आयुर्वेद

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ऐसा लगता है कि ज़िन्दगी एक वस्तु है जिसे एक कीमत चुका कर खरीदा जा सकता है। आयुर्वेद से सम्बंधित पदार्थों के विज्ञापन प्राचीन विज्ञान में हमारे विश्वास का और एक स्वस्थ और खुशहाली भरी ज़िन्दगी जीने की इच्छा का फायदा उठा रहे हैं। हमे पूंजीपति ऐसे वादे कर के लूट रहे हैं जिन्हें वह कभी पूरा नहीं कर सकते। जिसमे बेचने वाले और खरीदने वाले दोनों का फायदा होता हो वही एक नैतिक व्यवसाय होता है। लेकिन आयुर्वेद से सम्बंधित उत्पादों के विषय में हम देख सकते हैं कि इसमें अक्सर खरीददार धोखा खाता दिखाई देता है। इससे भी बुरा यह है कि इस तरह के गलत धंधों में संलिप्त अपराधी कानून में होने वाली कमियों का लाभ उठा कर बच निकलते हैं। लोगो द्वारा आयुर्वेद के सिद्धांत को अनदेखा कर देने के कारण ही आयुर्वेदिक उपचार पद्धती आज के जमाने 8 October/December 2014

से पिछडने लगी है। । इसके अलावा लोगो के मन में आयुर्वेद को लेकर कुछ गलत धारणाएं भी हैं जिसके लिए हमे आयुर्वेद से सम्बंधित वस्तुए ँ बेचने वाले लोग ही जिम्मेदार होते है। उदाहरण के लिए सामान्य तौर पर आयुर्वेद को प्रकृति से जोड़ कर देखा जाता है पर ऐसा नहीं है । आयुर्वेद में जड़ी-बूटियों, खनिजों और जानवरों से प्राप्त होने वाली दवाओं का उपयोग होता है, जैसे कि कर्तु र्यादि गोली में कस्तूरी पाया जाता है जो कि जानवरों से प्राप्त होता है इसमें गन्धबिलाव कस्तूरी भी होती है जो कि एक तरह की अन्य दवा है जो कि जानवरों से ही प्राप्त होती है। इनमे जहरीली जड़ी-बूटियों का भी प्रयोग किया जाता है जैसे कि कु चला(एक औषधी पौधा)। ऐसा भी माना जाता है कि सभी आयुर्वेदिक दवाएं सुरक्षित होती हैं लेकिन वास्तव में कोई भी दवा तभी सुरक्षित होती


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सुरक्षित तरह से ली जाए। पीड़ित की स्थिति, उम्र, ताकत, बिमारी का स्तर आदि का भी ध्यान रखा जाना आवश्यक होता है। इसके लिए चिकित्सक या वैद्य की सलाह लेना जरुरी होता है लेकिन आयुर्वेदिक दवाओं का प्रयोग करते हुए इन बातों का ध्यान नहीं रखा जाता। कुछ लोगों का यहाँ तक भी कहना है कि इन्हें लेने से कोई दुष्प्रभाव नहीं होता पर अगर ऐसा हो तो उस दवा को दवा ही नहीं कहा जा सकता। दवाई एक शक्तिशाली पदार्थ होती है जो कि इंसान के शरीर और मस्तिष्क को प्रभावित करने के हेतू से बनाया जाती है। कहने का तात्पर्य है कि दवा का असर जरूर होता है और असर ना हो तो उस पदार्थ को दवाई नहीं कहा जा सकता। अगर हम आयुर्वेद के सिद्धांतों का पालन करते हुए देखे तो बाज़ार में मौजूद कई वस्तुएं आयुर्वेद के सीमा से ही बाहर आ जायेंगी। उनमे से कई वस्तुएं बाज़ार में सिर्फ इसलिए बनी हुई हैं क्योंकि खरीददार आयुर्वेद के सिद्धांत से अपरिचित है और उपचार का सही तरीका नहीं जानते। असल में यह चमत्कारी दवाये मात्र बिक्री बढाने का एक साधन हैं। गौर करें तो आयुर्वेद से सम्बंधित ज्यादातर विज्ञापन गैर कानूनी हैं लेकिन क़ानून में मौजूद खामियों का लाभ उठा कर इन्हें बनाने वाले मुजरिम बच निकलते हैं। यह भी एक तथ्य है कि आयुर्वेदिक वस्तुओ के विज्ञापन अनैतिक होते हैं और खरीददार को बेवकूफ बनाने का काम करते हैं। कई विज्ञापनकर्ता यह दावा करते हैं कि उन्होंने अपनी वस्तु के असर को सिद्ध किया है। आयुर्वेद से सम्बंधित शोध शैक्षणिक और औद्योगिक दो स्तरों पर होता है। शैक्षणिक स्तर पर नियमों के पालन में ढिलाई बरती जाती है और औद्योगिक शोध से प्राप्त नतीजों पर अक्सर प्रश्न उठाये जाते है। आयुर्वेदिक शोध से सम्बंधित एक तथ्य मैंने देखा है कि इसमें पश्चिमी तौर तरीकों का प्रयोग किया जाता है जबकि यह आयुर्वेद के लिए उपयुक्त नहीं है। कम्पनियां बड़े बड़े दावे करते नहीं थकती। पांच साल पुरानी एक फर्म कहती है कि यह सदियों पुराना ज्ञान है जबकि यह तो हमारी सांझी विरासत का हिस्सा रहा है। बाज़ार में आयुर्वेद के नाम पर मौजूद कई वस्तुएं किसी तरह से आयुर्वेद के आधार पर नहीं देखी जा सकती। जैसे कि विज्ञापनों में दावे किये जाते हैं नमक मोटापे से लड़ने में साहायक होता है। लेकिन नमकीन पदार्थ की बात करें तो ऐसा आयुर्वेद में कहीं जिक्र नहीं है कि नमक चर्बी घटाता हो। कई उत्पादक यह भी दावा करते है कि वह साधारण नमक नहीं बल्कि सैंधा नमक का प्रयोग करते है जिसमे कि दवा के गुण होते है। जबकि सैंधा नमक जमीन से प्राप्त नमक होता है। लोग मानते हैं कि सैंधा नमक पटैसीअम क्लोराइड होता है। देखा जाए तो अशुद्ध सैंधा नमक में पटैसीअम क्लोराइड के गुण होते हैं लेकिन वह साधारण नमक में भी होते है। जिस सैंधा नमक की बात विज्ञापन करते हैं वह कुछ और नहीं उद्योगों द्वारा उत्पादित अशुद्धियों और सोडियम क्लोराइड का मिश्रण होता है। और तो और अगर सैंधा नमक में कोई खूबी होती भी है तो वह बाजार के सैंधा नमक में नहीं होती। आयुर्वेद में एक औषधीय तेल का

जिक्र किया जाता है जिसे कि सैन्ध्वादी तेल के नाम से जाना जाता है इस औषधीय तेल के दो प्रकार होते हैं एक नालव्रण (भगंदर) के उपचार के लिए और एक ग्रीवा के उपचार के लिए। और इन दोनों में से कोई भी चर्बी घटाने का काम नहीं करता। एक अन्य उदाहरण देखा जाए तो इस तेल का अस्थमा और हिचकी के उपचार तथा यह उलटी को रोकने के लिए भी उपयोगी होता है। जिसकी एक पूरी एक प्रक्रिया होती है। सैन्ध्वादी तेल श्र्लेष्मा अलग करने या गैस्ट्रो आंत्र पथ का उपचार करनेमें काम आता है। श्र्लेष्मा कि उचित टुकडी को सक्षम करने के लिए पसीना आने के बाद मांस सूप, दही दिया जाता है।. श्लेष्मा (बलगम) को खत्म करने के लिए चिकित्सक तरीके से उल्टी करवायी जाती है। काउन्टर पर बेची तेल में, यह भी विस्तृत प्रक्रिया का उल्लेख नहीं है। इस पूरी प्रक्रिया का कोई जिक्र तक बाज़ार में नहीं मिलता जहां सैन्ध्वादी तेल बेचा जाता है। गोविन्द दास ने उन्नीसवीं शताब्दी में “भारतीय रत्नावली ग्रन्थ” लिखा जो कि नवीनतम प्रमाणिक आयुर्वेदिक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में मोटापा घटाने के सम्बन्ध में एक अलग पाठ है लेकिन वहां भी इसके लिए कहीं सैंधा नमक के प्रयोग का जिक्र नहीं मिलता। “अष्टांग हृदय सूत्र-स्थान” (पाठ -१४, छंद २१ से २८) मोटापे के इलाज से सम्बंधित है लेकिन वहां भी सैंधा नमक का कोई जिक्र नहीं आता। बाजार में नमक वाला जो तेल बेचा जाता है उसका कोई वैज्ञानिक आधार भी नहीं है। ऐसे में यही लगता है कि यह उत्पादकों की ही उपज है। वह अनुसंधान( संशोधन) से इसके नुक्सान ना होने की बात करते हैं लेकिन वह इसके प्रभाव की बात नहीं कहते। यह सब पदार्थ बेशक आयुर्वेद में प्रयोग में आते हो लेकिन मोटापा घटाने के काम नहीं आते इसलिए इन्हें आयुर्वेदिक नहीं कहा जा सकता। ऐसी भी कई दवायें है जो पहले एलोपैथिक दवाओं के तौर पर बेचीं जाती थी लेकिन अब आयुर्वेदिक दवाओं के तौर पर बेचीं जाती हैं। यह सिर्फ दवाखानों पर ही नहीं साधारण दुकानों पर भी बेचीं जाती है। ठीक यही बात बाज़ार में मौजूद आयुर्वेदिक वस्तुओ ं के साथ भी है। उत्पादक खुद कहते हैं कि उनकी वस्तु दवाखानो, आयुर्वेदिक दवाखानों और परचून की दुकानों पर भी उपलब्ध हैं। जबकि परचून की दुकानों पर दवा बेचना गैरकानूनी है। आयुर्वेद में उत्पादकों के लिए भी कुछ नियमो का जिक्र किया गया है। चरक संहिता वैश्यों द्वारा आयुर्वेद का ज्ञान लेने में कोई पाबंदी नहीं लगाता। चिकित्सा रसायनशास्त्र पर आधारित एक पुस्कत जो कि १३ वीं शताब्दी में लिखी गयी और जिसे’रासा-रत्न-समुच्चया’ के नाम से जाना जाता है।इस ’रासारत्न-समुच्चया’ में उत्पादकों द्वारा लिए जाने वाले मुनाफे के बारे में बताया गया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी इसका

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जिक्र है। यह बताता है कि दवाओं का उत्पादन और बिक्री क़ानून के अनुसार सही है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में के रल में आयुर्वेद के क्षेत्र में बड़ा बदलाव देखने मिला। तब से अब तक आयुर्वेद पर आधारित दवाओं का उत्पादन जरुरत और मांग के हिसाब से किया जाने लगा। हालांकि कुछ जरुरी दवाओं को गोलियों के रूप में पहले से तैयार रखना खत्म नहीं हुआ। ऐसे में कम अवधि तक ठीक रहने वाली दवाओं का उत्पादन जरूरत पढने पर किया जाने लगा। कुछ मामलों में ’रासा-रत्न-समुच्चया’ में झूठी मांग को भी बढ़ावा दिया।


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वाग्भट, अगस्तया के सभी नियमों और उपदेशों का पालन करना चाहिये और आयुर्वेद को वैज्ञानिक रिकॉर्डिंग के पैरामीटर के तहत लाना चाहिये जो पश्चिमी दुनिया के लिए स्वीकार्य हो । इसका अर्थ है के सतत अनुसंधान के साथ संतों द्वारा निर्धारित विशेषताओं में निहित शास्त्रीय स्पष्टीकरण को पुष्ट करने के लिये अवसर मिलने चाहिये। वर्तमान में इस प्रणाली का अभ्यास कई आयुर्वेदिक डॉक्टरों, वैद्यों या चिकित्सकों द्वारा किया जा रहा है । देश के विभिन्न भागों में असंगठित वैद्य आयुर्वेद का नेततृ ्व करने के लिये पूरी तरह से सक्षम नहीं हैं सरकार को कई महत्तवपूर्ण कदम उठने कि आवश्यकता है जो आयुर्वेद कि इस प्रणाली को अधिक प्रभावी बना सके सरकार को आयुर्वेद के लिये धनराशि उपलब्ध करानी चाहिये इस तथ्य पर विचार करने कि आवश्यकता है सरकारी कर्मचारियों के लिए चिकित्सा धन अदायगी एलोपैथिक दवाओं और उपचार के लिए ही उपलब्ध

हैं. आयुर्वेद को इस के लिये गिना ही नहीं जाता है क्यों सरकार आयुर्वेद को अनदेखा कर रही है आयुर्वेद को अंतरराष्ट्रीय पैरवी को आगे बढ़ाने के लिए कोई भी साधन नहीं है जबकि आधुनिक चिकित्सा के सही प्रभाव के लिये हर सुविधा उपलब्ध है। राष्ट्रीय स्तर पर, आयुष विभाग आयुर्वेद,सिद्ध और यूनानी प्रणाली का खयाल रखता है। तथा राशि भी उपलब्ध करता है कुछ राज्यों में आयुष द्वारा दी गई सुनिश्चित राशि का आयुर्वेद के विकास में प्रयोग नहीं कर रहे हैं। यहां तक कि एक समय पर भारत सरकार द्वारा आवंटन आयुर्वेद की पूरी क्षमता का विकास सुनिश्चित करने के लिए कि पर्याप्त नहीं हैं। आयुर्वेद के विकास के लिये सरकार को कुछ महत्तवपूर्ण कदम उठने की आवश्यकता है। आयुष विभाग में इसके लिए सक्षम कार्य प्रणाली की आवश्यकता है एक टीम बनाने की चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा देना चाहिये और यह कार्य अधिक सख्ती से किया जाना चाहिए। चिकित्सा पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये और अधिक सख्ती होनी चाहिये चाहिए। हमे कु आलालंपरु , सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड और फिलीपींस जैसे स्थलों पर किए गए प्रयासों से प्रेरणा लेते हुए प्रयास करना चाहिए। चीन अपने पारंपरिक दवाओं और प्रथाओं को बहुत महत्व देता है, और प्रयासों सरकारी स्तर पर उछाल रहे हैं.और सरकार इसके लिये बहुत अधीत स्टार पर प्रयास कर रही है। जब भारतीय प्रधानमंत्री चीन का दौरा करें तो उन्हे आयुर्वेद पेशेवरों के साथ भी भेंट करनी चाहिये जिस े कि भारत की पारंपरिक प्रणाली अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रकाश डाल सके । आयुर्वेद के क्षेत्र से बहुत उम्मीदें हैं तथा इसके विकास की भी अधिक गुंजाइश है । आयुर्वेद के क्षेत्र के लिये नियमित परामर्श प्रक्रिया आयुर्वेद को लोकप्रिय बनाने के लिए बहुत आवश्यक है। अध्ययन में पाया गया है कि आयुर्वेद के क्षेत्र में उद्योग शैक्षिक -उद्योग सहयोग की अवश्यकता है। जीवन शैली से सम्बंधित रोगों का समाधान करने के लिये आयुर्वेद और योग ने अपना योगदान दिया है, जिसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय किया जाना चाहिए। नवीन निष्कर्षों के अनुसंधान और प्रलेखन की वृद्धि की आवश्यकता है। एच आई वी पॉजिटिव मामलों सहित विभिन्न रोगों के उपचार में आयुर्वेद की भूमिका को लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए। आयुर्वेद के क्षेत्र में उचित गुणवत्ता नियंत्रण प्रणाली की आवश्यकता है जो जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में विभिन्न मुद्दों का प्रमाचार जिसमे विभिन्न देशों की कानूनी समस्याएंभी शामिल हो। आयुर्वेदिक शिक्षा प्रणाली और पाठ् यक्रम का अद्यतनीकरण सख्ती से किया जाना चाहिये और आयुर्वेदिक चिकित्सा और सर्जरी (बीएएमएस) पाठ् यक्रम के स्नातक में सुधार किया जाना चाहिए। सरकार को जनता के लिये स्वास्थ्य की नीति

तैयार समय आयुर्वेद के क्षेत्र को शामिल करना चाहिए। नए औषधीय पौधों की खेती करने की तथा बेहतर योगों को विकसित करने की तत्काल आवश्यकता है। विशेषज्ञों द्वारा आयुर्वेद को उंचे स्तर पर ले जाने के लिये अनेक सलहा दी गई है जिनमें से कुछ यहा उल्लेख हैं: • • • • • • • • • • • • • • • • • •

10 औषिधियों या प्रक्रियाओं के मानकीकरण का आरंभ होना चाहिये तथा प्रोटोकॉल विकसित होने चाहिये। आयुर्वेदा में सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल को मजबूत बनाना। एकीकृ त स्वास्थ्य देखभाल मॉडल, आधुनिक चिकित्सा होमियो, योग और सिद्धा के साथ, आयुर्वेद में शामिल होने चाहिये। आधुनिक विज्ञान के वैज्ञानिकों की भागीदारी से साथ आयुर्वेद की बुनियादी अनुसंधान गतिविधियों को आयेज बढ़ाना चाहिये। आयुर्वेद की पर्याप्त और उचित प्रतिनिधित्व आधिकारिक वेबसाइट पर सुनिश्चित होनी चाहिये। आयुर्वेद के लिए स्थापित स्पेशियलिटी अस्पताल और स्वास्थ्य क्लीनिक होने चाहिये। आयुर्वेद के लिए उपयुक्त मॉडल के साथ नैदानिक अनुसंधान की पहल होनी चाहिये। आयुर्वेद के क्षेत्र में लाइसेंस प्रक्रिया को सरल बनाना चाहिये। अस्पतालों, नर्सिंग, पंचकर्म, योग के न्द्रों के लिए एक मान्यता प्रक्रिया का परिचय होना चाहिये। नकली दवा के उत्पादन को रोकने के लिए मजबूत नियामक प्रवर्तन सुनिश्चित होने चाहिये। आयुर्वेद उपचार के लिए बीमा व्याप्ति सुनिश्चित होनी चाहिये। आयुर्वेद के लिये पर्याप्त वार्षिक बजट निर्धारित काइया जाना चाहिये। आयुर्वेदिक दवाओं और उपचार की प्रभावकारिता साबित करने के लिए अंतरअनुशासनात्मक शोध का संचालन होना चाहिये। फार्मेसी के आधुनिकीकरण सुनिश्चित होने चाहिये। ऊर्जा-बचत का समर्थन आयुर्वेद निर्माताओं को प्रदान होना चाहिये। स्नातक / स्नातकोत्तर कार्यक्रमों के पाठ् यक्रम का नियमित पुनरीक्षण, कम से कम साल में एक से दो बार होना चाहिये। परंपरागतकी ज्ञान और अनुसंधान के प्रलेखन में सुधार आना चाहिये। निर्यात संवर्धन के लिए कानूनी सुविधा होनी चाहिये।

नई सरकार को आयुर्वेद के विकास की प्रक्रिया का आरंभ कर देना चाहिये, इस प्रणाली का दुनिया भर में प्रचार करना चाहिये, वह प्रणाली जो राष्ट्र को प्रिय हो तथा आधुनिक चिकित्सा धारा के साथ मिलकर चले। 15 October/December 2014


16 October/December 2014


करने में ईमानदार कोशिशों की कमी देखने में आई है। आयुर्वेद और अन्य भारतीय चिकित्सा प्रणालियाँ जिस तरह से उपचार के क्षेत्र में अनेको अवसर प्रदान कर सकती थी उस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। विदेशी मुल्कों की सरकारों ने आयुर्वेद को मान्यता दिलवाने की दिशा में भी कोई कदम नहीं उठाया है। सार्वजनिक तौर पर उसका प्रचार होता देख कर, आयुर्वेद समाज आयुर्वेद के भूमंडलीकरण के पीछे पागल है, लेकिन वास्तव में यह कम समय में लाभ कमाने का जरिया ज्यादा बनता जा रहा है। इसके मूल नैतिक आधार को पूरी तरह से भूला दिया गया है जो कि इसे अन्य चिकित्सा प्रणालियों से अलग करता था।। वर्तमान परिस्थिति में भूमंडलीकृ त होते आयुर्वेद का जश्न मनाया जाना झूठा, खोखला और अनैतिक है। आज की भूमंडलीकृ त दुनिया में आयुर्वेद की सही जगह ढूँढने के लिए ‘आयुर्वेद समाज’ को कुछ मापदंडो को अपनाने की जरुरत है। उदाहरण के तौर पर इनमे से कुछ इस तरह है। • दुनिया भर में आयुर्वेद को शोके स की वस्तु बना कर पेश करने से पहले खुद अपने देश में इसे मजबूत किये जाने की जरूरत है। • आयुर्वेद के अनावश्यक विज्ञापन आदि बंद किये

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जाएँ। आयुर्वेद के वास्तविक प्रसार, प्रचार के लिए आचार्यों और वैद्यों को प्रशिक्षित किया जाए। आयुर्वेद को समझने और सीखने के इच्छुक लोगो के लिए पाठ् यक्रम शुरू कि जाए। आयुर्वेद के अध्यापकों, शिक्षको को बढ़ावा देना और सम्बंधित संस्थानों को इतनी स्वायत्ता देना की, वह अपनी खुद की खासियतें विकसित कर सकें । आधुनिक दवाओं की पढ़ाई के पाठ् यक्रमों में आयुर्वेद से जरुरी जानकारियां शामिल करना, छात्रों को अपने प्राचीन चिकित्सा पद्धति की इज्जत करना सिखाया जाये। सिद्ध, तिब्बतन दवाओ यूनानी और योग आदि को इससे जोड़ना। आयुर्वेदिक चिक्त्सीय पद्दति और अन्य भारतीय चिक्त्सीय पद्दतियों के क्लिनिकल शोध को बढ़ावा दिया जाये और सिर्फ दवा के असर के आधार पर ही नहीं बल्कि समग्र तथ्यों के आधार पर उपचार करने के तरीके को बढ़ावा दिया जाए। आयुर्वेदिक उपचार की प्रक्रिया में दावा के महत्त्व से ज्यादा उपचार की प्रक्रिया पर जोर दिया

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जाना चाहिए। आयुर्वेद से जुड़े शास्त्रों की पढ़ाई पर जोर दिया जाए ताकि आयुर्वेद से सम्बंधित ज्ञान को बढ़ाया जा सके । प्रतिष्ठित संस्थानों के साथ जोडने की प्रक्रिया को बढाया जाए ताकि प्राचीन चिकित्सा पद्धति को याद रखा जाये और उसे सराहा जाए। आयुर्वेद के प्रचार-प्रसार के लिए चिकित्सा(मेडिकल) संस्थानों की संख्या बढाने की आवश्यकता है। पारंपरिक दवाओं में मानव संसाधन के विकास के बेतरतीब तरीके को व्यवस्थित किया जाना चाहिए। भारत में आयुर्वेद का प्रसार करने की जरुरत है ताकि इसे जनता के उपचार की एक व्यवस्था की स्वीकृ ति दिलाई जा सके जैसा कि पहले के रला में हो चुका है। विदेशो में आयुर्वेद के प्रचार- प्रसार को बढ़ावा दिया जाना चाहिए जिससे आयुर्वेद को मान्यता प्राप्त हो सके । आयुर्वेद का मुख्य लक्ष्य लोगो की सुविधा, भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण, ज़िन्दगी के नैतिक आयामों को सुदृढ करना है। आयुर्वेद समाज के लिए वह समय आ गया है कि वह अपने कुछ नियमों का आधारभूत ढांचा तैयार करें। ऐसा नहीं करने पर आयुर्वेद को गहरा आघात पहुचं ेगा और मानव सभ्यता की सेवा करने की इसकी शक्ति खत्म हो जाएगी।

17 October/December 2014


सही से सास ं लें प्राणायाम शरीर और मन के लिए बहुत लाभदयक है। यह शारीरिक व्यायाम और ध्यान का एक मिश्रण है। तीन भाग की शख ्रृं ला में, ए पी जयदेवन इसका सार्थक अभ्यास करने की सही प्रक्रिया बता रहें हैं।

ए पी जयदेवन हम लोग भोजन के बिना कुछ दिन जीवित रह सकते हैं । नींद और पानी के बिना भी कुछ सप्ताह जीवित रेह सकते हैं । परंतु हम श्वास की बिना कुछ पल से ज़्यादा जीवित नहीं रह सकते, यह बात सब जानते हैं पर बहुत ही कम एसे व्यक्ति हैं जो सांस लेने की प्रक्रिया को जानते हैं। आम तौर पर, लोगों को अपनी पूरी साँस लेने की क्षमता का ज्ञात ही नहीं है। वे सांस लेने की क्षमता का के वल एक आधा भाग ही प्रयोग करते हैं। तनाव, गलत तरीके से बैठना, ऑफीस में लम्बे समय तक एक ही अवस्था में बैठना और भी एसी कई बुरी आदतों के कारण सही तरीके से सांस लेने में बाधा आती है। अनुचित तरीके से साँस लेने से ऑक्सीजन / कार्बन डाइऑक्साइड अनुपात में असंतल ु न बन जाता है जिससे अतिवातायनता होती है तथा चक्कर आते हैं। अगर मस्तिष्क में सही तरह से ऑक्सिजन नहीं जाता है, तो यह शरीर के कई महत्तवपूर्ण अंगो के लिये नुकसान दायक होता है। हमारे मस्तिष्क को सबसे ज़्यादा ऑक्सिजन की आवश्यकता होती है। अगर ऑक्सिजन ठीक तरह से मस्तिष्क में नहीं पोंहुचती तो हम मानसिक सुस्ती, नकारात्मक विचार तथा डिप्रेशन जैसी परेशानियों से ग्रस्त हो सकते हैं वृद्ध अवस्था में हमेशा लोग एसी परेशानियों का सामना करते हैं मस्तिष्क में सही तरह से ऑक्सिजन ना जाने के कारण वे अक्सर बूढ़े व अस्पष्ट हो जाते हैं। ऑक्सिजन ठीक से मस्तिष्क में ना पहुचने पर शरीर के कई अंगों पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। उचित ऑक्सीजन की आपूर्ति शरीर को कु शलतापूर्वक तरीके से भोजन को शरीर में लाभ पोहुचाने में सहायता करता है । और विशेष रूप से सभी हानिकारक उत्पादों से मुक्त करता है जैसे कि कार्बन डाइऑक्साइड। हमारी सांस लेने में क्या समस्या है क्या यह बहुत कम आती है, या बहुत जल्दी जल्दी आती है, आज कल क़ी जीवन शैली में जो तनाव बढ़ता जा रहा है, वह सांस लेने पर प्रभाव डाल रहा है। जिसका परिणाम शरीर में ऑक्सिजन की कमी तथा शरीर में विषैले पदार्थ का बढ़ना होता है। 18 October/December 2014


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कई हज़ार वर्ष पहले ऋषि मुनि सही तरीके से श्वास लेने की महत्तवता को जानते थे, हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है कि जब तक मनुष्य के शरीर में श्वास चल रही है वह जिवित है, श्वास नहीं तो मनुष्य का जीवन भी नहीं। श्वास सही तरह से लें योगा की भाषा में श्वास लेने की कला को प्रणायाम कहा जाता है। श्वास लेने का मतलब् है की मनुष्य में प्राण है हालांकि मानव शरीर में यह कई में से के वल एक अभिव्यक्ति है। उपनिषद का कहना है कि जो व्यक्ति प्राण जानता है। वेद जानता है प्राण ब्रह्मांड में सभी उर्जा की सारांश है। यह प्रकृति में मौजूद सारी शक्तियों का संपूर्ण जोड़ है प्राण के वल वायु नहीं है। यह तो वह सूक्ष्म जीवन देने वाला तताव है, जो वायु में समाया हुआ है जितना आपके शरीर में जीवन शक्ति होगी उतना ही अधिक आप जिवित होंगे, जितनी कम जीवन शक्ति उतना ही कम जीवन। जीवन शक्ति सभी रूपों में उपलबध है, लेकिन यह सुलभ है और हवा में अस्थिर है। प्राचीन काल में हमारे ऋषियों को यह ज्ञात था के हमारा शरीर पांच प्रकार की महत्तवपूर्ण उर्जा से काम करता है। जिन्हे पांच प्राण भी कहा जाता है। योगियों के अनुसार प्राण श्वास तथा मस्तिष्क आपस में बारीकी से जुड़े हुए हैं। प्राण ही आपके फे फड़ों को सांस लेने में सक्षम बनाते हैं जब हम सांस लेते हैं तो हम ब्रह्मांडीय प्राण अंदर लेते हैं। जो की पुर शरीर को उर्जा देता हैं। प्रणायाम का अभ्यास पूरे शरीर में प्राण के प्रवाह को नियंत्रित करता है। यह व्यवसायी विचारों को भी नियंत्रित करता है और उन्हे शांत करता है एक औसत व्यक्ति साँस लेने के दौरान वायु का लगभग 500 घन सेंटीमीटर लेता है लेकिन गहरी साँस लेते वक़्त वायु का सेवन 3000 क्यूबिक सेंटीमीटर बढ़ जाता है जो की सामान्य अवस्था से छ्ह गुना अधिक है । प्राणायाम के अभ्यास से श्वसन प्रणाली (respiratory system) तथा संचार प्रणाली अच्छी तरह से काम करती है तथा जिसके कारण (detoxification) सही होता है जो की स्वस्थ के लिये बहुत लाभदायक है। प्राणायाम से व्यक्ति फे फड़ों का पूर्ण उपयोग करने में सांस लेने की दर को सामान्य करने में सक्षम हो जाता है। वह सांस लेने की प्रक्रिया में सतत और लयबद्ध बनाना सीखता है। यहाँ उन लोगों के लिए कुछ बुनियादी अभ्यास निम्न हैं जो प्राणायाम सीखना चाहते हैं यह अभ्यास को वृध व्यक्ति भी कर सकते हैं। उदर श्वास अपने दोनो पैरों को आपस में मोड़ कर फर्श पर आराम से बैठ जाएं, या अपनी पीठ के बल फर्श पर शवासन की अवस्था में लेट जाएं आप अपना एक हाथ अपने पेट पर रख सकते हैं, ताकि आपको अपने पेट का बढ़ना और गिरना अनुभव हो सके अपने शरीर और मस्तिष्क को शांत कर लें अब नाक धीरे-धीरे और गहरी सांस लें, सीने को स्थिर रखकर अपने पेट को फूलते तथा उपर उठाते हुए अनुभव करें और जब आप सांस छोड़ें तो अपने पेट को नीचे होता

हुआ अनुभव करें। इस व्यायाम का अभ्यास दस चक्र में करें। सांस लेना और सांस छोड़ना एक चक्र के बराबर है। लाभ धीरे धीरे व गहरी सांस लेने से आपके फे फड़ों के निम्नतम भाग में भी वायु का गमन होता है। तथा इस से मध्यपट यानी डायाफ्राम की कसरत होती है। जिस से श्वास लेने की शांता में वृद्धि आती है यह आपके शरीर मस्तिष्क को शांत करता है। और आंतरिक अंगों की मालिश करता है तथा इससे नींद भी अच्छी आती है । पंजर श्वास अपने दोनो पैरों को आपस में मोड़ कर फर्श पर आराम से बैठ जाएं या अपनी पीठ के बल फर्श पर शवासन की अवस्था में लेट जाएं। आप अपने हाथों को आराम से फर्श पर रखें या अपने पंजर के उपर भी रख सकते हैं, ताकि उसका सिकुड़ना और उसका विस्तार अनुभव कर सकें , अपने पेट को बहुत ही आराम से अनुबंध (सिकोड़ें) करें अपनी नाक के माध्यम से धीरे-धीरे श्वास पंजर के अंदर पहुचँ ायें श्वास पूरी तरह से फे फड़ों तक ले जाने की बजाये अपनी पसलियों के बीच रखने पर कें द्रित रखें। लाभ इस को करने से मस्तिष्क को आराम मिलता है तथा फे फड़ों को मजबूती मिलती है। पूर्ण श्वास अपने दोनो पैरों को आपस में मोड़ कर फर्श पर आराम से बैठ जाएं, या अपनी पीठ के बल फर्श पर शवासन की अवस्था में लेट जाएं, अपनी श्वास को जांचने के लिए अपना एक हाथ अपने पेट पर रखें तथा दूसरा हाथ पसलियों पर रख लें धीरे से नाक के मध्यम से सांस ले पेहले अपने पेट को करें उसके बाद अपने पंजर को फिर अपनी ऊपरी छाती को फूलता हुआ अनुभव करें जब आपकी पसलियाँ और सीना फूलेगा तो आपका पेट स्वचालित रूप से बाहर नीकलेगा धीरे धीरे सांस छोड़ते हुए फे फड़ों को खाली करें शरीर को झटका ना दें प्रश्वास और साँस छोड़ने की प्रक्रिया को सही ढंग से करें अभ्यास करते समय बीच में सांस ना रोकें सांस नीचे से उपर की तरफ लें तथा सांस उपर से नीचे की ओर छोड़ें पाँच बार दोहराएँ। लाभ इससे आप अपने जीवन में होना वाला तनाव और चिंता से मुक्त हो सकते हैं। आप अपने मन और शरीर को शांत करने के लिए, कहीं भी कभी भी इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। आप इस तकनीक का प्रयोग

20 October/December 2014

आसान या ध्यान लगने से पहले कर सकते हैं जिससे की आपको ज़्यादा लाभ मिले। जो लोग प्राणायाम सीखना चाहते हैं, वे एक प्रामाणिक शिक्षक से संपर्क करें इन सभी प्राचीन प्रथाओं का महत्व और गहरा अर्थ है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। अगर प्राणायाम योग आसन के साथ उचित ढंग से किया जाये तो यह आपके शरीर के लिये बहुत लाभदायक है, परंतु अगर इन्हे सही तरीके से ना किया जाये तो ये आपके शरीर पर लंबे समय तक बुरा प्रभाव डाल सकते हैं। प्राणायाम अष्टांग योग के चौथे चरण के रूप में आता है। पिछले चरण के योग में शरीर और मन को पूर्ण नियंत्रण में रखने की आवश्यकता होती है। प्राणायाम करते समय में एक व्यक्ति स्वयं की बुनियादी ऊर्जा को पेहचान रहा होता है। और अगर इसमे माहिर बनने के लिए मीलों की दूरी तय करनी होगी। लेखक श्री शंकराचार्य संस्कृ त विश्वविद्यालय, कलादी, के रल में एक योग प्रशिक्षक और अनुसंधान विद्वान है।


GROUP PUBLICATIONS Vol. 3 | Issue No. 2 | April - June 2014

Vol. 1, Número 1, Enero-Marzo 2014

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Escucha, por favor Artículo de portada Aproximación ayurvédica a los trastornos de columna

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La ciencia de la vida y su legado de Guyarat

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21 October/December 2014


22 October/December 2014


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प्रतिबन्धित खाद्य रोग आज की जीवन शैली में बीमारी बहुत ही आम हो गाई है। इसका एक कारण हमारा भोजन भी है। शुरुआत में ही एक उदारवादी और सुनियोजित अहार योजना ही रोगों का सामना करने के लिये सक्षम है। क्या खाना चाहिए से अधिक महत्तवपूर्ण है के हमे ज्ञात हो के क्या नहीं खाना चाहिए। इस श्रृंखला में भोजन के विभिन्न पहलुओ ं के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करने का उद्देश्य है। यहाँ हमने ध्यान कें द्रित किया हैं, के एक व्यक्ति जो विशिष्ट रोगों से पीड़ित है उसे कौनसे खाद्य पदार्थ से दूर रहना चाहिए। संधिशोथ • खाद्य पदार्थ : गुड, काले चने, अखरोट का सेवन

ना करें, ये बलगम बनाते हैं तथा शरीर में विषैला पदार्थ बढाते हैं। सब्जियां: इनमे से ज्यादातर कफ और विषाक्त पदार्थों के गठन को कम कर देती हैं,सब्जियां ठंडी तासीर वाली होती हैं इसिलिए इनका सेवन मसलों के साथ करना चाहिए, बैंगन, पालक और भिंडी का सेवन ना करें। मांस: जानवरों के मांस को पचने में परेशनी होती है और यह पाचन आग क्षीण के लिये नुक्सान दायक है जिसके कारण अपचन की परेशनी हो सकती है, मछली के सेवन से बचें क्योंकी इसको खाने से लसिका परिसंचरण और रक्त दूषित हो सकता है और शरीर के चैनलों में रुकावट आ

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जाती है और शरीर के कई भागों में सूजन आ जाती है। तरल पदार्थ: दही और ठंडे पानी का सेवन करने से शरीर में कफ तथा वात दोष बढता है। दूध पचन अग्नि को शान्त करता है और कफ दोष को बढ़ाता है। अन्य कारण: अनियमित रूप से खाने की आदतें जैसे की तेल में बना खाना खाना के बाद तुरन्त व्ययाम करना, बेमेल खाने का सेवन करना (उदाहरण के लिए, मछली के साथ दही और तिल के तेल के साथ मीट), बेमेल खने से बचना चाहिए क्योंकी यह रोग का बहुत बड़ा कारण हो सकता है। खाने के बाद ज्यादा पानी नहीं पिना


चाहिए क्योंकी यह पचान की क्रिया को धीमा कर देता है। गर्तदाह इस अवस्था में कफ (बलगम और अन्य स्राव)का बढ़ना मुख्य रूप से कारण होता है।जिन आहार को खाने से तीन दोष बढ़ते हैं। विशेष रूप से वात् दोष एसे अहारा से परहेज करना चाहिये। ताज़ा तैयार हुई वाईन, ठंडा पानी, एसे खाद्य पदार्थ जिन्हे पचने में कठिनाई होती है, और जो स्वाद में मीठे होते हैं, अतिरिक्त सूखे खाद्य पदार्थ, तेल में बनी खाद्य सामग्री, ठंडे पानी से नहाना, ठंडा पानी पीना, सेक्स, ठंडी तासीर वाले खाद्य पदार्थ, अधिक सोचना, suppression of urges, दूख, उदासीन रेहना, ज़्यादा सोना और दिन में सोना, ये सभी वात् और कफ को बढ़ते हैं तथा इसीलिये कफ sinuses में जाकर सूख जाता है। इसके अतिरिक्त दही जैसे पदार्थों से बचे ये शरीर में कफ की मातृ को बढ़ाता है, तथा ये शरीर के जलग्रीवा में बाधा बनता है।

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चने आदि से परहेज़ करना चाहिये क्योंकी ये पाचन क्रिया को नुक्सान पोंहचाते हैं, तथा शरीर में कफ दोष बढाते हैं। खट्टा स्वाद रक्त को दूषित करता है। मछली: सभी प्रकार कि मछलिया त्वचा रोगों को बढाती हैं इनका सेवन करने से शरीर के चेनल में रुकावट आती है तथा यह कफ को बढाती है जो लोग समुद्री इलके पर रेहते हैं उनके अहरा का मछली एहम हिस्सा होती है वे लोग मछली को दही और चावल के साथ खते हैं जो कि एक बेमेल अहार है। इसिलिये वहन के लोगों में अधिक त्वचा सम्बंधित बीमारियों को देखा गया है। गुड और गन्ने का सेवन नहीं करना चाहिये क्योंकी ये रक्त को दूषित करते हैं।

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तिल और मांस : दोनों ही पदार्थ कफ बढाते हैं। इन पदार्थों का सेवन करने से त्वचा रोग हो सकते हैं । कु लत्था (घोड़ा ग्राम), माशा (काला चना) और पिश्ता-विकार (अनाज का आटा) कफ बढाते और रक्त को दूषित करते हैं। मछली के साथ दही, दुध के साथ खत्ते पदार्थ आदी अचार, जैम और चटनी का सेवन करने से रक्त दूषित होता है । के क, चॉकलेट, ब्रेड, आदि पाचन अग्नि को नुक्सान पोंहचाते हैं तथा कफ बढाते हैं । नाशपाती, के ला, आम, चेरी, नारंगी, मीठा नींबू, आदि जैसे फल रक्त को दूषित करते हैं ।

मधुमहे एक मधुमेह के रोगी को एसी खाद्य वस्तुओ ं से बचना चाहिए जिनमे चीनी और फै ट की मातृ अधिक हो, उसे हर उस पदार्थ से परेहज़ करना चाहिये, जिस से कफ दोष बढ़ाता है। मधुमेह से पीड़ित व्यक्ति को निमलिखत पदार्थों का परहेज़ करना चाहिये जैसे कि अधिक पानी पिना क्योंकी यह शरीर में स्राव को बढ़ाता है और स्राव मधुमेह होने के मुख्य करनो में से एक माना जाता है। दुध नहीं पिना चाहये क्योंकी इसमे चीनी होती है जो कि शरीर में ग्ल्यूकोस की मात्रा को बढाती है एसे फल भी नहीं खाने चाहिये जिनमे कि चीनी कि मात्रा अधिक हो। घी और तेल कम से कम सेवन करें क्योंकी इसमे फै ट होता है। चावल को भिन्न तरीके से बनाये विशेष रूप से ताजा या कच्चा चावल का प्रयोग ना करें क्योंकी इसमे चीनी कि मात्रा अधिक होती है । तथा ये पचने में भी सम्य लेता है जिस से शरीर में कफ दोष बढता है। घरेलू ग्राम्या,जलीय audaka और Anupa जनवरों का सूप या मीट का सेवन ना करें क्योंकी जानवरों में फै ट होता है, जो कि शरीर में कफ दोष को बढ़ता है। मधुमेह के रोगी को शराब आदी का सेवन नहीं कार्ना करना चाहिये, कभी भी खाली पेट शराब सेवन ना करें। त्वचा सम्बंधित रोग कफ और रक्त के अतिरिक्त, त्वचा रोग के त्वचा, मांसपेशियों के ऊतकों, लसीका की भागीदारी और तीन उत्सर्जन जैसे कि पसीना, मूत्र, और मल मुख्य कारण हैं। निम्नलिखित खाद्य सामग्री जिनसे बचना चाहिये •

पदार्थ जो कि देर में पचते हैं जैसे कि दूध, काले 25 October/December 2014


घर का बना स्वास्थ्य स्वास्थ्य टॉनिक घर पर कै से बनाये

कुछ दशक पहले रोगियों द्वारा स्वयं घर में तैयार की गई आयुर्वेदिक दवाइयां के रल में प्रचलित थी। वैद्यों के द्वारा निर्देश दिये जाते थे के घर पर सही ढंग से दवा कै से तैयार करते हैं और कच्ची दवाओं को कै से इस्तमाल किया जाता। गुणवत्ता और मात्रा में कोई समझौता नहीं यही उनका मंत्र था। यह बहुत मुश्किल या जटिल है, जो एक प्रक्रिया नहीं है। आप कुछ समय निकाल कर धैर्य से काम लें तो आप एक आयुर्वेद चिकित्सक की मदद से घर पर इन दवाओं को बना सकते हैं। आप अपने पूरे परिवार को स्वस्थ रख सकते हैं सामग्री करौदा 1 किलो अंगूर 1 किलो के ले 3 नग. एक छोटे से एक के पाइन एप्पल साढ़े (परिपक्व)

गुड़ 1 किलो जीरा बीज 100 ग्राम तैयार करने की विधि सामग्री साफ तथा शुष्क हों ये सुनिश्चित करलें। उसके बाद जैसा की नीचे दिखाया गया है सारी सामग्री को सही आकार की एक साफ, सूखे हुए तथा वायुरोधी कांच के जार में रख दीजिये। ग्लास जार साफ और अच्छी तरह से सूखा होना चाहिए। उसके बाद उस जार में करौंदे की परत डालें इसी तरह कई परतें लगाले जैसे कि पहले गुड फिर अंगूर फिर गुड फिर करौंदे फिर गुड उसके बाद के ले को काटकर उसके टुकड़ों की परत लगायें उसके बाद फिर गुड और अंत में अनन्नास की परत लगाये पूरी बोतल इसी तरह परतों से भरदें सबसे उपर जीरे के बीज डालें और अंत में गुड को रखें रूई की

26 October/December 2014

परत लगाकर अंत में ढक्कन को कस के बंद करें। बोतल को ४१ दिनो के लिए किसी ठंडी और सूखी जगह पर रख दें । ४१ दिनो के बाद उस बोतल को खोलें और सारी सामग्री को हाथ या चम्मच से मिला लें और उसके बाद उसे पीस कर सारा रस निकल लें और उस रस को एक साफ बोतल में डाल कर बोतल को कस कर बंद करलें। जो अरिष्टम तैयार होगा उसका नियमित रूप से सेवन करने पर भूख में वृद्धि होगी तथा प्रतिरक्षा में सुधार आयेगा । यह त्वचा, नाखून और बालों के लिए बहुत ही अच्छा टॉनिक है। इसके नियमित उपयोग से आप स्वस्थ रहेंगे। सावधानी - अगर पैकिं ग के समय बोतल या आपके हाथ गिले होंगे , तो बोतल के अंदर शैवाल विकसित होने की संभावना है।



आज-कल की अनियमित जीवन शैली पेट से संबंधित परेशानियों के लिये जिम्मेदार है। नियमित रूप से तथा भोजन समय पर ना करना,बार बार खाना, तरल पदार्थ का अधिक सेवन करना, कार्यस्थल पर तनाव का माहौल, नींद पूरी ना होना, समय पर ना सोना यह सब पाचन क्रिया ठीक न होने के कारण है । कुछ भावनात्मक कारण भी होते हैं जैसे की इर्षा, क्रोध या भय, असहज तरीके से बेठना, नींद में परिवर्तन आना इन सभी कारणों से पाचन क्रिया में बाधा आती है। पाचन क्रिया ठीक से ना हो तो नींद ना आना, मानसिक तनाव जैसी कई बीइमारियां शरीर को घेर सकती हैं। यह सब पाचक रस की मात्रा तथा गुणवत्ता में आभाव के कारण होता है। जिसे आयुर्वेद में मंदाग्नि भी कहा जाता है। आयुर्वेद के अनुसार पाचक क्रिया पाचक रस के द्वारा होती है, जो के पाचक पित्त और पाचक अग्नि से नियमित होती है। पाचक पित्त पांचों पित्त में से एक पित्त है जिससे भोजन को पचने में सहायता मिलती है। जब पाचक रस नियमित रूप से पाचन करने में सहायता करते हैं तो पाचन क्रिया योग्यरूप से होती है। आयुर्वेद में सात तरह के अपचन बताये गये हैं। अपचन के लक्षण का पता इस बात से लगाया जाता है कि शरीर में किस तरह का दोष उत्पन हुआ है। अपचन से संम्बंधित दोष इस प्रकार हैं -

अजीर्ण- चेहरे पर सूजन, आँखों के आस पास और गालों में सूजन, पेट में भारीपन, अपाचे भोजन की मुंह से गंध आना, लार का अधिक बनना। • विदग्धजीर्ण- मुंह में नमकीन स्वाद की डकार आना, मुंह में सूखापन होना, प्यास ज़्यादा लगना, चक्कर आना, सीने तथा पेट में जलन होना, पसीना ज़्यादा आना। • विष्टबधजीर्ण- पेट में तेज़ दर्द होना, अंतों में गैस का बनना, कब्ज़ होना, शरीर में दर्द का एहसास होना। • राससेशजीर्ण – सामन्य डकार, उदासी का एहसास होना, भूख ना लगना, सीने में भारीपन होना। इन सभी दोषों का इलाज एक दूसरे से भिन्नर है, जैसे की अजीर्ण के लिये उपवास रखने की सलहा दी जाती है। विदग्धजीर्ण में उल्टी करवाई जाती है, विष्टबधजीर्ण में पसीना लाया जाता है और अनिवार्य खुराक दी जाती है, तथा राससेशजीर्ण में सोने के तरीकों में बदलाव लाने की सलहा दी जाती है। आयुर्वेद में अपचन के लिये निर्धारित औषधियाँ • सूखी अदरक और गुड़, सॉफ पानी के साथ दो से

28 October/December 2014


तीन दिन तक रोज़ाना। एक से तीन ग्राम हदर के छिलके का चूरन बनाके उतनी ही मात्रा में कच्ची चीनी को मिलाके दिन में दो बार खाने से पेहले।

अपचन से परेशन पीड़ितों को कु छ आहार से संबधं ित सलाह : • ऐसा भोजन खाएं जिसमे कम कलौरी हो तथा जो आसानिसे पच जाए। • दही, दूध का सेवन अधिक से अधिक करें। • रस भरे फलों का अधिक से अधिक सेवन करें। • तम्बाकू, शराब, भांग, मख्खन तथा घी का सेवन ना करें। • हफ़्ते में एक दिन का उपवास रखें। • तब तक भोजन करें जब तक पेट पूरी तरह से ना भर जाए। योग आहार आयुर्वेद और योग दोनों में ही सात्विक भोजन, शाकाहारी खान - पान की सलाह दी गई है। कहा जाता है की इस तरह का भोजन प्रेम, शांति तथा धार्मिक भावना को बढ़ावा देता है। सात्विक भोजन का असली उद्देश्य अहिंसा को बढ़ावा देना है। एक सात्विक व्यक्ति शुद्ध शाकाहारी होता है और उन सभी रीतियों का त्याग करता है जिससे पशु हत्या होती है, प्राकर्तिक खान-पान को महत्त्व देता है,जो प्राकर्तिक तरीके से उगते हैं और प्राकर्तिक तरीके से पकाये जाते हैं। ऐसा आहार शरीर में महत्वपूर्ण ऊर्जा तथा आध्यात्मिक चेतना के विकास में मदद करता है। हवा और वात, आकाश तत्व का विकास ही योग आहार का उद्देश्य है, यह शरीर में मौजूदा विषाक्त

पदार्थोंको नष्ट करने में महत्वपूर्ण है। शराब की लत का इलाज करने के लिए भी इसका महत्व है ही उसके अलावा हमारे दिमाग के मापदंडों को विकसित करने के लिए सबसे उपयुक्त है। आयुर्वेद और योग दोनों के ही अनुसार, मनमूल रूप से वात तत्वों से बना है। योगियों द्वारा उपवास के साथ कच्चे खाद्य पदार्थों की सलाह दी जाती है। उनका मानना है कि शरीर में किसीभी प्रकार की कमी मन के विस्तार और विकास में प्रभाव डालती है । अहिंसक योग आहार न के वल दोषों या वात, पित्त और कफ के भाव के लिये ही लाभदायक है, बल्की प्राण की भूमिका के लिये भी अत्यंत जरूरी होता है। कच्चे खाद्य पदार्थ जैसे की खीरे, मूली, गाजर, टमाटर, अंकु रित पागल, धनिया, कुछ मसाले जैसे की अदरक, लाल मिर्च, दालचीनी और तुलसी यह सब मन तथा प्राणिक ऊर्जा को बढाने में मदद करते हैं। परंपरागत रूप से, कच्चे खाद्य पदार्थ, अनाज और दुग्धालयकी उत्पादों को नाड़ियाँ तथा सूक्ष्म शरीर के वाहकों की सफाई के लिए उपयोग किया जाता है, क्योंकि वे प्राण में वृद्धि लाने में सहायता करते हैं। योगासन, प्राणायाम, मंत्र, ध्यान, और योग आहार का संयोजन शारीरिक और सूक्ष्म शरीर दोनों की सफाई करने में अद्भु द प्रकार से सहायता करता है। आहार जो खाया जाना चाहिए तथा जो करना चाहिए • सभी प्रकार के ताजा, मीठे फल। • प्याज और लहसुन को छोड़कर सभी सब्ज़ियाँ। • चावल, गेहूं और मूंग, अदुकी और टोफू,जौ। • कम भुने हुए बादाम, नारियल, अखरोट,पेकान और तिल।

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मक्खन, घी और तिल, सभी प्रकार के प्राकृतिक संयत्रं आधारित तेल जैसे की जैतून और सूरजमुखी। सभी प्रकार के दुग्धालय उत्पादित पदार्थ जैसे की दूध, दही, पनीर, घी। गुड़, शहद, मेपल सिरप और गुड़ तथा प्राकृतिक चीनी। अदरक, दालचीनी, इलायची, सौंफ, जीरा, धनिया, हल्दी, पुदीना, तुलसी, मेथी और अन्य मीठे मसाले। जडीबूटी से बनी चाय, प्राकृतिक पानी और नींबू का ताजा रस। प्यार और सही ढंग से तैयार खाद्य पदार्थ।

भोजन में जो नहीं खाना चाहिए तथा जो नही करना चाहिए • मांस, मछली और अंडे। • जंक फूड (अस्वास्थकर भोजन)। • डिब्बे में बंद खाना। • नकली मक्खन और खराब तेल। • कारखानों के दुग्धजन्य उत्पादन. • लहसुन, प्याज और अधिक मसालेदार भोजन। • सफे द चीनी और सफे द आटा। • पुराना और बासी भोजन। • शराब, तंबाकू और अन्य सभी उत्तेजक पदार्थ। • सूक्ष्म तरंग भट्टी (मैक्रोवेव) में बना भोजन। • नल का पानी और अन्य कृ त्रिम पदार्थ। • आनुवंशिक रूप से अभियांत्रिकोंद्वारा तैयार करा गया भोजन। • अशांत वातावरण में खाना या बहुत जल्दी खाना।

29 October/December 2014


चिकित्सक की दैनिकी से

जीवन में वापसी

यह कहानी है मंजेरी नगरपालिका अध्यक्ष श्री इशाक़ कुरिक्कल की है, जिन्हे एक दुर्घटना में हुई असामान्य अवस्था में उल्लेखनीय लाभ प्राप्त हुआ।

डॉ शशी कु मार नैचिल डॉक्टर शशी कु मार नैचिल आयुर्वेद शाला के मुख्य चिकित्सक एवं करलमना,पालकद्दू जिला के नर्सिंग होम एवं सिद्धेश्वरा औषधियों के सी ई ओ है। उनका जन्म पारंपरिक वैद्य परिवार में हुआ, जो कि कोल्लवन कोडु के एक शाही परिवार के वैद्य थे। उनकी पांच पीड़ियों ने आयुर्वेद के साथ प्रमुख विकिरण के साथ रसासस्त्रा जो की एक दुर्लभ उपलब्धि है प्राप्त की। डॉक्टर शशीकु मार ने आयुर्वेद में अपनी डिग्री कोट् कल आयुर्वेद कालेज में प्राप्त की और जाम नगर आयुर्वेद विश्वविद्यालय से रसशास्त्र एम डी की डिग्री प्राप्त की। तथा पिछले 18 साल से क्रलमन्नाय में अभ्यास कर रहे हैं। वर्त्तध्मान में वे विष्णु आयुर्वेद कालेज शोरनूर में रसशाष्त्र विभाग के प्रमुख अधिकारी हैं। बेचेरोतुरुति आयुर्वेद अनुशासन के न्द्र के साथ भी कार्यत हैं। डॉक्टर शशीकु मार अपने पूर्वजों की तरह ज्ञान का मुख्य स्त्रोत भेलसिता(भेला द्वारा लिखित प्राचीन आयुर्वेद शास्त्र)और सिद्ध परंपरा(दक्षिण भारत मुख्य रूप से तमिलनाडु की) मानते हैं

श्री इशाक़ कु रिक्कल मुस्लिम लीग के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से हैं। वह मंजेरी के एक अस्पताल का उदघाटन करने जा रहे थे, जब सन 2000 में उनकी दुर्घटना हुई। उनके सह यात्रियों में से एक डॉक्टर की मौके पर ही मृत्यु हो गई, जिला कलेक्टर तथा जिला चिकित्सक अधिकारी और उनके साथ ही श्री इशाक़ कु रिक्कल गंभीर रूप से घायल हो गये। उनके सिर पर गहरी चोट आई, और वे लगभग दो महीने तक कोमा में रहे। मनोरोग उपचार सहित विभिन्न अस्पतालों में उपचार के कई वर्षों के बाद वे चल फिर तो पाये परंत,ु उनकी गंभीर समस्याएं बनी रही। ये स्मृति से जुड़ी समस्याएं थी। यहाँ तक कि वे थोड़ा सा शारीरिक तनाव भी सहन नहीं कर पा रहे थे। यह एक एसे व्यक्ति के लिये असहनिय था, जिनकी एक दशक तक राजनीति में सक्रिय भूमिका रही हो। दुर्घटना के 5 साल बाद उन्होने आयुर्वेद की सहायता लेने का निर्णय लिया। सन 2005 में उनकी मुझसे मुलाकात हुई। वे पहली बार 4 दिसंबर 2005 को हमारे चिकित्सक कें द्र में आये। वे दोनो हथेलियो और पैर में दर्द एवं संवेदन शून्यता (सुन्नपन) जैसी समस्याओं से पीड़ित थे । उंगलियों को मोड़ते समय उनके जोड़ों में दर्द होता था। दाहिने हाथ में सूजन रहती थी, उनमे जलन रहती थी और वे लाल रहती थी और दाहिनी आंख में सूजन होने के कारण दर्द रहता था। सबसे मुख्य समस्या यह थी कि उन्हे स्मरण शक्ति से जुड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था, जैसे कि उन्हे हाल ही में हर अनुभव या विषयों को याद करने में समय लगता था जबकि पुरानी स्मृतियाँ उन्हे स्पष्ट याद थी। 1980 में उन्हे पता लगा कि वे मधुमेह से पीड़ित हैं। उन्हे रात में अजीब सपने आते और जागने के बाद उन्हे याद नहीं रहता था के वे सोए कहाँ थे। मैंने उनकी समस्याओं का विश्लेषण किया तो पता लगा कि उन्हे यह सब मधुमेह तथा सिर में संवेदनशील

30 October/December 2014

स्थान पर लगी गंभीर चोट (शिरू मर्म अभिखता) के कारण हो रहा है। मुझे उनकी मधुमेह, स्मृतियों से जुड़ी समस्या और भौतिक अक्षमताओं को एक साथ नियंत्रण में रखना था। वे यहाँ अपनी उपचार अवधि के दौरान 18 दिनो तक रहे। मधुमेह को नियंत्रण में रखने के लिये आंतरिक दवाइयों के रूप में निसकसथकडि कश्यम( Nisakathakadikashayam) और सूतवंगम भस्मं Soothavangambhasmam (विशेष सिद्ध औषधि) दी गई। सिर पर चोट के प्रभाव को ठीक करने के लिये उन्हे दसमूलरासनादि कश्यम Dasamoolarasnadi Kashayaam, धन्वंतराम कश्यम Dhanwantharam kashayam,बृहद्वता चिंतामणि रसम Brihadvatha Chinthamanirasam, दी गई। मुख्य उपचार में थलम thalam, शिरोधारा sirodhara,कातिधरा kaatidhara,अभ्यिान्गम abhyangam,नास्यम nasyam और विरेचलम virechanam शामिल थे। मर्मावत्तु marmavttu के साथ एक लेप का भी प्रयोग किया गया। सबसे पहले उन्हे सानन्दादि थैलम Sanandadithailam (के रल के उत्तरी कलारी परंपरा का एक बहुत विशेष तेल ) का उपचार दिया गया। उसके बाद धान्यमलधारा dhanyamla-dhara का प्रयोग उनके पूरे शरीर पर दो दिन तक किया गया। उसके बाद शिरोधारा sirodhara का उपचार आरंभ हुआ। जिसमे मूर्धा मृतं तेल moordhamritam oil (वाडकन्न कलारी परंपरा) भी शामिल थे, जो हमने विशेष रूप से तैयार किया थे। शिरोधारा Sirodhara के द्वारा उपचार 14 दिनो तक चला। उन्हे अभयगां abhyangam ( तेल मालिश),कोटटंचुकड़ी Kottamchukkadi और


“ मेरे पास आने वाले रोगियों में से अधिकांश आम लोग हैं। उनके पास अधिक समय नहीं है इलाज के लिये और ना ही वे प्रतीक्षा कर सकते, हैं क्योंकि वे प्रतिदिन जीने के लिये काम करते हैं तथा श्रमिक वर्ग में आते हैं इसलिये उन्हे तेज़ व प्रभावी उपचार की आवश्यकता है।” धन्वंतराम थैलम Dhanwantharamthailam भी दिये गये। अगली कार्ये विधि नसयस्स्थनयम nasyas sthanyam और कार्पस्थ्द्यदि Karpasasthyadi oil के साथ थी। विरेचं Virechanam अंतिम प्रक्रिया थी। उपचार के 18 दिनो पश्चा त उन्हे कुछ निर्देशों के साथ दैनिक दिनचर्य के आधार पर घर भेज दिया गया। उन्होने बहुत ही अच्छी तरह से उपचार प्रक्रियाओं के लिये सहयोग दिया । वे जब पहले साल वापस आये तो उनकी स्थिति में पहले से बहुत सुधार था। वह खुश थे कि उनकी समस्याएं अब कम हो गई थी। उन्हे हथेलियों और पैरों में सुन्नता जैसी परेशानियों से राहत मिल गई थी। स्मृति(स्मरण शक्ति) में पूरी तरह सुधार नहीं आ पाया था

परंतु सुबह उठने के पश्चामत होने वाली सभी समस्याओं में उल्लेखनीए सुधार दिखा। उंगलियों को मोड़ते समय जो दर्द उन्हे होता था वह अब बिल्कु ल भी नहीं था। मधुमेह भी नियंत्रण में थी। जब वे दूसरी बार 28 जुलाइ को आए तो उन्हे दाहिने घुटने में सूजन की शिकायत थी (यही सूजन अस्पताल में आने से दो दिन पहले शूरू हुई थी) दोनो निचले अंगों में सुन्नपन और दाहिने हाथ की उंगलियों में जकड़न और सूजन की शिकायत थी। उन्हे इलाज में कातिधरा kaatidhara और 14 दिनो तक शिरोधारा sirodhara का उपचार दिया गया. निसाकथकडि कश्यम Nisakathakadikashayam,रसना संदड़ी कश्यम

RasnaErandadikashayam (दायें घुटने की सूजन को कम करने के लिये) और सूतवंगम भष्म Soothavangambhasmam आंतरिक दवाइयों के रूप में दिये गये। उन्हे मानसिथराम गुलिका Manasamithramgulika भी साथ में दी गई। अंतिम उपचार के स्वरूप उन्हे विरेचं virechanam दिया गया। इस सब के बाद दोनो निचले अंगो में सूनपन्न और दाहिने हाथ की उंगलियों में दर्द में बहुत आराम मिला। उनका शुगर लेवेल भी सामन्य हो गया। जब वे 2007 में आये तो उन्होने उंगलियों और दायें घुटने में दर्द, स्मरणशक्ति को सामन्य एवं मधुमेह से पीड़ित होने की सूचना दी। तब उन्हे मुख्य उपचार में पीजिहिचिल pizhichil के साथ कोट् यांचूकड़ी Kottamchukkadi और बैलस वनगन्धादि तेल Balaswagandhadi oils का उपचार दिया गया। पिजिहिचिल pizhichil की अवधि 14 दिन की थी। उनके घुटनो के दर्द के लिये एक विशेष उपचार पिचू pichu 12 दिनो के लिये दिया गया। मधुमेह के लिये वह आंतरिक ओषधियाँ थी जो पहले दी जा चुकी थी। जब वे अस्पताल से वापस घर लौट रहे थे तब उन्होने बताया के वे स्वस्थ थे तथा उन्हे घुटने के दर्द में भी आराम था। उनका प्रतिवर्ष उपचार किया गया और उनकी बीमारियों में उल्लेखनीए रूप से सुधार आया था। जिनमे से मुख्य उपचार शिरूधारा sirodhara व पिजिहिचिल pizhichil थे। अपनी आखरी अस्पताल की यात्रा में उन्हे सूतवंगम भशमम Soothavangambhasmam और कै शोर गुलगुलु Kaisoragulgulu, निसाक्ताक्ङी चूर्ण Nisakathakadichoornam के साथ धन्वन्तरम कश्यम Dhanwantharamkashayam दिया गया। कशबिरनाला Ksheerabala तेल शिरोधारा के लिये प्रयोग किया गया। पिजिहिचिल बलसावगंधादि Balaswagandhadi और कोट् यांचगु ड् डी तेल Kottamchukkadi oils के साथ प्रयोग किया गया। अब श्री कु रिक्कल विश्वास से पूर्ण हैं। वह आयुर्वेद का धन्यवाद करते हैं, वे अब शारीरिक रूप से स्वस्थ हैं तथा उनकी स्मरण शक्ति में भी बहुत सुधार आया है। वे अब पहले की तरह ही अपने सामाजिक कार्यों में हिस्सा लेते हैं, जैसे की वे दुर्घटना से पहले लिया करते थे। उनकी मधुमेह भी नियंत्रण में है। वे अपनी राजनैतिक दुनिया में लौट चुके हैं। उन्होने सफलता पूर्वक पिछले साल नगर निगम का चुनाव लड़ा ओर मंजेरी नगर पालिका के अध्यक्ष बन गये। मुझे विश्वास है के खुद में आत्मविश्वास तथा आयुर्वेद के पूर्ण सहयोग से वे अपनी प्रत्येक उंचाइयों को छ्हूएंगे। मैं एक महत्तवपूर्ण तथ्य पर ध्यान कें द्रित करना चाहूगं ा कि उनकी उल्लेखनीए स्वास्थ सुधार की प्रक्रिया में शल्य चिकित्सा का प्रयोग विधिपूर्वक और यथार्थ रूप से हुआ है,आंतरिक दवाइयां और आयुर्वेद के सही उपचार से सही परिणाम मिले। सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी के उनकी स्मरण शक्ति की समस्या का पूरी तरह से इलाज हो पाया। 31 October/December 2014


रोगों की दशु ्मन हल्दी

अंजू जैन पादप ऊतक संवर्ध न व् हिम संरक्षण इकाई, राष्ट्रीय पादप अनुवांशिक संसाधन ब्यूरो पूसा कैं पस, नई दिल्ली – 110012 Email; anju_oswal@rediffmail.com 32 October/December 2014

मसालो में हल्दी का प्रमुख स्थान है। मसालो का राजा होने के साथ तरह-तरह के औषधीय गुणों से भरपूर होती है। हल्दी एक मसाले वाली नगदी फसल के रूप में आसानी से पैदा होने वाली महत्वपूर्ण फसल है। कृ षि विविधीकरण के तहत किसानों को सब्जियां उगाने के साथ ही मसाले की खेती के लिए भी जागरूक किया जा रहा है। सर्दी की अपेक्षा गर्मी में सब्जी उगाने वालों को अपेक्षित कमाई नहीं हो पाती है। इसलिए किसानों को गर्मी के मौसम में मसाले की खेती में हल्दी की पैदावार व बागवानी की संभावना तलाशी जा रही है। हल्दी की फसल गुणों से परिपूर्ण है इसकी खेती आसानी से की जा सकती है तथा कम लागत तकनीक को अपनाकर इसे आमदनी का एक अच्छा साधन बनाया जा सकता है। हल्दी बारहमासी 5 -6 फु ट तक बढ़ने वाला पौधा है इसके पत्ते के ले के पत्ते के समान बड़े-बड़े और लंबे होते हैं, इसमें से विशेष प्रकार की सुगन्ध आती है। यह खेतों में बोई जाती है, लेकिन कई स्‍थानों में यह स्वय उत्पन्न हो जाती है। ज़मीन के नीचे कंद के रूप में इसकी जड़ें होती है। ये कंद रूपी जड़ें हरी अथवा ताजी अथवा कच्‍ची हल्‍दी होती है। कच्ची हल्दी, अदरक जैसी दिखती है। हल्दी की गांठ छोटी और लालिमा लिए हुए पीले रंग की होती है। हल्दी की खेती के लिए के वल कंद ही लगाना काफ़ी होता है। यह अदरक की तुलना में चौड़े पत्तों वाला पौधा होता है। पौधे से ही बीज प्रकंदों का निर्माण होता है और यह स्वयं कई पौधों का निर्माण करता है। आकार के आधार पर हल्दी दो प्रकार की होती है, एक लम्‍बी तथा दूसरी गोल। सख्त और नर्म के आधार पर हल्दी दो प्रकार की होती है। एक लौहे जैसी सख्त दूसरी नर्म व सुगन्धित जो कि मसाले में


काम आती है। हल्दी के पोषक तत्व हल्दी में कई प्रकार के रासाय‍निक तत्‍व पाये जाते हैंएक प्रकार का सुगंधित उडनशील तेल 5.8 %, गोंद जैसा पदार्थ, कुर्कुमिन नामक पीले रंग का रंजक द्रव्य, गाढा तेल पाये गये हैं। इसके मुख्य कार्यशील घटक टर्मरिक ऑयल तथा टर्पीनाइड पदार्थ होते हैं। हल्दी में पाये गये आवश्‍यक तत्‍व निम्‍न प्रकार हैं- जल 13.1 % ग्राम, प्रोटीन 6.3 % ग्राम, वसा 5.1 % ग्राम, खनिज पदार्थ (लवण) 3.5 % ग्राम, रेशा 2.6 % ग्राम, कारबोहा‍‍इड्रेट 69.4 % ग्राम, कै ल्शियम 150 मिलीग्राम प्रतिशत, फास्फोरस 282 मिलीग्राम प्रतिशत, लौह 18.6 मिलीग्राम प्रतिशत, फाइबर, मैग्नीशियम, पोटेशियम, विटामिन ए 50 मिलीग्राम प्रतिशत, विटामिन-ए 50.U./100 ग्राम, विटामिन बी 3 मिलीग्राम प्रतिशत, विटामिन बी 6 व सी, नियासिन, ओमेगा 3 और ओमेगा 6 फै टी एसिड हैं। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही हल्दी का बहुत महत्व है। हल्दी को आयुर्वेद में प्राचीन काल से ही एक चमत्कारिक द्रव्य के रूप में मान्यता प्राप्त है। आयुर्वेद में हल्दी् को एक महत्वनपूर्ण औषधि कहा गया है और इसके गुणों का वर्णन कई ग्रंथों में मिलता है। हल्दी का वानस्पतिक नाम - Curcuma longa / करकु मा लौंगा है यह जिंजीबरेसी कु ल का सदस्य है। औषधि ग्रंथों में इसे हल्दी के अतिरिक्त अन्य नाम – कांचनीं, हलुद, पीता, हरिद्रा, होल्दी, हलद, हलदर, हरदल, असिना, अरसिना, मंजल, मंचल, पासुपु , जरदपोप, डरूफु स्‍सुकु र/ उरूकु स्सुफ, टरमरि‍क कु रकु मा लौंगा, वरवर्णिनी, गौरी, क्रिमिघ्ना योशितप्रीया, हट्टविलासनी, हरदल, कु मकु म, टर्मरिक दिए गए हैं। यहां तक कि पुराने जमाने के गुरु, आचार्य और वैद्य तो इसे `मेहहनी´ के नाम से विभूषित करते थे। हल्दी के बारे में आयुर्वेद विचार - हल्दी तिक्तग, कटु , उष्णकवीर्य, रूक्ष, वर्ण्यर, लेखन, कुष्टेघ्नर, विषघ्न , शोधन गुण युक्तक है। इसके प्रयोग से कफ, पित्त , पीनस, अरूचि, कुष्ठि, कन्डू , विष, प्रमेह, व्रण, कृ मि, पान्डुष रोग, अपची आदि रोग दूर होते हैं। आचार्य सुश्रुत ने हल्दी को श्वास रोग, कास (खांसी), अरोचक, रक्तपित्त, अपस्मार, नेत्रारोग, कुष्ठ और प्रमेह आदि रोगों पर लाभकारी माना है। आचार्य चरक ने हल्दी को लेखनीय कुष्ठध्न (कुष्ठ मिटाने वाले), कण्डूध्न (खुजली दूर करने वाली), विषध्न (विष नष्ट करने वाली) गुणों से युक्त माना है। हिन्दू धर्म दर्शन में हल्दी को पवित्र और शुभता का संदेश देने वाला भी माना जाता है। ब्राह्मणों में पहना जाने वाला जनेऊ को तो बिना हल्दी के रंगे पहना ही नहीं जाता है। इसमें सब प्रकार के कल्याण की भावना निहित होती है। ग्रामीण अंचलों में आज भी साड़ी को रंगने में हल्दी का प्रयोग किया जाता है। हल्दी और चूने को आपस में मिलाकर कुंकु म बनाया जाता है। तंत्र-ज्योतिष में भी हल्दी का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। तंत्रशास्त्र के अनुसार, बगुलामुखी पीतिमा की देवी हैं। उनके मंत्र का जप पीले वस्त्रों में तथा हल्दी की माला से होता है। पूजाअर्चना में हल्दी को तिलक व चावल के साथ इस्तेमाल किया जाता है, वैवाहिक कार्यक्रमों में हल्दी का उपयोग

का अपना एक विशेष महत्व है। पारिवारिक संबंधों की पवित्रता तक में हल्दी का उपयोग होता है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से आज भी विवाह के निमंत्रण पत्र के किनारों को हल्दी के रंग से स्पर्श कराया जाता है कहते हैं कि इससे रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है। दूल्हे व दुल्हन को हल्दी का उबटन लगाकर वैवाहिक कार्यक्रम पूरे करवाए जाते हैं। हज़ारों साल से भारतीय परंपरा में हल्दी का रसोई में पवित्र मसाले के रुप में महत्त्वपूर्ण स्थान है और प्राचीन समय से ही दैनिक भोजन में हल्दी का प्रयोग मसाले के रुप में प्रयोग किया जाता है। हल्दी की छोटी सी गांठ में बड़े गुण होते हैं। भोजन के स्वाद को बढ़ाने, सुगंध और

रंगत देने के लिए हल्दी का बहुतायत में इस्तेमाल होता है। भोजन में उपयोग के लिए कच्ची हल्दी को उबालकर सूखने के बाद पीसा जाता है। कच्ची हल्दी रंग परिवर्तन होकर पीला रंग ग्रहण कर लेती है। कच्ची हल्दी का प्रयोग सब्जी के रुप में भी किया जाता है। हल्दी पाउडर का सबसे ज़्यादा उपयोग दाल व सब्जी का रंग पीला करने के लिए किया जाता है। भारतीय स्वादिष्ट व्यंजनों के रंग और स्वाद का एक राज हल्दी ही है। यही नहीं डिब्बा बंद पेय, डेयरी उत्पाद, आइसक्रीम, दही, के क, ऑरेंज जूस, बिस्कु ट, पॉपकार्न, मिठाइयों के साथ-साथ सॉस आदि में भी हल्दी का प्रयोग होने लगा है। जापान के ओकीनावा शहर में हल्दी की चाय सबसे अधिक

हल्दी (अंग्रेज़ी: Turmeric) भारतीय वनस्पति है, इसका वानस्पतिक नाम कु रकु मा लौंगा (Curcuma longa) है। यह जिंजीबरेसी (अदरक) कु ल का सदस्य है । हल्दी दक्षिण पूर्व एशिया के मानसून जंगल का मूल निवासी है तथा गर्म और नम उष्णकटिबंधीय जलवायु में उत्पन्न होत है। भारत विश्व में हल्दी का सबसे बड़ा उत्पादक व उपभोक्ता देश है, हल्दी की खेती श्रीलंका, बंगला देश, पाकिस्तान, थाईलैंड, चीन, पेरू, म्यांमार, नाइजीरिया तथा ताइवान में भी बड़े पैमाने पर होती है। विश्व में हल्दी के कु ल उत्पादन का 90 प्रतिशत भाग के वल भारत में उत्पादित होता है। भारत में हल्दी की खेती मुख्यतः आंध्र प्रदेश, के रल, तमिलनाडु , उड़ीसा, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गुजरात, मेघालय, महाराष्ट्र, असम, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में की जाती है । सांगली और महाराष्ट्र में उगाई जाने वाली हल्दी दुनिया भर में अच्छी मानी जाती है यही से सबसे अधिक हल्दी का निर्यात भी होता हैं। भारतीय मसाला बोर्ड के मुताबिक हल्दी के निर्यात में भी तेजी दर्ज की जा रही है। अप्रैल 2011 - मार्च 2012 की अवधि में हल्दी के निर्यात में 61 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

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लोकप्रिय मानी जाती है। हल्दी स्वाद में कड़वी व तेज तथा स्वभाव में रूखी और गर्म होती है। हल्दी के औषधीय गुण हल्दी का प्रयोग लगभग सभी प्रकार के खाने में किया जाता है. यह व्यंजनों के स्वाद में तो इजाफा करती ही है साथ ही इसमें अनेक औषधीय गुण भी पाये जाते है। हल्दी के पौधे से मिलने वाली इसकी गांठे ही नहीं बल्कि इसके पत्ते भी बहुत उपयोगी होते हैं. हल्दी किसी भी उम्र के व्यक्ति के लिए चाहे वह बच्चा हो, जवान हो, बूढ़ा हो या गर्भवती महिला ही क्यों न हो एक फ़ायदेमंद औषधि है। प्राचीन काल से ही हल्दी का उपयोग घर के चिकित्सक के रूप में किया जाता रहा है। कहीं जल गया हो या कट गया हो या कहीं घाव हो गया हो तो घर का हकीम, वैद्य या डाक्टर यानी हल्दी है न। स्वास्थ्य के लिए हल्दी रामबाण ही है. यदि आप कोई एलोपैथी, होम्योदपैथिक की दवा खा रहे हैं या अन्य कोई उपचार कर रहे हैं, तो भी हल्दी का प्रयोग कर सकते हैं। हल्दी के प्रयोग से, किये जा रहे उपचार पर कोई असर नहीं पड़ता है अपितु किये जा रहे उपचार अधिक प्रभावकारी हो जाते हैं। हल्दी की औषधीय मात्रा यह वयस्क व्यक्ति के लिये कच्ची हल्दी का रस 1 से 3 चाय चम्मैच तक अथवा 1 से 4 ग्राम तक सूखी हल्दी का चूर्ण , किशोरों के लिये 500 मिलीग्राम से 1 ग्राम तक तथा बच्चों के लिये 50 मिलीग्राम से 100 मिली ग्राम तक की मात्रा निश्चित की गयी है। इसके कोई साइड इफे क्ट नहीं हैं और हल्दी पूर्ण रूप से सुरक्षित औषधि है। इसे आवश्य कतानुसार गुनगुने पानी, गरम चाय अथवा दूध के साथ दिन में, तकलीफ के हिसाब से, एक बार से लेकर चार या पांच बार तक ले सकते हैं। हालांकि, हल्दी की अधिक मात्रा अपच, दस्त, कब्ज का कारण और हृदय के लिए हानिकारक हो सकता है। पित्त की ख़राबी और पेप्टिक अल्सर में भी हल्दी का इस्तेमाल हानिकारक माना जाता है। एंटीसेप्टिक (संक्रमणरोधी) गुणों के कारण इसका प्रयोग प्राचीनकाल से ही रूप-सौन्दर्य के निखार के साथ-साथ अनेक कष्टप्रद असाध्य बीमारियों के निदान हेतु भी किया जाता रहा है। इसका प्रयोग कफ विकार, यकृ त विकार, अतिसार आदि शरीर के की कई बीमारियों को दूर करने किया जाता है। हल्दी से भूख बढ़ती है। एक चुटकी हल्दी के सेवन से शरीरगत विषों को निकाला जा सकता है। हल्दी का रोगों में उपयोग हल्दी एक प्राकृतिक एंटिसेप्टिक और एंटिबैक्टेरियल एजेन्ट है। पर्याप्त मात्रा में आयरन पाए जाने के कारण हल्दी शरीर में ख़ून का निर्माण करने में मदद करती है। हल्दी शरीर में रक्त शोधक (ब्लड प्यूरीफायर) का काम करती है, यह ख़ून को साफ़ चर्म रोगों को दूर करती है। यह इम्यून सिस्टम को स्ट्रॉन्ग बनाता है। जिससे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।

त्वरचा के रोगों में हल्दी का प्राकृतिक रंग चेहरे के रंग को निखारने में सहायक होने के कारण बाज़ार में उपलब्ध सौंदर्य प्रसाधनों जैसे सनस्क्रीन उत्पादों में भी हल्दी का प्रयोग किया जाता रहा है। हल्दी का कोई साइड इफे क्ट नहीं होता है। हल्दी में मौजूद टेटराहाइड्रोकरक्यूमिनाइड यानी टीएचसी की प्रभावशाली एंटीऑक्सीडेंट पर थाइलैंड की सरकार शोध करना चाहती है। हल्दी एक एंटी-इनफ्लैमटॉरी एजेन्ट है। यह गठिया (आर्थराइटिस) को भी कम करता है। हल्दी के नियमित उपयोग से स्किन संबंधी समस्याओं को भी काफ़ी हद तक रोका जा सकता है। नहाने से पहले शरीर पर हल्दी का उबटन लगाने से त्वचा में निखार आता है, शरीर की कांति बढ़ती है और मांसपेशियों में कसाव आता है। हल्दी चेहरे के दाग-धब्बे और झाइयों को दूर करती है। बेसन में पिसी हुई थोड़ी सी हल्दी, दूध या मलाई मिला कर चेहरे पर लगाने से दाग़ और झाइयां दूर होती हैं, चहरे पर निखार आता है। चेहरे के दाग-धब्बे और झाई ंयां हटाने के लिए हल्दी बहुत फायदेमंद है। हल्दी पाउडर और काले तिल को बराबर मात्रा में पीसकर पेस्ट बना कर चेहरे पर लगाने से मुहासों, सफे द या काले दाग, रूखी त्वचा, आदि तकलीफों से आरोग्यस प्राप्त होता है। हल्दी के 1 ग्राम चूर्ण को आवश्यकतानुसार दूध में मिलाकर बनाये गए पेस्ट को चेहरे पर लगाने से त्वचा का रंग निखरता है और चेहरा खिला-खिला दिखेगा। हल्दी पाउडर में खीरे या नीबू का रस मिलाकर 15 मिनट तक प्रतिदिन चेहरे पर लगाने से दाग-धब्बे और झाइयां दूर होकर त्वचा साफ-सुथरी हो जाती है। धूप की वजह से (सनबर्न) काली पड़ी (टैन्ड) त्वचा से निजात पाने के लिए हल्दी पाउडर, बादाम चूर्ण और दही मिला कर प्रभावित स्थान पर लगाने से त्वचा का रंग निखर जाता है और यह एक तरह से सनस्क्रीन लोशन की तरह काम करता है। त्वचा से अनचाहे बाल हटाने के लिए हल्दी पाउडर को गुनगुने नारियल तेल में मिलाकर पेस्ट बना लें। अब इस पेस्ट को हाथ-पैरों और चेहरे पर लगाने से शरीर के अनचाहे बालों से निजात मिलती है। चोट लगने पर अथवा चोट की सूजन में कटे एवं मवाद से भरे घावों में, चोट लगने पर, मोच या हड् डी टूट जाने की स्थिति में हल्दी बहुत फायदा करती है। जले और कटे अंग पर हल्दी का पाउडर लगाने से संक्रमण का जोखिम कम हो जाता है। नीम के पत्तों को उबालकर ठंडा करके घाव को अच्छी तरह पानी से धोकर उस पर हल्दी की गांठ को घिस कर लेप करने से घाव का संक्रमण कम हो जाता है। पिसी हुई हल्दी को सरसों के तेल में मिलाकर अच्छी तरह गर्म करके कुछ ठंडा होने पर रूई के फाहे से घाव (जख्म) पर लगाकर पट्टी बांधने से जख्म शीघ्र भरते हैं। शरीर के किसी भी स्था न की सूजन के साथ दर्द और जलन हो तो हल्दी के पेस्टी का बाहरी प्रयोग करने से इन तकलीफों में आराम मिल जाती है। मांसपेशियों में

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खिंचाव या पत्थर, लाठी, डण्डे आदि के कारण अंदरूनी चोट लगने पर उत्पन्न सूजन को दूर करने के लिए हल्दी चूर्ण को पानी के साथ मिलाकर लेप लगाना चाहिए या गर्म दूध में हल्दी पाउडर डालकर पीने से आराम मिलता है। अगर चोट पर ख़ून निकल जाने के बाद सूजन आ गई हो तो हल्दी को खाने वाले चूने के साथ मिलाकर लेप लगा देने से पकने की नौबत नहीं आती तथा सूजन दूर हो जाती है। हल्दी डिजेनरटिव डिजीज जैसे अल्जाइमर्स में भी कारगर है। इससे रक्त कोशिकाओं में ख़ून का प्रवाह सही बना रहता है। फोड़े फुंसियों पकाने के लिये हल्दी की पुल्टिस रखने से फोड़ा फुंसी शीघ्र पक जाते हैं। बिच्छू, मक्खी जैसे किसी विषैले कीड़े के काटने पर हल्दी का लेप लगाना चाहिए। बवासीर के मस्सों का दर्द अथवा जलन ठीक करने के लिये हल्दी का चूर्ण मस्सोंल पर छिड़कना चाहिये। रोज रात में हल्दी का जूस पिएं। इसके लिए आधा ग्लास दूध में 1/2 इंच टुकडा सूखी हल्दी मिलाकर अच्छी तरह उबालें। जब दूध का रंग एकदम पीला हो जाए तो उसे हलका गुनगुना करके पिएं। यह बहुत बीमारियों में लाभकारी होता है। ख़ास तौर पर स्त्रियों को इसका जूस रोज रात में पीना चाहिए, क्योंकि इससे आपकी हड् डियां मज़बूत होती हैं और यह आस्टियोपोरोसिस के खतरों को कम करता है। मुहं में (जीभ पर) छाले होने पर एक छोटा चाय का चम्मच पिसी हुई हल्दी आधा लिटर पानी में उबाल कर ठंडा होने पर सुबह शाम कुल्ला करने से जीभ के छाले ठीक हो जाते हैं। दांतों के फ्लोराइड में हल्दी के एंटीबायोटिक एजेंट के रूप में प्रयोग पुराना है। दांत दर्द होने पर हल्दी को भून कर पीस लें तथा जिस दांत में दर्द हो उस पर अच्छी तरह से मलना दांत का दर्द दूर भगाने में सहायक है। हल्दी में सेंधा नमक व सरसों का तेल मिलाकर दांतों को साफ़ करने से दांतों से पीलापन दूर किया जा सकता है । जुखाम, खांसी, बुखार खांसी होने पर हल्दी की एक छोटी सी गांठ मुंह में रख कर चूसें, इससे खांसी नहीं आती। सर्दी-खांसी होने पर दूध में कच्ची हल्दी पाउडर डाल कर पीने से जुकाम ठीक हो जाता है। सभी प्रकार के बुखार, जुखामों और खांसियों में गरम दूध में 1 से 3 ग्राम तक हल्दी का चूर्ण मिलाकर उबाल कर उसमें थोड़ा सा गुड़ मिलाकर प्रातः तथा रात को सोते समय पी लें। नाक से अधिक स्राव हो रहा हो तो हल्दी को जलाकर उसका धुआं नाक से ग्रहण करें। अगर जुकाम पुराना हो गया हो तथा पीला, गाढ़ा कफ निकल रहा हो तो दूध में हल्दी मिलाकर थोड़ा सा घी डालकर उबाल लें। हल्का गरम- गरम पी लेने से जुकाम दूर हो जाता है। इसके दो घंटे बाद तक पानी नहीं पीना चाहिए। बीड़ी, सिगरेट की अधिकता के कारण जब छाती में कफ जम जाता है तो हल्दी के चूर्ण को घी में पकाकर छाती पर मलने से कफ निकलना शुरू हो जाता है। इसके साथ ही हल्दी का धुआं भी सूघं ना लाभकारी होता है।


कैं सर के लिए हल्दी एक बहुत ही बेहतरीन एंटीऑक्सिडेंट है, जो कैं सर को भी कं ट्रोल करता है। जो अस्थिर ऑक्सीजन को संतुलित करने में मदद करती है। इन्हें फ्री रेडिकल्स कहते हैं, जो हमारी त्वचा के सेल्स को नुकसान पहंचाते हैं। इनके कारण त्वचा संबंधी बीमारियां होती हैं। दर्दों को नष्ट करने के लिए हल्दी एक प्रभावशाली दर्द नाशक है। सर्दी से उत्पन्न दर्द, दस्तों की वजह से होने वाला जोड़ों का दर्द, मस्तिष्क शूल, संभोग से उत्पन्न योनिगत दर्दों में एक चुटकी हल्दी चूर्ण खाकर ऊपर से गरम-गरम दूध पी लेने से दर्द खत्म हो जाता है। हल्दी पाउडर और फिटकरी के चूर्ण को गुलाब जल में डालकर छने हुए रस की कुछ बूंदों को कान में टपकाने से कान बहना ठीक हो जाता है। पेट सम्बन्धी रोगों में हल्दी डायरिया के बैक्टीरिया से हमें बचाती है। जर्मन हेल्थ एथॉरिटीज के मुताबिक अतिसार और दस्त की समस्या हो तो टरमरिक हर्बल टी का सेवन करना चाहिए। 1 चम्मच हल्दी पाउडर में थोडा सा नमक मिला कर रोज सुबह खाली पेट एक सप्ताह तक ताजा पानी के साथ लेने से कीड़े मर जाते हैं। बाउअल सिंड्रोम की स्थिति में खाना ठीक से डाइजेस्ट नहीं हो पाने के कारण पेट दर्द होने पर थोड़ी-सी हल्दी के सेवन से पेट दर्द से राहत पा सकते हैं। नेत्र रोगों के लिए चोट लगने से आंखों में आई सूजन, दर्द, लाली, नेत्रास्राव आदि की स्थिति में हल्दी का प्रयोग काफ़ी लाभदायक होता है। हल्दी, दारूहल्दी, नागरमोथा, हरड़, बहेड़ा, आंवला, और शक्कर, इन सभी को बराबर मात्रा में मिलाकर कूट-पीसकर महीन चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को बकरी के दूध में बारह घण्टे तक खरल करके बत्ती बना लें। इस बत्ती को स्त्री के दूध में घिसकर आंखों में लगाने से उपरोक्त सभी नेत्र रोग दूर हो जाते हैं। मुहं की दुर्गन्ध दूर करने के लिए हल्दी, दारूहल्दी, रक्स, सिरस की छाल, नागरमोथा, लोध्र, सफे द चंदन, और नागके सर को पानी के साथ पीसकर लेप तैयार कर लें। इस लेप को लगाने से पसीने के कारण दुर्गन्ध आना, देह में जलन, दांतों एवं मुंह की दुर्गन्ध, योनिगत विकारों की दुर्गन्ध आना, बन्द हो जाती है। साइनुसाइटिस नाक से संबंधित सभी तरह की तकलीफों, पुराना जुकाम, पीनस, नाक का गोश्त, बढ़ जानें, साइनुसाइटिस में हल्दीस का चूर्ण 1 से 2 ग्राम की मात्रा में दिन में दो बार खाने से आरोग्यश प्राप्त होता है। उक्तन तकलीफों से होनें वाले सिर दर्द, बुखार, बदन दर्द आदि लक्षण ठीक हो जाते हैं।

एलर्जी एलर्जी, शीतपित्तीह या इसी तरह के लक्षणों और तकलीफों से परेशान रोगी 1 से 2 ग्राम हल्दी। का चूर्ण , आधा कप दूध और आधा कप पानी मिलाकर पकाये। दिन में दो बार सुबह और शाम दूध के साथ खाने से आरोग्य प्राप्तऔ होता है। दूध में यदि चाहें तो थोड़ी शक्कबर स्वा द के लिये मिला सकते हैं। इस्नो्फीलिया (नज़ला) इस्नो्फीलिया में हल्दी का प्रयोग बहुत सटीक है। कुछ दिनों तक लगातार 2 से 3 ग्राम हल्दी चूर्ण गुनगुने पानी से, दिन में तीन बार, खाने से यह रोग समूल नष्ट हो जाते हैं। जैसे जैसे इसनोफीलिया की संख्या कम होती जाये, वैसे हल्दी की मात्रा अनुपात में घटाते जाना चाहिये। हृदय संबधं ी रोग में हल्दी रक्त संचार को बढाने में मदद करती है। साथ ही साथ रक्त कणिकाओं को मज़बूत बनाती है। हल्दी एल.डी.एल कोलेस्ट्रॉल को कम करती है। शोध से पता चलता है कि एल.डी.एल कोलेस्ट्रॉल धमनियों को बंद कर देता है, जिससे हृदय संबंधी रोग होने का ख़तरा बढ जाता है। कनाडा में हुए एक शोध के मुताबिक हल्दी न सिर्फ हार्टअटैक के खतरे से बचाती है बल्कि क्षतिग्रस्त हृदय की मरम्मत भी करती है। जिससे आप कई प्रकार की बीमारियों से भी बच सकते हैं। दमा में दमा के रोगी को 2 से 3 ग्राम तक हल्दी का चूर्ण , एक या दो चम्म च अदरक के रस और शहद मिलाकर दिन में चार बार लगातार कुछ दिनों तक प्रयोग करने से आरोग्य प्राप्त होता है। अगर रोगी एलापैथी की दवायें खा रहा है, तो भी यह प्रयोग कर सकते हैं। जैसे जैसे आराम मिलता जाय, एलापैथी दवाओं की मात्रा कम करते जाएँ। यकृ त की बीमारियों में यकृ त (लीवर) संबंधी सभी समस्याओं जैसे पीलिया, पान्डुा रोग इत्यादि में 1 ग्राम हल्दी के चूर्ण को 500 मिलीग्राम कु टकी के चूर्ण में मिलाकर दिन में तीन बार सादे पानीं के साथ खाना बहुत उपयोगी माना जाता है। हल्दी वाला दूध पीने से लीवर एकदम ठीक रहता है। मधुमहे मधुमेह (डायबिटीज) के रोगियों को प्रतिदिन गरम दूध में हल्दी चूर्ण मिलाकर पीना चाहिए. ऐसा करने से मधुमेह की समस्या खत्म हो जाती है. हल्दी 2 ग्राम, जामुन की गुठली का चूर्ण 2 ग्राम, कु टकी 500 मिलीग्राम मिलाकर दिन में चार बार सादे पानीं से खायें। पथ्यी, परहेज करें, कई हफ्तों तक औषधि प्रयोग करें। मधुमेह के साथ जिनको पैंक्रियाटाइटिस, यकृ त प्ली हा विकार, गुर्दे के विकार, आंतों से संबंधित सभी तकलीफें दूर होंगी।

प्रमेह तथा सुजाक रोग के लिए प्रमेह रोग से संबंधित सभी विकारों में 1 ग्राम हल्दी चूर्ण दिन में चार बार सादे पानी से सेवन करने से बहुमूत्र, गंदा पेशाब, पेशाब में जलन, पेशाब की कड़क, पेशाब में एल्बूधमिन जाना, पेशाब में रक्तग, पीब के कण आदि रोगों में शीघ्र लाभ होगा। सुजाक होने पर जब पेशाब गाढ़ा तथा दर्द के साथ आने लगता है और बूंद-बूंद करके पेशाब निकलता रहता है तो हल्दी और आंवला के मिश्रण से तैयार काढ़ा के सेवन से पेशाब की जलन कम हो जाती है तथा दस्त साफ़ होता है। दूध शुद्ध करने के लिए प्रसूता काल में जब बच्चा मां के दूध पर ही निर्भर रहता है उस समय प्रसूता अगर नियमित रूप से एक चुटकी हल्दी दूध के साथ लेती रहे तो दूध शुद्ध हो जाता है तथा शिशु को पीलिया की शिकायत नहीं हो पाती है। इससे गर्भाशय को भी उत्तेजना प्रदान होती है और गर्भाशय में स्थित सभी विकार निकल जाते हैं। अनियमित माहवारी को नियमित करने के लिए महिलाएं हल्दी का इस्तेमाल कर सकती हैं। स्तन सूजन निवारण हेतु कभी-कभी दुग्धपान कराते समय या सहवास के समय स्तनों पर दबाव पड़ने से या अत्यधिक तंग चोली पहनने से स्तनों में सूजन हो जाया करती है। इस स्थिति में गवारपाठे के रस के साथ हल्दी चूर्ण को मिलाकर गुनगुना गर्म करके स्तन पर लेप करते रहने से स्तनसूजन दूर हो जाती है। अगर पकाव पैदा हो गया हो तो वह भी इस प्रयोग से फूट कर बह जाता है। यौन दुर्बलता पर हल्दी का चूर्ण , गूलर फल का रस व मेथाचीप्स के पत्तों के स्वरस को मिलाकर आग पर पकाकर नियमित रूप से लिंग की मालिश करते रहने से शीघ्रपतन, लिंग शिथिलता, स्वप्नदोष, आदि यौन दोष दूर हो जाते हैं। गाय के दस तोले मूत्र के साथ तीन माशा हल्दी चूर्ण मिलाकर उपदंश (गर्मी) जन्य विकारों पर लगाने से विकार दूर हो जाते हैं। इस लेप से खुजली भी मिट जाती है। वैज्ञानिक शोध के अनुसार हल्दी शरीर में घातक कोशिकाओं की वृद्धि को रोकने में सहायक होती है। हल्दी की हीलिंग पावर को देखकर विदेशी भी दंग हैं। अमरीका में अग्नाश्य कैं सर, अल्ज़ाइमर, मल्टीपल मीलोमा और कोलोरेक्टल कैं सर आदि में हल्दी के एक्टिव एजेंट करक्युमिन द्वारा उपचार का प्रयोग भी चल रहा है। यदि आप अपनी डाइट में हल्दी लेते हैं, तो यह आपके मेटाबॉलिज्म को मज़बूत बनाता है और आपके वजन को भी कं ट्रोल करता है। इससे आपकी अंदरूनी चोटों में भी फ़ायदेमंद है, जिसमें लिवर व किडनी ख़ास है।

35 October/December 2014


िडप्श रे न सही इलाज और जीवन शैली में कुछ बदलाव लाकर किसी को अवसाद या डिप्रेशन से छुटकारा दिलाया जा सकता है। "मैं कई हफ़्तों से सुस्ती महसूस कर रहा हूँ और मुझे कुछ करने को नहीं सूझ रहा। मेरे लिए चाहते हुए भी सुबह जल्दी उठना मुमकिन नहीं है। मैं बस पड़ा रहता

था यह सोचते हुए कि सब कुछ बेतुका है। मेरे खाने पीने का दिल नहीं करता था। मैं किसी काम में ध्यान नहीं लगा पाता था। मैं बस इसे किसी भी तरह ख़त्म करना चाहता था।" यह शब्द 35 वर्षीय जयथिलक के है जो कि डिप्रेशन से पीड़ित है। बंगलोरे के इस इंजीनियर के लिए

36 October/December 2014


बता पाना मुमकिन नहीं है कि उसे क्या परेशानी है। वह इस परेशानी के पीछे का कोई कारण नहीं ढूंढ पा रहा है। डिप्रेशन है या नहीं वह नहीं जानता लेकिन वह इसे खत्म करना चाहता है। डिप्रेशन घृणा की एक अवस्था है जो कि एक व्यक्ति के विचारों, व्यवहार, भावनाओं और शारीरिक दृष्टी से उस व्यक्ति को प्रभावित कर सकता है। अवसादग्रस्त लोग निराश, बेबस, बेकार, दोषी, चिड़चिड़ा या बेचैन महसूस करते हैं। उनका उन गतिविधियों में भी दिल नहीं लगता जो उन्हें बेहद पसंद होती हैं, उन्हें भूख नहीं लगती याज्यादा खाने का दिल नहीं करता और ध्यान कें द्रित करने में मुश्किल होती है इसके अलावा निर्णय करने में समस्याओं का अनुभव भी होता है और अवसादग्रस्त लोग आत्महत्या का प्रयास तक कर सकते हैं। अनिद्रा, अत्यधिक नींद, थकान, पाचन की समस्याएं भी इस स्थति में देखने को मिलती हैं। जब कोई व्यक्ति पूरी तरह से नकारात्मक विचारों में डूब जाता है तो उसके लिए किसी भी चीज पर ध्यान के न्द्रित करना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में वह व्यक्ति इस कदर सुस्त पड़ जाता है कि उसकी आस पास की दुनिया में कोई रुचि नहीं रहती। ऐसी स्थितियां तब भी सामने आ सकती है जब कोई व्यक्ति परीक्षा में फे ल हो जाए या नौकरी गवा बैठे, प्रेम में नाकामी हाथ लगे, तालाक मिलने पर या किसी अपने को खोने पर। इन स्थितियों में कुछ जल्द अपनी भावनाओ पर काबू पा लेते हैं जबकि कईयों को इस से उबरने में कई दिन, हफ्ते और यहाँ तक कि महीने भी लग जाते हैं। यह सभी कारक एक अवसादग्रस्त मन को जन्म देते है। मन की ऐसी परेशानी परेशानियों का एक समूह होती है जो कि प्राथमिक स्तर पर मन को परेशान करने वाली स्थिति के तौर पर देखि जाती है। जिनमे कि प्रमुख अवसादग्रस्तता विकार (MDD) जिसे की साधारण तौर पर प्रमुख अवसाद, या नैदानिक अवसाद के नाम से जाना जाता है क ऐसी स्थित है जिसमे कि व्यक्ति दो हफ्ते से अवसादग्रस्त हो या अपने आस पास की गतिविधियों में रुचि खो बैठा हो। मनस्ताप स्थायी उदास मन की स्थिति है। कारण अवसाद मस्तिष्क में पदार्थों के बदलाव के साथ जुड़ा हुआ है जो कि नर्व सेल्स को आपस में संचार करने में मदद करता है। जैसे कि सेरोटोनिन (serotonin), डोपामाइन dopamine और नॉर एपाइन्फ्रिन (nor epinephrine)। इन न्यूरोट्रांसमीटरों का स्तर अन्य चीजों जैसे कि शारीरिक बीमारियों, जेनेटिक्स, हार्मोनल परिवर्तन, दवाएं, उम्र बढ़ने, मस्तिष्क की चोटों, मौसमी चक्र में बदलाव और सामाजिक परिस्थितियों की वजह से भी प्रभावित होता है। 2010 की समीक्षा में बताया गया है कि शरीर की घड़ी को नियंत्रित करने वाले जीन भी अवसाद में योगदान कर सकते हैं। आयुर्वेद के नज़रिए से आयुर्वेद में मन को शरीर की तरह एक सटीक साधन के रूप में ना मान कर एक अनाकार इकाई के तौर पर माना जाता है।जब हम दिल की बात करते हैं तब हम भावनाओं की बात करते हैं और यह भावनाओं के साथ

हमारी मौलिक होने के साथ साथ प्रतिक्रिया करने की क्षमता है। मस्तिष्क मन का एक वाहन है और इसका संचालन दर्पण भी है लेकिन मन मस्तिष्क के शारीरिक तंत्र तक सीमित नहीं है। आयुर्वेद का संतल ु न की अवधारणा के साथ गहरा संबंध है. यह संतल ु न प्रणाली अंगों और आत्मा के सही कार्य करने तक सीमित ना होकर लेकिन हमारे साथी प्राणियों या प्रकृति के साथ एक संतुलित और रचनात्मक संबंध की जरूरत पर जोर देता. आयुर्वेद में डिप्रेशन को चित्तवासदा (Chittavasada) के नाम से जाना जाता है। आयुर्वेद के नज़रिए से डिप्रेशन दो कारणों से होता है। वात् पित्त तथा कफ (Vata, Pitha, Kapha) में से किसी एक में असंतल ु न होने पर यह स्थिति उत्त्पन्न होती हैं। आयुर्वेदिक ग्रंथों में सही व्यवहार, सही सोच, सही कार्र वाई और सही प्रतिक्रिया और सही जीवन शैली पर प्रकाश डाला गया है। ज्यादातर डिप्रेशन कफ के असंतुलित होने पर होता है जिस से वात् और फिर पित्त का संतल ु न बिगड़ जाता है। शुरुआत में दिमाग में वात असंतल ु न होता है जो कि पित्त असंतल ु त को बढाता है। दुसरे शब्दों में हेतुकविज्ञानी कारणों की वजह से पेट से वात् आंतो से intestine और पेट से सामान्य परिचालन में घुस कर मस्तिष्क में प्रवेश कर जाती है जिससे दिमाग के सामान्य काम काज पर फर्क पड़ता है और डिप्रेशन को जन्म देता है। कभी कभी डिप्रेशन पित्त के बिगड़ने से भी होता है। एलर्जी और चयपचय की प्रक्रिया में परेशानी भी मस्तिष्क की प्रक्रिया को प्रभावित क्र सकती है। इस से मन में तेजी से बदलाव आता है जिसमे से डिप्रेशन भी एक रूप के तौर पर दिखता है। इसका उपचार व्यक्ति की शरीर की संरचना पर निर्भर करता है और इस बात पर निर्भर करता है कि किस दोष में असंतल ु त के कारण डिप्रेशन हुआ है। डिप्रेशन के उपचार में लम्बे समय तक ध्यान रखना होता है और पकड़ में आते ही इसका उपचार शुरू किया जाना जरूरी है। कुछ लोगो में डिप्रेशन इस हद तक बढ़ जाता है कि यह सिर्फ उनके लिए ही नहीं बल्कि दूसरों की जिंदगी के लिए भी खतरनाक होता है। वर्तमान दवा आधारित चिकित्सा इन स्थितियों के इलाज के लिए विशेष डिजाइनर दवाएं विकसित कर रहा है जो कि अपने आप मे इतनी शक्तिशाली होती है कि सके साइड इफ्फे क्ट खतरनाक हो सकते हैं। आयुर्वेद इस मामले में बेहतर विकल्प उपलब्ध करा सकता है। योग इस सन्दर्भ में लाभकारी हो सकता है। यह दिमाग को शांत रखने के काम आता है। आयुर्वेद के मनोवैज्ञानिक चिकित्सा का लक्ष्य मन की गुणवत्ता में वृद्धि करना है। उपचार के दौरान गौर करने वाली बात डिप्रेशन के उपचार के दौरान इन बातों का ध्यान रखा जाता है। *लक्षणों पर गौर करना *पीड़ित के परिवार के माहोल को समझना और उन सामाजिक कारणों की पड़ताल करना जो डिप्रेशन के

लिए जिम्मेदार हो सकते है * निराश व्यक्ति को अवसाद के लक्षणों को हल करने और अवसाद के पतन के लिए क्या जरुरी है इसे समझने में सक्षम करना। एक मनोवैज्ञानिक परामर्श चिकित्सक अवसाद के मूल कारण को समझने में मदद करता है। तब वह उसके इलाज के लिए जरुरी कदम उठा सकता है। सलाह मस्तिष्क के सत्व गुण को बढाने के लिए की जाती है। वह औषधियां जो डिप्रेशन के उपचार में काम में आती है। अश्वगंधा: अश्वगंधा में वह गुण होते हैं जो दिमाग से नकारात्मक ख्यालों को दूर करते हैं। अश्वगंधा मस्तिष्क में सुधर कर डिप्रेशन को दूर करता है। ब्राह्मी: ब्राह्मी का सेवन योग करने से पहले किया जाना चाहिए। इसका कारण यह है कि वह मन को शांत करने में मदद करता है। ब्राह्मी उन तेलों में भी पाया जाता है तो दिमाग को ठंडा करते है मस्तिष्क को आरामदायक स्थति में पहुचं ाते हैं। ऐसे तेलों का रोजाना इस्तमाल किसी को डिप्रेशन से बचा सकता है। इलायची: इलायची की एक बहुत ही आकर्षक गंध है जो तंत्रिकाओं को शांत कर सकती है। किसी के डिप्रेस होने पर इलायची वाल चाय मन तरोताजा करने के बेहद काम आती है। गुगूल:ु गुगल ु ू गुग्गुलस्टेरॉनेस guggulsterones नाम के ख़ास रसायन के कारण चर्चा में आया है। यह रसायन तंत्रिका समन्वय में सुधार लाते है और इसलिए अवसाद के इलाज में फायदेमंद होते हैं। जटामांसी: जटामांसी मन पर एक शांत प्रभाव लाता है. सही दिशा में मन की ऊर्जा को व्यवस्थित कर जटामांसी अवसादग्रस्तता को दूर कर सकती हैं। हल्दी: हल्दी उस तरह के डिप्रेशन को दूर करने के काम आती है जो मौसम में बदलाव के कारण होती है। आहार में सुधार कर डिप्रेशन का इलाज जिस किसी को भी डिप्रेशन हो उसे ज्यादा खाने की सलाह नहीं दी जा सकती। उस व्यक्ति को पूरी भर पेट नहीं खाना चाहिए। गर्म मसालेदार और तीखे स्वाद से बचा जाना चाहिए। हरी सब्जियों और सलाद को भोजन में शामिल करना चाहिए। डिप्रेशन से पीड़ित व्यक्ति को शर्बतों का भी सेवन करना चाहिए खासकर के दोपहर और शाम के समय में। समय समय पर चाय और कॉफ़ी भी लेते रहनी चाहिए। बहुत से अवसादग्रस्त लोगों में खाने की इच्छा मर जाती है। ऐसे में उन्हें जबरदस्ती नहीं खिलाना चाहिए वरना उस वजह से उलटी भी हो सकती है। ऐसे में। फलों का सेवन किया जा सकता है फलों से भरपूर आहार डिप्रेशन से निपटने में साहायक सिद्ध होता है। घरेलू नुस्खे सिर की एक अच्छी मालिश ब्राह्मी जैसे ठन्डे तेल से काफी लाभ पहुचं ाती है। दिन की शुरुआत मैडिटेशन और योग के साथ की जा सकती है। अच्छा संगीत सुने। प्रकृति की सुन्दरता का आनंद लें। किसी न किसी गतिविधि में दिमाग लगाए रहें ताकि डिप्रेशन दूर रहे। दूध और शहद के साथ सेब खा कर देखें। यह मूड को ठीक करता है। निम्बू पानी भी इसमें सहायक होता है। 37 October/December 2014


का कामोद्दीपक के रूप में भी वर्णन है। यह पुरुष प्रजनन प्रणाली को फिर से जीवंत करने में सहायता करता है। ,वीर्य की गुणवत्ता और मात्रा को बढ़ाने के लिए जाना जाता है तथा आंतरिक बल और यौनऊर्जा यह रक्त धातु को पोषण देता है। इस प्रकार यह इरेक्टाइल डिसफं क्शन और कामेच्छा को बढ़ाने में सहायता करता है। पके हुए आम को खाने से शरीर को ताकत व मजबूती मिलती है, और त्वचा की चमक बढ़ जाती है। आम के फल में उच्च फाइबर सामग्री होती है, जो कब्ज दूर करने में सहायता करती है। यह गुण दोषों को सामान्य और शरीर के विषाक्त पदार्थों को निष्कासित करने में भी सहायता करता है। आम खनिज और विटामिन की एक किस्म का एक अच्छा स्रोत है। जो की यौन ऊर्जा को बढ़ाने में सहायता करता है। इसलिए आयुर्वेद आचार्यों ने इस फल को वृशय नाम दिया है। आम के पेड़ के विभिन्न भागों का औषिधियाँ बनाने में प्रयोग आयुर्वेद में निम्नानुसार है। "Aamra pushpam atisaarakaphapittaprahemanut Asrugdhraharam sheetam ruchikrud graahi vaatalam " आम के फूल से दस्त की बीमारी ठीक होती और यह कफ और वात को नियंत्रण में रखता है। फूल की ठंडी गुणवत्ता होने के कारण इससे गर्भाशय रक्तस्राव नियंत्रित में रेहता है तथा स्वाद की इन्द्रियों को भी सुधारता है।

आम पोषक तत्वों का राजा

डॉ सविता सूरी आम, या मांगीफे रा इंडिका, एक उष्णकटिबंधीय तथा मौसमी फल है। यह अनकार्दियसेआए परिवार के अंतर्गत आता है। औरव्यापक रूप से भारत और दक्षिण पूर्व एशिया में ही पाया जाता है। आम के पेड़ की जड़ें गहरी होती हैं और 40 फु ट 120 फु ट तक पहुचं जाती हैं। युवा आम के पत्तों का रंग तांबे जैसा होता है। परिपक्व आम गहरे हरे रंग का होता है। पराग प्रदान करने वाले फूल ज्यादातर पुरुष होते हैं, जो उभयलिंगी होते हैं, वे फलों के गठन में सहायता करते हैं। आयुर्वेद ग्रंथों में आम के पेड़ का तथा

आम के विभिन्न भागों का जड़ी बूटी सम्बंधी औषिधियाँ बनाने में उपयोग उल्लेख है। इससे बनी जड़ी बूटी का स्वास्थ्य की स्थिति को सामान्य रखने के लिए उपयोग किया जाता है। आम की छाल, फूल, पत्ते, और बीज कसैले होते हैं, तथा इनसे शरीर के ऊतकों में सूखापन होता है। पका हुआ आम मीठा होता है और यह शरीर में चिकनापन और चिपचिपा स्राव बढ़ता है। यह वात और पित्त को नियमित तथा नियंत्रण में रखता है। इसे खाने से कब्ज दूर होता है और यह पाचन क्रिया में सहायता करता है। पके हुए आम को अधिक खाने से रक्त में हीमोग्लोबिन बढ़ता है तथा यह एनीमिया के इलाज में बहुत उपयोगी है। आयुर्वेदिक ग्रंथों में आम के उपयोग

38 October/December 2014

Tarunam tu tadatyaamlam ruksham doshatrayaasrakrit युवा आम बहुत खट्टे होते हैं और तीनों दोषों को दूषित करते हैं । Pakwam tu madhuram vrishyam snighdham | guru vataharam hridyam varnyam sheetampittalam|| Kashayaanurasam vahnishleshmashukravivardhanam पके हुए आम स्वाद में मीठे होते हैं और शरीर को उर्जा प्रदान करते हैं। यह एक कामोद्दीपक के रूप में काम करते हैं इसलिए यह स्तंभन दोष और नपस ुं कता को काम करने में सहायता करता है। पका हुआ आम पचने में अधिक समय लेता हैं ,तथा एक हृदय टॉनिक के रूप में कार्य करता है। यह पाचन क्रिया में सहायता करता है। त्वचा की चमक बढ़ता है, तथा वीर्य की मात्रा और गुणवत्ता को बढ़ता है। आम की छाल और बीज गर्भाशय की सूजन को कम करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आम के पत्ते उल्टी की संभावना को रोकते हैं, और कोमल पत्तियों मूत्र मार्ग में संक्रमण में उपयोगी होती हैं।


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39 October/December 2014




42 October/December 2014


43 October/December 2014


अदरक

अदरक एक बहुत ही आम जड़ी बूटी है। यह सब्ज़ी और दवाई दोनो के रूप में प्रयोग की जाती है। इस मे इतनी शांता होती है। के यह पाचन अग्नि को शुध कर सकती है तथा यह एलर्जी, अस्थमा और गठिया के रोग को भी नियंत्रण में रखती है।

44 October/December 2014


डॉ रेशमी सरीन सूखी अदरक स्वाद में कड़वी(pungent) होती है। गुण में लघु (light) तथा स्निग्धा(unctuous) होती है। शक्ति में उशना होती है। तथा विप्का (post-digestive transformation)में मधुर होती है। यह कफ व वात् दोष को दर्शाती है। चरक संहिता, प्रसिद्ध शास्त्रीय आयुर्वेद पाठ, में बताया गया है, के यह पाचन अग्नि को स्वस्थ रखता है सिताप्रसामाना है, ठंड से बचाती है। पाचन क्रिया स्वस्थ रखती है, स्तन दूध की सफाई करती है, हाज़मा ठीक रखती है। सूखी अदरक तीन सामग्री में से एक है जो कि अक्सर आयुर्वेदिक चिकित्सकों द्वारा दवाओं को बनाने में प्रयोग होती है। इस मिश्रण त्रिकटु कहा जाता है - तीन तीखी सामग्री, अर्थात् अर्थ. सुनती, मारीच (मिर्च) और पिप्पली (लंबी काली मिर्च). इन तीनो के बराबर मात्रा से बने चूरण को नासाशोध, मोटापा,गठिया सम्बन्धित रोग तथा ट् यूमर जैसी बीमारियों में शहद के साथ सेवन करें। यह पेट दर्द, हृदय रोग, सूजन, अपच, गठिया, निर्बल अपच, सर्दी , क्रोनिक ब्रोंकाइटिस, ठंड , शूल,

रासायनिक संरचना: कॅ प्सेसिन Capsaicin, कुर्कुमिन 6 शोगओल curcumin 6 shogaol; गलनोलकटोने Galanolactone, 6-गिंगएरॉल gingerol; बेन्ज़लदएहयदे; बॉर्नेओल; कफ्फ़ेक benzaldehyde; borneol; Caffeic एसिड; कपूर; एउगेनोल eugenol; फे रूलिक Ferulic एसिड; गिंगएरॉल; म्यरसेने gingerol; Myrcene; पी- स्यमेने cymene; क्वर्सेटिन, Quercetin, मिरिसेटिन; सॅलिसीलेट्स; वनिलिक Myricetin; salicylates; Vanillic एसिड; ज़िनगेरोने Zingerone

कोलाइटिस, जुकाम, खांसी, दस्त, श्वास, जलोदर, बुखार, पेट के फूलने पर,सांस लेने में कठिनाई,पित्ताशय की थैली में विकार, एसिडिटी, हाईपरकोलेस्ट्रोलेमिया, ह्यपेर्ग्ल यसेमिया, सुबह की बीमारी, मतली, गठिया, गले में खराश, गले में दर्द, पेट में दर्द और उल्टी जैसी बीमारियों के प्रयोग किया जाता है।

सावधानी इसकी उष्ण शक्ति व तीव्र स्वभाव के कारण इसका उपयोग गर्मियों में ध्यानपूर्वक करना चाहिये विशेष रूप से त्वचा, रक्त विकारों के लिये। लेखक आर्य वैद्य चिकित्सालयम फार्मेसी एवं अनस ु धं ान संस्थान, कोयम्बटूर फिजिशियन है।

अदरक आयुर्वेद के बहुत से महत्तवपूर्ण योगों में अपनी भूमिका निभाती है, जैसे की नगरदी कषयम, अष्ट वर्गम कषयम, ददिमाष्टका चूर्ण म्, तालीसपत्रादि चूर्ण म्, आर्द्रका गुलाम, सौभाग्य सुनती एंड आर्द्रकासवाम। कृ षिकरण कृ षिकरण कृ षिकरण घरेलू उपचार गुड़ के साथ अदरक (1 भाग) (2 भागों) और तिल के बीज (4 भागों) लीजिये तथा इन्हे पीस लीजिए इस पोडर का सेवन करने से उल्टी, खांसी, और सांस लेने में होने वाली परेशानियाँ नियंत्रण में रहती हैं। इसके अलावा यह स्वाद में सुधार में लाभदायक होता है और कफ दोष को कम कर देता है। अदरक का रस को शहद के साथ खांसी के लिये दस्त के लिए प्याज के रस के साथ भूख न लगने पर नींबू के रस के साथ कब्ज होने पर सेंधा नमक के साथ उपचार के लिए दिया जा सकता है। रसनादि चूर्ण म् का अदरक के रस के साथ सेवन करने से सिरदर्द में राहत मिलती है, सूखी अदरक का पेस्ट थोड़े से पानी में मिलाकर सिर पर लगाने से सिरदर्द में आराम मिलता है। बवासीर के रोगियों के लिये शिशुमूल का पाउडर,मिस्री और अदरक हारीतकी के साथ बराबर मात्रा में लेना बहुत ही लाभदायक होता है। करी पत्ते (6 भाग), हारीतकी (4 भाग) और अदरक (2 भाग) को काढे के रूप में तैयार कर लें तथा इस काढे को आंत्र शूल,पेचिश और बुखार में रोगियों के लिये बहुत लाभदायक होता है यह पाचन में सुधार लाने के लिए विशेष रूप से लाभदायक है। अदरक पाउडर व घी के साथ मिश्रित एक चौथाई सेंधा नमक गुल्मा पेट में ट् यूमर के लिए लाभदायक है अदरक और सहजन की छाल का काढ़ा बनाने के पीने से पेट का दर्द ठीक होता है। गिलोय का 1 भाग, 1 भाग त्रिकटु (लंबी काली मिर्च, काली मिर्च, अदरक) का पाउडर या औषधीय मुरब्बे के रूप में, मिस्री या गुड़ के साथ सेवन करने से जीर्ण नासाशोथ में लाभ होगा। 45 October/December 2014


डॉ आरती जगन्नाथ स्वामी विवेकानंद योग अनुसंधान संस्थान बंगलोर में सहायक प्रोफेसर हैं और डिवीज़न ऑफ़ योग और लाइफ साइंसेज से जुड़ी हैं। भारत सरकार द्वारा 5 वीं राष्ट्रीय महिला उत्कृष्टता पुरस्कार 2012 से नवाजी जा चुकी हैं और महिलाओं के अंतर्रा ष्ट्रीय नेटवर्क से भी सम्मानित हैं। यह NIMHANS, बंगलौर से एक प्रशिक्षित मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर है और साथ ही योग के इंटरनेशनल जर्नल (IJOY) की सह-सम्पादक भी है।

मानसिक स्वास्थ्य और भलाई के लिए योग: एक पोषण करने वाला और एक वैकल्पिक उपचार

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है। अथर्ववेद की आंठवी पुस्तक चक्र संहिता में "इंद्रियों की दिशा, स्वयं, तर्क और विवेचना के नियंत्रण का वर्णन किया गया है। यह पाठ भी मानसिक बीमारी के बारे में स्पष्ट रूप से बोलते हैं और मानसिक बीमारी के कारणों की वजह बताते हैं। योग का पंचकोषा सिद्धांत और व्याधि: तृत्य उपनिषद में बताया गया है कि मानसिक और शारीरिक स्तर पर अत्यधिक गति और मांग की स्थिति, मजबूत पसंद और नापसंद की वजह से भावनात्मक स्तर पर और संघर्ष, मनोवैज्ञानिक स्तर पर अहंकार कें द्रित व्यवहार सकल स्तर पर असंतल ु न के लिए जिम्मेदार पाए जाते हैं। ' योग के माध्यम से लगातार उत्तेजना- आराम विचारों की अनियंत्रित गति (तनाव) को तोड़ने में मदद करता है और मस्तिष्क पर नियंत्रण बढाता है।

योगा क्यों? पिछले कुछ दशकों में मनोचिकित्सा के पश्चिमी मॉडलों की एक अच्छी संख्या उभर कर सामने आयी है। चिकित्सा के इन मॉडलों को बड़े पैमाने पर पूरी दुनिया में मनोवैज्ञानिकों और मनोरोग सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के साथ जुड़े लोगों के उपचार में इस्तेमाल किया जाता है और भारत में भी इनके असरदार होने की बात कही जाती है। हालांकि, कई मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों ने माना है कि यह पश्चिमी मॉडल के वल भारत के महानगरों में रहने वाले लोगों के लिए ही सही हैं और भारत की बहुमत आबादी के लिए यह उपयुक्त नहीं हो सकता है। कई मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों के अनुसार इसके पीछे मुख्य कारण इस बात को मानते हैं कि पश्चिमी मनोचिकित्सा पद्दति यहाँ की संस्कृति से बिलकु ल अनजान है और सामाजिक सांस्कृतिक फर्क भी इसमें मौजूद है। भारतीय रोगियों की प्रवृत्ति ऐसी रही है जिसमे सोच भावनाओ और गतिविधियों के साथ नाता टूट जाता है जो कि मनोचिकित्सा को भी अवरुद्ध करती है। भारतीय सामाजिक मनोरोग संघ के संस्थापक और महासचिव रह चुके वी के वर्मा अपनी पुस्तक ' भारत में मनोचिकित्सा की वर्तमान स्थिति' में

मनोचिकित्सा के पश्चिमी मॉडलों को भारत में लागू करने का विरोध किया है क्योंकि उनका मानना है कि भारतीय प्रकृति पर निर्भर करते हैं और मनोवैज्ञानिक परिष्कार का अभाव डॉक्टर और मरीज के बीच सामाजिक दूरी बनाए रखता है और पुनर्जन्म, कर्म और भाग्य पर निर्भर रहने की प्रवृति आत्मविश्वास को बनाए रखने और निजी फै सले लेने में दिक्कत पैदा करता है। भारतीय पूर्वजों के ग्रंथों,दर्शन और पुराण में योग: भारतीय दर्शनऔर दूसरे हाथ पर लिखित ग्रंथों में विभिन्न उदाहरणों में मानसिक उपचार को दर्शाया गया है। भागवत गीता में अर्जुन के तनाव में होने की स्थिति अपराध, प्रेरणा की कमी, विकृ त सोच के तत्वों को दर्शाती है जिसे भगवान कृ ष्ण एक मनोचिकित्सक प्रक्रिया के माध्यम से हल करते हैं। कर्म और पुनर्जन्म उपनिषदों से दो ऐसी अवधारणाएं रहे हैं जो एक व्यक्ति को आत्म जागरूक बनाता है। भावनाओं के संदर्भ में, ऋग्वेद दोनों सकारात्मक और नकारात्मक भावनाओं को मानता है। यजुर वेद से आत्मसम्मान और आत्म मूल्य का महत्व पता चलता है और इससे कोई रचनात्मक, और खुश होना में सक्षम हो सकता है। अथर्ववेद मानसिक बीमारी का सिद्धांत प्रस्तुत करता

योग और मानसिक बीमारी के क्षेत्र में रिसर्च एक सफलतापूर्वक परीक्षण में योग को पागलपन के एक प्रकार के वैकल्पिक उपचार के रूप में माना गया है साथ ही , अवसाद, भारी तनाव और चिंता आदि के लिए भी इसे प्रभावी उपचार माना गया है। अवसाद के क्लिनिकल उपचार में ब्राउन विश्वविद्यालय से मनोरोग और मानव व्यवहार के एसोसिएट प्रोफेसर लीज़ा ऐन उेबेलाके र और उनके सहयोगियों ने एक अधयन्न के दौरान पाया कि दो महीने विन्यास योग करने से डिप्रेशन के लक्षणों में कमी आती है। योग के साथ अध्ययन में पाया गया कि अवसाद के रोगियों में अवसाद के लक्षणों, गुस्से, चिंता, आदि में महत्वपूर्ण कमी दिखाई दी। ओस्लो विश्वविद्यालय में प्रोफेसर फहरी सातकिओग्लू और सह कार्यकर्ताओं के हाल ही के अन्य अध्ययन दिखाते है कि जीन विनियमन योग अभ्यास द्वारा कै से ठीक होते हैं। अभी बहुत से ऐसे खोजोन का इंतजार हैं जो बता सकें कि योग क्यों और कै से काम करता है! निष्कर्ष उपरोक्त अधयन्न यह दर्शाता है कि मानसिक बीमारियों के लिए योग किस तरह से वैकल्पिक उपचार की तरह काम करता है। यह भी देखा जाता है कि अधयन्न के माध्यम से नवजात अवस्था में कई रास्ते ऐसे तैयार किये जा सकते हैं जिससे मानसिक उपचार के क्षेत्र में योग के द्वारा सकारात्मक परिणाम प्राप्त किये जा सकें । मानसिक विकारों से ग्रस्त रोगियों के लिए योग तीन बुनियादी कारणों के से एक प्रभावी समाधान हो सकता है: 1.जिस योग ने भारत में जन्म लिया है वह रोगियों के लिए घर पर अभ्यास करने के लिए एक व्यावहारिक और स्वीकार्य गतिविधि है। 2. योग चिकित्सकों की संख्या भारत में उपलब्ध मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की संख्या से अधिक है. 3. योग में लागत कम है और कोई साइड-इफे क्ट नहीं है. 47 October/December 2014


सही खायें, सही व्यायाम करें सं

तुलित आहार, नियमित व्यायाम और एक खुशाल मन से अपने जीवनमें दर्द और वृद्धावस्था में होने वाली पीड़ा को दूर कीया जा सकता है। सही ढंग से व्यायाम करना स्वस्थ रहने के लिए महत्वपूर्ण है। सही आहार, सक्रिय जीवन तथा शांत एवमं सुखी मन शरीर को काफी समय तक मज़बूत तथा स्वस्थ रखता है। एक व्यक्ति को अपने जीवन में उसकी बढ़ती आयु के सही मात्रा में सही पोषण की बहुत अवश्यकता है। अक्सर देखा जाता है कि बचपन के दौरान जिन्हे उनके बढ़ते दिनो में सही पोषण पर्याप्त नहीं होता है वे ही वृद्धावस्था के दौरान कई स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं। भोजन कम खाना और काम अधिक करना लंबे समय तक स्वास्थ के लिये ठीक नहीं है। व्यक्ति की आदतें उसके स्वास्थ पर प्रभाव डालती हैं। स्वस्थ रेहने के लिये दिनचर्या के अनुसार अच्छी

आदतों का पालन करें। अगर एक व्यक्ति अपने शरीर का सही तरह से अध्यन करें जैसे की अपने शरीर की चयापचय शक्ति और उसी के अनुसार अपना आहार ग्रहण् करे और वसायुक्त पदार्थ जैसे कि घी, तेल, सूप आदि का प्रयोग विवेकपूर्ण तरीके से करे तो उसे अपनी वृद्धावस्था में दवाइयों की संगत तथा डॉक्टोपरों के पास ज़्यादा जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। अनाज और स्वस्थ सहायक से बने खाद्य पदार्थ पौष्टिक खाना बनाते हैं। खाद्य पदार्थ जैसे की अधिक तेल या मिर्च मसाले से बना हुए या सूखे व देर से पचने वाले, ये सभी शरीर के लिए नुकसानदायक हैं। नशे की लत और मादक पदार्थों

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से भी दूर रेहना चाहिए। भूख में वृद्धि से, व्यायाम के अभ्यास तथा चयापचय के कचरे का उचित और समय पर निष्कासन करके उच्च रक्तचाप को नियंत्रण में लाया जा सकता है। २:३ के अनुपात से सुखी अदरक को पानी में उबालकर पीने से ये समस्या दूर हो सकती है। उचित आहार व नियमित रूप से व्यायाम करना बहुत महत्वपूर्ण है। तेज चलना, सैर पर जाना, दौड़ लगाना या अपना मनपसंद खेल खेलना, हड् डियों और मांसपेशियों को मजबूत बनाने में सहायता करता है और उन्हें सक्रिय रखता है। स्वास्थ सबसे अधिक महत्वपूर्ण है परंतु फिर भी इसे अनदेखा कर दिया जाता है। हमारे मन, मांसपेशियों, उत्तकों, हड् डियोंको तथा हमारे पूरे शरीर को एक रोग मुक्त जीवन जीने के लिये स्वस्थ होना अति अवश्यक है। एक व्यक्ति की पाचनशक्ति, पोषण प्राप्ति, बॉडी मास इंडेक्स, व्यक्ति


का रंग, संवेदी गतिविधियाँ, भूख, प्यास, ठंड या गर्म जल-वायु सहन करने की क्षमता, तनाव के बिना व्यायाम करने की क्षमता, सक्रिय और उत्साहित मन से उसके स्वास्थ स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है। बचपन के दौरान उचित पोषण, एक अच्छी दिनचर्या और नियमित रूप से व्यायाम एक आरामदायक तथा स्वस्थ बुढ़ापे की प्रत्याभूति दें सकता हैं। जिन व्यक्तियों में सही पोषण होता है और जिनका शरीर सक्रिय होता है उनकी मस्तिष्क तथा मानसिक शक्ति भी सतर्क और मजबूत होती है। मानसिक ताकत व्यक्ति को शीघ्र निर्णय लेने में, विचारना में, ध्यान के न्द्रित करने में सहायता करती है। बड़े-बूढ़े सलाह देते हैं कि जितना हो सके दूध, दही, मक्खन कम से कम खाने चाहिये क्योंकि इनसे भूख कम लगती है। खाने से पहले सैर करनी चाहिये क्योंकि सैर करने से चयापचय शक्ति, रक्त परिसंचरण, उचित अवशोषण, ऊर्जा उपयोग को बढ़ाने में शरीर को सहायता मिलती है। ऊर्जा पूरकता तभी संभव होती है जब व्यक्ति की खुराक अच्छी होती हो।घी एक अच्छा ऊर्जा स्रोत है तथा इसे खाने से भूख बढ़ती है , यह मस्तिष्क की क्षमता और बुद्धि को बढ़ाता है।आयुर्वेद के अनुसार घी एक प्रतिरक्षा प्रणाली का काम करता है, इससे शरीरको पोषण भी मिलता है और इससे चयापचय शक्ति भी बढ़ती है। तथा यह उपयोगिक ऊर्जा संसाधन के लिए योगदान देता है, इसलिये घी रोग मुक्त व्यक्तियों के लिये सबसे अच्छा प्रतिरक्षक है। सिर और शरीर पर नियमित रूप से तेल लगाना भी निर्विघ्न शारीरिक गतिविधियों के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। जन्म के समय से ही तथा बचपन में भी नियमित रूप से उचित व्यायाम तथा सही खान -पान ही वृद्ध अवस्था में स्वस्थ रेहने का रहस्य है। जल्द आनेवाले बुढापे से बचने या कम होनेवाली भूख के कारण दूध, दही और मक्खन का सेवन कम करने की सलाह दी जाती है। भोजन से पहले शरिर में चयापचय शक्ति, रक्त परिसंचरण, उचित अवशोषण और ऊर्जा उपयोग बढ़ जाती है। ऊर्जा पूरकता एक व्यक्ति का पूर्ण पोषण हो तभी संभव है। घी एक अच्छा ऊर्जा स्रोत है और यह भूखको तथा मस्तिष्क की क्षमता और बुद्धि को बढ़ाता है। एक प्रतिरक्षा प्रणाली आयुर्वेद के अनुसार, पोषण की सुविधा और चयापचय शक्ति बढ़ जाती है, और आसानी से उपयोगिक ऊर्जा संसाधन के लिए योगदान देता है, जब तक घी का संतुलित आहार में योग्य तरीके से उपयोग ना हो रहा है तब तक हर व्यक्ति बीमारी से मुक्त है । इसलिए, शरीर की प्रतिरक्षा बढ़ाने के काम में घी का महत्व ज्यादा है। सिर और शरीर पर नियमित रूप से तेल लगाना भी निर्विघ्न शारीरिक गतिविधियों के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। जन्म के समय से ही तथा बचपन में भी नियमित रूप से उचित व्यायाम तथा सही खान -पान ही वृद्ध अवस्था में स्वस्थ रेहने का रहस्य है। भोजन का अधिकार महत्वपूर्ण है, और समान रूप से आवश्यक सही व्यायाम और नियमित रूप से किया जाता है. तेज चाल से चलना, एक त्वरित जोग या चलाने के लिए, एक पसंदीदा खेल के एक घंटे हड् डियों और मांसपेशियों को मजबूत और सक्रिय रखने के लिए उन्हें।

सिर और शरीर पर नियमित रूप से तेल लगाना भी निर्विघ्न शारीरिक गतिविधियों के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है। जन्म के समय से ही तथा बचपन में भी नियमित रूप से उचित व्यायाम तथा सही खान -पान ही वृद्ध अवस्था में स्वस्थ रेहने का रहस्य है।

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पवित्र वक्ष ृ

बरगद भारत का राष्ट्रीय वक्ष ृ है, अति प्राचीन काल से ही इस वक्ष ृ को भारतीय संस्कृति का एक पवित्र अभिन्न अंग माना जाता है। बरगद का वृक्ष हमारी भारतीय संस्कृति का ही एक अंश है। वैदिक साहित्य,महाकाव्यों और शास्त्रीय कविताओं में बरगद को शांती पवित्रता तथा भक्ति का प्रतिनिधित्व माना जाता है। एक रहस्यमय बयान में भगवद गीता में भगवान कृ ष्ण कहते हैं, के एक बरगद का वृक्ष है, जिसकी जड़ें उपर की ओर हैं और शाखायें नीचे की ओर तथा वैदिक भजन इसकी पत्तियां हैं तथा जो इस वृक्ष को जानता है वह वेदों का ज्ञाता है। गीता में कृ ष्ण कहते हैं सभी वृक्षों में से में बरगद का वृक्ष हू।ँ सभी संत ऋषि मुनि बरगद के वृक्ष के नीचे स्थान ग्रहण करते थे। कहते हैं की महात्मा बुद्ध ने बरगद वृक्ष के नीचे ही ध्यान करते समय आत्मज्ञान प्राप्त किया था तथा इस कारण इस वृक्ष को बोधि वृक्ष भी कहते हैं। बरगद, विशेष रूप से भारतीय बरगद या फिक्स बेंघालेंसिस (Ficus benghalensis) सामान्यीकृ त से सभी अंजीर शामिल है जो की एक अद्वितीय जीवन चक्र का हिस्सा है। अक्सर इस वृक्ष की छाया में भारतीय व्यापारियों देखा गया है, इसीलिए इस वृक्ष का नाम बनयान रख दिया गया। पुर्तगाली आमतौर पर इस शब्द का इस्तमाल व्यापारियों के लिए करते थे। विशेष रूप से उन व्यापारियों के लीए जो की अपना व्यापार इस विशाल वृक्ष के नीचे ही करते थे। इस वृक्ष के आश्रय के तहत गांव के व्यापारियों के व्यापार के लिये अनेक बैठक होती थी। पुर्तगाली ने 'बनयान ' नाम का प्रसार किया और आखिरकार इस वृक्ष का नाम बनयान ही पड़ गया।।।। ।।। वृक्ष बरगद भारत और पाकिस्तान का वृक्ष है। और भारतीय प्रायद्वीप के पश्चिमी भाग में 1200 मीटर का ऊंचा पाया जाता है, परंतु अब यह उष्णकटिबंधीय एशिया भर में व्यापक रूप से बढ़ता जा रहा है। कमाल विशाल ट्रंक की तरह जड़ें तथा दूर तक

फै ली हुई ं लंबी व मजबूत व्यापक शाखाएं बरगद की विशेषता है। एक बरगद का वृक्ष अपना जीवन एक उपरिरोही (epiphyte) के रूप में आरंभ करता है। यह बहुत ही अद्तभु है के एक बीज कै से एक विशाल वृक्ष में परिवर्तित हो जाता है जिसकी आप बड़ी बड़ी इमारतों और पुलों के साथ भी तुलना कर सकते हैं। बरगद के पेड़ के पत्ते मध्यम आकार वाले एक विशेष आकार के चमड़े जैसे और चमकदार होते हैं। बहुत से

वैज्ञानिक वर्गीकरण किं गडम: प्लांटी प्रभाग: मागनोलिओफयता कक्षा: मैग्नोलियोप्सीडा आदेश: उर्टिकल्स(Urticales) परिवार: मोरसए (Moraceae) जीनस: फिक्स (Ficus) सुब्गेनुस: यूरोस्टिग्मा (Urostigma) प्रजाति: ऍफ़ बेंघालेंसिस (F benghalensis) अन्य नाम: अस्वत्था, न्यग्रोधा, वात (Asvattha, Nyagrodha, vat) (संस्कृ त)

अंजीर के पेड़ों जैसे इसकी भी कलियाँ दो बड़े पैमाने द्वारा कवर ढकी होती हैं। जैसे जैसे पत्तिया आकार लेती हैं, यह पैमाना निकल जाता है। छोटी पत्तियों का रंग बहुत ही आकर्षित होता है। यह लाल रंग की होती हैं। बनयान पेड़ के फल बहुत ही अद्वितीय आकार के होते हैं, तथा ये प्रजनन के लिए अंजीर के वास्प्स पर निर्भर

क्या आप जानते हैं

होते हैं। फल को अंजीर कहा जाता है। जो की 1.8 सेंटीमीटर के दायरे में होते हैं। और पकने पर उनका रंग नारंगी-लाल हो जाता है। अंजीर एक फल नहीं होता है बल्कि यह एक थैली होती है जिसमे की सैकड़ों फूल होते हैं। फरवरी और मई के बीच जब अंजीर पकना शुरू हो जाते हैं। तो वे पक्षी, चमगादड़, गिलहरी, कुछ कीड़े और बंदरों के साथ बहुत लोकप्रिय हो जाते हैं। वृक्ष के बीज फल खाने वाले पक्षियों द्वार बिखेर दिये जाते हैं बीज अंकु रित हो जाते हैं, और अपनी जड़ें नीचे जमीन की ओर भेजने लगते हैं, और ये जड़ें इतनी लंबी होती हैं, के इनसे एक इमारत भी ढक सकती है । पुराने बरगद के वृक्षों की हवाई सहारा जड़ें जो की एक मोटे तने में परिवर्तित हो जाती थी वृक्ष की विशेषता ऑटी थी जो की बाद में अप्रभेद्य हो जाती थी इस विशाल वृक्ष की जड़ें औरों के मुकाबले कई एकड़ तक फै ल सकती हैं। इस वृक्ष को बढ़ने के लिये बहुत जगह चाहिये होती हैं। तथा इसकी जड़ों को दूर तक बढ़ने के लिये मिट्टी बहुत गहरी होनी चाहिये यह बहुत ही विशाल और विकसित वृक्ष है। जिसकी उंचाई 20 मीटर तक बढ़ सकती है यह वृक्ष मिट्टी की कई विस्तृत विविधता में विकसित हो सकता है। पर यह गहरी रेतीली चिकनी नमी वाली मिट्टी में सबसे अच्छा विकसित होता है। यह वृक्ष अकाल भी अन्य सदाबहार प्रजातियों से बेहतर सह सकता है। बरगद के पौधे बड़े पैमाने पर बोनसाई बनाने के लिए उपयोग में आते हैं, क्योंकि इनकी जड़ें व्यापक तथा जटिल होती हैं। ताइवान के सबसे पुराना जीवित बोन्साई ताइनान में रखा एक 240 वर्षीय बरगद है! बरगद के पेड़ की लकड़ी और छाल काग़ज़ बनाने में उपयोग की जाती है तथा इसकी जड़ें रस्सी बनाने के काम आती हैं। जो की लकड़ी के बंडलों में बांधकर उन्हे सुरक्षित रखती हैं। नेपाली महिलायें बरगद के पेड़ की जड़ों को कूट कर एक लेप बनाती हैं। जिसे वे अपनी त्वचा व बालों को मुलायम रखने के लिये इस्तमाल करती हैं।

पहला बरगद का पेड़ अमरीका में थॉमस आल्वा एडिसन ने फ़ोर्ट माइस, फ्लोरिडा में लगाया था। जिसे एडिसन को हार्वी फाइर्स्टोन ने दिया था। जिससे पहले यह थे एडिसन और फ़ोर्ड विंटर एस्टेट् स में फाइर्स्टोन के भारत में 1925 में हुए दौरे पर लगाया गया था। जब यह पेड़ लगा था तो इसकी उंचाई के वल चाट फु ट थी परंतु अब यह पेड़ 400 फु ट उंचा है । कोलकाता के बॉटनिकल गार्डन दुनिया का सबसे बड़ा बरगद का पेड़, महान बरगद है यह पूरा "जंगल" एक पेड़, लगभग 250 साल पुराना है। भारत का दूसरा सबसे बड़ा बरगद चेन्नई में थियोसोफिकल सोसायटी में है। 50 October/December 2014


औषधीय उपयोग

बरगद के पेड़ में अनेक औषधीय तत्व होते हैं। इसकी पत्तिया छाल बीज और अंजीर बहुत सी बिमारियो के इलाज के लिये प्रयोग होती हैं। जैसे की डायरिया, मधुमेह, पॉल्यूरिया। गर्भपात ना हो इसके लिये आयुर्वेद में इससे बने कसैले दूधिया रस का उपयोग करने की सलाह दी गई है। इसलिए इस वृक्ष को चिकित्सा, सुरक्षा, संवेदनशीलता, विश्वसनीयता और उदारता के साथ जुड़ा हुआ बताया गया है। यह रस बाहरी त्वचा में होने वाली सूजन को भी दूर करता है। बरगद की छाल व बीज शरीर को ठंडा रखने के प्रयोग में आते हैं तथा इन्हे मधुमेह से पीड़ित रोगियों को भी दवाई के रूप में दिया जाता है। इसकी जड़ें व रस त्वचा की अल्सर पेचिश (dysentery) तथा दांतों के दर्द के इलाज के लिये भी इस्तमाल होता है। बरगद के पेड़ की टहनियाँ दंत स्वास्थ्य को बढ़ावा देने के लिए भारत और पाकिस्तान में दंर्तखोदनी (toothpicks) के रूप में बेचा जाता है। 51 October/December 2014




प्राकृितक मार्ग क्या आप अपने सौंदर्य को बढ़ाने के लिये रसायन या कृत्रिम सामग्री का उपयोग कर रहे हैं। आपको इनसे तुरतं ही परिणाम तो मिल जायेंग,े परंतु आपको अपने स्वास्थ्य के साथ समझौता करना पड़ेगा। एसा ना हो इस लिये आप हर्बल ब्यूटी के नसु ्खे अपनाएं।

54 October/December 2014


सिर में जूँ क्या आप परेशान हैं के कहीं आपके सिर में जूँ ना हो जाएं ? हमारे पास एक बहुत ही आसान सा नुस्खा है। एक मुट्ठी में तुलसी के पत्ते लीजिए और एक में आमले के पत्ते लीजिए, उन दोनो पत्तियों को आपस में मिला लें और फिर उस लेप को चावल के पानी में मिला लें, इस तरह से आपका एक हर्बल शेम्पू तैयार हो जाएगा, किसी भी अन्य शेम्पू की तरह इस्तमाल करें, नियमित रूप से अगर इस शेम्पू काप्रयोग करेंगे तो आपको जूँ से छुटकारा मिल जायेगा। दूसरा तरीका है मेथी, कपूर और खस लीजिये, मेथी को पूरी रात पानी में सूकने के लिये छोड़ दीजिये, अगले दिन उस मेथी का लेप बनाइए, उसके बाद दस लीटर पानी में खस खस डालकर उबाल लें और ठंडे होने पर उसमे एक चुटकी कपूर डाल लें,मेथी के लेप को सिर पर लगाये और कुछ समय तक छोड़ दे कुछ देर बाद खस खस में उबले पानी से सिर को धोलें और खुद परिणाम देखें। चहरे की चमक के लिए एक चमका हुआ चहरा आपके आतंविश्वास को और बढ़ा देता है । यहाँ पर तीन एसे नुस्खे दिये हैं जिनको अपनाकर आप अपने चहरे की चमक को बनाये रख सकते हैं। थोड़ी सी हल्दी, पेड़ की हल्दी, मुलैठी, भारतीय valerian और लाल चंदन लीजिये, सभी सामग्री एक ही मात्रा की होनी चाहिए, सारी सामग्री को पीस कर उसका पोडर बना लें, आप उस पोडर को एर टाइट जार में रख सकते हैं, ताकि जब चाहे उसका इस्तमाल कर सकें , एक चम्मच पोडर को दूध में उबालकर उसका लेप बना लें और उसे ठंडा करलें, अपने चेहरे को सही ढंग से सॉफ करें उसके बाद लेप को आराम से चहरे पर लगाएं जब लेप पूरी तरह से सूख जाये तो उसे ठंडे पानी से साफ करलें। एसा हफ़्ते में दो बार करें। 2 दूसरा बहुत ही प्रभावी उपाए है चमेली की कुछ कलियों को लीजिए और उनका गुलाब जल के साथ पीसकर एक लेप तैयार कीजिए, उस लेप को रात को सोने से पेहले अपने चहरे पर लगाएं और सुबह पानी से साफ करलें, कुछ ही हफ्तों में आप फरक देखेंगे । 3 बराबर मात्रा में चंदन लोढरी की छाल और हल्दी लीजिये, थोड़े से पानी के साथ उसका एक लेप बनालें , उस लेप को चहरे पर लगाएं। और पूरी तरह सूखने पर पानी से धोलें। एसा हफ़्ते में दो बार दोहराएं। चेहरे पर दाग और निशान आप लोगों में से कुछ लोग अपने चहरे पर होने वाले दाग और निशानों की चिंता होगी इसीलिये आपके लिये यहाँ कुछ आसान और प्रभाविक उपाए दिए गए हैं। आपको बस लाल चंदन और शहद की अवश्यकता है । लाल चंदन चहरे के दाग धब्बों को मिटाने के लिये बहुत लाभदायक है। चेचक के गहरे दाग भी लालचंदन से ठीक हो जाते हैं। यह चहरे की त्वचा का रंग भी साफ करता है। यह पोडर के रूप में मिलता है परंतु आप इसकी लकड़ी खरीदें तथा उसे कठोर पत्थर

पर रगड़कर उसका लेप बनाइए। पत्थर पर पहले शहद डालें फिर उसके उपर लाल चंदन की लकड़ी को रगड़ें, शहद डालतें रहें और लकड़ी को रगड़ते रहें, एसा तब तक करें जब तक के लेप ना बन जाये, उस लेप को चहरे पर लगाएं और आधे घंटे बाद उसे गुनगुने पानी से धोलें। एसा रोज़ दोहराएं और आप कुछ ही हफ्तों में अपने चहरे के दाग और निशानो को कम होता पायेंगे। आँखों के नीचे काले घेरे यहाँ हमने आँखों के घेरे हटाने के लिये कुछ नुस्खे दिए

हैं। सामग्री में आपको लाल चंदन,चंदन और गुलाब जल की आवश्यकता है। 1. 100 ग्राम लाल चंदन और चंदन लीजिए। दोनो को पीसकर एक पोडर बना लीजिए। सही मात्रा में गुलाब जल से पोडर का लेप बना लें। उस लेप को काले घेरों पेर लगाएं तथा लेप के पूरी तरह सूख जाने पर धोलें। दो हफ्तों में आप बदलाव महसूस करेंगे। इस नुस्खे को काले घेरों पर तब तक प्रयोग करें जब तक की काले घेरे पूरी तरह से ना चले जाएं। 2. काले घेरों को ठीक करने के लिये गुलाब जल एक बहुत ही सस्ता उपाए है। अच्छी क्वालिटी के उत्पादों का प्रयोग करें। गुलाब जल की बूंदे आँखों में डालें या उस से चहरा धोयें, काले घेरों के कई कारण है जैसे की – नींद पूरी ना होना, लगातार पढ़ने से या कं प्यूटर के सामने बहुत देर तक बैठने से आँखों में होने वाला दर्द आदि, एसे में गुलाब जल आँखों के लिये फायेदे मंद है। 3. शुध शहद आँखों के नीचे काले घेरों को मिटाने के लिये बहुत फायेदमे ंद है। काले घेरों पर पतली सी परत लगाएं। एक घंटे बाद ठंडे पानी से धो दें, इसे एक हफ़्ते तक दोहराएं। मुहं ासे मुहं ासों के कु छ प्रभावी उपाए 1. नीम और हल्दी मुंहासों के लिये बहुत लाभदायक

है। नीम की कुछ पत्तियों को लीजिये और थोड़ी मात्रा में हल्दी मिलाइये, फिर उन दोनो को मिलके एक घाड़ा लेप तैयार किजिये, उस लेप को मुहाँसों पर लगायें और

आधे घंटे बाद धो दें, अगर यह उपाए लगातार एक हफ़्ते तक किया जाये तो मुंहासे काफी हद तक कम किये जा सकते हैं। 2. देसी जड़ी बूटियाँ मुंहासों को कम करने के लिये लाभदायक हैं। हरे चने, हल्दी और नीम की पत्तियों की बराबर मात्रा लीजिये और उनको पीस कर एक लेप तैयार किजिए उस लेप को फे स पैक के जैसे इस्तमाल कीजिये। लेप के सूख जाने पर उसे गुनगुने पानी से साफ करें। चहरे पर लगे पानी को साफ रुमाल या रूई से पोछें और अंत में नारियल का तेल आदि चहरे पर लग्यएं, एसा एक दिन छोड़ कर करें। फटे होंठ फटे होंठ सर्दी के मौसम में आम परेशानी है। बाज़ार में एसे कई नकली बाम उपलब्ध हैं जिन्हे लगाने से होंठो का प्राक्रतिक रंग और चिकनापन चला जाता है। 1. फटे होंठों के लिये गाय के दूध से निकला शुध मक्खन लाभदायक है। जब भी होंठ फटे उन पर दिन में कई बार मक्खन लगाएं। यह बच्चों के लिये भी नुकसान दायक नहीं है। 2. नद्यपान और शहद दोनो का मिश्रण फटे होंठों के लिये लाभदायक है। नद्यपान का चुरा बनालें और उसमे थोड़ा सा शहद मिलाकर एक घाड़ा लेप तैयार करलें। इस लेप को लगाने से सर्दियों में होंठ फटने की समस्या से छुटकारा मिल सकता है। लाल होंठ - प्राक्रतिक तरीके से जी हाँ ये संभव है। आजकल नकली रंग बाज़ार में उपलब्ध हैं। जिनमे से कई एसे हैं जो की होंठों के लिये नुकसान दायक हैं। इन सब के बजाये सुपारी एक अच्छा विकल्प है। सुपारी को अच्छी तरह से कूट कर होंठो पर लगाएं। अगर इसे लगातार 14 दिनो तक इस्तेमाल किया जाये तो ये होंठो का लाल रंग बना रहेगा। साफ रंग के लिए रंग साफ करने के लिये बहुत सारे उपाए हैं 1 कुछ कच्चे करौंदे और थोड़ा सा शहद लीजिए, करौंदों को पीसकर उसपर थोड़ा सा पानी छिड़के , एक साफ कपड़े में पिसे हुए कच्चे करौंदों को रखें कपड़े को दबाकर एक ग्राम करौंदा का रस निकल लें यह रस शरीर पर ना लगाएं, उस रस में एक चम्म्च शहद मिलाएं, और उस रस को सुबह नाश्ते से पहले पिएं, रस को पीने के आधे घंटे बाद ही नाश्ता करें। अगर संभव तो तो इस रस का रोज़ सेवन करें। यह नुस्खा आपका रंग तो साफ करेगा ही साथ ही साथ यह आपके बालों को स्वस्थ रखने में भी सहायता करेगा । 2 बादाम का तेल और हरा चने का पोडर भी त्वचा के लिए लाभदायक है। यह बहुत ही आसान है और प्रभावी भी है। अच्छी क्वालिटी का बादाम तेल खरीदें। इस तेल से अपने शरीर की मालिश करें। दो घंटे बाद हरे चने के पोडर से शरीर को तेल से धोलें। एसा हफ़्ते में एक बार करें। आप अनुभव करेंगे के आपकी त्वचा का रंग 55 October/December 2014


निखर रहा है। अनचाहे बालों का बढ़ना बहुत सारे लोग इस समस्या से परेशान हैं। अब के मिकल पदरतों की जगह प्राक्रतिक जड़ी बूटी का प्रयोग करें। एसा नहीं है के परिणाम तथा प्रभाव जल्दी मिल जायेंगे, यह समय लेगा परंतु अच्छे परिणाम अवश्य देगा। हल्दी और हरा चने का पोडर लीजिये। कच्ची हल्दी का एक टुकड़ा लीजिये और त्वचा के उस भाग पर रागाड़िए जहां बाल हैं, उस पर पानी लगाइये, उसके

बाद उस भाग में हल्दी का लेप लगाइये। एक घंटे बाद उसे हरे चने के पोडर से धोलें, अगर बालों की उपज ज़्यादा है तो पेहले बाल हटाके फिर ये नुस्खे का प्रयोग करें । सफे द बाल सफे द बालों के लिए गुड़हल का फूल तथा करौंदे बहुत लाभदायक हैं। 10 करौंदे लीजिये, उनके बीज निकालकर पत्तों को पीस दें, उसके बाद उसमे गुड़हल के पत्ते मिलकर एक लेप तैयार करलें, उस लेप को सिर

तथा बालों में लगाएं, आधे घंटे तक छोड़ दें और उसके बाद धोलें, एसा दो तीन सप्ताह तक प्रतिदिन करें, आपके बालों की लंबाई बढ़ेगी तथा सफे द बाल भी नहीं रहेंगे। अपने नाखूनों की देख बाल करें हीना और हल्दी आपके नाखुनो की देखाल के लिए लाभदायक है। एक मुट्ठी हीना की पत्तिया लीजिये उसमे दो कच्ची हल्दी के टुकड़े डालिये दोनो को पीस लीजिये तथा एक लेप तैयार कर लीजिये, उस लेप को नाखूनों पर लगाएं, आधे घंटे बाद धोलें, यह लेप आपके नाखूनों को स्वस्थ तथा सुन्दर रखेगा।

फटी एड़ी 1 फटी एड़ियाँ आपके पैरों की सुंदरता को खतम कर देती है, तथा इनसे एड़ियों में दर्द भी होता है, नीम की पत्तियों तथा कच्ची हल्दी से आप फटी एड़ियों को ठीक कर सकते हैं। बराबर मात्रा में हल्दी और नीम की पत्तियों का पेस्ट बनालें, सोने से पेहले आप अपनी एड़ियों को अच्छी तरह साफ करलें जितना हो सके त्वचा की मोटी परत को हटादें जितना एड़ी साफ रहेगी पेस्ट भी उतना ही असर करेगा, रोज़ एड़ियों में लेप लगाने से दरारें खतम हो जाएंगी। 2.दूसरा उपाए है दही नीम की पत्तियाँ तथा हल्दी, बराबर मात्रा में तेनो सामग्री का एक लेप तैयार करलें, एड़ियों को अच्छी तरह साफ करें और ये लेप दरारों में लगाएं, एक घंटे बाद एड़ियों को धोलें, एक हफ़्ते में ही आपकी एड़ियों स्वस्थ हो जाएंगी।

56 October/December 2014



अपने चिकित्सक से पछू ें आयुर्वेदिक दवा है जिससे भूख बढ़ती है तथा कृ पया कोई एसा तेल बताएं जिस से बच्चे के शरीर पर नीलहाने से पहले मालिश की जा सके । श्रीलता, कुण्णमकु लम प्रिय श्रीमती श्रीलता, अच्छी तरह से भूख लगना शरीर में उचित अग्नि का ही एक संकेत है। इन दिनों, अधिकतर बच्चे दुबले होते हैं। ध्यान रखें के बच्चे को भूख लगे। उसे दूध या दूध से बना कोई पदार्थ ना दें। उसे चीनी शुध चीनी और मैदा ना दें। आप उसे आधा चम्मच अष्टचूर्णा म (ashtachurnam) गाय के घी या शहद के साथ मिलाकर नाश्ते के साथ दें सकती हैं। डॉ एम प्रसाद, बीएएमएस, एमडी (आयुर्वेद), सुनटे री औरवेदश्रम एंड रिसर्च सेंटर, त्रिशूर के मुख्य चिकित्सक और निर्देशक है, शलकयातंत्रा में माहिर हैं। डॉ प्रसाद ने भी भारतीय वैद्य संवादां, आयुर्वेद के तरीकों और सिद्धांतों पर मलयालम त्रैमासिक संपादन.

आयुर्वेद और स्वास्थ्य पर्यटन पाठकों स्वास्थ्य की स्थिति से संबंधित अपनी परेशानियाँ लिख कर भेज सकते हैं। पत्र में अपनी उम्र, लिंग और अपने स्वास्थ्य की स्थिति का एक संक्षिप्त विवरण अवश्य लिखें। आप हमे ई मेल भेज सकते हैं हमारी ई मेल आई डी है, ayurvedamagazine@gmail.com या आप हमे पत्र पोस्ट भी कर सकते हैं हमारा पता हैसपं ादक, आयुर्वेद एवं स्वास्थ्य पर्यटन, एफ एम मीडिया टेक्नोलॉजीज प्राइवेट लिमिटेड, 2 - बी, रिट्रीट, प्रशांति नगर रोड 2, एडपाल्ल्य, कोच्चि 24, के रल, भारत. फोन 91 484 2341715

2 मैं अपनी बेटी के लिए लिख रही हू।ँ वह अपने चहरे पर होने वाले मुंहासों से बहुत परेशन है। वह अब 21 वर्ष की है, और यह समस्या उसे पिछले छ महीनों से हो रही है। ये समस्या पिछले एक साल से शुरू हुई है, उसने कई डॉक्टर को दिखाके दवाइयां खाई हैं, और उसने बाज़ार में उपलब्ध क्रीम भी इस्तमाल करी, परंतु कोई लाभ नहीं हुआ। उसने कस्तूरी मंजल जैसी जड़ी बूटी भी चहरे पर लगाई। उसके भोजन में शाकाहारी खाना व मांसाहारी खाना दोनो शामिल होते हैं। हमने खाने में कम से कम तेल का इस्तमाल करना शुरू कर दिया है। उसका शरीर पतला है। एवं गेहुआँ रंग है। उसकी दूसरी समस्या है। को गिरने से रोकने के लिये कौनसा है । तेल इसके लिए सही रहेगा कृ पया अपनी महत्तवपूर्ण सलाह दें। लिसी एंटनी मनन्तावाद्य. प्रिय लिसी एंटनी यह अच्छा है, के आप अपनी बेटी के लिये सही खान पान को महत्तव दे रही हैं। उन्हे चीनी व मांस पूरी तरह से छोड़ना होगा। मुंहासों को रोकने के लिये वाचा (वयंबु) लोध्राम( पछोट्टी) (vacha (vayambu) lodhram(

1 मेरा बेटा अब दो साल का है। उसे भूख नहीं लगती और उसका शरीर भी बहुत दुबला है। कभी वह ठीक से खाता है परंतु कभी बिल्कु ल नहीं खाता। क्या कोई 58 October/December 2014

pachotti) and dhanyaka (kothamalli)) का पानी या गुलाब जल के साथ बना लेप इस्तमाल करें। इस लेप को 45 मिनट तक चहरे पर लगायें रखें और फिर कुछ समय बाद गुनगुने पानी से चहरा धोलें ।उन्हे दिन में दो बार मांजिष्तदी कश्यम (Manjishtadi Kshayam) दीजिये। अगर बालों में रूसी नहीं है तो नीलीभृङ्गादि, कन्जूननयदि (Neelibhrungadi, Kanjunnyadi) जैसे तेल का प्रयोग करें। इनसे बालों की लंबाई बढ़ती है और अगर बालों में रूसी है तो पहले उसका इलाज कीजिए और अगर किसी प्रकार की हॉर्मोनल समस्या है तो उसका भी समाधान करें। 3 में पिछले चार साल से सिर दर्द से पीड़ित हू,ँ दर्द नियमित तो नहीं परंतु अंतराल में बार बार शुरू हो जाता है। अधिकतर दर्द दो तीन दिनों के लिए स्थायी ही होता है। बहुत कम एसा होता है जब सिर बहुत ज़्यादा दर्द करता है। मैं अभी तक इस बीमारी का कारण नहीं जान पाया हूँ । मुझे किसी चीज़ से एलर्जी भी नहीं है। कभी कभी मेरे मल त्याग में भी परेशानी आती है मैं नारियल का तेल सिर पर लगा रहा हूँ । मैने अभी तक किसी दवाई का सहारा नहीं लिया है। मैं शाकाहारी हूँ । कृ पया मेरी सहायता करें। सुभाष रामाणटतूकरा प्रिय सुभाष, आपको सिर दर्द आपके पेट खराब होने के कारण हो रहा है। आप भोजन से पेहले दो बार Chiruvilwadi kashayam लें। मसालेदार और तले हुए खाद्य पदार्थ से बचें। कुछ भी एसा ना खायें जो की के वल स्वाद के लिए खाया जाता है। तथा छ घंटे की नींद अवश्य लें।


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