सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 16)

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जंेडर बातचीत

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गुरुकुल प्रणाली संस्कृति और धर्म के बारे में करती है जागरूक - मोहन भागवत

समाज ने एक जेंटलमैन किया दुखी अधिकारी

पुस्तक अंश

शपथ-ग्रहण समारोह

sulabhswachhbharat.com आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

वर्ष-2 | अंक-16 | 02 - 08 अप्रैल 2018

जल, सेहत और स्वच्छता विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) पर विशेष

देश में स्वास्थ्य को लेकर सरकार और समाज के स्तर पर दिखने वाली लापरवाह सोच को जहां राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन ने काफी बदला है, वहीं शौचालय निर्माण के बढ़ते ग्राफ के साथ देश में कई जानलेवा बीमारियों के खतरे भी काफी कम हुए


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आवरण कथा

02 - 08 अप्रैल 2018

एसएसबी ब्यूरो

ल और स्वच्छता के मुद्दे का सीधा संबंध मनुष्य के स्वास्थ्य के साथ जुड़ा है, वहीं यह भी स्पष्ट है कि जल और स्वच्छता की चिंता करते हुए ही हम प्रकृति या पर्यावरण संरक्षण के आसन्न संकट से उबर सकते हैं। इसे इस रूप में भी समझ सकते हैं कि जल और स्वच्छता की संतोषजनक स्थिति के बाद ही किसी भी देश-समाज को स्वास्थ्य के लिहाज से बेहतर स्थिति में माना जा सकता है। किसी भी देश के नागरिकों की स्वास्थ्य का सीधा असर उनकी कार्य-शक्ति पर पड़ता है। नागरिक कार्य-शक्ति का सीधा संबंध राष्ट्रीय उत्पादन-शक्ति से है। जिस देश की उत्पादन शक्ति मजबूत है, वह वैश्विक स्तर पर विकास के नए-नए मानक गढ़ने में सफल होता रहा है। स्पष्ट है कि किसी भी राष्ट्र के विकास में वहां के नागरिक-स्वास्थ्य का बेहतर होना बहुत ही जरूरी है। शायद यही कारण है कि अमेरिका जैसे वैभवशाली राष्ट्र की राजनीतिक हलचल में स्वास्थ्य का मसला अपना अहम स्थान पाता है। बात करें भारत की तो बीते कुछ वर्षों में देश में बीमारियों के सस्ते इलाज, सस्ती दवाओं से लेकर दस करोड़ लोगों के निशुल्क स्वास्थ्य बीमा तक कई बड़े और प्रभावी कदम उठाए गए हैं। देश में स्वास्थ्य को लेकर सरकार और समाज के स्तर पर दिखने वाली लापरवाह सोच को जहां राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन को लेकर प्रकट हुई प्रतिबद्धता ने काफी बदला है, वहीं शौच के लिए शौचालय निर्माण के बढ़ते ग्राफ के साथ देश में कई जानलेवा बीमारियों के खतरे काफी कम हो गए हैं।

स्वास्थ्य की चुनौती

किसी भी राष्ट्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है राष्ट्र के जनसंख्या के अनुपात में स्वास्थ्य सुविधाओं को मुहैया कराना। इस समस्या से हम भारतीय भी अछूते नहीं है। यदि हम भारत की बात करें तो 2011 की जनगणना के हिसाब से मार्च, 2011 तक भारत की जनसंख्या का आंकड़ा एक अरब 21 करोड़ पहुंच चुका था और निरंतर इसमें बढ़ोत्तरी हो रही है। हालांकि जनसंख्या की स्वच्छता और स्वास्थ्य कि औसत वार्षिक घातीय वृद्धि दर तेजी से गिर रही है। यह 1981-91 में 2.14 फीसद, 1991-

खास बातें

स्वच्छता पर बढ़े जोर से जल प्रदूषण की समस्या कम हो रही है 2050 तक जलस्रोतों में 22 फीसदी पानी ही शेष रह जाएगा मुंबई में पिछले छह वर्षों में टीबी से 46,606 लोगों की जाने गईं

दुनिया के कई देशों के साथ भारत में भी स्वच्छ जल का गंभीर संकट 2001 में 1.97 फीसद था, वहीं 2001-11 में यह 1.64 फीसद है। बावजूद इसके जनसंख्या का यह दबाव भारत सरकार के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्थित व्यवस्था करने में बड़ी मुश्किलों को पैदा कर रहा है।

स्वास्थ्य और स्वच्छता

कई ऐसी बीमारियां हैं, जिनका प्रत्यक्ष संबंध साफसफाई की आदतों से है। मलेरिया, डेंगू, डायरिया और टीबी जैसी बीमारियां इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। अकेले देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में पिछले छह वर्षों में टीबी से 46,606 लोगों की जाने गई हैं। अर्थात देश की आर्थिक राजधानी में केवल टीबी से प्रत्येक दिन 18 लोग अपना दम तोड़ रहे हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर, यूपी के गोरखपुर क्षेत्र व पश्चिम बंगाल के उत्तरी क्षेत्रों में जापानी बुखार से लगातार बच्चों की मौत हो रही है। जुलाई2014 के दूसरे सप्ताह में त्रिपुरा में मलेरिया से मरने वालों की संख्या 70 से ज्यादा हो गई थी और 30 हजार से ज्यादा लोग मलेरिया की चपेट में थे। ये सभी बीमारियां ऐसी हैं जिनसे बचाव स्वच्छता में अंतर्निहित है। यह सर्वविदित है कि साफ-सफाई मानव स्वास्थ्य पर सीध असर डालती है। जिन बीमारियों के मामले ज्यादातर सामने आते हैं और जिनसे ज्यादा मौतें होती हैं, अगर उनके आंकड़ो पर गौर करें तो कहा जा सकता है कि शरीर की तथा परिवेश की वह अचूक मांग है जिसके माध्यम से न सिर्फ स्वस्थ जीवन जिया जा सकता है, बल्कि बीमारियों से लड़ने पर देश भर में हो रहा अरबों का सालाना खर्च बचाया जा सकता है। स्वस्थ शरीर में निवसित स्वस्थ मस्तिष्क की उत्पादकता बढ़ने से देश की उत्पादकता जो बढ़ेगी, सो अलग ही है।

मेरी राय में जिस जगह शरीर-सफाई, घर-सफाई और ग्राम-सफाई तथा युक्ताहार और योग्य व्यायाम हो, वहां कम से कम बीमारी होती है और अगर चित्तशुद्धि भी हो तब तो कहा जा सकता है कि बीमारी असंभव हो जाती है – महात्मा गांधी

बापू का सबक

शरीर के स्वस्थ रहने के लिए हर स्तर पर स्वच्छता आवश्यक है और इस तथ्य को हमारे महापुरुषों ने भी लगातार स्वीकारा है। जिन महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर स्वच्छ भारत अभियान शुरू किया गया वही महात्मा स्वास्थ्य का नियम बताते हुए कहते हैं, ‘मनुष्य जाति के लिए साधारणतः स्वास्थ्य का पहला नियम यह है कि मन चंगा तो शरीर भी चंगा है। निरोग शरीर में निर्विकार मन का वास होता है, यह एक स्वयं सिद्ध सत्य है। मन और शरीर के बीच अटूट संबंध है। अगर हमारे मन निर्विकार यानी निरोग हों, तो वे हर तरह से हिंसा से मुक्त हो जाएं।’ स्वच्छता और स्वास्थ्य के संबंधों को रेखांकित करते हुए गांधी जी ने निरोग रहने के लिए ग्राम स्वराज में कुछ नियम सुझाएं हैं हमेशा शुद्ध विचार कीजिए और तमाम गंदे और निकम्मे विचारों को मन से निकाल दीजिए।  दिन-रात ताजी-से-ताजी हवा का सेवन करें।  शरीर और मन के काम का तौल बनाए रखें, यानी दोनों को बेमेल न होने दें।  आप जो पानी पिएं, जो खाना खाएं और जिस हवा में सांस लें, वे सब बिल्कुल साफ होने चाहिए। आप सिर्फ अपनी निज की सफाई से संतोष न मानें, बल्कि हवा,पानी और खुराक की जितनी सफाई आप अपने लिए रखें, उतनी ही सफाई का शौक आप अपने आस-पास के

वातावरण में भी फैलाएं। गांधी जी स्वास्थ्य को न केवल भौतिक स्वच्छता से जोड़ते हैं, बल्कि वह आंतरिक स्वच्छता के पहलू को भी यहां रेखांकित करते हैं। वे कहते हैं, ‘मेरी राय में जिस जगह शरीर-सफाई, घर-सफाई और ग्राम-सफाई तथा युक्ताहार और योग्य व्यायाम हो, वहां कम से कम बीमारी होती है और अगर चित्तशुद्धि भी हो तब तो कहा जा सकता है कि बीमारी असंभव हो जाती है। राम नाम के बिना चित्तशुद्धि नहीं हो सकती। अगर ग्रामवासी इतनी बात समझ जाएं, तो उन्हें वैद्य, हकीम या डॉक्टर की जरूरत न रह जाए।’ स्वच्छता अभियान शुरू करने के बाद पत्रकारों से मुलाकात में प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘मुझे खुशी है कि कलम उठाने वाले हाथों ने कलम को झाड़ू बना लिया।’ प्रधानमंत्री का यह वक्तव्य महात्मा गांधी के इस कथन की याद दिलाता है, ‘अगर ऐसा उत्साही कार्यकर्ता मिल जाए, जो झाड़ू और फावड़े को भी उतनी ही आसानी और गर्व के साथ हाथ में ले लें जैसे वे कलम और पेंसिल को लेते हैं, तो इस कार्य में खर्च का कोई सवाल ही नहीं उठेगा। अगर किसी खर्च की जरूरत पड़ेगी भी तो वह केवल झाड़ू, फावड़ा, टोकरी, कुदाली और शायद कुछ कीटाणु-नाशक दवाइयां खरीदने तक ही सीमित रहेगा।’ साफ है कि आज अगर भारत में सरकार और समाज मिलकर स्वच्छता की राष्ट्रीय


02 - 08 अप्रैल 2018 मुहीम को सफल बनाने में जुटे हैं तो इसके पीछे सबसे बड़ी प्रेरणा महात्मा गांधी ही हैं।

भारत में जल संकट

भारत के लिए यह कड़ी चेतावनी है कि वह उन देशों में शुमार हो गया है, जहां निकट भविष्य में भयंकर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में यह चिंताजनक पहलू रेखांकित किया गया है कि आने वाले 30 साल के भीतर देश के जल भंडारों में 40 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। इस नाते देश की बढ़ती आबादी के परिप्रेक्ष्य में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता तेजी से घटेगी। उत्तर-पश्चिमी भारत तो पहले से ही भीषण जल संकट से रूबरू है। अब देश के अन्य हिस्से भी इसके दायरे में आते जा रहे हैं। ऐसा अनुमान है कि 2050 तक जलस्रोतों में 22 फीसदी पानी ही शेष रह जाएगा। वर्ष-1991 और 2011 के बीच प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में 70 फीसदी की कमी दर्ज की गई है। हमारी वर्तमान आबादी 1.3 अरब है, जो 2050 तक 1.7 अरब हो जाएगी। इस स्थिति में दुनिया की कुल आबादी में भारत की जनसंख्या 16 फीसदी होगी। गोया, इतनी बड़ी आबादी को जल उपलब्ध कराना इसीलिए कठिन होगा, क्योंकि हमारे हिस्से में पृथ्वी का कुल 4 फीसदी पानी ही है। जबकि भूजल दोहन के वैश्विक खाते में हमारा हिस्सा करीब 25 प्रतिशत है। इस विसंगति के चलते पूरी आबादी को पानी उपलब्ध कराना बड़ी कठिन चुनौती है। देश में बीते 50-60 सालों के भीतर जिस तेजी से कृत्रिम, भौतिक और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है उतनी ही तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का या तो क्षरण हुआ है या उनकी उपलब्धता घटी है। वे तेजी से प्रदूषित भी हुए हैं। ‘जल ही जीवन है’ की वास्तविकता से अवगत होने के बावजूद पानी की उपलब्धता भूमि के नीचे और ऊपर निरंतर कम होती जा रही है। 2001 में प्रति व्यक्ति के हिसाब से वर्ष भर में

पानी की उपलब्धता 1820 घन मीटर थी, जो 2011 में 1545 घन मीटर रह गई। 2025 में इसके घटकर 1341 घनमीटर और 2050 तक 1140 घन मीटर हो जाने की आशंका जताई गई है। आज भी करीब 1630 करोड़ भारतीय शुद्ध पेयजल से वंचित हैं। इस कारण 21 फीसदी लोग संक्रामक रोगों की चपेट में आ रहे हैं। नतीजतन पांच साल से कम उम्र के 500 बच्चे प्रतिदिन डायरिया से मर रहे हैं। इस संकट की बड़ी वजह भूजल का लगातार दोहन है। सेंटर फॉर साइंस द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ की रिपोर्ट ने तो यहां तक चेताया है कि केपटाउन में जिस तरह से पानी की कमी रेखांकित की गई है, वही हाल भारत के बेंगलुरु का होने वाला है। 2012 में इस शहर की जनसंख्या 90 लाख थी, जो अब 2018 में 1.10 करोड़ हो गई है। 2031 तक यह संख्या 2 करोड़ हो जाने का अनुमान है। फिलहाल इस शहर के पास प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी की ही उपलब्धता है।

प्रदूषित जल

जल और स्वच्छता के बीच सीधा संबंध है। एक तरफ जहां अस्वच्छ जीवनशैली और विकास से पानी के प्रदूषण का खतरा बढ़ता है, वहीं स्वच्छता पर जोर जल प्रदूषण रोकने का सबसे कारगर तरीका है। देश के कई शहरों और आदिवासी बहुल इलाकों में रहने वाली आबादी को यह भी पता नहीं होता है कि वे जीवित रहने के लिए जिस पानी का उपयोग कर रहे हैं, वही पानी धीरे-धीरे उन्हें मौत के मुंह में ले जा रहा है। नदियों के किनारे बसे शहरों की स्थिति तो और भी बदतर है। इन नदियों में कल-कारखानों और स्थानीय निकायों द्वारा फेंका गया रासायनिक कचरा, मल-मूत्र और अन्य अवशिष्ट उन्हें प्रदूषित कर रहे हैं। इन नदियों के जल का उपयोग करने वाले कई गंभीर रोगों का शिकार हो रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आंकड़े के मुताबिक, भारत में लगभग 7.6 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं होता। लेकिन

आवरण कथा

संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक आने वाले 30 साल के भीतर देश के जल भंडारों में 40 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। इस नाते देश की बढ़ती आबादी के परिप्रेक्ष्य में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता तेजी से घटेगी यह आंकड़ा महज शहरी आबादी का है। ग्रामीण इलाकों की बात करें तो वहां 70 फीसदी लोग अब भी प्रदूषित पानी पीने को ही मजबूर हैं। पानी की इस लगातार गंभीर होती समस्या की मुख्य रूप से तीन वजहें हैं। पहला है आबादी का लगातार बढ़ता दबाव। इससे प्रति व्यक्ति साफ पानी की उपलब्धता घट रही है। फिलहाल देश में प्रति व्यक्ति 1000 घनमीटर पानी उपलब्ध है जो वर्ष 1951 में 4 हजार घनमीटर था। जबकि प्रति व्यक्ति 1700 घनमीटर से कम पानी की उपलब्धता को संकट माना जाता है। अमेरिका में यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति 8 हजार घनमीटर है। इसके अलावा जो पानी उपलब्ध है उसकी गुणवत्ता भी बेहद खराब है।

जल उपलब्धता की योजनाएं

भारत सरकार ने मार्च 2021 तक देश की 28,000 बस्तियों को स्वच्छ जल की आपूर्ति के लिए 25,000 करोड़ रुपये खर्च करने की घोषणा की है। केंद्रीय ग्रामीण विकास, पेयजल एवं स्वच्छता मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने इसकी घोषणा करते हुए कहा था कि देश के ग्रामीण इलाकों में 17.14 लाख बस्तियां हैं, जिनमें से 77 फीसदी बस्तियों को 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन के औसत से पेयजल की आपूर्ति की जा रही है। हालांकि चार फीसदी बस्तियों तक अभी भी स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति नहीं की जा सकी है। तोमर ने यह भी कहा था कि 2030 तक देश के हर घर को पेयजल की आपूर्ति करने वाले नल से जोड़ दिया जाएगा। एक अनुमान के अनुसार देश के करीब 265,000 गांवों तक स्वच्छ जल की आपूर्ति नहीं हुई है। देश में इस समय प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष करीब 1,745 घन मीटर जल की उपलब्धता है। केंद्रीय जल आयोग के मुताबिक बीते पांच वर्षों के दौरान स्वच्छ जल की उपलब्धता 3,000 घन मीटर से घटकर 1,123 घन मीटर रह गई है। देश में इस समय कुल 1,123 अरब घन मीटर स्वच्छ जल उपलब्ध है, जिसका 84 फीसदी कृषि में इस्तेमाल होता है। सरकार दावा भले ही कुछ भी करे, लेकिन हालात यह हैं कि देश के लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करा पाना आज भी एक बड़ी चुनौती है। नदियों के किनारे बसे शहरों की स्थिति तो और भी बदतर है।

भारत में स्वास्थ्य

पर्याप्त और स्वच्छ जलापूर्ति एक गंभीर चुनौती

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भारतीयों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वो अपने जोश, जुनून व मेहनत के बल विपरीत से विपरीत परिस्थिति से भी खुद को उबार लेते हैं। यह स्थिति स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी देखने को मिली है। तमाम समस्याओं के बावजूद पिछले दशकों में सरकारी-गैरसरकारी स्वास्थ्य चेतना के कारण भारत में जीवित रहने की आयु बढ़ी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट में उद्धृत किया

गया है कि 1970-75 के दौरान जन्म के समय भारत के लोगों की जीने की औसत आयु 49.7 वर्ष थी, वह 2002-06 में बढ़कर 63.5 वर्ष हो गई है। इस दौरान मृत्यु दर में लगातार गिरावट दर्ज की गई। केरल में यह दर अच्छी सामाजिक-आर्थिक स्थिति होने के कारण 74 वर्ष है तो दूसरी तरफ बिहार, असम, मध्यप्रदेश व उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह दर 58 से 61 वर्ष है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी ‘भारतः स्वास्थ्य प्रोफाइल-2012’ में बताया गया है कि भारत में जन्म जीवन प्रत्याशा 66 वर्ष है, जबकि दक्षिण-पूर्व एशिया में यह 67 वर्ष और वैश्विक जन्म जीवन प्रत्याशा 70 वर्ष है। 2013 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2011 तक देश में एक लाख 76 हजार 820 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (ब्लॉक स्तर), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और उप-केंद्र स्थापित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त देश में 11 हजार 493 सरकारी अस्पताल हैं और 27 हजार 339 आयुष केंद्र। देश में (आधुनिक प्रणाली के) 9 लाख 22 हजार 177 डॉक्टर हैं। नर्सों की संख्या 18 लाख 94 हजार 968 बताई गई है। डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में 10,000 जनसंख्या पर औसतन 7 फीजिशियन है, वहीं दक्षिण-पूर्व एशिया में यह प्रतिशत 5.9 है। नर्सों के मामले में भी दक्षिण-पूर्व एशिया के बाकी देशों से भारत की स्थिति ठीक है। भारत में जहां प्रति 10,000 जनसंख्या पर औसतन 17.1 नर्स हैं, वहीं दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र में यह औसत 15.3 फीसद है। इन सबके बावजूद ऐसा नहीं है कि देश का स्वास्थ्य में सुधर संतोषजनक हो गया है। हाल ही में आई यूनिसेफ की रिपोर्ट चेताती है कि नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के मामले में भारत की स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। भले ही इस मामले में हम पाकिस्तान से बेहतर स्थिति में हों, लेकिन हमारी स्थिति बांग्लादेश, नेपाल और भूटान से भी बदतर है। भारत नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के मामले में इथियोपिया, गिनी-बिसाऊ, इंडोनेशिया, नाइजीरिया और तंजानिया के समकक्ष खड़ा दिख रहा है। भारत में हर साल जन्म लेने वाले 2 करोड़ 60 लाखों बच्चों में से 40 हजार अपने जन्म के 28 दिनों के भीतर ही मौत के मुंह में समा जाते हैं। अर्थात यहां शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर 29 है। भारत में हर साल सात लाख नवजात शिशुओं की मौत हो जाती है। दुनिया में होने वाली नवजात शिशुओं की मौत में भारत की हिस्सेदारी 26 प्रतिशत है। शिशु मृत्यु दर में दुनिया में भारत का स्थान पांचवां है। भारत में वर्ष 2008 से 2015 के बीच हर रोज औसतन 2137 नवजात शिशुओं की मृत्यु हुई। देश में अब भी शिशु मृत्यु की पंजीकृत संख्या और अनुमानित संख्या में बड़ा अंतर दिखाई देता है। शिशुओं की मौत की त्रासदी की जड़ें लैंगिक भेदभाव और स्वास्थ्य व पोषण सेवाओं को खत्म


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स्वच्छता को समर्पित सुलभ के पांच दशक

शौचालय और स्वच्छता को पांच दशक से अपनी समझ और विचार की धुरी बनाकर चल रहे डॉ. विन्देश्वर पाठक ने एक तरह से दुनिया को स्वच्छता का नया समाजशास्त्र सिखाया है

सी ने कभी सोचा भी होगा कि गांधी जी की जीवनशैली के अनुकरण 21वीं सदी के दूसरे दशक की कोशिश करते हैं, डॉ. पाठक ने तक आते-आते स्वच्छता देश का राष्ट्रपिता के विचार और दर्शन को न प्राइम एजेंडा बन जाएगा। इस बदलाव सिर्फ जीवन में, बल्कि सरजमीं पर भी के पीछे बड़ा संघर्ष है। आज देश उतारा है। स्वच्छता को अपना मिशन में स्वच्छता को लेकर जो विभिन्न मानव उत्थान को अपना लक्ष्य बताने अभियान चलाए जा रहे हैं, उसमें जिस वाले डॉ. पाठक कहते हैं, ‘स्वच्छता संस्था और व्यक्ति का नाम सबसे एक मिशन है। यह बिल्कुल उस पहले जेहन में आता है, वह सुलभ तरह नहीं है जैसे पुल या सड़क का इंटरनेशनल और इस संस्था के प्रणेता निर्माण। मैं इस मामले में खुशनसीब डॉ. विन्देश्वर पाठक। पूरी दुनिया आज हूं कि अपने जीवनकाल में स्कैवेंजिंग डॉ. पाठक को ‘टॉयलेट मैन’ के रूप को दूर करने और स्केवैंजर्स के जीवन में जानती है। उन्होंने एक तरफ जहां को बेहतर बनाने के संकल्प को मैं पूरा सिर पर मैला ढ़ोने की मैली प्रथा को कर पाया।’ खत्म करने बीड़ा उठाया, वहीं देशभर स्वच्छता को मिला महत्व में सुलभ शौचालय की उपलब्धता से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब 2014 में उन्होंने आमलोगों की स्वच्छता जरूरत राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन की घोषणा को पूरा करने के क्षेत्र में महान कार्य की तो देश में स्वच्छता कार्यक्रम किया। बड़ी बात यह है कि डॉ. पाठक हरियाणा के ट्रंप विलेज में गत वर्ष पहली बार मनाए गए वर्ल्ड टॉयलेट डे के अवसर पर पटना, राजस्थान तथा जोधपुर को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर द्वारा शुरू किया गया स्वच्छता का विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. श्याम लाल, इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट के विजिटिंग प्रोफेसर अमिताभ कुंडू, अमेरिकी सुलभ अभियान अब भी थमा नहीं है। रिपबल्किन पार्टी के सदस्य पुनीत अहलूवालिया और राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के सदस्य दिलीप के हाथिबेड के साथ प्राथमिकता मिली। अपने स्वच्छता कार्यक्रमों के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दो सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक पर ख्याति और सम्मान प्राप्त कर चुके अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत मिशन शुरू होने के बाद डॉ. पाठक के मार्गदर्शन में स्वच्छता एक मिशन है। यह बिल्कुल उस तरह नहीं है जैसे पुल या सड़क डॉ. पाठक कहते भी हैं, ‘स्वच्छता को लेकर देश में गंभीरता की कमी रही। इसे महत्व नहीं सुलभ का स्वच्छता अभियान नई प्रेरणा और का निर्माण। मैं इस मामले में खु श नसीब हूं कि अपने जीवनकाल में दिया गया। इस क्षेत्र में निवेश का भी अभाव गति के साथ आगे बढ़ रहा है। शौचालय और स्कैवेंजिंग को दूर करने और स्केवैंजर्स के जीवन को बेहतर बनाने रहा, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पूरे परिदृश्य स्वच्छता को पांच दशक से अपनी समझ और को बदल कर रख दिया। वे ऐसे पहले राष्ट्रीय विचार की धुरी बनाकर चल रहे डॉ. विन्देश्वर के संकल्प को मैं पूरा कर पाया - डॉ. विन्देश्वर पाठक नेता रहे जिन्होंने न सिर्फ लाल किले के प्राचीर पाठक ने एक तरह से दुनिया को स्वच्छता से शौचालयों की बात की, बल्कि इस बारे में का नया समाजशास्त्र सिखाया है, जिसमें साफसफाई के सबक तो है ही, मानवीय प्रेम और के नाते गांधी विचार और कार्यक्रमों के करीब राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में केंद्र सरकार विदेशी नेताओं तक से लगातार चर्चा करते रहे। आए डॉ. पाठक ने तब से न सिर्फ पूरे देश में, में मंत्री थावरचंद गहलोत ने बताया था कि देश उन्होंने देश को यह सोचने और मानने के लिए करुणा को भी पर्याप्त महत्व दिया गया है। बल्कि अखिल विश्व में स्वच्छता का अलख जगा में 26 लाख ऐसे शौचालय हैं जहां पानी नहीं है। बाध्य किया कि अगर हम स्वच्छता के मामले में मैली प्रथा रहे हैं। सिर पर मैला ढोने की प्रथा को लेकर जाहिर है वहां हाथ से मैला ढोना पड़ता है। सफाई आगे नहीं बढ़े तो फिर एक विकसित राष्ट्र के रूप बिहार गांधी शताब्दी समिति में एक कार्यकर्ता सुलभ ने उल्लेखनीय कार्य किए हैं। सिर से कर्मचारी आंदोलन ने अपने सर्वे में बताया है कि में हमारा उभरना मुश्किल है। लिहाजा यह समय मैला ढोने वाले लोगों को इस अमानवीय कार्य 1993 से अब तक 1,370 सीवर वर्कर्स की मौत है जब हम देश को स्वच्छ और सुंदर बनाने के से मुक्ति दिलाने की सोच की ही देन है सुलभ हो चुकी है। इस दिशा में स्कैवेंजर्स के पुनर्वास का लिए एक साथ खड़े हों, ताकि सभ्य, सुसंस्कृत खास बातें द्वारा विकसित दो गड्ढों वाला शौचालय। आज सबसे बड़ा अभियान सुलभ संस्था ने ही छेड़ा है। औऱ स्वच्छ देशों की कतार में हम भी फख्र से यह तकनीक पूरी दुनिया में ‘सुलभ शौचालय’ के डॉ. पाठक को इस बात का श्रेय जाता है कि जिस खड़े हो सकें।’ डॉ. पाठक ने 1970 में सुलभ रूप में जानी जाती है। इस तकनीक में पहले गड्ढे मैली प्रथा को लेकर कभी महात्मा गांधी ने कहा प्रधानमंत्री के स्वच्छता मिशन से डॉ. इंटरनेशनल की स्थापना की में जमा शौच खाद में बदल जाता है। सुलभ ने था कि उनके सपनों के भारत में इसके लिए कोई पाठक द्वारा पहले से किए जा रहे प्रयासों को शौचालय के जरिए गैस बनाने और उसे बिजली जगह नहीं होगी, उस प्रेरणा को उन्होंने अपनी जहां नए सिरे से महत्व मिला, वहीं वे इस बात तक बनाने के कामयाब प्रयोग किए हैं। 1970 जिंदगी का मिशन बना लिया। से खासे प्रोत्साहित और प्रेरित भी हुए कि देश आज पूरी दुनिया में डॉ. पाठक की में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना हुई और आज का प्रधानमंत्री इतने सालों के बाद गांधी जी के ‘टॉयलेट मैन’ के रूप में ख्याति है शौचालय निर्माण की सस्ती तकनीक के लिए ‘गांधी जी के मानस पुत्र’ स्वच्छता कार्यक्रमों को न सिर्फ अपना रहा है, इसकी दुनियाभर में पहचान है। सुलभ प्रणेता डॉ. स्वच्छता के क्षेत्र में सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर बल्कि उसे देश में एक जनांदोलन की शक्ल देने पाठक भी मानते हैं कि गांधी जी के बाद अगर इस पाठक के अतुलनीय योगदान को देखते हुए कभी में लगा है। बात स्वच्छता की करें तो इसमें कहीं शौचालय निर्माण की सुलभ देश में स्वच्छता के महत्व को किसी ने गहराई से महात्मा गांधी के प्रपौत्र राजमोहन गांधी ने कहा कोई दो मत नहीं कि इस काम को जिस लगन तकनीक का दुनिया भर में नाम है था, ‘मैं महात्मा गांधी के पुत्र का पुत्र हूं, पर और विस्तार के साथ डॉ. पाठक ने अब तक समझा है तो वे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। हाथ से मैला ढोना (मैन्युअल स्कैवेंजिंग) डॉ. विन्देश्वर पाठक गांधी जी के मानस पुत्र किया है, वैसा उदाहरण भारत तो क्या दुनिया में भारत में प्रतिबंधित काम है। गत वर्ष मार्च में हैं।’ यह वाकई सही है कि जब कई लोग महज दुर्भल है।


02 - 08 अप्रैल 2018

ताजा आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट कहती है कि देश में अक्टूबर 2014 में खुले में शौच जाने वाले लोगों की आबादी 55 करोड़ थी, जो जनवरी, 2018 में घटकर 25 करोड़ हो गई किए जाने की नीति में भी दबी हुई हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में 26.8 प्रतिशत लड़कियों के विवाह अठारह साल से कम उम्र में हो जाते हैं, जिससे उन लड़कियों के कम उम्र में गर्भवती होने के कारण वे कमजोर, कुपोषित और असुरक्षित हो जाती हैं। केवल इक्कीस प्रतिशत महिलाओं को ही प्रसव-पूर्व सेवाएं- जैसे चार स्वास्थ्य जांचें, टिटनेस का इंजेक्शन और सौ दिन की आयरन फोलिक एसिड की खुराक आदि- मिल पाती हैं। विवाह अठारह साल से कम उम्र में होने से बच्चे कमजोर और कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। ऐसे में सुरक्षित प्रसव और नवजात के जीवन की सुरक्षा आखिर की जाए तो कैसे! चूंकि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की प्रगति के लिए निवेश बहुत कम हो पाता है, इस तरह प्रकारांतर से प्रसूताओं को निजी सेवाओं की ओर धकेला जाता है। शहरी व ग्रामीण दृष्टि से भी भारत में नवजात शिशु मृत्यु दर में असमानता है। शहर में नवजात मृत्यु दर 15 है जबकि गांव में यह 29 है। 1 जनवरी 2017 से लागू मातृत्व लाभ योजना से भी असंगठित क्षेत्र की सत्तर प्रतिशत महिलाएं वंचित हैं। 35.9 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मृत्यु का कारण उनका समय से पहले जन्म लेना, जन्म के समय वजन कम होना, मां का दूध नहीं मिलना और संक्रमण का शिकार होना है।

संक्रमण से मौत

भारत के महापंजीयक के मुताबिक संक्रमण के कारण 23.6 प्रतिशत बच्चों की मृत्यु होती है, जिनमें 16.9 प्रतिशत निमोनिया के कारण और 6.7 प्रतिशत डायरिया के कारण मौत के मुंह में समा जाते हैं। नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में वृद्धि की अन्य वजहों में कम उम्र में विवाह के साथ ही गर्भावस्था के दौरान समुचित भोजन की कमी और भेदभाव, मानसिक-शारीरिक अस्थिरता, विश्राम और जरूरी स्वास्थ्य सेवाएं न मिलना, सुरक्षित प्रसव न होना आदि प्रमुख हैं। कुल मिलाकर शिशु मृत्यु दर में वृद्धि के तमाम कारणों में एक भी ऐसा नहीं है जिस पर नियंत्रण न पाया जा सके। जागरूकता, इच्छाशक्तिऔर कर्तव्यपरायणता के बल पर इस पर काबू पाया जा सकता है। लेकिन यह तभी संभव है जबकि देश के नौनिहालों के जीवन से जुड़े इस विषय को संजीदगी से लिया जाए। क्या वजह है कि बात-बात पर संसद की कार्यवाही ठप करने वाले माननीयों की संवेदना इन मासूमों के सवाल पर जागृत नहीं होती! क्यों शिशु मृत्यु दर का मुद्दा चुनाव घोषणापत्र का विषय नहीं बन पाता!

महिला स्वास्थ्य और स्वच्छता

यह सर्वविदित है कि स्त्री-पुरुष की शारीरिक बनावट

05

आवरण कथा

शौचालय और स्वच्छता सुविधाएं

मैं स्वच्छ भारत अभियान को गंदगी और कूड़े से जंग लड़ने की वजह से दूसरे स्वतंत्रता संग्राम की तरह देखता हूं। यह बीमारियों से हमें मुक्ति दिलाएगा, क्योंकि स्वच्छ भारत में ही स्वस्थ भारत निहित है

डॉ. आर. ए. माशेलकर

जाने-माने वैज्ञानिक और पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय की तकनीकी विशेषज्ञ समिति के अध्यक्ष

स्व

च्छता सुविधाएं सस्ती, टिकाऊ और गुणवत्तापूर्ण होनी चाहिए। पूरे देश में बहुत ही कम समय में 12 करोड़ शौचालयों का निर्माण किया जाना है। हमारा लक्ष्य मात्र शौचालय बनाना नहीं, अपितु उन्हें कई वर्षों तक प्रयोगशील बनाना है। इसके लिए शौचालय इंजीनियरिंग नहीं, अपितु सामाजिक और तंत्र इंजीनियरिंग होनी चाहिए। सामाजिक नवाचार द्वारा अनुशंसित सुझाव बड़े पैमाने पर लोगों की मानसिकता में परिवर्तन लाएगा, जिससे समाज कम समय में शौचालय उपयोग करना सीख सके। हमें उन्नत तकनीक का प्रयोग कर के कारण भी कुछ रोग महिलाओं को जल्द ग्रसित करते हैं तो कुछ पुरुषों को। इसीलिए महिलाओं से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं पर अलग से चर्चा लाजिमी है। लखनऊ में महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए काम कर रही ऋचा सिंह ने महिलाओं की समस्याओं को बहुत नजदीक से देखा है। वह

शहरी के साथ ग्रामीण भारत में भी जल संकट

सस्ते, गुणवत्तापूर्ण, स्थायी शौचालय सुविधाएं लोगों तक पहुंचानी है। सस्ती उत्कृष्ट तकनीक के जरिए हमारा विचार स्वच्छ भारत अभियान की मदद करना है। इंडिया-सीएसआर मिशन की वजह से कई हितधारक एक मंच पर साथ आ सके हैं। उन्नत प्रौद्योगिकी, स्वच्छता के राष्ट्रीय लक्ष्य को हासिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। इस तकनीक का सस्ता होना इसीलिए जरूरी है, क्योंकि हमारे आर्थिक संसाधन राज्य, राष्ट्रीय और व्यक्ति स्तर पर सीमित हैं। हमारे पास समय बहुत कम है। इतने कम समय यानी 2 अक्टूबर 2016 तक हमें 12 करोड़ शौचालयों का निर्माण करना है। सरकार शुरू से ही सिर्फ शौचालयों निर्माण की दर में वृद्धि पर नहीं, अपितु अच्छे शौचालय निर्माण पर ध्यान दे रही है। हम कम पानी वाले शौचालय की जगह बिना पानी वाले शौचालय कहती हैं कि स्वच्छता का नाता महिलाओं की पूरी जीवन-चर्या से है। चाहे यूटीआई इन्फेक्शन की बात हो ल्यूकोरिया की सबका नाता स्वच्छता से ही है। अनहाइजेनिक डाइट व पोशाक के कारण भी महिलाओं को कई तरह की बीमारियां होती हैं। उनका तो यहां तक मानना है कि महिलाओं में बढ़

की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं, लेकिन इसके डिजाइन, विकास और फैलाव के विषय में दुबारा सोचने की जरूरत है। मैं स्वच्छ भारत अभियान को गंदगी और कूड़े से जंग लड़ने की वजह से दूसरे स्वतंत्रता संग्राम की तरह देखता हूं। यह बीमारियों से हमें मुक्ति दिलाएगा क्योंकि स्वच्छ भारत में ही स्वस्थ भारत निहित है। इस कार्यक्रम में 62,000 करोड़ रुपए खर्च होंगे। स्वच्छ भारत अभियान एक जनांदोलन बन चुका है। मैं इसे स्वच्छ भारत आंदोलन से बढ़कर, स्वच्छ भारत जन-आंदोलन बनते हुए देख रहा हूं। इस अभियान के विविध पहलू हैं। इससे लोगों में जागरुकता और सामाजिक परिवर्तन हुए हैं। यह अभियान 125 करोड़ भारतीयों की मानसिकता में बदलाव की मांग करता है। खुले में शौच से उन्मूलन, मैला प्रथा को खत्म करना और नागरिकों को स्वच्छता के प्रति जागरूक करना इस अभियान में शामिल है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महात्मा गांधी की 150वीं जयंती तक स्वच्छ भारत के लक्ष्य को पूरा करना है। शौचालय निर्माण स्वच्छ भारत का एक पहलू है। इसका लक्ष्य 2019 तक देश को खुले में शौच मुक्त करना है। पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय के दिशा-निर्देशों के अनुसार गांव के हर घर में एक शौचालय होना व उसका 100 प्रतिशत उपयोग होना जरूरी है। (नई दिल्ली में आयोजित दूसरे इंडिया सीएसआर सेनिटेशन समिट में डॉ. माशेलकर द्वारा दिए गए वक्तव्य का संपादित अंश) रहे ट्यूबरोक्लोसिस के मामले का भी संबंध स्वच्छता से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ता है। ग्रामीण इलाकों में प्रसव के बाद महिलाओं को जिन अस्वच्छ परिस्थितियों में रखा जाता है उससे कई बार जच्चा-बच्चा की जान भी चली जाती है। घर-घर शौचालय की हिमायत कर वह कहती हैं कि सामाजिक सुरक्षा की दृष्टिकोण से व स्वास्थ्य के लिहाज से महिलाओं के लिए शौचालय का होना बहुत जरूरी है, क्योंकि कई बार महिलाओं को शौच जाने के लिए अंधेरा होने का इंतजार करना पड़ता है, जिससे उनके पेट में कई तरह की बीमारियां होती हैं। आयुर्वेदाचार्य एसएस विश्वामित्र के अनुसार यदि आपका शरीर गंदा है तो चर्म रोग यानी त्वचा रोग, योनि रोग, मानसिक विकृति, गुप्तांग रोग आदि उत्पन्न होने लगते हैं। इसी तरह यदि घर-कमरा गंदे हैं तो विषैले दांतों-डंकों वाले जीवाणु उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे - मक्खी, मच्छर, चींटी, चींटे आदि। इनकी अधिकता बढ़ते ही डेंगू ज्वर, मलेरिया, उदर संबंधी विकार जैसे उल्टी, दस्त, हैजा आदि रोग पैदा होने लगते हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि


04 06 अस्वच्छता से उत्पन्न होने वाले ये रोग पुरुषों की बजाए महिलाओं को अपनी गिरफ्त में जल्द लेते हैं। हमारे देश की सामाजिक परिस्थितियां ऐसी है कि महिलाओं को अमानसिक वातावरण में अपने जीवन का अधिकांश समय व्यतीत करना पड़ता है। नारी की शारीरिक बनावट जिस तरह की है, उसमें उसके लिए साफ-सफाई से रहना और भी जरूरी हो जाता है। महिलाएं विशेषकर मूत्र संक्रमण की विकृति का शिकार होती हैं। कुछ तो इसे समझ नहीं पाती और जो समझ भी पाती हैं वो लोक-लाज में इसे व्यक्त करने की स्थिति में नहीं रहती हैं। कई बार ऐसा देखने को मिला है कि अस्वच्छता के कारण महिलाओं के हार्मोंस असंतुलित हो जाते हैं, जिसके कारण कई और बीमारियों के उत्पन्न होने की आशंका बढ़ जाती है। उपरोक्त जीवाणुओं की संक्रमण गति बहुत ही तीव्र होती है और ये महिलाओं के शरीर में बहुत तेजी से फैलते-बढ़ते हैं। रजोवृति के बाद प्रौढ़ावस्था में पहुंच चुकी महिलाओं में भी मूत्र संबंधी विकृति पाई जाती है। इतना ही नहीं इस रोग के फैलने पर मूत्र मार्ग पर नियंत्रण शिथिल हो जाता है और न चाहते हुए भी कई बार मूत्र स्वतः स्रावित हो जाते हैं, साथ ही इस रोग के बढ़ने से गुर्दे खराब होने की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है।

एजेंडा-2030

सितंबर 2000 में दुनिया के 189 देशों के नेताओं ने , संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में मिलकर, विश्व से गरीबी , भूख , लैंगिक असमानता मिटाने और बच्चों में मृत्यु दर कम करने के लिए आठ ऐतिहासिक ‘सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों’ ( मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स) पर समझौता किया था। सितंबर 2015 में इनकी अवधि पूरी होने पर इन लक्ष्यों को और विस्तार देते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा में वर्ष 2030 तक के लिए एक सतत विकास लक्ष्यों का नया एजेंडा तय किया गया। इसमें जिन 17 विकास लक्ष्यों को सम्मिलित किया गया है, वे हैं– 1. गरीबी उन्मूलन, 2. भूख की समाप्ति, 3. बेहतर स्वास्थ्य, 4. गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, 5. लैंगिक समानता, 6. शुद्ध जल की उपलब्धता एवं स्वच्छता, 7. सस्ती स्वच्छ ऊर्जा, 8. अच्छा व उचित रोजगार और आर्थिक विकास, 9. उद्योग ,नई खोजें/पद्धतियां एवं बुनियादी ढांचे (इंफ्रास्ट्रक्चर), 10. असमानता में कमी, 11. टिकाऊ शहर और समाज, 12. उत्तरदायित्वपूर्ण उपभोग एवं उत्पादन, 13. जलवायु परिवर्तन का सामना करने के त्वरित उपाय, 14. महासागरों और समुद्री स्रोतों का संरक्षण, 15. धरती/ जंगलों आदि का संरक्षण, 16. शांतिपूर्ण एवं समावेशी समाजों का निर्माण तथा 17. इन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए वैश्विक साझेदारी बढ़ाना। भारत ने अपने यहां सतत विकास लक्ष्यों का यह एजेंडा 1 जनवरी 2016 से अगले 15 सालों ( 2030 ) तक के लिए लागू किया गया है। इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए नीति आयोग के संयोजन में राज्य सरकारों के साथ कई दौर की बैठक हो चुकी हैं, जिनमें आगे के कार्य और लक्ष्य का ब्लूप्रिंट भी तैयार कर लिया गया है। एजेंडा-2030 के तहत जो भी 17 लक्ष्य तय किए गए हैं, उनका संबंध जल एवं स्वच्छता के साथ सबसे नजदीकी तौर पर जुड़ा है। कृषि, उद्योग, ऊर्जा, पर्यावरण, घरेलू जरूरतें– सभी को जल

आवरण कथा

02 - 08 अप्रैल 2018

स्वच्छता के क्षेत्र में सुलभ का कीर्तिमान

शौचालय निर्माण की टू पिट पोर फ्लश सुलभ तकनीक के बारे में जानकारी देते हुए डॉ. पाठक

15,00,000 परिवारों में सुलभ शौचालय का निर्माण

6,00,00,000 सुलभ डिजाइन पर आधारित सरकारी शौचालयों का निर्माण 8,500+ सुलभ सामुदायिक शौचालयों का निर्माण 640 शहर स्कैवेंजिंग के कलंक से मुक्त

2,00,00,000 लोग रोजाना सुलभ डिजायन पर आधारित बने टॉयलेट्स का इस्तेमाल करते हैं चाहिए। वर्ष 2030 तक हमारी पानी की मांग 40 फीसदी तक बढ़ने वाली है। अनुमान के अनुसार वर्ष 2025 तक भारत में प्रति व्यक्ति जल आपूर्ति बहुत कम हो जाएगी और 2050 तक तो यहां जल की भारी कमी होने वाली है। यही वजह है कि जल संकट की गंभीरता को देखते हुए सरकार और गैरसरकारी संस्थाओं की तरफ से जिस तरह की कोशिशें शुरू हुई हैं, उनमें जल -स्रोतों की पहचान, लोगों को जल के महत्व से परिचित कराना, जल पर सभी का समान अधिकार, जल संरक्षण के समुचित उपाय, जल से जुड़ी नई तकनीकों और नई खोजों को बढ़ावा,सभी क्षेत्रों में जल का सक्षम उपयोग, पानी की बर्बादी रोकना, प्रयोग किए गए पानी का पुनर्प्रयोग, नदियों की सफाई और उन्हें आपस में जोड़ना और जल के पारंपरिक स्रोतों का पुनरुद्धार अहम हैं।

शौचालय और जल संरक्षण

स्वच्छता और जल का आपसी नाता है। जल स्रोतों में गंदगी मिलने से नदियों का और भूतल का जल प्रदूषित होता है। पेय जल एवं स्वच्छता विभाग के सचिव परमेश्वरन अय्यर बताते हैं कि आज भी हमारे यहां 50-60 करोड़ लोग खुले में शौच के लिए जाते हैं। 2 अक्टूबर, 2014 को शुरू किए गए

स्वच्छ भारत अभियान का लक्ष्य रखा गया है कि महात्मा गांधी की 150वें जयंती, 2 अक्टूबर 2019 तक यह स्थिति एकदम समाप्त हो जाएगी।

सेहत के साथ बचत भी

प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छता अभियान का सकारात्मक प्रभाव परिवारों के स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति पर पड़ा है। लोकसभा में पेश किए गए ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार खुले में शौच से मुक्त गांव में हर परिवार सालाना 50,000 रुपए की बचत कर रहा है। 2 अक्टूबर 2014 को शुरू किए गए स्वच्छ भारत मिशन का परिणाम यह हुआ है कि आज पूरे देश में 296 जिले और 3,07, 349 गांव खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं। देश के गांवों में स्वच्छता का दायरा 2014 में जहां 39 प्रतिशत था, वह जनवरी 2018 में बढ़कर 76 प्रतिशत तक पहुंच गया है। ताजा आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट कहती है कि देश में अक्टूबर 2014 में खुले में शौच जाने वाले लोगों की आबादी 55 करोड़ थी, जो जनवरी, 2018 में घटकर 25 करोड़ हो गई है। अब तक पूरे देश में 296 जिलों तथा 3,07,349 गांवों को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया जा चुका है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आठ राज्यों और दो केंद्रशासित प्रदेशों – सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, केरल, हरियाणा,

उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, दमन और दीव तथा चंडीगढ़ को खुले में शौच से पूर्ण रूप से मुक्त घोषित किया गया है। राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) तथा भारतीय गुणवत्ता परिषद (क्यूसीआई) की रिपोर्टों के आधार पर आर्थिक सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट बताती है कि शौचालय तक पहुंच वाले लोगों की संख्या में 2016 के मुकाबले 2017 में 90 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। रिपोर्ट का कहना है कि देश के ग्रामीण क्षेत्रों में खुले में शौच जाने वाले लोगों की संख्या में तेजी से कमी आई है। इससे खुले में शौच से मुक्त क्षेत्रों में रहने वाले परिवारों के स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट ने यूनिसेफ की ‘भारत में स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) का वित्तीय और आर्थिक प्रभाव रिर्पोट का हवाला देते हुए कहा गया है कि ओडीएफ गांव में हर एक परिवार प्रतिवर्ष 50,000 रुपए की बचत करता है। शौचालय का प्रयोग करने वाले प्रत्येक परिवार को होने वाले लाभ का ब्यौरा नीचे के ग्राफ से अच्छी तरह से समझा जा सकता है। स्वच्छता मिशन ने देश के ग्रामीण परिवारों की आर्थिक स्थिति को पहले से कहीं अधिक मजबूत कर दिया है, जो न्यू इंडिया मिशन के लिए मील का पत्थर है।


02 - 08 अप्रैल 2018

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जंेडर

समाज के व्यवहार ने किया दुखी- करुणा मंडल करुणा के जीवन में ऐसा कोई नहीं जो उन्हें सहारा दे सके, इसीलिए वह ठाकुर जी की शरण में आ गई और भगवान की भक्ति में लीन हो गई

खास बातें 19 वर्ष की थी तभी करुणा के पति की मौत हो गई पति की मौत के बाद ससुराल वालों ने करुणा को घर से निकाल दिया करुणा अपने माता-पिता के साथ कुछ दिनों तक ही रह पाई वहीं भजन गाती और जो भी प्रसाद मिलता उसी से वो भोजन का प्रबंध करती थी। शुरुआत में तो उन्हें काफी दिक्कतें हुई, क्योंकि यहां कोई देखभाल करने वाला नहीं था और ना ही कोई पूछता था। कभी बीमार हो जाने पर कोई दवा दिलाने वाला भी नहीं था। बीमारी के समय तो खाने को भी नहीं मिलता था, क्योंकि ना ही हम भजन गा पाते और ना ही हमें प्रसाद मिलता। वह बताती हैं कि शुरुआत में भजन के बाद मिलने वाला प्रसाद ही उनके दिन भर का भोजन होता था।

भाई को नहीं करना चाहती परेशान

कि

प्रियंका तिवारी

सी भी व्यक्ति के जीवन में आई विपत्ति उतना कष्ट नहीं देती, जितना परिवार के लोगों की प्रताड़ना से होता है। भारतीय समाज में पहले से ही विधवाओं को समाज से अलग माना जाता रहा है। यदि किसी महिला के पति की मौत हो जाए तो उसमें उस महिला या लड़की का क्या दोष, लेकिन हमारे समाज में हमेशा से ही उन्हें प्रताड़ित किया जाता रहा है। पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद की रहने वाली करुणा मंडल के जीवन में कोई भी ऐसा नहीं है जो उन्हें सहारा दे सके। इसीलिए वह ठाकुर जी की शरण में आ गई। करुणा बताती हैं कि उनके समय में कम उम्र में विधवा हुई महिलाओं को बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। जिस रास्ते से वे जाती है उस रास्ते में कोई नहीं आता और किसी भी धार्मिक कार्यों में भी शामिल नहीं किया जाता है। यदि गलती से भी वह किसी के रास्ते में आ जाएं तो वह उन्हें चार बातें सुना कर चला जाता है। हालांकि करुणा की शादी महज 16 साल की उम्र में हो गई थी, लेकिन उनका वैवाहिक जीवन ज्यादा दिनों तक नहीं चला। शादी के तीन साल बाद उनके पति की मौत हो गई, जिसके बाद घर

और समाज के लोगों ने उन्हें ही दोषी मान लिया। इतना ही नहीं पति की मृत्यु हुए चार दिन भी नहीं हुए थे कि उनके ससुराल वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया।

ससुराल वालों ने घर से निकाला

करुणा रोते हुए कहती हैं कि उनके ससुराल वालों ने कहा कि अब तो तेरा पति नहीं रहा तेरा अब इस घर में कुछ नहीं है। तुम ये घर छोड़ कर चली जाओ। इस बात से दुखी करुणा यह सोचने लगी की जब उनके पति जिंदा थे तो सब उन्हें कितनी इज्जत देते थे, लेकिन पति की मौत के बाद सब कुछ इतना जल्दी बदल गया कि कुछ समझ ही नहीं आया। करुणा कहती हैं कि ससुराल से निकाले जाने के बाद वह अपने माता पिता के घर गईं। हालांकि कुछ दिनों के लिए वह अपने माता-पिता साथ रही, लेकिन घर-परिवार से ज्यादा समाज की प्रताड़ना ने उन्हें बहुत दुखी कर दिया।

संतान ना होने का दुख

करुणा कहती हैं कि यदि कोई संतान होती तो मैं उसकी परवरिश के वास्ते समाज की प्रताड़ना भी सह लेती, लेकिन किस्मत का खेल देखिए कि भगवान ने मुझे कोई संतान भी नहीं दी। जिसके सहारे मैं अपना जीवन जीती। कम उम्र में हुई शादी की तो मुझे समझ ही नहीं थी और जब तक समझ होती तब तक भगवान ने हमारे सुहाग को ही हमसे छीन लिया। इन सभी बातों से करुणा हमेशा दुखी रहती थी, उन्हें समझ नहीं आता था कि क्या करें। उसी दौरान उन्हें पता चला कि उनके पड़ोस से कुछ लोग उत्तर प्रदेश के वृंदावन जा रहे हैं तो करुणा ने भी उनके साथ वहां जाने का फैसला किया। उन्होंने वृंदावन के बारे में काफी कुछ सुन रखा था।

भजन मंडली में गाती थी भजन

करुणा जब वृंदावन आई तो सबसे पहले वह ठाकुर जी की भजन मंडली में शामिल हो गई। सुबह शाम

करुणा रोते हुए कहती हैं कि उनके ससुराल वालों ने कहा कि अब तो तेरा पति नहीं रहा, तेरा अब इस घर में कुछ नहीं है। तुम ये घर छोड़ कर चली जाओ

करुणा कहती हैं कि उनके भाई-भाभी हैं। उनके बच्चे भी हैं, लेकिन कोई उनके बारे में एक बार भी नहीं पूछता है। जब वह घर से वृंदावन के लिए निकली तो किसी ने भी उन्हें रोकने की कोशिश नहीं की। उन्हें अपने घर की बहुत याद आती है, लेकिन कोई उनसे मिलने नहीं आता है। करुणा कहती है कि मेरे भाई अपने परिवार की परवरिश में व्यस्त हैं। इसीलिए मैं उन्हें परेशान नहीं करना चाहती और कोई शिकायत नहीं करती हूं।

पाठक बाबा ने बदली दशा

करुणा कहती हैं कि इसी तरह एक दिन हम लोग भजन कर रहे थे तभी एक सज्जन आए और उन्होंने हम लोगों से बात की, हमारी समस्याएं पूछी। हमें लगा कि वे ऐसे ही हमारा समय ले रहे हैं। समाज के व्यवहार से मैं इतना दुखी थी कि मैं उन सज्जन पुरुष की बात नहीं सुनी, लेकिन कुछ दिन बाद ही हमें वहां से आश्रम लाया गया और हमें यहां हर तरह की सुविधा दी गई। करुणा बताती हैं कि हमने सोचा भी नहीं था कि इस निर्दयी समाज में आज भी पाठक बाबा (डॉ. विन्देश्वर पाठक) जैसे लोग मौजूद हैं, जो हम जैसे पीड़ित, शोषित महिलाओं के बारे में सोचते हैं। पाठक बाबा और सुलभ ने हमें एक घर दिया है, जहां हम अपनी मर्जी से रह सकते हैं और भगवान की भक्ति के साथ ही साथ हम टीवी भी देखते हैं। पाठक बाबा हमें प्रति महीने पैसे देते हैं, जिनसे हम अपनी भौतिक जरुरतें, दवाईयां वगैरह लेते हैं। हम सुलभ और पाठक बाबा के बहुत आभारी हैं, जिनकी कृपादृष्टि से हम आज स्वच्छ वातावरण में रह रहे हैं और अब पहले की तरह बीमार भी नहीं होते हैं।


04 08

बातचीत

02 - 08 अप्रैल 2018

एक जेंटलमैन अधिकारी

कमल सक्सेना उत्तर प्रदेश की महिला और बाल संसाधन केंद्र के सीईओ हैं। वे पिछले तीन दशकों से विभिन्न सरकारी विभागों में कार्यरत रहे हैं। उन्होंने आईआईटी कानपुर से केमिकल इंजीनियरिंग की है। इग्नू से कंप्यूटिंग में सर्टिफिकेट और सीआईईएफएल से फ्रेंच भाषा में डिप्लोमा किया है। साथ ही वे इंसीडेंट कमांड सिस्टम (आईसीएस) मैनेजमेंट के लिए एक प्रशिक्षित और उपयुक्त अधिकारी भी हैं। वे मोनाश विश्वविद्यालय मेलबोर्न द्वारा आयोजित सड़क सुरक्षा प्रबंधन नेतृत्व कार्यक्रम में भी हिस्सा ले चुके हैं। कमल सक्सेना न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया की सड़क सुरक्षा पर विश्व बैंक द्वारा प्रायोजित अध्ययन दौरा तथा सिंगापुर व

चंद्राणी बनर्जी

जब आपने पहली बार नौकरी ज्वाइन की तो आपका लक्ष्य क्या था?

मैं लोगों तक पहुंचना चाहता हूं। कई तरह के लोग हैं, जो जीवन में विभिन्न प्रकार की चीजों को प्राप्त करना चाहते हैं। मैंने गांव स्तर के सामान्य स्कूलों में तीव्र बुद्धि वाले बच्चों और एक उच्च प्रतिष्ठित विद्यालय में बहुत साधारण बच्चों को देखा है। कभीकभी तीक्षण बुद्धि वास्तव में तीव्रबुद्धि नहीं, बल्कि अवसरों के बारे में होती है। मैंने इसे महसूस किया और सही तरह के लोगों को अवसर प्रदान करने की कोशिश की। मैंने बहुत ईमानदारी से कोशिश की और मुझे आशा है कि मैंने सकारात्मक रूप से समाज के विकास की दिशा में योगदान दिया है।

योजनाओं को लागू करने में आपको कैसी समस्यओं का सामना करना पड़ा?

समस्या- समस्या कुछ भी नहीं है, बल्कि यह कई परतों के बारे में है। सरकार में कई परतें हैं, जिनमें से किसी एक माध्यम में जाने की जरूरत होती है। मेरा विश्वास है कि ये सब जरूरी हैं, क्योंकि जब कोई नया व्यक्ति आता है तो उसे सभी चीजें दस्तावेज के रूप में मिलती हैं और इससे उसे समझने में आसानी हो जाती है। इसीलिए इसमें बहुत समय लगता है। हालांकि यह प्रक्रिया उन्हें बहुत धैर्यहीन बनाती है। एक तरफ जहां लोग जीवन में तेज गति से आगे बढ़ रहे हैं, वहीं उन्हें इंतजार करना पसंद नहीं होता है। बता दें कि कार्यान्वयन भी कुछ ऐसा ही है। इसमें

समय तो लगता है, लेकिन यह मुश्किल नहीं है।

पिछले दो दशकों में शासन की गति के संदर्भ में हालात कैसे बदल गए हैं?

कंप्यूटर ने सभी चीजों में क्रांति ला दी है। पेपरलेस काम कम समय लेता है तो वहीं स्वीकृतियां भी कम समय में मिल जाती हैं। समयसीमा कम होने से इससे लोगों को काफी हद तक मदद मिलती है। इतना ही नहीं, कई सेवाएं अब ऑनलाइन उपलब्ध हैं और इससे लोगों को काफी हद तक मदद मिलती है। हां, पिछले दो दशकों में सरकार का कामकाज काफी बदल गया है।

सुशासन में तकनीक ने कैसे मदद की?

जैसा कि मैंने आपको बताया है कि कुछ चीजें हैं जो वास्तविकता में पहले कम से कम दो दिनों का समय लेते थे, लेकिन अब 2 मिनट में ही काम हो जाता है। इसकी गति तेज है और परिणाम त्वरित है। इससे लोगों को खुशी होती है। प्रशंसा और दक्षता हर किसी को बहुत खुश करता है।

दिन के खत्म होने पर वह कौन सा क्षण है जो आपको सबसे ज्यादा संतोषजनक लगता है?

यदि किसी व्यक्ति को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है तो मैं उसकी संतुष्टि के लिए चीजों को सुलझाने में किसी भी तरह से उसकी मदद कर सकता हूं- जिससे मुझे खुशी और संतुष्टी मिले। यदि मैं किसी की मदद करने के लिए कुछ कर सकता हूं तो मैं थोड़ा अतिरिक्त चलना चाहूंगा।

अमरीका (सैन फ्रांसिस्को, ऑस्टिन और न्यूयॉर्क) के लिए आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रणालियों पर अध्ययन दौरे के सदस्य भी रह चुके हैं। उन्होंने अपने काम में प्रतिबद्धता और ईमानदारी दिखाई है। साल 2004 में लॉन्ग एंड मेरिटोरियस सर्विसेज के लिए उन्हें राष्ट्रपति के पुलिस पदक से नवाजा गया। साल 2013 में भी उन्होंने अपनी विशिष्ट सेवाओं के लिए राष्ट्रपति के पुलिस पदक का सम्मान प्राप्त किया। साल 2016 में यूपी में मानव तस्करी को रोकने के प्रयासों के लिए उन्हें अमेरिकी दूतावास के कांसुलेट जनरल, कोलकाता द्वारा भी सम्मानित किया गया है। इसके अलावा 2017 में डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस'ज कोमेमोरेशन से सम्मानित किया गया। फिलहाल वे योग्य लोगों को अवसर प्रदान कर एक तरह का संतुलन बनाने की दिशा में सक्रिय हैं। ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ से बात करते हुए उन्होंने बताया कि ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां वे अपना योगदान करना चाहते हैं:

आप अपना खाली समय कैसे व्यतीत करना पसंद करते हैं? मुझे अपने खाली समय में किताबें पढ़ना, थिएटर जाना और संगीत सुनना पसंद है। मुझे खेल भी पसंद हैं।

सरकार चलाने के अलावा आपके हृदय के करीब क्या है?

मुझे तत्वविज्ञान पसंद है। अवधारणा और सिद्धांत मुझे सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। मुझे दृढ़ विश्वास है कि यह काम करता है। मैंने इसके बारे में पढ़ा है, इसीलिए मेरी रुचि वहां है।

आप अपने खाली समय में किस तरह का संगीत सुनना पसंद करते हैं?

ऐसा संगीत जो मुझे आराम करने में मदद करता हो, वह मेरे लिए अच्छा संगीत होता है। मेरा मानना है कि संगीत अपको फिर से जीवंत करने की शक्ति प्रदान करता है। इससे अधिक ऊर्जा और उत्साह के साथ काम करने में मदद मिलती है।

अपने लक्ष्य और उद्देश्यों कैसे में प्राप्त करना चाहते हैं?

मैंने महिलाओं, बच्चों और समाज के गरीब लोगों के खिलाफ अपराध से संबंधित मुद्दों को संभाला है। महिलाओं के खिलाफ अपराध को खत्म करने और उसका पता लगाने के लिए काम किया। मुझे राज्य सरकार के विभिन्न विभागों डब्ल्यूसीडी, श्रम विभाग, कानून विभाग, यूपी पुलिस, यूनिसेफ और केंद्रीय गृहमंत्रालय के साथ निकट समन्वय में काम करने का अनुभव मिला है। मुझे इलाहाबाद

उच्च न्यायालय की किशोर न्याय समिति के साथ काम करने का अवसर मिला। मैंने गृह विभाग के लिए यूपीहोम.जीओवी.इन के नाम से वेबसाइट विकसित किया है। इस साइट ने महिलाओं, बच्चों से संबंधित मुद्दों और राज्य सरकार द्वारा किए गए प्रयासों पर प्रकाश डाला है। मेरे पास पोस्को अधिनियम, किशोर न्याय अधिनियम, महिला और बाल अधिकार समन्वय को संभालने का एक अच्छा अनुभव है। यूनिसेफ और डॉ. राम मनोहर लोहिया नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी लखनऊ के साथ संबंधित कानूनों और जीओ पर पुलिस कर्मियों और कानून अधिकारियों के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया। मानव तस्करी से निपटने के प्रयास और यूपी में 35 एंटी मानव तस्करी इकाईयों की स्थापना करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसमें 20 बच्चे, मैत्रीपूर्ण पुलिस स्टेशन और यूपी के सभी जिलों में पुलिस, मैजिस्ट्रेट और लॉ ऑफिसर समेत 7000 से अधिक हितधारकों को प्रशिक्षित किया गया है और उन्हें इस मुद्दे के बारे में गहन जानकारी दी गई है। माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के मुताबिक, पीड़ित मुआवजा योजना को पूरी तरह से कार्यान्वित किया गया था। ऐसा करने वाले राज्यों में यूपी एक अग्रणी राज्य बन गया। गौंडा अधिनियम और यूपी गैंगस्टर अधिनियम के तहत मानव तस्करी को दंडनीय बनाया गया। ऐसी सभी योजनाओं की निगरानी की जानी चाहिए और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के एक हिस्से के रूप में मैं यह सुनिश्चित करना चाहता हूं कि सुचारू रूप से इनका पालन हो।


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आयोजन

गुरुकुलम प्रणाली संस्कृति और धर्म के बारे में करती है जागरूक- मोहन भागवत कर्नाटक के दक्षिणी कन्नड़ जिले में मैत्रेयी गुरुकुलम के वार्षिकोत्सव में सरसंघचालक मोहन भागवत, आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रवि शंकर, सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक जैसी विभूतियां हुई शामिल

खास बातें

गुरुकुलम की नई शाखा ‘ब्राह्मी’ का हुआ उद्घाटन सरसंघचालक मोहन भागवत ने किया डॉ. पाठक को सम्मानित गुरुकुलम में भारतीय शिक्षण के पारंपरिक मूल्यों की शिक्षा दी जाती है

गुरुकुलम के वार्षिकोत्सव के अवसर पर सरसंघचालक मोहन भागवत को भारत माता की पेंटिंग भेंट करते सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक। चित्र में मोहन भागवत के साथ हैं श्री श्री रविशंकर

सु

एसएसबी ब्यूरो

लभ स्वच्छता और सामाजिक सुधार आंदोलन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक, सरसंघचालक मोहन भागवत और आध्यत्मिक गुरु श्री श्री रवि शंकर कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ा जिले में आयोजित मैत्रेयी गुरुकुलम के वार्षिकोत्सव समारोह में शामिल हुए। समारोह में डॉ. पाठक, सर कार्यवाह भैयाजी जोशी, डॉ. सुधीर कुमार मिश्रा, सुब्रमण्यम सेठी और आभा कुमार ने गुरुकुल के नई शाखा ‘ब्राह्मी’ का उद्घाटन किया। इस मौके पर डॉ. पाठक ने सर संघ संचालक मोहन भागवत, श्री श्री रविशंकर को शॉल, मधुबनी पेटिंग और पुष्प गुच्छ देकर स्वागत किया। वहीं डॉ. विन्देश्वर पाठक को मोहन भागवत ने सामाजिक सेवा के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए सम्मानित किया। इस दौरान मैत्रेयी गुरुकुलम के छात्रों ने ‘नृत्य नाटिका’ प्रस्तुत की। इस संस्था में संस्कृत भाषा में शिक्षा दी जाती है और यहां के छात्र संस्कृत बोलने में दक्ष हैं। स्कूल की पढ़ाई और सभी क्रियाकलाप संस्कृत में ही संचालित होते हैं। संस्कृत देश की संस्कृति है और ज्ञान की इस परंपरा और विरासत को आगे बढ़ाना ही मैत्रेयी गुरुकुलम का मुख्य लक्ष्य है। गुरुकुलम अपने पाठ्यक्रम में भारतीय शिक्षा के

आधुनिक सिद्धांतों और वैज्ञानिक स्वभाव के साथसाथ एक जीवन शैली को भी बढ़ावा दे रहा है, जो सरल, गहरा और पर्यावरण के अनुकूल है। यह एक ऐसा शिक्षण संस्थान है, जहां लड़कियों को देवी स्वरूपा मानने के साथ समस्त प्राचीन परंपराएं संरक्षित हैं। एक शिक्षित महिला न केवल अपने परिवार को शिक्षित करती है, बल्कि एक प्रबुद्ध और समझदार समाज के निर्माण में भी सहयोग करती है, जिसका भारतीय मूल्यों में श्रेष्ठ समावेश है। संस्कृत, धर्म और देशभक्ति पर जोर देने के साथ यह संस्थान सत्य वैदिक परंपरा में ब्रह्मवादिनी की भावना, आध्यात्मिक उन्नति को चुनने, वैवाहिक जीवन और भौतिक आकांक्षाओं को त्यागने की भावना का प्रसार शिक्षा के माध्यम से करता है। यह ऐसी संस्था है, जहां छात्रों को पाठ्यपुस्तकों, परीक्षाओं और स्कूल की फीस के लिए परेशान नहीं किया जाता है। इसका लक्ष्य भारत के निर्माण का है, जो अध्यात्म के माध्यम से पूरी दुनिया का नेतृत्व कर सके। गुरुकुलम ब्रिटिश शिक्षा की उन खामियों को दूर करने के लिए प्रयासरत है, जो भारतीय शिक्षा प्रणाली में अपनी जड़ें जमा चुका है। यह संस्था अपने छात्रों को सामाजिक परिवर्तन के चुनौतीपूर्ण कार्य करने के लिए तैयार करता है। महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में सेवा के 23 साल पूरे करने के बाद गुरुकुलम की स्थापना हिंदू सेवा प्रतिष्ठान और

अजेया ट्रस्ट के सहयोग से की गई। इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ देश की शिक्षा प्रणाली को भी ध्वस्त किया। आज हम उसी शिक्षा प्रणाली का पालन कर रहे हैं, जो उन्होंने बनाए थे। सामाजिक शिक्षा प्रशासन द्वारा प्रदान की गई शिक्षा से बेहतर है। शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली अपनी संस्कृति और धर्म के बारे में जागरुकता पैदा करती है और छात्रों को निस्वार्थ भाव से जीवन जीने के लिए प्रशिक्षित भी करती है। भागवत ने कहा कि शिक्षा का उद्देश्य दूसरों के काम आने के लिए होना चाहिए और जीवन स्वयं तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। भागवत ने कहा कि 8000 साल पहले भगवान राम इस धरती पर निवास करते थे। वह सभी भारतीयों के आदर्श हैं और लोगों को उनके नाम से बलिदान और सेवा का भाव मिलता है। उन्होंने कहा कि पूर्ण सच्चाई की अवधारणा, कुल विश्वास और यह अवधारणा कि पूरा देश हमारा परिवार है, ये सब हमारे जीवन का मार्गदर्शन करते हैं। इस अवसर पर श्री श्री रविशंकर ने कहा कि हमें आधुनिक विज्ञान और प्राचीन ज्ञान दोनों की जरूरत है और मैत्रेयी गुरुकुलम में दोनों ही चीजें मुहैया कराई जा रही हैं। इसने कई तरह के परिवर्तन किए हैं। महिलाओं के लिए धागा समारोह का

आयोजन और वेदों के अध्ययन की आज्ञा दी, जो 24 साल पहले प्रचलित नहीं थी, लेकिन इस संस्थान के पीछे की शक्तियां इन चीजों को फिर से कठिन प्रयासों में डालकर करती हैं। केवल ब्राह्मणों के लिए उपनयन का प्रदर्शन करने की अवधारणा और वेदों के अध्ययन करने अनुमति सिर्फ ब्राह्मणों के लिए होना गलत था। अतीत में संतों और तपस्वियों के बीच इस तरह के मतभेद प्रचलन में नहीं थे। देशभक्ति और धर्म के प्रति प्यार, दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। हमें इस बारे में बच्चों को नए तरीके से समझाना चाहिए, क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य एक सुशिक्षित व्यक्तित्व बनाना है। उन्होंने कहा कि किसी के व्यक्तित्व में सुधार के लिए साहित्य, संगीत, विज्ञान आदि के अध्ययन की जरूरत होती है तो वेगस तंत्रिका के कामकाज में सुधार के लिए प्राणायाम, योग, जप और भजन की आवश्यकता होती है, जिसके परिणामस्वरूप हमें बेहतर स्वास्थ्य, शांत, सुखी व्यक्तित्व और तीव्र बुद्धि मिलती है। वैदिक परंपराओं के अनुसरण से इन चीजों को हासिल करना संभव है। श्री श्री ने कहा कि आतिचुनचनगिरी मठ के स्वामी निर्मलानंदनाथ ने अपने मांगलिक भाषणों में महसूस किया कि जिन लोगों को इतिहास के बारे में जानकारी नहीं है, उनको अपनी सहज शक्तियों का एहसास नहीं होता है और न ही वे दूसरों के बारे में सीख सकते हैं। जैसे कि अमेरिका विज्ञान के लिए जाना जाता है, प्रौद्योगिकी के लिए जापान और राजनीति के लिए इंग्लैंड, भारत अपने धर्म के बिना कुछ भी नहीं है। धर्म मनुष्य का जीवन और श्वास है। हमें ऋषियों द्वारा अर्जित ज्ञान का उपयोग करना चाहिए। प्राचीन संस्कृति के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए इस तरह के संस्थानों की स्थापना की जानी चाहिए।


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परिवर्तन

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विश्व रंगमंच दिवस (27 मार्च) पर विशेष

नुक्कड़ नाटक से ‘विपुल’ बदलाव

इंजीनियरिंग छोड़ थिएटर से जुड़े विपुल सिंह दूर-दराज के इलाकों में अपनी कला के जरिए लोगों की समस्याओं को सुलझाने और उनको जागरूक करने का कार्य कर रहे हैं

विपुल और उनके सहयोगियों ने नुक्कड़ नाटक के जरिए कई सामाजिक मुद्दे उठाए

एसएसबी ब्यूरो

दलाव और उत्थान का दायरा जब निजी से आगे सामाजिक हो जाए, तो वह एक प्रेरक उदाहरण बना जाता है। ऐसे ही एक उदाहरण का नाम है विपुल सिंह। थिएटर से जुड़े और वाराणसी के रहने वाले विपुल सिंह दूरदराज के इलाकों में अपनी कला के जरिए लोगों की समस्याओं को सुलझाने और उनको जागरूक करने का काम कर रहे हैं। वे यह काम बिना किसी मदद और अकेले कर रहे हैं। विपुल का दावा है कि वे देश के करीब 21 राज्यों में अपने नाटक आयोजित कर चुके हैं। पिछले सात सालों के दौरान विपुल 7 सौ से ज्यादा नाटक कर चुके हैं और इनमें से ज्यादातर नाटक उन्होंने खुद ही लिखे हैं।

जागरूकता की कोशिश

विपुल को बचपन से ही घूमना पसंद था। मातापिता के कहने पर उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, लेकिन उनका मन घुमक्कड़ी और सामाजिक कार्यों में ज्यादा लगता था। इसीलिए इंजीनियरिंग की पढ़ाई बीच में छोड़कर वे एक बार फिर घूमने-फिरने के लिए निकल गए। अपने इस शौक के साथ विपुल ने सामाजिक मुद्दों को कला के जरिए उभारने का काम भी किया, जिससे जटिल से जटिल समस्याओं को भी लोग आसानी से समझने लगे। इस तरह विपुल पिछले 8 सालों से नुक्कड़ नाटक के जरिए लोगों की समस्याओं को सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं। वे इसके साथ ही सामाजिक मुद्दों को लेकर स्थानीय लोगों को जागरूक करने की भी कोशिश करते हैं।

पढ़ाई में नहीं लगा मन

विपुल जब 2-3 वर्ष के थे तो उनको चलने और बोलने में दिक्कत आती थी। यही वजह थी कि वे नर्सरी में फेल हो गए। लिहाजा, दोबारा उनका दाखिला नर्सरी क्लास में कराना पड़ा। 9वीं और 10वीं में आते-आते विपुल का मन पढ़ाई से उचट गया था। वे जान गए थे कि पढ़ाई उनके बूते से बाहर की बात है। इसके पीछे बड़ी वजह थी कि गणित और विज्ञान में वे काफी कमजोर थे। विपुल को साहित्य से गहरा लगाव था और उनका सेंस ऑफ ह्यूमर काफी अच्छा था। इस वजह से उन्होंने पढ़ाई के साथ थिएटर करना शुरू किया।

रास नहीं आया एनजीओ

शुरुआत में विपुल कॉमेडियन बनना चाहते थे, लेकिन कुछ समय तक थिएटर करने पर उनको महसूस हुआ कि इस क्षेत्र में कॉमेडी के अलावा काफी कुछ किया जा सकता है। यहां पर एक्टर, राइटर, डायरेक्टर भी बना जा सकता है। वहीं दूसरी ओर विपुल को एक बात खराब लगती थी कि यहां पर कलाकार एक दायरे में ही सिमट कर रह जाता है। इसीलिए उन्होंने थिएटर छोड़कर एनजीओ के साथ काम करना शुरू कर दिया। इस दौरान विपुल एक बार फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की ओर लौट

गए, लेकिन उन्होंने एनजीओ के लिए नुक्कड़ नाटक करना नहीं छोड़ा। इस दौरान उन्होंने कई नुक्कड़ नाटक लिखे और उनका निर्देशन किया, लेकिन कभी भी उन नाटकों का श्रेय उनको नहीं मिला और न ही उन नाटकों से होने वाले मुनाफे में हिस्सा। इसीलिए उन्होंने एनजीओ से भी नाता तोड़ लिया।

इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ी

इससे आगे की अपनी रंगयात्रा के बारे में विपुल बताते हैं, ‘मैं सब कुछ छोड़ घूमने के लिए निकल गया और रास्ते में एक जगह रुककर मैंने अकेले ही नुक्कड़ नाटक का मंचन किया। इसे करने के दौरान मुझे लगा कि अब मैं किसी से शिकायत नहीं कर सकता और जो भी श्रेय होगा वो मुझे ही मिलेगा।’ इस नुक्कड़ नाटक को करने के बाद विपुल में आत्मविश्वास पैदा हो गया था कि वे अकेले भी कुछ कर सकते हैं। इसके बाद उन्होंने अपने माता-पिता से बात कर तीसरे साल इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ नुक्कड़ नाटक के मंचन में लग गए। इसके बाद वे देश भर में घूम-घूम कर वहां के ज्वलंत मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक का मंचन शुरू करने लगे। ये नुक्कड़ नाटक अब उनके लिए रोजी रोटी का साधन बन गया था। किसी भी नाटक का मंचन करने से पहले लोगों को बताते कि वे उनकी समस्या और क्षेत्रीय मुद्दे पर नाटक का मंचन कर रहे हैं। नाटक देखने के बाद वो अपनी इच्छानुसार उनको पैसे दें। धीरे-धीरे उनके काम की तारीफ होती गई और वीडियो भी वायरल होने लगे तो लोग उनको पहचानने लगे।

विपुल ने कुछ ऐसे पिछड़े इलाकों में नाटकों का मंचन किया, जहां पर लोग इंजेक्शन लगाने तक को बुरा मानते हैं। इन जगहों पर नाट्य मंचन के बाद विपुल घंटों बातें करके लोगों को जागरूक करते हैं

खास बातें

नाटकों को बनाया सामाजिक बदलाव का जरिया 7 वर्ष में 700 से ज्यादा नाटक करने का रिकार्ड विपुल अब तक 21 राज्यों में अपने नाटकों का मंचन कर चुके हैं

27 सौ किलोमीटर की यात्रा

इस बीच, वे देश भर का दौरा करते हुए भोपाल पहुंचे। यहीं रहकर उन्होंने अपनी पढ़ाई की थी और यहीं पर उनके माता-पिता भी रहते थे। यहां पहुंचने पर उन्होंने तय किया कि बचपन में जो समस्या उनको चलने में थी, तो क्यों न इसी पर कुछ काम किया जाए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भोपाल से जम्मू तक की पैदल यात्रा की। 27 सौ किलोमीटर की इस यात्रा को उन्होंने 95 दिन में पूरा किया। इस यात्रा के दौरान उन्होंने महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर नुक्कड़ नाटक का मंचन किया। इस दौरान उनके नाटकों में माहवारी, घरेलू हिंसा और लिंगभेद, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसे कई मुद्दे शामिल थे।

720 से ज्यादा नुक्कड़ नाटक

विपुल बताते हैं कि अब तक करीब 7 सालों के दौरान मैंने 720 से भी ज्यादा नुक्कड़ नाटक किए हैं। इन नाटकों में सामाजिक मुद्दों के साथ कई ऐसे नाटक भी उन्होंने किए जिसमें कहानी के जरिए


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विज्ञान

विज्ञान के क्षेत्र में आगे आएं महिलाएंः केसरीनाथ त्रिपाठी

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मणिपुर विश्वविद्यालय में 7वीं महिला विज्ञान कांग्रेस में महिलाओं को विज्ञान प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आगे लाने पर बल दिया गया

विपुल की प्रभावशाली रंग मुद्रा

संदेश देने की कोशिश की है। विपुल की मानें तो दुनिया में अब तक किसी ने भी अकेले इतने नुक्कड़ नाटक नहीं किए हैं। ये एक रिकॉर्ड है। विपुल के एक नाटक की कहानी बाप बेटे के बदलते रिश्ते पर है। इस नाटक के जरिए उन्होंने दिखाने की कोशिश की है कि बेटे का ब्रेकअप हो चुका है और वे अपने पिता से इस बारे में बात करता है। इसमें दर्शक जब लड़के का पक्ष सुनते हैं तो उनको लगता कि वह सही है, वहीं जब दर्शक पिता का पक्ष सुनते हैं तो उनको लगता है कि पिता सही बोल रहा है। इस नाटक के जरिए विपुल ने लोगों को बताने की कोशिश की है कि नजरिया हर किसी का सही हो सकता है, बस उसे समझने की जरूरत है।

पिछड़े इलाकों में नाटक

विपुल ने शहरी और ग्रामीण दोनों ही जगहों पर नाटकों का मंचन किया है। बनारस का होने के कारण वे स्वभाव से भी ऐसे हैं कि हर माहौल में ढल जाते हैं। गांव और पिछड़े इलाकों के लोगों के बीच नाटक का मंचन करने के दौरान वे वहां की संस्कृति और लोगों से काफी कुछ सीखते हैं। दिलचस्प है कि गांव के लोगों की अपनी दुनिया होती है और उसमें वो काफी खुश भी रहते हैं। ये लोग जल्दी किसी से घुलते मिलते नहीं हैं, लेकिन घुलने मिलने के बाद वो अपनी काफी बातें खुले मन से विपुल के साथ करते हैं। लोगों के साथ बिताए अनुभवों को कई बार विपुल अपने नाटकों में भी शामिल करते हैं। उन्होंने कुछ ऐसे पिछड़े इलाकों में नाटक का मंचन किया, जहां पर लोग इंजेक्शन लगाने तक को बुरा मानते हैं। इन जगहों पर नाटक मंचन के बाद विपुल उनसे घंटों बात कर लोगों को जागरूक करते हैं।

पूर्वोत्तर राज्यों में जाने का इरादा

विपुल कहीं भी आने जाने के लिए बड़े ही दिलचस्प तरीके से यात्रा करते हैं। उनको जो मिलता है, उसी की मदद से सफर करते हैं। कई बार वो लिफ्ट लेकर यात्रा करते हैं तो कई बार पैसे न होने के कारण बिना टिकट ट्रेन में सफर करते हैं। विपुल पूर्वोतर राज्यों को छोड़ देश के 21 राज्यों में अपने नाटकों का मंचन कर चुके हैं। अब उनकी कोशिश है कि वे इन राज्यों में भी नुक्कड़ नाटक का मंचन करें।

मणिपुर विश्वविद्यालय में आयोजित 7वीं महिला विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन सत्र

वि

उमाशंकर मिश्र

कास के विभिन्न मापदंडों को पूरा करने में भारतीय महिलाओं का अहम योगदान है। पर, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महिलाओं की हिस्सेदारी उम्मीद से काफी कम है। महिला विज्ञान कांग्रेस इस कमी को पूरा करते हुए राष्ट्र निर्माण में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण हो साबित हो सकती है। ये बातें पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने मणिपुर विश्वविद्यालय में 7वीं महिला विज्ञान कांग्रेस को संबोधित करते हुए कही हैं। उन्होंने कहा कि कई योग्य महिलाएं शिक्षित होने के बावजूद मुख्यधारा के विज्ञान से दूर रह जाती हैं और उन्हें प्रमुख वैज्ञानिक के रूप में काम करने का अवसर नहीं मिल पाता। महिला विज्ञान कांग्रेस के जरिए विज्ञान के क्षेत्र में सक्रिय अनुसंधान से खुद को जोड़ने के लिए अधिक से अधिक महिलाएं वैज्ञानिक समुदाय का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित होंगी। महिला विज्ञान कांग्रेस में मौजूद भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग से जुड़ीं वरिष्ठ वैज्ञानिक नमिता गुप्ता ने बताया कि वैज्ञानिक शोध में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार की ओर से कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, जिनमें वर्ष 2002 में शुरू की गई महिला वैज्ञानिक योजना प्रमुख है। इस योजना का उद्देश्य 27-57 वर्ष की उन महिला वैज्ञानिकों एवं प्रौद्योगिकीविदों

को मुख्यधारा में लौटने के अवसर प्रदान करना है, जो पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण अपने करियर में पिछड़ जाती हैं। महिला विज्ञान कांग्रेस महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र से जोड़ने के ऐसे प्रयासों का ही एक हिस्सा है। भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन की पूर्व महासचिव विजयलक्ष्मी सक्सेना ने बताया कि महिलाओं को नजरअंदाज किया जाता है तो हम अपने आधे कार्यबल को एक तरह से उपेक्षित कर देते हैं, जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपने योगदान से समाज को ऊंचाई पर ले जाने में उपयोगी हो सकती हैं। जानकी अम्मल, प्रो. अशिमा चैटर्जी, प्रो. मंजू शर्मा, प्रो. अर्चना शर्मा, प्रो. इंदिरा नाथ, प्रो. आनंदीबाई जोशी, प्रो. कस्तूरी दत्ता, प्रो. शिप्रा गुहा मुखर्जी और डॉ स्नेह भार्गव जैसी प्रसिद्ध महिला वैज्ञानिक इसकी मिसाल कही जा सकती हैं। विषमता, लैंगिक भेदभाव, शिक्षा तंत्र में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए महिला वैज्ञानिकों के लिए अवसर पैदा करना और उच्च शिक्षा क्षेत्र में उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना जरूरी है। विज्ञान कांग्रेस जैसे आयोजन इस दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं। भारतीय विज्ञान कांग्रेस एसोसिएशन के अध्यक्ष अच्युता सामंत के अनुसार, ‘महिला विज्ञान कांग्रेस हर साल आयोजित होने वाले भारतीय विज्ञान कांग्रेस का एक अभिन्न अंग बन चुका है। महिला विज्ञान कांग्रेस का महत्व इसीलिए अधिक है, क्योंकि इसमें शामिल महिला वैज्ञानिक महिलाओं को मुख्यधारा

में शामिल करने से जुड़ी चुनौतियों को दूर करने के साथ-साथ विज्ञान कांग्रेस की थीम- रीचिंग टू अनरीच्ड थ्रू साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी जैसे विषय को केंद्र में रखकर गहनता से विचार-विमर्श कर रही हैं।’ मणिपुर विश्वविद्यालय के उप-कुलपति आद्याप्रसाद पांडेय के अनुसार, ‘मणिपुर में व्यापार, वाणिज्य, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं के योगदान का इतिहास रहा है। इस राज्य के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में महिलाओं की भूमिका बेहद अहम है। इसीलिए दूरदराज के इस राज्य में महिला विज्ञान कांग्रेस का आयोजन इस राज्य की महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र से जुड़ने के लिए निश्चित रूप से प्रोत्साहित करेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि महिला विज्ञान कांग्रेस का मंच यहां आए वैज्ञानिकों, छात्रों, शोधकर्ताओं एवं शिक्षाविदों को विचारों के आदान-प्रदान का अवसर प्रदान करेगा।’ महिला विज्ञान कांग्रेस की संयोजक मणिपुर विश्वविद्यालय की प्रो. मेमचा के अनुसार महिला विज्ञान कांग्रेस में महिलाओं के समन्वित विकास के लिए विज्ञान कांग्रेस की विस्तृत थीम के मुताबिक चर्चा की जाती है। इसके अंतर्गत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, गणित और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति के बारे में विचार किया जाता है। इससे जुड़ी चुनौतियों से निपटने और लैंगिक समानता स्थापित करने के लिए आवश्यक रणनीति पर भी चर्चा की जाती है।


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स्वास्थ्य

02 - 08 अप्रैल 2018

विश्व ऑटिज्म जागरुकता दिवस (2 अप्रैल) पर विशेष

एक बीमारी जिसके शिकार बच्चे जीनियस भी हो सकते हैं! ऑटिज्म को अब एक न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर की तरह देखा जाता है, जो एक इंसान की बातचीत करने और दूसरे लोगों से सम्यक व्यवहार करने की क्षमता को सीमित कर देता है

खास बातें

यह बीमारी 6 वर्ष की उम्र में ही पनपनी शुरू हो जाती है ‘माई नेम इज खान’ में शाहरुख को ऑटिस्ट दिखाया गया है कुछ आईटी कंपनियां ऐसे लोगों को नौकरी दे रही हैं

एसएसबी ब्यूरो

टिज्म... इस शब्द और इससे जुड़े गंभीर संदर्भ से ज्यादातर लोग अपरिचित ही हैं। दरअसल, ऑटिज्म एक बीमारी है। अगर आपने फिल्म ‘माई नेम इज खान’ देखी होगी, तो याद होगा कि इस फिल्म में शाहरुख खान को माइल्ड ऑटिज्म होता है। यह बीमारी 6 वर्ष की उम्र में ही पनपनी शुरू हो जाती है। ऑटिज्म पर ही आधारित एक डेली सोप 'आपकी अंतरा' भी लोगों के बीच काफी मशहूर हुआ था। इस सीरियल में ऑटिज्म से जूझ रही एक छोटी सी बच्ची की कहानी दिखाई गई थी। समय के साथ ऑटिज्म को लेकर मेडिकल साइंस के साथ समाज का रवैया भी बदला है, इस रोग को अब लोग सीधे-सीधे मंदबुद्धि या कमजोर मानसिक विकास के तौर पर देखने के बजाय मानसिक बनावट की एक विलक्षण स्थिति के तौर पर देखा जा रहा है। अगर आप का बच्चा खोया-खोया रहता है, तो वह ऑटिज्म नामक बीमारी का शिकार हो सकता है। मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. ब्रह्मदीप सिंधु बताते हैं कि यह कोई ऐसी बीमारी नहीं है, जिसे दवाओं से ठीक किया जा सके। यह बीमारी 6 महीने की उम्र से बच्चों में पनपना शुरू हो जाती है। हालांकि ज्यादातर लोग बच्चों में काफी विलंब से इसकी पहचान कर पाते हैं। ऐसे में काफी देर हो जाती है। इस स्टेज पर बच्चे को मेंटल सर्टिफिकेट बनवाने की नौबत आ जाती है। जुटाए गए मेडिकल आंकड़ो के मुताबिक एक हजार बच्चों में एक या दो ऑटिज्म के शिकार यानी ऑटिस्ट होते हैं। इसके लक्षण दो साल की उम्र में बहुत हल्के से दिखने लगते हैं। ऑटिस्ट बच्चे बोलने के बजाए हाव भावों से ज्यादा संवाद करते हैं। वे एक ही चीज बार बार कई दिन तक दोहराते रहते

हैं। सामाज के बीच में वे उदासीन रहना ज्यादा पसंद करते हैं। वैसे इन लक्षणों के बावजूद बिना मेडिकल जांच के ऑटिज्म को पकड़ पाना बहुत मुश्किल है। कई बार बच्चे जिद्दी होने की वजह से भी ऐसा व्यवहार करते हैं। ऑटिज्म हो तो उम्र बढ़ने के साथ ये लक्षण और पक्के होते जाते हैं। ऑटिज्म को लेकर मेडिकल साइंस के क्षेत्र में जो भी अध्ययन हुए हैं, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि आम लोगों के उलट ऑटिज्म प्रभावित लोग सामाजिक व्यवहार और कई विषयों की जानकारियों का सही ढंग से विश्लेषण नहीं कर पाते। उनका दिमाग ढेर सारी सूचनाओं को जमा कर उससे अपनी तर्कशक्ति में नहीं बदल पाता। लेकिन डॉक्टर और वैज्ञानिक अब तक नहीं समझ पाए हैं कि यह दिमागी अंतर होता कैसे है। आमतौर पर देखा गया है कि यह अंतर आनुवांशिक होता है। बच्चे को यह माता पिता के जीन से मिलता है। ऑटिस्ट बच्चे अक्सर हर दिन एक ही खिलौने से खेलते हैं। वे हमेशा खिलौनों या आसपास की चीजों को लाइन में या सधे हुए ब्लॉकों में रखते हैं। ये भले ही दिमागी अंतर की वजह से हो, लेकिन इसके पीछे एक गहरी प्रतिभा भी छिपी है। ऑटिस्ट लोगों को बहुत ही कम चीजें पसंद आती हैं, लेकिन जो चीजें उन्हें अच्छी लगती हैं, वे उन्हें बारीकी से जान लेते हैं। उदाहरण के लिए अगर किसी ऑटिस्ट को क्रिकेट पसंद है तो उसे क्रिकेट से जुड़ी बातें गजब की सटीकता से याद रहेंगी। वह सालों पुराने मैच का स्कोर बोर्ड, किसने क्या किया, मैदान पर क्या हुआ जैसी बातें बड़ी सहजता से बता देगा।

मोबाइल फोन में दिलचस्पी रखने वाले ऑटिस्ट उसका हर फंक्शन छान मारेंगे। लंबे समय तक मंदबुद्धि कहकर उपेक्षा करने के बाद अब लोगों को ऑटिस्टों की प्रतिभा का अंदाजा हो रहा है। सॉफ्टवेयर उद्योग से जुड़ी दिग्गज जर्मन कंपनी एसएपी तो ऑटिस्ट लोगों को नौकरी भी दे रही है। बेंगलुरु में एसएपी के दफ्तर में पांच हजार कर्मचारी हैं। इनमें से पांच ऑटिस्ट हैं। एसएपी लैब्स इंडिया के उपाध्यक्ष अवनीश दूबे कहते हैं, ‘डिटेल को लेकर उनकी एकाग्रता कमाल की होती है। उनकी गजब की यादाश्त होती है। वो एक ही काम को बार-बार भी कर सकते हैं। सॉफ्टवेयर टेस्टिंग में हमें इन तकनीकों की जरूरत है। ऑटिस्ट गलतियां पकड़ने में माहिर होते हैं।’ अलबत्ता आम कर्मचारियों के बीच ऑटिस्ट लोगों को घुलने मिलने में दिक्कत होती है। एसएपी लैब्स इंडिया में मिशेल इजाक अधिकारियों और ऑटिस्ट कर्मचारियों के बीच संवाद का काम करती हैं। इजाक कहती हैं, ‘अगर मैं दफ्तर में न रहूं तो वे मुझे मैसेज करके पूछते हैं कि मिशेल तुम कहां हो, ऑफिस कब आओगी। उन्हें लगता है कि अगर मिशेल यहां है तो सब ठीक होगा। वो मुझ पर भरोसा करते हैं और मैं उन पर भरोसा करती हूं।’ एसएपी ऑटिज्म के शिकार और लोगों को आईटी विशेषज्ञ के रूप में नौकरियां देना चाहती हैं, सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि जर्मनी में भी। मथियास प्रोएसल इसमें स्पेसियलिस्टेर्ने संगठन की मदद ले रहे हैं, जो ऑटिस्ट लोगों और कंपनियों को साथ लाता है। प्रोएसल कहते हैं, ‘हमारा लक्ष्य

लंबे समय तक मंदबुद्धि कहकर उपेक्षा करने के बाद अब लोगों को ऑटिस्टों की प्रतिभा का अंदाजा हो रहा है। सॉफ्टवेयर उद्योग से जुड़ी दिग्गज जर्मन कंपनी एसएपी तो ऑटिस्ट लोगों को नौकरी भी दे रही है

है ऐसे लोगों को बेरोजगारी से बाहर निकालना जो काम करना चाहते हैं।’ रोचेस्टर मेडिकल सेंटर, डेल मोंटे में हुए शोध में एक ऐसे उपकरण की खोज की गई है, जो चिकित्कों को ऑटिज्म स्पेक्ट्रम विकार यानी कि एएसडी जैसी बीमारियों से निजात पाने में सहायक होता है। आंखों का टेस्ट करने वाला यह यंत्र मस्तिष्क के उस हिस्से की जानकारी का संकेत दे सकता है, जहां इस तरह के विकार पनपते हो। इस अध्ययन से जुड़े डॉ. फॉक्स के मुताबिक, ‘हम लंबी शोध प्रक्रिया के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि आंखों की प्रतिक्रियाएं हमारे दिमाग में एक खिड़की की तरह काम करती हैं। जो कि आत्मकेंद्रित या आत्मविमोह जैसे कई न्यूरोलॉजिकल और विकास विकारों में अहम भूमिका निभाता है।’ इस अध्ययन के बाद मेडिकल साइंस के क्षेत्र में भी ऑटिज्म को लेकर एक नया नजरिया विकसित हुआ है। इस बीमारी को अब एक न्यूरोलॉजिकल डिस्ऑर्डर की तरह देखा जाता है, जो एक इंसान की बातचीत करने और दूसरे लोगों से सम्यक व्यवहार करने की क्षमता को सीमित कर देता है। इसे ऑटिस्टिक स्पैक्ट्रम डिस्ऑर्डर कहा जाता है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में इसके लक्षण अलग-अलग देखने को मिलते हैं। ऐसे कुछ बच्चे या व्यक्ति बहुत जीनियस होते हैं। चूंकि ऑटिस्टिक व्यक्तियों में समानुभूति की कमी होती है, इसीलिए वे दूसरों तक अपनी भावनाएं नहीं पहुंचा पाते या दूसरों के हावभाव व संकेतों को समझ नहीं पाते। ऑटिज्म को लेकर जागरूक होने की जरूरत अभिभावकों को है। जब कोई बच्चा असामान्य रूप से बहुत ज्यादा जिद करता है, या चीजों को पटकता, तोड़ता-फोड़ता है तो हम सोचते हैं कि वह शैतान हो गया है लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। उसकी हरकतों पर सावधानीपूर्वक ध्यान देते हुए डॉक्टरों से सलाह लेने की जरूरत होती है, क्योंकि आपका बच्चा ऑटिस्टिक भी हो सकता है।


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पर्यावरण

जल संरक्षण का ‘जाम’

कुछ साल पहले तक पलायन और सिर्फ पलायन की कथा ही थार इलाके की पहचान थी, लेकिन आज इस इलाके की तस्वीर और पहचान दोनों बदल चुकी है। थार इलाके में इतने बड़े बदलाव के पीछे हैं जाम साहब

खास बातें रामगढ़ में औसतन 100 मिमी ही बारिश होती है कुछ वर्ष पूर्व तक सूखे से लोग यहां से पलायन को मजबूर थे जाम साहब की अनूठी पहल ने इस इलाके की तस्वीर बदल दी

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एसएसबी ब्यूरो

जस्थान में थार इलाके में दूर आसमान में दिखती सफेद और काली पट्टियों को ‘मोघ’ कहा जाता है। मतलब कि जहां सूरज छिपता दिख रहा है, वहां बादल है। अगर हवा की दिशा अनुकूल हो तो रात तक बारिश हो सकती है। रामगढ़ और आसपास के इलाके के लोग इन्हीं प्राकृतिक चिन्हों के सहारे बादल के बरसने की उम्मीद करते हैं। रामगढ़, जैसलमेर से 60 किमी की दूरी पर भरत-पाक सीमा के करीब है, जहां औसतन 100 मिमी ही बारिश होती है और वह भी हर साल नहीं। दस साल में इल इलाके को तकरीबन तीन बार सूखे की मार झेलनी पड़ती है। कुछ साल पहले तक पलायन और सिर्फ पलायन की कथा ही इस थार इलाके की पहचान थी, लेकिन आज इस इलाके की तस्वीर और पहचान दोनों बदल चुकी है। आज यहां पलायन नहीं, पानी है। थार इलाके में इतने बड़े बदलाव के पीछे हैं चतर सिंह ‘जाम’। ‘जाम’ उनकी पारिवारिक पदवी है, इसीलिए वे ‘जाम साहब’ के नाम से पूरे इलाके में जाने पहचाने जाते हैं।

तालाब और जोहड़

पचपन साल के जाम साहब ‘समभाव’ नामक एक संस्था से जुड़े हैं। यह संस्था लोगों के साथ मिलकर जल व्यवस्थाओं को मजबूत करने का काम करती है। पिछले 10 सालों में इस संस्था ने काफी लोगों

को उन परंपरागत जल संरचनाओं को पुनर्जीवित करने के लिए प्रेरित किया जो कठिन परिवेश के बावजूद खेती और पशुधन को पालती हैं। थार के रेगिस्तान में दो स्तरीय व्यवस्था काम करती है। एक, ऊपर अच्छी बरसात में तालाब और जोहड़ भर जाते हैं और दूसरी, मुश्किल दिनों के लिए 1520 फीट नीचे खड़िया मिट्टी या जिप्सम की एक पट्टी जमीन में रिसकर आने वाले पानी को संजो कर रखती है। यह पानी उस भूजल से बिल्कुल अलग है जो जमीन में काफी गहरा और खारा है। जब तालाब सूख जाते हैं तब यही मीठा पानी कुईं या बेरियों द्वारा निकाला जाता है। इस इलाके में खेत अपना मूल नाम छोड़कर खड़ीन बन जाते हैं। एक धनुष या कोहनी की शक्ल का बांध लंबे चौड़े आगोर से आते बरसाती पानी में ठहराव लाता है और जिप्सम की पट्टी इसे नीचे जाने से रोकती है। इस तरह जमीन को उतनी नमी मिल जाती है, जिससे रबी की फसल फल-फूल सके। सदियों से कितने ही सामूहिक खड़ीन इस क्षेत्र में अन्न उपलब्ध करवा रहे हैं। दूसरी योजनाओं और तकनीकों पर बढ़ती निर्भरता की वजह से इन पारंपरिक संरचनाओं का सामाजिक जुड़ाव टूट सा गया था। जब ऐसा हुआ

चतर सिंह ‘जाम’

तो इलाके से पलायन का सिलसिला शुरू हो गया। लेकिन उन्होंने पारंपरिक संरचनाओं को पुर्नजिवित किया और लोगों से मिलकर न सिर्फ अपने पुरखों के खड़ीन, बेरियों और तालाबों को सुधारा, बल्कि कई नई संरचनाएं भी रची।

समभाव की ताकत

जाम साहब कहते हैं,‘समभाव से जुड़ने के बाद ही उनमें समाज की ज्यादा समझ बनी। पहले मैं सामान्य कर्मचारी की तरह प्रोजेक्ट के हिसाब से काम करता था। तब लोगों से जुड़ाव कम था। ‘समभाव’ के साथ मैंने जाना कि समाज का काम समाज के साथ मिलकर कैसे किया जाए।’वे समाज का काम समाज के साथ मिल कर कैसे करते हैं, इस मीर वाला में किए गए काम के सहारे आसानी से समझा जा सकता है। मीरवाला रामगढ़ से दक्षिण में रेत के टीलों के बीच एक छोटा सा गांव है जो अपने ढह चुके कुएं को फिर से सजीव करना चाहता था। वे बताते हैं,‘यह कुआं 252 फीट गहरा था। यहां कुआं खोदना सबसे मुश्किल काम है, क्योंकि हर वक्त रेत के खिसकने का खतरा रहता है। इसीलिए इनके पास पानी जरूर होना चाहिए।’ काम करने के लिए बाड़मेर से कुएं के कारीगरों से

जाम साहब ने पारंपरिक संरचनाओं को पुनर्जीवित किया और लोगों से मिलकर न सिर्फ अपने पुरखों के खड़ीन, बेरियों और तालाबों को सुधारा, बल्कि कई नई संरचनाएं भी रचीं

बातकर उनके मीरवाला आने का प्रबंध किया गया। इस पूरी प्रक्रिया को ‘समभाव’ ने सुगम बनाया। काम का पूरा खर्च गांव वालों ने दिया। वे कहते हैं कि ऐसे काम ज्यादा समय तक टिके रहते हैं, क्योंकि उससे लोगों का स्वामित्व का भाव ज्यादा जुड़ा रहता है। उन्होंने इसी सोच को आगे बढ़ाने के लिए तीन साल पहले 50 हेक्टेयर के एक सामूहिक खड़ीन पर व्यक्तिगत तौर से काम शुरू किया । आठ गांव की साझी संपत्ति होने के बावजूद यह खड़ीन जंगली बबूल से अटा पड़ा था। अभी तक यह एक मिला जुला अनुभव रहा है। पहले साल बरसात नहीं हुई पर दूसरे साल भरपूर हुई । वे कहते हैं, ‘लोगों की नजर में यह काम आ चुका है। अगली बरसात तक मुझे उम्मीद है वह सम्मलित हो जाएंगे।’

कमाल का अंदाज-ए-बयां

जाम साहब के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी है, उनका अंदाजे बयां। वह राजस्थान की कथा वाचन की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। चाहे वह पालीवाल ब्राह्मणों के रातोंरात पलायन का दुख हो या फिर लहास के जरिए पूरे समाज का तालाब बनाने की खुशी, उनकी आवाज की तान हमेशा दिल पर कायम हो जाती है। रेगिस्तान की वनस्पतियों की जानकारी हो या फिर तारों के जरिए दिशा का अनुमान लगाना, उनका ज्ञान भंडार विलक्षण है। यही वजह है कि इलाके के कई लोग इन्हें अपना गुरु भी मानते हैं। गंभीर हास्य के जरिए किसी बात को समझाना भी वे बखूबी जानते हैं। वे आजकल सोशल मीडिया से जुड़कर अपने शहरी शागिर्दों के और समीप आ गए हैं। उन्होंने लातूर के अकाल की तुलना रामगढ़ की जल दक्षता से कर एक महत्वपूर्ण संदेश जिस सरल ढंग से दिया उसकी हर जगह तारीफ हुई। इन सब बड़े कामों के बावजूद जाम साहब का सरल व्यक्तित्व इस बात का भरोसा देता है कि दुनिया में अच्छे लोगों की कमी नहीं।


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मिसाल

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अशक्त बनी अशक्तों की शक्ति

हर कदम और जरूरत के लिए दूसरों पर निर्भरता एक अशक्त को आसानी से सश्क्त नहीं होने देती, लेकिन विराली मोदी की कहानी सबसे अलग और प्रेरक है, जिन्होंने अपनी अशक्त जिंदगी से हार नहीं मानी

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आईएएनएस

भी हार न मानें' -यह वाक्य सुनने में जितना सरल है, इसमें छिपी अभिप्रेरणा उतनी ही गंभीर है। इसी वाक्य से प्रेरित 26 वर्ष की विराली मोदी ने कभी अपनी अशक्तता को अभिशाप नहीं माना, बल्कि दूसरे अशक्त लोगों का जीवन सुगम बनाने के लिए वह निरंतर संघर्षरत हैं। चौदह साल की उम्र में मलेरिया से पीड़ित होने के कारण विराली 23 दिनों तक कोमा में रही थीं। आंखें खुलीं तो परिजनों ने इसे कोई दैवी चमत्कार से कम नहीं माना। चिकित्सकों द्वारा लाइफ सपोर्ट हटाए जाने पर उनके प्रमुख अंग खुद काम करने लगे, लेकिन वह अपने पैरों पर चलने-फिरने से अशक्त बन चुकी थीं। तभी से वह खुद व अन्य अशक्त लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही हैं। विराली कहती हैं कि ट्रेन में चढ़ते समय रेलवे स्टेशनों पर जब कुली मुझे गोद में उठाते थे, तो वे जबरन मेरे शरीर को टटोलने लगते थे। यह मुझे बहुत बुरा लगता था। तभी मैंने ठान लिया, मैं अपनी तरह लाचार लोगों की जिंदगी को आसान बनाने का संकल्प लिया। विराली ने एक साल पहले एक सार्वजनिक अर्जी में लिखा, ‘मैं मुंबई की अशक्त महिला हूं, जिसे सफर करना अच्छा लगता है। मेरे साथ तीन बार ऐसी घटनाएं हुईं, जब कुलियों ने मुझे उठाकर ले जाते समय गलत इरादे से छूने व टटोलने की कोशिश की। वे ट्रेने में चढ़ने में मेरी मदद कर रहे थे, क्योंकि भारतीय रेलवे की ट्रेनों में व्हीलचेयर से चढ़ना सुगम नहीं था।’ उन्होंने बताया, ‘मुझे डायपर पहनना पड़ता था, क्योंकि ट्रेन के शौचालय का उपयोग मैं नहीं कर पाती थी। मेरी लड़ाई अशक्तों के लिए मानवीय सम्मान सुनिश्चित करना है।’ इस अर्जी ने केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गांधी समेत देशभर में हजारों लोगों का

खास बातें

चौदह साल की उम्र में मलेरिया के कारण दोनों पैर हुए बेकार ट्रेन में अशक्तों की यात्रा को सुगम बनाने के लिए कर रही हैं संघर्ष सोशल मीडिया में विराली के अभियान को भारी समर्थन

ध्यान इस ओर खींचा। उन्होंने जवाब में ट्रेन में अशक्तों का सफर सुगम बनाने का भरोसा दिलाया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन रेलमंत्री सुरेश प्रभु को संबोधित अर्जी में उनके कटु अनुभव को 'ए डिसेबल पर्सन ऑन एन इंडियन ट्रेन' के रूप में प्लेटफार्म चेंज डॉट ओआरजी पर साझा किया गया। विराली ने बताया, ‘ज्यादातर अशक्त लोगों को अपने घरों की चारदीवारी में कैद रहना पड़ता है, क्योंकि हमारी सड़कें, सार्वजनिक परिवहन और अधिकांश बुनियादी संरचनाएं व्हील चेयर के लिए अनुकूल नहीं हैं। अशक्त लोगों को

में काम करने की मंशा जताई। कुछ गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिलकर हमने केरल के कोच्चि, तिरुवनंतपुरम, त्रिशूर और एर्नाकुलम और तमिलनाडु के चेन्नई और कोयंबतूर रेलवे स्टेशनों पर पोर्टेबल रैंप और फोल्डेबल व्हीलचेयर रखवाए।’ पोर्टेबल रैंप और ट्रेन कोच के गलियारे में चलने के आकार के व्हील चेयर से ट्रेन में चढ़ने और शौचालय का इस्तेमाल करने में किसी की मदद की जरूरत नहीं के बराबर होती है। विराली ने कहा, ‘मैं मुंबई में भी स्टेशनों को अशक्तों के लिए सुगम बनाने के लिए रेलवे के अधिकारियों के साथ भी काम कर रही हूं। यह सब सरकार की मदद के बगैर संभव हो पाया है। कल्पना कीजिए, अगर सरकार इस दिशा में दिलचस्पी दिखाए तो देश में अशक्तों का जीवन कितना सुगम हो जाएगा।’ उन्होंने अपना इरादा जाहिर करते हुए कहा कि सांख्यिकी मंत्रालय के आंकड़ो के मुताबिक, 2016 में भारत में अशक्त लोगों की आबादी 2.60 करोड़ थी और भारतीय रेल उनके साथ सामान की तरह व्यवहार नहीं कर सकती है। विराली ने बताया, ‘जिन लोगों ने मेरी अर्जी पढ़ी, उनमें अनेक लोगों को विश्वास नहीं था कि कुछ बदलने वाला है, लेकिन मेरी मां (पल्लवी मोदी) इस संघर्ष में मेरे साथ खड़ी थीं।’ उनके अलावा हजारों लोग ऐसे थे जो सही मायने में अशक्तों के लिए बेहतर बुनियादी सुविधा चाहते थे। विराली इस समय मुंबई के एक ट्रेवल पोर्टल में काम कर रही हैं। यह पोर्टल सभी प्रकार की अशक्तता वाले लोगों के लिए काम करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अशक्त लोगों को 'दिव्यांग' नाम दिया है, जिसका अर्थ है सुंदर अंग वाले। विराली को इस शब्द पर आपत्ति है। उन्होंने दृढ़ता के साथ कहा, ‘प्रधानमंत्री की ओर से इस शब्द का इस्तेमाल प्रतिगामी व 'ज्यादातर असंवदेनशील दृष्टिकोण है। हम भारतीय अशक्त लोगों को अपने घरों अशक्तता पर नकाब क्यों डालें और इसके लिए नया शब्द गढ़ें। जो अशक्त नहीं की चारदीवारी में कैद रहना हैं, उन्हें भले ही यह शब्द मुक्ति प्रदान पड़ता है, क्योंकि हमारी सड़कें, करने वाला प्रतीत हो सकता है, लेकिन इससे हमारे उन संघर्षो पर पर्दा डाला सार्वजनिक परिवहन और जा रहा है, जिनसे हमें रोजाना दो-चार अधिकांश बुनियादी संरचनाएं होना पड़ रहा है। ऐसे शब्दों को हटा व्हील चेयर के लिए अनुकूल देना चाहिए।’ नहीं हैं' विराली ने कहा, ‘प्रधानमंत्री ने देश में सार्वभौम सुगमता लाने के लिए 2015 में - विराली मोदी नहीं मालूम कि कहां जाना 'एक्सेसिबल इंडिया अभियान' भी चलाया था। तीन है और कैसे जाना। हमारे देश में साल से ज्यादा समय बीत जाने पर भी उस अभियान से क्या अशक्तता दुर्दम्य है।’ हासिल हो पाया है? हम आज भी उसी तरह संघर्ष कर रहे हैं।’ डिजिटल दुनिया में उनकी अर्जी और विराली अमेरिका के पेंसिलवानिया में एक दशक से ज्यादा अभियान 'माई ट्रेन टू' को भारी समर्थन मिला वक्त गुजार चुकी हैं। उनके पिता वहां एक हॉस्पिटैलिटी फर्म में और दो लाख से ज्यादा लोग उनके साथ खड़े काम करते थे। वह चार साल की उम्र में ही अमेरिका गई थीं। हो गए, लेकिन असलियत में इससे बहुत फायदा वह कहती हैं कि अशक्त लोगों की सुविधा के मामले में भारत तब तक नहीं मिला, जब तक उन्होंने इस मसले की स्थिति खेदजनक है। विराली 2006 में छुट्टियों में भारत को लेकर खुद आगे बढ़ने का फैसला नहीं आई थीं, उसी समय उन्हें यहां मलेरिया का संक्रमण हो गया लिया। विराली अभिप्रेरणा देने वाली वक्ता भी था। वह जब अमेरिका लौटीं तो डाक्टरों को दिखाया, लेकिन हैं। उन्होंने बताया, ‘रेलवे के कई अधिकारियों उस समय इसका पता नहीं चल पाया। उन्होंने बताया, ‘मलेरिया ने मेरी अर्जी पढ़कर मुझसे संपर्क किया और मेरे शरीर में घर कर लिया, जिससे सांस की तकलीफ और ट्रेन को निशक्तों के लिए सुगम बनाने की दिशा हृदयाघात से गुजरना पड़ा। मैं 23 दिनों तक बेहोश रही।’


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पहल

बच्चों के लिए ‘धारावी डायरी’

फिल्म निर्माता नवनीत रंजन मुंबई के स्लम एरिया धारावी में रहने वाले बच्चों के लिए काम कर रहे हैं। वे न केवल उनको आधुनिक शिक्षा से जोड़ रहे हैं, बल्कि नई-नई तकनीक के जरिए उनकी मुश्किलों को आसान भी कर रहे हैं

खास बातें

धारावी पर डॉक्यूमेंट्री बनाने के दौरान इस स्लम एरिया से जुड़े धारावी डायरी के मुंबई सेंटर में करीब 200 बच्चे पढ़ते हैं बच्चों को स्कूली पाठ्यक्रम कहानियों की मदद से पढ़ाया जाता है इससे पानी की लाइन में लगने वाला काफी वक्त बच जाता है।

क्लासरूम कम्यूनिटी

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एसएसबी ब्यूरो

टी-पानी का रिश्ता होता ही ऐसा होता है कि आप कहीं भी हों पर अपने परिवेश को लेकर खिंचाव कभी खत्म नहीं होता है। इसी खिंचाव पर परदेस से फिर फिर अपने देश खिंचे चले आए फिल्म निर्माता नवनीत रंजन। नवनीत भले आज मुंबई में रहते हों, लेकिन कभी अमेरिका उनका पहला घर होता था। काम के सिलसिले में जब वे भारत आए तो फिर यहीं के होकर रह गए। आज नवनीत मुंबई के स्लम एरिया धारावी में रहने वाले बच्चों के लिए काम कर रहे हैं। वे न केवल उनको आधुनिक शिक्षा से जोड़ रहे हैं, बल्कि नई-नई तकनीक के जरिए उनकी मुश्किलों को आसान भी कर रहे हैं। इस समस्याग्रस्त इलाके की कई समस्याओं को तोड़ निकालने के लिए उन्होंने कई तरह के ऐप्प बनाए हैं, जिससे न केवल उनकी परेशानियां कम हुई हैं, बल्कि उनमें पहले के मुकाबले आत्मविश्वास भी बढ़ा है।

धारावी पर डाक्यूमेंट्री

धारावी से नवनीत के रिश्ते की शुरुआत फिल्म निर्माता होने के कारण धारावी पर डाक्यूमेंट्री बनाने के फैसले के साथ हुई। इसीलिए जब वे यहां आए तो उनको यहां के लोगों की समस्याओं को काफी करीब से जानने का मौका मिला। इसके बाद वे हर साल तीन महीने के लिए यहां आते और अलगअलग एनजीओ की मदद से यहां रहने वाले लोगों की समस्याओं को दूर करने की कोशिश करते। उनकी ये कोशिश ज्यादा रंग नहीं ला पा रही थी,

उन्होंने बच्चों को मोबाइल ऐप्प बनाना सिखाने का फैसला किया, जिससे कि वे आगे चलकर ऐप्प डेवलपर बन कर रोजगार हासिल कर सकें। इसके लिए उन्होंने अपने सेंटर में कंप्यूटर लगवाए। इस तरह बहुत जल्द उनकी मेहनत रंग लाई और बच्चे ऐप्प बनाना सीख गए। नवनीत ने बच्चों को ऐसे ऐप्प बनाने सिखाए, जो स्थानीय समस्याओं से जुड़े थे। जैसे धारावी में पानी और बिजली की बहुत समस्या है। यहां पर पानी आने का कोई तय वक्त नहीं है और पानी भरने का काम केवल लड़कियां ही करती हैं। इस कारण लड़कियों का काफी वक्त लाइन में खड़े होने के कारण खराब हो जाता था। उन्हें लगा कि मोबाइल ऐप्प के जरिए इस दिशा में जरूरी पहल की जा सकती है। अपने इस अनुभव को लेकर वे बताते हैं, ‘बच्चों को मोबाइल का सही इस्तेमाल कैसे किया जाए, यह सिखाने के लिए मैंने उन्हें कोडिंग सीखाई। साथ ही इंटरनेट की खूबियों के बारे में बताया कि कैसे उसका सही इस्तेमाल कर वो ज्यादा से ज्यादा जानकारियां जुटा सकते हैं और उन जानकारियों का इस्तेमाल अपने जीवन में कर सकत हैं।’

बच्चों को सेंटर में पढ़ाने के अलावा नवनीत कई सरकारी स्कूलों में जाकर कई तरह के कैंपेन चलाते हैं। इस साल से उन्होंने बच्चों के लिए एक कैंपेन ‘थ्री सी ऑफ होप’ शुरू किया है। इसमें जो वो बच्चों को अपने सेंटर में पढ़ाते हैं। ये कैंपेन अपने नाम के मुताबिक क्लासरूम कम्यूनिटी और सिटीजनशिप के लिए काम करते हैं। इसमें बच्चों को बताया जाता है कि उनकी पढ़ाई को लेकर उनके पास क्या अधिकार हैं? आरटीआई डालकर कैसे वो अपने अधिकारों के बारे में जानकारी पा सकते है और सरकार ने उनके विकास के लिए कौन सी स्कीमें निकाली हुई हैं। साथ ही किस प्रकार वो इन सब सुविधाओं का फायदा उठा सकते हैं। ये सब काम करने के लिए बच्चों को एप्लीकेशन लिखना, फार्म भरना और आरटीआई डालना जैसे कई काम सिखाए जाते हैं। बीते 4 सालों में धारावी डायरी की कोशिशों से बच्चों में बहुत आत्मविश्वास आया है। नवनीत के मुताबिक बच्चों को अब यह फर्क नहीं पड़ता हैं कि उन्होंने किस परिवार और समुदाय में जन्म लिया है। बल्कि उनका मानना है कि हम क्या सीखते हैं और कैसे उस सीख का इस्तेमाल अपने जीवन में करते हैं, यह ज्यादा अहम है। कोई भी इंसान कुछ भी सीख सकता है, बस जरूरत है उसे साधन और एक मार्गदर्शक की।

धारावी डायरी के सेंटर में आने वाले बच्चों ने पानी, बिजली, घरेलू हिंसा, महिलाओं की सुरक्षा और दूसरी समस्याओं को लेकर कई ऐप्प बनाए हैं। पानी से जुड़े ऐप्प को धारावी में रहने वाले करीब 2 सौ लोग डाउनलोड कर चुके हैं। इस ऐप्प के जरिए पता चल जाता है कि इलाके में कितने बजे पानी आएगा और किसका लाइन में कौन सा नंबर होगा।

मुंबई के अलावा इस समय धारावी डायरी का पुणे में भी सेंटर चल रहा है, जहां पर करीब 150 बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं। जबकि बेंगलुरु और हैदराबाद में उन्होंने वर्कशॉप का आयोजन किया है। धारावी डायरी की योजना अब दूसरे शहरों और गांवों में काम करने की है। इसके लिए उन्होंने ‘ज्ञानदोय फाउंडेशन’ के साथ पार्टनरशिप की है।

धारावी डायरी द्वारा चलाए जा रहे सेंटर में कंप्यूटर तकनीक सीखतीं बालिकाएं

इसीलिए उन्होंने 2014 में अमेरिका छोड़ धारावी में ही काम करने का फैसला किया। उनका मकसद यहां के लोगों की मदद करना नहीं था, बल्कि उनको शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाना था, जिससे वे अपनी जिंदगी खुशहाल और बेहतर तरीके से जी सकें।

पढ़ाई-लिखाई की फिक्र

आज धारावी में स्कूल जाने वाले काफी बच्चे ऐसे हैं, जो अपनी पीढ़ी के पहले बच्चे हैं, जो स्कूल जा रहे हैं। स्कूल जाकर भी उनको ये पता नहीं होता है कि वे क्या पढ़ रहे हैं और क्यों पढ़ रहे हैं। उनका मकसद सिर्फ परीक्षा पास करना होता है। उनके जीवन का लक्ष्य क्या है, ये वे बच्चे नहीं जानते। वहीं दूसरी ओर धारावी में लड़कियों के साथ हर स्तर पर भेदभाव किया जाता है। यह भेदभाव पढ़ाई के साथ दूसरे क्षेत्रों में भी देखने को मिलती है। ये सब देखते हुए नवनीत ने 15 लड़कियों के साथ ‘धारावी डायरी’ नाम से एक सेंटर की शुरूआत की। धीरे-धीरे उन्होंने लड़कों की पढ़ाई पर भी ध्यान देना शुरू किया। आज इस सेंटर में करीब 2 सौ लड़के-लड़कियां पढ़ने के लिए आते हैं।

ऐप्प डेवलपर बने बच्चे

सेंटर में बच्चों को स्कूली पाठ्यक्रम कहानियों की मदद से पढ़ाया जाता है। सेंटर में विज्ञान और गणित के अलावा दूसरे विषयों की भी पढ़ाई होती है। धीरेधीरे नवनीत रंजन ने शिक्षा का दायरा बढ़ाते हुए बच्चों को आधुनिक तकनीक से जोड़ने की कोशिश की। उन्होंने देखा कि यहां के हर घर में स्मार्टफोन है और बच्चे उसे चलाने में काफी तेज हैं। इसीलिए

विभिन्न समस्याओं को लेकर ऐप्प

पुणे में भी सेंटर


16 खुला मंच

02 - 08 अप्रैल 2018

मनुष्य के दुखी होने की वजह उसकी खुद की गलतियां ही हैं। जो मनुष्य अपनी गलतियों पर काबू पा सकता है, वही सच्चे सुख की प्राप्ति भी कर सकता है

अभिमत

नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री

अन्नदाता और राष्ट्रपिता

- भगवान महावीर

आज किसानों की मेहनत को तकनीक का साथ मिल रहा है, जिससे कृषि-उत्पादक को काफी बल मिला है

बदलाव की ‘प्रधान’ प्रेरणा

प्रेरक आह्वान और अनुकरणीय आचरण के बूते प्रधानमंत्री को देश में सामाजिक बदलाव के कई अभियान एक साथ शुरू करने में कामयाबी मिली है

म लोग प्रिवेंटिव हेल्थ-केयर के लिए जितना जागरूक होंगे, उतना व्यक्ति को, परिवार को और समाज को भी लाभ होगा।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम के 42वें एपिसोड में देश के युवाओं से इसी प्रेरक अपील के साथ ‘फिट इंडिया मूवमेंट’ में शामिल होने का आग्रह किया। उन्होंने युवाओं से योग को लोकप्रिय बनाने के लिए दिलचस्प तरीके इस्तेमाल करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि 21 जून को योग दिवस मनाया जाएगा, इसीलिए योग की तरफ लोगों की रुचि बढ़ाने के लिए अब काम शुरू कर देना चाहिए। दरअसल, प्रधानमंत्री हमेशा ही नए प्रयोग करते रहते हैं। इस बार भी उन्होंने ‘फिट इंडिया मूवमेंट’ के लिए ट्विटर पर एक 3डी वीडियो शेयर किया है। इस वीडियो में नीली टी-शर्ट पहने पीएम मोदी त्रिकोणासन करते दिख रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि उनके इस तरह प्रयासों से देश में सामाजिक बदलाव के कई अभियान न सिर्फ एक साथ शुरू हुए हैं, बल्कि उनके अभूतपूर्व नतीजे भी सामने आने लगे हैं। 2 अक्टूबर, 2014 को उन्होंने जब खुद हाथ में झाड़ू थाम कर निकले तो उनके साथ पूरा देश जुड़ गया। स्वच्छ भारत अभियान को साकार करने के लिए एक से बढ़कर एक हस्तियों का साथ मिला और ये अभियान जन आंदोलन बन गया है। पिछले लगभग 4 सालों में सैनिटेशन कवरेज दोगुना होकर करीब-करीब 80 प्रतिशत हो चुका है। स्वच्छ भारत मिशन के तहत 2 अक्टूबर 2014 से अब तक (14 फरवरी, 2018) 6 करोड़ 20 लाख शौचालय बन चुके हैं। 314 जिले, 1 लाख 41 हजार पंचायत, तीन लाख 21 हजार गांव खुले में शौच से मुक्त हो चुके हैं। ऐसा ही एक और अहम अभियान है ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 3.73 करोड़ महिलाएं कम हैं। लिंगानुपात के इसी अंतर में संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री ने 22 जनवरी, 2015 को ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत की। शुरुआत में इस अभियान को देश के 100 जिलों में टारगेट किया गया, लेकिन इसका असर पूरे देश में दिखने लगा है।

टॉवर

(उत्तर प्रदेश)

ने वाले कुछ महीने किसान भाइयों और बहनों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इसी कारण ढ़ेर सारे पत्र कृषि को लेकर के आए हैं। इस बार मैंने दूरदर्शन के किसान चैनल पर जो किसानों के साथ चर्चाएं होती हैं, उनके विडियो भी मंगवा कर देखे और मुझे लगता है कि हर किसान को दूरदर्शन के इस चैनल से जुड़ना चाहिए। उन्हें देखना चाहिए और दिखाए गए प्रयोगों को अपने खेत में लागू करना चाहिए। महात्मा गांधी हों, शास्त्री जी हों, लोहिया जी हों, चौधरी चरण सिंह जी हों, चौधरी देवीलाल जी हों- सभी ने कृषि और किसान को देश की अर्थव्यवस्था और आम जन-जीवन का एक अहम अंग माना। मिट्टी, खेत-खलिहान और किसान से महात्मा गांधी को कितना लगाव था, ये भाव उनकी इस पंक्ति में झलकता है, जब उन्होंने कहा था- ‘धरती को खोदना और मिट्टी का ख्याल रखना अगर हम भूल जाते हैं, तो ये स्वयं को भूलने जैसा है।’ इसी तरह, लाल बहादुर शास्त्री जी पेड़-पौधे और वनस्पति के संरक्षण और बेहतर कृषि-ढांचे की आवश्यकता पर अक्सर जोर दिया करते थे। डॉ० राम मनोहर लोहिया ने तो हमारे किसानों के लिए बेहतर आय, बेहतर सिंचाई-सुविधाएं, खाद्य एवं दूध उत्पादन को बढ़ाने और उन सब को सुनिश्चित करने के लिए बड़े पैमाने पर जन-जागृति की बात कही थी। 1979 में अपने भाषण में चौधरी चरण सिंह जी ने किसानों से नई तकनीक का उपयोग करने, नए आविष्कार करने का आग्रह किया, इनकी आवश्यकता पर बल दिया।

मैं पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित कृषि-उन्नति-मेले में गया था। वहां किसान भाई-बहनों और वैज्ञानिकों के साथ बातचीत, कृषि से जुड़े अनेक अनुभवों को जानना- समझना, कृषि से जुड़े आविष्कारों के बारे में जानना, ये सब मेरे लिए सुखद अनुभव तो था ही, लेकिन जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह था मेघालय और वहां के किसानों की मेहनत। कम क्षेत्रफल वाले इस राज्य ने बड़ा काम करके दिखाया है। मेघालय के हमारे किसानों ने वर्ष 2015-16 के दौरान पिछले पांच साल की तुलना में रिकॉर्ड पैदावार की है। उन्होंने दिखाया है कि जब लक्ष्य निर्धारित हो, हौसला बुलंद हो और मन में संकल्प हो तो उसे सिद्ध किया जा सकता है। आज किसानों की मेहनत को तकनीक का साथ मिल रहा है, जिससे कृषि-उत्पादन को काफी बल मिला है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य

मेरे पास जो पत्र आए हैं, उसमें मैं देख रहा था कि बहुत सारे किसानों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बारे में लिखा है और वो चाहते हैं कि मैं इस पर उनके साथ विस्तार से बात करूं। इस साल के बजट में किसानों को फसलों की उचित कीमत दिलाने के लिए एक बड़ा निर्णय लिया गया है। यह तय किया गया है कि अधिसूचित फसलों के लिए एमएसपी, उनकी लागत का कम-से-कम डेढ़ गुणा घोषित किया जाएगा। अगर मैं विस्तार से बताऊं तो एमएसपी के लिए जो लागत जोड़ी जाएगी उसमें दूसरे श्रमिक, जो मेहनत और परिश्रम करते हैं- उनका मेहनताना, अपने मवेशी, मशीन

इस वर्ष महात्मा गांधी की 150वीं जयंती-वर्ष के महोत्सव की शुरुआत होगी। ...हम सबको मिलकर बापू को एक यादगार श्रद्धांजलि देनी है और बापू को स्मरण करके उनसे प्रेरणा लेकर के हमारे देश को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाना है


02 - 08 अप्रैल 2018 या किराए पर लिए गए मवेशी या मशीन का खर्च, बीज का मूल्य, उपयोग की गई हर तरह की खाद का मूल्य, सिंचाई का खर्च, राज्य सरकार को दिया गया दिया गया ब्याज, अगर जमीन पट्टे पर ली है तो उसका किराया और इतना ही नहीं, किसान जो खुद मेहनत करता है या उसके परिवार में से कोई कृषि -कार्य में श्रम योगदान करता है, उसका मूल्य भी उत्पादन लागत में जोड़ा जाएगा। इसके अलावा किसानों को फसल की उचित कीमत मिले इसके लिए देश में एग्रीकल्चर मार्केट रिफॉर्म पर भी बहुत व्यापक स्तर पर काम हो रहा है। गांव की स्थानीय मंडियां, थोक बाजार और फिर ग्लोबल मार्केट से जुड़ें, इसको लेकर प्रयास हो रहा है। किसानों को अपनी उपज बेचने के लिए बहुत दूर नहीं जाना पड़े, इसके लिए देश के 22 हजार ग्रामीण हाटों को जरूरी इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ अपग्रेड करते हुए ई-नैम प्लेटफॉर्म के साथ जोड़ा जाएगा।

गांधी जी की 150वीं जयंती

इस वर्ष महात्मा गांधी की 150वीं जयंती-वर्ष के महोत्सव की शुरुआत होगी। यह एक ऐतिहासिक अवसर है। देश कैसे यह उत्सव मनाए? स्वच्छ भारत तो हमारा संकल्प है ही, इसके अलावा सवासौ करोड़ देशवासी कंधे-से-कंधा मिलाकर कैसे गांधी जी को उत्तम-से-उत्तम श्रद्धांजलि दे सकते हैं? क्या नए-नए कार्यक्रम किए जा सकते हैं? क्या नए-नए तौर-तरीके अपनाए जा सकते हैं? आप सबसे मेरा आग्रह है, आप इन पर अपने विचार सबके साथ शोयर करें । ‘गांधी 150’ का लोगो क्या हो? स्लोगन या मंत्र या घोष-वाक्य क्या हो? इस बारे में आप अपने सुझाव दें। हम सबको मिलकर बापू को एक यादगार श्रद्धांजलि देनी है और बापू को स्मरण करके उनसे प्रेरणा लेकर के हमारे देश को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाना है। अगले कुछ दिनों में कई त्योहार आने वाले हैं। भगवान महावीर जयंती, हनुमान जयंती, ईस्टर, बैसाखी। भगवान महावीर की जयंती का दिन, उनके त्याग और तपस्या को याद करने का दिन है। अहिंसा के संदेशवाहक भगवान महावीर जी का जीवन-दर्शन हम सभी के लिए प्रेरणा देगी। समस्त देशवासियों को महावीर जयंती की शुभकामनाएं। ईस्टर की चर्चा आते ही प्रभु ईसा मसीह के प्रेरणादायक उपदेश याद आते हैं, जिन्होंने सदा ही मानवता को शांति, सद्भाव, न्याय, दया और करुणा का संदेश दिया है। अप्रैल में पंजाब और पश्चिम भारत में वैसाखी का उत्सव मनाया जाएगा, तो उन्हीं दिनों, बिहार में जूरशीतल एवं सतुआईन, असम में बिहू तो पश्चिम बंगाल में पोइला वैसाख का हर्ष और उल्लास छाया रहेगा। ये सारे पर्व किसी-न-किसी रूप में हमारे खेतखलिहानों और अन्नदाताओं से जुड़े हुए हैं। इन त्योहारों के माध्यम से हम उपज के रूप में मिलने वाले अनमोल उपहारों के लिए प्रकृति का धन्यवाद करते हैं। एक बार फिर आप सब को आने वाले सभी त्योहारों की ढ़ेरों शुभकामनाएं। (25 मार्च, 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ के तहत दिए गए संबोधन का संपादित अंश)

एलीसन एगन डाटवानी

ल​ीक से परे

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प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु और मोटिवेटर

कम समय में पूरा ध्यान

खुद का खयाल रखने के लिए शांति से पांच मिनट बठै ना अपने दांतों में ब्रश करने के समान है

ध्या

न समय प्रबंधन में हमारी मदद कर सकता है। भले ही पहली बार इस बात पर विश्वास करना कठिन है, लेकिन आप ध्यान की मदद से अपने दिन के हर मिनट का हिसाब रखने में सक्षम हो सकते हैं। इसके लिए पूरे दिन में से केवल शांति के पांच मिनट चाहिए। ऐसा करने पर ‘मेरे पास समय नहीं है’ की आपकी सोच ‘मैं प्यार और समय का असीमित स्रोत हूं’ में बदल जाएगी। जब आप सुबह बिस्तर से उठते हैं, तैयार होते हैं, बच्चों को खाना खिलाते हैं, कुत्ते को बाहर घुमाने ले जाते हैं और पूरे दिन ऐसी कई जिम्मेदारियां निभाते हैं, तो ऐसे में शांति और केंद्रिता की अवस्था को पाना असंभव लगता है। लेकिन खुद का खयाल रखने के लिए शांति से पांच मिनट बैठना अपने दांतों में ब्रश करने के समान है। यह छोटा सा काम भी आप दिन में कम से कम दो बार करते हैं। मैंने दादाजी को कहते सुना है, ‘तुम अपने बालों में शैंपू करते हो। फिर अपने मन को साफ रखने के लिए तुम रोज ध्यान से इसकी शैंपू क्यों नहीं करते?’ क्या आपको आज की कॉफी के लिए अपने दोस्त से मिलने में रुचि होती है, अपने सहयोगी को समय पर मेल करते हैं, दिन खत्म होने से पहले परिवार के किसी छोटे सदस्य के साथ गेंदों से खेलते हैं? फिर आपको शांति से पांच मिनट बैठने के लिए भी एक जगह तलाशनी चाहिए। यह जरूरी नहीं कि वह जगह शांतिपूर्ण हो। वास्तविकता तो यह है कि मन की शांति के अभ्यास के लिए कभी-कभी शोर भी सहयोगी होता है। इसीलिए अपने फोन पर पांच मिनट का टाईमर सेट कर बैठ जाएं और इस ध्यान के अभ्यास की शुरुआत करें। दोनों पैरों को क्रॉस करते

पररवारों की खुशी उनकी ही जुबानी

पुसतक अंश

सवच्छता

ट्ंप गांव

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खुला मंच

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भयूख से जयूझते कांगो में सवच्छता की रुनौती

मलहला तरककी का ‘फाउंडेशन’

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न्यूजमेकर

नरेंद्र मोदी की रैलल्ां

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harat.com

sulabhswachhb

मार्ष - 01 अप्रैल 2018

के हरर्ाणा के मरोडा गांव नी हा ‘ट्ंप लवलेज’ बनने की क वर्ष-2 | अंक-15 | 26

/2016/71597 आरएनआई नंबर-DELHIN

्छोटे से गांव मरोडा की, के मेवात लजले में ससथित प ्ह कहानी है हरर्ाणा ररकी राष्ट्रपलत डोनालड ट्ं प लवलेज’ बनने की, अमे सवच्छता के ललए उसके ‘ट्ं ही सवच्छ बनाने की। कहानी व को अमेररका की तरह के नाम पर रखे गए इस गां ा को अपना मुकाम बना्ा ा की बेलड्ां तोड सवच्छत उस गांव की लजसने अलशक्

हुए आराम से फर्श पर बैठ जाएं और अपने दोनों हाथों को अपनी जांघों पर रख लें। अपनी केहुनी को मोड़ें और उसे अपने कमर के करीब लेकर आएं। अपनी आंखों को बंद कर लें या उसे खुला भी रख सकते हैं। फिर सामने की फर्श को 6 फीट से लेकर 10 फीट तक की दूरी तक टकटकी लगाकर देखें। अपनी ठोड़ी को फर्श के समानांतर रखें। अपने दोनों जबड़ों के बीच दूरी बनाएं और अपने पेट को नरम रखें। अपने आसपास की आवाजों पर ध्यान दें। अगर आप घर के भीतर हैं, तो भी आप प्रकृति को सुन सकते हैं। संभव है कि आपको चिड़िया के गाने की आवाज सुनाई दे या हवा के झोकों से टहनियों या पत्तों के सरसराने की। अगर आप प्रकृति की इस आवाज को नहीं सुन पा रहे हैं तो आप अपने पैरों और कूल्हों के माध्यम से पृथ्वी की लय को महसूस कर सकते हैं। अगर आपके आसपास कोई टेलीविजन देख रहा हो तो उसकी आवाज से दूर जाने के बजाय उसे भी ध्यान से सुनें। अब धीरे-धीरे सारी चीजों पर से अपना ध्यान हटाएं और अपनी श्वसन प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करें। हर सांस के बाद अपने दिमाग में आने वाली विचारों पर ध्यान दें। महसूस करें कि

आकर्षक पृष्ठ सज्जा

सुलभ स्वच्छ भारत में स्वच्छता के साथ ही साथ सरकार और समाज से जुड़े विभिन्न पहलुओं को भी उजागर किया जाता है। इसके साथ ही यह समाचार पत्र सरकार की योजनाओं और तथ्यों को हम सबके सामने लाने का कार्य कर रहा है। सुलभ स्वच्छ भारत की डिजाइन और पृष्ठों की साज-सज्जा काफी उम्दा है। हर बार हमें समाचार पत्र की सज्जा काफी आकर्षित करती है। विभिन्न पहलुओं के साथ साथ हमें अच्छे ग्राफिक्स और साज-सज्जा से रुबरु कराने के लिए हम आपके बहुत आभारी हैं। पंडित रामधुन चित्रकूट, उत्तर प्रदेश

किस तरह आपकी सांसे चल रही है। अपनी सांस के सामान्य होने तक इस प्रक्रिया को जारी रखें। जब आप अपनी सोच और एहसास के बीच और अधिक जगह बना लेंगे, तब आप खुद की असीमिता से खुद को जोड़ लेंगे। यह आपके मन का वह हिस्सा होगा जो शक्तिशाली और शांत होगा। यह आपके अस्तित्व की उच्च अवस्था होगी जो असीमित क्षमताएं लिए होगी। आप इस अवस्था में बैठने का आनंद उठाने लगेंगे और मन के उच्चता से जुड़े इस अदभुत संबंध को बनाए रखना चाहेंगे। अच्छी खबर यह है कि आप अपनी सांसों के लहरों पर अपने मन को तैरने की अनुमति देकर इस अवस्था से जुड़े रह सकते हैं। शीघ्र ही आपके फोन का अलार्म बज उठेगा। लेकिन अगली बार आप इस ध्यान को और लंबे समय तक करना चाहेंगे। उठने से पहले तीन बार गहरी सांस लें और सांस छोड़ते समय धरती को आधार के रूप में महसूस करें। रोजाना पांच मिनट का ध्यान कर आप अपने दिमाग को थोड़ा धीमा करने का अभ्यास करते हैं तो ऐसा करने से आपकी इंद्रियां मजबूत होती हैं। गुस्सैल और तीव्रतापन के बजाय आपकी तंत्रिका तंत्र शांति के साथ चीजों पर विचार करने लगती है। आप दयालु, होशियार और बुद्धिजीवी इंसान बन जाते हैं, जो स्वयं के साथ और प्रकृति के साथ आसानी से खुद को जोड़ लेता है। मन की शांति आपके विवेक, इरादों और विचारों को स्पष्टता देती है और अपनी जरूरत और दूसरों की जरूरत के बीच संतुलन बनाए रखने में सहयोग करती है। लगातार ध्यान करने पर आपकी चेतना में एक संतुष्टिदायी वृद्धि होगी जो आपको अगली बार आपको और अधिक प्रतिबद्धता के साथ बैठने के लिए प्रेरित करेगी।

गुणवत्ता पूर्ण खबरें

सरकार में हो रहे बदलावों और बढ़ती महिलाओं की शक्ति को प्रमुखता से उजागर करने और हम लोगों तक पहुंचाने के में सुलभ स्वच्छ भारत हमेशा से अग्रणी रहा है। इसके साथ ही इसमें वृंदावन की विधवा माताओं से देश का परिचय भी कराया जा रहा है, जो बहुत ही सराहनीय कार्य है। सुलभ स्वच्छ भारत हमेशा से गुणवत्ता वाली खबरें प्रकाशित कर हमें देश-विदेश में हो रहे विभिन्न पहलुओं से अवगत कराता रहा है। हम आशा करते हैं कि आगे भी आप हमें देश और समाज में हो रहे विभिन्न सकारात्मक बदलावों से रुबरु कराते रहेंगे। स्वामी दंडक देव देवघर, झारखंड


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फोटो फीचर

02 - 08 अप्रैल 2018

भारत और जर्मनी एक साथ

जर्मनी के राष्ट्रपति फ्रैंक-वाल्टर स्टीनमीयर का भारत दौरा इस मायने में ऐतिहासिक रहा कि इससे जहां एक तरफ पश्चिम की शक्ति ने भारतीय सामर्थ्य को स्वीकारा, वहीं एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुशल नेतृत्व का भी अनुमोदन हुआ

फोटो : शिप्रा दास


02 - 08 अप्रैल 2018

जर्मनी के राष्ट्रपति फ्रैंक-वाल्टर स्टीनमीयर के इस दौरे के मौके पर सिर्फ हाथ मिलाने जैसे औपचारिक मौके ही नहीं आए, बल्कि दोनों देशों के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक साझे को मजबूत करने वाले कई सार्थक प्रयास भी हुए। इस गरिमामय अवसर पर जर्मनी के राष्ट्रपति स्टीनमीयर और उनकी पत्नी के साथ राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, उनकी पत्नी सविता कोविंद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विशेष तौर पर मौजूद रहे

फोटो फीचर

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पुस्तक अंश

02 - 08 अप्रैल 2018

शपथ-ग्रहण समारोह

एक गर्म और धूमिल शाम, जब तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच रहा था, लेकिन बारिश का कोई भी पूर्वानुमान नहीं था। 4,000 से ज्यादा मेहमानों ने मोदी और उनके मंत्रियों को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के समक्ष भारत के संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हुए देखा। (द गार्जियन)

भारत के 15 वें प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी को शपथ दिलाते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी

26 मई, 2014, नई दिल्ली: नरेंद्र मोदी और उनके मंत्रिमंडल के शपथ-ग्रहण समारोह के दौरान राष्ट्रपति भवन के प्रांगण का विहंगम दृश्य


02 - 08 अप्रैल 2018

शपथ-ग्रहण समारोह में नरेंद्र मोदी और उनकी कैबिनेट के सदस्य

4000 मेहमानों के सामने शपथ-ग्रहण समारोह

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सार्क देशों के प्रमुखों के साथ

पुस्तक अंश

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पुस्तक अंश

02 - 08 अप्रैल 2018

इतिहास के सबसे प्रेरणादायक प्रधानमंत्री

20 मई, 2014, नई दिल्ली: लोकतंत्र के लिए सम्मान का विनम्र भाव प्रकट करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी - संसद भवन में पहला कदम

प्र

धानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यालय के पहले कुछ महीने, समावेशी विकास के उनके दृष्टिकोण की योजना बनाने में बीते। उन्होंने एक "टीम इंडिया" की भावना पैदा की जिसने राज्यों की व्यवस्था और लोगों को उनके साथ कर दिया। उन्होंने शीर्ष नौकरशाहों के साथ व्यापक संवादात्मक सत्र आयोजित किए। उन्होंने अधिकारियों को अधिकार दिया, लेकिन साथ ही उनके लिए जिम्मेदारी के मानकों को भी निर्धारित किया। उन्होंने 125 करोड़ भारतीयों की आशाओं, सपनों और आकांक्षाओं को विकसित करने और देश के हो रहे विकास में भागीदार बनने के लिए लोगों आह्वान किया।

नौकरशाही को प्रेरित करते हुए, उन्होंने वक्त पर काम पूरा करने के लिए सख्त संदेश भी दिए। अब कार्यालय ठीक 9 बजे से काम शुरू कर देते हैं। कार्य-संस्कृति में प्रत्यक्ष सुधार है। मोदी सरकार ने आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया कि सरकार द्वारा 11,000 फाइलों को नष्ट किया जा रहा है और बताया कि डिजिटलीकरण के बाद अधिक अप्रासंगिक फाइलों को भी नष्ट कर दिया जाएगा। सरकार ने 32 अप्रासंगिक अधिनियमों को निरस्त करने के लिए संसद में एक बिल भी पेश किया है। साथ ही अतिनियमन से बचने के लिए 287 कानूनों

को भी समाप्त करने की तैयारी है। प्रधानमंत्री के रूप में, 15 अगस्त, 2014 को पहली बार नरेंद्र मोदी ने लाल किले से राष्ट्रीय ध्वज - तिरंगा फहराया। इस अवसर पर, उन्होंने अपनी सरकार की राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और पहलों को एक शानदार भाषण के रूप में लोगों के सामने रखा। प्रधानमंत्री मोदी के 2014 में स्वतंत्रता दिवस पर दिए गए भाषण के अंश: “आजादी के पवित्र त्योहार के इस दिन, भारत का प्रधानसेवक अपने सभी प्रिय देशवासियों को बधाई देता है। आज, मैं उन सभी लोगों को सम्मान,

अभिवादन और श्रद्धांजलि देता हूं, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया। आजादी का दिन एक ऐसा त्योहार है, जब हम भारत मां के कल्याण के लिए काम करने की एक गंभीर शपथ लेते हैं और साथ ही वादा करते हैं कि हम गरीबों, वंचितों, दलितों, शोषितों और हमारे देश के सबसे पिछड़े लोगों के कल्याण के लिए काम करेंगे। यह राष्ट्रीय उत्सव हमें खुद को राष्ट्र को समर्पित करने के लिए प्रेरित करता है, साथ ही इस बात के लिए भी प्ररित करता है कि हमारी हर गतिविधि देश के हित से जुड़ी होनी चाहिए। राष्ट्र का निर्माण न तो राजनीतिक नेताओं और शासकों द्वारा हुआ है और न ही सरकारों द्वारा। राष्ट्र का निर्माण हमारे किसानों, श्रमिकों, मां और बहनों और हमारे युवाओं द्वारा किया गया है। संसद हमारे मजबूत इरादों का प्रतिबिंब है, हम बहुमत के आधार पर आगे बढ़ने के लिए संकल्पित नहीं हैं, बल्कि हम एक मजबूत आम सहमति के आधार पर आगे बढ़ना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि दर्जनों अलग-अलग सरकारें उसी समय एक मुख्य सरकार में चल रही हैं। ऐसा प्रतीत हुआ कि हर किसी के पास अपनी जागीर है और मैं उनके बीच विवाद और संघर्ष को साफ तौर पर देख सकता हूं। इन दीवारों को ढहाने की जरूरत है, सरकार को एक इकाई के रूप में चलाने के बजाय उसे एक सुसंगत रूप से चलाने के प्रयास किए जा रहे हैं, देश को एक मंजिल की ओर ले जाने के लिए एक उद्देश्य, एक सोच, एक दिशा, एक ऊर्जा के साथ प्रयास किए जा रहे हैं। सब कुछ सिर्फ स्वार्थ के लिए नहीं होता है, कुछ चीजें ऐसी हैं जो देश के लिए होती हैं। हमें इस राष्ट्रीय चरित्र को फिर से परिभाषित करना होगा। माता-पिता अपनी बेटियों से सैकड़ों प्रश्न पूछते हैं, लेकिन किसी भी माता-पिता को अपने


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पुस्तक अंश

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नई दिल्लीः संसद के केंद्रीय हाल में भाजपा संसदीय दल की बैठक को संबोधित करते हुए नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

मैं स्वभाव से एक आशावादी व्यक्ति हूं ... केवल एक आशावादी व्यक्ति ही देश में उम्मीदें जगा सकता है और उसे पूरा कर सकता है। ... हमें निराशा को पीछे छोड़ना होगा। कौन कहता है कि इस तरह का एक जागरूक लोकतांत्रिक देश, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भी है, आगे नहीं बढ़ सकता है? यदि 125 करोड़ देशवासी एक कदम आगे बढ़ाने का संकल्प लेते हैं, तो पूरा देश 125 करोड़ कदम आगे जाएगा। लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ सरकार का चुनाव करने तक ही सीमित नहीं है, इसका अर्थ यह भी है कि 125 करोड़ नागरिक एक साथ मिलकर, देश की उम्मीदों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सरकार के साथ कंधा मिलाकर काम करते हैं। नरेंद्र मोदी बेटे से यह पूछने की हिम्मत नहीं है कि वह कहां जा रहा हैं, क्यों जा रहा है और उसके दोस्त कौन हैं? आखिरकार, एक बलात्कारी भी किसी का बेटा है। उसके भी माता-पिता हैं। जो लोग अपने कंधे पर बंदूक उठाते हैं

और निर्दोष लोगों को मारते हैं, वे माओवादी और आतंकवादी हैं, लेकिन वे भी किसी के बच्चे हैं। उनके माता-पिता को उनसे पूछना चाहिए कि वे गलत रास्ते पर क्यों गए? हर माता-पिता को यह जिम्मेदारी लेनी चाहिए।

हम यहां लोकतंत्र के मंदिर में हैं। हम पूरी पवित्रता के साथ काम करेंगे ... पद के लिए नहीं, बल्कि देश के लोगों के लिए। कार्य और जिम्मेदारी सबसे बड़ी चीजें हैं। मैं उस जिम्मेदारी को स्वीकार करता हूं जो आपने मुझे दी है ... मैं सभी स्वतंत्रता सेनानियों को सलाम करता हूं, साथ ही हमारे देश के संविधान के निर्माताओं को भी सलाम करता हूं, क्योंकि उनकी वजह से ही, पूरा विश्व हमारे लोकतंत्र की शक्ति का साक्षी है। ... नागरिकों ने महसूस किया है कि यह लोकतांत्रिक व्यवस्था उनकी आकांक्षाओं को पूरा कर सकती है। लोकतंत्र में उनका विश्वास और बढ़ गया है। ... आम आदमी में एक नई उम्मीद का संचार हुआ है। सांप्रदायिक तनाव सदियों से रहा है। इसी ने देश के विभाजन के लिए प्रेरित किया। जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद और सामाजिक और आर्थिक आधार पर भेदभाव का जहर, ये सब हमारे रास्ते में आगे बढ़ने में बाधक हैं। ये दीवारें किसी को लाभ नहीं पहुंचाएंगी। प्रति हजार लड़कों पर 940 लड़कियां पैदा होती हैं। समाज में यह असंतुलन भगवान के कारण नहीं है। डॉक्टरों को सिर्फ अपनी जेबें

भरने के लिए मां के गर्भ में पल रही लड़की को नहीं मारना चाहिए। माताओं और बहनों को पुत्र की आशा में बेटियों का त्याग नहीं करना चाहिए। लड़कियां भी भारत की प्रसिद्धि और महिमा में योगदान देती आई हैं। चलो, उनको भी अपने साथ लेकर, कंधे से कंधे मिलाकर आगे बढ़ें। देश में आगे बढ़ने के लिए केवल यही दो रास्ते हैं - सुशासन और विकास, हम केवल इनके साथ ही आगे बढ़ सकते हैं।


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पुस्तक अंश

02 - 08 अप्रैल 2018

हमारे ऋषियों, हमारे संतों, हमारे गुरुओं, हमारे शिक्षकों, हमारे वैज्ञानिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए पीढ़ी दर पीढ़ी कठोर तप की वजह से आज देश यहां पहुंचा है। ये महान लोग हमारे अथाह आदर के योग्य हैं। यदि 125 करोड़ देशवासी एक कदम आगे बढ़ाने का संकल्प लेते हैं, तो पूरा देश 125 करोड़ कदम आगे जाएगा। लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ सरकार का चुनाव करने तक ही सीमित नहीं है, इसका अर्थ यह भी है कि 125 करोड़ नागरिक एक साथ मिलकर, देश की उम्मीदों और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए सरकार के साथ हाथ मिलाकर काम करते हैं। प्रधान मंत्री जन-धन योजना, बैंक खातों की सुविधा के माध्यम से देश के सबसे गरीब नागरिकों को सरकार के साथ जोड़ देगा। हर भारतीय नागरिक को डेबिट कार्ड दिया जाएगा और जिसमें प्रत्येक गरीब परिवार के लिए एक लाख रुपए का बीमा होगा। आज, भारत को एक कुशल कार्यबल की भी जरूरत है। लाखों-करोड़ों भारतीय

युवाओं को अपना कौशल निखारने के लिए आगे आना चाहिए। इसके लिए पूरे देश में एक नेटवर्क होना चाहिए। युवाओं को ऐसा कौशल प्राप्त करना होगा जोकि भारत को एक आधुनिक देश बनाने में योगदान दे सके। विनिर्माण क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए, दुनिया भर के लोगों से अपील की जाती है, "आइए, भारत में बनाइए (मेक इन इंडिया)", "आइए, भारत में निर्माण करिए (मैन्युफैक्चर इन इंडिया)।" दुनिया के किसी भी देश में बेचें, लेकिन निर्माण यहां करें। हमारे पास कौशल, प्रतिभा, अनुशासन और कुछ करने के दृढ़ संकल्प है। विशेष रूप से युवा, हमारे छोटे उद्यमी, उन्हें कम से कम दो मामलों पर कभी समझौता नहीं करना चाहिए। पहला, जीरो डिफेक्ट (शून्य दोष यानी गुणवत्ता से कोई

नई दिल्लीः देश के 68 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर लाल किले से अपने भाषण के बाद स्कूली बच्चों से मिलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समझौता न हो) और दूसरा, जीरो इफेक्ट (शून्य प्रभाव यानी पर्यावरण पर कोई असर न हो)। लाल बहादुर शास्त्री ने हमें "जय जवान, जय किसान" का नारा दिया था। एक सैनिक खुद को सीमा पर बलिदान कर देता है और भारत माता की सुरक्षा करता है। इसी प्रकार, एक किसान, गोदामों को अनाज से

भरकर, भारत माता की सेवा करता है। यह भी राष्ट्र की सेवा है। हमारे अन्नगार को भरना, हमारे किसानों द्वारा की गई सबसे बड़ी राष्ट्रीय सेवा है। हमारे युवा आईटी पेशेवरों ने भारत की एक नई पहचान बनाने का हमें एक नया रास्ता दिया है। अगर हमारे देश में यह ताकत है, तो हमें "डिजिटल इंडिया" के बारे में


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पुस्तक अंश

नई दिल्लीः देश के 68 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले पर गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

आज, मैं उन सभी लोगों को सम्मान, अभिवादन और श्रद्धांजलि देता हूं जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना जीवन न्योछावर किया।

नई दिल्लीः देश के 68 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर राजघाट में महात्मा गांधी की समाधि की परिक्रमा करते हुए प्रधानमंत्री मोदी

सोचना चाहिए। ... "डिजिटल इंडिया" के बाद, हमें आगे बढ़कर इलेक्ट्रॉनिक सामान बनाने की जरूरत है और आत्मनिर्भर होना

है। ई-गवर्नेंस ही है जिसके लिए हमें "डिजिटल इंडिया" के इस विचार को आगे बढ़ाने की जरूरत है, ई-गवर्नेंस आसान

प्रशासन, प्रभावी प्रशासन और आर्थिक प्रशासन भी है। पर्यटन गरीब से गरीब को रोजगार प्रदान करता है, लेकिन गंदगी की वजह से भारत एक पसंदीदा पर्यटन स्थल नहीं है। अगर 125 करोड़ देशवासी यह फैसला कर लें कि वे कभी भी गंदगी नहीं फैलाएंगे, तो पृथ्वी पर कोई भी शक्ति ऐसी नहीं है जो इस देश को गंदा कर सके। 2019 में, जब राष्ट्र महात्मा गांधी की 150 वीं वर्षगांठ मना रहा होगा, तो देश को वैसे ही साफ होना चाहिए जैसा कि उन्होंने सोचा था। ... "स्वच्छ भारत" अभियान 2 अक्टूबर 2014 से शुरू किया जाएगा और चार वर्षों में आगे ले जाया जाएगा। देश के सभी स्कूलों में

लड़कों और लड़कियों के लिए अलग शौचालय प्रदान करके इसकी शुरुआत की जाएगी। योजना आयोग को एक नई संस्था के साथ बदल दिया जाएगा जिसमें एक नया डिजाइन और संरचना, एक नया शरीर, एक नई आत्मा, एक नई सोच, एक नई दिशा और देश की अगुवाई करने के लिए एक नई दिशा में एक नया विश्वास होगा। भारत उपमहाद्वीप में गरीबी से लड़ने के लिए पड़ोसी देशों से सहयोग की मांग करेगा। एक बार फिर, देश के सुरक्षा बलों, देश के अर्द्धसैनिक बलों सहित सभी सुरक्षा बलों के बलिदान और भक्ति पर मुझे गर्व महसूस हो रहा है। सेना सतर्क है, हमें भी सतर्क होना चाहिए। जैसे देश नई ऊंचाइयों को छू रहा है, हमें भी इस संकल्प के साथ आगे बढ़ना होगा।" (अगले अंक में जारी...)


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जल संरक्षण

02 - 08 अप्रैल 2018

लद्दाख का जल संकट नोर्फेल का समाधान

‘हिम पुरुष’ के नाम से विख्यात च्यूवांग नोर्फेल के प्रयासों के कारण जल संकट का सामना करने वाले लद्दाख के खेत आज लहलहा रहे हैं

कुशाग्र दीक्षित

र्षों पहले जाड़े के दिनों में कड़ाके की ठंड के बीच एक सुबह लद्दाख इलाके में सुदूर पर्वतीय गांव में एक छोटा सा बालक बर्फ जमी आधी पाइप से निकल रहे पानी को गौर से निहार रहा था। उसने देखा कि पानी वहां एक गड्ढे में इकट्ठा होते ही जमता जा रहा है। गड्ढा किसी ग्लेशियर व हिमानी सा प्रतीत हो रहा था। बालक च्यूवांग नोर्फेल बड़ा होकर कुछ साल बाद 1986 में जम्मू एवं कश्मीर ग्रामीण विकास विभाग में सिविल इंजीनियर के पद पर तैनात हुआ तब उन्होंने अपने बचपन के प्रेक्षणों से प्रेरणा लेकर लेह में पहला कृत्रिम ग्लेशियर विकसित किया। इससे वहां के निवासियों के पानी का संकट दूर हुआ। इलाके में करीब 80 फीसदी लोग किसान थे और वे जौ व गेहूं उपजाकर अपना गुजारा करते थे। अपने प्रयोग की सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने पूरे लद्दाख में 17 ग्लेशियर यानी हिमानी का निर्माण किया है, जिसके बाद उनको ‘आइस मैन ऑफ इंडिया’ यानी ‘भारत का हिम पुरुष’ की उपाधि दी गई। उनकी इन परियोजनाओं में उनको प्रदेश सरकार द्वारा संचालित विभिन्न कार्यक्रमों के अलावा सेना व विविध राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय एनजीओ से वित्तीय सहायता मिली। प्रेरणा पुरुष नोर्फेल अब 80 साल के हो चुके हैं। उनकी यह यात्रा आसान नहीं थी। शुरू में लोग उन्हें पागल कहा करते थे। लेकिन इससे वे अपने पथ से विमुख नहीं हुए क्योंकि उन्होंने वहां पानी का गंभीर संकट देखा था जिसका समाधान तलाशना लाजिमी था।

खास बातें च्यूवांग नोर्फेल ने लेह में पहला कृत्रिम ग्लेशियर विकसित किया पूरे लद्दाख में उन्होंने 17 ग्लेशियर यानी हिमानी का निर्माण किया 80 वर्ष की उम्र में भी वे जलवायु परिवर्तन को लेकर प्रयोग करते हैं

च्यूवांग नोर्फेल ने कहा, ‘लद्दाख की आबोहवा कुछ अलग है जहां आपको कड़ाके की ठंड की डंक सहनी पड़ सकती है। यहां की करीब 80 फीसदी आबादी किसानों की है और उनकी सबसे बड़ी समस्या है कि अप्रैल-मई के दौरान जब बुआई का समय आता है तो पानी नहीं मिलता है, क्योंकि हिमनद झरने जम जाते हैं और नदियों में बहुत कम पानी आता है।’ प्रशस्तियों व अवार्ड से भरे कमरे में बैठे व लॉन की तरफ देखते हुए नोर्फेल ने कहा कि ताजा पानी का मुख्य स्रोत नदियां हैं, लेकिन ऊंचाई पर पानी का बहाव किसानों के लिए कोई काम नहीं आता है। 2015 में पद्मश्री से अलंकृत नोर्फेल ने बताया कि इसीलिए हमने गांवों के पास हिमनद बनाया। उनकी इन उपलब्धियों के लिए 2011 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) से भी पहचान मिली। लद्दाख में जाड़े में कड़ाके की ठंड पड़ने के कारण इस मौसम में कोई फसल नहीं होती है। इस दौरान जो पानी बहता है वह बर्बाद हो जाता है, जबकि बुआई के मौसम में पानी बहुत कम उपलब्ध होता है, क्योंकि प्राकृतिक हिमनद जो वहां 20-25 किलोमीटर दूर करीब 5000 फुट की ऊंचाई पर हैं, जून में ही पिघलते हैं। उन्होंने कहा, ‘इसीलिए मैंने सोचा कि अगर कम ऊंचाई पर हिमनद हो तो उसमें जमी बर्फ जल्दी पिघलेगी, क्योंकि वहां तापमान अपेक्षाकृत अधिक होता है। इसी से कृत्रिम हिमानी बनाने का विचार आया।’ बर्फ के रूप में जाड़े के पानी को संरक्षित करने की यह एक विधि है और कम ऊंचाई पर कृत्रिम हिमानी बनाने से जरूरत पड़ने पर पानी मिलना संभव था। उन्होंने कहा, ‘अक्टूबर में हिमानी बनाने का काम शुरू होता है। जब गांववासी हिमनद के झरनों का रुख मोड़कर बांध बनाते हैं ताे उससे पानी का वेग कम होता है। हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि गहराई कुछ ही इंचों की हो ताकि पानी आसानी से जम पाए।’ नोर्फेल ने लद्दाख के दुर्गम पर्वतीय इलाके में हिमनद बनाया है इसमें एक स्थान धा भी शामिल है। ब्रोकपा जनजाति का यह गांव अपनी संस्कृति और कारगिल युद्ध में अपने योगदान के लिए पूरे क्षेत्र में चर्चित है। लेकिन उनको सबसे ज्यादा पसंद फुकते घाटी में 1000 फुट चौड़ी ग्लेशियर है, जिससे पांच गांवों को पानी की आपूर्ति होती है। इसके बनाने पर करीब 90,000 रुपए की लागत आई थी।

च्यूवांग नोर्फेल

‘अक्टूबर में हिमानी बनाने का काम शुरू होता है। जब गांववासी हिमनद के झरनों का रुख मोड़कर बांध बनाते हैं तो उससे पानी का वेग कम होता है। हम इस बात का ध्यान रखते हैं कि गहराई कुछ ही इंचों की हो ताकि पानी आसानी से जम पाए’

उन्होंने बताया कि आज कृत्रिम ग्लेशियर की लागत 15 लाख तक आती है जोकि उसके आकार व क्षमता पर निर्भर करता है। नोर्फेल ने बताया कि फुकते गांव में कृत्रिम हिमानी बनाने की उनकी संकल्पना पर किस तरह लोग उपहास करते थे। उन्होंने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि कोई मेरी बातों को गंभीरता से नहीं लेता था, लेकिन आज उन सबको फायदा मिला है। मुझे इन हिमनदों पर गर्व है। दरअसल, मेरी संकल्पनाओं से अनेक लोग लाभान्वित हुए हैं, जिससे मेरे मन को सुकून मिला है। सरकारी सेवा में 34 साल बिताने के बाद 1994 में सेवामुक्त हुए नोर्फेल को बेकार बैठे रहना पसंद नहीं है। जब वह किसी काम के लिए बाहर नहीं जाते हैं तो वह अपनी पत्नी के साथ अपने कमरे में चिंतन-मनन करते हैं या अपने छोटे से बगीचे में जलवायु परिवर्तन को लेकर प्रयोग करते हैं कि कैसे इस बदलाव का उपयोग समाज के हित में किया जा सकता है। वह मैदानी क्षेत्र की भांति पहाड़ पर शलजम, बैगन, शिमला मिर्च और खीरा उगाने के उपक्रम में जुटे रहते हैं। जो उन्हें करीब से जानते हैं उनके लिए वह नायक हैं। नोर्फेल इस उम्र में भी और शक्ति व ऊर्जा की कामना करते हैं। उन्होंने कहा कि पहले मुझ में काफी ऊर्जा थी लेकिन अब लगता है बुढ़ापा असर दिखा रहा है। लेकिन अब मेरी इच्छा है कि युवा इस जिम्मेदारी को संभालें। मेरी कामना है कि वे जलवायु परिवर्तन को व्यावहारिक रूप से समझें।

उनके घर में दुनियाभर से आए छात्रों का जमघट लगा रहता है। वर्तमान में वह कई एनजीओ को ऊंचाई पर बसे चांगतांग जिला और निचले क्षेत्र जहां बेहतर खेती के लिए जमीन, पानी और उचित तापमान में से कम से कम एक चीज की कमी जरूर होती है, समेत संपूर्ण शीत मरुभूमि में उनकी संकल्पना का अनुकरण करने में मदद कर रहे हैं। चांगतांग क्षेत्र में कृषि योग्य जमीन और पानी है, लेकिन खेती के लिए जरूरी तापमान नहीं होता है, क्योंकि वहां काफी सर्दी होती है। वहीं, लेह में कृषि योग्य भूमि व तापमान है, लेकिन पानी नहीं है और लेह से नीचे के इलाके में पानी व तापमान है, लेकिन कृषि योग्य पर्याप्त भूमि नहीं है। इसीलिए वहां संसाधनों व प्रौद्योगिकी का बेहतर इस्तेमाल किया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इजरायल में पानी कम है और तापमान भी अनुकूल नहीं है। इसके अलावा भूमि भी सीमित है। फिर भी उनकी पैदावार अच्छी है। हम वैसा ही करना चाहते हैं। वे जलवायु परिवर्तन के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को देखते हैं और उनका उत्तम उपयोग करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि लद्दाख में जलवायु परिवर्तन के सकारात्मक और नकरात्मक दोनों पक्ष हैं। पहले फसल उगाने के बहुत कम विकल्प थे, लेकिन अब हमारे पास ज्यादा विकल्प हैं। हम सब्जी उगा सकते हैं। नकारात्मक पक्ष यह है कि अनके हिमनदीय झरनों का जल बेकार हो जाता है।


02 - 08 अप्रैल 2018

भारतीय मूल के व्यक्ति को 'प्राइड ऑफ बर्मिंघम'

इंग्लैंड में बहादुरी के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार 'प्राइड आफ बर्मिंघम' इस वर्ष भारतीय मूल के हैरी अटवाल को दिया जाएगा

र्मिंघम में रहने वाले भारतीय मूल के एक व्यक्ति को इस साल 'प्राइड आफ बर्मिंघम' बहादुरी पुरस्कार के लिए चुना गया है। इस व्यक्ति ने बीते वर्ष बार्सिलोना आतंकी हमले में गंभीर रूप से घायल एक लड़के की मदद करते वक्त अपनी जान जोखिम में डाली थी। उत्तर पश्चिम बर्मिंघम के ग्रेट बार क्षेत्र में परियोजना प्रबंधक हैरी अटवाल अपनी बहन किंडे देहर सहित मित्रों तथा परिवार के साथ स्पेन में छुट्टियां मना रहे थे। तभी एक आतंकवादी ने बार्सिलोना के प्रसिद्ध पर्यटक स्थल लास रामबलास में पैदल यात्रियों को एक वैन से टक्कर मारी थी। जिसमें 13 लोगों की मौत हो गई थी,

जबकि सैकड़ों घायल हुए थे। अटवाल सात साल के जुलियन एलेसांड्रो कैडमैन की मदद के लिए भागे जो हताहतों में शामिल था। पुलिस के इलाका खाली करने के आदेश के बावजूद वह आपातकालीन सेवाएं पहुंचने तक उसे पकड़े रहे। ब्रिटेन और आस्ट्रेलिया की दोहरी नागरिकता वाले लड़के की मौके पर ही मौत हो गई, लेकिन उसके परिवार ने मदद के लिए अटवाल को धन्यवाद दिया था। अटवाल ने' बर्मिंघम मेल से कहा, '' मैं सिख हूं और सिख धर्म के अनुसार हताहत व्यक्ति की मदद करना मेरा कर्तव्य है। इसी कारण मैं 'मदद के लिए' वहां गया। (एजेंसी)

गुड न्यूज

पटरी पर उड़ने वाली ट्रेन की गोल्डन जुबली

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देश की पहली राजधानी एक्सप्रेस अब अपने गोल्डन जुबली वर्ष में प्रवेश कर चुकी है

एक्सप्रेस (नई दिल्लीदेशहावड़ाकी)पहलीकी शुराजधानी रुआत एक मार्च 1969 को हुई

थी। यह ट्रेन आज अपने गोल्डन जुबली वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। तब ट्रैक पर आम गाड़ियां जहां रेंगती थी, वहीं राजधानी मानो उड़ान भरती थी। यह एक ऐसी ट्रेन थी, जिसमें लाउंज था और उसमें बैठकर मुसाफिर न केवल मैग्जीन पढ़ते थे, बल्कि मनोरंजन के लिए गुलाम और इक्के के ताश के खेल का दौर भी चलाते थे। इन सुविधाओं के लिए अलग से अपनी जेब हल्की नहीं करनी पड़ती थी। रेलवे अपने यात्रियों के सत्कार के लिए यह सुविधा निशुल्क मुहैया कराती थी। 1 मार्च 1969 को यह ट्रेन नई दिल्ली से हावड़ा के लिए चली

थी तो 3 मार्च 1969 को हावड़ा से नई दिल्ली के बीच इस ट्रेन का परिचालन शुरू हुआ था। राजधानी एक्सप्रेस को पटरी पर उतारने के लिए उस दौर में कई पेचीदगियों से गुजरना पड़ा था। योजना कोलकाता और नई दिल्ली सरीखे मेट्रो शहरों को आपस में तेज रफ्तार से जोड़ने वाली ट्रेन से कनेक्ट करने की थी। उस जमाने में सवारी गाड़ी, मेल और एक्सप्रेस के दौर में एकाएक 140 किमी प्रति घंटा वाली ट्रेन चलाना चुनौतियों भरा था। हालांकि, चुनौतियों के बाद भी राजधानी पटरी पर उतरने में कामयाब रही। इस ट्रेन ने भारतीय रेल को हाई स्पीड ट्रेनों के परिचालन के लिए तभी राह दिखा दी थी। राजधानी के पुराने रैक में कई खूबियां भी थी, जो अब नहीं हैं। खास तौर पर सीट के साथ रात्रि लैंप और कॉल बेल भी लगी होती थी। कॉल बेल से जरूरत पड़ने पर अटेंडेंट को बुलाया जाता था। केबिन और कूपा में लॉकवाले दरवाजे के साथ पर्दे लगे होते थे। फर्श पर कॉरपेट होने के साथ चौड़ी खिड़कियों में पर्दे लगे होते थे। एसी फर्स्टह में तीन केबिन होते थे। प्रत्येक में चार बर्थ और दो बर्थ वाले तीन कूपे होते थे। एसी चेयर कार में बैठने की 71 सीटें थीं। उस दौर में इस ट्रेन में सफर के लिए फर्स्ट क्लास में 280 और चेयर कार में 90 रुपए चुकाने पड़ते थे। (आईएएनएस)

अब बेंगलुरु रेलवे स्टेशन पर मिलेगा सैनेटरी नेपकिन

महिलाओं की सुरक्षा एवं स्वच्छता को ध्यान में रखते हुए इसकी शुरुआत की गई है। इसके लिए डिविजनल रेलवे मैनेजर के एक रूम में मशीनों को स्थापित किया गया है

हिला यात्रियों की यात्रा के अनुभव को बेहतर बनाने के लिए बेंगलुरु रेलवे डिवीजन ने अपने दो स्टेशनों के आरामगृह और महिला शौचालयों में दो महत्वपूर्ण मशीनों को स्थापित किया। इसमें एक मशीन सैनेटरी

नैपकिन के लिए और दूसरा इस्तेमाल की गई नैपकिन के निपटान के लिए है। महिलाओं की स्वच्छता में सुधार के लिए मशीनों को इस सप्ताह ही एक विभागीय रेलवे प्रबंधक कार्यालय के एक कमरे में स्थापित किया गया है। दक्षिण पश्चिम रेलवे महिला कल्याण संगठन (एसडब्ल्यूआरडब्ल्यूडब्ल्यूओ), जो कर्नाटक में रेलवे कर्मचारियों के योगदान द्वारा संचालित होता है, इस परियोजना को प्रायोजित कर रहा है। बेंगलुरु डिवीजन के वरिष्ठ डिवीजनल कर्मिक अधिकारी के आसिफ हफीज के मुताबिक, इन सुविधाओं को स्थापित करने में प्रत्येक के लिए 67,000 रुपए खर्च किए गए हैं। क्रांति वीरा संगोली रायन्ना (बेंगलुरु

सिटी स्टेशन) और यशवंतपुर रेलवे स्टेशनों के इंतजार हॉल और महिलाओं के शौचालय हमारे डिविजन में सबसे पहले थे, जहां ये सिक्का संचालित वेंडिंग मशीन सबसे पहले स्थापित किए गए। हमने उन्हें महिला दिवस (मार्च 8) के अवसर पर लॉन्च किया। हफीज ने कहा कि मशीनी स्लॉट में एक 5 का सिक्का डाले जाने पर मशीनें एक सैनेटरी पैड का उत्पादन करती है। उन्होंने कहा कि एसडब्ल्यूआरडब्ल्यूडब्ल्यूओ ने हमें 8 फरवरी को एक पत्र भेजा था, जिसमें महिलाओं की स्वच्छता के हित में कम लागत वाली सैनिटरी नैपकिन के वित्त पोषण में रुचि दिखाई थी। इसके बाद कर्मिक विभाग ने हेड ऑफिस की दूसरी मंजिल पर तुरंत इसे लागू कर दिया। एसडीपीओ ने कहा कि इसके अलावा

अन्य मंजिलों के आरमगृह में इसे जल्द ही लागू कर दिया जाएगा। बता दें कि उन कमरों का पुनः निर्माण किया जा रहा है, इसी दौरान ये मशीनें वहां भी स्थापित कर दी जाएंगी। हालांकि वर्तमान में डीआरएम कार्यालय में 163 महिलाएं काम कर रही हैं। अन्य रेलवे पर इसकी व्यापकता के बारे में पूछे जाने पर अधिकारी ने कहा कि मुंबई के चर्च गेट के महाप्रबंधक कार्यालय ने महिलाओं के आरामगृह में इन्हें स्थापित किया है। दक्षिण पश्चिम रेलवे क्षेत्र, जिसमें बेंगलुरु, हब्बालैंड और मैसूरू डिवीजन शामिल हैं, हम निश्चित रूप से इस मशीन को स्थापित करने वालों में सबसे पहले हैं। अगर यह लोकप्रिय हो जाता है तो दूसरों के लिए अनुकरणीय होगा। (एजेंसी)


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स्वास्थ्य

02 - 08 अप्रैल 2018

स्वरोजगार की नई इबारत लिख रहे बच्चीराम

रोजगार के लिए गांव छोड़ कर जाने वालों के सामने उत्तराखंड के बच्चीराम ने स्वरोजगार की एक नजीर पेश की है ढौंडियाल की पहल उम्मीद जगा रही है। बच्चीराम ने कड़ी मेहनत से अपनी बंजर भूमि को न केवल उपजाऊ बनाया, बल्कि आदर्श नर्सरी स्थापित कर स्वरोजगार की एक नई परिभाषा गढ़ी है।

नजीर बना पौधालय

त्तराखंड के हजारों गांव मानवविहीन हो चुके हैं। मूलभूत सुविधाओं की कमी और खेती में लागत न निकल पाने के कारण ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन जारी है। ऐसे में पौड़ी जिले के कांडई गांव निवासी 58 वर्षीय किसान बच्चीराम

कांडई गांव में स्थापित सरस्वती किसान पौधालय सरकारी विभागों के लिए भी एक नजीर बना हुआ है। बच्चीराम बताते हैं कि जिले के कई विभागों के अधिकारी ग्रामीण किसानों को नर्सरी की तकनीक और उत्पादन का प्रशिक्षण देने के लिए यहां लाते हैं। इसके अलावा आस-पास के जिलों से भी किसान यहां पहुंचते हैं। बच्चीराम बताते हैं कि बड़ी इलाइची की बाजार में काफी मांग है। यह 1500 रुपए किलो के दाम पर बिकती है। इसके उत्पादन से अच्छा खासा मुनाफा हो जाता है। तेजपत्ता, एलोवेरा, आंवला

दूसरी कक्षा में पढ़ाई छोड़ने वाला चला रहा स्कूल

बंगाल के सुंदरबन इलाके में रहने वाला बिना पढ़ा लिखा जलालुद्दीन तीन स्कूल और एक अनाथालय संचालित कर रहा है

रीबी के कारण दूसरी कक्षा के बाद पढ़ाई ना कर पाने वाले गाजी जलालुद्दीन आज सुंदरबन इलाके में अपने तीन स्कूल चला रहे हैं, जिनमें वह गरीब बच्चों को शिक्षा देते हैं। इसके अलावा वह एक अनाथालय भी चला रहे हैं। दूसरी कक्षा में सबसे ज्यादा नंबर लाने वाले जलालुद्दीन की आर्थिक स्थिति ठीक ना होने के चलते वह आगे की पढ़ाई नहीं कर सके, शायद यही वजह है कि वह अब किसी और को पढ़ाई से दूर होते नहीं देखना चाहते हैं। पेशे से टैक्सी ड्राइवर जलालुद्दीन के स्कूल में 26 टीचर पढ़ाते हैं और 500 से ज्यादा बच्चे पढ़ाई करते हैं। गाजी खुद एक कमरे के घर में रहते हैं

और अपनी कमाई को बच्चों की पढ़ाई और उनके खानपान पर खर्च करते हैं। जलालुद्दीन बताते हैं कि वह शुरू में भीख मांगने लगे थे। वह कहते हैं, 'मुझे भीख मांगने में शर्म आती थी, लेकिन भूख के आगे मैं मजबूर था। कुछ दिनों बाद मैं एंटली मार्केट में रिक्शा चलाने लगा। इससे पहले कुछ दिन टैक्सी साफ करने का भी काम किया।' जलालुद्दीन को सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिल रही है फिर भी वह गरीब बच्चों को फ्री शिक्षा और भोजन दे रहे हैं। उनके कई पैसेंजर्स ने भी स्कूल बनाने और शिक्षकों की तनख्वाह देने में मदद भी की। वह कहते हैं, 'मैं शिक्षित नहीं हूं इसीलिए मैं सरकार के पास जाने से डरता हूं।' इससे पहले गाजी ने एक मंत्री से अपने स्कूल तक की सड़क बनवाने की मांग भी की थी। जलालुद्दीन की पत्नी तस्लीमा बीबी कहती हैं, 'पहले मैं इस सबसे ऊब जाती थी। एक समय ऐसा था, जब हम अपने चारों बच्चों तक को नहीं खिला पा रहे थे, तब भी गाजी अपने पैसे दूसरे बच्चों पर खर्च कर रहे थे। जिस दिन मैं स्कूल गई, मेरे विचार बदल गए। अब मैं स्कूल में 4-5 दिन जरूर बिताती हूं।' (एजेंसी)

आदि की भी मांग बनी रहती है। इसके अलावा जैविक खाद की भी अच्छी-खासी डिमांड है।

प्रेरक साबित हो रही पहल

बच्चीराम कहते हैं कि उनकी कोशिश है कि अन्य लोग भी इस तरह से अपनी जमीन का सदुपयोग कर सकते हैं। इसके लिए वे लोगों को प्रेरित भी कर रहे हैं। ग्राम देवराड़ी निवासी जगदीश सिंह बताते हैं, मैंने बच्चीराम ढौंडियाल के सरस्वती पौधालय से प्रेरणा ले स्वयं भी यह कार्य शुरू किया। आज मैं भी बड़ी इलायची, सेब, अखरोट आदि का उत्पादन कर रहा हूं। ग्राम ग्वाल्थी निवासी आनंद सिंह बताते हैं, मैं सब्जी के अलावा बड़ी इलायची का उत्पादन और मत्स्य पालन कर रहा हूं। इससे मेरी जीविका आराम से चल रही है। बच्चीराम के बेटे नीरज ढौंडियाल का कहना है, इंजीनियरिंग करने के बाद मैंने सोचा कि बाहर नौकरी करने के बजाय पिता का ही हाथ क्यों न बंटाया जाए। वर्तमान में मैं पौधालय की देखभाल कर रहा हूं और इससे अच्छी आमदनी भी मिल रही है। मुझे अपना गांव छोड़कर बाहर जाने की कोई

जरूरत महसूस नहीं हो रही है।

पौधालय ने बदली तकदीर

यह प्रयास न केवल बच्चीराम के परिवार की गरीबी दूर करने में सफल रहा, बल्कि रोजगार की तलाश में पहाड़ छोड़ने वाले ग्रामीणों को भी नई उम्मीद दे गया। मंडल मुख्यालय पौड़ी से 120 किमी दूर थैलीसैंण विकासखंड की चौथान पट्टी का कांडई गांव बच्चीराम की कर्मभूमि है। यहां उन्होंने अपनी एक हेक्टेयर भूमि में सरस्वती किसान पौधालय की स्थापना की, जहां आज बड़ी इलायची, तेजपत्ता, आंवला, थुनेर व एलोवेरा के अलावा विभिन्न फल-सब्जियां उगा मुनाफा कमा रहे हैं। इसके अलावा मत्स्य पालन और जैविक खाद भी तैयार कर रहे हैं। उनका एक बेटा डिप्लोमा इंजीनियर है, जबकि दूसरा ग्रेजुएशन कर रहा है। दोनों ही पिता की इस मुहिम को आगे बढ़ा रहे हैं। यही नहीं, पौधालय में उन्होंने दो स्थानीय परिवारों को रोजगार भी दिया है। बच्चीराम बताते हैं कि इस पौधालय से वे हर वर्ष लगभग आठ लाख रुपये तक कमा लेते हैं। (आईएएनएस)

शौचालय बने तो ससुराल आऊंगी

उत्तर प्रदेश की एक दिव्यांग दुल्हन ने यह कह कर गृह प्रवेश करने से मना कर दिया कि जब शौचालय बनेगा तभी घर के अंदर आऊंगी

सुराल में शौचालय नहीं बना तो भावी दुल्हन ने चौखट लांघने से मना कर दिया। इससे वर पक्ष असमंजस में पड़ गया और उसके बाद से ही दुल्हन को मनाने का दौर जारी है। मामला जैतपुरा गांव निवासी सुदामा निषाद का है। सुदामा का विवाह वीरपुर गांव निवासी जनार्दन निषाद की बेटी राजकुमारी से तय हुआ है। वर व वधू दोनों दिव्यांग हैं लेकिन, पढ़े-लिखे हैं। सुदामा जहां स्नातक स्तर तक की पढ़ाई पूरी कर चुके हैं, वहीं राजकुमारी स्नातक अंतिम वर्ष में हैं। दोनों का विवाह तय होने के दौरान वधू पक्ष ने सुदामा के घर में शौचालय न होने का सवाल खड़ा किया।

इस पर वर पक्ष की तरफ से आश्वासन मिला कि विवाह से पहले प्रत्येक दशा में हम शौचालय बनवा लेंगे। दिव्यांग सुदामा के पिता प्यारेलाल ने ग्राम पंचायत के प्रधान, सेक्रेटरी, सदर विकासखंड के खंड विकास अधिकारी आदि के यहां शौचालय बनवाए जाने की गुहार लगाई, किंतु अब तक शौचालय नहीं बन पाया। इधर, पढ़े-लिखे सुदामा और राजकुमारी में सोशल साइट के जरिए बातचीत भी शुरू हो गई। राजकुमारी की तरफ से बार-बार सुदामा से पूछा जा रहा है कि शौचालय के निर्माण की प्रगति क्या है? राजकुमारी ने यहां तक कह दिया कि शौचालय नहीं बना तो मैं ससुराल का चौखट नहीं लांघूंगी। बात बिगड़ती देख सुदामा ने अपना संदेश समग्र विकास इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष ब्रजभूषण दुबे तक पहुंचाया। इस पर ब्रजभूषण दुबे सुदामा के घर अपने सहयोगियों सहित पहुंचकर पूरा हाल जाने। उन्होंने पूरा मामला जिलाधिकारी के बालाजी, केंद्रीय मंत्री मनोज सिन्हा सहित उत्तर प्रदेश शासन व प्रधानमंत्री के पोर्टल पर भेजते हुए तत्काल सुदामा के घर स्तरीय शौचालय निर्माण कराए जाने की मांग की। (एजेंसी)


02 - 08 अप्रैल 2018

सौरमंडल में क्षुद्रग्रह की यात्रा

हमारे सौरमंडल की यात्रा करने वाली पहली ज्ञात वस्तु का अतीत बहुत मुश्किल भरा रहा है

स वस्तु ने अक्तूबर में हमारे सौरमंडल के बीच से उड़ान भरी, जिसे पहले एक पुच्छल तारा माना गया, लेकिन बाद में खुलासा हुआ कि यह सिगार के आकार का क्षुद्रग्रह था। क्वींस यूनिवर्सिटी, बेलफास्ट में अनुसंधानकर्ता अक्टूबर से इसकी चमक का विश्लेषण कर रहे हैं। उन्होंने पाया कि ‘ओउमुआमुआ’ नाम का यह क्षुद्रग्रह जब-तब

चक्कर नहीं लगाता, जैसा कि हम अपने सौरमंडल में ज्यादातर छोटे क्षुद्रग्रहों और वस्तुओं के बारे में देखते हैं। इसके बजाय यह संभवत: अरबों साल से अव्यवस्थित ढंग से उठ-गिर रहा है तथा चक्कर लगा रहा है। हालांकि इसके सटीक कारण के बारे में कहना मुश्किल है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि ‘ओउमुआमुआ’ अपने खुद के परिवेश से बाहर अंतरातारकीय अंतरिक्ष में फेंके जाने से पहले एक अन्य क्षुद्रग्रह से टकराया होगा। वैज्ञानिक अब तक इसके विभिन्न हिस्सों पर इसके रंग में भिन्नता को लेकर माथापच्ची कर रहे हैं। हालांकि अध्ययन में अब खुलासा हुआ है कि इसकी सतह चितकबरी और धरती पर स्थापित दूरबीन की कैद में आया इसका लंबा अग्रिम भाग लाल है। इसका शेष हिस्सा मैली बर्फ जैसे तटस्थ रंग का है। (एजेंसी)

स्पेस में रहने से बदल जाता है जीन का बर्ताव

स्पेस में रहने के कारण स्कॉट की जीन के काम करने का तरीका बदला

दु

नियाभर के 200 से ज्यादा अनुसंधाकर्ता इस वक्त दुनिया के इकलौते जुड़वां अंतरिक्षयात्रियों स्कॉट केली और मार्क केली के बारे में अध्ययन करने में जुटे हैं। इस दौरान केली बंधुओं की जीवन पद्धति, रोगों से लड़ने की क्षमता, देखने की क्षमता, हड्डियों की बनावट, डीएनए और गट बैक्टीरिया किस तरह से काम करता है इसकी छानबीन और समीक्षा की जा रही है। ऐसा इसीलिए किया जा रहा है, क्योंकि नासा एक ऐसे प्रॉजेक्ट पर काम कर रहा है जिसमें स्पेस में रहने पर इंसान के शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है इस बारे में अध्ययन किया जा रहा है। यह एक्सपेरिमेंट इसीलिए सफल हो पाया, क्योंकि स्कॉट और मार्क केली सिर्फ ट्विंज नहीं, बल्कि आइडेंटिकल ट्विंज हैं, यानी दोनों बिल्कुल एक जैसे हैं। स्कॉट केली ने इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन आईएसएस में करीब एक साल का वक्त बिताया है। इस प्रॉजेक्ट का उद्देश्य यह जानना था कि लंबे समय तक अंतरिक्ष में रहने पर इंसान के शरीर और दिमाग पर क्या असर पड़ता है। इस स्टडी के नतीजों के आधार पर ही मंगल ग्रह के 3 साल के मिशन की तैयारी की जा सकती है। वैसे तो आमतौर पर

ऐस्ट्रॉनॉट्स स्पेस में 6 महीने तक रहते हैं, लेकिन स्कॉट केली ने स्पेस में 340 दिन का वक्त बिताया जो अब तक का सबसे लंबा स्पेस मिशन है। अंतरिक्ष से वापस आने पर स्कॉट की लंबाई 2 इंच बढ़ गई और उनके शरीर का बॉडी मास घट गया। स्कॉट के शरीर में मौजूद गट बैक्टीरिया पूरी तरह से बदल गए। हड्डियों की बनावट, ऑक्सिजन की कमी, इम्यून सिस्टम रिस्पांस और डीएनए रिपेयर में भी पूरी तरह से परिवर्तन देखा गया। अनुसंधानकर्ताओं की मानें तो अंतरिक्ष में रहने पर जो स्ट्रेस होता है उसकी वजह से शरीर में इम्यून रिस्पांस की क्रिया सक्रिय हो जाती है। अंतरिक्ष में रहने के अरुचिकर पहलुओं की वजह से इंसान की कोशिकाओं में जैविक बदलाव शुरू हो सकता है। साथ ही इसकी वजह से कोशिकाओं का घटना और कोशिकाओं के काम करने के तरीके में बदलाव की क्रिया भी हो सकती है। स्कॉट ने साल 2015 में आईएसएस इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में 340 दिन का वक्त बिताया। स्कॉट के जुड़वा भाई मार्क जो कि खुद एक रिटायर्ड ऐस्ट्रॉनॉट हैं, कंट्रोल सब्जेक्ट के तौर पर पृथ्वी पर ही रहे। दोनों भाईयों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का नक्शा तैयार किया गया। स्कॉट के शरीर में हुए शारीरिक बदलाव- जिसमें उनकी 2 इंच लंबाई बढ़ना शामिल है, अस्थायी प्रतिक्रिया साबित हुई जो अंतरिक्ष में रहने पर लो ग्रैविटी और लो ऑक्सिजन लेवल की वजह से हुए थे। (एजेंसी)

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विज्ञान

नासा का यंत्र मापेगा सूर्य की ऊर्जा

सू

नासा ने एक ऐसा नया उपकरण स्थापित किया है जो सूर्य की ऊर्जा को लंबे समय तक मापने में सक्षम है

र्य से निकलने वाली ऊर्जा को लंबे समय तक मापने के लिए नासा ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र (आईएसएस) में अपने नए उपकरण को स्थापित किया है। नासा ने कहा, "उपकरण टोटल एंड स्पैक्ट्रल सोलर इराडियंस सें स र(टीएसआईएस-1) विज्ञान डेटा का संग्रहण कर अपने सभी उपकरणों के साथ इस मार्च में पूरी तरह संचालित हो गया है।" नासा में टीएसआईएस-1 के प्रोजेक्ट वैज्ञानिक डोंग वू ने कहा, "टीएसआईएस-1 ने अपने एक लंबे डेटा रिकार्ड को बढ़ाया है, जिससे हमें धरती के विकिरण बजट, ओजोन लेयर, वायुमंडलीय परिसंचरण पर सूर्य के प्रभाव, जलवायु परिवर्तन को समझने में मदद मिलेगी।" टीएसआईएस-1 दो सेंसर बोर्ड में से एक

से कुल विकिरण मॉनिटर का प्रयोग करके सूर्य द्वारा उत्सर्जित प्रकाश ऊर्जा की कुल मात्रा के बारे में अध्ययन करता है। सेंसर डेटा से वैज्ञानिकों को पृथ्वी के प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति को समझने में मदद मिलेगी और यह ग्रह के वातावरण को बेहतर बनाने के लिए सूचना मुहैया कराएगा। वहीं दूसरा सेंसर, इसकी माप करेगा कि कैसे सूर्य की ऊर्जा प्रकाश के पाराबैगनी, पारदर्शी और अवरक्त क्षेत्रों में विभक्त होती है। (आईएएनएस)

वैज्ञानिकों ने ढूंढा कैंसर-रोधी प्रोटीन

जि

वैज्ञानिकों ने कैंसर-रोधी प्रोटीन की खोज की है जो लीवर कैंसर के मरीजों के लिए उपयोगी है

गर में अनियंत्रित कैंसर कोशिकाओं के प्रसार की रोकथाम करने के लिए वैज्ञानिकों ने एक खास तरह के प्रोटीन की खोज की है। कैंसर-रोधी इस प्रोटीन को एलएचपीपी नाम दिया गया है। ‘नेचर’ नामक जर्नल में प्रकाशित इस शोध में कहा गया कि एलएचपीपी जिगर (लीवर) के कैंसर की पहचान व निदान में बायोमार्कर अर्थात जैविक स्थिति का परिचायक हो सकता है। आमतौर पर जिगर के कैंसर की पहचान जब होती है तब तक बहुत देर हो जाती है,

मतलब कैंसर का रोग गहरा जाता है और जिगर गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो जाता है। ऐसे में रोग का निदान कठिन हो जाता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि कैंसर-रोधी इस प्रोटीन से चिकित्सकों को बेहतर इलाज का विकल्प मिल सकता है। शोध के लेखक व स्विटजरलैंड स्थित बासेल विश्वविद्यालय के शोधकर्ता स्रावंत हिंदुपुर ने कहा, ‘यह दिलचस्प बात है कि एलएचपीपी स्वस्थ ऊतक में मौजूद रहता है और ट्यूमर वाले ऊतक में यह बिल्कुल नहीं पाया जाता है।’ (आईएएनएस)


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सा​िहत्य

02 - 08 अप्रैल 2018

समय का महत्व

कविता

अनेकता में एकता दीप जोशी

अनेकता में एकता की, ये फुलवारी है यही विविधता तो जग में, पहचान हमारी है जाति धर्म भाषाएं अलग हैं, संस्कृति न्यारी है यही विविधता तो जग में, पहचान हमारी है कहीं अजान नमाज की, कहीं पूजन जारी है यही विविधता तो जग में, पहचान हमारी है कभी ईद की सेवइयां, कभी दीप दिवाली है दिल की बात खुलकर कहना फिर भी यारी है ऊंचे ऊंचे पदों पर आज, प्रतिभा हमारी है अलग अलग दानों से बनी, ये माला प्यारी है अलग अलग हमें समझना, उनकी दुश्वारी है हमको अपनी जां से प्यारी, भारत मां है यही विविधता तो जग में, पहचान हमारी है अनेकता में एकता की, ये फुलवारी है।

शबाना

ज की पीढ़ी बहुत ही तेजी से आगे जा रही है , कभी – कभी हम लोग आगे बढ़ने के चक्कर में बहुत कुछ खो देते है। यह कहानी सागर और उसके पापा की है। सागर बहुत ही अच्छा लड़का है और अभी वह दस साल का है। सागर को पतंग उड़ाने का बहुत ही शौक है। एक दिन वह अपने पापा के साथ पतंग उड़ा रहा था। उसके पापा को पतंग उड़ाने का तरीका उतने अच्छे से नहीं पता था , लेकिन फिर भी वह सागर के साथ पतंग उड़ा रहे थे। जब पतंग ऊपर चली गई तो सागर बहुत ही खुश हो रहा था , लेकिन एक ऊंचाई के बाद पतंग ऊपर नहीं जा रही थी। यह सब देख कर सागर को बहुत ही गुस्सा आ रहा था , वह अपने पापा से बोला आप पतंग की डोर काट दो वह ऊपर चली जाएगी। लेकिन उसके पापा ने मना कर दिया , फिर तो सागर

शरीर की निंदा मत करो

सुनीता

क फकीर था, उसके दोनों बाजू नहीं थे। उस बाग में मच्छर भी बहुत होते थे। मैंने कई बार देखा उस फकीर को। आवाज देकर, माथा झुकाकर वह पैसा मांगता था। एक बार मैंने उस फकीर से पूछा – पैसे तो मांग लेते हो, रोटी कैसे खाते हो ? उसने बताया – जब शाम उतर आती है तो उस नानबाई को पुकारता हूं, ‘ओ जुम्मा ! आके पैसे ले जा, रोटियां दे जा। ‘वह भीख के पैसे उठा ले जाता है, रोटियां दे जाता है।” मैंने पूछा –खाते कैसे हो बिना हाथों के ? वह बोला – खुद तो खा नहीं सकता। आनेजानेवालों को आवाज देता हूं ‘ओ जानेवालों ! प्रभु तुम्हारे हाथ बनाए रखे, मेरे ऊपर दया करो ! रोटी खिला दो मुझे, मेरे हाथ नहीं हैं। ‘हर कोई तो सुनता नहीं, लेकिन किसी-किसी को तरस आ जाती है। वह प्रभु का प्यारा मेरे पास आ बैठता है। ग्रास तोड़कर मेरे मुंह में डालता जाता है, मैं खा लेता हूं।”

को गुस्सा आ गया और फिर उसने खुद चाकू से पतंग की डोर काट दी। पहले तो पतंग ऊपर गई , लेकिन कुछ समय बाद वह नीचे आ गई , सागर भी यह सब देख रहा था। सागर के पापा ने बोला देखा न मैंने बोला था की यह गिर जाएगी , अगर डोर नहीं कटी होती तो यह फिर से ऊपर चली जाती। अब सागर को समझ आ गया और बोला पापा आप बिलकुल सही बोल रहे हो। दोस्तों इसी तरह हमारी जिंदगी में भी होती है कि हम लोग अपने घर वालों , माता – पिता को छोड़ कर आगे

सुनकर मेरा दिल भर आया। मैंने पूछ लिया – पानी कैसे पीते हो ? उसने बताया – इस घड़े को टांग के सहारे झुका देता हूं तो प्याला भर जाता है। तब पशुओं की तरह झुककर पानी पी लेता हूं। मैंने कहा – यहां मच्छर बहुत हैं। यदि मच्छर लड़ जाए तो क्या करते हो ? वह बोला – तब शरीर को जमीन पर रगड़ता हूं। पानी से निकली मछली की तरह लोटता और तड़पता हूं। हाय ! केवल दो हाथ न होने से कितनी दुर्गति होती है ! अरे, इस शरीर की निंदा मत करो ! यह तो अनमोल रत्न है ! शरीर का हर अंग इतना कीमती

है कि संसार का कोई भी खजाना उसका मोल नहीं चुका सकता। परंतु यह भी तो सोचो कि यह शरीर मिला किस लिए है ? इसका हर अंग उपयोगी है। इनका उपयोग करो ! स्मरण रहे कि ये आंखें पापों को ढूंढने के लिए नहीं मिलीं। कान निंदा सुनने के लिए नहीं मिले। हाथ दूसरों का गला दबाने के लिए नहीं मिले। यह मन भी अहंकार में डूबने या मोह-माया में फंसने को नहीं मिला। ये आंखें सच्चे सदगुरु की खोज के लिए मिली है जो हमें परमात्मा के बताये मार्ग पर चलने सिखाए। ये हाथ प्राणी मात्र की सेवा करने को मिले हैं। ये पैर उस रास्ते पर चलने को मिले हैं जो परम पद तक जाता हो। ये कान उस संदेश सुनने को मिले हैं जो जिसमे परम पद पाने का मार्ग बताया जाता हो। ये जिह्वा प्रभु का गुण गान करने को मिली है। ये मन उस प्रभु का लगातार शुक्र और सुमिरन करने को मिला है। प्रभु तेरा शुक्र है, शुक्र है..लाख लाख शुक्र है।

जाना चाहते हैं। इससे आप आगे तो चले जाओगे, लेकिन बहुत ही जल्द नीचे भी आ जाओगे कटी पतंग की तरह। इसीलिए हम लोगो को सब के साथ मिलकर आगे जाना चाहिए।

कविता

व्हाट्स ऐप्प नेहा

जोड़ दिए सब टूटे रिश्ते, बरसों पहले छूटे रिश्ते ! फ़ैमिली को परिवार कर दिया, व्हाट्स ऐप्प ने कमाल कर दिया ! स्कूल के सब यार मिल गए, यादों के अंबार मिल गए! खुशियों भरा संसार कर दिया, व्हाट्स ऐप्प ने कमाल कर दिया ! सेंस ऑफ ह्यूमर तेज हो गया, भोंदू भी अंग्रेज हो गया ! कॉपी पेस्ट का जाल कर दिया, व्हाट्स ऐप्प ने कमाल कर दिया ! पांचवीं फेल भी लॉयर बन गया, हर कोई क्रिकेट अंपायर बन गया ! संसद सा माहौल कर दिया, व्हाट्स ऐप्प ने कमाल कर दिया ! बीवी फोन में बिजी हो गई, पति भी इसमें कहीं खो गए, लड़ना-झगड़ना बंद कर दिया व्हाट्स ऐप्प ने कमाल कर दिया


02 - 08 अप्रैल 2018

आओ हंसें

जीवन मंत्र

फेल होना

बाप : बेटा, कोई बात नहीं तुम्हारी किस्मत में फेल होना ही लिखा था। बेटा : जी पापा, यही तो अच्छा हुआ। मैंने पूरा साल पढ़ा नहीं, वरना सारी मेहनत बेकार हो जाती।

रंग भरो

सुडोकू-15 का हल

• 2 अप्रैल विश्व ऑटिज्म जागरूकता दिवस • 7 अप्रैल विश्व स्वास्थ्य दिवस

वर्ग पहेली - 16 वर्ग पहेली-15 का हल

1. भगवान बुद्ध (4) 4. छूट (4) 6. रत्न (4) 8. सेवक, नौकर (3) 10. काजल (3) 12. घोड़े की सेवा करने वाला (3) 14. मदन, कामदेव (4) 15. श्राद्ध पक्ष (4) 16. पशुओं की नाक में डाली जाने वाली रस्सी (3) 18. मृग (3) 19. नष्ट होने वाला (3) 21. मिस्तरी, शिल्पी (4) 23. कीड़ों को खत्म करने वाला (4) 24. विषैला (4)

ऊपर से नीचे

डोकू -16

सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें

महत्वपूर्ण दिवस

बाएं से दाएं

सु

जिंदगी में अच्छे लोगाें की तलाश मत करो। खुद अच्छे बन जाओ ताकि किसी की तलाश पूरी हो।

दिलचस्प संवाद

एक पिता ने अपने बेटे को दो-तीन झापड़ रसीद कर दिए, थोड़ी देर बाद प्यार से सॉरी बोल दिया। बेटा : डैड, एक कागज लो। उसे मोड़ो, रोल बनाओ। वापस उस कागज को खोलो और देखो क्या वह पहले जैसा ही कड़क है। पिता : नहीं। बेटा : सही कहा, रिश्ते भी ऐसे ही होते हैं। सॉरी से काम नहीं चलता। पिता : बेटा, बाहर मेरा स्कूटर खड़ा है। जाओ और उस पर एक किक मारो। बताओ क्या वह स्टार्ट हुआ। बेटा : नहीं हुआ। पिता : अब तीन-चार किक मारो। बेटा : स्टार्ट हो गया। पिता : तू भी वही स्कूटर है, कागज नहीं। ज्ञान मत दे मुझे!

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इंद्रधनुष

1. पिस्तौल (3) 2. समय समय पर बजने वाले घंटे (3) 3. रोटी सेंकने वाला बर्तन (2) 4. मयूर (2) 5. गर्मी, सूर्य (3) 7. हवा सम्बंधी (3) 9. लेखक, चित्रकार (5) 11. जनता की गिनती (5) 12. प्रेमी, पति (3) 13. समस्त (3) 17. केसर के रंग का, सिंह (3) 18. छींक और डकार की तरह एक संवेग (3) 19. वियोग (3) 20. चेचक (3) 21. वाराणसी की प्राचीन पौराणिक नाम (2) 22. हाथी (2)

कार्टून ः धीर


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न्यूजमेकर

02 - 08 अप्रैल 2018

रजनीकांत मेंढे

आदर्श शिक्षक की अथक यात्रा

शिक्षक रजनीकांत मेंढे पुणे से 100 किलेमीटर से ज्यादा दूर स्थित एक गांव में 8 साल के बच्चे को पढ़ाने के लिए रोजाना जाते हैं

पने स्कूलों में शिक्षकों को पढ़ाते हुए देखा होगा, लेकिन क्या सिर्फ एक बच्चे को पढ़ाने के लिए किसी शिक्षक को रोजाना स्कूल आते हुए देखा है? शायद आपका जवाब होगा नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है। मगर महाराष्ट्र में 29 साल के एक सरकारी शिक्षक रोजाना इस काम को करते हैं। नागपुर के रहने वाले इस शिक्षक का नाम रजनीकांत मेंढे है। वह पुणे से 100 किलेमीटर से ज्यादा दूर स्थित भोर के गांव चंदर में 8 साल के बच्चे युवराज सिंह को पढ़ाने के लिए जाते हैं। गांव तक पहुंचने के लिए उन्हें रोजाना पर्वत को पार करते

हुए 12 किलोमीटर मिट्टी से भरे हुए रास्ते से होकर गुजरना पड़ता है। रजनीकांत जिस चंदर गांव में पढ़ाने के लिए जाते हैं, वहां 15 झोपड़ियां हैं, जिसमें 60 लोग रहते हैं। यहां लोगों से ज्यादा संख्या में सांप रहते हैं। दो सालों से केवल युवराज ही उनका छात्र है। स्कूल पहुंचने के बाद मेंढे की पहली नौकरी बच्चे को ढूंढना होता है। उन्होंने कहा, ‘मैं अमूमन उसे पेड़ों के पीछे छुपे हुए पाता हूं। कई बार मैं उसे उसकी झोपड़ी से लेकर आता हूं। मैं उसकी इस अनिच्छा को समझ सकता हूं। उसे बिना दोस्तों के स्कूल जाना पड़ता है।’ चंदर गांव में साल 1985 में यह स्कूल बना था। कुछ सालों बाद यहां बिना छत वाली चारदिवारी थी। हाल ही में एसबस्टस शीट के जरिए छत बनाई गई है, लेकिन वहां से भी बारिश का पानी रिसकर अंदर आ जाता है। रजनीकांत बताते हैं, ‘एक रात को स्कूल की छत से मेरे ऊपर सांप गिर गया। अब तक तीन बार मेरा सामना सांप के साथ हो चुका है।’ इस गांव में बिजली तक नहीं है। जीवन निर्वाह करने के नाम पर गांव वालों के पास कुछ गाय और पत्थर तोड़ने का काम है। अस्पताल की सुविधा भी 63 किलोमीटर दूर है।

अफरोज शाह

वर्सोवा बीच पर कछुए अफरोज शाह और उनकी टीम द्वारा वर्सोवा बीच की सफाई के बाद यहां ऑलिव रिडले कछुओं के लगभग 80 बच्चे नजर आए

के वर्सोवा बीच में दो दशक के बाद ऑलिव रिडले कछुओं मुबईकें लगभग 80 बच्चे नजर आए। हाल में कछुओं के ये बच्चे

समुद्र के किनारे घूमते दिखे। पर्यवरणविदों ने बीच पर ऑलिव रिडले कछुओं की बीच पर आमद पर खुशी जाहिर की है। समाज सेवक अफरोज शाह और उनकी टीम को इस बात का श्रेय दिया जा रहा है, जिन्होंने वर्सोवा बीच को साफ करने के लिए 127 हफ्तों की कड़ी मेहनत की। अफरोज ने कहा कि यह बहुत ही खुशी की बात है कि हमारे वर्सोवा बीच में ऑलिव रिडले कछुओं के 80 अंडों से बच्चे निकले हैं। उन्होंने कहा कि यह समुद्री किनारा बहुत गंदा हुआ करता था। हर तरफ सिर्फ प्लास्टिक का ढेर जमा हो गया था। कछुओं ने यहां अंडे देना बंद कर दिया था, लेकिन वर्सोवा बीच पर चले सफाई अभियान से हालात बदले हैं। अफरोज और उनके साथी बहुत खुश हैं और इन कछुओं का यहां पैदा होना अपना सौभाग्य मान रहे हैं। बीच की सफाई में लगे लोग और जंतु कल्याण के लिए काम करने वाली संस्थाओं ने कहा कि अब वे लोग मिलकर यह सुनिश्चित करेंगे कि ये छोटे कछुए उनके पैदा होने की जगह से समुद्री रास्ते तक सुरक्षित

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

जा सकें, जो लगभग 30 से 35 किलोमीटर दूर है। जैसे ही कछुओं के बच्चों के पैदा होने की खबर शहर में फैली। लोग दूर-दराज से उन्हें देखने पहुंचे। लोगों में काफी उत्साह नजर आया। सोशल नेवर्किंग साइट्स पर लोग इनकी तस्वीरें और वीडियो अपलोड करने लगे। मरीन लाइफ वेलफेयर के शौनक मोदी ने ट्वीटर पर लिखा कि उन्होंने जीवन के बदलाव का अनुभव महसूस किया। 80 ऑलिव रिडेल कछुए समुद्र में वापस जाते देखे। राज्य के मुख्य वन संरक्षक एन वासुदेवन ने कहा कि विभाग ने जब छोटे कछुओं की तस्वीरें और वीडियो देखे तो बहुत खुशी हुई। इस दौरान वर्सोवा बीच पर कछुओं को लेकर कुछ विरोधाभासी खबरें भी उड़ीं। इस पर शाह ने अपनी तरफ से साफ किया कि कुछ हफ्ते पहले उन लोगों ने देखा कि कुछ कछुए सागर कुटीर वाडी के पास गड्ढा कर रहे हैं। उन लोगों ने मरीन बयॉलजिस्ट्स को सूचना दी थी। कछुओं के अंडे सेने की सूचना वन विभाग को भी मिली थी। मुंबई वन विभाग के कुछ अधिकारी मौके पर आए थे और पंचनामा किया था।

अनाम हीरो

ी ल ो ट ा व ु य ी क बाघोपुर बिहार में बाघोपुर के युवाओं द्वारा अपने गांव को स्वच्छ बनाने के लिए किया जा रहा प्रयास क्षेत्र में चर्चा का विषय बना हुआ है

म सुधरेंगे तो जग सुधरेगा, गांधी जी की इस सीख ने बिहार के एक गांव के युवाओं को स्वच्छता का ऐसा पाठ पढ़ाया कि आज उनके द्वारा किए गए कार्यों की मिसालें दी जा रही हैं। बिहार में समस्तीपुर स्थित बाघोपुर गांव के युवाओं ने बापू के आदर्शों पर चलते हुए अपने गांव-मोहल्लों को स्वच्छ बनाने का बीड़ा उठा लिया है। स्वच्छ भारत मिशन अभियान को गति देते हुए यहां के युवाओं की टोली सुबह-सुबह हाथों में झाड़ू लिए गली, सड़क व अपने आसपास पड़ी गंदगी व कचरे को साफ करने की मुहिम में जुट जाते हैं। गांव के युवा साप्ताहिक दिनचर्या के मुताबिक अलग-अलग टोली बनाकर नियमित तरीके से गांव की साफ-सफाई अभियान में लगे हुए हैं। धीरे-धीरे इनका सफाई अभियान कार्य का क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है। बाघोपुर के युवाओं द्वारा अपने गांव को स्वच्छ व साफ सुथरा बनाने के लिए किया जा रहा प्रयास क्षेत्र में चर्चा का विषय बना हुआ है। युवाओं की टोली निर्धारित दिन सुबह उठ कर यहां के लोग अपने अपने हाथों में झाड़ू लेकर सड़क सहित अन्य जगहों की साफ सफाई करते हैं। गंदगी पर नियंत्रण के लिए आपसी सहयोग से बाघोपुर बाजार में अब तक 26 हजार की लागत से डस्टबीन भी लगाया गया है़। इसी कड़ी में बाघोपुर बाजार के युवाओं की स्वच्छता टोली पास के नंदेनगर गांव में भी नया टोली गठित कर नारियल फोड़कर व फीता काटकर विधिवत स्वच्छता अभियान का शुरुआत किया है। तारीफ की बात यह है कि स्वच्छता के लिए यहां के युवा बिना किसी सरकारी सहायता या कोई शुल्क लिए आपसी सहयोग के बल पर यह अभियान चला कर मिसाल पेश कर रहे हैं। बाघोपुर में युवाओं की टोली का निर्माण 2 अक्टूबर 17 को किया गया था। उसी दिन से बाजार के सड़कों सहित क्षेत्र में गांवों में भी युवाओं के द्वारा साफ-सफाई का अभियान चलाया जा रहा है। नंदेनगर गांव के साथ अब दूसरे गांवों में भी युवाओं की टोली बननी शुरू हो गई है। इस अभियान से जुड़े युवाओं ने बताया कि सरकार के तंत्र के द्वारा अगर इस मुहिम में सहायता मिलती तो क्षेत्र के अलावा अन्य गांवों में भी जाकर स्वच्छता अभियान चलाया जा सकता है। इस अभियान में शौचालय का निर्माण भी शामिल है, जिससे खुले में शौच की समस्या पर विजय पाया जा सके।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 16


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