तलाशने की अपील भी की है। प्रधानमंत्री ने किसानों को भी ऐसी विधि अपनाने को कहा, जिससे कृषि अवशेष का उपयोग करने से अधिक आय अर्जित की जाए

र्दियां आते ही दिल्ली-एनसीआर में रह रहे लाखों लोगों का धुंध की वजह से सांस लेना मुश्किल हो जाता है। कोहरे जैसी दिखने वाली ये धुंध दिल्ली के पड़ोसी राज्यों में जलाए जाने वाली पराली का धुआं होती है। इस धुएं से राजधानी और उसके आस-पास के इलाके में प्रदूषण का स्तर कई गुना बढ़ जाता है। लेकिन सरकार के प्रयासों से अब स्थिति सुधर रही है। हाल ही में हरियाणा सरकार के एक प्रवक्ता ने बताया कि वर्ष 2018 में पराली जलाने की घटनाओं में कमी आई है। प्रवक्ता ने कहा, "हरियाणा में वर्तमान कटाई सीजन के दौरान 100 में से 99 किसानों ने धान की पराली नहीं जलाई है।" उन्होंने कहा, "हरियाणा के किसानों ने पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर उच्चस्तर की जिम्मेदारी और जागरूकता प्रदर्शित की है। हरियाणा में धान उत्पादकों की कुल संख्या सात लाख है।" प्रवक्ता के अनुसार, "अभी तक 10 लाख हेक्टेयर पर कटाई हुई है और अभी तक केवल 6,200 हेक्टेयर पर धान की पराली जलाने की रिपोर्ट मिली है। यह कुल इलाके का 0.6 फीसदी है, जहां कटाई की गई है।" उन्होंने कहा कि किसानों के बीच जागरूकता फैलाने के लिए हरियाणा और केंद्र सरकार द्वारा चलाए गए विशाल अभियान के कारण ऐसा मुमकिन हो पाया। साथ ही कस्टम हाइरिंग

सेंटर की स्थापना और हर एक कृषि उपकरण की खरीद के लिए सब्सिडी के प्रावधान से भी इसमें काफी मदद मिली। पंजाब और हरियाणा जैसे कृषि आधारित राज्यों में अक्टूबर व नवंबर माह में पराली जलाने से उत्तर भारत में पर्यावरण प्रदूषित होता है, विशेषकर दिल्ली में, जहां सर्दियों के महीनों में स्मॉग फैल जाता है। हरियाणा में इस खरीफ सीजन में 13 लाख हेक्टेयर पर धान बोया गया था।

वहीं पंजाब सरकार का भी कहना है कि राज्य में धान की पराली जलाने के मामले में 2016 के मुकाबले 2017 में 45 फीसदी कमी आई है। प्रदेश सरकार के प्रवक्ता के अनुसार, "केंद्रीय पर्यावरण सचिव सी. के. मिश्रा की अध्यक्षता में हुई एक उच्चस्तरीय बैठक में यह तथ्य प्रकाश में आया। प्रदेश के कृषि और पर्यावरण विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों ने बताया कि 2016 में पराली जलाने

अभियान के कारण पराली जलाने के मामलों में कमी आई है। गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने भी पराली जलाने के मुद्दे को गंभीरता से लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के वैज्ञानिकों से पराली जलाने की समस्या का ठोस समाधान तलाशने की अपील भी की है। प्रधानमंत्री ने किसानों को भी ऐसी विधि अपनाने को कहा, जिससे कृषि अवशेष का उपयोग करने से अधिक आय अर्जित की जाए। उन्होंने कहा है कि सरकार ने हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में धान की पराली जलाने से उत्पन्न समस्या का समाधान करने के लिए कई कदम उठाए हैं। इन राज्यों में पराली-दहन से राष्ट्रीय राजधानी में घना कोहरा छा जाता है। वहीं इस मुद्दे पर हाल ही में संयुक्त राष्ट्र ने भी चिंता जताई थी। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक एरिक सोल्हेम ने कहा है कि भारत की राजधानी दिल्ली में धुंध की समस्या का कोई जादुई समाधान नहीं है क्योंकि इसके कई कारक हैं। उन्होंने कहा कि इस मसले से निपटने में जो सबसे खास बात है, वह है स्पष्ट और निर्णायक नेतृत्व की जरूरत। उन्होंने बताया कि दिल्ली, मैनचेस्टर, लंदन और नैरोबी सबकी एक जैसी स्थिति है। नागरिकों और राजनेताओं को एक ही तरह की हवा सांस लेने को मिलती है। निम्न कार्बन उत्सर्जन के फैसले की दिशा में कार्रवाई के लिए मजबूत आम सहमति बनाने की जरूरत है। (एजेंसी)


29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

अनाथ आश्रम से पैरा एशियन गेम्स में गोल्ड का सफर

ना

रायण ठाकुर जन्म से ही शारीरिक रूप से अक्षम हैं। शारीरिक अक्षमता तो थी ही, लेकिन आठ वर्ष की उम्र में पिता का साया भी उनके सिर से उठ गया। अनाथ आश्रम उनका नया ठिकाना बना। आठ वर्ष के बाद जब नारायण वहां से निकले तो पेट पालने की समस्या से उसका सामना हुआ। कोई रास्ता नहीं दिखा। उन्होंने पेट पालने के लिए डीटीसी के बसों की सफाई का काम करना शुरू कर दिया। बसें साफ कीं और सड़क किनारे ठेलों पर भी काम किया। जैसे तैसे नारायण ठाकुर ने इन मुश्किलों को पार किया। नारायण का इरादा और उनके सपने कुछ और थे। उन्होंने वह हासिल किया जो किसी भी आम इंसान के लिए लगभग नामुमकिन है। जकार्ता में हुए पैरा एशियन गेम्स में उन्होंने पुरुषों की 100 मीटर टी- 35 में गोल्ड मेडल जीता। उत्तर पश्चिमी दिल्ली के समयपुर बादली इलाके की झुग्गी बस्ती में रहने वाले 27 वर्षीय नारायण की कहानी कठिनाइयों से लड़कर अपने लक्ष्य को हासिल करने की है। दिल्ली के एक स्टेडियम में एक पुरस्कार वितरण समारोह में नारायण ने कहा, 'मैं बिहार में पैदा हुआ। दिल की बीमारी के चलते मेरे पिता को दिल्ली शिफ्ट होना पड़ा। कुछ वर्षों बाद उन्हें ब्रेन ट्यूमर हो गया और इसी बीमारी ने उनकी जान ले ली।' उन्होंने कहा, 'मैंने बसें साफ कीं, एक वेटर के तौर पर काम किया।' ठाकुर को शरीर के बाएं हिस्से पर हेमेपेरसिस हो गया था। इस बीमारी में मरीज को ब्रेन स्ट्रोक के बाद शरीर के बाएं हिस्से में लकवा हो जाता है। नारायण के पिता प्लास्टिक फैक्टरी में काम करते थे। उनकी मौत के बाद मां के लिए अपने तीन बच्चों का लालन-पालन करना मुश्किल हो गया। ठाकुर ने कहा, 'इसी समय मुझे दरियागंज के अनाथ आश्रम में भेज दिया गया, ताकि मुझे भोजन के साथ पढ़ने का अवसर मिल सके।' ठाकुर ने कहा कि वह हमेशा से ही खेल के शौकीन थे। क्रिकेट उनका पहला प्यार था। उन्होंने कहा, 'मैं क्रिकेट खेलना चाहता था, लेकिन किसी वजह से ऐसा नहीं हो सका। मैंने अनाथ आश्रम इसीलिए छोड़ा ताकि मैं अन्य खेल विकल्पों पर विचार कर सकूं।'

2010 में जब ठाकुर ने अनाथ आश्रम छोड़ा तो परिवार को एक और मुसीबत का सामना करना पड़ा। उन्होंने कहा, 'यह वह समय था जब समयपुर बादली की जिन झुग्गियों में हम रहते थे, उन्हें ढहा दिया गया था। तब उसके करीब ही शिफ्ट होना पड़ा। आर्थिक हालात ठीक नहीं थे, ऐसे में मेरे पास डीटीसी की बसें साफ करने और सड़क किनारे छोटे ठेलों पर काम करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था, लेकिन खेल को लेकर मेरा जज्बा तब भी कायम था।' नारायण ठाकुर की जिंदगी में तब बदलाव आया जब किसी ने उन्हें जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में प्रैक्टिस करने की सलाह दी। उस लम्हे को याद करते हुए नारायण कहते हैं, 'मैं काफी खुश था। समस्या यह थी कि मेरे पास घर से स्टेडियम तक जाने के पैसे नहीं थे। स्टेडियम तक पहुंचने के लिए मुझे तीन

खेल

29 अनाथ आश्रम में बचपन बीता, किशोरवस्था में गुजारे के लिए डीटीसी की बसें साफ करनी पड़ी, लेकिन नारायण ठाकुर ने अपने सपने को कभी टूटने नहीं दिया। आखिरकार पैरा एशियन गेम्स में स्वर्ण पदक जीत कर देश लौटे

बसें बदलनी पड़ती थीं। मैंने अपना बेस पानीपत शिफ्ट करने की भी कोशिश की। ऐसा भी कर नहीं पाया। मैं रोज के 40-50 रुपए किराए में नहीं खर्च कर सकता था। फिर मैंने ट्रेनिंग के लिए अपना बेस त्यागराज स्टेडियम शिफ्ट कर लिया।' ठाकुर ने कहा कि उन्होंने अपने खेल पर काफी मेहनत की और कुछ अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अपने प्रदर्शन से लोगों को प्रभावित भी किया। इसके बाद जकार्ता खेलों में जाने का रास्ता तैयार हुआ। वह बड़े गर्व के साथ कहते हैं, 'मैं देश के लिए जकार्ता में गोल्ड जीतकर काफी खुश हूं। मैं एशियन पैरा गैम्स या एशियाड में 100 मीटर में गोल्ड जीतने वाला इकलौता भारतीय हूं।' ठाकुर के पास फिलहाल नौकरी नहीं है। अपनी मां को मदद करने के लिए वह पान/गुटखा की दुकान चलाते हैं। उन्हें हालांकि अब उम्मीद है कि उनका जीवन बदल जाएगा। उन्होंने कहा, 'मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पुरस्कार वितरण कार्यक्रम में 40 लाख रुपए का चेक दिया था। मुझे दिल्ली सरकार से भी कुछ आर्थिक मदद की उम्मीद है।' वह इस पैसे का क्या करेंगे? इस पर उन्होंने कहा, 'सबसे पहले अपने परिवार के लिए एक घर बनाऊंगा और बाकी अपनी ट्रेनिंग पर खर्च करूंगा। (एजेंसी)


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सुलभ संसार

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

सुलभ अतिथि

होली फैमिली कॉलेज अॉफ नर्सिंग की चार छात्राओं का समूह (मोनिका सहगल, अंजू, निधि और शिजा जैकब) अपनी अध्यापिका जोसना जेस्मन के साथ तथा कुछ अन्य अतिथि

मीराबाई इंस्टीट्यूट अॉफ टेक्नोलॉजी के 32 छात्रों ने सुलभ ग्राम का भ्रमण किया। यहां उन्होंने सुलभ पब्लिक स्कूल और सुलभ

सुलभ ग्राम के दौरे पर आए। यहां वे खासतौर पर सुलभ पब्लिक स्कूल, सुलभ टॉयलेट म्यूजियम और स्वच्छता से जुड़ी विभिन्न सुलभ तकनीकों को देखकर काफी प्रसन्न हुए।

अभ्यास ही सबसे बड़ा गुरु है

गु

काजल

रु द्रोणाचार्य पांडवों और कौरवों के गुरु थे और उन्हें धनुर्विद्या का ज्ञान देते थे। एक दिन एकलव्य जो कि निषाद परिवार से थे, द्रोणाचार्य के पास गए और बोले कि गुरुदेव मुझे भी धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करना है। आपसे अनुरोध है कि मुझे भी अपना शिष्य बनाकर धनुर्विद्या का ज्ञान प्रदान करें। किंतु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को अपनी

तकनीकों को देखा। वे विशेष रूप से यहां सुलभ टॉयलेट म्यूजियम को देखकर अभिभूत हुए।

विवशता बताई और कहा कि वे किसी और गुरु से शिक्षा प्राप्त कर लें। यह सुनकर एकलव्य वहां से चले गए। इस घटना के बहुत दिनों बाद अर्जुन और द्रोणाचार्य शिकार के लिए जंगल की ओर गए। उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुत्ता अचानक से दौड़ते हुए एक जगह पर जाकर भौंकने लगा, वह काफी देर तक भौंकता रहा और फिर अचानक ही भौंकना बंद कर दिया। अर्जुन और गुरुदेव को यह कुछ अजीब लगा और वे उस स्थान की ओर बढ़

गए जहां से कुत्ते के भौंकने की आवाज आ रही थी। उन्होने वहां जाकर जो देखा वह अविश्वसनीय था। किसी ने कुत्ते को बिना चोट पहुंचाए उसका मुंह तीरों से बंद कर दिया था और वह चाह कर भी नहीं भौंक सकता था। ये देखकर द्रोणाचार्य चौंक गए और सोचने लगे कि इतनी कुशलता से तीर चलाने का ज्ञान तो मैंने मेरे प्रिय शिष्य अर्जुन को भी नहीं दिया है और न ही ऐसा ज्ञान मेरे आलावा किसी के पास है. तो फिर ऐसी अविश्वसनीय घटना घटी कैसे? तभी सामने से एकलव्य अपने हाथ में तीर-कमान पकड़े आ रहा था। उसे देखकर गुरुदेव, चौंक गए। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से पूछा,‘ बेटा तुमने ये सब कैसे कर दिखाया।’ तब एकलव्य ने कहा, ‘गुरूदेव मैंने यहां आपकी मूर्ति बनाई है और रोज उसकी वंदना करने के पश्चात मैं कड़ा अभ्यास किया करता हूं और इसी अभ्यास के चलते मै आज आपके सामने धनुष पकड़ने के लायक बना हूं। गुरुदेव ने कहा, ‘तुम धन्य हो! तुम्हारे अभ्यास ने ही तुम्हें इतना श्रेष्ठ धनुर्धर बनाया है और आज मैं समझ गया कि अभ्यास ही सबसे बड़ा गुरु है।’

कभी न भूलो सरिता

अपनी दृष्टि को ऐसा विशाल बनाओ जिससे दूसरों का दोष दिखाई न दे। अपने आप को मानव बनाने का प्रयत्न करें मानवता ही सफलता की कुंजी है ईर्ष्या मानव को उसी तरह खा जाती है जैसे गर्म कपड़ों को कीड़ा लोभी मनुष्य की कामना सदैव अपूर्ण रहती है। मानव सेवा ही मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ कर्म है। बलवान होने में नहीं बल का सदुपयोग करने में बड़प्पन है अग्नि सोने को परखती है और आपत्ति बहादुरों को सच्चा मित्रा आनंद को दुगना और दुख को आधा कर देता है जिसे अपना कर्तव्य नहीं सुझता वह अंधा है।


29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

आओ हंसें

जीवन मंत्र

फनी शायरी

अर्ज किया है: नींबू के पेड़ पर सेब लगते हैं, नींबू के पेड़ पर सेब लगते हैं.... बौखला गए हो क्या? नीबू के पेड़ पर कहीं सेब लगते हैं ?

परीक्षा में नंबर

लड़कियां 97% लाने पर भी : 3 नंबर और दे देता तो क्या चला जाता उसका? लड़के 38% लाने पर भी : कुछ भी कहो, नंबर देने वाला देवता था, भाई!

रंग भरो

सु

प्रेम एक ऐसा अनुभव है जो मनुष्य को कभी हारने नही देता, और घृणा एक ऐसा अनुभव है जो इंसान को कभी जीतने नहीं देता

कलयुगी दुनिया

इस कलयुगी दुनिया में लोग विंडो सीट तभी ऑफर करते हैं... जब खिड़की से या तो कड़क धूप आ रही हो या पानी की बौछार।

सुडोकू-45 का हल

• 30 अक्टूबर विश्व बचत दिवस • 31 अक्टूबर सरदार वल्लभभाई पटेल जयंती, इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि, संकल्प दिवस, राष्ट्रीय एकता दिवस • 24 - 30 अक्टूबर निरस्त्रीकरण सप्ताह

1. जैसे कि (4) 4. स्वीकार करना (4) 6. महाशय (4) 7. दैत्य, निशाचर, राक्षस (3) 8. घटना (4) 10. कंटीली झाड़ी के लाल-पीले फल (2) 11. साफ, प्रकट, बड़ा (3) 12. खुशी (3) 13. बांसुरी (2) 14. चंद्रमा ओशो (4) 15. मर्कट, कपि (3) 16. बकवादी (4) 18. एक वेद (4) 19. जहां ताजिये शांत किये जाते हैं (4)

डोकू -46

सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें

महत्वपूर्ण तिथियां

बाएं से दाएं

31

इंद्रधनुष

विजेता का नाम सोहन पाल यादव उत्तर प्रदेश

वर्ग पहेली-45 का हल

ऊपर से नीचे

1. पहलवान (2) 2. एक रत्न (3,2) 3. दृष्टि (3) 4. रविवार (4) 5. चाँदी का तमगा (3,3) 9. अनुकरण करने योग्य (6) 10. मूर्छा (3) 12. आनंद करने वाला (5) 13. वंश के अनुगमन का सिद्धांत (4) 15. बारूद भरकर चलाने वाला अस्त्र (3) 17. आवरण (2)

कार्टून ः धीर

वर्ग पहेली - 46


32

न्यूजमेकर

अनाम हीरो

29 अक्टूबर - 04 नवंबर 2018

निवेधा आरएम

स्वच्छता की ‘निवेधा’

बंेगलुरु की निवेधा ने एक नई मशीन तैयार कर स्वच्छता के क्षेत्र में अपने स्टार्टअप को चर्चा में ला दिया है

दे

श में स्वच्छता को लेकर आई नई जागृति से इस क्षेत्र में अभिनव प्रयोगों को करने की प्रेरणा को काफी बल मिला है। इस वर्ष बेंगलुरु में चल रहे ‘ट्रैश कॉन’ नाम के स्टार्टअप को टेक 30 स्टार्टअप के रूप में चुना गया। कंपनी लोगों के घरों से कूड़ा-कचरा इकट्ठा करती है और फिर उसमें से सॉलिड वेस्ट को अलग करने के साथ-साथ रीसाइकल करती है। ट्रैश कॉन की फाउंडर निवेधा आरएम बताती हैं कि उनके दोस्त कॉलेज जाने वाले रास्ते से गुजरना पसंद नहीं करते थे, क्योंकि वहां पर कूड़े आदि की वजह से गंदी महक आया करती थी। सब इस समस्या से मुंह फेर लेते थे, लेकिन

इसका समाधान ढूंढने का प्रयास कोई भी नहीं करता था। निवेधा ने इस समस्या को व्यापक तौर पर देखा और ठान लिया कि वह इसका उपाय खोज निकालेंगी। निवेधा ने बेंगलुरु के आरवी इंजीनियरिंग कॉलेज से पढ़ाई की है। एक इंजीनियर और जिम्मेदार नागरिक होने के नाते उन्होंने इस समस्या का तकनीकी इलाज ढूंढने का निश्चय किया। उन्होंने वेस्ट मटीरियल को अलग-अलग करने वाली एक मशीन बनाई। यह मशीन नगर निगम द्वारा इकट्ठा किए जाने वाले कूड़े के ढेर से गीले और सूखे कचरे को अलग करती है। निवेधा कहती हैं कि उनकी मशीन की सबसे खास बात यह है कि मशीन किसी भी वेस्ट मटीरियल को

बेन्यामिन

‘जैस्मिन डेज’ की धूम

न्यूजमेकर

‘जैस्मिन डेज’ के लेखक बेन्यामिन को देश में साहित्य के क्षेत्र में सबसे ज्यादा राशि वाला पुरस्कार

सा

प्रॉसेस करने में समर्थ है। निवेधा कहती हैं कि हमेशा से ही हमको घर पर भी यह सिखाया जाता रहा है कि गीले और सूखे कचरे को अलग-अलग रखा जाए, लेकिन आज तक हम लोग यह आदत नहीं विकसित कर पाए हैं। निवेधा अपनी समस्या को लेकर कॉलेज वार्ड के चीफ इंजीनियर के पास गईं और इंजीनियर साहब ने उनसे वेस्ट मटीरियल का सही इस्तेमाल करने

हित्य के क्षेत्र में प्रदान किया जाने वाला पहला जेसीबी पुरस्कार मलयाली लेखक बेन्यामिन को उनकी किताब ‘जैस्मिन डेज’ के लिए मिला है, जो पश्चिम एशिया में रहने वाले दक्षिण एशियाई लोगों की जिंदगी पर आधारित है। देश में साहित्य के क्षेत्र में सबसे अधिक राशि प्रदान करने वाले पुरस्कार की घोषणा करते हुए ज्यूरी के अध्यक्ष विवेक शानबाग ने कहा कि बेन्यामिन की किताब मूलत: मलयालम में लिखी गई है और इसका शहनाज हबीब ने अंग्रेजी में अनुवाद किया है। बेन्यामिन को पुरस्कार के रूप में 25 लाख रुपए नकद और एक शानदार ट्राफी प्रदान की गई। इसके अलावा हबीब को पांच लाख रुपए का अति​िरक्त पुरस्कार भी दिया गया। बेन्यामिन की किताब ‘जैस्मिन डेज’ ने चार लेखकों अमिताभ बागची, अनुराधा रॉय, शुभांगी स्वरूप और पेरुमल मुरुगन की रचनाओं को पछाड़ा है। साफ है कि यह सिर्फ बेन्यामिन का सम्मान नहीं है, बल्कि साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसे प्रतिभा के आगमन का उद्घोष भी है, जिस पर हम दशकों तक नाज कर सकते हैं।

वाली तरकीब खोजने के लिए कहा। इसके बाद निवेधा ने अपनी मुहिम पर काम करना शुरू किया और अपने मेंटर सौरभ जैन की मदद से 'श्रेडर' (वेस्ट मटीरियल को काटने वाली मशीन) का यह मॉडल विकसित किया। निवेधा का कहना है कि ऑउटसोर्स्ड मेन्यूक्चरिंग ऐसी मशीन नहीं बना पा रहे हैं, जिससे किसी भी चीज को काटा जा सके, इसीलिए जैसे ही हमें मशीन के छह ऑर्डर मिल जाएंगे, हम इसका उत्पादन शुरू कर देंगे।

मीनल पटेल डेविस

भारत का बढ़ाया मान

मानव तस्करी से लड़ने में योगदान के लिए मीनल व्हाइट हाउस में पुरस्कृत

मेरिकी महानगर ह्यूस्टन के मेयर सिलवेस्टर टर्नर की मानव तस्करी पर विशेष सलाहकर मीनल पटेल डेविस को हाल में व्हाइट हाउस में एक कार्यक्रम में मानव तस्करी से लड़ने के लिए राष्ट्रपति पदक प्रदान किया गया। इस कार्यक्रम में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी मौजूद रहे। पुरस्कार पाने के बाद डेविस ने कहा, ‘यह अविश्वसनीय है।’ यह इस क्षेत्र में देश का सर्वोच्च सम्मान है। उन्होंने कहा, ‘मेरे मातापिता भारत से यहां आए थे। मैं अ मे र िक ा

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 46

में जन्म लेने वाली अपने परिवार की पहली सदस्य हूं। कई साल पहले मेयर कार्यालय से अब व्हाइट हाउस तक आना अविश्वसनीय है।’ जुलाई, 2015 में विशेष सलाहकार नियुक्त की गईं डेविस ने अमेरिका के चौथे सबसे बड़े शहर ह्यूस्टन में नीतिगत स्तर पर और व्यवस्था में बदलाव लाकर मानव तस्करी से निबटने पर स्थानीय स्तर पर बड़ा योगदान दिया। डेविस ने कनेक्टिकट विश्वविद्यालय से एमबीए और न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की है।


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