प्रॉ॰ भरत सिहं
सप्नों का देश
क्रोएशिया
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वह देश कौनसा है? अमृत की नदियां जहां सावा जैसी बहती हैं. बारिश के मौसम में भी कल - कल करती हैं सुबह शाम शैलानियो ं से आवो-आवो कहती हैं
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जिसके दोनो ं छोरो ं पर मं द पवन बहती है. यारो वह देश कौन साहै बच्चों से बूढ़ो ं तक जहां सब हैं प्रियातेली
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एक साथ गाते हैं दिल की कहानी
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दूर रह कर भी ये दिवाली मनाते हैं, खुशिइ –खुशी ये हिदं ी गीत गाते हैं.
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नोगोमेट की ये जनता है दिवानी. शांति से रहते हैं करते नही ं बेईमानी. यारो वह देश कौन सा है. उल्लीसो ं में बैठ पीते जहां कावा.
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रुन-झनु -रुन-झनु की ध्वनि गूंजती है. सुबह दोपहर शाम जहां लगती मधुशाला
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जिवयेली जिवयेली कह जाम टकराते हैं यारो वह देश कौन सा है
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गौर वर्ण बालाएँ जहाँ परियो ं सी लगती हैं.
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स्वर्ण कोसा लहराती मट्क मटक चलती हैं. सुं दरता जिनकी सबका मन हरती है. एक झलक उनकी मदहोश करती है. यारो वह देश कौन सा है.
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नील महासागर जहां हंसते मुस्कराते हैं.
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पर्वतो ं के कानो ं में गीत गुन गुनाते हैं. दनु िया के लोग जहां शीतलता पाते हैं. गर्मियो ं की छु ट्टियो ं में मेला लगाते हैं.
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पिलित्सविचका लेक जहां स्वर्ग से उतर आयी है.
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ज़ादर ने जहां सं गीतमय शांति पायी है.
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दब्ु रोवनिक की भव्यता हर दिल में समाई है.
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पुला ने तो सबको राह दिखाई है. रोशनी जिसने घर- घर पहुंचाई. टेलिफोन पर जिसने बिन तार बात करवाई.
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बहादरु ी जिसकी मुट्ठी में समाई है. साहित्य में भी जिसने वाह- वाही पायी है.
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वेदो ं के ज्ञाता जहाँ मेरे प्रियातेली रहते हैं.
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दिल के टुकड़े छात्र जहाँ भरत-भरत कहते हैं. क्या कोई बतासके गा वह देश कौनसा है? अंतर मन में बसा है जिनके के वल वही
बता सकें गे वह देश कौनसा है. खरवासका सिवा भला वह देश कौनसा है.
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पूर्णसत्य जो झूठ लगता है समाचार-पत्रों और दूरदर्शन के समाचारो ं में उत्तरांचल में हुए महाविनाश के चित्र देखे और देखा प्रक्रॄ ति का वह क्रोधित रूप जो रूप किसी भद्र महिला का होता है जब उसके साथ बलात्कार का प्रयास किया जाता है. आज बलात्कार शब्द का अर्थ बहुत सं कु चित हो गया है. उसे के वल एक सं दर्भ से जोड़ दिया गया है और जहां उसका प्रयोग किया जाता है उसे बहुत लोग घ्रृणा की अपेक्षा विशेष मनोरंजन के रूप में पढते हैं. पत्रपत्रिकाओ ं में वर्णन भी कु छ इसी प्रकार से किया जाता है. उन्हें कु छ न कु छ उनकी प्रकृ ति की तृष्णा को तृप्त करने वाला मिल ही जाता है. हम उसके दूसरे पक्ष को नही ं देखते जो उसका परिणाम है,कब देखते हैं जब वह दर्गा ु के विकराल रूप में महाविनाश को लेकर आता है,नही ं तो तब तक उसके साथ बलात्कार होता रहता है वही उतरांचल में हुआ और पूरे भारत में हो रहा है. कही ं वह हताश अबला(सूखा) के रूप में दिखाई देता है तो कही ं सूखी आंधियो ं के रुप में दिखाई देता है. कालीदास के मेघदूत जो ठिठक कर प्रेमियो ं की पाती लेते और दूर देश तक अपने हृदय से चिपकाकर ले जाते थे और प्रेमियो ं को प्रेमियो ं के सं देशो ं से सराबोर कर देते थे अब नही ं आते. बचपन की यादें कभी -कभी ताजा हो जाती हैं जब आषाढ में निश्चित समय पर आकाश में ऊमड़ते-घुमड़ते बादलो ं में हाथी,घोड़े और हंस ढू ंढ़ कर किलकारियाँ भरा करते थे और सावन में पेड़ो ं में पड़े झल ू ो ं से मल्हारो ं की सुमधुर लय मलय पवन में घुल जाती थी. ये सब कहां गये?
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इन सब को ढूँ ढ़ने के लिए फिल्मकारो ं को भी अब दूर देशो ं का रास्ता तय करना पड़ता है. इन सब को हमारे भीतर बैठा वह आधुनिक भेड़िया खा गया जिसे हर चीज में के वल मांस ही दिखाई देता है.
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आइए अब आप को वहां ले चलूं जहां प्रकृ ति से छे ड़-छाड़ नही ं होती, जहाँ बलात्कार आश्चर्य की बात है,कल्पनातीत है. पिछ् ले एक वर्ष में बलात्कार की एक भी घटना न सुनी, न देखी,न पढ़ी न तो समाज में और न ही प्रकृ ति में. जहाँ अधिकांश आधुनिक उपकरणो ं का आविष्कार हुआ वहाँ लोग साइकिल पर चलना पसं द करते हैं. यहाँ के बड़े नेताओ,ं रईसो ं और धर्म गुरूओ ं से मिलना चाहते हैं तो किसी बड़े पार्क झील या समुं द्र के किनारे का रास्ता पकड़िये.
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यहां लोग पांच सितारा होटलो ं में नही ं उलिसो ं (गलियो)ं में बैठ कर काफी का आनं द लेते हैं.
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प्रकृ ति के जितने ये दिवाने हैं प्रकृ ति इनके प्रति इन से भी अधिक दिवानी है,यहां शोर नही ं है एक सं गीत है जो हवा में है,गली में है, फू लो ं में है पत्तों में है और फै ला है पूरे वायुमंडल में. क्या यह आश्चर्य की बात न होगी कि किसी महानगर में हार्न सुनने के लिये महीनो ं इं तजार करना पड़े और सड़क दर्घु टना के समा चार के लिेए वर्षों.
यहां प्रकृ ति मुस्कराती है,हंसती भी है,ठिठोली भी करती है लेकिन कभी भयं कर हंसी नही ं हंसती. हाहाकार नही ं मचाती. दिल्ली में60 मिनट की बारिश में छ घं टे का जाम लगता है यहाँ 200 घं टे लगातार बर्फ बारी में भी जाम नही ं लगता. चलो अब शहर के पिछवाड़े चलते हैं. दिल्ली की ऐतिहासिक अरावली शृखं लाओ ं को दिल्ली और पड़ोसी नगर खा गये यहाँ ज़ाग्रेब शहर के एक बगल में सावा नदी अपनी सहज मं द गति से स्वच्छ सिनिग्ध रूप लिये बहती है.
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उन प्रेमियो ं से बात करते हुए जो सुबह-शाम या तो कु छ दूरी तक ही सही इसके साथ चलते हैं अथवा इसके किनारे लगे लकड़ी के बेंचो ं पर बैठ कर इसके सौदं र्य को निहारते रहते हैं. सर्दियो ं में चारो ं ओर फै ली बर्फ की मोटी सफे द चादर के बीच यही के वल जीवं तता का साक्षात प्रमाण होती है. यह भी पहा्ड़ो ं से गिरती है,भीषण बारिश और बर्फ बारी के समय उफनती भी है लेकिन कभी अपनी शीमा नही ं लांघती,लांघे भी क्यों? मित्र मनुष्यों ने उसे खुलकर चलने के लिए आवश्यक स्वतं त्रता दी है उसके प्राकृ तिक मार्ग को बाधित किए बिना उसे दोनो ं तटो ं पर पक्के सं बल दिये हैं. देख कर लगता है जवानी में भी कितनी शांत है, कितनी शीतल है,सिनिग्ध है. दूसरी ओर अपनी मूलप्रकृ ति को लिए पर्वत है. छोटे-छोटे झरने नदी की हलकी धाराओ ं को लिए जो सितं बर माह में न जाने बर्फ बारी के डर से या कहें उसके स्वागत में प्रतिदिन रंग बदलता है. विशाल वृक्षों के पत्तों का रंग-रूप सुन्दर फू लो ं से कम नही ं होता.
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चलो महनगर से थोडी दूर चलें जहां प्रलं यकारी, तुफानी लहरो ं के रूप में फु फकारता, हुंकारता सागर सूर्य और चांद किरणोसं े झिलमिल करता शांत स्वभाव से सप्रेम सब का स्वागत करता है. मई माह से लेकर अक्तूबर तक सागर के प्रेम विह्वल हो कर लोग कै से भागते हैं इसका अनुमान आप इस से लगा सकते हैं कि नगरो ं से सागर की ओर जाती सड़कें गाड़ियो ं की अंनत अजगर सी दिखाई देनेवाली पं क्ति के रूप में दिखाई देती है. शरद ऋतु में हिमपात जिस प्रकार घर के अंदर सिमटने के लिये मज़बूर कर देता है और हिमपात होने के एक दिन पहले ही वृक्ष अपर्णा हो जाते हैं वैसे ही मई माह आते ही बच्चे – बूढ् े,स्त्री-पुरूष, मां बाप,भाई-बहन. पिता-पुत्री सब एक साथ अनगिनत की सं ख्या में अपर्णा होकर समुं द्र में स्नान करते हैं और धूप सेकते हैं. लेकिन यह गोवा नही ं है जहां अधिकांश पर्यटक विदेशी पर्यटको ं को घूरने के लिए जाते हैं यहां ये सब बड़े ही सहज भाव से है. जैसे पक्षी वृंद हो,ं जिन्हें अपर्णा होने का भान ही न हो. किसी के मन में मैल नही ं है. ,कही ं कू ड़ा नही ं है जिसमें चिगं ारी लग सके . भारतीय फ़िल्म में किसी हिरोइन को बिकनी में देख कर जैसे फ़िल्म हिट हो जाती है यहां यह अति स्वाभाविक है. लोग स्नान करते हैं,धूप सेकते हैं,पुस्तक पढ़ते हैं,बीयर पीते हैं, अपने शरीर को स्वस्थ करते हैं बस. टी. वी और निकृ ष्ट फ़िल्मों में देखकर भारतीय मानसिकता जो कल्पना
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करती है,उसका कोई आधार यहाँ नजर नही ं आता है. हम कहते नही ं थकते की भारत त्योहारो ं का देश है लेकिन यहां रोज ही उत्सव हैं, वे भी उज्जवल. यही कारण है यहाँ कु छ भी न होने पर भी सुख है और हमारे पास सब कु छ होने पर भी रोग हैं, गरी्बी है, कष्ट हैं परेशानी है. कभी कभी सोचता हूं यह वही स्वर्ग है जिसकी कल्पना भारतीय साहित्य में चिरकाल से की जाती रही है. जहां अनुपम प्राकृ तिक सौदं र्य है. „काम“ प्रकृ ति में,मानव के रूप सौदं र्य में और उसके मन में तो दिखाई देता है लेकिन काम में उद्वेलन नही ं है,पाने की आग नही ं है, सब शीतल है,मदिरा है वह भी शीतल,गरम मदिरा से जैसे परहेज. वैसे ही काम में भी सहजता हैऔर निष्ठा भी. सब नं गे हैं लेकिन बदतमीज बिल्कु ल नही.ं ऐसा लगता है जैसे आडंबर उतार फ़ें का है आडंबर हीन दनु िया,जहां अपने विकारो ं को छु पाने का प्रयास कतई नही ं है. वहां प्रकृ ति भी उतनी ही निर्मल है,जल पवन,किरण ओर मन सब निर्मल.
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ज़ाग्रेब जब हम यह सुनते हैं कि अमुक नगर अमुक देश की राजधानी है तो मन में एक भाव पैदा होता है थोड़ी घबराहट,थोड़ी उत्सुकता और विशालता का मिलाजुला भाव. इसके साथ ही एक चित्र उभरता है मन में आधुनिक सं साधनो,ं ताम –झाम,प्रदूषण और अथाह भीड़ के महासागर का, जहां देश के विभिन्न भागो ं से ही नही ं आस-पास के देशो ं से भी लोग सिमट आते हैंअपना भाग्य अजमाने के लिये. चाहे अनचाहे ये भीड़ उस नगर के अपने मूल स्वरूप को बिगाड़ने में एक बहुत बड़ी भूमिका निभाती है. दनु िया के अधिकतर महानगरो ं की वस्तुस्थिति इसका जीवं त उदाहरण है.
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पर दनु िया में कु छ ऐसी राजधानियां भी हैं जहां आज के इन आधुनिक अवगुणो ं का प्रभाव नही ं जम सका है. उन्हीं मे से एक है क्रोएशिया की राजधानी ज़ाग्रेब. ज़ाग्रेब नगर दो भागो ं में बसा है. नया ज़ाग्रेब और पुराना ज़ाग्रेब.
नये ज़ाग्रेब में लगभग आधुनिक इमारतें हैं और पुराने ज़ाग्रेब में पुरानी. पर पुराना ज़ाग्रेब जहाँ प्राचीन काल से राजधानी रही और आज भी सं सद भवन वही ं है. कहने के लिए पुराना है. वास्तव में ये एक अजायब घर है.
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लगभग ३०० वर्ष पूर्व तक यह शहर दो छोटी पहाड़ियो ं तक ही सिमटा था, जिसे आज कै पिटल के नाम से जाना जाता है और जहां बहुत सुं दर और पवित्र कै थड्रल है. लगभग ३००वर्ष पूर्व एक प्रबुद्ध नगर योजनाकार की तीक्ष्ण बुद्धि के परिणाम स्वरूप सावा नदी और पर्वत के बीच बड़े ही सलीके से इस नगर को बसाया गया है ऐसा लगता है इस नगर को जब बनाना शुरू किया गया होगा तो ईश्वर की कृ पादृष्टि सीधे इस पर रही होगी जो आज तक बनी हुई है. नगर तो और भी बहुत है बड़े और वैभवशाली लेकिन जो पोज़ेटिव एनर्जि यहां है वो और कही ं नही.ं जिस सुख-शांति कि कल्पना मनुष्य स्वर्ग में करता है वह सब कु छ यहाँ है.
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जीवन बिना हड़बड़ी के पालतु कु त्तों जो परिवार के अन्य सदस् ् यों से किसी भी तरह कम महत्व नही ं रखते को सुर्योदय के समय घुमाने के साथ- साथ शुरु होता है. और पूरा दिन बिना किसी शोर –शराबे के बितता है.
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जवान लोगो ं के लिये रात्रि-भोज के बाद रात्रि फिर योवन का शृं गार करती है.
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नगर की सबसे बड़ी विशेषता इसकी नागरिकता है. पूरे नगर में किसी भी प्रकार की अनुशासनहीनता या नियमभं गता का को चिह्न नजर नही ं आता. यह जानकर आश्चर्य नही ं होना चाहिये कि लग्ज़री गाड़ियो ं मेम घूमती पुलिस अनावश्यक प्रतीत होती है. पूरे नगर में सीधी और आवश्यकतानुसार चौड़ी सड़कें ,मोटी और ऊंची दिवारो ं वाले एक ही कद वाले मकान जिनकी गलियो ं में महकते बतियाते काफी हाउस . होटो ं में होटं दबाये गहरी सांसे लेते प्रेमियॊ ं के जोड़ो ं को समेटे मधिम प्रकाश लिए गलियां. जहां भय, असुरक्षा और अशांति का प्रवेश वर्जित है.
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सुन्दर वृक्षों और पार्कों से समृद्ध इस नगर में कु दरत ने १० लाख की आबादी के हर चहरे पर प्रसन्नता और हृदय में गीत व सं गीत भरा है. इस नगर की यारून झील के चारो ं और बने काफी हाऊसो ं में बैठकर काफी पीते हुए हंसो ं कि कलोल का आनं द लेना क्या स्वर्गिक आनं द से कम कहा जा सके गा.
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साफ इतना कि आप पार्क , सड़क, पुल या जहां आपकी इच्छा हो बैठिये मं जाल कि आपके कपड़ो ं पर धूल भी लग जाए. स्वच्छता यहां कि रानी है,नगर में घर में और मन में भी. वसं त ऋतु आते ही बाग बगीचे ही नही ं घर के आंगन भी फू लो ं से भर जाते हैं. पहली बार जब मैने चारो ं और यहां तक कि पार्कों और सड़क के दोनो ं और खड़ी घास भी फू लो ं से लदी देखी तो अपने दोस्तों से पूछ बैठा कि ये फू ल अपने आप उगते हैं या कोई बीज डालता है. तो मेरे मित्र ने हंसते हुए कहा था वसं त से एक महीने पहले काम देव आकर बर्फ में बीज दबा जाता है. भारत के सरसो ं के खेतो ं के समान यहां पूरी पृथ्वी रंगबिरंगे फू लो ं से भर जाती है.
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वृक्षों में फू ल पहले खिल जाते हैं पत्ते बाद में आते हैं. कु छ ही दिनो ं में देखते ही देखते, सेब नाशपाती पेड़ो ं में और अंगूर बेलो ं में ऐसे लद जाते हैं जैसे कितने लं बे अंतराल के बाद योवन को फू ट पड़ने का मौका मिला है. यहां के चिड़ियाघर हो ं या म्यूजियम सब बहुत बड़े नही ं हैं पर सब विशेष हैं. सब एक सुं दर कला को समेटे हुए हैं.
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उन सब में एक अपनापन लिए सरल सौदं र्य है. यहां के हाट समय पर लगते हैंसमय पर उठते हैं और उसके बाद समय पर धुल- पुछ कर हो जाते हैं स्वच्छ. ऐसी व्यवस्था, ऐसी रोनक कही ं देखने को नही ं मिलती.
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यहां चौक में लगी बड़ी घड़ियां सदियो ं से प्रेमियो ं को मिलाने बिना रुके सतत प्रयास करती रहती हैं. ये अपने नीचे खड़े प्रेमियो ं के इं तजार की घड़ियो ं में हृदय कि बढ़्ती धड़कनो ं का पूरा हिसाब रखती हैं. हृदयो ं को हृदयो ं से जोड़ने वाले काफी हाउस उल्लीसो ं में सुभ ही सजकर तैयार हो जाते हैं. यहां हृदय से उमड़े प्रेम को होटो ं में उड़ेल देने की निसं कोचता स्थान और समय का चयन नही ं करती. भले ही घर हो, ट्राम हो चाहे हो कक्षा. ऐसा नगर जहां प्रेम की नदी नही ं सागर उमड़ता हो, जहां सुं दरता हवा में तैरती हो, जहां के वल सं गीत ही सं गीत हो,जहां के वल मुस्कराता जीवन हो बस. वह नगर पृथ्वी पर कही ं देखना हो तो ज़ाग्रेब चले जाओ.
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दब्ु रोवनिक दब्ु रोवनिक नाम शायद अल्बेरियन भाषा से आया है जिसका मतलब है अँगूर। दूसरा नाम दबु रावा भी रहा है।दब्ु रोवनिक एड्रिआटिक सागर मेंक्रोएशिया के डल्मेशिया प्रदेश में है।यह पर्यटन की दृष्टि से यूरोप में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता ह।. 2011 की जन्सं ख्या के अनुसार इस नगर की कु ल आबादी 42,615 है. यह नगर युनेस्को की हेरेटेज लिस्ट में 1979 है। 15 वी ं व 16 वी ं शताब्दी से ही व्यापारिक कें द्र और जहाजरानी के कारण इस नगर ने अप्र्त्याशित प्रगति की है. तब यह (रागुसा) नाम से अलग राष्ट्र था। इतिहास्कार बताते हैं कि दब्ु रोवनिक नगर वास्तव में7 वी ं शताब्दी में इस पथरीले द्वीप पर बसा और पड़ोसी देशो ं के रिफ़्यूजी यहाँ आकर सहारा पाते थे। दब्ु रोवनिक समय समय पर अनेक रजवाड़ों के अधीन रहा है. जैसे 1358 1205 तक वेनिश हंगरी किन्ग्डम,1440 से1804 औटोमन एम्पायर फिर 15 वी ं 16वी ं शताब्दी में रिपब्लिक आफ वेनिश,इसके अलावा स्पेन और पुर्तगालियो ं द्वारा भी समय समय पर आक्रमण होता रहा था। यहाँ 1472 तक लेटिन कार्यालय भाषा थी पर लोग डल्मेशियन बोली का प्रयोग बोल चाल में करते थे।( गोस्पारी) का सदिय़ों से प्रयोग होता रहा है । जो बाद में ओझल हो गयी। 19 वी ं व 20 वी ं शताब्दी में इस प्रदेश ने बहुत उठापटक देखी है । इन दोनो ं वर्षों में राजनैतिक परिदृश्य बड़ी तेजी से बदला और अंत में कु छ स्थिरिता युगोस्लाविया के समय आयी।युगोस्लाविया टू टने के बाद फिर अशांति का सामना करना पड़ा, पर्सब झेलते हुए भी आज भी हृदय में शांति लिए यह क्षेत्र सुखमज़ प्रगति का प्रतीक है।
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दब्ु रोवनिक सं सार में कई बार ऐसी घटनाएँ घटती हैं कि जिन पर सहज ही विश्वास नही ं किया जा सकता है. जिस यात्रा का वर्णन मैं यहां करने जा रहा हूँ उसे भी उन घटनाओ ं में शुमार किया जासकता है.
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क्या कोई विश्वास करेगा कि जहाँ कभी 15 वी ं 16वी ं शताब्दी में पहली बार रेशम और मलमल से लदे भारतीय जहाजो ं ने लं गर डाला हो वहाँ, हो वहां वेदो ं ओर पुराणो ं पर मं थन करने के लिये न के वल युरोप के बल्कि अमेरिका और और आस्ट्रेलिया से भी लोग पहुंचे थे. सात दिनो ं तक अपने प्रमाणो ं के साथ लडते थे झगड़ते थे क्या था यह?
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क्या ढू ंढना चाहते थे? दूसरा प्रश्न यह भी कि दब्ु रोवनिक में ही क्यों? इन सभी प्रश्नों का उत्तर ढू ंढ़ने के लिए आपको फिर ज़ाग्रेब ले चलता हूं. वही ं से यात्रा शुरू करेंगे तो उत्तर स्वत: स्पष्ट होते चलेंगे.
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दब्ु रोवनिक के उक्त कार्यक्रम की योजना फरवरी 2013 में उस समय बन रही थी जिस समय मुझे यह पता नही ं था कि अगस्त माह तक मैं क्रोसिया मे रुकूँ गा या नही.ं सं योग से एक दिन मैं भारतविन के विभागाध्यक्ष के कमरे में था और उसी समय दब्ु रोवनिक मे गेस्ट हाउस में बुकिंग करने के लिए विभागाध्यक्ष फोन कर रहे थे. उन्होंने पूछा आप सं स्कृ त सेमिनार में चलेंगे ना? मैंने बिना तिथि जाने ही हाँ कर दी, कमरा बुक हो गया. बाद में पता चला कि जुलाई 31 को वापस लौटना है तो लगा सब बेकार हो गया. पर
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जब ईश्वर जिस जगह बुलाता है तो वहां कें सलेशन नही ं होता. हुआ भी कु छ ऐसा ही और मेरे वापस भारत जाने की योजना बदल गयी. अत: यह निश्चित हो गया की मैं उस सेमिनार मे दब्ु रोवनिक जाऊँ गा. जाग्रेब से दब्ु रोव्निक की दूरी लग्भग ६३० कि. मी. है जो बस से लग भग १० घं टे में पूरी होती है. मैं अगस्त माह का बेसब्री से इं तजार कर रहा था, इसके कई कारण थे. पहला ये कि मैं अभी तक वहां गया नही ं था. दूसरा ये कि मैं लोगो ं से इसकी बहुत प्रशं सा सुन चुका था लेकिन मेरे पागल मन के लिये इन से भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि ज़ाग्रेब से इसकी बहुत दूरी थी एक तरह से ज़ाग्रेब क्रोसिया की नाक है तो दब्ु रोवनिक सीधे पैर का वह मजबूत अंगुठा है जिसके ऊपर आज पूरा क्रोसिया निश्चिंतता से तना खड़ा है. यात्रा के कई विकल्प थे. वायुमार्ग, जलमार्ग और सड्क. मैने महंगा होते हुए भी सड़क मार्ग को चुना उसका का कारण एक बड़ा लालच था रास्ते मे पूरे क्रोएशिया को देखना अनुभव करना. अगस्त आते –आते ज़ाग्रेब निर्जन जैसा हो जाता है अधिकांश काफी हाउस और सुपर मार्के ट बं द हो जाते हैं. जैसे शरतॠतु में योरोपियन पक्षी बिना वीजा लिये भारत पहुंच जाते हैं.
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वैसे ही न के वल ज़ाग्रेब से बल्कि अधिकांश योरोपियन देशो ं से लाखो ं लोग समुद्रों के किनारो ं पर सिमट आते हैं और उन्हीं के साथ काफी,बीयर, वाइन और खाने पीने के रेस्तरां भी पहुँ च जाते हैं.
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जाग्रेब में मन नही ं लग रहा था हालांकि जाग्रेब मुझे दनु िया का सबसे अच्छा शहर लगता है. लेकिन दिन रत घर में पड़े-पड़े मैं ऊब चुका था. और बाहर सूना सूना लगता था. न जाने सीमित सं यमित जनसं ख्या में क्या अनजाना आकर्षण था जो मुझे भी समुद्रों की ओर बुला रहा था. सौभाग्य से वह दिन आगया जब मुझे लगभग आठ दिन के लिये दब्ु रोवनिक जाना था. आह्लादित मन से पूरी रात जाने की तैयारी करता रहा रास्ते के लिये भारतीय भोजन तैयार किया और निश्चित समय पर बस पकड़ने के लिये घर से निकला. मन मे उल्लास था यात्रा का पर कु छ था जो मेरे मन पर चिपका हुआ था. ज़ाग्रेब ने मेरे मन पर ऐसा आधिपत्य जमा लिया था कि उसे एक दिन के लिये छोड़ने पर भी मेरे प्राण सूखते थे.
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यहां के वॄक्षों से, नदी से,झील से, गलियो ं से नीलाम्बरी ट्राम से पार्कों में खेलते बच्चों से,हाथ में हाथ पकड़े टाई और लिपिस्टिक लगाये नदी किनारे टहलते बूढ़े और बुढ्ढियो ं से, साइकिल चलाती इटलाती नवयोवनाओ ं से जैसे मेरी इकतरफा दोस्ती हो गयी थी. ट्राम बस-अड्डा की तरफ बढ़रही थी और मेरा मन पीछे की ओर खीचं रहा था. 63
हर स्टैंड पर अटक रहा था. चौराहो ं पर लगी घड़ियो ं की सुइयो ं को पकड़ कर बैठ जाता था. सडक के किनारे फू लो ं की क्यारियो ं मे जाकर छु प जाता बडी मुश्किल से बस अड्डा तक पहुंचा. बस पकड़ कर जब मैं दब्ु रोवनिक की ओर चला और जैसे ही ज़ाग्रेब से बाहर निकला मेरी पूर्व परिचित स्वर्ग की यात्रा फिर शुरू हो गयी सुन्दर हरित दृश्य हाथ आगे बढ़ाए मेरी बस के साथ –साथ दौड़ने लगे.
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छोटे-छोटे गाँव जिनमें पिछली यात्रा में कई दिनो ं तक मेरा मन छु प कर बैठ गया था. आज फिर मेरी आंखो ं मे बस जाना चाह्ते थे. छोटी-छोटी पहाड़ियो ं और घाटिय़ो ं के मुहानो ं पर बसे छोटे-छोटे गाँव और गाँवो ं के लाल छत वाले वे छोटे छोटे घर और अँगूर के सीढ़ियो ं वाले वे मनमोहक बगीचे जो किसी कु शल चित्रकार की सुं दर पेंटिंग जैसे लग रहे थे. सब कु छ एक उत्कृ ष्ट कला का नमूना दिखाई देता था. सड्क विपरित दिशा में ऐसे दौड़ रही थी जैसे बताना चाहती हो कि मेरे पास रुकने का, बात करने का काफी पीने का समय नही ं है. अभी बहुत यात्री मेरा इं तज़ार कर रहे हैं. ज़ल्दी से उनके पास ज़ाना है. जैसे कह रही हो तुम चलो मै उन्हें लेकर आती हूं. बस प्रकृ ति की अनुपम छटा के बीच से गुजर रही थी ऐसा लग रहा था मानो ं स्वर्ग में भ्रमण कर रहे हो.ं
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एक और हरि भरी पर्वतमाला और नीचे नीला जल, पुस्तको ं में पहले पढ़ा था कि पानी का रंग नीला होता है पर सच में देखा पहली बार था.
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शाम के डू बते सूर्य की किरणो ं से एक अनोखा चित्र उभर रहा था. समुद्र की फै ली बाहें जैसे शाम होते होते अपने प्रिय पर्वत का आलिगं न करने के लिए आतुर हो रही हो.ं
सूर्य डू बचुका था, हल्का अंधरे ा छाने लगा :बस एक लघुविश्राम के लिए एक रेस्तरां पर रुकी,यात्री हल्के हुए सिगरेट पी,कु छ ने रेस्तरां से कु छ खाना लिया पर अधिकांश ने ं ो ं और प्रकृ ति के अलसाये उनीदं े बीयर खरीदी और खड़े- खड़े ही शीतल वायु के झोक सौदं र्य के बीच मद्यपान का लुत्फ उठाया. नीयत समय पर बस गं तव्य की ओर बढ़ चली. सभी यात्री निश्चिंत हो निद्रा देवी के आगोश में चले गये. सड़कें ऐसी की कही ं हाल तक न लगी. सूर्य देव ने अपने आगमन की सूचना दे दी आकाश में लालीमा छागयी मैंने आंखें खोली तो सचमुच एक तिलस्म में पहुंचा महसूस किया. यह स्थान मेरे लिए एकदम नया था नया ढ़ंग नया रूप सब नया था. बस एक लम्बी घाटी में बढ़ी हुई एक लम्बी बांह से
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सटकर दौड़ रही थी. उसके दूसरी ओर छोटे –छोटे घरो ं की एक लं बी पं क्ति भी हमारे साथ-साथ दौड़ रही थी. सूर्यदेव ने दर्शन दे दिए थे और सड़्को ं पर कु छ सजीवता दिखाई दे रही थी. बस गांवो ं जैसे छोटेऔर स्वच्छ नगरो ं से नमस्ते करती क्षणभर को रुकती फिर चल देती. लगभग सुबह 6 बजे जब हम एक रेस्तरां पर रुके तो काफी खरीदते समय हमें पता चला कि हम क्रोसिया में नही ं बोसेनिया में हैं रेस्तरां ऐसी जगह था कि छलांग लगायें तो सीधे सागर में जा सकते थे.
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सूर्य की किरणो.ं और पालवाली नौकाओ ं से दृश्य ऐसा लग रहा था कि जैसे नौकाएं समुद्र में फै ले स्वर्ण भं डार को समेट कर भर रही हो.ं तुर्किष काफीऔर सिगरेट के धुएं का काकटेल सुबह –सुबह ही मदहोशी भर रहा था अधिकांश महिलाएं मौसम की गर्माहट और सागर से आती वायु को पाने के लालच में लगभग अधोवस्त्र हो चुकी थी.
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नवयोवनाओ ं का सौदं र्य जैसे उन वस्त्रों को फाड़्कर बाहर निकलने को आतुर हो रहा था. सिगरेट के धुएं के उनके छल्ले जैसे उनके अन्दर की आग का बखान कर रहे थे. कहते हैं भगवान जब देता है तो छ्प ्पर फाड़ कर देता है. यह कहावत यहां चरितार्थ हो रही थी. कु दरत ने रंग, रूप, नाक –नक्श के साथ ही लम्बाई और जो सुडोलता क्रोएशिया की लड़कियो ं को दी है वह सं सार में शायद ही कही ं दिखाई देगी. ऐसा नही ं है कि अन्य देशो ं में सुं दर लड़कियां नही ं हैं: लेकिन क्रोएशिया में सभी सुन्दर है न यह विशेष बात है.
नाश्ता कर बस आगे बढ़ी. यहां से आगे यात्रा के लिये यह बता देना काफी होगा कि यह दो तीन घं टे की यात्रा जिन बाग –बागानो ं से होकर गुजरी शायद ये वही थे जहां आदम और हव्वा को प्रमेश्वर ने छोड़ा था. दो छोटी पहाड़ियो ं के किनारे –किनारे बसी अति लघु गांवडियो ं के बीच से निकलती बल खाती छोटी नदी जैसा अनोखा चित्र था. मन को तरोताजा कर देनेवाले इस दृश्य को किसी के लिये भी भुला देना इतना आसान नही ं होगा. मै सोचता था पूरे युरोप में समुद्र ही समुद्र हैं फिर लोग यहां क्यों भागते हैं आज जाना, सागर का सौदं र्य, उसका कामदेवीय रूप, उसकी शीतलता, उसकी
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स्वच्छता और उसका मधुर गान. कु दरत को भी इसे बनाने में लगता है काफी समय लगा होगा लेकिन बनाया खूब. मैदान को पार करते हुए फिर पहाड़ी की जड़ में बल खाती इटलाती सड़क सागर से बतियाती,ठिठोली करती दब्रु ओवनिक की ओर बढ़चली. बीच के दृश्यों का वर्णन सं क्षेप में करना मुश्किल है. इतना ही कह सकता हूं कि सागर और पर्वत के उस स्थाई अधर चुम्बन को देखते हुए मेरी पलक झपकना भूलगयी थी.
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जैसे ही बस ने छोटी घाटी मे प्रवेश किया तो मैंने देखा कि सुं दर मकान ऐसे लग रहे थे जैसे किसी ने कु छ सुं दर खिलौने दिवारो ं में टांग दिये हो.ं तभी मेरी नजर एक ऐसे पुल पर पड़ी जो एक गहरीघाटी के दो किनारो ं को अपने बदन से जोड़ रहा था. सैकड़ो ं फिट ऊपर बिना बीच में सपोर्ट के दृढ़ता से तना यह पुल आधुनिक इं जीनयरिंग का अनुपम उदाहरण था. अब हमने दबु रोवनिक में प्रवेश कर लिया था. बस अड्डा समुद्र के बिल्कु ल किनारे पर था. पिछवाड़े ही बड़े –बड़े कई जहाज़ लं गर डाले थे. उनके सामने बस अड्डा पिद्दि सा लग रहा था. बस से उतरकर मैने लोकल बस पकड़ी और जैसे ही बस आगे बढ़ी लगा शहर में नही ं किसी म्युज़ियम में जा रहे हैं. नीलमहासागर की गोद में पर्वत के पं जे पर बना यह अजायबघर जैसा नगर सचमुच अनोखा है. सैंटर पर उतर कर मैं विश्वविद्यालय गेस्टहाउस पहुंचा. २० घं टे की थकान उतारे बिना ही मै सेमिनार हाल में पहुंच गया.
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दूसरे दिन का सूर्य मुझे काफी देर से दिखाई दिया इसके कई कारण थे जिन्होंने मिलकर सूर्यदेव को मेरी आंखो ं से तब तक ढके रखा जब तक वह पूर्णजवान न हो गया. पहला कारण मेरे दो दिनो ं की थकान, दूसरा कारण मेरा बिना खिड़की वाला पश्चिम वाला कमरा. गैस्टहाउस भी क्या था पुराने राजा महाराजाओ ं के हरम जैसा था. बीच में आंगन और चारो ं ओर कमरे और कमरो ं के सामने बं द बरामदा. मुख्य द्वार बं द कर दें तो मनुष्य तो क्या पक्षी भी पर नही ं मार सकता. तीसरा मुख्य कारण नगर की पूर्व दिशा में नगर से सटा हुआ ऊंचा पर्वत जिसे पार कर नगर को अपने दर्शन करवाने में सूर्यदेव की आधी जवानी ढल जाती थी. योरोप के सूर्य में वैसे भी उतना पुरूषत्व नही ं होता जितना पूर्व के देशो ं में होता है.
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खैर बिना नाश्ता किये सेमिनार में गया और लं च के समय पता चला कि लं च का भी कोइ ठीकाना नही ं है अत: जब मै लं च की खोज में निकला तो वही ं पहुच गया जहां पहले दिन बस से उतरा था. उससे आगे एक किलेनूमा दीवार मे एक बड़ा सा दरवाजा देख यह सोचकर की इधर शायद बाज़ार होगा मैं आगे बढ़ा. जैसे ही दरवाजे को पार कर अंदर प्रवेश किया मेरे सामने तिलस्म खुलने लगा. पत्थरो ं को तराश कर बनाए गए घरो ं और गलियो ं में रेस्तरां और काफी हाउस की बिना कोलाहल की भीड़ में मैं ऐसा खोया कि सब भूख प्यास भूल गया. वहां एक अनोखा अनुभव हो रहा था. मैं गया था भोजन ढू ंढ़ने वहां काफी की सोधं ी गं ध में मछली की तली गं ध और बीयर के गं ध के कोक्टेल ने मन में और नशा भर
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दिया. वहां रेस्त्रां मे बुलाने के लिए चिल्लाहट भरा शोर नही ं था. बल्कि इज़्वोलिते कहते हुए मधहोश करदेने वाली मीठी मुस्कान थी.
मैं भुखा ही उस तिलस्म से इस विचार के साथ कि शाम को फिर आउं गा बाहर आया सुपर्मार्किट से दूधऔर के ले खरीदे और वही ं बेंच पर बैठ कर समुद्र में चिल चिलाती बोनी लहरो ं पर कलोल करती नौकाओ ं को देखते-देखते पेट पूजा की और वापस आ गया. मैं पांच बजने का इं तजार करने लगा और जैसे ही सेमिनार से निकला मैं फिर तिलस्म मे चला गया इस बार मैं चौक से उस और गय जिस ओर सब लोग जा रहे थे लेकिन मेरे कदमो ं को हर पत्थर पकड़ रहा था. हर पतली गली में लगी काफी हाउस की कु र्सियो ं पर बैठे वर्षभर की थकान मिटाते यात्री मुझे रुकने को कहते थे.
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पूछते थे इतनी जल्दी में क्यों हो? बैठ कर देखो गलियो ं में फै ली सहज सुं दरता को आत्मसात करो.
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आज से 4सौ वर्ष पुरानी सभी तिमं जली इमारतो ं का नक्शा एक जैसा था. एक ही रंग एक ही पत्थर से घड़ा गया था लगता था सभी गलियो ं में जैसे एक ही चट्टान को काट कर बिछाया गया हो.
मैं दिवाना सा घूमता घूमता वहां पहुंचा जहां कभी मलमल से लदे भारतीय ज़हाज़ आकर लं गर डालते थे. सैकडो ं साल पहले भी वहां व्यापारियो ं के ठहरने, खाने और पानी की उत्तम व्यवस्था थी. कहते है उस समय पीने का पानी बहुत दूर से आता था जिसके लिए पाइपो ं की व्यवस्था की गयी थी. वह आज भी ऐसी लगती है जैसे कल ही बनाई हो. दबु रोवनिक ने अपनी सं पन्न्ता के कारण इतिहास में कई उठा पटक देखी हैं लेकिन अपने वणिज बुद्धि कौशल से बिना सेना अपनी रक्षा भी करता रहा है. यह अलग बात है कि इसके लिये हमेशा अधिभार चुकाना पड़ा. चूना पत्थर से बने इस अदभुत नगर की रक्षा के लिए
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नगर के तीन ओर एक दीवार बनाई गयी है. और मुख्य द्वार के सामने एक खाई है जो समुद्री जल से भरी रहती थी.
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मुख्य द्वार सुबह ८ बजे खुलता और रात को दस बजे बं द हो जाता था उस समय खाई का पुल भी उठा लिया जाता था. मुख्य द्वार के पास ही एक गिर्ज़ाघर है. कहा जाता है कि सदियो ं से यह नगर की रक्षा कर्ता रहा है.
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पिछले युद्ध में सर्बियन सेना के दो गोले इस पर आकर लगे तो पूरे दब्ु रोवनिक में तहल्का मच गया था. . यह दब्ु रोवनिक के इतिहास मे पहला मौका था. नगर के दक्षिण मे खुला समुद्र है जो सदियो ं से धन लक्ष्मी के आगमन का द्वार रहा है. कहा जाता है दक्षिण मुखी द्वार हमेशा व्यापारी के लिये शुभ होता हैऔर यदि वह शेर मुखी हो तो क्या कहने. दब्ु रोवनिक की यह गोदी इसका प्रामाणिक उदाहरण है. अगर आकाश से देखें तो पूरा शहर भी शेर दिखाई देता है. अगले दो दिन समुद्र स्नान और घूमने फिरने में गुजरे. मैं तैरना नही ं जानता था था इस लिए अपने लिये एक छोटासा बीच पास मे ही ढू ंढ़ लिया था.
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इस बीच को पसं द करने का एक और कारण भी था कि शाम को जब मै वहां जाता तो मेरे अलावा दो-तीन बच्चे वहां होते और मैं निसं कोच हो चार फु ट पानी में बीस फु ट तक तैर कर अपना पूरा ज़ौहर दिखाता और प्रसन्न होता. अगला दिन सामूहिक सैर का दिन था सुबह ९ बजे ही हम सब लोग नौका घाट पर पहुंच गये. सभी हाफ पैंट मे थे के वल मैं ही औपचारिक ड्रैस में था. जब हम मोटर बोट में बैठ कर दूसरे द्वीप की और चले जो दब्ु रोवनिक के बाद सबसे बड़ा द्वीप था.
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शांत सागर के बदन को चीरती नौका तेजी से भागी जा रही थीऔर उतनी ही तेजी से भाग रहा था मेरा मन एक साथ इतिहास और वर्तमान दोनो ं में क्षण क्षण बदलता हुआ. बचपन में मुझे स्वप्न आते थे ऐसे जैसे वर्तमान में मैं प्रत्यक्ष देख रहा था. फिल्म देखने में आनं द आता है और शूटिंग देखने में और ज्यादा आंनद आता है लेकिन आज उस से भी आगे ऐसा अनुभव कर रहा था जैसे फिल्म मुझ पर ही कें न्द्रित हो. ऐसा लग रहा था जैसे कु दरत ने मेरे चारो ं ओर अनुपम अचरंज भरा मं च रचा हो और मै वहां अभिनय कर रहा हूं. एक दर्शक का, एक भोक्ता का,क्या ही अदभुत आनं द था. अकथनीय, अवर्णननीय,छोटे- छोटे द्वीपो ं को एक ओर तथा दब्ु रोवनिक के अनुपम सौदं र्य को दूसरी ओर छोड़्ते हुए कु छ समय पश्चात हम एक ऊंची पहाड़ी की तलहटी मे जाकर रुके . यहां दब्ु रोवनिक के राजा का वह बाग था जिसमें पूरे विश्व से पेड़ लाकर लगाये गये थे जिन में कई भारत से लेजाकर लगाये गये पेड़ भी थे. बताया जाता है कि यह बाग राजा ने अपनी प्रेमिका जो कवित्री भी थी के लिये बनवाया था और राजा उसके साथ कुं जो ं में प्रेम क्रीड़ा करने के लिये यहां आया करता था.
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यहां हमने एक विशेष ताजगी का एहसास किया. इसके बाद हम लोग पुन: नौका पर सवार हो अपने अंतिम पड़ाव की ओर चले. इस जगह मुझे महत्वपूर्ण बात यह लगी कि यह एक गांव जैसा था ऐसा था जैसा आज से 40 वर्ष पहले मेरा गांव था. वैसी ही गलियां और रास्ते. वहां पर एक पुराना चर्च था जो हू बहू मेरे गांव के पुराने मं दिर की याद दिला रहा था … .
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मैं प्रो० येजिच के साथ छत पर गया वहां से जो प्राकृ तिक दृश्य दिखाई दिया उसका वर्णन शब्दों में करना सं भव नही ं है. ऐसा लग रहा था जैसे कु दरत नें आराम से बैठ कर कोइ पैंटिंग बनाई हो. वहां श्रीमती येजिच ने मुझे बताया कि किस रास्ते से तुर्किश लोगो ं ने आकरइस क्षेत्र पर कई बार हमला किया वे हमला करते थे और चौथ वैसूला करते थे. वही ं यूरोप का अमृत ओलिव ओइल जिसका बाइबल में बार-बार वर्णन आया है, ओलिव के फलो ं से लदे पेड़ देखे.
आश्चर्यों में विचरण करते हुए हम फिर वापस आकर अपनी नौका में आकर बठ गये. अब सब लोगो ं को भूख सता रही थी. मेरा तो वर्त था इस लिए ज्यादा चिन्ता नही ं थी. थोड़ी देर बाद ही अंतिम गन्तव्य तक पहुंच गये और वहां एक दूसरी नौका जो पहले से वहां खड़ी थी जिसे आप रेस्तरां नौका भी कह सकते हैं, पर जाकर एक विशेष मछली का भोग लगाया. . .
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इसके बाद लगभग २ कि. मी. की जं गल यात्रा के बाद एक अति सुं दर बीच पर पहुंचे जैसे क्रोएसिया मे सामान्यतया कम ही दिखाई देते हैं. ऐसा लग रहा था जैसे एक अनुपम प्रकाश बिखर रहा हो. स्नान कर और पानी मे वोलिबाल खेल एक विशेष फट्फटिया से हम वापस लौटे. अब तक सब लोग पूरी तरह थक चुके थे. अब नौका का मुह फिर दब्ु रोवनिक की और था हल्का अंधरे ा छाने लगा था नौका से दब्ु रोवनिक का दृश्य अनुपम दिखाई देरहा था ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी देवलोक की ओर बढ़ रहे हो.ं
नगर की सागर में परछाईं ऐसी लग रही थी जैसे देवलोक और पाताल लोक किसी विशेष प्रयोजन से एक साथ आ मिले हैं. रात को सोये तो सुबह सूर्य चढ़े ही आंख खुली.
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दब्ु रोवनिक की यात्रा का अंतिम दिन भी विशेष रहा. विशेष इस लिए कि एक इतिहासकार जो परम्परागत इतिहासकारो ं के परिवार से थी ने पूरे नगर का बड़ी ही बारीकी से वर्णन करते हुए दर्शन करवाया. इस प्रकार इतिहास,सं स्कृति और राजनैतिक,आर्थिक और कृ षि के सं बं ध में गहराई, विस्तार और बिल्कु ल पास से देखने और समझने का मौका मिला.
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यह यात्रा अविस्मरणीय रहेगी. एक अतिसाधारण पर अनौखा शहर.
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ज़ादर जब मैं योरोप के लिए चला था तो मन में एक ही विचार बार-बार घुमड़ रहा था कि योरोप अत्याधुनिक और अधुनिक युग के शोर शराबें भीड़-भाड़ और वैभवशालीता के दिखावे में बहुत ऊपर होगा। पता नही ं मैं वहाँ लोगो ं और परिवेश के साथ (ऐडजैस्ट) तालमेल बैठा भी पाऊँ गा या नही?ं चलिए इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए स्वर्गलोक (क्रोएशिया) के एक नगर चलते हैं जिसका नाम है ज़ादर।
ज़ाग्रेब में आए हुए लगभग डेढ़ वर्ष हो गए थे। ज़ाग्रेब की सुं दरता, मधुरता, ताजगी और शांति ने मुझे अपने बाहुपाश में ऐसा बाँधा हुआ था कि और कही ं जाने को मन ही न होता था ऊबने की बजाय मन और अधिक लिपटता जा रहा था लेकिन इसी बीच एक दिन मित्रों से ज़ादर के सं बं ध में इतनी प्रशं सा सुनी की मैं अपने को रोक ही नही ं पाया और ज़ादर जाने का पक्का इरादा कर लिया। आदतानुसार जब तक मैं अगले
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शुक्रवार को जाने का टिकट न ले आया तब तक मुझे चैन नही ं पड़ा। शुक्रवार की सुबह मैं 5 बजे प्रधान बस अड्डे से बस पकड़ ज़ादर के लिए चल पड़ा। सवा पाँच बजते ही बस ने स्वर्ग में प्रवेश कर लिया। साफ-सुथरे हाईवे के दोनो ं ओर भगवान ने हरी चादर को ऐसे ढंग से बिछाया था मानो किसी कलाकार ने बरसो ं के अथक परिश्रम से बड़े ही मनोवेग से पेंटिंग में रंग भरा हो। कही ं छोटी कही ं थोड़ी बड़ी सुरमय पहाड़ियो,ं खरगोश के बिलो ं की भाँति अनेको ं (प्राकृ तिक आभासित होने वाली) सुव्यवास्थत सुरंगो ं से गुजरते हुए ऐसा लग रहा था जैसे मैं जागृत अवस्था में नही ं बल्कि स्वप्नक में विचरण कर रहा हूँ । 180 कि॰मी॰ की गति से चलने वाली गाड़ियो ं की निश्चिंतता के लिए सड़क के दोनो ं ओर बाड़ और एक ं ा हुआ था। कं कड़ भी सड़क पर ना आ पाये इसके लिए आवश्यक स्थानो ं पर जाल ठोक पहाड़ियो ं के बीच कही-ं कही ं लाल छतो ं वाले छोटे-छोटे गाँव अपना आभास ऐसे करा रहे थे जैसे उडते पं छी को विश्राम देने के लिए वृक्षआमं त्रित करते हैं। मन तब तक वहाँ अटका रहता जब तक वे गाँव फरारा भर रही बस की आँखो ं से ओझल न हो जाते।
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इसी बीच कही-ं कही ं पहाड़ियो ं के बीच सागर के हाथ पैरो ं की सुं दर-स्वच्छ,मनमोहक उँ गलियो ं के दर्शन हो जाते। लगभग पाँच घं टे की यात्रा के बाद स्वर्ग के एक टीले पर जैसे ही बस चढ़ी पश्चिम की सुं दरियो ं के नेत्रों जैसे सुं दर और निर्मल समुद्र ऐसे दिखाई दे रहे थे जैसे भाव विभोर होकर प्रसन्न नेत्रों से स्वागत का आमं त्रण दे रहे हो।ं पूरे वातसरण में जैसे एक सुमधुर ध्वनि व्यापत हो दोबरो-दोसली-दोबरो-दोसली कह रही हो। अंत में उस सवर्गिक टीले के एक कोने पर ही बस स्टैंड पर बस रूकी। मैंने बस से उतर कर जैसे ही अपनी एटेची का हैंडल बाहर खीचं ा एक वृद्ध महिला ने मेरी तरफ़ मुखातिब होते हुए कहा «दोबर दान«, मैंने भी उत्तर दिया «दोबर दान« अब तक यह शब्द मेरी जबान पर पूरी मिठास के साथ चढ़ चुका था। सच कहूँ तो मुझे इस शब्द से प्यार हो गया था। मैंने बस से उतर कर जैसे ही अपनी एटेची का हैंडल बाहर खीचं ा एक वृद्ध महिला ने मेरी तरफ़ मुखातिब होते हुए कहा «दोबर दान«, मैंने भी उत्तर दिया «दोबर दान« अब तक यह शब्द मेरी जबान पर पूरी मिठास के साथ चढ़ चुका था। सच कहूँ तो मुझे इस शब्द से प्यार हो गया था। शब्द ही कु छ ऐसा है जिसे किसी भी देश, जाति, धर्म, सं प्रदाय का कोई भी व्यक्ति बिना शं का बड़े ही प्यार से बोल सकता है। मतलब है
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«शुभ दिन« आप सोचिए किसी भूमि पर पैर रखते ही कोई आगे से सुभेच्छा से स्वागत करे तो कितना अच्छा लगता है। अब महिला ने प्रश्नात्मक भाव से कहा «सोबे» मैंने कमरा बुक नही ं किया था तो मैंने तुरन्त पूछा «कोलीको» मतलब कितने का है? क्रोसिया में मोल-भाव लगभग-नही ं ही है फिर भी आदतानुसार मोलभाव करके 200 कू ना में कमरा तय हो गया टैक्सी सहित । महिला ने टैक्सी से अपने घर छु ड़वा दिया। वहाँ जैसे ही घर के आँगन के गेट की घं टी बजाई अंदर से एक बुजुर्ग आता दिखाई दिया। उसने जैसे ही गेट खोला और मैंने अंदर पैर रखा तो मुझे लगा जैसे यह वही ं बगीचा है जिसमें आदम और ईव को ईश्वर ने छोड़ा था। अंगूर के लटकते गुच्छों के बीच से होता हुआ जब मैं उस व्यक्ति के पीछे -पीछे कमरे की ओर बढ़ रहा था तो बड़े-बड़े गुलाबो ं से भरी झाँड़ियो ं ने मुझे मुग्ध कर दिया मैं भूल गया अपने आपको। घं टे भर आराम करने के बाद ही मेरे चं चल मन ने मुझे उठने के लिए विवश कर दिया और मैं पैदल ही नगर के सैंटर की ओर चल दिया नगर क्या एक छोटी सी नगरी थी। कल्पनातीत शांति के बीच से गुजरते हुए मैं यह सोचते हुए आगे बढ़ रहा था कि सैंटर पर चहल-पहल और शोर-शराबा होगा लेकिन जैसे ही मैं वहाँ पहुँ चा तो वहाँ पाया मधुर मुस्कान भरी शांति, लोग थे बहुत अधिक नही ं फिर भी काफ़ी लेकिन शांत, कॉफ़ी हाऊस फु ल थे लेकिन डी॰जे॰ के शोर से नही,ं सुमधुर सं गीत की अति धीमी धुन और कॉफ़ी और बियर की मदमस्त कर देने वाली काकटेल गं ध से जिसमें सफ़े द वाइन के
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प्यालो ं के टकराने की मधुर ध्वनि और सिगरेट भीचं े युवतियो ं के रेशमी कथई लटो ं की तरह लहराता-बलखाता सिगरेट का धुआँ सुं दरियो ं के नेत्रों को और नशीलें बना रहा था।
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वातावारण खो जाने वाला था लेकिन प्रकृ ति के चितेरे को खुली हवा में साँस लेना ज़्यादा अच्छा लगता है। आधे घँ टे में ही कॉफ़ी समाप्त कर मैं सागर की तरफ़ लपका जहाँ छोट-छोटी नौकाएँ स्वत ही थिरक रही ं थी,ं
न चाहते हुए भी अँधरे ा होने पर वहाँ से कमरे पर लौट आया। रात भर स्वप्नों में वही सौदं र्य उमड़ता घुमड़ता रहा. सुभ होते ही मैं फिर वही ं पहुँ च गया. और से जल निधि से दल ु रता यह द्वीप ओल्ड सिटी के नाम से जाना जाता है. यह बहुत छोटा पर अतिसुं दर द्वीप है और इसकी एक और विशेषता यह है कि यहाँ प्रकृ ति गाती है सं गीत बजाती है. आप यहाँ लहरो ं द्वारा बजाये जाने वाला अनहद नाद सुन सकते हैंऔर उसमें खो सकते है चाहें तो हमेशा के लिए. यहाँ एक छोटा महल है जो पुराने राजा का है और वे खं डहर हैं रोमन एम्पायरो ं ने ध्वस्त किये थे जो उस भव्य इमारत का गुणगान कर रहे हैं जो सदियो ं सौदं र्य का प्रतीक रही होगी. 101
अब मैं इस द्वीप के ऊंचे पार्क में पहुँ चा और थोड़ा आराम करने के लिये बैठा तो मेरी चार छात्रों पर पड़ी जो लग्ता था जैसे स्कू ल से भाग कर आये हो,ं वे मुझे देखकर हँ स रहे थे मैं भी हँ सा यह सोच कर कि ज़े सोच रहे हैं कि हंसो ं में कौआ कहाँ से आगया. पर ऐसा नही ं था काफी देर के इं तजार के बाद जब थोड़ा सं कोच दूर हुआ तो लड़की ने पूछा येदनु सिलका । मै थोड़ी क्रोएशियन भाषा समझने लगा था मैने पूछा फोटो, उसने कहा दा मैने कहा ओके और उसने अप्ने मुबाइल से कई फोटो खीचं लिये और उसने कहा कि उसे भरत बहुत पसं द है. कहा मेरा नाम भरत है तो वह बहुत हँ सी. अब मेरी फ़्लाइट का समय पास आता जा रहा था मैं जल्दी-जल्दी वापस लौटा कपड़े पैक किए और टैक्सी से पहाड़ी की विरान शांत सड़क से होता हुआ एक शव की भाँति एयर पोर्ट की ओर जा रहा था। ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे मेरी आत्मा को तो वह हँ स मुख
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लड़की लेकर उसी पार्क में बैठी हुई और ऊसनिर्जिव शरीर को कोई उठाए लिए जा रहा है। मैं निर्जिव की भाँति एयरपोर्ट से पैरिस के लिए उड़ गया जैसे सामान का थैला किसी ने डाल दिया हो। मैं अगले 5 दिन पैरिस में था पर मन वही ं बगीचे के बीच बने घर के कमरे से लेकर ओल्ड सिटी के पार्क में बैठी मुस्कराती लड़की के पास तक चक्कर लगा रहा था जहाँ चारो ं ओर स्वर्ग के अनुपम दृशय दृष्टव्यहो रहे थे।
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स्पलित पूरी तरह इटेलियन प्रभाव को लिए , समुद्र की गोद में बसा प्राचीनकाल से आज तक पर्यटको ं और व्यापारियो ं को अपनी ओर खीचं ता ,छोटे-बड़े जहाजो ं का स्वागत करता एक अति मनमोहक समुद्री तटो ं वाला शहर स्पलित क्रोएशिया में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है. बात एक वर्ष पूर्व की है जब मैं अपने पागलपन और लोभ के कारण जल मार्ग से रोम जाने का निश्चय कर बैठा. इस निश्चय में कम पैसो ं में एक तीर से कम से कम दो निशान करने की योजना बनाई थी. इस योजना के अनुसार मैं सुबह जल्दी की बस पकड़ कर रास्ते के अनुपम सौदं र्य को अपने हृदय में आत्मसात करता हुआ जब 11 बजे स्पलित पहुंचा तो ज़हाज़ में सवार होने तक मेरे पास लग्भग 6 घं टे थे जिसका उपयोग स्पलित नगर के दिग्दर्शन करने में करने की थी. सोचा यह था छोटा शहर है दो घं टे घूम कर फिर आराम करूं गा,पर हुआ कु छ और ही. सुं दरता सागर ,उस पुराने शहर और महल जो सागर के किनारे ऐसे बनाए थे कि आंगन में सागर था. इतना स्वच्छ जल इतना स्वच्छ किनारा और वही ं पर बना हुआ था धुला हुआसा महल. मैं घं टो ं वही ं चक्कर काटता रहा.
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एक ओर वर्तमान नगर को गोद में लिए उथले किनारो ं वाला सागर कलोल कर रहा था तो दूसरी और गहराई लिए छोटे पहाड़ो ं की तलहटी में बने लाल छतो ं वाले घरो ं सं ग गीत गाता समुद्र था जिसमें देश-विदेश से आने वाले छोटे- बड़े जहाज लं गर डाले ड़े थे.
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जून का महीना था सूर्य की ऊर्जा पा नीला आकाश स्वच्छ जल में अपनी परछांई देख कितना भावविभोर हो रहा था इसका अन्दाजा आप इस से लगा सकते हैं कि सागर लगता था जैसे सागर में आकाश है और आकाश लगता था जैसे आकाश में सागर है. प्रेमियो ं का अद्वत मिलन अनुपम था. वहां की सुं दरता को शब्दों में बांधने का प्रयास वैसा ही है जैसे चांदनी को मुट्ठी में भरना. मैं न जाने और कब तक उसी सौदं र्य में खोया रहता, पर समय देखा तो जहाज के छू टने में15मिनट शेष थे. जैसे –तैसे दोड़ कर जहाज़ पकड़ा. थोड़ी देर बाद ही धीरे –धीरे मैं उस अनुपम सौदं र्य से दूर होते जाने लगा. नगर की बत्तियां जल चुकी थी जो दूरे होते जहाज से हाथ हिला-हिला कर देविजन्या –देविजन्या, विदिमोसे कह रही हो.ं
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पुला शब्द य़ूरोप के उस नगर चलते हैं जहां से कभी योरोप के समाज वाद का साम्राज्य और बाद में नेहरू ,इं दरा के साथ निर्गुट समुह का झं डा बुलंद हुआ था. क्रोसिया की राजधानी ज़ाग्रेब से ३०० किलोमीटर दूर सुरमय पहाड़ियो ं से लिपटी सड़्क से होती हुई जब दिये जले मेरी बस पुला पहुंची तो लगा तीन ओर से समुद्र से घिरा यह नगर पृथ्वी नही ं जैसे पाताल लोक का नगर हो एक शांत ओर सौम्य सुं दरता जो समुद्र में झिलमिलाती रोशनी से पाताल लोक का प्रत्यक्ष अनुभव करवा रही थी.
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बस से उतर कर जब मैं अपने मित्र की कार से लगभग 5कि.मी. की यात्रा कर समुद्र के चरणो ं में बसे एक लघु (200 घरो ं के ) शहर में पहुंचा तो मुझे लगा जैसे मैं बिना तप किये ही स्वर्गलोक में आगया हूं. उस दिन तो मैं स्वप्नलोक में विचरते हुए निद्रा देवी की गोद में चला गया.सुबह उठा तो खिड़्की से देख कर हतप्रभ रह गया.
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मेरी खिड़की के ठीक सामने बीस गज़ की दूरी पर शांत स्निग्ध नीला सागर सूर्योदय की रक्तिम किरणो ं को अपनी गोद में पाकर अति प्रसन्न हो रहा था.थोड़ी दूरी पर ही टीटो के पैतक ृ घर को गोद में लिये सूर्यकी किरंणो ं और सुबह की ताज़ा हवा को पा तरोताज़ा और हर्षोल्सित दिखाई दे रहा था वह छोटा सा द्विप जो ऐसा लगता जैसे एक अलग पृथ्वी बनी हो जो किसी गुट में नही ं रहना चाहती.जब मैं तैयार हो कर बाहर निकला तो उस नगर के भवन निर्माण की सादगी भरी सुं दरता और स्वच्छता को देख कर अचं भित था.
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गलियां भी इतनी साफ की गली में बैठ्कर भोजन किया जा सकता था. मै जैसे ही अगली गली में मुड़ा तो देखा सचमुच ही लोग गली में करीने से लगी कु र्सियो ं पर बैठे नाश्ता कर रहे थे. थोड़ा आगे बढ़ा तो सामने पारदर्शी सागर फु टपाथ से 6 इं च नीचे किलोल कर रहा था .मुझे उस की उस मधुर ध्वनि ने मोह लिया था.मैं उसके साथ बने कई किलोमीटर लं बे फु ट पाथ पर अनायास ही चलता रहा.
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जब मै बहुत दूर निकल आया और फु टपाथ कं करीले रास्ते में बदल गया तो मैंने लौटना उचित समझा हलांकि वहाँ कि प्राकृ तिक सुं दरता मुझे छोड़्ने के मूड़ में नही ं थी.जैसे ही मैं वापस मुड़ा तो मैने देखा मेरी सह्योगी साइकिल पर सवार हो मेरी ही ओर आरही थी.वह मुस्कराते हुए बोली, कहां जा रहे थे? मैने कहा मैं कहाँ जा रहा था.
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मुझे तो यह अनोखी प्रकृ ति लिये चली जा रही थी. उसने कहा चलो कही ं काफी पीते हैं. मैने कहा चलो जी.हम पास ही समुद्र के किनारे पर बने काफी हाउस जिसकी आधी कु र्सियां समुद्र में लकड़ी के तैरते प्लेटफार्म पर थी और आधी ज़मीन पर हम समुद्र वाली मेज पर जाकर बैठ गये .प्यार से लोरी देते समुद्र में बैठ कर काफी पीने का आनं द ही कु छ और होता है. उठने को मन तो नही ं कर रहा था पर मैं शहर भी देखना चाहता था इस लिये हम वहां से उठे और शहर की और चल पड़े.
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शहर के एक कोने में वह गोल किला बना हुआ था जिस के मैदान में युद्ध कौशल से लेकर नाटक तक का प्रदर्शन हुआ करता था.शहर क्या था पहाड़ की हथेली के पीछे वाले हिस्से पर बसा एक छोटा सा खिलोना जैसा था.अति स्वच्छ मध्य कद वाले वृक्षों और फू ल वाले पौधो ं से सजा मन मोह लेने वाला था.तीन ओर से समुद्र की मं द ,सहज लहरें उसके पाँव पखार रही ं थी.
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मैं उस सुं दरता को आज भी अपने मानस में हूबहु सं जोये हूँ .
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