सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 06)

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05 भारत की बढ़ी धाक

गणतंत्र दिवस विशेष

16 विधवा माताअों का जीवन और सुलभ की पहल

डॉ. विन्देश्वर पाठक

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तारीख और तिरंगा 29

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों

राष्ट्रीय ध्वज के निर्माण का इतिहास

कही अनकही

sulabhswachhbharat.com आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

वर्ष-2 | अंक-06 | 22 - 28 जनवरी 2018

पुस्तक का धारावाहिक अंश

‘नरेंद्र दामोदरदास मोदी: द मेकिंग आॅफ ए लीजेंड’ प्रख्यात समाज सुधारक डॉ. विन्देश्वर पाठक द्वारा भारत के प्रधानमंत्री पर लिखी गई प्रेरक जीवनी

एक अतुलनीय जीवन की शुरुआत और उसका प्रस्फुटन

नरेंद्र मोदी की जीवन यात्रा गुजरात के एक छोटे शहर वडनगर से शुरू हुई। एक गरीब परिवार में पैदा हुए युवा नरेंद्र ने अपने माता-पिता के मुश्किल हालात को बखूबी समझा। पिता का हाथ बंटाने के लिए, उन्होंने उनके साथ चाय बेचनी शुरू कर दी। उन्होंने अपने परिवार की कठिनाईयों से कई महत्वपूर्ण सबक सीखे और आज वे भारत के प्रधानमंत्री हैं। अपने अोजस्वी नेतृत्व से पूरे देश को नई दिशा दे रहे हैं। उनमें बचपन के शुरूआती दिनों से ही नेतृत्व क्षमता के साथ उम्दा तरीके से संवाद स्थापित करने के अद्भुत गुण थे, आज इन्हीं गुणों के कारण पूरी दुनिया उनका लोहा मानती हैं।


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आवरण कथा

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शुरुआत में ही आईं चुनौतियां

त्तरी गुजरात के मेहसाणा जिले में स्थित छोटे शहर वडनगर में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में 17 सितंबर 1950 को नरेंद्र दामोदरदास मोदी का जन्म हुआ। उनके पिता दामोदरदास मूलचंद मोदी रेहड़ी विक्रेता और मां हीराबेन गृ​िहणी थीं। वह मोध-घांची (तेली) समुदाय से नाता रखते हैं, जिसे सरकार द्वारा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में वर्गीकृत किया गया है। नरेंद्र मोदी अपने माता-पिता की छह संतानों में से तीसरी संतान हैं। बचपन में वे ईंट और मिट्टी से बने तीन कमरों वाले एक मंजिला मकान में रहते थे, जहां प्रकाश की भी कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। जीवन के शुरुआती दिनों में, जब उनका परिवार आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहा था, युवा नरेंद्र अपने पिता द्वारा जीवन-यापन के लिए बनाए गए स्थानीय रेलवे स्टेशन के एक स्टॉल पर चाय बेचने में उनकी मदद करने लगे।

बचपन से ही अलग थे मोदी

उनके बचपन की एक ऐसी घटना है, जो उन्हें सबसे अलग करती है। एक बार, वह तालाब से मगरमच्छ के बच्चे को निकालकर घर ले आए थे। उनकी चिंतित मां ने उस मगरमच्छ को तालाब में वापस छोड़ आने के लिए कहा। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया। मां ने उनसे फिर से सोचने और भावनाओं को समझने का आग्रह किया और कहा कि क्या वह कभी उनसे अलग हो सकते हैं? युवा नरेंद्र ने अपनी मां बातों को समझते हुए, तुरंत उस मगरमच्छ के बच्चे को तालाब में वापस छोड़ आए। अपने पूरे बचपन के दौरान मोदी के सामने बहुत सी मुश्किलें आईं। लेकिन उन्होंने हिम्मत से हर परेशानी का सामना करते हुए उन्हें अवसरों में बदला।

स्कूली शिक्षा और अन्य गतिविधियां

नरेंद्र मोदी ने स्थानीय भगवताचार्य नारायणाचार्य हाई स्कूल में पढ़ाई की। कुल मिलाकर, वे एक शालीन

चाय तक बेचने की नौबत उनके जीवन के शुरूआती दिनों, जब उनका परिवार आर्थिक तंगी के दौर से गुजर रहा था, युवा नरेंद्र अपने पिता द्वारा जीवन-यापन के लिए बनाए गए स्थानीय रेलवे स्टेशन के एक स्टाल पर चाय बेचने में उनकी मदद करने लगे। छात्र थे। उन्होंने कई अतिरिक्त पाठ्येतर गतिविधियों में भी भाग लिया। उन्हें स्कूल में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेना बहुत पसंद था। स्कूल के नाटकों में हमेशा भाग लेने वाले नरेंद्र मोदी ने अपनी सभी अभिनय भूमिकाओं में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। यह कहा जा सकता है कि रंगमंच उनका जुनून था। इसके अलावा बहसों में भी वे हमेशा उत्कृष्ट प्रदर्शन करते थे। इस प्रकार, उनके शानदार वक्तृत्व कौशल के बीज उनके शुरुआती दिनों में ही बो दिए गए थे। उन दिनों में उन्होंने भाषागत कौशल के साथ-साथ वाद-विवाद या चर्चा में पकड़ बनाए रखने की प्रतिभा और आत्मविश्वास दिखाया। भाषण देने में उनका कोई सानी न​हीं था। वे अच्छी तरह से पूरी तैयारी करके आते थे और स्पष्ट व संक्षिप्त तरीके से अपनी बात रखते थे। त्वरितविवेकपूर्ण और तर्कसंगत रूप से, वह हमेशा ही संवाद के दौरान शीर्ष पर उभर कर आते थे। नरेंद्र को किताबें पढ़ना बहुत पसंद था और वह अक्सर स्कूल के पुस्तकालय में अपनी पसंद की पुस्तको के पन्ने पलटते हुए मिल जाते थे। उन्हें अपने अध्ययन और घर के काम के अतिरिक्त ज्यादा समय नहीं मिल पाता था कि वह खेलकूद की गतिविधियों में शामिल हो सकें। हालांकि वे एक उत्साही और अच्छे तैराक थे। जैसा

कि सभी जानते हैं कि बाद के वर्षों में उनकी योग के प्रति गहन रुचि विकसित हुई, जिसकी मदद से वे अब भी शारीरिक और मानसिक रूप से चुस्तदुरुस्त रहते हैं।

शिक्षकों की स्मृति में मोदी

उनके शिक्षक प्रह्लाद पटेल, मोदी के बारे में एक बहुत दिलचस्प घटना बताते हैं। उन्होंने एक बार मोदी से क्लास मॉनिटर को अपना होमवर्क दिखाने के लिए कहा, लेकिन मोदी ने ऐसा करने से मना कर दिया। उन्होंने प्रह्लाद भाई से कहा कि वह अपना होमवर्क केवल उन्हें दिखाएंगे। मोदी के अनुसार, किसी और में उनके काम को जांचने की क्षमता नहीं है। प्रह्लाद पटेल बताते हैं कि उन्होंने नरेंद्र को गुजराती और संस्कृत पढ़ाया है। वे याद करते हैं कि नरेंद्र मोदी में भाषाओं के लिए एक सहज प्रेम था। उनका मानना है कि इसी वजह से मोदी में शब्दात्मक कौशल और वाकपटुता बढ़ी। वे कहते हैं कि नरेंद्र भाषा की हर बारीकी का अध्ययन करने के लिए उत्सुक रहते थे। पटेल उन्हें एक बहुत ही जिज्ञासु छात्र बताते हुए कहते हैं कि वे प्रश्नों के उत्तर मांगते थे और यदि संतुष्ट नहीं हुए तो तुरंत दूसरा प्रश्न पूछते थे। पटेल कहते हैं, ‘मुझे याद है कि जब मुख्यमंत्री

के रूप में एक बार वे वडनगर में एक समारोह में शामिल होने आए, तो मैं उनको सम्मान देने के लिए मंच पर गया। लेकिन उन्होंने मुझे रोका और मुस्कुराते हुए कहा, नहीं सर, मैं आपका छात्र रहा हूं और यह मेरा कर्तव्य है कि मै आपका सम्मान करूं। उस वक्त मैं केवल उनकी अच्छी याददाश्त पर ही नहीं, बल्कि उनके चरित्र और परवरिश से भी चकित रह गया।’ युवा नरेंद्र में साहस का विशेष गुण भरने वाली एक अन्य शिक्षक हैं, जिन्होंने उन्हें चौथी कक्षा तक पढ़ाया। वह कहती हैं कि एक बच्चे के रूप में भी नरेंद्र मोदी उन मामलों में हठी हो जाते थे, जो उनकी नजर में सही थे। वह याद करते हुए कहती हैं, ‘जब वे पहली बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने 28 शिक्षकों को उत्कृष्टता का पुरस्कार देने के लिए एक समारोह का आयोजन किया था। सभी चुने हुए शिक्षकों को निमंत्रण भेजा गया और जब वे सभी आए, तो मोदी व्यक्तिगत रूप से सभी से मिले और सबका आशीर्वाद लिया।’ हालांकि मोदी अपने शिक्षकों के प्रति बहुत सम्मान रखते थे, लेकिन जब जरूरत पड़ती थी तो वे अपनी असहमति दर्ज कराने में भी पीछे नहीं रहते थे। अगर कोई मामला उनकी नजरों में सही होता था, तो वह अक्सर अपनी नेतृत्व की भूमिका में आ

खुद को लेकर सचेत नरेंद्र मोदी के भाई जयंतीभाई खुशी से याद करते हुए बताते हैं कि कैसे नरेंद्र अपने कपड़े और उपस्थिति पर बहुत ध्यान देते थे। उन्होंने हमेशा साफ, स्वच्छ और अच्छी तरह से कपड़े पहनने को तरजीह दी।


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जाते थे। ऐसे ही एक विशेष उदाहरण में, वे अपने एक शिक्षक के बीड़ी पीने (धूम्रपान) को लेकर विरोध का नेतृत्व शुरू करते हैं। स्पष्ट रूप से यह जाहिर होता है कि मोदी बहुत ही कम उम्र में, अपने तरीके से सोचने लगे थे। वह कई मुद्दों पर बहुत गंभीर विचार रखते थे और उन्हें व्यक्त करने में जरा सा भी संकोच नहीं करते थे। ऐसा लगता है कि उनकी विनम्र पृष्ठभूमि भी, उनकी खुद की प्रतिभा में आत्मविश्वास और भरोसा डिगाने में नाकाम रही। उन्होंने अपने बुजुर्गों और शिक्षकों का हमेशा सम्मान किया, लेकिन यदि वह किसी चीज के बारे में दृढ़ता से महसूस करते थे, तो पीछे नहीं हटते थे।

नरेंद्र मोदी के बारे में उनके दोस्त क्या कहते हैं! एक युवा के रूप में, नरेंद्र मोदी के कई दोस्त थे। लेकिन साल-दर-साल, निकटता और पारस्परिक स्नेह के मामले में उनके चार दोस्त नजर आते हैं– शामलदास मोदी, जसुदभाई पठान, योगेशभाई शाह

और सुधीर जोशी। इन सभी महानुभावों ने मोदी के साथ संबंधों और साथ में बिताए गए बेफिक्र दिनों को याद करते हुए जो बातें बताईं, वे बहुत ही दिलचस्प हैं। इससे यह भी पता चलता है कि कैसे युवा नरेंद्र ने ऐसे गुणों को विकसित किया, जिन्होंने बाद में उन्हें दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बनने के लिए प्रेरित किया। शामलदास याद करते हैं कि मोदी और वे आठवीं कक्षा तक एक साथ स्कूल में पढ़े थे। उनकी दोस्ती इसलिए भी काफी गहरी थी, क्योंकि तरुणाई के दिनों में वे दोनों पड़ोसी थे। वे कहते हैं कि युवा नरेंद्र अक्सर अपने सपनों के बारे में बात करते थे, उनकी बातों में विनोद का पुट होता था। वे हमेशा हर मुद्दे और घटना के सकारात्मक पक्ष को देखते थे। शामलदास नरेंद्र को याद करते हुए कहते हैं कि वह बहुत ही हठी थे और केवल वही काम करते थे जो उन्हें उपयुक्त लगता था। वह बेहद आत्मविश्वास से भरे हुए और जिद्दी थे।

आवरण कथा

एनसीसी से आरएसएस तक स्कूल में नरेंद्र मोदी बहुत ही हर्षपूर्वक राष्ट्रीय कैडेट कोर (एनसीसी) में शामिल हो गए थे। अपने शुरुआती दिनों से ही, उन्हें अनुशासन के लिए एक सहज आकर्षण था। इन्हीं वजहों से उन्होंने पहले एनसीसी और बाद में उच्च अनुशासित राष्ट्रवादी संगठन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हुए। एनसीसी और आरएसएस के साथ उनके सुखद अनुभवों ने ही, उनके अंदर राष्ट्र के सशस्त्र बलों के लिए खूब सारा प्यार और सम्मान भरा।

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आवरण कथा

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बहस में लाजवाब

नरेंद्र मोदी को विभिन्न बहस और नाटकों में भाग लेने से बहुत लगाव था। हर गुरुवार, किसी भी विषय पर एक बहस का आयोजन होता था और मुझे याद नहीं है कि नरेंद्र मोदी किसी भी बहस में भाग लेने से डरे हों या हारे हों। बहस के प्रत्येक बिंदु के लिए, उनके पास जवाब होता था।

-प्रह्लाद पटेल (नरेंद्र मोदी के संस्कृत शिक्षक)

बचपन से ही नेतृत्व के गुण

नरेंद्र मोदी ने जीवन की शुरुआत में ही नेतृत्व क्षमता के लिए झुकाव हासिल कर लिया था। अक्सर वह स्कूल के अधिकारियों के समक्ष अपने साथी छात्रों की समस्याओं और चिंताओं को उठाया करते थे। यहां तक कि बहुत सख्त माने जाने वाले प्रिंसिपल के समक्ष भी जाने से वह नहीं डरते थे।

-सुधीर सी. जोशी (नरेंद्र मोदी के सहपाठी) जसुदभाई पठान कहते हैं, ‘भले ही नरेंद्र मोदी आज भारत के प्रधानमंत्री हैं, लेकिन मेरे लिए वे अब भी वही पहले वाले नरेंद्र दामोदरदास मोदी हैं। मैं उनके साथ 10वीं और 11वीं कक्षा में था और कुछ वक्त उनके साथ विसनगर के एमएन कालेज में भी बिताया है। हम छात्रावास के एक ही कमरे में रहते थे। एकमात्र बात जो मैं कहना चाहता हूं, वह यह है कि कई लोग उन्हें मुस्लिम-विरोधी कहते

हैं, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है। यदि वह मुस्लिम विरोधी होते, तो क्या वह कभी भी मेरे सबसे करीबी दोस्तों में से एक नहीं होते।’ अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए, जसुदभाई कहते हैं कि स्कूल के एक नाटक में नरेंद्र द्वारा निभाई गई एक सिपाही की भूमिका उन्हें अभी भी याद आती है। वे कहते हैं, ‘नरेंद्र ने इस भूमिका को इतने शानदार ढंग से निभाया था कि दर्शक

महसूस कर सकते थे कि जब एक सैनिक अपने घर और परिवार से दूर होता है तो वह किस तरह की स्थिति और समस्याओं से गुजर रहा होता है। मैं उस भूमिका को कभी भी नहीं भूल सकता।’ डॉ. योगेशभाई शाह याद करते हैं, ‘हालांकि वह नरेंद्र मोदी से दो साल बड़े हैं, लेकिन दोनों ही बीएन हाई स्कूल में एक ही कक्षा में पढ़ते थे। जिस स्कूल में हम दोनों साथ में पढ़ते थे, आज उसी स्कूल के

सामने मेरा क्लीनिक है। मोदी के बारे में जिन गुणों को मैं पसंद करता हूं, वह उनका मजबूत स्वभाव और कठिनाइयों के दौरान लोगों की मदद करने की उनकी आदत है। गरीब और वंचित लोगों की मदद करना उनकी आदत में तभी से शुमार था, जब वे बच्चे थे।’ बचपन के इन दोस्तों के अनुसार, अपने व्यस्त कार्यक्रम और उच्च पद के दबाव के बावजूद, नरेंद्र


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आवरण कथा

कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा

अपने बचपन से ही, नरेंद्र मोदी को कई बाधाओं का सामना करना पड़ा, परंतु उन्होंने अपने चरित्र और साहस के दम पर सभी को अवसरों में बदल दिया। जब वह कालेज गए, तो उनका रास्ता कठिन संघर्षों से भरा था। लेकिन जिंदगी की लड़ाई में, वे हमेशा ही एक लड़ाकू और एक सच्चे सैनिक रहे हैं। एक कदम आगे बढ़ाते हुए, उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और हार स्वीकार करने से इंकार कर दिया। भारतीय जनता पार्टी की आधिकारिक वेबसाइट मोदी उन सब के साथ मिलने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। उन सबका संबंध ऐसा है कि जब भी वे सभी मिलते हैं, फिर से स्कूली बच्चे बन जाते हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में, उन्होंने एक बार वडनगर में एक कवि सम्मे​ेलन में भाग लिया और अपने सभी सहपाठियों और बचपन के मित्रों को आमंत्रित किया। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से सभी को सुरक्षा के घेरे में आने की अनुमति दी और मजाक में कहा, ‘अगर तुम सब मुझे मारने का फैसला करते हो, तो भी मुझे कोई परेशानी नहीं है!’ यहां तक कि प्रधानमंत्री के रूप में भी, नरेंद्र मोदी अपने पुराने दोस्तों से जुड़े रहते हैं, और सभी दोस्त उनको लेकर बहुत गर्व करते हैं।

उच्च शिक्षा की ओर

नरेंद्र मोदी के अंदर अपनी जिंदगी को देश और मानवता को समर्पित करने की ज्वलंत इच्छा थी। हालांकि, वे उच्च शिक्षा की आवश्यकता के प्रति जागरूक थे और लंबी अवधि में इसका अध्ययन भी किया। उन्होंने अपने काम और शिक्षा दोनों को साथ मिला दिया। कठिनाइयों के बावजूद, वे अपना स्नातकोत्तर पूर्ण करने में सफल भी रहे। नरेंद्र मोदी ने तीन चरणों में अपनी शिक्षा पूरी की। उन्होंने 17 वर्ष की उम्र तक अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की। दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से वर्ष 1978 में दिल्ली विश्वविद्यालय से 28 साल की उम्र में बैचलर ऑफ आर्ट्स की डिग्री के साथ स्नातक की पढ़ाई पूरी की। 33 वर्ष की उम्र में वर्ष 1983 में, गुजरात यूनिवर्सिटी से उन्होंने अपना स्नातकोत्तर पूरा किया।

राष्ट्रवादी रुझान

नरेंद्र मोदी बहुत कम उम्र से ही राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ की ओर आकर्षित हो गए थे। गुजरात में मजबूती से आरएसएस की छाप स्थापित करने का श्रेय लक्ष्मणराव इनामदार को जाता है। आम तौर पर इनामदार को ‘वकील साहब’ के नाम से जाना जाता था। इनामदार ही राज्य में आरएसएस के मुख्य संगठक थे और युवा मोदी को आरएसएस में लाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। वर्ष 1958 में, दिवाली के समय इनामदार वडनगर की यात्रा पर थे और वहां उन्होंने युवा लड़कों के समूह को निष्ठा की कसम दिलाई। इसी समूह में आठ वर्षीय नरेंद्र मोदी भी थे। मोदी तब आरएसएस के बाल स्वयंसेवक थे। यह बहुत ही उल्लेखनीय है कि नरेंद्र मोदी ने इतनी कम उम्र में आरएसएस को अपना लिया और वह भी स्वैच्छिक रूप से, न कि परिवार के दबाव में। बाद के वर्षों

में, जब नरेंद्र मोदी अहमदाबाद में आरएसएस के पूर्णकालिक सदस्य बन गए, तब इनामदार ही उनके संरक्षक बने।

आध्यात्मिकता की ओर झुकाव

बचपन में मोदी को संतों और संन्यासियों के प्रति बहुत लगाव था। जैसा कि उनके परिवार के लोग और दोस्त बताते हैं, वह अक्सर वडनगर के समीप गिर वन मे स्थित एक पुराने मंदिर में सोने के लिए चले जाते थे। युवा उम्र में ही, उन्होंने अपने अंदर संन्यास और तप के प्रति झुकाव विकसित किया। अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद 18 वर्ष की उम्र

में ही नरेंद्र ने दो वर्षों, के लिए घर छोड़ दिया। उनके बड़े भाई, सोम भाई बताते हैं कि नरेंद्र के इस कार्य ने उनकी मां और परिवार के अन्य सदस्यों और रिश्तेदारों को बहुत चिंतित कर दिया था। अशांत मोदी ने पहले हिमालय में संतों और संन्यासियों के साथ कई महीने बिताए। उन्होंने उनके साथ विभिन्न धार्मिक तीर्थों की यात्राएं की। बाद में उन्होंने पश्चिम बंगाल और अन्य स्थानों का दौरा किया। वे थोड़े-थोड़े वक्त के लिए हर जगह रुके। स्वामी विवेकानंद की बातों ने उन्हें आकर्षित किया, जिसमें आत्म-त्याग और सामाजिक सेवा पर बहुत जोर दिया गया था। मोदी रामकृष्ण मिशन में शामिल भी होना चाहते थे, लेकिन मिशन

अधिकारियों ने सोचा कि वे बहुत ही छोटे हैं और उनमें त्याग के जीवन के लिए अपेक्षित योग्यताओं की अभी कमी है। उन्होंने 1968 की गर्मियों में बेलूर मठ को भी छोड़ दिया। संन्यास के मार्ग का पालन करने में असमर्थ नरेंद्र 1968-69 में गुजरात वापस आ गए। वे 20 वर्ष की आयु में घर लौटे और अपने परिवार को बताया कि वे गुजरात के राज्य सड़क परिवहन निगम परिसर में स्थित अपने चाचा बाबूभाई की कैंटीन में काम करने के लिए जा रहे हैं। यह निर्णय अहमदाबाद में आरएसएस में सक्रिय रूप से शामिल होकर, संगठन और देश की सेवा में खुद को समर्पित करने के उद्देश्य से लिया गया था। (क्रमश: जारी)


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गणतंत्र दिवस विशेष

22 - 28 जनवरी 2018

भारत की बढ़ी धाक

बीते चार वर्षों में भारतीय गणतंत्र महापर्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की साख और ताकत को प्रकट करने का एक बड़ा अवसर बन गया है

खास बातें प्रधानमंत्री के विजन ने 2018 के गणतंत्र दिवस को अनूठा बना दिया 10 विदेशी मेहमान गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि होंगे सरकार के हर कदम के साथ जुड़ी है ‘इंडिया फर्स्ट’ की नीति मेहमानों में कंबोडिया के प्रधानमंत्री हुन सेन की उपस्थिति भी खास हो सकती है। इसी तरह जहां ब्रुनेई के सुल्तान हाजी हसनल बोल्कियाह दुनिया के सबसे रईस लोगों में गिनती के लिए चर्चा में रहते हैं, वहीं नुआन जुंग फुक वियतनाम के प्रधानमंत्री के तौर पर पहली बार भारत आ रहे हैं। लाओस के प्रधानमंत्री थोंगलाउन सिसोउलिथ की पिछले साल ही प्रधानमंत्री से पहली मुलाकात हुई थी। थाईलैंड ने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में मजबूती से भारत का पक्ष लिया है।

2017

भा

एसएसबी ब्यूरो

रत में गणतंत्र दिवस पर विदेशी अतिथियों को बुलाने की परंपरा 1950 से ही चली आ रही है। हर वर्ष जब राजपथ पर देश की आन-बान और शान को दिखाने वाली सैन्य परेड और झांकियां निकलती हैं तो पूरी दुनिया की निगाहें भारत की ओर होती हैं, लेकिन पिछले कई दशकों में ये सिर्फ परंपरा बनकर रह गई थी। पर बीते चार वर्षों में भारतीय गणतंत्र का यह महापर्व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की साख और ताकत को प्रकट करने का एक बड़ा अवसर बन गया है। केंद्र सरकार ने गणतंत्र दिवस को महज एक परंपरा से आगे देश की अस्मिता और गौरव से नए सिरे से जोड़ा है। जाहिर है कि यह एक बड़ी उपलब्धि है और इस उपलब्धि पर सारे देशवासियों को नाज है। गणतंत्र दिवस की बढ़ी अहमियत में केंद्र सरकार की विदेश नीति के साथ सरकार के मुखिया की प्राथमिकताओं की झलक बार-बार

देखने को मिलती है। प्रधानमंत्री के हर कदम के साथ ‘इंडिया फर्स्ट’ की जरूरी दरकार पर अमल जुड़ा होता है। प्रधानमंत्री के कार्यकाल के चौथे गणतंत्र दिवस की तैयारियां चल रही हैं। प्रधानमंत्री के विजन ने 2018 के गणतंत्र दिवस को भी अनूठा बना दिया है। इस बार एक नहीं, बल्कि 10-10 विदेशी मेहमानों को गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया है। इससे पहले आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ। यह पहल दक्षिण एशियाई देशों के हित में है और मौजूदा समय में विश्व की उभरती चुनौतियों का सामना करने में सबको सक्षम बनाने की ताकत रखता है। दिलचस्प है कि मई, 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही एनडीए सरकार ने पड़ोसी देशों से संबंधों को प्रगाढ़ बनाने के लिए एक्ट ईस्ट नीति पर जोर दिया। इसी के तहत प्रधानमंत्री ने इस वर्ष गणतंत्र दिवस पर सभी दस आसियान देशों

अपनी सरकार के पहले ही गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री ने चीफ गेस्ट के रूप में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के नाम की घोषणा करके सबको हैरान कर दिया था

के नेताओं को बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया है। इन देशों में थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपिंस, सिंगापुर, म्यांमार, कंबोडिया, लाओस और ब्रूनेई शामिल हैं। इनमें मलेशियाई प्रधानमंत्री मोहम्मद नजीब बिन तुन अब्दुल रजक पिछले साल भारत का दौरा कर चुके हैं। म्यामांर की नेत्री आंग सान सू की का भारत से पुराना नाता रहा है। जबकि सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली हसलीन लुंग का प्रधानमंत्री मोदी के साथ व्यक्तिगत तौर पर भी अच्छे संबंध रहे हैं। लगभग ऐसी ही स्थिति इंडोनेशियाई प्रधानमंत्री जोको विडोडो के साथ भी है।

पिछले साल यानी 26 जनवरी, 2017 में राजपथ पर परेड में पहली बार संयुक्त अरब अमीरात के 144 जवानों का दस्ता भारतीय सेना के जवानों के साथ परेड करता दिखाई दिया। यह पूरे देश के लिए कौतूहल का विषय बन गया। ऐसा इसीलिए हुआ कि उस बार अाबू धाबी के क्राउन प्रिंस एवं यूएई सशस्त्र सेना के डिप्टी सुप्रीम कमांडर शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि बन कर आए थे। अाबू धाबी के क्राउन प्रिंस के इस भारत दौरे की एक बहुत बड़ी विशेषता ये रही कि समारोह के एक दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद से एयरपोर्ट जाकर उनकी अगवानी की थी।


22 - 28 जनवरी 2018

गणतंत्र दिवस परेड के बाद शहजादे शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान ने कहा कि भारतीय लोगों के साथ समारोह में शरीक होकर वह सम्मानित महसूस कर रहे हैं, जिन्होंने विविधता में एकता का जश्न मनाकर दुनिया को मानवता का संदेश दिया है। उन्होंने भारतीय मूल्यों और विविधता की सरहाना की और गणतंत्र दिवस समरोह में शरीक होने पर खुशी जताई। उन्होंने यह भी कहा कि यूएई की भागीदारी हमारे रिश्तों की गहराई को दर्शाती है जो आपसी सम्मान और सामान हितों पर आधारित हैं। इस मौके पर दोनों देशों के नेताओं के बीच द्विपक्षीय वार्ता में यूएई ने भारत में बुनियादी ढांचे के विकास में निवेश करने में विशेष रूप से ऊर्जा, बिजली उत्पादन और पारेषण, रक्षा उत्पादन, औद्योगिक गलियारों और पार्कों, रेलवे, सड़क, बंदरगाह, शिपिंग और रसद जैसे प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में रुचि दिखाई और समझौतों पर हस्ताक्षर भी किए। 2017 के गणतंत्र दिवस की कुछ और भी खासियत रही। बीते वर्ष गणतंत्र दिवस पर देश के इतिहास में पहली बार हुआ न सिर्फ राजपथ पर भारतीय सेना के साथ यूएई के सैनिकों ने भी परेड किया, बल्कि करीब 100 एनएसजी कमांडो का दस्ता भी पहली बार इस परेड में शामिल हुआ। राजपथ पर पहली बार स्वदेशी फाइटर प्लेन तेजस ने उड़ान भरी।

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गणतंत्र दिवस विशेष

गणतंत्र दिवस इस तरह बना खास

• 2015 की गणतंत्र दिवस परेड में पहली बार राजपथ पर सेना, नौसेना और वायुसेना की पूरी महिलाओं की टुकड़ी ने मार्च किया।

• 2015 की परेड में सीआरपीएफ के नक्सल रोधी विशेष बल ‘कोबरा’ के कमांडो ने पहली बार राजपथ पर मार्च किया • 2017 की गणतंत्र दिवस की परेड में प्रधानमंत्री प्रोटोकॉल तोड़ कर राजपथ पर पैदल चल दिए, और वहां मौजूद दर्शकों का अभिनंदन स्वीकार किया।

• 2017 में गणतंत्र दिवस परेड में एनएसजी कमांडो का दस्ता पहली बार शामिल हुआ • गणतंत्र दिवस परेड में विदेशी सैन्य दस्तों को शामिल किया गया। 2016 में फ्रांस के सैन्य दस्ते को और 2017 की परेड में यूएई का सैन्य दस्ता पहली बार शामिल हुआ।

• 2017 की गणतंत्र दिवस परेड में पहली बार देश में निर्मित हल्के लड़ाकू विमान (एलसीए) तेजस ने उड़ान भरी

2016

26 जनवरी 2016 में फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलांद गणतंत्र दिवस समारोह के मुख्य अतिथि थे। इस समारोह की विशेषता ये रही कि पहली बार फ्रांस की सैन्य टुकड़ी के 76 सदस्यीय दल ने भी मार्च में भाग लिया, जिसमें 48 सदस्सीय संगीतकारों का दल भी शामिल था। उस साल फ्रांस के

राष्ट्रपति को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाने के चलते दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ एक ठोस संदेश गया। क्योंकि, कुछ दिनों पहले ही फ्रांस ने पेरिस में और भारत ने पठानकोट में आतंकवाद का भयानक चेहरा देखा था। इसके साथ ही 2016 में पहली बार गणतंत्र दिवस पूर्व-सैनिकों की झांकी भी शामिल हुई, जिसमें उन्होंने ने राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका को

पिछले साल राजपथ पर गणतंत्र दिवस परेड में पहली बार संयुक्त अरब अमीरात के 144 जवानों का दस्ता भारतीय सेना के जवानों के साथ परेड करता दिखाई दिया

दर्शाया। साथ ही पहली बार ही सीआरपीएफ की पूरी तरह महिला जवानों की टुकड़ी परेड में शामिल हुई।

2015

एनडीए सरकार के पहले ही गणतंत्र दिवस पर प्रधानमंत्री ने चीफ गेस्ट के रूप में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के नाम की घोषणा करके सबको हैरान कर दिया था। उस वक्त प्रदूषण और सुरक्षा से जुड़ी कई वजहों से अमेरिकी प्रशासन अपने राष्ट्रपति की भारत यात्रा के लिए हामी भरने में संकोच कर रहा था, लेकिन भारतीय नेतृत्व के प्रभाव में ओबामा ने तुरंत निमंत्रण स्वीकार कर लिया और पूरे उत्साह से पत्नी मिशेल ओबामा के साथ भारत के आतिथ्य के लिए तैयार हो गए। वे पूरे दो घंटे तक खुले आसमान के नीचे रहे और शानदार परेड का आनंद लिया। 2015 में ही पहली बार महिला दस्ते की अगुआई में परेड की शुरुआत हुई। साथ ही गणतंत्र दिवस के मौके पर गूगल ने डूडल भी बनाया था। इस मौके पर प्रधानमंत्री ने भारत पधारे ओबामा को अपना मित्र बताया और पूरे विश्व को दिखा दिया कि वैश्विक जगत में भारत का क्या दबदबा है। यही नहीं, प्रधानमंत्री ने ओबामा के साथ साझा ‘मन की बात’ की और देश के लोगों से संवाद किया। इतना ही नहीं दोनों नेताओं ने बेहद अनौपचारिक माहौल में लॉन में बैठकर चाय पर चर्चा भी की।


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गणतंत्र दिवस विशेष

22 - 28 जनवरी 2018

संविधान का मान और निर्माण

डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में देश को एक बेहतरीन संविधान मिला। संविधान की रचना से लेकर इसके क्रियान्वयन तक को लेकर बाबा साहेब के क्या विचार थे, यह जानना बेहद जरूरी है

डॉ. भीमराव आंबेडकर भारतीय संविधान की प्रारूप निर्माण समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराव आंबेडकर ने यह भाषण औपचारिक रूप से अपना कार्य समाप्त करने से एक दिन पहले, यानी 25 नवंबर 1949 को दिया था। इस मौके पर उन्होंने कुछ चेतावनियां भी दी हैं, जिसे देश के कामयाब जनतांत्रिक भविष्य के लिए हमें आज भी याद रखना होगा। प्रस्तुत है उनके इस भाषण का संपादित अंशक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों। संविधान की प्रभावशीलता पूरी तरह उसकी प्रकृति पर निर्भर नहीं है। संविधान केवल राज्य के अंगों - जैसे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका - का प्रावधान कर सकता है। राज्य के इन अंगों का प्रचालन जिन तत्वों पर निर्भर है, वे हैं जनता और उनकी आकांक्षाओं तथा राजनीति को संतुष्ट करने के उपकरण के रूप में उनके द्वारा गठित राजनीतिक दल। मैं संविधान के किसी भी आलोचक को यह साबित करने की चुनौती देता हूं कि भारत में आज बनी हुई स्थितियों जैसे हालात में दुनिया की किसी संविधान सभा ने संविधान संशोधन की इतनी सुगम प्रक्रिया के प्रावधान किए हैं! जो लोग संविधान से असंतुष्ट हैं, उन्हें केवल दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त करना है और वयस्क मताधिकार के आधार पर यदि वे संसद में दो-तिहाई बहुमत भी प्राप्त नहीं कर सकते तो संविधान के प्रति उनके असंतोष को जन-समर्थन प्राप्त है, ऐसा नहीं माना जा सकता।

हमारे संविधान का महत्व

संवैधानिक महत्व का केवल एक बिंदु ऐसा है, जिस पर मैं बात करना चाहूंगा। इस आधार पर गंभीर शिकायत की गई है कि संविधान में केंद्रीयकरण पर बहुत अधिक बल दिया गया है और राज्यों की भूमिका नगरपालिकाओं से अधिक नहीं रह गई है। यह स्पष्ट है कि यह दृष्टिकोण न केवल अतिशयोक्तिपूर्ण है, बल्कि संविधान के अभिप्रायों के प्रति भ्रांत धारणाओं पर आधारित है। जहां तक केंद्र और राज्यों के बीच संबंध का सवाल है, उसके मूल सिद्धांत पर ध्यान देना आवश्यक है। संघवाद का मूल सिद्धांत यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच विधायी और कार्यपालक शक्तियों का विभाजन केंद्र द्वारा बनाए गए किसी कानून के द्वारा नहीं, बल्कि स्वयं संविधान द्वारा किया जाता है। संविधान की व्यवस्था इस प्रकार है। हमारे संविधान के अंतर्गत अपनी विधायी या कार्यपालक शक्तियों के लिए राज्य किसी भी तरह से केंद्र पर निर्भर नहीं है। इस विषय में केंद्र और राज्य समानाधिकारी हैं। यह समस्या कठिन है कि ऐसे संविधान को केंद्रवादी कैसे कहा जा सकता है। यह संभव है कि संविधान किसी अन्य संघीय संविधान के मुकाबले विधायी और कार्यपालक प्राधिकार के उपयोग के विषय में केंद्र के लिए कहीं अधिक विस्तृत क्षेत्र निर्धारित करता हो। यह भी संभव है कि अवशिष्ट

शक्तियां केंद्र को दी गई हों, राज्यों को नहीं। परंतु ये व्यवस्थाएं संघवाद का मर्म नहीं हैं। जैसा मैंने कहा, संघवाद का प्रमुख लक्षण केंद्र और इकाइयों के बीच विधायी और कार्यपालक शक्तियों का संविधान द्वारा किया गया विभाजन है। यह सिद्धांत हमारे संविधान में सन्निहित है। इस संबंध में कोई भूल नहीं हो सकती। इसीलिए, यह कल्पना गलत होगा कि राज्यों को केंद्र के अधीन रखा गया है। केंद्र अपनी ओर से इस विभाजन की सीमा-रेखा को परिवर्तित नहीं कर सकता और न न्यायपालिका ऐसा कर सकती है। दूसरा आरोप यह है कि केंद्र को ऐसी शक्तियां प्रदान की गई हैं, जो राज्यों की शक्तियों का अतिक्रमण करती हैं। यह आरोप स्वीकार किया जाना चाहिए। परंतु केंद्र की शक्तियों को राज्य की शक्तियों से ऊपर रखने वाले प्रावधानों के लिए संविधान की निंदा करने से पहले कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए। पहली यह कि इस तरह की अभिभावी शक्तियां संविधान के सामान्य स्वरूप का अंग नहीं हैं। उनका उपयोग और प्रचालन स्पष्ट रूप से आपातकालीन स्थितियों तक सीमित किया गया है।

'द राउंड टेबल'

ध्यान में रखने योग्य दूसरी बात है- आपातकालीन

हमारे संविधान के अंतर्गत अपनी विधायी या कार्यपालक शक्तियों के लिए राज्य किसी भी तरह से केंद्र पर निर्भर नहीं है। इस विषय में केंद्र और राज्य समानाधिकारी हैं

स्थितियों से निपटने के लिए क्या हम केंद्र को अभिभावी शक्तियां देने से बच सकते हैं? जो लोग आपातकालीन स्थितियों में भी केंद्र को ऐसी अभिभावी शक्तियां दिए जाने के पक्ष में नहीं हैं, वे इस विषय के मूल में छिपी समस्या से ठीक से अवगत प्रतीत नहीं होते। इस समस्या का सुविख्यात पत्रिका 'द राउंड टेबल' के दिसंबर 1935 के अंक में एक लेखक द्वारा इतनी स्पष्टता से बचाव किया गया है कि मैं उसमें से यह उद्धरण देने के लिए क्षमाप्रार्थी नहीं हूं। लेखक कहते हैं‘राजनीतिक प्रणालियां इस प्रश्न पर अवलंबित अधिकारों और कर्तव्यों का एक मिश्रण हैं कि एक नागरिक किस व्यक्ति या किस प्राधिकारी के प्रति निष्ठावान रहे। सामान्य क्रियाकलापों में यह प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि सुचारू रूप से अपना कार्य करता है और एक व्यक्ति अमुक मामलों में एक प्राधिकारी और अन्य मामलों में किसी अन्य प्राधिकारी के आदेश का पालन करता हुआ अपने काम निपटाता है। परंतु एक आपातकालीन स्थिति में प्रतिद्वंद्वी दावे पेश किए जा सकते हैं और ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि अंतिम प्राधिकारी के प्रति निष्ठा अविभाज्य है। निष्ठा का मुद्दा अंतत: संविधियों की न्यायिक व्याख्याओं से निर्णीत नहीं किया जा सकता। कानून को तथ्यों से समीचीन होना चाहिए, अन्यथा वह प्रभावी नहीं होगा। यदि सारी प्रक्रियात्मक औपचारिकताओं को एक तरफ कर दिया जाए तो निरा प्रश्न यह होगा कि कौन सा प्राधिकारी एक नागरिक की अवशिष्ट निष्ठा का हकदार है। वह केंद्र है या संविधान राज्य?’ इस समस्या का समाधान इस सवाल, जो कि समस्या का मर्म है, के उत्तर पर निर्भर है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अधिकांश लोगों की राय में एक आपातकालीन स्थिति में नागरिक को अवशिष्ट निष्ठा अंगभूत राज्यों के बजाय केंद्र को निर्देशित होनी चाहिए, क्योंकि वह केंद्र ही है, जो सामूहिक उद्देश्य और संपूर्ण देश के सामान्य हितों के लिए कार्य कर सकता है।

आपातकालीन स्थिति

एक आपातकालीन स्थिति में केंद्र की अभिभावी शक्तियां प्रदान करने का यही औचित्य है। वैसे भी, इन आपातकालीन शक्तियों से अंगभूत राज्यों पर कौन सा दायित्व थोपा गया है कि एक आपातकालीन स्थिति में उन्हें अपने स्थानीय हितों के साथ-साथ संपूर्ण राष्ट्र के हितों और मतों का भी ध्यान रखना चाहिए- इससे अधिक कुछ नहीं। केवल वही लोग, जो इस समस्या को समझे नहीं हैं, उसके खिलाफ शिकायत कर सकते हैं।


22 - 28 जनवरी 2018

यहां पर मैं अपनी बात समाप्त कर देता, परंतु हमारे देश के भविष्य के बारे में मेरा मन इतना परिपूर्ण है कि मैं महसूस करता हूं, उस पर अपने कुछ विचारों को आपके सामने रखने के लिए इस अवसर का उपयोग करूं। भारत की स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या उसे फिर खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह पहला विचार है।

इतिहास का सबक

यह बात नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। विचार बिंदु यह है कि जो स्वतंत्रता उसे उपलब्ध थी, उसे उसने एक बार खो दिया था। क्या वह उसे दूसरी बार खो देगा? यही विचार है जो मुझे भविष्य को लेकर बहुत चिंतित कर देता है। यह तथ्य मुझे और भी व्यथित करता है कि न केवल भारत ने पहले एक बार स्वतंत्रता खोई है, बल्कि अपने ही कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण ऐसा हुआ है।

यह तय है कि यदि पार्टियां अपने मताग्रहों को देश से ऊपर नहीं रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी और संभवत: वह हमेशा के लिए खो जाए। हम सबको दृढ़ संकल्प के साथ इस संभावना से बचना है सिंध पर हुए मोहम्मद-बिन-कासिम के हमले से राजा दाहिर के सैन्य अधिकारियों ने मुहम्मद-बिनकासिम के दलालों से रिश्वत लेकर अपने राजा के पक्ष में लड़ने से इनकार कर दिया था। वह जयचंद ही था, जिसने भारत पर हमला करने एवं पृथ्वीराज से लड़ने के लिए मुहम्मद गोरी को आमंत्रित किया था और उसे अपनी व सोलंकी राजाओं को मदद का आश्वासन दिया था। जब शिवाजी हिंदुओं की मुक्ति के लिए लड़ रहे थे, तब कई मराठा सरदार और राजपूत राजा मुगल शहंशाह की ओर से लड़ रहे थे। जब ब्रिटिश सिख शासकों को समाप्त करने की कोशिश कर रहे थे तो उनका मुख्य सेनापति गुलाबसिंह चुप बैठा रहा और उसने सिख राज्य को बचाने में उनकी सहायता नहीं की। 1857 में जब भारत के एक बड़े भाग में ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वातंत्र्य युद्ध की घोषणा की गई थी, तब सिख इन घटनाओं को मूक दर्शकों की तरह खड़े देखते रहे। क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? यह वह विचार है, जो मुझे चिंता से भर देता है। इस तथ्य का अहसास होने के बाद यह चिंता और भी गहरी हो जाती है कि जाति व धर्म के रूप में हमारे पुराने शत्रुओं के अतिरिक्त हमारे यहां विभिन्न और विरोधी विचारधाराओं वाले राजनीतिक दल होंगे। क्या भारतीय देश को अपने मताग्रहों से ऊपर रखेंगे या उन्हें देश से ऊपर समझेंगे? मैं नहीं जानता। परंतु यह तय है कि यदि पार्टियां अपने मताग्रहों को देश से ऊपर नहीं रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी और संभवत: वह हमेशा के लिए खो जाए। हम सबको दृढ़ संकल्प के साथ इस संभावना से बचना है। हमें अपने खून की आखिरी बूंद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है।

भारत और प्रजातंत्र

26 जनवरी, 1950 को भारत इस अर्थ में एक प्रजातांत्रिक देश बन जाएगा कि उस दिन से भारत में जनता की जनता द्वारा और जनता के लिए बनी एक सरकार होगी। यही विचार मेरे मन में आता है। उसके प्रजातांत्रिक संविधान का क्या होगा? क्या वह उसे बनाए रखेगा या उसे फिर से खो देगा? मेरे मन

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गणतंत्र दिवस विशेष

में आने वाला यह दूसरा विचार है और यह भी पहले विचार जितना ही चिंताजनक है। यह बात नहीं है कि भारत ने कभी प्रजातंत्र को जाना ही नहीं। एक समय था, जब भारत गणतंत्रों से भरा हुआ था और जहां राजसत्ताएं थीं वहां भी या तो वे निर्वाचित थीं या सीमित। वे कभी भी निरंकुश नहीं थीं। यह बात नहीं है कि भारत संसदों या संसदीय क्रियाविधि से परिचित नहीं था। बौद्ध भिक्षु संघों के अध्ययन से यह पता चलता है कि न केवल संसदेंक्योंकि संघ संसद के सिवाय कुछ नहीं थे- थीं, बल्कि संघ संसदीय प्रक्रिया के उन सब नियमों को जानते और उनका पालन करते थे, जो आधुनिक युग में सर्वविदित है। सदस्यों के बैठने की व्यवस्था, प्रस्ताव रखने, कोरम व्हिप, मतों की गिनती, मतपत्रों द्वारा वोटिंग, निंदा प्रस्ताव, नियमितीकरण आदि संबंधी नियम चलन में थे। यद्यपि संसदीय प्रक्रिया संबंधी ये नियम बुद्ध ने संघों की बैठकों पर लागू किए थे, उन्होंने इन नियमों को उनके समय में चल रही राजनीतिक सभाओं से प्राप्त किया होगा। भारत ने यह प्रजातांत्रिक प्रणाली खो दी। क्या वह दूसरी बार उसे खोएगा? मैं नहीं जानता, परंतु भारत जैसे देश में यह बहुत संभव है- जहां लंबे समय से उसका उपयोग न किए जाने को उसे एक बिलकुल नई चीज समझा जा सकता है- कि तानाशाही प्रजातंत्र का स्थान ले ले। इस नवजात प्रजातंत्र के लिए यह बिलकुल संभव है कि वह आवरण प्रजातंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो। चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसरी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है। प्रजातंत्र को केवल बाह्य स्वरूप में ही नहीं, बल्कि वास्तव में बनाए रखने के लिए हमें क्या करना चाहिए? मेरी समझ से, हमें पहला काम यह करना चाहिए कि अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निष्ठापूर्वक संवैधानिक उपायों का ही सहारा लेना चाहिए। इसका अर्थ है, हमें क्रांति का खूनी रास्ता छोड़ना होगा। इसका अर्थ है कि हमें सविनय अवज्ञा आंदोलन, असहयोग और सत्याग्रह के तरीके छोड़ने होंगे। जब आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का कोई संवैधानिक उपाय न

बचा हो, तब असंवैधानिक उपाय उचित जान पड़ते हैं। परंतु जहां संवैधानिक उपाय खुले हों, वहां इन असंवैधानिक उपायों का कोई औचित्य नहीं है। ये तरीके अराजकता के व्याकरण के सिवाय कुछ भी नहीं हैं और जितनी जल्दी इन्हें छोड़ दिया जाए, हमारे लिए उतना ही अच्छा है।

मिल की चेतावनी

दूसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है जॉन स्टुअर्ट मिल की उस चेतावनी को ध्यान में रखना, जो उन्होंने उन लोगों को दी है, जिन्हें प्रजातंत्र को बनाए रखने में दिलचस्पी है, अर्थात 'अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।' उन महान व्यक्तियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने में कुछ गलत नहीं है, जिन्होंने जीवनपर्यंत देश की सेवा की हो। परंतु कृतज्ञता की भी कुछ सीमाएं हैं। जैसा कि आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कॉमेल ने खूब कहा है, 'कोई पुरूष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती और कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।' यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या नायक-पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिणाम के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता। धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंतत: तानाशाही का सीधा रास्ता है।

सामाजिक प्रजातंत्र

तीसरी चीज जो हमें करनी चाहिए, वह है कि मात्र राजनीतिक प्रजातंत्र पर संतोष न करना। हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार न मिले, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है। (डॉ. आंबेडकर द्वारा दिए गए संविधान सभा के समापन भाषण का संपादित अंश)


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गणतंत्र दिवस विशेष

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गणतंत्र दिवस और भारतीय संविधान

15 अगस्त 1947 से पहले जब भारत को आजादी मिली, हमारी संविधान सभा जिसका गठन 1946 में हुआ था, और भारतीय संविधान 26 नवंबर 1949 तक तैयार हो गया था। तत्कालीन नेताओं ने दो महीने और रुकने का निर्णय लिया। ऐसे में 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।

एसएसबी ब्यूरो

भारतीय संविधान की रचना

ब भारतीय संविधान सभा ने संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ की तो संविधान निर्माताओं ने सोचा कि जिन देशों में संविधान पहले से लिखे जा चुके हैं, क्यों न उन संविधानों के उपबंधों का प्रयोग भारतीय संविधान के लिए किया जाए? फिर क्या था? संविधान निर्माताओं ने अमेरिका,

ब्रिटेन और कई अन्य देशों के संविधानों का गहन अध्ययन करना शुरू किया। भारतीय परिस्थि​ितयों के अनुकूल जो भी प्रावधान उन्हें उपयुक्त लगे, उन्हें भारतीय संविधान में शामिल कर लिया गया। यहां संक्षेप में यह जानें कि किस देश के संविधान से भारतीय संविधान में क्या क्या शामिल किया गया है। • सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को पद से हटाया जाना और राष्ट्रपति पर महाभियोग • उपराष्ट्रपति का पद

आयरलैंड का संविधान

• राज्यसभा के लिए सदस्यों का नामांकन • राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत • राष्ट्रपति की निर्वाचन पद्धति

कनाडा का संविधान

भारतीय संविधान के स्रोत • • • • • • •

भारतीय शासन अधिनियम, 1935 संघीय व्यवस्था राज्यपाल का कार्यालय न्यापालिका का ढांचा आपातकालीन उपबंध लोक सेवा आयोग शक्तियों के वितरण की तीन सूचियां

ब्रिटेन का संविधान • • • •

संसदीय व्यवस्था मंत्रिमंडल प्रणाली विधायी प्रक्रिया राज्याध्यक्ष का प्रतीकात्मक या नाममात्र का महत्व • एकल नागरिकता • परमाधिकार रिट्स • संसदीय विशेषाधिकार

अमेरिका का संविधान

• मौलिक अधिकार • न्यापालिका की स्वतंत्रता • न्यायिक पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन का सिद्धांत

• • • •

राज्यपालों की नियुक्ति सशक्त केंद्र के साथ संघीय व्यवस्था उच्चतम न्यायालय का परामर्शी न्याय अवशिष्ट शक्तियों का केंद्र में निहित होना

• • • • • •

गणतंत्रात्मक ढांचा स्वतंत्रता समता और बंधुता के आदर्श ऑस्ट्रेलिया का संविधान समवर्ती सूची संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक व्यापार वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता

फ्रांस का संविधान

जर्मनी का संविधान

• आपातकाल के समय मूल अधिकारों का स्थगन

दक्षिणी अफ्रीका का संविधान

• राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन • संविधान में संशोधन की प्रक्रिया

सोवियत संघ का संविधान

• प्रस्तावना में सामजिक, आर्थिक और राजनीति न्याय का आदर्श • मूल कर्तव्य

जापान का संविधान

• विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया

ये भी 26 जनवरी को हुआ पहले गणतंत्र दिवस पर दिल्ली के इर्विन स्टेडियम में झंडा फहराया गया ी जनवर 6 2 र अनुसा ट पर भारत े क ी न सट आईए ो 10.18 मि या गया क कि 1950 धान लागू ंवि का स

पूर्ण स्वराज दिवस (26 जनवरी 1930) को ध्यान में रखते हुए भारतीय संविधान 26 जनवरी को लागू किया गया भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ.राजेंद्र प्रसाद ने गवर्नमेंट हाऊस में 26 जनवरी 1950 को शपथ ली

णतंत्र दिवस का ग ीच ब े क 4 5 1950 से 19 े, लाल किला तो व ्स ग ं कि म य समारोह इर्विन स्टेडि ें हुआ करता था ैदान म कभी रामलीला म

गणतंत्र दिवस की पहली परेड 1955 को दिल्ली के राजपथ पर हुई

राजपथ पर परेड के पहले मुख्य अतिथि पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मलिक गुलाम मोहम्मद थे

26 जनवरी को ही सारनाथ के अशोक स्तंभ पर बने सिंह को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया मोर को भारत का राष्ट्रीय पक्षी 26 जनवरी 1963 को घोषित किया गया

रिपब्लिक डे परेड 1950 को पहले चीफ इंडोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति 'सुकर्णो' थे


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गणतंत्र दिवस विशेष

राजपथ पर 'सीमा भवानी'

राजपथ पर गणतंत्र दिवस परेड में इस बार सबसे ज्यादा आकर्षण का केंद्र होगी 'सीमा भवानी' नाम की बीएसएफ के महिला जवानों का बाइक स्टंट और झांकियों में सबसे दिलचस्प नजारा होगा सांची के स्तूप का

एसएसबी ब्यूरो

णतंत्र दिवस के मौके पर हर साल 26 जनवरी को दिल्लीि के राजपथ पर होने वाली परेड में हर साल पुरुष जवान हैरतअंगेज स्टंथट दिखाते हैं, लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। जी हां, पुरुषों की जगह इस बार महिलाएं स्टं ट करेंगी। सीमा सुरक्षा बल यानी कि बीएसएफ की 113 महिला बाइकर्स इस बार गणतंत्र दिवस परेड में 350 सीसी की 26 रॉयल एनफील्ड मोटरसाइकिलों पर सवार होकर एरोबेटिक्स और दूसरी तरह की कलाबाजी में अपने कौशल और साहस का परिचय देने वाली हैं। जम्मू-कश्मीर के लदाख क्षेत्र में बीएसएफ की सब इंस्पेक्टर स्टैंजन नॉरयांग (28) की अगुआई में 20 से 31 वर्ष आयु वर्ग की महिला बाइकर्स का झुंड पहली बार गणतंत्र दिवस परेड में भारतीय सैन्य शक्ति और सांस्कृतिक दिलेरी का प्रदर्शन करेगा। रोचक बात यह है कि नॉरयांग जब बीएसएफ की इन साहसी महिलाओं के दल में शामिल हुई थीं तो वह बाइक चलाना बिल्कुल नहीं जानती थीं। लेकिन आज वह आत्मविश्वास के साथ न सिर्फ बाइक चला सकती हैं, बल्कि एक ही मोटरसाइकिल पर 10 दूसरे सवारों के साथ साहसिक करतब भी दिखा सकती हैं। नॉरयांग के मुताबिक, ‘मैंने बाइक चलाने के बारे में कभी नहीं सोचा था, क्योंकि मुझे डर लगता था। लेकिन अब मैं रॉयल एनफील्ड बुलेट पर करतब दिखा सकती हूं। मुझे अपने सीनियर्स पर गर्व है, जिन्होंने मुझे ट्रेनिंग दी और गणतंत्र दिवस के

अवसर पर करतब दिखाने वाले दल की अगुआई करने के लिए चुना।’ बाइकर्स टीम 26 जनवरी के कार्यक्रम से पहले राजपथ पर अभ्यास कर रही हैं। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ-साथ इस बार बतौर विशिष्ट अतिथि 10 आसियान देशों के प्रमुख गणतंत्र दिवस परेड का निरीक्षण करेंगे। 'सीमा भवानी' नाम के इस दल में ज्यादातर महिलाएं ऐसी हैं, जो पहले बाइक चलाना नहीं जानती थी, लेकिन वे अब एक्सिपर्ट हो चुकी हैं। परेड के लिए महिलाओं का दल तैयार करने का मौलिक विचार बीएसएफ के महानिदेशक केके शर्मा का था। उपमहानिदेशक पुष्पेंद्र राठौर ने बताया कि शर्मा पुरुषों की जगह महिलाओं को परेड में उतारना चाहते थे। राठौर इस दल के प्रभारी हैं और वह दिसंबर से दिल्ली में हैं। डिप्टी कमांडेंट रमेश चंद्रा मुख्य कोच हैं और उपनिरीक्षक केएम कल्याण ग्वालियर के टेकनपुर स्थित केंद्रीय मोटर परिवहन विद्यालय में बीएसएफ की स्पेशल टीम द्वारा प्रशिक्षित दल के कोच हैं। चंद्रा ने बताया कि इस टीम में एक अनोखी बात यह है कि इसमें देश के लगभग सभी प्रदेशों के सदस्य शामिल हैं। सबसे ज्यादा 20 सदस्य पंजाब से हैं, उसके बाद पश्चिम बंगाल से 15 सदस्य हैं। वहीं, मध्यप्रदेश से 10, महाराष्ट्र से नौ, उत्तर प्रदेश से आठ, असम व बिहार से सात-सात, ओडिशा से छह और राजस्थान, मणिपुर व गुजराज से पांचपांच, जम्मू एवं कश्मीर व छत्तीसगढ़ से तीन-तीन,

'सीमा भवानी' नाम के इस दल में ज्यादातर महिलाएं ऐसी हैं, जो पहले बाइक चलाना नहीं जानती थीं, लेकिन वे अब एक्ससपर्ट हो चुकी हैं

कर्नाटक, उत्तराखंड, दिल्ली और केरल से दो-दो और मेघालय व हिमाचल प्रदेश से एक-एक सदस्य इस टीम में शामिल हैं। मोटरसाइकिल वाहन दल में शामिल प्रतिभागियों का चयन भारत की विविधता में एकता को ध्यान में रखकर किया गया है। दल में शामिल 15 महिलाएं विवाहित हैं, जबकि 113 अविवाहित। कल्याण ने बताया कि दल में शामिल महिलाओं को कठिन प्रशिक्षण के दौर से गुजरना पड़ा है, जिसमें उन्हें सुबह आठ बजे से दोपहर एक बजे तक और फिर दोपहर साढ़े तीन बजे से शाम साढ़े पांच बजे तक ट्रेनिंग दी जाती थी। यह परंपरा रही है कि बीएसएफ और सेना के बाइक सवार जांबाज हर साल बारी-बारी से गणतंत्र दिवस परेड का समापन करते हैं। इस साल बीएसएफ की बारी है, जिसमें महिलाओं का दल पिरामिड, फिश राइडिंग, शक्तिमान, बुल फाइटिंग, सीमा प्रहरी और अन्य हैरतअंगेज करतब दिखाने की तैयारी में है।

अशोक की सहधर्मिणी देवी ने अपनी देखरेख में करवाया। स्तूप के चारों ओर चार नक्काशीयुक्त तोरणद्वार, स्तूप के निर्माण के वर्षों बाद बनाये गये थे। मौर्यकाल के दौरान स्तूप ईटों से बनाया गया था तथा शुंगकाल के दौरान इसे पत्थरों से ढंक दिया गया। झांकी में स्तूप नक्काशीयुक्त तोरणद्वार से घिरा है, जिसमें चारों दिशाओं में प्रवेश द्वार बने हैं। इस तोरणद्वारों पर बुद्ध के जीवन तथा जातक कथाओं में उनके पूर्व जीवन की कहानियों को उकेरा गया है। स्तूप क्रमांक 1, 2, 3 के ही आसपास अनेक कलात्मक ढांचे हैं जैसे- अशोक स्तंभ, चैतियागिरी विहार, संग्रहालय, बौद्ध मंदिर आदि। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा हर वर्ष तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सांची दिवस का आयोजन किया जाता है, जिसमें देश-विदेश से लाखों बौद्ध अनुयायी आते हैं। सांची स्तूप में अनेक ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ब्राह्मी लिपि में मौर्य, शुंग, कुषाण तथा गुप्तकाल के अभिलेख प्राप्त होते हैं।

सांची के स्तूप की झांकी वर्ष 2018 की गणतंत्र दिवस परेड की शोभा बढ़ाएगी। रक्षा मंत्रालय की

इस बार गणतंत्र दिवस परेड- 2018 के दौरान राजपथ पर उत्तराखंड राज्य की झांकी भी नजर आएगी। प्रदेश की झांकी ‘ग्रामीण पर्यटन' पर रक्षा मंत्रालय ने अपनी बैठक में अंतिम मुहर लगा दी है। महानिदेशक सूचना डॉ. पंकज कुमार पाण्डेय ने इसकी जानकारी देते हुए बताया कि रक्षा मंत्रालय भारत सरकार के अधीन गठित विशेषज्ञ समिति के सामने इस बार 30 राज्यों और 20 मंत्रालयों ने अपने प्रस्ताव रखे थे, जिसमें से 14 राज्य और 7 मंत्रालयों की झांकियों पर मुहर लगी है। विशेषज्ञ समिति ने इस दौरान उत्तराखंड की ग्रामीण पर्यटन की झांकी पर अपनी मुहर लगा दी है। इस बार उत्तराखंड राज्य की झांकी के अग्र भाग में काष्ठ कला से निर्मित भवन व पयर्टकों का

झांकी में सांची

चयन समिति ने मध्यप्रदेश की झांकी ‘सांची बौद्धों का एक प्रमुख तीर्थस्थल’ विषय पर आधारित को वर्ष 2018 की गणतंत्र दिवस परेड की झांकियों में शामिल किया गया है। लगभग 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की झांकियों की प्रतिस्पर्धा और चयन प्रक्रिया के बाद मध्य प्रदेश की झांकी को गणतंत्र दिवस 2018 की परेड में शामिल किया गया है। ज्ञात हो कि यूनेस्को विश्व धरोहर के तौर पर सम्मानित सांची एक प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल है। भोपाल से 46 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में विदिशा के निकट रायसेन जिले में स्थित है। यह बौद्ध केंद्र अपने महान स्तूप के कारण प्रसिद्ध है, जो कि भारत के सबसे पुराने पाषाण ढांचों में से एक है। तीसरी शताब्दी ईपू. में महाराजा अशोक द्वारा इस स्तूप की स्थापना भगवान बौद्ध के सम्मान में कराई गई थी। इसका निर्माण

उत्तराखंड का पर्यटन

स्वागत करते हुए पारंपरिक वेशभूषा में महिला व पुरूषों को दर्शाया जाएगा। झांकी के मध्य भाग में पर्यटकों के साथ पारम्परिक नृत्य, ग्रामीण परिवेश, जैव विविधता तथा पर्यटकों का आवागमन व झांकी के पृष्ठ भाग में होम स्टे हेतु वास्तु शिल्प के भवन, योग-ध्यान व बर्फ से ढंके पहाड़ को दर्शाया जाएगा।


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गणतंत्र दिवस विशेष

22 - 28 जनवरी 2018

राष्ट्र का मान, राष्ट्र का गान गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर विश्व के एकमात्र व्यक्ति हैं, जिनकी रचना को एक से अधिक देशों में राष्ट्रगान का दर्जा प्राप्त है

कुछ अहम तथ्य

• गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने 1911 में एक कविता की रचना की थी जो पांच पदों में थी। कविता के पहले पद को राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया।

• ‘जन-गण-मन’ मूलतः बांग्ला भाषा में लिखा गया, जो काफी तत्समनिष्ठ है। इसे सिर्फ संज्ञा शब्दों के प्रयोग से लिखा गया है। • नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने इस गीत का अनुवाद हिंदी तथा उर्दू में करवाया। इस कार्य को कैप्टन आबिद अली ने किया।

• 27 दिसंबर, 1911 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इसे पहली बार गाया गया। बाद में 24 जनवरी 1950 को आधिकारिक तौर पर इस गाने को राष्ट्रगान के तौर पर अपना लिया गया। • राष्ट्रगान के पूर्ण संस्करण को गाने में 52 सेकेंड का समय लगता है, जबकि इसके लघु अथवा संक्षिप्त रूप (प्रथम तथा अंतिम पंक्ति) को गाने में 20 सेकेंड का समय लगता हैं। • राष्ट्रगान के शब्द तथा धुन स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर

ने आंध्र प्रदेश के मदपल्ली में तैयार की थी। आज भी उनकी बनाए धुन को ही प्रयोग में लाया जाता हैं।

• कानून के मुताबिक राष्ट्रगान गाने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। राष्ट्रगान गाने अथवा बजने के दौरान अगर कोई व्यक्ति शांतिपूर्वक खड़ा रहता है तो इसे राष्ट्रगान या राष्ट्र के प्रति कोई अपमान नहीं माना जाता है।

• राष्ट्रगान के नियमों का पालन नहीं करने तथा राष्ट्रगान का अपमान करने वाले व्यक्ति के खिलाफ प्रिवेंशन ऑफ इंसल्ट्स टू नेशनल ऑनर एक्ट- 1971 की धारा-3 के तहत कार्रवाई की जा सकती है। • कभी-कभार इस बात का जिक्र होता है की टैगोर ने इस गीत की रचना अंग्रेज जॉर्ज पंचम की प्रशंसा में लिखा था। जबकि खुद टैगोर ने एक पत्र 1939 में लिखकर इस बात को खारिज कर दिया।

एसएसबी ब्यूरो

जादी के बाद तुरंत ही तिरंगा भारत का राष्ट्रीय ध्वज बन गया था, लेकिन राष्ट्रगान पर फैसला होने में तीन वर्ष लग गए। ज्यादातर लोग यह मान रहे थे कि इसके लिए ‘वंदे मातरम’ को चुना जाएगा। इसकी वजह भी थी। आधी सदी से भी ज्यादा समय से यह भारत की आजादी के आंदोलन का गीत बना हुआ था। 26 जनवरी 1950 को जब भारत गणतंत्र बना तो संसद में हुए एक समारोह में राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की- ‘जन गण मन’ का पहला छंद भारतीय गणतंत्र का राष्ट्रगान होगा और ‘वंदे मातरम’ का पहला छंद राष्ट्रगीत। राष्ट्रगीत का भी दर्जा राष्ट्रगान के बराबर होगा। जल्द ही यह फैसला हुआ कि अंतरराष्ट्रीय चलन के मुताबिक इन दोनों गीतों की एक धुन बनाई जाए। यह काम ऑल इंडिया रेडियो को सौंपा गया। दोनों गीतों के दो संस्करण तैयार किए गए- पहला सामूहिक स्वरगान था और दूसरा मिलिट्री बैंडों के लिए धुन। दोनों की अवधि 60 सेकेंड से कम थी। एक संसदीय समिति ने इन्हें मंजूरी दी और ग्रामोफोन कंपनी ऑफ इंडिया को इन दोनों गीतों के रिकॉर्डों की एक हजार कॉपियां बनाने को कहा गया। हर रिकॉर्ड के एक तरफ गीत का स्वरबद्ध संस्करण था और दूसरी तरफ सिर्फ संगीतबद्ध। ये रिकॉर्ड देशभर में फैले करीब 800 रेडियो स्टेशनों में भिजवाए गए। यह भी फैसला हुआ कि हर स्टेशन से सुबह-सुबह सिगनेचर ट्यून के फौरन बाद वंदे मातरम का स्वरबद्ध संस्करण बजाया जाएगा। यह परंपरा आज भी जारी है। दोनों गीतों में एक पुरुष स्वर है और एक महिला स्वर। यह आवाज पंडित दिनकर कैकिनी और सुमति मुतातकर की है। एक साक्षात्कार में पंडित दिनकर कैकिनी का कहना था, ‘ऑल इंडिया रेडियो में ड्यूटी के दौरान हम हर शुक्रवार को दोपहर में संसद जाया करते थे। हमारा काम था सांसदों को राष्ट्र गान और राष्ट्रगीत की ट्रेनिंग देना। 60 सेकेंड से कम वक्त में और बिना किसी वाद्ययंत्र के।’ पंडित कैकिनी के मुताबिक ज्यादातर लोगों को ट्रेनिंग की जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि ‘वंदे मातरम’ रेडियो पर रोज बजता था। उस वक्त को याद करते हुए उनका कहना था, ‘1955 से वंदे मातरम तो रेडियो पर रोज बजता था, लेकिन राष्ट्रगान किसी विशेष मौके पर ही बजाया जाता था।’ इन विशेष अवसरों में स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस भी शामिल हैं। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर विश्व के एकमात्र व्यक्ति हैं, जिनकी रचना को एक से अधिक देशों में राष्ट्रगान का दर्जा प्राप्त है। उनकी एक दूसरी कविता 'आमार सोनार बांग्ला' को आज भी बांग्लादेश में राष्ट्रगान का दर्जा प्राप्त है। दरअसल, राष्ट्रगान ऐसा गाना होता है, जो किसी भी देश के इतिहास और परंपरा को दर्शाता है। राष्ट्रगान उस देश को न केवल एक अलग पहचान देता है, बल्कि उसका लयात्मक संगीत सभी देशवासियों को एकजुट करता है। जब तक देश की सरकार उस गाने को स्वीकार कर बतौर अधिनियम पारित नहीं करती, तब तक वह गाना राष्ट्रगान के रूप में पूरे देश में लागू नहीं किया जा सकता। भारत का राष्ट्रगान भी यूं तो काफी पहले लिखा जा चुका था, लेकिन भारत सरकार ने इसे 1950 में स्वीकृति दी। गुरुदेव टैगोर ने ‘जन गण मन..’ को पहले एक बांग्ला कविता के रूप में लिखा था। 27 दिसंबर 1911 को कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की एक सभा में इसे पहली बार गाया गया था। लेकिन उस समय इसे बंगाल के बाहर के लोग नहीं जानते थे। आज हम राष्ट्रगान को जिस लय में गाते हैं, उसे आंध्र प्रदेश के एक छोटे-से जिले मदपल्ली में संगीतबद्ध किया गया था। वहां के बीसेंट थियोसोफिकल कॉलेज के टीचर जेम्स एच कूजींस ने गुरुदेव टैगोर की प्रतिभा को पहचाना। कूजींस खुद आयरलैंड के मशहूर कवि थे। उन्होंने टैगोर को 1919 में अपने यहां बुलाया और उन्हें राष्ट्रगान को अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिए कहा। टैगोर ने न केवल अनुवाद किया, बल्कि कूजींस के साथ मिलकर राष्ट्रगान को संगीत भी दिया।


22 - 28 जनवरी 2018

दिव्यांगजनों के लिए 100 सुगम्य वेबसाइटें लोकार्पित दिव्यांगजन अधिकारिता विभाग ने राज्य सरकारों-केंद्र शासित प्रदेशों के लिए 'वेबसाइट सुगम्यता परियोजना' की शुरुआत की है

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व्यांगजनों के अधिकारिता के लिए एक अभूतपूर्व कदम के तहत सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने विभिन्न राज्य सरकारों-केंद्र शासित प्रदेशों की 100 सुगम्य वेबसाइटों का सुगम्य भारत अभियान के अंतर्गत लोकार्पण किया। सुगम्य वेबसाइटें इस तरह की वेबसाइटें हैं, जहां दिव्यांगजन उनके आसान उपयोग से सूचनाएं प्राप्त कर सकते हैं, जानकारियों को समझ सकते हैं और वेबसाइटों

का उपयोग कर सकते हैं। इसके अलावा दिव्यांगजन वेबसाइट में योगदान भी कर सकते हैं। दिव्यांगजन अधिकारिता विभाग ने राज्य सरकारोंकेंद्र शासित प्रदेशों के लिए 'वेबसाइट सुगम्यता परियोजना' की शुरुआत की है। यह परियोजना इलेक्ट्रानिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन स्वायत्तशासी वैज्ञानिक सोसाइटी के जरिए सुगम्य भारत अभियान के तहत शुरू की गई है। इस प्रकार कुल 917 सुगम्य वेबसाइटें तैयार की

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गणतंत्र दिवस विशेष

जाएंगी और उनका वित्त पोषण किया जाएगा। अच्छी बात है कि इस परियोजना के तहत 100 सुगम्य वेबसाइटें तैयार कर ली गई हैं। इस मौके पर गहलोत ने कहा कि दिव्यांगजन समाज के अभिन्न अंग हैं और उनके कल्याण के लिए हमें सक्रिय भूमिका निभानी होगी। उन्होंने कहा कि सुगम्य भारत अभियान सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के दिव्यांगजन अधिकारिता विभाग का एक प्रमुख देशव्यापी कार्यक्रम है। इस मौके पर गहलोत ने कहा कि दिव्यांगजनों को सहायता उपकरण प्रदान करने के लिए उनके मंत्रालय ने देशभर में लगभग 5800 शिविरों का आयोजन किया था। उन्होंने कहा कि इस तरह की सुगम्य वेबसाइटें दिव्यांगजनों के कल्याण के लिए सरकारी नीतियों और योजनाओं की समुचित जानकारी देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। इआरएनईटी इंडिया परियोजना का संचालन कर रहा है, जिसका सुगम्य भारत अभियान के तहत दिव्यांगजन अधिकारिता विभाग वित्त पोषण कर रहा है। वेबसाइटों की सूची में से 27 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की अब तक 917 वेबसाइटें चुनी गई हैं। (एजेंसी)

7.74 लाख गरीबों को रसोई गैस कनेक्शन

त्तीसगढ़ में चालू वित्तीय वर्ष 2017-18 में अब तक 7 लाख 74 हजार 573 गरीब महिलाओं को रसोई गैस कनेक्शन जारी किया है। इन्हें मिलाकर राज्य में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के शुरू होने के बाद से अब तक (लगभग 19 माह में) 17 लाख 74 हजार महिलाओं को रसोई गैस कनेक्शन दिए जा चुके हैं। योजना के तहत पिछले वित्तीय वर्ष 2016-17 में दस लाख रसोई गैस कनेक्शन जारी किया गया। प्रदेश में इस योजना की शुरुआत 13 अगस्त 2016 को हुई थी। सामाजिक, आर्थिक एवं जाति जनगणना 2011 की सूची में शामिल प्रत्येक चयनित परिवार को सिर्फ 200 रुपये के पंजीयन शुल्क पर रसोई गैस कनेक्शन, डबल बर्नर चूल्हा और पहला भरा हुआ सिलेंडर मुफ्त दिया जा रहा है। खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता संरक्षण विभाग के अधिकारियों ने शुक्रवार को कहा कि, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत इस वर्ष अब तक 11 लाख 21 हजार आवेदन प्राप्त हुए है। इनमें से जांच के बाद सात लाख 74 हजार 573 महिलाओं को कनेक्शन जारी किया जा चुका है। (एजेंसी)

प्रधानमंत्री ने रिफाइनरी परियोजना की आधारशिला रखी

प्र

आईएएनएस

परियोजना पूरी हो जाने के बाद इससे राजस्थान सरकार को प्रति वर्ष 34 हजार करोड़ रुपए का लाभ होगा

धानमंत्री ने राजस्थान के बाड़मेर 43,129 करोड़ रुपए की रिफाइनरी परियोजना की आधारशिला रखी और कहा कि यह राज्य के आर्थिक परिदृश्य को बदल कर रख देगा। रिफाइनरी का काम 2022 तक पूरा होने की संभावना है। एक बार परियोजना पूरी हो जाने के बाद, इससे राज्य सरकार को प्रति वर्ष 34 हजार करोड़ रुपए का लाभ होगा। रिफाइनरी में 90 लाख क्रूड ऑयल को हर वर्ष परिशोधित किया जा सकेगा। यह हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन और राजस्थान सरकार की संयुक्त पहल है। प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर लोगों को संबोधित करते हुए कहा, ‘राजस्थान ने देश की ऊर्जा शक्ति बनने के लिए बढ़त बना ली है।’ उन्होंने इस परियोजना को वास्तविकता बनाने के लिए पेट्रोलियम मंत्री धर्मेद्र प्रधान और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के प्रयासों की सराहना की।

रिफाइनरी में 90 लाख क्रूड ऑयल को हर वर्ष परिशोधित किया जा सकेगा। यह हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉरपोरेशन और राजस्थान सरकार की संयुक्त पहल है

प्रधानमंत्री ने कहा, ‘हम पत्थर लगाकर लोगों को गुमराह नहीं कर सकते। 2022 में जब हम आजादी के 75 वर्ष पूरे कर लेंगे, हम यह सुनिश्चित करेंगे की रिफाइनरी उसी वर्ष काम करना शुरू कर दे। ‘हम यह नहीं चाहते कि लोग हमारे पास आए और हमसे पूछें कि पत्थर लगाने के बाद आपने इसे पूरा करने का काम क्यों नहीं किया।’ इस अवसर पर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने राजस्थान रिफाइनरी का दो बार उद्घाटन करने का जिक्र करते हुए कहा, ‘हम पत्थर लगाने में विश्वास नहीं करते हैं, बल्कि इमारत बनाने के लिए हम कठीन परिश्रम करते हैं। हम अपने प्रयास को वास्तविकता में बदलने का काम करते हैं।’ चुनावी फायदे के लिए दो बार आधारशिला रखने के बाद परियोजना के संबंध में कुछ नहीं करने का कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा, ‘इस परियोजना के लिए कोई योजना, कोई गंभीरता और लागू करने के लिए कोई इरादा नहीं था। हम इसे काफी योजनाबद्ध तरीके के साथ लेकर आए हैं।’ पेट्रोलियम मंत्री प्रधान ने भी कहा कि रिफाइनरी से राज्य में काफी विकास होगा।


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जेंडर

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साइकिल पर घूम रहा 'आधी आबादी' का हक

'राइडर राकेश' उस सोच को बदलने के लिए यात्रा पर हैं, जो एक महिला को महज महिला होने की वजह से दोयम दर्जे की मानती है

क शख्स साइकिल पर सवार होकर महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिए जाने के प्रति जागरूकता फैलाने के मिशन पर निकला है। वह उस सोच को समझने और उसमें बदलाव की उम्मीद भरी यात्रा पर है, जो एक महिला को महज महिला होने की वजह से दोयम दर्जे की मानती है। कन्यादान और दहेज प्रथा के मुखर विरोधी यह शख्स हैं राकेश कुमार सिंह जो ‘राइडर राकेश’ के नाम से मशहूर हैं। खुद उनके शब्दों में कहें तो महिला सशक्तीकरण का सिर्फ ढोल पीटा जा रहा है, सच तो यह है कि बहुत से परिवारों में लड़कियों को पैदा ही नहीं होने दिया जा रहा। राकेश कहते हैं कि एसिड पीड़िताओं के साथ काम कर उनके दर्द और संघर्षो को करीब से समझने की घटना ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। भ्रूणहत्या, तेजाब हमला, दहेज उत्पीड़न व घरेलू हिंसा से जूझ रही देश की आधी आबादी को 'निरीह' मानने वाली सोच पुरुषों में कब घर कर जाती है, इस एक सवाल ने राइडर राकेश को मजबूर कर दिया कि वह देशभर में घूमें और लोगों से मिलकर इस सोच की वजह जानने की कोशिश करें। इसी इरादे से उन्होंने साइकिल थाम ली। राइडर राकेश ने कहा, ‘ऐसी मानसिकता कब और कैसी परिस्थितियों में बनती है कि एक महिला पर बेधड़क तेजाब फेंक दिया जाता है। दहेज न मिलने पर नवविवाहिता को

जिंदा जला दिया जाता है। भ्रूण जांच में लड़की की पुष्टि होने पर उसे गर्भ में ही मार दिया जाता है। ये सवाल मेरे दिमाग में घूम रहे थे और मैंने देशभर में घूमकर इस मानसिकता को समझने की कोशिश की कि आखिर इंसान में यह मानस बनता कैसे है?’ राकेश बताते हैं कि अक्टूबर, 2013 में मेरे मन में यह ख्याल आया और मार्च 2014 में मैंने साइकिल से यह यात्रा शुरू कर दी। इस दौरान बहुत सी चीजें दिमाग में आईं। मसलन, दुष्कर्म-रोधी नया कानून निर्भया कांड के बाद वर्ष 2012 में आया, लेकिन इसके बाद भी ऐसी घटनाएं हो रही हैं। दहेज कानून 1961 में बना, लेकिन अभी भी खुलेआम

दहेज की मांग होती है और दहेज दिया-लिया जा रहा है। बिहार के गांव तरियानी छपरा निवासी राकेश कुमार सिंह चेन्नई से 'राइड फॉर जेंडर फ्रीडम' साइकिल यात्रा पर निकल पड़े। वह साढ़े 3 वर्षों में अब तक 13 से अधिक राज्यों की लगभग 20,000 किलोमीटर यात्रा पूरी कर चुके हैं। राकेश कहते हैं, ‘मैं रोजाना 60 से 70 किलोमीटर तक की यात्रा करता हूं। इस दौरान मेरी साइकिल के आगे एक तख्ती लगी रहती है, जिस पर मैं लैंगिक समानता के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए कुछ संदेश लिखा रहता है। लोगों में कौताहूल होता है, जानने समझने

देश की पहली ट्रांसजेंडर जज

देश की पहली ट्रांसजेंडर जज जोइता अपने संघर्ष से सबक लेकर समाज को एक नई सीख दे रही हैं

संदीप पौराणिक

श्चिम बंगाल की 30 वर्षीय जोइता मंडल की पहचान आज देश की पहली 'किन्नर' (ट्रांसजेंडर) न्यायाधीश के तौर पर है। जोइता का जीवन में हार न मानने का जज्बा दिखाता है कि वह अपने संघर्ष से सबक लेकर समाज को एक नई सीख दे रही हैं। वह वृद्धाश्रम के संचालन के साथ रेड लाइट इलाके में रह रहे परिवारों की जिंदगियां बदलने में लगी हैं। उनके इस सेवा और समर्पण भाव को देखते हुए पश्चिम बंगाल सरकार ने उनका सम्मान करते हुए उन्हें लोक अदालत का न्यायाधीश नामांकित किया है। वे देश की पहली 'किन्नर' न्यायाधीश हैं। मध्य प्रदेश की व्यावसायिक नगरी में ट्रेडेक्स द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने आईं जोइता किन्नर समाज तथा रेड लाइट इलाके में रहने वाले परिवारों की समस्याओं पर खुलकर चर्चा करती हैं। उन्होंने कभी अपनी जिंदगी की कई रातें रेलवे स्टेशन और बस अड्डों पर गुजारी थी। जोइता ने अपने बीते दिनों को याद करते हुए कहा, ‘वे भी अपने को आम लड़की की तरह

समझती थीं, बचपन इसी तरह बीता, जब उम्र 18 वर्ष के करीब थी, तब उनका भी मन दुर्गा पूजा के वक्त सजने संवरने का हुआ, वे ब्यूटी पार्लर जा

पहुंचीं, लौटकर आई तो घर के लोग नाराज हुए, वे उसे लड़का मानते थे, उस वक्त उन्हें इतना पीटा गया कि वे चार दिन तक बिस्तर से नहीं उठ सकीं और इलाज के लिए चिकित्सक के पास भी नहीं ले जाया गया।’ उन्होंने कहा, ‘जब कॉलेज जाती थी तो सभी उनका मजाक उड़ाया करते थे, इसके चलते पढ़ाई छोड़ दी। वर्ष 2009 में उन्होंने घर छोड़ने का फैसला कर लिया, कहां जाएंगी कुछ भी तय नहीं था, इतना ही नहीं एक रुपए भी पास में नहीं था। दिनाजपुर पहुंची तो होटल में रुकने नहीं दिया गया, बस अड्डे और रेलवे स्टेशन पर रातें गुजारीं। होटल वाला खाना तक नहीं खिलाता, वह पैसे देकर कहता है कि हमें दुआ देकर चले जाओ।’ जोइता बताती हैं कि दिनाजपुर में हर तरफ से मिली उपेक्षा के बाद उन्होंने किन्नरों के डेरे में जाने का फैसला किया और फिर वही सब करने लगीं जो

आज उन्हें इस बात का कतई मलाल नहीं है कि वे किन्नर हैं। जहां लोग उनका उपहास उड़ाते थे, आज उसी इलाके से जब वे सफेद कार से निकलतीं हैं तो गर्व महसूस करती हैं

का तो मैं रुककर लोगों को इस बारे में जागरूक करता हूं।’ राकेश का सफर चेन्नई से शुरू होते हुए पुडुच्चेरी, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और पंजाब तक पहुंच चुका है। अपनी इस यात्रा अनुभव के बारे में बताते वह कहते हैं, ‘अब तक की यात्रा में मुझे एक बात समझ आ चुकी है कि स्त्रियों के प्रति असमानता का यह रवैया इंसान अपने घर से ही सीखता है। यह सोच घर से ही पनपती है, जो समय के साथ-साथ इतनी निष्ठुर हो जाती है कि वह पुरुष वर्चस्व के आगे स्त्रियों को कमजोर समझने लगता है। उन्हें स्त्रियों से तुलना, उनसे 'ना' सुनना बर्दाश्त नहीं होता।’ वह बताते हैं, ‘मैंने अपनी मुहिम में अब तक छह लाख लोगों से बात की है, जिसके आधार पर निचोड़ यही निकला है कि सबसे पहले महिलाओं के प्रति सोच बदलने की जरूरत है। बेटियों के पैदा होने का जश्न मनाने की जरूरत है और यही सोच हमें आने वाली पीढ़ी को देनी होगी।’ उनकी यह यात्रा 22 दिसंबर, 2018 को बिहार के ही गांव तरियानी छपरा में पूरी होगी। इस दौरान वे 'राइड फॉर जेंडर फ्रीडम' को लेकर एक कार्यक्रम का भी आयोजन करेंगे। (आईएएनएस) आम किन्नर करते हैं, बच्चे के पैदा होने पर बधाई गाना, शादी में बहू को बधाई देने जाना। नाचने गाने का दौर शुरू हो गया। उसके बाद भी पढ़ाई जारी रखी। उम्र और हालात बदलने का जिक्र करते हुए जोइता ने बताया, ‘वर्ष 2010 में दिनाजपुर में एक संस्था बनाई जो किन्नरों के हक के लिए काम करती है। इसके बाद बुजुर्गो के लिए वृद्धाश्रम स्थापित किया। रेड लाइट इलाके में रहने वाली महिलाओं, उनके बच्चों के राशन कार्ड, आधार कार्ड बनवाए और पढ़ाई के लिए प्रेरित किया।’ जोइता 14 अप्रैल 2014 को सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले का जिक्र करते हुए कहती है, ‘उस फैसले ने किन्नर समाज के जीवन में नई रोशनी लाई है। इस फैसले में उन्हें भी समाज का अंग मानते हुए महिला, पुरुष के साथ तीसरा जेंडर माना गया। इस फैसले ने लड़ने के लिए और ताकत दी। यह फैसला हमारे लिए किसी धार्मिक ग्रंथ से कम नहीं था।’ जोइता ने अपने अभियान को जारी रखा, एक तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें ताकत दी तो आठ जुलाई 2017 का दिन उनके लिए ऐतिहासिक साबित हुआ, जब राज्य सरकार ने उन्हें लोक अदालत का न्यायधीश नियुक्त कर दिया। जोइता कहती हैं कि आज उन्हें इस बात का कतई मलाल नहीं है कि वे किन्नर हैं। जहां लोग उनका उपहास उड़ाते थे, आज उसी इलाके से जब वे सफेद कार से निकलतीं हैं तो गर्व महसूस करती हैं। (एजेंसी)


22 - 28 जनवरी 2018

प्रेरक

'बेटी बचाओ' के लिए जुड़वां भाई का मैराथन

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टाटा मुंबई मैराथन में हिस्सा ले रहे दो जुड़वां भाई इस साल इस मैराथन में 'बेटी बचाओ' के संदेश के साथ उतरेंगे

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मोनिका चौहान

च साल की उम्र से टाटा मुंबई मैराथन में हिस्सा ले रहे ग्रांट रोड वेस्ट में रहने वाले दो जुड़वां भाई इस साल इस मैराथन में 'बेटी बचाओ' के संदेश के साथ उतरेंगे। मुंबई में 21 जनवरी को होने वाली मैराथन में अक्षय और लक्ष्य के साथ उनके पिता मितेन शाह भी हिस्सा लेंगे। मितेन ने

कहा, ‘मैंने 2010 में इसकी शुरुआत की थी। मेरे बच्चे तब पांच साल के थे और उनके साथ मैं इस मैराथन का हिस्सा बना था। मेरे जुड़वां बच्चों का

जन्म दो अक्टूबर को हुआ है और इसीलिए, हमारी पहली थीम-गांधी जी पर थी और हमने शांति का संदेश दिया था।’ अपने दोनों बच्चों के साथ मितेन इस मैराथन के ड्रीम रन में हिस्सा लेते हैं। पिछले साल उन्होंने इसमें जीत हासिल की थी। उनकी थीम ‘ध्रूमपान छोड़ो’ थी और इसके लिए वह तैयार होकर भी आए थे। उन्हें सर्वश्रेष्ठ परिधान के पुरस्कार के रूप में 50,000 रुपए की राशि मिली थी। इस बार मितेन के साथ 13 साल के जुड़वां भाई-लक्ष्य और अक्षय ‘बेटी बचाओ’ के संदेश के साथ उतरेंगे। इसकी तैयारी के बारे में मितेन ने कहा, ‘हम ग्रुप में इस मैराथन में हिस्सा लेते हैं। हमारी थीम हम ही चुनते हैं। हर साल के लिए मैं अपने जीजा भरत नंदू और उनके बेटे समित तथा अपने बच्चों के साथ मिलकर मैराथन के विषय पर चर्चा करते हैं। हम नौंवीं बार इस मैराथन में हिस्सा ले रहे हैं। लड़की बचाओ का विचार हमारे दिमाग में इसीलिए आया क्योंकि हम देख रहे थे कि हमारे

लक्ष्य और अक्षय इस मैराथन का अब जाना-माना चेहरा बन गए हैं। वह हर साल एक नई थीम के साथ उसी के रंग में रंगकर मैराथन में उतरते हैं

पेंटिंग का आकाशदीप

समाज में लड़कियों की क्या स्थिति है। सरकार भी बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ पर जोर दे रही है।’ मितेन ने कहा कि शुरू में उन्हें अपने बच्चों को तैयार करने के लिए थोड़ी कोशिश करनी पड़ी, लेकिन इसमें ज्यादा परेशानी नहीं हुई। लक्ष्य और अक्षय इस मैराथन का अब जानामाना चेहरा बन गए हैं। वह हर साल एक नई थीम के साथ उसी के रंग में रंगकर मैराथन में उतरते हैं। इस साल वह नौंवीं बार मैराथन का हिस्सा बनेंगे। इस मैराथन के लिए उन्हें तैयार करने की जिम्मेदारी उनके पिता मितेन की बहन की होती हैं। मौजूदा दौर में बच्चे अपना अधिकतर समय उपकरणों के साथ गुजारते हैं और बाहरी खेल-कूद के मायने बच्चों के बीच कम होते जा रहे हैं। पेशे से व्यापारी मितेन ने कहा, ‘बाहरी गतिविधियों को लेकर मेरे बच्चे बेहद सक्रिय हैं। वह खुद ही समझते हैं और जानते हैं कि उनके लिए बाहर खेलना जरूरी है। वह सुबह जल्दी स्कूल जाते हैं। सात से आठ बजे तक वह फुटबाल का प्रशिक्षण लेते हैं।’ मितेन ने कहा कि उन्हें देखकर उनके रिश्तेदारों ने भी मैराथन में जाना शुरू कर दिया। वे भी अब पूरे रोमांच और जोश के साथ हिस्सा लेते हैं। हर किसी से मिलने वाले समर्थन को देखकर मितेन और भी खुश हो जाते हैं। (एजेंसी)

10वीं कक्षा के छात्र आकाशदीप ने पेंटिंग में अपने हुनर की बदौलत पूरी दुनिया में अपनी कल्पनाशीलता का लोहा मनवाया है

मनोज पाठक

गर आप में हुनर हो, तो परिस्थितियां कभी आपको आगे बढ़ने से रोक नहीं सकतीं। बिहार के पिछड़े इलाके, यानी नक्सल प्रभावित नवादा जिले के सिरदला निवासी 10वीं कक्षा के छात्र आकाशदीप ने पेंटिंग में अपने हुनर की बदौलत पूरी दुनिया में अपनी कल्पनाशीलता का न केवल लोहा मनवाया, बल्कि इसी की बदौलत उसे पुरस्कार स्वरूप फरवरी, 2018 में कोरिया में आयोजित होनेवाले विंटर ओलंपिक प्रतियोगिता देखने के लिए आमंत्रित भी किया गया है। बचपन से ही पेंटिंग और कलाकृति की ओर आकर्षित रहने वाले आकाशदीप ने अपनी पेंटिंग की कल्पनाशीलता से गूगल को भी आकर्षित किया है। वह बताता है कि 14 नवंबर, 2016 को बाल दिवस के अवसर पर 'गूगल के डूडल' के लिए प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। इस प्रतियोगिता में आकाशदीप ने दूसरा स्थान प्राप्त किया। उसने बताया कि इस प्रतियोगिता में 22 हजार से ज्यादा प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था। इसका आयोजन कोरिया और भारत

मित्रता चित्रकला के रूप में किया गया था। आकाशदीप को अपने स्कूल में ही 'गूगल के डूडल' के लिए पेटिंग प्रतियोगिता होने की जानकारी मिली थी। उसने इस प्रतियोगिता के लिए जल संरक्षण पर जो पेंटिंग बनाई, वह निर्णायकों को इतनी भा गई कि उन्होंने इस पेंटिंग को द्वितीय पुरस्कार के लिए चुन लिया। आकाशदीप ने अपनी पेंटिंग में जल संकट और उसके बचाव के शुरुआती तरीके को खूबसूरत और आकर्षित तरीके से उकेरा था, जिसकी प्रशंसा उस समय सभी ने की थी। इस प्रतियोगिता में चयनित होने के बाद उसे दिल्ली के गूगल कार्यालय में सम्मानित भी किया गया। आकाशदीप के पिता संजय कुमार कहते हैं कि नवादा में प्रारंभिक शिक्षा पाने के बाद आकाशदीप को उन्होंने अच्छी शिक्षा के लिए भेज दिया। आज वह रांची के हीनू स्थित केंद्रीय विद्यालय में दसवीं कक्षा का छात्र है। उसके पिता कार्ड छपाई करते हैं और मां गृहिणी हैं। संजय बताते हैं, ‘आकाशदीप को पेटिंग से शुरू से गहरा लगाव रहा है। वह स्कूलों में पेटिंग बनाता रहा है। वह रांची के डोरंडा स्थित कलाति स्कूल ऑफ आर्ट्स में पेटिंग भी सीखता है।

वह हफ्ते में एक दिन पेटिंग के लिए समय निकालता रहा है।’ आकाशदीप कहता है, ‘मेरे पिता कार्ड की छपाई करते हैं। कार्डो में बनी आकृतियां देखकर ही मेरी पेटिंग में रुचि जगी। आज मैं जहां हूं, यह उसी का परिणाम है।’ अपने पुत्र को कोरिया जाने के लिए आमंत्रित किए जाने से प्रसन्न संजय कुमार कहते हैं कि यह उनके लिए गौरव की बात है कि उनके बेटे की पेंटिंग्स की सराहना की जा रही है, और उसे कोरिया जाने का अवसर मिल रहा है। कलाति स्कूल ऑफ आर्ट्स के निदेशक धनंजय कुमार

आकाशदीप की उपलब्धि से खुश हैं। धनंजय कहते हैं, ‘आकाशदीप ने इससे पहले भी कई अंतरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय चित्रकला प्रतियोगिता जीत कर अपने हुनर का लोहा मनवाया है। उसने 'डूडल फॉर गूगल' प्रतियोगिता जीती थी, जिसमें अपने वर्ग में आकाश को प्रथम पुरस्कार मिला था। वह अब तक 60 से भी अधिक चित्रकला प्रतियोगिताओं में पुरस्कार प्राप्त कर चुका है।’ वह बताते हैं कि आकाशदीप की उपलब्धि पर कलाति स्कूल ऑफ आर्ट्स ने उसे स्कॉलरशिप भी दी है।


16 खुला मंच

22 - 28 जनवरी 2018

आजादी की रक्षा करना केवल सैनिकों ही काम नहीं है, बल्कि पूरे देश को मजबूत होना होगा - लाल बहादुर शास्त्री

प्रवासियों का राष्ट्र प्रेम

अभिमत

डॉ. विन्देश्वर पाठक

विधवा माताअों का जीवन और सुलभ की पहल

राजा राममोहन राय और ईश्वचंद्र विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह को लेकर तारीखी पहल की, उस पहल को सुलभ आज पूरी निष्ठा के साथ आगे बढ़ा रहा है

प्रवासी भारतीयों ने वर्ष 2017 में भारत में 62.7 अरब डॉलर यानी 4057 अरब रुपए की धनराशि भेजी है

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तंत्रता संघर्ष के दिनों से देशहित के मुद्दे पर प्रवासी भारतीयों की भूमिका और शक्ति प्रकट होती रही है। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तो कई अवसरों पर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष की रणनीतिक जमीन दूसरे मुल्कों में तैयार की गई। प्रवासी भारतीयों का अपने देश के प्रति यह प्रेम और निष्ठा आज भी पहले की तरह ही है। हाल ही में नई दिल्ली में प्रवासी भारतीय दिवस पर प्रथम प्रवासी भारतीय सांसद सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें 23 देशों के 124 सांसद और 17 मेयर शामिल हुए। प्रधानमंत्री ने प्रवासी भारतीय सांसद सम्मेलन में प्रवासी भारतीय सांसदों का अभिनंदन करते हुए प्रवासी भारतीयों को भारत की महान पूंजी की संज्ञा दी। भारत नई शक्ति के साथ उठ रहा है। दुनिया का भारत के प्रति नजरिया बदला है। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष भारत की सराहना करते हुए दिखाई दे रहे हैं। दुनिया के करीब 200 देशों में रह रहे करीब 3.80 करोड़ प्रवासी भारतीय देश की आर्थिक-सामाजिक तस्वीर को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उनकी शक्ति कितनी बड़ी और प्रभावी है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि तीन देशों में भारतीय मूल के प्रधानमंत्री हैं। आयरलैंड में भारतीय मूल के लिए वरदाकर, पुर्तगाल में एंटोनियो लुईस द कोस्टा और मॉरिशस में प्रविंद जगन्नाथ प्रधानमंत्री हैं। इसके अलावा अमेरिका, गुयाना, पुर्तगाल में भारतीय मूल के लोग कैबिनेट मंत्री भी हैं। कनाडा में 4 मंत्री भारतीय मूल के हैं। इसमें कोई दो मत नहीं है कि विदेशों में रह रहे भारतीय कारोबारियों, वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं और उद्योगपतियों की प्रभावी भूमिका दुनिया के विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थाओं में सराही जा रही है। प्रवासी भारतीय विकसित देशों के सबसे महत्वपूर्ण विकास सहभागी बन गए हैं। पूरी दुनिया में प्रवासी भारतीयों और विदेशों में कार्य कर रही भारत की नई पीढ़ी की श्रेष्ठता को स्वीकार्यता मिली है। प्रवासी भारतीयों ने वर्ष 2017 में भारत में 62.7 अरब डॉलर यानी 4057 अरब रुपए की धनराशि भेजी है। स्पष्ट रूप से प्रवासी भारतीयों का देश के विकास में यह एक अमूल्य योगदान है।

टॉवर

(उत्तर प्रदेश)

बा

त महिला अस्मिता की करें तो 19वीं शताब्दी में सामाजिक हालात एेसे नहीं थे कि आप इस बारे में किसी तरह का संतोष जता पाएं। घर में बेटी का जन्म जहां अभिशाप समझा जाता था, वहीं उनकी शादी एक बोझ की तरह था। विधवाअों के जीवन को तो पूरी तरह अशुभ ही माना जाता था। आलम यह था कि पति की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह उसके साथ सती हो जाए। यह बर्बर सामाजिक प्रथा मृत पति की चिता पर जीवित रहते प्राण त्याग करने की थी। उस दौर में उन तमाम लोगों ने जिन्होंने महिलाअों के प्रति समाज की इस बर्बरता के खिलाफ अभियान छोड़ा और इसे एक जरूरी सामाजिक मुद्दा बनाया, उन्होंने खासतौर पर विधवाअों की नारकीय स्थिति को लेकर आवाज जरूर उठाई। हम यह भी कह सकते हैं कि 19वीं सदी का समाज सुधार आंदोलन तब की सामाजिक विद्रूपताअों की कोख से ही जन्मा था। उस दौर के तमाम चेतन और प्रभावशाली लोगों ने यह महसूस किया कि सती प्रथा और विधवाअों की स्थिति को लेकर जागरूक पहल वक्त की दरकार है, क्योंकि इस तरह की बुराई का सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

विधवाअों के जीवन में सुधार को लेकर सबसे पहले साहसिक पहल की। 1811 में राय ने खुद अपने घर में अपनी भाभी को पति की मौत के बाद उनकी चिता पर जीवित जलते देखा था। यह एक एेसा त्रासद अनुभव था, जिसने उन मन-मस्तिष्क पर न सिर्फ गहरा असर डाला, बल्कि उन्हें पूरी तरह झकझोर कर रख दिया। इसके बाद उन्होंने पति की मृत्यु के बाद पत्नी को जीवित दहन किए जाने की बर्बर सामाजिक प्रथा के खिलाफ दृढ़ता के साथ अभियान छेड़ा। वे तब एेसा करने वाले पहले भारतीय थे। उन्होंने जोर देकर कहा कि यह बर्बर प्रथा हर शास्त्र के लिहाज से ‘हत्या’ है। उन्होंने तार्किक तौर पर सती प्रथा को किसी तरह की धार्मिक स्वीकृति देने का पुरजोर विरोध किया। रूढ़िवादी हिंदुअों के खिलाफ छेड़ा गया उनका यह अभियान तब एक निर्णायक मोड़ पर आ गया जब तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलयम बेंटिक ने 1829 में सती प्रथा के खिलाफ कानून पास किया। इस कानून के मुताबिक न सिर्फ सती प्रथा को गैरकानूनी करार दिया गया बल्कि इसे हत्या तुल्य मानते हुए इसके लिए सजा का भी प्रावधान किया गया। आधुनिक भारतीय इतिहास में राजा राम मोहन राय को शिक्षा, धर्म, नौतिकता, पत्रकारिता के साथ विधिक और राजा राममोहन राय राजनीतिक क्षेत्र में उनके योगदान और प्रगतिशील विचारों के एेतिहासिक तौर पर देखें तो भारतीय समाज सुधार आंदोलन लिए याद किया जाता है। पर जिस तरह से उन्होंने महिलाअों के प्रणेता राजा राममोहन राय (1772-1833) थे। खासतौर पर के हक के खिलाफ रूढ़िवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ

19वीं सदी का समाज सुधार आंदोलन तब की सामाजिक विद्रूपताअों की कोख से ही जन्मा था। उस दौर में सबने ने यह महसूस किया कि सती प्रथा और विधवाअों की स्थिति को लेकर जागरूक पहल वक्त की दरकार है


22 - 28 जनवरी 2018 संघर्ष किया, सती प्रथा को समाप्त कराया और बाल विवाह के विरोध तथा विधवा विवाह के समर्थन में आवाज उठाया, वह सामाजिक जागरूकता का एक बड़ा कार्य है। इतिहास में उन्हें इन प्राथमिक वजहों से ज्यादा याद किया जाना चाहिए।

ईश्वचंद्र विद्यासागर

19वीं सदी के मध्य में विधवा विवाह को लेकर सबसे कारगर पहल ईश्वरचंद्र विद्यासागर (18201891) ने की। उन्होंने भद्र बंगजनों के साथ बांग्ला समाज में इन्हें प्रश्रय देने के लिए बड़ी पहल की। ईश्वरचंद्र विद्यासागर संस्कृत के विद्वान तो थे ही, साथ ही वे शिक्षक, लेखक, प्रकाशक और सामज सेवक भी थे। पर इन सबसे बड़ा परिचय उनका यह है कि उन्होंने बालिकाअों, महिलाअों और विधवाअों की सामाजिक सुरक्षा और अस्मिता के लिए आवाज उठाई। उन्होंने कुलीन ब्राह्मणों द्वारा बहुविवाह के कुचक्र से महिलाअों को निकालने के लिए कारगर हस्तक्षेप किया। जिस तरह राजा राममोहन राय का नाम सती प्रथा के विरोध में अभियान चलाने के लिए लिया जाता है, उसी तरह ईश्वरचंद्र विद्यासागर को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने बंगाली विधवाअों के जीवन में सुधार लाने के लिए कई कार्य किए। 1840 के दशक के उत्तरार्ध में उन्होंने महिलाअों के खिलाफ सामाजिक अन्याय को लेकर लिखा और वे 1853 तक आते-आते वे अपनी मुहिम को इस मुकाम पर लेकर आ गए कि अंग्रेज सरकार को हिंदू विधवाअों के पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता देने पर बाध्य होना पड़ा। गौरतलब है कि ईश्वचंद्र विद्यासागर ने तब इस बात का कठोर प्रतिवाद किया था कि स्थायी वैधव्य को लेकर प्राचीन शास्त्रों में एेसा कुछ नहीं कहा गया है, जिससे इसको लेकर चली आ रही अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था का अनुमोदन किया जा सके। उनकी इस पहल से विधवाअों के जीवन में सुधार के लिए किए गए उनके अभियान को लोगों का काफी समर्थन मिला। अपने तर्क के समर्थन में उन्होंने पराशर संहिता के उस संदर्भ का उल्लेख किया, जिसमें विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया गया था। उल्लेखनीय है कि पराशर संहित में पांच एेसी स्थितियां बताई गई हैं, जिसमें विधवा फिर से विवाह करने की अधिकारी है। ये स्थितियां हैं- अगर पति पागल हो जाए, अगर पति की मृत्यु हो जाए, अगर पति वैरागी या संन्यासी हो जाए, अगर पति नपुसंकता का शिकार हो और अगर पति को उसकी जाति से निष्कासित कर दिया गया हो। ईश्वरचंद्र विद्यासागर की इस पहल को लेकर रूढ़िवादी हिंदू जमातों ने काफी विरोध किया था। इस उग्र विरोध के बावजूद वे ब्रिटश सरकार को इस बात पर सहमत करने में सफल हुए कि इस दिशा में विधिक पहल समय की मांग है। इस तरह 1856 में वह कानून बना, जो विधवाअों को फिर से विवाह करने की इजाजत देता है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर विधवा विवाह के मुद्दे पर कानूनी और सामाजिक दोनों ही मोर्चों पर एक साथ संघर्ष कर रहे थे। 26 जुलाई, 1856 को हिंदू विधवाअों के विवाह को लेकर कानून बनने के बाद वे खामोश नहीं बैठे, बल्कि खुद आगे बढ़कर विधवाअों की शादी कराने के प्रयास में जुट गए।

उन्होंने अपने सहपाठी श्रीशचंद्र को इस बात के लिए तैयार किया कि वह दस वर्ष पहले विधवा हुई कालीमाटी देवी से विवाह कर ले। यह एक क्रांतिकारी शादी थी। इसका तब के समाज पर बड़ा प्रेरक असर पड़ा क्योंकि यह एक विधवा की ही नहीं, बल्कि एक विधुर की भी शादी थी। इस विवाह में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने वधू के पिता के रूप में संपूर्ण वैवाहिक रस्म संपन्न कराए। उनके इस कदम का काफी विरोध भी हुआ था, पर वे अपने निर्णय पर दृढ़ बने रहे। राजा राममोहन राय की तरह ही ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भी हिंदू ग्रंथों का उल्लेख सामाजिक सुधार के लिए अपने तर्कों को पुष्ट करने के लिए किया। सामाजिक जागरूकता और सुधार कार्यों के लिए उन्होंने पश्चिमी विचारों का भी बखूबी इस्तेमाल किया। 1860 के दशक के मध्य उन्होंने इस कुलीनवाद का भी प्रखर विरोध किया, जिसमें ब्राह्मणों को एक से ज्यादा शादी करने या पत्नियां रखने की प्रथा थी। यह अच्छी बात रही कि महिलाअों को लेकर उनके प्रयासों को समाज सुधार की एक बड़ी पहल के तौर पर तब के अखबारों में खूब जगह मिली। कुछ लोगों ने उनका विरोध जरूर किया, पर यह विरोध या तो आपवादिक बने रहे या फिर इनकी तरफ लोगों का ज्यादा ध्यान नहीं गया।

महात्मा गांधी

विधवाअों को लेकर गांधी जी के विचार भी कुछ इसी तरह के थे। खासतौर पर बाल-विधवाअों की स्थिति को लेकर वे काफी चिंतित थे। उनके समय में भी विधवा पुनर्विवाह को लेकर लोगों की राय खासी प्रतिक्रियावादी थे। सभी इस बारे में रूढ़ धारणा के साथ ही सोचते थे। गांधी जी की नजर में विधवाअों का विवाह सिर्फ इच्छा से जुड़ा मसला नहीं है, बल्कि यह जरूरी है। वे मानते थे कि बाल विधवाअों की तो एक तरह से शादी ही नहीं हुई होती है। क्योंकि शादी के समय तो वह काफी कम उम्र की होती हैं। उन्हें तब शादी का मतलब तक नहीं समझ में आता है। इसलिए उन्हें शादी के बंधन में बंधा हुआ मानना ही गलत है। बाल विधवाअों को सामाजिक रूढ़ता और परंपराअों के कारण जिस तरह का जीवन व्यतीत करना पड़ता था, उसे लेकर गांधी जी काफी चिंतित रहते थे। बाल विधवाअों को लेकर पुरुषवादी मानसिकता और क्रूर व्यवहार की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा भी है, ‘जब मैंने बाल विधवा को देखा तो मेरा हृदयपीड़ा से भर गया। मुझे इस बात

को लेकर काफी क्रोध आया कि एक विधुर, जिसकी पत्नी का तत्काल देहांत हुआ है, वह शर्मनाक तरीके से दूसरी शादी की इच्छा रखता है। पर एक पिता जो पहले तो क्रूर रवैया दिखाते हुए अपनी काफी कम उम्र की बेटी का किसी अधेड़ से शादी कराने के लिए तैयार हो जाता है, वह बाद में चलकर विधवा होने पर उसकी दोबारा शादी को पाप मानता है।’ विधवाअों के पुनर्विवाह की हिमायत समयसमय पर कई महत्वपूर्ण लोगों, विद्वानों, कलाकारों, लेखकों-कवियों ने की है। इस मुद्दे पर कई प्रेरक फिल्में भी बनी हैं। विभिन्न सामाजिक अभियानों के कारण भी विधवाअों के प्रति सम्मानजनक सलूक को लेकर एक आम सहमति बनती गई है। पर आज भी समाज में एेसे लोग हैं, जो विधवाअों की शादी को लेकर आपत्तिजनक राय रखते हैं और इसके लिए धार्मिक कुर्तकों की आड़ लेते हैं। यही वजह है कि आज भी स्थिति एेसी नहीं बन पा रही है कि विधवाअों की कोई सुने, उनके लिए आगे बढ़कर कुछ करे।

सुलभ की पहल

स्वच्छता और शिक्षा से जुड़े अपने कार्यों के साथ सुलभ इंटरनेशनल ने वर्ष 2012 से वृंदावन की विधवा माताअों के कल्याण के लिए कार्य करना शुरू किया है। पति की मृत्यु के बाद समाज द्वारा महिला को अवांक्षित और परित्यक्त की तरह देखने के पीछे असली वजह धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक है। एेसा सामाजिक रूढ़ता के कारण तो होता ही है, इसके पीछे एक बड़ी वजह परिवारों में सद्भाव की कमी भी है। नतीजतन, गरीबी और लाचारी में इन विधवा माताअों को पैसे के लिए घंटों सड़कों पर भीख मांगनी होती है। यहां तक कि महज चार-पांच रुपयों के लिए उन्हें घंटों भजन गाने पड़ते हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी को इस बात के निर्देश दिए कि वह सुलभ इंटरनेशनल से इस बात की जानकारी ले कि क्या वह वृंदावन के अलग-अलग आश्रमों में रह रहीं विधवा माताअों की मदद कर सकता है। सुलभ इसके बाद तत्काल सक्रिय हुआ और तब से अाज तक सुलभ के स्वयंसेवक इन विधवा माताअों की मदद करने में जुटा है। हम हर विधवा माता को 2000 रुपए की मासिक मदद के साथ उन्हें मेडिकल सहायता पहुंचा रहे हैं। उनकी जिंदगी की परेशानियां कम हों और वे सहज अनुभव करें, इसके लिए एंबुलेंस, टेलीविजन

खुला मंच

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और फ्रिज जैसी सुविधाएं भी मुहैया कराई गई हैं। उन्हें हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा तो सिखाई ही जा ही रही है, साथ ही आर्थिक स्वावलंबन के लिए माला-अगरबत्ती बनाने और सिलाई का भी प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इन विधवा माताअों को समाज की मुख्यधारा में शामिल कराने के लिए हम उनके साथ मिलकर होली, दशहरा और दिवाली जैसे त्योहार मनाते हैं। उन्हें दिल्ली और कोलकाता जैसे महानगरों की सैर पर भी हम ले जाते हैं। विधवा माताअों ने तब काफी प्रसन्नता का अनुभव किया, जब वे तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिलीं और उन्हें राखी बांधी। 15 अक्टूबर, 2016 को दिल्ली के मावलंकर हॉल में विधवा माताअों को प्रसिद्ध मॉडल्स के साथ कैटवॉक करने का मौका मिला। यह अवसर उनकी जिंदगी में नव-उत्साह से भरे अनुभव की तरह था। हम इसी तरह वाराणसी और देवली-भानीग्राम के आश्रमों में रह रही विधवा माताअों की सहायता कर रहे हैं। सुलभ ने उत्तरदायित्व के साथ सहायता का हाथ वर्ष 2013 की उत्तराखंड त्रासदी के पीड़ितों के लिए भी बढ़ाया है। 16 जून, 2013 को बाढ़ के साथ भू-स्खलन की जो महात्रासदी उत्तराखंड में आई, उसकी खबरें मैंने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार में पढ़ी। मैं यह जानकर मर्माहत हुआ कि इस त्रासदी में वहां देवली-भानीग्राम के 54 लोग गुम हो गए हैं। इस त्रासदी से वहां कई महिलाएं विधवा हो गईं। हमने तय किया कि उनकी मदद के लिए हम आगे आएंगे। हमने उनकी नियमित आर्थिक सहायता का तो प्रबंध किया ही साथ ही पीड़ित परिवारों के स्वावलंबन के लिए कई तरह के रोजगारोन्मुख प्रशिक्षण कार्यक्रमों की व्यवस्था की। हमने पीड़ित परिवारों के बच्चों की पढ़ाई के लिए भी विशेष व्यवस्था की। ये सारी सहायता देवलीभानीग्राम पंचायत के छह गांवों के 155 परिवारों के लिए मुहैया कराई गई। बाद में सुलभ ने अपने सहायता कार्यक्रम में 300 और परिवारों को जोड़ा। मैंने व्यक्तिगत और संस्थागत तौर पर विधवाअों को लेकर जो भी संभव हुआ है, उसे करने का हर संभव प्रयास किया है। नतीजतन, न सिर्फ कई विधवाअों के पुनर्विवाह हुए हैं, बल्कि उनकी जिंदगी भी बदली है। अच्छी बात यह है कि इस तरह की पहल के साथ मीडिया ने भी रचनात्मक सहयोग की भूमिका निभाई है। खासतौर पर ‘अमर उजाला’ अखबार ने इस मुद्दे पर अभियान छेड़कर सकारात्मक भूमिका निभाई है। अखबार की इस पहल से कई विधवाअों के पुनर्विवाह हुए। विधवा बहनों-माताअों की जिंदगी में छाए अंधेरे को दूर करने, उन्हें फिर से समाज में मुख्यधारा में शामिल करने के लिए ही सुलभ ने राजा राममोहन राय एंड पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर फाउंडेशन की स्थापना करने की पहल की। फाउंडेशन द्वारा विधवा माताअों कि जिंदगी को लेकर कार्यशाला का आयोजन का मकसद भी यही है कि इस दिशा में कुछ और नए प्रयास शुरू हों, उनके बीच आपसी समन्वय बने और नए सुझाव आएं कि कैसे इस दिशा में भविष्य और कारगर तरीके से आगे बढ़ा जा सकता है। (राजा राममोहन राय और पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर के योगदान पर 19 जनवरी को कोलकाता में एक दिवसीय कार्यशाला में डॉ. विन्देश्वर पाठक द्वारा दिए गए स्वागत भाषण का संपादित अंश)


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किताबों का महाकुंभ किताबें ज्ञान और विवेक का स्वर्ग रचती हैं। पुस्तक मेले की यात्रा कहीं न कहीं इस अक्षर स्वर्ग की यात्रा है फोटोः जयराम

फोटो फीचर

22 - 28 जनवरी 2018


22 - 28 जनवरी 2018

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राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के इस सालाना आयोजन में देश-विदेश का श्रेष्ठ साहित्य तो मौजूद था ही, लोग लेखन से जुड़े नए प्रयोगों से भी अवगत हो रहे थे

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पर्यावरण

22 - 28 जनवरी 2018

पर्यावरण संरक्षण से जुड़ा है लेखन कर्म डॉ. विन्देश्वर पाठक ने लेखन और पर्यावरण संरक्षण को साझा कर्म बताया

अयोध्या प्रसाद सिंह

ई दिल्ली के प्रगति मैदान में दिल्ली विश्व पुस्तक मेले के 45 वें संस्करण का आयोजन हुआ। इस मेले की खास बात यह थी कि इस बार पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखा गया था। पर्यावरण सरंक्षण को लेकर मेले में कई कार्यक्रम भी हुए। इसी के तहत आथर्स गिल्ड अॉफ इंडिया ने नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया के साथ मिलकर ‘पर्यावरण और लेखन पर वार्ता’ विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया। इस संगोष्ठी में कई बड़े लेखकों और कवियों ने हिस्सा लिया। इस मौके पर आथर्स गिल्ड अॉफ इंडिया के अध्यक्ष और सुलभ संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक और अन्य लेखकों का सम्मान भी किया गया। डॉ. पाठक को अशोक की लाट की प्रतिकृति और कलम भेंटकर सम्मानित किया गया। संगोष्ठी में आए सभी लेखक और पर्यावरण सरंक्षण से जुड़े लोग इस बात पर सहमत दिखे कि हम सभी को पर्यावरण के लिए लेखन के साथसाथ, खुद भी इसे बचाने के लिए व्यावहारिक पहल करनी होगी। सभी ने एक सुर में कहा कि यह बहुत जरूरी है कि हम सभी अपने घरों के अलावा जहां कहीं भी संभव हो, वहां सार्वजनिक स्थानों पर भी खूब पौधे लगाएं और पानी बचाने का भी प्रयास करें। इस अवसर पर कई पुस्तकों का भी लोकार्पण भी हुआ। जिन पुस्तकों का लोकार्पण हुआ, उनमें डॉ. हरिपाल शर्मा की ‘भाषा विमर्श’, डॉ. सुरेश शर्मा की तीन किताबें - ‘राग-विराग’, ‘शिक्षा के खिलहान’, ‘विक्रम और बैताल’, ‘धूप के पैकर’, डॉ. एस.एस. यादव की ‘अहसास से अल्फाज तक’, रमा वर्मा श्याम की ‘स्मृतियों के संदलीवन’, डा. आराधना भास्कर की ‘आगाज’, डा. ज्योति की ‘राजीव गांधी की विदेश नीति’ और डॉ. एस. एस. अवस्थी, डॉ. संदीप कुमार शर्मा, डॉ. रमण चौधरी की लिखी पुस्तक ‘पर्यावरण और राजनीति’ शामिल हैं। इस मौके पर आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और सुलभ संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखे गए एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए समाज में लेखक का महत्व समझाया। इस दिलचस्प प्रसंग का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि एक बार जब सूर्य अस्त हो रहा था तो उसने कहा कि मेरा कर्म अब कौन आगे ले जाएगा। मैं तो डूब रहा हूं, अब प्रकाश कौन फैलाएगा। इस पर एक मिट्टी का दीप कहता है कि मैं आपके कार्य को आगे ले जाऊंगा, मै छोटा सा दीप जलकर आपके प्रकाश को फैलाऊंगा और इसे आगे ले चलूंगा। डॉ. पाठक ने कहा कि इसी तरह लेखक भी समाज में बेहतर कार्यों के प्रकाश को आगे ले जाते हैं। लेखक साहित्य के माध्यम से आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहतर दुनिया बनाने की

खास बातें पुस्तक मेला में ‘पर्यावरण और लेखन पर वार्ता’ विषय पर संगोष्ठी आथर्स गिल्ड अॉफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. पाठक का प्रेरक संबोधन इस मौके पर कई पुस्तकों का लोकार्पण भी किया गया

कोशिश करता है। साहित्य के माध्यम से पर्यावरण का जितना प्रसार होगा, उतना बेहतर होगा। उन्होंने 5 तत्वों - आकाश, मिट्टी, जल, वायु और अग्नि का उल्लेख करते हुए कहा कि यही तत्व जीव का निर्माण करते हैं, इनके बिना दुनिया की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए इनका सरंक्षण करना बहुत जरूरी है। यदि हम इनको नहीं बचा पाए तो जीवन भी नहीं बचा पाएंगे। डॉ. पाठक ने सुलभ की शौचालय तकनीक का जिक्र करते हुए बताया कि किस तरह से इसके माध्यम से पर्यावरण को बचाने में अहम भूमिका निभाई जा रही है। उन्होंने कहा कि जिस सुलभ तकनीक से बने शौचालय का आविष्कार हमने किया, उससे खुले में शौच की प्रथा समाप्त हो रही है और वातावरण को प्रदूषित होने से बचाया जा रहा है। सुलभ शौचालय की तकनीक से जिस खाद का निर्माण होता है, उसका इस्तेमाल यदि आप खेतों में करते हैं तो मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ती है। ये खाद कृषि के लिए बहुत जरूरी है। उन्होंने बताया कि इस खाद में कोई बदबू नहीं होती और इसे आसानी से प्रयोग में लाया जा सकता है। शौचालय से जो पानी निकलता है, उसको भी साफ करके इस्तेमाल में लाया जा सकता है। इस पानी में भी नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम होता है। इस पानी को खेतों में भी प्रयोग में लाया जा सकता है। नदियों में छोड़ा जा सकता है क्योंकि इससे कोई प्रदूषण नहीं होगा। उन्होंने महाराष्ट्र में सुलभ इंटरनेशनल द्वारा बनवाए गए दुनिया के सबसे बड़े शौचालय ‘सुलभ शौचालय संकुल’ के बारे में भी बताया। इस शौचालय में 2858 सीट्स हैं। डॉ. पाठक ने बताया

कि उन्होंने प्रधानमंत्री पर कुल 10 गीत लिखे हैं। उन्होंने हाल ही में लिखे गीत ‘चलो-चलो मेरे साथ, उठाओ झाड़ू अपने हाथ, साफ करो गंदगी को साफ करो’ को गाकर सुनाया भी। डॉ. पाठक ने सभी लेखकों से आग्रह किया कि साहित्य में सैनिटेशन के ऊपर जितना हो सके उतना लिखें, जिससे कि लोगों को स्वच्छता की प्रेरणा मिल सके। इस तरह पर्यावरण को बचाने में अहम भूमिका निभाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि लेखों में शौचालय के इस्तेमाल से होने वाले फायदों पर जोर देना होगा तभी स्वच्छ भारत को अंगीकार किया जा सकता है। स्वच्छता के ऊपर पूरे देश में सेमिनार होते रहने चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि गांधी के बाद मोदी ही एक मात्र व्यक्ति हैं, जिन्होंने स्वच्छता को गले लगाया है। बनारस में उन्होंने अपने हाथ से शौचालय बनाया। इससे पता चलता है कि वह स्वच्छता को कितना महत्त्व देते हैं। हाल ही में नीति आयोग में सदस्य के तौर पर नामित हुए प्रख्यात साहित्यकार और पद्मश्री श्याम सिंह ‘शशि’ ने इस मौके पर कहा कि हमारे समाज में मनसा-वाचा-कर्मणा की स्थिति नहीं रही है। इसीलिए समाज में समस्याएं बढ़ गई हैं। उन्होंने कहा कि वह लेखक नहीं हो सकता, जिसे पर्यावरण से प्रेम न हो। भाषा संस्कृति का सबसे बड़ा अंग है। साहित्य को सबके लिए जरूरी बताते हुए उन्होंने कहा कि निराला जी कहते थे कि हर व्यक्ति को अपने जीवन में कम से कम 100 किताबें पढ़नी चाहिए। उन्होंने डॉ. पाठक की प्रशंसा करते हुए कहा कि समाज को बदलने में पाठक जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और एक उदहारण स्थापित किया

लेखक साहित्य के माध्यम से आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहतर दुनिया बनाने की कोशिश करता है। साहित्य के माध्यम से पर्यावरण का जितना प्रसार होगा, उतना बेहतर होगा - डॉ. विन्देश्वर पाठक

है। कृषि वैज्ञानिक और लेखक सोमदत्त दीक्षित ने इस मौके पर कहा कि वेदों में भी वर्णन है कि हमें सतत पौधरोपण पर ध्यान देना चाहिए। इस मौके पर डॉ. विनोद बब्बर ने धार्मिक रूप से पर्यावरण को समझाते हुए कहा कि इसके बिना जीवन का विनाश निश्चित है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि वृक्षों में मैं पीपल हूं। इसी से समझा जा सकता है कि पर्यावरण को बचाना कितना जरूरी है। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद में भी जल का वर्णन है। साहित्यकारों को संवेदना के साथ इस दिशा में काम करना होगा। डॉ. बी.एल.गौड़ ने पर्यावरण को बचाने के लिए खुद की पहल का जिक्र करते हुए बताया कि उन्होंने अपने फार्म हाउस में करीब 200 पेड़ लगवाए हैं। साथ ही उन्होंने छतों पर भी गमले के माध्यम से पौधे लगाने का आग्रह किया। उन्होंने बताया कि उनके एक पड़ोसी के यहां 17 फूट ऊँचा नीम का पेड़ चाट पर लगा हुआ है, जिसे देख कर नित्य ख़ुशी मिलती है। डॉ. हरिपाल सिंह ने कालिदास के मशहूर काव्य ‘मेघदूत’ के प्रसंग का उल्लेख करते हुए पर्यावरण की जरूरत पर प्रकाश डाला। उन्होंने वैज्ञानिक और औद्योगिक दृष्टि से पर्यावरण के क्षरण और उसकी जरूरत को रेखांकित किया। डॉ. सिंह ने बताया कि पश्चिम में हुई औद्योगिक क्रांति के बाद पर्यावरण को बचाने की जरूरत महसूस हुई। आगरा से आईं आथर्स गिल्ड आफ इंडिया की सदस्य नूतन अग्रवाल ने सबसे आग्रह किया कि पर्यावरण सरंक्षण के लिए लिखने के साथ-साथ हमें खुद से शुरुआत भी करनी होगी और इसके लिए जरूरी है की लेखक अपनी हर किताब के साथ एक पौधा लगाए। आगरा से ही आए अन्य सदस्य डॉ. नीरज ने कहा कि पर्यावरण को सिर्फ वनस्पति न समझा जाए, बल्कि यह इस धरती पर हर परेशानी का इलाज है। डॉ. रजनी सिंह ने बताया कि पर्यावरण के बिगड़ने से खराब हुई स्थिति में प्रदूषण की वजह से हर साल 6 लाख 20 हजार लोगों की मौत हो रही है। उन्होंने इस अवसर पर कविताएं पढ़कर पर्यावरण का मार्मिक जिक्र किया।


22 - 28 जनवरी 2018

कार्यशाला

विधवा माताअों की जिंदगी बदलने में जुटा सुलभ

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राजा राममोहन राय और पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर के योगदान पर कोलकाता में एक दिवसीय कार्यशाला का आयोजन है। डॉ. पाठक ने कहा कि गांधी जी ने एक सपना देखा था, उसे पूरा करने का कार्य हमने किया। हमने मैला ढोने वाली बहनों को पंडित बना दिया। आज वह समाज की मुख्यधारा से जुड़ गई हैं। वह अचार, पापड़, मालाएं आदि बनाकर उन्हीं घरों में बेचती हैं, जिन घरों में वह कभी मैला साफ करने जाती थीं। हमने विचार किया है कि जब हम गांधी जी के सपने को पूरा कर सकते हैं तो राजा राममोहन राय के सपने को भी पूरा करेंगे। हमने पिछले वर्ष उत्तराखंड की कुछ विधवा महिलाओं का विवाह करवाया। डॉ. पाठक ने कहा कि हमें समाज में फैली कुप्रथाओं को बदलने की आवश्यकता है। इसके लिए हमें अपने पूर्वजों के कार्यों और उनके पदचिन्हों को आत्मसात करना होगा। इस कार्यशाला पर अपने विचार साझा करने के लिए सम्मानित अतिथि के रूप में पंडित ईश्वर चंद्र

प्रियंका तिवारी

ज हम प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं। इसके बावजूद आज भी समाज मंे महिलाओं के प्रति लोगों का नजरिया निंदनीय ही है। जब तक हमारा नजरिया नहीं बदलेगा तब तक समाज में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। ये बातें पश्चिम बंगाल की महिला एवं बाल विकास मंत्री शशि पांजा ने विशेष रूप से विधवा माताओं के सशक्तिकरण और मुक्ति के लिए राजा राममोहन राय और पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर के योगदान पर कोलकाता में आयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में कहीं। कार्यशाला का आयोजन कोलकाता के ओबेराय ग्रैंड होटल में राजा राममोहन राय एंड पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर फाउंडेशन, नई दिल्ली द्वारा किया गया। इस कार्यक्रम में राज्य के नागरिक स्वास्थ्य, अभियांत्रिकी, पंचायत और ग्रामीण विकास मंत्री सब्रतो मुखर्जी, महिला एवं बाल विकास मंत्री शशि पांजा, कैंब्रिज विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. निलाद्र‌ि बनर्जी, वरिष्ठ पत्रकार आरती धर, दक्षिणेश्वर रामकृष्ण संघ, आद्यापीठ, कोलकाता के महामंत्री ब्रह्मचारी मुराल भाई तथा राजा राममोहन राय और पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर फाउंडेशन की अध्यक्ष विनीता वर्मा मौजूद थीं। कार्यक्रम में उपस्थित सभी अतिथियों का स्वागत सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक ने किया। इस मौके पर शशि पांजा ने कहा कि विधवाअों को लेकर आरती धर के लेख ने सभी के हृदय

को झकझोर दिया था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट को संज्ञान लेना पड़ा। विधवा को दूसरी शादी करने का अधिकार नहीं है, यह मानसिकता हमें बदलनी होगी। इसके साथ ही कन्या भ्रूण हत्या पर भी हमें अपनी सोच बदलनी चाहिए। उन्होंने कहा कि डॉ. पाठक ने राजा राममोहन राय और पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर के सपने को साकार करने का जो बीड़ा उठाया है, इसके लिए हम सब उनके आभारी हैं। इस कार्य के लिए हमारी तरफ से उनका पूरा सहयोग रहेगा। इस मौके पर सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक ने कहा कि हमारे लिए यह ऐतिहासिक क्षण है, जब हम राजा राममोहन राय और पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर द्वारा समाज और महिलाओं के लिए किए गए योगदान का स्मरण कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि साहित्य में सृजन की शक्ति होती है और विध्वंस की भी। ‘द हिंदू’ अंग्रेजी दैनकि में वृंदावन की विधवा माताओं की रिपोर्ट छपने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लिया और हमें पत्र लिखकर इन विधवा माताओं की सेवा करने का अवसर प्रदान किया। आज ये माताएं दिवाली-दशहरा जैसे त्योहार साथ-साथ मनाती हैं। हमारे समाज में विधवाओं को रंग छूना मना है। हमने इस प्रथा को बदल कर उनके साथ होली खेली। उत्तराखंड में वर्ष 2013 में हुई त्रासदी में कई गांव तबाह हो गए। हम उन परिवारों को आज भी आर्थिक सहायता देते हैं। हम राजा राममोहन राय और पंडित ईश्वरचंद विद्यासागर के सपने को पूरा करने के लिए अपना पूरा योगदान देंगे। इसके लिए हमें आप सब के साथ की आवश्यकता

‘द हिंदू’ अखबार में वृंदावन की विधवा माताओं की रिपोर्ट छपने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक्शन लिया और हमें पत्र लिखकर इन विधवा माताओं की सेवा करने का अवसर प्रदान किया – डॉ. विन्देश्वर पाठक

कार्यों की सराहना की। उन्होंने कहा कि समाज को बदलने का जो कार्य डॉ. पाठक ने किया है, उससे देश और समाज को एक नई दिशा मिली है। हम लोगों को भी इस तरह के सामाजिक आंदोलन को बढ़ावा देना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार आरती धर ने कहा कि अगस्त 2011 में मैं एक एनजीओ की स्टोरी करने के लिए पहली बार वृंदावन गई थी। वहां मुझे विधवा माताओं की दशा देखने के बाद लगा कि मुझे यह स्टोरी करनी चाहिए और हमने उस स्टोरी को सिर्फ महिलाओं की दशा सुधारने की तरफ सभी का ध्यान खींचने के लिए लिखी थी। हमने यह नहीं सोचा था कि सुप्रीम कोर्ट उसका संज्ञान लेगा और इतना बड़ा परिवर्तन हो जाएगा। इसके लिए मैं डॉ. पाठक और उनकी टीम का अभिनंदन करती हूं। समाज में ऐसे बदलाव के लिए हम सभी को अपना योगदान देना चाहिए।

सुंदरवन का विलाप!

सुंदरवन में बाघों द्वारा पुरुषों की हत्या से विधवा हुई महिलाअों के लिए पश्चिम बंगाल सरकार के साथ मिलकर कार्य कर रहा सुलभ

में बाघों द्वारा पुरुषों की हत्या कर सुं दरवन दिए जाने के बाद विधवा हो चुकी माताओं-

बहनों की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार ने सुलभ इंटरनेशनल के साथ हाथ मिलाया है। पश्चिम बंगाल सरकार और सुलभ ने मिलकर इन माताओं-बहनों के लिए कार्य कर रहे हैं। इस बारे में जो रिपोर्ट्स आई हैं उनके

विद्यासागर के वंशज डॉ. निलाद्री बनर्जी मौजूद थे। डॉ. निलाद्री कैंब्रिज विश्वविद्याल के लेक्चरर तो हैं ही, साथ ही प्रतिष्ठित प्रेस्टीगियस प्रेसीडेंसी कॉलेज कोलकाता के पूर्व छात्र हैं। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर के लाख प्रयासों के बावजूद महिलाअों की स्थिति आज भी नहीं सुधरी है। समाज में महिला शिक्षा के क्षेत्र में बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है, नहीं तो महिला अस्मिता को खंडित करने वाली रूढ़ियां समाज में जड़ जमाए रहेंगी। इस अवसर पर सुब्रतो मुखर्जी ने डॉ. पाठक के

मुताबिक, पिछले कुछ वर्षों में सुंदरवन में 1000 से ज्यादा पुरुष बाघों द्वारा मारे गए हैं। जब वे अपने घरों में शौचालय नहीं होने की वजह से और लकड़ी व शहद इकट्ठा करने के लिए घने मैंग्रोव वन में जाते हैं तो वन में रहने वाले बाघ उन्हें अपना शिकार बना लेते हैं। इन पुरुषों की असहाय विधवा पत्नियों को सास द्वारा ‘स्वामीखेको’ (पति खाने वाली औरत) के रूप में कलंकित किया जाता है। सुंदरवन, भारत और बांग्लादेश के बीच स्थित दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव वन हैं। यहां बड़ी संख्या में विधवा माताएं और बहनें रहती हैं। इस कार्यशाला में सुंदरवन की 12 विधवा महिलाएं शामिल हुई। इसके साथ ही पश्चिम बंगाल के नवाद्वीप और उत्तर प्रदेश के वृंदावन व वाराणसी से भी आईं विधवा माताएं इस कार्यशाला में मौजूद रहीं। विनीता वर्मा ने कहा कि राजा राम मोहन राय और पंडित ईश्वरचंद विद्यासागर एक सच्चे समाज सुधारक थे। उन्होंने पश्चिम बंगाल में महिला उत्थान के लिए कई सराहनीय कार्य किए। पंडित ईश्वरचंद विद्यासागर नारी शिक्षा के समर्थक थे, उनके प्रयास से ही कलकत्ता और दूसरी जगहों पर बालिका विद्यालयों की स्थापना हुई। इतना ही नहीं उन्होंने विधवा के पुनर्विवाह के लिए व्यापक लोक सहमति तैयार की है। उन्हीं के प्रयासों से 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून पारित हुआ। उन्होंने डॉ. पाठक के कार्यों की भी सराहना की।


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साइंस एंड टेक्नोलॉजी

22 - 28 जनवरी 2018

सीईएस 2018 में नवीनतम प्रौद्योगिकी की झलक सीईएस-2018 में आगंतुकों को नए युग की प्रौद्योगिकी से हमारे जीवन के हर पहलू पर पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी मिली

खास बातें सीईएस-2018 प्रदर्शनी में एआई के गुणात्मक पहलू का प्रदर्शन

हरदेव सनोत्रा

ह भविष्य के प्रौद्योगिकी-जगत की झलक थी, जिसमें प्रौद्योगिकी को अंगीकार करने वाले लोगों के जीवन में आने वाले व्यापक बदलाव को दर्शाया गया था। इसमें कई स्थापित मान्यताओं को भी बदलने के वादे किए गए। दुनिया के सबसे बड़े कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स शो (सीईएस)- 2018 का समापन हो गया। लेकिन इसके समापन से पहले शो में आगंतुकों को नए युग की प्रौद्योगिकी से हमारे जीवन के हर पहलू पर पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी मिली। सीईएस-2018 की प्रदर्शनी में कृत्रिम बुद्धि (एआई) के गुणात्मक पहलू को प्रदर्शित करते हुए यह दिखाया गया कि इसका इस्तेमाल खेती से लेकर सागरों में राहत व बचाव कार्य में भी किया जा सकता है। इस मौके पर इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आईओटी) यानी इंटरनेट से संबंधित डिवाइस, आभासी वास्तविकता (एआर), संवर्धित वास्तविकता (एआर), रोबॉटिक्स, 5जी टेक्नोलोजी, स्मार्ट सिटी और डिजिटल हेल्थ से जुड़ी सैकड़ों बड़ी व छोटी कंपनियां पहुंची थीं, जिनके बीच अपने उत्पादों को लेकर प्रतिस्पर्धा है। नई प्रौद्योगिकी में ताइवान का एक मिनिएचर 360 डिग्री कैमरा है, जो मोबाइल फोन में आ सकता है। इससे 180 डिग्री विजन के दो लेंसों से वीडियो लेकर उसे एक साथ जोड़कर आभासी वास्तविक (वीआर) दृश्य या दूसरे उपयोग में लाया जा सकता है। यही नहीं, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के

पैरोकार भी प्रौद्योगिकी की इस गाड़ी में सवार थे और ऐक्यूपंक्चर जैसी चीनी उपचार विधि पर आधारित स्वास्थ्य संबंधी प्रौद्योगिकी की पेशकश कर रहे थे। अब उसके क्या फायदे होंगे इसपर भले ही सवाल उठाए जाएं, मगर सीईएस में वो मौजूद थे। इस प्रकार, एआर और वीआर कंपनियों के कई स्टॉल लगे थे, जिन पर ज्यादा से ज्यादा चुनौती भरे गेम्स के जरिए युवा पीढ़ी का मनोरंजन, मनबहलाव हो रहा था और उनकी जानकारी भी बढ़ाई जा रही थी। बिंबों में आभासी दुनिया और वास्तविक दुनिया के बीच अंतर नहीं। यह सब पिछले साल की तुलना बेहतर प्रतीत हुआ। रोबोटिक्स में महज मिलिमीटर लंबी व चौड़ी छोटी-छोटी स्वतंत्र मशीन से लेकर विशाल मानव मशीनें थीं, जो असली मानव के साथ पिंग-पांग (टेबल टेनिस) खेल सकता था। संवदेना महसूस करने की क्षमता वाले रोबोट ऐसे थे जो कागज का पतला टुकड़ा लेकर पालतू कुत्ते को देता था। कई कंपनियों का लक्ष्य घरों में बच्चे पढ़ाने वाले व उनका मनोरंजन करने वाले रोबोट विकसित करना है ताकि व्यस्त रहने वाले माता-पिता को एक विकल्प मिल जाएगा। उनका कहना था कि मशीन कभी मानव की जगह नहीं ले सकती, बल्कि यह उनके जीवन-स्तर को बेहतर बनाती है। नासा की ओर से नवीनतम ड्रोन पेश किया गया। इसी प्रकार दर्जनों अन्य तकनीकी संस्थाएं भी वहां पहुंची थीं। दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में निगरानी से लेकर आपदा प्रभावित क्षेत्र में राहत व बचाव कार्य में ड्रोन की उपादेयता से आगंतुक अभिभूत नजर आए। जापान की कंपनी यामाहा ने एक ऐसा ड्रोन

यामाहा ने एक ऐसा ड्रोन विकसित किया है जिससे सैकड़ों एकड़ भूमि पर दवाओं का छिड़काव किया जा सकता है

अब मिनिएचर 360 डिग्री कैमरा मोबाइल फोन में आ सकता है रोबोटिक्स के क्षेत्र में भी कई आधुनिकतम तकनीक का प्रदर्शन विकसित किया है, जिससे सैकड़ों एकड़ भूमि पर दवाओं का छिड़काव किया जा सकता है। इस तरह, मानव पर पड़ने वाले रसायन के खतरनाक प्रभावों से भी बचा जा सकता है। फोटोग्राफी और पिंट्रिंग क्षेत्र में विशेष दखल रखने वाली कंपनी कोटक 3डी प्रिंटिंग में प्रवेश कर चुकी है, जिसमें ब्लॉक बनाने के प्लास्टिक व अन्य कच्चे पदार्थों से फिजिकल मटीरियल बनाया जाता है। स्वाचालित वाहनों की वहां भरमार थी, जो आने वाले दिनों में सड़कों पर उतरने वाले हैं। ये वाहन सुरक्षित व तीव्रगामी यात्रा करवाने वाले हैं। साथ ही, इनमें मानव का हस्तक्षेप बहुत कम रखा गया है। प्रदर्शनी में 3,900 से ज्यादा कंपनियों के स्टॉल लगाए गए थे। इसीलिए किसी एक व्यक्ति के लिए सब कुछ देखना असंभव था, लेकिन 27.5 वर्ग फुट क्षेत्र में फैली इस प्रदर्शनी में सबके लिए कुछ न कुछ जरूर था। इसी प्रकार, स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप व पर्सनल कंप्यूटर कंपनियां भी अपने नए उत्पाद लेकर यहां पहुंची थीं। सीईएस के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट करेन चुपका ने कहा, ‘सारे बड़े उद्योग अब प्रौद्योगिकी से जुड़ गए हैं। हमारे कार्यक्रम से मनोरंजन जगत से लेकर मार्केटिंग, खेल, स्वास्थ्य सेवा, ऑटोमोबाइल और लाइफस्टाइल जैसे विविध उद्योगों के बड़े वैश्विक ब्रांड और नवाचार से जुड़े नवागुंतक लोग आकर्षित हुए हैं।’ अगले साल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ज्यादा उन्नति व विस्तार के वादों के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ।

सबके पास होगा स्मार्टफोन नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अमिताभ कांत की तार्किक भविष्यवाणी

गले पांच सालों में हरेक भारतीय के पास स्मार्टफोन होगा। नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अमिताभ कांत ने ये बातें कहीं। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आईएएमएआई) द्वारा आयोजित इंडिया डिजिटल समिट में कांत ने कहा कि देश में करीब 40 लाख स्मार्टफोन यूजर्स हैं। उन्होंने कहा कि यह देश में प्रौद्योगिकी में भारी बदलाव का दौर है। उन्होंने कहा, ‘अभी भी 85 फीसदी डिवाइसें कनेक्टेड नहीं है। इसलिए इंटरनेट ऑफ थिंग्स (आईओटी) में वृहद अवसर है। यह अवसर साल 2025 तक 70 अरब डॉलर के रेंज में होगी।’ उनके मुताबिक, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) में अकेले 32 अरब डॉलर के अवसर पैदा करने की क्षमता है। कांत ने कहा, ‘उन्नत रोबोटिक्स पहले से ही 25 फीसदी नौकरियों का प्रबंधन कर रहे हैं। यह आनेवाले सालों में बढ़कर 45 फीसदी हो जाएगी।’ उनके मुताबिक, भारत पहले ही मासिक आधार पर दुनिया में सबसे अधिक सक्रिय इंटरनेट यूजर्स का देश है। अगले दस सालों में डिजिटल लेनदेन बढ़कर 1,00,000 करोड़ डॉलर तक पहुंच जाएगी। फिनटेक क्षेत्र में करीब 600 स्टार्ट अप हैं, जिनके पास साल 2020 तक 14 अरब डॉलर मूल्य के अवसर उपलब्ध होंगे। कांत ने कहा, "जहां तक स्टार्टअप का सवाल है, ‘मेक इन इंडिया’ ने वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र में एक आदर्श बदलाव लाया है। अभी 4,000 स्टार्टअप्स हैं, जिनकी संख्या साल 2020 तक बढ़कर 12,000 हो जाएगी। कांत ने कहा कि देश की वर्तमान चुनौतियों में सुरक्षित पीने का पानी, अवसंरचनाओं और फ्लाईओवरों का निर्माण शामिल है। इन सबमें निवेश और अन्वेषण का अनूठा अवसर है। (एजेंसी)


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साइंस एंड टेक्नोलॉजी

22 - 28 जनवरी 2018

क्लाउड से कारोबार को बल

खास बातें गूगल क्लाउड में एशिया प्रशांत क्षेत्र के देश शामिल

गूगल ने देश में गूगल क्लाउड प्लेटफार्म (जीसीपी) के क्षेत्रीय संस्करण को पेश किया है ताकि ज्यादा से ज्यादा स्थानीय कंपनियों को इससे जोड़ा जा सके

नई तकनीक से हाइक की लागत में बचत भारत में 5 करोड़ से ज्यादा छोटे और मझोले उद्योग हैं

निशांत अरोड़ा

ई भारतीय कंपनियां पिछले कुछ सालों से अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए गूगल क्लाउड का सहारा ले रही हैं। गूगल ने देश में गूगल क्लाउड प्लेटफार्म (जीसीपी) के क्षेत्रीय संस्करण को पेश किया है, ताकि ज्यादा से ज्यादा स्थानीय कंपनियों को इससे जोड़ा जा सके। इस क्लाउड का क्षेत्र मुंबई है, जो गूगल के मूल अवसंरचना, डेटा एनालिटिक्स और मशीन लर्निंग के प्रयोग से कई सेवाएं उपलब्ध कराएगी, जिसमें कंप्यूट, बिग डेटा, स्टोरेज और नेटवर्किंग शामिल हैं। गूगल क्लाउड के कंट्री मैनेजर (इंडिया) मोहित

पांडे ने बताया, ‘गूगल क्लाउड रीजन को लांच करने के बाद कई नए सहयोगियों के लिए नए अवसर खुले हैं, जिससे उन्हें गूगल क्लाउड पर अपनी सेवाओं के निर्माण का लाभ मिलेगा।’ बात जब क्लाउड को अपनाने की आती है तो गूगल इंडिया इसे भारत में काफी आक्रामक तरीके से

बढ़ावा दे रही है। देश का पहला स्वदेशी मैसेजिंग प्लेटफार्म हाइक मैसेंजर ने अपना समूचा मैसेजिंग एप्लिकेशन और नेटवर्क के साथ ही अपने फ्रंटएंड ट्रैफिक को गूगल क्लाउड पर स्थानांतरित कर लिया है। गूगल क्लाउड पर स्थानांतरण से हाइक की लागत में 25-30 फीसदी की बचत हुआ तथा उसके प्लेटफार्म पर यूजर अनुभव भी बेहतर हुआ। बड़ी कंपनियां और उभरते हुए कारोबार, जैसे अशोक लेलैंड, कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कॉरपोरेशन (सीईएससी), दैनिक भास्कर कॉर्प, रिलायंस एंटरटेनमेंट-डिजिटल, डालमिया सीमेंट,

देश का पहला स्वदेशी मैसेजिंग प्लेटफार्म हाइक मैसेंजर ने अपना समूचा मैसेजिंग एप्लिकेशन और नेटवर्क के साथ ही अपने फ्रंट-एंड ट्रैफिक को गूगल क्लाउड पर स्थानांतरित कर लिया है

डीटीडीसी, टाटा स्काई और वॉलनट ने अपने तकनीकी प्लेटफार्म के रूप में गूगल क्लाउड का चयन किया है। पांडे ने कहा, ‘नया जीसीपी रीजन ज्यादा ग्राहकों को अपना एप्लिकेशन तैयार करने तथा अपने डेटा स्टोर करने तथा महत्वपूर्ण रूप से ग्राहकों और क्षेत्र के एंड यूजर्स के लिए लेटेंसी (एप शुरू होने में लगने वाला समय) को बेहतर करने में मदद करेगा।’ गूगल क्लाउड के मुंबई रीजन में एशिया प्रशांत क्षेत्र के सिंगापुर, ताइवान, सिडनी और टोक्यो शामिल हैं, जो इसे ग्राहकों के लिए उनके भौगोलिक क्षेत्रों में संसाधनों का उपयोग करते हुए अत्यधिक उपलब्ध होगा और उनके लिए परफॉरमेंट एप्लिकेशन का निर्माण आसान हो जाता है। भारत में 5 करोड़ से ज्यादा एसएमबी (छोटे और मझोले उद्योग) हैं, जो इसे दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बनाती है। पांडे ने कहा, ‘हमारे पास अनुभवी उद्यमी और डेवलपर विशेषज्ञ हैं, जो स्टार्ट-अप्स, एसएमबी और बड़े उद्यमों की जरूरतों को समझते हुए उसी अनुरूप समाधान प्रदान करते हैं।’

सोशल मीडिया की लत छुड़ाने के गीत इस गीत के साथ मैं युवाओं तक पहुंचना चाहती हूं जो खतरनाक स्तर पर सोशल मीडिया के आदी हो चुके हैं – शिवानी कश्यप

‘स

जना’ की चर्चित गायिका शिवानी कश्यप ने नया गीत ‘वानाबे फ्री’ जारी किया है। इसका उद्देश्य लोगों की सोशल मीडिया की लत छुड़ाना है। कश्यप द्वारा रचित गीत के बोल रश्मी वीराज ने लिखे हैं। यह गीत जनवरी के अंत तक जी म्यूजिक लेबल के तहत रिलीज होगा। कश्यप ने कहा, ‘इस गीत के साथ मैं युवाओं तक पहुंचना चाहती हूं, जो खतरनाक स्तर पर सोशल मीडिया के आदी हो चुके हैं। आशा है कि यह लोगों को अपना तरीका बदलने और अपने दोस्तों और परिवार के प्रति अधिक जिम्मेदार बनने के लिए

प्रभावित करेगा।’ जिस तरह से दुनिया बदल रही है, जिसमें लोगों के सोशल मीडिया स्टेट्स के आधार पर मानवीय भावनाओं का मूल्यांकन किया जा रहा है, कॉफी का मजा उठाते हुए बातचीत करने के स्थान पर वीडिया कॉल का चलन शुरू हो गया है और रिश्ते लिखित बातचीत पर आधारित होने लगे हैं, ऐसी स्थिति में कश्यप को उम्मीद है कि यह गाना लोगों को मानवीय स्नेह और भावनाओं का महत्व महसूस कराने में मदद करेगा। (आईएएनएस)


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विविध

22 - 28 जनवरी 2018

इसीलिए गंगाजल है स्वच्छ

गंगा का पानी कभी खराब नहीं होता, आखिर क्या है इसका कारण? वैज्ञानिकों ने गंगाजल की शुद्धता पर एक शोध किया है। आइए जानते हैं उस शोध के बारे

इस्त्री करने वाली मशीन

कपड़ों पर इस्त्री करना अब बहुत आसान हो गया है, क्योंकि ऐसी फ्यूचर मशीन आ गई है जो आपके कपड़ों की स‌िलवटें हटा देंगी

लो

ग कहते हैं कि गंगाजल का पानी कभी खराब नहीं होता और न ही इसमें कभी किसी किस्म के किटाणु पनपते हैं। लेकिन हम लोगों ने गंगा मैया पर जमकर जुल्म किए हैं। कभी इसमें नालों का पानी छोड़ा तो कभी कचरा। लेकिन गंगा का पानी तब भी शुद्ध रहा। क्या आप जानना नहीं चाहेंगे कि आखिर कैसे हुआ ये चमत्कार..? एक रिसर्च में सामने आई है कि गंगा के पानी के कभी न खराब होने की पीछे की वजह एक वायरस है। जी हां, वैज्ञानिकों का मत है कि गंगा के पानी में एक वायरस पाया जाता है जो इसके पानी को निर्मल रखता है। इसके चलते पानी में कभी सड़न पैदा नहीं होती। गंगाजल को अगर कई दिनों तक स्टोर करके भी रखा जाए तो भी इससे आपको बदबू नहीं आएगी। दरअसल इसके लिए आपको इतिहास के पन्ने

पलटकर देखने होंगे। बताया जाता है कि 1890 में एक ब्रिटिश साइंटिस्ट अर्नेस्ट हैंकिन गंगा के पानी पर रिसर्च कर रहे थे। उस समय हैजा फैला हुआ था। लोग मरने वालों की लाशें गंगा में फेंक कर चले जाया करते थे। हैंकिन को यह डर था कि गंगा में नहाने वाले लोग भी कहीं हैजा पीड़ित न हो जाएं। लेकिन जब हैंकिन ने पानी पर रिसर्च की तो वे हैरान थे। क्योंकि पानी बिल्कुल शुद्ध था। जबकि उन्हें ये डर था कि कहीं लोग गंगा का पानी पीने या उसमें नहाने से बीमार न पड़ जाएं। हैंकिन को ये समझ आ गया कि गंगा का पानी जादुई है। लेकिन के इस रिसर्च को 20 साल के एक फ्रैंच साइंटिस्ट ने आगे बढ़ाया। इन्होंने अपनी रिसर्च में पाया कि गंगा के पानी में पाए जाने वाले वायरस बैक्टीरिया में घुसकर उन्हें खत्म कर देते हैं। गंगा के निर्मल जल में पाया जाने वाला ये वायरस इस कारण 'निंजा

वायरस' कहलाता है। नए वैज्ञानिकों ने इस वायरस को यह नाम दिया है। इसी वजह से गंगा के पानी की शुद्धता भी बरकरार रहती है। यदि ऐसा है तो गंगाजल में पाया जाने वाला ये वायरस कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों को भी ठीक करने में काम आ सकता है। फिलहाल वैज्ञानिक इस पर भी काम कर रहे हैं। ज्ञात हो आज से कई बरस पूर्व एंटीबॉयोटिक इजाद की गई थी। इसे मेडिकल दुनिया का सबसे बड़ा वरदान माना गया था। आगे चलकर इन्हीं की मदद से डॉक्टर ने मरीजों की जान बचाई। लेकिन एक रिपोर्ट ये बताती है कि 2050 तक इंसानों में एंटी बॉयोटिक काम करना बंद कर देगी। सिर्फ इस वजह से दुनियाभर में करीब एक करोड़ लोग मौत के मुंह में चले जाएंगे। ऐसे में आने वाले वक्त के लिए अभी से तैयारी करने की जरूरत है। (एजेंसी)

हुत सारे काम ऐसे होते है जो होते तो काफी आसान से, लेकिन उन्हें करने से हर कोई कतराता है। ऐसे कामों में से ही एक है कपड़ों पर इस्त्री करना। देखने में तो ये बहुत सरल लगता है, लेकिन जब एक-एक सिलवट को सही करना होता है तो बहुत सारी उलझनें होने लगती हैं। अगर आप भी कपड़ों को प्रेस करने से परेशान हो तो आपकी यह परेशानी जल्द ही दूर हो जाएगी। इन दिनों सोशल मीडिया पर एक मशीन की वीडियो वायरल हो रहा है। इस वीडियो में आप देखेंगे कैसे देखते ही देखते आपके कपड़े एकदम परफेक्ट तरीके से प्रेस होकर मशीन से बाहर आ रहे हैं। वीडियो को देखकर ही आपको इतनी खुशी महसूस होगी की कैसे आपका कपड़ों पर इस्त्री करने का काम ये मशीन चंद मिनटों में अच्छे से निपटा रही है और आपके दिमाग में एक बार तो जरूर यह बात आएगी कि काश मेरे पास भी ऐसी मशीन हो। अगर ऐसा है तो आपकी यह इच्छा जरूर पूरी होगी। (एजेंसी)

सल्फास खाने से अब नहीं होगी मौत

कीटनाशक दवा सल्फास का तीखा जहर किसी आदमी की मौत का कारण बन जाता था, इसे रोकने के लिए सरकार ने सल्फास में ऐसे बदलाव किए हैं जिसे खाने से किसी की मौत नहीं होगी

नाज संरक्षण के लिए कीटनाशक के तौर पर प्रयोग करने वाला सल्फास मौत का पर्याय बन गया था। कोई गलती से भी इसे निगल जाए तो मौत निश्चित थी। लेकिन अब सल्फास खाने से जान नहीं जाएगी।दपहली जनवरी से सल्फास नए रूप में बाजार में उपलब्ध है। सल्फास के असर में भी बदलाव आया है। इससे अनाज के कीट तो मरेंगे, लेकिन आदमी की जान नहीं जाएगी। लगातार होने वाली मौतों के चलते स्वास्थ्य विभाग की सिफारिश

पर कृषि उर्वरक व रसायन मंत्रालय ने इसको सुरक्षित बना दिया है। सल्फास अनाज को कीटों से बचाने के लिए भंडारण में प्रयोग होने वाला कीटनाशक है। इसकी तीव्रता के चलते खाने के कुछ ही देर में व्यक्ति की मौत हो जाती थी। पेट में पहुंचने पर जीवन बचना संभव नहीं था। ऐसे में स्वास्थ्य विभाग ने इस घातक रसायन को सुरक्षित करने की सिफारिश की थी। पांच साल पहले इसकी टेबलेट को बड़ा बनाया

गया, जिससे निगलना संभव न हो, उसके बाद पैकिंग को ऐसा बनाया गया, जिसे अकेला व्यक्ति न खोल पाए। इसके बावजूद सल्फास से होने वाली मौतें जारी रहीं। कृषि उर्वरक एवं रसायन मंत्रालय के निर्देश पर अब सल्फास नए रूप में बाजार में आया है। इसकी टेबलेट पैकिंग बंद कर दी गई है। यह पाउच में दानेदार बनाया गया है। तीव्रता कम कर दी गई है। डिप्टी डायरेक्टर प्लांट प्रोटेक्शन (लाइसेंस अथारटी) सीएल यादव ने बताया कि पाउच खोलते ही इसका रसायन हवा में घुलने लगेगा। पानी के संपर्क में आने से यह निष्क्रिय होना शुरू हो जाएगा। ऐसे में किसी के खा लेने पर असर काफी कम होगा। इसमें उल्टी कराने वाला रसायन मिलाया गया

है। जिससे खाने वाले को तत्काल उल्टियां शुरू हो जाएगी। इससे व्यक्ति को पेट दर्द और बेचैनी होगी, लेकिन मौत नहीं होगी। टेबलेट आंतों में पड़ी धीरे-धीरे घुलती थी। उसे निकालना आसान नहीं था। जबकि दानेदार होने के चलते यह उल्टी के साथ निकल जाएगा। इससे आंतों में घाव होगा पर वह फटेंगी नहीं। नया सल्फास कीटों को मारेगा, लेकिन लोगों के लिए जानलेवा नहीं रहेगा। नए सल्फास के पैकेट में इसके असर को खत्म करने की विधि भी लिखी है। पोटेशियम परमैगनेट के घोल के साथ पेट की धुलाई करने पर इसका असर खत्म हो जाएगा। फिलहाल अभी भी इसके पाउच पर जहर लिखकर आम लोगों को चेताया गया है। (एजेंसी)


22 - 28 जनवरी 2018

कही अनकही

अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों

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देशभक्ति की भावना से भरी चेतन आनंद की कालजयी फिल्म ‘हकीकत’ के निर्माण का इतिहास खासा दिलचस्प है

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एसएसबी ब्यूरो

64 में रिलीज हुई फिल्म ‘हकीकत’। यह देशभक्ति की भावना से भरी एक महान फिल्म तो थी ही, यह भारतीय फिल्म‍ इतिहास की पहली युद्ध विषय फिल्म भी थी। इस फिल्म ने रिलीज होने के बाद भारतीय सिनेमा की तस्वी‍र बदल गई।

अलबत्ता फिल्म निर्माता चेतन आनंद के लिए इस फिल्म को बनाने का सफर आसान नहीं रहा। चेतन आनंद देशभक्ति के साथ एक युद्ध विषय फिल्म बनाना चाहते थे। उस समय हिंदी सिनेमा में चॉकलेटी प्रेम कहानियों को बोलबाला था। किसी नए साहस के लिए संसाधन जुटाना आसान कार्य नहीं था। भारत-चीन युद्ध पर आधारित फिल्म ‘हकीकत’ के बारे में एन रघुरमन की प्रेरणादायक किताब ‘क्योंकि जीना इसी का नाम है’ में एक रोचक उल्लेख मिलता है। इस उल्लेख के अनुसार एक विमान यात्रा के दौरान फिल्म निर्माता चेतन आनंद की मुलाकात ओपी मथाई से होती है। मथाई तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के निजी सचिव थे। इस यात्रा के दौरान ओपी मथाई चेतन आनंद की

फिल्म ‘नीचा नगर’ की प्रशंसा करते हैं और उस समय हिंदी सिने जगत में बनने वाली फिल्मों की कड़ी आलोचना भी। यह मुलाकात उस समय हुई, जब भारत और चीन युद्ध की गर्द शांत भी नहीं हुई थी। ओपी मथाई चेतन आनंद से सवाल करते हैं, ‘आप किसी युद्ध पर फिल्म क्यों नहीं बनाते?’ इस पर चेतन आनंद ने पलट कर कहा, ‘मैं तो हमेशा से ऐसा चाहता हूं, लेकिन मुझे कभी सहयोग नहीं मिला। पलटन, गन, लोकेशन, फौज।’ मथाई ने चेतन आनंद से कहा, ‘आप प्रधानमंत्री से मिलें।’ एक सप्ताह बाद चेतन आनंद प्रधानमंत्री से मिले और तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन से प्रधानमंत्री ने चेतन आनंद की मदद करने को कहा। अगले दिन चेतन आनंद जम्मू की यात्रा पर निकले और 30 मिनट में एक शानदार पटकथा तैयार हो गई। एन रघुरमन लिखते हैं कि बर्फीले वातावरण में पात्रों और फिल्म यूनिट के अन्या सदस्यों के लिए कार्य करना कुछ आसान काम नहीं था। लेकिन, चेतन आनंद किसी भी कीमत पर कुछ करना चाहते थे। इस फिल्म में बलराज साहनी, धर्मंेद्र, विजय आनंद, इंद्राणी मुखर्जी समेत कई कलाकारों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस फिल्मी के सभी गाने कैफी आजमी ने लिखे थे, जबकि मोहम्मद रफी ने आवाज दी थी और संगीत मदन मोहन ने तैयार किया था। फिल्म का संगीत काफी लोकप्रिय हुआ था। देवानंद के बड़े भाई चेतन आनंद की इस फिल्म के साथ उनके उस समय के जीवन को लेकर कई रोचक तथ्य और भी हैं। फिल्म 'हकीकत' को बनाने से पहले चेतन आनंद महज 25 हजार रुपए का इंतजाम न होने के कारण बेहद परेशान थे और फिर कैसे उनकी परेशानियां दूर हुईं और हकीकत में उनका सपना कैसे सच हुआ, ये तमाम बातें बेहद दिलचस्प हैं। फिल्मों के निर्माण और फिल्मी गानों को लेकर रोचक जानकारियों को लेकर कई दिलचस्प कार्यक्रम बनाने वाले अभिनेता अन्नू कपूर बताते हैं कि बात 1962 के आखिरी महीने में 'क्रिसमस' के बाद की है। चेतन आनंद को एक फिल्म के लिए 25 हजार रुपए की जरूरत थी और तब उनके बैंक खाते में 25 रुपए भी नहीं थे। वे बेहद परेशान थे, क्योंकि कोई फाइनेंसर उनकी मदद नहीं कर रहा था। कई जगह हाथ-पैर मारे, लेकिन हर जगह से नाउम्मीद ही हाथ लगी। चेतन आनंद की पत्नी उमा की एक सहेली थी, जो अमेरिकन एंबेसी में काम करती थी। कार से चंडीगढ़ जाते वक्त उमा की परेशानी सहेली के कानों तक पहुंची कि पतिदेव को 25 हजार रुपए एक फिल्म को पूरी करने के लिए चाहिए।

सहेली बोली, मेरे मामा प्रताप सिंह कैरो पंजाब के मुख्यमंत्री हैं, हम उनसे मदद ले सकते हैं। अगले दिन चेतन आनंद मुख्यमंत्री कैरो के सामने थे और मदद की गुहार कर रहे थे। मुख्यमंत्री ने चेतन आनंद से कहा, ‘पुत्तर, 1962 के चीन युद्ध में हमारे पंजाब के कई जवान शहीद हो गए हैं, तुम इन शहीदों पर क्यों नहीं फिल्म बनाते?' चेतन ने कहा, 'शहीदों पर बनी फिल्म को कौन देखेगा और इसमें कौन पैसा लगाएगा?' मुख्यमंत्री ने कहा, 'यदि शहीदों पर फिल्म बनाई तो पूरा पंजाब तुम्हारे साथ खड़ा रहेगा। बोलो, फिल्म का बजट कितना होगा?’ इसके बाद चेतन वहां से अगले दिन मुलाकात करने का कहकर चले आए। दूसरे दिन चेतन ने मुख्यमंत्री कैरो को फिल्म ‘हकीकत’ की कहानी संक्षेप में सुनाई और यह भी कहा कि इसमें पैसा बहुत सारा लगेगा। मुख्यमंत्री ने पूछा कि कितना बजट? कुछ देर सोचने के बाद चेतन ने कहा कि मोटे तौर पर 10 लाख रुपए। मुख्यमंत्री ने फौरन पंजाब के वित्त सचिव को आदेश दिया कि इन्हें 10 लाख रुपए का चेक दे दो। थोड़ी देर बाद चेतन के हाथों में 10 लाख का चेक था और यह तारीख थी 1 जनवरी 1963। चेतन को तो मानो नए साल का सबसे हसीन तोहफा मिल गया। जो इंसान 25 हजार रुपए के लिए परेशान हो रहा हो, उसके हाथों में उस दिन 10 लाख का चेक था और यह एक तरह से उनका सपना हकीकत में बदल चुका था। यही कारण है कि चेतन ने भी फिल्म 'हकीकत' इतनी शिद्दत के साथ बनाई कि वह आज तक पसंद की जाती है। फिल्म में गीत लिखे कैफी आजमी ने और संगीत दिया मदन मोहन ने। 1965 में बनी फिल्म 'हकीकत' के कई गीत सुपर हिट हुए। इन गीतों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ- ‘कर चले हम फिदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों...।’ इस गीत की भी बेहद रोचक कहानी है। चेतन आनंद को कैफी साहब ने ये गीत सुनाया और कहा कि जब फिल्म खत्म हो जाएगी, उसके बाद ये गीत बजेगा। चेतन ने कैफी साहब को कहा कि फिल्म खत्म होने के बाद तो दर्शक सिनेमा हॉल से चले जाएंगे, तब वे बोले नहीं...ये गीत ही फिल्म की असली जान है और जब दर्शक घर जाने के लिए खड़े हो जाएंगे, जब हॉल में आवाज गूंजेगी...'कर चले हम फिदा जाने तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों।' असल में दर्शक उन तमाम शहीदों के सम्मान में खड़े रहेंगे। वाकई फिल्म खत्म होने के बाद जब ये गीत हॉल में गूंजता है तो आंखें नम हो जाती हैं।


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गणतंत्र दिवस विशेष

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बदल दिया खेल का इतिहास

था। एशियन ट्रैक एंड फील्ड चैंपियनशिप में उषा ने कुल 13 गोल्ड अर्जित किए। 1984 में लॉस एंजेल्स ओलंपिक में 400 मीटर की बाधा दौड़ में सेमी फाइनल प्रथम स्थान पर रहते हुए जीत लिया, लेकिन फाइनल में वह मेडल जीतने से थोड़े से अंतर से चुक गईं। यह पल 1960 में मिल्खा सिंह की हार की याद दिलाने वाला था। उषा ने 1/100 सेकंड के अंतर से कांस्य पदक खो दिया। 1986 में सीयोल में आयोजित 10वें एशियन खेलों में ट्रैक एंड फील्ड खेलों में पीटी उषा ने 4 गोल्ड और 1 सिल्वर मेडल जीते। इसके साथ ही 1985 में जकार्ता में आयोजित छठे एशियन ट्रैक एंड फील्ड चैंपियनशिप में उषा ने 5 गोल्ड मेडल अपने नाम किए थे। किसी भी एक इंटरनेशनल चैंपियनशिप में इतने मेडल जीतना भी किसी एकल एथलिट का रिकॉर्ड ही है। उषा ने 101 इंटरनेशनल मेडल अपने नाम किए हैं। 1985 में उन्हें पद्म श्री और अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया गया।

गणतंत्र दिवस के अवसर पर उन महान खिलाड़ियों को नहीं भुलाया जा सकता, जिन्होंने खेल के मैदान पर देश के तिरंगे को शान से लहराया एसएसबी ब्यूरो

तिहास भारत में खेल देशभक्ति का दूसरा नाम है। एक खिलाड़ी का बेहतरीन खेल प्रदर्शन, पूरे देश के लोगों को देशभक्ति की भावना से जोड़ता है। फिर चाहे खिलाड़ी हॉकी का हो, बैडमिंटन का हो, टेनिस का हो, फुटबॉल का हो या फिर शतरंज का, जब वह अच्छा खेलता है तो पूरा देश उसे सलाम करता है और कई बार तो पूरी दुनिया भी, क्योंकि वह अपने महान प्रदर्शन से उस खेल का पूरा इतिहास बदल देता है। आइए आपको बताते हैं भारत के 11 ऐसे महान खिलाड़ी, जिन्होंने अपने प्रदर्शन से दुनिया में खेल का इतिहास बदल दिया।

थे। मिल्खा सिंह 1958 और 1962 के एशियन गेम्स में चार गोल्ड जीतने वाले पहले धावक बने और सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसके पहले 1960 के ओलंपिक गेम्स में 400 मीटर की रेस में उन्होंने कई राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़े

विश्वनाथन आनंद

मेजर ध्यानचंद

हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है और मेजर ध्यानचंद भारतीय हॉकी के महान गौरव। वे दुनिया में हॉकी के जादूगर कहे जाते हैं। भारतीय हॉकी के चमकदार और स्वर्णिम इतिहास के इस पुरोधा ने दुनिया में हॉकी प्ले‍यर होने के मायने बदल दिए। 1928-1932-1936 के ओलंपिक में तीन बार स्वर्ण जीतने वाली भारतीय हॉकी टीम का यह सदस्य, भारतीय हॉकी टीम का कप्तान भी रहा। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी माने जाने वाले मेजर ध्यानंचद के खेलने के अंदाज की दुनिया की कई महान राजनीतिक हस्तियां भी दीवानी थी, जिसमें हिटलर, पेले और डॉन ब्रैडमैन जैसे खिलाड़ी भी शामिल थे। पद्मभूषण, पद्म विभूषण ध्यानचंद का जन्मदिन राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है।

मिल्खा सिंह

भारत के मिल्खा सिंह इतने तेज धावक हुए कि दुनिया आज तक उन्हें ‘फ्लाइंग सिख’ के नाम से जानती है। वे दौड़ते नहीं, उड़ते

और इस रेस में वे विश्व कीर्तिमान धारक भी रहे। भारत ने सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया।

पीटी उषा

पीटी उषा को ‘भारत की उड़नपरी’ के रूप में लोग याद करते हैं। उनका उपनाम पय्योली एक्सप्रेस भी रखा गया है। पिलावुल्लाकंदी ठेक्केपराम्बिल उषा यानी पीटी उषा एथलिट से 1979 म ें जुड़ीं। वर्तमान में उषा केरल में उषा स्कूल ऑफ एथलिट चलाती हैं। 1982 में नई दिल्ली के एशियन खेलों में उषा ने 100 मीटर और 200 मीटर में सिल्वर मेडल जीता था, लेकिन इसके एक साल बाद ही कुवैत में एशियन ट्रैक एंड फील्ड चैंपियनशिप में उषा ने 400 मीटर में गोल्ड मेडल अपने नाम किया था और यह एक एशियन रिकॉर्ड भी

शतरंज की बिसात पर इस भारतीय खिलाड़ी ने भारत का नाम हमेशा ऊंचा रखा और दुनिया को भारत की ताकत दिखाई। पांच बार विश्व चैंपि‍यन रह चुके आनंद 1988 में पहली बार भारत के ग्रैंड मास्टर बने। इस दक्षिण भारतीय शतरंज खिलाड़ी को 1991-92 में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाजा गया। शतरंज की दुनिया में आनंद विश्व के उन 6 ऐतिहासिक खिलाड़ियों में से एक हैं, जिन्होंने फिडे शतरंज चैम्पियनशिप में 2800 अंकों के रिकॉर्ड को तोड़ा है। आनंद छह बार शतरंज ऑस्कर विजेता रह चुके हैं। वे भारतीय इतिहास के पहले ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्हें भारत सरकार ने सबसे पहले पद्मविभूषण दिया।

बाइचुंग भूटिया

प्रदीप कुमार बनर्जी के बाद बाइचुंग भूटिया फुटबॉल की दुनिया का एकमात्र भारतीय सितारा हैं। ईस्ट बंगाल क्लब की ओर से खेलने वाले भूटिया तीन बार इंडियन प्लेयर ऑफ द ईयर रह चुके हैं। पद्म श्री और अर्जुन अवॉर्ड पा चुके भूटिया भारत की ओर से यूरोपियन क्लब के लिए खेलने वाले पहले फुटबॉलर बने। इस बेहतरीन प्लेयर की लोकप्रियता ने उन्हे स​ िक्रय राजनीति में भी जगह दिलाई।


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गणतंत्र दिवस विशेष

1952 के खाशाबा दादासाहेब जाधव के इतिहास को दोहराया। बता दें कि ओलंपिक के इतिहास में खाशाबा जाधव किसी भी तरह का मेडल पाने वाले पहले भारतीय हैं।

लिएंडर पेस

टेनिस की दुनिया में भारत की अपनी कोई पहचान नहीं थी। टेनिस में लिएंडर पेस भारत का चेहरा बने। इसके अलावा महेश भूपति के साथ उनकी युगल जोड़ी ने दुनिया में भारतीय टेनिस को कामयाबी की नई बुलंदियों पर पहुंचाया। लिएंडर ने 8 डबल्स और सात मिश्रित ग्रैंड स्लैम अपने नाम किए। पद्म विभूषण और राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित पेस, भारत के टेनिस खिलाड़ि‍यों में प्रमुख चेहरा हैं।

सुशील कुमार

इस युवा भारतीय पहलवान सुशील कुमार ने कुश्ती में भारत को एक अलग पहचान दिलाई। 2008 के बीजिंग और 2012 के लंदन ओलंपिक में लगातार दो कांस्य जीतने वाले सुशील कुमार पहले भारतीय हैं। उन्होंेने लगातार दो पदक जीतकर 56 साल ब ा द

सचिन तेंदुलकर

सचिन तेंदुलकर भारत का सर्वोच्च सम्मेलन भारत रत्न पाने वाले भारत के एकमात्र क्रिकेट खिलाड़ी हैं। इस खिलाड़ी ने दुनिया में क्रिकेट और एक बल्लेबाज होने के सारे मायने बदल दिए। सचिन टेस्ट और वनडे क्रिकेट में दुनिया में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले खिलाड़ी हैं। एक क्रिकेटर के रूप में क्रिकेट के भगवान तक की संज्ञा पाने वाले सचिन तेंदुलकर का कॅरियर रिकॉर्ड क्रिकेट की दुनिया का सबसे चमकता इतिहास है।

कपिल देव

क्रिकेट भारत का लोकप्रिय खेल है और कपिल देव भारत में इस लोकप्रिय खेल का इतिहास बदलने वाले खिलाड़ी। वे पहले ऐसे भारतीय क्रिकेटर और कप्तान हैं, जिन्होंने 1983 का वर्ल्ड कप भारत की झोली में डाल दिया। पंजाब के चंडीगढ़ से आने वाले इस ऑल राउंडर क्रिकेटर ने सेमीफानइल मैच में भारत के लिए बेहतरीन पारी खेली और टीम को फाइनल में पहुंचाया। वनडे और टेस्ट क्रिकेट में शानदार रिकॉर्ड रखने वाले इस क्रिकेटर ने क्रिकेट की दुनिया में भारत के लिए संभावना की नई जमीन तलाशी और टीम के आत्मविश्वास को नई ऊंचाइयां दी।

प्रकाश पादुकोण

बैडमिंटन के खेल की दुनिया में भारत अपरिचित था, लेकिन इस दक्षिण भारतीय खिलाड़ी ने अचानक से पूरी दुनिया को भारत की ओर खींचा। पद्मश्री से सम्मानित यह खिलाड़ी 1982 में भारत का ऐसा पहला बैडमिंटन प्लेयर बना, जिसने इंग्लैंड चैं​िपयनशि‍प अपने नाम कर ली। बैडमिंटन के खेल को आगे बढ़ाने में भी प्रकाश पादुकोण ने देश में सबसे ज्यादा काम किया।


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दिलचस्प

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ये है 'नर्क की मछली'

ताइवान के फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने खोजा एक दुर्लभ प्रजाति का जीव

पने शायद ही इससे पहले कभी ऐसा जीव देखा होगा। दरअसल, यह एक दुर्लभ प्रजाति का जीव बताया जा रहा है। इसे ताइवान के फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने खोजा है। लियन जैसे दिखने वाले इस जीव की गर्दन सांप की तरह है। इस वजह से शुरुआत में रिसर्च टीम भी इसे देखकर सांप समझने की गलती कर बैठा। पर जल्द ही इसकी सच्चाई ने सबको हैरान कर दिया। दरअसल, इस जीव का नाम 'वाइपर शार्क' है। वाइपर शार्क इतनी रेयर होती है कि इसे आखिरी बार 1986 में पकड़ा गया था। इस शार्क के कई नुकीले दांत होते हैं। इन्हीं की मदद से यह शिकार करती है। तस्वीर में आपको इसका खतरनाक मुंह नजर आ रहा है, जिसमें अलग से इसका जबड़ा बाहर की ओर निकला दिख रहा है। बता दें ऐसा जबड़ा आपको और किसी मछली में नहीं देखने को मिलेगा। इस डरावनी शार्क की सबसे बड़ी खासियत यही है। दरअसल, ये मछली अपने जबड़े को शिकार पकड़ने के लिए आगे बढ़ा सकती है। इसके दांत सुई से भी ज्यादा नुकीले हैं। बताया जा रहा है कि ये अपने शरीर से कई गुना ज्यादा बड़ी मछली का भी शिकार कर लेती है। 1986 में पहली बार जापान के शिकोकु आईलैंड पर ऐसी शार्क पकड़ी गई थी। इसके डरावने लुक की वजह से इसे एलियन फिश भी कहा जाता है। इसे फिश फ्रॉम हैल यानी 'नर्क की मछली' भी कहा जाता है। ये शार्क पानी में एक से डेढ़ हजार फीट की गहराई में रहती है। हालांकि, इसके बारे में वैज्ञानिकों के पास अब भी कुछ ज्यादा जानकारी मौजूद नहीं है। (एजेंसी)

मेमने से डरता है पूरा गांव

बकरी के बच्चे से कोई डरे या नहीं, लेकिन अर्जेंटिना के एक गांव के लोग इसके डर से अपने घरों में दुबक जाते हैं

ये

कितनी अचरज भरी बात है कि एक गांव में एक मेमने का खौफ इस कदर पसरा है कि शाम ढलते ही यहां सभी अपने घरों में दुबक जाते हैं। ऐसा क्या हैं जो गांव वालों के बीच में मेमने का खौफ पसर गया है दरअसल, जैसे ही बकरी ने बच्चे को जन्म दिया था इस खौफ की शुरूआत उसी दिन से शुरू हो गई थी। उसे देखकर सभी इतना डर गए कि पुलिस तक को बुलाने की नौबत आ गई। यूं तो मेमने दिखने में इतने क्यूट लगते हैं कि उन्हें गोद में उठाकर प्यार करने का मन कर जाता है, लेकिन अजीब बात ये है कि इस मेमने से कोई प्यार नहीं करना चाहता। इस मेमने की आंखें इतनी डरावनी है कि देखकर हर कोई कांप जाता हैं। जबकि इसके शरीर का बाकी हिस्सा आम मेमने की तरह ही है। यही वजह है कि लोग शाम होते ही डर के मारे अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। यह मेमना मध्य अर्जेंटीना के सैन लुइस में पैदा हुआ है। सोशल मीडिया पर इसकी वीडियो भी जारी हो चुका है, जिसे अभी तक हजारों लोग देख चुके हैं। (एजेंसी)

ये दूसरी दुनिया के

ज हम आपको कुछ ऐसे अजीबोगरीब जीव के बारे में बताने जा रहे हैं जो पृथ्वी का हिस्सा होने के बाद भी दूसरी दुनिया के लगते हैं। जी हां, दुनिया में कुछ ऐसे जीव भी मौजूद हैं, जिनके आर-पार देखा जा सकता है। ऐसा इसीलिए, क्योंकि इनकी त्वचा और अंगों के बीच लिपो-प्रोटीन फाइबर की कमी होती है। इसी वजह से इनकी त्वचा का कोई रंग नहीं होता है। ग्लास स्क्वॉड कांच की बोतल की तरह दिखता है। इसकी कुछ प्रजातियां पूरी तरह से पारदर्शी होती हैं, जिसकी वजह से ये अपने शिकारियों से छिपे रहते हैं। ग्लास विंग तितली सेंट्रल अमेरिका और मेक्सिको में अधिक पाई जाती है। इसके पंखों में से शिराएं दिखाई देती हैं। इसके पंख इतने पारदर्शी होते हैं


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दिलचस्प

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बहुत कीमती है इसका खून

45 करोड़ साल से जीवित हॉर्सशू केकड़े के खून का रंग नीला होता है और उसकी कीमत लाखों में है जानकर सभी के खून का रंग लाल होता है, लेकिन इं सानआजहोहमयाआपको एक ऐसे जानवर के बारे में बताने जा रहे हैं,

नहीं , पृथ्वी के हैं

कि फूल-पत्तियों पर बैठी इस तितली को आसानी से नहीं देखा जा सकता है। जेब्राफिश अंधेरे में चमकती है, इसीलिए इसे 'ग्लोफिश' भी कहते हैं। पारदर्शी और मुलायम त्वचा होने के कारण यह मछली वैज्ञानिक अध्ययनों में भी काम आती है। खासतौर से वेनेजुएला में पाया जाने वाला ग्लास फ्रॉग उभयचर सेंट्रोलीडा परिवार से होता है। इसके अलावा, यह मध्य और दक्षिणी अमेरिका के जंगलो में भी मिलता है। यह पेड़ों पर रहता है। इनका ऊपरी हिस्सा पीले एवं हरे रंग का होता है। इसकी पेट की त्वचा बिल्कुल पारदर्शी होती है। ग्लास स्क्विड दक्षिणी गोलार्द्ध महासागरों के बीच गहराई में मिलते हैं। कुछ ग्लास स्क्विड सूर्य की रोशनी में चमकने के कारण दिखते हैं। (एजेंसी)

जिसके खून का रंग लाल नहीं नीला है।जिसकी वजह से उसके खून की कीमत लाखों में है। खून का रंग नीला कैसे हो सकता है ये सवाल हर एक के मन में आना लाजमी है, लेकिन ये बिल्कुल सच है। उत्तरी अमेरिका के समुद्र में पाए जाने वाले हॉर्सशू केकड़े के खून का रंग नीला है जिस वजह से ये चिकित्सा विज्ञान के लिए किसी अमृत से कम नहीं है इस केकड़े की बनावट काफी अजीब है जिसे आप घोड़े की नाल से कंपेयर भी कर सकते हैं। कहा जाता है केकड़े की ये प्रजाति 45 करोड़ साल से जिंदा है। केकड़े का नीला खून में एंटी बैक्टीरियल तत्व होते हैं जिस वजह से कई सारी दवाओं के बारे में सटीक जानकारी मिलने में मदद करता है। केकड़ों का खून निकालने के लिए उन्हें लैब लाया जाता है और मुंह में सिरींज डालकर खून निकाला जाता है ऐसा करने में कई केकड़ों की मौत हो जाती है और जो बच जाते हैं उन्हें वापस समुद्र में छोड़ दिया जाता है। नीले रंग का खून होने की वजह से एक लीटर खून की कीमत करीब 10 लाख रुपए आंकी जाती है। (एजेंसी)

यह छाता नहीं, जीव है छाते की तरह दिखने वाला समुद्री जीव अपने रेशों से करता है सबसे तेज शिकार

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नते है वह कौन सा समुद्री प्राणी है? जिसका शरीर देखने में एकदम छाते जैसा लगता है? आपको जानकर हैरानी होगी कि इतना सामान्य सा दिखने वाला ये जीव समुद्र का सबसे शातिर शिकारी भी है। अगर आपके दिमाग में मछली का ख्याल आ रहा है तो बता दें आप गलत दिशा में सोच रहे हैं। क्योंकि जवाब है जेलीफिश। असल में यह मछली नहीं है। यह मूंगों और एनीमोन के परिवार की सदस्य है। इसकी 13 प्रजातियां होती हैं। जेलीफिश में मस्तिष्क की बजाय एक जबरदस्त तंत्रिका तंत्र होता है, जो तुरंत सिग्नलों को एक्शन में बदल देता है। इसके शरीर में 99 फीसदी पानी होता है। छतरीनुमा ऊपरी हिस्से से ही यह खुराक लेती है। धागे जैसे लटके रेशों की मदद से ये शिकार करती है। यह देखने में जितनी रंगीन होती है, उतनी ही जहरीली और शातिर शिकारी भी। जेलीफिश खुद तैरकर दूसरी जगह नहीं जा पाती। यह समुद्री लहरों के साथ बहती है। बहते हुए यह अपने शरीर को सिकोड़ती और फुलाती है। सबसे खतरनाक लायंस मैन जेलीफिश होती है। इसके रेशे बेहद घातक जहर छोड़ते हैं। शिकार को रिझाने या दूसरे जीवों को डराने के लिए यह चमकने लगती है। (एजेंसी)


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बाल साहित्य

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बाल कथा

मूर्ख भेड़िया और समझदार पिल्ला

क बार की बात है कि एक कुत्ते का पिल्ला अपने मालिक के घर के बाहर धूप में सोया पड़ा था। मालिक का घर जंगल के किनारे पर था। अतः वहां भेड़िया, गीदड़ और लकड़बग्घे जैसे चालाक जानवर आते रहते थे। यह बात उस नन्हे पिल्ले को मालूम नहीं थी।

गां

उसका मालिक कुछ दिन पहले ही उसे वहां लाया था। अभी उसकी आयु भी सिर्फ दो महीने थी। अचानक एक लोमड़ वहां आ निकला, उसने आराम से सोते पिल्ले को दबोच लिया। पिल्ला इस अकस्मात आक्रमण से भयभीत हो उठा। मगर वह बड़ी ही समझदार नस्ल का था। उसका पिता

अच्छे कर्म

धी जी एक छोटे से गांव में पहुंचे तो उनके दर्शनों के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी। गांधी जी ने लोगों से पूछा, इन दिनों आप कौन सा अन्न बो रहे हो और किस अन्न की कटाई कर रहे हो? भीड़ में से एक वृद्ध व्यक्ति आगे आया और बोला ‘आप तो बड़े ज्ञानी हैं।’ क्या आप इतना भी नहीं जानते की जेठ मास में खेतों में कोई फसल नहीं होती। इन दिनों हम खाली रहते हैं। गांधी जी ने पूछा जब फसल बोने या काटने का समय होता है, तब क्या आपके पास बिल्कुल समय नहीं होता।

वृद्ध बोला उस समय रोटी खाने का भी समय नहीं होता। गांधी जी बोले, तो इस समय तुम बिल्कुल निठल्ले होते हो और गप्पे हांकते हो। यदि तुम चाहो तो उस समय कुछ बो और काट सकते हो। गांव वाले बोले कृपया करके आप ही बता दीजिए कि हमें क्या बोना, क्या काटना चाहिए। गांधी जी गंभीरतापूर्वक बोले: आप लोग कर्म बोइए और आदत काटिए, आदत को बोइए चरित्र को काटिए। चरित्र को बोइए और भाग्य को काटिए, तभी तुम्हारा जीवन सार्थक हो जाएगा।

मिलिटरी में था और मां पुलिस में जासूसी करती थी। संकट सिर पर आया देखकर भी वह घबराया नहीं और धैर्य से बोला-'लोमड़ भाई! अब तुमने मुझे पकड़ ही लिया है तो खा लो। मगर मेरी एक राय है अगर मानो तो। इसमें तुम्हारा ही लाभ है।' अपने लाभ की बात सुनकर लोमड़ ने पूछा'कैसा लाभ?' 'देखो भाई! मैं यहां नया-नया आया हूं, इसीलिए अभी दुबला तथा निर्बल हूं। कुछ दिन खा-पीकर मुझे मोटा-ताजा हो जाने दीजिए। फिर आकर मुझे खा लेना। वैसे भी अभी मैं बच्चा हूं। मुझे खाकर भी शायद आज आपकी भूख न मिटे।' लोमड़ पिल्ले की बातों में आ गया उसे छोड़कर चला गया। पिल्ले ने अपने भाग्य को धन्यवाद दिया तथा असुरक्षित स्थान पर सोने की गलती फिर कभी न करने की कसम खाई। कुछ महीनों के पश्चात लोमड़ फिर उस घर के पास आकर उस पिल्ले को खोजने लगा। लेकिन अब वह पिल्ला कहां रहा था, अब तो वह बड़ा हो गया था और पहले से अधिक समझदार भी। उस समय वह मकान की छत पर सो रहा था। लोमड़ ने उससे कहा, 'अपने वचन के अनुसार नीचे आकर मेरा आहार बन जाओ।' 'अरे जा रे मूर्ख! मृत्यु का भी वचन दिया है कभी किसी ने? जा अपनी मूर्खता पर आयु-भर पछताता रह। अब मैं तेरे हाथ आने वाला नहीं है।' कुत्ते ने उत्तर दिया। लोमड़ अपना-सा मुहं लेकर चला गया। सच है, समझदारी व सूझ-बूझ से मौत को भी टाला जा सकता है।

कविता

बापू को वापस आना होगा

सुन लो बापू ये पैगाम, मेरी चिट्ठी तेरे नाम चिट्ठी में सबसे पहले, लिखती राम-राम इस प्यारे अंधकार में विश्वास का एक दीया जलाना होगा इस सूखे चमन में बहार को दोबारा आना होगा गांधी! तुझे वापिस आना होगा। फैला रहा बाहें हिंसा का दानव एक फल अहिंसा का उगाना होगा जब बुराई ने बिगाड़ा हो सारा गुलशन तो अच्छाई से उसे फिर महकाना होगा गांधी! तुझे वापिस आना होगा। हर एक तरफ है झूठ बेइमानी सत्य ईमानदारी को फिर चमकाना होगा अब मरुस्थल में भी फूल खिलाना होगा हर घर में एक गांधी होगा हिन्दुस्तान हमारा स्वर्ग सा होगा इसके लिए गांधी! तुझे वापस आना होगा।


22 - 28 जनवरी 2018

आओ हंसें

तेरा काम पहले सिपाही: चल भाई! तेरी फांसी का समय हो गया। कैदी: पर मुझे तो फांसी 20 दिन बाद होने वाली थी। सिपाही: जेलर साहब कह कर गए हैं कि तू उनके गांव का है, इसीलिए तेरा काम पहले।

शादी के बाद नई-नई शादी के बाद संता कन्फ्यूज हो गया। उसे समझ नहीं आया कि बातचीत कैसे शुरू करे। आधे घंटे बाद सोचने के बाद... वह आखिर अपनी बीवी से बोला: आपके घरवालों को पता है न कि आज आप यहीं रुकेंगी?

• 23 जनवरी नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती, देश प्रेम दिवस • 24 जनवरी राष्ट्रीय बालिका दिवस (भारत) • 25 जनवरी हिमाचल प्रदेश स्थापना दिवस • 26 जनवरी गणतंत्र दिवस जम्मू और कश्मीर स्थापना दिवस • 26 जनवरी लाला लाजपत राय जयंती

डोकू -06

पहले कठिन काम पूरे कीजिए। आसान काम अपने आप हो जाएंगे।

रंग भरो सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें

सुडोकू-05 का हल

सुडोकू 05 के लकी व‌िजते ा

ईश्वर ​िसंह ममूरा, नोएडा, सेक्टर-66

बाएं से दाएं

वर्ग पहेली - 06

1. शासन के नीति नियम (4) 3. फी सदी (4) 6. मेहमान (3) 7. अनाथालय (5) 8. अनल (2) 9. कपास के फूल का रेशा 10. दृढ़ता, सख्ती (3) 13. अपनापन, अपनत्व (4) 15. कमरा, दर्जा (2) 17. मूल तत्व, महत्वपूर्ण अंश (2) 18. काम या कार्यक्रम की चहल पहल (4) 20. सवा गुना (3) 22. असि (4) 23. समकालीन (5)

ऊपर से नीचे

1. रसायन संबधं ी (5) 2. नील मणि (3) 3. प्रत्येक, नकल (2) 4. दिनांक (2) 5. लहर (3) 6. अन्न (3) 8. दर्पण (3) 9. सुदं रता छवि (2) 11. पैर का प्रहार (3) 12. हिफाजत (2) 14. परंपरानुसार होने वाला (5) 16. प्रणाली, विधि (3) 17. अयोध्या (3) 19. लेखनी (3) 20. एक और चौथाई (2) 21. आघात, प्रहार (2)

वर्ग पहेली-05 का हल

महत्वपूर्ण दिवस

सु

जीवन मंत्र

चार्जर की तार मोबाइल बेचने वाली सभी कंपनियों से निवेदन है कि भले दस बीस रुपए और बढ़ा दो लेकिन... चार्जर की तार लंबी कर दें। ...नहीं तो हमेशा पॉवर प्लग से चिपक के बैठना पड़ता है।

परिवार में उपवास अध्यापक: भारतीय परिवार के सदस्य एक दूसरे को प्यार करते हैं और एक दूसरे की परवाह करते हैं। इसका कोई उदाहरण दो। छात्र: उपवास एक करता है और साबूदाने की खिचड़ी पूरा परिवार खाता है।

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इंद्रधनुष


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गणतंत्र दिवस विशेष

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

22 - 28 जनवरी 2018

तारीख और तिरंगा

जिस तरह भारत को स्वाधीनता रातोंरात नहीं मिली, उसी तरह हमारे राष्ट्रीय ध्वज के निर्माण का भी प्रेरक इतिहास है एसएसबी ब्यूरो

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अगस्त 1947 को हमारा देश आजाद हुआ और 26 जनवरी 1950 को संविधान के लागू होते ही भारत एक गणतंत्र बन गया। दोनों ही अवसरों पर देश के सभी सरकारी संस्थानों, इमारतों सार्वजनिक स्थलों, स्कूलों और घरों में झंडा फहराया जाता है। इस दिन हर हिंदुस्तानी आजादी के

झंडा

पहला भारतीय झंडा 7 अगस्त 1906 में कलकत्ता के पारसी बगान स्कवॉयर में फहराया गया था। इस झंडे में हरे, पीले और लाल रंग की तीन पट्टियां थीं। झंडे की बीच की पट्टी पर वंदेमातरम लिखा हुआ था। नीचे की पट्टी पर सूर्य और चांद का सांकेतिक चिन्ह बना हुआ था।

4 झंडा

1916 में लेखक और भू- भौतिकीविद पिंगाली वेंकैया ने देश की एकजुटता के लिए एक झंडा डिजाइन किया था। इस झंडे को डिजाइन करने से पहले उन्होंने महात्मा गांधी से अनुमति ली थी। गांधी जी ने उनको भारत का आर्थिक उत्थान दर्शाते हुए झंडे में चरखा शामिल करने की सलाह दी थी। गांधी जी ने इस झंडे को 1921 में फहराया था। इसमें सबसे ऊपर सफेद, बीच में हरी और सबसे नीचे लाल रंग की पट्टियां थी। ये झंडा सभी समुदायों का प्रतीक माना जाता था।

इस जश्न को अपने-अपने अंदाज में मनाता है। कोई इस दिन अपने शरीर पर तिरंगे का टैटू बनवाता है, तो कोई तिरंग या तीन रंगों वाला कपड़ा पहनता है, तो कोई तिरंगे के रंग को मेकअप के रूप में इस्तेमाल करता है। आइए, आज हम आपको बताते हैं क्या है तिरंगे का इतिहास। आजादी के पहले और फिर आजादी के बाद भारत का झंडा कैसा था और इसमें कितने रंग थे।

भारत का दूसरा झंडा 1907 में मैडम कामा और निर्वासित क्रांतिकारियों के उनका संगठन ने पेरिस में फहराया था। यह झंडे पहले वाले से ज्यादा अलग नहीं है। इसमें हरे, पीले और नारंगी रंग की तीन पट्टियां थी। इस झंडे की बीच की पट्टी पर भी वंदेमातरम लिखा हुआ था। नीचे की पट्टी पर सूर्य और चांद का सांकेतिक चिन्ह बना हुआ था।

झंडा

झंडा

1931 में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज में ऐतिहासिक बदलाव किया गया था। कांग्रेस कमेटी बैठक में पास हुए एक प्रस्ताव में भारत के तिंरगे को मंजूरी मिली थी। इस तिरंगे में केसरिया रंग ऊपर, सफेद बीच में और सबसे नीचे हरे रंग की पट्टी थी। सफेद रंग की पट्टी पर नीले रंग का चरखा बना हुआ था।

झंडा

झंडा

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 6

इस भारतीय झंडे को डॉ. एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक ने होम रूल मूवमेंट 1917 के दौरान फहराया था। इस झंडे में ऊपर की तरफ यूनियन जैक था। झंडे में बिग डिपर या सप्तर्षि नक्षत्र और अर्धचंद्र चंद्र और सितारा भी था।

आजाद भारत के लिए संविधान सभा ने इसी भारतीय झंडे को स्वीकार कर लिया था। हालांकि चरखे की जगह इसमें सम्राट अशोक के धर्म चक्र को शामिल कर लिया गया। यही झंडा 1947 से भारत का राष्ट्रीय ध्वज है।


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