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दुनिया की छत पर स्वच्छता
'मैं वापस जाना चाहती 18 हूं, लेकिन अपने बच्चों के पास नहीं'
फोटो फीचर 28
सुलभ : सेवा
जेंडर के 48 वर्ष
पुस्तक अंश
चाय पर चर्चा
sulabhswachhbharat.com
वर्ष-2 | अंक-13 | 12 - 18 मार्च 2018
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
मौलाना वहीदुद्दीन खान
विश्व शांति का आध्यात्मिक संवाद मौलाना वहीदुद्दीन खान आज दुनिया के उन कुछ लोगों में शामिल हैं, जिन्हें लगता है कि आध्यात्मिक ज्ञान हमारे समय की सबसे बड़ी दरकार का नाम है। एक ऐसी दरकार जो हमें आत्मिक आनंद और हमारे बाहर की दुनिया को प्रेम और करुणा से भर देगा
मौ
एसएसबी ब्यूरो
लाना वहीदुद्दीन खान का शुमार उन कुछ भारतीय उलेमाओं में होता है, जो बहुलतावाद और अंतर-सामुदायिक संबंधों पर सबसे ज्यादा जोर देते हैं। इस्लाम को लेकर उनकी समझ जहां एक स्तर पर खासी अकादमिक है, वहीं वे विवादों और नकारात्मक रूढ़ियों से आगे धर्म और उससे जुड़ी परंपराओं की व्याख्या करते हैं, उन्हें माने जाने की वकालत करते हैं। उन्होंने खास तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक-सांस्कृतिक टकरावों के कारण पैदा हुई दूरियों को यह कहते हुए पाटने की कोशिश की है, इन दोनों महान धर्मों के बीच सैकड़ों वर्षों से मेल-मिलाप और समन्वय रहा है। इन दोनों ही
खास बातें मौलाना को इस्लाम के साथ अन्य धर्मों का भी तात्विक ज्ञान है बहुलतावाद और अंतर-सामुदायिक संबंधों पर सबसे ज्यादा जोर मौलाना के प्रशंसकों में विल्फ्रेड कांटवेल स्मिथ शामिल
02 मौलाना वहीदुद्दीन खान की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि उन्हें इस्लाम के साथ अन्य धर्मों का भी तात्विक ज्ञान है। इसीलिए उनके इस्लाम की व्याख्या न तो वेदांत विरोधी है और न ही वे क्रिश्चयन, जैन या बौद्ध धर्म के समानांतर कोई अलग आध्यात्मिक लकीर खींचते हैं धर्मों के मानने वालों ने एक ऐसी साझी सांस्कृतिक विरासत को जन्म दिया है, जिस पर आज भी भारतीय गर्व करते हैं और जिस कारण भारत का पूरी दुनिया में सम्मान है।
धर्म का तात्विक ज्ञान
मौलाना वहीदुद्दीन खान की एक बड़ी विशेषता यह भी है कि उन्हें इस्लाम के साथ अन्य धर्मों का भी तात्विक ज्ञान है। इसीलिए उनके इस्लाम की व्याख्या न तो वेदांत विरोधी है और न ही वे ईसाई, जैन या बौद्ध धर्म के समानांतर कोई अलग आध्यात्मिक लकीर खींचते हैं। ऐसा इसीलिए भी है क्योंकि मौलाना वहीदुद्दीन खान एक धार्मिक गुरु से आगे एक प्रगतिशील आध्यात्मिक गुरु हैं। धर्म और अध्यात्म को लेकर उनकी समझ शांति और संवाद की सतत प्रक्रिया पर आधारित है।
शांति के लिए धर्म
पहले भारत में और फिर भारत से बाहर उनकी
आवरण कथा
12 - 18 मार्च 2018
मुस्लिम सार्वभौमिक सिद्धांत
मौलाना वहीदुद्दीन खान की स्पष्ट राय है कि मुस्लिम अपने पुनरुद्धार के लिए शांतिपूर्ण योजना बनाने में नाकाम रहे और मूर्खतापूर्ण ढ़ंग से हिंसा के जाल में फंस गए हैं। जब उन्हें पूरी तरह इस सच का एहसास होगा, केवल तभी मुस्लिमों के लिए एक नया भविष्य बन सकता है मौलाना वहीदुद्दीन खान
तो उस समय सैयद अबुल आला मौदूदी और उनकी पार्टी ‘पाकिस्तान के इस्लामीकरण’ के लिए सक्रिय थी। इस्लामी क्रांति के अग्रणी और पाकिस्तान के जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक के बारे में सैयद वली रजा नस्र लिखते हैं, ‘1962 में लाहौर की एक यात्रा के दौरान जनरल अयूब ने राज्यपाल की हवेली में मौदूदी को आमंत्रित किया और उन्हें यह सलाह दी कि वे राजनीति राजनेताओं के लिए छोड़ दें और इसके बदले
मन को संतुष्ट नहीं कर सके। उन्होंने प्रस्ताव और वकील दोनों को खारिज कर दिया।’ अयूब ह्मांड में सभी चीजें एक-दूसरे पर आश्रित खान का यह प्रस्ताव सैयद अबुल आला मौदूदी हैं। जो चीजें एक-दूसरे पर आश्रित हैं, वो के लिए सुनहरा मौका था। इस प्रस्ताव को एक-दूसरे से इतने करीबी रूप से जुड़ी हैं कि स्वीकार कर वो पाकिस्तान की पूरी शिक्षा को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उन्हें व्यवस्थित करने में सक्षम हो पाते और नई पीढ़ी एक-दूसरे की आवश्यकता होती है। ब्रह्मांड को ऐसी मानसिकता के लिए तैयार कर पाते जो संचालन का यह अन्योन्याश्रय नियम आमतौर पाकिस्तान के सुधार में काफी सहायक होती। पर मानव समाज पर भी लागू होता है। इसका लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और अर्थ यह है कि मानवों की दुनिया में महान चीजें एक महान अवसर से चूक गए। तभी हो सकती हैं जब कोई व्यक्ति किसी के मुस्लिम समुदाय जिस सबसे बड़ी परेशानी क्षेत्र में दखल दिए बिना अपनी भूमिका निभाए। जब मुस्लिम देशों में मुस्लिम कानून का सामना कर रही है, वो ये कि मुस्लिम वर्तमान में हम हर जगह मुस्लिम उग्रवाद को और प्रशासन है तो वहां भी उग्रवाद समुदाय अंतरराष्ट्रीय शिक्षा की दौड़ में पीछे देखते हैं। मुस्लिम देशों में भी कोई अपवाद छूट चुका है। इस पिछड़ेपन के जिम्मेदार पूरी नहीं है। जब मुस्लिम देशों में मुस्लिम कानून देखने को क्यों मिलता है? वो इसीलिए, तरह से आज के मुस्लिम नेता हैं, जो मौकों और प्रशासन है तो वहां भी उग्रवाद देखने को क्योंकि इन देशों के मुस्लिम सार्वभौमिक को पहचानने में और समझदारी के साथ उन क्यों मिलता है? वो इसीलिए, क्योंकि इन देशों मौकों का लाभ उठाने में पूरी तरह से नाकाम सिद्धांत का पालन नहीं कर रहे हैं के मुस्लिम सार्वभौमिक सिद्धांत का पालन नहीं रहे। वर्तमान युग में मुस्लिम हिंसा के कृत्यों में कर रहे हैं। खुद को धार्मिक अध्ययनों के लिए समर्पित क्यों शामिल हैं? इसका केवल एक कारण है इस बात की स्पष्टता के लिए मैं एक मुस्लिम कर दें। प्रोत्साहन के लिए उन्होंने मौदूदी को और वह है आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में मुस्लिमों दुनिया का उदाहरण देना चाहूंगा: 1958 में जब भावलपुर इस्लामी विश्वविद्यालय के उपाध्यक्ष का पिछड़ापन। जनरल अयूब खान पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने, के पद का प्रस्ताव दिया। लेकिन वो मौदूदी के शैक्षिक पिछड़ेपन के कारण वो आधुनिक युग की प्रकृति की खोज में विफल रहे। आधुनिक युग इस्लाम के लिए एक सहायक कारक था, लेकिन उनके शैक्षणिक पिछड़ेपन के कारण मुस्लिम इस्लाम विरोधि कार्यों में लिप्त हैं। यही बुनियादी कारण है कि मुस्लिम अपने पुनरुद्धार के लिए शांतिपूर्ण योजना बनाने में नाकाम रहे और मूर्खतापूर्ण ढ़ंग से हिंसा के जाल में फंस गए हैं। जब उन्हें पूरी तरह इस सच का एहसास होगा, केवल तभी मुस्लिमों के लिए एक नया भविष्य बन सकता है।
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वैचारिक स्वीकृति का एक बड़ा कारण यही है कि वे हिंसा और अशांति के खिलाफ धर्म और उससे जुड़ी आस्था को एक सकारात्मक कार्रवाई के तौर पर चिह्नित करते हैं। उनकी इस दृष्टि का महत्व तब ज्यादा समझ में आता है, जब भारत सहित पूरी दुनिया में बीते कुछ दशकों में समाज से लेकर राजनीति तक धर्म को लेकर एक कट्टर सोच देखने को मिल रही है। मौलाना वहीदुद्दीन खान की नजर में ये दोनों ही बातें अज्ञान, पूर्वाग्रह और विद्वेष के कारण हैं। उनकी नजर में मानवता की दरकार हर दौर में एक ही रही है, इस दरकार की अाध्यात्मिक व्याख्या और दृष्टांत भले विभिन्न धर्मों में अलग-अलग दौर में अलग-अलग मिलें, पर ऐसा कभी नहीं रहा, जब धर्म-अध्यात्म को अशांति और हिंसा का सीधे-सीधे पोषक या सहचर ठहरा दिया जाए।
12 - 18 मार्च 2018
आवरण कथा
मौलाना वहीदुद्दीन खान
विख्यात इस्लामिक विद्वान और शांति दूत
बचपन से कुशाग्र
मौलाना वहीदुद्दीन खान का जन्म वर्ष 1925 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में हुआ। मौलाना ने मदरसे में अपनी आरंभिक पढ़ाई पूरी की। बचपन से उनके अंदर ज्ञान को लेकर एक अजीब पिपासा थी और इसके लिए वे कुछ भी करने को तत्पर रहते थे। ज्ञान की इस पिपासा में वे काफी कम उम्र से पुस्तकालयों में लंबा समय बिताने लगे थे। अपने परिवार के अन्य लोगों की तरह उन्होंने पाश्चात्य संस्थानों के बजाय सामान्य और पारंपरिक संस्थानों से तालीम हासिल की।
असामान्य और संघर्षमय बचपन
उनका बचपन इस कारण थोड़ा असामान्य और संघर्षमय रहा, क्योंकि जब वे मात्र चार वर्ष के थे तभी उनके सिर से उनके पिता (सूफी अब्दुल हमीद खान) का साया उठ गया। पिता की मृत्यु के बाद मौलाना वहीदुद्दीन का लालन-पालन उनकी मां जैबुनिसा खातून ने किया। चाचा सूफी अब्दुल हमीद खान ने भी उनके लालन-पालन में काफी सहयोग किया।
आध्यात्मिक ज्ञान
1944 में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने आत्म-शिक्षण के जरिए आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया। इस आत्म शिक्षण में वे जहां इस्लाम की शास्त्रीय व्याख्या से भली भांति परिचित हुए, वहीं उन्होंने इस्लाम और अध्यात्म से जुड़ी आधुनिक तात्विक समझ से भी खुद को लैस किया।
इस्लाम को लेकर नई समझ
उन्होंने अपने ज्ञान और अध्ययन के बाद इस बात पर जोर दिया कि मौजूदा दौर में इस्लाम को नए ज्ञान विवेक और नव-आधुनिक सरोकारों के साथ जोड़कर देखने-समझने की जरूरत है।
गांधीवादी प्रेरणा
स्वाधीनता संग्राम के साथ मौलाना का परिवार शुरुआती दिनों से जुड़ा था। युवा मौलाना ने भी इस संग्राम में एक निष्ठावान राष्ट्रवादी के
रूप में पूरा योगदान दिया। स्वाधीनता संग्राम के दिनों से ही उन्हें गांधी जी के अहिंसक जीवन मूल्य काफी प्रभावित करने लगे थे। अहिंसा और शांति को लेकर मौलाना के विचार और प्रयास जिस तरह के रहे, उस कारण उन्हें लोग गांधीवादी भी कहते हैं।
‘इस्लाम का आध्यात्मिक राजदूत’
वर्ष 2009 में प्रकाशित विश्व विख्यात पुस्तक ‘वर्ल्ड 500 मोस्ट इंफ्लूएंशियल मुस्लिम्स’ में मौलाना वहीउद्दीन खान को ‘दुनिया के लिए इस्लाम का आध्यात्मिक राजदूत’ बताया गया है। इसमें कहा गया है कि उनका दृष्टिकोण मुसलमानों और गैर-मुसलमानों में समान रूप से लोकप्रिय है।
वैश्विक स्वीकृति और सम्मान
विश्व शांति के लिए अपने अद्वितीय प्रयासों के लिए मौलाना वहीदुद्दीन खान को अब तक कई अंतरराष्ट्रीय-राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा जा चुका है। मौलाना वहीदुद्दीन को मिल चुके सम्मानों में डेमिर्गुस पीस इंटरनेशनल अवॉर्ड सबसे अहम है। यह सम्मान उन्हें सोवियत संघ के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचोव के हाथों मिला था। जनवरी 2000 में भारत का तीसरा सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें 2009 में राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार से भी नवाजा गया। मौलाना वहीदुद्दीन खान को 30 अप्रैल 2015 को यूएई के अाबू धाबी में सैयदियाना इमाम अल हसन इब्न अली शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
कुरान की आधुनिक व्याख्या
उन्होंने कुरान को सरल और समकालीन अंग्रेजी में अनुवाद किया है। इसके अलावा उन्होंने कुरान पर एक लंबी टिप्पणी भी लिखी है, जो इस्लामी दर्शन की सबसे नई और आधुनिक व्याख्या मानी जाती है। मौलाना वहीदुद्दीन खान ईटीवी उर्दू, जी सलाम, ब्रिज टीवी, आईटीवी, एआरआई डिजिटल, क्यू टीवी, आज टीवी आदि पर व्याख्यान देते रहते हैं। इसके अलावा देश विदेश में उनके व्याख्यान नियमित तौर पर आयोजित होते रहते हैं।
चर्चित पुस्तकें
पॉलिटिकल इंटरप्रटेशन अॉफ इस्लाम, कुरानिक विज्डम, द एज अॉफ पीस और इस्लाम एंड वर्ल्ड पीस (सभी अंग्रेजी) सत्य की खोज, पैगंबरे इस्लाम के महान साथी और पवित्र जीवन (सभी हिंदी) खलीज डायरी, शहादत, कयामत का अलार्म, इस्लाम क्या है और इजहारे दीन (सभी उर्दू)
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आवरण कथा
12 - 18 मार्च 2018
हीनता से मुक्ति
आत्महीनता हमारे दौर में सबसे बड़े मनोरोग का नाम है। मौलाना वहीदुद्दीन खान समझाते हैं कि अगर प्रकृति के नियम को समझ लिया जाए तो जीवन में कभी कोई तनाव नहीं होगा और हम कभी हीन भावना के शिकार नहीं होंगे
भावना एक निराधार हीनअवधारणा है। इस
धर्म का इतिहास
अलबत्ता मौलाना वहीदुद्दीन खान यह भी मानते हैं कि धर्म का अपना तात्विक इतिहास मानवता के इतिहास के साथ आगे बढ़ा है और समय के साथ उसने अपनी कई कमियों को दूर किया है, कई नई व्याख्याओं और समझ को आत्मसात किया है। खासतौर पर 20वीं सदी के उत्तरार्ध या यों कहें कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद धर्म और समाज का रिश्ता काफी प्रगतिशील और वैज्ञानिक आधारों पर तय होता गया है। इन आधारों पर खड़े आधुनिक इस्लाम या दूसरे धर्मों में अंध-आस्था से आगे तर्क, संवाद और विमर्श का लोकतांत्रिक स्पेस बढ़ा है। यह स्पेस आगे और बढ़े और धार्मिक आस्था शांतिपूर्ण और अहिंसक विश्व रचना का माध्यम बने, इस कोशिश में मौलाना वहीदुद्दीन खान बीते कई दशकों से प्रतिबद्ध भाव से लगे हैं।
मौलाना वहीदुद्दीन खान की नजर में ‘धर्म और अध्यात्म ज्ञान का मार्ग है। यह बात इस्लाम के साथ भी सच है। सह-अस्तित्ववाद की प्रेरणा इस्लामी दर्शन का बुनियादी आधार है। आधुनिक मुस्लिम समाज की प्रगति इस आधार पर ही मुमकिन है’
भावना का शिकार वह व्यक्ति होता है, जो आदर्श भावना की चाह में इसे अपने अंदर विकसित कर लेता है। लेकिन वास्तविकता यह है कि आदर्शवाद को कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इस संसार में आदर्शवाद का अस्तित्व केवल मन के उच्च स्तर पर है, जबकि वास्तविक जीवन में यह व्यवहारिकता में काम करता है। अगर आप इस सच का पता लगा लेते हैं तो आप तुरंत ही इस हीन भावना से खुद को मुक्त कर लेंगे। सामान्य तौर पर, मैं यह कह सकता हूं कि ज्यादातर लोग सोचते हैं कि उन्हें एक आदर्श जीवन चाहिए। एक औरत एक आदर्श पति और आदर्श परिवार चाहती है और एक पति की चाहत एक आदर्श पत्नी और परिवार की होती है, जो इस संसार में संभव नहीं है। अगर प्रकृति के नियम को समझ लिया जाए तो जीवन में कभी कोई तनाव नहीं होगा। मैंने अखबार में पढ़ा था कि शाहरूख खान जब अमेरिका की यात्रा कर रहे थे तो उन्हें एयरपोर्ट
पर दो घंटे तक रोका गया और चेक किया गया। लोगों ने इस बात पर शोर मचाया और कहा कि अमेरिकन को इसके लिए माफी मांगनी चाहिए। मैं सोचता हूं कि शाहरूख खान और बाकी अन्य लोगों को इस बात को इस तरह देखना चाहिए: यह केवल दो घंटे के लिए हुआ था, लेकिन जल्द ही वो दिन नजदीक आ रहा है जब सब कुछ के लिए मेरी भी जांच होगी। यह सब भविष्य में सबके लिए होगा, अगर ऐसा सोचते तो हम यह सब जल्द ही भूल जाते। यह इसीलिए होता
अगर आप परीक्षा में टॉप करते हैं तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आप जीवन में भी टॉप स्थान पर हों। अगर आप जीवन के सिद्धांत के प्रति जागरूक हैं, तो सफलता आपका अनुसरण जरूर करेगी
है, क्योंकि लोग एक नकारात्मक सबक सीखते हैं। एक सकारात्मक व्यक्ति ही ऐसी घटनाओं से एक सकारात्मक सबक सीख सकता है। हमें बताया जाता है कि बोर्ड परीक्षा छात्रों के लिए निर्णायक होते हैं, लेकिन डर और अनिश्चितता मुझे परेशान करती है। इन भावनाओं ने मुझे भविष्य के प्रति आशंकित भी कर दिया है। मेरे कुछ दोस्तों का कहना है कि अगर उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा तो वो आत्महत्या कर
लेंगे। मेरे अनुभव के अनुसार, इस तरह का कुछ भी जीवन में निर्णायक नहीं होता। जीवन में सबसे महत्वपूर्ण ईमानदारी और दृढ़ता होती है। मातापिता को बच्चों में इस भावना को बढ़ावा देना चाहिए। किसी परीक्षा में चुनाव होना अच्छा है, लेकिन केवल किसी शिक्षण संस्थान में प्रवेश पाने के लिए, भविष्य में एक अच्छा जीवन पाने के लिए यह जरूरी नहीं है। माता-पिता को अपने बच्चों को जीवन के सिद्धांतों के बारे में अवश्य शिक्षित करना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि उनके अंदर धैर्य, बुद्धिमत्ता और सामंजस्य जैसे गुणों का विकास हो। उन्हें बच्चों को यथार्थवादी सोच की महत्ता को समझने में मदद करनी चाहिए। उन्हें अवश्य सिखाना चाहिए कि असफलता से कैसे सीखें और यह जानें कि जीवन में सब कुछ पाना मायने नहीं रखता है। वास्तविक जीवन में कई ऐसी चीजें होती हैं, जो अकेले ही उपयोगी होती है। अगर आप परीक्षा में टॉप करते हैं तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि आप जीवन में भी टॉप स्थान पर हों। अगर आप जीवन के सिद्धांत के प्रति जागरूक हैं तो सफलता आपका अनुसरण जरूर करेगी। आपने बताया कि आपके दोस्त आत्महत्या के बारे में बात करते हैं, तो आप जान लें कि आत्महत्या कोई विकल्प नहीं है। अपनी क्षमताओं को समझें और फिर आपको महसूस होगा कि आत्महत्या करने के बारे में सोचना खुद को और निर्माता को कमतर आंकने के समान है।
भारत विभाजन
उनका जन्म 1925 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में हुआ। यानी उनकी जवान आंखों ने 1947 में धार्मिक आधार पर भारत को बंटते देखा था। भारतीय स्वाधीनता संग्राम की सबसे बड़ी खासियत यही मानी जाती है कि धर्म और समाज के आधार पर बंटे भारतीयों को उसने समान रूप से राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र की स्वाधीनता से जोड़ा। ऐसा रातोंरात नहीं हुआ। इससे पूर्व देश में धार्मिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण का महत्वपूर्ण दौर आया। पर स्वाधीन होते-होते देश धार्मिक दुराव और हिंसा के भारी चपेट में आ गया। भारतीय समाज में पैदा हुई इस मजहबी रंजिश को देखकर तब महात्मा गांधी ने कहा भी था कि भारतीय समाज अगर धार्मिक आधार पर इसी तरह बंटता-मरता रहा तो फिर स्वाधीन भारत भले और कुछ भी हासिल कर ले पर वह मानवता से बहुत दूर चला जाएगा। आज जब हम मौलाना वहीदुद्दीन खान को पढ़ते-सुनते हैं, तो यह बात ज्यादा गहराई से समझ में आती है। वे कहते हैं कि अंग्रेजी
उपनिवेशवाद के चंगुल से भारत जरूर बाहर निकल आया है, पर कम से कम हमारी सामाजिक-धार्मिक सोच पर यह उपनिवेशवाद आज भी कई मामलों
में प्रभावी दिखता है। इस प्रभाव को वे खासतौर पर हिंदू-मुसलमान के बीच बढ़ी दूरी और हिंसक टकराव के मद्देनजर रेखांकित करते हैं।
12 - 18 मार्च 2018
आवरण कथा
हिटलर इतिहास का सबसे बड़ा लड़ाकू योद्धा था, लेकिन वह पूरी तरह से असफल रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उसने कहा, ‘इस युद्ध के बाद कोई भी विजेता या हारा हुआ नहीं होगा, बल्कि केवल बचे हुए और मृत लोग होंगे’
इतिहास का सबक
ब्रुसेल्स और पेरिस में हुए हमलों ने और तुर्की और अन्य स्थानों में हुए हिंसा ने दुनिया के सामने कई सवाल खड़े कर दिए। मौलाना वहीदुद्दीन खान ने इस बात का पता लगाने की कोशिश की है
है कि 22 मार्च 2016 को ब्रुसेल्स ऐसाके विश्वास हवाई अड्डे और शहर के मेट्रो स्टेशन
पर अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी हमलों में 30 से भी अधिक लोग मारे गए हैं और सौ से भी अधिक घायल हुए हैं। पेरिस और तुर्की सहित दुनिया के कई हिस्सों में बिना सोचे-समझे ऐसी हिंसात्मक कार्रवाई को अंजाम दिया जाता है, जिसमें बेगुनाहों को जान-माल की हानि का अपार नुकसान उठाना पड़ता है। रोजमर्रा की कामों की तरह ही आजकल हिंसा जैसे भयानक कृत्यों को अंजाम दिया जा रहा है। लेकिन हिंसा का इस्लामी शिक्षा से कोई लेना देना नहीं है। ऐसे कामों के खिलाफ दुनियाभर के मुसलमानों को सामने आना चाहिए और ऐसे घिनौने अपराधों की कड़ी निंदा करनी चाहिए। जो लोग ऐसी नृशंस हत्या में शामिल हैं, वो इस बात से पूरी तरह अनजान हैं कि आधुनिक युग का विकास कैसे हुआ है। वर्तमान युग शांति
का युग है जहां किसी भी उद्देश्य की पूर्ति के लिए युद्ध और हिंसा करना अब प्रचलन में नहीं है। इतिहास के दौरान कुछ युगों में लोगों के लिए शांति कायम करने का और विवाद खत्म करने का एक ही तरीका होता था और वह था युद्ध करना। शांतिवाद को लागू किए जाने के प्रयास का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि यह सभी सुधारकों का सपना था। हालांकि इस लक्ष्य को कभी पूरा नहीं किया जा सका। लेकिन 1945 में जब हिरोशिमा और नागासाकी पर बदला लेने के लिए और इस देश को अधिक से अधिक क्षति पहुंचाने के लिए दो परमाणु बम गिराए गए तो इस घटना ने पूरे विश्व को जगा दिया और सोचने पर मजबूर कर दिया, जिसके फलस्वरूप सयुंक्त राष्ट्र का गठन हुआ। इसका मुख्य सिद्धांत विश्वभर में शांति को कायम करना था। इसके
साथ ही लोकतंत्र और स्वतंत्रता के युग की शुरुआत हुई। इन आधुनिक विकास के कारण आज अगर कोई कुछ चाहता है तो वह शांति के दायरे में रहकर उसे पूरा कर सकता है या पा सकता है। आज हम जिस दुनिया में रह रहें हैं, वह एक नई दुनिया है। दूसरे शब्दों में हम यह कहते हैं की आज सब कुछ हर किसी के लिए है। वे लोग जो अब तक हिंसा फैलाने की कोशिश कर रहे हैं, वो इस आधुनिक युग के अवसरों से अनजान हैं। जर्मनी, जापान और अन्य कई देश दूसरे विश्व युद्ध में शामिल थे। वो अपने उद्देश्यों की प्राप्ति युद्ध के द्वारा करना चाहते थे पर युद्ध के अंत में उन्हें यह एहसास हुआ कि इन चीजों को पाने के लिए उन्हें युद्ध में खर्च करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बाद में उन्होंने उन चीजों को शांतिपूर्ण तरीके से संघर्ष कर हासिल किया। ब्रुसेल्स के हमलावरों और अन्य आतंकवादी संगठनों को यह समझना चाहिए कि आज युद्ध का युग समाप्त हो गया है। अब हिंसा केवल खुद के विनाश का कारण हो सकता है। किसी भी प्रकार की हिंसात्मक कार्रवाई के समर्थन में चाहे कितने भी सुंदर शब्द क्यों ना प्रयोग की जाए,
मौलाना वहीदुद्दीन खान मानते हैं कि धर्म का अपना तात्विक इतिहास मानवता के इतिहास के साथ आगे बढ़ा है और समय के साथ उसने अपनी कई कमियों को दूर किया है, कई नई व्याख्याओं और समझ को आत्मसात किया है से मजबूत करने की जरूरत थी, पर दुर्भाग्य से इस ओर कम ध्यान दिया गया। उनके मुताबिक उपनिवेशवाद का सबसे बड़ा दंश यह है कि वह हर कहीं सामाजिक बहुलता के आधार को कम जोर करके अपना विस्तार करता है। अंग्रेजों के बाद भारत में इस आधार को नए सिरे
हिंदू-मुस्लिम धर्म
साठ के दशक से लेकर अब तक मौलाना वहीदुद्दीन खान लगातार इस दिशा में प्रयत्नशील हैं कि जहां एक तरफ धर्म और उससे जुड़ी परंपराओं
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को विभक्ति मूलक से समन्वयवादी बनाया जाए, वहीं दूसरी तरफ भारतीय अध्यात्म को नए समन्वयी विचार और आदर्श से पूरी दुनिया में मान्यता मिले। अपनी इन कोशिशों को जारी रखते हुए मौलाना वहीदुद्दीन खान की एक बड़ी कोशिश इस बात को लेकर है कि हिंदू और इस्लाम धर्म को समाज और आस्था के स्तर पर ज्यादा से ज्यादा करीब लाया
यह उनके कामों को उचित नहीं ठहरा सकता है। प्राचीन युगों में ऐसा सोचा जाता था कि किसी के उद्देश्यों को केवल युद्ध के मैदान में ही पूरा किया जा सकता है। पर आज के विकास ने इस अवधारणा को इतिहास साबित कर दिया है। उदाहरण के लिए आज जैसा भी उद्देश्य हो चाहे वह शिक्षा या समाजिक क्षेत्रों में हो, उसके लिए शांतिपूर्ण तरीके से काम कर उसे पूरा किया जा सकता है। जागरूकता के इस दौर से पहले मानव इतिहास के शुरूआती दिनों को शांति द्वारा चिन्हित किया गया है। बाद में धीरे-धीरे आदिवासी सभ्यता पूरे विश्व में व्याप्त हो गई। यह सभ्यता अपने साथ हिंसा के सिद्धांत को भी ले आई। इतिहास में आगे बढ़ने पर एक ऐसा युग आता है जब सम्राट हुआ करते थे, जो अपने राज्यों पर राज किया करते थे। इस दौर की पहचान लड़ाईयां और युद्ध हुआ करती थी। हिंसा का यह दौर हजारों सालों तक चलता रहा। बाद में मानवों का विवेक जागृत हुआ और प्रख्यात विचारकों ने शांति के युग में प्रवेश करने का प्रयास किया। यह प्रक्रिया कई चरणों से गुजरी और जिसके तहत संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ जो आज के युग में विश्व के मानवाधिकारों की घोषणा थी। हिटलर इतिहास का सबसे बड़ा लड़ाकू योद्धा था, लेकिन वह पूरी तरह से असफल रहा। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उसने कहा, ‘इस युद्ध के बाद कोई भी विजेता या हारा हुआ नहीं होगा, बल्कि केवल बचे हुए और मृत लोग होंगे।’ इस कथन में हिटलर ने एक संदेश दिया है, जिसे एक फारसी कविता में व्यक्त किया गया है और जिसका अर्थ है, ‘मैं खुद को बचाने में नाकामयाब रहा। आप सबों को मेरी नाकामयाबी नहीं दोहरानी चाहिए।’ जाए। उन्हीं के शब्दों में, ‘दो महान परंपराओं का प्रतिनिधित्व करने वाले इस्लाम और हिंदू धर्म, दोनों एक हजार से अधिक बरसों से मौजूद हैं। इन दोनों धर्मों के बीच के संबंधों को समझना बहुत अहम है। इन दोनों के संबंधों के विषय पर दो अलग राय मिलती है। एक राय यह है कि ये दोनों परंपराएं एक दूसरे से बहुत समान हैं। एक बार मुझे एक हिंदू विद्वान से मिलने का मौका मिला, जिन्होंने बड़े उत्साह के साथ कहा, मैं इन दोनों धर्मों के बीच कोई अंतर नहीं पाता, क्योंकि जब मैं कुरान पढ़ता हूं तो ऐसा लगता है कि गीता पढ़ रहा हूं और जब गीता पढ़ता हूं तो ऐसा लगता है कि कुरान पढ़ रहा हूं। ...लेकिन यह समस्या का अत्यधिक सरलीकरण है और मुझे नहीं लगता कि ये धारणा शैक्षिक जांच पर
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आवरण कथा
12 - 18 मार्च 2018
खरी उतरेगी। इस मुद्दे पर दूसरी राय यह है कि इस्लाम और हिंदू धर्म दोनों एक दूसरे से बहुत अलग हैं और दोनों एक दूसरे को लेकर जबरदस्त बहस करते हैं। ये धारणा खासकर ब्रिटिश कार्यकाल के दौरान भारत में आम थी और उस समय अपने चरम पर पहुंच गई।’
स्मिथ की नजर में
तुलनात्मक धर्म अध्ययन के क्षेत्र में बौद्धिक और तार्किक महारत रखने वाले विल्फ्रेड कांटवेल स्मिथ ने कभी मौलाना वहीदुद्दीन खान के लेखन को लेकर कहा था कि बहुलतावादी भारतीय समाज में इस्लाम धर्म और उसके मानने वालों की समरस दृष्टि का विकास एक बड़ी चुनौती है और मौलाना वहीदुद्दीन इस चुनौती को साधने की सबसे समर्थ कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने इस्लाम की आधुनिक और वैज्ञानिक व्याख्या को लेकर जहां विपुल लेखन किया है, वहीं वे लगातार इस मुद्दे पर संवादरत हैं।
अल्पसंख्यक होने की पहचान
वे इस लिहाज से जो सबसे अहम बात कहते हैं, वह यह कि जब तक अल्पसंख्यक होने के लेबल के साथ मुसलमान अपने भविष्य को संवारने में लगे रहेंगे, तब तक वे भारतीय समाज की मुख्यधारा से बाहर रहेंगे। यहीं वे कुरान को सामने रखते हुए इस्लाम की यह व्याख्या करते हैं, ‘अगर आप
आस्थावान हैं तो फिर खुदा की हर नेमत आपके लिए है, पर ऐसा अनास्था के साथ नहीं हो सकता।’ यहां यह समझना जरूरी है कि धार्मिक आस्था और कट्टरता दो विपरीत बाते हैं। समाज से अलग होना और फिर अपने विकास को लेकर चिंतित होना हमें कहीं न कहीं धार्मिक आधार पर रूढ़िग्रस्त बनाता है। यह भी कि बाह्य संरक्षण के आधार पर कोई भी समाज आगे नहीं बढ़ सकता।
ग्लोबल दौर में मुसलमान
आधुनिक दौर में धर्म, उससे जुड़ी आस्था और हिंसा को लेकर जो एक प्रगतिगामी सोच पूरी दुनिया में उभरी है, उसने धर्म-अध्यात्म और शांति के सकर्मक साझे को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया
है। तमाम बौद्धिकों, विचारकों की भांति मौलाना वहीदुद्दीन खान भी यह मानते हैं इस तरह की रूढ़िग्रस्त सोच का नुकसान धार्मिक आस्था की दृष्टि से मुसलमानों को कई स्तरों पर झेलना पड़ा है। इस कारण ग्लोबल दौर में भी मुस्लिम समाज कहीं न कहीं अलग-थलग है। एक नुकसान यह भी हुआ है कि इस वजह से इस्लामी दर्शन को लेकर भारत सहित पूरी दुनिया में संशय और पूर्वाग्रह बढ़ता जा रहा है। मौलाना वहीदुद्दीन खान की नजर में ‘धर्म और अध्यात्म ज्ञान का मार्ग है। यह बात इस्लाम के साथ भी सच है। सह-अस्तित्ववाद की प्रेरणा इस्लामी दर्शन का बुनियादी आधार है। आधुनिक मुस्लिम समाज की प्रगति इस आधार पर
ही मुमकिन है।’
महान शांतिप्रिय कार्यकर्ता
मौलाना वहीदुद्दीन खान की पहचान आधुनिक इस्लामी विचारक के तौर पर तो है ही, वे हमारे दौर के एक महान शांतिप्रिय कार्यकर्ता भी हैं। उनकी स्वीकृति का दायरा इस्लाम से आगे सभी धार्मिक आस्था के लोगों के बीच है। वे विश्व शांति के मिशन के लिए सबसे जरूरी संवाद को मानते हैं। उनकी नजर में ‘संवाद, शांति का पुल है।’ इस पुल पर लोगों की आवाजाही जितनी निर्बाध और मुक्त होगी, विश्व शांति की दिशा में हम उतना ही आगे बढ़ेंगे। इस दृष्टि से उनका यह कथन भी बहुत महत्वपूर्ण है- ‘अध्यात्म, मानवता के साथ साक्षात संवाद है।’
विश्व प्रेम के लिए अध्यात्म
दरअसल, मौलाना वहीदुद्दीन खान आज दुनिया के उन कुछ लोगों में शामिल हैं, जिन्हें लगता है कि आध्यात्मिक ज्ञान हमारे समय की सबसे बड़ी दरकार का नाम है। एक ऐसी दरकार जो हमें आत्मिक आनंद से तो भरेगा ही, हमारे बाहर की दुनिया को भी प्रेम और करुणा से भर देगा। भोग और उपभोग के चरम दौर में इस तरह की दरकार को रेखांकित करना, किसी क्रांतिकारी कदम से कम नहीं है। यह जहां एक तरफ भौतिकता के पाश से मनुष्य को मुक्त कराने का प्रयास है, वहीं यह आत्मविजय की ललक जगाने वाला आध्यात्मिक शपथ भी है। इस दृष्टि से मौलाना वहीदुद्दीन खान के जीवन, उनके लेखन, उनके संवादों को देखें तो वे अखिल विश्व को अखिल कल्याण की राह दिखा रहे हैं। इस राह के राही जितना ज्यादा बढ़ेंगे, विश्व शांति और कल्याण का स्वप्न उतना ज्यादा सच होगा। इसीलिए जॉर्ज टाउन यूनिवर्सिटी की किताब, वर्ल्ड 500 मोस्ट इंफ्लूएंशियल मुस्लिम्स में मौलाना वहीउद्दीन खान को ‘दुनिया के लिए इस्लाम का आध्यात्मिक राजदूत, करार दिया था’। इस किताब के अनुसार मौलाना का दृष्टिकोण मुसलमान और गैरमुसलमान, दोनों के लिए ही लोकप्रिय है।
12 - 18 मार्च 2018
आवरण कथा
मौलाना से मिलना... मौलाना को पढ़ना...
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धर्म और संप्रदाय की छोटी-बड़ी लकीरें खींचकर दुनिया का कोई समाज आगे नहीं बढ़ा है। इस्लाम अमन और मोहब्बत का पैगाम देता है। इस पैगाम को लोगों के दिलों तक पहुंचा रहे हैं मौलाना वहीदुद्दीन खान
‘बे
प्रेम प्रकाश
टे, इस्लाम के बारे में भी पढ़ लेना। अभी अपनी पढ़ाई पूरी करो। वैसे भी मुझे लगता है कि गांधी विचार से जुड़े लोगों के लिए अलग से किसी धर्म के बारे में जानने की शायद जरूरत भी नहीं। हम लोग खुद कई अवसरों पर गांधी जी से सीखते हैं। वे शांति के मसीहा थे।’ ...मौलाना वहीदुद्दीन खान के ये कुछ शब्द आज भी अंतर्मन में गूंजते हैं। उन्होंने ये बातें इस्लाम को लेकर मेरी इस जिज्ञासा पर दी थीं कि भारतीय इस्लाम क्या बाकी इस्लाम से जुदा है। कहने की जरूरत नहीं कि उनका कद और उनकी स्वीकृति तब भी इतनी बड़ी थी कि उनकी हर छोटी-बड़ी बातों को लोग गौर से सुनते थे। जहां तक स्मरण है यह वाक्या 1986-87 के आसपास का रहा होगा। दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में उनसे मिला था। प्रतिष्ठान में प्रकाशित होने वाले मासिक ‘गांधी मार्ग’ में उन दिनों उनके लेख काफी छपते थे। सो, मौलाना के आलेख पहले से पढ़ता रहा था। उन्हें पढ़कर उनके वैचारिक सम्मोहन से दूर रहना मेरे जैसे युवा के लिए इसीलिए भी असंभव था, क्योंकि इस्लाम और अध्यात्म की उनकी व्याख्या खासी आधुनिक और तार्किक होती थी। मुझे याद है कि जब मैं ‘जनसत्ता’ छोड़कर ‘सहारा समय’ में आया, तभी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आई थी। एक साक्षात्कार के सिलसिले में अनुपम मिश्र से मिलने गांधी शांति प्रतिष्ठान जाना था। अनुपम जी सिर्फ पर्यावरण के ही जानकार नहीं थे। उनसे देश-समाज के विभिन्न विषयों पर बात करते हुए एक नई समझ बनती थी। इस समझ के साथ उनकी भाषा का भी आकर्षण होता था। सच्चर कमेटी की चर्चा पर छूटते ही अनुपम जी ने कहा, इस देश में कठिनाई यह है कि सबको राजनीति ज्यादा समझ में आती है। साठ के दशक से मौलाना वहीदुद्दीन खान इस बात को दोहरा रहे हैं कि मुसलमानों की स्थिति देश में तब तक बेहतर नहीं हो सकती, जब तक उन तक तालीम की रोशनी पूरी तरह नहीं पहुंचेगी। उनकी गुरबत और मुख्यधारा से कटने का असली कारण उनका तालीम से कटे होना है। मदरसों की ‘बंद तालीम’ के भरोसे जिस तरह की इस्लामी कौम बनेगी, उसके बारे में सबको पता है। अब जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने मुसलमानों को लेकर अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपी है तो लोग इस बारे में बात कर रहे हैं। अनुपम जी की ये बातें वैचारिक तौर पर झकझोर देने वाली थी। मौलाना के कार्य और लेखन को लेकर यह सब सुनकर एक नई तरह की जिज्ञासा पैदा हुई। जिन लोगों को 2006 के आसपास के भारतीय
मुसलमानों की स्थिति देश में तब तक बेहतर नहीं हो सकती, जब तक उन तक तालीम की रोशनी पूरी तरह नहीं पहुंचेगी। उनकी गुरबत और मुख्यधारा से कटने का असली कारण उनका तालीम से कटे होना है सामाजिक और राजनीतिक हालात का पता होगा, वे इस बात को समझेंगे कि एक ऐसे दौर में जब देश में मुसलमानों के कथित रहनुमाई करने वाले अपनी अल्पसंख्यक पहचान को सियासी परचम की तरह इस्तेमाल करने पर तुले थे और समाज से लेकर संसद तक अस्मितावादी विमर्श चल रहा था, मुस्लिम समाज की वास्तविक स्थिति को सामने रखने वाली सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने
किस तरह का तूफान पैदा किया था। भारतीय समाज में मुसलमानों की हैसियत स्वाधीनता आंदोलन के दौर से लेकर आजादी के समय और उसके बाद किस तरह बदली, इस स्फीति को एक यात्रा की तरह देखें तो मन में कौतुहल पैदा करने वाले कई प्रश्न खड़े होते हैं। ये बेचैनी तब मैंने भी खूब महसूस की थी। एक बार फिर राहत मिली मौलाना वहीदुद्दीन खान
को पढ़कर। एक पुस्तिका के रूप में उपलब्ध उनके एक लंबे आलेख में पढ़ा कि भारत विभाजन के बाद मुसलमानों के लिए इस देश में सबसे बड़ी त्रासदी उनका खुद को सियासी तौर पर अल्पसंख्यक उभार के साथ देखना है। बदकिस्मती से इस गलती में मुसलमानों के नेता भी शामिल रहे हैं। भारतीय समाज और संस्कृति में एक समन्वयवादी तत्व शुरू से रहा है। यह तत्व देश के हिंदुओं में भी है। मौलाना ने इस बात को हिंसक नादानी करार दिया कि भारतीय मुसलमान हिंदुओं से किसी तरह की होड़ लें या फिर उनसे अलगाव या स्पर्धा की कोई राह चुनें। वे हिंदुओं और मुसलमानों की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को बांटकर तो नहीं ही देखते हैं, उलटे इनमें एकदूसरे को तर-बतर करने वाले अंतरसूत्र देखते हैं। ...तभी तो वे मानते हैं कि अल्पसंख्यक असुरक्षा का भाव मुसलमान समाज को भारत के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास यात्रा से उसे इतनी दूर ले जाएगा कि वे अभाव और हीनता के ऐसे मझधार में फंसेंगे, जिससे निकलना आसान नहीं होगा। मौलाना वहीदुद्दीन खान आज भी अपनी इस समझ पर कायम हैं। वे अपने लेखों के साथ टीवी संदेशों और पोडकास्ट में इस संदेश को दुहराते हैं। ‘जनसत्ता’ अखबार में मैं जब था तो एक सम्मेलन में आरिफ मोहम्मद खान को सुना। कहने को उनका शुमार मुसलमानों के नेता के तौर पर ही होता है, पर वे अपनी इस पहचान के खुद खिलाफ हैं। सम्मेलन में खान ने बताया कि कभी भारत और पाकिस्तान.. दोनों तरफ के मुसलमानों ने खान अब्दुल गफ्फार खान की नहीं सुनी और इसका नतीजा देश विभाजन के समय से लेकर बाद तक के सांप्रदायिक दंगे हैं। आज भी हमारे बीच एक सच की आवाज है। यह आवाज है मौलाना वहीदुद्दीन खान की। खान कहीं न कहीं उन्हीं बातों के प्रति हमें आगाह कर रहे हैं, जो 1947 और उसके बाद हुई। धर्म और संप्रदाय की छोटी-बड़ी लकीरें खींचकर दुनिया का कोई समाज आगे नहीं बढ़ा है। इस्लाम अमन और मोहब्बत का पैगाम देता है। इस पैगाम को लोगों के दिलों तक पहुंचा रहे हैं मौलाना वहीदुद्दीन खान। खान को पढ़ना और उन्हें सुनना, अमन और सकून पर यकीन बढ़ाने जैसा है। मौलाना इस यकीन को देशदुनिया में अपनी तरह से जिस तरह से फैला रहे हैं, उसे देखकर राष्ट्रपिता गांधी की याद आती है। खुद मौलाना भी मानते हैं कि जंगे आजादी के दिनों से उन पर गांधी का रंग चढ़ गया था। निस्संदेह यह रंग बाद में और पक्का... और पाकीजा हुआ।
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स्वच्छता
12 - 18 मार्च 2018
दुनिया की छत पर स्वच्छता
‘दुनिया की छत’ कहे जाने वाले तिब्बत में स्वच्छता की अनूठी परंपरा रही है। इस परंपरा ने वहां के लोगों के जीवन में शुचिता को तो स्थान दिया ही, उनकी खेती को भी समृद्ध किया
आ
एसएसबी ब्यूरो
ज भी कई पुराने लद्दाखी घरों के बाहर एक कमरे का दो-तला ढांचा दिखता है। इसे लद्दाखी में ‘छागरा’ कहते हैं। भूतल एक बंद कोठार सा होता, पीछे की तरफ एक दरवाजा रहता है। आगे की तरफ से सीढ़ियां ऊपरी तल तक जाती हैं। ऊपर के कमरे के ठीक बीच में एक छेद होता है, जिसके चारों ओर सूखी मिट्टी और राख पड़ी रहती है। इसके ऊपर बैठकर मलत्याग किया जाता है। मल-मूत्र नीचे के कोठार में गिरता है। शौच के बाद मल पर मिट्टी फेंकी जाती है, जिससे बदबू चली जाती है। कालांतर में मल-मूत्र गल कर मिट्टी जैसी खाद बन जाता है।
तिब्बत का भूगोल
स्वच्छता को लेकर तिब्बती परंपरा और समझ को समझने के लिए ‘दुनिया की छत’ कहे जाने वाले धरती के इस हिस्से की भौगोलिक बनावट पर गौर करना जरूरी है। तिब्बत के पठार का यह दक्षिणपूर्वी हिस्सा जम्मू-कश्मीर राज्य में आता है। समुद्र तल से यहां की ऊंचाई औसतन तीन किलोमीटर से ज्यादा है, यानी 10,000 फुट से अधिक। दो किलोमीटर या करीब 7,000 फुट की ऊंचाई पर हवा का दबाव घटने लगता है, जिसकी वजह से ऑक्सीजन फेफड़ों में आसानी से घुलती नहीं है। लद्दाख जाने पर नए लोगों को अमूमन सांस लेने में तकलीफ होती है, क्योंकि उनके शरीर को यह मुश्किल सहने की आदत नहीं होती। कुछ लोग तो बीमार ही पड़ जाते हैं।
बदलाव की बयार
हिमालय के उस पार होने के कारण चौमासे के बादल यहां तक पहुंचते ही नहीं हैं। बारिश बहुत कम होती है, उसका भी बड़ा हिस्सा पहाड़ों पर बर्फ के रूप में गिरता है। यहां की जलवायु किसी गर्म रेगिस्तान से भी कठिन है। यहां पेड़-पौधे और पशुपक्षी बहुत कम मिलते हैं। जीवन की इस कमी का सीधा असर लद्दाख की मिट्टी पर पड़ता है। अगर मिट्टी में प्राकृतिक उर्वरक हों तो भी उन्हें बांधने वाला जैविक तत्व नहीं होता। इस ठंडे रेगिस्तान में केवल वे विलक्षण प्राणी ही रह सकते हैं, जिनमें ऑक्सीजन की कमी में रहने की शक्ति हो। न जाने कितनी औषधीय जड़ी-बूटियां हिमालय की कठिन ऊंचाई पर ही पाई जाती हैं। थार के गरम रेगिस्तान में खेजड़ी जैसा पेड़ और ऊंट जैसा प्राणी मिलता है। दोनों ही बहुत कम पानी-भोजन में जी लेते हैं। साल भर में यहां केवल एक फसल ही उगाई जा सकती है, गर्मी के मौसम में। लेकिन खाद मिलना हमेशा ही मुश्किल होता है। ऊपरी मिट्टी बिना खाद के पानी नहीं पकड़ती और पानी की कमी तो इस ठंडे रेगिस्तान में सदा ही रहती है। इसीलिए पानी या किसी भी तरह के जैविक माल की बर्बादी लद्दाखी के किफायती स्वभाव में रही ही नहीं है। लद्दाखी लोग अपने मल-मूत्र को इकट्ठा कर उससे खाद बनाते आ रहे हैं।
मल से खाद
लद्दाखियों को अपने मल से खाद बनाना खेती का स्वाभाविक अंग लगता है। यहां के किसान खाद पाने के लिए आने-जाने वालों से अपना छागरा इस्तेमाल करने की मनुहार करते रहे हैं। यह रवैया वैसी जगहों से एकदम भिन्न है, जहां फ्लश से चलने वाले शौचालय पर ताला लगाया जाता है, ताकि उसे कोई अनजान व्यक्ति इस्तेमाल न कर सके। इस दूसरी दृष्टि में शौचालय व्यक्तिगत अधिकार बन जाता है, उसके पीछे भावना उपभोग और होड़ की होती है। इसके ठीक विपरीत छागरा पद्धति में दूसरे लोग भी साधन बन जाते हैं। मलत्याग करना अधिकार का विषय नहीं, एक सामाजिक प्रयोजन बन जाता है।
छागरा बनाम कमोड
जिन लोगों को छागरा की ही आदत होती है, उन्हें नए किस्म के पानी वाले कमोड से घिन आती है। उन्हें यह समझ ही नहीं आता कि लोग कैसे पीने लायक पानी और खेती लायक खाद को यूं ही मिलाकर बहा देते हैं। छागरा समय-सिद्ध व्यवस्था है। लद्दाख के लोगों ने शुचिता का काम किसी सरकारी प्रचार के दबाव में आकर नहीं किया है। आज का तिब्बत परंपरा और आधुनिकता के बीच कहीं अपनी स्थिति ठोस बनाने में लगा है। बदलाव की नई हवाएं हिमालय पार कर लद्दाख
जिन लोगों को छागरा की ही आदत होती है, उन्हें नए किस्म के पानी वाले कमोड से घिन आती है। उन्हें यह समझ ही नहीं आता कि लोग कैसे पीने लायक पानी और खेती लायक खाद को यूं ही मिलाकर बहा देते हैं
खास बातें समुद्र तल से तिब्बत की ऊंचाई औसतन तीन किमी से ज्यादा है लद्दाखियों को अपने मल से खाद बनाना स्वाभाविक लगता है पारंपरिक तिब्बती लोग शौच के लिए छागरा का इस्तेमाल करते हैं की ऊंचाई तक पहुंच चुकी हैं। जिला मुख्यालय लेह पर्यटन का गढ़ बन चुका है। पैसे से सुविधा खरीदने वाले पर्यटक लद्दाख की सुंदरता का भोग तो करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें मलत्याग करने की सुविधा बिल्कुल वैसी ही चाहिए जैसी उनके घर पर होती है। इसके असर में लेह की शौचालय व्यवस्था भारत के दूसरे शहरों की तरह ही चौपट होती जा रही है। अब होटलों और अतिथिघरों में फ्लश वाले कमोड लगते हैं। इनकी नाली जाती है हर कहीं खोद कर बने हुए गड्ढ़े में। इससे वे भूमिगत झरने दूषित हो रहे हैं, जिनसे रेगिस्तान में बसे इस शहर को पानी मिलता है। फिर पर्यटन से नया धन भी आया है, खासकर लेह शहर में। पर्यटकों की देखादेखी नई पीढ़ी के लोगों को भी फ्लश कमोड की ही आदत पड़ रही है। उसे छागरा पिछड़ेपन का प्रतीक लगने लगा है।
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स्वच्छता
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2003 में चीन पहुंचा इकोसैन
चीनी शहर ओरदोस जहां स्वच्छता की इकोसैन पद्धति के बड़े स्तर पर प्रयोग का पहला उदाहरण बना, वहीं वहां इस प्रयोग के विरोधाभास भी दिखे
ची
न में सदियों से मल-मूत्र का उपयोग खेती में हो रहा है। दूसरे देशों से हटकर वहां मल को अत्यधिक घृणा से नहीं देखा जाता है। इसीलिए ओरदोस शहर में 2003 में एक बड़ा प्रयोग किया गया। चीन के ठंडे उत्तरी प्रदेश इनर मंगोलिया के रेगिस्तानी पठार पर बसे इस शहर में पानी की कमी रहती थी। पर कोयले की खदानों के कारण बसाहट बढ़ने लगी।
स्टॉकहोम एनवायरन्मेंट इंस्टीट्यूट
इकोसैन पर काम करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा संस्थान है स्वीडन का स्टॉकहोम एनवायरन्मेंट इंस्टीट्यूट, जिसका ऊनो विनब्लाड से पुराना संबंध रहा है। इस संस्था ने स्वीडन और जर्मनी में कुछ छोटी-बड़ी बस्तियों में इकोसैन के शौचालय बनवाए हैं। लेकिन ओरदोस शहर इस पद्धति के बड़े स्तर पर प्रयोग का पहला उदाहरण था। संस्था ने ओरदोस की सरकार के साथ एक अनुबंध किया दुनिया की पहली आधुनिक इकोसैन शहरी बस्ती बनाने का। यहां 14 इमारतों के 830 फ्लैटों में कोई 3,000 लोगों के रहने का इंतजाम था। इनके शौचालयों में फ्लश कमोड नहीं थे। मल-मूत्र नीचे बनी कोठियों में सीधे गिरता था और उस पर लकड़ी का बुरादा डालने का प्रबंध था। नीचे से कोठियों को ट्रक के सहारे बाहर निकाला जाता था। अपेक्षा थी कि बिना सीवर के एक आधुनिक शहरी बस्ती खड़ी की जाए।
बदबू से परेशानी
धीरे-धीरे लोगों ने इन फ्लैटों में अपने घर बसाए। फिर दिक्कतें शुरू हुईं। शौचालयों से बदबू आती थी। लकड़ी का बुरादा पाइप के सहारे ऊपर उड़
आता था। मंगोलिया में तापमान शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे तक जाता है। ऐसी भीषण सर्दी में कितनी ही तरह की दिक्कतें आए दिन आने लगीं। वहां रहने वालों ने बार-बार शिकायत की। तंग आकर सन 2009 में जिला सरकार ने अपने खर्च पर इन फ्लैटों में फ्लश कमोड लगवाने शुरू कर दिए। 2010 के अंत तक सभी निवासियों ने फ्लश कमोड लगवा लिए जो सीवर से जुड़े थे। यह एक ऐसे देश में हुआ, जहां इस विचार की पुरातन परंपरा रही है। फिर इस योजना के पीछे एक ऐसी संस्था थी जो कई साल से इस विचार के पीछे मजबूती से खड़ी रही है। लेकिन फिर भी दुनिया का सबसे बड़ा शहरी इकोसैन प्रयोग नाकामयाब घोषित हो चुका था।
इकोसैन का विचार
शुचिता और इकोसैन का विचार किसी शून्य में नहीं, कई और विचारों के बीच रहता है, उनसे लेन-देन रखता है। यह विचार किसी एक खांचे, किसी एक शौचालय, किसी एक अभियान में नहीं बांधा जा सकता। इस विचार का मोल हर गांव, हर शहर, हर बस्ती, हर घर को अपनी परिस्थिति के हिसाब से करना पड़ेगा। जिसे यह विचार आकर्षक लगता है वह इसे अपने जीवन में इस्तेमाल कर सकता है। जिसे न लगे उसके लिए कई और विचार हैं। आखिर पूर्वी कोलकाता की भेरियां तो सूखे शौचालयों से नहीं बनी है। पर वहां के मछुआरों की व्यवस्था में एक अंश सामाजिक शुचिता का भी है। इसे चलाने वाले स्वीडन के विशेषज्ञों ने ईमानदारी से माना कि उनकी योजना में खामियां थीं। शौचालय में नीचे से आने वाली बदबू रोकने का ध्यान नहीं रखा गया था। कार्यक्रम बनाते
ओरदोस के 14 इमारतों के 830 फ्लैटों में कोई 3,000 लोगों के रहने का इंतजाम था। इनके शौचालयों में फ्लश कमोड नहीं थे। मल-मूत्र नीचे बनी कोठियों में सीधे गिरता था और उस पर लकड़ी का बुरादा डालने का प्रबंध था समय उन्होंने फ्लैटों में रहने वालों से बातचीत नहीं की थी, उनसे कोई सीधा संबंध नहीं बनाया था। उन्हें बने-बनाए फ्लैट बेचे गए, जिनमें वे उन्हीं सुविधाओं की अपेक्षा कर रहे थे जो दूसरे शहरों में सीवर के द्वारा मिलती हैं। प्रयोग शुरू होने के बाद ओरदोस शहर में अचानक समृद्धि आई, जिसके बाद लोगों को लगा की इकोसैन एक दकियानूसी विचार है। फिर योजना पूरी होते-होते ओरदोस में पानी की किल्लत मिट गई थी। हुआंग-हो नदी से पानी यहां तक आ गया था और बहुत गहरी बोरिंग से भूजल भी निकल आया था। निवासियों
तिब्बती परंपरा तिरुचिरापल्ली में
हिमालय के इस पार लेह शहर से 3,700 किलोमीटर दक्षिण में एक शहर है तिरुचिरापल्ली, तमिलनाडु राज्य के ठीक बीच में। समुद्रतल से यहां की ऊंचाई केवल 85 मीटर है, यानी लेह से कोई 3,500 मीटर नीचे। यहां के मूसिरी ब्लॉक के कुछ गांवों में पिछले दस साल में ऐसे कई शौचालय बने हैं, जिनके पीछे सिद्धांत ठीक वही है, जिससे लद्दाख का छागरा बनता है। लेह शहर के पुराने इलाकों में छागरा पद्धति के शौचालय आज भी हैं। इसे इस्तेमाल करने वालों में कुछ तो आसपास के किसानों को बुलाकर खाद दे देते हैं और बदले में शौचालय की पहली मंजिल पर मिट्टी डलवाते हैं। पर कुछ जगह ऐसे भी छागरे हैं, जो साफ नहीं होते। इन जगहों का पता दूर से ही चल जाता है, सड़ते मल की बदबू से। इसकी वजह से छागरों को हटाने का माहौल बनने लगा है। लेकिन आधुनिक सुविधाएं नई दुविधाएं भी खड़ी कर रही हैं। एक निर्मल और आत्मनिर्भर
ने स्थानीय सरकार से कहा कि इस प्रयोग की कीमत वे नहीं चुका सकते। सरकार का जवाब था फ्लश कमोड। इकोसैन पर कई सालों से काम कर रहे लोगों का कहना है कि इस पद्धति को दूसरी पद्धतियों के साथ तौलना नहीं चाहिए। अगर इस विचार को शौचालय बनाने का एक जरिया भर मान लिया गया तो इसका भी वही होना निश्चित है, जो सरकारी अभियानों का हो रहा है। तब इसकी सुंदर सच्चाई शौचालय में बंद हो जाएगी। जिन मुश्किलों को यह पद्धति सरलता से सुलझाती हैं, वे छुप जाएंगी। समाज अब हर किसी बात पर सरकार और बाजार को मुंह ताकने लगा है। शुचिता को व्यवहार में उतारने वाला एक समाज आज अपने मल-मूत्र को अंधेरे कुओं में डालने लगा है।
विकास और स्वच्छता का ‘स्कोप’
लेह शहर के पुराने इलाकों में छागरा पद्धति के शौचालय आज भी हैं। इसे इस्तेमाल करने वालों में कुछ तो आसपास के किसानों को बुलाकर खाद दे देते हैं और बदले में शौचालय की पहली मंजिल पर मिट्टी डलवाते हैं
1980 के दशक में तिरुचिरापल्ली नगर में ‘स्कोप’ नाम की एक सामाजिक संस्था आसपास के गांवों में कुछ विकास परियोजनाएं चला रही थीं। संस्था के निदेशक माराची सुब्बूरामन को गांवों में घूमते हुए यह पता लगा कि लोग कमाई का खासा हिस्सा बीमारियों के इलाज में खर्च कर रहे थे। सबसे भीषण प्रकोप उन बीमारियों का था जिनको फैलाने वाले रोगाणु मनुष्य के मल से पीने के पानी में पहुंच जाते हैं। सुब्बूरामन को सस्ते घर बनाने का अनुभव तो था ही। उन्होंने सस्ते शौचालय बनाने की कोशिश शुरू कर दी। 1990 में केंद्रीय ग्रामीण शुचिता कार्यक्रम यहां पहुंचा और जिला प्रशासन
10 को 50 लाभार्थियों के लिए शौचालय बनाने का लक्ष्य मिला। सुब्बूरामन ने प्रशासन को मनाया कि इसका असर देखना हो तो सारे शौचालय एक ही गांव में बनाए जाएं। स्कोप का काम प्रशासन की नजर में आ गया था। 1997 में जब कार्यक्रम की मरम्मत करने के लिए एक समिति बनी तो उसमें इस संस्था को बुलाया गया। दो साल बाद ‘टोटल सेनिटेशन कैंपेन’ शुरू हुआ तो उसमें सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं ने स्कोप को शौचालय बनवाने की जिम्मेदारी सौंपी। मूसिरी ब्लॉक में स्कोप कई सालों से काम कर रही थी और यहां रहने वालों से उसके संबंध भी थे। तो यहीं पर काम शुरू हुआ। अगले चार साल में तिरुचिरापल्ली के गांवों में 20,000 शौचालय बने और 14 गांवों को निर्मल ग्राम पुरस्कार मिला।
‘इकोसैन’ पद्धति
इन शौचालयों को बनाने की पद्धति स्कोप ने ठीक समझ ली थी। पर कुछ गांवों में इसे बनाना भारी पड़ रहा था। ये गांव कावेरी नदी या उसकी सिंचाई नहरों के किनारे बसे हुए थे। क्योंकि रिसकर आने वाले पानी से यहां का भूजल स्तर बहुत ऊंचा था। ऐसे में पानी भर आता था और मल उसमें ऊपर तैरने लगता था। खासकर बारिश के बाद के छह महीने तो शौचालय का इस्तेमाल मुश्किल हो जाता था। इसी दौरान संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘यूनिसेफ’ के एक अधिकारी ने सुब्बूरामन को शौचालय बनाने के एक नए तरीके के बारे में बताया। इस पद्धति को अंग्रेजी में ‘इकोलॉजिकल सेनिटेशन’ कहा जाता है। संक्षिप्त में ‘इकोसैन’। ‘इकोसैन’ पद्धति के मूल में है- प्रकृति के उर्वरक चक्र के अनुसार शरीर से निकले मल-मूत्र को पानी के बजाय जमीन में वापस पहुंचाना । वैसे तो यह विचार बहुत पुराना है और कई सभ्यताओं ने आदिकाल से इसका पालन किया है, पर पिछले 100-150 साल में सीवर की नालियां ही शुचिता का एकमात्र तरीका मान ली गई हैं। इस पुराने विचार का सही आकलन कोई ऐसा व्यक्ति ही कर सकता है जिसे आधुनिक सीवर व्यवस्था की कमजोरियां पता हों। ऊनो विनब्लाड ऐसे ही व्यक्ति हैं।
‘सेनिटेशन विदाउट वॉटर’
स्वच्छता
12 - 18 मार्च 2018
रोजाना मूत्र इकट्ठा करते हैं गडकरी
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी हर रोज लगभग 50 लीटर पेशाब इकट्ठा करते हैं और फिर इसका इस्तेमाल पौधों को सींचने के लिए करते हैं
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द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने पौधों की बेहतर परवरिश के लिए उन्हें पानी की बजाय पेशाब से सींचने की सलाह दी है। इस बारे में बताते हुए गडकरी ने कहा कि वह अपने दिल्ली आवास में लंबे समय से इस थैरेपी का इस्तेमाल कर रहे हैं। गड़करी ने बताया, ‘मैं हर रोज लगभग 50 लीटर पेशाब इकट्ठा करता हूं और फिर इसका इस्तेमाल मेरे दिल्ली आवास में लगे पौधों को सींचने के लिए किया जाता है।’ उनका कहना है कि यह ‘पेशाब चिकित्सा विधि’ बहुत कारगर है और साधारण पानी के मुकाबले पौधों को ज्यादा स्वस्थ बनाती है। इसका वैज्ञानिक कारण बताते हुए गडकरी ने कहा कि पेशाब में प्रचुर मात्रा में यूरिया और नाइट्रोजन यौगिक होते हैं और इससे पौधों को अधिक मात्रा में पोषण मिलता है। केंद्रीय मंत्री के मुताबिक जल्द ही पेशाब सस्ते उर्वरक के तौर पर सामने आ सकता है। स्वीडन में सन 1932 में जन्में ऊनो वास्तुकार और शहरों के योजनाकार हैं। उन्होंने उष्णकटिबंध के देशों के वास्तु की पढ़ाई की थी। सन 1970 में अफ्रीका के इथियोपिया देश में उन्हें शहरी बस्तियों की रूपरेखा बनाने का काम मिला। उन्हें समझ में आने लगा था कि शहर के आधुनिक, यूरोपीय ढांचे में कुछ मूल कमियां हैं जिनकी वजह से वह हर तरह की बस्ती और भूगोल में आदर्श नहीं है। सीवर की नालियों की तरफ उनका ध्यान गया। 1978 में उन्होंने एक किताब लिखी जिसका
तिरुचिरापल्ली के मूसिरी ब्लॉक के कुछ गांवों में पिछले दस साल में ऐसे कई शौचालय बने हैं, जिनके पीछे सिद्धांत ठीक वही हैं, जिससे लद्दाख का छागरा बनता है
महाराष्ट्र सरकार की योजना
महाराष्ट्र सरकार ऑर्गेनिक खेती के लिए मल्टीप्लेक्स से मूत्र इकट्ठा करने की योजना पर काम कर रही है। महाराष्ट्र सरकार इसका इस्तेमाल ऑर्गेनिक खेती के लिए करने वाली है। मानव मूत्र के साथ गोबर और गोमूत्र को खाद के तौर पर इस्तेमाल करने की योजना पर काम किया जा रहा है। राज्य के कृषि मंत्री एकनाथ खडसे ने कहा कि मल्टिप्लेक्स में इंटरवल के दौरान पर्याप्त मात्रा
‘पेशाब में प्रचुर मात्रा में यूरिया और नाइट्रोजन यौगिक होते हैं और इससे पौधों को अधिक मात्रा में पोषण मिलता है ’ शीर्षक था ‘सेनिटेशन विदाउट वॉटर’। इसके बाद ऊनो शौचालयों के विशेषज्ञ बनते गए।
ऊनो के सहयोगी कैलवर्ट
ऊनो साथ काम कर चुके एक अंग्रेज समुद्री इंजीनियर हैं पॉल कैलवर्ट। वे हर साल सर्दी के मौसम में केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के पास मछुआरों के साथ काम करते हैं। गांव के लोग तट पर खुले में मलत्याग करने के लिए विवश थे। मछुआरों के घरों में शौचालय थे, लेकिन भूजल स्तर ऊपर होने से वे उनका इस्तेमाल नहीं करते थे। पॉल ने तटवर्ती गांवों के लिए इकोसैन पद्धति के शौचालय बनाए जो जमीन से थोड़ा ऊंचे थे और जिनमें मल नीचे बने खाने में सूखा ही इकट्ठा हो जाता था। पर जैसे इकोसैन शौचालय उन्होंने यूरोप में देखे थे उनका यहां काम करना कठिन था। यूरोप में लोग मलत्याग करने के बाद कागज से पोंछते हैं, जबकि भारत में शौच के बाद पानी इस्तेमाल होता है। पानी और मल अगर एक ही जगह जाएं तो वहां कीचड़ हो जाता है और मल को गल कर निर्दोष बनने में बहुत ज्यादा समय लगता है।
अच्छी खाद
अगर अच्छी खाद बनानी हो तो पेशाब और मल को अलग करना ठीक नहीं होता। दोनों साथ में गलें तो इसके बाद निकलने वाली खाद मिट्टी के लिए बहुत अच्छी होती है। बढ़िया खाद बनाने के
में पेशाब इकट्ठा किया जा सकता है, जिसका इस्तेमाल ग्रामीण इलाके की जमीन को उर्वरक बनाने के लिए किया जाएगा। उन्होंने कहा कि मल्टीप्लेकस में बहुत संख्या में लोग पेशाब करते हैं ऐसे में वहां से भारी मात्रा में मूत्र इकट्ठा कर सकते हैं और इसे ट्रांसपोर्ट के जरिए ग्रामीण इलाकों में भेजा जा सकता है। खडसे ने दावा किया कि महाराष्ट्र के अहमदनगर में स्थित महात्मा फुले कृषि विद्यापीठ में मानव मूत्र पर सफल प्रयोग किया गया था। इसमें साबित हो चुका है कि मानव मूत्र का खाद के रूप में पूरे भरोसे के साथ उपयोग किया जा सकता है। लिए कार्बन और नाइट्रोजन का मेलजोल जरूरी है। मल में कार्बन खूब होता है और मूत्र में नाइट्रोजन। ऐसी खाद जिन गड्ढों में बनती है, उनमें दूसरी तरह की जैविक चीजें भी डाली जाती हैं। जैसे सब्जी के बेकार हिस्से, जो हमारे शहरों में कचरे के ढेर बनाते हैं। इस पद्धति से शौचालय बनाने वाले लोग दुनिया भर में हैं। पर एक ही गड्ढे में पेशाब और मल डालना हर कहीं ठीक नहीं है।
पॉल का समाधान
पॉल ने इसका समाधान निकाला शौचालय की डिजाइन बदल कर। कमोड की जगह उन्होंने एक ऐसा तसला लगाया जिसमें तीन अलग निकास थे। इस डिजाइन के बीच में था एक बड़ा छेद, जिसके ऊपर बैठकर मलत्याग किया जाता है। मल इसके ठीक नीचे एक खाने में जमा हो जाता है। वहां पड़ा-पड़ा यह गलकर खाद बनाता है। बैठक के आगे उन्होंने ढाल देकर पेशाब के अलग बह जाने का इंतजाम किया, जहां से उसे एक पाइप के जरिए किसी डब्बे में इकट्ठा किया जा सकता था। शौच के बाद धोने के लिए इस सबसे अलग उन्होंने ऐसी जगह बनाई जहां आसानी से खिसका जा सके। ऐसे तसले बनवाकर उन्होंने शौचालयों में लगवाए और यह कामयाब भी हुए। उस गांव में तट पर खुले में मलत्याग कम हो गया।
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जेंडर
वृंदावन की विधवाएं
'मैं वापस जाना चाहती हूं, लेकिन अपने बच्चों के पास नहीं'
शांति ने जिन बच्चों को पालने और पढ़ाने-लिखाने के लिए कड़ा संघर्ष किया, उन्होंने ही उसे असहाय छोड़ दिया। आखिर में सुलभ द्वारा वृंदावन में चलाए जा रहे आश्रम ने न सिर्फ उसे ठौर दिया बल्कि जीवन के प्रति उसकी निराशा को भी समाप्त किया
ज
स्वास्तिका त्रिपाठी
ब जीवन-यापन करना मुश्किल हो गया, तब उसने भीख मांगना शुरू किया। फिर जब इससे भी उसे मदद नहीं मिली, तो उसने वृंदावन का रास्ता चुना। शांति जब महज 13 साल की थी, तभी उसे शादी के बंधन में बांध दिया गया था। उसके परिवार के अनुसार, वह व्यक्ति उनके लिए सबसे उपयुक्त था। शादी के बाद जीवन सामान्य चल रहा था क्योंकि यही भारत में किसी भी विवाहित महिला की जिंदगी होती है। पति बनारस में एक ऊन के कारखाने में काम करता था। उसे तीन लड़कियां और एक लड़के सहित चार बच्चे थे। उसके पास ज्यादा पैसा नहीं था, लेकिन छह लोगों की दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त था। लेकिन शांति की जिंदगी में यह सामान्य खुशी सिर्फ कुछ समय के लिए ही थी। कुछ ही सालों में दिल का दौरा पड़ने से उसके पति की मौत हो गई। इसके बाद शांति के लिए जिंदगी बहुत ही मुश्किल हो गई। पति की मौत के बाद गरीबी, भूख, असहायता और सारी निराशाजनक चीजें एक साथ उनके ऊपर टूट पड़ी। शांति के ससुराल के लोगों को इस बात से कोई खास फर्क नहीं पड़ता था कि अब उसकी जिंदगी किस रास्ते पर जाएगी। वहीं मायके से भी किसी मदद की उम्मीद नहीं थी। वैसे भी हिंदू परंपरा में शादी के बाद पति का परिवार ही महिला का परिवार होता है। शांति के लिए यह एक असहज कर देने वाली स्थिति थी। उसके हाथ में कुछ भी नहीं था और उसे चार छोटे बच्चों का लालन-पालन करना था। हारकर उसने मजदूरी करना शुरू कर दिया। मजदूरी कम मिलती थी, लेकिन छोटे बच्चों को रोटी खिलाने के लिए पर्याप्त थी। समय बीतता गया और एक दिन
‘वृंदावन कभी भी किसी इंसान को भूखा नहीं सोने देगा और लाल बाबा (सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक) यहां रहने वाली विधवाओं के लिए भगवान है’
छोटी-छोटी बचतों के साथ शांति ने आगरा के लिए ट्रेन के पांच टिकट खरीद लिए। उसके पास जो कुछ भी था, उसने सब इकट्ठा किया और नए स्थान पर जाकर एक नया जीवन शुरू करने का फैसला किया। उसका यह फैसला सही निकला। उसने आगरा में कई घरों में बर्तन धोने के काम के साथ नए सिरे से जीवन-यापन शुरू कर दिया। वह जो कुछ भी कमाती थी, सब बच्चों की स्कूली शिक्षा पर खर्च कर देती थी। बच्चे स्कूल जाते थे और वह काम पर जाती थी। बच्चे
अपनी मां के हाथों पकाए भोजन खाने के लिए घर आते थे। इस तरह पांचों लोग दुखग्रस्त अतीत के साथ आगे बढ़ रहे थे। देखते-देखते बच्चे बड़े हो गए। शांति ने समय पर पहले तीनों बेटियों की और फिर छोटे बेटे की शादी करवा कर अपना कर्तव्य पूरा किया। लेकिन उसे पता नहीं था कि उसके कठिन संघर्ष को क्षण भर में भुला दिया जाएगा। उसके लिए उसकी जिंदगी बन चुके चारों बच्चे जल्द ही उसे भूलकर अपनी जिंदगी में मशगुल होने लगे। देखते-देखते ही शांति अपने बेटों और बहू के लिए एक बोझ बन गई। उनके पास मां का खर्च उठाने लायक साधन नहीं था और इस तरह उसे घर से बाहर निकाल दिया गया। गरीबी के कारण सड़क पर दिन बिताने की नौबत एक बार फिर शांति के सामने आ गई। लेकिन इस बार ये दिन अपनी पीठ पर असहनीय दर्द का बोझ लिए था। बच्चों के साथ छोड़ देने की वजह से वह भावनात्मक रूप से टूट चुकी थी। बढ़ती उम्र व मजदूरी करने की वजह से वह शारीरिक रूप से भी काफी कमजोर हो गई। वह अब कोई काम करने लायक नहीं रह गई थी। जब भूख, सहने की सीमा से आगे बढ़ने लगी, तो शांति ने भीख मांगना शुरू कर दिया। इससे कभी-कभी तो उसे सहायता मिल जाती थी लेकिन ज्यादातर उसे पूरा दिन बिना कुछ खाए-पिए ही बिताना पड़ता था। कुछ दिन तो इतने निर्दयी होते थे कि उसे कचरे से खाने-पीने के सामान बीनने पड़ते थे या फिर भक्तों द्वारा गायों के लिए सड़कों पर रखी गई रोटियों को खाना पड़ता था। उसके साथ पहले काम करने वाले कुछ लोगों ने जब उसे सड़कों पर इस हालत में देखा तो उसे वृंदावन की पवित्र भूमि के बारे में बताया, जहां वह अपनी जिंदगी बिता सकती थी। उनमें से एक उसे सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस अॉर्गेनाइजेशन द्वारा विधवाओं के लिए चलाए जा रहे आश्रम में लेकर गया। तब से शांति यहीं अपना जीवन बिता रही है। अपनी नम आंखों से गालों पर गिरते हुए आंसुओं के साथ शांति बताती है, ‘यह दुनिया स्वार्थी लोगों से भरी है। लाखों में से सिर्फ एक ही विधवाओं की दुर्दशा के बारे में समझ सकता है।’
खास बातें 13 साल की उम्र में ही शांति की शादी हो गई थी पति की मौत के बाद काफी संघर्षमय हो गया था जीवन बच्चों को किसी तरह पढ़ाया, पर बच्चों ने मां को असहाय छोड़ा शांति का जीवन उसके नाम के ठीक विपरीत रहा। वह अपने बनारस के दिनों को याद करती है तो उसका गला भर आता है। वह पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहती। कुछ कहने की स्थिति में भी होती है तो बस यही कहती है कि वह उस शहर में वापस जाना चाहती हैं जहां बड़ी हुई, लेकिन वह अपने बच्चों से नहीं मिलना चाहती। उनके चारों बच्चों ने कभी उसकी कोई खोज-खबर लेने की कोशिश नहीं की, इसीलिए वह भी उनसे कोई रिश्ता नहीं रखना चाहती। वह कहती हैं कि ‘लाल बाबा’ (यहां आश्रम में रहने वाली सभी महिलाएं सुलभ के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक को ‘लाल बाबा’ कहती हैं) आश्रम में उनकी और अन्य सभी की अच्छी तरह से देखभाल कर रहे हैं। आखिरकार, उसके जीवन में अब वाकई फिर से शांति है। ‘मेरा जीवन जिस तरह बदला, जिस तरह के अनुभव मुझे हुए... मैं उनसे खुश नहीं हूं। लेकिन कम से कम अब मैं अपने जीवन की सबसे खराब अवस्था से बाहर आ चुकी हूं। आश्रम ने मेरे सिर पर एक आश्रय रखा है। सोने के लिए एक बिस्तर, साफ कपड़े और बेहतर भोजन के साथ जीवन धीरे-धीरे सही रास्ते पर लौट आई है। इसके साथ ही औषधीय आवश्यकताओं के लिए हर माह 2000 रूपए सुलभ द्वारा प्रदान किए जाते हैं। वृंदावन कभी भी किसी इंसान को भूखा नहीं सोने देगा और लाल बाबा यहां रहने वाली विधवाओं के लिए भगवान हैं।’ बातचीत के क्रम में अपने आंसू पोंछते हुए एक मुस्कुराहट के साथ आखिर में शांति कहती है, ‘जीवन चलता रहता है और कम से कम अब हमारे जीवन में शांति है।’
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गुड न्यूज
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विज्ञान मेले में चर्चा में रहा सुलभ का स्टॉल एसएसबी ब्यूरो
क्षिणी दिल्ली नगर निगम (पश्चिमी क्षेत्र) द्वारा विकासपुरी के निगम प्रतिभा विद्यालय में विज्ञान मेले में जहां छात्रों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, वहीं इसे लोगों ने काफी उत्सुकता के साथ देखा। इस अवसर पर कई दिलचस्प मॉडल्स का प्रदर्शन किया गया। साथ ही इस मौके पर शिक्षकों और छात्रों के बीच चित्रकला और वाद-विवाद प्रतियोगिता भी आयोजित की गई। विज्ञान मेले में खासतौर पर चौथी और पांचवी कक्षा के होनहार
छात्रों द्वारा प्रकृति और पर्यावरण सुरक्षा को लेकर कई सराहनीय मॉडल प्रस्तुत किए गए। विज्ञान मेले पर जिस स्टॉल ने लोगों को सबसे ज्यादा आकर्षित किया, वह ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का था। इस स्टॉल पर विशेष रूप से सुलभ का टू-पिट पोर फ्लश और मोबाइल टॉयलेट के मॉडल्स प्रदर्शित किए गए थे। इस स्टॉल पर इसके अलावा पूरे देश को ओडीएफ और स्वस्थ बनाने के लिए सुलभ के प्रयासों और तकनीकों के बारे में जानकारी दी गई। स्वच्छता को लेकर स्टॉल पर प्रदर्शित नारे और संदेशों ने भी लोगों को खासा ध्यान खींचा।
दिल्ली में दौड़ेगी भाप इंजन वाली रेलगाड़ी
रेलवे का लक्ष्य पहाड़ी क्षेत्रों के साथ दिल्ली रिंग रेलवे मार्ग पर नियमित रूप से भाप इंजन चालित रेलगाड़ी का परिचालन करना है
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अरुण कुमार दास
प इंजन देश के सभी पहाड़ी रास्तों पर चलने के साथ ही दिल्ली रिंग रेलवे पर चलती नजर आएगी, क्योंकि रेलवे भाप इंजन की विरासत को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रही है। कांगड़ा वैली रेलवे के पालनपुर-जोगिंदरनगर खंड पर भाप इंजन के सफल परिचालन के बाद सभी पांच पहाड़ी रेलवे अब पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए भाप इंजन का परिचलान कर रहे हैं। कांगड़ा वैली रेलवे यूनेस्को की विश्व विरासत स्थल की संभावित सूची में शामिल है। यहां करीब 20 साल पर भाप इंजन का परिचालन दोबारा शुरू किया गया, जिससे हिमाचल प्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है। दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे और नीलगिरी माउंटेन रेलवे नियमित रूप से भाप इंजन वाली ट्रेन का परिचालन करती है। वहीं कालका-शिमला रेलवे और माथेरान हिल रेवले पर्यटकों की मांग पर भाप इंजनवाली रेलगाड़ी का परिचालन करती है। अब राजधानी में लंबे समय से उपेक्षित, लेकिन एक समय में काफी लोकप्रिय
रहे रिंग रेलवे को दोबारा पुर्नजीवन प्रदान करने की तैयारी चल रही है। रेल विरासत से जुड़े रेल मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, "यह भारतीय रेलवे में भाप इंजनों का बड़ा पुनरुद्धार है। हमारा लक्ष्य सभी पहाड़ी रेल के साथ ही दिल्ली रिंग रेलवे मार्ग पर नियमित रूप से भाप इंजन चालित रेलगाड़ी का परिचालन करना है।" डीजल और इलेक्ट्रिक इंजन के आ जाने से साल 1995 में रेलवे ने धीरे-धीरे भाप इंजनों को परिचालन से बाहर कर दिया था। हालांकि इससे पहले भी साल 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान दिल्ली रिंग रेलवे पर भाप इंजनवाली ट्रेन चलाने की तैयारियां की गई थीं, लेकिन विभिन्न कारणों से यह परवान नहीं चढ़ सकी। लेकिन, अब भारतीय रेल की सक्रियता से दिल्ली रिंग रेलवे सेवा के शुरू होने की उम्मीद जगी है। यह काम उत्तर रेलवे को दिया गया है। रिंग रेलवे का मार्ग 34 किलोमीटर है, जो रिंग रोड के समानांतर है और दिल्ली के कई महत्वपूर्ण इलाकों से गुजरता है, जिसमें चाणक्यपुरी, सफदरगंज और सरोजिनीनगर शामिल हैं। योजना के मुताबिक, चार डिब्बों के साथ भाप इंजन वाली विरासत ट्रेन सफदरजंग स्टेशन से आनंद विहार तक चलेगी, जिसमें पुराना यमुना पुल, पुरानी दिल्ली, नई दिल्ली और निजामुद्दीन स्टेशन होंगे। फिलहाल, दुनिया भर में केवल गिने-चुने भाप इंजन ही बचे हैं, जो अभी भी चालू हालत में हैं।
खून की जांच से लगेगा बच्चों में ऑटिज्म का पता
ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ वारविक में हुए शोध के नतीजे बताते हैं कि बच्चों में ऑटिज्म का पता खून की जांच से लगाया जा सकता है
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च्चों में ऑटिज्म का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने खून और पेशाब की जांच का तरीका ईजाद किया है। उनका दावा है कि इससे ऑटिज्म के शिकार लोगों को काफी पहले से इलाज उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी। ऑटिज्म विकास संबंधी विकार है और इससे पीड़ित लोगों का सामाजिक मेलजोल प्रभावित होता है। इसके अलावा उनमें व्यवहार संबंधी दिक्कतें भी होती हैं। इसमें बोलने में परेशानी, बार-बार या
बाध्यकारी व्यवहार, अतिसक्रियता, व्यग्रता और नए वातावरण के अनुकूल होने में परेशानी महसूस करना शामिल है। इनमें से कुछ में ज्ञान-संबंधी विकार भी हो सकते हैं। ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ वारविक में नैला रब्बानी ने कहा कि ऑटिज्म में इतने सारे लक्षण होते हैं कि इसकी पहचान करने में कई बार दिक्कत होती है। खासतौर से छोटे बच्चों में इसकी पहचान मुश्किल हो जाती है। रक्त और मूत्र जांच की इस नई तकनीक से कम उम्र में ही ऑटिज्म की पहचान करना संभव हो सकेगा। यह शोध मॉलिक्यूलर ऑटिज्म पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। इसमें ऑटिज्म और ब्लड प्लाज्मा में मौजूद प्रोटीन के बीच संबंध स्थापित होने की बात कही गई है। रब्बानी ने उम्मीद जताई कि जांच के इस तरीके से ऑटिज्म के कारण को नई दिशा में देखने में मदद मिलेगी। (एजेंसी)
डायनासोर के विलुप्त होने का नया साक्ष्य धरती से डायनासोर के विलुप्त होने के पीछे वैज्ञानिक मैग्मा के भड़कने को कारण मान रहे हैं
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रोड़ों वर्ष पूर्व क्षुद्र ग्रह के पृथ्वी से टकराने पर दुनियाभर में ज्वालामुखी मैग्मा के फूटने के कारण धरती से डायनासोर विलुप्त हो गए होंगे। एक नए शोध में वैज्ञानिकों ने इस नई धारणा के पक्ष में साक्ष्य मिलने का दावा किया है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, छह मील चौड़ा एक क्षुद्र ग्रह करीब 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व मैक्सिको के युकाटन प्रायद्वीप से टकराया था, जिससे धरती और समुद्र दोनों में भीषण भूकंप आया था। 'साइंस एडवांसेस' नामक पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि भूकंप के प्रभाव से पानी के नीचे भी ज्वालामुखी से उग्र रूप से मैग्मा निकला होगा, जिससे पर्यावरण पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा होगा। मिनेसोटा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक जोसेफ बायर्न्सग ने कहा, "हमें पूर्व में
सामूहिक विलुप्ति की घटना के दौरान अज्ञात समयावधि के दौरान दुनिया में शक्तिशाली ज्वालामुखी स्फोट के साक्ष्य मिले हैं।" 1980 के दशक में जब आज के मैक्स्किो में चिक्जुलुब के पास उल्कापात का सबूत मिला था, तब से वैज्ञानिकों के बीच यह भी विवाद बना हुआ है कि क्या क्षुद्र ग्रह के टकराने या किसी ज्वालामुखी स्फोट के कारण भारत के दक्कन क्षेत्र में सब कुछ समाप्त हो गया था, जिसके कारण गैर-पक्षी समूह के जीव डायनासोर मर गए। ओरेगन विश्वविद्यालय के प्रोफेर लीफ कार्लस्ट्रोम के मुताबिक, विविध अध्ययनों से इस बात के संकेत मिलते हैं कि दक्कन क्षेत्र में कई ज्वालामुखी उल्कापात होने के पहले से ही जाग्रत थे। इस प्रकार उल्कापात होने से धरती पर भूकंप संबंधी तरंगों में तेजी आई और विस्फोट की रफ्तार तीव्र हो गई। कार्लस्ट्रोम ने कहा, ‘हमारे शोध कार्य में संपूर्ण धरती पर हुई इन दुर्लभ व विनाशकारी घटनाओं के बीच संबंध है। उल्कापात के प्रभाव से ज्वालामुखी स्फोट हुए होंगे, जो पहले से ही जारी थे और इनका दोतरफा असर पड़ा होगा।’ (आईएएनएस)
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अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन का होगा निजीकरण अमेरिका अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन का निजी हाथों में सौंपना चाहता है, क्योंकि वह महंगे अंतरिक्ष कार्यक्रम का वित्तपोषण बंद करना चाहता है
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मेरिका अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन का निजीकरण करने का इच्छुक है, क्योंकि वह आने वाले कुछ वर्षों में इस महंगे अंतरिक्ष कार्यक्रम का वित्तपोषण बंद करना चाहता है। द वॉशिंगटन पोस्ट की खबर में यह दावा किया गया है। अंतरिक्ष स्टेशन पृथ्वी की निचली कक्षा में है और इसका संचालन अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा करती है। इस स्टेशन को नासा ने अपने रूसी समकक्ष के साथ मिल कर संयुक्त रूप से विकसित किया है। कहा गया है कि अमेरिका की योजना आईएसएस के निजीकरण की है। आईएसएस में पृथ्वी की निचली कक्षा के वायुमंडल में वैज्ञानिक अध्ययन करने के लिए कनाडा, यूरोपीय और जापानी अंतरिक्ष एजेंसियों के सहयोग से अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ काम कर रहे हैं। नासा का एक अंदरूनी दस्तावेज मिला है जिसमें कहा गया है, ‘वर्ष 2025 तक आईएसएस के लिए सीधा संघीय सहयोग बंद करने का मतलब यह नहीं है कि तब तक यह मंच खुद ही बंद हो जाएगा।’ इसमें आगे कहा गया है ‘यह संभव है कि उद्योग भावी वाणिज्यिक मंच के हिस्से के तौर पर आईएसस के कुछ हिस्सों को संचालित करता रहे।’ ‘नासा अगले सात साल के दौरान अंतरराष्ट्रीय और वाणिज्यिक भागीदारी का विस्तार करेगा ताकि पृथ्वी की निचली कक्षा तक मानवीय पहुंच और उपस्थिति लगातार बनी रहे।’ (एजेंसी)
गुड न्यूज
अब चांद पर भी मिलेगा फोन नेटवर्क
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जल्द ही चांद से धरती पर मोबाइल फोन के सहारे बात की जा सकेगी
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गले साल चांद को भी अपना पहला मोबाइल नेटवर्क मिल जाएगा। इस नेटवर्क के जरिए चांद की सतह से धरती पर हाई-डेफिनिशन स्ट्रीमिंग संभव हो सकेगी। चांद पर मोबाइल नेटवर्क लाने का काम एक प्राइवेट फंडेड मून मिशन का भाग है। वोडाफोन जर्मनी, नेटवर्क इक्विपमेंट मेकर नोकिया और कार कंपनी आउडी ने कहा है कि नासा के ऐस्ट्रोनॉट के चांद की सतह पर उतरने के 50 साल बाद वे एक साथ मिलकर इस मिशन पर काम कर रहे हैं। वोडाफोन ने बताया कि इस काम के लिए उन्होंने नोकिया को टेक्नॉलजी पार्टनर के तौर पर
रखा है, ताकि स्पेस-ग्रेड नेटवर्क डिवेलप किया जा सके। इसके लिए एक छोटा सा हार्डवेअर तैयार किया जाएगा जिसका वजन चीनी के एक बैग से भी हल्का होगा। इस प्रोजेक्ट पर ये कंपनियां बर्लिन की एक कंपनी पीटीसाइंटिस्ट्स के साथ काम कर रही हैं। वोडाफोन ने बताया है कि इस प्रोजेक्ट की लॉन्च डेट 2019 में रखी गई है और इसे स्पेसएक्स फाल्कन 9 रॉकेट के जरिए केप कैनरेवल से लॉन्च किया जाएगा। वोडाफोन जर्मनी के चीफ एक्जिक्यूटिव हैंज ऐम्जरीटर ने कहा, 'इस प्रोजेक्ट के में मोबाइल नेटवर्क डेवलपमेंट के लिए मौलिक और नई अप्रोच अपनाई
जा रही है।' इस प्रोजेक्टम में शामिल एक अधिकारी ने बताया कि हमने इस प्रोजेक्ट में 5जी नेटवर्क की जगह 4जी नेटवर्क डिवेलप करने का निर्णय किया है क्योंकि 5जी नेटवर्क अभी भी टेस्टिंग फेज में है और हमें अभी यह भी नहीं पता कि यह चांद की सतह पर काम कर भी सकेगा या नहीं। (एजेंसी)
मुस्कराहट में कुछ खास है
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स्कुराता हुआ चेहरा न सिर्फ आंखों को सुकून देता है, बल्कि यह खुद के लिए भी अच्छा होता है। यूनिवर्सिटी ऑफ विसकॉनसिंन मेडिसन के शोध में कहा गया है कि किसी की मुस्कान में छिपे संदेश के प्रति हमारा शरीर अलग-अलग प्रतिक्रिया देता है। अमेरिकी मनोविज्ञानियों का कहना है कि हर मुस्कान सिर्फ सुकून नहीं देती है, कुछ लोगों की मुस्कराहट तुच्छ एहसास भी कराती है। शोधकर्ताओं ने तीन प्रमुख मुस्कान को
प्रभावकारी बताया है। इसमें एक मुस्कुराहट जहां सामने वाले शख्स से पहचान बताती है, तो दूसरी खुशी दर्शाती है और तीसरी तरह की मुस्कान तब हमारे होठों पर आती है, जब हमें किसी की मौजूदगी से खुशी मिलती है। प्रमुख शोधकर्ता जेरेड मार्टिन ने कहा कि जब आपसे कोई बात कर रहा होता है, उस समय आपके चेहरे के भाव बहुत असर डालते हैं। कुछ वार्तालाप या चर्चाएं ऐसी होती हैं, जिनमें मुस्कराहट का असर देर तक और लंबा होता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ विसकॉनसिंन मेडिसन के शोध में कहा गया है कि किसी की मुस्कान में छिपे संदेश के प्रति हमारा शरीर अलगअलग प्रतिक्रिया देता है
यह शोध साइंटिफिक रिपोर्ट्स पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। इस अध्ययन के लिए विशेषज्ञों ने कॉलेज के पुरुष छात्रों को कुछ बोलने का असाइनमेंट दिया। दूसरे छात्रों को वेबकैम के जरिए इनका प्रदर्शन जांचना था। इस दौरान इनकी हृदयगति और तनाव के लिए जिम्मेदार कार्टिसोल हॉर्मोन का स्तर मापा गया। साथ ही देखा गया कि बोलने के कार्य के दौरान लोग इनके लिए किस तरह से मुस्कराए और इसका असर इन छात्रों पर कैसा रहा। (एजेंसी)
इस इलाज से दिमाग नहीं होगा क्षतिग्रस्त मस्तिष्काघात के मरीजों का एबी126 नाम की पद्धति में एक्जोसोम का इस्तेमाल कर सफल इलाज किया गया
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स्तिष्काघात में दिमाग को होने वाली क्षति बड़ी चिंता का कारण होता है। एक शोध में विशेषज्ञों ने मस्तिष्काघात के मरीजों के इलाज का नया तरीका ईजाद करने का दावा किया है। इससे दिमाग को होने वाली क्षति पर काबू पाने में मदद मिलेगी और
प्राकृतिक तरीके से उसके उपचार में तेजी आएगी। अमेरिका में यूनीवर्सिटी ऑफ जॉर्जिया एंड अगस्ता यूनिवर्सिटी ने इलाज की नई पद्धति पर शोध किया है। इसे एबी126 नाम दिया गया है। इसमें एक झिल्लीदार गोले में तरल पदार्थ से भरे एक्जोसोम का इस्तेमाल कर उपचार किया जाएगा। यह रक्त के प्रवाह में पूरी तरह से समाहित हो जाता है। विशेषज्ञों का दावा है कि इस उपचार से मस्तिष्काघात के मरीजों को काफी राहत मिलेगी। यह कोशिकाओं से संबंधित थेरेपी से कहीं अधिक भरोसेमंद और बाधारहित उपचार है।
आकार में छोटा होने के कारण यह अधिक कारगर है। एक्जोसोम में चुपके से काम करने वाला गुण होता है, जिससे यह बहुत कम समय में इससे प्रभावी इलाज किया जा सकता है। इसमें इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाले तत्व अगर भर दिए जाएंगे तो यह काफी प्रभावी हो जाएगा। एबी126 के प्रभाव को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने एमआरआई स्कैन का सहारा लिया। उन्होंने एक मॉडल में आघात से पहले की तस्वीर, आघात के दौरान और उपचार के बाद ही तस्वीरों का अध्ययन किया। (एजेंसी)
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गुड न्यूज
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अशक्तता के बदलते अफसाने
महज 19 साल की उम्र में आंखों की रोशनी गंवाने वाले दिव्यांशु भारत के पहले एकल नेत्रहीन पैराग्लाइडर
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सोमरिता घोष
व्यांशु गणत्रा जब महज 19 साल के थे तभी मोतियाबिंद के चलते उनकी आंखों की रोशनी चली गई। स्वभाव से साइकिल चलाने, पहाड़ों की चढ़ाई करने और लंबी पदयात्रा करने में मस्त रहने वाले गणत्रा अपने कमरे की चारदीवारी के भीतर खुद को कैद रखने को तैयार नहीं थे। उन्होंने हर विषम परिस्थिति का सामना किया और आज वह भारत के पहले एकल नेत्रहीन पैराग्लाइडर हैं। उनका मानना है कि सिर्फ खेल एक ऐसा क्षेत्र है जो शारीरिक रूप से सक्षम व अक्षम लोगों एकजुट कर सकता है और अशक्त व्यक्ति (दिव्यांग) की जन्मजात क्षमता को लेकर गलतफहमी दूर हो सकती है। दिव्यांशु का यह सफर उनकी जिंदगी में अचानक आई मुश्किल और अंधकार के दौर के प्रति उनके गुस्से व निराशा से शुरू हुई। उनके अकेले चलने की क्षमता को लेकर हर दिन लोग सवाल उठाते थे। अपने जीवन को संवारने के लिए वह एक पुनर्वास केंद्र गए, लेकिन वहां वह ज्यादा वक्त नहीं टिक पाए, क्योंकि वहां उनको अपने लिए टेलीफोन ऑपरेटर बनने या खड़िया बनाने का काम करने के सिवा दूसरा कोई काम करने का अवसर नहीं था। जबकि उनको पक्का विश्वास था कि अशक्त व्यक्ति के बारे में समाज की जो धारणा है, वह उससे ज्यादा कर सकते हैं। 40 वर्षीय दिव्यांशु ने कहा, "मैं लोगों की सहानुभूति के सहारे जिंदगी बसर करने को तैयार नहीं था। मुझे अपना मनोबल और शारीरिक शक्ति दोबारा हासिल करने में थोड़ा वक्त लगा। मैं जानता था कि मैं खुले मैदान के लिए बना हूं। धीरे-धीरे मैं साइकिल चलाने व चढ़ाई करने जैसी गतिविधि में संलग्न रहने लगा।" उन्होंने बताया, "मैं अपने उस आनंद की अनुभूति को कभी भूल नहीं सकता। यह मेरे लिए
एक प्रकार का आध्यात्मिक अनुभव था। आकाश में उड़ने की अनुभूति को बयां करना काफी कठिन है। धरती पर कई बाधाएं हैं, लेकिन आकाश में तो मैं पक्षी की तरह आजाद हूं।" यह 2004 की बात है, जब वह 26 साल थे। उसके बाद उन्होंने कभी पीछे पलट कर नहीं देखा। रूढ़ियों से मुकाबला करते हुए उस भीड़ से अलग दिखना चाहते थे, उस धारणा को तोड़ना चाहते थे कि अशक्त व्यक्ति को सहारे की जरूरत होती है। आखिरकार, 2014 में दिव्यांशु भारत के पहले एकल पैराग्लाइडर बन गए। उसी साल उन्होंने भारत में आयातित साइकिल की अग्रणी ब्रांड फायरफॉक्स बाइक के सहयोग से एडवेंचर्स बियांड बैरियर्स फाउंडेशन (एबीबीएफ) की शुरुआत की, जिसका मकसद सक्षम व असक्षम के बीच के अंतर को मिटाना है। उन्होंने कहा, "मुझे पुणे में पैदा होने का सौभाग्य मिला। बचपन से ही मैं पहाड़ियों की चढ़ाई करता रहा हूं और अक्सर लंबी यात्रा पर जाता रहा हूं। मेरा विश्वास है कि खेल एक ऐसा मंच है, जहां दोनों वर्ग के लोगों के बीच संपर्क स्थापित होता है।" दिव्यांशु को लोग अक्सर दूसरों की प्रेरणा के लिए मिसाल के तौर पर पेश करते हैं, लेकिन उनको अपनी प्रशंसा
सुनने का शौक नहीं है। उन्होंने कहा, "मैंने जो किया, उसमें प्रेरणा की कोई बात नहीं है। पैराग्लाइडिग या पवर्तारोहण जैसे साहसिक खेल कोई भी खेल सकता है। इसमें कौन-सी विशेष बात है जो मैंने की है? आप किसी सक्षम व्यक्ति द्वारा ऐसा करने पर उनको किसी के लिए प्रेरणा के स्रोत नहीं बता सकते तो फिर अशक्त के लिए क्यों?" दिव्यांशु ने कहा, "नेत्रहीन व्यक्ति के लिए अशक्तता शब्द का इस्तेमाल इसके बाद नहीं होना चाहिए। हम सबसे ज्यादा शरीर से सक्षम व्यक्ति की इस धारणा से आहत होते हैं। अशक्तता के साथ जीना किसी के लिए मुश्किल होता है। इसमें कोई बुरी मंशा नहीं है, बल्कि यह गलतफहमी है, जो मुख्यधारा के लोग अपने मन में पाल लेते हैं।" उन्होंने कहा, "हमारे देश में सबसे ज्यादा अशक्त लोगों की आबादी है, जो अदृश्य है। भारत में करीब 20 करोड़ लोग अशक्त हैं, लेकिन हमारी तरफ मुश्किल से ध्यान दिया जाता है।" दिव्यांगों के संवैधानिक अधिकारों के बार में दिव्यांशु कहते हैं कि इसके लिए कई कानून हैं, लेकिन कानून को अमल में लाने का तरीका ढीला है। उन्होंने कहा, "अगर कानून को अमल में नहीं लाया जाता है तो यह बेकार है। पहली बात यह कि अधिकांश अशक्त व्यक्ति अपने अधिकारों को लेकर अनजान हैं। दूसरी बात यह कि अशक्तों की भलाई के लिए अधिकारों का उचित कार्यान्वयन नहीं होता है। निजी व सार्वजनिक क्षेत्र में अशक्तों के लिए आरक्षण है, लेकिन अशक्त व्यक्तिय बाहर बैठाकर रखा जाता है। उनको कोई काम नहीं दिया जाता है, जो बहुत ही खराब स्थिति है।" दिव्यांशु ने कहा, "अशक्तों के प्रति लोगों का नजरिया बदल रहा है। जब यह बदलाव ज्यादा सार्थक होगा और मुख्यधारा के लोग अपने शैक्षणिक संस्थानों, कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थलों को हमारे लिए खोलेंगे तो हम व्यापक बदलाव देख पाएंगे।" (आईएएनएस)
उम्र के साथ नहीं आती समझदारी
कहा जाता है कि उम्र के साथ समझदारी अपने आप आ जाती है, लेकिन एक अध्ययन का दावा है कि इसके लिए किसी खास उम्र तक पहुंचना जरूरी नहीं होता
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क शोध में विशेषज्ञों ने दावा किया है कि उम्र बढ़ने के साथ समझदारी नहीं आती है। ओरेगॉन स्टेट यूनिवर्सिटी में हुए अध्ययन में कहा गया है कि जीवन में कठिनाइयों का अनुभव करने वाले अन्य के मुकाबले अधिक गंभीर होते हैं। इसके लिए किसी खास उम्र तक पहुंचना जरूरी नहीं होता है। अध्ययन में विशेषज्ञों ने कहा कि लंबी बीमारी या जीवन की अन्य गंभीर परिस्थिति से गुजरने के बाद कई चीजों के प्रति हम गंभीर हो जाते है। परिस्थितियों को समझने का हुनर उनमें आ जाता है। प्रमुख शोधकर्ता
डॉक्टर कैरोलिन एल्डविन का कहना है कि जीवन में आई विषम परिस्थितियां हमें अंदर से मजबूत बना देती हैं। इनसे निपटने में किसी भी व्यक्ति का सहयोग तंत्र उसकी मदद करता है। शोधकर्ताओं ने शोध के लिए 50 लोगों के आंकड़ो का अध्ययन किया। इनकी उम्र 56 से 91 साल के बीच थी और इसमें 36 महिलाएं व 14 पुरुष शामिल थे। यह अध्ययन जेरोंटोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। डॉ. एल्डविन ने कहा कि कोई व्यक्ति अपनी परिस्थिति से किस तरह उबरता है, यह काफी हद तक उसके आसपास के माहौल पर निर्भर करता है। (एजेंसी)
ऊंचे स्वर में पढ़ने से बढ़ेगी स्मृति
कनाडा के वाटरलू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कोलिन एम. मैकलियोड ने कहा अध्ययन में सक्रिय सहभागिता से सीखने और स्मृति के फायदे की पुष्टि होती है
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गर आपका बच्चा कोई पाठ याद नहीं कर पा रहा है तो उसे ऊंचे स्वर में पढ़ने की आदत डालने को कहिए। एक अध्ययन में पता चला है कि जोर से पढ़ने से लंबी अवधि की स्मृति बढ़ती है। अध्ययन के नतीजों में सामने आया है कि बोलने और सुनने की दोहरी कार्यविधि 'उत्पादन प्रभाव' का यादाश्त पर लाभकारी असर होता है। बोलने और सुनने से शब्द जाना-पहचाना बन जाता है और इस प्रकार उसके मस्तिष्क में प्रतिधारण यानी स्मृति में बने रहने की संभावना बढ़ जाती है। कनाडा के वाटरलू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कोलिन एम. मैकलियोड ने कहा अध्ययन में सक्रिय सहभागिता से सीखने और स्मृति के फायदे की पुष्टि होती है। उन्होंने आगे बताया जब हम सक्रिय उपाय या उत्पादन तत्व किसी शब्द के साथ जोड़ते हैं, तो वह शब्द ज्यादा विशिष्ट बनकर हमारी लंबी अवधि की स्मृति में रहता और वह स्मरणीय बन जाता है। मेमोरी नामक पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में शामिल दल ने लिखित सूचनाओं को सीखने की चार विधियों का परीक्षण किया, जिनमें शांत होकर पढ़ना, किसी को पढ़कर सुनाना, अपने पढ़े हुए को रिकॉर्ड करके सुनना और जोर से पढ़ना शामिल था। अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि जोर से पढ़ने का जो उत्पादन प्रभाव है, वह यादाश्त के लिए सबसे अच्छा है। मैकलियोड ने बताया अध्ययन बताता है कि कार्य करने के विचार या क्रियाशीलता भी स्मरण शक्ति बढ़ती है। यह अनुसंधान पूर्व के अध्ययनों पर आधारित है, जिसमें यह बताया गया है कि गतिविधियों का उत्पादन प्रभाव जैसे- शब्द लिखना और टाइप करना, से आखिरकार स्मृति बढ़ती है। (एजेंसी)
12 - 18 मार्च 2018
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गुड न्यूज
एलीफेंटा की गुफाएं हुईं रौशन स्वच्छता का सबक सिखा रही आजादी के 70 साल बाद एलीफेंटा की गुफाएं ही नहीं, छत्तीसगढ़ है 16 साल की लड़की को जोकापाठ गांव में बिजली पहुंचाई गई
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भाग्य योजना के अंतर्गत देशभर के घरों में बिजली पहुंचाने का अभियान चलाया जा रहा है। इस योजना के तहत महाराष्ट्र में मुंबई से महज 10 किलोमीटर दूर एलीफेंटा या घरापुरी टापू पर आजादी के 70 साल बाद बिजली पहुंचाई गई है। एलीफेंटा टापू के तीन गांव आजादी के बाद से ही अंधेरे में डूबे हुए थे। बिजली विभाग के अधिकारियों के अनुसार एलीफेंटा टापू पर बिजली पहुंचाने के लिए समुद्र में 7.5 किलोमीटर केबल बिछाई गई है, यह भारत में समुद्र में बिछाया गया सबसे लंबा केबल है। इस टापू पर विद्युतीकरण की परियोजना में कुल 25 करोड़ की लागत आई है, और इसे पूरा करने में 15 महीने के समय लगा है। बिजली विभाग ने तीनों गांवों में छह-छह स्ट्रीट लाइट टॉवर लगाए हैं, और इन पर शक्तिशाली एलईडी बल्ब लगाए गए हैं। इसके साथ ही इन गांवों के दो सौ घरों में बिजली के मीटर कनेक्शन और कुछ उपभोक्ताओं को व्यावसायिक कनेक्शन भी दिए गए हैं। बिजली पहुंचने की खुशी में लोगों ने एलीफेंटा टापू के गांवों के निवासियों ने पारंपरिक सजावट कर अपनी खुशी जताई। पिछले वर्ष दिसंबर में ही छत्तीसगढ़ में
बलरामपुर जिले के जोकापाठ गांव में भी आजादी के बाद पहली बार बिजली पहुंची थी। आजादी के 70 साल बाद बिजली पहुंचने पर लोगों की खुशी की ठिकाना नहीं रहा। केंद्र सरकार की नीतियों के चलते इस गांव का अंधेरा दूर हो पाया। खुशी में डूबे गांव के लोगों का कहना था कि अब उनके गांव के बच्चे पढ़-लिख सकेंगे। गांव के विकास की यह कहानी जब सोशल मीडिया के जरिए नरेंद्र मोदी तक पहुंची तो वह भी बेहद खुश हुए। गांववालों के लिए इस ऐतिहासिक दिन पर प्रधानमंत्री मोदी भावुक हो गए। प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर कहा कि ऐसी खबरें बेहद खुश और भावुक कर देती हैं। इतनी सारी जिंदगियों को रोशनी देखना आनंददायक है। दरअसल, जोकापाठ गांव के पहाड़ों के बीच होने के कारण यहां बिजली पहुंचाना बहुत ही मुश्किल का काम था। आजादी के 70 साल बाद भी यहां बिजली ना पहुंचने की बात जब मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह को मिली तो उन्होंने इसपर काम करने को कहा। बिजली के खंभे लगाए गए, ट्रांसफॉर्मर लगाया गया, तार खींचे गए और लोगों को बिजली मिलनी शुरू हो गई। गांव के सरपंच ने खुशी जताते हुए कहा कि अब बिजली आने के बाद गांव के बच्चे अच्छे से पढ़ाई कर सकेंगे और जिंदगी में आगे बढ़ सकेंगे। गांव के बच्चे बिजली आने से काफी खुश हैं। बच्चे रोशनी में पढ़ाई कर रहे हैं। अब जोकापाठ बिजली पहुंचने से गांव के साथ-साथ इलाके के विकास में तेजी आएगी। (एजेंसी)
इस ग्रह पर मिला तीन गुना ज्यादा पानी
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बेंगलुरु की संजना दीक्षित अनाथालय में रहने वाली लड़कियों में जागरूकता फैला रही है
3 साल की लक्ष्मी की जिंदगी अब थोड़ी सी बदल गई है। उन्हें याद नहीं कि उन्होंने कभी सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल किया हो। अब तक वह कपड़ा ही इस्तेमाल करती आई हैं, जिसे वह हर इस्तेमाल के बाद धोकर ऐसी जगह सुखाती थीं, जहां किसी की नजर न पड़े। बाद में उन्हें पता चला कि छांव में उसे सुखाना सेहत के लिए नुकसानदेह है। अब वह सैनिटरी पैड्स का प्रयोग शुरू करने जा रही हैं और इसके बारे में उन्हें जागरुक किया है एक वर्कशॉप ने। इस वर्कशॉप की आयोजक थीं महज 16 साल की संजना दीक्षित। बेंगलुरु में पीरियड्स में साफ-सफाई और पैड्स के प्रयोग पर जागरुकता फैलाने वाली संजना दसवीं क्लास की छात्रा हैं। पीरियड्स के मुद्दे पर जागरुकता फैलाने की उनकी पहल में अनाथालय में रहने वाली वे लड़कियां शामिल हैं, जिनसे इस मुद्दे पर सामान्य रूप से ज्यादा बात नहीं की जाती। संजना ने जनवरी में एक वर्कशॉप आयोजित की थी, जिसमें लक्ष्मी और उनके जैसी कई अन्य महिलाओं ने हिस्सा लिया था। संजना बताती हैं कि इसकी शुरुआत कैसे हुई, वह अपना 16वां जन्मदिन एक अनाथालय में मना रही थीं। संजना वहां टायलट गईं तो गंदगी को देखकर उनके मन में सवाल आया कि यहां लड़कियां पीरियड्स के दिन में साफ-सफाई का ध्यान कैसे रखती होंगी? इस सवाल के सहारे ही वह पहल करने और जागरुकता फैलाने के लिए सामने आईं।
संजना ने इसके लिए हर क्लास में जाकर फंड इकट्ठा किया और दो महीने के अंदर डॉक्टरों की मदद ले कई वर्कशॉप कीं। वह कहती हैं कि ज्यादातर लड़कियों को इस बारे में जानकारी नहीं है कि पीरियड्स के दिनों में साफ-सफाई कितनी और क्यों जरूरी है। जमा किए पैसों से वह सैनिटरी नैपकिट बांटने का काम भी कर रही हैं। संजना कहती हैं, 'यह चौंकाने वाला था जब क्लास में जाकर मैंने अपना मकसद बताया और फंड के लिए मदद मांगी तो आगे आने वालों में लड़के ज्यादा थे। मुझे अच्छा लगा कि मैं किसी भी तरह इन लोगों की मदद कर पाई।' संजना सिर्फ लड़कियों को ही नहीं, लड़कों को भी जागरुक करना चाहती हैं। आगे उनकी योजना स्लम से लेकर अनाथालयों तक वर्कशॉप्स का आयोजन करना और जरूरतमंद लड़कियों तक आसानी से पैड्स पहुंचाना है। वह चाहती हैं कि झिझक और जागरुकता की कमी जैसी दिक्कतों को दूर कर एक स्वस्थ और बेहतर कल बनाया जाए। (एजेंसी)
नासा के अंतरिक्ष का अवलोकन करने वाले हबल और स्पिट्जर दूरबीन का इस्तेमाल कर वैज्ञानिकों ने इस ग्रह की आबोहवा का विश्लेषण किया और उसकी पूरी तस्वीर ग्रहण की। मैरीलैंड
के वाल्टीमोर स्थित स्पेस टेलिस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट के प्रमुख अन्वेषणकर्ता हना वेकफोर्ड ने कहा, ‘हमें बाहर निकलकर देखने की जरूरत है जिससे अपने सौरमंडल को समझ सकें।’ सहयोगी अन्वेषणकर्ता डेवन स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के डेविट सिंग ने कहा, ‘वास्प-39बी दर्शाता है कि सौरमंडल के बाहर के ग्रहों में सौरमंडल के ग्रहों से भिन्न संरचना होगी।’ उन्होंने कहा, ‘आशा है कि इस विविधता से हमें ग्रहों के बनने की विभिन्न विधियों और व उनकी उत्पति के बारे में जानकारी मिल सकती है।’ अनुसंधानकर्ताओं के मुताबिक, वास्प39बी पर दिन के पक्ष का तापमान काफी ज्यादा 776.7 डिग्री सेल्सियस होता है। (आईएएनएस)
अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान ने एक ऐसे ग्रह की खोज की है जहां शनि की तुलना में तीन गुना ज्यादा पानी है
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गोल वैज्ञानिकों ने सौरमंडल के बाहर करीब 700 प्रकाशवर्ष दूर शनि ग्रह के आकार के एक ग्रह के बारे में पता लगाया है जिस पर पानी होने के संकेत मिले हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान, नासा ने कहा कि इस ग्रह को वास्प-39बी नाम दिया गया है। इस पर शनि ग्रह की तुलना में तीन गुना ज्यादा पानी है। खोजकर्ताओं ने कहा कि यह सौरमंडल के ग्रहों
के जैसा नहीं है, लेकिन वास्प-39बी से यह जानने को मिल सकता है कि किसी तारे के ईद-गिर्द ग्रह कैसे बनते हैं। कन्याराशि के तारामंडल स्थित वास्प39बी सूर्य की तरह के स्थिर तारे का चार दिन में एक चक्कर लगाता है। इस तारे का नाम वास्प-39 है। सौरमंडल से बाहर का यह ग्रह अपने तारे से काफी निकट है, जो कि पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी का महज 20वां हिस्सा है।
16 खुला मंच
12 - 18 मार्च 2018
सफलता एक घटिया शिक्षक है, यह लोगों में यह सोच विकसित कर देता है कि वे कभी असफल नहीं हो सकते
- बिल गेट्स
बरनाली दास
अभिमत
लेखिका एसओएस चिल्ड्रेन विलेजेज ऑफ इंडिया की कम्युनिकेशन हेड हैं
लैंगिक समानता की ओर...
लैंगिक समानता और समान अवसर की दृष्टि से सोशल मीडिया पर शुरू हुआ ‘#वीआरइक्वल’ अभियान काफी सफल रहा है
स्वास्थ्य क्षेत्र में दो बड़े कदम
आयुष्मान भारत के साथ दुर्लभ बीमारियों के खात्मे के लिए 200 करोड़ की योजना के साथ बदल जाएगी देश में स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर
स्वा
स्थ्य और शिक्षा से जुड़े बुनियादी सरोकारों की अवहेलना से न कोई समाज आगे बढ़ सकता है और न ही राष्ट्र। इन दोनों क्षेत्रों को लेकर एक शिकायत यह भी रही है कि आधुनिक दौर में जिस तरह तालीम और सेहत लोगों की जिंदगी से जुड़ा एक गंभीर विषय बनता गया है, उस मुकाबले हमारी सरकारें इस बारे में उदासीन रही हैं। इस उदासीनता को लेकर संयुक्त राष्ट्र भी चिंता जता चुकी है। भारत के लिए यह अच्छी बात है कि देश की मौजूदा सरकार शिक्षा के साथ स्वास्थ्य को अपनी प्राथमिकता में लेकर चल रही है। इस वर्ष केंद्र सरकार ने भी जो आम बजट पेश किया है, उसमें सबसे अहम स्वास्थ्य बीमा को लेकर मेगा प्रोजेक्ट की घोषणा रही है। ‘आयुष्मान भारत’ के नाम से शुरू होने वाली इस योजना की समीक्षा खुद प्रधानमंत्री अपने स्तर से कर रहे हैं। इस योजना के तहत देश के 10 करोड़ से अधिक गरीब और कमजोर परिवारों को 5 लाख रुपए का स्वास्थ्य कवर प्रदान किया जाना है। ‘आयुष्मान भारत’ की तरह ही एक और बड़ी पहल सरकार की तरफ से दुर्लभ बीमारियों के खात्मे को लेकर है। केंद्र सरकार 300 दुर्लभ बीमारियों के खात्मे के लिए राज्य सरकारों के साथ मिलकर अभियान शुरू करने वाली है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय इसके लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाने में जुटा है। इस नीति को इस वर्ष के अंत तक लागू किए जाने की उम्मीद है, इसके तहत डॉक्टरों को भी इन बीमारियों के बारे में प्रशिक्षित किया जाएगा। आंकड़ो के अनुसार दुनियाभर में लगभग 7 हजार दुर्लभ बीमारियां हैं, जिनमें से भारत में लगभग 300 तरह की दुर्लभ बीमारियां पाई जाती हैं। इनके उपचार का खर्च भी करीब 8 से 20 लाख रुपए तक होता है। सरकार इन दुर्लभ बीमारियों से निपटने के लिए 200 करोड़ रुपए खर्च करेगी, जबकि बाकी 125 करोड़ रुपए राज्य सरकारों की तरफ से खर्च किया जाएगा। जिस तरह की तैयारियां हैं, उसमें स्वास्थ्य को लेकर सरकार की इन दो बड़ी पहलों का असर निकट भविष्य में दिखना शुरू हो जाएगा।
टॉवर
(उत्तर प्रदेश)
मं
गलयान मिशन और एक साथ लांच किए गए 104 उपग्रहों को लेकर भारतीय महिला वैज्ञानिकों के योगदान की प्रशंसा न केवल भारत द्वारा की गई, बल्कि पूरी दुनिया में भारतीय महिला वैज्ञानिकों की सराहना हुई। डॉ. केसी थॉमस, एन वलारमती, मिनाल संपथ, अनुराधा टीके, रितू करिधल, मोमिता दत्ता और नंदनी हरिनाथ जैसे वैज्ञानिकों ने हर भारतीय को गौरवान्वित किया है। इन वैज्ञानिकों की तरह ही अनेक महिलाएं हैं, जिन्होंने मिसाल कायम की है। वे विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्टता और ज्ञान के उदाहरण हैं। लेकिन यह आईने का एक पहलू है। यह पहलू शिक्षित, सफल और सशक्त भारतीय महिलाओं की स्थिति की है। दूसरी ओर महिलाओं की बड़ी आबादी आज भी भेदभाव और दमन झेल रही हैं। ऐसी महिलाएं जीवन और समाज में अपने उचित स्थान की मांग करने से काफी दूर हैं। ऐसी महिलाएं भारत के संविधान में दिए गए समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14) सहित अपने मौलिक अधिकारों का उपयोग नहीं कर पाती हैं। इस स्थिति में एकमात्र रास्ता दोनों पहलुओं के बीच की खाई को पाटना और संतुलन बनाना है। सौभाग्यवश, हम सही रास्ते पर हैं, लैंगिक समानता के सिद्धांतों पर काम कर रहे हैं। कार्यबल तथा निचले स्तर पर राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के योगदान और भागीदारी से भारत ने वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की वैश्विक लैंगिक अंतर रिपोर्ट में बड़ी छलांग लगाई हैं। शिक्षा प्राप्ति, आर्थिक भागीदारी तथा अवसर, स्वास्थ्य तथा राजनीतिक सशक्तिकरण के कारण यह सुधार हुआ है। विश्व में राजनीतिक सशक्तिकरण के बारे में भारत का स्थान 9वां है। यह बड़ी उपलब्धि होने के साथ-साथ अपने देश द्वारा अपनाए गए लोकतांत्रिक मॉडल की अंतर्निहित शक्ति का संकेतक भी है।
हालांकि इस बात में दो राय नहीं कि लैंगिक समानता के संबंध में लंबा रास्ता तय करना है और इस रास्ते की सबसे बड़ी बाधा यह है कि हमारा समाज महिला को किस रूप में देखता है। हालांकि विभिन्न क्षेत्रों की महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनी और संवैधानिक ढांचा सशक्त बनाने वाले हैं, लेकिन इन प्रावधानों के बारे में उदार और प्रगतिशील चेतना की भारी कमी है। कानूनी चेतना के बावजूद किसी भी सामान्य पुरूष और महिला के लिए न्याय तक पहुंचना और लंबी लड़ाई लड़ना कोई सहज काम नहीं है। इसी तरह लैंगिक असंतुलन तथा लैंगिक भेदभाव के कारण 1961 के बाद से देश की महिला आबादी में कमी आ रही है। यह भारत की विकासगाथा पर एक धब्बा है। इस समस्या के समाधान के लिए, यानी महिलाओं की गिरती आबादी की प्रवृति बदलने के लिए प्रधानमंत्री द्वारा 2015 में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना लांच की गई। महिलाओं की कम होती संख्या कहानी के एक भाग को दिखाती है। यह केवल महिलाओं और लड़कियों की निम्न सामाजिक स्थिति का एक लक्षण है, गंभीर लक्षण। यह दिखाता है कि किस तरह भारत में पितृसत्ता का ढांचा अनादर, दुर्व्यवहार, असमानता और भेदभाव से एक महिला के जीवन चक्र को संचालित करता है। ऐसा भेदभाव और बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन सभी वर्गों तथा आबादी की महिलाओं के साथ किया जाता है। आज भी महिलाओं को टीवी देखने या रेडियो सुनने से रोकने के उदाहरण मिलते हैं। इस तरह के भेदभाव गंभीर या छोटे हो सकते हैं, अपमानजनक हो सकते हैं, लेकिन कोई इसके विरोध की आवश्यकता महसूस नहीं करता। स्त्रीद्वेष तथा महिलाओं तथा लड़कियों के प्रति हिंसा तेजी से बढ़ रही है। इस स्थिति में महिलाओं और लड़कियों के
विश्व में राजनीतिक सशक्तिकरण के बारे में भारत का स्थान 9वां है। यह बड़ी उपलब्धि होने के साथ-साथ अपने देश द्वारा अपनाए गए लोकतांत्रिक मॉडल की अंतर्निहित शक्ति का संकेतक भी है
12 - 18 मार्च 2018 लिए समानता हासिल करने के लिए जागरूकता, सोच में परिवर्तन तथा सामाजिक और व्यवहारिक परिवर्तन की आवश्यक है। इस प्रक्रिया में पुरूषों और लड़कों के साथ भागीदारी आवश्यक हो जाती है। पुरुष और लड़के हमारे समाज को दर्पण दिखाते हैं और असमानता और लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध लड़ाई में बराबर के सहयोगी हैं। जागरूकता बढ़ाने के लिए महिला और बाल विकास मंत्रालय ने सोशल मीडिया अभियान ‘#वीआरइक्वल’ प्रारंभ किया। इसका उद्देश्य शिक्षा, स्वास्थ्य, पोष्टिकता और सम्मान के क्षेत्र में महिलाओं को समान अवसर की आवश्यकता के बारे में जागरूकता बढ़ाना है। इस अभियान का कहना है- ‘आप और मैं, हम एक हैं।’ यह अभियान सोशल मीडिया पर लोकप्रिय हुआ है। इसमें सेलेब्रेटी, खेल जगत के लोग और अभिनेता शामिल हुए हैं। लैंगिक समानता के लिए पुरूष और महिला सोशल मीडिया पर #वीआरइक्वल संदेश पोस्ट कर रहे हैं। लोग अपनी निजी कहानियां बता रहे हैं और लैंगिक रूप से समतामूलक समाज बनाने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं। यह अभियान न केवल लैंगिक समानता के महत्व और आवश्यकता का संकेत दे रहा है बल्कि लोगों को परिवर्तन लाने की जिम्मेदारी लेने को भी कह रहा है। महिला और बाल विकास मंत्रालय के संकेत के अनुसार लोकप्रिय अभिनेता आलिया भट्ट और भारतीय क्रिकेट कप्तान विराट कोहली ने अभियान को समर्थन दिया है। सुपरस्टार अमिताभ बच्चन, पहलवान संग्राम सिंह, ओलंपिक बॉक्सर मैरीकॉम, दीया मिर्जा और इसरो वैज्ञानिक के.थेनमोजी सेल्वी, सुभा वरियर तथा मिनाल रोहित ने भी इस अभियान को अपना समर्थन दिया है। समाज को प्रभावित करने वाले इस तरह के लोग परिवर्तन के लिए प्रेरणा दे सकते हैं। अभियान के लिए मैरी कॉम ने पोस्ट किया- ‘मैं चाहती हूं कि हर लड़की को अपने सपनों को पूरा करने की आजादी हो, खेल में उन्हें और अधिक मान्यता दी जाए।’ अमिताभ बच्चन ने घोषित किया है कि ‘मेरे निधन पर मेरी संपत्ति, मेरी बेटी और मेरे बेटे के बीच समान रूप से साझा की जाएगी!’ कहने की आवश्यकता नहीं की यह संदेश पुरूष और महिलाओं की समान संपत्ति अधिकारों की कारगर वकालत करता है। प्रेरणा और जागरूकता का यह सिलसिला इस वर्ष भी थमा नहीं है। साधारणजन अपनी निजी कहानियां साझा कर रहे हैं और इस हैशटैग के साथ अपना संदेश दे रहे हैं। लोगों द्वारा रोजाना महिलाओं के यौनवाद का शिकार होने की बात स्वीकार की जा रही है। निस्संदेह भारत को लैंगिक समानता की लक्ष्य प्राप्ति तथा लैंगिक भेदभाव मुक्त समाज बनाने की अपनी गति जारी रखनी होगी। ऐसा लैंगिक भेदभाव मुक्त समाज, जिसमें सभी संसाधनों और अवसरों के मामले में पुरूष और महिलाओं की समान पहुंच हो, इसको लेकर ललक पूरे भारतीय समाज में प्रकट होनी चाहिए। हर प्रयास, हर अभियान और हर पहल मायने रखती है और प्रत्येक हितधारक को इसमें विश्वास रखना होगा।
लीक से परे
आचार्य तुलसी
खुला मंच
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अणुव्रत और जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय के प्रवर्तक और सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक
पहले व्यक्ति सुधार, फिर समाज सुधार जिस प्रकार प्राण के बिना इंद्रियां अर्थहीन हो जाती हैं, वैसे ही व्यक्ति के सुधार बिना समाज-सुधार का स्वप्न बेकार होता है
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तिकता एक शाश्वत मूल्य है। इसकी अपेक्षा हर युग में रहती है। सतयुग में भी ऋषि-मुनि होते थे। वे धर्म और नैतिकता की चर्चा किया करते थे। रामराज्य भी इसका अपवाद नहीं था। उस समय भी धर्म के उपदेशक थे। जिस युग में धर्म और नीति के पांव लड़खड़ाने लगे हों, सांप्रदायिकता, धार्मिक असहिष्णुता, जातिवाद, छुआछूत, बेरोजगारी, कालाबाजारी, मिलावट, दहेज आदि बीमारियां सिर उठाए खड़ी हों, उस समय तो नैतिकता की आवाज उठाना और इसकी जरूरत को रेखांकित करना और अधिक जरूरी हो गया है। आज सब कुछ है- ट्रेन है, प्लेन है, कारखाने हैं, मिलें हैं, स्कूल हैं, कॉलेज हैं, भोगोपभोग की तमाम सामग्रियां हैं। पर अच्छा आदमी नहीं है। इस एक कमी के कारण सब उपलब्धियां बेकार हो रही हैं। सब कुछ है, पर जब तक आदमी सही अर्थ में आदमी नहीं है, तब तक कुछ भी नहीं है। एक साधारण व्यक्ति किसी सेठ के पास गया। उसके घर में लड़की की शादी थी। बारात का आतिथ्य करने के लिए उसे किसी चीज की जरूरत हुई। सेठ जी का नाम उसने बहुत सुना था। मन में बड़ी आशा संजोकर वह सेठ जी के घर पहुंचा और बोला, मुझे दो चार दिन के लिए अमुक चीज की जरूरत है। आप दे सकें तो बड़ी कृपा होगी। सेठ जी मसनद के सहारे आराम से बैठे थे। उन्होंने इधरउधर देखा और कहा, आप कुछ समय बाद आना।
मन की बा्त 17
सुलि 08
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वृंदावन में सामाजिक बदलाव
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नारी-शक्ति की असाधारण
उपलक््धयां
पुस्तक अंश
ओशो 24
रुनाव अजियान के नए युग के प्रव्त्षक
जबन बा्ती जबन ्तेल
harat.com
sulabhswachhb
वर्ष-2 | अंक-12 | 05 आरएनआई नंबर-DELHIN
/2016/71597
एक दैवीय शक्ति श्ी श्ी रजव शंकर
ावादी दुजनया के जवखया्त मानव्त और आधयक््मक गुरु
- 11 मार्ष 2018
कुछ समय बाद आने पर भी उसे वही बात सुनने को मिली। जब वह तीसरी बार आया और सेठ ने फिर टालमटोल किया तो आगंतुक अधीर हो उठा। वह अपनी अधीरता का गोपन करता हुआ बोला, भाई साहब! बात क्या है? मुझे और भी कई काम करने हैं। आप मेरी दुविधा को समाप्त कीजिए। सेठ साहब सुनकर गंभीर हो गए और अपनी कठिनाई बताते हुए बोले, भाई! तुम अन्यथा मत समझो। मैं क्या करूं? यहां कोई आदमी नहीं है। आगंतुक व्यक्ति ने छूटते ही कहा, मैं तो आपको आदमी समझकर ही आया था। सेठ जी के पास सब कुछ था। एक आदमी नहीं था, इसीलिए कुछ भी नहीं था। इसका मतलब यह नहीं है कि आदमी पैदा नहीं होते। पैदा होते हैं, किंतु वे बनते नहीं। क्योंकि माता-पिता जन्म तो दे सकते हैं, पर जीवन नहीं दे सकते। जीवन के बिना जन्म की अर्थवत्ता भी क्या है? आदमी आदमी न हो
श्री श्री के शांति प्रयास
तो उसके आदमी बने रहने का प्रयोजन ही क्या है? इस प्रश्न ने धर्मगुरुओं, धर्माचार्यों, संतों और धर्म संस्थाओं को चुनौती दी कि या तो वे कोई ऐसा नुस्खा ईजाद करें, जो आदमी को आदमी बना सके, अन्यथा धर्म और धर्मगुरुओं की उपयोगिता विवादास्पद बन जाएगी। देश आजाद हुआ और इसके साथ ही देश में अनुशासनहीनता और चरित्रहीनता को भी आजादी मिल गई। इसका इलाज तो जरूरी है। इसके लिए हमें प्रयास करना होगा। कई बार मन में आता है कि कितना प्रयास करें। हम तो कब से कोशिश कर रहे हैं, लेकिन लोग हैं कि समझते ही नहीं। तब सूर्य को देखो। सूर्य से मत पूछो कि उसने आज तक कितना अंधकार मिटाया, उसका काम अंधकार मिटाने का है। रात को फिर अंधकार घिर आता है। इसकी वह चिंता नहीं करता। शाम ढलते ही प्रतिदिन अंधकार अपना साम्राज्य जमा लेता है, इस बात की परवाह किए बिना सूरज अगली सुबह फिर अपना दायित्व निभाने आ जाता है। यदि हमें आदमी बनाना है तो वह समाज से नहीं, व्यक्ति से बनेगा, व्यक्ति-सुधार से समाजसुधार की बात जितनी युक्तिसंगत है, उतनी ही सरल भी। आदमी के सुधार बिना सारी योजना विफल हो जाती है, सारा चिंतन अर्थहीन रह जाता है। जिस प्रकार प्राण के बिना इंद्रियां अर्थहीन हो जाती हैं, वैसे ही व्यक्ति के सुधार बिना समाज-सुधार का स्वप्न बेकार होता है।
कृषक महिलाओं का योगदान
‘सुलभ स्वच्छ भारत’ पिछले कई अंकों से भारत में सामाजिक बदलाव लाने वाली महान विभूतियों के बारे में अहम जानकारियां दे रहा है। इस बार देश में आध्यात्मिक और सामाजिक बदलाव में बड़ा योगदान देने वाले श्री श्री रविशंकर पर दी गई सामग्री काफी अच्छी लगी। न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में जीवन को सकर्मक संस्कारों के साथ जीने की प्रेरणा देने में रविशंकर जी के प्रयास अद्वितीय हैं। वे पूरी दुनिया से क्रोध और युद्ध का रास्ता छोड़कर शांति का मार्ग अपनाने की अपील कर रहे हैं, क्योंकि प्रेम और शांति से ही इस दुनिया बेहतर बन सकती है।
जब हम खेती-किसानी की बात करते हैं तो अक्सर इस क्षेत्र में आधी आबादी के योगदान को भूल जाते हैं। जबकि तो आज महिलाएं कृषि के क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलकर काम कर रही हैं। फसल बुआई के समय भारत के हर क्षेत्र में महिलाएं खेतों में काम करते हुए मिल जाएंगी। ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ में इस बार कृषि क्षेत्र में महिलाओं के योगदान के बारे में पढ़कर प्रसन्नता हुई। डेयरी और कृषि दोनों ही क्षेत्रों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से या तो अधिक है या तकरीबन बराबर। महिला शक्ति को नमन।
अवनीश कुमार समस्तीपुर, बिहार
अनुराधा गोयल जयपुर, राजस्थान
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फोटो फीचर
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सुलभ : सेवा के 48 वर्ष
सुलभ ने हाल ही में अपना 48वां स्थापना दिवस दिल्ली स्थित सुलभ ग्राम में मनाया। 1970 से लगातार स्वच्छता और समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय सुलभ ने इन वर्षों में निश्छल सेवा का स्वर्णिम सुलेख लिखा है फोटोः मोंटू
12 - 18 मार्च 2018
सुलभ ने देश के अंदर और बाहर न सिर्फ हजारों शौचालयों का निर्माण कराया है बल्कि उसने स्कैवेंजर्स के पुनर्वास को लेकर भी ऐतिहासिक कार्य किया है। स्थापना दिवस के मौके पर सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक सहित संस्था के कई वरिष्ठ सहयोगियों के प्रेरक उद्बोधन हुए। इस अवसर पर सुलभ पब्लिक स्कूल के छात्रों ने रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर सबका मन मोह लिया
फोटो फीचर
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स्वास्थ्य
12 - 18 मार्च 2018
बाजार से बाहर हो सकती हैं एफडीसी वाली दवाएं
शुक्राणु की नई संरचना की पहचान हुई स्वीडन के अनुसंधानकर्ताओं ने क्रायो-इलेक्ट्रॉन टोमोग्राफी के इस्तेमाल के जरिए शुक्राणु के पिछले हिस्से की बेहद सूक्ष्म नई संरचना की पहचान की है
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ज्ञानिकों ने मानव शुक्राणु के पिछले हिस्से में एक अनूठे प्रकार की संरचना की पहचान की है। इस प्रगति से हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि कुछ शुक्राणुओं का प्रवाह अधिक क्यों होता है। शुक्राणु के प्रवाह और गर्भधारण के लिए शुक्राणु के पिछले हिस्से के प्रभावी होने की आवश्यकता होती है। स्वीडन के गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने क्रायो-इलेक्ट्रॉन टोमोग्राफी के इस्तेमाल के जरिए शुक्राणु के पिछले हिस्से की बेहद सूक्ष्म नई संरचना की पहचान की। इस प्रक्रिया के जरिए कोशिकाओं की संरचना की त्रीआयामी तस्वीर प्राप्त होती है। (एजेंसी)
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सेहत के लिए खराब मानी जानी वाली 349 फिक्स डोज कॉम्बिनेशन वाली दवाओं की जांच के लिए समिति गठित
49 फिक्स डोज कॉम्बिनेशन (एफडीसी) दवाओं पर एक बार फिर तलवार लटक गई है। माना जा रहा है कि इन्हें एक बार फिर बाजार से बाहर किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल ने इनकी जांच के लिए एक समिति का गठन कर दिया है। सरकार ने 2016 में इन दवाओं को अवैज्ञानिक और सेहत के लिए खतरनाक मानते हुए इन पर बैन लगा दिया था। इस बैन के खिलाफ कई नामी दवा कंपनियां सुप्रीम कोर्ट में चली गई थीं। कोर्ट ने बैन को गलत मानते हुए इसे खारिज कर दिया था। इस मामले में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के पुनर्विचार याचिका दायर करने पर अदालत ने सरकार से इन दवाओं की जांच करने के लिए एक समिति गठित करने को कहा था। भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल ने अब दवाओं के मामले में देश की शीर्ष तकनीकी संस्था ड्रग टेक्निकल अडवाइजरी बोर्ड के तहत एक समिति का गठन कर दिया है। यह समिति अब इन दवाओं की वैज्ञानिकता और सेफ्टी का अध्ययन करने के साथ ही इस मामले में दवा कंपनियों और अन्य पक्षों की बात सुनेगी। माना जा रहा है कि फैसला एफडीसी के पक्ष में आने के आसार कम हैं। ये वैसी दवाएं हैं जो एक से ज्यादा दवाओं को मिलाकर बनाई जाती हैं। मिसाल के लिए पैरासिटामॉल और ऐस्पिरिन दो अलग-अलग दवाएं हैं। इन्हें मिलाकर अगर कोई नई दवा बनाई
जाती है तो उसे एफडीसी कहा जाएगा। देश में इस समय 7 हजार एफडीसी दवाएं बिक रही हैं एफडीसी को एक नई दवा माना जाता है। इसके उत्पादन और बिक्री के लिए भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल की मंजूरी जरूरी होती है। इसका क्लिनिकल ट्रायल और सेफ्टी साबित होनी चाहिए। लेकिन आरोप है कि कई राज्यों ने इस नियम की अनदेखी करते हुए हजारों एफडीसी को बाजार में उतारने की अनुमति दे दी गई है। डीसीजीआई ऑफिस की नींद तो तब टूटी जब हेल्थ वर्कर्स के साथ ही स्वास्थ्य मामलों की संसदीय समिति ने एफडीसी के मामले में कड़ा रुख अपनाया और इन्हें अवैज्ञानिक करार देने के साथ ही सेहत के लिए खासा खतरनाक बताया।
एक से ज्यादा ऐंटिबायॉटिक्स के इस्तेमाल से देश में बैक्टीरिया और वायरस के खिलाफ प्रतिरोध बढ़ रहा है। दवाएं अपना काम करने में नाकाम होती जा रही हैं। भारत में जहां ये दवाएं धड़ल्ले से बिक रही हैं, वहीं दूसरे कई देशों में इन पर बैन है। अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन के साथ ही कई देशों में एफडीसी पर रोक है। लेकिन भारत के साथ ही कई विकाससील देशों में ये दवाएं बिकती हैं। सरकार ने जिन 344 एफडीसी पर बैन लगाया था, उनका देश के संगठित दवा क्षेत्र में कुल कारोबार करीब 4 हजार करोड़ रुपए का है। यह भारत के फार्मा सेक्टर के कुल कारोबार का 4 प्रतिशत है। (एजेंसी)
बगैर इंसुलिन के डायबीटीज टाइप-1 का इलाज
भारतीय चिकित्सकों ने इस बात की खोज की है कि बगैर इंसुलिन के भी डायबीटीज का इलाज संभव है
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यबीटीज के इलाज में भारतीय चिकित्सकों ने महत्वपूर्ण खोज की है। चिकित्सकों के मुताबिक इस खोज से डायबीटीज के प्रकार का पता कर उसका इलाज आसानी से किया जा सकता
है। डॉक्टरों का कहना है कि अक्सर डायबीटीज के मरीजों को इंसुलिन लेना पड़ता है जबकि डायबीटीज टाइप-1 का इलाज बगैर इंसुलिन के भी संभव है। बीएमसी मेडिकल जेनेटिक्स ‘जर्नल में मैच्योरिटी
ऑनसेट डायबीटीज ऑफ द यंग’ नाम से प्रकाशित इस शोध में अनुसंधानकर्ताओं ने डायबीटीज के प्रकार का उल्लेख किया है। चिकित्सकों ने बताया कि सामान्य रूप से डायबीटीज दो प्रकार का होता है। डायबीटीज टाइप-1 की शिकायत युवाओं या बच्चों को होती है। इसमें मरीज आमतौर पर कमजोर होते हैं और उनकी कम उम्र के कारण उन्हें टाइप 1 डायबीटीज से पीड़ित बताया जाता है और उन्हें जीवनभर इंसुलिन इंजेक्शन लेने की सलाह दी जाती है। डायबीटीज टाइप-2 सामान्य तौर पर वयस्कों को प्रभावित करता है और बीमारी के अंतिम स्तरों को छोड़कर हाइपरग्लाइकेमिया को नियंत्रित करने के लिए इंसुलिन की जरूरत नहीं होती। डॉ. वी. मोहन, निदेशक, एमडीआरएफ ने कहा, डायबीटीज के मोनोजेनिक प्रारूप का पता चलने का महत्व सही जांच तक है क्योंकि मरीजों को अक्सर गलत ढंग से टाइप 1 डायबीटीज से
पीड़ित बता दिया जाता है और उन्हें गैर-जरूरी रूप से पूरी जिंदगी इंसुलिन इंजेक्शन लेने की सलाह दी जाती है। एक बार पता चलने पर इसके ज्यादातर प्रारूपों में इंसुलिन इंजेक्शन को पूरी तरह रोका जा सकता है और इन मरीजों का इलाज सल्फोनिलयूरिया टैबलेट जो बहुत ही सस्ती होती है, के जरिए किया जा सकता है। इस टैबलेट का इस्तेमाल दशकों से डायबीटीज के इलाज के लिए किया जा रहा है।' डॉ. राधा वेंकटेशन, जेनोमिक्स प्रमुख, एमडीआरएफ ने कहा, 'यह दुनिया में पहली बार हुआ है जब एनकेएक्स 6-1 जीन म्युटेशन को एमओडीवाई के नए प्रकार के तौर पर परिभाषित किया गया है। एमओडीवाई का यह प्रकार सिर्फ भारतीयों के लिए अनोखा है या यह अन्य लोगों में भी पाया जाता है, यह जांचने के लिए आगे भी अध्ययन करने होंगे।' (एजेंसी)
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स्वास्थ्य
टीबी की रोकथाम के लिए नई वैक्सीन
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गाजियाबाद में पैड बैंक
पैड बैंक की पहल उन महिलाओं के लिए है, जो जानकारी के अभाव में अपने स्वास्थ्य की देखभाल नहीं कर पातीं
जियाबाद की महिलाएं जागरूकता के मामले में एक कदम आगे निकल गई हैं। यहां एक पैड बैंक खोला गया है। यह बैंक सैनेटरी पैड जुटाकर उन्हें गांवों और कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाली जरूरतमंद महिलाओं तक पहुंचाएगा। यह पहल महिलाओं के संगठन पिंकिश ग्रुप ने की है। ग्रुप की नेशनल जनरल सेक्रेटरी शालिनी गुप्ता ने बताया कि शुरुआत में इस बैंक की चार शाखाएं खोली गई हैं। दो दिन में ही हजारों पैड जुटाए जा चुके हैं। इसके लिए एक सिस्टम बनाया गया है। डोनेट करने वाले हर शख्स की डिटेल ऑनलाइन भरी जा रही है। उन्होंने बताया कि महिलाओं के अलावा पुरुष भी पैड दान दे रहे हैं। पैड बैंक का हेड ऑफिस वसुंधरा में बनाया गया है। इसके अलावा क्रॉसिंग रिपब्लिक, कविनगर और इंदिरापुरम की ऑरेंज काउंटी में उप शाखाएं हैं। यहां लोग डोनेट कर सकते हैं। जरूरतमंद महिलाएं यहां से पैड भी ले सकती हैं।
जिले में ब्रांच को लीड करने वाली पल्लवी श्रीवास्तव ने बताया कि प्रदेश में इस तरह का यह पहला बैंक है। शालिनी गुप्ता ने बताया कि पैड एकत्रित करने के लिए एक अभियान चलाया जाएगा। इसके बाद सभी चार बैंक में आसपास के गांवों और कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने वाली महिलाओं के पैड कार्ड बनाए जाएंगे। पैड लेने वाली महिलाओं की काउंसलिंग के साथ इसके प्रयोग के फायदों के बारे में भी जानकारी दी जाएगी। उन्होंने बताया कि कार्ड बनाने वाली महिलाओं को हर महीने पैड दिए जाएंगे। जिस महीने उनकी एंट्री नहीं होगी, एक टीम को उनके पास भेजा जाएगा। उन्होंने कहा, 'यह पहल उन महिलाओं के लिए है, जो जानकारी के अभाव में अपने स्वास्थ्य की देखभाल नहीं कर पातीं। हम लोग उनके पास जाएंगे और सैनेटरी पैड के उपयोग के फायदों के बारे में बताएंगे। पैड बैंक से बड़ी सफलता मिलने की उम्मीद है।' (एजेंसी)
टीबी जैसी बीमारी को समाप्त करने के लिए दुनिया भर के देश मिल कर एक नई वैक्सीन का विकास करेंगे
बी जैसी बीमारी को समाप्त करने के लिए एक नई वैक्सीन का विकास करने के लिए सभी देशों से एकजुट होने की अपील की गई है। गौरतलब है कि टीबी की बीसीजी वैक्सीन अब ज्यादा कारगर साबित नहीं हो रही है और एक नई वैक्सीन के विकास की जरूरत महसूस की जा रही है। भारत समेत कई देशों में इस पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगुवाई में काम चल रहा है। इस मकसद के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च की डीजी सौम्या विश्वनाथन ने कहा कि भारत टीबी की नई वैक्सीन के विकास के लिए हर संभव कोशिश
कर रहा है। ध्यतव्य है कि भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जहां टीबी एक बड़ी समस्या बन चुका है। यहां हर साल टीबी के 28 लाख मामले सामने आते हैं और करीब 5 लाख मरीजों की मौत हो जाती है। सरकार ने 2025 तक टीबी के खात्मे का लक्ष्य रखा है और कई कार्यक्रमों की शुरुआत की है। इस बार के बजट में टीबी के मरीजों को हर महीने 500 रुपए पोषक भोजन के लिए दिए जाने का ऐलान भी किया गया है। (एजेंसी)
अधिक उम्र में भी मां बन सकेंगी महिलाएं
बढ़ती उम्र में मां बनने की इच्छा पूरी करना अब नामुमकिन नहीं होगा। वैज्ञानिकों ने ऐसी हार्मोन पिल बनाने का दावा किया है, जिसकी मदद से महिलाएं अधिक उम्र में भी मां बन सकेंगी
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शेषज्ञों को ऐसे प्रमाण मिले हैं, जिससे साबित होता है कि डीएचईए हार्मोन कोख को प्रजनन के लिए सक्षम बनाता है। महिलाओं में 20 से 40 की उम्र के बीच इस हार्मोन के स्तर में गिरावट आती है और यह लगभग आधा रह जाता है। यूनीवर्सिटी ऑफ एडिनबरा के एमआरसी सेंटर फॉर इनफ्लेमेशन रिसर्च में हुए शोध में विशेषज्ञ इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि डीएचईए हार्मोन का स्तर बढ़ाने महिलाएं अधिक उम्र में भी गर्भधारण कर
सकती हैं। प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर डगलस गिबसन का कहना है कि कॅरियर की भागदौड़ के बीच कई बार महिलाएं गर्भधारण के बारे में सोच ही नहीं पाती हैं। जब वह इस बारे में सोचना शुरू करती हैं, तब तक उम्र काफी आगे निकल चुकी होती है। इसके अलावा कई बार बीमारी या अन्य हालात के कारण भी सही समय पर मां बनना उनके लिए संभव नहीं होता है। इस बात से विशेषज्ञ भी इनकार नहीं करते
हैं कि अधिक उम्र में महिलाओं की प्रजनन क्षमता में कमी आ जाती है। नए प्रयोग से अधिक उम्र मां बनने का विकल्प चुनने वाले जोड़ों बिना महंगे इलाज और परेशानी के संतानसुख की प्राप्ति की उम्मीद बन सकती है। उम्र बढ़ने के साथ महिलाओं में डीएचईए हार्मोन के प्राकृतिक स्तर में गिरावट आने लगती है। विशेषज्ञों द्वारा विकसित की जा रही इस गोली से हार्मोन का स्तर सुधारा जा सकता है। डॉ. गिबसन का कहना है कि गर्भधारण करने के अन्य तरीके भी तभी सफल हो सकते हैं, जब स्त्री की कोख भ्रूण को संभालने में सक्षम होगी।
डीएचईए हार्मोन अभी गोली या हार्मोन जेल के रूप में उपलब्ध है, जिसका इस्तेमाल वजन घटाने और उम्र का प्रभाव कम करने के लिए किया जाता है। गर्भधारण के लिए इसका प्रयोग अब तक नहीं किया गया है। अध्ययन के दौरान इस हार्मोन की गोली का सेवन करने वाली महिलाओं के गर्भाशय की स्थिति पर तो कोई असर नहीं हुआ, हालांकि कृत्रिम गर्भ धारण का प्रयास करने वाली महिलाओं को अच्छे नतीजे जरूर मिले। यह शोध फर्टिलिटी एंड स्टरिलिटी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। (एजेंसी)
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स्वच्छता
12 - 18 मार्च 2018
स्वच्छता का पाठ
स्वस्थ बचपन के लिए साफ-सफाई बहुत जरूरी है। स्वच्छता की बुनियादी आदतें अगर जीवन में उतार ली जाएं तो हमारे नौनिहाल कई बीमारियों से बच सकते हैं। साफ-सफाई की आदतें हमारे बच्चों को किस तरह निरोग रख सकती हैं, बता रही यह रिपोर्ट
खास बातें डायरिया बैक्टीरिया से होता व संक्रमित व्यक्ति के मल से फैलता है जिन मामलों की पुष्टि हुई, उनमें कई डायरिया व फूड प्वाइजनिंग के साफ-सफाई की जागरुकता से बीमारियों से बचाव हो सकता है
नौनिहालों पर असर
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एसएसबी ब्यूरो
टीग्रेटेड डिजीज सर्विलेंस प्रोग्राम, यानी आईडीएसपी के अनुसार, पिछले साल रोगों के प्रकोप के जिन 1,714 मामलों की प्रयोगशाला से पुष्टि हुई, उनमें से एक-तिहाई मामले गंभीर डायरिया व फूड प्वाइजनिंग के थे। बाकी डेंगू, एंसेफलाइटिस, हैजा और चिकनगुनिया जैसे रोगों के थे।
वास्तविक तस्वीर
मगर आईडीएसपी का यह आंकड़ा सच्चाई का एक अंश मात्र है। देश की 55 फीसदी आबादी सरकारी अस्पतालों में इलाज नहीं कराती। इनमें से 51.4 फीसदी निजी अस्पतालों का रुख करती है, तो शेष 3.4 फीसदी घरों में इलाज करना पसंद करती है। इस तरह निजी डॉक्टरों से इलाज कराने वाले ये लोग सरकार के सर्विलेंस रिकॉर्ड में दर्ज ही नहीं होते। सच यह है कि साल 2016 में भारत में डायरिया अकाल मृत्यु का तीसरा सबड़े बड़ा कारण बनकर उभरा था। ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज के इस निष्कर्ष के मुताबिक, असमय मौत की पहली और दूसरी वजह क्रमशः हृदयाघात यानी दिल का दौरा
और फेफड़े की बीमारी थी। डायरिया का संक्रमण असुरक्षित पेयजल, मल-दूषित भोजन, खुले में शौच, शौचालयों का इस्तेमाल न करने, गंदे नालों और हाथ धोने में साबुन का इस्तेमाल न करने से फैलता है। देश में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की असमय मौत के 9,62,830 मामलों में से लगभग 10 फीसदी की वजह डायरिया ही है।
कई तरह के कारण
यह सही है कि डायरिया से होने वाली ज्यादातर मौतें शरीर में पानी की अत्यधिक कमी हो जाने से होती हैं, लेकिन गंभीर कुपोषण व शरीर के प्रतिरोधक तंत्र का कमजोर होना भी मौत का कारण बनता है, क्योंकि ऐसे मामलों में जानलेवा इंफेक्शन होने का खतरा काफी बढ़ जाता है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया में वरिष्ठ स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. संगीता भट्टाचार्य बताती हैं, “कुपोषित व जरूरत से कम वजन वाले बच्चों में इंफेक्शन का खतरा अधिक रहता है। इतना ही नहीं, निमोनिया और टीबी जैसे संक्रमण से उनकी मौत की आशंका भी कहीं ज्यादा होती है।” बच्चों में कुपोषण से संबंधित अधिकतर मौतें नौ महीने और तीन साल के बीच होती हैं। इनमें
कुपोषित व जरूरत से कम वजन वाले बच्चों में इंफेक्शन का खतरा कहीं ज्यादा रहता है। निमोनिया और टीबी जैसे संक्रमण से उनकी मौत की आशंका भी अधिक गहरी होती है -डॉ. संगीता भट्टाचार्य
से ज्यादातर मौतें इंफेक्शन और भूख से ही होती हैं, जिसे डॉक्टरी शब्दावली में ‘सीवियर एक्यूट मालन्यूट्रिशन’ यानी गंभीर तीव्र कुपोषण कहते हैं। अपने यहां गंभीर कुपोषण किसी की सोच से भी कहीं ज्यादा आम है। यहां करीब 38.4 फीसदी बच्चे बौनेपन (उम्र के हिसाब से कम लंबाई) का शिकार हैं और 35.7 फीसदी बच्चे जरूरत से कम कदकाठी के हैं। इसकी पुष्टि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण- 4 (2015-16) से होती है, जिसके निष्कर्ष पिछले साल जारी किए गए हैं। बीते एक दशक में बौनेपन और बच्चों के अपेक्षाकृत अधिक दुबले होने के मामलों तो मामूली गिरावट आई, लेकिन ‘वेस्टिंग’ यानी लंबाई के हिसाब से कम वजन के मामले बढ़े हैं। 2006 में जहां वेस्टिंग के 19.8 फीसदी मामले सामने आए थे, 2016 में बढ़कर 21 फीसदी हो गए डॉ. भट्टाचार्य कहती हैं, “इंफेक्शन से बचाव की राह में बड़ी बाधा गरीबी और सामाजिक विलगाव (समाज के मान्य ढांचे से बाहर रहना) है। इस कारण लोग उन बुनियादी जानकारियों से भी वंचित रह जाते हैं, जो बच्चों की जान बचाने के लिए जरूरी हैं। मसलन, लगातार हाथ धोते रहना, अधिकाधिक स्तनपान कराना, नमक व चीनी के घोल से बना ओरल रिहाइड्रेशन देना आदि। सच है कि माएं तो अपनी तरफ से बच्चों की हरसंभव देखभाल करती हैं और उन्हें अच्छा खिलाती-पिलाती भी हैं, पर दुर्भाग्य से उनका यह ‘सर्वश्रेष्ठ’ आमतौर पर जरूरत से बहुत कम साबित होता है।” विश्लेषकों की मानें, तो साधारण उपाय
17.31 प्रतिशत श्वास संबंधी रोग 16.68 प्रतिशत समय पूर्व जन्म 9.05 प्रतिशत जन्म से समय दम घुटना 7.83 प्रतिशत जन्मजात विकार 7.64 प्रतिशत डायरिया 3.19 प्रतिशत सेप्सिस व अन्य संक्रमण 1.98 प्रतिशत चेचक
स्रोत- ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज, 2016 (बच्चे पांच वर्ष से कम उम्र के)
1,00,000
6,00,000
स्रोत- यूनिसेफ
38.4 प्रतिशत 35.7 प्रतिशत 21 प्रतिशत
बच्चे हर साल साफसफाई के अभाव के कारण असमय दम तोड़ते हैं। नवजात किसी-न-किसी वजह से अपना पहला महीना भी पूरा नहीं कर पाते। बच्चे बौनेपन का शिकार बच्चे जरूरत से कम कद-काठी के बच्चों में वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से कम वजन )
12 - 18 मार्च 2018 अपनाकर भी तस्वीर काफी हद तक बदली जा सकती है। भारत में यूनीसेफ की प्रतिनिधि डॉ. यास्मीन अली हक की मानें, तो महज साबुन से हाथ धोने की आदत ही डाल ली जाए तो नवजातों की मौत में कमी आ सकती है और जच्चे व बच्चे की जान पर बन आने वाले खतरे भी कम किए जा सकते हैं। चूंकि माता-पिता ही बच्चे की शुरुआती देखभाल करते हैं, इसीलिए उनके लिए साबुन से हाथ धोना अनिवार्य होना चाहिए। साफ-सफाई के प्रति जागरुकता के काम में आंगनबाड़ी सेविकाओं, स्कूल शिक्षक जैसे समूहों की मदद ली जानी चाहिए। बच्चों के लिये पोषकपूर्ण शुरुआत जरूरी है, क्योंकि यदि तीन वर्ष तक आते-आते ऐसा नहीं हुआ, तो उनमें कुपोषण कायम हो जाता है और तब तक बच्चा स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी शारीरिक व मानसिक विकास से महरूम हो चुका होता है।”
स्वच्छता का महत्व
डायरिया का फैलाव बैक्टीरिया से होता है, जो आसानी से संक्रमित व्यक्ति के मल से दूसरे में फैलती है। मिट्टी, पानी या खाद्य पदार्थ इसमें माध्यम बन जाते हैं। इसके अलावा मरीजों के मल से निकले वायरस, प्रोटोजोआ और हेल्मिन्थ (पेट का कीड़ा) भी स्वस्थ लोगों को बीमार बनाते हैं। स्वच्छ पानी, शौचालय और नाले की साफ-सफाई की उचित व्यवस्था का न होना या इसकी कमी रोग का दायरा बढ़ाता है। कई अध्ययन बताते हैं कि साबुन से हाथ साफ करने और स्वच्छ पानी का इस्तेमाल करने की आदत डाल लेने मात्र से बैक्टीरिया का प्रसार काफी हद तक रोका जा सकता है। इसके अलावा, दस्त
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स्वच्छता
शौचालय की ओर
1. 25 करोड़ लोग गांवों में अब भी जाते हैं खुले में शौच करने
2. 3,07,349 गांव हो चुके हैं खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित
होने पर ओरल रिहाइड्रेशन से भी अस्पताल में भर्ती होने की नौबत से बचा जा सकता है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरन्मेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक वैश्विक शोध में बताया गया है कि दरवाजे की हैंडिल और सार्वजनिक जगहों पर लगी सीढ़ियों की रेलिंग पकड़ने के बाद हाथ न धोने से क्या-क्या नुकसान हो सकते हैं? शोध में पानी से हाथ धोने, साबुन से हाथ धोने और हाथ न धोने का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। नतीजे
बताते हैं कि 44 फीसदी नमूनों में हाथ न धोने के कारण बैक्टीरिया मौजूद मिले। सिर्फ पानी से हाथ धोने से बैक्टीरिया घटकर 23 फीसदी और साधारण साबुन व पानी से धोने से यह महज आठ फीसदी पर आ गई। फूड हैंडर्ल्स का एक हालिया अध्ययन बताता है कि रोगाणुरोधी साबुन से हाथ धोना कहीं ज्यादा प्रभावशाली होता है। यह अध्ययन पिछले साल हुआ है, जिसके मुताबिक साधारण साबुन या पानी की तुलना में यदि रोगाणुरोधी साबुन का इस्तेमाल हाथ
साबुन से हाथ धोने की आदत यदि डाल ली जाए, तो नवजातों की मौत कम की जा सकती है। इससे जच्चे व बच्चे की जान पर बन आने वाले खतरे भी कम हो सकते हैं -डॉ. यास्मीन अली हक
3. 50,000 रुपए की सालाना बचत करता है हर परिवार ओडीएफ गांव में 4. 296 जिले घोषित किए जा चुके हैं ओडीएफ
स्रोत- आर्थिक सर्वेक्षण, 2018
साफ करने में किया जाए, तो बैक्टीरिया (इस्चेरिचिया कोली और इंटरोकॉकस फीकलिस) खत्म करने के मामले में बेहतर नतीजे मिल सकते हैं। भट्टाचार्य कहती हैं, “आंगनबाड़ियों में शौचालय न सिर्फ गंदे होते हैं, बल्कि कई में तो पानी भी नहीं होता। स्कूलों में भी अमूमन हाथ धोने के लिए साबुन व पानी नहीं होते, जिस कारण इंफेक्शन का चक्र बना रहता है।” भट्टाचार्य के ही शब्दों में कहें तो, “बच्चों को संक्रमण से दूर रखना है, तो कुपोषित बच्चों की बेहतरी के लिए पोषण पुनर्वास केंद्र खोलने व स्कूली बच्चों को मिड डे मील परोसने के अलावा भी कई प्रयासों की जरूरत है। यह जाहिर तौर पर, साफसफाई की आदतों पर सख्त निगरानी और स्कूलों व आंगनबाड़ी केंद्रों में स्वच्छ शौलाचय की उपलब्धता सुनिश्चित करने से ही संभव है।”
बदल रही आंगनबाड़ी केंद्रों की सूरत
यूनिसेफ की मदद से उत्तर प्रदेश के आंगनवाड़ी केंद्रों की हालत में आ रहा है बदलाव
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त्तर प्रदेश में आंगनबाड़ी केंद्रों की हालत में सुधार लाने के लिए यूनिसेफ ने अपनी तरफ से एक प्रयास शुरू किया है। यूनिसेफ को इस काम में लोगों का भी भरपूर सहयोग मिल रहा है। पहले आंगनबाड़ी में बच्चे आने से कतराते थे, लेकिन अब यूनिसेफ की पहल
से तस्वीर लगातार बदल रही है। दरअसल, यूनिसेफ के अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन प्रोग्राम (ईसीसीई) के माध्यम से आंगनबाड़ी केंद्र की कार्य संस्कृति और वातावरण में बदलाव आया है। यहां आने वाले बच्चों को दीवारों पर टंगे बैग के नाम जाने बगैर महक से ही
सब्जी, फल-फूलों को पहचानना सिखाया जाता है। यूनिसेफ के अधिकारी बताते हैं कि आंगनबाड़ी केंद्रों पर बच्चों के सेहत का भी ख्याल रखा जाता है। उन्हें शारीरिक रूप से मजबूत बनाने के लिए खेलकूद भी कराया जाता है। यूनिसेफ का दावा है कि बनारस जिले में ही लगभग 100 से अधिक केंद्रों पर इसका असर साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। यूनिसेफ के इसीसीई प्रोग्राम से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि उप्र में आंगनबाड़ी केंद्रों की हालत काफी खराब थी, इसीलिए बच्चे यहां नहीं आते थे। तब इन केंद्रों का कायाकल्प करने की योजना बनाई गई। इसी के तहत डीपीओ और सीडीपीओ को प्रशिक्षण देकर इसका मतलब समझाया गया। प्रशिक्षण के दौरान बताया गया कि किस तरह से पढ़ाई के तरीकों और आंगनबाड़ी केंद्रों को और आकर्षक बनाकर बच्चों को इन केंद्रों तक आसानी से लाया जा सकता है। डीपीओ और सीडीपीओ ने यूनिसेफ से मिले प्रशिक्षण को सुपरवाइजरों एवं आंगनबाड़ी संचालिकाओं को भी दिया।
इसके बाद आंगनबाड़ी केंद्रों में कुछ बदलाव किए गए। दीवारों पर पेंटिंग बनाई गईं, प्ले कॉर्नर की व्यवस्था की गई, बाल विकास पुष्टाहार की बोरियों से बैग तैयार कराए गए तथा बच्चों के लिए खिलौने तैयार कर अलग तरह से पढ़ाई कराने का माहौल तैयार कराया गया। यूनिसेफ के अधिकारी बताते हैं कि महिला एवं बाल विकास विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, उप्र में तीन से छह वर्ष आयु के हर दो बच्चों में एक बच्चे को प्री-स्कूलिंग शिक्षा नहीं मिलती है। 26 फीसदी से ज्यादा बच्चे प्राइवेट अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेश्न सेंटर में चले जाते हैं। सरकारी आंगनबाड़ी केंद्रों में जाने वाले बच्चों की संख्या महज 17.2 फीसदी है। यूनिसेफ कंसल्टेंट रसिक विनफील्ड के मुताबिक, आंगनबाड़ी केंद्रों पर बदलाव दिखाई दे रहा है और सबसे रोचक यह है कि यह बिना सरकारी प्रयास के हो रहा है। इसमें स्थानीय लोग भी काफी सहयोग करते हैं। इससे यह प्रोग्राम सफल हो पा रहा है। (आईएएनएस)
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सांइस एडं टेक्नोलाॅजी
इसरो बनाएगा चांद पर घर
जल्द ही भारतीय अंतरिक्ष रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन चांद पर घर बनाएगा और आप वहां पर जाकर कुछ दिन रुक पाएंगे
12 - 18 मार्च 2018
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ट्टी मनाने के लिए हर कोई अच्छी जगहों पर जाना और वहां घूमना पसंद करता है। लोग देश-विदेश घूमने जाते हैं और वहां के मनोरम दृश्यों का आनंद उठाते हैं, लेकिन अब आप घूमने के लिए चांद पर जाने की भी तैयारी कर सकते हैं। जल्द ही भारतीय अंतरिक्ष रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन चांद पर घर बनाएगा, जहां जाकर आप कुछ दिन ठहर पाएंगे। आने वाले कुछ सालों में इसरो चांद पर इग्लू (बर्फ के घर) बनाने की शुरुआत करेगा। इसके लिए 3डी प्रिंटर और रोबोट को चांद पर भेजा जाएगा। इग्लू बनाने में चांद की मिट्टी और अन्य पदार्थों का इस्तेमाल होगा। इसरो सैटेलाइट सेंटर के डायरेक्टर एम. अन्नादुरै ने इग्लू की तुलना अंटार्कटिका में बने भारतीय चौकियों से की है। उन्होंने बताया कि हम चांद पर ठीक उसी तरह के घर बनाने की प्लानिंग कर रहे हैं, जैसा कि अंटार्कटिका में भारतीय चौकियों को बनाया गया है। इसे बनाने में जिस मिट्टी का इस्तेमाल किया जाएगा उस मिट्टी के गुण अपोलो मिशन के तहत लाए गए चांद की
अवसाद से बचाने के लिए बनेगा नया स्पेस सूट
अंतरिक्ष यात्रियों को अवसाद से बचाने के लिए नासा एक नया स्पेस सूट विकसित कर रहा है
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ज्ञानिक ऐसे स्पेस सूट विकसित कर रहे हैं जो अंतरिक्ष यात्रियों में अवसाद के लक्षणों पर नजर रख सकते हैं। साथ ही अंतरिक्षयान के माहौल को सुधारने के लिए समय के साथ-साथ प्रतिक्रिया
देने के अलावा उसमें मौजूद लोगों के मिजाज को भी दुरुस्त करेंगे। अमेरिका की फ्लोरिडा पॉलिटेक्निक यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के मुताबिक अंतरिक्ष यात्रा के दौरान अवसाद होना एक बड़ी समस्या है। अपर्याप्त व्यायाम, बहुत देर तक रोशनी के संपर्क में रहने और नींद की कमी जैसे कई कारणों से अंतरिक्षयात्री बुरी तरह प्रभावित होते हैं। इस कारण उन्हें अवसाद हो सकता है। स्मार्ट सेंसरी स्किन (एस थ्री) कहलाने वाली यह तकनीक वायरलेस सेंसर के जरिए अंतरिक्षयात्रियों में भावनात्मक व शारीरिक कमियों का पता लगाएगी।
ये सेंसर फिर ‘माहौल’ में सुधार करने के लिए तुरंत प्रतिक्रिया भेजेंगे और प्रत्येक यात्री की जरूरत के हिसाब से वातावरण को अनुकूल बनाया जाएगा। इन सुधारों में तापमान, रोशनी से संपर्क, रोशनी के रंग और ऑक्सीजन के स्तर में बदलाव शामिल हैं। फ्लोरिडा पॉलिटेक्निक यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अर्मन सार्गोलजेई ने कहा कि मिशन के दौरान अंतरिक्षयात्रियों का मानसिक रूप से स्वस्थ रहना आवश्यक है। अभी ऐसा कोई सक्रिय समाधान नहीं है जो तनाव की स्थिति में उनकी मदद करे। उन्होंने कहा कि यह तकनीक उन्हें तुरंत राहत महसूस कराएगी। (एजेंसी)
को भेजने की परियोजना में तेजी आएगी। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि मंगल पर मनुष्य, मैं समझता हूं कि साल 2030 के अंत तक यह हो जाएगा।
पीयाके ने कहा, ‘सरकारी अंतरिक्ष एजेंसियां और अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष अन्वेषण समूह भी इसी दिशा में काम कर रहे हैं।’ उन्होंने कहा, ‘हालांकि कई लोग इससे पहले की समय सीमा का भी अनुमान लगा रहे हैं, लेकिन मेरा मानना है कि 2030 के अंत तक एक वास्तविक समय सीमा है।’ इससे पहले फरवरी में स्पेस एक्स ने दुनिया के सबसे शक्तिशाली रॉकेट फॉल्कन हैवी को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक प्रक्षेपित करने में सफलता पाई। पीयाके ने कहा, ‘एलन मस्क जैसे महत्वाकांक्षी लोगों के अलावा कई अन्य कंपनियां भी लोगों को मंगल ग्रह पर भेजने की महत्वाकांक्षाएं हैं।’ (आईएएनएस)
एलन मस्क मनुष्य को भेजेंगे मंगल ग्रह पर
एलन मस्क की प्रतिष्ठित स्पेस एक्स परियोजना के तहत अगले 20 सालों में मनुष्यों को मंगल ग्रह पर भेजा जा सकता है
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याके ब्रिटेन के पहले अंतरिक्ष यात्री हैं, जिन्हें अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र (आईएसएस) पर भेजा जा रहा है। उन्होंने कहा कि निजी निवेश से लाल ग्रह पर मनुष्य
मिट्टी से 99.6% मिलते हैं। वैज्ञानिकों ने चांद पर घर बनाने के लिए पांच तरह से डिजायन तैयार किए हैं। जल्द ही चांद पर अंटार्कटिका जैसी चौकी बनाने के काम की शुरुआत होने की उम्मीद है। भारत के अलावा अमेरिका समेत कई देश इस होड़ में शामिल हैं और चांद पर बहुत ज्यादा दिनों तक टिकने वाला घर बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। एम. अन्नादुरै ने कहा कि चांद पर इग्लू बन जाने के बाद जब अंतरिक्षयात्री पृथ्वी के उपग्रह चांद पर जाएंगे, तो वहां पर कुछ घंटों से ज्यादा समय बिता पाएंगे। इस घर में वे खुद को सुरक्षित रखकर वहां पर काम कर सकेंगे। उन्होंने कहा कि इसके लिए हमें अच्छे मैटेरियल की जरूरत है, जिससे हम वहां पर अच्छा घर बनाने पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकें। वहां पर घर बनाने के लिए 3डी प्रिंटर और रोबोट को भेजा जाएगा, जिससे घर बनाने में इस्तेमाल के लिए जो मिट्टी तैयार की गई है उसकी जांच अच्छी तरह से हो सके। (एजेंसी)
अब स्पेस सूट में होगा शौचालय
नासा के वैज्ञानिक शौचालय युक्त स्पेस सूट तैयार कर रहे हैं, जो छह दिनों तक यात्रियों का साथ दे
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मेरिकी अतंरिक्ष एजेंसी नासा के वैज्ञानिक एक ऐसा स्पेससूट तैयार कर रहे हैं जो शौचालय से लैस होगा। अंतरिक्ष यात्री आपात स्थितियों में छह दिन तक इस तरह का अपना स्पेससूट पहने रह सकते हैं। नासा के ओरियन अंतरिक्षयान में सवार होने वाले अंतरिक्षयात्री ‘ओरियन क्रू सर्वाइवल सिस्टम्स सूट्स’ पहनेंगे। यह यान इंसानों को पृथ्वी की निचली कक्षा से ऊपर ले जाएगा। जहां ओरियन यान में शौचालय होगा, नासा आपात स्थितियों को ध्यान में रखते हुए इस तरह के सूट पर काम कर रहा है। यह आपात स्थिति ओरियन यान में दबाव कम होने से जुड़ा है। नासा चाहता है कि अंतरिक्षयात्री छह दिन तक इन सूटों की मदद से आपात स्थिति में काम चला सकें। मौजूदा स्पेससूटों में डायपर लगे होते हैं, लेकिन एक बार में अंतरिक्षयात्री उन्हें 10 घंटे से ज्यादा समय तक पहने नहीं रह सकते। स्पेससूट उतारने के बाद अंतरिक्षयात्री यान में मौजूद शौचालयों का इस्तेमाल करते हैं। (एजेंसी)
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जेंडर
देश का दूसरा लेडीज स्पेशल स्टेशन
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राजस्थान का गांधीनगर रेलवे स्टेशन देश में ऐसा दूसरा स्टेशन हो गया, जिसकी कमान पूरी तरह महिलाओं के हाथ में होगी
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एसएसबी ब्यूरो
हिला सशक्तिकरण की दिशा में उत्तर पश्चिम रेलवे ने जयपुर मंडल के गांधीनगर स्टेशन ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है। गांधीनगर रेलवे स्टेशन देश में ऐसा दूसरा स्टेशन हो गया, जिसकी कमान पूरी तरह महिलाओं के हाथ में होगी। जयपुर-दिल्ली रेलमार्ग पर स्थित जयपुर का यह महत्वपूर्ण स्टेशन है। यहां से प्रतिदिन लगभग 50 रेलगाड़ियां गुजरती हैं, जिनमें से 25 रेलगाड़ियां यहां रुकती हैं।
तथा महिलाएं हैं। महिला कर्मचारियों को पूर्ण आत्मविश्वास से कार्य करने के लिए खास प्रशिक्षण दिया गया है। उनकी सुरक्षा को ध्यान में रखकर सीसीटीवी लगाए गए हैं, जिससे स्टेशन स्थित थाने में रियल टाइम मॉनिटरिंग हो सके।
तैनाती से पहले प्रशिक्षण
उत्तर-पश्चिम रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी तरुण जैन बताते हैं कि लगभग 7 हजार यात्री प्रतिदिन गांधीनगर स्टेशन से आवाजाही करते हैं। इस स्टेशन पर स्टेशन मास्टर से लेकर प्वांइंट्स मैन तक 40 महिला कर्मचारी को पदस्थ किया गया है। उन्होंने बताया कि गांधीनगर स्टेशन के आसपास अनेक कॉलेज और कोचिंग सेंटर होने के कारण यहां आने वाले यात्रियों में बड़ी संख्या में विद्यार्थी
जैन ने बताया कि उत्तर-पश्चिम रेलवे के महाप्रबंधक टीपी सिंह ने संपूर्ण महिला स्टेशन का विचार दिया था, जिस पर मंडल रेल प्रबंधक सौम्या माथुर एवं अन्य मंडल अधिकारियों ने अमल करवाया। इस स्टेशन पर तैनात महिला कर्मचारियों को पूर्ण आत्मविश्वास से कार्य करने हेतु खास प्रशिक्षण दिया गया है। खासतौर पर स्टाफ शौचालयों का नवीनीकरण किया गया। चेंजिंग रूम का निर्माण जल्द ही पूरा कर लिया जाएगा। यहां स्टाफ बिना किसी परेशानी के कार्य कर सकें, इसके लिए इन्हें आउट ऑफ टर्न रेलवे क्वार्टर आवंटित किए जाएंगे। गैर सरकारी संगठन ‘आरुषि’ के साथ मिलकर स्टेशन पर सैनेटरी नैपकीन वेडिंग मशीन भी लगाई गई है।
खास बातें
जयपुर की पहली महिला स्टेशन मास्टर बनी नीलम
रियल टाइम मॉनिटरिंग
गांधीनगर स्टेशन से प्रतिदिन लगभग 50 रेलगाड़ियां गुजरती हैं 7 हजार यात्री प्रतिदिन इस स्टेशन से आवाजाही करते हैं स्टेशन पर 40 महिला कर्मचारियों को पदस्थ किया गया है
नीलम जाटव की टीम
जाटव ही गांधीनगर स्टेशन की भी कमान संभाल रही हैं। वे इस स्टेशन की सुपरिटेंडेंट हैं। बता दें कि नीलम जाटव को 2015 में जयपुर की पहली महिला स्टेशन मास्टर बनने का गौरव हासिल है। वहीं ट्रेनों के सफल और सुरक्षित संचालन की जिम्मेदारी ऐंजल स्टेला की होगी। एंजिला बताती हैं कि महिला स्टेशन पर काम करने की जो जिम्मेदारी मिली है, वह उसे पूरी क्षमता के साथ पूरा करेंगी। नीलम जाटव की टीम में 40 महिलाएं काम कर रही हैं, जो राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश के अलग-अलग शहरों की हैं। 40 महिलाओं में 4 ट्रेन ऑपरेशन, 8 बुकिंग, 6 रिजर्वेशन, 6 टिकट चेकिंग और अनाउसमेंट, 10 आरपीएफ और 6 स्टेशन के बाकी बड़े-छोटे काम संभालेंगी। स्टेशन से जुड़ी समस्याओं के लिए रेलवे से सीनियर डीएफएम अभिलाषा मिश्रा को स्टेशन कॉर्डिनेटर बनाया है।
जिम्मेदारियों का बंटवारा
उषा माथुर को मुख्य आरक्षण पर्यवेक्षक तथा मीना शर्मा, सुशीला मीना, संतोष सैनी और नीलम शर्मा को उनका सहायक नियुक्त किया गया है। प्वाइंट्समैन में मधु शर्मा, सरोज कंवर, सुगनी देवी तथा गेटमैन में ललिता तंवर, रेखा व संतरा मीना को लगाया गया है। कविता चतुर्वेदी को पूछताछ सह
माटुंगा से ज्यादा अहम गांधीनगर
पूर्ण रूप से महिलाओं द्वारा माटुंगा स्टेशन का सफल संचालन के बाद ही गांधीनगर रेलवे स्टेशन की जिम्मेदारी महिलाओं को सौंपने का विचार आया
गां
धीनगर भले देश का दूसरा लेडीज स्पेशल स्टेशन है। पर गांधीनगर मेनलाइन पर देश का पहला ऐसा स्टेशन बन गया है, जिसके पूरे संचालन की कमान महिलाओं के हाथ में है। देश का पहला लेडीज स्पेशल रेलवे स्टेशन मुंबई
लोकल नेटवर्क का माटुंगा स्टेशन है। दरअसल, माटुंगा रेलवे स्टेशन का पूर्ण रूप से महिलाओं द्वारा सफल संचालन के बाद ही राजस्थान के गांधीनगर रेलवे स्टेशन की पहचान को आधी आबादी से जोड़ने का इरादा रेलवे के मन में आया।
महिला कर्मचारियों को पूर्ण आत्मविश्वास से कार्य करने के लिए खास प्रशिक्षण दिया गया है। उनकी सुरक्षा को ध्यान में रखकर सीसीटीवी लगाए गए हैं, जिससे स्टेशन स्थित थाने में रियल टाइम मॉनिटरिंग हो सके आरक्षण लिपिक में लगाया गया है। टिकिट चेकिंग में विद्या देवी तथा महिमा दत्त, वंदना शर्मा व अपूर्वा वार्ष्णेय तथा टिकट बुकिंग विभाग में भारती, रेणु भवनानी व मंजू चौहान को पदस्थ किया गया है। रेलवे सुरक्षा बल में कविता (निरीक्षक), अनीता रावत, ललिता लखेरा, सरोज, रीना कुमारी, कविता कुमारी, कंचन तथा मनिद्रा कौर को स्टेशन पर तैनात किया गया है।
युवाओं के सामने मिसाल
इस स्टेशन के आसपास कई कोचिंग इंस्टीट्यूट्स हैं और इस इलाके को एजुकेशन हब भी माना जाता है। सबसे ज्यादा युवा यहां से यात्रा करते हैं। ऐसे में यह स्टेशन युवाओं के सामने महिला शाक्ति की एक मिसाल पेश करेगा। इस स्टेशन का नाम ‘लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड’ के लिए भी भेजा जा रहा है।
कर्मचारी उत्साहित
भारतीय रेलवे के साथ एक साल से काम कर रहीं एंजेला स्टेला ने कहा कि वह नई जिम्मेदारियों को लेकर काफी उत्साहित हैं। उन्होंने कहा, 'मैंने कभी नहीं सोचा था कि सिर्फ एक साल की सर्विस में एक ऐसे स्टेशन की जिम्मेदारी सौंप दी जाएगी जो पूरी तरह से महिलाओं द्वारा संचालित होगा। यह हम सबके लिए गर्व का विषय है।'
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सुलभ
12 - 18 मार्च 2018
सुलभ का 48वां स्थापना दिवस
अहर्निशं सेवामहे
विगत 48 वर्षों से निरंतर बिना रुके, बिना थके स्वच्छता की मशाल हाथों में लिए सुलभ आंदोलन के प्रणेता सक्रिय हैं और उनके साथ सक्रिय हैं हजारों कार्यकर्ता... सबका एक ही लक्ष्य, एक ही गंतव्य...। स्थापना दिवस के अवसर पर सुलभ ग्राम में एक बार फिर यही संकल्प दुहराया गया
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खास बातें
अयोध्या प्रसाद सिंह
च मार्च को सुलभ इंटरनेशनल ने अपना 48 वां स्थापना दिवस मनाया। दुनिया के सबसे बड़े गैर-सरकारी संगठनों में से एक सुलभ की यात्रा अपने आप में अनूठी है। सुलभ ने बिना कोई चंदा या लाभांश लिए 48 साल से निरंतर स्वच्छता, सेवा और सामाजिक सुधार के लिए सक्रिय है। सुलभ ने समाज में सबसे दीन-हीन समझे जाने वाले और मानव-मल ढोने वाले लोगों के लिए काम कर स्वच्छता के दर्शन को ही बदल दिया। शौचालयों के निर्माण के इतर सुलभ का दर्शन सेवा भाव ही रहा है।
गांधी जी के सपने को साकार करने के लिए हुई सुलभ की स्थापना सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को समाप्त करना सुलभ का उद्देश्य सुलभ का लक्ष्य पूर्व स्कैवेंजर्स को समाज से सम्मानपूर्वक जोड़ना
सेवा ही सुलभ का दर्शन
इस अवसर पर सुलभ के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने कहा कि सुलभ का दर्शन ही है – दूसरों की सेवा। उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी के सपने को पूरा करने के उद्देश्य से सुलभ की स्थापना हुई थी। गांधी जी का सपना था कि मैला ढोने की प्रथा को समाप्त कर, उससे जुड़े हुए लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाना। सुलभ अपनी स्थापना के साथ ही इसी दिशा में काम करता आया है। सुलभ ने इस मुद्दे को धीरे-धीरे आंदोलन बना दिया। इस आंदोलन के दर्शन में सबसे बड़ी बात छुपी हुई हैदूसरों की सेवा, समाज की सेवा और सबको साथ लेकर चलना।
सुलभ ने बदली लाखों जिंदगियां
सुलभ इंटरनेशनल से आज 60,000 से ज्यादा स्वयंसेवक जुड़े हैं। सुलभ ने 48 साल की अपनी यात्रा में अभी तक 15 लाख से अधिक घरेलू और 8,500 सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया है। 6 करोड़ से ज्यादा सरकारी शौचालय सुलभ शौचालय के डिजाइन पर बनाए गए हैं। आज 2 करोड़ से ज्यादा लोग सुलभ शौचालयों का इस्तेमाल रोजाना कर रहे हैं। 10,000 से अधिक मैला ढोने वालों (स्कैवेंजरों) को मुक्त करवाया गया है। सुलभ संस्थापक डॉ. पाठक बेहद रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए, लेकिन उन्होंने सुलभ की स्थापना के साथ ही अनगिनत जिंदगियों का अंधेरा दूर कर उन्हें रौशन किया। उन्होंने अपने शोध के माध्यम से 1968 में टू-पिट पोर-फ्लश शौचालय तकनीक खोजी। इसके बाद से भारत में शौचालय की दशा और दिशा दोनों ही बदलने लगे। यह तकनीक बेहद सस्ती थी और उपयोगी भी। लेकिन डॉ. पाठक को इसकी सार्थकता और व्यावहारिकता साबित करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। लेकिन 1970 में सुलभ की स्थापना और 1974 में शहरी क्षेत्रों में सुलभ के सार्वजानिक शौचालयों के
सुलभ तकनीक और स्वच्छता
डॉ. पाठक सुलभ की 48 साल की यात्रा को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि अगर सुलभ तकनीक न होती और सुलभ शौचालयों का निर्माण नहीं किया गया होता तो हमारा देश आज स्वच्छता के पैमाने पर खरा नहीं उतर पाता और बेहद गंदा होता। आज अगर देश खुले में शौच से मुक्त होने के सपने की ओर अग्रसर है तो उसमें सुलभ का भी बहुत बड़ा योगदान है। 48 साल के सफर में हम सब ने मिलकर देश में स्वच्छता की अलख जलाई है।
सुलभ इंटरनेशनल से आज 60,000 से ज्यादा स्वयंसेवक जुड़े हैं। सुलभ ने 48 साल की अपनी यात्रा में अभी तक 15 लाख से अधिक घरेलू और 8,500 सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया है। 6 करोड़ से ज्यादा सरकारी शौचालय सुलभ शौचालय के डिजाइन पर बनाए गए हैं निर्माण के बाद से ही यह तकनीक बिहार से लेकर पूरे देश में प्रसिद्ध होने लगी। भुगतान और उपयोग पर आधारित ये सुलभ शौचालय लोगों के लिए जैसे वरदान थे और साथ ही उनकी बहुत बड़ी समस्या का हल भी।
स्वच्छता की संस्कृति
डॉ. पाठक कहते हैं कि हमारी 48 साल की यात्रा में सबसे बड़ी उपलब्धि यह भी है कि हमने स्वच्छता की संस्कृति विकसित की है। 48 साल पहले जो पौधा हमने लगाया था, उसमें अब फूल और फल लग गए हैं। हमारी यात्रा ने न जाने कितनों को सहारा दिया है और उनके कष्ट दूर किए हैं। इस 48 वर्ष के सफर में हमने समाज को जोड़ा है और बहुत कुछ दिया है। हम समाज के निचले तबके पर रहने और
अछूत समझी जाने वाली जिंदगियों को मुख्य धारा में लेकर आए और उन्हें जीवन-यापन के सम्मानीय रास्ते मुहैया करवाया।
रोजगार के सुलभ रास्ते
मैला ढोने वालों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि अगर वह मैला ढोने काम छोड़ दें तो जीवन-यापन के लिए क्या करें और कैसे समाज की मुख्यधारा से जुड़ें। सुलभ ने अपनी स्थापना के साथ ही इस दिशा में भी सोचना शुरू कर दिया था। सुलभ ने स्कैवेंजरों को अजीविका कमाने के लिए नए रास्ते दिए। कई व्यावसायिक प्रशिक्षण-केंद्रों की स्थापना की, जहां से ट्रेनिंग लेकर स्कैवेंजर्स रोजगार पा सकते हैं या खुद का रोजगार कर सकते हैं।
शौचालय से सामाजिक बदलाव
डॉ. पाठक मानते हैं कि सुलभ सामाजिक बदलाव का बहुत बड़ा वाहक बना है। वह कहते हैं कि सुलभ के योगदान को सिर्फ शौचालयों तक सीमित न किया जाए। सुलभ ने शौचालय के साथ-साथ समाज के दबे-कुचले लोगों को मुख्यधारा में लाकर सकारात्मक बदलाव किया है। इसके साथ ही पर्यावरण को बचाने, विधवाओं के अधिकारों और दलितों और शोषितों के प्रति समाज के दायित्वों के निर्वाहन में भी बड़ी भूमिका निभाई है। उन्होंने बताया कि हर साल वह वृंदावन की विधवा माताओं के साथ होली खेलते हैं। डॉ. पाठक कहते हैं इस तरह देश के निर्माण में भी हमारा योगदान है।
शौचालय से लेकर स्कूल तक
सुलभ संस्था के चेयरमैन एस.पी.सिंह ने इस अवसर पर सुलभ की यात्रा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हमने समाज में बदलाव के लिए हर संभव कोशिश है। जब लोगों ने कहा कि सिर्फ शौचालय निर्माण से समाज नहीं बदलेगा, तो हमने स्कूल भी खोले, लोगों को प्रशिक्षित किया और उन्हें मुख्यधारा में लेकर आए। कभी हमें अपना सामान बेचकर लोगों की मदद करनी पड़ती थी, हमने वो भी किया। सुलभ के मानद कार्यकारी अध्यक्ष चेयरमैन
ु भ के 48 वर्ष सल 1968
िबहार गांधी जन्म शताब्दी समिति से डॉ. पाठक जुड़े
सुलभ टू पिट ईकोलॉजिकल कंपोस्ट टॉयलेट का अाविष्कार और सुलभ संस्थान की स्थापना
1970
‘पे एंड यूज’ के आधार पर सुलभ शौचालयों का निर्माण शुरू
1980-81
1988
1996
1978
स्कैवेंजर्स के लिए सरकार से गुहार, मिली कानूनी सुरक्षा बिहार और केंद्र सरकार की मदद से स्कैवेंजर्स के पुनर्वास के लिए काम
1985
स्कैवेंजर्स के लिए पटना में ऐतिहासिक सेमिनार
1985
दक्षिण-पूर्वी एशियाई, अफ्रीकी और लैटिन अमरीकी देशों में सुलभ तकनीक का प्रसार
स्कैवेंजर्स को समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास
स्कैवेंजर्स की दशा और दिशा पर दिल्ली में नेशनल सेमिनार
1992
1994
2003
राजस्थान का अलवर जिला मैला ढोने से मुक्त घोषित
2011
दिल्ली में सुलभ टॉयलेट म्यूजियम की स्थापना गांवों में सुलभ शौचालयों के लिए काम
डकवीड प्रोजेक्ट (साफ पानी के लिए योजना)
मैला ढोने से मुक्त हुई महिलाएं कई धार्मिक स्थलों पर गईं
दो घरेलू शौचालय का बिहार के आरा में निर्माण
पब्लिक टॉयलेट से बायोगैस बनाना शुरू
स्कैवेंजर्स को मंदिर में प्रवेश के लिए संघर्ष
सुलभ यूनिवर्सिटी और व्यावसायिक प्रशिक्षण सेंटर नई दिशा की शुरुआत
2009
1974
2010
2001
1973
1984
1990
2000
2007
बेल्जियम की प्रिंसेस सुलभ ग्राम आईं वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी के साथ सुलभ ने लिया स्वच्छता मिशन का संकल्प और कई घाटों को किया साफ
48 साल पहले जो पेड़ हमने लगाया था, उसमें अब फूल और फल लग गए हैं। हमारी यात्रा ने न जाने कितनों को सहारा दिया है और उनके कष्ट दूर किए हैं। इस 48 वर्ष के सफर में हमने समाज को जोड़ा है और बहुत कुछ दिया है - डॉ. पाठक एस. चटर्जी ने इस अवसर पर कहा कि जब डॉ. पाठक ने शौचालय के लिए सुलभ तकनीक खोजी तो वैज्ञानिकों को ये विश्वास ही नहीं हुआ कि हजारों साल की समस्या का अंत इतनी आसानी से हो सकता है। लेकिन डॉ. पाठक ने यह कर के दिखाया और अंत में सबको मानना पड़ा। उन्होंने कहा कि अब पूरा विश्व सुलभ तकनीक को मानता है और डॉ. पाठक को सम्मान देता है। न्यूयॉर्क शहर ने 14 अप्रैल को डॉ. विन्देश्वर पाठक दिवस के रूप में मनाया।
मैला ढोने का दर्द
महिलाओं के लिए ट्रेनिंग सुलभ टॉयलेट समिट
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सुलभ
12 - 18 मार्च 2018
2015
इस अवसर पर राजस्थान के अलवर से आईं उषा चौमड़ ने अपने मैला ढोने के दर्द को साझा करते हुए कहा कि हमें बहुत खुशी है कि हमें ऐसी जगह पर बुलाया जाता है और बोलने के लिए कहा जाता है। क्योंकि जब हम मैला ढोते थे तब हमने सोचा भी नहीं था कि कोई हमको सुनेगा भी। उषा कहती हैं कि उन्होंने इसी जीवन में दो जिंदगियां जी ली हैं - एक तो मैला ढोने के पहले की, जो बहुत ही गंदी और बिना सम्मान के थी और दूसरी मैला ढोने के बाद की, यानी जो अब जी रही हैं उसमें सम्मान भी है और खुशी भी। राजस्थान के ही टोंक से आईं पूजा चांगरा ने बताया कि सुलभ ने हमको अपने परिवार में शामिल कर जीवन-यापन के लिए नए रास्ते दिए। सुलभ के ही ‘नई दिशा’ नामक व्यावसायिक प्रशिक्षण-केंद्र से ट्रेनिंग लेकर खुद से कमाने लगी और सम्मान के साथ जिंदगी जीने लगी।
सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सुलभ रंग
सुलभ ने समाज में बदलाव के लिए बेहतर शिक्षा मुहैया कराने पर भी जोर दिया है। सुलभ पब्लिक स्कूल इसी दिशा में बड़ा कदम है। इस स्कूल में आने वाले अधिकतर बच्चे समाज के पिछड़े तबके से हैं। जो यहां पर शिक्षा के साथ-साथ प्रोफेशनल ट्रेनिंग भी पाते हैं। सुलभ के 48 साल के सफर पर इन बच्चों ने कई रंगारंग कार्यक्रम पेश कर सबका मन मोह लिया। ‘गणेश वंदना’ के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम की शुरुआत हुई। ‘सुलभ को सलाम’ और ‘न जाओ खुले में शौच’ जैसे गीतों पर बच्चों ने बेहतरीन प्रस्तुति दी।
सुलभ ग्राम की इंद्रधनुषी सज्जा
सुलभ के 48 वें स्थापना दिवस पर पूरे सुलभ ग्राम को सजाया गया। सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने इस अवसर पर सुलभ ग्राम में लगी गांधी और आंबेडकर की प्रतिमा पर फूल अर्पित कर प्रणाम किया।
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पुस्तक अंश
12 - 18 मार्च 2018
चाय पर चर्चा
8 मार्च 2014 को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर नई दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय में ‘नरेंद्र मोदी के साथ चाय पर चर्चा’ कार्यक्रम का आयोजन किया गया। मोदी ने देश के 1500 स्थानों के लोगों के साथ महिला सशक्तिकरण के विषय पर चर्चा की। इन लोगों में प्रसिद्ध महिलाएं भी प्रमुखता से शामिल थीं।
चुनाव अभियान के दौरान महिलाओं के साथ ‘चाय पर चर्चा’ करते हुए नरेंद्र मोदी।
‘चा
य पर चर्चा’ - एक कप चाय के साथ चर्चा – यह 2014 के चुनावों में नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान के लिए शुरू की गई एक और नवीन पहल थी। 12 फरवरी, 2014 को मोदी के गृह राज्य गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में इस्कॉन गांधी चाय स्टॉल से ‘चाय पर चर्चा’ को लॉन्च किया गया। इस स्थल से नरेंद्र मोदी 300 शहरों के 1000 चाय स्टॉल्स के साथ अपनी शानदार सूचना प्रौद्योगिकी टीम द्वारा उपग्रह, डीटीएच, इंटरनेट और मोबाइल के साथ जुड़े हुए थे। पहली ‘चाय पर चर्चा’ कार्यक्रम का विषय सुशासन था। यह कार्यक्रम एक गैर सरकारी संगठन – ‘सिटीजंस फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस’ द्वारा आयोजित किया गया था। 1000 स्थानों में से, मोदी ने 30 जगहों के लोगों के साथ बातचीत की। प्रश्नों का चुनाव आयोजन करने वाले गैर सरकारी संगठन द्वारा उसकी वेबसाइट से किया गया था। जिन लोगों को सवाल पूछने के लिए चुना
गया, उन्होंने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अपने विचार साझा किए और प्रचार अभियान के लिए सुझाव भी दिए। उन सभी जगहों पर जहां प्रसारण किया गया, मोदी अपने हाथ में एक चाय का कप लिए हुए स्क्रीन पर दिखाई दिए। इस घटना
12 फरवरी, 2014: अहमदाबाद में ‘चाय पर चर्चा’ कार्यक्रम के प्रसारण के दौरान चाय का कप हाथ में लिए नरेंद्र मोदी।
ने अंतरराष्ट्रीय मीडिया को आकर्षित किया और उसने इसे अच्छी तरह से पूरे विवरण के साथ प्रशंसात्मक ढंग से कवर किया।
14 फरवरी, 2014: मुंबई के खार में, भाजपा द्वारा आयोजित एक ‘चाय पर चर्चा’ कार्यक्रम के दौरान प्रसिद्द लेखक चेतन भगत और फिटनेस गुरु मिकी मेहता।
पहली ‘चाय पर चर्चा’ कार्यक्रम की सफलता के साथ ही इस तरह के कई और ‘चाय पर चर्चा’ कार्यक्रमों को आयोजित किया गया और फिर यह मोदी के व्यक्तित्व और उनकी छवि का ट्रेड मार्क बन गया। नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2015 में गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के रूप में भारत का दौरा किया। उस वक्त नई दिल्ली के हैदराबाद हाउस में ओबामा का मोदी के साथ ‘चाय पर चर्चा’ कई राष्ट्रीय और वैश्विक सुर्खियों का हिस्सा बना था। मोदी ने अपने आवास 7 रेस कोर्स रोड पर, पूर्व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी को ‘वस्तु एवं सेवा कर विधेयक (जीएसटी)’ और अन्य विधेयकों पर चर्चा करने के लिए चाय पर बुलाया था। तब भी मीडिया द्वारा इसे ‘चाय पर चर्चा’ नाम दिया गया था।
(अगले अंक में जारी...)
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आयोजन
मसूरी साहित्य-महोत्सव-2018
पुरुषोत्तम नारायण सिंह को ‘विश्व-विभूति विन्देश्वर पाठक संस्कृति-समन्वय-शिखर -सम्मान’
अ
अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति द्वारा मसूरी में आयोजित दसवें राष्ट्रीय अधिवेशन में ‘समाज, साहित्य और शुचिता’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी, सम्मान-समारोह एवं कवि-सम्मेलन का भी आयोजन हुआ
डॉ. अशोक कुमार ज्योति
खिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति, नई दिल्ली द्वारा आयोजित दसवां राष्ट्रीय अधिवेशन ‘मसूरी साहित्य-महोत्सव’ मसूरी के झड़ीपानी स्थित 1880 में स्थापित हुए देश के एक मात्र सरकारी आवासीय स्कूल ओक ग्रोव स्कूल के विशाल सभागार में संपन्न हुआ। कार्यक्रम का उद्घाटन सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक और स्वच्छता के प्रतीक-पुरुष विश्व-विभूति पद्मभूषण डॉ. विन्देश्वर पाठक द्वारा किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता विख्यात हिंदी-साहित्यकार, कवि एवं पत्राकार पंडित सुरेश नीरव ने की। इस अवसर पर आयोजित पुस्तक-प्रदर्शनी के उद्घाटन से महोत्सव का शुभारंभ हुआ। पुस्तक प्रदर्शनी में समारोह में सम्मिलित रचनाकारों की पुस्तकों को शामिल किया गया। सभागार में स्थान ग्रहण करने के बाद सबसे पहले ओक ग्रोव स्कूल की छात्राओं द्वारा सरस्वती-वंदना प्रस्तुत की गई। उसके बाद पटना दूरदर्शन-केंद्र के निदेशक और प्रतिष्ठित कवि पुरुषोत्तम नारायण सिंह की भारत की विविधता को समग्रता से दर्शाती गीति-रचना ‘जय इंडिया, जय भारतम्’ का प्रदर्शन किया गया। तत्पश्चात स्वच्छता और अस्पृश्यता के ज्वलंत संदर्भों पर केंद्रित डॉ.विन्देश्वर पाठक के रचनात्मक अवदान को अभिव्यक्त करती फिल्म एवं गानों का प्रदर्शन किया गया। इसके बाद पंडित सुरेश नीरव के साहित्यिक सफर को संजोए प्रदीप जैन द्वारा निर्मित एवं निर्देशित डॉक्यूमेंट्री का प्रदर्शन किया गया। तत्पश्चात ओक ग्रोव स्कूल के प्राचार्य, कवि एवं शिक्षाविद् जयप्रकाश पांडेय ने स्वागत-वक्तव्य देकर ‘समाज, साहित्य और शुचिता’ विषय पर केंद्रित राष्ट्रीय संगोष्ठी का मार्ग प्रशस्त किया। संगोष्ठी में आचार्य श्याम स्नेही, डॉ. ऋचा सूद, डॉ. अशोक कुमार ज्योति, पुरुषोत्तम नारायण सिंह, डॉ. मधु चतुर्वेदी, पंडित सुरेश नीरव और डॉ. विन्देश्वर पाठक ने अपने विचार व्यक्त किए। डॉ. विन्देश्वर पाठक ने महोत्सव को संबोधित करते हुए कहा कि बाहरी स्वच्छता और आंतरिक शुचिता से ही समाज का सतत विकास संभव है। इसीलिए हर व्यक्ति को इस पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा कि स्वच्छ परिवेश से ही स्वच्छ राष्ट्र का निर्माण होगा। उन्होंने स्कूल के विद्यार्थियों को दो प्रेरणादायी कथाएं सुनाकर कहा कि अपनी बुद्धि और विवेक से कोई काम करोगे तो जीवन
‘अनंग’, डॉ. मधु चतुर्वेदी, आचार्य श्याम स्नेही, डॉ. अशोक कुमार ज्योति, डॉ. अमन बाठला, शिवनरेश पांडेय, श्रीमती मधु मिश्रा, पंडित नमन और अनीता पांडेय को भी इस वर्ष के ‘सर्वभाषासंस्कृति-समन्वय-सम्मान’ से अलंकृत किया गया। कार्यक्रम में संजू उपाध्याय, सुधीर कुमार मिश्रा एवं विनय कुमार को भी सम्मानित किया गया। समारोह का सफल संचालन कविवर डॉ. अरुण सागर ने किया। समारोह में डॉ. विन्देश्वर पाठक ने अखिल भारतीय सर्वभाषा-संस्कृति-समन्वय-समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष पंडित सुरेश नीरव को भी सम्मानित किया। इसके बाद कवि-सम्मेलन हुआ, जिसमें देशभर से पधारे एवं स्थानीय कवियों ने अपनी-अपनी कविताओं के पाठ से बच्चों से काफी तालियां बटोरीं। राष्ट्रगान के साथ महोत्सव संपन्न हुआ।
जयप्रकाश पांडेय: कार्यक्रम-संयोजक में सफलता मिलेगी। उन्होंने 1968 में स्वयं द्वारा आविष्कृत दो गड्ढेवाली सुलभ मैजिक शौचालय की तकनीक के बारे में संक्षेप में बताया और कहा कि आज पूरे विश्व में सुलभ मैजिक शौचालय की मांग हो रही है। उन्होंने सुलभ इंटरनेशनल द्वारा स्कैवेंजरों के पुनर्वासन, उनकी जाति का उत्थान कर उन्हें ‘ब्राह्मण’ बनाना, विधवाओं के कल्याणार्थ की जा रही सेवाओं इत्यादि के बारे में सभा को जानकारी दी और कहा कि ‘शुचिता’ के व्यापक परिप्रेक्ष्य को समाज के हर व्यक्ति को अपनाने की जरूरत है। डॉक्टर पाठक ने पूर्व प्रधानमंत्री एवं सहृदय कवि अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व को रेखांकित करती एक कविता का भी पाठ किया, जिसकी पंक्ति थी,‘अटल तुम तो अटल हो’। संगोष्ठी के पश्चात डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित पंडित सुरेश नीरव के व्यंग्यसंग्रह ‘पलटीमार’ का लोकार्पण किया गया। पंडित नीरव ने अपनी कविताओं के साथ-साथ व्यंग्यलेखन में भी अपनी गहरी छाप छोड़ी है। इन दिनों किसी-न-किसी
अखबार में प्रायः प्रतिदिन उनकी एक व्यंग्य-रचना का प्रकाशन हो रहा है।
सम्मान-समारोह
इसके पश्चात देशभर से पधारे साहित्यकारों को सम्मानित किया गया। सबसे पहले पांच लाख रुपए की धन-राशि के साथ ‘विश्व-विभूति विन्देश्वर पाठक संस्कृति-समन्वय-शिखर-सम्मान’ से कवि एवं मीडिया पर्सन पुरुषोत्तम नारायण सिंह को सम्मानित किया गया। उन्हें चेक के साथ शॉल, माला, प्रतीक-चिह्न एवं पुस्तकें प्रदान की गईं। इस अवसर पर ‘सर्वभाषा-संस्कृति-समन्वयसम्मान’ से कवि एवं ‘साहित्य ऋचा’ पत्रिका के संपादक डॉ. अरुण सागर को सम्मानित किया गया। सम्मान के इस क्रम में आकाशवाणी के दिल्ली-केंद्र के कार्यक्रम निष्पादक राम अवतार बैरवा, शिक्षाविद् एवं कवि जयप्रकाश पांडेय, डॉ. ऋचा सूद, फिल्म निर्माता-निर्देशक और कवि प्रदीप जैन, नीरज नैथानी, रामवरण ओझा, अनंगपाल भदौरिया
बाहरी स्वच्छता और आंतरिक शुचिता से ही समाज का सतत विकास संभव है। इसीलिए हर व्यक्ति को इसपर ध्यान देना चाहिए - डॉ. पाठक
नौ अप्रैल, 1974 को छत्तीसगढ़ के भिलाई, जिला दुर्ग में जन्मे जयप्रकाश पांडेय, भारतीय रेलवे कार्मिक सेवा 2002 बैच के अधिकारी हैं तथा वर्तमान में ओक ग्रोव स्कूल, झड़ीपानी, मसूरी के प्राचार्य हैं। जयप्रकाश पांडेय को उनकी उत्कृष्ट प्रशासनिक सेवाओं के लिए 2011 में राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। साहित्यिक अभिरुचियों वाले जयप्रकाश पांडेय के लेख एवं कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। इसके साथ ही अनेक कवि-सम्मेलनों एवं आकाशवाणी से वे नियमित काव्य-पाठ करते रहते हैं। हाल में उनका प्रथम कविता-संग्रह ‘दरिया के दो पाट’ प्रकाशित हुआ है, जिसकी साहित्य-जगत में काफी प्रशंसा हुई है। मसूरी साहित्य-महोत्सव का उन्होंने सफल संयोजन किया।
पुरुषोत्तम नारायण सिंह
पुरुषोत्तम नारायण सिंह हिंदी के प्रतिष्ठित कवि हैं। ‘सन्नाटे में शोर’ उनका बेहद चर्चित काव्य-संग्रह है। वे एक निष्णात संगीतज्ञ और संवेदनशील कवि के साथ-साथ एक चर्चित मीडिया पर्सन हैं। हाल ही में निर्मित इनकी गीति-रचना ‘जय इंडिया, जय भारतम्’ के फिल्मांकन को काफी पसंद किया गया है। संप्रति वे पटना दूरदर्शन केंद्र के निदेशक हैं। साहित्य, कला, संगीत एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पुरुषोत्तम नारायण सिंह की उल्लेखनीय सेवाओं के लिए उन्हें वर्ष 2018 के ‘विश्व-विभूति विन्देश्वर पाठक संस्कृति-समन्वय-शिखर-सम्मान’ से अलंकृत किया गया।
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सािहत्य
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कर्म और संस्कार
कविता
उम्र की ऐसी की तैसी उम्र घर चाहे कैसा भी हो उसके एक कोने में खुलकर हंसने की जगह रखना सूरज कितना भी दूर हो उसको घर आने का रास्ता देना कभी कभी छत पर चढ़कर तारे अवश्य गिनना हो सके तो हाथ बढ़ा कर चांद को छूने की कोशिश करना अगर हो लोगों से मिलना जुलना तो घर के पास पड़ोस जरूर रखना भीगनें देना बारिश में उछल कूद भी करने देना हो सके तो बच्चों को एक कागज़ की कश्ती चलाने देना कभी हो फुर्सत, आसमान भी साफ हो तो एक पंतग आसमान में चढ़ाना हो सके तो एक छोटा सा पेंच भी लड़ाना घर के सामने रखना एक पेड़ उस पर बैठे पक्षियों की बातें अवश्य सुनना घर चाहे कैसा भी हो घर के एक कोने में खुलकर हंसने की जगह रखना चाहे जिधर से गुजरिए मीठी से हलचल मचा दिजिए उम्र का हरेक दौर मजेदार है अपनी उम्र का मजा लीजिएे जिंदा दिल रहिए जनाब ये चेहरे पे उदासी कैसी वक्त तो बीत ही रहा हैै उम्र की ऐसी की तैसी
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क राजा के पास सुंदर घोड़ी थी। कई बार युद्ध में इस घोड़ी ने राजा के प्राण बचाए। घोड़ी राजा के प्रति पूरी वफादार थी। कुछ दिनों के बाद इस घोड़ी ने एक बच्चे को जन्म दिया। बच्चा काफी स्वस्थ और सुडौल था। बच्चा बड़ा हुआ, बच्चे ने मां से पूछा: मां मैं बहुत बलवान हूं, पर काना हूं.... यह कैसे हो गया, इस पर घोड़ी बोली: बेटा जब में गर्भवती थी, तू पेट में था तब राजा ने मेरे ऊपर सवारी करते समय मुझे एक कोड़ा मार दिया, जिसके कारण तू काना
हो गया। यह बात सुनकर बच्चे को राजा पर गुस्सा आया और मां से बोला: मां मैं इसका बदला लूंगा। मां ने कहा राजा ने हमारा पालन-पोषण किया है, तू जो स्वस्थ है....सुंदर है, उसी के पोषण से तो है, यदि राजा को एक बार गुस्सा आ गया तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उसे क्षति पहुंचाएं। पर उस बच्चे के समझ में कुछ नहीं आया। उसने मन ही मन राजा से बदला लेने की ठान ली। एक दिन यह मौका घोड़े को मिल गया राजा
उसे युद्ध पर ले गया। युद्ध लड़ते-लड़ते राजा एक जगह घायल हो गया, घोड़ा उसे तुरंत उठाकर वापस महल ले आया। इस पर घोड़े को ताज्जुब हुआ और मां से पूछा: मां आज राजा से बदला लेने का अच्छा मौका था, पर युद्ध के मैदान में बदला लेने का ख्याल ही नहीं आया और नहीं ले पाया, मन ने गवारा ही नहीं किया....इस पर घोड़ी हंसकर बोली: बेटा तेरे खून में और तेरे संस्कार में धोखा है ही नहीं, तू जान कर तो धोखा दे ही नहीं सकता है। तुझसे नमक हरामी हो नहीं सकती, क्योंकि तेरी नस्ल में तेरी मां का ही तो अंश है। यह सत्य है कि जैसे हमारे संस्कार होते हैं, वैसा ही हमारे मन का व्यवहार होता है, हमारे पारिवारिक-संस्कार अवचेतन मस्तिष्क में गहरे बैठ जाते हैं, माता-पिता जिस संस्कार के होते हैं, उनके बच्चे भी उसी संस्कारों को लेकर पैदा होते हैं। हमारे कर्म ही 'संस्कार' बनते हैं और संस्कार ही प्रारब्धों का रूप लेते हैं । यदि हम कर्मों को सही व बेहतर दिशा दे दें तो संस्कार अच्छे बनेगें और संस्कार अच्छे बनेंगे तो जो प्रारब्ध का फल होगा, वह मीठा व स्वादिष्ट होगा। अत: हमें प्रतिदिन कोशिश करनी चाहिए कि हमसे जान बूझकर कोई धोखा ना हो, गलत कामना न हो और हम किसी के साथ कोई भी धोखा ना करें।
अधूरा ज्ञान
अ
भिमन्यु, अर्जुन और सुभद्रा का पुत्र तथा श्रीकृष्ण का भांजा था। वह बड़ा वीर था। महाभारत के युद्ध के समय कुरूक्षेत्र के मैदान में जब कौरवों ने पांडवों को फंसाने के लिए गुरू द्रोणाचार्य की सहायता से चक्रव्यूह की रचना की, तो पांडव चिंतित हो गए क्योंकि पांडवों में सिर्फ अर्जुन ही थे, जिन्हें चक्रव्यह की रचना और उसे तोड़ने का भेद मालूम था। अन्य पांडव यदि चक्रव्यूह में प्रवेश करते तो उनकी मौत निश्चित थी। अर्जुन किसी अन्य स्थान पर दूसरे सैनिकों से लड़ रहे थे। अभिमन्यु ने जब यह सुना तो उसे महसूस हुआ कि वह भी चक्रव्यूह तोड़ने का भेद जानता है। वास्तव में जब वह माता के गर्भ में था तभी एक बार अर्जुन अपनी पत्नी को यह भेद बता रहे थे। गर्भ में ही अभिमन्यु ने यह भेद जान लिया था, किंतु बीच में ही सुभद्रा को नींद आ जाने से यह भेद वह पूरा नहीं सुन पाईं और अभिमन्यु का
यह ज्ञान अधूरा रह गया। अभिमन्यु के बहुत जिद करने पर युधिष्ठिर, भीम, नकुल और सहदेव उसे चक्रव्यूह में प्रवेश करने के लिए भेजने पर सहमत हुए। अभिमन्यु ने चक्रव्यूह में प्रवेश करते हुए कौरवों के अनेक वीरों को बड़ी वीरता से मार डाला, किंतु चक्रव्यूह के बीच में पहुंच कर अपने अधूरे ज्ञान के कारण
द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दुशासन, अश्वत्थामा, जयद्रथ और शकुनी के द्वारा घेर लिया गया। वह बड़ी वीरता से लड़ता रहा, किंतु अकेले वह सात महारथियों का मुकाबला नहीं कर पाया और अंत में वीर गति को प्राप्त हुआ। अतः लालच से दूर रहने का फल सदा अच्छा होता है।
12 - 18 मार्च 2018
आओ हंसें
शादी और शर्त
लड़की : अगर मुझसे शादी करनी हैं तो तुम्हें कुछ शर्तें माननी होंगी मेरी। लड़का : हां जरूर, क्या शर्तें हैं तुम्हारी? लड़की : तो सुनो.... तुम्हें हर हफ्ते अम्मी को 10 किलो आटा, 5 किलो चीनी और अब्बा की गाड़ी में 10 लीटर पेट्रोल डलवाना होगा। लड़का : अच्छा बहन... अम्मी और अब्बू को मेरा सलाम कहना। मैं चलता हूं अब।
विश्वास उठ गया
चोर एक घर मे चोरी करने गया। तिजोरी पर लिखा था... ‘तिजोरी को तोड़ने की जरुरत नहीं, 452 नंबर लगाओ और सामने वाला लाल बटन दबाओ, तिजोरी खुल जाएगी।’ ...जैसे ही बटन दबाया तो अलार्म बज उठा और पुलिस आ गई। जाते वक्त चोर सेठ से बोला... ‘आज मेरा इंसानियत से विश्वास उठ गया।’
सु
जीवन मंत्र
डोकू -13
हार और जीत हमारी सोच पर निर्भर है मान लिया तो हार ठान लिया तो जीत
रंग भरो
सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी विजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार दिया जाएगा। सुडोकू के हल के लिए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें
महत्वपूर्ण दिवस • 14 मार्च पाई दिवस • 15 मार्च कांशीराम जयंती • 18 मार्च आयुध निर्माण दिवस
सुडोकू-12 का हल
वर्ग पहेली - 13
1. सूर्य (4) 4. शरीर सहित (4) 7. बुद्धिमानी (5) 8. वर्ष (3) 9. चिकित्सालय (4) 11. जीत (2) 13. महावर (3) 14. जानकारी (2) 17. गुंजन (4) 19. जलराशि नापने की इकाई (3) 20. संसार रूपी समुद्र (5) 22. नीला आसमान (4) 23. विषैला (4)
वर्ग पहेली-12 का हल
बाएं से दाएं
ऊपर से नीचे
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इंद्रधनुष
1. नकली, बनावटी (4) 2. व्यायाम (4) 3. एक अँग्रेजी शराब (2) 4. सज्जनता (5) 5. सीताफल (3) 6. जीभ (3) 10. चुप्पी (3) 11. ईर्ष्या (3) 12. काजल (3) 13. भूल से (5) 15. इत्यादि (4) 16. जंगली फूलों की माला (4) 17. बहिन (3) 18. अर्क निकालने का यंत्र, तीखी तपन (3) 21. हाथी (2)
कार्टून ः धीर
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न्यूजमेकर
12 - 18 मार्च 2018
कृष्णा कुमारी
पाक की पहली हिंदू महिला सीनेटर कृष्णा कुमारी पाकिस्तान में सीनेटर निर्वाचित होने वाली पहली हिंदू दलित महिला बन गई हैं
पा
किस्तान के सिंध प्रांत की कृष्णा कुमारी कोल्ही सीनेट के लिए निर्वाचित होने वाली देश की पहली हिंदू दलित महिला बन गई हैं। थार की रहने वाली 39 वर्षीय कृष्णा बिलावल भुट्टो जरदारी के नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की कार्यकर्ता हैं। बिलावल ने कहा कि कृष्णा का निर्वाचन पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को दिखाता है तथा वह पाकिस्तान की राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभा सकती हैं। कृष्णा ने कहा कि वह खुश हैं कि पीपीपी ने उनमें और उनके कार्य में विश्वास जताया है। उन्होंने कहा, 'मैं मानवाधिकार कार्यकर्ता हूं और अल्पसंख्यकों, खासकर हिंदुओं को पेश आ रही समस्याओं को उजागर करती हूं। पीपीपी इस सीट पर किसी दूसरी महिला को सीनेट भेज सकती थी, लेकिन उसने दिखाया कि वह अल्पसंख्यकों का भी खयाल रखती है।' कृष्णा सिंध प्रांत के थार स्थित सुदूरवर्ती नगरपारकर जिले की रहने वाली हैं। कृष्णा अपने भाई के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पीपीपी से जुड़ी थीं। बाद में उनके भाई को यूनियन काउंसिल बेरानो का चेयरमैन चुना गया।
कृष्णा का जन्म 1979 में सिंध के नगरपारकर जिले के एक दूरदराज गांव में हुआ था। कृष्णा का संबंध स्वतंत्रता सेनानी रूपलो कोहली के परिवार से है। कृष्णा एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखती हैं। उनके परिवार के सदस्यों ने एक जमींदार की निजी जेल में करीब तीन वर्ष गुजारे। ब्रिटिश सेना ने 1857 में जब सिंध पर हमला किया था, तब उसके खिलाफ रूपलो ने भी युद्ध में हिस्सा लिया था। कृष्णा जब 16 साल की थीं, तभी उनका विवाह लालचंद से हुआ। उस समय वह नौवीं कक्षा में पढ़ रही थीं। हालांकि शादी के बाद भी उन्होंने शिक्षा जारी रखी और 2013 में सिंध यूनिवर्सिटी से समाजशास्त्र में मास्टर डिग्री हासिल की। पाकिस्तान में राजनीति सहित सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की हिस्सेदारी बहुत कम है। पर पीपीपी को जरूर इस बात का श्रेय जरूर है कि उसने देश को कई महिला राजनेता दिए हैं। इनमें देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो, पहली महिला विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार और नेशनल असेंबली की पहली महिला स्पीकर फहमिदा मिर्जा शामिल हैं।
जॉर्ज कोरोनेस
बुढापे में भी जवां दमखम
99 साल के जॉर्ज ने 50 मीटर की फ्रीस्टाइल तैराकी में विश्व रिकॉर्ड बनाकर सबको चौंकाया
जि
स उम्र में लोग ठीक से चल नहीं पाते उस उम्र में ऑस्ट्रेलिया के जॉर्ज कोरोनेस ने ऐसा कारनामा कर दिखाया, जिसने सभी को आश्चर्य में डाल दिया है। 99 साल के जॉर्ज ने 50 मीटर की फ्रीस्टाइल तैराकी में विश्व रिकॉर्ड के साथ इतिहास रच दिया है। उन्होंने 104 वर्ष की आयु वर्ग में 50 मीटर फ्रीस्टाइल तैराकी 56.12 सेकेंड में पूरी कर ली। हालांकि इस प्रतियोगिता में जॉर्ज अकेले प्रतिभागी थे। आयोजकों ने खास तौर पर रिकॉर्ड तोड़ने के लिए इस प्रतियोगिता का आयोजन किया था। इससे पहले ये रिकॉर्ड ब्रिटिश तैराक जॉन हैरिसन के नाम पर था। उन्होंने 2014 में 50 मिटर तैयारी में रिकॉर्ड बनाया था।
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
जॉर्ज कोरोनेस ने ये रिकॉर्ड 35 सेकेंड के अंतर से ये रिकॉर्ड तोड़ा है। जॉर्ज इस अप्रैल में 100 साल के हो जाएंगे। जॉर्ज ने करीब 60 साल पहले तैराकी छोड़ दी थी। लेकिन उन्होंने 80 साल की उम्र में वापसी की और एक्सरसाइज के तौर पर फिर से तैराकी शुरू की। जॉर्ज ने बताया कि वह युवावस्था में अच्छे तैराक हुआ करते थे, पर समय की कमी के कारण उन्हें तैराकी छोड़नी पड़ी। उन्होंने रिकॉर्ड बनाने के बाद कहा कि यह शानदार पल है। शुरुआती कुछ स्ट्रोक के बाद मैंने अपनी लय कायम रखी। ये मेरे जीवन का सबसे अनमोल पल है, मैं रिजल्ट से बहुत ज्यादा खुश हूं। विश्व रिकॉर्ड तोड़ने के अहसास ने मुझे फिर से जवान कर दिया है।
अनाम हीरो
के. मोहम्मद वाई. सफीरुल्ला
हल
प त ि र ह ी क र स अफ
एर्नाकुलम के जिलाधिकारी सफीरुल्ला ‘हरित केरलम मिशन’ के तहत पूरे जिले को हरा-भरा बनाने में जुटे हैं
के.
मोहम्मद वाई. सफीरुल्ला केरल के सबसे ज्यादा व्यस्त जिलों में से एक एर्नाकुलम के जिलाधिकारी हैं। वे ‘हरित केरलम मिशन’ के तहत पूरे एर्नाकुलम को हरा-भरा बनाना चाहते हैं। इस मिशन के तहत तीन कामों को पूरा करना होता है— उचित कचरा प्रबंधन को प्रोत्साहन, नदियों-तालाबों व धाराओं को पुनर्जीवन और जैविक खेती को बढ़ावा। कचरा प्रबंधन पर और ज्यादा काम करने के लिए केरल में एक स्थानीय सरकारी विभाग भी बनाया गया है, जिसे ‘सुचित्रा मिशन’ कहा जाता है। सफीरुल्ला बताते हैं कि इस जिले में ग्रीन मैरिज यानी हरित विवाह को भी प्रमोट किया जाता है। इसमें ये तय किया जाता है कि किसी भी शादी में एक व्यक्ति 150 ग्राम से ज्यादा प्लास्टिक का कचरा नहीं पैदा करेगा। अपने धुन के पक्के सफीरुल्ला ने पिछले साल कैटरिंग वालों को, धार्मिक नेताओं को और मैरिज हॉल के मालिकों को बुलाया और उन्हें समझाया कि कैसे ग्रीन प्रोटोकॉल को फॉलो करना है। वे प्लास्टिक या पेपर के ग्लास की जगह स्टील के ग्लास का इस्तेमाल करने के लिए तैयार हो गए और सजावट के लिए भी बायोडिग्रेडेबल मैटेरियल का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। 2017 में इस तरह की लगभग 40 शादियां हुईं। हर उस जोड़े को, जिसने अपनी शादी को ज्यादा इको फ्रेंडली बनाए रखने की कोशिश की, उसे जिलाधिकारी का साइन किया हुआ एक प्रमाणपत्र दिया गया। इसके बाद सफीरुल्ला ने धार्मिक अनुष्ठानों में भी यही नियम अपनाने के बारे में सोचा। मलयथूर तीर्थ, तिरुवारायणिकुलम मंदिर त्योहार और हाल ही में संपन्न हुए मण्णपुरम शिवरात्रि समारोह, सभी में कचरा प्रबंधन का पूरा ध्यान रखा गया। सफीरुल्ला का नया मिशन एर्नाकुलम को पूरी तरह प्लास्टिक मुक्त करना है। '
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 13