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ऱक्ष्यावरणम ् जीवन दर्शन ऩय आधारयत सॊक्षिप्त कथा साहित्म
हहमाॊशु यादव
ऱक्ष्यावरणम ्
~1~
ऱक्ष्यावरणम ् सवे बवन्तु सखु िन्
ऱक्ष्यावरणम ् जीवन दशशन एवॊ तत्वबोध ऩर आधाररत सॊक्षऺप्त कथा साहहत्य
हहमाॊशु यादव ~2~
ऱक्ष्यावरणम ्
ऱक्ष्यावरणम ्
हिभाॊर्ु मादव ‘हिन्द’ चित्ाॊकन :
आस्था ियु ाना नननतन धाकड़
बायतीम प्रोद्मोगिकी सॊस्थान, रुड़की सॊऩादन :
प्रणव र्भाश बायतीम प्रोद्मोगिकी सॊस्थान, रुड़की आवयण : आस्था िुयाना
अिय सॊवधशन : जजनतन ससॊिरा भद्र ु क :
~3~
ऱक्ष्यावरणम ्
. . . ऱक्ष्यावरणम ् क्रोध प्राणी को कठोय फनाता िै उसके अन्म बावों को र्न् ू म कय दे ता िै
क्रोध भें अननणशम की जस्थनत से ववचायों व बावों का ऩतन आयम्ब िो जाता िै औय महद कोई ननणशम सरमा जाता िै तो वो दृढ़ता का द्मोतक फनता िै ककन्तु मे दृढ़ता
साभान्मत् अस्थामी, ननयथशक एवॊ
धभशववरुद्ध िी िोती िै ।
~4~
ऱक्ष्यावरणम ्
~5~
ऱक्ष्यावरणम ्
आमख ु ऩरयवतशन ननमत िै । ऩरयवतशन से अनुबव,
भनुष्म की प्रकृनत िै । सभम ऩरयजस्थनत-कार-भनुष्म के ऩि भें अथवा ननमॊत्रण भें ना िो ऐसा िो सकता
िै , ककन्तु ऩरयजस्थनतमों का अनब ु व एवॊ उसकी प्रनतकक्रमा स्वमॊ के दृजष्िकोण से िी प्रेरयत िोती िै । वस्तत ु ् मिी अनब ु व व दृजष्िकोण सभरकय बाव-
के
जित की सजृ ष्ि कयते िे। मि दृजष्िकोण सभम
साथ ववकससत िोता िै , इसके ननभाशण औय ववकास भें फाह्म कायकों के साथ साथ, भनष्ु म की भर ू प्रकृनत की बी अिभ बूसभका यिती िै ।
सवशप्रथभ तो ननमनत को धन्मवाद, अनुबव,
गचॊतन एवॊ रेिन के अनुकूर ऩरयजस्थनतमाॉ उत्ऩन्न कयने के सरए। ऩरयवायजनों एवॊ सभत्रजनों के एकात्भ
फॊधन से ववभुि यिकय बावों, ववचायों को व्मक्त कय ऩाना
अथवा
उनकी
अनुबूनत
~6~
कय
ऩाना, एक
ऱक्ष्यावरणम ् सॊवेदनर्ीर भनुष्म के सरए तो सॊबव निीॊ िै । उन
सफ के ननष्काभ एवॊ अिूि सिमोि के सरए तो भे
सदै व ऋणी यिूॉिा िी। इस ऩुस्तक रूऩ भें मि भेया प्रथभ प्रमास िै , ना बाव ऩरयऩक्व थे ना िी गचॊतन सुदृढ़ था, कपय बी भनोमोि से इस ऩुस्तक को प्रकार्न तक ऩिुॉचाने के सरए जो सिौदय तत्ऩय थे उन सफ का कोहिर्् आबाय। सॊऩादन के कामश भें सिमोि के सरए प्रणव र्भाश को साधव ु ाद। भेयी यचना को अऩने छामाॊकन एवॊ गचत्राॊकन के भाध्मभ से जीवॊत रूऩ दे ने के सरए आस्था
ियु ाना
एवॊ
नननतन
धाकड़
को
िाहदश क
धन्मवाद!!..
- हहमाॊशु यादव
~7~
ऱक्ष्यावरणम ्
भमू मका जीवन सीसभत िै ऩय जीवन की अनुबूनत असीसभत िै । बाव, इच्छा, सॊवेदना, आत्भा, इनके अजस्तत्व
औय अनब ु नू त को भाऩना, इस धया ऩय तो कदागचत ककसी के
सरए बी
सॊबव निीॊ िै ।
प्राणी का
दृजष्िकोण व भानससकता कुछ बी िो, वो जजस बी हदर्ा
भें
जाना
चािे ,
उसका
अल्ऩकारीन
मा
दीर्शकारीन रक्ष्म तो अनब बी ु नू त िी िै । सि ु अनब ु नू त िै , भन व आत्भा को िोती िै , भोि बी सॊबवत् अनब ु नू त िी िै , ऩय भोि के ऩरयऩेि भें
भनुष्म बावों की सॊकीणशता से ऩये िो जाता िै , मे
अनुबूनत भन को निीॊ, केवर आत्भा को िोती िै । ऩय अनुबूनत केवर रक्ष्म भें िी तो निीॊ, भािश भें बी अनुबूनत िोती िै । आज भनुष्म जफ अल्ऩकार
उद्मेश्म को िी रक्ष्म भानकय चरता, गियता यिता िै , तो ऐसे रक्ष्म की अनब ु ूनत बी िखणक िोती िै ,
~8~
ऱक्ष्यावरणम ् क्मोंकक भािश का एक आवत्त ृ ऩूणश कयते िे तो उसी
ऩर दस ू या आयम्ब िो जाता िै । इस प्रकाय की जस्थनत भें बी महद िभ उद्मेश्म प्राजप्त की िखणक
सुिद अनुबूनत को िी सत्म भन रें िे तो ऩूये भािश भें ननयॊ तय दि ु द अनुबूनत
िोनी तो ननजश्चत िी िै ।
रक्ष्म चािे सत्म िो मा केवर भ्रभ, उस
हदर्ा भें फढ़ते िुए, भनष्ु म प्रनतहदन सैकड़ों बावों औय काभनाओॊ का दभन कयता िै । इनभें से कुछ बाव, काभनाएॉ भन औय भनत की ववकास प्रकक्रमा भें
सिामक िोती िे तो कुछ केवर रक्ष्म भें फाधक िी िोती
िे।
सत्म
की
ओय
अग्रसय
भनष्ु म
इन
बावनाओॊ के ऩार् से दयू यिने का प्रमास कयता िै , कदागचत मि आवश्मक बी िै क्मोंकक वो र्ाश्वत
सत्म की िोज भें ननकरा िै , बाव सत्म तो िो सकते िे ककन्तु र्ाश्वत सत्म निीॊ। को
दस ू यी ओय, महद प्राणी रर्ुव्माऩी उद्मेश्मों
िी
रक्ष्म
भानकय
अऩनी
~9~
मोजनाओॊ
को
ऱक्ष्यावरणम ् कक्रमाजन्वत कयना चािता िै तो बी वो भािश की बावों औय काभनाओॊ से ननयॊ तय झूजता यिता िै ऩय भ्रभप्राजप्त के सरए बावों का दभन कदावऩ उगचत निीॊ िै क्मोंकक उस सॊर्र्श भें वो ककतनी िी साजत्वक काभनाओॊ एवॊ बावों का िनन कय दे ता िै जो की उसके ववकास भें सिामक ससद्ध िोने वारी थी। जजस जीवन रक्ष्म को उसे अॊतत् प्राप्त कयना िै , जजस सत्म का उसे आह्वान कयना िै उसके सरए स्वमॊ को ववकससत कयना एक साधन िी तो िै ताकक सत्म की अनब ु नू त के सरए साभर्थमश सॊगचत िो सके औय ववकास साजत्वक बावों, इच्छाओॊ औय ववचायों के अभ्मास से िी सॊबव िै । विीॊ महद भन, भनत की सॊकीणशता के कायण सत्म का भािश नीयस रिने रिता िै तो उससे फचने के सरए, कुछ रोि जीवन-ऩथ को उऩरक्ष्मों
भें ववबाजजत कय उसी हदर्ा भें प्रमत्न कयना चािते िे तो मे बी एक साधन िी िै । महद मे दोनों साधन
~ 10 ~
ऱक्ष्यावरणम ् एक िी साध्म के सरए फने िे, एक िी रक्ष्म के सरए सिामक िोते िे तो कपय इनभे सॊर्र्श क्मों? साधन की भिता कामश को सुरब औय ऩूणश फनाने के सरए िै ना कक एक दस ु ये के सरए आवयण फनने की। कबी उऩरक्ष्म, बावनाओॊ के सभि आवयण फन जीवन दब ू य कय दे ता िै
तो कबी बाव,
काभनाएॉ भािश भें डेया डारकय कदभ फढ़ाना दब ू य
कय दे ती िे। दोनों िी अथों भें ऱक्ष्यावरणम ् से ऩरयचम िो िी जाता िै । ऱक्ष्यावरणम ् प्राणी के
आॊतरयक गचॊतन का ऩरयणाभ एवॊ इसका कायक बी िै ,
मे
आत्भा
ऩरयबार्क िै ।
की
सुदृढ़ता
औय
कोभरता
का
मिाॉ मे फात ववचायणीम िै कक जजन बावों औय इच्छाओॊ को िभ ववकास के सरए सिामक भान यिे िे, उनका आर्म ककस प्रकाय के बावों से िै ? महद एक ककसान, कृवर्कामश कयते िुए सत्म को ऩाना चािता िै औय भािश भें उसे अनामास िी
~ 11 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सािूकाय फनने की इच्छा मा बाव जाित ृ िोता िै तो मे इच्छा उसके ध्मेम प्राजप्त का साधन कदावऩ निी िो
सकती,
ना िी
उसके हदर्ाित
ववकास भें
सिामक िै , िाॉ ऩय महद वो अऩने कभश की हदर्ा भें िी स्थान, ऩरयजस्थनत, कामश कयने तयीके आहद भें िी इच्छाएॊ व्मक्त कयता िै तो ननजश्चत रूऩ से इन्िें उस ककसान के सरए साजत्वक इच्छाएॉ िी भाना जाएिा क्मोंकक ककॊगचॊत भात्र िी सिी, मे उसके व्मजक्तत्व के ववकास भें सिामक तो िे। बाव औय इच्छाएॉ केवर भािश भें िनत को िी निीॊ, अवऩतु भािश के चन ु ाव को बी प्रबाववत कयती िे। अॊतजीवन से ववभि प्राणी, साभान्मत् मा तो ु
प्रत्मि भािश चन ु ते िे मा कपय सफसे आसान भािश। ककन्तु मे दोनों िी वववेकनुकूर िे औय ऱक्ष्यावरण के सॊर्र्श का आर्ात वववेक ऩय सफसे अगधक प्रबावी
िोता िै , अत् इस जस्थनत भें तो भनोनुकूर भािश िी श्रेष्ठ िै ककन्तु इस भािश भें प्रकार् उन्िीॊ साजत्वक
~ 12 ~
ऱक्ष्यावरणम ् तत्वों को िोना चाहिए जो कक उसके रक्ष्म की हदर्ा भें सकायात्भक मोिदान प्रदान दे कय, प्रेरयत कयें िी। औय महद भनोनुकूर भािश ना चन ु कय, वववेकानक ु ूर
भािश चन ु ा जाता िै , तो अल्ऩ मा दीर्श आवनृ त के फाद भन भें ग्रानन ऩनऩने रिती िै , जजतनी िनत
प्रत्मि भािश के कायण जुिा ऩाते िे उससे किीॊ अगधक सॊकुचन िभाये व्मजक्तत्व औय दृजष्िकोण भें उत्ऩन्न िो जाता िै ।
जीवन भें र्ाश्वत सत्म एक िै , भ्रभाच्छाहदत रक्ष्म अनेक िे उतनी िी हदर्ाएॉ िे उन तक ऩिुॉचने के सरए, ऩय भािश अनेक िे औय एक अनॊत भािश बी िै , उन भें से ककसी ऩय बी चरना प्रकृनत का ननमभ िै , ककस प्रकाय चरना िै प्राणी के दृजष्िकोण औय
उसकी प्रकृनत ऩय ननबशय कयता िै , ककन साधनों का ककस प्रकाय उऩमोि कयना िै उसके गचॊतन औय
अनुबूनत के साभर्थमश से प्रेरयत िै । अत् सॊबावनाएॉ अनॊत िे ऩय जीवन एक िै ।
~ 13 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
ऱक्ष्यावरणम ् . . . . “. . . व्मजक्तत्व को, बावों एवॊ आकाॊिा की धायाओॊ से बी सीॊचा जाता िै । काभनाओॊ की र्ुद्धता व सकायात्भकता,
व्मजक्तत्व के ववकास के सरए उत्तयदामी तत्त्व िै । काभना फौद्गधक बी िो सकती िै औय अन्त्कयणीम बी। फौद्गधक काभनाएॊ एक रक्ष्म की सीभा भें
कैद यिती िै फजल्क भन की आकाॊिा, अननजश्चत व अनॊत िोती िै । मद्मवऩ जीने की अनुबूनत भन की इच्छाओॊ से िी
िोती िै औय जीने का
भािश बी मिी से ननकरता िै , रेककन दस ू यी ओय
मिीॊ इच्छाएॉ सपरता को िनतर्ीर प्राणी के कदभ
बी थाभ सकती िे,
~ 14 ~
ऱक्ष्यावरणम ् भ्रसभत कय नकायात्भक गचॊतन की ओय प्रेरयत कय सकती िे। विीॊ फौद्गधक काभनाएॉ जजन्दिी को भुजश्कर फनाने के फावजूद
बिकाव की जस्थनत ऩैदा निीॊ कयती ऩय आत्भववश्वार् को जरुय डिभिा सकती िै ।
एक प्रफर भानससक इच्छा कुछ ऩरयजस्थनतमों भें जजन्दिी का उद्मेश्म मा रक्ष्म बी फन जाती िै ।
बफना रक्ष्म मा ध्मेम के ना केवर सक्ष् ू भ व्मजक्तत्व अधयू ा िै ,
फाह्म व्मजक्तत्व बी ऩॊिु िी िै . . .।”
हहमाॊशु यादव
~ 15 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
~ 16 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
~ 17 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(1) सस्ममत “तुम्िाया नाभ क्मा िै , वत्स?” “सजस्भत, आचामश” “सजस्भत? क्मा तुभ सजस्भत का अथश सभझते िो?” “जो सदा भुस्कयाता यिता िै ...!!” “फिुत अच्छे भेये फच्चे, ऩय तुभ िभेर्ा भुस्कयाते तो प्रतीत निीॊ िोते?” “िाॉ मे तो सत्म िै , आचामश, ऩय भेया नाभकयण तो आचामश वासु ने ककमा था...” “िभ ब्रह्भवॊसर्मों का नाभ व्मजक्तत्व के अनुरूऩ िी
ननजश्चत ककमा जाता िै , वत्स औय आचामश वासुदेव
~ 18 ~
ऱक्ष्यावरणम ् तो कबी तकशिीन िो िी निीॊ सकते, ऩय तुभ केवर िद ु को जानते िो, सभझते निीॊ िो....” “भे सभझना चािता िूॉ, आचामश।” आचामश प्रद्मुम्न ने भुस्कयाते िुए भुझे फैठने का सॊकेत ककमा। “िे आत्भजीववमों, ककसी बी प्राणी की ऩिचान केवर उसके फाह्म रूऩ से ननधाशरयत निीॊ की जा
सकती,
व्मजक्तत्व का ऩरयचम, आत्भा के बावों, ववचायधाया एवॊ उसके व्मविाय से सुननजश्चत ककमा जाता िै । भुस्कयािि तो कदागचत सजस्भत का फाह्म रूऩ िै , तुभ जजतनी िूढता से गचॊतन कयोिे, र्ामद उतनी िी सम्ऩूणत श ा से ‘सजस्भत’ को सभझ ऩाओिे।”
आचामश प्रनतकक्रमा जानने के सरए कुछ ऩर रुके,
ककन्तु ववद्मागथशमों ने उस भौन को बी उऩदे र् भान, उनके धायाप्रवाि वचनों को प्रेरयत कय हदमा।
~ 19 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “भेया गचॊतन ‘सजस्भतत्व’ का एक ऐसी भनोवस्था के रूऩ भें अध्ममन कय ऩामा िै , जजसभें कक प्राणी का आत्भभॊथन केवर एक सकायात्भक हदर्ा भें उत्कर्श एवॊ नवसॊचाय की ओय प्रेरयत यिता िै , प्रत्मेक ऩरयजस्थनत भें । ना केवर मे ववर्भताओॊ भें प्राणी की आॊतरयक प्रफरता का सािी िै अवऩतु र्ोय अन्धकाय भें बी याि हदिाने भें सिभ िै , स्वमॊ को बी औय दस ू यों को बी ....।” आचामश के फात सभाप्त कयने से ऩिरे िी, आिे से दस ू यी ऩॊजक्त के फीच एक फरर्ारी-सा फच्चा िड़ा िो िमा, “क्मा सजस्भत व्मजक्तत्व ऩूणश व्मजक्तत्व िो सकता िै , आचामश?”
आचामश भस् ु कयाए, ”कदागचत कोई बी प्रफर तत्व
अकेरे सम्ऩूणत श ा का फीज निीॊ रिा सकता, वत्स, िाॉ ऩय सजस्भत बाव, व्मजक्तत्व की सभग्रता का एिसास अवश्म कया सकता िै ।”
~ 20 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “ससपश एिसास?” “िाॉ ऩुत्र, व्मविाय का एक बफम्फ ऐसा बी िै जिाॉ सजस्भतत्व कभजोय ऩड जाता िै मा कपय किो कक अऩनी
प्रफरता
को
उन
ऩरयजस्थनतमों
के
साथ
आत्भसात निीॊ कय ऩाता। औय वो िै बावनात्भक सॊवेदना की जस्थनत। प्राणी का व्मजक्तत्व तफ तक अधयू ा िै जफ तक कक उसे अऩने अॊतजीवन से सॊवेदनर्ीरता का ऩरयचामक
साक्ष्म निीॊ सभरता ...., तभ ु ने बी अऩना ऩरयचम निीॊ हदमा, वत्स”, आचामश उस फारक को रक्ष्म कय फोरे। जवाफ भें उसकी भुद्रा कुछ कठोय िो िमी, बुजाएॉ पैरती चरी िमी औय तेज स्वय िूॊजा, “वीय”।
************
~ 21 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(2) प्रकृतत “रुको सजस्भत!” वीय दौड़ता िुआ, भेयी ओय फढ़ यिा था। “तुभ बी इधय िी यिते िो?” अऩनी उरझनों की दरदर से ननकरने के प्रमास भें , भे वीय का प्रश्न िी निीॊ सन ु ऩामा। वीय िॉसा, “ओि ! निीॊ, भे िस्तिेऩ निीॊ कयना चािता था, फस सभरना था तुभसे।” “िस्तिेऩ ?”
~ 22 ~
ऱक्ष्यावरणम ् वो कपय से िॉसते िुए फोरा, “तुम्िायी प्रनतकक्रमा से स्ऩष्ि िै सभत्र, कक तुभ अवश्म ककन्िी ििये ववचायों भें रीन थे।”
वास्तव भें वीय ने भेयी भनोदर्ा को बाॊऩ सरमा था ऩय वो इसका प्रभाण बी चािता था। “िाॉ था तो ....”, भेने उसका उद्मेश्म जानना चािा। “मिी तो भेयी करा िै , भे र्ब्दों भें झाॊक सकता िूॉ।” मे जवाफ कदागचत भेये सरए अनुऩेक्षित था। “िाॉ सभत्र, भे द्वॊद्व भें िूॉ।” “गचॊतन के अि ऩय द्वॊद्व का बफम्फ तो ननजश्चत िी िै । ऩय तुभ अनावश्मक गचॊतन कयते िी क्मों िो, बाई?”
थोडा रूककय वीय ऩुन् फोरा, “भे तो फस मिी सोचता िूॉ कक भेया अिरा ऩर कैसे योभाॊचकायी िो,
~ 23 ~
ऱक्ष्यावरणम ् तुभ मे क्मों निीॊ कय सकते? क्मा इस दनु नमा भें िर् ु यिने के साधनों की कभी िै , सभत्र?”
कुछ दे य ऩिरे वीय का वो रूऩ इससे ऩूणत श ् सबन्न था। किा के दौयान जजस तयि वो आचामश से प्रश्न
कय यिा था उससे तो एक ििन गचन्तक प्रतीत िोता था। ककन्तु मे र्ब्द तो वीय के उन ससद्धाॊतों
के ऩरयबार्क निीॊ रि यिे थे, ऩय उसकी प्रकृनत के ऩरयचामक अवश्म थे। मे उसकी प्रकृनत िी थी
जजसने ऩूणश सिजता से आत्भा के प्रकोष्ठ को आकाॊिाऩूनतश के भ्रभभेर्ों से आच्छाहदत कय हदमा
था। ऩय आज भेयी नकायात्भक बावनाएॊ उन भेर्ों से उत्ऩन्न अॊधकाय को बी आत्भसात कय रेना चािती थी। वीय की प्रकृनत ऩय भन यीझ यिा था, ‘फधाई िो सभत्र, तुभने सभम यिते जीने का ननष्कर्श ननकार सरमा, मिी तो सच िै कक जीवन का अॊनतभ उद्मेश्म
िर् ु
यिना
िी
तो
िै ।’
आचामश
का
सजस्भतत्व ऩय हदमा व्माख्मान बी ननयथशक िी रि
~ 24 ~
ऱक्ष्यावरणम ् यिा था, जिाॉ अफ सकायात्भक बावनाएॊ ननयीि ऩड़ी थी। वीय ने कॊधे को िाथ यिकय खझॊझोड़ हदमा, “क्मा किते िो सभत्र ?” “इन सबी प्रश्नों के आधाय भेये द्वॊद्व से िी उद्िारयत िोते िै , सभत्र, फस मे सभझो कक आज कपय इनसे साभना िो िी िमा”, भे प्रमत्नऩूवक श फोरा।
वीय को इस िियाई तक सोचना कदावऩ रुगचकय निीॊ रिा। “िर िोजने के प्रमास भें महद ऩुन् प्रश्नोत्तय िुआ तो तुम्िायी उरझनें फढती िी जामेंिी, अऩने द्वॊद्व के स्वमॊ िी सिचय फनो, सभत्र, भे चरता िूॉ।” वीय भुझे उसी बॊवय भें छोडकय चरा िमा।
************ ~ 25 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(3) सन्दे ह “आ िमे ऩत्र ु ...!” तुरसी काकी की आवाज का स्ऩॊदन, ववचसरत भन को बी ननभक् ुश त कय दे ता िै ।
“िाॉ काकी, आज भे फस एक िी भोदक िाऊॊिा।”, भेये स्वय भें बी प्रपुल्रता थी। “फस एक?” “आज भन अजस्थय िै काकी, एक तयप एक भोदक यिे िा औय दस ू यी भेया गचॊतन तो भन सॊतुसरत िो जामेिा।”
~ 26 ~
ऱक्ष्यावरणम ् काकी सामास िॊ सी, “ऩय भोदक तो ऩेि भें जामेंिे ऩुत्र।” “निीॊ काकी, आऩके भोदक तो सीधे भन भें प्रववष्ि िोते िोते िे।” “फस कय नििि..” काकी के बाव अचानक ऩरयवनतशत िो िमे, ”अच्छा मे फता कक तेये वऩतत्ृ व वाऩस आ िमे िे क्मा ?” ‘क्मा जानना चािती िे काकी ? क्मा उनके प्रश्न के आिेऩ भें कोई अन्म सन्दे ि नछऩा िै मा कपय वास्तव भें उन्िें वऩतत्ृ व की गचॊता िै ।’ मद्मवऩ मि सफ भेये सरए ककॊगचत बी ववस्भम का ववर्म निीॊ था। अनेक फाय वऩतत्ृ व के सिचयों के र्ब्दों भें , उनके कभशिेत्र के प्रनत व्माप्त सन्दे ि को भिसूस कय चक ू ा था।
~ 27 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “निीॊ काकी....”, भे धीये से फोरा। “क्मा वो तुम्िायी सर्िा के सरए िी ऋण एकबत्रत कय यिें िे मा कपय.....”, काकी इतना फोरकय रुक िमी। ऩय भेये ववचायों के फाॉध का एक औय ककनाया धवस्त िो फि चरा, सजस्भतत्व अफ चिुॊओय फाढ़ से नर्य िमा था। ‘तो काकी का बी मिी कमास िै कक वऩतत्ृ व भेयी
सर्िा के सरए निीॊ अवऩतु कभश से ववभि िोकय ु स्वबोि के सरए ऋण चािते िे।’
ऩय सभाज के इस प्रनतरूऩ से सॊकीणशता की िॊध
आती िै । सभत्रों एवॊ सम्फजन्धमों का मे सन्दे ि, कदागचत िभाये ऩरयवाय भें व्माप्त द्वॊद्व औय सन्दे ि की अजग्न को प्रज्जवसरत कयने के सरए िै । इस प्रकाय के रोि ढे यों आवयणों से अऩनी ववकृत
बावनाओॊ को आच्छाहदत यिने का प्रमास कयते िे,
~ 28 ~
ऱक्ष्यावरणम ् रेककन कपय बी इनका आबास दस ू यों को िो िी जाता िै ।
************
~ 29 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(4) पऩत्ाऻा ननयॊ तय सातवें हदन भे उसी भनोजस्थनत भें र्य रौि यिा था। वऩतव्ृ म से साभना िोते िी फोरेंिे, ”तो क्मा सोच
तभ ु ने ऩत्र ु ?” औय भे द्वॊद्व भें चयू िो नन:र्ब्द उन्िें ताकता यिूॉिा।
जफ वऩतव्ृ म भहदयाऩान के ऩश्चात वाताशराऩ कयते िे तो कदागचत उन्िें उत्तय की उऩेिा बी निीॊ िोती
औय ना िी अनुऩेक्षित उत्तय को आत्भसात कय ऩाते िे। अत् स्वमॊ िी बूसभका का ननभाशण कयें िे, ‘दे िो
ऩुत्र, सम्ऩवत्त तो भेने बी फिुत अजजशत की िै , उससे किीॊ अगधक व्मथश भें िी व्मम बी ककमा िै ऩय एक अच्छी ऩिचान कबी अजजशत निीॊ कय ऩामा। ऩय अफ
~ 30 ~
ऱक्ष्यावरणम ् जफ वक्त ने अऩनी हदर्ा फदर री िै तो भेये ऩास दयू दसर्शता के अरावा कुछ र्ेर् निीॊ यिा।’ ववर्ेर् फात तो मे िोती िै कक एक फाय आयम्ब िोने ऩय वऩतव्ृ म अनवयत फोरते चरे जाते िे। साभान्मत् सम्ऩूणश वाताश याबत्र बोज के दौयान िी की जाती िै ।
बावनाओॊ के अधीन िो वऩतव्ृ म, मा तो आत्भानुबव के भाध्मभ से अथवा भुझे केंद्र भें
यि कय जस्तगथ
का स्ऩष्िीकयण दे ते िे।
‘आज के वक्त भेयी सफ से भल् ू मवान सम्ऩवत्त तभ ु िी िो ऩत्र ु । जजन ऩयजस्थनतमाॉ का साभना कय आज भे इस दरयद्र अवस्था भें िूॉ, भे तम् ु िें उनसे दयू िी यिना चािता िूॉ। इस सभम सिी चमन िी ननधाशरयत
कये िा कक तुम्िाये बावी कदभ स्वमॊ का बाय उठाने के सरए ऩमाशप्त सख्त िो सकेंिे मा निीॊ।’
~ 31 ~
ऱक्ष्यावरणम ् एक दीर्श सॊबार्ण के उऩयाॊत भुझे अवरोककत कयें िे औय कपय स्वमॊ िी हदनबय के ननष्कर्श के रूऩ भें कोई
ववकल्ऩ
सुझामेंिे,
‘अच्छा
बववष्म
तो
काव्मर्ास्त्र ववर्म भें िी िै , ऩुत्र, धन बी िै औय सम्भान बी िै ।’ उनका
प्रत्मेक
ववकल्ऩ
सुनने
के
ऩश्चात
भेयी
भनोजस्थनत वक्रतय िोती जाती िै । कदागचत वऩतव्ृ म चमन के सरए ववकल्ऩ बी उऩरब्ध कयाते िे औय
अऩने ववकल्ऩ को सवोऩरय यिने के अनकिे ननदे र् बी दे ते िै । वऩतऋ ृ ण से फोखझर भेया भन व भजस्तष्क उनके
ननदे र्ों को वऩत्राज्ञा के रूऩ भें स्वीकायते िे। औय मथासॊबव वऩतव्ृ म बी मिी उम्भीद यिते िे। इस
जस्थनत भें दो िी ववकल्ऩ फचते िे मा तो भे उनकी आज्ञा को स्वीकायने का हदिावा करूॉ अथवा ववयोध बाव भें अवाजन्छक क्रोध से िुब्ध िो भौन िी यिूॉ।
~ 32 ~
ऱक्ष्यावरणम ् गचॊतन के प्रवाि भें ववद्मास्थरी से र्य की दयू ी भेने अत्मल्ऩ सभम भें िी ऩूयी कय री थी।
************
~ 33 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(5) अनभ ु व मद्मवऩ आचामश कादम्फी अि-प्रमाण ववद्मास्थरी भें सर्िक िे, ऩय जीवन के सबी ऩमाशमों का उन्िें ऩमाशप्त अनब ु व िै , वो ििृ स्थ बी िे औय भक् ु त बी। वऩतव्ृ म ने बी उच्च-प्रमाण सर्िा, आचामश कदम्फी के साथ िी ग्रिण की थी, ऩय आचामश सभम के
साथ आिे फढ़ते िए औय वऩतव्ृ म अऩनी वववर्ताओॊ
भें ससभिते चरे िए। वऩतव्ृ म के ससद्धाॊतों से प्रबाववत िो वे कबी-कबी र्य बी चरे आते िे।
“....ऩय वासुकी, क्मा सजस्भत बी काव्मर्ास्त्र के सरए इच्छुक िै ?”, आचामश फोरे।
“सजस्भत की अबी उर ह िी क्मा िै , आचामश, उसका अनुबव अत्मल्ऩ िै , वो अऩने बववष्म को सभस्त
~ 34 ~
ऱक्ष्यावरणम ् हदर्ाओॊ से अवरोककत निीॊ कय ऩामेिा। इस वम भें इॊसान को उगचत भािशदर्शन आवश्मक िोता िै ।”, वऩतव्ृ म फोरे। “िाॉ
भािशदर्शन
आवश्मक
िै ,
ऩय
रक्ष्मदर्शन कया यिे िो, सभत्र।”
तुभ
तो उसे
“निीॊ आचामश, भेया रक्ष्म तो मे िै कक सभाज भें भेये ऩत्र की ववसर्ष्ि ऩिचान िो, सम्भान िो औय ु आिाभी
ऩीहढ़मों
के
सरए
सम्ऩवत्त
का
भजफत ू
धयातर स्थावऩत िो सके। काव्मर्ास्त्र तो विाॊ तक ऩिुॉचने का भािश िै ।”, वऩतव्ृ म िवश से फोरे। “ऩय मे रक्ष्म तम् ु िाया िै , सजस्भत का निीॊ।” “जानता
िूॉ। सभमानस ु ाय दे िा जामे तो अबी सजस्भत का रक्ष्म चमन िी िै । रेककन भे उसका भािशदर्शन िी कय यिा िूॉ, उगचत ववर्म के चमन के रक्ष्म को िाससर कयने के सरए।”
~ 35 ~
ऱक्ष्यावरणम ् वऩतव्ृ म के कथन तकशिीन िो सकते िे ऩय वो श्रोता को दृढ़ता से अऩनी वाकऩिुता भें उरझाए यिते िे।
कोई ननष्कर्श ना ननकरता दे ि आचामश कादम्फी ने वाताश को दस ू यी ओय प्रिेवऩत कय हदमा, “तो वासुकी जी, क्मा आऩ अऩने ऩुत्र की अनुबविीनता को आधाय भानकय उसे याि चन ु ने भें भदद कय यिें िे ।”
वऩतव्ृ म आचामश का सम्भान कयते िे ऩय अिभवर्
उन्िें उतना िी साभान्म ऩरु ु र् बी सभझते िे। एक ऩर के सरए उनका अिॊकाय सय उठाने रिा, ‘क्मा
कादम्फी जी भझ ु े अल्ऩज्ञानी ससद्ध कयना चािते िे? मा वो मे सभझते िे कक ववद्माजशन िी भनष्ु म को ऩण ू श फना सकती िै । ननजश्चत िी कादम्फी बी सभाज
के उन अवमवों से सबन्न निीॊ िै जो कक स्वमॊ का भित्व स्थावऩत कयने के ध्मेम से ईष्माशवर् दस ू यों के ससद्धाॊतों एवॊ सऩनों को तकशिीन ससद्ध कयने का
~ 36 ~
ऱक्ष्यावरणम ् प्रमत्न कयते िे। मिी तो इस सभाज की ववडम्फना िै । वऩतव्ृ म की भुद्रा कठोय िो िमी। “जीवन के प्रनत उसके सबी दृजष्िकोण ववकससत निीॊ िे, उसे अनुबव कभ िै ”, वऩतव्ृ म ने विी कथन दोिया हदमा।
“अनुबव के सरए, उर ह मा जजन्दिी की र्िनाएॉ
ऩमाशप्त निीॊ िोती, वासक ु ी औय ना िी इनका सािी
फनने के ऩश्चात कोई प्राणी अनब ु वी फनता िै । अनब ु व तो अभ्मास एवॊ गचॊतन के साथ फढ़ता िै । एक फच्चे का बरे िी जीवन के सबी बफम्फों से
साभना निीॊ िुआ िो, ऩय महद उसने, फीती प्रत्मेक र्िना के केंद्र भें यिकय ननयॊ तय गचॊतन ककमा िै औय उससे सॊफजन्धत सबी ऩिरुओॊ ऩय, अऩने ववचायों का अभ्मास कय उन्िें ववकससत ककमा िै , तो उसका
अनुबव िभाये अनुबव ऩय बी बायी ऩड़ सकता िै ”, आचामश फोरे।
~ 37 ~
ऱक्ष्यावरणम ् वऩतव्ृ म, उनके एक बी कथन से सिभत निीॊ थे।
उनके चेिये ऩय अरुगच के बाव दे ि आचामश ने प्रस्थान कयना िी उगचत सभझा, “अच्छा वासुकीजी,
भे अफ चरता िूॉ। फिुत अच्छा कय यिे िो आऩ अऩने ऩुत्र के सरए, ईश्वय उसे तेजस्वी फनामे।” वऩतव्ृ म ने रुकने का सभर्थमा आग्रि तो ककमा ककन्तु आचामश ने कोई अन्म व्मस्तता का जजक्र कय जाने रिे। आचामश के प्रस्थान कयने के उऩयाॊत, वऩतव्ृ म कृबत्रभ
रूऩ से िॉसते िुए भ्राता मर्ोधन की ओय प्रेरयत िुए, “दे िा ऩुत्र, कादम्फी जैसे रोि बी ककस तयि अऩने भन के करर् ु को नछऩाने का प्रमत्न कयते िे।” बैमा सिभनत भें भुस्कया हदए। ‘भ्राता का मे व्मजक्तत्व ककतना आदर्शवान प्रतीत िोता िै । सत्म मा असत्म दोनों ऩमाशमों भें वे वऩतव्ृ म
~ 38 ~
ऱक्ष्यावरणम ् के प्रनत ककतने सभवऩशत िो जाते िे । उनके अर्ाॊत भन को प्रसन्न कयने का ककॊगचत भात्र अवसय बी निीॊ छोड़ते। उनकी औय वऩतव्ृ म की सोच बी
ककतनी सभरूऩ िै । वऩतव्ृ म के प्रत्मेक कथन को मथोगचत ठियाकय, वऩतव्ृ म का बी हदर फिराते िे
औय वऩत ृ कतशव्म को ननबाकय अऩनी आत्भा को बी
प्रसन्न यिते िे। भ्राता ऩरयजस्थनतमों से इस तयि सॊगध कय रेते िे जैसे मि सफ उनकी प्रकृनत के अनरू ु ऩ िुआ िो।’
मद्मवऩ उन्िें ऩण ू श रूऩ से सभझ ऩाना फेिद भजु श्कर िै ऩय उनके कभश के ऩरयणाभ व उद्मेश्म से तो मिी प्रतीत िोता िै कक वे इसे नीनतफद्ध मा गचॊतनवर् निीॊ अवऩतु कतशव्मफद्ध िोकय कयते िे। मद्मवऩ कतशव्मफद्ध ककमा िमा कभश, धभशववरुद्ध बी िो
सकता िै ऩय बैमा तो वऩत-ृ इच्छा का ननवाशि िी अऩना कतशव्म सभझते िे औय वऩत-ृ इच्छा कदावऩ उनके स्वधभश-ववरुद्ध िो िी निी सकती।
~ 39 ~
ऱक्ष्यावरणम ् कभश तो भेये बी वऩत-ृ सभऩशण से ववभुि निीॊ िोते, ऩय अॊतय केवर इतना िै कक भे इनतिासफद्ध अनावश्मक गचॊतन के ऩश्चात जजस ननणशम ऩय ऩिुॉचता िूॉ, भ्राता ऩरबय भें िी वो ननजश्चत कय चक ु े िोते िे। कबी-कबी उनके कभशिेत्र की सयरता एवॊ स्वाबाववकता अनक ु यणीम प्रतीत िोती िै । सॊबवत् आज वऩतव्ृ म केवर भ्राता से िी वाताश कयने वारे थे।
************
~ 40 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(6) अनभ ु तू त
“सभत्र, काव्मर्ास्त्र ववर्म बी फुया निीॊ िै , दे िो
ककतने सुसजज्जत ववद्माथी िै विाॉ?”, वीय व्मॊग्मबयी भुस्कान से एक छात्रा की ओय सॊकेत कय यिा था। “सजस्भत..!” मे प्रोढ़ आवाज कुछ ऩरयगचत सी रिी। ऩरिकय दे िा तो आचामश प्रद्मुम्न का चेिया साभने था।
“आचामश?” भे ककॊगचत स्तब्ध था, ‘आचामश इस वक्त मिाॉ, क्मा केवर िभसे फात कयने आमे िोंिे।’ “कैसे िो फच्चों?” “सकुर्र िे, आचामश।”
~ 41 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “तुभ दोनों की किाएॉ तो आयम्ब िो िमी िोंिी, कपय तुभ मिाॉ?”
“आज की सुफि फड़ी िी भनोयभ िै , आचामश।”, वीय के दृजष्िऩिर से छात्राएॊ अबी ओझर निीॊ िुई थी।
“भनोयभ तो प्रकृनत िोती िै ऩुत्र, मे सुफि-र्ाभ तो प्राणी की प्रकृनत के अनुरूऩ िी िे।”, आचामश फोरे।
रुबावने प्रतीत िोते
“अथाशत आचामश, क्मा अन्म प्राणी के बावों के बावों की अनब ु नू त िभें अऩनी प्रकृनत के आधाय ऩय िी िोती िै ?”, भे फोरा। “अवश्म
वत्स,
तभ ु ने
तो
ननष्कर्श
बी
ननकार
सरमा।”, आचामश िॉ से।
वीय ननयॊ तय भेये औय आचामश के भुि को अवरोककत कय यिा था।
~ 42 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “क्मा तुभ स्वमॊ की प्रकृनत के ववर्म भें सोच यिे थे?”, वो उत्साि से फोरा। “िाॉ
सभत्र,
जफ से आचामश का सजस्भतत्व
ऩय
व्माख्मान सुना िै , तफ से भे उसी को िोजने का
प्रमास कय यिा िूॉ...”, भेने जान-फूझकय कपय से आचामश का व्माख्मान सन ु ने के सरए वाताशराऩ को नमी हदर्ा दी।
सॊबवत् आचामश बी भेया प्रमोजन सभझ िए थे। कुछ गचॊतन कय वो फोरे, “वीय, जफ वऩतव्ृ म बफना ककसी िरती के तम् ु िें डाॊिते िै तो कैसा रिता िै ?”
“तफ तो भझ ु े वऩतव्ृ म ऩय क्रोध िी आता िै , ककॊगचत
भात्र िी सिी, रेककन जफ िरती भेयी िो, तो भे रुआॉसा िो जाता िूॉ।” “औय तुम्िे कैसी अनुबूनत िोती िै , सजस्भत।”
~ 43 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “कदागचत भुझे क्रोध तो निीॊ आता, आचामश।” “तो क्मा भन दि ु ी िोता िै , वत्स?” आचामश कोई ननष्कर्श तरार्ना चाि यिे थे। “कदावऩ निीॊ, आचामश।” “वऩतव्ृ म की प्रकृनत तुम्िे उग्र भिसूस िोती िै ?” “निीॊ, आचामश।” “कोई ववर्ेर् ऩरयजस्थनत तो िोिी जफ वऩतव्ृ म की प्रकृनत तम् ु िे नकायात्भक रिी िो?”
“िाॉ आचामश, जफ वो भातव्ृ म को सत्म के ववरुद्ध
डाॊिते थे, बफना ककसी िरती के।”, भेयी उत्सुकता फढती जा यिी थी, ‘जाने आचामश अफ क्मा किने जा यिे िै ?’
~ 44 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “मिी तो सजस्भतत्व का प्रभाण िै , वत्स, कक प्राकृनतक
ऩरयजस्थनतमों
भें
बी
क्रोध
जैसी
नकायात्भक बावनाएॉ तुभ ऩय िावी निीॊ िो ऩाती।” आचामश भुस्कयाए।
“ऩय आचामश, जफ वऩतव्ृ म, भाॉ को डाॊिते थे तफ जस्थनत कुछ अरि िोती थी, तफ तो भे सजस्भत निीॊ िोता ना?”
“िाॉ ऩत्र ु , ऩण ू श सजस्भत कबी सॊवेदनर्ीर निीॊ िोता। इस जस्थनत भें तम् ु िाया भात-ृ प्रेभ तम् ु िायी सॊवेदना का बार्क निीॊ िै , अवऩतु मे भाॉ की प्रकृनत एवॊ
भनोजस्थनत की अनब ु नू त के आधाय ऩय तम् ु िायी आत्भा की ननणाशमक प्रनतकक्रमा िै ।”, आचामश कुछ अस्ऩष्ि कि िए।
“आऩ किना क्मा चािते िे, आचामश?”, वीय फोरा।
~ 45 ~
ऱक्ष्यावरणम ् आचामश िॊबीयता से फोरे, “ककसी प्राणी का व्मविाय िभ स्वमॊ की प्रकृनत को केंद्र भें यिकय िी कय
सकते िे। भेने मे फात आयम्ब भें िी फताई थी। अफ महद तुम्िायी जस्थनत का ननयीिण ककमा जामे, सजस्भत, तो वऩतव्ृ म औय भातव्ृ म के फीच जफ सत्म
के आधाय ऩय तुभ ननष्ऩि रूऩ से गचॊतन कयते िो, तफ तम् ु िाये भन भें एक ननणाशमक प्रकृनत का उदम िोता िै जो कक वऩतव्ृ म के व्मविाय की अनब ु नू त
कयाती िै । इस अनब उनके ु नू त के फर ऩय तभ ु
व्मविाय के ववर्म भें कोई ननणशम कय ऩाते िो। अथाशत मे तम् ु िाया भात-ृ प्रेभ व वऩतव्ृ म के प्रनत नकायात्भकता, ककसी सॊवेदना के कायण जाित ृ निीॊ िोता, अवऩतु मे उन दोनों की प्रकृनत की अनुबनू त,
के ननयॊ तय अभ्मास का ऩरयणाभ िै । इसी अनुबूनत के अभ्मास से, धीये -धीये सॊवेदना के सभान्तय एक नमे बाव का ववकास िो जाता िै , विी बाव तम् ु िे उस सॊवेदनर्ीर ननणशम तक ऩिुॉचाता िै ।”
~ 46 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “अथाशत इसे िभ सॊवेदना के स्थान ऩय, अनुबूनत का
अभ्मास कि सकते िे। ऩय आचामश, सॊवेदना बी तो अनुबूनत के कायण िी उत्ऩन्न िोती िै ?” भुझे अबी बी स्ऩष्ि निीॊ था।
“िाॉ वत्स, सॊवेदना बी एक अनुबूनत िी िै , ऩय मे
बाव निीॊ िै, मे ना तो सत्म के आधाय ऩय, ना िी ककसी ऩन ु यावनृ त के कायण, की िमी अनब ु ूनत िै । तम् ु िाये भन भें सॊवेदना निीॊ िै , मे तो केवर उसके सभान्तय एक बाव िै जो कक सत्म एवॊ न्मामवप्रमता
से प्रेरयत िै , उसभे चेतना एवॊ अनब ु व के सभश्रण का बफम्फ िै ।”
आचामश कुछ दे य भौन यिे , कपय फोरे, “वीय, क्मा तुभने कबी योते-बफरिते अॊधे फच्चे को सबिा दी िै ।”
“िाॉ आचामश, एक हदन......”
~ 47 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “क्मों, िो सकता िै वो फच्चा अॉधा निीॊ िो, उसे सबिा की आवश्मकता िी निीॊ िो।”, आचामश ने कृबत्रभ कठोयता हदिाई। “ऩय, आचामश क्मा ऐसे िारात भें भे इन तर्थमों ऩय ववचाय करूॉिा?”, वीय आवेसर्त िुआ। “मिीॊ
सॊवेदना
िै ,
वत्स,
सॊवेनर्ीर
प्रनतकक्रमा
साभान्मत् र्िना के तयु ॊ त फाद िी िोती िै , औय
इस प्रनतकक्रमा भें ववचायों की बािीदायी ननम्नतय िोती िै ।”, आचामश भस् ु कयाते िुए फोरे। “भे मे निीॊ चािता, ऩत्र ु कक तभ ु सॊवेदनर्ीर फनो अवऩतु भे तो तम् ु िें एक सकायात्भक प्रनतरूऩ भें
दे िना चािता िूॉ जो कक ऩण ू श सजस्भतत्व िै , भझ ु े तुभसे फिुत उऩेिाएॊ िे, वत्स।”, किते िुए आचामश जाने रिे।
~ 48 ~
ऱक्ष्यावरणम ् आचामश के प्रस्थान कयने के फाद भे औय वीय बी काव्मर्ास्त्र की किा की ओय फढ़ िए।
************
~ 49 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(7) अऱॊकार मद्मवऩ ववद्मास्र्थरी भें अगधकारयक किाएॉ ननमसभत रूऩ से प्रायॊ ब निीॊ िुई थी। ऩय ववद्मागथशओॊ को अऩने साभर्थमश के अनुरूऩ ववर्म चन ु ने की सुववधा के सरए ‘प्रारूऩ’ किाएॉ आमोजजत की जा यिी थी। आगधकारयक किाएॉ केवर प्रवेर् ऩयीिाओॊ के आधाय ऩय सर्िक सुननजश्चत िोने के उऩयाॊत िी रािू की जाती िे।
मद्मवऩ वऩतव्ृ म तो प्रायॊ ब से िी मिी चािते थे कक भे काव्मर्ास्त्र की प्रारूऩ किा भें व्माख्मान सन ु ॉ ू। कपय बी भे प्रवेर् ऩयीिाओॊ की तम नतगथ से एक
हदन ऩव ू श िी काव्मर्ास्त्र की किा भें आ ऩामा था। वीय तो प्रात् से मिाॉ के सरए िासा उत्साहित था।
~ 50 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “भिाकवव आचामश कृदॊ त की सर्ष्मा, प्रज्ञा आऩ सबी का स्वाित कयती िै ।”
प्रायॊ ब भें असबवादन की िनत औय उनके वमानस ु ाय मिी प्रतीत िोता था कक आचामाश
प्रज्ञा एक
उजाशवान सर्क्षिका िै ऩय र्ेर् आवनृ त भें वे सभम व्मतीत
कयती
प्रतीत
िुई। ऩयस्ऩय सॊवाद कयने रिे थे। तबी आचामाश का स्वय िॊज ू ा, “भोि-भािश के भध्म भें , भद ु िुधा का वाय। ृ र भि ृ सभ भन भिीन िो, ऩार्ाण सम्भि ु ननस्साय।।”
~ 51 ~
अगधकाॊर्
ववद्माथी
ऱक्ष्यावरणम ् कुछ दे य ववद्मागथशमों के भुि बावों का ननयीिण कयने के उऩयाॊत आचामश ने ऩूछा, “इन ऩॊजक्तमों भें
ववर्ेर् क्मा िै, क्मों मे सुनने भें इतनी यभणीम रिती िै ?”
“इनभें अरॊकाय िै आचामश।” वीय ने ध्मान से दे िा, मे विी छात्रा थी जजसे रेकय प्रात् िी उसने सजस्भत के साथ ऩरयिास ककमा था। “िाॉ, इनभें अरॊकय िै ।” आचामाश ने आरस्मबये स्वय भें विीॊ कथन दोिया हदमा। “ऩय अरॊकाय िोता क्मा िै ?” उस छात्रा के कुछ किने से ऩिरे िी वीय आतयु ता से फोर उठा, “आबर् ू ण।”
ऩॊजक्त भें ऩीछे फैठे कुछ छात्रों ने जोय से अट्िािस ककमा।
~ 52 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “जवाफ अऩने स्थान से उठकय दे ना िै ।”, आचामाश फोरी। वीय की इस ियकत से किा भें सॊवाद की ध्वनन कोरािर भें ऩरयवनतशत िो िमी थी। सॊबवत् आचामाश स्वमॊ का अरॊकाय ऩय स्ऩष्िीकयण बी दे ने रिी थी ऩय यत्तीबय ववद्माथी िी उन्िें सुन ऩा यिे थे। चॊचर वीय का भक् ु त भन बी कुछ ऩरों
के सरए उस छात्रा ऩय जस्थय िो िमा, ‘अरॊकाय ! मिी तो िै प्रकृनत का अरॊकाय। वस्तत ु ् आज से ऩिरे प्रकृनत की सन् ु दयता को कबी भिसस ू निीॊ कय
ऩामा। ऩय इस अरॊकाय के कायण िी तो सफकुछ
ककतना जस्थय िो िमा िै । आचामश प्रद्मम् ू न ने तो किा था कक स्वमॊ की प्रकृनत के अनुरूऩ िी, वस्तु मा
प्राणी
आकवर्शत
कयते
िे ।
िो
सकता
भेयी
बावनाओॊ के कायण िी वो अरॊकाय सभ प्रतीत िो यिी िो। िो सकता िै मे बावनाएॉ प्रकृनत के ककसी
~ 53 ~
ऱक्ष्यावरणम ् बी अॊर् ऩय सभान रूऩ से आकवर्शत िों। इस जस्थनत भें तो वो फासरका कैसे अरॊकाय िो सकती िै , तफ तो भेयी प्रकृनत िी अरॊकाय िै । ककन्तु मे तो वववेकर्ीर भत िै , भन तो ऩूणश जस्थयता से उसकी ओय आकृष्ि िोने के सत्म को स्वीकाय यिा िै ।
ववगचत्र जस्थनत िै आज, फेरिाभ भन जस्थय िै ऩय फद् ु गध अजस्थय िो तकश-ववतकश कय यिी िै । सॊबवत् इस अरॊकाय से वाताश िोने ऩढ़ी इसकी प्रकृनत का ननयीिण िो ऩाए।’
वीय ने उससे सभरने का ननणशम ककमा।
************
~ 54 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(8) द्वॊद्व भ्राता मर्ोधन की भद्र ु ा दे ि रि यिा था कक वो सॊबवत् कोई नमी यचना कयने वारे िे । रम्फे सभम के फाद िी कोई अवसय आता था की भ्राता िॊबीयता से गचॊतन कयते थे। “आ िमा ससस, फैठ जा।”, बैमा फोरे। “बैमा कोई नमी कथा सरि यिे िो।” “आचामश ने ‘स्वाथश’ ववर्म ऩय रर्क ु था यचने का आदे र् हदमा था।”
“आऩ, आचामश का आदे र् भानते िे बैमा।”
~ 55 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “अये निीॊ, भुझे सर्ष्ठता का प्रभाण-ऩत्र निीॊ चाहिए, ऩय मे ववर्म ऩयीिा के सरए भित्वऩूणश िै ।”, भ्राता िॉसे।
“तो अभ्मास कय यिे िो ?” “अभ्मास तो सीिने के फाद ककमा जाता िै ...”, बैमा की भुद्रा कुछ ऩरयवनतशत िुई, “अच्छा, मे फता कक तेयी प्रारूऩ किाएॉ कैसी चर यिी िे?” “आज
भे
काव्मर्ास्त्र
की
किा
भें
िमा
था,
बैमा....|” “तो क्मा तम् ु िाये द्वॊद्व ने कोई नमा भोड़ सरमा, मा कामभ िै ?”, बैमा सिास फोरे।
“निीॊ बैमा, भे अफ बी काव्मर्ास्त्र औय दर्शन के फीच उरझन भें िूॉ। भुझे तत्वफोध से फेिद रिाव िै ।”
~ 56 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “ऩय वऩतव्ृ म तो काव्मर्ास्त्र िी चािते िे।” “िाॉ बैमा, िो सकता िै वऩतव्ृ म कथा साहित्म भें बी
आऩवत्त ना कयें ऩय वो दर्शन सॊकाम के ककसी बी ववर्म ऩय स्वीकृनत निीॊ दे सकते....., औय भझ ु े तत्वफोध ववर्म भें िी अऩने साभर्थमश का प्रभाण
सभरा िै । ककन्तु वऩतव्ृ म की इच्छा के ववरुद्ध भे कुछ कय बी निीॊ सकता औय ना िी कयना चािता िूॉ।”
“किीॊ तभ ु वऩतव्ृ म औय िभायी आगथशक वववर्ताओॊ को अऩने सरए फाधक तो निीॊ सभझ यिे , ससस?”
“निीॊ भ्राता, भे अऩने कतशव्मों को अऩने सरए िी फाधक कैसे सभझ सकता िूॉ?” “तो कपय इतना सोच क्मों यिा िै ?”
~ 57 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “क्मोंकक भन ववचसरत िो यिा िै बैमा औय द्वॊद्व से आच्छाहदत भन को ककसी एक ऩि भें धकरने के सरए भानससक तकश-ववतकश औय राब-िानन की िणना तो आवश्मक िै ।” “तो क्मा ननणशम सरमा तभ ु ने?” “महद तत्वफोध ववर्म रेकय भे बववष्म भें ववपर यिता िूॉ तो वऩतव्ृ म मे बफरकुर फदाशश्त निीॊ कय ऩामेंिे। मद्मवऩ भझ ु भे इतना तो आत्भववश्वास िै कक भे इस ववर्म को भािश फनाकय बी वऩतव्ृ म की आकाॉिाओॊ को ऩयू ा कय सकता िूॉ, ऩय मे, केवर भेयी, भानससकता िै । इस उर ह भें इॊसान का दृजष्िकोण केजन्द्रत िोता िै , चािे वो सिी िो मा िरत...|
ककन्तु
वऩतव्ृ म के वम
भें ,
दृजष्िकोण
व्माऩक िोता िै , अनेक ऩिरुओॊ के अनुबव के आधाय ऩय। तो ननजश्चत िी वऩतव्ृ म भेये रक्ष्म का
~ 58 ~
ऱक्ष्यावरणम ् फेितय ननणशम रे सकते िे। अत् भे रक्ष्म के रूऩ भें काव्मकाय फनना िी दे िता िूॉ।” “तुभ उगचत हदर्ा भें सोच यिे िो, अनुज, तुभ ननजश्चत रूऩ से अऩने रक्ष्म को ऩाने भें , सपरता प्राप्त कयोिे।” बैमा की भुस्कान भें ऩूणं ववश्वास का बफम्फ हदिाई दे यिा था।
************
~ 59 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(9) सम्प्प्रेषण आज प्रारूऩ किाओॊ का अॊनतभ हदन था, वीय की इच्छा थी कक आज कपय काव्मर्ास्त्र की किा भें व्माख्मान सन ु ें । मद्मवऩ भे दर्शन सॊकाम के िी
ककसी कि भें जाना चािता था ककन्तु वऩतव्ृ म की
तयि िी वीय की इच्छा का उल्रॊर्न निीॊ कय ऩामा। ऩय इस फाय प्रमोजन सभत्रता के जझ ू ते धािों को भजफत ू कयने का था। दो असभान ववचायों वारे
प्राखणमों के भध्म र्त्रत ु ा तो आसान िोती िै ऩयन्तु सभत्रता निीॊ। फचऩन से िी भेयी मि सभस्मा यिी िै
कक सम्प्रेर्ण के आबाव भें भे कोई अच्छा सभत्र निीॊ फन ऩामा। विीॊ भ्राता के अगधकाॊर् सभत्र उनकी भानससकता से ऩूणत श ् सबन्न सोच बी यिते िै ककन्तु
इस सन्दबश भें उनका सम्प्रेर्ण सर्क्त िै । वऩतव्ृ म
~ 60 ~
ऱक्ष्यावरणम ् बी
मिी
सभझाते
िे,
अच्छा
सम्प्रेर्ण
आऩको
ऩरयजस्थनतमों के अनुरूऩ आत्भसात कयने का िुनय ससिाता िै । जफ ककसी ननकि प्राणी से आऩकी भानससकता सबन्न िोती िै तो वाकऩिुता के आबाव भें भौन यिकय आऩको अनेक अवसयों ऩय स्वमॊ के साथ िी
सभझौता कयना ऩड़ता िै । जैसे आज वीय के सरए भेने अॊतभशन से सॊगध की। अफतक भे अननच्छा से वीय के साथ चरता िुआ, काव्मर्ास्त्र की किा भें प्रववष्ि िो चक ु ा था। वीय अऩने ननणशमानस ु ाय कर वारी छात्रा के ठीक साभने जाकय िड़ा िो िमा, वो प्रश्नवाचक दृजष्ि से वीय को ताकने रिी। “तुम्िाया नाभ...”
~ 61 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “भद ु ा”, वो छात्रा अबी बी ववजस्भत थी। ृ र “तुम्िाये तो नाभ भें िी काव्म-यस झरक यिा िै ।”, वीय चिकते िुए फोरा।
“भद ु ा का अथश भधयु िोता िै ..., ऩय तुम्िें भेये नाभ ृ र भें इतनी हदरचस्ऩी क्मों िै ?”
“भे वीय िूॉ, तुभसे सभत्रता कयना चािता िूॉ...!” ‘वीय तो वाकऩिुता भें बी दि िै , भद ु ा प्रश्न कयती ृ र निीॊ िै कक उसका उत्तय तैमाय यिता िै । वऩतव्ृ म बी
साभजजक सम्प्रेर्ण को सर्क्त फनाने का सझ ु ाव दे ते िे। ककन्तु मे बी निीॊ कि सकता कक भेने
प्रमास निीॊ ककमा। सत्म तो मे िै कक भेयी प्रकृनत िी
भेये सरए, सम्प्रेर्ण भें फाधक ससद्ध िोती िै । कुछ हदनों ऩिरे आचामश कदम्फी ने बी आिाि ककमा था
कक तुम्िाया गचॊतन तुम्िे व्मजक्तत्व की ऩूणत श ा की
ओय तो रे जा सकता िै ककन्तु सम्प्रेर्ण ननयॊ तय
~ 62 ~
ऱक्ष्यावरणम ् दफ श िोता जाएिा। औय महद तुभ सम्प्रेर्ण को ु र चन ु ते िो तो मे भजस्तष्क के ववकास भें तो उऩमोिी
िोिा ककन्तु आत्भा के ववकास ऩय तो ववऩयीत प्रबाव िी डारेिा।’
जफ प्राणी फोरता िै , तो साभान्मत् उसका ऩूया ध्मान फोरने की कक्रमा ऩय िी िोता िै , ऩय जफ वो भौन यिता िै तो उसकी सबी ज्ञानेजन्द्रमाॉ तो सकक्रम िोती िी िे, उनके साथ-साथ गचॊतन बी कय सकता िै । मिी तो भौन की सफसे फड़ी ताकत िोती िै । ककन्तु केवर भौन मा गचॊतन िी, ववचायों के ववकास
के सरए ऩण ू श निीॊ िोते, उसके सरए र्िनाओॊ की उऩरब्धता बी आवश्मक िै । औय अनामास िोने
वारी र्िनाओॊ के अनतरयक्त, कुछ र्िनाएॉ तबी साभने आती िे जफ िभ अऩने सम्प्रेर्ण के फर ऩय, अऩनी ववसर्ष्ि भानससकता के चरते, सभाज से व्मविाय कयते िे।
~ 63 ~
ऱक्ष्यावरणम ् अफ तक वीय, भद ु ा को इतना तो सभझ िी चक ु ा ृ र
था कक उसकी प्रकृनत, ऩूणत श ् सिज एवॊ भधयु िी िै । मद्मवऩ वीय बी साभान्मत् सिज यिना िी ऩसॊद
कयता िै ककन्तु वो केवर सुि के सॊसाधनों के सरए सिज
यिता
िै ,
ख़र् ु ी
दे ने
वारे
ववचायों
ऩय
अनावश्मक गचॊतन कयना उसकी प्रकृनत निीॊ िै । विीॊ भद ु ा सबी प्रकाय के ववचायों के प्रनत सिज िी ृ र यिती िै , चािे वो ककसी बी प्रकाय के िों। “अफ िभें चरना चाहिए, वीय..” “अवश्म, सभत्र”, वीय की भस् ु कान भें अफ ऩिरे से अगधक उल्रास था।
************
~ 64 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(10) त्याग
“ऩुत्र सजस्भत..!”, आचामश कादम्फी ने तेज स्वय भें ऩुकाया।
“प्रणाभ, आचामश”, आचामश का इस तयि याि के भध्म ऩुकायना, ककॊगचत ववस्भमजनक रिा। “कैसे िो तुभ?” “भे तो स्वस्थ िी िूॉ, आचामश?” “औय भानससक रूऩ से, ऩुत्र?” भुझे कोई उत्तय निीॊ सूझा अवऩतु आचामश के प्रमोजन
ऩय सन्दे ि अवश्म िोने रिा, ‘तो क्मा मे कपय से
~ 65 ~
ऱक्ष्यावरणम ् उसी प्रकाय, रक्ष्म के सरए द्वॊद्व अॊकुरयत कयें िे जैसे उन्िोंने वऩतव्ृ म को तकश हदए थे।’
कपय स्वत् िी फोरे, “भझ ु े तुम्िाये वऩतव्ृ म ने फतामा,
वत्स, कक तुभ काव्म असबवनृ त ऩयीिा को िी अऩना अॊनतभ रक्ष्म भानते िो।” “िाॉ मे सच िै , आचामश।” “ऩय क्मा मे केवर तम् ु िाया ननणशम िै ?” “िाॉ आचामश, रक्ष्म के सरए वऩतव्ृ म का चन ु ाव िी भेया चन ु ाव िै , उनका ननणशम िी भेया ननणशम िै , अत् मे ननणशम भेया िी िै ।”
“ऩय तभ ु क्मा चन ु ना चािते थे, वत्स?” “अॊनतभ रक्ष्म के ववर्म भें तो मे प्रश्न भेये सरए साथशक िै िी निीॊ, आचामश।”
~ 66 ~
ऱक्ष्यावरणम ् आचामश
भुस्कयाए,
“कदागचत
तुभ
वऩतव्ृ म
की
आकाॉिाओॊ के अनुरूऩ हदर्ा तो चन ु िी सकते िो
ना वत्स, तो सॊबव िै इससे तुम्िाये वऩतव्ृ म को
सॊतुजष्ि बी िो जामेिी औय कपय रक्ष्म के सरए तो उन्िें िभ सभझा बी सकते िे।”
“आऩने मे कैसे सोच सरमा, आचामश, की भे वऩतव्ृ म को केवर सॊतष्ु ि कयना चािता िूॉ।”
“मे तो तभ ऩय िी िै वत्स। तभ अऩने काव्म ु ु
साभर्थमश के फर ऩय, असबवनृ त ऩयीिा के अनतरयक्त
बी फिुत कुछ कय सकते िो। महद तभ अऩनी ु प्रनतबा को ऩण ू श भनोमोि से सभाज के सरए उऩमोि कयोिे तो वऩतव्ृ म को जो तभ ु दे ना चािते िो, ऐसे बी दे सकते िो।”
“भे आऩके कथनों ऩय ववश्वास कय रेता आचामश, महद आऩने बी भेये वऩतव्ृ म की तयि त्माि ककमा िोता,
महद
आऩ
बी
उनकी
~ 67 ~
तयि
प्रनतहदन
ऱक्ष्यावरणम ् वववर्ताओॊ की आि भें धकेरे जाते, महद आऩ बी आगथशक रूऩ से कबी इतने ननफशर यिे िोते, महद आऩ बी सभाज की के उन ववद्रऩ ू चक्रवातों को सिन कयते।
भे आऩका सम्भान कयता िूॉ आचामश कक आऩ जीवन दर्शन के इतने फड़े ज्ञाता िे । ऩय जीवन दर्शन एक आसान ववर्म िै , आचामश, ऩय जीवन इतना आसान निीॊ िै सबी के सरए।” “भझ ु े सफ ज्ञात िै ऩत्र ु कक तम् ु िाये वऩतव्ृ म ने ककतना सॊर्र्श ककमा िै ककन्तु भे जजस रक्ष्म के फाये भें फता
यिा िूॉ, वो ना केवर वऩतव्ृ म को सि ऩिुॊचाएिी, ु अवऩतु तम् ु िाये सरए बी हितकय ससद्ध िोिी।” “भे अऩने हित ऩय रक्ष्म का कोई प्रबाव निीॊ दे िता, आचामश, भेये सरए केवर उगचत भािश िी हितकय िो सकता िै ।”
~ 68 ~
ऱक्ष्यावरणम ् आचामश ने इस ववर्म ऩय याि के फीच भें िी, इस प्रकाय तकश-ववतकश कयना उगचत निीॊ सभझा, “महद तुम्िायी ववचायों भें कोई ऩरयवतशन आमे तो भुझे अवश्म माद कय रेना, वत्स, भे चािूॉिा तुभ इसऩय ऩुन् गचॊतन कयो।” “अच्छा आचामश, भे ववचाय करूॉिा।”
************
~ 69 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(11) मागश
“तो कौनसा ववर्म चन ु ा, तुभने?” काकी भोदकों के बण्डाय के ऩीछे से फोरी।
मे प्रश्न, भेये सरए ककॊगचत दवु वधाजनक था, काकी
रक्ष्म के सरए निीॊ अवऩतु भािश चमन के सरए ऩूछ यिी थी। इस ववर्म ऩय तो भेने ऩिरे कबी गचॊतन बी निीॊ ककमा था। ‘ऩिरे तो रक्ष्म का द्वॊद्व औय अफ भािश के सरए द्वॊद्व। सिी किता िै वीय, गचॊतन िी भत कयो, द्वॊद्व िी उत्ऩन्न निीॊ िोिा। मद्मवऩ फीते हदनों ननयॊ तय गचन्तन से रक्ष्म तो ननधाशरयत िो िमा था। ननस्सॊदेि रक्ष्म वऩतव्ृ म की आकाॉिाओॊ के अनुरूऩ
~ 70 ~
ऱक्ष्यावरणम ् था, ककॊगचत बी भनोनुकूर निीॊ था ककन्तु इसके
ऩि भें कुछ साजत्वक तकों के अनतरयक्त एक रम्फी
आवनृ त बी र्ेर् थी जो कक भानससक सॊतुजष्ि के
साथ-साथ, रक्ष्म द्वाया भन को प्रबाववत िोने से बी योक यिी थी। जफ ककसी असबमान भें दयू स्थ
रक्ष्म सजम्भसरत िो तो ववचायों एवॊ बावों का आवेि रक्ष्म की अऩेिा भािश के सरए अगधक िोता िै । सॊबवत् मिी एक तर्थम िै जो भझ ु े भन के प्रनतकूर बी, रक्ष्म ननधाशरयत कयने का सािस दे ता िै ।’
आज कपय एक द्वॊद्वऩण ू श चन ु ाव कयना था। मिी चन ु ाव बववष्म भें आॊतरयक जीवन के सत्र ू ों का
ननभाशण कये िा, महद भानससकता के आधाय ऩय चमननत भािश भनोनुकूर निीॊ िोिा तो सॊबव िै कक भनोबाव िी ववद्रोि कय उठे । वैसे बी जीवन का साय
वस्तु मा ऩदाथश भें निीॊ अवऩतु बावों भें िै औय जफ
भनुष्म अऩने बावों को िी ननमॊत्रण भें निीॊ यि ऩाता तो जीवन ननस्साय िै ।
~ 71 ~
ऱक्ष्यावरणम ् ववकल्ऩ के तौय ऩय आज तीन भािश थे, मा तो जैसा वऩतव्ृ म किें वैसा िी ककमा जामे, मा कपय अऩने सॊस्कायों को आदर्श भान सत्म का भािश चन ु ुॊ अथवा
वऩतव्ृ म की अवज्ञा कय उनका अनादय बी करूॉ एवॊ सॊस्कायों की फसर दे कय सभर्थमा की यि ऩय जाऊॊ।
महद वऩतव्ृ म औय सत्म का ववकल्ऩ एक िी िोता तो भे ननजश्चत रूऩ से विी चन ु ता, ककन्तु वऩतव्ृ म
सवाशगधक सर ु ब एवॊ राब वारा भािश चन ु ते िे जो कक सत्म के अनरू ु ऩ तो िो िी निीॊ सकता।
“काव्मर्ास्त्र?” प्रतीिा भें काकी ने ववकल्ऩ फताने आयम्ब कय हदए। भेने अनामास िी स्वीकृनत भें सय हिरा हदमा। “तो तू प्रनतहदन ववद्मास्र्थरी जाएिा मा आचामश कृदॊ त
की
अनुसर्िण
किाओॊ
ऩयीिाओॊ’ के सरए अध्ममन कये िा।”
~ 72 ~
भें
‘असबवनृ त
ऱक्ष्यावरणम ् “मे तो भे ऩात्रता ऩयीिा के उऩयाॊत िी ननजश्चत कय ऩाउॉ िा ना काकी।”, भेने िारने का प्रमास ककमा। “...तुभ ऩात्रता ऩयीिा के सरए तैमाय बी िो मा निीॊ?”
“निीॊ काकी, अबी भे फस कोई ननणशम निीॊ कय ऩा यिा िूॉ।” “तेये वऩतव्ृ म क्मा चािते िे?” “वो चािते िे कक भे अनसु र्िण किाओॊ भें प्रवेर् रॊ।ू ”
“भेया बी मिी भानना िै ऩत्र ु , अफ जैसा तभ ु उगचत
सभझो।”, किते िुए काकी कपय से भोदकों के ढे य के ऩीछे ओझर िो िमी।
************ ~ 73 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(12) मसद्धाॊत “काव्म ऩात्रता ऩयीिा कर िै ?” याबत्र की अऩेिा, हदन के दस ू ये प्रिय भें वऩतव्ृ म का
स्वय कापी र्ाॊत िोता िै । हदन भें की िमी वाताश स्ऩष्ि व ननष्कर्श से बी ऩरयऩण ू श िोती िै । “िाॉ वऩतव्ृ म”, भे फोरा। “तैमायी कैसी िै तेयी?” “अच्छी िै ..”, मे अभ्मास स्वरूऩ ननकरा जवाफ था। “ऩय मे भित्वऩूणश निीॊ िै , भित्वऩूणश िै ‘असबवनृ त ऩयीिा’,.. आचामश कृदॊ त की अनुसर्िण किाओ के सरए आवेदन कफ से िै ?”
~ 74 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “अनुसर्िण किाएॉ साभान्मत् ऩात्रता ऩयीिाओॊ से
कुछ हदन उऩयाॊत िी प्रायॊ ब िोती िै ।” मद्मवऩ भे जानता था इस उत्तय ऩय वऩतव्ृ म की क्मा प्रनतकक्रमा
िोिी ककन्तु मे सत्म बी था औय इसके अनतरयक्त कोई जवाफ िो बी निीॊ सकता था।
“मिी तो तुभ रोिों की कभजोयी िै , तुभ फाह्म रोिों से सम्प्रेर्ण इतना दफ श यिते िो कक तम् ु र ु िें
कुछ ऩता िी निीॊ िोता, औय फातें कयते बी िो तो उनके साथ जजन्िोंने असपरताओॊ की उऩरजब्धमाॉ िाससर की िुई िे।” वऩतव्ृ म ने एक िी वाय भें दोनों बाइमों के भजस्तष्क
को जड़ कय हदमा। इस जस्थनत भें तकश-ववतकश, वऩतव्ृ म के क्रोध को आसान ननभॊत्रण था। अत् िभ
िय फाय की तयि भौन िी यिे । सॊबवत् भौन िी एकभात्र ऐसा अस्त्र िै जो कक साभने वारे के आवेर्ात्भक स्वयास्त्रों को ववपर कय दे ने की र्जक्त
~ 75 ~
ऱक्ष्यावरणम ् यिता िै । ककन्तु वऩतव्ृ म.., ना तो मे वऩतव्ृ म का आवेर् था औय ना िी वो किु उऩदे र् दे यिे थे, मे तो उनके सुझावात्भक ननजी ववचाय थे, वो तो िभें सर्िा िी यिे थे फस उनका तयीका िी तो सबन्न था।
वऩतव्ृ म की भानससकता एवॊ जीवन व्माऩन के तयीके
को दे ि मिी रिता िै , भनुष्म अऩना जीवन तीन तयीकों से जी सकता िै ।
ऩिरा, स्वमॊ के ससद्धाॊतों को केंद्र भें यिकय ववर्मों ऩय गचॊतन कयें , दस ू या, स्वमॊ के ससद्धाॊतों को सवोऩरय भानते िुए दस ू यों के ससद्धाॊतों एवॊ ववचायों को िासर्मे ऩय िी यिे औय तीसया जजनके जीवन भें
ससद्धाॊतों, गचॊतन, भानससकता कोई ववर्ेर् भित्त्व निीॊ िोता। वऩतव्ृ म प्राम् अऩने ससद्धाॊतों को सवोऩरय यिकय िी कोई ननणशम रेते िे। वऩतव्ृ म का भानना िै , ‘िभें
‘साभान्मत्’, ‘सॊबवत्’ जैसे र्ब्दों का इस्तेभार
~ 76 ~
ऱक्ष्यावरणम ् कयना िी निीॊ चाहिए, प्रत्मेक कामश ऩूणश सूझ-फूझ,
धैमश एवॊ सभमफद्ध िोकय कयना चाहिए, िो सकता िै तुम्िायी काबफसरमत कभ िो ककन्तु सऩने फड़े िी
दे िे तबी तो सॊर्र्श कयने का सािस सभर ऩामेिा। सभाज की दि ं से दयू यिें ऩय साभाजजक फनना ु ध आवश्मक िै । साभजजक व्मविाय कयना सीिे, प्रत्मेक
व्मजक्त के स्तय के अनरू ु ऩ िी प्रनतकक्रमा कयनी चाहिए।’
वऩतव्ृ म के मे ससद्धाॊत एक औय ऩिरू की ओय ध्मान आकृष्ि कयते िे। कुछ रोि सत्म के आधाय
ऩय ननणशम रेते िे ककन्तु भित्वऩण ू श मे िै कक वे
सत्म को सवोऩरय यिकय सोचते िे मा कपय सत्म को केंद्र भें यिकय कोई ननणशम रेते िे। सत्मवाहदता बी एक ससद्धाॊत िी िै । सत्म की फुननमाद ऩय गचॊतन भे बी कयता िूॉ ककन्तु इसके सरए अन्म चीजों को नजयअॊदाज निीॊ कयता अवऩतु
~ 77 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सत्म को केंद्र भे ननधाशरयत भानकय बावनाओॊ एवॊ भानससक तत्वों को बी स्थान हदमा जाता िै । कुछ दे य भौन यिने के ऩश्चात वऩतव्ृ म ने उसी हदर्ा भें वाताश ऩुन् आयम्ब की, “र्ुल्क ककतना रिेिा?”
“ककसभें ?”, अकस्भात िुए प्रश्न से भे िडफडा िमा। ऩय इस प्रनतप्रश्न से वऩतव्ृ म झल्रा उठे , “अये अनसु र्िण भें !”
“साभान्मत् ववद्मास्थरी के र्ल् ु क से तीन िन ु ा िोती िै ।”
अफ मे र्ब्द वऩतव्ृ म के सरए असह्म िो चरा था, उन्िोंने वाताश सभाप्त कयना िी उगचत सभझा।
************
~ 78 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(13) अभ्यास
ऩयीिा बवन भें ववद्मागथशमों के भध्म सॊवाद कक ध्वनन तीव्र िो िमी थी, नीरयक्षिका आचामाश प्रज्ञा, उन्िें र्ाॊत यिने की ववपर कोसर्र्ें कयती यिी। ननमत सभम ऩय ऩयीिा आयम्ब िुई, सबी ववद्माथी कुछ भामूसी के साथ तो कुछ िवर्शत िोकय प्रश्न-ऩत्र िर कयने भें भग्न िो िमे। मद्मवऩ ना तो भुझे ऩत्र भुजश्कर रि यिा था औय ना िी भे केवर अन्म
छात्रों का ननयीिण कय यिा था, ककन्तु जफ बी भे कोई ऩूवश अभ्माससत कामश कयता िूॉ तो ककॊगचत भात्र बी उस ऩय केजन्द्रत निीॊ िो ऩाता।
प्रश्न-ऩत्र भें कुछ प्रश्न भुजश्कर बी थे औय कुछ
फेिद आसान बी ऩय अगधकाॊर् प्रश्नोत्तयों का भेने
~ 79 ~
ऱक्ष्यावरणम ् ऩिरे िी ऩमाशप्त अभ्मास कय सरमा था, अत् भजस्तष्क का एक बाि ऩत्र ऩय जस्थय था औय र्ेर् बाि व अॊत्कयण ऩयीिाबवन की सीभा से फािय था तो कदावऩ ववचसरत िोने का प्रश्न िी निीॊ उठता। आचामश प्रद्मुम्न ने सजस्भतत्व की जो व्माख्मा की
थी उसके उऩयाॊत एक चीज तो स्ऩष्ि िो िमी थी कक भझ ु े स्वमॊ के अन्दय सजस्भतत्व की अनब ु नू त ऩयीिा के दौयान सवाशगधक िोती िै ।
मद्मवऩ ऩयीिाऩत्र कापी कभ सभम का िोता िै ककन्तु उतय-चढ़ाव तो इसभें बी आते िे। औय इसी सभम सजस्भतत्व के साथ-साथ अभ्मास का बी एक सर्क्त स्वरूऩ दे िने को सभरता िै । अभ्मास ना तो एक बाव िै औय ना िी ववचाय, ना तो आत्भा का स्थामी बाि िै औय ना िी भजस्तष्क के अन्दय स्थामी रूऩ से उऩजस्थत िै अवऩतु मे तो
~ 80 ~
ऱक्ष्यावरणम ् आत्भा औय फुद्गध का अस्थामी साभर्थमश िै । जफ ववर्म की ऩुनयावनृ त के भध्म एक रम्फा सभम आ जाता िै तो अभ्मास का कोई अजस्तत्व निीॊ यि जाता िै । सावशरौककक सत्म तो मि िै कक अभ्मास के बफना आत्भा औय फुद्गध का ववकास सॊबव िी निीॊ िै । अभ्मास रयक्त भन औय भनत ऩूणत श ्
साभर्थमशिीन िे। भजस्तष्क का ववकास अऩेिाकृत आसानी से िोता िै क्मोंकक मे केवर अभ्मास को भित्त्वदे ता िै , अभ्मास के स्वरुऩ को निीॊ। सकायात्भक
मा
भाननसकता
के
नकायात्भक, ऩमाशप्त
दोनों
अभ्मास
ववककससत िोती िै ।
से
प्रकाय िी,
की फद् ु गध
विी दस ू यी ओय आत्भा के ववकास की प्रकक्रमा दीर्श एवॊ भुजश्कर िै क्मोंकक केवर बावों के िूढ़ अभ्मास
से िी इसकी उन्ननत सॊबव िै । भन औय भनत का ऩूणश ववकास िी ऩूणश व्मजक्तत्व का अिसास कया
~ 81 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सकते िे। फुद्गध का ऩूणश ववकास, व्मजक्तत्व को सभग्रता की ओय रे जाता िै ।
सभुगचत अभ्मास से भनुष्म सभग्र व्मजक्तत्व को िाससर कय सकता िै महद उसकी आत्भा उसके
भनतष्क को प्रबाववत निीॊ कये । महद उसके बाव उसके गचॊतन व ववचायो भें फाधक निीॊ फने। आचामाश प्रज्ञा ने ऩयीिा कार सभाप्त िोने की र्ोर्णा कय दी थी ककन्तु अफ बी भेया एक प्रश्न
अववचारयत रूऩ भें र्ेर् था, सम्बवत् अफ भजस्तष्क ऩण श ् केजन्द्रत िो चक ू त ू ा था।
************
~ 82 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(14) आकाॊऺा
“आ िमे वत्स, फैठो”, आचामश प्रद्मुम्न ने फैठने के सरए सॊकेत ककमा।
मद्मवऩ भे स्वमॊ आचामश के आवास ऩय आमा था तो वाताश भुझे िी आयॊ ब कयनी चाहिए थी ककन्तु भे बूसभका के अबाव भें भौन यिा।
“क्मा कोई ववर्ेर् प्रमोजन िै , ऩुत्र?”, आचामश फोरे। “निीॊ आचामश, भे कुछ हदनों से द्वॊद्व भें था, फस उसी ऩय चचाश कयनी थी।”
“इस वम भें द्वॊद्व तो साथशक िी िै ऩुत्र, औय मे ववकास के सरए आवश्मक बी िै ।”
~ 83 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “आचामश, जीवन का रक्ष्म भनोनुकूर िोना चाहिए मा वववेकानुकूर?”
“जीवन का अॊनतभ व दयू स्थ रक्ष्म तो साभान्मत् वववेकानुकूर िी िोना चाहिए, ककन्तु महद वववेक नकायात्भक हदर्ा भें प्रेरयत िो तो ननजश्चत रूऩ से
स्वच्छ भन से िी अऩने उद्मेश्म का ननभाशण कयना चाहिए।” “उसे िाससर कयने के सरए याि बी चन ु नी िोती िै ...!”, भे फोरा।
“याि तो ऩरयजस्थनतमों के अनरू ु ऩ िी चन ु नी चाहिए, वत्स”, आचामश फोरे।
“ऩरयजस्थनतमों के अनरू ु ऩ, से आऩका तात्ऩमश? क्मा िभें आसान याि चन ु नी चाहिए?”
~ 84 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “कोई बी भािश आसान निीॊ िोता, ऩुत्र। साभान्मत्
प्रत्मि भािश िी सफसे सिज प्रतीत िोता िै ककन्तु प्रत्मि भािश भें कुछ ऐसी सभस्माएॉ िोती िै जजनकी
अनुबूनत सिी सभम ऩय भनुष्म को िो िी निीॊ ऩाती, रक्ष्म के ननकि ऩिुॊचकय मे ववयाि रूऩ धायण कय रेती िै ।” “तो ऩरयजस्थनत, भािश को कैसे प्रबाववत कयती िै , आचामश?” “ऩरयजस्थनतमाॊ भािश को निीॊ अवऩतु रक्ष्म फेधन को प्रबाववत कयती िै । प्रत्मेक रक्ष्म भें कुछ साभाजजक, आगथक,
र्ायीरयक,
याजनैनतक,
भानससक
एवॊ
आजत्भक तत्व फाधक िोते िे। मात्रा के दौयान िभें साभजजक, आगथशक एवॊ र्ायीरयक कष्िों की अनुबूनत
तो िोती िै ककन्तु भानससक एवॊ आजत्भक तत्वों को याि चमन के सभम निण्म भान रेते िे क्मोंकक मे
भात्र गचॊतन को प्रबाववत कयते िे, िनत को निीॊ।
~ 85 ~
ऱक्ष्यावरणम ् ऩय प्रबाववत गचॊतन का असय मात्रा भें प्रतीत अवश्म िोता िै , चािे रक्ष्म के नजदीक ऩिुॉचने ऩय िी क्मों ना िो।”, आचामश फोरे। “आचामश, वऩतव्ृ म चािते िै कक भे काव्मर्ास्त्र की
अनुसर्िण किाओॊ भें प्रवेर् रूॊ, ननमभानुसाय भुझे ननमसभत ववद्मास्र्थरी जाना चाहिए, जो कक सत्म का
भािश िै ।
ककन्तु
एक
आजत्भक
तत्व
कचोिता िै कक भझ ु े तत्व-फोध भें रूगच िै ।”
भझ ु े
आचामश भस् ु कयाए, “क्मा प्रमाण सर्िा के दौयान बी तम् ु िे तत्वफोध भें रूगच थी?”
“निीॊ आचामश, तफ तो भे कथा-साहित्म भें अव्वर था ...” “महद प्रमाण सर्िा के दौयान तुभ कथा साहित्म भें
असबरुगच यिते थे, तो तुभने ववद्मास्थरी भें कथा साहित्म क्मों निीॊ चन ु ा?”
~ 86 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “क्मोंकक आचामश, प्रमाण सर्िा भें ऩूणश साहित्म ऩढामा जाता था, तफ कथा साहित्म बी सभान
भित्त्व के साथ ससिामा जाता था, अत् भेने फिुतसी फिुत सी कथाओॊ की यचना की औय इससे प्रसन्नता बी सभरी। धीये -धीये प्रमाण सर्िा ऩूयी िोने ऩय भेने कथाएॉ सरिना बी छोड़ हदमा औय कथा साहित्म से असबरुगच बी ववरप्ु त िो िमी।” आचामश
ऩन ु ्
भस् ु कयाए,
“तत्वफोध
तम् ु िायी
एक
जाित इच्छा िै । मे तम् ु िायी प्रकृनत के अनुरूऩ ृ ववकससत िुई अस्थामी आकाॊिा िै । मे आकाॊिाएॊ दो प्रकाय की िो सकती िे, वत्स, दीर्शव्माऩी एवॊ रर्व्ु माऩी। रर्ुव्माऩी आकाॊिाएॉ, अल्ऩ सभम की आवनृ त ऩय,
जाित ृ बी यि सकती िे औय सुप्त बी, इसीसरए मे
रक्ष्म को प्रबाववत निीॊ कय ऩाती। ककन्तु दीर्शव्माऩी
~ 87 ~
ऱक्ष्यावरणम ् आकाॊिा भें सभऩशण बाव ननहित िै । मे सदै व जाित ृ बी िोती िै औय रक्ष्म भें फाधक बी िोती िै ।
प्राणी अऩने रक्ष्म को ऩाने के सरए, प्रनतहदन िजायों इच्छाओॊ
का
सकायात्भक
दभन िोती
कयता िै
तो
िै
उनभे
कुछ
से
कुछ
नकायात्भक।
सकायात्भक काभनाओॊ के िनन ऩय प्रतीत तो मिी िोता िै कक रक्ष्म के आवयणों को िभने ििा हदमा िै ककन्तु मे ऩिर िभाये भानससक एवॊ आजत्भक गचॊतन को इतनी प्रफरता से प्रबाववत कयती िे कक
मे इच्छाओॊ का दभन िी, िभाये रक्ष्म के सभि, सफसे भजफत ू आवयण फन जाता िै । सॊबवत् अफ तम् ु िे अऩने रक्ष्म, आकाॊिा एवॊ भािश के भध्म सभीकयण स्ऩष्ि िो िए िोंिे।”
आचामश अऩना उऩदे र् सभाप्त कय चक ु े थे ककन्तु भे अफ बी ककसी स्थामी ननष्कर्श ऩय निीॊ ऩिुॉच ऩा यिा था।
~ 88 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “भे इस ववर्म ऩय गचॊतन करूॉिा, आचामश”, भेने किा। “ऩय स्भयण यिे , वत्स, इस वम भें अिभ एवॊ िठ की प्रकृनत प्रफर िोती िै , तुभ कोई ननणशम ऩमाशप्त
ऩिरुओ ऩय सोच-ववचायकय िी कयना.... औय िाॉ
कर भिाचामश वासुदेव एक प्रनतमोगिता आमोजजत कयवा यिे िे, तभ ु सजम्भसरत अवश्म िोना। “प्रणाभ आचामश!” आचामश ने िाथ उठाकय ववदा दी।
************
~ 89 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(15) समऩशण
वीय भद ु ा से फातें कयते िुए फिुत दयू ननकर आमा ृ र था। अफ तक उसे अिसास िो िमा था की भद ु ा ृ र वास्तव भें भद ु ा िी िै । वीय के तकशिीन ववचायों को ृ र बी उसने ककतनी सिजता से आत्भसात कय सरमा
था। वीय को रिा कक जैसे भद ु ा का सयर व्मविाय ृ र
व भधयु वाणी उसे भुग्ध ककमे जा यिी िै , ककन्तु उसका अिभ मे भानने को बफरकुर तैमाय निीॊ था
कक वीय एक फासरका के सभि कभजोय ऩड़ िमा ऩय विी उसका अॊतभशन मे बी कि यिा था कक मे कभजोयी का बाव निीॊ अवऩतु ऩुरुर्त्व की र्जक्त एवॊ भजफूती का साक्ष्म िै ।
~ 90 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “तो तुभ अऩने ऩूवज श ों की ऩयॊ ऩया कामभ यि यिे िों?”
“कदावऩ निीॊ, भेये वऩता ने दर्शन सॊकाम इससरए चन ु ा क्मोंकक वो अध्मात्भ ववर्म के सरए सभवऩशत
थे, ककन्तु भेया भन केजन्द्रत निीॊ िै , भुझभे तत्वफोध के सरए सभऩशण बाव निीॊ िै , भे वीय िूॉ, भे सभऩशण कयता निीॊ, अवऩतु सभऩशण कयवाता िूॉ .....|” वीय
ने
रम्फा
अट्ििास
खिरखिराकय िॊ सने रिी।
ककमा,
भद ु ा ृ र
बी
ककन्तु तबी उसे रिा कक वीय के अट्िािस की
प्रनतध्वनन िुई िै । जफ उसने ध्वनन की हदर्ा भें ध्मान से दे िा तो एक ऊॉचा ऩवशत-सा हदिने वारा िफ ू सूयत उद्मान नजय आमा। भद ु ा उत्सुकता से ृ र उस ओय फढ़ी।
“अफ िभें चरना चाहिए, भद ु ा...”, वीय फोरा। ृ र
~ 91 ~
ऱक्ष्यावरणम ् भद ु ा नन्र्ब्द िड़ी यिी। वीय उसके ननकि ऩिुॉच ृ र िमा ऩय उसका ध्मान केवर भद ु ा ऩय िी था। ृ र भद ु ा ने वीय का िाथ ऩकड़ा औय दस ू ये िाथ से एक ृ र ऊॊचाई ऩय सॊकेत ककमा। वीय की नजयें सॊकेत की
हदर्ा भें र्ूभी। उसके भुि से अनामास िी ओि ननकर
िमा।
एक
ऩवशत,
जजस
ऩय
अद्ववतीम
सौन्दमश से ऩरयऩण ू ,श एक अद्बत ु जॊिर ववस्तत ृ था औय उसके सर्िय ऩय, ववर्ारकाम भोिक ऩष्ु ऩ ववयाजभान था। जिाॉ तक ऩवशत ऩय उनकी नजयें जा
सकती थी, विाॊ उन्िें प्रकृनत सम्ऩण श ा का िी ू त ववस्भमबया
साक्ष्म
सभर
यिा
था।
छोिी-छोिी
पुरवारयमाॉ, नन्िीॊ झीरे, ववसबन्न आकृनतमों के वि ृ
औय सफसे ऊऩय, वो ववगचत्र यक्त वणश का ऩुष्ऩ, भादक प्रतीत िोता था।
“भुझे वो ऩुष्ऩ चाहिए, वीय”, भद ु ा फोरी। ृ र
~ 92 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “ककन्तु भद ु ा, अॉधेया नर्य आमा िै , िभें दे य िो यिी ृ र िै ।”, वीय उसकी इस प्रनतकक्रमा ऩय चककत था।
“तो तुभने िाय भान री...”, कठोय फात बी भद ु ा ने ृ र फड़ी भधयु ता से कि दी।
“भेने ऐसा कुछ तो निीॊ किा, तुभ मे सफ क्मों सच यिी िो?”
भद ु ा मथावत िड़ी यिी। ृ र वीय ववजस्भत था, कुछ ऩरों ऩव ू श िी उसने स्वमॊ के सभऩशण निीॊ कयने का प्रभाण हदमा था औय अफ
भद ु ा ऩय उसकी भग्ु धता से प्रेरयत सभऩशण बाव ृ र जाित ृ िो यिा िै ।
“वीय, महद आज िी इस ऩष्ु ऩ को प्राप्त कयने के
सरए भेने प्रमत्न निीॊ ककमा तो भुझे अफ़सोस िोिा, जो कक भुझे ऩसॊद निीॊ िै ।” भद ु ा ने ऩूणश सिजता ृ र
~ 93 ~
ऱक्ष्यावरणम ् से अऩना इयादा स्ऩष्ि कय हदमा। एक ऩर के सरए वीय को रिा, भद ु ा उसकी वीयता को ररकाय यिी ृ र
िै औय इस जस्थनत भें वो कदागचत भना बी निीॊ कय ऩामेिा। भद ु ा स्वमॊ िी उस ऩवशत की हदर्ा भें चर ऩड़ी। ृ र
************
~ 94 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(16) ग्ऱातन
भिाचामश वासुदेव ने सबी अनतगथ आचामों को
ववयाजजत िोने का सॊकेत ककमा। मद्मवऩ प्रनतमोगिमों की सॊख्मा तो फिुत अगधक निीॊ थी, ऩय अऩने-अऩने सॊकामों के सवशकासरक भिानतभ ववद्वानों को दे ि तो मिी रि यिा था कक ननजश्चत रूऩ से मे प्रनतमोगिता असाधायण िी िोिी। आचामश प्रद्मुम्न ने प्रनतमोगिता आयम्ब कयने का आदे र् हदमा।
उच्च-प्रमाणस्थरी के एक सर्िक ने प्रनतमोगिता के कुछ ननमभ सभझाए, “सबी प्रनतमोगिमों को िाद्म
ऩदाथं से बये िुए सभििी के कुछ र्ड़े हदए जामेंिे।
~ 95 ~
ऱक्ष्यावरणम ् इन ऩदाथों को सभराकय आऩको एक सभश्रण फनाना िै । कौनसे िाद्म ऩदाथों को सभराकय कौनसा सभश्रण फनाना िै मिी आऩकी ऩयीिा िोिी।” सबी ववद्माथी ववजस्भत थे, दर्शन ववबाि के इस आमोजन भें िि ृ -ववज्ञान की दिता का ऩयीिण क्मों ककमा जा यिा था? ‘ककन्तु मे सफ तो सॊबवत् िभ ऩयीिा के दौयान जान ऩाएॊिे।’
भे अऩने प्रकोष्ठ भें ऩिुॊचा जिाॉ अनेकों सभििी के र्ड़े यिे िुए थे, रेककन उन र्ड़ों ऩय िाद्म ऩदाथों
के नाभ निीॊ अवऩतु कुछ आॊतरयक एवॊ भानससक तत्वों के नाभ सरिे िुए थे।
उनभें से तीन र्ड़े िारी बी थे जजन ऩय दृढ, ग्रानन एवॊ द्वॊद्व अॊककत था। अफ भुझे आचामश का इयादा रिबि स्ऩष्ि नजय आ
यिा था, वो तत्व-फोध एवॊ दर्शन को िि ृ ववज्ञान की
~ 96 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सभरूऩता से अरॊकृत कयना चािते थे। ननधाशरयत
आवनृ त आयम्ब िोने की र्ोर्णा कयते िी, भेने गचॊतन को केजन्द्रत कयने का प्रमत्न ककमा।
ऩिरा रक्ष्म था ग्रानन, ‘ग्रानन कदावऩ फौद्गधक निीॊ िो सकती, ग्रानन केवर ह्रदम भें िी ऩनऩती िै औय अस्थामी रूऩ से नष्ि बी िो सकती िै । ग्रानन का भर ू कायण, बावनात्भक रूऩ से िरत ननणशम रेना
िी
िोता
िै ।
औय
प्राणी
िरत
ननणशम
साभान्मत् अऩने स्वाथश के सरए िी रेता िै । ऩयन्तु वो स्वाथश आत्भा के द्वाया निीॊ सझ ु ामा जाता
अवऩतु वो तो फद् ु गध प्रदत्त िै । मद्मवऩ जीवन का
केंद्र तो भन िी िै , मिी फद् ु गध को ननमॊबत्रत कयता िै , फुद्गध के प्रत्मेक ननणशम का भूर भन भें िी ववक्षिप्त िै ककन्तु जफ बी फुद्गध ऩय भन ननमॊत्रण कभ
िोता
िै
तो
स्वाथश उत्ऩन्न
िोता
िै ,
मे
नकायात्भक स्वाथश िै । बावनाओॊ के आदे र् ऩय बी
~ 97 ~
ऱक्ष्यावरणम ् स्वाथश की प्रवनृ त ऩनऩती िै , ऩय मे स्वाथश प्राम् सकायात्भक िी िोता िै ।
मद्मवऩ दोर् केवर फुद्गध भें िी निीॊ िोता, बावनाएॉ
बी ववकृत िो सकती िे, दजु ष्वचाय औय दब ु ाशव दोनों
अभ्मास के अनुरूऩ िी ववकससत िोते िे। ककन्तु स्वाथश भूरत् भजस्तष्क भें िी ववकससत िोता िै , महद कोई उस स्वाथश ननहित ननणशम को िरत ठियाता िै तो ननजश्चत रूऩ से आवेर् का जन्भ िोता िै । अत् क्रोध का अॊनतभ ऩरयणाभ बी ग्रानन िी िोता िै । इसके अनतरयक्त प्राणी अकभशण्मता के रूऩ भें बी िरत ननणशम रे सकता िै , स्वमॊ के ऩि भें ननयॊ तय तकश दे ने वारे भनोबाव बी क्रोध व अकभशण्मता के द्मोतक िोते िे।’ मे सभस्त कायण भुझे र्ड़ों ऩय अॊककत नाभों से ज्ञात िो यिे थे। मद्मवऩ इन सफ के अनतरयक्त बी
सत्म, धभश, सॊवेदना, भौन जैसे अनेक नाभाॊककत
~ 98 ~
ऱक्ष्यावरणम ् िाद्म ऩदाथश थे ऩय ग्रानन के कायक के रूऩ भें भेने स्वाथश, क्रोध एवॊ अकभशण्मता को मथोगचत ऩामा।
************
~ 99 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(17) दृढ़ता
कुछ प्रकोष्ठों भें प्रनतमोिी कापी िूढता से गचॊतन कय यिे थे, तो विीॊ कुछ प्रनतमोिी र्ड़ों भें बये
िाद्म ऩदाथों को ऩयीक्षित कय सभश्रण फनाने का प्रमत्न कय यिे थे। भेये सरए अबी दो िारी र्ड़े र्ेर् थे उनभें से एक ऩय अॊककत था दृढ़ता। ‘दृढ़ता तो ववचायों भें बी िो सकती िै औय बावों भें बी। जफ प्राणी अऩनी नकयात्भक बावनाओॊ को दयककनाय कय, केवर एक िी ववर्म ऩय केजन्द्रत िो ननणशम कयता िै तो उसके इस स्वरूऩ को दृढ किा जा सकता िै । अत् ध्मान िी आजत्भक दृढ़ता का भूर कायण िै । भानससक दृढ़ता तो भौन से
~ 100 ~
ऱक्ष्यावरणम ् ववकससत िोती िै औय कुछ बाव बी इसी के कायण दृढ िोते िे।
भौन, तर्थमों के अन्वेर्ण एवॊ ववश्रेर्ण की ववरिण र्जक्त प्रदान कयता िै । उन्िीॊ तर्थमों भें से कोई एक तर्थम प्राणी की दृढ़ता का सािी फनता िै । ननष्ऩॊद ह्रदम एवॊ केजन्द्रत गचॊतन से उत्ऩन्न िुआ ननणशम बी भजफत ू ी की ओय प्रेरयत यिता िै । ककन्तु ककसी एक िी ववर्म ऩय दृढ़ता दर्ाशना तो
एक ऩरयणाभ िै इसका आधाय तो सत्म औय धभश िी िै । सत्म को केंद्र भें यिकय िी, तकश-ववतकों का ववश्रेर्ण ककमा जाता िै , ककन्तु व्मजक्तित रूऩ से कुछ नकायात्भक बाव मा भ्रसभत ववचाय बी, भझ ु े अजस्थय दृढ़ता का कायक प्रतीत िोते िे।
क्रोध प्राणी को कठोय फनाता िै , उसके अन्म बावों को र्ून्म कय दे ता िै , क्रोध भें अननणशम की जस्थनत
~ 101 ~
ऱक्ष्यावरणम ् भें ववचायों व बावों का ऩतन आयम्ब िो जाता िै औय महद कोई ननणशम सरमा जाता िै तो वो दृढ़ता का द्मोतक फनता िै ककन्तु मे दृढ़ता साभान्मत् अस्थामी, ननयथशक एवॊ धभशववरुद्ध िी िोती िै । मद्मवऩ व्माऩक सत्म की ऩायदर्ी खझल्री से आच्छाहदत, मे ‘दृढ़ता’, विाॉ सकायात्भकता एवॊ धभशनीनत की अनयु ागिनी प्रतीत िोती िै । ऩय भेने प्राम् दृढ़ता को नकायात्भक रूऩ भें िी ननयीक्षित ककमा
जाता िै औय भन भें बी उन्िी बावों को अॊककत कय ऩामा िूॉ। इस िेर भें बी भझ ु े द्वॊद्व की जस्थनत से साभना कयना ऩड़ यिा था। ध्मान एवॊ भौन के अनतरयक्त, सत्म एवॊ क्रोध भें से बी कोई एक चन ु ाव था। मद्मवऩ ध्मान एवॊ भौन के आिेऩ भें सत्म िी अनुकूर प्रतीत िोता िै ककन्तु
बावनात्भक रूऩ से, अऩने अनुबव के आधाय ऩय, भे क्रोध को बी नजयअॊदाज निीॊ कय सकता औय तर्थम
~ 102 ~
ऱक्ष्यावरणम ् तो मे िै कक दृढ़ता के कायक के रूऩ भें क्रोध, सत्म की अऩेिा किीॊ अगधक प्रबावर्ारी रिता िै । ‘ऩय सम्बवत् भुझे अनत आत्भववश्वास से फचना चाहिए, िो सकता िै भेये अत्मल्ऩ अनुबव के आधाय ऩय
ननणीत ववकल्ऩ, मथोगचत ना िो, कदागचत ववकल्ऩ तो ऐसा चन ु ना चाहिए, जो आचामश को ऩसॊद आमे औय भे प्रनतमोगिता जीत सकॉू ।’
उरझन भें िी भेने सत्म से अॊककत िाद्म ऩदाथश का र्डा उठाकय ‘दृढ़ता’ के िारी र्ड़े भें डार हदमा।
************
~ 103 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(18) ईर्षयाश
सबी ओय से ननयीिण कयने के फाद वीय ने ऩामा कक ऩवशत ऩय जाने के सरए कोई स्ऩष्ि भािश निीॊ िै , प्रायम्ब भें कुछ छोिे -छोिे ताराफ औय उनके फीच
ऩिडण्डीमाॊ तो जस्थत िे ककन्तु सबी कुछ दयू ी ऩय उरझी िुई प्रतीत िोती िै ।
ताराफों के दस ू ये ककनाये ऩय ऩवशत के चायों ओय पुरवारयमाॊ एवॊ फिीचे िे। सॊबवत् वीय को विीॊ से कोई आिे जाने का भािश सभर सकता िै ।
“ऩिरे िभें उस फिीचे भें ऩिुॊचना चाहिए...”, भद ु ा ृ र उसकी प्रतीिा ककमे बफना स्वत् िी चर ऩड़ी। तबी वीय को ताराफ भें स्ऩॊदन का अिसास िुआ। जफ
~ 104 ~
ऱक्ष्यावरणम ् उसकी हदर्ा भें नजयें र्ुभाई तो दे िा, विाॊ एक नन्िी-सी गचड़ड़मा थी, जो कक ऩानी की सति ऩय
ऩॊि भायकय उड़ने का प्रमास कय यिी थी, ककन्तु उसका एक ऩॊि किा िुआ था औय दस ू या बी र्ामद अफ ऩानी की ऩय प्रिाय कयने के कायण, कुछ जख्भी िो िमा था।
वीय उसकी ओय दौड़ने को िुआ कक भद ु ा ऩरिी, ृ र “क्मा िुआ?” वीय नन्र्ब्द िड़ा यिा। भद ु ा कपय से आिे फढ़ने ृ र
रिी। कदागचत वीय आज कुछ िी ऩरों भें जीवन का सफसे अगधक गचॊतन कय यिा था।
‘क्मा भद ु ा को मे फात ऩसॊद िोिी कक भे उसके ृ र साथ चरने की अऩेिा ताराफ भें र्ामर उस गचड़ड़मा
की भदद करूॉ? निीॊ नायी स्वबाव तो इसका
सभथशक निीॊ िै । इस भद ु ा को अवश्म िी अऩना ृ र रक्ष्म वप्रम िोिा, रक्ष्म का रोब यिने वारे प्राणी
~ 105 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सदै व प्रत्मि भािश िी चन ु ते िे।’ उसके भन भें बी िीज उठी, रिा कक भद ु ा बफना कुछ किे िी उसे ृ र
योक यिी िै । भद ु ा के प्रनत बावनाएॉ, उसकी स्वमॊ ृ र के प्रनत बावनाओॊ ऩय िावी प्रतीत िो यिी िे।
‘ककन्तु भे तो भद ु ा से डयता बी निीॊ िूॉ, ना िी ृ र अऩने ससद्धाॊतों से ववचसरत िुआ िूॉ, मिाॉ तक भद ु ा ने बी कोई अनुऩेक्षित प्रनतकक्रमा निीॊ की, ृ र कपय बी भन उसके प्रनत ईष्माश बाव से आच्छाहदत क्मों िै ? सॊबवत् किुता ना तो भद ु ा की प्रकृनत भें ृ र
िै औय ना िी ऩरयजस्थनत भें अवऩतु मे तो भेये स्वमॊ
के भन भें िै । महद मे भन भद ु ा के प्रनत इतनी ृ र
भधयु ता एवॊ कभनीमता जिा सकता िै , तो उसके प्रनत ईष्माश का अिसास बी कया िी सकता िै ।’
वीय के भन की िीज उसकी भद ु ा के प्रनत ववयोध ृ र की दृढ़ता भें फदर चक ु ी थी। उसे ताराफ की तयप
~ 106 ~
ऱक्ष्यावरणम ् फढ़ते दे ि भद ु ा िॉ सी, “अये , क्मा िो िमा तुम्िे , ृ र तुभ तो वीय िो ना...,”
मद्मवऩ भद ु ा का मे कथन, उसे वो रक्ष्म स्भयण ृ र कयाने के सरए था ककन्तु ईष्माश से ववक्षिप्त वीय के
भन औय भजस्तष्क ने कुछ अन्म िी अथश सभझा, ‘ओि! तो भद ु ा मे किना चािती िै कक भे एक ृ र नन्िी से ऩिी को तडऩते दे ि ववचसरत िो िमा, मे वीयता निीॊ िै । तो क्मा वीय सॊवेदनर्ीर निीॊ िोता?’ वीय के गचॊतन ने भद ु ा की ध्वनन को ऩयावनतशत कय ृ र हदमा था। अफ तो चािकय बी भद ु ा उसे ताराफ भें ृ र उतयने से निीॊ योक सकती थी।
************
~ 107 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(19) समग्रता
उसी ऩॊजक्त भें अॊनतभ रयक्त र्ड़े ऩय भेयी नजय ऩड़ी, ऩय इस ऩय करभ से कुछ सरिा िुआ निीॊ था। इस जस्थनत भें केवर ‘र्ून्म’ िी भजस्तष्क ठिय िमा था। ऩय इससे सम्फॊगधत तो कोई िाद्म ऩदाथश बी विाॊ जस्थत निीॊ था। भेने र्ड़े को ध्मान से दे िा तो रिा कक मे अन्म र्ड़ों की अऩेिा कापी ऩुयाना बी िै । जफ इसे ऩरिकय दे िा तो ‘सभग्र’ कुये दा िुआ नजय आमा।
सभग्रता, ववकास से प्रेरयत िोती िै , औय महद इस जित को आधाय को भानकय फात की जाए तो इस जित
के
इनतिास
एवॊ प्रकृनत की साक्ष्मता
~ 108 ~
के
ऱक्ष्यावरणम ् आधाय
ऩय, भनुष्म
िी
ववकास
का
ऩमाशम
फन
चक ु ा िै । मे ववकास एक िी हदर्ा भें बी िो सकता िै औय फिुिाभी बी, आॊसर्क बी िो सकता िै औय ऩण ू श बी, धभश के अनक ु ू र बी िो सकता िै औय प्रनतकूर बी।
आत्भा व ् फुद्गध, दोनों िी भनुष्म के व्मविाय के आधय ऩय िी ववकससत िोते िे। मद्मवऩ आत्भा का ऩण ू श ववकास असॊबव िै ऩय अऩनी गचॊतन र्जक्त के फर ऩय प्राणी अऩनी फुद्गध को एक केजन्द्रत ववर्म के सरए भजफूत कय सकता िै , जजसे सभग्रता किा जाता िै । सभग्रता धभश-अधभश, सत्म मा असत्म ऩय ननबशय निीॊ िोती। मे तो केवर तिस्थ रूऩ भें प्रफरता की
~ 109 ~
ऱक्ष्यावरणम ् द्मोतक िै , एक िी ननधाशरयत, ववर्म के सरए, चािे उस ववर्म की प्रकृनत कुछ बी िो। मद्मवऩ सभग्रता को फिुिाभी तो निीॊ किा जा सकता ककन्तु एक ववर्म
से
सम्फॊगधत
सबी
ऩिरुओॊ
भें
साभर्थमश
ववकससत कयने सरए मे फिुिाभी बी िो सकती िै । ववर्म भें ननहित तर्थमों के ववश्रेर्ण की ऩन ु यावनृ त भें िी, सभग्रता का भूर बाव ववक्षिप्त िै । अत् अभ्मास िी सभग्रता की नीॊव िै । तर्थमों के अन्वेर्ण के ऩश्चात ् उन ऩय भनन कयना िी अभ्मास की प्रकृनत
िोनी
चाहिए। इस
सम्ऩूणश
असबमान
की
ताकत िै सर्क्त सम्प्रेर्ण। सम्प्रेर्ण
न
केवर
प्राणी
की
भानससकता का ऩरयचामक िै वयन मे तो ववर्म के
~ 110 ~
ऱक्ष्यावरणम ् अभ्मास एवॊ ववश्रेर्ण का बी प्रफर भाध्मभ िै । सभग्रता की औय अग्रसय भनुष्म को अऩने भानससक व्मजक्तत्व
के
ऩयिना िोता िै
िय
उस ऩिरू
जो
की
की
फायीकी
से
ननधाशरयत
ववर्म
से
सम्फॊगधत िै । ववकास का सवशश्रेष्ठ साक्ष्म, सम्प्रेर्ण िी उऩरब्ध कया सकता िै । स्वमॊ के साभर्थमश की अनब ु नू त मा तो सर्क्त सम्प्रेर्ण से िोती िै अथवा कपय जस्थय भौन बाव से। मद्मवऩ दोनों िी तत्त्व प्रकृनत भें एक-दस ु ये से ववऩयीत िे ककन्तु अऩने अऩने िेत्र के आधाय ऩय इनका ऩरयणाभ एक िी िोता िै , अनुबूनत । फद् ु गध के साभर्थमश की अनब ु नू त सम्प्रेर्ण भें िोती िै , विी आत्भा के साभर्थमश की अनुबूनत भौन से िी ननजश्चत की जाती िै ।
~ 111 ~
ऱक्ष्यावरणम ् अत् सम्प्रेर्ण के भाध्मभ के बफना प्राणी अभ्मास औय ववश्रेर्ण भें कभी दि निीॊ िो ऩामेिा औय विीीँ अच्छे सम्प्रेर्ण के सरए ननयॊ तय अभ्मास बी आवश्मक िै । महद
आत्भा
सकायात्भक
रूऩ
भें भजष्तष्क
ऩय
ननमॊत्रण यिती िै तो बी ववचाय तो सुदृढ़ िो जामेंिे ककन्तु सभग्रता केवर सम्प्रेर्ण की र्जक्त से िी सॊबव िै औय सम्प्रेर्ण केवर अभ्मास से। अत् सभग्रता का भूर कायक अभ्मास िी िै । भेने अऩना आखियी सभश्रण अबी तैमाय ककमा िी था कक आचामश का स्वय िज ूॊ ा, “प्रनतमोगिता का सभम सभाप्त िो चक ु ा िै , अफ कोई प्रनतमोिी सभश्रण निीॊ फनामेिा, कोई प्रनतमोिी अऩना प्रकोष्ठ निीॊ छोड़ेिा,
~ 112 ~
ऱक्ष्यावरणम ् अबी ऩयीिक आकय तुभ सबी के सभश्रणों की जाॊच कयें िे।”
************
~ 113 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(20)
सॊवेदना वीय औय भद ु ा ताराफ के उस ओय ऊॊचाई ऩय ृ र
जस्थत उद्मान भें ऩिुॉच िमे थे। ककन्तु मिाॉ बी कोई
आिे फढने का स्ऩष्ि भािश नजय निीॊ आ यिा था। मद्मवऩ ताराफ के उस ऩाय दे िने ऩय तो मे पूरों के फिीचे जैसे प्रतीत िोता था ककन्तु अफ मे
उद्मान एक बमानक जॊिर से ककॊगचत बी कभ निीॊ रि यिा था। भद ु ा कुछ ऩदचाऩों का ऩीछा कयती िुई चर यिी ृ र थी औय वीय अऩने ववचायों भें रीन िो भद ु ा के ृ र ऩीछे आ यिा था। वो अऩनी ऩूवश उत्ऩन्न िीज को बी दफाने का प्रमास कय यिा था, ‘िो सकता िै , भेये
भन भें िी नकायात्भक बावनाएॉ िो, िुण, दोर् तो
~ 114 ~
ऱक्ष्यावरणम ् र्ब्द मा ऩदाथश भें निीॊ िते, मे तो बावों के द्वाया अनुबूनत के अनुरूऩ िोते िे। भद ु ा के र्ब्द भेये ृ र
असाजत्वक बावों के कायण दि ु दामी प्रतीत िुए। भद ु ा उस ऩुष्ऩ के सरए रारची मा स्वाथी निीॊ िै , ृ र वो तो फस एक फच्चे की तयि उसे दे िकय भचर
िमी िै , महद वो इसे प्राप्त निीॊ कय ऩाती िै तो भझ ु े बी ऩीड़ा िोिी, अफ तो भझ ु े बी रक्ष्म ऩय केजन्द्रत िोना चाहिए।’
वीय, भद ु ा के व्मविाय ऩय कपय से आसक्त िुआ ृ र जा यिा था। अचानक भद ु ा ने भड़ ु कय प्रश्नवाचक ृ र दृजष्ि से वीय को दे िा, वीय कायण ऩछ ू ने िी वारा
था कक भद ु ा उसकी नज़यों से एक तयप िि िमी ृ र औय अफ तो मे वीय के सरए बी ववस्भमजनक था। एक छोिा-सा फच्चा, कयीफ चाय सार का, अऩने ऩॊजों के फर िड़े िोकय, आभ के ऩेड़ की ििननमों को ऩकड़ने का प्रमास कय यिा था। सॊबवत् वो
~ 115 ~
ऱक्ष्यावरणम ् आभ तोड़कय िाना चािता था ककन्तु फाय-फाय ववपर िो यिा था।
वीय की अननणशम औय ववस्भम की जस्थनत भें उसे दे िता यिा। अफ वो फच्चा थककय फैठ िमा था। वीय धीभे-धीभे उसके नजदीक ऩिुॊचा, वीय को ननकि आते दे ि वो अऩने एक िाथ से आभों की तयप इर्ाया कय यिा था तो दस ू या िाथ से ऩेि ऩय थऩकी भाय यिा था।
वीय निीॊ जानता था कक इस भद ु ा क्मा भिसस ू ृ र
कय यिी िै , ककन्तु उसके सरए मे ह्रदम-वविर दृश्म था। भद ु ा की चॊचर नजयें उस ववर्ार ऩष्ु ऩ ऩय ृ र जभीॊ िुई थी। वीय का हदर ग्रानन एवॊ सॊवेदना के सभगश्रत बावों से बय आमा। सॊबवत् आज, जफ वो द्वॊद्व भें ननणशम रेना चािता था, सभझ ऩामा था कक गचॊतन प्राणी के सरए ककतनी भित्ता यिता िै ।
~ 116 ~
ऱक्ष्यावरणम ् उसके सभि दो ववकल्ऩ मा तो वो ऩूवनश नसभत्त भािश ऩय भद ु ा के साथ, सभम नष्ि ककमे बफना चर ृ र दे ता, जो कक अननजश्चत था, ना िी उसके िन्तव्म
तक ऩिुॉचाने का कोई साक्ष्म था। ककन्तु प्रत्मि रूऩ से मिी सफसे प्रफर एवॊ भित्त्व के अनुरूऩ ववकल्ऩ था, मा कपय वो उस फच्चे की भदद कय अऩनी
ग्रानन को र्ाॊत कयता औय उसके फाद िी कोई भािश ननधाशरयत कयता। मद्मवऩ उसका िॊतव्म उसका रक्ष्म निीॊ था, क्मोंकक मे तो भद ु ा द्वाया चमननत था िाॉ ऩय इसे, स्वमॊ ृ र को भद ु ा नजय भें ससद्ध कयने के उद्मेश्म से, एक ृ र
उऩरक्ष्म के रूऩ भें दे िा जा सकता था औय कदागचत उऩरक्ष्म तक ऩिुॉचने के सरए चमननत भािश, उसके असबमान के ऩरयणाभ को फिुत अगधक प्रबाववत निीॊ कय ऩामेिा। ककन्तु मिाॉ प्रश्न भन औय भनत के फीच चमन का था। महद वीय अऩनी सॊवेदना के अनुरूऩ भािश चन ु ता िै तो सॊबवत् उन्िें
~ 117 ~
ऱक्ष्यावरणम ् अऩने रक्ष्म के सरए प्रतीिा कयनी ऩड़े, रेककन भद ु ा मे सि निीॊ सकती थी। औय वीय उसकी ृ र
भद ु ता ऩय रुब्ध िोकय, उसकी उस व्मथा को निीॊ ृ र सि ऩामेिा। अथाशत उसकी बावनाओॊ के अनुरूऩ ननणीत भािश िी उसके ह्रदम ऩय प्रिाय कये िा।
दस ू यी ओय महद वो प्रत्मि भािश चन ु ता िै तो उसकी आत्भा ग्रानन के बावों से
प्रच्छे हदत िो जामेिी।
सॊबवत् वीय इस फाय स्वमॊ ननणशम कय, अऩने िी बावों से सॊर्र्श निीॊ कयना चािता था, अत् उसने भद ु ा से ऩयाभर्श कयना िी उगचत सभझा। ृ र
************
~ 118 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(21) ऩररणाम आचामश प्रद्मम् ु न तेज क़दभों से भेये प्रकोष्ठ भें प्रवेर् कय िमे।
आते िी उन्िोंने ‘ग्रानन’ अॊककत र्ड़े को भि से ु रिामा औय तयर आॉिों से भझ ु े सयािा।
“वाि वत्स, इसका स्वाद तो वास्तव भें अद्बत ु िै ।” भेने उत्साि भें दस ू या र्ड़ा, जजस ऩय ‘सभग्र’ कुये दा िुआ था, वो बी उनकी ओय फढ़ा हदमा।
“इसका यसास्वादन तुभ स्वमॊ िी कयो, वत्स, भे उसे
दे िता िूॉ।”, किते िुए आचामश ने तीसया ‘दृढ़ता’ अॊककत र्डा िाथों भें सरमा।
~ 119 ~
ऱक्ष्यावरणम ् भेने ‘सभग्र’ अॊककत र्ड़े की जाॊच की, “आचामश, मे बी स्वाहदष्ि िै ।” “तुभने तो कभार िी कय हदमा, ऩुत्र।” आचामश ने तीसये औय अॊनतभ सभश्रण को जजह्वा से स्ऩर्श ककमा। “मे तो नीयस रि यिा िै , वत्स।” भझ ु े रिा कक र्ामद मे सभश्रण फनाने भें िी िरती िुई िोिी।
तबी आचामश फोरे, “महद तभ ु ने िरती की िोती तो
सभश्रण का स्वाद कडवा िोता, नीयसता का भतरफ तभ ु ने िरती तो निीॊ की ऩय मे सभश्रण फनाते वक्त
तभ ु द्वॊद्व भें अवश्म यिे िोंिे ....”, आचामश भझ ु े रक्ष्म कय फोरे।
~ 120 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “िाॉ आचामश, भे सत्म एवॊ क्रोध के फीच उरझन भें था, भुझे रिा कक दृढ़ता का सवशव्माऩी कायक तो सत्म का भािश िी िै ।”
“मे तो सिी िी िै , कपय तुम्िाया द्वॊद्व ककस कायण?”
“ककन्तु अबी तक का भेया अनुबव मिी किता िै
कक दृढ़ता के सरए, क्रोध, सत्म की अऩेिा किीॊ अगधक प्रबावर्ारी िै । भेयी बावनाएॊ, वववेक से ववरुद्ध क्रोध का कायक के रूऩ सभथशन कय यिीॊ थी। चॉ कू क क्रोध का असय सीधा बावनाओॊ ऩय िी ऩड़ता िै इसीसरए क्रोध को बावनाएॊ िी ज्मादा
अच्छे से ऩिचानती िे। भतरफ आत्भा के इस ननणशम को बी भे नकाय निीॊ सकता था।” “मे तो तुभने अच्छा िी ककमा, वत्स रेककन अिय
तुभ आत्भा के उस ननणशम को भान रेते तो
~ 121 ~
ऱक्ष्यावरणम ् ननजश्चत िी तुभ मे सभश्रण बी स्वाहदष्ि तैमाय कय सकते थे।”
“ऐसा क्मों, आचामश?” “क्मोंकक सत्म तो सदा नीयस िी िोता िै वत्स, सुि तो केवर बावनाएॉ िी दे
सकती िे, चािे
वो
नकायात्भक िो मा सकायात्भक।” “ऩयन्तु आचामश, क्मा सुि िी जीवन की साथशकता िै ?”
“जीवन की साथशकता ना तो सि ु भें िै औय ना िी सत्म भें िै , वत्स। जीवन का ऩमाशम तो कभश िी िै , िभाया भािश िभाया कभशित्र े िै औय
जीवन जीने के
कायण, धभश को ऩरयगचत कयाते िे।” “तो आचामश सत्मानुकूर की अऩेिा, भनोनुकूर को चन ु ना किाॉ साथशकता िै ?”
~ 122 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “भेने मिी तो फतामा िै वत्स, कक जीवन की साथशकता केवर कभश भें िै , अफ िभें ननणशम मे कयना िोता िै कक ककसी बी जस्थनत भें िभाया सत्म कभश को प्रोत्साहित कयता िै मा कभश बावनाओॊ से अगधक प्रेरयत िोता िै । महद भनोनुकूर चन ु ी िमी हदर्ा रक्ष्म के फजाम कभश को अगधक प्रेरयत कयती
िै तो ननजश्चत रूऩ से, एक जस्थय एवॊ दृढ जीवन के सरए विीॊ हदर्ा श्रेष्ठ िै ।” “ऩय आचामश मिाॉ मे सभश्रण....?” “भे तम् ु िायी दवु वधा बी सभझ सकता िूॉ, तभ ु ने सत्म को आधाय फनाकय मे सभश्रण तो फना सरमा ककन्तु
इससे तम् ु िाये भन के आत्भववश्वास को अवश्म ठे स ऩिुॊची, औय भत बूरो वत्स, ककसी बी असबमान के सरए अऩने आत्भववश्वास जैसे साथी का कभजोय िो जाना आऩकी सपरता को सॊहदग्ध फनाता िी िै , साथ भें तुम्िायी याि को बी नीयस फनाता िै । औय
~ 123 ~
ऱक्ष्यावरणम ् एक श्रेष्ठ जीवन यािी बरे िी सपरता की गचॊता निीॊ कयता ऩय मे याि के नीयसता उसे िी सवाशगधक नुकसान ऩिुॊचाती िै ।” मद्मवऩ भे ऩूणश रूऩ से तो आचामश से सिभत निीॊ िो ऩा यिा था रेककन कपय बी सिभनत भें सय हिरा हदमा। आचामश बी भेयी भनोदर्ा सभझ यिे थे अत् उन्िोनें इस ववर्म ऩय भझ ु े गचॊतन कयने की सराि दी औय प्रकोष्ठ से ननकर आमे।
************
~ 124 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(22) अमभवतृ त
वऩछरे कुछ हदनों से वऩतव्ृ म ने याबत्रबोज के दौयान कोई सॊबार्ण निीॊ ककमा था। ऩय आज र्ामद वो बावुकता के चभश ऩय थे। भहदया केवर इॊसान की फुद्गध को िी र्ून्म कय सकती िै ऩय बावनाओॊ को एक तूफ़ान की तयि िदे ड़ती िै । “बई, क्मा िै असबवनृ त, फुद्गध की ऩयि, सोचने के स्तय की जाॊच, तो इसभें फिुत अगधक भेिनत की किाॉ आवश्मकता िै , फस अऩने हदभाि को सिी हदर्ा भें यिो, स्वत् िी ऩाय िो जामेिी ऩयीिा....,”
~ 125 ~
ऱक्ष्यावरणम ् मे सफ एकऩिीम वाताश काव्म असबवनृ त ऩयीिा को रेकय थी जो कक सभाज भें , सवाशगधक प्रनतष्ठा एवॊ आगथशक सुदृढ़ता का, सवशश्रेष्ठ भािश सभझा जाता िै । आगथशक रूऩ से ननफशर एवॊ सभाज से आित, सबी स्वासबभानी ऩरयवाय अऩने फच्चों के सरए इसी प्रकाय के सुिद स्वप्न दे िते िे, जो कक बावनात्भक रूऩ से िरत बी निीॊ िै । महद सभाज ने उन ऩय कोई उऩकाय ककमा िोता, ननस्सॊदेि साभजजक कामों भें रूगच यि सकते िे, ऩयन्तु इस जस्थनत भें बावक ु ता व्मजक्तित रूऩ से, ककसी असिाम की भदद तो कयवा सकती िै , ऩयन्तु सभाज के सरए निीॊ, जो सभाज उन्िें जीवॊत प्रतीत निीॊ िोता। “महद िभें इस प्रकाय को कोई अवसय सभर ऩाता, तो ननजश्चत रूऩ से िभ उन ऊॉचाइमों तक आसानी से ऩिुॉच सकते थे, जिाॉ ऩिुॉचने का तुभ भात्र स्वप्न
~ 126 ~
ऱक्ष्यावरणम ् तक दे ि सकते िो, ऩय आज की प्रनतस्ऩधाश को दे िते िुए तो फिुत भुजश्कर िै ।” सॊबवत् भ्राता अफ बी, ध्मान से उन्िें सुन यिे थे। ककन्तु भेया ध्मान विाॉ से ििकय वीय के अदृश्म िोने की सूचना ऩय आकृष्ि िो िमा था। मे वास्तव भें भेयी असबवनृ त की ऩयीिा थी, ‘महद भेया सभत्र ककसी सॊकि भें िै तो भेया क्मा कतशव्म िोना चाहिए? वीय के भ्राता बी ककतने ऩये र्ान हदि यिे थे आज, ऩयन्तु मे वीय िमा बी किाॉ िोिा, ऐसा तो िो निीॊ सकता कक वो ककसी चीज की िोज भें ननकर िमा िो, िाॉ महद उसने कुछ भनभोिक दे िा िो तो उसका ऩीछा अवश्म कय सकता िै । ऩयन्तु उसके साथ-साथ भद ु ा का बी कोई ऩता निीॊ िै , ृ र सॊबव िै वो दोनों साथ िी िो, भझ ु े इस फाये भें र्ीघ्र
~ 127 ~
ऱक्ष्यावरणम ् िी छात्रों से सॊऩकश कयना िोिा, साथ भें आचामश प्रद्मुम्न से बी सभरना चाहिए। ऩय क्मा भुझे उन्िें िोजने जाना चाहिए, निीॊ..., वऩतव्ृ म आज्ञा निीॊ दे िे, ऩय उन्िें बफना फतामे बी तो जा सकता िूॉ,...तो क्मा भे वऩतव्ृ म से झूठ फोरने जा यिा िूॉ, क्मा अगधकाय िै भुझ,े वऩतव्ृ म को अॉधेये भें यिने का?’ “बाई, इतना कहठन बी निीॊ िै , फस ननयॊ तय अभ्मास की आवश्मकता िै ।” वऩतव्ृ म अबी बी भ्राता से फातें कय यिे थे। ऩय भे कपय से अऩने उरझे िुए प्रश्नों के सभुद्र भें डूफने रिा।
’
************ ~ 128 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(23) सवशमान्य
“भे तो प्राम् सत्म का भािश िी चन ु ना ऩसॊद कयती िूॉ। ककन्तु सत्म की ऩरयबार्ा ऩरयजस्थनतमों के अनुरूऩ स्वमॊ तम निीॊ कयती अवऩतु इनतिासफद्ध रूऩ से ननधाशरयत सवशभान्म सत्म को िी स्वीकायती िूॉ। क्मोंकक भेया भानना िै कक िभ, ऩरयजस्थनतमों के फिाने, सत्म की ऩरयबार्ा भें ऩरयवतशन कय कुछ ऐसे ननयथशक कृत्म कय दे ते िे, जजनका झुकाव असत्म की तयप िोता िै । औय इस वक्त मिाॉ मे फच्चा, इसकी सिामता कयना धभश िै ककन्तु मे अवयोध के रूऩ भें केवर एक भ्रभ
~ 129 ~
ऱक्ष्यावरणम ् बी िो सकता िै । िाॉ मे तो सत्म के अनुरूऩ िी िै कक इसकी सिामता कयनी चाहिए, ककन्तु मे सत्म तुम्िायी सॊवेदना से प्रेरयत िै । अवऩतु सवशभान्म सत्म तो मि िै कक भजु श्कर रक्ष्म की ओय अग्रसय प्राणी को याि भें भामा के भोिऩार् भें फॊधने से फचना चाहिए। ववर्ेर्त् तफ, जफ सभम की अत्मॊत कभी िो।” “ककन्तु भद ु ा, क्मा िभ सत्म के आिेऩ भें , अऩने ृ र धभश को िी बूर जामेंिे ?” “भे तो धभश की अऩेिा सत्म को अगधक भित्त्व दे ती िूॉ। क्मोंकक धभश अननजश्चत िोता िै , बावों औय ववचायों से उत्ऩन्न िोता िै औय ऩरयवतशन की अवस्था भें यिता िै , ऩय सत्म तो ननजश्चत एवॊ सवशभान्म िोता िै ।”
~ 130 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “ऩय मे बी तो आवश्मक निीॊ िै ना, कक जो सवशभान्म िै , विी सत्म िो?” “िो सकता िै , ऩय महद िभ प्रत्मेक ववर्म ऩय इसी प्रकाय गचॊतन कयें िे तो दनु नमा भ्रभजार रिने रिेिी, िभ जीने का ववश्वास तक िो दें िे। भुझे ज्ञात एक फाय भेये वऩतव्ृ म ने भुझे इसी तयि िय तर्थम को अवरोककत कयने को किा था ,औय जफ भेने ििनता से सोचा तो जीवन ननस्साय रिने रिा था। अत् भे तर्थमों को सिजता से स्वीकायने भें िी ववश्वास कयती िूॉ।” “ऩयन्तु क्मा मे कायण ऩमाशप्त िै , इतना फड़ा ननणशम कयने के सरए .....|” “भे कायणों को बी उतनी िी सिजता से स्वीकाय कय रेती िूॉ।”
~ 131 ~
ऱक्ष्यावरणम ् मद्मवऩ मे वाताश अफ उस फच्चे के ऩास िड़े यिकय निीॊ िो यिी थी, जो कक वीय चािता था। फातों-फातों भें िी उन्िोंने कापी दयू ी तम कय री थी, वो आभ का ऩेड़ बी अफ तो रिबि एक ऩौधे के सभान िी हदि यिा था। वीय ने अफ र्ाॊत यिना िी उगचत सभझा, `एक औय जिाॉ वो अऩनी ‘भदभस्त वीय’ की छवव को त्माि गचॊतनर्ीर फन फैठा, विीॊ मे भद ु ा अऩने ननयथशक ृ र तकों से अफ तक स्वमॊ को फिरा यिी िै । औय वो फच्चा...., वो आभ बी इतनी ऊॉचाई ऩय िै कक इसे राने भें वक्त तो रिेिा िी। ऩय मे बी क्मा सोचने रिा वो, वो फच्चा तो ककतनी ऩीछे यि िमा, महद इस वाताश भें ननष्कर्शत् वो भद ु ा से जीत बी जाता, ृ र तो बी भद ु ा की िी जीत िोती।’ ृ र
~ 132 ~
ऱक्ष्यावरणम ् उसकी िनत को धीभे ऩड़ते दे ि भद ु ा ने िाथ ृ र ऩकड़कय थोडा फर रिामा। वीय चािकय बी ववयोध निीॊ कय ऩामा। हदनबय चरते िुए वीय का भन, ना जाने ककतने िी द्वन्द्वों औय नकायात्भक बावों से ववस्पारयत िुआ था। याबत्र के प्रथभ प्रिय भें वे रिबि उस ऩुष्ऩ के कदभो भें थे। ऩय अफ यास्ता छोिा िोने के साथ-साथ अत्मॊत भजु श्कर बी िो िमा था। मद्मवऩ इसका धयातर तो इतना ववर्भ निीॊ था ऩय चढ़ाई अफ अगधक सीधी िो िमी थी। ऩैय यिने के प्रमास बय भें िी कपसर जाता था। दस ू यी ओय अिय मिाॉ ऩकड़ने के सरए कोई ऩेड़=ऩौधे बे निीॊ थे ताकक अऩने आऩ को गियने से तो फचा सकें।
~ 133 ~
ऱक्ष्यावरणम ् वीय स्वमॊ को उस फच्चे की सिामता ना कय ऩाने के सरए गधक्काय यिा था, ‘इस रक्ष्म के ननकि जो आनॊद आ यिा िै , उससे किीॊ ज्मादा तो जॊिर भें र्भ ू कय िी आ यिा था। ऩय भेने भद ु ा से याम िी ृ र क्मों री, क्मा भे उसे आिाि ककमे बफना मे उस आभ के वि ऩय निीॊ चढ़ सकता था? कपय भे ृ भद ु ा की फात भानने वारा तो था निीॊ औय ना िी ृ र भेने स्वीकाय की, तो उससे ववभर्श कयने की क्मा आवश्मकता थी? चरो कय बी सरमा ऩय अऩने कभश ऩय केजन्द्रत िोने की अऩेिा अऩने ववचायों ऩय केजन्द्रत क्मों िुआ? क्मा भद ु ा के सभि अऩने ऩि ृ र को सिी प्रभाखणत कयना आवश्मक था?’ तबी अचानक वीय का ऩैय एक िोराकाय ऩत्थय ऩय यिा िमा। अऩने िनत की हदर्ा भें ऩैय तो उसके आवत्त ृ भें र्ूभ िमा ऩय वीय का र्यीय नीचे की ओय
~ 134 ~
ऱक्ष्यावरणम ् झुकता चरा िमा। ऩरबय भें वीय के ऩैयों के नीचे कोई धयातर निीॊ था, ढरान के साथ अऩने िी आवेि भें गियना आयम्ब िो िमा था। भद ु ा उससे ृ र कुछ कदभ ऩीछे चर यिी थी, वीय को गियते दे ि, उसका िाथ ऩकड़कय योकना चािा, ऩय वीय की िनत इतनी अगधक थी कक भद ु ा बी उसी के वेि भें ृ र झिके के साथ गियने रिी। मद्मवऩ इस भािश भें ऩत्थय नुकीरे िोने अऩेिा िोराकाय थे इसीसरए इतनी अगधक चोिें तो निीॊ आई। ऩय सभस्मा मे थी उन्िोंने जजस स्थान से चढना प्रायम्ब ककमा था उनका वेि उस हदर्ा भें बफरकुर निीॊ था अवऩतु वो एक िियी िाई की तयप फढ़ यिे थे। िाई भें प्रवेर् कयते िी वीय को जीवन से कोई आर्ा निीॊ यिी थी। वो भद ु ा ऩय आवेसर्त िुआ जा ृ र
~ 135 ~
ऱक्ष्यावरणम ् यिा था। भद ु ा बी ऩिरी फाय, ऩुष्ऩ से ध्मान ृ र ििाकय जीवन की ओय आकृष्ि िुई थी। एक तो िुपा भें अॊधकाय कापी ज्मादा था, दस ू यी बीर्ण आवेि औय बम के कायण वीय के आॉिें निीॊ िर ु ऩा यिी थी।
************
~ 136 ~
ऱक्ष्यावरणम ् (24)
भ्रम
वीय के अदृश्म िोने के फाद, आज तीसया हदन था। रेककन उसका किीॊ कुछ ऩता निीॊ चरा। कुछ छात्रों के अनस ु ाय वीय औय भद ु ा दोनों साथ भ्रभण कयते ृ र िुए दे िे िमे थे। वीय के वऩतव्ृ म औय भ्राता उसे िोजने का सम्ऩूणश प्रमास कय यिे थे, ऩय भद ु ा के ृ र ऩरयवायजनों की ओय से अबी कोई प्रनतकक्रमा निीॊ थी। आचामश कृदॊ त की किा सभाप्त िोते िी भे आचामश प्रद्मुभन के ऩास ऩिुॉच िमा। सॊबवत् अफ विी एक थे, जो इस सभस्मा को सुरझा सकते थे।
~ 137 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “तो वीय औय भद ु ा दोनों साथ थे?” ृ र “िाॉ आचामश, कुछ छात्रों का मिी किना िै ...” “क्मा उन्िें कोई अनुभान िै ककस हदर्ा भें िमे थे वे?” “मे तो ननजश्चत रूऩ से कोई बी निीॊ कि सकता ऩय, र्ामद वो सर हग्क्रीदा दे िने िमे थे।” आचामश कुछ दे य िॊबीय भुद्रा भें सोचते यिे कपय फोरे, “वत्स, भािश के ववर्म भें तुभ क्मा सोचते िो?” भे चककत था, ‘अकस्भात ् िी आचामश ने ववर्म क्मों फदर हदमा? ऩय वे कबी ननयथशक तो िो िी निीॊ सकते, उस ववर्म से इस र्िना का कोई सम्फन्ध अवश्म िोिा।’
~ 138 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “फस मिी कक जीवन भें कोई बी असबमान इतना सयर, स्ऩष्ि मा प्रत्मि निीॊ िोता कक उसे ऩण ू श कयने के सरए केवर एक िी रक्ष्म औय एक िी भािश िो। ककसी बी रक्ष्म तक ऩिुॉचने के सरए फिुत से आिाभी भािों को रक्ष्मों को िॊतव्म सभझकय चरना ऩड़ता िै । इस ऩरयजस्थनत भें इच्छाओॊ औय रक्ष्म के भध्म द्वॊद्व ननजश्चत िै ।” अफ आचामश स्वत् िो फोरने रिे, “रक्ष्म को ऩाकय तुम्िें कुछ ऩरों के सरए प्रसन्नता तो सभर सकती िै रेककन जीवन निीॊ, क्मोंकक जीवन का एक फिुत छोिा बाि िी रक्ष्म का साक्ष्म फनता िै , सम्ऩण ू श जीवन तो अऩने भािश ऩय मा अऩने कभश-िेत्र ऩय व्मतीत िोता िै । जीवन का अिसास जीने से िोना चाहिए वत्स, ऩाने से निीॊ, औय महद कुछ ऩाने
~ 139 ~
ऱक्ष्यावरणम ् जीवन ऩूणश रिता िै तो इसका तात्ऩमश मे िै कक वो रक्ष्म मा चीज सत्म निीॊ भ्रभ िै । जीवन की ऩूणत श ा भािश भें िी िै , वत्स, सुि तो भािश भें िी िै , इच्छाएॉ बी िोती िे, दृढ़ता बी िोती िै , द्वॊद्व बी िोता िै , इनसे साभना कयने भें बी भन को प्रसन्नता सभरती िै ।” कदागचत भे अबी सभझ निीॊ ऩामा था कक आचामश किना क्मा चािते िे? थोडा रूककय कपय भुस्काते िुए फोरे, “मिाॉ से दक्षिण हदर्ा भें , कयीफ चाय भीर दयू , प्रकृनत की अद्बुत रीरा तुम्िायी प्रतीिा कय यिी िै , ऩुत्र। वो अद्ववतीम भादक दृश्म केवर कुछ िी प्राखणमों को जीवन भें दे िने को सभरता िै । वो ऐनतिाससक िै , विाॊ रक्ष्म औय भािश भें कोई अॊतय निीॊ िै , वो भन औय भजस्तष्क का ऩयीिक िै । विाॊ
~ 140 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सत्म बी िै औय भ्रभ बी िै , सुि बी िै औय भामा बी।” आचामश ने भुझे स्ऩष्ि सॊकेत दे हदए थे। “तो आचामश, क्मा वीय-भद ु ा के अदृश्म िोने का ृ र याज, उसी प्राकृनतक रीरा भें ववक्षिप्त िै ?” आचामश सिभनत भें भुस्कया हदए। “आचामश आऩ भद ु ा को जानते िे?” ृ र “निीॊ भे भद ु ा से तो निीॊ सभरा ऩय उनके वऩतव्ृ म ृ र औय भातव्ृ म को अवश्म जानता िूॉ, िभ सफ साथ िी दर्शन सॊकाम भें थे, जफ ववद्मास्थरी भें ऩढ़ते थे।” “औय िाॉ, भै मे बी जानना चािता िूॉ, आचामश कक भद ु ा के वऩतव्ृ म ने उन्िें िोजने का प्रमास क्मों ृ र निीॊ ककमा?”
~ 141 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “उसके वऩतव्ृ म, अध्मात्भ िुरु िे वत्स। औय उसकी भाता ने बी अध्मात्भ सर्िा ग्रिण की िै । वे केवर बाग्म औय ऩुरुर्ाथश को भानते िे। उन्िें रिता िै कक भद ु ा को अऩना कभश कयना चाहिए महद उसके ृ र बाग्म भें िुआ कक वो जीववत यिे िी तो अवश्म िी जीववत यिे िी। ईश्वय उन्िें जीवन दे ना चािे िा, तो उन्िें याि बी हदिामेिा मा कपय उन्िें स्वत् िी ढूॊढनी िोिी।” “क्मा मे सिी िै ?” “इसभें सिी औय िरत का प्रश्न िी किाॉ िै , ऩुत्र, वो अऩने ससद्धाॊतों ऩय अड़डि िे, अऩना कतशव्म ननबा यिें िे, मिी धभश िै , मिी सत्म िै ।” “तो सॊबवत् इसके सरए प्रकृनत ने भुझे चन ु ा िै ...”
~ 142 ~
ऱक्ष्यावरणम ् भेने बी उऩिास कयना चािा। “सपर िोवो, वत्स।”
************
~ 143 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(25) मऩॊदन
जॊिर भें चरते िुए, हदन का दस ू या प्रिय आयम्ब िो चक ु ा था। महद वऩतव्ृ म को ज्ञात िोता कक भे वीय को िोजने जॊिर भें जा यिा िूॉ, तो सम्बवत् वे कबी स्वीकृनत निीॊ दे ते।
उनके अनुसाय भे प्रात: भें , अनुसर्िण किाओ के
सरए िी र्य से ननकरा था। अिय भुझे अऩना कामश ऩूया कयने भें ववरम्फ िो िमा, तो वऩत्रव्म फैचन े िोकय धैमश त्माि दें िे, कपय कोई बी उनके आवेर्
की चऩेि भें आ सकता िै । ककन्तु इसके सरए बी भेने भ्राता को अच्छी तयि सभझा हदमा था की उन्िें
वऩतव्ृ म से भेये र्ैिखणक भ्रभण ऩय जाने का जजक्र
कयना िै । अफ महद भे यात तक र्य निीॊ ऩिुचता िूॉ
~ 144 ~
ऱक्ष्यावरणम ् तो भ्राता वऩत्रव्म को भना िी रें िे कक भुझे वाऩस आने भें एक-दो हदन का वक्त रि सकता िे।
मद्मवऩ भें प्रत्मि रूऩ से वऩतव्ृ म को झूि िी फोर
यिा था, ऩयन्तु मे धभशववरुध बफरकुर निीॊ था। धभश एवॊ बावो के अनुरूऩ झूठ को बी भे ववर्र् भित्त्व दे ता िूॉ।
भेयी थकान से अिसास िो यिा था कक भे आचामश द्वाया कगथत चाय भीर की दयु ी तम कय चक ू ा िूॉ। अफ ऩेड़ बी ववर्ारकाम िोते जा यिे थे। तबी एक हदर्ा भें से िरचर की कोई धजव्न िुई, औय र्ामद मे ध्वनन जर की थी। ननकि जा कय दे िा तो मे ववस्भम से कभ निीॊ था। इतने र्ोय जॊिर भें कुछ छोिे -छोिे ताराफ फने िुए थे। उनके फीच से कुछ ऩिडण्डीमाॊ ऊॉचाई की ओय फढ़ यिी िे। जफ भेयी नजयें ऩिडण्डीमो के साथ
ऊऩय उठी तो रिा कक भे जैसे स्तब्धता से र्ून्म िो
~ 145 ~
ऱक्ष्यावरणम ् िमा िूॉ। मे एक ऩवशत था, प्रकृनत से ऩरयऩूणश औय उसकी चोिी ऩय एक अनोिा व सुन्दय ववर्ारकाम ऩुष्ऩ, जो कक भत ृ -सभ प्राणी को बी आकवर्शत कय सकता था।
अफ ना केवर भुझे आचामश के कथन स्ऩष्ि िोने रिे थे, अवऩतु भद ु ा औय वीय का यिस्म बी स्ऩष्ि ृ र
िो िमा था। ननजश्चत रूऩ से भद ु ा उस ऩष्ु ऩ के ृ र सरए भचर िमी िोिी, वीय को इस तयि की चीजों भें ववर्ेर् रूगच निीॊ थी। आचामश ने जजस तयि से इस स्थान का वणशन ककमा था, मे उससे बी किीॊ अगधक भनोयभ था। ऩवशत ऩय जस्थत
झयने,
पूरों
के
फाग़,
ऩर्ु-ऩिी,
झीरें,
चभकते ऩत्थय, छोिे से फड़े तक सबी िये -बये ऩेड़ जीवन का अिसास कयाते िे। महद उस सवोच्च ऩुष्ऩ को रक्ष्म भान सरमा जाए तो वास्तव भें भािश औय रक्ष्म दोनों एक-दस ू ये से फढ़कय िे।
~ 146 ~
ऱक्ष्यावरणम ् ताराफ भें एक फाय कपय स्ऩॊदन िुआ, ककन्तु मे स्ऩॊदन इस फाय भेये कानों ऩय निीॊ अवऩतु हदर ऩय झॊकाय कयने रिा। अफ विाॊ प्रत्मेक प्राणी औय वि ृ ों की ध्वनन, अद्ववतीम दृश्मों को कैद कयने वारी नजयें , भन को स्ऩॊहदत ककमे जा यिी थी। ताराफ भें कुछ भछसरमों उछर-कूद कय यिी थी ऩय र्ामद वो कुछ फेचन ै थी, ऐसा रिता था जैसे उन्िें
ऩानी से नपयत िो िमी, ससपश िवा भें साॊस रेना चािती िे। विीॊ एक भछरी तो अफ उछर बी निीॊ ऩा यिी थी, फस तडऩती िुई सति ऩय िी रेिी ऩड़ी थी। फिुत सॊबव िै मे ऩानी जियीरा िो, साभान्मत्
ताराफ भें जियीरा ऩानी तो िोता निीॊ िै , िाॉ ऩय इस जॊिर भें ककसी ऩौधे ऩय जियीरे फीज अवश्म िो सकते िे जो कक ऩानी भें गियने के फाद इसे जियीरा फना दें । सॊख्मा भें मे भछसरमाॉ कापी ज्मादा थी, महद भे इन्िें फचाने का प्रमास कयता िूॉ, तो मिाॉ उऩमोि ककमा एक-एक ऩर भ्राता ऩय
~ 147 ~
ऱक्ष्यावरणम ् वऩतव्ृ म के तकों के रूऩ भें बायी ऩड़ सकता िै । आचामश ने किा था, मिाॉ सत्म बी िै औय भ्रभ बी।
औय नीनत मे किती िै , एक दयू स्थ रक्ष्म के सरए भािश भें प्राम् भ्रसभत कयने वारी र्िनाएॉ िी िोती
िै । महद भे इन भछसरमों को निीॊ फचाता िूॉ तो वाऩस रौिने तक मे भत सभरें िी। ककतना ृ
ऩीड़ादामक सभम िोिा मे इनके सरए जफ इनका जीवनदाता, इनका सॊयिक जर िी इनका दश्ु भन फना फैठा िै ?
भछसरमों की व्मथा की अनब ु नू त कय ऐसा रि यिा था कक उनके सरए भन भें एक उऩकाय का बाव
जाित ृ िो यिा िै । ऩास िी भें एक जस्थय औय स्वच्छ ताराफ था, सबी भछसरमों को भेने उसी भें
स्थानाॊतरयत कयने की मोजना फनामी। एक भत ृ भछरी को जियीरे ताराफ भें छोड़ना बी उगचत
रिा ताकक कोई अन्म प्राणी इसे दे िकय सावधान िो जामे।
~ 148 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सफकुछ मोजना के अनुरूऩ िोने के फाद भे उस ऩिडण्डी से िोता िुआ, ऊॊचाई की ओय फढ़ यिा था। हदन का तीसया प्रिय आयम्ब िोने वारा था।
कयीफ आधी दयू ी तम कयने के फाद अिसास िुआ कक साभने से एक भीठी-सी भिक आ यिी िै , ककतनी भादक िर् ु फु थी मे। मद्मवऩ ताराफ के उस
ऩाय ककनायों ऩय फड़े ऩेड़ों के झयु भि ु थे, औय उनसे मिी रि यिा था कक मिाॉ जॊिर िी यिा िोिा। ऩय
िो सकता िै कक कोई अनोिे पूरों का उद्मान विाॊ ऩय िो।
मे सि ु ॊध इतनी स्ऩष्ि तो निीॊ थी ऩय ननजश्चत रूऩ
से ऐसी ववगचत्र सि ु ॊध का ऩिरे भेने कबी आबास निीॊ ककमा था।
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~ 149 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(26) प्रयत्न ननयॊ तय तीसये हदन वीय औय भद ु ा जरऩान औय ृ र फेय के सिाये जी यिे थे। उस िोराकाय िाई भें
र्ूभते िुए, उन्िोंने रिबि उस ऩवशत की ऩरयक्रभा कय री थी। चकूॊ क प्रकृनत के प्रनतकूर, मे िाई फािय के वातावयण की अऩेिा अगधक ठॊ डी थी। इस ग्रीष्भ ऋतु भें मे एक कायक बी उनके जीवन के ऩि भें
था। वीय अफ भद ु ा से फिुत कभ फातें कय यिा था ृ र सॊबवत् उसे रि यिा था की ‘भद ु ा का गचॊतन ृ र सॊकीणश िै महद भें इस ववर्म भें वाताश आयम्ब कयता बी िूॉ तो भद ु ा िभायी सभस्मा की जड़ तक ऩिुॉचने ृ र के फजामे उद्दे श्म से ववभुि िो जामेिी।’ वीय की मे भानससकता वऩछरे कुछ हदनों से ननयॊ तय गचॊतन औय ववचायों के अभ्मास के कायण, ववकससत
~ 150 ~
ऱक्ष्यावरणम ् िुई थी, अन्मथा वो बी एक कभ सोचने वारा भदभस्त प्राणी था। विीॊ फीते सभम, अऩनी बावनाओॊ के फीच सॊर्र्श के सर्काय फने वीय के भन भें अज केवर इच्छा र्जक्त का एक बाव र्ेर् था, मिी बाव भजष्तष्क को बी सकक्रम यि यिा था। ऩय भजष्तष्क बी प्रमत्न के अनतरयक्त ककसी ववचाय को उद्िारयत निीॊ कय ऩा यिा था। मद्मवऩ वीय औय भद ु ा ने प्रमत्न तो फिुत ककमा था ऩय उनकी ृ र उम्भीद का प्रत्मेक कायण नष्ि िुए जा यिा था। वीय ने दे िा, भद ु ा थकान से सस् ु ता यिी िै । ृ र ऩय उसका भजस्तष्क अबी बी सकक्रम था, ‘आज सभझ ऩामा, िीता भें कभश का उऩदे र् क्मों हदमा िमा था? कभश का प्रबाव ऩरयस्थनतमों ऩय ननबशय कयता िै । मिाॉ उरझने से ऩिरे भुझे कभश इतना वप्रम था, औय अफ तो केवर पर की िी इच्छा
जाित ृ िो यिी िै, कभश ननस्साय रि यिा िै । अफ तो
~ 151 ~
ऱक्ष्यावरणम ् प्रमत्न िी एक ववकल्ऩ फचा िै वो बी पर के सरए कभश के सरए निीॊ। ककन्तु प्रमत्न बी तो एक कभश िी िै मिाॉ तक की मे तो असाधायण कभश िै , कपय
बी जफ कोई साभर्थमशिीन भनुष्म कभश कयता िै औय उसे सपरता निीॊ सभरती, तो रोि उसे अकभशण्म क्मों सभझते िै ? प्रमत्न उत्साि के बाव से बी उत्ऩन्न िो सकता िै , वववर्ता के बाव से बी औय इच्छार्जक्त के कायण बी। सफसे कठोय तो इच्छार्जक्त के कायण उत्ऩन्न िुआ प्रमत्न िी िोता िै , विीॊ वववर्ता के बाव से ककमा िमा कभश, अकभश के सभान िै । जफ चीॊिी ऩिरी मा दस ू यी फाय दीवाय ऩय दाना रेके चदती िै
तो उसभे उत्साि िोता िै , वो उत्साि से उत्ऩन्न प्रमत्न की सािी िोती िै । ऩय धीये धीये उसका उत्साि इच्छार्जक्त भें ऩरयवनतशत िो जाता िै , औय अॊत भें वो अऩने िॊतव्म ऩय ऩिुॉच िी जाती िै । महद कामश असाधायण रूऩ से कहठन िो तो इच्छार्जक्त
~ 152 ~
ऱक्ष्यावरणम ् से ककमा िमा प्रमत्न िी, अॊत भें साथशक प्रतीत िोता िै ।’ भद ु ा ने आॉिें भॉद ू री थी, सॊबवत: उसे नीॊद आ ृ र
िमी िोिी। वीय अऩनी फची-कुची र्जक्त जुिाकय ऩुन् कोई भािश िोजने के प्रमत्न भें जुि िमा।
************
~ 153 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(27)
ऱक्ष्य उऩेिा के ववऩयीत, ताराफ के उस ओय कोई उद्मान निीॊ था, औय जो ऩेड़ थे वे बी ऩूणत श ् िये -बये निीॊ
थे, ऩय िाॉ उनऩय कुछ अनोिे पर अवश्म रदे िुए थे। ककन्तु वो सुिॊध इन परों से निीॊ अवऩतु िॊतव्म भािश की हदर्ा से िी आ यिी थी। ऐसा रि यिा था
जैसे कक वो भझ ु े आभॊबत्रत बी कय यिी िै औय भािश बी हदिा यिी िै ।
कदागचत मे जॊिर एक सत्म िै औय वो भिक फस एक भ्रभ। इस भे ककतनी िी फाय अवरोककत कय चक ू ा िूॉ, रक्ष्म की ओय रे जाने वारी याि सत्म के अनरू ु ऩ तो िो सकती िै , ऩय कठोय िोती िै, विीॊ
~ 154 ~
ऱक्ष्यावरणम ् उसकी जीवन्तता का अिसास कयाने के सरए कुछ भ्राभक तत्व अवश्म उऩरब्ध यिते िे।
भेये प्रत्मेक कदभ के साथ वो भिक तीव्रतय िोती जा यिी थी, साथ िी मे पूरो से, स्वाहदष्ि व्मॊजकों की भिक भें ऩरयवनतशत िुई सी रि यिी थी।
कुछ िी सभम भें वो यिस्म साभने था, दयअसर मे
िर् ु फु भोदकों की थी। अफ भािश दो सभान्तय िप ु ाओॊ के रूऩ भें फॊि िमा था, उनभे से िी एक िप ु ा से भोदकों की िर् ु फू आ यिी थी।
हदन का चौथा प्रिय आयम्ब िो चक ू ा था, ऩय अबी तक भेने कुछ निीॊ िामा था, ऊऩय से वप्रमतभ भोदक तो भन का ववचसरत िोना ननजश्चत था।
ककन्तु भछसरमों की सिामता के सरए ऩिरे िी कापी सभम नष्ि िो चूका था औय अफ तो वो ऩुष्ऩ बी स्ऩष्ित् नजय निीॊ आ यिा था।
~ 155 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सच िी किा था आचामश ने, ‘रक्ष्म तो एक भ्रभ िी िै , छरावा िै , कुछ ऩर नजय आता िै तो ऩरों भें
िी दृजष्ि से ओझर बी िो जाता िै औय जफ प्राणी उसे िाससर कय रेता िै तो बी आवश्मक निीॊ िै कक मे उसे प्रसन्नता मा सॊतुजष्ि प्रदान कये , तष्ृ णा को बी फढ़ा सकता िै । महद रक्ष्म ऩूणत श ् सत्म िोता तो उसको िाससर कयने का ऩरयणाभ मा अिसास सबी के सरए एक सभान िोता। सत्म तो बावनाएॉ िोती िे, साजत्वक इच्छाएॉ िोती िे जो कक फीच याि भें बी जाित ृ िो सकती िै । क्रोध का बाव ब्रह्भाण्ड के
सभस्त जीवों को क्रोध का िी अिसास कयाता िै , उत्कर्श का बाव सबी को प्रसन्न िी यिता िै । इन बावों से उहदत सत्म बी प्राम् रक्ष्म के भ्रभ के सभि कभजोय ऩड जाता िै । ककन्तु इसका तात्ऩमश मे निीॊ िै कक रक्ष्म को जीवन भें भ्रभ सभझकय भित्त्व िी निीॊ हदमा जाए। बरे िी रक्ष्म सत्म निीॊ िो ककन्तु धभश के तो अनुकूर िो िी सकता िै । महद
~ 156 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सभाज भें सत्म का अजस्तत्व ितये भें िो तो ऐसी जस्थनत भें जीने के सरए धभशऩूणश भ्रभ बी दवू र्त
सत्म से अगधक भित्वऩूणश िै । रक्ष्म तो जीवन का
एक आधाय िै । ककन्तु जीवन का भूर केंद्र भन िै , जीने की अनुबूनत रक्ष्म भें निीॊ, बावो भें िै । तबी तो आचामश ने भािश को रक्ष्म की अऩेिा अगधक साथशक एवॊ सन् ु दय फतामा।’ सत्म औय भ्रभ के फीच उरझन भें िी भे ना जाने कफ भोदकों वारी िप ु ा भें चरने रिा था। िप ु ा भें
िी जफ मात्रा कयते िुए एक प्रिय फीत चक ू ा था, इसका अॊधकाय ननयॊ तय कभ िोने रिा, साथ िी भोदकों की िर् ु फु बी तीव्रतय िोने रिी। चॉ कू क िप ु ा
भें चढ़ाई ऩिरे की अऩेिा कभ थी, इससरए ननयॊ तय एक प्रिय मात्रा कयने के फाद बी थकान का अनुबव निीॊ िुआ था।
~ 157 ~
ऱक्ष्यावरणम ् धीये -धीये उजारा इतना फढ़ िमा था कक भे आसानी से एक औय ववस्भमजनक ववर्म को दे ि, इसका सािी फन सकता था। चाय भध्मभ आमु के ऩुरुर्, ककसी ववर्म ऩय र्ास्त्र चचाश कय यिे थे। उनके चेियों से स्ऩष्ि रूऩ से मिी रि यिा था कक वे सबी भिान नीनतज्ञ मा दार्शननक िे। चकॊू क वो सबी िभउर ह निीॊ थे, औय विीॊ एक वद् ृ ध बी विीॊ उनके फिर भें फैठकय स्वमॊ की िी
कल्ऩनाओॊ भें िोमा िुआ था। उन सफके फीच भें एक भोदकों से आह्राहदत थार यिा था। ककन्तु अफ भन भोदकों की अऩेिा दर्शन की ओय अगधक आकृष्ि िो यिा था। सॊबवत् वो जीवन-दर्शन भें
सॊर्र्श ववर्म ऩय फिस कय यिे थे। भेने बी कोई भािश
ननकारने
के
प्रमास
भें
उनकी
सजम्भसरत िोने का ननणशम ककमा।
************ ~ 158 ~
वाताश
भें
ऱक्ष्यावरणम ्
(28) सॊघषश
“ऩय मे बी तो आवश्मक निीॊ िै ना कक सॊर्र्श का अनुबव केवर ऩीड़ादामक िी िो, मे तो सुिद बी िो सकता िै ।”, भे फोरा।
“ऩय िभने तो ऐसे ककसी तर्थम को अवरोककत िी निीॊ ककमा जजसभे सॊर्र्श िी उत्कर्श का ववर्म फना िो।” “भे तो प्रनतहदन इसका अनुबव कयता िूॉ। जफ प्रात् उठने से ऩूव,श एक-एक िण की नीॊद के सरए अऩनेआऩ से सॊर्र्श कयता िूॉ। मे सॊर्र्श भुझे आनॊद िी प्रदान कयता िै ।”
~ 159 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “भान रेते िे मे सॊर्र्श सुिद िो सकता िै । ऩय तुभ इससे ससद्ध क्मा कयना चािते िो?”
“तुम्िाये अनुसाय जजस बाव की अनुबूनत दि ु द िोती िै उसका ऩरयणाभ सकायात्भक िी िोता िै । तो अिय
सॊर्र्श की अनुबूनत दि ु द निीॊ िोती िै , तो इसका ऩरयणाभ बी नकायात्भक िो सकता िै । इससरए महद अऩने ससद्धाॊतों भें सॊर्र्श को सजम्भसरत कयना िै तो सॊर्र्श की प्रकृनत को जाॊच रेना चाहिए।” “तभ ु तो कापी भेधावी प्रतीत िोते िो, फच्चे ! ऩय तभ िो कौन?”, सॊबवत् उन्िें अबी िी ऩरयचम ु
ऩछ ू ने अवसय सभरा था, ऩय वो वद् ृ ध दार्शननक फायफाय भेया ननयीिण अवश्म कय यिे थे।
“भेया नाभ सजस्भत िै , भे अऩने सभत्रों की िोज भें इधय आमा था।”
~ 160 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “सभत्रों को िोजने?”, उनभे से ककसी को बी ववश्वास िी निीॊ िुआ कक इस ऩवशत ऩय कोई प्रकृनत के आकर्शण के अनतरयक्त ककसी औय प्रमोजन से बी आ सकता िै । “तो क्मा तुम्िाये सभत्र इस िुपा भें अदृश्म िे?” “निीॊ, भुझे मिी भािश उगचत रिा।” “तो क्मा तभ ु उस ववर्ारकाम ऩष्ु ऩ के सरए निीॊ आमे िो?”, उनभे से एक कुछ ज्मादा िी उत्सुक था।
“भझ ु े निीॊ ऩता, भेये सभत्र इस ऩवशत ऩय किाॉ िोंिे,
ऩय सम्बवत् उनके िोने का याज उसी ऩष्ु ऩ के आस-ऩास िो।”
“र्य वाऩस रौि जाओ ऩुत्र, तुम्िाये सभत्र मिाॉ बी सकुर्र िी यिें िे।”
~ 161 ~
ऱक्ष्यावरणम ् भे उनकी इस प्रनतकक्रमा ऩय स्तब्ध था। तबी वो वद् ृ ध दार्शननक धीये -धीये भेये ननकि आमा औय कॊधे
ऩय िाथ यिकय फोरा, “तुभ अऩने रक्ष्म तक अवश्म ऩिुॉच सकते िो वत्स, आओ फैठो।”
वद् ृ ध ने फोरना आयम्ब ककमा, “कुछ वर्ों ऩिरे िभाये प्रदे र् भें एक अपवाि फ़ैर िमी थी कक जॊिर
भें दक्षिण हदर्ा भें एक ऩवशत के सर्िय ऩय फिुभूल्म िजाना नछऩा िुआ िै , उस िजाने की यिा एक ववर्ारकाम ऩष्ु ऩ के द्वाया की जाती िै । उस सभम
कुछ रोि र्यवारों के तानों से दि ु ी िो, मिाॉ उसी ऩष्ु ऩ को ऩाने आमे थे ककन्तु असपर यिे । उनभे से
कुछ स्वेच्छा से मिाॉ उरझे यिे तो कुछ चािकय अऩने आऩ को प्रकृनत के ऩार् से छूिा निीॊ ऩाए। मे
रोि बी इसी िुपा भें सभरे, ऩय इन्िोंने वाऩस जाने का भािश तरार्ना िी छोड़ हदमा। क्मोंकक विाॊ इनके
सरए कुछ बी कभशमोि र्ेर् निीॊ था। अत् मे चायों मिीॊ फैठकय अऩने अनब ु व फाॊिने रिे। धीये -धीये
~ 162 ~
ऱक्ष्यावरणम ् इनका गचॊतन प्रकृनत से ििकय दर्शन ऩय जस्थय िोने रिा, क्मोंकक मिाॉ की प्रकृनत बी दर्शन के अनुकूर
िी िै । प्रनतहदन अभ्मास औय वाताशओॊ से कुछ िी सभम भें मे ननऩुण नीनतज्ञ व दार्शननक फन िए।
मिाॉ प्रकृनत के आिोर् भें प्राणी की आवश्मकता से
किीॊ अगधक ववद्मभान िै । आजकर मे रोि सप्ताि भें केवर दो हदन ववद्मास्थरी भें दर्शन सॊकाम के ववर्मों भें व्माख्मान दे ते िे औय र्ेर् सभम मिीॊ ऩय र्ास्त्राथश कयते िे। मद्मवऩ अफ तो मे रोि उस ऩष्ु ऩ
तक ऩिुॉचने का भािश बी जानते िै ककन्तु इन्िोने अऩना आत्भनक ु ू र भािश िी चन ु ा। अऩनी श्रेष्ठता ससद्ध कयना िी इनका रक्ष्म था, इसे मे उस ऩुष्ऩ
तक ऩिुॊचकय, िजाना राकय बी प्राप्त कय सकते थे, ऩय इन्िोने अऩने हदर्ा एवॊ रक्ष्म, दोनों के सरए, ‘भनोनुकूर कभश’ को िी चन ु ा। ऩय तुभ नेक काभ के उद्मेश्म से मिाॉ आमे िो, तुभ उस ऩुष्ऩ तक ऩिुॉच सकते िो।”
~ 163 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “क्मा मे सत्म िै कक विाॊ कोई िजाना िै ?” “वर्ों ऩिरे रोि, मिाॉ जजस प्रकाय के िजाने की फात कयते थे, वैसा कुछ तो मिाॉ निीॊ िै । ऩय इस ऩवशत ऩय व्माप्त मे ऩूणश प्रकृनत बी एक िजाना िी तो िै , सभझ निीॊ आता भनुष्म एक तुच्छ सी वस्तु
के सरए सत्म की सुन्दयता को कैसे नजयअॊदाज कय दे ता िै ?”
“ऩय धन बी तो एक ऩरु ु र्ाथश िी िै ?” “िाॉ, धन भनष्ु म के चाय ऩरु ु र्ाथों भें से एक िै ऩय
इस तयि अधभश से िाससर की िमी कोई बी वस्तु
ऩरु ु र्ाथश िो िी निीॊ सकती। क्मोंकक प्रकृनत से ववद्रोि बी अधभश िी िै ।”
“भे सिभत िूॉ श्रीभान, क्मा आऩ बी उस ऩुष्ऩ तक ऩिुॉचने का कोई तयीका जानते िे?”
~ 164 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “ककसी बी असॊबव रक्ष्म को दो िी तयीकों से प्राप्त ककमा जा सकता िै फच्चे, मा तो ऩूणश रूऩ से अऩने बावों को वर् भें यिकय सत्म के भािश ऩय फढ़ते
यिे , अथवा ऩूणत श ् बावनाओॊ के आवेि भें फिते िुए तुभ स्वत् िी रक्ष्म तक ऩिुॉच जाओिे, ऩय वो रक्ष्म विी िोिा जजस हदर्ा भें तुम्िायी बावनाएॉ थी ना कक ऩव ू श ननधाशरयत।
तीसयी जस्थनत की फात की जाए तो, महद तम् ु िाया भन दृढ निीॊ िै औय कपय बी आऩ अऩने बावों के ववरुद्ध जा यिे िे तो ग्रानन एवॊ असॊतोर् का बाव प्रकि िोिा जो कक रक्ष्म के सरए फाधक अवश्म फनेिा। मे जड़ें दे ि यिे िो, वत्स?” िुपा की दीवायों से सिती कुछ ऩतरी जड़ें थी,
सॊबवत् िुपा के ऊऩय कोई वि ृ िो सकता िै , ऩय
इतनी िियाई तो ससपश उन्िीॊ वि ृ ों की जड़ों भें िोती िै , जजन्िें ऩमाशप्त जर निीॊ सभर ऩाता, ऩय मिाॉ तक
~ 165 ~
ऱक्ष्यावरणम ् की मात्रा भें तो कोई इस प्रकाय के मा कॊिीरे ऩेड़ तो भेने दे िे िी निीॊ। “मे तुम्िाये रक्ष्म का भूर िै , सर्िय तुम्िे स्वमॊ िी ढूॊढना िोिा.....।”
वद् ृ ध वाऩस धीये -धीये अऩने स्थान ऩय चरा िमा।
************
~ 166 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(39) वष ृ ब
वर् ृ फ वि ृ की जड़ें, फिुत अगधक भजफूत तो निीॊ थी, ऩय वत्त ु ये को सिाया ृ ाकाय र्ेयों के रूऩ भें एक दस दे कय, उस ववर्ारकाम ऩुष्ऩ को सॊबारे िुए थी। ऩयस्ऩय उरझी, जिाओॊ की तयि हदिने वारी जड़ों के कायण िी, इसे सॊबवत् उस वद् ृ ध ने सर्व का
रूऩ फतामा था, इसका नाभ बी इसी कायण वर् ृ फ यिा िमा िोिा।
मे वत्त ृ ाकाय छल्रे केवर इतने िी फड़े थे कक भेया
र्यीय उनभें आसानी से हिर-डुर सके, इसी का राब उठाकय भेये िाथ-ऩैय उन रताओॊ–सी कोभर जड़ों ऩय उरझते िुए र्यीय को ऊऩय की तयप धकेर यिे थे। मद्मवऩ इनका रचीराऩन इतना अगधक था कक
~ 167 ~
ऱक्ष्यावरणम ् कबी-कबी तो भेये वजन से िी िूिती-सी रि यिी थी, ऩय मे भािश भन के द्वाया चमननत िे, भेयी
इच्छाओॊ के अनुकूर था, भनोनुकूर भािश महद धभश
के अनुकूर िो तो प्राणी के र्यीय को इतना तो सिभ फना िी दे ता िै कक उसे र्ायीरयक ऩीड़ा की अनब ु नू त ककॊगचतबय िी िो ऩाती िै ।
सम ू श के उजारे के अिसास से रिा कक सॊबवत् अफ िॊतव्म ऩय ऩिुॉच िमा िूॉ। भेया अनभ ु ान सिी था, मे ववर्ारकाम ऩष्ु ऩ केवर एक अकेरा ऩुष्ऩ निीॊ था,
अवऩतु सिस्रों रताओॊ के सभरूऩी ऩष्ु ऩों से सभरकय
फना था। साथ िी इसके चायों ओय कुछ काॊिेदाय रताएॉ बी थी।
मद्मवऩ ऊऩय की ओय अगधक उरझे िुई ऩतरी र्ािाओॊ औय रचीरे काॉिों के फीच से ननकरने भें भुजश्कर अवश्म िुई ऩय वो प्रसन्नता उससे किीॊ
~ 168 ~
ऱक्ष्यावरणम ् अगधक प्रफर थी जफ भे उस अद्बुत सािात वर् ृ फ रुऩी ऩुष्ऩ के ऩास िड़ा था, उसे छू सकता था।
भे मिाॉ वीय की िोज के साथ-साथ इस यिस्म का बी ऩता रिाने आमा था, वो तो भेने ककमा ऩय भुख्म रक्ष्म अबी दयू था। मे अनुभान रिाना फेिद भुजश्कर था कक वीय ककतनी ऊॊचाई औय ककस हदर्ा भें िोिा।
अननणशम की जस्थनत भें , ऩष्ु ऩ की एक ऩत्ती तोडनी
चािी ऩय वो ऩत्ती इतनी भजफत ू थी कक इसने ना केवर र्ायीरयक अवऩतु भानससक फर को बी सकक्रम
कय हदमा। अनामास िी भेने उस ऩत्ती से जड ु ी ऩतरी ििनी को सम्ऩण ू श फर से िीॊच डारा। फर इतना अगधक था की भे अऩने िी आवेि भें ऩीछे गिय ऩड़ा
औय ना केवर गिया, ऩवशत की ढरान के साथ नीचे की ओय कपसरता बी जा यिा था। वो ििनी एक ऩूयी फेर को साथ भें रेकय, िाथ के साथ खिॊची
~ 169 ~
ऱक्ष्यावरणम ् चरी आ यिी थी। फचाव के सरए उस फेर को ऩकड़ने के अनतरयक्त कोई ववकल्ऩ निीॊ था। ऩय अफ ऩवशत से नीचे रुढकने की यफ़्ताय दो िन ु ी िो िमी थी, र्यीय के कुछ अॊि ऩत्थयों से चोि िाकय र्ामर िो चक ु े थे, ऩय प्रकृनत से ऩरयऩूणश इस ऩवशत ऩय अबी तक कोई ववकल्ऩ नजय निीॊ आमा।
अचानक ढरान बफरकुर सीधी िो िमी औय भे ऩेड़ से िूिे पर की तयि ननववशयोध नीचे गियने रिा, मद्मवऩ वो फेर अबी बी भेये िाथ भें िी थी, ऩय
इस र्िना का आज मिीॊ ऩय अॊत निीॊ था ऩवशत की सति को ऩाय कय भेया र्यीय एक िियी िाई भें प्रवेर् कय िमा, इस ऩवशत ऩय इतनी ववस्भमबयी चीजे दे िने के फाद मे इतना ववगचत्र निीॊ रिा कक मिाॉ िियी िाइमाॉ बी िो सकती िे । भेया सय ऩत्थय से िकयाने वारा िी था कक अचानक वो फेर भजफत िो िमी, ‘ओि, तो मे प्रकृनत की रीरा थी, महद भेया अनुभान सिी िै तो वीय औय भद ु ा बी मिीॊ ृ र
~ 170 ~
ऱक्ष्यावरणम ् इस िाई भें पसें िोंिे। ऩय अफ कदागचत कोई सभस्मा निीॊ िोिी, क्मॊकक इस फेर के सिाये िभ ऊऩय तक ऩिुॉच सकते िे।’ हदनबय की थकान औय ऩत्थयों से वऩिाई के फाद सॊबवत् भे उसी सभम उन्िें ढूॉढने निीॊ जा सकता था, वैसे बी मे िाई बी ववगचत्र िी थी। इसके अन्दय
बी विीॊ प्रकृनत की सन् ु दयता थी जो की फािय ऩवशत ऩय थी। सोचते-सोचते भे नीॊद के आिोर् भें सभाॊ चक ु ा था। “सजस्भत...!, उठो सजस्भत।”, वीय के िजशना के साथ भेयी तन्द्रा िूिी। “तभ ु रोि मिाॉ...?”, मद्मवऩ उन्िें इसी िाई भें दे ि
कोई ववर्ेर् आश्चमश तो निीॊ िुआ ऩय कपय बी भेने ऩूछ िी सरमा।
~ 171 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “िाॉ िभ बी, कपसरकय िाई भें गिय िए थे, वऩछरे तीन प्रिय से इसभें चायों ओय र्ूभकय कोई भािश िोजने का प्रमास िी यिे थे कक एक भोिी सी फेर
रिकती हदिाई दी जफ ऩास आकय दे िा तो मिाॉ तुभ थे...” “ऩय तुभ रोि फच कैसे िमे?” “िाई के बफरकुर ितश भें कुछ ऩौधों औय रताओॊ
झयु भि ु था, फिुत अगधक िेत्र भें तो निीॊ ऩय मे ऩौधे आऩस भें इतने अगधक उरझे िुए औय ऊॊचाई इस ऩमाशप्त थी कक िभें उनऩय गियने कोई िॊबीय चोि निीॊ आमी।” भद ु ा फोरती चरी िमी। ृ र वीय उसकी फात फीच भें िी कािकय फोरा, “अफ िभें चरना चाहिए।”
********** ~ 172 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(30) सत्य मद्मवऩ भिाचामश कादम्फी की काव्म अनुसर्िण किाओॊ भें ,
भुझे कोई ववर्ेर् रूगच तो निीॊ थी। ऩय रक्ष्म एवॊ आजत्भक
सभीकयणों
को
दे िते
िुए मिी भािश सवाशगधक अनुकूर रिा, इसके अनतरयक्त भे प्राम् आचामश प्रद्मुम्न का व्माख्मान बी सुनने चरा जामा
कयता िूॉ, अवऩतु अनुसर्िण किाओॊ भें िी ननमसभत निीॊ आ ऩाता। ऩय महद भानससक, बौनतक, आजत्भक सबी कायक सजम्भसरत ककमे जाएॉ, तो इस भािश से भुझे कोई ववर्ेर् िानन बी निीॊ िुई। सत्म के अनुरूऩ चरते िुए भे ववद्मास्र्थरी की अगधकृत किाओॊ भें ननयॊ तयता के साथ, भे काव्मअसबवनृ त ऩयीिा के सरए साभर्थमश स्तय िाससर कय
~ 173 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सकता था, ऩय वो भािश भन भें द्वॊद्व उत्ऩन्न कय, ग्रानन को अॊकुरयत कय दे ता जो कक रक्ष्म के सरए फाधक िो सकता था। विीॊ प्रत्मि रूऩ से अनुसर्िण
किाएॉ स्ऩष्ित् रक्ष्मदर्शन कयवा सकती थी। ककन्तु तत्वफोध को अऩनी दै ननकता भें सजम्भसरत ना कयने का ऩश्चाताऩ भन को आॊतरयक सॊर्र्श के सरए वववर्
कय
दे ता।
औय
रक्ष्मदर्शन
को
तो
भे
आवश्मक बी निीॊ भानता था, ऩय वऩतव्ृ म की आदर्शवाहदता
औय
ऩरयश्रभ
का
सदऩ ु मोि
बी
आवश्मक था, इसीसरए केवर अनसु र्िण किाओॊ ऩय ससभि जाना बी उगचत निीॊ था औय केवर तत्वफोध बी सजस्भतत्व को प्रोत्साहित कय निीॊ सकता था। भिाचामश कादम्फी स्वमॊ द्वाया यगचत ककसी कृनत ऩय
व्माख्मान दे यिे थे। वीय ने उस अववस्भयणीम वर् ृ फ मात्रा के उऩयाॊत फिुत अगधक वाताश निीॊ की थी, क्मोंकक वो तत्वफोध की किाओॊ भें िी ननमसभत
~ 174 ~
ऱक्ष्यावरणम ् जाने रिा था। ऩय आज भेये साथ काव्मर्ास्त्र की किा भें बी आमा था, सॊबवत् भद ु ा के सरए, ऩय ृ र वो भद ु ा से बी फातें निीॊ कय यिा था। ृ र
“सजस्भत, उस हदन भे मे तो ऩूछ िी निीॊ ऩामा कक तुम्िाये वऩतव्ृ म ने तुम्िे जॊिर आने की इजाजत कैसे दे दी?”, वीय धीभे से फोरा।
“भेने उनसे किा कक भे एक र्ैिखणक भ्रभण ऩय जाने वारा िूॉ।” “क्मा? अथाशत तभ ु ने अऩने वऩतव्ृ म से सभर्थमा वचन ककमा?”, भद ु ा अचानक ऩीछे भड़ ु कय फोरी। ृ र
“िाॉ, ऩय इसभें िरत क्मा िै ? मे तो अच्छा िी ककमा ना..!”
~ 175 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “भानती िूॉ इस कृत्म का ऩरयणाभ अच्छा था ऩय कामश आयम्ब कयने से ऩूवश अऩने भातव्ृ म एवॊ वऩतव्ृ म के प्रनत सत्मऩूणश आचयण तो िोना चाहिए।”
“िाॉ भेया आचयण तो सिी िी था, भद ु ा, अऩनी ृ र
बावनाओॊ भें तूफ़ान का भे स्वाित कयता िूॉ, ककन्तु वऩतव्ृ म के बावों को यॊ चभात्र ठे स बी निीॊ ऩिुॊचा सकता।” “तो तभ ु रोि मे सत्म बी निीॊ स्वीकायोिे कक तभ ु ने वऩतव्ृ म को झठ ू फोरा?”
“सत्म केवर स्वीकायने के सरए निीॊ िोता भद ु ा, ृ र
अवऩतु सत्म तो सॊर्ोधन मा ऩरयवतशन के सरए िोता िै । अधभशऩण ू श सत्म का धभशऩण ू श सत्म भें ऩरयवतशन, अन्धकाय के सच से प्रकार् का सच, असाभर्थमश के
सत्म से प्रमत्न का सत्म, भत्ृ मु के सत्म से जीजजववर्ा का सत्म, असॊबव से प्रेयणा, मे सबी
~ 176 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सत्म के सॊर्ोधन एवॊ व्मजक्तत्व को प्रफर फनाने के आधाय िे। जीवन भें , सत्म को केवर स्वीकाय कयते चरे जाना अकभशण्मता एवॊ ननयार्ा को जन्भ दे ता िै । मद्मवऩ सत्म भें सॊर्ोधन कयने की अऩेिा, इसको स्वीकाय कयना अगधक भुजश्कर िै । ककन्तु स्वीकृत सत्म आऩके ववकास के सरए तबी उत्तयदामी िो सकता िै
जफ मे सकायात्भक िो, इसभें प्रेयणा का बाव ववक्षिप्त िो। िाॉ मे सत्म िै कक भेने वऩतव्ृ म से सभर्थमा वचन ककमा, ऩय भेने इसे स्वीकाय कयने की अऩेिा
सॊर्ोगधत कय अऩने भन औय भजस्तष्क भें सॊश्रेवर्त ककमा। क्मोंकक सत्म मे बी िै कक भेये इस कृत्म से
ना तो वऩतव्ृ म की आत्भा आित िुई औय ना िी भेयी स्वमॊ की।”
~ 177 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “क्मा आऩ र्ाॊनत से फैठेंिे, वत्स सजस्भत...”, आचामश कादम्फी कापी दे य से भुझे अवरोककत कय यिे थे। जफ वो थोडा व्मस्त िो िमे भे कपय से फोरने रिा, “आत्भा भें ब्रह्भ का अॊर् इससरए फतामा जाता िै क्मोंकक मे प्राणी की भानससकता से भुक्त िै , इसे
िरत एवॊ सिी दोनों का आबास स्वत् िी िो जाता िै । िाॉ ऩय कुछ अन्म बावनाएॉ महद ननष्ऩिता के इस बाव ऩय िावी िो जाती िे तो आत्भा ननणाशमक
निीॊ िो सकती। रेककन कोई बी कृत्म तफ तक
िरत निीॊ िोता जफ तक कक एक सॊतसु रत एवॊ ननष्ऩि आत्भा उसकी िरती का प्रभाण निीॊ दे सके।” मद्मवऩ भद ु ा ने इन फातों भें कोई ववर्ेर् रूगच ृ र
निीॊ हदिाई, इसीसरए व तकश-ववतकश कयने की अऩेिा भौन िी यिी। ऩय वीय, सॊबवत् एक-एक र्ब्द ऩय ववचाय कय यिा था।
~ 178 ~
ऱक्ष्यावरणम ् भिाचामश कादम्फी ने बी अऩना व्माख्मान ऩूया कय, किा के सभाप्त िोने का सॊकेत ककमा।
************
~ 179 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
(31) आवरण वऩछरे कुछ हदनों से भुझे इसी ऩर की प्रतीिा थी, आचामश प्रद्मुम्न
का
आवास,
साभने
एक
आसन
ऩय
तत्वफोध के सवशश्रेष्ठ ज्ञाता आचामश प्रद्मुम्न औय
दस ू ये आसन ऩय ववद्मास्थरी के कृता व बायतवर्श के सवशश्रेष्ठ दार्शननक भिाचामश वासुदेव ववयाजभान थे।
आज भे स्वमॊ िी मिाॉ निीॊ आमा था अवऩतु आचामश द्वाया आभॊबत्रत ककमा िमा था। वर् ृ फ ऩवशत की मात्रा के फाद मे उनसे ऩिरी वाताश थी, साथ िी
आज तो भिाचामश वासुदेव से सभरने का बी अवसय
सभर िमा था, ‘ऩय भिाचामश मिाॉ..., जिाॉ तक भझ ु े
~ 180 ~
ऱक्ष्यावरणम ् ज्ञात िै भिाचामश वासु, बफना ककसी ववर्ेर् कायण के तो किीॊ ऩय उऩजस्थत निीॊ िो सकते।’
“तुभ इन्िें तो जानते िी िो ना, वत्स...”, आचामश प्रद्मुम्न ने भिाचामश की ओय सॊकेत ककमा। “प्रणाभ, आचामश !” “ववजमी िो वत्स..!” ‘इस आर्ीवाशद का क्मा अथश िो सकता िै , भिाचामश ककस सन्दबश भें इस प्रकाय का आर्ीवाशद दे यिे िे...?’ “क्मा
सोचने
रिे,
सजस्भत?”,
फोरे।
आचामश प्रद्मम् ु न
“आचामश भझ ु े उस ऩवशत के फाये भें कुछ फातें कयनी थी।”
~ 181 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “... इसीसरए तो तुम्िे मिाॉ आभॊबत्रत ककमा िमा िै ।” “क्मा इस मात्रा भें , तम् ु िे प्रकृनत के सौन्दमश का
आबास िुआ, वत्स?”, भिाचामश वासुदेव अनामास िी फोरे। “ननजश्चत रूऩ से, आचामश, ऩय इस मात्रा भें केवर प्रकृनत िी ववध्वॊसक थी।” “प्रत्मेक हदर्ा भें ववध्वॊसक तो प्रकृनत िी िोती िै , ऩत्र ु । प्राणी कबी ववध्वॊसक निीॊ िोता, उसकी प्रकृनत
उसे ववनार्कायी कृत्मों के सरए प्रेरयत कयती िै । रेककन तम् ु िें ज्ञात िो, वर् ृ फ ऩवशत ऩय यिक बी प्रकृनत िी थी।”
“िाॉ भझ ु े माद िै , आचामश, िभ सफ इसी कायण विाॉ जीववत यि ऩाए थे।”
~ 182 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “महद प्राणी ककॊगचत बय बी भनन कये तो उसे उसकी प्रकृनत के प्रत्मेक ऩाऩाॊर् का प्रनतकाय कयने के सरए उगचत तत्व उऩरब्ध िो सकता िै । उसकी प्रकृनत िी, उसकी यिक फन सकती िै ।” “ऩय आचामश उस ऩवशत ऩय सत्म बी िै , औय भामा बी, आश्रम बी िै औय ववनार् बी। कपय बी विाॊ ववनार् दृजष्ििोचय क्मों निीॊ िोता? विाॊ केवर आश्रम िी क्मों नजय आता िै ?” “सॊबवत् उस ऩवशत की प्रकृनत ककसी जीवॊत भिात्भा
से जड ु ी िै ...”, आचामश प्रद्मम् ु न एक आवेि भें फोर िमे। ‘एक
जीवॊत
आत्भा,
ऩय
कौन,
वो
ऩवशत
तो
दार्शननकता की सवशश्रेष्ठ धयोिय िै , ककतना कुछ सीिा
विाॊ
जाने
वारे
प्रत्मेक
भनुष्म
ने,
वो
जीवॊतात्भा अवश्म िी ककसी श्रेष्ठ दार्शननक की िोिी। किीॊ वो भिाचामश वासुदेव तो निीॊ ...|’
~ 183 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “तुभ उगचत िी सोच यिे िो, वत्स, वो ऩवशत िजायों
सार ऩुयाना िै , उसऩय िभेर्ा से िी प्रकृनत ने अऩना
ऩूणश रूऩ प्रदसर्शत ककमा िै । ऩय उसे भासभशकता के इस स्तय ऩय राना, भेये आचामश के कायण सॊबव िो
ऩामा िै । वे दर्शन-र्ास्त्र के ववस्तत ृ प्रवचन निीॊ दे ते थे अवऩतु प्रामोगिक रूऩ से सभझाते थे, उन्िोंने उस ऩवशत को भेये सरए ऩयीिाकि औय कभशिेत्र की तयि
यिा था। उस ऩवशत ने भझ ु ,े फिुत कुछ ससिामा िै , वत्स। ऩय तभ ु फताओ तभ ु ने अऩने जीवन के सरए इस वर् ृ फ मात्रा से क्मा सीिा?”
“जीवन के सरम, आचामश? ...असबवनृ त ऩयीिा, जजसे
भे अऩना रक्ष्म भानता था, वो रक्ष्म निीॊ अवऩतु एक भािश िी िै , ऩय केवर उसी भािश ऩय चरकय,
वऩतव्ृ म के प्रनत अऩना सभऩशण बाव प्रभाखणत कयना िी, अफ भेया रक्ष्म िै । अत् असबवनृ त ऩयीिा के
~ 184 ~
ऱक्ष्यावरणम ् सरए स्वमॊ का साभर्थमश ववकससत कयना बी अफ भेये कभशिेत्र भें सभाहित िोिा।” “वत्स, भे बी फिुत हदनों से तुम्िे एक प्रश्न ऩूछना चाि यिा था, भे जानना चािता िूॉ की तुभने ‘सजस्भतत्व’ ऩय गचॊतन ककमा मा निीॊ?”
“िाॉ आचामश, भेने सजस्भत व्मजक्तत्व ऩय गचन्तन ककमा िै । औय महद सॊवेदना से प्रेरयत तत्वों को छोड़ हदमा जामे, तो भेया गचन्तन सजस्भतत्व का एक ऐसी नौका के सभरूऩ अध्ममन कय ऩामा िै जो कक उपनते सभद्र ु के भध्म बी ऩण ू श र्ाॊनत से अऩने
िॊतव्म की ओय अववयत यिती िै , अनवयत, बफना थके, िय ऩर एक नमी उभॊि के साथ। भानो रृदम की उभॊिों ने सभुद्र की उफरती रियों को िकयाकय
ननजष्क्रम कय हदमा िो औय परस्वरूऩ नाववक को जीवन सािय के ववयाि बॊवयों का एिसास तक निीॊ िोता।"
~ 185 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “तुभ तो काव्मर्ास्त्र की बार्ा बी फोरने रिे, वत्स।” आचामश प्रद्मुम्न िॉ से।
भिाचामश बी कृबत्रभ िॊबीयता के आवयण से झाॊकते िुए फोरे।
“जाओ वत्स अऩने नाभ को साथशक कयो, जीवन तम् ु िायी प्रतीिा कय यिा िै ।”
******समाप्त*******
~ 186 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
“जीवन में शाश्वत सत्य एक है , भ्रमाच्छाहदत ऱक्ष्य अनेक हैं उतनी ही हदशाएॉ हैं उन तक ऩहुॉिने के मऱए, ऩर मागश अनेक हैं और एक अनॊत मागश भी है , उन में से ककसी ऩर भी िऱना प्रकृतत का तनयम है , ककस प्रकार िऱना है प्राणी के दृस्र्षिकोण और उसकी प्रकृतत ऩर तनभशर करता है , ककन साधनों का ककस प्रकार उऩयोग करना है उसके चिॊतन और अनभ ु तू त के सामर्थयश से प्रेररत है । सॊभावनाएॉ अनॊत हैं ऩर जीवन एक है अतः इसे ककस तरह साधना है ये हमे ही तय करना है।”
~ 187 ~
ऱक्ष्यावरणम ्
~ 188 ~
ऱक्ष्यावरणम ् “जजस अल्ऩकारीन उद्मेश्म को, िभ
रक्ष्म भानते िे, वो तो एक भ्रभ िी िै , छरावा िै , कुछ ऩर नजय आता िै
तो ऩरों भें िी दृजष्ि से ओझर बी िो
जाता िै औय जफ भनष्ु म उसे िाससर
कय रेता िै तो बी आवश्मक निीॊ िै कक मे उसे
प्रसन्नता मा सॊतजु ष्ि प्रदान कये , तष्ृ णा को बी फढ़ा सकता िै । महद मे रक्ष्म ऩण श ् सत्म िोता तो उसको ू त
िाससर कयने की अनब ु नू त मा ऩरयणाभ, सबी के सरए एक सभान िोता। सत्म तो बावनाएॉ िोती िे, साजत्वक
इच्छाएॉ िोती िे जो कक फीच याि भें बी जाित ृ िो सकती िै । क्रोध का बाव ब्रह्भाण्ड के सभस्त जीवों को क्रोध का
िी अिसास कयाता िै , उत्कर्श का बाव सबी को सि ु द अनब ु नू त िी कयाता िै ।”
हहमाॊशु यादव
बायतीम प्रोद्मोगिकी सॊस्थान, रूडकी
Website : himanshuyadaviitr.blogspot.in E-mail : yadavhimanshu059@gmail.com
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