सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 10)

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स्वच्छता गुरुग्राम के इंद्री गांव में 65 नए सुलभ शौचालय

स्वच्छता आदर्श दांपत्य की आधुनिक मिसाल

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स्वच्छता की डगर पर यूरोप

खुला मंच

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पुस्तक अंश

एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उदय

sulabhswachhbharat.com आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

वर्ष-2 | अंक-10 | 19 - 25 फरवरी 2018

अनिल खेतान

उद्योगपति एवं समाज सेवी अध्यक्ष, पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री

उद्यम और व्यवसाय को लेकर एक धारणा यह बनती है कि ये सारा उपक्रम बस पूंजी और मुनाफे का है। इस धारणा को सामाजिकता के धरातल पर गलत ठहराने में जिन लोगों की भूमिका है, उनमें अनिल खेतान का नाम काफी अहम है। पीएचडी उद्योग मंडल और सुनील हेल्थ केयर के चेयरमैन अनिल खेतान के साथ इसी मुद्दे पर ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ की स्वस्तिका त्रिपाठी ने बात की। यहां प्रस्तुत है इसी बातचीत के मुख्य अंश-


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आवरण कथा

19 - 25 फरवरी 2018

खास बातें समाज सेवा को लेकर नजरिया बदलने की जरूरत है स्वच्छता मिशन के लिए माइक्रो लेवल प्लानिंग करनी चाहिए स्वच्छता के क्षेत्र में सुलभ का नाम और कार्य दोनों ही विश्वसनीय

माज सेवा का कार्य कारोबारी क्षेत्र से इस लिहाज से जुड़ा है कि हम जो कुछ भी करते या हासिल करते हैं, वह हमें समाज से ही प्राप्त होता है। इसीलिए हम जो समाज को लौटाते हैं, वह भी उतना ही महत्वपूर्ण और जरूरी है। इस रूप में अगर देखें तो अगर समाज हमारे उद्यम को फलने-बढ़ने में इतनी अहम भूमिका निभाता है तो हमारी भी यह जिम्मेदारी है कि हम समाज के लिए वह सब निश्चित रूप से आगे बढ़कर करें, जिसकी समाज को जरूरत है और जिसकी समाज हमसे अपेक्षा करता है।

समाज सेवा के मायने

मेरी नजर में अपेक्षा और आवश्यकता को देखते हुए समाज के लिए जो कार्य उद्यम प्रतिष्ठानों द्वारा किए जाते हैं, उसे हम महज समाज सेवा का कार्य न समझें और न ही इसे एक अतिरिक्त जिम्मेदारी के तौर पर देखें। दरअसल, यह भी एक तरह का निवेश है। आमतौर पर पूंजीगत निवेश हम वहीं करते हैं जहां हमारा नाम होता है, जबकि वास्तविक समाज सेवा तो वह है जहां हम सेवा कार्य तो आस्था के साथ करते हैं, पर नाम या प्रचार की कोई अपेक्षा नहीं करते हैं। सेवा का संवेदना के साथ साझा जरूरी है, आत्म-प्रसार या प्रसिद्धि से यह साझा

ढांचागत संरचना का गंभीर अभाव है। जो स्वास्थ्य सुविधाएं अभी लोगों तक पहुंच रही है, उनमें 80 फीसदी का नियंत्रण निजी हाथों में है। सरकारी क्षेत्र का दखल इस क्षेत्र में महज 20 फीसदी है। यही, नहीं सरकार भी जो स्वास्थ्य के मद में खर्च कर रही है, वह विकास दर का बमुश्किल एक फीसदी है। बात करें विश्व स्वास्थ्य संगठन के गाइडलाइन की तो उसके मुताबिक सभी देश अपनी जीडीपी का कम से कम तीन फीसदी स्वास्थ्य के मद में खर्च करें। भारत में आबादी का बड़ा हिस्सा गरीब है और ये लोग नितांत अस्वच्छ वातावरण और परिस्थितियों के बीच रहते हैं। इन लोगों की स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को मुफीद तरीके से दूर करने के लिए पर्याप्त सुविधाएं तो नहीं ही हैं, जो उपलब्ध हैं भी वे स्वच्छता मानक और खर्च के लिहाज से खासी प्रतिकूल साबित हो रही हैं।

हेल्थ सेक्टर में पीपीपी मॉडल मजबूत होने के बजाय और दरकता है, यह बात सबको समझनी चाहिए। समाज में जिस तरह का अभाव है। अभाव और समर्थ लोगों के बीच के कारण जिस तरह की सामाजिक विषमता है, उसे देखते हुए समाज सेवा का कार्य बहुत जरूरी है। इस कार्य को सरकार भी अपने तरीके से करती है। उद्यम क्षेत्र के लिए भी जरूरी है कि वह देश और समाज के समावेशी विकास के लिए हो रही पहलों का हिस्सा बने, ताकि अभावग्रस्त लोगों के जीवन में प्रकाश फैले और वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हों। समाजिक उत्थान के कार्य को देखने-समझने का नजरिया तो यह होना चाहिए कि उद्यम जगत अगर समाज को समर्थ और संपन्न बनाने में भूमिका निभाता है, तो इसका अकेला लाभ सिर्फ समाज को ही नहीं मिलता है, बल्कि इससे उद्यम क्षेत्र को भी भविष्य में अपने कारोबारी विस्तार में मदद मिलती

है। जाहिर है कि ज्यादा मांग बढ़ेगी तो उत्पादों की खपत भी ज्यादा होगी। इस तरह देखें तो समाज सेवा की भूमिका देश के समावेशी विकास में तो है ही, इससे कारोबारी उद्यम के भी फलने-बढ़ने की जमीन तैयार होती है।

आयुष्मान भारत

माना जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आयुष्मान भारत) से गरीबों की जिंदगी के साथ देश में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव आएगा। मुझे लगता है कि गरीब परिवारों को पांच लाख रुपए देने की जो बात वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बजट में की है, वह तो बहुत अच्छी, पर यह देखना होगा कि इसे अमल में कैसे लाया जाता है और इसके लिए किस तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार होता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में स्वास्थ्य से जुड़ी

सरकार स्वास्थ्य के मद में विकास दर का बमुश्किल एक फीसदी खर्च कर रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन के मुताबिक सभी देशों को अपनी जीडीपी का कम से कम तीन फीसदी स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च करना चाहिए

इसीलिए सरकार को मेरी सलाह है कि वह स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़ी जरुरतों को पूरी करने के लिए पीपीपी मॉडल को अपनाए। इससे जहां निजी क्षेत्र को सरकार की तरफ से पहले उपलब्ध ढांचागत सुविधा का लाभ मिलेगा, वहीं स्वास्थ्य सेवाओं को सुदूर ग्रामीण अंचलों तक पहुंचाने में मदद मिलेगी। जो हालात हैं, उसमें पूरे भारत को स्वास्थ्य सेवाओं की छतरी के नीचे लाना आसान नहीं है। देश में हेल्थ सेक्टर मजबूत हो, उसके लिए हर वर्ष कम से कम सात से आठ लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। यह कार्य इसीलिए भी करना जरूरी है कि ‘हेल्दी इकोनमी’ के लिए ‘हेल्दी नेशन’ जरूरी है। जाहिर है कि स्वास्थ्य क्षेत्र पर फोकस करना जरूरी है। इस लिहाज से इस बार के बजट में हेल्थ सेक्टर पर ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण है। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार इस दिशा में आगे भी इसी तरह बढ़ेगी और वह अगले कदम के तौर पर हेल्थ सेक्टर के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर मजबूत करेगी और स्वास्थ्य सेवाओं को लोगों तक पहुंचाने के तरीके को सुधारेगी।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुनील हेल्थकेयर

राजस्थान के अलवर में हमारी फैक्ट्री है। वहां हम तीन बड़ी स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। हर महीने हम तीनों संस्थाओं को एक


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आवरण कथा

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व्यक्तित्व अनिल खेतान

प्रबंध कौशल और योजनागत रणनीति में माहिर

आईएमआई, जिनेवा से 1981 में एमबीए की पढ़ाई कर चुके खेतान पीएचडी वाणिज्य एवं उद्योग मंडल और सुनील हेल्थकेयर लिमिटेड के अध्यक्ष हैं • देश के प्रतिभाशाली उद्यमियों की कतार में अनिल खेतान का नाम काफी आदर के साथ लिया जाता है। उनका पूरा नाम वैसे अनिल कुमार खेतान है, पर वे अनिल खेतान के तौर पर ही ज्यादा लोकप्रिय हैं। • कुछ अरसे पहले ही वे पीएचडी वाणिज्य एवं उद्योग मंडल के अध्यक्ष बने हैं। बीते वर्ष उद्योग मंडल की 112वीं वार्षिक आम बैठक में उन्होंने अध्यक्ष का कार्यभार संभाला। • वर्ष 1905 में स्थापित पीएचडी उद्योग मंडल का अध्यक्ष बनने से पहले खेतान इसके वरिष्ठ उपाध्यक्ष थे। एसएनके कॉरपोरेशन के चेयरमैन अनिल खेतान ने मंडल में गोपाल जीवराजका का स्थान लिया। • खेतान पूर्व में वर्ल्ड प्रेसीडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन के सदस्य और ऑल इंडिया मैनेजमेंट एसोसिएशन के सांस्थानिक सदस्य के तौर पर भी कार्य कर चुके हैं।

मेधावी छात्र

• आईएमआई, जिनेवा से 1981 में एमबीए की पढ़ाई कर चुके अनिल खेतान अपने प्रबंधकीय कौशल और उद्यमी कौशल के कारण प्रारंभ से ही काफी मेधावी रहे हैं।

विभिन्न क्षेत्रों का अनुभव

• 60 वर्षीय खेतान का जूट, कागज, औषधि, तांबा और इस्पात उद्योग में काफी अनुभव है। खेतान देश की आर्थिक स्थिति और योजनाओं के वरिष्ठ विश्लेषक हैं। खासतौर पर पीएचडी वाणिज्य एवं उद्योग मंडल का अध्यक्ष बनने के बाद से आर्थिक और वित्तीय मसलों पर उनकी राय का देश को इंतजार रहता है। • स्ट्रैटिजिक बिजनेस प्लानिंग के अलावा मानव संसाधन के कारगर संवर्धन में खेतान का लोहा सभी मानते हैं।

36 वर्षों से सक्रिय

• वाणिज्यिक उद्यम, वित्तीय प्रबंधन और योजनागत रणनीति के क्षेत्र में कम से कम 36 वर्षों का अनुभव रखने वाले खेतान आज मीडिया सहित विभिन्न मंचों से देश के समावेशी विकास को लेकर प्रखरता के साथ अपनी बात करते हैं।

रचनात्मक भूमिका

• खेतान वाणिज्य और उद्यम को समाज के सर्वांगीण विकास के साथ जोड़ कर देखते हैं। उन्हें लगता है कि स्वच्छता से लेकर शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में औद्योगिक क्षेत्र बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। उनकी नजर में यह भूमिका रचनात्मक तो होगी ही, इससे उत्पादन और सेवा से जुड़े क्षेत्रों की अपेक्षित सामाजिक जवाबदेही के भी कारगर नतीजे देखने को मिलेंगे।

कई जिम्मेदारियां

• फिलहाल अनिल खेतान 1 अगस्त 2007 से सुनील हेल्थकेयर लिमिटेड में बोर्ड के अध्यक्ष हैं। वे यहां प्रबंध निदेशक के रूप में भी कार्यरत हैं। इससे पूर्व वे यहीं कार्यकारी निदेशक थे। • उन्होंने शालीमार वायर्स इंडस्ट्रीज लिमिटेड के प्रबंध निदेशक के रूप में भी कार्य किया। वे पैमवी टिश्यूज लिमिटेड के भी निदेशक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

आकर्षक व्यक्तित्व

• अनिल खेतान काफी आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी हैं। वे एक प्रखर वक्ता होने के साथ सुरुचिपूर्ण व्यक्ति हैं। खासतौर पर उन्हें टेनिस से बहुत प्यार है। खेतान को अध्ययन करना भी खूब पसंद है। • वे एक हंसमुख व्यक्ति भी हैं। वे मानते हैं कि जीवन में अलग-अलग तरह के लोगों से मिलने से जहां आपके संपर्क का दायरा बढ़ता है, वहीं इससे आप अंदर से काफी प्रसन्नता का भी अनुभव करते हैं।


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आवरण कथा

19 - 25 फरवरी 2018

सुलभ इंटरनेशनल और सुलभ प्रणेता

अगर सुलभ और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का संबंध विकसित होता है, तो यह काफी अच्छा होगा। वैसे भी स्वच्छता के क्षेत्र में सुलभ के कार्य की गुणवत्ता की कोई सानी नहीं है

स्व

च्छता के क्षेत्र में सुलभ का बड़ा नाम है। इस सबका श्रेय सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक को है। यही वजह है कि हमारी कंपनी ने भी जो अब तक स्वच्छता के क्षेत्र में कार्य किए और शौचालय बनवाए हैं, वह सुलभ की मदद से और उसकी विख्यात टूपिट तकनीक के साथ ही बनवाए हैं। इसमें एक शौचालय के निर्माण की लागत 25 हजार रुपए आती है, जो काफी कम है। अगर और कंपनियां और राज्य सरकारें सुलभ के साथ मिलकर काम करें तो वे स्वच्छता के क्षेत्र में अनूठी मिसालें रच सकती हैं। वैसे भी सुलभ का इस क्षेत्र में पुराना और सबसे व्यापक निश्चित रकम देते हैं, ताकि वे दवाएं खरीद सकें। इन दवाओं को जरूरतमंद गरीब लोगों के बीच नि:शुल्क वितरित किया जाता है। इस तरह हम कह सकते हैं कि हमारी कंपनी स्वास्थ्य के मोर्चे पर वर्षों से कार्य कर रही है। इस दिशा हम हर महीने और आगे ही बढ़ रहे हैं।

मिशन धाणी

स्वच्छता एक गंभीर मसला है और इसको लेकर हम काफी संवेदनशील हैं। राजस्थान में गांव को लेकर दो तरह की अवधारणाएं हैं। ये अवधारणाएं हैं- गांव और धाणी। राजस्थान में गांव की आबादी 200-250 घरों की मानी जाती है, जबकि महज 25-30 झोपड़ियां ही जहां हो, उसे धाणी कहते हैं। आमतौर पर गांवों पर तो लोगों का ध्यान जाता है और वहां विकास से जुड़े कार्य भी होते रहते हैं। पर धाणी की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं जाता है। ये हमेशा उपेक्षा के शिकार बने रहते हैं। इस उपेक्षा को ध्यान में रखते हुए ही हमने राजस्थान के अलवर में स्वच्छता के लिहाज से कुछ धा​िणयों पर ध्यान दिया है। अब तक हम वहां तीन धा​िणयों को खुले में शौच से मुक्त करा चुके हैं। औसतन एक धाणी में 27 घर होते हैं। तीन धानियों को लेकर हम यह कहने की स्थिति में हैं कि वहां हर घर में शौचालय हैं। यहां मैं अपनी तरफ से एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि इस तरह का कार्य करने के बाद हम निश्चित नहीं हो जाते हैं, बल्कि समय-समय पर

अनुभव है। सुलभ ने स्वच्छता अभियान को सरकार की घोषणा के दशकों पहले अपने हाथ में लिया था। यही नहीं, वह अपने इस मिशन पर सफलता के साथ लागातार आगे बढ़ता रहा है। हम सबके लिए सुलभ की क्षमता, उसके अनुभव और उसके सार्थक उद्देश्यों के साथ जुड़ने का कीमती मौका है। जब मैं यह कह रहा हूं तो साथ में सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक का भी स्मरण कर रहा हूं, जो हृदय और विचार दोनों ही दृष्टि से महान हैं।

सुलभ और सीएसआर

सुलभ को कॉरपोरेट कंपनियों के साथ जुड़ने

की दिशा में और ज्यादा सघन पहल करनी चाहिए। कॉरपोरेट्स इस तरह की एजेंसी के साथ जुड़कर अपनी सीएसआर (कॉर्पोरेट-सोशल रिसपांसबिलिटी) गतिविधयों को चलाना-बढ़ाना चाहते हैं, जो विश्वसनीय और अनुभवी हों। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इस बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं होती है, जबकि उनके पास पर्याप्त सीएसआर फंड हैं। अगर सुलभ और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का संबंध विकसित होता है, तो यह काफी अच्छा होगा। वैसे भी स्वच्छता के क्षेत्र में सुलभ के कार्य की गुणवत्ता की कोई सानी नहीं है। यहां तक की सरकार भी जो कर रही है, वह सुलभ की गुणवत्ता के पैमाने से नीचे ही है।

देश में हेल्थ सेक्टर मजबूत हो, उसके लिए हर वर्ष कम से कम सात से आठ लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। यह कार्य इसीलिए भी करना जरूरी है कि ‘हेल्दी इकोनमी’ के लिए ‘हेल्दी नेशन’ जरूरी है मौके पर पहुंच कर इनके बारे में जानकारी भी लेते रहते हैं। मुझे बताते हुए खुशी हो रही है कि जो शौचालय बनवाए गए हैं, उनमें 95 फीसदी रोजमर्रा के जीवन में व्यवहार में लाए जा रहे हैं। शौचालय बन जाने से गांव के लोग और खासतौर पर महिलाएं बहुत खुश हैं। इससे बच्चों की सेहत में भी सुधार देखा जा रहा है। स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति भी बढ़ी है।

स्कूलों की दशा सुधारने का प्रयास

वैसे अगर हम एक तरफ धाणी के लिए काम कर रहे हैं तो, वहीं दूसरी तरफ स्कूलों की दशा सुधारने के लिए भी प्रयासरत हैं। हम वहां भी शौचालय बनवा रहे हैं। इससे बच्चों को स्कूल में रहने के दौरान शौच जाने में कोई कठिनाई नहीं होती है, इससे उनकी पढ़ाई-लिखाई को लेकर रुझान और इससे जुड़े वातावरण पर गुणात्मक प्रभाव पड़ा है। हम अपने अब तक के मिशन को लेकर संतुष्ट हैं। पर हमें आगे भी काम करना है। साल दर साल हम इसके लिए अलग से योजनाएं बनाते हैं। अलवर पर हमारा विशेष फोकस है, इसीलिए

हम चाहेंगे कि हम यहां वह सब जरूर करें, जो हम कर सकते हैं या जिसको करने में हमारी कोई भूमिका है।

अलवर का प्रयोग

हम राजस्थान के साथ कई स्तरों पर गहरे तौर पर जुड़े हैं। एक तो यहां अलवर में हमारी फैक्टरियां हैं, दूसरे हम हेल्थ केयर के बिजनेस में हैं। हेल्थ केयर, स्वच्छता के साथ सीधे तौर पर जुड़ा है। इसीलिए हमने तय किया कि इस दिशा में अलवर में कुछ करेंगे। जानना जरूरी है कि अलवर राजस्थान के बड़े जिलों में से एक है। लिहाजा, टिकाऊ और स्वावलंबी स्वच्छता के लिए यहां अगर यहां हम निरंतर प्रयासरत रहते हैं तो इसका मतलब है कि हम बड़ी आबादी तक पहुंच रहे हैं।

स्वच्छ भारत अभियान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वच्छता को लेकर शुरू किया गया यह महान मिशन है। महात्मा गांधी को छोड़कर इससे पहले इस बारे में आज तक हमारे किसी नेता ने नहीं सोचा था। स्वच्छता का मसला

आदिम जरूरत के साथ जुड़ा हुआ है। फिर उस मुद्दे पर गरीब लोग ही क्यों उपेक्षित रहें, जो समाज में समान रूप से सबके लिए तो जरूरी है ही, मानवता के लिए भी अपरिहार्य है। मैं भारत सरकार द्वारा सामाजिक उत्थान के लिए शुरू किए गए अब तक के नायाब मिशनों में स्वच्छ भारत मिशन को सबसे अहम मानता हूं। इससे स्वास्थ्य और स्वच्छता दोनों ही क्षेत्रों प्रगति होगी, खासतौर पर ग्रामीण महिलाओं को इससे विशेष लाभ होगा।

शौचालय निर्माण पर खर्च

किस तरह के शौचालय बनाए जाएं और उसके लिए कितना पैसा जरूरी है, यह सरकार औऱ संस्थाओं दोनों के लिए एक बहस का मुद्दा है। मुझे लगता है कि शौचालय मनुष्य की बुनियादी जरूरतों में शामिल है। इसीलिए अगर हम शौचालय का निर्माण कर रहे हैं तो हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह पूरी तरह ढंका हुआ हो। सुरक्षा के लिहाज से इसे बंद करने के लिए बेहतर दरवाजा भी होना चाहिए। इसी तरह पानी की समुचित सुविधा और वाश बेसिन भी जरूरी है। इन सारी सुविधाओं को जरूरी मानते हुए शौचालय निर्माण पर होने वाले खर्च का ब्योरा तैयार होना चाहिए। अगर हम समुचित ढंग से शौचालयों का निर्माण कराते हैं तो यह भविष्य में हमें कई तरह से लाभान्वित करेगा।

प्रखंड स्तर तक पहुंच जरूरी

मुझे लगता है कि स्वच्छता को लेकर माइक्रो लेवल प्लानिंग होनी चाहिए। देश में 6200 प्रखंड हैं। मेरा सुझाव है कि जिलाधिकारी की निगरानी में स्वच्छता कार्यक्रम के लिए प्रखंड स्तर पर समितियां बनाई जाएं। हर समिति में समाज की विभिन्न धाराओं के 10-12 लोग हों। यह समिति माइक्रो लेवल पर स्वच्छता अभियान को लेकर परामर्श देने के साथ इस पर निगरानी भी रख सकती है। अगर इस तरह की एक विकेंद्रित व्यवस्था विकसित होती है तो हम जमीन पर कार्य को ज्यादा तेजी के साथ अमल में आते देख सकते हैं। अभी जो स्वच्छता अभियान को लेकर कई बार इस तरह की जो शिकायतें सुनने में आती हैं कि जमीन पर कुछ नहीं हो रहा, यह इस तरह की व्यवस्था को अमल में लाने से नहीं होगा। क्योंकि तब सब कुछ जमीन पर ही तय होगा, वहीं दिखेगा भी।

नमामि गंगे

केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने हमारे कुछ सदस्यों को नमामि गंगे योजना की तरह गंगा के बहाव के कुछ हिस्से की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को कहा है। हम इस बारे में संबंधित मंत्रालय के साथ मिलकर यह समझने की कोशिश कर रहे हैं इस तरह के कार्य को निजी हाथों में सौंपने के लिए किस तरह के प्रावधान सरकार की तरफ से हैं। वाराणसी में इस तरह का एक उदाहरण सामने आया भी है। वहां नमामि गंगे के तहत सबके योगदान से न सिर्फ काफी काम हुआ है, बल्कि इसका असर भी वहां गंगा की स्वच्छता की स्थिति में प्रगति के रूप में नजर आता है।


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स्वच्छता

कचरे को कंचन बनाने वाले नन्हे हाथ

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जिस कूड़े को हम एक बार कचरा पात्र में डालने के बाद भूल जाते हैं, उसी कचरे से हमारे देश में लाखों लोग अपना जीवन-यापन करते हैं। दुनिया भर में कचरे को कंचन बनाने की प्रक्रिया पर काम हो रहा है। इसकी पड़ताल करती पर्यावरण कार्यकर्ता राजेंद्र कुमार राय की रिपोर्ट

खास बातें देश में लाखों परिवार कचरे से भरते हैं अपना पेट कचरे को फिर से इस्तेमाल के लायक बनाते हैं ये लोग कचरा बीनने वालों को है संरक्षण की दरकार

चरे का सबसे बेहतर इस्तेमाल कैसे किया जाए। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण हमारे देश की सड़कों और गलियों में कचरा बीनने वाली महिलाएं और बच्चे हैं, लेकिन उन्हें बहुत अच्छी निगाहों से नहीं देखा जाता है। परंतु अधिकांश लोगों को यह पता ही नहीं कि वे कचरे से कंचन निकालते हैं। जिस पदार्थ को हम एक बार कूड़ेदान में डालने के बाद भूल जाते हैं, वे उसे फिर काम के योग्य बनाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से हमारे यहां शहरीकरण की प्रक्रिया में काफी तेजी आई है। उसी गति से शहरों में कचरे की मात्रा भी बढ़ी है। और आज दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में यह समस्या बन गई है कि कूड़ा-करकट कहां डाला जाए? दिल्ली में प्रतिदिन लगभग साढ़े चार हजार मीट्रिक टन से अधिक कचरा उत्पन्न होता है। इसे पांच स्थानों पर गिराया जाता है और फिर उसे जलाकर या मिट्टी के अंदर दबाकर नष्ट करने की प्रक्रिया चलती रहती है। लेकिन अब इन भाराव-स्थलों पर कूड़े का पहाड़ खड़ा हो गया है। दिल्ली नगर निगम और डीडीए के पास ऐसे बड़े भूखंड भी नहीं बचे हैं, जो आबादी से दूर हों और जिन्हें रोजाना एकत्र होने वाले हजारों टन कूड़े के लिए भराव स्थलों में बदला जा सके। शहरों में घरेलू कचरे के निपटान की जिम्मेदारी स्थानीय प्रशासन की होती है। दिल्ली में लगभग सभी कॉलोनियों में कचरा फेंकने का उचित स्थान बनाया गया है, लेकिन वह अक्सर भरा ही रहता है और उसके चारों तरफ कचरा बीनने वाले, कुत्ते और मवेशियों का जमावड़ा लगा रहता है। छोटे शहरों में सड़कों पर कचरे के ढेर देखे जा सकते

हैं। चिकित्सकों का कहना है कि अवैज्ञानिक तरीकों से कचरे का प्रबंधन जन स्वास्थ्य के लिए घातक हो सकता है। लेकिन अब नए शोधों से वैज्ञानिकों को यह कचरा कंचन से कम नहीं लग रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कचरे के वैज्ञानिक इस्तेमाल से अनेक आर्थिक और सामाजिक फायदे हैं। कचरे से बिजली भी पैदा की जा सकती है। अब तो वैज्ञानिक कचरे के अनेक इस्तेमाल बता रहे हैं। वास्तव में कचरे का इस्तेमाल और उसका पुनःचक्रण की हमारे देश में पुरानी परंपरा रही है। लाखों परिवार इस कचरे के व्यवसाय से गुजर बसर करते हैं। केवल दिल्ली में दो लाख लोग कचरे के व्यवसाय से जुड़े हैं। कचरे का एक जटिल बाजार है, जिसमें विशेष चुनना, छंटाई करना, फिर इस्तेमाल में लाने योग्य बनाना तथा वितरण करना शामिल है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था हैबीटैट का कहना है कि एशिया के महानगरों में कूड़ा-करकट चुनने और बेचने वाले अब इन अवशेषों के निबटारे की बढ़ती हुई समस्या के समाधान के लिए भी कारगर हो सकते हैं। हैबीटेट के एक अध्ययन के अनुसार एशियाई शहरों में अभी केवल आठ प्रतिशत कूड़े का ही फिर से इस्तेमाल किया जाता है। अमरीका में तो कूड़ा साफ करना अब एक बड़ा कारोबार बन गया है। हालांकि वहां सारा

काम सरकारी नियमों को ध्यान में रखकर चलाया जा रहा है। वहां नई कूड़ा व्यवस्थापन प्रौद्योगिकी को विकसित किया जा रहा है। लेकिन हैबीटेट के अनुसार अधिकांश एशियाई देशों के शहरों के अधिकारी आमतौर पर कूड़ा करकट चुनने वालों को एक समस्या मानते हैं। उनका मानना है कि कूड़ा चुनने वाले और अन्य कामों से संबद्ध लोग गंदगी फैलाते हैं और सरकारी गतिविधियों में अनावश्यक हस्तक्षेप करते हैं। जबकि अधिकारियों को अवशेषों के पुनः इस्तेमाल के इन छोटे, अदृश्य भूमिगत प्रतिष्ठानों का समर्थन करना चाहिए। दिल्ली की एक संस्था सेवा के अनुसार दिल्ली शहर में केवल एक लाख कचरा चुनने वाले बच्चे हैं। सेवा ने दिल्ली में कचरा चुनने वाले बच्चों को प्लास्टिक के ऐसे थैले दिए जिनके भीतर पॉलीथीन की चादर थी। ये बच्चे अक्सर जूट के बदबूदार बोरों में कूड़ा बीनते थे, जिससे बोरा फट जाता था और कूड़ा बाहर लटकता रहता था। इससे दुर्घटना का भी खतरा रहता था। मुंबई शहर में लगभग एक लाख व्यक्तियों का पेट कचरे के कारण ही भरता है। काफी समय से लगभग 700 ट्रकों द्वारा प्रतिदिन शहर की बाहरी सीमा पर कचरा फेंका जाता रहा है, लेकिन यह जगह भी अब भर गई है। अब राज्य सरकार की

संयुक्त राष्ट्र की संस्था हैबीटैट का कहना है कि एशिया के महानगरों में कूड़ा-करकट चुनने और बेचने वाले अब इन अवशेषों के निबटारे की बढ़ती हुई समस्या के समाधान के लिए भी कारगर हो सकते हैं

मदद से मुंबई नगरपालिका ने शहर के सीमावर्ती समुद्र की खाड़ी में कचरा डालने की योजना तैयार की है। लेकिन एक कचरा व्यापारी का कहना है कि कचरे के इतने अधिक इस्तेमाल सामने आ रहे हैं कि अब वह दिन दूर नहीं लगता कि दिल्ली व मुंबई के कचरे के ढेर नीलाम होंगे। एक अमरीकी लेखक कहते हैं कि आधुनिक जीवन में बढ़ते कूड़े का सबसे बड़ा कारण हमारे गलत मूल्य हैं। कूड़े की समस्या के लिए किसी देश, समाज या व्यक्ति के जीवन दर्शन के अलावा देश की शासन व्यवस्था की भी जिम्मेदारी होती है। जैसे जर्मनी के एकीकरण के केवल एक साल में पूर्वी जर्मनी में कूड़े की मात्रा दुगुनी हो गई। सबसे पहले हमें इस बात का ही प्रयास करना चाहिए कि हम कचरा ही कम पैदा करें, क्योंकि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी होता है। वास्तव में कचरा कहीं फेंका जाए, वातावरण से ऑक्सीजन लेकर गलने लगता है। केवल दिल्ली में कचरे के भराव स्थलों से लगभग 40 हजार क्यूबिक मीटर गैस प्रतिदिन निकलती है और यह दिल्ली के आस-पास के वायुमंडल में घुल जाती है। दिल्ली नगर निगम के एक अधिशासी अभियंता के अनुसार कचरे के भराव स्थलों से लगातार निकल रही जहरीली गैसें दिल्ली के वायुमंडल को जहरीला बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। एक मीट्रिक टन कचरे के ढेर से कम-सेकम दो क्यूबिक मीटर जहरीली मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड गैसें उत्पन्न होती हैं। कचरे की एक बड़ी मात्रा के निपटान की व्यवस्था अभी हमारे यहां ठीक से नहीं की जा रही है। लेकिन छोट-छोटे लाखों हाथ अवश्य सक्रिय हैं, ये एक तरह से सरकार का ही काम करते हैं। इससे सरकारी खर्च कम होता है। भविष्य में यह एक छोटा उद्योग बन सकता है और रोजगार के नए स्रोत पैदा कर सकता है। बस जरूरत है इन नन्हे हाथों को सुरक्षित दस्तानों की, ताकि वे कचरे को कंचन बनाते रहें।


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स्वच्छता

19 - 25 फरवरी 2018

खास बातें रोटरी क्लब डेनवर, अमेरिका के कोआर्डिनेटर विलियम कोरस्टेड के साथ वेद नंदा, सुनील कपूर, प्रेम धींगरा, अंकुर गर्ग, जीएस कोचर और विवेक दुग्गल इंद्री गांव में व्यक्तिगत शौचालयों के लोकार्पण के मौके पर

गांवों में भी शौचालयों के लिए जागरुकता बढ़ी - सुलभ

गु

गुरुग्राम में इंद्री गांव के निवासियों के लिए 65 नए सुलभ शौचालय का हुआ उद्घाटन मोनिका जैन

रुग्राम के इंद्री गांव में 65 सुलभ शौचालय के उद्घाटन के अवसर पर रोटरी क्लब डेनवर, अमेरिका के कोआर्डिनेटर विलियम कोरस्टेड ने कहा कि यह पहल 2019 तक भारत की कुल स्वच्छता कवरेज सुनिश्चित करने के प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान के प्रयासों के तहत है। सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने इस मौके पर कहा कि हम अपना सबसे अच्छा देने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि देश को जल्द से जल्द खुले में शौच मुक्त किया जा सके। इस गांव में ग्रामीणों को शौचालय सौंपना इसी अभियान का हिस्सा है।

65 व्यक्तिगत शौचालय

27 जनवरी 2018 को इंद्री गांव के लाभार्थियों को 65 व्यक्तिगत शौचालय सौंपा गया। ये 65 शौचालय रोटरी क्लब, डेनवर और रोटरी क्लब, मध्य-पश्चिम दिल्ली द्वारा बनवाए गए हैं। इस समारोह में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस संगठन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक, रोटरी क्लब के ग्लोबल कोऑर्डिनेटर बिल कोरेस्टेड, रोटरी के पूर्व सदस्य और पद्म भूषण वेद नंदा,

मिडवेस्ट रोटरी क्लब,दिल्ली के अध्यक्ष सुनील कपूर, दिल्ली रोटरी क्लब के पूर्व अध्यक्ष अशोक जैन और रोटरी क्लब के अन्य सदस्य भी उपस्थित रहे। इस मौके पर डॉ. विन्देश्वर पाठक ने शौचालयों के उपयोग के लाभ बताए और प्रत्येक समुदाय के सदस्यों को शौचालयों का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित भी किया। उन्होंने हिरमिथला गांव का उदाहरण दिया, जहां लोग आज पूरी तरह से

हमने स्वतंत्रता से पहले मैला ढोने वालों, जिन्हें 'अछूत' नाम से जानते थे, को इस कार्य से मुक्ति दिलाई। सुलभ पिछले 50 वर्षों से महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर और राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के सपने को पूरा कर रहा है - डॉ. विन्देश्वर पाठक

इंद्री गांव में 65 सुलभ शौचालय का हुआ लोकार्पण देश को खुले में शौच से मुक्त कराने के लिए पहल स्वच्छ भारत अभियान को बल देने का प्रयास शौचालय का उपयोग कर रहे हैं। उन्होंने हिरमिथला गांव की अध्यक्ष शकुंतला देवी के बारे में बताया, जिनकी तीन बेटियां और तीन बहुएं हैं। शकुंतला को हर दिन खुले में शौच के दौरान अपने घर की


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धन्यवाद किया। इस मौके पर बिल कोरेस्टेड, वेद नंदा और अशोक जैन ने सभी का धन्यवाद किया। इसके बाद वेद नंदा ने डॉ. विन्देश्वर पाठक को ‘4 धार्मिक परंपराओं में सहानुभूति’ किताब भेंट की, जिसे हाल ही में उनके द्वारा संपादित किया गया है। इस समारोह में बच्चों द्वारा पर्यावरण के प्रति जागरुकता पैदा करने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए।

सुलभ परिसर की यात्रा

राजस्थान के अलवर और टोंक की पूर्व स्कैवेंजर महिलाओं के साथ विलियम कोरस्टेड और अशोक जैन

‘हम गर्व महसूस कर रहे हैं कि विलियम कोरेस्टेड हमारे परिसर में सिर्फ यह देखने के लिए आए कि हम पिछले 50 वर्षों से क्या कर रहे हैं’ - डॉ. विन्देश्वर पाठक महिलाओं की देखभाल के लिए कई समस्याओं का सामना करना पड़ता था। इस अवसर डॉ. पाठक ने ग्रामीण विजय लक्ष्मी के बारे में बताया कि जब वह गर्भवती थी, तब वह एक बार खुले में शौच के लिए गई, जहां एक आदमी ने उन्हें मैदान में बैठे देखा। तब उन्हें बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई। उसके बाद वह कभी वहां नहीं गई, जिसका नतीजा यह हुआ कि उनके बच्चे के शरीर में विकलांगता आ गई। उन्होंने सुलभ तकनीक को एक तरह का जादू बताया, क्योंकि टू पिट तकनीक से दो-तीन वर्षों के बाद मल खाद में परिवर्तित हो जाता है। लोगों को यह जानकर हैरानी हुई कि यह खाद बिल्कुल भी

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स्वच्छता

उद्घाटन समारोह के दूसरे दिन रोटरी क्लब, डेनवर के कोऑर्डिनेटर विलियम कोरस्टेड और अशोक जैन सुलभ परिसर आए। सुलभ परिसर में डॉ. पाठक द्वारा दोनों मेहमानों का फूलमाला, शॉल, सुलभ टू पिट तकनीक का मॉडल और पीएम मोदी पर उनके द्वारा लिखित ‘द मेंकिग ऑफ लीजेंड’ पुस्तक देकर स्वागत किया गया। इसके बाद मेहमानों ने वृंदावन की विधवा माताओं, सुलभ व्यावसायिक प्रशिक्षण की छात्राओं और सुलभ के कार्यकर्ताओं से मुलाकात की। उसके बाद उन्होंने

पढ़ते देखा। सबसे महत्वपूर्ण रूप से दोनों मेहमानों ने सुलभ टू पिट तकनीक और शौचालय म्यूजियम के बारे में जानकारी ली। इस अवसर पर सुलभ इंटरनेशनल सर्विस संगठन के अध्यक्ष एसपी सिंह ने अपने संबोधन से सभी मेहमानों का स्वागत किया और कहा कि ‘जीवन को बेहतर बनाने के लिए लोग सौ से अधिक वर्षों से काम कर रहे हैं। हमने तो अभी 50 वर्ष ही पूरे किए हैं। हम समाज और विश्व को स्वच्छता का संदेश देने का काम कर रहे हैं।’ इस मौके पर डॉ. पाठक ने कहा कि ‘हम गर्व महसूस कर रहे हैं कि विलियम कोरेस्टेड हमारे परिसर में सिर्फ यह देखने के लिए आए कि हम पिछले 50 वर्षों से क्या कर रहे हैं।’ उन्होंने कहा कि मैं सिर्फ राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की कही बात दोहराना चाहता हूं कि ‘हम यह यह न पूछें कि देश ने हमारे लिए क्या किया है, बल्कि ये पूछें कि हमने अपने देश के लिए क्या किया है।’ राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण आपका कर्म है। डॉ. पाठक ने दोनों मेहमानों को संबोधित करते हुए कहा कि आपने

बदबू नहीं देती है। इस मौके पर रोटरी क्लब डेनवर, अमेरिका के कोआर्डिनेटर विलियम कोरस्टेड ने अपनी बात रखते हुए कहा कि उन्हें यहां लोगों के प्रसन्नचित चेहरे देखकर तो खुशी हो ही रही है साथ ही सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक से मिलने का गौरव भी अनुभव हो रहा है। उन्होंने डॉ. पाठक की सराहना करते हुए बताया कि उन्होंने जिस तरह स्वच्छता, उससे जुड़ी उन्नत तकनीक और समाज के लिए अपने जीवन के पांच दशक लगाए हैं, वह बड़ी बात है। इस अवसर पर गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले पद्म भूषण से सम्मानित हुए वेद नंदा को डॉ. पाठक ने बधाई दी और सभी रोटरी के सदस्यों का

विलियम कोरस्टेड को ‘महात्मा गांधी’ज लाइफ इन कलर’ भेंट करते हुए सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक

सुलभ परिसर में वेंडिग मशीन से सैनिटरी नैपकिन का राख बाहर आते देखते विलियम कोरस्टेड

पूरे सुलभ ग्राम के दर्शन किए। कोरस्टेड और अशोक जैन यह जानकर प्रसन्न थे कि सुलभ वाटर एटीएम से लोग सिर्फ एक रुपए में एक लीटर पानी ले सकते हैं। इसके साथ ही सैनिटरी नैपकिन बनाने की मशीन और क्रीमेटोरेटर की भी तारीफ की। इसके बाद दोनों मेहमानों ने सुलभ पब्लिक स्कूल की यात्रा की। सुलभ स्कूल की प्रिंसिपल ने उन्हें स्कूल में संचालित विभिन्न गतिविधियों और व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों से अवगत कराया। दोनों मेहमान स्कूल परिसर के अनुशासन से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने शिक्षक और छात्रों के तालमेल के प्रयासों को अत्यधिक मूल्यवान बताया। इसके साथ ही उन्होंने छात्र-छात्राओं को स्टेनोग्राफी, कंप्यूटर, ब्यूटी एंड ट्रेड, सिलाई और टेलरिंग जैसे विभिन्न पाठ्यक्रमों को कक्षाओं में

परिसर को देखा है कि हमने भारत की समस्या को किस तरह से सुलझाया है। हमने स्वतंत्रता से पहले मैला ढोने वाले, जिन्हें 'अछूत' नाम से जानते थे, को इस कार्य से मुक्ति दिलाई। सुलभ पिछले 50 वर्षों से महात्मा गांधी, डॉ. आंबेडकर और राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के सपने को पूरा कर रहा है। विलियम कोरेस्टेड ने डॉ पाठक को सुलभ ग्राम आने के लिए आमंत्रित करने के लिए दिल से धन्यवाद दिया। उन्होंने बताया कि एक दिन पूर्व शौचालयों के उद्घाटन का 27वां आयोजन इतना प्रभावशाली था कि एक व्यक्ति ने वहां 5 से अधिक शौचालय बनाने और एक दूसरे व्यक्ति ने 50 शौचालयों के निर्माण करने का वादा किया। उन्होंने यह भी कहा कि यह दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, जिसे सुलभ कई वर्षों से कर रहा है।


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स्वच्छता

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स्वच्छता की डगर पर देरी से पहुंचा यूरोप स्वच्छता और विकास के प्रतीक बने यूरोप के देशों ने स्वच्छता की आधुनिक राह पर बढ़ने से पहले लंबा मध्यकालीन अंधकार देखा है

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प्रियंका तिवारी

ष्ट, अनुशासित और स्वच्छ जीवनशैली के लिए जाने जाने वाले आधुनिक यूरोप में स्वच्छता की संस्कृति का विकास एक आधुनिक परिघटना है। रोमन सभ्यता के पतन के बाद लंबे समय तक यूरोप में शौचालयों की व्यवस्था का अभाव रहा। स्थिति इतनी विकट थी कि ग्यारहवीं शताब्दी तक लोग सड़कों पर मल फेंक दिया करते थे। कई स्थानों पर घरों में मल करने के बाद उसे खिड़की से बाहर फेंक दिया जाता था, जिससे आने-जाने वालों को काफी असुविधा का सामना करना पड़ता था। इस काल में लोग कहीं भी मूत्रत्याग कर देते थे। सड़कों के किनारे से लेकर बेडरूम तक में। यूरोप में छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक का काल अंधकार का काल था, जिसमें सर्वत्र अज्ञान और अंधविश्वास का बोलबाला था। इस पूरे कालखंड में मनुष्य के मल के निस्तारण की कोई उपयुक्त व्यवस्था पूरे यूरोप में कहीं नहीं थी।

धोने को लेकर संदेह

विश्व में आधुनिकता का इतिहास भले यूरोप से जोड़कर देखा जाता हो, पर अगर स्वच्छता की चर्चा करें तो ऐसा बिल्कुल नहीं है। खासतौर पर

मध्य युग में स्वच्छता की बात करें तो यूरोपीय परंपराएं हमें हैरान करती हैं। दिलचस्प है कि उसी दौर में एक तरफ जहां रूस में स्नान को उच्च सम्मान के साथ देखा जाता था। लेकिन यूरोप में स्थिति बिल्कुल विपरीत थी। मध्ययुगीन यूरोप में शरीर को किसी रूप में धोने को बहुत संदेह के साथ देखा जाता था।

इसाबेला का ‘गर्व’

15वीं सदी का जो जिक्र मिलता है उसमें वहां कैसाइल की इसाबेला को अपने जीवन में केवल दो बार खुद को धोने पर गर्व था- बपतिस्मा में और शादी से पहले। हालांकि दोनों बार यह रस्म के तौर पर किया गया और इनका स्वच्छता के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं था। इसी तरह सम्राट लुई के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने जीवन में सिर्फ तीन बार खुद को धोया था। यह भी कि ऐसा उन्होंने चिकित्सकीय प्रयोजनों के कारण किया था। बाद में लुई बीमार हुआ तो माना गया कि धोने के कारण

ही वह बीमार हुए हैं।

13वीं सदी में अंतर्वस्त्र

यूरोप में 13 वीं सदी में अंतर्वस्त्र के इस्तेमाल का पता चलता है। इसके इस्तेमाल ने इस चेतना को और मजबूत किया कि वहां धोने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। कपड़े महंगे थे और धोने के लिहाज से तो और भी महंगे साबित हो रहे थे। अंडरवियर धोने के लिए बहुत आसान था। यह शरीर की गंदगी से बाकी पोशाक को संरक्षित करता था।

14वीं सदी में 144 शौचालय

तुलनात्मक तौर पर देखें तो उस समय रोम में इससे काफी अच्छी स्थिति थी। रोम में 14वीं शताब्दी में 144 सार्वजनिक शौचालय थे। ‘पैसा गंध नहीं है!’ यह एक तारीखी वक्तव्य है। ये शब्द सम्राट वेस्पासियन के हैं। उन्होंने यह तब बोला, जब उनके बेटे टिटस ने शौचालयों पर टैक्स लागू करने के

यूरोपीय लोग स्वच्छता को लेकर अपनी जीवनशैली, आदत और समझ के मुकाबले रूसी परंपरा को काफी अजीब मानते थे। वे इस बारे में जिज्ञासा और संदेह दोनों से भरे थे

खास बातें छठी से सोलहवीं सदी स्वच्छता के लिहाज से यूरोप का अंधकार युग रोम में 14वीं शताब्दी में 144 सार्वजनिक शौचालय थे यूरोप 15वीं सदी में साबुन से परिचित हो चुका था लिए उन्हें अपमानित किया था। वेस्पासियन के साथ उस दौर के लोग इसे स्वच्छता को प्रोत्साहन देने के खिलाफ उठाए गए कदम के तौर पर देख रहे थे। इसके उलट मध्ययुगीन पेरिस में हर तरफ भयानक बदबू फैली थी। शौचालयों की कमी के कारण लोग रात के शौच को को सीधे खिड़की से सड़कों पर फेंक देते थे। जब स्थिति ज्यादा बिगड़ी तो 13वीं शताब्दी के अंत में वहां एक कानून सामने आया कि खिड़की से बाहर शौच का बर्तन फेंकने से पहले ‘सावधानीपूर्वक, पानी’ चिल्लाना जरूरी है।


19 - 25 फरवरी 2018

आधुनिकता और स्वच्छता से बदला यूरोप का देहात

‘भगवान के मोती’

1628 तक यूरोप में जूं को ‘भगवान के मोती’ कहा जाता था और पवित्रता का संकेत माना जाता था

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च्छता को लेकर किस तरह के अंधकार से यूरोप बाहर निकला है और वह कितने समय बाद इसका एक और तारीखी साक्ष्य खासा दिलचस्प है। 1628 तक यूरोप में जूं को ‘भगवान के मोती’ कहा जाता था और पवित्रता का संकेत माना जाता था। भगवान के इस कथित मोती से यूरोपीय समाज, खासकर महिलाओं ने इससे

होने वाली परेशानियों मुक्ति का मार्ग जब खोजा भी तो, उसका तरीका कम से कम धोना या नहाना तो नहीं ही था। रक्त और शहद में फर का एक टुकड़ा गीला कर उसे बाल में डालने की परंपरा वहां दिखती है। ये तरीके इस रूप में कारगर थे कि सिर और शरीर के दूसरे हिस्सों में डेरा जमाए जूं और उसकी वंश परंपरा के दूसरे कीट शहद में फंस जाते थे।

चर्च का दखल कमजोर होने के बाद यूरोप में नालों और शौचालयों की व्यवस्था की व्यवस्था भी सामूहिकता के आधार पर शुरू हुई। घरों में तो नहीं पर गांवों में सार्वजानिक शौचालय और स्नानगृह बनने लगे

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शाही खून को यह कहने पर गर्व था कि वे व्यावहारिक रूप से स्नान नहीं करते। इसीलिए रानी इसाबेला ने गर्व से बताया कि उसने अपने जीवन में शरीर को केवल दो बार धोया था- जन्म के समय और शादी से पहले स्वच्छता में रूस था आगे

यूरोपीय लोग स्वच्छता को लेकर अपनी जीवनशैली, आदत और समझ के मुकाबले रूसी परंपरा को काफी अजीब मानते थे। वे इस बारे में जिज्ञासा और संदेह दोनों से भरे थे। सम्राट लुई-14वें ने यह पता लगाने के लिए कि रूसी स्नान के दौरान वास्तव में क्या करते हैं और इसका तरीका क्या है, पीटर आई की अदालत में जासूस भेजा था। लुई के मन में यह बात बैठ ही नहीं पा रही थी कि कोई आदमी इतना और इतनी बार खुद को कैसे धो सकता है। अलबत्ता रूसी शहरों की सड़कों पर दुर्गंध यूरोपीय सड़कों की तरह ही कहीं न कहीं फैला था। अठारहवीं सदी

तक रूस की बस्तियों में सीवरेज की सुविधा महज 10 फीसद थी।

रूसी स्नान की परंपरा

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स्वच्छता

गैतिहासिक मानव में सामूहिक ज्ञान का संचार कृषि के विकास के कारण हुआ। जब तक पहिए और पहिए से चलनेवाली गाड़ियों का आविष्कार नहीं हुआ था, मानव जाति को भारी सामान ढोने के लिए श्रम की आवश्यकता पड़ती थी। ईंटों का आविष्कार भी नहीं हुआ था। सोलहवीं शताब्दी के बाद नाव द्वारा यात्राओं ने इंग्लैंड की आर्थिक स्थिति को बदलना शुरू कर दिया था। बदलाव के ये चरण और उनके नतीजे अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी तक आतेआते क्रांतिकारी साबित होने लगे। चर्च बनाने का रिवाज कमजोर पड़ने लगा। इसका स्थान बड़े-बड़े सुंदर घरों ने लेना शुरू किया। सड़कें बनने लगीं। नालों और शौचालयों की व्यवस्था की व्यवस्था भी सामूहिकता के आधार पर शुरू हुई। घरों में तो नहीं पर गांवों में सार्वजानिक शौचालय और स्नानगृह बनने लगे। इस तरह यूरोप मॉडल विलेज की कल्पना साकार होने लगी। धनिकों ने बड़े से बड़े डिजाइनर बुलवाए और सुंदर से सुंदर गांव बसाए। इनमें से कई अभी भी बहुत प्रसिद्ध हैं। सर टाइटस साल्ट ने सॉल्टेयर नामक गांव बसाया था। इनकी ऊन बनाने की फैक्ट्री थी। विलियम हेस्केथ लीवर साबुन बनाते थे। उन्होंने पोर्ट सनलाइट गांव बसाया। लीवर ब्रदर और सनलाइट साबुन को कौन नहीं जानता। विश्व देखते-देखते यूरोप तक रूसी स्नान की परंपरा पहुंच ही गई। रूस में यह परंपरा विदेशियों द्वारा लाई गई थी, जो लंबे समय से रूस में रहते थे और साप्ताहिक वाशिंग की गरिमा का गुणगान किया करते थे। वैसे यह सब रातोंरात नहीं हुआ। स्नान के साथ स्वच्छता को लेकर यूरोपीय परंपरा को बदलने में वक्त लगा। यूरोपीय लोग अपनी परंपरा

आज यूरोप के ज्यादा तर देशों में गांव-गांव में आधुनिक शौचालय हैं और उसके लिए उन्नत सीवरेज व्यवस्था। गांवों से मैला नदियों में नहीं जाता, बल्कि इनका परिशोधन किया जाता है में सबकी पसंद कैडबरी चॉकलेट बनाने वाले जॉर्ज कैडबरी ने बौर्नविल नामक जगह बसाई। हम सब बोर्नविटा दूध में डालकर पीना पसंद करते हैं। यह और इन जैसे अनेक गांव यूरोप में फैक्ट्रियों की देन हैं। शहरों को छोड़ यूरोप के गांवों को भी देखें तो आज वहां स्वच्छता और सुंदरता का अनूठा मेल दिखता है। सभी अपने घर को सजाकर रखते हैं। घर के बाहर तक झाड़ू देते हैं। घास काटते हैं। इंग्लैंड में पानी बहुत बरसता है, इसीलिए झाड़ियां बहुत होती हैं। लोग उनको साफ करते हैं। हर गांव का अपना स्टेशन, अपना अस्पताल, अपना प्रसूति क्लीनिक है। गांव-गांव में आधुनिक शौचालय हैं और उसके लिए उन्नत सीवरेज व्यवस्था। गांवों से मैला नदियों में नहीं जाता, बल्कि इनका परिशोधन किया जाता है। और मान्यता से एकबारगी हटने को तैयार नहीं थे। उन्हें वक्त के साथ यह बात समझ आई कि वे जिस तरह की अस्वच्छ जीवनशैली अपना रहे हैं, वह उन्हें जहां एक तरफ प्लेग जैसी बीमारियों की चपेट में ला रहा है, वहीं वे इस कारण विश्व सभ्यता और संस्कृति के लिहाज से काफी पिछड़े माने जा रहे हैं। बहरहाल, काफी अंतराल और भटकावों के बाद


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स्वच्छता

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साबुननामा पहला चुंबकीय साबुन

तीन साल पहले यूरोप से पहला चुंबकीय साबुन तैयार करने की खबर आई, जिसने पूरी दुनिया को चौंकाया

क महत्वपूर्ण अनुसंधान के तहत वैज्ञानिकों ने दुनिया का पहला चुंबकीय साबुन तैयार करने का दावा किया है। इस साबुन में पानी में घुले लौह तत्व वाले लवण होते हैं। इंग्लैंड में ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के एक दल ने कहा कि घोल में डालने पर चुंबकीय क्षेत्र पर अपना प्रभाव दिखाने वाला यह साबुन तेल रिसाव के दौरान आर्द्रक के उपयोग से पैदा होने वाली दिक्कतों को दूर करेगा और औद्योगिक सफाई उत्पादों में क्रांतिकारी बदलाव लाएगा। आर्द्रक द्रव पदार्थ में घोले जाने पर सतही तनाव कम करता है। इस दल ने क्लोराइड और ब्रोमाइड से बने निष्क्रिय आर्द्रक में लौहतत्व मिलाकर इस चुंबकीय साबुन को बनाया है। यह आधुनिक साबुन विश्व को यूरोप की देन है। यूरोप तक स्वच्छता की संस्कृति पहुंची। अलबत्ता आज वहां भले शौच से लकेर स्नान तक एक जीवन पद्धति विकसित हो गई है और लोग इससे जुड़े वैज्ञानिक पहलुओं को भी समझने लगे हैं। पर यहां तक पहुंचने की यूरोप की यात्रा खासी दिलचस्प रही है। आलम यह रहा है कि सौ साल पहले तक स्नानागार और स्नान की समुचित व्यवस्था को लक्जरी के तौर पर देखा जाता था। जो तथ्य मिलते हैं उसमें 19वीं सदी तक यूरोपीय लोगों में धोने के खिलाफ एक हठ कहीं न कहीं विद्यमान रहा है। इस दौरान उनकी कोशिश धोने के बिना ही काम चलाने की दिखाई पड़ती है।

स्वच्छता को लेकर उदासीनता

स्वच्छता को लेकर इस यूरोपीय रूढ़ता को इस तरह भी समझा जा सकता है कि वहां स्वच्छता को लेकर राजमहलों से लेकर चर्च तक लंबे समय तक उदासीनता पसरी रही। इस उदासीनता को ही लोगों ने वहां लंबे समय तक जीवन जीने का तरीका बनाए रखा। वैसे आज भी यह बात कही जाती है कि राजशाही और धार्मिक परंपराओं को आदर देने के नाम पर यूरोपीय समाज बहुत आस्थावान है।

शेक्सपीयर के यहां साबुन नदारद -

दुनिया में सबसे पहले बेबीलोन सभ्यता के लोगों ने साबुन का आविष्कार और इस्तेमाल किया, वो भी 2800 ईसापूर्व के समय।

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रोमन लेखक पिल्नी ने साबुन को फ्रांसीसियों की देन बताया है, जिनसे वो अपने बाल धोते थे।

- तरल साबुन यानी कि लिक्विड सोप को सबसे पहले अमेरिकन नागरिक विलियन शेपर्ड ने बनाया था। यह 1865 की बात है। -

सोप यानी साबुन का जिक्र विलियम शेक्सपीयर ने कहीं नहीं किया है, लेकिन किंग जेम्स बाइबिल ने इसका इस्तेमाल दो बार किया है।

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2002 में ब्रिटेन में साबुन के चलते हुई दुर्घटनाओं की वजह से 595 लोग अस्पताल पहुंचे।

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इंग्लैंड ने 1712 में साबुन पर टैक्स थोप दिया, जो 1835 में हटा।

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अमेरिकी गैंगस्टर और ठग 'सोपी' स्मिथ ने अपना नाम साबुन के ऊपर इसीलिए रखा था, क्योंकि सबसे पहले उसने साबुनों की ही तस्करी की थी।

- 'सोप ओपेरा' शब्द का इस्तेमाल 1930 के दशक में अमेरिका में रेडियो पर प्रसारित किए जाने वाले ड्रामा के होता था, जिन्हें कोई साबुन कंपनी या डिटरजेंट कंपनी स्पांसर करती थी। इसी तरह से ये इसका प्रचलित नाम बन गया।

डिओडेरेंट 1880 के दशक में यूरोप में आया। वैसे नौवीं सदी में ही इसकी दरकार वहां लोग महसूस कर चुके थे। पर इसके निदान तक पहुंचने में लंबा वक्त लगा लिहाजा इस आदर को चुनौती देने वाली किसी तरह की पहल का वहां के जीवन में स्थान बना पाना, किसी बड़े बदलाव या क्रांतिकारी घटना से कम नहीं रहा।

‘न्यू टाइम्स’ अखबार

इस बारे में कुछ दिलचस्प तथ्य और भी हैं। मसलन, नियमित रूप से धुलाई से इनकार को लेकर यूरोप में ‘न्यू टाइम्स’ अखबार ने लंबा अभियान चलाया। इसे वहां प्रोटेस्टेंटिज्म को मजबूत करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है। इस कोशिश में प्रचार और दलीलों का स्तर इतना गिरा कि स्नान को शर्मनाक घटना तक बताने से लोग नहीं चूके।

गायब हो गया साबुन

यूरोप में स्वच्छता के इतिहास और संस्कृति को

लेकर इसी तरह का एक रोचक तथ्य यह भी है कि मध्य युग में साबुन रखने की व्यवस्था के साथ स्नानघर हर यूरोपीय शहर में थे। पर लगभग 1500 ई. तक आते-आते से वे धीरे-धीरे गायब होते गए। विडंबना है कि प्लेग की महामारी वहां लोगों को धोने से इनकार करने की बड़ी वजह बना। यह एक ऐसा अंधविश्वास था जो आधुनिक दौर में भी यूरोप का पीछा कर रहा था। 1526 में रॉटरडैम के इरास्मस ने लिखा है, ‘पच्चीस साल पहले ब्रैबंट में सार्वजनिक स्नान के रूप में कुछ भी इतना लोकप्रिय नहीं था। आज वे नहीं हैं। प्लेग ने हमें बिना इसके जीना सिखाया है।’ यहां तक कि शाही खून को यह कहने पर गर्व था कि वे व्यावहारिक रूप से स्नान नहीं करते। इसीलिए, रानी इसाबेला ने गर्व से बताया कि उसने अपने जीवन में केवल दो बार धोया था- जन्म के

समय और शादी से पहले।

स्नान से भागते लोग

17 वीं शताब्दी तक स्नान को वहां एक चिकित्सा प्रक्रिया के तौर पर मान्यता मिलनी शुरू हुई। वहां ऐसा लोग सिर्फ डॉक्टरों के निर्देशों के अनुसार किया करते थे। हालांकि सम्राट लुई- 14वें स्नान से तब भी काफी डरे हुए थे। उन्हें लगता था कि डॉक्टर के आदेश से अगर उन्होंने एक बार भी ऐसा किया तो फिर उन्हें यह जीवन के अंत तक करना पड़ेगा। 18वीं सदी तक आते-आते यूरोपीय यदि आवश्यक हो तो अपने हाथ-मुंह धोने लगे थे। पर तब भी इसे लेकर एक हिचक तो बनी हुई थी। इस हिचक और अंधविश्वास का आलम यह था कि कई लोग इस तरह खुद को धोने से भागते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे सूजन हो सकता है और उनकी दृष्टि कम हो जाएगी या पूरी तरह खो जाएगी। आज यूरोप में बाथरूम शेल्फ विभिन्न शॉवर जेल और शरीर का देखभाल करने वाले उत्पादों से भरे होते हैं। पर यह यकीन करना कि बिना धोए और स्नान किए भी यूरोप ने प्रेम और सौंदर्य के नए मानदंडों को जिया है। यह मजाक नहीं, बल्कि


19 - 25 फरवरी 2018

स्वच्छता के मानक पर खरा नहीं लंदन टेम्स नदी की स्वच्छता और निर्मलता के कारण लंदन का नाम भले पूरी दुनिया में प्रचारित हो, पर इंग्लैंड की राजधानी को कम से कम स्वच्छता के लिहाज से तो अव्वल नहीं आंका जा सकता

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स्वच्छता

दुनियभार में शरीर और स्वास्थ्य को लेकर कई नए तथ्य भी सामने आ रहे थे। ये तथ्य और सूचनाएं निश्चित रूप से यूरोप तक भी पहुंच रही थी। इस वैज्ञानिक क्रांति तक को यूरोपीय समाज को सामूहिक तौर पर बदलने में तो काफी लगा। पर व्यक्तिगत सुरक्षा की बात करें तो इस दिशा में सफलता का सिलसिला शुरू 19वीं सदी के मध्य तक ही शुरू हो पाया। आज के आधुनिक यूरोप के वैज्ञानिक अनुसंधान और साक्ष्य के बावजूद यह समझने में काफी भीतरी जद्दोजहद से गुजरना पड़ा कि संक्रामक बीमारियों और संक्रमण फैलाने वाले जीवाणुओं से बचाव के लिए शरीर को धोना और साफ रखना जरूरी है। साफ है कि मध्यकालीन अंधकार और आधुनिक प्रकाश के बीच जिस तरह रूस सहित

यूरोप के 540 शहरों में से सिर्फ 79 के पास आधुनिक ट्रीटमेंट प्लांट हैं। 168 यूरोपियन शहरों के पास कोई ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। आधुनिक विकास का प्रतीक लंदन भी 1997 तक मल को सीधे समुद्र में प्रवाहित किया करता था। 2004 में जब आंधी आई तो लंदन का ट्रीटमेंट प्लांट बैठ गया और लंदन ने एक बार फिर सारा मल टेम्स नदी में प्रवाहित कर दिया। फ्लश लैट्रिन के आविष्कार के 100 साल बाद भी आज दुनिया में सिर्फ 15 फीसदी लोगों के पास ही आधुनिक विकास का यह प्रतीक पहुंच पाया है। फ्लश लैट्रिन होने के बावजूद इस मल का 95 फीसदी से अधिक आज भी बगैर किसी ट्रीटमेंट के नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुंचता है । दुनिया के लगभग आधे लोगों के पास पिट लैट्रिन है, जहां मल नीचे गड्ढे में इकट्ठा होता है

संवेदनशील तथ्य है, जो यूरोप को लेकर हमारी जानकारी को और बढ़ाता है।

जूं तक से प्रेम

आज यूरोप को लेकर बबनी रंगीन ऐतिहासिक फिल्में हमें सुंदर दृश्यों और नायक-नायिकाओं के साथ मोहित करती हैं। ऐसा लगता है कि उनके मखमल और रेशमी लिबास और ठाठ की दुनिया सुगंध से भरी है, स्वर्ग जैसी है। पर उस दौर की मान्यताओं और जीवनशैली की हकीकत जानने के बाद इस पर यकीन करना खासा मुश्किल हो जाता है। उदाहरण के लिए, जहां स्पेनिश क्वीन इसाबेला कास्टिलस्काया को अपने जीवन में केवल दो बार पानी और साबुन का पता था, वहीं फ्रांस के राजा की बेटियों में से एक की जान महज इसीलिए चली गई कि उसके बालों में जूं थे और इस कारण वह गंभीर संक्रमण का शिकार बन गई। एक नोट जो शताब्दियों की गहराई से बच गया और एक प्रसिद्ध उपाख्यान के तौर बहुत लोकप्रिय है, उसमें ऐतिहासिक प्रेमी हेनरी ने लिखा है। एक प्रिय राजा अपनी नायिका को लिखता है- ‘न धोएं, प्रिय मैं तीन हफ्तों तक तुम्हारे साथ रहूंगा।’ इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि यूरोप के राजसी इतिहास में झांकने वाले ऐश्वर्य और सौंदर्य के पीछे का सच कितनी विद्रूपताओं से भरा है।

स्वच्छता और सौंदर्य

स्वच्छता से जुड़ी यूरोपीय परंपरा की तरह वहां का सौंदर्यबोध भी चौंकाता है। मध्ययुगीन यूरोप में लंबे समय तक महिलाएं गंदे दांतों के साथ खुद को सुंदर मानती रहीं। यही नहीं, उन्हें अपने दांतों की सड़न पर गर्व रहा है। आलम यह रहा है कि जिनके दांत प्राकृतिक रूप से अच्छे थे, उन्हें अपने मुंह को हथेलियों से ढंक लेना पड़ता था। तब के कई वार्ताकारों ने इसके लिए ‘घृणित सौंदर्य’ जैसा शब्द इस्तेमाल किया है। यानी स्वच्छ और सुंदर दांत यूरोप में भयावहता के प्रतीक रहे हैं। इस तरह के प्रतीकों और बोधों से बाहर निकलने में यूरोपीय समाज ने एक लंबी और दिलचस्प यात्रा तय की है, जिसका हर चरण, हर पड़ाव हमें चौंकाता है।

महिला और स्वच्छता

इसी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण संदर्भ है- ‘कोर्टस्सी गाइड’। इसे 1782 में प्रकाशित किया गया था। इसके जरिए पानी से धोने पर प्रतिबंध लगाया गया था। धोने को जहां त्वचा की देखभाल के लिहाज से गलत बताया गया, वहीं मौसमी अनुकूलता के भी विपरीत बताया गया। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि जीवन और समाज के बीच तमाम तरह के तकनीकी और आधुनिक बदलावों के बावजूद इस तरह के दिशानिर्देश और मान्यताओं से यूरोप को 19वीं सदी तक संघर्ष करना पड़ा है। 19वीं सदी के मध्य तक शरीर के अंतरंग भागों की धुलाई को लेकर एक तरह का निषेध व्याप्त था। खासतौर पर महिलाओं के लिए इस तरह के सामाजिक निषेध से जुड़ी मान्यता में यह तक मान्यता शामिल थी कि इससे महिलाएं बांझपन का शिकार हो सकती हैं। इस तरह की कुछ और मान्यताओं के कारण यूरोप में

लंबे समय तक मासिक धर्म के दौरान अस्वच्छ और घातक तरीकों को अपनाते रहना पड़ा है।

साबुन का प्रचलन

जो साक्ष्य उपलब्ध हैं उसमें यूरोप 15वीं सदी में साबुन से परिचित हो चुका था। हां, इसे वहां व्यापक प्रचलन का हिस्सा बनने में जरूर इसके बावजूद लंबा वक्त लगा। जिन लोगों ने आम प्रचलन से अलग आपवादिकता को स्वीकार किया, उन्होंने इसके बाद शौच जाने के बाद और खाने के पहले धोने की क्रिया अपनाना शुरू कर चुके थे। इसी तरह महिलाओं के बीच स्वच्छ और सुंदर दिखने के लिए चेहरे को धोने की आपवादिक परंपरा विकसित हुई। इस आपवादिकता के साथ जो एक दिलचस्प बात जुड़ी थी, वह यह कि धोने और सफाई को तब भी शरीर के बाहरी हिस्सों तक ही सीमित रखा गया था।

चर्च की दखलंदाजी

मध्यकालीन यूरोपीय समाज में चर्च की दखलंदाजी काफी थी। वह तब धार्मिक और नैतिक ही नहीं शरीर से जुड़ी परंपराओं को भी तय कर रहे थे। चर्च की लोक स्वीकृति इतनी व्यापक और मजबूत थी कि उसके खिलाफ जाने का साहस न राजमहलों के भीतर दिखता था और न जनसाधारण में। बात टॉयलेट पेपर के इस्तेमाल की करें तो यूरोप में सदियों तक चर्च ने शौचालय के बाद सफाई को लेकर अपना रूढ़ नजरिया बनाए रखा। टॉयलेट पेपर की जगह जो चीज लोग इस्तेमाल करते थे, वे पत्तियां और काई जैसी चीजें थीं। स्वच्छता के प्रति जो सभ्य और संपन्न लोग थोड़े जागरूक भी थे, उन्होंने इसके लिए कपड़े तैयार करवा रखे थे। 1880 में पहला टॉयलेट पेपर इंग्लैंड में दिखाई दिया।

स्वच्छता की 19वीं सदी

स्वच्छता को लेकर यूरोपीय रूढ़ियों के बीच

बाकी दुनिया ने यात्रा एक स्वाभाविक गति के साथ पूरी की, यूरोप उसमें काफी पीछे रहा। मध्ययुगीन यूरोप का यह वही दौर था जब सामान्य से विशिष्ट लोग तक इस बात पर फख्र कर रहे थे कि उन्होंने जीवन में महज एक या दो बार अपने शरीर को धोया है।

पहला सार्वजनिक शौचालय

मध्ययुगीन यूरोप में, कोई भी शौचालय नहीं था। पेरिस में पहला सार्वजनिक शौचालय 19वीं सदी में बना। इसी तरह दांतो की सफाई के लिए यूरोपीय या तो किसी तरीके का इस्तेमाल करते ही नहीं थे या करते भी थे तो उसकी बनावट कम से ब्रश जैसी तो नहीं थी। इंग्लैंड में ट्रूथब्रश 1770 में आया। इसका आविष्कार विलियम एडिसन ने किया था। लेकिन बड़े पैमाने पर इसके उत्पादन के लिए 19वीं सदी तक इंतजार करना पड़ा। इसी समय दंतमंजन का भी आविष्कार हुआ।

दुर्गंध से संघर्ष

डिओडेरेंट 1880 के दशक में यूरोप में आया। वैसे नौवीं सदी में ही इसकी दरकार वहां लोग महसूस कर चुके थे। पर इसके निदान तक पहुंचने में लंबा वक्त लग गया। पूरी दुनिया में प्राचीन काल में लोग समझ गए थे कि अगर आपके शरीर के दबे-छिपे हिस्से से दुर्गंध आती है तो इसका तरीका महज वहां से बाल हटाना नहीं, बल्कि शरीर के उस हिस्से को धोना भी है। पर यह सब जीवन अभ्यास में आने में यूरोप में वक्त लगा। स्थिति यह रही कि 1920 के दशक तक खासतौर पर महिलाओं के शरीर पर बाल से किसी को परेशानी नहीं थी, खुद महिलाओं को भी नहीं।


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नदी संरक्षण

19 - 25 फरवरी 2018

गोदावरी और कृष्णा का ऐतिहासिक मिलन 176 किलोमीटर की यात्रा कर गोदावरी आखिरकार कृष्णा नदी से मिल गई। दो वर्षों में पूरी हुई यह तारीखी पहल आज दुनिया के सामने नदियों के संरक्षण और प्रबंधन का मॉडल पेश कर रही है

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एसएसबी ब्यूरो

रत में नेशनल वॉटर ग्रिड बनाने की दिशा में पहला कदम आंध्र प्रदेश ने उठाया। पट्टीसीमा प्रोजेक्ट के तहत राज्य ने गोदावरी और कृष्णा नदी को जोड़ दिया। इसके बाद गोदावरी का पानी एक नहर में सफर करता हुआ 176 किलोमीटर दूर कृष्णा में जा मिला। नहर के आसपास बसे गांवों में मेले सा माहौल दिखा। जगह- जगह लोग पानी में फूल बहाते नजर आए। गोदावरी और कृष्णा के इस जुड़ाव से कृष्णा, गुंटूर, चित्तूर, अनंतपुर, कडपा और प्रकाशम जिले

के लोगों को खासी राहत मिली है। इन इलाकों में बीते एक दशक से पानी की भारी कमी है। पेयजल और सिंचाई के लिए भी हाहाकार सा मचा रहता है। इस परियोजना से 17 लाख एकड़ जमीन पर होने वाली खेती को पानी मिलेगा। इससे हजारों गांवों में पीने के पानी की सप्लाई भी सुनिश्चित हुई है। भारत के कई इलाके दशकों से जलसंकट से गुजर रहे हैं। राजस्थान, महाराष्ट्र, ओडिशा और उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में दशकों से सूखा पड़ा है। बुंदेलखंड, कालाहांडी और महाराष्ट्र के 5,000 गांव तो जलसंकट के लिए विख्यात है। मॉनसून के

एकड़ फीट या 185 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी के भंडारण करने की योजना है।

गोदावरी-कृष्णा मिलन से 17 लाख एकड़ जमीन को मिलेगा भरपूर पानी

200 वर्ष पहले आया था, दोनों नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव

दौरान उत्तर और मध्य भारत की नदियां पानी से लबालब रहती हैं, लेकिन यह पानी बहकर बेकार चला जाता है। सिंचाई और दूसरी समस्याओं के चलते देश में किसानों की स्थिति दारुण है। करीब 200 साल पहले भारत में नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव तैयार करने वाले ब्रिटिश इंजीनियर

क्यों जरूरी है रिवर लिंक परियोजना

खास बातें

कृष्णा, गुंटूर, चित्तूर, कडपा और प्रकाशम जिले के किसान खुश

नदी जोड़ परियोजना के तहत पूरे भारत में ऐसे कुल 30 लिंक बनने हैं। इनमें साढ़े पांच लाख करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान लगाया जा रहा है

प्रोजेक्ट कैसे कार्य करेगा

स प्रोजेक्ट के पीछे की वजह देश में सूखे और बाढ़ की समस्या को दूर करने का लक्ष्य है। इस राष्ट्रीय योजना के जरिए करीब 15 लाख

इस प्रोजेक्ट की निगरानी जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली राष्ट्रीय जल विकास एंजेंसी (एनडब्ल्यूडीए) करेगी। इस प्रोजेक्ट को तीन चरणों में बांटा गया है। 1. उत्तरी हिमालय नदी इंटरलिंक परियोजना 2. दक्षिणी पेंनिंसुलर कांपोनेंट 3. अंतरराज्यीय नदी लिंक परियोजना

सर आर्थर कॉटन ने भी सबसे पहले गोदावरी और कृष्णा नदी को जोड़ने का खाका तैयार किया था। इसके बाद यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया। 1970 के दशक में दक्षिण भारत के प्रमुख नेता और पूर्व सिंचाई मंत्री केएल राव ने नेशनल वॉटर ग्रिड का प्रस्ताव रखा था। 1999 में एनडीए सरकार ने इस योजना को एक बार फिर शुरू करने की पहल की। जोर-शोर से काम शुरू होने लगा। पर केंद्र में सरकार बदलने के बाद परियोजना फिर अधर में लटक गई। 2012 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई। अब सुप्रीम कोर्ट समयसमय पर जल संसाधन मंत्रालय को इस परियोजना के बारे में जगाता रहता है। केंद्रीय जल संसाधन और नदी विकास मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि नदी जोड़ो परियोजनाओं पर काम की गति तेज करने के लिए राज्यों को आपस में सहयोग करना चाहिए। यह बात उन्होंने नई दिल्ली में आयोजित नदी जोड़ो परियोजना पर गठित विशेष समिति की 14वीं बैठक में कही। उन्होंने यह भी कहा कि नदी जोड़ने की परियोजनाओं में काम की गुणवत्ता के साथ ही इसकी लागत भी कम करने की जरूरत है और ऐसा करने में बेहतर तकनीक मदद कर सकती


नदी संरक्षण

19 - 25 फरवरी 2018

गोदावरी-कृष्णा मिलन

• 16 सितंबर, 2015 को ‘गोदावरी तथा कृष्णा नदी’ को आपस में जोड़ने का कार्य पूरा हुआ।

• 9 सितंबर, 2015 को पूर्व परीक्षण के तौर पर पहली बार गोदावरी जिले को ‘तदीपुरी लिफ्ट सिंचाई परियोजना’ से 600 क्यूसेक पानी ‘पोलवरम नहर’ द्वारा कृष्णा नदी में (विजयवाड़ा जिला) पहुंचा था।

• 174 किलोमीटर लंबी इस परियोजना से सूखाग्रस्त ‘रायल सीमा क्षेत्र’ तथा ‘कृष्णा डेल्टा क्षेत्र’ (चावल का कटोरा) के कृष्णा, गुंटूर, प्रकाशम, कुरनूल, कडपा, अनंतपुर और चित्तूर आदि जिलों के किसानों को सर्वाधिक फायदा होगा। विशेष तौर से कृष्णा एवं गुंटूर जिलों को। • उपर्युक्त जिलों में पानी की कमी कृष्णा

• भारत में सर्वप्रथम 19वीं सदी में आर्थर कॉटन द्वारा दक्षिण भारतीय नदियों को आपस में जोड़ने का विचार दिया गया।

नदी पर बनाए गए ‘अलमाटी बांध’ की ऊंचाई बढ़ाए जाने के कारण हुई।

• इस परियोजना से कृष्णा डेल्टा क्षेत्र की 17 लाख हेक्टेयर भूमि में से 13 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए तथा हजारों गांवों को पीने का पानी आसानी से उपलब्ध होगा।

• गोदावरी एवं कृष्णा नदी को जोड़ने के लिए गोदावरी जिले के ‘पट्टीसीमा’ नामक गांव के पास ‘पट्टीसीमा लिफ्ट

नदी जोड़ परियोजना : सपना से हकीकत तक

ह परियोजना राजग सरकार में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की महत्त्वाकांक्षी परियोजना थी। इस महत्त्वाकांक्षी परियोजना पर 5.6 लाख करोड़ रुपए की लागत का आकलन करते हुए 16,000 करोड़ रुपए वार्षिक व्यय 35 वर्षों तक किया जाना था। वर्ष 2016 तक मुख्य नदियों को आपस में जोड़ देने का लक्ष्य निर्धारित था। इस परियोजना में भारत, नेपाल तथा भूटान देश सम्मिलित थे। इसमें हिमालयी और प्रायद्वीपीय क्षेत्र की चिह्नित नदियों व स्थानों को कुल 30 नहरों के माध्यम से आपस में जोड़ना है। इसमें हिमालयी क्षेत्र की 14 तथा प्रायद्वीपीय क्षेत्र की 16 संयोजक नहरें शामिल

है। इससे पहले खबर आई थी कि महत्वाकांक्षी नदी जोड़ परियोजना धरातल पर उतरने को है और सरकार जल्द ही मध्य प्रदेश-उत्तर प्रदेश में बहने वाली केन और बेतवा नदियों को आपस में जोड़ने का काम शुरू करने वाली है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की फॉरेस्ट एडवायजरी कमेटी (एफएसी)

• इस परियोजना के प्रथम चरण में लगभग 1300 करोड़ रुपये का व्यय हुआ। राष्ट्रीय स्तर पर नदियों को जोड़ने की ‘पहली परियोजना’ केन और बेतवा नदी की है।

• देश में प्रथम परियोजना का उद्घाटन भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी द्वारा 25 फरवरी, 2014 को उज्जैन में क्षिप्रा एवं नर्मदा नदियों को जोड़ने के लिए किया गया।

• इस परियोजना को ‘इब्राहिम पट्टनम’ नामक स्थान पर अंतिम रूप दिया गया। इस स्थान को मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने की घोषणा की।

• दोनों नदियों के जुड़ने से गोदावरी नदी का करीब 80 टीएमसी पानी नहर के जरिए कृष्णा नदी में छोड़ा जाएगा।

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हैं।

यह वर्षों से विदित है कि जीवन वहीं पनपा और बढ़ा जहां नदियां रहीं। प्राकृतिक रूप से नदियों का आपस में जुड़ने का मूल स्वभाव रहा है। प्राकृतिक रूप में नदियां अपना रास्ता स्वयं बनाती हुई मिलती हैं, जबकि कृत्रिम रूप में उन्हें जोड़ने का काम एक योजना के तहत (आवश्यकताओं एवं समस्याओं के निदान हेतु) सुनियोजित तरीके से (नहरों एवं बांधों के माध्यम से) किया जाता है। हाल में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा राज्य की दो प्रमुख नदियों ‘गोदावरी एवं कृष्णा’ को आपस में जोड़ने का काम पूरा कर लिया गया है। इस काम को हरी झंडी दे चुकी है। मंत्रालय के एक अधिकारी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं, ‘परियोजना के आगे बढ़ने में अब कोई रुकावट नहीं है. जल्दी ही इसे पर्यावरण मंत्री अंतिम अनुमति दे देंगे।’ लगभग 10 हजार करोड़ रुपए की लागत से

• स्वतंत्र भारत में यह मूल विचार वर्ष 1972 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल सिंचाई परियोजना’ ने लिंक के रूप में राव का था, जिन्होंने ‘गंगा-कावेरी लिंक काम किया। नहर’ का विचार दिया। • पट्टीसीमा गांव ही नदियों को जोड़ने की पहचान के रूप में कार्य करेगा। • वर्ष 1977 में कैप्टन दिनशॉ जे दस्तूर ने ‘गारलैंड केनाल’ को जोड़ने का • ‘पट्टीसीमा लिफ्ट सिंचाई परियोजना’ विचार दिया। को मार्च, 2015 में ‘मेधा इंजीनियरिंग इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड’ द्वारा प्रारंभ कर • वर्ष 1982 में राष्ट्रीय जल विकास सितंबर, 2015 (लगभग 6 माह) में पूरा एजेंसी का गठन किया गया। इस एजेंसी किया गया तथा पूरे प्रोजेक्ट को लगभग का कार्य हिमालयी एवं प्रायद्वीपीय आठ माह में (रिकॉर्ड) पूरा कर लिया नदियों को जोड़ने के लिए तैयार करना गया। था।

मिसाल बनीं क्षिप्रा-नर्मदा नदियां

महारष्ट्र और गुजरात में बहने वाली नर्मदा बारहमासी है, लेकिन इसका जल क्षिप्रा में मिलने से यह सदानीरा बन गई है

ध्य प्रदेश में जीवनदायी नर्मदा का जल आखिरकार मोक्षदायिनी क्षिप्रा नदी में प्रवाहित होना राष्ट्रीय नदी जोड़ो परिकल्पना की एक छोटी, किंतु बेहद अहम कड़ी और भविष्य की बड़ी नदी जोड़ो परियोजनाओं के लिहाज से एक मिसाल बन गई। इन नदियों के जुड़ने के बाद मध्य प्रदेश देश का ऐसा पहला राज्य बन गया है, जिसने नदियों को जोड़ने का

ऐतिहासिक काम किया है। 432 करोड़ रुपए की इस परियोजना को ‘नर्मदाक्षिप्रा सिंहस्थ जोड़ उद्वहन परियोजना’ नाम दिया गया। नर्मदा देश की पांचवीं सबसे बड़ी नदी होने के साथ मध्य प्रदेश की जीवन-रेखा मानी जाती है। महाराष्ट्र और गुजरात में बहने वाली नर्मदा बारहमासी है लेकिन इसका जल क्षिप्रा में मिलने से यह सदानीरा बन गई है। इस साल महाकाल की नगरी में आयी बाढ़ ने नदी जोड़ो परियोजना पर कई सवाल खड़े कर दिए। इससे पहले क्षिप्रा-नर्मदा का जुड़ना कुंभ में होने वाले पानी के संकट के समाधान के लिए अहम माना जा रहा था। 2016 में लगने वाले कुंभ में श्रद्धालुओं को क्षिप्रा की जलधारा में स्नान का मौका मिलेगा।


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नदी संरक्षण

भविष्य की राह

द्रीय जल संसाधन और नदी विकास मंत्री नितिन गडकरी जानकारी दी है कि तीन नदियों को आपस में जोड़ने की परियोजना पर कार्य शुरू होगा। नितिन गडकरी जल संसाधन और नदी विकास मंत्रालय का पद संभालने के बाद से ही इस परियोजना को लेकर सक्रिय हैं। उन्होंने राष्ट्रीय जल विकास प्राधिकरण की समीक्षा के बाद कहा कि वह अंतर-राज्य विवादों को सुलझाने के लिए संबंधित मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक करेंगे, ताकि इन परियोजनाओं को तेजी से पूरा किया जा सके। जिन तीन नदियों को जोड़ा जाना है, उनमें केन-बेतवा संपर्क परियोजना, दमनगंगा- पिंजाल संपर्क परियोजना तथा पार-तापी-नर्मदा संपर्क परियोजना शामिल हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि इंटरलिंकिंग रिवर की दिशा में जल्द से जल्द काम हो। इस योजना के तहत देश की करीब साठ नदियों को जोड़ने का कार्यक्रम है। इसमें कई लाख करोड़ बनने वाले केन-बेतवा लिंक में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के हिस्से शामिल हैं। इस परियोजना के तहत मध्य प्रदेश से केन नदी के अतिरिक्त पानी को 231 किलोमीटर लंबी एक नहर के जरिए उत्तर प्रदेश में बेतवा नदी तक लाया जाएगा। माना जा रहा है कि इससे अक्सर सूखे से जूझने वाले बुंदेलखंड की एक लाख 27 हजार हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो सकेगी। नदी जोड़ परियोजना के तहत पूरे भारत में ऐसे कुल 30 लिंक बनने हैं। इनमें साढ़े पांच लाख करोड़ रुपए के खर्च का अनुमान लगाया जा रहा है। केंद्रीय मंत्री उमा भारती का मानना है कि अगर राज्यों ने ठीक से सहयोग किया तो तेजी से काम करते हुए अगले सात से 10 साल के भीतर यह परियोजना पूरी की जा सकती है। दावा किया जा रहा है कि इससे कई इलाकों में सूखे और बाढ़ की समस्या से निजात मिलेगी। इसके अलावा इस परियोजना से विशाल मात्रा में बिजली उत्पादन की बात भी कही जा रही है जिससे देश की आर्थिक प्रगति का मार्ग और चौड़ा होगा।

दो सौ वर्ष पुराना सपना

19 - 25 फरवरी 2018

भारत की सारी बड़ी नदियों को आपस में जोड़ने का प्रस्ताव पहली बार ब्रिटिश राज के चर्चित इंजीनियर

रूपए खर्च होगा। इससे आम जनता और राज्य सरकारों को भी फायदा होगा। गडकरी ने जानकारी दी कि तीनों प्रोजेक्ट को जरूरी स्वीकृति मिल गई है। उन्होंने कहा कि दमनगंगा-पिंजल पहला प्रोजेक्ट होगा, जिस पर सबसे पहले कार्य शुरू होगा, क्योंकि महाराष्ट्र और गुजरात के बीच इन नदियों के पानी के बंटवारे का मुद्दा सुलझा लिया गया है। उन्होंने देश के 13 सूखाग्रस्त और सात बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों की स्थिति को लेकर चिंता जाहिर की और इसके निदान के लिए जल संरक्षण और आवश्यकता से अधिक पानी की शेयरिंग के लिए एक नदी लिंक परियोजना के विकास पर जोर दिया। उन्होंने बताया कि करीब 60 से 70 फीसदी जल बह जाता है, जिसे संरक्षित किए जाने की आवश्यकता है। नदियों को आपस में जोड़ने की योजना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजनाओं में से एक है। रिवर इंटरलिंकिंग के जरिए देशभर

में जलाशयों और नहरों के नेटवर्क के माध्यम से नदियों को आपस में जोड़ा जाना है। इस योजना के तहत गंगा सहित करीब 60 नदियों को जोड़ा जाना है। इसके लिए सरकार की ओर से 5.5 लाख करोड़ के बजट का प्रावधान है। इस प्रोजेक्ट

1970 के दशक में दक्षिण भारत के प्रमुख नेता और पूर्व सिंचाई मंत्री केएल राव ने नेशनल वॉटर ग्रिड का प्रस्ताव रखा सर आर्थर कॉटन ने 1858 में दिया था। सोच यह थी कि नहरों के विशाल जाल के जरिए नदियां आपस में जुड़ जाएंगी तो न सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्य के इस उपनिवेश में आयात-निर्यात का काम तेज और आसान होगा, बल्कि एक ही वक्त पर कहीं सूखे और कहीं बाढ़ की समस्या से निपटा जा सकेगा। कॉटन इससे पहले कावेरी, कृष्णा और गोदावरी पर कई बांध और बड़ी सिंचाई परियोजनाएं बना चुके थे। तब के संसाधनों के बूते से बाहर होने के चलते यह योजना आगे नहीं बढ़ सकी।

राष्ट्रीय जल ग्रिड

नदी जोड़ परियोजना आजादी के बाद तब फिर सुर्खियों में आई जब 1970 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने एक राष्ट्रीय जल ग्रिड बनाने का प्रस्ताव दिया। राव का कहना था कि गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों की घाटी में ज्यादा पानी रहता है, जबकि मध्य और दक्षिण भारत के इलाकों में पानी की कमी रहती है। उनकी सोच यह थी कि

उत्तर भारत का अतिरिक्त पानी मध्य और दक्षिण भारत तक पहुंचाया जाए। राव की गंगा कावेरी नहर योजना की सबसे ज्यादा चर्चा हुई थी। इसके तहत ढाई हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी नहर के जरिए गंगा के करीब 50 हजार क्यूसेक पानी को करीब साढ़े पांच सौ मीटर ऊंचा उठाकर दक्षिण भारत की तरफ ले जाया जाना था। लेकिन केंद्रीय जल आयोग ने इस योजना को आर्थिक और तकनीकी रूप से अव्यावहारिक बताते हुए खारिज कर दिया।

जल संसाधन मंत्रालय की रिपोर्ट

इसके बाद नदी जोड़ परियोजना की चर्चा 1980 में हुई। इस साल भारत के जल संसाधन मंत्रालय ने एक रिपोर्ट तैयार की थी। नेशनल परस्पेक्टिव फॉर वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट नामक इस रिपोर्ट में नदी जोड़ परियोजना को दो हिस्सों में बांटा गया था-हिमालयी इलाका और प्रायद्वीप यानी दक्षिण भारत का क्षेत्र। 1982 में इस मुद्दे पर नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी के रूप में विशेषज्ञों की एक संस्था बनाई गई। इसका काम यह अध्ययन करना था कि प्रायद्वीप की नदियों और दूसरे जल संसाधनों को जोड़ने का काम कितना व्यावहारिक है। इस संस्था ने कई रिपोर्टें दीं।

अटल सरकार का जोर

केंद्र में एनडीए सरकार आने के बाद नदी जोड़ परियोजना की फाइलों पर चढ़ी धूल फिर झाड़ी गई। 2002 में देश में भयानक सूखा पड़ा था. इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नदियों को आपस में जोड़ने के काम की व्यावहारिकता परखने के लिए एक कार्य दल का

का मकसद यह है कि जिन जगहों में पानी ज्यादा है, वहां से ऐसे इलाकों में पानी भेजा जाए जहां पर सूखा पड़ता है। रिवर इंटरलिंकिंग से किसानो की सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भरता को कम होगी। गठन किया। इसने उसी साल अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। इसमें भी परियोजना को दो भागों में बांटने की सिफारिश की गई। पहले हिस्से में दक्षिण भारतीय नदियां शामिल थीं, जिन्हें जोड़कर 16 कड़ियों की एक ग्रिड बनाई जानी थी। हिमालयी हिस्से के तहत गंगा, ब्रह्मपुत्र और इनकी सहायक नदियों के पानी को इकट्ठा करने की योजना बनाई गई जिसका इस्तेमाल सिंचाई और बिजली परियोजनाओं के लिए होना था। फिर 2004 में यूपीए की सरकार आ गई और मामला फिर ठंडे बस्ते में चला गया।

सुप्रीम कोर्ट का निर्देश

इसके बाद यह परियोजना 2012 में सुर्खियों में आई। इस साल सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह इस महत्वाकांक्षी परियोजना पर समयबद्ध तरीके से अमल करे, ताकि देरी की वजह से इसकी लागत और न बढ़े। अदालत ने इसकी योजना तैयार करने और इस पर अमल करने के लिए एक उच्च स्तरीय समिति भी बनाई थी। अब केन-बेतवा लिंक के साथ आखिरकार नदी जोड़ परियोजना जमीन पर उतरने वाली है।

फायदे का तर्क

नदी जोड़ परियोजना के पैरोकारों का कहना है कि इससे देश में सूखे की समस्या का स्थायी हल निकल जाएगा। दलील यह भी है कि नदियों को जोड़ने वाले कुल 30 लिंक बनने के बाद 15 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो सकेगी। यह भी कहा जा रहा है कि नदियां जोड़ने के बाद गंगा और ब्रह्मपुत्र के इलाके में हर साल बाढ़ की समस्या से भी निजात मिलेगी, क्योंकि अतिरिक्त पानी को इस्तेमाल करने की एक व्यवस्था मौजूद होगी। परियोजना की वकालत कर रहे लोग यह तर्क भी देते हैं कि इससे 34 हजार मेगावॉट बिजली बनेगी जो देश की ऊर्जा जरूरतों को देखते हुए बहुत अहम है।


19 - 25 फरवरी 2018

इसरो का नया लक्ष्य

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गुड न्यूज

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के अध्यक्ष के. सिवन ने कहा है कि हम अगले पांच महीनों में पांच प्रक्षेपण करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं

भा

रतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) अगले पांच महीनों में पांच प्रक्षेपण करने की तैयारियों में जुटा है। इनमें चंद्रयान - 2 अभियान भी शामिल है और इसरो इन प्रक्षेपण कार्यक्रमों को लेकर खासा व्यस्त है। इस बात की जानकारी इसरो के अध्यक्ष के. सिवन ने दी। सिवन ने बताया कि साल 2018 की पहली छमाही में श्रीहरिकोटा अंतरिक्ष केंद्र से जिन अभियानों की योजना है, उनमें जीएसएलवी - एफओ8 (जीसैट - 6 ए उपग्रह), जीएसएलवी एमके 3 (सेकेंड डेवलपमेंट फ्लाइट), चंद्रयान2 और पीएसएलवी (आईआरएनएसएस - 1 आई, दिशा एवं स्थान सूचक उपग्रह) शामिल हैं।

अंतरिक्ष एजेंसी ने एरियनस्पेस को 5.7 टन वजनी जीएसैट -11 उपग्रह जून तक प्रक्षेपित करने के लिए एक अनुबंध भी दिया है। इसका प्रक्षेपण फ्रेंच गुयाना के कौरौ स्थित यूरोपीय अंतरिक्ष संघ अंतरिक्षस्थल से किया जाएगा। सिवन ने बताया कि अभी, हम काफी व्यस्त हैं। वह अंतरिक्ष विभाग में सचिव और अंतरिक्ष आयोग के अध्यक्ष भी हैं। भारत के बेड़े में फिलहाल 45 आर्बिटिंग उपग्रह हैं और अंतरिक्ष एजेंसी प्रमुख ने कहा कि इतनी ही संख्या में अंतरिक्षयानों की भी जरूरत है। उन्होंने कहा कि हम अगले वर्ष से प्रति वर्ष 15 से 18 प्रक्षेपण करने की योजना बना रहे हैं। हालांकि उन्होंने कहा कि यह एक लक्ष्य

है, लेकिन हकीकत में, कई सारे अन्य मुद्दे हैं। फिलहाल, यह (इसरो का प्रतिवर्ष प्रक्षेपण) 15 से 18 उपग्रहों के प्रक्षेपण के आधे से भी कम है। जीसैट - 11 को विदेशी अंतरिक्ष यान से प्रक्षेपित किया जाने वाला संभवत: आखिरी भारी उपग्रह समझा जा रहा है, लेकिन सिवन ने इस निष्कर्ष पर पहुंचने के खिलाफ आगाह किया है। उन्होंने कहा कि हम यह नहीं कह सकते कि हम किसी विदेशी अंतरिक्ष यान की मदद नहीं लेंगे। अभी हमारी क्षमता चार टन तक के उपग्रहों को प्रक्षेपित करने की है। उन्होंने कहा कि हम उस उच्चतर क्षमता तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। हम उपग्रह के आकार को घटाने के बारे में सोच रहे हैं। जो कुछ हमें 5. 7 टन वजन के उपग्रह से मिल रहा है, वही हमें चार टन वजन के उपग्रह से भी मिल सकता है, बशर्ते कि हम इलेक्ट्रिक प्रणोदक (प्रोपल्शन) का इस्तेमाल करें। सिवन ने कहा कि यह हमारी जीएसएलवी की क्षमता के अंदर होगा। सिवन ने बताया कि विभिन्न रणनीतियों पर काम किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि जीएसएलवी एमके 3 की दूसरी डेवलपमेंट फ्लाइट जून से पहले होने का कार्यक्रम है। अंतरिक्ष एजेंसी ने छोटे रॉकेट के डिजाइन और विकास पर काम शुरू किया है, ताकि लागत में कटौती की जा सके। इसरो अधिकारियों ने कहा है कि यह करीब 500 किग्रा वजन का एक प्रक्षेपण यान है। इसरो अध्यक्ष ने कहा कि काम चल रहा है। इसमें कुछ वक्त लगेगा हम उपलब्ध बजट से इसे (छोटे रॉकेटों से जुड़ा कार्य) पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं। वहीं, छोटे रॉकेटों से होने वाले फायदे के बारे में इसरो अधिकारियों ने बताया कि इससे छोटे उपग्रहों की लागत में कमी आएगी और उनके प्रक्षेपण के लिए इंतजार की अवधि भी घटेगी। (एजेंसी)

सबसे लचीली बैटरी का आविष्कार

इस तरह की बैटरी की जरूरत पहनी जा सकने वाली इलेक्ट्रोनिक डिवाइस के लिए होगी

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ज्ञानिकों ने रिचार्ज होने योग्य अत्यधिक लचीली लिथियम बैटरी का विकास किया है। यह बैटरी एक्वस इलेक्ट्रोलाइट्स पर आधारित है। इस तरह की बैटरी की जरूरत आने वाले समय में पहनी जा सकने वाली इलेक्ट्रोनिक डिवाइस के लिए होगी। दुनियाभर में लचीले इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस लोगों को काफी आकर्षित कर रही हैं, क्योंकि इनमें लचीलापन होता है। इस तरह के डिवाइसों में लोगों की दिलचस्पी और मांग ने अत्यधिक लचीले और लंबे समय तक टिकाऊ रहने वाले इलेक्ट्रॉड्स के विकास की मांग को बढ़ा दिया है। इसके लिए दुनिया भर से कई तरीके सुझाए गए थे, लेकिन इनमें से कोई भी मांग के अनुसार अत्यधिक लचीलेपन वाला इलेक्ट्रॉड्स विकसित करने में सफल नहीं हो पाए। (एजेंसी)

भारत का वन क्षेत्र बढ़ा

दुनिया में घटते वन क्षेत्र के विपरीत भारत में वन क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हो रही है

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रत में जनसंख्या और पशुधन की आबादी के दबाव के बावजूद वर्ष 2015 और 2017 के दौरान वन क्षेत्र 0.21 फीसदी की बढ़ोत्तरी के साथ 6,778 वर्ग किलोमीटर दर्ज किया गया है। यह जानकारी सरकार की ओर से जारी एक रपट से मिली है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन की ओर से जारी भारत राज्य वन रपट 2017 के अनुसार, वन क्षेत्र के मामले में भारत का दर्जा दुनिया में 10वें

स्थान पर है और सालाना वन क्षेत्र में बढ़ोत्तरी के मामले में भारत आठवें स्थान पर है। इस द्विवार्षिक रपट के मुताबिक, देश में कुल वन क्षेत्र 7,08,273 वर्ग किलोमीटर है, जो भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.54 फीसदी हिस्सा है। देश में वृक्षों की आबादी वाला क्षेत्र 93,815 वर्ग किलोमीटर है, जो कुल भौगोलिक क्षेत्र का 2.85 फीसदी है। केंद्रीय मंत्री ने कहा कि यह अच्छी खबर

है कि दुनिया में घटते वन क्षेत्र के विपरीत यहां वन क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हो रही है। उन्होंने कहा, ‘वैश्विक प्रवृत्ति में कमी आ रही है, जबकि भारत में वन भूमि में बढ़ोत्तरी हो रही है। अच्छी बात यह है कि विश्व रैंकिंग में भारत से आगे रहने वाले नौ देशों में वन क्षेत्र के अनुपात में आबादी का घनत्व लगभग 150 है, जबकि भारत में यह 350 है। इसका मतलब यह है कि जनसंख्या और पशुधन आबादी के दबाव के बावजूद वन परिरक्षण व विस्तार के मामले में हमारा कार्य बेहतर है।’ रपट के मुताबिक, देश में 2015 से करीब 1.3 अरब लोगों ने 1,243 वर्ग किलोमीटर में पेड़ लगाए हैं। आंध्र प्रदेश कुल वन क्षेत्र व वृक्ष

क्षेत्र में 2,141 वर्ग किलोमीटर के विस्तार के साथ देश में अव्वल स्थान पर है, उसके बाद कर्नाटक (1,101 वर्ग किलोमीटर) और केरल (1,043 वर्ग किलोमीटर) का स्थान है। अत्यंत घने वन का क्षेत्र 2015 में 88,633 वर्ग किलोमीटर था, जो 2017 में बढ़कर 98,158 वर्ग किलोमीटर हो गया। हालांकि निराशाजनक पहलू यह है कि 12 प्रदेशों व संघ शासित क्षेत्रों में वन क्षेत्र में कमी आई है। इनमें छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, प्राकृतिक रूप से घने वन वाले पूर्वोत्तर के प्रदेश- मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा शामिल हैं। (आईएएनएस)


16 खुला मंच

19 - 25 फरवरी 2018

अगर हर कोई साथ में आगे बढ़ रहा है, तो सफलता खुद अपना ख्यारल रख लेती है

प्रियंका तिवारी

अभिमत

- हेनरी फोर्ड

स्वच्छता का सफर

2 अक्टूबर 2014 से अब तक 1 लाख 41 हजार पंचायत, तीन लाख 21 हजार गांव खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं

हात्मा गांधी ने स्वच्छता को मन और विचार दोनों की शुचिता के लिए जरूरी बताया था। आज जब हम उनके चंपारण सत्याग्रह से लेकर चरखे के प्रयोग को सौ वर्ष फिर से याद कर रहे हैं, तो यह याद रखना जरूरी है कि स्वच्छता को बापू ने राष्ट्र निर्माण के यज्ञ के साथ जोड़ा था। 2014 में जब नरेंद्र मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने स्वच्छ भारत मिशन के तौर पर पहले बड़े राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम को हाथ में लिया। आज यह मिशन देश में एक नए और अनूठे जनांदोलन का नाम है। सरकार और समाज दोनों साथ मिलकर स्वच्छ भारत के सपने को पूरा करने में लगे हैं। संतोष की बात है कि यह मिशन जहां एक तरफ अपनी पूर्णता की तरफ है, वहीं इसने पर्याप्त सफलता भी हासिल की है। स्वच्छ भारत मिशन के तहत अब तक ग्रामीण भारत में 6 करोड़ से भी ज्यादा शौचालयों का निर्माण किया गया है। इसके साथ ही 10 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों- सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, केरल, हरियाणा, उत्तराखंड, गुजरात, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, चंडीगढ़ और दमन एवं दीव के 3 लाख से भी अधिक गांवों और 300 जिलों को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया जा चुका है। इस तरह देखें तो मिशन के तहत 2 अक्टूबर 2014 से अब तक 1 लाख 41 हजार पंचायत, तीन लाख 21 हजार गांव खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं। स्वच्छता के साथ महात्मा गांधी और स्मरण और प्रेरणा का जुड़ना इस मिशन को सार्थक गति दे रहा है। मिशन की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर भारत उन्हें स्वच्छ भारत के रूप में सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि दे सकता हैं।’ भूले नहीं हैं लोग कि राष्ट्रपिता के सपने को साकार करने के लिए प्रधानमंत्री ने दिल्ली के मंदिर मार्ग पुलिस स्टेशन के पास स्वयं झाड़ू उठाकर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी। उन्होंने इस अभियान को जनांदोलन बनाते हुए देश के लोगों को मंत्र दिया है- ‘ना गंदगी करेंगे, ना करने देंगे।’ आज यह मंत्र और इससे जुड़ा शपथ, दोनों ही स्वच्छ और सुंदर भारत की अखिल कल्पना को साकार कर रहा है।

टॉवर

(उत्तर प्रदेश)

लेखिका युवा पत्रकार हैं और देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखती हैं

आदर्श दांपत्य की आधुनिक मिसाल अगर गांधी जी देश के करोड़ों लोगों के लिए ‘बापू’ हैं, तो कस्तूरबा गांधी ‘बा’ यानी मां हैं

बाद गांधी जी इंग्लैंड से लौट आए, लेकिन फिर जल्द ही उन्हें अफ्रीका जाना पड़ा। दक्षिण अफ्रीका जाने से लेकर मृत्यु तक बा हर कदम पर महात्मा गांधी का अनुसरण करती रहीं। उन्होंने अपने जीवन को जहां सादा और साधारण बना लिया था, वहीं वह एक आदर्शवादी महिला भी थीं। दक्षिण अफ्रीका में बा ने गांधी जी का बखूबी साथ दिया। वहां भारतीयों की दशा के विरोध में जब वह आंदोलन में शामिल कस्तूरबा गांधी स्मृति दिवस (22 फरवरी) पर विशेष हुईं तो उन्हें गिरफ्तार कर तीन महीने के लिए जेल भेज दिया गया। जेल में उन्होंने फलाहार करने का निश्चय और बापू, दांपत्य जीवन की यह जोड़ी हर किया। अधिकारियों द्वारा उनकी फलाहार की बात नहीं सुने लिहाज से आदर्श है। यह अलग बात है कि जाने पर बा ने उपवास किया, इसके बाद अधिकारियों को महात्मा गांधी के मुकाबले बा की चर्चा कम झुकना पड़ा। 1915 में बा बापू के साथ भारत लौट आईं। होती है, पर जिन लोगों ने भी गांधी जी के जीवन को करीब स्वाधीनता आंदोलन में कई बार गांधी जी जेल गए तब उन्होंने से देखा है, उन्होंने कस्तूरबा के जीवन, त्याग और आदर्श को उनका स्थान लिया। चंपारण सत्याग्रह के दौरान भी उन्होंने रेखांकित किया है। कह सकते हैं कि अगर गांधी जी देश के गांधी जी के साथ लोगों को जागरूक किया। खेड़ा सत्याग्रह करोड़ों लोगों के लिए ‘बापू’ हैं तो कस्तूरबा गांधी ‘बा’ यानी के दौरान भी बा घूम-घूम कर स्त्रियों का उत्साहवर्धन करती मां हैं। 11 अप्रैल 1869 को जन्मीं कस्तूरबा अपने पति से रहीं। 1922 में गांधी जी की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने विरोध करीब छह महीने बड़ी थीं। दोनों की मई 1883 में शादी हो में विदेशी कपड़ों के परित्याग का आह्वान किया। 1930 में गई। शादी के समय दोनों की उम्र करीब 13-14 साल थी। दांडी और धरासणा के बाद जब बापू जेल चले गए तब बा दोनों ने छह दशक से लंबा समय एक साथ व्यतीत किया। ने उनका स्थान लिया और लोगों का मनोबल बढ़ाती रहीं। 22 फरवरी 1944 को कस्तूरबा ने आखिरी सांस ली। खुद क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण 1932 और 1933 में बा का महात्मा महात्मा गांधी ने भी स्वीकार किया कि वे इसके बाद अधिकांश समय जेल में ही बीता। अकेले पड़ गए। 1939 में उन्होंने राजकोट रियासत के राजा के विरोध में कस्तूरबा न केवल गांधी जी के चार संतानों की मां थीं, भी सत्याग्रह में भाग लिया। वहां के शासक ठाकुर साहब ने बल्कि वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की भी एक ऐसी धुरी प्रजा को कुछ अधिकार देना स्वीकार किया था, परंतु बाद रहीं, जिसके चारों तरफ दशकों तक भारत का ऐतिहासिक में वह अपने वादे से मुकर गए। ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के घटनाचक्र घूमता रहा। इस धुरी ने जहां एक तरफ गांधी जी दौरान अंग्रेजी सरकार ने बापू समेत कांग्रेस के सभी शीर्ष के आदर्श नायकत्व को गढ़ा, वहीं दूसरी तरफ वह निजी नेताओं को 9 अगस्त 1942 को गिरफ्तार कर लिया। इसके जीवन में त्याग, संयम, संबल और साहस के मानक गढ़ती बाद बा ने मुंबई के शिवाजी पार्क में भाषण करने का निश्चय चली गईं। 1882 में विवाह होने के बाद दोनों 1888 तक किया, यहां पहुंचने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। साथ-साथ रहे। अलबत्ता गांधी जी के इंग्लैंड प्रवास के मुंबई से गिरफ्तार कर कस्तूरबा गांधी को पूना के आगा दौरान वह भारत में अकेली ही रहीं। उन्होंने अकेले ही अपने खां महल में भेज दिया गया। सरकार ने महात्मा गांधी को भी बच्चे हरिलाल का पालन-पोषण किया। शिक्षा पूरी होने के यहीं रखा था। उस समय वह काफी अस्वस्थ थीं। गिरफ्तारी

बा

कस्तूरबा न केवल गांधी जी के चार संतानों की मां थीं, बल्कि वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक ऐसी धुरी रहीं, जिसके चारों तरफ दशकों तक भारत का ऐतिहासिक घटनाचक्र घूमता रहा


19 - 25 फरवरी 2018 के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। जनवरी 1944 में उन्हें दो बार दिल का दौरा पड़ा। उनके निवेदन पर सरकार ने आयुर्वेद के डॉक्टर का प्रबंध भी कर दिया। इसके बाद कुछ समय के लिए उन्हें कुछ आराम भी मिला, लेकिन 22 फरवरी 1944 को उन्हें फिर से दिल का दौरा पड़ा और बा हमेशा के इस दुनिया से चली गईं। जब कस्तूरबा का अंतिम संस्कार किया गया तो 74 वर्षीय गांधी तब तक वहां बैठे रहे जब तक चिता पूरी तरह जल नहीं गई। जब गांधी जी से वहां से जाने के लिए कहा गया तो उन्होंने कहा, ‘ये 62 साल के साझा जीवन की आखिरी विदाई है। मुझे यहां तब तक रहने दो जब तक दाह संपन्न नहीं हो जाता।’ उसी शाम गांधी ने अपनी शाम की प्रार्थना सभा कहा, ‘मैं बा के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकता।’ कस्तूरबा गांधी अपने पति गांधी जी से उम्र में करीब छह माह बड़ी थीं। उस समय बेटियों के पढ़ाई का चलन नहीं था, इसीलिए वह ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं थीं। इसके बावजूद उनके अंदर अच्छेबुरे को पहचानने का विवेक था। गांधी जी ने भी स्वीकार किया है, ‘जो लोग मेरे और बा के संपर्क में आए, उनमें अधिक संख्या ऐसे लोगों की है, जो मेरी अपेक्षा बा पर कई गुना अधिक श्रद्धा रखते हैं।’ कस्तूरबा ने कई मौकों पर उन्होंने गांधी जी को भी कुछ मुद्दों पर चेतावनी तक दी। गांधी के साथ आश्रम का जीवन जीते हुए कस्तूरबा की सादगी और दृढ़ता कैसे गांधी जी के शील और आदर्श को एक व्यावहारिक और आस्थापूर्ण स्वरूप दे रहे थे, इसको लेकर कई प्रसंग हैं। इस तरह के कई प्रसंगों की चर्चा कस्तूरबा पर ‘बा’ नाम से उपन्यास लिखने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार गिरिराज किशोर ने भी की है। सेवाग्राम में बापू की झोपड़ी की ओर जाते समय पहले बा की झोपड़ी पड़ती थी। अक्सर दिन में बा या तो चबूतरे पर बैठी सूत कातती मिलतीं या ऐसा ही कोई काम करती नजर आतीं। किसी नए आने वाले अतिथि को पहले बा के ही दर्शन होते। बा भले किसी को पहचानती हों या न पहचानती हों, फिर भी बड़े प्रेम से उसका स्वागत करतीं। उनका सीधा सरल प्रश्न होता, कहां से आए हैं? सीधे यहीं आ रहे हैं या वर्धा होकर आए हैं? भोजन हुआ या नहीं? भोजन न किया होता तो भोजन करातीं। अतिथियों को बापू से तो जिस काम के लिए आए हों उसकी चर्चा करनी होती थी, उनकी दूसरी सारी कठिनाइयां बा ही हल किया करती थीं। सबको पता होता था कि किसी भी तरह की दिक्कत हो तो बा के पास जाना है। वह सबकी छोटी-छोटी जरूरतों का भी ख्याल रखती थीं। दिलचस्प है कि मोतीलाल नेहरू जैसे शाही दस्तरखान पर खाने वाले लोग बा की बदौलत ही कई-कई दिन आश्रम में रह जाते। राजा जी की चाय-कॉफी की चिंता बा के सिवा कौन करता! जवाहर लाल जी के लिए खास जायके वाली चाय बा ही बना देती थीं। साफ लगता है कि बापू के जीवन के आसपास का प्रभामंडल अगर सम्मोहन भरा था, तो इस सम्मोहन को बा भी कहीं न कहीं अपने तरीके से बढ़ा रही थीं। यह भी कि दांपत्य की ऐसी आदर्श मिसाल आधुनिक विश्व इतिहास में कम ही हैं।

खुला मंच

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डॉ. गंगा सहाय मीणा

ल​ीक से परे

प्राध्यापक, भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू

अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (21 फरवरी) पर विशेष

भाषाएं बचेंगी, तो हम भी बचेंगे

यूनसे ्को ने दुनियाभर की भाषाओं का एक इंटरेक्टिव एटलस बनाया है। इसके अनुसार दुनिया की लगभग 6 हजार भाषाओं में से 2471 खतरे में हैं

कठिन दौर में जब हर चीज का ऐसेअस्तित्व मुनाफे से निर्धारित हो रहा

है, भाषाओं को बचाए जाने के सवाल पर सही राय बनाना और मातृभाषाओं के पक्ष में बड़ा आंदोलन खड़ा किया जाना एक ऐतिहासिक जरूरत है। इस दिशा में सरकारी प्रयास भी मदद कर सकते हैं, भारतीय संदर्भ में खासी भाषा इसका उदाहरण है, जो पहले यूनेस्को की खतरे की स्थिति वाली भाषाओं में शामिल थी, लेकिन मेघालय सरकार द्वारा उसे कामकाज की भाषा बनाने और विभिन्न क्षेत्रों में इस्तेमाल शुरू करने से उसे नया जीवन मिल गया। इसी तरह शेष भारतीय भाषाओं को बचाने की भी पहल की जानी चाहिए। खासतौर पर आदिवासी भाषाओं को बचाने के लिए, क्यों कि इस वक्ता सबसे ज्यादा खतरा आदिवासी भाषाओं के सामने ही है। वडोदरा के भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर के सर्वे के जरिए यह चिंताजनक खुलासा हुआ है कि पिछले पांच दशक में भारत में बोली जाने वाली 220 से अधिक भाषाएं गायब हो गई हैं। भारतीय संविधान द्वारा उपेक्षित भाषाओं के दस्तावेजीकरण और संरक्षण के उद्देश्य से 1996 में भाषा ट्रस्ट की स्थापना हुई और धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ता चला गया। सेंटर के खुलासे के मुताबिक 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में 1100 से अधिक भाषाएं थीं, जिनकी संख्या अब 880 से भी कम रह

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अमेररका के गांवों में सुलभ का मैजिक

सवच्छ भारत अजभयान समारोह

की िापानी संसककृजत ‘एगिाम वाररयस्ष’ सवच्छता बच्े 'वररयर’ नहीं, 'वाररयर’ बनें 09

सवच्छता

खेल

10 27

‘उड़न परी’ को हराने वाली एथलीट

harat.com

sulabhswachhb

वर्ष-2 | अंक-09 | 12 /2016/71597 आरएनआई नंबर-DELHIN

बाबा रामदेव महान संत महान योगी महान समािसेवी एक महान और यशसवी िीवन को लेकर दूसरा महान और सोचता है, वयक्ति कया अनुभव करता जलए प्ेरक अनुभव यह िानना हर जकसी के समाि सुधारक से गुिरने िैसा है। महान और सुलभ प्णेता योगगुरु बाबा डाॅ० जवनदेश्वर पाठक ने मूलयवान और रामदेव के संदभ्ष में अपने जकए हैं अनुभव-जसद्ध जवचार प्कट

- 18 फरवरी 2018

गई हैं। सेंटर द्वारा जारी किए गए आंकड़े चिंताजनक जरूर हैं, लेकिन यह अचानक नहीं हुआ है। यूनेस्को ने खतरे की स्थिति वाली दुनियाभर की भाषाओं का एक इंटरेक्टिव एटलस बनाया है। इसके अनुसार दुनिया की लगभग 6 हजार भाषाओं में से 2471 का अस्तित्व खतरे में हैं। दरअसल, हमारा दौर जीवन के कुछ बुनियादी सरोकारों के प्रति लगातार संवेदनहीन होता जा रहा है। संवेदनहीनता का दायरा इंसानों से होता हुआ भाषा, साहित्य और संस्कृति तक पहुंच रहा है। खासतौर पर दुनिया की छोटी भाषाओं, साहित्य परंपराएं और संस्कृतियां तबाही के कगार पर पहुंच गई हैं। इस प्रक्रिया में भारत सहित दुनिया की काफी भाषाएं मौत का शिकार हुई हैं। इस हश्र को अगर उस चिंता से जोड़कर देखें जो आंबेडकर ने जताई

थी कि ‘वंचित समाज अर्थ से लेकर संस्कृति तक मुख्यधारा के फैलाव की मार झेलता है। वह खुद तो मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाता, उलटे मुख्यधारा का बहाव उसके जीवन सरोकारों से जुड़ी कई कीमती चीजों को बहा ले जाती हैं।’ दुनिया की तमाम भाषाएं, जो हजारों वर्षों से अस्तित्व में हैं और कहीं न कहीं आज भी अनेक समाजों की अभिव्यक्ति को शब्द देती हैं और विभिन्न मानव समुदायों की सांस्कृतिक पहचान हैं, उनके अस्तित्व को खतरा, हमारी पूरी स्मृति को खतरा है। मातृभाषाओं को बचाया जाना इसीलिए भी जरूरी है कि व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक का विकास मातृभाषाओं में ही संभव है। दुनियाभर के उदाहरण हमारे सामने हैं। तमाम महान व्यक्तियों से लेकर महान राष्ट्रों तक ने अपना विकास अपनी भाषाओं में ही किया है। भाषाविज्ञानी और शिक्षाविद यह भी साबित कर चुके हैं कि मातृभाषा में शिक्षा दिए जाने और मातृभाषा में विदेशी या अन्य भाषा पढ़ाए जाने से बच्चे तेजी से सीखते हैं। मातृभाषाओं में शिक्षा दिए जाने से बच्चे का पूरा ध्यान विषय-ज्ञान पर रहता है, लेकिन अगर हम उसके ऊपर भाषा-ज्ञान (अंग्रेजी, हिंदी, संस्कृत, फारसी आदि) थोप देते हैं और मातृभाषा से इतर भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाते हैं तो बच्चे​े का पूरा ध्यान भाषाज्ञान पर ही केंद्रित हो जाएगा और वह विषय-ज्ञान में पिछड़ जाएगा।

बाबा ने रोजगार भी दिया है!

सुलभ के कई रंग

सुरंजन शर्मा, रेवाड़ी , हरियाणा

सरोज गुप्ता कानपुर, उत्तर प्रदेश

बाबा रामदेव की आवरण कथा बहुत अच्छी लगी। किस तरह से योग गुरु ने आज करोड़ों रूपए का स्वदेशी कारोबार खड़ा किया, यह सच में बहुत प्रेरणादायक कहानी है। रामदेव के बारे एक बात जो बात मुझे सबसे अधिक आकर्षित करती है, वह है उनकी वजह से ग्रामीण क्षेत्रों को रोजगार का मिलना। उनके स्वदेशी उत्पादों ने सीधे तौर पर किसानों को फायदा पहुंचाया है। साथ ही छोटे-छोटे कस्बों में खुले उनके स्टोर से रोजगार में भी बढ़ोत्तरी हुई है।

सुलभ स्वच्छ भारत में हाल ही आए बदलावों से बहुत प्रभावित हूं। कुछ नई चीजें और विषय वस्तु भी अखबार से जुड़ी हैं। इंद्रधनुष वाला पेज बहुत ही अच्छा और मनोरंजक है। इसके साथ ही महान व्यक्तियों के ऊपर लिखे जा रहे आलेख बहुत ही प्रेरणादायक हैं। इस बार का फोटो फीचर “जब पराजित होता है अंधेरा” बहुत ही मनमोहक था। साथ मोदी की धारावाहिक जीवनी का प्रकाशित खंड बहुत ही प्रेरक लगा।


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फोटो फीचर

19 - 25 फरवरी 2018

टॉप गियर में ऑटो सेक्टर

विश्व में सबसे तेज गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में अगर भारत का नाम शुमार है तो उसमें यहां के ऑटो इंडस्ट्री का बड़ा योगदान है। ग्रेटर नोएडा के इंडिया एक्सपो मार्ट में आयोजित ऑटो एक्सपो-2018 में दुनिया के सामने जिस तरह भारतीय कंपनियों ने अपने नए और भावी मॉडल्स को प्रदर्शित किया, उसने पूरी दुनिया का ध्यान भारत की तरफ खींचा है। शंघाई मोटर शो के बाद भारत में आयोजित होने वाला ऑटो एक्सपो एशिया का दूसरा सबसे बड़ा वाहन व्यापार मेला है फोटोः सौरभ सिंह


19 - 25 फरवरी 2018

भारत में ऑटो इंडस्ट्री टॉप गियर के साथ आगे बढ़ रही है। वॉल्‍यूम के हि‍साब से भारत दुनि‍या का दूसरा सबसे तेजी से बढ़ने वाला ऑटोमोबाइल मार्केट बन गया है। यह मार्केट जल्द ही दुनिया का नंबर वन मार्केट होगा, इस संभावना के इंद्रधनुषी रंग ऑटो एक्सपो में हर किसी को देखने को मिले

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स्वास्थ्य

19 - 25 फरवरी 2018

मानसिक स्वास्थ्य के लिए हंसना जरूरी

स्पेन के ग्रनादा यूनिवर्सिटी के जॉर्ज टोर मरीन का दावा है कि खुद पर हंसना मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है

क अध्ययन में यह दावा किया गया है कि अक्सर खुद पर चुटकले कहने वाले लोगों और खुद पर हंसने वालों के मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य का स्तर काफी अच्छा होता है। यह अध्ययन पर्सनैलिटी एंड इंडीविजुअल डिफरेंसेज जर्नल में प्रकाशित हुआ है। यह अध्ययन हास्य विनोद के मनोविज्ञान पर पहले हुए अध्ययनों का विरोधाभासी है। दरअसल, अब तक कई सारे अध्ययनों में यह कहा गया था कि खुद पर चुटकले कहना लोगों के बीच नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभावों से विशेष रूप से संबद्ध है, जो हमेशा ही इस शैली का इस्तेमाल करते हैं। स्पेन के ग्रनादा यूनिवर्सिटी के जॉर्ज टोर मरीन ने बताया, 'खुद पर चुटकले कहने की कहीं अधिक प्रवृत्ति मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य के आयाम जैसे- खुशी और सामाजिकता के अच्छा होने का संकेत है। हमारा मानना है कि इस तरह के हास्य के इस्तेमाल में संभावित सांस्कृतिक अंतरों को लक्षित नये अध्ययन करना जरूरी है।'

मरीन आगे कहते हैं, 'इस अध्ययन के नतीजे अविरोधी हैं जो बताते हैं कि हमारे देश में खुद पर हंसना पारंपरिक रूप से सकारात्मक संकेत का उत्तरदायी है। हालांकि अध्ययन के नतीजे इस बात की ओर भी इशारे करते हैं कि खुद पर हंसने को लेकर की गई रिसर्च कहां पर हुई है, इसको लेकर भी नतीजे में बदलाव हो सकता है।' दरअसल, खुद पर चुटकुले कहना गुस्से को दबाने की व्यापक प्रवृत्ति माना जाता है। (एजेंसी)

वैज्ञानिकों ने बनाया इंसान का अंडा

वै

बांझपन से मुक्ति पाने की दिशा में वैज्ञानिकों ने इंसानी अंडे का विकास किया है

ज्ञानिकों ने इंसान के शरीर से बाहर लैबरेटरी में इंसान के अंडे को विकसित करने में सफलता हासिल कर ली है। इस बात की जानकारी 'मॉलक्युलर ह्यूमन रिप्रॉडक्शन' पत्रिका में छपे लेख से मिली है। इससे पहले चूहे का अंडा लैब में तैयार किया गया था। ब्रिटेन और यूएस के वैज्ञानिकों ने इस लेख में दावा किया है कि आने वाले समय में इससे से बांझपन के इलाज में मदद मिलेगी और इंसान में उत्तकों से संबंधित मेडिसिन थेरपी को विकिसत किया जा सकता है। इससे पहले रिसर्च के दौरान वैज्ञानिकों ने लैब में चूहे के अंडे को परिपक्वता स्तर तक विकसित किया था। परिपक्वता स्तर का मतलब है कि

उस अंडे से नए संतान की उत्पत्ति हो सकती है। अब इसी तरह से वैज्ञानिकों ने पहली बार इंसान के अंडे को परिपक्वता स्तर तक विकसित किया है। एडिनबर्ग के दो रिसर्च हॉस्पिटलों और सेंटर फॉर ह्यूमन रिप्रॉडक्शन, न्यू यॉर्क में इस पर काम

किया गया है। अगर इसकी सफलता और सुरक्षा दरों में सुधार हो पाता है तो यह भविष्य में कैंसर के रोगियों की मदद कर सकता है, जो कीमोथेरपी उपचार के दौरान प्रजनन क्षमता को बनाए रखने, प्रजनन उपचार में सुधार लाने और मानव जीवन के प्रारंभिक चरणों के जीव विज्ञान की वैज्ञानिक समझ को बढ़ाने में मददगार होगा। (एजेंसी)

'हेल्थी स्टेट प्रोग्रेसिव रिपोर्ट' जारी

अल्ट्रावायलट किरणों से खत्म होंगे फ्लू वायरस

हाल में हुए एक शोध से पता चला है कि यूवीसी किरणें जीवाणु और वायरस को नष्ट करने में बहुत प्रभावी हैं

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से तो सूरज की अल्ट्रावायलट किरणें हमें नुकसान पहुंचाती हैं, लेकिन इन किरणों की कम मात्रा का इस्तेमाल मानव ऊतक को नुकसान पहुंचाए बिना हवा में मौजूद फ्लू के वायरस को मारने के लिए किया जा सकता है। इन किरणों का उपयोग अस्पतालों, विद्यालयों और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए भी किया जा सकता है। वैज्ञानिकों को दशकों से इस बात की जानकारी रही है कि 200-400 नैनोमीटर के तरंगदैर्ध्य वाले ब्रॉड स्पेक्ट्रम अल्ट्रावायलेट सी (यूवीसी)

किरण, जीवाणु और वायरस को नष्ट करने में बहुत अधिक प्रभावी है। पारंपरिक यूवी किरणों का इस्तेमाल सर्जरी के उपकरणों को कीटाणुमुक्त करने के लिए भी किया जाता रहा है। अमेरिका स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय के इरविंग मेडिकल सेंटर में प्रोफेसर डेविड जे ब्रेनर ने कहा, ‘दुर्भाग्यपूर्ण रूप से पारंपरिक कीटाणुनाशक अल्ट्रावायलट किरणें मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हैं और इससे त्वचा के कैंसर और मोतियाबिंद का खतरा होता है। इस कारण सार्वजनिक स्थानों पर इसका इस्तेमाल नहीं किया जाता है।’ अनुसंधानकर्ताओं ने पहले इस बात की कल्पना की थी कि यूवीसी की कम मात्रा से माइक्रोब को मारा जा सकता है और इससे इंसान के टिशू भी क्षतिग्रस्त नहीं होते। ब्रेनर ने कहा कि यह प्रकाश स्वास्थ्य के लिहाज से खतरनाक नहीं है। इस अनुसंधान का प्रकाशन ‘साइंटिफिक रिपोर्टर्स’ जर्नल में किया गया है। (एजेंसी)

राष्ट्रीय नीति आयोग ने प्रोग्रेसिव इंडिया रिपोर्ट रिलीज कर दी है। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने इस रिपोर्ट को जारी किया

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ति आयोग की तरफ से जारी की गई प्रोग्रेसिव इंडिया रिपोर्ट रिपोर्ट में देश के राज्यों को स्वास्थ्य श्रेणी के अनुसार अंक दिए गए हैं। रिपोर्ट रिलीज करने के मौके पर अमिताभ कांत ने कहा कि पूर्वी राज्य झारखंड और छत्तीसगढ़ अच्छा प्रदर्शन काम कर रहे हैं। दोनों राज्य क्रमशः चौथे और पांचवें नंबर पर आए हैं। रिपोर्ट के अनुसार केरल, पंजाब और तमिलनाडु ओवरऑल परफारमेंस में शीर्ष पर हैं। अमिताभ कांत ने यह भी कहा कि दोनों राज्य तेजी से आगे बढ़े हैं। छत्तीसगढ़ और झारखंड ने काफी सुधार किए हैं। छोटे राज्यों में मिजोरम और मणिपुर रैंकिंग में टॉप पर हैं। तो वहीं केंद्रशासित प्रदेशों में लक्ष्यदीप रैंकिंग में सबसे उपर है। उन्होंने कहा कि हमारा पहला काम राज्य की चुनौतियों को देखना है, फिर राज्य के साथ वर्कशॉप करते और उसके

बाद उसकी रैकिंग तय करते हैं। हालांकि हमारे लिए राज्य की पुरानी रैकिंग भी मायने रखती है, राज्य में हर साल होने वाले बदलाव को रखना भी महत्वपूर्ण है। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने शुक्रवार को प्रोग्रेसिव इंडिया रिपोर्ट जारी की है। नीति आयोग की तरफ से जारी की गई इस रिपोर्ट में देश के राज्यों को स्वास्थ्य श्रेणी के अनुसार रेटिंग दी है। इस रिपोर्ट में केरल को पहला स्थान, दूसरा स्थान को पंजाब और तीसरा स्थान तमिलनाडु को दिया गया है। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने कहा कि, यह रिपोर्ट स्वास्थ्य के क्षेत्र में राष्ट्र के प्रदर्शन की जटिलता को मापने और समझने में मदद करेगी। इस मौके पर स्वास्थ्य सचिव प्रीती सूदान और विश्व बैंक के भारत देश के निदेशक जुनेद अहमद मौजूद रहे। (एजेंसी)


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'हसीरू रथ' पर सवार पर्यावरण के सिपाही

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बेहतर पर्यावरण के लिए बेंगलुरु की सड़कों पर हर दिन मान्य नागराज और उनकी टीम पानी और पौधे लेकर निकलती है

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छले कुछ महीने से एक वैन पुराने बेंगलुरु की गलियों में घूम-घूमकर एक बदलाव लाने की कोशिश कर रही है। मान्य नागराज और उनकी टीम पानी के कैन और पौधे लेकर निकलती है और रास्ते में उन्हें लगाती रहती है। जहां पेड़ पहले से लगे होते हैं, उन्हें पानी देती और देखभाल भी करती है। इस टीम में अलग-अलग तरह के लोग हैं जो साथ मिलकर पर्यावरण के लिए एक बड़ा काम कर रहे हैं। मान्य पहले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में काम करते थे। वहां भी वह पर्यावरण से जुड़ी गतिविधियों में शामिल रहते थे। उन्होंने बताया कि रिटायर होने

के बाद वह अपनी गाड़ी से अपने घर के आसपास के पौधों को पानी देने निकलते थे। धीरे-धीरे उनका क्षेत्र बढ़ता गया। उन्होंने अपनी गाड़ी का नाम 'हसीरू रथ' रखा- मतलब- हरा रथ। वह कहते हैं कि पेड़ ही जीवन बरकरार रखते हैं और भविष्य को सुरक्षित रखना हमारी जिम्मेदारी है। उन्होंने बताया कि एक वॉट्सऐप ग्रुप के जरिए जो लोग उनके काम से जुड़ना चाहते हैं, वे आते रहते हैं। ग्रुप पर कहां और कितने बजे मिलना है, यह तय होता है। टीम के सदस्य एच शानबाग बताते हैं कि जब गाड़ी निकलती है तो पानी के कैन्स भरकर रख लिए जाते हैं। जब पानी खत्म हो जाता है तो अलग-

फेफड़ा रोग के मरीजों की नई उम्मीद

अलग जरियों से पानी भरा जाता है। कई बार अजनबी लोगों के घरों के दरवाजे खटखटाकर भी कैन्स भर लिए जाते हैं। इस टीम में लगभग 20 लोग हैं । पेड़ों को पानी देने के अलावा लगभग 200 पौधे लगाए जा चुके हैं। टीम के एक अन्य सदस्य श्रीकांत ने बताया कि सभी मिलकर खर्च उठाते हैं। मान्य अपनी पेंशन से ही खर्च करते हैं। वह गाड़ी का रख-रखाव, जरूरी सामान खरीदना, बाड़े खरीदना जैसे काम करते हैं। उन्होंने बताया कि शानबाग आराम से लोगों के घरों

वैज्ञानिकों का दावा है कि स्टेम सेल प्रत्यारोपण से फेफड़े के मरीजों का सफल इलाज किया जा सकता है

ची

न के वैज्ञानिकों ने मूल कोशिका प्रत्यारोपण (स्टेम सेल ट्रांसप्लांटेशन) के जरिए एक मरीज के क्षतिग्रस्त फेफड़े को दुरुस्त किया है। चिकित्सा के क्षेत्र में इसे एक महत्वपूर्ण खोज के रूप में देखा जा रहा है, जिससे फेफड़े की गंभीर बीमारी का इलाज संभव हो पाएगा। प्रत्यारोपण के इस आरंभिक नैदानिक परीक्षण में तोंगजी विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने मरीज के श्वासनली से मूल कोशिकाओं को निकाला और उनमें कई गुना वृद्धि होने दिया। उसके बाद

नेत्रहीनों की मदद में आईआईटी

ईआईटी-दिल्ली और इंडियाना विश्वविद्यालय के तीन साल के एक सहयोगपूर्ण अनुसंधान के माध्यम से दृष्टिबाधित और नेत्रहीनों (बीवीआई) के जीवन में सुधार लाने वाली नई प्रौद्योगिकी और संज्ञानात्मक रणनीति की खोज की है। यह सहभागिता एक शोध के लिए है, जिसके जरिए एक नए तरह का दृष्टिकोण विकसित किया जाएगा, जो स्पर्श के जरिए ग्राफिक्स को समझने में मददगार होगा। आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर

कोशिकाओं को मरीज के फेफड़ों में प्रत्यारोपित किया। इससे पहले, चूहों में यह मूल कोशिका प्रत्यारोपण सफल रहा था। चूहों के फेफड़ों में मानव की श्वासनली व वायुकोश की कोशिकाओं में पुनरुत्थान देखा गया। धमनी रक्त गैस विश्लेषण में पाया गया कि चूहों के फेफड़े के प्रकार्य में जबरदस्त सुधार था। विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वेई जुओ ने कहा कि हृदय और कैंसर की बीमारी के बाद तीसरा रोग, जिससे दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों की मौत होती है, वह फेफड़े की बीमारी है। उन्होंने कहा कि फेफेड़े की गंभीर बीमारी से पीड़ित मरीजों के लिए यह सबसे बड़ी उम्मीद जगी है कि ब्रोंकिएक्टिैसिस और इंटर्स्टिटियल लंग डिजीज का इलाज मूल कोशिका प्रत्यारोपण से हो सकता है। (आईएएनएस)

एम. बालाकृष्णन ने बताया कि यह पहली बार नहीं है, जब हम दुनिया में पहली बार कुछ प्रयास करने जा रहे हैं। अमेरिका, यूरोप, ब्रिटेन और जापान जैसे देशों में कुछ लोगों ने समान समाधान निकाला है, लेकिन मुख्य चुनौतियां भारत जैसे विकासशील देशों में इसे लागत कुशल बनाने की है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के मुताबिक, विकासशील दुनिया में करीब 3.80 करोड़ लोग नेत्रहीन हैं, जिसमें से 90 फीसदी लोग विकासशील देशों में रहते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक, भारत में 50 लाख से ज्यादा लोग नेत्रहीन हैं, जो किसी भी देश से अधिक है। (आईएएनएस)

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में जाकर पानी मांगते हैं। कई बार लोग उन्हें मना करते हैं, चिल्लाते भी हैं, लेकिन शानबाग पीछे नहीं हटते। वह हर रोज पानी इकट्ठा करते हैं और सुबहसुबह काम पर लग जाते हैं। हाल ही में टीम से जुड़ने वाले विजय निशांत कहते हैं कि जिस काम को करने के लिए महानगरपालिका को वेतन मिलता है, वह काम उनकी जगह ये अच्छे नागरिक अपनी मर्जी से कर रहे हैं। (एजेंसी)


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पुस्तक अंश

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एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उदय नरेंद्र मोदी के सबसे कठोर आलोचक भी इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि वे समकालीन दिग्गज और आधुनिक समय के एक करिश्माई वैश्विक नेता हैं। सार्वजनिक जीवन में विनम्र उद्भव से लेकर 2014 में विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बनने तक का उनका सफर किंवदंतियों जैसा है। 2014 के लोकसभा चुनावों में, वह राष्ट्रीय परिदृश्य पर एक बड़े नेता के रूप में उभरे और अपनी शानदार वक्तृत्वकला और असीम ऊर्जा के साथ एक बेहतरीन चुनाव अभियान का नेतृत्व किया। उनका हर शब्द, हर संकेत, हर कदम और हर कार्य शानदार था। वशीभूत राष्ट्र ने उनमें एक प्रगतिशील, अतिसक्रिय और तकनीकी समझ रखने वाले नेता के आदर्श को देखा। सभी बाधाओं और प्रतिरोधियों पर विजय प्राप्त करने के उपरांत, उन्होंने लगभग अकेले ही पार्टी के लिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का चुनाव जीत लिया। तब से, उनके आलोचक भी मानते हैं कि नरेंद्र मोदी एक अद्भुत व्यक्ति हैं और उन जैसा दूसरा कोई नहीं है

नई दिल्ली में श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स मैनेजमेंट फेस्टिवल बिजनेस कॉनक्लेव, 2013 में छात्रों के साथ बातचीत करते हुए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी।


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दी एक बेहद सक्रिय और प्रभावशाली व्यक्ति हैं। शारीरिक रूप से, वे भले ही बहुत लंबे नहीं है, लेकिन चौड़े कंधे उनके चारों तरफ एक मनोरम आभा बिखेरते हैं। वे इस तरह से कपड़े पहनते हैं जो हर अवसर के लिए सबसे उपयुक्त लगते हैं। इस सबसे अलग, वे एक प्रतिभाशाली नेता और साथ ही एक असाधारण वक्ता भी हैं, जो अपने श्रोताओं को घंटों मंत्रमुग्ध करने में सक्षम हैं। वे बिना कोई नोट पढ़े बोलते हैं और यदि कोई नोट साथ में हो तब भी उससे बहुत कम सहायता लेते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि वे अपनी तैयारी कुशलतापूर्वक करते हैं। वे इस बात को लेकर हमेशा स्पष्ट होते हैं कि उन्हें श्रोताओं से कहना क्या है। हाल के दशकों में, रोनाल्ड रीगन, बिल क्लिंटन, मार्गरेट थैचर और बराक ओबामा दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संचारक (कम्यूनिकेटर) हुए हैं, नरेंद्र मोदी की तुलना इन सब से आसानी से की जा सकती है। वर्ष 2012 में गुजरात विधानसभा चुनावों में लगातार तीसरी जीत ने नरेंद्र मोदी को भाजपा के एक प्रमुख नेता के रूप में स्थापित कर दिया। तब यह स्पष्ट हो चुका था कि वे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पार्टी के लिए एक बड़ी भूमिका निभाएंगे। सभी को इस बात की प्रतीक्षा थी कि अपनी राजनीतिक यात्रा का अगला कदम वे किस तरह और तरीके से उठाते हैं। गुजरात से नई दिल्ली में रायसीना हिल की तरफ उनके उठने वाले कदमों के समय को लेकर अटकलों का दौर चल रहा था। अपने राज्य में एक बेहद लोकप्रिय नेता के तौर पर 62 वर्षीय नरेंद्र मोदी को भी विधानसभा चुनावों में अपनी जीत के महत्व के बारे में पता था। गुजरात की जीत ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के समक्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के विकल्प के रूप में भाजपा के दावेदार के रूप में उनकी स्थिती को मजबूत किया।

अगर कोई किसी एक ऐसी घटना के बारे में बताए जिसने 2012 के बाद राष्ट्रीय चेतना में नरेंद्र मोदी पहुंचा दिया, तो वह दिल्ली विश्वविद्यालय का प्रतिष्ठित श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में छात्रों और पूर्व छात्रों के लिए 59 मिनट के उनके प्रेरक भाषण ही होगा

पुस्तक अंश

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मैं गुजरात की भूमि से आ रहा हूं। मैं महात्मा गांधी की भूमि से आ रहा हूं और मैं सरदार पटेल की जमीन से आ रहा हूं। बहुत से महान लोगों ने बलिदान दिया है, जेल में अपनी जवानी बिताई है, तपस्या की है, अपना जीवन त्यागा है, ताकि हमें आजादी मिल सके। उनके अथक प्रयासों के कारण, यह सपना सच हो हो पाया है। स्वराज (स्वशासन) के बाद से, छह दशकों से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन राष्ट्र अभी भी सुराज (बेहतर प्रशासन) की प्रतीक्षा कर रहा है। विकास का कोई विकल्प नहीं है। देश को वोट बैंक की राजनीति द्वारा नष्ट कर दिया गया है। देश को विकासवादी राजनीति की जरूरत है। यदि देश की राजनीति विकास पर आधारित हो, तो ही इस देश में बड़े बदलाव हो सकते हैं। नरेंद्र मोदी

13 सितंबर, 2013 को नई दिल्ली में 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद नरेंद्र मोदी को गले लगाते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी।

विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद हिंदी में उनके भाषण से यह स्पष्ट हो गया कि उनका लक्ष्य राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका निभाने का है। एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र, जिन बातों को उनके व्यक्तित्व की त्रुटियां बताता था, विधानसभा चुनावों में मिली लगातार तीसरी जीत को नरेंद्र मोदी ने उन्हीं खामियों को दूर करने के लिए इस्तेमाल किया। वह अपनी प्रसिद्ध सार्वजनिक वक्तृत्व कला का कुशलता से सोच-समझकर ‘छह करोड़ गुजरातियों’ से अपनी ‘पिछली गलतियों’ के लिए क्षमा मांगने में उपयोग करते थे। वे गुजरात के मतदाताओं, जिन्होंने उन्हें सत्ता में पहुंचाया, से आग्रह करते हुए उनका आशीर्वाद मांगते थे जिससे कि वह भविष्य में कोई गलती न करें। उन्होंने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया, ‘अच्छे अर्थशास्त्र से ही बेहतर राजनीति बनती है’

और इसी नियम के तहत "सुशासन, चुनावी लाभांश दे सकता है।" आम जनता से विपक्षी दलों के कटे रहने को उन्होंने अपने भाषण का मुख्य बिंदु बनाया। तर्क वितर्क करने वाले राजनीतिक पंडितों ने उन्हें कम करके आंका और अपना मजाक उड़वाया। जबकि मोदी के समर्थकों ने संकेत दे दिया था कि वह अपने प्यारे नेता को साउथ ब्लॉक स्थित के प्रधान मंत्री कार्यालय में बैठा देखना चाहते हैं। समाज में यह भावना बहुत तेजी से बढ़ रही थी कि "मोदी को कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे कि भाजपा उनकी उपेक्षा न कर सके।" चुनाव के परिणामों ने इस बात की पुष्टि कर दी कि मोदी विपक्ष और कांग्रेस की संयुक्त शक्ति से कहीं अधिक प्रभावशाली हैं और उनका कोई जोड़ नहीं है। लेकिन उनके सभी विरोधी, जिनमें भाजपा के पूर्व

मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल, विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के प्रवीण तोगड़िया और अन्य कार्यकर्ताओं के नेतृत्व वाले अलग-अलग गुट भी शामिल थे, फरवरी 2002 के सांप्रदायिक दंगों की यादों को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। संक्षेप में कहें तो यह कि भाजपा के भीतर और बाहर दोनों जगह उनके विरुद्ध साझा राजनीतिक मंच सज चुका था।

श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स, नई दिल्ली में प्रेरक भाषण

नरेंद्र मोदी ने 6 फरवरी, 2013 को श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स (एसआरसीसी) में 1800 छात्रों को संबोधित किया, जिनमें लड़कों से ज्यादा लड़कियां थीं। उनके इस भाषण ने उन्हें एक रॉक स्टार बना दिया। साथ ही वे मीडिया की आंखों के सितारे बन गए। इस भाषण ने नरेंद्र मोदी


24 को युवाओं से जोड़ दिया और उनके बीच एक जुड़ाव बन गया। वह पीढ़ी जो अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के मनमोहक और जन-स्पर्शी भाषणों को सुनने की आदती हो चुकी थी, के सामने शानदार तरीके से मोदी अपने मूलरूप में थे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि अधिकांश लोगो ने उसी वक्त ये फैसला कर लिया था कि वह भविष्य में भारत का नेतृत्व करने के लिए सबसे योग्य व्यक्ति हैं। इसके साथ ही, मोदी ने भारत में अभी तक अपरिचित एक "राजनीतिक मंत्र" का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने स्थापित किया कि अगर कोई राजनेता एक आकांक्षापूर्ण और मैं-मेरे-अपने वाले इस युग में देश का नेतृत्व करने का लक्ष्य रखता है और वह एक प्रमुख संस्थान में शहरी युवाओं को संबोधित करने का अवसर नहीं खोजता है, तो वह मूर्ख है और एक राजनीतिज्ञ होने के योग्य नहीं है। दिल्ली और अन्य जगहों के युवाओं की नजरों में, गुजरात के विकास की कहानी आने लगी। युवाओं ने नरेंद्र मोदी में एक उत्कृष्ट आधुनिकीकरण का पक्षधर और प्रशासक तथा परिणामों से न डरने वाला निर्णयकर्ता देखा। उन्होंने मोदी में गुजरात के विकास के लिए जिम्मेदार एक प्रभावशाली और शक्तिशाली व्यक्तित्व को देखा। मोदी ने आह्वान किया कि वे माटी के सपूत हैं और उस जगह से आते हैं जहां महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाई पटेल का जन्म हुआ और फिर उन्होंने राष्ट्रीय जीवन में नाम कमाया। उनकी इस अपील ने भावनात्मक रूप से काम किया। इससे उनकी आकर्षकता और लोकप्रियता बढ़ गई,

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नई दिल्ली में श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स मैनेजमेंट फेस्टिवल बिजनेस कॉनक्लेव 2013 को संबोधित करते हुए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी।

प्रधानमंत्री के लिए नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी के पक्ष में संकेत

सपने को वास्तविकता में बदलने की इच्छा और क्षमता

एक हिंदू राष्ट्रवादी नेता से असाधारण नेतृत्व के गुणों वाले राजनीतिज्ञ के रूप में सफल छवि परिवर्तन

भीड़ को आकर्षित करने के लिए प्रतिभा और भाषण-कला उद्योग समर्थित एक नेता जिसका ध्यान तेजी से शहरी और ग्रामीण विकास पर केंद्रित है

भारत को एक महाशक्ति के रूप में सांस्कृतिक परंपराओं को आर्थिक परिवर्तन परिवर्तित करने की कहानी जिसके साथ के साथ संरेखित करने की कुशलता युवा पीढ़ी तुरंत जुड़ जाती है

पार्टी के कई नेताओं ने मुझे सिखाया है। उन्होंने मेरे अंदर अच्छाई भरी है। कभी-कभी मुझे लगता है कि पार्टी के नेताओं ने अपने बच्चों से भी ज्यादा मेरे लिए किया है। नरेंद्र मोदी, गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी बैठक में

5 अप्रैल, 2014: गुजरात के गांधीनगर में लालकृष्ण अडवाणी अपना नामांकन पत्र चुनाव अधिकारी को सौपते हुए, उन्हें देखते हुए भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी।

जिससे उन्हें बहुमत के साथ राजनीतिक सितारा बना दिया। उनकी कई बातों ने उनकी छवि एक प्रेरक और दृढ़ नेता की बना दी और उन्हें प्रधानमंत्री के लिए सबसे योग्य उम्मीदवार के रूप में पेश किया। इन बातों में, उनका पी2जी2 (लोगों का हित, सुशासन की ओर ले जाता है)


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में जाएगी, जिसमें वह अपनी भविष्य की परियोजनाओं को बताएगी। पार्टी जो कुछ भी कहती है, पार्टी वह करेगी। ... आज के उत्साह को देखकर मुझे भरोसा है कि कोई भी शक्ति भाजपा को जीत से नहीं रोक सकती, हमें केवल आपके समर्थन की आवश्यकता है। ... नरेंद्र भाई को, चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए जाने पर, मैं बधाई और शुभकामनाएं देता हूं।

भारत एक लोकतंत्र है और लोकतंत्र में जिस व्यक्ति को लोगों का सबसे ज्यादा प्यार मिलता है, वही उनका नेता बन जाता है। प्रधानमंत्री को प्रेरणा राजनाथ सिंह, भाजपा के तत्कालीन का एक स्रोत होना चाहिए। भाजपा अध्यक्ष, गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय एक विजन दस्तावेज के साथ चुनावों कार्यकारी बैठक में संदर्भ, निराशा की भावना को समाप्त करने के लिए आह्वान, गिलास आधा खाली है कि जगह आधा भरा है देखना, और इस तथ्य पर गौर करना कि भारत की 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम उम्र है, प्रमुख थी। अपने भाषण के अंत में इसमें कोई संदेह नहीं था कि नरेंद्र मोदी ही वह नेता हैं, जिसकी भारत को तलाश थी और वह राष्ट्र के भाग्य को बदलने के लिए नए रास्ते पर चलेगा। जिसकी, भारत को स्थायी

भ्रष्टाचार और अक्षमता के दलदल से निकालने में एक सक्षम, मजबूत और नेता की सार्वभौमिक स्वीकृति थी।

शीर्ष पर पहुंचना

भाजपा ने नरेंद्र मोदी को 2014 के अपने चुनाव अभियान का नेतृत्व करने के लिए और फिर पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में घोषित करने से पहले, व्यापक आंतरिक बहसों और विचार-विमर्श का आयोजन किया।

हमारे देश में सामान्यता किसी नीतिगत बदलाव में एक दशक का समय लग जाता है। लेकिन अगर उनके भाषणों को देखें जिसमें वह कौशल और तेजी की बात करते हैं तो उनके अंदर एक बदलाव लाने की क्षमता है और वह अगला प्रधानमंत्री बनने योग्य हैं। अभिषेक वीरमानी बी.काम. (ऑनर्स) छात्र, एसआरसीसी

9 जून, 2013 को पणजी, गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी बैठक को संबोधित करते हुए गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी।

पुस्तक अंश

मार्च 2013 के पहले सप्ताह में, पार्टी के अनुभवी नेता लालकृष्ण अडवाणी ने चुनाव और भाजपा के नए अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह की नियुक्ति का स्वागत किया। वह आने वाले निकट भविष्य में पार्टी के नेतृत्व ढांचे में होने वाले नाटकीय बदलावों से अनभिज्ञ थे। उस समय, अडवाणी ने पूरे पार्टी संगठन से राजनाथ सिंह के नेतृत्व में फिर से संगठित होने का आग्रह किया। उन्होंने याद दिलाया कि कैसे सामान्यता भाजपा हमेशा खुद को "अलग पार्टी" के रूप में पेश करती रही है, लेकिन अब उसे "मतभेदों के साथ वाली पार्टी" के रूप में माना जा रहा है। अडवाणी ने कहा कि भाजपा इस तथ्य पर गर्व कर रही है कि वह एक गैर-वंशवादी पार्टी है, जिसने मूल्यवान और आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा दिया। लेकिन आंतरिक लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए नेतृत्व की सीढ़ी के शीर्ष पर आंतरिक सामंजस्य के महत्व को याद दिलाया। उन्होंने चेतावनी दी कि आंतरिक सामंजस्य, जो हमेशा भाजपा की पहचान रही है, को आंतरिक अनुशासन की कमी से कमजोर होने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। उन्होंने भारत की प्रगति के ठहराव को समाप्त करने के लिए लोगों की इच्छा और अप्रभावी यूपीए सरकार को हटाने के लिए जनभावना के बारे में बात की। उन्होंने यूपीए के एक विश्वसनीय राजनीतिक विकल्प बनने के लिए समान विचारधारा वाली पार्टियों के साथ मिलकर काम करने की बात कही। साथ ही उन्होंने लोगों के दिलों और दिमाग को जीतने के लिए गैर-कांग्रेसी विकल्प का एक मजबूत, बड़ा और अग्रणी प्रधान घटक बनने के लिए भाजपा की जरूरत के बारे में भी कहा।

..और फिर अंतिम फैसला ले लिया गया!

25 चाहे आप नरेंद्र मोदी के प्रशंसक हों या न हों लेकिन आपको उनकी भाषण कला और उसके विषय की प्रशंसा करनी होगी। दर्शक युवा थे, और मोदी ने जिन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित किया वह सभी ऐसे क्षेत्र थे जो युवाओं के उज्जवल भविष्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। अनंत रंगस्वामी स्तंभकार और संपादक, कैम्पेन इंडिया (अभियान भारत)

राष्ट्रवादी दृष्टिकोण के साथ एक नेता के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने के बाद, नरेंद्र मोदी 7 जून 2013 को बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने के लिए गोवा पहुंचे। गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर और हजारों उत्साही भाजपा कार्यकर्ताओं ने डाबोलिम हवाईअड्डे पर उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। गोवा सम्मेलन के विचार-विमर्श और नतीजे ने नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर 2014 के चुनाव अभियान की अगुवाई करने के लिए चुन लिया। उस वक्त भाजपा को एल के अडवाणी और अन्य वरिष्ठ नेताओं की अनुपस्थिति में इस बड़े फैसले को लेकर दुविधा का सामना करना पड़ा। ये नेता गोवा में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल नहीं हुए और कहा गया कि वह भाजपा के फैसले के विरोध में हैं। दो दिवसीय मीटिंग से दूर रहने के लिए अडवाणी के खराब स्वास्थ्य का हवाला दिया गया, जबकि पार्टी नेताओं में चुनावों के लिए अभियान प्रमुख के रूप में मोदी को लेकर कोलाहल शुरू हो चुका था। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा कि सम्मेलन एक सकारात्मक मोड़ पर समाप्त होगा और हर कोई "खुश और उत्साहित" होकर वापस जाएगा। आखिरकार, गोवा सम्मेलन में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली 12-सदस्यीय एक अभियान समिति का गठन किया गया। इसमें एम. वेंकैया नायडू, नितिन गडकरी, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर शामिल थे। वरिष्ठ पार्टी नेताओं, मुरली मनोहर जोशी और सुषमा स्वराज को भी टीम का हिस्सा बनाया गया। राजनाथ सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को सलाहकार घोषित किया गया।

निर्णय के कारण राजनीतिक हलचल

गोवा सम्मेलन के एक सप्ताह बाद, भाजपा


26 के सामने एक और संकट आ गया। 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए नरेंद्र मोदी की अभियान समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्ति, भाजपा के महत्वपूर्ण सहयोगी और 17 सालों से भागीदार जनता दल यूनाइटेड (जेडी-यू) के साथ अच्छी नहीं लगी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विशेष रूप से नाराज थे, हालांकि उन्होंने नरेंद्र मोदी की नियुक्त के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा। 16 जून 2013 को, नीतीश कुमार और जेडी-यू अध्यक्ष शरद यादव ने औपचारिक रूप से भाजपा और एनडीए से अपने अलग होने की घोषणा की। उन्होंने एनडीए को छोड़ने के उनके कारणों में "बुनियादी मुद्दों पर एक राय न होना" का हवाला दिया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि भाजपा अब एक नए चरण में प्रवेश कर रही है और जब तक बिहार गठबंधन में कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं हुआ था, तब तक यह सुचारू रूप से चल रहा था। उन्होंने कहा कि जबसे बाहरी हस्तक्षेप शुरू हुआ तभी से परेशानियां शुरू हुईं। उन्होंने एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान मोदी का नाम न लेते हुए उन पर निशाना साधा। उन्होंने यह भी घोषणा की कि उन्होंने अपनी सरकार के 11 मंत्रियों को गवर्नर से हटाने की सिफारिश की है, क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्यों को निभाने से इनकार कर दिया है। जनता दल (यू) के फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए भाजपा ने कहा कि नरेंद्र मोदी की नियुक्ति के फैसले पर कोई समझौता नहीं होगा, भले ही एनडीए गठबंधन टूट जाए।

प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में अंतिम घोषणा लालकृष्ण अडवाणी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी को लेकर

पुस्तक अंश

19 - 25 फरवरी 2018

चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने एनडीए गठबंधन को अपनी सबसे बड़ी शक्ति के रूप में बताया था। लोकसभा में स्पष्ट बहुमत जीतने के बावजूद, नरेंद्र मोदी की भाजपा दुर्लभ वफादारी दिखाते हुए अपने गठबंधन सहयोगियों के लिए सच्चाई के साथ खड़ी रही अपना विरोध त्यागने से इनकार कर चुके थे। इसीलिए उन्हें मनाने और मोदी को आशीर्वाद देने के लिए प्रयासों की शुरुआत हुई। पिछले दरवाजे से चली कई सप्ताह की बातचीत बातचीत और संघ के आदेश के बाद, भाजपा ने 14 सितंबर, 2013 को एलके अडवाणी की अनुमति के बिना ही नरेंद्र मोदी को 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। यह घोषणा भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और दो वरिष्ठ नेताओं, विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और पूर्व पार्टी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के बीच कई दौर की बातचीत से पहले हुई। घंटे भर की संसदीय बोर्ड की बैठक से

कुछ देर पहले, एलके अडवाणी ने राजनाथ सिंह को अपनी 'पीड़ा' व्यक्त करने के लिए दो अनुच्छेद का पत्र लिखा। उन्होंने इसमें बताया कि गहरे चिंतन के बाद उन्होंने इस बैठक से दूर रहने का फैसला किया है। बोर्ड की बैठक के तुरंत बाद मोदी पार्टी के अन्य वरिष्ठ सदस्यों, अडवाणी और बीमार

अगर मैं भाजपा की जगह पर होता, तो मैं आम चुनावों में बढ़त लेने लिए तुरंत मोदी को अपनी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के घोषित कर देता। सुब्रमण्यम स्वामी, जनता पार्टी अध्यक्ष, जुलाई 27, 2013

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को छोड़कर, के साथ मीडिया सम्मेलन कक्ष में चले गए। शंख ध्वनि के बीच, भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसकी घोषणा की और इसके बाद एक संक्षिप्त बयान मीडिया में जारी किया गया। मोदी ने अपनी तरफ से, पार्टी के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान के लिए वाजपेयी और अडवाणी दोनों को धन्यवाद दिया और उन्हें आश्वस्त किया कि 2014 के आम चुनावों में वह भाजपा को सत्ता में वापस लाने के लिए सब कुछ करेंगे।

संघ ने क्यों नरेंद्र मोदी का समर्थन किया तेलगु देशम पार्टी के अध्यक्ष के साथ एन चंद्र बाबू नायडू के साथ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी

के लिए अपनी प्राथमिक मांगों, जिसकी जड़ें हिंदुत्व में थी और नरेंद्र मोदी की ओर लौटना होगा। संघ ने अपने एजेंडे को पुनर्जीवित करने के लिए आवश्यक करिश्मे को मोदी में देखा। उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा गया जो संघ को मुख्यधारा की ताकत में

संघ ने बहुत जल्दी महसूस कर लिया था कि भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर वापसी करने

बदल सकता है और दक्षिणपंथी राजनीति के लिए बेहतर भविष्य का निर्माण कर सकता है। संघ के दृष्टिकोण से, मोदी ने खुद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक के रूप में भी सफलतापूर्वक स्थापित कर लिया था। भारत की राष्ट्रीय भाषा-हिंदी में भाषण और व्याख्यान देने पर उनका जोर और आग्रह, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में विश्वास करने वालों के लिए जीत थी। संघ के स्पष्ट रुप से यह कह देने के बाद कि नरेंद्र मोदी का नाम 20 सितंबर को 'अशुभ' पखवाड़े के प्रारंभ होने से पहले ही घोषित कर दिया जाए, अडवाणी के बिना ही भाजपा संसदीय बोर्ड की बैठक में इसकी औपचारिक घोषणा कर दी गई।


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पुस्तक अंश

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लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान के साथ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी।

सितंबर 2013 में प्रकाशित इकनोमिक टाइम्स/नीलसन के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, लगभग 75 प्रतिशत शीर्ष भारतीय कारोबारियों ने कहा कि वे चाहते हैं कि मोदी को देश का नेतृत्व करना चाहिए। जबकि केवल 7 प्रतिशत ने राहुल गांधी के लिए समर्थन किया।

रायटर, रिपोर्ट

एनडीए गठबंधन में शामिल होने के लिए राजनीतिक भागदौड़

जैसे ही नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार, स्वाभाविक तौर पर एनडीए गठबंधन का भी, घोषित किया गया, छोटे दलों में गठबंधन में शामिल होने की होड़ मच गई। क्योंकि उन सभी को अब जीत की खुशबू आने लगी थी। जनता पार्टी के अध्यक्ष डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने आधिकारिक तौर पर भाजपा के साथ अपनी पार्टी को विलय कर दिया। एक अर्थशास्त्री, वकील, राजनेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. स्वामी को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक प्रमुख प्रचारक होने का फायदा मिला। डॉ. स्वामी ही वह व्यक्ति थे, जिन्होंने ने 2 जी घोटाले को प्रकाश में लाने में मदद की, भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता में राय पैदा की और

विदेशों में भारतीयों द्वारा रखे काले धन से अवगत कराया। डॉ. स्वामी ने कहा कि भाजपा के साथ विलय करने का उनका फैसला इस तथ्य से प्रेरित था कि देश बहुत मुश्किल समय से गुजर रहा है और उन्होंने महसूस किया कि भारत के नए भविष्य का निर्माण करने के लिए एकीकृत होने का प्रयास करना ही समय की आवश्यकता है। तमिलनाडु से, डीएमडीके, एमडीएमके, पीएमके के नेतृत्व वाले सोशल डेमोक्रेटिक गठबंधन, कोंगुनाडू मुनेत्र कडगम और इंडिया जननायगा काच्ची, एनडीए गठबंधन में शामिल हुए। महाराष्ट्र से, दो क्षेत्रीय राजनीतिक संगठनों, स्वाभिमानी पक्ष और राष्ट्रीय समाज पक्ष भी एनडीए में शामिल हुए। इस तरह राज्य में एनडीए गठबंधन में पार्टियों की संख्या को 5 हो गई, जिसमें भाजपा, शिवसेना, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ

नितिन गडकरी और अरुण जेटली की उपस्थिति में सुब्रमण्यम स्वामी का भाजपा में स्वागत करते हुए अध्यक्ष राजनाथ सिंह।

9 जून, 2013: पणजी, गोवा में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी बैठक के दौरान नरेंद्र मोदी का माला पहनाकर स्वागत करते हुए भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह।

इंडिया, स्वाभिमानी पक्ष और राष्ट्रीय समाज पक्ष शामिल थे। बाद में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना भी एनडीए में शामिल हुई। बिहार में, उपेंद्र कुशवाह के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी एनडीए में शामिल हुई और तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए सहमत हुई। चार दिन बाद रामविलास पासवान की अगुआई में लोक जनशक्ति पार्टी एनडीए में शामिल हुई और बिहार की सात लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने पर सहमत हो गई। इंडियन नेशनल लोकदल, लोक सत्ता पार्टी और अखिल भारतीय एनआर कांग्रेस (एआईएनआरसी) औपचारिक रूप से एनडीए में शामिल हुई और प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का समर्थन किया। आंध्र प्रदेश से चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने भी 6 अप्रैल को एनडीए के साथ खुद को जोड़ लिया।

(अगले अंक में जारी...)


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कही-अनकही

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मुमताज जहां देहलवी बन गईं मधुबाला 'वीनस ऑफ इंडियन सिनेमा' और 'द ब्यूटी ऑफ ट्रेजेडी' के नाम से पुकारी जाने वाली मधुबाला का अभिनय और सौंदर्य अनमोल था

धुबाला का नाम हिंदी सिनेमा की उन अभिनेत्रियों में शामिल है, जो पूरी तरह सिनेमा के रंग में रंग गईं और अपना पूरा जीवन इसी के नाम कर दिया। उन्हें अभिनय के साथ-साथ अभुद्त सुंदरता के लिए भी जाना जाता है। उन्हें 'वीनस ऑफ इंडियन सिनेमा' और 'द ब्यूटी ऑफ ट्रेजेडी' जैसे नाम भी दिए गए। मधुबाला का जन्म 14 फरवरी, 1933 को दिल्ली में हुआ था। इनके बचपन का नाम मुमताज जहां देहलवी था। इनके पिता का नाम अताउल्लाह और माता का नाम आयशा बेगम था। शुरुआती दिनों में इनके पिता पेशावर की एक तंबाकू फैक्ट्री में काम करते थे। वहां से नौकरी छोड़ उनके पिता दिल्ली और वहां से मुंबई चले आए, जहां मधुबाला का जन्म हुआ। वेलेंटाइन डे वाले दिन

जन्मीं इस खूबसूरत अदाकारा के हर अंदाज में प्यार झलकता था। उनमें बचपन से ही सिनेमा में काम करने की तमन्ना थी, जो आखिरकार पूरी हो गई। मुमताज ने अपने फिल्मी करियर की शुरुआत वर्ष 1942 की फिल्म 'बसंत' से की थी। यह काफी सफल फिल्म रही और इसके बाद इस खूबसूरत अदाकारा की लोगों के बीच पहचान बनने लगी। इनके अभिनय को देखकर उस समय की जानीमानी अभिनेत्री देविका रानी बहुत प्रभावित हुईं और मुमताज जेहान देहलवी को अपना नाम बदलकर 'मधुबाला' के नाम रखने की सलाह दी। वर्ष 1947 में आई फिल्म 'नील कमल' मुमताज के नाम से आखिरी फिल्म थी। इसके बाद वह मधुबाला के नाम से जानी जाने लगीं। इस फिल्म में महज चौदह वर्ष की मधुबाला ने राजकपूर के साथ काम किया। 'नील कमल' में अभिनय के बाद से उन्हें सिनेमा की 'सौंदर्य देवी' कहा जाने लगा। इसके दो साल बाद मधुबाला ने बॉम्बे टॉकिज की फिल्म 'महल' में अभिनय किया और फिल्म की सफलता के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उस समय के सभी लोकप्रिय पुरुष कलाकारों के साथ उनकी एक के बाद एक फिल्में आती रहीं। मधुबाला ने उस समय के सफल अभिनेता अशोक कुमार, रहमान, दिलीप कुमार और देवानंद जैसे दिग्गज कलाकारों के साथ काम किया था। वर्ष 1950 के दशक

'नील कमल' मुमताज के नाम से आखिरी फिल्म थी। इसके बाद वह मधुबाला के नाम से जानी जाने लगीं। इस फिल्म में महज चौदह वर्ष की मधुबाला ने राज कपूर के साथ काम किया। 'नील कमल' में अभिनय के बाद से उन्हें सिनेमा की 'सौंदर्य देवी' कहा जाने लगा

के बाद उनकी कुछ फिल्में असफल भी हुईं। असफलता के समय आलोचक कहने लगे थे कि मधुबाला में प्रतिभा नहीं है, बल्कि उनकी सुंदरता की वजह से उनकी फिल्में हिट हुई हैं। इन सबके बाबजूद मधुबाला कभी निराश नहीं हुईं। कई फिल्में फ्लॉप होने के बाद 1958 में उन्होंने एक बार फिर अपनी प्रतिभा को साबित किया और उसी साल उन्होंने भारतीय सिनेमा को 'फागुन', 'हावड़ा ब्रिज', 'काला पानी' और 'चलती का नाम गाड़ी' जैसी सुपरहिट फिल्में दीं। वर्ष 1960 के दशक में मधुबाला ने किशोर कुमार से शादी कर ली। शादी से पहले किशोर कुमार ने इस्लाम धर्म कबूल किया और नाम बदलकर करीम अब्दुल हो गए। उसी समय मधुबाला एक भयानक रोग से पीड़ित हो गई। शादी के बाद रोग के इलाज के लिए दोनों लंदन चले गए। लंदन के डॉक्टर ने मधुबाला को देखते ही कह दिया कि वह दो साल से ज्यादा जीवित नहीं रह सकतीं। इसके बाद लगातार जांच से पता चला कि मधुबाला के दिल में छेद है और इसकी वजह से इनके शरीर में खून की मात्रा बढ़ती जा रही थी। डॉक्टर भी इस रोग के आगे हार मान गए और कह दिया कि ऑपरेशन के बाद भी वह ज्यादा समय तक जीवित नहीं रह पाएंगी। इसी दौरान उन्हें अभिनय छोड़ना पड़ा। इसके बाद उन्होंने निर्देशन में हाथ आजमाया। वर्ष 1969 में उन्होंने फिल्म 'फर्ज' और 'इश्क' का निर्देशन करना चाहा, लेकिन ये फिल्में नहीं बनी और इसी वर्ष अपना 36वां जन्मदिन मनाने के नौ दिन बाद 23 फरवरी,1969

खास बातें मुमताज नाम से शुरू किया फिल्मों में काम 14 वर्ष की उम्र में किया राज कपूर के साथ काम 1947 में बनी 'नील कमल' मुमताज नाम से आखिरी फिल्म थी

को बेपनाह हुस्न की मलिका दुनिया को छोड़कर चली गईं। उन्होंने लगभग 70 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया। उन्होंने 'बसंत', 'फुलवारी', 'नील कमल', 'पराई आग', 'अमर प्रेम', 'महल', 'इम्तिहान', 'अपराधी', 'मधुबाला', 'बादल', 'गेटवे ऑफ इंडिया', 'जाली नोट', 'शराबी' और 'ज्वाला' जैसी फिल्मों में अभिनय से दर्शकों को अपनी अदा का कायल कर दिया। मधुबाला भले ही अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन मनोरंजन-जगत में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। उनकी तस्वीर वाले बड़े-बड़े पोस्टर आज भी लोग बड़े चाव से खरीदते हैं।


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खेल

खेल एक, देश दो

भारतीय क्रिकेट इतिहास के वे पांच खिलाड़ी, जो भारत की ओर से खेलने के बाद दूसरे देशों के लिए खेले

क्रि

एसएसबी ब्यूरो

केट का खेल ही रोमांच से भरा नहीं होता है, बल्कि क्रिकेटरों की जिंदगी से जुड़े कई ऐसे पहलू भी हैं, जो खासे दिलचस्प होते हैं। बात करें अपने देश की तो भारतीय टीम ने अपना पहला अंतरराष्ट्रीय मैच 1932 में खेला था। तब से अब तक कई महान भारतीय क्रिकेटर हुए हैं। बातचीत में इन महान खिलाड़ियों की चर्चा भी होती रहती है। पर कम ही लोग यह बात जानते हैं कि क्रिकेट इतिहास में कई ऐसे क्रिकेटर हुए हैं, जिन्होंने डेब्यू तो भारतीय टीम की ओर से किया, लेकिन बाद के वर्षों में वे दूसरी टीमों की ओर से खेलते नजर आए। इसके अलावा कुछ ऐसे क्रिकेटर भी हुए, जिन्होंने भारत की सरजमीं पर अपने क्रिकेट करियर की शुरुआत की, लेकिन बाद में उन्होंने दूसरी टीमों की ओर से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेला।

अब्दुल हफीज करदार

आमिर इलाही

अब्दुल हफीज करदार

1947 में भारत और पाकिस्तान दो मुल्कों में बंट गए। इस तरह पाकिस्तान की क्रिकेट टीम भी अलग टीम बनी। इस नई पाकिस्तान टीम के कप्तान अब्दुल हफीज करदार बने, जो पहले ही भारतीय क्रिकेट टीम की ओर से टेस्ट मैच खेल चुके थे। करदार ने अपने अंतरराष्ट्रीय करियर का आगाज 1946 में किया था। तब वे भारतीय टीम की ओर से इंग्लैंड के खिलाफ लॉर्ड्स के मैदान पर खेले थे। हफीज ने इस मैच की पहली पारी में 43 और दूसरी पारी में शून्य रन बनाए थे। पाकिस्तान क्रिकेट के पहले कप्तान हफीज करदार अच्छे पढ़े-लिखे क्रिकेटर थे। उन्होंने ग्रेजुएशन इंग्लैंड की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से किया था। पाकिस्तान को 1952 में टेस्ट दर्जा प्राप्त हुआ और हफीज ने पाकिस्तानी टीम की बागडोर 1952 से 1958 तक संभाली। जिस समय हफीज ने टीम की बागडोर संभाली, उस समय पाकिस्तान क्रिकेट की माली हालत बेहद खराब थी। यहां तक कि टीम

खास बातें

भारतीय टीम ने अपना पहला अंतरराष्ट्रीय मैच 1932 में खेला पाक टीम के पहले कप्तान करदार 1946 में भारत से खेल चुके थे 8 वर्षों तक भारत के लिए खेलने के बाद गुल पाकिस्तान चले गए

गुल मोहम्मद

के खिलाड़ियों के पास ढंग की क्रिकेट किट भी नहीं थी। वे अपनी किट की जरूरतें अपने दोस्तों व फैंस से मांगकर पूरी करते थे। पाक खिलाड़ियों को जूते तक उनके दोस्त उन्हें उधार देते थे। इस सबके बावजूद हफीज ने अपनी कप्तानी की जिम्मेदारी बखूबी निभाई। पाकिस्तान ने हफीज की कप्तानी में 23 मैच खेले जिनमें 8 में जीत दर्ज की। यह उस टीम के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी, जिसके खिलाड़ी एक साथ कई स्तरों पर संघर्ष कर रहे थे।

गुल मोहम्मद

गुल मोहम्मद ने 1946 में भारतीय टीम की ओर से टेस्ट मैचों में डेब्यू किया था। गुल ने भारत के लिए कुल 8 टेस्ट मैच खेले। 1947 में भारत- पाकिस्तान बंटवारे के 8 वर्ष बाद 1955 में गुल को पाकिस्तान की नागरिकता मिल गई। उन्होंने पाकिस्तान की ओर से एक टेस्ट मैच खेला। 1921 में जन्मे गुल ने 1938 रणजी ट्रॉफी में उत्तर भारत की ओर से डेब्यू किया था।

आमिर इलाही

आमिर इलाही उन 20 क्रिकेटरों में से एक हैं, जिन्होंने सबसे ज्यादा उम्र में क्रिकेट खेली। इलाही ने भारतीय टीम के लिए एकमात्र टेस्ट मैच 1947 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ सिडनी में खेला था। इसके बाद इलाही ने 1952-53 में पाकिस्तान के लिए 5 टेस्ट मैच खेले। संयोगवश ये सभी टेस्ट मैच उन्होंने

स्वप्निल पाटिल

कृष्णा चंद्रन

हफीज ने पाकिस्तानी टीम की बागडोर संभाली, उस समय पाकिस्तान क्रिकेट की माली हालत बेहद खराब थी। यहां तक कि टीम के खिलाड़ियों के पास ढंग की क्रिकेट किट भी नहीं थी

भारत के खिलाफ खेले। इलाही ने अपने करियर की शुरुआत तो एक मध्यम गति के तेज गेंदबाज के रूप में की थी। लेकिन बाद में उन्होंने लेग ब्रेक और गुगली गेंदबाजी करनी शुरू कर दी, जिसमें उन्होंने अच्छी सफलता हासिल की। रणजी ट्रॉफी में बड़ौदा टीम की ओर से खेलते हुए इलाही ने 24.72 की औसत के साथ 193 विकेट लिए। साथ ही बड़ौदा के 1946- 47 रणजी ट्रॉफी जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंटवारे के बाद वह पाकिस्तान की ओर खेले। उनकी जिंदगी का सबसे बेहतरीन पल उन्हें तब देखने को मिला जब उन्होंने मद्रास में खेले गए एक टेस्ट मैच में जुल्फिकार अहमद के साथ 10वें विकेट के लिए 104 रनों की साझेदारी निभाई।

स्वप्निल पाटिल

स्वप्निल पाटिल मुंबई के रहने वाले हैं। उन्होंने मुंबई की ओर से अंडर-19 और अंडर- 22 में क्रिकेट

खेली और उसके बाद वह काम की तलाश में यूएई चले गए। इसी दौरान उन्हें क्रिकेट खेलने का मौका मिला जिसे उन्होंने जमकर भुनाया। अंततः उन्हें यूएई की टीम की ओर से डेब्यू करने का मौका मिला। विकेटकीपर बल्लेबाज स्वप्निल ने अब तक कुल 13 वनडे इंटरनेशनल और 18 टी20 मैच खेले हैं। इस दौरान उनका औसत क्रमशः 26.30 और 14.38 का रहा है।

कृष्णा चंद्रन

कृष्णा चंद्रन ने अपना लिस्ट-ए डेब्यू केरल की ओर से किया था। बाद में उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात की ओर से अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलना शुरू किया। वे 2010 में यूएई आए थे। चंद्रन एक मध्यक्रम के बल्लेबाज और मध्यम तेज गति के गेंदबाज हैं। कृष्णा ने अब तक कुल 11 अंतरराष्ट्रीय एकदिवसीय मैच खेले हैं, जिनमंर उन्होंने 7 विकेट लिए और 119 रन बनाए हैं।


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सा​िहत्य

19 - 25 फरवरी 2018

कहानी

कविता

कविता

दोस्ती

विश्व शांति

दया

प्रेम बसे घट-घट में, बने ये धरती स्वर्ग समान ऐसी दया करो भगवान, ऐसी कृपा करो भगवान हैवानों के कर्म तजे सब, बन जाए इंसान ऐसी दया करो भगवान, ऐसी कृपा करो भगवान

आज सुबह सवेरे उठकर घर के बाहर खड़ा हुआ, पूरब दिशा में लाली छाई और हवा भी पुरवाई। मुझे सुहाना लगा सवेरा मेरे मन आनंद भरा, नभ मंडल में खग कुल देखो कैसा कलरव करते हैं, झूम झूम के वृक्ष डालियां, आपस में गले मिलती हैं। अंधकार के मिट जाने से प्रकृति प्रफुल्लित होती है फिर मानव तो चेतन प्राणी तंद्रा में क्यों होते हैं भानु उदय जब होता बंदे स्वागत करने उठ जाओ। रामनाम की सुंदर ध्वनि से मन को पूरित कर डालो, तभी विश्व में शांति मिलेगी और मिलेगा सुख विविध। मेहनत से अपनी मंजिल पर आगे कदम बढ़ाना है। श्रम से ही तकदीर बदलती और बदलता चोला है। बड़े,बड़े साधु संतों ने भी तो यही सब बोला है।

दो

दोस्त एक दिन रेगिस्तान घूमने निकले। घूमने के दौरान दोनों में किसी बात को लेकर अनबन हो गई। बात इतनी बढ़ी कि एक दोस्त ने दूसरे को थप्पड़ मार दिया। जिस दोस्त को थप्पड़ लगी तो उसने कुछ कहा नहीं। दुखी मन से नीचे जमीन पर बैठ गया और अंगुलियों से रेत पर लिखा कि आज मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने मुझे थप्पड़ मारा। कुछ समय बाद दोनों वहां से आगे बढ़ गए। कुछ दूर आगे जाने पर रास्ते में उन्होंने झील देखी। दोनों का मन झील में स्नान करने का हुआ। दोनों झील के करीब पहुंच गए और स्नान करने लगे। झील गहरी थी। जिस दोस्त को कुछ देर पहले थप्पड़ लगी थी, वह पानी में डूबने लगा। दोस्त को डूबता देख दूसरा उसे तुरत बचाने पहुंच गया। दूसरे ने उसे खींच के

दान महादान

बहार निकाला। झील से बाहर आने के बाद वो एक पत्थर पर लिखने लगा कि आज मेरे सबसे अच्छे दोस्त ने मेरी जान बचाई। यह देख कर दोस्त ने उससे पूछा कि जब मैंने तुम्हें थप्पड़ मारा तो तुमने रेत पर लिखा, लेकिन जब मैंने तुम्हारी जान बचाई तो तुमने पत्थर पर लिखा। ऐसा क्यों ‍? दूसरे दोस्त ने जवाब दिया की जब कोई हमें दुःख पहुंचाता है तो उसे रेत पे लिखना चाहिए, ताकि हवा के झोंके के साथ वह मिट जाए। लेकिन जब कोई अच्छा काम करता है, तो उसे पत्थर पे लिखना चाहिए ताकि उस अच्छाई को कोई मिटा न सके। दोस्ती की इस कथा से हमें यह सीखने को मिलता है कि बुराईयों को हमेशा भूल जाना और अच्छाई को हरदम याद रखना चाहिए।

क बार एक भिखारी भीख मांगने निकला। उसका सोचना था कि जो कुछ भी मिल जाए उसे ले लेना चाहिए। एक दिन वह राजपथ पर जा रहा था। उसको रास्ते में एक अनाज की थैली मिली और उसने वह ले ली। वह आगे की ओर बढ़ा उसने देखा कि राजा रथ पर सवार हो कर आ रहा है। वह राजा को देखने के लिए रुक गया। राजा ने भिखारी को देखा और उससे भिक्षा मांगने लगा। राजा बोला मुझे पंडित जी ने बोला है जो भी पहला

हर घर में, हर आंगन में, प्रेम हो सबके मन में प्रेम बसे जग-जग में, प्रेम बसे सबके जीवन में मिट जाए झगड़े नफरत के, जग ना बने लड़ाई का मैदान ऐसी दया करो भगवान, ऐसी कृपा करो भगवान हर इंसान है रूप तुम्हारा, फिर क्यों झगड़ा क्यों बंटवारा मंदिर हो या हो गुरुद्वारा, इक तेरा है सकल पसारा मिलकर रहे आपस में हम सब, जैसे रहे भाई जान ऐसी दया करो भगवान, ऐसी कृपा करो भगवान कौन भला है, कौन बुरा है, कौन है खोटा, कौन खरा नूर तेरा कण-कण में बसा है, तू सागर, इंसान है कतरा प्रेम और भक्ति जन-जन को, देना बेजोड़ महान ऐसी दया करो भगवान, ऐसी कृपा करो भगवान

कहानी भिखारी मिले उससे भिक्षा मांग लेना वरना तुम्हारा सारा राजपाट खत्म हो जाएगा। राजा भिखारी को बोला मना मत करना कृपा कर के भिक्षा दे दो। भिखारी ने थैली में हाथ डाला और एक मुट्ठी अनाज भरा और राजा को देने लगा, फिर भिखारी ने सोचा थोड़ा कम देता हूं और मुट्ठी में से थोड़ा कम करके दे दिया। घर जाकर भिखारी अपनी पत्नी को बताया कि मैंने आज राजा को भिक्षा दी। लेकिन मैं थोड़ा अनाज बचा कर ले आया

हूं। जैसे ही भिखारी की पत्नी ने थैली खोली तो उसमें से अनाज के बदले सोने का एक सिक्का निकला । सोने का सिक्का देख भिखारी सोचने लगा कि अगर मैं सारा अनाज दे देता तो मुझे और सोने के सिक्के मिलते और मेरी गरीबी दूर हो जाती। दान देने से कम नहीं होता, बल्कि हजार गुना बढ़ता है। इसीलिए हमें दान करते समय सोचना चाहिए कि दान से किसी को फायदा हो तो उसे दान दिल खोल कर देना चाहिए


19 - 25 फरवरी 2018

आओ हंसें

सूखा और बाढ़ शिक्षक- सूखे और बाढ़ में जमीनआसमान का अंतर कैसे है? छात्र- सूखे में नेताजी जीप से दौरा करते हैं और बाढ़ में हेलिकॉप्टर से। डेट और तारीख शिक्षक ने कक्षा में प्रश्न पूछा- बताओ डेट और तारीख में क्या अंतर है? पूरी कक्षा में खामोशी। शिक्षक ने नालायक छात्र जुगाड़ू से कहा- तू बता? जुगाड़ू- जी सर, डेट पर दिल्ली, मुंबई और चंडीगढ़ के लड़के जाते हैं और तारीख पर बिजनौर, गाजियाबाद, मेरठ और मुजफ्फरनगर के लड़के।

डोकू -10

दूसरों की गई गलतियों से सीखो अपने ऊपर प्रयोग करके सीखने में तुम्हारी आयु कम पड़ जाएगी

रंग भरो

सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजता े को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें

महत्वपूर्ण दिवस • 19 फरवरी छत्रपति शिवाजी जयंती • 20 फरवरी अरुणाचल प्रदेश स्थापना दिवस • 21 फरवरी अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस • 22 फरवरी कस्तूरबा गांधी स्मृति दिवस, मौलाना आजाद स्मृति दिवस • 24 फरवरी केंद्रीय उत्पाद शुल्क दिवस

सुडोकू-09 का हल

वर्ग पहेली - 10

1. सावधान (4) 4. हाथीवान (4) 7. भारत की एक प्रसिद्ध इमारत (5) 8. किनारा, कागज के किनारे छोड़ी जाने वाली खाली जगह (3) 9. कैंची (4) 11. तब, उस समय (2) 13. तीन घंटे का समय, प्रहर (3) 14. रोज (2) 17. खिलखिलाना, अट्टहास (4) 19. सहस्र (3) 20. परिवार सम्बंधी (5) 22. घंटे की आवाज, एकदम अच्छा (4) 23. संदश े , खबर (4)

वर्ग पहेली-09 का हल

बाएं से दाएं

ऊपर से नीचे

सु

जीवन मंत्र

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इंद्रधनुष

1. प्रतिभावान (4) 2. आवागमन (4) 3. धूल (2) 4. सुगधि ं त (5) 5. अवस्था (3) 6. अँगठू े के पास वाली उँगली (3) 10. रात्रि (3) 11. अंतर्गत (3) 12. राय, मशवरा (3) 13. पानी भरने वाली महिला (5) 15. कचहरी, विभाग (4) 16. नायक, अगुआ (4) 17. केकड़ा (3) 18. दरवाजा या उसका पल्ला (3) 21. नाराजगी (2)

कार्टून ः धीर


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न्यूजमेकर

19 - 25 फरवरी 2018

साड़ी पहनकर एडवेंचर

न भिक्षाट ए लि स्वच्छता के

बिहार में 50 वर्षीया अमीना खातून ने भिक्षाटन कर शौचालय बनवा कर मिसाल कायम की है

पुणे की शीतल राणे-महाजन साड़ी पहनकर स्काई डाइविंग करने वाली पहली भारतीय महिला बनीं

डवेंचर की शौकीन पुणे की शीतल राणे-महाजन ने थाइलैंड में रंगीन नौवारी साड़ी पहनकर स्काई डाइविंग करने वाली पहली भारतीय महिला बनने का रिकॉर्ड अपने नाम कर लिया। डाइविंग के बाद शीतल ने कहा कि अनुकूल मौसम होने की वजह से वह विश्व प्रसिद्ध पर्यटक रिसॉर्ट पटाया के ऊपर एक विमान से लगभग 13 हजार फीट की ऊंचाई से दो बार छलांग लगाने में सफल रहीं। उनके ही शब्दों में, ‘मैं अगले महीने आने वाले अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर कुछ अलग करना चाहती थी। इसीलिए मैंने अपने स्काई डाइव के लिए नौवारी साड़ी पहनने का निर्णय लिया।’ उन्होंने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि यह साड़ी करीब 8.25 मीटर लंबी है, जोकि आम भारतीय साड़ियों से ज्यादा लंबाई की है। अपनी पहली लैंडिंग में थोड़ी लड़खडाई, लेकिन इसे सुरक्षित तरीके से अंजाम देने वाली शीतल ने कहा, ‘पहले साड़ी पहनना, इसके ऊपर पैराशूट पहनना, फिर सेफ्टी गियर, संचार सामग्री, हेलमेट, चश्मा, जूते इत्यादि पहनने व लगाने ने स्काई

डाइविंग को चुनौतिपूर्ण बना दिया था।’ पद्मश्री विजेता और दो जुड़वा बच्चों की मां शीतल ने अब तक 18 राष्ट्रीय स्तर के स्काई डाइविंग रिकॉर्ड स्थापित किए हैं। इसके अलावा इनके नाम पर छह अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड है। उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मान से भी सम्मानित किया गया है। उन्होंने माना कि साड़ी के साथ स्काई डाइव करने के लिए पहले से ही उन्होंने काफी अतिरिक्त तैयारी और एहतियात बरती। कई जगह पिन लगाई, कई जगह इसे कसकर बांधा, ताकि साड़ी के साथ थाइलैंड की खाड़ी की तेज हवाओं का सही से सामना किया जा सके। वह बताती हैं कि देश में महिलाएं विभिन्न तरह की साड़ियां पहनती हैं, लेकिन महाराष्ट्र की नौवारी साड़ी को पहनना और इसे संभालना सबसे मुश्किल है। 35 वर्षीय जाबांज महिला ने कहा, ‘मैं यह साबित करना चाहती थी कि भारतीय महिला न केवल अपने सामान्य दिनचर्या में यह साड़ी पहन सकती है, बल्कि स्काई डाइविंग जैसे जोखिम भरे एडवेंचर को भी अंजाम दे सकती है।’

रोहन मोरे

सात समंदर पार

पुणे के तैराक रोहन मोरे ओशियन सेवन चैलेंज पूरा करने वाले दुनिया के सबसे युवा तैराक बन गए हैं

पु

णे के लंबी दूरी के तैराक रोहन मोरे न्यूजीलैंड के उत्तर और दक्षिण द्वीप के बीच कूक स्ट्रेट को तैरकर पार करने वाले पहले एशियाई और सबसे युवा खिलाड़ी बन गए हैं। उन्होंने यह कारनामा 8 घंटे और 37 मिनट में पूरा कर दिखाया। खराब मौसम के कारण कई दिनों तक इंतजार करने के बाद रोहन को नौ फरवरी को ऐसा करने का मौका मिला। भारत के तैराक रोहन मोरे ओशियन सेवन चैलेंज पूरा करने वाले दुनिया के सबसे युवा स्विमर हैं। उन्होंने इस कारनामे को 32 साल की उम्र में अंजाम दिया। रोहन की की तैराकी के शुरूआती पांच घंटे में लहरें शांत थी और तापमान लगभग 19 डिग्री सेल्सियस था, लेकिन जैसे ही उन्होंने दक्षिण की ओर रूख किया समुद्री तापमान में गिरावट आई और वह

अनाम हीरो अमीना खातून

शीतल राणे-महाजन

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

चार डिग्री तक पहुंच गया। इस विपरीत स्थिति में भी रोहन घबराए नहीं और अपनी मंजिल की तरफ बढ़ते चले गए। वह ऐसा करने वाले दुनिया के 9वें तैराक हैं। रोहन ने सातवें चैलेंज को पार करने के बाद तिरंगा फहराया। यह उनकी जिंदगी का रोमांचक के साथ सर्वाधिक गौरवपूर्ण क्षण था। इससे पहले रोहन 6 समुद्रों को पहले ही पार कर चुके थे। उन्हें कई साल बाद 7वें समुद्र को पार करने का मौका मिला। ‘ओशियन सेवन’ पानी में होने वाली मैराथन है, जिसमें 7 समुद्र चैनल्स को तैरकर पार करना होता है। रोहन बताते हैं कि तैराकी के लिए सतत अभ्यास और शारीरिक चुस्ती तो जरूरी है ही, लेकिन जब आप कुछ ऐसा करने निकलते हैं, जिसमें आपकी सफलता के साथ देश का गौरव जुड़ा हो तो आपके अंदर एक खास तरह का रोमांच जन्म लेता है। उनके मुताबिक देश के लिए कुछ कर दिखाने के रोमांच ने ही उन्हें ओशियन सेवन चैलेंज पूरा करने वाला दुनिया के सबसे युवा स्विमर बनाया है।

र व ्यक्ति का कुछ-नकुछ सपना होता है। पर कम ही बार ऐसा होता है कि एक सपना व्यक्ति के साथ समाज को भी लाभान्वित करें। कुछ ऐसी ही कर दिखाया है बिहार के सुपौल जिलान्तर्गत पिपरा प्रखंड की एक गरीब महिला ने। समाज को आईना दिखाने और परिवार की इज्जत को ढंकने के लिए 50 वर्षीया अमीना खातून ने भिक्षाटन कर शौचालय बनवा कर मिसाल कायम की है। अमीना ने जब शौचालय का निर्माण करा लिया तो समाज के लोगों ने इसकी जानकारी जिला प्रशासन को दी। प्रशासन की ओर से आयोजित गौरव सभा में अमीना को डीडीसी डॉ. नवल किशोर चौधरी ने सम्मानित किया। इस संबंध में जब अमीना से बातचीत की गई तो वह कुछ कहने से पूर्व भावुक हो गईं। फिर उन्होंने बताया कि उनके पति चार वर्ष पूर्व गुजर गए। साथ ही उस गरीब व लाचार के ऊपर दो बच्चों का जीवन भी छोड़ गए। तंगी की हालत में वह पुत्र इबरान और पुत्री शैरून का लालन-पालन कर रही है। उन्होंने बताया कि वह सरकारी जमीन पर किसी तरह फूस के घर में बच्चों के साथ जीवन बसर कर रही है। इस संघर्षपूर्ण जीवन को जीते हुए भी अमीना ने स्वच्छता को लेकर जिस तरह का जज्बा दिखाया, वह वाकई काबिले तारीफ है। ग्रामीणों ने बताया कि शौचालय निर्माण को लेकर जब अमीना भिक्षाटन कर रही थी, तब कई लोगों को ऐसा प्रतीत हो रहा था कि जिसे खुद का ठिकाना नहीं, वे इस कार्य को किस कदर अंजाम दे पाएगी। पर भिक्षाटन के जरिए पाईपाई जुटा कर अमीना ने जिस प्रकार शौचालय बनवाया है, वह अन्य लोगों के लिए भी मिसाल है। आज पूरे इलाके में उसके कार्य की चर्चा है।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 10


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