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महात्मा का पत्र हिटलर के नाम
गांधी स्मृति
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गणतंत्र का उत्सव
गांधी स्मृति 26
फोटो फीचर
सिनेमा में महात्मा
विश्व कैंसर दिवस कैंसर के खिलाफ युवी की जंग
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sulabhswachhbharat.com आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
वर्ष-2 | अंक-07 | 29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
नदी पुनर्जीवन
चुनौती से ज्यादा सबक
खास बातें 2013 में मूसी नदी की सफाई के लिए 900 करोड़ रुपए की योजना 1032 एमएलडी सीवेज और गंदा पानी मूसी में बहाता है मूसी के साथ हुसैन सागर झील का भी प्रदूषण से बुरा हाल
सा
हैदराबाद शहर की पहचान चारमीनार के साथ एक नदी के साथ बी जुड़ी है। यह नदी है मूसी। दुर्भाग्य से यह नदी गंभीर प्रदूषण की शिकार हो गई । इस नदी की प्रवाह और सेहत को बहाल करने की चुनौती को लेकर अब जाकर लोग चेत रहे हैं। उम्मीद है सरकार और समाज की साझी पहल से मूसी के फिर से स्वच्छ होने की उम्मीद जगी है एसएसबी ब्यूरो
री दुनिया में आदिकाल से नदियां स्वच्छ जल का अमूल्य स्रोत रही हैं। पिछले कुछ सालों से भारत की अधिकांश नदियों के गैर-मॉनसूनी प्रवाह में कमी आ रही है, छोटी-छोटी नदियां तेजी से सूख रही हैं और लगभग सभी नदियों के किसी-न-किसी भाग में प्रदूषण बढ़ रहा है। यह स्थिति हिमालयी नदियों में कम तथा भारतीय प्रायद्वीप की नदियों में अधिक गंभीर है। नदी, प्राकृतिक जल चक्र का अभिन्न अंग है। इस जलचक्र के अंतर्गत, प्रत्येक नदी अपने कैचमेंट (जलग्रहण क्षेत्र) पर बरसे पानी को समुद्र अथवा झील में जमा करती है। वह अपने कछार में भूआकृतियों का निर्माण एवं परिमार्जन करती हैं। वह
पारिस्थितिक तथा जैविक विविधता से परिपूर्ण होती है। वह प्राकृतिक एवं प्रकृति नियंत्रित स्वचालित व्यवस्था है जो वर्षाजल, सतही जल तथा भूमिगत जल के घटकों के बीच संतुलन रख, कछार के जागृत इको-सिस्टम सहित आजीविका को आधार प्रदान करती है। नदी के बारहमासी बने रहने का संबंध बरसात बाद उसके कैचमेंट की जल प्रदाय क्षमता और जटिल ईको-सिस्टम के समुचित प्रबंध से है। प्रवाह को कम करने वाला पहला महत्वपूर्ण घटक, कैचमेंट में भूमि कटाव है। भूमि कटाव के कारण मिट्टी की परतों की मोटाई कम होती है तथा भूजल
भंडारण क्षमता घटती है। भूजल भंडारण क्षमता घटने के कारण मिट्टी की परतों में कम भूजल संचित होता है। यह पानी बरसात बाद बहुत जल्दी नदी में उत्सर्जित हो जाता है। परिणामस्वरूप, नदी का प्रवाह घटने लगता है। नदी तल से रेत के खनन के कारण, तल के नीचे के कणों की व्यवस्था गड़बड़ा जाती है। व्यवस्था के गड़बड़ाने के कारण नदी तल के नीचे के पानी का प्रवाह अवरुद्ध होता है। वह बाहर आ जाता है और नदी उसके योगदान से वंचित हो जाती है। तीसरे, नदी घाटी में होने वाले भूजल दोहन के कारण क्षेत्रीय वाटर टेबिल, नदी तल के नीचे उतर जाती है।
मूसी नदी का गौरवशाली इतिहास रहा है। हैदराबाद नगर मूसी नदी के तट पर बसा है। यह नदी नगर को पुराने शहर और नए शहर में बांटती है
परिणामस्वरूप, नदी सूख जाती है। कुछ स्थानों पर, स्थानीय घटकों के असर से भी प्रवाह कम होता है। मूसी को बचाने की पहल चेन्नई से हैदराबाद जाते समय रेलगाड़ी की खिड़की से मूसी नदी नजर आती है। नदी क्या है, आप नाले जैसी भी नहीं दिखाई देती। सिर्फ नदी की स्मृति भर रह गई है। अच्छी बात है कि इस नदी के उद्धार के भी प्रयास शुरू हो गए हैं। मूसी नदी का गौरवशाली इतिहास रहा है। हैदराबाद नगर मूसी नदी के तट पर बसा है। यह नदी नगर को पुराने शहर और नए शहर में बांटती है। पुराने समय में इसे मुछकुंडा नदी के नाम से जाना जाता था। कभी यह नदी हैदराबाद शहर के लिए पानी का मुख्य स्रोत हुआ करती थी। मूसी नदी रंगारेड्डी जिले के अनंत गिरी पहाड़ियों से निकलती है। आगे जाकर कृष्णा नदी में मिल जाती है। मूसी नदी की लंबाई 240 किलोमीटर है। पर हैदराबाद के शहरी सीमा में नदी अतिक्रमण का शिकार है। हैदराबाद में रहते हुए चादरघाट में कई बार मूसी नदी को पार करते हुए सोचता था कि नदी के साथ हमने ये कैसा व्यवहार किया है। 1908 में मूसी नदी में आई बाढ़ ने हैदराबाद में कहर बरपाया था। नदी का बुरा हाल इसमें करोड़ों लीटर सीवेज और गंदा पानी बहाए जाने के कारण हुआ। इसकी सफाई को लेकर अब संजीदगी दिख रही है। वैसे इस नदी की सेहत का फिर से बहाल होना एक बड़ी चुनौती है। 2013 में मूसी नदी की सफाई के ले 900 करोड़
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आवरण कथा
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वांगानुई, एमशर और मूसी
न्यूजीलैंड की वांगानुई नदी का उदाहरण देते हुए उत्तराखंड हाई कोर्ट ने नदी को इंसान के तौर पर देखने का तारीखी फैसला सुनाया
बी
ते वर्ष एक ऐतिहासिक फैसले में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने देश की दो पवित्र नदियों गंगा और यमुना को ‘जीवित इंसान का दर्जा’ देने का आदेश दिया है। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि अब गंगा-यमुना को वही अधिकार हैं, जो देश का कानून और संविधान किसी भी नागरिक को देता है। अदालत ने इस संबंध में न्यूजीलैंड की वांगानुई नदी का भी उदाहरण दिया, जिसे इस तरह का दर्जा दिया गया है। यह पहली बार हुआ है जब एक नदी को इंसान मान लिया गया है और उसे वैसे ही अधिकार दे दिए गए जैसे किसी संप्रभु राष्ट्र के नागरिक के होते हैं। यह देश में नदियों को लेकर सरकारीअसरकारी सलूक को और ज्यादा जिम्मेदार बनाने की दृष्टि से काफी अहम है। गौरतलब है कि न्यूजीलैंड का माओरी आदिवासी समुदाय इसके लिए करीब डेढ़ सदी तक संघर्ष करता रहा। माओरी समुदाय वांगानुई नदी को अपना पूर्वज मानता है। इस नदी पर उसकी आस्था अगाध है। वांगानुई न्यूजीलैंड की
• देश में प्रमुख नदियों में साल भर प्रवाहित जल की मात्रा के आंकड़े उपलब्ध हैं, किंतु अनेक सहायक नदियों की छोटी-छोटी इकाईयों के गैर-मानसूनी जल प्रवाह और उसी अवधि के भूजल दोहन एवं समानुपातिक भूजल स्तर की औसत गिरावट के सह-संबंध को स्पष्ट करने वाले मासिक या पाक्षिक आंकड़ो का अभाव है। इसके अतिरिक्त, नदियों की छोटी छोटी इकाईयों के कैचमेंट की मिट्टी की परतों की भूजल संचय क्षमता का ज्ञान नहीं है। • नदियों के प्रवाह की बहाली के लिए उपर्युक्त आंकड़ो का संकलन किया जाना चाहिए। उनकी सहायता से छोटी-छोटी इकाईयों के
तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसकी कुल लंबाई 290 किलोमीटर है। इसे नागरिकों की तरह अधिकार मिलने का मतलब यह है कि अब कोई भी इस नदी को प्रदूषित नहीं कर सकता। यहां तक कि कोई इस नदी के प्रति अभद्र भषा का प्रयोग भी नहीं कर सकता। अगर किसी ने ऐसा किया तो इसका मतलब होगा कि वह माओरी समुदाय को नुकसान पहुंचा रहा है और उस पर संबंधित कानून के तहत मामला दर्ज किया जा सकता है। न्यूजीलैंड की संसद ने इस काम के लिए बाकायदा एक कानून बनाया है। इसमें नदी के कानूनी अधिकारों को सुरक्षित रखने का जिम्मा दो वकीलों को दिया गया है। दोनों वकील नदी के अभिभावक होंगे। नदी की सेहत को ठीक करने के लिए करीब तीन करोड़ डॉलर और कानूनी
लड़ाई लड़ने के लिए 10 लाख डॉलर का फंड बनाया गया है। वांगानुई को कानूनी अधिकार देने के कारण भारत से अलग नहीं थे। यह नदी गहरे प्रदूषण की शिकार है। भारी खनन की वजह से कई जगह उसकी धारा बदल चुकी है। उस पर औद्यौगीकरण की मार भी पड़ी है। लेकिन अच्छी बात यह रही कि माओरी समुदाय उसके लिए लड़ता रहा। उसने जो कानूनी लड़ाई लड़ी वह न्यूजीलैंड के इतिहास की सबसे लंबी अदालती लड़ाई बन गई जो लगातार तेज होती गई। स्थानीय लोगों ने भी माओरी समुदाय का समर्थन किया। इस सबका नतीजा वांगानुई को लेकर एक असाधारण कानून के रूप में सामने आया। इस कानून पर मुहर लगाते हुए न्यूजीलैंड की संसद ने इस पर माफी भी मांगी की इस नदी को बचाने के लिए उसने अब तक पर्याप्त उपाय नहीं किए।
एमशर का पाठ
तीन दशक पहले से भारत ने नदियों को बचाने के लिए जरूरी कदम उठाने शुरू कर दिए गए थे। 1987 में पहली राष्ट्रीय जल नीति बनाई गई। इसके बाद उसमें कई बदलाव भी हुए। नियम है कि उद्योग अपना गंदा पानी खुद साफ करेंगे, लेकिन ऐसे बहुत कम मामले हैं, जहां इसका पालन हुआ हो और दोषियों को सजा दी गई हो। उद्योगों पर
तीन दशक पहले से भारत ने नदियों को बचाने के लिए जरूरी कदम उठाने शुरू कर दिए गए थे। 1987 में पहली राष्ट्रीय जल नीति बनाई गई। इसके बाद उसमें कई बदलाव भी हुए
नदी प्रवाह की निरंतरता
भूजल के योगदान, इकाईयों के सूखने का समय तथा उसकी अवधि को ज्ञात किया जा सकता है। इन घटकों को ज्ञात कर रीचार्ज आवश्यकताएं, समयावधि तथा उपयुक्त संरचना का निर्धारण किया जा सकता है। उसी के अनुसार कार्ययोजना बनाई जा सकती है, किंतु कार्ययोजना का क्रियान्वयन नेशनल वाटरशेड एटलस में उल्लेखित इकाईयों को आधार बना कर संपन्न किया जाना चाहिए। • नदी-तंत्र की सभी प्रभावित इकाईयों में एक साथ रीचार्ज कार्यक्रम प्रारंभ कर उसे क्रमशः बड़ी इकाईयों में विस्तारित करना तथा बरसात में रीचार्ज के इष्टतम लक्ष्य को प्राप्त करना
चाहिए। इसके लिए रीचार्ज कार्यक्रमों में आपस में संबद्ध सतही तथा भूजल संरचनाओं का निर्माण करना होगा तथा पानी की बचत करने वाली पद्धतियों को बढ़ावा देना होगा। • कई स्थानों पर परंपरागत प्रणालियों, जल संरक्षण तथा वर्षाजल संग्रह एवं जल के दुबारा उपयोग की तकनीकों को अपनाना पड़ सकता है। विपरीत स्थितियों से निपटने के लिए समाज तथा विशेषज्ञों को नदी के प्रवाह तथा गुणवत्ता की लगातार मानीटरिंग करना होगा। सुचारू तथा टिकाऊ जल प्रबंध के लिए प्रयास करना होगा। • नदी के जल प्रवाह की निरंतरता के लिए जल
इस तरह का दवाब नहीं डाला गया कि वे पानी को जहरीला करने वाले रसायनों को घटाएं। आज अगर मूसी जैसी नदी प्रदूषण से कराह रही है तो उसके पीछे इन नियमों के पालन में कोताही ही है। अच्छी बात यह है कि मौजूदा सरकार नदियों की स्वच्छता के मुद्दे पर संजीदा है। नतीजतन, जिन देशों में वाटर मैनेजमेंट अच्छा है, उनसे मदद
भी ली जा रही है। पिछले साल तय किया गया कि इस्राइल की मदद से भारत गंगा नदी को साफ करेगा और 2020 तक नदी को साफ कर दिया जाएगा। जल प्रबंधन के मामले में इस्राइल के पास बेहद उन्नत तकनीक है। इस मुद्दे पर जर्मनी से भी बड़ी सीख मिलती है। जर्मनी खुद भी अपनी नदियों को साफ करने में लगा है। यहां की नदी एमशर में कभी सीवेज का कचरा डाल दिया जाता था। पिछले दो दशकों से इसकी सफाई का काम चल रहा है। यह नदी न सिर्फ प्रदूषण से मुक्ति का, बल्कि उसके लिए आजमाए गए तरीके का भी एक बेहतरीन उदाहरण है। मूसी नदी को भी लेकर तेलांगना की सरकार, वहां के लोग और नदी जल संरश्रण से जुड़ी संस्थाएं ऐसी ही कोई बड़ी मिसाल खड़ी करेंगी, ऐसी उम्मीद है।
के उपयोग का मार्गदर्शी सिद्धांत तय होना चाहिए। इस सिद्धांत के अनुसार न्यूनतम पर्यावरणीय जल प्रवाह सुनिश्चित करने के पश्चात बचे पानी को किसानों तथा वंचित वर्ग की गतिविधियों तथा समृद्धि के लिए उपलब्ध कराना चाहिए। न्यूनतम पर्यावरणीय जल प्रवाह और हितग्राहियों को जल की पूर्ति के बाद, बचे जल की मात्रा का उपयोग अन्य क्षेत्रों में निर्धारित वरीयताक्रम में किया जाना चाहिए। यही नदियों में प्रवाह की निरंतरता के लिए भूजल विज्ञान आधारित रोडमैप है।
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आवरण कथा
रोना हुसैन सागर झील को लेकर भी
मूसी की स्वच्छता से जुड़े अभियान को हुसैन सागर झील के साथ भी लिंक करना जरूरी है
और उसके आसपास के इलाके के हैदराबाद लिए मूसी नदी की स्वच्छता को बहाल करना
ही अकेली चुनौती नहीं है। यहां हुसैन सागर झील का भी यही हाल है। चारमीनार की तरह हुसैन सागर झील भी हैदराबाद (तेलंगाना) की पहचान को रेखांकित करती है| यह कृत्रिम झील है, जो
वर्ष 1562 में में मूसी नदी की सहायक नदी पर निर्मित की गई थी। हुसैन सागर झील की अधिकतम लंबाई करीब 3.2 किमी और चौड़ाई करीब 2.8 किमी है। इसकी अधिकतम गहराई 32 फुट है। यह झील हैदराबाद और इसके जुड़वा शहर सिकंदराबाद
को विभाजित करती है। इस झील की शोभा बढ़ाने के लिए वर्ष 1992 में मध्य भाग स्थित टापू पर गौतम बुद्ध की ऊंची प्रतिमा स्थापित की गई थी। इस झील के चारों ओर पर्यटन और धार्मिक स्थल भी हैं, जो इसके आकर्षण में वृद्धि करते हैं। मसलन,जल विहार, लुंबिनी गार्डन, एनटीआर गार्डन, स्नो वर्ल्ड, नेकलेस रोड, बिरला निर्मित संग्रहालय,मंदिर आदि, लेकिन दुःख का विषय यह है कि झील पिछले तीन दशक से निरंतर
यह झील हैदराबाद और इसके जुड़वा शहर सिकंदराबाद को विभाजित करती है
प्रदूषित हो रही है। इसका पानी बेहद प्रदूषित हो गया है। आसपास के आवासीय और औद्योगिक क्षेत्र का प्रदूषित जल इस झील में प्रवाहित किया जा रहा है। गौरतलब है कि हैदराबाद और सिकंदराबाद के लोगों द्वारा इस झील में ही हर वर्ष हजारों की संख्या में छोटी बड़ी गणेश और दुर्गा प्रतिमाएं भी विसर्जित की जाती हैं। इस दौरान पूरा महानगर उमड़ पड़ता है। इससे चारों और गंदगी पसर जाती है। मूसी की स्वच्छता से जुड़े अभियान को हुसैन सागर झील के साथ भी लिंक करना जरूरी है। अगर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया, तो न तो नदी की स्वच्छता दीर्घायु होगी और न ही हैदराबाद को जल प्रदूषण से निजात मिलेगी।
सामाजिक सरोकारों से ही बचेंगी नदी और नारी ‘यदि समाज नदी और नारी का सम्मान करना सीख जाए तो न तो ऐसी घटनाएं होंगी न ही देश की कोई नदी प्रदूषित रहेगी’
न
उमा भारती
(केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा कायाकल्प मंत्री)
दी और नारी को सामाजिक सरोकारों से ही बचाया जा सकता है। सिर्फ सरकार के प्रयास से इन्हें बचाना मुश्किल है। जब तक हमारा दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, तब तक हालात नहीं बदलेंगे। यदि समाज नदी और नारी का सम्मान करना सीख जाए तो न तो ऐसी घटनाएं होंगी और न ही देश की कोई नदी प्रदूषित रहेगी। उन्होंने कहा
की योजना बनाने की खबर आई थी। इसका कुछ लाभ आने वाले दिनों में शायद देखने को मिले। नदी के 75 किलोमीटर के दायरे में 10 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगने हैं। ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसपल कॉरपोरेशन 1032 एमएलडी सीवेज और गंदा पानी मूसी नदी में बहाता है। इस बारे में भी योजनागत पहल हो रही है। नदियां हमें जीवन देती हैं। इनके किनारे सभ्यताएं फली फूलीं। अब हम उनको मारने पर तुले हैं। देश में सिर्फ गंगा सफाई की बात होती ही है। मूसी जैसी तमाम नदियों के बारे में सोचने की जरूरत है। अब तेलंगाना की नई सरकार में केसीआर ने भी मूसी को साफ करने का बीड़ा नए सिरे से उठाया है। उम्मीद है उनकी कोशिशें रंग लाएंगी। दक्षिण भारत में जल प्रदूषण लगातार बढ़ता ही जा रहा है। पर्यावरण मंत्रालय के आगे यह एक
कि हिंदू समाज अपने तीर्थस्थलों और पूजास्थलों के लिए भी सरकार की तरफ देखता है। हमें सिख समाज से सबक लेने की जरूरत है। गंगा के प्रवाह के मार्ग में कानपुर सबसे गंदा स्ट्रेच है। इसीलिए इसे 'ट्रीट' करने की तैयारी चल रही है। टास्क फोर्स का गठन कर दिया गया है। जल्द ही टेनरीज, लेदर इंडस्ट्री और स्लॉटर हाउसों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। 2019 तक कानपुर की पूरी गंदगी डायवर्ट कर दी जाएगी। हमारा उद्देश्य है कि, गंगा में ट्रीटेड वाटर भी न
बड़ी चुनौती है। न केवल बेंगलुरु की झीलों, बल्कि हैदराबाद की मूसी नदी में प्रदूषण का खतरा जिस तरह बढ़ा है, वह नदी जल संरक्षण से जुड़ी योजनाओं के लिए एक नए रोडमैप की मांग करता
जाए। नालों का मुंह ही गंगा की तरफ नहीं रहेगा। सीवेज वाटर को खेती के काम में लिया जाएगा, जबकि केमिकल वाला पानी नष्ट किया जाएगा। इसके लिए वाराणसी, ऋषिकेश, हरिद्वार और कानपुर में वेस्ट वाटर मैनेजमेंट के लिए कंपनियों से एमओयू किए गए हैं। भविष्य में वेस्ट वाटर मैनेजमेंट और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट एक उद्योग के रूप में उभरेगा। कैबिनेट नोट के जरिए 1750 करोड़ का प्रावधान गंगा किनारे के गांवों को
है। बेंगलुरु की झीलों से उठते झाग के विडियो कई बार सोशल मीडिया में वायरल हो चुके हैं। यही हाल हैदराबाद की मूसी नदी का भी रहा है। यहां भी बेंगलुरु जैसी सूरत ने लोगों को अपनी लापरवाही का अहसास दिलाया। मूसी नदी की लहर के साथ भी विषैले झाग सड़कों तक पहुंचने लगे। हाल में एक तेलंगाना आरटीसी बस को रास्तें में रुकना पड़ा और इसके पीछे का कारण खराब सड़क या बस में किसी तरह की तकनीकी खराबी नहीं थी, बल्कि नदी से आई
ओडीएफ बनाने के लिए किया गया था। इनमें 578 करोड़ दिए जा चुके हैं, जबकि 874 करोड़ बचे हैं। इस रकम को गांवों को सुंदर बनाने पर खर्च किया जाएगा। उन्होंने कहा कि, जब गंगा में जलीय जीव दोबारा दिखने लगेंगे तो मान लिया जाएगा कि गंगा अपने पुराने स्वरूप में लौट आई है।
विषैले झाग वाली लहरें थीं। नतीजा यह कि देश की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों की सूची में मूसी नदी का भी नाम शामिल हो गया है। इसका कारण विभिन्न स्तरों पर की गई लापरवाही के कारण इसाका एक ऐसे विशाल सीवर में बदल जाना है, जहां टनों कचड़े जमा हैं। अब जबकि यह संकट इतना बढ़ गया है तो समाज और सरकार दोनों हरकत में है और नदी में प्रदूषित जल और कचरा न मिले इसके लिए क्रमबद्ध तरीके से प्रयास हो रहे हैं। मूसी नदी के इस प्रदूषित झाग का मुख्य कारण रासायनिक गंदगी है, जो कई फैक्ट्रियों से सीधा नदी में गिरता है। राज्य सरकार द्वारा स्थापित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स भी इस काम के लिए पर्याप्त नहीं साबित हो रहे रहे हैं। मूसी नदी को लेकर जिन नए प्रोजेक्ट्स पर कार्य हो रहे हैं, उसमें इन गड़बड़ियों पर ध्यान दिया गया है।
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पुस्तक अंश
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
राजनीति और समाज के लिए गहरी प्रतिबद्धता
देश और समाज को समर्पित एक चुनौतीपूर्ण यात्रा शुरू करते हुए,नरेंद्र मोदी के कई आदर्श प्रेरणास्रोत थे, जिनका उनके व्यक्तित्व और राजनीतिक जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। इनमें स्वामी विवेकानंद, जयप्रकाश नारायण, पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और अनुभवी भाजपा नेता लालकृष्ण अडवाणी थे तक ऐसा ही था। उनके बड़े भाई सोमभाई के अनुसार, नरेंद्र मोदी हमेशा अलग होने के लिए उत्सुक थे। आरएसएस में शामिल होने के बाद, उन्होंने इसे देश और समाज की जीवनपर्यंत सेवा के लिए उपयुक्त अवसर के रूप में देखा। आरएसएस में शामिल होने के बाद, मोदी ने सिर्फ एक बार, पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए वडनगर का दौरा किया। अपने शुरुआती दिनों से ही, नरेंद्र मोदी ने आत्मानुशासन को बहुत महत्व दिया। एक प्रतिबद्ध शाकाहारी और मद्यत्यागी होने के अलावा, उन्होंने समय-प्रबंधन का महत्व शुरुआत में ही सीख लिया था।
नवनिर्माण आंदोलन
भा
रत और पाकिस्तान के बीच 1971 के युद्ध के बाद नरेंद्र मोदी औपचारिक रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में शामिल हुए। संघ परिवार में पले-बढ़े हुए ज्यादातर लोगों के लिए, शाखा प्राथमिक पोषण स्थल है। बालकों, किशोरों और युवाओं को संघ का स्वयंसेवक बनाने का प्रयास सर्वाधिक किया जाता है। स्वयं सेवक बने किशोर और युवा शाखाओं में ही प्रशिक्षण और
मूल्य प्राप्त करते हैं। शाखा में युवाओं को आकर्षित करने केलिए कई तरह के खेलों को भी शामिल किया गया गया। शरीर के साथ मन और विचार का सौष्ठव हर स्वयंसेवक में हो, इस बात का विशोष रूप से ध्यान रखा जाता है। वरिष्ठ और मित्र ही किशोरों को स्वयं सेवक बनाने और शाखाओं से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नरेंद्र मोदी के लिए भी संघ तक पहुंचने का रास्ता कुछ हद
नरेंद्र मोदी ने 1968 से 1973 तक अहमदाबाद में पांच बेहद साधारण साल बिताए। उन्होंने अपने चाचा की कैंटीन में काम किया और संघ के स्वयंसेवक के रूप में कर्मठतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन किया। 1973-74 का नवनिर्माण आंदोलन, उनके लिए निर्णायक मोड़ साबित हुआ। 1973 के दिसंबर महीने में, मोरबी के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के कुछ छात्रों ने भोजन के बिलों में भारी वृद्धि के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। यह आंदोलन जल्द ही जंगल की आग की तरह, गुजरात के दूसरे हिस्सों में फैल गया और एक राज्यव्यापी जन आंदोलन में तब्दील हो गया, जिसे अब नवनिर्माण आंदोलन के रूप में जाना जाता है। गुजरात के इस आंदोलन ने ही जयप्रकाश नारायण को बिहार में भी ऐसे ही एक आंदोलन को शुरू करने के लिए प्रेरित किया। उन दिनों में, 'गुजरात का अनुकरण' नामक वाक्य बिहार में एक लोकप्रिय उक्ति बन गई थी। इस आंदोलन ने समाज के सभी वर्गों को आकर्षित किया। नरेंद्र मोदी भी इस आंदोलन की तरफ आकर्षित हुए। भ्रष्टाचार के खिलाफ धर्मयोद्धा के रूप में जाने जाने वाले, प्रतिष्ठित समाजवादी और जनवादी जयप्रकाश नारायण की मौजूदगी और समर्थन की वजह से यह आंदोलन, राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन गया। जब जयप्रकाश नारायण अहमदाबाद आए, तो युवा नरेंद्र को उनसे मुलाकात करने और उनके भाषणों को सुनने का अवसर मिला। जय प्रकाश
नारायण और आंदोलन के अन्य नेताओं ने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा। यही वह समय था जब आरएसएस के वरिष्ठ नेताओं और जयप्रकाश नारायण जैसे राष्ट्रीय नायक मोदी की शानदार संगठनात्मक क्षमता से परिचित हुए। नरेंद्र मोदी के नवनिर्माण आंदोलन में योगदान को देखकर, लक्ष्मणराव इनामदार ने उन्हें अहमदाबाद के हेडगेवार भवन में रहने के लिए आमंत्रित किया। एमवी कामथ द्वारा उनके जीवन पर 2009 में लिखी गई जीवनी “नरेंद्र मोदी: एक आधुनिक राज्य के वास्तुकार” के अनुसार, हेडगेवार भवन में मोदी ने स्वेच्छा से पूरे कामकाज की जिम्मेदारी ली थी, जैसे प्रचारकों को चाय और भोजन देना, इमारत में सभी कमरों की सफाई करना और यहां तक कि उनके संरक्षक लक्ष्मणराव इनामदार के कपड़े धोना भी।
नरेंद्र मोदी हमेशा से अलग दिखने के लिए उत्सुक थे। आरएसएस में शामिल होने के बाद, उन्होंने इसे देश और समाज की जीवनपर्यंत सेवा के लिए उपयुक्त अवसर के रूप में देखा। आरएसएस में शामिल होने के बाद, मोदी ने सिर्फ पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए वडनगर का दौरा किया।
सोमभाई, नरेंद्र मोदी के बड़े भाई
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
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पुस्तक अंश
आवश्यकताएं इंसान का व्यक्तित्व बनाती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अपने औपचारिक सहयोग के बिताये गए पहले चार वर्षों में, मोदी खुद को स्थापित करते चले गए। वह विश्वास कमाने के साथ-साथ संगठन के सभी स्तरों पर काम करने के अभ्यस्त हो गए। इस तरह नरेंद्र मोदी ने खुद को ऊपर उठाया। साल 1973 में, जब तक नवनिर्माण आंदोलन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लिए एक बड़ा राजनीतिक संकट बना, तब तक मोदी को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां मिल चुकी थीं।
साथ ही उन्हें लिपिक का काम भी दिया गया था, जैसे संघ के नेताओं के लिए रेलवे या बस टिकट की बुकिंग और संघ के कार्यकर्ताओं से संबंधित सभी पत्रों को प्राप्त करने और खोलना
आदि। नवनिर्माण आंदोलन ने कांग्रेस को यह एहसास करा दिया कि गुजरात में उनकी सरकार लंबे समय तक नहीं टिकेगी। नरेंद्र मोदी ने इस धारणा को बनाने
में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कांग्रेस की हार को वहां सुनिश्चित किया जो कभी उनका गढ़ हुआ करता था। मीडिया में नवनिर्माण आंदोलन को अच्छी तरह से दिखाया गया और यहीं से नरेंद्र मोदी को मीडिया और संचार की शक्ति का पता चला।
नरेंद्र मोदी का उभार
इसी समय के आसपास, आरएसएस नेताओं ने नरेंद्र मोदी में एक विशेष उत्साह देखा और उन्हें अधिक जिम्मेदारियों के लिए तैयार किया। मोदी की भी दक्षता और ईमानदारी ने आरएसएस के नेताओं को सही साबित कर दिया और उन्हें विशेष प्रशिक्षण के लिए नागपुर भेजा गया, ताकि उन्हें संघ परिवार में एक आधिकारिक पद लेने के लिए तैयार किया जा सके। रसोई की कार्यप्रणाली से लेकर महत्वपूर्ण बैठकें आयोजित करने तक, मोदी की ताकत संगठन के बारे में उनकी गहरी समझ थी। वहां कुछ भी ऐसा नहीं था जो उन्होंने न किया हो।
आपातकाल की चुनौती का जमकर किया सामना
25 जून, 1975 को भारत के संविधान को नष्ट करने और देश को अपने अनुदेशों पर झुकाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया। विपक्षी दलों ने इसे लोकतंत्र को दबाने और अंधेर युग में भारत को ले जाने की कोशिश
नरेंद्र मोदी लक्ष्मण राव इनामदार
बताया। इंदिरा गांधी ने सबसे पहले आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया और सभी विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया। राजनीतिक अराजकता और दमन के इन कृत्यों का नरेंद्र मोदी ने प्रतिकार पूरी शक्ति और युक्ति से किया। 1974 में, मोदी ने 'सरू सर्व जाने' के सिद्धांत की वकालत की। इसका मतलब था कि 'सभी को पता होना चाहिए कि क्या अच्छा है।' उन्होंने कहा कि यह सिद्धांत सभी आरएसएससंबंधित कार्यक्रमों और गतिविधियों के लिए अभिन्न अंग होना चाहिए। इस काम ने आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व को बहुत प्रभावित किया। मोदी का
मोदी हमेशा से देश के लिए कुछ करना चाहते थे। उनके पास विचार थे। वे हमेशा जीवन में इसे बड़ा बनाना चाहते थे। यहां तक कि 1993 में, उनकी आंतरिक इच्छा थी कि उन्हें महान बनना चाहिए।
सुरेश जानी, ‘भाजपा के प्रवासी दोस्त’ के संस्थापक
लक्ष्मणराव इनामदार और नरेंद्र मोदी अन्य आरएसएस कार्यकर्ताओं के साथ
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राजनीतिक परीक्षण आपातकाल की घोषणा के एक महीने के भीतर ही शुरू हो गया जब आरएसएस ने संगठन की भूमिगत गतिविधियों के समन्वय के लिए गुजरात लोक संघर्ष समिति (जीएलएसएस) का उन्हें महासचिव नियुक्त किया। जीएलएसएस के महासचिव के रूप में, उन्होंने राज्य के सभी विपक्षी कार्यकर्ताओं के बीच एक प्रभावी समन्वयक के रूप में खुद को विकसित किया। सभी गैर-कांग्रेसी नेताओं और कार्यकर्ताओं पर लगाए गए सख्त निगरानी के चलते, यह बहुत ही कठिन कार्य था। यह एक ऐसी भूमिका थी, जहां मोदी अपनी खूबियों का इस्तेमाल कर सकते थे, क्योंकि इससे उन्हें अपनी उत्कृष्ट संगठनात्मक और रणनीतिक क्षमताओं का प्रयोग करने की अनुमति मिली थी। एक भूमिगत कार्यकर्ता के रूप में चाहे दिल्ली में वर्जित साहित्य ले जाना हो या जेल में बंद नेताओं से बैठक करना हो, मोदी ने हर भूमिका के लिए अलगअलग परिधान पहने और यहां तक कि खुद से अपना एक भ्रामक नाम प्रकाश भी रख लिया। आपातकाल के आरंभिक दौर में, मोदी भूमिगत होकर गिरफ्तारी से बचे रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में एक आरएसएस प्रचारक के रूप में, उन्होंने अपनी क्षमता फिर से साबित की। इस दौरान वे अक्सर छिपकर घूमते थे और मोटरसाइकिल पर यात्रा करते थे। नरेंद्र मोदी समेत सभी आरएसएस प्रचारकों ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के अत्याचारों को उजागर करने वाले आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन दिनों, आरएसएस समर्थित जन संघर्ष समिति ने एक मुक्ति ज्योति यात्रा (स्वतंत्रता आंदोलन की रौशनी) का आयोजन किया था। यह मुख्य रूप से एक साइकिल रैली थी, जिसमें कई प्रचारक एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते थे और देश में लोकतंत्र को बहाल करने का संदेश को फैलाते थे। भारत के आयरन मैन और पहले केंद्रीय गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की बेटी मनीबेन पटेल ने मुक्ति ज्योति यात्रा को झंडी दिखाकर नाडियाड से रवाना किया। नरेंद्र मोदी दिल्ली की ओर जाने वाली रेलगाड़ियों में वर्जित प्रचार सामग्री बांटने में भी सक्रिय थे। इन सामग्रियों को संघ के सदस्यों द्वारा राष्ट्रीय राजधानी में आने वाले राष्ट्रमंडल के गणमान्य व्यक्तियों को वितरित किया जाता था। उन्होंने दमनकारी आपातकाल के खिलाफ प्रदर्शनों के आयोजन में भी मदद की।
पुस्तक अंश
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
आपातकाल पर नरेंद्र मोदी
आपातकाल लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा झटका था। उस समय के संकट ने मजबूत हो रहे भारतीय लोकतंत्र को कमजोर किया। मैं उन लोगों का आभारी हूं, जिन्होंने संघर्ष किया और इसके खिलाफ लड़े। ... आपातकाल के बाद क्या हुआ, इसके लिए इसे याद नहीं रखना चाहिए, बल्कि हमारे देश में लोकतांत्रिक मूल्यों और ढांचे को मजबूत बनाने और इसे दृढ़ करने के हमारे संकल्प को मजबूत करने के लिए, आपातकाल को याद रखना होगा।
नरेंद्र मोदी वरिष्ठ आरएसएस नेता केशवराव देशमुख को गुजरात में गिरफ्तार कर लिया गया, जब मोदी को इस बारे में सूचना मिली तो उन्होंने सबसे पहले व्यक्तिगत रूप से एक और वरिष्ठ आरएसएस नेता नाथलाल जगडा की सुरक्षा सुनिश्चित की। गिरफ्तारी के समय, केशवराव देशमुख ने अपने एक व्यक्ति को जीएलएसएस की भविष्य की योजनाओं पर लिखा एक नोट दिया। एक साहसी योजना में, मोदी ने देशमुख के रिश्तेदार के रूप में कार्य करने के लिए एक महिला कार्यकर्ता को आश्वस्त किया और जब वह जेल में देशमुख से बातचीत कर रही थी, मोदी ने चालाकी से उस नोट को प्राप्त कर लिया। एक अन्य घटना में, यह भी दावा किया जाता है कि पत्रकार विष्णु पंड्या और नेता शंकरसिंह वाघेला से मिलने के लिए मोदी भावनगर जेल तोड़कर पहुंचे थे, लेकिन इस प्रकरण की पुष्टि नहीं हो सकी है। इस दौरान, मोदी ने 'संघर्ष मा गुजरात' (गुजरात का संघर्ष) नामक एक पुस्तक लिखी,
'मेरे जैसे युवाओं को आपातकाल ने उन नेताओं और संगठनों के एक व्यापक समूह के साथ काम करने का एक शानदार मौका दिया जो कि एक ही लक्ष्य के लिए लड़ रहे थे। इससे हमें, जिन संस्थानों में हम थे, उनसे बाहर काम करने में मदद मिली। हमारे परिवार के दिग्गजों, अटल जी, आडवाणी जी, दिवंगत दत्तोपंत ठेंगड़ी और स्वर्गीय नानाजी देशमुख से लेकर समाजवादी जार्ज फर्नांडीस और रवींद्र वर्मा जैसे कांग्रेसी, जिन्होंने मोरारजी भाई देसाई के साथ काम किया था और आपातकाल से नाखुश थे। अलग-अलग विचारों के नेताओं ने हमें प्रेरित किया। मैं सौभाग्यशाली था, जो मुझे गुजरात विद्यापीठ के पूर्व उप-कुलपति धीरूभाई देसाई, मानववादी सीटी दारू, गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूभाई जशभाई पटेल और प्रमुख मुस्लिम नेता दिवंगत हबीबउर-रहमान जैसे लोगों से सीखने को मिला। लगातार कांग्रेस के सत्तावादी रवैये का विरोध करने और यहां तक कि बाद में पार्टी को छोड़ देने वाले, दिवंगत मोरारजीभाई देसाई का संघर्ष और दृढ़-संकल्प बार-बार मन में आता है।' ऐसा लगता है कि विचारधाराओं और विचारों के एक जीवंत संगम को एक बड़े अच्छे काम के लिए जगह मिल गई है। जाति, पंथ, समुदाय या धर्म के मतभेदों पर, हम देश की लोकतांत्रिक आस्था को बनाए रखने के लिए सामान उद्देश्यों के साथ काम कर रहे थे। दिसंबर 1975 में, हमने गांधीनगर के सभी विपक्षी सांसदों की एक महत्वपूर्ण बैठक के लिए काम किया। इस बैठक में निर्दलीय सांसद दिवंगत पुरुषोत्तम मावलंकर, उमाशंकर जोशी और कृष्ण कांत भी उपस्थित थे। 'राजनीति के दायरे के बाहर, मोदी को कई सामाजिक संगठनों और गांधीवादियों के साथ काम करने का अवसर मिला। वह स्पष्ट रूप से जॉर्ज फर्नांडीस (जिन्हें वे 'जॉर्ज साहब' कहते थे) और नानाजी देशमुख दोनों को याद करते हैं।'
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
पुस्तक अंश
एक विचारक और एक लेखक
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कई लोगों को यह नहीं पता है, लेकिन नरेंद्र मोदी कई किताबों के लेखक भी हैं। ‘गुजरात मा संघर्ष’ के अलावा उन्होंने 10 अन्य पुस्तकें लिखीं हैं।
ग्रामीण लोगों के साथ बात करते हुए नरेंद्र मोदी
साल 1978 में, मोदी को उनकी सक्रियता और कुशल संगठनात्मक कार्य के लिए, आरएसएस का संभाग प्रचारक बनाया गया। उन्हें दक्षिण और मध्य गुजरात का प्रभार दिया गया। इसी समय, उन्हें दिल्ली बुलाया गया और आपातकाल के आधिकारिक आरएसएस अकाउंट को लिखने के लिए कहा गया। जिसमें उन्होंने आपातकाल के दौर का वर्णन किया और उस अवधि के दौरान के अपने अनुभवों को साझा किया। संघ प्रचारक के रूप में, मोदी,ऐसे समर्थकों के एक मजबूत राज्यव्यापी नेटवर्क का निर्माण करने में सफल रहे, जिनके पास कार्यकर्ताओं को सुरक्षित जगह और वित्तीय सहायता प्रदान करने की क्षमता थी। साथ ही जो बैठकों का आयोजन करने और वर्जित साहित्य के वितरण में भी सक्षम थे। कानून की नजरों से बचते हुए, इस नेटवर्क के अंदर विभिन्न आपातकाल विरोधी समूहों के साथ संपर्क स्थापित करने की क्षमता थी। मोदी ने 25 वर्ष की आयु में ही "गहन सोच वाले व्यक्ति" की पहचान हासिल कर ली। अपनी पुस्तक ‘आपातकाल में गुजरात’ (आपातकाल के दौरान गुजरात) में मोदी ने लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली का मुद्दा उठाया, और बताया कि कैसे उन्होंने और उनके आपातकाल विरोधी साथियों ने आपातकाल को खत्म करने का संघर्ष प्रभावी तरीके से अंजाम दिया। यह पुस्तक उन सभी लोगों के लिए एक उत्कृष्ट रचना है, जो लोकतंत्र से प्यार करते हैं और भारत के दूसरे स्वतंत्रता संग्राम की यादों से खुश होते हैं। जैसा कि मोदी कहते हैं, "इस अवधि के दौरान, मेरे पास अन्य दलों के साथ काम करने के ढेरों मौके थे। ... मैं भाग्यशाली था कि गांधीवादियों के साथ काम करने का मौका मिला।"
आरएसएस में पदोन्नति
1978 में, मोदी को उनकी सक्रियता और कुशल संगठनात्मक कार्य के लिए, आरएसएस का संभाग प्रचारक बनाया गया। उन्हें दक्षिण और मध्य गुजरात का प्रभार दिया गया। इसी समय, उन्हें दिल्ली बुलाया गया और आपातकाल का आधिकारिक आरएसएस अकाउंट को लिखने के लिए कहा गया। इस काम को उन्होंने बड़ी दक्षता के साथ किया। मोदी ने न केवल प्रचारकों के लिए वित्तीय सहायता का प्रबंध किया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि आपातकाल के अत्याचारों की एक सच्ची और सही तस्वीर दूसरे देशों में रहने वाले भारतीयों तक पहुंचे। संभाग प्रचारक के रूप में, मोदी ने पूरे गुजरात का दौरा किया, खुद को लोगों की समस्याओं से परिचित किया और उसका समाधान करने केलिए कठोर परिश्रम किया।
एबोड ऑफ लव
सेतुबंध:
साक्षीभाव
सामाजिक समरसता कनविनिएंट एक्शन
यह नरेंद्र मोदी के संरक्षक और आरएसएस नेता लक्ष्मण राव इनामदार (1917-1985) की जीवनी है। मोदी और राजा भाई नेने इसके सह-लेखक थे और इसका प्रकाशन 2001 में हुआ था।
आंख आ धन्य छे (आंख ये धन्य है): यह नरेंद्र मोदी की कविताओं का संग्रह है। इसका प्रकाशन 2007 में हुआ था ।
ज्योतिपुंज:
2008 में प्रकाशित गुजराती में लिखी यह पुस्तक उन विभिन्न आरएसएस नेताओं की जीवनी और जानकारी है, जिन्होंने मोदी को प्रेरित किया और उनके काम पर गहरा प्रभाव डाला। इसमें सबसे लंबा प्रोफाइल एमएस गोलवलकर का है, जिनके नेतृत्व में आरएसएस ने उल्लेखनीय रूप से विस्तार प्राप्त किया।
एबोड ऑफ लव:
(प्यार का घर) यह किताब, बहुत छोटी उम्र में मोदी द्वारा लिखी गई, आठ लघु कथाओं का एक संकलन है। ये कहानियां उसके चरित्र के संवेदनशील और स्नेही पक्ष को प्रकट करती हैं। पुस्तक में मोदी कहते हैं कि मां का प्यार सबसे बड़ा और महान प्यार है।
प्रेमतीर्थ:
प्रेमतीर्थ लघु कहानियों का एक संग्रह है, जो सरल, लेकिन शानदार भाषा में मातृ भावनाओं का एक भावपूर्ण चित्रण पेश करती है।
केलव ते केलावनी:
केलव ते केलावनी का अर्थ है, 'शिक्षा जो पोषण करती है।' यह पुस्तक गुजरात में नरेंद्र मोदी के विजन का संकलन है और यह शिक्षा के लिए उनके सर्वोच्च प्रेम को दर्शाता है।
साक्षीभाव:
यह किताब जगत जननी माता को संबोधित पत्रों का एक संकलन है। यह आरएसएस कार्यकर्ता के रूप में उनके संघर्ष के वर्षों और उनके भावुक विचारों की आत्म-यात्रा का वर्णन करती है।
सामाजिक समरसता:
सामाजिक समरसता भेदभाव के बिना सामाजिक सद्भाव पर मोदी के विचारों को दर्शाती है और दलितों के साथ उनकी बातचीत की कई घटनाओं को उजागर करती है। कई सामाजिक सुधारकों के जीवन का इस पुस्तक में उल्लेख है।
कनविनिएंट एक्शन:
गुजरात रिस्पांस टू चैलेंजेज ऑफ क्लाइमेट चेंज: (सुविधाजनक क्रिया: जलवायु परिवर्तन की चुनौतयों को गुजरात का उत्तर) यह मोदी की अंग्रेजी में पहली पुस्तक है और यह गुजरात में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के बारे में बात करती है। साथ ही बताती है कि कैसे लोगों को इसका जवाब देना चाहिए।
कनविनिएंट एक्शन-कंटीन्यूटी फॉर चेंज:
(सुविधाजनक क्रिया - परिवर्तन के लिए निरंतरता) यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नवीनतम पुस्तक है। इसका प्रकाशन 30 नवंबर, 2015 को राष्ट्रपति होलेंडे द्वारा पेरिस में सीओपी 21 सम्मेलन के दौरान हुआ था। इस पुस्तक में बहुआयामी पहल और नवाचार है, जो मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में पहली बार किए और फिर प्रधानमंत्री के रूप में। यह पुस्तक जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने और पर्यावरण को सुधारने के लिए भारत सरकार के प्रयासों पर एक समर्द्ध अंतर्दृष्टि और परिप्रेक्ष्य प्रदान करती है। यह जलवायुनीति और जलवायु-न्याय पर प्रधान मंत्री के विचारों की रूपरेखा है। (क्रमश: जारी)
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गांधी स्मृति
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
एक सदी, एक विचार
महात्मा गांधी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितना कि एक सदी पहले थे, जब इनका प्रतिपादन हुआ था। गांधी जी के विचारों की खूबी यह है कि उनका संदेश एक सार्वभौमिकता लिए हुए है (प्रसिद्ध
को
गुरचरण दास
अर्थशास्त्री और लेखक)
ई भी दौर ठहर कर नहीं रहता। वक्त हमेशा चलायमान रहता है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जाएंगे, वक्त आगे बढ़ता जाएगा, वैसे-वैसे चीजें बदलती जाएंगी। सूचना और ज्ञान के आयाम बदलेंगे। इसी आयाम का नतीजा है इंटरनेट तकनीक और मौजूदा दौर का सोशल मीडिया। संभव है कि आज की ये सब चीजें कल न रहें और इनकी जगह कोई और तकनीक ले ले। पर गांधी जी के विचारों की खूबी यह है कि उनका संदेश एक सार्वभौमिकता लिए हुए है, इसीलिए वह पूरी दुनिया के लिए प्रेरणात्मक है। हर समय, हर देश और हर माहौल के लिए उनका विचार प्रासंगिक है। आज जिस तरह से दुनियाभर में हिंसक गतिविधियां बढ़ रही हैं, गांधी जी के सत्यअहिंसा के विचार और भी प्रासंगिक होते जा रहे हैं। जाहिर है कि वक्त के साथ चलने को ही आधुनिकता कहा जाता है। अगर इस तकनीकी दौर के साथ हम नहीं चलते, तो लोग इसे पिछड़ापन मानेंगे, लेकिन ध्यान रहे कि यह बात तकनीक पर लागू हो सकती है, विचार पर नहीं। अच्छे और मौलिक विचार हमारे जीवन के लिए हमेशा प्रासंगिक रहते हैं। यही वजह है कि महात्मा गांधी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितना कि एक सदी पहले थे, जब इनका प्रतिपादन हुआ था। गांधी जी के विचारों की खूबी यह है कि उनका संदेश एक सार्वभौमिकता लिए हुए है, इसीलिए वह सिर्फ भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रेरणात्मक है। हर समय, हर देश और हर माहौल के लिए उनका विचार प्रासंगिक है। हमें राजनीतिक आजादी 1947 में मिली थी और आर्थिक आजादी 1991 के बाद मिली। आजादी के पहले हमें आजादी की तलाश थी, इसीलिए जब गांधी जी आजादी की लड़ाई के नायक बने, तो हम उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा जानने-समझने की कोशिश करने लगे। उनके विचारों से प्रेरणा लेने लगे और मैं समझता हूं कि हम आज भी उनसे प्रेरणा पा रहे हैं। तब आधुनिक तकनीक का दौर नहीं था। तब नौकरियों के लिए तकनीक की उतनी जरूरत भी नहीं थी, जितनी आज है। आज तकनीक और उद्यमिता का दौर है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का दौर है। साथ ही, देश में बेरोजगारी भी पहले के मुकाबले ज्यादा है। अब हमारे युवाओं को जरूरत है नौकरियों की। अब यह तो जाहिर है कि मौजूदा दौर में नौकरियां तकनीक के रास्ते से होकर ही निकलती हैं, इसीलिए हमारे युवा दुनिया के बड़े-बड़े एंटरप्रेन्योर और उद्योगपतियों के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा जानने की कोशिश करते
तकनीक और उद्यमिता से इतर जब भी मानव मूल्यों की बात आएगी, गांधी जी के विचार हमेशा प्रासंगिक हो जाएंगे हैं। लेकिन, जब भी अहिंसा की बात होती है, तो यही युवा गांधी जी के सत्य और अहिंसा के विचारों को ही प्रेरणा का स्रोत मानते हैं। गांधी जी का विचार मानव मूल्यों से जुड़ा हुआ है, जबकि आज के कामयाब एंटरप्रेन्योर और उद्योगपतियों को अपना आदर्श मानने की बात पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में युवाओं की आजीविका के सवाल से जुड़ा हुआ है। इसीलिए तकनीक और उद्यमिता से इतर जब भी मानव मूल्यों की बात आएगी, गांधी जी के विचार हमेशा प्रासंगिक हो जाएंगे। गांधी जी के ग्राम स्वराज की अवधारणा को मैं आर्थिक नजरिए से देखता हूं। हो सकता है यह अवधारणा उस वक्त के लिए उचित रही हो, लेकिन आज के दौर के ऐतबार से तो नहीं है। आज वैश्विक अर्थव्यवस्था का दौर है, किसी एक देश की अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव से दूसरे देशों की
अर्थव्यवस्थाओं पर असर पड़ने लगता है। आज से तीन सौ साल पहले, जब से औद्योगिक क्रांति दुनिया में आई है, इतिहास यही बताता रहा है कि लोग आधुनिकता की ओर भागे चले आए हैं। होना भी चाहिए। गांवों से लोग अगर शहर में काम करने जा रहे हैं, तो इसमें कुछ बुरा नहीं है, इससे गांवों का भी विकास होता है। दरअसल, हमारे देश की ग्राम्य व्यवस्था कई तरह की परंपरावादी मानसिकता लिए हुए है, इसीलिए भी लोग शहरों में आने लगे, क्योंकि शहरों में रूढ़ियों से थोड़ी-बहुत आजादी जरूर मिल जाती है। शहरों में खास तौर पर जाति से आजादी है। शहर में रह कर कुछ भी कर सकते हैं, जो गांवों में संभव नहीं हो पाता है, इसीलिए मेरे ख्याल में आज ग्राम स्वराज की अवधारणा उचित नहीं जान पड़ती। लेकिन हां, गांवों का विकास होना चाहिए और वहां हर बुनियादी चीज मुहैया होनी चाहिए, ताकि लोगों
का जीवन समृद्ध हो सके। भारत को कुटीर उद्योग को नहीं अपनाना चाहिए। यह बहुत पीछे की बात है। आज यह संभव नहीं है। कुटीर उद्योग की अवधारणा गांधी जी ने इसीलिए दी थी, क्योंकि उन्हें मशीनीकरण पसंद नहीं था। एक दूसरी बात यह है कि जो भी शहरों में पला-बढ़ा होता है, वह गांवों की ओर भागने की कोशिश करता है। शहरों में रहते हुए ग्रामीण जीवन को लेकर, किसान-खेत-हरियाली को लेकर एक प्रकार का रोमांस आने लगता है। गांधी जी भी शहर में ही पले-बढ़े थे, इसीलिए उन्होंने कुटीर उद्योग का एक रोमांटिक आइडिया दिया। तकरीबन सौ साल पहले दुनिया की आबादी दो-ढाई अरब के आसपास थी, लेकिन आज यह आठ अरब के करीब है। अगर सिर्फ भारत की ही बात करें, तो इतनी बड़ी आबादी के लिए कुटीर उद्योग का कोई मतलब ही नहीं बनता। हम बड़े उद्योगों को, बड़ी कंपनियों को किसी भी तरह नकार नहीं सकते। यह तकनीक और औद्योगीकरण की ही देन है कि आज की आम जिंदगी सौ साल पहले की आम जिंदगी से ज्यादा अच्छी है। आज तमाम सुखसुविधाएं हैं और इसीलिए आज लोगों की जीवन प्रत्याशा भी बढ़ी है, जो सौ साल पहले बहुत कम थी। यह उपलब्धि तकनीक और औद्योगीकरण की ही देन है। इसका अर्थ यह कतई नहीं कि गांधी जी महान नहीं थे। वे महान थे, खासकर मानव मूल्यों के लिए उत्तम विचारों का प्रतिपादन करने के मामले में तो वे बहुत महान व्यक्ति थे। सत्य-अहिंसा के विचार का प्रतिपादन करनेवाले गांधी मानव मूल्यों को मजबूती देने के मामले में बहुत महान व्यक्तित्व थे। गांधी जी के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए दुनिया भर में जहां भी गांधीवादी केंद्र या संस्थाएं हैं, वे सभी सत्य-अहिंसा के बारे में ही सिखाती हैं। अब इन संस्थाओं की यात्रा कितनी सफल रही या उनकी उपलब्धियां क्या रहीं, इस पर मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता, इसका विचार ये संस्थाएं ही करें, लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि आज जिस तरह से दुनियाभर में हिंसक गतिविधियां बढ़ रही हैं, पूरी दुनिया में गांधी के सत्य-अहिंसा के विचार और भी ज्यादा प्रासंगिक होते जा रहे हैं। हमारे नैतिक जीवन और धार्मिक जीवन के लिए गांधी का बहुत महत्व है। अगर हम नैतिक और धार्मिक रूप से सत्य-अहिंसा का पालन करने लगें, तो इसका असर हमारे जीवन के हर पहलू पर पड़ेगा ही, फिर चाहे वह हमारी राजनीति हो या शासन व्यवस्था। जाहिर है, अगर ऐसा नहीं होगा, तो गांधी जी एक प्रतीक के रूप में ही रह जाएंगे। अब यह हमारे ऊपर है कि हम गांधी जी को क्या बनाना चाहते हैं।
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
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गांधी स्मृति
तारीखी संबोधन
गांधी जी ने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण भाषण दिए। इन भाषणों से उनकी अहिंसक आस्था के साथ भारत के भविष्य को लेकर उनकी सोच का भी पता है
4 फरवरी, 1916
फ
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का भाषण
‘भारत के अंग्रेजीदां ही देश की अगुवाई कर रहे हैं और वे ही राष्ट्र के लिए सब कुछ कर रहे हैं। ... मान लीजिए हमने पिछले पचास वर्षों में अपनी-अपनी भाषाओं के जरिए शिक्षा पाई होती, तो हम आज किस हालत में होते?’
रवरी 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर बोलने के लिए, पं मदन मोहन मालवीय ने महात्मा गांधी को आमंत्रित किया था। वहां सभी उपस्थित लोग, महात्मा गांधी के भाषण सुनकर विचार-विमर्श करने पर मजबूर हो गए थे। शाही राजा और
11 मार्च 1930
य
युवराजों, एनी बेसेंट और बाकी सभी, ब्रिटिश नेताओं के प्रति भारतीय नेताओं द्वारा अपनाने वाले विनीत भाषण की उम्मीद लगाकर आए थे। गांधी जी ने अंग्रेजी भाषा के जरिए भारी आलोचना और स्वराज्य की मांग के मुद्दे को प्रस्तुत करके दर्शकों को चौंका दिया था और महात्मा गांधी ने पहली बार बनारस
में देश के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने का संकेत प्रदर्शित किया था। ब्रिटिश शासन से भारत को आजाद कराने की आग को भड़काने वाला यह पहला भाषण था।
दांडी मार्च भाषण
‘हमने विशेष रूप से एक अहिंसात्मक संघर्ष की खोज में, अपने सभी संसाधनों का उपयोग करने का संकल्प किया है। क्रोध में कोई भी गलत निर्णय न लें’
ह भाषण ऐतिहासिक दांडी नमक मार्च की पूर्व संध्या पर था, जिसमें कि महात्मा गांधी ने असहयोग के लिए, एक अच्छी तरह से सोचेसमझे कार्यक्रम का उल्लेख किया था। उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ समुद्र के पानी से नमक बनाने की
30 नवंबर 1931 ‘मैं यह कहने की हिम्मत करता हूं कि भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच यह संघर्ष ब्रिटिश आगमन की एकजुटता का कारण है और तुरंत इस संबंध को ग्रेट ब्रिटेन और भारत के बीच दुर्भाग्यपूर्ण, कृत्रिम व अप्राकृतिक संबंधों से प्राकृतिक संबंधो में परिणत कर दिया जाता है। अगर ऐसा होता है, तो स्वैच्छिक साझेदारी को छोड़ दिया जाए, अगर दोनों में से एक भी पार्टी भंग हो जाती है, तो आपको प्रतीत होगा कि हिंदू, मुसलमान, सिख, यूरोपीय, एंग्लो इंडियन, ईसाई, अछूत, सभी एक साथ एकजुटता से रहते हैं’
स्थापना करते हुए ब्रिटिश भारतीयों से कहा कि अंग्रेजों द्वारा लगाए गए करों की अवहेलना करनी होगा। उन्होंने भारतीयों से विदेशी शराब और कपड़े, करों का विरोध करने और (ब्रिटिश) अदालतों व सरकारी कार्यालयों से दूरी बनाकर रहने को कहा। इस भाषण ने न केवल भारतीयों को स्वतंत्रता संग्राम में
गोलमेज सम्मेलन भाषण
शामिल होने और औपनिवेशिक शासन को चुनौती देने के लिए मजबूर किया, बल्कि साथ ही कई दशकों के बाद अमेरिका के नागरिक अधिकार आंदोलन को भी प्रभावित किया। भारतीयों का मानना है कि इस भाषण ने ‘सत्याग्रह’ के प्रारंभ होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
8 अगस्त 1942
‘भारत छोड़ो’ भाषण
‘मेरा मानना है कि दुनियाभर के इतिहास में, स्वतंत्रता के लिए हमारे वास्तविकता से ज्यादा यथार्थवादी लोकतांत्रिक संघर्ष नहीं रहा है’
गां
धी जी ने अपने पहले गोलमेज सम्मेलन में यही भाषण दिया था। इस भाषण में यह बताया गया है कि अंग्रेजों ने सांप्रदायिक असंतोष और झगड़े का हवाला देते हुए भारतीय राजनेताओं को अधिराज्य की स्थिति स्वीकार कराने का प्रयास किया। साहसिक महात्मा गांधी ने स्पष्ट रूप से झांसेबाज अंग्रेजों को चुनौती दी और भारत की एकता और धर्मनिरपेक्ष भावना का प्रदर्शन किया। उन्होंने कहा कि हमारे देश का इतिहास अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा बदल दिया गया है, लेकिन एक बार फिर हम प्यार और भाईचारे की एकता का गीत गाएंगे।
इ
स संबोधन को ‘भारत को आजादी के कगार पर लाने वाले भाषण’ के रूप में संदर्भित करता है। ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन की पूर्व संध्या पर गांधी जी के संबोधन में अहिंसा (अहिंसा) और हमारी आजादी के आदर्शों को शामिल किया गया। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों को स्वेच्छा से भारत छोड़ने के लिए काफी प्रयास किए और लाखों भारतीयों को बंधन और गुलामी से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए प्रेरित भी किया। उनको अपने दृष्टिकोण की नवीनता और अहिंसात्मक ढंग का उपयोग करने वाले दुनिया के सबसे बड़े नेताओं में से एक के रूप में जाना जाता है।
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गांधी स्मृति
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
नील, चंपारण और महात्मा
चंपारण सत्याग्रह के सौ वर्ष पूरे हो गए हैं। भारत में ही चंपारण की धरती पर ही महात्मा गांधी ने पहली बार सत्याग्रह का प्रयोग किया। लिहाजा यह जानना महत्वपूर्ण है कि क्या रहा है चंपारण का इतिहास, किस तरह वहां किसानों पर अंग्रेज निलहे जुल्म ढाते थे
खास बातें भारत में यूरोपीय पद्धति की नील की खेती का श्रेय एक फ्रांसिसी को 1793 ई. में सारण जिला में नील की खेती शुरू हुई राजकुमार शुक्ल व मोहम्मद मुनीस आदी ने किया पीड़ित किसानों को संगठित विवाद की स्थिति में इस्ट इंडिया कंपनी की सरकार किसानों के हित की ओर भी कुछ ध्यान देती थी।
पहले तिरहुत, फिर सारण
नी
प्रमोद कुमार
ल की खेती का इतिहास भारत में अंग्रेजों के आने से बहुत पहले से रहा है। नील मूल रूप से यह एक भारतीय पौधा है, जिससे प्राचीन लैटिन लेखक परिचित थे। प्लीनी और अन्य लेखक इसे भारत का पौधा बताते हैं। यूरोप में पहली बार जर्मनी में 17 वीं सदी में इसका प्रयोग शुरू हुआ था। लेकिन 1654 ई. में इसे वहां प्रतिबंधित कर दिया गया। इससे ठीक उलट उस समय भारत में बेहतरीन किस्म का नील गुजरात के अहमदाबाद में उत्पादित हो रहा था और यूरोप के रोम और कुस्तुनतुनिया जैसे जगहों में इसका निर्यात हो रहा था। ‘आइने अकबरी’ के अनुसार इस उत्कृष्ट किस्म के नील उत्पादन का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र अकबर की राजधानी से कुछ ही दूर पर बीणा में था। ‘आइने अकबरी’ के अतिरिक्त यूरोप यात्री बर्नियर भी यह लिखता है कि बीणा के आसपास के नील की खरीदारी कर डच व्यापारी यूरोप ले जाते थे। कुल मिलाकर कहने का आशय यह कि नील की खेती के क्षेत्र में अंग्रेजों के आने से बहुत पहले से भारत में उत्कृष्ट किस्म की नील का उत्पादन होता था।
भारत में नील की खेती का श्रेय
भारत में यूरोपीय पद्धति की नील की खेती आरंभ करने का श्रेय किसी अंग्रेज को नहीं, बल्कि एक
फ्रांसिसी लुइस बोनॉड को जाता है। बोनॉड भारत में फ्रांसिसी कोलॉनी चंदरनगर का गवर्नर था। उसी समय फ्रांस में क्रांति हुई और वर्साय के किले का पतन हुआ। वहां का राजा पदच्युत कर दिया गया। उसी से प्रेरित होकर, उसी के तर्ज पर चंदरनगर की फ्रांसिसी जनता ने बोनॉड को अपदस्थ कर दिया और उस किले में ही उसे बंदी बना दिया। बोनॉड किसी तरह वहां से भाग निकला और कलकत्ता में शरण लिया। वहां वह अपने अंग्रेज मित्रों की सहायता से नील की फैक्ट्री स्थापित की। पहले मालदह जिला फिर जेसौर में उसने नील का कारखाना लगाया और अपने समय का सबसे सफल नील व्यवसायी बना। लगभग उसी समय उत्तर बिहार में भी नील की खेती शुरू हुई। इतिहासकार स्टिवेंशन मर लिखते हैं कि यूरोपीय पद्धति पर नील की खेती उत्तरी बिहार में सर्वप्रथम 1782 ईं. में आरंभ हुई। यही वह वर्ष है जब मिस्टर ग्रांड को ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तिरहुत का कमिश्नर नियुक्त किया गया। इन्हीं मिस्टर ग्रांड को उत्तर बिहार में यूरोपीय ढ़ंग से नील की खेती
आरंभ करने और उसे उद्योग का दर्जा दिलान का श्रेय दिया जाता है। मिस्टर ग्रांड ने अपने खर्चे से इस इलाके में नील के तीन कारखानों का निर्माण कराया था। परंतु जल्दी ही मिस्टर ग्रांड को तिरहुत से हटाकर पटना में जज बना दिया गया और उसे अपने नील के धंधे को बंद करने को कहा गया। ऐसा नहीं करने पर उसे पटना के जज के पद से भी विमुक्त कर दिया गया। इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं- नील का उद्योग और ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार दोनों एक-दूसरे के तब तक समानार्थी नहीं बने थे। दूसरा यह कि ईस्ट इंडिया कंपनी के इलाके में नील की खेती करने के लिए उसकी मंजूरी तो आवश्यक थी लेकिन स्वतंत्र रूप से यूरोपीय लोग यहां नील की खेती करते थे। किसानों और फैक्ट्री के बीच
इतिहासकार स्टिवेंशन मर लिखते हैं कि यूरोपीय पद्धति पर नील की खेती उत्तरी बिहार में सर्वप्रथम 1782 ईं. में आरंभ हुई। यही वह वर्ष है जब मिस्टर ग्रांड को ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तिरहुत का कमिश्नर नियुक्त किया गया
तिरहुत के कुछ वर्षों बाद सन 1793 ई. में सारण जिला में नील की खेती शुरू हुई। तब चंपारण सारण जिला के अंतर्गत ही आता था। चंपारण में उसके करीब 20 वर्ष बाद सन 1813 ई. में यूरोपीय पद्धति पर आधारित पहला नील का कारखाना कर्नल हिक्की ने बाराचकिया में स्थापित किया। इससे पहले चंपारण में यरोपीयों की मुख्य उद्योग चीनी था। ईंख की खेती और उसपर आधारित चीनी उद्योग न केवल चंपारण, बल्कि पूरे तिरहुत क्षेत्र में फल-फूल रहा था। मिंडेन विल्सन, जो सन 1847 में मॉरीशस से कलकत्ता होते हुए तिरहुत आया, लिखता है कि वह मॉरीशस में ईंख की खेती वाले उद्योग में काम करता था। वहां उसे इस ध्येय से प्रशिक्षित किया जा रहा था कि वह बंगाल जाकर ईंख की खेती में नया प्रयोग कर चीनी उद्योग को बढ़वा देगा। चंपारण में चीनी मीलों के फलने-फूलने की पुष्टि सन 1847 के राजस्व सर्वेक्षणों से भी होती है। लेकिन 1850 तक आते-आते चीनी उद्योग पूरी तरह से यहां घाटे में चला गया। विल्सन लिखता है कि उसके आने के दो साल के भीतर ही इस क्षेत्र में ईंख की खेती पूरी तरह से घाटे का सौदा बन गई। कई यूरोपीय व्यवसायी कंगाल हो गए। मॉरीशस का प्रयोग यहां नहीं चल सका। यहां की जमीन गन्ने की खेती के लिए अनुपयुक्त पाई गई। तभी यूरोपीय लोगों की पहली पसंद नील की खेती बना। इसी
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
राजकुमार शुक्ल और गांधी
गांधी जी को चंपारण की धरती और वहां की जनता के रूप में एक ऐसा धरातल मिला, जिस पर खड़े होकर भारत में उन्होंने न केवल सत्याग्रह की आधारशिला रखी, बल्कि स्वराज्य की भी बुनियाद खड़ी की
रा
जकुमार शुक्ल ने 1908 की झड़प के बाद अपनी डायरी में एक जगह दर्ज किया है कि काश हमारे पास भी दीनबंधु मित्र जैसा कोई होता तो हमारी दुर्दशा ऐसी न होती। शुक्ल जी को यह पता नहीं था कि आने वाले कुछ वर्षों में समय नील की कीमत में अभूतपूर्व वृद्धि हुई और नील उद्योग ने चीनी उद्योग का स्थान ग्रहण कर लिया। सन 1850 के बाद अगले 70-80 साल तक चंपारण में व्यवसायिक खेती का इतिहास नील की खेती और उद्योग का इतिहास बनकर रह जाता है। चंपारण में नील की खेती के संदर्भ में एक मुख्य पड़ाव 1857 की क्रांति के बाद आता है। 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों की सत्ता को फिर से स्थापित करवाने में निलहों ने मदद की। वहीं दूसरी ओर इस क्रांति के बाद अंग्रेजी सत्ता ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से निकल कर ब्रिटिश क्राउन के अधीन चली गई। ब्रिटिश क्राउन के अधीन अंग्रेजी हुकूमत का एक ध्येय यह रहा कि किसानों के बीच असंतोष को यथासंभव कम करने की कोशिश की जाए और ऐसा कुछ न हो जिससे जनअसंतोष विस्फोटक स्थिति में पहुंचे। दूसरी ओर अंग्रेजों की सत्ता के पुनः स्थापित होने पर निलवरों के अंदर यह भावना पैदा होने लगे की वे राज्य सत्ता के अभिन्न अंग हैं और उस सत्ता का उपयोग वे किसी भी तरह से अधिकाधिक लाभ कमाने के लिए करने लगे। चंपारण में नील की खेती के आगे का इतिहास इन विभिन्न प्रवृत्तियों के संघात में निर्मित होता है।
1850-1870 का दौर
1850 से लेकर 1870 तक बिहार में नील की खेती द्रुत गति से आगे बढ़ती है। सन 1869-70 के आसपास जब बंगाल में नील की खेती को वहां के बुद्धिजीवी शोषण के पर्याय के रूप में चित्रित करने लगे तो जन असंतोष को देखते हुए सरकार ने नील की खेती प्रतिबंधित कर दिया। बंगाल की निलवरों का अच्छा खासा हिस्सा तिरहुत और खासकर चंपारण आ गया। नील की खेती में प्रतिस्पर्धा बढ़ी तो रैयतों को शोषण और ज्यादा होने लगा। ऐसी स्थिति में किसानों की शिकायतें बढ़ने लगी। सन 1877 ई. में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एशले इडेन ने यह चिन्हित किया कि सारण, चंपारण और
उन्हें गांधी जी के रूप में एक ऐसा नायक मिलने वाला है, जो न केवल नील के धब्बे से चंपारण को मुक्त करेगा बल्कि उनलोगों की सहायता से सत्याग्रह का एक ऐसा रोडमैप बनाएगा, जिससे न केवल भारत को आजादी मिलेगी बल्कि उपनिवेशवाद की भी पूरी चूलें हिल जाएंगी। चंपारण की संघर्षरत जनता को गांधी जी के रूप में एक नायक मिला तो गांधी जी को चंपारण की धरती और वहां की जनता के रूप में एक ऐसा धरातल मिला, जिस पर खड़े होकर भारत में उन्होंने न केवल सत्याग्रह की आधारशिला रखी बल्कि स्वराज्य की भी बुनियाद खड़ी की और औपनिवेशिक आधुनिकता के सफल प्रतिरोध का एक मानक भी खड़ा किया।
तिरहुत जिले में बड़े पैमाने पर अपराधिक मुकदमे दर्ज किए गए हैं। इसके आलोक में लेफ्टिनेंट गवर्नर ने पटना के कमिश्नर एससी बेली को लिखा कि महत्वपूर्ण निलवरों और अधिकारियों की इस बाबत राय ली जाए कि क्यों निलवरों व रैयतों के बीच रिश्ते बिगड़ रहे हैं। सरकार के द्वारा दबाव बनाए जाने की स्थिति में अपने हितों की सुरक्षा के लिए पहली बार निलवर संगठित होकर अपनी राय व्यक्त करने लगे।
विरोध और आंदोलन
2 अप्रैल 1877 को पहली बार निलवरों ने अपनी बैठक की। मुजफ्फरपुर के प्लांटर्स क्लब में संपन्न हुई इस बैठक में बड़ी संख्या में निलवरों ने भाग लिया। एफ कॉलिन ग्रीज ने इसमें प्रस्ताव पेश किया, जिसे आर विल्सन ने समर्थन दिया। इस प्रस्ताव के द्वारा निलवरों ने नील की खेती से संबंधित मुद्दों को अपने द्वारा निपटाने की बात पर जोर दिया। जून तक आते-आते इंडिगो प्लांटर्स एसोसिएशन का गठन हो गया। तब से यह संस्था सरकार के समन्वय से नील की खेती की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हो गई। एक ओर निलवर संगठित होकर अपना अधिकाधिक लाभ सुरक्षित करने के लिए रैयतों पर अत्याचार करने लगे। वहीं दूसरी ओर रैयत भी अपना असंतोष खुलकर प्रकट करने लगे। पहले तो रैयत निलहों और उनके स्थानीय कारिंदो के अत्याचार से डरकर गांव का गांव छोड़कर अन्यत्र भाग गए। लेकिन 1867-68 तक आते-आते वे विद्रोह करने के लिए विवश हो गए। बंगाल की घटना से प्रेरित होकर चंपारण के किसान भी संगठित रूप से अपना प्रतिरोध दर्ज करने लगे।
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गांधी स्मृति
1867-68 में लाल सरैया कोठी के जौकटिया गांव में नील की खेती के विरूद्ध किसानों ने जोरदार प्रदर्शन किया। नील के लिए तैयार भूमि में किसानों ने रबी की फसल बो दी। जौकटिया से शुरू हुई विद्रोह की यह आग अगल-बगल के इलाकों में फैल गई। करीब चार महीनों तक यह आंदोलन चलता रहा।
पंच कठिया से तीन कठिया
इस घटना का प्रभाव यह हुआ कि प्रति बीघे पांच कट्ठे नील बोने की प्रथा घटकर तीन कट्ठे प्रति बीघा पर पर आ गई। यानि पंच कठिया से तीन कठिया पद्धति की ओर सरकार को फैसला लेना पड़ा। गौरतलब है कि लाल सरैया कोठी निलवरों का राजा कहे जाने वाले जेम्स मैकलिऑड की कोठी थी। इसीलिए इस आंदोलन के फलस्वरूप नील की खेती का दायरा तो कम हुआ लेकिन सरकार ने निलवरों के रक्षार्थ दो जजों की एक छोटी अदालत मोतिहारी में इस वास्ते स्थापित कर दी कि रैयतों पर जो मुकदमें नील संबंधी सट्टों की शर्तों को तोड़ने के लिए हर्जाने के वास्ते कोठी वाले दाय करे, उनका वह शीघ्रता से फैसला करे। इससे किसानों का असंतोष तत्कालिक रूप से शमित हुआ लेकिन विद्रोह की आग भीतर ही भीतर जलती रही। एशले इडन के बंगाल के उप राज्यपाल बनने के बाद रैयतों में यह भरोसा पैदा हुआ कि उनके हितों की कुछ रक्षा होगी। लेकिन निलवरों अपने हितों की रक्षा के लिए इंडिगो प्लांटर्स एसोसिएशन बना लिए और मुजफ्फरपुर में उसका मुख्यालय बना दिया गया। जिले में इसकी शाखाएं हो गई और लंदन में भी उसका एक मुख्यालय स्थापित कर दिया गया। यानि एक ओर रैयतों का असंतोष बढ़ रहा था तो दूसरी ओर निलवर संगठित हो रहे थे।
अकाल में बढ़ा दाम
1887 ई. में जब बिहार प्रांत में भयंकर अकाल पड़ा तब निलवरों ने नील का दाम दस रुपया से बढ़ाकर 12 रुपया प्रति एकड़ कर दिया परंतु रैयतों को इसका लाभ नहीं मिला। इसी बीच 1893 ई. के आसपास बाजार में कृत्रिम नील के आने के बाद नील की खेती का मुनाफा बहुत तेजी से कम हुआ। एक ओर कृत्रिम नील और दूसरी ओर किसानों का प्रतिरोध। इससे निलहों का मुनाफा बाधित होने लगा। अपने मुनाफे को बनाए रखने के लिए निलहों ने कुल मिलाकर 52 तरह के आबवाब यानि गैरकानूनी टैक्स किसानों पर लगा दिए। इससे निलवरों व रैयतों के बीच का रिश्ता और कटु होता
गांधी जी के रूप में चंपारण के किसानों को पहली बार एक ऐसा नेता मिला, जो औपनिवेशिक आधुनिक संस्थानों के भीतर प्रतिरोध दर्ज करने की कला में पूरी तरह माहिर है
गया। 20 वीं सदी का आरंभ होते ही रैयत सीधे विद्रोह पर उतारू हो गए।
टकराव तेज
1907 ई. के आरंभ में ही साठी कोठी के असामियों ने नील बोने से मना कर दिया। केस-मुकदमे का सिलसिला शुरू हो गया। साठी कोठी के गुमास्ता सुंदरमन राय ने फौजदार दुबे वगैरह पर यह कहते हुए मुकदमा किया कि कालीचरण तेली को कोठी का काम करने से रोका गया है। जब रैयत कोठी का काम करने व नील बोने से मना करने लगे तो कोठी ने उनपर पैन खर्च लगा दिया। इससे भी रैयतों और कोठी के बीच टकराव की स्थिति बनती गई। ऐसी ही स्थिति परसा कोठी की भी थी। वहां भी 16 अक्टूबर 1908 को रैयतों और कोठी के सिपाहियों के बीच मारपीट हुई। असंतोष की स्थिति को देखते हुए मिस्टर डब्ल्यू. आर. गोरले जो बंगाल सरकार के कृषि विभाग के अध्यक्ष थे, उन्हें स्थिति का आकलन करने के लिए चंपारण भेजा गया। परंतु सरकार ने मिस्टर गोरले की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया और न किसानों की स्थिति को ठीक करने के लिए कोई सार्थक पहल की। परिणाम यह हुआ कि तेलहरा कोठी के रैयतों ने कोठी के मैनेजर मिस्टर ब्लूमफील्ड को मार डाला। यानि किसानों और निलहों का टकराव 1908 तक आते-आते अपने चरम स्थिति पर पहुंचने लगा था। इस पूरे आंदोलन का प्रभाव यह हुआ कि कुछ इलाकों में तीन कठिया प्रथा के बदले दो कठिया प्रथा लागू कर दी गई। लेकिन आबवाबों से रैयतों को मुक्ति नहीं मिली। परिणामतः असंतोष की आग बुझन के बाजए निरंतर सुलगती गई।
दुष्चक्र के खिलाफ गोलबंदी
चंपारण, जो मुख्यतः अपनी जमीन की उर्वरा शक्ति के लिए प्रसिद्ध था अंग्रेजी राज्य के अंतर्गत अपनी उसी ताकत की वजह से शोषण का शिकार भी बना। उर्वर जमीन, जनसंख्या का कम घनत्व और हिमालय की तलहटी का यह इलाका यूरोपीयों के लिए व्यवसायिक दृष्टि से अत्यंत लाभप्रद साबित हुआ। खेती के बहाने इस पूरे इलाके को शोषण का क्षेत्र बनाया गया। औपनिवेशिक आधुनिक संस्थाओँ के तहत प्रतिरोध करने की शैली यहां की जनता नहीं सीख पाई थी। इसीलिए अपने तईं प्रतिरोध का स्वरूप वहां की जनता समय-समय पर दर्ज करती गई। 1908 के हिंसक झड़प के बाद शेख गुलाब, राजकुमार शुक्ल, शीतल राय, पीर मोहम्मद मुनीस जैसे स्थानीय लोग शोषण के इस दुष्चक्र के खिलाफ वहां के रैयतों को संगठित करने लगे थे। इस पृष्ठभूमि में वहां गांधी जी का आगमन होता है। गांधी जी के रूप में चंपारण के किसानों को पहली बार एक ऐसा नेता मिला, जो औपनिवेशिक आधुनिक संस्थानों के भीतर प्रतिरोध दर्ज करने की कला में पूरी तरह माहिर है।
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गांधी स्मृति
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
सोच, स्वराज और गांधी 1909 में महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई पुस्तिका ‘हिंद स्वराज’ का संपादित अंश
गां
धी का काल, उनके आदर्श और उनके आह्वान ने कई मामलों में एक शती लंबी यात्रा पूरी कर ली है। उनके विचारों के आदर्श ‘हिंद स्वराज’ पुस्तिका के रूप में दुनिया के सामने सबसे पहले 1909 में आया। यह पुस्तिका गांधी विचार की कुंजिका। खुद गांधी जी ने भी माना है कि वे ‘हिंद स्वराज’ को अपनी समझ और आदर्श मानते हैं। आखिर क्या कहा है गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में और क्या थी उनकी सभ्यता और भारत को लेकर समझ? इन सवालों का उत्तर तो इस पुस्तिका को पढ़कर मिलता ही है, साथ ही यह भी समझ में आता है कि राष्ट्रपिता कैसे अपने समय से कई शती आगे तक देख रहे थे। मौजूदा भौतिकवादी दौर में जिन संकटों से हम जूझ रहे हैं, गांधी जी ने इसकी पहचान एक शताब्दी पहले कर ली थी। आइए, देखते हैं
खास बातें
बापू के सपने के भारत में सबके लिए बराबर स्थान और महत्व यांत्रिक प्रवृति और सभ्यता को कल्याणकारी नहीं माना भारतीय परंपरा और सभ्यता को यूरोपीय सभ्यता से बताया श्रेष्ठ
‘हिंद स्वराज’ में महात्मा गांधी ने विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय किस बेबाकी और तार्किकता के साथ रखी हैंसच्चा स्वराज थोड़े लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता हो तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके हासिल किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, स्वराज जनता में इस बात का ज्ञान पैदा करके प्राप्त किया जा सकता है कि सत्ता पर कब्जा करने और उसका नियमन करने की क्षमता उसमें है। स्वराज का अर्थ है सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए लगातार प्रयत्न करना, फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। यदि स्वराज हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुंह ताकना शुरू कर दें तो वह स्वराज सरकार किसी काम की नहीं होगी।
सबका मान, सबका स्थान
मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह उनका देश है, इसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा, जिसमें ऊंचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध संप्रदायों में पूरा मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे जो पुरुषों को। चूंकि शेष सारी दुनिया के साथ हमारा संबंध शांति का होगा, यानी न तो हम किसी का शोषण करेंगे और न
किसी के द्वारा अपना शोषण होने देंगे।
सिंगर मशीन
मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करने का नहीं है, बल्कि उनकी हद बांधने का है। हम जो कुछ करें उसमें मुख्य विचार इंसान के भले का होना चाहिए। ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए जो काम के अभाव में आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। इसीलिए यंत्रों को मुझे परखना होगा। जैसे सिंगर की सिलाई मशीन का मैं स्वागत करूंगा। आज की सब खोजों में जो काम की थोड़ी खोजें हैं, उनमें से एक यह सिलाई मशीन है। उसकी खोज के पीछे अद्भुत इतिहास है। सिंगर ने अपनी पत्नी को सिलाई और बखिया लगाने का उकताने वाला काम करते देखा। पत्नी के प्रति रहे उसके प्रेम ने, गैर जरूरी मेहनत से उसे बचाने के लिए, सिंगर को ऐसी मशीन बनाने की
प्रेरणा दी। ऐसी खोज करके उसने न सिर्फ अपनी पत्नी का ही श्रम बचाया, बल्कि जो भी ऐसी सीने की मशीन खरीद सकते हैं, उन सबको हाथ से सीने के उबामे वाले श्रम से छुड़ाया है। सिंगर मशीन के पीछे प्रेम था, इसीलिए मानव सुख का विचार मुख्य था। यंत्र का उद्देश्य है, मानव श्रम की बचत। उसका इस्तेमाल करने के पीछे धन का लोभ नहीं होना चाहिए, बल्कि प्रामाणिक रीति से दया का होना चाहिए। लोभ की जगह हम प्रेम को दें, तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा। पहले यूरोप के लोग जैसे घरों में रहते थे, उनसे ज्यादा अच्छे घरों में आज वे रहते हैं। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। इसके पहले लोग चमड़े के कपड़े पहनते थे और भालों का इस्तेमाल करते थे। अब वे लंबे पतलून पहनते हैं और शरीर को सजाने के लिए तरह तरह के कपड़े बनवाते हैं। भाले के बदले एक के बाद एक पांच गोलियां छोड़ सकें, ऐसी चक्कर वाली बंदूक इस्तेमाल करते हैं। यह सभ्यता की निशानी है।
यूरोपीय सभ्यता
पहले यूरोप में लोग मामूली हल की मदद से अपने लिए जोत मेहनत करके जमीन जोतते थे।
यदि स्वराज हो जाने पर लोग अपने जीवन की हर छोटी बात के नियमन के लिए सरकार का मुंह ताकना शुरू कर दें तो वह स्वराज सरकार किसी काम की नहीं होगी
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018 उसकी जगह आज भाप के यंत्रों से हल चलाकर एक आदमी बहुत सारी जमीन जोत सकता है और बहुत सा पैसा जमा कर सकता है। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। पहले लोग बैलगाड़ी से रोज बारह कोस की मंजिल तय करते थे। आज रेलगाड़ी से चार सौ कोस की मंजिल मारते हैं। यह तो सभ्यता की चोटी मानी गई है। यह सभ्यता जैसेजैसे आगे बढ़ती जाती है, वैसे वैसे यह सोचा जाता ही कि लोग हवाई जहाज से सफ़र करेंगे और थोड़े ही घंटों में दुनिया के किसी भी भाग में जा पहुंचेंगे। लोगों को हाथ पैर हिलाने की जरूरत नहीं रहेगी। एक बटन दबाया कि आदमी के सामने पहनने की पोशाक हाजिर हो जाएगी। दूसरा बटन दबाया कि उसे अखबार मिल जाएंगे। तीसरा दबाया कि उसके लिए गाड़ी तैयार हो जाएगी। हर हमेशा नए भोजन मिलेंगे, हाथ पैर का काम ही नहीं पड़ेगा, सारा काम कल से ही किया जाएगा। पहले जब लोग लड़ना चाहते थे तो एक दूसरे का शारीरिक बल आजमाते थे। आज तो तोप के एक गोले से हजारों जानें ली जा सकती हैं। यह सभ्यता की निशानी है। पहले लोग खुली हवा में अपने को ठीक लगे उतना काम स्वतंत्रता से करते थे। अब हजारों आदमी अपने गुजारे के लिए इकट्ठा होकर बड़े कारखानों में या खदानों में काम करते हैं। उनकी हालत जानवर से भी बदतर हो गई है। उन्हें शीशे बगैरह के कारखानों में जान को जोखिम में डालकर काम करना पड़ता है। इसका लाभ पैसे वाले लोगों को मिलता है। पहले लोगों को मारपीट कर गुलाम बनाया जाता था। आज लोगों को पैसे का और भोग का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है। पहले जैसे रोग नहीं थे, वैसे रोग आज लोगों में पैदा हो गए हैं और उनके साथ डॉक्टर खोज करने लगे हैं कि ये रोग
हमारे पुरखों ने भोग की हद बांध दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुखदुख तो मन के कारण हैं। अमीर अपनी अमीरी के कारण सुखी नहीं है, गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं है मिटाए कैसे जाएं ? ऐसा करने से अस्पताल बढ़े हैं। यह सभ्यता की निशानी मानी जाती है। पहले लोग दो या तीन बार खाते थे, वह भी खुद हाथ से पकाई हुई रोटी और थोड़ी तरकारी। अब तो हर दो घंटे पर खाना चाहिए, और वह यहां तक कि लोगों को खाने से फुरसत ही नहीं मिलती। ये सब सभ्यता की सच्ची निशानियां हैं। उसमें नीति या धर्म की बात ही नहीं है। शरीर का सुख कैसे मिले यही आज की सभ्यता ढूंढती है और यही देने की वह कोशिश करती है। परंतु वह सुख भी नहीं मिलता। यह सभ्यता तो अधर्म है और वह यूरोप में इस हद तक फैल गई है कि वहां के लोग आधे पागल जैसे देखने में आते हैं। उनमें सच्ची कूबत नहीं है। वे नशा करके अपनी ताकत कायम रखते हैं। इंग्लैंड में चालीस लाख गरीब औरतों को पेट के लिए सख्त मजदूरी करनी पड़ती है और आजकल इसके कारण ‘सफ्रेजेट’ का आंदोलन चल रहा है। पैगंबर मोहम्मद साहब की सीख के मुताबिक़ यह शैतानी सभ्यता है। हिन्दू धर्म इसे निरा कलियुग कहता है। इस सभ्यता के कारण अंग्रेज प्रजा में सडन ने घर कर लिया है। यह सभ्यता दूसरों का नाश करने वाली और खुद नाशवान है। इससे दूर रहना चाहिए। नेपोलियन ने अंग्रेजों को व्यापारी प्रजा कहा है। वह बिलकुल ठीक बात है। वे जिस देश को अपने काबू में रखते हैं, उसे व्यापार के लिए रखते हैं। मरहूम प्रेसीडेंट क्रूगर से किसी ने सवाल किया कि ‘चांद में सोना है या नहीं?’ उसने जबाब दिया, ‘चांद में सोना होने की संभावना नहीं है, क्योंकि सोना होता तो अंग्रेज अपने राज के साथ उसे जोड़ देते।‘ पैसा उनका खुदा है, ये ध्यान में रखने से सब बातें साफ हो जाएंगी। अंग्रेज अपने
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गांधी स्मृति
माल के लिए सारी दुनिया को अपना बाजार बनाना चाहते हैं। यह सच है कि ऐसा वे नहीं कर सकेंगे, किंतु अपनी कोशिश में वे कोई कसर नहीं रखेंगे। आज हिंदुस्तान की रंक दशा है। मेरी पक्की राय है कि हिंदुस्तान अंग्रेजों से नहीं, बल्कि आजकल की सभ्यता से कुचला जा रहा है, उसकी चपेट में वह फंस गया है। मुझे तो धर्म प्यारा है, इसीलिए पहला मुझे यह है कि हिंदुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं यहां हिंदू, मुस्लिम या जरथुस्थ धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है, वह हिंदुस्तान से जा रहा है। हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।
अदालतों का कुचक्र
लोग दूसरों का दुख दूर करने के लिए नहीं, बल्कि पैसा पैदा करने के लिए वकील बनते हैं। वह एक कमाई का रास्ता है। इसीलिए वकील का स्वार्थ झगड़ा बढ़ाने में है। जब झगड़े होते हैं तब वकील खुश होते हैं। आलसी लोग एेशो-आराम के लिए वकील बनते हैं। कानून वे बनाते हैं, उसकी तारीफ भी वे ही करते हैं, लोगों से क्या दाम लिए जाएं, यह भी वेही तय करते हैं, और लोगों पर रौब जमाने के लिए आडंबर ऐसा करते हैं, मानो वे आसमान से उतर कर आए हुए देवदूत हों। वकीलों के कारण हिंदू-मुसलमानों के बीच कुछ दंगे हुए हैं। उनसे कुछ खानदान बर्बाद हो गए हैं। लेकिन वकीलों से बड़े से बड़ा नुकसान तो यह हुआ है कि अंग्रेजों का जुआ हमारी गर्दन पर मजबूत जम गया है। अंग्रेजी अदालतें यहां न होतीं तो क्या वे हमारे देश में राज कर सकते थे? जिन्हें अपनी सत्ता कायम रखनी है, वे अदालतों के जरिए लोगों को वश में रखते हैं। लोग अगर खुद अपने झगड़े निबटा लें तो तीसरा आदमी उन पर सत्ता नहीं जमा सकता। कौन सच्चा है, यह दोनों पक्ष के लोग जानते हैं। हम भोलेपन में मान लेते हैं कि तीसरा आदमी हमसे पैसे लेकर हमारा इंसाफ करता है।
सेहत और डॉक्टर
अंग्रेजों ने डॉक्टरी विद्या से भी हम पर काबू पाया है। मुगल बादशाह को भरमाने वाला एक अंग्रेज डॉक्टर ही था। उसने बादशाह के घर में कुछ बीमारी मिटाई, इसीलिए उसे सरोपा मिला। डॉक्टरों ने हमें जड़ से हिला दिया है। डॉक्टरों का काम
सिर्फ शरीर को संभालने का होता है। उनका काम शरीर में जो रोग पैदा होते हैं उन्हें दूर करने का है। रोग क्यों होते हैं? हमारी ही गफलत से। मैं बहुत खाऊं और मुझे बदहजमी, अजीर्ण हो जाए; फिर मैं डॉक्टर के पास जाऊं और वह मुझे गोली दे। गोली खाकर मैं चंगा हो जाऊं और दुबारा खूब खाऊं और फिर से गोली लूं। अगर मैं गोली न लेता तो अजीर्ण की सजा भुगतता और फिर से बेहद नहीं खाता। डॉक्टर बीच में आया और उसने हद से ज्यादा खाने में मेरी मदद की। उससे मेरे शरीर को तो आराम हुआ, लेकिन मेरा मन कमजोर हुआ। इस तरह आखिर मेरी यह हालत होगी कि मैं अपने मन पर जरा भी काबू न रख सकूंगा। मैंने विलास किया, मैं बीमार पड़ा; डॉक्टर ने मुझे दवा दी और मैं चंगा हो गया। क्या मैं फिर से विलास नहीं करूंगा? जरूर करूंगा।
पुरखों का सबक
मैं मानता हूं कि जो सभ्यता हिंदुस्तान ने दिखाई है, जो बीज हमारे पुरखों ने रोप है, उसकी बराबरी कर सके ऐसी कोई चीज देखने में नहीं आई। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का सिर्फ नाम ही रह गया, मिस्र की बादशाही चली गई, जापान पश्चिमी शिकंजे में फंस गया, लेकिन गिरा टूटा जैसा भी हो, हिंदुस्तान आज भी अपनी बुनियाद में मजबूत है। मनुष्य की वृत्तियां चंचल हैं, उसका मन बेकार की दौड़धूप किया करता है। उसका शरीर जैसे-जैसे ज्यादा दिया जाए बैसे बैसे ज्यादा मांगता है। भोग भोगने से भोग की इच्छा बढ़ती जाती है। इसीलिए हमारे पुरखों ने भोग की हद बांध दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुख-दुख तो मन के कारण हैं। अमीर अपनी अमीरी के कारण सुखी नहीं है, गरीब अपनी गरीबी के कारण दुखी नहीं है। अमीर दुखी देखने में आता है और गरीब सुखी देखने में आता है। ऐसा देखकर उन्होंने भोग की वासना छुड़वाई। हजारों साल पहले जो हल काम में लिया जाता था, उससे हमने काम चलाया। हजारों साल पहले जैसे झोंपड़े थे, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों साल पहले जैसी हमारी शिक्षा थी वही चलती आई। हमने नाशकारक होड़ को समाज में जगह नहीं दी। उन्होंने सोचा कि बड़े शहर खड़े करना बेकार की झंझट है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। किसी भी देश में किसी भी सभ्यता को मानने वाले सभी लोग संपूर्णता तक नहीं पहुंच पाए हैं। हिंदुस्तान की सभ्यता का झुकाव नीति को मजबूत करने की ओर है; पश्चिम की सभ्यता का झुकाव अनीति को मजबूत करने की ओर है। इसीलिए मैंने उसे हानिकारक कहा है। पश्चिम की सभ्यता निरीश्वरवादी है, हिंदुस्तान की सभ्यता ईश्वर को मानने वाली है। यों समझकर, ऐसी श्रद्धा रखकर, हिंदुस्तान कि हित-चिंतकों को चाहिए कि वे हिंदुस्तान की सभ्यता से, बच्चा जैसे मां से चिपटा रहता है, वैसे चिपटे रहें।
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गांधी स्मृति
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
महात्मा का पत्र हिटलर के नाम
पत्र के जरिए गांधी जी ने हिटलर से युद्ध नहीं करने की अपील की थी। अफसोस की बात यह है गांधी के लिखे पत्र हिटलर तक पहुंच नहीं पाए
खास बातें गांधी जी ने पहली चिट्ठी हिटलर को 23 जुलाई, 1939 को लिखी थी हिटलर के नाम दूसरी लंबी चिट्ठी उन्होंने 24 दिसंबर, 1940 को लिखी दोनों ही पत्रों में अहिंसा की ताकत का तार्किक उल्लेख मिलता है
वर्धा, सीपी, भार त 23 जुलाई, 193 9
दू
सरा विश्व युद्ध दुनिया के इतिहास में ऐसी घटना है, जिसे आज भी लोग बुरे सपने के तौर पर भूल जाना चाहते हैं। इस विश्व युद्ध में भारत के हजारों सैनिक शहीद हो गए थे। इस विश्व युद्ध के शुरू होने से पहले महात्मा गांधी ने हिटलर को एक पत्र लिखा था, जिसे अगर हिटलर ने पढ़ा होता तो यकीनन दुनिया की तस्वीर आज अलग होती। पत्र के जरिए गांधी जी ने हिटलर से युद्ध नहीं करने की अपील की थी। अफसोस की बात यह है गांधी के पत्र हिटलर तक पहुंच नहीं पाए। महात्मा गांधी ने अपने पत्र में हिटलर को मानवता की दुहाई देते हुए इस युद्ध को रोक देने की अपील की थी। इस पत्र को गांधी जी ने अपने मित्रों और बेहद करीबियों के कहने पर लिखा था। इस पत्र के लिखे जाने के ठीक एक महीने बाद जर्मनी ने पोलैंड पर धावा बोल दिया था।
दरअसल, गांधी जी संवाद करने में विश्वास रखते थे। मन में कोई ग्लानि हो, किसी से शिकायत हो, अपनी बात किसी तक पहुंचाने की जरूरत हो या प्रायश्चित ही करना हो, वे जब तक सामने वाले तक अपनी बात न पहुंचा दें, उन्हें चैन नहीं पड़ता था। वे मौखिक संवाद न करके अपनी बात पत्र के जरिए कहना बेहतर समझते थे। महात्मा बनने से बाद तो उनका पत्राचार बहुत अधिक रहा। इन पत्रों से पता चलता है कि न केवल वे भारत की आजादी के लिए चिंतित थे, विश्व मंच पर शांति के लिए भी वे अपनी बात कहने में कभी पीछे नहीं रहे। यहां पर हिटलर को लिखे गए उनके दो पत्र दिए जा रहे हैं। इन पत्रों से पता चलता है कि न केवल वे भारत की आजादी के लिए चिंतित थे, बल्कि विश्व मंच पर शांति के लिए भी वे अपनी बात कहने में कभी पीछे नहीं रहे।
प्रिय मित्र, मित्र लोग मुझसे आग्रह कर रहे ह ैं कि मैं इंसानियत के नाते आपको लिखूं। लेकिन मैं उनका अनुरोध इ भावना के कारण स टालता रहा कि म ेरी तरफ से आपक कोई भी पत्र गुस्ता ो खी माना जाएगा। कुछ है जो मुझे बत रहा है कि मैं गुण ा ा भाग न करूं औ र जरूर ही अपील करूं, भले ही उस की कोई भी अहमि यत न हो। एक बात तो एक दम साफ है कि पूरी दुनिया में आज आप अकेल े ऐसे शख्स हैं जो य द्ध ु को रोक सकते हैं। ऐसा युद्ध जो इंसानियत को मटि यामेट कर देगा। आपको उस चीज की कीमत चुकान ी ही पड़ेगी, चाह वह आपको कित े नी भी कीमती ल गे? क्या आप एक ऐसे आदमी की अ पील पर ध्यान देंग े, जिसने काफी हद तक सफलता का ख्याल किए बिना युद्ध के तरीके को जानबूझ कर त्याग दिया है? खैर, मैं पहल चाहूंगा, अगर मैंन े आपको लिखने क े से ही माफी ी गलती की हो। सदैव ही आपका मित्र मोहनदास करमच ंद गांधी
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
वर्धा 24 दिसंबर, 1940 प्रिय मित्र, मैं आपको मित्र के रूप में संबोधित कर रहा हूं, यह कोई औपचारिकता नहीं है। मेरा कोई शत्रु नहीं है। पिछले 33 वर्ष के दौरान मेरे जीवन का एक ही मकसद रहा है कि जाति, नस्ल या रंगभेद पर ध्यान दिए बिना पूरी मानवता से मैत्री कायम करके अपने मित्रों की संख्या बढ़ाता चलूं। मैं यह विश्वास कर रहा हूं कि आपके पास यह जानने का समय और इच्छा होगी कि वैश्विक मैत्री के सिद्धांत के प्रभाव में जीने वाली मानवता का एक बहुत बड़ा हिस्सा आपके कामों को किस रूप में लेता है। हमें आपकी बहादुरी या अपनी मातृभूमि के प्रति आपकी श्रद्धा में कोई शक नहीं है और न ही हम यह मान कर चल रहे हैं कि आप कोई दैत्य हैं, जैसा कि आपके विरोधी कहते हैं। लेकिन आपके खुद के और आपके मित्रों और प्रशंसकों के लिखे हुए शब्द और घोषणाएं शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते कि आपके कई कर्म दैत्यों वाले हैं और मानवीय गरिमा के खिलाफ जाते हैं, खासकर मेरे जैसे आदमियों के आकलन में जो विश्व मैत्री में विश्वास रखते हैं। आपने चेकोस्लोवाकिया को अपमानित किया, पोलेंड को तहस-नहस कर दिया और डेनमार्क को तो धूल में ही मिला दिया। मुझे पता है कि आप जिस तरह का जिंदगी का नजरिया रखते हैं, इस तरह की घटिया हरकतें आपके लिए बहुत बहादुरी के कारनामे हैं। लेकिन हमें बचपन से ही से सिखाया गया है कि इस तरह के काम मानवता को शर्मसार करने वाले काम होते हैं। इसीलिए हम शायद आपकी सफलता की कामना नहीं कर सकते। लेकिन हमारी स्थिति थोड़ी अलग है। हम ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मुकाबला कर रहे हैं। वे किसी भी मायने में नाजियों से कम नहीं हैं। अगर दोनों में कोई फर्क है तो वह मात्रा का ही है। पूरी मानव जाति का पांचवां हिस्सा ब्रिटिश शासन के दमन चक्र तले ले आया गया है और कोई सुनवाई नहीं है। इसके प्रति हमारा विरोध ब्रिटिश नागरिकों को नुकसान पहुंचाना नहीं है। हम उन्हें बदलना चाहते हैं, न कि लड़ाई के मैदान में उन्हें हराना। ब्रिटिश शासन के खिलाफ हमारा यह निहत्थों का संघर्ष है। पता नहीं कि हम उनका हृदय परिवर्तन कर पाते हैं या नहीं, लेकिन हमारा दृढ़ निश्चय है कि हम अहिंसा और असहयोग के बल पर उनके शासन को असंभव बना कर रहेंगे। यह तरीका अपनी प्रकृति में ही ऐसा है कि जिससे बचा नहीं जा सकता। यह इस ज्ञान पर आधारित है कि शोषक व्यक्ति शोषित व्यक्ति की स्वेच्छा से या जबरदस्ती, सहयोग की एक निश्चित मात्रा के बिना कुछ हासिल कर ही नहीं सकता। हमारे शासक हमारी जमीन हथिया सकते हैं, हमारे शरीरों पर राज कर सकते हैं, लेकिन हमारी आत्मा उनके शिकंजे में नहीं फंस सकती। वे हमारा शरीर हर भारतीय- नर नारी और बच्चे को पूरी तरह से नष्ट करके ही पा सकते हैं। यह सही है कि सब लोग वीरता के उस अंश तक नहीं पहुंच सकते और यह भी सच है कि बहुत बड़ी मात्रा में डर की भावना भी विद्रोह को कमजोर कर सकती है, लेकिन यह तर्क मूल मुद्दे से अलग ही रहेगा। कारण यह है कि भारत में बड़ी संख्या में ऐसे स्त्री और पुरुष मिल जाएंगे जो अपने शोषक के खिलाफ बिना किसी दुर्भावना के अपनी जान देने को तैयार हो जाएं बजाए उनके सामने घुटने टेकने के। ऐसे ही लोग हिंसा के तांडव के खिलाफ आजादी का बिगुल बजाएंगे। मेरी इस बात पर भरोसा करो कि भारत में आपको ऐसे अनगिनत पुरुष और महिलाएं मिल जाएंगी। वे पिछले बीस बरस से इसी तरह का प्रशिक्षण पा रहे हैं। हम पिछले पचास बरस से ब्रिटिश शासन तंत्र को उखाड़ फेंकने की कोशिश कर रहे हैं। आजादी का आंदोलन कभी भी इतना मजबूत नहीं हुआ था, जितना इस समय है। सबसे अधिक शक्तिशाली राजनीतिक संगठन, मेरा मतलब इंडियन नेशनल कांग्रेस, इस लक्ष्य को पाने के लिए जी जान से जुटा है। अपने अहिंसात्मक प्रयासों
गांधी स्मृति
के जरिए हमने काफी हद तक सफलता पा ली है। ब्रिटिश शासन तंत्र विश्व के सबसे अधिक संगठित हिंसक तंत्रों में से एक है और हम उससे निपटने के लिए सही तरीके खोजने में लगे हैं। आपने उसे चुनौती दी है। यह देखना बाकी है कि ब्रिटिश ज्यादा संगठित हिंसक तंत्र हैं या जर्मन। हम जानते हैं कि ब्रिटिश सोच का मतलब हमारे लिए क्या होता है और दुनिया की गैर यूरोपीय देशों की जातियों के लिए क्या मतलब होता है। लेकिन हम जर्मन की मदद से कभी भी ब्रिटिश शासन से छुटकारा पाना नहीं चाहेंगे। हमने अहिंसा का रास्ता खोज लिया है। यह एक ऐसी ताकत है जो संगठित हो तो दुनिया की सबसे हिंसक ताकतों के मिले-जुले समूह का भी बिना किसी शक के मुकाबला कर सकती है। अहिंसा की तकनीक में, जैसा कि मैंने कहा, हार जैसी कोई चीज नहीं है। यह बिना मारे या घायल किए, करो या मरो में विश्वास रखती है। मजे की बात यह है कि इसे बिना किसी धन के, और निश्चित ही विनाश के विज्ञान का सहारा लिए बिना, इस्तेमाल किया जा सकता है। आपने तो दोनों का सहारा ले कर देख ही लिया है। मैं यह देख कर हैरान हूं कि आप नहीं देख पा रहे कि अहिंसा किसी की बपौती नहीं है। न सही ब्रिटिश, निश्चित ही कोई और ताकत उभर कर आएगी जो आपके तरीके का भंडाफोड़ करेगी और आपके हथियार से ही आपका खात्मा करेगी। आप कोई ऐसी विरासत छोड़ कर नहीं जाने वाले जिस पर आपके जाने के बाद आपकी जनता आप पर गर्व करे। क्रूरता के कामों का, चाहे वे जितने भी शानदार तरीके से अंजाम दिए गए हों, कोई भी कौम गुणगान नहीं ही करेगी। इसीलिए मैं आपसे इंसानियत के नाम पर गुजारिश करता हूं कि युद्ध को बंद करें। अगर आप अपनी साझी पसंद के किसी अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के पास अपने और ग्रेट ब्रिटेन के सभी विवादित मामले ले जाते हैं तो आप बिल्कुल भी नुकसान में नहीं रहेंगे। अगर आपको युद्ध में जीत मिलती भी है तो इसका यह मतलब नहीं होगा कि आप सही थे। इससे सिर्फ यही सिद्ध होगा कि आपके पास विनाश की ताकत ज्यादा बड़ी थी। जबकि किसी तटस्थ ट्रिब्यूनल द्वारा दिया गया फैसला यह बताएगा कि जहां तक मानवीय रूप से संभव रहा, कौन-सा पक्ष सही था। आपको पता ही है कि कुछ ही अरसा पहले मैंने प्रत्येक ब्रिटिश नागरिक से यह अपील की थी कि मेरे अहिंसात्मक विरोध के तरीके को स्वीकार करे। मैंने ऐसा इसीलिए किया कि ब्रिटिश मुझे एक दोस्त, बेशक बागी दोस्त, के रूप में मानते हैं। मैं आपके लिए और आपकी जनता के लिए अजनबी हूं। मुझमें इतना साहस नहीं है कि जिस तरह की अपील मैंने हर ब्रिटिश नागरिक से की है, उसी तरह की अपील आपसे कर सकूं। ऐसा नहीं है कि मेरी अपील का वैसा गहरा असर नहीं होगा जैसा कि ब्रिटिश लोगों के मामले में था। लेकिन मेरा यह वाला प्रस्ताव बहुत आसान है, क्योंकि यह बहुत व्यावहारिक और जाना पहचाना है। इस समय के दौरान जबकि यूरोप के लोगों के दिल में शांति की चाह जोर मार रही है, हमने यहां तक किया है कि अपने खुद के शांतिपूर्ण संघर्ष भी स्थगित कर रखे हैं। क्या आपसे यह उम्मीद करना ज्यादती होगी कि आप ऐसे समय में शांति के लिए प्रयास करें। इसका आपके खुद के लिए व्यक्तिगत रूप से कोई मतलब नहीं हो सकता, लेकिन उन लाखों यूरोप वासियों के लिए यह बहुत बड़ी बात होगी, शांति के लिए जिनकी मूक पुकार मैं सुन पा रहा हूं। मेरे कान तो लाखों मूक पुकारें सुनने के आदी हो गए हैं। मैं चाहता था कि आपको और मुसोलिनी महाशय को एक संयुक्त अपील संबोधित करूं। गोलमेज सभा में एक प्रतिनिधि के नाते मैं इंग्लैंड गया था, तो रोम में मुझे मुसोलिनी से मिलने का सौभाग्य मिला था। मैं आशा करता हूं कि वे इस पत्र को आवश्यक परिवर्तनों के साथ खुद को भी संबोधित ही मानेंगे। सदैव ही आपका मित्र मोहनदास करमचंद गांधी
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मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है, सत्य मेरा भगवान है और अहिंसा उसे पाने का साधन - महात्मा गांधी
वी कल्याणम
अभिमत
लेखक महात्मा गांधी के निजी सचिव थे और आखिरी वक्त में बापू के साथ थे
बापू के आखिरी दिन
अपने अंतिम दिनों में गांधी जी प्रार्थना के बाद दिए जाने वाले भाषण में लगातार यह इच्छा जताते रहते थे कि भगवान उन्हें अपने पास बुला लें। क्योंकि वे देश में चल रही भयावह बर्बरता के मूक साक्षी बने रहना नहीं चाहते थे
प्रथम नागरिक का संदेश
सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों के जीवन को खुशहाल बनाना ही हमारे लोकतंत्र की सफलता की कसौटी है
सा
माजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों के जीवन को खुशहाल बनाना ही हमारे लोकतंत्र की सफलता की कसौटी है। गरीबी के अभिशाप को, कम-से-कम समय में, जड़ से मिटा देना हमारा पुनीत कर्तव्य है। यह कर्तव्य पूरा करके ही हम संतोष का अनुभव कर सकते हैं। ये बातें 69वें गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन के दौरान भले कही हों, पर सही मायने में यह आज देश की सोच और कार्यदिशा से जुड़ी अहम बातें हैं। भारत आज एक तारीखी मोड़ पर खड़ा है। खुद देश के प्रथम नागरिक ने भी कहा कि वर्ष 2020 में हमारे गणतंत्र को 70 वर्ष हो जाएंगे। 2022 में हम अपनी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मनाएंगे। जाहिर है कि ये महत्वपूर्ण अवसर हैं। इन अवसरों और इससे जुड़े प्रेरक आलोक में देश अपने लिए यश और कीर्ति का वह मुकाम हासिल कर सकता है, जिसका वह हकदार है। यह कार्य देश की सरकार और समाज मिलकर एक साथ कैसे पूरा कर सकता है, इसके लिए राष्ट्रपति ने कुछ अहम बिंदुअों को साफ भी किया। उन्होंने कहा कि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों के जीवन को खुशहाल बनाना ही हमारे लोकतंत्र की सफलता की कसौटी है। गरीबी के अभिशाप को, कम-से-कम समय में, जड़ से मिटा देना हमारा पुनीत कर्तव्य है। यह कर्तव्य पूरा करके ही हम संतोष का अनुभव कर सकते हैं। उन्होंने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को लेकर यह भी याद दिलाया कि देश के लोगों से ही लोकतंत्र बनता है। हमारे नागरिक, केवल गणतंत्र के निर्माता और संरक्षक ही नहीं हैं, बल्कि वे ही इसके आधार स्तंभ हैं। देश का हर नागरिक, हमारे लोकतंत्र को शक्ति देता है। उन्होंने कहा कि राष्ट्र निर्माण करोड़ों छोटेबड़े अभियानों को जोड़कर बना, एक संपूर्ण अभियान है और यह अभियान चमकते कल से गले मिलने की ललक के साथ लगातार आगे बढ़ रहा है।
नौ
सितंबर 1947 को महात्मा गांधी कलकत्ता से दिल्ली पहुंचे थे। उनके रहने की व्यवस्था बिड़ला भवन में थी। यहां गांधी जी और उनके सहयोगियों के इस्तेमाल के लिए एक एक बड़ा सा कमरा था, जिसमें कालीन बिछा था। इससे सटा एक और कमरा था, जिसमें नहाने और नित्य-क्रिया से निवृत होने की व्यवस्था थी। इस विशाल इमारत के भूतल पर बना हुआ यह कमरा ऐसा था कि इसे किसी भी काम के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था। इसके एक कोने पर एक मोटा सूती का गद्दा रखा था और कमर टिकाने के लिए एक तकिया भी। साथ में एक मेज भी थी। दूसरे कोने पर लिखने-पढ़ने के लिए एक कुर्सी-मेज रखी थी। गांधी जी का दिन यहां अमूमन चिट्ठियां लिखते, लोगों से बातचीत करते, चरखा कातते और दोपहर एक झपकी लेते हुए गुजारते। कमरे के साथ लगती एक बालकनी भी थी जो शीशे से पूरी तरह बंद थी। रात को गांधी जी जमीन पर बाकी सब लोगों के साथ सोते थे। शुक्रवार 30 जनवरी 1948 की वह सुबह आम दिनों की तरह ही थी। तब किसको पता था कि शाम को क्या होने वाला है। हम हमेशा की तरह साढ़े तीन बजे अपनी प्रार्थना के लिए उठे। उसके बाद रोज की गतिविधियां शुरू हो गईं। गांधी जी ने अपनी पोती आभा को जगाया। इसके बाद उन्होंने स्नान किया और फिर गद्दे पर बैठ गए। उनका दिन हमेशा प्रार्थना के साथ शुरू होता था। उनकी प्रार्थनाओं में सभी धर्मों की पवित्र पुस्तकों की बातें शामिल होती थीं, खासकर हिंदू धर्म और इस्लाम की। यह उनका इस बात पर जोर देने का तरीका था कि मूल में सभी धर्म एक हैं।
प्रार्थना का मकसद आत्मा की शुद्धि
गांधी जी ने ध्यान में अपनी आंखें बंद कर लीं। आभा अभी भी सोई हुई थी। गांधी जी ने उसकी अनुपस्थिति महसूस कर ली थी। प्रार्थना आभा के बिना ही हुई। प्रार्थना के तुरंत बाद मनु रसोई में चली गई। रोज की तरह उसने गांधी जी का प्रिय टॉवर
(उत्तर प्रदेश)
पेय- एक चम्मच शहद और नींबू के रस वाला गरम पानी का एक गिलास तैयार किया। जब उसने गिलास गांधी जी को पकड़ाया तो उन्होंने कहा, ‘लगता है मेरा असर अपने साथ के लोगों पर भी कम होता जा रहा है। प्रार्थना झाडू़ की तरह है, जिसका मकसद है हमारी आत्मा की शुद्धि। प्रार्थना में आभा के न आने से मुझे बहुत तकलीफ होती है। तुम्हें तो पता ही है कि मैं प्रार्थना को कितना महत्वपूर्ण मानता हूं। अगर तुममें साहस हो तो तुम मेरी तरफ से मेरी अप्रसन्नता उस तक पहुंचा सकती हो। अगर वह प्रार्थना में आने की इच्छुक नहीं है तो उसे मेरा साथ छोड़ देना चाहिए। इसमें हम दोनों की भलाई होगी!’ इस दौरान आभा जग चुकी थी और उसने अपना काम शुरू कर दिया था। गांधी जी उससे सीधे मुखातिब नहीं हो रहे थे, जिसकी वजह वे ही जानते होंगे। मैं दिन भर के निर्देश लेने के लिए उनके पास बैठा हुआ था। उन्होंने कहा कि दो फरवरी से उनका जो दस दिन का सेवाग्राम का दौरा शुरू हो रहा है, मैं उसके लिए व्यवस्था करूं। मैंने उनके लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नए संविधान का वह टाइप किया हुआ ड्राफ्ट रखा, जो उन्होंने एक दिन पहले मुझसे बोलकर लिखवाया था और जिसमें उन्होंने कांग्रेस को भंग करने और एक नए संगठन के निर्माण का सुझाव दिया था, जिसका समाज सेवा और ग्रामीण क्षेत्रों की बेहतरी पर और ज्यादा जोर हो। उनका इसे देखने का मन नहीं था। उन्होंने मेरे वरिष्ठ प्यारेलाल जी को बुलाया और यह ड्राफ्ट उन्हें दे दिया। इस निर्देश के साथ कि वे इसे सावधानी से देखें और अगर कोई सुझाव या सुधार जरूरी लगे तो बताएं। उन दिनों दिल्ली में हालात सामान्य से कोसों दूर थे। पाकिस्तान से आ रही हिंदू शरणार्थियों की विशाल आबादी के चलते सांप्रदायिक तनाव बना हुआ था। पाकिस्तान में मुसलमानों के हाथों बुरा अनुभव झेल चुके ये लोग दिल्ली में रह रहे मुसलमानों से बदला लेना चाहते थे। मुस्लिम और हिंदू नेताओं के जत्थे रोज उनसे मिलते और राजधानी में सामान्य
गांधी जी मुश्किल से पांच या छह कदम ही आगे बढ़े होंगे कि उसने बहुत करीब से एक के बाद एक गोलियां तेजी से दाग दीं। उनकी फौरन मृत्यु हो गई। वे पीछे गिर पड़े
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018 हालात कैसे बहाल हो, इस पर चर्चा करते। सर्दियों का मौसम था और गांधी जी अक्सर खुले लॉन में चारपाई पर बैठकर धूप सेकते हुए दिन बिताते। उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहता था। वे कभी खाली बैठे नहीं दिखते थे। जब पहले तय कोई मुलाकात न होती तो वे चिट्ठियां और गुजराती, हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं में लेख लिखने में व्यस्त रहते। मंत्री और दूसरे वीआईपी उनसे वक्त लेकर मुलाकात करते, जबकि पंडित नेहरू जब दिल्ली होते तो अपने दफ्तर जाते हुए रोज करीब नौ बजे उनसे मिलते। उस दिन गांधी जी से जो मशहूर हस्तियां मिलने आईं उनमें श्रीमती आरके नेहरू भी थीं। वे सुबह छह बजे आई थीं और दोपहर में उन्हें अमेरिका जाना था। उनके अनुरोध पर गांधी जी ने उन्हें अपने दस्तखत के साथ एक फोटो दिया जिस पर लिखा था, ‘आप एक गरीब देश की प्रतिनिधि हैं और इस नाते आप वहां सादा और मितव्यय तरीके से रहें।’ करीब दो बजे ‘लाइफ’ मैगजीन के मशहूर फोटोग्राफर मार्ग्रेट बर्क ने गांधी जी का साक्षात्कार लिया। इस दौरान उन्होंने पूछा, ‘आप हमेशा कहते रहे हैं कि मैं 125 साल तक जीना चाहूंगा। यह उम्मीद आपको कैसे है?’ गांधी जी का जवाब उन्हें हैरान करने वाला था। उन्होंने कहा कि अब उनकी ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। जब मार्ग्रेट ने इसकी वजह पूछी तो उनका कहना था, ‘क्योंकि दुनिया में इतनी भयानक चीजें हो रही हैं। मैं अंधेरे में नहीं रहना चाहता।’ बिड़ला भवन में उनका ज्यादातर वक्त चिट्ठियां लिखने, लोगों से मिलने और प्रार्थना में गुजरता था। मार्ग्रेट के जाने के बाद प्रोफेसर एनआर मलकानी दो व्यक्तियों के साथ आए। पाकिस्तान में हमारे डिप्टी हाई कमिश्नर मलकानी ने गांधी जी को सिंध के हिंदुओं की दुर्दशा बताई। उनकी बात धैर्य के साथ सुनने के बाद गांधी जी ने कहा, ‘अगर लोगों ने मेरी सुनी होती तो ये सब नहीं होता। मेरा कहा लोग मानते नहीं। फिर भी जो मुझे सच लगता है मैं कहता रहता हूं। मुझे पता है कि लोग मुझे पुराने जमाने का आदमी समझने लगे हैं।’ बीबीसी के बॉब स्टिमसम को प्रार्थना के बाद गांधी जी से मिलना था। उन्होंने अपने कुछ सवाल पहले ही दे दिए थे और वे आकर सीधे लॉन में पहुंच गए थे, जहां गांधी जी को अपनी प्रार्थना सभा करनी थी। मुख्यमंत्री यूएन ढेबर और काठियावाड़ से रसिकलाल पारेख बिना समय लिए उनसे मिलने आए थे और चर्चित लेखक विंसेंट शेयान भी, जिन्होंने बीते कुछ दिनों के दौरान गांधी जी के साथ कुछ इंटरव्यू किए थे। उन सभी को निराश होना पड़ा।
बम धमाका
20 जनवरी की प्रार्थना सभा में एक बम धमाका हुआ था। यह बम मदन लाल नाम के एक पंजाबी शरणार्थी ने फेंका था। लेकिन यह गांधी जी को नहीं लगा। इससे एक दीवार टूट गई थी। लेकिन गांधी जी को कभी नहीं लगा कि कोई उन्हें मारने आया था। उन्होंने भारत सरकार के उस फैसले के खिलाफ उपवास किया था, जिसमें पाकिस्तान को दिया जाने वाला पैसा (50 करोड़ रुपए) रोक दिया गया था।
यही वजह थी कि बिड़ला भवन में तैनात पुलिस बल की संख्या बढ़ा दी गई थी। निर्देश थे कि ऐसे किसी भी व्यक्ति को अंदर न जाने दिया जाए जो संदिग्ध लग रहा हो। हालांकि पुलिस को लग रहा था कि सुरक्षा को और भी प्रभावी बनाने के लिए उन्हें प्रार्थना सभा में शामिल होने या फिर किसी दूसरे मकसद से भीतर आने वाले हर व्यक्ति की तलाशी लेने की इजाजत दी जानी चाहिए। जब एक पुलिस सुपरिटेंडेंट यह प्रस्ताव लेकर मेरे पास आए तो मैंने गांधी जी से सलाह मांगी। वे तलाशी के लिए राजी नहीं थे। मैंने यह संदेश सुपरिटेंडेंट तक पहुंचा दिया जहां से यह शीर्ष स्तर तक पहुंच गया। कुछ ही मिनटों के भीतर डीआईजी पहुंच गए और उन्होंने कहा कि वे गांधी जी से बात करना चाहते हैं। मैं उन्हें भीतर ले गया। डीआईजी का कहना था कि उनकी जान को खतरा है और जिन सुविधाओं की
अभी सिर्फ पांच महीने ही हुए थे, लेकिन मीडिया में पंडित नेहरू और सरदार पटेल के मतभेदों की खबरें जमकर छप रही थीं। गांधी जी इन अफवाहों से परेशान थे और इस समस्या का हल ढूंढना चाहते थे। वे तो यहां तक सोच रहे थे कि सरदार पटेल को इस्तीफा देने के लिए कह दें। उन्हें लगता था कि शायद इससे देश चलाने के लिए नेहरू को पूरी तरह से खुला हाथ मिल जाएगा। उन्होंने चार बजे पटेल को चर्चा के लिए बुलाया था और वे चाहते थे कि प्रार्थना के बाद वे इस मुद्दे पर बात करें। अपनी बेटी मणिबेन के साथ पटेल जब पहुंचे तो गांधी जी खाना खा रहे थे। वे बातचीत कर ही रहे थे कि आभा और मनु भी वहां पहुंच गईं।
अंतिम प्रार्थना
प्रार्थना का समय पांच बजे था। लेकिन गांधी जी और पटेल के बीच बातचीत पांच बजे के बाद भी जारी रही। बातों की अहमियत और गंभीरता को देखते हुए हममें से किसी की भी बीच में बोलने की हिम्मत नहीं हुई। लड़कियों ने सरदार पटेल की बेटी मणिबेन को इशारा किया और पांच बजकर दस मिनट पर बातचीत खत्म हो गई। इसके बाद गांधी जी शौचालय गए और फिर फौरन ही प्रार्थना वाली जगह की तरफ बढ़ चले जो करीब 30-40 गज की दूरी पर रही होगी। कमरे से बाहर निकलते ही चार या पांच सीढ़ियां थीं और फिर लॉन शुरू हो जाता था। 'गांधी जी की यह भविष्यवाणी कि अगर उनकी गांधी जी को प्रार्थना सभा में मौत लिखी है तो कोई भी सावधानी उन्हें बचा पहुंचने में 15 मिनट की देर हो गई थी। करीब 250 लोग बेचैनी से नहीं सकती, सच साबित हुई' उनका इंतजार कर रहे थे। थोड़ी - सरदार पटेल, तत्कालीन गृहमंत्री सी दूरी से मैं देख सकता था कि भीड़ की नजर गांधी जी के कमरे मांग की गई है वे दी जानी चाहिए, नहीं तो अगर की तरफ लगी हुई है। जैसे ही वे निकले मैंने लोगों कोई हादसा हो गया तो पुलिस की फजीहत होगी। को कहते सुना, ‘गांधी जी आ गए।’ सभी लोगों की गांधी जी कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। उन्होंने गर्दन उसी दिशा में घूम गई जहां से गांधी जी आ डीआईजी को बताया कि उनका जीवन ईश्वर के रहे थे। हमेशा की तरह गांधी जी चुस्त चाल के साथ हाथ में है अगर उनकी मृत्यु ही लिखी हुई है तो कोई सिर झुकाए चल रहे थे और उनकी नजर जमीन भी सुरक्षा उन्हें नहीं बचा सकती। उनका कहना था, पर जमी हुई थी। उनके हाथ अपनी दोनों पोतियों ‘जो आजादी के बजाय सुरक्षा को प्राथमिकता देते के कंधे पर थे। करीब ही बाईं तरफ से मैं उनके हैं उन्हें जीने का हक नहीं है।’ लोगों की तलाशी पीछे-पीछे चल रहा था। के लिए सहमत होने की बजाय वे प्रार्थना सभा मैंने उन्हें लड़कियों को डांट लगाते सुना। रोक देंगे। इसके बाद पुलिस से कहा गया कि वह वे इसीलिए नाराज थे कि प्रार्थना के लिए देर हो सादी वर्दी में तैनात रहकर संदिग्ध लोगों पर नजर रही है, यह उन्हें क्यों नहीं बताया गया। उनका रखे और खास ध्यान रखे कि प्रार्थना के लिए जाते कहना था, ‘मुझे देर हो गई है। मुझे यह अच्छा नहीं या वहां से लौटते हुए कोई गांधी जी पर हमला न लगता।’ जब मनु ने कहा कि इतनी गंभीर बातचीत कर दे। को देखते हुए वह इसमें बाधा नहीं डालनी चाहती थी तो गांधी जी ने जवाब दिया, ‘नर्स का कर्तव्य है वह आखिरी शाम कि वह मरीज को सही वक्त पर दवाई दे। अगर देर दोपहर दो बजे आभा और मनु गांधी जी से आज्ञा होती है तो मरीज की जान जा सकती है।’ लेकर कुछ दोस्तों से मिलने चली गईं। इस वादे के हम उन सीढ़ियों पर चढ़ने लगे जो प्रार्थना के साथ कि शाम की प्रार्थना के लिए वे समय से वापस लिए बने मंच तक जा रही थीं। लोग हाथ जोड़कर आ जाएंगी। गांधी जी को शाम का खाना परोसने गांधी जी का अभिवादन कर रहे थे और वे भी की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। हालांकि सरकार बने जवाब दे रहे थे। सीढियों से 25 फुट दूर एक फुट
खुला मंच
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ऊंचा लकड़ी का वह आसन बना था जिस पर वे बैठते थे। लोग उनके लिए जगह बनाते हुए एक तरफ हो रहे थे। अपनी जेब में रिवॉल्वर रखे हत्यारा (नाथूराम गोडसे) इस भीड़ में ही मौके का इंतजार कर रहा था। गांधी जी मुश्किल से पांच या छह कदम ही आगे बढ़े होंगे कि उसने बहुत करीब से एक के बाद एक गोलियां तेजी से दाग दीं। उनकी फौरन मृत्यु हो गई। वे पीछे गिर पड़े। उनके घावों से काफी मात्रा में खून बह रहा था और इस घटना से मची भगदड़ में उनका चश्मा और खड़ाऊं न जाने कहां छिटक गए थे। मैं अपनी जगह पर जड़ रह गया। बाद में अकेले में यह दृश्य याद करके मेरी आंखों से आंसू बह निकले थे। खबर तेजी से फैली। कुछ ही मिनटों में बिड़ला भवन के बाहर भीड़ इकट्ठा होनी शुरू हो गई और लोगों को अंदर घुसने से रोकने के लिए गेट बंद करना पड़ा। पटेल तब तक जा चुके थे। मैं अपने कमरे की तरफ भागा और फोन से नेहरू के दफ्तर तक यह खबर भिजवाई। उन दिनों हम मंत्रियों के घरों में बेधड़क जा सकते थे। मैं किसी तरह से भीड़ के बीच से निकलते हुए कार में बैठा और इस घटना की खबर देने के लिए मुश्किल से पांच मिनट की दूरी पर स्थित पटेल के घर की तरफ चला। इस दौरान गांधी जी की पार्थिव देह उठाकर उनके कमरे तक लाई जा चुकी थी। वे चटाई पर पड़े थे और लोग उनके इर्द-गिर्द बैठे थे। ऐसा लगता था जैसे वे सोए हों। उनका शरीर कुछ समय तक गर्म ही था। रात आंसुओं में बीती। सिर्फ कुछ चुनिंदा लोगों की नहीं, बल्कि दुनिया भर में उन करोड़ों लोगों की भी जिनके लिए गांधी जी जिए और मरे। जब उनकी देह उठाकर कमरे तक लाई गई तो उसके बाद वहां हंगामा मच गया। लोग गांधी जी की याद के लिए उस जगह की मिट्टी उठाने लगे जहां वे गोली लगने के बाद गिरे थे। एक-एक मुट्ठी करते-करते कुछ ही घंटों के भीतर वहां पर एक बड़ा गड्ढा बन गया। इसके बाद उस जगह की घेरेबंदी कर वहां पर एक गार्ड तैनात कर दिया गया। प्रार्थना सभा में बम विस्फोट के बाद सरकार द्वारा महात्मा गांधी की सुरक्षा के लिए बरती गई सावधानियों के संबंध में गृह मंत्री सरदार पटेल का कहना था, ‘मैंने खुद बापू से प्रार्थना की थी कि वे पुलिस को अपना काम करने की इजाजत दें। लेकिन मैं असफल रहा।’ पटेल का यह भी कहना था कि हत्यारा सुरक्षा व्यवस्था की इस कमजोरी का फायदा उठाने में सफल रहा। उनके शब्द थे, ‘गांधी जी की यह भविष्यवाणी कि अगर उनकी मौत लिखी है तो कोई भी सावधानी उन्हें बचा नहीं सकती, सच साबित हुई।’ अपने अंतिम दिनों में गांधी जी प्रार्थना के बाद दिए जाने वाले भाषण में लगातार यह इच्छा जताते रहते थे कि भगवान उन्हें अपने पास बुला लें। क्योंकि वे देश में चल रही भयावह बर्बरता के मूक साक्षी बने रहना नहीं चाहते थे। मुझे लगता है कि उस हत्यारे के माध्यम से भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली थी। उन्हें एक श्रेष्ठ मृत्यु मिली जब वे ईश्वर की तरफ उन्मुख थे और बीमार होकर बिस्तर पर नहीं पड़े थे। बिना किसी वेदना या शोक के वे क्षण भर में ही चले गए थे।
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फोटो फीचर
गणतंत्र का उत्सव 29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
उत्सव और जन-जीवन का रंग दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र की पहचान है फोटोः शिप्रा दास
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सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत, लोक जीवन के रंग और देश की ताकत का प्रदर्शन गणतंत्र दिवस को खास बनाता है
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गांधी स्मृति
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‘टॉल्स्टॉय इस युग की सत्य की मूर्ति’
10 सितंबर, 1928 को साबरमती आश्रम के युवक संघ ने टॉल्स्टॉय जन्म-शताब्दी समारोह का आयोजन किया था। इस अवसर पर महात्मा गांधी के संबोधन का संपादित अंश
मैं
एसएसबी ब्यूरो
इतना तो कह ही सकता हूं कि तीन पुरुषों ने मेरे जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डाला है। उनमें पहला स्थान मैं राजचंद्र कवि को देता हूं, दूसरा टॉल्स्टॉय को और तीसरा रस्किन को। किंतु यदि टॉल्स्टॉय और रस्किन के बीच चुनाव की बात हो और दोनों के जीवन के विषय में मैं और अधिक बातें जान लूं, तो नहीं जानता कि उस हालत में प्रथम स्थान किसे दूंगा। टॉल्स्टॉय के जीवन में मेरे लिए दो बातें महत्वपूर्ण थीं। वे जैसा कहते थे, वैसा ही करते थे। उनकी सादगी अद्भुत थी, बाह्य सादगी तो उनमें थी ही। वे अमीर वर्ग के व्यक्ति थे, इस जगत के सभी भोग उन्होंने भोगे थे। धन-दौलत के विषय में मनुष्य जितने की इच्छा रख सकता है, वह सब उन्हें मिला था। फिर भी उन्होंने भरी जवानी में अपना ध्येय बदल डाला। दुनिया के विविध रंग देखने और उनके स्वाद चखने पर भी, जब उन्हें प्रतीत हुआ कि इसमें कुछ नहीं है, तो उनसे उन्होंने मुंह मोड़ लिया और अंत तक अपने विचारों पर डटे रहे। इसी से मैंने एक जगह लिखा है कि टॉल्स्टॉय इस युग की सत्य की मूर्ति थे। उन्होंने सत्य को जैसा माना उसी के अनुसार चलने का उत्कट प्रयत्न किया। सत्य को छिपाने या कमजोर करने का प्रयत्न नहीं किया। लोगों को दुख होगा या अच्छा लगेगा, शक्तिशाली सम्राट को पसंद आएगा या नहीं, इसका विचार किए बिना ही उन्हें जो वस्तु जैसी दिखाई दी, उन्होंने वैसा ही कहा।
अहिंसा के समर्थक
टॉल्स्टॉय अपने युग में अहिंसा के बड़े भारी समर्थक थे। जहां तक मैं जानता हूं, अहिंसा के विषय में पश्चिम के लिए जितना टॉल्स्टॉय ने लिखा है, उतना मार्मिक साहित्य दूसरे किसी ने नहीं लिखा। उससे भी आगे जाकर कहता हूं कि अहिंसा का जितना सूक्ष्म दर्शन और उसका पालन करने का जितना प्रयत्न टॉल्स्टॉय ने किया था, उतना प्रयत्न करनेवाला आज हिंदुस्तान में कोई नहीं है और न मैं ऐसी किसी आदमी को जानता हूं। यह स्थिति मेरे लिए दुखदायक है, यह मुझे नहीं भाती। हिंदुस्तान मेरी कर्मभूमि है। हिंदुस्तान में ऋषि-मुनियों ने अहिंसा के क्षेत्र में बड़ी-बड़ी खोजें की हैं। परंतु पूर्वजों की उपार्जित पूंजी पर हमारा निर्वाह नहीं हो सकता। उसमें यदि वृद्धि न की जाए तो वह समाप्त हो जाती है। वेदादि साहित्य या जैन साहित्य में से हम चाहें जितनी बड़ी-बड़ी बातें करते रहें या सिद्धांतों के विषय में चाहे जितने प्रमाण देकर दुनिया को आश्चर्यचकित करते रहें, फिर भी दुनिया हमें सच्चा नहीं मान सकती। इसीलिए रानाडे (समाज सुधारक
खास बातें टॉल्स्टॉय अहिंसा के बहुत बड़े समर्थक थे टॉल्स्टॉय के साथ रस्किन से भी गांधी जी से प्रभावित थे ‘कला क्या है?’ को टॉल्स्टॉय ने अपनी सर्वश्रेष्ठ पुस्तक माना है
ऐसा नहीं है कि टॉल्स्टॉय ने जो कहा वह दूसरों ने न कहा हो, लेकिन उनकी भाषा में चमत्कार था और इसका कारण यह है कि उन्होंने जो कहा, उसका पालन किया और न्यायविद महादेव गोविंद रानाडे) ने हमारा धर्म यह बताया है कि हम अपनी इस पूंजी में वृद्धि करते जाएं। अन्य धर्मों के विचारकों ने जो लिखा हो, उससे उसकी तुलना करें और ऐसा करते हुए यदि कोई नई चीज मिल जाए या उस पर नया प्रकाश पड़ता हो तो हम उसकी उपेक्षा न करें। किंतु हमने ऐसा नहीं किया। हमारे धर्माध्यक्षों ने एक पक्ष का ही विचार किया है। उनके अध्ययन में, कहने और करने में समानता भी नहीं है। जन-साधारण को यह अच्छा लगेगा या नहीं, जिस समाज में वे स्वयं काम करते थे, उस समाज को भला लगेगा या नहीं, इस बात का विचार न करते हुए टॉल्स्टॉय की तरह खरी-खरी सुना देनेवाले हमारे यहां नहीं मिलते। हमारे इस अहिंसा-प्रधान देश की ऐसी दयनीय दशा है। हमारी अहिंसा निंदा के ही योग्य है। खटमल, मच्छर, पिस्सू, पक्षी और पशुओं की किसी न किसी तरह रक्षा करने में ही मानो हमारी अहिंसा की इति हो जाती है। यदि वे प्राणी कष्ट में तड़पते हों तो भी हमें उसकी चिंता नहीं होती। परंतु दुखी प्राणी को यदि कोई प्राणमुक्त
करना चाहे अथवा हमें उसमें शरीक होना पड़े तो हम उसे घोर पाप मानते हैं। मैं लिख चुका हूं कि यह अहिंसा नहीं है।
अहिंसा भीरुता नहीं
टॉल्स्टॉय का स्मरण कराते हुए मैं फिर कहता हूं कि अहिंसा का यह अर्थ नहीं है। अहिंसा का अर्थ है, प्रेम का समुद्र। अहिंसा का अर्थ है, वैरभाव का सर्वथा त्याग। अहिंसा में दीनता, भीरुता नहीं होती, डर-डरकर भागना भी नहीं होता। अहिंसा में तो दृढ़ता, वीरता, अडिगता होनी चाहिए। यह अहिंसा हिंदुस्तान के समाज में दिखाई नहीं देती। उनके लिए टॉल्स्टॉय का जीवन प्रेरक है। उन्होंने जिस चीज पर विश्वास किया। उसका पालन करने का जबरदस्त प्रयत्न किया, और उससे कभी पीछे नहीं हटे। इस जगत में ऐसा पुरुष कौन है जो जीते जी अपने सिद्धांतों पर पूरी तरह अमल कर सका हो? मेरी मान्यता है कि देहधारी के लिए संपूर्ण अहिंसा का पालन असंभव है। जब तक शरीर है, तब तक कुछ-न-कुछ अहंभाव तो रहता ही है। इसीलिए
शरीर के साथ हिंसा भी रहती ही है। टॉल्स्टॉय ने स्वयं कहा है कि जो अपने को आदर्श तक पहुंचा हुआ समझता है उसे नष्टप्राय ही समझना चाहिए। बस यहीं से उसकी अधोगति शुरू हो जाती है। ज्योंज्यों हम उस आदर्श के नजदीक पहुंचते हैं, आदर्श दूर भागता जाता है। जैसे-जैसे हम उसकी खोज में अग्रसर होते हैं, तो यह मालूम होता है कि अभी तो एक मंजिल और बाकी है। कोई भी एक छलांग में कई मंजिलें तय नहीं कर सकता। ऐसा मानने में न हीनता है, न निराशा, नम्रता अवश्य है। इसी से हमारे ऋषियों ने कहा है कि मोक्ष तो शून्यता है। जिस क्षण इस बात को टॉल्स्टॉय ने साफ देख लिया, उसे अपने दिमाग में बैठा लिया और उसकी ओर दो डग आगे बढ़े, उसी वक्त उन्हें वह हरी छड़ी मिल गई (गांधीजी से पूर्व इस सभा में किसी वक्ता ने कहा था कि टॉल्स्टॉय के भाई ने उन्हें अनेक सद्गुणों वाली हरी छड़ी खोजने को कहा था जिसे वे आजीवन खोजते ही रहे)। उस छड़ी का वह वर्णन नहीं कर सकते थे। सिर्फ इतना ही कह सकते थे कि वह उन्हें मिली। फिर भी अगर उन्होंने सचमुच यह कहा होता कि मिल गई तो उनका जीवन वहीं समाप्त हो जाता।
टॉल्स्टॉय और अंतर्विरोध
टॉल्स्टॉय के जीवन में जो अंतर्विरोध दिखता है, वह टॉल्स्टॉय का कलंक या कमजोरी नहीं, बल्कि देखनेवालों की त्रुटि है। एमर्सन ने कहा है कि अंतर्विरोध का भूत तो छोटे आदमियों को दबोचता है। अगर हम यह दिखलाना चाहें कि हमारे जीवन में कभी विरोध आनेवाला ही नहीं है तो यों समझिए कि हम मरे हुए ही हैं। अंतर्विरोध साधने में अगर कल के कार्य को याद रखकर उसके साथ आज के कार्य का मेल बिठाना पड़े, तो उस कृत्रिम मेल में असत्याचरण की संभावना हो सकती है। सीधा मार्ग यही है कि जिस वक्त जो सत्य प्रतीत हो उसपर
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खजाने जैसा है गांधी और टॉल्स्टॉय का पत्र
महात्मा गांधी और रूसी लेखक लियो टॉल्स्टॉय के संबंधों और जीवन को दर्शाती प्रदर्शनी का आयोजन दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में किया गया
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टॉल्स्टॉय के जीवन में जो अंतर्विरोध दिखता है, वह टॉल्स्टॉय का कलंक या कमजोरी नहीं, बल्कि देखनेवालों की त्रुटि है। एमर्सन ने कहा है कि अंतर्विरोध का भूत तो छोटे आदमियों को दबोचता है आचरण करना चाहिए। यदि हमारी उत्तरोत्तर उन्नति हो रही हो और हमारे कार्यों में दूसरों को अंतर्विरोध दिखे तो इससे हमें क्या? सच तो यह है कि यह अंतर्विरोध नहीं, उन्नति है। इसी तरह टॉल्स्टॉय के जीवन में जो अंतर्विरोध दिखता है वह अंतर्विरोध नहीं; हमारे मन का भ्रम है।
ब्रेड-लेबर
एसएसबी ब्यूरो
की आजादी के महानायक और देशदेशवासियों के बीच बापू के नाम से जाने
जाने वाले महात्मा गांधी और रूसी लेखक लियो टॉल्स्टॉय के संबंधों और जीवन को दर्शाती एक प्रदर्शनी का आयोजन दिल्ली विश्वविद्यालय के गांधी भवन में किया गया। इस दौरान 150 तस्वीरों और दस्तावेजों के माध्यम से दोनों महान शख्सियतों के बारे में
दो महान विचारकों के बीच पत्राचार हमें इन दोनों महान दार्शनिकों के महत्व और रूस और भारत के बीच संबंधों के महत्व की याद दिलाती हैं। हमें इस रिश्ते पर बहुत ही गर्व है - योगेश त्यागी, कुलपति, दिल्ली विश्वविद्यालय जानकारी दी गई। इस मौके पर दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति योगेश त्यागी ने कहा कि इन दो प्रसिद्ध व्यक्तियों के एक दूसरे को लिखे पत्रों की प्रतियों का प्रदर्शन काफी अहम है। उन्होंने कहा कि यह प्रदर्शनी दोनों के ही पत्रों पर नजर डालने का एक बढ़िया अवसर है। इन दो महान विचारकों के बीच पत्राचार और यह प्रदर्शनी
हमें इन दोनों महान दार्शनिकों के महत्व और रूस और भारत के बीच संबंधों के महत्व की याद दिलाती हैं। योगेश त्यागी ने कहा कि हमें इस रिश्ते पर बहुत ही गर्व है। इस प्रदर्शनी के आयोजकों में से एक और दिल्ली विश्वविद्यालय के स्लाविक और फिनो उग्रियन लैंगुएज के सीनियर लेक्चरर गिरीश मुंजाल ने बताया कि यह प्रदर्शनी दो जुबली समारोहों को समर्पित है। गिरीश मुंजाल ने बताया कि यह साल दिल्ली विश्वविद्यालय में रूसी भाषा की शुरुआत का 70वां साल भी है। यानी यह रूस और भारत के बीच राजनयिक संबंधों की 70 वीं वर्षगांठ है, जिसकी स्थापना 1947 में की गई थी। उन्होंने बताया कि हमारा विभाग भारत में सबसे पुराना है जहां रूसी भाषा को पढ़ाना शुरू किया गया था। मुंजाल ने यह भी बताया कि इस प्रदर्शनी को सफल बनाने के लिए राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय ने मदद की है। संग्रहालय ने दोनों के पत्रों की प्रतियों के साथ, उनके लिए गांधी और टॉल्स्टॉय के जीवन पर फोटो भी उपलब्ध कराए। टॉल्स्टॉय के प्रसिद्ध ‘लेटर टू अ हिंदू (1908) और टॉल्स्टॉय और गांधी के बीच पत्राचार के इन पत्रों को अंग्रेजी में प्रस्तुत किया गया और हिंदी में भी अनुवाद किया गया है। मॉस्को के बाहर स्थित यसना पालियाना संग्रहालय ने लियो टॉल्स्टॉय की जीवनी से संबंधित सामग्री, और भारत के बारे में और टॉल्स्टॉय लाइब्रेरी से दिल्ली की प्रदर्शनी में किताबें भी भेजी हैं।
अद्भुत विषय पर लिखकर और उसे अपने जीवन में उतारकर टॉल्स्टॉय ने उसकी ओर हमारा ध्यान दिलाया है। यह विषय है ब्रेड-लेबर (खुद शरीर श्रम करके अपना गुजारा करना)। यह उनकी अपनी खोज नहीं थी। किसी दूसरे लेखक ने यह बात रूस के सर्वसंग्रह (रशियन मिसलेनी) में लिखी थी। इस लेखक को टॉल्स्टॉय ने जगत के सामने ला रखा और उसकी बात को भी प्रकाश में लाया। जगत में जो असमानता दिखाई पड़ती है, एक तरफ दौलत और दूसरी तरफ कंगाली नजर आती है, उसका कारण यह है कि हम अपने जीवन का कानून भूल गए हैं। यह कानून ब्रेड-लेबर है। गीता के तीसरे अध्याय के आधार पर मैं इसे यज्ञ कहता हूं। गीता में कहा गया है कि जो बिना यज्ञ किए खाता है वह चोर है, पापी है। वही चीज टॉल्स्टॉय ने बताई है। ब्रेड-लेबर का उलटा-सीधा भावार्थ करके हमें उसे उड़ा नहीं देना चाहिए। उसका सीधा अर्थ यह है कि जो शारीरिक श्रम नहीं करता उसे खाने का अधिकार नहीं है। यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने भोजन के लिए आवश्यक मेहनत करे, तो जो गरीबी दुनिया में दिखती है वह दूर हो जाए। एक आलसी दो व्यक्तियों को भूखों मारता है, क्योंकि उसका काम दूसरे को करना पड़ता है। टॉल्स्टॉय ने कहा है कि लोग परोपकार करने निकलते हैं, उसके लिए पैसे खर्च करते हैं और उसके बदले में खिताब आदि लेते हैं; यदि वे ये सब न करके केवल इतना ही करें कि दूसरों के कंधों ने नीचे उतर जाएं तो यही काफी है। यह सच बात है। यह नम्रतापूर्ण वचन है। करने जाएं परोपकार और अपना ऐशो-आराम लेशमात्र भी न छोड़ें, तो यह वैसी ही हुआ जैसे अखा भगत ने कहा है- निहाई की चोरी, सुई का दान। क्या ऐसे में स्वर्ग से विमान आ सकता है?
भाषा में चमत्कार
ऐसा नहीं है कि टॉल्स्टॉय ने जो कहा वह दूसरों ने न कहा हो, लेकिन उनकी भाषा में चमत्कार था और इसका कारण यह है कि उन्होंने जो कहा, उसका पालन किया। गद्दी-तकियों पर बैठने वाले टॉल्स्टॉय मजदूरी में जुट गए। आठ घंटे खेती का या मजदूरी का दूसरा काम उन्होंने किया। शरीर-श्रम को अपनाने के बाद से उनका साहित्य और भी अधिक शोभित हुआ। उन्होंने अपनी पुस्तकों में से जिसे सर्वोत्तम कहा है वह है- ‘कला क्या है?’। यह किताब उन्होंने मजदूरी में से बचे समय में लिखी
थी। मजदूरी से उनका शरीर क्षीण नहीं हुआ। उन्होंने स्वयं यह माना था कि इससे उनकी बुद्धि और अधिक तेजस्वी हुई और उनके ग्रंथों को पढ़नेवाले भी कह सकते हैं कि यह बात सच है।
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डाक टिकट पर विश्व मानव
गांधी जी के निधन पर उर्दू के बड़े शायर नूर लखनवी ने कहा था, ‘कुछ देर को नब्जे आलम भी चलते-चलते रुक जाती है। हर कौम का परचम झुलकता है, हर सांस को हिचकी आती है।’ वे भारत के लिए तो राष्ट्रपिता थे ही, पूरे विश्व में उनके लिए सम्मान था और यह सम्मान आज भी कायम है। इस सम्मान को प्रकट करने के लिए भारत सहित दुनिया के ज्यादातर मुल्कों ने उनकी प्रेरक स्मृति में समय-समय पर डाक टिकट जारी किए हैं। ये डाक टिकट इस विश्व मानव से जुड़े तारीखी संदर्भों की याद दिलाते हैं
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गांधी स्मृति
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‘भगवान, अहिंसा और सत्य’
चंपारण सत्याग्रह ने राजनीतिक स्वतंत्रता की अवधारणा और पहुंच को पुनर्भाषित किया और पूरे ब्रिटिश-भारतीय समीकरण को एक जीवंत मोड़ पर खड़ा कर दिया जॉन चेल्लादुराई
चं
चंपारण में गांवों की दयनीय हालत देखकर गांधी जी ने स्वयंसेवकों की सहायता से छह ग्रामीण स्कूल, ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र, ग्रामीण स्वच्छता के लिए अभियान और नैतिक जीवन के लिए सामाजिक शिक्षा की शुरुआत की
पारण सत्याग्रह के बारे में बाबू राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है, ‘राष्ट्र ने अपना पहला पाठ सीखा और सत्याग्रह का पहला आधुनिक उदाहरण प्राप्त किया।’ चंपारण, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का खुलासा करता है। यह आंदोलन साम्राज्यवादी उत्पीड़न के लिए लगाई गई सभी भौतिक ताकतों के विरुद्ध लड़ने के लिए एक अनजान कार्य प्रणाली के बारे में जानकारी देता है। गांधी जी ने इसे ‘सत्या ग्रह’ के नाम से पुकारा। चंपारण सत्याग्रह के परिणाम ने राजनीतिक स्वतंत्रता की अवधारणा और पहुंच को पुनर्भाषित किया और पूरे ब्रिटिशभारतीय समीकरण को एक जीवंत मोड़ पर खड़ा कर दिया। चंपारण में ब्रिटिश बागान मालिकों ने जमींदारों की भूमिका अपना ली थी और वे न केवल वार्षिक उपज का 70 प्रतिशत भूमि कर वूसल कर रहे थे, बल्कि उन्हों ने एक छोटे से मुआवजे के बदले किसानों को हर एक बीघा (20 कट्ठे) जमीन के तीन कट्ठे में नील की खेती करने के लिए मजबूर किया। उन्होंने कल्पना से बाहर अनेक बहानों के तहत गैर कानूनी उपकर ‘अबवाब’ भी लागू किया। यह कर विवाह में ‘मारवाच’, विधवा विवाह में ‘सगौरा’, दूध, तेल और अनाज की बिक्री में ‘बेचाई’ के नाम से जाना जाता था। उन्होंने प्रत्येक त्योहार पर भी कर लागू किया था। अगर किसी बागान मालिक के पैर में पीड़ा हो जाए, तो वह इसके इलाज के लिए भी अपने लोगों पर ‘घवही’ कर लागू कर देता था। बाबू राजेंद्र प्रसाद ने ऐसे 41 गैर कानूनी करों की सूची बनाई थी। जो किसान कर का भुगतान करने या नील की खेती करने में नाकाम रहते थे उन्हें शारीरिक दंड दिया जाता था। फरीदपुर के मजिस्ट्रेट रहे ई.डब्ल्यू.एल.टावर ने कहा था, ‘नील की एक भी ऐसी चेस्ट इंग्लैंड नहीं पहुंची, जिस पर मानव रक्त के दाग न लगे हों। मैंने रैयत देखे, जो शरीर से आर-पार निकले हुए थे। यहां नील की खेती रक्त पात की एक प्रणाली बन गई है। डर का बोलबाला था। ब्रिटिश बागान मालिक और उनके एजेंट आतंक के पर्याय थे।’ याचिकाओं और सरकार द्वारा नियुक्त समितियों के माध्यम से स्थिति को सुधारने के अनेक प्रयास किए गए, लेकिन कोई राहत नहीं मिली और स्थिति निराशाजनक ही रही। गांधी जी नील की खेती करने वाले एक किसान राजकुमार शुक्ला के अनुरोध पर चंपारण का दौरा करने पर सहमत हो गए, ताकि वहां स्थिति का स्वयं जायजा ले सकें। बागान मालिक, प्रशासन और पुलिस के बीच गठजोड़ के कारण एक आदेश बहुत जल्दी में जारी किया गया
कि गांधी जी की उपस्थिति से जिले में जन आक्रोश फैल रहा है, इसीलिए उन्हें तुरंत जिला छोड़ना होगा या फिर दंडात्मक कार्रवाई का सामना करना होगा। गांधी जी ने न केवल सरकार और जनता को इस आदेश की अवज्ञा करने की घोषणा करते हुए चौंका दिया, बल्कि यह इच्छा भी जाहिर की कि जब तक जनता चाहेगी वे चंपारण में ही अपना घर बना कर रहेंगे। मोतिहारी जिला अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने गांधी जी ने जो बयान दिया, उससे सरकार चकित हुई और जनता उत्साहित हुई थी। गांधी जी ने कहा था कि कानून का पालन करने वाले एक नागरिक के नाते मेरी पहली यह प्रवृत्ति होगी कि मैं दिए गए आदेश का पालन करूं, लेकिन मैं जिनके लिए यहां आया हूं, उनके प्रति अपने कर्त्तव्य की हिंसा किए बिना मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं यह बयान केवल दिखावे के लिए नहीं दे रहा हूं कि मैंने कानूनी प्राधिकार के प्रति सम्मान की इच्छा के लिए दिए गए आदेश का सम्मान नहीं किया है, बल्कि यह हमारे अस्तित्व के उच्च कानून के प्रति मेरे विवेक की आवाज भी है। यह समाचार जंगल की आग की तरह फैल गया और अदालत के सामने अभूतपर्वू भीड़ इकट्ठी हो गई। बाद में गांधी जी ने इसके बारे में लिखा कि किसानों के साथ इस बैठक में मैं भगवान, अहिंसा और सत्य के साथ आमने सामने खड़ा था। स्थिति से किस तरह निपटा जाए, इसके बारे में मजिस्ट्रेट और सरकारी अभियोजक की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, वे मामले को स्थगित करना चाहते थे। गांधी जी ने कहा था कि स्थगन जरूरी नहीं है, क्योंकि वह अवज्ञा के दोषी हैं। गांधी जी के दृष्टिकोण की नवीनता, अत्यंत विनम्रता, पारदर्शिता, लेकिन फिर भी बहुत दृढ़ और मजबूत व्यक्तित्व से लोगों ने देखा कि उन्हें गांधी के रूप में एक उद्धारकर्ता मिल गया है, जबकि सरकार अत्यंत विरोधी है। मजिस्ट्रेट ने मामले को खारिज कर दिया और कहा कि गांधी जी चंपारण के गांवों में जाने के लिए आजाद हैं। गांधी जी ने वायसराय और उपराज्यपाल तथा पंडित मदनमोहन मालवीय को पत्र लिखे। पंडित मदनमोहन मालवीय ने हिंदू विश्वविद्यालय के काम में व्यस्तता के कारण चंपारण के लिए अपनी अनुपलब्धता के बारे में उन्हें पत्र लिखा। सी. एफ. एंड्रयूज नामक एक अंग्रेज, जिन्हें लोग प्यार से ‘दीनबंधु’ कहते थे, गांधी जी की सहायता के लिए पहुंचे। पटना के बुद्धिजीवी बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, बैरिस्टर मजहरुल हक, बाबू राजेंद्र प्रसाद तथा प्रोफेसर जेबी कृपलानी के नेतृत्व में युवाओं की अप्रत्याशित भीड़ के साथ गांधी जी की सहायता के लिए उनके चारों ओर इकट्ठे हो गए। चंपारण में गांवों की दायनीय हालत देखकर गांधी जी ने स्वयंसेवकों की सहायता से छह ग्रामीण स्कूल, ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र, ग्रामीण स्वच्छता के लिए अभियान और नैतिक जीवन के लिए सामाजिक शिक्षा की शुरुआत की। देशभर के स्वयंसेवकों ने सौंपे जाने वाले कार्यों के लिए अपना नामांकन कराया। इन स्वंयसेवकों में सरवेंट अॉफ इंडियन सोसायटी के डॉ. देव भी थे। पटना के स्वयसेवकों ने आत्म निर्धारित श्रेष्ठता का परित्याग करके एक साथ रहना, साधारण आम भोजन खाना और किसानों के साथ भाई-चारे का व्यवहार करना शुरू कर दिया। उन्हों ने खाना बनाना और बर्तन साफ करना भी शुरू कर दिया। पहली बार किसान अन्यायी प्लांटरों से परेशान होकर निडर रूप से अपनी परेशानियां दर्ज करवाने के लिए आगे आए। व्यवस्थित जांच, मामले का तर्कसंगत अध्ययन और सभी पक्षों के मामले की शांतिपूर्ण सुनवाई हुई, जिसमें ब्रिटिश प्लांटर्स भी शामिल थे। न्याय के लिए आह्वान के कारण सरकार ने एक जांच समिति का गठन करने के आदेश दिए। इस कमेटी में गांधी जी भी एक सदस्य थे, जिन्होंने आखिर में चंपारण से तीन कठिया प्रणाली के पूर्ण उन्मूलन की अगुवाई की।
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
गांधी तो हमारा भोला है अकबर इलाहाबादी
गांधी तो हमारा भोला है और शेख ने बदला चोला है देखो तो खुदा क्या करता है साहब ने भी दफ्तर खोला है आन्हर की पहेली बूझी है हर इक को तअल्ली सूझी है जो चोकर था, वह सूजी है जो माशा था, वह तोला है यारों में रकम अब कटती है इस वक्त हुकूमत बंटती है कम्पू से तो जुल्मत हटती है बे-नूर मोहल्ला-टोला है
गांधी स्मृति
आंसू की भाषा में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जो कुछ था देय, दिया तुमने, सब लेकर भी हम हाथ पसारे हुए खड़े हैं आशा में; लेकिन, छींटों के आगे जीभ नहीं खुलती, बेबसी बोलती है आंसू की भाषा में। वसुधा को सागर से निकाल बाहर लाए, किरणों का बंधन काट उन्हें उन्मुक्त किया, आंसुओं-पसीनों से न आग जब बुझ पाई, बापू! तुमने आखिर को अपना रक्त दिया।
तुम कागज पर लिखते हो भवानीप्रसाद मिश्र
तुम कागज पर लिखते हो वह सड़क झाड़ता है तुम व्यापारी वह धरती में बीज गाड़ता है । एक आदमी घड़ी बनाता एक बनाता चप्पल इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा इसमें क्या बल। सूत कातते थे गांधी जी कपड़ा बुनते थे और कपास जुलाहों के जैसा ही धुनते थे चुनते थे अनाज के कंकर चक्की पीसते थे आश्रम के अनाज आश्रम में पिसते थे जिल्द बांध लेना पुस्तक की उनको आता था भंगी-काम सफाई से नित करना भाता था । ऐसे थे गांधी जी ऐसा था उनका आश्रम गांधी जी के लिए पूजा के समान था श्रम। एक बार उत्साह-ग्रस्त कोई वकील साहब जब पहुंचे मिलने बापूजी पीस रहे थे तब। बापूजी ने कहा- बैठिए पीसेंगे मिलकर जब वे झिझके गांधी जी ने कहा और खिलकर सेवा का हर काम हमारा ईश्वर है भाई बैठ गए वे दबसट में पर अक्ल नहीं आई।
गांधी जी की निर्मम हत्या पर
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हरिवंशराय बच्चन था उचित कि गांधी जी की निर्मम हत्या पर तारे छिप जाते, काला हो जाता अंबर, केवल कलंक अवशिष्ट चंद्रमा रह जाता, कुछ और नजारा था जब ऊपर गई नजर। अंबर में एक प्रतीक्षा को कौतूहल था, तारों का आनन पहले से भी उज्ज्वल था, वे पंथ किसी का जैसे ज्योतित करते हों, नभ वात किसी के स्वागत में फिर चंचल था। उस महाशोक में भी मन में अभिमान हुआ, धरती के ऊपर कुछ ऐसा बलिदान हुआ, प्रतिफलित हुआ धरणी के तप से कुछ ऐसा, जिसका अमरों के आंगन में सम्मान हुआ। अवनी गौरव से अंकित हों नभ के लिखे, क्या लिए देवताओं ने ही यश के ठेके, अवतार स्वर्ग का ही पृथ्वी ने जाना है, पृथ्वी का अभ्युत्थान स्वर्ग भी तो देखे!
बापू
सुमित्रानंदन पंत चरमोन्नत जग में जब कि आज विज्ञान ज्ञान, बहु भौतिक साधन, यंत्र यान, वैभव महान, सेवक हैं विद्युत वाष्प शक्ति, धन बल नितांत, फिर क्यों जग में उत्पीड़न ? जीवन यों अशांत ? मानव ने पाई देश काल पर जय निश्चय, मानव के पास नहीं मानव का आज हृदय! चर्वित उसका विज्ञान ज्ञान, वह नहीं पचित; भौतिक मद से मानव आत्मा हो गई विजित! है श्लाघ्य मनुज का भौतिक संचय का प्रयास, मानवी भावना का क्या पर उसमें विकास ? चाहिए विश्व को आज भाव का नवोन्मेष, मानव उर में फिर मानवता का हो प्रवेश! बापू! तुम पर हैं आज लगे जग के लोचन, तुम खोल नहीं जाओगे मानव के बंधन?
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गांधी स्मृति
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सिनेमा में महात्मा
फिल्मों में महात्मा गांधी की बात करें तो बेन किंग्सले और रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ से शुरू हुआ सिलसिला अब तक कई रचनात्मक पड़ावों को पार कर चुका है
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गीता सिंह
ल्म गांधी देखी है आपने? उसमें महात्मा गांधी की अंतिम यात्रा के सीन में तीन लाख लोग शामिल हुए हैं। फिल्म बनाने वालों ने 40,000 एक्स्ट्रा कलाकारों के लिए अखबारों में विज्ञापन दिया। जगह जगह पर्चे बांटे गए और 31 जनवरी 1982 के दिन शूटिंग के लिए पहुंचे तीन लाख से ज्यादा लोग। उनमें से सिर्फ 94,560 कलाकारों को ही पैसा दिया गया। बाकी अपनी खुशी से शामिल हुए और यह तब था जबकि उन्हीं लोगों को शूटिंग में शामिल किया गया जो सफेद कपड़ों में आए। यह सिनेमा का आकर्षण था या बापू के लिए भारत की दीवानगी, समझना दिलचस्प है। गांधी जी जनमानस के नेता थे। जनसंचार की पढ़ाई में पढ़ाया जाता है कि महात्मा गांधी से बड़ा कोई ‘मास कम्युनिकेटर’ यानी आमजन की भाषा समझने वाला और उन तक अपनी बात पहुंचाने वाला नहीं हुआ। एेसे महान नेता कि जिंदगी में फिल्मकारों की दिलचस्पी न हो, यह हो नहीं सकता। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के जीवन दर्शन और सुविचारों की प्रासंगिकता को इसी बात से समझा जा सकता है कि देश 2019 में उनकी 150वीं जयंती मनाने की तयारी में अभी से जुटा है। हिंदी सिनेमा के वरिष्ठ समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज कहते हैं, ‘गांधी को अगर बहुत ही सैद्धांतिक तरीके से पेश किया जाए तो हो सकता है कि आज का दर्शक पसंद न करें। गांधी को आप कैसे दर्शकों
के सामने ले जा रहे हैं, वह ज्यादा जरूरी है। ऐसा आपको मनोरंजक तरीके से ही करना होगा।’ श्रेय देना होगा उन फिल्मकारों को जिन्होंने इस रचनात्मक चुनौती को स्वीकार किया और गांधी जी के चरित्र की शालीनता और मर्यादा से बगैर खिलवाड़ किए उन्हें सिनेमा के परदे पर कई बार उतारा। आइए, ऐसी ही कुछ फिल्मों पर एक दृष्टि डालते हैं, जो राष्ट्रपिता के जीवन पर आधारित हैं। साथ-साथ हम ऐसी भी फिल्मों पर दृष्टिपात करेंगे जो गांधी के जीवन पर भले न हों, पर उनमें उनके
विचारों को प्रमुखता से रखा गया है-
गांधी (1982)
रिचर्ड एटनबरो के निर्देशन में बनी यह फिल्म गांधी के जीवन पर बनी सबसे उत्कृष्ट फिल्मों में शुमार की जाती है। फिल्म में बेन किंग्स्ले ने गांधी के
गांधी ने देखीं सिर्फ दो फिल्में
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‘मिशन टू मॉस्को’ और ‘रामराज्य’, यही वे दो फिल्में हैं जिन्हें गांधी ने अपनी पूरी जिंदगी में देखी
पनी जिंदगी में महात्मा गांधी ने सिर्फ दो फिल्में देखीं। पहली फिल्म उन्होंने 74 साल की उम्र में 1943 में ‘मिशन टू मॉस्को’ देखी। उसके बाद भारत में बनी एक फिल्म ‘रामराज्य’ देखी। अपनी पसंदीदा किताब व ा ल ्मीकि रामायण पर
मराठी निर्देशक विजय भट्ट की बनाई यह फिल्म गांधी को काफी पसंद आई। बस, इसके बाद उन्होंने फिल्म नहीं देखी। कह सकते हैं कि फिल्मों से गांधी का नाता कम ही रहा। उनके आं द ो ल न के वक्त भी और उसके बाद भी।
खास बातें रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ को सात आस्कर अवार्ड मिले थे ‘द मेकिंग ऑफ द महात्मा’ का निर्माण फातिमा मीर की पुस्तक पर हुआ है ‘माई डियर बापूजी’ गांधी जी के जीवन पर बनी एनिमेशन फिल्म है चरित्र को इतनी खूबसूरती से निभाया है कि उन्हें इस फिल्म में अभिनय के लिए ऑस्कर अवार्ड से नवाजा गया। फिल्म को सात आस्कर अवार्ड मिले।
सरदार (1993) मुख्यत: सरदार वल्लभभाई पटेल पर बनी इस फिल्म में निर्देशक केतन मेहता ने गांधी और उनके विचारों को भी गंभीरता से चित्रित किया है।
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
गांधी स्मृति
सिनेमा, समाज और बापू
अलग-अलग समय की विचारधाराओं का प्रभाव समकालीन सिनेमा पर भी पड़ता है और भारतीय सिनेमा के संदर्भ में हम यह देखते हैं कि गांधी की विचारधारा का इन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा
तुषार गांधी
क
(महात्मा गांधी के प्रपौत्र)
ला और संस्कृति का देश की राजनीतिक परिस्थितियों के साथ अटूट संबंध होता है और बापू का प्रभाव जब हमारी कविता, कहानी, उपन्यास और नाटकों में प्रमुखता से पड़ा, तो फिल्म निर्माण की कला इससे कैसे अछूती रह सकती है। अलग-अलग समय की विचारधाराओं का प्रभाव समकालीन सिनेमा पर भी पड़ता है और भारतीय सिनेमा के संदर्भ में हम यह देखते हैं कि गांधी की विचारधारा का इन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। सिर्फ महात्मा गांधी के व्यक्तित्व को केंद्र में रख कर फिल्मों का निर्माण करना जितना सराहनीय है उतना ही जटिल भी। बापू के व्यापक और विविधतापूर्ण व्यक्तित्व को चंद घंटे में परदे पर पूरे न्याय के साथ पेश करना बहुत ही पेचीदा काम है लेकिन हिंदी सिनेमा ने काफी हद
द मेकिंग ऑफ द महात्मा (1996)
फातिमा मीर की पुस्तक 'द एप्रेंटिसशिप ऑफ ए महात्मा' का श्रेष्ठ भारतीय फिल्मकार श्याम बेनेगल ने फिल्मी रूपांतर कर इस फिल्म की रचना की। फिल्म में गांधी की भूमिका करने वाले रंजित कपूर को उनके अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
वर्तमान समय में भी जब-जब हिंसा और प्रतिशोध अपने चरम पर पहुंचता है तब महात्मा गांधी के मूल्यों की प्रासंगिकता पर चर्चा शुरू हो ही जाती है हे राम (2000)
हिंदी और तमिल, दो भाषाओं में बनी इस फिल्म का निर्देशन प्रख्यात अभिनेता कमल हासन ने किया है। यह फिल्म विभाजन और गांधी की हत्या पर केंद्रित है। फिल्म में गांधी का किरदार मशहूर अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने निभाया है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस : द फॉरगॉटेन हीरो (2005)
श्याम बेनेगल ने एकबार फिर जब आजादी से पूर्व के काल को सुभाष चंद्र बोस की कहानी के माध्यम से फिल्म में उतारा तो गांधी की जिक्र किए बगैर उन्हें
तक इस काम को बखूबी अंजाम दिया। व्ही.शांताराम और विमल राय की फिल्मों में गांधीवादी नजरिया और आदर्श की कसौटी अनिवार्य रूप से मौजूद रहती थी। इस दौर में बनी फिल्में दो बीघा जमीन, दो आंखें बारह हाथ, आवारा और जागृति ऐसी ही कुछ फिल्में थीं। अगर लोकप्रिय और व्यावसायिक सिनेमा ने प्रतिशोध पर आधारित बर्बरता को प्रोत्साहित किया है। दूसरी तरफ ऐसी फिल्में भी बनती रहीं हैं, जिनमें धार्मिक सौहार्द और अहिंसा को काफी सशक्त तरीके से पेश किया गया है। रिचर्ड एटेनबरो की ‘गांधी’ शीर्षक से बनी फिल्म हो या श्याम बेनेगल की ‘द मेकिंग अॉफ महात्मा’ या फिर ‘गांधी माई फादर’, इन सभी फिल्मों में गांधी जी के जीवन के महत्वपूर्ण पड़ावों को सत्य व अहिंसा के उनके मूल्यों को काफी सशक्त तरीके से पेश किया गया है। वक्त के साथ जब समाज में बदलाव आता है तो सिनेमा इस बदलाव से कैसे अछूता रह सकता है। वर्तमान समय में भी जब-जब हिंसा और प्रतिशोध अपने चरम पर पहुंचता है तब महात्मा गांधी के मूल्यों की प्रासंगिकता पर चर्चा शुरू हो ही जाती है। ठीक इसी तरह सिनेमाई संसार में भी गांधी जी का प्रभाव मौजूद है और ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ जैसी फिल्में इसका उदाहरण हैं। भले ही ये फिल्में पूरी तरह से मुनाफा कमाने के उद्देश्य से बनाई गई हों लेकिन इनके माध्यम से महात्मा के मूल्यों पर जो चर्चा की जाती है उनका प्रभाव काफी गहरा होता है।
27 माई डियर ब ा पू ज ी (2010)
गांधी जी के जीवन पर बनी एनिमेशन फिल्म ‘माई डियर बापूजी’ का निर्माण केरल की स ्व यं से व ी संस्था महात्मा गांधी नेशनल फाउंडेशन ने कराया। यह फिल्म 15 अगस्त 2010 को रिलीज की गई थी। ‘माई डियर बापूजी’ महात्मा गांधी के जीवन और आदर्शों पर आधारित है। फाउंडेशन का मकसद इस फिल्म के जरिए देश के युवाओं तक बापू का संदेश पहुंचाना है। गांधी जी के जन्म से लेकर जीवन के हर पहलू को इस फिल्म में शामिल किया गया है। मसलन मां के रूप एक धार्मिक महिला ने बापू के जीवन पर क्या असर डाला। साथ ही दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन यात्रा के दौरान जो उन्हें बदसलूकी झेलनी पड़ी, बापू का सत्याग्रह और भारत की आजादी की लड़ाई में उनका योगदान, इस फिल्म में सब कुछ है। फिल्म में खासतौर से नीति से जुड़े उन सिद्धांतों पर ज्यादा जोर दिया गया है, जो महात्मा गांधी को सबसे ज्यादा प्रिय थे, जैसे- ईमानदारी, अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता। फिल्म के निर्देशक एके साइबर ने बताया, ‘यह पूरी तरह से बच्चों की फिल्म है और उन्हीं को ध्यान में रखकर बनाई गई है। फिल्म नैरेटिव स्टाइल में है। यानी कोई एक शख्स पूरी
फिल्म बनाना अधूरा सा लगा। यह गांधी के दौर की दो विचारधाराओं पर केंद्रित फिल्म है।
लगे रहो मुन्नाभाई (2006)
फिल्म निर्देशक राजकुमार हिरानी ने अपनी इस फिल्म में गांधी के विचारों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बेहद सहज अंदाज में पेश किया, और 'गंधीगीरी' के रूप में उनके विचारों को लोकप्रिय बनाया।
गांधी माई फादर (2007)
देश के लिए समर्पित गांधी के अपने परिवार से खासकर अपने बड़े बेटे हरीलाल से संबंधों को इस फिल्म में निर्देशक फीरोज अब्बास खान ने बहुत बारीकी से बुना है। फिल्म को तीन वर्गों में राष्ट्रीय पुरस्कार मिले।
फिल्म कहानी के रूप में सुनाता है जिसकी वजह से फिल्म और आकर्षक बन गई है।’ इसी तरह की एनिमेशन फिल्म देश के दूसरे महापुरुषों के जीवन पर भी बनाने की तैयारी की जा रही है। इनमें सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह जैसे नाम शामिल हैं।
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विशेष
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
विश्व कैंसर दिवस (4 फरवरी) पर विशेष
कैंसर के खिलाफ युवी की जंग
कैंसर का पता लगने के बाद क्रिकेटर युवराज टूटे नहीं बल्कि उन्होंने इस रोग को हराने की ठान ली। आखिरकार कैंसर के साथ जंग में वे कामयाब भी रहे
यु
एसएसबी ब्यूरो
वराज भारतीय क्रिकेट के सबसे सफल खिलाड़ियों में गिने जाते हैं। वर्ष 2003, 2007 और 2011 के क्रिकेट विश्व कप टूर्नामेंट में उनके बेहतर प्रदर्शन की बदौलत भारत ने विश्व क्रिकेट में नए-नए मुकाम हासिल किए थे। 2011 के विश्व कप मैचों के दौरान युवराज मीडियास्टिनल सेमिनोमा डिसीज के शिकार हो गए थे। मीडियास्टिनल सेमिनोमा एक तरह का कैंसर है जो सामान्यतः पुरुषों के जननांगो में होता है। युवराज के मामले में यह उनके दिल से बाएं फेफड़े के बीच के हिस्से में था। युवराज ने कीमोथेरेपी के जरिए इस घातक बीमारी पर जीत हासिल कर ली। कैंसर आज के दौर की ऐसी जटिल समस्या है जिसके मरीजों की संख्या तो दिनोदिन बढ़ रही है लेकिन उसके गंभीर स्थिति में इलाज का कोई फॉर्मूला नहीं मिल रहा। युवराज सिंह कैंसर के खतरे वाले निशान तक नहीं पहुंचे थे लेकिन दुनिया भर में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्हें कैंसर के शुरुआती लक्षणों का पता ही नहीं चलता और जब उन्हें पता चलता है तब स्थिति अनियंत्रित रूप से गंभीर हो चुकी होती है। कैंसर का इलाज भी काफी महंगा होता है। ऐसे में अगर आप इसके शुरुआती लक्षणों के बारे में जान रहे हों तो समय रहते इससे बचाव कर सकते हैं।
युवराज की किताब
कैंसर से लड़ने के बाद युवराज सिंह ने मैदान पर दोबारा वापसी की। उन्होंने अपनी किताब 'द टेस्ट ऑफ माइ लाइफ' में कैंसर से अपने संघर्ष की दास्तान को पेश किया है। इस किताब में उन्होंने विस्तार से बताया है कि कैंसर के कारण उनकी जिंदगी में क्याक्या बदलाव हुए। भारत को 2011 में क्रिकेट वर्ल्ड कप जिताने में अहम भूमिका अदा करने वाले
खास बातें मीडियास्टिनल सेमिनोमा डिसीज के शिकार हुए थे युवराज कैंसर को लेकर अपने अनुभव को लेकर उन्होंने पुस्तक भी लिखी है बोस्टन में दो महीनों से भी ज्यादा समय तक उनका इलाज चला युवराज सिंह को 2012 में कैंसर होने की बात सामने आई। अमेरिका के बोस्टन शहर में दो महीनों से भी ज्यादा समय तक उनका इलाज चला। ये उनका जज्बा ही था कि भारत वापसी के चंद महीनों बाद युवराज की क्रिकेट टीम में वापसी हुई और उन्होंने श्रीलंका में टी20 वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया।
संघर्ष की कहानी
कैंसर से सफलतापूर्वक जूझने वाले युवराज सिंह लिखते हैं, ‘जब आप बीमार होते हैं, जब आप पूरी तरह निराश होने लगते हैं, तो कुछ सवाल एक भयावह सपने की तरह बार बार आपको सता सकते हैं। लेकिन आपको सीना ठोंक कर खड़ा होना चाहिए और इन मुश्किल सवालों का सामना करना चाहिए।’ अमरीका से इलाज कराने के बाद भारत लौटने के अनुभवों को उन्होंने विस्तार से अपनी किताब में लिखा है। वे लिखते हैं कि मेरी मुलाकात दिल्ली में इंडियन कैंसर सोसाइटी की मानद सचिव से हुई। उन्होंने कहा, ‘युवी, जिस तरह आपने खुल कर अपनी लड़ाई लड़ी है, आप जाने अंजाने कैंसर से बचने वाले लोगों के लिए एंबेसडर बन गए हैं। इस देश में जहां कैंसर के पचास लाख मरीज हैं, वहां ये मानना मुश्किल लगता है कि किसी सिलेब्रिटी को कभी ये बीमारी नहीं हुई। इससे पहले कैंसर से पीड़ित कोई जानी-मानी हस्ती मेरे दिमाग आती है तो वो हैं नरगिस दत्त।’ युवराज का कहना है कि उन्होंने पूरी हिम्मत के साथ इस बात को स्वीकारा कि उन्हें कैंसर है। टीम इंडिया के धांसू बल्लेबाज रहे युवराज सिंह लिखते
भारत को 2011 में क्रिकेट वर्ल्ड कप जिताने में अहम भूमिका अदा करने वाले युवराज सिंह को 2012 में कैंसर होने की बात सामने आई
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
कैंसर के शुरुआती लक्षण
या फिर गले में किसी तरह का गांठ है तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें। यह कैंसर हो सकता है। शरीर के किसी भी भाग में गांठ होना कैंसर का संकेत हो सकता है। ऐसे में अगर आप तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें तो कैंसर को घातक बनने से रोका जा सकता है।
शु
रुआती दौर में कैंसर जो लक्षण प्रकट करता है उनमें सबसे प्रमुख है पेशाब और शौच के दौरान खून का आना। शरीर में खून की कमी हो जाने की वजह से एनीमिया की भी समस्या सामने आती है जिसकी वजह से थकान, कमजोरी, तेज बुखार आना और बुखार ठीक न होना जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। इसके अलावा खांसी के दौरान खून भी आ सकता है। लंबे समय तक कफ और फिर कफ के साथ म्यूकस का आना भी कैंसर का ही लक्षण है। अगर आपको कुछ भी निगल पाने में दिक्कत हो रही है
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कैंसर से संघर्ष की जुझारू दास्तान दिल्ली की दो महिलाअों ने हौसला दिखाते हुए दी कैंसर को मात
इसीलिए होता है कैंसर
आयुर्वेद के आचार्य बालकृष्ण बताते कैंसर की वजह हमारी अनियमित दिनचर्या, कलर्ड फूड्स का सेवन और फसलों में कीटनाशकों का धड़ल्ले से उपयोग है। उनके मुताबिक तंबाकू के सेवन के अलावा फ्रीज में रखे गए बासी खाने को बार बार गरम कर खाने की वजह से भी कैंसर होता है। कैंसर के रोगियों के लिए बालकृष्ण गिलोय और व्हीट ग्रास जूस का सेवन करने की सलाह देते हैं। गेहूं को अंकुरित कर उसके घास को गिलोय की जड़ के साथ पीसकर जूस बना लें और इसका सेवन करें। यह कैंसर को जड़ से खत्म करने में बेहद प्रभावशाली औषधि है।
हैं, ‘खूबसूरत नरगिस दत्त के कैंसर से ग्रस्त होने के बाद देश में क्या मैं पहला व्यक्ति था जिसे ये बीमारी हुई? मुझे ऐसा नहीं लगता। हो सकता है कि शायद मैं भारत में पहला ऐसा व्यक्ति हूं, जिसे कैंसर के साथ जीने और इसके बारे में बात करने, इसे अपनाने, इसकी वजह से बाल चले जाने और इससे लड़ने से डर नहीं लगता है।’ अपनी किताब का मकसद वो वो यूं बयान करते हैं, ‘ये कहानी है मेरी कैंसर से पहले की जिंदगी, कैंसर के दौरान जिंदगी और कैंसर के बाद वाली जिंदगी की...ये कहानी है संघर्ष की, इंकार की, कबूलने की और उसके बाद नए संघर्षों की।’
आर्मस्ट्रांग की किताब
युवराज ने अपनी किताब में जिक्र किया है कि कैंसर से जंग जीतने के बाद उन्हें इस बात की चिंता सताती रहती थी कि वो क्रिकेट में कब और कैसे वापसी करेंगे. ऐसे में इस किताब को लिखना उन्हें सुकून देता था। युवराज कहते हैं कि मशहूर साइक्लिस्ट लांस आर्मस्ट्रांग की किताब ‘इट्स नॉट अबाउट द बाइक’ ने उन्हें खूब हिम्मत दी। युवराज के लिए उनकी किताब ने एक दोस्त और एक मार्गदर्शक का बखूबी काम किया। युवी लिखते हैं, ‘कुछ साल पहले मैंने लांस आर्मस्ट्रांग की किताब ‘इट्स नॉट अबाउट द बाइक’ पढ़नी शुरू की लेकिन इसे पूरी नहीं पढ़ पाया था। हो सकता है, जैसा कि अकसर कहा जाता है, यही तकदीर में लिखा था। शायद मुझे वापस लांस की तरफ आना था और किसी और समय इस किताब को पूरा पढ़ना था।’ युवराज के अनुसार वो अपनी किताब के जरिए
विशेष
अपनी कहानी इसीलिए लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं ताकि ऐसे हालात में जी रही लोग ये न समझें कि वो अकेले हैं। वे लिखते हैं, ‘जिस तरह हम अपनी जीत और सुख को दूसरों के साथ बाँटते हैं, उसी तरह हमें अपना दुख भी बांटना चाहिए ताकि जो और लोग दुख झेल रहे हों, वो भी महसूस कर सकें कि वो अकेले नहीं हैं. अगर अपनी कहानी बता कर मैं किसी एक व्यक्ति की भी मदद कर पाऊं, तो मुझे खुशी होगी। ठीक वैसे ही जैसे लांस आर्मस्ट्रांग की कैंसर की कहानी ने मेरी मदद की थी।’ युवराज आगे लिखते हैं, ‘मुझे प्रतीत होगा कि मेरी जिंदगी का जो साल गुम गया, वह बर्बाद नहीं गया।’
एसएसबी ब्यूरो
पीड़ा से उबरने में सफलता भी मिली। इस कवायद के ठीक 15 महीने के बाद डिंपल सर की बीमारी की पहेली अभी पूरी के शरीर में इस बीमारी की जोरदार वापसी तरह से सुलझाई नहीं जा सकी है, हुई। इस बार हमला बेहद घातक था। वह लेकिन अगर हौसला परवान पर हो तो इस स्टेज- 3 से गुजर रही थी, लेकिन उन्होंने बीमारी को भी मात दिया जा सकता है। हिम्मत नहीं हारी। इलाज की प्रक्रिया के इस बार मामला दिल्ली की दो महिलाओं तहत उन्हें 6 किमोथेरेपी और 25 रेडिएशन से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने ब्रेस्ट कैंसर से की पीड़ादायक सिटिंग का सामना करना अपनी मां को तो खो ही दिया और खुद भी पड़ा। इस बीमारी का वार दो बार झेल चुकी हैं। बाद में एक सर्जरी के दौरान उनके ये महिलाएं हैं डिंपल बावा और ज्योतिका। शरीर के प्रभावित हिस्से को निकालना डिंपल बावा के मुताबिक वर्ष 2004 में पड़ा। अब डिंपल बीमारी से उबर चुकी उनकी मां ब्रेस्ट कैंसर की चपेट में आ गई। हैं। इन दिनों वह चीयर्स टू लाइफ स्वयंसेवी जानकारी मिलते ही परिवार सदमें में आ संस्थान का संलाचन कर रहीं है। कुछ गया। लाख कोशिशों के बाद आखिरकार इसी तरह का वाकया वसंत कुंज निवासी 45 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई। ज्योतिका अहलुवालिया के साथ भी घटित डिंपल की शादी हो चुकी है और वह अपने हुआ। वे एक विजुअल आर्टिस्ट हैं। वर्ष पति के साथ हमकदम होकर एक्सपोर्ट 2003 में उन्होंने भी अपनी मां को ब्रेस्ट हाउस के व्यवसाय कैंसर की वजह से खो में उनका हाथ भी दिया। इन दोनों महिलाअों बटा रही थी, लेकिन ज्योतिका के ने ब्रेस्ट कैंसर से तभी वर्ष 2013 (मां मुताबिक उन्हें बीमारी का की मौत से 9 साल पता चलते ही चिकित्सकों अपनी मां को तो बाद) अचानक उन्हें ने सिर्फ 6 महीनें वक्त होने खो ही दिया और महसूस हुआ कि की बात कर पूरे परिवार खुद भी इस बीमारी को चौंका दिया। बीमारी उनके शरीर में कुछ परिवर्तन हो रहा है। की स्थिति मामूली थी, का वार दो बार चिकित्सकीय परामर्श इसीलिए इससे जल्दी ही झेल चुकी हैं और जांच के बाद जो उबर गईं। वर्ष 2005 तक खुलासा हुआ, वह वह ठीक रहीं लेकिन एक उनके साथ उनके पूरे साल बाद अचानक नहाने परिवार के लिए सदमे से कम नहीं था। के दौरान सेल्फ डिटेक्शन प्रक्रिया के तहत डिंपल ब्रेस्ट कैंसर की शिकार बन उन्हें शारीरिक परिवर्तन का पता चला। चुकी थी और वह इस बीमारी के का शीघ्र उन्होंने चिकित्सक से संपर्क किया। सामना कर रही थीं। महिला ने तत्काल अपोलो और बीएलके अस्पताल में उनका फोर्टिस अस्पताल के विशेषज्ञ डॉ. विनोद उपचार किया गया, जिससे वे स्वस्थ हो रैना से संपर्क किया। इलाज शुरू हुआ और गईं।
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कार्यशाला
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
महिला सशक्तिकरण के बढ़ते चरण
राजा राम मोहन रॉय और पंडित ईश्वर चंद विद्यासागर के योगदान पर विधवाओं के सशक्तिकरण और मुक्ति के लिए कोलकाता में अयोजित एक दिवसीय कार्यशाला में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अध्यक्ष प्रो. केजे नाथ का संबोधन प्रथा’ के खिलाफ उन्होंने लगातार संघर्ष किया और सफलतापूर्वक अभियान चलाया। वे देश में आधुनिक शिक्षा प्रणाली को लोकप्रिय बनाने में काफी सहायक रहे थे। उन्हें हिंदू धर्म की कुरीतियों के विरुद्ध उनके आजीवन लड़ाई के लिए याद किया जाएगा। उनके विचारों ने धर्म के मानवतावादी प्रथाओं को लागू करने और आधुनिक प्रो. केजे नाथ दुनिया में हिंदू धर्म को वैध बनाने के द्वारा एक निष्पक्ष श्चिम बंगाल सरकार में लोक स्वास्थ्य, और न्यायपूर्ण समाज बनाने इंजीनियरिंग व पंचायत और ग्रामीण की सक्रिय रूप से मांग की। विकास मंत्री सुब्रत मुखर्जी, डॉ. शशि वास्तव में वे पहले भारतीय पांजा, महिला व बाल विकास और समाज कल्याण थे, जिनके पास आधुनिक राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार), पश्चिम सरकार बंगाल, मस्तिष्क था। उन्होंने पश्चिम डॉ. नीलाद्रि बनर्जी (पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर में हमारे रास्ते खोलने, के वंशज), कैंब्रिज विश्वविद्यालय के लोफबरो हमारे सामाजिक जीवन में विश्वविद्यालय में भौतिकी के लेक्चरर, दक्षिणेश्वर आधुनिक विचार और वैज्ञानिक सोच को बनाने में रामकृष्ण संघ आद्यपीठ, कोलकाता के जनरल महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सेक्रेटरी मुराल भाई, वरिष्ठ पत्रकार आरती धर, पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर (1820-1891) सुलभ स्वच्छता एवं सामाजिक सुधार आंदोलन एक महान व्यक्ति थे, जिन्होंने भारतीय जीवन के के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक और सभा सभी पहलुओं-साहित्य, शिक्षा, संस्कृति, धर्म और में उपस्थित सभी सम्मानित लोगों का इस एक सामाजिक नैतिकता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका दिवसीय कार्यशाला में स्वागत है। आज यहां विधवा निभाई । शायद विद्यासागर की सबसे बड़ी विरासत, माताओं-बहनों को बंगाल में भारतीय सम्मानित किया गया डॉ. पाठक स्वच्छता आंदोलन के महिलाओं की दशा को है। राजा राम मोहन रॉय बदलने के लिए किया एक प्रतिष्ठित वै श्वि क ने त ा हैं , और पंडित ईश्वरचंद गया प्रयास रहा। एक मानव मस्तिष्क निपटान के लिए हिंदू होने के बावजूद विद्यासागर बंगाल के पुनर्जागरण के सबसे उन्होंने रूढ़िवादी हिंदू उपयुक्त तकनीक का विकास ऊंचे स्तंभ थे। करते हैं और इससे देश के व्यापक समाज को बदलने राजा राम मोहन की मांग की। उन्होंने पैमाने पर समानताएं बढ़ रही हैं समाज में विधवा की रॉय (1772-1833) को व्यापक रूप से दुर्दशा को रोकने के भारतीय पुनर्जागरण के जनक के रूप में माना लिए बहुविवाह, पुनर्विवाह, बाल विवाह, लिंग जाता है। विशेष रूप से उन्हें धार्मिक, सामाजिक असमानता, महिलाओं को शिक्षा से दूर रखने, और शैक्षिक सुधारों के युग में अग्रणी भूमिका के उन्हें संपत्ति के अधिकार से वंचित रखने आदि लिए याद किया जाता है। भारतीय समाज के सुधार विधियों पर गंभीरता से विचार किया और उसे और आधुनिकीकरण में उनके द्वारा स्थापित ब्रह्म लागू करवाने के लिए कदम उठाया। अधिनियमन समाज ने प्रमुख भूमिका निभाई। अमानवीय ‘सती 1856 में विधवा पुनर्विवाह को वैध बनाना और
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1872 के नागरिक विवाह अधिनियम के तहत आने वाले बहुविवाह और बाल विवाह को समाप्त करना और विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहित करना, विद्यासागर के महत्वपूर्ण कार्य हैं। उनके लेखन और गतिविधियों ने इन सामाजिक मुद्दों के पक्ष में एक मजबूत सार्वजनिक राय बनाने में मदद की। विद्यासागर ने स्कूल इंस्पेक्टर के तौर पर पूरे बंगाल की यात्रा की, जिसने उन्हें बंगाल के अशिक्षित जनता के बीच फैले व्यापक अंधेरे और अंधविश्वास को देखने का अवसर दिया। वह इन बातों से इतने परेशान हुए कि उन्होंने केवल 2 महीने के अंदर 20 मॉडल स्कूलों की स्थापना की। उन्हें अहसास हुआ कि जब तक महिलाओं को शिक्षित नहीं किया जाता, तब तक हिंदू समाज द्वारा थोपे गए असमानताओं और अन्याय के भयानक बोझ से उन्हें मुक्त करना असंभव है। उन्होंने निरंतर काम किया और बंगाल में लड़कियों के लिए 30 और स्कूल खोले। ऐसा कहा जाता है कि वह अपने वेतन का आधा पैसा और अपने प्रकाशित पुस्तकों की रॉयल्टी इन कार्यों में लगाते थे। डॉ. विन्देश्वर पाठक हमारे समय की एक बहुआयामी समाजशास्त्री हैं, जिन्होंने हमारे जीवन के कई क्षेत्रों में सराहनीय योगदान दिया है। डॉ.
पाठक स्वच्छता आंदोलन के एक प्रतिष्ठित वैश्विक नेता हैं। वे स्वच्छता के लिए जिस तरह उपयुक्त तकनीक का विकास करते हैं, उससे देश में व्यापक पैमाने पर समानताएं बढ़ रही हैं। अस्पृश्यता के खिलाफ उनकी जीवट पहल और मैला ढोने वालों के खिलाफ सामाजिक भेदभाव को खत्म करना पूरे देश में ही नहीं, बल्कि विदेश में भी जाना जाता है। डॉ. पाठक ने वृंदावन में रहने वाली विधवा माताओं के लिए सराहनीय कार्य किया है। उन्होंने देश के महान समाज सुधारकों, राजा राम मोहन रॉय और पंडित ईश्वर चन्द्र विद्यासागर की यादों को बनाए रखने के लिए पहल की है और विशेष रूप से महिलाओं और महिलाओं की मुक्ति और सशक्तिकरण की विरासत को जारी रखा है। सामान्य रूप में फाउंडेशन ने इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए काम करने का प्रस्ताव रखा है। आज का कार्यक्रम एक नए आंदोलन की शुरुआत है और हम उम्मीद करते हैं कि भारत के इन महान पुत्रों के सपने को पूरा करने में हमें बहुत लंबा रास्ता तय करना होगा।
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
आओ हंसें अकबर ने बीरबल से तीन नए सवाल पूछे। साथ ही उन्होंने कहा कि तीनों का जवाब एक ही होना चाहिए। सवाल थे : दूध क्यों उफन जाता है? पानी क्यों बह जाता है? सब्जी क्यों जल जाती है? बीरबल ने जवाब दिया : व्हाट्सअप चालू होने की वजह से।
विज्ञापन में मम्मी
एक आदमी अपने मित्र से : विज्ञापनों की मम्मी कितनी अच्छी होती है। बच्चे कपड़े गंदे करके आए तो भी हंसकर धोती है। बचपन में जब हम कपडे गंदे करके आते थे, तो पहले हम धुलते थे, बाद में कपड़े! दूसरा मित्र : हां, यार। ये बात तो तुमने पते की कही है।
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जीवन मंत्र
बीरबल का जवाब
रंग भरो
सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी विजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार दिया जाएगा। सुडोकू के हल के लिए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें
सुडोकू-06 का हल
गाना बजा... ‘चूहे को लगी बिल्ली गोरी-गोरी दोनों लगे मिलने चोरी चोरी’ चूहा बोला: आओ खेलें आंख मिचौली। इस पर बिल्ली चूहे को खाकर बोली : जानू, सॉरी। आई हेट लव स्टोरी।
बाएं से दाएं
वर्ग पहेली - 07
1. समाचार पत्र (4) 3. प्रसिद्धि (4) 6. चेहरा (3) 7. रचना करने वाला, कृतिकार (5) 8. मैं का बहुवचिन (2) 9. प्राणी (2) 10. सप्ताह का पहला दिन (3) 13. होशो हवास की स्थिति (4) 15. एक पेड़ (2) 17. मृत्यु (2) 18. श्रद्धा से झुखा हुआ (4) 20. युवा (3) 22. एक बहुमूल्य रत्न, पन्ना (4) 23. मनुष्यता (5)
ऊपर से नीचे
1. प्रभावकारी (5) 2. सिल-बट्टे से पीसना (3) 3. कोलाहल (2) 4. घायल, मृत, चोटिल (2) 5. बहुत सारा, समस्त (3) 6. जमीकंद (3) 8. होम (3) 9. विजय (2) 11. विनम्र, झुका हुआ (3) 12. बायाँ (2) 14. सामंजस्य या संतल ु न की भावना (5) 16. मिलावट,-जिसमें दो या अधिक चीजें मिली हों (3) 17. ऋतु (3) 19. भार (3) 20. पर्यंत (2) 21. ऋतु (2)
वर्ग पहेली-06 का हल
• 30 जनवरी महात्मा गांधी स्मृति दिवस, सर्वोदय दिवस, नशामुक्ति संकल्प और शपथ दिवस, विश्व कुष्ठ उन्मूलन दिवस • जनवरी का अंतिम रविवार कुष्ठ रोग निवारण दिवस • 4 फरवरी विश्व कैंसर दिवस
सुडोकू 06 के लकी विजते ा
अाशीष राजपूत
नक्शे पर नदी
महत्वपूर्ण दिवस
डोकू -07
'विश्व के सभी धर्म, भले ही और चीजों में अंतर रखते हों, लेकिन सभी इस बात पर एकमत हैं कि दुनिया में कुछ नहीं बस सत्य जीवित रहता है' - महात्मा गांधी
चूहा-बिल्ली
टीचर – संजू यमुना नदी कहां बहती है ? संजू – जमीन पर टीचर – नक्शे में बताओं कहां बहती है ? संजू – नक्शे में कैसे बह सकती है, नक्शा गल नहीं जाएगा
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इंद्रधनुष
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गांधी स्मृति
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
29 जनवरी - 04 फरवरी 2018
बापू की लीक, बापू की सीख
गांधी जी ने अपने जीवन को सत्य का प्रयोग कहा है। इस प्रयोग में कई ऐसे प्रसंग हैं, जिससे हम बड़ी सीख ले सकते हैं
अशांति में शांति का मंत्र
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लकत्ता में दंगे भड़के हुए थे। तमाम प्रयासों के बावजूद लोग शांत नहीं हो रहे थे। ऐसी स्थिति में गांधी जी वहां पहुंचे और एक मुस्लिम मित्र के यहां ठहरे। उनके पहुचने से दंगा कुछ शांत हुआ, लेकिन कुछ ही दोनों में फिर से आग भड़क उठी। तब गांधी जी ने आमरण अनशन करने का निर्णय लिया और 31अगस्त 1947 को अनशन पर बैठ गए। इसी दौरान एक दिन एक अधेड़ उम्र का आदमी उनके पास पहुंचा और बोला, ‘मैं आपकी मृत्यु का पाप अपने सिर पर नहीं लेना चाहता, लो रोटी खा लो।’ फिर अचानक ही वह रोने लगा, ‘मैं मरूंगा तो नर्क जाऊंगा!’ गांधी जी ने विनम्रता से पूछा... ‘क्यों?’ उस व्यक्ति ने जवाब दिया, ‘क्योंकि मैंने एक आठ साल के मुस्लिम लड़के की जान ले ली।’ ‘ तुमने उसे क्यों मारा?’, गांधी जी ने पूछा। ‘क्योंकि उन्होंने मेरे मासूम बच्चे को जान से मार दिया’, वह व्यक्ति रोते हुए बोला। गांधी जी ने कुछ देर सोचा और फिर बोले, ‘मेरे पास एक उपाय है।’ वह व्यक्ति आश्चर्य से उनकी तरफ देखने लगा। गांधी जी बोले, ‘उसी उम्र का एक लड़का खोजो, जिसने दंगो में अपने मात-पिता खो दिए हों और उसे अपने बच्चे की तरह पालो। लेकिन एक चीज सुनिश्चित कर लो कि वह एक मुस्लिम होना चाहिए और उसी तरह बड़ा किया जाना चाहिए।’
एक करोड़ का सिक्का
गां
धी जी देश भर में भ्रमण कर चरखा संघ के लिए धन इकट्ठा कर रहे थे। इस दौरान वे ओडिशा में किसी सभा को संबोधित करने पहुंचे। उनके भाषण के बाद एक बूढी गरीब महिला खड़ी हुई। उसके बाल सफेद हो चुके थे, कपड़े फटे हुए थे और वह कमर से झुक कर चल रही थी। किसी तरह वह भीड़ से होते हुए गांधी जी के पास तक पहुंची। ‘मुझे गांधी जी को देखना है।’ उसने आग्रह किया और उन तक पहुंच कर उनके पैर छुए। फिर उसने अपने साड़ी के पल्लू में बंधा एक तांबे का सिक्का निकाला और गांधी जी के चरणों में रख दिया। गांधी जी ने सावधानी से सिक्का उठाया और अपने पास रख लिया। उस समय चरखा संघ का कोष जमनालाल बजाज संभाल रहे थे। उन्होंने गांधी जी से वो सिक्का मांगा, लेकिन गांधी जी ने उसे देने से माना कर दिया। जमनालाल जी में हंसते हुए कहा, ‘मैं चरखा संघ के लिए हजारों रुपए के चेक संभालता हूं। फिर भी आप मुझ पर इस सिक्के को लेकर यकीन नहीं कर रहे हैं।’ गांधी जी बोले, ‘यह तांबे का सिक्का उन हजारों रुपयों से कहीं कीमती है।’ गांधी जी ने जमनालाल जी से आगे कहा, ‘यदि किसी के पास लाखों हैं और वो हजार-दो हजार दे देता है तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन यह सिक्का शायद उस औरत की कुल जमा-पूंजी थी। उसने अपना सारा धन दान दे दिया। कितनी उदारता दिखाई उसने... कितना बड़ा बलिदान दिया उसने! इसीलिए इस तांबे के सिक्के का मूल्य मेरे लिए एक करोड़ से भी अधिक है।’
सार-असार
ए
क अंग्रेज ने महात्मा गांधी को पत्र लिखा। उसमें गालियों के अतिरिक्त कुछ था नहीं। गांधीजी ने पत्र पढ़ा और उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया। पर उसमें जो आलपिन लगा हुआ था उसे निकालकर सुरक्षित रख लिया। वह अंग्रेज गांधी जी से प्रत्यक्ष मिलने के लिए आया। आते ही उसने पूछा- महात्मा जी! आपने मेरा पत्र पढ़ा या नहीं? गांधी जी बोले- बड़े ध्यान से पढ़ा है। उसने फिर पूछा- क्या सार निकाला आपने? गांधी जी ने कहा- एक आलपिन निकाला है। बस, उस पत्र में इतना ही सार था। जो सार था, उसे ले लिया। जो असार था, उसे फेंक दिया।
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 7