सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 11)

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आस्था 10

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पंपोर के केसर से महामस्तकाभिषेक

स्वच्छता 25

प्रेरक 27

खेल

देश की सबसे कामयाब स्वच्छता का महिला स्वर्णिम द्वीप देश शिक्षा की ‘आकांक्षा’ पूरी करेगा रोबोट फुटबॉलर

sulabhswachhbharat.com

वर्ष-2 | अंक-11 | 26 फरवरी - 04 मार्च 2018

बदल गया इतिहास

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

एक समय अस्पृश्य कही जाने वाली दो बहनों की राजस्थान के टोंक में बैंड-बाजा-बारात के साथ भव्य शादी हुई


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आवरण कथा

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

खास बातें

रजनी और सरिता कभी सिर पर मैला ढोया करती थीं दोनों बहनों ने सुलभ केंद्र में आकर आजीविका के हुनर सीखे ऐसी शादियों से समाज को मिलेगा प्रेरक संदेश- डॉ. विन्देश्वर पाठक

बदल गया इतिहास दुल्हन बनी सरिता और रजनी

जनी और सरिता कभी सिर पर मैली ढोती थीं। जहां वह काम करती थीं, वहां उनके साथ अस्पृश्य की तरह व्यवहार किया जाता था। पर समय के साथ उनका जीवन बदला। हाल में राजस्थान के टोंक में दोनों बहनें एक भव्य विवाह समारोह में जीवन के सिंदूरी बंधन में बंध गईं। विवाह समारोह में हाथी, ऊंट और घोड़ों के साथ शादी के गीतों पर बैंड बाजे बज रहे थे। राजस्थान की राजधानी जयपुर से तकरीबन 100 किलोमीटर दूर बैरवा धर्मशाला में हो रही इस शादी में वह सब कुछ था, जो आमतौर पर बड़ी जातियों की शादियों में दिखता है और जिसकी कल्पना एक स्कैवेंजर अपनी जिंदगी में शायद ही कभी कर पाता हो। दुल्हन के लिबास में 25 वर्षीय सरिता के दमकते चेहरे पर इस खुशी को पढ़ा जा सकता है कि उसकी शादी जिस सन्नी संगत से हो रही है, वह कोटा में कैमरामैन है। सरिता बताती हैं, ‘हमारी मां हाथ से मैला उठाने का काम करती थीं और हम अक्सर उनके साथ दूसरे घरों में जाते थे। लोग हमारे साथ भेदभाव करते थे।’ अपने इस अनुभव को लेकर सरिता आगे बताती हैं, ‘लोग हमें पानी और खाना दूर से ही देते थे। हम यह सपने में भी

नहीं सोच सकते थे कि हम उनके साथ बैठकर खा-पी सकते हैं। पर आज वे लोग हमारी शादी में शरीक हो रहे हैं। जिन लोगों के लिए पहले हम काम करते थे, उन्होंने हमें शगुन के तौर पर मिठाई के डिब्बे, नारियल, पान के पत्ते और माला भेंट की।’ सरिता की बड़ी बहन 27 वर्षीय सरिता की शादी शुभम धारू से हुई है। शुभम अजमेर का रहने वाला है और फायरमैन की नौकरी करता है। अपना अनुभव साझा करते हुए सरिता बताती हैं, ‘मुझे बचपन में हाथ से मैला ढोने का काम पसंद नहीं था। मैं इससे नफरत करती थी, क्योंकि लोग हमारे साथ बदसलूकी करते थे और ताने मारते थे। हम तब 200-300 रुपए हर महीने कमाते थे और जिन घरों में काम करते थे, उनका जूठन हमें खाने को मिलता था।’ सरिता आगे बताती हैं, ‘मैं एक बार स्कूल में थी तो मैंने महिला सेविका से एक ग्लास पानी देने के लिए कहा। उसने दूसरे छात्र को तो पानी दिया पर मुझे देने से इनकार कर दिया। मुझे इस बात पर गुस्सा आया। मैं इस बात की शिकायत लेकर प्रधानाध्यापक के पास पहुंच गई। उन्होंने भी उसे डांटा।’ स्वच्छता के लिए समर्पित गैरसरकारी

सुलभ राजस्थान में 2003 से सिर पर मैला ढोने वालों के पुनर्वास में लगातार काम कर रही है

शुभम धारू के साथ रजनी की शादी

संस्था सुलभ इंटरनेशनल ने इन दोनों की शादी का आयोजन समारोहपूर्वक किया। सुलभ राजस्थान में वर्ष 2003 से कार्य कर रही है और सिर पर मैला ढोने वालों के पुनर्वास के क्षेत्र में काम कर रही है। हाथ से मैला साफ करने या ढोने को भारत में 1993 से पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है, पर यह अमानवीय प्रथा अभी भी पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है। सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक कहते हैं कि वे विवाह के इस भव्य आयोजन से समाज को यह संदेश देना चाहते हैं कि समाज ने उन महिलाओं की जिंदगी में आए बदलाव को आदर के साथ स्वीकार किया है, जो कभी स्कैवेंजिंग का काम


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आवरण कथा

रजनी और सरिता के विवाह समारोह में डॉ. विन्देश्वर पाठक का स्वागत

दोनों वर-वधू के साथ डॉ. विन्देश्वर पाठक

एक समय में ये लड़कियां अपने सिरों पर मैला उठाती थीं, पर आज वे समाज में सिर ऊंचा करके चल रही हैं। इन दोनों ने खुद को ब्राह्मण कहलाना पसंद किया है और अब समाज भी इनके साथ अगड़े वर्ग की तरह ही व्यवहार कर रहा है – डॉ. विन्देश्वर पाठक सनी संगत के साथ सरिता की शादी

करती थीं। डॉ. पाठक कहते हैं, ‘एक समय में ये लड़कियां अपने सिरों पर मैला उठाती थीं, पर आज वे समाज में सिर ऊंचा करके चल रही हैं। इन दोनों ने खुद को ब्राह्मण कहलाना पसंद किया है और अब समाज भी इनके साथ अगड़े वर्ग की तरह ही व्यवहार कर रहा है।’ उल्लेखनीय है कि सुलभ ने न सिर्फ इस भव्य विवाह समारोह का आयोजन किया, बल्कि उसने 15 ऐसी महिलाओं को दो-दो लाख रुपए की वित्तीय मदद भी की, जो कभी सिर पर मैला ढोने का कार्य करती थीं। विवाह बंधन में बंधी दोनों बहनों ने बताया कि वर्ष 2008 में जब वे सुलभ इंटरनेशनल के टोंक केंद्र से जुड़ीं तो उनकी जिंदगी बेहतर बदलाव की तरफ मुड़ गई। सुलभ के प्रयासो के बाद आज सरिता एक ब्यूटीशियन है, जबकि स्नातक और कंप्यूटर कोर्स पूरा करने के बाद रजनी टोंक के सुलभ केंद्र में ही कार्य करती हैं। राजस्थान में सुलभ के दो केंद्र हैं। एक केंद्र टोंक में है और दूसरा अलवर में। ये दोनें राजस्थान के वे जिले हैं, जहां हाथ से मैला साफ करने या सिर पर मैला ढोने वालों की संख्या सबसे ज्यादा है। टोंक में 250 और अलवर में 200 ऐसे लोग हैं। वर्ष 2010 में दोनों जिलों को मैनुअल स्केवैंजिंग से मुक्त घोषित किया गया था। डॉ. 2/23/2018

पाठक बताते हैं कि यहां सुलभ के केंद्र खोलने का मकसद इस तरह के लोगों तक पहुंचना और उन्हें जीवनयापन के लिए वैकल्पिक हुनर सिखाना था। इन केंद्रों पर सिलाई-कढ़ाई, ब्यूटी केयर, अचारपापड़ बनाने के साथ हस्तशिल्प के कार्य सिखाए जाते हैं। सुलभ के टोंक केंद्र की प्रशिक्षण प्रभारी सोनू गुप्ता के मुताबिक वर्ष 2008 में जब यह केंद्र खुला था, तो यहां 275 स्कैवेंजर्स थे। वर्ष 2010 तक इनमें से सबने हाथ से मैला साफ करने का काम छोड़कर रोजगार के दूसरे विकल्प अपना लिए हैं। गुप्ता बताती हैं कि वे इन लोगों को आजीविका के वैकल्पिक तरीके के साथ यह भी सिखाती हैं कि वे खुद को और अपने परिवेश को कैसे स्वच्छ रखें। इन प्रयासों की सफलता के बारे में वह कहती हैं, ‘समाज का इन लोगों के प्रति नजिरया धीरे-धीरे बदला है। इनके प्रति भेदभाव में भी कमी आई है। अब अगड़ी जातियों के लोग भी इन्हें सामाजिक समारोहों में आमंत्रित करते हैं।’ वर्ष 2015 में सुलभ इंटरनेशनल द्वारा दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में 300 पूर्व मैनुअल स्कैवेंजर्स को केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा और संस्कृत के विद्वानों की मौजूदगी में ब्राह्मण घोषित किया गया था। (साभार- हिंदुस्तान टाइम्स)

Hindustan Times e-Paper - Once untouchable, now its band, baja, baarat for exmanual scavenger sisters - 21 Feb 2018 - Page #5

साभार- हिंदुस्तान टाइम्स

http://paper.hindustantimes.com/epaper/viewer.aspx

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आवरण कथा

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राजाओं की नगरी में शाही शादी

टोंक में सिर्फ रजनी और सरिता की शादी ही नहीं हुई, बल्कि एक सामाजिक परिवर्तन का सूत्रपात हुआ। एक ऐसा परिवर्तन जिसमें देश के सामाजिक तानेबाने के नए और मजबूत धागे लगे हैं

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संजय त्रिपाठी

जस्थान ने सर पर मैला ढोने वालों को उस घृणित कार्य से मुक्त होते देखा, जिस शहर ने अस्पृश्यता का अंत देखा, सामाजिक बदलाव के तहत उन्हें वाल्मीकि से ब्राह्मण बनते देखा। राजस्थान का वहीं टोंक शहर गवाह बना एक ऐसे शादी समारोह का जिसकी कभी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। अगर यह सब संभव हुआ तो उसके पीछे सिर्फ एक ही प्रेरक शक्ति थी और वह शक्ति थी सुलभ इंटरनेशनल के प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक की, जिन्होंने हर हाल में गांधी के सपने को पूरा करने की ठान रखी है। बिना हिंसक हुए, बिना उग्र हुए। यह बदलाव है सामाजिक चेतना का जिसे लगभग 50 साल से बदलने की कोशिशों को साकार करने में डॉ. पाठक जुटे हैं और हर कदम, हर मोड़ पर उसे पूरा होते देख स्वयं को प्रेरित भी करते हैं। यह रजनी और सरिता की शादी थी जो टोंक

शहर में 2008 से पहले 7-8 वर्ष की उम्र में मां कांता के साथ अपने जजमानों के घर जाकर उनका शौच बाल्टी में निकालती, उसे अपने सर पर रखतीं और शहर से दूर जंगल में फेंकने जाती थीं। यह कार्य उनकी दिनचर्या में शामिल था। वक्त बदला तो यह तस्वीर भी बदली, रजनी और सरिता के साथ उनकी मां कांता भी सुलभ आंदोलन के तहत उस घृणित कार्य से मुक्त हुई। ये सुलभ के ‘नई दिशा’ व्यावसायिक केंद्र से जुड़ीं, अपने को स्वावलंबी बनाया और खुद को इस ऊंचाई पर ले गईं कि रिश्ते आने लगे। कोटा और सरवाड़ (राजस्थान) से

सन्नी और शुभम के घर वाले आगे आए और दोनों संस्कारित लड़कियों का हाथ अपने बेटों के लिए मांगा। शादी तय हुई और 21 फरवरी, 2018 को टोंक शहर के बैरवा धर्मशाला में बड़े ही धूमधाम से वैदिक मंत्रों के बीच कोटा के सन्नी का सरिता से और सरवाड़ा के शुभम का रजनी के साथ विवाह संपन्न हुआ। एक समय था जब वाल्मीकि समाज के दूल्हे अपनी बारात घोड़ी पर चढ़कर नहीं ले जा सकते थे। आज भी वैदिक रीति-रिवाज से शादी कराने इनके घर ब्राह्मण नहीं जाते हैं। समाज के ही लोग

रजनी और सरिता के साथ उनकी मां कांता भी सुलभ आंदोलन के तहत उस घृणित कार्य से मुक्त हुईं। ये सुलभ के ‘नई दिशा’ व्यावसायिक केंद्र से जुड़ीं, अपने को स्वावलंबी बनाया और खुद को इस ऊंचाई पर ले गईं कि रिश्ते आने लगे

खास बातें बचपन में सिर पर मैला ढोती थीं दोनों बहनें सुलभ से जुड़ कर इन दोनों ने बदली अपनी तकदीर टोंक में दोनों की हुई भव्य और ऐतिहासिक शादी जुटते हैं, अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे लेते हैं और शादियां हो जाती हैं, लेकिन यहां तो दृश्य ही कुछ और था। इस विवाह को यादगार बनाने में वर और वधु पक्ष वालों ने अपनी तरफ से कोई


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‘गांधी का सपना पूरा होते देख रहा हूं ’

गांधी जी छुआछूत से मुक्त देश देखना चाहते थे। उनके इस सपने को साकार करने निकले सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने एक नई सामाजिक समझ विकसित की। प्रेम, शांति, सहिष्णुता, सेवा और परोपकार के साथ हर वह काम संभव है, जो अब तक हो नहीं पाया। इसी दिशा में अग्रसर डॉ. पाठक यह चाहते हैं कि नाम, धर्म और जाति चुनने का अधिकार सबको मिलना चाहिए। टोंक में हुई दो पूर्व स्कैवेंजर बहनों का विवाह इस दृष्टि से ऐतिहासिक है

भा

डॉ. विन्देश्वर पाठक

(सुलभ प्रणेता और प्रख्यात समाज सुधारक)

रत के इतिहास में यह शायद पहला अवसर होगा जब वाल्मीकि समाज की किसी लड़की की शादी में बैंड बाजा के साथ बारात निकली हो। उनकी शादी में हाथी, घोड़ा, ऊंट का काफिला निकला हो। ब्राह्मणों के वैदिक मंत्रों के बीच किसी ने सात फेरे लिए हों। एक ऐसी शादी जिसमें शहर के हर वर्ग के लोग शामिल हुए हों। यह सब संभव हुआ और क्यों ना हो, वो दोनों मेरी बेटियां हैं, मेरी राजकुमारियां हैं। मुझे याद आ रहे हैं 2007 के वो दिन जब मैं पहली बार टोंक और अलवर की उन महिलाओं और लड़कियों से मिला था। जब वे सिर पर मैला ढोने का काम करती थीं। छोटी उम्र में रजनी और सरिता भी अपनी मां कांता के साथ यही काम

आज मेरा जीवन धन्य हो गया। कभी गांधीजी ने कहा था कि अगर मेरा पुनर्जन्म हो तो किसी वाल्मीकि परिवार में हो, ताकि मैं उनकी जिंदगी से रूबरू हो सकूं। यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने जीवन में वह सब देख लिया जो गांधीजी चाहते थे

करती थीं। मेरे मन में गांधी के सपने को साकार करने की योजना भी चल रही थी। इसके लिए मैंने उन्हें 2000 रुपए स्टाइपेंड के साथ सुलभ के व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र ‘नई दिशा’ से जोड़। यहां उन्होंने पढ़ने-लिखने के साथ-साथ कई ट्रेड में प्रशिक्षण प्राप्त किया। वे समाज की मुख्यधारा से जुड़ें, इसके लिए उन्हें देश के प्रतिष्ठित पवित्र

कसर नहीं छोड़ी। छोड़ी तो सिर्फ रूढ़िवादिता को, उस घुटन को जिसमें पाबंदियां थीं। नवाबों और रजवाड़ों को इस नगरी में जो पहले कभी संभव नहीं था, वह आज पूरा हुआ। राजसी पोशाक, सिर पर राजाओं सी पगड़ी, हाथ में तलवार लिए घोड़े पर जब दोनों दूल्हे बारात लेकर आए तो मानों पूरा टोंक शहर उन्हें देखने उमड़ पड़ा। इधर दोनों बहनें भी किसी राजकुमारी से कम नहीं लग रही थीं। शादी के लिए विशेष रूप से तैयार किया

स्थलों पर लेकर गया, जहां उनका प्रवेश वर्जित था। पवित्र नदियों में स्नान कराया। ब्राह्मणों के साथ बैठकर उन्होंने खाना खाया। और आज वे उन्हीं घरों में आमंत्रित होती हैं, जहां कभी वे उनका शौच साफ करती हैं। मैंने सोचा अगर जाति है, तो वह कर्म के आधार पर हो। और जब अब इनका कर्म ब्राह्मणों जैसा है तो क्यों ना इनकी जाति बदल दी जाए। अगर समाज में धर्म परिवर्तन हो सकता है तो जाति परिवर्तन क्यों नहीं। नाम, धर्म और जाति चुनने का अधिकार हमें मिलना चाहिए। इन लोगों ने अपने कर्म के अनुसार अपनी जाति ब्राह्मण की बनाई। गांधी जी कहा करते थे कि इस देश में या तो छूआ छूत रहेगा या फिर हिंदू धर्म। और अगर हिंदू धर्म को बचाना है तो छूआछूत और जाति के नाम पर भेदभाव को मिटाना होगा। जाति के नाम पर अगर हीन भावना आती है तो हमें इसे भी बदलना होगा। और हमने यही किया। वाल्मीकि से इन्हें ब्राह्मण बनाया और आज देखिए वही वर्ग ब्राह्मण बनकर किस शान से साथ सिर उठाकर हमारे साथ खड़ा है। इस वैवाहिक समारोह में कई ऐसे लोगों से मेरी बात हुई जिन्हें यहां आमंत्रित नहीं किया गया था। वे सिर्फ यह सामाजिक परिवर्तन देखने आए थे। उन्हें इस बात पर विश्वास ही हीं हो रहा था कि किसी वाल्मीकि परिवार की बेटियों की शादी भी इस तरह से हो सकती है। समाज और इस देश में एक नया वातावरण बन रहा है। हम चाहते हैं कि सरकार और राजनीतिक पार्टी के लोग भी इस दिशा में अपना योगदान दें और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपने को पूरा करें। और अंत में सिर्फ इतना ही कहना है कि आज मेरा जीवन धन्य हो गया। कभी गांधी ने कहा था कि अगर मेरा पुनर्जन्म हो तो किसी वाल्मीकि परिवार में हो, ताकि मैं उनकी जिंदगी से रूबरू हो सकूं। यह मेरा सौभाग्य है कि मैंने जीवन में वह सब देख लिया जो गांधी चाहते थे।

गया लहंगा पहनकर और सोलह श्रृंगार के साथ जब वे आईं तो लोगों की नजर उनपर से हट नहीं रही थी। प्रवेश द्वार पर टोंक में सुलभ द्वारा संचालित व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र की छात्राएं, बारातियों और अतिथियों का स्वागत गुलाब और चंदन लगाकर कर रही थीं। उनका उत्साह अपनी जगह था और यह उत्साह तब और बढ़ गए जब सुलभ संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक वर-वधू को आशीर्वाद देने पहुंचे। शंखनाद और ढोल बाजा के

साथ वे मंच तक आए। मंच पर आसीन दोनों बहनें खुद को रोक नहीं पाईं और उठकर डॉ. पाठक का स्वागत किया। पैर छूकर आशीर्वाद लिया। डॉ. पाठक ने भी उन्हें गुलदस्ता और उपहार दिया इस बीच पंडित सुरेश शास्त्री और पंडित मुरारी शास्त्री के अलावा 10 और पंडित जो जयपुर से आए थे ने स्वस्ति वाचन के बाद गणेश वंदना, पुरुष सूक्त और रुद्र सूक्त के मंत्रों का पाठ किया। शुक्ल यजुर्वेद के ये मंत्र शादी विवाह के लिए शुभ माने

जाते हैं। मंत्रों के उच्चारण के बाद शादी समारोह में आए लोगों ने उन्हें अपना उपहार और आशीर्वाद दिया। इस शादी के खबर मीडिया जगत को भी थी और उनका भी खासा जमावड़ा मंच पर था। कैमरे और मोबाइल के फ्लैश लगातार चमक रहे थे। दूल्हा-दुल्हन और डॉ. पाठक से बात करने की होड़ सी मची थी। रजनी ने बताया कि किस तरह जब वह महज आठ साल की थी तो मां के साथ​ िसर पर मैला


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आवरण कथा

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

हमारे दिन सवंरने वाले थे और हमारी इस जिंदगी को संवारने वाले हैं फाउंडर सर। डॉ. पाठक हमारे लिए ईश्वर के समान है। अपनी जिंदगी में किसी भी शादी में इतनी भीड़ नहीं देखी। कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी शादी में इतने बड़े-बड़े लोग आएंगे –रजनी ढोने जाती थी। वो कहती हैं जब सुबह बच्चे स्कूल के लिए अपने भाई-बहन के साथ पढ़ने जाते थे, उसी समय मैं अपनी छोटी बहन सरिता के साथ जजमान के घरों में शौच साफ करने जाती थी। हमें तब यह भी पता नहीं था कि यह घृणित कार्य है। हां बदबू से उल्टी जरूर हो जाती थी। बचपन से ही मां को, चाची को और आस-पास के महिलाओं को यही करते देखा। पापा को यही कहते सुना कि यह हमारा पुश्तैनी काम है जो हमें नहीं छोड़ना चाहिए। लेकिन हमारे दिन सवंरने वाले थे और हमारी इस जिंदगी को संवारने वाले हैं फाउंडर सर। डॉ. पाठक हमारे लिए ईश्वर के समान है। अपनी जिंदगी में किसी भी शादी में इतनी भीड़ नहीं देखी। कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी शादी में इतने बड़ेबड़े लोग आएंगे। धर्मशाला के बाहर जाकर देखिए हाथी, घोड़ा, ऊंट और दर्जनों कारें खड़ी है। मुझे तो

लगा रहा है कि मैं कोई फिल्म देख रही हूं। सन्नी जो पेशे से फोटोग्राफर हैं और जिन्होंने सरिता के साथ सात फेरे लेकर उन्हें अपना जीवन साथी चुना है, उन्होंने बताया कि मैं सिर्फ इतना जानता था कि सरिता मैट्रिक पास है और सुलभ के प्रशिक्षण केंद्र में कढ़ाई का काम करती हैं और उससे पैसे भी कमा लेती हैं। लेकिन मुझे यह नहीं पता था ये इतनी बड़ी हस्ती हैं। सुलभ शौचालय के बारे में जानता हूं, लेकिन डॉ. विन्देश्वर पाठक के बारे में नहीं जानता था। इतनी देर में उनके बारे में जितना कुछ जान पाया हूं तो सोचता हूं कि इस तरह निःस्वार्थ भाव से काम करने वाले लोग भी हैं। अपनी शादी में उनका आशीर्वाद पाकर हम धन्य हो गए। शादी के बाद उन्होंने हमें दिल्ली के सुलभ ग्राम में आने का निमंत्रण दिया है। सारवाड़ से रजनी के लिए बारात लेकर आए शुभम फायरमैन

की ट्रेनिंग ले रहे हैं। वे रजनी के ट्रेनिंग सेंटर के बारे में भी नहीं जानते थे। उन्हें सिर्फ इतना पता था कि रजनी बीए पास है। पास खड़ी रजनी ने कहा कि हम दोनों दिल्ली आएंगे और आप इनसे मिलेंगे तो आप खुद जान जाएंगे कि मैंने सुलभ और फाउंडर सर के बारे में क्या-क्या बताया है। धर्मशाला में एक दृश्य मंच का था, तो दूसरी ओर वधु पक्ष के लोग वर पक्ष के लोगों के सत्कार सम्मान में लगे थे। वर पक्ष के परिजनों को साफा पहनाकर और कपड़ा देकर उनका सम्मान कर रहे थे। रजनी और सरिता के मामा सुरेश वाल्मीकि, जो कोटा नगर निगम में सुपरवाइजर हैं और जिन्होंने सन्नी और सरिता का रिश्ता तय किया है, ने बताया कि वाल्मीकि समाज में भी समृद्ध लोग हैं। उनकी शादी में भी जाने का मौका मिला है, लेकिन जिस तरह से यहां शादी हो रही है वह लोग को बहुत दिनों तक भूल नहीं पाएंगे। यह सब कुछ संभव हो सका है सिर्फ डॉ. पाठक जी की वजह से। उन्होंने हमारे घर की बेटियों की तकदीर ही बदल दी। सुरेश बताते हैं कि उनके समाज के अपने पुरोहित भी होते हैं, जो समाज में शादी विवाह, गृह प्रवेश तो कराते ही हैं और विवाह की कुंडली भी बनाते है। जो वैदिक ब्राह्मण होते हैं वे हमारे शुभ कार्यों में नहीं आते। और आज देखिए वही ब्राह्मण समाज

किस तरह हमारी शादी में शिरकत कर रहा है, वैदिक ढंग से हमारी बेटियों की शादी करा रहा है। रजनी और सरिता के पिता ओमप्रकाश धनवाल कहते हैं कि मुझे गर्व है कि मेरी बेटियां इतनी पढ़ी-लिखी हैं और यह पढ़ाई उन्होंने स्वयं के पैसों से की। पहले सुलभ की ओर 2000 रुपए का स्टाइपेंड मिलता था उससे और फिर अपना काम शुरू करके पैसा कमाकर अपनी पढ़ाई की। ये कंप्यूटर जानती हैं, संस्कृत के मंत्रों का उच्चारण करती हैं। ब्राह्मण लोग भी तो यही सब करते हैं, तो हम अपने को नीची जाति का क्यों समझें। अपनी बेटियों को ब्राह्मण बनते देख मुझे बेहद खुशी हुई। इस अवसर पर अलवर से आईं सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन की अध्यक्ष उषा चौमड़ भी मौजूद थीं। उन्होंने सैकड़ों की संख्या में आए लोगों की ओर इशारा करते हुए पूछा कि क्या आप बता सकते हैं कि इसमें कौन किस जाति का है। छुआछूत की भावना तो समाप्त हो गई, लेकिन जाति व्यवस्था बनी हुई है जो ऊंच और नीच का फर्क करवाता है। हमारे फाउंडर सर गांधी बाबा के इन्हीं सपनों को ऐसे आयोजनों के माध्यम से पूरा करते है। मंच पर वर-वधु को बधाई देने वालों का तांता देर तक लगा रहा। लोग मंच पर आते बधाई देते और खाना खाकर वापस चले जाते। जयमाला के लिए एक बड़ा और ऊंचा मंच बना था। दोनों बारीबारी जब एक दूसरे को माला पहना रहे थे तो कैमरा और मोबाइल एक बार फिर चमकने लगे। डॉ. पाठक इस दृश्य को ऐसे निहार रहे थे मानो वे उनकी बेटियां हों और इसी दृश्य को आंखों में संजोए वे लौट गए। जयमाला के बाद दोनों दूल्हे घोड़े पर सवार होकर दुल्हन के घर के लिए निकले तो एक समां बंध गया। बैंड बाजा के साथ नाचते झूमते लोग, साथ में हाथी, ऊंट, आतिशबाजी इस दृश्य की फोटोग्राफी के लिए ड्रोन कैमरे का इस्तेमाल किया गया। जब बारात रजनी और सरिता के घर पहुंची तो बारातियों का वहां भी शंखनाद और वैदिक मंत्रों के साथ भव्य स्वागत हुआ। वैदिक रीति-रिवाज के साथ दोनों ने सात फेरे लिए और एक दूसरे के जीवनसाथी बन गए।


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समरोह

दिल्ली में मना भाईजी का 90वां जन्मदिन

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प्रख्यात गांधीवादी, सर्वोदयी चिंतक और युवाओं के प्रेरणास्रोत डॉ. सुब्बाराव का जन्मदिवस दिल्ली में पूरे उत्साह से मनाया गया

डॉ. अशोक कुमार ज्योति

फरवरी को नई दिल्ली के पंडित जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय युवा केंद्र में ‘राष्ट्रीय युवा योजना’ संस्थान की ओर से इसके संस्थापक और प्रसिद्ध समाजसेवी डॉ. एएसएन सुब्बाराव का 90वां जन्मदिन-समारोह बड़ी ही श्रद्धा और सम्मान के साथ मनाया गया। कार्यक्रम का प्रारंभ दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में सुलभ-संस्थापक पद्मभूषण डॉ. विन्देश्वर पाठक ने डॉ. सुब्बाराव को शॉल, माला, पुष्पगुच्छ एवं अंग्रेजी की पुस्तक ‘महात्मा गांधी’ज लाइफ इन कलर’ अर्पित कर स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की हार्दिक शुभकामनाएं दीं। इस अवसर पर सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने

समाजसेवा के क्षेत्र में डॉ. सुब्बाराव को अपना ‘गुरु’ कहकर उनके योगदानों का सम्मान किया। डॉक्टर पाठक ने कहा कि बहुभाषी सुब्बाराव जी देश के युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं और इस उम्र में भी वे एक युवा की तरह देशभर का दौरा कर युवाओं में चेतना का संचार करते हैं। भाईजी के नाम से पुकारे जाने वाले बेंगलुरु में जन्मे प्रख्यात गांधीवादी, सर्वोदयी चिंतक और युवाओं के प्रेरणास्रोत डॉ. सुब्बाराव एक ऐसे गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने गांधीवाद को अपने जीवन में पूर्णता से अपनाया है। उनका सारा जीवन खास तौर पर नौजवानों को राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति, सर्वधर्म समभाव और सामाजिक उत्तरदायित्वों की ओर जोड़ने में बीता है। वे सही मायने में एक मोटिवेटर हैं। उनकी

आवाज में जादू है। वे शास्त्रीय संगीत में सिद्धहस्त हैं और कई भाषाओं में प्रेरक गीत गाते हैं। उनके चेहरे पर एक आभामंडल है। उनसे जो एक बार मिलता है, उनके व्यक्तित्व का कायल हो जाता है। वह उनका हो जाता है और उन्हें कभी भूल नहीं पाता। देश की कई पीढ़ियों के लाखों लोगों ने उनसे प्रेरणा ली है। इस अवसर पर डॉ. सुब्बाराव ने अपने उद्गार में कहा कि अहिंसात्मक तरीके से देश को जोड़े रखने की हमारी बड़ी चुनौती है और इसे युवा ही कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि हमें हर भाषा और हर प्रांत के लोगों का परस्पर सम्मान करना चाहिए, जिससे हममें आपसी स्नेह और सौहार्द

‘चक्रवाक्’ को सर्वश्रेष्ठ पत्रिका का सम्मान

बना रहेगा। उन्होंने कहा कि देश में इस बात की आवश्यकता है कि लोगों को, विशेषकर युवाओं को अहिंसा का महत्त्व बताया जाए और इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया जाए। इस कार्यक्रम में प्रसिद्ध गांधीवादी कुसुम शाह, दिल्ली विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष श्री पुरुषोत्तम अग्रवाल, डॉ. इंद्राणी मजूमदार, आभा कुमार, मीडियाकर्मी जी.एन. झा, संजय त्रिपाठी सहित दिल्ली और देशभर के अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।

दिल्ली लाइब्रेरी बोर्ड द्वारा आयोजित समारोह में सुलभ इंटरनेशनल की साहित्यिक त्रैमासिक ‘चक्रवाक्’ को श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया

‘भा

रतीय संस्कृति, समरसता एवं शहीदों के जीवन पर शौर्य रचनाएं लिखनेवाले देश के प्रबुद्ध साहित्यकारों को अपने जीवन के आखिरी पड़ाव में ‘पद्म’ सम्मान मिलते हैं। यह दुःखद और पीड़ादायक है।’ यह बात संसदीय कार्य एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्री विजय गोयल ने मंगलवार 20 फरवरी, 2018 को नई दिल्ली स्थित कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में दिल्ली लाइब्रेरी बोर्ड द्वारा आयोजित सम्मान-समारोह में कही। विजय गोयल ने कहा कि आज के समय में मॉडर्न और मॉडल लाइब्रेरी की आवश्यकता है, जहां पाठक अध्ययन के साथ-साथ जलपान भी कर सकें। पुस्तकालय में हर तबके के व्यक्तियों के लिए रुचिकर विषयों की पुस्तकें उपलब्ध होनी चाहिए। हमारी संस्कृति विविधता से परिपूर्ण है और साहित्यकार इन विविधताओं को अपने शब्दों में ढालकर पुस्तकों के रूप में साकार कर रहे हैं। इस मौके पर केंद्रीय मंत्री ने अपनी पुश्तैनी हवेली लाइब्रेरी स्थापित करने के लिए देने की घोषणा भी की। दिल्ली लाइब्रेरी बोर्ड के अध्यक्ष डॉ. रामशरण गौड़ ने बताया कि यह समारोह विगत दो वर्षों से आयोजित किया जा रहा है, जिसमें देशभर से उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाएं चयनित की जाती हैं और उन्हें सम्मानित किया जाता है। डॉ. गौड़ ने

कहा कि 2018 के अंत तक दिल्ली लाइब्रेरी बोर्ड पाठकों के लिए ऑनलाइन बुकिंग के माध्यम से घर-घर पुस्तक पहुंचाने का कार्य शुरू करेगा। इसके लिए ‘घर-घर दस्तक, घर-घर पुस्तक’ नामक अभियान चलाया जा रहा है। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि प्रो. बृजकिशोर कुठियाला (कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल) ने विकासात्मक साहित्य के बारे में अपने विचार व्यक्त किए। प्रो. कुठियाला ने कहा कि साहित्यकारों और पत्रकारों का जितना सम्मान और उत्साहवर्धन होगा, उनसे पाठकों को उतनी ही अच्छी रचनाएं प्राप्त होंगी। कार्यक्रम की अध्यक्षता पूर्व आईएएस और सुप्रसिद्ध नाटककार डॉ. दया प्रकाश सिन्हा ने की। उन्होंने कहा कि पुरस्कारों की श्रेणी में नाट्य-कला को भी स्थान देना चाहिए। दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी

के महानिदेशक डॉ. लोकेश शर्मा ने सभी अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापित किया। सम्मान अर्पण समारोह में विविध क्षेत्रें में जागरूकता लाने के लिए प्रकाशित की जा रही पत्रिकाओं के संपादकों को भी सम्मानित किया गया। इनमें ‘चक्रवाक्’ के संपादक आचार्य निशांतकेतु को एक लाख रुपए के साथ प्रथम पुरस्कार, ‘साहित्य यात्र’ के संपादक डॉ. कलानाथ मिश्र को पचहत्तर हजार रुपए के साथ द्वितीय पुरस्कार, ‘मंगल विमर्श’ के संपादक प्रो. ओमिश परूथी को पचास हजार रुपए के साथ तृतीय पुरस्कार एवं ‘सृजन कुंज’ के संपादक, डॉ. कृष्ण कुमार ‘आशु’, ‘शीतल वाणी’ के संपादक, डॉ. विरेंद्र ‘आजम’ और ‘प्रणाम पर्यटन’ के संपादक प्रदीप श्रीवास्तव को ‘लेखक नमन पुरस्कार’ प्रदान किया गया। पुरस्कार स्वरूप शॉल, प्रशस्ति-पत्र और पचीस-पचीस हजार रुपए की राशि के चेक भेंट किए गए। ध्यातव्य है कि ‘चक्रवाक्’ पत्रिका को उसके उत्कृष्ट संपादकीय, शोध-आलेखों, उत्तम निबंधों, सामाजिक लेखों और शुद्ध वर्तनी तथा पर्यावरण एवं साहित्य की अन्य विधाओं की उत्कृष्ट रचनाओं के प्रकाशन के लिए यह प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया। चूंकि आचार्य निशांतकेतु अस्वस्थता के कारण समारोह में नहीं जा सके, इसलिए ‘चक्रवाक्’ के सहायक संपादक डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने यह पुरस्कार ग्रहण किया।

सम्मानित साहित्यकार

1 संस्कृति मनीषी सम्मान -सतीश चंद्र मित्तल 2 संस्कृति मनीषी सम्मान -रमेश चंद्र 3 महर्षि दधीचि सम्मान -राजेंद्र राजा 4 संस्कृति गाथांतरा कृति सम्मान -डॉ. एच बालसुब्रह्मण्यम 5 दुर्गाभाभी सम्मान -शांतिकुमार स्याल 6 संत रविदास सम्मान -डॉ. देवेंद्र दीपक 7 साहित्य कृति सम्मान -डॉ. सदानंद प्रसाद गुप्त 8 बाल साहित्यश्री सम्मान -डॉ. राकेश ‘चक्र’

(सम्मान-स्वरूप सभी लेखकों को शॉल, पुस्तक, प्रशस्ति-पत्र और डेढ़-डेढ़ लाख रुपए की राशि का चेक प्रदान किया गया।)


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पंपोर के केसर से महामस्तकाभिषेक

बाहुबली के अभिषेक के लिए पिछले 12 वर्षों में पहली बार लाया गया दुनिया का सबसे बेहतरीन केसर

श्र

जी उलगनाथन

वणबेलगोला में महामस्तकाभिषेक का इस समय कश्मीर से सीधा संबंध है। कश्मीर घाटी के पंपोर क्षेत्र में उत्पादित बेहतरीन और शुद्ध केसर का उपयोग बाहुबली की प्रतिमा का अभिषेक करने के लिए किया जाता है। तुमाकुरु के एक भक्त राजेंद्र कुमार जैन ने दुनिया के बेहतरीन और शुद्ध केसर पंपोर के अनोखे केसर उत्पादक कल्याण और विपणन सहकारी से 3 किलो केसर श्रवणबेलगोला मठ के भट्टारक स्वस्तिश्री चारूकीर्ति स्वामी को दान किया है। पंपोर क्षेत्र में केसर के कई प्रकार मिलते हैं। घाटी में केसर उत्पादन बढ़ाने के लिए शेर-एकश्मीर विश्वविद्यालय स्थानीय सहकारी निकायों के सहयोग से एक परियोजना चला रही है। अनिश्चित मौसम के कारण केसर के उत्पादन में कमी आ गई है। नतीजतन इसकी कीमतें बढ़ी हैं। कुछ साल पहले एक ग्राम शुद्ध केसर 150 रुपए में अनंतनाग क्षेत्र में मिलता था, उसके हिसाब से जैन के दान किए गए तीन किलोग्राम केसर 450,000 रुपए के होंगे। जैन कहते हैं कि उनके लिए भक्ति पहली प्राथमिकता है, लागत पर वे ध्यान नहीं देते। यदि हम जरूरतमंदों की सेवा करते हैं और धार्मिक कार्यों में योगदान देते हैं, तो भगवान हमें धन और स्वास्थ्य दोनों से परिपूर्ण कर देते हैं। मठ के सूत्रों का कहना है कि पिछले 12 सालों में पहली बार सीधे पंपोर से केसर भगवान के अभिषेक के लिए लाया गया । श्रवणबेलागोला के उडुपी जिले से चमेली की सुगंध भी 17 जुलाई को मुख्य महामस्तकाभिषेक समारोह के पहले दिन पूजन अर्चन में शामिल किया गया, जो कि शंकरपुरा और शिरवा में उगाया जाता है।

डिजिटलीकरण शिलालेख

श्रवणबेलागोला के दो मुख्य पहाड़ियों में लगभग 400 शिलालेख पाए जाते हैं। चन्द्रगिरि का इतिहास, जिसे चिक्काबेटा भी कहा जाता है, चौथी शताब्दी की याद दिलाता है। समय-समय पर यहां कई पुराने शिलालेख पाए गए हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण अब सभी शिलालेखों को डिजीटाइज्ड करेगा। हालांकि उनमें से कुछ शिलालेख लुप्त हो गए हैं, लेकिन इस तरह के लेखों के संरक्षण में वृद्धि हुई है। एएसआई ने इन शिलालेखों का भी रिकॉर्ड बनाया है, जिन्हें डिजीटल किया जा रहा है।

ड्रोन पर लगा प्रतिबंध

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने भगवान बाहुबली के आस पास ड्रोन की उड़ान पर प्रतिबंध लगा दिया है। विंध्यगिरि पहाड़ियों पर भक्तों की संख्या बढ़ने के बाद यह आदेश एएसआई की तरफ से दिया जाता है, जहां 58 फुट लंबा मोनोलिथ स्थित है। ट्राइपोड का अनियमित उपयोग विंध्यगिरि पहाड़ियों पर स्मारकों को नुकसान पहुंचा सकता है। इसीलिए एएसआई ने पूजा समारोह की शूटिंग के दौरान उपकरणों का उपयोग करने से पहले अनुमति लेना अनिवार्य कर दिया है। एएसआई और

राज्य सरकार महामस्तकाभिषेक के लिए सभी तरह की सावधानी बरत रही है और इसके साथ ही राज्य सरकार ने तीर्थ यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है

खास बातें श्रवणबेलगोला जैन धर्म के सर्वोच्च आध्यात्मिक तीर्थों में से एक है महामस्तकाभिषेक का आयोजन हर बारहवें वर्ष किया जाता है एक जैन व्यापारी ने दुनिया के सबसे महंगे तीन किलो केसर अर्पित किए डीजी सिविल एविएशन दोनों ने उड़ने वाले ड्रोन की अनुमति भी रद्द कर दी है। ऑर्कियोलॉजिकल साइट्स और रिमेंस (संशोधन और मान्यकरण) अधिनियम, 2010 के तहत प्रतिबंध लगा दिए गए हैं। अधिकारी ने कहा कि उन लोगों के लिए ऑनलाइन आवेदन उपलब्ध कराए जाते हैं, जो महामष्तिकाभिषेक को ट्राइपोड के जरिए शूट करना चाहते हैं। अधिकारी बताते हैं कि ये सभी प्रतिबंध मोनोलिथ की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए लगाए गए हैं। हालांकि पहले अनुमति लेने पर ट्राइपोड के साथ शूटिंग की अनुमति दी जा सकती है। एएसआई को 50,000 रुपए और 50,000 रुपए सिक्योरिटी के रुप में एक आवेदन पत्र के साथ जमा करना पड़ता है। बता दें कि 986 ईस्वी में मोनोलिथ और स्मारकों का निर्माण हुआ था। अभिषेक समारोह के पहले और बाद में एएसआई भगवान बाहुबली की मूर्ति की रासायनिक धुलाई करवाता है।


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अलौकिक उत्सव की कथा

620 सीढ़ियां चढ़कर बाहुबली की प्रतिमा के विशाल चरणों के पास आकर हर किसी को यही एहसास होता है कि उसका अस्तित्व कितना छोटा और अकिंचन है

रवरी की चमकती सी सर्द-गर्म सुबह, चंद्रगिरि पर्वत पर भगवान बाहुबली की 57 फुट ऊंची भव्य प्रतिमा के पीछे अभिषेक के लिए बनी विशेष विशाल मचान..। इतनी ऊंचाई पर हवा तेजी से बह रही है, सूरज अभी पूरी तेजी नहीं पकड़ पाया है, उसकी मद्धम गर्माहट और हवा के ठंडे झोंके, धूप, अगरबत्ती की सुगंध के साथ यहां के पवित्र माहौल को और भी पवित्र बना रहे हैं। ऊपर खड़े होने पर लगता है, सब कुछ कितना छोटा और अकिंचन है। 620 सीढ़ियां चढ़कर बाहुबली की प्रतिमा के विशाल चरणों के पास आकर हर किसी को यही एहसास होता है। सृष्टि की विशालता के आगे छोटे बहुत छोटे होने का एहसास। मान, अंहकार और दुनियादारी से दूर एक अजीब सी शांति का अनुभव..। इसका निर्माण वर्ष 981 में हुआ था। उस समय कर्नाटक में गंगवंश का शासन था, गंग के सेनापति चामुंडराय ने इसका निर्माण कराया था। विंध्यगिरि के सामने चंद्रगिरि पर्वत है। ऐसा माना जाता है कि चंद्रगिरि का नाम मगध में मौर्य वंश के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य के नाम पर पड़ा है। भगवान बाहुबली प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र थे। ऋषभदेव के दो पुत्र हुए जिनका नाम भरत और बाहुबली था। भगवान बाहुबली अयोध्या के राजा थे और उनकी दो रानियां थीं। बाहुबली का अपने ही भाई भरत से उनके शासन, सत्ता के लोभ और चक्रवर्ती बनने की इच्छा के कारण दृष्टि युद्ध, जल युद्ध और मल्ल युद्ध हुआ। इसमें बाहुबली विजयी रहे, लेकिन उनका मन ग्लानि से भर गया और उन्होंने सब कुछ त्यागकर तप करने का निर्णय लिया। अत्यंत कठिन तपस्या के बाद वे मोक्षगामी बने, इसीलिए जैन धर्म में भगवान बाहुबली को पहला मोक्षगामी माना जाता है। तपस्या इतनी घोर थी कि उन के शरीर पर बेल पत्तियां उग आईं, सांपों ने वहां बिल बना लिए, लेकिन उनकी तपस्या जारी रही। कठोर तपस्या के बाद वे मोक्षगामी बने। जैन धर्म में भगवान बाहुबली को पहला मोक्षगामी माना जाता है। उनके द्वारा दिया गया ज्ञान हर काल के लिए उपयोगी है। जैन धर्म के अनुसार, भगवान बाहुबली ने मानव के आध्यात्मिक उत्थान और मानसिक शांति के लिए चार सूत्र बताए थे- अहिंसा से सुख, त्याग से शांति, मैत्री से प्रगति और ध्यान से सिद्धि मिलती अधिकारी ने कहा कि यह महत्वपूर्ण है कि मोनोलिथ के आसपास कोई कंपन नहीं होता है। इसी कारण से कुछ साल पहले यहां केबल कार की अनुमति अस्वीकार कर दी गई थी। एएसआई ने भी पालकीदारों के लिए अलग-अलग कदम उठाए हैं। राज्य सरकार इसके लिए सभी तरह की

है। श्रवणबेलगोला में बाहुबली की विशाल प्रतिमा के निर्माण और अभिषेक के बाद से हर 12 वर्ष पर यहां महामस्तकाभिषेक का आयोजन होता आ रहा है। महामस्तकाभिषेक में लगभग सभी काल के तत्कालीन राजाओं और महाराजाओं ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और अपना सहयोग भी दिया। स्वतंत्रता के बाद से भी बड़े पैमाने पर यह आयोजन होता रहा है। जवाहरलाल नेहरू जब देश के प्रधानमंत्री थे तो उन्होंने श्रवणबेलगोला का दौरा इंदिरा गांधी के साथ किया था। बाहुबली की 57 फीट की विशाल और ओजस्वी प्रतिमा को देखते हुए उन्होंने कहा था कि इसे देखने के लिए आपको मस्तक झुकाना नहीं पड़ता है, मस्तक खुद-ब-खुद झुक जाता है। श्रवणबेलगोला बेंगलुरू से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर है। मैसूर से यह 80 किलोमीटर की दूरी पर है। यह समुद्र तल से लगभग 3,350 फीट की ऊंचाई पर है। विंध्यगिरि और चंद्रिगिरी पहाड़ियों के बीच बसा श्रवणबेलगोला भगवान बाहुबली द्वारा संरक्षित है और 2300 वर्षों से जैन धर्मावलंबियों का सबसे बड़ा और पवित्र तीर्थ है। जैन अनुश्रुतियों के मुताबिक मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ने अपने राज्य का परित्याग कर अंतिम दिन मैसूर के श्रवणबेलगोला सावधानी बरत रही है और इसके साथ ही राज्य सरकार ने तीर्थ यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह अभूतपूर्व सुरक्षा राज्य विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले प्रदान की गई है। श्रवणबेलागोला जैन धर्मावलंबियों का सबसे पवित्र तीर्थ है। यहां 58 फीट की भगवान

में व्यतीत किया था। भगवान बाहुबली को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। जैनियों में मान्यता है कि बाहुबली गोमतेश्वर मोक्ष पाने वाले पहले व्यक्ति थे। दुनिया में अखंड ग्रेनाइट से बनी सबसी बड़ी मूर्ति है। जैन अनुयायी के अनुसार यही हमारी काशी है। यही हमारा कुंभ है। महामस्तकाभिषेक के दौरान यहां जैन साधु, मुनि, त्यागी, संत, साध्वी सभी होती हैं। इस आयोजन में जैन ही नहीं, बल्कि दूसरे धर्म, संप्रदाय के लोग भी हिस्सा लेते हैं। भगवान बाहुबली सत्य, अहिंसा और शांति के रास्ते पर चलने का संदेश देते हैं, ताकि विश्व के मानव समाज में शांति की स्थापना की जा सके। 10वीं सदी से हर 12 साल के अंतराल पर महामस्तकाभिषेक होता है। कहा जाता है कि इसका प्रारंभ जब हुआ था, तब कर्नाटक राज्य में गंग वंश का शासन था। बाहुबली की प्रतिमा के चारों ओर प्राकार में छोटी-छोटी देवकुलिकाएं हैं। इनमें तीर्थंकर भगवान की मूर्तियां विराजमान हैं। चंद्रगिरि पर्वत इंद्रगिरि से छोटा है। इसीलिए कन्नड़ में उसे चिक्कवेट्ट कहते हैं। वह आसपास के मैदान से लगभग 55 मीटर ऊंचा है। प्राचीन संस्कृत लेखों में इसे कटवप्र कहा जाता है। यहां प्राकार के भीतर कई सुंदर जिनमंदिर हैं। एक देवालय प्राकार के बाहर है। प्राय: सब ही बाहुबली की प्रतिमा है। इस क्षेत्र में विध्यंगिरी और चंद्रगिरी दो पहाड़ियां स्थित हैं। सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के जैन धर्म स्वीकार करने के बाद 298 ईसा पूर्व में चंद्रगिरी में ही उनकी मृत्यु हुई थी। तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक ने चंद्रगुप्त को सम्मान देने के लिए चंद्रगिरी क्षेत्र का निर्माण करवाया था।

मंदिर द्रविड़-शिल्पकला की शैली के हैं। सबसे प्राचीन मंदिर आठवीं शताब्दी का बताया जाता है। पहले ही पर्वत पर चढ़ते हुए भद्रबाहु गुफा मिलती है। जिसमें उनके चरणचिन्ह विराजमान हैं। भद्रबाहु गुफा से ऊपर पहाड़ की चोटी पर भी मुनियों के चरणचिन्ह हैं। उनकी वंदना करके लोग दक्षिण द्वार से प्राकार में प्रवेश करते हैं। प्रवेश करते ही एक सुंदरकाय मानस्तंभ मिलता है। यह बहुत ऊंचा है और इसके सिरे पर ब्रह्मदेव की मूर्ति है। गंगवंशी राजा मारसिंह द्वितीय का स्मारक रूप लेख भी इस पर खुदा हुआ है। इसी स्तंभ के पास कई प्राचीन शिलालेख चट्टान पर उत्कीर्ण हैं। शिलालेख करीब 640 ई. में बना था। मानस्तंभ से पश्चिम की ओर सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ का एक छोटा सा मंदिर है। उसमें शांतिनाथ भगवान की साढ़े तीन मीटर ऊंची एक महामनोज्ञ खड्गासन मूर्ति दर्शनीय है। इस मंदिर के खुले स्थान में भरत की अपूर्व मूर्ति खड़ी है। पूर्व दिशा में ‘महानवमी मंडप’ है, जिसके बीस स्तंभ हैं। एक स्तंभ पर मंत्री नागदेव ने 1176 ई. में नयकीर्ति नामक मुनिराज की स्मृति में लेख खुदवाया है। यहां से पूर्व की ओर श्री पार्श्वनाथ जी का बहुत बड़ा मंदिर है। इसके सामने एक मानस्तंभ है। मंदिर उत्कृष्ट शिल्पकला का सुंदर नमूना है। चंद्रगिरि पर्वत पर सबसे छोटा मंदिर चंद्रगुप्त वसदि है। यहां एक पत्थर के सुंदर चौखटे में पांच चित्रपट्टिकाएं अति भव्य हैं। इनमें श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन संबंधी चित्र बने हुए हैं। इसके अतिरिक्त श्रवणबेलगोल गांव में भी कई दर्शनीय जिनमंदिर हैं। इनमें ‘भंडारी वसदि’ नामक मंदिर सबसे बड़ा है। इसके कई गर्भगृहों में एक लंबे अलंकृत पादपीठ पर चौबीस तीर्थंकरों की खड्गासन प्रतिमाएं विराजमान हैं। इसके द्वार सुंदर हैं। फर्श बड़ी लंबी-लंबी शिलाओं का बना हुआ है। मंदिर के सामने एक अखंड शिला का बड़ा सा मानस्तंभ खड़ा है। ‘नगर जिनालय’ बहुत छोटा मंदिर है। इसे 1195 ई. में मंत्री नागदेव ने बनवाया था। ‘मंगाई वसदि’ शांतिनाथ स्वामी का मंदिर है। चारुकीर्ति पंडिताचार्य की शिष्या, राजमंदिर की नर्तकी चूड़ामणि और बेलुगुल की रहने वाली मंगाई देवी ने 1325 ई. में इसे बनवाया था।

कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु से 144 किमी दूर स्थित ये पहाड़ियां हर 12 साल पर धार्मिक उत्साह का केंद्र बन जाती हैं। मूर्ति को गोमेतेश्वर कन्नड़िगास के रूप में जाना जाता है, लेकिन जैनियों में इसे बाहुबली के रूप में संदर्भित किया जाता है।


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स्वच्छता

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

स्वच्छता का स्वर्णिम द्वीप देश

पांच दशक पूर्व तक सिंगापुर शौच करने के तरीके से लेकर उसके निपटान के तरीके बे​ेहतर नहीं थे, पर जल प्रबंधन और अनुशासित जीवनशैली और कुशल नेतृत्व के बूते सिंगापुर आज दुनिया का सबसे स्वच्छ और सुंदर देश बन चुका है

सिं

एसएसबी ब्यूरो

गापुर ने 2014 में अपने जन्म की स्वर्ण जयंती मनाई है। इन पांच दशकों में इस देश ने विकास और स्वावलंबन की यात्रा को जिस तरह पूरा किया है, वह पूरी दुनिया के आगे एक मिसाल है। हार्वर्ड से लेकर ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी तक में अब तक इस मुद्दे पर सैकड़ों अध्ययन हो चुके हैं कि कैसे एक देश जल और खनिज जैसे संसाधनों के अभाव के बावजूद जल संरक्षण, स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा, पर्यावरण सुरक्षा, यातायात सुविधा और आर्थिक व्यवस्था का जीवंत मॉडल बन सकता है।

खास बातें 50 के दशक में सिंगापुर प्रदूषण का बहुत बड़ा अड्डा था सिंगापुर ने जल प्रबंधन के जरिए स्वच्छता का संकल्प पूरा किया यहां का सीवरेज सिस्टम दुनिया में सबसे आधुनिक माना जाता है

ब्रिटिश राज में सिंगापुर प्रदूषण के एक बड़े अड्डे के रूप मंे जाना जाता था। यहां एक तरफ जहां घना बसाव था, वहीं खुले में शौच जैसी समस्या आम थी शौच का अस्वच्छ तरीका

ब्रिटिश राज में यानी 50 के दशक में सिंगापुर प्रदूषण के एक बड़े अड्डे के रूप में जाना जाता था। यहां एक तरफ जहां घना बसाव था, वहीं खुले में शौच जैसी समस्या आम थी। उस दौर में वहां शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में दो तरह के शैचालय इस्तेमाल किए जाते थे। शहरी सिंगापुर में आमतौर पर बैठने वाले शौचालय इस्तेमाल होते थे। इसमें न सिर्फ मल, बल्कि पूरे घर का कचरा शौचालय के छिद्र से लगी बाल्टी में जमा किया जाता था। इन बाल्टियों में पहले से मिट्टी भरी होती थी, ताकि दुर्गंध ज्यादा न फैले। रात के वक्त इन बाल्टियों को जमा कर कहीं और ले जाया जाता था। ब्रिटिश दौर में ग्रामीण सिंगापुर में गड्ढे वाले शौचालय प्रचलन में थे। ये घरों से थोड़ी दूर पर बनाए जाते थे और इनका इस्तेमाल परिवार के सभी सदस्य सामूहिक तौर पर करते थे। इस शौचालय में जहां जमीन पर एक छिद्र बना होता था, वहीं ऊपर बैठने के लिए एक स्लैब बनाया जाता था। एक बार जब यह भर जाता था तो इसे खुद ही खाली करना पड़ता था। यह तरीका कितना अस्वस्थकर और अमानवीय था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता था कि यह सब हाथ से ही किया जाता

था। गड्ढ़े को खाली करने की विधि इतनी भर थी कि लोग इसमें जमा मल को निकालकर पास के प्राकृतिक जलस्रोत में फेंक आते थे। स्वच्छता की इस बुरी दशा का प्रभाव तब वहां के लोगों के स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा था। लोग आए दिन टायफाइड और डायरिया के शिकार होते थे, जिसमें आम तौर पर लोगों की मृत्यु हो जाती थी।

बदलाव की रोमांचक यात्रा

स्वच्छता की इस चिंताजनक स्थिति से बाहर निकलने के लिए सिंगापुर ने स्वच्छता, स्वास्थ्य और जल प्रबंधन को आधार बनाकर मॉडर्न टाउनशिप प्लानिंग पर अमल करना शुरू किया। यह काम वहां इस शपथ के साथ पूरा किया गया कि अगर वे खुद को नहीं बचा सके तो उनकी अस्वच्छ स्थितियां उनको नहीं बचने देंगी। भूमि के अंदर काफी गहराई में सिवरेज नालों का निर्माण और सरकार की अपनी हाउसिंग एजेंसी द्वारा सबको घर मुहैया कराने के तरीके से वहां, जहां जमीन का किफायत इस्तेमाल शुरू हुआ, वहीं पानी और स्वच्छता का उन्नत प्रबंध सबको एक साथ उपलब्ध हुआ। आज सिंगापुर ‘क्लीन एंड ग्रीन’ के आदर्श लक्ष्य पर चलते हुए स्वास्थ्य और स्वच्छता के क्षेत्र में काफी आगे बढ़

चुका है। सिंगापुर की यह विकास यात्रा किसी रोमांच से कम नहीं है। आज वहां मल से लेकर कचरे तक के निपटान का आधुनिकतम तरीका है। वहां लोग मल और कचरे से पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के बजाय ऊर्जा पैदा कर रहे हैं। कहीं भी कूड़ा फेंकने वालों को वहां 200 डॉलर का अर्थदंड चुकाना पड़ता है। स्वच्छता पर निगरानी का तरीका इतना दुरुस्त कि वहां भारत की तरह सड़कों पर आपको आवारा कुत्ते नहीं मिलेंगे।

ली की सम्मानजनक विदाई

सिंगापुर के शानदार आर्थिक विकास के रचयिता तथा देश के संस्थापक प्रधानमंत्री ली-कुआन-यू को


26 फरवरी - 04 मार्च 2018

स्वच्छता की चिंताजनक स्थिति से बाहर निकलने के लिए सिंगापुर ने स्वच्छता, स्वास्थ्य और जल प्रबंधन को आधार बनाकर माडर्न टाउनशिप प्लानिंग पर अमल किया अंतिम विदाई देने के लिए भारी बारिश में भी हजारों सिंगापुरवासी तथा उनके विदेशी प्रशंसक बड़ी संख्या मौजूद थे। उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने वालों में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन तथा इस्राइल के प्रधानमंत्री बैंजामिन नेतन्याहू, जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे से लेकर आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबट तक मौजूद थे। दरअसल, ली के नेतृत्व की सफलता एक देश के स्वच्छ, सुंदर और हर लिहाज से विकसित होने की एक ऐसी दास्तान है, जिसे इतिहास के पीले पड़े पन्नों में नहीं मौजूदा दौर में देखा-समझा जा सकता है।

यशस्वी नेतृत्व

ली तीन दशक तक सिंगापुर के प्रधानमंत्री रहे। इस द्वीप देश को एक निर्धन बंदरगाह से एक अमीर राष्ट्र में बदलने का श्रेय उन्हें ही जाता है। आखिर यह कैसे संभव हुआ? जहां इतने सारे उपनिवेश देश अपनी आजादी के बाद ऐसा नहीं कर सके, वहीं सिंगापुर ने ऐसा कैसे कर दिखाया है? उसने किस तरह से सही फैसले लिए? सिंगापुर से लौटने वाले लोग अक्सर कहते सुने जा सकते हैं, ‘इसकी सफलता का रहस्य सख्ती से कानून लागू करवाने में निहित है।’ यह बेहद स्वच्छ देश है, क्योंकि वहां गंदगी फैलाने पर भारी जुर्माना लगाया जाता है।

‘पेरानाकन’ और अच्छे-बुरे का विवेक नियम-कायदों से आगे इस देश के निवासियों के जीवन को देखें तो सिंगापुर की स्वच्छता और उसकी तीव्र विकास यात्रा की सफलता का रहस्य कहीं और ज्यादा खुलता है। सिंगापुरवासियों के जीवन में स्वच्छता और अनुशासन का स्थान सर्वोपरि है। इस देश के चरित्र को दो प्रमुख सिद्धांतों से जाना जा सकता है। पहला है ‘पेरानाकन’। इस मलय शब्द का अर्थ है, ‘जन्म से’ जिसका प्रयोग मिश्रित जातीय

स्वच्छता

2060 तक पानी के मामले में आत्मनिर्भर

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सिंगापुर का लक्ष्य है कि वह 2060 तक पानी के मामले में आत्मनिर्भर बन जाए। यह आत्मनिर्भता सिंगापुर को स्वच्छता के अपने आधुनिक मानक पर खरा उतरने में मददगार होगा ही, इससे वहां के जीवन में एक नए तरह की सहजता आएगी

ल और स्वच्छता का संबंध अभिन्न है। स्वच्छता और स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियों पर खरा उतरने के लिए सिंगापुर ने किस तरह अपने जल प्रबंधन को दुरुस्त किया, वह एक दिलचस्प सबक की तरह है। सिंगापुर ने अपना पहला जलाशय 19वीं शताब्दी के मध्य में निर्मित किया था। वर्ष 2010 तक शहर ने अपने कुल क्षेत्र के दो तिहाई, यानी 700 वर्ग किलोमीटर को नालियों और नहरों के विशाल जाल के माध्यम से वर्षा जल के लिए बने 19 जलाशयों से जोड़ दिया है। इससे कुल जल आपूर्ति की 20 प्रतिशत की पूर्ति होती है। कंक्रीट से आच्छादित शहरी बसाहट में भी वर्षा जल का शोधन गंदे पानी को उपचारित करने एवं समुद्री पानी के खारेपन को समाप्त करने से काफी सस्ता है। इन दोनों के मूल्यों के अंतर को गोपनीय रखा गया है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मलेशिया के साथ हुए अन्य दो अनुबंध अभी भी वैध हैं। वर्षा जल का अधिकतम प्रयोग करने हेतु पीयूबी ने अपनी तरह का पहला संयंत्र समुद्र तट पर लगाया है, जो कि छोटी धाराओं के माध्यम से आने वाले पानी के शोधन में सक्षम है। सिंगापुर में नदी के मुहानों पर जलाशय बना दिए गए हैं। इसी के साथ कम वर्षा होने पर जब समुद्र का पानी अधिक क्षारीय होता है, के लिए अलग तरह के संयंत्र स्थापित किए हैं। ये संयंत्र वर्षा के मौसम में जब क्षारीयता कम होती है तब स्वतः कार्य करना प्रारंभ कर देते हैं। इस तकनीक से पीयूबी सतह जल का 90 प्रतिशत उपयोग कर पाने में सक्षम हो गया है। सिंगापुर का लक्ष्य है कि वह 2060 तक पानी के मामले में आत्मनिर्भर बन जाए। तब तक मलेशिया उसके लिए पानी का मुख्य स्रोत बना रहेगा। दोनों समझौतों से यह सुनिश्चित है कि मूल के लोगों के लिए किया जाता है। सिंगापुर की जनसंख्या में चीनी, भारतीय, मलय, यूरोपीय, अरब, अफ्रीकी मूल के लोग शामिल हैं। इस विविधता ने सिंगापुर को अलग पहचान भी दी है। उदाहरण के लिए देश की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है, जिसे स्कूलों में पढ़ाया जाता है, परंतु इस बात का ध्यान रखा गया है कि ऐसा भी न हो कि बच्चे अपने बड़े बुजुर्गों के साथ भाषा के अंतर की वजह से भावनात्मक रूप से जुड़ ही न

वर्ष 2003 में सिंगापुर का एक नागरिक प्रतिदिन 165 लीटर पानी का इस्तेमाल करता था। वर्ष 2009 में यह घटकर 155 लीटर पर आ गया। यह सिंगापुर की उस स्वच्छता संस्कृति के कारण ही कहीं न कहीं संभव हुआ जिसमें पानी को अमूल्य माना गया है मलेशिया से वर्ष 2061 तक पानी का आयात किया जा सकता है। वर्ष 1965 में जब सिंगापुर मलेशिया से अलग हुआ था तो उस दौरान हुए समझौते में दोनों ही सरकारों ने वर्ष 1961 और 1962 में हुए समझौतों के प्रति गारंटी दी थी। यह आत्मनिर्भता सिंगापुर को स्वच्छता के अपने आधुनिक मानक पर तो उसे खरा रखने में मददगार होगा ही, इससे वहां के जीवन में एक नए तरह की सहजता आएगी। वर्तमान में सिंगापुर को तीन विशाल पाइप लाईनों के माध्यम से जल मिलता है। वर्ष 1960 सकें। इसीलिए उन्हें मंेडरिन, मलय, तमिल जैसी उनकी मूल भाषाओं को ‘सेकेंड लैंग्वेज’ के रूप में पढ़ाया जाता है। ली का मानना था कि यदि बच्चे अपने परिवार के बड़े बुजुर्गों से भावनात्मक रूप से जुड़ नहीं पाएंगे तो ऐसी ‘जड़ विहीन पीढ़ी’ का खामियाजा समाज को ही भरना होगा। बात स्वच्छता की करें तो इस सबक को भी सिंगापुर ने अपनी परंपराओं से ही सीखा है। सिंगापुर की प्रगति का आधार बनने वाला

की शुरुआत में इस पानी से सिंगापुर की तत्कालीन दैनिक मांग 30 करोड़ लीटर की आपूर्ति हो जाती थी। जनसंख्या के बढ़ने से अब यह मांग बढ़कर 173 करोड़ लीटर तक पहुंच चुकी है और इसके अगले 50 वर्षों में दुगुना हो जाने का अनुमान है। टिंग का कहना है, ‘हम लोगों से पानी के संरक्षण, पानी के स्रोतों एवं पानी के रास्तों को साफ रखने एवं पानी के साथ आत्मीय संबंध बनाने को कहते हैं जिससे कि हम अपने स्रोतों का आनंद उठा सकें।’ वर्ष 2003 में सिंगापुर का एक नागरिक प्रतिदिन 165 लीटर पानी का इस्तेमाल करता था। वर्ष 2009 में यह घटकर 155 लीटर पर आ गया। यह सिंगापुर की उस स्वच्छता संस्कृति के कारण ही कहीं न कहीं संभव हुआ जिसमें पानी को अमूल्य माना गया है। जागरूकता अभियान के माध्यम से अब पीयूबी चाहता है कि अगले तीन साल में इसमें आठ लीटर की और कमी आ जाए। उनका कहना है ‘पानी के आयात का हमारा दूसरा समझौता जब वर्ष 2061 में समाप्त होगा ऐसे में यदि अगर आवश्यकता पड़ी तो तब तक हम आत्मनिर्भर हो चुके होंगे।’ साफ है कि जल प्रबंधन के क्षेत्र में सिंगापुर पूरे विश्व में एक तो पहले ही बड़ा उदाहरण बना चुका है और आने वाले चार दशकों के लिए उसके पास पानी के प्रबंधन को लेकर ऐसा ब्लूप्रिंट है, जिसमें जल संरक्षण से लेकर जल शोधन तक पानी के किफायत और बचाव को लेकर तमाम उपाय शामिल हैं। निस्संदेह भारत भी सिंगापुर से जल प्रबंधन को लेकर सबक ले सकता है, क्योंकि यहां के पानी स्रोतों की सफाई और पानी के भंडारण पर बहुत ही कम ध्यान दिया जाता है। सिंगापुर की खास बात यह भी है कि उसका जल जल प्रबंधन शहरी क्षेत्रों के लिए खास तौर पर मुफीद है। दूसरा सिद्धांत है ‘अच्छा काम करोगे तो अच्छा फल पाओगे, बुरा काम करोगे तो दंड भुगतोगे।’ सिंगापुर एयरलाइंस के विस्तार में 24 वर्ष गुजारने वाले कर्मजीत सिंह इस सिद्धांत की व्याख्या इस प्रकार करते हैं, ‘आप अच्छा काम करते हैं, स्वच्छ जीवनशैली को अपनाते हैं, यदि रिश्वत स्वीकार नहीं करते, आसान रास्ता नहीं अपनाते हैं तो आपको पुरस्कृत किया जाता है। आप गलत काम करते हैं, पारंपरिक जीवनमूल्यों की कद्र नहीं करते, प्रतिभा


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स्वच्छता

26 फरवरी - 04 मार्च 2018 से समझौता करते हैं, लोगों को अवांछित लालच देते हैं तो आपको दंड भुगतना पड़ता है।’ पढ़ने-सुनने में शायद ये सिद्धांत बेहद साधारण लगें, परंतु प्रगति करने तथा आगे बढ़ते रहने की सिंगापुर के वासियों की ललक इन सिद्धांतों को कामयाब बनाए हुए है।

जयपुर में सिंगापुर की चर्चा

सिंगापुर से बहुत सीखना है

मैं

सिंगापुर में नवंबर, 2015 को भारतीय समुदाय के समक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन का संपादित अंश

गत मार्च (2015) महीने में एक दिन के लिए सिंगापुर आया था। जिस महापुरुष ने इस सिंगापुर को बनाया, अपने खून-पसीने से बनाया। अपने-आप को खपा दिया। ऐसे महापुरुष स्वर्गीय ली-कुआन-यू की अंतयेष्टि के लिए, अंतिम दर्शन के लिए मैं आया था। एक छोटा सा मछुआरों का गांव आज विश्व के समृद्ध देशों की बराबरी कर रहा है, सिंगापुर ऐसा देश बन गया है। जब हम सिंगापुर को याद करते हैं तो मन में एक विश्वास पैदा होता है। वे मेरे लिए एक निजी प्रेरणा की तरह थे।

अगर सपने हैं और सपनों के लिए समर्पण है, तो सिद्धि आपके चरण चूमने के लिए तैयार रहती है। प्रसिद्धि और सिद्धि में बहुत बड़ा फर्क होता है। कुछ भी करने पर प्रसिद्धि तो मिल जाती है, लेकिन सिद्धि के लिए तो सिर्फ तपस्‍या, यही एक मार्ग होता है और जिन्होंने प्रसिद्धि का रास्ता अपनाया है वो कभी कुछ सिद्धि नहीं कर पाए हैं। सिंगापुर इस बात का उदाहरण है कि मात्र 50 साल में एक ही पीढ़ी की आंखों के सामने एक देश को कहां से कहां पहुंचाया जा सकता है। भारत विशाल देश है, सवा सौ करोड़ देशवासियों का देश है। सब कुछ

है फिर भी सिंगापुर से बहुत कुछ सीखना भी है। आज से 50-60 साल पहले ली के मन में एक विचार आया–सिंगापुर की सफाई, स्वच्छता। मैं सिंगापुर की विकास यात्रा को नमन करता हूं। सिंगापुर को हर किसी ने बनाया है, हर कोई बना रहा है, और सिंगापुर भी अगल-बगल के मुल्कों को बनाने की ताकत रखता है। सिंगापुर सचमुच में सौ-सौ सलाम करने वाला देश बन गया है। हमे स्वच्छ पानी से लेकर स्थायी आवास जैसी 21वीं सदी की चुनौतियों से निपटने के लिए सिंगापुर के रूप में एक साझेदारी की जरूरत है।

सिंगापुर के निजी और सार्वजनिक मूल्य उसे एक स्वच्छ और सुंदर देश का खिताब देने में किस तरह मददगार हैं, इसकी चर्चा एक सीख के रूप में दुनिया के हर उस मंच पर होती है, जहां स्वच्छता या टिकाऊ जल प्रबंधन जैसे मुद्दे पर चर्चा होती है। हाल में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल संपन्न हुआ। यहां विद्वानों और लेखकों के बीच अन्य मुद्दों के साथ स्वच्छता को लेकर भी दिलचस्प चर्चा हुई। स्वच्छता को लेकर आयोजित विशेष सत्र में लेखक और अर्थशास्त्री गुरुचरण दास ने भारत और सिंगापुर के जीवनमूल्यों की चर्चा की। उन्होंने कहा कि स्वच्छता के मामले में हमारे देश के लोगों का कल्चर सिर्फ आठ घंटे में बदल जाता है। हमारे यहां हम कहीं भी थूक देते हैं और आठ घंटे में किसी दूसरे देश में पहुंचने पर पूरी तरह बदल जाते हैं। उन्होंने कहा कि स्वच्छता के मामले में हमारी सबसे बड़ी परेशानी गवर्नेंस को लेकर है। हमारी नगरपालिकाओं का सिस्टम बहुत लापरवाह है। सिंगापुर में 1950 में बहुत गंदगी थी, लेकिन वहां लोगों में सफाई के अभियान के लिए जज्बा था और इसीलिए वह आज सबसे साफ देशों में है।

भारतीयों का योगदान

शुरुआती वर्षों के दौरान सिंगापुर के लिए योजना बनाने में वहां मौजूद बड़ी संख्या में भारतीय मूल के सिंगापुर वासियों का योगदान रहा है। चाहे यह सड़कों या शहरों की योजना हो या फिर जल और

...तो दिल्ली में भी सिंगापुर मॉडल सी

2012 में दिल्ली जल बोर्ड और सिंगापुर कॉरपोरेशन इंटरप्राइज ने इसको लेकर एक करार भी किया

वरेज का सीधा संबंध स्वच्छता से जुड़ी स्वच्छ कर पीने लायक बनाया जाना था। नागरिक सुविधा और जीवनशैली से है। समझौते के वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री इसीलिए स्वच्छता की कसौटी पर खरा उतरने के एवं दिल्ली जल बोर्ड की अध्यक्ष शीला दीक्षित लिए जरूरी है कि शौचालय से लेकर स्नानागार स्वयं उपस्थित थीं। समझौते पर जल बोर्ड की तक मल के साथ दूषित जल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी पानी का कम उपयोग, देवश्री मुखर्जी और सिंगापुर असुरक्षित प्रवाह पर वैज्ञानिक तरीके से रोक लगाई जाए। इस पानी को रिसाइकिल करना कॉरपोरेशन एंटरप्राइज के लिहाज से देखें तो सिंगापुर का और पानी का दोबारा मुख्य कार्यकारी अधिकारी सीवरेज सिस्टम इतना कारगर उपयोग में लाना ही ऐसा एलफोंसिस चिया ने हस्ताक्षर और वैज्ञानिक है कि इससे किए। भारत में सिंगापुर के मू ल मं त्र है , जिसे दिल्ली सीखने और अपनाने वालों में कार्यकारी उच्चायुक्त जोनाथन कई देश शामिल हैं। यहां तक जैसे शहरों को अपना कर टॉ भी समारोह में शामिल हुए। कि पानी की कमी से जूझ रही खुद को आत्मनिर्भर बनाया इस मौके पर दीक्षित ने कहा जा सकता है राजधानी दिल्ली तक ने छह था कि पानी का कम उपयोग, वर्ष पूर्व सिंगापुर से पानी को पानी को रिसाइकिल करना रिसाइकिल करना और सीवरेज के पानी को दोबारा और पानी का दोबारा उपयोग में लाना ही ऐसा इस्तेमाल करने लायक बनाना सीखने का मन बना मूल मंत्र है, जिसे दिल्ली जैसे शहरों को अपना लिया था। 2012 में दिल्ली जल बोर्ड और सिंगापुर कर खुद को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। पर कॉरपोरेशन इंटरप्राइज ने इसको लेकर एक करार शायद सीखने की यह ललक कहीं बीच में ही दम भी किया। इससे सीवरेज ट्रीटमेंट प्लाट के पानी को तोड़ गई।


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स्वच्छता

स्वच्छ के साथ दिलचस्प सिंगापुर

इस धरती पर सिंगापुर के लोग सबसे तेज चलते हैं।

सिंगापुर में टॉयलेट फ्लश न करने पर 150 डॉलर जुर्माना लग सकता है। इसे चेक करने के लिए पुलिस को भी बुलाया जा सकता है।

वर्ष 2017 में 1 करोड़ 20 लाख लोग सिंगापुर घूमने गए थे, जबकि इसकी खुद की जनसंख्या 57 लाख है।

सिंगापुर में खुले में पेशाब करने की सख्त मनाही है। कुछ लोग इससे बचने के लिए लिफ्ट में पेशाब करने लग गए थे, लेकिन लिफ्ट में ऑटोमेटिक डिटेक्शन सिस्टम लगाए गए जिससे पेशाब करते ही पुलिस के आने तक दरवाजें खुद बंद हो जाते हैं।

सिंगापुर काफी महंगा देश है। यहां हर छठा आदमी मिलिनेयर है।

सिंगापुर

सिंगापुर सिंगापुर दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसे खुद की इच्छा के खिलाफ आजादी मिली। इसे 1965 में मलेशिया ने आजाद कर दिया था।

स्वच्छता से जुड़ी कार्ययोजना। भारतीय मूल के लोग इनसे करीब से जुड़े रहे और अब वे भारत को सुधारने के लिए अपनी तकनीकों का प्रयोग करने के भी इच्छुक हैं।

एचडीबी की बड़ी भूमिका

सिंगापुर की जिस एक इंडस्ट्री के अनुभवों से भारत को अमूल्य लाभ हो सकता है, वह है हाउसिंग एंड डेवलपमेंट बोर्ड (एचडीबी)। आजादी से पूर्व

इलस्ट्रेशन ः दिनेश पटेल

सिंगापुर की स्थापना, 1819 में मलेशिया के एक शहर के रूप में हुई थी।

सिंगापुर का टाइमजोन गलत है। यह 6 बार बदला जा चुका है। यहां आप जो समय देख रहे होते हैं, वह असल में 30 मिनट पीछे चल रहा होता है।

सिंगापुर में च्यूइंग्म चबाना पूरी तरह से बैन है यह नियम 1992 में लागू किया गया था।

2003 में सिंगापुर का एक नागरिक प्रतिदिन 165 लीटर पानी का इस्तेमाल करता था। 2009 में यह घटकर 155 लीटर पर आ गया। यह सिंगापुर की उस स्वच्छता संस्कृति के कारण ही कहीं न कहीं संभव हुआ, जिसमें पानी को अमूल्य माना गया है सिंगापुर एक भीड़भाड़ वाला देश था, जहां गंदगी की भरमार थी। उस समय अधिकतर सिंगापुरवासी

अच्छा आवास वहन नहीं कर सकते थे। जाहिर है कि इससे पूर्व सिंगापुरवासी कहीं न कहीं एक नितांत

सिंगापुर 63 छोटे-छोटे टापुओं से मिलकर बना है। क्षेत्र के हिसाब से यह भारत से 4400 गुना छोटा है। अस्वच्छ वातावरण में रहने को विवश थे।

‘स्वच्छ सिंगापुर अभियान’

सिंगापुर सरकार ने 1967 में ‘स्वच्छ सिंगापुर अभियान’ की शुरुआत की। लोक स्वास्थ्य नियम के तहत उसे वैधता दी गई। इस अभियान के तहत तीन 'आर’ रिड्यूस, रियूज और रिसाइकिल पर ध्यान केंद्रित किया गया। 'स्कूलों में आयोजित उत्सव में साफ और हरित सिंगापुर’, सुपर मार्केट में 'अपना


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स्वच्छता

26 फरवरी - 04 मार्च 2018 न करें, बल्कि उसे समाप्त भी कर दे। इस हेतु उसने जल प्राप्ति के लिए तीन पद्धतियों पर कार्य करने का निश्चय किया है। ये हैं- गंदे पानी का पुनः शुद्धिकरण, समुद्री जल का खार कम करना और वर्षा जल का अधिकतम संग्रहण। इसके लिए सिंगापुर ने स्वच्छता की उस तकनीक को अपनाया, जिसमें जल भारी मात्रा में अशुद्ध तो नहीं ही होता, बल्कि उन्हें फिर विभिन्न इस्तेमालों में लाने लायक बनाया जा सके।

सीवर की निकासी समुद्र में नहीं

बैग लाओ दिवस’, एबीसी जल कार्यक्रम जैसे लक्षित पहल के बेहतर परिणाम सामने आए हैं। इससे भागीदारी में बढ़ोत्तरी हुई।

पूरी दुनिया में जिस वाटर एंड सेनिटेशन मॉडल को सबसे आकर्षक और सीखने योग्य माना जाता है, उसमें सिंगापुर का मॉडल सबसे आगे है।

स्वच्छता का आग्रह अगर आज भारत में एक मिशन का नाम है, तो वहीं स्वच्छता के रास्ते विकास के नए-नए सोपानों की ललक दुनिया में हर तरफ देखी जा रही है। इसी मुद्दे पर हुए एक अध्ययन में स्वच्छता और जल प्रबंधन के सिंगापुर मॉडल को सबसे कारगर बताया गया है। अध्ययन में यह सुझाव भी दिया गया है कि भारत सहित अफ्रीकी और तीसरी दुनिया के उन देशों में जहां झुग्गी बस्तियों को सुरक्षित पेय जल और उचित स्वच्छता के साथ आधुनिकीकरण के लिए योजनागत पहल पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है, वे सिंगापुर से कई सबक सीख सकते हैं। शोधपत्र ‘एचिविंग टोटल सेनिटेशन एंड हाइजीन कवरेज विदइन ए जेनरेशन- लेसंस फ्रॉम ईस्ट एशिया’ में कहा गया है, ‘सस्ती सार्वजनिक आवास की तीव्र एवं व्यापक उपलब्धता से सिंगापुर में झुग्गियों, जहां खुले में शौच आम प्रचलन था, से बड़ी संख्या में लोग फ्लैटों में आए, जहां निजी सुरिक्षत स्वच्छता उपलब्ध थी।’ स्पष्ट है कि यह अध्ययन स्वच्छता के सवाल को योजनागत समर्थन के साथ समुचित आवासीय उपलब्धता से भी जोड़ता है। यह अध्ययन एक अंतरराष्ट्रीय गैर लाभकारी संगठन 'वाटरएड' ने किया। शोधपत्र का प्रस्तावना नोट लिखते हुए एचएसबीसी एशिया पैसिफिक के निदेशक नैना लाल किदवई ने कहा कि हमारे देश में स्वच्छता उपलब्ध कराने में आने वाली विविध चुनौतियां हैं और इससे निपटने में सिंगापुर जैसा नवविकसित राष्ट्र हमारी काफी मदद कर सकता है।

सिंगापुर के सामने लंबे समय तक यह सवाल रहा कि एक शहर-राष्ट्र, जिसके पास न तो कोई प्राकृतिक जल इकाई है, बहुत सीमित मात्रा में भूजल उपलब्ध है और इतनी भूमि भी उसके पास नहीं है कि वह बरसात के पानी का भंडारण कर सके, वह अपनी 50 लाख से ऊपर की आबादी की प्यास को कैसे बुझाए, उसकी स्वच्छता की चिंता कैसे करे। दक्षिण पूर्वी एशियाई देश सिंगापुर का जोहार नदी (अब मलेशिया का हिस्सा) से जुड़ा 50 वर्ष पुराना अनुबंध समाप्त हो चुका है। गौरतलब है कि सिंगापुर अपनी कुल जल आपूर्ति का 40 प्रतिशत पड़ोसी देश मलेशिया से आयात करता है। आयातित पानी का मूल्य बहुत ही कम है, क्योंकि मलेशिया ने पिछले पांच दशकों में पानी के दाम ही नहीं बढ़ाए। अन्य सभी स्रोतों के मुकाबले यह सबसे सस्ता है और इसका मूल्य प्रति 1000 लीटर पानी के लिए मात्र एक सिंगापुर सेंट के बराबर है। जबकि सिंगापुर इसके बदले अपने नागरिकों से एक डॉलर (भारतीय मुद्रा में रुपए 37.61) से भी अधिक वसूल करता है।

वाटरएड का अध्ययन और सुझाव

च्युइंगम पर बैन

सिंगापुर आज पूरी दुनिया में अपने साफ-सुथरे माहौल की वजह से जाना जाता है। यहां गंदगी न फैले इस बात को ध्यान में रखते हुए च्युइंगम बैन किया गया है। यह बात शायद सुनने में थोड़ी अटपटी लगे, लेकिन यही सच है। स्वच्छता को

सीमित मात्रा में भूजल

ध्यान में रखते हुए सिंगापुर सरकार ने साल 1992 को च्युइंगम को बैन कर दिया। वहां खुले में च्युइंगम फैलाने पर 500 डॉलर का फाइन लगाया जाता है। च्युइंगम पर बैन का फैसला वहां इसीलिए लिया गया कि इससे जहां बस अड्डों से लेकर हवाई अड्डों पर एक सिरदर्द बढ़ाने वाली गंदगी फैलती है, वहीं इससे खासतौर पर सार्वजनिक शौचालयों की निकासी बाधित होती है, वहां गंदगी बढ़ती है।

जल और स्वच्छता

एक देश जो पड़ोसी मुल्क से पानी आयात कर अपने लोगों की प्यास बुझाता रहा है, उसके सेनिटेशन और वाटर मैनेजमेंट की चर्चा आज अगर पूरी दुनिया में है तो इसकी वजहों को सबको विस्तार से समझना चाहिए। तीन दशक पहले जब पूरी दुनिया में जब ग्लोबलाइजेशन और उसके साथ डिजिटलाइजेशन का जोर बढ़ा तो दुनियाभर की कंपनियों ने अपने उत्पाद को यहीं से पूरी दुनिया में भेजना और प्रचारित करना सबसे बेहतर माना। पर सिंगापुर की एक दूसरी पहचान भी है, जो ज्यादा प्रेरक और महत्वपूर्ण है। खासतौर पर एक ऐसे दौर में जब स्वच्छता और जल प्रबंधन को लेकर पूरी दुनिया में तमाम तरह के उपायों की बात हो रही है, तो उसमें सिंगापुर की चर्चा खासतौर पर होती है। यह भी कह सकते हैं कि

गंदे पानी का पुनः शुद्धिकरण

इस बीच, सिंगापुर की राष्ट्रीय जल एजेंसी, पब्लिक यूटिलिटी बोर्ड (पीयूबी) वर्ष 2060 तक पानी की मांग की स्वयं पूर्ति कर पाने हेतु चौबीसों घंटे कार्य कर रही है। इसका लक्ष्य है कि वह सिंगापुर की मलेशिया पर पानी की निर्भरता को सिर्फ कम ही

सिंगापुर सरकार ने 1967 में ‘स्वच्छ सिंगापुर अभियान’ की शुरुआत की। लोक स्वास्थ्य नियम के तहत उसे वैधता दी गई। इस अभियान के तहत तीन 'आर’ रिड्यूस, रियूज और रीसाइकिल पर ध्यान केंद्रित किया गया

सिंगापुर में प्रतिवर्ष औसतन 2400 मिलीमीटर वर्षा होती है जो कि कुल वैश्विक औसत से दोगुनी है। इसके बावजूद यहां पानी की कमी का कारण है, भंडारण के लिए स्थान की कमी। अतः पीयूबी व्यापक निवेश कर महंगे जलस्रोत विकसित कर रहा है। वर्ष 1970 के दशक में सिंगापुर ने गंदे जल का पुनर्शोधन प्रारंभ कर दिया था। इस हेतु एक पायलट परियोजना प्रारंभ की गई थी, जिसके माध्यम से सीवर के पानी को पुनः पीने योग्य बनाने का कार्य किया जाना था। बाद में सीवर का ऐसा नेटवर्क तैयार किया गया, जिससे कि पानी के समुद्र में जाने के बजाए उसका पुनः इस्तेमाल किया जा सके, लेकिन अत्यधिक लागत की वजह से तब वह परियोजना आकार नहीं ले सकी। तकनीक के विकास के साथ शोधन की लागत में भी कमी आई। वर्ष 2002 में एक सीवर शोधन संयंत्र से प्राप्त पानी को 30 सेंट प्रति 1000 लीटर के हिसाब से आधुनिकतम तकनीक के माध्यम से साफ कर लिया गया तथा इसे ‘न्यू वाटर’ नाम दिया गया।

डिस्टिल वाटर

पीयूबी ने 5 संयंत्र स्थापित किए जो कि तकरीबन डिस्टिल वाटर की गुणवत्ता का 53 करोड़ लीटर पानी निर्मित करते हैं। इसका 95 प्रतिशत इस्तेमाल सूचना तकनीक उद्योग करता है, जिसे शुद्धतम पानी की आवश्यकता होती है। बचा हुआ पानी जलाशय में मिला दिया जाता है। हालांकि दोनों देश नए समझौते के लिए निरंतर चर्चारत हैं, लेकिन पीयूबी ने 2005 में एक नया ‘राष्ट्रीय नल’ समुद्र के खारे पानी की शुद्धिकरण के माध्यम से खोल दिया है। यह सबसे खर्चीला है और इस पर प्रति हजार लीटर 78 सेंट खर्च आता है। परंतु सिंगापुर मलेशिया की राजनीतिक पकड़ से बचे रहने के लिए बड़ी राशि खर्च करने को भी तैयार है। पीयूबी द्वारा 20 करोड़ अमेरिकी डॉलर की लागत से स्थापित यह संयंत्र एक दिन में 13.50 करोड़ लीटर समुद्री जल का शोधन कर सकता है। वर्ष 2013 के करीब एक नया संयंत्र भी शुरू हो गया, जिससे कि 30 करोड़ लीटर पानी मिलने लगा है। बोर्ड वर्ष 2060 तक इस क्षमता को बढ़ाकर एक अरब लीटर तक करना चाहता है जो कि सिंगापुर की अनुमानित खपत का करीब 30 प्रतिशत है। पीयूबी के अधिकारी कोह जो टिंग के अनुसार ‘हमारी योजना है कि हम वर्ष 2060 तक पानी से खार निकालने एवं न्यू वाटर की वर्तमान क्षमता जो क्रमशः 10 और 30 प्रतिशत है, को बढ़ाकर कुल आवश्यकता का क्रमशः 30 और 50 प्रतिशत कर देंगे।’


26 फरवरी - 04 मार्च 2018

अब रोबोट करेंगे नालों की सफाई

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जेनरोबोटिक्स नाम की स्टार्टअप कंपनी ने एक ऐसा रोबोट विकसित किया है जो नालों की बेहतर सफाई करने में सक्षम है

छले कुछ वर्षों में नालों की सफाई के दौरान जान गंवाने वाले कर्मचारियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। नालों में तरह-तरह की गंदगी के साथ ही फैक्ट्री या अस्पताल से निकलने वाले रसायन भी मौजूद होते हैं। ऐसे में पर्याप्त सुरक्षा के उपाय नहीं होने के कारण बहुत से सफाई कर्मी इन रसायनों की चपेट में आ जाते हैं। इनमें से कई घातक बीमारियों का शिकार हो जाते हैं और कुछ की मौत भी हो जाती है। एक आंकड़े के मुताबिक, पिछले साल ऐसे हादसों में 90 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। यह समस्या देश में लंबे समय से चली आ रही है। अब केरल सरकार ने इस समस्या से निजात पाने का तरीका तलाश लिया है। केरल सरकार ने इसके लिए रोबोट का इस्तेमाल करने का फैसला किया है। यह कदम अन्य राज्यों के लिए भी उदाहरण बन सकता है। जेनरोबोटिक्स नाम की स्टार्टअप कंपनी ने वाईफाई, ब्लूटूथ और कंट्रोल पैनल से लैस एक रोबोट

को विकसित किया है। नाले से कचरा निकालकर जमा करने के लिए इस चार पैर वाले रोबोट में एक बाल्टी भी जोड़ी गई है। रोबोट को चलाने के लिए गैस से ऊर्जा दी जाती है, क्योंकि इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का प्रयोग खतरनाक हो सकता था। केरल जल प्राधिकरण (केडब्ल्यूए) के समर्थन

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गुड न्यूज

में चलाई की इस योजना का परीक्षण सफल रहा है। नौ युवा इंजीनियरों ने इस अर्ध स्वचालित रोबोट को विकसित किया है। इन युवाओं ने सफाई कर्मियों के जीवन में सुधार लाने के लिए अपनी नौकरियां भी छोड़ दी । जेनरोबोटिक्स के सीईओ विमल गोविंद ने बताया, एक घंटे में यह रोबोट बिना किसी परेशानी के चार मेन होल की सफाई कर सकता है। योजना के प्रमुख परिचालन अधिकारी राशिद के ने कहा, रोबोट को चलाने के लिए सफाई कर्मियों को प्रशिक्षित किया जाएगा। यह रोबोट सफाई कर्मचारियों के लिए मददगार साबित होंगे। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे राज्यों के अलावा कनाडा और ब्रिटेन सरीखे देश भी यह तकनीक अपनाने को इच्छुक हैं। 22 और 23 फरवरी को दिल्ली में होने वाले नेशनल कंस्लटेटिव वर्कशॉप में इस रोबोट को स्वच्छ भारत अभियान के तहत प्रस्तुत किया जाएगा। (एजेंसी)

चांद की लय पर झूमेंगी फसलें

देश के कृषि वैज्ञानिक चाहते हैं कि अच्छी फसल के लिए किसान अब बायोडाइनैमिक खेती करें

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षि वैज्ञानिकों ने ग्रह-नक्षत्रों की गति पर आधारित बायोडाइनैमिक खेती की पहल की है। इसके तहत शुक्ल पक्ष में बोआई और कृष्ण पक्ष मंे फसल की कटाई-मड़ाई को काफी लाभदायक पाया गया है। शुक्ल पक्ष में चंद्रमा व पृथ्वी के बीच दूरी कम होने से हवा में नमी होती है। इससे बीज का अंकुरण तेजी से होता है। इस दौरान मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी काफी बढ़ जाती है। देश में बायोडाइनैमिक खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है। कृषि विभाग गांवों में पहुंच कर किसानों को इसका प्रशिक्षण दे रहा है। मेरठ का कृषि रक्षा विभाग किसानों को बायोडाइनैमिक खेती-बाड़ी का गणित बता रहा है। हापुड़ के अनवरपुर समेत मेरठ के दर्जनों गांवों में किसानों को इसका प्रशिक्षण दिया जा चुका है। उत्तर प्रदेश कृषि एवं उद्यान विभाग ने अपनी वेबसाइट में बायोडाइनैमिक खेती के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई है। कृषि रक्षा विभाग के अनुसार, पूर्णिमा से दो दिन पहले बोआई के लिए सर्वश्रेष्ठ समय है। इस दौरान पृथ्वी चांद के सबसे करीब होती है। (एजेंसी)

सिरके के स्वाद में डूबा गांव

उत्तर प्रदेश का केशवपुर गांव ​िसरके के कारण आज एक औद्योगिक इकाई में तब्दील हो गया है और हर घर एक फैक्ट्री में

त्तर भारत की रसोई सिरके के बिना अधूरी लगती है। गोरखपुर-लखनऊ हाइवे पर बसा उत्तरप्रदेश के बस्ती जिले का केशवपुर गांव सिरका उद्योग में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुका है। घरों से लेकर हाइवे किनारे चल रहे ढाबों तक ही नहीं, बल्कि उत्तरप्रदेश सहित उत्तराखंड, हरियाणा और दिल्ली तक इसने अपना बाजार बनाया है। ग्रामीणों की मानें तो गन्ने के रस से बनने वाले

यहां के चटखदार सिरके की मांग दिनोंदिन बढ़ रही है। पूरा गांव जैसे एक औद्योगिक इकाई में तब्दील हो गया है और हर घर एक फैक्ट्री में। इस गांव की इस तरक्की और उपलब्धि को देखने-समझने के लिए लोग यहां पहुंचते हैं। केशवपुर में सिरका निर्माण की सफल कहानी के पीछे एक महिला का हुनर और उसकी सोच है। आज से करीब 12 साल पहले की बात है। इस गांव

के रहने वाले सभापति शुक्ल को कोई काम धंधा नहीं मिला तो उन्होंने गुड़ बनाने के लिए क्रशर लगाया, लेकिन यह व्यवसाय चला नहीं और वह कर्ज में डूब गए। उनकी पत्नी शकुंतला देवी गुड़ बनाने के लिए गन्ने की पेराई होते समय गन्ने का कुछ रस ले जातीं और घर के लिए सिरका बनाती थीं। गुड़ के व्यापार में घाटा होने के बाद सभापति को शकुंतला ने सलाह दी कि क्यों न घर में बना सिरका ही बेचा जाए। शकुंतला सिरका बनातीं और सभापति इसे आस-पास के घरों और ढाबों तक पहुंचाते। चटखदार स्वाद के कारण धीरे-धीरे इसकी मांग बढ़ती गई। कारोबार बढ़ता देख सभापति ने सड़क किनारे दुकान खोल ली। कारोबार चल निकला और देखते ही देखते उनकी माली हालत सुधर गई। कभी फूस के घर में गुजारा करने वाला यह परिवार अब पक्के मकान में सभी आधुनिक सुखसुविधाओं के साथ रह रहा है। उनकी प्रगति और खुशहाली देख गांव के अन्य लोगों ने भी सिरका बनाना शुरू कर दिया। अब स्थिति यह है कि लगभग पूरा गांव ही इस कारोबार से जुड़ गया है। गांव के महेश शर्मा, शोभाराम यादव, श्रीराम यादव, झिनकू, गणेश और दिव्यांग संजय सिंह कहते हैं कि प्रतिदिन

की बिक्री से सभी की आर्थिक स्थिति पहले से काफी बेहतर हो गई है। केशवपुर के सिरके की सुगंध उत्तरप्रदेश के अलावा हरियाणा, उत्तराखंड और दिल्ली तक पहुंच चुकी है। केशवपुर के सिरके ने एक बड़ा बाजार हासिल कर लिया है। आर्डर के हिसाब से सप्लाई की जाती है। आर्डर देने के लिए बड़े व्यापारी खुद गांव तक पहुंचते हैं। सभापति शुक्ल बताते हैं कि इसके मूल में गन्ने का रस होता है। रस को बड़े-बड़े प्लास्टिक के ड्रमों में भर कर धूप में तीन महीने तक रख दिया जाता है। जब रस के ऊपर मोटी परत जम जाती है तो फिर उसकी छनाई की जाती है। फिर महीने भर धूप में रखने के बाद सरसों के तेल के साथ भुने मसाले, धनिया, लहसुन व लालमिर्च से इसे छौंका अर्थात तड़का दिया जाता है। उसके बाद उसमें कच्चे आम, कटहल, लहसुन आदि डालकर रख दिया जाता है। इस तरह चार महीने में सिरका तैयार हो जाता है। केशवपुर गांव का सिरका व्यवसाय लघु उद्योग का रूप ले चुका है। इस कारोबार ने गांव की तस्वीर ही बदल दी है। यहां के युवा स्वरोजगार के रूप में इसे अपनाए हुए हैं। यही नहीं दूसरे बेरोजगार युवकों को रोजगार भी दे रहे हैं।


16 खुला मंच

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

अगर तुम सूरज की तरह चमकना चाहते हो तो, तुम्हे पहले सूरज की तरह जलना होगा - अब्दुल कलाम

2022 तक सबको घर

वर्ष 2022 तक 1.2 करोड़ मकानों की कमी को पूरा करते हुए सभी को घर देने का लक्ष्य अब ज्यादा दूर नहीं है

भा

रत की आबादी के साथ इसका भौगोलिक विस्तार भी असमान्य रूप से व्यापक है। ऐसे में सरकार के लिए किसी ऐसी योजना को हाथ में लेना मुश्किल होता है, जिसका लक्ष्य और विस्तार अखिल भारतीय हो। खासतौर पर भोजन और आवास से जुड़ी योजनाओं को देशव्यापी संकल्प के साथ पूरा करना बड़ी चुनौती है। ऐसे में अगर देश की मौजूदा सरकार ने आजादी के 75 वर्ष पूरे होने के मौके पर 2022 तक 1.2 करोड़ मकानों की कमी को पूरा करते हुए सभी को घर देने का लक्ष्य रखा है, तो वाकई एक बड़ी पहल है। इसके लिए राष्ट्रीय शहरी आवास कोष का गठन किया गया है। कैबिनेट ने 60 हजार करोड़ रुपए के राष्ट्रीय शहरी आवास कोष के गठन को मंजूरी दे दी है। शहरी विकास मंत्रालय ने अब तक प्रधानमंत्री शहरी आवास योजना के तहत 39,4000 घरों की मंजूरी दी है। योजना के तहत करीब दो-तीन लाख मकान हर महीने मंजूर किए जा रहे हैं। अब तक 17 लाख से ज्यादा मकानों का निर्माण शुरू हो चुका है और पांच लाख मकान बनकर तैयार हो चुके हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) के तहत ऋण आधारित ब्याज सब्सिडी योजना (सीएलएसएस) के तहत जहां आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग, निम्न आय वर्ग (एलआईजी) और मध्य। आय वर्ग (एमआईजी) के लाभार्थियों के लिए कर्ज की व्यवस्था बैंकों और एचएफसी की ओर से की गई है, वहां से लगातार अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है। योजना के तहत पिछले आठ महीनों में करीब 87 हजार आवास ऋण मंजूर किए जा चुके हैं और 40,000 आवेदन विचारार्थ हैं। प्रधानमंत्री आवास योजना के लागू हुए दो साल हो गए। इस योजना के तहत शहरी क्षेत्रों में करीब 1.2 करोड़ आवास मंजूर किया जाना है। इतना ही नहीं पिछले तीन सालों में ही करीब पांच लाख घर बन कर भी तैयार हो गए हैं। इसी तरह योजना के तहत ग्रामीण इलाकों में एक साल में रिकॉर्ड दस लाख घरों का निर्माण किया गया है। प्रधानमंत्री आवास योजना पीपीपी मोड के आधार पर चल रही है। योजना की रफ्तार देखकर लगता है यह भारत की तस्वीर बदल देने वाली योजना साबित होगी।

टॉवर

(उत्तर प्रदेश)

अरविंद मोहन

अभिमत

लेखक चार दशकों से पत्रकारिता और रचनात्मक लेखन के साथ विभिन्न जन-आंदोलनों से वैचारिक आधार पर जुड़े रहे हैं

सादगी, सरलता और सच्चाई के पर्याय राजेंद्र बाबू अपने ज्ञान, मर्यादापूर्ण व्यवहार, अहंकार रहित आचरण, सादगी और सरलता के लिए विख्यात राजेंद्र प्रसाद सही मायनों में चंपारण सत्याग्रह की पैदाइश थे

लाई लामा मानते हैं कि राजेंद्र बाबू महात्मा बुद्ध के अवतार थे। हम ऐसा मानें न मानें पर अपने व्यवहार के चलते काफी सारे भारतीय भी उनको ‘देवता’ कहते थे। बिहार में और खासकर भोजपुरी भाषी समाज में देवता कहना आदर देने का एक तरीका भी है। अपने ज्ञान, मर्यादापूर्ण व्यवहार, अहंकार रहित आचरण, सादगी और सरलता के लिए विख्यात राजेंद्र प्रसाद सही मायनों में चंपारण सत्याग्रह की पैदाइश थे और जिस तरह पारस के संपर्क में आकर लोहा सोना बन जाता है, गांधी के संपर्क और दस महीने साथ काम करने के अनुभव ने राजेंद्र प्रसाद का जीवन सदा के लिए बदल दिया। राजेंद्र बाबू में सीखने-समझने और उन बातों को आचरण में उतारने की क्षमता डॉ. राजेंद्र प्रसाद स्मृति दिवस (28 फरवरी) पर विशेष शायद औरों से ज्यादा थी, इसीलिए वे राष्ट्रपति के पद तक गए और लगातार तब तक वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में दो बार टॉप करने दो कार्यकाल पूरा किया। राष्ट्रपति भवन के बाद ‘ज्यों की (इंटर और बीए में), अपने परीक्षक से अपूर्व टिप्पणी पाने त्यों धर दीनी चदरिया’ को सार्थक करते हुए, वे वापस पुरानी (कहा जाता है कि उनके परीक्षक ने उनकी कॉपी पर लिखा स्थिति में ही पटना के सदाकत आश्रम में वापस लौट गए। था-एक्जामिनी इस बेटर दैन द एक्जामिनर) और अपनी चंपारण से राजेंद्र प्रसाद का रिश्ता राष्ट्रपति भवन से ज्यादा अकादमिक उपलब्धियों के लिए सारे बिहारी नौजवानोँ के गहरा था, क्योंकि वे न सिर्फ आंदोलन में लगे रहे, बल्कि लिए क्रेज बन चुके थे। वकालत में भी उन्होंने कम समय में पूरा समय दिया, उसके बाद गांधी के कहे और अपने विवेक ही अच्छी जगह बना ली थी और जब पटना में हाई कोर्ट बना से सामाजिक राजनीतिक काम करते रहे, पर चंपारण उनके तब वे उन प्रमुख बिहारी वकीलों में थे, जो पटना आ गए। मन से कभी नहीं निकला। खुद दो किताबें लिखने, उनका उनकी गिनती और फीस (जिसकी जानकारी पाकर गांधी जी बार-बार संशोधित संस्करण तैयार कराने के अलावा उन्होंने भी हैरान हुए थे) शीर्ष के वकीलों में थी। कलकत्ता की जिस अपनी आत्मकथा समेत अन्य चार किताबों में चंपारण और बैठक के बाद गांधी जी चंपारण के लिए रवाना हुए, उसमें गांधी से अपने रिश्तों पर विस्तार से लिखा। उनकी पहल पर राजेंद्र प्रसाद भी थे। पर वहां से वे पुरी चले गए थे। गांधी जी ही प्रसिद्ध इतिहासकार बी.बी. मिश्र ने चंपारण आंदोलन से से उनकी वहां कोई बात नहीं हुई थी और उन्होंने बिहार जाने संबंधित दस्तावेजों की भारी-भरकम किताब तैयार की। गांधी की चर्चा भी सबसे नहीं की थी। राजकुमार शुक्ल ने भी कुछ के जीवनीकार बीजी तेंदुलकर ने भी उनकी पहल पर ही नहीं बताया था और उन्हें यह भी मालूम न था कि राजेंद्र बाबू चंपारण आंदोलन पर एक अच्छी किताब लिखी है। पटना नहीं जा रहे हैं। यही कारण था कि वे गांधी जी को लिए जब वे गांधी जी के आंदोलन में साझीदार बनने के लिए हुए 10 अप्रैल 1917 को राजेंद्र प्रसाद के घर पर ही पहुंचे पहली बार चंपारण आए तब उनकी उम्र 32 पार कर गई थी। थे और वहां के नौकरों ने इन दोनों को किसान मुवक्किल

राष्ट्रपति भवन के बाद ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ को सार्थक करते हुए, वे वापस पुरानी स्थिति में ही पटना के सदाकत आश्रम में वापस लौट गए


26 फरवरी - 04 मार्च 2018 मानकर अच्छा बर्ताव नहीं किया। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में इस प्रसंग को विस्तार से लिखा है। बाद में चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधी जी और उनका साथ किस तरह रहा और वे किस तरह वहां बापू के सबसे विश्वसनीय लोगों में से थे, यह तथ्य आज एक प्रेरक इतिहास के रूप में सबके सामने हैं। जो बात उल्लेखनीय है, वह यह कि जब गांधी जी को चंपारण निलहों का अत्याचार और उसका प्रतीक बन गई तिनकठिया खेती का अंत दिखने लगा तब उन्होंने रचनात्मक कार्यों की तरफ ध्यान देना शुरू किया। पर उस काम के लिए उन्होंने एकदम नए तरह के कार्यकर्ता बुलाए, क्योंकि तब बिहार में कांग्रेस के पास एक भी पूर्णकालिक कार्यकर्ता न था और जो लोग कांग्रेस के नाम से सक्रिय थे उनको रचनात्मक कामों का कोई अनुभव न था। गांधी जी सफाई, स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ खादी, हस्तशिल्प और ग्रामोद्योग ही नहीं, खेतीबागवानी और पशुपालन का प्रयोग भी करना चाह थे। सो जब चंपारण कमेटी की रिपोर्ट आई तो राजेंद्र बाबू को छोड़कर ज्यादातर वकील सहयोगियों को उनके काम पर लौट जाने को कहा गया। सिर्फ बाबू धरणीधर रुके, क्योंकि बिहारी कार्यकर्ताओं को यह उचित नहीं लग रहा था कि बाहर वाले आकर उनके इलाके में टट्टी साफ करने से लेकर हर तरह के काम करें और हम लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। सो गांधी जी ने उन्हें अध्यापन का काम दिया। कुछ समय तक कृपलानी जी ने भी वहां अध्यापन किया। इस दौर में गांधी जी ज्यादा बाहर रहने लगे थे। सो मोतिहारी से सारे कामकाज की देखरेख और कार्यकर्ताओं के गुजारे के लिए मानधन देने वगैरह का काम राजेंद्र बाबू के पास रहा। जब गांधी जी अहमदाबाद के मजदूरों और खेड़ा के किसानों की बार-बार की बुलाहट पर चंपराण से निकले तो राजेंद्र बाबू भी पटना आकर अपनी वकालत संभालने लगे। मगर उन्हें चम्पारण के स्कूलों की चिंता रही। इस तरह चंपारण उनके मन में सदा रहा और एक बार वे यहां से चुनाव भी लड़े। रिश्तेदारियों का न्योता और हर राजनीतिक कार्यक्रम में आने का अवसर वे तलाशते रहते थे। राजकुमार शुक्ल के श्राद्ध जैसे आयोजनों में भी उन्होंने भागीदारी की। बाद में वे क्या-क्या बने और उन्होंने क्या-क्या काम किए, यह तो कई ग्रंथों में समेटने वाला किस्सा है। पर यह साफ है कि चंपारण आंदोलन ने राजेंद्र प्रसाद को बिहार और देश की राजनीति के साथ ही गांधी जी के मन के उस पायदान पर खड़ा कर दिया कि उनको ऊपर ही ऊपर होना था और उनकी काबलियत, समाज सेवा की भावना और निष्ठा का स्तर इतना बड़ा होता गया कि सारे पद उनके आगे छोटे लगने लगे। खराब स्वास्थ्य से उठकर उन्होंने 1934 के भूकंप में जिस पैमाने और कुशलता से गैर-सरकारी स्तर पर राहत और पुनर्वास का काम चलवाया, उसने उनका यश काफी फैलाया। उत्तर बिहार में 1934 की 15 जनवरी को बहुत बड़ा भूकंप आया था। उनके नेतृत्व में राहत समिति बनी। करीब तीस लाख रुपए चंदे से जुटाए गए और इतने ही मूल्य के कंबल और दूसरी जरूरी चीजें जमा की गईं। देश भर से सहायता आई और गांधी जी समेत सारे नेता आए। इसकी सारी दुनिया में तारीफ हुई और पूरा काम सरकारी मदद के बिना हुआ।

ल​ीक से परे

प्रियंका तिवारी

खुला मंच

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लेखिका युवा पत्रकार हैं और देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखती हैं

आखिरी सांस तक अटल शपथ

फिरगं ी पुलिस से घिर जाने के बावजूद अमर बलिदानी चंद्रशेखर आजाद उनकी नहीं, बल्कि अपनी ही गोली से शहीद हुए

हात्मा गांधी के आगमन से पहले देश में लाल-बालपाल स्वराज की ललकार को इतना ऊंचा उठा चुके थे कि भारत को लंबे समय तक गुलाम बनाए रखने का भरोसा अंग्रेज हुक्मरान भी खो चुके थे। आज के समय में जब सूचना क्रांति की तेजी ने मर्म और संवेदना के कई धरातल अनजाने ही हमसे छीन लिए हैं, यह देखना, जानना और समझना बहुत जरूरी है कि एक दौर में देश के वीर सपूतों ने किस तरह का जोश और जज्बा दिखाते हुए देश और समाज के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर किया। यशपाल ने एक अदभुत चंद्रशेखर पुस्तक लिखी है, नाम है- ‘फांसी के फंदे तक’। इसमें क्रांतिकारियों के जीवन से जुड़े कई रोचक प्रसंग और संस्मरण हैं। आजाद अपने करीबियों के बीच ‘पंडित जी’ के रूप में प्रसिद्ध थे। पंडित जी की देशभक्ति के कई किस्से मशहूर हैं। उनके सामने एक ही लक्ष्य था, भारत की आजादी। बाकी के सारे मुद्दे इस लक्ष्य के सामने गौण थे । देश की आजादी के लिए उन्होंने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की और शहीद भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और बटुकेश्वर दत्त आदि इसके सदस्य बने। पंडित जी के जीवन से जुड़ी एक दिलचस्प घटना बीसवीं सदी

आगे बढ़कर आजाद के हाथ पकड़ लिए और कहने लगीं कि इन्हें चूड़ियां पहनाओ। जाहिर था कि उन्होंने पंडित जी को पहचाना नहीं था। आजाद मुस्कुराए और उन्होंने अपनी कलाइयां बढ़ाते हुए कहा कि लो बहन पहना लो चूड़ियां। कद्दावर शरीर के मालिक आजाद के बलशाली मजबूत हाथों के चौड़े गट्टों में भला कौन सी चूड़ी चढ़ सकती थी? नतीजतन, कुछ देर में महिलाएं शर्मिंदा हो गईं। बताना यह भी जरूरी है कि सिद्धांतप्रिय आजाद आजीवन स्त्रियों के प्रति अगाध आदर रखने वाले व्यक्ति रहे। साफ है कि क्रांतिधर्मी पंडित आजाद शहीद दिवस (27 फरवरी) पर विशेष जी देश के स्वराज के लिए एक ऐसे व्रती बने, जिनके शील,गुण धर्म के दूसरे दशक के अंत की है। अंग्रेजों का दमन सब प्रेरक संस्कारों से भरे थे। वे सही मायनों में न चक्र तेजी से चल रहा था और जनता में खासा रोष सिर्फ तब, बल्कि आज भी तरुण भारत के सबसे था। एक दिन महिलाएं इलाहाबाद में जुलूस निकाल बड़े रोल मॉडल हैं। रही थीं और हाथ पड़ जाने वाले किसी भी पुरुष जिन लोगों को भी पंडित जी के बारे में थोड़ी पर यह कहते हुए खासी लानत भेज रहीं थीं कि वे भी जानकारी है, वे यह जानते हैं कि वे अंग्रेजों कुछ नहीं कर पा रहे हैं। आजाद अपने किसी साथी के खिलाफ संघरर्ष करते हुए आत्मरक्षा के प्रति के साथ वहां से गुजर रहे थे। महिलाओं ने उन्हें कितना तत्पर और सचेत रहते थे। देश के इस अमर घेर लिया और एक महिला ने गरजते हुए उन पर बलिदानी ने अपने जीवन की अंतिम सांस तक इस शब्दों से आक्रमण कर दिया, ‘आप लोगों से कुछ सचेत तत्परता को बनाए रखा और फिरंगी पुलिस से होने वाला नहीं है, आप सब मर्दों को चूड़ी पहन घिर जाने के बावजूद वे उनकी नहीं, बल्कि अपनी कर घर बैठ जाना चाहिए।’ एक-दो महिलाओं ने ही गोली से शहीद हुए।

सराहनीय प्रकाशन

बड़ी भूमिका

कामोद वर्मा, कानपुर, उत्तर प्रदेश

सुमन कुलश्रेष्ठ, दिल्ली

‘सुलभ स्वच्छ भारत’ में जमीनी स्तर की रिपोर्टिंग के सहारे विकास की महत्वपूर्ण खबरें के निरंतर प्रकाशन से मैं बेहद प्रभावित हूं। देश और समाज के जीवन में मौन किंतु सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोशिश करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं का मैं विशेष सम्मान करता हूं। स्वच्छता और स्वास्थ्य के साथ देश के विकास पर आपके प्रकाशन की विशेष नजर है, यह बात बहुत सराहनीय है। साधुवाद

‘सुलभ स्वच्छ भारत’ में आप स्वास्थ्य, स्वच्छता, ऊर्जा, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण, गांव ओर किसानों की समस्याओं जैसे मुद्दों को सकारात्मकता के साथ प्रकाशित करते हैं। यह अच्छा, अनुकरणीय और प्रेरक है। मेरा मानना है कि समाज में एक सकारात्मक माहौल तैयार करने में ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ की भविष्य में बड़ी भूमिका साबित होगी।


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फोटो फीचर

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

होली ने भरा विधवाओं के जीवन में रंग पुरानी परंपराओं को तिलांजलि देते हुए वृंदावन के प्राचीन गोपीनाथ मंदिर में सैकड़ों विधवाएं होली खेलती हैं। भगवान श्रीकृष्ण की ये दासियां पूरे उल्लास ओर उत्साह के साथ रंगों के इस उत्सव में अपने जीवन को भी रंगीन बनाती हैं फोटोः मोंटू


26 फरवरी - 04 मार्च 2018

फोटो फीचर

चेहरे पर उल्लास और गुलाल में लिपटी इस महिलाओं के जीवन का रंग कब का उड़ चुका था। अपने परिवार से परित्यक्त कान्हा के चरणों में बैठ कर उम्र के बचे हुए दिन गुजार रही इन महिलाओं के जीवन में रंगों का यह उत्सव सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक के प्रयासों से संभव हुआ, जो विधवाओं को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं

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पहल

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

एक महिला ने बदल दी किसानों की दुनिया बीते एक दशक में एेसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जब देश के बड़े शहरों या विदेशों से शानदार करियर छोड़कर लोग घर लौटे हैं और खेती करने लगे हैं। एेसी ही एक बड़ी मिसाल पेश की है अॉस्ट्रेलिया से लौटीं पूर्वी व्यास ने

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एसएसबी ब्यूरो

रतीय संदर्भ में खेती-किसानी का अर्थ महज पेशागत नहीं है। यहां कृषि आजीविका के एक पारंपरिक साधन के साथ एक जीवनशैली भी है। अब जबकि शहरी जीवनशैली और विकास कई लोगों को एक उकताहट से भर रही है, तो लोग इस दुनिया से बाहर निकलकर खेती-किसानी की तरफ नए सिरे से जुड़ रहे हैं। हां, यह जरूर है कि नए लोग खेती भी नए तरीके से कर रहे हैं, जहां इसे करते हुए उनका मन रमता है, वहीं वे इससे मन माफिक कमाई भी कर रहे हैं। बीते एक दशक में ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं, जब देश के बड़े शहरों या विदेशों से शानदार करियर छोड़कर लोग गांव लौटे और खेती करने लगे। इन लोगों के खेती करने का तरीका जहां आकर्षक है, वहीं इनसे बात करके यह भी लगता है कि वे खेती को कमाई के साथ देश के विकास के विश्वसनीय साधन के तौर पर देखते हैं। ऐसी ही एक महिला हैं पूर्वी व्यास, जिनका खेती से जुड़ने का फैसला और उसके बाद उन्हें मिली सफलता किसी प्रेरक दास्तान से कम नहीं है। ऑस्ट्रेलिया की वेस्टर्न सिडनी यूनिवर्सिटी से पर्यावरण प्रबंधन में ग्रेजुएशन करने वाली पूर्वी व्यास की जिंदगी उनके एक फैसले ने पूरी तरह बदल दी। अब वह पूरी तरह से जैविक विधि से खेती करने वाली किसान बन चुकी हैं। वह अगली पीढ़ी के किसानों और युवाओं को सिखा रही हैं कि किस तरह खेती करके भी अच्छी जिंदगी बिताई जा सकती है।

1999 में अपना पोस्ट ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद पूर्वी ऑस्ट्रेलिया से लौटकर भारत आ गईं और उन्होंने कुछ गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर स्थिरता और विकास के लिए काम करना शुरू कर दिया। 2002 में उन्हें प्रसिद्ध पर्यावरणविद् वीणा अग्रवाल के साथ एक प्रोजेक्ट पर किसान समुदाय के लिए काम करने का पहला मौका मिला। इस रिसर्च के लिए वह दक्षिणी गुजरात के नेतरंग और देडियापाड़ा जैसे आदिवासी इलाकों में गईं। पूर्वी बताती हैं, ‘यहां रहने से मुझे समझ में आया कि शहर में रहने वाले लोगों की पर्यावरण के प्रति गंभीरता की बातों और उनके रहन-सहन में पर्यावरण को शामिल करने के बीच कितनी गहरी खाई है, और इसमें मैं भी शामिल हूं। इस विरोधाभास ने मुझे बहुत दुखी किया और मैंने एक ऐसे तरीके की खोज शुरू कर दी जिससे मैं उस तरीके को अपना सकूं जिसे गांव के ये लोग अपना रहे हैं।’ पूर्वी को अंदाजा भी नहीं था कि बस कुछ ही दिनों बाद उन्हें उनकी इस समस्या का समाधान मिल जाएगा। उनकी मां और दादी हमेशा से ही किचन गार्डन को महत्व देती थीं। वह रसोई के कामों में इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटियां और कुछ मसाले घर में ही उगाती थीं। अपने परिवार की इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए पूर्वी की मां अहमदाबाद

से 45 किलोमीटर दूर मतार गांव में अपने 5 एकड़ के खेत में कुछ सब्जियों और फलों की खेती करने लगीं। वह हर सप्ताह के अंत में इस खेत में जाकर फसल की देखरेख करती थीं।

शुरू कर दिया खेती करना

पूर्वी कहती हैं कि एक बार जब मैं सप्ताहांत पर अपने घर आई तो मां ने मुझसे कहा कि मैं उन्हें मतार तक छोड़ आऊं। वह कहती हैं कि यही वह दिन था जिसने मेरी जिंदगी बदल दी। अहमदाबाद में जिस खुली और ताजी हवा के लिए पूर्वी तरसती थीं, मतार में उन्हें वही हवा अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। वह बताती हैं कि यही वह चीज थी जिसे मैं शहर में खोज रही थी। यहीं से उन्होंने निर्णय लिया कि वो अपनी नौकरी छोड़कर पूरी तरह से किसान बन जाएंगी।

किसानी की मुश्किल दुनिया

पूर्वी बताती हैं कि किसानी की दुनिया में शुरुआती दिन पूर्वी के लिए बहुत कठिनाइयों भरे थे। उन्हें खेती-किसानी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन पूर्वी ने हार नहीं मानी और वह पूरी लगन के साथ खेती की बारीकियों को समझती रहीं। वह कहती हैं समय के साथ मैंने खेती की कई तकनीकों

अब जबकि शहरी जीवनशैली और विकास कई लोगों को एक उकताहट से भर रही है, तो लोग इस दुनिया से बाहर निकलकर खेती-किसानी की तरफ नए सिरे से जुड़ रहे हैं

खास बातें पर्यावरणविद् वीणा अग्रवाल की सलाह पर शुरू किया कृषि कार्य 2000 से अधिक किसानों की जिंदगी बदल चुकी हैं पूर्वी जैविक खेती करने के साथ पशुपालन पर भी देती हैं जोर के बारे में सीख लिया। मैंने यह भी जाना कि उर्वरकों और कीटनाशकों के इस्तेमाल से फसल को कितना नुकसान होता है, इसीलिए मैं जैविक खेती के नए तरीके खोजने लगी। साल 2002 में यह इतना ज्यादा प्रचलित नहीं था।

आत्मनिर्भर मॉडल

सबसे पहले अपने खेत से शुरुआत करने के साथ ही उन्हें समझ आ गया कि जैविक खेती करके पर्यावरणीय असंतुलन को काफी हद तक कम किया जा सकता है। उन्होंने यह भी निष्कर्ष निकाला कि यह किसानों और उपभोक्ताओं दोनों के लिए फायदेमंद है, क्योंकि इसमें लागत लगभग नगण्य थी और उत्पादन बहुत स्वस्थ था। उन्होंने अपने ही खेत में एक आत्मनिर्भर मॉडल बनाया, जहां खेती के


26 फरवरी - 04 मार्च 2018

शहरी युवाओं को जोड़ा

खेती-किसानी के अपने प्रेरक प्रयोगों को पूर्वी ने महज किसानों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि वे इसके बारे में कॉलेज के छात्रों को भी बताने पहुंच गईं

खे

तों में काम करते हुए पूर्वी हमेशा सोचती थीं कि कैसे शहरी युवाओं को अच्छी और स्वस्थ जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। फिर उन्होंने लोगों के खाने के तरीके पर एक मॉड्यूल तैयार किया। उन्होंने पंडित दीन दयाल उपाध्याय पेट्रोलियम विश्वविद्यालय के लिबरल आर्ट के छात्रों को अपने खेत में एक दिन के कार्यक्रम के लिए बुलाया। उन छात्रों को यह कार्यक्रम इतना पसंद आया कि उन्होंने इस तरह की खेतों की यात्रा

को उनके पाठ्यक्रम का नियमित हिस्सा बनाए जाने की मांग की। इसके बाद पूर्वी गांधी नगर और अहमदाबाद के कई कॉलेजों में जाकर गेस्ट फैकल्टी के तौर पर पढाने लगीं। उन्होंने खाने के बारे में सब कुछ पढ़ाना शुरू कर दिया, जैसे- हमारा खाने का तरीका, बाजार से परिभाषित हमारे भोजन विकल्पों के पीछे की राजनीति और पृथ्वी पर इन विकल्पों का प्रभाव। पूर्वी कहती हैं कि यह वाकई खुशी देने वाली बात थी कि छात्रों ने अपनी खाने की पसंद के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। कई छात्रों ने फास्ट फूड खाना छोड़ दिया था, वे अब कोका-कोला भी नहीं पीते थे। उन्होंने यह पूछना भी शुरू कर दिया था कि मैकडोनाल्ड जैसे रेस्त्रां में मिलने वाला उनका खाना आखिर आता कहां से है और उसमें इस्तेमाल की गई सामग्री ताजी भी होती हैं या नहीं। इनमें से कई छात्रों के परिवार भी अब पूरी तरह से जैविक खान-पान को अपना रहे हैं।

जैविक खेती का हरित अध्याय

पूर्वी की कोशिश के कारण इस समय 60 परिवार जैविक खेती कर रहे हैं। जिन इलाकों में जैविक खेती की जा रही है उनमें भुज, बनासकांठा और राजकोट जैसे इलाके प्रमुख हैं

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सानों को उनके उत्पादों का सही मूल्य मिले इसके लिए पूर्वी ने किसानों को सीधे शहरों के उपभोक्ताओं से जोड़ने का काम किया है। इसकी वजह है स्वास्थ्य के प्रति लोगों की जागरूकता। इस कारण शहर के लोग शुद्ध और जैविक खाना चाहते हैं। इसीलिए जैविक उत्पादों की मांग दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। पूर्वी व्यास किसानों की सब्जियों, फलों और अनाजों को सीधे शहरी लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रही हैं। पूर्वी की कोशिश के कारण इस समय 60 परिवार जैविक खेती कर रहे हैं। जिन इलाकों में जैविक खेती की जा रही है उनमें भुज, बनासकांठा, राजकोट जैसे इलाके प्रमुख हैं। इसके अलावा पूर्वी व्यास दक्षिण गुजरात में एक एनजीओ की मदद से करीब ढाई हजार महिला किसानों के साथ काम कर रही हैं। अपने सामने आने वाली परेशानियों के बारे में पूर्वी का कहना है कि पहले वो उपभोक्ताओं और व्यापारियों की मांग के मुताबिक किसानों से उनकी फसल का मूल्य तय कर उसका सौदा करती थीं, लेकिन बाद में कुछ व्यापारी और

उत्पादों से जीवन की सभी बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता था। इसके बाद पूर्वी ने एक डेयरी फार्म की शुरुआत की, जो जैविक खेती के लिए बहुत जरूरी था। एक समय में उनके पास 15 भैंस, छह गाय, छह बकरियां थीं और उनकी डेयरी से गांव में सबसे ज्यादा दूध सप्लाई होता था।

मेड़ों पर फूल की खेती

पूर्वी बताती हैं कि हम खेत की मेड़ों पर फूल की खेती करते हैं, इन्हें मंदिर में या किसी पार्टी के लिए लोग खरीद लेते हैं। इसके अलावा हम अपने घर पर जरूरत के लिए जो सब्जियां उगाते हैं, उनमें से कुछ बाजार में बेचकर उनसे भी 15-20 दिनों

दूसरे लोग तय दाम पर उत्पाद लेने के लिए तैयार नहीं होते थे। इसीलिए इस साल से वो अग्रिम में कुछ पैसा लेकर सीधे किसानों तक मदद पहुंचा रही हैं। जिससे किसानों को भी भरोसा हो जाए कि उनकी फसल का मूल्य उनको हर हाल में मिलेगा। साथ ही इस साल से पूर्वी की योजना एक तय जगह पर मेला लगाने की है। जहां पर किसान उपभोक्ताओं को सीधे अपना सामान सीजन के मुताबिक बेच सकते हैं। इससे किसानों को न सिर्फ उनकी उपज का सही दाम मिलेगा, बल्कि वो यह भी जान सकेंगे कि उपभोक्ता की मांग किस उत्पाद में ज्यादा है। से जैविक विधि से उगाई जाती हैं या नहीं, ये नहीं कहा जा सकता। इसीलिए हम उन्हें प्रेरित कर रहे हैं कि वे ग्राहकों के लिए भी पूरी तरह से जैविक विधि से खेती करें।

कमाई का भरोसा

इस तरह कमाया मुनाफा

उन्होंने हर उस चीज को पैदा करना शुरू किया जो जमीन और उस जगह की भौगोलिक स्थिति उन्हें वहां उगाने देती, जैसे अनाज, फल, आयुर्वेदिक औषधीय पौधों, फलियां, फूलों और सब्जियां। यह एक ऐसा मॉडल था जिससे किसान लगातार पैसा कमा सकते हैं। एक किसान दूध बेचकर रोज, फूल बेचकर सप्ताह में, सब्जी बेचकर 15 दिन में, फल बेचकर महीने में और अनाज बेचकर साल में पैसे कमा सकता है। बाकी चीजों के लिए, पूर्वी ने गांव में वस्तु विनिमय प्रणाली को पुनः शुरू कर दिया, जहां लोग अपने उत्पाद के बदले उत्पाद ले सकते हैं, पैसे नहीं। पूर्वी कहती हैं कि अब हम अपने खाने के लिए जरूरत की 75 से 80 प्रतिशत चीजें खुद ही उगा लेते हैं। इससे हमें काफी फायदा हुआ है।

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पहल

पूर्वी ने हर उस चीज को पैदा करना शुरू किया जो जमीन और उस जगह की भौगोलिक स्थिति उन्हें वहां उगाने देती है, जैसे अनाज, फल, आयुर्वेदिक औषधीय पौधों, फलियां, फूलों और सब्जियां। यह एक ऐसा मॉडल था जिससे किसान लगातार पैसा कमा सकते हैं में कुछ कमाई कर लेते हैं। इसी तरह हर सीजन में आने वाले फल भी महीने के महीने बिक जाते हैं।

जैविक खेती

अपने अनुभव साझा करते हुए पूर्वी बताती हैं कि वे गुजरात के कुछ गांवों की महिला किसानों को इस

बात के लिए प्रेरित कर रही हैं कि वे अपने घर के जैविक तरीके से सब्जियां, दालें और धान उगाती हैं, उसके साथ ही अपने ग्राहकों के लिए भी इसी तरीके से फसल उगाएं। वह कहती हैं गुजरात में ज्यादातर किसान अरहर, उड़द जैसी दालों की खेती जैविक तरीके से ही करते हैं, लेकिन वे पूरी तरह

पूर्वी ने बताया कि किसानों के सामने अपनी फसल की बिक्री और उसकी सही कीमत मिलने की सबसे बड़ी समस्या होती है। इसीलिए हमने इस समस्या को खत्म करने की ओर ध्यान दिया। हम किसानों को ये भरोसा दिला रहे हैं कि अगर वे जैविक तरीके से खेती करके उत्पाद पैदा करेंगे तो हम उन्हें ग्राहकों से उन उत्पादों के सही दाम दिलाएंगे। इसके लिए हमने कुछ ऐसे ग्राहकों से संपर्क किया जो लगभग तीन-चार साल तक इन किसानों से उत्पाद ले सकें। ये ऐसे ग्राहक हैं जो पैसों से ज्यादा सेहत को महत्व देते हैं। ये ग्राहक जैविक तरीके से उगाए गए उत्पादों के लिए कुछ ज्यादा कीमत चुकाने को भी तैयार हैं। पूर्वी कहती हैं कि हमारी इस कोशिश से किसानों का हम में भरोसा बढ़ रहा है और वे जैविक खेती की ओर प्रेरित हो रहे हैं।

2000 किसानों के साथ काम

आज पूर्वी मुनाफे की खेती के मॉडल पर 2000 से अधिक किसानों के साथ पांच से छह गांवों को बदलने की दिशा में काम कर रही हैं। पूर्वी बताती हैं कि हम खाद्य मेला आयोजित करके इन किसानों को सीधे ग्राहकों से जोड़ने पर काम कर रहे हैं, ताकि इन्हें फसल का मुनाफा मिल सके।


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विज्ञान

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

डॉ शांतिस्वरूप भटनागर के जन्मदिवस पर विशेष फीचर

शां

वैज्ञानिक अनुसंधान की बुनियाद के पीछे था ‘नेहरू-भटनागर प्रभाव’ नवनीत कुमार गुप्ता

तिस्वरूप भटनागर का नाम भारत के उन अग्रणी वैज्ञानिकों में शामिल किया जाता है, जिन्होंने विज्ञान की मदद से औद्योगिक समस्याओं को हल करने में अहम भूमिका निभायी है। उन्हें देश के सबसे बड़े शोध संगठन वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के संस्थापक के रूप में याद किया जाता है। स्वतंत्रता के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देश के विकास में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की भूमिका को समझते हुए शोध संस्थानों की स्थापना का दायित्व जिन व्यक्तियों को सौंपा, उनमें भटनागर प्रमुख थे। वर्ष 1942 में सीएसआईआर की स्थापना शांतिस्वरूप भटनागर (21 फरवरी 1894 – 1 जनवरी 1955) की अध्यक्षता में की गई थी और भटनागर के नेतृत्व में ही इस संस्थान का विस्तार हुआ। स्वतंत्रता के बाद विज्ञान के जरिये देश को विकास पथ पर ले जाने की नीति को भटनागर ने सीएसआईआर के माध्यम से आगे बढ़ाया। आजादी के दो दशक में ही देश के विभिन्न हिस्सों में सीएसआईआर की कई प्रयोगशालाएं एवं अनुसंधान केंद्र कार्य करने लगे थे। तेजी से हो रहे वैज्ञानिक ढांचे के इस विस्तार के पीछे एक वजह भटनागर और नेहरू की नजदीकियों को भी माना जाता है। यही कारण था कि प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक सी.वी. रामन ने इन दोनों के वैज्ञानिक शोध के प्रति लगाव को 'नेहरू-भटनागर प्रभाव' का नाम दिया। होमी जहांगीर भाभा और प्रशांत चंद्र महालनोबिस के साथ शांतिस्वरूप भटनागर ने देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के आधारभूत ढांचे के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई

ढ़ने का शौक रखते हैं तो कई समस्याएं आपको छू भी नहीं पाती हैं। एक तो अकेलापन नहीं सताता और समय भी अच्छा गुजरता है। एक शोध में कहा गया है कि किताबें जिनकी साथी होती हैं, उन्हें अवसाद का खतरा भी कम होता है। हालांकि यह कोई भी किताब से नहीं, सनसनीखेज उपन्यास पर आधारित है।

युवा और होनहार वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन किया और उन्हें प्रोत्साहित किया। भटनागर के मार्गदर्शन में भारत में बारह राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं स्थापित की गईं। इनमें मैसूर स्थित केन्द्रीय खाद्य प्रौद्योगिक अनुसंधान संस्थान, पुणे स्थित राष्ट्रीय रासायनिकी प्रयोगशाला, राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला, नई दिल्ली; राष्ट्रीय मैटलर्जी प्रयोगशाला, जमशेदपुर एवं केन्द्रीय ईंधन संस्थान, धनबाद आदि शामिल हैं। शांतिस्वरूप भटनागर का जन्म शाहपुर (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके पिता परमेश्वरी सहाय भटनागर की मृत्यु उस वक्त हो गई, जब वह केवल आठ महीने के थे। उनका बचपन अपने ननिहाल में ही बीता। उनके नाना एक इंजीनियर थे, जिनसे उन्हें विज्ञान और अभियांत्रिकी में रुचि पैदा हुई और यांत्रिक खिलौने, इलेक्ट्रानिक बैटरियां एवं तारयुक्त टेलीफोन बनाना उनके शौक बन गए। स्नातकोत्तर डिग्री पूर्ण करने के उपरांत शोध फैलोशिप पर शांतिस्वरूप भटनागर इंग्लैंड चले गए। वहां उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन से वर्ष 1921 में रसायनशास्त्र के प्रोफेसर फ्रेड्रिक जी. गोनान के मार्गदर्शन में विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। अपने शोधकार्य में उन्होंने तेलों में उच्च-वसा अम्लों के द्विसंयोजक एवं त्रिसंयोजक लवणों की घुलनशीलता और तेलों के पृष्ठीय तनाव पर उनके प्रभाव का अध्ययन किया। भारत लौटने के बाद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में शांतिस्वरूप भटनागर ने प्रोफेसर के पद पर कार्य किया। आगे चलकर उन्होंने कोलायडीय रसायन तथा चुम्बकीय रसायन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोध कार्य किए। शांतिस्वरूप भटनागर का मूल योगदान चुम्बकीय-रासायनिकी के क्षेत्र में है। उन्होंने रासायनिक क्रियाओं को अधिक जानने के लिए चुम्बकत्व को औजार के रूप में

प्रयोग किया। प्रायोगिक और औद्योगिक रसायन के क्षेत्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किया। सबसे पहले पहले भटनागर ने जिस औद्योगिक समस्या को सुलझाया, वह गन्ने के छिलके को मवेशियों को खिलाई जाने वाली खली में बदलने की प्रक्रिया विकसित करना थी। इसी प्रकार उन्होंने ड्रिलिंग के दौरान तेल कंपनियों के सामने उत्पन्न होने वाली समस्या का निदान किया। ड्रिलिंग के दौरान कीचड़ जब नमक के संपर्क में आता था तो वह ठोस हो जाता था। कुछ समय बाद वह और अधिक कठोर हो जाता था, जिससे ड्रिलिंग को जारी रखने में कठिनाई होती थी। भटनागर ने इसके समाधान के लिए कोलाइडीय रसायन का उपयोग किया। उन्होंने पाया कि गोंद में कीचड़ के ठोस होने के समय उत्पन्न होने वाली श्यानता को घटाने की उल्लेखनीय क्षमता होती है। भटनागर द्वारा विकसित किए गए इस तरीके से मेसर्स स्टील ब्रदर्स इतने खुश थे कि उन्होंने उनके सामने पेट्रोलियम से संबंधित शोध कार्य के लिए डेढ़ लाख रुपये देने का प्रस्ताव रखा था। इस अनुदान से विश्वविद्यालय में भटनागर के मार्गदर्शन में पेट्रोलियम अनुसंधान विभाग स्थापित करने में मदद मिली। फिर उस विभाग में मोम-निर्गंधीकरण, मिट्टी के तेल से उठने वाली लपटों की ऊंचाई को बढ़ाने और वनस्पति तेल एवं खनिज तेल उद्योग में अपशिष्ट उत्पादों के उपयोग से संबंधित खोजपूर्ण कार्य संपन्न हुए। भटनागर विज्ञान संबंधी प्रयोगों के लिए नए उपकरणों के विकास को तत्पर रहते थे। उन्होंने

सनसनीखेज कहानी पढ़ने से दूर भागेगा डिप्रेशन छह करोड़ से अधिक लोगों के बीच हुए शोध से इंग्लैंड के वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है

इंग्लैंड में हुए एक शोध में छह करोड़ से अधिक लोगों को एंटीडिप्रेसेंट दवाएं दी गईं। यह आंकड़ा चौंकाने वाला है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जरूरी नहीं हर तरह के अवसाद, चिड़चिड़ापन, और घबराहट के मरीजों को दवा की जरूरत हो। इनमें से कुछ को अन्य थेरेपी से भी राहत मिल सकती है। यह शोध इसी अवधारणा की कड़ी है।

किताब पढ़ने की थेरेपी को बिबलियो थेरेपी कहते हैं, इसी तरह बात करने की थेरेपी को टॉकिंग थेरेपी कहते हैं। बिबलियो थेरेपी, लंबी अवधि में अवसाद के लक्षणों को कम करने में प्रभावी है। इसके साथ ही मरीज या पीड़ित की दवाओं पर निर्भरता भी कम हो जाती है।

के.एन. माथुर के साथ चुम्बकीय व्यवधान तुला नामक अभिनव उपकरण का विकास किया। यह तुला चुम्बकीय गुणों को मापने वाला एक संवेदनशील उपकरण थी, जिसे वर्ष 1931 में रॉयल सोसायटी के कार्यक्रम में भी प्रदर्शित किया गया था। भटनागर की मृत्यु के उपरांत उनके सम्मान में सीएसआईआर की पहल पर वैज्ञानिकों हेतु भटनागर पुरस्कार की शुरुआत की गई। इस पुरस्कार का उद्देश्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय शोध कार्य करने वाले वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करना है। प्रतिभाशाली वैज्ञानिक होने के साथ शांतिस्वरूप भटनागर एक कोमल हृदय कवि भी थे। हिंदी और उर्दू के बेहतरीन जानकार भटनागर ने अपने नाटकों और कहानियों के लिए कॉलेज के समय में अनेक पुरस्कार भी जीते। शांतिस्वरूप ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का कुलगीत भी लिखा था, जो हिंदी कविता का बेहतरीन उदाहरण है। वर्ष 1941 में ब्रिटिश सरकार द्वारा भटनागर को उनके युद्ध संबंधी शोध कार्यों के लिए नाइटहुड से सम्मानित किया गया। 18 मार्च, 1943 को इन्हें फैलो ऑफ रॉयल सोसायटी भी चुना गया। 1 जनवरी, 1955 को इस प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने दुनिया को अलविदा कह दिया। (इंडिया साइंस वायर) प्रयोग के दौरान बिबलियो थेरेपी का इस्तेमाल करने वाले मरीजों के स्वभाव में अंतर दिखाई पड़ा। इनमें से ज्यादातर तीन साल से अधिक समय से अवसाद से जूझ रहे थे। इस प्रयोग के नतीजे क्लीनिकल साइकोलॉजी रिव्यू पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। इटली की यूनीवर्सिटी ऑफ ट्यूरिन के शोध में विशेषज्ञों ने दावा किया है कि सनसनीखेज या क्राइम नॉवेल के शौकीन लोगों में अवसाद का खतरा कम रहता है। उनका कहना है यह अवसाद का इलाज तो नहीं है, लेकिन क्राइम नॉवेल पढ़ने वाले लोगों की एंटीडिप्रेसेंट दवाओं पर निर्भरता बहुत कम हो जाती है। हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि किताब पढ़ने से दिमाग पर दबाव कम होता है, जो कई समस्याओं की जड़ होती है। (एजेंसी)


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गुड न्यूज

नि:शक्तों का कॉफी हाउस

नि:शक्तों को सशक्त बनाने की इच्छ लिए केरल से काशी पहुंचे सजी जोसेफ ‘कैफेबिलिटी’ नामक कॉफी हाउस बना कर उन्हें ‘कैपेबल’ बना रहे हैं

नैनो रोबोट करेगा ट्यूमर का खात्मा

एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा रोबोटिक सिस्टम विकसित किया है जो ट्यूमर का खात्मा करने में सक्षम है

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ज्ञानिकों ने डीएनए ओरिगेमी की मदद से ऐसे नैनो रोबोट विकसित किए हैं जो ट्यूमर तक पहुंचने वाली रक्त आपूर्ति बाधित कर उन्हें संकुचित कर सकते हैं। इस तकनीक के जरिए कैंसर के नए-नए इलाज के रास्ते खुल सकते हैं। प्रत्येक नैनो रोबोट एक चपटे, डीएनए ओरिगेमी शीट से तैयार किया गया है। इनकी सतह पर थ्रोंबिन नामक इंजाइम होता है जो खून के जमने में अहम भूमिका निभाता है। वैज्ञानिकों ने बताया कि थ्रोंबिन ट्यूमर तक पहुंचने वाले खून को रोकने के लिए नसों के भीतर मौजूद उस खून को जमा देता है जो ट्यूमर को बढ़ने में मदद करता है। इससे ट्यूमर में एक तरह का छोटा 'ह्रदयाघात होता है जिससे ट्यूमर की कोशिकाएं मर जाती हैं। अमेरिका की एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी के हाओ यान ने कहा, 'हमने सटीक दवाओं के डिजाइन और कैंसर थेरापी के लिए पहला स्वतंत्र, डीएनए रोबोटिक सिस्टम विकसित कर लिया है।' उन्होंने कहा, 'इसके अलावा यह तकनीक एक रणनीति भी है जिसे कैंसर के कई प्रकार में इस्तेमाल किया जा सकता है। क्योंकि ट्यूमर को बढ़ावा देने वाली सभी नसें लगभग समान होती हैं।' (एजेंसी)

त्तर प्रदेश के बनारस में ‘कैफेबिलिटी’ नाम के कॉफी हाउस में आप जाएंगे तो चौंके बिना नहीं रह पाएंगे। क्योंकि इस अनूठे कॉफी हाउस में कॉफी बनाने सर्विस, हाउस कीपिंग और अकाउंटिंग जैसे सभी काम नि:शक्त संभालते हैं। इनमें कोई जन्मजात है तो कोई हादसे का शिकार। बावजूद इसके सभी के चहरे पर मुस्कान और निराशा के लंबे दौर से निकल कुछ नया करने की ललक। इसी ललक के कारण ही कैपेबिलिटी की तर्ज पर कॉफी हाउस को ‘कैफेबिलिटी’ नाम दिया गया है।

काशी के नि:शक्तों को आत्मनिर्भर बनाने का बीड़ा केरल के समाजसेवी सजी जोसेफ ने उठाया था। जोसेफ ने मिशन ‘मुस्कान’ का प्लान तैयार किया और दो साथियों संग एबिलिटी फाउंडेशन बना अपनी सोच को आकार देने में जुट गए। मदद के लिए हाथ फैलाए। केरल छोड़ बनारस का रुख किया। शहर के बीच दो बड़े मॉल्स में खुला ‘कैफेबिलिटी’ कॉफी हाउस उनकी शिद्दत की मिसाल है। काशी विद्यापीठ से अंग्रेजी में एमए कर रहे शाहनवाज गरीब परिवार से आते हैं। एबिलिटी

फाउंडेशन से जुड़ने के बाद अपना रेस्तरां खोलने का सपना देख रहे हैं। ठीक से खड़े भी न हो पाने वाले हाईस्कूल पास दीपक कुमार का कहना है कि ग्राहक के साथ अंग्रेजी में बातचीत करना सीखने के बाद यह विश्वास पैदा हुआ है कि मैं खुद भी कुछ कर सकता हूं। मूक-बधिर इंटर पास अमन शेख को लगता है कि उसे भी किसी होटल या रेस्तरां में मौका मिल सकता है। चंद्रमा, भीमराज, मनोज कुमार, रविशंकर जैसे कई और दिव्यांग कैफेबिलिटी में काम करते दिखते हैं। दोनों पैर से लाचार होने से पहले व्हील चेयर और अब क्लैपर्स के सहारे चलने वाली रितु पटेल शहर की सबसे अच्छी कॉफी मेकर बनी हैं। शालिनी को भी कॉफी बनाने में महारत हासिल है। दोनों ने कैफेबिलिटी में प्रारंभिक ट्रेनिंग के बाद कॉफी बोर्ड ऑफ इंडिया के बेंगलुरु सेंटर से कॉफी मेकिंग का स्पेशल कोर्स किया है। चंद्रावती व शाइना का भी स्पेशल कोर्स के लिए नंबर आने वाला है। नि:शक्तों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए ‘कैफेबिलिटी’ में एक साल की ट्रेनिंग दी जा रही है। हॉस्पिटैलिटी इंडस्ट्री से जुड़ी सारी बारिकियां सिखाई जाती हैं। पहले बैच के 12 नि:शक्त लड़के और चार लड़कियों की ट्रेनिंग जल्द पूरी होने वाली है। बेंगलुरु के फाइव स्टार होटल में शेफ रहे अमित श्रीवास्तव इन लोगों को ट्रेनिंग दे रहे हैं। होटल इंडस्ट्री में लंबे समय तक काम करने वाले अमित प्रमाणिक व अंकुर भी नि:शक्तों को आत्मनिर्भर बनाने में जुटे हैं। (एजेंसी)

थेरेपी से खत्म हो जाएगा कैंसर

अमेरिका के वैज्ञानिकों ने दो थेरेपी के मिश्रण से एक ऐसी थेरेपी तैयार की है जिससे ट्यूमर तेजी से कमजोर होते हैं

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सर ट्यूमर को खत्म करने के लिए वैज्ञानिकों ने अब एक नई थेरेपी इजाद की है। ये नया उपचार कैंसर ठीक करने के लिए इस्तेमाल होने वाली दो थेरेपी को साथ जोड़कर तैयार किया गया है। वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि इस नई तकनीक

से ट्यूमर ज्यादा तेजी से कमजोर पड़ता है। किडनी में होने वाले कैंसर को ठीक करने के लिए आम तौर पर दो थेरेपी का इस्तेमाल होता है। एक को 'एंटी-एंजियोजेनिसिस' कहते हैं और दूसरी को 'इम्यूनोथेरेपी' कहा जाता है। एंटी-

एंजियोजेनिसिस शरीर में कैंसर कोशिकोओं का रक्त नली बनाने से रोकती है, वहीं इम्यूनोथेरेपी शरीर को कैंसर से लड़ने के लिए इम्यून सिस्टम को मजबूती देती है। वैज्ञानिकों ने दोनों थेरेपी में पाए जाने वाले कुछ खास तत्वों को जोड़कर एक नया उपचार तैयार किया। यह अध्ययन 'द लेंसेट ऑन्कोलॉजी' पत्रिका में छपा है। वॉशिंगटन की जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक माइकल एटकिंस ने बताया कि हमारे द्वारा किए गए इस शोध में सामने आया है कि जब दो थेरेपी के मिश्रण के साथ कैंसर की दवाई मरीजों को दी गई तो उनके ट्यूमर पर ज्यादा बेहतर असर हुआ। उन्होंने कहा कि ये असर तब कम था

जब एक ही थेरेपी के साथ कैंसर ड्रग दिया गया। वैज्ञानिक 2014 से किडनी में होने वाले आम कैंसर की पहली स्टेज पर इस मिश्रण थेरेपी का इस्तेमाल करके देख रहे हैं। उन्होंने पाया कि 90 प्रतिशत मरीजों का ट्यूमर ज्यादा तेजी से छोटा पड़ जाता है। हालांकि वैज्ञानिकों का कहना है कि यह थेरेपी किडनी कैंसर के पहले फेस में ही काम कर सकती है। उनका कहना है कि इस थेरेपी के जरिए इलाज करने से मरीजों को लिवर में परेशानी कम होगी और तकलीफ भी ज्यादा नहीं होगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये रिसर्च संकेत दे रही है कि आने वाले समय में कैंसर इलाज के लिए कुछ और 'कॉम्बिनेशन थेरेपी' बनाने पर काम करना चाहिए। (एजेंसी)


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खादी

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

अब ऑनलाइन बिकेगी खादी

उत्तर प्रदेश खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड और ऑनलाइन शॉपिंग साइट अमेजन के बीच हाल ही में एमओयू साइन हुआ है

खास बातें

2016-17 में खादी उत्पादों की बिक्री में जबरदस्त उछाल आया सोलर चरखी के उत्पाद को भी यूपी में खादी की मान्यता इस वर्ष 5000 करोड़ रुपए की बिक्री का लक्ष्य रखा गया है

एसएसबी ब्यूरो

त्तर प्रदेश खादी उत्पादन का गढ़ रहा है। यहां खादी की कई विख्यात संस्थाएं हैं। अच्छी बात यह है कि यूपी के खादी उत्पाद अब ऑनलाइन भी बिकेंगी। इस बारे में उत्तर प्रदेश खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड से के मुख्य कार्यपालक अधिकारी अविनाश किशन और ऑनलाइन शॉपिंग साइट अमेजन के बीच हाल ही में एमओयू साइन हुआ है। एमओयू साइन होने के बाद अब खादी ग्रामोद्योग की इकाइयों के उत्पादों का होगा विपणन अब ऑनलाइन हो सकेगा। ऑनलाइन खादी उत्पादों की बिक्री के साथ ही अमेजन इंडिया यूपी के गांवों में रहने वाले खादी कारीगरों को शिक्षित और प्रशिक्षित भी करेगा। ऑनलाइन उत्पादों की सूची में खादी की शर्ट, कुर्ते, धोती, टॉवल आदि शामिल होंगे। इसके अलावा ये एमओयू व्यवसायियों को डिजिटल कनेक्टिविटी देकर उन्हें डिजिटल इकोनॉमिक फ्रेमवर्क से भी जोड़ने का काम भी करेगा। राज्य के खादी ग्रामोद्योग एवं सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम उद्योग (एमएसएमई) मंत्री सत्यदेव पचौरी ने खादी को लोकप्रिय, सुगमप्रिय और वैश्विक स्तर पर पहुंचाने के लिए बधाई देते हुए कहा, ‘गांधी जी ने जो सपना देखा था कि हम खादी से लोगों को रोजगार दें और स्वरोजगार से जोड़ें। यह सपना हमने पूरा किया है। अभी तक हम इंडिया खादी को जानते थे, अब ‘यूपी खादी’ को जानेंगे।’ खादी के वस्त्रों की मांग पूरे देश में बढ़ती जा रही है। हाल में खादी और ग्राम उद्योग आयोग ने

एक बयान जारी करके बताया है कि वर्ष 2016-17 में खादी उत्पादों की बिक्री में जबरदस्त उछाल दर्ज किया गया। सरकारों, कंपनियों, स्कूल-कॉलेजों और राज्य सरकारों की तरफ से भारी-भरकम ऑर्डर मिल रहे हैं। 2018-19 के अंत तक 5000 करोड़ रुपए की बिक्री का लक्ष्य तय किया गया है। सत्यदेव पचौरी बोले, ‘खादी गरीबों के साथ-साथ बड़े लोगों की भी पसंद बने इस दिशा में यूपी खादी बोर्ड काम कर रहा है। हमने खादी को ऊंचाइयों तक पहुंचाया है। हमारे अंदर इच्छाशक्ति है। हमने तय किया है कि हम उत्पादन पर छूट देंगे। इससे उत्पादन बढ़ेगा। जब उत्पादन बढ़ेगा तो इसे बेचने के लिए एक अच्छा मार्केटिंग नेटवर्क चाहिए। इसीलिए अमेजन के साथ ये अनुबंध किया गया है।’

सोलर चरखी के उत्पाद

यूपी सरकार के मंत्री सत्यदेव पचौरी ने एक खास बात कही। उन्होंने कहा ‘हम ऐसे पहले खादी बोर्ड हैं, जिसने सोलर चरखी के उत्पाद को खादी की मान्यता दी है। इससे उत्पादन तो बढ़ेगा ही साथ ही ऊर्जा की भी बचत होगी। खादी का जो सपना गांधी जी ने देखा था और पीएम मोदी का जिस पर जोर है, उसे हम जन-जन तक पहुंचाएंगे। इस प्रयोग से खादी

की उत्पादकता भी बढ़ेगी।’ प्रदेश के प्रमुख सचिव नवनीत सहगल कहते हैं, ‘अमेजन इंडिया के साथ साइन होने वाले एमओयू के तहत अब ऑनलाइन खादी उत्पादों की बिक्री संभव हो सकेगी। साथ ही अमेजन इंडिया यूपी के गांवों में रहने वाले खादी कारीगरों को शिक्षित और प्रशिक्षित भी करेगा। सहगल में बताया कि खादी में अच्छे उत्पाद बनते हैं। लेकिन उन्हें कहां भेजा जाए ये किसी को मालूम नहीं। इसीलिए ये एमओयू साइन किया जा रहा है। यूपी की खादी की संस्थाओं के उत्पादों को ‘यूपी खादी’ के नाम से अमेजन इंडिया ऑनलाइन पर बेचा जाएगा। अभी तक सात संस्थाएं इसमें शामिल हुई हैं। ये संस्थाएं अमेजन इंडिया के साथ व्यापार कर रही हैं। आगे अन्य संस्थाओं को भी जोड़ा जाएगा।’

1,500 खादी कारीगरों प्रशिक्षित

अमेजन इंडिया के गोपाल पिल्लई ने बताया, ‘अब तक हम 1,500 खादी कारीगरों को यहां प्रशिक्षित कर चुके हैं। हमने इससे पहले गुजरात, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में भी ऐसे एमओयू साइन किए हैं। इसके जरिए हम गांव के कारीगरों को उनके उत्पाद का सही मूल्य दिलाने में मदद करेंगे। अब

ऑनलाइन खादी उत्पादों की बिक्री के साथ साथ ही अमेजन इंडिया यूपी के गांवों में रहने वाले खादी कारीगरों को शिक्षित और प्रशिक्षित भी करेगा

कारीगर खुद अमेजन इंडिया के जरिए अपने प्रोडक्ट को रजिस्टर करवा सकेंगे और ग्लोबल मार्केट से इसकी सही कीमत प्राप्त कर सकेंगे।’ इस समय देश में 1.42 लाख बुनकर और 8.62 लाख कातने वाले कारीगर हैं। एक अनुमान के अनुसार 9.60 लाख चरखों और 1.51 लाख करघों में खादी बन रही है। नई दिल्ली के कनाट सर्कस में खादी और ग्रामोउद्योग आयोग भारत सरकार का सबसे बड़ा शोरूम है। यहां पर खादी भंडार और खादी बिक्री केंद्र पर खरीदारी के लिए आए लोगों की भीड़ उमड़ी रहती है। देशभर में खादी के जितनी दुकानें और शोरूम हैं, सब जगह की यही स्थिति है। उन्होंने कहा, ‘ये कदम डिजिटल इंडिया को बढ़ावा देने के साथ-साथ जागरूकता और शिक्षा को बढ़ाने में भी मदद करेगा।’ गोपाल पिल्लई ने बताया कि अभी यूपी में खादी पर काम करने वाली 7 संस्थाएं उनसे जुड़ी हैं। आगे 40 अन्य संस्थाओं को इससे जोड़कर यूपी खादी को वैश्विक स्तर पर प्रोजेक्ट किया जाएगा।

सवा लाख बुनकर

खादी और ग्रामोद्योग के समय विकास के लिए उत्तर प्रदेश खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड का उत्तर प्रदेश खादी ग्रामोद्योग अधिनियम 10 ऑफ 1960 के तहत एक सलाहकार निकाय के रूप में गठित किया गया था। इसके बाद खादी ग्रामोद्योग बोर्ड अधिनियम संख्या-64 196 में बोर्ड को राज्य में खादी और ग्रामोद्योग की योजनाओं को लागू करने का अधिकार दिया था। इस प्रकार खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड को एक स्वायत्तशासी संस्था के रूप में पुनर्गठित किया गया। खादी और ग्रामोद्योग का उद्देश्य कम पूंजी निवेश के साथ छोटे उद्योग की स्थापना और ग्रामीण अर्थव्यस्था को मजबूत करके अधिकतम रोजगार अवसर बनाना है। उत्तर प्रदेश खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड से प्रदेश में खादी का उत्पाद व खादी के वस्त्र बेचने वाली 536 संस्थान पंजीकृत हैं। इस संस्थानों से करीब सवा लाख बुनकर जुड़े हैं।


26 फरवरी - 04 मार्च 2018

प्रेरक

शिक्षा की ‘आकांक्षा’ पूरी करेगा रोबोट बिहार की रहने वाली आकांक्षा ने ऐसा रोबोट तैयार किया है, जो बड़े ही आसानी से खेलखेल में बच्चों को तमाम चीजें सिखा देगा

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खास बातें इस रोबोट को बनाने में 10 से 15 लाख रुपए की लागत रोबोट का मकसद बच्चों को खेलखेल में तनावमुक्त शिक्षा देना है रोबोट को कार्यक्षेत्र में उतारने की शुरुआत बिहार से ही हो रही है

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एसएसबी ब्यूरो

धानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘एज्माम वॉरियर्स’ पुस्तक आने के बाद शिक्षा और उसके तरीके को लेकर देशभर में बात हो रही है, लोग इस मुद्दे को भी अहम मान रहे हैं कि इसका बेहतर समाधान क्या हो सकता है। भारत आज दुनिया का सबसे युवा देश है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि शिक्षा को लेकर आधारभूत संरचना मजबूत होनी चाहिए। इसके लिए सबसे जरूरी है कि देश में जरूरत के हिसाब से स्कूल-कॉलेज और शिक्षक हों। इस दिशा में एक आसान विकल्प सुझाकर इन दिनों चर्चा में आई है बिहार की एक बेटी। मूल रूप से पटना की रहने वाली आकांक्षा आनंद ने बेंगलुरु से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद एक ऐसा रोबोट तैयार किया है, जो बच्चों को पढ़ने और खेलने के साथ कई चीजें सिखाता है। वह इसे बिहार के हर सरकारी से लेकर प्राइवेट स्कूलों तक पहुंचाने का प्रयास कर रही हैं। कई स्कूल इस रोबोट से बच्चों को पढ़ाने के लिए तैयार भी हो गए हैं। आकांक्षा ने जो रोबोट तैयार किया है, उसको बनाने में 10 से 15 लाख रुपए की लागत आती है। इस रोबोट की लंबाई दो फीट है।

आकांक्षा ने 2012 में बेंगलुरु से इंजीनियरिंग में ईसीई (इलेक्ट्रॉनिक एंड कम्युनिकेशन इंजीनियरिंग) की पढ़ाई पूरी करने के बाद दो साल तक आईटी कंपनी माइक्रो चिप टेक्नोलॉजी के साथ काम किया। उसके बाद उन्होंने 2014 में कर्नाटक की कंपनी सेरेना टेक्नोलॉजी के साथ काम शुरू किया। फिलहाल आकांक्षा इस कंपनी की डॉयरेक्टर हैं। यह कंपनी रोबोटिक्स के क्षेत्र में काम करती है। कंपनी के सीईओ हरिहरण बोजन के साथ मिलकर वह लगातार कई दिलचस्प प्रोजेक्ट्स पर कार्य कर रही हैं। काफी मंथन के बाद उन्होंने एक ऐसा रोबोट बनाने की शुरुआत की जो बच्चों को आसानी से पढ़ा सके। कंपनी से जुड़ी रिचा ने बताया कि स्कूली स्तर से ही बच्चों को रोबोटिक्स की जानकारी देने के लिए ऐसा किया गया है। इसके अलावा बच्चे अपने विषयों को भी रुचिकर तरीके से जान सकेंगे। देश की तरक्की तभी है जब बच्चे नई खोज के प्रति

जागरूक होंगे। कंपनी के सीईओ हरिहरण ने भी एजुकेशन सेक्टर में रोबोटिक्स को इसीलिए लाना जरूरी समझा, क्योंकि देश में ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल भारत’ को बढ़ावा दिया जा रहा है। इस रोबोट का मकसद बच्चों को तनावमुक्त शिक्षा देना भी है। इस प्रोजेक्ट को तैयार करने में कर्नाटक सरकार ने मदद की और प्रोत्साहित भी किया। आकांक्षा बताती हैं कि इस रोबोट को बनाने का खास उद्देश्य बच्चों को नए और रोचक तरीके से पढ़ाना, खेलना और नृत्य जैसी चीजों को सिखाना है। इस नई तकनीक से बच्चे पढ़ाई में दिलचस्पी भी लेंगे। आकांक्षा का कहना है कि धीरे-धीरे इसे सरकारी स्कूलों तक पहुंचाने में हमारी टीम जुटी हुई है। इससे जो बच्चे पढ़ने नहीं आते हैं या रुचि नहीं लेते हैं, वे स्कूल आने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई में मन लगा सकेंगे। भारत में ऐसे कई रोबोट बनाए गए जो व्हील से चलते हैं, लेकिन आकांक्षा के अनुसार पहली बार

धीरे-धीरे इसे सरकारी स्कूलों तक पहुंचाने में हमारी टीम जुटी हुई है। इससे जो बच्चे पढ़ने नहीं आते हैं या रुचि नहीं लेते हैं, वे स्कूल आने के साथ-साथ अपनी पढ़ाई में मन लगा सकेंगे

पैरों से चलते हुए रोबोट उन्होंने बनाए। आकांक्षा ने पढ़ाई के दौरान हांगकांग, चीन और ताइवान आदि देशों का कई बार भ्रमण किया। इस बीच, उन्होंने चीन में छोटे-छोटे बच्चों को रोबोट बनाते और उससे खेलते देखा। उसके बाद आकांक्षा ने नए तरीके का रोबोट बनाने की सोची, जो बच्चों के भविष्य में पढ़ाई के लिए मददगार हो सके। उन्होंने कहा कि जब दूसरे देश के बच्चे इसे आसानी से समझ सकते हैं तो हमारे देश के बच्चों में भी इस तरह की सोच आनी चाहिए। आकांक्षा ने अपने रोबोट को कार्यक्षेत्र में उतारने की शुरुआत बिहार से ही की है। उनका कहना है कि मैं बिहार से हूं और चाहती हूं कि इसकी पहल मैं यहीं से करूं। इसके लिए उन्होंने बिहार के हर जिले में जाकर कई स्कूलों से बात भी की है। उनका कहना है कि बिहार के बच्चे आगे बढ़ें और हर तरीके से परिपूर्ण हों। बिहार की होने की वजह से इसका शुभारंभ भी सबसे पहले यहीं से होगा। उल्लेखनीय है कि बिहार में शिक्षा की हालत इन दिनों काफी दयनीय है। वह बताती हैं, ‘मैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात कर प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाना चाहती हूं।’ उनके मुताबिक एक रोबोट को बनाने का खर्च 10 से 15 लाख रुपए खर्च आता है। इसमें कई तरह की टेक्नोलॉजी, हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर, डिजाइन, एकेडमिक और स्किल्स लगाकर ये ह्यूमेनाइड रोबोट तैयार किया गया है, जिसका नाम ‘नीनो’ रखा गया है। यह रोबोट काम देने पर तुरंत शुरू कर देता है। इसे ऑपरेट करने के लिए इंसान की आवाज या ऐप्प की जरूरत पड़ती है। आकांक्षा ने अभी तक कई तरह के रोबोट बनाए हैं, जो अलग-अलग काम करते हैं। इनमें ह्यूमेनाइड रोबोट, रोबोटिक आर्म, ऑटोमोबाइल किट, पेट रोबोट, क्वार्डबोट रोबोट जैसे कई रोबोट हैं। ह्यूमेनाइड रोबोट 40 से 45 की संख्या में बनकर तैयार हैं। इसके सारे पार्ट्स भारत में ही मिलते हैं।


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पुस्तक अंश

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

मार्च 3, 2013: नई दिल्ली में राष्ट्रीय परिषद की बैठक के अंतिम दिन रैली को संबोधित करते नरेंद्र मोदी

राष्ट्रीय परिषद की बैठक 2-3 मार्च, 2013, नई दिल्ली: भाजपा राष्ट्रीय परिषद की बैठक में नरेंद्र मोदी के भाषण का अंश

एक चुनावी रैली को संबोधित करते नरेंद्र मोदी

आज, मैं सभी देशवासियों को आश्वस्त करना चाहता हूं कि जब आप भारतीय जनता पार्टी को मई 2014 में भारत की सेवा करने का मौका देंगे, तो हमारी पार्टी की पहली प्राथमिकता देश के उस पिछड़े हिस्से की उन्नति करने की होगी, जो विकास की यात्रा में काफी पीछे रह गया है। हम, सबसे पहले, इसे विकसित करना चाहते हैं। ... सोचिए, हमारी भारत मां कैसी होगी, यदि उनका एक हाथ मजबूत हो और दूसरा कमजोर! ऐसी हमारी मातृभूमि नहीं हो सकती! हमारा दृष्टिकोण यह है कि चाहे बिहार हो या बंगाल, झारखंड, असम, उत्तर पूर्व, ओडिशा, पूरा पूर्वी भाग, पूर्वी उत्तर प्रदेश... हम सभी भागों में संतुलित और समेकित विकास के एक सपने के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं। ... सुशासन गरीबों के लिए है, आम आदमी के लिए है। यह शोषित, पीड़ित और वंचित लोगों के लिए है। ... आज, भारतीय जनता पार्टी के इस प्रभावशाली मंच से, मैं अपने सभी देशवासियों से अनुरोध करता हूं कि आपने 60 साल शासकों को दिया है, अब एक सेवक को सिर्फ 60 महीने दे दो! इस देश को 'शासक' की आवश्यकता नहीं, इसे 'सेवक' की आवश्यकता है। ...आओ हम सभी विजय के संकल्प के साथ आगे चलें! (अगले अंक में जारी...)


26 फरवरी - 04 मार्च 2018

खेल

देश की सबसे कामयाब महिला फुटबॉलर

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एसएसबी ब्यूरो

6 साल तक भारत की राष्ट्रीय टीम का हिस्सा रह चुकीं अदिति चौहान इंग्लिश प्रीमियर लीग में खेलने वाली पहली भारतीय महिला फुटबॉलर हैं

नी-मानी महिला फुटबॉलर अदिति चौहान किसी तरह की परिचय की मोहताज नहीं हैं। उन्होंने अपने खेल और प्रतिभा से देश ही नहीं, दुनियाभर में अपना लोहा मनवाया है। वह इंग्लिश प्रीमियर लीग में खेलने वाली पहली भारतीय महिला फुटबॉलर हैं। वह अब विदेश के अनुभव लेकर भारत में फुटबॉल का भविष्य संवारना चाहती हैं। वैसे अदिति की सफलता को सीधे तौर पर देश में महिला फुटबॉल की दशा से जोड़कर नहीं देखा सकता। भारत में न सिर्फ मौजूदा समय में, बल्कि अतीत में भी फुटबॉल को लेकर ऐसा कुछ भी नहीं है, जिस पर गर्व किया जा सके। इस लिहाज से अदिति की कामयाबी जरूर बड़ी है कि उसने एक उपेक्षित खेल को न सिर्फ अपनाया, बल्कि उसमें अपनी प्रतिभा से खेल और अपना दोनों का नाम ऊंचा किया।

लंदन में परचम

अदिति 6 साल तक भारत की राष्ट्रीय टीम का हिस्सा भी रह चुकी हैं। फुटबॉल को अंगुली पर नचाती भारत की बेटी अदिति लंदन के जाने माने

शायद टेनिस में करियर बनाने पर मुझे ज्यादा शोहरत मिल सकती थी, लेकिन मैंने फुटबॉल को इसीलिए चुना क्योंकि मैं इससे प्यार करती हूं – अदिति चौहान

वेस्ट हैम युनाइटेड क्लब की ओर से खेलने वाली पहली फुटबॉलर हैं। अदिति बतौर गोलकीपर इस क्लब के लिए खेलीं और अवॉर्ड भी जीता।

द एशियन फुटबॉल अवॉर्ड

मूल रूप से उत्तर प्रदेश की रहने वाली अदिति ने स्पोर्ट्स मैनेजमेंट में डिग्री ली है। फुटबॉल के साथ-साथ वह बास्केटबॉल और कराटे की भी खिलाड़ी रह चुकी हैं। अदिति ने पिछले साल ही कई दिग्गज खिलाड़ियों को पीछे छोड़ते हुए ‘द एशियन फुटबॉल अवॉर्ड’ अपने नाम किया था। अदिति ऐसा करने वाली पहली भारतीय महिला फुटबॉलर हैं। अदिति की यह उपलब्धि इसीलिए भी खास बन जाती है, क्योंकि वह उस देश से आती हैं जहां महिला फुटबॉलरों के लिए एक ढंग के टूर्नामेंट का आयोजन तक नहीं होता है।

क्रिकेट की तरह नहीं फुटबॉल अदिति कामयाबी

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महत्व इसीलिए भी है कि वह एक ऐसे खेल में अपना दमखम दिखा रही हैं, जिसको लेकर भारत में कम से कम क्रिकेट और हॉकी जैसी सरगर्मी कभी नहीं रही। हां, पश्चिम बंगाल और गोवा की कुछ टीमें जरूर लोगों में फुटबॉल का रोमांच भरती रही हैं, पर बात करें महिलाओं की तो उनके लिए तो इस खेल में आगे बढ़ने का रास्ता किसी जोखिम से कम नहीं है। वैसे तो अब भारत में भी पुरुष फुटबॉल के विकास के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है। लेकिन इसके उलट महिला फुटबॉल की सुध लेने वाला कोई नहीं है। ऐसे में एक भारतीय महिला फुटबॉलर का नाम सुर्खियों में आना फुटबॉल प्रेमियों के लिए किसी सुखद अहसास से कम नहीं है। अदिति की सफलता भारतीय महिला फुटबॉल की ओर लोगों का ध्यान खींचती है और उसकी हालत बेहतर बनाने के लिए बहस शुरू करने का मौका देती है।

टेनिस छोड़ फुटबॉल से प्यार

23 वर्षीय अदिति चौहान के आर्मीमैन पापा चाहते थे कि वह टेनिस खेले, लेकिन अदिति का दिल फुटबॉल में बसता था। वह कहती हैं, ‘शायद टेनिस में करियर बनाने पर मुझे ज्यादा शोहतर मिल सकती थी, लेकिन मैंने फुटबॉल को इसीलिए चुना क्योंकि मैं इससे प्यार करती हूं। मैंने इसे पैसे और शोहरत के लिए नहीं, बल्कि इसके प्रति अपने प्यार के लिए चुना।’

प्रेरक दास्तान

भारतीय अंडर-19 टीम की गोलकीपर चुने जाने के बाद उन्होंने फुटबॉल को गंभीरता से लेना शुरू किया। दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद वह ब्रिटेन की लॉगबरो यूनिवर्सिटी से स्पोर्ट्स मैनेजमेंट की पढ़ाई करने गईं। अदिति को लॉगबरो यूनिवर्सिटी की फुटबॉल टीम में जगह बनाते देर नहीं लगी। हालांकि उन्हें वहां के मौसम और मैदान से तालमेल बिठाने में थोड़ा वक्त लगा, लेकिन जल्द ही वह इसकी अभ्यस्त हो गईं। इसके बाद अगस्त 2015 में उन्हें इंग्लिश प्रीमियर लीग की टीम वेस्ट हेम लेडीज फुटबॉल क्लब ने एक साल के लिए अनुबंधित किया। वह किसी इंग्लिश क्लब के लिए खेलने वाली पहली भारतीय महिला फुटबॉलर हैं।

महिला फुटबॉल की स्थिति

अदिति के संघर्ष और कामयाबी को देखकर लगता है कि उसकी यात्रा एक प्रेरक दास्तान की तरह है। पर इस यात्रा का दूसरा पहलू और उससे जुड़ा संदर्भ इसी तरह चमकीला नहीं है। फुटबॉल के मैदान में तारीखी सफलता के बावजूद अदिति अपने भविष्य के प्रति सुनिश्चित नहीं हैं। अदिति की तरह ही भारतीय महिला फुटबॉल टीम का भी भविष्य अनिश्चित ही नजर आता है। देश में महिला

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खास बातें मूल रूप से उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं अदिति चौहान फुटबॉल के साथ वह बास्केटबॉल और कराटे की भी खिलाड़ी हैं कई दिग्गजों को पीछे छोड़ते हुए द एशियन फुटबॉल अवॉर्ड जीता

फुटबॉलरों के विकास और उनकी मदद के लिए कदम उठाना तो दूर, उनके लिए अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए अच्छे टूर्नामेंट तक नहीं आयोजित होते। इसीलिए देश से जो प्रतिभाएं निकलती भी हैं, वे उचित अवसर के अभाव में कुछ नहीं बन पातीं।

बस एक ही टूर्नामेंट

महिला फुटबॉल की अनदेखी का अंदाजा इसी बात से हो जाता है कि देश में पुरुष फुटबॉल के लिए इंडियन सुपर लीग, आईलीग, आईलीग-2 और राज्य स्तर पर होने वाली लीग मौजूद हैं, लेकिन यहां एक भी महिला फुटबॉल लीग नहीं होती है। वहीं इसके अलावा भी पुरुष फुटबॉल टीम के पास वर्ष भर खेलने के लिए फेडरेशन कप, डूरंड कप, संतोष ट्रॉफी, आईएफए शील्ड, इंडियन सुपर लीग जैसे कई टूर्नामेंट हैं। महिला फुटबॉलरों के पास भारतीय महिला फुटबॉल चैंपियनशिप के नाम से वर्ष भर में होने वाला एक ही टूर्नामेंट है।

रैंकिंग में पुरुषों से आगे

हैरानी की बात यह है कि इतनी अनदेखी के बावजूद महिला टीम फीफा रैंकिंग में पुरुष टीम से काफी आगे है। 177 देशों की रैंकिंग में महिला टीम की रैंक 56वीं हैं, जबकि पुरुष फुटबॉल टीम 209 देशों में 167 रैंक पर मौजूद है। देश में पुरुष फुटबॉलरों के लिए 20 लाख डॉलर की भारी भरकम इनामी राशि वाली इंडियन सुपर लीग तो शुरू हो चुकी है। पर महिला फुटबॉलरों के लिए भी इसी तरह के लीग टूर्नामेंट के आयोजन का वादा कर चुके अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ ने अब तक इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। जाहिर है कि अदिति जैसी और बेटियां फुटबॉल के मैदान में अपनी प्रतिभा दिखाने को तो तैयार हैं, पर उनके लिए ज्यादा अवसर नहीं हैं। ये अवसर अगर भविष्य में मिलते हैं तो देश का मान बढ़ाने के लिए अदिति की तरह कई और महिला फुटबॉलर सामने आ सकती हैं।


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स्वास्थ्य

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

अल्जाइमर के प्रारंभिक कारणों का चला पता बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि अल्जाइमर रोगी की स्मृति का ह्रास कैसे होता है

ल्जाइमर रोग की कार्यप्रणाली को समझने की दिशा में भारतीय वैज्ञानिकों ने एक बड़ी सफलता हासिल की है। बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया है कि रोग के प्रारंभिक चरणों में स्मृति ह्रास किस प्रकार होता है। उन्होंने पता लगाया कि मस्तिष्क

में फाइबरिलर एक्टिन या एफ-एक्टिन प्रोटीन के जल्दी विखंडित होने से स्नायु कोशिकाओं के बीच संचार संपर्क अस्तव्यस्त हो जाता है, जिसकी वजह से स्मृति ह्रास होने लगता है। यह प्रोटीन स्नायु कोशिकाओं की सतह पर मशरूम जैसी आकृतियों (डेंड्राइटिक स्पाइंस) की

समरूपता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। यह आकृतियां स्नायु कोशिकाओं के जंक्शन यानी जोड़ पर कोशिकाओं को एक-दूसरे के साथ जोड़ने और संकेतों के संप्रेषण में मदद करती हैं। स्नायु कोशिकाओं के जोड़ को सिनेप्सेस कहते हैं। जब डेंड्राइटिक स्पाइंस में कमी आती है या उनमें कोई और गड़बड़ी पैदा होती है तब स्नायु कोशिकाओं के बीच संचार बाधित हो जाता है। अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने आनुवंशिक रूप से संशोधित चूहों का प्रयोग किया था। यह जीन संशोधन इसीलिए किया गया, ताकि चूहे अल्जाइमर रोग की परिस्थिति अपने शरीर में उत्पन्न कर सकें। इसका मकसद उन प्रोटीनों का पता लगाना था जो डेंड्राइटिक स्पाइंस की आकृति और संख्या बनाए रखने में मदद करते हैं। इन स्पाइंस में एफ एक्टिन प्रोटीन और जी-प्रोटीन मौजूद होता है। अध्ययन में पाया गया कि अल्जाइमर से पीड़ित चूहों में एफ-एक्टिन प्रोटीन और जी-प्रोटीन का संतुलन गड़बड़ा गया था। इसकी वजह से स्पाइंस में कमी आ गई। विस्तृत अध्ययनों से भी यह भी पता चला कि एफ-एक्टिन की कमी से चूहों के व्यवहार भी असर पड़ा। (एजेंसी)

टीबी की नई दवा

क अध्ययन में यह पाया गया है कि भारत में हर साल 2.1 मिलियन मामले दर्ज किए जाते हैं। बेडाकुलाइन टीबी की नई दवा है, जो कि शीघ्र ही भारत में भी लांच होगी। यह जानकारी आइएमटेक, चंडीगढ़ के निदेशक डॉ. अनिल कौल ने दी है। डॉ.कौल ने बताया कि भारत में टीबी से 300,000 लोग मर जाते हैं। महिलाओं की तुलना में पुरुष टीबी से अधिक प्रभावित होते हैं। पल्मोनरी टीबी 50-60 साल की आयु के पुरुषों को प्रभावित करता है। गत 40 वर्षों में टीबी के लिए केवल दो नई दवाओं का आविष्कार किया गया। टीबी और एमडीआर टीबी में वृद्धि के मुख्य कारण हैं कुपोषण, शराब, धूमपान, इनडोरआउटडोर प्रदूषण, अत्यधिक भीड़भाड़ और व्यावसायिक स्वास्थ्य खतरे। बेडाकुइलिन नामक नई दवा अफ्रीका में मनुष्यों पर जांची जा चुकी है, अब भारत को भी इस दवा का इस्तेमाल करने की सशर्त अनुमति मिल गई है। यह दवा एमडीआर टीबी के लिए एक बहुत अच्छी उम्मीद है और भविष्य में वास्तव में एक वरदान हो सकती है। (एजेंसी)

सीएमएफआरआई बना रही थाइरॉइड की दवा

मधुमेह, गठिया और कोलेस्ट्राल की दवा बनाने के बाद सीएमएफआरआई थाइरॉइड की दवा विकसित कर रही है

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च्चि स्थित केंद्रीय समुद्री मत्स्य पालन अनुसंधान संस्थान (सीएमएफआरआई) का कहना है कि वह थाइरॉइड (घेंघा) की गड़बड़ी का इलाज करने के लिए जल्द ही

दवा बाजार में लाने की तैयारी कर रहा है। यह दवा समुद्र से निकले उत्पाद से निर्मित होगी। सीएमएफआरआई के निदेशक गोपालकृष्णन ने कहा,दवा का क्लिनिकल परीक्षण अंतिम चरण

में है। परीक्षण संपन्न होने के बाद इस उत्पाद को बाजार में उपलब्ध कराया जाएगा। संस्थान इसकी तैयारियों में जुटा है। गोपालकृष्णन ने संस्थान द्वारा युवा शोधकर्ताओं को प्रशिक्षित करने के लिए आयोजित 21 दिवसीय शीतकालीन विद्यालय के समापन अवसर पर कहा, सीएमएफआरआई प्राकृतिक समुद्री उत्पादों के व्यावसायीकरण के लिए कई कंपनियों से बात कर रहा है। हमारी कोशिश है कि यहां की प्रयोगशालाओं में विकसित उत्पादों को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके। उन्होंने यह भी कहा कि संस्थान जल्द ही समुद्र जीवों के उपयोग से सौंदर्य प्रसाधन सामग्री बनाने की तैयारी में है। उन्होंने बताया कि समुद्री जीवों में कई तरह के पदार्थ मिलते हैं जिनका इस्तेमाल सौंदर्य प्रसाधन सामग्री बनाने में हो

सकता है। संस्थान ने इस बारे में काफी अध्ययन किया है। उम्मीद है कि आने वाले कुछ वर्षों में यह भी बाजार में उपलब्ध होगा। गोपालकृष्णन ने बताया कि सीएमएफआरआई पहले से ही मधुमेह, गठिया और कोलेस्ट्राल के इलाज के लिए समुद्री शैवाल आदि से दवा बना चुका है। उनके मुताबिक समुद्री जीवों से बने उत्पादों की मांग लगातार बढ़ रही है, क्योंकि इनसे लोगों को फायदा हो रहा है। इससे उनका यकीन भी बढ़ रहा है। यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में दवा के क्षेत्र में समुद्री अवयवों पर लगातार खोज हुई हैं। चूंकि समुद्री अवयव प्राकृतिक होते हैं, इसीलिए सेहत पर उनका विपरित असर न के बराबर होता है। उन्होंने कहा कि सीएमएफआरआई समुद्री जीवों पर शोध करने वाला भारत का प्रमुख अनुसंधान संस्थान है। यह बायो समुद्री जीवों से बायो सक्रिय अणु की खोज में काफी काम करा है। उन्होंने यह भी कहा कि संस्थान द्वारा विकसित चार खाद्य पदार्थों की बाजार में जबरदस्त मांग है। (एजेंसी)


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कही-अनकही

कश्मीरियों के चेहरों पर मुस्कान लाने की कोशिश

घाटी में घिरे अवसाद के घने व काले बादलों के बीच हंसी की फुहार सबके लिए जरुरी है

शेख कयूम

श्मीर में हिंसा शुरू होने बाद जिन गलियों में आज नारों व गोलियों की गूंज सुनाई देती है, कभी वहां हंसी के हंसगुल्ले छूटते थे। और, इसकी वजह थे कश्मीर के चार्ली चैपलिन नाम से मशहूर नजीर जोश जिनके दूरदर्शन पर आते ही कश्मीरी घरों में हंसी की फुलझड़ियां छूटती थीं। चेहरे के हाव-भाव में घबराहट, गली के जोकर जैसे और चाल-ढाल में चैपलिन जैसे जोश पूरी घाटी को गुदगुदाते थे। टकराव के माहौल में पले बढ़े आज के युवा रोज हिंसा-प्रतिहिंसा देख रहे हैं, वहां कश्मीर के 67 वर्षीय कॉमेडी किंग का कहना है कि कश्मीरियों के बुझे चेहरों पर मुस्कान व हंसी लाने का एकमात्र जरिया हास्य-विनोद है। कवि, लेखक, निर्देशक और अभिनेता जोश यहां हर घर में 'जूम जर्मन', 'अहेड रजा' और कई अन्य नामों से चर्चित हैं जो कई टीवी धारावाहिकों में उनके किरदारों के नाम रहे हैं। वह नियमित रूप से स्थानीय दूरदर्शन पर हास्य धारावाहिक लेकर आते थे, जिसे कश्मीरी बहुत पसंद करते थे। लेकिन, 1990 में जब अलगाववादी हिंसा कश्मीर में भड़क उठी तो उनका कार्यक्रम बंद हो गया। हालांकि, उन्हें सीधे-सीधे कोई धमकी नहीं मिली, लेकिन घाटी में हिंसा में हास्य विनोद व व्यंग्य के लिए जगह नहीं बची और उनके पास प्रायोजक नहीं रहे। जोश का मानना है कि कश्मीरी अवाम कई सामाजिक व मनोवैज्ञानिक समस्याओं के दौर से गुजर रही है, जिसका इलाज सिर्फ दवाइयों से नहीं हो सकता है। जोश ने कहा कि यहां लोग

तनावमुक्त होना चाहते हैं और हास्य-विनोद और व्यंग्य इसके लिए बेहतर जरिया है। उन्होंने एक घटना के बारे में बताया जिसमें एक परिवार ने अपनी अवसादग्रस्त मां को तनाव मुक्त करने के लिए उनको धन्यवाद दिया था। उन्होंने बताया कि एक युवक ने मुझे बताया कि कॉमेडी धारावाहिक 'हजार दास्तान' की एक कड़ी को देखकर उनकी मां के चेहरे पर काफी समय के बाद मुस्कान आई। उन्होंने कहा, "लड़के ने बताया कि महीनों अवसादग्रस्त रहने के बाद उसकी मां के हंसने के बारे में जब मनोचिकित्सक को मालूम हुआ तो उन्होंने कॉमेडी धारावाहिक की और कड़ियां दिखाने की सलाह दी। इससे वह पूरी तरह ठीक हो गईं।" जोश को लगता है कि जहां कर्फ्यू, बंद और गलियों में हिंसा कोई असाधारण घटना नहीं, बल्कि आम बात हो वहां लोगों का मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए उनके जीवने में थोड़े हास्य-विनोद की जरूरत होती है।

विभिन्न अस्पतालों में आने वाले सत्तर फीसदी मरीज अवसाद व तनाव से ग्रस्त हैं। कश्मीर में मनोरंजन का कोई जरिया नहीं है। सिनेमा हाल बंद हो चुके हैं। यहां अन्य राज्यों की तरह कोई स्थानीय फिल्म उद्योग नहीं है

लेकिन, घाटी में हिंसा बढ़ जाने के बाद नजीर जोश के सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्य पर आधारित टीवी धारावाहिकों के लिए कोई जगह नहीं बची। मध्य कश्मीर के बडगाम जिला स्थित अपने घर के बाहर बादलों को एकटक निगाहों से निहारते हुए जोश ने बताया कि सामाजिक व्यंग्य पर आधारित उनका अंतिम धारावाहिक ‘जूम जर्मन’ 1989 में बना था, लेकिन कश्मीर में हिंसा के हालात पैदा होने के बाद यह 25 कड़ियांे से ज्यादा नहीं चल पाया। जाड़े के सूर्य की क्षीण किरणें घने बादलों के बीच राह बनाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन बादल उन्हें धरती तक पहुंचने के उनके मार्ग में बाधक बनकर खड़े हैं। इसे देखते हुए उन्होंने कहा, "ऐसे ही वर्तमान हालात हैं। आप जहां भी जाएंगे आपको अवसाद के घने व काले बादल मिलेंगे। विभिन्न अस्पतालों में आने वाले सत्तर फीसदी मरीज अवसाद व तनाव से ग्रस्त हैं। कश्मीर में मनोरंजन का कोई जरिया नहीं है। सिनेमा हाल बंद हो चुके हैं। यहां अन्य राज्यों की तरह कोई स्थानीय फिल्म उद्योग नहीं है।" जोश ने बताया, "कश्मीर में सिर्फ एक टीवी स्टेशन है और वहां भी मनोरंजन के कार्यक्रम शुरू करने के लिए कुछ नहीं हो रहा है, जिससे लोगों को अपनी जिंदगी के तनाव को भुलाकर हंसने का बहाना मिले।" उन्होंने उन दिनों को याद किया जब कश्मीरी उत्सुकता से साप्ताहिक टीवी नाटक का इंतजार करते थे। जोश ने बताया कि मैं कुछ स्थानीय परिवारों को जानता हूं जहां महिलाओं ने अपने जेवरात बेचकर टीवी खरीदा था, ताकि वे मेरा धारावाहिक ‘हजार दास्तान’ देख पाएं। इस धारवाहिक की 52 कड़ियां 1985 से लेकर 1987 के बीच स्थानीय दूरदर्शन चैनल पर चली थीं।" यह धारावाहिक प्रदेश की सत्ता पर काबिज लोगों के ऊपर राजनीतिक व्यंग्य पर आधारित था, जिसमें लोगों की समस्याओं के प्रति उनकी बेरुखी व लापरवाही का चित्रण किया गया था। उन्होंने बताया, "कुछ स्थानीय नेता धारावाहिक की

खास बातें मौजूदा हालात से दुखी हैं घाटी के चार्ली चैपलिन नजीर जोश नजीर के धारावहिक का पूरी घाटी करती थी इंतजार ‘हजार दास्तान’ देखने के लिए कई लोगों ने जेवरात बेच खरीदा टीवी लोकप्रियता से क्षुब्ध थे। उन्होंने दिल्ली जाकर केंद्रीय नेतृत्व से शिकायत की कि इस धारावाहिक को लेकर उनकी स्थिति असहज बन गई है।" जोश ने अपने बीते दिनों को याद करते हुए बताया, "शिकायत होने के बाद हर कड़ी को पहले पूर्वावलोकन के लिए दिल्ली भेजा जाता था, उसके साथ कश्मीरी अनुवादक भी होते थे। समीक्षा समिति ने राजनीतिक व सामाजिक व्यंग्य को सही ठहराया और उसे प्रोत्साहन देने की बात कही।" जोश के पेशेवर जीवन की शुरुआत स्थानीय रंगकर्म से हुई। उन्होंने बताया, "आरंभ में हम गांव और जिला स्तर पर नाटक खेलते थे। मैंने 1968 में श्रीनगर के टैगोर हॉल में एक नाटक खेला था जहां प्रदेश संस्कृति अकादमी की ओर से नाट्य महोत्सव का आयोजन किया गया था।" उन्होंने 1973 में टेलीविजन के लिए 'हाऐर केकर' नाटक लिखा। इसकी सफलता से वह उत्साहित हुए और कश्मीर में 1989 में मनोरंजन व हास्य कार्यक्रमों पर रोक लगाने तक लगातार हास्य धारवाहिक लिखते रहे। हालांकि, वह हालात के आगे पूरी तरह से हतोत्साहित नहीं हुए हैं। वह कहते हैं कि प्रदेश और केंद्र सरकार की ओर से उनके कार्य को समर्थन मिले तो कश्मीर में अब भी हास्य व्यंग्य के कार्यक्रम दोबारा शुरू किए जा सकते हैं। जोश ने कहा, "हमें कम से कम निर्माण लागत की जरूरत है, ताकि अतीत की गरिमा फिर से हासिल हो। मुझे आशा है कि निकट भविष्य में बेहतर समझ बनेगी और मैं फिर कश्मीरियों को टीवी धारावाहिकों के जरिये हंसाकर उनको रोजरोज के तनाव से मुक्त कर सकूंगा।" वह मानते हैं कि स्थानीय युवाओं में काफी प्रतिभा है। उन्होंने कहा, "नई पीढ़ी के इन लड़के व लड़कियों को अभिनय व निर्देशन में कठिन प्रशिक्षण की जरूरत है ताकि यहां रंगकर्म और टीवी धारावाहिक का लोप न हो।"


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सा​िहत्य

कहानी

कविता

महात्मा की सीख

मेहनत

मेहनत से घबराकर जिसने अपनी जान बचाई है। सच मानो तुम प्यारे बच्चों उसने मुंह की खाई है। मेहनत करना ही जीवन है इससे ही मिलती सफलता। छोड़ो व्यर्थ के सारे झंझट जिनसे चरित्र बिगड़ता। सत्य प्रेम और परिश्रम का डगर हमें अपनाना है। मेहनत से अपनी मंजिल पर आगे कदम बढाना है। श्रम से ही तकदीर बदलती और बदलता चोला है। बड़े-बड़े साधु संतों ने भी तो यही सब बोला है।

खुश रहने का राज

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

कबार एक महात्मा ने अपने शिष्यों से अनुरोध किया कि वे कल से प्रवचन में आते समय अपने साथ एक थैली में बड़ा आलू भर कर लाएं। उन आलुओं पर उस व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिए जिनसे वे ईर्ष्या करते हैं। जो व्यक्ति जितने व्यक्तियों से घृणा करता हो, वह उतने आलू लेकर आए। अगले दिन सभी लोग आलू लेकर आए, किसी पास चार आलू थे, किसी के पास छः या आठ। प्रत्येक आलू पर उस व्यक्ति का नाम लिखा था जिससे वे नफरत करते थे। अब महात्मा जी ने कहा कि, अगले सात दिनों तक ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें, जहां भी जाएं, खाते-पीते, सोते-जागते, ये आलू हमेशा अपने साथ रखें। शिष्यों को कुछ समझ में नहीं आया कि महात्मा जी क्या चाहते हैं, लेकिन महात्मा के आदेश का पालन उन्होंने अक्षरशः किया। दो-तीन दिनों के बाद ही शिष्यों ने आपस में एक दूसरे से शिकायत करना शुरू किया, जिनके आलू ज्यादा थे, वे बड़े कष्ट में थे। जैसे-तैसे उन्होंने सात दिन बिताए। अंत में

क समय की बात है, एक गांव में महान ऋषि रहते थे। लोग उनके पास अपनी कठिनाईयां लेकर आते थे और ऋषि उनका मार्ग दर्शन करते थे। एक दिन एक व्यक्ति, ऋषि के पास आया और ऋषि से एक प्रश्न पूछा। उसने ऋषि से पूछा कि “गुरुदेव मैं यह जानना चाहता हूं कि हमेशा खुश रहने का राज क्या है? ऋषि ने उससे कहा कि तुम मेरे साथ जंगल में चलो, मैं तुम्हे खुश रहने का राज बताता

शिष्यों ने महात्मा की शरण ली। महात्मा ने कहा, अब अपने-अपने आलू की थैलियां निकाल कर रख दें, शिष्यों ने चैन की सांस ली। महात्मा जी ने पूछा – विगत सात दिनों का अनुभव कैसा रहा ? शिष्यों ने महात्मा से अपनी आप बीती सुनाई, अपने कष्टों का विवरण दिया, आलुओं की बदबू से होनेवाली परेशानी के बारे में बताया, सभी ने कहा कि अब बड़ा हल्का महसूस हो रहा है... महात्मा ने कहा – यह अनुभव मैंने आपको एक शिक्षा देने के लिए दिया है... जब मात्र सात दिनों में ही आपको ये आलू बोझ लगने लगे, तब सोचिए कि आप जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या या नफरत करते हैं, उनका कितना बोझ आपके मन पर होता होगा, और वह बोझ आप लोग तमाम जिंदगी ढोते रहते हैं। सोचिए कि आपके मन और दिमाग की इस ईर्ष्या के बोझ से क्या हालत होती होगी ? यह ईर्ष्या तुम्हारे मन पर अनावश्यक बोझ डालती है, उनके कारण तुम्हारे मन में भी बदबू भर जाती है, ठीक उन आलुओं की तरह... इसीलिए अपने मन से इन भावनाओं को निकाल दो,

कहानी का सबक यदि आप किसी से प्यार नहीं कर सकते तो कम से कम नफरत और ईर्ष्या मत कीजिए, तभी आपका मन स्वच्छ, निर्मल और हल्का बना रहेगा, वरना जीवन भर इनको ढोते-ढोते आपका मन और आपकी मानसिकता दोनों बीमार हो जाएंगी।

कविता

नए दौर का संस्कार तेरी बुराइयों को हर अखबार कहता है और तू मेरे गांव को गंवार कहता है। ऐ शहर मुझे तेरी औकात पता है तू चुल्लू भर पानी को भी वाटर पार्क कहता है। थक गया है हर शख्स काम करते करते तू इसे अमीरी का बाजार कहता है। गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास तेरी सारी फुर्सत तेरा इतवार कहता है। मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहे हैं तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है। जिनकी सेवा में खपा देते थे जीवन सारा तू उन मां बाप को अब भार कहता है। वो मिलने आते थे तो कलेजा साथ लाते थे तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है। बड़े-बड़े मसले हल करती थी पंचायतें तू अंधी भ्रष्ट दलीलों को दरबार कहता है। बैठ जाते थे अपने पराए सब बैलगाड़ी में पूरा परिवार भी न बैठ पाए उसे तू कार कहता है। अब ‘बच्चे’ भी बड़ों का ‘अदब’ भूल बैठे हैं तू इस ‘नए दौर’ को ‘संस्कार’ कहता है।

कहानी हूं।

ऐसा कहकर ऋषि उस व्यक्ति को साथ लेकर जंगल की तरफ चलने लगे। रास्ते में ऋषि ने एक बड़ा सा पत्थर उठाया और उस व्यक्ति से कहा कि इसे पकड़ो और चलो। उसने पत्थर हाथ में ले लिया और ऋषि के साथ साथ जंगल की तरफ चलने लगा। कुछ समय बाद उस व्यक्ति के हाथ में दर्द होने लगा, लेकिन वह चुप रहा और चलता रहा। लेकिन जब चलते हुए बहुत समय बीत गया और उस व्यक्ति से दर्द सहा नहीं गया। उसने ऋषि से कहा कि उसे दर्द हो रहा है। तो ऋषि ने कहा कि इस पत्थर को नीचे रख दो। पत्थर को नीचे रखने पर उस व्यक्ति को बड़ी राहत महसूस हई। तभी ऋषि ने कहा – “यही है खुश

रहने का राज। व्यक्ति ने कहा – गुरुवर मैं समझा नहीं। तो ऋषि ने कहा- जिस तरह इस पत्थर को एक मिनट तक हाथ में रखने पर थोडा सा दर्द होता है और अगर इसे एक घंटे तक हाथ में रखें तो थोड़ा ज्यादा दर्द होता है और अगर इसे और ज्यादा समय तक उठाए रखेंगे तो दर्द बढ़ता जाएगा। उसी तरह दुखों के बोझ को जितने ज्यादा समय तक उठाए रखेंगे हम उतने ही ज्यादा दु:खी और निराश रहेंगे। यह हम पर निर्भर करता है कि हम दुखों के बोझ को एक मिनट तक उठाए रखते है या जिंदगी भर। अगर तुम खुश रहना चाहते हो तो दु:ख रूपी पत्थर को जल्दी से जल्दी नीचे रखना सीख लो और हो सके तो उसे उठाओ ही नहीं।


26 फरवरी - 04 मार्च 2018

आओ हंसें

महिलाओं की तारीफ संता- हम महिलाओं को जो कुछ देते हैं,उसके बदले में वे हमें उससे ज्यादा लौटाती हैं। बंता- भाई, वह कैसे? संता- यदि आप उन्हें मकान दें, तो वह आपको घर देती हैं। यदि आप उन्हें अनाज दें,तो वे आपको भोजन देती हैं। यदि आप उन्हें मुस्कराहट दें,तो वे आपको अपना दिल दे देती हैं। बंता- ...तब तो यदि हम उन्हें कोई छोटी-मोटी तकलीफ दें,तो हमें एक बहुत बड़ी मुसीबत के लिए तैयार रहना चाहिए।

सु

जीवन मंत्र

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महत्वपूर्ण दिवस • 26 फरवरी वीर सावरकर स्मृति दिवस • 27 फरवरी चंद्रशेखर आजाद शहीद दिवस • 28 फरवरी राष्ट्रीय विज्ञान दिवस,

सुडोकू-10 का हल

कमला नेहरू स्मृति दिवस, राजेंद्र प्रसाद स्मृति दिवस

बाएं से दाएं

वर्ग पहेली - 11

वर्ग पहेली-10 का हल

1. अत्यधिक, बहुत ही (4) 4. दृढ़ता (4) 7. कीड़ों को मारने वाला (5) 8. आभिजात्य (3) 9. पन्ना (रत्न) (4) 11. पर्यन्त (2) 13. आवाज या गले में खरखराहट (3) 14. जलेबी आदि बनाने की छिछली कढ़ाई (2) 17. अभिनेता (4) 19. एक नदी (3) 20. तनाव में फँसा हुआ (5) 22. कष्ट दूर करने वाला समाधान करने वाला (4) 23. किसान (4)

ऊपर से नीचे

डोकू -11

शिक्षक और सड़क दोनों एक जैसे होते हैं। खुद जहां हैं, वहीं रहते हैं पर दूसरों को मंजिल तक पहुंचा देते हैं।

मच्छरदानी में आदमी एक मच्छर परेशान बैठा था। दूसरे ने पूछा, ‘क्या हुआ?’ पहला बोला, ‘यार गजब हो रहा है। चूहेदानी में चूहा, साबुनदानी में साबुन, मगर मच्छरदानी में आदमी सो रहा है।’

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इंद्रधनुष

1. स्वच्छंद (4) 2. अवश्यमेव (4) 3. किनारा (नदी) (2) 4. ऊहापोह (5) 5. पाँव के पंजे से या पर लगने वाला आधात (3) 6. दम, शक्ति (3) 10. कथा (3) 11. तलहटी (3) 12. हिंसक (3) 13. खतरे वाला (5) 15. हृदय (4) 16. भगवान विष्णु (4) 17. पृथ्वी (3) 18.भयभीत, व्याकुल (3) 21. ब्रह्मांड में घूमते हुए पिंड (2)

कार्टून ः धीर


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न्यूजमेकर

26 फरवरी - 04 मार्च 2018

अनाम हीरो करण गोयल

राज शाह

श ल क ा ल ा व े न ा दूध बच

व्हाइट हाउस में शाह

पांच दोस्तों ने शिवरात्रि पर 100 लीटर दूध वेस्ट होने से बचाया और गरीब बच्चों को पिलाया

भारतीय मूल के राज शाह ने पहली बार ह्वाइट हाउस की नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया

भा

रतीय मूल की प्रतिभाएं विभिन्न देशों की सरकारों और उनकी प्रशासनिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभा रही हैं। ऐसी ही एक प्रतिभा हैं राज शाह। अमेरिका में भारतीय मूल के राज शाह ने ह्वाइट हाउस के प्रवक्ता के तौर पर अपने काम की शुरुआत कर दी है। उन्होंने पहली बार ह्वाइट हाउस की नियमित प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया। ऐसा करने वाले वह पहले भारतवंशी बन गए हैं। 33 वर्षीय शाह ह्वाइट हाउस के प्रमुख उप प्रेस सचिव हैं। ह्वाइट हाउस के प्रेस विभाग में भारतीय मूल के किसी व्यक्ति के लिए यह सर्वोच्च पद है। प्रेस ब्रीफिंग के लिए शाह के पहले संबोधन से पहले

उनकी प्रमुख सारा सैंडर्स ने कहा कि वे ट्रंप प्रशासन के सर्वश्रेष्ठ और प्रतिभावान अधिकारियों में हैं। सैंडर्स ह्वाइट हाउस की प्रेस सचिव हैं। शाह को पिछले वर्ष सितंबर में प्रमुख उप प्रेस सचिव नियुक्त किया गया था। उन्होंने पिछले साल नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति के विमान एयर फोर्स वन में भी प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। तब वह राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ मिसौरी जा रहे थे। गुजराती माता-पिता की संतान शाह का जन्म वर्ष 1984 में हुआ था। उनके माता-पिता पिछली सदी के सातवें दशक में शिकागो चले गए थे। बाद में उनका परिवार कनेक्टिकट में बस गया था। वहीं शाह का जन्म हुआ था।

जन्नत

स्वच्छता की 'जन्नत'

कश्मीर में पांच वर्षीय जन्नत की स्वच्छता मुहिम के कायल हैं पीएम नरेंद्र मोदी

श्री

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

नगर के राजबाग स्थित लिंटन हॉल स्कूल में अपर केजी में पढ़ने वाली जन्नत का मकसद धरती पर जन्नत कहे जाने वाले कश्मीर को साफ और स्वच्छ बनाना है। जन्नत अक्सर अपने पिता तारिक अहमद पटलू के साथ डल झील की सफाई करने निकल जाती है। झील में उसे जहां भी कचरा नजर आता है, वो उसे एक जाले के साथ उठाकर अपने शिकारे पर रखती है। जन्नत सारा कचरा जमा करती है और फिर उसके पिता इसे नगर निगम तक पहुंचा देते हैं। जन्नत ने स्वच्छता का यह पाठ अपने पिता से सीखा है और वह हर भारतीय को स्वच्छता का पैगाम देना चाहती है। सफाई के

प्रति जन्नत के जज्बे को पीएम मोदी ने भी सराहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट कर जन्नत की तारीफ की। उन्होंने लिखा, 'इस बच्ची की बातें सुनकर आपकी सुबह और अच्छी हो जाएगी। स्वच्छता के प्रति इसका जज्बा देखने लायक है।' जन्नत का मानना है कि साफ-सफाई की जिम्मेदारी हर किसी की है। देश भर में उसकी चर्चा जहां देश के सबसे छोटे स्वच्छता मॉडल के तौर पर हो रही है, वहीं डल झील को साफ करते हुए उसकी तस्वीरें इतनी प्यारी हैं कि लोग सोशल मीडिया में उसकी तस्वीरें स्वच्छता के नए-नए पैगामों के साथ शेयर कर रहे हैं। जन्नत के पिता तारिक अहमद पटलू अपनी बेटी की इस लोकप्रियता को लेकर काफी खुश हैं। उन्हें यह भी लगता है कि जन्नत के बहाने लोगों को न सिर्फ स्वच्छता का प्रेरक संदेश मिल रहा है, बल्कि उनकी कश्मीर के बारे में भी देश-दुनिया को अलग नजरिए से सोचने के लिए बाध्य कर रही है।

मे

रठ निवासी करण गोयल और उसके दोस्तों ने मिलकर एक ऐसा डिवाइस तैयार किया है, जिससे भगवान को अर्पित किया जाने वाला दूध बर्बाद होने से बच सकता हैं। इन पांच दोस्तों ने अपनी इस तकनीक की मदद से महाशिवरात्रि पर करीब 100 लीटर दूध बर्बाद होने से बचा लिया हैं। करण का कहना है कि वह हमेशा से शिव मंदिर जाने में हिचकता था। उससे वहां होने वाली दूध की बर्बादी देखी नहीं जाती थी। इसी बात की चर्चा उसने अपने चार दोस्तों से की। फिर सभी ने मिलकर एक दिलचस्प डिवाइस तैयार किया। उन्होंने अपने डिवाइस को टेस्ट करने के लिए मेरठ के एक मंदिर को चुना। यह डिवाइस एक खास प्रकार से बनाया गया धातु का कलश है। जिससे इसमें स्टोर होने वाला दूध फटे या खराब न हो। इस कलश को स्टील के ही बने एक ट्राईपोड पर शिवलिंग के ऊपर लगाया जाता है। इस कलश में दो छेद हैं। पहले छेद से चढ़ाया गया दूध शिवलिंग पर गिरता है जबकि दूसरे छेद से बचा हुआ दूध एक अलग बर्तन में एकत्रित होता है। कलश के अंदर 7 लीटर दूध समाने की जगह हैं। ऐसे में जब ये कलश पूरा भर जाता हैं तो इसमें से एक लीटर दूध शिवलिंग पर गिरता है, जबकि बाकी का 6 लीटर दूध दूसरे छेद से होता हुआ एक अलग बर्तन में एकत्रित हो जाता है। इस तरह वे इस बार शिवरात्रि पर शुद्ध 100 लीटर दूध बचाने में कामयाब रहे। इस बचाए गए दूध को सत्यकाम मानव सेवा समिति को भेज दिया गया। वहां इसे अनाथ और एचआईवी पॉजिटिव बच्चों को पिलाया गया। इन लोगों ने इस डिवाइस को मंदिर में ही रहने दिया और मंदिर वालों से यह वादा लिया कि वे लोग हर साेमवार बचे हुए दूध को इन गरीब अनाथ बच्चों को भिजवा देंगे।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 11


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