Diya Tale Andhera

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सार्थक साहित्य मंच हिशेषांक दीया तले अँधेरा शालिनी दीलित/समय बदिा

डॉ अनीता लसिंह/ रिक ही भिक

अनुपमा (अनु)/गर्व

आभा लसिंह/सिंगलत का असर

कलर्ता गप्तु ा/सोच के लर्परीत

डॉ मिंजु सैनी/कुछ दरू आओ बैठे

सक ं लन कुमार हिक्ांत


सार्थक साहित्य मच ं दीये तले अँधेरा अनुक्रमहिका दो शब्द……………………………………………..………………………………………………………1 समय बदला/शाललनी दीलित………..……………………………………….…………………………………3 अध्यापक का पत्रु /शाललनी दीलित………………………………………………………………………………4 रिक ही भिक/डॉ अनीता लसिंह………………………………………………………………………………...5 गर्व/अनुपमा (अनु)…………………………………………………………………………………………...6 सगिं लत का असर/आभा लसहिं ……………………………………………………………………………………7 उजाला/आभा लसिंह…………………………………………………………………………………………...8 सोच के लर्परीत/कलर्ता गप्तु ा…………………………………………………………………………………...9 १२ नबिं र का जतू ा/कुमार लर्क्ातिं ………………………………………………………………………………10 िमा/गीता पररहार…………………………………………………………………………………………...11 परु स्कार की अिंधी अलभलाषा/गीता र्ाधर्ानी……………………………………………………………………12 लदया तले अँधेरा/नीरज कुमार लसिंह……………………………………………………………………………..13 कुछ दरू आओ बैठे/डॉ मिंजु सैनी……………………………………………………………………………….14 होत ढोल में पोल/मान बहादरु लसिंह 'मान'………………………………………………………………………..15 रोशनी लचराग की/जया भटनागर……………………………………………………………………………….16 अलभमान/डॉ मधु आिंधीर्ाल………………………………………………………………………………….17 भटकार्/डॉ उलमवला लसन्हा……………………………………………………………………………………17 कतरनें/लडम्पल गौड़…………………………………………………………………………………………18 लदया तले अँधेरा/मीना लतर्ारी…………………………………………………………………………………19 कुलदीपक/डॉ ज्योत्सना गप्तु ा………………………………………………………………………………….20 लदया तले अँधेरा/लनरिंजन धल ु ेकर………………………………………………………………………………21 कभी न भल ू ने र्ाली रात/डॉ शोभा भारद्वाज……………………………………………………………………...22

I


तलनक सोच देखो/डॉ सनु ीता थत्ते………………………………………………………………………………23 अपराधबोध/लतन्नी श्रीर्ास्तर्…………………………………………………………………………………24 व्याख्याता र्ीरभद्र लसिंह/सररता गप्तु ा…………………………………………………………………………….25 नेता और जनता/सररता गप्तु ा…………………………………………………………………………………..26 िलिकाए/िं सधु ीर श्रीर्ास्तर्…………………………………………………………………………………...27 दीपक देता रोशनी/भाष्कर बुड़ाकोटी 'लनर्वर'……………………………………………………………………..27 लदया और आत्मा/सिंजीर् कुमार भटनागर………………………………………………………………………..28 भ्रमजाल/सीमा भालटया………………………………………………………………………………………29 तिंज/सीमा भालटया…………………………………………………………………………………………...30 सर का बेटा/ज्योलत व्यास…………………………………………………………………………………….32 उपदेश से आगे/अजिं ु 'अना'…………………………………………………………………………………...33 दृलिकोि/अिंजु 'अना'………………………………………………………………………………………...34 उजाला/अपरालजता 'अलजतेश' जग्गी…………………………………………………………………………...35 दोहरा व्यलित्र्/इन्दु बाला गप्तु ा………………………………………………………………………………..36 लदया तले अँधेरा/उषा सक्सेना…………………………………………………………………………………37 मौन हिं अनलभज्ञ नहीं/डॉ सगिं ीता तोमर………………………………………………………………………….38 लदया तले अँधेरा/बलबता किंसल………………………………………………………………………………..39 लपता-पत्रु /गीता र्ाधर्ानी……………………………………………………………………………………..40 लदया तले अँधेरा/सधु ा लमश्रा लद्वर्ेदी…………………………………………………………………………….41 ठाकुर का कुआँ/मनोज खरे…………………………………………………………………………………...41 चेहरे पर चेहरा/मीनािी चौधरी………………………………………………………………………………...42 नसीब/नतू न गगव……………………………………………………………………………………………..43 II


रूआब/पष्ु पा श्रीर्ास्तर्………………………………………………………………………………………44 र्ाह रे लहदिं स्ु तान/सिंगीता लमश्रा…………………………………………………………………………………45 अिंधेरा/सिंगीता लमश्रा…………………………………………………………………………………………46 कथनी और करनी में फकव /प्रगलत लत्रपाठी………………………………………………………………………..47 भाग्यफल अथर्ा कमवफल/बन्दना पाण्डेय र्ेि… ु ………………………………………………………………...49 लदया तले अँधेरा/अरुि ठाकर…………………………………………………………………………………50 दोहरे मापदडिं /बीना जैन………………………………………………………………………………………51 श्रद्ाजिं लल/मजिं ु सराफ………………………………………………………………………………………...52 हसरत/ममता लसिंह देर्ा……………………………………………………………………………………….53 लमथ्या दभिं /धमेन्द्र कुमार चेलक………………………………………………………………………………..54 आईना/ममता गप्तु ा…………………………………………………………………………………………..55 भटकार्/मधु जैन……………………………………………………………………………………………57 लचराग तले अँधरे ा/रिंजना बररयार………………………………………………………………………………58 तकव के तीन चेहरे /र्ैशाली थापा………………………………………………………………………………..59 नया सर्ेरा/मीनािी चौधरी……………………………………………………………………………………60 लदया तले अँधेरा/डॉक्टर पनू म चौहान…………………………………………………………………………..61 गरु​ु मिंत्र/मौसमी चन्द्रा…………………………………………………………………………………………62 कालचक्/अशोक लसिंह………………………………………………………………………………………63 लदलीप कुमार र्ा/जीर्न दीप का अँधेरा………………………………………………………………………...64 तो र्ो घर, घर नहीं/किंचन लमश्रा………………………………………………………………………………..65 ज्योलत अग्रर्ाल/दीये तले अँधेरा………………………………………………………………………………66 लिन्दगी का इलम्तहान/रे िु गप्तु ा…………………………………………………………………………………67 III


ज्योलत का सिंगम/रलमम भट्ट……………………………………………………………………………………69 हाथ पर रखें लौ को/कलर्ता सदू ……………………………………………………………………………….70 दीपक तले अँधेरा/रोलहत र्माव…………………………………………………………………………………71 कुल दीपक/माता प्रसाद दबु … े ………………………………………………………………………………..73 लर् जेहाद/छन्या जोशी………………………………………………………………………………………74 र्ठू का सच/र्ीिा उपाध्याय………………………………………………………………………………….75 प्रर्ेश पर्व/सनु ीता लमश्रा………………………………………………………………………………………78 ये कै सा दीया/मयाम आठले…………………………………………………………………………………...79 बुर्ा हुआ लचराग/मयाम आठले……………………………………………………………………………….80 माता लक्ष्मी जी की लचतिं ा/सश ु ीला कुमारी……………………………………………………………………….82 दीया तले अधिं ेरा/भार्ना मगिं लमख ु ी………….………………………………………………………………...84 पलायन/सिंजय अग्रर्ाल……………………………………………………………………………………...85 सतगरु​ु के दर उलजयारा/लर्कास शमाव…………………………………………………………………………...87 होश र्ाली बेहोशी/लर्कास शमाव………………………………………………………………………………88 सार्थक साहित्य मंच राजकुमार कांदु (संस्र्ापक/एडहमन) पूजा अहननिोत्री (एडहमन) शाहलनी दीहित (एडहमन) स्नेिलता श्रीवास्तव (एडहमन) जया यादव (मॉडरेटर) अरुि धमाथवत (एडहमन) कुमार हवक्रांत (एडहमन)

IV


सभी को मेरा सादर अभभवादन! साभियों! भिस सोच के साि मैंने आि से लगभग डेढ़ वर्ष पहले १९ अप्रैल २०१९ को हनुमान ियंती के पावन अवसर पर आपके भप्रय साभहभययक समहू ' सािषक साभहयय मंच ' की स्िापना की िी वह अब साकार होती निर आ रही है आप सभी को यह ईबुक सप्रेम समभपषत करते हुए! इस ईबुक की पररकल्पना व इसे साकार करने में अपना अमल्ू य योगदान करने के भलए समहू के लोकभप्रय संचालक श्री कुमार भवक्ांत िी का भवशेर् आभार! यू​ूँ तो समहू पर कई तरह की साभहभययक गभतभवभियां आयोभित की िाती हैं लेभकन लोकोभि आिाररत प्रभतयोभगता का आयोिन ' सािषक साभहयय मचं ' की भवभशष्ट पहचान बन चक ु ी है । मचं स्िापना के भदन से ही अपने सभी सदस्यों की सलाह व सुझाव के अनुरूप मंच संचालन की अपनी नीभत के तहत मंच की वररष्ठ रचनाकार आदरणीया स्वयंप्रभा झा िी व डॉ पूनम कुमारी िी द्वारा सुझाए गए भवचार ' लोकोभियों को ही भवर्य बनाकर रचनाएूँ मंगाई िाएं व प्रभतयोभगता का आयोिन भकया िाए ' पर अमल करते हुए समहू में लोकोभियों पर आिाररत प्रभतयोभगता का आयोिन करने का भनणषय भलया गया । इस भनणषय में सचं ालक मडं ल की तरफ से अन्य भनयमों के साि ही यह भी भनिाषररत भकया गया भक अगली प्रभतयोभगता के भलए लोकोभि का चनु ाव भपछली प्रभतयोभगता के भविेता द्वारा भकया िाएगा । समूह के आयोिनों से रचनाकारों को भदल से िुड़े रहने के भलए भकया गया हमारा प्रयास काफी सफल रहा है व बहुत अच्छा लगता है िब पाठक व रचनाकार ऐसे आयोिनों की भदल खोलकर तारीफ करते हैं, रचनाओ ं को पढ़ते हैं व अपनी सुंदर भिप्पभणयों द्वारा रचनाकारों का यिायोग्य उयसाहविषन व मागषदशषन भी करते हैं । सीभमत रचनाकार होने के बाविूद इस अनोखी तरह की पहली ही प्रभतयोभगता में लगभग ६० रचनाएूँ आयोिन में शाभमल हुई ं यह अपने आप में हम सभी के भलए बेहद उयसाहविषक रहा । कुमार भवक्ांत िी ने इस प्रभतयोभगता से ही आयोिन में शाभमल सभी रचनाओ ं का संकलन करके उसे एक ईबुक की शक्ल देने का अपना सराहनीय कायष शरू ु कर भदया िा । अभिकतम रचनाकारों को इस ईबुक की पीडीएफ फाइल भेिी भी गई । मचं का यह भनणषय बेहद सराहा गया व रचनाकारों में काफी लोकभप्रय भी हुआ । उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस बार समहू पर आयोभित ' दीया तले अूँिेरा ' भवर्य पर प्रभतयोभगता का सफल आयोिन भकया गया । भवर्य आिाररत रचनाओ ं के आयोिन पर हम एक ही भवर्य पर भवभभन्न रचनाकारों के भवभभन्न मनोभावों को उनकी भार्ा, शैली व उनके भवचारों को उनकी रचनाओ ं के माध्यम से महसूस करते हैं । इस बार प्रदत्त भवर्य का चयन गत भविेता आदरणीया ' मिु िैन िी ' के द्वारा भकया गया िा । आि समाि में बाहरी चमक दमक भले ही निर आ रहा हो लेभकन अदं रखाने कहीं न कहीं हर क्षेत्र अपनी अपनी समस्या से िझू रहा है । पूरे िग को अपने प्रकाश से आलोभकत करने वाला दीया भकतना बेबस व मिबूर होता है अपने नीचे ही पसरे हुए अूँभियारे के समक्ष ! ठीक इसी तरह इसी को चररतािष करती हुई बहुत सी घिनाएं हम अपने इदषभगदष घभित होती हुई महसूस करते हैं और अपने इन्हीं अनुभवों को सभी कलमकारों ने आिार बनाकर अपनी प्रभतभा व कुशलता के अनुरूप बड़ी खबू ी से प्रस्तुत करने का प्रयास भकया है । अभिकांश रचनाएूँ बेहद उम्दा व संग्रहणीय बन पड़ी हैं । कुछ रचनाएूँ अवश्य औसत रह गई हैं लेभकन इससे कोई फकष नहीं पड़ता । भकसी प्रभतयोभगता में भाग लेना ही प्रभतयोगी के भविेता होने की पहली सीढ़ी है इसी सोच के साि कुमार भवक्ांत िी ने आयोिन में शाभमल सभी प्रभवभष्टयों को इस ईबुक में बड़ी खबू सूरती से प्रस्तुत भकया है व इसे सिाने सूँवारने में काफी श्रम भी भकया है भिसे आप सभी सराहेंगे इसका मझु े पूणष भवश्वास है । मंच पर शायद आप सभी रचनाओ ं तक न पहुचूँ सके हों लेभकन आप इस ईबुक के िररये आयोिन में शाभमल सभी रचनाओ ं का रसास्वादन कर आनंभदत अनुभव करें गे । कुल भमलाकर मझु े यह कहने में कोई संकोच नहीं भक यह ईबुक पढ़ना आप सभी के भलए एक सुखद अनुभव साभबत होने िा रहा है । पुनः सभी प्रभतभाभगयों का हृदय से िन्यवाद व हाभदषक बिाई व शभु कामनाएं ! इसी तरह पढ़ते रहें, पढ़ाते रहें व परस्पर स्नेह सम्मान सभहत एक दसू रे का उयसाह विषन करते रहें । आप सभी का सादर आभार। 1

रािकुमार कादं ु (एडभमन)


सार्थक साहित्य मंच िमेशा से लेखन और साहित्य के प्रहि समहपथि रिा िै; मंच पर हनि नए आयोजन व प्रहियोहि​िाएं आयोहजि की जािी िै ।

मिु ावरों और लोकोहियों का िमेशा से िी व्याकरण एवं साहित्य में हवहशष्ट स्र्ान रिा िै। इनके माध्यम से िम अपनी बाि को सिु मिा से समझा सकिे िैं। यि भाषा के सौंदयथ को बढ़ाने में भी सिायक िोिे िैं ।

मिु ावरा/लोकोहि प्रहियोहि​िा एकदम अनोखी प्रहियोहि​िा िै; जब एक िी मिु ावरे /लोकोहि पर अनेक रचनाएँ पढ़ने को हमलिी िै िो बिुि आनंद आिा िै ।

प्रस्िुि पुस्िक में शाहमल रचनाएं 'सार्थक साहित्य मंच द्वारा एक प्रहियोहि​िा 'दीया िले अँधेरा' के माध्यम से संकहलि की िई िैं​ं । प्रहियोहियों ने इस प्रहियोहि​िा में अपने हवचार, भाव एवं काहबलीयि सामने रखी िै हजसके हलये सभी रचनाकारों को बधाई ।

इस प्रहियोहि​िा की कई ईबुक पिले भी हनकाली िई िै जो बिुि लोकहप्रय भी रिी, िब मैं मंच के संचालन मंडल में निीं र्ी लेहकन एक लेहखका के िौर पर मेरी रचना फोटो के सार् उस ईबक ु में देख कर मन आनहं दि िो िया र्ा। िमारे सभी लेखक/लेहखकाओ ं को अपनी रचनाएं इस ईबुक में छपी देखने के बाद हजस आनंद की अनुभहू ि िोने वाली िै उस का स्वाद अनोखा िै; मैं मिसूस कर चक ु ी िँ ।

रचनाकारों द्वारा भेजी िई रचनाओ ं को सिेजने एवं इन्िें ई-पुस्िक के रूप में संजोने का काम आदरणीय कुमार हवक्ांि जी ने हकया िै, जो हक बिुि श्रमसाध्य िै, इस सरािनीय प्रयास के हलये हवक्ांि जी को िाहदथक धन्यवाद ।

आप सब ने अपनी रचनाएं, 'दीया िले अँधेरा,' आयोजन में भेज कर िमें अनुग्रहि​ि हकया िै, आप सब का िाहदथक धन्यवाद ।

पजू ा अहननिोत्री (एडहमन)

कुमार हवक्ांि जी ने बिुि िी अच्छे ग्राहफक्स का प्रयोि कर के िम सब के हलए एक बेि​िरीन बुक बनाई िै, इस बुक के हलए हवक्ांि जी का िाहदथक धन्यवाद, उम्मीद िै आप लोि भी आयोजन और इस ईबुक के बारे में अपनी प्रहिहक्याओ ं से िमें अवि​ि कराएिं े। धन्यवाद ।

शाहलनी दीहि​ि (एडहमन)

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समय बदला शाललनी दीलित

यगु भी बदला, समय भी बदला। प्रवचनों का यहा​ां लगा अम्बार है। ददया तले अांधेरा, जीना भी दश्वु ार है। काढ़ा बांनाने वाले, खदु ही बीमार है। दजद्द थी जीने की, डर के छुपे रहने की, उजड़ गए वो चमन कहा​ाँ अब बहार है।

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अध्यापक का पुत्र शालिनी दीलित

सर मझु े निन्यािबे िंबर नमले, कोई कहता सर मझु े पंचािबे िंबर नमले हैं। सुबह से ही अर्ुि के घर में उसके पढ़ाए हुए छात्रों और उिके माता-नपता का ता​ाँता लगा हुआ है; नमठाइयों के डब्बे पर डब्बे आते र्ा रहे हैं। अनि​िावक बहुत खश ु हैं अर्ुि की बहुत तारीफ हो रही है। बारहवीं के बोडु का ररर्ल्ट आया है तिी से अर्ुि के घर में नमठाइयों के ढेर लगे पड़े है। "अरे आप तो तो शनमिंदा कर रहे हैं........नशक्षक का काम है नसखािा बड़ाई तो बच्चे की होिी चानहए नर्सिे अध्यापक से सीखा और अच्छा नलखा परीक्षा में......" अर्ुि िे नवशाल के मम्मी पापा से कहा।

अर्ुि को िी इस बात का बहुत दख ु है नक उसके बेटे के गनित में कम िंबर आए हैं वह कुछ बोल िे र्ा रहे थे लेनकि उससे पहले उिकी मां बोल पड़ी, "इसी को कहते हैं नदया तले अंधेरा......."

"सर आप अपिी र्गह सही है लेनकि आपिे इतिे अच्छे से िहीं नसखाया होता तो वह िहीं कर पाता। आप का योगदाि बहुत बड़ा है। एक बार िींव मर्बूत हो र्ाए नफर नचंता िहीं रहती। बारहवीं के बाद तो बच्चे समझदार हो र्ाते हैं; अपिा अच्छा बरु ा काफी हद तक समझिे लगते हैं........" नवशाल के पापा बोले। "नवशाल के साथ मेरी शिु कामिाएं हमेशा रहेंगी किी िी, कोई िी आवश्यकता हो वह मझु से पूछ सकता है ।" अर्ुि िे कहा। अब आिे वालो की संख्या काम हो गई थी। सब के चले र्ािे के बाद अर्ुि िे अपिी पत्िी और मां से कहा, "अरे िाई नमठाई खाओ........आप लोग क्यों इतिा मंहु लटकाए बैठे हुए हो? मेरी इतिी तारीफ हो रही है, क्या खश ु ी िहीं होती आपको दोिो को?" "हम क्या खश ु हो.........अपिा बेटा तो दसवीं में गनित में मनु श्कल से पास हुआ है; दसू रे बच्चों के िले नकतिे िबं र आए हो अपिे बच्चे को तो गनित में पारंगत िहीं बिा पाए आप......." अर्ुि की पत्िी बोली। अर्ुि को िी इस बात का बहुत दख ु है नक उसके बेटे के गनित में कम िंबर आए हैं वह कुछ बोल िे र्ा रहे थे लेनकि उससे पहले उिकी मां बोल पड़ी, "इसी को कहते हैं नदया तले अंधेरा......." "अरे िाई ऐसा िहीं है आप लोग इतिा परे शाि ि हो हर बच्चा एक र्ैसा िहीं होता अपिे मोिू को गनित में ज्यादा रुनच िहीं है लेनकि उसकी आटटुस के सब्र्ेक्ट में ज्यादा रुनच है अब ११वीं से वह आटटुस के सब्र्ेक्ट लेगा और अपिी रुनच के अिसु ार अपिा र्ीवि सफल बिाएगा...... आप लोग देख लेिा। नसफु गनित में अच्छे िंबर िा आिे से इतिा परे शाि होिे की आवश्यकता िहीं है........" अर्ुि िे अपिी पत्िी और मा​ाँ से समझािे की कोनशश की।

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रक्षक ही भक्षक डॉ अनीता स हिं पॉसडडचेरी

उस दिन मै अपनी बुक शेल्फ ठीक कर रही थी। और हमेशा की तरह एक दकताब पढ्ने में व्यस्त । बुक शेल्फ साफ करने में अक्सर ऐसा होता है । तभी घर से फोन आया था । घर यादन गोरखपुर । दिन भर घर का काम । तीन बज ही जाते हैं वापस अपने कमरे में आने में । उस दिन यही सोचा दक त्योहार की साफ सफाई की शरु​ु वात अपने बुक शेल्फ को साफ करने से करु और पढ्ने में व्यस्त हो गयी थी । बस उसी वक्त उस फोन का आना और तबसे लेकर आज तक मन मे बस यही तीन शब्ि गु​ुंज रहे दक क्या वास्तव में हर दिया तले अुंधेरा ही होता है? यकीन नही हुआ था, दफर पापा का मैसेज दक िीिी को फोन करो, काठ हो गयी थी मै । िीिी को फोन कै से करती? हे, भगवान, तीजपवव के पहले ही ये कै सा व्रजपात ? दफर उनके ससरु ाल मे तो शािी थी ।

सजुं ो कर रखते हैं, तभी तो दिया अपनी टुटी हुई दबदछया तक नही बेच पाती, अच्छा नही लगता ना । िसू रे दिन िीिी ने फोन पर मायूसी से बताया था दक लुटेरो ने नाक की कील और टूटी दबदछया तक नही छोडा । मै हैरान थी नया नवेला घर और घर में सु​ुंिर सी बदगया, तरह तरह के फूल और ताजी तरकाररया​ाँ । मै तो रोज ही उनकी तस्वीरे लेती और फे सबूक पर डालती । सच पूछो तो मेरा मन दबल्कुल ही नही था वापस आने का । सबसे दनदचुंत करने वाली बात यह थी दक पास ही मे पुदलस चौकी थी। कोई डर नही । और क्या चादहये? िीिी और जीजा जी िोनो सुबह आठ बजे घर से दनकलते और तीन बजे वापस आते । मैंने भी कहा था दक दकतना अच्छा है ना, पुदलस पहरा िेती है यहा​ाँ वो भी पूरे चौबीस घुंटे और हम हुंस पडे थे। उस दिन भी इस कोरोना काल मे वे अपनी अपनी डयूटी पर ही गये थे दवद्यालय । वापस आकर िेखा तो दपछले बीस बरसो से दतनका दतनका जोड् कर जमाया गया आदशयाना उजडा ा़ पडा था ु और दनराशा ा़ । पर उस िख की घडी मेा़ भी हमे भरोसा था दक पुदलस जरूर अपरादधयो को पकड़ लेगी ।

कुछ समय बाि िीिी का ख्याल आया । इसी समय तो वो स्कूल से वापस आती हैं घर आकर उन्होने ये सब िेखकर खिु को कै से सम्भाला होगा और ये सोचते ही मै खिु जोर जोर से रोने लगी। बेटी िौड् कर आयी, पूछा दक क्या हुआ माुं? मेरे इस तरह रोने से वह भी घबरा गयी थी । मैंने उसे मैसेज दिखाया तो वह भी सन्न रह गयी । अब मौसी क्या करे गी मा? ये सुनकर मैं दफर रोने लगी। दहम्मत जुटाकर छोटी बहन को फोन दकया तो वह तुरुंत अपने घर से िीिी के घर चल िी । भाई पहले ही िीिी से दमलने के दलये घर से दनकल चक ु ा था । कुछ ही िेर में पूरा पररवार िीिी के पास और मै इस िूर परिेश में । बेटी भी समझाने लगी दक वहा​ाँ सब गये हैं पर मोबाइल पर िीिी का दबखरा घर िेखकर आुंसू थमने का नाम नही ले रहे थे । घर की सारी आल्माररया, बक्से खल ु े हुए, नकिी, जेवर सब गायब। हम दिया अपने जेवरो से दकतना लगाव रखती है, जेवर दसफव धन नही होते, यािे और आशीवावि स्वरुप होते है । डाल के चढे जेवर,माँहु -दिखायी के रस्म के जेवर, पदत की पहली सैलरी से और ना जाने क्या क्या । ये गहने अपने में दकतना कुछ

पदु लस ने घर ही मे उनके द्वारा छोड़े गये सबूतो के आधार पर आरोदपयो को पकड़ भी दलया था । दफर? दफर आदखर दकसके फोन आने लगे थे उन्हे छुडाने के दलये । एक एक करके सभी को छोड दिया गया । जान-पह्चान के कुछ पुदलस अदधकाररयो, स्थानीय जन प्रदतदनदधयो से सहायता भी मागुं ी गयी पर जैसा दक होता है,जाुंच चल रही है, कायववाही हो रही है,बस यही सुनने को दमलता। पर दिन बीतते बीतते अुंिर से खबरे आने लगी दक थानेिार महोिय ने अच्छी खासी ररश्वत ली है चुंदु क इतनी बडी लूट है तो ऊपर नीचे दखलाया भी है । इन पर जनता की सरु क्षा की दजम्मेिारी होती है पर जब रक्षक ही भक्षक बन जाये तो?

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सोचने वाली बात यह है दक पुदलस चौकी से महज पचास मीटर की िरू ी पर इतनी बडी लटू हो तो बाकी का तो ईश्वर ही मादलक है। इसे ‘दिया तले अुंधेरा’ नही कहेगे तो क्या कहेगे? इस घटना को पूरे

िो मदहने बीत गये है और जाुंच चल ही रही है, हम सभी के मन में जो दनराशा का अधुं कार छाया है उसे दिवाली के दिये भी नही दमटा सके । शायि इसदलये क्योंदक हर दिये तले अुंधेरा ही होता है।

गर्व अनुपमा (अनु) आरा (सिहार) बात उन दिनों की है जब मैं पाुंचवीं कक्षा में थी। मैं चार भाई बहनों में सबसे बड़ी हुं । सभी लगभग हमउम्र होने के कारण दिन रात के वल खेलने और शैतादनयों में ज्यािा मन लगाते और पढाई की ओर तो हमारा तदनक भी ध्यान नहीं रहता। मेरे दपताजी एक जाने माने वररष्ठ दशक्षक हैं। वो हमारी शैतादनयों को िेख कर मन ही मन कुंु दठत होते और माता जी से यिा किा यही कहते लगता है इनमें से कोई नहीं पढेगा । लगता है "दिया तले अुंधेरा "ही हमारी दकस्मत में दलखा है। िरअसल बात यह थी दक हमारे पररवार में िािा-परिािा सभी अच्छे अच्छे पि पर स्थादपत थे। और सबसे खास बात दक हमारी यहाुं लड़के लड़दकयों में कोई भेि भाव नहीं है। सब पर एक बराबर ध्यान दिया जाता है। दपताजी का ये कहना दक- ‘पूत के पाुंव पालने में" ही पता चल जाता है माता जी को अुंिर से झकझोर िेता। धीरे -धीरे समय व्यतीत होने लगा हमें भी थोड़ी बहुत अक्ल आ गई। जी जान लगा कर पढाई चालू कर िी और दफर क्या हमारी मेहनत रुंग लाई और आज हम चारो ने बहुत ही कम उम्र में सरकारी नौकरी भी हादसल कर ली है। दपताजी अब गवव से फूले नहीं समाते और समाज में सब हमें बड़े ही इज्जत भरे नजरों से िेखते हैं और जब दपताजी से ये कहते हैं दक 'दमश्रा जी आपने जरूर ही कोई पूवव जन्म में अच्छे कमव दकए थे जो आपके चारों बच्चे सरकारी नौकरी पा दलए 'तब तो दपताजी के चेहरे की आभा िेखते ही बनती है।

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संगति का असर आभा तसंह लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

एक ग्रामीण क्षेत्र में राजकीय इटं र कॉलेज में हिन्दी के प्रवक्ता थे राघव हमश्र जी, हिन्दी साहित्य पर उनकी अच्छी पकड़ थी। लेखक ,कहव भी थे मिाशय। पत्नी भी राजकीय हवद्यालय में प्रधानाध्याहपका थी। उनकी दो संतानें एक पुत्र अक्षय और एक पुत्री ऋतु । छोटा और सुखी पररवार। खबू नाम और सम्मान था पूरे क्षेत्र में उनका हवद्यालय में अपने छात्रों से अत्यंत अनुशासन चािने वाले हमश्र जी ने अपने बच्चों को भी अनश ु ासन का पाठ बचपन से िी पढ़ा हदया था।

गया था अक्षय मेहिकल कॉलेज में एिहमशन िुआ तो िॉस्टल भी हमल गया उसे। समय व्यतीत िोता गया। शिर का वातावरण, अमीर लड़कों का साथ और पूरी तरि आजादी...ये सब वे कारण थे, हजन्िोंने अक्षय को गलत राि की ओर मोड़ हदया। िॉस्टल अमीर जादों के नशे का के न्र बन गया था। अक्षय भी उनके साथ बिक गया था। शायद पिली बार अनश ु ासन से बािर हनकलने और पिली बार आजादी हमलने के कारण यि सब िुआ था। हदन भर आवारागदी और रात नशे के साये में। पढ़ाई उसके हलये गौण िो गई थी। नतीजा यि हक पिले साल िी परीक्षा में बिुत ख़राब प्रदशणन उसकी अनुशासनिीनता के कारण कॉलेज ने उसे हनकाल हदया। वि वापस घर आ गया । सारे गावं में चचाणओ ं का बाजार गमण था। सब किते थे, "इतने अनुशासन हप्रय हपता के पुत्र का िाल देखो। राघव जी के छात्र तो इतने अनुशाहसत िोते िैं पर बेटे को देखो, हबल्कुल अनुशासनिीन। इसी को किते िैं 'दीया तले अंधेरा'।

पत्रु ने इस साल इटं रमीहिएट की परीक्षा मेररट के साथ उत्तीणण की थी, जबहक पुत्री अभी कक्षा नौ में पढ़ रिी थी। पुत्र ने नीट की परीक्षा दी तो विा​ाँ भी बिुत अच्छे अंक प्राप्त कर एम.बी.बी एस. करने के हलये सरकारी मेहिकल कॉलेज में सीट प्राप्त कर ली। हकन्तु अब आगे की पढ़ाई के हलये बेटे को घर पररवार छोड़कर शिर जाना पड़ रिा था। पिली बार माता-हपता से दरू िो रिा था लािला। नम आाँखों से हवदा हकया था माता-हपता ने अपने पुत्र को। शिर के नए वातावरण में पिुचं

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उजाला आभा स िंह लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

अपनी रोशनी से चारों तरफ प्रकाश फै लाया मैंने खदु जलकर दसू रों को उजाले की राह ददखाया मैंने दजम्मेदाररयों के तले अरमानों की बदल चढ़ा दी मैंने मगर इस आहुदत के बाद भी उजाला दमल ना पाया मझु को जब भी गहन अंधेरा छाता है खदु जुगनू बन देती आशा हूँ जीवन मंजूषा की कंु जी करती खदु दरू दनराशा हूँ कुछ दवशेष नहीं है जो कुछ अपने बारे में बताऊूँ मन के भावों को कै से सब तक पहुचूँ ाऊूँ ? मेरे इस सघं षष को इस बदलाव को कै से कोई पररभादषत कर पाएगा ? मैंने तो अपने दलए कुछ नहीं सहेजा तभी तो आज उजाला है चारों ओर बस है तो 'दीया तले अंधेरा' !!

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सोच के विपरीत कविता गुप्ता इदं ौर (मध्य प्रदेश)

आहार विशेषज्ञ ऊर्ा​ा विन्हा का लेख हर गुरुिार को मख्ु य िमाचार पत्र के िाथ आने िाली लघु पवत्रका में छपता था | मैं इि लेख का बेिब्री िे इतं ज़ार करती थी | ऊर्ा​ा का हर लेख मझु में नयी ऊर्ा​ा का िचं ार करता था, इिका एक कारण यह भी था ,वक मैं व्यविगत रुप िे ऊर्ा​ा को र्ानती थी | कक्षा छटी िे आठिीं तक हम िहपावठनें और अच्छी िहेवलया​ाँ रही थी | उिके बाद मेरे वपता र्ी का स्थानांतरण होने के कारण हम दिू रे शहर में आ गये, हम दोनों का िाथ भी छूट गया ,ऊर्ा​ा अपने र्ीिन में बहुत आगे बढ़ गयी और हमारी दोस्ती भी बीते ज़माने की बात होकर रह गयी | वि​िाह के बाद मैं भी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गयी,ि​िुराल का िंयुि पररिार था इिवलए वर्म्मेदाररया​ाँ भी अविक थी |

मझु े ऊर्ा​ा िे वमलने की बहुत इच्छा होती, वकन्तु यह चाहत, चाहत ही बानी रही | मैं मन ही मन िोचती र्ो स्त्री लाखो लोगो को अपने लेखों द्वारा स्िस्थ के प्रवत र्ागरूक करती है उनकी र्ीिन शैली अनश ु ावित करती है, िह अपने पररिार का वकतना ख्याल रखती होगी, वकतना अच्छा और िंतुवलत भोर्न बनती होगी, उिके घर के िदस्य वनरोगी, स्िस्थ और िुन्दर होंगे | आवखर ऊर्ा​ा िे वमलने की मेरी इच्छा शीघ्र ही पूरी हो गयी, िह हमारे शहर में िेवमनार देने आने िाली थी | मैं ख़श ु ी िे झमू उठी, िबके िामने मैं अपनी िखी िे वमलूंगी, मन गिा िे भर गया क्या कहगाँ ी? कै िे शरु​ु आत करूंगी? िब मन-ही-मन िौ बार दोहराया | मैं िेवमनार में िमय िे पहुचाँ गयी, कायाक्रम की िमावि पर िबिे पहले उठकर ऊर्ा​ा िे वमली, ऊर्ा​ा भी मझु े नाम िे पहचान गयी, मैंने उिे घर आने का न्योता भी दे वदया | इि पर िह बोली उिका पररिार भी िाथ में आया है, उन्हें इिी शहर में वकिी वि​िाह िमारोह में िवम्मवलत होना है, अतः तुम ही मेरे पररिार िे वमलने होटल गुलमोहर आ र्ाओ, आराम िे िही बातें करें गे |

ऊर्ा​ा अपने हर लेख में प्राकृ वतक रूप िे स्िस्थ रहने के गुर बताती थी, हल्की और पौविक खाने की विविया बताती थी | मैं बखबू ी र्ान गयी थी, वक भोर्न (कम या अविक) ही हर बीमारी की र्ड़ है | िंतुवलत भोर्न वर्िमे िभी तरह की फल,िब्ज़ी दलों, अनार् और पानी का िवम्मश्रण हो िही शरीर के वलए िबिे अच्छा है | मैं भी अपने घर में िंतुवलत और िमय पर भोर्न बने और िभी स्िस्थ रहे इि बात का बहुत ध्यान रखती थी ,वकन्तु वफर भी चक ू हो र्ाती थी, और पररणाम उतने दरु​ु स्त नहीं रहते थे |

शाम को मैं अपनी बेटी को िाथ लेकर होटल पहुचाँ गयी...पर यह क्या यहा​ाँ िब मेरी िोच के विपरीत था | ऊर्ा​ा के पवत मिमु ेह के मरीज़ थे, हृदय िम्बन्िी तकलीफ भी थी उन्हें, रोर् इन्िुवलन का इर्ं ेक्शन लेना पड़ता था, बेटे ने बड़े -बड़े बाल रखे थे डाढ़ी -माँछू भी घनी -घनी थी, बॉडी वर्म िाली तो थी पर शायद स्िस्थ नहीं | बेटी याँू तो प्यारी थी पर थोड़ी मोटी थी, आाँखों पर मोटा चश्मा था, चेहरे की त्िचा भी महु ांिो िे भरी थी, बाल भी रूखे-िूखे िे थे | मैं ज्यादा देर तक नहीं रुक पायी, वर्ि ऊर्ा​ा के लेख पढ़कर ही मैं स्ियं को चस्ु त -दरु​ु स्त महिूि करती थी, िही आर् रुबरू वमलकर मैंने खदु को बीमार िा महिूि वकया, मन यही िोच रहा था र्ो अपने यहा​ाँ तो 'दीया तले अाँिेरा है ' र्ो अपनी लेखों िे उवर्यारा फै लाती रही, अपने पररिार तक में अमल में नहीं ला पायी |

िमय अपने चक्र िे चलता रहा, ऊर्ा​ा के लेखों की बातें र्ीिन में िमावहत होती चली गयी, मैंने बड़े र्तन िे बच्चों में िही िमय पर िंतुवलत भोर्न की आदत डाली, हमारा पररिार खश ु हाल और स्िस्थ था | बच्चें बड़े हो गए तो अब मझु े भी थोड़ी फुिात वमलने लगी | र्ीिन में कुछ तो नया करना है, बि इिी िपने को िाकार करने की कोवशश में मैंने ' िंतुवलत आहार और हमारा र्ीिन' और 'योग िे रहे वनरोग ' र्ैिे विषयों पर विश्वविद्यालय िे छः -छः मवहने के कोिा कर वलये | इिके बाद अपने शहर की 'आयाम ' िंगोष्ठी के अंतगात मैंने इिी विषय पर अपने अनुभि िाझा वकये और इिी क्रम में लोगो को र्ागरूक भी वकया | मझु े अपने र्ीिन में नयी पहचान वमलने लगी वर्ि​िे मन में अिीम ितं ोष और िरिता महिूि होती, मन के वकिी कोने िे आिाज़ आती इि िबका िारा श्रेय मेरी वप्रय िखी ऊर्ा​ा विन्हा को र्ाता है | 9


१२ नंबर का जूता कुमार विक्ांत सहारनपरु (उत्तर प्रदेश)

गुलफाम नगर का बदममजाज और बदजुबान मेयर, मिकराल देि कब मकस से नाराज हो जाए और कब िो अपने जूते को मकसी को पीटने लगे इसका कोई भरोसा नहीं था। आज सुबह जब िो जुबली पाकक के पास से अपनी गाड़ी से मनकल रहा था तो उसकी गाड़ी के सामने एक ठे ले िाला आ गया और गाड़ी के बंपर पर एक स्क्रेच पड़ गया। मिकराल देि भड़क उठा उसने गाड़ी से नीचे उतर कर ठे ले िाले को कई जूते लगाए। अभी िो ठे ले िाले से गाली गफ़्ु तार कर ही रहा था मक तभी न जाने कहा​ाँ से एक जतू ा उसके मसर पर आ लगा।

"क्या बकिास करता है, मेरा बेटा मझु े जूता क्यों मारे गा.........?" "मारे गा तो नहीं हुजूर, लेमकन चेक करने में क्या हजक है....." "तेरी बात गलत मनकली तो आज तेरी खाल मखचिा दाँगू ा।" आनन-फानन में मिशाल को मिकराल देि के कमरे में बल ाकर उसके फुटबाल के जतू े के बारे में पछ ु ू ा गया तो मिशाल बोला, "डैड जूता तो सुबह खो गया।"

जूता लगने से मिकराल देि भड़क उठा उसने तत्काल पुमलस बुलिा कर ठे ले िालो और मजदरू ों पर लाठी चाजक करा मदया लेमकन जूता मरने िाला न पकड़ा जा सका।

"कै से?" मिकराल देि ने पूछा। "डैड सुबह फुटबाल खेलने जुबली पाकक गया था, िही फुटबाल को एक मकक लगाई, मकक चक ू गई, फुटबाल तो िही रह गयी लेमकन जूता पैर से मनकल कर न जाने कहा​ाँ जा मगरा; दसू रा जूता मेरी कार में पड़ा है।" मिशाल ने बताया।

गुलफाम नगर के मेयर मिकराल देि के मसर पर भरे बाजार जूता लगने से पूरे गुलफाम नगर में हाहाकार मचा हुआ था। जतू ा मकसी फुटबाल प्लेयर का था इसमलए शहर के सारे फुटबाल प्लेयर मगरफ्तार कर मलए गए थे, उन्हें जूता पहना कर देखा जा रहा था। लेमकन जूता १२ नंबर का था इसमलए मकसे प्लेयर के पैर में आसानी से नहीं आ रहा था। शाम तक पमु लस जतू ा मारने िाले को न पकड़ पाई तो मिकराल देि अपने सेरेटरी पर भड़का, "सुन बे कालू अगर जूता मारने िाला एक घंटे में न पकड़ा गया तो मैं तुझे भख ू े कुत्तों के सामने डाल दाँगू ा।"

कालू और मिकराल देि को तत्काल याद आया मक िो दोनों सुबह जुबली पाकक के पास ही उस ठे ले िाले से गाली गुफ़्तार रहे थे तभी िो मजबूत जूता मिकराल देि के मसर पर आ लगा था। "अरे ये तो दीया तले अंधेरा मनकला..... बेटा थोड़ा देख कर खेला कर, जूता तो तेरा था लेमकन मकसके मसर पर पड़ा कुछ पता है तुझे?" कालू बोला।

"हुजूर बुरा न माने तो एक बात कह.ाँ ....." कालू तड़फ कर बोला।

"अबे क्या जतू ा-जतू ा लगा रखा है, जतू ा न हुआ मसंड्रेला का जूता हो गया, अबे लगा होगा मकसी मनहस के मसर पर, िो मेरे सामने पड़ गया तो बचा हुआ जूता भी उसके मसर पर माराँगा।" कह कर मिशाल चला गया और मिकराल खनू के आाँसू पीकर रह गया क्योंमक उसके मसर पर उसके बेटे का ही जूता पड़ा था।

"बोल।" मिकराल देि रोध के साथ बोला। "हुजूर अपने मिशाल साब भी तो फुटबाल खेलते है और उनके पैर का साइज भी १२ है एक बार उनका जतू ा भी चेक कर लीमजए।" कालू बोला।

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क्षमा गीता परिहाि अयोध्या

उधर पानी वाशबेसन में गिर रहा था और इधर पसीने से तरबतर मैं था । टीवी पर बार-बार गहदायतें आ रही थीं, बार-बार हाथों को अच्छी तरह साबुन से धोएं । पररवार में 5 लोि हैं । हर व्यगि गदन में 10 बार 20 सेकंड के गलए हाथों को धो रहा है । गकतना पानी बहा रहा है, जल संकट से वैसे ही गिरे हुए हैं, अब क्या उपाय है, हाथ धोना भी जरूरी है । कोरोना का भय गसर पर सवार है, एहगतयात बरतनी है। हाल गिलहाल का खतरा टल जाए, जल की ग ंता बाद में करें िे।

यह सब कुछ सो ना मेरा काम नहीं है और लोि सो ें। बस, यही वृगि, यही बात और लोि भी सो ने लिें तो हम रसातल की ओर जाएंिे। मेरे अके ले के ना करने से या करने से क्या अंतर पड़ जाएिा? अिर यही हर एक व्यगि सो रखेिा तो पयामवरण का क्या होिा, आने वाली पीगढ़यों का क्या होिा? मैं अपनी आने वाली पीगढ़यों के गलए इतना कुछ कर जाऊंिा गक उन्हें गकसी बात की ग ंता न होिी, कोठी, रुपया- पैसा, जमीन- जायदाद सब कुछ।

'बाद में क्या ग ंता करोिे जो आज तक की है? कौन है, कौन पछ ू रहा है?

और हवा- पानी उसका क्या? गकतनी शद्ध ु हवा और गकतना जल छोड़ जाओिे? छोड़ जाओिे प्रदगू र्त जल, बीमाररयां, संक्रमण और ससं ाधनों की कमी।

तुम्हारा अंतममन (गजसकी तुमने कभी सुनी नहीं, सदा अवहेलना की) क्या कभी तुमने पौधे लिाए? जो पौधे लिते भी थे तो तम्ु हें यही ग तं ा खाए जाती थी गक पगियों से आंिन िंदा होिा या गक िमलों से िर के अंदर मच्छर आएंिे ।

क्यों, कोई जवाब नहीं सूझ रहा? बस तुम लोि बातें बड़ी- बड़ी कर सकते हो। अंदर से खोखले हो। दगु नया को रोशनी क्या गदखाओिे जब तुम्हारे आसपास ही अधं ेरा है?

वैसे कभी सो ा है गक अिर सब तुम्हारी तरह सो ने वाले हो जाएं और धरती वृक्ष रगहत हो जाए तो क्या होिा? हवा नहीं गमलेिी, ऑक्सीजन गबना जी कै से पाऊंिा?

क्षमा, क्षमा। यह जो आसन्न संकट से संसार गिर रहा है, उसका कारण मैं और मेरे जैसे ही लोि हैं। प्रगतज्ञा लेता हं गक प्रकृ गत के साथ मनमानी नहीं करूंिा, सीगमत साधनों में जीवन बसर करने की कोगशश करूंिा। बस इस बार क्षमा ाहता हं । गकसी को यह कह कर उपहास करने का अवसर नहीं दंिू ा गक दीये तले अंधेरा है।

सो ा न गिर के वल अपने बारे में? उन पश-ु पगक्षयों के बारे में नहीं सो ा, वे अपना बसेरा कहां रखेंिे, न पयामवरण के बारे में सो ा गक पेड़ नहीं होंिे तो वर्ाम कै से होिी, सूखा पड़ जाएिा, बाढ़ कौन रोके िा? िल िूल और्गधयां कहां गमलेंिी और यह जो कोठी में रह रहे हो ऐसी कोठी कै से बनेंिी, सड़कें कै से बनेंिीं, होटल और रे सोटटमस कै से बनेंिे!

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पुरस्कार की अंधी अभिलाषा गीता वाधवानी भिल्ली

आज के पुरस्कार समारोह में मालती की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। तभी उसका मोबाइल बज उठा, उधर से उसके पतत की आवाज सुनाई दे रही थी और इधर मंच पर पुरस्कार के तलए उसका नाम घोतित हुआ। अपना नाम सुनते ही मालती ने अपने पतत का फोन काट तदया और मंच की ओर बढ़ी। तवशाल कक्ष करतल ध्वतन से गजं रहा था।

अपनी मां के साथ खश ु ी मनाना चाहती थी, पर हर बार की तरह मालती गरीब बच्चों को कपडे बाटं ने में व्यस्त थी। एक बार तदव्या अपने जन्मतदन पर अपनी मां का साथ चाहती थी। वह"मां आज मत जाओ", "आज मत जाओ "कहकर तबलख तबलख कर रो रही थी, तकंतु मालती को अवश्य जाना था क्योंतक आज उसे मासम बच्चों को सतिय तभखारी समह से बचाना था।

मालती को असहाय, गरीब बच्चों की भलाई के कायय करने के तलए पुरस्कार तदया जा रहा था। इस पुरस्कार की प्रतीक्षा मालती को बहुत समय से थी और इसके तलए उसने बहुत पररश्रम भी तकया था।

कुछ विों बाद तदव्या की दादी का देहांत हो गया। अब तदव्या तबल्कुल अके ली हो गई थी। वह चपु चपु रहने लगी थी और हर समय सहमी सी रहती थी।

उसके पतत अजय कई बार, पररवार को अनदेखा करने के कारण उस पर नाराज भी हुए थे।

तदव्या ग्यारहवीं कक्षा में आ गई थी। वह बैडतमटं न अच्छा खेलती थी। मालती ने उसे बैडतमंटन तसखाने के तलए एक बैडतमंटन गुरु भी ढंढ तलया था।

परु स्कार लेने और सभी उपतस्थत आदरणीय लोगों से तमलने के बाद मालती पत्रकारों से बचती हुई अपनी गाडी में जा बैठी और अपने पतत को फोन लगाया।

अभी अस्पताल के सामने गाडी के रुकने से मालती की तद्रं ा भगं हुई। अस्पताल के अदं र पहुचं ते ही उसे अपने पतत अजय तदखाई तदए। मालती ने उनसे पछा,"तदव्या की तबीयत अचानक इतनी खराब कै से हो गई?"

उसके पतत अजय ने कहा,"तमु जल्दी से बडे अस्पताल आ जाओ, तदव्या की तबीयत बहुत खराब है।" मालती ने गाडी चालक को अस्पताल चलने को कहा और स्वयं अपनी सोलह विीय पुत्री तदव्या के बचपन में खो गई।

अजय ने प्रश्नवाचक अदं ाज में कहा,"अचानक?" मालती मैंने तुम्हें कभी बेसहारा, असहाय बच्चों का सहारा बनने से नहीं रोका, मैंने तुम्हें जब भी तदव्या का ध्यान रखने के तलए कहा, तुमने मझु े अपने काम का हवाला देकर चपु करवा तदया। तुम पुरस्कार पाने की अंधी अतभलािा में, तदव्या को अनदेखा करती रही, यतद तुमने समाज सेवा के साथ-साथ तदव्या पर भी ध्यान तदया होता तो आज हमें यह तदन देखना नहीं पडता। ईश्वर का धन्यवाद करो तक आज मैं काम जल्दी समाप्त होने के कारण घर आ गया और तमु तदव्या को जीतवत देख पा रही हो। इतना कहकर वह चपु हो गए और एक कागज मालती की तरफ बढ़ा तदया।

तदव्या बचपन से ही पढ़ाई और खेल कद दोनों में प्रततभावान थी। एक बार जब दसरी कक्षा में दौड में प्रथम आने पर, घर आकर अपनी मां से प्यार और प्रशंसा प्राप्त करनी चाही, तब मालती नाबातलग बच्चों को कारखाने में काम करने से बचाने में व्यस्त थी। तब तदव्या की दादी ने तदव्या को संभाला था। अजय भी अपने कायायलय के काम में बहुत व्यस्त रहता था। मालती को एक दसरी घटना भी याद आ रही थी। एक बार तदव्या चौथी कक्षा में दीया सजावट प्रततयोतगता में प्रथम आई थी। वह

मालती ने कागज खोला, यह तदव्या का पत्र था। 12


मेरी प्यारी मा​ां,

भिया तले अंधेरा

बचपन से अब तक मझु े तम्ु हारी कमी हमेशा महससू होती रही है। मैं जानती हां कक आप गरीब, बेसहारा बच्चों के किए भिाई के काम करती हो। आप जब ककसी की सहायता करती हो तो मझु े बहुत गर्व होता है ककांतु क्या आप के समय पर मेरा कोई अकिकार नहीं था? मैं प्रथम आने पर, अपने जन्मकिन पर ,हर पि बस आपकी प्रतीक्षा ही करती रह गई। मैं चाहती थी, कभी-कभी छुट्टी र्ािे किन आप मेरे किए अपने हाथों से कुछ खाने को बनाएां और मैं भी िसू रे िोगों के बच्चों की तरह आपसे हठ करां कक ये नहीं,मझु े र्ो खाना है। कभी आप मेरे गािों को प्यार से चूम कर, मझु े अपने गिे से िगाएां, कभी ककसी किन मेरे बािों को सांर्ारे , ककांतु आप का समय मेरे किए नहीं था। आप बेसहारा बच्चों के किए आशा का िीपक थीं, पर मेरे किए तो"िीया तिे अांिेरा "ही था ।

नीरज कुमार भ ंह िेवररया (यू पी) "हम ना कह रहे थे पढ़ी-तलखी बहु उतार रही नाक धरकर रोवोगी,....मगर तुम कहां सुनने वाली थी हमारी बात। लो अब साहू नखरे फै शनदार बहुरीया के । "मीना" अपनी पडोसन "सुधा" से बोली...यह सनु ते ही तपाक बात काटते हुए सधु ा बोली..."अरे मीना तो होश में तो है यह तो क्या बोल रही?.... खबरदार जो तुम मेरी बहू के बारे में कुछ भी बोली.... अरे मेरी बहुत पढ़ी तलखी है और नौकरी करती है.... तो फै शन करती है तो क्या बुरा है?

आपने मेरे किए बैडकमांटन कसखाने र्ािे गुरु ढूांढ कर अपना कतवव्य समाप्त समझ किया। आपने कभी यह जानने का प्रयास नहीं ककया कक र्ह कै सा इसां ान है? उसका व्यर्हार मेरे प्रकत कै सा है? मैं आपको बताना चाहती थी कक र्ह मझु े गित तरीके से स्पशव करता है और मझु े कबिकुि अच्छा नहीं िगता। क्या आपको पता है कक कुछ बातें बेटी कसर्व अपनी मा​ां से ही कहना चाहती है, पर आपके पास मेरे किए समय कहा​ां था। उसकी गांिी हरकत से मैं सहम जाती थी। ककसी को कुछ बता नहीं पाती थी और आज उसने मेरा शारीररक शोषण ककया और मैं बहुत ही बुरा महसूस कर रही ह।ां मैं अब जीना नहीं चाहती।

पैसा उसका पसदं उसकी। त खदु की बहू के बारे मे भी तो ततनक सोच ले... तेरी बहू तो घर पर रहती है, गृतहणी है! तफर भी इतना ज्यादा फै शन करती है.. और इतने बोल्ड कपडे पहन रोज बाजार भी जाती है। वो तुझे क्यों नहीं तदखाई देता है? सच ही कहा गया है ... तदया तले अंधेरा ही रहता है। परे मोहल्ले की बहू को देखती है काश इतना अपनी बहू पर ध्यान देती तुम। यह सुनकर "मीना "मौन हो गई।

आपकी बेटी किव्या

पत्र पढ़कर मालती पछतावे में फफक फफक कर रो रही थी और समझ गई थी तक अजय के जल्दी घर आने के कारण तदव्या समय पर अस्पताल पहुचं पाई थी और आत्महत्या के प्रयास में सफल नहीं हुई थी। सोच में डबी हुई, मन में अपने आप से कह रही थी, पुरस्कार पाने की अंधी अतभलािा और प्रतसति की लालसा ने मझु े आज कहां लाकर खडा कर तदया है?

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कुछ दूर आओ बैठे डॉ मज ं ु सैनी गाजजयाबाद (उत्तर प्रदेश) हो तन्हा आलम बेबसी का, कुछ यूँ ही हमसफ़र हमारा, कुछ देर तुम निहारो, कुछ देर मैं निहारूँ , क्यो हम दोिों के बीच में, साथ होते भी अलग का अहसास मािो जैसे नदए तले अंधेरा सा। हो नमलि कुछ अिोखा सा, हो गफ्ु तग कुछ आूँखों से, निर भी तन्हा से हम तुम, आओ िा कुछ तो करीब से, कुछ दररयां हो कम सी आओ िा पास तुम भी क्यो दर हो मािो जैसे नदए तले अंधेरा सा। कुछ दर तमु भी बैठो, कुछ दर मैं भी बैठूँ , नमट जाए िांसला सा पर प्यार निर भी रहे बस एक दीद के नलए ही दीपक औऱ रोशिी सा मािो जैसे नदए तले अधं ेरा सा।

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होत ढोल में पोल मान बहादुर स हिं 'मान' रीवा (मध्य प्रदेश)

मेघ गराजे जो गगन, सो नह िं बरसे आय। दीया तले अिंधेरा, जगत क ावत भाय ।। पर उपदेश कुशल ब ु, दीख न हनज मन ज्योहत । दीया तले अिंधेरा, ोत य ी परतीहत ।। उठती उँगली जब कभी, मड़ु े तीन खदु ओर । दीया तले अिंधेरा, हलए अिंध मन घोर ।। बगुला भगत न ोत जग, के वल ोता ढोंग । दीया तले अिंधेरा, माया लोभ न जोग ।। अन्तममन झाँका न ीं, हलए कुहिल मन चाल । दीया तले अिंधेरा, हबना ाथ दे ताल ।। जग ज़ाह र जग में सखे, ोत ढोल में पोल । दीया तले अधिं ेरा, थोथा चना न बोल ।।

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रोशनी चिराग की जया भटनागर नोएडा (उत्तर प्रदेश)

अश ं ु जब छोटी थी; अपनी चिचित्सि मौसी िो देख िर चिचित्सि बनना िाहती थी । उस िी मौसी बच्िों िी चिचित्सि थी । मौसी िो हमेशा बच्िों िे साथ चिरा हुआ देख िर, अंशु िो बहुत अच्छा लगता था । जब अंशु िुछ बढी हुई और बहुत िुछ समझने लगी; तब उसने यह जाना चि जब िोई औरत मां बनती है, तब भी उस िी मौसी अस्पताल जाती है । वहां मौसी पैदा हुए बच्िों िी जांि िरती हैं। मौसी िर आ िर अंशु िो सारी बातें बताती । एि रोज़ मौसी ने बताया चि एि पैदा हुए बच्िे िी सांस रुि गई थी । उसने बहुत मचु किल से उसे बिाया, अब बच्िा ठीि है । अंशु सब सुन िर बोली- "मौसी ! चितना अच्छा लगता होगा बच्िों िो नया जीवन देना। मैं भी आप िी ही तरह बाल चिचित्सि बनना िाहती हं । " समय पंख लगा िर उड़ िला । नन्ही अंशु एि चदन बाल चिचित्सि बन ; मौसी िे पाव छूने आई । मौसी बोली - "अरे वाह ! बन गई चिचित्सि । तुम िो बहुत बधाई ।" अंशु (खश ु होिर) बोली- " मौसी मैं तो अपने िो बच्िो से चिरा हुआ देख रही हं । मझु े बहुत अच्छा लग रहा हैं । " दोनों खश ु हो गई । समय अपनी गचत से िलता रहा । तीन साल बाद अश ं ु ससरु ाल िी दहलीज पर िदम रखने जा रही थी । अश ं ु ससरु ाल आ गई । सब बहुत खश ु थे । वहां भी अंशु अपने िर िी तरह बच्िों िे चबमारी और चठि होने िी सारी बातें खश ु होिर बताती थी । सब बहुत खश ु थे । सब िुछ सामान्य गती से िलने िे वावजूद भी अंशु िे जीवन में एि सूनापन था । वह अभी ति मां नहीं बनीं थी । हमेशा अस्पताल में बच्िों से चिरे होने िे वावजूद; िर में उसे खालीपन लगता था । वो िुछ उदास रहने लगी । चदन, महीने, साल बीतते िले गए; अश ु िर दी । लोग बोलते इनिे िर ं ु िी गोद में िोई चिराग नहीं आया। लोगों ने िानाफूसी शरू तो चिराग तले अंधेरा ही है । ससुराल वालों ने चितने लोगों िो िहते सुना; बच्िों िी चिचित्सि है और खदु िा बच्िा नहीं है । एि रोज़ अंशु िी सास ने आवाज़ दे िर उसे नीिे बुलाया । अंशु ने नीिे आिर देखा; उसिे मायिे वालों िो भी बुलाया गया था। उसिी मौसी भी आई थी। अंशु डर गई; सास ने उसे हाथ पिड़ िर बैठने िो बोला । जब अंशु बैठ गई तो उस िी सास ने प्यार से बोला- "बह मैंने सब िो एि ज़रूरी फै सला लेने िे चलए बुलाया है । जो बहुत खुचशयां देने वाला हैं ।" अंशु िी जान में जान आई ; सास िी मीठी बातें सुन िर । सास ने चफर िहा- " देखो बेटा, ११ साल चबत गए तुम ने सारी जॉि िरवा चलए; अब बच्िा होने िी िोई उम्मीद नहीं है। हम सब चिराग तले अंधेरा तो नहीं रहने देंगे । " ससुर ने िहा - " बेटा, मौसी बता रही थी चि तुम्हें शरू ु से ही बच्िे बहुत पसंद हैं । तुम तो अनाथ आश्रम भी जाती हो, बच्िों िी जॉि िरने । तमु वही से िोई बच्िा गोद ले लो । " सब खश होिर बोले -दोनों िर िो चिराग िी रोशनी से ु जगमगा दो । हम सब भी एि पीढी आगे बढ जाएगी । अंशु खश ु होिर रोने लगी । उसने पचत िी तरफ़ देखा तो पचत ने भी हां में चसर चहलाया। चफर क्या था अंशु तो सब िे गले लग िर रोए जा रही थी । सब ने िहा - " रोती क्यों हो अब तो खश ु होने िा समय है । " अंशु िे आंसू नहीं रुि रहे थे, क्योंचि वो तो खुशी िे थे । िुछ चदनों पश्चात सारी िागजी िारर वाई िरिे , अश ु थे । अब उन िे िर ं ु एि प्यारी - सी नन्ही परी िो िर ले आई । सब बहुत खश में चिराग तले अंधेरा नहीं ; चिराग से रोशनी ही रोशनी हैं ।

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भटिाव

अभिमान

डॉ उलमथिा लसन्हा

डा. मधु आध ं ीवाल एड.

राचं ी (झारखंड)

अलीगढ़ मै लिखने में तल्िीन थी लि आवाज सुनाई दी l मैने लसर उठा िर देखा दीया बुझने िी िगार पर था । दीये िा तेि समाप्त हो रहा था इस लिये वह फड़फड़ा रहा था। मैंने पूछा क्या हुआ बोिा मझु े बचाओ मैने सबिो रोशनी दी है, नहीं तो सब अन्धेरे में रहते। मैने िहा तुमिो तो लिसी ने गूथा, लिसी ने आिार लदया, लिसी ने सजाया, लिसी ने तुम्हें प्रज्वलित लिया पर तम्ु हारे नीचे अन्धेरा था और तुम घमन्ड से सोचते रहे लि तुम्हारे लबना सब अन्धेरे में रहेगें। ये तुम्हारा घमंड अब भी समाप्त नहीं हो रहा जबलि तुम बुझ रहे हो । तुम नहीं जि रहे थे, जि तो बाती रही थी पर तमु ने उसिा महत्व नहीं जाना। इसे िहते हैं- दीपि तिे अंधेरा ।

" लदि नहीं िगता यहां...लजतनी जल्दी हो बेटे से िह अपने िस्बें िौट जाउंगा.. "भनु भनु ाते हुए हरर बाबु महानगरीय रहन-सहन से अपने आप िो ताि-मेि बैठाने में असमथथ महसूस िर रहे थे...संध्या सैर िा िोई मतिब नहीं था... भीड़-भाड़...प्रदलु ित जिवायु...वे वापस जाने िे लिये उठे ...उसी समय िोई टिराया.... नशे में धतु ..बेवरा...हरर बाबु भनभना उठे .."ठीि से चलिये.. " अब चोंिने िी बारी टिराने वािे िी थी..."चाचा जी आप यहां.. " "रमन तुम यहां...इस हाि में..." रमन िड़खडाता...बड़बडा ता​ा़ भीड़ में गुम हो गया.. ा़ बाबु िुटे से घर पहुचं े...बेटा उन्हीं िी प्रलतक्षा िर रहा था ...रमन िे बारे में उसने जो िुछ बताया .. वह हरर बाबू िो दुःु खी िरने िे लिए पयाथप्त था... रमन आया था पढ़ने ..बेहतर भलवष्य िे लिये और गित संगत में पड़िर वह सब िरने िगा.. जो उसिे प्रलतलित...सदाचारी लपता और पररवार िे लखिाफ था ... जुआ..शराब...तस्िरी...नशे िे सेवन और व्यापार िे दिदि में आिंठ डूबा हुआ...अपनों िी िोई परवाह नहीं... आये लदन िफडा...मार-ि ु टाई.. जेि िी हवा... ा़ रमन िे लपता िी सद्भावना उच्च लवचारों िो स्मरण िर हरर बाबू िे हृदय से आह लनि​िा.. "इसे िहते हैं लचराग तिे अधं ेरा..."।

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कतरनें डिम्पल गौड़ अहमदाबाद

लगभग-लगभग सभी कपड़ों की ससलाई हो चक ु ी थी. नन्हीनन्ही फ्रॉकें , रंग सिरंगे सलवार कमीज़, अलग-अलग सिज़ाइन के ब्लाउज सजन्हें अपनी-अपनी पसंद के सहसाि से िनवाने का आिडर सदया गया था, हेंगर में लटके झल ु ान की ू रहे थे.इन सदनों करमा की दक छटा देखते ही िनती है! ससलाई मशीन सिना थके सदन-रात चलती रहती हैं.

करमा का जवाि सुन मैिम सीसियां उतर गई.ं उनके जाते ही अधजली िीड़ी होंठ में दिा करमा ने झट मेज पर रखा फोन घमु ा सदया. "हेल्लो संतोष " "हाँ िोसलए "

इस तरह देखा जाए तो सदवाली महज़ एक त्योंहार नहीं, करमा दरजी और उसके दो-तीन कारीगरों के पररवारों के छोटे-छोटे सपनों को पूरा करने का सवशेष कायड करती है ये सदवाली.

"अरे वो, आरती आ गई क्या ? " "अभी कहाँ आई है.चार िजे का टेम है न गाड़ी का "

अलग-अलग कपड़ों की कतरनें फशड पर इस-कदर सिछ गई थी मानो! कोई कालीन सिछा रखा हो.

दीवार पर टँगी िरसों पुरानी घड़ी की ओर देखते हुए करमा भाई िोले" अरे हाँ..अभी तो साढ़े तीन ही हुए हैं । सुन, वो मैिम आई थी लहँगा लेने । आरती से कहना,अच्छे से प्रेस कर के लाए लहँगा । ध्यान से देख लेना तू भी, कहीं कोई धब्िा वगैरह न लगा सदया हो उसने! वैसे सिल्कुल तुझ पर गयी है तेरी औलाद! सजद्दी नम्िर एक! ग्राहकों का लहँगा ही पहनना था उसको! िोल रही थी! पापा सजस तारीख को देना है उससे एक सदन पहले आ जाऊँगी.... कहाँ आई ! एक सदन और रुक गई, सहेसलयों के साथ. "

"अरे करमा भाई! वो कस्तूरी िाग़ वाली मैिम आई हैं !" ि​िलू के इतना कहते ही दो अँगुली में फँ सी सुलगती िीड़ी करमा ने अपने पीछे छुपा ली. ऐनक के पीछे से झाँकते हुए उन्होंने प्रवेश द्वार की ओर देखा, ति तक थुल-थुल शरीर वाली मैिम कार के दरवाजा खोलते हुए दक ु ान के िाहर आ कर खड़ी हो गयी थीं. "भाई साि ससल गया लहँगा? "

"अि उसको दोस काहे दे रहे आप ! सहेली की सादी में पहनने के सलए उसके पास अगर सुंदर लहँगा होता तो काहे पहनती वो यह लहँगा ! हाय रे मेरी फूटी सकस्मत.. शहर भर के महँगे-महँगे कपड़े सीलने वाले दरजी की सिसटया, दसू रन के कपड़े-लत्ते पहन रही है !"

"अरे कहाँ मैिम, वो िस अभी उसमें थोड़ा-सा काम िाकी रह गया है. आप ऐसा कररए, आप कल शाम को आ कर ले जाइए " "ओहहो भाईसाि! िड़ा परे शान करते हो आप तो, लेसकन ये िताओ कल तो पक्का समल जाएगा न! ऐसा न हो सक कल भी मझु े धक्का खाना पड़े.

इतना कहते ही संतोष ने फोन पटक सदया. पत्नी की जली-कटी िातें सुनकर करमा के मँहु से सनकली आह चलती मशीनों के शोर में कहीं दि कर रह गयी ।

"अि क्या करें मैिम जी, सदवाली पर काम ही इतना होता है. देसखए न मेरे सारे कारीगर लगे पड़े हैं.आप कल आ जाइए."

और फशड पर सिखरी कतरनें..कारीगरों के पैरों से कुचलते हुए िहुत कुछ ियां कर गई।ं

"ठीक है तो कल आती हँ ." "जी सिल्कुल. " 18


जदया तले अधिं ेरा मीना जतवारी पणे

बनी हुई ज िंदगी

वक्त की इच्छाओ िं का भर तेल

चाक की तरह

लाते दीपक

हम बनाते

उ ाले की तलाश में

आशाओ िं के जदये

दे देते उ ाला

अपनी भावनाओ िं अरमानों

दसरों को

को गिंथ के मन के जवचारों का

पर स्वयिं के अदिं र

सहारा देकर

शायद कुछ तो होता

ढेरो इरादों के सपने सिं ोकर

एक खालीपन

सुन्दर सपनों को हकीकत का

एक अके लापन

रूप देकर

शायद

ज म्मेदाररयों की भट्ठी में

इसी को कहते है

जिर उनको तपने को छोड़ देते

जदया तले अिंधेरा

रुई की तरह कोमल मन के अरमानों का गला घोंट बना देते बजियािं

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कुलदीपक डॉ ज्योत्सना गप्तु ा लखीमपुर खीरी

सदु​ुं रता और कुरूपता दोनों ही ईश्वर के बनाये व्यक्तित्व के समक्ष बहुत ओछे मापदुंड हैं । मैं देख रही थी आज के समाज में दोनों के अक्तततत्व को । व्यक्तित्व के क्तनखार में दोनों ही दब कर रह जाते हैं। इनकी क्ततथक्ततयाुं नगण्य हो जाती हैं । परुंतु हम में से अब भी अक्तिकाश ुं सु​ुंदर और कुरूप को देखकर तवयुं ही क्तनर्णय कर लेते है अुंततः पछताते हैं । क्तशक्षा पाना और क्तशक्तक्षत होना दोनों में फकण होता है ।

तभी अचानक पलटे और दाई के पास जाकर कुछ बोले नोटों के दो बुंडल हाथ पर िरे और बाहर क्तनकल गए । दाई ने काुंपते हाथों में नवजात क्तशशु को क्तलया और बाहर अिुं ेरे में गुम हो गयी। सेठानी क्तजन्होंने अभी नवजात को जन्म क्तदया था बेहोश ही थी। होश आने पर पता लगा समय पूवण जन्म लेने के कारर् मृत क्तशशु का जन्म हुआ ।

"अरी श्यामा ओ श्यामा, जा जरा दाई अम्मा को तो बुला ला बहुत ददण हो रहा है "

दोनों पढ़े क्तलखे होक्तशयार सम्​्ाुंत पररवार से ताल्लुक रखने वाले थे । परन्तु क्तगरी हुई अक्तभमानी सोच कब क्तशक्तक्षत रहने देती है।

.... प्रसव पीड़ा से कराहते तीव्र तवरों को सुनते ही श्यामा बाहर को दौड़ गयी।

ईश्वर की माया भी अपरम्पार है । अगले वर्ण ही एक सु​ुंदर तवतथ बालक का जन्म हुआ और सेठ अग्रवाल के जीवन मे उजाला हो गया । पुत्रवती सेठानी भी फूली नही समाई।

"सेठ जी......बेटी हुई है वो भी....." दाई के तवर मख ु में ही दबे रह गए । "वो भी क्या...." अग्रवाल सेठ ने लगभग चीखते हुए पूछा ।

क्तदन महीने साल गुजरते गए सेठ का पुत्र उनके अनुसार ही लोभी .....दम्भी था । असाविानीवश अपनी सात वर्ण की आयु में ही छत पर से क्तगरकर असमय काल कवक्तलत हो गया ।दोनों पर दःु खो का पहाड़ टूट पड़ा । सेठानी अचेत सी हो गई ुंथीं ।

"चेहरा दबका हुआ है शायद बड़ी होने पर सही हो जाये ..." दाई ने डरते हुए बोला और नवजात क्तशशु को अग्रवाल सेठ के सामने कर क्तदया ।उसका मन क्तकसी अनहोनी से काुंप रहा था । "मैंने बोला था न, बेटी नही चाक्तहए .....और .... और क्तफर ये .... ओह .... दरू करो मेरी नज़रों से ... इतनी कुरूप ... भद्दी .... देख लो तो क्तदन खराब हो जाये ... " सेठ ने कपड़े में क्तलपटे नवजात का मख ु तक न खोला और यू​ूँ ही बोलता रहा।

दाई देख रही थी सब दरू से और हूँस रही थी उन पर, " बड़ा अछूत बोलते थे हमें .... मेरे पक्तत को दुंक्तडत क्तकया था न ........उन्ही के घर का प्रथम क्तदया अब हमारे घर में रौशनी दे रहा है । महल दमु हले सब सूने, ऐशो-आराम सब बेकार और रे शम के गद्दे पर सोने वाला आज पुआल पर लेटता है ।"

"क्या बोलेंगे लोग सेठ के घर ऐसा कुरूप बच्चा इतनी सु​ुंदर सेठाइन हम इसी क्तदन के क्तलए लाए थे क्या ? सौ ररश्तों को ठोकर मारकर इसे पसुंद क्तकया था ताक्तक हमारा बच्चा सु​ुंदर हो और क्तपछली सात पुश्तों में भी हमारे घर लड़की का जन्म नहीं हुआ .... क्तछ ..... हा.... मेरा दभु ाणग्य .... इसे देख लोग यही कहेंगे "क्तचराग .....तले..... अुंिेरा" ले जाओ इसे मेरे सामने से ......." नवजात पर नज़र पड़ते ही अग्रवाल सेठ क्रोि से आग बबूला हो गए थे । कुछ भी बोले चले जा रहे थे । उन्होंने पास आकर नज़र भर भी नहीं देखा।

ईश्वर के घर में देर है अुंिेर नही । न्याय तो असल में ईश्वर ही करता है । परू े कतबे में सब जगह फुसफुसाहट थी अब कौन रह गया इस सम्पक्ति का खेलनहार ।दसों अनाथालय, वृद्धाश्रम में दान करते हैं पर एक अपने बच्चे के क्तलए तरसेंगे । सच है "क्तदया तले अिुं ेरा" ।जो दसू रों की क्तज़ुंदगी में रौशनी करते हैं उनके जीवन को रौशन करने वाला कोई नहीं ।

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उिर सेठ सोच रहा था काश उस रोज अपनी बेटी का त्याग न क्तकया होता तो उसको ये हाय न लगती । इिर सेठानी दःु ख में पागल हो गयी थी, एक ने तो मृत जन्म क्तलया और एक जीक्तवत ही मृतप्राय कर गया ।

ददया, तले अंधेरा !

सेठानी की मानक्तसक हालत क्तदन प्रक्ततक्तदन खराब होती जा रही थी । डॉक्टर ,हकीम सब बेकार ।कोई दवा दआ ु असर ही नहीं कर रही थी ।

दनरंजन धुलेकर "काय जे अुंिेरे में का तल रहे?"

दाई का हृदय भी माूँ का ही हृदय था ।अगले क्तदन प्रातः उुंगली पकड़े हुए श्याम वर्ण , मक्तततष्क के बाएुं क्तहतसे पर बड़ा सा िब्बा बना हुआ एक बालक के साथ दाई दरवाजे पर खड़ी थी, उसको सब बातें अच्छी तरह समझाकर, बताकर लाई ताक्तक बच्चा क्तकसी भी बात से भयभीत न हो।

बाबू की आवाज़ ने मझु े चौका क्तदया । बिी गयी तो ऐसी गयी जैसे सावन में बाबू जा के बैठ जाती मायके लाख बुलाओ तो भी उहुूँ जो आ जाये । बोलती हमे जो मायके के अिुं ेरे ने क्तदया बो तमु ाओ सहर को उजालों नही दे पाओ, हें अुंिेरे ने क्तदया? क्या क्तदया?

सेठ के पुत्र की छक्तव ...... सेठानी ने बालक पर नज़र पड़ते ही दौड़ कर गले से लगा क्तलया और पागलों की तरह क्तचल्लाने लगी "तू लौट आया मेरे बच्चे...... तू लौट आया ।" रोते हुए। बेतहाशा चम्ु बनों की बौछार करती रहीं क्तजसे देख बालक भी घबरा गया। पर दाई ने इशारे से समझाया ।

बाबू बोली, 'हमाई चाची बोलत की चौके में उजारा करने से कीड़े मौकडे देख लेत की क्तकते गुड़ िरो क्तकते शक्कर िरी बस क्तचपक जात अिुं ेरों रहने से उन्हें कछु क्तदखात नही ।" अब बाबू फुल फॉमण में आ गयी बोली, " गाूँव मे बिी नही आती और क्तमट्टी तेल क्तमलत नही जेई से हमे अुंिेरे ने बोत कुछ क्तदया मतलब सीखा क्तदया, हमने क्तदये की रोशनी में अच्छे अच्छे अिुं ेरे तल क्तदए हमे नैया डर अिुं ेरे को जे बताओ आप का तल रहे थे अुंिेरे में?

सेठ ने क्तकसी तरह दोनों को अलग क्तकया परुंतु बालक को देख वह भी अचुंक्तभत हुआ और बोला, "ये कौन है?" दाई ने नज़र झक ु ाते हुए कहा ,"सेठ जी ये ..... ये आपका पहला पुत्र है ...उस रोज मैंने आप से झठू बोला था ........ " "पर क्यों ....?", सेठ ने आश्चयण से देखते हुए बोला ।

मैं इतना ही बोला, 'पड़ौस की चाची ने ठे कुआ क्तदया, तले अुंिेरा मा हम उसे, वरना चींटी देख लेती न !" देखा बाबू खद्दु ई झाूँक रही थी क्या क्तदया क्या तला अुंिेरा तो खैर हम दोनों को पसुंद।

"आपके क्तपता जी द्वारा मेरे पररवार एवुं पक्तत का जाक्ततगत बहुत अपमान क्तकया गया । इलाज के क्तलए समय पर मदद तक नहीं की क्तजस कारर् मेरा बच्चा तक समय से पूवण ही गुजर गया । तब अपने क्तनठुर मन से मैंने उस रोज कुरूप बच्चे को देखते ही एक लोभी कपट पूर्ण क्तवचार क्तकया....... और बाकी क्तफर..... आप जानते हो । मझु े पता था....... पुत्री की बात सनु आप नज़र उठाकर भी न देखोगे । कुछ सनु ोगे भी नहीं और मेरे सूने जीवन में भी उजाला हो जाएगा।

सब डॉक्टर बोलते क्तकचन में पूरी रौशनी रक्खो पर हमायी डॉक्टरी ज्ञान का क्तदया बाबू ने अपने गाूँव के ज्ञान के अिुं ेरे में तल क्तदया ।

परुंतु अब सेठानी की हालत मझु से न देखी जा रही थी । उनका तो कुछ दोर् भी न था ।" आज सेठ खदु को ओछा महससू कर रहा था । एक अक्तशक्तक्षत दाई जीवन का क्तकतना बड़ा पाठ पढ़ा गयी थी ।उससे क्तकतनी ज्यादा अमीर थी । उनके घर के कुलदीपक को न क्तसफण जीवन क्तदया बक्तल्क मझु े भी क्तसखाया क्तक सु​ुंदरता और कुरूपता ,पुत्र और पुत्री, ऊुंच नीच ये सब दम्भ के कारर् ही अपना अक्तततत्व बना पाते हैं ।ये सब सोचते सोचते ही आज अग्रवाल सेठ के हाथ दाई के चरर्ों की तरफ बढ़ गए। दाई ने हड़बड़ाहट में अपने पैर पीछे खींच क्तलए " ये न करें सेठ जी ।बस अपने तन की सदु​ुं रता की भाुंक्तत मन भी सु​ुंदर रखें और अपने कुलदीपक को सही क्तशक्षा द्वारा रौशन करें ……." इतना बोलकर दाई वापस मड़ु कर चली गयी । 21


कभी न भूलने वाली रात डॉ शोभा भारद्वाज दिल्ली

नया वर्ष दस्तक दे रहा था ददल्ली में उन ददनों नये साल का जश्न मनाने कनाट प्लेस पर बड़ी सख्ं या में लोग इकट्ठे हो कर उत्साह और उमंग से नये वर्ष स्वागत करते थे आतंकवाद के भय से चलन कम हो गया है . कुछ जम कर शराब पीकर दंगा भी करते अत: राजपुर रोड दस्थत पुदलस अस्पताल (अब अरुणा आदसफ अली गवनषमेंट अस्पताल) के कड़क डाक्टर की कनाट प्लेस के थाने में ड् यटू ी लगती थी दंगाईयों को पुदलस पकड़ कर लाती ,दकतनी मात्रा में शराब पी हैं उनका मेदडकल होता मेरे पदत की हर वर्ष रात की ड् यूटी लगती थी . डाक्टर इस ड् यूटी से बचते थे डर था दकसी वीआईपी पररवार का सदस्य पकड़ा गया ऊपर तक पहचुँ की दहु ाई , मदु ककल आ सकती है . मेरे उसी ददन दडलीवरी ददष शरू ु हो गये मैं अपने माता के पास मेरठ में थी मझु े अस्पताल में भती करा कर इनको ददल्ली ड् यूटी पर जाना था भती के दलए फ़ामष पर हस्ताक्षर करते समय इनका हाथ कांप रहा था गला रुंध गया हमारा पहला नवजात दशशू जन्म लेते ही एक दहचकी के साथ सदा के दलए सो गया था मैने इन्हें समझाया आप क्यों दचंता करते हो सब ठीक होगा .

ही कहाुँ था इन्होने भी दजक्र नहीं दकया वह चार वर्ष से संन्नदाज की एमरजेंसी सेंटर में कायषरत थे , महीने में सात ददन रात की ड् यटू ी लगती थी इस्लादमक ईरान में शराब पर पूरी तरह बैन था पकड़े जाने पर सावषजदनक कोड़े लगते थे दमनी बस से शरादबयों को मख्ु य चौराहे पर लाया जाता उनको काजी कोड़े मारने का हक्म देता दमनी बस की छत पर सजायाफ्ता को दलटा कर बधं ें हाथ खोल ददए जाते चार पुदलस वाले बारी-बारी से कोड़े लगाते यदद कोई पीठ पर हाथ रख लेता दबु ारा कोड़ा पड़ता भयभीत करने वाला दृकय रूह कांप जाती थी . वह डाक्टर साहब अंगूर या दकशदमश बड़े बतषनों में सड़ा कर शराब घर में ही दनकालते कई बार उनकी रात की एमरजेंसी ड् यटू ी होती थी वह नशे में धत्तु , इचं ाजष खदु ी था उसे डाक्टर साहब से बहत सहानुभदू त थी उसने कभी उनकी दशकायत नहीं की दसू रे डाक्टर उनके स्थान पर ड् यूटी कर देते . उनकी पत्नी और दोनों बेदटयाुँ गदमषयों की छुरट्टयों में ईरान आयीं थी वह भी सबके साथ हमारे घर आयीं .डाक्टर साहब की पत्नी लेक्चरार थीं उनकी टांगों में नीली नसें उभरी हई ं थी कालेज बड़ी मदु ककल से जाती थीं बैठ कर क्लास लेती स्टूडेंट उनकी बहत इज्जत करते थे वह अपने दवर्य की मास्टर एवं मृदु भार्ी थी. उनकी बेदटयाुँ बेहद प्यारी पढ़ने में गजब की थीं देख कर कष्ट हआ . उनकी पत्नी चाहती थी रुपया इकट्ठा हो जाये डाक्टर साहब अपना नदसिंग होम बना लेंगे तब वह नौकरी छोड़ देंगी दपता की दी हई कोठी ददल्ली की पौश कालोनी में थी ऊपर की मंदजल में दकरायेदार रहते थे . डाक्टर दम्पदतयों में पादकस्तानी पररवार भी थे मदहलाओ ं में डाक्टर साहब की चचाष चली पदत्न ने बताया इनकी ददल्ली में शानदार नौकरी थी 31 ददसम्बर को रूटीन ड् यूटी में मैने इन्हें जाने से पहले तक पीने नहीं ददया परन्तु एयरपोटष की ड् यूटी फ्री शाप से इन्होने शराब खरीदकर जम कर पी, पीने के बाद इनको होश नहीं रहता पसषनैदलटी बदल जाती हैं वहाुँ हगं ामा दकया पुदलस इन्हें काबू करने की कोदशश कर रही थी परन्तु यह और दबफर गये अंत में इन्हें कनाट प्लेस के थाने लाना पड़ा ड् यूटी पर तैनात डाक्टर ने हम पेशा होने का भी दलहाज नहीं दकया इनके दखलाफ ररपोटष बना दी इससे पहले भी दो बार इन्हें वादनिंग दमल चक ु ी थी अबकी बार उन्हें नौकरी से दनकाला नहीं पर इस्तीफा दलखवा दलया हमारा पररवार सोसष फुल है उन्होंने कोदशश कर ईरान दभजवा ददया . पादकस्तानी डाक्टर दम्पदत्त के हमारे साथ बहत मधरु सम्बंध थे उनके बच्चे इन्हें ताया जी मझु े ताई जी कहते थे उन्हें अनजान डाक्टर पर बहत क्रोध आया उन्होंने कहा ऐसा डाक्टर दोजख की आग में जलेगा अरे यह भी नहीं सोचा

ठंडी रात, अतं राषष्ट्रीय एयरपोटष पर एमरजेंसी ड् यटू ी पर तैनात सरकारी डाक्टर साहब को स्वयं एसएचओ थाने लेकर आये . डाक्टर साहब ने ड् यूटी फ्री शौप से शराब खरीद कर ड् यूटी से पहले जम कर पी और हगं ामा मचाने लगे उन्हें मुदककल से संभाला गया हैरानी हई पेशा डाक्टर ,महत्वपणू ष ड् यटू ी शराब की ऐसी लत, जबदक डाक्टर दसू रों को शराब पीने से मना करते है शराब से होने वाले नुक्सान समझाते हैं यहाुँ ददया तले अन्धेरा. इन्होने हम पेशे का ख्याल कर उन्हें दबठाया हर कोदशश की होश में आ जायें या शराब का स्तर कम हो जाए या बेंच पर सो जायें परन्तु वह नशे में धतु दकसी तरह कंरोल में नहीं आ रहे थे सातवें आसमान पर सवार पुदलस वालों को गादलयाुँ दे रहे थे मजबूरी में उनका कागज बनाना पड़ा.एक और बच्ची के जन्म की ख़श ु ी दसू री तरफ डाक्टर की नौकरी जाने का भय . कुछ वर्ष बाद इन्हें ईरान जाने का अवसर दमला खुददषस्तान प्ांत की राजधानी सन्नदाज के आदखरी छोर के अस्पताल में यह इचं ाजष थे. डाक्टर अकसर शक्र ु वार की छुट्टी के ददन दकसी डाक्टर के यहाुँ इकठ्ठे होते थे हमारा घर अस्पताल में था वहाुँ से खबू सरू त घाटी शरू ु होती थी कुछ दरू ी पर ढलान पर पहाड़ी नदी बहती थी प्कृ दत का अद्भुत सौन्दयष अत: सभी अक्सर हमारे घर दपकदनक मनाने आते . उनमें वह डाक्टर साहब भी आये लेदकन वह इनको पहचान नहीं सके नशे में उनको होश 22


डाक्टर साहब के बाल बच्चें होंगे देखना ऐसे डाक्टर का कभी भला नहीं होगा कुछ ने कीड़े पड़ने की बद्दआ ु दे दी मैं आुँख बचाती रही .

को पहला पैग दादा जी ने 16 वर्ष की उम्र में ददया था उस ददन दादी जी ने दसर पीट दलया मैं उन्हें क्या कहती दजसने ईरान की सख्ती में भी पीने का जुगाड़ कर दलया था उन्हें कौन रोक सकता है ? समय बीतता गया एक ददन मैने उनके घर फोन दकया भाभी ने फोन उठाया उन्होंने बताया बड़ी बेटी एमबीबीएस पास कर यूएसए के नामी मेदडकल कालेज में लोन लेकर एमएस कर रही है छोटी का मेदडकल में आदखरी वर्ष है वह ररटायर हो चक ु ी हैं . मन को शांदत दमली .

डाक्टर साहब की पीने की आदत बढ़ती गयी अंत में लाचार होकर खदु ष इचं ाजष ने उन्हें समझाया आप अपने देश लौट जाओ नहीं तो दकसी ददन मसु ीबत में फंस जाओगे यहाुँ का माहौल सख्त होता जा रहा है मजबरू ी में देश लौट गये कई वर्ष बाद उनकी मृत्यु हो गयी . मैं ददल्ली आई थी उनके घर अफ़सोस करने गयीं बदच्चयाुँ बड़ी हो गयीं थी पढ़ने में कुशाग्र थी उन्होंने बताया पापा ने कोठी के दनचले दहस्से में क्लीदनक खोली , क्लीदनक अच्छी चल रही थी मरीज इतं जार करते रहते पापा लगातार शराब पीने लगे हालत ऐसी हो गयी साुँस में सड़े के ले जैसी बू आने लगी इलाज का कोई असर नहीं हआ एक ददन आुँखे मंदू ली . पापा क्यों इतना पीते थे हमें दबलखता छोड़ जाने के दलए ? सुना है पापा

31 ददसम्बर को खश ु होती हुँ आज मेरी बेटी ददु नया में आई दजसने हमें यश और मान ददया लेदकन डाक्टर साहब और उनके पररवार को कभी नहीं भल ू ी, उदास हो जाती हुँ डाक्टर, नशे की लत छुड़ाने वाला इतनी जल्दी ददु नया छोड़ गये गया ददया तले इतना अन्धेरा क्यों था ? शराब ? ऐसा क्या पीना पीकर होश ही न रहे .

तदनक सोच िेखो डॉ सुनीता थत्ते इंिौर (मध्य प्रिेश) ओ भारत के रत्नों! यवु ा कणषधारों! तदनक सोच देखो कहां जा रहे हो? यूुँ पाश्चात्य-संस्कृ दत को अपना के , अंधे हो, दकतने दनरंकुश हए जा रहे हो? तदनक सोच देखो, कहाुँ जा रहे हो? दजस सभ्यता में है, वसुधा ही पूरी की पूरी कुटुम्ब-सम, उसी देश में रह, यह कै सी प्कृ दत अब, दक स्वजनों से भी तमु , न सम्बन्ध सच्चे बना पा रहे हो। तदनक सोच देखो कहाुँ जा रहे हो? शरण में पड़े इक कबूतर की खादतर, स्वयं मांस को काटने वाले दशदव के ही, भारत में रहकर के , स्वजनों की खादतर, पसीना बहाने से कतरा रहे हो। तदनक सोच देखो कहाुँ जा रहे हो? नभचर के शोदणत से होते द्रदवत, आयष वाल्मीदक के देश में रहने वालों! ये कै सी दवर्मता दक मानव रुदधर को बहाने में तुम दहचदकचा ना रहे हो। तदनक सोच देखो कहाुँ जा रहे हो? जगत् का गुरू बन, जो दीपक सा भारत,तमस को प्कादशत दकए जा रहा था, उसी राष्ट्र के दीप्त दीया तले तुम, अंधेरा भयावह दकए जा रहे हो। तदनक सोच देखो कहां जा रहे हो? ओ सबु हा के भल ू ों! समय है अभी भी, न डूबा है सरू ज, दक्षदतज पर है लाली। तुम अपना लो भारत की ही सभ्यता को, जो बातों को मेरी समझ पा रहे हो। तदनक सोच देखो कहां जा रहे हो? तदनक सोच देखो कहाुँ जा रहे हो? 23


अपराधबोध तिन्नी श्रीवास्िव बैंगलोर

डा. सुमित कुिार शहर के जाने-िाने डॉक्टर हैं। पूरे इलाके िें उनकी तूती बोलती है। शहर िें अपना नमसिंग होि है जहा​ाँ मिन-रात भीड़ लगी रहती है। आसपास के गा​ाँव िेहात से भी लोग आते हैं उनके पास। लोगों का कहना है डा. सुमित की हाथों िें जािू है। िरीज को नजर भर िेख ले तो िजज सिझ जाते हैं । उसके बाि सही उपचार ,सही िवाइया​ाँ, मिर गंभीर से गंभीर रोगी भी चंगा हो जाता है। इतनी कि उम्र िें अपने पेशे िें ऐसी उपलमधि कामबलेतारीि है। डा.सुमित का यश मिनो-मिन िै ल रहा था। तो, कुल मिलाकर जबरिस्त प्रैमक्टस चलती है डॉक्टर साहब की, इसमलए मिनचयाज भी उतनी ही व्यस्त है। ज्यािातर सिय क्लीमनक िें ही बीतता है। पररवार िें बुजुगज मपता, पत्नी और एक छोटा सा बेटा है। मिर भी डॉक्टर साहब की खामसयत है मक वो अपनों के मलए सिय मनकाल ही लेते हैं। आमखर क्यों न मनकालें ! अपनी सारी उपलमधियों का श्रेय वो अपने पररवार िख्ु यतः अपने मपता जी को िेते हैं मजन्होंने मबल्कुल मवपरीत पररमस्थमतयों िें उनका पालन पोषण कर उन्हें लायक बनाया है। इन्हीं सब मवशेषताओ ं की वजह से डॉक्टर साहब को एक आिशज इसं ान िाना जाता है। इिर कुछ मिनों से डॉक्टर साहब के मपताजी की तबीयत खराब चल रही थी। जब घर िें ही डॉक्टर िौजूि हो तो मचतं ा कै सी ! पुत्र के द्वारा मपता का हल्का िुल्का उपचार हो रहा था। परन्तु मस्थमत िें खास सुिार नहीं हुई तब उन्हें बड़े अस्पताल ले जाकर मिखाया गया। तरह -तरह के टेस्ट और चेकअप हुए। डा.सुमित अंजान आशंका से मघरे हुए थे और वहीं हुआ मजसकी कल्पना भी नहीं थी। ररपोटज से पता चला कैं सर का तृतीय चरण है। पररवार िें िाति छा गया। सभी िमु खत थे परन्तु डा. समु ित को गहरा िक्का लगा था। परू ी िमु नया को ठीक करने का िावा करने वाला डॉक्टर आज खिु असहाय िहसूस कर रहा था....िीया तले अंिेरा ! कहा​ाँ चक ू हो गई जो वो अपने मपताजी की बीिारी को शरु​ु आती िौर िें पहचान नहीं सके । बचपन से लेकर आज तक मपता जी ने अनेक कष्ट सहकर उन्हें अके ले बड़ा मकया, िेमडकल की पढ़ाई करवाई। अब जब मजंिगी रास्ते पर आने लगी थी तो ये कै सा झटका मिया मकस्ित ने। डा.सुमित खिु को िाि नहीं कर पा रहे थे। मपताजी के पास िमु ककल से छह िहीने का सिय था। डा.सुमित ने घर को अस्पताल िें तधिील कर मिया, सारे जरूरी उपकरण, नसज और वो स्वयं चौबीसों घंटे मपताजी की िेखभाल िें लगे रहे। मपता जी यथासंभव अपनी पीड़ा छुपाने की कोमशश करते परन्तु उनका ि​िज िीरे -िीरे असहनीय होने लगा। भाग्य आमखर कब तक साथ िेता! अत्यंत कमठनाई से नौ िहीने इस भयंकर बीिारी से जूझने के बाि उन्होंने ि​ि तोड़ मिया। कािी मिनों तक डा. समु ित अपरािबोि से ग्रमसत रहे। अब,एक बार मिर उन्होंने खिु को अपने कायज िें परू ी तरह झोंक मिया है। शायि ऐसा कि​ि ही उन्हें इस िख ु से उबार सकता है।

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व्याख्याता वीरभद्र स हिं ररता गुप्ता मरु ैना (म. प्र.) वीरभद्र ससिंह अस्सी के दशक के गसित सवषय से एमएससी सकए हुए थे । यह वह दौर था जब ग्रामीि स्तर पर कोई सवरला ही एमएससी जैसी सिग्री प्राप्त करता था सो उनकी ठसक भी अलग ही थी । दो-एक वषष बाद ही उनकी सनयुसि उच्च सशक्षा व योग्यता के आधार पर सीसनयर सेकिंिरी सवद्यालय में सरकारी व्याख्याता के रूप में हो गई। सरकारी महकमे में वे बडे अनुशाससत और अपने सनयमों पे चलने वाले सगने जाते थे । कुछ उनकी योग्यता और कुछ ईश्वरीय कृ पा रही सक वे सीसनयर सेकेंिरी सवद्यालय के प्राचायष के पद पर पदोन्नत हो गये । उम्र बीतने के साथ साथ उनकी ठसक, अनश ु ासन, सनयम भी बढ़ते रहे । सशक्षा सवभाग में उनका अपना एक रौब व भय था। बावज़ूद इसके , उनके अपने ही घर में उनकी कोई सुनवाई न थी । उनकी पत्नी उनकी बात को कोई तवज्जो न देतीं । सख्त अनुशासनसप्रय व्यसि के घर में ही सभी कायष अनुशासन सवहीन थे । जहािं बाहरी दसु नया में उनकी खब़ू दाब धौंस थी, घर में उनकी बातों को उनके सपु त्रु महोदय एक कान से सनु कर दस़ू रे कान से सनकाल देते थे । अपने सवद्यालय के छात्रों को सनरिंतर अच्छा और अच्छा पढ़ने के सलए प्रेररत करने वाले व्याख्याता अपने सुपुत्र को बडी मेहनत करके थिष सिवीजन में ही पास करवा पाए थे। कभी कभी लगता है सक दीया तले अधिं ेरा ' जैसी कहावत की खोज शायद इन्हीं वीरभद्र ससिंह जैसे महोदयों के सलए ही हुई है और इन पर सौ फीसदी सटीक भी बैठती है।

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नेता और जनता सररता गुप्ता मुरैना (म. प्र.)

दीप प्रज्जवलित करते नेता लजस जनता की खालतर, पर रोशन करते हैं बस अपनी ही लजन्दगानी । लिर जनता को लि​िता क्या, वही दीया तिे अंधेरा । लकतनी ही योजनाएं चिाते, इस जनता की खालतर । सब चट कर जाते नेता लि​िकर बधं ु बाधं ब । लिर जनता को लि​िता क्या, वही छप्पन भोगों के बंटने के बाद, बची खचु ी पंजीरी । लकतनी सड़कें ,सेतु बनते हैं इस जनता की खालतर पूरा पैसे हड़पे िेते जो हैं एक थािी के चट्टे - बट्टे लिर जनता को लि​िता क्या, वही क्षलतग्रस्त सड़के , टूटते - झि ु , अधरू े फ्िाईओवर । ू ते पि लदया जिाते नेता इस जनता की खालतर । इस जनता को लि​िता क्या? अरे वही साहब दीया तिे अधं ेरा ।

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क्षणिकाएं

दीपक देता रोशनी

सुधीर श्रीवास्तव

(कुंडणिया)

गोण्डा(उ.प्र.)

भाष्कर बुडाकोटी 'णनर्झर' पौडी गढ़वाि (उत्तराखंड) दीपक देता रोशनी, करे लतलमर का नाश। पर अपने ही लनत तले, खोजे सदा प्रकाश। नारी उत्पीड़न पर

खोजे सदा प्रकाश, रहे तल सदा अँधेरा।

बड़े बड़े लेख ललखते हैं,

लजससे लमले प्रकाश, उसे ही तम ने घेरा।

गोलिया​ां करते हैं

जीवन के पल मौन, सदा होते हैं पीड़क।

लम्बे चौड़े भाषण देते है,

देते धरा उजास, स्वयां तम सहते दीपक।

दारू पीकर घर जाते हैं

दीपक जलता जब कहीं, करता वहाँ उजास।

बीबी का हर रोज

देता सबको है खश ु ी, पर खदु रहे उदास।

लात घांसों से

पर खदु रहे उदास, नहीं है मेरा तेरा।

सत्कार करते हैं

बाँटे सदा प्रकाश, स्वयां के तले अँधेरा।

*******

देते सबको प्रेम, सदन में निरत पलता।

शराबबदां ी का अलभयान

लजसके तल अँधकार, वही है दीपक जलता।

आये लदन छे ड़े रहते हैं, मगर खदु वो अक्सर नाललयों में ही नशे में धतु पड़े लमलते हैं। ******* ये कै सी लवडांबना है लक बाप मांलदर का महतां और बेटा नशे का व्यापारी, लगता है कुछ भल है भारी या लिर ये है कोई बीमारी।

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दिया और आत्मा सज ं ीव कुमार भटनागर मुंबई, महाराष्ट्र दीपक ज्योति का सगं म है

खदु का नहीं, दशशन िम्ु हारा|

बािी जलाकर, उतजयारा कर लो

रोशनी छाई तिहगं म है,

खदु जलकर सबको िुमने समझा

प्रकाश हो, शरीर आत्मा के संगम का|

अंधेरा तिर भी रहा धरा पर

रह गया तसिश एक नासमझा,

जीिन िेरा इक संघर्श है

तदया िले बचा िम है|

कौन है िो, िुम उसको पहचानो

तजसमें भय है और िू सजग है,

बािी अके ले जब जलिी है

स्ियं हो िुम जो जीिन में उलझा|

जलिा तदया आत्मप्रकाश िुम्हारा

अंधेरा दरू भागिा है

यह अंधेरा तदया िले का

सहारा तदये का, तलया जब उसने

मानि के अपने प्रति अज्ञान का है,

अिं प्रशकाश करिा जब, आत्मा शरीर से अलग है|

तदया िले छाया बनिी है|

बाहर से िुम प्रज्जिल उज्जिल

तदया मानो शरीर िुम्हारा

भीिर से यह खालीपन का है|

प्रकाश देिा करे दरू अँतधयारा,

तमट्टी का तदया है प्रिीक शौयश का

सबको िुमने देख तलया पर

बािी िेल संग बंधन का,

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लड़ाई यह है शाश्वि काल से स्थायी है अंधेरा अनातद काल से, तदया िले न रहे, अंधेरा िब िक ज्ञान का प्रकाश चमके गा जब िक|


भ्रमजाल सीमा भाटिया

वह एक साहहत्यकार थे

मोहहत

होकर

और बैठक में हबठाया िया था

नामी हिरामी साहहत्यकार

ढेरों सहटसहिके ट और ट्राहियों से

अपनी भावनाओ ं को

शोके स करीने से सजाया िया था

खल ु कर देते थे हवस्तार

नोंक-झोंक की तेज आवाजें

कहवता हो या कहानी

शयनकक्ष से ही आ रही थी

हर हवधा के महारथी थे

धमसपत्नी कलमंहु ी, कुलहछछनी

हजारों की संख्या में

जैसे शब्दों से नवाजी जा रही थी

प्रशंसकों से हिरे थे

कुछ पूछना चाहा जब मेि से,

सोशल मीहिया पर छाए हुए थे

उसने धीरे से सब कुछ बता हदया

उनके उद्धरण और आलेख

रोज का काम है यह मार-कुटाई

जोश से भर देते थे सबको

इशारों में ही सब समझा हदया

नारीवाद पर हलखे उनके लेख

नारीवाद के थोथे नारों की

दहेज प्रथा, भ्रणू हत्या

िे र दी थी ऐसी तैसी

अहशक्षा या हिर हो बलात्कार

समाज उद्धार की बडी बडी बातें

उनकी चमत्कृ त लेखनी से

चभु ने लिी नाि​िनी के जैसी

सब पर होता था ठोस प्रहार

उतर िया भ्रम का चश्मा

प्रशंसकों और िालोअसस की

नायक की छहव टूट िई

संख्या हदन-प्रहतहदन बढ़ती जा रही थी

देखा दीये तले जो अंधेरा

रचनाओ ं में उनकी बेबाकी

उनकी लेखनी से

हनरंतर सराही जा रही थी

हाथ से कलम भी छूट िई समाज को राह हदखाने से पहले

एक साहहहत्यक समारोह में

वह बाला उनसे हमलने चली आई थी

खदु उन मल्ू यों को अपनाना सीखो

उनको सम्माहनत हकया िया था

साक्षात्कार हेतु उनके िर पहुचं कर

साहहत्यकार बनने से बेहतर

प्रशंसा-पत्र और सम्मान हचन्ह से

िोरबेल उसने बजाई थी

अछछा इसं ान कहलवाना सीखो।..

उन्हें नवाजा िया था

दरवाजा खोला पररचाररका ने 29


तंज सीमा भाटिया

यह महु ावरों और लोकोक्तियों की दक्तु िया भी बहुत अद्भुत और क्तिराली है। यह तो तय है क्तक भाषाक्तवदों िे भी खबू सोच समझकर इि का अक्तवष्कार क्तकया होगा। बचपि में जब स्कूल में इि महु ावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग करिा क्तसखाया जाता था, तब इतिी अकल िहीं होती थी। बस जैसा मास्टर जी िे बोल क्तदया, वही सही है।रट्टे लगािे की प्रवृक्तत तब जोरों पर थी। जो क्तकताब में क्तलखा हुआ, बस उसको बार बार दोहराते जाओ, क्तदमाग के क्तकसी ि क्तकसी कोिे में तो बैठ ही जाएगा. ऐसा क्तहदिं ी के मास्टर चन्ु िी लाल जी अक्सर समझाया करते थे क्लास में।

थी। बडी बेटी शायद स्कूल की पढ़ाई पूरी कर चक ु ी थी और बाकी तीिों बच्चे हमारे ही स्कूल में पढ़ रहे थे। खैर, हम बात कर रहे थे मुहावरों और लोकोक्तियों की..तो जो कुछ स्कूल में पढ़ा और सीखा, वह क्तसफा क्तकताबी ज्ञाि था, क्तजसकी प्रेक्तक्टकल िालेज हमें समय बीतिे के साथ साथ अिुभव होती रही। अब मास्टर जी द्वारा क्तसखाए महु ावरे " दीया तले अिंिेरा" को ही ले लीक्तजए। जब यह महु ावरा पढ़ाया गया था, तब लाख कोक्तशशों के बावजूद भी क्तदमाग में यह बात िहीं आई क्तक दीये के िीचे अिंिेरा कहािं और कै से हो सकता है? उि क्तदिों मक ु े श का एक गािा भी खबू बजा करता था,"रात और क्तदि दीया जले, क्तफर भी मेरे मि में अिंक्तियारा है.."बहुत ही किंफ्यूक्तजिंग लगता था यह सब..दीये तले अिंिेरा और यहािं मि में अिंक्तियारा.. आक्तखर सच क्या था? बहुत बार मैंिे घर पर मािं द्वारा सिंध्या काल में मिंक्तदर में जलाए दीपक को भी बहुत गौर से देखा, पर मझु े कुछ भी समझ में िहीं आया। वैसे भी मेरी जासूसी खोपडी में जब भी कोई बात बैठ जाती थी, तो मैं उसकी तह तक जािे की कोक्तशश में लगा रहता था क्तदि रात।

चन्ु िी लाल मास्टर जी, क्तजिका असली िाम महेंद्र प्रताप क्तसिंह था; राजपुतािा घरािे से सिंबिंक्तित होिे के कारण पूरे रोबदाब वाले थे। चकाचक सफे द कुता​ा पजामा और ऊपर से िारीदार जैकेट पहि कर क्तकसी हीरो से कम िहीं लगते थे। ऊपर से हमेशा एक गमछा सा लेकर रखते थे। पर पता िहीं, उस क्तदि कै से जल्दबाजी में गले में गमछे की जगह अपिी क्तबक्तटया की चिु री ओढ़कर आ गए। हम तो तब छटी कक्षा में पढ़िे वाले मासूम से बालक थे, हमें भला गमछे और चिु री में भेद कै से पता होता? वह तो हमारी कक्षा में पहला पीररयड ले रहे थे, जब बाहर से दीिा काका बल ु ािे आ गए क्तक बाहर उिकी श्रीमती जी आई हैं। मास्टर जी सकपका कर बाहर जािे के क्तलए उठे ही थे क्तक इतिे में ऊिंची हील वाले सेंक्तडल बजाते हुए वो मेडम जी अिंदर आ गई। "मझु े तो लगता है क्तक आपका ि क्तदमाग सटक गया है, जो पायल क्तबक्तटया की चिु री गले में लटका चले आए। अब वो कब से तैयार होकर अपिी चिु री ढूिंढिे में लगी हुई। " और उिके गले से एक झटके से चिु री खींच कर उिके हाथ में उिका गमछा पकडाकर यह गई और वो गई। क्तफर क्या था मास्टरजी बस क्तखक्तसयाए से चपु चाप कुछ देर के क्तलए सुन्ि हो कर कुसी पर बैठ गए। हम लोग बस अपिी हिंसी दबािे के प्रयास में लगे रहें। उस क्तदि से पूरे स्कूल में मास्टर जी "चन्ु िी लाल" के िाम से मशहूर हो गए। वैसे मास्टर जी क्तदल के बरु े िहीं थे, बस अपिी श्रीमती जी से खबू डरते थे और यह बात अब तो जगजाक्तहर हो चक ु ी थी। मास्टर जी के चार बच्चे थे। एक बेटे की चाहत में तीि तीि बेक्तटयों की लाइि लग गई

बचपि कब बीत गया इस मासूक्तमयत में, पता ही िहीं चला। क्तजिंदगी तरह तरह के रिंग क्तदखाती रही और हम बडे होते होते दक्तु िया के झमेलों में ऐसे उलझे क्तक इि महु ावरों और लोकोक्तियों से हर रोज साक्षात्कार होिे लगे, वह भी प्रेक्तक्टकल रूप में। कालेज में बी.काम की पढ़ाई पूरी करते ही बैंक्तकिंग क्षेत्र में जािे की सोच ली, तो बस लग गए जी जाि से उसी की परीक्षा की तैयारी में। क्तदि रात क्तकताबों में क्तसर क्तदए बैठे रहते थे, पर यह जो क्तहसाब क्तकताब है, शायद हमारे जैसे लोगों के क्तलए िहीं बिा है। क्तपताजी िे बहुत समझाया क्तक उिकी दक ु ाि को ही सभिं ाल लूँू, पर हम भी ठहरे अपिी िुि के पक्के । आक्तखर इक्िाक्तमक्स और एकाउिंटस की जो थोडी बहुत पढ़ाई की थी, वह काम आ गई और हम लगातार तीि 30


बार असफल होिे के बाद बैंक में िौकरी के क्तलए चिु क्तलए गए और मेरी पोक्तस्टिंग रोहतक में हुई थी। उस क्तदि मािं िे सारे महु ल्ले में लड् डू बािंटे, मािो हमिे कोई जिंग फतेह कर ली हो।

"मक ु े श बेटा! आ जाओ, चाय भी तैयार हैं।" माूँ िे दोबारा आवाज़ लगाई, तो मैं हडबडा कर उठा और सीिे गसु लखािे में घसु गया। फ्रेश होकर जैसे ही बैठक में पहुचिं ा, मास्टर जी मािं के हाथों की चाय की चक्तु स्कयािं लेिे में मस्त थे। मैंिे प्रणाम क्तकया और वहीं पास बैठ गया। मास्टर जी बडे गौर से मझु े कुछ देर तक क्तिहारते रहे। "कै से हैं मास्टर जी?" मैंिे बात शरू ु करिे के क्तलहाज से कहा। मास्टर जी शायद अभी भी सिंकोच महसूस कर रहे थे।

पर कहते हैं ि क्तक दरू के ढोल सुहाविे। कुछ ऐसा ही लगिे लगा था कुछ महीिों की िौकरी में ही। लोि के महकमे में होिे की वजह से काम का इतिा बोझ रहता था क्तक शक्तिवार को घर आते ही सारी थकाि उतारिे के क्तलए मैं रक्तववार सुबह देर तक क्तबस्तर तोडता रहता था। ऐसे ही एक रक्तववार को अभी क्तबस्तर छोडिे की सोच ही रहा था क्तक मािं दिदिाती हुई कमरे में आई," अरे मक ु े श! अभी भी घोडे बेचकर सो रहा है। सूरज देख कहािं चढ़ आया है। उठ जल्दी, बाहर मास्टर महेंद्र प्रताप क्तसिंह जी आए हैं तमु से क्तमलिे।"

"बस ठीक हू।ूँ दो साल पहले ही ररटायर हुआ हू​ूँ िौकरी से। तुम तो अच्छी तरह सेट हो गए हो। बडी खश ु ी होती है, जब अपिे क्तवद्याक्तथायों में से कोई कुछ सफलता हाक्तसल करता है।" मास्टर जी िे गवा​ाक्तन्वत होते हुए कहा। "बस आपका ही आशीवा​ाद है। आप कक्तहए आज मेरी याद कै से आ गई?"मैंिे क्तविम्रतापूवाक पूछा।

"हैं? यह मास्टर चन्ु िी लाल को कहािं से याद आ गई मेरी?" स्कूल खत्म होिे के बाद बहुत कम ही उिके दशाि हुए थे। मझु े उिसे अपिी आक्तखरी मल ु ाकात याद आ गई, जब दसवीं कक्षा के परीक्षा पररणाम के बाद जब मझु े शहर वाले स्कूल में दाक्तखले के क्तलए चररत्र प्रमाण-पत्र लेिा था, तो क्तपताजी के साथ स्कूल गया था। कक्षा इचिं ाजा के हस्ताक्षर के क्तलए मास्टर जी से क्तमलिे जब स्टाफ रूम में गया, तो मास्टर जी िे बडे क्तवक्तचत्र अदिं ाज में पूछा," हाूँ भई! अब आगे क्या करिे का इरादा है?"

"बेटा मक ु े श! शाम लाल जी(मेरे क्तपताजी) िे ही बताया था क्तक तुम ए बी सी बैंक में क्तियुि हुए हो और वह भी लोि क्तडपाटामेंट में। बस उसी से सिंबिंक्तित एक काम था। एक लोि पास करवािा था अपिे क्तविय के क्तलए।उसे एक क्तडपाटामेंटल स्टोर खोल कर दे दूँ,ू सोच रहा। मेरी सारी कमाई और तो तीिों बेक्तटयों की शादी में खत्म हो गई। तीिों में से कोई भी बारहवीं से ज्यादा िहीं पढ़ी। अपिे पैरों पर खडी हो जातीं, तो शायद दहेज के चक्कर में ि पडिा पडता। पर उन्हें तो अपिी मािं की तरह फै शि और घमू िे क्तफरिे से ही फुसात िहीं थी।" एक सािंस में ही बोल गए मास्टर जी और क्तफर दो क्तमिट रुक कर बोले,"और यह अपिा क्तविय..यह तो सबका क्तसरा क्तिकला। बुरी सिंगक्तत में पडकर सब कुछ बबा​ाद कर क्तदया। कमाई एक पैसा िहीं, और साथ के गाविं से छोरी भगा लाया और फे रे भी ले क्तलए। अब उस बेचारी का क्या कसूर? जो उसके भाग में क्तलखा..बस इसकी रोजी के इतिं जाम करिे में ही लगा हुआ हू।ूँ तुम देखो, कूछ हो सके तो। गािंव के बाहर एक पुकतैिी मकाि पडा है, उसको क्तगरवी रखिे को तैयार हू।ूँ " मास्टर जी िे लगभग क्तचरौरी करते हुए हाथ जोड क्तदए। "प्रोफे शिल बैकग्राउिंड"..यह शब्द आज भी मेरे कािों में गूिंज रहा था। मैं क्तजिंदगी के इि फलसफों को समझिे में अस्मथा महससू कर रहा था, पर अपिी गरु​ु दक्तक्षणा चक ु ािे की एक कोक्तशश तो कर ही सकता था।..

"मास्टर जी अब कामसा लूिंगा, आगे बैंक्तकिंग क्षेत्र में जािे का इरादा है।" "अच्छा?" मास्टर जी िे व्यिंग्यात्मक लय में कहा, तो मेरे ति मि में आग सी लग गई, पर मैं खामोश रहा,"बेटा जी! इतिा सरल िहीं है सब। वैसे भी बडी मक्तु ककल से फस्टा क्तडवीजि पर पहुचिं े हो।चपु चाप कोई सरल से क्तवषय ले लो और बी.ए कर लो, वहीं अच्छा है। वैसे भी प्रोफे शिल बैकग्राउिंड वालों के बच्चे ही यहािं सफल होते हैं।और तुम्हारे क्तपताजी की तो अच्छी-भली कपडे की दक ु ाि है, वह कौि सिंभालेगा?" मैं क्तबिा कोई जवाब क्तदए प्रमाण-पत्र लेकर बाहर आ गया। 31


सर का बेटा ज्योति व्यास खरगोन

सर, अभिषेक का क्या ररजल्ट रहा? गभित में पूरक है उसे।सर ने तभनक भनराशा के साथ बताया। ओह ! चभिए कोई बात नहीं। अिी परीक्षा हो जाएगी भिर पास हो कर अगिी क्िास में चिा जायेगा। मैंने कहा। मैंने कह तो भिया पर सोच रही थी ,सर स्कूि में प्राचायय हैं। पूरे िो हज़ार बच्चे पढ़ते हैं। सर हर एक बच्चे की उन्नभत के भिए प्रयासरत रहते हैं िेभकन उनका बेटा अभिषेक पढ़ाई की ओर भबल्कुि ध्यान नहीं िे रहा। उसे सर की प्रभतष्ठा का िी ध्यान नहीं है। जैसे तैसे िसवीं तो हो गई िेभकन ग्यारहवीं में भिर गभित भवषय चुना । वही गभित भजसके कारि छठी से िसवीं तक पूरक का सहारा िेकर नैया आगे बड़ी। बहुत िोगों ने सिाह िी, सर शायि अभिषेक कॉमसय में कुछ अच्छा कर सके गा। िेभकन अभिषेक ने उसे भसरे से नकार भिया। हाय रे भकस्मत ! भिर पूरक ! िो साि खराब करने के बाि स्कूिी भशक्षा पूरी हुई । आटटयस से स्नातक कर भिया। वहा​ाँ िी तीन की जगह चार साि िगे। चूंभू क प्राचायय का बेटा है, वह िी ऐसा प्राचायय भजसने अपने भिन और रात स्कूि के कामों के भिए समभपयत भकये हैं, कुछ ऊाँची भिग्री होना चाभहए। इसभिए अब एम बी ए में िाभखिा िे भिया है। िोस्तों की सहायता से असाइनमेंट पूरे कर यह भिग्री िी भमिी ही जा रही है िेभकन के वि कागज पर। सर मेरे सहकमी तो है हीं बहुत अच्छे भमत्र िी हैं। स्कूि के भिए हर समय कुछ नवभवचार, नवाचार की बात सोचते रहते हैं, उसे आकाश की ऊूंचाइयों तक िे जाना चाहते हैं िेभकन उनका बेटा अभिषेक !!! उसके भिए िी हर बार नई योजना बताते हैं िेभकन उसकी ओर से हमेशा भनराशा ही हाथ िगी है।भिभग्रया​ाँ तो भमि जाएगूं ी िभवष्य के भिए कब जागरूक होगा? अपना िख ु मझु से साझा करते रहते हैं। सिी जानने वािे गाहे बगाहे िोनों भपता पुत्र के बारे में चचाय करते रहते हैं और कहने से बाज नहीं आते, यह तो वही बात हुई,' भिया तिे अूंधेरा' है इन भपता पुत्र के मामिे में !

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उपदेश से आगे अंजु 'अना' जमशेदपुर (झारखंड)

चित्त प्रकाचित हो िौतरफा,

अवसर क़े अनुरूप

तभी ज्ञान का मान बढ़े ।

बदल जाऩे को धमम नहीं कहत़े ।

कथनी-करनी की समता स़े

एकव्रती होऩे पर ही

ही असली अचभमान बढ़े ।।

मानवता एकसमान बढ़े ।।

कलम चलख रही गाथाएँ,

हृदय स्वच्छ हो,मन प्रत्यि हो,

पर चलख कर याद रख़े वो जब, असल मायऩे में तब ही

आकांिाएँ नतमस्तक ।

ल़ेखक का भी सम्मान बढ़े ।।

मानस पर बुचि की जब सत्ता हो,

संतों क़े उपद़ेि

तब ईमान बढ़े ।।

नहीं काफी है जन-मन की खाचतर ।

अधजल गगरी क्यों छलकी,

उनक़े सहभागी होऩे स़े ही

दो पल रुक कर य़े सोिा क्या ?

जग का कल्याण बढ़े ।।

धैयम चववि, उत्कंठा की आतुरता स़े

बैठक की य़े राजनीचत,

अज्ञान बढ़े ।।

है बुचिजीवी का मनोरंजन ।

"समय प्रबल है",यही सत्य है,

य़े सड़कों पर आए जब,

चस्थचतयाँ बस माध्यम है।

तब ही चिचित मतदान बढ़े ।।

छाया छोटी दोपहरी की,

कही चवभीषण ऩे भी थी,

चकतना भी इसं ान बढ़े।

रावण स़े बात यही इक चदन ।

सूरज की िहुओ ँ र रौिनी

दरू िापलूसों स़े हो कर ही

चकंचित भी अवरुि नहीं ।

राजा का ध्यान बढ़े ।।

दसों इचं ियों की ि़ेतनता स़े

"पर उपद़ेि कुिल बहु त़ेऱे"

उसका संज्ञान बढ़े ।।

क्यों ना यहाँ प्रभावी हो ।

दीया तल़े अधं ़ेरा है,

खड़​़े रहें जब एक जगह सब,

क्योंचक उसकी लौ बाचधत है ।

औ' खदु स़े सोपान बढ़े ।।

पूणम प्रकाि नहीं कर सकता, चकतना भी नादान बढ़े । 33


दृष्टिकोण अंजु ‘अना’ जमशेदपुर, झारखंड

एक प्राचीन दंतकथा है कक एक बार बादशाह अकबर के राजमहल के सामने ही चोरी हो गई। उस वक़्त अकबर, बीरबल के साथ महल की छत पर टहल रहे थे। शोर सुनकर उन्होंने बीरबल से पूछा कक बीरबल ये कै सा शासनतंत्र है, कजसमें चोरों और लुटेरों को कोई भय ही नहीं है? हमारे राज्य की व्यवस्था इतनी लचर क्यों है कक हमारे महल के सामने ही चोरी हो जाती है और सैकनकों अथवा गुप्तचरों को इसका भान तक नहीं होता। तब बीरबल ने उत्तर कदया कक, महाराज! हमारे राज्य की व्यवस्था कबल्कुल लचर नहीं है। यह एकदम मजबूत और पर्ू ण प्रमाकर्त है, ककंतु आपने "दीया तले अधं ेरा" वाली लोकोकि तो अवश्य सुनी होगी, यह हर जगह चररताथण होती है और यह घटना भी इसी बात का प्रमार् है। बीरबल के उत्तर से महाराज अकबर भी संतुष्ट और सहमत हुए तथा बीरबल के तकण को सहर्ण स्वीकार ककया।

पास के लोगों में भी कंु ठा और कनराशा का संदेश प्रसाररत करते हैं। स्वयं को अकमणण्य और पररवेश को कनकष्िय बना देते हैं। अथाणत दृकष्टकोर् की सकारात्मकता और नकारात्मकता में, संपूर्ण पररवेश को परावकतणत कर देने की क्षमता कनिःसंदेह होती है। यकद हम "दीया तले अधं ेरा", इसी लोकोकि के कथन को उदाहरर्ाथण देखें तो हमें यहा​ाँ भी दो कवचारधाराएं देखने को कमलती हैं। पहली नकारात्मक, जो बेवश, लाचार, कंु कठत है और कजसकी अनुभकू त ही हमारी आत्मा के ओज को नष्ट कर देती है। यकद हम ये सोचते हैं कक बेचारा दीया, सपं र्ू ण जगत को तो प्रकाकशत देता है ककंतु स्वयं अंधेरे में ही कजंदगी गुजार देता है, उसका जीवन प्रकाश की एक ककरर् के कलए तरसता ही रह जाता है, तो इस तरह की सोचमात्र ही मनुष्य की शकि को क्षीर् कर, उसे अवसादग्रस्त और नकारा बना देने के कलए पयाणप्त होती है। ककंतु जैसे ही हम इस बात को सोचने-समझने की मानकसकता बदलते हैं और उसे सकारात्मक तरीके से सोचना शरू ु करते हैं तो हमारे सामने जो बात आती है वह ये कक दीया, पदाथण का एक छोटा सा अवयव, स्वयं अंधेरे में रह कर भी, अपनी मट्ठु ीभर रौशनी से दकु नया को प्रकाकशत और कम-से-कम अपने पररवेश को प्रकाकशत करने की कोकशश में लगा रहता है। सासं की आखरी डोर तक वह हार नहीं मानता और अंकतम प्रकाशकबंदु तक वह अपनी उदारता का त्याग नहीं करता। सोचने वाली बात है कक यह दृकष्टकोर् एक मृतप्राय शरीर में भी जान िंू क देने के कलए पयाणप्त है। एक अवसादग्रस्त समाज को भी स्वस्थ, साहकसक और प्रेरर्ाप्रद सदं ेश देने के कलये कार्फी है।

कहने का तात्पयण यह है कक "दीया तले अंधेरा" एक शाश्वत सत्य है कजसे कोई भी, ककसी भी तकण से झठु ला नहीं सकता ककंतु दृकष्टकोर् का कवशेर्ाकधकार भी मनुष्य को ही प्राप्त है। वह व्यकि, वस्तु या पररकस्थकतयों को कजस दृकष्टकोर् से देखता है, उसे पररर्ाम भी वैसा ही कमलता है। मनुष्य की मानकसकता के हमेशा दो पहलू होते हैं, एक सकारात्मक और दसू रा नकारात्मक। यही दो पहल,ू मानव के संपर्ू ण जीवन की कियाकवकध और बुकि वैचायण को पररभाकर्त करते हैं तथा उसे आधार प्रदान करते हैं। यकद चीजों को सकारात्मक दृकष्टकोर् से देखा जाए तो किर कहीं कुछ ग़लत नज़र नहीं आता है। न कसर्फण सबकुछ परत-दर-परत, प्रत्यक्ष कदखाई देता है बकल्क ककठन पररकस्थकतयों में सघं र्ण का मागण भी कमल जाता है। व्यकि का उत्तम चररत्र भी उजागर हो पाता है और समाज या काल के कलए उसकी कवचारधारा भी कनखर कर सामने आती है। यही मानव की कालजकयता का कारर् भी बनती है।

उपसहं ार स्वरूप कह सकते हैं कक व्यकि, वस्तु अथवा पररकस्थकतया​ाँ तो समान होती हैं ककंतु उनको संभालने का दृकष्टकोर् ही, समाज में मनष्ु य की श्रेष्ठता, सामान्यता अथवा हीनता तय करती है।

यकद उन्हीं कस्थकतयों को हम नकारात्मक दृकष्टकोर् से देखते हैं तो न कसर्फण हम स्वयं दख ु ी या अवसादग्रस्त होते हैं बकल्क अपने आस-

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उजाला अपराजजता 'अजजतेश' जग्गी जिल्ली

"ऐसा मत कहो। कुछ भी तो नहीं बदला है। तमु कहो तो कल ही हम दोनों वि​िाह कर लेंगे।"

"नहीं । मैं कोवशश भी करूँ तो अब ये बात नहीं भल ू पाऊूँगी वक तुम एक तेजस्िी दीपक हो, जो अपनी रोशनी से संसार को तो उजाला देगा लेवकन वजसके तले हमेशा अूँिेरे ही बसेंगे। आज अपने माता-वपता को भल ू जाने िाले तुम आगे भी यही करोगे। कल को मझु े और आगे चल कर बच्चों को भी यू​ूँ ही भल ू जाओगे।"

"नहीं । मझु े अब तुम से वि​िाह नहीं करना। " "लेवकन क्यों? क्या मझु े ये भी जानने का अविकार नहीं रहा?"

"नहीं-नहीं । मैं िादा करता हूँ ऐसा नहीं होगा। एक गलती की इतनी बिी सजा मत दो। विश्वास करो, ये भल ू दोबारा नहीं होगी। माूँवपताजी, तुम और हमारे होने िाले बच्चे- अब हर रोशनी पर पहला हक तुम सभी का ही होगा।"

"तुम क्या सच में कारण नहीं जानते?" "क्या मतलब? जब अभी तक तुमने मझु े कोई कारण ही नहीं बताया तो मझु े कै से पता चलेगा।" "वकतने वदन हो गये तम्ु हे बाढ पीवित क्षेत्र से िापस आए?"

"सच कह रहे हो! कर सकोगे ऐसा? बदल सकोगे सवदयों पुरानी कहाित?"

"दो हफ्ते । लेवकन इस बात का मझु से अलग होने के वनणणय से क्या लेना-देना? तुम तो हमेशा से जानती आयी हो वक मैं अपने देश अपने समाज के वलए कुछ करना चाहता हूँ । तुम्हें भी मैं इसीवलए तो पसदं आया था ना। विर आज विरोि क्यों?"

"हाूँ, जरर कर सकूँू गा। बस, तुम साथ देना और ....सिाल कुछ कम पूछना।" दो प्रेवमयों के हूँसने वखलवखलाने की आिाजों से अूँिेरे छूँ टने

"मैंने कब विरोि वकया? लेवकन ये तो बताओ वक इन दो हफ्तों में तुमने क्या- क्या वकया?"

लगे हैं । दोनों साथ चल पिे हैं, एक ऐसे जीिन की तरि जहाूँ वसिण उजाले हों, अपनों के वलए भी और समाज के वलए भी।

"उि। क्या हो गया है तुम्हें । बस सिाल पर सिाल कर रही हो। अरे करोना पीवित लोगों को खाना- पीना बाूँटने में लगा था। इसीवलए तुम से वमला नहीं । लेवकन िोन तो वकया था ना वपछले हफ्ते।" "हाूँ वकया था। मझु े वकया था। लेवकन अपने माता-वपता को वकया था क्या? क्या उनके रोज हाल चाल पूछने का ख्याल भी नहीं आया?" "क्या मतलब?" "दोनों को करोना हो गया है। इस समय भी आइसोलेशन में हैं । वपछले छह वदन से, रोज उन्हें तीन समय का खाना देने जाती हूँ । तुम्हें िोन करने की वकतनी कोवशश की लेवकन....." "हे भगिान! िोन की बैटरी खराब हो गयी थी। सब को राशन बाूँटते-बाूँटते पूरा वदन वनकल जाता था। इसवलए ठीक भी नहीं कराया।आज ठीक कराने ही िाला था। अभी घर जाता हूँ । माूँ- वपताजी से मािी माूँगता हूँ ।" "ये तो तुम्हें करना ही चावहए । लेवकन पहले मझु े माि कर दो। मैं तुमसे वि​िाह नहीं कर सकती।" "ऐसा मत कहो। भल ू जाओ ये िाकया ।" 35


दोहरा व्यक्तित्व इन्दु बाला गप्तु ा हरदोई (उत्तर प्रदेश)

अनु के पति स्थाना​ांिरि​ि होकि अभी कुछ तिन पहले ही इस शहि मे ेँ आए थे अनु के पति िति के िरिष्ठ सहकमी निे श बाबू एक तिन िति के साथ घि आए,सुिशशन व्यतित्ि के स्िामी निे श जी ने तिनम्रिा से हाथ जोडकि अनु से शभु सेँध्या कहा । निे श जी ने चाय पीिे हुए कमिे पि प्रशेँसात्मक दृति घमु ािे हुए घि को सुरुतचपूर्श ढेँग से व्यितस्थि किने के परिप्रेक्ष्य मे ेँ अनु की सिाहना कि​िे हुए शालीनिा से अनु की ओि सौम्य दृति डाली औि हाथ जोडकि अनु औि िति को अपने घि आने के तलए आमतरि​ि तकया । ति​िा लेिे समय पुनः अपने घि आने का आग्रह किके तशिाचाि पूिशक हाथ जोडकि ति​िा ली,अनु औि िति ने भी शीध्र ही आने को कहा । अनु निे श जी के सिु शशन औि सौम्य व्यतित्ि से प्रभाति​ि औि तशि शालीन व्यिहाि से अतभभिू थी। एक तिन खिीिािी कि​िे समय िति ने अनु से कहा तक यहाेँ से निे श जी का घि समीप ही है क्या चलना चाहोगी, अनु चलने के तलए सहमि हो गई, निे श जी के घि पहुचेँ ने पि जैसे ही िति ने घेँटी पि उेँगली िखने के तलए हाथ बढाया अरि​ि से आिी छनाक की आिाज से हाथ स्ियमेि रुक गया, अनु भी रुकने का सेँकेि कि​िे हुए द्वाि से हटकि खडी होकि तस्थति औि परितस्थति को समझने का प्रयास किने लगी िभी चटाक की आिाज औि साथ मे ेँ नािी केँ ठ की चीख औि बच्चों के समेि​ि रुिन से अनु सहम सी गयी, अभी िो िोनोेँ तितचि ितु िधा मे ेँ थे िभी निे श जी का स्ि​ि कान मे ेँ पडा जो अपशव्ि सुने उसके बाि अरि​ि जाने का साहस भी शेष नहीं था, िति ने अनु का हाथ पकडकि िापस चलने को कहा िब अनु की िेँद्रा टूटी, िति ने लक्ष्य तकया तक अनु के चेहिे पि भय, घृर्ा आक्रोश औि अतिश्वास के तमले जुले भाि थे, पूिे िास्िे िोनों मौन थे,घि पहुचेँ ने पि अनु ने िति से प्रश्न तकया तकसी व्यति का ऐसा िोहिा व्यतित्ि कै से हो सकिा है हम िो इनके सौम्य सुिशशन तशि व्यतित्ि एिेँ तिनम्र शालीन व्यिहाि से अति प्रभाति​ि थे, िति ने मस्ु कुिािे हुए उत्ति तिया इसी को कहिे है ेँ िीया िले अधां ेिा ।

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दिया तले अंधेरा उषा सक्सेना रात्रि के अधं कार ने प्रकात्रित त्रिये से कहा -अरे भाई िीपक तमु क्यों व्यर्थ ही मेरी राह में बाधक बने मेरी राह रोक रहे हो । रात्रि होती ही मेरे त्रिये है ,अब मझु े भी तो अपना कायथ करनै िो । िीपक: -मैं सूरज का वंिज हं । रात्रि के अंधकार से िड़ने के त्रिये ही तो मेरा जनम हुआ है इस अंधकार में कहीं िोग अपनी राह भि ू कर भटक न जायें उन्ही का पर् प्रि​िथक हं मैं । तुम यत्रि अंधकार तम तत्रमस्त्रा की संतान हो तो मैं भी प्रकाि का उत्तरात्रधकारी । अपना िात्रयत्व कै से भि ू जाऊं । अधं कार :- हम िोनों ही सृत्रि के त्रवपरीत ध्रवु होकर भी एक सार् रहने को त्रववि । तमु ने मझु से सघं र्थ करना चाहा तो िो मैं तम्ु हारे ही नीचे त्रिया तिे अंधेरा बन कर प्रश्रय पा गया ।अब तुम तो क्या मझु े कोई भी वहां से नही हटा सकता पर तुम्हें अवश्य तीव्र हवा का झोंका आकर झकझोरता हुआ बुझा िेगा ।तब तो मेरा ही साम्राज्य होगा । िीपक --सही कह रहे हो समय का झंझावात मझु े झकझोर कर बुझा िेगा परंतु जब तक मेरे सार् कपास की बाती नेह की त्रननग्धता में डूब कर चेतन प्राण त्तत्व अत्रग्न के सार् प्रज्वत्रित है वह कत्रिन से कत्रिन पररत्रनर्त्रतयों में भी अपने सरं क्षक के हर्ेिी की ओट या त्रकसी आचं ि की ओट पाकर महफूज रहगं ा । रात्रि का अंत्रतम प्रहरी बन मझु े अंधकार से िड़ना ही होगा । िेखो तुम्हारी सुरक्षा के त्रिये मैनें तुम्हें अपने ही नीच त्रिपा कर सुरत्रक्षत कर त्रिया है ।अब त्रवरोध कै सा । तभी मगु े की बांग सुनकर घर माित्रकन ने त्रिये को अपने आंच की हवा िेकर की जाओ तुम्हारा िात्रयत्व पूरा हुआ । अंधकार ने भोर का भरु ारा होते िेख तम की तत्रमस्त्रा के ही सार् िीपक से त्रविा मांग चि त्रिया ।अब न त्रिया र्ा न अंधकार ......।

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मौन हूं अनभिज्ञ नहीं डॉ सूंगीता तोमर इन्दौर (म प्र)

देखती हूं चहूं ओर

खोखले ररश्तों िें

सूंसार की भल ू भल ु ैया को

अपिापि टटोलती

कई ररश्तों से मिलती हूं

िस्ु कुराहटें तौलती

कुछ मिश्​्छल, कुछ कृ मि​ि

िख ु ौटों के पीछे झाूंकती

कुछ सवूं ेदिा के , कुछ अमिवायय

परखती, कहाूं है मदया तले अधूं ेरा

कहाूं स्वार्य है ,कहाूं ग्लामि है

िौि ह,ूं अिमभज्ञ िहीं

कहाूं पीडा,और कहाूं याचिा

आतय आत्िा को धैयय मसखाती

कहाूं मिलेगा अवसाद

आस लगाते िैिों की पीर िापती

और कौि हैं सुह्रदय स्िेही

दृग जल का क्षार चखती

जािती हूं अिुभव करती हूं

रूंधे गले की गू​ूंज सुिती

कहाूं है मदया तले अूंधेरा

िौि ह,ूं अिमभज्ञ िहीं

िौि हूं अिमभज्ञ िहीं

जािती हूं सिझती हूं

जीवि पर् िें आगे बढ़ती

आत्िसात करती हूं

दो कदि कभी पीछे हटती

तपती ह,ूं मिखरती हूं

र्ोडा ठहरती ,आत्िसात करती

ि​ि की टीस को

टूटे मवश्वास के टुकडे सिेटती

अिदेखा कर

ये जािकर की मिर प्रहार होगा

िस्ु काती िैं

कहाूं है मदया तले अूंधेरा

जािती हूं कहाूं है मदया तले अूंधेरा

िौि ह,ूं अिमभज्ञ िहीं

िौि ह,ूं अिमभज्ञ िहीं

अपिों द्वारा छली जाती

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दीया तले अंधेरा बबबता कंसल बदल्ली एक दिवस चा​ांि माटी के िीप से बोला, रोशन करते हो तुम धरा को अन्धकार िरू करते हो, पर दमटा ना पाये अन्धकार अपने ही तल का माना मझु े जाना पड़ता है लम्बी यात्रा पर..... तमु रोशन करते हो धरा को मास के अदन्तम दिवस तक..... अहक ां ार से दिरे हो, िीया तले अांधेरा.... अहक ां ार को दमटा अन्तस मे प्रेम प्रज्वदललत करोगे...... अन्धकार िरू होगा... चलो दमल कर प्रयास करते है इस िीवाली...दमटा िे अहक ां ार, नफ़रत, द्वेष ह्रिय से सिभावना की रोशनी फै ला िे... मन हदषित हो खश ु ीयो के िीप जले चारों ओर.. िर के आगँन, अनदगनत िीपों जैसे मन दखले... कोई ना एे​ेसा रहे दजस िर मे िख ु ि​ि​ि का अन्धेरा हो.... झोपड़ी में भी खुशी से हो बुलन्ि हौसले .. मॉ अन्नपूर्ाि रहे दवराजमान सिा िर आगनां मे .... भख ू े पेट सोना पड़े दकसी को... सब के मन मदन्िर में खश ु ी के िीप जले... मन के िीप, खश ु ी की बाती!! उमांगों की फुलझड़ी, रांगोली भरे ररश्ते सद्भावना की दमठाई ! प्यार की रोशनी... िर आँगन रोशन रहें...... 39


पिता-ित्रु गीता वाधवानी (पिल्ली)

एक पिता ित्रु की जोड़ी थ़ी बड़ी शानदार हर बात िर पि​िऱीत पिचार पिता को िसंद शाकाहार ित्रु को िसदं मासं ाहार पिता के संस्काऱी आचार ित्रु के आधपु नक पिचार पिता कहता ित्रु से, "मत खाओ मासं ाहार….." छोडो मांसाहार, ज़ीिो िर मत करो अत्याचार छोडोगे मासं ाहार, तो बदं होगा ज़ीिो का सहं ार सनु ो ज़ीिो की करुण िक ु ार, छोडो मांसाहार ित्रु कहता, मझु े िसंद है मांसाहार कै से मैं छोड दं खाना, बोलो िालनहार बेटा करता बातें घमु ािदार पिता थे उसके सच्चे सलाहकार प्रपतपदन दोनों पकस़ी न पकस़ी बात िर करते तकरार पिता कहते, "शाकाहाऱी के घर मासं ाहाऱी,"द़ीया तले अंधकार।"

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दीया तले अंधेरा सुधा मिश्रा मिवेदी कोलकाता सचमचु हमारे समाज का यह कटु सत्य है कक दीपक तले यदा ही अधं ेरा पररलकित होता है ।चाहे वह ककसी भी िेत्र में हो मेहनत करता कोई और फल खाता कोई और है । चाहे आप ककसानों, मजदरू या ककसी और का जीवन देखें । लेककन सबसे कष्ट की बात यह है कक बेचारे माता - कपता अपना पेट काट -काट कर पदाते हैं । संयुक्त पररवार हो तो, कहना ही क्या? बडे भाई के बेटे को या छोटे भाई के बेटे को इस आस से पढाते हैं कक डाक्टर इजं ीकनयर बनेगा, अच्छा कमायेगा तो पररवार के काम आयेगा वही बेटा जब बैंगलोर में साफ्टवेयर इजं ीकनयर बन कर ऊंचे पद पर पहचं कर महीना लाखों रुपये कमाता है तो पररवार से नाता ही तोड़ लेता है । मां बेचारी लडके के मामा के घर में या चाचा के घर में अके ला पड़ी रहती है । बेटा वहां ककसी कवजातीय से शादी करके डेढ दो करोड का फ्लैट खरीद कर ककस्तें भरता रहता है । यहां मां और अन्य लोग कजन्होंने इसे पढने भेजा था लम्बे लम्बे सपने देखे थे, सब ताकते रह जाते हैं । वहां बेटे की सास और ससुराल के पररवार के अन्य लोग दामाद की कमाई और शानो-शौकत का मजा लेते रहते हैं । यह भी है दीया तले अधं ेरा ही नहीं घप्ु प अधं ेरा ।

ठाकुर का कुआँ िनोज खरे शहडोल

नवल पुर के ठाकुर साहेब का दबदबा अभी भी उतना था, कजतना आजादी के पहले था । पूरा इलाका उनकी नेक नामी से पररकचत था । उनकी हवेली मे शाम ढले दरबार सजता । सभी बैठ जन चचा​ा करते । सुख -दख ु को साझा करते। कोठी हवेली नुमा थी उस से लगता चौपाल और पूवाजों का बनवाया कवशाल कुऑ । (इकं दरा) ठीक अनुमान ककया यही ठाकुर का कुआँ है। अपना इकतहास रखता है, अकाल के समय जहाँ ठाकुर साहब ने अनाज के गोदामो के मुह खोले, वहीं इस कुएँ ने गाँव की प्यास बुझाई । समय और रूप को ककसने बाँधा । राजकषा ठाकुर साहब के पुत्रों मे अहक ं ार अकभमान, और श्रेष्ठता का भाव स्पष्ट पररलक्ष्य हो रहे थे। इन आपसी साकजश और कवद्रोह से ठाकुर साहब वाककफ थे "उन ने भरसक प्रयास ककया की समाधान कनकाले। घर के ये कचराग कुलपरु खों का नाम रौशन करें , काश ऐसा होता "घर में आग लगी घर के कचराग से।" नवल पुर हाउस जबलपुर में ठाकुर साहब की मंत्रणा अंकतम चरण में चल रही थी। आकखर उन का रसूखदारों से ताल्लुकात काम आया, उन्होंने अपनी संम्पकि का अच्छा सौदा कर डाला । बस कुआँ जो कक ठाकुर का था उसे गाँव वाकसयों के नाम कर कदया । ताकक उनका वोट बैंक मजबूत बना रहे । मदं िर और कुआँ, जले दिया और उट्ठे धआ ु ँ। दिया तले अंधेरा, दकस के रोके कब रुका सवेरा । 41


चेहरे पर चेहरा मीनाक्षी चौधरी देहरादून

दहेज विरोधी संगठन चला रहे थे, मोटे दहेज के लालच में ररश्ते ठुकरा रहे थे... बेटी, बहू में अन्तर न करने के नारे लगा रहे थे, घर में बहू पर जुल्म पर जुल्म ढा रहे थे... ओरों की जन्मपविका, हस्तरे खा बना घर चला रहे थे, अकस्मात छोड़कर बच्चों को बेसहारा दवु नया से जा रहे थें... वदन में शराबबंदी के वलये अनशन कर रहे थे, रात में शराब पी हगं ामा कर पुवलसिालों को पैसा भर रहे थे... देश से भ्रष्टाचार वमटाने के िादे कर रहे थे, कुसी बचाने को ररश्वत तो कंही दगं े कर रहे थे... समाज-सुधारक बन फोटो वखंचिा रहे थे, घर के बच्चें बलात्कार के आरोप में कटघरे में आ रहे थे... वशक्षक थे अपना घर ट् यूशन से चला रहे थे, बच्चों के वशक्षकों को ट्यूशन के वलये धमका रहे थे... खदु के चेहरों पर पड़े नकाब थे, ओरों को बेनकाब करने की धौंस जमा रहे थे... दीया तले अधं ेरा यहा​ाँ घर घर में विधमान है, ओरों को ज्ञान बघार कर जन जन में यहा​ाँ अज्ञान है... चेहरे पर चेहरा वकस वकस का हटाये, अंधकार को चीर जग हो जाये रोशन चलों सब वमल खदु के प्रयास बढायें...

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नसीब नूतन गगग (दिल्ली) “मेमसाहब कुछ खाने को दो ना, सबु ह से कुछ भी नहीं खाया, बडी भख ू लगी है।” सडक पर भीख मा​ाँगता हुआ एक आठ साल का बच्चा तरसती ननगाहों से... लीना ने गाडी एक कोने में खडी करी और बच्चे को अपने पास आने का इशारा नकया। ‘क्या वाक़ई आपको बहुत भख ू लगी है?’ लीना वास्तनवकता से पररनचत होती हुई.. वह बच्चा हा​ाँ में सर नहला देता है! लीना उसका हाथ पकड पास में खडे पूरी-भाजी वाले के पास जाती है और पूरी-भाजी वाले से उसको भर पेट खाने के नलए देने को कहती है। वह उसको एकटक देखती रहती है.....जब उसका पेट भर गया, तब एक सवालों का झरु मटु , जो उसके मन में बहुत देर से नहचकोले खा रहा था, बाहर आ जाता है। “बेटा तुम भीख क्यों मा​ाँग रहे हो? तुम्हारे माता-नपता कहा​ाँ हैं? उनसे नमलना चाहती ह।ाँ ” थोडी देर चपु रहने के बाद, आाँखों में आाँसू नलए हुए, वह बच्चा राँधते गले से “मेमसाहब मेरे माता-नपता कहा​ाँ हैं? मझु े नहीं पता। मैने जब आाँखें खोलीं, तब मैं ऐसी जगह था, जहा​ाँ मझु से यह कहा गया नक तुम्हें हम डस्टबीन से उठाकर लाए हैं। जो हम कहेंगें तुम्हें वही करना होगा और यह बात भी साथ में गा​ाँठ बा​ाँध लो नक यहा​ाँ पर सपने देखना मना है।” कहते-कहते जोर-जोर से रोने लग जाता है... थोडा ठहरकर... “क्या तुम मेरे साथ चलना चाहोगे?” लीना ने प्रश्न नकया? “नहीं मेमसाहब क्यों अपनी जान जोनखम में डालना चाहती हैं आप? मेरा नसीब मेरे मा​ाँ-बाप ने पैदा होने से पहले ही नलख नदया था।” बच्चा तरसती ननगाहों से उसे अलनवदा कहता हुआ... भरपेट भोजन के बाद, उसकी आाँखों में जो लीना ने खश ु ी के सुनहरे पल देखे। वह शायद उन पलों को कभी ना भल ु ा पाए। वह झणभर ठहरकर... अपने मन से एक सवाल करती है, क्यों दुननया के इतने उजाले में भी ‘दीया तले अंधेरा’ है? “इसमें इस बच्चे का क्या क़ुसूर? जो वह भगु त रहा है। काश! उसके सपने भी साकार हो पाते मैं इस पूरे नसस्टम को बदल पाती।” लीना सोचती हुई... गाडी में बैठ घर आ जाती है।

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रूआब पुष्पा श्रीवास्तव बा​ाँसवाड़ा (राजस्थान)

बात उन दिनों की है जब हम भाई-बहन बहुत छोटे थे। पापा की सरकारी जॉब थी। और उनका स्थाना​ांतरण उस समय एक छोटे से गा​ांव में हुआ। हम सभी भाई-बहन व मम्मी भी अब पापा के साथ रहने लगे वहा।ां गावां में सरकारी स्कूल में पापा ने हम भाई-बहन का िादिला करवा दिया पढ़ने के दलए। उसी स्कूल में बृजमोहन सर थे, जो दक गदणत के अध्यापक थे। पूरे गा​ांव में मशहूर थे वो अच्छा पढ़ाने के दलए। बहुत रूआब था उनका गा​ांव में। तो उनके पास गा​ांव के सभी लोग अपने बच्चों को ट्यश ू न पढ़ने भी भेजते थे।

भरी हरकतों से पूरे गा​ांव के लोगों की नाक में िम करे रिते। गा​ांव के सभी लोग शैलेश से बहुत परे शान थे, लेदकन मास्टर जी के डर व रौब के कारण कुछ कह नहीं पाते थे। मास्टर जी भी अपने लाड़ले को कुछ नहीं कहते थे। और 9वीं कक्षा तक अपने स्तर तक नबां र बढ़ा कर अपनी धाक जमाकर हर साल अपने बेटे को अगली क्लास की ओर बढ़ाते रहे। लेदकन एक बार ब्रजमोहन सर बहुत दचांदचत थे। क्योंदक उस बार उनका लाडला िसवीं बोडू का इम्तहान िे रहा था। और अब इस बार उनके हाथ में कुछ नहीं था। क्योंदक परीक्षा की सारी कॉदपया​ां बोडू परीक्षा होने के कारण अब गा​ांव से बाहर गई थी चेक होने के दलए। परीक्षा के कुछ दिनों बाि ररजल्ट आया। मैं भाई से छोटी हू​ूँ तो मैं तब 8 वीं क्लास में थी और मेरा ररजल्ट पहले ही स्कूल स्तर पर आ चक ु ा था। मैं अच्छे नांबरों से पास हो गई थी। भाई व सर के नवाब जािे ने उस बार िसवीं बोडू की परीक्षा िी थी। भाई ने बोडू में तब 75 परसेंट िाप्त दकए। वहीं नवाबजािे शैलेश इस बार बोडू इदम्तहान में फे ल हो चक ु े थे। ऐसा ररजल्ट पाकर अब नवाबजािे के तो होश ही उड़ चक ु े थे। उसे ऐसी उम्मीि कतई नहीं थी। और उनके दपताजी, उनका तो हाल बेहाल था। उनकी तो जग हांसाई हो चक ु ी थी। बहुत शदमिंिा थे वो। इस बात से इतना शदमिंिा हुए दक कई दिनों तक वे अपने घर से बाहर ही नहीं दनकले। उन्हें बहुत अफसोस हो रहा था। उनका पूरा रूआब अब गायब हो चक ु ा था। थे वे गदणत के अध्यापक पर अब उन्हें दहिां ी की लोकोदि मन ही मन बहुत याि आ रही थी दक अब अपने ही घर में " दिया तले अांधेरा " था।

उन्हीं सब की तरह हमारे पापा ने भी मझु े व भाई को उन सर के पास ट्यूशन पढ़ने भेजना शरू ु कर दिया था। बृजमोहन सर पढ़ाते बहुत अच्छा थे, पर वे थे बहुत कड़क और अनुशासन दिय। दकसी की मजाल नहीं की उनकी बात को कोई अनसुना कर िे। जो अगर कोई उनके बताए गदणत के फामूले या पहाड़े याि ना करके ले जाए तो वे उसके कान लाल कर िेते थे िींचकर के । मझु े व भाई को तो उनकी आि ां ों से ही बहुत डर लगता था। जब वे मझु े व भाई को कुछ याि करने को िेते और कहते दक कल अच्छे से याि दमलने चादहए ये सब। तो सच कहें, हमारी तो भि ू - प्यास ही गायब हो जाती। ऐसे लगता दक अगले दिन अगर हमें उनका कहा याि ना हुआ तो न जाने क्या गजब हो जाएगा। हमें तो उन सर का भतू के जैसे डर लगता। हम िेर रात तक उनका दिया सबक याि करते और जब वो सब याि हो जाता तभी हमें चैन दमलता। वहीं इसके उलट उन सर के नवाबजािे थे शैलेश, जो दक पढ़ाई में थे दफस्सडी पर अपनी शैतादनयों में थे अव्वल। अपनी शैतानी

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वाह रे हहिंदुस्तान सगिं ीता हिश्रा गाहियाबाद (उत्तर प्रदेश)

हिन्दी जिा​ां की राष्ट्रभाषा मिान नाम िै उसका. हिदां स्ु तान पर वाि रे हिदां स्ु तानी मिान हजनको हिन्दी निी आती जुबान धन्य िै साहित्यकार और कलमकार मिान जो रखते जीहवत भाषा हिन्दी मिान कलमे उनकी हजतनी चलतीं हिन्दी की उम्र िै बढ़ती इसे िी किते हदया तले अांधेरा हिदां स्ु तानी पर हिन्दी से िी रिा कतरा

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अंधेरा संगीता मिश्रा गामियाबाद (उत्तर प्रदेश)

दिया तले अधं ेरा तो सिा ही रहता है| हमारे जीवन में कई ऐसे उिाहरण प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते हैं जहा​ाँ साफ साफ प्रिदशित होता है िीया तले अंधेरा | सबसे पहले अपनी अन्निाता को ही ले ले बेचारा रात दिन अपने खेतों में जुटा रहता है ,खनू पसीना एक करता है, हम सबको अन्न का िाना उसके इसी पररश्रम समय से दमलता है | रात हो या दिन, कोई समय नहीं िेखता है बस फसल सुरदक्षत रखने के दलए जान लगा िेता है| परंतु जो हमारे अन्य की दचतं ा करता है, हमारे अन्य भडं ार भरता है उसके घर रोटी के लाले तक हो जाते हैं| इसदलए उसके जीवन को िीया तले अंधेरा ही कहा जाएगा | सब को अन्न िे रहा है खिु जठरादनन मे भस्म हुआ जा रहा है| अब हम मज़िरू ों को ही िेखे बेचारे इमारतों पर इमारतें बनाते है| न जाने दकतनी इमारतें ,कोदठयां, बंगले खड़े कर दिए होंगे पर खिु के . ऊपर पन्नी की छत , िीवारों के नाम के पर पुलों के खंभे, जो हम सबकी छत का इतं ज़ाम पत्थर तोड़ कर, धपू , सि​ि हवाओ,ं बाररश मे भी पीछे नही हटता वो बेचारा पूरी दज़ंिगी अपने ऊपर छत के दलए तरसता है | इसे भी शायि हम दिया तले अंधेरा ही कहेंगे | वो दिया बनाने वाले जो महीनो पहले चाक पर सुंिर सुन्िर दिए हम सब के खादतर बनाते हैं | दजससे हमारा घर रोशन हो जाता है, उजाला हो जाता है, अंधकार दमल जाता है परंतु इतने िीये बनाकर भी खिु का घर रोशन करना उनके दलए नाममु दकन सा हो जाता है; इसदलए मझु े उस लाचार िीये बनाने वालों का जीवन दिया तले अधं ेरा ही लगा| सबका घर रोशन करते हैं और खिु एक िीपक भी न जला पाते हैं| अतः अंत में यह कहगाँ ी न जाने दकतने उिाहरण होंगे जो अपना सबकुछ न्यौछावर पर िसू रों के दलए करते िेते हैं परंतु खिु उस सुख से वंदचत रह जाते हैं |जीवन का कड़वा सच है इसे हमें स्वीकार ही होगा और अगर हम कुछ कर सकते हैं तो करना भी होगा |

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कथनी और करनी में फकक प्रगति तिपाठी बैंगलोर

इि पर माया बड़ा िटीक जवाब देती, "तुम तो मेरा स्वभाव जानती िो मानिी, जैिी मेरी दीपा और माला वैिी िी रत्ना भी िै। मैं बिू और बेटी में कोई फकि निीं करती। मैं तो कब िे रहव को कि रिी िूं हक बिू को ले जाओ और अपनी घर - गृिस्थी बिाओ हबचारी हकतने हदन िमारे िाथ रिेगी लेहकन वो िै हक िुनता िी निीं। किता िै मां रत्ना को तो िमेशा मेरे िाथ िी रिना िै कुछ हदन तो तमु लोगों की िेवा करने दो।"

माया जी महिला क्लब की प्रेहिडेंट थी। महिला उत्थान, महिलाओ ं की स्वतंत्रता, घरे लू हिंिा ये िब उनके मख्ु य मद्दु े थे। बिुत िारे क्लब की मेंबर थी और हकट्टी पाहटियों की शान थी। िमाज में उनका नाम था। िाल िी में अपने बेटे रहव का हववाि हकया था। रत्ना के पररवार वाले भी ऐिा घर - पररवार हमलने िे अपनी बेटी के हलए हनहचंत थे। रत्ना भी अपनी िाि के स्त्री के प्रहत उनके हवचार िुनकर प्रिन्न थी प्रोफे िर दीनदयाल और माया देवी बिुत खश ु थे। िविगुणिंपन्न बिू के िाथ- िाथ लक्ष्मी जी की कृ पा भी खबु बरिी थी। िारे ररश्तेदार खश ु ी-खश ु ी अपनी हवदाई लेकर चले गए। रहव भी कुछ हदनों बाद हदल्ली चला गया जिां वो नौकरी करता था। बिू रत्ना को ि​िुराल रिकर रीहत-ररवाज परू ी करने थे। रत्ना दो ननदों की इकलौती भाभी थी। ननदें भी वापि अपने घर चली गई लेहकन दोनों ननदों का मन मायके में िी रिता। रत्ना कब क्या कर रिी िै? मां की िेवा करती िै की निीं? िारी खबरें अपनी मां को फोन करके लेते रिती और रत्ना को भी फोन कर अपनी िाि - ि​िुर की िेवा के हकस्िे िुनाती और किती अब मां - पापा की िेवा तुम्िें िी करनी िै। शादी के बाद लड़हकयों का ि​िुराल िी उनका िोता िै, मायका पराया िो जाता िै। रत्ना िबकी बातें िुनकर िांमी भर देती। रत्ना जब भी रहव िे फोन पर पूछती हक वो उिे अपने िाथ कब ले जाएगा तो िर बार रहव का यिी जवाब रिता हक अभी फ्लैट का इतं जाम निीं िुआ िै अगले मिीने देखता िू।ं रत्ना को ि​िुराल रिते िाल भर िो गए थे इि बीच रहव हिफि दो बार आया। एक बार िोली और दिू री बार दीपावली पर।

रत्ना रिोई में चाय - नाश्ता बनाते िुए िब िुन रिी थी। कुछ देर बाद रत्ना ने चाय और नाश्ता लगा हदया और िबको नमस्ते कर शाम के खाने की तैयारी में लग गई। तभी माया जी का फोन आ गया। देखा तो दीपा का फोन था। वो िबको एक्िक्यूजमी बोलकर दिू रे कमरे में बात चली गई। "देखा कै िे बातें बनाकर बात को टाल गई,ं जैिे इिे िम जानते िी निीं", रमा ने किा। "अरे ये तो विी बात िुई हक दीया तले िी अधं ेरा िै। तुमलोग को याद िै रहमला को उिकी बिू के िामने िी हकतना लैक्चर हदया था जब वो अपनी बिू को मायके निीं जाने दे रिी थी। तब तो बिुत बड़ी-बड़ी बातें की थीं, "देखों रहमला इिे अपनी बिू निीं बेटी की जगि रखकर देखों तो तुम्िें िमझ आएगा हक इिके मां- बाप हकतने बेचैन िोंगे इि​िे हमलने के हलए। आहखर तुम भी एक हदन बेटी ब्यािोगी और अगर तुम्िारी भी बेटी को भी उिके िाि - ि​िुर तुमिे हमलने के हलए ना आने दें तो तुम्िें कै िा मि​िूि िोगा।" इतनी बातें िनु कर रहमला आत्मग्लाहन िे भर गई थी और दिू रे िी हदन उिे मायके भेज हदया था। उिके बाद तो क्लब और हकट्टी में माया के हवचारों की प्रिंशा िोने लगी थी। अब देखों जो दिू रों को निीित देती िै वो खदु की बिू को अपनी िेवा करवाने के हलए बेटे के पाि निीं जाने दे रिी िै।", हवमला बोली।

मोिल्ले िे जब भी माया जी की ि​िेहलयां आती तो किती, "क्या माया, बिू को कब तक अपने पाि रखोगी? नई - नई शादी िुई िै, बच्चों को इकट्ठे रिना चाहिए तभी तो एक - दिू रे को िमझ पायेंगे।" 47


"तुम्िें याद िै हवमला, जब दीपा के ि​िुराल वालों ने दीपा को एक िी मिीने अपने िाथ रख हलया था तो दामाद के पाि उिे भेजने के हलए कै िी बड़ी-बड़ी बातें करती थी हक शहमिंदा िोकर दीपा के िाि ि​िुर ने उिे बेटे के पाि भेज िी हदया। ऐिे लोग िी दिू रों को निीित देते िैं लेहकन अपने िमय आंख बंद कर लेते िैं। िब जानते िैं हक रहव, माया के िामने जबान निीं खोलता िै। वो चािकर भी रत्ना को िाथ रखने की बात निीं कर पा रिा िोगा।", मानिी बोली।

अब रत्ना की िाि के पाि कोई बिाना निीं रि गया। उन्िोंने ने दि हदन के हलए रत्ना को मायके भेज हदया। इधर भाभी ने रहव को भी उिी बिाने िे बुला हलया और रहव को िमझा - बुझाकर और बुआ िाि िे किलवा कर रत्ना को रहव के िाथ हदल्ली भेज हदया। इधर माया जी मन - ममोि कर रि गई। एक िाल िे रत्ना के ऊपर आहित िो गई थी बि हकट्टी पाटी, क्लब यिी उनकी हदनचयाि बन गई थी इिहलए वो रत्ना को बेटे के पाि निीं जाने दे रिी थी।

रत्ना रिोई में काम करते िुए िारी बातें िुन रिी थी। तभी माया बेटी िे बात करके वापि आई।

हदल्ली पिुचं ने के बाद रत्ना ने रहव िे पूछा, "आपको मेरी याद निीं आती थी? आप निीं चािते थे हक मैं आपके िाथ रिू?ं "

"चलो माया अब िम चलते िैं, "किकर िारी िहखयां चली

इिपर रहव ने जवाब देते िुए किा, "मैं तो पिले हदन िे िी चािता था हक मैं तुम्िें अपने िाथ ले जाऊं लेहकन मां के िामने कुछ बोलने की हिम्मत निीं िुई और एक बार मैंने बिुत हिम्मत जुटा कर किा भी था हक मैंने फ्लैट ले हलया िै। तो मां किने लगी, "िां तम्ु िें अपने माता-हपता का ख्याल निीं िै, ठीक िै ले जाओ बिू को, िम रि लेंगे। लोगों के ताने भी िुन लेंगे। लोग तो किेंगे िी हक शादी िोते िी मां - बाप को अके ले छोड़ बिू को ले गया। इिके बाद मैंने कुछ निीं किा।

गई। रत्ना को उनकी बातें िुनकर बिुत दुःु ख िुआ। वो भी यिी िोच रिी थी हक इतने मिीने बीत गए लेहकन रहव उिे लेने क्यों निीं आया। उिने अपनी भाभी को ये बात बताई। भाभी ने एक युहि लगाई और रत्ना को कुछ हदनों के हलए मायके बुला हलया। माया निीं चािती थी हक रत्ना मायके जाए इिहलए पिले तो ना - नुकुर हकया लेहकन रत्ना की भाभी भी कम न थी। उन्िोंने ने किा हक रत्ना की बआ ु अस्वस्थ िोने के कारण शादी में निीं आ िकी थी और वो घर की िबिे बड़ी िै। उन्िोंने रत्ना िे हमलने की इच्छा जताई िै तो रत्ना को आना िी िोगा। आप तो िमझ िी रिी िै हक बड़े - बुजुगो की बात िम निीं टाल िकते िैं।

रत्ना िमझ गई की मम्मी जी के कथनी और करनी में बिुत अंतर िै।

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भाग्यफल अथवा कर्मफल बन्दना पाण्डेय वेणु देवघर (झारखंड)

ठाकुर साहब के घर से भजन कीर्तन की आवाज का आना कोई नई बार् नहीं थी। प्रतर्तिन बाबा बैद्यनाथ का िर्तन तकये तबना उनकी आत्मा को र्ा​ांतर् नहीं तमलर्ी। पूस की ह्ड् डी गला िेने वाली ठांढ़ में भी सुबह के र्ीन बजे जाग जार्े, तनत्य तिया से तनवृत्त होकर स्नान करर्े। उनके रामचररर्मानस का गायन सुने तबना र्ो सूयोिय भी नहीं होर्ा था जैसे। जीवन में सद्गणु ों की खान से प्रर्ीर् होर्े। ररश्र्ों की बारीतकयों को तनभाने की कला उनसे सहज ही सीखी जा सकर्ी थी। उन्हें िेखकर मन श्रद्धा से झक ु जार्ा। ठाकुर साहब का इस जमाने में भी ऐसा आिर्त व्यवहार तकसी उिाहरण से कम नहीं था। एक तिन सबु ह-सबु ह जोर जोर से िरवाजा पीटने से हमारी आँख खल ु ी, सामने ही उनका पोर्ा खडा था “आटां ी हमारी मम्मी को बचा लीतजए”। उसके रूआँसे स्वर में घबराहट साफ झलक रही थी। मैंने पूछना चाहा क्या हुआ—तकांर्ु उसने मौका नहीं तिया, लगभग खींचर्ा हुआ मझु े लेकर घर की ओर चला। घर का दृश्य िेखर्े ही आँखें फटी की फटी रह गई।ां बहू अांिर कमरे में बेहोर् पडी थी और लडका उल्टी करके उसी पर तगरा पडा था। कभीकभी बडबडाने की आवाज आ रही थी “अपनी कमाई की पीर्ा हूँ र्ुम्हारे बाप की नहीं।“ खैर मैंने जैसे र्ैसे िरवाजा खुलवाया और उसे समझाने का प्रयास तकया। ठाकुर साहब भी र्ब र्क आ गए थे। िख ु और बेबसी के कारण चेहरा काला पड गया था। पहली बार उनकी थरथराई आवाज सुनाई िी पत्नी को कह रहे थे “रोर्ी क्यों हो अब??? जब-जब मैंने इन्हें सुधारना चाहा र्ुमने नौटांकी कर मझु े तववर् कर तिया अब फल भोगो” उन्होंने ने ही बर्ाया तक उनके र्ीनों बेटे कुछ नहीं करर्े। न ररश्र्ों की अहतमयर् है उनकी नजरों में न आचरण की। वे र्ो बस पैसों की भाषा ही समझर्े हैं। ितु नया की नजर में अच्छे बने रहने का स्वाँग उनसे अच्छा कोई नहीं कर सकर्ा। पूरी रार् की ऐय्यार्ी के पश्चार्​् सुबह के ठीक र्ीन बजे घर में घसु र्े हैं जब ठाकुर साहब मतां िर के तलए तनकलर्े हैं भजन गुनगुनार्े हुए। ऐसा लगर्ा है तक धमत के तनकलर्े ही अधमत का घर में प्रवेर् हो रहा हो। सच ही कहा गया है “िीया र्ले ही अांधेरा” होर्ा है।

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दिया तले अंधेरा अरुण ठाकर जयपुर (राजस्थान)

सरकारी आदेशों की कर अवहेलना, नेता अपना रौब बताए । बेबस जनता राह तके जब, कोन राह सही बतलाए । दीपक तले है अंधेरा, उल्लू सीधा करता कोन । दरु ददशा ददख रही उस जनता की । पछताए देकर जो अपना वोट ।

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दोहरे मापदडं बीना जैन अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)

मदन लाल जी कानपुर की एक पॉश कॉलोनी में रहते थे। प्रभावशाली व्यक्तित्व था उनका। उतने ही अच्छे कुशल विा भी थे। दो बेटे थे उनके , बडा बेटा आई. ए. एस में चयक्तनत हो गया था और पोक्त्टिंग होने वाली थी। छोटा बेटा अभी इजिं ीक्तनयररिंग कर रहा था।

को लाद क्तदया। आदर से मिंच पर ले जाया गया। एक बार जोरदार ताक्तलयों से उनका ्वागत क्तकया गया। उद्घोषक ने उनका पररचय िबू बढा चढा कर क्तदया। क्तवनम्र और कुशल समाजसेवी नेता की तरह मचिं पर आते ही एक मिरु म्ु कान से जनता का अक्तभवादन ्वीकार क्तकया।ंिं कुशल विा थे ही जनसमूह को क्तबल्कुल सम्मोक्तहत कर क्तलया। अपने क्तवचारों को पूणच क्तवश्वास और भावों में इतनी सुिंदर एविं माक्तमचक शब्दावली प्रयोग की ,क्तकजनमानस मानो कक्तटबद्ध हो गया समाज से भ्रष्टाचार को समाप्त करने के क्तलए। ताक्तलयों की गूिंज समाप्त नहीं हो पा रही थी। जनता से उद्घोषक को शािंत रहने का हाथ जोडकर बार-बार अनुरोि करना पड रहा था।

बडे बेटे की पोक्त्टिंग के क्तलए मदन लाल जी अभी से क्तचिंक्ततत थे। यही सोचते रहते थे क्तक पता नहीं क्तकस जगह पोक्त्टिंग क्तमले। क्तचिंता इस बात की नहीं थी क्तक शहर कौन सा होगा। क्तचिंताइस बात की थी क्तक पोक्त्टिंग ऐसी जगह हो जहािं ऊपरी कमाई अच्छी हो। आक्तिर एक क्तदन उनकी पत्नी शािंता ने पूछ क्तलया,"एक बात कहिं ,आजकल आप कुछ सोचते रहते हैं अब कौन सी क्तचिंता िा रही है?

सफल समापन करते हए मदन लाल जी ने सब को सिंकल्प क्तदलाया क्तक"हम सब सिंकल्प लेते हैं क्तकना ररश्वत लेंगे और ना देंगे, भारत के अच्छे नागररक की तरह भ्रष्टाचार रोको अक्तभयान में पूणच सहयोग देंगे"जय क्तहदिं जय भारत।

मदनलाल बोले, तमु नहीं समझोगी शातिं ा, आक्तिर रक्तव की पढाई में इतना िचच क्तकया है तो उसको वसूलना भी तो है। शािंता बोली,"अब और क्या चाक्तहए ,लडका इतना बडा अक्तिकारी बन जाएगा। आपको क्तकसी तरह सिंतोष नहीं होता। तभी शातिं ा जी को याद आया बोली अरे हािं! वह पािंडे जी का फोन आया था आपको कहीं भ्रष्टाचार वा ररश्वतिोरी के क्तवरोि में भाषण देना है ना। उनकी गाडी 4:00 बजे आपको लेने आ जाएगी 3:00 तो बज ही रहा है, आप तैयार हो जाइए।

अतिं में आयोजकों ने उनके भाषण की सराहना में 2 शब्द बोले व जलपान व्यव्था के पिंडाल की ओर आदर सक्तहत ले गए। वहािं शहर के काफी सिंभ्रािंत व प्रक्ततक्तित सज्जन उपक्त्थत थे कुछ सरकारी अक्तिकारी भी थे। सभी मदन लाल जी को बिाई दे रहे थे एक तो इतना सुिंदर भाषण क्तफर लडके का आईएएस में चयन दोनों ही बातें उत्साहविचक थी। तभी एक सज्जन जो उनसे काफी वे तकल्लुफ थे बोले! अरे यार मदन लाल, अब तो बेटे की शादी कर डालो जो जोरदार दावत िाने को क्तमले।

मदनलाल बोले अरे हािं! तुमने समय पर अच्छी याद क्तदलाई शािंता मैं जल्दी से तैयार हो जाता ह।िं

मदनलाल हसिं कर बोले! हािं भाई कई जगह बात चल रही है, 20 लाि तक की तो बात हो गई है। पर भैया सब देिना पडता है। अगर क्तकसी ऐसी जगह पोक्त्टिंग हई जहािं ऊपर की कमाई नहीं हई तो मक्तु ककल हो जाएगी ना। बस उसी की कोक्तशश में लगे हैं,।। वरना लडक्तकयों की तो लाइन लगी है।"

शातिं ा बोली! भाषण की तैयारी तो है ना आपकी। मदनलाल हसिं कर बोले, उसमें तैयारी क्या करनी है शािंता? क्तजतनी आदशचवादी बातें होती हैं वही सब तो बोलनी होती हैं। यह हर कोई थोडी जानता है क्तक यहािं "दीपक तले अिंिेरा" है। िैर छोडो यह तो सब, राजकाज के काम है। समाज में तो हमारी छक्तव एक आदशच समाजसेवी की है। बडे-बडे नेता हमसे अपने भाषण तैयार करवाते हैं।

उनका यह उत्तर सुनकर सब म्ु कुराने लगे। सभी मदन लाल जी को हसिं ते हए क्तवक्त्मत होकर देि रहे थे ।मन मे सबके एक ही प्रश्न था?

तभी गेट पर हॉनच बजा, क्तनयत समय पर आयोजक गाडी लेकर मदन लाल जी को लेने के क्तलए आ गए। आयोजन ्थल पर पहचिं ते ही कई कायचकताच माला लेकर दौडे ।आरती का थाल लेकर कई मक्तहला कायचकताच भी पहचिं गई। आयोजकों ने फूल मालाओ िं से मदन लाल जी

इतने दोहरे मापदिंड आज हमारा समाज ऐसे दोहरे व्यक्तित्व के प्रभाव में ही है तभी हम गतच में जा रहे हैं। 51


श्रद्धांजलि मांजु सरधफ छत्तीसगढ़

गायत्री देवी शहर की जानी मानी समाज सेववका हैं, उनका बहुत रुतबा है । आज तक समाज के हर वगग के विए उन्होंने बहुत कायग वकये हैं, विर चाहे वह गरीब बच्चों की पढ़ाई का खचाग उठाना हो या बाविकाओ ं के विए उच्च वशक्षा का प्रबधं करना हो ववधवाओ ं के पुनगवववाह हेतु भी उन्होंने ही अपने शहर से शरू ु आत की और अनेकों की व ंदगी संवारने में अपनी अहम भवू मका वनभाई, वृद्धाश्रम के विए अपनी एक जमीन तक उन्होंने दान कर दी, ऐसे में िोग क्यों न उनकी प्रशसं ा के पुि बा​ाँधे । उनके घर में उनके पवत राधेश्याम जी और बेटा आयुष और बहू सुनीवत हैं, बहुत सुखी पररवार और हो भी क्यों न इतने नेक कामों का ि​ि ईश्वर ने उन्हें सुखी पररवार के रूप में बख्शा है ।

ही वकसी ते रफ़्तार ट्रक ने जोर की टक्कर मारी आयुष की तो वहीं स्पॉट पर ही मृत्यु हो गई और सुनीवत को हॉवस्पटि पहुचाँ ाया गया, राधेश्याम जी और गायत्री देवी भागते दौड़ते हॉवस्पटि पहुचाँ े जहा​ाँ उनकी दवु नयां वीरान हो चक ु ी थी, बहू को होश तो आया पर वह भी सदमे में थी । गायत्री देवी उस पि को कोस रही थीं क्यों बेटे को जाने की आज्ञा दी उन्होंने शायद ये हादसा टि जाता ।पर होनी को कौन टाि सकता है । हर समय ईश्वर से सवाि क़रतीं ये वदन वदखाने के पहिे काश मझु े उठा विया होता इस दवु नया से । राधेश्याम वदिासा देते ।

व न्दगी बहुत हाँसी खश ु ी बीत रही थी ।

वदन बीते, महीने बीते पर अब बहू के चेहरे पर वह खश ु ी न िौट सकी, मायके से सुनीवत के मा​ाँ वपताजी भी आये िेने पर उसने मना कर वदया अपने सास ससुर को वह अके िा नहीं छोड़ना चाहती थी, समय काटने एक स्कूि में पढ़ाने िगी ।

"बाबूजी मैं और सुनीवत बहुत वदनों से घमू ने जाने का मन बना रहे हैं क्यों न हम सब चिें, काम के बीच कुछ िुसगत के पि भी एन्जॉय करें " आज बेटे ने अपने वपता से चाय के समय यह बात कही । "ववचार अच्छा है, पर बेटा तुम और बहू हो आओ " वपताजी ने कहा ।

एक वदन राधेश्याम जी ने प्रस्ताव रखा गायत्री देवी के सम्मख "क्यों न बहू का दसू रा वववाह कर वदया जाए " ु

गायत्री देवी ने भी पवत की बात का समथगन करते हुए कहा "हा​ाँ बेटा तुम दोनों हो आओ मैं तो अभी वैसे भी नहीं जा पाऊंगी , मझु े तुम्हारी मौसी की बेटी मनु वजसके पवत की वपछिे साि मौत हो गई है उसके घरवािों ने उसका जीना दभू र कर वदया है अतः तेरी मौसी कह रही है वक उसके दसू रे वववाह के विए कहीं िड़का देख उसका ब्याह करा दंू ।"

पर गायत्री देवी ने मना कर वदया जाने स्वाथगवश या बेटे की अमानत वकसी और को सौपने से डर रहीथीं । राधेश्याम जी बहू की व न्दगी में विर खुशहािी चाहते थे पर हर बार जब भी वे बात करते गायत्री देवी की ना ही होती ।

"मा​ाँ क्या मनु राजी है "

"आविर क्यों, दसू रे बच्चों की खश ु ी के विए तुमने क्या नहीं वकया, अनेकों ववधवाओ ं का जीवन तुमने पुनः बसाया आज घर की बात आई तो तुमने मख ु पर तािा िगा विया क्या मैं मानूाँ की वदया तिे अधं ेरा ही होता है कभी मेरी बहू के जीवन में प्रकाश की वकरण नहीं वझिवमिायेगी क्यों आवखर क्यों तुम उसके पूरे जीवन को अंधकारमय बनाना चाहती हो गायत्री बोिो आज जवाब दो ,क्या तुम स्वाथी हो गई हो अपनी ममता के कारण, एक बेटी के साथ क्यों अन्याय कर रही हो"

"बेटा, हो जाएगी राजी, अभी व न्दगी पड़ी है उसके सामने " बहुत अच्छी बात है तब आप प्रयास करो मा​ाँ, वैसे भी अके िे जीवन जीना, और कवठनाइयों का सामना करना ऐसे में बहुत मवु श्कि है " "हा​ाँ बेटा तुम िोग घमू आओ " गायत्री देवी बोिीं ।

गायत्री देवी की आाँखों से अश्रु की धारा बहने िगी "हा​ाँ जी मैं स्वाथी हो गई थी बेटे की अमानत को अपने पास रखना चाहती थी पर उसके त्याग को देख मेरा मन पसीज उठा है अपने मा​ाँ वपताजी के कहने

आयषु और सुनीवत अगिे वदन मनािी के विए वनकि पड़े हफ्ते भर घमू विर कर वावपस िौट आये थे पर अपने शहर में पहुचं ते 52


पर भी वह उनके साथ नहीं गई और मैं अभावगन अपना ही सुख देखती रही पर अब नहीं "अपने आंसओ ु ं को साड़ी के छोर से पोंछते हुए उन्होंने कहा "मेरी बेटी सुनीवत को भी जीने का समान अवधकार है और खवु शयों को पाने का भी , मैं उसके विए योग्य वर देख उसका जरूर पुनववगवाह करूंगी "

"हा​ाँ भागवान और यही हमारे बेटे को हमारी असि श्रद्धांजवि होगी क्योंवक अपनी पत्नी का उदास देख उसकी आत्मा भी दख ु ी होगी " राधेश्याम जी ने पत्नी को ढा​ाँढस बंधाते हुए कहा । बाहर सूरज की वकरणें अपना प्रकाश चारों ओर वबखेर रही थीं।

हसरत ममतध लसांह देवध वधरधणसी (उत्तर प्रदेश)

'वदया तिे अंधेरा' िाखों बार कहा और सुना िेवकन ये महु ावरा खदु मैं बन जाऊाँगीं सोचा न था....अपनी 'हाित' बताती हूाँ जी हा​ाँ ' हाित ' ये मत समझीयेगा की मैं एकांत वातावरण में टेबि कुसी पर बैठ कर बगि में चाय - कॉिी का मग रखा हुआ और मैं नहा - धो , सजी - साँवरी हाथ में किम िे भावपूणग मद्रु ा में गहरे सोच में डूब कर कोई रचना विखने की तैयारी में हूाँ या विखती हूाँ । इनमें से एक भी बात मेरे साथ िागू नही होती है विखना तो सन् 1982 से शरू ु वकया मेरी कववताएं पढ़ कर मेरी सीवनयर ने कहा की तुम तो अच्छा विखती हो कही भेजती क्यों नही ? उन्होने ही इस ग्रपु के ववषय में बताया , उनका कहा मान कर मैने कववताएं भेजना शरू ु वकया । ग्रपु में देखती थी की िोग वदये गये ववषयों पर वचत्रों पर अपनी रचना विखते हैं मैं भी ऐसा कर सकती हूाँ इसका एहसास ही नही था मझु े िेवकन मैने कोवशश की और कर रही हूाँ , मेरा भी मन करत है की मै भी अच्छे िेखकों की तरह विखाँू पाठकों का और रचनाकारों का मानना है की मैं भी उत्कृ ष्ट िेखन कर सकती हूाँ िेवकन मैं इसको समझ नही पा रही हूाँ की क्या मैं वाकई ऐसा कर सकती हूाँ ? क्योंवक मेरा ज्यादातर समय रसोईघर में गुजरता है ये मेरे सूकून की जगह है और उपर से जब बात हाथ के िाजवाब स्वाद की हो विर विर तो पवू छए ही मत...ढ़ेरो पकवान वो भी पारंपररक , कॉन्टीनेंटि , इटैवियन , चाईनी के बाद बच्चों के कमेंट ' मम्मा तुमने सब कुछ थोड़ा ज्यादा नही बना वदया ? घर की साि सिाई भी मैं ही करती हूाँ सिाई की बीमारी जो है इन सब के बीच एप्रेन बदि कर पॉटरी करती हूाँ विर थोड़ी देर में एप्रेन बदि कर रसोई में इन सब कामों के बाद अपने बीन बैग पर बैठ कर विखती हूाँ दो िाईन विखी नही की मम्मा भख ू िगी है....ममता आज खाने में क्या है ? परोस कर भी मझु े ही देना है वकसी को कुछ वकसी को कुछ...पूरा का पूरा रे स्टोरें ट चिाता है । विर वापस आकर विखती हूाँ....अरे ! ये तमु ने कब पोस्ट वकया तमु तो काम कर रही थी ? ऐसे सवािों की आदत है मझु े , अभी भी दो बार उठ चक ु ी हूाँ , िेखन के विए अपना िास समय देना चाहती हूाँ देवखए ऐसा समय कब वमिता है अभी भी कई ग्रुप पर ववषय और वचत्र मेरे िेखन के इतं जार में हैं....' वदया तिे अंधेरा ' इस कहावत को साथगक करती हूाँ सबके विए समय है मेरे पास बस अपनी िेखनी के विए नही है दसू रों से क्या उम्मीद करूाँ खदु अपनी ही कावबवियत समझ नही पा रही हूाँ की जब बचे हुये समय में मैं थोड़ा - बहुत विख सकती हूाँ तो ज्यादा समय में तो और अच्छी कोवशश कर सकती हू.ाँ .......हर एक हुनर समय मा​ाँगता है मझु से भी मेरा िेखन समय मा​ाँग रहा है जो मैं दे नही पा रही हूाँ .... 'सबको रौशनी देना मेरी तो वितरत है अपने तिे का अंधेरा दरू करने की हसरत है ।'

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मिथ्या दभ ं धिेन्द्र कुिार चेलक रायपुर (छत्तीसगढ़)

तू दसू रों की खामिया​ाँ मिनाता रहा। अपने आप को श्रेष्ठ बताता रहा।। ख्याली पुलाव हिेशा पकाता रहा। औरों को अपने से नीचा मदखाता रहा।। सारी उम्र िुजर ियी इसी भ्रि िें। मक कोई नहीं तेरे अिले क्रि िें।। जि िें नहीं है कोई तेरे जैसा । मिथ्या दंभ हुआ तो हुआ तूझे कै सा? चल न तू यूाँ अकड़ - अकड़कर । और भी है जि िें तुिसे बढ़कर।। पता नहीं तम्ू हें मदया तले होता है अाँधेरा। स्वयं का ही मदखता नहीं है असली चेहरा।।

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आईना ममता गप्तु ा अलवर राजस्थान

मगनलाल जी काफी दिनों बाि तदबयत खराब रहने की वजह से शहर में अपने लड़के के पास आ कर रहने लगे । तादक सही से िेखभाल हो सके ।

पहले ही मेरा साथ छोड़ गई है" और १ लड़का है जो इसी शहर में ही नौकरी करता है । मेरे लड़का तो एक है पर लाखों में एक है, मेरा खबू ख्याल रखता है । बदकक गावं में मेरी तदबयत क्या दबगड़ी उसने मझु े अपने पास ही बुला दलया दक पापा आप यही हमारे साथ रहो । अपना गांव कै से छोड़ आया हूुँ मैं ही जानता हू,ुँ १०० बीघा जमीन, पूवफजों की हवेली सब वीरान हो गया मेरे यहाुँ आने के बाि तो ...!!!

अब काफी समय हो गया, बेटे बहू अपने अपने काम मे व्यस्त रहते अक्सर मगनलाल जी अके ले घर मे बैठे-बैठे परे शान हो जाते एक दिन सोचा दक अपने पुराने दमत्र से दमल आउ जो अब शहर में ही अपने बेटे के साथ व्यापार में हाथ बंटाता हैं। अपने दमत्र का पता लगा कर मगनलाल जी अपने दमत्र से दमलने पहुँच गए, बचपन के िोस्त से काफी समय बाि दमल कर मगनलाल जी काफी खुश हए । और अपने िोस्त के साथ पुरानी यािों को ताजा करने में व्यस्त हो गए ।

मेरे बेटे को जरा भी जमीन जायिाि का लालच नही है, वो १००% शद्ध ु सोना है । तू तो जानता है यार, मैं तो बचपन से ही अपने पैरों पर खड़ा होना दसखा हू,ुँ मेरे व्यवहार और आचरण से आज यहां तक पहचुँ ा हू,ुँ अब तो इसदलए खश ु हूुँ दक मेरा बेटा भी मेरा नाम रौशन कर रहा है । (जगमोहन जी के पररवार को िेख मगनलाल जी को एक जलन सी होने लगी और वो भी अपने बेटे के तारीफों के पुल बांधने लगे)

मगनलाल जी के दमत्र जगमोहन की दकराने की बड़ी िक ु ान थी, दजसके कारण वो सही से अपने दमत्र से बात नही कर पा रहे थे, जगमोहन ने कहा की चलो हम अंिर चल कर कुछ जलपान करते है । काफी बार मना करने पर भी जगमोहनजी ने मगनलाल जी को अपने घर जो दक िक ु ान के ऊपर था वहा ले कर गए ।

मेरा बेटा तो इतना लायक है दक उसने एक साल पहले अपने गरीब काम वाली के लड़की की शािी तक खुि के खचफ से करवाई, जब मझु से ये कहा की दपताजी मझु े एक शािी करवानी है आप कुछ मि​ि करोगे? तो मैंने भी उसकी मि​ि की और कहा की बेटा, तुम दनदचंत रहो मैं सारा खचफ उठाऊंगा । और इस नेक काम मे मैंने भी उसकी मि​ि की। साथ ही साथ दपछले ही साल मैने कहा दक बेटा मझु े शहर आना है कुछ दिन तुम्हारे साथ रहना है, तो कहने लगा दपताजी मेरा खिु का घर जब बन जाएगा तब हम साथ ही रहेंगे, यहाुँ अभी तो मै आपको दकराए के घर मे नही बुलाना चाहता जहा सुख सुदवधाओ ं की कमी है । ये सुन मैंने ही अपने बेटे से कहा दक बेटा तुम अब तक दकराए के घर मे रहते हो यहां मेरे पास दकस चीज़ की कमी है? सब तम्ु हारा ही तो है । दफर मैंने ही उससे कहा की हमारी एक हवेली बेच कर अपने दलए बदिया सा घर लो शहर में तादक मेरे बहू ,बेटा पोते सब सुख से रहे ।

घर जा कर मगनलाल जी उनके पररवार को िेख काफी प्रभादवत हए, जगमोहन के पोते ने आकर प्रणाम कर मगनलाल जी के पैर छूए । ये सब िेख मगनलाल जी कहने लगे, यार जगमोहन !! तुमने काफी अच्छे तरीके से अपने पररवार को सजं ो के रखा है । मैं काफी खश ु हूुँ जो आज तेरे भरे पूरे संस्कारों से युक्त पररवार से दमला हूुँ । तब जगमोहन जी ने पूछा तेरे पररवार के बारे में तो बता, आज दसफफ अके ला ही आ गया भाभी जी और बच्चो को भी साथ लाता । मगनलाल जी कहने लगे, क्या कहूुँ "यार तेरी भाभी तो काफी सालों 55


जगमोहन सारी बातें गौर से सुन रहा था, इतनी तारीफ सुन कर कहने लगा । काफी अच्छे दपता दनकले तमु , पर एक बात कहूुँ तो बरु ा तो नही मानोगे ???

उसे दकसी की शािी के दलए पैसे दिए यहां तक दक उसे शहर में भी घर तमु ने दिलवाया । सब कुछ तम्ु ही ने तो दकया है उसके दलए ...!!! मगनलालजी बस सुनते जा रहे थे ।

तुम मेरे बचपन के दमत्र हो, पर मैं तुमसे खुल कर हर बात कह सकता हूुँ । मैं दसफफ एक बात कहना चाहूंगा ...

अब तुम्हे एक और बात बताऊ, मैं जानता हूुँ तुम्हारे बेटे रजत को काफी अच्छे से। ये सुन कर मगनलालजी जरा चौक गए और पूछा तमु कै से जानते हो उसे ...?

"पछ ं ी की दकलदबलाहट से नहीं की सरू ज की दकरनों से असली सवेरा होता है" ...

जगमोहनजी ने कहा छोडो वो बात पर मैं जानता हूुँ उसे । काफी पूछने पर जगमोहनजी ने कहा, की तुम्हारा बेटा दपछले साल मेरे दकराना शॉप पर आया और तुम्हारा पररचय दिया दक मैं मगनलाल जी का बेटा हू,ुँ अब यही रहता हूुँ । तुम्हारा बेटा सुन कर मैं उसे भी अपना बेटा ही मानने लगा, पर क्या तुम जानते हो उसके कारनामे ??

"हम क्यों भल ू जाते है िीपक दजस दिए में जलता है उसी दिए तले अंधेरा होता है"... मगनलाल जी कहने लगे , मैं तुम्हारे इस बात का तात्पयफ नही समझा जगमोहन ...!!!

उसने मझु से भी १०,००० ये कह कर ले गया था दक मेरे दपताजी की तदबयत खराब है उन्हें इलाज के दलए जरूरत है पैसों की, अब तुम्हारा नाम सुन कर मैने दबना सोचे समझे उसे पैसे िे दिए ।

जगमोहन जी कुछ सोचने लगे और कहा, िेख यार तू अपने जगह सही है पर दजतना भरोसा तू अपने बेटे पर दिखा रहा है वो सही नही है, भले ही तेरे संस्कार अच्छे है पर क्या उन संस्कारों पर सच मे तेरा बेटा अमल करता है ???

मगनलालजी चौक गए कहने लगे, पर मुझे तो कभी पैसों की जरूरत नही पड़ी क्योंदक सारे अस्पताल के दबल मैंने खिु ही चक ु ाए है तादक बेटे पर बोझ न बिे । जगनमोहन ने कहा अब समझे दमत्र ...! मेरे कहने का तात्पयफ क्या था?

अपने बेटे के प्रदत ऐसी तीखी दटप्पणी सुन मगनलालजी उठ खड़े हए कहने लगे, तू मेरा िोस्त है इदसलए चपु हूुँ वरना मैं खिु नही जानता मैं क्या कर जाऊ ।

तुम दजस बेटे के तारीफों के पुल बांध रहे हो वो असल मे उस लायक नही है, उसने अब तक दसफफ तुम्हे और तुम्हारे पास के पैसों का इस्तेमाल दकया है । दसफफ तम्ु हारा ही नही मैंने पता लगाया तो पता चला दक उसने काफी लोगो से पैसा ले रखा है, और मैं तो दसफफ इदसलए चपु हूुँ और उसे कुछ न कहा, क्योंदक उसे दिए गए पैसे से ज्यािा हमारी िोस्ती है ।

इस पर जगमोहन जी मगनलाल जी का हाथ पकड़ कर कहने लगे, दमत्र पहले बैठ जाओ और अपने पास बैठाया और कहा, दजतना भरोसा हम अपने बच्चों पर करते है वो हमारे द्वारा उन्हें दिए गए सस्ं कारों के आधार पर करते है । पर असल मे हमारे अलावा भी उनकी एक िदु नया है जहाुँ उन्हें क्या दसखाया जाता है या वो क्या सीखते है इसका हमे अंिाजा तक नही होता ।

यह सब सुन मगनलालजी मायूस हए और जाते हए कहा, यार जगमोहन आज तूने मेरी आुँखें खोल िी, सच का आईना दिखाया दक दकसी पर इतना भरोसा नही रखना चादहए चाहे वो आपकी संतान ही क्यों न हो ...!!!

जहाुँ तक अपने बेटे के बारे मे बता रहे हो, तो बताओ उसने दकया क्या है तुम्हारे दलए ...?? उसे पिाया दलखाया तुमने, उसे कभी माुँ की कमी नही होने िी, उसके सारे सुख िख ु में साथ दिया । तुमने ही

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भटकाव मधु जैन जबलपुर रोशनी बहुत परे शान थी बेटा समु ित तीस वर्ष का हो चक ु ा था पर शादी नहीं हो पा रही थी। ऐसा नहीं था मक उम्र बहुत ज्यादा हो गई थी पर सासूिा​ां एक उम्रदराज थी ऊपर से बीिार चल रहीं थीं। मदन रात बस एक ही रट लगाए रहती पोत बहु का िांहु देख लूां पता नहीं कब बल ु ावा आ जाए इसीमलए समु ित की शादी की जल्दी थी वैसे भी वह अच्छी समवषस िें था तो रुकने का भी कोई औमचत्य भी नहीं था।

िस्ु कुराते हुए "उपाय तो हर चीज का होता है आप कहें तो बताऊां।" "जी पांमित जी" मलस्ट देते हुए "तीन मदन का अनुष्ठान है आप यह सािान ला दीमजए िैं शरू ु कर देता हां अनष्ठु ान करते ही सारी बाधाएां दरू हो जाएगी और मिर शहनाई बजने िें कोई देर नहीं।"

"मकन ख्यालों िें गुि हो रोशनी।" पीठ पर दौर जिाते हुए सहेली दीमपका ने कहा

रोशनी ने मकसी तरह पमत लमलत को सािान लेकर पांमित जी के यहा​ां जाने को िना ही मलया।

"बस एक ही तो मचतां ा है देखो न कर मिर लड़की वालों ने घिु ाकर जवाब मदया।"

"पमां ित जी ने कहा था सबु ह उन्हें पजू ा-पाठ के मलए जाना होता है अतः सािान बारह बजे के बाद देना।" रोशनी ने लमलत से कहा

"हो जाएगी, इतना ित सोच उपर वाले ने जोड़ी बनाई है।"

"इस सिय तो िैं काि की अमधकता की वजह से छुट्टी नहीं ले सकता सुबह चल कर सािान उनके घर रख आएांगे।"

"कभी लड़की पसांद नहीं तो कहीं पररवार ठीक नहीं और कहीं सब ठीक तो लड़की वालों को हि पसांद नहीं सिझ नहीं आता न जाने जोड़ी कब मिलेगी।"

कहीं लमलत का िन न बदल जाए सोचकर रोशनी ने हािी भर दी

"अरे सुन, एक पांमित जी हैं वो पमिका देखकर शादी िें आने वाली गृहदशा बताते हैं और साथ ही उसका उपाय भी।"

पमां ित जी के यहा​ां पहुचां कर घांटी बजाने पर दरवाजा एक तीस पैंतीस साल की नवयुवती ने खोला। "पमां ित जी हैं।" रोशनी ने पछ ू ा

"पर लमलत तो इन सब बातों पर मवश्वास ही नहीं करते कोई उपाय भी नहीं करें गे।"

"बाबा तो घर पर नहीं हैं।" उसके इस जवाब से रोशनी ने एक बार देखा मिर सांशय दरू करने के मलए पूछा

"हिें कुछ नहीं करना है पमां ित जी को पैसे देना है वे ही सब पूजा-पाठ करें गे। हा​ां पैसे थोड़े ज्यादा लगते हैं पर एक साल के अांदर शादी हो जाती है बहुत िाने हुए हैं।"

"आप कौन?" "िैं पांमित जी की बेटी हां रामधका।"

".........."

"आप की शादी हो गई।"

"अरे ! सोच क्या रही है पहले सुमित की पमिका तो उन्हें मदखा मिर सोचेंगे।"

"नहीं" कहते हुए मसर झक ु ा मलया

"तू ठीक कहती है पमिका उठाते हुए एक यह भी कोमशश करके देख लेते हैं।"

हि बाद िें आते हैं कहते हुए रोशनी मबना सािान मदए कार की ओर बढ़ गई।

पमां ित जी को पमिका को कािी देर देखने के बाद कहा "गुरु पर शामन की वक्र दृमि है इसी कारण शादी िें बाधा आ रही है।"

लमलत ने िस्ु कुराते हुए रोशनी की ओर देखा मिर बोले जब पमां ित जी के यहा​ां ही अधां ेरा है वो हिारे यहा​ां क्या उजाला करें गे।

"पांमित जी, कोई उपाय।" 57


चिराग़ तले अंधेरा रंजना बररयार रा​ाँिी (झारखण्ड)

हलो... हलो... नीना ? आर यू ओ. के .?

सिुं र नाक नक़्ि वाली मेरी बचपन की सहेली, नीना गुप्ता, बचपन से ही पढाई में अब्बल, कक्षा में प्रथम् स्थान मेरी याि में दकसी ने कभी नहीं छीना उससे...भगू ोल दवषय में एम. ए. में दवश्वदवद्यालय में तीसरा स्थान..उसकी कादबदलयत पे हम सबों को नाज़ था! कभी लगता हम क्यों नहीं हुए उसकी तरह? वो तो बहुत ही सुलझी हुई नेक ह्रिय इसं ान है ।सामान्य पररवार से थी पर अपने उन्नत व्यदित्व की वजह से सबों से उत्कृ ष्ट!

बोल मैं ठीक ह.ूँ .. बोल , कै सी है तू अरू? उधर से नीना ने जवाब दिया!.... पर उसकी आवाज़ गमगीन थी... इतनी हूँसमख ु लड़की को ये क्या हो रहा है.. मन िख ु ी हो गया उसके दलए!.... मैंने पूछा " तू आ रही है न आज दकटी पाटी में?" उसने कहा " नहीं..तू बता कब जा रही है नैनी?".... मैंने कहा " मैंने कहा नहीं...तू क्या कह रही है.. मैं समझ नहीं पा रही..! मेरी पैरवी तू नहीं कर रही?" नहीं...कहकर उसने फोन काट दिया!... मैं ऑदिस चली गई.. पर काम में जरा भी मन नहीं लग रहा था.. सो मैं वापस घर आ गई... दिर फोन लगाया नीना को, पता था दिदिर सर नहीं होंगे.. वो ठीक से बात करे गी!

एम. ए. के बाि एम दफल करने वो ज्वाहरलाल नेहरू दवश्वदवद्यालय चली गयी। दिदिर और नीना एक साथ यू.पी.एस.सी.की तैयारी करते..िोनों ही पढाई में अदत उत्कृ ष्ट थे। दिदिर बहुत ही सुलझा हुआ,लड़दकयों के दलए उसके दिल में बहुत उच्च स्थान था..माूँ िगु ा​ा की पूजा हर रोज़ करता.. कहता िदि अदधष्ठात्री िेवी हैं... तुम सब उनका ही तो रूप हो! इन्हीं िदियों को माूँ से प्राप्त कर हम सब चलते हैं!नीना बहुत प्रभादवत थी उससे.. तभी आई.ए.एस. कॉम्पीट करने के बाि उसने दिदिर का प्रस्ताव स्वीकार दकया था!...नीना के दपता ने भी स्वीकार कर दलया था.." जोदड़याूँ भगवान के पास ही बन जाती हैं.. और इससे अच्छा लड़का मझु े दमल ही नहीं सकता!" उन्होंने यह कह कर खि ु ी खुिी कम बजट में िािी कर िी थी!

उसने तुरंत फोन उठाया.." तू घर आ गई?..तू चली जा नैनी अरू.. मैं दिदिर से नहीं कह सकती!” क्यू​ूँ ? मैंने पूछा । उसने कहा " दिदिर ने मझु से बहुत लड़ाई दकया...मेरा सर उसने दिवाल पे पटक दिया...बड़ा सा स्वेदलंग हो गया है!" कहकर वो िूट िूट कर रोने लगी.. मैंने कहा तू पानी पी पहले तब बात करू​ूँगी! थोड़ी िेर बाि मैंने पूछा " आदखर हुआ क्या?" उसने कहा " हमेिा की तरह वो मझु पे िक करते हुए अदनमेष को दकतनी गादलयाूँ िी..कहने लगा तम्ु हें वो सस्पेंड करे गा..ज़रा सा मैंने कहा अरू को क्यूँू सस्पेंड करोगे?... उसने मेरे सर दिवाल में पटक पटक कर बहुत मारा... कहने लगा " अदनमेष के दलए तुम अरू का फे वर करोगी..? मैं दज़ंिा नहीं छोड़ूँगा तुम्हें.. िेखता हूँ कौन तुम्हारी मि​ि करता है?" मैं जीना नहीं चाहती अरू..दकसी से कुछ कह नहीं सकती.. इतने बड़े ब्यरु ोक्रेट की पत्नी ह.ूँ .. कोई दवश्वास नहीं करे गा.. दिदिर के छद्म बुदिजीवी व्यदित्व से उसके इस रूप का कोई ताल मेल नहीं!" मन बहुत भारी हो गया..बहुत रोया.. नाि रूम जाकर फे स वाि दकया.. अदनमेष लंच के दलए घर आ रहा था, उसे तो कुछ बता नहीं सकती थी!

िरू ु में तो बहुत अच्छा था..धीरे -धीरे बच्चे बड़े होते गये.. उसकी छद्म बुदिजीवीता तो दिखने लगी थी... दिर भी नीना सहन कर रही थी.. क्या करती बच्चों पे दकतना बुरा असर होता...पर िोनों बेटे जब बाहर पढने चले गये तब जाने क्या हुआ उस बदु िजीवी का?....मेरे दलए सबसे बुरा हुआ.. जब वो मेरे दवभाग " समाज कल्याण दवभाग " में सदचव बनकर आ गया! मेरा अपने पदत अदनमेष के साथ उसके घर आना जाना बना हुआ था... वो मेरे घर नहीं आता.. सुपर बॉस था हमारा.. अपने घर पे भी मझु से बात नहीं करता.. अजीब घमडं ी आिमी 58


था! मैं सोचती चलो मझु े मेरी सहेली से मतलब है! ... और जब तक ये मेरे दवभाग में है तब तक सोच समझकर तो चलना ही होगा... दवभागीय बैठकों में या और कहीं भाषण में वो अपनी बुदिजीवीता ि​िा​ाने में वो कमी नहीं करता! मेरी सहेली को इतनी यंत्रणा िेता और नारी मदु ि,नारी िदि की दहमाकत करता! ऐसा भी िोहरा व्यदित्व होता है!... दचराग़ तले अधं ेरा!

िोनों बेटे भी आ गये हैं... एक ने पढाई खत्म कर नौकरी ज्वायन कर ली है, िसू रा पढाई कर रहा है । िोनों ने माूँ के साथ रहने का दनणाय दलया है। मैंन्टीनेंस में नीना को काफी कुछ दमला है.. उसके दपता ने भी अपने छोटे से दबज़नेस में उसे आधे का हकिार बनाया है... दडक्री दमल गयी... दिदिर ने एक बार भरपूर नज़रों से नीना को िेखा... बच्चों को िेखा.. दिर सर झक ु ा कर दनकल गया...! िीपक तले अंधेरा!

आज नीना को तलाक की दडक्री दमलने वाली है... मैं और मेरे पदत कोटा में उसके साथ हैं... अंकल ( नीना के दपता) भी हैं.. उसके

तर्क र्े तीन िेहरे वैशाली थापा भीलवाड़ा (राजस्थान)

मेरी उिासी अक्सर दमलती है तका के तीन चेहरों से पहला चेहरा उत्तेजना के साथ मेरी उिासी पर लपकता है। वह अपने तका बाण बड़ी बेरहमी से मेरी उिासी पर भेिता है। कहता है "तुम्हारा उिास होना खोखली भावनाओ ं का पररणाम भर है। तुम्हारी इस उिासी ने दकतनी नकारात्मकता िै लाई है, तम्ु हें आिावािी होना चादहए। तम्ु हारा दनरािावािी होना एक हत्या करने दजतना गभं ीर है।" पहला चेहरा घनघोर आिावािी है। वह कोदि​ि करता है, एक िीया बन जाने की। आिावािी िीया.. तका के िसू रे चेहरे ने आकर सहलाया। पर ढांढस कब आध्यात्म में बिल गया पता ही नहीं चला। वह आध्यादत्मक बातें करने लगा। कहा "मोह त्याग िो, तुम आसपास के वातावरण को आध्यादत्मक नज़रों से िेखो तो तुम्हें कहीं जाकर सुख दमले।" उसे मालूम नहीं था की मेरी उिासी को आध्यात्म की भाषा समझ नहीं आती। वह दमली तका के तीसरे चेहरे से जो बड़े व्यवहार ही बातें करता है। रोज़मरा​ा की बातचीत पर उसने मेरे चेहरे की उिासी को पहचान दलया और अपने व्यवहार का बक्सा खोलने में वि नहीं लगाया। हर चीज को दवज्ञान की नज़र से िेखता है, मेरी उिासी का कारण संक्षेप में पूछकर अपनी प्रयोगिाला से यह पररणाम दनकाला, मेरी उिासी ही अनैसदगाक है उसके अनुसार इसे होना ही नहीं चादहए। व्यवहार के अनुसार इसं ान का हर कृ त्य प्रैदक्टकल होना चादहए। झील के दकनारे कुछ िेर बैठ गई और पानी की कल-कल से ही बतलाने लगी।कुछ िेर में उिासी का कुछ दहस्सा उस ही झील में समा गया। रोज़ थोड़ा-थोड़ा दहस्सा झील में समाता गया।कुछ दिनों बाि में तका के तीनों चेहरों से मैं बारी-बारी दमली तीनों ही अलग-अलग वजहों से परे िान, उिास थे। उिासी को लेकर उनके दवचार उनके उस दिन के दवचार से दबल्कुल मेल नहीं खा रहे थे। उनकी परे िानी भरी दनरािाजनक बातें सुन कर मझु े वो लोकोदि याि आयी "िीया तले अधं ेरा" जो िसू रों की उिासी और िुःु ख पर अपने तका के बोझ को लाि िेते है और ज्ञानी बन कर दहिायतें िेते है वहीं लोग अपने िुःु ख में पस्त हो जाते है। और वैसा आचरण नहीं कर पाते जैसा की वो िसू रो को उनके िुःु ख के िौरान करने को कहते है।वे मेरे सामने अपनी उिासी जताते रहे,और मैं झील की तरह दसिा कल-कल करके सुनती रही।

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नया सवेरा मीनाक्षी िौधरी देहरादून

राके ि बचपन से ही एक मेधावी छात्र था। उसके माता-दपता बड़े ही धादमाक प्रवृदत्त के थे व राके ि को भी अक्सर धादमाक प्रवचन सुनने के दलए अपने गुरूजी के यहां ले जाया करते थे। धीरे -धीरे राके ि पढाई में दपछड़ता चला गया । आश्रम में गुरूजी द्वारा छूआछूत, सत्य, अदहंसा, ईमानिारी व अन्य सामादजक कुरीदतयों पर प्रवचन हुआ करते थे। नारी को उसके अदधकारों व सम्मान पर भी गुरूजी अक्सर चचा​ा दकया करते थें। राके ि पर इन सभी बातों का गहरा प्रभाव था। गुरूजी के वल बुधवार व िदनवार को ही िाम 5 बजे से िाम 7 बजे तक प्रवचन दिया करते थे। एक बधु वार को राके ि के पररवार को दकसी िािी में जाना पड़ रहा था न चाहते हुये भी पररवार के सिस्यों को गुरूजी के प्रवचनों को छोड़ना पड़ रहा था। राके ि ने साथ जाने से मना कर दिया। वो िोपहर को ही घूमने को घर से दनकल पड़ा वो जैसे ही गुरूजी के आश्रम के गेट पर पंहुचा दठठक कर रूक गया। गुरूजी के आश्रम से गाली-गलौज व हाथापाई की आवाज़ आ रही थी। वो आवाज गुरूजी की व एक मदहला की थी। राके ि को अपने कानों पर दवश्वास न हुआ वो हैरान वही खड़ा रह गया और सारी बाते सुनने लगा, कुछ िेर में ही उसे सब समझ आ गया था। गरू ु जी के आश्रम में नाररयों का िोषण होता था, बच्चों से मजिरू ी करायी जाती थी व अन्य गलत काम भी होते थे क्योंदक अन्िर जो मदहला थी वो जोर जोर से रो रही थी, वो उनकी पत्नी थी और सब पोल खोल रही थी। उसी की बातों से पता चला दक दजस काया​ालय में गुरूजी पहले काम करते थे उसमें ररश्वत लेते पकड़े जाने पर उनकी नौकरी छूट गयी थी। गरू ु जी भागकर िसू रें िहर यादन कानपरु में रहने लगे थे। धीरे धीरे उन्होंने यहाूँ अपना एक छोटा सा आश्रम बना दलया था जो बढकर अब इतना बड़ा हो गया था। यहां वो प्रवचन िेते थे और िेखते ही िेखते उन्होने अपने चाहने वालों की इतनी बड़ी भीड़ जुटा ली थी और लोकदप्रय हो गये थे, खबू चंिा आता था दबना उनके बारे में जाने लोग उनसे ज्ञान लेने के दलये आते थे। राके ि का मन अब घृणा से भर उठा था। कै सा सत्य? कै सी ईमानिारी? कै से नारी के अदधकार व उसका सम्मान? ये सब दिखावा था यहाूँ तो ज्ञान के नाम पर के वल अंधकार था, और िीया तले अंधेरा वाली बात चररताथा होती थी। अपने घरवालों के आने पर उसने सारी बात अपने घरवालों को बतायी सभी हैरान रह गये। अब राके ि सब कुछ छोड़कर अपनी पढाई में जुट गया। आज उसके जीवन का एक नया सवेरा था।

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दिया तले अंधेरा डॉक्टर पनू म चौहान धामपुर (दिजनौर)

ये वक़्त करे गा तय ककसको सौगात किले। है जगिग रात उजाली अंधेरा किया तले।। ककस्ित है उनकी कनराली जो वीर शहीि हुए। किलने को तो गुलशन िें ककतने फूल किले।। जब तय है चरागों का जलकर के बझु जाना। कफर बाती की ककस्ित है के ककतनी िेर जले।। हि भल ू े ककनारों को िझधार िें यूं डूबे। उम्िीिे ये साकहल की सांसो के साथ चले ।। लौ लगी किया सगं यूं आि ं ों से नींि गई। िलकों की कचलिन िें छुि छुि के प्रीत िले।।

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गुरुमंत्र मौसमी चन्द्रा पटना (बिहार)

साक्षी बार-बार बालकनी जाकर सड़क की तरफ देखती फफर अंदर आ जाती।

"हाँ दी समझ रही ह।ं ठीक कहती हो आप । अब से नहीं दँगू ी उसे सारी कमाई उसे।"

"दीदी बैठ जाइए न जरा। पोंछा सख ू ने तो दीफजये। फकतना चल रही हैं गीले फर्श पर।"

सरला ने कहा औऱ काम में लग गयी। गुड!

उसकी काम वाली सरला ने हँसकर कहा, "ऐसे कोई आने वाला है क्या दीदी?"

मस्ु कुराकर साक्षी ने कहा और टीवी खोल फदया। "आज कोई मवू ी देखती ह।ँ रोज तो सुबह से र्ाम तक ऑफफस से घर...,घर से ऑफफस। एक सन्डे ही तो फमलता है। मन का करने को।"

"नहीं सरला वो सामने वाली दक ु ान है न। उसी को देख रही थी। चफू ड़यां लेनी थी। पता नहीं क्या बात है आज दो फदन हो गए, दक ु ान ही नहीं खोली मीनू ने।"

तभी मोबाइल पर मैसेज -

"मीन!ू वो चड़ू ी वाली! कै से खोलेगी? उसका मरद बहुत मारा है उसको। बुखार में है। अब तो एक हफ्ते तक नहीं ही खोल पाएगी दक ु ान।"

अमाउंट डेफबटेड 30,000 सफु मत ने फफर क्यों फनकाले इतने पैसे।इस बार उससे काडश ले लूँगी अपना।

"ओह! हे भगवान! पफत है या कसाई...और वो.. पढ़ी फलखी सदुं र,अपना दक ु ान भी चलाती है फफर क्यों सहती है उसका !"

सोचते ही एक पल फसहर गयी साक्षी। अनायास उसका हाथ अपना गाल सहलाने लगा।

साक्षी ने गुस्से से कहा। "क्या करे गी दीदी? आफखर मरद है उसका। बात तो उसी की माननी है न।" "क्यों? ये जरूरी है? फलखा है कहीं की पफत कसाई हो फफर भी उसी की बात माननी है! औरत का अपना कुछ नहीं होता..और तुम ..तुम तो बोलोगी ही, तुम्हारा पफत भी तो आये फदन तुम्हारे साथ मारपीट करता ही है। कमाती हो तुम,और हक से वो लेता है। सरला..मत फदया कर उसे अपने मेहनत की कमाई। खनू पसीना तुम बहाओ, ऐर् वो करे । थोड़ा अपने बारे में भी सोच। एक गुरुमंत्र दँ,ू पफत के चाहे फजतने नखरे उठा ले पर पैसों के मामले में अपना हाथ मजबूत रख। जब हाथ खाली होगा तब कोई काम नहीं देगा। समझी!" 62


कालचक्र अशोक स िंह पुणे (महाराष्ट्र) हमारे गा​ांव में ववजय नाम का लड़का था, काफी होश्यार, मगर पैसे से कड़का था। क्लास में हमेशा अब्बल आता था, वकसी भी सवाल का तुरांत जवाब लाता था। पैसे की तांगी उसके पररवार को बहुत सताती थी, वजस वजह से कम उम्र में, उसकी शादी कर डाली थी। कालचक्र देविए, वो ट्यूशन से गुजारा करने लग गया, िदु की पढाई छोड़, दसू रे की पढाई में लग गया। कोई छात्र आईआईवटयन, तो कोई आईएएस बन गया, दवु नया को रोशनी दी, िदु वदया तले अधां ेरा बन रह गया।

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ज़ीवन द़ीप का अंधेरा ददल़ीप कुमार झा हावडा (पदिम बंगाल) ज़ीवन द़ीप जलता रहता अंधेरा छाया है। मजदरू बेचारा , पस़ीना बहाता, इमारतें बनाता शहरों को संदर बनाता मजदरू बेचारा अधं ेरे में ज़ीता है। उसका ज़ीवन द़ीये तले अंधेरा है। कम्हार बेचारा चाक चलता, कच्च़ी माट़ी को आटा की तरह बनाता है माट़ी से संदर द़ीये बनाता है। दननया को रौशन करता खद अधं ेरे में ज़ीता है। उसका ज़ीवन द़ीये तले अंधेरा है।

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तो वो घर, घर नहीं कंचन मिश्रा यिुना नगर (हररयाणा)

अगर घर में

अनजान है,

दकतनी भी हो महगं ी गादिया​ाँ

फै ला हो सन्नाटा

तो वो घर, घर नहीं

व भव्य कोदिया​ाँ,

और दिल में

खाली मकान है ....

पर िख ु में कंधों पे न

मचा तफ़ ू ान है,

दकतने भी करवा लो

अपनों का हाथ है,

तो वो घर, घर नहीं

धादमिक आयोजन,

तो सारी भव्यता

खाली मकान है ....

हवन और िान,

दिए तले अंधेरे के समान है,

कीमती साज़ो सामान से

पर जहा​ाँ न

हा​ाँ ! तो वो घर, घर नहीं

सजा हो घर

बज़ु गु ों का सम्मान है,

खाली मकान है ....

पर अपनों की

तो वो घर, घर नहीं

दखलदखलाहट से

खाली मकान है ....

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दीये तले अँधेरा ज्योतत अग्रवाल अलवर (राजस्थान)

गहन अँधेरी राते देखी ददद देता सवेरा देखा | देखा होगा किसी ने ऊजाला दीपि में, मैंने दीये तले अँधेरा देखा | किसी ने दीपि िा रूप देखा किसी ने देखा आिर | किसी ने दीपि िी जलती लौ देखी, मैंने दीये तले अँधेरा देखा | किसी ने दीपि िी माटी देखी किसी ने दीपि िी देखी मेहनत | देखी होगी किसी ने दीपि में दीवाली, मैंने दीये तले अँधेरा देखा | किसी ने दीपि में त्याग देखा किसी ने देखा मोह | देखा होगा किसी ने जीवन दीपि में मैंने दीये तले अँधेरा देखा | किसी ने दीपि में समा​ां जलते देखी किसी ने जलते परवाना देखा | देखा होगा किसी ने पतगां ा जलते दीपि में, मैंने दीये तले अँधेरा देखा | किसी ने िी दीपि से आरती मगर, नजर मेरी थी पारखी | देखा मैंने कमटते अकततत्व दीपि िा, और दीये तले अँधेरा देखा |

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ज़िन्दगी का इज़तिहान रेणु गुप्ता जयपरु (राजस्थान)

हिमानी अपनी बैंक के का​ांफ्रेंस िॉल में बैंक के अहिकारियों के मध्य बैठी िुई थी। आज का समािोि बैंक के उन अफ़सिों को सम्माहनत किने के हलए आयोहजत हकया गया था, हजन्िोंने बैंक के हिए िुए टागेट पिू े कि हलए थे। तभी चीफ़ मैनेजि सािब उठ खडे िुए औि उन्िोंने इस सम्मान समािोि की काययवािी का यि किते िुए आगाज़ हकया, "आज का यि समािोि िमािे कुछ एम्पलॉईज़ को बैंक के िाहलया कॉन्टेस्ट में बेितिीन पिफॉमेंस के हलए पुिस्कृ त किने के हलए आयोहजत हकया गया िै। इसमें टॉप पि िैं श्रीमती हिमानी वमाय, हजन्िोंने अपने करियि की शरु​ु आत से अपने िार्य वकय औि अपने काम के प्रहत अपने कहमटमेंट की वजि से अपना एक खास मक ु ाम बनाया िै। इस बाि उन्िोंने अपने सभी टािगेट्स बखबू ी पूिे किके अपने हलए सपरिवाि मौिीशस की हटकट्स जीती िैं। शी इज़ ि स्टाि ऑफ आवि बैंक।"

थी, आज अपने पहत की हनगािों में हजांिगी की िौड में पूिी ति​ि िाहशये पि आ चक ु ी थी।

बैंक के चीफ मैनेजि के मांिु से अपनी प्रशांसा सुनकि हिमानी गिगि िो उठी। आज उसके जीवन की मित्वाकाक्ष ां ा पिू ी िुई। हचिप्रतीहक्षत ऐवार्य पाकि सबु ि से अन्तमयन में छाई उिासी की गिन छाया िल्की िुई थी। तभी उसकी नजि िॉल में सबसे आगे की कताि में बैठे िुए अपने पहत बसांत की नज़िों से हमली औि अनायास उस सुबि उससे किे गए उनके ज़ि​ि बुझे अल्फाज़ उसके कानों में गजूां उठे , "अपनी नौकिी में चािे तमु ने सभी टागेट पूिे कि हलए िों, लेहकन मेिी नज़िों में हजांिगी के इहम्तिान में तुम फ़े ल िो फ़े ल। जो औित अपनी घि गृिस्थी बच्चों के प्रहत अपनी हजम्मेिािी ठीक से न हनभा सके , वि हकसी काम की निीं। उसे तो र्ूब कि मि जाना चाहिए....... र्ूब कि मि जाना चाहिए.......यू आि ि स्टाि ऑफ आवि बैंक........ पहत औि चीफ मैनेजि के किे िुए लफ़्ज़ गर्मगर् िो उठे औि इसी के साथ उसके हिल की िडकन तेज िो आई। उसके िाथ पैि ठांर्े िो आए औि वि पसीना पसीना िो उठी। तभी हफि से उसकी नजि अपने पहत पि पडी। एक क्षण को उनकी नजिें हमली उसे िेखकि उनके चेि​िे पि एक व्यांगात्मक मस्ु कुिािट औि हिकाित का भाव स्पष्ट उति आया, हजसे िेखकि उसका अांतमयन िू िू कि जल उठा।

उसे आज भी याि िै, िोनों बच्चों के तहनक समझिाि िोने पि उसने बसांत से बैंक का कॉम्​्टीशन िेने की इच्छा जताई थी, हजसे बसांत ने हबना नानुकि के मान हलया था।

सम्मान समािोि की समाहि पि वि कॉन्फ्रेंस िॉल से हनकलकि अपनी गाडी की ओि बढी औि उस में बैठ गई। गाडी के िफ्ताि पकडने के साथ-साथ उसका मन पांछी भी पुिानी यािों के मक्त ु आकाश में उडने लगा। माता-हपता ने एम. ए. पास किते िी उसका हववाि बसांत से कि हिया। शािी के बाि वि जब भी अपने इिय-हगिय नौकिी पेशा महिलाओ ां का ठसका औि रुआब िेखती, मन में घि गृिस्थी की चिाि​िीवािी से बाि​ि हनकलकि नौकिी किने जीवन में कुछ साथयक कि पाने की तमन्ना अांगडाई लेती।

उसने हिन िात एक कि प्रहतयोगी पिीक्षा िी औि पिली िी बाि में उसे सफलता हमल गई। बस तभी से मानो उसके पांख लग गए। एक के बाि एक हवभागीय पिीक्षा िेते िुए वि बिुत जल्िी बैंक ऑफ़ीसि बन गई। उन हिनों उस पि प्रोमोशन पाने का मानों जुनून सवाि िो गया था। घि गृिस्थी औि बच्चों में उसका मन न िमता। िोनों बेटे बसांत की वृद्धा मा​ां की िेखिे ख में पलने लगे। पहत एक मिा सांतोषी जीव थे। अपनी बैंक की नौकिी से मिासांतुष्ट। उसकी घि गृिस्थी पूिी ति​ि से उन्िोंने औि उनकी मा​ां ने हमलकि सभां ाली िुई थी। हिमानी की हर्माहां र्ांग नौकिी के बावजूि उसकी घि गृिस्थी सासूमा​ां औि पहत के सियोग के कािण ठीक-ठाक िी चलती ि​िी। बसांत नौकिी के बाि बचे समय में िोनों बेटों को पढाई में मि​ि किते। िोनों ठीक-ठाक नांबिों से पास भी िो जाते । इि​ि वक्त के साथ िोनों पहत-पत्नी की बैंक की नौकिी की हजम्मेिारिया​ां बढने लगी। बैंक द्वािा हिए गए टागेट पूिे किने के चक्कि में िोनों हिमानी औि बसांत को घि लौटने में आए हिन िेि िो जाती। बसतां भी िेि से घि आते। उन्िीं हिनों बसतां की मा​ां की मृत्यु िो गई। हिमानी अब बैंक मैनेजि बन गई थी। तो नौ बजे से पिले कभी घि ना लौटती। अलबत्ता बैंक द्वािा घोहषत ि​ि कॉन्टेस्ट में सवयश्रेष्ठ प्रिशयन कि ि​ि पुिस्काि जीतती।

तभी पिु स्काि िेने के हलए उसका नाम पक ु ािा गया। उसकी प्रशांसा में कसीिे पढे गए लेहकन यि सब भी उसके मन का िाि हमटा पाने में असफल ि​िा । हिमानी वमाय बैंक की एक वरिष्ठ उद्यमी अहिकािी हजसकी कमयशीलता औि मेिनती स्वभाव की ततू ी उसके काययक्षेत्र में बोलती 67


सासूमा​ां के िेिा​ांत के बाि अब उसकी गृिस्थी नौकिों औि आयाओ ां के भिोसे चलने लगी थी। घि में पैसों की कमी न ि​िी थी। शौक मौज़ की ि​ि चीज घि में थी। हकसी चीज का अभाव था तो वि थी मानहसक शा​ांहत। िोनों पहत-पत्नी की अहत व्यस्तता से बच्चों की पढाई पटिी से नीचे उतिने लगी। यि सब िेखकि बसांत हिमानी से किता, "अब तमु ने अपनी नौकिी में बिुत कुछ िाहसल कि हलया। ऊांची पोस्ट पि पिुचां गई। क्या जरूिी िै हक ि​ि टागेट पूिा हकया िी जाए? यि टागेट पूिा किने के चक्कि में तुम बच्चों पि ध्यान निीं िे पा ि​िी। िोनों क्लास में हपछडते जा ि​िे िैं। शाम को िोनों िोजाना मझु े घि से बाि​ि अपने आवािा िोस्तों के साथ अर्​् र्ेबाज़ी किते िुए हमलते िैं। नौकिी के साथ-साथ घि बच्चों की तिफ भी तहनक ध्यान िो।"

तभी गाडी के रुकते िी उसकी सोच को भी ब्रेक लगा था। उसका घि आ गया। वि गाडी से उतिी िी थी हक अपने आलीशान घि के सामने पुहलस को िेख कि चौक गई। िडकते हिल से उसने पुहलस अफसि से पूछा, "क्या िुआ ऑहफसि? क्या बात िै?"

पि हिमानी तो इस हवषय में जैसे कुछ सुनने को तैयाि न थी। सीढी ि​ि सीढी ऊपि चढने के जुनून में बच्चों के प्रहत अपने उत्ति​िाहयत्व का उसे तहनक भी एिसास न था। वि यि कि कि मन को समझा लेती हक बडे िोने पि बेटे खिु ब खिु पढने लगेंगे।

"क्या ड्रग्स के साथ? निीं ऑफ़ीसि, आपको जरूि कोई गलतफिमी िुई िै। मेिा बेटा औि ड्रग, निीं निीं यि निीं िो सकता।"

उनका बडा बेटा बाि​िवीं में आ गया था। पढने में शरू ु से कमजोि था। आज बोर्य की पिीक्षा का परिणाम आया था। वि उसमें फे ल िो गया था।

हिया तले अांिेिा िी तो था। आज उसे एिसास िो ि​िा था, अपने कायय क्षेत्र में अपूवय नाम, सम्मान, यश प्रहतष्ठा औि हजांिगी की ि​ि हनयामत से भिपूि वि हजांिगी के असली इहम्तिान में वाकई में फ़े ल िो गई थी।

"क्या शि​ि वमाय यिीं ि​िता िै? उसके हपता को बुलाइए।" "जी हबल्कुल यि शि​ि वमाय का िी घि िै, लेहकन बात क्या िै ऑफ़ीसि?" "जी आपका बेटा मालवीय नगि के िुक्का बाि में ड्रग्स लेते पकडा गया िै।"

हिमानी के पा​ांव तले जमीन ना ि​िी। उसे लगा, उसके िाथ में थमी फॉिे न हिप की हटकट, िॉफी औि शॉल उसे मिांु हचढा ि​िी थीं।

बसतां हिमानी से बेि​ि खफा था। उसने हिमानी को बेटे के फे ल िोने के हलए पूिी ति​ि से हजम्मेिाि ठि​िाया। उसके घि गृिस्थी की तिफ ध्यान न िेने की बात को लेकि उसे व्यगां बाणों से छलनी हकया। िोनों में जम कि तकिाि िुई।

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।।ज्योति का संगम।। रतमम भट्ट

अन्धेरे में दिया जलाओ ,मन का

हाथ जोड़ करते है, आरती ।

अन्धेरा बहुत छाया है ,चहुओ ं र

तभी दमटेगा, अन्धकार दिया तले।

प्रेम का दिया,जलाओ आके

अन्तरमन की ज्योदत जलाओ,तभी तो होगा सगं म। ।

अन्धेरा ,दतदमर का दमटाओ ,प्रभवु र। ।

अबं र हो या ,अपनी धरा। हो,प्रभवु र, आ जाओ ,अब करो

हे परमेश्वर, हे योगेश्वर दनज दकरणे बरसाओ ।

मन मे सोयी है ,शदि सभी के शत्रु बने है ,सीमा पर,लाखो ।

सूयय का तेज ,बढ़ जाये ऐसा

कदिन पररदथथदतया​ाँ,दवपररत पररदथथदतयों, को तुम्ही,आकर

सब अवगणु , दमट जाये ऐसा

पणू य कर जाओ ,प्रभवु र। ।

ऐसा ज्योदत पुन्ज, जलाओ, प्रभवु र। ।

ह्रिय थवच्छ रहे हमारा,ज्ञान का दिया,दटमदटमाये दनसदिन।

हम है बालक नािान ,बहुत है तेरी शरण में आते ,दनसदिन

भटकू नही ,राह से अपनी ऐसी राह ,दिखाओ,प्रभवु र। ।

न िेरी,सब कुछ सधु ार, जाओ प्रभवु र।। हर ह्रिय का भाव हो उज्जवल कोई, वासना घेरे ना दकसी को हो जाये धरती का सीना ,क्लेश दवपदि से,अछूता। ऐसा दनमायण कर जाओ ,प्रभवु र। । अाँधेरा बहुत है दिया तले है कहते। ऐसा अाँधेरा, आके दमटा जाओ प्रभवु र, हमारे प्रभवु र। सबके प्रभवु र। ।

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हाथ पर रखें लौ को कविता सदू पंचकूला

सूरज तो सबका है, सबके अंधेरे दरू करता है। ककन्तु उसकी रोशनी से अपना मन कहां भरमाता है। अपनी रोशनी के किए, अपने गुरूर से अपना दीप प्रज्वकित करते है। और अधं ेरा कमटाने की बात करते हैं। किर भी अक्सर न जाने क्यों दीप तिे अधं ेरे की बात करते हैं। तो कहम्मत करें , हाथ पर रखें िौ को तब जग से तम कमटाने की बात करते हैं।

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दीपक तले अंधेरा रोहित वर्ा​ा देवररया (उत्तर प्रदेश)

देवेंद्र भारती जी अभी सलेमपुर थाने के प्रभारी के रूप में नएनए ही ननयुक्त हुए थे। गहरा रंग, चेहरे पर छोटी मंछ, दबु ले कद काठी के भारती जी का स्वभाव अनोखा ही था। वे लोगों से बहुत जल्दी घल ु नमल जाते थे। थाने के सभी कममचारी उनसे घल ु नमल गए थे। गरीबी में पले बढे होने तथा अनुसनचत जानत से संबंध रखने वाले भारती जी लोगों के स्वभाव से भलीभांनत पररनचत थे। अक्सर उनके सहकमी उनके पीठ पीछे उनकी जानत को लेकर आलोचना करते रहते थे।

कर कहने लगी, "सानहब दया कीनजए साहब, यह बात झठ है साहब, जमीन हमरे है साहब, हमरे ह।" दरोगा साहब अपने चेंबर में बैठकर कुछ फाइलें पलट रहे थे। मनहला के नबलखने की आवाज सुनकर वे शीघ्रता से उठकर बाहर ननकले और कास्ं टेबल पर नचल्लाते हुए बोले, "सुखमपाल नसंह यह क्या हो रहा है? उठाओ उन्हे।" सुखपाल नसंह ने अपना पैर छुडाते हुए मनहला को उठाया और दरोगा जी के आदेश पर उस मनहला को एक कुसी पर नबठा नदया। दरोगा जी ने सखमपाल नसंह को अपने के नबन में साथ चलने के नलए कहा। दरोगा देवेंद्र भारती जी ने परे प्रकरर् के बारे में सुखमपाल नसंह से जानकारी प्राप्त की। सुखमपाल नसंह ने बताया, "उमेश कुमार सलेमपुर नवधानसभा क्षेत्र के नवधायक हैं लगातार तीन बार से, यहां की सीट अनुसनचत जानत के नलए आरनक्षत है। अपने प्रभाव के कारर् रमेश कुमार यहां का दबंग बन बैठा है और उसका बेटा कमलेश अपने नपता के प्रभाव का फायदा उठाकर दबंगई करता है, जमीन कब्जाना, लोगों को पीट देना, मनहलाओ ं के साथ छे डखानी करना इनका रोज का काम है। इन लोगों ने मनहला की जमीन पर कच्ची दारू का ठे का लगा नदया है। यह मनहला उन्हीं लोगों की नशकायत लेकर आई है। देवेंद्र जी ने हैरानी से पछा, "जब तुम सारी बातें जानते हो तो इसका एफ आई आर क्यों नहीं नलखते?" सुखमपाल नसहं ने आख ं ें नीचे झक ु ा कर कहा, "साहब मझु े अपनी नौकरी और जीवन दोनों प्यारी है" दरोगा जी ने उसकी ओर आंखें तरे र कर देखा और के नबन से बाहर आ गये। उस मनहला की आंखों में आंस को देखकर दरोगा जी ने एक बढे कांस्टेबल से कहा, "शक्ु ला जी इनका f.i.r. नलनखए" कांस्टेबल ने कहा, "पर..." दरोगा जी ने डांट कर कहा, "नजतना कहा जाए उतना कीनजए।" मनहला अपनी आंखों में आंस लेकर हाथ जोडते हुए दरोगा जी के पैर पडने के बढी। दरोगा जी ने उसे सभं ालते हुए कहा, "बहन, यह मेरा कतमव्य है। मैं आप को न्याय नदलाने की परी कोनशश करूंगा।" दरोगा जी 6 कॉन्स्टेबल को लेकर मनहला के साथ वहां जाकर कमलेश को नगरफ्तार कर नलया और उसके गुगों को 2 नदन के भीतर अनतक्रमर् हटाने का ननदेश नदया।

अभी पाच ं ही नदन हुए थे भारती जी की ननयनु क्त के नक एक जमीन के नववाद की एफ.आई.आर. नलखवाने की अजी लेकर एक सवर्म वगम की गरीब नवधवा मनहला नजसके अधर सखकर काले चमडे की परतें छोड रहे थे, मटमैला रंग की साडी में जगह-जगह सुराख बनी हुई, नघसी हुई चप्पल में बेवाई पडे पैर और माथे पर नचंता के कारर् गहरी पडी लकीरें थी। थाने के गेट पर उस मनहला को देखकर कांस्टेबल सुखमपाल नसंह ने तपाक से पछा, "कौन है त ? यह क्यों खडी है यहां?" मनहला ने हाथ जोडकर दया की दृनि से कहा, "साहेब हमरा नाम रीना नसहं है। हमार घर भीमपुर में है।" सुखपाल नसंह ने अपनी भौहें कुछ ऊपर नीचे करके याद नकया तो नफर याद आया नक यह मनहला तो उस नन्हे नसंह की पत्नी है नजसका 4 साल पहले यहां के नवधायक रमेश कुमार के गुगों ने हत्या कर दी थी लेनकन तत्कालीन थाना प्रभारी दीपक नमश्रा ने नवधायक रमेश कुमार के प्रभाव में और ररश्वत खा कर मामले को दबा नदया। सुखमपाल नसंह अभी सोच में डबा ही था नक मनहला ने हाथ जोडे आगे कहा, "साहेब कमलेश ने दानसयों मनई को लेकर हमारे जमीन पर जबरदस्ती बाड लगाकर वहां दारू ठे का ननमामर् खानतर इटा नगरवाई रहा है साहब उहे जमीन पर तो हमने के ननभमर बानी के । हम और हमार 7 साल की नबनटया के नजए के सहारा उहै जमीन बचा है।" सुखमपाल नसंह ने फटकार लगाते हुए कहा, "चल ननकल यहां से, वह जमीन बहुत पहले ही तेरे पनत ने रमेश कुमार को बेच दी थी। अब तेरी कोई सुनवाई नहीं हो सकती। त जा यहां से।" यह सुनते ही मनहला ने दहाड मार कर रोते हुए सुखपाल नसंह के पैर पकड 71


कमलेश की नगरफ्तारी की बात आग की तरह फै ल गई तथा कुछ ही समय में यह बात नवधायक रमेश कुमार को पता चल गई। रमेश कुमार गुस्से से आगबबला हो गए। उन्होंने नचल्लाते हुए कहा, "कौन है दरोगा? नकसकी मजाल नक मेरे बेटे को हाथ लगाए?" नवधायक जी के पीए ने कहा, "उसका नाम देवेंद्र भारती है।" "भारती? अनुसनचत जानत से है?" नवधायक ने पछा। पीए ने कहा, "जी हुजर"। नवधायक ने हसं ते हुए कहा, "उसे पता नहीं होगा। अभी उसे बुलाओ यहां।" पीए ने कहा, "सर वह बहुत ईमानदार लगता है।" नवधायक ने चीखते हुए कहा, "ईमानदार..? बेवकफ प्रत्येक #दीपक_तले_अंधेरा होता है, बस हमें अधं ेरे का इस्तेमाल करने आना चानहए। तुम उसे बुलाओ।" "जी हुजर", पीए ने कहा। दरोगा जी को नवधायक जी का तुरंत बुलावा भेजा गया।

अधं कार भटक भी नहीं सकता, वह सवम प्रकानशत हैं। यही सोचते हुए नवधायक जी आईने में अपना प्रनतनबबं देखते रहे..

2 घंटे होने को थे, नवधायक जी दरोगा के इतं जार में बैठे थे। तभी उनके पीए ने बताया की दरोगा आ गया।" नवधायक ने कहा, "भेजो 56 उसे।" नवधायक जी के सामने आते हुए दरोगा जी खडे होकर बोले, "जय नहदं सर" नवधायक ने उनकी ओर देखते हुए मस्ु कुरा कर कहा, "तो आप ही हैं दरोगा जी। बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। आप बैनठए।" दरोगा जी ने बैठते हुए कहा,"जी सर मैं अपनी ड् यटी ननभा रहा ह"ं नवधायक जी ने जानत का पाशा फें कते हुए कहा,"अजी आप तो हमारे ही हैं, हमारी ही जानत के हैं और आप तो जानते ही हैं नक इन सवर्ों ने सनदयों से हमारे ऊपर नकतना जुल्म नकया है और अगर आज हम उसका बदला ले सकते हैं तो इसमें गलत क्या है?" दरोगा जी ने कहा, "जी इसमें गलती नवचारों की है। यनद हम भी उनके जैसा ही व्यवहार करने लगे तो यह भेदभाव की प्रथा कभी समाप्त नहीं होगी।" "तो क्या आप अपने साथ हुए अन्याय को भल पाएंग?े " नवधायक ने दरोगा जी से पछा। "जी अत्याचारी कोई भी हो सकता है, जो प्रभावशाली है या धनी है। अत्याचारी होने के नलए जानत धमम की आवश्यकता नहीं है और ना ही पीनडत होने के नलए नकसी जानत धमम की आवश्यकता है।" जानत का दावं असफल होते हुए देख नवधायक ने अब धन का दावं खेला, "आप इतने अभाव में पले बढे हैं। मैंने आपके बारे में थोडा बहुत जानकारी प्राप्त नकया तो पता चला नक आप बहुत ननधमन पररवार से ताल्लुक रखते है" नवधायक ने आगे पछा, "आप नहीं चाहते नक आपके बच्चे उन तमाम सख ु -सनु वधाओ ं को भोगे जो आपने नहीं पा सके और ना ही अपनी सैलरी से उन्हें दे सकते हैं?" "जी धन्यवाद, परंतु मेरा मानना है नक मनुष्य को कभी अपनी जडों को नहीं छोडना चानहए। यही हमें समाज से जुडना नसखाते हैं । यह वह संपदा है जो धनवान व्यनक्त के पास बहुत कम होती है और मैं इसी से संतिु हं और मेरा पररवार भी।" सारे दांव फे ल होते दे हुए देख नवधायक ने थोडा गुस्से से पछा,"तो आप मेरे बेटे को कब छोड रहे हैं?" दरोगा जी ने कहा, "जी अब उस पर तो कानन के अनुसार ही ननर्मय होगा।" दरोगा जी ने उठते हुए कहा, "मझु े कुछ जरूरी काम है। अनुमनत दीनजए।" यह कहकर दरोगा जी चले गए। नवधायक जी हतप्रभ होकर सोचते रहे नक आज तक तो मेरे दावों से कोई बच ना पाया, क्योंनक सभी के पास कुछ ना कुछ पाने की लालसा, कुछ ना कुछ अंधकार जरूर रहता है नजसे वह प्रकानशत करने की चाहत में समझौता कर लेते हैं। परंतु आज ऐसा लगा मानो ऐसे पारदशी नदये भी समाज में हैं, जो अपने तल को भी प्रकानशत रखते हैं। उनके पास

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कुलदीपक माता प्रसाद दुबे लखनऊ

धन दौलत की चमक खो गई, अंधधयारे ने घेरा। हर्षोल्लास लुप्त हो गया, ग़म ने डाला था डेरा। सन्नाटा पसरा हुआ महल में,चहल-पहल गायब थीरोशनी थी कल तक जहा,ं आज धदया तलें अधं ेरा।। दधु नया को धजसने ग़म धदया, उसे आज ग़म ने घेरा। ररश्वत लेकर धजसने बनाया, आलीशान बसेरा। सेवा भाव को झठु ला धजसने, हरदम मारी ठोकरअब अंधकार में डूबा जीवन, दरू हुआ सवेरा।। ईश्वर को नहीं धजसने माना, लगा रहा अब फे रा। जग के रक्षक कयूं बुझा धदया, तुमने कुल दीपक मेरा। धजसके धलए कमाया धन, आलीशान महल बनायाउसके धबना जीवन है जैसे, धदया तलें अंधेरा।।

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लव जेहाद छन्या जोशी भीलवाड़ा (राजस्थान)

राजनीति की आधी दतु नया, भर्ष्ा​ाचार, स्वार्ा पर तजन्दा। तवकास सार् नया एजेंडा, 'लव तजहाद' भी है आया। जबरदस्िी शादी तहन्द,ु मतु स्लम चाहे कोई करे । जब यह बाि िय हो गई, काननू ही िो तनपटायेगा। वाह रे ! धमा-तसयासि के ठे केदारों, गरीब का बेटा, गरीब की बेटी, शादी साम्प्रदातयक-लव जेहाद। अमीर, नेिा के बेटा, बेटी, शादी रेम तववाह-दामाद। बेखबु ी पीटो ढोल नंगारा, पहले देखो दीया िले अधं ेरा।

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झूठ का सच वीणा उपाध्याय मज ु फ्फरपरु (बिहार)

क्या सोच रहे हैं बाबुजी ?

आ गया था। दपताजी इस तरह अचानक आ कर िािाजी पर बरस पड़ेंगे, कुणाल सोच भी नहीं पाया था।

आज तीन दिन गुजर गए मगर आपने कुछ बताया नहीं अब तक?

िािाजी के कमरे में सन्नाटा छाया हुआ था।'प्रोफे सर श्यामजी' यानी दक कुणाल के दपताजी

आदिर चाहते क्या हैं आप?

को अपने वृद्ध दपताजी से अभी के अभी जवाब चादहए था। िािाजी को असमंजस में िेि कर कुणाल चपु चाप वहा​ाँ से दनकल कर बाहर बरामिे में टहलने लगा। तभी उसकी नजर मोहन पर पड़ी जो दक उसके बुआ िािी यानी दक िािाजी के बहन का बेटा ,जो बचपन से हीं इसी घर में रहता था । कुणाल उसे 'नानकु चाच'ु कह कर बुलाता था।

क्या चल रहा है आपके मन में ,साफ -साफ िल ु कर बताते क्यों नहीं? अनेकों सवाल प्रो. श्याम जी एक साथ अपने बाबजु ी 'शदश भषू ण' जी से करने लगे तो बेचारे आवाक हो कर बेटे को िेिते हुए दबल्कुल हीं िामोश एवं सोचनीय मद्रु ा में बैठे हुए कुछ भी नहीं बोल पाए। उनके समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था क्या बोलें, और दकस प्रश्न का उत्तर अपने बेटे को िें।

मोहन जोर से दचल्लाया नानकु चाचु ! कहा​ाँ चले गए थे आप? मैं घर पहुचाँ ते आपको ढूंढ रहा था,मगर आप न जाने दकिर चले गए थे?

प्रोफे सर श्याम जी को अपने दपताजी के साथ इस तरह का बता​ाव कुणाल को दबल्कुल अच्छा नहीं लगा ,क्योंदक कुणाल अपने िािाजी से बेहि प्यार करता था। कल हीं तो पुणे से घर आया था िीवाली की छुट्टी में।मेकैदनल इजं ीदनयररंग के फाइनल ईयर में था ,लॉक डाउन के वजह से छे महीने बाि घर आया तो था,मगर। घर के माहौल में काफी बिलाव महसूस कर रहा था। उसके पसानल रूम में बहन का लड़का 'दवक्की' रहने लगा था ,दजसका एडदमशन उसके दपताजी के कॉलेज में हुआ है, अतः अब वह नानाजीनानीजी के भरपूर प्यार के संरक्ष्ण में एकक्षत्र अदिकार जमाये बैठा है। 'कुणाल' को अपने पसानल कमरे में उसका रहना अच्छा नहीं लगा ,मगर कुछ बोला नही।क्या बोलता? भदगना जो था। यात्रा के थकान से चरू होने के वजह से िाना िा कर िािाजी के कमरे में हीं आराम करने

िािाजी बता रहे थे आप मझु े लेने स्टेशन आने वाले थे ,लेदकन न जाने दबन बताए कहीं और चले गए थे। मोहन पास आ कर कुणाल को गले से लगाते हुए िैर -ओ िैररयत पूछने लगा। दफर िोनों कुसी िींच कर बैठ गए और बातें करने लगे। िािाजी के कमरे से तेज तेज आवाजें सुनाई िेने लगी तो िोनों चपु हो कर एक िसू रे को िेिने लगे। अचानक िािाजी के जोर जोर से िा​ाँसी की आवाज सुनकर िोनों िौड़ पड़े उनके कमरे की तरफ । प्रो. श्यामजी भनु भनु ाते हुए कमरे से दनकल रहे थे। "जब भी कोई काम की बात हो तो न जाने इन्हें क्या हो जाता है? दबल्कुल सदठया​ाँ गए हैं,िरती पकड़ कर बैठे हुए हैं, मरने का नाम हीं नहीं ले रहे हैं, पता नहीं दकतने दिनों तक दजयेंगे? " अनाप-सनाप बोलते 75


और लंबे डग भरते हुए जा रहे थे, गुस्सा और झल्लाहट साफ-साफ उनके चेहरे पर स्पष्ट दि​ि रही थी।

नहीं? मझु े यहा​ाँ आप लोगों के साथ बैठ कर नहीं िाना है। चाचू और िािाजी के साथ बैठ कर िाऊंगा। प्रोफे सर श्याम जी तीिे स्वर में दचल्ला पड़े ,बाहर रह कर दबल्कुल दजद्दी हो गए हो कुणाल , लगता है सारे संस्कार को भल ु ा बैठे हो?

िािाजी के पास मोहन और कुणाल बैठ कर पीठ सहलाने लगे।जब िािाजी नॉमाल हो गए तो कुणाल ने दपताजी के नाराजगी का कारण पूछा।िािाजी फफक पड़े और सारी समस्यस्यों से कुणाल को अवगत करा दिया।

कुणाल हाथ में थाली दलए हुए एक िम कातर दनगाहों से मा​ाँ -पापा को िेि रहा था। अचानक उसके चेहरे का भाव बिल गया और जोर से बोल पड़ा, "क्या हुआ मेरे संस्कार को? मैं दजद्दी लगने लगा हाँ न? अरे ! आप लोग ि​िु अपने आप से क्यों नहीं पूछते? कै सा व्यवहार आप लोग िािाजी एवं नानकु चाचु के साथ कर रहे हैं? मेरी

रात को कुणाल की मा​ाँ ने मोहन एवं िािाजी के दलए उनके कमरे में िाना भेजवा दिया। इिर डाइदनंग हॉल में कुणाल, दवक्की और िोनों पदत-पत्नी िाना िाने के दलए ज्यों हीं बैठे ,की मोहन िािाजी के

दलए ि​िू गमा करने के दलए आ गया ,क्योंदक ि​िू ठंढा हो गया था जो कुणाल की मम्मी ने भेजा था। मोहन ि​िू गमा करके वापस जाने लगा तो कुणाल जल्िी से मेज पर से अपनी भोजन की थाली ले कर िािाजी के पास जाने लगा। मा​ाँ झट बोल पड़ी ,अरे ! बेटा कहा​ाँ जा रहे हो?यहीं बैठ कर हम सब के साथ िाओ न? सब्जी ठंढी हो जाएगी न? दफर िाने में दबल्कुल हीं स्वाि नहीं आएगा। कुणाल कुछ नहीं बोला ,मोहन के पीछे पीछे जाने लगा ,तभी प्रोफे सर श्याम जी आिेश भरे लहजे में बोल पड़े, कुणाल! सुनाई नहीं दिया क्या जो मा​ाँ ने कहा है? 76


रोटी -सब्जी ठंढी हो जाएगी, इस बात की दफक्र तो है आप लोगों को मगर दजस इसं ान ने परु ी दजिं गी इस घर के दलए दकया उसके दलए कोई हमि​िी नहीं ,कोई इज्जत नहीं आदिर क्यों? बताइये जरा आप लोग,दक िािाजी ने ऐसा क्या गुनाह कर दिया है ,जो हर रोज दपताजी ताने िे, िे कर उन्हें गूंगा ,बहरा बना दिया है आपने?" और मा​ाँ आप भी सच जाने दबना दपताजी के हा​ाँ में हा​ाँ दमला कर िािाजी को तीिे शब्िों से आहत करती रही। आदिर क्यों मा​ाँ?क्यों दकया आप लोगों ने उन िोनों के साथ इस तरह का व्यवहार?

"दजस मोहन चाचु से आप लोग नफरत करते हैं, उन्हें नसेड़ी के औलाि नसेड़ी नाम से नवाजते हैं,वो तो दबल्कुल हीं दनमाल एवं दनश्छल स्वभाव के है। सच बात तो ये है की नसेड़ी के औलाि तो ये अपना दवक्की है। कुणाल! ये क्या बेहिगी है? क्या बक रहे हो? प्रोफे सर श्याम जी गुस्से से उबलते हुए बोले। हा​ाँ पापा यही सच है,जीजू एक नम्बर के शराबी हैं। िीिी शमा के मारे दकसी को नही बताती है। दवक्की को उसने इसीदलए तो आप लोंगों से अपने पास रिने को आग्रह दकया था, तादक उनकी बुरी लत कहीं दवक्की को न लग जाये?

कुणाल फफक पड़ा बोलते -बोलते। माहौल एक िम भारी हो गया । दवक्की चपु चाप बैठा था चोर की तरह आाँिें नीची दकये हुए।

मगर कोई फायिा नहीं ।दवक्की को बुरी लत लग चक ु ी है। दजस शराब के बोतल एवं दसगरे ट के टुकड़े को गैराज में पा कर आप मोहन चाचु पर आरोप लगा कर उनको घर से दनकालने के बारे में सोच कर रोज िािाजी पर िबाव डाला करते थे, असल में वो आपके इस लाडले की करततू है।

"कुछ िेर चपु रहने के बाि कुणाल ने दफर से बोलना शरू ु कर दिया। "िािाजी अपने बहन के लड़का को अपने संरक्षण में रि कर लालन -पालन दकये हैं तो इसमें आदिर क्या बुराई है? आप लोग भी तो िीिी के बेटे को रि कर पढ़ा रहे है?अगर फुआ का स्वगावास आग िघु ाटना में नहीं हुआ होता तो मोहन चाचु को िािाजी क्यों रिते अपने पास? दजिं गी भर ताना आप लोग िेते चले आये की िािाजी अपनी बहन की शािी दबना जाने समझे एक नशेड़ी एवं जुआड़ी से कर दिए ? बुआ फूफाजी के व्यवहार से बहुत िःु िी रहती थी,दिन- रात घर में कलह होना आम बात हो गयी थी।

बहुत बुरी संगदत में फंस चक ु ा है दवक्की पापा। भटक चक ु ा है दबल्कुल । आप लोगों को मालूम है, इसने मेरी बाइक भी दगरवी रि िी है जआ ु में हार जाने पर कजा चक ु ाने के दलए 60 हजार की बाइक 10 हजार में दगरवी रि आया था ।ये बात जब मोहन चाचु को दवक्की के िोस्त के द्वारा मालूम हुआ तो बेचारे कल मझु े स्टेशन लेने जाने के बजाय मेरी बाइक को दगरवी से छुड़ा लाये। दगरवी के पैसे चक ु ाने के दलए उन्होंने औनेपौने में अपनी परु ानी साइकल, घड़ी भी बेंच िी। मगर 10 हजार पूरा नहीं हुआ तो चाचु ने िािाजी से मि​ि दलया कुछ पैसे िािाजी ने दिया, कल इसीदलए तो मझु े स्टेशन पर से घर लाने नहीं जा पाए थे। मझु े घर अके ले आने के बाि आप िािाजी के पास पहुचाँ गए मोहन चाचु के दिलाफ दशकायत ले कर।

अंत में बुआ को ि​िु को आग के हवाले कर के आत्महत्या करनी पड़ी। िािाजी बुआ के बड़े भाई हैं ,मोहन चाचु को अपने पास रि कर कोई बुरा काम तो नहीं दकया न? एक भाई का िमा दनभाया है उन्होंने।"

आप उनको जल्िी से जल्िी घर से चले जाने के दलए िािाजी पर िबाव डालने लगे।

बस ! अब एक शब्ि भी आगे बोले न कुणाल, तो मझु से बुरा कोई नहीं होगा समझे । श्याम जी गुस्से से दचल्ला पड़े। बहुत बितमीज हो गए हो तुम, बड़ों से बात करने की तहजीब हीं भल ू गए हो।

अब आप हीं बताइये पापा घर से दकसे दनकलना उदचत होगा? कुणाल बोल कर दवक्की की ओर िेिने लगा । दवक्की का चेहरा दबल्कुल उड़ा हुआ था ।

नहीं पापा मैं कुछ भी नहीं भल ु ा। तमीज, तहजीब,सस्ं कार सब याि है मझु े। मैं तो बस आपको आईना दि​िलाने की कोदशश भर कर रहा ह।ाँ

मा​ाँ िीवार से सर दटकाये एक िम मौन बैठी हुई शन्ू य में िेिे जा रही थी। प्रोफे सर श्याम जी कब से िड़े थे ,कुणाल की बात पूरी होते होते िम्म से बैठ गए कुसी पर ।।

सच से अवगत कराना चाह रहा ह।ाँ अगर सुन सकते हैं तो सदु नए----- पापा, मा​ाँ आप भी सुदनए। सुनकर िांत िट्टे हो जायेंगे आप िोनों के , की दचराग तले अंिेरा कै से होता है।

बैठी हुई शन्ू य में िेिे जा रही थी। प्रोफे सर श्याम जी कब से िड़े थे, कुणाल की बात परू ी होते होते िम्म से बैठ गए कुसी पर ।। 77


प्रवेश पवव सुनीता मिश्रा भोपाल (ि. प्र.) शाला में प्रवेश पवव की तैयारी हो गई । रंग बिरंगे तोरण लगे। शाला साफ सुथरी हो चमकने लगी। एक थाली में रोली,चा​ाँवल, आरती, गेंदें के फूलों की आठ, दस,माला और खल ु े हुए फूल रखे थे, साथ ही लड् डुओ ं से भरी थाली। प्रायमरी स्कूल के हेड मास्टर बनरंजन जी,और सहयोगी दो बशक्षक, िच्चों की संख्या देख प्रसन्न थे। होते भी क्यों न। मबहने भर से घर घर घमू कर िच्चों के अबभभावकों को बशक्षा का महत्व समझाते हुए,प्रेररत कर रहे थे बक वे अपने िच्चों को शाला भेजें । बनरीक्षक महोदय मख्ु य अबतबथ,आते ही पबहले उन्होने कुछ िच्चों का बतलक बकया, माला पहनाई, आरती की। अपने संबक्षप्त भाषण में बशक्षा की उपयोबगता िताई । बफर बनरंजन जी की पीठ थपथपाई। आबखर छोटे से गा​ाँव की शाला मे इतने िालक िाबलकाओ ं की उपबस्थबत उन्हे प्रसन्न कर गई, फोटो बखंच गई, और एक लड् डू अपने माँहु मे डाल, जीप में िैठ अगली शाला के बनरीक्षण के बलये बनकल गये।

उनकी पत्नी तुनक कर रसोई की ं ओर िढ़ गई । चल्ू हे पर चाय चढ़ाते हुए िुदिुदा कर िोली "दबु नया​ाँ भर में बशक्षा की अलख जगाते बफरते है और घर मे……बदया तले अन्धेरा….."

बनरंजन जी ने शेष सभी िच्चों का बतलक, फूल से सम्मान कर, लड् डू िा​ाँटे । बफर एक िार, "बशक्षा हमारे खुशहाल जीवन, और देश की प्रगबत में बकतनी सहायक है," िच्चों को समझाया। िताया की पढ़ बलख कर तुम सि डॉ. इन्जीबनयर,अफसर िनोगे। देश की सेवा कर सकोगे,समाज में सम्मान बमलेगा। अन्त में, बहदायत दी रोज शाला मे आना है,अभ्यास करना है, तभी तुम लोग अपने जीवन में सफल हो सकते हो। अपनी कायव योजना की सफलता से प्रसन्नबचत्त, वे घर पहुचाँ े । बिबटया सामने ही खड़ी थी। "पापा, पास के कस्िे में नवीं कक्षा खल ु गई है। अपने गा​ाँव मे तो आठवीं तक ही स्कूल है। हमें वहा​ाँ स्कूल में भरती करा दो।" बनरंजन जी ने एक तीखी बनगाह बिबटया पर डाली िोले, “आठवीं कर ली िहुत है; कलेक्टर िनना है क्या?" बफर पत्नी की तरफ मड़ु कर िोले-परले गा​ाँव मे मंश ु ी जी के िेटे से ररश्ता पक्का कर आयें है, अच्छी खेती िारी है। कोई कमी नहीं है। तुम तो अि बिबटया को घर के कामकाज बसखाओ," बफर खबटया पर पसरते हुए पत्नी से कहा, "िहुत थके है, चाय िनाओ जा के …." उनकी पत्नी तनु क कर रसोई की ं ओर िढ़ गई । चल्ू हे पर चाय चढ़ाते हुए िदु िदु ा कर िोली "दबु नया​ाँ भर में बशक्षा की अलख जगाते बफरते है और घर मे……बदया तले अन्धेरा….."

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ये कै सा दीया श्याम आठले ग्वाललयर (म. प्र.) 66

बाती पूछे दीये से इतने जलते हो ददन रात दिर भी अँधेरा नहीं तुमसे दमटता ददु नया​ां को बा​ांटते हो अपना उजाला पर तला तमु से अपना ही नहीं उजाला जाता दीया बोला- यही है परे शानी है इस ददु नया​ां की दक जलती है बाती और तेल दीया वहीं अटल रहता है दीया जलता कभी नहीं इसदलए "दीया तले अँधेरा" रहता है। दीया जलता तो कभी भी तला नहीं होता अँधेरा पर दिर कहती ददु नया​ां ये कै सा दीया ? रोशनी देने की बजाए खदु ही जलता है। ददु नया​ां कुछ न कुछ कहेगी जरूर जले तो क्यों ? और न जले तो क्यों ?

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बुझा हुआ चिराग श्याम आठले ग्वाचलयर (म. प्र.)

होमवका रोज परा कर ा होगा। व ा​ा एक बार वान िंग देकर भगा देता ह।ूँ तीसरी शता है नक मैं ज्यादा से ज्यादा छै माह में कोसा खत्म कर देता ह।ूँ ज्यादा समय पढ़ाकर फीस वसल कर ा मेरे उसलों के नखलाफ है। नजसको पढ़ ा है वो इत े ही समय में पढ़ लेता है बाद में सब मटर गश्ती

जैसे ही मेरी आई ऐ एस की ट्रेन गिं खतम हुई तो सामान्य औपचररकताओ िं के बाद मझु े निप्टी कलेक्टर होशिंगाबाद म-प्र- की पनहली न युनि नमली। पर काम पर हानजरी से पहले दो ती नद का समय था नक मैं घर पर जाकर अप े नप्रयज ों से नमल सकूँ । तो मैं े भी इस मौके का फायदा उठाया और अप े गृह गर माता नपता से नमल े जा े की तयारी में जुट गया। मातानपता से नमल ा तो था ही साथ ही मझु े अप े न मा​ाता श्री जगत ारायण नमश्रा जी से भी नमल ा था। और उ के चरण छकर धन्यवाद कर ा था, नज का मेरे इस कनठ इम्तहा में सफल हो े में बहुत बड़ा योग दा था।

करते हैं। मिंजर हो तो शाम को सात से आठ के समय में आ जा ा। ये मेरा फो िंबर है मझु े फो करके बता दे ा। मैं े वास्तव में इत े कड़क और उसलों वाले टीचर हीं देखे थे। पर उ से पढ़ े में आ िंद बहुत आया। और मैं े इम्तहा भी पास कर नलया। मझु े उ का एक वाक्य ब्रह्म वाक्य की तरह याद रह गया -वे कहते थे नक जो भी आपका परीक्षक है वो नसफा आपकी इनिं ललश की जाूँच करता है। उसके हाथ में एक लाल पे रहता है और वो हर गलती पर एक लाल न शा लगाते हैं और हर लाल न शा पर आधा िंबर कट जाता है। आपको वो लाल न शा रोक ा है। नजत े कम लाल न शा उत े कम िंबर कटेंगे अथा​ात ज्यादा नमलेंगे। कुल नमला कर आपको सही इनिं ललश नलख ा है बस। चाहे नफर उसके नलए आपको परा वाक्य बदल ा पड़े। तो नहज्ज की (स्पेनलिंग की ) गलती हो ही अन्य नकसी तरह की। ज्यादा हीं सही नलखो - - -

वापसी की ट्रे में बैठा मैं, पेड़ पौधों को पीछे की ओर भागते देख रहा था। बचप में इ भागते पेड़ों को देखते ही मैं अप े मम्मी-पापा से कइयों सवाल करता अब अप े ही सवालों को याद करके मेरे मख ु पर मस्ु का आ गई। भागते पेड़ों को देखते-देखते मैं पुरा ी यादों में खोता चला गया - - - दो बार मैं आईएएस की परीक्षा में इनिं ललश नवषय में कमजोरी के कारण असफल हो गया। कुछ दोस्तों े सलाह दी नक जगत नमश्रा जी े कई लोगों को मागा दनशात करके तारा है। उ के नशष्य ब जाओ। शायद तुम्हारी ैया भी वो पार लगा दें। मैं पता लेकर नमश्रा जी के पास पहुचिं ा। परी बात सु कर बोले -सु ो आकाश, मैं पढ़ा तो दिंगा पर मेरी कुछ शतें हैं।

एक झटके के साथ ट्रे रुकी। मैं तन्रा से न कल कर वतामा में आया। देखा तो मेरा गिंतव्य आ गया था। हड़बड़ा कर उठा और ीचे उतर गया।

-यस सर बोनलये, मझु े क्या कर ा होगा? - लोग मझु े स की टीचर कहतें हैं क्योंनक मैं कुछ अनड़यल नकस्म का आदमी ह।ूँ मेरी पहली शता यह है नक मैं एक घिंटे की नसनटिंग के पािंच हजार रूपये लेता ह।ूँ नफर चाहे उस एक घिंटे में तुम अके ले पढ़ो,पािंच पढ़ो या दस पढ़ो। मेरी दसरी शता है नक मेरा नदया हुआ

अप े साथ नमठाई का निब्बा और गुरु दनक्षणा स्वरुप कोई उपहार लेकर मैं अप े गुरु नमश्रा जी के यहािं पहुचिं ा। दरवाजे की बेल बजा े ही वाला था नक मझु े अिंदर से जोर- जोर से झगि े की आवाजें 80


आ े लगीं। मेरा हाथ रुक गया। म में सोच े लगा नक शायद मैं गलत समय आ गया। और वानपस जा े की सोच े लगा नक तभी दरवाजा खल ु गया। दरवाजा सर की सुपुत्री सु ै ा े खोला और बोली अरे ! आकाश भैय्या आप ? आइये अिंदर। मैं बोला- क्या मैं बाद में आऊिं ? वो बोलीं -

वे बोले - आकाश बेटे, जब कोई इस तरह आकर मझु े अप ी सफलता का समाचर देता है तो मैं बहुत खश ु होता ह।ूँ मझु े लगता है नक मेरी बनगया में एक और सदाबाहर फल नखल गया। -सर, मैं तो वापस जा े की सोच रहा था वो बहस की आवाजें सु कर।

-अरे हीं ये तो नपता जी और भैय्या का चलता रहता है आप तो बैठो मैं पापा को बुलाती ह।ूँ

- अच्छा वो, ये हमारे यहािं का रोज का नकस्सा है। बेटे तमु अके ले हीं हो। तुम जैसे दजा ो को मैं े पढ़ाया और वे कई अच्छी जगहों पर बड़ी बड़ी पोस्टों पर काया रत हैं पर मेरा बेटा ! इसे मैं कभी भी हीं पढ़ा पाया। उसका पढ़ े में म ही हीं। ये समझ लो नक "दीया तले अूँधेरा" है। जैसे दीया अप े आसपास के अिंधकार को नमटा देता है पर उसका तला अन्धकार में ही रहता है उसी प्रकार मैं े अप े नशष्यों को योलय ब ाया पर अप े बेटे को ही योलय हीं ब ा पाया इसका मझु े नजदिं गी भर अफ़सोस रहेगा।

जब नमश्रा जी बाहर आए तो आते ही बोले -अरे आकाश तुम? कहो कै से आ ा हुआ ? अरे हाूँ तुम्हारी तो परीक्षा थी क्या रहा ररजल्ट।? मैं े फौर झक ु कर उ के चरण स्पशा नकये और शभु समाचर सु ाया।

सर के दुःु ख को अप े म में अ ुभव करते हुए मझु े कुछ सझा ही हीं नक क्या कहिं मैं े उन्हें नवचार मल छोड़ कर नवदा ले ा ही उनचत समझा। मझु े यही सबसे उत्तम लगा। उ के "बुझे हुए नचराग" से में भी दख ु ी हो गया।

उन्हों े सारे नलहाज छोड़ कर मझु े गले से लगा नलया। मा ो मैं उ के अप ा ही बेटा ह।ूँ उ की आिंखे म थीं।

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माता लक्ष्मी जी की च िंता सुशीला कुमारी धनबाद (झारखडिं )

एक दिन मा​ाँ लक्ष्मी द िंता में मग्न थी।

िीपक के तल में अिंधेरा रहता है सिा।

वेि व्यास ने दलख कर गीता,

िीपावली का पवव पास था,

वैसा ही कुछ िेश है भारत,

धमव से कमव को श्रेष्ठ बतलाया।

और अिंतर्द्वंर्द्व से त्रस्त थी।

करके उसने वेिों की र ना,

पर भारत आज भी कमवहीन बनकर,

िेख नारायण नारायणी की यह िशा,

जग को स्वच्छता का ज्ञान दिया।

धमव के नाम पर,

मनोदवनोि में छे ड़ दिया,

निी, समीर, वन, पववत सभी को,

अपने ही सगे बिंधओ ू िं का रक्त बहलाया।

हे महामाये ! जम्बूर्द्वीप वासी

िेव िेवी मानकर अदतशय सम्मान दकया।

एक मात्र िेश है भारत,

कर रहे तुम्हारे आगमन की तैयारी,

उनके इस िल ु वभ ज्ञान को,

दजसका सिंदवधान,

यह िेख क्या मन मयूरा सा ना रहा ?

सारे जग ने अिंगीकार दकया।

धमवदनरपेक्षता की बात करता है।

हरर के मनोदवनोि को सुन,

पर भारतवादसयों ने,

और उसी िेश में धमव के नाम पर,

माता शोकाकुल होकर बोली,

कभी नहीं इसे स्वीकार दकया।

सबसे ज्यािा रक्तपात होता हैं।

धरती वासी की िेख तैयारी,

आज भी गिंगा तट वासी,

ये नािान भारत वासी,

मैं पीड़ा से ग्रस्त ह।ाँ

सुबह लोटा लेकर जाते हैं,

इन्हें नहीं समझ इतनी भी,

हरर ने हरर प्रोबोदधनी की,

और पनु ः लौट कर गगिं ा में धोते हैं।

मन की िशा को भाप दलया,

िेकर शन्ू य आयवभट्ट ने,

दजन राहों से गजु र कर तमु इनके घर जाओगी ।

मस्ु कुराते हुए बोले हे िेवी !

गदणत का आरिंभ दकया।

तुम्हें िीपों से है अदतशय प्यार।

लेकर उस शन्ू य को,

फै लाता है वह जग में प्रकाश।

ीन, अमेररका, जापान ने,

पर नहीं जानती क्या तुम ?

पूरे साइवर वोर्ल्व का दनमावण दकया।

होता हैं उसका अिंधेरे में वास।

और भारत उनके तकनीकी के सहारे ,

जग को प्रकादशत करने वाले,

जीवन अपना बीता रहा। 82

उन राहों को ये अज्ञानता में गिंिा कर रहे । अपने घर से दनकाल सारे कूड़े को, वे उन राहों को भर रहे । सुन लक्ष्मीपती की बातें, माता लक्ष्मी जी थोड़ी मुस्कुराई,िं बोली, नाथ ! ठीक कहा आपने,


दिया तले हमेशा अिंधेर होता हैं।

आशीष िेता है।

प्यार से उनको अपनाया ।

पर िीया है अथव है िेना,

वैसे ही भारतीयों ने,

इसदलए मझु े भी लगता,

दफर वो कै से कुछ ले सकता है।

दकतना थोड़ा लेकर,

सभी िेशों में सबसे प्यारा।

वह हर कर जग का तम,

जग को बहुत कुछ दिया है।

बस िख ु होता हैं मझु को इतना,

खिु तम में रहता है।

जो भी आए पास में इनके ,

जग को सफाई का सिंिेश िेने वाला भारत,

सारे जग को सख ु , स्मृदि, दवकास का,

सर झक ु ाकर, हाथ जोड़कर,

खिु भी सफाई का सलीका जनता।

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दीया तले अंधेरा भावना मगं लमख ु ी मास्टर का बेटा मर् ू ख निकल जाए, गुरू का पुत्र हो जाए अज्ञािी । बाबा बि जाए बलात्कारी । उपदेश करिे लगे निर्ारी । सेवा वाला स्वार्ख साधे । चोर र्दु साहूकारी बतावे । पचं के घर झगडा होवे । वैधजी र्दु का ईलाज र्दु ि कर पावे । वकील को वकील की जरूरत पड जावे । अन्िदाता यनद िर् ू ा सोवे िवि निमाखता झोपडी में रह जाए । सैनिक सीमा पर शहीद हो जाए, रक्षक ही िक्षक बि जाए, साधु होकर चेली रार्े तो निर निनित ही समझो दीया तले अधं ेरा ही है ।

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पलायन संजय अग्रवाल रायपुर (छत्तीसगढ़)

लाश आगं न में पड़ी है। रोना मचा हुआ है घर भर में। सर्ू ा​ास्त के पहले क्रिर्ाकमा करना जरूरी है इसक्रलए पुरुष वगा हड़बड़ी मचा रहा है। वैसे भी पोस्टमाटाम वाली देह को क्र्ा औपचाररकता। बस जल्दी से सब अंक्रतम दशान करें तो चले।

जाता है। डॉ साब भी कहा​ाँ बचते राजनीक्रत की अप्सरा से। घर पररवार से ज्र्ादा उन्हें र्ही सब भाने लगा। बेटा बड़ा हो रहा था। अच्छी क्रशक्षा के क्रलए उसे मम्ु बई भेज क्रदर्ा। होस्टल की क्रजंदगी और मम्ु बई का खल ु ापन। चंद सालो में बेटे का कार्ाकल्प हो गर्ा। वो पढ़ाई परू ी कर वापस आर्ा तो पर क्रनकल आर्े थे उसके । डॉ क्रवजर् तो उसे देख िूले नही समाते थे। जब मौका क्रमलता उसकी बड़ाई। उसके क्रलए ज्वेलरी का शो रूम खल ु वा क्रदर्ा। गाड़ी लेकर दे दी। र्ूाँ कक्रहए बचपन की लेने की आदत न उसकी खत्म हुई न डॉ साब की देने की।

सबु ह चार बजे उठकर घमू ने जाने की आदत थी क्रवजर् को। जब सब जागे तो ध्र्ान गर्ा क्रक दरवाजा तो भीतर से बन्द है? क्रिर वो कहा​ाँ है। बहू अरुणा ने सब कमरों में खोजा तो ऊपर छत पर बने स्टोर का दरवाजा भीतर से बन्द था। क्रिर क्र्ा था अनहोनी की आशंका से घर में गुहार मच गई। दरवाजा तोड़ा गर्ा तो क्रवजर् की देह पंखे में। पोक्रलस आई जरूरी कार्ावाही हुई। एक पन्ने में बस इतना क्रलखा क्रमला, सारा जीवन बस इसी आस में क्रजर्ा क्रक बेटे के कंधे मजबतू हो जाए,ं मगर मैं सिल न हुआ। धृतराष्ट्र समान क्रपता होने का र्ही पररणाम होता है। मझु े सब माि करना।

समर् के साथ डॉ क्रवजर् की उम्र बढ़ी तो रुतबा भी। मगर प्रेक्रक्टस कम होने लगी थी। नए-नए स्पेशक्रलस्ट आ गए थे बाजार में और बड़े-बड़े अस्पताल। उम्र और समर् के साथ राजनीक्रत में भी हाक्रशर्े पर रख क्रदर्े गए थे। समाज सेवा का चस्का भी कम तो हुआ था मगर पूरी तरह नही।

लगभग सत्तर वषीर् क्रवजर् कुमार शहर के नामचीन डॉक्टर थे। एक जमाने में उन जैसा कोई डॉक्टर नही था। अनुभव ऐसा की नाड़ी छूकर रोग बता दें। क्रजतने अच्छे क्रचक्रकत्सक उतने ही अच्छे इसं ान। गरीबी से उठे हुए इसं ान को पता होता है पैसों से सब नही क्रमलता। तो क्रजतना हो सकता दसू रों की मदद करते। कई समाजसेवी संस्थाओ ं से जुड़े हुए डॉ क्रवजर् की अपनी ही पहचान थी। क्रक्लक्रनक से बचा समर् समाजसेवा में क्रनकल जाता।

ऊपर से बेटा ऐसा गुणवान की हर तीन चार साल में व्र्ापार बन्द कर क्रिर नए काम की खोज में लग जाता। ऐसा करने से माक्रकाट की उधारी बढ़ती जाती क्रजसे क्रवजर् अदा करते। और बेटे की हौसलाअिजाई भी करते क्रक कोई बात नही इस बार कोक्रशश करो सिल हो जाओगे। मगर उन्हें र्े नही क्रदखाई देता था क्रक नशे की आदत में डूबा हुआ बेटा काम से ज्र्ादा

घर पर पत्नी और एक बेटा बस। पत्नी भी घरे लू जो चंू तक न करती, उन्हे इतना ज्ञान क्रमला था क्रक पक्रत परमेश्वर होता है हमेशा उसका साथ देना चाक्रहए। बेटा इकलौता, आाँख का तारा। जो मंहु से क्रनकल गए समझो पूरा हो गर्ा। हर चाहत, हर िरमाइश। जब इसं ान पररवार को समर् न पा रहा हो तो प्रर्ास करता हैं पैसों से समर् की कमी को दरू करने की। क्रवजर् ने भी र्ही क्रकर्ा। एक वक्त ऐसा आर्ा क्रक उन्हें क्रवधार्क की क्रटक्रकट भी क्रमल गर्ी। हार गए वो अलग बात है। समाज सेवा और राजनीक्रत दोनो अलग चीजें है। पर शेर के मंहु में इसं ानी लहू लग जार्े तो वो आदमखोर हो ही 85


अय्र्ाशी में क्रदलचस्पी लेने लगा है। र्ा शार्द देख कर भी क्रबल्ली की तरह आख ं मदंू रखी थी उन्होंने।

क्रमल ही गर्ा लोन। इस बार थोड़ी आख ु ी रखी उन्होंने मगर जो शाक्रतर होते ं खल है उन्हें पकड़ना इतना आसान नही होता। पर कभी कभी कुछ ऐसा घट जाता है जो इसं ान को तोड़ कर रख देता है। कुछ क्रदन पहले बेटे की कार का एक्सीडेंट हुआ। नशे में चरू आधी रात में वो क्रकसी लड़की के साथ था क्रजसकी हालत गम्भीर थी। इसे ज्र्ादा चोट नही आई थी। दोस्तो ने बतार्ा क्रक गले तक वह कजा में डूबा हुआ है। व्र्वसार् का पैसा इसी तरह खचा होता है उसका।

उसकी इन्ही आदतों की वजह से शादी नही हो पा रही थी तो डॉ क्रवजर् ने एक गरीब पररवार की लड़की से ब्र्ाह क्रदर्ा। पररवार तो पूरा कर क्रदर्ा उन्होंने मगर क्र्ा सचमचु ऐसा हुआ। खल े आकाश में उड़ने वाले पछ ु ं ी को क्रपजं रे कहा​ाँ भाते हैं। एक साल पहले बेटे ने क्रिर अपना व्र्ापार लगातार घाटा हो रहा कहकर बन्द कर क्रदर्ा। और क्रिर नए काम की तलाश में जुट गर्ा। क्रवजर् ने कभी प्रर्ास भी क्रकर्ा क्रक क्र्ों हर बार इतना नुकसान होता है? क्र्ों बार बार क्रबजनेस बन्द करने की नौबत आती है? धृतराष्ट्र की तरह आंख बंद क्रकर्े वो पूरी तरह उसपर भरोसा करते आ रहे थे। क्रक कुछ महीने पहले घर को बैंक में क्रगरवी रखकर बेटे ने ऋण लेने की क्रजद पकड़ ली। नर्ा काम करना है, एक कम्पनी से बात हुई है उनकी डीलरक्रशप के क्रलए। क्रवजर् की जमा पूंजी तो पहले ही खत्म कर चक ु ा था वो, तो बैंक ही एक सहारा था। हालांक्रक उनकी उम्र आड़े आर्ी पर प्रक्रतष्ठा और प्रभाव के चलते

उस क्रदन से क्रवजर् मानो घर मे ही बन्द होकर रह गए थे। बाहर से राम नाम सत्र् है की आवाजें आने लगी हैं। बाहर कोई क्रकसी से कह रहा था, शार्द ऐसे ही लोगों के क्रलए कहावत बनी है क्रदर्ा तले अंधेरा। उसकी रोशनी भले ही चारों ओर उक्रजर्ारा क्रबखेरे पर उसके नीचे घोर अधं कार होता है। सारा जीवन सर उठाकर जीने वाले नामचीन डॉ क्रवजर् को बेटे के अंक्रधर्ारे ने लील क्रलर्ा।

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सतगुरु के दर उजियारा जिकास शर्ा​ा ियपुर मेरे घर में है दिया तले अँधेरा, तेरे घर में भी है दिया तले अँधेरा, पररवार में राजनीती -ये िोहरे चेहरे , क्या नहीं है ये दिया तले अँधेरा ! ये झठू े और स्वार्थ में दलप्त ररश्ते, ये अपनापन जताते -मीठी पर झटू ी बातें बोलते ररश्ते, इस कलयुग में पैसे को ही धमथ मानते ररश्ते, स्वार्थ के दलए एक छत के नीचे रहते ररश्ते, क्या नहीं है ये दिया तले अँधेरा !! चनु ाव के समय पाँव पड़ते ये नेता, गरीब -लाचार से इसं ादनयत दिखाते नेता, चनु ाव जीतने पर जनता को अपने क़िमों पर दबठाते नेता, क्या नहीं है ये दिया तले अँधेरा !!! धमथ के नाम पर डराते और लूटते ये धमथ के ठे केिार, ईश्वर का अवतार दलए लाशों का सौिा करते ये सफे िपोश इसं ान, आपकी मजबूरी में आपके कपडे उतारते ये खाकी और काले कोट वाले इसं ान, क्या नहीं है ये दिया तले अँधेरा !!!!! कहाँ नहीं है दिया तले अँधेरा, हाँ -उस सतगरु​ु के िर पर, उस इष्ट की चौखट पर, के वल वही ँ है उदजयारा -प्रकाश -राह, वहां नहीं है दिया तले अँधेरा ...!

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होश वाली बेहोशी ववकास शर्ा​ा जयपरु (राजस्थान)

मेरी रचना- दिया तले अँधेरा इस मुहावरे के मायने बहुत गहरे हैं, आज हम एक ऐसे भारत की कल्पना करते हैं जो कुरीदतयों से मक्त ु हो, जो समृद्धशाली हो, जो शदक्तशाली हो, जो इन्साफ परस्त हो, जो भ्रष्टाचार मक्त ु हो, जहाँ राजनीती का िबिबा नहीं योग्यता के मायने हों पर हक़ीक़त में िेखें तो हम के वल अपने मन मदस्तष्क में कल्पना ही करते हैं; पहल नहीं करते, हम के वल वाि दववाि संवाि करते हैं किम आगे नहीं बढ़ाते ! हममें से अदधकाश ं तः वही कायय करते हैं दजसे नहीं करने की वो अममू न सबको सलाह िेते रहते हैं यानी की दिया तले अँधेरा के सबसे बड़े उिाहरण हम ही हैं, कै से आइये मै ँ बताता ह-ँ १ : बाल दववाह; एक कानूनी अपराध है पर आज भी राजस्थान और अन्य राज्यों में आखा तीज और अन्य मौकों पर राजनीदतज्ञों के आशीवायि के साये में पुदलस प्रशासन की नाक के नीचे अनदगनत बाल दववाह प्रदत वर्य होते हैं -दिया तले अँधेरा ! २ : बाल दवधवा -सरकारी आक ु ं ड़ों के अनसु ार राजस्थान में एक भी बाल दवधवा नहीं है परन्तु एक िैदनक समाचार पत्र के २१ नवबं र के मख पृष्ठ पर समाचार था की ५ दजलों में ही ३५० से अदधक बाल दवधवाएं हैं, आश्चयय की बात तो ये है की कई मामलात में माँ (३५-४० उम्र)और बेटी (१३१५ उम्र) बाल दवधवाएं हैं; दजनकी तक़िीर का फै सला आज भी उनकी पंचायत ही करती है -दिया तले अँधेरा ! ३ : मृत्यु भोज, औरतों और मासूम बच्चों की खरीि दबक्री, आज के युग में भी कुछ गाँवों में औरतों के साथ शारीररक शोर्ण होने के बावजूि उनको ही अदग्न परीक्षा से गुजरना होता है। इनके अदतररक्त भी ऐसी कई सामादजक कुरीदतयों से आज भी राजस्थान और कुछ अन्य राज्यों के ग्रामीण बंधे हुए बेबस हैं और ि​ियनाक यह है की यह सब राजनेताओ,ं कानून और प्रशासन के सामने होता है और वो के वल िशयक मात्र बनकर िेखते हैं, एकिम मक ू -दिया तले अँधेरा ! ४ : योग्यता का अयोग्यता को सलाम -एक पढ़ा दलखा/दलखी भारतीय प्रशासदनक सेवा अदधकारी एक अनपढ़, आठवीं -िसवीं या बारहवीं पास दजसके ऊपर कानूनी के स चल रहे हैं राजनेता को सलाम ठोकता है, उनके हुकुम की तामील करता है -दिया तले अँधेरा ! ५ : हाल ही में िीपावली पर पटाखे चलाते हुए एक भाजपा सांसि की पोती की उत्तर प्रिेश के एक शहर में ि​ियनाक मृत्यु हो गई; दजन हुकुमरानों ने िीपावली पर पटाखों पर रोक लगाई उनके ही घर ये हाल -दिया तले अँधेरा ! ऐसे रोजमराय के जीवन में हजारों उिाहरण हैं चाहे वो भ्र्ष्ष्टाचार से सम्बदं धत हो या घर पररवार और समाज से जहाँ हम दिया तले अँधेरे को महसूस और कबूल करते हैं या यूं कहें की हम होश में रहते हुए सब कुछ जानते बुझते हुए भी बेहोशी वाली हरकतें करते हैं !

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दीया तले अँधेरा


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