सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 18)

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मधुबनी के रंग में रंगा रेलवे स्टेशन

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तब सत्याग्रह अब स्वच्छाग्रह

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विरासत की रक्षा और सबक

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अरुणाचल में स्वच्छता का सूर्योदय

sulabhswachhbharat.com आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

सेवा के 17 वर्ष

अक्षय पात्र

अक्षय पात्र

वर्ष-2 | अंक-18 | 16 - 22 अप्रैल 2018

सबसे बड़ा स्कूली किचन स्कूली बच्चों को दोपहर का पौष्टिक खाना खिलाना बड़ी समस्या रही है। इस समस्या को हल करने में जुटा है अक्षय पात्र। जयपुर में ‘अक्षय पात्र’ की रसोई में हर सुबह डेढ़ लाख स्कूली बच्चों के लिए भोजन पकाया जाता है। इस संस्था की तरफ से इस तरह के और भी प्रयास देशभर में किए जा रहे हैं

खास बातें अक्षय पात्र रोजाना 16 लाख बच्चों को पौष्टिक खाना मुहैया कराता है देश के दस राज्यों में 22 स्थानों पर अक्षय पात्र की विशाल रसोई सरकार के साथ कई अन्य संस्थाओं का अक्षय पात्र को सहयोग

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चाहे आटा गूंथना हो, चावल साफ करना हो या फिर सब्जी काटनी हो, यहां हर काम के लिए अलग-अलग मशीनें हैं। बर्तन धोए तो हाथ से जाते हैं, पर उन्हें भाप से स्टरलाईज किया जाता है, ताकि बच्चों को मिलने वाला खाना बिल्कुल शुद्ध हो

एसएसबी ब्यूरो

क्षा की दरकार पर पेट की भूख हमेशा ही भारी पड़ती रही है, पर इस समस्या का तोड़ निकाला है देश की एक अनोखी संस्था ‘अक्षय पात्र’ ने। यह कोशिश देश के तमाम बच्चों को शिक्षित करने से जुड़ी इच्छाशक्ति का भी नाम है। क्या कभी आपने ऐसी मशीन देखी है जो घंटे में 40 से 60 हजार रोटियां बनाने के साथ-साथ उन्हें घी से चुपड़ भी डाले? क्या कभी आपने ऐसे पतीले देखे हैं, जिनमें तीन हजार लीटर दाल तैयार हो? क्या आपने कोई ऐसा रसोईघर देखा है जो हर सुबह डेढ़ से दो लाख बच्चों के लिए खाना पका कर उसे 40 से


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आवरण कथा

मधु पंडित दास

चेयरमैन अक्षय पात्र फाउंडेशन

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वर्षों से हम बच्चों को भोजन उपलब्ध कराकर उनके जीवन में परिवर्तन लाने की दिशा में लगातार मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं। हमें इस बात का विशेष तौर पर संतोष है कि इन वर्षों में हम देशभर में 33 केंद्रों के जरिए 16 लाख बच्चों को भोजन मुहैया करा रहे हैं। हम ये सब इसीलिए कर पाए, क्योंकि हमने खाना बनाने में नई तकनीक के प्रयोग के साथ खाने की स्वच्छता का भरपूर ख्याल रखा। हमारा लक्ष्य वर्ष 2010 तक 5 लाख बच्चों तक भोजन पहुंचाने का है। हमें इस बात का पूरा भरोसा है कि खाने के जरिए हम बच्चों को पढ़ाई के लिए स्कूल तक ला पाने में सफल होंगे। यह कार्य हमारे लिए कोई चैरिटी नहीं है, बल्कि इसे हम अपनी सामाजिक जिम्मेदारी मानकर कर रहे हैं।

80 किलोमीटर दूर स्थित स्कूलों में भोजन की घंटी बजने से पहले ही पहुंचा दे। जयपुर का ‘अक्षय पात्र’ ऐसा ही रसोईघर है। स्वयंसेवी संस्था ‘अक्षय पात्र’ फाउंडेशन ने देश के दस राज्यों में 33 स्थानों पर ऐसी रसोइयां बनाई हैं, जो 16 लाख बच्चों को रोजाना गर्म खाना मुहैया कराती है।

मिड-डे मिल कार्यक्रम

भारत में ऐसे तो 1925 में मद्रास नगरपालिका द्वारा स्कूली बच्चों को इंटरवल में खाना खिलाने की शुरुआत कर दी गई थी पर इसे बल मिला 2001 में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से, जिसमें देश के सभी सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए 300 कैलोरी और 100 ग्राम प्रोटीन वाला भोजन निशुल्क उपलब्ध कराने की बात कही गई थी।

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श्रीधर वेंकट

सीईओ अक्षय पात्र फाउंडेशन

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वर्ष पहले हमने क्लासरूम हंगर को समाप्त करने के लिए अपनी यात्रा शुरू की थी। इस दौरान जहां हमने अपने मकसद को हासिल करने में बहुत आगे बढ़े, वहीं हमने इस कार्य को करने का एक शानदार मॉडल विकसित किया। अक्षय पात्र की हर रसोई बच्चों को एक उम्मीद देती है। हम भोजन के जरिए न सिर्फ बच्चों को क्लासरूम तक ला रहे हैं, बल्कि उन्हें भविष्य में उड़ान भरने के लिए पंख भी मुहैया करा रहे हैं। अक्षय पात्र एक एेसी संस्था है, जिसका मस्तिष्क तो कॉरपोरेट की तरह काम करता है, लेकिन हृदय अमोल संवेदना से भरा है।

इसी के साथ अस्तित्व में आया ‘अक्षय पात्र’, जिसने बेंगलुरु के पांच स्कूलों में पढ़ने वाले 1500 बच्चों के लिए रसोईघर शुरू कर अपने मध्याह्न भोजन कार्यक्रम की शुरुआत की। आज ‘अक्षय पात्र’ देश के दस हजार से ज्यादा स्कूलों में बच्चों को दोपहर का भोजन उपलब्ध करा रहा है। ‘अक्षय पात्र’ की रसोई में एक साथ कई बर्तनों में लाखों रोटियां और हजारों लीटर दाल एक ही समय में बनाई जाती है। हर रसोई में रोटी बनाने वाली मशीन है, जो छह हजार किलो आटे से दो लाख रोटियां बनाने की क्षमता रखती है। चावल बनाने का बर्तन पांच सौ लीटर और दाल का बर्तन डेढ़ से तीन हजार लीटर की क्षमता वाला है। चाहे आटा गूंथना हो, चावल साफ करना हो या फिर सब्जी काटनी हो, यहां हर काम के लिए अलग-अलग मशीनें मौजूद हैं। बर्तन धोए तो हाथ से जाते हैं पर उन्हें भाप से स्टरलाईज किया जाता है, ताकि बच्चों को मिलने वाला खाना बिल्कुल शुद्ध हो।

‘अक्षय पात्र’ की कोशिश की वजह से सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले गरीब बच्चों के सपने आसमान छू रहे हैं। जो बच्चे सिर्फ दो वक्त की रोटी के बारे में सोचते थे, आज वे अपने आप से ऊपर उठकर दूसरों के अच्छे के लिए भी सोचने लगे हैं

अक्षय पात्र : स्थापना और घोषित लक्ष्य

‘अक्षय पात्र’ फाउंडेशन का अस्तित्व वर्ष 2000 में जब एक गैर लाभकारी संस्था के रूप में आया तो उस समय वह बेंगलुरु के पांच सरकारी विद्यालयों के 1500 छात्रों के भोजन की व्यवस्था कर रही थी। पर इस संस्था का पहले दिन से ही यह स्पष्ट लक्ष्य रहा कि कि देश में एक भी बच्चा भोजन के अभाव में शिक्षा से दूर न रह पाए। आज इस संस्था का भारत के साथ यूनाइटेड किंग्डम और अमेरिका जैसे देशों में विस्तार हुआ है। संस्था का लक्ष्य है कि वह वर्ष 2020 तक पचास लाख बच्चों को भोजन मुहैया कराएगा ताकि उनकी तालीम की राह में कम से कम रोटी कोई बाधा न बने। अक्षय पात्र के वर्किंग मॉडल को

लेकर हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक केस स्टडी भी की जा चुकी है। इस संस्था के कार्य के महत्व को देखते हुए ‘द ग्लोबल जर्नल’ ने इसे दुनिया के टॉप 100 एनजीओ में स्थान दिया है।

छह अहम लक्ष्य • • • •

पढ़ाई के लिए भूख से मुक्त कक्षाएं स्कूलों में नामांकन में वृद्धि स्कूलों में उपस्थिति में वृद्धि भोजन को लेकर जातीय विभेद समाप्त करना • बाल कुपोषण दूर करना • रोजगार के जरिए महिला सशक्तिकरण


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डाइटिशियन हिमांशी शर्मा का कहना है कि बच्चों के सही विकास के लिए आहार बड़ों से अलग होना चाहिए। उसमें फूड ग्रुप होने चाहिए। फूड ग्रुप में दूध और दूध से बनी चीजें होनी ही चाहिए। इसके अलावा फल, सब्जियां और दालों को खाने में शामिल करना बहुत जरूरी है सहयोग के लिए बढ़े हाथ

‘अक्षय पात्र’ को यूं तो सबसे ज्यादा आर्थिक सहायता भारत सरकार के मध्याह्न भोजन विभाग से मिलती है पर उसे विदेशी दानदाताओं की भी मदद मिल रही है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी अब इस काम में आगे आए हैं और अपने क्लिंटन ग्लोबल इनिशिएटिव से ‘अक्षय पात्र’ को जोड़ रहे हैं। अमेरिका में रहने वाले प्रवासी भारतीय देश देशपांडे का देश-फाउंडेशन क्लिंटन के इस कार्यक्रम को धन उपलब्ध करवा रहा है। भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति रविंदर चमड़िया भी इस अभियान में शामिल हो गए हैं और दोनों ने मिलकर सत्तर लाख अमेरिकी डॉलर दान देने की घोषणा की है। इस सिलसिले में करीब पांच लाख अमेरीकी डॉलर दिए भी जा चुके हैं, जिससे ‘अक्षय पात्र’ ने ओडिशा में अपनी नई रसोई शुरू की है, जबकि लखनऊ के रसोई घर का विस्तार किया गया है। इनसे लगभग एक लाख बच्चों को रोजाना गर्म खाना मुहैया किया जा सकेगा।

स्वादिष्ट और स्वस्थ भोजन

प्रसिद्ध एस्ट्रोनॉट सुनीता विलियम्स के गुजरात स्थित पैतृक गांव जुलासन के पास है डींगूचा प्राइमरी स्कूल। इस स्कूल में कक्षा छह में पढ़ने वाला देवल कन्नूजी ठाकुर ‘अक्षय पात्र’ के खाने का मुरीद है। उसके प्रिंसिपल जयेश भाई पटेल बताते हैं कि

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ऐसे हुई ‘अक्षय’ शुरुआत ‘अक्षय पात्र’ संस्था की शुरुआत के पीछे जो संवेदना और प्रेरणा जुड़ी है, उसका नाम है स्वामी प्रभुपाद

तक एक समय का पौष्टिक भोजन पहुंचाना, जो इससे वंचित हैं। जरा सोच कर देखिए कि जिस बच्चे ने कभी पेट-भर के खाना भी न खाया हो अगर उसे पौष्टिक के साथ स्वादिष्ट भोजन मिले तो उस बच्चे का मन कैसे खिल जाएगा? ऐसी ही कलियों को खुशबूदार फूलों के रूप में खिलाने की कोशिश है ‘अक्षय पात्र’। भारत में 5 साल से कम आयु के 21 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। 1998-2002 के बीच भारत में बाल कुपोषण 17.1 प्रतिशत था, लकाता के पास मायापुर गांव। प्रभुपाद फाउंडेशन’ की। जो 2012 से 2016 के बीच बढ़कर 21 प्रतिशत वहां एक मंदिर के उद्घाटन के लिए हो गया है। दुनिया के पैमाने पर यह काफी ऊपर आए थे। दोपहर का समय था, भक्तिवेदांत पांच स्कूलों से आगाज है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 25 सालों से स्वामी प्रभुपाद अपने कमरे की खिड़की से ‘अक्षय पात्र फाउंडेशन’ ने वर्ष 2000 में कर्नाटक भारत ने इस आंकड़े पर ध्यान नहीं दिया और न बाहर देख रहे थे। उनके साथ कुछ लोग ही इस स्थिति को ठीक करने की दिशा में कोई भी बैठकर बातचीत कर रहे थे। तभी बाहर स्वामी प्रभुपाद ने खिड़की से झांक कर उल्लेखनीय प्रगति हुई है। कुछ शोर हुआ। कुछ बच्चे चीख-चिल्ला रहे ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2017 में शामिल दे ख ा तो कुछ बच्चे एक कु त् तों के झु ड ं थे और कुत्ते भौंक रहे थे। स्वामी प्रभुपाद ने जिबूती, श्रीलंका और दक्षिण सूडान ऐसे देश खिड़की से झांक कर देखा, कुछ बच्चे एक से भोज के बाद वहां फेंके गए जूठन के हैं, जहां बाल कुपोषण का आंकड़ा 20 प्रतिशत कुत्तों के झुंड से भोज के बाद वहां फेंके गए लिए लड़ रहे थे। इस घटना ने प्रभुपाद के से अधिक है। इस सूचकांक के 4 प्रमुख जूठन के लिए लड़ रहे थे। मानकों में से कुपोषण भी एक है। इसी तरह कोमल मन को झकझोर दिया दरअसल, मंदिर के उद्घाटन के बाद यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वहां भोज हुआ था और बच्चे और कुत्ते प्लेटों में के पांच स्कूलों के 1,500 बच्चों को ‘मिड डे 80 मिलियन बच्चे 8 साल की उम्र से पहले पढ़ाई पड़े जूठे खाने के लिए लड़ रहे थे। इस घटना ने मील’ मुहैया कराने से इसकी शुरुआत की। इस छोड़ देते हैं, क्योंकि ये भूखे होते हैं और अपनी प्रभुपाद के कोमल मन को झकझोर दिया। उन्होंने कार्य में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के साथ भूख मिटाने के लिए इन्हें काम करना पड़ता है, वहां बैठे लोगों को बुला कर यह सब दिखाया कुछ अन्य संस्थाएं व परोपकारी लोग भी मदद लेकिन अगर काम करने से नहीं, बल्कि पढ़ाई और निश्चय किया की उनके सेंटर से दस मील करते हैं। आज यह संस्था कुल 11 राज्यों के करने से भूख मिटेगी तो स्वाभाविक है कि बच्चे तक कोई बच्चा दोपहर का खाना खाए बगैर 13,529 स्कूलों में मिड डे मील पहुंचा रही है। स्कूल आएंगे। इसी सोच के साथ ‘अक्षय पात्र’ नहीं रहेगा। इस तरह शुरुआत हुई ‘अक्षय पात्र इस मुहिम के जरिए कोशिश है उन लाखों बच्चों समाज में अहम योगदान दे रहा है।

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‘अन्न दान, सबसे बड़ा दान’

‘अक्षय पात्र फाउंडेशन’ के चेयरमैन मधु पंडित दास के साथ ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ की हुई बातचीत के महत्वपूर्ण अंश ‘अक्षय पात्र’ ने एक समय के खाने के लिए दोपहर के खाने का समय ही क्यों चुना?

खाना प्राण है और प्राण से ही जीवन है। इसीलिए अन्नदान को हमारे यहां सबसे बड़ा दान माना गया है। हमने ‘मिल डे मील’ पर ध्यान इसीलिए दिया, क्योंकि हम चाहते थे भोजन की कमी की वजह से कोई भी बच्चा स्कूल जाने से वंचित न रहे। यह हमारा मिशन भी है। हम चाहते हैं कि देशभर में सभी बच्चों को कम से कम एक वक्त का सही भोजन मिल सके, ताकि उनका संपूर्ण विकास हो। इन सब के लिए स्कूल हमारे लिए सबसे अनुकूल जगह थी। जो बच्चे आते हैं, उन्हें तो अच्छा खाना मिले ही। अच्छे खाने की उम्मीद में कुछ और भी बच्चों ने स्कूल आना शुरू कर दिया।

‘अक्षय पात्र’ संस्था की शुरुआत कब और क्यों हुई?

वर्ष 2000 में बेंगलुरु का इस्कॉन मंदिर बनकर तैयार हुआ। तब मोहनदास पाई (मनिपाल यूनिर्वसिटी के संस्थापक) यहां आए। उन्होंने हमसे कहा कि यह बहुत अच्छी बात है कि आप यहां आने वालों को खिलाते हो पर क्यों न कुछ गरीब बच्चों को भी खिलाया जाए? तब मैंने कहा कि ठीक है। बस, आप खाना पहुंचाने के लिए एक गाड़ी हमें दे दो। उन्होंने गाड़ी दे दी और तभी से हमारा यह मिशन शुरू हो गया।

आपके इस प्रयास से बच्चों को स्वादिष्ट भोजन और पढ़ाई तो मिल ही रहा है, कोई और बात जिसे आप उपलब्धि की तरह देखते हो?

जब हमने खाना पहुंचाने की शुरुआत की थी, तब बेंगलुरु के ही एक स्कूल से कुछ आपत्तियां आईं। दरअसल, एक खास वर्ग के लोग नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे मंदिर से आया हुआ खाना खाएं। तब हमने उन लोगों के साथ मीटिंग की और एक घंटे बैठकर उन्हें समझाया कि हमारी संस्था एक धर्मनिरपेक्ष संस्था है। समझाने के बाद वे समझ गए और मान भी गए। ऐसी ही यूपी के एक गांव में भी देखने को मिला, जहां एक स्कूल में दो जातियों के बच्चों को खाने के लिए अगल-अलग बिठाते थे। धीरे-धीरे दोनों बच्चे खुद ही घुल-मिलकर खाने लगे।

खाना बनाते समय किन बातों का खासतौर पर ध्यान रखा जाता है?

खाना बनाते समय हम सबसे पहले तो साफ-सफाई का खास ध्यान रखते हैं। खानसामा कभी भी खाने को हाथ से नहीं छूता। हाथ और बाल कवर रहते हैं। आटा गूंथने से लेकर रोटियों में घी लगाने तक सारा काम मशीन से ही होता है। इसके अलावा हम जगह के हिसाब से डिश बदल देते हैं। जैसे कि जब हम बंगलुरु में सांभर और चावल देते हैं, तो यूपी में रोटी, दाल और सब्जी ताकि बच्चे ठीक से खाना खाएं। देवल अभी से स्पेस मॉडल और रॉकेट बनाने लगा है। उसका वक्त या तो मॉडल बनाने में गुजरता है या फिर गणित की कक्षा में। पर खाना परोसे जाने से दस मिनट पहले ही वो भोजन कक्ष के चक्कर

पहले तो हमारे पास दो-तीन बड़े डोनर ही थे पर अब काफी लोग हमसे जुड़ गए हैं और हम आशा करते हैं कि अपने नाम की तरह हमारा ‘अक्षय पात्र’ भूखों को खाना खिलाता रहेगा इस संस्था को चलाने के लिए आपको सरकार से अनुदान मिलता है, साथ ही कुछ प्राइवेट संस्थाएं भी आपकी मदद करती हैं। क्या दोनों तरफ से मदद जरूरी है और आप इसे कैसे खर्च करते हैं? एक प्लेट खाना बनाने में कुल खर्च दस रुपए का होता है जबकि सरकार हमें 6 रुपए देती है। तो हम दान में आए पैसों को खाने की क्वालिटी बेहतर करने के लिए लगाते हैं। पहले तो हमारे पास दो-तीन बड़े डोनर ही थे पर अब काफी लोग हमसे जुड़ गए हैं

लगाना शुरू कर देता है। इस भोजन ने उसे काफी मदद दी है, क्योंकि घर की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण स्कूल में मिलने वाला भोजन ही उसके दिन का पहला और कभी कभी तो आखिरी

और हम आशा करते हैं कि अपने नाम की तरह हमारा ‘अक्षय पात्र’ भूखों को खाना खिलाता रहेगा।

क्या आप लोग स्कूल के अलावा भी कहीं अपनी सेवाएं देते हैं?

आंगनबाड़ी, आपदा राहत, स्तनपान कराने वाली माताओं, वृद्धाश्रमों, विशेष स्कूलों, बेघर बच्चों, आर्थिक रूप से वंचितों के लिए दोपहर के भोजन की सब्सिडी, सामुदायिक स्वास्थ्य शिविरों, स्वास्थ्य जांच शिविरों में भी दूध और खाना मुहैया कराते हैं।

भोजन होता है। जयपुर से पैंतीस किलोमीटर दूर चाकसू के खाजलपुरा गांव के बच्चों के लिए तो यह भोजन किसी वरदान से कम नहीं है। स्कूल के प्रिंसिपल रमेश पारिख बताते हैं कि उनके स्कूल के

ज्यादातर बच्चे किसान परिवारों के हैं और उनके मांबाप सुबह जल्दी काम पर निकल जाते हैं। ऐसे में स्कूल में मिलने वाला भोजन ही उनके लिए एकमात्र सहारा है।


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तुम्हें लिखना है, पढ़ना है, आगे ही बढ़ना है

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क्षय पात्र’ के बड़े मुरीदों में प्रसिद्ध गायक शंकर महादेवन और मशहूर शायर जावेद अख्तर शामिल हैं। दोनों को यह कार्यक्रम इतना भाया है कि जावेद अख्तर ने तो बच्चों को स्कूल आने और उन्हें नियमित रूप से

अक्षय पात्र उत्तर भारतीय

दिन व्यंजन सोमवार रोटी, मटर, सोया-पनीर, फल मंगलवार भात, मिक्स दाल भात, लौकी-चना दाल भात, पालक- दाल (शरद ऋतु) बुधवार वेज पुलाव, खीर गुरुवार रोटी, आलू, राजमा-सब्जी रोटी, मिक्स वेज, सोया चंक शुक्रवार वेज पुलाव, खीर शनिवार भात, आलू-चना सब्जी

पवित्र प्रेरणा

‘अक्षय पात्र’ की कोशिश की वजह से सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले गरीब बच्चों के सपने आसमान छू रहे हैं। जो बच्चे सिर्फ दो वक्त की रोटी के बारे में सोचते थे, आज वे अपने आप से ऊपर उठकर दूसरों के अच्छे के लिए भी सोचने लगे हैं। तमिलनाडु के तारावनहल्ली के हायर प्राइमरी स्कूल की कक्षा-5 की छात्रा नागम्मा समाज सेविका बनना चाहती हैं। नागम्मा बहुत ही गरीब परिवार से आती है। इसके माता-पिता दोनों ही मजदूरी करके अपना परिवार चलाते हैं। नागम्मा के परिवार में एक छोटी बहन और भाई भी हैं। वह कहती है, ‘स्कूल में खाना मिल पाता है, इस वजह से मेरे माता-पिता को मुझे स्कूल भेजने में काफी मदद मिलती है। कम से कम एक समय के खाने के बारे में उन्हें नहीं सोचना पड़ता। मैं बड़ी होकर समाज सेविका बनना चाहती हूं। किसी के परोपकार की वजह से ही तो हम सब पढ़ पा रहे हैं। इसीलिए हमें भी दूसरों के बारे में सोचना चाहिए।’ यह बच्ची जिस तरह अपने अलावा सोचने

दक्षिण भारतीय

दिन सोमवार

व्यंजन रोटी और सांभर

बुधवार

टमाटर चटनी, मीठा पोंगल और दही

शुक्रवार

भात, रसम और दही

मंगलवार

गुरुवार

शनिवार

भोजन करने के लिए उत्साहित करने के उद्देश्य से एक गीत लिख डाला है। जैसलमेर में शूट किए गए इस गीत ‘तुम्हें लिखना है, पढ़ना है, आगे ही बढ़ना है।’ ने ऐसी धूम मचाई कि देश के मेट्रो रेलवे स्टेशनों से ले कर विभिन्न टीवी चैनलों पर यह छा गया।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी अब इस काम में आगे आए हैं और अपने क्लिंटन ग्लोबल इनिशिएटिव से ‘अक्षय पात्र’ को जोड़ रहे हैं

शिक्षा के लिए भरपूर भोजन

व्यंजन

‘अक्षय पात्र’ के कार्य के प्रशंसकों में प्रसिद्ध गायक-संगीतकार शंकर महादेवन और मशहूर शायर और पटकथा लेखक जावेद अख्तर भी शामिल हैं

भात और सांभर

भात और स्वास्तिक सांभर मीठा पोंगल

की कोशिश करती है, वह इस महान अभियान से जुड़ी पवित्र प्रेरणा के कारण ही संभव हो पाया है। नागम्मा को उम्मीद है कि वह अपने सपने साकार कर लेगी। अलबत्ता उसके दिल के एक कोने में एक डर भी है कि कहीं गरीबी बीच में रास्ता न रोक दे। लेकिन, जब सोच सही हो तो परिणाम अच्छे होने के आसार तो बनते ही हैं। ऐसी ही कहानी है बडोदरा के आदित्य की है। आदित्य सातवीं कक्षा में पढ़ता है और बड़ा होकर देश की रक्षा के लिए सेना में जाना चाहता है। आदित्य कहता है, ‘सीमा पर जवान अपने प्राण न्योछावर करते हैं। हमेशा कोई न कोई होना चाहिए उस खाली जगह को भरने के लिए, ताकि दुश्मन हम पर कभी हमला न कर सके।’ आदित्य को स्कूल आना बहुत पसंद है। यहां उसे अच्छा खाना तो मिलता ही है, साथ ही पढ़ाई के अलावा भी काफी कुछ सीखने को मिलता है। वो कहता है कि मैं स्कूल से कभी छुट्टी नहीं करता। यहां एथेलेटिक्स, क्रिकेट और फुटबॉल खेलने को मिलता है। इसके अलावा यहां मिलने वाली रोटी-सब्जी और खिचड़ी भी मुझे बहुत पसंद

है। मैं मंगलवार का खासतौर पर इंतजार करता हूं, क्योंकि उस दिन हमें खिचड़ी खाने को मिलती है।

स्वस्थ बचपन, स्वस्थ देश

नागम्मा और आदित्य जैसे सैकड़ों बच्चे हैं, जिन्हें ‘अक्षय पात्र’ की वजह से या तो स्कूल आने को मिलता है या वे स्कूल आना पसंद करते हैं। सीनियर डाइटिशियन हिमांशी शर्मा का कहना है कि बच्चों के सही विकास के लिए आहार बड़ों से अलग होना चाहिए। उसमें फूड ग्रुप होने चाहिए। फूड ग्रुप में दूध और दूध से बनी चीजें होनी ही चाहिए। इसके अलावा फल, सब्जियां और दालों को खाने में शामिल करना बहुत जरूरी है। अगर बच्चा दाल नहीं खाना चाहता, तो उसकी जगह मीट खिला सकते हैं। बच्चों के विकास के लिए फैट बहुत जरूरी है, लेकिन सही तरह का फैट ही दें। अगर इन सारी चीजों का प्रयोग पूरे दिन में हो जाए तो बच्चे को संतुलित आहार मिल सकता है। ‘अक्षय पात्र’ की पीआर नीलिमा सोम शेखर का कहना है कि इन्हीं न्यूट्रीशियन वैल्यू को बनाए रखने के लिए हम बच्चों के खाने में दिन के हिसाब से बदलाव करते हैं, ताकि उन्हें सही और पूरा न्यूट्रीशन मिल सके और उनका समुचित विकास हो सके।

उम्मीदों का पात्र

मेंगलुरु के बेंगरे कस्बा के सरकारी स्कूल की शिक्षिका लीलावती का कहना है कि गरीब परिवार के बच्चों के लिए एक कटोरी पायस (खीर) किसी सुख से कम नहीं है। एक बच्चा जिसे भरपेट खाना भी न मिलता हो उसे अगर पायस खाने को मिल जाए तो वो हर हाल में स्कूल आना चाहेगा। लीलावती कहती हैं, ‘मैं इस स्कूल में लंबे समय से काम कर रही हूं। मैंने बच्चों की सेहत और उनके एकाग्रता में आए बदलाव को देखा है।’ गुजरात के एनटी कुमार प्राथमिक शाला में

दोपहर का खाना भी ‘अक्षय पात्र’ की तरफ से ही आता है। ये वडोदरा के पादरा तालुक का एक प्राथमिक स्कूल है। इस स्कूल में गरीब परिवार के 345 बच्चे पढ़ते हैं। इस स्कूल के प्रधानाध्यापक इस्माइल मलिक का कहना है कि ज्यादातर बच्चों के माता-पिता 2-3 हजार महीना कमाते हैं। वे अपने बच्चों को इसीलिए यहां भेजते हैं, ताकि उन्हें कम से कम एक वक्त का पौष्टिक खाना मिल सके। जब से ‘अक्षय पात्र’ से खाना आना शुरू हुआ है, बच्चे रोज स्कूल आते हैं और बीच में ही स्कूल छोड़ देने वालों की संख्या में भी कमी आई है।

स्वच्छता को प्राथमिकता

11 राज्यों के 27 जगहों पर बने ‘अक्षय पात्र’ के किचन में खाना बनाते समय सफाई का काफी खयाल रखा जाता है। खाना बनाने के लिए ज्यादातार मशीनों का इस्तेमाल होता है। चावल और दाल बनाने के लिए कढ़ाही में एक बार में 500 किलो चावल और 3000 लीटर दाल बनने की क्षमता है। सब्जियां काटने के लिए इस्तेमाल में आने वाले चाकू और छुरियों को इस्तेमाल से पहले स्टरलाइज किया जाता है। यहां रोटी बनाने की मशीन में एक घंटे में 2 लाख रोटियां बनती हैं। यहां काम करने वाले हर एक कुक को काम पर रखने से पहले ट्रेनिंग दी जाती है। किचन से खाना स्कूलों और आंगनबाड़ियों तक छोटी-छोटी गाड़ियों में भरकर पहुंचाया जाता है।

सेवा को सम्मान

‘अक्षय पात्र’ को अपने कार्य के लिए कई बार सम्मानित किया जा चुका है। इन सम्मानों में ‘कलाम मेमोरियल अवार्ड’ और ‘मदर टेरेसा अवार्ड’ भी शामिल हैं। इस संस्था को चलाने के लिए देश विदेश से लाखों श्रद्धालु दान देते हैं ताकि ‘अक्षय पात्र’ निरंतर गरीबों का पेट भरता रहे।


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समारोह

16 - 22 अप्रैल 2018

तब सत्याग्रह अब स्वच्छाग्रह

एक वर्ष तक चले चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह के समापन समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया स्वच्छाग्रह का संदेश। साथ ही उन्होंने इस अवसर पर बिहार से जुड़ी कई परियोजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण किया

खास बातें

एक वर्ष पूर्व पूरे देश में शुरू हुआ चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह सत्याग्रह की तरह आज स्वच्छाग्रह देश को नई दिशा दे रहा है -पीएम 3.5 लाख गांव खुद को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर चुके हैं पर काम किया जा रहा है। मोदी ने बताया की जिन पांच राज्यों से होकर गंगा बहती है, वहां गंगा किनारे के गांवों में कचरा प्रबंधन की योजनाएं चलाई जा रही हैं।

शिलान्यास और लोकार्पण

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एसएसबी ब्यूरो

धानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चंपारण सत्याग्रह शताब्दी समारोह के समापन के अवसर पर सत्याग्रह से स्वच्छाग्रह अभियान में देशभर से जुटे हजारों स्वच्छाग्रहियों को संबोधित किया। प्रधानमंत्री ने कहा कि आज से 100 वर्ष पहले इसी चंपारण में महात्मा गांधी ने चंपारण सत्याग्रह शुरू किया था। आज इतिहास फिर से दोहरा रहा है और जिस तरह 100 वर्ष पहले सत्याग्रह में लोग जुटे थे, उसी तरह स्वच्छाग्रह में देशभर से हजारों लोग जुटे हैं। महात्मा गांधी द्वारा स्वच्छता पर विशेष जोर देने का जिक्र करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि सत्याग्रह की तरह ही आज स्वच्छाग्रह देश के लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन को नई दिशा दे रहा है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि जब तब देश का हर व्यक्ति अपने स्तर से स्वच्छता के लिए प्रयास नहीं करेगा, अपने जीवन का हिस्सा नहीं बनाएगा, तब तक स्वच्छ भारत मिशन पूरा नहीं हो पाएगा।

भोजपुरी में बोले पीएम

चंपारण की ऐतिहासिक धरती पर प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन की शुरुआत भोजपुरी में की। उन्होंने कहा, ‘स्वच्छाग्रही भाई-बहीन लोगन के हम प्रणाम करत बानी। रउआ सब जान रहल बानी कि चंपारण के एही धरती पर बापू आंदोलन के शुरुआत कइले रहन। सत्याग्रह से स्वच्छाग्रह आज के समय के मांग बा। बरहरबा लखनसेन से गांधी जी स्वच्छता अभियान के शुरुआत कइले रहलन। आज हम बापू

के अभियान के रउआ सब के सहयोग से आगे बढ़ावे के खतिर आइल बानी।’

स्वच्छता का बढ़ा दायरा

प्रधानमंत्री ने पिछले सौ वर्षों में हर चुनौती के वक्त बिहार द्वारा अगुवाई करने का जिक्र करते हुए कहा कि आज एक बार फिर बिहार सत्याग्रह से स्वच्छाग्रह की इस यात्रा की अगुवाई कर रहा है। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी के नेतृत्व में बिहार ने स्वच्छता के आंदोलन को आगे बढ़ाया है। पहले देश में बिहार ही एक मात्र ऐसा राज्य था, जहां स्वच्छता का दायरा 50 प्रतिशत से कम था, लेकिन पिछले एक हफ्ते के अंदर यहां 8 लाख 50 हजार से ज्यादा शौचालयों का निर्माण किया गया है। इस आंकड़े से लगता है कि जल्द ही बिहार स्वच्छता का दायरा बढ़ाकर राष्ट्रीय औसत तक ले आएगा। उन्होंने बताया कि 2014 में जब स्वच्छता मिशन शुरू हुआ था तब देश में स्वच्छता का दायरा सिर्फ 40 प्रतिशत से कम था और आज चार वर्षों के बाद स्वच्छता का दायरा दोगुना बढ़कर 80 प्रतिशत हो गया है। आज देश के 350 से ज्यादा जिले, 3.5 लाख गांव खुद को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर चुके हैं। देश में अब तक 7 करोड़ से अधिक

शौचालयों का निर्माण किया जा चुका है। पिछले एक हफ्ते के भीतर ही बिहार, यूपी, ओडिशा और जम्मू-कश्मीर में 26 लाख शौचालयों का निर्माण किया गया है। स्वच्छता अभियान का सबसे अधिक फायदा देश की करोड़ो-करोड़ महिलाओं को मिला है।

आम लोगों की भागीदारी

इस ऐतिहासिक अवसर पर प्रधानमंत्री ने कहा कि स्वच्छता अभियान में जिस तरह के देश के आम लोगों ने भागीदारी की है, वह एक मिसाल है। मोतिहारी की ऐतिहासिक झील के पुनरुद्धार का शुरू किया जा रहा है, भविष्य में यह झील यहां पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनेगी। बेतिया में अमृत योजना के तहत 100 करोड़ की लागत से पेयजल की आपूर्ति की परियोजना का शिलान्यास किया गया। उन्होंने बताया कि गंगा को निर्मल करने के लिए गंगोत्री से गंगा सागर तक स्वच्छता अभियान चलाया रहा है। इसी के गंगा में घरों और फैक्ट्री के दूषित पानी को प्रवाह को रोकने के लिए बिहार में अब तक 3 हजार करोड़ से ज्यादा के 11 प्रोजेक्ट की मंजूरी दी जा चुकी है। इस राशि से 11 सौ किलोमीटर से लंबी सीवेज लाइन बिछाने की योजना

जब तब देश का हर व्यक्ति अपने स्तर से स्वच्छता के लिए प्रयास नहीं करेगा, अपने जीवन का हिस्सा नहीं बनाएगा, तब तक स्वच्छ भारत मिशन पूरा नहीं हो पाएगा – नरेंद्र मोदी

इस अवसर पर प्रधानमंत्री बिहार से जुड़ी 6,600 करोड़ रुपए की परियोजनाओं का शिलान्यास और लोकार्पण किया। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार बिहार समेत पूरे पूर्वी भारत की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बना रही हैं। सरकार के विशेष ध्यान कनेक्टिविटी सुधारने पर हैं। 21वीं सदी की आवश्यकताओं को देखते हुए इन इलाकों में हाईवे, रेलवे, वॉटरवे, आईवे का विकास किया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर औरंगाबाद से चोरदह तक 4 लेन से 6 लेन बनाने के 900 करोड़ रुपये के नेशनल हाईवे प्रोजेक्ट का शिलान्यास किया। इस मौके पर चंपारण के लिए दो रेल परियोजनाओं का भी शिलान्यास किया गया। पीएम मोदी ने चंपारण सत्याग्रह के सौ वर्ष के अवसर पर कटिहार से पुरानी दिल्ली तक चलने वाली चंपारण हमसफर एक्सप्रेस नाम की नई ट्रेन को भी हरी झंडी दिखाई। इस अवसर पर उन्होंने मधेपुरा में इलेक्ट्रिक लोकोमोटिव फैक्ट्री के फेज वन का भी लोकार्पण किया गया है। इस फैक्ट्री में मेक इन इंडिया के तहत दुनिया में सबसे शक्तिशाली इलेक्ट्रिक इंजन तैयार होंगे। प्रधानमंत्री ने इस फैक्ट्री में बने 12 हजार हॉर्स पावर वाले पहले इंजन को हरी झंडी भी दिखाई। उन्होंने कहा कि इस प्रोजेक्ट को 2007 में मंजूरी दी गई थी लेकिन पूर्व की सरकार ने अपनी लटकाने, भटकाने, अटकाने की नीति की तहत इसकी फाइल को 8 वर्षों तक दबाकर रखा था, लेकिन एनडीए सरकार ने इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया। अब इसका पहले फेज पूरा हो चुका है। प्रधानमंत्री ने मोतिहारी और सुगौली में एलपीजी प्लांट लगाने के प्रोजेक्ट्स का भी शिलान्यास किया।


16 - 22 अप्रैल 2018

स्वास्थ्य

छात्रों ने थैलासीमिया के मरीजों के लिए जुटाए 26 लाख

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थैलासीमिया एक रक्त विकार है, जिसमें शरीर हीमोग्लोबिन की सबसे कम मात्रा उत्पादित करता है

जी उलगनाथन

ज देश के युवा समाज में फैली समस्याओं के निदान के लिए आगे आ रहे हैं, बल्कि उन समस्याओं के लिए उपयुक्त उपाय भी बता रहे हैं। ऐसे ही कुछ युवा बेंगलुरु के दिल्ली पब्लिक स्कूल के हैं, जो आजकल थैलासीमिया से पीड़ित मरीजों के लिए कार्य कर रहे हैं। बेंगलुरु में दिल्ली पब्लिक स्कूल (दक्षिण) के छात्रों ने थैलासीमिया से पीड़ित मरीजों के लिए 45 दिनों में 26 लाख रुपए जुटाए हैं। डीपीएस दक्षिण की प्रिंसिपल मंजू शर्मा ने कहा कि स्कूल ने छात्रों को संवेदनशील बनाने और उन्हें समाज में बदलाव लाने के लिए प्रेरित किया है। बीमारी के बारे में उनसे बात करते हुए, कई छात्रों ने स्वीकार किया कि वे जानते हैं कि इस विकार से पीड़ित व्यक्ति के शरीर में खून की कमी हो जाती है। थैलासीमिया एक रक्त विकार है, जिसमें शरीर हीमोग्लोबिन की सबसे कम मात्रा उत्पादित करता है। कक्षा 8, 9 और 11 के छात्र धन जुटाने के विचार से एक साथ आए। पहले छह दिनों में उन्होंने 13 लाख रुपए जुटाए। बता दें कि यह अभियान थैलासीमिया से पीड़ित लोगों को मुफ्त रक्त संक्रमण प्रदान करने के लिए समर्थन करता है। प्रत्येक आधान की लागत 2,000 रुपए है और डीपीएस पर प्रत्येक छात्र ने 20,000 रुपए जुटाए हैं जो उनकी रक्त संक्रमण लागत के लिए 10 व्यक्तियों की सहायता करेगा। कक्षा 8 की छात्रा श्रेया आदित्य ने छह दिनों में

1.22 लाख रुपए की पर्याप्त राशि जमा की। उनका अंतिम योगदान 1,28,375 रुपए था। श्रेया ने कहा कि मैंने 2,000 रुपए के साथ शुरू किया, जो मेरे माता-पिता ने मुझे दिया था। तब मैं एक घर से दूसरे घर गई और थैलासीमिया के बारे में अपने पड़ोसियों से बात की। इसके अलावा श्रेया ने अपने दोस्तों के दोस्तों के साथ भी संपर्क किया और सभी को इस बीमारी के बारे में बताया। कक्षा 11 की छात्रा वंशिका सथुरी कहती हैं कि पैसे इकट्ठा करने से ज्यादा, इस बीमारी के बारे में जागरूकता फैलाना मेरे लिए काफी महत्वपूर्ण था। वंशिका ने बताया कि मेरे जन्मदिनों पर मेरे मातापिता और मैं अनाथ व गरीब बच्चों को कंबल देते हैं, लेकिन यह सब कुछ उससे अलग था। वंशिका बताती है, ‘मैंने लोगों की एक सूची बनाकर काम करना शुरू किया। हमने सभी से थैलासीमिया के बारे में बात की। मैंने व्यक्तिगत संदेश भेजे और थैलासीमिया के बारे में बात करने के लिए लोगों के साथ बैठकें कीं। इसके लिए मैने ने 52,950 रुपए इकट्ठा किए हैं।’ यह पहल बंगलोर मेडिकल सर्विसेज ट्रस्ट (बीएमएसटी) के साथ साझेदारी में की गई है, जो रोटरी क्लब ऑफ बेंगलुरु और टीटीके ग्रुप ऑफ

कंपनीज द्वारा स्थापित है। बीएमएसटी कर्नाटक भर में रोगियों और अस्पतालों को रक्त बैंकिंग सेवाएं प्रदान कर रहा है। थैलासीमिया के रोगियों को पूरा करने वाली दिन की देखभाल की सुविधा 1991 से चल रही है और वर्ष 2010 में नियंत्रण और रोकथाम कार्यक्रम शुरू किया गया था। बीएमएसटी के ट्रस्टी डॉ. लाथा जगन्नाथन कहते हैं कि हमने 10 जनवरी, 2018 को 26 लाख रुपए प्राप्त किए। इसका उपयोग थैलासीमिया से पीड़ित रोगियों में लगभग 1,300 रक्त आधान किया जा रहा है। एक रोगी को हर 20 दिनों में प्रति दिन एक आधान की आवश्यकता होती है। रक्तस्राव की संख्या पीड़ित की उम्र, वजन और चिकित्सा स्थिति की गंभीरता पर निर्भर करता है। फ्यूलड्रीम डॉट कॉम के संस्थापक रंगनाथ थोटा ने कहा कि यह हमारे अब तक के सबसे अच्छ प्रदर्शन करने वाले अभियानों में से एक है। जिसे हमने छात्रों को बड़ी लगन के साथ करते देखा है और यह हमारे विश्वास को मजबूत करता है कि युवा दिमाग तकनीक के साथ कैसे बेहतर काम कर सकते हैं। यह एक सहयोगी प्रयास है, जिस पर छात्रों के माता-पिता ने भी कुछ मदद की। हम इस पहल के प्रारंभिक परिणाम से रोमांचित हैं।

यह हमारे अब तक के सबसे अच्छ प्रदर्शन करने वाले अभियानों में से एक है। जिसे हमने छात्रों को बड़ी लगन के साथ करते देखा है और यह हमारे विश्वास को मजबूत करता है कि युवा दिमाग तकनीक के साथ कैसे बेहतर काम कर सकते हैं

खास बातें बेंगलुरु डीपीएस के छात्रों का बड़ा अभियान थैलासीमिया के मरीजों के साथ आए स्कूल के छात्र थैलासीमिया के को लेकर जागरुकता फैलाने में निभार्द भूमिका थैलासीमिया एक रक्त विकार है, जहां शरीर में हिमोग्लोबिन की ओथलासिमाइम्प्टिम राशि से कम उत्पादन होता है, जो शरीर के बाकी हिस्सों में ऑक्सीजन प्रदान करता है। नतीजतन, इस बीमारी के लिए आजीवन रक्त संक्रमण आवश्यक है। थैलासीमिया का निदान गर्भ में 10-11 सप्ताह के रूप में किया जा सकता है, जैसे कि अम्निओसेंटेसिज और कोरियोनिक विली नमूना। नियमित रक्त गणना के माध्यम से व्यक्ति को थैलासीमिया के लिए भी परीक्षण किया जा सकता है। थैलासैमी रोगियों में प्रजनन क्षमता या बांझपन कम हो सकता है। थैलासीमिया के प्रारंभिक उपचार रोगियों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए बहुत प्रभावी साबित हुआ है। वर्तमान में, आनुवांशिक परीक्षण, परामर्श और जन्मपूर्व निदान इस रोग की रोकथाम, प्रबंधन और उपचार के आसपास व्यक्ति के साथ-साथ व्यावसायिक निर्णय को सूचित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।


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विशेष

16 - 22 अप्रैल 2018

विश्व पृथ्वी दिवस (21 अप्रैल) पर विशेष

पृथ्वी प्रकृति और गांधी

पृथ्वी और प्रकृति को लेकर जो चिंताएं आज संयुक्त राष्ट्र से लेकर विभिन्न वैश्विक मंचों पर साझा की जा रही हैं, महात्मा गांधी ने उनकी चर्चा और समाधान का ब्लूप्रिंट दुनिया के सामने काफी पहले रख दिया था

रचना मिश्रा

हात्मा गांधी ने जब दुनिया को सत्य, अहिंसा और प्रेम का सबक सिखाया तो वह कहीं न कहीं अपने दौर से आगे की चुनौतियों को समझ रहे थे। उनके विचार और कार्यक्रमों में उन तमाम समस्याओं का समाधान है, जिस पर आज दुनिया के तमाम देश तो अलगअलग स्वर में बात कर ही रहे हैं, संयुक्त राष्ट्र भी इसके लिए अपने स्तर से कई प्रयास कर रहा है। इन समस्याओं में सबसे अहम दो मुद्दे हैं- पर्यावरण और पृथ्वी की रक्षा। वैसे यहां यह जानना दिलचस्प

खास बातें गांधी जी पर्यावरण की जगह प्रकृति शब्द का इस्तेमाल करते थे राजस्थानी भाषा में मेघ या बादल के लिए दर्जनों शब्द हैं वृक्ष-पूजा का एक गहरा आर्थिक महत्व है- महात्मा गांधी

आज अर्थ और विकास की हर उपलब्धि को जिस समावेशी दरकार पर खरे उतरने की बात हर तरफ हो रही है, उसके पीछे का तर्क गांधी की समन्वयवादी अवधारणा की ही देन है है कि गांधी जी के लेखन या चिंतन में ‘पर्यावरण’ शब्द का प्रयोग कहीं नहीं मिलता है। वैसे हिंदी में ‘पर्यावरण’ शब्द ‘एन्वायरमेंट’ शब्द के हिंदी अनुवाद से ही ज्यादा प्रचलन में आया है। वरिष्ठ पर्यावरणविद अनुपम मिश्र कहते थे कि ‘अगर हमें जीवन और प्रकृति के बीच संबंधों को लेकर उनके देशज जड़ों तक पहुंचना है तो हमें देशज भाषा की मदद लेनी चाहिए।’ उन्होंने शोध करके बताया था कि ‘जिस राजस्थान में बादल का बरसना तो दूर, उसकी छाया भी वहां के लोगों नसीब नहीं होती, वहां बादल और मेघ के लिए एक-दो नहीं, बल्कि दर्जनों स्थानीय शब्द हैं। तारीफ यह कि इसमें एक भी शब्द दूसरे शब्द के पर्यावाची नहीं, बल्कि सभी अलग-अलग अर्थों को अभिव्यक्त करते हैं।’ साफ है कि पर्यावरण शब्द का प्रचलन और उसको लेकर चिंता भले नई हो, पर पर्यावरण के साथ हमारे भाषिक-सांस्कृतिक सरोकार और संस्कार बहुत पहले से जुड़े रहे हैं। इन सरोकारोंसंस्कारों के कारण ही कई लोग खुद को पर्यावरण कार्यकर्ता या प्रेमी कहलाने के बजाय प्रकृतिवादी अथवा प्रकृति प्रेमी कहलाना पसंद करते हैं।

दरअसल, सभ्यता विकास के जिन आरंभिक बोधों के साथ मनुष्य आगे बढ़ा, उनमें हवा, पानी, पर्वत, नदी, वन, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि के साथ एक समन्वयवादी संबंध शामिल रहा। उषा की प्रार्थना, सूर्य नमस्कार, नदियों की पूजा-आरती, पर्वतों की वंदना, जड़-चेतन सबमें ब्रह्म के होने की दार्शनिक अवधारणा, प्रकृति के प्रति करुणा का भाव आदि ने एक तरह से भारतीय जीवनशैली को गढ़ा है। भारतीय चिंतन की यही प्रवृति हमें गांधी के चिंतन में भी दिखाई पड़ती है।

प्रकृति और करुणा

गांधी पर्यावरण शब्द का इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि उनके समय में यह शब्द प्रचलित नहीं था। पर पर्यावरण को लेकर आज जो भी आशय प्रकट किए जाते हैं या चिंता जताई जा रही है, गांधी उससे पूरी तरह जुड़े दिखाई पड़ते हैं। प्रेम और करुणा का भाव उन्हें प्रकृति के साथ रचनात्मक साहचर्य के लिए तो प्रेरित करता ही रहा, संत विनोबा सरीखे कुछ विद्वानों की नजर में ये भाव उन्होंने प्रकृति से ही ग्रहण भी किए। प्रकृति प्रदत्त नियमों से उनका

गहरा लगाव व्यवहार में तो सामने आया ही है, इसे उन्होंने शब्दों में भी व्यक्त किया है। 20 अक्टूबर 1927 के ‘यंग इंडिया’ के अंक में छपे एक लेख में हिंदू धर्म की विशेषता बताते हुए वे कहते हैं- ‘हिंदू धर्म न केवल मनुष्य मात्र की, बल्कि प्राणिमात्र की एकता में विश्वास करता है। मेरी राय में गाय की पूजा करके उसने दया धर्म के विकास में अद्भुत सहायता की है। यह प्राणिमात्र की एकता में विश्वास रखने का व्यावहारिक प्रयोग है।’

सहअस्तित्व की सीख

जाहिर है कि जो व्यक्ति प्राणी मात्र की एकता में विश्वास करेगा, वह चर-अचर, पशु-पक्षी, नदीपर्वत-वन सबके सहअस्तित्व में भी जरूर विश्वास करेगा और उस सब के संरक्षण के लिए सदैव तत्पर रहेगा। आज पर्यावरण बचाने के नाम पर बाघ, शेर, हाथी आदि जानवरों, नदियों, पक्षियों, वनों आदि को बचाने का जो विश्वव्यापी स्वर उठ रहा है, गांधी की दृष्टि में इसका सबसे अच्छा समाधान सभी प्राणियों की एकता और सहअस्तित्व को जीवन संस्कार बनाना है।

वृक्ष पूजा का महत्व

आज पर्यावरण-रक्षा के नाम पर पौधारोपण का जो अभियान चलाया जा रहा है, उसके महत्त्व से गांधी भी अवगत थे और अपने धर्म का दायरा विस्तृत


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विशेष

गांधी पर्यावरण शब्द का इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि उनके समय में यह शब्द प्रचलित नहीं था। पर पर्यावरण को लेकर आज जो भी आशय प्रकट किए जाते हैं या चिंता जताई जा रही है, गांधी उससे पूरी तरह जुड़े दिखाई पड़ते हैं

करते हुए उसमें वृक्ष-पूजा को भी उन्होंने शामिल कर लिया था। इस संबंध में ‘यंग इडिया’ के 26 सितंबर 1929 के अंक में उनके छपे लेख का यह अंश द्रष्टव्य है- ‘ वृक्षपूजा में कोई मौलिक बुराई या हानि दिखाई देने के बजाय मुझे तो इसमें एक गहरी भावना और काव्यमय सौंदर्य ही दिखाई देता है। वह समस्त वनस्पति-जगत के लिए सच्चे पूजाभाव का प्रतीक है। वनस्पति जगत तो सुंदर रूपों और आकृतियों का भंडार है, उनके द्वारा वह मानो असंख्य जिह्वाओं से ईश्वर की महानता और गौरव की घोषणा करता है। वनस्पति के बिना इस पृथ्वी पर जीवधारी एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकते। इसीलिए ऐसे देश में जहां खासतौर पर पेड़ों की कमी है, वृक्ष-पूजा का एक गहरा आर्थिक महत्व

हो जाता है।’

अंध मशीनीकरण का विरोध

गांधी जहां एक तरफ आसपास के वातावरण को स्वच्छ रखने पर बल देते और इस कार्य को खुद भी करते थे, तो वहीं दूसरी तरफ वे अहिंसा के अंतर्गत समस्त प्राणियों की रक्षा पर बल देते हुए ऐसी उत्पादन-पद्धति को वांछनीय समझते थे जो प्रकृति के दोहन-शोषण से मुक्त रह कर मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इसी सोच की भूमि पर खड़े होकर वे आजीवन अंध मशीनीकरण का विरोध करते रहे। वे इसे मनुष्य को उसके शारीरिक श्रम से वंचित करने का कारण मानते थे।

जो लोग गांधी की अहिंसा का दायरा सिर्फ मनुष्य द्वारा मनुष्य के खिलाफ हिंसा का विरोध या शाकाहार भर समझते हैं, वे उनकी अहिंसा को अधूरे तरीके से समझते हैं। वस्तुत: जब तक नाना प्राकृतिक संसाधनों-वनस्पतियों, नदियों, पर्वतों के साथ-साथ पशु-पक्षियों को आवास सुलभ कराने वाले स्थानों की कीमत पर चलने वाली औद्योगिक पद्धति को बदल कर उसे मानव श्रम, प्रकृति की संगति पर आधारित नहीं करते, तब तक अहिंसा अपने संपूर्ण संदर्भ में अर्थपूर्ण नहीं हो सकती।

एक सदी बाद ‘हिंद स्वराज’

मशीनीकरण को लेकर गांधी के बीज विचार ‘हिंद स्वराज’ में प्रकट हुए हैं। 1909 में प्रकाशित यह पुस्तिका गांधी विचार की कुंजी मानी जाती है। बाद में खुद गांधी ने भी माना था कि वे ‘हिंद स्वराज’ में प्रकट विचार पर आजीवन कायम रहेंगे और इसमें एक शब्द तक के हेर-फेर के लिए वे तैयार नहीं हैं। 1909 में आई इस पुस्तिका को प्रकाशित हुए सौ साल से ज्यादा हो गए हैं, पर आज भी गांधी विचार की यह टेक अपनी प्रासंगिक व्याख्याओं के साथ लगातार चर्चा में बनी हुई है। इसमें मशीनीकरण की अंधी दौड़ को लेकर एक जगह वे दो टूक कहते हैं, ‘ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरह की खोज करना

आता नहीं था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग यंत्र वगैरह की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोचसमझ कर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदुरुस्ती है।’

श्रम आधारित उद्योग-शिल्प

वस्तुत: गांधी की दृष्टि में श्रम आधारित उद्योगशिल्प ही वह चीज है, जिसकी बदौलत मनुष्य भोजन, वस्त्र, आवास जैसी आवश्यकताओं के लिहाज से स्वावलंबी रहता आया था और अन्य प्राणी भी सुरक्षित रहते आए थे। इस जीवन संस्कार की ही यह देन रही कि पेयजल संकट, ग्लोबल वार्मिंग, पशु-पक्षियों और पेड़ों की कई प्रजातियों के समाप्त होने के खतरे जैसे अनुभव लंबे दौर में कभी हमारे सामने नहीं आए। ये संकट तो उस आधुनिकता के साथ सामने आए जिसकी शुरुआत यूरोपीय औद्योगिक क्रांति से मानी जाती है। औद्योगिक क्रांति ने उत्पादन के जिस अंबार और उसके असीमित अनुभव के लिए हमें प्रेरित किया, उसकी पूरी बुनियाद मजदूरों का शोषण पर टिकी थी।

मार्क्स और गांधी

दिलचस्प है कि ज्यादा उत्पादन और असीमित उपभोग को जहां आगे चलकर विकास का पैमाना माना गया, वहीं प्राकृतिक संपदाओं के निर्मम दोहन को लेकर सबने एक तरफ से आंखें मूंदनी शुरू कर दी। कार्ल मार्क्स ने इस उत्पादन-उपभोग की इस होड़ में मजदूरों के शोषण को तो देखा, लेकिन मनुष्येतर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को, मशीनीकरण की आंधी से उजड़ते यूरोप को वे नहीं देख सके। इसे अगर किसी ने देखा तो वे थे गांधी। उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ में साफ शब्दों में कहा, ‘मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहां की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है। मशीन की यह हवा अगर ज्यादा चली, तो हिंदुस्तान की बुरी दशा होगी।’

भांप लिया था खतरा

जाहिर है कि गांधी ने औद्योगीकरण की अविवेकी राह पर चलते हुए मनुष्य और प्रकृति दोनों के धीरेधीरे मिटते जाने का खतरा आज से सदी पहले भांप लिया था। लिहाजा, आज ग्लेशियरों के पिघलने से बढ़े ग्लोबल वार्मिंग के संकट से लेकर जल और वायु प्रदूषण के तमाम खतरों के बीच प्रकृति, प्रेम और करुणा का गांधी का समन्वयवादी पक्ष एकमात्र समाधान की तरह दिखता है। अच्छी बात यह होगी कि यह समाधान चिंतन और चर्चा से आगे हमारे जीवन में भी स्थायी जगह बनाए।


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विशेष

16 - 22 अप्रैल 2018

आज पर्यावरण बचाने के नाम पर बाघ, शेर, हाथी आदि जानवरों, नदियों, पक्षियों, वनों आदि को बचाने का जो विश्वव्यापी स्वर उठ रहा है, गांधी की दृष्टि में इसका सबसे अच्छा समाधान सभी प्राणियों की एकता और सहअस्तित्व को जीवन संस्कार बनाना है

कृषि और ग्रामोद्योग

गांधी जिस ग्राम स्वराज की बात करते हैं उसकी रीढ़ है कृषि और ग्रामोद्योग। इसे ही विकेंद्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। गांधी ने कृषि अर्थव्यवस्था में भारत के चिरायु स्वावलंबन के बीज देखे थे। ऐसा भला होता भी क्यों नहीं, क्योंकि वे दक्षिण अफ्रीका से भारत आने पर सबसे पहले गांवों की तरफ गए, किसानों के बीच खड़े हुए। चंपारण सत्याग्रह इस बात की मिसाल है कि गांधी स्वराज की प्राप्ति के साथ जिस तर्ज पर अपने सपनों के भारत को देख रहे थे, उसमें किसान महज हरवाहा-चरवाहा या कुछ मुट्ठी अनाज के लिए चाकरी करने वाले नहीं थे बल्कि देश के स्वावलंबन का जुआ अपने कंधों पर उठाने वाले पुरुषार्थी अहिसक सेनानी थे।

कुमारप्पा की व्याख्या

गांधीवादी अर्थ-दृष्टि और कृषि-ग्रामोद्योग की

प्रसिद्ध विद्वान डॉ. जेसी कुमारप्पा ने मशीनीकरण के जोर पर बढ़े शोषण की जगह सहयोग और उपभोग की जगह जरूरी आवश्यकता को मनुष्य के विकास और कल्याण की सबसे बड़ी कसौटी माना। सहयोग और आवश्यकता की इस कसौटी से स्वावलंबी आर्थिक स्थायित्व को तो पाया ही जा सकता है, प्राकृतिक असंतुलन जैसे खतरे से भी बचा जा सकता है। कहने की जरूरत नहीं कि विकास को होड़ की जगह सहयोग के रूप में देखने वाली गांधीवादी दृष्टि विकास और जीवन मूल्यों को अलगाकर नहीं बल्कि साथ-साथ देखती है।

सर्ववाइवल ऑफ द फिटेस्ट

जेसी कुमारप्पा अपनी किताब 'द इकोनमी ऑफ परमानेंस’ के पहले अध्याय में ही इस मिथ को

तोड़ते हैं कि अर्थ और विकास कभी स्थायी हो ही नहीं सकते। औद्योगिक क्रांति से लेकर उदारीकरण तक का अब तक हमारा अनुभव यही सिखाता रहा है कि विकास की दरकार और उसके मानदंड बदलते रहते हैं। इसी लिहाज से सरकार और समाज भी अर्थ और विकास को लेकर अपनी प्राथमकिताओं में हेरफेर भी करते रहते हैं। पर इस बदलाव का अंतिम लक्ष्य क्या है, इसको लेकर कोई गंभीर सोच कभी सामने नहीं उभरी। जो सोच हर बार सतह पर दिखी, वह यही कि बचेगा वही, टिकेगा वही, जो ताकतवर होगा। अर्थशास्त्रीय शब्दावली में इसके लिए जो सैद्धांतिक जुमला इस्तेमाल होता है, वह है- सर्ववाइवल ऑफ द फिटेस्ट। इस दृष्टि में मानवीय करुणा और अस्मिता के लिए कितना स्थान है, समझा जा सकता है। यह समृद्धि और विकास की हिंसक दृष्टि है। एक ऐसी दृष्टि जो बूट पहनकर दूसरों को रौंदते हुए सबसे आगे निकल जाने की सनक से हमें लैश करती है।

समन्वयवादी अवधारणा

इस हिंसक विकास को लेकर कोई एतराज किसी स्तर पर कभी जाहिर नहीं हुआ, ऐसा भी नहीं है। खासतौर पर शीतयुद्ध के खात्मे के साथ भूमंडलीकरण का ग्लोबल जोर शुरू होने पर अमेरिका से लेकर भारत तक कई अराजनीतिक जमात, चिंतक और जागरूक लोगों का समूह इस

प्रकृति और पर्यावरण को लेकर बापू का उत्तर आधुनिक पक्ष

गांधी ने यह सिद्ध करने का अनवरत प्रयास किया कि लगातार धरती के पर्यावरण के विनाश की कीमत चुका कर अंधाधुंध औद्योगीकरण आर्थिक दृष्टि से भी निरापद नहीं है धी की पर्यावरणवादी दृष्टि की व्यापकता गां को समेकित तौर पर समझने

उनकी दरकार को तार्किक आधार देने वाले

के लिए प्रसिद्ध लेखक और ‘हिंद स्वराज’ की पुनर्व्याख्या का जोखिम उठाने वाले वीरेंद्र कुमार बरनवाल का यह कथन गौरतलब है- ‘गांधी ने अपनी आधी सदी से अधिक चिंतन के दौरान यह सिद्ध करने का अनवरत प्रयास किया कि लगातार धरती के पर्यावरण के विनाश की कीमत चुका कर अंधाधुंध

औद्योगीकरण आर्थिक दृष्टि से भी निरापद नहीं है। गांधी हमें यह देखने की दृष्टि देते हैं कि हमारे जल-जंगल-जमीन के लगातार भयावह रूप से छीजने से हो रही भीषण हानि के सहस्रांश की भी भरपाई की क्षमता हमारे सुरसावदन बढ़ते उद्योगों में नहीं है। इसका आर्थिक मूल्य अर्थशास्त्र की बारीकियों को बिना जाने भी समझा जा सकता है। गांधी-चिंतन का यह प्रबल उत्तर आधुनिक पक्ष है।’

तार्किक दरकार को सरकारों की नीति पर हावी कराने के संघर्ष में जुटे कि विकास की समझ और नीति मानव अस्मिता और प्रकृति के लिहाज से अकल्याणकारी न हो। आज अर्थ और विकास की हर उपलब्धि को जिस समावेशी दरकार पर खरे उतरने की बात हर तरफ हो रही है, उसके पीछे का तर्क गांधी की समन्वयवादी अवधारणा की ही देन है। वैसे यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि यह देन हमें गांधी के करीब तो जरूर ले जाती है, पर उनसे सीधे जुड़ने से परहेज भी बरतती है। यह परहेज कोई चालाकी है, ऐसा भी नहीं है।

विकेंद्रीकरण की दरकार

गांधी और उनके मूल्यों को लेकर नई व सामयिक व्याख्या रचने वाले सुधीर चंद्र इस परहेज को अपनी तरह से एक 'असंभव संभावना’ के तौर पर देखते हैं। यानी सत्य, प्रेम और करुणा के दीए सबसे पहले मन में जलाने का आमंत्रण देने वाले गांधी के पास आधे-अधूरे मन से जाया भी नहीं जा सकता। क्योंकि फिर वो सारी कसौटियां एक साथ हमें सवालों से बेध डालेंगी, जो गांधी की नजरों में मानवीय अस्मिता की सबसे उदार और उच्च कसौटियां हैं। बात पर्यावरण संकट को लेकर हो रही है तो गांधी के विकेंद्रीकरण की चर्चा भी चर्चा जरूरी है। भारतीय ग्रामीण परंपरा और संस्कृति में सहअस्तित्व और स्वावलंबन का साझा स्वाभाविक तौर पर मौजूद है। जो ग्रामीण जीवन महज कुछ कोस की दूरी पर अपनी बोली और पानी के इस्तेमाल तक के सलूक में जरूरी बदलाव को सदियों से बरतता रहा है, उसे यह अक्ल भी रही है कि उसकी जरूरत और पुरुषार्थ को एक जमीन पर खड़ा होना चाहिए। गैरजरूरी लालच से परहेज और मितव्ययिता ग्रामीण स्वभाव का हिस्सा है। पर बदकिस्मती देखिए कि इस स्वभाव पर रीझने की जगह इसे विकास की मुख्यधारा से दूरी के असर के रूप में देखा गया। नतीजतन एक परावलंबी विकास की होड़ उन गांवों तक पहुंचा दी गई, जो स्वावलंबन को अपनी जीवन जीने की कला मानते थे।

थोक के खिलाफ

गांधी ‘हिंद स्वराज’ में बड़ी लागत, बल्क प्रोडक्शन, मशीनीकरण इन सब का विरोध एक स्वर में करते हैं। उनकी नजर में प्रकृति, संस्कृति और पुरुषार्थ का साझा बनाए रखना इसलिए जरूरी है क्योंकि इससे विकास और स्वावलंबन के अस्थायी या गैर टिकाऊ होने का संकट तो नियंत्रित होता ही है, उस विकासवादी जोर से भी मोहभंग होता है जो हमें एक एसे संकट की तरफ लगातार ले जा रहा है, जहां धूप-पानी-धरती सब हमारे लिए प्रतिकूल होते जा रहे हैं।


16 - 22 अप्रैल 2018

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सिविल सेवा

भारतीय सिविल सेवा दिवस (21 अप्रैल) पर विशेष

सिविल सेवा में दलित प्रतिभा का आदि सर्ग

स्व

पश्चिम बंगाल के अच्युतानंद दास देश के पहले एससी आईएएस अधिकारी हैं, जबकि असम के नामपुई जम चोंगा पहले एसटी आईएएस अधिकारी

एसएसबी ब्यूरो

तंत्र भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। इसी वर्ष संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) ने आईएएस व अन्य केंद्रीय सेवाओं में भर्ती के लिए पहली परीक्षा आयोजित की। इस परीक्षा में 3,647 उम्मीदवारों ने भाग लिया। यूपीएससी ने जो अपनी पहली रिपोर्ट जारी की है, उसमें यह नहीं बताया गया है कि इनमें से कितने परीक्षार्थी अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) के थे। हालांकि यह रिपोर्ट अवश्य बताती है कि अच्युतानंद दास देश के पहले एससी आईएएस अधिकारी बने। उन्होंने 1950 की लिखित परीक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्त किए। देश को पहला एसटी आईएएस अधिकारी 1954 में मिला। असम के नामपुई जम चोंगा के नाम यह कीर्तिमान है। उनके और देश के प्रथम एससी आईएएस अधिकारी अच्युतानंद दास के चयन में कई तरह की समानताएं हैं। इन समानताओं को दलित विमर्श करने वाले उल्लेखनीय तरीके से पेश करते हैं।

अच्युतानंद दास

(प्रथम एससी आईएएस अधिकारी) अच्युतानंद दास पश्चिम बंगाल से थे। उनको लिखित परीक्षा में 1050 में से 609 (58 प्रतिशत) अंक प्राप्त हुए जबकि मद्रास के एन. कृष्णन को 602 (57.33 प्रतिशत) अंक मिले। परंतु साक्षात्कार में कृष्णन को 300 में से 260 (86.66 प्रतिशत) अंक प्राप्त हुए, जबकि दास को केवल 110 (36.66 प्रतिशत) अंक मिले। इससे दास कुल अंकों में कृष्णन से बहुत पीछे छूट गए। पश्चिम बंगाल के एक अन्य परीक्षार्थी अनिरूद्ध दासगुप्ता ने भी साक्षात्कार में असाधारण

खास बातें यूपीएससी की पहली परीक्षा में 3,647 उम्मीदवारों ने भाग लिया अच्युतानंद दास को लिखित परीक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्त हुए थे नामपुई जम चोंगा सामान्य ज्ञान में तीसरे स्थान पर रहे थे

सामान्य अंग्रेजी के प्रश्नपत्र में अच्युतानंद दास और कृष्णन से अधिक अंक हासिल किए। चयन बोर्ड ने दास, दासगुप्ता और कृष्णन व अन्य उम्मीदवारों से कौन से प्रश्न पूछे और उन्होंने उनके क्या उत्तर दिए इसका कोई प्रकाशित अभिलेख उपलब्ध नहीं है। अगर यह अभिलेख उपलब्ध होता तो हम यह जान पाते कि दासगुप्ता ने लिखित परीक्षा में बहुत खराब प्रदर्शन करने के बाद भी ऐसा क्या कमाल कर दिया कि यूपीएससी का चयन बोर्ड उनसे इतना प्रभावित हो गया कि उन्हें साक्षात्कार में उच्चतम अंक दिए गए।

नामपुई जम चोंगा

लिखित परीक्षा में शानदार प्रर्दशन करने के बाद भी अच्युतानंद दास और नामपुई जम चोंगा व्यक्तित्व परीक्षा में चयन बोर्ड को प्रभावित नहीं कर सके। पर उन्होंने लिखित परीक्षा में अपने कम अंकों की भरपाई अपने ‘व्यक्तित्व’ से कर ली प्रदर्शन किया। इन तीनों उम्मीदवारों को मिले अंकों से सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले प्रत्याशी का अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। लिखित परीक्षा में अच्युतानंद दास और एन कृष्णन के अंकों में केवल 7 का अंतर था। इसीलिए आश्चर्य नहीं कि महायोग में कृष्णन, दास से काफी आगे निकल गए, क्योंकि उन्हें साक्षात्कार में दास से दोगुने से ज्यादा अंक मिले। अनिरुद्ध दासगुप्ता और अच्युतानंद दास के अंकों की तुलना कई प्रश्नों को जन्म देती है। आईएएस, आईपीएस, आईएफएस इत्यादि में नियुक्ति के लिए चुने गए उम्मीदवारों में से दासगुप्ता को साक्षात्कार में सर्वोच्च अंक प्राप्त हुए। परंतु आईएएस व संबद्ध सेवाओं में नियुक्ति के लिए योग्य पाए गए उम्मीदवारों में से दासगुप्ता को लिखित परीक्षा में सबसे कम अंक मिले। चुने गए उम्मीदवारों में से सामान्य ज्ञान में भी उनके अंक सबसे कम थे। दासगुप्ता को सामान्य ज्ञान में 26.66 प्रतिशत और पूरी लिखित परीक्षा में 47.14 प्रतिशत अंक प्राप्त हुए, परंतु उन्हें साक्षात्कार (व्यक्तित्व परीक्षा) में आश्चर्यजनक रूप से 88.33 प्रतिशत

अंक मिले। अच्युतानंद दास को क्रमशः 52.66 प्रतिशत, 58 प्रतिशत और 36.67 प्रतिशत अंक मिले। लिखित परीक्षा में दास और दासगुप्ता के बीच 114 अंकों का न पाटा जा सकने वाला अंतर था। जिस उम्मीदवार का सामान्य ज्ञान अच्छा होता है सामान्यतः यह अपेक्षा की जाती है कि वह पूरे आत्मविश्वास से चयन बोर्ड के समक्ष उपस्थित होगा और अच्छा प्रदर्शन करेगा। अनिरुद्ध दासगुप्ता का सामान्य ज्ञान में सभी सफल उम्मीदवारों में से सबसे खराब (26.66 प्रतिशत) प्रदर्शन था, परंतु उन्हें साक्षात्कार में उच्चतम अंक प्राप्त हुए। उन्हें 256 अंक मिले और 260 अंकों के साथ कृष्णन दूसरे स्थान पर रहे। परंतु कुल अंकों में अच्युतानंद दास बहुत पीछे छूट गए। कृष्णन ने परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया, अनिरूद्ध दासगुप्ता को 22वां स्थान मिला और अच्युतानंद दास को 48वां। जो उम्मीदवार आईएएस में नियुक्ति के लिए योग्य पाए गए, उनमें दासगुप्ता का अंतिम स्थान था। उन्हें उत्तरप्रदेश काडर आवंटित किया गया। लिखित परीक्षा में अनिरूद्ध दासगुप्ता ने केवल

(प्रथम एसटी आईएएस अधिकारी) असम के नामपुई जम चोंगा 1954 में देश के पहले आदिवासी आईएएस अधिकारी बने। उन्हें असममेघालय काडर आवंटित किया गया। उनके और देश के प्रथम एससी आईएएस अधिकारी अच्युतानंद दास के चयन में कई चौंका देने वाली समानताएं हैं। नामपुई जम चोंगा सामान्य ज्ञान में तीसरे स्थान पर रहे और उन्हें लिखित परीक्षा में कुल 51.51 प्रतिशत अंक प्राप्त हुए, परंतु उन्हें साक्षात्कार में केवल 160 (53.33 प्रतिशत) अंक मिले। उन्हें प्राप्त अंकों की तुलना रतींद्रनाथ सेनगुप्ता के अंकों से की जा सकती है, जिन्हें आईएएस का पश्चिम बंगाल काडर आवंटित किया गया। नामपुई जम चोंगा को लिखित परीक्षा में 747 अंक मिले, जो कि रतींद्रनाथ सेनगुप्ता के 692 अंकों से 53 ज्यादा थे। प्रतिशत की दृष्टि से इन दोनों को क्रमशः 51.51 व 47.86 प्रतिशत अंक मिले। सेनगुप्ता को सामान्य अंग्रेजी में केवल 50 अंक मिले, जो चयनित उम्मीदवारों में सबसे कम थे। सामान्य ज्ञान में वे नीचे से दूसरे स्थान पर रहे परंतु सेनगुप्ता को व्यक्तित्व परीक्षा में 240 अंक (80 प्रतिशत) मिले और वे दूसरे स्थान पर रहे। सबसे अधिक अंक 260 (86.66 प्रतिशत) दो उम्मीदवारों को मिले-मध्यप्रदेश काडर के एसके चतुर्वेदी और पश्चिम बंगाल काडर के डी बंदोपाध्याय। एसके चतुर्वेदी ने इस बैच में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। नामपुई जम चोंगा को अंततः प्रवीणता सूची में 64वां स्थान मिला और वे आईएएस में नियुक्ति के लिए योग्य पाए गए उम्मीदवारो में अंतिम स्थान पर रहे। रतींद्रनाथ सेनगुप्ता को 52वां स्थान मिला। लिखित परीक्षा में शानदार प्रर्दशन करने के बाद भी अच्युतानंद दास और नामपुई जम चोंगा व्यक्तित्व परीक्षा में चयन बोर्ड को प्रभावित नहीं कर सके। दासगुप्ता और सेनगुप्ता के मामले में स्थिति उलटी थी। पर उन्होंने लिखित परीक्षा में अपने कम अंकों की भरपाई अपने ‘व्यक्तित्व’ से कर ली।


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लोक कला

16 - 22 अप्रैल 2018

मधुबनी के रंग में रंगा स्टेशन

बिहार के मधुबनी रेलवे स्टेशन पर मधुबनी पेंटिंग की सज्जा का कार्य पूरा हो गया है। इस कलात्मक सज्जा के बाद इस स्टेशन की सुंदरता देखते ही बनती है

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एसएसबी ब्यूरो

हार के मधुबनी रेलवे स्टेशन पर विश्व प्रसिद्ध मधुबनी शैली की चित्रकारी का काम पूरा हो गया है। स्टेशन को मधुबनी पेंटिंग्स से नया रूप देने वाले कलाकारों को रेलवे ने प्रशस्ति पत्र का देकर सम्मानित किया गया है। गौरतलब है कि दो चरणों में इस रेलवे स्टेशन को मधुबनी पेंटिंग्स से संवारने का कार्य पूरा किया गया है। प्लेटफार्म सहित स्टेशन परिसर के लगभग आधा किलोमीटर के रेडियस में कलाकारों की अलग-अलग टीम द्वारा सीता जन्म, राम-सीता वाटिका मिलन, धनुष भंग, जयमाल, कृष्ण लीला, माखन चोरी, कलिया मर्दन, कृष्ण रास, राधा-कृष्ण रास, विद्यापति, ग्रामीण जीवन, मिथिला के लोक नृत्य व त्योहार सहित तकरीबन 4 दर्जन विषयों पर अपनी कलाकृतियां उकेरी गई हैं। गौरतलब है कि मधुबनी चित्रकला पारंपरिक रूप से इस पूरे इलाके की पहचान है। इस लोककला की बढ़ती ख्याति की ही देन है कि बीते करीब 6 दशक में यहां के 5 कलाकारों को पद्मश्री पुरस्कार मिल चुका है। यही नहीं, मधुबनी जिले के 10 हजार से अधिक कलाकारों को मधुबनी पेंटिंग्स के माध्यम से रोजगार मिल रहा है। मधुबनी रेलवे स्टेशन का नया इंद्रधनुषी रूप भारतीय रेलवे द्वारा शुरू किए ‘रेल स्वच्छ मिशन’ की सफलता की कहानी बयां करता है। मधुबनी स्टेशन कभी भारत के गंदे स्देशनों में शुमार था, पर आज इस स्टेशन की दीवारों और फुटओवर ब्रिज पर यहां की परंपरागत मधुबनी पेंटिंग की सज्जा देखते ही बनती है। अपने नए लुक के कारण बिहार का यह स्टेशन लगातार लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। दूर-दूर से लोग इन पेंटिंग्स को देखने आ रहे हैं। मधुबनी स्टेशन की काया पलट करने में 225 कलाकारों की मेहनत है। गौरतलब है कि भारतीय रेलवे ने ‘रेल स्वच्छ मिशन’ के तहत इस स्टेशन में सफाई अभियान चलाया था, जिसमें कलाकारों ने वेतन की मांग न करते हुए 14 हजार वर्ग फीट की दीवार तो ट्रेडिशनल मिथिला स्टाइल में पेंट किया। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक और स्वच्छ रेल मिशन के ब्रांड एंबेसेडर डॉ. विन्देश्वर पाठक ने

खास बातें स्टेशन पर पेंटिंग बनाने में जुटे कम से कम 225 कलाकार 10 हजार से ज्यादा कलाकारों को मधुबनी पेंटिंग्स के जरिए रोजगार स्टेशन पर पेंटिंग की शोभा देखकर अभिभूत हुए सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक

भारतीय रेलवे और नागरिक विमानन मंत्रालय की तरफ से काफी पहले से मधुबनी पेंटिंग को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इसी सिलसिले में रेलवे की तरफ से मधुबनी स्टेशन को यहां की विख्यात पेंटिंग से सज्जित करने का अभियान चलाया गया मधुबनी स्टेशन के वेटिंग रूम में बनी पेंटिंग का जब निरीक्षण किया, तो वे इसे देखकर अभिभूत रह गए। इसी तरह ‘मेरा स्टेशन मेरी शान’ प्रोजेक्ट के तहत आगरा के राजा मंडी रेलवे स्टेशन की दीवारों पर मॉडर्न आर्ट उकेरी गई है। यहां ट्रेन का इंतजार कर रहे यात्रियों का समय पेंटिंग निहारते हुए अच्छा बीतता है। रेलवे प्रशासन ने इसके लिए ललित कला संस्थान के छात्रों को इस प्रोजेक्ट में शामिल किया था। छात्रों ने अपने हुनर से स्टेशन की रंगत बदलने के बाद इसे एक आर्ट गैलरी में तब्दील कर दिया है। मधुबनी पेंटिंग की पहचान देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में है। लोक चित्रकला का एेसा सुंदर रूप दुनिया में और कहीं शायद ही देखने को मिले। भारतीय रेलवे और नागरिक विमानन मंत्रालय की तरफ से काफी पहले से मधुबनी पेंटिंग को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इसी सिलसिले में रेलवे की तरफ से मधुबनी स्टेशन को यहां की विख्यात पेंटिंग से सज्जित करने का नया अभियान चलाया गया। लिहाजा, अगर आप बिहार के मधुबनी रेलवे स्टेशन पर आने वाले हैं, तो आपको यहां का नजारा बदला-बदला सा नजर आने वाला है। लोक चित्रकारी के लिए विख्यात मधुबनी का रेलवे स्टेशन आपको न केवल मधुबनी पेंटिंग के लिए आकर्षित करेगा, बल्कि इन पेंटिंग के जरिए आप इस क्षेत्र की पुरानी कहानियों

और स्थानीय सामाजिक सरोकारों से भी रूबरू हो सकेंगे। पूर्व मध्य रेलवे के मधुबनी रेलवे स्टेशन की दीवारों पर एक गैर सरकारी संस्था की पहल पर करीब 7,000 वर्गफीट से अधिक क्षेत्रफल में मधुबनी पेंटिंग बनाई जा गई है, जिसमें कम से कम 225 कलाकारों ने श्रमदान किया। गैर सरकारी संस्था 'क्राफ्टवाला' की पहल पर इस कार्य में रेलवे का भी सहयोग रहा है। क्राफ्टवाला के संयोजक और मधुबनी के ठाढ़ी गांव निवासी राकेश कुमार झा ने बताया कि किसी भी क्षेत्र में इतने बड़े क्षेत्रफल में लोक चित्रकला को उकेरा जाना एक रिकॉर्ड ही है। उन्होंने बताया कि गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में मात्र 4566.1 वर्गफीट में पेंटिंग दर्ज है, जबकि भारत में सबसे बड़ी पेंटिंग का रिकॉर्ड मात्र 720 वर्गफीट का है। गांधी जयंती के मौके पर गत वर्ष दो अक्टूबर को मधुबनी रेलवे स्टेशन पर इस कार्य का शुभारंभ समस्तीपुर के क्षेत्रीय रेलवे प्रबंधक (डीआरएम) रवींद्र कुमार जैन ने किया था। उस मौके पर झा ने बताया था कि प्रत्येक थीम पर एक से 10 कलाकारों की टीम बनी हैं, जिनमें अनुभवी कलाकारों को टीम लीडर बनाया गया। पेंटिंग कर रही महिला कलाकार स्वीटी कुमारी ने बताया कि मधुबनी रेलेव स्टेशन को मधुबनी पेंटिग के जरिए नया लुक देने में कुल 46 छोटे-बड़े थीम में बांट कर 100 से अधिक कलाकारों के माध्यम से किया गया है। ये सारे कलाकार 'क्राफ्टवाला' संगठन से जुड़े हैं। स्वीटी ने कहा, ‘पेंटिंग के जरिए

जहां रामचरित मानस के सीता जन्म, राम-सीता वाटिका मिलन, धनुष भंग, जयमाल और सीता की विदाई को दिखाया जा रहा है, वहीं कृष्णलीला के तहत कृष्ण के जन्म के बाद उनके पिता द्वारा उनको यमुना पार कर मथुरा ले जाना, माखन चोरी, कालिया मर्दन, कृष्ण रास, राधा कृष्ण प्रेमालाप को भी बड़े मनोयोग से प्रदर्शित करने की कोशिश की गई है। यही नहीं, स्टेशन पर महाकवि विद्यापति, ग्राम जीवन का विकास, ग्रामीण हाट, ग्रामीण खेलों (गिल्ली-डंडा, कितकित, पिटो), मिथिला लोक नृत्य और पर्व (झिझिया, सामा-चकेबा, छठ) को भी आकर्षक तरीके से प्रदर्शित किया गया है। इस कार्य में एक मूक-बधिर लड़की कोमल कुमारी ने तो अपनी कला से लोगों का मन ही मोह लिया। समस्तीपुर क्षेत्र के डीआरएम ने कोमल को रेलवे में बतौर पेंटर दिव्यांग कोटे से नौकरी देने की बात कही है। मधुबनी के जिलाधिकारी कपिल अशोक ने भी कोमल की कला की प्रशंसा करते हुए उसकी पढ़ाई में मदद करने और उचित सहायता का अश्वासन दिया है। इससे पहले बिहार के ही एक और रेलवे स्टेशन पर इ, तरह का कलात्मक प्रयोग किया जा चुका है। कटिहार स्टेशन पर अब यात्रियों को मधुबनी पेंटिंग के साथ ग्राम संस्कृति की झलक देखने को मिल रही है। इसकी कवायद पिछले साल फरवरी में शुरू हुई थी। डीआरएम उमाशंकर सिंह यादव के निर्देश पर रेल इंजीनियरिंग विभाग द्वारा यह कार्य कराया गया है। त्रिपुरा के विशेषज्ञ कलाकारों द्वारा स्टेशन के मुख्य द्वार सहित अंदर के दीवारों पर इसे उभारा गया है। दरअसल, रेलवे बोर्ड के नए नियम के अनुसार स्टेशन के सौंदर्यीकरण के तहत इस तरह की स्थानीय कलात्मक विशिष्टता वाली चीजों को प्राथमिकता दी जा रही है। इसमें मिथिलांचल की ऐतिहासिक परंपरा की झलक को खासतौर पर महत्व दिया जा रहा है। इसमें दुल्हन की पालकी में विदाई, खेत-खलिहान के साथ धान आदि की कुटाई आदि पर आधारित पेंटिंग बनाई जाती है।


16 - 22 अप्रैल 2018

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स्वच्छता

अरुणाचल में स्वच्छता का सूर्योदय

अरुणाचल के हांग गांव में स्थित कस्तूरबा गांधी आश्रम में सुलभ द्वारा बनाया जा रहा है आदर्श स्वच्छता शौचालय परिसर

खास बातें

हांग गांव समुद्र तल से 5754 फीट की ऊंचाई पर स्थित है यहीं सुलभ आदर्श स्वच्छता शौचालय का हो रहा है निर्माण रॉबिन हिबू की संस्था हेल्पिंग हैंड्स भी स्वच्छता कार्यक्रम से जुड़ी

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सुमन चाहर

र्वोत्तर के राज्यों को कुछ लोग भले देश की मुख्यधारा और विकास के रास्ते से दूर मानें पर स्वच्छता के मामले में ये राज्य काफी जागरूक हैं। पूर्वोत्तर का एक महत्वपूर्ण राज्य है अरुणाचल प्रदेश। अरुणाचल का अर्थ है- उगते सूर्य का पर्वत। स्वच्छता के क्षेत्र में इस राज्य की कामयाबी देखकर इसके नाम की सार्थकता ज्यादा समझ में आती है। राज्य सरकार के रिकॉर्ड के मुताबिक अरुणाचल प्रदेश ने 87.12 प्रतिशत स्वच्छता के मापदंड को पूरा कर लिया है। इस कामयाबी के साथ यह राज्य स्वच्छता के क्षेत्र में

देश में 7वें स्थान पर आ गया है। राज्य सरकार का दावा है कि वह दो अक्टूबर, 2019 से काफी पहले ही राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के लक्ष्य को हासिल कर लेगा। अरुणाचल प्रदेश के स्वच्छता की दिशा में आगे बढ़ने में वहां की जागरूक जनता और प्रतिबद्ध सरकार के साथ सुलभ संस्था का बड़ा योगदान है। अरुणाचल का एक सामान्य सा गांव है हांग। यह गांव सुलभ की मदद से आज अरुणाचल में स्वच्छता की एक मिसाल बन चुका है। इस मिसाल का चश्मदीद बनने के लिए हम गुवाहाटी से सड़क के रास्ते पहुंचे। गुवाहाटी से हांग गांव लगभग 600 किलोमीटर की दूरी पर है। हम गुवाहाटी से नौगांव, तेजपुर, लखीमपुर, इटानगर से होते हुए मनोरम

स्वच्छता की दिशा में और आगे बढ़ेंगे हम

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इस अवसर पर सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक का रिकार्डेड संदेश भी सुनाया गया। प्रस्तुत है इस संदेश का संपादित अंश

म हांग के सम्मानीय श्रोतागण को संबोधित करके मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। मैं अरुणाचल प्रदेश के प्रतिभावान आईपीएस अधिकारी रॉबिन हिबू को बधाई देता हूं, जिन्होंने अपने गांव, जिला और राज्य की स्थिति सुधारने के साथ एनसीआर व देश के दूसरे हिस्सों में उत्तर-पूर्व के बालिकाओं और बालकों की समस्याओं का समाधन करने के लिए अनेक कदम उठाए हैं। वे अभी नई दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन के सभी सुरक्षा संबंधित पहलुओं की अत्यंत प्रतिबद्ध तरीके से देखभाल कर रहे हैं। ग्राम हांग में सुलभ आदर्श स्वच्छता शौचालय परिसर के स्थापना समारोह में मैं स्वयं आने को इच्छुक था पर कुछ अपरिहार्य कारणों से नहीं

आ सका। मुझे आशा है कि जब कस्तूरबा गांधी आश्रम और सामुदायिक हॉल के बीच शौचालय परिसर का उद्घाटन होगा तो मैं उस अवसर पर वहां आऊंगा। यहां होने वाले कार्यों की उच्च कोटि की गुणवत्ता के लिए मैं आपको आश्वासन देता हूं, जिसके लिए सुलभ इंटरनेशनल सर्वत्र जाना जाता है। जैसा कि आप में से कुछ लोगों को ज्ञात होगा कि मैं महात्मा गांधी का अनुयायी हूं और इस आश्रम की देखभाल के लिए कुछ करना मेरे लिए सम्मान की बात है। सुलभ इंटरनेशनल ने अब तक 15 लाख घरेलू शौचालय, 9 हजार सामुदायिक शौचालय जिनमें से 200 बायोगैस डाइजेस्टर संलग्न हैं और विभिन्न सरकारी विभागों, लोक उपक्रमों

पहाड़ियों तथा घाटियों से गुजरते हुए वहां पहुंचे। यहां का मौसम अत्यंत मनोरम था। यहां के निवासी अति सौम्य, सरल और आतिथ्य धर्म निभाने वाले हैं। यहां की कला और हस्तशिल्प की भव्य विरासत और रंग-बिरंगे त्योहार प्रकृति की अपार शक्ति में उनके प्राचीन विश्वास को दर्शाते हैं। हांग गांव समुद्र तल से 5754 फीट की ऊंचाई पर ऊपर स्थित है। इतनी ऊंचाई पर स्थित यह गांव पाइन के पेड़ों से भरी पहाड़ियों से घिरा है। यहां पर बांस की भी खेती की जाती है। 27 मार्च 2018 को हांग के कस्तूरबा गांधी आश्रम में सुलभ

और निजी कंपनियों के सहयोग से 21 हजार स्कूल-शौचालय बनाए हैं। हमें आशा है कि सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन तथा हेल्पिंग हैंड्स द्वारा संयुक्त रूप से प्रारंभ किया गया छोटा-सा प्रयास बहुत आगे जाएगा और हमारे देश के इस महपूर्ण इलाके की स्थिति सुधरने के लिए और भी बहुत सारे लोग हाथ बटाएंगे। आज यह एक शुरूआत है। भारत के माननीय प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत मिशन के एक हिस्से के रूप में हांग ग्राम की स्वच्छता के लिए और देश के सारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में इस स्थान को उत्कृष्ट बनाने के लिए हम और भी प्रयास करने पर विचार कर रहे हैं।

आदर्श स्वच्छता शौचालय परिसर का स्थापना समारोह संपन्न हुआ। सुलभ शौचालय का शिलान्यास वहां के माननीय विधायक तेग टकी एवं डिप्टी कमिश्नर कीमो लोलेन के द्वारा किया गया। इस अवसर पर वहां डॉ. सुमन चाहर, मानद सीनियर वाइस प्रेसीडेंट, सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑगनाईजेशन, श्रीमती पुन्यो पाया, जिला परिषद मेंबर, श्रीमती कोज रिन्यो, आईएफएस तथा रॉबिन हिबू, अध्यक्ष, हेल्पिंग हैंड्स (एनजीओ) भी उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन कोज रिन्यो ने किया। इस अवसर पर रॉबिन हिबू ने हेल्पिंग हैंड्स के बारे में जानकारी दी तथा उन्होंने सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक को धन्यवाद दिया कि उन्होंने सुलभ स्वच्छता आंदोलन को दृढ़ता के साथ देशविदेश में आगे बढ़ाया है। डॉ. सुमन चाहर ने हिबू को धन्यवाद दिया तथा सुलभ स्वच्छता आंदोलन के बारे में जानकारी दी। सुलभ ने 15 लाख घेरलू शौचालय समस्त भारत में बनवाए हैं, जो लगातार इस्तेमाल में हैं। सुलभ शौचालय को बनाना, आसान है। इसमें दो गड्ढे होते हैं। एक गड्ढा भरता है तो हम दूसरा इस्तेमाल करते हैं। मानव मल 2 वर्ष में खाद में परिवर्तित हो जाता है। यह वातावरण एवं पर्यावरण को साफ रखने में मदद करता है। सुलभ ने देश-विदेश में 9500 सार्वजनिक सामुदायिक शौचालय बनाए हैं। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि सुलभ ने मैला ढोने वाले महिला एवं पुरूषों को इस अमानवीय कार्य से बाहर निकाला है तथा समाज की मुख्यधारा से जोड़ा है। खासतौर पर राजस्थान के दो शहरों अलवर और टोंक को सिर पर मैला ढोने की प्रथा से मुक्त कराया है। इस मौके पर डिप्टी कमिश्नर कीमो लोलेन ने जिले में आयोजित अनेक स्वच्छता कार्यक्रमों की जानकारी दी। विधायक तेग टकी ने सुलभ की इस पहल का स्वागत किया तथा अपने क्षेत्र में चल रहे स्वच्छता कार्यक्रमों की जानकारी दी। उन्होंने हेल्पिंग हैंड्स के जरिए रोबिन हिबू के कार्यों की तारीफ की और कहा कि वे हर दिल्ली में पूर्वोत्तर के छात्रों की हर तरह से मदद करते हैं।


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जल संरक्षण

16 - 22 अप्रैल 2018

पानी की खोज

पानी के लिए तरसते गांव में आखिर ऐसा कैसे हुआ कि दस सालों से चला आ रहा जल संकट आठ से दस दिनों में दूर हो गया। कौन-सा चमत्कार हुआ कि हालात इतनी तेजी से बदल गए

खास बातें बूंद बूंद पानी को तरसता था मध्य प्रदेश का आमली फलिया गांव महिलाएं तीन किमी दूर से लाती थीं पीने का पानी गांव के सूखे कुएं के पानीदार बनते ही इस समस्या का हुआ अंत

मनीष वैद्य

ध्य प्रदेश के एक आदिवासी गांव में बीते दस सालों से लोग करीब तीन किमी दूर नदी की रेत में झिरी खोदकर दो से तीन घंटे की मशक्कत के बाद दो घड़े पीने का पानी ला पाते थे। आज वह गांव पानी के मामले में आत्मनिर्भर बन चुका है। अब उनके ही गांव के एक कुएं में साढ़े पांच फीट से ज्यादा पानी भरा हुआ है। इससे यहां के लोगों को प्रदूषित पानी पीने से होने वाली बीमारियों तथा सेहत के नुकसान से भी निजात मिल गई है। आखिर ऐसा कैसे हुआ कि गांव में दस सालों से चला आ रहा जल संकट आठ से दस दिनों में दूर हो गया। कौन-सा चमत्कार हुआ कि हालात इतनी तेजी से बदल गए। यह सब सिलसिलेवार तरीके से जानने के लिए चलते हैं आमली फलिया गांव। कुछ मेहनतकश आदिवासियों ने पसीना बहाकर अपने हिस्से का पानी धरती की कोख से उलीच लिया। मध्य प्रदेश का आदिवासी बहुल जिला बड़वानी अपनी ऊंची-नीची पहाड़ियों और दूर तक फैले ऊसर की भौगोलिक पृष्ठभूमि से पहचाना जाता रहा है। इस जिले के आदिवासी क्षेत्र पाटी में खेती का

रकबा बहुत कम है और ज्यादातर आदिवासी समाज के लोग बूढ़े और बच्चों को यहीं छोड़कर हर साल अपने लिए रोटी की जुगत में इंदौर या गुजरात के दाहोद पलायन करते हैं। बारिश में तो ये ऊंची-नीची थोड़ी-सी जमीनों में कुछ उगाकर जैसे-तैसे अपने परिवार के लिए रोटी का इंतजाम कर लेते हैं लेकिन बारिश खत्म होते ही कमाने की चिंता बढ़ने लगती है। चमचमाते शहर इंदौर से करीब 160 किमी दूर बसे बड़वानी जिला मुख्यालय तक पहुंचना तो आसान है, लेकिन यहां से 50 किमी दूर पाटी के बाद से आगे का रास्ता बहुत कठिन है। यहां से आगे जाने के लिए बाइक या पैदल ही जाना होता है। कुछ दूरी तक निजी बसें भी चलती हैं, लेकिन आमली जाने के लिए तो आपको पहाड़ों पर चढ़ाई करते हुए पैदल चलना ही जरूरी है। किस्मत अच्छी हो तो पाटी से मतरकुंड तक बस मिल जाती है और वहां से फिर 5 किमी खड़ी चढ़ाई पार करते

हुए पैदल चलना पड़ता है। आमली फलिया में 80 छोटी-बड़ी झोपड़ियां हैं और इनमें करीब चार सौ लोग रहते हैं। गांव की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि ढलान से होते हुए बारिश का पानी नाले से होते हुए यहां से करीब साढ़े 6 किमी दूर गोई नदी में जा मिलता है। गोई नदी कुछ दूरी तक बहने के बाद नर्मदा में मिल जाती है। इस तरह आमली फलिया का पानी तो नर्मदा पहुंच जाता लेकिन यहां के लोग प्यासे ही रह जाया करते थे। गांव के किनारे पर ही मिले पैंतालीस साल के दुबले-पतले रुखडिया भाई बताते हैं, 'बीते दस सालों से गांव के लोग पीने के पानी को लेकर खासे परेशान थे। यहां से तीन किमी दूर नदी की रेत में से झिरी खोदकर घंटो की मशक्कत के बाद घड़े-दो घड़े पानी मिल जाता तो किस्मत। पशुओं को भी इसी से पानी पिलाया जाता। हमारे बच्चे भूखे-प्यासे पानी के इंतजार में वहीं बैठे रहते। औरतों को मजदूरी करने से पहले पानी की चिंता रहती। बरसात में तो जैसे-

बीते दस सालों से गांव के लोग पीने के पानी को लेकर खासे परेशान थे। यहां से तीन किमी दूर नदी की रेत में से झिरी खोदकर घंटो की मशक्कत के बाद घड़े-दो घड़े पानी मिल जाता तो किस्मत

तैसे पानी मिल जाता, लेकिन बाकी के आठ महीने बूंद-बूंद को मोहताज रहते। ज्यादातर लोग पलायन करते तो जो यहां रह जाते, उनके लिए पीने के पानी की बड़ी दिक्कत होती।' महिलाओं के लिए बड़ी मशक्कत का काम था कि हर दिन तीन किमी दूर जाकर पानी लाएं, फिर वहां भी झिरी में पानी आने के लिये घंटे-दो घंटे इंतजार करना पड़ता था। इस चक्कर में वे मजदूरी तो दूर, घर का कामकाज भी नहीं कर पाती थीं। हारी-बीमारी में तो और भी मुश्किल हो जाती थी। उनके लिए गांव में पानी का न मिलना सबसे बड़ी समस्या थी। बीते दिनों यहां कुपोषण से निपटने के लिए एक सामाजिक संस्था पहल ने जब ये हालात देखे तो कुपोषण से पहले उन्होंने पानी के संकट पर काम करने का विचार किया। टीडीएच की जर्मनी से आई एंजेला ने जब यहां की ऐसी स्थिति देखी तो वे फफक पड़ीं। कुछ देर के लिए वे बहुत भावुक हो गईं। उन्होंने कहा कि कुपोषण की बात कैसे करें, यहां तो लोगों को पीने का साफ पानी तक नहीं मिल पा रहा है। ऐसे में कुपोषण की बात करना तो बेमानी है। संस्था के लोगों ने एंजेला की मौजूदगी में गांव वालों से बात की और इस समस्या का निदान करने पर जोर दिया। पूछा गया कि जल संकट के इन दस सालों से पहले गांव को पानी कहां से मिलता था तो गांव वालों ने बताया कि पहले नाले के पास एक कच्चा कुआं हुआ करता था, जिसे बाद में बीस साल पहले 2008 में वन विभाग ने सूखा राहत की मद से पक्का बना दिया। बाद के दिनों में नाले की बाढ़ की गाद उसमें धीरे-धीरे भरती चली गई और अब इसकी ऊपरी पाल ही नजर आती है। 'पहल' संस्था ने आदिवासी ग्रामीणों के सामने बात रखी कि यदि वे किसी तरह इस कुएं को जिंदा कर सकें तो गांव फिर से 'पानीदार' बन सकता है। पहले तो इस काम के लिए कोई तैयार नहीं हुआ तब संस्था के सचिव प्रवीण गोखले और अंबाराम दो


16 - 22 अप्रैल 2018

लोगों ने यह घोषणा कर दी कि 22 मार्च को जल दिवस के दिन वे खुद सबसे पहले तगारी-फावड़े लेकर कुएं पर पहुंचेंगे, जो भी चाहे हाथ बंटाने आ सकते हैं। 22 मार्च की सुबह प्रवीण और अंबाराम जब कुएं पर फावड़े-तगारी लेकर पहुंचे और साफसफाई करने लगे तब इस काम में मदद करने के लिए कालूराम, रुखडिया, हीरुसिंह, देविका और कालूसिंह भी आ पहुंचे। उन्हें काम करते देखकर बाकी लोग भी धीरे-धीरे इसमें जुटने लगे। इस तरह दोपहर तक तो पूरा गांव उमड़ पड़ा। शाम तक करीब पांच से आठ फीट की खुदाई कर गाद निकाली जा चुकी थी। इसी दौरान गीली मिट्टी आ गई। लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। जल दिवस की यह सौगात उनके लिए सबसे अनमोल थी, जिस पानी की उम्मीद में वे तीन किमी दूर जाया करते थे, अब उसी की उम्मीद उनके कुएं में दिखने लगी थी। दूसरे दिन आगे की खुदाई करने से पहले पानी इतना था कि खुदाई में दिक्कत हो रही थी। पानी उलीचने के बाद फिर खुदाई शुरू हुई। पंद्रह फीट

खोदने के बाद तो हालत यह हो गई कि कुएं का मटमैला पानी उलीचने के लिए मोटर का इंतजाम करना पड़ा तब कहीं जाकर हाथ-दो-हाथ खुदाई की जा सकी। इस बात की खबर जब जिले के कलेक्टर तक पहुंची तो उन्होंने तत्काल अधिकारियों की एक टीम गांव में भेजी, जिन्होंने पानी का परीक्षण कर पाया कि शुरुआती पानी में मिट्टी ज्यादा है, उसे मोटर से बाहर करने पर अब जो साफ पानी कुएं में जमा होगा, वह पीने लायक रहेगा। उन्होंने कुएं के पानी की सफाई के लिए ब्लीचिंग पाउडर और अन्य सामग्री ग्रामिणों को दी। अंबाराम ने बताया कि उन्हें खुद इसकी कल्पना नहीं थी कि इतनी जल्दी कारगर तरीके से हमारे जल संकट का स्थायी समाधान हो सकेगा। यहां लोगों ने कभी इस तरह सोचा ही नहीं। अब हम गांव के लोग कुएं और पानी का मोल समझ चुके हैं। अब हम अपने कुएं को कभी खोने नहीं देंगे। 'पहल जनसहयोग विकास संस्थान' के कार्यकर्ता इससे खासे उत्साहित हैं। उन्होंने गूंज संस्था के सहयोग से श्रमदान में भाग लेने वाले परिवारों को कपड़े भी वितरित किए। 28 मार्च से रहवासियों ने

जल संरक्षण

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जरूरत इस बात की है कि हम अपने पारंपरिक जल संसाधनों को सहेज सकें तथा प्रकृति की अनमोल नेमत बारिश के पानी को धरती की कोख तक पहुंचाने के लिए प्रयास कर सकें इस कुएं से पानी भरना भी शुरू कर दिया है। 'पहल' अब बारिश से पहले यहां के लोगों के सहयोग से गांव के आसपास की पहाड़ियों पर जल संरचनाएं (कंटूर ट्रेंच) बनाने का अभियान प्रारंभ करने का भी मन बना रही है। इससे आने वाली बारिश का कुछ पानी इनमें थमकर गांव को हरा-भरा कर सकेगा। 'पहल' अगले कुछ सालों में यहां से पलायन को रोककर कुपोषण को खत्म करना चाहती है। 'पहल' की अनूपा बताती हैं- 'बड़वानी जिले के दूरस्थ इलाके में फिलहाल हमने पंद्रह गांवों को चयनित किया है, जहां कुपोषण की दर सबसे ज्यादा है। कुपोषण को तब तक खत्म नहीं किया जा सकता, जब तक कि लोगों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिल सके। प्रदूषित पानी पीने से लोग बीमार होते हैं तथा उनकी सेहत को नुकसान होता है। हमारी कोशिश है कि इलाके में विभिन्न तरह की जल संरचनाएं विकसित कर पारंपरिक जल

संसाधनों का उपयोग करें और इलाके की भौगोलिक परिस्थितियों के कारण बहकर निकल जाने वाले बारिश के पानी को किसी तरह यहां रोक सकें। यदि बारिश का पानी रुकने लगे तो पलायन भी रुक सकता है।' जरूरत इस बात की है कि हम अपने पारंपरिक जल संसाधनों को सहेज सकें तथा प्रकृति की अनमोल नेमत बारिश के पानी को धरती की कोख तक पहुंचाने के लिए प्रयास कर सकें। अपढ़ और कम समझ की माने जाने वाले आमली फलिया के आदिवासियों ने पूरे समाज को यह संदेश दिया है कि बातों को जब जमीनी हकीकत में अमल किया जाता है तो हालात बदले जा सकते हैं। आमला फलिया ने तो अपना खोया हुआ कुआं और पानी दोनों ही फिर से ढूंढ लिया है लेकिन देश के हजारों गांवों में रहने वाले लोगों को अभी अपना पानी ढूंढना होगा।


16 खुला मंच

16 - 22 अप्रैल 2018

हम जो दुनिया के जंगलों के साथ कर रहे हैं, वह कुछ और नहीं बस उस चीज का प्रतिबिंब है जो हम अपने साथ और एक दूसरे के साथ कर रहे हैं

अभिमत

पीएम के रोल मॉडल

ह देश और समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता जो अपने लिए सही रोल मॉडल तय करने की प्रक्रिया और विवेक में दोषपूर्ण रवैया अपनाता है। इस विवेक और समझ का सबसे प्रेरक उदाहरण पेश किया है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने। देश के लाखों-करोड़ों लोग नरेंद्र मोदी को अपना रोल मॉडल मानते हैं, लेकिन वे खुद अक्सर अपने संबोधनों में किसी न किसी प्रेरक व्यक्तित्व का जिक्र करते हैं और उन्हें देशवासियों के सामने रोल मॉडल की तरह पेश करते रहते हैं। मोतिहारी में ‘सत्याग्रह से स्वेच्छाग्रह’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में परमेश्वरन अय्यर का जिक्र करते समय थोड़े भावुक भी हुए। पीएम मोदी ने कहा, ‘वह खुद जगह-जगह जाकर शौचालय की सफाई तक करते हैं। आज परमेश्वरन जी जैसे मेरे साथी हों या देश के कोने-कोने से आए हजारों स्वच्छाग्रही हों तो मेरा विश्वास दृढ़ हो जाता है कि बापू की 150वीं जयंती मनाएंगे तो उनके सपनों को पूरा करके रहेंगे।’ बहुत ही लो-प्रोफाइल में रहने वाले आईएएस अधिकारी रहे हैं परमेश्वरन अय्यर। वे यूपी कैडर के वर्ष 1981 बैच के आईएएस अधिकारी रहे हैं। आईएएस की नौकरी छोड़कर अमेरिका चले गए थे, लेकिन केंद्र में एनडीए की सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने आह्वान किया तो वे भारत लौट आए। वर्तमान समय में वह भारत सरकार के सचिव हैं और स्वच्छ भारत मिशन के मुखिया के तौर पर काम कर रहे हैं। आईएएस से सैनिटेशन स्पेशलिस्ट बने परमेश्वरन के बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ के फरवरी 2017 के एपिसोड में भी की थी। व्यक्ति और कृतित्व के मूल्यांकन का प्रधानमंत्री का यह तरीका हम सबके लिए एक सीख की तरह है।

टॉवर

(उत्तर प्रदेश)

वरिष्ठ गांधीवादी विचारक और गांधी रिसर्च फाउंडेशन, जलगांव के डीन

‘राष्ट्र ने अपना पहला पाठ सीखा’

- महात्मा गांधी

देश के लाखों-करोड़ों लोग नरेंद्र मोदी को अपना रोल मॉडल मानते हैं, लेकिन वे खुद अपने संबोधनों में किसी न किसी प्रेरक व्यक्तित्व को रोल मॉडल की तरह पेश करते हैं

डी. जॉन चेल्लादुराई

चंपारण सत्याग्रह के बारे में बाबू राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है कि ‘राष्ट्र ने अपना पहला पाठ सीखा और सत्याग्रह का पहला आधुनिक उदाहरण प्राप्त किया’

हात्मा गांधी के चंपारण सत्याग्रह ने एक सदी लंबी यात्रा पूरी कर ली है। चंपारण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का खुलासा करता है। यह आंदोलन साम्राज्यवादी उत्पीड़न के लिए लगाई गई सभी भौतिक ताकतों के खिलाफ लड़ने के लिए एक अनजान कार्य प्रणाली के बारे में जानकारी देता है। गांधी जी ने इसे सत्याग्रह के नाम से पुकारा। चंपारण सत्याग्रह के परिणाम ने राजनीतिक स्व‍तंत्रता की अवधारणा और पहुंच को पुनर्भाषित किया और पूरे ब्रिटिश-भारतीय समीकरण को एक जीवंत मोड़ पर खड़ा कर दिया। चंपारण में ब्रिटिश बागान मालिकों ने जमींदारों की भूमिका अपना ली थी और वे न केवल वार्षिक उपज का 70 प्रतिशत भूमि कर वसूल कर रहे थे, बल्कि उन्हों ने एक छोटे से मुआवजे के बदले किसानों को हर एक बीघा जमीन के तीन कट्ठे में नील की खेती करने के लिए मजबूर किया। उन्हों ने कल्पना से बाहर अनेक बहानों के तहत गैर कानूनी उपकर ‘अबवाब’ भी लागू किया। यह कर विवाह में ‘मारवाच’, विधवा विवाह में ‘सागौरा’, दूध, तेल और अनाज की बिक्री में ‘बेचाई’ के नाम से जाना जाता था। उन्होंने प्रत्येक त्योहार पर भी कर लागू किया था। अगर किसी बागान मालिक के पैर में पीड़ा हो जाए, तो वह इसके इलाज के लिए भी अपने लोगों पर ‘घवही’ कर लागू कर देता था। बाबू राजेंद्र प्रसाद ने ऐसे 41 गैर कानूनी करों की सूची बनाई थी, जो किसान कर का भुगतान करने या नील की खेती करने में नाकाम रहते थे उन्हें शारीरिक दंड दिया जाता था। फरीदपुर के मजिस्ट्रेट रहे ई. डब्ल्यू. एल. टॉवर ने कहा था, ‘नील की एक भी ऐसी चेस्ट इं‍ग्लैंड नहीं पहुंची, जिस पर मानव रक्त के दाग न लगे हों। यहां नील की खेती रक्तपात की एक प्रणाली बन गई थी। डर का बोलबाला था। ब्रिटिश

बागान मालिक और उनके एजेंट आतंक के पर्याय थे।’ चंपारण में किसान उत्पीड़न से जुड़ी याचिकाओं और सरकार द्वारा नियुक्त समितियों के माध्यम से स्थिति को सुधारने के अनेक प्रयास किए गए, लेकिन कोई राहत नहीं मिली और स्थिति निराशाजनक ही रही। गांधी जी नील की खेती करने वाले एक किसान राजकुमार शुक्ला के अनुरोध पर चंपारण का दौरा करने पर सहमत हो गए, ताकि वहां स्थिति का स्वयं जायजा ले सकें। बागान मालिक, प्रशासन और पुलिस के बीच गठजोड़ के कारण एक आदेश बहुत जल्दी में जारी किया गया कि गांधी जी की उपस्थिति से जिले में जन आक्रोश फैल रहा है, इसीलिए उन्हें तुरंत जिला छोड़ना होगा या फिर दंडात्मक कार्रवाई का सामना करना होगा। गांधी जी ने न केवल सरकार और जनता को इस आदेश की अवज्ञा करने की घोषणा करते हुए चौंका दिया, बल्कि यह इच्छा भी जाहिर की कि जब तक जनता चाहेगी वे चंपारण में ही अपना घर बना कर रहेंगे। मोतिहारी जिला अदालत में मजिस्ट्रेट के सामने गांधीजी ने जो बयान दिया, उससे सरकार चकित हुई और जनता उत्साहित हुई थी। गांधीजी ने कहा था कि कानून का पालन करने वाले एक नागरिक के नाते मेरी पहली यह प्रवृत्ति होगी कि मैं दिए गए आदेश का पालन करूं, लेकिन मैं जिनके लिए यहां आया हूं, उनके प्रति अपने कर्तव्य की हिंसा किए बिना मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं यह बयान केवल दिखावे के लिए नहीं दे रहा हूं कि मैंने कानूनी प्राधिकार के प्रति सम्मान की इच्छा के लिए दिए गए आदेश का सम्मान नहीं किया है, बल्कि यह हमारे अस्तित्व‍ के उच्च कानून के प्रति मेरे विवेक की आवाज भी है। यह समाचार जंगल की आग की तरह फैल गया और अदालत के सामने अभूतपूर्व भीड़ इकट्ठी हो गई। बाद में गांधी जी ने इसके बारे में लिखा कि किसानों के साथ इस बैठक में मैं भगवान, अहिंसा और

चंपारण सत्याग्रह से नई जागृति आई और इसने यह दर्शाया कि कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसकी अन्यायपूर्ण व्यवस्था हमारी दुश्मन है। साथ ही यह सीख भी कि निडरता, आत्मनिर्भरता और श्रम की गरिमा स्वतंत्रता के मूल तत्व हैं


16 - 22 अप्रैल 2018 सत्य के साथ आमने सामने खड़ा था। स्थिति से किस तरह निपटा जाए, इसके बारे में मजिस्ट्रेट और सरकारी अभियोजक की समझ में कुछ नहीं आ रहा था, वे मामले को स्थगित करना चाहते थे। गांधी जी ने कहा था कि स्थगन जरूरी नहीं है, क्योंकि वह अवज्ञा के दोषी हैं। गांधीजी के दृष्टिकोण की नवीनता अत्यंत विनम्रता, पारदर्शिता, लेकिन फिर भी बहुत दृढ़ और मजबूत व्यक्तित्व से लोगों ने देखा कि उन्हें गांधी के रूप में एक उद्धारकर्ता मिल गया है, जबकि सरकार अत्यंत विरोधी है। मजिस्ट्रेट ने मामले को खारिज कर दिया और कहा कि गांधीजी चंपारण के गांवों में जाने के लिए आजाद हैं। गांधीजी ने वायसराय और उपराज्यपाल तथा पंडित मदनमोहन मालवीय को पत्र लिखे। पंडित मदनमोहन मालवीय ने हिंदू विश्वविद्यालय के काम में व्यस्तता के कारण चंपारण के लिए अपनी अनुपलब्धता के बारे में उन्हें पत्र लिखा। सी. एफ. एंड्रयूज नामक एक अंग्रेज, जिन्हें लोग प्यार से दीनबंधु कहते थे, गांधीजी की सहायता के लिए पहुंचे। पटना के बुद्धिजीवी बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, बैरिस्टर मजहरुल हक, बाबू राजेंद्र प्रसाद तथा प्रोफेसर जेपी कृपलानी के नेतृत्व में युवाओं की अप्रत्याशित भीड़ के साथ गांधीजी की सहायता के लिए उनके चारों ओर इकट्ठे हो गए। गांव की दयनीय हालत देखकर गांधीजी ने स्वयंसेवकों की सहायता से छह ग्रामीण स्कूल, ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र, ग्रामीण स्वच्छता के लिए अभियान और नैतिक जीवन के लिए सामाजिक शिक्षा की शुरुआत की। देशभर के स्वयंसेवकों ने सौंपे जाने वाले कार्यों के लिए अपना नामांकन कराया। इन स्वयंसेवकों में सरवेंट ऑफ इंडियन सोसायटी के डॉ. देव भी थे। पटना के स्वयंसेवकों ने आत्म निर्धारित श्रेष्ठता का परित्याग करके एक साथ रहना, साधारण आम भोजन खाना और किसानों के साथ भाई-चारे का व्यवहार करना शुरू कर दिया। उन्होंने खाना बनाना और बर्तन साफ करना भी शुरू कर दिया। पहली बार किसान अन्यायी प्लांटरों से परेशान होकर निडर रूप से अपनी परेशानियां दर्ज करवाने के लिए आगे आए। व्यवस्थित जांच मामले के तर्कसंगत अध्ययन और सभी पक्षों के मामले की शांतिपूर्ण सुनवाई, जिसमें ब्रिटिश प्लांटर्स भी शामिल थे तथा न्याय के लिए आह्वान के कारण सरकार ने एक जांच समिति का गठन करने के आदेश दिए। इस कमेटी में गांधीजी भी एक सदस्य थे, जिन्होंने आखिर में चंपारण से तीनकठिया प्रणाली के पूर्ण उन्मूलन की अगुवाई की। चंपारण सत्याग्रह से नई जागृति आई और इसने यह दर्शाया कि कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसकी अन्यायपूर्ण व्यवस्था हमारी दुश्मन है। साथ ही यह सीख भी कि निडरता, आत्मनिर्भरता और श्रम की गरिमा स्वतंत्रता का मूल तत्व हैं। यहां तक कि शारीरिक रूप से कमजोर व्यक्ति भी चरित्र बल पर ताकतवर बनकर विरोधियों को परास्त कर सकता है। चंपारण सत्याग्रह के बारे में बाबू राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है कि ‘राष्ट्र ने अपना पहला पाठ सीखा और सत्याग्रह का पहला आधुनिक उदाहरण प्राप्ति किया।’

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डॉ. जानकी संतोष

ल​ीक से परे

खुला मंच

प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु

सबसे बड़ी खुशी

सर्वोच्च संतष्ु टि हमें काम करके ही मिल सकती है। काम हमें तभी तनाव देता है जब इससे उम्मीद जुड़ जाती है

म कहीं न कहीं इस बात को मानते हैं कि कहीं कुछ ऐसा है जो एक बार हमें मिल जाए तो हम वाकई में खुश रहेंगे। चलिए हम लोगों की उम्मीदों को परख कर देखते हैं। हर गरीब व्यक्ति को लगता है कि एक बार वह अमीर हो जाए तो वह खुश रहेगा। एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना करें जिसके पास घर नहीं है। कैसे वह इसके लिए तरसता और उन लोगों से जलता है जिनके पास घर है। महानगर में घर खरीदने किसी के लिए सपने जैसा है। लेकिन उन लाखों लोगों को देखिए जिनके पास महानगर में घर है। क्या वे संतुष्ट हैं? क्या उनके पास वो खुशी है जो किसी के पास घर होने से होती है? कुछ औरतें संतान को जन्म नहीं दे पातीं हैं। वे इसके लिए काफी दुखी रहती हैं। बच्चे का न होना उनके लिए एक भयानक पीड़ा है। जब हम इस पीड़ा के प्रति संवेदना व्यक्त करते हैं तो हमें इस बात की जांच करनी चाहिए कि जिनके पास बच्चा है, वो खुश हैं या नहीं। क्या वे संतुष्ट हैं? दरअसल, हम चीजों के लिए तरसते रहते हैं और उन इच्छित चीजों को पाने के लिए खुद को पूरी तरह से दुखी कर लेते हैं। जिन चीजों को पाने की हम उम्मीद करते हैं, अगर वो हमें ना मिले तो हम उसे बुरी तरह ढ़ूढ़ंने लगते हैं। अगर वो चीज हमें मिल जाती है जो हमें चाहिए तो, हम खुश हो जाते हैं। हां, लेकिन सब कुछ वैसे ही हो जैसी इसकी उम्मीद हमनें की थी।

अबभमत

बापू, बबहार और सत्ाग्रह

16 सवतंत्र भारत में सवच्ाग्रह

लीक से परे

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27

पुसतक अंश

मोदी के बवजन और बवकास की झलक

नमन

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बापू को नमन...

गांधी और मैं

harat.com

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- 15 अप्रैल 2018 वर्ष-2 | अंक-17 | 09

/2016/71597 आरएनआई नंबर-DELHIN

गांधी जी ने भारत में चंपारण की बजस भूबम पर ्ह ऐबतहाबसक सं्ोग है बक में डॉ. पाठक एक मबलन उसी चंपारण के बेबत्ा शहर सत्ाग्रह का प्​्ोग बक्ा, के बीज अंकुररत हुए। से सुलभ सवच्ता आंदोलन ही नजर आती है बसती में जाकर रहे और वहीं कम में तारीख ी प्ेरक समानता बवचार और आदश्ष की एेस

हर चीज वैसी ही नहीं होती जैसा हम चाहते हैं। अगर यह पूरी तरह से सही था तो हो सकता है वो हमारे साथ रहे या फिर क्रूरता के साथ हमें छोड़ दे। अगर यह हमें छोड़ देता है तो हम फिर से दुखी हो जाते हैं। लेकिन तब क्या जब हम किसी चीज की इच्छा करते हैं और यह हमें बिल्कुल उसी रूप में मिलता है जैसा हम चाहते थे और यह हमसे दूर भी नहीं होता? ऐसे हालात में हम खुश तो रहेंगे लेकिन तब तक जब तक फिर से एक नई इच्छा का जन्म नहीं हो जाता। इच्छा का जन्म होते ही वो चक्र एक बार फिर से शुरू हो जाएगा और हमारी जिंदगी एक अनिश्चित दशा में आ जाएगी। फिर भी, अगर हम किसी चीज का इंतजार करते हैं और उसे उसी तरह

गांधी के पथ पर

सुलभ स्वच्छ भारत में ‘गांधी और मै’ किताब के विस्तृत आलेख पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया। जिस तरह डॉ. पाठक ने ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बाद भी समाज के निचले तबके के लिए लड़ाई लड़ी और उसे मुकाम तक पहुंचाया, सराहनीय है। गांधी के आदर्शों पर चलते हुए, उन्होंने समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को सम्मानजनक जिंदगी देने के लिए जो संघर्ष किए, वह हर किसी के लिए प्ररणादायी है। वैज्ञानिक मापदंडों पर चलते हुए डॉ. पाठक ने अपने कर्मों से पूरे विश्व को एक बड़ा संदेश दिया है। संजय मेहरा दिल्ली

पा लेते हैं जैसा हम चाहते थे, तो फिर उसके बाद क्या होगा? क्या हम खुश रहेंगे? जरूरी नहीं है! पहले के अनुपात में इच्छित वस्तु को पाने की खुशी कम होती चली जाती है। पहला आम बहुत अधिक खुशी देगा। दूसरा उससे कम देगा, तीसरा उससे भी कम और चौथा तीसरे से कम। यह प्रक्रिया ऐसे ही चलती रहेगी। इस तरह हम अपने आसपास चीजों के एक भंवर को जन्म दे देते हैं लेकिन पहले को पाने के बाद दूसरी ज्यादा खुशी नहीं देती है। इसे बनाए रखने के लिए हमें इसकी देखभाल करनी होगी। अपने आसपास के फर्नीचर, कपड़ों, करों और घर की अन्य चीजों को देखकर हमेशा ऐसा लगता है कि काश ये हमारे पास होती। ऐसी चीजों की सूची कभी खत्म नहीं होती है। कई चीजें हमारे पास है लेकिन इसमें से कोई भी चीज हमें और अधिक खुशी नहीं दे सकती है। क्या इसमें आश्चर्य नहीं कि हम तब भी अपना जीवन तनावपूर्ण पाते हैं? लोग मानते हैं कि अगर उन्हें किसी चीज की उम्मीद नहीं रही तो वे काम नहीं कर पाएंगे लेकिन ऐसा तब होता है जब उम्मीद एक अच्छी चीज हो और इसमें कोई इच्छा जुड़ी ना हो। सर्वोच्च संतुष्टि हमें काम करके ही मिल सकती है। काम हमें तभी तनाव देता है जब इससे उम्मीद जुड़ जाती है। स्वामी रामतीर्थ कहते हैं कि अधिक काम करना आराम है!

एक जरूरी पहल

पिछले कई सप्ताह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक द्वारा लिखी पुस्तक का अंश प्रकाशित किया जा रहा है। इसे मैं बहुत ही उत्साह के साथ पढ़ रहा हूं और इसका हर सप्ताह इसका इंतजार रहता है। अबकी बार का अंश ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विजन और विकास कार्यक्रमों की झलक’ का निश्चित तौर पर उल्लेख करना चाहूंगा। क्योंकि किसी भी देश की प्रगति उसके उद्योगों और खासतौर पर छोटे उद्योगों की प्रगति पर निर्भर करती है। मोदी की ‘मेक इन इंडिया’ पहल छोटे उद्योगों के विस्तार और प्रगति पर केंद्रित है, इससे देश को बहुत फायदा हो रहा है। राजेंद्र सिन्हा बलिया, उत्तर प्रदेश


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फोटो फीचर

16 - 22 अप्रैल 2018

धरती का दूसरा स्वर्ग

हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी की गोद में स्थित एक सुंदर जगह है मनाली। इसे धरती का दूसरा स्वर्ग भी कहा जाता है। देश के पर्यटक मानचित्र पर मनाली की गिनती बहुत पहले से होती आ रही है। गर्मी शुरू होते ही यहां देश-विदेश के पर्यटकों का जमावड़ा लगना शुरू हो जाता है

फोटो : जयराम


16 - 22 अप्रैल 2018

कहा जाता है कि मनाली में एक मंदिर है और इस मंदिर का नाम मनु है। मनु मंदिर में ऋषि मनु रहा करते थे। इसी ऋषि के नाम पर इस जगह का नाम मनाली पड़ा है। मनाली की मनोरम प्रकृति और पारंपरिक संस्कृति के बीच वहां पर्यटन के जरिए आजीविका चला रहे लोगों का स्वभाव काफी सरल है

फोटो फीचर

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विरासत

16 - 22 अप्रैल 2018

विश्व विरासत दिवस, 18 अप्रैल, विशेष

खास बातें विश्व विरासत सूची में सबसे ज्यादा इटली के 51 धरोहर हैं यूनेस्को की इस सूची में भारत छठे स्थान पर है विरासत सूची की अवधारणा 1972 में पहली बार सामने आई थी

विरासत की रक्षा और सबक

भारत सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से बहुत समृद्ध देश है। यहां अनगिनत धरोहर हैं, जिनका संरक्षण एक बड़ी चुनौती है

प्रियंका तिवारी

तिहास, संस्कृति और भूगोल, इन तीनों ही दृष्टि से भारत दुनिया का अनूठा देश है। यही कारण है कि वर्ल्ड टूरिस्ट मैप पर भारत के कई स्थलों के नाम प्रमुखता के साथ शुमार किए जाते हैं। विश्व विरासत की सूची में शामिल भारतीय स्थलों की संख्या अब पैंतीस हो गई है। यह निस्संदेह गर्व का विषय है। विश्व विरासत सूची में शामिल होने के बाद ऐतिहासिक महत्व के स्थलों की समुचित देखरेख का भरोसा जगता है। भारत सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से बहुत समृद्ध देश है। इसीलिए यहां अनगिनत धरोहर हैं। पर हकीकत यह है कि विरासतों का उचित रखरखाव न हो पाने की वजह से उनमें से कइयों का अस्तित्व खतरे में है। इसे लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। विश्व विरासत सूची में इटली के 51, चीन के 50, स्पेन के 45, फ्रांस के 42 और जर्मनी

के 41 धरोहर शामिल हैं। इस दृष्टि से यूनेस्को की इस सूची में 35 धरोहरों के साथ भारत का छठे स्थान पर आना एक मायने में उपलब्धि है। अभी 46 और स्थलों को विरासत सूची में शामिल करने का भारतीय दावा समीक्षा के स्तर पर है। इस्तांबुल (तुर्की) में हुई विश्व विरासत समिति की 40वीं बैठक में बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय के भग्नावशेष के अलावा स्विस-फ्रेंच वास्तुशिल्पी ली कर्बूजिए के बसाए चंडीगढ़ शहर और सिक्किम के रवांग चेंद जोंगा राष्ट्रीय उद्यान को विरासत की मान्यता दी गई। विरासत सूची की अवधारणा 1972 में शुरू हुई थी। इसका लक्ष्य विभिन्न देशों के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और प्राकृतिक महत्त्व के स्थलों का चयन कर उन्हें संरक्षित रखने की

कोशिश करने का था। 1978 में ऐसे बारह स्थलों से शुरू हुई यह सूची अब एक हजार चालीस तक पहुंच गई है। यूनेस्को की विरासत सूची एक औपचारिकता भर नहीं है। इसमें शामिल स्थलों के रख-रखाव पर एक वैश्विक पैनल नजर रखता है। विरासत स्थलों की देखरेख के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश हैं। 192 देश इस अभियान में शामिल हैं। भारत में विरासत सूची में शामिल स्थलों के रखरखाव की हालत कैसी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अरसा पहले विश्व विरासत की सूची में शामिल हुई कुतुब मीनार की पांचवी मंजिल में आई दरारों को तब पाटा गया, जब उसके ढहने की नौबत आ गई। दिलचस्प बात यह है कि 1955

यूनेस्को की विरासत सूची एक औपचारिकता भर नहीं है। इसमें शामिल स्थलों के रख-रखाव पर एक वैश्विक पैनल नजर रखता है। विरासत स्थलों की देखरेख के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश हैं

में पहली बार इन दरारों को देखा गया था। तब कामचलाऊ मरम्मत कर दी गई। उसके बाद इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया गया। नीचे से देखने पर इन दरारों का आसानी से कभी पता नहीं चल पाया। लिहाजा उसकी उपेक्षा होती रही। कुतुब मीनार बनाने में लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर का इस्तेमाल किया गया। पांचवी मंजिल में आई दरार को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के विशेषज्ञों ने फिलहाल तो पाट दिया, पर उसका स्थायी इलाज अभी तक नहीं हुआ है। दरार दो पत्थरों के बीच में थी और दो से तीन इंच की थी। विशेषज्ञों का मानना है कि इतनी पुरानी इमारत में लोहे का भी इस्तेमाल किया गया है, इसीलिए समय के साथ-साथ लोहे में जंग लग जाने की वजह से चट्टानों में दरार पड़ना सामान्य बात है। बहरहाल, विश्व विरासत सूची में शामिल स्थलों की देखरेख और उन्हें संरक्षित रखने का काम थोड़े बहुत मानक स्तर पर हो रहा है तो यूनेस्को की समिति के दिशा निर्देशों की वजह से, लेकिन उस सूची में ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व के जो स्थल शामिल नहीं हैं, उनकी लगातार दुर्दशा हो रही है। देश भर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के जिम्मे जिन स्थलों के संरक्षण का काम था, उनमें से चौबीस लुप्त हो गए हैं। पुरातात्विक महत्व के कई ऐसे स्मारक हैं, जो उपेक्षित हैं। उनकी कोई सुध नहीं ली जाती। कुछ साल पहले महरौली (दिल्ली) के आर्कियोलॉजिकल पार्क में बने चौदहवीं शताब्दी के खान शाहिद मकबरे की बाहरी दीवारों को पोत दिया गया और एक अन्य छोटा स्मारक अतिक्रमण का शिकार हो गया। दो सौ एकड़ में फैले महरौली पार्क में पुरातात्विक महत्व के करीब साठ स्मारक हैं। पार्क के रखरखाव की जिम्मेदारी दिल्ली विकास प्राधिकरण की है। लेकिन उसके स्मारकों के सरंक्षण का जिम्मा एएसआई का है। बहरहाल, दिल्ली विकास प्राधिकरण, एएसआई और दिल्ली वक्फ बोर्ड के बीच उलझे स्मारकों की दशा बिगड़ रही है। समस्या सिर्फ यह नहीं है। पुरानी दिल्ली के दरीबां कला में मुगलकाल की आठ सौ साल पुरानी खंजाची की हवेली लगभग खंडहर हो चुकी है। मूल निर्माण से छेड़छाड़,


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ताज के सिर पर ताज

सांस्कृतिक धरोहर स्थल

 आगरा का किला (1983)  अजंता की गुफाएं (1983)  नालंदा महाविहार (नालंदा विश्वविद्यालय), बिहार (2016)  सांची बौद्ध स्मारक (1989)  चंपानेर-पावागढ़ पुरातात्विक पार्क (2004  छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (पूर्व में विक्टोरिया टर्मिनस) (2004)  गोवा के चर्च और कॉन्वेंट्स (1986)  एलिफेंटा की गुफाएं (1987)  एलोरा की गुफाएं (1983)  फतेहपुर सीकरी (1986)  ग्रेट लिविंग चोल मंदिर (1987)  हंपी में स्मारकों का समूह (1986)  महाबलिपुरम में स्मारक समूह (1984)  पट्टडकल में स्मारक समूह (1987)  राजस्थान में पहाड़ी किला (2013)  हुमायूं का मकबरा, दिल्ली (1993  खजुराहो में स्मारकों का समूह (1986)  बोध गया में महाबोधि मंदिर परिसर (2002)  माउंटेन रेलवे ऑफ इंडिया (1999)  कुतुब मीनार और इसके स्मारक, दिल्ली (1993)  रानी-की-वाव, पाटन, गुजरात (2014)  लाल किला परिसर (2007)  भीमबेटका के रॉक शेल्टर (2003)  सूर्य मंदिर, कोर्णाक (1984)  ताजमहल (1983)  ला कॉर्ब्युएर का वास्तुकला कार्य (2016)  जंतर मंतर, जयपुर (2010)

प्राकृतिक धरोहर स्थल  हिमालयी राष्ट्रीय उद्यान संरक्षण क्षेत्र (2014)  काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान (1985)  केओलादेओ नेशनल पार्क (1985)  मानस वन्यजीव अभयारण्य (1985)  नंदा देवी और फूलों की घाटी राष्ट्रीय उद्यान (1988)  सुंदरवन राष्ट्रीय उद्यान (1987)  पश्चिमी घाट (2012)

मिश्रित स्थल

 कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान (2016) तोड़-फोड़ और अंधाधुंध व्यावसायिक इस्तेमाल ने हवेली को जर्जर कर दिया है। दिल्ली सरकार ऐतिहासिक विरासतों को सहेजने का दावा भले

विरासत

फेद संगमरमर से बना भारत का प्रतिष्ठित ताजमहल यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों की सूची में दूसरे स्थान पर आंका गया है। एक हालिया सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश के आगरा में स्थित इस विरासत को दूसरे स्थान के लिए चुना गया। मुगल बादशाह शाहजहां द्वारा अपनी पत्नी मुमताज महल की याद में बनवाए गए इस वैश्विक धरोहर में हर साल 80 लाख से अधिक लोग आते हैं। पहले स्थान के लिए कंबोडिया के अंगकोर वाट को चुना गया। सर्वेक्षण में यूनेस्को के सांस्कृतिक और प्राकृतिक विरासत स्थलों को सूचीबद्ध किया गया है। ट्रैवेल पोर्टल ट्रिप एडवाइजर ने कहा है

कि इस अद्भुत स्थल पर जाकर आप किसी गाइड से सैकड़ों पर्यटनों व अनुभवों का आनंद ले सकते हैं। सूर्योदय और सूर्यास्त के समय यहां जाने पर आपको बहुत अच्छा लगेगा। इसके साथ ही इस यात्रा में आगरा के स्थानीय और घर के खानों का भी मजा लिया जा सकता है। किसी जानकार गाइड के साथ यात्रा करने पर आपको अंगकोर वाट भवनों में छिपे अनोखा इतिहास मालूम चलेगा। सबसे अच्छा दृश्य सूर्योदय या सूर्यास्त के समय दिखता है जबकि भीड़ छंट जाती है, प्रकाश में उसका सही रूप सामने आता है। लोकप्रियता की इस सूची में चीन की महान दीवार को तीसरा स्थान, दक्षिण अमेरिका के पेरू में स्थित माचु पिचु को चौथा स्थान दिया गया। सूची में ब्राजील के इगुआजु राष्ट्रीय पार्क, इटली के माटेरा का सस्सी और औशविच बिरकेन, पोलैंड के ऐतिहासिक क्रारो, इस्त्राइल के जेरूसलम के पुराने शहर और तुर्की में इंस्तांबुल के ऐतिहासिक इलाकों को भी शामिल किया गया है।

विश्व धरोहर दिवस और भारत

दु

निया भर में 16 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस (वर्ल्ड हेरिटेज डे) बनाया जाता है। यह दिन दुनिया भर की स्मारकों और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों के लिए खास होता है। हर साल इस अवसर पर एक थीम बनाई जाती है। इस वर्ष का थीम है पीढ़ियों के लिए धरोहर (हैरिटेज फॉर जेनरेशंस), जबकि पिछले वर्ष का थीम था दीर्घकालिक पर्यटन (सस्टेनेबल टूरिज्म)। विश्व धरोहर के रूप में मान्यता प्राप्त स्थलों के महत्व, सुरक्षा और संरक्षण के प्रति जागरुकता फैलाने के मकसद से विश्व धरोहर दिवस मनाया जाता है। दरअसल यह एक मौका है जब हम लोगों को बताएं कि हमारी ऐतिहासिक और प्राकृतिक धरोहरों को आने वाली पीढ़ियों के लिए बचाए रखने के लिए

कितनी कोशिश हो रही है। साथ ही यह दिन यह भी बताता है कि हमारी यह धरोहरों को अब कितने रखरखाव की जरूरत है। विश्व धरोहर या विरासत सांस्कृतिक महत्व और प्राकृतिक महत्व के स्थल होते हैं। यह वह स्थल होते हैं जो ऐतिहासिक और पर्यावरण के लिहाज से भी महत्वपूर्ण होते हैं। इनका अंतरराष्ट्रीय महत्व होता और इन्हें बचाए रखने के लिए खास कदम उठाए जाने की जरूरत होती है। ऐसे स्थलों को आधिकारिक तौर पर संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को विश्व धरोहर की मान्यता प्रदान करती है। कोई भी स्थल जिसे यूनेस्को समझता है कि यह मानवता के लिए जरूरी है। वहां का सांस्कृतिक और भौतिक महत्व है, उसे विश्व धरोहर के तौर पर मान्यता दी जाती है। दुनिया भर में कुल 1052 विश्व धरोहर स्थल हैं। इनमें से 814 सांस्कृति, 203 प्राकृतिक और 35 मिश्रित हैं। भारत में फिलहाल 27 सांस्कृतिक, 7 प्राकृतिक और एक मिश्रित सहित कुल 35 विश्व धरोहर स्थल हैं।

21 2010 में पुराने स्मारकों, पुरातात्विक स्थलों और अवशेषों के लिए बने कानून में संशोधन कर व्यवस्था की गई कि अधिसूचित स्मारकों के आसपास के सौ मीटर के दायरे में जरूरी मरम्मत और सजावट के अलावा कोई निर्माण कार्य नहीं कराया जा सकता करती रहे, लेकिन खंजाची की हवेली का नाम दिल्ली नगर निगम की विरासत स्थल की सूची तक में नहीं है। संगमरमर के नक्काशीदार खंभों वाली खंजाची की हवेली में शाहजहां के खंजाची बहीखाते रखा करते थे। हवेली में एक सुरंग है, जो लाल किले तक जाती है। उपेक्षित रहने की वजह से हवेली से कीमती संगमरमर और मुगल शैली की जालियां लोग उखाड़ कर ले गए हैं। सालों तक पुरानी दिल्ली के बल्ली मारान में मिर्जा गालिब की हवेली में लकड़ियों की टाल रही। जैसे-तैसे उसे विरासत मान कर उसकी दशा थोड़ी बहुत सुधारी गई। दिल्ली नगर निगम ने 767 ऐसी ऐतिहासिक इमारतें अधिसूचित की हैं, जिनका पुरातात्विक महत्व है। उन्हें सांस्कृतिक विरासत मान कर सहेजने का काम किया जाता है। इनमें फतेहपुरी मस्जिद और चांदनी चौक की वह पुरानी इमारत शामिल है, जिसमें स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का दफ्तर है। विरासत स्थल की सूची बने अरसा हो गया है और इसके लिए दिल्ली सरकार समय-समय पर अपनी पीठ भी थपथपाती रही है। लेकिन इन विरासत स्थलों की दशा सुधारने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। ‘इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज’ ने कुछ समय पहले 738 ऐसी हवेलियों और इमारतों की सूची तैयार की, जिनका संरक्षण किया जाना जरूरी है। चौंकाने वाली बात यह है कि दिल्ली के 174 स्मारक एएसआई की संरक्षण सूची में हैं, लेकिन इनमें से बारह या तो गायब हैं या उनका पता नहीं चल पा रहा। ये स्मारक है- मोती गेट, फूल चादर, बाराखंभा कब्रिस्तान, अलीपुर कब्रिस्तान, कुतुब मीनार के पास महरौली में शम्सी तालाब, जोगाबाई गुंबद, निकलसन की प्रतिमा, कोटला मुबारकपुर की गुमटी, निजामुद्दीन में तीन गुंबद वाला मकबरा आदि। एएसआई सूत्रों का अनुमान है कि बढ़ते शहरीकरण की वजह से दो और स्मारक गायब हो गए होंगे। हालांकि उनकी अभी पहचान नहीं की जा सकी है। एएसआई की संरक्षित सूची वाले स्मारकों की हिफाजत के लिए कानून बने हुए हैं। 2010 में पुराने स्मारकों, पुरातात्विक स्थलों और अवशेषों के लिए बने कानून में संशोधन कर व्यवस्था की गई थी कि अधिसूचित स्मारकों के आसपास के सौ मीटर के दायरे में जरूरी मरम्मत और सजावट के अलावा कोई निर्माण कार्य नहीं कराया जा सकता। एक सौ एक से तीन सौ मीटर के दायरे में भी निर्धारित मापदंडों के अनुरूप ही निर्माण कराए जाने की इजाजत है। लेकिन एएसआई संरक्षित ज्यादातर स्मारकों में इस कानून का धड़ल्ले से उल्लंघन हो रहा है।


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पुस्तक

16 - 22 अप्रैल 2018

महान व्यक्तित्व का काव्यात्मक आख्यान

‘विन्देश्वर विभा’ नाम से डॉ. राहुल ने लिखा है सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक को लेकर विलक्षण प्रबंध काव्य

खास बातें ‘विन्देश्वर विभा’ की भूमिका आचार्य निशांतकेतु ने लिखी है

कि

प्रियंका तिवारी

सी व्यक्ति का जीवन जब न सिर्फ अपने समय में ही एक प्रेरक आदर्श, बल्कि वह अपने दौर के सबसे जरूरी सवालों को समाधानकारी विकल्प तक पहुंचाने का हेतु बन जाए तो इस असाधरणता का फलक बहुत व्यापक हो जाता है। राष्ट्रवादी कवि-आलोचक डॉ. राजेश ने जब इस विस्तृत फलक को सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक के जीवन और कर्म में देखा तो इसे वे रचनात्मक सूत्र में पिरोने के इरादे से जुट गए। इसका नतीजा उनके द्वारा रचित अनूठा प्रबंध काव्य ‘विन्देश्वर विभा’ है। डॉ. पाठक को केंद्र में रखकर रची गई इस काव्य कृति को लेकर वरिष्ठ आलोचक आचार्य निशांतकेतु ने सही ही लिखा है, ‘डॉ. राहुल ने अपने प्रबंध काव्य में समकालीन ज्वलंत सामाजिक समस्याओं को रेखांकित करते हुए, समाधानसाधक पद्मभूषण डॉ. विन्देश्वर पाठक की महनीय

विशेषताओं को छंदोबद्ध किया है, जो अपनी प्रांजल शैली और अनाविल उद्देश्य में सदैव अनुपेक्षणीय सिद्ध होगा। समस्याओं के उल्लेख क्रम में कवि ने महात्मा गांधी का स्मरण किया है। स्कैवेंजर की समस्याओं के समाधान का गांधी का सपना अधूरा था। उसे पूर्णता प्रदान करने का संकल्प डॉ. पाठक ने लिया और उनका यह प्रकल्प सफल हुआ।’ कवि डॉ. राहुल ने जिस तरह सुलभ प्रणेता के लिए ‘विभा’ संज्ञा का प्रयोग किया है, वह कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। यह शब्द प्रयोग जहां एक तरफ उपमात्मक है, वहीं दूसरी तरफ कवि ने डॉ. पाठक के व्यक्तित्व और कर्म को जिस रूप में अपने

काव्य रचना में उतारा है, वह भी यही दिखाता है कि डॉ. पाठक जैसे विलक्षण और सकर्मक व्यक्तित्व के स्वामी के लिए यह रचनात्मक शब्द प्रयोग पूरी तरह औचित्यपूर्ण है। इस पुस्तक की भूमिका में आचार्य निशांतकेतु ने भी इस शब्द प्रयोग का जिक्र किया है। उनके ही शब्दों में ‘इस प्रबंध काव्य में डॉ. विन्देश्वर पाठक को ‘विभा’ संज्ञा से अभिहित किया गया है। परमात्मा के कई नाम भी इसी प्रकाशवाची शब्द श्रृंखला में हैं, यथा- ‘प्रभा’, ‘विभा’, ‘निभा’ से निर्मित ‘प्रभु’, ‘विभु’, ‘निभु’ इत्यादि। डॉ. पाठक के ‘स्तुति-गान’ की एक कविता में डॉ. राहुल ने लिखा है-

बापू के जीवन और विचारों का डॉ. पाठक पर सर्वाधिक असर है। स्वच्छता जैसे कार्य को आज अगर वे एक जनांदोलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, तो उसके पीछे सबसे बड़ी सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति पूज्य बापू हैं

पुस्तक के 25 सर्गों में डॉ. पाठक के जीवन के विविध आयामों की चर्चा पुस्तक में डॉ. पाठक पर गांधी के प्रभाव की विशेष रूप से चर्चा है

जो सदियों से क्षुब्ध बुभुक्षित दीन-हीन शोषित जन गांव-गांव में नगर-नगर में किया सुलभ का सर्जन। ... गंगा यमुना की धाराएं अविरत गीत सुनातीं कावेरी-नर्मदा-ताप्ती ये सरिताएं भी गातीं।’ डॉ. राहुल ने अपनी प्रबंध कृति ‘विन्देश्वर विभा’ को 25 सर्गों में विभक्त किया है। यह एक तरह


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पुस्तक

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सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक के व्यक्तित्व-विस्तार के केंद्र में स्वच्छता तो है ही, पर वे यहीं नहीं ठहरते। शिक्षा से लेकर साहित्य तक उन्होंने समाज के लिए कई ऐसे कार्य किए हैं, जो काफी महत्वपूर्ण हैं। खासतौर पर राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति उनका अनुराग उल्लेखनीय है से एक दिव्य प्रसंग का ऐसा काव्यातमक विस्तार है, जिसमें कथा और संदेश साथ-साथ यात्रा करती है। खासतौर पर ‘बचपन’, ‘शिक्षा संस्कार’, ‘जाति व्यवस्था’, ‘परिवर्तन की पौध’, ‘धारा बदली जीवन की’, ‘पतली माली हालत’ आदि सर्गों को पढ़ते हुए पाठक उस यात्रा का काव्यात्मक साक्षी बनता है, जिससे गुजरते हुए डॉ. विन्देश्वर पाठक जैसे प्रेरक और क्रांतिकारी व्यक्तित्व का जन्म होता है। डॉ. पाठक का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। बावजूद इसके उन्होंने अपने जीवन को दलितों के कल्याण के लिए लगाया। एक जाति व्यवस्था में जकड़े समाज के बीच परिवर्तन की यह यात्रा इतनी आसान नहीं थी। डॉ. राकेश ने इस यात्रा-संघर्ष की ओर ध्यान दिलाया है‘जहां चतुष्टय धर्म व्यवस्था जकड़े था जन-जीवन को शोषित-पीड़ित-क्षुभित-उपेक्षित देखें जरा दलित जन को जो थे ऊंचे वर्णी मानव ऊंचे ही ऊंचे उठते निम्न वर्ण के प्राणी जो, वे कीचड़ में जाते धंसते। ... मानव-मानव से शोषित है, मानव-मानव से पीड़ित। भाषा की दीवारें हमको, कर देती हैं और व्यथित। भाषा-क्षेत्रवाद को तोड़ें, छोड़ें जाति-धर्म-बंधन। मनुष्यता को धारें, महके जैसे जंगल में चंदन।।’ पर सुलभ प्रणेता ने इस यात्रा को अटल इरादे के साथ न सिर्फ पूरा किया, बल्कि देश-दुनिया में इस बात की अलख जगाई कि स्वच्छता जैसे सवाल

पर अगर समाज में भेदभाव और हिकारत की भावना किसी खास वर्ग के प्रति है तो यह हमारी आधुनिकता और मनुष्यता दोनों को एक साथ कलंकित करने वाली स्थिति है‘लेकिन ‘बाबू’ जात-पांत यह, नहीं जंच रही आज बात यह, ये भी तो इनसान सरीखे, जैसे हम, वैसे ये दीखें, सब ढकेसला है बंधन की, पौध उगी परिवर्तन की। जाति-पाति में जकड़े हम हैं, तोड़े इसको, किसमें दम है, इस समाज की जाति व्यवस्था, है समाज की रुग्ण-अवस्था, नहीं सहेंगे हम पापन की, पौध उगी परिवर्तन की।’ सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक को इस बात का श्रेय जाता है कि जिस स्वच्छता के मुद्दे पर आज भारत सरकार से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक लगातार चिंता जता रहा है और इससे जुड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक के बाद कार्यक्रमों और दिशानिर्देशों की घोषणा हो रही है, उस मुद्दे को वे बीते पांच दशकों से न सिर्फ उठा रहे हैं, बल्कि इसे सामाजिक परिवर्तन का एक सार्थक हेतु बनाते हुए उन्होंने इस क्षेत्र में ऐतिहासिक यस और सफलता हासिल की है‘रच दिया इतिहास तुमने, विश्व के इतिहास में, एक नया अध्याय है यह, स्वच्छता विकास में। स्वच्छता जीवन की गति है, स्वच्छता सौंदर्य भी, स्वच्छता से सुलभ सुरभित सर्वदा कहते सभी।’

प्रबंध काव्य- विन्देश्वर विभा रचयिता- डॉ. राहुल मूल्य- 600 रुपए प्रकाशन- प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली

सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक के जीवन, विचार और यशस्वी कार्यों की चर्चा तब तक पूरी नहीं होती, जब तक हम यह न समझ लें कि इस सबके पीछे सबसे बड़े प्रेरणा स्रोत राष्ट्रपिता महात्मा गांधी रहे हैं। बापू के जीवन और विचारों का डॉ. पाठक पर सर्वाधिक असर है। स्वच्छता जैसे कार्य को आज अगर वे एक जनांदोलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, तो उसके पीछे सबसे बड़ी सबसे बड़ी प्रेरणा और शक्ति पूज्य बापू हैं। डॉ. राहुल ने डॉ. पाठक को लेकर लिखी गई इस प्रबंध कृति में इस बारे में अलग से एक सर्ग ही लिखा है- ‘गांधीवादी जीवन दर्शन’। इस सर्ग में कवि के शब्द हैं‘सभी कहने लगे, यही तो है गांधीवाद, आओ यहां करें कुछ सार्थक संवाद। चेतना में जुड़ गया समकालीनता का रंग, दीखते पुलकित सभी पा दूसरों का संग। इस निशा में दुख का संघर्ष ही संघर्ष, वे इसी को मान लेते जिंदगी का हर्ष।’ .... ‘कभी मत पूछो यहां ‘महात्मा’ की जाति क्या? कर्म से जन श्रेष्ठ बनता, अन्यथा बिसात क्या?’ सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक के व्यक्तित्व-विस्तार के केंद्र में स्वच्छता तो है ही, पर वे यहीं नहीं ठहरते। शिक्षा से लेकर साहित्य तक उन्होंने समाज के लिए कई ऐसे कार्य किए हैं, जो काफी महत्वपूर्ण हैं।

खासतौर पर राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति उनका अनुराग उल्लेखनीय है। डॉ. राहुल की प्रबंध कीर्ति में भी उनके इस समर्पित अनुराग का उल्लेख है‘हिंदी भाषा से प्रेम और हिंदीतर से अपनापन, देते हैं सम्मान सभी को, करते उनसे ज्ञानार्जन। पक्षपात न करें किसी से सब सामान भाषाएं, उनको भी यदि अपनाएं तो जगती नव-आशाएं। उनका सत्साहित्य हमारा पथ प्रशस्त करेगा, और कोश समृद्ध बनेगा, नवनिधि उदधि भरेगा। जिस भाषा में पत्र, उसी भाषा में देते हैं उत्तर, यह भाषाई खूबी केवल रखते हैं विन्देश्वर।’ ‘विन्देश्वर विभा’ प्रबंध कृति की एक बड़ी खासियत यह भी है यह अपने केंद्रीय पुरुष को काव्यात्मक रूप से वर्णित नहीं करता, बल्कि साथ में पाठकों को उस चित्रमय झांकी को भी देखने का अवसर देता है, जो सुलभ प्रणेता के जीवन, उनके कार्यों से लेकर उन्हें मिले सम्मानों तक एक यात्रा की तरह है। साथ ही पुस्तक के साथ चित्रों के समन्वय से डॉ. पाठक के प्रबंध व्यक्तित्व को देखने-समझने में भी पाठकों को बड़ी मदद मिलती है। काव्य पंक्तियों के साथ चित्र भी डॉ. पाठक को लेकर उनकी प्रेरक स्मृति का जीवत हिस्सा बनते हैं।


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विज्ञान

16 - 22 अप्रैल 2018

दिल्ली में यूरो-6 ईंधन

नासा को मिला ब्रह्मांड का सबसे दूर स्थित तारा

राजधानी को प्रदूषण संकट से बचाने के लिए निर्धारित समय से पूर्व ही यूरो-6 ईंधन की आपूर्ति शुरू हो गई है

जिस तारे की रोशनी को धरती पर पहुंचने में 9 अरब साल लगे उसे हबल ने खोज निकाला

बल अंतरिक्ष दूरबीन ने अभी तक का सबसे सुदूरवर्ती तारा खोजा है। ब्रह्मांड के बीच में स्थित नीले रंग के इस विशाल तारे का नाम इकारस है। यह तारा इतना दूर है कि इसकी रोशनी को पृथ्वी तक पहुंचने में 9अरब साल लग गए। दुनिया की सबसे बड़ी दूरबीन

से भी यह तारा बहुत धुंधला दिखाई देगा। हालांकि ग्रैविटेशनल लेनसिंग नाम की प्रक्रिया होती है जो तारों की धुंधली चमक को तेज कर देती है जिससे खगोलविज्ञानी दूर के तारे को भी देख सकते हैं। बर्केले में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफॉर्निया में इस शोध का नेतृत्व करने वाले पैट्रिक केली ने कहा, ‘यह पहली बार है कि जब हमने एक विशाल और अपनी तरह का अकेला तारा देखा है।’ केली ने कहा, ‘आप वहां पर कई आकाशगंगाओं को देख सकते हैं, लेकिन यह तारा उस तारे से कम से कम 100 गुना दूर स्थित है जिसका हम अध्ययन कर सकते हैं। (एजेंसी)

मलेरिया से बचना है तो आयरन सप्लीमेंट से रहें दूर

नए शोध से इस बात का पता चला है कि आयरन सप्लीमेंट के सेवन से मलेरिया संक्रमण का खतरा हो सकता है

वै

ज्ञानिकों ने पाया है कि कभी-कभी आयरन का सेवन करने से शरीर में मलेरिया संक्रमण को बढ़ावा मिल सकता है। मलेरिया से पीड़ित मरीजों और चूहों पर किए गए संयुक्त अध्ययन में पाया गया कि आयरन शरीर के अंदर फेररोपोर्थिन नामक प्रोटीन की मात्रा को प्रभावित करता है। अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) के अध्ययनकर्ताओं के अनुसार ये शोध मलेरिया का इलाज करने की प्रक्रिया को और मजबूत बनाएगा। आपको बता दें कि साल 2016 में दुनियाभर में 21 करोड़ 60 लाख लोग मलेरिया संक्रमण के शिकार बने। एनआईएच की एक वरिष्ठ अधिकारी ट्रेसी

रोआल्ट ने बताया कि, हमारा अध्ययन एक पुराने रहस्य से पर्दा उठाता है। आयरन सप्पलीमेंट लेने से मलेरिया संक्रमण बढ़ सकता है और इसके उल्टा कुछ मामलों में मलेरिया के शिकार मरीजों में आयरन की कमी फायदेमंद साबित होती है। फेररोपोर्थिन प्रोटीन लाल रक्त कोशिकाओं के अंदर आयरन के विषाक्त कणों के इकट्ठा होने और इन कोशिकाओं को मलेरिया संक्रमण से बचाने का कार्य करता है। क्योंकि ये प्रोटीन लाल रक्त कोशिकाओं में अतिरिक्त आयरन को खत्म कर देता है, जिसे मलेरिया के कीटाणु पोषण पाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। शोध में पाया गया कि जिन चूहों में फेररोपोर्थिन प्रोटीन की कमी थी, उनमें लाल रक्त कोशिकाओं के अंदर आयरन की हानिकारक मात्रा इकट्ठा होने लगती है। जिससे कोशिकाओं का जीवनकाल कम होने लगता है। इसके साथ ही इन चूहों के मलेरिया से संक्रमित होने के बाद मलेरिया के कीटाणु ज्यादा बढ़ते हैं। क्योंकि इनमें फेररोपोर्थिन प्रोटीन की मात्रा बहुत कम होती है। (एजेंसी)

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ल्ली और एनसीआर में वायु प्रदूषण की बढ़ती समस्या से निपटने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की तेल मार्केटिंग कंपनियों ने दिल्ली में यूरो-6 मानक का डीजल और पेट्रोल उपलब्ध कराना शुरू कर दिया है। दिल्ली देश का पहला शहर है, जहां इस मानक का ईंधन इस्तेमाल किया जा रहा है। साथ ही यहां यूरो-4 ईंधन का इस्तेमाल बंद कर सीधे यूरो6 का इस्तेमाल शुरू किया जाएगा। यूरो-6 मानक के ईंधन के लिए कंपनियां कोई अतिरिक्त कीमत भी नहीं वसूली जा रही है। दिल्ली के आसपास के शहरों नोएडा, गाजियाबाद, गुरुग्राम और फरीदाबाद के अलावा देश के अन्य बड़े शहरों मुंबई, बेंगलुरु और पुणे समेत 13 शहरों में यूरो-6 ईंधन की बिक्री अगले साल जनवरी से शुरु होगी। वहीं देश के बाकी हिस्सों में इसकी बिक्री 2020 अप्रैल में शुरु होगी। सार्वजनिक तेल मार्केटिंग कंपनियों ने दिल्ली में अपने सभी 391

पेट्रोल पंपों पर यूरो-6 मानक वाले ईंधन की आपूर्ति शुरू कर दी है। कंपनियों ने इस मानक के ईंधन के उत्पादन में बड़ा निवेश किया है। लेकिन इसके चलते ग्राहकों की जेब पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, उन्हें अभी ईंधन अभी भी पुरानी कीमत पर ही मिलेगा। लागत के हिसाब से स्वच्छ ईंधन 50 पैसे प्रति लीटर महंगा होना चाहिए। लेकिन जब पूरे देश में यूरो-6 मानक के ईंधन की आपूर्ति शुरू हो जाएगी, तब लागत वसूलने की रूप रेखा तैयार की जाएगी। दिल्ली में लगभग 9.6 लाख टन पेट्रोल तथा 12.65 लाख टन डीजल की सालाना खपत है। उत्तर प्रदेश स्थित मथुरा रिफाइनरी, हरियाणा की पानीपत रिफाइनरी, मध्य प्रदेश के बिना संयंत्र तथा पंजाब के बठिंडा संयंत्र ने स्वच्छ ईंधन का उत्पादन शुरू कर दिया है। इसके लिए अकेले पानीपत संयंत्र पर ही करीब 183 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। साल 2015 में निर्णय लिया गया था कि यूरो6 मानक ईंधन की आपूर्ति पूरे देश में एक अप्रैल 2020 से शुरू की जाएगी। लेकिन जहरीली धुंध की समस्या को देखते हुए दिल्ली में इसे पहले ही किया जा रहा है। (एजेंसी)

बच्चों के लिए प्रभावी है कैंसर की नई दवा

वै

लारोटैक्टिनिब कैंसर की ऐसी पहली दवा है, जिसे अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने एक बड़ी सफलता के रूप में मान्यता दी है

ज्ञानिकों का कहना है कि कई प्रकार के कैंसर में पाए जाने वाले आपस में जुड़े जीन को लक्षित करने वाली अपनी तरह की पहली दवा का परीक्षण किया गया है जो कि 93 प्रतिशत बाल रोगियों के लिए सुरक्षित और प्रभावी पाई गई है। कैंसर की ज्यादातर दवाएं शरीर में विशिष्ट अंगों या स्थानों पर असर करती है। लारोटैक्टिनिब कैंसर की ऐसी पहली दवा है जिसे अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने इसे एक बड़ी सफलता के रूप में मान्यता दी है। यह दवा बच्चों के लिए सुरक्षित और प्रभावशाली पाई गई है। अमेरिका में टेक्सास विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर टेड लाट्सच ने कहा, ''कुछ कैंसर में, टीआरके जीन का एक

हिस्सा एक और जीन से जुड़ा होता है, जिसे फ्यूजन कहा जाता है। उन्होंने कहा, ''जब ऐसा होता है, तो यह टीआरके जीन की ओर जाता है और यह कोशिकाओं के अनियंत्रित रूप से बढ़ने का कारण बनता है। लारोटैक्टिनिब टीआरके फ्यूजन पर असर डालती है, जो कैंसर के कई प्रकारों में पाया जा सकता है। (आईएएनएस)


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जेंडर

राजस्थान में सुधर रहा लिंगानुपात

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की योजना, जो 2015 में हरियाणा के पानीपत में शुरू की थी, वह अब राजस्थान के झुंझुनू तक पहुंच चुकी है

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सोमरीता घोष

शीला थाकन के लिए आठ साल पहले अपनी बड़ी बेटी मनुश्री को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भेजना एक सपना था। बेटी को जन्म देने पर उसे नैतिक रूप से पति का साथ तो मिला, लेकिन परिवार के अन्य लोग बेटी होने से खुश नहीं थे। 32 वर्षीय गृहिणी सुशीला ने बताया, ‘हर कोई बेटा होने की उम्मीद में था, इसीलिए बेटी का पैदा होना परिवार में किसी अपशकुन से कम नहीं था।’ भारतीय जनगणना 2011 के अनुसार राजस्थान के झुंझुनू जिले में लिंगानुपात की स्थिति सबसे खराब थी, जहां 1,000 लड़कों पर 863 लड़कियां थीं। इससे न सिर्फ आधिकारिक तौर इसे सामाजिक रूप से पिछड़ा जिला करार दिया गया, बल्कि यह उन बुराइयों का छोटा संसार बन गया, जो भारतीय

खास बातें

2011 की जनगणना में झुंझुनू में लिंगानुपात की स्थिति सबसे खराब आज झुंझुनू में 1000 लड़कों की तुलना में 951 लड़कियां हैं लिंगानुपात में इस सुधार में जिला प्रशासन और एनजीओ की भूमिका

समाज को रुग्ण बनाती है। 2011 की जनगणना में देश में सबसे कम बाल लिंगानुपात राजस्थान में था, जहां 1,000 लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या 888 थी, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर 1,000 लड़कों के मुकाबले 919 लड़कियां थीं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने एक बार कहा था कि भारत में 4 करोड़ महिलाएं कम हैं। पर इस लिंगानुपात की कमी में जिला दर जिला सुधार आ रहा है। सुशीला का दावा है कि झुंझुनू में भी तेजी से बदलाव आ रहा है। उन्होंने बताया कि बाद में उनको एक बेटा भी हुआ, लेकिन अब परिवार में उनकी बेटी को सबसे ज्यादा लार-प्यार मिलता है, जो इस बात का सूचक है कि समाज बदल रहा है। आज जिले में 1000 लड़कों के तुलना में 951 लड़कियां हैं और यह देश में बाल लिंगानुपात में सुधार के मामले में एक मिसाल है। सुशीला ने कहा, ‘लड़कियों के महत्व के संबंध में क्षेत्र में जागरूकता और शिक्षा के प्रभाव के कारण यह सब हुआ है। प्रदेश सरकार ने लड़कियों के लिए कई योजनाएं शुरू कीं और लिंगानुपात समान बनाने पर जोर दिया। अब भेदभाव बिल्कुल समाप्त हो गया है।’ राजस्थान के इस जिले के लिए लिंगानुपात में सुधार लाने में कामयाबी हासिल करना आसान नहीं था। इस संबंध में जिलाधिकारी दिनेश कुमार यादव ने बताया, ‘यह सुधार रातोंरात नहीं आया। सतत प्रक्रिया व सामूहिक प्रयास से यह सफलता मिली है, जिसमें पूर्व जिलाधिकारियों के साथ-साथ महिला कल्याण व स्वास्थ्य विभागों, गैर-सरकारी संस्थाओं आदि का बड़ा योगदान रहा है।’ झुंझुनू में यादव का पदस्थापन पिछले ही साल हुआ है। उन्होंने बताया कि लोगों की मानसिकता बदलना कठिन कार्य था। यादव ने कहा, ‘काम

झुंझुनू की कई लड़कियां सेना में भर्ती हुई हैं और सरकारी अधिकारी बनी हैं। इसके अलावा कई लड़कियां दिल्ली जैसे महानगरों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करती हैं बहुत कठिन था। हमें घर-घर जाकर लोगों को अपनी योजनाओं में शामिल करने के लिए उन्हें तैयार करना था और उदाहरणों के माध्यम से उन्हें समझाना था।’ यादव ने बताया, ‘झुंझुनू की कई लड़कियां सेना में भर्ती हुई हैं और सरकारी अधिकारी बनी हैं। इसके अलावा कई लड़कियां दिल्ली जैसे महानगरों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करती हैं। हमने खासतौर से उन लोगों को सफलता की ये मिसालें दीं जिनके परिवार में बेटियां हैं।’ पहले जहां बेटे के जन्म पर कुआं पूजन की प्रथा थी, वहां प्रशासन ने बेटी के जन्म पर इस प्रथा को बढ़ावा दिया। उन्होंने बताया, ‘हमने बेटियों को लेकर लोगों की गलतफहमी दूर की। उन्हें बताया कि बेटियां भी परिवार को चलाने में मदद कर सकती हैं।’ झुंझुनू में महिला साक्षरता दर भी कम थी। जिला प्रशासन ने परीक्षाओं में लड़कों से बेहतर परिणाम लाने वाली मेधावी लड़कियों को सम्मानित करना शुरू किया। यादव ने बताया, ‘हमने ‘झुंझुनू गौरव सम्मान’ शुरू किया है, जिसके तहत विद्यालयों को मेवाधी छात्राओं की तस्वीरें लगाने को कहा गया है। हमने ऐसी मेधावी छात्राओं के सम्मान में रैलियां भी निकालीं।’ झुंझुनू ही नहीं, पास के सीकर जिले में भी 2011 में बाल लिंगानुपात की स्थिति खराब थी। वहां 1,000 लड़कों के मुकाबले 885 लड़कियां थीं, जिसमें सुधार के बाद अब 1,000 लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या 944 हो गई हैं।

सीकर के जिलाधिकारी नरेश ठकराल ने बताया, ‘हमें लगता था कि स्थानीय लोगों को शामिल करने से ही बदलाव आएगा। हमने समाज में खुद की पहचान बनाने वाली महिलाओं का चयन कर उन्हें समुदाय का ब्रांड एंबेसेडर बनाया। आंगनबाड़ी केंद्रों और एनजीओ द्वारा आयोजित जागरूकता शिविरों में महिलाएं जाने लगीं हैं।’ ठकराल ने बताया, ‘धीरेधीरे महिलाएं बेटा-बेटी में भेदभाव और लड़कियों की आबादी बढ़ाने में आ रही दिक्कतों को लेकर आवाजें उठाने लगीं। वे लिंगानुपात में संतुलन लाने की जरूरत और बेटियों की महत्ता को लेकर अपनी आवाज मुखर करने लगी हैं।’ दोनों जिलों में बालिका भ्रूणहत्या को रोकना बड़ी चुनौती थी, जिसका सामना करने में महिला कार्यकर्ताओं ने बड़ी भूमिका निभाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की योजना, जो 2015 में हरियाणा के पानीपत में शुरू की थी, वह अब झुंझुनू पहुंच चुकी है। यादव ने बाताया, ‘हर साल करीब एक करोड़ रुपए हमें इस योजना के तहत मिलते हैं, जिससे अभियान चलाने में मदद मिलती है।’ प्रधानमंत्री ने अंतरराष्ट्रीय इस साल इस योजना का विस्तार करते हुए इसे देश के सभी 640 जिलों में लागू किया और इसकी शुरुआत उन्होंने झुंझुनू से करने का फैसला किया। उन्होंने महिलाओं का दर्जा ऊपर उठाने के लिए कार्य करने वाले कई अधिकारियों को सम्मानित भी किया है।


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मिसाल

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चोरल फिर हुई सदानीरा

आदिवासियों के साथ सरकार और एक स्वयंसेवी संगठन ने चोरल नदी की तस्वीर इस कदर बदल कर रख दी है कि कुछ साल पहले तक इस नदी को देखने वाले आज इसे पहचान नहीं पाएंगे

एसएसबी ब्यूरो

दियों के आश्रय में ही दुनिया भर में मानव सभ्यताएं विकसित हुई हैं, नदियों के कारण ही पूरे विश्व में न जाने कितनी संस्कृतियों और परंपराओं ने जन्म लिया है। नदी के साथ जल संरक्षण का विवेक लोगों में हजारों वर्षों तक रहा है। पर आधुनिकता की नई आंधी में यह विवेक कहीं पीछे छूट गया है। वैसे बीते कुछ दशकों में इस बारे में एक जागरूकता भी हर जगह

खास बातें एमपी में इंदौर के पास से बहती है 32 किलोमीटर लंबी चोरल नदी आदिवासियों ने सूख चुकी इस नदी को बनाया सदानीरा साठ साल पुराने स्वरूप में लौट चुकी है चोरल नदी

आई है। इसीलिए एक ऐसे दौर में जब नदियों के जलहीन और प्रदूषित होने की खबरें हमारी चिंताएं बढ़ाती रहती हैं, किसी नदी को सदानीरा बनाने की खबर से बेहतर कोई खबर नहीं हो सकती, क्योंकि हम जिस दौर से गुजर रहे हैं, उस दौर में पानी की दरकार सबसे ज्यादा महसूस की जा रही है। पानी की दरकार इसीलिए कि पानी की कमी हर स्तर पर महसूस की जा रही है।

जब आदिवासियों ने देखा कि हमारी भलाई और नदी को सतत प्रवाहमान बनाए रखने के लिए काम हो रहा है तो उन्होंने भी श्रमदान करने का फैसला किया। इसी दौरान इलाके में लोगों की भलाई के लिए काम करने वाली एक संस्था भी सामने आई

इंदौर के पास बहने वाली चोरल नदी के तट से कुछ ऐसी ही खबर आई है। 32 किमी लंबी नदी को सदानीरा बनाने की कोशिश के साथ इसे एक बार फिर से जीवन देने की कोशिश की गई है। आदिवासियों के साथ सरकार और एक स्वयंसेवी संगठन ने चोरल नदी की तस्वीर इस कदर बदल कर रख दी है कि कुछ साल पहले तक इस नदी को देखने वाले आज इसे पहचान नहीं पाएंगे। लहराती बलखाती हुई लहरों में लिपटी चोरल का निर्मल जल आज उसकी पहचान बन गई है।

खाती हुई नीचे आती है। कभी सागवान के घने जंगलों में लहराती तो कहीं पछाड़ खाती 35 किमी का सुहाना सफर तय करते हुए अंततः यह बडवाह के पास नर्मदा नदी में जा मिलती है। इसके रास्ते में कई झरने भी हैं। चोरल इंदौर से करीब 55 किमी दूर इसी जिले के जानापाव की पहाड़ी से निकलती है। इसी पहाड़ी पर परशुराम की जन्मस्थली भी मानी जाती है। यह इलाका मालवा में आता है, लेकिन चोरल नदी कुछ किमी ही मालवा में चलते हुए अनायास पछाड़ खाकर पहाड़ों से करीब 1300 फीट नीचे निमाड़ में गिरती है और इस तरह मालवा से पानी समेट कर निमाड़ की झोली में डाल देती है।

मध्य प्रदेश में निमाड़ यानी घाट नीचे का इलाका। एक तरफ पहाड़ तो नीचे की तरफ गहरी खाईयां। चोरल पहाड़ों से जल समेट कर सांप की तरह बल

जिस जंगल से होकर यह गुजरती है उसमें इस नदी के किनारे रहते हैं छोटे–छोटे आदिवासियों के गांव हैं। ये लोग चोरल नदी के आसपास की ऊबड़–

सजल कोशिश

रास्ते में कई झरने

नदी किनारे छोटे–छोटे गांव

खाबड़ कुछ जमीन को जैसे–तैसे उपजाऊ बनाकर वहां अपने परिवार का पेट भरने लायक खेती करते रहे हैं। पर इस पहाड़ी नदी के भरोसे कोई खेती कैसे कर सकता है। यह बरसात के दिनों में अपनी अंजुरी में खूब सा पानी समेटे बड़ी तेज और उतावली सी नजर आती है, लेकिन यह उतावलापन कुछ ही दिनों में शांत पड़ जाता है।

बारिश के भरोसे खेती

इसके पूरे प्रवाह क्षेत्र में चार ग्राम पंचायतों के करीब 17 गांव आते हैं। इन सभी गांवों की ज्यादातर आबादी आदिवासी है। पीढ़ियों पहले ये लोग जंगल और उसके उत्पादों पर निर्भर रहते थे, लेकिन बाद के दिनों में जंगल इनके नहीं रहे तब इन्होंने खेती करना शुरू किया। आदिवासी यहां खेती तो करते पर कभी भी बारिश की फसल के अलावा कोई दूसरी फसल नहीं कर पाते थे। बारिश खत्म होते– होते नदी का बहाव कम होने लगता और गर्मी शुरू


16 - 22 अप्रैल 2018

भारत में पेयजल

आदिवासियों की करीब पांच सौ साल पुरानी तकनीक काम में आई और नदी को साठ साल पुराने स्वरूप में लौटा दिया गया एक ही बार फसल होने से इन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता था।

जहां चाह, वहां राह

होने से पहले ही यह नदी धीरे–धीरे सूखने लगती।

जागरूक हुए आदिवासी

नदी सूखने के साथ ही आदिवासियों के पास हाथपर-हाथ धरे बैठने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता था। बरसों से ये आदिवासी इसी तरह की बदहाल और बदरंग जिंदगी बिताने को मजबूर थे। सरकारी नुमाइंदों ने कई बार इनकी दशा सुधारने की कोशिश की पर कोई फर्क नहीं आया। पता लगा कि यदि किसी तरह यह नदी सदानीरा बन जाए और लबालब भरी रह सके तो यह इलाका गुलजार हो सकता है। पर ऐसा होना तो जैसे आसमान से तारे तोड़ लाने जैसा कठिन काम था। नदी का प्रवाह क्षेत्र पूरी तरह से पहाड़ी ढाल पर था और उसमें पानी रोक पाना आसान नहीं था। इसी विचार विनिमय में कई बरस और बीत गए। इधर पानी के लिए हाहाकार और तेज होने लगी।

पहले सर्वे, फिर योजना

आखिरकार चोरल नदी को सतत प्रवाहमान बनाने के लिए कागजी कार्यवाहियां 2011 में तेज हुईं। इस काम के लिए तकनीकी सर्वे हुआ और इसकी करीब नौ करोड़ रुपए से अधिक का बजट बना। खाका तैयार हुआ कि केंद्र सरकार और राज्य सरकार इसमें अलग–अलग कामों के लिए पैसा देगी। केंद्र

के भूमि विकास और जल संसाधन मंत्रालय तथा मप्र सरकार के पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग ने राजीव गांधी जलग्रहण क्षेत्र प्रबंधन कार्यक्रम के तहत इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठाया। लेकिन नदी पहाड़ों से जिस पहले गांव केकरिया डाबरी में उतरती थी, वहीं काम करना मुश्किल हो गया। बारह सौ फीट नीचे बसे इस गांव तक पहुंचने का कोई रास्ता ही नहीं था। आदिवासी जिसे रास्ता बताते थे, वह इतना दुर्गम था कि आदमी का पहुंचना भी मुश्किल। पहाड़ों में से निकल रहे पत्थरों को पकड़कर इस रेतीले और फिसलपट्टी की तरह के रास्ते को पार करना पड़ता था तो ऐसे में कैसे यहां तक मशीनें पहुंचती और कैसे निर्माण के लिए सामान। यह सब बेहद मुश्किल था।

एक फसल के कारण तंगी

केकरिया डाबरी गांव में 15 आदिवासी परिवार रहते थे और केवल बरसात के दिनों में ही गांव आते थे। नदी के सूखने पर बाकी दिनों में इन परिवारों को हर साल पलायन कर रोजगार की तलाश में यहां–वहां भटकना पड़ता था। यही हालत कुशलगढ़, गुजरा और रतवी गांवों में रहने वाले लोगों की भी थी। नदी सूखने के बाद इन्हें पीने के पानी से भी वंचित होना पड़ता था। ए लोग जैसे–तैसे नदी क्षेत्र में गड्ढा खोदकर अपने और परिवार के लिए पानी जुटाते थे।

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मिसाल

कहते हैं जहां चाह, वहां राह की तर्ज पर सबसे पहले यहां तक पहुंचने के लिए वैकल्पिक कच्चा रास्ता बनाया गया। यहां से बैलगाड़ी, ट्रैक्टर और टट्टुओं के सहारे जैसे–तैसे सामान पहुंचना शुरू हुआ। अच्छे काम में लोग जुटना शुरू हुए। जब आदिवासियों ने देखा कि हमारी भलाई और नदी को सतत प्रवाहमान बनाए रखने के लिए काम हो रहा है तो उन्होंने भी श्रमदान करने का फैसला किया। इसी दौरान इलाके में लोगों की भलाई के लिए काम करने वाली एक संस्था भी सामने आई। सब मिलकर जुट गए। लोग जुटते गए और काम बनता गया।

खेतों की मेड़बंदी

अब सवाल था कि नदी के प्रवाह को यहां धीमे कैसे किया जाए। इसके लिए कई तकनीकें एक साथ अपनाई गईं। प्रशासन, स्वयंसेवी संस्थाओं और स्थानीय आदिवासी समाज ने मिलकर पहाड़ों पर कई जगह कंटूर ट्रेंच, बोल्डर चेकडैम और अन्य संरचनाओं तथा खेतों की मेड़बंदी भी की गई। बारिश के साथ मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए सभी तरह के जतन किए गए। चोरल नदी में मिलने वाले छते नदी-नालों को भी उपचारित किया गया। नदी क्षेत्र में दो दर्जन से ज्यादा नाले और दो छोटी नदियां भी थीं, लेकिन वक्त के साथ बंद हो चुकी थीं, इन्हें फिर से ढूंढकर पुराने स्वरूप में लाया गया।

काम आई पुरानी तकनीक

आदिवासियों की करीब पांच सौ साल पुरानी तकनीक काम में आई और नदी को साठ साल पुराने स्वरूप में लौटा दिया गया। पहाड़ी रास्ते पर

जेसीबी या दूसरी मशीनों का उपयोग संभव नहीं था, इसीलिए आदिवासियों की टोली ने खुद मोर्चा संभाला और कुदाली और फावड़ा से उन्होंने पत्थरों चट्टानों तक को तोड़ डाला। पहाड़ी नालों के रास्ते खोल दिए गए। देखते-ही-देखते एक के बाद एक नाले धीरे–धीरे सामने आते गए। चोरल में छह और सहायक नदियों में दो स्टॉप डैम बनाए गए।

नौ करोड़ का सरकारी बजट

नागरथ चैरिटेबल ट्रस्ट के प्रभारी सुरेश एमजे बताते हैं कि ‘यह करीब नौ करोड़ का सरकारी बजट का प्रोजेक्ट था, लेकिन समुदाय की सहभागिता से इसे महज 5 करोड़ 45 लाख रुपए में ही पूरा कर लिया गया। अब चोरल अधिकांश क्षेत्र में पूरे साल बहती है। टीम वर्क से जहां प्रोजेक्ट की लागत कम हुई, वहीं सतत निगरानी से इसकी गुणवत्ता में भी असर आया है। बीते पांच सालों से हम लोग खुली आंखों से एक सपना देख रहे थे और अब वह साकार रूप ले चुका है।’ इंदौर के जिला कलेक्टर पी नरहरी बताते हैं कि ‘अब इन गांवों के आदिवासी किसानों को प्रशासन फूलों की खेती के लिए भी प्रेरित करेगा, ताकि इनकी नियमित आमदनी हो सके।’

सफलता के पांच वर्ष

आखिरकार पांच साल की कड़ी मेहनत और जज्बे का ही परिणाम है कि अब यह नदी जगह–जगह रुकते-थमते बहने लगी है, अब भी इसमें पर्याप्त नीला पानी ठाठे मार रहा है। यहां की तस्वीर अब बदल चुकी है। आसपास हरियाली-ही-हरियाली नजर आती है और इससे भूजलस्तर भी बढ़ गया है। अब यहां के आदिवासी परिवारों के चेहरे पर पानीदार चमक है। उत्साहित आदिवासी किसान बताते हैं कि अब उनकी बरसों पुरानी चाहत पूरी हुई है। अब वे भी गेहूं–चने सहित साल में तीन फसल उपजा सकेंगे।


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पुस्तक अंश

16 - 22 अप्रैल 2018

सांसद आदर्श ग्राम योजना

लो

लोकसभा चुनाव के दौरान मेरे निर्वाचन क्षेत्र में एक चुनाव रैली में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री आए, तो उन्होंने मुझसे नक्सलबाड़ी के बारे में पूछा और कहा कि यह जगह अभी भी वैसी ही है, जैसी विद्रोह शुरू होने के समय थी। उन्होंने मुझे इसे विकसित करने के लिए कहा, यही कारण है कि मैंने इस योजना के तहत गांव को गोद लिया।

कनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती के अवसर पर 11 अक्टूबर 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘ग्रामीण विकास कार्यक्रम शुरू’ किया गया। इस योजना के तहत मूल रूप से संसद के प्रत्येक सदस्य और एक विधान सभा के हर सदस्य को अपने क्षेत्र में एक गांव गोद लेना है और इसके निवासियों को सरकारी सहायता के माध्यम से आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करना है। इस योजना के हर चरण पर नजर रखने के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय, नोडल मंत्रालय है।

एसएस अहलूवालिया

सांसद, दार्जिलिंग सांसद आदर्श ग्राम योजना के तहत नक्सलबाड़ी गांव को गोद लेने पर अपने विचार रखते हुए

सांसद आदर्श ग्राम योजना के शुभारंभ के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन का अंश आजादी के बाद से भारत में सत्ता में आने वाली सभी सरकारें, ग्रामीण विकास के लिए अपने तरीके से काम कर रही हैं। ये प्रयास समय के हिसाब से निरंतर जारी रहने चाहिए। परिवर्तन की गति को दुनिया की गति के तालमेल के साथ ही

चलना चाहिए। यह एक सतत जारी रहने वाली प्रक्रिया है। हालांकि इस प्रक्रिया को गति देने और उसे बनाए रखने के लिए,हर बार नए तत्वों को पेश करना भी महत्वपूर्ण है। आज मुद्दा यह है कि हमें आदर्श ग्राम योजना को, हमारे सांसदों के मार्गदर्शन, नेतृत्व और प्रयासों के साथ आगे ले जाना होगा। अभी इस समय, हमने इस अवधि में कुल तीन गांवों के बारे में सोचा है। एक मॉडल विलेज 2016 तक हासिल किया जाना चाहिए और उस अनुभव के आधार पर दो और मॉडल विलेज 2019 तक प्राप्त किए जाने चाहिए। बाद में, प्रत्येक वर्ष एक सांसद द्वारा एक मॉडल विलेज बनाया जा सकता है। हमारे पास लगभग 800 सांसद हैं और अगर हम 2019 से पहले तीन गांव, मॉडल विलेज बनाते हैं तो 2500 गांवों को मॉडल विलेज बनाया जा सकेगा। अगर राज्य भी अपने विधायकों के लिए इसी तरह की योजना बनाते हैं, तो छह से सात हजार गांव, मॉडल विलेज में जोड़े जा सकते हैं। (अगले अंक में जारी...)


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जेंडर

सबिता रॉय चौधरी

कान्हा की भक्ति में डूबी सबिता आई वृंदावन

भक्ति-भाव और जीवन की रिक्तता के कारण कोलकाता से वृंदावन खिंची चली आई सबिता रॉय चौधरी अपने जीवन के आखिरी दिनों में फिर से कोलकाता लौटना और वहां के मंदिरों में भजन-कीर्तन करना चाहती हैं

स्वस्तिका त्रिपाठी

बिता रॉय चौधरी एक पारदर्शी व्यक्तित्व की महिला हैं। उनके अंदर और बाहर की सभी भावनाएं एक जैसी ही दिखती हैं, जिसे वह छिपा नहीं पाती हैं। सबिता अपने दुखों से लड़ने के लिए भक्ति-भाव को अपना लिया और मंदिरों में भजन गाने लगीं। सबिता की जब शादी हुई तब वह महज 16 या 17 वर्ष की ही थी। काफी समय बीत जाने की वजह से उन्हें इस बारे में सारी बातें ठीक से याद नहीं हैं। वह बताती हैं कि शादी के बाद उस तीन बच्चे हुए, वह पांच लोग कोलकाता में किराए के एक घर में रहते थे। उनका वैवाहिक जीवन खुशी-खुशी चल रहा था लेकिन ये खुशियां ज्यादा समय तक नहीं रह पाईं और उनके पति बीमार रहने लगे। पति की बीमारी की वजह से घर में सभी दुखी रहने लगे। हालांकि पति की बीमारी ने उनका पीछा उनकी मृत्यु के बाद ही छोड़ा। उसके बाद सबिता के घर का माहौल काफी बदल गया। अब उन्हें अपना घर घर जैसा नहीं लगता था। कोलकाता के हुबली की रहने वाली सबिता पति की मृत्यु के बाद अपने घर में ही अकेली हो गई थीं। उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता था और वह काफी परेशान भी रहती थीं। एेसे में उन्होंने भक्ति के मार्ग पर चलने की ठानी। इसके लिए वह मंदिरों में भजन-कीर्तन करने लगीं। भजन-कीर्तन करते हुए वह उत्तर प्रदेश के वृंदावन पहुंचीं। यहां वह सर्वप्रथम तुलसीवन आश्रम में रहने लगीं और ठाकुर जी–राधा रानी के मंदिरों में भजन कीर्तन करने लगीं। 45 साल की उम्र में विधवा हो चुकीं सबिता का सांसारिकता से मन उचर चुका था साथ ही अपने घर जो भोजन बनता था, उसमें लहसुनप्याज का इस्तेमाल किया जाता था, जो सबिता को अब बिल्कुल भी पसंद नहीं था। इसीलिए उन्होंने घर छोड़ कर वृंदावन जाने का मन बना लिया। हालांकि उनके बच्चे हमेशा से चाहते थे कि वह घर पर ही रहें, लेकिन सबिता की भक्ति-भावना ने उन्हें वृंदावन आकर फिर यहां से लौटने नहीं दिया। सबिता जिस तुलसीवन आश्रम में रहती थीं, वहां समस्याएं बहुत थी। एक दिन सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक तुलसीवन आश्रम आए और उन्होंने सबिता और दूसरी विधवा माताओं को शारदा आश्रम में ले गए। सबिता कहती हैं कि 'लाल बाबा' (डॉ. विन्देश्वर पाठक) ने हमें एक स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण दिया है। सबिता बताती हैं कि वृंदावन आने के बाद

खास बातें जीवन के शोक और रिक्तता के कारण चुनी भक्ति की राह वृंदावन आने के बाद भी अपने बच्चों के संपर्क में हैं सबिता आखिरी दिनों में कोलकाता के मंदिरों में भजन गाना चाहती हैं

एक दिन सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक तुलसीवन आश्रम आए और उन्होंने सबिता और दूसरी विधवा माताओं को दूसरे आश्रम में ले गए। सबिता कहती हैं कि 'लाल बाबा' (डॉ. पाठक) ने हमें एक स्वच्छ और स्वस्थ वातावरण दिया है उनके बेटों ने उनसे घर वापस आने को कहा पर वह वापस नहीं गईं क्योंकि उनका मन अब वृंदावन में लग गया था। वह ठाकुरजी और राधा रानी की भजन-भक्ति में ही लीन रहना चाहती थीं। हालांकि सबिता अपने बेटों और बहुओं की प्रशंसा करती हैं, लेकिन उनकी नम होती आंखें उनके दुख के बारे में

सब कुछ बयां कर देती हैं। सबिता अपने जीवन की कहानी बताते हुए कई बार रो भी देती हैं। वह कहती हैं कि एक विधवा का जीवन रिक्त, खोखला, रंगहीन होता है, ऐसा ही माना जाता है। मेरी ऐसी कोई कहानी नहीं है, जो वृंदावन की पवित्र भूमि पर रह रही किसी अन्य विधवा से अलग हो।

सबिता किसी के भी खिलाफ कुछ नहीं कहती हैं। शायद यह उनका आशावाद ही है, जिस कारण उन्हें किसी में कोई बुराई नजर नहीं आती है। वह आज भी अपने बच्चों से मिलती हैं, लेकिन वह उनके साथ लंबे समय तक रह नहीं पाती हैं और फिर वापस वृंदावन आ जाती हैं। पश्चिम बंगाल से आने के बाद से ही सबिता वृंदावन के विभिन्न मंदिरों की भजन समिति में सक्रिय हैं। वह कहती हैं कि भजन से उन्हें शांति मिलती है और 'राधा रानी' और 'हरि' (राधा-कृष्ण) के नामों का जप करने से जीवन सुदृढ़ और पवित्र होता है। अपनी जन्मभूमि से सभी रिश्ते खत्म हो जाने के बावजूद सबिता ने एक बार फिर से कोलकाता के मंदिरों में जाकर भजन-कीर्तन करने की उम्मीद नहीं छोड़ी है। आखिर कोलकाता से ही उन्होंने अपनी भक्ति की यात्रा शुरू की थी। वह वहां वापस जाना चाहती है, जहां से उन्होंने यह सब शुरू किया है। वहां जाकर वह अपने जीवन में भरे उस खाली स्थान को भरना चाहती हैं, जो उनके जीवन में व्यापक तौर पर फैल गया है। बातचीत के क्रम में सबिता अपनी मन:स्थिति और भावी योजना के बारे में बताती हैं, ‘मुझे उम्मीद है कि मैं अपने देस एक दिन जरूर लौटूंगी। मैं वृंदावन अपनी भक्ति यात्रा पर आई थी। शुरू से ही मेरा यहां जीवन भर रहने का कोई इरादा नहीं था। यहां हमने काफी समय बीता लिया है, जो मेरी योजना से अधिक लंबा समय है। मैं आज भी पहले की तरह ही सोचती हूं। हां, मुझे पता है कि अब वहां लौटना मुश्किल है, क्योंकि अब मेरा वहां कोई नहीं रहता है, लेकिन फिर भी मैं कुछ दिन अपने देस जाना चाहती हूं, वहां भजन गाना चाहती हूं।’


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सा​िहत्य

16 - 22 अप्रैल 2018

नेपोलियन का हौसला

कविता

पंछी मत घबराना वर्षा

दुख में मत घबराना दुख में मत घबराना पंछी, ये जग दुख का मेला है चाहे भीड़ बहुत अंबर पर उड़ना तुझे अकेला है नन्हें कोमल पंख ये तेरे और गगन की ये दूरी बैठ गया तो होगी कैसे मन की अभिलाषा पूरी उसका नाम अमर है जग में जिसने संकट झेला है चतुर शिकारी ने रखा है जाल बिछा कर पग-पग पर फंस मत जाना भूल के पगले पछताएगा जीवन पर लोभ मिटाने में मत पड़ना बड़े समझ का खेला है जब तक सूरज आसमान पर बढ़ता चल तू, चलता चल घिर जाएगा अंधकार जब बड़ा कठिन होगा पल पल किसे पता कि उड़ चलने की कब आ जाती बेला है।

ने

उत्साह दोगुना कर दिया और मुझे प्रेरित किया है। लेकिन अगर मै जिंदा बचा तो आप मेरी जय-जयकार करना। उस औरत ने नेपोलियन की बात सुनकर कहा- तुम पहले इंसान हो जो मेरी बात सुनकर हताश और निराश नहीं हुए। ‘जो करने या मरने‘ और मुसीबतों का सामना करने का इरादा रखते हैं, वे लोग कभी नहीं हारते।

लीना

पोलियन अक्सर जोखिम भरे काम किया करते थे। एक बार उन्होंने अाल्पस पर्वत को पार करने का एेलान किया और अपनी सेना के साथ चल पड़े। सामने एक विशाल और गगनचुंबी पहाड़ था, जिस पर चढ़ाई करना असंभव था। सेना मे अचानक हलचल की स्थिति पैदा हो गई। फिर भी उसने अपनी सेना को चढ़ाई का आदेश दिया। पास में ही एक बुजुर्ग औरत खड़ी थी। उसने जैसे ही यह सुना वो उसके पास आकर बोली कि क्यों मरना चाहते हो। यहां जितने भी लोग आए हैं, वो मुंह की खाकर यहीं रहे गए। अगर अपनी जिंदगी से प्यार है तो वापस चले जाओ। उस औरत की यह बात सुनकर नेपोलियन नाराज होने की बजाए प्रेरित हो गया और झट से हीरों का हार उतारकर उस बुजुर्ग महिला को पहना दिया और फिर बोले, आपने मेरा

अंत में एक बात हमेशा याद रखिए, जिंदगी में मुसीबतें चाय के कप में जमी मलाई की तरह है। कामयाब वो लोग हैं, जिन्हें फूंक मार के मलाई को किनारे कर चाय पीना आता है।

अच्छाई बुराई दोनों होती है हर इंसान में

क मित्र को मैं हमेशा खुश देखता था। कभी कभार उनके बारे में कोई भला - बुरा भी बोलता तब भी वे सामान्य ही रहते। मैंने उनसे इसका कारण पूछा। उन्होंने जो इसका तरन्नुम जो राज बताया, वह सुन कर मैं आवाक रह गया। दरअसल, हमारे जीवन में कई ऐसी घटनाएं होती हैं, जो हम महसूस तो करते हैं, लेकिन उसे व्यक्त नहीं कर पाते। मित्र ने बेहद सहजता से उस मंत्र को व्यक्त किया। उन्होंने कहा मेरे खुश रहने का कारण यह कि मैं यह मान कर चलता हूं कि इस दुनिया में हर इंसान किसी-न-किसी रूप में गलत हैं, मैं केवल यह देखता हूं कि उनमें कम गलत कौन है। इससे मेरा ध्यान उनकी गलतियों से ज्यादा उनकी अच्छाइयों की ओर जाता हैं। यह उस समय की घटना है जब ईश्वर आदमी की रचना कर रहे थे। आदमी को धरती पर भेजने की तैयारी करते समय उन सभी बिदुंओं पर गौर किया जो जीवन जीने के लिए जरूरी है। उसने आदमी को तरह तरह की चीजें दी जैसे नाक, कान, मुंह आदि। साथ ही ईश्वर ने उसे बहुत सी

भावनाएं भी दीं, जैसे प्यार, दुख, सुख आदि। अंत में ईश्वर ने दो पोटली बनाई और उन दोनों को एक लकड़ी के डंडे के दोनों किनारों पर बांध कर आदमी के हाथ में दे दिया और कहा, इन दोनों पोटली में कुछ है जो हमेशा तुम्हारे साथ रहेंगी। पीछे की पोटली देखने के लिए तुम्हें मेहनत और धैर्य का सहारा लेना होगा। आदमी ने उस डंडे को लिया और अपने कंधे पर रख लिया। जब उसने उन पोटलियों पर नजर डाली तो आगे वाली पोटली में लिखा था- दूसरे की गलतियां। तब

उसने पीछे नजर घुमाई तो उस पौटली पर लिखा था- अपनी गलतियां। अब ईश्वर ने कहा- मनुष्य को दूसरों की गलतिया आसानी से दिख जाती हैं और बिना प्रयास के अपनी गलतियां नहीं दिखती। यह कह कर ईश्वर ने आदमी को धरती पर भेज दिया। हमेशा गलतियां ढूंढने वाला व्यक्ति उस मक्खी के समान है जो सारे संसार की मिठाईयों को छोड़कर गंदे पर आ बैठती हैं, इसीलिए हमें दूसरों की गलतियों के बजाए अपनी कमी देखनी चाहिए।

कविता

बुराईयों से बचो आचार्य चंद्रशेखर शास्त्री

बुराइयों को कभी जीवन में अपनाना नहीं चाहिए, यह मीठा जहर होता है इसे खाना नहीं चाहिए, बुरी संगत जहां देखो वहां जाने से शरमाओं, वहीं सत्संग होता हो तो जाने से शरमाना नहीं चाहिए, कोई कितना भी क्यों न हो बड़े घर बार, धन वाला, जहां स्वागत नहीं होता वहां जाना नहीं चाहिए। लगे पेड़ों पे फल ज्यों ही झुके सब डालियां उनकी, यह ऐश्वर्य को पाकर के इतराना नहीं चाहिए। अगर कुछ दे नहीं सकते तो कह दो माफ कर बाबा, मगर दुत्कार कर मंगते को लौटाना नहीं चाहिए, निरादर से मिले दौलत जमाने की तो मत छूना, मिले जो प्रेम से तिल भी तो ठुकराना नहीं चाहिए। पड़ा मट्टी में जब सोना ‘पथिक’वह बन गया कुंदन, प्रभु जब कष्ट देता है तो घबराना नहीं चाहिए।


16 - 22 अप्रैल 2018

आओ हंसें

जीवन मंत्र

पेपर तो दे दो

चंकी (स्टेशनरी दुकान पर) : प्रिंटर के लिए पेपर दे दो। दुकानदार: ए 4? चंकी: ए फॉर एप्पल! अब तो जल्दी पेपर दे दो।

डोकू -18

रंग भरो

पढ़ाई की वजह

सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें

शिक्षक: तुम पढ़ने में ध्यान क्यों नहीं देते हो? छात्र: क्योंकि पढ़ाई सिर्फ दो वजहों से की जाती है। पहला कारण है डर और दूसरा कारण शौक। बिना वजह के शौक हम पालते नहीं और डरते तो हम वैसे भी किसी से नहीं हैं।

महत्वपूर्ण दिवस

• 18 अप्रैल विश्व विरासत दिवस • 21 अप्रैल भारतीय सिविल सेवा दिवस • 22 अप्रैल पृथ्वी दिवस

1. साले की पत्नी (4) 4. सवेरा (4) 6. रामचरित से संबंधित ग्रंथ (4) 8. सौगंध (3) 10. त्वचा (3) 12. आग (3) 14. रोने-पीटने का शोर (4) 15. वायु (मौसम) की स्थिति (4) 16. शहर (3) 18. प्रार्थना पत्र (3) 19. मकान (3) 21. कुम्हार (4) 23. लंघन, किसी चीज से दूर रहना (4) 24. युद्ध का मैदान (4) 1. पक्का मार्ग (3) 2. अवैध, नाजायज (3) 3. बचत (2) 4. जान (2) 5. काष्ठ (3) 7. मुसलमान, यूनान का निवासी (3) 9. राय-मशवरा देने वाला(5) 11.चमत्कार जैसे कार्य करने वाला (2,3) 12. शांति (3) 13. हिलोर (3) 17. गधा (3) 18. निरुपम (3) 19. भरना (3) 20. तारा, सितारा (3) 21. बगीचा, उपवन (2) 22. करने वाला (2)

सुडोकू-17 का हल

वर्ग पहेली - 18 वर्ग पहेली-17 का हल

बाएं से दाएं

ऊपर से नीचे

सु

कोई इतना अमीर नहीं होता कि वह अपना अतीत खरीद सके कोई इतना गरीब नहीं होता कि वह अपना भविष्य न बदल सके

वाट्सअप मैसेज

टीटू ने ग्रुप में वाट्सअप किया... ‘मैसेज भेजने वाला बुद्धिमान और इसे पढ़ने वाला मूर्ख।’ चंकी ने भी तुरंत वाट्सअप किया... ‘नहीं, भेजने वाला मूर्ख और इसे पढ़ने वाला बुद्धिमान।’

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इंद्रधनुष

कार्टून ः धीर


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न्यूजमेकर

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

16 - 22 अप्रैल 2018

अनाम हीरो

नंदिनी भौमिक

विवाह का नया मंत्र

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नंदिनी भी पुरुष पंडितों की तरह शादी संपन्न करवाती हैं, लेकिन उनका तरीका अलग और क्रांतिकारी है

तृसत्तात्मक समाज में सारे अनुष्ठान के कार्य पुरुष पुजारी करते हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल की नंदिनी भौमिक ने इस पुरुष वर्चस्व को तोड़ दिया है। नंदिनी भी पुरुष पंडितों की ही तरह शादी संपन्न करवाती हैं, लेकिन उनका तरीका बेहद अलग है। वह संस्कृत के कठिन श्लोकों को बांग्ला और अंग्रेजी में बोलती हैं, ताकि दुल्हन और दूल्हा उसके मतलब समझ सकें। उनके द्वारा करवाई जाने वाली शादी में बैकग्राउंड में रवींद्र संगीत बजता रहता है। इसके अलावा वह कन्यादान और पिरी घोरानो जैसी रस्मों के बगैर ही शादी संपन्न करवाती हैं, जिसे उनकी ही टीम के लोग बजाते हैं। नंदिनी भौमिक पेशे से पंडित नहीं, बल्कि प्रोफेसर और ड्रामा आर्टिस्ट है। पंडितों के कार्य करने वाली वह पश्चिम बंगाल की पहली महिला है। उनका कहना है, ‘मैं उस सोच से इत्तेफाक नहीं रखती जिसमें बेटी को धन समझा जाता है और शादी के वक्त उसे दान कर दिया जाता है। स्त्रियां भी पुरुषों की तरह ही इंसान हैं, इसीलिए उन्हें वस्तु की तरह नहीं समझना चाहिए।’ आमतौर पर शादी करने में सारी रात लग जाती है लेकिन नंदिनी 1 घंटे में ही शादी संपन्न करवा देती है। उनका कहना है कि मैं कन्यादान नहीं करवाती, जिससे काफी

समय बच जाता है। इसके अलावा मुझे यह परंपरा काफी पिछड़े सोच की भी लगती है। वैसे वह विनम्रता से यह भी कहती हैं कि मैं बाकी पुजारियों का सम्मान करती हूं और मेरी उनसे कोई लड़ाई नहीं है। नंदिनी पिछले 10 सालों से शादियां करवा रही हैं और अब तक वो 40 से भी ज्यादा शादियां करवा चुकी हैं। उन्होंने कोलकाता और उसके आसपास के कई इलाकों में अंतरजातीय, अंतरधार्मिक विवाह संपन्न कराए हैं। नंदिनी ने अपनी 2 बेटियों की शादी भी इसी तरह संपन्न करवाई है। इसके अलावा वह अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा अनाथालयों में दान करके बच्चों की मदद भी करती हैं।

छोटे राज्यों की बड़ी प्रतिभाएं

राज्य 5, खिलाड़ी 98

कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत से 217 खिलाड़ी शामिल हो रहे हैं, जिनमें पांच छोटे राज्यों से ही सिर्फ 98 खिलाड़ी हैं

में भले ही हरियाणा, पंजाब, केरल, झारखंड और देशमणिपुकीरआबादी राज्यों का सिर्फ 9 फीसदी का योगदान हो, लेकिन गोल्ड

कोस्ट कॉमनवेल्थ गेम्स में भेजे गए भारतीय दल में इनकी हिस्सेदारी 45 फीसदी है। इन गेम्स में भारत से 217 खिलाड़ी शामिल हो रहे

हैं, जिनमें इन पांच राज्यों से ही सिर्फ 98 खिलाड़ी हैं। यही नहीं, जिस मणिपुर की आबादी महज 30 लाख है, वहां से कॉमनवेल्थ गेम्स में नौ खिलाड़ी भाग ले रहे हैं। यानी हर तीन लाख की आबादी में से एक खिलाड़ी अपने सूबे का प्रतिनिधित्व कर रहा है। हरियाणा, पंजाब, केरल, झारखंड और मणिपुर की आबादी करीब 12.11 करोड़ है, जबकि देश की आबादी 1.3 अरब के आसपास है। हरियाणा में 7.5 लाख, पंजाब में 10 लाख, केरल में 17.5 लाख और झारखंड में करीब 33 लाख की आबादी पर औसतन एक खिलाड़ी कॉमनवेल्थ गेम्स में भाग ले रहा है। एक ओर जहां ये पांच राज्य भारतीय दल का 45 फीसदी हिस्सा बने, वहीं देश के आठ राज्य और चार केंद्र शासित प्रदेश ऐसे हैं, जहां से कोई भी खिलाड़ी कॉमनवेल्थ गेम्स में भाग नहीं ले रहा है। इनमें 10 करोड़ की आबादी वाला बिहार भी है। इसके अलावा हिमाचल प्रदेश, गोवा, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मेघालय और त्रिपुरा भी हैं, जहां से कोई भी खिलाड़ी कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए नहीं भेजा गया है।

अशफाक

त द ा ह श ए लि अमन के मरने से पहले अशफाक ने 20 बच्चों की जान बचाई। जिनकी उसने जान बचाई, अशफाक उनके लिए हमेशा हीरो रहेगा

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वर्ष के अशफाक से कोई पूछता कि बड़े होकर क्या बनोगे, तो वह कहता- मौलवी। अशफाक सोचता था कि एक दिन मस्जिद की मीनार से उसकी आवाज गूंजेगी। उसक यह सपना अब अधूरा रहेगा। हाल में आई तेज आंधी में उसके मदरसे की मीनार टूटकर नीचे गिर गई और वह उसके नीचे दबकर मर गया। पर मरने से पहले उसने 20 बच्चों की जान बचाई। जिनकी उसने जान बचाई, वो ताउम्र उसको याद रखेंगे। अशफाक हमेशा उनके हीरो रहेंगे। हरियाणा के मेवात में एक बमबाहेरी गांव है। यहीं के मदरसे की यह घटना है। उस दिन शाम के वक्त अशफाक कुरान पढ़ने मदरसा पहुंचा। इसी दौरान तेज आंधी-तूफान आया। इतनी तेज कि एक मीनार हिलने लगी। अशफाक की नजर उस पर गई। उसने चिल्लाकर औरों को बताया। बच्चे बाहर भागने लगे, लेकिन अशफाक नहीं भागा। वह बाकी बच्चों को बाहर निकालने में जुटा था। इसी दौरान मीनार टूटकर छत पर गिर गई। अशफाक और उसके साथ एक और बच्चा उसके नीचे दब गए। बाद में गांववालों ने उन्हें निकाला और अस्पताल ले गए। हालत की गंभीरता को देखते हुए अशफाक को दिल्ली लाया गया, मगर बचाया नहीं जा सका। हरियाणा वक्फ बोर्ड ने मदरसे की मरम्मत के लिए 10 लाख रुपए देने का ऐलान किया और कहा कि दो लाख रुपए की मदद अशफाक के परिवार को भी मिलेगी। अशफाक के अब्बू दीन मुहम्मद ने कहा कि वो अपने हिस्से के रुपए भी मदरसे को ही दे देंगे।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 18


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