सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 08)

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04 मोहन भागवत

राष्ट्रधर्म सर्वप्रथम

10 डॉ. विन्देश्वर पाठक स्वच्छ भारत अभियानः सुलभ की सहभागिता और दृष्टिकोण

पुस्तक अंश 20

लोककथा 30

बड़ी जिम्मेदारियों की ओर सवा मन कंचन

sulabhswachhbharat.com आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

वर्ष-2 | अंक-08 | 05 - 11 फरवरी 2018

सेवा और समर्पण का पर्याय है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ महज विचारधारा तक सीमित नहीं है, यह देश भर में राहत और सेवा का कार्य करता है और आशा फैलाता है, बता रहे हैं पांचजन्य के पूर्व संपादक तरुण विजय


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हा

आवरण कथा

तरुण विजय

ल ही में मैं नागपुर में एक दोस्त के बेटे के जनेऊ समारोह में हिस्सा लेने के लिए गया तो वहां एक राष्ट्रीय कैंसर संस्थान के बारे में जानने का मौका मिला, जिसमें लोग आबाजी थात्ते की स्मृति में आ रहे थे। आबाजी संघ सरसंघसंचालक गुरुजी के सहायक और निजी चिकित्सक थे। इस संस्थान के बारे में जानने की मेरी जिज्ञासा हुई तो मैं इसके मुख्य वास्तुकार और कार्यकारी शैलेश जोगलेकर से मिला। मैंने जो कुछ जाना, वह मेरे जैसे व्यक्ति के लिए एक आंख खोलने वाला था, जो संघ परिवार में पैदा हुआ है। इस राष्ट्रीय कैंसर संस्थान को सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से एक कहा जा सकता है। वाकई यदि भारत में सभी कैंसर अस्पतालों में तुलना की जाए तो यह सबसे बेहतर साबित होगा। इस संस्थान के परिसर में यात्री निवास, नर्सिंग कॉलेज, छात्रावास, स्टाफ हाउसिंग और इंजीनियरिंग सर्विस ब्लॉक जैसी तमाम सुविधाएं हैं। यह कुल 700,000 वर्ग मीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। इस पूरी परियोजना का नेतृत्व करने वाले दो व्यक्ति देवेंद्र फडणवीस और शैलेश जोगलेकर दोनों मित्र हैं। वे दोनों इससे कैसे जुड़े, यह जानना दिलचस्प है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कैंसर के कारण अपने पिता को खो दिया। अपने पिता के उपचार के लिए उन्होंने पूरी कोशिश की, लेकिन वे अपने पिता को नहीं बचा सके। इसी तरह वरिष्ठ अधिवक्ता शैलेश जोगलेकर कैंसर के कारण ही अपनी पत्नी को खो चुके हैं। इसके बाद शैलेश और देवेंद्र दोनों ने अनुभव किया कि भारत में कैंसर के मरीजों और उनके रिश्तेदारों की मदद करने वाली बुनियादी संरचना का अभाव है। इतना ही नहीं, इसके इलाज के लिए बहुत कम केंद्र

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विनम्रतापूर्वक यह कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति ने नरेंद्र भाई मोदी को प्रभावित किया, वह डॉ. हेडगेवार के अलावा कोई नहीं है मिलते हैं, जो उचित सीमा के भीतर खर्च का ख्याल भी रखते हैं। मुंबई में टाटा मेमोरियल अस्पताल जैसे बड़े केंद्र के बावजूद कैंसर का इलाज बहुत महंगा है। इसके बाद दोनों ने सस्ता और मरीजों के अनुकूल कैंसर अस्पताल शुरू करने का फैसला किया। इसमें उनका साथ नितिन गडकरी और रतन टाटा के अलावा कई लोगों ने दिया। सभी के प्रयासों से नागपुर के पास जल्द ही इस संस्थान का पहला चरण पूरा कर लिया गया। यहां 53 चिकित्सकों के साथ 1248 रोगियों की सेवा की जाती है। यहां 156 अत्याधुनिक मशीनों के साथ और 470 बिस्तरों की सुविधा है। इस राष्ट्रीय कैंसर संस्थान को संघ के डॉ. आबाजी थात्ते की याद में समर्पित किया गया, जो समाज की सेवा करने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। कैंसर से लड़ने के लिए संस्थान ने ‘कर्क योद्धा’ नाम की एक अनोखी योजना शुरू की है। यह अत्यधिक कुशल पेशेवरों का एक समूह है जो कैंसर को जड़ से समाप्त करने के लिए कार्य कर रहे हैं। शैलेश बताते हैं कि कैंसर के खिलाफ संघर्ष में एक डॉक्टर सबसे पहले आता है। हम सर्वश्रेष्ठ कैंसरोलॉजिस्ट और अन्य चिकित्सकों को एक मंच प्रदान करते हैं, जो उन्हें कैंसर को जीतने के लिए उनकी खोज में मदद करता है ताकि वह एक विश्वस्तरीय अवसंरचना की शक्ल ले सके। हम उन्हें प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के साथ संबद्धताओं के माध्यम से नवीनतम और सर्वोत्तम नवाचारों के साथ सेवारत रहने में सहायता करते हैं। ये कर्क योद्धा रोगियों की मदद करते हैं, रोगी अपने

सभी प्रश्नों को दोस्ताना तरीके से बताते हैं। ये लोग उनकी देखभाल करने वालों की भी सहायता करते हैं। कर्क योद्धाओं की भूमिका उन्हें आशा प्रदान करने और शांति के साथ स्थिति का सामना करना सिखाती है। शैलेश बताते हैं, ‘हम कैंसर के उपचार के लिए आवश्यक नवीनतम उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम उन्हें समाज में वापस लौटन के सक्षम बनाते हैं। हम अपने ज्ञान को केवल विशिष्ट वर्ग या जाति के लिए सीमित नहीं रखते हैं। संस्थान नर्सों, पैरा मेडिकल स्टाफ और मेडिकल बिरादरी, ऑन्कोलॉजी और पीएचडी कार्यक्रमों में सुपर स्पेशलिटी प्रशिक्षण सहित विश्वविद्यालय-मान्यता प्राप्त प्रशिक्षण पाठ्यक्रम शुरू करने की भी योजना बना रहा है। यह सब जानकर मैंने कहा कि यह कैंसर अस्पताल डॉ. हेडगेवार के विचार और सिद्धांतों का जीवंत रूप है। जो लोग संघ के बारे में या इशके संस्थापक डॉ. हेडगेवार के दर्शन के बारे में जानना चाहते हैं, उन्हें यहां आना चाहिए। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत भर में 1.7 लाख से अधिक सेवा प्रकल्प चला रहा है। यह एकमात्र संगठन है, जो देश के हर एक हिस्से में सक्रिय है। यह लाखों लोगों को अस्पतालों, नेत्र बैंक और अन्य सेवा कार्यों के जरिए से मदद पहुंचाता है। कोई भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में इसके दूरदर्शी संस्थापक के बारे में जाने बगैर नहीं समझ सकता है। वे कौन थे? यह एक अद्भुत कहानी है कि कैसे एक व्यक्ति

के जीवन और उसकी संगठनात्मक क्षमता ने न सिर्फ भारतीयों के जीवन को सबसे अधिक प्रभावित किया, बल्कि भावी पीढ़ी के लिए एक प्रेरक लीक भी गढ़ा। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का स्मरण आज हम इसी रूप में करते हैं। वर्ष 1889 में नागपुर में जन्मे हेडगेवर हिंदू सभ्यता की विरासत के साथ जुड़कर एक आधुनिक शक्तिशाली भारत के वास्तुकार बन गए। 1925 में उन्होंने विजयादशमी पर संघ की स्थापना की, लेकिन एक साल बाद संघ को वह नाम दिया, जिस नाम से आज इस संगठन को हम जानते हैं। बड़े ही सरल और संक्षिप्त तरीके से संघ के गठन की घोषणा की गई थी। एक साल के गहन विचार-विमर्श और कई सुझावों को प्राप्त करने के बाद संघ को भारत उद्धारक मंडल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- नाम दिया गया। इसका मुख्य उद्देश्य एक ऐसा समाज बनाना था, जो कभी आंतरिक विवादों का शिकार न हो और एक तरह की एकजुटता पैदा करे, ताकि कोई भी भविष्य में हमें अधीन न कर सके। इससे पहले डॉ. हेडगेवार कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे और वे पार्टी के नागपुर अधिवेशन से जुड़े प्रमुख लोगों में से एक थे। उन्होंने असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और जिसमें स्वतंत्रता को लेकर निर्भीक भाषण देने के लिए उन्हें एक साल की सजा सुनाई गई। डॉ. हेडगेवार क्रांतिकारियों की अनुशीलन समिति से जुड़ने और उसके नेता पुलिन बिहारी बोस के साथ संबंधों के कारण ब्रिटिश सरकार के निशाने पर आ गए। अपनी इस तरह की भूमिका के बावजूद उन्होंने अपने को बहुत आगे नहीं लाए। यही कारण रहा कि लोग उन्हें उन लोगों की तुलना में कम जानते हैं, जो बाद में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध रहे। विनम्रतापूर्वक यह कहा जा सकता है कि


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पहले डॉ. हेडगेवार कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे और वे पार्टी के नागपुर अधिवेशन से जुड़े प्रमुख लोगों में से एक थे। उन्होंने असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और जिसमें स्वतंत्रता को लेकर निर्भीक भाषण देने के लिए उन्हें एक साल की सजा सुनाई गई जिस व्यक्ति ने नरेंद्र भाई मोदी को प्रभावित किया, वह डॉ. हेडगेवार के अलावा कोई नहीं। यह बात लगभग दस लाख अन्य स्वयंसेवकों के लिए भी सच है, जो अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य करते हैं। जिसे हम राष्ट्रीय जीवन क्षेत्र का नाम देते हैं, उस क्षेत्र का प्रत्येक व्यक्ति आपको डॉ. हेडगेवार से प्रेरित मिलेगा। चिकित्सा सहायता स्कूलों, कॉलेजों, प्रौद्योगिकी संस्थानों, श्रमिक संघों और जनजातीय सेवा परियोजना तक पहुंचाने का कार्य कर रहे लोगों की सबसे बड़ी प्रेरणा डॉ. हेडगेवार हैं। डॉ. हेडगेवार का सपना आज हजारों युवकों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में लागू किया जा रहा है, जिन्होंने देश के प्रत्येक नागरिक के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। संघ के कार्यों और उसके विस्तार के बारे में जानना अविश्वसनीय जैसा लगता है। संघ के स्वयंसेवक एक तरफ आदिवासी बच्चों को शिक्षा और चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध करा है तो वहीं दूसरी तरफ वनवासी कल्याण आश्रम बीस हजार सेवा परियोजनाएं चला रहा है, जिसमें हॉस्टल, स्कूल, चिकित्सा केंद्र, महिला आत्म निर्भरता परियोजनाएं और लड़कियों के लिए छात्रावास शामिल हैं। जातिवाद के खिलाफ सक्रिय संघ अपने कार्यकर्ताओं के बीच जाति आधारित भेदभाव खत्म करने के लिए अंतर-जातीय विवाह कराता है। जब हम लोग उत्तराखंड के जौनसार बावर के दूरदराज इलाके में कुछ दलितों को मंदिर में प्रवेश के लिए

ले गए तो वहां के तथाकथित उच्च जाति के लोगों ने चुप्पी साध ली। उस दौरान संघ के सरकार्यवाह सुरेश जोशी ने कहा था कि आप लोग सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। आज भारत में किसी भी संगठन द्वारा संचालित सेवा कार्यों का सबसे बड़ा नेटवर्क संघ कार्यकर्ताओं द्वारा कुशलतापूर्वक चलाया जा रहा है। इस संगठन में कार्य करने वाले कार्यकर्ता डॉ. हेडगेवार से प्रेरित हैं। इस तरह की सेवा परियोजनाओं की संख्या एक लाख सत्तर हजार है, जिसमें अस्पताल, ब्लड बैंक, नेत्र बैंक, दिव्यांगों के लिए विशेष केंद्र से लेकर थैलेसीमिया प्रभावित बच्चों की देखरेख तक कई कार्य शामिल हैं। युद्ध का समय हो या प्राकृतिक आपदा हो, डॉ. हेगड़ेवार के अनुयायी सबसे पहले पहुंचते हैं और लोगों को राहत प्रदान करते हैं। बता दें कि चरखी दादरी विमान दुर्घटना, सुनामी, भुज, उत्तरकाशी भूकंप या केदारनाथ त्रासदी, इन सभी आपदाओं में संघ के स्वयंसेवक प्रभावित पहले लोगों की सहायता के लिए और बाद में उनके पुनर्वास कार्य में भी सबसे आगे थे। यह सच है कि भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से एक नैतिक ताकत मिली है और इसके ज्यादातर बड़े नेता स्वयंसेवक रहे हैं। फिर भी भारतीय समाज पर डॉ. हेडगेवार के प्रभाव को कम करके नहीं आंका जा सकता है। भारत-म्यांमार की सीमा पर लगे एक गांव मोरेह के बारे में सोचिए, जहां संघ एक स्कूल चला रहा है

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और स्थानीय ग्रामीणों को दवाएं उपलब्ध कर रहा है। इसी तरह उत्तर-पूर्व में स्थानीय जनजातियों और अंडमान में आदिवासी छात्रों के लिए तो पोर्ट ब्लेयर आश्रम की सेवा के लिए मोखुकांग और चंगलांग परियोजनाएं स्वयंसेवकों द्वारा संचालित की जाती हैं। संघ आज देश में स्कूलों, शिक्षकों और शैक्षणिक संस्थानों का सबसे बड़ा नेटवर्क है। विद्या भारती आज लद्दाख की बर्फिले रेगिस्तान, राजस्थान, जम्मू, पंजाब के सीमावर्ती इलाकों और उत्तर –पूर्व के ज्यादातर गांव में 25,000 से अधिक स्कूल, लाखों बच्चे व एक लाख शिक्षकों की सेवा उपलब्ध करा रहा है। पिछले सप्ताह मैं डॉ. हेडगेवार के ऊपर बनने वाली एक डॉक्यूमेंट्री के शूट के लिए तेलंगाना के उनके पैतृक गांव कंधकुर्ती गया था। यह गोदावरी, हरिद्रा और मंजिरी के संगम पर स्थित एक ऐतिहासिक गांव है। डॉ. हेडगेवार परिवार का पैतृक घर लगभग 50 से 28 फीट क्षेत्र में है, जिसे एक वरिष्ठ संघ नेता मोरो पंत पिंगले की प्रेरणा पर स्थानीय ग्रामीणों द्वारा एक स्मारक बना दिया गया है। यहां एक सुंदर सह-शिक्षा विद्यालय केशव बाल विद्या मंदिर चल रहा है, जिसमें करीब 200 छात्र शिक्षा प्राप्त करते हैं। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि लगभग 30 प्रतिशत मुस्लिम लड़कियां और लड़के यहां पढ़ाई करते हैं। ऐसा नहीं है कि गांव में अन्य स्कूल नहीं हैं। इस शांत गांव में लगभग 65 प्रतिशत मुस्लिम और 35 प्रतिशत हिंदू हैं। यहां कई मंदिर और मस्जिद हैं, जो एक साथ मौजूद हैं और यहां आज तक एक भी अप्रिय घटना नहीं हुई, बल्कि यहां के मुसलमान अपने बच्चों को संघ संस्थापक की याद में स्थापित इस स्कूल में भेजना ज्यादा पसंद करते हैं। मैं यहां एक अभिभावक जलील बेग से मिला,

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जो मुगल वंश से ताल्लुक रखते हैं। वह प्रसिद्ध उर्दू दैनिक युं​िसफ के एक पत्रकार और लेखक हैं। उन्होंने कहा कि उनके परिवार ने इस स्कूल को अध्ययन के लिए एक अच्छी जगह के रूप में पाया है। क्योंकि यह गरीब और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए सबसे अच्छी सुविधाएं प्रदान करता है। इन सबसे ऊपर इस स्कूल का मानक अच्छा है और इनके पास डिजिटल कक्षाएं भी हैं। बच्चों को कंप्यूटर शिक्षा के साथ प्रशिक्षण दिया जाता है। मैंने सुना कि स्कूल की एक छात्रा राफिया 'हिंद देश के निवासी, सब जन एक है, रंग रूप, वेश भाषा, चाहे अनेक हैं' गीत गाती है। कई प्रमुख नेताओं पर सबसे ज्यादा प्रभाव रखने वाले डॉ. हेडगेवार ने अपने पैतृक गांव के माध्यम से सबका साथ, सबका विकास की थीम को उसकी सार्थकता के साथ प्रस्तुत किया है। डॉ. हेडगेवार यानी एक ऐसा व्यक्ति जिसने लाखों लोगों को एक अखिल भारतीय दृष्टि दी, नए विचारों का एक हिस्सा बनने के लिए युवा भारतीयों को प्रेरित किया, जो गहरे रंग के वस्त्रों को नहीं पहन सकते थे, लेकिन एक तपस्वी का जीवन जीते थे। बात आरएसएस के जन्म और उसके विस्तार की करें तो यह लोगों की शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, सभ्यता के प्रति जागरूकता को अप्रकाशित तरीके से मीडिया की चकाचौंध से दूर भारत की एक ऐसी कहानी है, जिसे पहले कभी नहीं सुना, पढ़ा या देखा गया। डॉ. हेडगेवार ने लाखों लोगों को देश के लिए जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने भारत के सार्वभौमिक मूल्यों, धार्मिक परंपराओं के लिए खड़ा होने के लिए गौरव और साहस की भावना को प्रेरित किया। उनका मानना था कि हमारा भारत कैसा था? इसे स्कूलों में पढाया जाना चाहिए और अधिक से अधिक इसकी सराहना की जानी चाहिए। वह भारत में परिवर्तन लाने वाले सबसे बड़े निर्माता रहे हैं, जिससे आज की पीढ़ी अच्छी तरह नहीं जानती है। संघ सदैव निशुल्क सेवा के लिए तैयार है।

(लेखक 20 साल तक संघ साप्ताहिक 'पाञ्चजन्य' के प्रमुख संपादक रहे। उन्होंने संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार पर एक डॉक्युमेंट्री दूरदर्शन के लिए तैयार की है)


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व्यक्तित्व

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राष्ट्रधर्म

सर्वप्रथम मोहन भागवत की वैचारिक दृढ़ता और विशाल सांगठनिक दृष्टि के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नए शिखर की ओर अग्रसर है

दे

एसएसबी ब्यूरो

श के सबसे बड़े राष्ट्रवादी संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को एक व्यावहारिक और हिंदुत्व को आधुनिकता से जोड़ कर आगे चलने वाले प्रखर व्यक्तित्व के रूप में जाना जाता है। मोहन भागवत की वैचारिक दृढ़ता और विशाल सांगठनिक दृष्टि के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नए शिखर की ओर अग्रसर है। भागवत के लिए राष्ट्रधर्म तो सर्वप्रथम है ही, इसके साथ अनेकता में एकता के आधार पर देश की सामाजिक संरचना को एक सूत्र में जोड़ना उनका परम लक्ष्य है, क्योंकि समाज जुड़ेगा तो देश जुड़ेगा और तभी भारत के विश्वगुरु होने की संकल्पना साकार होगी। विचारों में दृढ़ और अपने निर्णयों पर अडिग रहने वाले डॉ. मोहन भागवत का जन्म 11 सितंबर 1950 को महाराष्ट्र के सांगली में हुआ था। वैसे उनका बचपन चंद्रपुर में बीता, जिसकी पहचान महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा बिजली का उत्पाद करने वाले जिले के रूप में है। दरअसल, उनके दादा नारायण भागवत महाराष्ट्र के सतारा से चंद्रपुर में आकर बस गए थे। मोहन भागवत के दादा नारायण भागवत राष्ट्रीय स्वयं

पशु चिकित्सक से प्रचारक और फिर सरसंघचालक बने मोहन भागवत निजी संबंधों को नहीं, बल्कि संगठन की नीतियों और सिद्धांतों को प्राथमिकता देते हैं और कभी अपने पथ से डिगते नहीं हैं

​इलेस्ट्रेशन ः धीर


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सेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार के स्कूल के दिनों के मित्र भी थे। इस तरह मोहन भागवत का संघ के साथ तीन पीढ़ियों का संबंध है। चंद्रपुर के लोकमान्य तिलक विद्यालय से उनकी स्कूली पढ़ाई पूरी हुई। उन दिनों के उनके शिक्षक आज भी उन्हें एक ऐसे विद्यार्थी के तौर पर याद करते हैं जो शिखर तक जा पहुंचा। चंद्रपुर से स्कूल की पढाई के बाद उनका नामांकन शहर के ही जनता कॉलेज में बीएससी में कराया गया, लेकिन बीएससी की पढाई उन्होंने बीच में ही छोड़ दी। पढ़ाई छोड़ने के एक साल बाद उन्होंने चंद्रपुर शहर को भी छोड़ दिया और अकोला चले गए। मोहन भागवत ने अकोला के पंजाबराव कृषि विद्यापीठ में वेटेनेरी साइंसेज एंड एनिमल हसबेंड्री के कोर्स में दाखिला लिया। स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद आगे पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए भी उन्होंने इसी कॉलेज में एडमीशन लिया। अकोला के पंजाबराव कृषि विद्यापीठ से एनिमल हसबेंड्री में ग्रेजुएशन करने के बाद मोहन भागवत ने कुछ महीनों के

खास बातें डॉ. भागवत का जन्म 11 सितंबर 1950 को महाराष्ट्र के सांगली में हुआ भागवत का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ तीन पीढ़ियों का संबंध देश की सामाजिक संरचना को एक सूत्र में जोड़ना उनका परम लक्ष्य

व्यक्तित्व

जब वे एमएससी की पढ़ाई कर रहे थे तो 1975 में उन्होंने अचानक बीच में ही पढ़ाई अधूरी छोड़ दी। यह वह दौर था, जब देश में आपातकाल लगाया गया लिए चंद्रपुर में ही एनिमल हसबेंड्री डिपार्टमेंट में नौकरी कर ली थी। लेकिन जब वे एमएससी की पढ़ाई कर रहे थे तो 1975 में उन्होंने अचानक बीच में ही पढ़ाई अधूरी छोड़ दी। यह वह दौर था, जब देश में आपातकाल लगाया गया। 1977 में उन्हें अकोला में ही संघ का प्रचारक बना दिया गया और बाद में उन्हें नागपुर और विदर्भ क्षेत्रों का प्रचारक भी बनाया गया। 1991 में मोहन भागवत संघ कार्यकर्ताओं के शारीरिक प्रशिक्षण के लिए अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख भी बनाए गए और वे इस पद पर 1999 तक रहे। इसी साल उन्हें सारे देश में पूर्णकालिक काम करने वाले संघ कार्यकर्ताओं का प्रभारी, अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख बना दिया गया। 2000 में जब सुदर्शन सरसंघचालक

बने तो मोहन भागवत सरकार्यवाह बनाए गए। 2000 से 2009 तक वे संघ के सरकार्यवाह बने रहे। सरकार्यवाह संघ की कार्य प्रणाली में दूसरे नंबर का कार्याधिकारी होता है। संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों के मंचों पर वे लगातार संघ को मजबूत करने के लिए बोलते और काम करते रहे। 22 मार्च 2009 को नागपुर में उन्हें संघ का छठा सरसंघचालक बनाने की घोषणा की गई। मोहन भागवत को विशेष रूप से स्पष्ट भाषी, विनम्र और व्यावहारिक प्रमुख माना जाता है, जो संघ को राजनीति से दूर रखने की एक स्पष्ट दूरदृष्टि रखते हैं। मोहन भागवत कहते भी हैं, ‘हम सब आते-जाते रहेंगे, लेकिन विचारधारा और संगठन शाश्वत स्वत रूप से बने रहेंगे।’

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पशु चिकित्सक से प्रचारक और फिर सरसंघचालक बने मोहन भागवत निजी संबंधों को नहीं, बल्कि संगठन की नीतियों और सिद्धांतों को प्राथमिकता देते हैं और कभी अपने पथ से डिगते नहीं हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश ही नहीं, बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है, जिससे करीब तीन दर्जन छोटे बड़े संगठन जुड़े हुए हैं। इन संगठनों का विस्तार पूरे देश में है। देश का सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन ‘भारतीय मजदूर संघ’ है। देश का सबसे बड़ा विद्यार्थी संगठन ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ और दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ‘भारतीय जनता पार्टी’ जैसे संघ के कई और संगठन हैं, जिन्हें संघ परिवार कहा जाता है। संघ परिवार देश भर में शिक्षा, जनकल्याण और हिंदू धर्म से जुड़े कार्यक्रमों समेत कई क्षेत्रों में हजारों प्रोजेक्ट चला रहा है। संघ परिवार के सभी आनुषंगिक संगठनों, कार्यक्रमों और उद्देश्यों के लिए दिशानिर्देश देना और उनका वैचारिक मार्गदर्शन करने का काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक का होता है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने दूरदर्शिता दिखलाते हुए युवा को नेतृत्व प्रदान करते हुए भारतीय जनता पार्टी में बड़ा बदलाव करते हुए पहले नितिन गड़करी को पार्टी का अध्यक्ष बनवाया और फिर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार। उनके इन दोनों फैसलों का नतीजा आज सबके सामने है। कह सकते हैं कि मोहन भागवत जैसे व्यक्ति कभी रूकते नहीं, ठहरते नहीं। उनकी सक्रियता निरंतर बनी हुई है। लक्ष्य एक है- ‘राष्ट्रधर्म सर्वप्रथम’।


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भारत ग्राम

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ग्रामोदय से राष्ट्रोदय

भारत गांवों का देश है। गांवों में होने वाले परिवर्तन और विकास से ही देश का विकास संभव है। इसीलिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने देश के गांवों के विकास का संकल्प लिया। संकल्पित कार्यकर्ताओं ने देश के सुदूरवर्ती गांवों में विकास और परिवर्तन की ऐसी अलख जगाई कि पूरी दुनिया आश्चर्यचकित रह गई। प्रस्तुत है संघ के वरिष्ठ नेता हो.वे. शेषा​िद्र द्वारा संकलित और संपादित पुस्तक कृतिरूप संघ दर्शन के एक अध्याय का संपादित अंश

हा

ल ही के वर्षों में सेवा-कार्य जिस विशेष दिशा में द्रुत गति से आगे बढ़ रहा है, वह है ‘गांवों के कायापलट' की दिशा। यह जानकर मन मुग्ध रह जाता है कि स्थानीय संसाधनों, परिस्थितियों और समस्याओं को देखते हुए कितने ही ऐसे पहलू हैं, जिनमें स्वयंसेवकों के प्रयासों से गांवों के जीवन-स्तर में सुधार आया है। स्वयंसेवकों के समक्ष सर्वाधिक महत्व की बात है, प्रकल्प के द्वारा लाया जा रहा सामाजिक कायापलट, जो हिंदू राष्ट्रीय जीवन के पुनरुत्थान और पुनर्गठन की उनकी समग्र संकल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने के लिए परमावश्यक है। ये कुछ उदाहरण हैं, जो इस बात के परिचायक हैं कि लगभग सभी राज्यों में, यहां तक कि आतंकवादियों

से प्रभावित सुदूरवर्ती क्षेत्रों में भी, उनके इन प्रयासों के असाधारण परिणाम निकल रहे हैं। ग्रामोदय का उत्प्रेरक दीनदयाल शोध संस्थान, ने 1978 में जो गोंडा ग्रामोदय प्रकल्प प्रारंभ किया था, वह देशभर में विख्यात है। वह उत्तरप्रदेश में गोंडा जिले के सर्वांगीण विकास के लिए अभिनव और मार्गदर्शी प्रयास कर रहा है। संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक नानाजी देशमुख उसके संस्थापकअध्यक्ष रहे। गोंडा दीर्घकाल से देश का सर्वाधिक पिछड़ा

जिला रहा है। जिले के अधिकांश लोग खेती पर आश्रित थे और उसके लिए मुख्यत: वर्षा-जल पर ही निर्भर रहते थे। अत: शोध—संस्थान ने अपने सर्वप्रथम कार्यक्रम के रूप में नलकूपों के माध्यम से जल-संसाधन-विकास को चुना। जब संस्थान ने प्रथम दो वर्षों में 20,000 नलकूप लगाने के अपने लक्ष्य की घोषणा की तो अनेक विशेषज्ञों ने इतनी अल्प अवधि में लक्ष्य-पूर्ति पर शंका प्रकट की। किन्तु 1980 के अंत तक नलकूपों की संख्या 28,000 हो चुकी थी।

गोंडा दीर्घकाल से देश का सर्वाधिक पिछड़ा जिला रहा है। जिले के अधिकांश लोग खेती पर आश्रित थे और उसके लिए मुख्यत: वर्षा-जल पर ही निर्भर रहते थे

खास बातें स्वयंसेवकों के प्रयासों से सुधरा गांवों का जीवन स्तर ग्रामोदय में जुटे हैं राष्ट्रीय स्वयं संघ के दर्जनों प्रकल्प राष्ट्रीय जीवन के पुनरुत्थान और पुनर्गठन की संकल्पना हो रही साकार


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संस्थान ने कुएं स्वयं नहीं खोदे। उसने तो लोगों को सिखाया कि वे सरकारी सहायता और बैंक ऋणों का सदुपयोग किस प्रकार करें। संस्थान की सफलता का मूलमंत्र है उसकी प्रेरणा। उसने सेवाव्रती ध्येयनिष्ठ संघ-कार्यकर्ताओं के माध्यम से अति कुशलता से लोगों को प्रेरित किया। गोंडा में ऋण की भरपाई का भी कीर्तिमान है। जहां गोंडा में ऋण चुकाने का प्रतिशत 80 है, वहां राष्ट्रीय औसत केवल 40 प्रतिशत है। जब खारेगांव के एक नवीनता—प्रेमी किसान ने अपने नलकूप के लिए धातु के नल के स्थान पर बांस का प्रयोग किया। उसने दूसरों को भी इस प्रयोग में सम्मिलित करने का प्रयास किया। दो उद्यमशील साहसी लोग आगे आए। एक था उमरी बेगमगंज का और दूसरा रामनगर झिन्ना का। वे इस निरख-परख में जुट गए कि बढ़ोत्तरी की किस अवस्था में बांस में अधिकतम शक्ति आ पाती है। अपनी धुन के धनी इन तीन ‘बावले' लोगों का प्रयोग इतना सफल रहा कि अब वे अपने ज्ञान की दिनोदिन बढ़ती हुई मांग को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। शोध संस्थान ने एक अति अनूठी उपलब्धि प्राप्त की है। उसने बोआई से पूर्व बीज के गेहूं को पुष्ट करने की एक नई विधि निकाली है और उसका प्रसार किया है। बीज की प्रजाति है ‘के 7410'। गोमूत्र में कुछ मध्यवर्ती उर्वरक मिलाकर बीजों का उपचार किया जाता है। इस प्रकार उपचारित बीज बोने पर गेहूं के उत्पादन में 20-25 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। बीज के पुष्टिकरण की यह विधि मूलत: कृषि-वैज्ञानिक एमवी पट की देन है। पर इस दिशा में पहल का श्रेय शोध संस्थान को है। इस विधि के कारण उर्वरक की आवश्यकता 50 प्रतिशत घट गई है तथा कीटनाशकों की आवश्यकता भी नहीं पड़ती। फलत: कम श्रम, कम लागत और लाभ अधिक। एक एकड़ में 40-50

ब्रिटेन के उच्चायुक्त सर जॉन टामस गोंडा प्रकल्प क्षेत्र को देखने के लिए इतने उत्सुक थे कि उन्होंने मोटरसाइकिल पर वहां जाना स्वीकार किया, क्योंकि उनकी कार ग्राम की सड़कों पर नहीं चल सकती थी। क्विंटल की उपज होने लगी है। शोध संस्थान द्वारा संचालित विभिन्न कार्यक्रमों के कारण 100,000 से भी अधिक परिवारों की आर्थिक दशा में सुधार हुआ है। 25 नवम्बर, 1978 को इस प्रकल्प का उद्घाटन करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने भविष्यवाणी की थी : 'सारा देश गोंडा जिले की इस ग्रामोदय-परियोजना को गहन रुचि से देखेगा।' उनकी यह वाणी अक्षरश: सत्य सिद्ध हुई। वन-रोपण के माध्यम से ईधन और भवननिर्माण की लकड़ी की मांग तो पूरी होनी ही चाहिए, इसके अतिरिक्त उसके द्वारा स्वस्थ पर्यावरण का निर्माण होना चाहिए। और कुपोषण भी दूर होना चाहिए। शोध—संस्थान ने ग्रामीण क्षेत्रों की वन—रोपण योजना को इस दिशा में मोड़ा है। उसने ग्रामवासियों को उत्साहित किया है कि वे पांच अलग-अलग प्रकार के फलदार वृक्ष लगाएं। इससे उन्हें वर्षभर क्रम से फल प्राप्त होते रहेंगे। फलदार वृक्षों को बच्चों के नाम से रोपे जाने से उनकी समुचित देखभाल में सहायता मिली है। गोंडा प्रकल्प के अधीन जिले के 2814 गांवों में प्रतिवर्ष लगभग 3 00 000 वृक्ष लगाए जा रहे हैं। ब्रिटेन के उच्चायुक्त सर जॉन टामस गोंडा प्रकल्प क्षेत्र को देखने के लिए इतने उत्सुक थे कि उन्होंने मोटरसाइकिल पर वहां जाना स्वीकार किया, क्योंकि उनकी कार ग्राम की सड़कों पर नहीं चल सकती थी।

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सामाजिक पुनर्जागरण के लिए जीवन-व्रती

संघ के वरिष्ठ प्रचारक एकनाथ रानडे कुछ वर्षों तक संघ के सरकार्यवाह (महासचिव) भी रहे थे। उन्हें स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक की स्थापना का भार सौंपा गया। स्मारक की स्थापना के बाद उन्होंने उसके दूसरे चरण की योजना तैयार की। इस प्रकार विवेकानंद केंद्र का जन्म हुआ। वह सामाजिक पुनरुत्थान के विभिन्न क्षेत्रों के लिए समर्पित ध्येयनिष्ठ युवा जीवनव्रती तैयार करता है। वह उन्हें चुनकर प्रशिक्षण देता है और फिर उन्हें नियुक्त करता है। सम्प्रति ऐसे 110 पूर्णकालिक कार्यकर्ता देशभर में लगभग 500 प्रकल्प चला रहे हैं। धुर पूर्वोत्तर में अरुणाचल, धुर उत्तर में कश्मीर और धुर दक्षिण में तमिलनाडु में ये प्रकल्प विद्यमान हैं। विवेकानंद केन्द्र का विश्वास है कि उसके द्वारा संचालित ग्राम-विकास-कार्यक्रम की बहुमुखी गतिविधियां तभी सफल होंगी जब उनमें स्थानीय लोगों को, विशेषत: युवा वर्ग को, भागीदार बनाया जाए। तिरुनेलवेली और कन्याकुमारी जिलों के 75 ग्रामों की सभी 75 बालवाड़ियां या तो ग्रामवासियों ने बनाई हैं, या उन्हें दान में दिया है, या फिर पंचायतों ने उनका आवंटन किया है। एक ग्राम में जहां अति निर्धन ग्रामवासी भवन के लिए पैसा नहीं दे सकते थे, वहां उनमें से एक ने अपना घर ही दे दिया और स्वयं अपने हाथों से घास-फूस की झोपड़ी बनाकर उसमें रहने लगा।

प्रति मास चार-पांच युवा शिविर लगाए जाते हैं। उद्देश्य यह होता है कि उनकी शक्ति को ग्रामों के रचनात्मक कार्यों में लगाया जाए। वे सड़कें और तालाबों के बांध बनाते हैं और तालाबों की सफाई करते हैं। इस रचनात्मक श्रम के साथ सृजनात्मक मानसिक भोजन भी उन्हें उपलब्ध कराया जाता है।

ग्रामोत्थान का ध्वज-पोत

कर्नाटक के दक्षिणी कन्नड़ जिले के जिन गांवों में संघ की शाखाएं सफलतापूर्वक चल रही हैं, उन सभी 24 गांवों को अपने-अपने गांव के जीवन में बहुमुखी कायापलट के लिए चुना गया है। यहां कुछ स्थानों का नामोल्लेख है, जहां सामाजिक कायापलट की प्रक्रिया बल पकड़ रही है। करकल तालुक के निट्टे गांव में आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए परिवारों की पहचान कर ली गई है। उनके लिए नि:शुल्क पढ़ाई की व्यवस्था की गई तथा पाठ्य-पुस्तकें निर्मूल्य उपलब्ध की गई हैं। चिकित्सा सहायता जैसी मौलिक सुविधाएं प्रदान करना, स्वास्थ्य-शिविर आयोजित करना तथा गांव के गरीब लोगों में अनाज मुफ्त बांटना – ये कार्य उनके प्रयासों का नियमित अंग हैं तथा वर्षभर चलते रहते हैं। इन गांवों में एक चिकित्सा-वाहन निरंतर जाता रहता है, जो उन्हें उनके द्वार पर चिकित्सा-सहायता प्रदान करता है। आर्थिक मोर्चे पर, उद्यान कृषि विभाग की सहायता से 24 परिवारों को फलों के पौधे बांटे गए हैं। महिला उद्योग मंडल दर्जनों महिलाओं को पहले ही घरों और गांवों के विविध शिल्पों तथा सिलाई का प्रशिक्षण दे चुका है। उन्हें अपना व्यवसाय करने के लिए आवश्यक साधन उपलब्ध कराने की व्यवस्था भी की गई है, ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें।


08 पुनाचा : एक आदर्श आत्मनिर्भर गांव

विगत 15 वर्षों से स्वयंसेवकों द्वारा किए जा रहे सर्वतोमुखी संगठित प्रयासों के फलस्वरूप पुत्तूर तालुक के कभी पिछड़े समझे जानेवाले पांच हजार की जनसंख्या वाले पुनाचा गांव का असाधारण रूप से कायापलट हो गया है। पहले खेतिहर श्रमिक विरले ही, अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजते थे। सामाजिक भेद और पिछड़ापन सर्वत्र व्याप्त था। गांव में शायद ही कभी कोई खेल-कूद का या सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता था। अब पुनाचा में तीन-तीन शिशु विहार' हैं और वहां का उच्च विद्यालय जिले का सबसे अधिक सुसंचालित विद्यालय है। पुनाचा में एक सहकारी समिति है, जिसे सारे राज्य के लिए आदर्श माना जाता है। यह समिति कृषि-कार्य को वित्तीय आधार प्रदान करती है। वहां अब ‘दुग्ध उत्पादक संघ' की एक शाखा भी खुल गई है। कर्वशे करकल तालुक का सुदूरवर्ती गांव है। यह पश्चिमी घाट के साथ-साथ बसा हुआ है। वर्ष 1990 में स्थापित ‘युवा जन वेदिके' के तत्वावधान में स्थानीय विद्यालयों, गांव के मंदिरों, जैन मदिरों में तथा कृषि के जल-स्रोत स्थलों पर नियमित रूप से श्रम-सेवा की जाती है। सुलिया तालुक के 'कामराजे' गांव में ‘ श्रमसेवा' एक नियमित कार्य-व्यापार है, जिसके माध्यम से सड़कों का सुधार करने, विद्यालय के क्रीड़ा-स्थल को चौड़ा करने, डाकखाने के

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भवन का जीर्णोद्धार करने, विद्यालय के मैदान में नारियल के पेड़ लगाने—जैसे कार्य किए जाते हैं। इस प्रकार लगाए गए नारियल के पेड़ अच्छी उपज दे रहे हैं, जो यह सिद्ध करता है कि नारियल के पेड़ों की अच्छी देखभाल की जाती है।

जीवन-स्तर सुधारा

झारखंड के रांची जिले में विशुनपुर में स्थित विकास भारती की अनोखी विशेषता है। समर्पित युवकों का एक दल उसका मार्गदर्शन कर रहा है। उन्हें संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में सामाजिक कार्य का प्रशिक्षण मिला है तथा शैक्षिक योग्यता में वे अति योग्य अभियंता और वैज्ञानिक हैं। प्रकल्प की विशेषता यह है कि वह वनवासी ग्रामों के समग्र विकास के लिए वैज्ञानिक तथा प्राविधिक ज्ञान का उपयोग कर रहा है। कतिपय दिशाओं में विकास भारती तीव्र विकास कर रही है, यथा उपलब्ध कच्चे माल से परिष्कृत पदार्थ तैयार किए जाते हैं; ऐसे उत्पाद के लिए मंडी खोजी जाती है। वनवासियों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पढ़ना, लिखना और अंकगणित सिखाया जाता है। ‘ज्ञान प्रबोधिनी' पुणे जिले की शिवगंगा और गुंजावनी नदी-घाटियों के सभी गांवों में समेकित ग्राम विकास का प्रकल्प चला रही है। प्रबोधिनी स्वास्थ्य को भी प्राथमिक महत्व दे रही है। ग्राम स्तर के स्वास्थ्य-कार्यकर्ताओं के लिए वह अब तक तीन पाठ्यक्रम चला चुकी है। ग्रामवासियों में

‘ज्ञान प्रबोधिनी' पुणे जिले की शिवगंगा और गुंजावनी नदी-घाटियों के सभी गांवों में समेकित ग्राम विकास का प्रकल्प चला रही है

निजी और सामूहिक स्वच्छता के बारे में जागृति पैदा करने के लिए वह समय-समय पर स्वास्थ्यशिविर भी चलाती रही है। कुष्ठ और क्षय रोग के उन्मूलन पर विशेष बल दिया जाता है। दो लाख की जनसंख्या के घर-घर किए गए सर्वेक्षण, स्वास्थ्यशिक्षा तथा बहु-औषध चिकित्सा के फलस्वरूप कुष्ठ रोग—ग्रस्तता प्रति हजार 5 व्यक्ति से घटकर 0.5 प्रति हजार मात्र रह गई है। ग्रामों में किए जा रहे इस कार्य को अब पुणे में अवस्थित 100 शय्याओं वाले अस्पताल का सहारा मिलने से और बल मिला है। यह अस्पताल ज्ञान-प्रबोधिनी के शिक्षा-प्रयोग का परिणाम है। पुणे में प्रतिभाशाली बाल विद्यालय के पूर्व—छात्रों ने मिलकर नैतिकता आधारित और युक्तियुक्त चिकित्सा का आदर्श रूप प्रस्तुत करने के लिए इस अस्पताल के प्रबंध को अपने हाथ में ले लिया है। इस प्रबंध-व्यवस्था में डॉक्टर और रोगी के परस्पर संबंधों का आधार मानवीय रहेगा। सन् 1990 से चल रहे एक विशेष स्वास्थ्य-प्रकल्प के अधीन ‘आयुर्वेद पेटी' उपलब्ध कराई जाती है। इस पेटी में कतिपय ऐसी सरल आयुर्वेदिक औषधियां रहती हैं, जो सामान्य रोगों में गुणकारी हैं। यह पेटी सेवा की भावना से इस कार्य को करने के लिए इच्छुक गांव के किसी कार्यकर्ता अथवा अध्यापक के पास रहेगी।

दलितों का सर्वतोमुखी उत्थान

पुणे के स्वयंसेवक मधुकरराव देवल शिक्षा पूरी करने के बाद जब अपनी पैतृक संपत्ति की देखभाल करने के लिए महाराष्ट्र के सांगली जिले में अपने ग्राम महैसल लौटे तो हरिजनों की दरिद्रता और उनके दमघोंटू ऋण-भार को देखकर उनका हृदय

विदीर्ण हो गया। देवल ने अपने हरिजन बंधुओं को भी विट्ठल कृषि सहकारी समिति स्थापित करने की प्रेरणा दी। समिति के माध्यम से उन्होंने उन्हें ऋण दिलाए, उन्हें उनकी भू-संपत्ति वापस दिलाई, कृषि-उत्पादन में उन्हें बचत के उपाय सिखाए और अपने-अपने घर बनाने में उनकी सहायता की। 125 दलित-परिवारों ने अपने सभी ऋण चुका दिए हैं और प्रत्येक परिवार की औसत वार्षिक आय 11,000 रुपए है तथा रहने के लिए एक घर भी है। सामाजिक जीवन में भी स्पष्ट परिवर्तन हुआ है। 'स्पृश्य' और 'अस्पृश्य' का भेद समाप्त हो गया है। दलित अब ग्राम में घूमते हैं और बराबरी की भावना से पूरे समाज से मिलते-जुलते हैं। जिले में तथा अन्यत्र स्वयंसेवकों ने इस आदर्श का अनुकरण किया है। महात्मा गांधी के पौत्र अरुण गांधी ने 2 दिसंबर, 1977 में 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' में एक लेख में महैसल के अनोखे परिवर्तन का उल्लेख करते हुए कहा था : ' क्या महैसल महात्मा गांधी का सच्चा स्मारक नहीं होगा?'

वन-रक्षण तथा वन-पोषण

स्वयंसेवकों ने कर्नाटक के शिमोगा जिले की सागर तहसील में 'सेवा-सागर' प्रकल्प चालू किया है। उसने सामाजिक कायांतरण के अनेक सशक्त आंदोलनों को जन्म दिया है। तहसील के दर्जनों ग्रामों में अनेक प्रकार की गतिविधियां चल रही हैं, यथा योग एवं संस्कृत-प्रचार-केन्द्र, संस्कार-केन्द्र, स्वास्थ्य-केन्द्र, वनवासी-कल्याण- केंद्र, मातृमंडलियां, बाल-गोकुल आदि खोले गए हैं। वन-परिरक्षण और वृक्षारोपण के कार्यक्रम में भी गांववालों ने अपार सहयोग दिया है। कुछ दशाब्दी पूर्व तक जो तहसील अति सघन वनों के लिए विख्यात थी, अब प्राय: वृक्षविहीन-सी हो गई है। इन उष्ण कटिबंधीय वनों के पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ करने के कारण सदियों से अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए वन पर आश्रित लाखों लोगों के जीवन को सहारा देनेवाली लाठी ही टूट गई है। लकड़ी के उद्योगों, जल-विद्युत परियोजनाओं और खनन ने मिलकर उन पर भीषण कुठाराघात किया है। सन् 1983 में स्वयंसेवकों के नेतृत्व में एक प्रौढ़ शिक्षा केंद्र के सहभागियों ने जिगलेमाने में प्रतिरोध अभियान छेड़ा। शीघ्र ही वह आसपास के ग्रामों में फैल गया। प्रारंभ में इस दल ने वन के 90 एकड़ के खंड में वृक्षों के काटे जाने का सफल प्रतिरोध किया। परिणाम सामने है। इसका रचनात्मक पक्ष है 'वृक्ष लक्ष आंदोलन' 'लाखों वृक्ष लगाओ'। इसके झंडे तले हर ग्राम को 'ग्राम-वन' के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है। इस अभियान से ग्रामवासियों की यह सुप्त भावना पुन: जाग उठी है कि हर ऋतु में उगाए गए विरवों का वे प्रेम से अपने बच्चों की भांति ही पालन-पोषण करें। पर्यावरण— संबंधी चेतना पैदा करने के लिए नई-नई प्रथाओं का प्रचलन किया गया है, यथा शुभ अवसरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करनेवालों को पुरस्कारस्वरूप ये विरवे दिए जाते हैं। इन सब प्रयासों के कारण समूची तहसील में लाखों नए वृक्षों की बाढ़-सी आ गई है।


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‘अपना हाथ जगन्नाथ'

'ग्राम-गौरव' कार्यक्रम वास्तव में एक बहुत ही अनूठा प्रकल्प है। इसकी परिकल्पना मध्य बिहार में की गई और इसका सफलतापूर्वक क्रियान्वयन भी वहीं किया जा रहा है। अब तक 18 जिलों के 58 स्थानों में जो अनुभव हुआ है, वह वस्तुत: बहुत शिक्षाप्रद है। तत्वत: यह कार्यक्रम अपने गांव की उल्लेखनीय उपलब्धियों पर यथोचित गर्व की भावना जगाने के चारों ओर केंद्रित है। इसका अद्भुत प्रभाव पड़ा। इससे जहां एक ओर सामाजिक समरसता की भावना का निर्माण हुआ, वहीं दूसरी ओर इसने अपने गांव के जीवन को सुधारने की इच्छा को जन्म दिया। संपूर्ण कार्यक्रम की विशेषता इसके ‘ग्रामवासियों द्वारा, ग्रामवासियों के संबंध में और ग्रामवासियों के लिए' संचालन की शैली में निहित है। इस प्रयोजन के लिए बनी समिति एक सुविधाजनक दिन नियत करती है तथा आस-पड़ोस के गांवों को और गांव के बाहर रह रहे स्थानीय ग्रामवासियों को आमंत्रित करती है तथा क्षेत्र के ही किसी राज्य स्तर के विशिष्ट अथवा सुप्रतिष्ठित व्यक्ति को 'मुख्य अतिथि' के रूप में आमंत्रित करती है। तदनंतर गांव का वह व्यक्ति, जिसने गांव के इतिहास का विशेष अध्ययन किया है, गांव का इतिहास बताता है। अपने वर्णन में वह विशेष रूप से गांव के उन प्रमुख व्यक्तियों का नामोल्लेख करते हुए शिक्षा, समाज-सेवा, हस्तकौशल, राजनीति, व्यापार, खेलकूद, पहलवानी, संगीत प्रभृति विभिन्न क्षेत्रों में उनके विशिष्ट योगदान पर प्रकाश डालता है। प्रमुख व्यक्तियों की सूची में, गांव के बड़े संयुक्त परिवार के मुखिया का भी सम्मान किया जाता है। ऐसे सभी व्यक्तियों को, जो जीवित हैं, नाम लेकर मंच पर बुलाया जाता है तथा मुख्य अतिथि द्वारा उन्हें हार पहनाकर सम्मानित किया जाता है। जो विशिष्ट व्यक्ति जीवित नहीं होते, उनके परिवार के किसी सदस्य को मंच पर आकर हार ग्रहण

करने के लिए कहा जाता है। उपेक्षित वर्गों में जो सबसे वृद्ध पुरुष होता है उसका अथवा उनमें जो सबसे अधिक पढ़ी महिला होती है उस महिला का भी सम्मान किया जाता है। संपूर्ण कार्यक्रम में लड़कियों और गृहणियों की सक्रिय भूमिका के सुनिश्चय पर विशेष ध्यान दिया जाता है। कार्यक्रम के बीच ही उत्साही व्यक्तियों की सूची बनाई जाती है तथा अगले वर्ष की ग्राम-गौरव समिति इन्हीं से गठित की जाती है। इसके पीछे आशय यह होता है कि वे नियमित एकत्र आयोजित कर तथा सामाजिक और धार्मिक आयोजन कर इस कार्यक्रम के संदेश को आगे बढ़ाएं। ये आयोजन इसीलिए किए जाते हैं कि ग्रामवासियों के बीच जाति, संप्रदाय, धर्म आदि के भेद को किनारे कर उनमें परस्पर एकता और बंधुत्व की भावना का विकास हो। वैदिक कृषि द्वारा कायापलट संजीवन कृषि अनुसंधान प्रतिष्ठान (संजीवन एग्रो रिसर्च फाउंडेशन) तथा कृषि प्रयोग परिवार एकीकृत तथा सर्वांगीण ग्राम विकास की दिशा में दो परस्पर संबद्ध, किंतु पृथक प्रयास हैं। ये कर्नाटक के शिमोगा जिले के सागर तालुक में 'जांबने' में अवस्थित है। सं.कृ.अ.प्र. ग्राम्य खेतों और ग्राम आवासों में सामाजिक-आर्थिक सुधार के लिए अनुसंधान-कार्य को आधार बनाना चाहता है। उसका प्रयास युवकों को इस रूप में प्रशिक्षण प्रदान करना है कि वे इन लक्ष्यों के लिए प्रतिबद्ध सफल, जानकार और रचनात्मक नेतृत्व प्रदान कर सकें। दूसरी ओर कृ. प्र.प. का यह प्रयत्न है कि एक सुदृढ़ संगठनात्मक आधार-संरचना का निर्माण किया जाए जिसका गठन सहयोगी ग्राम स्तर के एककों से हो। मोटे रूप से यह कहा जा सकता है कि 'कृषि प्रयोग परिवार' आंदोलन का उद्देश्य स्वदेशी; स्वावलंबी तथा सावयव (जैव/पारिस्थितिकी के अनुरूप) कृषि को बढ़ावा देना, स्थानीय स्वास्थ्य-परंपराओं को पुनरुज्जीवित करना तथा कृषि प्रयोग परिवार के युवकों को विकासोन्मुख

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एवं सशक्त बनाना है, जिससे कि वे रचनात्मक, गैर-राजनीतिक, निष्पक्ष तथा विकासोन्मुख नेतृत्व प्रदान कर सकें। संजीवन कृषि अनुसंधान प्रतिष्ठान (सं.कृ.अ.प्र.) के अनुसंधान स्कध ने पहले से ही वैकल्पिक विकास योजना के मुख्य आधार स्वरूप देशीय कृषि-ज्ञान-तंत्र तथा प्रविधियों का प्रलेखन प्रारंभ कर दिया है। उसके स्वास्थ्य अनुसंधान स्कध ने इसी प्रकार स्थानीय स्वास्थ्य-परंपराओं का प्रलेखन आरंभ कर दिया है। इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से अब तक प्रारंभ किए गए कार्यक्रमों की संख्या 300 से ऊपर है। लगभग 25,000 किसान विभिन्न अवधियों और अन्य प्रकार के कार्यक्रमों में भाग ले रहे हैं। लगभग 2000 किसानों ने पुन: जैव कृषि आरंभ कर दी है। अब तक 13 जिलों में कृषि के क्षेत्र के अनेक मूर्धन्य वैज्ञानिक तथा अनुसंधानकर्ता स्वयमेव प्रकल्प से सक्रिय रूप से जुड़ चुके हैं। प्रकल्प ने अब तक जो महत्वपूर्ण योगदान किए हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं- कृषि निवास कंपोस्ट विधि, तरल खाद, कंपोस्ट क्वाथ, कृमि-प्रक्षालन वृद्धिकारी क्वाथ, पादप-संरक्षक वानस्पतिक व्युत्पन्न, गो-आश्रित कृषि-प्रणाली, कृषि में पिरामिडों और अग्निहोत्र का उपयोग। कृ.प्र.प. तथा सं.कृ.अ.प्र. के कार्यकलापों के आधार के रूप में शिमोगा जिला केंद्र पर एक प्रयोगशाला भी विकसित की गई है। अब तक न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड, अमेरिका और जापान से इस क्षेत्र के विशेषज्ञ और प्रयोगवेत्ता जांबने गांव के 15 एकड़ के भूखंड पर चल रहे बहुआयामी प्रकल्प देखने आ चुके हैं। डॉ. हेडगेवार स्मृति सेवा प्रकल्प सावंतबाड़ी की डॉ. बालासाहिब लेले स्मारक समिति के अधीन प्रारंभ किया गया है। इसका उद्देश्य युवकों को आय के लाभकारी स्रोत उपलब्ध कराने की महती आवश्यकता की पूर्ति तथा बहिर्गमन की आवश्यकता को समाप्त करना है। यह सब ग्रामीण क्षेत्रों के 50 निर्धन लड़कों के लिए 'तेम्बे

09 स्वामी विद्यार्थी वसतिगृह' नाम से एक छात्रावास की स्थापना से आरंभ हुआ। उद्देश्य था उन्हें ऐसी शिक्षा प्रदान करना, जिससे वे अंतत: अपने क्षेत्रों में ही बस जाएं। इसके खाद्य प्रसंस्करण प्रशिक्षण केंद्र में प्रति वर्ष 8-10 प्रशिक्षणार्थी आम, जामुन, अनानास, कटहल आदि फलों से गूदा, स्क्वैश, रस, मुरब्बा आदि तैयार करने की पद्धति और कौशल सीखते हैं। इन्हें परिरक्षित कर बाजार में बेचा जाता है। वर्ष 1991– '95 तक प्रशिक्षित किए गए 40 व्यक्तियों में से 10 ने अपने स्थानों पर ही अपने लघु एकक खोल लिए हैं। इसी प्रकार से 40 महिलाओं ने आम, काजू, कटहल, दूध आदि से चॉकलेट बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त किया है। प्रति हेक्टेयर 2 टन धान के स्थान पर 6 टन धान की बेहतर फसल के लिए एक मार्गदर्शी प्रकल्प तथा कच्चा माल, मशीनरी और विपणन व्यवस्था तथा तकनीकी समस्याओं के निराकरण का प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए उत्पादकों की एक संस्था परिपक्वता की स्थिति में है। वनवासी युवकों के लिए इसी प्रकार के एक प्रकल्प के अंतर्गत 4-7 परिवारों के समूहों को रायगढ़, नासिक और धुले के चार जिलों में से प्रत्येक जिले में एक ग्राम-समूह के रूप में संगठित होने के लिए प्रोत्साहित किया गया। उन्हें सहकार के आधार पर पत्ता गोभी, बैंगन, टमाटर और मिर्च आदि विभिन्न साग-सब्जियां उगाने और बेचने के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन और सहायता प्रदान की गई। उन्हें बीज, उर्वरक और कीटनाशकों के साथ सुवाह्य पंप भी उपलब्ध कराए गए। ऐसे एक पहले प्रयास में ही 5 गुना भूमि की उपज से प्रति परिवार 5,000 रुपए की आय हुई। इन परिवारों ने भी बीज आदि निवेशों के मूल्य को चुकता करने में देरी नहीं की। अपनी घरेलू खपत से अधिक परिमाण में कद उगाने से जो नकद आय हुई वह कपड़ा, बर्तन आदि दैनिक आवश्यकताएं पूरी करने के काम आई। जैसे-जैसे आधुनिक पद्धतियों का विश्वास बढ़ता गया वैसे-वैसे उन्हें अपनी परती भूमि पर आम, काजू, नारियल, नींबू, कोको आदि फल तथा नीम, यूक्लिप्टस, बांस आदि वनकृषि की प्रजातियां उगाना सिखाया गया। एकीकृत चावल कृषि प्रविधि (इंटेग्रेटड राइस एग्रो टेकनीक) कार्यक्रम के अधीन रोगों और नाशक कीटों से धान के बीज-संरक्षण के लिए नई प्रजातियां उगाई जाती हैं तथा हरी खाद के लिए पंक्ति रोपण किया जाता है। इससे किसान प्रति हेक्टेयर 2 टन के स्थान 4 टन उगाने में सफल हुए हैं। महाराष्ट्र, गुजरात और दादरा नागर हवेली के पश्चिमी घाट के सभी धान उगानेवाले जिलों में उपरिवर्णित ग्राम-समूहों तथा व.क.आ. के छात्रावासों के आस-पास के गांवों से आई.आर.ए. कार्यक्रम में भाग लेनेवाले किसानों की जो संख्या 1993 में मात्र 20 थी, वह 1997 में बढ़कर 400 हो गई। 1995 से महाराष्ट्र के अकाल-बहुल क्षेत्र कार्यक्रम की निधि का उपयोग करते हुए पन-ढाल के विकास की एक नई अवधारणा शुरू की गई है। उपलब्ध जल में बढ़ोत्तरी होने से वनवासी किसानों ने नकद फसलें, तिलहन, चारे की फसलें आदि उगानी प्रारम्भ कर दी हैं। इससे उनकी आय 2000/- वार्षिक से बढ़कर 20,000/- प्रति वर्ष हो गई है।


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आयोजन

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स्वच्छ भारत अभियान सुलभ की सहभागिता और दृष्टिकोण 18 जनवरी, 2018 को सत्यजीत रे फिल्म और टेलीविजन संस्थान, कोलकाता में सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक के संबोधन का संपादित अंश

स समारोह में उपस्थित प्रतिभागी,महिलाएं एवं प्रतिष्ठित सुधिजन। सर्वप्रथम मैं सत्यजीत रे फिल्म्स और टेलीविजन संस्थान के निदेशक डॉ. देबामित्र मित्रा का स्वागत करता हूं और स्वच्छ भारत अभियान पर मेरे विचार साझा करने का अवसर देने के लिए भारत सरकार, सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत आने वाले शैक्षणिक संस्थान को धन्यवाद देता हूं। इसके साथ ही सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अध्यक्ष प्रो. के जे नाथ का भी स्वागत करता हूं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2014 को स्वतंत्रता दिवस के अपने पहले भाषण में लाल किले की प्राचीर से सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया। वह देश के पहले ऐसे पीएम हैं जिन्होंने भारत को साफ रखने और शौचालयों के निर्माण के बारे में पूरी संवेदनशीलता के साथ देश की जनता से बात की। उन्होंने कहा कि उनकी सरकार द्वारा सफाई को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है और सरकार के गठन के बाद पहला काम भारत को स्वच्छ एवं

प्रधानमंत्री ने कहा कि यदि देश को विकास के पथ पर आगे ले जाना है तो सर्वप्रथम हमें स्वस्थ रहना होगा, जिसके लिए स्वच्छता सबसे जरुरी है स्वस्थ बनाने का है। प्रधानमंत्री ने जोर दे कर कहा कि यदि देश स्वच्छ नहीं है तो नागरिक स्वस्थ नहीं हो सकते, जो किसी भी देश के विकास की पहली शर्त होती है। उन्होंने कहा कि यह जरूरी है कि हम सामूहिक रूप से अपने देश को साफ रखने के प्रति वचन लें और अपने घर की ही तरह अपने समाज व देश को भी साफ रखें। प्रधानमंत्री ने कहा कि यदि देश को विकास के पथ पर आगे ले जाना है तो सर्वप्रथम हमें स्वस्थ रहना होगा, जिसके लिए स्वच्छता सबसे जरुरी है। प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत के 4.5 लाख सरकारी वित्त पोषित विद्यालयों में पर्याप्त शौचालय सुविधाएं नहीं हैं, जिसकी वजह से इन विद्यालयों में छात्रों, विशेषकर छात्राओं की उपस्थिति कम है। इसीलिए हमें यह सुनिश्चित करना है कि सभी

स्कूलों में एक वर्ष के भीतर शौचालय होने चाहिए ताकि बच्चे, विशेष रूप से लड़कियां, सम्मान के साथ स्कूल जा सकें। सबसे अच्छी खबर यह है कि एक वर्ष के भीतर ही प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने प्रत्येक विद्यालयों में शौचालयों का निर्माण करने का लक्ष्य हासिल करने में सफल रही। मेरा मानना है कि सभी स्कूलों में बने शौचालयों के साफ-सफाई की जिम्मेदारी वहां के शिक्षकों और छात्रों की होनी चाहिए। हमें यह देखना होगा कि अच्छी आदतें बच्चों में पैदा हों, ताकि वे स्वच्छता के ध्वजवाहक बन जाएं। हमने अपने इस प्रयोग को सुलभ पब्लिक स्कूल में करके देखा है, जहां शिक्षक और छात्र स्वच्छ शौचालयों की साफसफाई करते हैं। इतना ही नहीं वे उच्चतम स्तर की नागरिक भावना का विकास करते हैं और कभी

स्कूल परिसर और सार्वजनिक स्थान को गंदा नहीं करते हैं। सुलभ पब्लिक स्कूल के छात्रों को अपने इस कार्य पर गर्व है और वे अपने दोस्तों, परिवार के सदस्यों और पड़ोसियों को भी साफ-सफाई रखने के लिए जागरुक करते हैं। सुलभ पब्लिक स्कूल के शौचालयों में लड़कियों के लिए सैनेटरी नैपकिन की व्यवस्था है। स्कूल में सैनेटरी नैपकिन के सुरक्षित निपटान के लिए एक भस्मक भी रखा गया है। उदयपुर से आते समय हवाई जहाज में मैंने एक सात साल की लड़की को खराब कागज को एयरहोस्टेज को देते देखा। यह उल्लेखनीय था कि बच्चे स्वच्छता के बारे में जागरूक हो रहे हैं। मैंने बच्चों को यह कहते हुए सुना है कि यदि आप इधरउधर कूड़ा फेकेंगे तो मोदीजी आपको देख लेंगे। यह सबसे महत्वपूर्ण है कि स्वच्छता को लेकर बच्चे भी जागरुक हो गए हैं। यह महत्वपूर्ण है कि स्वच्छता के खिलाफ युद्ध जारी रहना चाहिए और इसे मात्र प्रतीकात्मक संकेत के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि स्वच्छता के प्रति लोगों के दिमाग में एक सांस्कृतिक क्रांति होनी चाहिए। हमें अपनी आदतों और जीवन शैली में सुधार करना चाहिए जब हम सकारात्मक परिवर्तन के बीज बोते हैं, तो अंततः उसका प्रभाव हमारे परिवार, पड़ोस, गांवों, कस्बों, शहरों और पूरे देश में दिखाई देता है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि प्रत्येक घर में शौचालय होना चाहिए और इसके लिए पूरे देश के अधिकारियों और प्रशासकों को एक साथ निर्देश दिए गए हैं। अब तो बच्चे भी इस अभियान में बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं और लोगों को खुले में शौच नहीं करने के लिए जागरुक कर रहे हैं। पहले की तुलना में आज खुले में शौच करने वाले पुरुषों और महिलाओं की संख्या में काफी गिरावट आई है। 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में महात्मा गांधी ने भारत में पहली बार स्वच्छता और शौचालय के मुद्दे को उठाया था। जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका के डरबन स्थित फीनिक्स आश्रम में थे, तो उन्होंने वहां पर ट्रेंच टॉयलेट सिस्टम का इस्तेमाल किया। वह 128 एकड़ में फैला एक बड़ा फार्म हाउस था, जिसमें ट्रेंच टॉयलेट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करके इस्तेमाल किया जाता था और प्रत्येक प्रयोग के बाद उसे मिट्टी से ढंक दिया जाता था। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से भारत कलकत्ता


05 - 11 फरवरी 2018 में कांग्रेस सत्र में हिस्सा लेने आए थे। वहां कांग्रेस शिविर में स्वच्छता की स्थिति काफी भयानक थी। कुछ प्रतिनिधियों ने कमरे के सामने ही बने बरामदे को शौचालय के लिए इस्तेमाल किया और किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया, लेकिन गांधी जी ने तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त की और कार्यरत स्वयंसेवकों से बात की तो उन्होंने कहा कि यह हमारा काम नहीं है। यह एक सफाई कर्मचारी का काम है। इसके बाद गांधी जी ने स्वयंसेवकों से झाड़ू मांगी और खुद ही गंदगी को साफ किया। गांधी जी उस समय वेस्टर्न ड्रेस में तैयार थे, जिन्हें देखकर स्वयंसेवक हैरान थे, लेकिन कोई भी उनकी सहायता करने के लिए आगे नहीं आया। कई वर्षों बाद जब गांधी जी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मार्गदर्शक बने तो स्वयंसेवकों ने कांग्रेस शिविरों में एक सफाई दल का गठन किया। हरिपुरा कांग्रेस सत्र में लगभग दो हजार शिक्षक और छात्र विशेष रूप से सफाई करने के लिए प्रशिक्षित किए गए थे। गांधी जी सफाई करने वाले यानी अछूत के रूप में चिन्हित किए जाने वाले लोगों का समूह बनाने के खिलाफ थे। वह भारत से छुआछूत को खत्म करना चाहते थे। गांधीजी को इस अमानवीय अभ्यास ने इतना उद्वेलित कर दिया था कि उन्होंने खुले में शौच को रोकने के लिए दो चीजों का सुझाव दिया। पहला ट्रेंच टॉयलेट का उपयोग और दूसरा शौच के बाद मानव मल पर मिट्टी डालना था। यह भारत में "टट्टी पर मिट्टी" के रूप में लोकप्रिय हुआ था। गांधी जी ने ये दो सुझाव दिए, लेकिन वह एक वैज्ञानिक शौचालय भी चाहते थे, ताकि लोग शौचालयों का उपयोग कर सकें और खुले में शौच न करें। उनका मानना था कि केवल तकनीक ही शौचालयों की सफाई करने वालों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार को रोकने के लिए एक समाधान उपलब्ध करा सकती है। गांधी जी ने कहा था कि वह पहले एक स्वच्छ भारत चाहते थे, स्वतंत्रता बाद में। साल 1968 में मैं अछूतों की दयनीय परिस्थितियों से परेशान था और महात्मा गांधी के दर्शन और शिक्षाओं से प्रेरित था। मैंने एक उपयुक्त तकनीक इजाद की, जो शुष्क शौचालयों की जगह ले सकते थे और सफाई की समस्या को खत्म कर सकता था। मेरा विचार सिर्फ एक समाधान देने सिर पर मानव मल ढोने के लिए नहीं, बल्कि एक समाज को मुक्त करने के लिए था,जो एक ऐसी परंपराओं में कैद था, जिससे जाति आधारित भेदभाव को प्रोत्साहन मिल रहा था। मेरे कार्यों में एक प्रणाली में सुधार करना है और उन्हें उन गरिमा को दिलाना है, जिनसे वह हजारों वर्षों से वंचित रहे हैं। इन महिलाओं की आजादी, आवाज और बुनियादी मानवाधिकार जब्त किए गए थे, क्योंकि ये भारत की जाति आधारित समाज में सबसे निचले स्तर पर पैदा हुई थीं। जिन्हें आज दलित और इससे पहले 'अस्पृश्य' कहा जाता था। अपने जन्म के आधार पर उन्होंने स्कैवेंजर्स के रूप में काम किया, सिर पर मानव मल ढोया और गंभीर सामाजिक भेदभाव का सामना किया। अछूतों के सम्मान और अधिकारों को पुनर्स्थापित करने के लिए मैंने एक आंदोलन भी चलाया। 1968 में महात्मा गांधी के दर्शन से प्रभावित हुए और व्यक्तिगत तौर पर बिहार राज्य में

दलितों के खिलाफ अपने परिवार में जाति आधारित भेदभाव का भी साक्षात्कार किया। मैंने आधुनिक संकल्प के बंधन से उन्हें मुक्त कराने के लिए एक संकल्प लिया और इसके लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। मैंने एक टिकाऊ तकनीक का आविष्कार किया, जो टू पिट पोर -फ्लश तकनीक शौचालय के रूप में जानी जाती है। इसे साफ करने के लिए मैनुअल स्कैवेंजर्स की आवश्यकता नहीं होती और अंततः इससे इस अमानवीय व्यवहार का अंत हो गया है। मैला ढोने की प्रथा को मुक्त करने के लिए मैंने स्वच्छता आंदोलन शुरू किया। ग्रामीण क्षेत्रों के घरों में शौचालय नहीं थे, हर कोई शौच के लिए खुले में जाता था। इसकी वजह से महिलाओं को सबसे अधिक समस्याओं का सामना करना पड़ता था। महिलाओं को शौच के लिए सूर्योदय से पहले या सूर्यास्त के बाद ही बाहर निकलना होता था, जिससे उन्हें गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना भी करना पड़ता था। यहां तक कि अंधेरे में भी उनके लिए बाहर जाना सुरक्षित नहीं था, क्योंकि सांप-बिच्छू के काटने,पशु के हमले और यौन हिंसा की संभावना हमेशा रहती थी। यहां तक कि ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में शौचालय नहीं थे, जिसकी वजह से लड़कियां स्कूल नहीं जाती थी। खुले में शौच जाने से गांवों में बच्चों को दस्त, हैजा और अन्य बीमारियां हो जाती थीं, जिससे उनकी मौत हो जाती थी।

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एक वर्ष के भीतर ही प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने प्रत्येक विद्यालयों में शौचालयों का निर्माण करने का लक्ष्य हासिल करने में सफल रही सुलभ द्वारा बनाए गए टू पिट पोर फ्लश शौचालय तकनीक गांवों में खुले में शौच करने वालों को रोकने में काफी मददगार साबित हुआ है। अब ग्रामीण इलाकों में महिलाएं सुरक्षित रूप से और गरिमा के साथ शौचालयों का इस्तेमाल करती हैं और अब उन्हें किसी भी तरह के खतरे का डर नहीं रहता है। वहीं स्कूलों में इसी तकनीक ने विशेष रूप से युवा लड़कियों की उपस्थिति में काफी वृद्धि की है। अब छात्राएं स्कूलों में पहले से ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं। हालांकि शहरी इलाकों में स्थिति इससे भी ज्यादा खराब थी। 85 प्रतिशत से अधिक घरों में शुष्क शौचालय थे, जिन्हें अछूतों द्वारा साफ किया जाता था। झुग्गी बस्तियों, कस्बों और शहरों के बाहरी इलाके में लोग खुले में शौच करते थे। रेलवे स्टेशन, बाजार, बस स्टॉप, धार्मिक और पर्यटन स्थलों के पास सार्वजनिक शौचालयों का कोई प्रावधान नहीं था। भारत दौरे पर आने वाले विदेशियों को भी कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। सुलभ की इस तकनीक से मानव मल को उर्वरक के रूप में परिवर्तित किया जाता है। इसके

दो गड्ढों में से एक का ही पहले इस्तेमाल किया जाता है और दूसरा स्टैंडबाय के रूप में रहता है। इस प्रणाली में मानव मल की मैनुअल सफाई आवश्यक नहीं होती है। एक गड्ढे के भर जाने पर दूसरे का इस्तेमाल किया जाता है और पहले भरे हुए गड्ढे के मल को एक साल बाद निकाल लिया जाता है, जो एक जैव-उर्वरक का कार्य करता है। इसका उपयोग कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए या बागवानी के उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। यह तकनीक छूआछूत को खत्म करने, खुले में शौच जाने और मैनुअल सफाई के अभ्यास को समाप्त करने में काफी प्रभावी साबित हुई है। इस तकनीक के कारण करीब एक मिलियन स्कैवेंजर्स मुक्त हुए हैं। बीबीसी होराइजंस ने सुलभ तकनीक को दुनिया के पांच अनूठे अविष्कारों में से एक बताया है, जिसका मानवता पर सीधा असर दिखाई पड़ता है। कम लागत वाली और उचित शौचालय तकनीक (जिसे सुलभ शौचालय के रूप में जाना जाता है) जिसे मैंने अखिल भारतीय पैमाने पर विकसित और कार्यान्वित किया है, वह एक अविष्कार है, जिसे मानव सेटलमेंट्स के लिए संयुक्त राष्ट्र केंद्र द्वारा


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ग्लोबल बेस्ट प्रैक्टिस के रूप में घोषित किया गया है। 1878 में कलकत्ता में एक अधिनियम पारित किया गया था, जो सार्वजनिक शौचालयों को भुगतान करके उपयोग करने के आधार पर बनाया गया था, लेकिन वह काम नहीं कर सका। 96 साल के बाद मैंने दोबारा कोशिश की। 1974 में पूर्वी बिहार के पटना नगर पालिका ने मुझे इसे लागू करने का अवसर दिया। उन्होंने मुझे टॉयलेट कॉम्प्लेक्स के निर्माण के लिए भूमि और लागत दी। उन्होंने यह भी बताया कि शौचालयों के उपयोग के लिए मुझे जनता से पैसे लेना होगा। यह एक नई अवधारणा थी और इसके बारे में सुनने के बाद पूरे शहर में मजाक बन गया। लोग इसे मजाक समझते थे कि शौचालय का उपयोग करने के लिए पैसे देने पड़ेंगे। हालांकि मेरी राय थी कि सार्वजनिक शौचालयों को चौबीसों घंटे चालू रखना चाहिए और यह साफ हो तो सभी शौचालय का उपयोग करने के लिए भुगतान करेंगे। हमने विचार किया कि हम सार्वजनिक शौचालय में यूरिनल की सुविधा, बेसिन, साबुन पाउडर और तौलिए की सुविधा प्रदान करेंगे और उसकी देखभाल के लिए एक व्यक्ति को रखा। पटना में पहले दिन 500 लोग शौचालय का उपयोग करने के लिए आए और अब पूरे देश में 20 मिलियन लोग इन शौचालयों का रोजाना उपयोग कर रहे हैं। हमारे विचार ने काम किया और समाज में एक बड़ा परिवर्तन आया। इसके अलावा हमने सार्वजनिक शौचालय

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सभी स्कूलों में बने शौचालयों के साफ-सफाई की जिम्मेदारी वहां के शिक्षकों और छात्रों की होनी चाहिए। हमें यह देखना होगा कि अच्छी आदतें बच्चों में पैदा हों, ताकि वे स्वच्छता के ध्वजवाहक बन जाएं। हमने अपने इस प्रयोग को सुलभ पब्लिक स्कूल में करके देखा है से जुड़े बायोगैस डाइजेस्टर तकनीक का भी अविष्कार किया है। यह एक विशेष प्रणाली है, जिसमें मानव मल बायोगैस डाइजेस्टर के माध्यम से जाता है। जब अपघटन होता है तो बायोगैस पैदा होती है। इसका खाना पकाने और बिजली उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इतना ही नहीं इसका उपयोग सड़क पर रोशनी करने के लिए भी किया जा सकता है। बायोगैस डाइजेस्टर से निकलने वाले पानी को अल्ट्रा वायलेट किरणों के माध्यम से शुद्ध किया जाता है। जब इस प्रक्रिया के माध्यम से पानी गुजरता है तो वह साफ हो जाता है। यह साफ पानी नदियों में छोड़े जाने लायक होता है, साथ ही खेतों में उत्पादकता बढाने के लिए इसे उर्वरक के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। हमने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में बायोगैस डाइजेस्टर के साथ पांच ऐसे सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण भी किया है और वे बहुत अच्छे से काम कर रहे हैं। 2007 में, तापमान -300 डिग्री तक नीचे चला गया था, लेकिन कड़ी ठंड के बाद भी सभी परिसरों ने बहुत अच्छी तरह से काम किया। महात्मा गांधी वर्ण व्यवस्था के पक्ष में थे और डॉ. आंबेडकर इसका विरोध करते थे। मेरे

अनुभवों में, मैंने राजस्थान के दो शहरों में पाया कि अस्पृश्यों की जाति भले ही वही रहे, लेकिन उनकी प्रतिष्ठा और मर्यादा ब्राह्मणों और अन्य जातियों के समान स्तर पर लाई जा सकती है। मानव अधिकारों और अस्पृश्यों की गरिमा को पुनर्स्थापित करने और उन्हें एक मुख्यधारा के समाज में लाने के लिए मैंने राजस्थान के दो शहरों में पांच स्तरीय कार्यक्रम का आयोजन किया। मेरा पहला कदम, शुष्क शौचालयों को सुलभ फ्लश शौचालयों में परिवर्तित करके, उन्हें मानव मल की सफाई के कार्य से राहत दिलाना था। चूंकि मालिकों को फ्लश वाला शौचालय मिला था, इसीलिए उन्होंने कोई आपत्ति भी नहीं उठाई। इसके बाद, मैंने एक व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किया और इसे 'नई दिशा' नाम दिया। चूंकि शिक्षा मानव विकास की कुंजी है, इसीलिए हमने पहले उन्हें पढ़ना और लिखना सिखाया। तीन महीनों के लिए, हमने उन्हें नकद में मानदेय दिया। लेकिन जब उन्होंने पढ़ना और लिखना सीख लिया, तब हमने उन्हें चेक दिया ताकि वे बैंक से पैसा निकाल सकें। अगला कदम, उन्हें आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाने के लिए था। मैला ढोने वाली महिलाओं ने खुद ही अपनी पसंद से पाठ्यक्रमों का चयन

किया। हमने उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में जैसे खाद्य प्रसंस्करण के साथ-साथ टेलरिंग, कढ़ाई, फैशन डिजाइनिंग और ब्यूटीशियन आदि रोजगोरान्मुख क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया। केंद्र में प्रशिक्षण लेने वाली महिलाओं ने आत्मविश्वास अर्जित किया। वास्तव में, इसने उनके मनोबल को बढ़ा दिया और अब वे आत्मनिर्भर बनाने वाले व्यवसायों में लगी हुई हैं। अलवर और टोंक में सभी महिलाएं, जिन्होंने पहले मैला ढोने का काम किया, उनका पुनर्वास किया जा चुका है और उन्हें सौंदर्यीकरण या खाद्य प्रसंस्करण, सिलाई या कढ़ाई के रूप में प्रशिक्षित किया गया है। उन्होंने व्यक्तित्व विकास के पाठ्यक्रम भी किए हैं। इसके बाद, मैं 'दो बार जन्म' की अवधारणा को तोड़ना चाहता था। मैंने उन्हें ब्राह्मण और अन्य ऊपरी जातियों के संस्कार और अनुष्ठान करने में मदद की। शुरुआत में, लोगों ने प्रतिरोध किया और उन्हें मंदिरों में प्रवेश से भी मना कर दिया। मैंने इस मामले को अपने हाथों में लेने का फैसला किया और नाथद्वारा मंदिर में कुछ निर्वासित लोगों को ले जाने की कोशिश शुरू की। शुरुआत में हमें प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। लेकिन टकराव का रवैया अपनाने के बजाय, मैंने अनुनय के मार्ग को चुना और पुजारियों को मंदिर में प्रवेश के लिए मनाने में सफल रहा। हमारे प्रयास सफल हुए और उन्हें मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी गई। अब, वही ब्राह्मण परिवार अछूतों को चाय पिलाते हैं और यहां तक कि अपनी बेटियों के विवाह में भाग लेने के लिए भी आमंत्रित करते हैं। मैला ढोने वाले लोग, ऊपरी जातियों के परिवारों के साथ मिलकर रहते हैं। यह समाज के लोगों की मानसिकता और दृष्टिकोण में परिवर्तन को दर्शाता है। अब इन कस्बों में अस्पृश्यता का कोई भी संकेत नहीं मिलता है। पुनर्वासित स्कैवेंजर्स को 2007 में नई दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में विश्व शौचालय शिखर सम्मेलन में भाग लेने का अवसर भी मिला। ऑरेंज ऑफ नीदरलैंड के प्रिंस ऑफ आरेंज, जो अब नीदरलैंड के राजा हैं, भी उस अवसर पर उपस्थित थे। उन्होंने, उन्हें फूल दिए और आश्वासन दिया कि वे संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक परिषद द्वारा संयुक्त राष्ट्र की कार्यवाही में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित करेंगे। आर्थिक और सामाजिक परिषद ने 2008 में यूएन की कार्यवाही में भाग लेने के लिए इन पुनर्वासित स्कैवेंजर्स महिलाओं को आमंत्रित किया। उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत की प्रसिद्ध मॉडलों के साथ रैंप वाक भी किया। वे स्वाधीनता, समानता और स्वतंत्रता के प्रतीक, स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी भी देखने गईं। उसे देखकर वे अभिभूत थीं। इस महान स्मारक के समक्ष स्वयं को देख कर उन्हें लगा कि वे अब 'अस्पृश्य' नहीं हैं और वास्तविक रूप में स्वतंत्रता प्राप्त कर चुकी हैं। इस प्रकार सुलभ, स्कैवेंजर्स के जीवन में और हमारे समाज के सबसे अधिक वंचित और उपेक्षित लोगों के जीवन में खुशियां लाने के लिए अपना पूरा प्रयास कर रहा है। अब उन्हें 'नया ब्राह्मण'


05 - 11 फरवरी 2018 कहा जाता है। मुझे आपको बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि वृंदावन और वाराणसी की विधवा माताओं को सामाजिक सुरक्षा और पुनर्वास के लिए, साथ ही विधवाओं को बहिष्कृत करने वाले सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने के लिए हमने कई कदम उठाए हैं। वृंदावन की विधवाओं के जीवन में सुधार के लिए नाल्सा द्वारा दायर एक याचिका पर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दुर्दशा पर चिंता व्यक्त की थी और संबंधित अधिकारियों से अनुरोध किया था कि वे जानकारी हासिल करें कि दयनीय परिस्थितियों में रह रहीं विधवाओं को क्या सुलभ भोजन दे सकता है। इसने मुझे वृंदावन तुरंत जाने के लिए प्रेरित किया। आश्रमों का दौरा करने पर, मुझे उनकी दयनीय हालत के बारे में पता चला। विधवाओं की कहानियां सुनकर, मुझे बहुत दुःख हुआ। मैंने तत्काल रूप से सभी 552 विधवाओं को 1,000 रुपए प्रति माह देने की व्यवस्था शुरू की। तब से मैंने विधवाओं के कष्टों को कम करने और उनके जीवन-यापन की स्थिति में सुधार करने के लिए कई कदम उठाए हैं। बाद में, यह स्पष्ट हुआ कि प्रति माह 1000 रुपए की राशि उनके लिए अपर्याप्त थी। उनमें से कुछ दिन में दो बार 'भजन' गाने के लिए विभिन्न मंदिरों में जाती थीं। मंदिरों से, उन्हें भोजन और अन्य आवश्यक वस्तुओं पर अपने खर्चों को पूरा करने के लिए केवल आठ रुपए प्रति दिन (सुबह चार रुपए और शाम में चार रुपए) ही मिलते थे। मैं यह सुनिश्चित करना चाहता था कि इन सरकारी आश्रयों में रहने वाली विधवाएं भूखे पेट कभी न रहें और न ही उन्हें भीख मांगना पड़े, जो आमतौर पर देखा जाता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए, मैंने उनको

दी जाने वाली राशि को फरवरी 2013 से बढ़ाकर 2, 000 रुपए कर दी। इसने विधवाओं को अपने आश्रमों में ही दो बार भोजन करने में सक्षम बनाया। साथ ही बाहर जाकर गाने और भीख मांगने से भी उन्हें मुक्ति मिली। इससे जीवन से निराश हो चुकी विधवाओं को फिर से जीवन जीने की उम्मीद नजर आई। उन्हें एंबुलेंस, टीवी, रेफ्रिजरेटर्स आदि प्रदान किया गया है, ताकि उन्हें आरामदायक जीवन दिया जा सके। अब उन्हें हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी भाषाएं भी सिखाई जा रही हैं। साथ ही उन्हें माला, अगरबत्ती, सिलाई इत्यादि बनाने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। उन्हें समाज की मुख्यधारा में वापस लाने के लिए हम विभिन्न अवसरों जैसे होली, दुर्गा पूजा, दीवाली आदि को मनाने की व्यवस्था करते हैं और वे इन त्योहारों को खुशी से मनाती हैं। हम उन्हें विभिन्न शहरों जैसे दिल्ली, कोलकाता, आदि के दौरे पर भी ले गए। वे उस दिन बहुत खुश हुईं जब वे भारत के तत्कालीन माननीय राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री से मिलीं और उनकी कलाई पर राखी बांधी। 15 अक्टूबर 2016 को उन्होंने दिल्ली स्थित मावलंकर हॉल में देश के प्रसिद्ध मॉडलों के साथ कैटवाक किया। इन अवसरों पर वे बहुत ही खुश थीं। हमने बाद में वृंदावन की तरह ही वाराणसी की विधवाओं को भी अपनाया। मैंने 150 विधवाओं की पहचान कर उन्हें 2,000 रुपए प्रति माह की वित्तीय सहायता दी और इस तरह हमने वाराणसी में विधवाओं की पुरानी और दमनकारी परंपरा

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आयोजन

के खिलाफ अपना दूसरा अभियान शुरू किया। विधवाओं की बुनियादी जरूरतों को ध्यान में रखते हुए, सुलभ ने गरीब विधवाओं की समस्याओं को लेकर लोगों के बीच जागरूकता पैदा करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

गांव देवली-भणिग्राम की विधवाएं

जून 2013 में उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा, जिसने कई ग्रामीण और तीर्थयात्रियों को बेघर कर दिया था, से विचलित सुलभ ने उन महिलाओं को, जो विधवा हो गईं थीं, और अन्य व्यक्तियों को वित्तीय सहायता के लिए हाथ बढ़ाया और उन्हें 2000 रुपए प्रति माह प्रदान किए। साथ ही प्रत्येक बच्चे को भी 1000 रुपए दिए गए। देवलीभणिग्राम पंचायत के छह गांवों के 155 प्रभावित निवासियों को यह सहायता दी गई। बाद में सुलभ ने इन गांवों के 300 और परिवारों को भी 1000 रुपए प्रति माह दिए। महिलाओं और विधवाओं को और बुनियादी शिक्षा प्रदान करने और उन्हें मोमबत्ती बनाने, सिलाई, दीया-बाती आदि बनाने का प्रशिक्षण देने के लिए एक व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम भी शुरू किया। व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र पर 12 कंप्यूटर, 25 सिलाई मशीन और अन्य उपकरणों और सामग्री प्रदान की गई। केंद्र आठ पाठ्यक्रमों में महिलाओं और अन्य लोगों को प्रशिक्षण प्रदान करता है। इनमें सिलाई, बुनाई, मशीन कढ़ाई, कंप्यूटर शिक्षा, शॉर्ट हैंड और टाइपिंग, मोमबत्ती, अगरबत्ती और पेपर प्लेट और दोना बनाना शामिल है। यह केंद्र प्रशिक्षुओं को कंप्यूटर साक्षर बनाने के

प्रधानमंत्री ने 2019 तक देश को खुले में शौच से मुक्त करने का लक्ष्य रखा है, ताकि देश महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती पर उन्हें उचित श्रद्धांजलि दे सके

अलावा, बुनियादी शिक्षा भी प्रदान करता है। हमारा मुख्य उद्देश्य महिलाओं और गांवों के अन्य लोगों में व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करना है, ताकि वे जीवन-यापन के लिए आवश्यक कौशल प्राप्त कर सकें। मोम, धागा, गैस, तेल, पेन, पेंसिल, पेपर, कपास, किताबें, सीडी, स्टेशनरी, रिबन आदि सामग्रियां मुफ्त प्रदान की जाती है। 'सुलभ इंटरनेशनल सेंटर फॉर एक्शन सोशियोलॉजी' उन्हें आय के एक वैकल्पिक स्रोत प्रदान करने और उन्हें विभिन्न रोजगार क्षेत्रों में स्व-रोजगार के लिए सक्षम बनाने के लिए पुनर्वास की दृष्टि से प्रशिक्षण दे रहा है।

निष्कर्ष

हमारे माननीय प्रधानमंत्री ने 2019 तक देश को खुले में शौच से मुक्त करने का लक्ष्य रखा है, ताकि देश महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती पर उन्हें उचित श्रद्धांजलि दे सके। इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए, हमारे 6.46 लाख गांवों में से प्रत्येक गांव में एक व्यक्ति को प्रेरक की भूमिका निभाने के लिए प्रशिक्षित करना बहुत जरूरी है। प्रेरक की जिम्मेदारी होगी कि वह प्रत्येक घर पर जाकर घर में शौचालय का निर्माण के लिए प्रेरित करे। वह, यह सुनिश्चित करेंगे कि शौचालय वास्तव में बनाए गए हैं या नहीं और वह एक वर्ष तक उनके रखरखाव पर भी ध्यान देंगे। यदि कोई कहीं कोई समस्या है तो तुरंत उसे ठीक करवाएंगे। वह ग्रामीणों को शौचालय का इस्तेमाल करने के लिए भी प्रोत्साहित करेंगे और उनकी रखरखाव और सफाई में सहायता करेंगे। अगर इस योजना को लागू किया जाता है, तो एक प्रेरक एक महीने में 20 शौचालयों का निर्माण कर सकता है और इस प्रकार एक वर्ष में 240 शौचालयों का निर्माण किया जा सकता है। ये 6.46 प्रेरक, 15 करोड़ (6.46x240) शौचालय बनाने में सक्षम होंगे। इस प्रकार, एक साल में ही खुले में शौच से मुक्त भारत की परिकल्पना को साकार किया जा सकता है। अकेले सरकार या कोई एक संगठन इस विशाल कार्य को पूरा नहीं कर सकता है। इस कार्य को व्यवस्थित करने और क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी एक ऐसे गैर-सरकारी संगठन को दी जानी चाहिए जिसका इस क्षेत्र में व्यापक और गहरा अनुभव है। प्रेरणा, कार्यान्वयन और अनुवर्ती कार्रवाई के लिए, संगठन को शौचालयों के निर्माण पर कुल व्यय का 5 प्रतिशत दिया जाना चाहिए और 6.46 लाख गांवों में प्रेरक का काम करने वाले को भी कुल व्यय का 10 प्रतिशत दिया जाना चाहिए। सरकार वर्तमान में शौचालय के निर्माण के लिए 12,000 रुपए की सहायता दे रही है। लेकिन सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि लोगों को इसके लिए बैंक से 50,000 हजार रुपए तक का ऋण भी मिले, ताकि एक अच्छी गुणवत्ता वाले शौचालय के निर्माण किया जा सके, ताकि लोग इसका उपयोग कर सकें। यह व्यावहारिक योजना न केवल इस बड़े कार्य को सफलतापूर्वक सुनिश्चित करेगी, बल्कि अनावश्यक प्रचार और प्रसार पर व्यय होने वाले मद में भी कटौती करेगी।


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स्वास्थ्य

05 - 11 फरवरी 2018

भविष्य की चिकित्सा पर चर्चा 1980 के दशक में अस्तित्व में आई ऊर्जा चिकित्सा विज्ञान पर आधारित एक वैकल्पिक चिकित्सा है

गंध याद रखते हैं मच्छर

‘करंट बॉयोलॉजी’ नामक पत्रिका में प्रकाशित नए शोध में हुआ खुलासा

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गलुरु में आयोजित ‘क्वांटम ऊर्जा मंच’ की बैठक में विशेषज्ञों ने कहा कि भारत में चिकित्सा का भविष्य पारंपरिक चिकित्सा लाभों को ‘ऊर्जा चिकित्सा’ जैसी वैकल्पिक परंपराओं के साथ जुड़ सकता है। क्वांटम ऊर्जा सम्मेलन की अध्यक्ष पिंकी डागा ने कहा, ‘एकीकरण ही भविष्य की चिकित्सा का मूल सिद्धांत होगा, जहां पारंपरिक चिकित्सा क्वांटम ऊर्जा उपचार 'रेकी' (ऊर्जा की सहायता से उपचार करने की जापानी तकनीक) और 'प्रेनिक' उपचार (ऊर्जा उपचार की प्राचीन विधि) से जुड़ी हुई है।’ इस द्विवार्षिक सम्मेलन का इस बार दूसरा संस्करण आयोजित हुआ, जिसमें क्वांटम भौतिकी, क्वांटम ऊर्जा औषधि और क्वांटम ऊर्जा उपकरणों के दुनियाभर के विशेषज्ञ ऊर्जा औषधि पर चर्चा के लिए जुटे। 1980 के दशक में अस्तित्व में आई ऊर्जा चिकित्सा विज्ञान पर आधारित एक वैकल्पिक चिकित्सा है। वैज्ञानिकों का विश्वास है कि ऊर्जा मरीज के शरीर में जाकर रोग को ठीक करती है। शहर से लगभग 35 किलोमीटर दूर स्थित एक ध्यान केंद्र ‘पिरामिड वैली’ में आयोजित सम्मेलन में डागा ने दावा किया कि क्वांटम ऊर्जा चिकित्सा रोग को जड़ से मिटा सकती है और मानसिक और शारीरिक

स्वास्थ्य को बेहतर करने में सहयोग करती है। ऊर्जा चिकित्सा उस विश्वास पर काम करती है कि सभी चिकित्सा की एक स्पंदन दर होती है। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपयोग से इसको मापा जा सकता है और उसका उपयोग उपचार करने में किया जा सकता है। क्वांटम ऊर्जा से उपचार करने वाले डॉक्टरों का दावा है कि कैंसर और हृदय एवं यकृत संबंधी बीमारियों तक का इलाज क्वांटम ऊर्जा में है। उनके अनुसार रोगी के शरीर में ऊर्जा का प्रसारण किया जाता है। डागा ने कहा, ‘भारत में ऊर्जा चिकित्सा अपरिपक्व अवस्था में है, लेकिन यूरोप, अमेरिका और चीन में इस क्षेत्र में अच्छी संभावना है। हमें विश्वास है कि अगले तीन वर्षों में भारत इस क्षेत्र में अनुकूल रफ्तार हासिल कर लेगा।’ अमेरिकी स्वास्थ्य विभाग के अनुसार, ऊर्जा चिकित्सा एक संपूरक और वैकल्पिक चिकित्सा का स्थान ले सकती है। इसे मुख्य चिकित्सा के साथ एलोपेथी की तरह दिया जा सकता है। एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म थ्रीवी आर्ट एंड सॉल द्वारा आयोजित सम्मेलन में अमेरिका, कनाडा, चीन जैसे देशों के 25 वक्ता और लगभग 250 प्रतिनिधि शामिल हुए।

गर आप यह सोचते हैं कि मच्छर आप को इसीलिए काटते हैं कि आप का खून मीठा है तो यह ज्यादा गलत नहीं है। एक नए अध्ययन में पता चला है कि मच्छर उन्हें मारने वालों से दूर भागते हैं। इस शोध का प्रकाशन ‘करंट बॉयोलॉजी’ नामक पत्रिका में किया गया है। पत्रिका में कहा गया है कि मच्छर तेजी से सीख सकते हैं और गंध को याद रखते हैं और इस प्रक्रिया में डोपामाइन एक मुख्य मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। मच्छर इस जानकारी का उपयोग करते हैं। खासतौर पर निश्चित आबादी में मच्छर अपनी इस

क्षमता का इस्तेमाल करते हैं। हालांकि, शोध से यह भी साबित होता है कि यदि किसी व्यक्ति की गंध अच्छी है तो मच्छर अप्रिय गंध के बजाय प्रिय गंध को पसंद करते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, ‘व्यक्ति जो मच्छरों को ज्यादा मारते हैं या रक्षात्मक रवैया अपनाते हैं, चाहे उनका खून कितना भी मीठा हो मच्छर उनसे दूर रहते हैं।’ अमेरिका के वर्जीनिया टेक के शोध के सहायक प्रोफेसर चोल लाहोंड्रे ने कहा, ‘अब हम जानते हैं कि मच्छर गंध पहचानते हैं और उन्हें लेकर ज्यादा रक्षात्मक रहने वालों से बचते हैं।’ (एजेंसी)

एलर्जी व दमा को रोकेगी नई एंटीबॉडी नई एंटीबॉडी की विशेष क्रिया एलर्जी की क्रिया में प्रतिरक्षा तंत्र पर उसके प्रभाव को रोक देती है

शो

धकर्ताओं ने एक नई एंटीबॉडी विकसित की है, जो वयस्कों में एलर्जी व दमा को रोकने में कारगर होगी। इस एंटीबॉडी को दवा के तौर पर लिया जा सकता है। इस शोध से एलर्जी की प्रभावी दवा बनाने की राह आसान हो सकती है। इस एंटीबॉडी की विशेष क्रिया एलर्जी की क्रिया में प्रतिरक्षा तंत्र पर उसके प्रभाव को रोक देती है। शोधकर्ताओं के मुताबिक एंटीबॉडी मानव शरीर में जटिल जैव रासायनिक प्रक्रिया पर असर डालती है, जिसके द्वारा यह मानव के एलर्जी एंटीबॉडी

(आईजीई) को कोशिकाओं से जोड़ने से रोकती है और इस तरह से सभी एलर्जी वाले लक्षणों को होने से रोकती है। अरहस विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर एडजार्ड स्पिलनर ने कहा, ‘हम अब इस एंटीबॉडी के प्रभावों का इसके लक्ष्य के साथ का वर्णन कर सकते हैं। इससे हमें यह समझने में मदद मिली कि कैसे यह आईजीई के साथ खास रिसेप्टर व शरीर की प्रतिरक्षी कोशिकाओं में हस्तक्षेप करती है, जो एलर्जी की क्रिया में हिस्टामिन को जारी करने के लिए जिम्मेदार होता है।’ (एजेंसी)

वायु प्रदूषण से मासिक धर्म अनियमित भारतीय मूल के शोधकर्ता के नेतृत्व में किए गए एक नए शोध में यह बात सामने आई है

वा में बढ़ते प्रदूषण स्तर की वजह से किशोरियों में अनियमित मासिक धर्म का खतरा बढ़ जाता है। भारतीय मूल के एक शोधकर्ता के नेतृत्व में किए गए एक नए शोध में यह बात सामने आई है। शोधकर्ताओं के अनुसार, किशोरियों में वायु प्रदूषण से मासिक धर्म की अनियमितता थोड़ी बढ़ जाती है और इसे नियमित होने में लंबा समय लगता है।

शोधकर्ताओं ने यह भी चेताया है कि वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से बांझपन, मेटाबॉलिक सिंड्रोम व पॉलीस्टिक ओवरी सिंड्रोम हो सकता है। बोस्टन विश्वविद्यालय की सहायक प्रोफेसर श्रुति महालिंग्या ने कहा, ‘वायु प्रदूषण के संपर्क में रहने से दिल संबंधी, पल्मोनरी रोग होने की संभावना होती है। लेकिन यह शोध अलग तंत्रों के प्रभावित होने के बारे

में भी सुझाव देता है, जिसमें प्रजनन अंतस्रावी तंत्र शामिल हैं।’ मासिक धर्म हार्मोन के नियमन से जुड़े हैं। वायु प्रदूषण के पर्टिकुलेट मैटर से हार्मोन की क्रिया पर असर पड़ता है। हालांकि, शोधकर्ताओं के अनुसार यह पता नहीं चल सका है कि क्या वायु प्रदूषण का मासिक धर्म की अनियमितता से जुड़ाव है या नहीं। (एजेंसी)


05 - 11 फरवरी 2018

जीसैट-11 विदेशी रॉकेट से प्रक्षेपित होने वाला अंतिम उपग्रह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष के. सिवन ने संस्थान के भावी कार्यक्रमों के बारे में बताया

भा

वेंकटचारी जगन्नाथन

रत उपग्रह प्रक्षेपण कार्य में गति लाने के मकसद से रॉकेट बनाने की दिशा में भी तेजी से आगे बढ़ रहा है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष के. सिवन कहते हैं कि अगर हमारा इरादा कामयाब रहा तो जल्द ही भारत के पास वजनदार उपग्रहों को भी अंतरिक्ष में भेजने के लिए स्वनिर्मित रॉकेट होगा। सिवन के मुताबिक, अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो 8.7 टन वजनी जीसैट-11 शायद विदेशी रॉकेट जरिए अंतरिक्ष में भेजे जाने वाला अंतिम वजनदार उपग्रह होगा। संचार उपग्रह जीसैट-11 को जल्द ही एरियनस्पेस के एरियन रॉकेट के जरिए लॉन्च किया

जाएगा। सिवन ने कहा, ‘हम दो संकल्पनाओं पर काम कर रहे हैं। एक ओर सबसे भारी रॉकेट की वहनीय क्षमता बढ़ाने की दिशा में काम चल रहा है, वहीं दूसरी ओर उच्च प्रवाह व कम वजन वाले संचार उपग्रह तैयार किए जा रहे हैं।’ उन्होंने बताया कि उपग्रहों में 60 फीसदी वजन रासायनिक ईंधन का होता है। रासायनिक ईंधन की जगह अंतरिक्ष में विद्युतीय उक्ति का इस्तेमाल करके उपग्रह का वजन किया जाएगा। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी जीसैट-9 में विद्युतीय संचालक शक्ति का इस्तेमाल कर चुकी है। वर्तमान में जीएसएलवी एमके-3 रॉकेट की वहन क्षमता चार टन है और भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसकी क्षमता बढ़ाकर छह टन करने की

जीएसएलवी एमके-3 रॉकेट की वहन क्षमता चार टन है और भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसकी क्षमता बढ़ाकर छह टन करने की दिशा में काम कर रही है

दिशा में काम कर रही है। सिवन ने कहा, ‘अब अधिकांश उपग्रह की वहनीय क्षमता चार से छह टन होगी।’ सिवन के मुताबिक, क्षमता बढ़ाना सिर्फ जीएसएलवी एमके-3 तक ही सीमित नहीं है, बल्कि अन्य रॉकेटों में इस प्रक्रिया को अपनाया जाएगा, क्योंकि इससे प्रक्षेपण की कुल लागत में कमी आएगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसरो उच्च भार वाले रॉकेट बनाना बंद कर देगा। उन्होंने कहा, ‘हमारे पास छह टन से ज्यादा भार वहन करने वाले रॉकेट डिजाइन करने और बनाने की क्षमता है। हम ज्यादा बड़े रॉकेट बनाने की दिशा में भी काम शुरू करेंगे।’ सिवन ने कहा, ‘हमारा प्रमुख उद्देश्य रॉकेट का उत्पादन बढ़ाना है, ताकि ज्यादा से ज्यादा उपग्रहों का प्रक्षेपण हो, हमारे रॉकेट की क्षमता में बढ़ोतरी हो, रॉकेट निर्माण लागत में कमी आए और 500 किलोग्राम भार वहन करने योग्य छोटे रॉकेट विकसित किए जाएं।’ उन्होंने बताया कि वर्ष 2018 के शुरुआती छह महीनों तक इसरो चंद्रयान-2, जीसैट-6ए और एक नौवहन उपग्रह के प्रक्षेपण में व्यस्त रहेगा। 12 जनवरी को इसने दूरसंवेदी उपग्रह काटरेसैट लॉन्च किया था। इसरो के नए प्रमुख 60 वर्षीय सिवन को यह बताने में कोई संकोच नहीं है कि उन्होंने पहली बार अपने पैरों में चप्पल और पोशाक में पैंट तब धारण किया था, जब वह एरोनॉटिकल इंजीनियरिग डिग्री के लिए मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलोजी (एमआईटी) पहुंचे थे। सिवन ने कहा, ‘मैंने तमिल माध्यम से एक सरकारी स्कूल में पढ़ाई की। नागेरकोइल के एसटी हिंदू कॉलेज से ग्रेजुएशन करने तक मैं सिर्फ धोती और कमीज पहनता था। पैरों में चप्पल-जूते नहीं होते थे। एमआईटी आने पर मैंने पैंट और चप्पल पहनना शुरू किया।’

रे

सभी ट्रेनों में होगी सीसीटीवी निगरानी

भारतीय रेल देश भर के अपने सभी ट्रेनों में और स्टेशनों पर अत्याधुनिक सीसीटीवी कैमरा स्थापित करेगी

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साइंस एंड टेक्नोलॉजी

आईएएनएस

ल यात्रियों को सुरक्षित यात्रा अनुभव प्रदान करने के लिए भारतीय रेल देश भर के अपने सभी ट्रेनों में और स्टेशनों पर अत्याधुनिक सीसीटीवी कैमरा स्थापित करेगी। रेलवे ने वित्त वर्ष 2018-19 में सभी 11,000 ट्रेनों में सीसीटीवी प्रणाली स्थापित करने के लिए करीब 3,000 रुपए का प्रावधान किया है। साथ ही इससे भारतीय रेल नेटवर्क के सभी 8,500 स्टेशनों पर सुरक्षा का प्रावधान किया जाएगा। वर्तमान में, रेलवे के 395 स्टेशनों और करीब 50 ट्रेनों में सीसीटीवी प्रणाली लगी है। रेल मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, ‘सभी मेल-एक्सप्रेस और प्रीमियम ट्रेनों में (राजधानी समेत) शताब्दी, दूरंतो और लोकल पैसेंजर सेवाओं में अगले दो सालों में आधुनिक निगरानी प्रणाली स्थापित कर दी जाएगी।’ रेलवे सीसीटीवी कैमरा स्थापित करने के लिए वित्त जुटाने के लिए विभिन्न

एक मिनट में 100 पन्ने प्रिंट

एप्सन ने भारत में अपना पहला हाई स्पीड मल्टी फंक्शन इंकजेट प्रिंटर लॉन्च करने की घोषणा की

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जिटल इमेजिंग और प्रिंटिंग सॉल्यूशन कंपनी एप्सन ने भारत में 12 लाख रुपए की कीमत वाला अपना पहला हाई स्पीड मल्टी फंक्शन इंकजेट प्रिंटर लॉन्च करने की घोषणा की। यह प्रिंटर एक मिनट में 100 पेजों को प्रिंट कर सकता है। 'वर्कफोर्स एंटरप्राइज' का प्रिंटर 'डब्लूएफ-सी20590' रिकॉर्ड तोड़ गति से प्रिंट करता है। एप्सन इंडिया के इंकजेट प्रिंटर्स के प्रबंध निदेशक शिवा कुमार ने कहा, ‘वर्कफोर्स एंटरप्राइज' प्रिंटर के साथ हम एक हाई स्पीड, हाई-प्रोडक्टिविटी वाला पिंट्रर ला रहे हैं जो एंटरप्राइजेज को उत्कृष्ट गुणवत्ता वाली इंकजेट प्रिंटिग देगा। यह 75 फीसदी कम ऊर्जा खपत कर उच्च उत्पादकता देगा।’ कंपनी ने कहा कि प्रिंटर की अधिक उच्च क्षमता वाली इंक कार्टरेज ब्लैक में एक लाख पन्नों और कलर में 50 हजार पन्नों को प्रिंट कर सकता है। इसकी स्थिर प्रिंट फीडिंग और स्मार्ट डिजाइन के कारण, प्रिंटर असाधरण आकारों के पेपर सहित 350 जीएसएम तक के पेपर की एक विस्तृत श्रृंखला को प्रिंट करने में सक्षम है। (एजेंसी)

रेलवे ने वित्त वर्ष 2018-19 में सभी 11,000 ट्रेनों में सीसीटीवी प्रणाली स्थापित करने के लिए करीब 3,000 रुपए का प्रावधान किया है विकल्पों की तलाश कर रही है और जरूरत पड़ने पर बाजार से भी संसाधन जुटाएगी। पिछले साल रेलवे दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या को देखते हुए इस साल रेल बजट में सुरक्षा और दुर्घटना से बचाव को शीर्ष प्राथमिकता दी जाएगी। उसके यात्रियों के लिए सुविधाएं बढ़ाने को प्राथमिकता दी जाएगी। वित्त मंत्री अरुण जेटली अपने 2018-19 के बजट में रेल परिचालन मंग सुरक्षा तंत्र को मजबूत करने के लिए किए जाने वाले प्रावधानों का विवरण जारी करेंगे।


16 खुला मंच

05 - 11 फरवरी 2018

​ हिंसात्मक युद्ध में अगर थोड़े अ भी मर मिटने वाले लड़ाके मिलेंगे तो वे करोड़ों की लाज रखेंगे और उनमें प्राण फूकेंगे। अगर यह मेरा स्वप्न है तो भी मेरे लिए मधुर है

- महात्मा गांधी

अभिमत

बाबा मायाराम

लेखक पर्यावरण मामलों के विशेषज्ञ हैं

चिपको का दक्षिण सर्ग

अप्पिको का दक्षिण भारत में वनों को बचाने के साथ पर्यावरण चेतना जगाने में अमूल्य योगदान हमेशा ही याद किया जाएगा

स्वस्थ विकास

कृषि के साथ सेहत की फिक्र को लेकर आगे बढ़ रही है सरकार

भा

रत की अर्थव्यवस्था में आज आईटी और सेवा क्षेत्र भले अहम भूमिका निभा रहे हैं, पर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ अब भी कृषि ही है। भारत को लेकर एक पुरानी समझ और धारणा यह रही भी है कि यह कृषि और ऋषि का देश है। देश के विकास से जुड़ा एेसा ही एक अहम पक्ष स्वास्थ्य से जुड़ा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अगर स्वच्छ भारत का मिशन हाथ में लिया है तो उसके पीछे भी बड़ी वजह देश के लोगों की स्वास्थ्य की चिंता है। यह चिंता इसीलिए बड़ी है क्योंकि पर्यावरण से लेकर खानपान और बदली जीवनशैली के कारण आज लोगों के बीमार पड़ने की कई वजहें हैं। स्वाइन फ्लू से लेकर चिकनगुनिया जैसी बीमारी के नए खतरे भी हमारे सामने हैं। एेसे में यह सराहनीय है कि सरकार ने खेती-किसानी और सेहत को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखा है। 2018 के आम बजट से निकलकर जो सबसे खनकदार बात निकलकर सामने आई है, वह है 10 करोड़ गरीब परिवारों यानी करीब 50 करोड़ लोगों के लिए 5 लाख के स्वास्थ्य बीमा का एेलान। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के नाम पर घोषित ‘ओबामा केयर’ के तर्ज पर इस मेगा बीमा योजना को अभी से ‘मोदी केयर’ कहा जा रहा है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना के तहत शुरू हो रही इस योजना को वित्त मंत्री जेटली ने दुनिया का सबसे बड़ा हेल्थ केयर प्रोग्राम बताया है। बजट पूर्व एक प्रतिक्रिया में वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट के किसानोन्मुख होने की बात कही थी। उनकी बात भी सही निकली। जहां कृषि कर्ज को 1 लाख करोड़ बढ़ाकर 11 लाख करोड़ किया गया है तो वहीं सरकार किसानों को लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य देने को लेकर प्रतिबद्धता दिखाई है। सरकार कृषि क्षेत्र में आय बढ़ाने को लेकर ज्यादा फिक्रमंद दिख रही है। 22 हजार हाट कृषि बाजार में बदले जाने की बात तो बजट में कही ही गई है, साथ ही फूड प्रोसेसिंग के लिए 1400 करोड़ रुपए सरकार देने जा रही है। इसके साथ ही जिन कुछ घोषणाअों पर कृषक समाज प्रसन्न होगा, उनमें 42 मेगा फूड पार्क का निर्माण, कृषि उपज के लिए जिला स्तर पर औद्योगिक कलस्टर जैसा सिस्टम बनाने और ऑपरेशन फ्लड की तर्ज पर आलू और टमाटर के दामों में उतार-चढ़ाव के नुकसान को रोकने के लिए खास इंतजाम की बात अहम है।

टॉवर

(उत्तर प्रदेश)

चि

पको आंदोलन की तरह दक्षिण भारत के अप्पिको आंदोलन को अब तीन दशक से ज्यादा हो गए हैं। दक्षिण भारत में पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने में इसका उल्लेखनीय योगदान है। देशी बीजों से लेकर वनों को बचाने का आंदोलन लगातार कई रूपों में फैल रहा है। हाल ही में मैं अप्पिको आंदोलन के सूत्रधार पांडुरंग हेगड़े से मिला। सिरसी स्थित अप्पिको आंदोलन के कार्यालय में उनसे मुलाकात और लंबी बातचीत हुई। करीब 34 साल बीत गए, वे इस मिशन में लगातार सक्रिय हैं। अब वे अलग-अलग तरह से पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने की कोशिश कर रहे हैं। 80 के दशक में उभरे अप्पिको आंदोलन में पांडुरंग हेगड़े जी की ही प्रमुख भूमिका रही है। एक जमाने में दिल्ली विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य में गोल्ड मेडलिस्ट रहे हैं। अपनी पढ़ाई के दौरान वे चिपको आंदोलन में शामिल हुए और कई गांवों में घूमे, कार्यकर्ताओं से मिले। चिपको के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा से मिले। यही वह मोड़ था जिसने उनकी जिंदगी की दिशा बदल दी। कुछ समय मध्य प्रदेश के दमोह में लोगों के बीच काम किया और अपने गांव लौट आए। और जीवन में कुछ सार्थक करने की तलाश

करने लगे। कुछ साल बाहर रहने के बाद गांव लौटे तो इलाके की तस्वीर बदली-बदली लगी। जंगल कम हो रहे हैं, हरे पेड़ कट रहे हैं। इससे पांडुरंग व्यथित हो गए, उन्हें उनका बचपन याद आ गया। उन्होंने अपने बचपन में इस इलाके में बहुत घना जंगल देखा था। हरे पेड़, शेर, हिरण, जंगली सुअर, जंगली भैंसा, बहुत से पक्षी और तरह-तरह की चिड़िया देखी थीं। पर कुछ सालों के अंतराल में इसमें कमी आई। इस सबको देखते हुए उन्होंने काली नदी के आसपास पदयात्रा की। उन्होंने देखा कि वहां जंगल की कटाई हो रही है। खनन किया जा रहा है। ग्रामीणों के साथ मिलकर कुछ करने का मन बनाया। सबसे पहले सलकानी गांव के करीब डेढ सौ स्त्री-पुरूषों ने जंगल की पदयात्रा की। वहां वन विभाग के आदेश से पेड़ों को कुल्हाड़ी से काटा जा रहा था। लोगों ने उन्हें रोका, पेड़ों से चिपक गए और आखिरकार, वे पेड़ों को बचाने में सफल हुए। यह आंदोलन जल्द ही जंगल की आग की तरह फैल गया। सलकानी के आंदोलन की चर्चा पड़ोसी सिद्दापुर तालुका और प्रदेश में दूसरे स्थानों तक पहुंच गई। यह अनूठा आंदोलन था, यह चिपको की तरह था। कन्नड़ भाषा में अप्पिको शब्द चिपको का ही पर्याय है। पांडुरंग जी ने बताया- हमारा उद्देश्य जंगल को बचाना है,

कल्पना करें कि मैं अपने बच्चे के साथ जंगल जा रही हूं और जंगल से भालू और शेर आ जाएं। तब मैं उन्हें देखते ही अपने बच्चे को सीने लगा लूंगी और उसे बचा लूंगी


05 - 11 फरवरी 2018 जो हमारे जीने के लिए और समस्त जीवों के लिए जरूरी है। हमें सबका सहयोग चाहिए पर किसी का एकाधिकार नहीं। हम सरकार की वन नीति में बदलाव चाहते हैं, जो कृषि में सहायक हो। क्योंकि खेती ही देश के बहुसंख्यकों की जीविका का आधार है। चिपको आंदोलन हिमालय में 70 के दशक में उभरा था और देश-दुनिया में इसकी काफी चर्चा हुई थी। पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने का यह शायद देश में पहला आंदोलन था। चिपको के प्रणेता सुंदरलाल बहुगुणा ने अप्पिको पर बनी फिल्म में चिपको की शुरुआत कैसे हुई, इसकी कहानी सुनाई है। उन्होंने उस महिला से सवाल किया, जो सबसे पहले पेड़ को बचाने के लिए उससे चिपक गईं थीं, आप को यह विचार कैसे आया? महिला ने जवाब दिया- कल्पना करें कि मैं अपने बच्चे के साथ जंगल जा रही हूं और जंगल से भालू और शेर आ जाएं। तब मैं उन्हें देखते ही अपने बच्चे को सीने लगा लूंगी और उसे बचा लूंगी। इसी प्रकार जब पेड़ों को काटने के लिए चिन्हित किया गया तो मैंने सोचा मैं उसे गले से गला लूं, वे मुझे नहीं मारेंगे और पेड़ बच जाएंगे। इस तरह चिपको का विचार सभी जगह फैल गया। चिपको से प्रभावित अप्पिको आंदोलन भी कर्नाटक के सिरसी से होते हुए दक्षिण भारत में फैलने लगा। इसके लिए कई यात्राएं की गईं, स्लाइड शो और नुक्कड़ नाटक किए गए। सागौन और यूकेलिप्टस के वृक्षारोपण का काफी विरोध किया गया। क्योंकि इससे जैव विविधता का नुकसान होता। यहां न केवल बहुत समृद्ध जैवविविधता है बल्कि सदानीरा पानी के स्रोत भी हैं। शुरुआती दौर में आंदोलन को दबाने की कोशिश की, पर यह आंदोलन जनता में बहुत लोकप्रिय हो चुका था और पूरी तरह अहिंसा पर आधारित था। जगहजगह लोग पेड़ों से चिपक गए और उन्हें कटने से बचाया। इसका परिणाम यह हुआ कि सरकार ने हरे वृक्षों की कटाई पर कानूनी रोक लगाई, जो आंदोलन की बड़ी सफलता थी। इसके अलावा, दूसरे दौर में लोगों ने अलग-अलग तरह से पेड़ लगाए। इस आंदोलन का विस्तार बड़े बांधों का विरोध हुआ। इसके दबाव में केंद्र सरकार ने माधव गाडगिल की अध्यक्षता में गाडगिल समिति बनाई। यहां हर साल अप्पिको की शुरुआत वाले दिन 8 सितंबर को सह्या​िद्र दिवस मनाया जाता है। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि जो अप्पिको आंदोलन कर्नाटक के पश्चिमी घाट में शुरू हुआ था, अब वह फैल गया है। इस आंदोलन ने एक नारा दिया था उलीसू, बेलासू और बालूसू। यानी जंगल बचाओ, पेड़ लगाओ और उनका किफायत से इस्तेमाल करो। यह आंदोलन आम लोगों और उनकी जरूरतों से जुड़ा है, यही कारण है कि इतने लंबे समय तक चल रहा है। अप्पिको को इस इलाके में आई कई विनाशकारी परियोजनाओं को रोकने में सफलता मिली, कुछ में सफल नहीं भी हुए। लेकिन अप्पिको का दक्षिण भारत में वनों को बचाने के साथ पर्यावरण चेतना जगाने में अमूल्य योगदान हमेशा ही याद किया जाएगा।

खुला मंच

अरुण तिवारी

ल​ीक से परे

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण कार्यकर्ता हैं

बैक्टीरियोफेज और स्वच्छ गंगा

गंगाजल की शुद्धता को लक े र दावे हवाई नहीं है, बल्कि इसके वैज्ञानिक कारण हैं

ब यह एक स्थापित तथ्य है कि यदि गंगाजल में वर्षों रखने के बाद भी खराब न होने का विशेष रासायनिक गुण है, तो इसकी वजह है इसमें पाई जाने वाली एक अनन्य रचना। इस रचना को हम सभी ‘बैक्टीरियोफेज’ के नाम से जानते हैं। बैक्टीरियोफेज, हिमालय में जन्मा एक ऐसा विचित्र ढांचा है कि जो न सांस लेता है, न भोजन करता है और न ही अपनी किसी प्रतिकृति का निर्माण करता है। बैक्टीरियोफेज, अपने मेजबान में घुसकर क्रिया करता है और उसकी नायाब मेजबान है गंगा की सिल्ट। गंगा में मूल उत्कृष्ट किस्म की सिल्ट में बैक्टीरिया को नाश करने का खास गुण है। गंगा की सिल्ट का यह गुण भी खास है कि इसके कारण, गंगाजल में से कॉपर और क्रोमियम स्रावित होकर अलग हो जाते हैं। अब यदि गंगा की सिल्ट और बैक्टीरियोफेजेज को बांधों अथवा बैराजों में बांधकर रोक दिया जाए और उम्मीद की जाए कि आगे के प्रवाह में वर्षों खराब न होने वाला गुण बचा रहे, तो क्या यह संभव है? मछलियां, नदियों को निर्मल करने वाले प्रकृति प्रदत तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। धारा के विपरीत चलकर अंडे देने वाली माहसीर और हिल्सा जैसी खास मछलियों के मार्ग में क्रमशः चीला और फरक्का जैसे बांध-बैराज खड़े करके हम अपेक्षा करें कि वे नदी निर्मलता के अपने कार्य को जारी

महातमा का पत्र हहटलर के नाम

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गांधी सममृहि

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गणिंत्र का उतसव

हवश्व कैंसर हिवस

गांधी सममृहि 26

हसनेमा में महातमा

फोटो फीचर

कैंसर के हिलाफ युवी की जंग

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harat.com

sulabhswachhb

वर्ष-2 | अंक-07 | 29

/2016/71597 आरएनआई नंबर-DELHIN

निी पुनजजीवन सबक

चुनौिी से जयािा

जनवरी - 04 फरवरी 2018

िास बािें

के 2013 में मयूसी निी की सफाई योजना हलए 900 करोड़ रुपए की 1032 एमएलडी सीवेज पानी मयूसी में बहािा है

और गंिा

मयूसी के साथ हुसैन सागर भी प्रियूरण से बुरा हाल

झील का

है। कु्छ सथिािों िर, िररणामस्वरूि, िदी सूख जाती भी प्र्वाह कम हरोता है। सथिािीय घटकों के असर से मूसी करो बचािे की िहल समय रेलगाड़ी की चेन्नई से हैदराबाद जाते के कया है, चारमीनार के साथ एक निी ी िदी िजर आती है। िदी स मू पहचान से की नखड़की शहर हैिराबाि गंभीर देती। नसर्फ िदी की है मयूसी। िुभा्षगय से यह निी ि आि िाले जैसी भी िहीं नदखाई नक इस िदी के बात है साथ बी जुड़ी है। यह निी सेह समृनत भर रह गई है। अच्छी । इस निी की प्रवाह और हैं। मूसी िदी का ि चे प्रियूरण की हशकार हो गई के भी प्रयास शुरू हरो गए लोग उद्धार जाकर अब र को लेक हैदराबाद िगर मूसी िदी गौर्वशाली इनतहास रहा है। को बहाल करने की चुनौिी साझी पहल से मयूसी िगर करो िुरािे शहर की िदी यह । है समाज बसा और िर के तट रहे हैं। उममीि है सरकार है। िुरािे समय में इसे उममीि जगी है और िए शहर में बांटती के हफर से सवच्छ होने की जाता थिा। कभी यह मु्छकुंडा िदी के िाम से जािा खय स्रोत शहर के नलए िािी का मु क्मता घटिे िदी हैदराबाद के अिंत क्मता घटती है। भूजल भंडारण थिी। मूसी िदी रंगारेड्ी नजले से िररिूण्ग हरोती भंडारण कृषणा भूजल संनचत हुआ करती से निकलती है। आगे जाकर िाररससथिनतक तथिा जैन्वक न्वन्विता नत्रत स्वचानलत के कारण नमट्ी की िरतों में कम जलदी िदी में नगरी िहानड़यों है। नत नियं एसएसबी बययूरो यह िािी बरसात बाद बहुत । जाती है। ्वह प्राकृनतक ए्वं प्रकृ है ा त नमल हरो में िदी मगत न भू नकलरोमीटर है। िर ्वषा्गजल, सतही जल तथिा उतसनज्गत हरो जाता है। मूसी िदी की लंबाई 240 िनदयां वय्वसथिा है जरो का घटिे लगता है। संतुलि रख, क्छार के अनतक्रमण प्र्वाह बीच री दुनिया में आनदकाल से का िदी के में िदी ि, घटकों सीमा के िररणामस्वरू हैदराबाद के शहरी स्रोत रही जल में कई सनहत आजीन्वका करो आिार के कारण, तल के िीचे स्वच्छ जल का अमूलय है। हैदराबाद में रहते हुए चादरघाट नक िदी िदी तल से रेत के खि​ि की जागृत इकरो-नससटम नशकार भारत से सालों वय्वसथिा ्छ । है कु हैं। नि्छले िार करते हुए सरोचता थिा करती है। की वय्वसथिा गड़बड़ा जाती िािी बार मूसी िदी करो िी प्र्वाह में कमी प्रदाि का संबंि बरसात के कणों नकया है। 1908 में कारण िदी तल के िीचे के अनिकांश िनदयों के गैर-मॉिसू से सूख रही हैं िदी के बारहमासी बिे रहिे के साथि हमिे ये कैसा वय्वहार और के गड़बड़ािे के तेजी ्वह बाहर आ जाता है चमेंट की जल प्रदाय क्मता दराबाद में कहर बरिाया आ रही है, ्छरोटी-्छरोटी िनदयां का प्र्वाह अ्वरुद्ध हरोता है। मूसी िदी में आई बाढ़ िे है सी भाग बाद उसके कै प्र्वाह । । है है से ज नकसी-ि-नक ि जाती सी्वे प्रबं के हरो चत न चत न लीटर िनदयों ्वं ों समु ड़ कररो और लगभग सभी जनटल ईकरो-नससटम के िदी उसके यरोगदाि से थिा। िदी का बुरा हाल इसमें ससथिनत नहमालयी िनदयों महत्विूण्ग घटक, और हुआ। इसकी भूजल दरोहि के कारण में प्रदूषण बढ़ रहा है। यह कम करिे ्वाला िहला ा िािी बहाए जािे के कारण तीसरे, िदी घाटी में हरोिे ्वाले की िनदयों में अनिक करो उतर जाती है। और गंद भूनम कटा्व के कारण ीदगी नदख रही है। ्वैसे में कम तथिा भारतीय प्रायद्ीि ्वाटर टेनबल, िदी तल के िीचे कैचमेंट में भूनम कटा्व है। सराई करो लेकर अब संज ती है तथिा भूजल क्ेत्रीय से बहाल हरोिा एक बड़ी की िरतों की मरोटाई कम हरो गंभीर है। इस िदी की सेहत का नरर अनभन्न अंग है। नमट्ी िदी, प्राकृनतक जल चक्र का । है के ट ौती में ि च चु कै निी ी स अि​िे मयू क िदी नगर के ले 900 कररोड़ इस जलचक्र के अंतग्गत, प्रतये इहिहास रहा है। हैिराबाि 2013 में मूसी िदी की सराई िािी करो समुद्र अथि्वा मयूसी निी का गौरवशाली नए शहर में बांटिी है (जलग्रहण क्ेत्र) िर बरसे नगर को पुराने शहर और अि​िे क्छार में भूझील में जमा करती है। ्वह िट पर बसा है। यह निी िररमाज्गि करती हैं। ्वह आकृनतयों का निमा्गण ए्वं

सा

रखेंगी, यह सही नहीं है। हैदराबाद स्थित ‘नीरी’ को पर्यावरण इंजीनियरिंग के क्षेत्र में शोध करने वाला सबसे अग्रणी शासकीय संस्थान माना जाता है। ‘नीरी’ द्वारा जुलाई, 2011 में जारी एक रिपोर्ट स्थापित करती है कि बैक्टीरियोफेज की कुल मात्रा का 95 प्रतिशत हिस्सा, टिहरी बांध की झील में बैठी सिल्ट के साथ ही वहीं बैठ जाता है। मात्र 05 प्रतिशत बैक्टीरियोफेज ही टिहरी बांध के आगे जा पाते हैं। सभी को मालूम है कि गंगा में ग्लेशियरों से आने वाले कुल जल की लगभग 90 प्रतिशत मात्रा, बैराज में बंधकर हरिद्वार से आगे नहीं जा पाती है। शेष 10 प्रतिशत को बिजनौर और नरोरा बैराजों से निकलने वाली नहरें पी जाती हैं। इस तरह गंगा के मूल से आए जल, बैक्टीरियोफेज और सिल्ट की बड़ी मात्रा बांध-बैराजों में फंसकर पीछे ही रह जाती है। प्रख्यात नदी वैज्ञानिक स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद दुखी हैं कि गंगोत्री से आई एक

पठनीय के साथ संग्रहणीय अंक

गांधी हमारे देश के लिए कहने भर के लिए राष्ट्रपिता नहीं हैं, बल्कि वाकई वे आज भी देश के लिए सबसे बड़ी प्रेरणा हैं। उन्होंने अपने जीवन को सत्य के साथ प्रयोग भले कहा हो पर यह प्रयोग कई एेतिहासिक सिद्धियों से भरा है। गांधी का जीवन और उनका अहिंसक प्रयोग आज भारत सहित दुनिया के लिए पर्यावरण से लेकर विकास की सबसे बड़ी साखी है। शुभकामना का पात्र है ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ वह समय-मसय पर गांधी को नए संदर्भों और उल्लेखों के साथ हमारे बीच लाता रहता है। मैं एक पाठक के तौर पर सिर्फ अपने अनुभव की बात करूं तो सबसे पहले इस

बूंद भी प्रयागराज (इलाहाबाद) तक नहीं पहुंचती। परिणामस्वरूप, इलाहाबाद की गंगा में इसके जल का मौलिक मूल गुण विद्यमान नहीं होता। यही कारण है कि इलाहाबाद का गंगाजल, गर्मी आते-आते अजीब किस्म के कसैलेपन से भर उठता है। निस्संदेह, इस कसैलेपन में हमारे मल, उद्योगों के अवजल, ठोस कचरे तथा कृषि रसायनों में उपस्थित विष का भी योगदान होता है। लेकिन सबसे बड़ी वजह तो गंगाजल को मौलिक गुण प्रदान करने वाले प्रवाह, सिल्ट और बैक्टीरियोफेज की अनुपस्थिति ही है। साफ है कि यदि गंगाजल के विशेष मौलिक गुण को बचाना है, तो गंगा उद्गम से निकले जल को सागर से गंगा के संगम की स्थली- गंगासागर तक पहुंचाना होगा; गंगा की त्रिआयामी अविरलता सुनिश्चित करनी होगी। त्रिआयामी अविरलता का मतलब है, गंगा प्रवाह और इसकी भूमि को लंबाई, चौड़ाई और गहराई में अप्राकृतिक छेड़छाड़ से मुक्त रखना। इस त्रिआयामी अविरलता को सुनिश्चित किए बगैर, गंगा को निर्मल करने का हर प्रयास विफल होगा। यह सर्वविदित तथ्य है कि गंगा में प्रवाहित होने वाले जल की कुल मात्रा में ग्लेशियरों का योगदान 35-40 प्रतिशत ही है। शेष 65-60 प्रतिशत मात्रा सहायक नदियों और भूजल प्रवाहों की देन है। सहायक नदियों और भूजल प्रवाहों में जल की मात्रा बढ़ाने के प्रयास से ही गंगा की स्वच्छता और अविरलता संभव है।

अखबार का पाठक मैं तब बना था जब चंपारण सत्याग्रह पर विशेषांक निकला था। इस अंक को मैंने भागलपुर विश्वविद्यालय में गांधी विचार विभाग के एक छात्र के पास देखा था। इससे पहले न मैं इस अखबार का पाठक था और न ग्राहक। ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ के अब तक गांधी पर केंद्रित कई अंको के अलावा योग, स्वामी विवेकानंद, भारत छोड़ो आंदोलन सहित स्वच्छता और पर्यावरण पर कई पठनीय के साथ संग्रहणीय अंक आ चुके हैं। मैं शुभकामना देना चाहती हूं अखबार के संपादकीय टीम को वह विविध विषयों पर हमारे लिए इतनी सुरुचिपूर्ण सामग्री जुटाता है। अवनीश कुमार काजवली चौक, भागलपुर


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राष्ट्रीय उत्सव का समापन 05 - 11 फरवरी 2018

बीटिंग रिट्रीट गणतंत्र दिवस के उत्सव के अंत की सूचना है। इस उत्सव में सेना के तीनों अंगों के जवान पारंपरिक धुन बजाते हैं। हर वर्ष विजय चौक पर 29 जनवरी की शाम में होने वाले इस समारोह का आयोजन किया जाता है फोटोः शिप्रा दास


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बड़ी जिम्मेदारियों की ओर

कड़ी ऊर्जावान, समर्पित, दृढ़ निश्चय वाले उत्कृष्ट संगठनात्मक क्षमता और बेहद नम्रता से पार्टी द्वारा दिए गए कार्यों को पूरा करते हुए, नरेंद्र मोदी ने अयोध्या रथ यात्रा और एकता यात्रा में सफल भूमिका निभाई। यही दो बड़े सामूहिक जनसंचार कार्य थे जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा के प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए कई मायनों में योगदान दिया

मदन लाल खुराना, कृष्ण लाल शर्मा, साहिब सिंह वर्मा, लाल कृष्ण अडवाणी, केदार नाथ साहनी और नरेंद्र मोदी स्वर्ण जयंती रथ यात्रा की अगुवाई करते हुए, 15 जुलाई, 1997


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21 नरेंद्र मोदी की राजनीतिक यात्रा

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1992 में श्रीनगर में भारतीय ध्वज फहराते हुए नरेंद्र मोदी

71 से लेकर 1985 के बीच 14 साल तक, राष्ट्रीयस्वयं सेवक संघ के सान्निध्य में अपनी राजनीतिक दीक्षा और सांस्कृतिक शिक्षा हासिल करते हुए नरेंद्र मोदी ने शानदार ढंग से अपनी उपयोगिता साबित की। इसके बाद मोदी ने राजनीतिक सीढ़ी पर अपना अगला कदम बढ़ाया, जब संघ के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें 1985 में भाजपा में भेजा। 1988 में, नरेंद्र मोदी को भाजपा की गुजरात इकाई के आयोजन सचिव के रूप में चुना गया। इससे राज्य की राजनीति में उनके बढ़ते प्रभुत्व के संकेत मिलने लगे।

भाजपा के पुनरुत्थान में योगदान

अब नरेंद्र मोदी पार्टी के अंदर लगातार मजबूत होते जा रहे थे। उनकी अजेय संगठनात्मक क्षमता को लाल कृष्ण अडवाणी ने पहचान कर अपनी अयोध्या रथ यात्रा के लिए गठित मुख्य टीम में शामिल कर लिया। यह यात्रा सितंबर, 1990 में गुजरात के सोमनाथ से शुरू हुई और मध्य भारत से होते हुए अयोध्या की तरफ बढ़ी। रथ यात्रा का विचार, हिंदुत्व के प्रति उत्साही लोगों को संघटित करने का बड़ा कदम साबित हुआ। यात्रा में लोगों ने मंदिर की घंटी और थाली बजाकर, नारे लगाकर रथ का स्वागत किया। कुछ लोगों ने तिलक के साथ रथ को समर्थन दिया, तो बहुत से लोगों ने अपने माथे पर रथ के पहियों

की धूल लगाई। अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री-माई लाइफ’ में, अडवाणी जी ने सितंबर-अक्टूबर की उस घटना को अपने राजनीतिक जीवन में एक प्राणपोषक अवधि के रूप में माना है। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप होने वाली घटनाओं की श्रृंखला ने दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस को जन्म दिया। गुजरात, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा शुरू हो हुई। 30 अक्टूबर को अयोध्या में होने वाली कार सेवा में अडवाणी भाग ले सकें, इससे पहले ही बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आदेश पर समस्तीपुर में 23 अक्टूबर को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अयोध्या रथ यात्रा ने मजबूत हिंदू भावना को बढ़ावा दिया और इससे भाजपा की लोकप्रियता भी बढ़ी। पार्टी की ताकत 1989 में लोकसभा चुनावों के 85 सीट से बढ़कर 1991 में हुए लोकसभा चुनावों में 120 सीटों तक पहुंच गई। अडवाणी की अभूतपूर्व रथ यात्रा ने एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा की किस्मत बदल दी। वह 1980 में संसद में 2 सीटों की पार्टी से आगे बढ़कर अब कांग्रेस के समक्ष राजनीतिक विकल्प के निर्णायक रूप में आ गई थी। नरेंद्र मोदी के लिए, यह आंदोलन अग्नि-परीक्षा साबित हुआ, जिसमें से वह विजयी होकर निकले। यात्रा के अंत तक, उन्होंने भाजपा मंडलों में प्रतिष्ठा अर्जित कर

ली और वरिष्ठ नेतृत्व का पूर्ण आत्मविश्वास जीतने में सफल रहे।

अयोध्या यात्रा के बाद एकता यात्रा

अयोध्या रथ यात्रा की सफलता के बाद 1991-92 में एक अन्य प्रमुख भाजपा नेता मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में एकता यात्रा शुरू हुई। इस घटना की रणनीति 1980 के दशक के उत्तरार्ध में बनाई गई थी, जब भाजपा नेतृत्व के विचार में, राष्ट्र अपनी संप्रभुता के एक अप्रत्याशित अवमानना के दौर से गुजर रहा था। प्रतिक्रिया के रूप में, डॉ. जोशी ने जिस जगह स्वामी विवेकानंद को जीवन का उद्देश्य मिला था, उस कन्याकुमारी से 'एकता यात्रा' शुरू करने का फैसला किया, इस यात्रा को श्रीनगर के लाल चौक तक पहुंचना था, जहां उन्हें राष्ट्रीय तिरंगा फहराना था। नरेंद्र मोदी की एक जीवनी के अनुसार, अपने संगठनात्मक कौशल के लिए बड़ी प्रतिष्ठा अर्जित कर चुके मोदी के कंधों पर पूरी तरह से एकता यात्रा की तैयारी का कार्य था। अपने मन, संगठनात्मक दक्षता और अविनाशी ऊर्जा को शानदार ढंग से नियोजित करते हुए, मोदी ने बड़े खतरों के बीच बहुत कम समय के भीतर ही विस्तृत व्यवस्था की। उन्होंने एकता यात्रा में आने वाले वाली सभी जगहों का दौरा किया, पार्टी कार्यकर्ताओं से मिले, उनमें जोश भरा और देशभक्तिपूर्ण उत्साह पैदा

1988 में भाजपा की गुजरात इकाई के महासचिव बने । 1995 और 1998 के गुजरात चुनावों में सफलतापूर्वक जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रमुख रणनीतिकार। राष्ट्रीय स्तर पर दो चुनौतीपूर्ण कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक संयोजित किया: पहला - सोमनाथ से अयोध्या रथ यात्रा, लालकृष्ण अडवाणी के नेतृत्व में एक लंबी यात्रा। दूसरा – एकता यात्रा, मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में कन्याकुमारी (भारत के दक्षिणी सिरे) से कश्मीर (उत्तरी सिरे) तक एकता के लिए एक यात्रा। इन दो घटनाओं को केंद्र की सत्ता में 1998 में भाजपा को लाने के लिए जाना जाता है। 1995 में नरेंद्र मोदी को भाजपा के राष्ट्रीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया। नरेंद्र मोदी को विभिन्न राज्यों में सफलतापूर्वक पार्टी संगठन को पुनर्जीवित करने का श्रेय दिया गया। 1998 में, नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय महासचिव के रूप में पदोन्नत किया गया और अक्टूबर 2001 तक वह इस पद पर रहे। उप-चुनावों में बीजेपी की हार से केशुभाई पटेल के इस्तीफे के बाद नरेंद्र मोदी पहली बार अक्टूबर 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने।


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पुस्तक अंश

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नरेंद्र मोदी का सरल और बेहतरीन रूटीन भाजपा के महासचिव के रूप में भाजपा के महासचिव के रूप में, नरेंद्र मोदी नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय मुख्यालय के निकट 9, अशोक रोड पर रहते थे। वह 1998 से 2001 तक वहां रहे। 2001 में वह गुजरात के मुख्यमंत्री बने। दिल्ली के मयूर विहार के भाजपा जिलाध्यक्ष तेजपाल सिंह के अनुसार, “मोदी 5 बजे उठते थे और पार्क में घूमने के साथ अपना दिन शुरू करते थे। कई बार वह उस शुरुआती घंटों में ही लोगों से मिला करते थे।” सिंह कहते हैं कि मोदी आदत के मामले में बहुत सरल थे और अथक उत्साह से भरे रहते थे। पूरे दिन काम करते थे और प्रायः 10 बजे सोने जाते थे। लेकिन, अगर कोई देर रात मिलने के लिए आ जाए तो वह उससे भी मिलने में संकोच न करके गर्मजोशी से मिलते थे। भाजपा के स्टाफ सदस्य बलवंत सिंह याद करते हैं कि मोदी उस मेस में खाना खाया करते थे जो भाजपा सचिव गोविंदाचार्य पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए चलाते थे। भाजपा मुख्यालय में एक ड्राइवर कहते हैं कि मोदी ने कभी भी पार्टी की कारों का इस्तेमाल नहीं किया जो उनके लिए उपस्थित रहती थी। वे सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करते थे, और आपात स्थिति में भी,वह एक दोस्त की कार में सवारी यात्रा करते थे।

किया, जिसने यात्रा की सफलता के लिए ठोस आधार रखा। एकता यात्रा 11 दिसंबर, 1991 को शुरू हुई। इस यात्रा ने प्रमुख मुद्दों को उठाया। भाजपा जिसे विभाजित और हिंसक वोट बैंक की राजनीति कहती थी ऐसे मुद्दों को खत्म करने पर जोर दिया। साथ ही, कश्मीर में आतंक के खतरे के अंत और "छद्म धर्मनिरपेक्षता" की राजनीति को दूर करने पर भी जोर देकर कहा गया। नरेंद्र मोदी ने 26 जनवरी, 1992 को श्रीनगर में गर्व और खुशी के साथ अंततः तिरंगा फहराते हुए देखा। इस प्रकार, नरेंद्र मोदी ने किसी भी परिस्थिति में असाधारण ढंग से अपनी क्षमताओं को दिखाया। वह चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में एक त्वरित निर्णय क्षमता वाले व्यक्ति के रूप में उभर कर आए।

पार्टी के भीतर अधिक जिम्मेदारियां उठाना

सचिव के रूप में, मोदी की प्रभावी चुनावी रणनीति ने नवंबर 1995 में गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा की शानदार जीत सुनाश्चित की। 182 विधानसभा सीटों में से, भाजपा को 121 सीटों के पूर्ण बहुमत मिला। जबकि कांग्रेस पार्टी ने 45 सीटें जीती और 16 सीटें निर्दलीय के खाते में गईं। इस परिणाम ने मोदी को राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचा दिया। वह भाजपा के राष्ट्रीय सचिव चुने गए और उन्हें नई दिल्ली में स्थानांतरित कर दिया गया। 1996 से 1999 के बीच महासचिव के रूप में वे पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और चंडीगढ़ के प्रभारी रहे। उनकी देख-रेख में भाजपा ने इन राज्यों में सरकार बनाई। कहीं पर स्वयं, कहीं पर सहयोगियों के साथ। 1996 में, गुजरात के एक प्रमुख भाजपा नेता शंकर सिंह वाघेला, अपनी संसदीय सीट से हारने के बाद कांग्रेस में शामिल हो गए। इस घटना को भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने नाराजगी से लिया। नरेंद्र मोदी ने वाघेला के विद्रोह को भाजपा के राज्य में दूसरे बड़े नेता केशुभाई पटेल के समर्थन के लिए प्रयोग किया। उनका एकमात्र उद्देश्य बीजेपी की गुजरात इकाई में बढ़ती हुई गुटबाजी को समाप्त करना था। उनकी रणनीति तब सफल हो गई जब भाजपा ने 1998 के गुजरात विधानसभा चुनावों में 182 सीटों पर चुनाव लड़ा और 117 सीटें जीतीं। जबकि कांग्रेस 179 सीटों पर चुनाव लड़ी और मात्र 53 सीटें जीतने में सफल रही।

बीजेपी संगठनात्मक ढांचे के शीर्ष पर एकता यात्रा के दौरान मुरली मनोहर जोशी के साथ नरेंद्र मोदी

गुजरात में उत्कृष्ट चुनाव परिणामों ने मोदी की प्रतिष्ठा को और बढ़ा दिया, उन्हें मई 1998 में भाजपा महासचिव (संगठन) के पद पर पदोन्नत

किया गया। महासचिव के रूप में, उनकी मुख्य जिम्मेदारी कई राज्य इकाइयों के मामलों की देख-रेख करना थी जिसमें जम्मू-कश्मीर जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण राज्य के साथ और उतने ही संवेदनशील पूर्वोत्तर राज्य भी शामिल थे। उन्होंने कई राज्यों में पार्टी संगठन में फेरबदल कर उसे फिर से बनाया और महत्वपूर्ण अवसरों पर भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण प्रवक्ता के रूप में उभरे। इस दौरान, दुनिया भर में उन्होंने व्यापक रूप से यात्रा की, और कई देशों के प्रतिष्ठित नेताओं के साथ मिले। इन अनुभवों ने उन्हें एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य विकसित करने में मदद की।

1999 के आम चुनाव में भूमिका

17 अप्रैल 1999 को, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में भाजपा की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार लोकसभा में विश्वासमत हासिल करने में असफल रही और एक वोट से गिर गई। दरअसल सरकार के गठबंधन सहयोगियों में से एक ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडगम (एआईएडीएमके) ने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था। केंद्र में वाजपेयी सरकार के सत्ता में बने रहना असंभव हो गया। भाजपा तुरंत चुनाव के लिए चली गई। भाजपा ने अपना चुनावी अभियान, कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों के स्वीकार्य और विश्वसनीय विकल्प बनने की आवश्यकता पर 20 से ज्यादा दलों के गठबंधन के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के प्रमुख के रूप में शुरू किया। इस अभियान की सफलता ने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार के गठन की नींव रखी। यह क्षण चुनाव अभियान में शामिल लोगों की कड़ी मेहनत के लिए एक बड़ी उपलब्धि था। पूरे अभियान के दौरान, नरेंद्र मोदी कई सवेंदनशील जिम्मेदारियों के साथ एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में थे। 13 वीं लोकसभा के चुनाव का कई मायनों में ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि यह पहली बार था जब विपक्षी दलों के एकजुट मोर्चे ने बहुमत प्राप्त करने में सफलता पाई और एक ऐसी सरकार बनाई जो पूरे पांच साल की अवधि तक चली। इस तरह से राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक अस्थिरता की अवधि भी समाप्त हो गई। पार्टी द्वारा सौंपी गई सभी जिम्मेदारियों को निभाने में संगठन के प्रति वफादारी, बेहद विनम्रता और निर्विवाद आज्ञाकारिता के साथ-साथ संबंध और रिश्तों का निर्माण और हमेशा राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखने जैसे महवपूर्ण गुण हैं, जिनकी वजह से नरेंद्र मोदी बीजेपी में उच्च स्थान तक पहुंचे।


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जेंडर

‘प्रथम महिलाअों’ का सम्मान

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति भवन में अपने क्षेत्रों में मील का पत्थर कायम करने वाली पहली भारतीय महिलाअों को किया सम्मानित

खास बातें

कुल 112 ‘पहली भारतीय महिलाअों का किया हया सम्मान इस सूची को महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने तैयार किया है सूची को तैयार करने में मंत्रालय को एक साल का समय लगा

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निवेदिता सिंह

विभिन्न क्षेत्रों और पेशों से ताल्लुक रखने वाली ‘पहली भारतीय महिलाएं’ जिनमें कई गुमनामी में खो गई अभिनेत्रियां, पहली महिला कुली से लेकर ऑटो-रिक्शा चालक, पहली महिला ट्रेन, बस चालक और यहां तक कि पहली बार टेँडर और सेना-नौसेना में जाने वाली पहली महिला जिन्होंने अपने पेशे से संबंधित क्षेत्रों में हदों के पार जाकर शानदार काम किया, उन्हें हाल में सम्मानित किया गया। 112 महिलाओं की सूची न सिर्फ परंपरागत पेशों से है, बल्कि बेहद अलग पेशों से भी है। उन लोगों ने देश की पहली पेशेवर कॉफी टेस्ट करने वाली महिला, पहली महिला जासूस, पहली महिला बॉडी बिल्डर प्रतियोगी, पहली साइबर अपराध जांचकर्ता और पहली महिला बैगपाइप कलाकार को भी शामिल किया। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति भवन में इन असाधारण महिलाओं को सम्मानित किया, जो संबंधित क्षेत्रों में मील का पत्थर कायम करने वाली पहली महिला भारतीय महिला रहीं। सूची को महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा एक साल की अवधि में काफी रिसर्च के बाद तैयार किया गया। महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने बताया, ‘हमें उन लोगों के सम्मान का जश्न मनाना चाहिए, जिन्होंने जीवन में असाधारण काम किए हैं। इन महिलाओं को साथ लाना उनके और उनके काम को सम्मान देने का एक तरीका है।’ मेनका ने कहा कि ‘प्रथम महिला’

पहल के जरिए मंत्रालय ने विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धि हासिल करने वाली पहली महिलाओं की पहचान की है। हमने ऐसी महिलाओं की तलाश की जो अपने पेशे में प्रथम हैं और इन नामों को विभिन्न स्रोतों से एकत्र किया। सूची में सेना में जाने वाली पहली महिला, पहली पायलट, पहली मर्चेट नेवी कैप्टन, पहली महिला न्यायाधीश, पहली महिला भारोत्तोलक, पहली वन डे कप्तान और कई महिलाएं हैं। सम्मानित महिलाओं के बीच पहली ऑटो-रिक्शा चालक शीला दावरे भी हैं, जिन्होंने 1988 में रूढ़िवादी मान्यताओं को झुठलाते हुए ऑटो-रिक्शा चलाना शुरू किया। दावरे ने बताया, ‘मेरे माता-पिता शिक्षित थे, लेकिन जब मैंने ऑटो-रिक्शा चालक बनने का फैसला किया तो किसी ने मेरा साथ नहीं दिया। अब मुझे अच्छा लगता है कि मेरे लिए एक सम्मान है, हालांकि बाद में मेरा परिवार मुझसे खुश हो गया, राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलना अच्छा लगता है और यह अन्य महिलाओं को आगे आकर गाड़ी चलाने को पेशे के रूप में अपनाने में भी मदद करेगा।’ ‘मास्टर शेफ इंडिया’ जीतने वाली पहली भारतीय महिला पंकज भदौरिया ने बताया, ‘यह एक खूबसूरत पहल है। यह न सिर्फ उन महिलाओं को पहचान दे रहा है, जो पहले से ही अच्छा कर रही हैं, बल्कि युवा लड़कियों

को भी आगे आने और जीवन में अच्छा काम करने के लिए प्रेरित करेगा।’ नकद रहित भुगतान कंपनी की नींव डालने वाली पहली महिला उपासना टाकू ने कई अन्य लोगों से पहले नकद रहित अर्थव्यवस्था का सपना देखा और 2009 में अपने इस सपने को पूरा करने के लिए इस पर काम करना शुरू कर दिया। वह अग्रणी ई-भुगतान प्लेटफॉर्म मोबीक्विक की सहसंस्थापक हैं। टाकू ने बताया, ‘मुझे हमेशा से इस बात का अहसास था कि हमें भुगतान के लिए लाइन में खड़े होकर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए और इस सब की शुरूआत वहां से हुई। मैं खुश हूं कि मुझे इस तरह की पहचान मिल रही है।’ इस सूची में कल्पना चावला (अंतरिक्ष में जाने वाली पहली भारतीय महिला), बछेंद्री पाल (माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने वाली पहली भारतीय महिला), ऐश्वर्या राय (कान्स में जूरी सदस्य बनने वाली पहली भारतीय अभिनेत्री) और निकोल फारिया (मिस अर्थ का खिताब जीतने वाली पहली भारतीय महिला) भी शामिल की गई हैं। खेल के क्षेत्र से जुड़ी कई महिलाओं को भी सम्मानित किया गया। रियो ओलंपिक में क्वालीफाई करने वाली पहली महिला जिम्नास्ट दीपा करमाकर, भारती की पहली महिला क्रिकेटर, जिन्हें मेरीलेबोन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) की आजीवन सदस्यता

हमें उन लोगों के सम्मान का जश्न मनाना चाहिए, जिन्होंने जीवन में असाधारण काम किए हैं। इन महिलाओं को साथ लाना उनके और उनके काम को सम्मान देने का एक तरीका है - मेनका गांधी, महिला एवं बाल विकास मंत्री

मिली, पैरालंपिक खेलों में पहला पदक जीतने वाली भारतीय महिला दीपा मलिक और ओलंपिक खेलों में रजत पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पी.वी. सिंधु भी सूची में शामिल हैं। इस सूची में खेल क्षेत्र से जुड़ी जिन अन्य प्रसिद्ध महिला खिलाड़ियों के नाम हैं, उनमें साइना नेहवाल (ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली बैडमिंटन खिलाड़ी), एम.सी. मैरी कॉम (एशियाई खेलों में मुक्केबाजी में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला), साक्षी मलिक (ओलंपिक पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान) और मिताली राज (पहली महिला भारतीय क्रिकेटर जिन्होंने 6,000 रन बनाए) शामिल हैं। सूची में सानिया मिर्जा (महिला टेनिस संघ (डब्ल्यूटीए) डबल रैंकिंग में पहले स्थान पर काबिज होने वाली पहली भारतीय महिला) और पी.टी. उषा (ओलंपिक के फाइनल में पहुंचने वाली प्रथम भारतीय महिला) को भी स्थान दिया गया है। सम्मान समारोह में हालांकि हर महिला ने खुद को खास और असाधारण महसूस किया। उन लोगों ने यह भी कहा कि कई ऐसी सफल महिलाओं से मुलाकात के बाद, जिनेक बारे में उन लोगों ने कभी भी नहीं सुना था, वे बहुत अच्छा महसूस कर रही हैं। लेफ्टिनेंट कर्नल (सेवानिवृत्त) जोसीसिला फरीदा रेहाना, भारतीय सेना की पहली महिला पैराट्रपर (एएमसी) ने आईएएनएस को बताया कि यह उनके लिए किसी लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से कम नहीं है। 1940 में मैसूर में जन्मी रेहाना 1964 में भारतीय सेना में शामिल हुई थीं। द्रोणाचार्य पुरस्कार से नवाजी जा चुकीं पहली भारतीय महिला क्रिकेट कोच सुनीता शर्मा ने बताया कि उनके लिए यह देर आए, दुरुस्त आए जैसा है। उन्होंने कहा, ‘मैं खुश हूं कि हालांकि, थोड़ी देर से ही सही, हमें हमारे योगदान के लिए सम्मान मिल रहा है।’ सुनीता ने कहा, ‘सरकार को न सिर्फ पुरस्कार, बल्कि महिला खिलाड़ियों को नौकरी के अवसर प्रदान करने के लिए भी कुछ करना चाहिए। उनके पास सिर्फ रेलवे में नौकरी करने का विकल्प होता है। अन्य विभागों को भी खिलाड़ियों को नौकरी का विकल्प देने पर ध्यान देना चाहिए।’


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प्रेरक

05 - 11 फरवरी 2018

मन की आंखें खोलने में जुटे दृष्टिबाधित जॉर्ज 10 वर्ष के सफल करियर के बाद नेत्रहीन जॉर्ज अब्राहम आज जाने-माने सामाजिक उद्यमी, प्रेरक वक्ता और कम्युनिकेटर हैं

आईएएनएस-एफआईएफ

स महीने की उम्र में जॉर्ज अब्राहम मैनेंजाइटिस की समस्या से पीड़ित हो गए थे और इस कारण उनकी आंखों की रोशनी क्षीण हो गई थी, लेकिन अपनी राह में आने वाली हर अड़चन को पार करते हुए वे आज न केवल खुद एक सफल और पूर्ण जीवन जी रहे हैं, बल्कि अन्य दृष्टिबाधितों की जिंदगी में भी उजाला फैलाने के प्रयासों में जुटे हैं। भारत की शीर्ष विज्ञापन कंपनियों ओगिल्वी एंड मैथर और एडवर्टाजिंग एंड सेल्स प्रमोशन कंपनी के साथ करीब 10 वर्ष के सफल करियर के बाद वे अब एक सामाजिक उद्यमी, एक प्रेरक वक्ता और एक कम्युनिकेटर हैं। जॉर्ज ने दृष्टिबाधित लोगों के लिए समाज के प्रचलित नजरिए में बदलाव लाने के लिए ही काम नहीं किया, बल्कि ‘वर्ल्ड ब्लाइंड क्रिकेट काउंसिल’ के संस्थापक अध्यक्ष के रूप में 1998 में उन्होंने नेत्रहीनों को खुद पर भरोसा करने के लिए प्रेरित करने और उनके सपनों को उड़ान देने के लिए पहले नेत्रहीन क्रिकेट विश्व कप का आयोजन भी किया। इससे जॉर्ज की जिंदगी को एक नया अर्थ मिला, क्योंकि उनके माता-पिता ने उनकी अक्षमता को उनकी क्षमताओं से ज्यादा बड़ा नहीं समझा। उन्होंने जॉर्ज को नेत्रहीन बच्चों के लिए बने स्पेशल स्कूल में भेजने के स्थान पर एक सामान्य स्कूल में भेजने का फैसला लिया, ताकि वे दृष्टि से धन्य लोगों की दुनिया में नेत्रहीनता के साथ जीवन जीने की कटु सच्चाइयां जान पाएं।

खास बातें नेत्रहीनों के क्रिकेट में भारत को दिलाया वैश्विक मुकाम एक टीवी कार्यक्रम ‘नजर या नजरिया’ का भी निर्माण किया दिव्यांग संस्थान में जाने से बदली जिंदगी

हैं और उनकी मां सुशीला एक होम मेकर हैं। वे कहते हैं, ‘आमतौर पर केवल समाज ही नेत्रहीनों के प्रति उदासीन नहीं होता, बल्कि उनका परिवार भी उन्हें एक बोझ की तरह देखता है। मैं बेहद खुशकिस्मत हूं कि मैं ऐसे माता-पिता के घर में जन्मा, जिन्होंने कभी भी मेरी दृष्टिबाधिता को किसी कमी या ऐसी रुकावट के रूप में नहीं देखा जो मेरे एक सफल करियर और पूर्ण जीवन जीने ही राह में अड़चन बने।’

एक अनुभव से बदली जिंदगी

जॉर्ज ने बताया, ‘संकीर्ण दृष्टिकोण वाले समाज में नेत्रहीनता से पीड़ित लोगों की पूरी शख्सियत को ही बेहद दयनीय दृष्टि से देखा जाता है और इस कारण अधिकांश तौर पर उन्हें बुनियादी अवसर भी नहीं दिए जाते।’ उनकी पूरी शख्सियत को केवल उनकी नेत्रहीनता से ही जोड़ कर देखा जाता है और कोई भी उन्हें या उनकी क्षमताओं को उनकी अक्षमता से अलग रखकर नहीं देखता। जॉर्ज कहते हैं, ‘हर नेत्रहीन व्यक्ति समाज के लिए एक संसाधन बन सकता है, इसलिए केवल उनकी जरूरतें पूरी करने पर ही ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि उनमें निवेश किया जाना चाहिए और उनका सशक्तिकरण किया जाना चाहिए, ताकि उन्हें एक सम्मानजनक जीवन जीने का मौका मिले।’

जॉर्ज अपनी नौकरी से काफी संतुष्ट थे, लेकिन 1988 में पहली बार अपनी पत्नी रूपा के साथ नेत्रहीनों के एक स्कूल के दौरे ने उनकी आंखें खोल दीं। वह वहां रह रहे नेत्रहीनों की दयनीय स्थिति और उनके साथ जो बर्ताव किया जाता था, उसे देखकर भीतर तक हिल गए। उनके भीतर बेकार और किसी काम का न होने की मानसिकता भरी जा रही थी। देहरादून स्थित ‘नेशनल इंस्टीटयूट फॉर द विजुअली हैंडीकैप्ड’ का दौरा करना जॉर्ज के जीवन का एक अन्य मोड़ साबित हुआ। वहां उनका सामना पूरे जोश और उत्साह के साथ क्रिकेट खेलते नेत्रहीनों से हुआ, जिसने उनके पुराने सपने को फिर जीवंत कर दिया। वे ऐसी बॉल से क्रिकेट खेल रहे थे, जिसमें आवाज होती थी। खुद एक फास्ट बॉलर बनने का सपना लिए बड़े हुए जॉर्ज ने उसी समय फैसला किया कि वे नेत्रहीनों के लिए राष्ट्रीय क्रिकेट टूनार्मेंट का आयोजन करेंगे।

दुनिया में हर पांचवां नेत्रहीन व्यक्ति भारतीय है और हर साल इस आंकड़े में 25,000 नए मामले जुड़ जाते हैं। जॉर्ज आज जो कुछ भी हैं, उसका श्रेय वह अपने माता-पिता और ईश्वर को देते हैं। जॉर्ज के पिता एमजी अब्राहम एक इंजीनियर और आर्किटेक्ट

वे कहते हैं, ‘मुझे अहसास हुआ कि नेत्रहीनों को बॉल लपकते देखना, बैट से बॉल उछालते देखना और उसके पीछे दौड़ते देखना, काला चश्मा पहने और हाथों में छड़ी लिए एक असहाय व्यक्ति वाली नेत्रहीनों की पुरानी छवि को तोड़ने में मदद

सामाजिक नजरिया

हर पांचवां नेत्रहीन भारतीय

क्रिकेट और नेत्रहीन

करेगा और एक योग्य और सक्षम व्यक्ति की छवि उभारेगा। इतना ही नहीं, यह खेल शारीरिक फिटनेस, गतिशीलता आदि के अलावा नेतृत्व, टीम वर्क, अनुशासन, महत्वाकांक्षा, रणनीतिक कौशल जैसे जीवन कौशल विकसित कर सकता है।’ जल्द ही उन्होंने दिसंबर, 1990 में नेत्रहीनों के लिए पहला राष्ट्रीय क्रिकेट टूर्नामेंट आयोजित किया। यह एक वार्षिक आयोजन बन गया। 1996 में उन्होंने 'वर्ल्ड ब्लाइंड क्रिकेट काउंसिल' का गठन किया और उसके संस्थापक अध्यक्ष बने। 1998 में उन्होंने दिल्ली में नेत्रहीनों के लिए पहले विश्व कप का आयोजन किया। वर्ष 2007-08 में उन्होंने नेत्रहीनों के लिए क्रिकेट को एक युवा समूह को सौंप दिया। क्रिकेट के ये राष्ट्रीय टूर्नामेंट आज भी होते हैं और इसके साथ ही टी-20 विश्व चैंपियनशिप भी लॉन्च की गई है। भारत ने 2014 में विश्व कप जीता था और उसके बाद हाल ही में 2018 में भी पाकिस्तान को शिकस्त देते हुए भारत ने विश्व कप पर जीत हासिल की है। इन उपलब्धियों ने देश का ध्यान खींचा, खिलाड़ियों को नकद पुरस्कार दिए जाने लगे। 2014 के कप विजेता कप्तान शेखर नाइक को भी पहचान मिली जिसके वह हकदार थे और उन्हें पद्मश्री से नवाजा गया।

‘असली समस्या नेत्रहीनता नहीं’

जॉर्ज ने जो मुहिम शुरू की थी, वह आज जिन ऊंचाइयों पर पहुंच गई है, उसे देखकर वह बेहद खुश हैं। वे कहते हैं, ‘असली समस्या नेत्रहीनता नहीं है, समाज और खुद नेत्रहीनों का दृष्टिकोण है, जिन्हें यह मानने पर मजबूर कर दिया जाता है कि वे सामान्य जीवन नहीं जी सकते।’ जॉर्ज भली भांति जानते थे कि इस मानसिकता को बदलना एक कठिन कार्य है, लेकिन वह ऐसा करने के लिए दृढ़ता से जुटे हैं।

उन्होंने दृष्टिहीनों की क्षमताओं से जुड़ी इसी मानसिकता में बदलाव लाने के लिए स्कोर फाउंडेशन और प्रोजेक्ट आईवे शुरू किया। साथ ही उन्होंने एक रेडियो कार्यक्रम ‘ये है रोशनी का कारवां’ शुरू किया, जिसमें ऐसे लोगों की कहानियां प्रसारित की गईं जिन्होंने अपनी नेत्रहीनता के कारण अपने मार्ग में आने वाली हर अड़चन से लोहा लिया और सफलता प्राप्त करते हुए अपने सपनों को पूरा किया। इस कार्यक्रम में बैंक, आईटी और पर्यटन उद्योग समेत अनेक क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की बात की गई। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य ऐसी जानकारी देना था जो सूचनाप्रद होने के साथ ही प्रेरक भी हो।

नसीरुद्दीन शाह का साथ

जॉर्ज कहते हैं, ‘लोगों ने अपनी समस्याओं और चुनौतियों को लेकर हमें फोन करना शुरू किया, जिसके चलते हमने आईवे हेल्प डेस्क स्थापित किया, जहां काउंसलर्स जो खुद भी नेत्रहीन होते हैं, उनके प्रश्नों के जवाब देते हैं। आज तक हम ऐसी 35,000 से अधिक कॉल्स का जवाब दे चुके हैं।’ अपने मिशन के संदेश को प्रसारित करने के लिए टेलीविजन को एक शानदार माध्यम के रूप में प्रयोग करते हुए उन्होंने एक टीवी कार्यक्रम ‘नजर या नजरिया’ का भी निर्माण किया। नसीरुद्दीन शाह ने 13 एपिसोड वाले इस कार्यक्रम के हर एपिसोड की शुरुआत और अंत किया। इसमें समूचे भारत की 32 सफल केस स्टडीज दिखाई गईं। इस कार्यक्रम ने नेत्रहीनता के साथ जिंदगी की संभावनाओं को उजागर किया और जैसा कि कार्यक्रम का शीर्षक ही बताता है, इसने एक ज्वलंत प्रश्न उठाया, ‘समस्या नजर में है या नजरिए में?’ अपने इसी ध्येय के साथ जॉर्ज इस मानसिकता को बदलने में और ऐसे समावेशी समाज की रचना करने में जुटे हैं, जहां लोग 'उनमें' और 'हममें' कोई फर्क न करें।


05 - 11 फरवरी 2018

प्रेरक

सूखे बुंदेलखंड में गला तर करने का अभियान संदीप पौराणिक

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पानी के लिए तरसते बुंदलेखंड में कुछ जुनूनी लोगों ने इंसानी प्यास को बुझाने का बीड़ा उठाया है

देलखंड इन दिनों सूखा और पानी के संकट से जूझ रहा है। खेत खाली पड़े हैं, मगर इस इलाके में कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्होंने अपने कुएं और हैंडपंप में पानी होने की स्थिति में खेती को महत्व देने की बजाय प्यासों का गला तर करने में लगे हैं, क्योंकि इंसानों की जान बचाना उन्हें ज्यादा जरूरी लग रहा है। मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड छतरपुर जिले के भौंयरा ग्राम पंचायत के युवा किसान रक्षपाल सिंह यादव ने सूखे के दौर में अपने पड़ोसियों की मदद का संकल्प लिया है। यादव बताते हैं, ‘उनकी दो एकड़ भूमि है, जिसके लिए उनके हैंडपंप में पर्याप्त पानी है, मगर उन्होंने गेहूं की बजाय चना और सरसों की फसल बोई है, क्योंकि इसमें पानी कम लगता है।’ उन्होंने आगे बताया, ‘उन्होंने ज्यादा पानी मांगने वाली फसल सिर्फ इसीलिए नहीं बोई, ताकि हैंडपंप के जरिए आसपास के लोगों की पानी की जरूरत पूरी की जा सके। दिन में दो घंटे से ज्यादा हैंडपंप चलता है, इससे लगभग 25 परिवार अपनी

जरूरत का पानी हासिल कर लेते हैं।’ बड़ा मलहरा में आयोजित बुंदेलखंड में जलसंकट के समाधान के लिए कार्यकर्ता निर्माण शिविर में हिस्सा लेने आए यादव ने कहा कि उनके लिए अपनी खेती और पेट

कलंक न समझें कुष्ठ को

कुष्ठ रोग के साथ कई गलत अवधारणाएं जुड़ी हैं, जिनके चलते बीमारी से ग्रस्त लोगों को सामाजिक कलंक और भेदभाव का सामना करना पड़ता है

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डॉ. साक्षी श्रीवास्तव

श्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आज दुनिया भर में तकरीबन 180,000 लोग कुष्ठ रोग से संक्रमित हैं, जिसमें से अधिकतर अफ्रीका और एशिया में हैं। कुष्ठ रोग के साथ कई गलत अवधारणाएं जुड़ी हैं, जिनके चलते बीमारी से ग्रस्त लोगों को सामाजिक कलंक और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। दरअसल, कुष्ठ रोग जिसे आमतौर पर

हैंसंस रोग कहा जाता है, इसका कारण धीमी गति से विकसित होने वाला एक जीवाणु है, जो माइकोबैक्टीरियम लेप्री (एम.लेप्री) कहलाता है। इस रोग में त्वचा का रंग पीला पड़ जाता है। त्वचा पर ऐसी गांठें या घाव हो जाते हैं, जो कई सप्ताह या महीनों के बाद भी ठीक नहीं होते। इसमें तंत्रिका क्षतिग्रस्त हो जाती है, जिसके चलते हाथों और पैरों की पेशियां कमजोर हो जाती हैं और उनमें संवेदनशीलता कम हो जाती है। बहुत से लोग मानते हैं कि यह रोग मानव

भरने से ज्यादा जरूरी है, अपने पड़ोसियों प्रदेश के 13 जिले आते हैं। इनमें मध्य प्रदेश के छह की मदद करना। जिले- छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, दमोह, सागर और जल-जन जोड़ो, बुंदेलखंड जल दतिया शामिल हैं। वहीं, उत्तर प्रदेश के सात जिलेमंच और परमार्थ झांसी, ललितपुर, जालौन, समाजसेवी संस्थान हमीरपुर, बांदा, महोबा, मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड द्वारा आयोजित इस छतरपुर जिले के युवा किसान कर्वी (चित्रकूट) आते हैं। शिविर में पहुंचे दमोह निवासी और एकता रक्षपाल सिं ह यादव ने सू ख े गांधीवादी रमेश शर्मा परिषद से संबद्ध घनश्याम ने ने कहा, ‘बुंदेलखंड के दौर में अपने पड़ोसियों की कहा कि पानी की समस्या को समस्या से मदद का संकल्प लिया है से निपटने के लिए सभी को मुक्त कराना है, तो मिलकर काम करना होगा। इसके लिए वर्षा से पूर्व हमें ऐसी तैयारी समाज, शासन और प्रशासन साथ है, इन हालात में करनी होगी, जिससे वर्षा का पानी सहेजा समस्या से लड़ना मुश्किल नहीं है। जा सके।’ शर्मा ने युवा किसान यादव की इन सभी 13 जिलों का हाल एक समान है, जहां सराहना करते हुए कहा, ‘ऐसे समझदार तालाब सूखे पड़े हैं, कुओं में पानी नहीं है। यह हाल किसान जिस इलाके में हैं, वहां समस्या से तब है, जब सूरज की तपिश की बजाय इन दिनों लड़ना मुश्किल नहीं है। जहां एक-दूसरे का कोहरे का कहर है। जब सूरज आग बरसाएगा, तब साथ देने का भाव है, वहां के लोग किसी भी क्या हाल होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। समस्या का मुकाबला कर सकते। बस, जरूरत इस दूसरी बात यह कि गांव में काम न होने के कारण बात की है कि हम समस्या का समय रहते निदान हजारों परिवार अपना घरबार छोड़कर पलायन कर करने का रास्ता निकालें।’ गए हैं। वहीं कई ऐसे लोग हैं जो संकट में दूसरों की बुंदेलखंड में दो राज्यों- मध्य प्रदेश और उत्तर मदद कर रहे हैं। स्पर्श से फैलता है, लेकिन वास्तव में यह रोग इतना संक्रामक नहीं है। यह रोग तभी फैलता है जब आप ऐसे मरीज के नाक और मुंह के तरल के बार-बार संपर्क में आएं, जिसने बीमारी का इलाज न कराया हो। बच्चों में वयस्क की तुलना में कुष्ठ रोग की संभावना अधिक होती है। जीवाणु के संपर्क में आने के बाद लक्षण दिखाई देने में आमतौर पर 3-5 साल का समय लगता है। जीवाणु-बैक्टीरिया के संपर्क में आने तथा लक्षण दिखाई देने के बीच की अवधि को इन्क्यूबेशन पीरियड कहा जाता है। रोग सबसे पहले परिधीय तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है और इसके बाद त्वचा एवं अन्य उत्तकों-अंगों, विशेष रूप से आंखों, नाक के म्यूकस तथा ऊपरी श्वसन तंत्र पर इसका प्रभाव पड़ता है। निदान और इलाज में देरी के परिणाम घातक हो सकते हैं। इसमें आंखों की पलकों और भौहों के बाल पूरी तरह से उड़ जाते हैं, पेशियां कमजोर हो जाती हैं, हाथों और पैरों की तंत्रिकाएं स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, जिससे व्यक्ति अपंग हो सकता है। इसमें पैरों में भी गहरी दरारें आ जाती हैं, जिसे फिशर फीट कहा जाता है। इसके अलावा जोड़ों में अचानक दर्द, बुखार, त्वचा पर हाइपो पिगमेंटेड घाव और गंभीर अल्सर भी इसके लक्षण हैं। इसके अलावा नाक में कंजेशन, नकसीर आना, नाक के सेप्टम का खराब होना, आइरिटिस (आंखों की आइरिस में सूजन), ग्लुकोमा (आंख का एक रोग जिसमें ऑप्टिक नर्व क्षतिग्रस्त हो जाती है) भी इसके लक्षण हैं। कुष्ठरोग- पायलट इरेक्टाईल डिस्फंक्शन, बांझपन और किडनी फेलियर का

कारण भी बन जाता है। रोग के लक्षणों एवं स्किन स्मीयर के परिणामों के आधार पर कुष्ठ रोग का वर्गीकरण किया जाता है। स्किन स्मीयर की बात करें तो जिन मरीजों में सभी साईट्स पर स्मीयर के परिणाम नकारात्मक होते हैं, उन्हें पॉसिबेसिलरी लेप्रोसी (पीबी) कहा जाता है। वहीं जिन मरीजों में किसी एक साईट पर परिणाम सकारात्मक आएं उन्हें मल्टीबेसिलरी लेप्रोसी (एमबी) कहा जाता है। पॉसिबेसिलरी लेप्रोसी में मरीज को 6 महीनों के लिए डेपसोन और रिफाम्पिसिन पर रखा जाता है। वहीं मल्टीबेसिलरी लेप्रोसी के इलाज में 12 महीनों तक मरीज को रिफाम्पिसिन, डेपसोन और क्लोफाजिमिन पर रखा जाता है। इसके अलावा कई अन्य एंटीबायोटिक दवाएं भी दी जाती हैं। पिछले 20 सालों में रोग के 1.6 करोड़ मरीजों का इलाज किया जा चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन कुष्ठ रोग के लिए मुफ्त इलाज उपलब्ध कराता है। कुष्ठ रोग से बचने के लिए ऐसे संक्रमित मरीज से बचना जरूरी है, जिन्होंने अपना इलाज न करवाया हो। रोग का जल्दी निदान सही इलाज के लिए महत्वपूर्ण होता है। जल्दी इलाज शुरू होने से उत्तकों को क्षतिग्रस्त होने से बचाया जा सकता है। रोग को फैलने से रोका जा सकता है और गंभीर जटिलताओं से बचा जा सकता है। अगर रोग की एडवांस्ड अवस्था में निदान हो तो मरीज अपंग हो सकता है, उसके शरीर के विभिन्न अंगों में विरूपता आ सकती है। इसलिए जल्दी निदान इलाज का सबसे अच्छा तरीका है। (लेखिका जेपी हॉस्पिटल, नोएडा में कंस्लटेंट डर्मेटोलोजिस्ट हैं)


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विविध

05 - 11 फरवरी 2018

इंद्री में नए सुलभ शौचालय का उद्घाटन हरियाणा के इंद्री में नवनिर्मित 65 सुलभ शौचालय का उद्घाटन किया गया

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ले शौच के प्रचलन को समाप्त करने की दिशा में गुरूग्राम के इंद्री गांव में सुलभ द्वारा एक नई पहल की गई है। गांव के लोगों के लिए 65 नए सुलभ शौचालय समर्पित किया गया। इन शौचालयों का निर्माण मध्य पश्चिम दिल्ली के रोटरी क्लब, रोटरी क्लब ऑफ डेनवर, यूएस और सुलभ इंटरनेशनल की संयुक्त पहल से संभव हुआ है। सभी शौचालय इंद्री गांव के लोगों को सौंप दिए गए।

इस अवसर पर आयोजित समारोह में रोटरी क्लब ऑफ डेनवर, अमेरिका के समन्वयक विलियम कोरस्टेड, ने कहा कि यह पहल स्वच्छ भारत मिशन के तहत की गई है, ताकि 2019 तक पूरे देश को ओडीएफ घोषित किया जा सके। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने इस अवसर पर कहा कि हम खुले में शौच से देश को मुक्त कराने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास कर रहे हैं। (आईएएनएस)

‘हॉट जुपिटर’ पर उलटी चलती हैं हवाएं

खगोलशास्त्रियों ने पृथ्वी से दूर एक रहस्यमय गर्म स्थान की खोज की है

नाडा के ख ग ो ल श ा स्त्रि य ों ने पृथ्वी से 930 प्रकाश वर्ष दूर गैसीय एक्सोप्लैनेट (सौरमंडल के बाहर का गैसों से भरा ग्रह) पर एक रहस्यमय गर्म स्थान की खोज की है, जिसकी उम्मीद उन्हें बिल्कुल नहीं थी। यह खोज हमारे सौरमंडल के बाहर पाए जाने वाले ऐसे ग्रहों के प्रति वैज्ञानिकों की समझ को चुनौती देती है। सीओआरओटी-2बी ग्रह की खोज एक दशक पहले फ्रांस के नेतृत्व वाले अंतरिक्ष निगरानी मिशन ने की थी। इस ग्रह को 'हॉट जुपिटर' भी कहा जाता है। बृहस्पति के विपरीत तथाकथित हॉट जुपिटर अपने मेजबान तारे के आश्चर्यजनक ढंग से नजदीक होते हैं। वे इतना करीब होते हैं कि इन्हें अपने तारों का चक्कर लगाने में तीन दिनों से भी कम समय लगता है। इस ग्रह पर पूर्वोत्तर की ओर जाने वाली तेज हवाएं चलती हैं। कनाडा में मैकगिल यूनिवर्सिटी के खगोल वैज्ञानिकों ने शोध के दौरान सीओआरओटी-2बी एक्सोप्लैनेट को अपनी स्थिति

से विपरीत दिशा पश्चिम की तरफ पाया। मैकगिल के एक वैज्ञानिक निकोलस कोवान ने कहा, 'हमने पहले 9 अन्य गर्म बृहस्पति का अध्ययन किया है, विशालकाय ग्रह, जो अपने तारों के करीब परिक्रमा करता है। हर ग्रह पर पूर्व की ओर हवाएं चलती थीं। लेकिन इस ग्रह पर हवाएं उलटी दिशा में जा रही हैं। यह एक अपवाद है। हमें इस ग्रह के अध्ययन से हॉट जुपिटर्स के तारों का चक्कर लगाने की प्रक्रिया को अधिक समझने में मदद मिलेगी।' यह खोज 'नेचर ऐस्ट्रॉनमी' पत्रिका में प्रकाशित हुई है। (आईएएनएस)

अवसाद से कैंसर रोगियों के जीवन दर में कमी

'कैंसर' पत्रिका में प्रकाशित एक नए शोध अध्ययन से हुआ कैंसर को लेकर नए तथ्यों का खुलासा

आईएएनएस

वसाद सामान्य स्वस्थ्य शरीर को रोगी बना सकता है। वहीं, अगर कोई सिर व गर्दन के कैंसर जैसे खतरनाक रोग से पीड़ित हो तो इससे उस रोगी के अधिक समय तक जीने की संभावनाएं

कम हो जाती हैं। अध्ययन के निष्कर्षों से पता चलता है कि निदान के समय रोगियों में अवसाद की जांच और उससे संबंधित लक्षणों का इलाज किया जाना चाहिए। यूनिवर्सिटी ऑफ लुइसविले स्कूल ऑफ मेडिसिन से इस अध्ययन की सह-लेखक

एलिजाबेथ कैश ने कहा, ‘शोध के दौरान हमने पाया है कि अगर कोई कैंसर रोगी चार साल तक जीवन जीने वाला है तो अवसाद के कारण वह केवल दो साल ही जाता है और यह विशेष रूप से उन लोगों के लिए कढ़वी सच्चाई है जो उपचार के दौरान अच्छी प्रतिक्रिया नहीं देते हैं।’ शोधार्थियों के अनुसार, ‘सिर व गर्दन के कैंसर पीड़ितों में अवसाद के लक्षण भी मिलते हैं, जिससे उनके सामने चिकित्सीय दुष्प्रभाव का सामना करने, धूम्रपान छोड़ने, पर्याप्त पोषण या नींद की आदतों को सही रखने की चुनौती खड़ी हो जाती है।’ क्या अवसाद के लक्षण रोगियों के स्वास्थ्य

परिणामों को प्रभावित कर सकते हैं? यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने सिर और गर्दन के कैंसर से पीड़ित 134 मरीजों का आकलन किया, जिन्होंने अपने इलाज के दौरान अवसाद के लक्षणों की जानकारी दी थी। शोधार्थियों द्वारा दो सालों तक मरीजों के चिकित्सीय आंकड़ों के आकलन से पता चला कि अधिक अवसाद पीड़ित रोगियों की जीवन जीने की संभावना भी बहुत कम होती है और उनके कीमोरेडिएशन और बाकी इलाज में भी बाधाएं उत्पन्न होती हैं। यह शोध 'कैंसर' पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।


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अंतरराष्ट्रीय

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ईयू में 10 लाख लोगों को कौशल प्रशिक्षण देगा एफबी

75 हजार लोगों को वैयक्तिक रूप से प्रशिक्षित किया जाएगा और बाकी के लोगों को ऑनलाइन प्रशिक्षण मुहैया कराया जाएगा

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आईएएनएस

सबुक 2020 तक यूरोपीय संघ (ईयू) में 10 लाख लोगों और व्यापारियों को प्रशिक्षित करेगा और साथ ही वह अपनी कृत्रिम इंटेलिजेंस (एआई) अनुसंधान सुविधा के माध्यम से फ्रांस के नवाचार क्षेत्र में करीब एक करोड़ यूरो का निवेश करेगा। सोशल मीडिया दिग्गज ने इस बात की जानकारी दी। फेसबुक अगले दो साल में डिजिटल

विकास साझेदार फ्रीफोर्मर में शामिल होगा और ईयू में तीन लाख लोगों को प्रशिक्षित करने की

फेसबुक अगले दो साल में डिजिटल विकास साझेदार फ्रीफोर्मर में शामिल होगा और ईयू में तीन लाख लोगों को प्रशिक्षित करने की पेशकश करेगा

पेशकश करेगा। ईयू में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड, इटली और स्पेन शामिल हैं। कंपनी ने कहा, ‘75 हजार लोगों को वैयक्तिक रूप से प्रशिक्षित किया जाएगा और बाकी के लोगों को ऑनलाइन प्रशिक्षण मुहैया कराया जाएगा।’ ईएमईए के स्मॉल बिजनेस के उपाध्यक्ष सियारान क्विल्टी ने एक बयान में कहा, ‘सभी प्रशिक्षण प्रत्येक व्यक्ति के अनुरूप बनाया जाएगा, जिन लोगों के पास मजबूत कौशल है उन्हें कूट भाषा का प्रयोग कैसे करना है यह सिखाया जाएगा जबकि अन्य लोगों को ऑनलाइन खाता खोलना सिखाया जाएगा।’ उन्होंने कहा, ‘हम स्पेन, पोलैंड और इटली में अपने तीन नए समुदायिक कौशल हब खोलने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’ क्विल्टी ने कहा कि यह

स्थानीय संगठनों के साथ साझेदारी कर के चलाए जाएंगे। यह जिन समूहों को भागीदारी कम होती है उन्हें डिजिटल कौशल, मीडिया साक्षरता और ऑनलाइन सुरक्षा के बारे में प्रशिक्षण मुहैया कराएगा। इसमें 2020 तक एक लाख छोटे और मध्य वर्ग के व्यापारी और 250,000 व्यापारियों को वैयक्तिक रूप से प्रशिक्षण शामिल है। क्विल्टी ने कहा, ‘यह घोषणा डिजिटल प्रशिक्षण में हमारे निवेश का हिस्सा है। 2011 से हमने दुनिया भर में छोटे व्यवसायों को समर्थन देने के लिए एक अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश किया है।’ फ्रांस, जर्मनी, इटली, पोलैंड, स्पेन और ब्रिटेन में फेसबुक ने सर्वेक्षण में पाया कि करीब 35 फीसदी एसएमबी ने कहा कि उन्होंने फेसबुक पर अपने व्यवसाय का निर्माण किया है।

कार्ल्सबर्ग समूह ने युवा वैज्ञानिक समुदाय शुरू किया इस समुदाय की शुरुआत एक दिलचस्प नौकरी के विज्ञापन के साथ की गई है

पूर्व फुटबॉल स्टार ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली

नए राष्ट्रपति ने जॉर्ज विह ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आश्वस्त किया कि लाइबेरिया के दरवाजे कारोबार के लिए हमेशा खुले रहेंगे

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र्व फुटबॉल खिलाड़ी जॉर्ज विह ने लाइबेरिया के नए राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली। उन्होंने कमजोर अर्थव्यवस्था में जान फूंकने और भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने की प्रतिबद्धता के साथ शपथ ली। पूर्व अंतर्राष्ट्रीय फुटबॉल स्टार विह ने राजधानी मोनरोविया के पास सैम्युएल कैन्यन डो स्टेडियम में शपथ ली। इस दौरान वेह ने कहा, ‘हमारे साझेदारों में अधिक उम्मीदें हैं। मेरे कार्यकाल के दौरान संबंध अधिक सुदृढ़ होंगे।’ विह ने एलेन जॉनसन सिरलीफ की जगह ली है। एलेन 12 वर्षों

तक लाइबेरिया की राष्ट्रपति रहीं। वर्ष 1944 के बाद देश में लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित नेताओं के बीच पहली बार सत्ता का हस्तांतरण हुआ है। नए राष्ट्रपति ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आश्वस्त किया कि लाइबेरिया के दरवाजे कारोबार के लिए हमेशा खुले रहेंगे। नई सरकार निवेश के लिए अनुकूल माहौल का सृजन करेगी। उन्होंने अपने संबोधन में देश के लोगों की आजीविका में सुधार लाने के लिए कृषि और बुनियादी ढांचे में निवेश की प्रतिबद्धता जताई। (एजेंसी)

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वोस में चल रहे वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में कार्ल्सबर्ग समूह ने युवा वैज्ञानिक समुदाय शुरू करने की घोषणा की है, जिसका लक्ष्य जलवायु परिवर्तन और पानी की कमी को लेकर दुनिया की प्रमुख चुनौतियों का समाधान करना है। इस समुदाय की शुरुआत एक दिलचस्प नौकरी के विज्ञापन के साथ की गई है, जिसके शीर्षक में इसे ‘संभवत: दुनिया का सबसे अच्छा काम’ बताया गया है। इस विज्ञापन में कहा गया है कि कार्ल्सबर्ग समूह को दुनिया के प्रतिभाशाली युवा पोस्ट डॉक्टरेट की तलाश है, जो वैज्ञानिकों के समुदाय के साथ काम

कर सकें, जिनमें पोस्ट डॉक्टरेट फेलो, विशेषज्ञ, यूनिवर्सिटीज और लेबोरेटरीज शामिल हैं, जैसे कार्ल्सबर्ग रिसर्च लेबोरेटरी। कार्ल्सबर्ग समूह के मुख्य कार्यकारी अधिकारी सीसेंट हार्ट ने कहा, ‘दुनिया की वैश्विक चुनौतियों से निपटने के लिए भागीदारी और विज्ञान महत्वपूर्ण है। युवा वैज्ञानिक समुदाय के साथ हम इन चुनौतियों के समाधान के लिए विज्ञान और नवीनता के हमारे इतिहास का निर्माण कर रहे हैं ताकि हम दीर्घकालिक संवहनीयता लक्ष्यों और महत्वकांक्षाओं को प्राप्त कर सकें।’ उन्होंने कहा, ‘हम ब्रयूइंग (पर्यावरण परिवर्तन) पर पर्यावरणीय प्रभाव को घटाने के लिए हर विकल्पों की तलाश कर रहे हैं और युवा वैज्ञानिक इस काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। युवा वैज्ञानिक समुदाय कार्ल्सबर्ग समूह और विश्व के लाभ के लिए पानी और कार्बन के हमारे 2030 के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अभिनव समाधानों की पहचान कर सकेंगे।’ (एजेंसी)


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मिसाल

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प्रधान की मेहनत से बना हाईटेक गांव

उत्तर प्रदेश का यह गांव भारत के उन चुनिंदा हाईटेक गांवों में शामिल है, जिसे जियोग्राफिकल इनफॉर्मेशन टैग मिला है

स्वच्छता का संदेश

18वीं सदी का गांव आज इक्कीसवीं सदी में पहुंच गया है। हर कोई अपने दरवाजे के सामने झाड़ू लगाता है और कूड़ेदान में कचरा डालता है

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एसएसबी ब्यूरो

रत में अब शहरों का ही नहीं गांवों का भी चेहरा बदल रहा है। बिजली, पानी, सड़क के साथ सीसीटीवी कैमरे, गांव की हर गली में डस्टबीन, साथ ही पूरे गांव की हलचल पर एक मोबाइल फोन से नजर रखी जा सकती है, आइए देखें एेसे ही एक गांव को। उत्तर प्रदेश का यह गांव भारत के उन चुनिंदा हाईटेक गांवों में शामिल है, जिसे जियोग्राफिकल इनफॉर्मेशन टैग मिला है। इस गांव के रहने वालों के साथ यहां के प्रधान की तारीफ इसलिए जरूरी है, क्योंकि ये उस इलाके में बसा है, जो गरीबी और पलायन के लिए जाना जाता है। लेकिन यहां आज वे सुविधाएं हैं जो शायद आप को किसी

खास बातें दो वर्ष पहले तक गांव में मूलभूत सुविधाएं नदारद थीं गांव का हुलिया बदलने में बड़ी भूमिका निभाई प्रधान ने यहां 95 प्रतिशत ग्रामीणों के पास आधार कार्ड

आज जो भी इस गांव के बारे में सुनता है खुले दिल से कहता है, अगर भारत के सब प्रधान-सरपंच दिलीप की तरह काम करें तो भारत के सवा 6 लाख से ज्यादा गांवों का भविष्य बदल सकता है। शहर या बड़े कस्बे में भी न मिलें। दरअसल, हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश सबसे पिछड़े इलाकों में शामिल सिद्धार्थनगर जिले के हसुड़ी औसानपुर ग्राम पंचायत की।

डिजिटल पार्टनर था। जहां देश के प्रगतिशील किसानों और कृषि क्षेत्र में नवाचार करने वाले लोगों को सम्मानित किया गया। ‘फार्म एंड फूड’ द्वारा यहां के किसानों को सम्मानित भी किया गया।

दो साल पहले तक हसुड़ी भी देश के उन गांवों में शामिल था जहां मूलभूत सुविधाएं तक नहीं थीं। लेकिन आज शहरों को मात देता प्राइमरी और जूनियर स्कूल है, पूरा गांव गुलाबी रंग में रंगा है। हर गली-नुक्कड़ पर सीसीटीवी और लाउडस्पीकर लगे हैं। गांव का ये हुलिया बदला है महत्वाकांक्षी प्रधान दिलीप त्रिपाठी ने। आज जो भी इस गांव के बारे में सुनता है खुले दिल से कहता है, अगर भारत के सब प्रधान-सरपंच दिलीप की तरह काम करें तो भारत के सवा 6 लाख से ज्यादा गांवों का भविष्य बदल सकता है। दिलीप त्रिपाठी ने प्रधान रहते हुए अपने गांव को गोद लिया और जो विकास कार्य कार्य करवाए हैं, उनकी बदौलत वो रोल मॉडल बन गए हैं। हाल में यहां लगाई गई कृषि चौपाल में देशभर से पहुंचे हजारों किसान और ग्रामीणों ने इस गांव की जमकर सराहना की। दिल्ली प्रेस की मैगजीन ‘फार्म एंड फूड’ द्वारा आयोजित इस समारोह में हसुड़ी

उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र का जिला सिद्धार्थनगर से 60 किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा से भनवापुर ब्लॉक के हसुड़ी औसानपुर गांव आज आधुनिक भारत की तस्वीर बयां कर रहा है। गांव का न सिर्फ आधुनिकीकरण हुआ है बल्कि सरकारी योजनाओं की ग्रामीणों को जानकारी है और उनके बीच पारदर्शिता है। जहां हमारे देश में ग्राम प्रधानों को लेकर ग्रामीणों के बीच खराब सोच बनी हुई है। वहीं दिलीप त्रिपाठी ने इस सोच को बदलने के लिए स्वयं ही अपने गांव को गोद लेकर निजी संसाधनों से विकास की एक नई कहानी गढ़ दी है। पिछले वर्ष 24 अप्रैल को ‘पंचायती राज दिवस’ पर लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश के लगभग 59 हजार ग्राम प्रधानों से ये आह्वान किया था कि ग्राम पंचायतों को स्मार्ट विलेज बनाएं जिससे हर गांव को शहर जैसी सुविधाएं मिल सकें। इस कार्यक्रम में दिलीप त्रिपाठी भी शामिल थे।

दिलीप की प्रधानी का प्रतिफल

कारगर रहा योगी का संदेश

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म प्रधान से लेकर चौकीदार तक हर कोई अपनी जिम्मेदारी हर दिन बखूबी निभातें है। कॉमन सर्विस सेंटर की देखरेख करते प्रदीप कुमार (56 वर्ष) सुबह-शाम स्वच्छता के संदेश देना, संगीत सुनवाना इनका रोज का काम है। इनका कहना है, ‘पंजीरी बांटना हो या कोई मीटिंग करनी हो हर सूचना इसी माइक से दी जाती है। लेखपाल और सेकेटरी हर किसी का काम आसान हो गया। 18वीं सदी का गांव आज इक्कीसवीं सदी में पहुंच गया है। हर कोई अपने दरवाजे के सामने झाड़ू लगाता है और कचड़ा कूड़ेदान में डालता है, सफाईकर्मी हर सुबह कूड़ा लेकर जाता है। सभी के सहयोग से हमारा गांव आज आगे बढ़ रहा है।’ गश्त पर निकले चौकीदार ने कहा, ‘अब प्रधान जी इतना काम करते हैं तो हम गांव में टहल तो सकते ही हैं, गुरुवार को थाने डयूटी करने जाते हैं उसके अलावा हर दिन रात्रि में आधे घंटे घूम लेते हैं। इससे पहले कभी नहीं घूमे पर अब गाँव में घूमने का मन करता है।’


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प्रधान की पहल

मुख्यमंत्री की सोच और अपने गांव का विकास करने वाले दिलीप त्रिपाठी का कहना है, ‘मैं अपने गांव में वो हर एक सुविधा देने की कोशिश कर रहा हूं, जिससे हमारे जिले की जो पिछड़ेपन की छवि बनी है, वो इससे कम हो सके। हर पात्र व्यक्ति को सरकारी योजनाओं का लाभ मिले। गांव की हर बेटी सुरक्षित रहे, हर बच्चे को बेहतर शिक्षा मिले, घर की पहचान बेटी के नाम से हो, ऐसी तमाम बातों का खास ध्यान रखा है। आपसी समरसता हो इसके लिए हर घर को गुलाबी रंग से पुतवाया है। सिलाईकढ़ाई केंद्र, कुटीर उद्योग, जैविक खेती को बढ़ावा जैसी कई सुविधाएं देने की कोशिश की है जिससे यहां का पलायन रुक सके।’

1024 लोगों की आबादी

देश की करीब 70 फीसदी आबादी गांवों में रहती है और पूरे देश में सवा छह लाख गांव हैं। ग्राम पंचायत की आबादी के हिसाब से हर साल ग्राम प्रधानों के खातों में विकास के लिए पैसा आता है। सिद्धार्थनगर में 1199 ग्राम पंचायतें हैं, 1190 वें नंबर पर कम आबादी वाली हसुड़ी औसानापुर ग्राम पंचायत है, जिसमें 1024 लोगों की आबादी है। छोटी पंचायत होने की वजह से यहां एक साल का बजट लगभग पांच लाख रुपए आता है।

हर तीसरे घर पर कूड़ादान

गांव का विकास हर हाल में करना है इस सोच को पूरा करने के लिए ग्राम प्रधान दिलीप त्रिपाठी के लिए कम बजट बाधा नहीं बना। गांव के मुख्य मार्ग से लेकर हर मोहल्ले में 23 सीसीटीवी कैमरें, 90

एलईडी स्ट्रीट लाइट, 20 स्ट्रीट सोलर लाइट, 23 पब्लिक एड्रेस सिस्टम, हर तीसरे घर पर एक कूड़ादान पूरे गांव में 40 कूड़ादान, कॉमन सर्विस सेंटर, वाई-फाई, कम्यूटर क्लासेज, मार्डन स्कूल, 150 नारियल के पेड़ों का वृक्षारोपण, पूर्वांचल सांस्कृतिक संग्राहालय जैसी तमाम सुविधाएं हैं। इस पंचायत में 95 प्रतिशत ग्रामीणों के पर आधार कार्ड, 97 प्रतिशत लोगों के पास बिजली कनेक्शन हैं। सभी पात्र लाभार्थियों को हर सरकारी योजना के लिए ऑनलाइन पंजीकरण करके संबंधित विभाग को भेज दिया गया है। ‘डिजिटल हसुड़ी डॉट कॉम’ पर गांव के हर परिवार के बारे में 36 तरह की जानकारियां उपलब्ध हैं।

योजनाओं का तोहफा

यूपी के आबकारी विभाग के कैबिनेट मंत्री जय

यह गांव डिजिटल दौर के भारत का स्मार्ट गांव है। ‘डिजिटल हसुड़ी डॉट कॉम’ पर गांव के हर परिवार के बारे में 36 तरह की जानकारियां उपलब्ध हैं प्रताप सिंह भी इस गांव के विकास को देखने गए। उन्होंने इस गांव के विकास को देखते हुए और बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने के लिए 34 लाख रुपए की योजनाओं का तोहफा दिया है। उन्होंने गांव को देखकर कहा, ‘अगर एक प्रधान चाह ले तो एक पंचायत का विकास संभव है, इस पंचायत से प्रदेश के हर ग्राम प्रधान को ये सीख लेनी चाहिए कि एक पंचायत का विकास कैसे किया जाता है। स्कूल के बच्चों और गांव के लोगों से मिला तो सभी के चेहरे पर खुशी की एक झलक दिखाई दी। इनकी खुशी ये बता रही थी कि अगर उन्हें गांव में ही विकास की सभी सुविधाएं दी जाएं तो वह शहर से कई गुना अपने गांव में ही खुश है।’

सबके लिए फ्री वाईफाई कनेक्शन

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गांव में दूसरे कनेक्शन कई बार काम नहीं करते पर वाईफाई हमेशा काम करता है

सी भी मुद्दे पर किसी को विस्तृत जानकारी चाहिए या फिर देश-दुनिया में क्या चल रहा है, ये जानना हो तो अब इस गांव के लोगों को चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ती। फ्री वाईफाई कनेक्शन से अपने मोबाइल पर एक क्लिक से उन्हें पूरी जानकारी मिल जाती है। ग्यारवीं

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करता रहता है।’

कक्षा में पढ़ने वाले अतुल त्रिपाठी कहते हैं, ‘किसी भी विषय पर कुछ ज्यादा जानना रहता है तो अपने फोन पर वाईफाई कनेक्ट करके उस विषय के बारे में पढ़ लेते हैं। अब सोचना नहीं पड़ता है कि फोन रिचार्ज कराना है। दूसरे कनेक्शन कई बार काम नहीं करते, पर वाईफाई काम

गांव की बेटियां महफूज

रात आठ बजे अपनी परचून की दुकान पर बैठी इस गांव की लक्ष्मी गुप्ता (16 वर्ष) आत्मविश्वास के साथ कहती है, ‘अब लाइट आए या न आए हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। गांव की हर गली में सोलर लाइट और सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। अब दिन हो या रात हम अकेले पूरे गांव में कहीं भी आ जा सकते हैं, घर में शौचालय बनने से अब हर सुबह जल्दी उठने की चिंता खत्म हो गई है।’ हर दिन जहां आप लड़कियों के साथ छेड़खानी और शौचालय के दौरान बदसलूकी खबरें पढ़ते हैं, वहीं उत्तर प्रदेश के इस गांव की लक्ष्मी इन सब घटनाओं से कोसों दूर अपने गांव में कहीं भी बेफिक्र होकर आ जा सकती है। लक्ष्मी की तरह अब इस गांव की हर बेटी हर मां अपने गांव की गलियों में महफूज पाती हैं। यहां के युवा पढ़ाई करने के लिए फ्री वाईफाई का इस्तेमाल करते हैं। उत्तर प्रदेश के ग्राम प्रधानों को अगर इस गांव की तरह अपने गांवों को बनाना है तो एक बार यहां जरुर आएं।

जहां था गड्ढ़ा, वहां अब स्कूल

इस गांव के वंशीधर गुप्ता (35 वर्ष) रात के आठ बजे सरकारी स्कूल के सामने बनी पक्की सड़क की ओर इशारा करते हुए बताते हैं, ‘आज से दो साल पहले तक इस सड़क पर दिन में निकलना मुश्किल होता था, रात में तो गिर ही जाते थे। गड्ढ़े होने की वजह से गांव का कूड़ा लोग यहीं डालते थे, बरसात में लोगों का कीचड़ में घुसकर निकलना और गिरना आम बात थी। प्रधान जी ने चुनाव जीतने के बाद सबसे पहले यही सड़क बनवाई जिससे अब हर कोई दिन हो रात आंख बंद करके निकल सकता है।’


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लोककथा

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मालवा की लोककथा

सवा मन कंचन

सी जमाने की बात है। एक आदमी था। उसका नाम था सूर्य नारायण। वह स्वयं तो देवलोक में रहता था, किंतु उसकी मां और स्त्री इसी लोक में रहती थीं। सूर्य नारायण सवा मन कंचन इन दोनों को देता था और सवा मन सारी प्रजा को। प्रजा चैन से दिन काट रही थी, किंतु मां-बहू के दिन बड़ी मुश्किल से गुजर रहे थे। दोनों दिनोंदिन सूखती जा रही थीं। एक दिन बहू ने अपनी सास से कहा, ‘सासूजी, और लोग तो आराम से रहते हैं, पर हम भूखों मरे जा रहे हैं। अपने बेटे से जाकर कहो न, वे कुछ करें।’ सास को बहू की बात जंच गई। वह लाठी टेकती-टेकती देवलोक पहुंची। सूर्य नारायण दरबार में बैठे हुए थे। द्वारपाल ने जाकर उन्हें खबर दी, ‘महाराज! आपकी माताजी आई हैं।’ सूर्य नारायण ने पूछा ‘कैसे हाल हैं?’ द्वारपाल ने कहा, ‘महाराज ! हाल तो कुछ अच्छे नहीं हैं। फटे-पुराने, मैले-कुचैले कपड़े पहने हैं। साथ में न कोई नौकर है, न चाकर।’ सूर्य नारायण ने हुक्म दिया, ‘आओ, बाग में ठहरा दो।’ ऐसा ही किया गया। सूर्य नारायण काम-काज से निबटकर मां के पास गये, पूछा, ‘कहो मां, कैसे आईं?’ सास बोली, ‘बेटा, तू सारे जग को पालता है। मगर हम भूखों मरती हैं!’ सूर्य नारायण को बड़ा अचरज हुआ। उसने पूछा, ‘क्यों मां! भूखों क्यों मरती हो? जितनी कंचन तुम को देता हूं, उतना बाकी दुनिया का देता हूं। दुनिया तो उतने कंचन में चैन कर रही है। तुम उसका आखिर करती क्या हो?’ मां बोली, ‘बेटा ! हम कंचन को हांडी में उबाल लेती हैं। फिर वह उबला हुआ पानी पी लेती

हैं।’ सूर्यनारायण हंसते हुए बाला, ‘मेरी भोली मां ! कंचन कहीं उबालकर पीने की चीज है ! इसे तुम बाजार में बेचकर बदले में अपनी मनचाही चीजें ले आया करो। तुम्हारा सारा दुख दूर हो जाएगा।’ मां खुश होती हुई वापस लौटी। इस बीच बहू शहद की मक्खी बनकर देवलोक में आ गई थी। उसने मां-बेटे की सारी बातचीत सुन ली थी। चर्चा खत्म होने पर वह सास से पहले ही घर पहुंच गई और सूर्य नारायण ने जैसा कहा था, कंचन को बाजार में बेचकर घी-शक्कर, आटा-दाल सब ले आई। सास जब लाठी टेकती-टेकती वापस आई तो बहू ने भोली बनकर पूछा, ‘सासू जी! क्या कहा उन्होंने?’ सास घर के बदले रंग-ढंग देखकर बोली, ‘जो कुछ कहा था, वह तो तूने पहले ही कर डाला।’ सास-बहू के दिन आराम से कटने लगे। इनके घर में इतनी बरकत हो गई कि दोनों से लक्ष्मी समेटी नहीं जाती थी। दोनों घबरा गईं। एक दिन बहू ने सास से कहा, ‘सासूजी, तुम्हारे बेटे ने पहले तो दिया नहीं, अब दिया तो इतना कि संभाला ही नहीं जाता, उनके पास फिर जाओ, वे ही कुछ तरकीब बताएंगे।’ सास बहू के कहने से फिर चली। इस बार सास ने नौकर-चाकर, लाव-लश्कर साथ ले लिया। पालकी में बैठकर ठाठ से चली। बहू शहद की मक्खी बनकर पहले ही वहां पहुंच गई। सास के पहुंचने पर द्वारपाल ने सूर्य नारायण को खबर दी, ‘महाराज ! आपकी मां आई हैं।’ सूर्य नारायण ने पूछा, ‘कैसे हाल में आई हैं?’ द्वारपाल ने कहा, ‘महाराज! बड़े ठाठ-बाठ से। नौकर-चाकर, लाव-लश्कर सभी साथ हैं।’ सूर्यनारायण ने कहा, ‘महल में ठहरा दो।’ सास को महल में ठहरा दिया

गया। काम-काज से निबटकर सूर्य नारायण महल में आया। मां से पूछा, ‘कहो मां! अभी भी पूरा नहीं पड़ता?’ मां बोली, ‘नहीं बेटा! अब तो तूने इतना दे दिया कि उसे संभालना मुश्किल हो गया है। हम तंग आ गईं हैं। अब हमें बता कि हम उस धन का क्या करें?’ सूर्य नारायण ने हंसते हुए कहा, ‘मेरी भोली मां। यह तो बड़ी आसान बात है। खाते-खरचते जो बचे, उससे धर्म-पुण्य करो, कुंए-बावड़ी खुदवाओ। परोपकार के ऐसे बहुत-से काम हैं।’ शहद की मक्खी बनी बहू पहले ही मौजूद थी। उसने सब सुन लिया और फौरन घर लौटकर सदाव्रत बिठा दिया। कुआं, बावड़ी, धर्मशाला आदि का काम शुरू कर दिया। सास जब लौटी तो उसने भोली बनकर पूछा, ‘उन्होंने क्या कहा, सासूजी?’ सास ने घर के बदले रंग-ढंग देखकर कहा, ‘बहू जो कुछ उसने कहा था, वह तो तूने पहले ही कर डाला।’ इसी तरह कई दिन बीत गए। एक दिन सूर्य नारायण को अपने घर की सुधि आई। उसने सोचा कि चलें, देखे तो सही कि दोनों के क्या हालचाल हैं। इधर मां कई दिनों से आई नहीं। यह सोच सूर्य नारायण साधु का रूप धर कर आया। आते ही दावाजे पर आवाज लगाई, ‘अलख निरंजन।’ आवाज सुनते ही सास मुटठी में आटा लेकर साधु को देने आई। साधु ने कहा, ‘माई ! मैं आटा नहीं लेता। मैं तो आज तेरे यहां ही भोजन करूंगा। तेरी इच्छा हो तो भोजन करा दे, नहीं तो मैं शाप देता हूं।’ शाप का नाम सुनते ही सास ने गिड़गिड़ाकर कहा, ‘नहीं-नहीं, बाबा ! शाप मत दो। मैं भोजन कराऊंगी।’ साधु ने कहा, ‘माई, हमारी एक शर्त

ओर सुन लो। हम तुम्हारी बहू के हाथ का ही भोजन करेंगे।’ बहू ने छत्तीस तरह के पकवान, बत्तीस तरह की चटनी बनाई। सास साधु को बुलाने गई। साधु ने कहा, ‘माई ! हम तो उसी पाट पर बैठेंगे, जिस पर तेरा बेटा बैठता था; उसी थाली में खाएंगे, जिसमें तेरा बेटा खाता था। जबतक हम भोजन करेंगे तब तक तेरी बहू को पंखा झलना पड़ेगा। तेरी इच्छा हो तो बोल, नहीं तो मैं शाप देता हूं।’ सास शाप के नाम से कांपने लगी। उसने कहा, ‘ठहरो ! मैं बहू से पूछ लूं।’ बहू से सास ने पूछा तो वह बोली, ‘मैं क्या जानूं? जैस तुम कहो, वैसा करने को तैयार हूं।’ सास बोली, ‘बेटी ! बड़ा अड़ियल साधु है। पर अब क्या करें?’ आखिर सूर्य नारायण जिस पाट पर बैठता था, वह पाट बिछाया गया, उसकी खानें की थाली में भोजन परोसा गया। बहू सामने पंखा झलने बैठी। तब साधु महाराज ने भोजन किया। सास ने सोचा-चलो, अब महाराज से पीछा छूटा। मगर महाराज तो बड़े विचित्र निकले! भोजन करने के बाद बोले, ‘माई ! हम तो यहीं सोएंगे और उस पलंग पर जिस पर तेरा बेटा सोता था। और देख, तेरी बहू को हमारे पैर दबाने होंगे। तेरी राजी हो तो बोल, नहीं तो मैं शाप देता हूं।’ सास बड़ी घबराई। बहू से फिर सलाह लेने गई। बहू ने कह दिया, ‘मैं क्या जानूं। तुम जानो।’ साधु ने देरी होती देखी तो कहा, ‘अच्छा माई, चल दिए।’ सास हाथ जोड़कर बोली, ‘नहीं-नहीं, महाराज। आप जाइए मत। आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा। बड़ी मुश्किल से हमारे दिन बदले हैं। शाप मत दीजिए।’ सूर्य नारायण जिस पलंग पर सोता था; पलंग बिछाया गया। साधु महाराज ने शयन किया। बहू उनके पैर दबाने लगी। तभी छह महीने की रात हो गई। सारी दुनिया त्राहि-त्राहि करने लगी। अब सास समझी कि यह तो मेरा ही बेटा है। उसने कहा, ‘बेटा ! कभी तो आया ही नहीं और आया तो यों अपने को छिपाकर क्यों आया ? जा, अपना काम-काज संभाल। दुनिया में हा-हाकार मचा हुआ है।’ सूर्य नारायण वापस देवलोक लौट गया। इधर सूर्य नारायण की पत्नी ने नौ महीने बाद एक सुंदर तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। वह बालक दिनोंदिन बड़ा होने लगा। एक दिन वह अपने दोस्तों के साथ गुल्ली-डंडा खेल रहा था। खेल-ही-खेल में उसने दूसरे लड़कों की तरह बाप की सौगंध खाई। उसके साथी उसे चिढ़ाने लगे, ‘तेरे पिता हैं कहां? तूने कभी उन्हें देखा है? तू बिना बाप का है?’ लड़का रोता-रोता अपनी दादी के पास आया, बोला, मां ! मुझे बता कि मेरे पिताजी कहां हैं?’ सास ने सूर्य नारायण की ओर उंगली से संकेत कर कहा, ‘वे रहे बेटा। तेरे पिता को तो सारी दुनिया जानती है।’ बालक ने मचलते हुए कहा, ‘नहीं मां! सचमुच के पिता बता।’ बालक ने जिद ठान ली। सास उसे लेकर देवलोक चली। नौकर-चाकर साथ में लेकर पालकी में सवार होकर वहां पहुंचे। महल में ठहराए गए। सूर्य नारायण काम-काज से निबटकर महल में आए। सास ने उनकी ओर संकेत कर कहा, ‘ये हैं तेरे पिता।’ सूर्य नारायण ने बालक को गोदी में लेकर प्यार किया। बालक का रोना बंद हो गया। उस दिन से वे सब चैन से रहने लगे।


05 - 11 फरवरी 2018

जीवन मंत्र

आओ हंसें

तोता और कार एक तोता एक कार से टकरा गया, तो उस कार वाले ने उसे उठआ कर पिंजरे में डाल दिया दूसरे दिन जब तोते को होश आया, वह बोला,आईला! जेल, कार वाला मर गया क़्या? आतंकवादी लड़कियां वो लड़कियां भी किसी आतंकवादी से कम नही हुआ करती थीं... जो टीचर के क्लास मे आते ही याद दिला देती है .. सर आपने टेस्ट का बोला था...!

सु

डोकू -08

किसी से बदला लेने का आनंद दो चार दिन ही रहेगा पर किसी को माफ कर देने का सुकून जिंदगी भर रहेगा

रंग भरो सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजेता को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देखें।

“ठ” से ठठेरा

इस संसार में कुछ ऐसी चीजें भी है जिन्हें हम बचपन से लेकर आज तक किताबों के अलावा सच में नहीं देख पाए है ।

सुडोकू-07 का हल

जैसे “ठ” से ठठेरा आज तक समझ नहीं आया कि ये था क्या???

1. पहचान (4) 3. मध्याह्न (4) 6. गिरि (3) 7. हवा के साथ लहराना (5) 8. स्याह (2) 9. सौ (2) 10. नौ दिन चलने वाला एक पर्व (4) 13. नख कतरनी (4) 15. डोरा (2) 17. शिकन (2) 18. निश्चिंत बेफिक्र (5) 20. सेवा (3) 22. आवश्यकता (4) 23. भीतरी, मध्य का (4) 1. मल्ल योद्धा, मल्ल खिलाड़ी (5) 2. चंचल (3) 3. एक छंद (2) 4. परत (2) 5. रसदार (3) 6. बड़ी नाली (3) 8. भयभीत, व्याकुल (3) 9. जीत, समर्थन, प्रोत्साहन (2) 11. प्राप्त (3) 12. निशा (2) 14. कम कुशल चिकित्सक (5) 16. मस्तक (3) 17. कमल (3) 19. चांदी (3) 20. शर (2) 21. पराजय (2)

वर्ग पहेली - 08 वर्ग पहेली-07 का हल

बाएं से दाएं

ऊपर से नीचे

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इंद्रधनुष

कार्टून ः धीर


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न्यूजमेकर

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

05 - 11 फरवरी 2018

अनाम हीरो

दीपक सिंह

श दे ं स ा त ्छ च ्व ऑटो से स

शेष आनंद मधुकर

मधुकर को सम्मान

हिंदी और मगही के लेखक शेष आनंद मधुकर को भाषा सम्मान

भा

ऑटो ड्राइवर को जयपुर के मेयर ने स्वच्छता सर्वेक्षण का ब्रांड एंबेसेडर बनाया है

षा के विकास के लिए बड़े पैमाने पर काम कर रहे मगही लेखक शेष आनंद मधुकर को साहित्य अकादमी भाषा सम्मान पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। मधुकर को सम्मान स्वरूप साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी द्वारा 1 लाख रुपए का एक चेक और एक स्मृति चिन्ह भेंट किया गया। उन्हें यह सम्मान वर्ष 2016 के लिए दिया गया है। बिहार के ग्राम दरियापुर, थाना टिकारी, गया (बिहार) में 8 दिसंबर 1939 में पैदा हुए शेष आनंद मधुकर ने मगही भाषा के विकास हेतु व्यापक कार्य किए हैं। उनकी मगही और हिंदी में पांच से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। उन्हें सम्मान प्रदान करते हुए अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने कहा कि सभी भाषाएं पूज्य होती हैं और अपने परिवेश को व्यक्त करने के लिए उनसे बेहतर कोई और भाषा नहीं हो सकती। उन्होंने भोजपुरी, अवधी आदि कई भाषाओं के

उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि भाषाएं नदियों की तरह होती हैं, जो मुख्यधारा की भाषा कि नदी को बल प्रदान करती हैं। अत: हर किसी भाषा का अपना वैशिष्ट्य होता है और उसका मुकाबला कोई भी बड़ी भाषा नहीं कर सकती। मधुकर ने 1966 में हिंदी व्याख्याता के रूप में अपना कैरियर शुरू किया। बाद में वे रीडर और प्रोफेसर बने। मधुकर ने मगही और हिंदी दोनों ही भाषाओं में काफी कार्य किया है। उनकी दोनों ही भाषाओं में पांच पुस्तकें प्रकाशित हैं। हिंदी में उनके उनकी पुस्तकें हैं ‘मगही कविता के बिंब’, ‘एकलव्य’ और ‘भगवान बिरसा’ हैं। मगही में ‘एकलव्य’ की रचना के लिए उन्हें काफी सराहना मिली। साहित्य अकादमी अपने द्वारा मान्य 24 भाषाओं में उत्कृष्ट पुस्तकों तथा उत्कृष्ट अनुवादों के लिए वार्षिक पुरस्कार प्रदान करती है। मगही बिहार में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा में एक है। निश्चत रूप से मधुकर के सम्मानित होने से मगही में रचनात्मक कार्य करने वालों का हौसला बढ़ेगा।

प्रो. जोसेफ पॉलराज

पेटेंट के पॉल ‘राज’

यूएसपीटीओ ने प्रो. जोसेफ पॉलराज को वायरलेस तकनीक बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है

भा

रत में पैदा हुए व स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से सेवानिवृत्त प्रो. जोसेफ पॉलराज को अमेरिकी पेटेंट व ट्रेडमार्क कार्यालय (यूएसपीटीओ) ने वायरलेस तकनीक बनाने की जिम्मेदारी सौंपी है। पॉलराज यूएसपीटीओ के नेशनल इंवेंटर्स हॉल ऑफ फेम में हाईस्पीड डाटा का संचार व प्राप्ति के के लिए वायरलेस प्रौद्योगिकी विकसित करेंगे। वाशिंगटन डीसी के अनुसार

73 वर्षीय पॉलराज को वायरलेस प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उनके अग्रणी कार्य के लिए नेशनल इंवेंटर्स हॉल ऑफ फेम में नियुक्त किया गया है। वे यहां हाईस्पीड डाटा का संचार व प्राप्ति के के लिए वायरलेस प्रौद्योगिकी विकसित करेंगे। 1992 में पॉलराज को मल्टीपल इन मल्टीपल आउट (एमआईएमओ) के आविष्कार के लिए पेटेंट अवार्ड किया गया था। तमिलनाडु के पोलैची में पैदा हुए पॉलराज 15 साल की उम्र में ही भारतीय नौसेना में शामिल हो गए थे। उनके अकादमिक रिकॉर्ड से प्रभावित होकर नौसेना ने उन्हें नई दिल्ली स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) भेजा, जहां से उन्होंने सिग्नल

फिल्टरिंग थ्योरी में पीएचडी की डिग्री हासिल की। नौसेना में 25 साल सेवा देने के बाद पॉलराज 1992 में अमरीका गए। वहां उन्होंने स्टैंफोर्ड में एमआईएमओ आधारित सेल्युलर वायरलेस प्रौद्योगिकी विकसित की। यह प्रौद्योगिकी वाईमैक्स और एलटीई मोबाइल नेटवर्क का आधार बन गया। पॉलराज के पास 79 पेटेंट्स हैं और उन्होंने कई सम्मान हासिल किए हैं, जिनमें 2011 आईईई अलेक्जेंडर ग्राहम बेल मेडल और 2014 मार्कोनी प्राइज व फेलोशिप शामिल हैं। एनडीए सरकार ने 5जी इंडिया 2020 के लिए विजन व मिशन तैयार करने वाली दूरसंचार विभाग की संचाचल समिति का उनको दिसंबर 2017 में अध्यक्ष नियुक्त किया था।

यपुर के मेयर अशोक लाहोटी ने एक अनोखा फैसला लेकर ऑटो ड्राइवर दीपक सिंह को स्वच्छता सर्वेक्षण का ब्रांड एंबेसेडर बनाया है। दीपक सिंह न सिर्फ अपने ऑटो में एक डस्टबिन रखते हैं, बल्कि वह लोगों को साफ-सफाई रखने के लिए प्रेरित भी करते हैं। कई बार वह लोगों को पौधे भी बांटते हैं। सफाई और हरियाली बनाए रखने का संदेश देने के कारण लाहोटी ने सिंह को यह काम सौंपा है। लाहोटी का कहना है कि पर्यावरण के लिए लोगों को संवेदनशील बनाने का जो काम सिंह कर रहे हैं, वह तारीफ के लायक है। सिंह को एंबेसेडर बनाने से आम लोग भी उनकी तरह कदम उठाने के लिए प्रेरित होंगे। सिंह ने अपने ऑटो में स्वच्छ भारत का एक लोगो भी लगाया है। लाहोटी ने दीपक सिंह को एक तमगा और लोगों में बांटने के लिए कुछ पर्चे भी दिए हैं। लाहोटी ने बताया कि सिंह ने उनके काम के बारे में बताया था। लाहोटी का कहना है कि वह साफ-सफाई को बढ़ावा देने वाले ऐसे ही और लोगों के काम को देखते हुए उन्हें भी एंबेसेडर बनाएंगे। दीपक सिंह बताते हैं कि स्वच्छता को लेकर किया गया उनका कार्य अगर और भी लोगों को इस बारे में जागरूक करता है, तो यह एक बड़ी बात होगी। उनका मानना है जयपुर एक सुंदर शहर है। लोग अगर अपने जीवन में स्वचछता को लेकर लापरवाही दिखाना बंद कर दें तो यह शहर और भी सुंदर और स्वच्छ हो जाएगा।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 8


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