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इंदस े ना ु ंचत
विशिष्ट प्रततभा वििेषांक
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संचेतना
इंद ु
हिंदी साहित्य की त्रैमाशसक सज ृ न परिक्रमा
इंदस ु ंचेतना हिंदी साहित्य की त्रैमाशसक सज ृ न परिक्रमा चीन से तनकलने िाली साहित्य की पिली अंतिााष्रीय पत्रत्रका
वर्ष-2, अंक-5, ववशिष्ट प्रतिभा वविेर्ांक(अक्टूबर-दिसंबर)2016
इंदस े ना ु ंचत
विशिष्ट प्रततभा वििेषांक
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संरक्षक : चोंग वेई ह
प्रबंध संपािक : हू रुई परामिष मंडल : प्रोफेसर प्रेम सुमन िमाष, प्रोफेसर पवन अग्रवाल, प्रोफेसर योगेन्द्र प्रिाप शसंह, प्रोफेसर दिववक रमेि, डॉo प्रणव िास्त्री, डॉo बलजीि श्रीवास्त्िव
संपािक : डॉ० गंगा प्रसाि िमाष ‘गुणिेखर’ कायषकारी संपािक : तिअन केवपंग
उप संपािक: राहुल िे व आवरण की पष्ृ ठभूशम का चचर : बंिीलाल परमार आवरण डडजाइन : वविाल िुक्ल
सह संपािक,मुरण,आंिररक सज्जा एवं िकनीकी सहयोग : बबनय कुमार िुक्ल, ििांक शमश्र भारिीय प्रतितनचध : अंजु िमाष
संपकष – दहंिी ववभाग, क्वान्द््िोंग वैिेशिक अध्ययन ववश्वववद्यालय,पाय यून िािाओ पेई, क्वान्द््चौ, 510420, चीन
संपकष (भारि) – 9/48, सादहत्य सिन, कोिवाली मागष, महमूिाबाि(अवध), सीिापुर, 261203, उत्तर प्रिे ि, भारि ईमेल-
indusanchetana@gmail.com dr.gunshekhar@gmail.com, gpsharma@gdufs.edu.cn,
संवेिन-sparsh@gmail.com िरू भार् संख्या - +86-2036204385, +91-9454112975 संपािन एवं संचालन अवैितनक एवं अव्यावसातयक।
प्रकाशिि रचनाओं के ववचार से संपािक मंडल का सहमि होना आवश्यक नहीं | वििेष विज्ञप्तत
संचेतना पत्रत्रका अब इन्द ु संचेतना िो गयी िै । पता चला िै कक कुछ लोग अनाधिकृत रूप से स्ियं को संचेतना का प्रतततनधि बताकि िचना आमंत्रण एिं व्यापाि का प्रयास कि ििे िैं । पाठकों एिं िचनाकािों से अनिु ोि िै कक इंदस ं ेतना/संचेतना के शलए िचना आमंत्रण एिं जानकािी के शलए ु च अधिकृत सम्पादन मण्डल के अततरिक्त ककसी औि के पत्राचाि का जिाब न दें ।
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अंक में||| सम्पादकीय डॉ० गंगा प्रसाद शर्ाा / 6 श्रद्ाांजलि : डॉ0 अखिि बां सि को/5 डॉ० अखिि बां सि के नवगीत/13 आिेि सब सााँ स ं की सां स र्ें-आनंद बाला शर्ाा /15 ‘लू-शु न’ एक संछिप्त परिचय/वाणी शु क्ल/17, चेकफ़ औि अछवल वा-अछनल जन छवजय/19, प्रेर्चंद की बाल कहाछनयााँ - प्र फेसि छदछवक िर्े श/23, छहं दी कहानी के छपतार्ह प्रेर्चंद-सी.वी.श्रीवास्तव ’छवदग्ध’/31, प्रेर्चंद की दृछि र्ें नािी छवर्शा - डॉ० बलजीत कुर्ाि श्रीवास्तव/34, प्रेर्चंद का भाषा छवर्शा-गुर्ाक डा नीिजा/38,प्रेर्चंद की वतार्ानता:िं गभूछर् औि ग दान- प्र ० ऋषभ दे व शर्ाा /42, प्रेर्चंद एक अनु भव- दयानन्द पाण्डे य/51, सहज, सिल, ग्रार्ीण प्रेर्चंद-प्रस्तु छत-िछव ितलार्ी/58,प्रेर्चंद औि र्ार्क्ावाद सौन्दयाशास्त्र – वीिें द्र यादव/60 , प्रेर्चंद से हर् कहानी छलखना सीख सकते हैं - िर्े श उपाध्याय/63 , सर्ाज के कुशल छचतेिे- प्रेर्चंद – जयचंद प्रजापछत ‘कक्कू’/67 ,एक घटना- लू-शु नअनु वाद डॉ० गंगा प्रसाद शर्ाा -72, र्ं ट औि उसकी कहाछनयााँ एक तटस्थ दृछि र्ें - डॉ० श्यार् गुप्त/75, र्ं ट बदनार् लेखक क् -ं ज़े बा िशीद/ 79 , छहन्दी का वसंत र्ास- डॉ० गंगा प्रसाद शर्ाा /83, अछभने ता बलिाज सहानी का कालजयी भाषण – अंजु शर्ाा /90, छहं दी के प्रचाि प्रसाि र्ें छहं दी ब्लॉगि की भू छर्का – िाहुल खटे /104, छहं दी प्रचारिणी सभा की आवश्यकता – श्यार् छिपाठी/109, छवभव बाजाि र्ें छहं दी – चंद्रकां त छतवािी/115 , कलवता कैस जौनपुिी की कछवताएं – साईछकल वाली लड़की/119, सपना र्ां गछलक की कछवताएं - सपना र्ां गछलक/120,नवारूण भट्टाचाया की कछवताएं – अनु वाद र्ीता दास/121,तुम्हािी दी हुई जागीि- लक्ष्मी नािायण पय छि/ 123,ह ता ज सर्य-कृष्णा वर्ाा /124, जु आिी एक बना- अछनल पुि छहत/ 125 , गीत भाव- सछवता अग्रवाल ‘सछव’ /125 ,क् ं ि ड़ा दे श – िाज र्हे श्विी/126 , छबन छलखा इछतहास – शै ल शर्ाा /127 , कैने डा के आछद छनवासी १९७९ – श्यार् छिपाठी/128 , गजि/हाइकू/गीत हाइकू- डॉ० य गेन्द्र नाथ शर्ाा “अरुण”/129, गजल –सुनीता कंब ज/130 , गीत- आओ क यल गीत सुनाओ – सुनीता जै न/132 , सांस्मरण पहले र्ु झे ग ली र्ाि- जय प्रकाश र्ानस/133, िघु कथा ग्रार्ीण चीन का एक अनु भव – आशीष ग िे /135 , बाय र्ााँ – छप्रयंका पाण्डे य/137 , हिछसंगाि-सुनीता जै न/138 ,भगवान की कसीदाकािी-र्ाला वर्ाा /139,लघु कथा – श भा िस्त गी/140 , लघु कथाएाँ - डॉ० पद्मजा शर्ाा / 142
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कहानी एक ि टा सा र्ज़ाक-अंत न चेखब की कहानी का अनुवाद –अछनल जन छवजय /143,एक अनु भव- अंत न चेखब की कहानी का अनुवाद –अछनल जय छवजय /148, शता(अंत न ं पी चेखफ़ की र्ूल कहानी दी बेट का अनु वाद) – अनु वाद अपणाा घ ष/151 , कल(लू-सेन की र्ू ल कहानी का अनु वाद) – अनु वाद छबनय कुर्ाि शु क्ल/ 158 , अपने पिाये - श भा िस्त गी/165 , हथे छलय ं र्ें कंपन- तेजेन्द्र शर्ाा /168 ,क्ा आपने हर्ें दे खा है जया जादवानी/183 , सफ़ीना – कैस जौनपुिी/192 ,छभन्न छभन्न चीछनय ं की नजि र्ें भाित के छवछभन्न रूप – छतयान केछपंग /197 शोध भाितीय नवजागिण औि पािसी िं गर्ं च – डॉ० िाहुल छर्श्र/ 200 ररपोतााज
vkvks! gkaxdkax esa fgUnh dks nqykjsa/MkWपु स्तक चचाा (लचत्र)/211 दू र दे श की पाती – 212 हिचि -213 आपकी प्रलतलिया-224 िेिकोां के पते -226
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श्रदिांजशल ! प्रख्याि
रचनाकार
असमय
तनधन
डॉo
पर
अखखल
समस्त्ि
दहंिी
बंसल
के
सादहत्य
जगि ममाषहि है । उनका जन्द्म दिनांक 18 शसिम्बर 1979 को ्वाशलयर, मध्य प्रिे ि के एक प्रतिष्ष्ठि पररवार में हुआ था । दिनांक 05 अक्िूबर 2016, उनका तनधन हो गया ।
पेिे से चचककत्सक थे परं िु सादहत्य सज ृ न उनकी वविेर् रुचच थी । प्रकाशिि कृति :
'प्रहार' नई अिुकांि कवविाओं का संग्रह ।
अन्द्य प्रकािन: प्रमुख पर-पबरकाओं में गीि, नवगीि, ग़ज़लें नई कवविाएँ व लेख आदि प्रकाशिि।आकािवाणी से रचनाओं का तनयशमि प्रसारण। लगभग 36
वर्ष की अल्पायु में ही
उनके पथ् ृ वीलोक से िे वलोक गमन से सादहत्यजगि को बहुि बड़ी क्षति पहुंची है । डॉ० साहब सादहत्यकार होने के साथ ही एक कुिल चचककत्सक भी थे । इन्द्ि ु संचि े ना पररवार की िरफ
से
उन्द्हे
भावभीनी
श्रद्धांजशल
िे खिे िे खिे कौन क्या हो गया वक़्ि की िौड़ में आिमी खो गया।।१।। साथ िें जो यहाँ िोस्त्ि शमलिे नहीं क्या कफकर है उन्द्हें जो गया सो गया।।२।। शसफष अपने शलए ही ष्जए जा रहे कौन िो पल ककसी के शलए रो गया।।३।। िे ख पाया नहीं सुख पराया कभी
िाड़ मौका बबूली फसल बो गया।।४।। पावपयों को हमीं मान िे िे अखखल
एक डुबकी लगा पाप वो धो गया।।५।। ।।डॉ० अखखल बंसल।।
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संपादक की कलम से…
जो कत्रबिा कासी मिै
अगर इस वविेर्ांक के सुमेरु की बाि करें िो वे हैं कबीर ।
बाि बाकी को समझने में कोई असुववधा नहीं होगी
।
उनको जान-समझ लेने के
इसशलए कबीर को अपने दहस्त्से में
लेिे हुए बाकी को अपने पाठकों के दहस्त्से करिा हूँ । कबीर की कवविा को समझने के शलए मध्यकाल की यारा िो करनी ही पड़ेगी । िो चशलए आपको ले चलिे हैं वहीं जहाँ कबीर की धन ु ी जल रही है और ष्जसकी आग और आंच कभी मद्चधम नहीं पड़ी ।
कबीर की कवविा अपने समय के समाज की प्राणवायु है । लेककन आज भी वह उसी
िरह बह रही है जैसी पहले बहिी थी। उसकी चंिनी सुवास से आज भी वािावरण महमह
महक रहा है । उसकी मूल्यगि महत्ता आज भी अप्रासंचगक नहीं हुई है । कबीर की कवविा बहिी हुई सररिा है, सरोवर या कूप का नीर नहीं ष्जसमें कालांिर में सड़न की गंज ु ाइि रहिी है। इसशलए न वह सड़ी है और न ही ककसी प्रकार से अनप ु योगी ही हुई है । और भार्ा (दहंिी)के बहाने इस सत्य को कह भी जािे हैं"संसकीरि कूप जल, भाखा बहिा नीर। "
कबीर तनजी जीवन में संि हैं और सामाष्जक जीवन में समाज सध ु ारक। वे
भीिर
वे संस्त्कृि
कुदटया
के
भले ही बहुि बड़े तनगण ुष संि और भक्ि रहिे हों पर उससे बाहर आिे ही वे योद्धा हो जािे हैं। वे धप ू -छांह वाली बिली नहीं घहरा कर बरसने वाले मेघ बन जािे हैं"भष्क्ि भाव भािों निी, सबै चलीं घहराय ।/सररिा सोइ सरादहये, जो जेठ मास ठहराय ॥ " वे जेठ में भी जग को सींचने वाली निी बने रहना चाहिे हैं। इसशलए बाहर एक हाथ में लकुटी//िो िस ू रे में लुकाठा
तनकलिे ही
थाम लेिे हैं।
कबीर उस व्यष्क्ि का नाम ही है ष्जसे खि ु नहीं पिा होिा कक वह कब और क्या
करने वाला है । समाज की भलाई ष्जसमें है ,उसके अलावा उसने िस ू रा पाठ ही नहीं पढ़ा । कबीर एक ऐसे युगपुरुर् का नाम है जो अंधेरा तघरा िे खिे हैं िो लुकाठा सबसे ही कुदटया पर रखिे हैं। उसके बाि भी अगर ज़रूरि पड़ी िो कब ककसकी
पहली अपनी
कुदटया
पर रख
िें गे कोई नहीं जानिा।वे भी नहीं जो हाथ जोडे उनके पीछे -पीछे चल पडे थे। लेककन सबको ववश्वास है कक उनके हाथ
में लुकाठा आिे ही वे सच्चे पर अक्खड समाज चेिा हो जािे
हैं।तनमाषण के शलए नाि में भी नहीं सकुचािे हैं।
कबीर जब भी और जहाँ से तनकलिे हैं या खड़े भी
हैंइंदस े ना ु ंचत
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होिे हैं िो सबको चेिािे ही
शमलिे
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"कबबरा खडा बजार में ,शलए लक ु ाठा हाथ।/जो घर जारै आपना चलै हमारे साथ।" केवल राम का ही ध्यान नहीं धरिे हैं वे ।
वे उस िे ह का भी उिना ही ध्यान करिे
हैं ष्जस पर वस्त्र नहीं है । ष्जस िे ह पर वस्त्र नहीं होिे उसके शलए वे वस्त्र बुनिे हैं।वे उस वस्त्र को बुन कर ही नहीं छोड़ िे िे उसे पहनािे भी हैं, ष्जसे उसकी सबसे इसशलए कबीर ष्जिने िे ह के भीिर हैं उससे अचधक वे िे ह के वविे ह हैं।
पहले ज़रूरि है।
बाहर हैं । िे ह में होिे हुए भी
कबीर सगुण की खाट खड़ी करने में मादहर हैं पर कभी-कभी खुि भी उसी पर अपनी
अनमैली चिररया बबछाए बैठे शमल जािे हैं। पाहन पूजने वालों को पानी पी-पकर गररयािे
हैं । लेककन खि ु भी
पाहन पूजने में लग जािे हैं । पर, वह पाहन वे पूजिे हैं
जो उपयोगी हो । इसीशलए वे शिवशलंग नहीं चककया पूजिे हैं।वह इसशलए कक चककया उपयोगी िे विा है ।
जहाँ पर िांति नहीं होिी वहाँ वे िांति की आराधना करिे हैं। उनकी नमाज़ वहीं होिी है जहाँ कोई िखु खयारी या िखु खयारा होिा है । यदि एक ही समय में ककसी चगरे हुए को उठाना हो और नमाज़ अिा करना भी िो वे नमाज़ बाि में पढ़िे हैं पहले चगरे हुए को उठािे हैं। ऐसे भक्ि हैं वे।
कबीर को पढ़िे हुए वह युग सामने आ जािा है जब दहंि-ू मुष्स्त्लम आमनेसामने टकरािे थे। लेककन खन ू -खराबा िायि वैसा नहीं था जैसा सांप्रिातयक ज़हर फैलाने
वाले बिािे हैं। कबीर ने कािी में रहिे हुए भष्क्ि की धारा में डुबकी लगाई । कािी ववश्वनाथ के प्रांगण में िाल ठोंक कर दहंि ू मस ु लमान िोनों को ललकारा ।यह केवल कबीर के बि ू े की बाि थी-
"कांकर ,पाथर जोरर के, मष्स्त्ज़ि लई ,बनाय । िा चदढ़ मल् ु ला बांग िे ,क्या बहरा हुआ खि ु ाय।" दहंिओ ु ं को भी उन्द्होंने आड़े हाथो शलया "पाहन पूजे हरर शमलै ,िो मैं पूजूं पहाड़।"
उन्द्होंने तनंिा की िो जमकर की । इसमे
अपनी, अपनों या परायों की जैसी कोई सीमा
रे खा ही नहीं बनाई। इनके अलावा भला और
ककसमें इिना साहस है कक वह तनंिक को खुले
हृिय से स्त्वीकारे । इन्द्होंने तनंिक को स्त्वीकारा ही नहीं बष्ल्क आंगन में ही उसकी कुटी भी छवा िी। िुभ चचंिकों ने टोका िो आंगन में बसाने
उसके लाभ चगना दिए और उन्द्हें भी अपने-अपने
की सलाह िे डाली -
''तनंिक तनयरे राखखए, आंगन कुटी छवाय।/बबन साबुन पानी बबना, तनमषल करे सुभाय।।"
ककसी की तनंिा की िो जमकर की और प्रिंसा की िो उसमें ।
भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ी
ष्जसको छोडा िो पकडा नहीं और ष्जसे पकड शलया िो कफर छोडा नहीं. अपनी इसी ववृ त्त के कारण अपने आराध्य में रमे िो
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रमिे ही चले गए.राममय ही हो गए-
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"लाली मेरे लाल की ,ष्जि िे खंू तिि लाल।/
लाली िे खन मैं गई, मै भी हो गई लाल।।"/
उन्द्होंने अपने लाभ के शलए कभी चाटुकाररिा नहीं की और न ककसी और को खि ु करने के
शलए कभी ककसी अन्द्य की तनंिा ही की । वे िो मस्त्िमौला थे। फक्कड़ थे और कुछ-कुछ
औघड़ भी । मौज़ में आए िो सब लुटा चले और गुस्त्सा हुए िो ककसी के भी चचमटा चचपका दिए और चलिे बने। लेककन तनिष य नहीं थे । कोई ज़रा भी रोया िो पहले रुककर झाड़े िब चले।उन्द्हें रोक भी कोई कैसे सकिा था। रमिा जोगी बहिा पानी थे वे। उन्द्होंने कभी ककसी को मझधार में नहीं छोड़ा ।वे खि ु भी कभी बीच में नहीं रुके या
िो इस पार या उस पार। उनकी खि ु की
अपनी धारा भी थी और ववचारधारा भी। िरू से
िे खने पर भले लड़ाका और आक्रामक लगिे हों । पर वे सामंजस्त्य के कवव थे असमंजस के
नहीं। बबगाड़ उनके स्त्वभाव में ही नहीं थी । न कभी खि ु असमंजस में रहे और न ककसी को डाला । या िो खि ु ककनारे हो शलए या सामने वाले को ककनारे कर दिया। अपनी नापसंिगी और गंिगी
को कभी ढोया नहीं। जब कोई चीज़ अनावश्यक और भारी लगने
लगी,उसे उिार फेंका और चलिे बने। वे अक्खड़ थे । ककसी को कुछ िे ने का मन न हुआ िो साफ मना कर िे ने वाले । सही भी था। कुछ करने वाले को ही कुछ िे ने के पक्ष में रहिे थे वे। अलस अकमाष साधु उन्द्हें कभी नहीं रुचे। वे अकमषण्यिा के धरु ववरोधी थे कफर वह चाहे
िारने का िं भ भरने वाला
भगवान ही क्यों न हो। उसको भी मुफ्ि में यि िे ना उन्द्हें कभी नहीं रुचा। इसीशलए राम को भी काम पर लगाने के शलए उन्द्होंने कािी त्यागा और मगहर चले गए"जो कबबरा कासी मरै , रामै कौन तनहोर।" कबीर िे िकाल से परे हैं। बुद्ध की िरह उनकी भी कोई भौगोशलक सीमा नहीं रही ।
इसीशलए कबीर चीन में भारि से कम लोकवप्रय नहीं हैं । महामदहम राष्रपति श्री प्रणव उसमें
ववगि २४ मई २०१६ को
मुखजी के क्वां्चौ, चीन आगमन पर मैंने 'इंि ु संचि े ना' का
वविेर्ांक
तनकाला।
स्त्नािक
चिुथष
वर्ष
की
छारा
सुश्री
झांष््छन(दहंिी
नाम
िांति) ने
महामदहम के नाम पर छपने के शलए दिया । उस पर में उसने भारिीय सादहत्य
समाज और संस्त्कृति के प्रति युवाओं के आकर्षण का उल्लेख ककया है । उसने अपने पर में
भारि के ष्जन सादहत्यकारों का वविेर् उल्लेख ककया है । उनमेन बस िो ही हैं प्रेम चंि कफर कबीर । समाज चेिा कबीर का प्रभामंडल इिना िीप्ि है कक सभी उसकी रोिनी में कुछ न
कुछ पढ़ ही लेिे हैं। उसके पर का वह अंि उद्धि ृ कर रहा हूँ, ष्जसमें उसने कबीर को ससम्मान उष्ल्लखखि ककया है "मैं चीन में गओ ु गडोंग
यतू नवशसषटी ओफ़ फ़ोरे न स्त्टाडीज़ में दहंिी का एडवांस कोसष कर
रही हूँ । मझ ु े याि है कक छोटी आयु में ही मैंने कबीर और प्रेमचंि की कई कहातनयाँ इंदस े ना ु ंचत
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मंडाररन (चीनी भार्) में पढ़ी थी। वे ववलक्षण कहातनयाँ इिनी
रोचक लगी थीं कक मैं अब
िक
बबल्कुल उनमें ही म्न रही हूँ। वास्त्िव में मिहूर कथाकार प्रेमचंि के अतिररक्ि और भी बहुि सारे लोकवप्रय लेखक और कवव/कवतयबरयाँ दहंिी में हैं , ष्जन्द्हें दहंिी सादहत्य के इतिहास में अपनी खास जगह शमली है । हमें भष्क्िकाल में कबीर सबसे अचधक प्रभाववि
करिे हैं। खासकर अपनी बेबाक बानी के कारण भी वे हमें सबसे अचधक लुभािे हैं। भारि की जाति-पांति और सांप्रिातयकिा के ववरुद्ध उिनी खरी बानी ककसी की नहीं है , ष्जिनी कबीर की ।मेरी समझ से सादहत्य आईना जैसा होिा
है जो अपने समाज से
संबंचधि जाति व
राष्रीय तनवाशसयों की मनः ष्स्त्थति और उनकी ििा को यथाथषपूणष िब्िों में प्रकट करिा है ।
दहंिी सादहत्य से प्रेम के कारण मैं दहंिी सीखने भारि गई थी। भारि में रहिे हुए उसकी सभ्यिा और संस्त्कृति में मेरी ज़बरिस्त्ि रुचच बढ़ गई। भारिीय िौक भी मुझे हो गए। अनेक
रस्त्म-ररवाज़ तनभाने और िौक रखने वाले भारिीय भी मुझे पसंि हैं। मुझे भारि
शसफष एक िे ि भर नहीं लगा। उसका
वैष्श्वक रूप, अलग-अलग भार्ाएँ। अलग-अलग खान-
पान, रं ग रूप सभी कुछ मुझे मोहिा रहा है । ितु नया भर के लोगों के शलए बहुि सी सीखने लायक नयी-पुरानी चीज़ें हैं वहाँ।" चीन के ववद्याथी बड़े चिुर सुजान हैं। वे हमारे कववयों और लेखकों की खब ू ी और
खाशमयां हमसे अचधक िकष संगि ढं ग से जानिे -मानिे हैं। ऊपर के अनुच्छे ि में झांष््छन
ष्जसका दहंिी नाम िांति है ने बड़ी बेबाकी से पहले प्रेम चंि कफर कबीर का नाम लेिे हुए सादहत्य को समाज का िपषण कहा है । सादहत्य की बाि करिे हुए वह भावुक नहीं हुई है । ष्जन और कवव/लेखकों को उसने पढ़ा
है उनमें समाज को आईना दिखाने की वह िाकि उसे
नहीं दिखी होगी जो इनमें शमली। इसीशलए उसने लेखकों में प्रेम चंि और कववयों में कबीर का नाम शलया है । उसने ष्जस सादहत्य को
समाज का आईना कहा है , कबीर उसी आइने को
लेकर गली -गली, चौराहे -चौराहे सबको दिखािे घम ू िे हैं । यही उनकी सबसे बड़ी सामाष्जक उपािे यिा भी है ।
िे ि के शलए भी और ितु नया के शलए भी ।
उन्द्होंने जगि जीना सीखा और शसखाया । ष्जसे जीना गया उसी का मरना याि ककया जाएगा नहीं िो रोने वाले नहीं शमलेंगे। कबीर को जीना आ गया था इसी वज़ह से उन्द्होंने अलग से रोने के शलए कोई चेले-चल ू े नहीं मड़ ू े
। क्योंकक उन्द्हें इस बाि का बबल्कुल डर नहीं
था कक उनके शलए कोई रोने वाला होगा या नहीं।
उन्द्हें यह भरोसा था कक उनके कमष उन्द्हें
समाज में अमर बनाए रखेंगे । वे जीवन का ममष जान गए थे । इसी से उनके कमष प्रेररि थे ।
केवल िो लाइनों में जीवन जीने की कला शसखा िे ने की क्षमिा अगर ककसी में है िो
वह अकेले कबीर में है "जब आए थे जगि में ,जगि हं सा हम रोए। ऐसी करने कर चलें ,हम हं सें जग रोए।।" उनका यह ववश्वास
उनके ककसी भी समकालीन
संि में नहीं था । कफर वे चाहे रवविास
हों या नानक, ष्जनके अपने जीवनकाल में ही पंथ
िरू से नज़र में आने लगे थे। उनके
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फहरािे हुए ध्वज
हर आने-जाने वाले को
चचल्ला-चचल्लाकर उनके पंथ बिाने लगे थे।
लेककन कबीर के साथ ऐसा न था। लोग जान ही न पािे
कक उनका पंथ क्या है ? प्रेम
उनका असली पंथ था। कबीर जग के भले में अपना भला समझिे थे न कक केवल अपने या ध्वज के नीचे आए कुछ अपनों के
मोक्ष में । इस दृष्ष्ट से संसार उनके
था जैसा अन्द्य संिों के शलए था। वे संसार से
शलए ठीक उसी िरह शमथ्या
नहीं
भी उसी िरह प्रेम करिे थे जैसे खि ु से और
अपने राम या खुिा से। इसशलए उन्द्होंने संसार और घोर संसाररयों को बुरा भला कहकर भी उसी िरह उन्द्हें गले लगाए रखा जैसे मां-बाप अपनी नािान और बड़े
नालायक संिान को भी
प्यार से गले लगाए रखिे हैं ।उन्द्होंने प्रेम को बस प्रेम रहने दिया.उसे खानों या खांचों
में भी बांटना कभी उचचि नहीं समझा। उसमे अलग से कोई रं ग नहीं शमलाया। इस प्रेमामि ृ का प्याला खि ु भी छककर वपया और औरों को भी उसी वविद् ु ध प्रेमामि ृ का पान कराया"कबबरा प्याला प्रेम का, अंिर शलया लगाय ।
रोम रोम में रशम रहा, और अमल क्या खाय ॥" इसी अक्खड़-फक्कड़ कबीर की
परं परा में ववश्व में अनेक प्रतिभाएं हुई हैं, ष्जनमें से कुछे क पर सामग्री जुटाने का हमने छुर प्रयास ककया। कोशिि भले ही छोटी थी लेककन उसमें तनष्ठा और नीयि में खोट नहीं आने िी। इसी वज़ह से अथाषि ् एक ईमानिार पहल और
अनुकूल संयोग से कबीर के साथ-साथ मुंिी प्रेमचंि, लूिुन, चेखफ और मंटो पर भी ठीकठाक सामग्री जुट ही
गई। मेरी समझ से िो स्त्िरीय ही है कफर भी इस सामग्री पर ववद्वान
पाठकों की प्रतिकक्रया की प्रिीक्षा रहे गी । सबसे पहले
बबना ककसी पाररश्रशमक की अपेक्षा के कबीर और प्रेम चंि पर सामग्री
भेजने वाले पबरका नींव के पत्थर यानी उिार लेखकों का आभार। इनमें चेखफ के आचधकाररक लेखक जन ववजय जी का वविेर् आभार कक मेरे बार-बार िंग करने पर भी उन्द्होंने ज़रा भी बुरा नहीं माना।
इसमें वविेर् सामग्री के साथ-साथ सामान्द्य अंकों के स्त्िंभों की
सामग्री भी अपनी
महिी भशू मका के साथ उपष्स्त्थि है । यह तनयशमि पाठ्य सामग्री उन पाठकों के शलए है , कफलहाल ष्जनकी दिलचस्त्पी कबीर और प्रेमचंि को छोडकर अन्द्य ककसी में कुछ खास नहीं है । उन्द्होंने लि ू न ु , चेखफ और मंटो के नाम भर सन ु े हैं। जब मझ ु े उनका
ध्यान आया िो
लाख चाह कर भी वह सामग्री हटा नहीं सका।
इस अंक के श्रम के संिभष में सच कहा जाए िो यह कहना अत्यष्ु क्ि न होगी कक मैं
और उप संपािक िो तनशमत्त भर हैं इसका असली श्रेय िो पबरका के सह संपािक बबनय िक् ु ल को जािा है ।
इंदस े ना ु ंचत
विशिष्ट प्रततभा वििेषांक
भाई
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इस पबरका से जुड़े
एक िख ु ि प्रसंग को भी अपने पाठकों से साझा करने का मन
है । इसमें बच्चन जी की ये पंष्क्ियां बहुि प्रासंचगक हैं ," यदि तछपाना जानिा िो जग मुझे साधू समझिा /िरु मेरा बन गया है छल रदहि व्यवहार मेरा । " मुझसे गलिी कहाँ हुई खोजने बैठा िो आखखर शमल ही गई कक मैंने कुपार का चयन कर शलया था। हुआ यह कक 'संचि े ना' अब 'इंि ु संचेिना' के प्रकािन के शलए जुंग में मैंने कबीर की िरह
कुछ
अलग करने और पार-कुपार या यो्य -अयो्य में भेि ककए बबना सबको
एक पांि में बबठा कर प्रसािी िे ने की ठान ली। उस पंष्क्ि में एक महापार को भी
प्रतिष्ठावपि कर शलया। ष्जस समय उसे वहाँ प्रतिष्ठावपि ककया था, वह बहुि ववनम्र था। उसने बीस बार पैर छूकर अनुरोध ककया था कक यदि उसके दहस्त्से का भी कुछ शलख जाएगा िो वह उपकृि होगा।
उसके अनुरोध पर मैं भी भोले िंकर की मर ु ा में आ गया और
भस्त्मासरु न्द्योि शलया । जब मैंने उसे उपकृि करने की ठान ही ली थी िो ववलंब ककस बाि का।
सबसे
कफर
यह
पहले
नैतिक-अनैतिक
की
सोच को
गोली
मारकर
ककनारे
कर
दिया।
बाि दिमाग में घम ू ी कक यो्यिा का क्या है वह िो बाि में भी आ जाएगी और
क्या वे सारे लोग जो ऊंचे-ऊंचे ओहिों पर चढ़े बैठे हैं क्या सारे यो्य ही हैं । सो उसके कहने
पर उसके दहस्त्से की संपािकीय भी शलख मारी और साथ में उसे जष्स्त्टफाइ करने के शलए(िोिो संपािकीयों की वज़ह से) कुछ िो कहना ही था सो यह भी कह दिया कक असल में यह
पबरका तनकालना उसी महापार की ही इच्छा का प्रतिफल है । मेरा इसमें कुछ भी नहीं
है । मैं िो तनखट्टू हूँ। इसके बाि िो वह सच में न केवल यो्य बना बष्ल्क चन ु ौिी िे ने की मुरा में भी आ गया। उसने लक्षणा और व्यंजना को भी अशभधा में शलया और अपनी प्रिंसा में कहे गए हर िब्ि को प्रमाणपर की िरह ग्रहण ककया । मैं िो उस महापार की इस िब्ि साधना और यष्त्कंच शसद्चध पर भी मु्ध हूँ कक उसने अपने िब्िों की इिनी कर की और उनपर
अक्षरि: ववश्वास कर
शलया।
बारे में मेरे द्वारा कहे गए मुझे सच में तनखट्टू मान
मैं उसे अपना शिष्य समझ बैठा था । वास्त्िव में वह मेरा शिष्य नहीं बष्ल्क गुरु था
ष्जसने मुझे कुछ ही दिनों में वह पाठ पढ़ा दिया, ष्जसे कोई ववश्वववद्यालय नहीं पढा पाया
था। अंिि: मैंने उससे उसी िरह हाथ जोडकर वविा ली जैसे वह मुझसे जोड़ा करिा था। मेरे और उसके गुरु-शिष्यत्त्व में बस इिना ही फकष बाकी रह गया था कक मेरे हाथ उसके पैरों
िक नहीं गए थे।मैं उसके मुखौटे को ही मुख मान बैठा था। उसके शलए एक मुक्िक भी मुख िक आ ही गया है िो उसे भी कह ही िं -ू
िागी मुंह पर लगा मुखौटे /जब नकली सौिागर लौटे
हुए चलन से सच्चे बाहर/लगे चमकने शसक्के खोटे . वह मुखौटाधारी मेरे साथ ष्जस असल मक़सि से चला था उसका िब उद्घाटन हुआ जब उसने मेरे और अपने िोनों लुकाठे मेरे ही छप्पर पर रख दिए । उन लुकाठों को अगर इंदस े ना ु ंचत
विशिष्ट प्रततभा वििेषांक
12
िुरंि िुरंि पीट न शलया जािा िो मेरा सारा ककया धरा पल में स्त्वाहा हो सकिा था । अभी उसकी पूवष पीदठका ही साझा करूंगा िेर् अगले अंक में -
पहला अंक 'संचि े ना' के नाम से छपा था। कुछ समय बाि
'संचि े ना' के अतिचथ और
अब 'इंि ु संचि े ना' के उप संपािक राहुलिे व ने ध्यान दिलाया कक यह चचचषि कथाकर महीप शसंह द्वारा पहले ही संपादिि पबरका का चचर पररचचि नाम है । पिा िो मुझे भी था पर ववस्त्मि ृ -सा हो गया था। इसके नामकरण के समय अगर कुछ दिमाग में रह गया था िो वह था आिरणीय श्याम बरपाठी जी के संपािन में कनाडा से तनकलने वाली
'दहंिी चेिना' का
नाम । 'संचि े ना' से शमलिी-जुलिी संज्ञा की यही एक पबरका ध्यान में रह गई थी । इसी कारण यह गलिी हुई थी। बाि में नैतिक आधार उसमें 'इंि'ु भी
जोड़ा ।
पर
पबरका
का
नाम
बिलना
ज़रूरी
समझा
और
दहंिी में 'इंि'ु का अथष िो सबको पिा ही है कक चंरमा होिा है लेककन
मंडाररन में अथष होिा है 'भारि'। इस िरह भारि और चीन िोनों संस्त्कृतियों और संिभों को
एक वविेर् अथष छवव िे िा है यह नाम। इसीशलए 'संचि े ना' अपने नए नामकरण के
साथ 'इंि ु संचि े ना' बनी।
यदि पकड़ में न आिे िो ककसी की िीवाल में बबल बनाकर रह रहे वे महापार
उसी नाम
पर कंु डली मारकर बैठने की कफराक में थे। ऐसे िेर्नागों के शलए आस्त्िीन का सांप िब्ि भी
बौना हो जािा है । अब इस नाग यज्ञ को यहीं पर रोकिे हुए पन ु : लौटिे हैं अपने केंरीय ववर्य की ओर जहाँ एक फकीर की परं परा अब भी मझ ु े इिारा िे रही है । कबीर की परं परा यग ु ों-यग ु ों से चली आ रही िथाकचथि
धारा से हटकर बहना शसखािी
है । कभी-कभी िो तनिांि उलटा बहना भी शसखािी है । औरों से कुछ अलग करना शसखािी है ।इसी शलए कबीर ने कहा था ,"जो कत्रबिा नक्िे किम पर चला और
कासी मिै िामै कौन तनिोि।" मैं भी उन्द्हीं के
सादहत्य का मगहर यानी चीन चन ु ा। आज ही नहीं जबसे कुछ
साथषक सोचने-समझने लायक हुआ मैंने जान-बूझ कर इसी परं परा का आशलंगन ककया है । इसी सोच के िहि िो साल पहले चीन से दहंिी में पबरका तनकालने की सोच बैठा।िुरू-िुरू में यह कुछ अलग लगा था यानी ठाठ कबीरी।अब िो लगिा है कक इस ठाठ पर भी ठगों की नज़र पड गई है .कहीं यह ठाठ भी ठगों ने ठग शलया िो.....
मैं कािी के पंडों से जान छुडाकर भाग आया हूँ लहर िारा.बीजक अभी भी हाथ में
है .लहर िारा की लहर-लहर पर बीजक के िब्ि उभरिे हुए दिखिे हैं.उन्द्हें पढिा हूँ.इस िरह िट पर खड़ा-खड़ा लहरों में अनहि सन ु रहा हूँ और अनहि में कबीर को।
इंदस े ना ु ंचत
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डॉ० अखिल बंसल के निगीत 'एक मानस ु सवषहारा है' ******* वह वह ृ द् इन सागरों का
नीर खारा है
जग सख ु ी पर एक मानस ु सवषहारा है
िम ु क्षक्षतिज िारे वो
अंतिम साँस लेिी लौ घोर िम में
आ नहीं पािी कभी क्यों पौ
घट ु रहे िम पे िमे ने
जोर मारा है ष्जस्त्म का
नमकीन पानी पी रही है भू िरू माशलक बैठ कर हैं
फाँकिे काजू हर फसल को सांड ने
परू ा डकारा है
इंदस े ना ु ंचत
विशिष्ट प्रततभा वििेषांक
इन फटे कपड़ों में मतु नया
भा गई उनको िे ख लाचारी खुमारी
आ गई उनको कौन केिव
कौन इज्जि का सहारा है िास है वो
सर िबंगों
के िले रहिा और खुि पर हो रहे हर
जुल्म को सहिा जन्द्म जन्द्मों कजष का
करिा चुकारा है
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'मक्खी' ** मक्खी के
'कैसे हो सक्सेना' ***** बड़े दिनों
मक्खी ही तनकलेगी
कैसे हो सक्सेना
बािों से ये
जीवन को
अंडों से िो ऐसे कैसे
ितु नया बिलेगी
िम ु जंगल मानो
िन है रजनीगंधा
हम इसके िरुवर हैं
फूले पीि कनेर
पाँखी कीटों
मन में
हम पर ककिने
कथनी करनी
सरीसप ृ ों के घर हैं
सौ चक्कर सौ फेर
मकसि ही है
शभन्द्न शभन्द्न हैं िज ू े की
थाली के घी पर
नीयि मचलेगी
अपना िो
िज ू ों को सख ु िे ना िायि िम ु कुछ व्यचथि हुए हो
घरू े के ढे रों
बेटे औ बहुओं से
िक ू र बस्त्िी है
सीखो कुछ इन
पर पलिी िे खो खि ु
के चगरहबान में
ककिनी हस्त्िी है लोभी मंिा
केवल खि ु की
खुशियाँ कुचलेगी ऊपर जाने
के बिले तनि
नए गिष में जािे पाप कमष
करके खि ु अपनी
पीठों को थपकािे राक्ष लपकने चिरु लोमड़ी
पल पल उछलेगी इंदस े ना ु ंचत
के बाि शमले
विशिष्ट प्रततभा वििेषांक
भाई मेरे
अंगरू ों महुओं से सब सख ु िे ने
वाली मय हम
दिल पे क्या लेना बाल रँगो
कुछ फैिन बिलो
खुि को जीववि मानो खुशियाँ आस पास बबखरी हैं
िम ु उनको पहचानो अपनी नइया सागर में
हमको ही है खेना
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सब सांसों की सांस में ….. आनन्द बाला िमाा
सब सांसों की सांस में ….. यह संसार चलायमान है । गतििील है ।इसशलए इस संसार को जगि कहिे हैं।सबको चलिे रहना है
िारीररक रूप सेऔर
मानशसक रूप से भी।ऊजाष का सिप ु योग हो इसशलए सही दििा का तनधाषरण आवश्यक है ।यह जानना भी जरूरी है कक सवोत्तम िरीका कौनसा है ? मनुष्य को अपनी सभी संभावनाओं और िष्क्ियों का पूरा
उपयोग करना चादहए।जब बुद्चध सत्पथ पर होिी है िो आन्द्िररक अशभव्यष्क्ि आध्याष्त्मक िरं ग में बिल जािी है ।ईश्वर को पाना ही अष्न्द्िम लक्ष्य है । अष्न्द्िम लक्ष्य को प्राप्ि करने के शलए श्रेष्ठपथ का अनुसरण करना होगा।ईश्वर िो हमारे अन्द्िर ही है यह उनसे सीखना होगा जो व्यवहाररक हैं,साधक हैं और ष्जन्द्होंने अनुभव प्राप्ि ककया है ।कबीर इस मागष के सवोत्तम उिाहरण हैं।वे सहजभाव से ईश्वर को पाने का मागष प्रिस्त्ि कर िे िे हैं।
कबीर सहजिा से कहिे हैं ईश्वर और हम िो अलग हैं ही नहीं एक ही हैं।ईश्वर हममें समाया है और हम ईश्वर में ।कफर कैसे पाएँ ईश्वर को ?ईश्वर हमारे भीिर है और हम भीिर की दििा में जािे ही नहीं ।हमें याि ही नहीं रहिा कक ईश्वर हमारे भीिर है ।ईश्वर को हम बाहर ही खोजिे हैं और अपनी सुववधा के शलए बाहर ही ईश्वर का तनमाषण कर लेिे हैं।मष्न्द्िर,मष्स्त्जि,गुरुद्वारे और चचष आदि का तनमाषण करिे हैं।पूजा,प्राथषना,यज्ञ और हवन आदि में इिना तनम्न हो जािे हैं कक यह भूल ही जािे हैं कक ईश्वर िो हममें ही समाया है ।एकात्म है हमारा ईश्वर के साथ।
कबीर कहिे हैं हम ही ईश्वर हैं।हमारा होना ही ईश्वर का होना है ।ईश्वर अगर सरू ज है िो हम
लघु िीपक हैं। आग िोनों में एक ही है । ईश्वर अगर सागर है िो हम बँि ू हैं। बँि ू में ही सागर तछपा है । हम ही ईश्वर हैं और ईश्वर ही हम हैं। ईश्वर को पाने के शलए कुछ करने की भी आवश्यकिा नहीं है
क्योंकक ष्जसे हम खोज रहे हैं वह िो हममें ही समाया हुआ है । कुछ करना आवश्यक नहीं है ।आवश्यक है होना। करना िो अशभव्यष्क्ि मार है ।अगर कोई ईश्वर को पा लेिा है िो उसके हर कायष से ईश्वर अशभव्यक्ि होिा है . ईश्वर और हम एक हो जािे हैं। कबीर कहिे हैं ईश्वर को पानेसे पहले जरूरी है ईश्वर को पाने की चाह होना।स्त्विः स्त्फूिष:।हृिय से, आत्मा से।प्रबल चाह होनी चादहए ईश्वर को पाने के शलए। चाह ष्जिनी प्रबल होगी ईश्वर को पाना उिना ही आसान होगा। इंदस े ना ु ंचत
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कबीर कहिे हैं चाह जब समग्र होिी है ,गहन होिी है ।प्राणों में जब चाह ही चाह होिी है ।रोम रोम जब ईश्वर को पक ु ारिा है ।ईश्वर से िरू ी कम होिी जािी है ।िन्द् ू य हो जािी है । कहाँ शमलेगा ईश्वर ? कबीर कहिे है -सब सांसों की सांस में ……सांस िो जीवन की अशभव्यष्क्ि मार है । असंख्य सांसों के बीच जो जीवन तछपा है उसमें ही है ईश्वर ।जहाँ सांसें तनस्त्पंि हों वहीं है ईश्वर ।जब ववचार बंि हो जाएँ,ववराम हो जाए , कक्रया लीन हो जाए शसफष होना ही होना बच जाए िान्द्ि झील की िरह लहर ववहीन ।िुद्ध िपषण की िरह स्त्वच्छ। वहीं शमलेगा ईश्वर। कबीर कहिे हैं जब चाह प्रबल होगी उसी क्षण पालोगे ईश्वर को।जब प्राणपण से पुकारोगे ईश्वर को
पा लोगे।िे र मि करो ,हृियद्वार खटखटाओ।सोचो मि।रास्त्िा मि पूछो।पुकारो मि पुकार बन जाओ। प्राथषना मि करो प्राथषना बन जाओ। कबीर कहिे हैं जब रोम रोम में राम होंगे ,धड़कनों मे चाह
ही चाह होगी. िब्ि जब तनःिब्ि हो एंगे.जब अष््न पुंज बन जाओगे िब ईश्वर हममें और हम ईश्वर में आत्मसाि हो जाएंगे ,एक हो जाएंगे ,इक िज ू े में लीन हो जाएंगे।
सब सांसों की सांस में ….
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‘ल-ू िन ु ’- एक संधचतत परिचय
संकलन- िाणी िुक्ल लू-िून चीन के अग्रणी सादहत्यकारों में एक हैं । उनका जन्द्म चीन के जेंजांग के िाओष्जंग िहर में हुआ था । उनके कई नाम थे । बचपन में उनका नाम ‘जाओ जेष्जयांग’ था िो िे िी नाम उनका ‘यूर्न’ था पर
बाि में उन्द्होने अपने िे िी नाम को बािल कर ‘युचाई’ रख शलया । 1898 में उन्द्होने अपना नाम ‘िुरेन’
रखा । ज़्यािािर लोग उन्द्हे उनके सादहष्त्यक उपनाम ‘लू-िुन’ से जानिे हैं । 1918 में जब उनकी पहली रचना प्रकाशिि हुई उस समय उन्द्होने यह नाम रखा था । उनकी मािा का उपनाम ‘लू’ था । उनके जन्द्म के पव ू ष उनका पररवार काफी समद् ृ ध था पर उनके जन्द्म के बाि धीरे -धीरे उनका गरीबी के आगोि में शसमटिा चला गया ।
1899 में शसववल सववषस की परीक्षा के शलए उन्द्होने िैयाररयां िरू ु की पर पररवार की गरीबी के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाया और आगे की पढ़ाई के शलए उन्द्हे तनःिुल्क शिक्षा के शलए सेना के
ववद्यालय में प्रवेि लेना पड़ा । इस ववद्यालय में अपने पररवार के उपनाम के पररचय को छुपने के शलए उन्द्हे अपना नाम बिलने की सलाह िी गयी थी । वहाँ वे डेढ़ साल िक पढ़े । शिक्षा काल के िौरान उन्द्होने पष्श्चमी सादहत्य, ििषन, इतिहास, ववज्ञान, अंग्रेजी एवं जमषन भार्ा का
अध्ययन ककया । पढ़ाई के िौरान ही उन्द्होने सामाष्जक पररविषन एवं संघर्ष ववर्यक कई उपन्द्यास पढ़ा । िायि इन्द्ही उपन्द्यासों का असर उनके व्यावहाररक एवं सादहष्त्यक लेखन पर पड़ा । पढ़ाई पूरी करने के बाि वे डॉक्टर बनना चाहिे थे । इसके शलए 1902 में वे चचककत्सा ववज्ञान के
अध्ययन के शलए जापान गए । जापान में शिक्षा अजषन के िौरान चीन ववरोह के राजनैतिक प्रभाव ने उनके मन पर एक गहरी छाप डाला । इसी िौरान सादहष्त्यक चीनी भार्ा में उनका पहला आलेख प्रकाशिि हुआ । इसी िौरान उन्द्होने कई पष्श्चमी लेखकों के उपन्द्यासों का चीनी अनुवाि ककया और वे सब प्रकाशिि हुए । इन प्रकाशिि पुस्त्िकों में जूल्स वनष का ‘जनी टू मून’ एवं ट्वेंटी थाउसेंड शल्स अंडर सी’ था ।
इसी बीच पुनः युद्ध तछड़ गई । एक दिन उन्द्हे एक स्त्लाइड दिखाया गया ष्जसमें एक जापानी
सैतनक द्वारा चीनी सैतनक का शसर कलम ककया जा रहा था । इस दृश्य ने उन्द्हे इस किर ववचशलि
कर दिया कक वो ववरोह पर उिारू हो गए और अपने सादहत्य के माध्यम से अपने िे ि के सेनातनयों कक मिि करने लगे । युद्ध के िौरान लघु कहातनयों का उनका संग्रह ‘नाहन’ प्रकाशिि
हुआ । लू ने बिाया कक कैसे एक हत्या के दृश्य ने उनके मन को ववचशलि ककया और सादहत्य सज ृ न के पथ पर उन्द्हे आगे बढ़ा दिया । जमषनी में पढ़ाई करने कक उनकी बड़ी इच्छा थी । पर ककन्द्ही कारणों से उनकी यह इच्छा अधरू ी रह गई । इंदस े ना ु ंचत
विशिष्ट प्रततभा वििेषांक
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जापान में छारों द्वारा प्रकाशिि पबरका के शलए शलखना प्रारम्भ ककया । 1907 में उन्द्होने रूसी भार्ा सीखना प्रारम्भ ककया । 1909 में पव ू ी यरू ोप से ‘टे ल्स फ्राम एब्रोड’ का उन्द्होने अनव ु ाि प्रकाशिि ककया ।
इसकी 1500 प्रतियाँ छपी थीं पर मार 41 प्रतियाँ ही बबक पाईं । 1909-11 िक उन्द्होने शिक्षण का कायष ककया । इसी िौरान उन्द्होने चीनी सादहत्य के अध्ययन एवं संकलन की अपनी अशभलार्ा को पूरा करने का प्रयास प्रारम्भ ककया ।
1918 में लू की लघु कथाओं का संग्रह ‘डायरी ऑफ आ मैडम’ प्रकाशिि हुआ । इन लघु कथाओं में सामाष्जक रूदढ़यों के खखलाफ़ उनके ववचार लोगों को काफी पसंि आया । यहाँ से रूदढ़यों एवं सामाष्जक कुरीतियों के खखलाफ अपनी रचनाओं के माध्यम से आवाज उठाने वाले रचनाकारों में उनकी चगनिी होने लगी ।
उन्द्होने 1920, से कई ववद्यालयों एवं ववश्वववद्यालयों में अतिचथ वक्िा के रूप में कायष करना प्रारम्भ ककया । 1927 में उन्द्हें ‘ि ट्रू स्त्टोरी ऑफ अः क्यू’ के शलए सादहत्य में नोबल पुरस्त्कार के शलए नाशमि
ककया गया पर इस सम्मान के शलए उन्द्होने इंकार कर दिया । बाि में चीन के बबगड़िे राजनैतिक ििा के कारण कहातनयाँ शलखना छोड़ दिया और वैचाररक एवं िाककषक लेख शलखना प्रारम्भ ककया । उनकी मत्ृ यु के बाि ‘माओ जेिांग’ उन्द्हे “आधतु नक चीन के संि” के नाम से पुकारिे थे ।
कम्युतनस्त्ट ववचारधारा के लोग उन्द्हे अपनी ववचारधारा के पोिक बिािे थे । लू के लेख एवं कहातनयाँ
सामाष्जक चेिना , रूदढ़यों एवं कुरीतियों के खखलाफ केष्न्द्रि होिी थीं । लू को यदि भारिीय रचनाकार ‘मुंिी प्रेमचंि’ का पुनजषन्द्म कहा जाए िो इसमें कोई अतिियोष्क्ि नहीं होगी । उन्द्हे चीन का प्रेमचंि भी कहा जा सकिा है ।
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चेख़फ़ औि अविलोिा
अतनल जन ववजय बीसवीं सिी के चौथे ििक के अन्द्ि में मास्त्को में एक वयोवद् ृ ध मदहला रहिी थीं। अक्सर बहुि
से लेखक, सादहत्यकार और ववद्वान उनसे शमलने आिे रहिे थे। इन सभी लोगों के बीच आम िौर पर
चेख़फ़ की ही चचाष हुआ करिी थी। एक बार एक व्यष्क्ि ने अफ़सोस ज़ादहर करिे हुए कहा -- हमने चेख़फ़ की पूरी ष्ज़न्द्िगी को छान मारा लेककन हमें कहीं भी उनके जीवन में ककसी गम्भीर प्रेम का संकेि नहीं शमला। हालाँकक िोस्त्िो, यह बाि सच नहीं है क्योंकक उनके जीवन में भी ऐसी एक मदहला थी,
ष्जनसे चेख़फ़ प्रेम ककया करिे थे। वह वयोवद् ृ ध मदहला भली-भांति इस बाि को जानिी थीं, क्योंकक बाि ख़ि ु उनके प्रेम की हो रही थी। इस वयोवद् ृ ध मदहला का नाम था लीदिया अववलोवा ।
जब चेख़फ़ से उनकी पहली मुलाक़ाि हुई थी िो उनकी उम्र 27 वर्ष थी और चेख़फ़ 32 वर्ष के थे। चेख़फ़
िब िक एक नामी कहानीकार और नाटककार बन चक ु े थे। लीदिया
बाल-कहातनयाँ शलखा करिी थी। आइए, अब ज़रा ववस्त्िार से हम आपको उनका पररचय िें । लीदिया का जन्द्म मास्त्को के एक समद् ृ ध पररवार में हुआ था, ककन्द्िु जब वे शसफ़ष 11 साल की ही थीं, उनके वपिा
नहीं रहे । कफर यौवन की िहलीज पर पहुँचकर उन्द्हें पहली बार प्यार हुआ था – एक सलोने अफ़सर से। उस ज़माने के भर समाज में युवक-युवतियों के शमलने का स्त्थान बाल-नत्ृ य सन्द्ध्याएँ ही होिा था।
वह सलोना अफ़सर इन बाल-नत्ृ य सन्द्ध्याओं में छाया की िरह उनके पीछे लगा रहिा था। और आखख़रकार उसने उनके सामने उनसे वववाह
करने का प्रस्त्िाव रख दिया था। परन्द्िु लीदिया ने उसका यह प्रस्त्िाव ठुकरा दिया। हालाँकक इसके बाि वे लम्बे समय िक उिासी में डूबी रहीं। इसके 37 वर्ष बाि उस अफ़सर ने उन्द्हें कफर से खोज शलया – यह बिाने के शलए कक आजीवन अकेली वही उसके मन में बसी रही थीं।
समय बीिने पर लीदिया ने अपने भाई के एक शमर से वववाह कर शलया। बरसों बाि उन्द्होंने यह स्त्वीकार ककया कक वे अपने पति की बहुि कर करिी थीं और यह जानिी थीं कक वह बहुि बुद्चधमान हैं
िथा जीवन के हर उिार-चढ़ाव में उन पर भरोसा ककया जा सकिा है । ककन्द्िु लीदिया के मन में उनके शलए प्रेम नहीं था बष्ल्क वे िो कुछ हि िक पति से डरिी थीं।
वववाह के बाि अववलोफ़ िम्पिी पीटसषबगष में बस गए थे। यहाँ लीदिया अपने घर पर सादहष्त्यक
गोष्ष्ठयाँ आयोष्जि करने लगीं थीं। उनके इस “सादहष्त्यक सैलून” में गोकी, बूतनन, लेफ़ िलस्त्िोय इंदस े ना ु ंचत
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जैसे जाने-माने लेखक आिे थे और अक्सर चेख़फ़ भी आया करिे थे। जनवरी 1889 में लीदिया अववलोवा से उनका पररचय हुआ। चेख़फ़ की सभी कहातनयाँ उन्द्हें जबानी याि थीं। वह इस अनोखे कहानीकार पर मु्ध थीं। और उस सारी िाम वे उन्द्हें ही तनहारिी रही थीं...। चेख़फ़ भी उनकी िरफ़ िुरन्द्ि आकवर्षि हो गए थे। क्या था लीदिया के इस सम्मोहन का राज? नोबल
पुरस्त्कार ववजेिा इवान बूतनन ने अपने संस्त्मरणों में शलखा है -- एक ओर जहाँ लीदिया बहुि ही िमीली
थी वहीं िस ू री ओर उसमें जीवन के प्रति िीव्र कौिूहल था, एक ओर वह हर बाि पर खखलखखलाने को िैयार रहिी थी िो िस ू री ओर कोई गहरी उिासी उसके मन में बसी हुई लगिी थी। उसकी आवाज़ बहुि कोमल थी, नीलापन शलए हुए उसकी सलेटी आँखें बेहि प्यारी लगिी थीं और उसकी नज़रें िो हर ककसी का मन मोह लेिी थीं। वह भूल जािी थी कक वह इिनी सुन्द्िर है । उसका हर िब्ि, हर हाव-भाव, उसकी बुद्चध, प्रतिभा और हास्त्य-भावना का पररचय िे िे थे ककन्द्िु लीदिया को सिा ही ऐसा लगिा था कक उसमें कशमयाँ ही कशमयाँ हैं।
रूस की सादहष्त्यक ितु नया में लीदिया ने सहज ही अपना स्त्थान बना शलया था। वह बड़ी आसानी से
बािचीि का ववर्य खोज लेिी थी और एक ही इिारे में परू ी बाि समझ जािी थी। उसकी सादहष्त्यक
रचनाओं को सराहने वाले भी कम नहीं थे, िो भी उसे पास से जानने वालों का यह मानना था कक उसकी प्रतिभा उसकी रचनाओं में परू ी िरह से व्यक्ि नहीं हुई थी। चेख़फ़ उसकी कहातनयों पर सववस्त्िार टीका-दटप्पखणयाँ करिे रहिे थे, िथा उनकी आलोचना करिे हुए उसे बहुमल् ू य परामिष भी िे िे थे। इस िरह धीरे -धीरे चेख़फ़ उसके गुरु जैसे बन गए थे। परन्द्िु ऐसे गुरु से कुछ पा जाना आसान नहीं था।
चेख़फ़ सिा इस बाि का आग्रह करिे थे कक लीदिया अपनी रचनाओं में अचधक सटीकिा और गहराई लाएँ, और ज़्यािा से ज़्यािा शलखे। इस िरह उनके बीच कहानी लेखन कला पर ववचार-ववमिष का शसलशसला चल तनकला था। इस सवाल पर उनके बीच िे र िक बािें होिी रहिी थीं। धीरे -धीरे वे अक्सर एक-िस ू रे को पर शलखने लगे। इस िरह िस साल बीि गए। िस साल िक वे एक िस ू रे को िे खिे और
आँकिे रहे । और कफर, जैसा कक लीदिया अवीलोवा ने शलखा है -- हमारे दिलों के िरवाज़े खल ु गए थे। हम जैसे अनुभूतियों की आभा से आलोककि होकर हर्ष-ववभोर हो उठे थे। यह अनुभूति हम िोनों के मन में
सारी ष्ज़न्द्िगी बनी रही। परन्द्िु एक िस ू रे के सामने अपना प्रेम प्रकट करना िो िरू , हम ख़ि ु से भी मन की यह बाि तछपािे रहे ।
लीदिया के पति जल्िी ही यह बाि समझ गए कक उनकी पत्नी को चेख़फ़ से प्रेम हो गया है । वे सैतनक इंजीतनयर थे। पत्नी की सादहष्त्यक-गोष्ष्ठयों और लेखन को वे उसका बस एक िगल ही मानिे थे। पत्नी से उन्द्हें प्रेम था पर उसकी िरफ़ से प्रेम न पाकर उनका मन िख ु ी रहिा था। चेख़फ़ के प्रेम के मुकाबले वह िराजू के िस ू रे पलड़े पर बच्चों के शसवा और क्या रख सकिे थे। वे जानिे थे कक लीदिया
को बच्चे जान से भी प्यारे हैं। बस, इसी उन्द्होंने अपने बच्चों को ही अपना कवच बना शलया था। वे जानिे थे कक पत्नी के ह्रिय में चाहे कैसा भी िूफ़ान क्यों न उठ रहा हो, मगर बच्चों का यह लंगर उसे पररवार की नैया से बाँधे रखेगा। और उनका यह सोचना बबलकुल ठीक था। इंदस े ना ु ंचत
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लीदिया और चेख़फ़ की मल ु ाकािें कम होिी थीं। कभी संयोगवि ककसी चथयेटर में या ककसी के घर
पर शमलना हो जाए िो और बाि है । चेख़फ़ को सिा यह अंिाज़ हो जािा था कक बस अभी, कुछ पल में ही
वह दिख जाएगी, कक वह कहीं पास ही है । और वह सच में ही वहाँ आ जािी थी। परन्द्िु जीवन के हालाि
ऐसे थे कक उनकी ये मुलाकािें धीरे -धीरे ववरल होिी जा रही थीं। मुलाकािों की जगह वे पराचार करने लगे थे। लेककन लीदिया की उिासी दिन-ब- दिन गहरािी जा रही थी। आखखर जब ववरह-वेिना सहन न
हो सकी िो उन्द्होंने सुनार से एक लॉकेट बनवा शलया। एक नन्द्हीं-सी पुस्त्िक के रूप में बनाए गए उस लॉकेट पर शलखा था : ’अ.चेख़फ़, कथा-संग्रह, प.ृ 207, पँष्क्ियाँ 6-7’ । चेख़फ़ का वह कथा-संग्रह खोलने पर 207 वें पन्द्ने पर छठी और सािवीं पँष्क्ि में शलखा था -- ’यदि िुम्हें कभी मेरे प्राणों की ज़रूरि पड़े, िो बस, चले आना, और उन्द्हें ले लेना’...।
परन्द्िु लीदिया अपनी ओर से चेख़फ़ को यह उपहार भेजने की दहम्मि कभी नहीं कर पाईं। ’एक
अज्ञाि प्रिंसक’ की ओर से चेख़फ़ को मास्त्को में यह उपहार सौंप दिया गया। चेख़फ़ के पर अब कम आने लगे थे, कफर उनके नाटकों में प्रमुख भूशमकाएँ अिा करनेवाली मिहूर अशभनेरी से उनका वववाह हो गया। लीदिया अपने मन को समझाने लगी कक अब उसे उनके बबना ही जीना होगा। परन्द्िु प्रेम की आग क्या बुझाए बुझ सकिी है ? ’भूले-बबसरे पर’ नामक अपनी कहानी में लीदिया ने आखख़रकार अपने उद्गार इन िब्िों में व्यक्ि ककए -- “तुम्िािे त्रबना, तुम्िािी ख़बि पाए त्रबना जीना एक पिाक्रम निीं,
तपस्या िै । ककतना सौभाग्यिाली, ककतना सुिमय िोता िै िि क्षण जब मेिी यादों में तुम्िािी आिाज़,
मेिे िोंठों पि तुम्िािे चुम्बन की अनुभूतत उभि आती िै ... िात-हदन मेिे मन में बस तुम्िािा िी ख़याल ििता िै ”।
यह कहानी चेख़फ़ ने भी पढ़ी। भला, यह बाि उनकी समझ में कैसे न आिी कक ये पँष्क्ियाँ लीदिया ने ककसको सम्बोचधि करके शलखी हैं? वे सब कुछ समझ गए, लीदिया के मन की सारी बाि उन्द्होंने
सन ु ली और उसके जवाब में शलखी अपनी कहानी -- प्रेम की बािें । अपने मन की सारी बाि चेख़फ़ ने इस कहानी के नायक के मँह ु से कहलवा िी -- “उसके शलए मेिे प्रेम में आत्मा की सािी गििाई औि कोमलता
थी, पिन्तु मैं अपने से िि समय यि सिाल पूछता था, यहद िममें अपने प्रेम पि विजय पाने की िप्क्त
निीं ििी तो इस प्रेम का अन्त क्या िोगा? मैं इसकी कल्पना भी निीं कि सकता था कक मेिे मन में गििा
बसा यि उदासी भिा िान्त प्रेम सिसा उसके पतत औि बच्चों की प्ज़न्दगी को तबाि कि दे गा, इस पूिे घि की सुिमय जीिनचयाा को महटयामेट कि दे गा।"
लीदिया अववलोवा ने चेख़फ़ को अष्न्द्िम प्रेम-पर 1904 में शलखा था| उसी वर्ष चेख़फ़ की मत्ृ यु हो जाने
से उन िोनों को अपने ह्रिय में तनरन्द्िर चलने वाले पीड़ािायी संघर्ष से और जीवन की पररष्स्त्थतियों से जूझने की वववििा से मुष्क्ि शमल गई। लीदिया के मन में सिा यही धक ु धक ु ी लगी रहिी थी कक उन िोनों में से वही पहले यह संसार छोड़कर जाएगी, ककन्द्िु जीवन ने कुछ और ही शलखा था। उस दिन इंदस े ना ु ंचत
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अववलोव पररवार के यहाँ मेहमान आने वाले थे। लीदिया के पति ने लीदिया के पास आकर बिाया कक चेख़फ़ का िे हान्द्ि हो गया है और कफर अपनी पत्नी से सख़्िी से कहा कक कोई ववलाप नहीं होना चादहए। एक-िस ू रे से सच्चे दिल से इिना गहरा प्रेम करने वाले चेख़फ़ और लीदिया अपना जीवन बिलने और एक-िस ू रे के होकर जीने का फैसला क्यों नहीं कर पाए? ऐसा नहीं लगिा कक ककन्द्हीं बाहरी सामाष्जक
कारणों ने उन्द्हें इसके शलए वववि ककया हो। बस, एक बार बािों-बािों में लीदिया ने कहा था -- यों नािा िोड़ने पर कोई न कोई िो िख ु ी होगा ही। सामाष्जक जीवन-व्यवस्त्था के बारे में चेख़फ़ का नज़ररया बहुि
व्यापक था िो भी उन्द्होंने ररश्िा िोड़ने का किम नहीं उठाया। वह ऐसा किई नहीं कर सकिे थे। उनके शलए नैतिकिा के तनयम िोड़ने का अथष था जीवन का सामंजस्त्य, उसका सौन्द्ियष भंग करना। चेख़फ़ उन बुद्चधजीवी रूशसयों की पीढ़ी के ही थे जो जीवन को उसकी सम्पूणि ष ा और सामंजस्त्य में ग्रहण करिे थे।
इसके बाि कफर लीदिया ने पूरे 39 वर्ष इस धरिी पर चेख़फ़ के बबना बबिाए। पति से उनका िलाक हो गया। िीनों बच्चे बड़े हो गए, िीनों ने अपना-अपना पररवार बसा शलया। लीदिया ने “मेरे जीवन में
चेख़फ़” िीर्षक से संस्त्मरण शलखे, जो आज हमें उस महान रूसी लेखक की के बारे में बिािे हैं। जीवन के अष्न्द्िम वर्ष लीदिया ने पूणष एकांि में बबिाए।
इंदस े ना ु ंचत
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प्रेमचन्द की बाल किातनयााँ: बाल किातनयों औि किातनयों के संदभा में कुछ तनजी नोट्स
--प्रो. हदविक िमेि अपने इस आलेख का अरम्भ मैं एक उद्धरण से करना चाहूंगा । रमेि आज़ाि: (ककिोर सादहत्य की संभावनाएं, सम्पािक: िे वेन्द्र कुमार िे वेि, प०ृ 178): "बाल सादहत्य की यथाष्स्त्थति पर ववचार भारि में दहन्द्िी सादहत्य में खड़ी बोली के ववकास से करना पड़ेगा। इससे पहले संस्त्कृि की बालोपयोगी और ककिोरोपयोगी रचनाएं हमारे यहाँ थीं-ष्जनमें
कथासररत्सागर, पंचिन्द्र, दहिोपिे ि, जािक कथाएं, ईसप की कहातनयाँ आदि थीं। उन्द्नीसवीं सिी िक यरू ोप का प्रभामंडल भी व्याप गया था । राबबन्द्सन क्रूसो, डेववड कॉपरफील्ड, शसन्द्िबाि आदि पुस्त्िकों की ककिोरोपयोगी कहातनयों से भारिीय बच्चे पररचचि हो चक ु े थे। हमारे यहाँ भी इसका असर पड़ रहा था और इस िरह के सादहत्य का सज ृ न होने लगा था।
संस्त्कृि और अंग्रेजी पुस्त्िकों के ज़ोर-िोर से अनुवाि हुए । दहन्द्िी खड़ी बोली िब अपने ववकास की ओर अग्रसर ही थी ।कफर भी भारिेन्द्ि ु हररश्चन्द्र सत्य हररश्चन्द्र औ र अन्द्धेर नगरी चॊपट राजा जैसी नाट्य कृतियां हमारे ककिोरों के शलए शलख रहे थे, जो शिक्षाप्रि िो
थीं ही, सामाष्जक चेिना को उजागर करनेवाली रचनाएं भी थीं । ....भारिेन्द्ि ु युग के ित्कालीन अनेक लेखकों ने अपने रचनात्मक सहयोग से न केवल खड़ी बोली की प्राणप्रतिष्ठा में सहयोग दिया, अवपिु उन्द्होंने बालोपयोगी, ककिोरोपयोगी और शिक्षाप्रि रचनाएं प्रचरु मारा में शलखीं । प्रिापनारायण शमश्र, बालकृष्ण भट्ट आदि अनेक ववद्वान हैं , ष्जनके योगिान को भुलाया नहीं जा सकिा। द्वववेिी युग िक आिे-अिे यह धारा काफ़ी ववस्त्िि ृ
और ववकशसि हुई। प्रेमचन्द के ज़माने में ख़ि ु प्रेमचन्द्ि, ज़हूरबख्ि, सुििषन जै से कहानीकारों की अनेक कहातनयां आईं, ष्जनमें आज भी प्रेमचन्द्ि की कहानी ’ईिगाह’ को कोई भुला नहीं सकिा। आज भी अनेक ऐसे रचनाकार हैं, ष्जनका योगिान इतिहास में मील का
पत्थर साबबि होगा । बाल सादहत्य और ककिोर सादहत्य के सज ृ न, सम्पािन और प्रयोगों की
दििा में मौशलक उद्भावनाओं का समावेि करने वाल हररकृष्ण िे वसरे हैं .......। इसके साथ
ही श्रीप्रसाि, ववभा िे वसरे , प्रकाि मनु, प्रयाग िुक्ल, िे वेन्द्र कुमार, दिववक रमेि, सुरेन्द्र ववक्रम, मधु पंि, श्याम सुिील सरीखे अनेकानेक लेखक हैं , ष्जनका योगिान बाल सादहत्य और ककिोर सादहत्य में भुलाया नहीं जा सकिा ।" इसके साथ ही जयप्रकाि भारिी जी के मि का सहारा लेकर यह भी कहा जा सकिा है कक जहाँ िक बालक की पहली पुस्त्िक का
प्रश्न है , िो वह 1623 ई0 में जटमल द्वारा शलखखि ‘गोरा बािल की कथा’ मानी जािी है । शमश्र बंधओ ु ं ने कथा का गद्य में कहा जाना मानिे हुए पस्त् ु िक की भार्ा में खड़ी बोली का प्राधान्द्य माना है । इस कृति में मेवाड़ की महारानी पद्माविी की रक्षा करने वाले गोरा-बािल इंदस े ना ु ंचत
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की कथा है । उपयक् ुष ि मि यहाँ िे ने का आिय इिना भर है कक हल्के से बिाया जाए कक दहन्द्िी
बाल-सादहत्य
में
कहानी
या
गद्य
पूवप ष ीदठकानुमा पररदृश्य क्या है ।
लेखन
का
संकुचचि
सा,
वविेर्
रूप
से
तन:संिेह जहाँ िक दहन्द्िी में बाल कहातनयों के उिय का प्रश्न है वह भारिेन्द्ि ु युग से ही
मान शलया गया है । इस युग में एक ओर अनूदिि कहातनयाँ शमलिी हैं ष्जनमें संस्त्कृि
कहातनयाँ भी सष्म्मशलि हैं िो िस ू री और कुछ मौशलक कहातनयाँ भी उपलब्ध हो जािी हैं।
िोध के अनुसार यह भी मान शलया गया है कक शिवप्रसाि शसिारे दहन्द्ि ने सबसे पहले "राजा भोज का सपना", "बच्चों का इनाम", और "लड़कों की कहानी" जै सी मौशलक कहातनयाँ
शलखीं । वस्त्िि ु : १९वीं ििाब्िी में अंग्रेजी बालसादहत्य की प्रगति का प्रभाव दहन्द्िी सादहत्य
पर भी पड़ा। आचायष रामचन्द्र िक् ु ल के िब्िों में कहा जाए िो -"भारिेन्द्ि ु यग ु में अनेक लेखक भरिेन्द्ि ु हररश्चन्द्र से प्रभाववि थे। उन्द्होंने ित्कालीन सादहष्त्यक प्रववृ त्तयों को ही नहीं
स्त्वीकार ककया, बष्ल्क सादहत्य की ववशभन्द्न ववधाओं को समद् ृ ध ककया, ष्जनमें बाल साहित्य भी एक थी ?" लेककन जहाँ िक दहन्द्िी बाल कहानी में ववशिष्टिा के प्रारम्भ का का प्रश्न है
उसके शलए हमें प्रेमचन्द को ही याि करना होगा । सच है कक उनकी अनेक कहातनयों में
पहली बार
बाल-मन का प्रवेि हुआ भले ही वे प्राथशमक िॊर पर बड़ों के शलए शलखी कहातनयाँ ही क्यों न हों । परमानन्द्ि श्रीवास्त्िव के इस मि से सहमि हुआ जा सकिा है कक "प्रेमचन्द्ि बड़ी संवेिना के लेखक हैं , उनके यहाँ सबके शलए सादहत्य शमल जािा है बच्चों के शलए सादहत्य शमल जाएगा, ककिोरों के शलए भी शमल जाएगा ।’गुल्ली डंडा’ ककिोर
भी मज़ा लेकर पढ़े गा, बड़े लोग भी पढ़ सकिे हैं ।" प्रेमचन्द्ि की ईिगाह आदि ककिनी ही कहातनयाँ हैं बालकों और ककिोरों के मनोववज्ञान का सूक्ष्म चचरण हुआ है । इस रूप में प्रेमचन्द्ि को हम दहन्द्िी में बाल कहानी का सच्चा मौशलक रूप प्रस्त्िि ु करने वाला पहला लेखक कह सकिे हैं । बष्ल्क आगे संभव हुई बाल कहानी की परम्परा के शलए भी को टटोला जा सकिा है ।
प्रेमचन्द्ि
अभी िक हमने थोड़े-बहुि उिाहरणॊ के द्वारा यह जाना कक मल ू ि: बड़ों के शलए शलखी
गई प्रेमचन्द्ि की कहातनयों में से अनेक ऐ सी कहातनयाँ भी हैं ष्जन्द्हें हम बाल कहानी के थैले
में डाल सकिे हैं । ऐसा हुआ भी है । मसलन सादहत्य अकािमी ने ’प्रेमचन्द्ि की चतु नन्द्िा कहातनयाँ (िो भाग) प्रकाशिि ककए हैं ष्जनमें 17 कहातनयाँ हैं जो मल ू ि: बड़ों के शलए शलखी गई हैं
लेककन उन्द्हें यहँ प्रस्त्िुि ककया गया है बच्चों के शलए। इसी प्रकार नेिनल बुक रस्त्ट
इंडडया द्वारा प्रकाशिि ऐसी ही पुस्त्िक में भी ऐसा ही ककया गया है जबकक सम्पािक को प्रेमचन्द्ि की उन िमाम कहातनयों के बारे में भी जानकारी रही प्रिीि होिी है
जो मूलि:
बच्चों के शलए ही शलखी गई हैं । ऐसी कहातनयों के संबंध में सम्पािक का कहना है
-"उन्द्हें
इस संकलन में लेने का वविेर् कारण यह है कक उन कहातनयों का बच्चों से बरसों से संबंध इंदस े ना ु ंचत
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रहा है । पाठ्य-पस्त् ु िकों िथा अन्द्यर, इन कहातनयों को बचपन में पढ़कर कई पीदढ़यां बड़ी हुई हैं और उनकी छाप मन पर आज भी है । यह सत्य स्त्वीकार करना होगा कक प्रेमचंि को अचधकांि बाल पाठकों ने अपनी पाठ्य-पुस्त्िकों में उनकी कहातनयां पढ़कर ही जाना और याि रखा। बाि में पठन-रुचच वालों ने उनका सादहत्य बड़े होकर पढ़ा। इस संकलन में ये वही कहातनयां हैं ष्जनके द्वारा प्रेमचंि ने बच्चों की कई पीदढ़यों में मानवीय संवेिनाओं के साथ मानविा, न्द्याय-अन्द्याय, नैतिकिा और सामाष्जक आचार-व्यवहार से जुड़े मूल्यों और सामाष्जक ररश्िों की महत्ता का संिेि पाठकों को दिया।" लेककन मूलि: बड़ों के शलए शलखी
गई सभी कहातनयों को हू ब हू बच्चों के शलए परोसे जाने को मैं, ववनम्रिा के साथ कहना चाहूंगा, उचचि नहीं मानिा । अपने अनुभव से कहना चाहूंगा कक उनमें अनेक ऐसे स्त्थल िे खे जा सकिे हैं ष्जनकी बाल कहानी के रूप में कोई आवश्यकिा नहीं जान पड़िी । मसलन
"नमक का िारोगा" को ही लें । इसका दटप्पणीनुमा प्रारम्भ ही मेरी नगाह में , बच्चों की
दृष्ष्ट से फ़ालिू है । बाल कहानी के रूप में अच्छा होिा यदि कहानी कुछ यूं िुरु होिी--"एक थे वंिीधर । उन्द्हें नॊकरी की ज़रूरि थी । उनके वपिा चाहिे थे कक वे ऐ सी नॊकरी करें ष्जसमें ऊपर की आय हो। ......." में यह गुण है
कहने का िात्पयष यह है कक प्रेमचन्द्ि की अनेक कहातनयों
कक उन्द्हें संपादिि करके या उनका पुनलेखन करके उन्द्हें उत्कृष्ट बाल
कहातनयाँ बनाया जा सकिा है । कहातनयाँ ही नहीं प्रेमचन्द्ि के उपन्द्यासों के भी ककिोर संस्त्करण तनकाले जा सकिे हैं बष्ल्क तनकाले जाने चादहए । अन्द्य बड़े लेखकों के संिभष में भी यही कहा जा सकिा है । आगे बढ़ने से पूवष सादहत्य और बालक के बारे में प्रेमचन्द्ि के ववचारों का जान लेना अछा
रहे गा क्योंकक उनमें उनकी दृष्ष्ट के ििषन होिे हैं और वह उनके सादहत्य और बाल सादहत्य में भी अनुस्त्यूि नज़र आिी है । सभापति के पि से प्रगतििील लेखक संघ के पहले
अचधवेर्ण में उन्द्होंने कहा था -‘‘हमारी कसौटी पर वही सादहत्य खरा उिरे गा ष्जसमें उच्च चचन्द्िन हो, स्त्वाधीनिा का भाव हो, सौंियष का सार हो, सज ृ न की आत्मा हो, जीवन की सचाइयों का
प्रकािन हो–जो हममें गति, संघर्ष और बेचन ै ी पैिा करे , सुलायें नहीं क्योंकक अब और सोना मत्ृ यु का लक्षण है ।’’ इससे पूवष हं स के एक संपािकीय में बच्चे को लेकर उनका ववचार था -"—‘बालक को प्रधानिः ऐसी शिक्षा िे नी चादहए कक वह जीवन में अपनी रक्षा आप कर सके। बालकों में इिना वववेक होना चादहए कक वे हर एक काम के गुण-िोर् को भीिर से िे खें।’ अच्छी बाि यह है कक बाि के समय में ही सही, प्रेमचन्द्ि ने बच्चों के शलए वविेर् रूप से ऐसी कहातनयाँ शलखीं जो मूलि: बच्चों के ही शलए हैं। आज उनका समग्र बाल सादहत्य उपल्ब्ध है । एक ही ष्जल्ि में िे खना हो िो डॉ कमल ककिोर गोयनका द्वारा संपादिि पुस्त्िक "प्रेमचन्द्ि: बाल-सादहत्य समग्र" को िे खा जा सकिा है ष्जसका प्रकािन दिल्ली मेधा बुक्स ने ककया है इंदस े ना ु ंचत
के
। प्रेम्चन्द्ि की बाल-सादहत्य की 7 पुस्त्िकें हैं। इनमें "जंगल की
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कहातनयाँ" और "कुत्ते की कहानी" सवाषचधक प्रशसद्ध हैं जो सज ृ नात्मक सादहत्य के अन्द्िगषि
आिी हैं। कुत्ते की कहानी एक लम्बी कहानी है ष्जसे बाल-उपन्द्यास कहना अचधक उपयक् ु ि होगा। साथ ही महापुरुर्ों को लेकर उनका बालपोयोगी जीवनी सादहत्य शमलिा है । ऐसे
सादहत्य को हम जानकारी पूणष सादहत्य भी कह सकिे हैं । उनकी एक ववशिष्ट पुस्त्िक है -
राम चचाष । पहले यह उिष ू में प्रकाशिि हुई थी। इस पुस्त्िक की भूशमका में प्रेमचन्द्ि ने शलखा, "दहन्द्िओ ु ं में िो ऐसे महापुरुर् हुए हैं , ष्जन्द्हें ईसवर का अविार माना जािा है -एक कृष्ण
और िस ू रे हैं राम। ...यह रुिबा रामचन्द्र जी को कै से हाशसल हुआ, आज हम िुम्हें वही ककस्त्सा कहिे हैं। दिल लगाकर पढ़ो । हमें उम्मीि है कक इस लासानी (अद्वविीय) बुजुगष के हालाि ध्यान से पढ़ोगे और उनसे सबक हाशसल करोगे ।" रामचन्द्र को लेकर इस प्रकार की पुस्त्िक किाचचि पहली बार शलखी गई थी ष्जसकी प्रिंसा गांधी जी ने भी की थी। ध्यान िे ने
वाली बाि यह भी है कक प्रगतििील ववचारों के प्रेमचन्द्ि ने रामचन्द्र को महापुरुर् ही माना
है । गोकी आदि की िरह प्रेमचन्द्ि का भी बालक को लेकर ककया गया चचन्द्िन बहुि महत्त्वपूणष है । प्रेमचन्द्ि की बाल-कृतियां इस प्रकार हैं : माहात्मा िेख सािी, राम चचाष, जगंल की कहातनयां, कुत्ते की कहानी, िग ु ाषिास और क़लम, िलवार और त्याग (िो भाग) ।
जंगल की 12 कहातनयों को पढ़ें िो पाएंगे कक ये जंगल के प्राखणयों से जुड़ी कहातनयाँ
हैं । िीर्षक हैं: िेर और लड़का, बनमानुर् की ििष नाक कहानी, िक्षक्षण अफ्रीका में िेर का
शिकार, गुब्बारे का चीिा, पागल हाथी, साँप की मखण, बनमानुर् का खानसामा, शमट्ठू, पालिू भालू, बाघ्ह की खाल, मगर का शिकार, और जुड़वा भाई ।
छोटे -छोटे आकार की हैं।
ये
तनरी पि-ु पक्षक्षयों की कहातनयाँ नहीं हैं । अंिि: ये मानवीय संवेिनाओं का ही साक्षाि करािी हैं । मज़ेिार बाि यह है
कक इनमें जानवर पार और मानवीय पार िोनों की ही भूशमका
अपने अतनवायष रूप में है । बालक और मनुष्य के ही नहीं बष्ल्क, लगने लगिा है , कक जानवरों के मनोववज्ञान को भी प्रेमचन्द्ि बखब ू ी समझिे थे। जानवरों के मन की बािों की
ऐसी पकड़ औ र उसकी अशभव्यष्क्ि सादहत्यकारों में िभ ष ही होिी है । अक्सर िो जानवरों ु ल का मानवीयकरण ही कर दिया जािा है । लेककन प्रेमचन्द्ि जानवरों को जनवरों के रूप में ही
मौजूि रखिे हुए उनके अन्द्िमषन को बाहर लाने में सक्षम नज़र आिे है भले ही उन्द्हें वाणी मानवीय पारों की सी िी गई हो । मल ू ि: बड़ों के शलए शलखी कहातनयों में "िो बैलों की
कथा" में यही कमाल उजागर हुआ है । एक कुत्ते की कहानी में भी ऐसा ही िे खा जा सकिा है । ऐसी कहातनयां जहां एक ओर पिु जगि से पररचचि करािी हैं वहीं पिओ ु ं के प्रति संवेिनिील बनाने में भी कारगर शसद्ध होिी हैं। पंचिंर के कहानी-शिल्प से ये कहातनयां हट
कर हैं। कभी-कभी सोचिा हूं कक "प्रेमचन्द्ि के जानवरों का मनोववज्ञान" ववर्य पर भी िोध होना चादहए। जंगल की कहातनयो के ववस्त्िार में जाने से पव ू ष यह भी बिाना चाहूंगा कक प्रेमचन्द्ि की इन कहातनयों में साहस और रोमांच अचधक शमलिा है । शिकार करना हावी है । अि: इन्द्हें शिकार की कहातनयाँ भी कहा जा सकिा है । मुगली और रोबबन्द्हुड की भी याि आ इंदस े ना ु ंचत
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जािी है । इन्द्हें बड़ों को भी अवश्य पढ़ना चादहए। यहीं यह भी बिा िं ू कक आज जबकक जानवरों के िॊककया शिकार की बाि गले से नहीं उिरिी ऐसे में कम से कम प्रेमचन्द्ि की एक कहानी "मगर का शिकार" इस क्रूर
यथाथष को लेखकीय
में एक क्रूर यथाथष भी सामने आिा है
। दिक्कि यह है कक
स्त्वीकृति भी शमल गई है जो छोटे -बड़े ककसी को भी
अस्त्वीकायष होगी। उिाहरण के शलए यह वणषन िे खखए:"मैं पार जाना भूल गया । वहीं मगर का शिकार िे खने के शलए ठहर गया। िे खा कक लोगों ने उस बकरी के बच्चे को एक पेड़ के नीचे
बांध दिया । वह पेड़ िररया से कुल बीस गज़ पर था। इसके बाि उन्द्होंने एक हाँडी से कुछ जोंक तनकाले और उन्द्हें बकरी के बच्चे पर लगा दिया। जब बच्चा में -में करने लगा िो हम
लोग एक पेड़ की आड़ में तछप गए और मगर का इंिज़ार करने लगे ।" बेिक यह कहानी एक तनिोर् मगरमच्छ के शिकार करने की एक दिलचस्त्प जानकारी रोमांचकारी ककस्त्से की िॆली में िे िी है उठिी है
लेककन इसके अतिररक्ि कुछ नहीं करिी। बष्ल्क अपने चचरण में क्रूर हो
। अि: इसे अप्रेमचन्द्िीय कहानी ही कहा जा सक्िा है । यह अपवाि स्त्वरूप ही है ।
यहीं एक िस ू री कहानी िे खखए’ शमट्ठू’’। यह एक बंिर है । शमट्ठू सरकस का जानवर है ।
गोपाल को वह बहुि अच्छा लगिा है । वह उसे मटर, केले आदि खब ू खखलािा है । सरकस के जाने की बाि सुनी िो गोपाल उिास हो जािा है । माँ से से मांगिा है िाकक बंिर खरीि कर ला सके। माशलक अपने बंिर को अभी बेचना नहीं चाहिा । गोपाल शमट्ठू को इधर-उधर ढूंढने लगा लेककन बेध्यानी में एक चीिे के वपंजरे के पास जा पहुंचा । चीिा उसके हाथ को पकड़ेन ही वाला था कक शमट्ठू ने खुि जख्मी होकर उसे बचा शलया । शमट्ठू बेहोि िक हो गया। उसका इलाज हुआ औ र वह अच्छा हो गया । गोपाल उसके पास रोज़ आिा औ र प्यार करिा। आखखर सरकस के माशलक ने मफ् ु ि में ही बंिर गोपाल को िे दिया।
"िोनों खेलिे-कूििे घर पहुंच गए।" जानवर के प्रति मनष्ु य की औ र मनष्ु य के प्रति जानवर की गहरी संवेिना, आत्मीयिा, शमरिा, कृिज्ञिा को यह कहानी बखब ू ी बच्चे की ितु नया में
आत्मसाि करने में सक्षम है । और वह भी बबना बड़बोली हुए । बबना शिक्षा िे ने के अतिररक्ि भार से बोखझल हुए। एक कहानी जड़ ु वां भाई का ष्जक्र भी करना चाहूंगा। यह कहानी एक ऐ सी औ रि की कहानी से िरु ु होिी है जो ककसान की पत्नी है
और ककसान
उसे मख ू ष मिष की िरह बि बाि पर पीटिा था । इस औरि के जड़ ु वां बच्चे हुए । एक को भालू उठा ले गया। यहां भालू का चचरण पढ़ने लायक है : " भालू उस बच्चे को ले जाकर अपनी मांि में घस ु गाया और बच्चों के पास छोड़ दिया । बच्चे को हँ सिे-खेलिे िे खकर भालू के बच्चों को न मालम ू कैसे उस पर िरस आ गया।
पिु कभी-कभी बालकों पर िया करिे
हैं । यह लड़का भालू के बच्चों के साथ रहने लगा । " सच िो यह है
कक प्रेमचन्द्ि की ये
कहातनयां कहीं से भी उपिे ि या शिक्षा के अतिररक्ि भार से बोखझल नहीं हैं
। और अन्द्िि:
अपने सुखि अन्द्ि से ववभोर करने वाली भी हैं । कहीं-कहीं आििष का स्त्वर ज़रूर फूटा है
लेककन अचधकिर स्त्वाभाववक रूप मे । साहस, ववपवत्त में भी सूझबूझ से काम लेना आदि
इन कहातनयों में भरपूर है । मूसीबिों का गहरा और परे िान कर िे ने वाला चचरण भी है िो इंदस े ना ु ंचत
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उनसे के
तनकलने
के
सझ ू बझ ू
भरे
साहसी
रास्त्िे
भी।
वस्त्िि ु :
ये
कहातनयां
बालक
आत्मववश्वास को जागि ृ करने में नायाब भशू मका तनभा सकिी हैं । ज़मीनी पकड़ बराबर
बनी रहिी है , कोरी आसमानी उड़ानें या कहें िरू की कॊडड़यां कम ही हैं । न के बराबर । अि: ये केवल चॊंकािी नहीं है । "गुब्बारे का चीिा" कहानी में कल्पना की उड़ान है । बलिे व और चीिा िोनों ही उड़ेिे हुए गुब्बारे पर चढ़ गए थे । आगे की कहानी दिलचस्त्प है । लेककन यह कहानी भी और कहातनयों की िरह ष्जज्ञासा औ र ववश्वसनीयिा को साथ लेकर चलिी
है । प्रेमचन्द्ि की कुछ कहातनयों को संकुचचि और आंशिक अथष में वॆज्ञातनक कहातनयां भी कहा जा सकिा है
क्योंकक लेखकीय दृष्ष्ट वॆज्ञातनक है । उनकी एक कहानी है -"साँप की मखण" ।
इसका अंि िे खखए ष्जसके द्वारा मखण के रहस्त्य को खोला गया है -"ियाषफ्ि करने पर मालूम हुआ कक यह एक ककस्त्म का पत्थर है , जो गमष होकर अँधेरे में जलने लगिा है । जब िक वह ठं डा नहीं हो जािा, वह इसी िरह रोिन रहिा है । साँप इसे दिन-भर अपने मँह ु में रखिा है , िाकक यह गमष रहे । राि को वह इसे ककसी जंगल में तनकालिा है और इसकी रोिनी में कीड़े-मकोड़े पकड़कर खािा है ।" कुत्ते की कहानी, जैसा कह चक े में इिना ही कक ु ा हूं वस्त्िि ु : बाल-उपन्द्यास ही है । संक्षप 10 भागों में बँटी यह कहानी एक माँ के जाए िो कुत्तों की कहानी है ष्जनके नाम कल्लू और जककया है । अपनी बहािरु ी और भा्य से कल्लू (जो कथावाचक भी है ) साहबी में
पलिा है
अि: सुख सुववधाओं से सम्पन्द्न है । अपने कररश्माई कारनामों के कारण उसे
लोग िे विा का िजाष िे ने लगिे हैं
। प्रेमचन्द्ि कुत्ते के मँह ु से कहलावािे हैं ,"िायि सब
समझ रहे थे, यह कोई िे विा है और इस रूप में संसार का कल्याण करने आया है ।
जेण्टलमैन लोग िे विा का अथष िो न समझिे थे. पर कोई गॆर-मामूली, चमत्कारी जीव
अवश्य समझ रहे थे। कई िे ववयों ने िो मेरे पांव भी छुए । मुझे उनकी मूरख्िा पर हँ सी आ रही थी । आिशमयों में भी ऐसे-ऐसे अक्ल के अन्द्धे मौजूि हैं ।" साहस, रोमांच औ र सूझबूझ की िरकीबों से
भरी यह कहानी एक ऋपक के रूप में पढ़ी जा सकिी है
लेककन बालक इसे
कुत्ते की कहानी के रूप में ही पढ़ें गे औ र आनन्द्ि उठाएंगे । कहानी का अंि प्रेमचन्द्ि के
सविंरिा के शसद्धान्द्ि की पुष्ष्ट करिा है -"मगर अब यह मान-सम्मान मुझे बहुि अखरने लगा है । यह बड़प्पन मेरे शलए कैि से कम नहीं है । उस आज़ािी के शलए जी िड़पिा रहिा है , जब मैं
चारों िरफ मस्त्ि घूमा करिा था । न जाने आिमी साधु बनकर मुफ्ि का
माल कै से उड़ािा है ! मुझे िो सेवा करने में जो आनन्द्ि शमलिा है , वह सेवा पाने में नहीं शमलिा, ििांि भी नहीं ।"
वविेर् रूप से बालकों के शलए शलखी गई इन कहातनयों की भार्ा-िॆली भी बहुि सहज-सरल है । बाल-सुलभ प्राय: छोटे -छोटे सरल वाक्य हैं । शलख िं ू कक आगे चलकर छोटे -छोटे वाक्यों वाला गुण जयप्रकाि भारिी जी कहातनयों में िे खिे ही बनिा है । वणषन िॆली में शलखी गई इंदस े ना ु ंचत
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इन कहातनयाँ बालक को अपने से जोड़ने में सफल हैं
और इनमें वाचचकिा का या कहन
िॆली का भी अद्भि ु गण ु है । लोककथाएं न होिे हुए भी इनमें लोककथाओं का सा मज़ेिार स्त्वाि है । मूलि: बड़ों के शलखी गई कुछ कहातनयों के प्रारम्भ करने की दटप्पणीनुमा िॆली यहां भी शमलिी है लेककन कहानी क आकार के अनुपाि में । बीच-बीच में भी लेखकीय सुष्क्ियां शमल जािी हैं। अच्छी बाि यह है कक वे अचधक व्यवधान पैिा नहीं करिीं ।
जैसा ऊपर संकेि दिया जा चक ु ा है मैं प्रेमचन्द्ि की मूलि: बड़ों के शलए शलखी गई कहातनयों
को हू ब हू उसी रूप में बाल कहातनयों के रूप में बालकों को परोसने के पक्ष में नहीं हूं । यह कुिकष ही है कक क्योंकक हम उन कहातनयों को बच्चों को पाठ्यक्रम रख कर या यंू भी पढ़ािे आए हैं अि: उन्द्हें बाल कहातनयाँ मान शलया जाए । मजबरू ी को प्रतिमान नहीं
बनाया जाना चादहए । तनष्श्चि रूप से, बाल कहानी की दृष्ष्ट से िॆयार ककए गए उनके सम्पादिि रूप या
पन ु शलषखखि रूप ही बला कहातनयों की श्रेणी में शलए जाने चादहए । मल ू ि:
बड़ों के शलए शलखी गईं ष्जन कहातनयों को प्राय: बाल कहातनयों के रूप में भी चगना जािा है
उनमें बोध, नमक का िारोगा, स्त्वत्व-रक्षा, नािान-िोस्त्ि, सत्याग्रह, नेउर, सज ु ान भक्ि, सभ ु ागी, कोई ि:ु ख न हो िो बकरी ख़रीि लो, बड़े भाई साहब, ईिगाह, गल् ु ली-डण्डा, िो बै लों
की कथा, परीक्षा, बड़े घर की बेटी, रामलीला, कजाकी आदि को सष्म्मशलि ककया जािा है । तन:संिेह इन कहातनयों में बाल-मनोववज्ञान की दृष्ष्ट से सफल चचरण शमलिा है मनोववज्ञान को समझने के शलए ये ऐ सी कहातनयाँ हैं
और बाल
जो बड़ों के शलए महत्तवपूणष भी हैं ।
यही नहीं इनमें बालकों के शलए प्रेरणािायी सामग्री भी है । उनमें
बच्चों में नैतिकिा, साहस,
स्त्विंर-ववचार, अशभव्यष्क्ि और आत्मरक्षा की भावना जगाने वाले ित्त्व भी मौजूि हैं। कुछ कहातनयां ऐ सी भी हैं ष्जनमें बड़ी आयु के हो जाने पर बचपन को याि ककया गया है ।
कफर
भी अपने अखण्ड रूप में वे बच्चों के शलए बाल कहातनयां नहीं कही जा सकिीं। हां उन्द्हें बाल-कहातनयां या ककिोर कहातनयां बनाया जा सकिा है । ठीक है अभाव के चलिे ऐ से उिाहरण शमल जांएगें ष्जनसे यह शसद्ध ककया जा सके कक दहन्द्िी ही नहीं अन्द्य भार्ाओं में भी ऐ सी कालजयी कृतियां हैं ष्जन्द्हें बड़ी आयु के पाठकों के शलए शलखा गया था और वे बालकों की पसन्द्ि की भी हैं, लेककन आज जब दहन्द्िी में बाल-कहानी अपने उत्कृष्ट रूप में शलखी जा रही है
िो यह भ्रम क्यों फैलाया जाए कक बड़ी आयु के पाठकों के शलए शलख कर
भी कोई लेखक बाल कहानीकार कहलाया जा सकिा है आस्त्था रखिे
। यदि प्रेमचन्द्ि भी ऐसे भ्रम में
िो वे किाचचि "जंगल की कहातनयां" जैसी बाल कहातनयां न शलखिे । आज
ऐसी बाल-पबरकाएं भी िे खी जा सकिी हैं ष्जनमें बड़ों के शलए शलखी गई रचनाओं को बाल रचनाओं के रूप में प्रस्त्िुि कर दिया जािा है । प्रेमचन्द्ि की
"गुल्ली-डण्डा को ही लें ।
प्रारम्भ का एक बड़ा अंि तनबंधनुमा अचधक है और उसे आसानी से तनकाला जा सकिा है ।
िो भी चचडड़या और चचडड़या के अण्डो को लेकर शलखी गई ’नािान िोस्त्ि’ जैसी कहानी
(लगभग) बाल कहानी इंदस े ना ु ंचत
कही जा सकिी है ।
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अच्छी बाि है कक आज जब प्रेमचन्द्ि के सादहष्त्यक योगिान की बाि आिी है िो प्राय:शलखा यही जािा है
कक कुल 15 उपन्द्यास, 300 से अचधक कहातनयां, 3 नाटक, 10
अनुवाि, 7 बाल पुस्तकें िथा हज़ारों पष्ृ ठों के लेख, सम्पािकीय भार्ण, भूशमका, पर आदि कक रचना की ।
इस संिभष िायि ही कोई अपवाि हो ।
संक्षक्षतत परिचय हदविक िमेि-हिंदी के िरिष्ठ एिं प्रततप्ष्ठत कवि, बाल साहित्यकाि ऒि अनि ु ादक िैं । इनकी अब िक 60 से ऊपर पस्त् ु िकें प्रकाशिि हो चक ु ी हैं
ष्जनमें रास्त्िे के बीच, गेहूं घर आया है ,
बाँचो शलखी इबारि, माँ गाँव में है आदि 9 कवविा संग्रह, काव्य-नाटक खण्ड-खण्ड अष््न, अनुवाि और आलोचना ( कोररयाई कवविा-यारा, संवाि भी वववाि, समझा परखा’ दहंिी बाल-
सादहत्य: कुछ पड़ाव आदि) की अनेक पुस्त्िकें िथा लगभग 45 बाल सादहत्य की पुस्त्िकेँ (एक सौ एक बाल कवविाएं, समझिार हाथी: समझिार चींटी, लूल की सनक, अपने भीिर झाकों, बल्लू हाथी का बालघर आदि), सष्म्मशलि हैं।सोववयि लैंड नेहरू अवाडष, दहन्द्िी अकािमी का
सादहत्यकार सम्मान,एन.सी.ई.आर.टी. का बाल राष्रीय पुरस्त्कार, उत्तर प्रिे ि दहन्द्िी संस्त्थान
का सवोच्च बाल सादहत्य भारिी सम्मान आदि अनेक प्रतिष्ष्ठि सम्मान/पुरस्त्कार शमल चक ु े हैं ।ये दिल्ली ववश्वववद्यालय के प्राचायष पि से सेवातनवि ृ है और एक लंबे समय के शलए कोररया में अतिचथ आचायष के पि पर कायष कर चक ु े हैं।अनेक िे िों की याराएं कर चक ु े हैं।
जन्म: गाँव ककराड़ी (दिल्ली), 6 फरवरी, 1946, संपका: बी-295, सेक्टर -20, नोएडा-201301, मो- 9910177099 divik_ramesh@yahoo.com
इंदस े ना ु ंचत
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हिन्दी किानी के वपतामि, प्रेमचंद
प्रो॰ सी.बी.श्रीिास्ति ‘विदग्ि’ प्रेमचंि, दहन्द्िी और उिष ू के महानिम भारिीय लेखकों में से एक हैं। उनका मूल नाम
धनपि राय श्रीवास्त्िव था । ववख्याि उपन्द्यासकार िरिचंर चट्टोपाध्याय ने उन्द्हें उपन्द्यास
सम्राट कहकर संबोचधि ककया । प्रेमचंि ने दहन्द्िी कहानी और उपन्द्यास की एक ऐसी परं परा का ववकास ककया ष्जसने पूरी ििी के सादहत्य का मागषििषन ककया। प्रेमचंि ने सादहत्य की यथाथषवािी परं परा की नींव रखी। उनका लेखन दहन्द्िी सादहत्य की एक ऐसी ववरासि है
ष्जसके बबना दहन्द्िी के ववकास का अध्ययन अधरू ा होगा। वे एक संवेिनिील लेखक, सचेि
नागररक, कुिल वक्िा िथा सुधी संपािक थे। बीसवीं ििी के पूवाषद्षध में , जब दहन्द्िी की िकनीकी सुववधाओं का अभाव था, उनका योगिान अिुलनीय है ।
प्रेमचंि का जन्द्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी के तनकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी मािा का नाम आनन्द्िी िे वी था िथा वपिा मुंिी अजायबराय लमही में डाकमुंिी थे।
उनकी शिक्षा का आरं भ उिष ,ू फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से। पढ़ने का िौक उन्द्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्द्होंने तिशलस्त्मे होिरूबा पढ़ शलया और उन्द्होंने उिष ू के मिहूर रचनाकार रिननाथ 'िरसार', शमरजा रुसबा और मौलाना िरर के उपन्द्यासों से पररचय प्राप्ि कर शलया । १८९८ में मैदरक की परीक्षा उत्तीणष करने के बाि वे एक स्त्थानीय ववद्यालय में शिक्षक तनयुक्ि हो गए। नौकरी के साथ ही उन्द्होंने पढ़ाई जारी रखी १९१० में उन्द्होंने अंग्रेजी, ििषन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास ककया और १९१९ में
बी।ए। पास करने के बाि शिक्षा ववभाग के इंस्त्पेक्टर पि पर तनयक् ु ि हुए। साि वर्ष की अवस्त्था में उनकी मािा िथा चौिह वर्ष की अवस्त्था में वपिा का िे हान्द्ि हो जाने के कारण उनका जीवन संघर्षमय रहा। उनका पहला वववाह उन दिनों की परं परा के अनुसार पंरह साल
की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। वे आयष समाज से प्रभाववि रहे , जो उस समय का बहुि बड़ा धाशमषक और सामाष्जक आंिोलन था। उन्द्होंने ववधवा-वववाह का समथषन ककया और १९०६ में िस ू रा वववाह अपनी प्रगतििील परं परा के अनुरूप बाल-ववधवा शिवरानी िे वी से ककया। उनकी िीन संिाने हुईं- श्रीपि राय, अमि ृ राय और कमला िे वी श्रीवास्त्िव। १९१० में उनकी रचना सोजे-विन (राष्र का ववलाप) के शलए हमीरपुर के ष्जला कलेक्टर ने िलब ककया और उन पर जनिा को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-विन की सभी प्रतियाँ जब्ि कर नष्ट इंदस े ना ु ंचत
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कर िी गईं। कलेक्टर ने नवाबराय को दहिायि िी कक अब वे कुछ भी नहीं शलखें गे, यदि
शलखा िो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय िक प्रेमचंि ,धनपि राय नाम से शलखिे थे। उिष ू में प्रकाशिि होने वाली ज़माना पबरका के सम्पािक और उनके अजीज िोस्त्ि मुंिी
ियानारायण तनगम ने उन्द्हें प्रेमचंि नाम से शलखने की सलाह िी। इसके बाि वे प्रेमचन्द्ि के नाम से शलखने लगे। उन्द्होंने आरं शभक लेखन ज़माना पबरका में ही ककया। जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रुप से बीमार पड़े। उनका उपन्द्यास मंगलसूर पूरा नहीं हो सका और लम्बी
बीमारी के बाि ८ अक्टूबर १९३६ को उनका तनधन हो गया।उनका अंतिम उपन्द्यास मंगल सूर उनके पुर अमि ृ ने पूरा ककया।
प्रेमचंि आधतु नक दहन्द्िी कहानी के वपिामह माने जािे हैं। यों िो उनके सादहष्त्यक जीवन का आरं भ १९०१ से हो चक ु ा था , पर उनकी पहली दहन्द्िी कहानी सरस्त्विी पबरका के दिसंबर अंक
में १९१५ में सौि नाम से प्रकाशिि हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से छपी । मरणोपरांि उनकी कहातनयाँ मानसरोवर नाम से 8 खंडों में प्रकाशिि हुई। कथा सम्राट प्रेमचन्द्ि का कहना था कक सादहत्यकार िे िभष्क्ि और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई
नहीं बष्ल्क उसके आगे मिाल दिखािी हुई चलने वाली सच्चाई है । यह बाि उनके सादहत्य में उजागर हुई है । १९२१ में उन्द्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ िी। कुछ
महीने मयाषिा पबरका का संपािन भार संभाला, छह साल िक माधरु ी नामक पबरका का संपािन ककया, १९३० में बनारस से अपना माशसक पर हं स िुरू ककया और १९३२ के आरं भ में
जागरण नामक एक साप्िादहक और तनकाला। उन्द्होंने लखनऊ में १९३६ में अखखल भारिीय प्रगतििील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षिा की। उनकी अचधकांि रचनाएं मूल रूप से
उिष ू में शलखी गई हैं लेककन उनका प्रकािन दहंिी में पहले हुआ। िैंिीस वर्ों के रचनात्मक जीवन में वे सादहत्य की ऐसी ववरासि सौप गए जो गुणों की दृष्ष्ट से अमूल्य है और आकार की दृष्ष्ट से असीशमि।
प्रेमचन्द्ि की रचना-दृष्ष्ट ववशभन्द्न सादहत्य रूपों में प्रवत्त ु ी प्रतिभा संपन्द्न ृ हुई। बहुमख प्रेमचंि ने उपन्द्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पािकीय, संस्त्मरण आदि अनेक ववधाओं में सादहत्य की सष्ृ ष्ट की। प्रमख ु िया उनकी ख्याति कथाकार के िौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्द्यास सम्राट’ की उपाचध से सम्मातनि हुए। उन्द्होंने कुल १५ उपन्द्यास, ३०० से कुछ अचधक कहातनयाँ, ३ नाटक, १० अनव ु ाि, ७ बाल-पस्त् ु िकें िथा हजारों पष्ृ ठों के लेख, सम्पािकीय, भार्ण, भूशमका, पर आदि की रचना की लेककन जो यि और प्रतिष्ठा उन्द्हें
उपन्द्यास और कहातनयों से प्राप्ि हुई, वह अन्द्य ववधाओं से प्राप्ि न हो सकी। यह ष्स्त्थति दहन्द्िी और उिष ू भार्ा िोनों में समान रूप से दिखायी िे िी है । प्रेम चंद के चधचात कुछ उपन्यास : सेवासिन १९१८, प्रेमाश्रम१९२२, रं गभूशम १९२५,
तनमषला१९२५, कायाकल्प१९२७, गबन १९२८, कमषभूशम १९३२, गोिान १९३६, मंगलसूर (अपूण)ष इंदस े ना ु ंचत
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डॉ॰ कमलककिोर गोयनका ने प्रेमचंि की संपण ू ष दहंिी-उिष ू कहानी को प्रेमचंि कहानी
रचनावली नाम से प्रकाशिि कराया है । उनके अनस ु ार प्रेमचंि ने कुल ३०१ कहातनयाँ शलखी हैं ष्जनमें ३ अभी अप्राप्य हैं। प्रेमचंि का पहला कहानी संग्रह सोज़े विन नाम से जून १९०८ में
प्रकाशिि हुआ। इसी संग्रह की पहली कहानी ितु नया का सबसे अनमोल रिन को आम िौर पर उनकी पहली प्रकाशिि कहानी माना जािा रहा है । डॉ॰ गोयनका के अनस ु ार कानपूर से तनकलने वाली उिष ू माशसक पबरका ज़माना के अप्रैल अंक में प्रकाशिि सांसाररक प्रेम और िे ि-
प्रेम (इश्के ितु नया और हुब्बे विन) वास्त्िव में उनकी पहली प्रकाशिि कहानी है । जीवन काल में उनके कुल नौ कहानी संग्रह प्रकाशिि हुए- 'सप्ि सरोज', 'नवतनचध', 'प्रेमपूखणषमा', 'प्रेमपचीसी', 'प्रेम-प्रतिमा', 'प्रेम-द्वाििी', 'समरयारा', 'मानसरोवर' िो भागो में , और 'कफन'। उनकी मत्ृ यु के बाि उनकी कहातनयां 'मानसरोवर' िीर्षक से 8 भागों में प्रकाशिि हुई। उन्द्होंने समाजसुधार, िे िप्रेम, स्त्वाधीनिा संग्राम आदि से संबंचधि कहातनयाँ शलखी हैं। उनकी ऐतिहाशसक कहातनयाँ िथा प्रेम संबंधी कहातनयाँ भी काफी लोकवप्रय साबबि हुईं। प्रेमचंि की प्रमुख कहातनयों में ये नाम शलये जा सकिे हैं - 'पंच परमेश्वर', 'गुल्ली डंडा', 'िो बैलों की कथा',
'ईिगाह', 'बडे भाई साहब', 'पूस की राि', 'कफन', 'ठाकुर का कुआँ', 'सद्गति', 'बूढी काकी', 'िावान', 'ववध्वंि', 'िध ू का िाम', 'मंर' आदि।
प्रेमचंि ने 'संग्राम' (1923), 'कबषला' (1924), और 'प्रेम की वेिी' (1933) नाटकों की भी रचना
की। ये नाटक शिल्प और संवेिना के स्त्िर पर अच्छे हैं लेककन उनकी कहातनयों और उपन्द्यासों ने इिनी ऊँचाई प्राप्ि कर ली थी कक नाटक के क्षेर में प्रेमचंि को नाम नही शमला । प्रेमचंि एक संवेिनिील कथाकार ही नहीं, सजग नागररक व संपािक भी थे। उन्द्होंने 'हं स', 'माधरु ी', 'जागरण' आदि पर-पबरकाओं का संपािन करिे हुए व ित्कालीन अन्द्य सहगामी सादहष्त्यक पबरकाओं 'चांि', 'मयाषिा', 'स्त्विे ि' आदि में अपनी सादहष्त्यक व सामाष्जक चचंिाओं को लेखों या तनबंधों के माध्यम से अशभव्यक्ि ककया। । प्रेमचंि एक सफल अनव ु ािक भी थे। उन्द्होंने िस ू री भार्ाओं के ष्जन लेखकों को पढ़ा और
ष्जनसे प्रभाववि हुए, उनकी कृतियों का अनव ु ाि भी ककया। 'टॉलस्त्टॉय की कहातनयां' (1923), गाल्सविदी के िीन नाटकों का 'हड़िाल' (1930), 'चांिी की डडबबया' (1931) और 'न्द्याय' (1931)
नाम से अनव ु ाि ककया। उनके द्वारा रिननाथ सरिार के उिष ू उपन्द्यास 'फसान-ए-आजाि' का
दहंिी अनव ु ाि 'आजाि कथा' बहुि मिहूर है । समाज को अपने इस महान िािषतनक, सम्वेिनिील ,पररवेि के सूक्ष्म तनरीक्षक और उसे जनभार्ा में सहज ग्राह्य िरीके से अशभव्यक्ि करने की कला में पारं गि लेखक पर गवष है ।
इंदस े ना ु ंचत
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प्रेमचंद का भाषा विमिा गिु ा मकोंडा नीिजा प्रेमचंि (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) अपने समय के शलए ष्जिने प्रासंचगक थे आज भी वे उिने
ही प्रासंचगक हैं । "यह िथ्य इस बाि से ही प्रमाखणि हो जािा है कक आज िशलि ववमिष, स्त्री ववमिष, बाजारीकरण, भ्रष्ट व्यवस्त्था, संवेिनात्मक छीजन आदि पर जब भी कहीं चचाष होिी है िो वह अंििः प्रेमचंि के ही इिष -चगिष आकर अपनी साथषकिा पािी है । प्रेमचंि की भार्ा भी आज िक नए गद्यकारों का आििष बनी हुई है । यह अलग बाि है कक प्रेमचंि के तनकट कोई नहीं पहुँच सका। " (संपािकीय, प्रेमचंि की भार्ाई चेिना, (सं) प्रो.दिलीप शसंह, प्रो.ऋर्भ िे व िमाष, प.ृ 5). मानव जीवन में भार्ा की भूशमका तनववषवाि है चँ कू क भार्ा के अभाव में मनुष्य केवल जैववक जंिु है ।
भार्ा ही वह चीज है जो उसे समाज-सांस्त्कृतिक प्राणी के रूप में पररवतिषि करिी है । िायि इसीशलए
प्रेमचंि ने अपने एक व्याख्यान में कहा था, "जीववि भार्ा िो जीववि िे ह की िरह बनिी है । भार्ा सुंिरी को कोठरी में बंि करके आप उसका सिीत्व िो बचा सकिे हैं, लेककन उसके स्त्वास्त्थ्य का मूल्य िे कर। उसकी आत्मा इिनी बलवान बनाइए कक वह अपने सिीत्व और स्त्वास्त्थ्य िोनों की ही रक्षा कर
सके। *** हमारा आििष िो यह होना चादहए कक हमारी भार्ा अचधक से अचधक आिमी समझ सकें। " (नशमिा शसंह, 'प्रेमचंिोत्तर कथा सादहत्य और भार्ा के मंिव्य'; सादहत्य और संवेिना, (सं) पी॰वी॰ ववजयन, प॰ृ 268 से उद्धि ृ )। भार्ा एक िरफ व्यष्क्ि वविेर् के व्यष्क्ित्व को प्रतिबबंबबि करिी है िो िस ू री िरफ वह सामाष्जक संबंधों को व्यक्ि करिी है।
प्रेमचंि की भार्ा इन िोनों किषव्यों को
बखब ू ी तनभाना जानिी है , इसीशलए वह आज भी सवाषचधक अनक ु रणीय और प्रासंचगक कथाभार्ा के रूप में स्त्वीकृि है ।
समाज में दहंिी की िीन िैशलयाँ प्रचशलि हैं – उच्च दहंिी, उच्च उिष ू और दहंिस्त् ु िानी। प्रेमचंि पहले िो
उिष ू में शलखिे थे, लेककन बाि में वे दहंिी – बोलचाल की दहंिस्त् ु िानी में शलखने लगे। वे दहंिस्त् ु िानी के प्रबल पक्षधर बने।
उन्द्होंने यह महसूस ककया था कक दहंिी का यह िैलीभेि प्रायः राजनीतिक था।
उनकी भार्ा-चेिना बहुि गहरी थी। इसशलए उन्द्होंने बार बार यह शलखा कक "बंगाल का मुसलमान बंगला बोलिा है और शलखिा है, गुजराि का गुजरािी, मैसूर का कन्द्नड़ी, मरास का िशमल और पंजाब का पंजाबी आदि। यहाँ िक कक उसने अपने अपने सब ू े की शलवप भी ग्रहण कर ली है । उिष ू शलवप और
भार्ा से यद्यवप उसका धाशमषक-सांस्त्कृतिक अनरु ाग हो सकिा है , लेककन तनत्य प्रति के जीवन में उसे उिष ू की बबलकुल आवश्यकिा नहीं पड़िी। " (प्रो। दिलीप शसंह, 'प्रेमचंि की भार्ाई चेिना', प्रेमचंि की
भार्ाई चेिना, (सं) प्रो। दिलीप शसंह, प्रो। ऋर्भ िे व िमाष, प।ृ 23 से उद्धि ृ )। इिना ही नहीं उनके
मिानस ु ार दहंिओ ु ं और मुसलमानों की भार्ा में कोई अंिर नहीं है िथा दहंिस्त् ु िानी बोलचाल की दहंिी का इंदस े ना ु ंचत
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सहज और सरल रूप है । ध्यान से िे खा जाए िो प्रेमचंि के शलए दहंिस्त् ु िानी केवल एक भार्ा-िैली ही नहीं थी, बष्ल्क उनके शलए िो वह जािीय अष्स्त्मिा का एक प्रिीक थी। इसशलए उन्द्होंने कहा था कक
"बोलचाल की दहंिी और उिष ू प्रायः एक-सी हैं। उिष -ू दहंिी के सवषनाम एक हैं – वह, िम ु , मैं, हम इत्यादि।
दहंिी-उिष ू की कक्रयाएँ एक ही हैं – जाना, सोना, खाना, पीना, करना, मरना, जीना, शलखना, पढ़ना
इत्यादि। उिष ू के संबंधवाचक िब्ि – पर, का, में , से आदि वही हैं जो दहंिी के। िोनों का मूल िब्िभंडार भी एक है , लेककन यहाँ बहुि दिनों िक फारसी के राजभार्ा रहने से दहंिी िब्िों के फारसी या अरबी पयाषयवाची िब्ि भी प्रचशलि हो गए हैं। जैसे : िे ि – मुल्क, आकाि – आसमान, निी – िररया, रोगी – बीमार आदि। इन िब्िों का व्यवहार बोलचाल की दहंिी-उिष ू में बबना ककसी भेिभाव के होिा है । " (वही,
प॰ृ 25 से उद्धि ृ )। उनकी मान्द्यिा थी कक "बोलचाल की दहंिी समझने में न िो साधारण मुसलमानों को कोई कदठनाई होिी है और न बोलचाल की उिष ू समझने में दहंिओ ु ं को ही। " (वही, प॰ृ 24 से उद्धि ृ )।
अशभप्राय यह कक इस िष्ु प्रचार के खंडन का प्रेमचंि ने अपनी ओर से पूरा प्रयास ककया कक दहंिी और उिष ू िो अलग भार्ाएँ हैं िथा इनका ककसी धमष-मजहब से कुछ लेना िे ना है ।
प्रेमचंि ने अपनी बािों को शसफष सैद्धांतिक स्त्िर िक सीशमि नहीं रखा बष्ल्क व्यावहाररक स्त्िर पर भी उन्द्हें लागू ककया। उनकी रचनाओं में घटना और अनुभव की बहुलिा है । वे अपनी रचनाप्रकक्रया में भार्ा का संपूणि ष ः िोहन कर लेिे हैं। (रामस्त्वरूप चिुवेिी, दहंिी सादहत्य और संवेिना का ववकास)।
इसीशलए वे कहा करिे थे कक "साधारण वकीलों की िरह सादहत्यकार अपने मव ु ष्क्कल की ओर से उचचि-अनुचचि सब िरह के िावे नहीं पेि करिा, अतिरं जना से काम नहीं लेिा, अपनी ओर से बािें
गढ़िा नहीं। वह जानिा है कक इन युष्क्ियों से वह समाज की अिालि पर असर नहीं डाल सकिा।
उस अिालि का हृिय पररविषन िभी संभव है , जब आप सत्य से ितनक भी ववमुख न हों, नहीं िो अिालि की धारणा आपकी ओर से खराब हो जाएगी और वह आपके खखलाफ फैसला सुना िे गी। " (नंिककिोर नवल, 'प्रेमचंि का सौंियषिास्त्र', प्रेमचंि का सौंियषिास्त्र, प॰ृ 13)
ववद्वानों ने यह लक्षक्षि ककया है कक मि ृ ु और लशलि िब्ियोजना, गूढ़िब्िाथषहीनिा और जनपि सुखबोध्यिा वास्त्िव में काव्यभार्ा के लक्षण हैं लेककन प्रेमचंि ने अपने सादहत्य को व्यापक जनिा से जोड़ने के शलए जनपि की भार्ा को अपनाया। जब वे यह कहिे हैं कक "सादहत्य न चचरण का नाम है , न
अच्छे िब्िों को चन ु कर सजा िे ने का, न अलंकारों से वाणी को िोभायमान बना िे ने का" िो वे तनस्त्संिेह
बोलचाल की दहंिस्त् ु िानी – िे िजिा की बाि कर रहे होिे हैं। प्रेमचंि अपनी जमीन से जुड़े सादहत्यकार हैं। इसशलए उनकी रचनाओं में ठे ठ िे हािी िब्ि पाए जािे हैं। उन्द्होंने "ग्रामीण जन की बोली-बानी में तनदहि ऊजाष का िोहन करके ही अपनी कथाभार्ा का गठन ककया है । "(प्रो॰ ऋर्भ िे व िमाष, 'प्रेमचंि िे िे शसल बयना : संिभष 'गुल्ली डंडा' का", प्रेमचंि की भार्ाई चेिना, (सं) प्रो। दिलीप शसंह, प्रो॰ ऋर्भ िे व िमाष, प॰ृ 36)।
प्रेमचंि की भार्ा - वविेर् रूप से ग्रामीण पारों की भार्ा - को िे खने से यह स्त्पष्ट होिा है कक "िे हािी बोली और दहंिी के एकीकरण में उन्द्हें इिनी सफलिा शमली है कक गाँव का रहने वाला पाठक भी प्रेमचंि इंदस े ना ु ंचत
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के ककसानों की बाि सन ु कर उसे अस्त्वाभाववक नहीं कह सकिा।
*** परं िु प्रेमचंि ककसानों की
बािचीि के शलए ही िे हाि से िब्ि नहीं लेिे; उनकी भार्ा का गठन ही उस िे हािी बोली की भशू म पर हुआ
है । जो सुंिर मुहावरे , कहाविें , उपमाएँ और हास्त्य के पुट उनके गद्य में हमें शमलिे हैं उन्द्हें प्रेमचंि ने अपने गाँव की बोली से सीखा था। अपनी उपमाएँ उन्द्होंने बहुधा ग्रामीण जीवन से ली हैं। *** प्रेमचंि की भार्ा के अलंकार उसके प्रवाह में सहज ही सज जािे हैं।
सारी बाि अनुभव और सचाई की है ।
प्रेमचंि जनिा को जानिे थे, उसकी भार्ा को जानिे थे; वहीं से उन्द्हें िष्क्ि शमली है । " (डॉ॰ रामववलास िमाष, प्रेमचंि, प॰ृ 138)। 'गोिान' का ही एक उिाहरण िे खें – प्रेमचंि का होरी अपने ववरोही पर ु गोबर को समझािा है –
"कफर मरजाि भी िो पालना ही पड़िा है । खेिी में जो मरजाि है , वह नौकरी में िो नहीं है । मजरू ी मजरू ी है, ककसानी ककसानी है । मजरू लाख हो, िो मजरू ही कहलाएगा। सर पर घास
रखे जा रहे हो, कोई इधर से पक ु ारिा है, ओ घासवाले, कोई उधर से। ककसी की मेड़ पर घास धर लो िो गाशलयाँ शमलें । ककसानी में मरजाि है । "
होरी 'मरजाि' अथाषि मयाषिा के शलए अपने आपको समवपषि/ होम कर िे िा है। 'कमषभशू म' का अमरकांि कहिा है –
“काम की कौन कमी है घास भी काट लो, िो एक रुपए रोज की मजरू ी हो जाए। नहीं जि ू े का काम है ।
बष्ल्लयाँ बनाओ, चरसे बनाओ।
धेली की मजरू ी कहीं नहीं गई। "
मेहनि करने वाला आिमी भख ू ों नहीं मरिा।
ऐसे कथन स्त्विः शसद्ध करिे हैं कक प्रेमचंि की भार्ा में िे सी मुहावरे सहज रूप से उभरिे हैं जो उसे जनभार्ा बनािे हैं।
'गुल्ली-डंडा' कहानी बहुि ही छोटी है पर प्रेमचंि की भार्ा के इस िे िज पक्ष को उजागर करने में सक्षम है । इस कहानी में िे िजिा के साथ आशभजात्यिा भी तनदहि है । इस कहानी में पग पग पर प्रेमचंि का ठे ठ िे सीपन झलकिा है । यहाँ प्रेमचंि भारिीय खेल गुल्ली-डंडा के हवाले से यह कहिे हैं – "हमारे
अँग्रेजीिां िोस्त्ि मानें या न मानें मैं िो यही कहूँगा कक गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है । *** न लान की जरूरि, न कोटष की, न नेट की, न थापी की। मजे से ककसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना
ली, और िो आिमी भी आ जाए, िो खेल िुरू हो गया। ववलायिी खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कक उनके सामान महँगे होिे हैं। जब िक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खचष कीष्जए, खखलाडड़यों में िुमार ही नहीं हो पािा। यहाँ गुल्ली-डंडा है कक बना हरष -कफटकरी के चोखा रं ग िे िा है ; पर हम अँगरे जी चीजों के पीछे ऐसे िीवाने हो रहे हैं कक अपनी सभी चीजों से अरुचच हो गई।
स्त्कूलों में हरे क लड़के से िीन-चार रुपये
सालाना केवल खेलने की फीस ली जािी है । ककसी को यह नहीं सूझिा कक भारिीय खेल खखलाएँ, जो
बबना िाम-कौड़ी के खेले जािे हैं। अँगरे जी खेल उनके शलए हैं, ष्जनके पास धन है । गरीब लड़कों के शसर क्यों यह व्यसन मढ़िे हो?" खेल से लेकर शिक्षा िक का जो महँ गा अंग्रेजीपन आज भी हम अपने इंदस े ना ु ंचत
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शसर पर ढो रहे हैं प्रेमचंि ने उसके खिरे को अपने समय में भली प्रकार भाँप शलया था। यदि गल् ु ली-डंडा
को प्रिीक मान लें िो कहना होगा कक उन्द्होंने इस महँ गे अंग्रेजीपन का ववकल्प भी यहाँ सझ ु ाया है – गुल्ली-डंडा अथाषि िे हािीपन या िे सीपन के वरण के रूप में ।
अंििः डॉ। रामववलास िमाष के िब्िों में कहे िो "प्रेमचंि की कला का रहस्त्य एक िब्ि में उनका िे हािीपन ही है; ग्रामीण होने के कारण वह समाज के हृिय में पैठकर उसके सभी िारों से संबंध स्त्थावपि कर सके हैं। "
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प्रेमचंद की वर्तमानर्ा : ‘रंगभूमम’ और ‘गोदान’
प्रो. ऋषभदेव शमात प्रेमचदं (1880-1936) भारत के उन अमर साहित्यकारों में अग्रणी िैं हिनकी प्रासहं िकता कभी कम निीं िोती तथा िो अपने समय का अहतक्रमण करके सब समयों में वततमान बने रिते िैं। वस्ततु ः शाश्वतता की िड़ें समकालीनता में िी िोती िैं। प्रेमचदं अपने समकाल से ििरे िड़ु े थे इसहलए वे आि भी िमें समकालीन प्रतीत िोते िैं। आि के समय में प्रेमचदं की वततमानता से पिले िमें उनके अपने समय और उसमें उनकी वततमानता को समझना िोिा। यहद िम उनकी दो प्रमख ु औपन्याहसक कृ हतयों ‘रंिभहू म’ (1925) और ‘िोदान’ (1936) के सदं भत में उनके समय और तत्कालीन प्रवृहियों का अवलोकन करें तो सबसे पिली बात यि सामने आती िै हक प्रेमचदं का समय हिदं ी साहित्य और भारतीय समाि दोनों िी के िवाले से यथाथतवाद का समय निीं था। वि यिु आदशतवाद और रोमांहिहसज़्म का यिु था। तमाम रािनैहतक और साहिहत्यक िलचलें उस समय आदशतवाद से अनप्रु ाहणत थीं और ‘रामराज्य’ का सपना सबकी आँखों में तैर रिा था। ‘प्रेमचदं अपने यिु के साथ थे और अपने यिु की उथलपथु ल को उन्िोंने अपनी रचनाओ ं में हचहित हकया िै। ’ (रामहवलास शमात : प्रेमचदं और उनका यिु )। दरअसल वि धमत और सस्ं कृ हत के पनु ः आहवष्कार का समय था और प्रेमचदं ने भी तदनरू ु प अपनी रचनाधहमतता का हनवाति हकया। उन्िोंने धमत को एक सामाहिक रूप हदया और तिस्थ रिकर, सामाहिक पररहस्थहतयों में उलझे िुए मनष्ु य के धाहमतक हवचारों को बनते-हबिडते हदखाया। (विी)। उन्िोंने अपनी कथाकृ हतयों में सामाहिक सघं र्त का हचिण करते समय आदशत से अनप्रु ाहणत यथाथत के हचिण की प्रहवहध अपनाई। ‘उन्िोंने पररहस्थहतयों को घिा-बढ़ाकर निीं हचहित हकया। अपने यिु की हनधतनता, दासता और पीहड़तों की आतत वेदना को िैसा उन्िोंने अनभु व हकया था वैसा दसू रे ने निीं। प्रेमचदं की कृ हतयों का िमारे हलए यि सदं श े िै हक िम िनता में िाकर रिें और काम करें ; अपनी रचनाओ ं में िनता िनता कम हचल्लाएँ। ’ (विी)। यिाँ प्रेमचदं की तत्कालीन लोकहप्रयता और आि के समय में प्रासहं िकता दोनों के मल ू कारण को डॉ। रामहवलास शमात ने एकदम सिी पकड़ा िै। प्रेमचदं न तो यथाथत को आदशत के सम्मख ु छोिा करते िैं और न िी हवकृ हत की िद तक बड़ा बनाते िैं। इसीहलए उनके यिाँ यहद हनधतनता, दासता और पीड़ा की पक ु ार िै तो सघं र्त, हििीहवर्ा, स्वाहभमान और मानवीय मल्ू यों के प्रहत प्रहतबद्धता भी िै िो उनके लेखन को भारत की ज़मीन से िोड़ती िै। यि ज़मीन से िड़ु ने का िणु िी उन्िें सदा वततमान बने रिने की ताकत देता िै। डॉ। रामहवलास शमात ने इसी को उनकी रचनाधहमतता से प्राप्त िोने वाला सदं श े माना िै – ‘िनता में िाकर रिें और काम करें । ’ इस स्तर पर प्रेमचदं मध्यवित के अनेक हनहष्क्रय बहु द्धिीहवयों से एकदम अलि हदखाई देते िैं – िन से प्रहतबद्ध। यि प्रहतबद्धता उन्िें अपने स्तर पर सहक्रय आदं ोलनकारी बनाती िै। एक ऐसा लेखक हिसकी हकताब अपने आदं ोलनी तेवर के कारण िब्त की िाती िै और हिसे अंततः सरकारी नौकरी इंदस े ना ु ंचत
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छोड़नी पड़ती िै। अपनी भार्ा और अपनी नाम तक बदलना पड़ता िै। िनता के साथ एकमेक िोने के कारण िी उनकी रचनाओ ं में नारे बािी निीं बहल्क ििरी लोकानभु हू त हमलती िै। प्रेमचदं के यिु की तल ु ना में अिर िम आि (2016) के यिु को देखना चािें तो किना िोिा हक यि यिु पानी भरने के हलए धपू में सख ू े िोंठों प्रतीक्षा करती खड़ी ग्रामबालाओ ं के मरने और क़ित में डूबे हकसानों के आत्मित्या करने का यिु िै। िमारे यिु का यि यथाथत िी प्रेमचदं की अद्यतन वततमानता का आधारभतू कारण िै। िबतक भारतीय हकसान की भख ू और प्यास कायम िै, तब तक प्रेमचदं के साहित्य की वततमानता कायम रिेिी। दरअसल, प्रेमचदं का समय भारतीय हकसानों के हलए भारी परीक्षा का समय था। 1920 के आसपास भारत में अनेक स्थानों पर हकसान आदं ोलन फूि रिे थे। एक सिि रचनाकार के नाते प्रेमचदं इनसे भली प्रकार पररहचत थे। प्रेमचदं ने भारतीय समाि की सरं चना को भी उसकी हवसिं हतयों के साथ ििरे हवश्लेहर्त हकया था, समझा था। इसमें सदं िे निीं हक भारतीय समाि तब भी और आि भी धमों, वणों और िाहतयों में बंिा समाि था और िै। लेहकन प्रेमचदं इस ऊपरी सरं चना को भेदकर भारतीय समाि की भीतरी आहथतक सरं चना को देख पा रिे थे। उन्िें मालमू था हक यि समाि हिदं ू और मसु लमान में बँिा िुआ िै। उन्िें यि भी मालूम था हक यि समाि अिड़ों और हपछडों में बँिा िुआ िै। वे यि भी िानते थे हक इस समाि में परुु र् और स्त्री के अहधकारों में बिुत अंतर िै। लेहकन अपनी रचनाओ ं में उन्िोंने इन हवरुद्धों को सघं र्तरत निीं हदखाया। उन्िें उस असली हवरोधी द्वद्वं की पिचान थी िो इस देश की हनधतनता, दासता और पीड़ा का मल ू कारण िै। वि परस्पर हवरोधी द्वद्वं िै - प्रभतु ासपं न्न वित बनाम दीन िीन िनता का द्वद्वं । इनमें से प्रभतु ासपं न्न वित में िमींदार, मिािन और अग्रं ेिी राि के िाहकम तथा उनके हपछलग्िू शाहमल िैं। यिी कारण िै हक प्रेमचदं धमत, वणत, िाहत, भार्ा या क्षेि के आधार पर सिं हठत िोने या आदं ोलन चलाने की बात किीं भी निीं करते; बहल्क बार-बार इस प्रभु वित के शोर्क चररि को बेनकाब करके दीन िीन शोहर्त िनता को िािरूक और सहक्रय बनाने का प्रयास करते िैं। आि िब भारतीय समाि और रािनीहत में एक बार हफर धमत, वणत, िाहत, भार्ा और क्षेि के भेद और इन भेदों के आधार पर सिं हठत िोकर सिा प्राप्त करने के प्रयास इस देश को खंहडत करने की सीमा तक सहक्रय हदखाई दे रिे िैं, प्रेमचदं की वितदृहि और राष्रीय चेतना उनके साहित्य की प्रासहं िकता को रेखांहकत कर रिी िै। इसमें सदं िे निीं हक ‘ऊँ च नीच के भेदभाव के प्रहत प्रेमचदं से अहधक सचेत और कोई हिदं ी लखक निीं था। पर उनके कथासाहित्य में वित सघं र्त िै, िमींदारों, मिािनों, अंग्रेिी राि के िाहकमों के हवरुद्ध सघं र्त िै; अिड़ीहपछड़ी िाहतयों के बीच सघं र्त निीं िै। किीं भी यि सक ं े त निीं िै हक हबरादरी के आधार पर सब लोि एक िो िाएँ तो उनका उद्धार िो िाएिा। ’ (रामहवलास शमात, 1994)। यि तो िुई भारतीय रािनैहतक और सामाहिक पररदृश्य की बात। अब यहद तब के और अब के अंतरराष्रीय पररदृश्य का तल ु नात्मक अवलोकन करें तो सबसे पिले यि सत्य हदखाई देिा हक पिले दो मिाशहियाँ थीं परंतु अब एक िी रि िई िै। यि मिाशहि मीहडया और बािार से खाद-पानी पाकर हनरंतर दैत्याकार िोती िा रिी िै। पिँू ी और मनु ाफ़े पर आधाररत इस मिाशहि के पास दहु नया को पलक झपकते नि कर सकने में समथत आणहवक अस्त्र-शस्त्रों का िखीरा िै लेहकन नैहतक शहि का अभाव िै। िैसा हक डॉ। रामहवलास शमात ने लहक्षत हकया िै, ‘िनतिं का ढोल पीिने वाला अमेररकी पिँू ीवाद दहु नया पर इंदस े ना ु ंचत
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अपनी हडक्िेिरहशप कायम कर रिा िै। इस हडक्िेिरहशप को खत्म करने का मल ू मिं िै – स्वदेशी। भारत हितना िी आत्महनभतर बनेिा, उतना िी वि अपनी एकता और स्वाधीनता की रक्षा करने में समथत िोिा, उतना िी साम्राज्यवादी दासता से हवश्विनता की महु ि में सिायक िोिा। आिे आने वाले हदनों में िमारे मिान लेखक प्रेमचदं का साहित्य सघं र्त में प्रेरणा देिा, हविय में िमारी आस्था को दृढ़ करे िा। िमारे साहित्य की और िमारे राष्रीय िीवन की सचाई एक हदन अवश्य सारे अंधकार को चीरकर दहु नया में अपनी ज्योहत का उिाला फै ला देिी। ’ (विी)। प्रेमचदं की कालियी वततमानता राष्रीय और अतं रराष्रीय पररदृश्य की उनकी समझ और तदनरू ु प साहिहत्यक प्रयास से तो हसद्ध िोती िी िै; उनकी साहित्य दृहि से भी प्रमाहणत िोती िै। उनकी साहित्य दृहि उनकी हवश्व दृहि का आधार िै। वे साहित्य को मनोरंिन और हवलाहसता का उपकरण बनाने के सख्त हखलाफ थे। वे मानते थे हक साहित्य उस उद्योि का नाम िै िो आदमी ने आपस के भेद हमिाने और उस मौहलक एकता को व्यि करने के हलए हकया िै, िो इस िाहिरी भेद की ति में, पृथ्वी के उदर में व्याकुल ज्वाला की भांहत हछपी िुई िै। यिाँ आपस के भेद हमिाने और मौहलक एकता को व्यि करने िैसे प्रयोिनों के साथ साहित्य को िोड़कर प्रेमचदं ने रस, साधारणीकरण और लोकमिं ल िैसी अवधारणाओ ं को हनतांत मौहलक अथतबोध से सपं न्न हकया िै। पृथ्वी के उदर में हछपी व्याकुल ज्वाला, प्रेमचदं की इस मौहलक साहित्य दृहि में, वि स्थायी भाव िै िो सपं णू त मनष्ु यता को मानवीय करुणा के धरातल पर िोड़ता िै। उन्िोंने बलपवू तक यि रे खाहं कत हकया हक ‘सत्य’ और ‘असत्य’ का सघं र्त बराबर चला आता िै और िब तक साहित्य की सृहि िोती रिेिी, यि सघं र्त साहित्य का मख्ु य आधार बना रिेिा। वास्तव में, साहित्य की सामाहिक उपयोहिता और इस हवश्व दृहि से िी िोकर उसकी शाश्वतता का रास्ता िाता िै। इसके हलए आवश्यक िै हक लेखक को अपने समय में हवद्यमान ‘सत्य’ और ‘असत्य’ की सिी पिचान िो और इनके सघं र्त में वि सत्य के पक्ष में डिकर खड़ा िो। प्रेमचदं को इन शहियों और इनके सघं र्त की पिचान तो थी िी, ‘सत्य’ के प्रहत उनकी वचनबद्धता भी स्पि थी। यिी कारण िै हक आदशतवादी यिु में वे यथाथतवादी दृहिकोण अपना रिे थे। आदशत और यथाथत का सघं र्त कथाकार प्रेमचदं का भी सघं र्त िै। इस सघं र्त में उन्िोंने सामिं स्य का माित चनु ा और आहथतक शोर्ण का उसकी परू ी भयाविता के साथ यथाथत हचिण हकया। वे यिी निीं रुके बहल्क इस यथाथत का हवश्लेर्ण करते िुए समाि समीक्षा के दाहयत्व को भी सपं न्न हकया। साथ िी अपनी आदशतवादी भावना के अनरू ु प ििाँ सभं व िुआ, विाँ समाधान भी सझु ाया। प्रेमचदं को उस समय में आि की बाज़ारवादी सभ्यता की आििें सनु ाई देने लिी थीं। इस नई सभ्यता को उन्िोंने ‘मिािनी सभ्यता’ किते िुए आलोचना का हनशाना बनाया। उनकी यि समझ आि भी अत्यंत सिीक िै हक ‘नई सभ्यता में पैसे का स्थान सवोपरर िै। साम्राज्यवाद के आवश्यक िणु मिबतू कलेिा और बलवान भिु ाएँ निीं िैं। उसके हलए बहु द्ध का धन सचं य के हलए उपयोि तथा मौन आज्ञा पालन आवश्यक िै। इस सभ्यता ने समाि को दो अंिों में बाँि हदया िै : हिनमें एक िड़पने वाला िै, दसू रा िड़पा िाने वाला िै। ’ (मिािनी सभ्यता)। वे मानते थे हक अग्रं िे ी राि द्वारा कायम की िई नई हशक्षा स्वाथत की हभहि पर खड़ी िुई िै और उसके द्वारा प्रवहततत आधहु नक व्यापार और नई औद्योहिकता मनष्ु य को क्रमशः दैत्य बना रिी िै। आहथतक पररदृश्य की उनकी यि समझ 1925 में प्रकाहशत ‘रंिभहू म’ में स्पि देखी िा इंदस े ना ु ंचत
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सकती िै। स्मरण रिे हक यि उनके सरकारी नौकरी छोड़ने (1921) के बाद का उपन्यास िै। अतः इसमें हिहिश रीहत-नीहत की आलोचना अहधक मख ु र िोकर अहभव्यि िुई िै। प्रेमचदं सरू दास के माध्यम से उन प्रयासों का हवरोध करते िैं िो िाँव को आधहु नक व्यापार और नए उद्योि धधं े का कें द्र बनाकर ग्रामीण सभ्यता को उलिना चािते िैं। उनका स्पि मत िै हक िाँव में कारखाना लिने से हकसान और िमींदार दोनों िी हनकम्मे िो िाएँिे। हकसान भहू मिीन िोकर मिदरू बनेिा और ‘मरिाद’ से पहतत िोिा िबहक ज़मींदार उद्योि के हिस्से (शेयर) खरीदकर क्रमशः भयंकर शोर्क शहि के रूप में तब्दील िो िाएिा। सरू दास और िॉन सेवक आमने सामने खड़े िुए दो पाि िी निीं िै, बहल्क परस्पर हवरोधी दो सभ्यताएँ िैं। सरू दास भारतीय ग्राम सभ्यता का प्रतीक िै तो िॉन सेवक पहिमी मिािनी सभ्यता का। सरू दास अपनी पैतक ृ परंपरा से प्रेम करता िै। अपनी ज़मीन को अपने बाप-दादों के नाम से िोड़कर देखता िै और उसे अपनी यादिार बनाना चािता िै। इस वैयहिक लिाव के बाविदू वि अपनी ज़मीन का हवचार करते समय सामाहिक लाभ का हवचार पिले करता िै। वि चािता िै हक विाँ िाँव भर के बच्चे खेलें और िाँव भर के पशओ ु ं के हलए चरािाि बने। वि व्यहिित लाभ-िाहन से ऊपर उठकर चािता िै हक उसकी ज़मीन ‘अनाचार का हठकाना’ न बने। दसू री ओर िॉन सेवक िाहत उद्धार, रोििार सृिन, याहियों के हलए मकान, दधू -मलाई और उपलों की हबक्री, पान की हबक्री और मदरसे की स्थापना िी निीं, राष्रीयता की ऊँ ची-ऊँ ची बातें करता िै। लेहकन उसका आचरण झठू और पाखंड से पररपणू त िै। यहद ‘सत्य’ और ‘असत्य’ के सघं र्त में लेखकीय पक्षधरता वाली प्रेमचदं की कसौिी पर इन दोनों पािों को हघसकर देखें तो सरू दास के रूप में सत्य और न्याय के साथ प्रेमचदं खड़े िुए हदखाई देते िैं। आि नैहतकता और अनैहतकता के धधंु लके वाले मल्ू यमढ़ू उिर आधहु नक समय में ऐसी साफ़ सथु री प्रहतबद्धता प्रेमचदं को प्रासहं िक बनाती िै। यि िो मिािनी सभ्यता िै न; इसने एक नया मल्ू य िढ़ा िै – प्रोफे शनहलज्म या व्यावसाहयकता का मल्ू य। मिािनी या बािारवादी सभ्यता में व्यवसाय या लाभ सवोपरर मल्ू य िै। िम आि देख रिे िैं हक बािार के समक्ष सब प्रकार की नैहतकताएँ और सारे सबं ंध बौने िो िए िैं क्योंहक बाज़ार का तो हनयम यिी िै हक ‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया। ’ मिँिाई बढ़ती िै तो बढ़ा करे , लोि मरते िैं तो मरा करें , प्रोफे शनहलज्म इन हवर्यों पर द्रहवत िोना निीं हसखाती। यिी कारण िै हक िॉन सेवक कंु वर भरत हसिं से किता िै, ‘व्यवसायी लोि इन िोरखधधं ों में निीं पड़ते; उनका लक्ष्य के वल वततमान पररहस्थहतयों पर रिता िै। ’ (रंिभहू म)। वि सरू दास को भी समझाता िै, बहल्क धमकाता िै, ‘अब व्यापार का राज्य िै, और िो इस राज्य को स्वीकार न करे , उसके हलए तारों को हनशाना मारने वाली तोपें िैं। ’ (विी)। अहभप्राय यि िै हक व्यावसाहयकता का आिमन प्रकारातं र से मयातदा और मल्ू यों के ह्रास का प्रतीक बन िया िै। सरू दास मज़दरू ों के आचरण के माध्यम से यि लहक्षत करता िै हक “वे सारी बस्ती में फै ले िुए िैं और रोि ऊधम मचाते रिते िैं। िमारे मिु ल्ले में हकसी ने औरतों को निीं छे ड़ा था, न कभी इतनी चोररयाँ िुई, न कभी इतने धड़ल्ले से िआ ु िुआ, न शराहबयों का िुल्लड़ रिा। िब तक मिरू लोि यिाँ काम पर निीं आ िाते, औरतें घरों से पानी भरने निीं हनकलतीं। रात को इतना िुल्लड़ िोता िै हक नींद निीं आती। ” इसी प्रकार मकान खाली कराने के सदं भत में नाकाफी मआ ु विा हदए िाने पर हसपािी का कथन भी द्रिव्य िै, “मानो हदन दिाड़े डाका पड़ रिा िो। ” अहभप्राय यि िै हक मिािनी सभ्यता के आिमन से िाँव का पारंपररक तंि इंदस े ना ु ंचत
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िूि िया िै, आपसी सबं धं ों की कहड़याँ तडक िई िैं और लाभ, लोभ तथा मनु ाफे के हलए लिभाि लिू पाि और डाके िैसी हस्थहत उत्पन्न िो िई िै। यि हस्थहत आिे चलकर इतनी हवकि िो िाती िै हक िोली चालन की नौबत आ िाती िै हिसमें बारि लोि मारे िाते िैं। यिाँ सरू दास के सत्याग्रि पर भी चचात की िा सकती िै। इस सत्याग्रि के कारण िी सरू दास कई बार मिात्मा िांधी की झलक देता प्रतीत िोता िै। एक प्रकार से सरू दास और िॉन सेवक का सग्रं ाम व्यापक स्तर पर मिात्मा िाधं ी के नेतत्ृ व में अग्रं ेिों के हखलाफ़ चल रिे स्वतिं ता सग्रं ाम का प्रतीक बन िाता िै। सरू दास के सत्याग्रि रूपी सग्रं ाम को हछड़े िुए दो मिीने िो िए, समस्या प्रहतहदन भीर्ण िोती िाती थी, क्योंहक बािार और सिा की शहियाँ अपने स्वाथतपणू त और दमनकारी िथकंडों से बाि निीं आ रिी थीं। बिुतों की पकड़-धकड़ िुई, बिुतों को शारीररक कि हदया िया, िाने हकतनों को अपमाहनत हकया िया, मिािनी सभ्यता अमानहु र्क कृ त्य पर उतारू थी। “सारे निर में, िली-िली में, घर-घर यिी चचात िोती रिती थी। सिस्रों निरवासी रोि विाँ पिुचँ िाते थे, के वल तमाशा देखने निीं बहल्क एक बार उस पणतकुिी और उसके चक्षिु ीन हनवासी का दशतन करने के हलए और अवसर पड़ने पर अपने से िो कुछ िो सके कर हदखाने के हलए। ” (रंिभहू म)। सत्याग्रि का सबं ंध सयं म और धैयत से िै। सत्याग्रि में सत्याग्रिी के िी सयं म और धयत की परीक्षा निीं िोती, िनता के भी सयं म और धैयत की परीक्षा िोती िै। हिस प्रकार मिात्मा िांधी के आदं ोलनों में व्यापक भारतीय िन िण ने अपने सयं म और धैयत का हवस्मयकारी प्रदशतन हकया, सरू दास के सत्याग्रि के अवसर पर भी कुछ-कुछ विी नज़ारा देखने को हमला। “िनता का सयं म और धैयत अब अहं तम हबदं ु तक पिुचँ िया िै। कोई निीं कि सकता हक कब क्या िो िाए। साधारण िनता इतनी हस्थरहचि और दृढ़व्रत िो सकती िै इसका आि हवनय को अनभु व िुआ। ” यिाँ िनता और उसके साधारणत्व पर प्रेमचदं का हवशेर् बल िै िो इसहलए हवहशि बन िई िै हक हस्थरहचि और दृढ़व्रत िै। हचि की हस्थरता और व्रत की दृढ़ता भारतीय काव्यशास्त्रीय परंपरा में नायकत्व की कसौिी िै। इसका अथत यि िै हक सरू दास के माध्यम से साधारण िनता को नायकत्व प्राप्त िुआ। साधारण िनता को नायकत्व प्रदान करने की प्रेमचदं की यि सझू आि भी मित्वपणू त िै क्योंहक आि भी पैसे और ताकत की रािनीहत करने वालों के हलए यि समझना आवश्यक िै हक लोकतंि में िनता सप्रं भु िोती िै और उसमें अपने समय को हदशा देने वाले नायकत्व की सारी सभं ावनाएँ हनहित िोती िैं। प्रसिं वश क्लाकत के प्रहत सोफी का यि कथन भी हवचारणीय िै हक “अन्यायपणू त शासन, शासन निीं यद्ध ु िै। ” इस अन्यायपणू त शासन के हवरुद्ध यद्ध ु का प्रतीक िै सरू दास। तत्कालीन भारतीय रािनीहत में स्वतिं ता सग्रं ाम के नेतािण इसके प्रतीक थे और आि भी बािार, उपभोिावाद, आतक ं वाद आहद के हवरुद्ध मनष्ु य के पक्ष में, मनष्ु य के अहधकारों के पक्ष में, यद्ध ु का प्रतीक िै यि भारतीय हवश्वास हक पशबु ल चािे हकतना भी प्रबल िो आत्मबल उसकी तल ु ना में श्रेष्ठ िोता िै। यि ठीक िै हक अतं तः सरू दास धराशायी िो िाता िै लेहकन यि आत्मबल की परािय निीं िै। इसीहलए तो िनता से हवनय ज़ोर देकर यि किता िै, “सत्य की हविय पर आनदं और उत्सव मनाने का अवसर िै। ” िम हफर याद करें हक प्रेमचदं के हलए साहित्य की कसौिी सत्य और असत्य के सघं र्त में सत्य की पक्षधरता िै। हिस मिािनी सभ्यता और व्यावसाहयक दृहिकोण से आि का परू ा समाि ग्रहसत िै उसके प्रहतहनहध के रूप में िॉन सेवक का यि कथन बािार की भीतरी सच्चाई को अनावृत करता िै हक “व्यवसाय कुछ निीं िै अिर नर ित्या निीं िै। आहद से अंत तक मनष्ु यों को पशु इंदस े ना ु ंचत
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समझना और उनसे पशवु त व्यविार करना इसका मल ू हसद्धातं िै। िो यि निीं कर सकता वि सफल व्यवसायी निीं िो सकता। ” यिाँ यि भी ध्यान में रिे हक तत्कालीन सिा अथातत अग्रं ेि भारत में व्यवसाय के हलए िी आए थे और िब उन्िें लिने लिा हक भारत में अब और बने रिना घािे का सौदा िै तो वे इस देश के िुकड़े करके बड़ी सफाई से वापस लौि िए। उनकी शासन नीहत का आधार शोर्ण था। मिात्मा िांधी िों या प्रेमचदं िों, दोनों िी ग्राम सभ्यता पर कें हद्रत ऐसे स्वराज्य की कामना करते थे हिसमें सिा और िनता के बीच सहृदयता का सबं ंध िो। लेहकन अंग्रेि अहधकारी इसका उलिा सोचते िैं। उदािरण के हलए सोफी से क्लाकत किता िै, “िम यिाँ शासन करने के हलए आते िैं। अपने मनोभावों और व्यहिित हवचारों का पालन करने के हलए निीं। ििाि से उतरते िी िम अपने व्यहित्व को हमिा देते िैं। िमारा न्याय, िमारी सहृदयता, िमारी सहदच्छा सबका एक िी अभीि िै। िमारा प्रथम और अंहतम उद्देश्य शासन करना िै। ” ऐसे शासन से हकसी प्रकार के लोक कल्याणकारी कायत की आशा निीं की िा सकती। यिी कारण िै हक सरू दास इस परू ी व्यवस्था के हखलाफ खड़ा िोता िै और अपने अहं तम क्षण में यि भी कि िाता िै हक िम भारतीय अपने सघं र्ों में इसहलए िारते िैं हक िम अलि-अलि िोकर लड़ते िैं। िम धमों, िाहतयों, वणों, क्षेिों। , भार्ाओ ं िैसे भेदभावों में बिं े िुए िैं और इसहलए एकििु िोकर निीं लड़ते िैं, िबहक अंग्रिे एक िोकर लड़ते िैं। सरू दास चेतावनी देता िै हक आि िम अनाड़ी िैं लेहकन तम्ु िारी इस नीहत को पिचान िए िैं और एक हदन वि आएिा िब िम एकििु िोकर लड़ेंिे और तम्ु िें तम्ु िारे िी खेल में िराकर हदखाएँिे। और तमाम बातों को छोड़ भी दें तो इसमें सदं िे निीं हक सरू दास के इस कथन में आि भी िमारे हलए अहनवायत सदं शे हनहित िै। हवकास के पथ पर बढ़ते िुए आि के भारत को दहु नया की अनेक शहियाँ दबाना और रोकना चािती िैं। ऐसे में यहद इस देश को हवहभन्न क्षेिों में हवकास के उच्च हशखरों पर पिुचँ ना िै तो िर चनु ौती का एक िोकर एकििु िोकर, मक ु ाबला करना सीखना पड़ेिा। हनस्सदं िे यि समझ ‘रंिभहू म’ की प्रासहं िकता और वततमानता का बिुत बड़ा आधार िै। प्रेमचदं “उन सारी बातों के हवरुद्ध थे िो मनष्ु य-मनष्ु य के बीच, स्त्री-परुु र् के बीच, अमीर-िरीब के बीच, ज़मींदार और हकसान के बीच, यिाँ तक हक भिवान और आदमी के बीच भी फाँक पैदा करती िैं। ” (डॉ। िोपाल राय)। इसके अलावा िैसा हक प्रेमचदं के अत्यंत हनकि रिे और कथा िित में उनके वाररस िैनद्रें ने एक साक्षात्कार में बताया िै, प्रेमचदं ‘धन के दश्ु मन’ थे। वे आज़ादी की समस्या को भी आहथतक शोर्ण और दमन सु िड़ु ी समस्या के रूप में देखते थे। भारत के िाँवों के अथतशास्त्र को उन्िोंने भली प्रकार समझा था और वे िान िए थे हक सरकार, मिािन और िमींदार तीनों हमलकर एक ऐसे िठबधं न की रचना करते िैं हिसका एकमाि उद्देश्य शोर्ण को बरकरार रखना िै। हकसानों की हनधतनता, उनकी दयनीय िीवन दशा और अमानवीय पररहस्थहतयाँ इस िठबधं न के दबाव के कारण हनरंतर हवकि से हवकितर िोती िाती थीं। भहू मकर और वसल ू ी तंि के सिारे यि िठबंधन हकसानों को िन्म िन्म तक िल ु ाम बनाए रखने का र्ड्यंि चला रिा था। प्रेमचदं ने अपनी रचनाओ ं में इस र्ड्यंि का बेख़ौफ़ खल ु ासा करते िुए तत्कालीन हशक्षा, अदालत और पहु लस िैसी सरकारी सस्ं थाओ ं की िो आलोचना की िै उसके हलए आत्मबल और हनष्ठा से िड़ु ा सािस चाहिए। लेखन कमत से िड़ु े तमाम लोिों के हलए प्रेमचदं अपने इस आत्मबल और सािस के कारण आि भी चनु ौती िैं। तंि की आलोचना के साथ साथ वे भारतीयों की िल ु ाम मानहसकता की भी आलोचना करने से िरु े ि निीं करते। उन्िें हिदं स्ु ताहनयों की अग्रं ेहियत अत्यतं हवडंबनापणू त लिती िै। इंदस े ना ु ंचत
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‘रंिभहू म’ में रािपतू ाने के रािा हवशाल हसिं के राज्य के बिाने प्रेमचदं ने भारतीयों की िल ु ाम मानहसकता पर करारी हिप्पणी की िै। हवनय ने देखा हक उस राज्य के शिरों में सड़कें , पाठशालाएँ, हचहकत्सालय सबके नाम अग्रं ेिी में थे। “ऐसा िान पड़ता था कोई भारतीय निर निीं, अग्रं ेिों का हशहवर िै। ××× इतना नैहतक पतन, इतनी कायरता! यों राज्य करने से डूब मरना अच्छा िै। ” आिादी के बाद भी भारतीयों की इस िल ु ाम मानहसकता में कोई खास बदलाव आया िै, किा निीं िा सकता। आि हफर हकसी प्रेमचदं की आवश्यकता िै िो सीना तानकर हिदं स्ु तानी अवाम और नेतािण की आँख में आँख डालकर कि सके – ‘इतना नैहतक पतन, इतनी कायरता, यों राज्य करने से डूब मरना अच्छा िै। ’ अब कुछ बातें ‘िोदान’ के िवाले से। हिस प्रकार की नई सभ्यता का हवकास हपछले साठ या सिर वर्ों में िमने हकया िै उसका लब्बोलआ ु ब यि िै हक आि िीवन के िर क्षेि में मल्ू यों, आदशों, हसद्धांतों अथवा नैहतकताओ ं का अकाल सा पड़ िया िै। इसका कारण िै हक प्रेमचदं का सवतथा साधनिीन और हवपन्न पाि भी हिस ‘मरिाद’ की हचतं ा करता िै, आि का सहु वधाओ ं और ससं ाधनों से सपं न्न समाि उसकी तहनक भी परवाि निीं करता। चद्रं प्रकाश खन्ना िो एक शिु र हमल का माहलक िै, उस ज़माने में कम से कम इतना तो मनष्ु य था हक उसे यि अिसास था हक व्यावसाहयक लाभ के हलए उसने बार बार हसद्धांतों की ित्या की िै। इसके हवपरीत आि हस्थहत यि िै हक िम सीना ठोककर यि पछू ने लिे िैं हक हसद्धांत हकस हचहड़या का नाम िै। िल्दी से िल्दी, अहधक से अहधक धन बिोरने की स्पधात में न्याय, हसद्धांत, सत्य िैसे मल्ू य किीं निीं ठिर रिे िैं। करोड़ों करोड़ का घोिाला करके भी लोि इस मिािनी सभ्यता में सख ु तरू ु घमू ते हदखाई देते िैं। प्रेमचदं को मालमू िै हक ये िो लोि लखपहत, करोड़पहत और अरबपहत बनते िैं, उनकी सच्चाई क्या िै। खन्ना के शब्दों में, “आप निीं िानते हमस्िर मेिता, मैंने अपने हसद्धातं ों की हकतनी ित्या की िै। हकतनी ररश्वतें दी िै, हकतनी ररश्वतें ली िै। हकसानों की ऊख तौलने के हलए कै से आदमी रखे, कै से नकली बाँि रखे। ” (िोदान)। आि िालात इससे बदतर िै और हवडंबना यि िै हक चोर िी शाि बने बैठे िैं। अपराध, पिँू ी और रािनीहत के बीच एक ऐसी दरु हभसहं ध िै हिसमें आम आदमी हनरंतर हपस रिा िै। ‘िोदान’ में प्रेमचदं ने इस दरु हभसहं ध को पिचान हलया था। तभी तो उन्िोंने यि दशातया हक चद्रं प्रकाश खन्ना मिदरू ों के नेता भी िै और धनपहतयों के रक्षक भी। यि िमारी आि की रािनीहत का भी चररि िै। नेता आप मज़दरू ों और हकसानों के िैं, लेहकन हित-हचतं ा आपको व्यापाररयों, व्यवसाहययों, उद्योिपहतयों और पिँू ीपहतयों की िै क्योंहक चनु ाव उन्िीं के पैसे लड़े िाते िैं। हिस प्रकार यि सभं व निीं िै हक मज़दरू ों के नेता बने िुए खन्ना शक्कर हमल के अपने हिस्सेदारों के हित का हवचार न करें , उसी प्रकार यि सभं व निीं िै हक दीन िीन हवपन्न िनता के नेता बने िुए लोि अपने दलों के सरं क्षक धनपहतयों के हितों का हवचार न करें । ऐसा प्रतीत िोता िै हक प्रेमचदं ने हपछली शताब्दी के आरंहभक दशकों में िी इस शताब्दी के आहथतक, रािनैहतक हवद्रूप के दशतन कर हलए थे। यि हिस्सेदारी आि भी कई तरि से चालू िै। और इसीहलए मेिता के रूप में प्रेमचदं का यि तकत भी वततमान सदं भत में भी परू ी तरि प्रासहं िक िै हक “क्या आप का हवचार िै हक मिरू ों को इतनी मिरू ी दी िाती िै हक उसमें (मदं ी के बिाने से) चौथाई कम कर देने से मिरू ों को कि न िोिा? आपके मिरू हबलों में रिते िैं – िंदे बदबदू ार हबलों में – ििाँ आप एक हमनि भी रि िाए तो आपको कै िो िाए। कपड़े वे िो पिनते िैं उनसे आप अपने ितू े भी न पोंछें िे। खाना िो वे इंदस े ना ु ंचत
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खाते िैं, आपका कुिा भी न खाएिा। आप उनकी रोहियाँ छीनकर अपने हिस्सेदारों का पेि भरना चािते िैं। ” (िोदान)। आि भी हवहभन्न सरकारें क्या यिी निीं कर रिी िैं? उस पर तरु ात यि हक कथनी और करनी का अंतर बेशमी की िद तक बढ़ िया िै। राय सािब के चररि के दोिलेपन में प्रेमचदं ने इसका पवू ातभास प्रस्ततु हकया िै। राय सािब िब मेिता के समक्ष पिँू ीवाद की आलोचना करते िुए यि किते िैं हक “हकसी को भी दसू रों के श्रम पर मोिे िोने का अहधकार निीं िै। उपिीवी िोना घोर लज्िा की बात िै। ” (िोदान); तो इस पर मेिता की बेबाक हिप्पणी आि भी इस देश के अनेक नेताओ ं के सदं भत में सिीक प्रतीत िोती िै, “आपकी ज़बान में हितनी बहु द्ध िै, काश उसकी आधी भी महस्तष्क में िोती। ” (िोदान)। प्रेमचदं की समझ में यि बात भली भाँहत आ िई थी हक पिँू ीवाद उस समय (हपछली शताब्दी के चौथे दशक) तक हिस अवस्था में पिुचँ चक ु ा था, उससे आिे मल्ू यों का बड़ा सक ं ि पैदा िोने वाला था। पिँू ीवादी व्यवस्था बरु ी चीि िै लेहकन बाज़ारवादी सभ्यता उससे भी बरु ी चीि िै – ऐसा प्रेमचदं को लिता था; और सिी िी लिता था। उसका कारण िै; और इस कारण को उन्िोंने िोरी के मिँु से किलवाया िै। िोरी की समझ में यि बात आ िई िै हक “ज़मींदार तो एक िी िै मिर मिािन तीन-तीन िैं। सिुआइन अलि, मिं रू अलि और दातादीन पहं डत अलि। ” (िोदान)। आिे के समय में ज़मींदारी प्रथा तो समाप्त िो िई, लेहकन मिािनी सभ्यता बाज़ारवाद के रूप में इतनी अहधक फै ल िई हक बीसवीं शताब्दी के अंहतम दशकों में और इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में परू े देश में इस मिािनी सभ्यता से ग्रहसत और िस्त हकसानों की आत्मित्या की घिनाएँ आम िो िई।ं दल ु ारी सिुआइन और मिं रू साि का िो हचि प्रेमचदं ने प्रस्ततु हकया िै वि हकसी सरु सा या हकसी यमदतू िैसा िै। दल ु ारी सिुआइन के दशतन कीहिए, “पाँव में मोिे-मोिे चाँदी के कड़े पिने, कानों में सोने का झमू क, आँखों में कािल लिाए, बढ़ू े यौवन को रँ िे रँ िाए। ” (िोदान)। शायद यिी वि पिँू ीवाद िै हिसकी कोख से उिर आधहु नक उपभोिावाद िन्मता िै। अब ज़रा मिं रू साि रूपी यमदतू का भी अवलोकन कर लें - “काला रंि, तोंद कमर के नीचे लिकती िुई, दो बड़े-बड़े दाँत सामने िैसे काि खाने को हनकले िुए। िहठया का मरि िो िया था। खाँसी भी आती थी। ” (िोदान)। प्रेमचदं ने उसे ‘कुकमत का साक्षात अवतार’ किा िै। स्पि िै हक ये मिािनी सभ्यता के दतू प्रेमचदं के समय से आि तक भारतीय हकसान की छाती पर चढ़े िुए िैं, लिातार उसका िला दबा रिे िैं। ऐसी हस्थहत में यहद हिरधर पिार हमलने पर इकन्नी की ताड़ी पीकर हमल के फािक पर आसन िमा लेता िै तो यि परू े पररदृश्य को और अहधक कारुहणक बनाने वाली सच्चाई िै – “हिरधर ने पेि हदखाकर किा – साँझ िो िई िो पानी की बँदू भी कंठ तले िई िो तो िोमांस बराबर। एक इकन्नी मिँु में दबा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचा साल भर पसीना िारा िै, तो एक हदन ताड़ी भी पी लँ।ू मिर सच किता िँ नसा निीं िै। एक आने में क्या नसा िोिा। िाँ, झमू रिा िँ हिससे लोि समझें हक खबू हपए िुए ि।ँ बड़ा अच्छा िुआ काका (हझिं रु ी हसिं ), बेबाकी िो िई। बीस हलए थे, उसके एक सौ साठ भरे िैं, कुछ िद िै?” (िोदान)। िद न ‘िोदान’ के समय थी और न ‘कफ़न’ के समय। आि भी निीं िै। हिस प्रकार हिरधर का ताड़ी पीना ििाँ ‘कफ़न’ के घीसू और माधव के ताड़ी पीने की याद हदलाता िै और दररद्रता के अमानहु र्क यथाथत पर से पदात उठाता िै, इसी प्रकार धहनया का िोरी के प्रहत कथन ‘पसू की रात’ इंदस े ना ु ंचत
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की याद हदलाता िै। हकस तरि हकसान अपनी माँ समान धरती को खोकर मिािनी सभ्यता के हशकार िोकर मज़दरू बनाने को हववश िैं! देखें – “अब और कौन आमदनी िै हिससे िोई आवेिी? िल में क्या मझु े िोतोिे, या आप ितु ोिे? पसू की यि ठंड; और हकसी की देि पर लिा निीं। ले िाओ सबको नदी में डुबो दो। कब तक पआ ु ल में घसु कर रात कािेंिे। और पआ ु ल में घसु भी लें तो पआ ु ल खाकर रिा न िाएिा। तम्ु िारी इच्छा िो घास िी खाओ, िमसे तो खाई न िायिी। ” (िोदान)। आक्रोश, करुणा, रुदन, हवडंबना, व्यंग्य – क्या निीं िै धहनया के इस कथन में; और कौन कि सकता िै हक यि कथन आि प्रासहं िक निीं रि िया िै? अस्त।ु ‘िोदान’ का अहं तम अश ं देखते चलें – “ऐसी लू लिी िोरी को हक उसके प्राण िी ले हलए। ” (िोदान)। प्रेमचदं की इसी तेवर की किानी ‘सद्गहत’ यिाँ याद आती िै। और साथ िी आँखों के सामने घमू िाता िै सन 2016 के अप्रैल माि के तपते भारत का यि निं ा सच हक आि भी भीर्ण धपू और लओ ु ं के बीच पानी के हलए तरसते िुए हकसान, मज़दरू और उनके बच्चे तड़प तड़प कर मर िाते िैं। उस समय में दातादीन पहं डत मिािनी सभ्यता का एिेंि बना िोरी की मृत्यु का िोदान स्वीकार कर रिा था तो एक तरफ आि के नेतािण पानी के हलए मरती साधारण िनता की मौत पर रािनीहत करते िैं तथा दसू री तरफ मीहडया अपनी िीआरपी का खेल खेलता िै। ये सब भी दातादीन की तरि िी बाज़ार सस्ं कृ हत के एिेंि िैं – “पहत के ठंडे िाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली - मिाराि, घर में न िाय िै, न बहछया, न पैसा। यिी पैसे िैं, यिी इनका िोदान िै। – और पछाड़ खाकर हिर पड़ी। ” (िोदान)। प्रेमचदं के दोनों चहचतत उपन्यासों ‘रंिभहू म’ और ‘िोदान’ को देखने से यि बात स्पि िोती िै हक प्रेमचदं यि भली प्रकार समझते थे हक असिं हठत हकसान शोहर्त बने रिने के हलए अहभशप्त िै क्योंहक वि शोर्क शहियों का प्रहतरोध करने में असमथत रिता िै। प्रेमचदं ने अपने ढंि से उन शहियों का हवरोध और प्रहतरोध करने का सािस हदखाया। िैसा हक डॉ। िोपाल राय मानते िैं, देसी रािाओ,ं ताल्लक ु े दारों, मिािनों, पिँू ीपहतयों, सरकारी अमलों, अग्रं िे भि बहु द्धिीहवयों, अग्रं िे ी हशक्षा पद्धहत, अग्रं ेिी न्यायपाहलका आहद का हवरोध अतं तः औपहनवेहशक शासन का िी हवरोध था। इसमें सदं िे निीं हक उस समय यि औपहनवेहशक शासन िी समस्त प्रकार के शोर्ण में हलप्त था। इसके प्रहतवाद के रूप में ििाँ ‘रंिभहू म’ में सरू दास, सोहफया और हवनय िैसे पाि सामने आते िैं विीं ‘िोदान’ में एक ओर तो िोरी और धहनया अपने अपने पारंपररक हवश्वासों के साथ इस शोर्क व्यवस्था के समक्ष खड़े िोने का प्रयास करते िैं तथा दसू री ओर लेखक िोबर और झहु नया, मातादीन और हसहलया तथा मेिता और मालती के माध्यम से सामाहिक, सांस्कृ हतक और वैचाररक पररवततन का माित भी सझु ाता िै। एक भारतीय साहित्यकार के रूप में प्रेमचदं की भारतीय िनता, भारतीय हकसान और वस्ततु ः भारत की महु ि के प्रहत प्रहतबद्धता अंतधातरा के रूप में उनके साहित्य में प्रवाहित हदखाई देती िै। वे इस बात से हचहं तत और दख ु ी िै हक हकसानी सभ्यता मर रिी िै और मिािनी सभ्यता उभर रिी िै। उनकी हचतं ा और वेदना का कारण यि िै हक इस सभ्यता सघं र्त में सत्य, न्याय, मयातदा आहद मल्ू य हमि रिे िैं और असत्य, अन्याय तथा अमयातहदत आचरण को िौरवाहन्वत हकया िा रिा िै। यि सक ं ि प्रेमचदं के समय का िी सक ं ि निीं था बहल्क िमारे समय का भी सक ं ि िै और यिी वि कें द्रहबदं ु िै िो प्रेमचदं को आि भी प्रासहं िक और वततमान बनाए िुए िै। इंदस े ना ु ंचत
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प्रेमचंद एक अनुभि
दयानंद पांडय े ष्जस बरस प्रेमचंि जन्द्मििी मनाई जा रही थी यानी 1980 में , जनवािी लेखक संघ ने प्रेमचंि के जन्द्म-स्त्थान लमही में बरदिवसीय प्रेमचंि मेला लगाया था। मैं भी गया था। बड़ी िड़क भड़क िो नहीं थी मेले में - मेला गंवईं भी नहीं था। मेला था कुछ जनवािी लेखक और रं गकमी बंधओ ु ं का। मेले में गोष्ष्ठयां हुईं, गोष्ष्ठयों में फ़िवेबाज़ी हुई। फ़िवेबाज़ी में कई खि ु हुए और कई नाराज। गांव के लोग यातन लमही के ‘लाला जी लोग’ यह सब िाकिे रहे थे
िरू -िरू से। और सी.आई.डी. वाले चोरी तछपे अपनी ररपोटष शलखिे रहे थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जो लगभग कटे कटे से यह सब िे ख रहे थे। है रानी कई बािों को ले कर हो रही थी:
कक प्रेमचंि मेले में सी.आई.डी. वालों की दिलचस्त्पी क्यों है ?
कक इस मेले में इस िरह की फ़िवेबाज़ी की ज़रुरि क्या है ?
कक लमही के लाला लोग प्रेमचंि मेले में दहस्त्सेिार क्यों नहीं हैं?
कक यह प्रेमचंि मेला है या कुछ िहररयों का वपकतनक?
जो भी हो इन सवालों का जवाब बहुि मुष्श्कल नहीं था - सब के पास था। लेककन इन सारी बािों को जबान पर ला कर कोई भी मजा बिमजा नहीं करना चाहिा था। हां मजा। इस मेले में दहंिस्त् ु िान के लगभग हर कोने; कस्त्बों से महानगर िक के मदहला पुरुर्, युवक
युवतियां आए थे। लगभग िीन साढ़े िीन सौ लोग रहे होंगे, ष्जन में बहुि मजे हुए लोग भी थे और एकिम नए भी। इन में बहुि सारे कस्त्बाई ऐसे थे - जो ‘महानगर’ को नहीं िे खे थे। बहुि से ‘महानगरीय’ ऐसे थे जो ‘गांव’ नहीं िे खे थे। और मजा यह कक िोनों ‘महानगर’ और ‘गांव’ कफ़ल्मों में िे खे हुए थे। और उसी आधार पर अपना- अपना आकलन बबठा रहे थे। िो गांव के लोग महानगर न िे ख - महानगररयों को ‘घरू िे’ रहे ...बड़े तनरापि भाव से । सहज और सरल हो कर या कदहए इस का पन दिखा कर। और महानगरीय लोग लमही में अपना वह
‘कफ़ल्मी गांव’ ढूंढ रहे थे। जो ढूंढे नहीं शमला था - उन्द्हें । िो भी लमही में भारी बागीचा था। मंदिर
और
िालाब
समेि
सारी
गवंई
चीज़ें
उपलब्ध
थीं।
एक
वाककया
बिाऊं।
‘सांझ का समय था। जून का उमस भरा महीना। हवा एकिम बंि थी। कुछ महानगरीय
लड़ककयां, ष्जन्द्हें गोष्ष्ठयों में मजा नहीं आ रहा था, गांव घूमने का इरािा बना बैठीं। हम भी
उन के साथ थे। एक ककसी गरीब घर में वे िाबड़ िोड़ घुसीं। उस घर की बेदटयां और बहुएं चचहुंक कर परिे में हो गईं। घर की ‘बूढ़ा’ ने घघ ूं ट काढ़े भरसक खातिरिारी की। वह बबना बोले बेना (हाथ पंखा) के जुगाड़ में थीं, और यह ‘िे ववयां’ अपने अपने कपड़ों की शिकन इंदस े ना ु ंचत
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सवांरिे क्रीज़ उभारिे बोल रही थी, ‘हाय क्या िो अभी ठं डी हवा चल रही...आ हा...!’ और ‘बढ़ ू ा’ ने कहा, ‘हां बचवा!’ इस बेिहािा गरमी में भी इन ‘िे ववयों’ को ‘ठं डी ठं डी हवा’ इस शलए लग रही थी ‘वह गांव में थीं...।’ वैसे िो लमही के इन िीन दिनों के ककस्त्से बहुि हैं। कफर कभी अलग से बयान करुं गा। यों लमही में मैं व्यष्क्िगि िौर पर कई लोगों से शमला। प्रेमचंि के बारे में उन से जानना चाहा। अचधकांि प्रेमचंि को इिना ही जानिे थे कक वे एक लेखक थे। उन्द्हें इस बाि पर गवष था बस। या कफर वे अपने वंिज के रूप में अपने परिािा, िािा, काका, भइया के रूप में ही जानिे थे - इस का भी उन्द्हें गवष था। और कुछ बुजुगों के
पास शसफ़ष उन्द्हें िे खने भर की एक धध ुं ली सी याि थी और कुछ नहीं। सच िो यह है कक एक
आम दहंिस्त् ु िानी की िरह उन्द्हें भी अपनी सामान्द्य ष्जंिगी से फुसषि नहीं शमलिी कक वह कुछ
‘इस िरह’ का सोचें - उन के अपने ही महाभारि से उन्द्हें छुट्टी नहीं शमलिी। चाहे वह नई पीढ़ी हो या बीच की या बूढ़ी पीढ़ी। सब का अपना अपना रोना है ।
लमही गांव की अन्द्य जातियों में लोग प्रेमचंि के बारे में यही जानिे हैं कक वह लाला थे, मनशसधव ु ा थे। बड़े बदढ़या आिमी थे... बस। उन की नई पीढ़ी जो शसफ़ष ‘साक्षर’ है , प्रेमचंि
नाम भी नहीं जानिी। बहुि कुरे िने पर गांव में उन की मतू िष याि दिलाने पर उन का कहना था कक-‘अरे हां, उन का ि जानी ले..’.का जान ल?’ पछ ही रहे । ू ने पर वह चप ु प्रेमचंि की यह ष्स्त्थति लमही ही में नहीं, परू े दहंिस्त् ु िान में है । क्यों कक प्रेमचंि सरकारी िौर पर,
सावषजतनक
िौर
पर
उपेक्षक्षि
हैं-यहां
िक
कक
सादहष्त्यक
िौर
पर
भी।
कहने को िो प्रेमचंि को मैं ने भी िब जाना जब पांचवीं या छठवीं में पढ़िा था। ‘पंच परमेश्वर’ और ‘ईिगाह’ के माफ़षि। वैसे ईमानिारी की बाि यह है - प्रेमचंि को मैं िब न जानिा था। एक सामान्द्य पाठ्यक्रम की दृष्ष्ट से उन्द्हें पढ़ा था। पढ़ाया ही ऐसे गया। िब सादहत्य में मेरी दिलचस्त्पी भी न थी। दिलचस्त्पी िो िरू सादहत्य क्या बला है से अनशभज्ञ, सादहत्य िब्ि से ही गोल था।
हां िो मैं कह रहा था कक प्रेमचंि को मैं ने जाना - ‘पंच परमेश्वर’ और ‘ईिगाह’ के माफ़षि। वो भी इम्िहान के शलहाज़ से। और हम हमारे सहपाठी प्रेमचंि को कम हाशमि ईिगाह का मेला, िािी, हाशमि के समवयस्त्कों को अचधक जानिे महसूसिे थे। बष्ल्क जब वह कहानी पढ़ी थी, उस साल ििहरे के मेले में जािे वक्ि हर िोस्त्ि हाशमि जैसा उत्साह बष्ल्क
अतिररक्ि उत्साह जिा रहा था। लेककन हाशमि जैसी संवेिना हम में न थी, इसे भला कैसे नकार सकिा हूं। बष्ल्क इस के पूवष ‘पंच परमेश्वर’ पढ़ कर लगिा था कक अरे , यह िो हमारे गांव की कहानी है । हमारे बाबू जी(चाचा) की एक छोटी बबदटया थी - मंजू। ‘पंच परमेश्वर’ के चाव में हम उसे ‘जुम्मन जुम्मन’ कहने लगे। कहने क्या चचढ़ाने लगे। बाि यहां िक बढ़ी कक बड़की माई (चाची) से डांट खानी पड़ी। बड़की माई ने कहा, ‘का ई मुसुरमाने क बबदटया
है ...कक जुम्मन जुम्मन कह ल...।’ लेककन आिि नहीं गई...और सीधे जुम्मन जुम्मन न कह इंदस े ना ु ंचत
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कर मंजू मंजू इस लहजे में कहिे कक वह जम् ु मन बन जाए मिलब कक वह चचढ़े भी और हम डांट भी न खाएं...। लेककन डांट खाने से बढ़ कर नौबि कनेठी और िमाचा खाने की भी आ
गई। िब मैं ने बड़की माई को पलट कर जवाब दिया था, ‘हम उसे मुसलमान कहां बनािे हैं?
हम िो उस के नाम ‘मंजू’ का उलटा भर कर करिे हैं - और वह जुम्मन हो जाए िो हम
क्या करें - आपने नाम ही ऐसा रखा है - नहीं अच्छा लगिा िो - नाम ही बिल डाशलए!’ िब इिनी समझिारी न थी न ही इिनी दहम्मि कक बड़की माई से कहिा कक, ‘मुसलमान भी हाड़ मांस का होिा है - और हमारे ही जैसा। बस नाम में ही फ़कष होिा है ...’।
बहरहाल यह ककस्त्सा कई दिनों िक चला। बड़ी घटनाएं घटी। अब हम ककिोर हो रहे थे। ‘गुल्ली डंडा’ और ‘िो बैलों की कथा’ िक आ पहुंचे थे। और अपने को एक अजीब ितु नया में पा रहे थे। ‘गल् ु ली डंडा’ खब ू छक कर खेलिे कोई ‘बड़ा’ मना करिा िो पलट कर पछ ू िे कक,
ककिाब में भी कभी कुछ गलि शलखा होिा है ...। जवाब शमलिा, ‘नहीं िो!’ और िब हम अपनी अकल के मि ु ाबबक ‘बघारिे’ हुए बिािे कक हमारी दहंिी की ककिाब में पदढ़ए, गल् ु ली डंडा...!’ और वह चप हो जािे। अपने बैलों में हीरा मोिी की ही छाप ु
ढ़ूंढिा...नाि...कनहौि...सब कुछ वैसा ही। लेककन प्रेमचंि कौन बला हैं - हम िब भी नहीं ही जानिे थे। हम जानिे थे शसफ़ष उन कहांतनयों को; ष्जन में हम अपनी चेिना, अपना आस-पास िे खिे महसस ू िे। लेककन यह िो महसस ू होने ही लगा था कक यह बाि हर कहानी में नहीं शमलिी - और भूख बढ़िी गई, ऐसी कहातनयों को पढ़ने की। कफर जानकार लोगों ने कहा, प्रेमचंि की कहातनयां खरीि कर पढ़ो...। अभी खरीिने की जुगि लगा ही रहा था कक गरशमयों
की छुट्टी में एक िोस्त्ि से ‘तनमषला’ पढ़ने को शमली। ‘मंसाराम, िोिा राम...बिौर िैलेर् जैिी,...सामान्द्य पाठक के शलए तनमषला में ‘आह’ और ‘वाह’ की पयाषप्ि सामग्री है …।’ िो साहब हम भी तनमषला के ‘आह’ और ‘वाह’ से मुक्ि न हो सके। और यहीं से लि पड़ी उपन्द्यासों को पढ़ने की।
इस बहाव में आ कर बहुि सारे सडड़यल उपन्द्यास अचधक, पोख्िा उपन्द्यास कम पढ़े - ये ससरु े पल्ले ही नहीं पड़िे थे और उपलब्ध भी नहीं होिे थे आसानी से। खैर इस उपन्द्यास
पढ़ने की लि ने भारी नक ु सान दिया। ्यारहवी में फेल हुआ। फेल कैसे न होिा - पाठ्यक्रम की ककिाबों के नीचें जो एक ककिाब हुआ करिी थी - वह चाहे क्लास हो या घर। बबना पढ़े चैन ही नहीं आिा था। हर वक्ि गल ु िन नंिा, कनषल रं जीि वगैरह ही दिमाग में छाए रहिे।
यहां यह बिा ि ू कक प्रेमचंि का रं ग दिमाग से उिर चक ु ा था...बज ु ग ु ों की राय में िीवाना हो
चला था। समझिारी के ककले िोड़िा - िीवानगी की हि िोड़ रहा था। बहरहाल फेल हुआ िो क्या - गरमी की छुट्टी िो हुई ही। और हर साल की िरह गया गांव, छुट्टी बबिाने। अम्मा ने कहा, मौसी के वहां ज़रा हो आओ। मौसी के यहां गया। वहां मौसी के एक िे वर थे। पॉकेट बुकों का एक भारी खजाना रख रखा था। मैं गया िो दिनों के शलए था लौटा िस दिन बाि। इंदस े ना ु ंचत
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वह भी बड़े बेमन से। िो भी कुछ पॉकेट बक् ु स मांग लाया था। पढ़िा रहिा । अम्मा खि ु
रहिीं कक बेटा फेल हुआ - इस को महसस ू कर रहा है और खब ू पढ़ रहा है । उसे क्या पिा कक मैं कोसष नहीं पॉकेट बुक्स पढ़ रहा हूं, यातन कफर फेल होने की िैयारी...बहरहाल अम्मा अम्मा थी और मैं मैं।
गांव में एक दहंिी से एम.ए. चाचा जी थे। बेकार चल रहे थे उन दिनों। अब एक डडग्री कॉलेज में दहंिी के प्रवक्िा हो गए हैं। लेककन भारिें ि ु को ‘भारिें ि ू जी’ ही कहिे हैं - और सादहत्य की कोई बाि हो िो खैनी रगड़िे हुए वह भारिें ि ू जी पर ही ला पटकिे हैं... इिना कक हम लड़के उन्द्हें ‘भारिें ि ू जी’ ही नाम से नवाजने लगे। बहरहाल िब उन्द्हें चाचा कहिा था। उमर में काफी बड़े थे वपिा जी से कुछ ही बरस छोटे । शलहाज़ ज़बरिस्त्ि ढं ग से करना
पड़िा था। उन दिनों मुझे रांष्जस्त्टर से कफ़ल्मी गानों के सन ु ने का िौक भी जोर मारने लगा
था। गांव में अपने घर रांष्जस्त्टर उपलब्ध न था। सो िप ु हररया में गाने सन ु ने अपने एक हमजोली िोस्त्ि के पास जािा था। इत्तफाक ही था कक एम.ए. चाचा का वह भिीजा लगिा
था। भिीजा िो मैं भी लगिा था लेककन ज़रा िरू का। वह सगा था। बहरहाल ‘कफल्मी गाना सन ु ने जािा था लेककन हमेिा िो गाने नहीं आिे थे रांष्जस्त्टर पर। सो बककया वक्ि काटने
के शलहाज़ से वहीं पॉकेट बक् ु स साथ होिे थे। एक दिन मैं पढ़ ही रहा था कक - िायि गरु ु ित्त थे कक वही एम.ए. चाचा आ पड़े। मेरे पास पॉकेट बक ु िे ख कर खखल उठे । बोले, ‘का रे
ियवा...बड़ी नीक ककिाब लेल बाड़े, िे खीं ि...’ सकुचािे लजािे वह पॉकेट बुक उन्द्हें थमा मैं फुरष
हो गया। और चोरी पकड़ी गई...सोच सोच कर दिल धक-धक करने लगा। िस ू री सुबह एम.ए.
चाचा हाष्जर। वह ककिाब हाथ में शलए आिे दिखे...मैं मरा जा रहा था। आिे ही मुझे गुहराने
लगे अपनी ही िैली में , ‘ियवा रे ...!’ मैं नहीं आया छोटे भाई को भेज दिया। लेककन उन्द्हों ने मुझे बुलाया। बड़े स्त्नेह के साथ वह पॉकेट बुक वापस िी और िल ु रािे हुए पूछा, ‘औरो ककिाब धइले बाटे ..’। मैं गिगि हो उठा था उन के स्त्नेह से। िौड़ा-िौड़ा घर में गया िीन चार पॉकेट बुक्स ला कर उन्द्हें थमा िी। कफर िो यह शसलशसला तनकल पड़ा - वह मुझ से पॉकेट बुक्स लािे - मैं उन से। अम्मा और खि ु हुई कक ‘…’ बहरहाल यह शसलशसला िुरू हुए कुछ ही दिन हुए होंगे कक वपिा जी आए। मैं िरमाया-िरमाया सा आंख चरु ाए रहने लगा - फेल जो हो गया था...। तिस पर आग में घी भी पड़ गया...। हमारे एम.ए. चाचा ने बिाया कक आप का
लड़का खराब हो रहा है , उपन्द्यास पढ़ने लगा है ...। और िाम मेरी िामि हाष्जर थी। वो डांट वपलाई गई कक मि पूतछए। बहरहाल, िफ्िीि के िौरान पाया गया कक मैं यह सारी ककिाबें
मौसी के वहां से लाया हूं, पहले भी मौसी बिनाम थीं। मैं जािा था - वह भें ट में पयाषप्ि पैसे िे िी थीं - और मैं उसे शसनेमा में उड़ािा था - क्लास छोड़-छोड़ कर...। वैसे भी मौसी बड़ी वप्रय थीं मुझ,े अब भी उिनी ही वप्रय हैं। खैर, पूछा गया, मैं मौसी के यहां कफर क्यों गया था। मैं ने कोई चारा न िे ख बिाया, अम्मा ने भेजा था। अम्मा की भी खबर ली गई। और फ़ैसला
हुआ कक मौसी क्या ककसी भी ररश्िेिार के यहां आना जाना बबलकुल बंि। सारी पॉकेट बुकें इंदस े ना ु ंचत
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जब्ि। जल ु ाई करीब थी, ककसी िरह काटा। स्त्कूल खल ु ा। िहर आ गया। कफर कोसष में जुट गया। लोगों ने कहा साइंस िम् ु हारे बस की नहीं, छोड़ िो। साइंस छोड़ िी। कला ववर्य ले
शलए। अब वक्ि ही वक्ि होिा - मन नहीं मानिा - कफर उपन्द्यासों की ओर आया। वपिा जी ने कहा, ‘पढ़ना ही है िो ज़रा ढं ग की ककिाबें पढ़ो - क्या उपन्द्यासों के चक्कर में पड़े रहिे हो - वो भी जासूसी फासूसी।’ वपिा जी के एक शमर थे। उन्द्हों ने ‘सत्याथष प्रकाि’ िी। सच, मैं पूरा नहीं पढ़ पाया। एक दिन घूमिे-घामिे एक बुक स्त्टाल पर गया - ‘प्रेमचंि की सवषश्रेष्ठ कहातनयां’ िे खीं मन में आया खरीि लूं। ककिाब एक रुपया की थी। जेब में चवन्द्नी भी न थी।
मन मार कर रह गया। वपिा जी से इस मि में पैसे मांगिे भी डर लगिा था। कक मुहल्ले की एक लड़की जो उमर में मुझ से काफी बड़ी थी के पास वही ककिाब िे खी। मैं ने कहा, ‘िीिी
इसे मुझे भी पढ़ने को िे िीष्जए न!’ िीिी वपघल गईं और यह कहिे हुए कक, ‘गायब नहीं करना, न फाड़ना, जल्िी ही वापस कर िे ना...।’ जादहर है िीिी मुझे कोरा नािान समझ रही थीं। मैं िब नेकर पहनिा ज़रुर था लेककन क्या क्या खरु ाफािें सोचा करिा था- कोई भी भला क्या जाने...।
मुझे आब भी याि है - वह बरसािी दिन। और दिन भर में ही सारी कहातनयां पढ़ गया
था। पूस की राि, कफन, शमस पद्मा, बूढ़ी काकी, नमक का िारोगा, ििरं ज के खखलाड़ी, सिगति, बड़े घर की बेटी, गह ृ िाह आदि...और मैंने अब प्रेमचंि की रचनाएं, ककिाबें ढूंढ ढूंढ कर पढ़नी िुरू कर िी। सच बिाऊं - और लेखक रुमानी िौर पर ष्जिना उड़ािे थे - प्रेमचंि नहीं उड़ा
पािे थे - हमारे ककिोर दिमाग को। प्रेमचंि की कहातनयां पढ़िे-पढ़िे कभी-कभी एक अजीब टूटन और घुटन सी होने लगिी। लेककन िभी लगा कक यह ईिगाह से गुल्ली डंडा की यारा में
मैं भी िाशमल...। कफन, पूस की राि, सिगति से पूरा पूरा िो नहीं कहीं कहीं साक्षात्कार ज़रूर हो जािा था - अपने गांव की चमरौटी में । खास कर अपने गांव की चौहद्िी में प्रेमचंि के पारों को मैं भरा-पुरा पाने लगा था, चाहे वह रं गभूशम के हों- गबन या गोिान के।
रुदढ़यों, िोर्कों के जबड़े में फंसे प्रेमचंि के पारों को िे ख कर अजीब सी उत्तेजना मन में समा जािी। जब कक उन रुमानी जासस ू ी उपन्द्यासों के चररर िे खना, महसस ू ना िो िरू , सोचने में भी
कहीं नज़र नहीं आिे...। कोफ्ि होने लगिी। मैं पछिाने लगा कक उफ्फ इिना सारा वक्ि मैं ने इन बेहूिी ककिाबों पर क्यों जाया ककया? अब मैं बी.ए. में पढ़ने लगा था। दहंिी, अंगरे जी, संस्त्कृि शलए थे। इस शलए सादहत्य चाहे वह ककसी िरह का हो - पढ़ने की मनाही न थी। भीिर ही भीिर यह समझा जाने लगा कक लड़का ‘समझिार’ होने लगा है ...लेककन आलमारी की िलािी कभी कभार हो ही जािी कक ‘लड़का, क्या पढ़ रहा है और बार बार जबानी िौर पर भी िाकीि की जािी, ‘कोसष पर ध्यान नहीं िे रहे हो पछिाओगे…।’ सचमच ु मैं कोसष पर
ध्यान कम बेस क्या नहीं ही िे पािा था - जी उचट गया था। कुछ ‘कामरे ड’ िोस्त्ि शमल गए थे, उन्द्हों ने पूरी िौर पर कनववंस कर रखा था कक यह शिक्षा प्रणाली घदटया है , सो यह इंदस े ना ु ंचत
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अकािशमक पढ़ाई करना भी घदटयापन के शसवा कुछ नहीं। और मैं भी बाकायिा जब िब ‘यह सब’ लोगों को सन ु ाने लगा था! लोग सन ु िे - ऊबिे और उकिा कर खखसक लेिे। मैं ककला
फिह समझिा। निीज़ा यही तनकला कक कफर फेल हुआ। कई मोड़ों पर । टूटिे जुड़िे िमाम लेखकों से गुज़रा कफर प्रेमचंि की ओर आ पलटा। [ इस बीच थोड़ा बहुि शलखने पढ़ने लगा
था। कब कैसे यह िस ू री बाि है ।] प्रेमचंि मुझे अपनी िीवानगी, असफलिा, संघर्ष हर कहीं अपने साथ शमलिे। यह वह घड़ी थी जब मैं प्रेमचंि को शसफष ऊपर ही ऊपर जानिा था। गोरखपुर में रहिा था। और यह भी नहीं जानिा था कक प्रेमचंि यहां कभी बचपन के अनमोल
क्षण और प्रौढ़िा के जुझारूपन से गुज़रे हैं। बाले शमयां के मैिान रोज जािा, खेलने-घूमने। रावि पाठिाला, िुकषमानपुर, नामषल स्त्कूल, घंटाघर और रे िी के पास से भी कभी कभार ज़रूर
गुज़रिा। कभी पैिल, कभी साइककल से। लेककन बेखबर कक प्रेमचंि का यहां से कभी कोई
वास्त्िा रहा होगा। सादहष्त्यकों में ववश्वववद्यालय में कभी कोई चचाष भी न करिा - इन सारी बािों की - और प्रेमचंि की रचनाएं छोड़ उन के बारे में कफलहाल गंभीरिा से, कुछ पढ़ने को न शमला था - िो क्या मैं सपना िे खिा कक प्रेमचंि गोरखपुर में ..।’
खैर, 31 जुलाई को नामषल स्त्कूल के कुछ छारों ने एक गोष्ठी रखी- मुझे भी बुलाया
गया...कफर मालूम हुआ कक अरे , प्रेमचंि और गोरखपुर...हि है ...मैं बड़ा अशभभूि हुआ। और सचमुच पहली बार प्रेमचंि से बड़ी आत्मीयिा महसूस हुई। हि िरजे की आत्मीयिा। नामषल स्त्कूल, रे िी चौक, बाले शमयां का मैिान मेरे शलए अब पहले जैसा तनजीव नहीं रह गया था।
कह सकिे हैं - ये जगहें मेरे शलए मक्का मिीना सी बन गईं। कफर प्रेमचंि और गोरखपुर के
मुत्तशलक मैं ने जानकारी लेनी िुरू कर िी - बड़े उत्साह से इस काम में लगा रहा। गोरखपुर
में हर जगह प्रेमचंि को ढूंढिा कफरने लगा...। लेककन मुक्कमल िौर पर प्रेमचंि मुझे नहीं शमले। गोरखपुर वालों ने प्रेमचंि को भुलाया ही नहीं गायब कर रखा था। और मैं था कक
बेचन ै था।* प्रेमचंि मेरे अजीज बन चले थे। िरह िरह की कल्पनाएं करिा...। आकार पर आकार गढ़िा-उसी राप्िी ककनारे जहां गांधी जी से प्रभाववि हो कर प्रेमचंि ने सरकारी नौकरी छोड़ स्त्वराज आंिोलन में दहस्त्सा लेने का तनश्चय ककया था। लेककन मेरे दिमाग में प्रेमचंि की एक अनगढ़ सी िस्त्वीर उगिी शमटिी, शमटिी उगिी। और यह क्रम चलिा टूटिा कक प्रेमचंि
से मैं चचढ़ने लगा। क्यों कक जो आििष, जो सर ू उन से सीखे थे - वे व्यावहाररक स्त्िर पर िे खने में िो बड़े ‘साबि ू ’, ‘एष्क्टव’ लगिे। लेककन ‘करने’ के स्त्िर पर ‘िोड़’ डालिे थे। इस बीच प्रेमचंि की व्यष्क्िगि ष्ज़ंिगी के पन्द्ने भी पढ़ने को शमलने लगे। जो ढे र सारी अनैतिक बािे उन के बारे में बिािी ही नहीं पष्ु ट भी करिी थीं। उन के सादहत्य के बारे में भी अजब
गजब बािें सन ु ने पढ़ने को शमलने लगीं। लेककन ष्स्त्थति यह थी कक लाख चाहने पर भी अंिमषन प्रेमचंि को गररयाने न िे िा। कक िभी लगा अरे , प्रेम-चंि-प्रेमचंि ही हैं। प्रेमचंि को कई
कोनों से जान लेने के बाि मैं इसी तनष्कर्ष पर अपने को पाया, तनहायि व्यष्क्िगि स्त्िर पर इंदस े ना ु ंचत
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कक : प्रेमचंि न होिे िो मैं ष्जंिा न होिा - कभी का मर गया होिा। हर मोड़ पर। वही मोड़ जो ‘ककिोर’ था िब िोड़िे थे, आज ‘यव ु ा’ हूं िब भी ‘िोड़िे’ हैं - आगे भी ‘िोड़ेंगे’। लेककन यह
जानिा हूं - कक इस टूटने से मैं बचग ं ा, इस ‘टूटने’ को मैं िोड़ूग ं ा। यहां यह ूं ा, इस टूटने से लड़ूग बिा िं ू कक प्रेमचंि के कई पारों को जब िब ष्स्त्थतियों के मुिाबबक हमेिा ही अपने भीिर
बाहर, जीिा महसूसिा रहा हूं। चाहे वह पार छोटा से छोटा हो - नायक, खलनायक हो यहां िक कक संवेिना के स्त्िर पर मदहला पारों को भी जीिा रहा हूं - अपने ढं ग से। न सही पूरा पूरा उन का जुझारुपन मुझे बहुि भािा रहा है । खास कर इन ष्स्त्थतियों में : िह में भी है हाल वही जो िह के ऊपर हाल मछली बच कर जाय कहां जब जल ही सारा जाल। माधव मधक ु र उन दिनों एक कवविा गोिान पर पढिे थे। उन्द्हों ने प्रेमचंि के गोिान पर एक छोटी सी कवविा में आज की ष्स्त्थतियों को बड़ी खब ू ी से उभारा है । होरी की गाय अभी िक घर नहीं आई बैंकर खन्द्ना अब भी नेिा है िे िी पहनिा और वविे िी पीिा है । ष्स्त्थतियां चाहें लाख बिल गई हों, िे ि काल और संिभष बिल गए हों - हमारे बज ु ग ु ष अब भी
होरी की ष्स्त्थतियों ववसंगतियों में ही नहीं वरन िस गण ु ी ववपरीि ष्स्त्थतियों और चौिरफा
ववसंगतियों को झेल रहे हैं। ऐसे में हम गोबर गांव छोड़ िहर और िहर आ कर, ‘जब भी पांव जले धप ू में /घर ही याि आए।’ को कसमसा-कसमसा कर गन ु गन ु ािे हुए ष्ज़ंिगी बनाम सामाष्जक, राजनीतिक और आचथषक गलाजिों का ककला िोड़ने में लगे हुए हैं। िोड़िे हुए खि ु
टूट रहे हैं। हां लेककन टूटे नहीं हैं-टूटें गे भी नहीं। टूटे गी िो यह व्यवस्त्था - यही हम जैसे
िमाम ‘गोबरों’ की िमन्द्ना है । और इस िमन्द्ना को हम गोबर हाशसल कर के रहें गे। हो सकिा है इस क्रम में कुछ होरी गोबर पीढ़ी िर पीढ़ी और जुड़े - कहीं और िेज़ धारिार और मज़बूि हौसलों के साथ।
[१९८२ में भावना प्रकािन, दिल्ली से प्रकाशिि प्रेमचंि व्यष्क्ित्व और रचनादृष्ष्ट, से साभार]
इंदस े ना ु ंचत
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सिज, सिल ग्रामीण प्रेमचंद -महािे वी वमाष
प्रस्तुतत-िवि ितलामी संपादक-िचनाकाि
प्रेमचंिजी से मेरा प्रथम पररचय पर के द्वारा हुआ। िब मैं आठवीं कक्षा की ववद्याचथषनी थी! मेरी 'िीपक' िीर्षक एक कवविा सम्भवि: 'चांि' में प्रकाशिि हुई। प्रेमचंिजी ने िुरन्द्ि ही मुझे कुछ पंष्क्ियों में अपना आिीवाषि भेजा। िब मुझे यह ज्ञाि नहीं था कक कहानी और उपन्द्यास शलखने वाले कवविा भी पढ़िे हैं। मेरे शलए ऐसे ख्यािनामा कथाकार का पर जो मेरी
कवविा की वविेर्िा व्यक्ि करिा था, मुझे आिीवाषि िे िा था, बधाई िे िा था, बहुि दिनों िक मेरे कौिह ू ल शमचश्रि गवष का कारण बना रहा।
उनका प्रत्यक्ष ििषन िो ववद्यापीठ आने के उपरान्द्ि हुआ। उसकी भी एक कहानी है । एक िोपहर कौ जब प्रेमचंिजी उपष्स्त्थि हुए िो मेरी भष्क्िन ने उनकी वेिभर् ू ा से उन्द्हें भी अपने ही समान ग्रामीण या ग्राम-तनवासी समझा और सगवष उन्द्हें सच ू ना िी--गरु ु जी काम कर रही हैं।
प्रेमचंिजी ने अपने अट्टहास के साथ उत्तर दिया--िम ु िो खाली हो। घडी-िो घड़ी बैठकर
बाि करो।
और िब जब कुछ समय के उपरान्द्ि मैं ककसी कायषवि बाहर आई िो िे खा नीम के नीचे एक चौपाल बन गई है । ववद्यापीठ के चपरासी, चौकीिार, भष्क्िन के नेित्ृ व में उनके चारों ओर बैठे हैं और लोक-चचाष आरम्भ है ।
प्रेमचंिजी के व्यष्क्ित्व में एक सहज ? संवेिना और ऐसी आत्मीयिा थी, जो प्रत्येक सादहत्यकार का उत्तराचधकार होने पर भी उसे प्राप्ि नहीं होिी। अपनी गम्भीर ममषस्त्थिषनी दृष्ष्ट से - उन्द्होंने जीवन के गंभीर सत्यों, मूल्यों का अनुसंधान ककया और ' अपनी सहज सरलिा से, आत्मीयिा' से उसे सब ओर िरू -िरू िक पहुंचाया। ष्जस युग में उन्द्होंने शलखना आरम्भ 'ककया 'था, उस समय दहन्द्िी कथा-सादहत्य - जासूसी और तिलस्त्मी कौिूहली जगि ् में ही सीशमि था। उसी बाल- सुलभ कुिूहल में - प्रेमचन्द्ि उसे
एक व्यापक धरािल पर ले आये, जो सवष सामान्द्य था। उन्द्होंने साधारण कथा, मनुष्य की
साधारण घर-घर की कथा, हल-बैल की कथा, खेि-खशल-हान की कथा, तनझषर, वन, पवषिों की कथा सब िक इस प्रकार पहुंचाई कक वह आत्मीय िो थी ही, नवीन भी हो गई। प्राय: जो व्यष्क्ि हमें वप्रय होिा है , जो वस्त्िु हमें वप्रय होिी है हम '' उसे िे खिे हुए ' थकिे नहीं। जीवन का सत्य ही ऐसा है । जो आत्मीय है वह चचर नवीन भी है । हम उसे बार-बार इंदस े ना ु ंचत
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िे खना चाहिे हैं। कवव के कमष से कथाकार का कूमष शभन्द्न होिा है । 'कवव अन्द्िमख ुष ी रह सकिा है और जीवन की गहराई से ककसी सत्य को खोज कर कफर ऊपर आ सकिा है ।
लेककन कथाकार को बाहर-भीिर िोनों दििाओं में िोध करना पडिा है , उसे तनरन्द्िर सबके समक्ष रहना पड़िा है । िोध भी उसका रहस्त्य- मय नहीं हो सकिा, 'एकान्द्िमय नहीं हो सकिा। जैसे गोिाखोर जो समुर में ' जािा है , अनमोल मोिी खोजने के शलए, वहीं रहिा है
और - मोिी शमल जाने पर ऊपर आ जािा है । ' परन्द्िु नाववक को िो अिल गहराई का ज्ञान भी रहना चादहए और ज्वार-भाटा भी समझना- चादहए, अन्द्यथा वह ककसी दििा में नहीं जा सकिा। प्रेमचंि ने जीवन के अनेक संघर्ष झेले और ककसी संघर्ष में उन्द्होंने पराजय की अनुभूति
नहीं प्राप्ि की। पराजय उनके जीवन में कोई स्त्थान नहीं रखिी थी। संघर्ष सभी एक प्रकार से
पथ के बसेरे के समान ही उनके शलए रहे । वह उन्द्हें छोड़िे चले गये। ऐसा कथाकार जो जीवन को इिने सहज भाव से लेिा है , संघर्ों को इिना सहज मानकर, स्त्वाभाववक मानकर चलिा है , वह आकर कफर जािा नहीं। उसे मनुष्य और जीवन भूलिे नहीं। वह भूलने के यो्य
नहीं है । उसे भूलकर जीवन के सत्य को ही हम भूल जािे हैं। ऐसा कुछ नहीं है कक ष्जसके
सम्बन्द्ध में प्रेमचंि का तनष्श्चि मि नहीं है । ििषन, सादहत्य, जीवन, राष्र, साम्प्रिातयक एकिा, सभी ववर्यों पर उन्द्होंने ववचार ककया है और उनका एक मि और ऐसा कोई तनष्श्चि मि नहीं है , ष्जसके अनुसार उन्द्होंने आचरण नहीं ककया। ष्जस पर उन्द्होंने ववश्वास ककया, ष्जस सत्य को उनके जीवन ने, आत्मा ने स्त्वीकार ककया उसके अनुसार उन्द्होंने तनरन्द्िर आचरण ककया। इस प्रकार उनका जीवन, उनका सादहत्य िोनों खरे स्त्वणष भी हैं और स्त्वणष के खरे पन को जांचने की कसौटी भी है ।
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प्रेमचंद औि माक्सािाद का सौंदयािास्त्र िीिें द्र यादि प्रेमचंि ने बबना माक्सषवाि का नाम शलए कहा था- ‘हमारी कसौटी पर वही सादहत्य खरा उिरे गा, ष्जसमें उच्च चचंिन हो, स्त्वाधीनिा का भाव हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाि हो।
माक्सषवािी सौंियषदृष्ष्ट मनुसंदहिा से तनस्त्सि ृ कोई ऐसी जड़ अवधारणा नहींंं है , जो कालांिर
में अप्रासंचगक होने को अशभिप्ि हो। हां, यह जरूर है कक माक्सषवािी राजनीति का पराभव कुछ यथाष्स्त्थतिवादियों और अराजनीति के पैरोकारों को उस महाज्ञानी की भूशमका में जरूर
ला खड़ा करिा है , जो नवजाि शििु का माथा िे ख कर कभी न कभी बच्चे की मत्ृ यु की भववष्यवाणी की दिव्यदृष्ष्ट रखिा है । सच िो यह है कक माक्सषवािी सौंियषदृष्ष्ट समाज
सापेक्षिा और समिा-समानिा के ष्जन पररविषनकामी मूल्यों को लेकर प्रतिश्रि ु रही है , आज
उसका ववस्त्िार हुआ है । आज माक्सषवािी सौंियषदृष्ष्ट प्राणवायु की िरह समूचे सादहष्त्यककलात्मक पररदृश्य पर ववस्त्िाररि है । दहंिी सादहत्य संसार में स्त्री, िशलि, आदिवासी और हाशिए के समाज की जीवंि उपष्स्त्थति और केंरीयिा माक्सषवािी सौंियषबोध का अद्यिन और अधन ु ािन ववस्त्िार है । प्रेमचंि ने बबना माक्सषवाि का नाम शलए कहा था- ‘हमारी कसौटी पर वही सादहत्य खरा उिरे गा, ष्जसमें उच्च चचंिन हो, स्त्वाधीनिा का भाव हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाि हो, सौंियष का सार हो, सज ै ी पैिा करे , सुलाए नहींं;ं ृ न की आत्मा हो- जो हममें गति और बेचन क्योंकक अब और ज्यािा सोना मत्ृ यु का लक्षण है ।’ कला जीवन के शलए माक्सषवािी सौंियषबोध का यही िो सारित्त्व है । तनराला की कवविा ‘िोड़िी पत्थर’ सौंियष और श्रम के समन्द्वय की
कला दृष्ष्ट का उत्कृष्ट उिाहरण है । तनराला की आंख मजिरू नी के ‘श्याम िन, भर बंधा इंदस े ना ु ंचत
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यौवन’ को िे खिी अवश्य है , लेककन वह दटकिी है ‘नि नयन वप्रय/ कमष रि मन/ गरु ु हथौड़ा हाथ’ पर। आखखर क्यों तनराला ‘चिरु ी चमार’ को कबीर पिावली का वविेर्ज्ञ स्त्वीकार कर
उसके बारे में यह शलख सके कक ‘वह एक ऐसे जाल में फंसा है , ष्जसे वह काटना चाहिा है , भीिर से उसका, पूरा जोर उभर रहा है , पर एक कमजोरी है , ष्जसमें बार-बार उलझ कर रह
जािा है ?’ और क्यों आचायष रामचंर िुक्ल दृढ़ ववश्वास के साथ यह शलख सके कक ‘ऊंची-नीची श्रेखणयां समाज में बराबर थीं और बराबर रहें गीं। अि: िूर िब्ि को नीची श्रेणी के मनुष्य का-
कुल, िील, ववद्या, बुद्चध, िष्क्ि आदि सबमें अत्यंि न्द्यून का- बोधक मानना चादहए।’ यह शलखिे हुए आचायष रामचंर िुक्ल ने यह भी शलखा था कक ‘योरोप में नीची श्रेखणयों में ईष्याष, द्वेर् और अहं कार का प्राबल्य हुआ, ष्जससे लाभ उठा कर ‘लेतनन’ अपने समय में महात्मा बना रहा। समाज की ऐसी ववृ त्तयों पर ष्स्त्थि ‘महात्म्य’ का स्त्वीकार घोर अमंगल का सूचक है ।’ इस कथन में सवषहारा के नायक लेतनन के मानमिष न और वणषव्यवस्त्था के समथषन का जो ररश्िा है वह सौंियषदृष्ष्ट से ववष्च्छन्द्न नहीं है । आखखर क्यों आचायष िुक्ल के ‘लोकमंगल’ में श्रमिील िूर समाज ‘अत्यंि न्द्यून का बोधक’ है ?
माक्सषवािी सौंियषिास्त्र उस ‘अशभजनवाि’ में भी सरू ाख करिा है , जो सादहत्य के केंर से
‘होरी’ (गोिान) को बेिखल करके ‘िेखर’ (िेखर एक जीवनी) को आधतु नक दहंिी कथा-सादहत्य का सबसे सिक्ि प्रतितनचध करार िे िा है । प्रश्न यह भी है कक आखखर क्यों तनमषल वमाष का माक्सषवाि ववरोध और वणष-व्यवस्त्था का समथषन अन्द्योन्द्याचश्रि है ? आखखर क्यों उनकी सौंियषदृष्ष्ट से वणषव्यवस्त्था की कुरूपिा अलक्षक्षि रहिी है । इिना ही नहींंं, वे इसे प्रश्नांककि करने के बजाय यह कहना जरूरी समझिे हैं कक ‘जीवन के हर क्षेर में अपनी जगह चाहे वह वणषव्यवस्त्था में ही तनदहि क्यों न हो, के प्रति तनष्ठा रखने में ही मनुष्य का िे वत्व तछपा रहिा है ।’ सच िो यह है कक माक्सषवािी सौंियषदृष्ष्ट को खाररज करने या उसे अप्रासंचगक करार
दिए जाने के पीछे उन आस्त्वािपरक अशभजनवािी कलामूल्यों की रक्षा है , जो सादहत्य को
जीवनसंग्राम से बेिखल करना चाहिे हैं। माक्सषवािी सौंियषचि े ना को खाररज ककए बबना क्या अिोक वाजपेयी यह कह सकिे थे कक ‘…एक ऐसे समय में जब िे ह सवषथा अलक्षक्षि जा रही हो मानो भारिीय परं परा में िे ह और िंग ृ ार का इिना बड़ा प्रचलन न रहा हो, ऐसे में जब
मसलन ऐसा शलखा जा रहा है मानो दहंिी समाज में या दहंिी के मनुष्य में सेक्सुअशलटी होिी
ही नहीं है । ऐसे में िे ह की बाि करना वैचाररक हस्त्िक्षेप है ।’ कहने की आवश्यकिा नहीं कक ‘िे ह और िंग ृ ार’ के माध्यम से ककया जाने वाला वैचाररक हस्त्िक्षेप उस भोगवािी ििषन का ही उपजीव्य है , माक्सषवाि ष्जसका प्रत्याख्यान करिा है ।
ववचारणीय यह भी है कक माक्सषवािी दृष्ष्ट को प्रश्नांककि या खाररज करिे हुए ककन सादहष्त्यक कलात्मक मूल्यों को प्रतिष्ष्ठि ककया जा रहा है ? िशलि सौंियषिास्त्र की कसौटी पर माक्सषवािी सादहत्य-दृष्ष्ट को प्रश्नांककि ककए जाने के तनदहिाथष वही नहीं हैं जो कलावादियों इंदस े ना ु ंचत
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द्वारा माक्सषवाि को अप्रासंचगक करार दिए जाने के। िशलि सौंियषिास्त्र की भशू म से
माक्सषवाि की सीमाओं को इंचगि ककया जाना माक्सषवािी सौंियषदृष्ष्ट के िे िज ववस्त्िार की मांग है , जबकक कलावादियों द्वारा माक्सषवािी दृष्ष्ट को खाररज ककया जाना सादहत्य से व्यापक सामाष्जक सरोकारों को ही खाररज ककया जाना है । यह अकारण नहीं है कक माक्सषवाि को खाररज करने वाला कलावाि ‘मैला आंचल’ सरीखी कथाकृति में मौजूि ‘लोकगीिों की संवेिना, लहलहािे गद्य और अद्भुि लयात्मकिा’ पर िो लहालोट है , लेककन उसके सामाष्जक तनदहिाथों पर नहीं। क्या यह कहने की जरूरि है कक सांस्त्कृतिक राष्रवाि और वणाषश्रमी
दहंित्ु व का जो कक्रटीक ‘मैला आंचल’ में उपष्स्त्थि है , क्या उसका खल ु ासा होने के बाि भी रे णु कुलीन सादहत्य िंर के बीच उिने ही िल ु ारे लेखक रहें गे? यह समझने की जरूरि है कक एक
ही परं परा और कथा-भूशम के लेखक होने के बावजूि सादहत्य के कुलीनिंर से प्रेमचंि क्यों बदहष्कृि हैं और रे णु क्यों समादृि?
िरअसल, माक्सषवािी कलादृष्ष्ट सादहत्य को सादहष्त्यक संरचना के साथ-साथ सामाष्जक संरचना के रूप में पढ़े जाने का जो वववेक प्रिान करिी है वह माक्सषवाि ववरोचधयों के शलए सांड़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसा है । सादहत्य का संिभषववहीन पाठ सादहष्त्यक कृति को महज
एक कलात्मक उत्पाि के रूप में बिल िे िा है । िकनीक की केंरीयिा ही ‘खखलेगा िो िे खेंगे’ को प्रासंचगक बनािी है और ‘धरिी धन न अपना’ को सादहत्य के कुलीनिंर से बदहष्कृि रखिी है । कहने की आवश्यकिा नहीं कक जब बाि महज िकनीकी िक्षिा और आस्त्वािपरक
कलावाि िक सीशमि होगी िो सादहत्य से समाज, लोकजीवन, इतिहास, नारी-ववमिष और िशलि-अष्स्त्मिा जैसे प्रश्न बेिखल हो जाएंगे और सादहत्य महज एक ‘उत्पाि’ बन कर रह जाएगा, ष्जसके न कोई सामाष्जक संिभष होंगे और न कोई जीवन मूल्य। जरूरि माक्सषवािी सौंियषबोध को खाररज ककए जाने की न होकर इसे भारिीय यथाथष में रच-पग कर ववस्त्िाररि
ककए जाने की है । नंिीग्राम और शसंगुर ने माक्सषवाि की ष्जस राजनीतिक समझ को प्रश्नांककि ककया है उसे महाश्वेिा िे वी के जनपक्षधर सादहत्यबोध से ही समझा जा सकिा है ।
माक्सषवािी के राजनीतिक पराभव से न िो कलावाि की औचचत्यशसद्चध होिी है और न ही उसे पुनजीवन प्राप्ि हो सकिा है । सादहत्य के जनिंर को भोगवाि में रचे-पगे सौंियषबोध की
नहींं,ं बष्ल्क उस पररविषनकामी कला-तनकर् की जरूरि है , माक्सषवाि ष्जसकी पूवप ष ीदठका है । अफसोस कक यथाष्स्त्थतिवािी कलावाि की ष्जन चौककयों से माक्सषवािी सौंियषबोध पर हमले
ककए जा रहे हैं वे जाने-अनजाने सांस्त्कृतिक राष्रवाि के बगलगीर हैं, इसकी अनिे खी नहीं की जानी चादहए।
माक्सषवािी कलादृष्ष्ट सादहत्य को सादहष्त्यक संरचना के साथ-साथ सामाष्जक संरचना के रूप में पढ़े जाने का जो वववेक प्रिान करिी है वह माक्सषवाि ववरोचधयों के शलए सांड़ को लाल कपड़ा दिखाने जैसा है । सादहत्य का संिभषववहीन पाठ सादहष्त्यक कृति को महज एक कलात्मक उत्पाि के रूप में बिल िे िा है । इंदस े ना ु ंचत
विशिष्ट प्रततभा वििेषांक
63
लेि
प्रेमचंद से िम किानी शलिना सीि सकते िैं
िमेि उपाध्याय कहा जा सकिा है कक उन्द्नीसवीं सिी में पैिा हुए और बीसवीं सिी के पूवाषधष में ही चल बसे प्रेमचंि से आज इक्कीसवीं सिी के लेखक क्या सीख सकिे हैं ! कहाँ प्रेमचंि का समय, कहाँ आज का समय! िे ि ककिना बिल गया है ! ितु नया ककिनी बिल गयी है ! सादहत्य भी िो ककिना बिल गया है ! त्वररि िरू संचार के साधनों ने, ितु नया भर की
सूचनाओं के ववस्त्फोट ने, ऑनलाइन लेखन-प्रकािन की नयी िकनीक ने और भूमंडलीकरण के िौर में सादहत्य के उत्पािन और वविरण के नये िौर-िरीकों ने सादहत्य के क्षेर में ककिने
क्रांतिकारी पररविषन कर दिये हैं! ऐसे में आज का नया लेखक इिने पुराने प्रेमचंि से क्या सीख सकिा है ?
यह भी कहा जा सकिा है कक प्रेमचंि िो मख ु य रूप से गाँवों और ककसानों के बारे में
शलखने वाले लेखक थे, सीधे-सािे आिमी थे और ऐसी सरल भार्ा में शलखिे थे कक अल्पशिक्षक्षि साधारण पाठक भी उनके शलखे हुए को पढ़ सके। अगर वे आज भी दहंिी के सबसे लोकवप्रय लेखक हैं , सबसे ज्यािा पढे जािे हैं, िो उनकी इस लोकवप्रयिा का कारण उनके लेखन में पायी जाने वाली सरलिा ही है , ष्जससे साधारण पाठक भी उन्द्हें आसानी से समझ लेिे हैं। उनके लेखन में श्रेष्ठ सादहत्य में पायी जाने वाली सक्ष् ू मिा, गंभीरिा और कलात्मकिा कहाँ है , जो आज का जदटल जीवन जीने वाले िथा प्रबद् ु ध पाठकों के शलए शलखने वाले श्रेष्ठ लेखकों में पायी जािी है ? प्रेमचंि जैसे साधारण लेखक से आज के लेखक क्या सीख सकिे हैं? लेककन मुझे लगिा है कक प्रेमचंि का सादहत्य ऊपर से ष्जिना सरल और साधारण
लगिा है , उिना सरल और साधारण वास्त्िव में है नहीं। कुछ साल पहले जवाहरलाल नेहरू
ववश्वववद्यालय की एक िोधछार द्वारा पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में मैंने कहा था--महान लेखकों में कुछ लेखक ऐसे होिे हैं, जो पहली बार पढ़ने पर समझ में नहीं आिे और ष्जनकी
रचनाएँ बार-बार पढ़े जाने पर ही अपनी महानिा के रहस्त्य खोलिी हैं। लेककन कुछ महान
लेखक ऐसे भी होिे हैं, जो पहली बार पढ़ने पर बड़े साधारण-से लगिे हैं, लेककन ष्जन्द्हें कफर से पढ़ने पर हम उनकी असाधारणिा िे खकर चककि रह जािे हैं और उन्द्हें बार-बार पढ़िे हैं। प्रेमचंि ऐसे ही महान लेखक हैं। और यह मेरा ही नहीं, मेरे समकालीन कई अन्द्य लेखकों का भी अनुभव है । उिाहरण
के शलए, कवव कँु वर नारायण का कहना है --''प्रेमचंि की ऊपर से सरल-सी दिखिी हुई कृतियों इंदस े ना ु ंचत
विशिष्ट प्रततभा वििेषांक
64
के पीछे एक अत्यंि गंभीर, चचंिनिील और सजग-बद् ु चध कलाकार तछपा होिा है , जो जीवन
का न केवल सक्ष् ू मिा से तनरीक्षण करिा है , बष्ल्क उिनी ही सक्ष् ू मिा से वववेचन भी करिा
है ।...प्रेमचंि इस ओर पूरी िरह सचेि थे कक उनका सादहत्य श्रेष्ठिम की िुलना में खरा उिरे । वे अच्छी िरह जानिे थे कक इसके शलए जीवन को केवल सिही िौर पर िे खना और
भाव-रववि हो जाना काफी नहीं, एक िस ू री िरह की िैयारी भी जरूरी है --िैयारी ष्जसका िाल्लुक सादहत्यकार की ितु नया से है , उसकी संवेिनाओं और समझ के ववस्त्िार से है ।''
प्रेमचंि ने यह िैयारी लड़कपन में ही िुरू कर िी थी। कथासादहत्य में उनकी
दिलचस्त्पी का एक रोचक वणषन रघुपति सहाय 'कफराक गोरखपुरी' ने ककया है । प्रेमचंि जब गोरखपुर के एक हाई स्त्कूल में पढ़िे थे, उनकी िोस्त्िी अपनी कक्षा के एक लड़के से हो गयी, ष्जसका वपिा िंबाकू ववक्रेिा था और अपनी शमर-मंडली के बीच बैठकर 'तिशलस्त्मे-होिरुबा'
पढ़ा-सुना करिा था। प्रेमचंि अपने िोस्त्ि के साथ उसके घर चले जािे और वहाँ घंटों बैठकर उन रूमानी अफसानों को सुना करिे। उन कहातनयों में बयान की जो रवानी और स्त्पष्टिा
होिी थी, उससे प्रेमचंि इिने प्रभाववि हुए कक आगे चलकर अशभव्यष्क्ि की ये िष्क्ियाँ उनके लेखन में बड़ी खब ू सूरिी के साथ फली-फूलीं।
प्रेमचंि ने जो शिक्षा प्राप्ि की थी, वह भी कोई साधारण शिक्षा नहीं थी। वे उिष ू और
दहंिी में शलखिे थे, लेककन उिष ू और दहंिी का सादहत्य ही नहीं पढ़िे थे। उन्द्होंने बी.ए. िक अंग्रेजी और फारसी पढ़ी थी। साथ में ििषन और इतिहास भी पढ़ा था। उन्द्होंने उिष ू में शलखी
'िास्त्िानें ' पढ़ी थीं, नजीर अहमि के 'ककस्त्से' पढ़े थे, रिन नाथ सरिार का 'फसाना-एअजायब' पढ़ा था ('आजाि-कथा' के नाम से उस महाग्रंथ का अनुवाि भी ककया था) और शमजाष हािी रुस्त्वा का 'उमराव जान' भी पढ़ा था। बां्ला के रवींरनाथ और बंककम को
अनव ु ािों में पढ़ा था और अंग्रेजी के जररये यरू ोपीय लेखकों को भी खब ू पढ़ा था। िोल्स्त्िोय,
रोम्याँ रोलाँ, चाल्सष डडकेंस और थैकरे से वे बहुि प्रभाववि थे। जोला और फ्लाबेयर को भी उन्द्होंने पढ़ा था, पर इन लेखकों का न्न यथाथषवाि उन्द्हें पसंि नहीं था। इकबाल, गांधी और टै गोर जैसे अपने समकालीन चचंिकों के ववचारों का आलोचनात्मक अध्ययन भी उन्द्होंने ककया था। प्रेमचंि की इस 'िैयारी' को िे खकर हम समझ सकिे हैं कक अच्छा शलखने के शलए
अच्छा पढ़ना ककिना जरूरी है । खास िौर से ववशभन्द्न भार्ाओं के उस्त्िाि लेखकों को पढ़ना।
लेककन पढ़ने का मिलब उस्त्िािों की नकल करना नहीं, बष्ल्क उत्कृष्ट लेखन की परं परा को आगे बढ़ाना है । (वैसे उस्त्िाि लेखकों की नकल की भी नहीं जा सकिी। जैसे प्रेमचंि हमारे उस्त्िाि लेखक हैं , पर उनसे सीखा िो जा सकिा है , उनकी नकल नहीं की जा सकिी।) प्रेमचंि से हम बहुि-सी जरूरी चीजें सीख सकिे हैं। मसलन, अच्छा शलखने के शलए ''क्या शलखना है ?'' के साथ-साथ यह भी िय कर लेना जरूरी है कक ''क्या नहीं शलखना है ''। प्रेमचंि दहंिी-उिष ू िोनों भार्ाओं के िथा भारि और पाककस्त्िान िोनों िे िों में पढ़े और पढ़ाये जाने वाले सादहत्यकार हैं। उिष ू सादहत्य का इतिहास शलखने वाले मुहम्मि हसन ने कहा है इंदस े ना ु ंचत
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कक प्रेमचंि ने अपने से पहले के उिष ू सादहत्य को खब ू पढ़ा और उससे प्रभाववि भी हुए। उन्द्होंने उसकी परं परा को आगे भी बढ़ाया, लेककन उसमें से बहुि कुछ शलया, िो बहुि कुछ छोड़ा भी। और जो शलया, उसमें अपना कुछ नया जोड़ा भी।
पष्श्चमी सादहत्य से प्रेमचंि ने यथाथषवाि शलया। लेककन आज के कुछ जािईु
यथाथषवादियों की िरह आँख मँि ू कर अपनािे या नकल करिे हुए नहीं। उस समय यूरोपीय सादहत्य में 'नेचरु शलज्म' (प्रकृिवाि) और 'कक्रदटकल ररयशलज्म' (आलोचनात्मक यथाथषवाि) नामक िो प्रकार के यथाथषवाि चल रहे थे। प्रेमचंि ने प्रकृिवाि को ''न्न यथाथषवाि'' कहा
और खाररज ककया; जबकक ''सादहत्य जीवन की आलोचना है '' कहिे हुए आलोचनात्मक यथाथषवाि को अपनाया। लेककन उसमें भी उन्द्होंने अपना कुछ नया जोड़ा और अपने यथाथषवाि को ''आििोन्द्मुख यथाथषवाि'' का नाम दिया।
दहंिी के आलोचकों ने प्रेमचंि के आििोन्द्मुख यथाथषवाि को आज िक भी नहीं
समझा है । वे आििषवाि को बुरा और यथाथषवाि को अच्छा समझिे हैं। वे प्रेमचंि सादहत्य के
अचधकांि को आििषवािी (सुधारवािी, हृिय-पररविषनवािी आदि) मानिे हैं और अंतिम समय की उनकी 'कफन' और 'गोिान' जैसी कुछे क रचनाओं को ही यथाथषवािी बिािे हैं। लेककन 'अलदी माक्सष' और 'लेटर माक्सष' की िजष पर प्रेमचंि को पूवव ष िी और परविी प्रेमचंि में बाँटना प्रेमचंि को सही ढं ग से समझने के बजाय अपनी गलि समझ को उन पर थोपना है ।
प्रेमचंि को प्रेमचंि की ििों पर समझकर ही हम उनके आििोन्द्मुख यथाथषवाि को
सही ढं ग से समझ सकिे हैं। प्रेमचंि अपनी रचनाओं में स्त्पष्ट रूप से यह मानकर चलिे दिखायी िे िे हैं कक ''जो है '' वही यथाथष नहीं है , बष्ल्क ''जो होना चादहए'' वह भी यथाथष ही है , बििे कक वह ''हो सकिा हो''। मसलन, पँज ू ीवाि ही यथाथष नहीं है , उसे बिलकर बनायी
जाने वाली बेहिर व्यवस्त्था भी यथाथष है । लेककन वह बेहिर व्यवस्त्था (आििष) अिीि के ककसी रामराज्य की िरह असंभव न हो, बष्ल्क भववष्य के समाजवाि की िरह संभव हो। इस बाि को दहंिी कथाकार इसराइल ने यों कहा था कक ''शसफष वही सच नहीं है , जो सामने है ; बष्ल्क वह भी सच है , जो कहीं िरू अनागि की कोख में जन्द्म लेने के शलए कसमसा रहा है ।''
अंििः प्रेमचंि के आििषवाि का संबंध उनकी कहानी-कला से भी है , ष्जसे
आधतु नकिावािी नयेपन के मारे हुए दहंिी के आलोचक (चाहे प्रगतििील हों या प्रतिकक्रयावािी) कभी समझ ही नहीं पाये। ये लोग कहानी में प्लॉट और क्लाइमैक्स का होना परु ानेपन की तनिानी समझिे हैं और कथानक-रदहि, बबना अंि वाली या खल ु े अंि वाली आधी-अधरू ी
कहानी को ही नयी कहानी मानिे हैं। लेककन प्रेमचंि ने अपने लेख 'मैं कहानी कैसे शलखिा हूँ' में जोर िे कर कहा है --''कोई घटना, महज सुंिर और चस्त् ु ि िब्िावली और िैली का चमत्कार दिखाकर ही कहानी नहीं बन जािी; मैं उसमें क्लाइमैक्स लाष्जमी चीज समझिा हूँ; और वह भी मनोवैज्ञातनक। यह भी जरूरी है कक कहानी इस क्रम से आगे चले कक क्लाइमैक्स तनकटिम आिा जाये।'' इंदस े ना ु ंचत
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क्लाइमैक्स वाली कहानी प्लॉट के बबना नहीं शलखी जा सकिी और कहानी में क्लाइमैक्स का होना लाष्जमी इसशलए है कक कहानी शलखी जाने पर भी एक िरह से सन ु ायी
जाने वाली चीज है , ष्जसका श्रोिा किम-किम पर ''कफर क्या हुआ?'' की ष्जज्ञासा के साथ उसे सुनिा है, लेककन यह भी जानना चाहिा है कक ''अंििः क्या हुआ?''। उसकी यह ष्जज्ञासा कहानी के क्लाइमैक्स के साथ ही पूरी होिी है । अिः क्लाइमैक्स वाली कहानी (अथाषि ् प्लॉट
वाली कहानी) ही मुकम्मल कहानी होिी है । और ितु नया भर की िमाम अच्छी कहातनयाँ,
चाहे वे मौखखक रूप में सुनायी जायें या शलखखि रूप में , कहानी के रूप में सुनायी जायें या उपन्द्यास के रूप में , काव्य के रूप में सुनायी जायें या महाकाव्य के रूप में , नाटक के रूप में सुनायी जायें या कफल्म के रूप में , मुकम्मल कहातनयाँ ही होिी हैं।
यथाथषवाि की गलि समझ के कारण कई लोग यथाथष और कल्पना को परस्त्पर-
ववरोधी मानिे हैं। उनके अनुसार यथाथषवािी कहानी में कल्पना का कोई काम नहीं। लेककन कल्पना िो िरह की होिी है । एक यथाथष से बबलकुल कटी हुई कल्पना, ष्जसे कपोल कल्पना कहिे हैं और िस ू री िकषसंगि सजषनात्मक कल्पना, ष्जसके बबना कथासादहत्य रचा ही नहीं जा सकिा। मुकम्मल कहानी केवल यथाथष के आधार पर नहीं शलखी जा सकिी। उसे कल्पना
के सहारे ही क्लाइमैक्स िक पहुँचाया जा सकिा है । कहानीकार यह कल्पना ''जो है '' (यथाथष) से आगे बढ़कर ''जो होना चादहए'' (आििष) के आधार पर करिा है । लेककन यथाथषवािी लेखक कल्पना भी इस प्रकार करिा है कक वह यथाथष ही लगे और पाठक के मन पर वही प्रभाव डाले, जो कहानीकार डालना चाहिा है । इसी कारण प्रेमचंि कहानी में क्लाइमैक्स का होना और क्लाइमैक्स का मनोवैज्ञातनक होना जरूरी मानिे हैं। ऐसी कहानी बबना सोचे-समझे, बबना ककसी िैयारी के, नहीं शलखी जा सकिी। इसशलए प्रेमचंि कहिे हैं--''मैं जब िक कोई कहानी आदि से अंि िक जेहन में जमा न लँ ,ू शलखने नहीं बैठिा।'' आदि से अंि िक का अथष है परू ी कहानी। मक ु म्मल कहानी। बबना अंि वाली
या खल ु े अंि वाली आधी-अधरू ी कहानी नहीं। इस बाि को समझकर ही हम प्रेमचंि के
आििोन्द्मख यथाथषवाि को िथा उनकी कहानी-कला को सही ढं ग से समझिे हुए उनसे ु कहानी शलखना सीख सकिे हैं। यह कहना भी जरूरी है कक महान लेखक कभी परु ाने या अप्रासंचगक नहीं होिे।
प्रेमचंि का आििोन्द्मख यथाथषवाि आज के हमारे भम ु ू ंडलीय यथाथषवाि के समय में भी प्रासंचगक है और उनकी कहानी-कला िो कहानी के जन्द्म से आज िक चली आ रही वह कला है , जो कभी पुरानी नहीं पड़ी और न कभी परु ानी पड़ेगी।
इंदस े ना ु ंचत
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समाज के कुिल धचतेिे थे - प्रेमचन्द्र
जयचन्द प्रजापतत 'कक्कू' आजािी के पहले भारि की ििा िि ु ष िा िे खकर सबका कलेजा फट रहा था।ियनीय
हालि
हमारे
िे ि
िदु िष न
के
दहन्द्िी
सादहत्य
प्रशसध्ि
मँि ु ी
िौर
उठा।दहन्द्िी
के
समाज
से
सादहत्य के
गुजर
की
की हो गई
रहा पीड़ा
महान
था।यह का
थी।पीड़ा ििष
सब
जगना
का
पररवार
कर
स्त्वाभाववक
कथाकार,उपन्द्यास
प्रेमचन्द्रजी
िे ख
हो
सम्राट,कलम
गुजर
रहा
से
कराहिा
हमारा
समाज
हमारा
सादहत्य
भी
गया
था।उसी
िदु िष न
के
शसपाही
था।िे ख
समाज
के
की
कराह
नाम
से से
हालाि
से मजबूर हो कर कलम उठ गया और मि ुं ी प्रेमचन्द्र एक से बढ़कर एक रचना
िे कर दहन्द्िी सादहत्य का एक महान वक्ष बन गये।सामाष्जक चगरे हालाि से गुजर ृ रहे लोगों पर लेखनी चला कर समाज के स्त्वरूप व बबडम्बना को पूरे ववश्व मंच पर रखा।गरीबी नजिीक से मँि ु ी जी ने िे खा,झेला,अनुभव शलया और इस कटु अनुभव को अपनी लेखनी में उिारा।
31जुलाई सन1880 को बनारस िहर से करीब चार मील िरू लमही नामक एक छोटे से
गाँव
में
हुआ।मुंिी प्रेमचन्द्र का वास्त्िववक नाम धनपि राय था।मध्यमवगीय पररवार से िाल्लुक था।वपिाजी डाकमुंिी के पि पर
कायषरि
खाने
मुंिी
अजायबलाल
थे।इस
पीने,पहनने
प्रकार
ओढ़ने
के
घर
जन्द्म
नौकरी वपिाजी
की
िंगी
नहीं
की होने
थी लेककन
के कारण
इिने
उच्च
िरू ु आिी समय स्त्िर
के
नहीं
में
हो
सके थे कक ठाठ बाट से रह सके।आचथषक हालािों से जीवन भर जूझिे रहने वाले मँि ु ी जी िंगी में ही 8 अक्टूबर सन 1936 को 56 वर्ष की अल्पआयु में जलोधर रोग से पीडड़ि यह महान लेखक हम लोगों से जुिा हो गया।
पाँच छः साल के उम्र में शिक्षा के शलये लमही गाँव के करीब लालगंज नामक गाँव में एक मौलवी साहब के पास फारसी और उिष ू पढ़ने के शलये भेजा गया और उस
करिा
पढ़ाई
के
था।गाँव
िौरान की
पढ़ाई
ष्जन्द्िगी
कम
हुआ करिा था लेककन हुल्लडबाजी ज्यािा हुआ थी।गाँव की माटी से जड़ ु ा हृिय था,माँ व िािी के
लाड़ प्यार में बचपन मजे से बीि रहा था लेककन होनी कौन टाल सकिा है ।खि ु ी में पिा नहीं कौन नजर लगी कक अचानक माँ की िबबयि खराब हो गई और िबबयि ऐसी इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
68
खराब हुई की बालक धनपिराय को इस भरे संसार में अकेला छोड़ िी।उस समय बालक धनपिराय की अवस्त्था साल की थी।माँ के जाने के बाि बालक धनपयराय के चेहरे पर वह हँसी, दठठोली, बिमाशियाँ सब तछन गई। बबन माँ का जीवन िदु िष न का जीवन हो जािा है। माँ प्यार, शमला
के
जाने
के
िल ु ार,
स्त्नेह,
संग साथ में खेलना था,
कफर
वह
प्यार
बाि िब ु ारा
प्रेमचन्द्र कभी
नहीं
के
जीवन
में
जो
सब उजड़ गया।
माँ
का
माँ से जो प्यार
शमला,थोड़ा
बहुि प्यार बहन से शमला लेककन िािी के पश्चाि वह अपने ससरु ाल चली गई।उस प्यार से भी वंचचि हो जाना पड़ा। अब समखझये पूरी ितु नया बालक के शलये सूनी हो गई। यह सन ू ापन इिनी
गहरी थी कक उनका मासूम हृिय िड़प उठा और वही िड़प व पीड़ा अपने कहातनयों व
उपन्द्यासों
में
उठे
में
िःु खखि
संरास
को
व
पीडड़ि
उकेरा
व्यष्क्ियों
और
को
कामयाबी
पार
बनाया
शमली।ऐसे
और
पारों
उनके
को
शलया
जीवन
ष्जनके
बचपन में माँ चल बसी थी या ष्जनके माँ बाप बचपन में बबछड़ गये या ऐसे पारों
को
समादहि
ककया
जीवन जी रहा होिा।
ष्जनका
ववधवा,
जीवन
मजिरू ों,
िरररिा
िोवर्िों,
से
पीडड़िों,
पररपूणष
रहा,िीन
हीन
कष्ल्पिों और अनाथों के
जीवन को सजीव चचरण कर कथा सादहत्य को अमर कर दिया। माित्ृ व स्त्नेह से वंचचि यह बालक कुछ इस िरह का रास्त्िा चन ु ा कक आगे चल
महान
कथाकार,उपन्द्यास
सम्राट
िथा
कलम
के
शसपाही
के
नाम
से
परू े
ववश्व
सादहत्य के शलये आिरणीय बन गये।िमाम ववभतू ियों से अलंकृि यह महान रचना कार साधारण सा ही ष्जन्द्िगी ष्जया।दिखावे
के चीज से सिै व िरू रहे ।स्त्वाशभमानी
थे।सािा जीवन में पण ू ष भरोसा था और इसी िरह जीवन को आत्मसाि ककया।साधारण से जीवन में एक महान व्यष्क्ित्व का तनमाषण ककया।
वववाह छोटी सी अवस्त्था में हो गया जब लगभग पन्द्रह-सोलह बरस के रहे थे।यह वववाह साथ
इनके एक
शलये
संयोग
कष्टकारी जुड़ा।बनारस
रहा
यानी
के
पास
िभ ु ाष्य
चन ु ार
से में
भरा एक
रहा
लेककन
स्त्कूल
में
वववाह
मास्त्टरी
के शमल
गई।सन 1899 से सन1821 िक मास्त्टरी ककया।नौकरी करिे हुये अपनी शिक्षा भी ली।इंटर और बीए िक पढ़ाई नौकरी के िरम्यान पूरी कर ली।इसी नौकरी के समय िबािलों पीना
का
सामना
पड़ा।इन्द्हीं
शमला।सामाष्जक
करना
िबािलों िाने रूबरू
बाने
पड़ा।इस
नौकरी
के
के
साथ
साथ
नये
को
और
करीब
से
समस्त्याओं
से
भी
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
शसलशसले
में
घाट
लोगों
से
शमलने
जानने
का
मौका
घाट
का
का
पानी
अवसर
शमला।सामाष्जक
हुये।ये सारी चीजें एक सादहत्यकार के शलये सोने में सह ु ागा शसध्ि हुआ और इन्द्हीं सब चीजों को िे खकर अपनी आत्मा िक सादहत्य के
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शलये
समवपषि
कर
दिया।सादहत्य
में
यह
महान
रचनाकार
कूि
पड़ा
और
जमकर
सादहत्य की रचना की।ऐसा शलखा की पूरे समाज की नब्ज को शलख िी।सादहत्य को नई ऊँचाई िी। सादहत्य
का
महान
बड़े
उपन्द्यास
िरू ु
ककया
की
िो
बहुि रही लेखकों में
परु ोधा
रचना
बबना
प्रेमचन्द्र
लगभग
की।रचना
परू ा
पढ़े इस
इिनी
रहा
है ।इसी
प्रकार
होिी
है ।इनके
सादहत्य
मारवाड़ी
स्त्कूल
में
भी
संि ु र
नहीं।यही
महान
कहातनया
चौिह
छोटे
कक
कोई
अगर
थोड़ा
पढ़ना
वजह
रहा
कक
पाठकों
की
संख्या
चगनिी
ितु नया
के
महान
अनव ु ाि
लगभग
काम
और
रही की
का
में
सौ
सादहत्यकार
ककया जा चक ु ा है । कानपुर
िीन
ककया
सभी
लेककन
प्रमख ु
भार्ाओं
में
स्त्वाशभमानी
स्त्वभाव
के
कारण मैनेजर से नहीं बनी और वहाँ से ित्काल इस्त्िीफा िे दिया और बनारस चले आये।बनारस ववद्यापीठ
में में
'मयाषिा'
शिक्षक
पबरका
का
रहे ।लखनऊ
से
संपािन बुलावा
आने
ककया।कुछ पर
समय
'माधरु ी'
िक
के
कािी
संपािन
के
शलये गये।लगभग छः साि वर्ष िक रहे कफर हं स के संपािन के शलये पुनः बनारस
चले गये।हं स मुंिी जी की पबरका रही।आजकल हं स का प्रकािन दिल्ली से होिा है ।यह
एक
प्रतिष्ष्ठि
सादहष्त्यक
पबरका
है ।मुंिी
तनकाला। प्रेमचन्द्रजी
अपने
कुरीतियों,रूदढ़वादियों ववरप ु िाओं
पर
सिक्ि
एवं
कुठाराघाि
लेखनी
िोर्णकिाषओं करके
के
जी
के
पाठकों
समय
माध्यम
खखलाफ
अपने
कुछ
जमकर
को
बाि
'जागरण'
से
सामाष्जक
शलखा।िमाम
स्त्वस्त्थ
मनोरं जन
सामाष्जक परोसने
में
कामयाब रहे ।सामाष्जक िष्ु पररणाम को उजागर कर उनको जड़ से शमटाने का संिेि पूरे
समाज
सादहत्यप्रेशमयों
को
दिया।अमर
को
आम
कथाकार
भारिीय
ऐसे
जीवन
का
नक्षर
सच्चा
हैं
ष्जनकी
ििषन
रोिनी
शमलिा
में
है ।अपनी
बेशमिाल लेखनी चलाकर गरीब,बेबस,िबे कुचले लोगों की आवाज को रखा।पाठकों के मन में बेबस लोगों को पढ़कर मन में टीस व भावुकिा का भाव उमड़ने लगिा है ।कथानक भावों
को
के
पार
रखा
चलचचर
है ।मानवीय
की
िरह
पाठकों
संवेिनाओं
को
का
सजीव
उकेरा
ििषन
है ।नपे
करािी
िुले
है ।सच्चे
िब्िों
के
प्रयोग से रचना अंिर िक बेधिी है ।इसी खाशसयि के चलिे आम जन में लोकवप्रय रहे ।आज भी उिने प्रासंचगक हैं ष्जिने उस समय रहे ।आज भी इनकी रचनायें चाव से पढ़ी जािी है ।प्रेमचन्द्र समाज के कुिल चचिेरे थे। प्रेमचन्द्र जी को सामाष्जक लेखक भी कह सकिे हैं।19वीं सिी के अंतिम ििक इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
70
िथा 20वीं सिी के िीसरे ििक िक सामाष्जक समस्त्याओं एव भारि की िि ु ष िा पर अपनी सिक्ि लेखनी चलाई।
िे िभष्क्ि की भावना भी कूट कूट कर भरी थी।चौरी चौरा काण्ड से िःु खी होकर
चौथे
दिन
अगाध
सरकारी
प्रेम
नौकरी
ििाषिा
से
त्यागपर
है ।अंग्रेजों
िे
दिया।यह
द्वारा
महान
लेखक
की
क्रांतिकारी
िे ि
के
प्रति
खि ु ीरामबोस
की
फांसी से उनका मन बहुि आहि हुआ।कई दिन िक िःु खी रहे ।बाजार से खि ु ीरामबोस की िस्त्वीर लाकर अपने घर में टांग िी। ष्जस
समय
प्रेमचन्द्र
दहन्द्िी
में
उभर
रहे
थे।वह
यग ु
छायावाि
का
युग
रहा
लेककन वे ककसी वाि के चक्कर में नहीं पड़े ।अलग रह कर दहन्द्िी सादहत्य को समध् ृ य
ककये।ष्जस
ककया।समाज
रूप
में
हो
में
रहे
समाज
अत्याचारों
उपन्द्यास
शलखे।समाज
के
जागतृ ि
करने
का
भरसक
भेिभाव
को
ककये।सामाष्जक करारा
प्रहार
उपन्द्यास शलखने
हर
ककया।ष्स्त्रयों
में
स्त्री
वाले
को
मंि ु ी
को
जी
का
सामाष्जक
अपने
माध्यम
जड़ा।दहन्द्ि ु
पर मान
कर
समस्त्याओं
के
व को
सीधे
प्रहार
दिखावे
पर
गया।कहातनयों
व
की।समस्त्याओं
समाधान
चचरण
कहातनया
पर
कांप
रचना
में
दिखाया।लोगों
मुष्स्त्लम
रूह
का
को ढोंग
व
उनका
लेखनी
बनाकर
शलखा।संवेिनाओं
िमाचा
बबन्द्ि ु
ही
ककया।सामाष्जक
िि ु ष िा
केन्द्र
पार
को
प्रयत्न
की
वैसा
को
बुराई
करारा
िे खा
भी
पर
बेबाक
खोजिे
हैं।कैसे
समस्त्याओं से तनिान हो सकिा है ।इस पर भी प्रकाि डाला है ।भारिीयों के ऊपर हो
रहे
अत्याचार
से
आहि
मंि ु ीजी
अंग्रेजों
पर
भी
करारा
प्रहार
ककये।दहम्मिी थे जो इिने साहसी ववर्य पर शलखा।हार मानने वाले नहीं थे। मुंिीजी
िशलिों
के
हालि
पर
समाज
के
उच्च
वगों
पर
प्रहार
करने
से
नहीं
चक ू े ।भेिभाव पर वे भरोसा नहीं करिे थे।सामाष्जक कलंक इसे मानिे थे।िशलि को भी
समाज
िशलिों
के
ककये।दहन्द्ि ु
में
हक
हक व
है
के
जीने
शलये
मुष्श्लम
के
का
।िमाम
लड़ाई
चीजें
लेकर
लड़ी।सामाष्जक
बीच
जो
असमानिा
वे
भेिभाव का
खि ु को
भेिभाव
मुद्िा
बनािे
और
हटाने
का
प्रयत्न
था।उस
पर
करारा
प्रहार ककया।अगर हम आपस में लड़ेगें िो कफर हमारा िे ि कैसे आजाि होगा।इस प्रकार
कहा जा सकिा है
कक सामाष्जक समरसिा
लाने में
योगिान रहा है ।
मुंिी जी का वविेर्
ककसानों पर जमकर शलखा।ककसानों की हालि ियनीय थी जो िे ि के शलये अन्द्न उपजा रहा
है
नहीं
जा
वही
समस्त्याओं इंदस े ना ु ंचत
पा को
भूखा
रहें
सोिा
है ।वही
है ।ककसानों
दिखाया
और
की
नंगधडंग ियनीय
समाधान
वििेष प्रततभा वििेषांक
है ।उसके हालि भी
पर
बच्चे शलखा
गरीबी और
में
हैं।स्त्कूल
ककसानों
खोजा।गबन,गोिान,तनमषला
की
प्रशसध्ि
71
कृतियां पढ़ने
रहीं से
हैं।नमक
का
िारोगा,पूस
की
राि,ईि,काकी
इत्यादि
मन हवर्षि हो जािा है ।सामाष्जक भावों को दिखािी रचना
है । वैसे
मंि ु ी
जी
अत्याचार,सामाष्जक
की
रचनायें
आज
भेिभाव,ष्स्त्रयों
के
भी उपर
प्रासंचगक हो
रहे
है ।समाज
कई
रचनाये
अिीव सुंिर
में
िरु ाचार,अमानवीय
हो
रहे
भाव
से
इनकी रचनाओं की यहाँ जरूरि है ।अगर सामाष्जक समरसिा नहीं बनी िो वह दिन िरू नहीं
कफर
खत्म है ।गरीबों
जब
करना के
वही
परु ाने
है ।ष्स्त्रयों बारे
कुछ
का
करना
िौर
सम्मान होगा
कल्पना गांधी जी का साकार होगा।
इंदस े ना ु ंचत
से
वििेष प्रततभा वििेषांक
गज ु रना
करना
।बिलाव
पड़े।चचन्द्िन
है ।ककसानों लाना
ही
बहुि जरूरी है।भेिभाव के बारे में सोंचना
पड़ेगा।िभी
रामराज्य
की
72
एक घटना-लूिुन
,जुलाई ,1920
अनुिाद –डॉ० गंगा प्रसाद िमाा 'गुणिेिि' गाँव से राजधानी आए छह साल हो गए हैं। इस बीच राज्य के बारे मे बहुि सारी बािें सन ु ीं लेककन इनका मझ ु पर कोई खास असर नहीं हुआ। अगर उनके असर को बिाने के शलए मझ ु से कहा जाए िो यही कहूँगा कक इससे मेरे उग्र स्त्वभाव मे और इजाफा हुआ है ष्जससे साफ़गोई आई है और अचधक से अचधक नाष्स्त्िक भी हो गया हूँ। एक घटना जो मेरे जीवन में बहुि महत्त्वपूणष रही है ,उसे कभी नहीं भुला वह बहुि याि आ रही और उसी ने मझ ु े मेरे इस बरु े बिाषव से उबारा है । यह घटना सन ् उन्द्नीस सौ सरह ईo के जाड़ों की है । खराब उत्तरी आंधी चल
सकिा ।
रही थी।
लेककन जीववका के शलए उसी में सवेरे-सवेरे बाहर तनकलना पड़ा था।मझ ु े मुष्श्कल से कोई आिमी राह में शमला था,यहाँ िक कक िक्षक्षण द्वार के चने चबाने पड़ रहे थे ।
के शलए मुझे एक ररक्िा खोजने में लोहे
कुछ समय के शलए आंधी थोड़ा थमी। इस समय िक आंधी
सड़क का सारा धल ू -धक्कड़ उड़ा ले गई थी। ररक्िे वाला जल्िी में था। इसशलए सड़क पार करिी हुई एक मदहला
उसमें उलझ कर
चगर पड़ी ।
सफ़ेि बालों वाली वह मदहला फटे -पुराने गंिे कपड़ों में थी॰ उसने अचानक फुटपाथ छोड़कर
मुख्य
सड़क पार करना िुरू कर कर दिया था ।ररक्िे वाला
सामने पाकर
एकाएक उस बुदढ़या को
अपना संिुलन खोिे -खोिे बचा था। लेककन सँभलिे-सँभलिे भी उसका बबना
बटन का जैकेट हवा में लहराने लगा था। बुदढ़या के सौभा्य से ककसी िरह जैकेट पर काबू
पािे हुए ररक्िे वाले ने बड़ी फुिी से अपना ररक्िा मोड़ शलया था नहीं िो वह ररक्िे से टकराकर बरु ी िरह उलटिी और भयंकर चोटें खाए बबना नहीं बचिी। वह सड़क पर ही पड़ी रही और ररक्िा चालक भी वहीं खड़ा रहा। मुझे नहीं
लगा कक बुदढ़या को कोई चोट आई थी
और उस घटना का कोई प्रत्यक्ष ििी गवाह भी वहाँ नहीं था। मैं इस बाि से तनष्श्चंि हो चक ु ा था कक ररक्िे वाले कुछ ठीक -ठाक ही था।
को कोई परे िानी हो सकिी है । कानूनी मसले की नज़र में भी सब
मैंने उसे आश्वस्त्ि करिे हुए कहा ,"चलो सब ठीक है ।"
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
73
उसने मेरी बाि पर कोई ध्यान ही
नहीं दिया । मेरी अनसुनी करिे हुए सहारा िे कर बाँह से उठािे हुए उसने पूछा,"सब कुछ ठीक िो है ?"
बुदढ़या
को
बुदढ़या ने कहा ,"मुझे चोट लगी है ।"
मैंने साफ़ िे खा था कक वह ककिना सवाल
आदहस्त्िा
चगरी थी ,ष्जससे चोट लगने का
कोई
ही नहीं उठिा था।मझ ु े
पक्का लग रहा था कक बहाना बना रही थी जो बहुि ही तनंिनीय था। लेककन इसमें मैं क्या कर सकिा था। उसने खि ु ही बदु ढया का हाल पूछकर अपने को परे िानी में डाल शलया था।
अब
इस परे िानी से उबरने का रास्त्िा भी उसे
ही खोजना था। वह ऐसे खड़ा था जैसे
चोट लगने के
बदु ढ़या के कहे िब्िों पर
उसे परू ा भरोसा हो। वह
अब भी बदु ढ़या का हाथ पकड़े-पकड़े उसे आगे बढ्ने में मिि कर रहा था।मैं ररक्िे पर ही बैठा था पर
मेरी नज़रें उसके साथ किम से किम शमला कर चल रही थीं।
धल ू भरी आँधी के कारण रास्त्िा साफ़ -साफ
िेज़ और
नहीं दिख रहा था। आंधी के थमने और धल ू -
धक्कड़ हटने पर जब मझ ु े अचानक पुशलस स्त्टे िन का गेट दिखाई पड़ा
िो मैं आश्चयष
चककि हुए बबना नहीं रह सका।गेट पर कोई नहीं था िो ररक्िे वाले ने ही उसे थाने पहुंचाने में भी मिि की।
िक
अचानक मुझे एक ववचचर अनुभूति हुई। शसर उठाकर िे खने पर वह ररक्िा वाला मुझे अत्यंि ियनीय और तनरीह लगने लगा। उसी समय न जाने कैसे धीरे -धीरे मेरे ऊपर एक िबाव सा महसूस होने लगा, ष्जसने मेरे गाउन
के भीिर तछपे
अहं पर करारी चोट कर िी
थी।
मैं स्त्िंशभि होकर गम ु सम ु
नहीं आया ,मेरा दिमाग सन्द् ु न
वहीं ररक्िे पर
बैठा रहा ।जब िक कोई पशु लस वाला बाहर
था।इसके बाि मैं ररक्िे से उिर पड़ा।
पशु लस वाले ने कहा ,"आप िस ू रा ररक्िा कर लीष्जए । अब यह आपको आगे नहीं ले जा
सकिा। "बबना कुछ सोचे-ववचारे मैंने कोट की जेब से मट् ु ठी भर पैसे तनकाले और बबना चगने
ही पुशलस वाले के हाथ पर धर दिए। 'कृपया ये पैसे उसे िे िीष्जएगा ।'मैंने उस पुशलस
वाले से कहा।
आँधी िब िक परू ी िरह थम चक ु ी थी। लेककन सड़क पर अब भी नीरविा पसरी थी। मैं
अकेले ही चल दिया ।
मट् ु ठी भर पैसे िे ने का मेरा
उपकार करने का गवोन्द्नि कर िे ने
वाला भाव अब मझ ु े ही चचढ़ाने लगा था । वपछली घटना को िरककनार करिे हुए अब उन मट् ु ठी भर िाँबे के शसक्कों के बारे में सोचने लगा था ष्जन्द्हें मैंने बड़े िया भाव के साथ
उस ररक्िे वाले को िे ने केशलए पशु लस वाले के हाथ पर धरे थे। मेरे ही भीिर से ऐसे प्रश्न इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
74
उठने लगे थे ष्जनके जवाब मेरे पास न थे। क्या यह पुरस्त्कार था?मैं कौन होिा हूँ उस ररक्िे वाले का मूल्यांकन करने शमला ।
वाला?मैंने बहुि खोजा पर इन सवालों का कोई जवाब कहीं से नहीं
आज भी वह घटना मेरी स्त्मतृ ि में िाज़ा है । वह प्रायः मझ ु े िनावग्रस्त्ि
अपने बारे में सोचने को वववि करिी है । मैंने उस काल की सैतनक
कर िे िी है और और राजनीतिक
गतिववचधयों को वैसे ही पूरी िरह भुला दिया है जैसे बचपन में पढे हुए िास्त्रीयिा भरे सादहत्य को।लेककन यह घटना लाख चाहकर भी नहीं भुला पािा । यह घटना प्रायः अपनी वास्त्िववकिा से कहीं अचधक ववर्ि और है ।
व्यापक होकर लौट-लौट कर मेरे पास आिी
मुझे लष्ज्जि करिी है और रोक-रोक कर मुझे सुधरने को कहिी है । लेककन वह जब भी
वह स्त्मतृ ि में आिी है ,हर बार िाज़ा साहस और आिा से भी भर जािी है ।
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
75
मंटो ि उसकी किातनयां – एक तटस्थ दृप्ष्ट डा॰ श्याम गतु त युवावस्त्था में कालेज के दिनों में हमने मंटो की प्रशसद्ध लघु कथाओं व कहातनयों को
पढ़ा है , शमरों, सहपादठयों के साथ, एक आश्चयषजतनि युवा-उत्सुकिा के अन्द्य कायषकलापों की
भांति | मंटो की पुस्त्िकें स्त्कूल-कालेजों के पुस्त्िकालय में नहीं रखी जािी थीं | उन्द्हें
खल ु े आम न रख सकिे थे न पढ़ी जािी थीं | सामान्द्य सामाष्जक रूप में वे हे य दृष्ष्ट से
िे खी जािी थीं| उन पर अश्लीलिा जबरिस्त्ि जामा चढ़ा हुआ था, वे उस ज़माने के पोनषसादहत्य की भाँति थीं | उस पर बार-बार अश्लीलिा संबंधी मक ु िमे भी चले | यद्यवप अिालिों में कुछ शसद्ध नहीं हो पाया परन्द्िु क़ानून-कोटष की अपनी सीमाएं होिी हैं | यह सामष्जक ववर्य है , क़ानून का नहीं, न्द्यायाधीिों का अपना कुछ भी ववचार होसकिा है
परन्द्िु जन सामान्द्य में वे कहातनयां सिा अश्लील ही कही जायेंगीं| मझ ु े नहीं लगिा की मंटो को काल के ककसी भी खंड में अश्लीलिा से छुटकारा शमल पायेगा|
बाि में मैंने मंटो को
अचधक ववस्त्िार से, सादहष्त्यक वववेचनापण ू ष दृष्ष्ट से पढ़ा| मंटो ववश्व के उन सादहत्यकारों में
है जो केवल कहातनयों के बल पर ही प्रशसद्ध हुआ, चेखब की भाँति | एक बेररस्त्टर/जज का जहीन बेटा सआिि हसन मंटो में यव ु ावस्त्था व कालेज के समय में ही क्राष्न्द्ि के बीज पनपिे हैं और साम्यवादियों की सोहबि में साम्यवािी सादहत्य व ववचारधारा की चपेट में
आजािा है जो उस कालखंड में भारिीय युवाओं को काफी प्रभाववि कर रहा था | फ्रांसीसी क्राष्न्द्ि, रूसी क्राष्न्द्ि के पररप्रेक्ष्य में युवाओं को प्रत्येक िथ्य व वस्त्िुगििा को योरोपीय-
पाश्चात्य दृष्ष्ट, रूसी-फ्रांसीसी दृष्ष्ट से िे खने का आिी बना रहा था | अिः मंटो को भी भारि में वविे िी अंग्रेज़ी साम्राज्य के कारण, रूस के जार की क्रूरिा, फ्रांसीसी क्राष्न्द्ि की
कटुिा भारि में भी दिखाई िे ने लगी | उसने साम्यवािी सादहत्य का अनुवाि भी ककया | उसे भारि, अमि ृ सर में भी मास्त्को दिखाई िे ने लगा, उस पर ‘किे ला औि नीम चढ़ा’…..कक भारि-पाककस्त्िान बंटवारे की रासिी के ििष का वह साक्षी बना | वह कम पढ़ा-शलखा था सादहत्य से उसका कोई नािा नहीं था | अन्द्य नौजवानों यी भाँति क्राष्न्द्ि के जुलूस आदि में
बढ़-चढ़ कर भाग लेना चाहिा था परन्द्िु वपिा की सख्िी के कारण वह न हो सका और उसका यह रुझान शलखा-पढी की ओर होगया|
रे डडओ में काम करिे हुए उसने ‘पहला अफ़साना ‘िमािा’ शलखा, जो जशलयाँवाले बाग के खन ू ी-हािसे से सम्बंचधि था। यह उसने अपने नाम से न छपवाया अिः वह पशु लस की नज़र
से बचा रहा| मंटो भारि-पाककस्त्िान बंटवारे की रासिी के ििष का साक्षी बना | जो उसके मन मष्स्त्िष्क में रच बस गयीं | अिः मंटो की कहातनयाँ इन्द्हीं रासदियों के इिष -चगिष घूमिी हैं
ष्जनकी ववर्यवस्त्िु व शिल्प तनश्चय ही उन्द्हें ववश्व की श्रेष्ठ कहातनयों में सष्म्मशलि कर सकिी हैं |
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
76
परन्द्िु सादहत्य केवल शिल्प या स्त्पष्ट िथ्य बयानी नहीं है | ििष या रासिी को ज्यों का
त्यों प्रस्त्िुि करना नहीं है | यह िो ररपोदटिं ग, समाचार प्रस्त्िुति हुई | मंटो ने ररपोटष र व रे डडओ उद्घोर्क का कायष भी ककया था अिः उसकी कहातनयों में वही कथ्य-भाव प्रस्त्िुि होिे हैं | सादहत्य के उच्चकोदट में स्त्थावपि होने के शलए सत्यं के साथ शिवम ् व सुन्द्िरम
भी आवश्यक है | यही सादहत्य का मूल सामाष्जक हे िु है जो मंटो की कहातनयों की अश्लीलिा वणषन व कथ्यों इंचगिों में खोजािा है और उन्द्हें सामान्द्य कोदट की बना िे िा है |
सामान्द्य रूप में मंटो की कहातनयों को िीन वगों में बांटा जा सकिा है …………
१. वे जो अश्लील वणषन के पूणष हैं –जैस… े ….बू, ठं डा-गोश्ि, धआ ुं , ऊपर नीचे िरशमयान, सरकंडों के पीछे , काली िलवार आदि |
२. ष्जनमें स्त्पष्ट िौर पर अश्लील वणषन नहीं है अवपिु इंचगि िथ्य की भाँति हैं, अिः उन्द्हें
अश्लीलिा का नाम दिया जा सकिा है , और नहीं भी….यथा- खोल िो, घाटे का सौिा, शिकारी औरिें , ररयायि, खि ु ा कसम आदि |
३. जो अश्लीलिा रदहि सामाष्जक व सामतयक कथ्य पूणष हैं---यथा टोबा टे कशसंह, करामाि, है वातनयि, शसयाह हाशिये, कम्यतू नज्म आदि |
मेरे ववचार से मंटो की कहातनयों के सभी अंगों-उपांगो- ववर्यवस्त्िु, शिल्प, कथ्य आदि
की दृष्ष्ट से तनश्चय ही ववश्व की श्रेष्ठ कहातनयों में सष्म्मशलि करने यो्य हैं | मंटो एक चचन्द्िक, ववचारक, सामतयकिा व समाज से प्रतिबद्ध व्यष्क्ि व कहानीकार प्रिीि होिा है ष्जसमें चेिनिा है , आक्रोि है , आग है | मंटो पर फ्रांसीसी प्रकृि यथाथषवादियों का प्रभाव है । मंटो की कहातनयां मल ू िः ववभाजन की रासिी पर हैं |
उसकी प्रथम व द्वविीय वगष की प्रशसद्ध कहातनयों में , ष्जनके कारण वह प्रशसद्ध हुआ, समाज का िपषण िो है परन्द्िु सादहत्य का मूल अंग शिवं व सुन्द्िरम नहीं है | समाज व सादहत्य के शलए नंगा सच सादहष्त्यकिा नहीं है | यह ठीक उसी प्रकार है जैसे काम-िास्त्र के रचतयिा समाजिास्त्री िो हैं उन्द्हें सामान्द्य जन के शलए घर हर में प्रचशलि नहीं ककया जा सकिा वह केवल ववशिष्ट बंि क्षेर, समाज के एक कोने के शलए हैं | इसीशलये मंटो की कहातनयां जन जन में , जन सादहत्य में प्रचशलि नहीं हुईं | चाहे समीक्षकगण व लेखक, सादहत्यकार जो प्रायः साम्यवािी-पाश्चात्य दृष्ष्ट वाले, प्रगतिवािी दृष्ष्टकोण युि हैं, कुछ भी कहें --- समय से आगे, प्रगतििील, मानविावािी आदि परन्द्िु वे कहातनया पोनष कहातनयों की श्रेणी में ही कही जायेंगीं | और इन्द्हीं की परछाइयों में उसकी अन्द्य कहातनयों की आभा दृष्ष्टगि नहीं होिी | समय से आगे का वह प्रगतििील व्यष्क्ि अपनी मािभ ृ ूशम छोड़कर पाककस्त्िान चला गया |
मंटो की ये कहातनयां इसशलए प्रशसद्ध हुई कक वे भारिीय उपमहाद्वीप के समाज में वज्यष ववर्यों पर थीं | अश्लीलिा पूणष वणषन युि थीं | अश्लीलिा, बुरी बािें व बरु ाई स्त्वयं में
एक लालच है जो मानवीय कमजोरी को उद्घादटि करिे है | ववश्व भारिीय-उपमहाद्वीप की रासिी के ववशभन्द्न पहलुओं को जानना चाहिा था | भारिीय सादहत्य व समाज के इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
77
िीघषकालीन पुरा, प्राच्य व मध्यकालीन इतिहास में इस प्रकार की घटनाएँ व कथाएं कभी
नहीं िे खी-सुनी-पढ़ी गयीं | मंटो के कालखंड के अचधकाँि सादहत्यकार, समाज व शिक्षािास्त्री
साम्यवािी व पाश्चात्य ववचारधारा के लोग थे, योरोप की स्त्वच्छं ििा से प्रभाववि नव-शिक्षक्षि लोग ष्जन्द्होंने भारिीय रासदियों को हवा िे ने का कायष ककया, ष्जनके शलए भारि का अथष एक वपछड़ा िे ि, वपछड़ी सभ्यिा था | कुछ वे नव-प्रगतििील दहन्द्िी लेखक–सादहत्यकार भी
थे जो अंग्रेज़ी एवं उिष ू सादहत्य से प्रभाववि होिे जा रहे थे एवं दहन्द्िी में भी इस प्रकार के सादहत्य का आवाहन करना चाहिे थे, नविा व प्रगतििीलिा के नाम पर स्त्वयं िीब्र गति से
आगे बढ़ने हे िु | अश्लीलिा के बार बार मुकिमे चलना भी लोकवप्रयिा का कारण बनिे रहे | बुराई सिा ही िेजी से फैलिी है |
एक कुिल ररपोटष र, कहानीकार, श्रेष्ठ कथाओं का शिल्पकार- सआिि हसन मंटो- एक
श्रेष्ठ उत्तम कोदट का सादहत्यकार, रचनाकार भी हो सकिा था | वह इन्द्हीं संरास, आक्रोियुि, सामाष्जक कहातनयों को अन्द्य प्रकार से सामान्द्य भाव में , सत्यम शिव सुन्द्िरम
भाव में शलख सकिा था | अपनी कुिलिा, ज्ञान, अनुभव, आक्रोि को सामान्द्य सामाष्जक भाव में प्रिशिषि कर सकिा था | ऊंचा उठ सकिा था | परन्द्िु प्रत्येक में वह गण ु नहीं
होिा | कम शिक्षा व ज्ञान के कारण मंटो ने सस्त्िी व िेजी से सफलिा हे िु चमत्कृि करने, चौंकाने वाली भार्ा व कथ्य को अपनाया | मोपासां की िरह मंटो को भी इस बाि में मज़ा आने लगा कक इंसान की वहशियाना भावनाएँ इस िरह नंगी की जाएँ कक पढ़ने वाला चौंक उठे । कथाओं में ‘चौंक’ का ‘छौंक’ लगाने के दहमायिी आज भी अनचगनि हैं; लेककन समकालीन कथा को स्त्िरीयिा और प्रभावपण ष ा प्रिान करने वाले ित्वों में ‘चौंक’ का स्त्थान ू ि
गौण ही है , प्रमख ु नहीं। जैसा कक स्त्वयं मंटो कहिा है -----‘लोग कला को इतना ऊाँचा रूतबा
दे ते िैं कक इसके झंडे सातिें असमान से शमला दे ते िैं । मगि क्या यि िकीकत निीं कक िि
श्रेष्ठ औि मिान चीज़ एक सूिी िोटी की मोिताज िै ?’ ‘मैं शलिता िूाँ इसशलए कक मुझे कुछ किना िोता िै , मैं शलिता िूाँ इसशलए कक मैं कुछ कमा सकूाँ ‘वह लड़का मेरी िवज्जो को अपनी िरफ ज़रूर खींचग े ा जो जादहर करे कक उस पर सैकड़ो लड़ककयाँ जान िे िी हैं लेककन असल में वह मुहब्बि का इिना ही भूखा है कक ष्जिना बंगाल का भूख से पीडड़ि वाशििं ा। इस बज़ाहिि कामयाब आशिक की िं गीन बातों में जो रे जडी शससककयााँ भिती िोगी, उसको मैं अपने हदल के कानों से सुनूंगा औि दस ू िों को सुनाऊंगा।‘
‘चक्की पीसने िाली औित जो हदन भि काम किती िै औि िात को इप्त्मनान से सो
जाती िै , मेिे अफ़सानों की िीिोइन निीं िो सकती। मेिी िीिोइन चकले की एक टियाई िं डी
िो सकती िै । जो िात को जागती िै औि हदन को सोते में कभी-कभी यि डिािना ख्िाब
दे िकि उठ बैठती िै कक बुढ़ापा उसके दििाज़े पि दस्तक दे ने आ ििा िै ।‘ ‘पर मेिे शलए यि एक तल्ख़ िकीकत िै कक अपने मुल्क में , प्जसे पाककस्तान किते िैं, मैं अपना सिी स्थान ढूंढ निीं पाया िूाँ। यिी िजि िै कक मेिी रूि बेचन ै ििती िै । मैं कभी पागलिाने में औि कभी अस्पताल में ििता िूाँ।‘ इंदस े ना ु ंचत
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िि किता िै : “िम मज़ा बताते िैं, लेककन दिािानों के मुितशमम(प्रबंिक) निीं िैं…” -----
परन्द्िु सामाष्जक सरोकार का अथष ही यह होिा है की सादहत्यकार उठाई हुई समस्त्या का एक समाधान भी प्रस्त्िुि करे यथा िष्ु यंि कुमार का कहना है शसफ़ष हं गामा खड़ा करना मेरा मक़सि नहीं,
मेरी कोशिि है कक ये सूरि बिलनी चादहये |
‘सोसाइटी की चोली क्या उतारूाँगा जो िै िी नंगी। मैं उसे कपडे पिनाने की कोशिि भी
निीं किता,
इसशलए कक यि मेिा काम निीं, दप्जायों का िै । लोग मुझे शसयाि-कलम किते िैं, लेककन मैं तख्ता-ए-शसयाि पि काली चाक से निीं शलिता, सफेद चाक इस्तेमाल किता िूाँ कक तख्ताए-शसयाि की शसयािी औि-भी ज़्यादा नुमायााँ िोजाए ‘-----------….परन्द्िु यदि सोसाइटी नंगी है िो आप भी िो उसमें भागीिार हैं , आपको सूरिोहाल बिलने का सादहत्य रचना चादहए, सौम्य व सक्षम िरीके से न कक और नंगा करके गन्द्िगी को समाज के हर कोने में फैलाना चादहए | यदि आप िजी नहीं हैं िो आप चीरहरण या मुिे के चीर फाड़ करने वाले शसयारभेडड़ये भी नहीं हैं| आप शसयाही को समाज से कम करना चाहिे हैं या सफ़ेि चाक से
शलखकर और अचधक नम ु ांया | ‘मैं बित कम पढ़ा शलिा आदमी िाँ । यूाँ तो मैने 20 से ऊपि ककताबें शलिी िैं , लेककन ु ू मुझे कभी कभी िै ित िोती िै कक यि कौन िै प्जसने इस कदि अच्छे अफ़साने शलिे िैं, प्जन पि आए हदन मुकददमे चलते ििते िैं। जब कलम मेिे िाथ में न िो तो मैं शसफ़ा
सआदत िसन िोता िूाँ प्जसे उदा ू आती िै न फ़ािसी, न अंग्रेजी, न फ्ांसीसी------अथाषि वे कहातनयां नहीं है शसफष ररपोिाषज हैं ष्जनमें मंटो मादहर था |
अिः मंटो सादहत्यकार के
रूप में सामान्द्य ही है और मंटो की कुछ प्रशसद्ध हुई एसी कहातनयों के कारण ही उस पर अश्लीलिा का ठप्पा लगा जो उचचि ही था परन्द्िु ष्जससे उसकी अन्द्य िमाम कहातनयां सामान्द्य सामाष्जक कथाएं होिे हुए भी अचधक प्रचशलि नहीं होपायीं | यह मंटो का व सादहत्य का िभ ु ाष्य है | सादहत्यकार, समीक्षक चाहे कुछ भी कहिे रहें , मंटो ववश्व का महान कहानीकार िो हो सकिा है परन्द्िु उत्तम कोदट का सादहत्यकार नहीं |
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1968 ls jpuk,sa izdkf’kr gks jgh gSAfgUnh ,oa jktLFkkuh Hkk"kk esa 19 iqLrdsa izdkf’kr ns’k&fons’k dh 45 izfrf"Br i=&if=dkvksa esa jpukvksa dk fujarj izdk’ku gks jgk gSA vkdk’kok.kh ls 1996 ls dgkfu;ksas dk izlkj.k gks jgk gSAt;iqj nwjn’kZu ls dfork ikB ppkZ izlkfjrA dgkfu;ksa dk mnwZ] dUuM] vaxzsth Hkk"kk esa vuqokn fd;k x;kA fons’kksa esa dgkfu;ksa dk lrr~ izdk’ku gks jgk gSA iqjLdkj ,oa lEeku 35fgUnh iqLrdksa dk jktLFkkuh o vaxzsth ls fgUnh esa vuqokn fd;kAdSfyQksfuZ;k] ;w ds-dh LVksjh fejj }kjk dgkuh laxzg ^daVhyh jkgsa ** izdkf’kr ‚dukMk esa miU;kl D;ksafd vkSjr us I;kj fd;k---iwu% izdk’ku fd;k x;k] phu ]Vksfd;ks ikfdLrku dh if=dkvksa esa fganh dgkfu;ksa dk izdk’ku gks jgk gS A dsfUnz; lkfgR; vdkneh )kjk fgUnh iqjLd`r miU;kl fey tqy eu ysf[kdk e`nqyk xxZ dk miU;kl jktLFkkuh Hkk"kk esa vuqokn djk;k x;kA
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हिंदी का िसंत मास
डॉ० गंगा प्रसाद िमाा ‘गुणिेिि’ मुझसे जब कोई पूछिा है कक वसंि पंचमी कब है ,िो मैं कहिा हूँ 14 शसिंबर को। लोग
हँस िे िे हैं। उन्द्हें हँ सी आिी है पर मुझे नहीं.उलटे गुस्त्सा आिा है । मेरी गंभीर बाि को वे
हँसी में उड़ाना चाहिे हैं। प्रायः मेरे ििष की अनिे खी कर अब िो लोग मजे लेने के शलए भी मुझसे 'वसंि पंचमी ' की जानकारी चाहने लगे हैं। उन्द्हें नहीं पिा कक दहंिी वालों का वसंि मास शसिंबर ही है । इसी मास में दहंिी की कोयलें कूकिी हैं। कहीं पढ़ा था कक नर कोककल
का कंठ अचधक सुरीला होिा है । मोरनी को सुंिर पंखों वाली मानने का भ्रम भी उन्द्हीं दिनों
टूटा था कक यह भी नर ही होिा है । इसके बाि नर की मधरु रमा उस समय और अचधक प्रामाखणक हो गई जब अनेक कोककल कंठी कवतयबरयों को छोड़कर एक नर कोककल को कूजने
और पूजने के शलए पाँच-पाँच लाख शमलने लगे।वह अपनी चार लाइनों को चौवन बार िहु ारािा है । मटकिा है । झूमिा है । कुछ द्ववअथी संवाि बोलिा है ,कफर गाने लग जािा है। यानी श्रोिाओं को वहीं गीि याि करा िे िा है ।पूरा कफ़ल्मी गीि का मज़ा िे िा है । कुछ जानकार
बिािे हैं कक,"आप 'ववश्वास' करो चाहे न करो पर वह नर कोककल अकेले इसी मास में आधा करोड़ कमा लेिा है । "वही नर क्यों इस महीने हर नर कोककल कुछ ज़्यािा ही कूकिे हैं।
ज़गह-ज़गह दहंिी के नर-बैनर ही िो छाए-बबछाए दिखिे हैं। कहीं भी िे खो ज़मीन पर खड़े,पड़े या गड़े िोनों कोछों में ईंट बांधे हवा में इिरािे, इठलािे और लहरािे हुए शमल जािे हैं। जहाँ न चाहो वहाँ भी ये दिख जािे हैं। हर गली के मोड़ पर । सब्जी लेने जाओ वहाँ भी। पैसे लेने जाओ वहाँ भी। ववश्वववद्यालय में दहंिी ववभाग के िरवाजे के बाहर िो होिे ही होिे हैं
। भरपेट अनाज पाए ककसान की िरह ये राष्रीयकृि बैंकों के मख् ु य द्वार पर भी ज़्यािा खि ु ी न सँभाल पाने के कारण आत्महत्या की मर ु ा में लटके हुए िे खे जा सकिे हैं।
दहन्द्िी का वसंि आिे ही कवतयबरयों की मुख मंजरी पर फूल-से धरे अधराधार रक्िाभ हो
उठिे हैं। कवव -भ्रमर उन फूलों के पराग की गंध पा उन्द्मत्त हो जािे हैं। मुहल्ले छाप से लेकर
राष्रीय स्त्िर िक के कवव सम्मेलनों की झड़ी लग जािी है । इन दिनों कुछ चालाक ककस्त्म के
बंिों को छोड़कर ष्जन्द्हें अपने अंडे औरों से सेवाने की आिि है , बाकी में से अमूमन हर कवव लेखक के खि ु के घर भी 'गोष्ठी-घर' में िब्िील हो जािे हैं।ककिना सही है या गलि पर कहा जािा है कक प्राचीन काल में गायों के बांधने के स्त्थल को गोष्ठी कहा जािा था। पक्का है
उनके भोजनाथष वहाँ चारा भी रखा जािा होगा। आधतु नक काल में कोई गोपालक ही उनका
वह सारा चारा खा गया । जब गायों ने यह सुना िो िो वे िमष के मारे गावों के ककनारे के िालाबों पर डूबने गईं िो उनमें चल् ु लू भर भी पानी न शमला वह भी चारा खाने के बाि वही इंदस े ना ु ंचत
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महािय पी गए । बहुि िरू वाले बड़के िालाब पर गईं िो वहाँ परधान की मछशलयाँ कुलेलें कर रही थीं। परधान के काररंिों ने िो उसमें झाँकने िक नहीं दिया। लादठयों से मार-मार के खन ू ाखच्चर ऊपर से कर िी। इससे वे और भी िशमिंिा हो गईं और खि ु ही कसाइयों के घर
चली गईं ।कुछ असफल मसखरे कववयों और लेखकों की ककंविं िी है कक उन्द्हीं गायों की कमी पूरी करने के शलए कुछ गऊ छाप कवतयबरयाँ खि ु आकर गोष्ठी के संयोजक मकान माशलक के खट ूँ े और कभी-कभी मालककन के खट ूँ से भी बँध जािी हैं।
इन दिनों दहन्द्िी- ववभागाध्यक्ष के कक्ष में िो कवविा कहानी का अकच्छ वैसे ही मचा रहिा है जैसे सावन के महीने में शिवालयों में । वहाँ पाँवों के नीचेऔर अगल-बगल से प्रसाि में शलपटा चीदटयों का झुंड चचपक के चचकोटी काटिा है और यहाँ चरण चब ुं न की जल्िबाजी
में ऊपर से रीडरों और प्रोफेसरों का। खास िौर पर इस मास में सभी ववभागाध्यक्ष की ववचारधारा के समवपषि अनुयायी लगने लगिे हैं। सबमें उनकी जाति और कुल गोर का पिा
लगाकर उस जाति-प्रजाति को भारिीय इतिहास का गौरव बिाने की होड़ लग जािी है । ऐसा लगिा है कक शसंधु सभ्यिा सभ्यिा से लेकर भारिीय इतिहास ,सभ्यिा और संस्त्कृति िक के अध्ययन के शलए एक ही केंर रह गया है ,वह है उनका ववभाग,ष्जसके केंर में हैं ववभागाध्यक्ष।
सभी ववभागाध्यक्ष को यह दिखाना चाहिे हैं कक अबकी के पाठ्यक्रम में उनसे अचधक प्रासंचगक कवविा और कहानी ककसी की न रहे गी। ववभागाध्यक्ष सभी को इिनी गंभीरिा से सुनिे हैं कक सबको उम्मीि-सी बँध जािी है । अपने पाठकोंसे क्या तछपाऊं इस वसंि मास में
मैं भी अपने ववभागाध्यक्ष का लँ गोट तनयशमि छांटिा हूँ िो कुछ आिा -सी मुझे भी दिखने लगी है । सुना है वे अबकी संस्त्थान की पुरस्त्कार सशमति में शलए गए हैं।उनके कहने से वपछले शसिंबर में बाईस कायषक्रम शमले थे।वह भी सबके सब डडग्री कॉलेजों के । मैं िो दहन्द्िी का
सुख अब समझा हूँ िो चाहिा हूँ कक बारहों महीने शसिंबर ही शसिंबर आए। कोई िस ू रा महीना हो ही न। १४ शसिंबर िो इस वसंि मास का पीक डे होिा है .सब अखबारों में दहंिी की चचाष। टीवी चैनलों पर दहंिी की चचाष । ववद्यालय-ववद्यालय और महाववद्यालय से लेकर ववश्वववद्यालय के आँगन िक दहंिी का वसंि छा जािा है । चारों ओर दहंिी का खि ु नुमा वािावरण सष्ृ जि हो जािा है । दिष््िगंि दहंिी की सुरशभ से सुवाशसि हो उठिा है । जो कभी कहीं नहीं पूछे जािे हैं
उन्द्हें भी कोई-न- कोई ववभाग न्द्योि ही लेिा है । वे भी टाई और कोट पैंट में भार्ण िे िे हुए फोटो खखंचवा के ककसी साप्िादहक या पाक्षक्षक के िीसरे -चौथे पन्द्ने की अंिरी-कोशलया में ज़गह पा ही लेिे हैं। दहंिी के िो संप्रिाय हैं। एक अज्ञेय की िरह धनाड्य है ,जो ववद्यि ु के िचू धया प्रकाि से जग को जगर-मगर करिा है िो िस ू रा कबीर की िरह अपनी ही बडेर पर लक ु ाठा रखकर या कफर प्रेमचंि की िरह जीवन का िेल जलाकर सादहत्य की ज्योति जलाकर समाज को रास्त्िा इंदस े ना ु ंचत
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दिखािा है । एक की महाववद्यालयों और ववश्वववद्यालयों में प्राण प्रतिष्ठा की गई है । िस ू रा
संप्रिाय अनबबकी प्रतिमाओं की िरह या िो फुटपाथ पर पड़े-पड़े धल ू फाँकिा है या कफर हर अनबबके माल की िरह कलाकार के साथ वापस हो जािा है । यह सत्य प्रतिमाएँ भी जानिी हैं
कक वे चाहे ष्जिनी सुंिर क्यों न हों पर प्राण प्रतिष्ठा के बबना ककसी भी मूतिष की कोई कर नहीं।
उच्च कक्षाओं में दहंिी वे पढ़िे-पढ़ािे हैं जो प्रायः गाँव के होिे हैं। ककसी गरीब घर से आिे हैं या ष्जनके माँ-बाप पढे -शलखे नहीं होिे हैं। प्राय:लड़ककयाँ इसका अपवाि होिी हैं। इसके अपवाि यिा-किा वे लड़के भी हो सकिे हैं जो अमीर घरों के िो हैं पर तनठल्ले हैं और माँबाप की नज़र में कुछ भी कर पाने लायक नहीं रह गए हैं या कफर ष्जनकी संगि खराब हो
गई है । ष्जनका अन्द्य ववर्यों में एकाध अंक से प्रवीणिा सूची में नाम छपने से छूट जािा है ,इक्का-िक् ु का समय की कर करने वाले ववद्याथी भी साल बबाषि न हो यह सोच कर दहंिी
में नाम शलखा लेिे हैं।ये लगभग प्रतिभािाली ही होिे हैं।लेककन ककसी परीक्षक का शिकार होकर अपने भा्य पर रो रहे होिे हैं। लेककन आगे चलकर इनमें प्रोफेसर बनने अगर इससे चक ू गए िो कवव/कवतयरी या लेखक/लेखखका बनने की पूरी संभावना रहिी है । दहंिी पढ़ने वालों को क्या शमलिा है ?इसके उत्तर में ष्जिना कुछ कहा जाए कम ही है ।
कुछ को अध्यापकी िो कुछ को रीडरी,प्रोफेसरी शमल जािी है । अगर अंग्रेज़ी भी आिी है िो इनमें से कुछ केंरीय संस्त्थानों में अनव ु ािक/दहंिी अचधकारी /सहायक तनिे िक बनकर िे वनागरी की सेवा में लग जािे हैं। ववज्ञान का हर ववद्याथी वैज्ञातनक ,गखणि का गखणिज्ञ,शिक्षा िास्त्र का शिक्षा िास्त्री और ििषन का िािषतनक नहीं होिा पर दहंिी का हर वह ववद्याथी जो परास्त्नािक कर लेिा है , कवव/कवतयरी या लेखक/लेखखका ज़रूर बन जािा है । कायाषलयों में कागज़ -कलम क्या अब िो कंप्यट ू र भी मफ् ु ि शमल जािा है िो ऐसे पाटष टाइम कवव/लेखक
कवविा-कहानी शलखिे -पढ़िे रहिे हैं। जो नहीं शलखिे-पढ़िे वे अखबारों की समस्त्या पतू िष करिे रहिे हैं। ऑकफस में में जहाँ िस ू रे लोग िास खेलिे हैं,ये समस्त्या पतू िष करिे हुए िब्िों से खेलिे हैं। दहन्द्िी पढ़े - शलखे लोगों में कुछ पाठक हो जािे हैं। वे रसपूवक ष कवविा -कहानी की बाि करिे हैं। िक्षक्षण या वामपंथी होकर अपने ववचारधारा वाले सादहत्यकारों की रचनाएँ
पढ़-पढ़ा कर लहालोट होिे रहिे हैं।गाल बजािे हैं . सभाओं और सम्मेलनों में माइक टे स्त्ट करने के बहाने िरह-िरह के गीि/कववत्त/श्लील-अश्लील चट् ु कुले/चौबल्ले सुनािे हैं. मंच से भगाए जाने पर पंडाल में चौकडी भरिे रहिे हैं. बड़े-बड़े आयोजनों को मुफ़्ि सुनने जािे हैं।
सादहत्यकारों के साथ फोटो खींचिे हैं। सेल्फ़ी लेिे हैं और घर या ओकफस पहुंचिे ही फेसबुक पर जम जािे हैं और अपनी या ष्जसकी भी खल ु ी पा जाएं उसकी टाइम लाइन पर अपलोड भी कर िे िे हैं।लोगों से कह-कहके लाइक करवािे हैं।
इंदस े ना ु ंचत
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कुछ दहंिी पढने -शलखने वाले लोग िो अपने को सादहत्यकार की श्रेणी में ववद्याथी जीवन
से ही रख लेिे हैं.बहुिों को सुनकर और उस सब सुने हुए को शमलाकर कुछ न कुछ शलख भी मारिे हैं। इसी आिि के चलिे ये कभी-कभार कहीं छप-छपा जािे हैं । पहे ली आदि पर इन्द्हें कभी -कभी पुरस्त्कार भी शमल जािा है । इस सिकमष पर जब-िब अखबार या पबरका वाले सौडेढ़ सौ रुपए की ककिाबें पुरस्त्कार के रूप में भी भेज िे िे हैं िो वे उन्द्हें अपने कायाषलय के
पिे पर ही मंगािे हैं और अपने बॉस समेि सभी साचथयों को दिखाकर वाहवाही लूटिे हैं। फोटो खखंचािे हैं और ड्राइंग रूम में बाबू जी या अम्मा की माला चढ़ी फोटो की बगल में लटका िे िे हैं।
दहंिी में एक नया संप्रिाय उभरा है । वह है पी.एच.डी संप्रिाय। इसे कर लेने के बाि हर कोई आलोचक हो जािा है ।आगे डॉक्टर लगा होने से इसकी पहचान आसान हो जािी है । इसी का लाभ उठाकर इन दिनों होम्योपैथी के कुछ चचककत्सक दहंिी आलोचना के क्षेर में खब ू चमक रहे हैं। वे प्रायः खाली रहिे हैं। इससे उन्द्हें क्लीतनक में भी आलोचना शलखने का समय शमल
जािा है । कंपाउं डर परची भी काटिा है और साथ-साथ आलोचनाएँ भी टाइप करिा रहिा है। इन्द्हीं सबकी कृपा से इन दिनों दहंिी का आलोचना क्षेर काफ़ी समद् ृ ध हुआ है । दहंिी में इिने आलोचकअविररि हो चक ु े हैं ष्जिने अङ्ग्ग्रेज़ी के ितु नया भर में भी नहीं हैं। इन आलोचकों को िे खकर मैं प्रायः आश्वस्त्ि हो जािा हूँ कक दहंिी ववश्व भार्ा बन चक ु ी है । दहंिी का एक
सवषहारा वगष है जो ककसी संप्रिाय में नहीं आिा। उसे धमष तनरपेक्ष कह सकिे हैं। गशलयोंगशलयों ट्यूिन पढ़ािा कवविा कहानी शलखिा-छपािा कफरिा है । इस वगष के लोग रोज़गार पाए हुए दिखिे िो हैं पर असल में पाए हुए होिे नहीं हैं। खाली होने पर भी लाज बचाने के शलए ये व्यस्त्ि दिखने में ज़्यािा ववश्वास रखिे हैं। ये संिोर्ी प्रववृ त्त के होिे हैं। ज़्यािा से ज़्यािा ये अंिकाशलक रोज़गार प्राप्ि कहे जा सकिे हैं। इनमें से
कुछ अख़बारों में अवैितनक संवाििािा हो जािे हैं। कुछ हाकर का काम कर लेिे हैं। कुछ
पस्त् ु िक ववक्रेिाओं के यहाँ पस्त् ु िकें उठािे- धरिे हैं। कुछ बजाज के यहाँ थान उलटिे-पलटिे हैं। ष्जन्द्हें िहर या कस्त्बे में कुछ नहीं शमलिा वे गाँव लौटकर खेिी और मजूरी-धिूरी करने लग जािे हैं।
शसिंबर महीना केवल इसी वगष के शलए िख ु लेकर आिा है । ऊपर के सभी वगष इन्द्हीं से
आिाएँ लगाए बैठे रहिे हैं कक ये दहंिी के शलए कुछ करें गे।इसके शलए इन्द्हें बरगलािे हैं।
कहिे हैं कक फलाँ दहंिी का उत्थान नहीं होने िे रहे हैं ,दढकाँ नहीं होने िे रहे हैं। यह कहकर इन्द्हें भावुक बनाकर इनके हाथों में कुछ बैनर -पोस्त्टर थमा िे िे हैं। ककसी ववभाग में खि ु
मख् ु य अतिचथ ,ववशिष्ट और सम्मातनि अतिचथ बन कर मंचासीन हो जािे हैं।उधर वे खापीकर लच्छे िार भार्ण िे िे रहिे हैं और इधर ये भख ू े-प्यासे बैनर थामे खड़े रहिे है । ये भी
उनको खि ु करने के शलए दहंिी के साथ हो रहे अन्द्याय को लेकर अपने बिन पर छप्पन छुरी इंदस े ना ु ंचत
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चला-चला के पेट से लेकर पीठ िक लहूलुहान कर लेिे हैं । हाय-हसन की िज़ष पर दहंिी के िाष्ज़ए तनकालिे हैं । केवल इसशलए कक अगले दिन मुख्य अतिचथ के साथ अखबार में इन
सबकी भी रं गीन फोटो छप जािी है ।इससे जो बच जािे हैं वे हैं कैमरा वाले ,चाय-पानी कराने वाले और पंडाल में अपने उधम से मुिषनी न छाने िे ने वाले बच्चे. ब्लैक ऐंड व्हाइट ख़बर में
ये सब भी एक पंष्क्ि में आदि-आदि में स्त्थान पा जािे हैं। इस िरह वक्िा ब्रेककंग न्द्यूज़ के नायक बन जािे हैं कफर साल भर दहंिी की रोटी िोड़िे हैं । इस सत्य से अवगि होने पर
बैनर -पोस्त्टर वाले सवषहारा यातन उनके धारक और उद्धारक भी वहीं बैनर-पोस्त्टर पटक के अपने-अपने काम पर चले जािे हैं। मैं ककस श्रेणी में आिा हूँ? यह मैं अपने मँह ु से नहीं कहना चाहिा। बस ,दहंिी के शलए
कुछ करना चाहिा हूँ। इसीशलए मैं िे ि-िे ि मारा-मारा घूम रहा हूँ। केवल ढाई लाख महीने की पगार लेकर दहंिी के शलए घर-पररवार त्यागे चीन में पड़ा हूँ। यह त्याग कोई नहीं िे ख रहा है । मैं ही नहीं और भी सैकड़ों लोग मेरी ही िरह िे ि-िे ि मारे -मारे कफर रहे हैं। दहंिी सादहत्य के इतिहास की िरह जब कभी दहंिी सेववयों का इतिहास शलखा जाएगा उसमें हम िहीिों का नाम होगा । उसे पढ़ने के बाि लोग जान पाएंगे कक वविे ि में दहंिी पढ़ाना कोई आसान काम नहीं है । युद्ध की िरह जोखखमों से भरा है । मैं सालों से यहाँ पड़ा हूँ । ककसी ने कोई हाल नहीं पूछा । जब शसिंबर आने को हुआ िो कुछ कर हुई। कुछ लोगों ने आिे ि दिया कक पिा लगाओ और बिाओ कक चीन में ककिने लोग दहंिी जानिे हैं या जानना चाहिे हैं? वे दहंिी में प्रबोध,प्राज्ञ या प्रवीण में से ककस स्त्िर की यो्यिा रखिे हैं? उनका दहंिी प्रेम कहीं नकली िो नहीं है । मैं यही सब पिा लगाने को एक से पूछ ही रहा था कक अंिर कर दिया गया । िीन
महीने बाि जमानि पर छूटा हूँ। यह त्याग कोई कम है । मुझे चादहए था कक पहले काम सौंपने वाले सज्जन से पूछिा कक भारि में दहंिी की ष्स्त्थति का पिा लगाओ । चीन में दहंिी भावर्यों की जन गणना से क्या लाभ है ? पर पूछ नहीं पाया। िीन महीने बाि उसी बेकूफी का खाशमयाज़ा भुगि के लौटा हूँ।
शसिंबर महीने में ही लोग जान पािे हैं कक दहंिी कहाँ-कहाँ पढ़ाई जािी है । यह भी जान पािे हैं कक ककिने लोग वविे िों में हैं, जो दहंिी पढ़-पढ़ा रहे हैं। बहुि से प्रोफेसर और रीडर दहंिी पढ़ाने के शलए वविे ि जाने की िैयारी में लग जािे हैं।नए सूट शसलाए जािे हैं िो िष्जषयों को काम शमल जािा है और मक्खी मार रहे बजाजों की भी ववक्री बढ़ जािी है । नए सूट केस खरीिे जािे हैं। पिा लगाया जािा है कक ककस िे ि में कौन दहंिी पढ़ा रहा है । उसका फोन
नंबर शलया जािा है । जो अपने ररििेिारों से स्त्विे ि में भी एक शमनट से ज़्यािा बाि नहीं करिा ,आई एस डी पर िस-िस शमनट बाि करिा है । कभी-कभी िो यह अपनापन उमड़िा हुआ चोंगे से या कफर मोबाइल हुआ िो स्त्क्रीन से भी बाहर आिा हुआ दिख जािा है । उन्द्हें अपने-अपने ववभागों में आमंबरि करने की होड़ लग जािी है । वविे ि में रहने वालों को भी इंदस े ना ु ंचत
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लगिा है कक उनकी पूछ हो रही है । इन दिनों उन्द्हें पक्का भरोसा हो जािा है कक अपने
विन से प्यारा विन कोई िस ू रा नहीं,जहाँ अपनों की अब भी कर होिी है । वह आने से पहले झूम के गािा है -"सारे जहाँ से अच्छा दहंिोस्त्िाँ हमारा...."इस िरह यह मास अपने से बबछुड़े हुओं को विन बुलाने का मास है ।अपनों के दिन बहुरने का मास है । दहरतनयों और ववरदहतनयों के शलए िो यह अपनी िीिल-िीिल फुहारों से मन की प्यास बुझाने वाला सावन मास ही है । शसिंबर महीना िब्िकोिों के दिन बहुरने का मास भी है । इस महीने लोग दहंिी का िब्िकोि भी िे खिे हैं।दहंिी भार्ा का उत्सव मास भी यही है । जबसे केंर सरकार के कायाषलयों और पस्त् ु िकालयों में पचास फीसिी रकम दहंिी की ककिाबों पर खचषना ज़रूरी हो गया है ,बाज़ार में
हाडष बाउं ड ककिाबें ही छप रही हैं। इनके िाम इिने ज़्यािा होिे हैं कक ववद्याथी और गरीब पाठक इन्द्हें बस िे ख सकिा है । दहंिी की पुस्त्िकों की खरीि की दृष्ष्ट से प्रकािकों का भी उत्सव मास है यही शसिंबर । इस सूचना से लेखक खि ु न हों क्योंकक पुस्त्िकों की बबक्री का
वववरण ष्जस बही में होिा है ,वह शसिंबर की बाढ़ में बह या अक्िूबर के सूखे में सूख जािी
है । यह अफवाह पहले से है कक कवव लोगअपनी पुस्त्िकें नामी प्रकािक को मुंहमांगी रकम िे कर
छपािे
हैं।
इसशलए
उनके
शलए
जैसे
सूखे
सावन
वैसे
भरे
भािों।
यह दहंिी का ववत्तीय मास भी कहा जा सकिा है और आँकड़ा मास भी । इसी महीने अपने िे ि को छोडकर ितु नया भर के आँकड़े बाहर आिे हैं।िरह -िरह के आंकड़े तनकलिे हैं कक
ककस िे ि के ककस ववश्वववद्यालय में दहंिी की पढ़ाई होिी है । कनाडा, रूस या जापान के ककस ववद्वान ने दहंिी के शलए ककिना काम ककया है और जमषनी के ककस ववद्वान ने ककिना । मारीिस, सूरी नाम और बरतनडाड आदि के अवधी- भोजपुरी गाने वालों का आँकड़ा तनकालने वाले अपने बारे में नहीं बिािे कक उन्द्होंने ककस-ककस फ़ोरे न लैंगवेज़ इंस्त्टीट्यूट में
स्त्पोकेन इंगशलि सीखी है । इसके बावजूि उनके दिए आँकड़ों में इिना िम होिा है कक पढ़िे
ही या िो खि ु ी नहीं िो गम से आँखें छलछ्ला आएँ। कभी-कभी िो ये आंकड़े बहुि ही आिाजनक होिे हैं और लगिा है कक इन आँकड़ों को िे खकर यू एन ओ लजा जाएगा और सभी भार्ाओं को हटाकर इकलौिी दहंिी को कामकाज की भार्ा बना लेगा। हम भी आंकड़े
िे ख-सुनकर खि ु हो जािे हैं। इसी महीने आप एक अठन्द्नी में चार चवन्द्नी भुनाने वाले अपने ववभाग -प्रमुख से दहंिी के नाम पर भी चवन्द्नी-अठन्द्नी तनकलवा सकिे हैं। अपने-अपने ववभागों में दहंिी बोल और बुलवा सकिे हैं। यह दहंिी का मेला मास भी है और मैला मास
भी।दहंिी का श्राद्ध मास भी यही है । जो अपने पव ष ों की िरह दहन्द्िी को बहुि मानिे हैं वे ू ज पंरह दिन का श्राद्ध पक्ष रख लेिे हैं और जो कम मानिे हैं वे दिवस मनाकर चप्ु पी साध लेिे हैं और कफर साल भर के शलए हाइवरनेिन में चले जािे हैं।
सभ ु रा कुमारी चौहान आज जीववि होिीं िो शसिंबर के इन उत्सवों को िे खकर उन्द्हें भी कुछ न कुछ शलखना ही पड़िा।वे पक्का एक कवविा और शलखिीं,ष्जसका िीर्षक होिा'दहंिी का कब होिा वसंि?' इंदस े ना ु ंचत
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ष्जस मास में कूकें संि असंि स्त्वर छाएँ ष्जनके दिष््िगंि हो जािा दहंिी मय अग-जग यह सब माहों में मानी महं ि बाकी सब हैं घोंघा बसंि. बस यही शसिंबर है वसंि।
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||*आजादी तो शमल गई िै पि िमें पता निीं कक उसका किना क्या िै?*|| अशभनेता बलिाज सािनी का 1972में हदया गया कालजयी भाषण साभाि तिलका हिंदी से
⭕प्रस्तुतत : अंजू िमाा *अशभनेिा
बलराज
साहनी
ने
ये
कालजयी
भार्ण
1972 में
जवाहरलाल
नेहरू
ववश्वववद्यालय (जेएनयू) के िीक्षांि समारोह में दिया था।अपने प्रबुद्ध ववचारों के कारण यह
भार्ण वर्ों िक चचचषि रहा।जेएनयू स्त्टूडेंड यूतनयन इसके पचे प्रकाशिि कर बांटिी रही।इस भार्ण में बड़ी साफगोई से उन्द्होंने दहन्द्िी-उिष ू की समस्त्या और िष्क्ििाली होिी अंग्रेजी पर
भरपूर रोिनी डाली है ।साहनी इसे औसि भारिीय व्यष्क्ि की दिमागी गुलामी के सबूि के रूप में िे खिे हैं।यह भार्ण आज भी उिना ही प्रासंचगक और सामतयक है , ष्जिना कक उस िौर में था....* लगभग बीस साल पहले की बाि है ।कलकत्ता के ‘कफल्म जनषशलस्त्ट एसोशसएिन’ की ओर से ‘िो बीघा जमीन’ कफल्म के तनिे िक बबमल रॉय और हमें यानी उनके साचथयों को सम्मान
दिया जा रहा था।ये एक साधारण पर रुचचकर समारोह था।बहुि अच्छे भार्ण हुए, पर श्रोिा बड़ी उत्सक ु िा के साथ बबमल रॉय को सन ु ने की प्रिीक्षा कर रहे थे।हम सब वहां फिष पर बैठे थे, मैं बबमल िा के पास ही बैठा था और िे ख रहा था कक जैसे -जैसे उनके बोलने का समय
आ रहा था कक उनकी बेचन ै ी बढ़िी जा रही थी। कफर जब उनकी बारी आई, वे उठे और हाथ जोड़कर शसफष इिना कहा, ‘जो कुछ कहना होिा है मैं अपनी कफल्मों के माध्यम से कह िे िा हूं, मेरे पास कहने के शलए और कुछ नहीं है । ’
इस समय मैं भी शसफष इिना ही कहना चाहिा हूं।अगर मैं इससे ज्यािा कहने का साहस कर पा रहा हूं, िो शसफष इसशलए कक ष्जस व्यष्क्ि के नाम पर आपकी यूतनवशसषटी बनी है , उसके व्यष्क्ित्व से मुझे प्यार है ।उिना ही प्यार और आिर, बष्ल्क उससे भी ज्यािा, आपकी यूतनवशसषटी से जुड़े मेरे मन में पीसी जोिी के शलए है ।मेरे जीवन के कुछ बेहि कीमिी पल
इनकी ही बिौलि हैं, कुछ ऐसे कजष भी हैं ष्जन्द्हें मैं कभी चक ु ा नहीं सकिा।इसशलए आपकी
संस्त्था की ओर से शमले ककसी भी तनमंरण को अस्त्वीकार नहीं कर सकिा।अगर आप मझ ु े फिष साफ करने के शलए भी बल ु ािे िब भी मैं उिना ही खि ु और सम्मातनि महसस ू करिा,
इंदस े ना ु ंचत
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ष्जिना इस समय यहां खड़े होकर आपको संबोचधि करने में महसूस कर रहा हूं।पर उस सेवा के शलए मैं िायि अचधक यो्य साबबि होिा । कृपया मझ ु े गलि न समझें। मैं शिष्टिा का दिखावा नहीं कर रहा हूं। जो बाि मैंने कही है , वह दिल से कही है और अब आगे भी जो कहूंगा, दिल से ही कहूंगा, कफर चाहे वह आपको अच्छा लगे या न लगे, वह ऐसे मौकों के अनक ु ू ल हो चाहे प्रतिकूल।िायि आप सब जानिे
होंगे कक िैक्षखणक वािावरण से मेरा संबंध लगभग 25 बरसों से टूटा हुआ है । मैंने कभी ककसी ववश्वववद्यालय के िीक्षांि समारोह को भी संबोचधि नहीं ककया है । वैसे यहां मैं ये भी जोड़ना चाहूंगा कक आपकी ितु नया से मेरा नािा टूटना ऐष्च्छक नहीं था।इस िरू ी के शलए कहीं न कहीं हमारे िे ि की कफल्म बनाने की ििा ष्जम्मेिार है ।हमारी
कफल्मी ितु नया में या िो अशभनेिा को इिना कम काम शमलिा है कक वह भूखों मरिा है या कफर चाहे धन-िौलि की भूख हो या न हो, उसे इिना ज्यािा काम करना पड़िा है कक वह
हर िरफ से कट जािा है । उसे न अपने पाररवाररक जीवन की सुध-बुध रहिी है , न ही अपनी मानशसक और आष्त्मक आवश्यकिाओं की।वपछले 25 वर्ों में मैंने लगभग सवा-सौ कफल्मों में
काम ककया है ।इिने समय में अमेररका या यरू ोप में एक अशभनेिा 30-35 कफल्मों में काम
करिा है । इससे आप खि ु अंिाजा लगा सकिे हैं मेरी ष्जंिगी का ककिना बड़ा दहस्त्सा
सेल्यल ू ॉयड की रीलों में िफन हुआ पड़ा है ।इस अरसे में ककिनी ककिाबें थीं, जो मैं नहीं पढ़ सका, ककिने आयोजन थे जहां मैं जाना चाहिा था पर जा नहीं सका।कभी-कभी मैं खि ु को
बहुि वपछड़ा हुआ महसस ू करिा हूं और मेरी कंु ठा िब और बढ़ जािी है जब मैं सोचिा हूं कक इन सवा सौ कफल्मों में ककिनी कफल्में महत्वपण ू ष होंगी? ककिनी ऐसी कफल्में होंगी, ष्जन्द्हें
याि रखा जाएगा? िायि बहुि कम, मष्ु श्कल से एक ही हाथ की उं गशलयों पर चगनने लायक। और उन्द्हें भी लोग या िो भल ू गए हैं या जल्िी ही भल ू जाएंगे । इशसशलए मैंने कहा था कक मैं शिष्टिा नहीं दिखा रहा हूं।मैं आपको सचेि करना चाहिा हूं कक अगर मेरा भार्ण खास ववद्विा का सबूि न िे , िो आपको तनराि न होकर मुझे माफ कर िे ना चादहए।बबमल िा बबलकुल सही थे।एक कलाकार का क्षेर उसका काम ही होिा है ।
इसीशलए मैं यहां जो कुछ कह रहा हूं, अपने जीवन के अपने अनुभव से ही कह रहा हूं, जो मैंने िे खा-परखा-महसूस ककया। उससे बाहर की बाि करना बेवकूफी होगी, ककसी दिखावे सरीखा होगा।
इस समय मुझे अपने ववद्याथी जीवन की एक घटना याि आ रही है , ष्जसे मैं कभी भुला
नहीं सका, ष्जसने मेरे मन पर बहुि गहरा असर डाला।मैं अपने पररवार के साथ गशमषयों की छुट्दटयां मनाने रावलवपंडी से कश्मीर जा रहा था।वपछली राि भारी बाररि होने के कारण से रास्त्िे में पहाड़ का एक दहस्त्सा टूटकर चगर गया था ष्जसके कारण सड़क बंि हो गई थी।िोनों
िरफ मोटरों की लंबी किारें लग गईं। न खाने-पीने का इंिजाम था, न सोने का।पीडब्ल्यूडी के इंदस े ना ु ंचत
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कमषचारी सड़क की मरम्मि करने में जी-िोड़ मेहनि कर रहे थे।कफर भी ड्राइवर और यारी हर समय उनके पीछे पड़े रहिे, उन्द्हें सुस्त्ि और तनकम्मा कह-कहकर कोसिे रहिे।इसमें काफी समय लगा।यहां िक कक आसपास के गांवों के लोग िहर के िौर-िरीकों वाले याबरयों से उकिा गए थे । आखखरकर एक दिन रास्त्िा खल ु ने का ऐलान हुआ और ड्राइवरों को हरी झंडी दिखा िी गई। पर िब एक अजीब-सी बाि हुई। कोई भी ड्राइवर पहले अपनी गाड़ी बढ़ाने को िैयार ही नहीं था।न इस िरफ से और न ही उस िरफ से। सभी खड़े एक-िस ू रे का मंह ु िे ख रहे थे।इसमें
िक नहीं कक रास्त्िा कच्चा था और खिरनाक भी। एक िरफ पहाड़ था और िस ू री िरफ खाई
व दहलोरे मारिा झेलम िररया। आधा घंटा बीि गया। कोई टस से मस न हुआ। ये वही लोग थे जो कल िक पीडब्ल्यड ू ी के कमषचाररयों को आलस और अकमषण्यिा के शलए कोस रहे थे। इिने में पीछे से एक छोटी-सी हल्के रं ग की स्त्पोट्षस कार आिी दिखाई िी। एक अंग्रेज उसे
चला रहा था। इिने सारे वाहनों और भीड़ को िे खकर वह है रान हुआ। मैं कोट-पिलून पहने जरा बन-ठनकर खड़ा था। उसने मुझसे पूछा, ‘क्या हुआ है ?’ मैंने उसे सारी बाि बिाई, िो वह जोर से हं सा और उसी क्षण हानष बजािा हुआ, बबना ककसी डर के, कार चलािे हुए आगे बढ़ गया । उसके बाि िो नजारा और भी िे खने लायक था।कहां िो कोई माई का लाल गाड़ी स्त्टाटष करने के शलए िैयार नहीं था, और अब वे हानष पर हानष बजािे हुए एक साथ वह दहस्त्सा पार करने लगे। इिनी भगिड़ मची कक रास्त्िा कफर काफी िे र के शलए बंि हो गया। िब मैंने अपनी आंखों से प्रत्यक्ष िे खा कक एक आजाि िे ि में पले-बढ़े आिमी और एक गल ु ाम िे ि में पले-बढ़े आिमी में क्या फकष होिा है ।
आजाि आिमी के अंिर कुछ सोचने, फैसला करने और अपने फैसले पर अमल करने की
दिलेरी होिी है । गुलाम आिमी यह दिलेरी खो चक ु ा होिा है ।वह हमेिा िस ू रे के ववचारों को अपनािा है , तघसे-वपटे रास्त्िों पर चलिा है । इस सबक को मैंने अपनी ष्जंिगी का दहस्त्सा बना
शलया था।अपने जीवन में जब भी मैं कोई कदठन तनणषय ले पाया, मैं बहुि खि ु हुआ। मैं खुि को आजाि महसूस करिा, मुझे जीवन साथषक लगा और मैं जीवन का लुत्फ िायि इसीशलए उठा पाया क्योंकक मैंने समझा की जीवन का कुछ अथष है ।
पर कफर भी साफ-साफ कहूं िो ऐसे मौके बहुि कम आए।ककसी कदठन तनणषय के समय मैं दहम्मि खो िे िा था और िस ू रे लोगों के आसरे रहिा।मैंने सुरक्षक्षि रास्त्िा चन ु ा। मैंने वही फैसले शलए जो मेरा पररवार मुझसे चाहिा था, जो वो बुजआ वगष चाहिा था, ष्जससे मैं आिा ुष
हूं। मेरे ऊपर मूल्यों का एक बोझ-सा डाल दिया गया था। मैं सोचिा कुछ और था और कुछ और ही करिा था। इस कारण मुझे बाि में काफी बुरा भी लगिा। मेरे कुछ तनणषयों से मझ ु े इंदस े ना ु ंचत
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कभी खि ु ी नहीं शमली। जब कभी भी मैं दहम्मि हार जािा, मेरी ष्जंिगी मुझे एक तनरथषक बोझ लगने लगिी ।
मैंने अपने सामने एक अंग्रेज का उिाहरण रखा है । कोई ये सोच सकिा है कक ककसी हि िक यह भी मेरे हीनभाव का सबि ू है । मैं सरिार भगि शसंह का उिाहरण िे सकिा था, जो उसी जमाने में ही फांसी चढ़े थे। मैं महात्मा गांधी का उिाहरण िे सकिा था, ष्जन्द्होंने परू ा जीवन अपनी ही ििों पर ष्जया। मझ ु े याि है कक कैसे मेरे कॉलेज के प्रोफेसर, िहर के
सम्मानीय और बद् ु चधमान व्यष्क्ि गांधी की बािों पर हं सा करिे थे कक वह बबना हचथयार के शसफष सत्य-अदहंसा से अंग्रेज सरकार को हरा िें गे और िे ि को आजाि करा लेंगे।मेरे िहर के िायि एक प्रतििि से भी कम लोग ये सपने में भी नहीं सोच सकिे थे कक अपने जीवनकाल में वे िे ि को आजाि हुआ िे ख सकेंगे।पर गांधीजी को खि ु पर, अपने ववचारों और अपने िे िवाशसयों पर भरोसा था। िायि आपमें से ककसी ने नंिलाल बोस द्वारा चचबरि गांधीजी का चचर िे खा होगा।वह एक ऐसे व्यष्क्ि का चचर है , ष्जसमें सोचने का साहस था और उस सोच पर अमल करने की दहम्मि थी। मेरे कॉलेज के समय मझ ु पर भगि शसंह या गांधीजी का प्रभाव नहीं था। मैं पंजाब प्रांि
के लाहौर में ष्स्त्थि प्रशसद्ध गवनषमेंट कॉलेज से अंग्रेजी सादहत्य में एमए कर रहा था। इस
कॉलेज में शसफष सवषश्रेष्ठ ववद्याचथषयों का चयन होिा है । आजािी के बाि मेरे साचथयों ने दहन्द्िस्त् ु िान और पाककस्त्िान की सरकारों और समाज में काफी ऊंचे पि हाशसल ककए। पर उस
समय कॉलेज में िाखखला लेिे समय हमें शलखकर िे ना पड़िा था कक हम राजनीतिक आंिोलनों में दहस्त्सा नहीं लेंगे। उस समय राजनीतिक आंिोलन का मिलब िे ि में चल रहे आजािी के आंिोलन से था । आज हमारे िे ि को आजाि हुए पच्चीस साल हो गए हैं। इस साल हम आजािी की रजि जयंिी मना रहे हैं।पर क्या हम कह सकिे हैं कक गुलामी और हीनिा का भाव हमारे मन से बबल्कुल िरू हो चुका है ? क्या हम िावा कर सकिे हैं कक व्यष्क्िगि, सामाष्जक या राष्रीय
स्त्िर पर हमारे ववचार, हमारे फैसले और हमारे काम मूलिः हमारे अपने हैं और हमने िस ू रों की नकल करनी छोड़ िी है ? क्या हम स्त्वयं अपने शलए फैसले लेकर उन पर अमल कर सकिे हैं या कफर हम यूं ही इस नकली स्त्विंरिा का दिखावा करिे रहें गे? इस बारे में िो मैं आपका ध्यान हमारी कफल्म इंडस्त्री की िरफ ले जाना चाहूंगा, जहां से मैं आिा हूं। मैं जानिा हूं कक उनमें से ज्यािा कफल्में ऐसी हैं , ष्जनका ष्जक्र सुनकर ही आप हं स पड़ेंगे।एक पढ़े -शलखे बुद्चधमान आिमी के शलए हमारी कफल्में िमािे से ज्यािा कुछ नहीं
हैं। उनकी कहातनयां बचकानी, असशलयि से िरू और िकषहीन होिी हैं।और ये बाि िो आप भी मानेंगे की सबसे बड़ी खराबी है कक उनकी कहानी, िकनीक और नाच-गाने िक पष्श्चम की कफल्मों की अंधी नकल होिे हैं। कई बार िो पूरी की पूरी कफल्म ही ककसी वविे िी कफल्म इंदस े ना ु ंचत
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की नकल होिी है । कोई है रानी की बाि नहीं है कक आप नौजवान लोग इन कफल्मों पर हं सिे हैं, पर साथ ही कुछ ऐसे भी हैं जो कफल्म-स्त्टार बनने के सपने भी िे खिे होंगे । हालांकक मेरे शलए उनका मजाक उड़ाना आसान नहीं है । मैं उनसे अपनी रोजी कमािा हूं। मैंने उनसे खब ू पैसा और मिहूररयि हाशसल की।आज मझ ु े यहां जो इज्जि िी जा रही है , उसके पीछे कुछ हि िक मेरी कफल्मी मिहूररयि ही है । जब मैं आपकी िरह ववद्याथी था, िो हमारे अंग्रेज और दहन्द्िस्त् ु िानी प्रोफेसर बड़ी कोशििों से हमारे अंिर यह एहसास पैिा करना चाहिे थे कक कला का सज ृ न करना शसफष गोरी चमड़ी वालों का ही वविेर्ाचधकार है ।
अच्छी कफल्में , अच्छे नाटक, अच्छा अशभनय, अच्छी चचरकला आदि सब यरू ोप और अमेररका में ही संभव हैं। दहन्द्िस्त् ु िान के लोग, भार्ा, संस्त्कृति इन कलात्मक भावनाओं के शलहाज से
अपररष्कृि और वपछड़े हुए हैं। ये सब सुनकर हमे बुरा लगिा और हम गुस्त्सा भी हो जािे पर अंिर से हम ये बाि मानने को मजबूर थे । पर उस जमाने और आज के जमाने में बहुि फकष है । आजािी के बाि भारिीय कलाओं ने बहुि प्रगति की है ।कफल्मों की बाि करें िो सत्यजीि रे और बबमल रॉय ऐसे नाम हैं जो
ववश्व प्रशसद्ध हो चक ु े हैं। कई कलाकारों और टे कनीशियनों की िल ु ना अंिराषष्रीय स्त्िर पर
होिी है ।आजािी से पहले हमारे िे ि में मष्ु श्कल से 10-15 कफल्में ही बनिी थीं, जो मिहूर होिी थीं। आज हम संसार भर में सबसे ज्यािा कफल्में बनाने वाला िे ि हैं। और इन कफल्मों को शसफष हमारे िे ि की जनिा ही नहीं, बष्ल्क अफगातनस्त्िान, ईरान, पव ू ी सोववयि यतू नयन, शमस्र, अरब, अफ्रीका के अनेक िे िों की जनिा भी बड़े िौक से िे खिी है । हमने इस क्षेर में हॉलीवड ु द्वारा लाई गई एकरसिा को िोड़ा है । और अगर सामाष्जक ष्जम्मेिारी के नजररये से भी िे खा जाए िो हमारी कफल्में नैतिक रूप से अभी उिने तनचले स्त्िर पर नहीं पहुंची हैं जहां कुछ पष्श्चमी िे ि पहुंच चक ु े हैं। दहन्द्िस्त् ु िानी तनमाषिाओं ने अभी लाभ कमाने के शलए सेक्स और अपराध का सहारा नहीं शलया है जैसा अमेररकी तनमाषिा कई सालों से करिे आ रहे हैं, बबना ये सोचे कक इससे वो िे ि में एक गंभीर सामाष्जक समस्त्या को जन्द्म िे रहे हैं । इस सबके बावजूि अगर कमी है िो शसफष एक बाि की कक हम अभी भी नक्काल हैं।इसी
एक गलिी के कारण हम सभी बुद्चधजीववयों के मजाक का पार बनिे हैं। हम वविे िों से उधार शलए गए, तघसे-वपटे फामल ूष े पर कफल्में बनािे हैं। हम में अपने िे ि के जीवन को अपने ढं ग से पेि करने का साहस नहीं है ।
यह बाि मैं शसफष दहन्द्िी या िशमल कफल्मों के बारे में नहीं कह रहा हूं, ये शिकायि िथाकचथि प्रगतिवािी और प्रयोगवािी कफल्मों से भी है , चाहे वो बंगाली में हों, दहन्द्िी में या मलयालम में ।मैं सत्यजीि रे , मण ु िे व, बासु भट्टाचायष या राष्जंिर शसंह बेिी के ृ ाल सेन, सख इंदस े ना ु ंचत
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काम का बड़ा प्रिंसक हूं। मैं जानिा हूं कक वे बहुि ही काबबल और सम्माननीय हैं।मैं यह भी कहे बबना नहीं रह सकिा कक इनकी कफल्मों पर इटली, फ्रांस, स्त्वीडन, पोलैंड और चेकोस्त्लोवाककया के फैिन की गहरी छाप है । वे नया किम जरूर उठािे हैं, पर िस ू रों के बाि ।
मेरा थोड़ा-बहुि संबंध सादहत्य की ितु नया से भी है ।यही हालि मैं वहां भी िे खिा हूं। यरू ोपीय सादहत्य का फैिन भी हमारे उपन्द्यासकारों, कहानी-लेखकों और कववयों पर झट हावी
हो जािा है । अगर सोववयि यतू नयन को छोड़ िें िो िायि परू े यरू ोप में कोई दहन्द्िस्त् ु िानी सादहत्य के बारे जानिा िक नहीं है । उिाहरण के शलए मैं अपने प्रांि पंजाब की ही बाि
करिा हूं।मेरे पंजाब में युवा कववयों की नई पौध सामाष्जक व्यवस्त्था के खखलाफ इंकलाबी जज्बे से ओि-प्रोि है । इसमें भ्रष्टाचार, अन्द्याय, िोर्ण को हटाने और एक नई व्यवस्त्था बनाने की बाि की गई है । आप इसे नकार नहीं सकिे क्योंकक हमें सामाष्जक बिलाव की जरूरि है । इन कवविाओं में बािें िो बहुि अच्छी कही गई हैं पर इनका स्त्वरूप िे सी नहीं है । इस पर पष्श्चम का प्रभाव है ।वहीं की िरह ये मक् ु ि छं ि में हैं, न ही कोई िुकांि है । यदि वहां के कववयों ने लय और छं ि का प्रयोग नहीं ककया है िो पंजाबी कववयों को भी यही
करना है । इसका पररणाम ये होिा है कक ये इंकलाब एक छोटे से कागज पर ही रह जािा है , ष्जसकी िारीफ बस एक छोटे -से सादहष्त्यक समझ वाले समूह में हो जािी है पर वो ककसान
और मजिरू जो इस िोर्ण को झेल रहे हैं, ष्जन्द्हें वे इंकलाब की प्रेरणा िे ना चाहिे हैं, इसे समझ ही नहीं पािे हैं।ये उन पर कोई असर नहीं डालिी।अगर मैं ये कहूं कक बाकी दहन्द्िस्त् ु िानी भार्ाएं भी इसी ‘न्द्यू वेव’ कवविाओं के प्रभाव में हैं, िो गलि नहीं होगा ।
मझ ु े चचरकला के बारे में कोई ज्ञान नहीं है , पर इिना जरूर जानिा हूं कक वहां भी पष्श्चम के फैिन का ही बोलबाला है । इस प्रभाव से बचकर अलग राह पर चलने की दहम्मि िायि ही कोई चचरकार कर सकिा है ।और िैक्षखणक संसार के बारे में क्या कहूं? मैं आपको खि ु इसे पढ़ने के शलए कहूंगा। अगर आप दहन्द्िी कफल्मों पर हं सिे हैं िो िायि खि ु पर भी हं सना चाहें गे ।
इस साल मेरी मािभ ृ ूशम पंजाब में मुझे गुरुनानक ववश्वववद्यालय के सीनेट का सिस्त्य
बनाने के शलए नाशमि ककया गया। जब मुझे उसकी पहली मीदटंग में िाशमल होने के शलए
बल ु ाया गया, िो मैं पंजाब में ही प्रीि नगर के पास था। एक दिन िाम को अपने ग्रामीण िोस्त्िों से गपिप करिे हुए मैंने अमि ृ सर में होने वाली सीनेट की मीदटंग में जाने का ष्जक्र ककया, िो ककसी ने कहा, ‘हमारे साथ िो आप िहमि (लंग ु ी) और कुिे में हमारे जैसे ही बने
कफरिे हो, वहां जाकर सट ू -बट ू पहनकर साहब बहािरु बन जाओगे.’ मैंने हं सिे हुए कहा, क्यों! आप अगर चाहिे हैं िो मैं ऐसे ही चला जाऊंगा ।’ िभी िस ू रा कोई बोला, ‘आप ऐसा कर ही नहीं सकिे, हमारे इन सरपंच को ही लीष्जए। िहर में इन्द्हें ककसी छोटे -मोटे काम से इंदस े ना ु ंचत
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सरकारी िफ्िर जाना हो, िो िहमि की जगह पाजामा पहनिे हैं।कहिे हैं कक िहमि पहनने पर इज्जि नहीं होिी।और आप िो यूतनवशसषटी में जा रहे हैं। ’ एक और फौजी ककसान, जो उस समय छुट्टी पर आया हुआ था, कहने लगा, ‘अजीब बाि है , आजकल िो िहरों की लड़ककयां भी िहमि बांधिी हैं , िो कफर इनकी इज्जि क्यों नहीं होगी?’ ये सब गपिप होिी रही और मुझे ये चन ु ौिी स्त्वीकार करनी पड़ी। मैं अगले दिन सचमुच
िहमि-कुिे में सीनेट की मीदटंग में पहुंच गया और मुझे उम्मीि नहीं थी कक इससे वहां क्या खलबली मची।वहां पहुंचा िो बरामिे में गाउन पहनाने के शलए एक प्रोफेसर खड़े थे। पहली
नजर में िो उन्द्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। कफर, जब पहचाना िो है रानी भरी नजर से मुझे शसर से पांव िक िे खने लगे। आखखर गाउन पहनािे समय वे कहे बबना रह न सके, बोले,
‘साहनी साहब, िहमि बांधी है , िो बूट की जगह खस्त् ु सा (जूिी) पहननी चादहए थी न।’ ‘अगली बार ख्याल रखग ूं ा’, मैंने क्षमा मांगने वाले स्त्वर में कहा और मीदटंग वाले कमरे में चला
गया।पर िभी मुझे खयाल आया कक ककसी के शलबास के बारे में आलोचना करना सभ्यिा के तनयमों के उलट समझा गया है । यह बाि मैंने प्रोफेसर को क्यों नहीं कही! मझ ु े अपनी धीमी हाष्जरजवाबी पर अफसोस हुआ।
मीदटंग के बाि यूतनवशसषटी के लड़के-लड़ककयों से शमलने पर भी मेरा शलबास उनके
मनोरं जन की चीज बना रहा। उनके शलए हं सी की बाि ये भी थी कक मैंने िहमि के साथ जूिे पहन रखे थे।पर उन्द्हें इसमें कोई अजीब बाि दिखाई नहीं िी कक कई लड़कों ने पिलून के साथ चप्पल पहनी हुई थी।
आपको लग रहा होगा कक ये छोटी-सी घटना बिाकर मैं आपका समय क्यों खराब कर रहा हूं! पर एक पंजाबी ककसान के नजररये से इसे िे खखए। हररि क्रांति में उनके सहयोग के शलए सब उनकी प्रिंसा करिे हैं।वे हमारी फौजों की रीढ़ हैं।उन्द्हें कैसा लगेगा जब उनके कपड़ों या रहन-सहन को ववस्त्मय से िे खा जाएगा? पंजाब में यह बाि कही जािी है कक गांव का लड़का कॉलेज की शिक्षा पाने के बाि गांव का नहीं रहिा। वो अपने आप को अलग और श्रेष्ठ समझने लगिा है , मानो वो यहां से नहीं ककसी और ही ितु नया से है । उसकी एक ही कोशिि रहिी है कक कैसे वो गांव छोड़कर िहर भाग जाए।क्या इसे शिक्षा के नाम पर एक धब्बा नहीं कहना चादहए? मैं मानिा हूं सभी जगह ऐसा नहीं है । मैं ये भी जानिा हूं कक िशमलनाडु या बंगाल में अपने पारं पररक पहनावे को पहनने को लेकर कोई हीनभावना नहीं है । एक ककसान से लेकर प्रोफेसर िक कोई भी, ककसी भी अवसर पर धोिी पहन के जा सकिा है । पर वहां भी उधार शलए गए ववचार ककसी-न-ककसी िक्ल में सामने आिे हैं।ये ककसी न ककसी स्त्वरूप में हर इंदस े ना ु ंचत
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जगह मौजूि हैं। आजािी से पच्चीस साल बाि भी हम खि ु ी से वही शिक्षण-प्रणाली ढो रहे हैं ,
जो मैकाले ने क्लकष और मानशसक गुलामों को बनाने के शलए बनाई थी। वो गुलाम जो अपने
बब्रदटि माशलकों के बारे में सोच पाने में भी असमथष होंगे , वो, जो अपने माशलकों से नफरि े़ करने के बावजूि भी उनकी हमेिा िारीफ करें गे, उनके जैसे बोलने, कपडे पहनने, गाने-नाचने में गवष महसूस करें गे।ये गुलाम जो अपने ही लोगों से नफरि करिे हैं और बाककयों को भी नफरि का पाठ पढ़ाने के शलए िैयार रहें गे। क्या अब भी हमें आश्चयष होगा कक ववश्वववद्यालयों में ववद्याचथषयों का अपनी शिक्षा-व्यवस्त्था से ववश्वास उठिा जा रहा है । यहां मैं कफर एक और छोटी बाि बिाना चाहूंगा। अगर आज से िस साल पहले आप दिल्ली के ककसी फैिनेबल ववद्याथी को पिलून के साथ कुिाष पहनने के शलए कहिे िो वह आप पर हं स िे िा।पर आज यूरोप से आए दहष्प्पयों और ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ संस्त्कृति की
नकल में , पिलून के साथ कुिाष पहनना शसफष फैिन ही नहीं बना बष्ल्क कुिे का नाम
‘गुरुिटष ’ हो गया है । अमेररककयों द्वारा रवविंकर को सम्मान शमलिे ही शसिार ‘स्त्टार’ ही बन गया, बबलकुल वैसे ही जैसे 50 साल पहले स्त्वीडन से नोबेल पुरस्त्कार शमलिे ही रवींरनाथ टै गोर पूरे िे ि के ‘गुरुिे व’ बन गए थे।
क्या आप कॉलेज के ककसी ववद्याथी से शसर के बाल और िाढ़ी-मंछ ू ें मंड ु वाने के शलए कह
सकिे हैं जबकक फैिन इसे बढ़ाने का है ? पर अगर कल योग के प्रभाव में आकर यरू ोप के
ववद्याथी ऐसा करने लगें िो मैं िावे से कह सकिा हूं की अगले ही दिन कनाट प्लेस पर आपको गंजे शसर ही दिखेंगे। योग को इसकी जन्द्मभशू म में प्रचशलि होने के शलए यरू ोप से ही सदटष कफकेट लेना होगा!
मैं एक और उिहारण िे िा हूं, मैं दहन्द्िी कफल्मों में काम करिा हूं और सभी जानिे हैं कक इन कफल्मों के गीि और संवाि ज्यािािर उिष ू में शलखे जािे हैं। मिहूर उिष ू लेखक और कववकृिन चंिर, राष्जंिर शसंह बेिी, के.ए.अब्बास, गुलिन नंिा, सादहर लुचधयानवी, मजरूह
सुल्िानपरु ी, कैफी आजमी जैसे नाम इस काम से जुड़े रहे हैं। िो जब उिष ू में शलखी हुई कफल्म को दहन्द्िी कफल्म कहिे हैं िो ये माना जा सकिा है कक दहन्द्िी और उिष ू एक ही हैं। पर नहीं! क्योंकक हमारे बब्रदटि माशलकों ने अपने समय पर इन्द्हें िो अलग भार्ाएं कहा था इसशलए ये
अलग हैं, पर आजािी के पच्चीस साल बाि भी हमारी हुकूमि, हमारे ववश्वववद्यालय, ववद्वान दहन्द्िी और उिष ू को अलग-अलग भार्ाएं माने हुए हैं। क्या आपने कभी संसार के ककसी और
िे ि के बारे में भी ये सन ु ा है कक वहां लोग बोलिे एक भार्ा हैं, पर शलखिे समय वह िो
भार्ाएं कहलाएं? कोई भी भार्ा ककसी भी शलवप में शलखी जा सकिी है । मेरी मािभ ृ ार्ा पंजाबी के शलए िो शलवपयां कबूल की गई हैं।दहन्द्िस्त् ु िान में गरु ु मख ु ी और पाककस्त्िान में फारसी। िो शलवपयों में शलखी जाने पर भी वह भार्ा िो एक ही रहिी है … पंजाबी। िो िो शलवपयों में
शलखी जाने के कारण दहन्द्िी और उिष ू अलग-अलग भार्ाएं कैसे हो गईं? रे डडयो पाककस्त्िान इंदस े ना ु ंचत
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अरबी और फारसी के िब्ि घुसेड़-घुसेड़कर इस भार्ा की खब ू सूरिी का सत्यानाि कर रहा है , वहीं आल इंडडया रे डडयो उिष ू के साथ संस्त्कृि के िब्िकोि को शमला िे िा है । िोनों इन िोनों
के मूल स्त्वरूप को ही बबगाड़िे हुए एक िरह से अपने माशलक की ही इच्छा की पूतिष कर रहे हैं, वो है ‘अववभाज्य’ को अलग करना। इससे ज्यािा बेिुका और क्या होगा? अगर बब्रिातनयों
ने कभी सफेि को काला कह दिया होिा िो क्या हम हमेिा सफेि को काला ही कहिे? इस बाि पर मेरे िोस्त्ि जानी वॉकर एक दिन कहने लगे, ‘रे डडयो पर अनाउं सर को यह नहीं कहना चादहए कक अब दहन्द्िी में समाचार सुतनए, बष्ल्क यह कहना चादहए कक अब समाचार में
दहन्द्िी सुतनए.’ मैंने इस हास्त्यास्त्पि ष्स्त्थति के बारे में दहन्द्िी-उिष ू के कई प्रगतिवािी और
परं परागि लेखकों से भी बाि की है , उन्द्हें इस बाि के शलए मनाया है कक इस मुद्िे पर नई सोच की जरूरि है ।पर अब िक ये िीवार पर अपना शसर मारने जैसा ही है ! हम कफल्म वाले लोग इसे ‘ववद्वानों की जहालि’ कहिे हैं। क्या हम गलि हैं?
यहां मैं आपको अपना एक अनुमान बिाने से नहीं रोक पा रहा हूं, हो सकिा है कक ये गलि हो पर ये है ! ये सही भी हो सकिा है ! कौन जाने! पंडडि जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्त्वीकार ककया है कक िे ि की आजािी की लड़ाई, ष्जसका नेित्ृ व इंडडयन नेिनल कांग्रेस कर रही थी, में िुरू से ही संपन्द्न और पूंजीपति वगष का वचषस्त्व रहा है । सो यह स्त्वाभाववक ही था कक आजािी के बाि इसी वगष का िासन और समाज पर वचषस्त्व होिा।
और आज कोई भी इस बाि से इंकार नहीं करे गा कक वपछले 25 सालों से पूंजीपति वगष दिनप्रतिदिन और ज्यािा धनवान और िष्क्ििाली हुआ है वहीं मजिरू -ककसान वगष और ज्यािा लाचार और परे िान। पंडडि नेहरू इस ष्स्त्थति को बिलना चाहिे थे, पर बिल नहीं सके।
इसके शलए मैं उन्द्हें िोर् नहीं िे िा। हालाि ने उन्द्हें मजबूर कर रखा था। आज इंदिरा गांधी के नेित्ृ व में हमारी हुकूमि कफर इस ष्स्त्थति को बिलने और समाजवाि लाने का वािा कर रही है ।वे कब और ककस हि िक सफल होंगी, कुछ कहा नहीं जा सकिा। न ही इस बहस में
पड़ने का मेरा इरािा है । राजनीति मेरा ववर्य नहीं है ।शसफष इिना कहना ही काफी है कक ष्जस िरह दहन्द्िस्त् ु िान में अंग्रेजों की हुकूमि पर अंग्रेज पूंजीपतियों का िबिबा था, उसी िरह आज िे ि की हुकूमि पर दहन्द्िस्त् ु िान के पूंजीपतियों का प्रभाव है । मैं समझिा हूं कक ये बाि िो सभी मानें गे कक अंग्रेजों की पूंजीवािी व्यवस्त्था ने अपने किम मजबूि करने के शलए अंग्रेजी भार्ा का प्रयोग ककया था, ष्जसमें उन्द्हें खासी सफलिा भी
शमली। मैं पूछिा हूं कक आज हमारे िे ि के िासक ककस भार्ा को अपने प्रतितनचधत्व को मजबूि करने लायक समझिे हैं? राष्रभार्ा दहन्द्िी? यहां मेरा अनुमान ये कहिा है कक उनके उद्िे श्यों की पूतिष शसफष और शसफष अंग्रेजी ही कर सकिी है । पर चकूं क उन्द्हें अपनी िे िभष्क्ि का दिखावा भी करना है इसशलए वो राष्रभार्ा दहन्द्िी की रट लगाए रहिे हैं ष्जससे जनिा
का ध्यान भटका रहे । पज ूं ीपति भले ही हजारों भगवान में ववश्वास करें पर वो पूजिा शसफष एक को ही है - मुनाफे का भगवान।उस दृष्ष्टकोण से उसके शलए आज भी अंग्रेजी ही इंदस े ना ु ंचत
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फायिे मंि है ।औद्योचगकीकरण और िकनीकी ववकास के इस िौर में अंग्रेजी ही फायिे मंि है ।िासक वगष के शलए िो अंग्रेजी गॉड-चगफ्ट ही है . आप सोच रहे होंगे कक वह कैसे? आसान-सा कारण है - अंग्रेजी भारि के आम मेहनिकि लोगों के शलए एक मष्ु श्कल भार्ा है ।पहले के समय में फारसी और संस्त्कृि इन मेहनिकिों की पहुंच से िरू थी, इसीशलए िासक वगष ने उन्द्हें राजभार्ा का िजाष दिया था, ष्जससे वे जनसाधारण में असभ्य, अशिक्षक्षि होने की हीनिा व आत्म्लातन की भावनाएं पैिा करिा था और वो खि ु को कभी िासन के यो्य ही न बना पाए।आज यही रोल अंग्रेजी भार्ा अिा कर रही है .
यही आज भारि का िासक वगष कर रहा है।ये िे ि में इंकलाब नहीं चाहिा, कोई बुतनयािी िब्िीली नहीं चाहिा।अंग्रेजों से शमली हुई व्यवस्त्था को उसी प्रकार कायम रखने में उसका फायिा है ।पर वह खल ु ेआम अंग्रेजी को अंगीकार नहीं कर सकिा।राष्रीयिा का कोई न कोई आडंबर खड़ा करना उसके शलए जरूरी है ।इसीशलए वह संस्त्कृिवािी दहन्द्िी को राष्रभार्ा के रूप
में स्त्वीकार करने का ढोंग करिा है। उसे पिा है कक संस्त्कृि िब्िों के बोझ िले िबी नकली
और बेजान भार्ा अंग्रेजी के मक ु ाबले में खड़ी होने का सामथ्यष अपने अंिर कभी भी पैिा नहीं कर सकेगी। आज के युग के वैज्ञातनक और िकनीकी िब्िों से ररक्ि होने के कारण वह
हमेिा कमजोर भार्ा बनी रहे गी। हम कफल्मी कलाकारों को उनके प्रिंसकों की ओर से रोज पर आिे हैं। ऐसे पर मझ ु े वपछले बीस साल से आ रहे हैं। यह पर आमिौर पर कॉलेज के ववद्याचथषयों और पढ़े -शलखे नौजवानों की ओर से आिे हैं।उनके आधार पर मैं िावे के साथ
कह सकिा हूं कक हमारी शिक्षण संस्त्थाओं में अंग्रेजी का स्त्िर दिन-प्रतिदिन चगरिा जा रहा है ।िायि इसशलए, मैंने सुना है कक िाखखला िे िे समय कॉलेज में पष्ब्लक स्त्कूलों से पढ़कर
आने वाले ववद्याचथषयों को महत्व दिया जािा है । पष्ब्लक स्त्कूल मिलब वो स्त्कूल जहां पर बड़े घरों के बच्चे पढ़िे हैं।
मेरे शलए अंग्रेजी को िाकिवर बनाने की इस बाि पर दटप्पणी करना जरूरी नहीं है । ये स्त्पष्ट भी है । ये बाि मानी भी जा चक ु ी है कक अंग्रेजी वविे िी है और एक औसि आम भारिीय के शलए इसे सीखना कदठन है ।पर कफर भी, आप खि ु अपनी आंखों से िे ख सकिे हैं कक ककस प्रकार जीवन के हर क्षेर में अंग्रेजी को महत्व दिया जा रहा है । मेरी नाचीज राय में
इसका बतु नयािी कारण ये है कक उद्योग के क्षेर में पंज ू ीपतियों के राष्रीय पैमाने पर संगदठि
होने और विषमान सामाष्जक ढांचे को ज्यों का त्यों कायम रखने के शलए अंग्रेजी बहुि ज्यािा सहायक है । कुछ दिन पहले की बाि है , मैंने अपना यह ववचार बम्बई के एक मजिरू नेिा के सामने
रखा और कहा कक आप अगर सचमुच पूंजीवािी व्यवस्त्था की जगह समाजवािी व्यवस्त्था कायम करना चाहिे हैं, िो मजिरू ों को भी पूंजीपतियों की िरह राष्रीय पैमाने पर संगदठि इंदस े ना ु ंचत
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होकर आत्मववश्वास पैिा करना होगा और यह चीज अंग्रेजी से पीछा छुड़ाकर ही हो सकिी
है । मजिरू नेिा मुझसे सहमि हुए, पर कहने लगे, ‘रोग िो आपने ठीक पकड़ा है , पर इसका इलाज क्या है ?’ ‘इलाज ये है कक अंग्रेजी शलवप को अपनाना और अंग्रेजी भार्ा को धक्का िे कर बाहर तनकालना । ’ ‘वह कैसे?’ ‘टूटी-फूटी दहन्द्िस्त् ु िानी सारे िे ि के मजिरू बोल और समझ लेिे हैं।वो इसमें अपना सारी
व्याकरण शमलाकर इसका प्रयोग करिे हैं। इस िरह की भार्ा में लड़की भी ‘जािा’ है और लड़का भी ‘जािा’ है , होिा है ।इस िरह के माहौल में एक ऐसी आजािी शमलिी है कक कई बार बुद्चधजीवी भी इस िरह की भार्ा बोलिे हुए िे खे जा सकिे हैं। और यही िो भारि की परं परा में है ।आज की दहन्द्िस्त् ु िानी में यूतनवशसषटी ‘यन ू ीवरास्त्टी’ बन जािा है , (ववश्वववद्यालय के
मुकाबले में यूनीवरास्त्टी ककिना सुंिर और जानिार िब्ि है !) स्त्पैनर ‘पाना’ है , लैंटनष ‘लालटे न’, कार की ‘चेशसस’ ‘चैसी’ हो जािी है यानी सब कुछ संभव है ।ष्जस िार से फौजी अपनी बंिक ू
साफ करिे हैं वो अंग्रेजी में पुल-थ्रू कहलािा है पर रोमन दहन्द्िस्त् ु िानी में ये ‘फुल्ट्रू’ बन जािा है । ककिना सुंिर िब्ि! हॉलीवुड के लाइटमैन एक िरह के कवर के शलए बानष डोर िब्ि प्रयोग
करिे हैं, बम्बई कफल्म कमषचाररयों में इसे नाम दिया ‘बंिर’, वाह! ककिना अच्छा बिलाव है ! इस िरह की दहन्द्िस्त् ु िानी में िमाम संभावनाएं हैं। ये अंिराषष्रीय वैज्ञातनक और िकनीक िब्िावली को ककिनी आसानी से अपना लेिी है । ये हर जगह से िब्ि ले कर खि ु को समद् ृ ध बना लेिी है ।बार-बार संस्त्कृि िब्िकोि िे खने की जरूरि ही नहीं ।’ ‘पर रोमन शलवप ही क्यों?’ उन्द्होंने पछ ू ा। ‘इसशलए कक ककसी शलवप के बारे में ककसी के कोई पूवाषग्रह नहीं हैं।कफर, इस समय यह राष्रीय पैमाने पर सबसे ज्यािा प्रचशलि शलवप है ।मरास, कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली आदि िहरों
में हर जगह िक ु ानों और कफल्मों के साइनबोडष इसी शलवप में शलखे हुए नजर आएंगे।खिों पर नाम व पिा शलखने के शलए भी िो िे ि-भर में यही शलवप इस्त्िेमाल की जािी है ।फौज िो इसे लगभग 30 सालों से इस्त्िेमाल कर रही है । ’ वो िोस्त्ि कुछ िे र चप ु रहे , कफर हं सकर कहने लगे, ‘कामरे ड, यूरोप में भी एक बार एस्त्प्रांटों
चलाने का िजुबाष ककया गया था। जाजष बनाषडष िा जैसे ववद्वान ने इसे अंग्रेजी जैसा मिहूर बनाने के शलए पूरा जोर लगाया था पर वह प्रयोग बुरी िरह असफल हुआ, क्योंकक वह बनाई गई भार्ा थी।भार्ाएं बनाई नहीं जािीं, वे अपने-आप स्त्वाभाववक ढं ग से बनिी हैं। ’
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मैं है रानी से उनकी ओर िे खिा रह गया।कफर मैंने कहा, ‘कांमरे ड, एस्त्प्रांटों िो वह है , ष्जसे राष्रभार्ा के नाम पर दहन्द्िी पंडडि संस्त्कृि के िब्िकोि से िब्ि लाकर गढ़ रहे हैं।मैं उस भार्ा की बाि कर रहा हूं जो आस-पास लोगों द्वारा फैलाई जा रही है ।’
मैंने और भी कई िलीलें िीं, पर उन्द्हें राजी न कर सका। मैंने जवाहरलाल नेहरू और सभ ु ार्
चंर बोस का भी हवाला दिया कक इन िोनों महान नेिाओं ने भी रोमन दहन्द्िस्त् ु िानी की
जोरिार दहमायि की थी पर इसका भी उन पर कोई असर न हुआ।यहां सवाल ये नहीं है कक उनमें और मझ ु में कौन सही था। िायि मैं गलि था।पर उनके अनस ु ार मेरी बाि उन्द्हें िेखचचल्ली का सपना लग रही थी।जैसा मैंने पहले भी कहा कक अनम ु ान सही भी हो सकिे हैं
और गलि भी। पर कोई भी अनुमान या अनकही बाि कर पाना आजाि सोच की तनिानी है ।कांमरे ड को इस बाि की िारीफ करनी चादहए थी पर वे ऐसा नहीं कर पाए क्योंकक वो एक ियिुिा सोच से हटकर सोच ही नहीं सके। कोई भी िे ि िभी उन्द्नति कर सकिा है, जब वो अपने अष्स्त्ित्व से पूरी िरह वाककफ
हो।इसे अपने शलए सोचना-सीखना होगा।इसे अपनी समस्त्याओं के समाधान खि ु िलािना
सीखना होगा।पर मैं ष्जस ओर भी िे खिा हूं मझ ु े लगिा है कक हमारी हालि अभी भी उस पक्षी जैसी है , जो लंबी कैि के बाि वपंजरे में से आजाि िो हो गया हो, पर उसे नहीं पिा कक इस आजािी का करना क्या है । इसके पास पंख हैं पर ये खल ु े आसमान में उड़ने से डरिा है ।ये शसफष उस सीमा में ही रहना चाहिा है जो उसके शलए तनधाषररि की गई है ।
व्यष्क्िगि और सामूदहक रूप से हम वाल्टर शमटी (एक उपन्द्यास का काल्पतनक चररर जो
एक काल्पतनक ितु नया में ही रहिा है ) जैसी ष्जंिगी ही जी रहे हैं।हमारे अंिर की ष्जंिगी
बाहर की ष्जंिगी से बबलकुल उलट है ।हमारी सोच और कामों में जमीन-आसमान का अंिर है । हम बिलाव िो चाहिे हैं पर बरसों से चली आ रही लीक से हटकर सोच पाने का साहस ही नहीं जुटा पािे । मैं समझिा हूं कक हमारे िे ि में भी कई पुशलस-अफसर ऐसे होंगे, जो जनिा के मन में डर पैिा करने की बजाय उसकी सेवा और सहायिा करना चाहिे हैं। उन्द्होंने यह भी पढ़ा-सुना
होगा कक इं्लैंड में पुशलस का जनिा से व्यवहार बहुि मििगार होिा है । पर वे अंग्रेजी साम्राज्य से शमली हुई व्यवस्त्था के शिकार हैं जो अपने िे ि में िो अलग है पर यहां के शलए नहीं।इस औपतनवेशिक परं परा के अनुसार, जब भी कोई व्यष्क्ि उनके िफ्िर में िाखखल हो, िो डर भर दिया जाए, उससे ष्जिना हो सके प्रतिरोधी और गैर-मििगार व्यवहार ककया जाए। ये व्यवस्त्था हर सरकारी िफ्िर में चपरासी से लेकर मंरी िक में िे खी जा सकिी है । मझ ु े एक घटना याि आ रही है , जो मेरे एक कफल्म-तनमाषिा शमर ने बिाई थी।उसने
बाक्स-आकफस की बजाय समाज की भलाई को सामने रखकर एक कफल्म बनाने की गलिी इंदस े ना ु ंचत
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कर डाली।वह चाहिा था कक उस पर मनोरं जन कर माफ हो जाए। मंरी ने उसे शमलने के शलए राजभवन में आने का समय दिया हुआ था।वे नए-नए मंरी बने थे और उसी दिन उन्द्हें िपथ लेनी थी।तनमाषिा तनयि समय पर पहुंच गया।मंरी के सेक्रेटरी ने उसे अपने पास खड़ा कर शलया।उधर, मंरी राज्यपाल के सामने जनिा की तनष्काम सेवा करने की कसम उठा रहे थे और इधर उनका सेक्रेटरी तनमाषिा से बीस हजार रुपये ररश्वि के िौर पर मांग रहा था। वह तनमाषिा बहुि चाहिा है कक इस दृश्य को अपनी ककसी कफल्म में डाल िे । पर कोई फाइनेंसर इस कफल्म के शलए िैयार नहीं हैं।पर अगर कफल्म बन भी जाए िो क्या हमारा सेंसर इस बाि की इजाजि िे गा? सेंसर के अनुसार ये अशलखखि कानन ू है कक सरकार का कोई भी मंरी ररश्वि नहीं लेिा।पर यहां ज्यािा हास्त्यास्त्पि बाि यह है कक जो लोग हर समय मंबरयों के रवैये के खखलाफ शिकायिें करिे हैं , वही मंबरयों को हार पहनाने के शलए सबसे आगे खड़े होिे हैं।ककसी भी सभा-सोसायटी का जलसा हो, वहां मंरी जरूर आना चादहए।या िो वहां कफल्म अशभनेिा मख् ु य अतिचथ होगा नेिा अध्यक्ष या उल्टा होगा, नेिा मुख्य अतिचथ और कफल्म अशभनेिा अध्यक्ष।ककसी बड़े नाम का वहां होना बहुि ही आवश्यक है क्योंकक ये एक बब्रदटि, औपतनवेशिक परं परा है ।
मैं 25 वर्ों से इप्टा (इंडडयन पीपल् ु स चथयेटर एसोशसएिन) का सिस्त्य हूं।यह संस्त्था आम जनिा के शलए नाटक खेलने का िावा करिी है । इसके नाटकों में सरकार और िासनव्यवस्त्था की कड़ी आलोचना होिी रही है ।इसशलए सीआईडी इस पर खास नजर रखिी है ।पर मैंने िे खा है कक इसी इप्टा की कांन्द्फ्रेंस के उद्घाटन के शलए मंबरयों का आना जरूरी समझा जािा है । आखखरी ववश्व युद्ध के समय मैंने कुछ समय बीबीसी में बिौर उद्घोर्क काम करिे हुए बबिाया।संकट के चार उन सालों में भी मैंने प्रधानमंरी समेि बब्रदटि कैबबनेट के ककसी भी मंरी को कहीं नहीं िे खा। पिा नहीं, वे कहां तछपे रहिे थे! पर यहां, िे ि की आजािी के बाि से ही मुझे हर जगह मंरी ही दिखाई िे रहे हैं। 1930 में जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन के शलए इं्लैंड गए थे , िो उन्द्होंने इं्लैंड के परकारों को संबोचधि करके कहा था, ‘दहन्द्िस्त् ु िान के लोग बब्रदटि सरकार की बंिक ू ों और मिीनगनों को उसी िरह िे खिे हैं , ष्जस िरह िीवाली के दिन उनके बच्चे पटाखों को िे खिे
हैं.’ यह िावा वे क्यों कर सके? इसशलए कक उन्द्होंने दहन्द्िस्त् ु िातनयों के दिलों में से अंग्रेज
िासकों का डर तनकाल दिया था।आम लोग अंग्रेज िासकों को इज्जि की जगह नफरि से िे खने और उनके साथ असहयोग करने लगे थे।यह साहस महात्मा गांधी ने तनहत्थे दहन्द्िस्त् ु िातनयों के दिलों में भरा था।
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आज अगर हम सचमुच चाहिे हैं कक हमारे िे ि में समाजवाि आए, िो जनसाधारण को पैसे
और रुिबे की छाया से आजाि कराने की जरूरि है ।पर इस समय असशलयि क्या है ? हर िरफ पैसे और रुिबे का बोलबाला है ।समाज में इज्जि उसकी ही है , ष्जसके पास मोटरें हैं , बंगले हैं, िौलि का िररया बहिा है ।क्या कभी ऐसी हालि में समाजवाि आ सकिा है ? समाजवाि से पहले हमें वो माहौल लाना होगा जहां शसफष धन-िौलि का होना ही सम्मान िे ने का पैमाना न बने।हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां सबसे ज्यािा सम्मान उस मजिरू को शमले जो चाहे िारीररक मेहनि करिा हो या मानशसक।अपने कौिल के साथ मेहनि करिा हो या प्रतिभा के साथ।अपनी कला से िे ि की सेवा कर रहा हो या ककसी अंाववष्कार से।इसके शलए पुरानी सोच को िोड़कर एक नई सोच लाने की जरूरि होगी।क्या हम कहीं से भी खि ु को उस क्रांति को लाने के करीब पािे हैं?
िायि हमें आज एक मसीहा की जरूरि है जो हमें इस गुलामी से तनकाल कर एक आजाि
सोच और नए मूल्यों का तनमाषण करने का साहस िे ष्जससे हम अपने िासकों के साथ जुड़ने की बजाय आम जनिा के साथ जुड़ें।ये मेरी आिा और प्राथषना है कक आप जवाहरलाल नेहरू
यूतनवशसषटी के ग्रेजुएट अपने जीवन में वो सफलिा पाने में समथष होंगे जो मैं और मेरी पीढ़ी के कई लोग नहीं पा सके।
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हिंदी के प्रचाि-प्रसाि में हिंदी ब्लॉगि की भशू मका
िािुल िटे , उप प्रबंिक (िाजभाषा) आज का युग ववज्ञान और िकनीक का है , ष्जसमें हम पग-पग पर िकनीक से टकरािे है । जो लोग
इस िकनीक को अपना लेिे है , वह अपने काम आसानी से कर लेिे हैं और जो
नहीं कर पािे या ष्जन्द्हें इसके शलए िस ु रों की सहायिा लेनी पड़िी है , वह अपना काम जैसेिैसे पुरा कर लेिे है । जो इस झंझट में नहीं पड़ना चाहिे हैं, वह समय के साथ चलने वाली स्त्पधाष से वपछड़ जािे है और भववष्य में एक दिन उनके मन में भी ववचार आिा है कक यदि
वह समय की मांग को समझकर िकनीक के साथ चल पड़िे िो आज वह वहॉ ं होिे जहॉ ं उनके साथी खड़े हैं। इसका एक साधारण सा उिाहरण
है कक आजकल कंप्यूटर द्वारा
आसानी से रे ल का दटकट बूक ककया जा सकिा है । रे ल दटकट काउं टर पर लंबी लाइन में
लगकर पची भरने से अच्छा हैं, कंप्यूटर पर रे ल ववभाग की ऑनलाइन साईट पर जाकर
शमनटों में रे ल का कन्द्फमष दटकट प्राप्ि ककया जा सकिा है । कहने का िात्पयष है कक िकनीक और कंप्यट ू र ने हमारे कई काम आसान कर दिए हैं। भारि की सरकार भी आज-कल
डडष्जटल इंडडया का सपना िे ख रही है । ऐसी ष्स्त्थति में क्यों न सूचना प्रौद्योचगकी का भरपूर लाभ उठाया जाए और इसी के माध्यम से हमारी राजभार्ा दहंिी के ववकास के लक्ष्य को भी
साधा जाए? आज-कल कंप्यूटर पर दहंिी में काम करना बहुि आसान हो गया है ,खासकर गग ु ल दहंिी इनपट ू और माइक्रोसॉफ्ट इंडडक लैंगवेज टूल की सहायिा से अंग्रेजी की-लेआउट के जरीए अंग्रेजी की ही गति से दहंिी में भी कंप्यट ू र पर आसानी से काम ककया जा सकिा है ।ऐसे में हम एक ऑनलाइन 'चौपाल' लगा कर हमारे ववचारों को हमारी ही भार्ा में स्त्थान
िे सकिे हैं। गग ु ल का ब्लॉगर एक ऐसा ही इष-टूल है , ष्जसके जरीए हम हमारे ववचारों को
इंरजाल-इंटरनेट के जररए जन-जन िक पहुँचा सकिे हैं। ववककपीडडया के अनुसार चचट्ठा (अंग्रेज़ी का ब्लॉग), बहुवचन चचट्ठे (अंग्रेज़ी में ब्लॉ्स) एक प्रकार के व्यष्क्िगि जालपष्ृ ठ (वेबसाइट) होिे हैं, ष्जन्द्हें िै नष्न्द्िनी (डायरी) की िरह शलखा जािा है । दहंिी के प्रचार और
प्रसार में सूचना प्रचार-प्रसार में यही चचट्ठे (ब्लॉग) हमारे इलेक्रॉतनक 'िे विि ू ' साबबि हो
सकिे हैं, जो कशलयुग में नारि मुनी का काम कर सकिे हैं। यदि आप अपने ववचारों को पूरे ववश्व में एक साथ पहुँचाना चाहिे हैं, िो आप अपने पसंिीिा ववर्य पर ब्लॉग बनाकर अपनी बािों को पूरे ववश्व में कही भी पहुँचा सकिे हैं और उसे रोज अद्यिन भी कर सकिे हैं।
इंदस े ना ु ंचत
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आज कल हम िे खिे हैं कंप्यूटर पर कई ब्लॉग हैं, जो दहंिी में हैं और नव-नवीन ववर्यों
पर अपने ज्ञान का प्रसार कर रहे हैं। इसमें दहंिी भार्ा, ज्ञान-ववज्ञान, िकनीकक-प्रौद्योचगकी, कथा, कहातनयॉ,ं शिक्षा, स्त्वास्त्थ्य, बाल जगि और अन्द्य ववर्यों के साथ-साथ इतिहास, भूगोल और भौतिक ववज्ञान जैसे कई ववर्यों का समावेि हैं। वविेर्: अनुनाि शसंह जी ने इस
क्षेर में भगीरथ प्रयास ककया है । कंप्यूटर पर ऐसे कई ववर्यों पर आज जानकारी उपलब्ध हो
गई ष्जन ववर्यों की पुस्त्िकें प्राय: िल ष समझी जािी है । प्राचीन ग्रंथों के पीडीएफ फाइलों का ु भ
ब्लॉगों के माध्यम से आसानी से डाउनलोड ककया जा सकिा है। इससे अध्ययन और अनुसंधान िोनों में सहायिा हो रही है । खासकर ऐसी पुस्त्िकें ष्जनकी प्रतियां आज ककसी लाइब्ररी
में
भी
शमलना
मुष्श्कल
हैं
ऐसे
कई
ववर्यों
की
पुस्त्िकों
का
संकलन आसानी से उपलब्ध हो जािा है । साथ ही ब्लॉग बनाने वाले व्यष्क्ि के ववचार और ििषन से भी पररचचि हो सकिे हैं। दहंिी में शलखी गई बहुि सी पुस्त्िकें आज भी आम जन िक नहीं पहुँच पाई हैं , ष्जन्द्हें ब्लॉग पर िी गई शलंक के माध्यम से सरलिा से डाउनलोड
ककया जा सकिा है , सोिल मीडडया पर िेयर ककया जा सकिा है और अपने पाठकों को इसकी शलंक भी भेजी जा सकिी हैं। ववककपीडडया के अनस ु ार दहन्द्िी का पहला चचट्ठा 'नौ िो ्यारह' माना जािा है , ष्जसे आलोक कुमार ने पोस्त्ट ककया था। ब्लॉग के शलये चचट्ठा िब्ि भी उन्द्हीं ने प्रदिपादिि ककया था जो कक अब इण्टरनेट पर इसके शलये प्रचशलि हो चक ु ा है ।
चचट्ठा बनाने के कई िरीके होिे हैं, ष्जनमें सबसे सरल िरीका है , ककसी अंिजाषल पर ककसी चचट्ठा वेबसाइट जैसे ब्लॉगस्त्पॉट या लाइवजनषल या वडषप्रेस आदि जैसे स्त्थलों में से ककसी एक पर खािा खोल कर शलखना िरू ु करना। एक अन्द्य प्रकार की चचट्ठे कारी सक्ष् ू म चचट्ठाकारी कहलािी है । इसमें अति लघु आकार के पोस्त्ट्स होिे हैं।आज के संगणक जगि
में चचट्ठों का भारी चलन चल पड़ा है । कई प्रशसद्ध मिहूर हष्स्त्ियों के चचट्ठा लोग बड़े चाव से पढ़िे हैं और उन पर अपने ववचार भी भेजिे हैं। चचट्ठों पर लोग अपने पसंि के ववर्यों पर शलखिे हैं और कई चचट्ठे ववश्व भर में मिहूर होिे हैं ष्जनका हवाला कई नीति-तनधाषरण मुद्िों में ककया जािा है । चचट्ठा का आरं भ १९९२ में लांच की गई पहली जालस्त्थल के साथ ही हो गया था। आगे चलकर १९९० के ििक के अंतिम वर्ो में जाकर
चचट्ठाकारी ने जोर पकड़ा। आरं शभक चचट्ठा संगणक जगि संबंधी मूलभि ू जानकारी के थे। लेककन बाि में कई ववर्यों के चचट्ठा सामने आने लगे। विषमान समय में लेखन का हल्का
सा भी िौक रखने वाला व्यष्क्ि अपना एक चचट्ठा बना सकिा है , चकूं क यह तनःिुल्क होिा
है और अपना शलखा पूरे ववश्व के सामने िक पहुंचा सकिा है । (स्रोि:ववककपीडडया) चचट्ठों पर राजनीतिक ववचार, उत्पािों के ववज्ञापन, िोधपर और शिक्षा का आिान-प्रिान भी ककया जािा है । कई लोग चचट्ठों पर अपनी शिकायिें भी िजष कर के िस ू रों को भेजिे हैं। इन शिकायिों में िबी-छुपी भार्ा से लेकर बेहि ककषि भार्ा िक प्रयोग की जािी है । वर्ष २००४ में चचट्ठा
िब्ि को मेररयम-वेबस्त्टर में आचधकाररक िौर पर सष्म्मशलि ककया गया था। कई लोग अब चचट्ठों के माध्यम से ही एक िस ू रे से संपकष में रहने लग गए हैं। इस प्रकार एक िरह से इंदस े ना ु ंचत
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चचट्ठाकारी या चचट्ठाकारी अब ववश्व के साथ-साथ तनजी संपकष में रहने का माध्यम भी बन गया है । कई कंपतनयां आपके चचट्ठों की सेवाओं को अत्यंि सरल बनाने के शलए कई सुववधाएं िे ने लग गई हैं।(स्रोि:ववककपीडडया) दहंिी के प्रचार को इन ब्लॉग ने पर लगा दिए हैं। खासकर ऐसी पुस्त्िकें ष्जनको प्रकाशिि करने में समस्त्या आिी है या कफर जो पुस्त्िकें
प्रकाशिि होने पर भी पाठकों िक नहीं पहुँच पािी हैं, ऐसी पुस्त्िकों की सामग्री को आसानी से
पाठकों
िक
मार
एक
ष्क्लक
करने
पर
ही
पहुँचाया जा सकिा है , ष्जसपर पाठक बैठे-बैंठे ही अपनी प्रतिकक्रया भी िे सकिे हैं। ऐसे कई ब्लॉग हैं, ष्जनका यहॉ ं ष्जक्र करना आवश्यक हैं, जैसे दहंि ू महासागर, राजभार्ा दहंिी, प्रतिभास,
ववज्ञानववश्व, िब्िों का सफर, ज्ञानवाणी, गखणि और ववज्ञान, सौर, इंडडया वाटर पोटष ल, भारि ववद्या, वैज्ञातनक भारि, ववचार वाटीका, श्यामस्त्मतृ ि,ववजानाति-ववजानाति-ज्ञान
आदि
वविेर् हैं। ककसी ने कहा भी है , कक 'आज का ब्लॉग कल की पुस्त्िक है '। अथाषि कागजकलम लेकर अपने ववचारों को शलखने के बजाए यदि आप उसे सीधे कंप्यूटर पर टाइप कर पािे है िो वह आपके ववचारों की इलेक्टॉतनक पांडुशलवप बन जािी है। अनुनाि शसंह जी का
'प्रतिभास' ब्लॉ्ग मझ ु े बहुि अच्छा लगा। इनके द्वारा बनाया गया भारि का वैज्ञातनक चचंिन, नवाचार िपषण, अनागि ववद्या, कालजयी,भारि का इतिहास, दहंिी ववश्वकोि, प्रतिबबंब, अक्षरग्राम, रचनाकार,दहंिी ववककवपडडया ब्लॉग, भारि गौरव, भारि का वैज्ञातनक िथा नवाचार िपषण ने दहंिी को मंनोरं जकिा से ज्ञानरं जकिा की ओर मोड़ दिया है । टे ढ़ी ितु नया पर रवव रिलामी की तियषक, िकनीकी रे खाएँ खींचने वालीके 'छींटे और बौछारें ' ब्लॉग ने िकनीकक को भार्ा के साथ जोड़ने अिभि ू प्रयास ककया है । भारिीय संस्त्कृति ब्लॉग ने
भारिीय संस्त्कृिी की ध्वजा को ववश्व मे फहराने का काम ककया है । भारिीय संस्त्कृति के सुनहरे पहलुओं का ववश्व के समक्ष प्रस्त्िुि करने का यह एक सफल प्रयास माना जा सकिा हैं। दहंखोज, आइना दहंिी ब्लॉग, िे बािीर् कृि 'नुक्िाचीनी' के जरीए राजनीति,सामाष्जक
ष्स्त्थतियाँ, िकनीकी जानकारी जैसे ववशभन्द्न मुद्िों को छूने वाले लेखों को पढ़ा जा सकिा है । डॉ. जाककर अली रजनीि जी ने अपनी वैज्ञातनक सोच को 'ववज्ञानववश्व' के माध्यम से व्यक्ि
ककया है , जो ववज्ञान में रूचच रखने वाले पाठकों के शलए एक अनोखा िोहफा साबबि हुआ है । इससे कदठन और ष्क्लष्ट समझे जाने वाले ववर्यों की सरल दहंिी में जानकारी उपलब्ध हो गई है । इसके अलावा ववज्ञानववश्व ब्लॉग ने ववज्ञान की नववनिम जानकारी को सरल दहंिी में उपलब्ध कराने का महत्वपूणष कायष ककया है , ष्जससे ववज्ञान के जदटलिम शसद्धांिों को
समझने के सहायिा हो रही है , साथ ही इससे एक वैज्ञातनक सोच ववकशसि हो रही है , ष्जसे भववष्य में होने वाली वैज्ञातनक क्रांति की पूवस ष ूचना ही कहा जा सकिा है । डॉ॰ श्याम गुप्ि का ब्लॉग श्यामस्त्मतृ ि िे ि के पौराखणक गाथाओं का भौगोशलक और ऐतिहाशसक संिभष खोजने
में मील का पत्थर साबबि हुआ है । पुराणों में वखणषि घटनाओं के भौगोशलक संिभष खोजने में यह ब्लॉग गुरू का ही काम करिा है । खासकर पुराणों की ष्जन घटनाओं को ववज्ञानवािी इंदस े ना ु ंचत
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काल्पतनक मानिे हैं , उन्द्हें ऐतिहाशसकिा और भौगोशलकिा के नक्िें पर स्त्थावपि करने का यह एक अनुपम सफल प्रयास कहा जा सकिा है ।
रवीन्द्र प्रभाि ने अपनी 'दहन्द्िी ब्लॉचगंग का इतिहास' पुस्त्िक में बिाया हैं कक
आवश्यकिा, उपयोचगिा, राष्रीय और अन्द्िराषष्रीय ितु नया से सैकण्डों में अपनी बाि के जररए
जुड़ने वालों की बढ़िी संख्या को िे खिे हुये आज ब्लॉचगंग जैसे रिगामी संचार माध्यम को पॉचवा स्त्िम्भ माना जाने लगा है । कोई इसे वैकष्ल्पक मीडडया िो कोई न्द्यू मीडडया की संज्ञा से नवाजने लगा है । हालांकक यह ब्लॉग आलोचना की एक महत्वपूणष पुस्त्िक है , ष्जसमें
दहन्द्िी ब्लॉचगंग के िस वर्ों के इतिहास को सहेजा गया हैं िथा कालक्रम को वविेर्िाओं के साथ उष्ल्लखखि ककया गया है । इस पुस्त्िक में ई-एजुकेिन,ई-परकाररिा, मल्टीमीडडया, इनष्स्त्क्रप्ट आधाररि मानक दहंिी टं कण, यूज़र जेनरे टेड कन्द्टे न्द्ट. शिक्षा-केंदरि सोिल नेटवककिंग, एजुकेिनल गेशमंग आदि की भी चचाष हुई है । दहन्द्िी में ब्लॉग इतिहास लेखन से संबष्न्द्धि यह पहली पुस्त्िक है , ष्जसमें दहन्द्िी ब्लॉग लेखन में मदहलाओं की स्त्थति की समीक्षा है िो दहन्द्िी भार्ा और सादहत्य में ब्लाचगंग की ष्स्त्थति तनधाषरण
पर ववचारोत्तेजक
टीका भी। वर्षवार ववस्त्िि ृ समीक्षा के अंिगषि ववशभन्द्न ब्लागों के ववर्य वस्त्िु और उनकी गण ु वत्ता के आकलन को भी इस पस्त् ु िक में सष्म्मशलि ककया गया है ।(स्रोि: ववककपीडडया) महात्मा गांधी अंिराषष्रीय दहंिी ववश्वववद्यालय के दहंिी समय ब्लॉग के माध्यम से दहंिी की
महत्वपण ू ष जानकारी प्राप्ि होिी है , इसमें दहंिी के उपन्द्यास, कहानी, कवविा, व्यं्य, नाटक, तनबंध, आलोचना, बाल सादहत्य, संस्त्मरण, यारा वत्त ृ ांि, शसनेमा इन परं परागि सादहष्त्यक ववर्यों
के
साथ-साथ
खोज,अनस ु ंधान
संबंधी
अनव ु ाि,
कोि
नवीनमि
ववज्ञान,
जानकारी
समग्र-संचयन,
प्राप्ि
होिी
है ,
रचनाकारों,
इससे
लेखकों,
अध्ययन
के
साथ-साथ अनुसंधान को भी दििा शमल रही है । वैदिक ववज्ञान ष्जसे सामान्द्य व्यष्क्ि मार कल्पना की उडान मानिा है ,
इन ब्लाग के माध्यम से इस ववर्य पर िोध करने वालों को
एक नई उम्मीि की ककरण दिखाई िे ने लगी है । दिव्य नमषिा इस ब्लॉग ने दहंिी िथा अन्द्य भार्ाओँ के मध्य सादहष्त्यक-सांस्त्कृतिक-सामाष्जक संपकष हे िु रचना सेिु का तनमाषण ककया है । ववचध संदहिा ब्लॉग समसामातयक घटनाओं
एवं ववचधक ज्ञान पर आधाररि आलेखों का
प्रस्त्िुिीकरण करिा है । गखणिांजशल ब्लॉग की गखणि की जानकारी िे िा है । अंकुर गुप्िा का दहंिी ब्लॉग, कंप्यट ू र और िकनीक से जुड़ी नई प्रववष्ष्ठयां प्रस्त्िुि करिा है । ववचार संचार
मंच ववज्ञान के संचार की दििा में कायष कर रहा है । प्रिीक जोिी जी का 'संगणक ववज्ञान दहन्द्िी में जानकारी' यह ब्लॉक उन लोगो के शलए है ष्जसे दहन्द्िी में कम्प्युटर के बारे में
जानने की जरूरि है । ब्लॉगर एक कम्प्युटर अशभयांरीकी स्त्नािक पिवी के ववद्याथी हैं और
उन्द्होने इस ब्लॉग के माध्यम से कंप्यूटर के बारे में उत्कृष्ट जानकारी िे ने की पूरी कोशिि की
है ।
डॉ
वववेक
मोहन
अग्रवालजी
का
'प्राखण
ववज्ञान
दहंिी'
यह
ब्लॉग
दहंिी भार्ी छार एवं छाराओं को उनकी मािभ ृ ार्ा में प्राखण िास्त्र ववर्य के प्रमाखणक नोट्स
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मुहैया कराने हे िु बनाया गया है । मुख्यि: बबलासपुर ववश्वववद्यायलय के छार एवं छारा इससे लाभाष्न्द्वि हो रहे हैं।
तनष्श्चि ही राजभार्ा दहंिी के प्रचार-प्रसार को दहंिी ब्लॉगर एक मील का पत्थर साबबि हुआ है ।
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हिन्दी प्रचारिणी सभा की आिश्यकता
श्याम त्रत्रपाठी प्रमि ु संपादक हिन्दी चेतना जब एक भारिीय अपना िे ि छोड़िा है और ककसी भी नए िे ि में जाकर एक नए वािावरण में अपना जीवन पूणष रूप से प्रारम्भ करिा है । अपने पररजनों से िरू , आपनी भार्ा संस्त्कृति, परम्पराओं , अपने सादहत्य, कला , भोजन और अन्द्य पिाथों से वंचचि हो जािा है । उसके मागष में अनेकों कदठनाइयाँ सामने आकर खड़ी हो जािी हैं।उस समय उसे अपना
िे ि, उसे अपने शमर और खासकर उनकी मीठी–मीठी बािें , हँ सी-मजाक उसे खि ु करिी थीं
।यह सब कुछ उससे िरू हो जािी हैं और वह उस िे ि के ढाँचे में ढाल िे िा है । यह बाि केवल एक भारिीय की ही नहीं बष्ल्क सभी उन लोगों की है , जो वविे ि की धरिी पर बसे
हुए हैं । रोटी, कपड़ा और मकान के चक्कर में अपनी भार्ा और संस्त्कृति भूलने लगिे हैं । और धीरे –धीरे अपने िे ि से बबलकुल िरू होिे चले जािे हैं और उनके बच्चे जो वहाँ जन्द्मिे हैं वे भारिवंिी रं ग-रूप से दिखिे हैं । यदि कभी भारि जािे हैं , िो स्त्वयं को अभारिीय
पािे हैं । बार– बार उसके मन में यही प्रश्न उठिा है कक हम अपनी जड़े भूल गए । और सबसे बड़ी बाि है जब इंसान की अपनी मािभ ृ ार्ा खो जािी है िो उसका सवषस्त्व खो जािा है । यही हर भारिीय प्रवासी की व्यथापूणष कथा है । इस दििा में भारि सर
र वविे िों में अपने सरकारी िि ू ावासों के सहयोग से अपने
िे िवाशसयों को दहन्द्िी भार्ा व संस्त्कृति की सुरक्षा के शलए अनेकों प्रकार की सुववधाएँ प्रिान
करिी रही है ; लेककन समय– समय पर इसमें कृपणिा िे खी गयी । तन:संिेह विषमान सरकार इस दििा में काफी जागरूक है और वह भारिीयों को अपनी भार्ा और संस्त्कृति की सुरक्षा के
शलए अनेकों किम उठा रही है । साथ ही प्रवासी लोग स्त्वयं ही जहाँ रहिे हैं, वहाँ अपनी भार्ा और संस्त्कृति को सुरक्षक्षि रखने का पूरा– पूरा ध्यान रखिे हैं । इसी कारण आज भारि
से अचधक वविे िों में प्रवासी लोग दहन्द्िी के शलए िन-मन धन से समवपषि हैं । इसी शलए हमने 1998 में दहन्द्िी प्राचाररनी सभा की स्त्थापना की । इसमें केवल दहन्द्िी प्रेमी लोग इसके औपचाररक रूप से सिस्त्य थे और कभी - कभी ववशभन्द्न स्त्थानों पर गोष्ठी या जो भी ककसी ने शलखा था आपस में बैठकर सुन लेिे थे । प्रो. आिे ि जी का इसमें बहुि बड़ा योगिान था । आपको सादहत्य , धमष, संगीि और भार्ा का काफी ज्ञान और अनुभव था । वह स्त्वयं एक इंदस े ना ु ंचत
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सुप्रशसद्ध कवव थे । वह हर समय कुछ न कुछ शलखिे रहिे थे । कुछ और लोग , जैसे डा.
यािव जी, भारिें ि ु श्रीवास्त्िव , भगवि िरण िैल िमाष , िीप्िी कुमार और कुछ अन्द्य लोग जैसे डा. िव ु ेिी
ष्जन्द्हें दहन्द्िी भार्ा से बहुि लगाव था । गोल्फ़ वव. वव. में प्रो. थे । उनके पास अनेकों लोग आिे – जािे रहिे थे और कभी -कभी वह भी भी हमारे साथ बैठ जािे थे । उनके छोटे भाई श्रीनाथ िव ु ेिी
दहन्द्िी के अच्छे
ववद्वान ् थे ; ककन्द्िु वे केल्ग्री में रहिे थे,
आजकल वे सारे , बी.सी. में हैं । मैं उन्द्हीं दिनों एक शिक्षा बोडष की सेवा से ररटायर हुआ था और मेरे पास काफी सा समय था । मैंने सोचा कक क्यों न इस कायष को एक रचनात्मक प्रोजेक्ट का रूप िँ ू । मेरे मष्स्त्िष्क में दहन्द्िी की एक पबरका या एक दहन्द्िी का सूचना पर तनकाला जाए ,ष्जसमें दहन्द्िी की बािें हों और कुछ रचनाएँ भी प्रकाशिि हों । दहन्द्िी का एक
मंच बने, ष्जसके आधार पर सभी लोग एकजुट होकर काम करें । यह केवल तन:स्त्वाथष सेवा थी । ष्जसको कुछ लोगों ने स्त्वीकार ककया और कुछ लोगों ने इसका घोर ववरोध ककया ।
मुझे इसका कोई अनुभव न था; लेककन चाह थी और जहाँ चाह है वहाँ राह है ।
उन्द्हीं दिनों सारे कववयों ने प्रो. आिे ि के यहाँ एक कवव गोष्ठी में शमलना था । मैंने आिे ि जी से इस बाि पर उबकी सलाह ली कक क्यों न इसी दिन मैं इस पबरका का पहला अंक हस्त्ि शलखखि तनका
। उस समय पर जो रचनाएँ मेरे पास थीं , कुछ लोगों से अपनी रचनाएँ
शलखने को तनवेिन ककया और इस प्रकार इन्द्हें एकर ककया । मझ ु े कम्प्यूटर आदि का कोई ज्ञान नहीं था । इसशलए अपने हाथों से इनकी नकल की । इससे पहले मैं ववश्व दहन्द्ि ू पररर्ि का अध्यक्ष रह चक ु ा था और वहाँ भी मैंने एक सच ू ना पर ‘दहन्द्ि ू चेिना’ के नाम से प्रारम्भ ककया था । वह हर माह तनकलिा था । उसमें मैं और मेरी पत्नी ही सारा
काम करिे थे ,
ककन्द्िु संस्त्था के सिस्त्यों की
चच बहुि कम होने के कारण मैंने इसे बंि कर दिया । अब मैंने इस पबरका नाम ‘दहन्द्िी चेिना’ रख शलया । यह संस्त्था दहंिी प्रचाररणी सभा के नाम से जानी जाने लगी । इस प्रकार मैंने दहन्द्िी चेिना का पहला अंक सभी को आश्चयष के रूप में भें ट ककया । कववजन अत्यंि प्रसन्द्न हुए और आिे ि जी ने इसकी ह्रिय से प्रिंसा की और मुझे इस कायष के शलए बधाई िी ।
अब पबरका िो तनकल गई; ककन्द्िु हमारे साथ इसके कायषकाररणी िाशलका का प्रश्न था ।
हर व्यष्क्ि इसका सम्पािक और अपना नाम इसमें चाहिा था ;लेककन इसकी ष्ज़म्मेिारी लेने के शलए िैयार न था । न ही एक पैसा खचष करने को । बहुि से लोग मेरे ववरोधी बन गए और हमारी इस पबरका का बदहष्कार करने लगे । अब चँ कू क, यह सारा मेरा ववचार था और
मुझे ही इस कायष को करना था ,िो बहुि से लोगों ने मेरे साथ काम करने के शलए मना कर दिया । कुछ लोग िो इसके इिने ववरोध में आ गए कक वे इसे बंि कराने की धमकी िे ने लगे । ये लोग एकर होकर आिे ि जी के पास गए कक वे इस पबरका को नहीं चलने िें गे ।
आिे ि जी को इससे बहुि िःु ख हुआ और उन्द्हों ने अंि में सबसे कह दिया कक यह पबरका िो चलेगी, इसे कोई रोक नहीं सकिा । इसके बाि अब मेरे मागष में नई– नई समस्त्याएँ आने लगीं । ककन्द्िु मेरा दृढ संकल्प और इन लोगों की चन ु ौिी ! इसी िाकि के बल पर मैंने कायष इंदस े ना ु ंचत
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को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । इनमें से कुछ लोग जो मेरे इस प्रयास से प्रसन्द्न थे, वे मेरे साथ चल पड़े ।
उस समय इस पबरका का रूप बहुि ही छोटा था, जैसे कक ‘नवनीि’ – या ‘सररिा’ की िरह । सारी पबरका हस्त्िशलखखि होिी थी और इसे मैं िीन महीनें िक इसे परू ा करके इसकी
फोटो कापी करवा कर शलफ़ाफ़े में डालकर सिस्त्यों के पास डाक से भेज िेिा था । उस समय इसकी केवल 50 प्रतियाँ छपिी थीं । इिनी रदु टयाँ हो जािीं कक मझ ु े अंक तनकाने से पहले
ही क्षमा याचना करनी पडिी थी । इसकी सिस्त्यिा बढ़ने लगी । वावर्षक िल् ु क केवल 10 डालर था । कोई भी आजीवन सि
नहीं था । इस प्रकार िो वर्ों िक यह शसलशसला इस
प्रकार चला । इसके बाि भगवान ने मुझे श्री रत्नाकर नराले जी से अचानक भें ट करवा िी ।
नराले जी मराठी, दहन्द्िी और संस्त्कृि भार्ा को कम्प्यूटर पर शलख सकिे थे । स्त्वयं इंजीतनयर होने के नािे आपने इन भार्ाओं के फॉण्ट बनाये थे । ष्जन्द्हें वह अच्छी
िरह
समझिे थे और उनका प्रयोग भी करना जानिे थे । उन्द्होंने मुझे इसका ज्ञान दिया और दहन्द्िी का एक सरस्त्विी फॉण्ट भें ट ककया । मुझे कम्प्यूटर से डर लगिा था |
मेरे िोनों बेटे
जो प्राइमरी स्त्कूल में ही थे, वे इसका प्रयोग अच्छी िरह कर सकिे थे । मैंने नराले जी से तनवेिन ककया कक वे कम्प्यूटर खरीिनें में मेरी सहायिा करें और इस फाँट को मेरे कम्प्यूटर
में लोड कर िें । उन्द्होंने मेरी ववनय सुन ली और मुझे एक कम्प्यूटर दिलवाया और साथ ही अपने फॉण्ट लगा दिए । मुझे प्रयोग भी समझा दिया और इसकी कुछ बािें मुझे नोट भी
कर िीं। मैंने अभ्यास िुरू ककया ,परे िानी आई लेककन मैं बढ़िा गया और आज मैं पूणष रूप से आत्म तनभषर हूँ । बस ! अब क्या था जीवन में चमत्कार हो गया । अब सारी पबरका मैं
कम्प्यूटर पर करने लगा । और धीरे – धीरे ष्जन लोगों ने इस कायष की मुझे प्रेरणा िी थी, उन्द्हें इसके संपािक मंडल में स्त्थान दिया । इसका कलेवर बिल गया । नराले जी के बड़े भाई एक चचरकार हैं और पेिे से एक आकीटे क्ट हैं , इनका टोरं टो के तनमाण किाषओं में उनका एक नाम है । आप चचर बनािे रहिे हैं । उन्द्हों कुछ पुस्त्िकें भी इस कला पर शलखी
हैं जो कुछ शिक्षा बोडों में प्रयोग की जािी हैं । आप एक मराठी पबरका ‘एकिा’ का मुख पष्ृ ठ लगभग 22 वर्ों से बना रहे हैं । आपने सहर्ष इस पबरका के मुख पष्ृ ठ की ष्ज़म्मेिारी ले
ली । इसके बाि चेिना का मुख पष्ृ ठ वह ही बनािे हैं । इससे चेिना के रं ग रूप में एक
नया तनखार आया । इस पररविषन से दहन्द्िी प्रेमी और भी उत्सादहि हो गए और अनेकों लोगों ने इसकी सिस्त्यिा ले ली । अब यह पबरका टोरं टो के अतिररक्ि अन्द्य िहरों में पहुँचने लगी । कुछ िस ू रे प्रान्द्िों को पिा लगा , वे भी इसके सिस्त्य बनने के शलए उत्सक ु हुए । इस प्रकार हमारा मनोबल बढिा गया । आिे ि जी का सह ग और समथषन सिा ही शमलिा रहा । चाहे वे यहाँ पर हों या न हों । उनकी पत्नी श्रीमिी तनमषला आिे ि अभी िक इस पबरका के मंडल में हैं । ककन्द्िु जैसे कक पररविषन प्रकृति का तनयम है । मझ ु े मेरे परामिष मंडल ने सलाह िी इसका रष्जस्त्रे िन होना चादहए ; क्योककं यह कायष इस प्रकार बबना सरकारी स्त्वीकृति से आप इंदस े ना ु ंचत
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ककसी से कोई अब समय आ गया जब मुझे अन्द्य संस्त्थाओं के सिस्त्यों ने सलाह िी कक दहन्द्िी प्रचाररणी सभा को नॉन प्रॉकफट संस्त्था के शलए रष्जस्त्टर कराना चादहए । इससे संस्त्था
को सरकारी मान्द्यिा प्राप्ि होगी, इसे चैररटे बल श्रेणी शमल जाएगी ।अचधक लोग इसे अनुिान
िें गे और यह कायष ब्लूम्वगष । दहन्द्िी प्रचाररणी सभा एक सम्मातनि संस्त्था मानी जाएगी ।
हमने ब्लूम वगष नामक वकीलों की कम्पनी से सम्पकष ककया ,जो यहाँ की संस्त्थाओं को नॉन
प्राकफट बनवाने में एक कुिल अटानी हें । उनकी फ़ीस लगभग 4000 डालर थी । पररवार ने यह कायष ब्लूम्वगष को सौंप दिया और उन्द्होंने सरलिा पूवक ष 3-4 मांह में यह संस्त्था नान प्राकफट बनवा िी । 2009 अगस्त्ि से दहन्द्िी प्रचाररणी सभा एक नान प्रॉकफट व चैररटे बल
संस्त्था है । इसके तनयम बहुि कड़े हैं , हमें इसका पूरा दहसाब रखना पड़िा है और वर्ष के अंि में इसका टै क्स फामष भर कर सरकार को भेजना होिा है । यह कायष मेरा अकाउण्टे ण्ट करिा है , जो कक इस कायष के शलए प्रशिक्षक्षि है । वही संस्त्था के आय-व्यय का दहसाब रखिा है
। हमें जो भी िान शमलिा है हमें उसकी टै क्स की रसीि िे नी पड़िी है ।
इस संस्त्था के पिाचधकारी हैं : श्याम बरपाठी , अध्यक्ष, डा. हरीि चन्द्र िमाष – कोर्ाध्यक्ष, राज महे श्वरी सादहष्त्यक कायषक्रम , सि ु े ि कमरा सेक्रेटरी , महे ि पटे ल एकाउनटें ट सारे लोग शमलकर एक टीम की िरह संस्त्था की भलाई के शलए तन:िल् ु क इसकी सहायिा
करिे है । तन:संिेह दहन्द्िी चेिना के प्रकािन से दहन्द्िी प्रचाररणी सभा को ववश्व ख्याति शमली है । अब संस्त्था पबरका के प्रकािन के अतिररक्ि अनेकों अन्द्य कायष करिी है । जैसे कक
स्त्थानीय पुस्त्िकालयों में दहन्द्िी के बुक क्लब खोलना , बबशभन्द्न शिक्षा केन्द्रों के साथ शमलकर दहन्द्िी की कक्षाएँ स्त्थावपि करना, अस्त्पिालों और अन्द्य संस्त्थाओं के साथ सादहत्यक व
सांस्त्कृतिक कायषक्रम आयोष्जि करना, अन्द्िराषष्रीय स्त्िर पर हास्त्य कवव सम्मेलन आयोजन
करना, दहन्द्िी के लेखकों को प्रोत्सादहि करना, ववश्वववद्यालयों में उनके पाठ्यक्रम में सहयोग िे ना । मष्न्द्िरों व धाशमषक क्षेरों में दहन्द्िी का काक्रषम प्रारम्भ करवाना, छुट्दटयों में बच्चों के शलए कैम्प आदि लगवाना, दहन्द्िी के शिक्षकों की िलाि करना, िथा सरकारी सूचनाओं को
दहन्द्िी भार्ा में अ दिि करना , राजनैतिक क्षेरों में राष्रभार्ा के प्रति सामान व्यवहार करना, िथा स्त्कूलों में दहंिी भार्ा की शिक्षा को अन्द्य भार्ाओं की िरह स्त्थान दिलवाना आदि अनेकों दहिी के प्रचार और प्रसार में लगी
है । िुल्क नहीं ले सकिे । आपको इसका पूरा दहसाब
ककिाब रखना चादहए, इसशलए मैंने दहन्द्िी चेिना को एक बबजनेस कम्पनी की िरह रष्जस्त्टर
करवा शलया और मैं इस पर टै क्स िे िा था और पबरका के बिले सिस्त्यों से सिस्त्यिा िुल्क ले लेिा था । इसका खचष बढ़ने लगा और आय कम । कुछ लोगों मुझसे कहा कक कुछ
ववज्ञापन लगाओ और इसकी सहायिा से िुमें कुछ भार कम हो जाएगा । मेरा अनेकों लोगों इंदस े ना ु ंचत
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से अच्छा सम्बन्द्ध रहा और स्त्वयं उनके पास गया और उनसे ववज्ञापन मँगाना िुरू
ककया । भा्यवि कुछ लोगों ने इस कायष में मेरी सहायिा की और इस प्रकार मेरा कुछ भार
हल्का हो गया । लेककन ववज्ञापन पर भी पूरी िरह भरोसा नहीं ककया जा सकिा; क्योंकक माशलक कभी भी अपना दिमाग बिल सकिा है । लेककन पररश्रम और धैयष से मुझे इस कायष में बहुि सफलिा प्राप्ि हुई ।
जब चेिना प्रगति करने लगी और यह अच्छे – अच्छे लोगों ने इसे अपनाया । यहाँ िक कक भारि के िि ू ावासों व सरकारी पुस्त्िकालयों
में
मबरका स्त्थान पाने लगी । यहाँ के धाशमषक
स्त्थलों, सामाष्जक संस्त्थाओं ने इसकी सिस्त्यिा ली । ओंटेररयो के अतिररक्ि अन्द्य प्रान्द्िों में यहाँ के ववश्वववद्यालयों व पुस्त्िकालयों ने इसकी सिस्त्यिा ली । िरू ििषन ए टी एन िक इसका संिेि पहुँच गया । हमारे कायषक्रमों की प्रिंसा होने लगी । दहन्द्िी चेिना कैनेडा के बाहर िे िों में भी चचचषि चचाष होने लगी िो और धीरे अंिराषष्रीय पबरका बन गयी । इस पबरका में समय– समय पर अनेकों दहन्द्िी प्रेशमयों ने इसकी सहायिा की और इसके
प्रकािन में सुधार लाने का प्रयास ककया । सादहत्य–कुञ्ज के सम्पािक और संस्त्थापक श्री
सुमन घई जी एक अछे कायषकिाष हैं । उन्द्हें प्रकािन और ग्राकफक का समुचचि ज्ञान है , कुछ वर्ों िक आप भी मेरी सहायिा करिे रहे और हमें मागष ििषन दिया । इसके बाि ककसी
कारणवि वे मेरा साथ छोड़कर चले गए । मैं ककसी प्रकार से चेिना चलािा रहा और जैसे – िैसे इसे करिा रहा । सारा काम मैं ही करिा था । मेरे पररवार, वविेर्कर मेरे छोटे बेटे वविाल ने मुझे इसमें बहुि सहायिा की । उन्द्हीं दिनों मेरा पररचय भारि के कवव गजेन्द्र सोलंकी जी ने अमेररका की लेखखका डा. सुधा ओम ढींगरा से हुआ। सोलंकी जी ने उन्द्हें इस पबरका के ववर्य में बिाया । उन दिनों वे सुधा जीके तनवास स्त्थान पर कुछ अन्द्य कववयों के साथ वव. दहन्द्िी सशमति द्वारा
आयोष्जि हास्त्य कवव सम्मेलन में भाग लेने आये थे | एक दिन अचानक गजेन्द्र जी का फोन आया कक आपसे सुधा िीिी कुछ बाि करना चाहिी है और मैंने सहर्ष बाि की | उन्द्होंने बिाया कक वे स्त्वयं एक दहन्द्िी की पबरका तनकालने का मन बना रही हैं , क्यों न हम िोनों शमल जुलकर इस पबरका को चलाएँ । मैंने अपने उत्तर में कहा कक मुझे कुछ सोचने का
समय चादहए | कफर एक एक दिन िब ु ारा उनका फोन आया और मैंने उनके साथ काम करने की हामी भर िी | 18 वर्ों
तन:संिेह इस पबरका का
सारा उत्तरिातयत्व केवल मेरे ऊपर था | वपछले
से तनकल रही थी | इस पर जो भी खचष आिा था ,उसका भार मेरे ऊपर ही था |
कुछ मेरे प्रयास से मेरे पररचचि लोग भी इस आचथषक सहायिा िे िे थे | कुछ लोग इसके
सिस्त्य थे ककन्द्िु अचधकिर लोग अमेररका की पबरका ववश्वा के भक्ि थे और उसमें अपनी रचनाएं छपवाने के शलए काफी पैसे िे िे थे | क्योंकक ववश्वा के सम्पािक ने उन्द्हें ७-८ पष्ृ ठ िे दिए थे और उन्द्हें अपना सम्पािकीय मंडल बनाने की भी अनम ु ति थी | कुछ लोगों ने उन्द्हें इंदस े ना ु ंचत
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सलाह िी कक आप लोग कैनेडा से तनकलने वाली पबरका को क्यों नहीं अपनािे ? लेककन वे इस सम्बन्द्ध से काफी संिुष्ट थे |
अब सुधा जी इस पबरका के साथ जुड़ गयीं और उन्द्हें सम्पािक की उपाचध िी गयी | उनके
कुछ
अन्द्य सहयोगी भी साथ आ गये और हम शमलकर काम करने लगे | हमने साि वर्ष
िक यह साथ तनभाया |
ककन्द्िु एक समय ऐसा आया जब मुझे लगा कक 'दहन्द्िी चेिना '
अपने उद्िे श्यों के ववपरीि जा रही है िो मैंने चेिना के दहि में यही अच्छा समझा कक मैं इसे अकेले ही स्त्विंर रूप से चलाऊँ | अब यह पबरका पूणष रूप से स्त्विंर है |
हम
स्त्विंर
रूप से कुछ तनस्त्वाथष सिस्त्यों के साथ दहन्द्िी चेिना को एक उच्च स्त्िरीय सादहष्त्यक पबरका का रूप िे नें में लगे हुए हैं | लगभग१९१५- १९१६ साल से
यह पबरका अपनी नई राह पर प्रगति से चल रही है |
हम तनयशमि रूप से बबना ककसी िनाव के पबरका के ३ अंक प्रकाशिि कर चके हैं | भारि
के जाने -पहचाने कथाकार डा. सुभार् नीरव के उिार सहयोग से "पांच िे िों की पंजाबी कथाएँ"
वविेर्ांक ववश्व के कोने - कोने में चचाष का ववर्य बना हुआ है | िीघ्र ही अक्टूबर 2016 में एक नया वविेर्ांक "बाल सादहत्य " पर प्रकाशिि होने जा रहा है ष्जसके अतिचथ सम्पािक और एक अनुकरणीय सादहत्यकार श्री पंकज चिव ु ेिी जी हैं | हमारा प्रयास है कक दहन्द्िी चेिना का हर अंक एक वविेर् अंक हो और उसमें अच्छे सादहत्य की सग ु ंध हो | सभी नये - परु ाने सादहत्यकारों के साथ समान व्यवहार हो | कोई पक्षपाि न हो | हमारा प्रयास है
कक हम यह पबरका लोकवप्रय हो और प्रवासी दहंिी सादहत्यकारों के सादहत्य को ववश्व के सादहत्य के साथ जोड़े | आज दहन्द्िी चेिना में साथ ववश्व के अनेकों अन्द्िराषष्रीय ख्याति प्राप्य कहानीकार , कवव इसके पष्ृ ठों की िोभा बढा
लेखक और
है । हमारा एक नया नया सम्पािक मंडल
और परामिष सशमति है , ष्जनके सहयोग और मागष ििषन से हम प्रगति की ओर अग्रसर हैं ।
इंदस े ना ु ंचत
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चन्द्रकान्त ततिािी
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eglwl djrs gS] tks cgrh unh ds ikuh dks ^axaxk ty dgrs gSa og eksgEen bdcky lkgc dh ;s iafDr dSls Hkwy ldrs gSa&
fganh gSa ge oru gSa fgaUnksLrka
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
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क़ै स जौनपुरी की कमवर्ायें
साईहकल वाली लड़की क़ै स िौनपरु ी ये लड़की िो िाथ में साईहकल पकड़े मेरी आँखों के सामने खड़ी िै ये लड़की िो इतनी ख़बू सरू त िै हक ख़दु ा भी पछताया िोिा इसे ज़मीं पे भेिके हक रख हलया िोता इसे िन्नतल ु -हफ़रदौस में िी ये लड़की हिसकी आँखों में हज़न्दिी की ताज़ा झलक िै ये लड़की हिसकी न िाने क्यँू झक ु ती निीं पलक िै ये लड़की िो एकिक मझु े देखे िा रिी िै ये लड़की िो पता निीं क्यँू मस्ु कुरा रिी िै मैं सोचता िँ हिम्मत करूँ और कि दँू लेहकन क्या? हकस अल्फ़ाज़ से अपनी बात शरू ु करूँ क्या इसे ख़बू सरू त किँ निीं ख़बू सरू त किना ठीक न िोिा ये तो ख़बू सरू त से किीं बढ़के िै क्या िै? मझु े निीं पता लेहकन कुछ िै हिससे नज़र ििाने का मन निीं करता लेहकन ऐसे कब तक देखता रििँ ा? कुछ तो किना िोिा कुछ तो सनु ना िोिा हक उसके मन में क्या िै अपने मन का तो मझु े पता िै क्या पता उसके मन में कुछ और िो लेहकन क्या पता उसका मन ख़ाली िो इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
खल ु े आसमान की तरि और विाँ ििि िी ििि िो मेरे हलए ििाँ मैं िरी घास पे लेि िाऊँ और ये लड़की मेरे सीने पे अपनी साईहकल चलाते िुए आए और इसकी साईहकल का पहिया मेरी िदतन के पास रुके और हफर मैं पहिये की तीहलयों के बीच से इस नाज़क ु बला को हनिारूँ और पछ ू ूँ िान लेने का इरादा िै क्या? और हफर ये िँस दे एक ऐसी िँसी िो आसमान तक ििँू िाए हिसे फ़ररश्ते भी सनु के िलभनु िाएँ और ख़दु ा से करें हशकायत हक ये ठीक निीं िुआ हिसे िम िन्नत में देख सकते थे वो ज़मीन पे साईहकल चला रिी िै हकसी और का हदल बिला रिी िै मैं अपनी हक़स्मत पे इतराता िँ मैं सोचता िँ काश ऐसा िो िाए ये साईहकल वाली लड़की अपने फे सबक ु प्रोफाइल हपक्चर से बािर आए और मझु से किे इतना िी मन िो रिा िै तो फ़्रेण्ड ररक्वेस्ि क्यँू निीं भेि देते?
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सपना मांगमिक की कमवर्ायें
सपना मािं हलक 1 कभी ओस िो कभी बन बािल उड़िा कफरे बबन पंख ही पागल
आ रही है अड़चन
महल बनाये कैसे - कैसे
क्योंकक उसका होिे हुए भी
चगरें जो पल में पत्ते जैसे
नहीं हो पा रहा है उसका
िहकाये कभी िक की ज्वाला
कच्ची माटी सा बचपन।
कभी वपलािा प्रेम की हाला कभी बंधन ,कभी लगे ये चन्द्िन मन ये मेरा ,पागल सा मन। 2 समेट रहा है हर कोई िे रहा है िड़ािड़ हाथों की थाप उसके नाजक ु बिन पर कोई कुल्लड़ बनाना चाहिा है िो कोई गमला या सरु ाही कोई खखलौने वाला शसपाही मगर उसे िो भािा है ररमखझम बि ूं ों संग बहना खुली हवा में सांस लेना और उसी के संग उड़ना उड़िे उड़िे लपकना कुछ बीज उन्द्हीं से सीखना जीने की िमीज मगर उसे बनाया जा रहा है
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
एक बनावटी सामान जो बबकेगा एक दिन ककसी ऊंची सी िक ु ान दिलाएगा पैसा ,रुिवा,सम्मान वो सहम रहा है ,टूट रहा है उसके नैसचगषक ववकास में 3 परु ु र् जाि की जरु ष ि कहिे अपववर कुिरि ितन की शिला हो या मष्स्त्जि की जाली परु ु र्त्व को मान्द्यिा स्त्रीत्व को िे िे गाली ? सोचो जो रज से होिी न हव्वा आिम भला कैसे िम ु बन पािे अब्बा?
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भूिा मनष्ु य
(नवारुण भट्टाचायष की बंगला कवविा का अनव ु ाि अनुिाद -मीता दास)
[नवारुण भट्टाचायष बां्ला के सप्र ु शसद्ध कववयों में चगने जािे हैं। जनपक्षधरिा नवारुण िा की
कवविाओं के मूल में है । सत्ता और व्यवस्त्था की क्रुरिा के खखलाफ उनकी कवविाएं हमेिा प्रतिरोध का स्त्वर बनकर उभरी। िोर्ण मुक्ि समाज के शलए क्रांति के सपने उनकी आँखों में सिै व मौजूि रहे । सामाष्जक-राजनीतिक ववसंगतियों को उनकी कवविाएं उजागर करिी रही। हाल ही में दहन्द्िी में
अनुदिि उनकी कवविाओं का संग्रह ज्योतिपवष प्रकािन से प्रकाशिि हुआ है । कवविाओं का अनुवाि ककया है दहन्द्िी और बां्ला की जानी-मानी कवतयरी एवं अनव ु ािक मीिा िास ने। सादहत्यकार पंकज चिव ु ेिी अनव ु ाि के ववर्य में कहिे हैं -
"अनुवाि एक नयी ितु नया में रचना का पुनजषन्द्म है । " मीिा िास जी के बेहिरीन अनुवाि के कारण इस संग्रह की सारी कवविाएं
पढ़ने पर मूल कवविा सा अहसास िे िी है , जैसे इन कवविाओं का पुनजषन्द्म हुआ हो।]
भख ू ा क्षुधाथष मनष्ु य
सब कुछ खा जािा है
मह ुं में डाल लेिा है बाल,ू धूप, पत्थर, मट् ु ठी भर-भर लोहा, मेघ, आग
लीलिा है वष्ृ ष्ट, चाट लेिा है अनावष्ृ ष्ट
बीमारी, लॉरी का पदहया, दिया सलाई, फ़ॉली डॉल
सब खा जािा है
उसे इिनी भख ू है कक
वह खुि भी नहीं जान पािा
भख ू से पेट पीठ एक करिा यह मनष्ु य, इसका एक ही सभ्य गण ु है
वह सख ु ी और स्त्वस्त्थ मनष्ु य को नहीं खािा यद्यवप वे लोग िोनों पहर यह अफवाह फैलािे रहिे हैं
भख ू ा, क्षुधाथष मनष्ु य आखखरकार नरभक्षी है जाने कब वह लील लेगा
िे ि, िे ि के महान लोग, वोट, िलाल
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
खरी-खरी ववप्लव की प्रतिश्रतु ि
फाइव स्त्टार होटल, वीडडयो, रोटरी क्लब जेल, टे शलफोन, कैसेट, टी.वी.
वह सब लील लेगा ककसी भी वक्ि उससे भयभीि न होने पर भी
उसकी भख ू से सब भयभीि हैं मत्ृ यु उसके शलए भोजन छोड़ और कुछ नहीं
इसशलए श्मिान भी उसके नजिीक नहीं आिा वह िःु ख लीलिा है, कष्ट लीलिा है , रोिन लीलिा है
कभी-कभी िो वह भाि रोटी भी खािा है अगर शमल जाए
बहुि ही मार खािा है िब भी वह नहीं मरिा भख ू ा मनष्ु य
हर वक्ि, हर अवस्त्था में ष्जन्द्िा रहिा है ।
122
००००० िब्द बििे िो गए िैं ००००० बहरे हुए िब्ि यहीं रहिे हैं बहरे हुए िब्ि
कोई भी बाि नहीं सन ु पािे
और उन्द्हें भी कोई नहीं सन ु पािा
बहरे हुए िब्िों को कोई ककराये पर घर नहीं िे रहे थे
मह ुं के ऊपर ही िरवाजा भेड़ िे िे थे एक ही संिेह था हर ककसीको ये आवारा हैं लौटें गे या नहीं जड़ मति हैं या लावाररस हैं ये जो िब्ि बहरे हो चुके हैं आखख़रकार मैं बोल ही उठा
आओ , मेरे ह्रिय के कंिराओं में रहो ककराया नहीं लगेगा
शसगरे ट के खचे भी बच जायेंगे | ०००० कविता के विषय में िक़्तव्य ०००० कवविा शलखने पर अगर पैसा न भी शमले कफर भी
००००० कविता के बािे में ००००० डरपोक आिमी के करीब से जो कवविा सरक जािी है
वह कवविा है सबसे डरपोक कवविा ष्जसके पैरों के िले से शमटटी सरक जािी है
और उसे जो कवविा भरोसा नहीं दिला पािी वह कभी भी जमीन नहीं ढूंढ पायेगा ठण्ड से दठठुरिे गठरी बने हिचककि
बढ़ ू े व कुत्तों के सामने
जो कवविा ज्वाला बन नहीं जल पािी उसे जला िे ना ही ठीक है
साफ़ - साफ़ बिा दिया है मैंने कवविा के बारे में
यही है मेरी कवविा |
कवविा के संग पैसों या रुपये का मेल है ही पैसा अचल { खोटा } हो जािा है
कवविा भी अचल { खोटी } हो जािी है , हमेिा ही पैसे दिखने में एक ही िरह के होिे हैं
अनेक कवविायेँ भी अलग से
नहीं पहचाने जािे
पर यह कववयों पर लागू नहीं होिा ,
पैसों की िरह कवविायेँ भी जमा की जा सकिी हैं पर सब संचय में ववश्वास नहीं रखिे
पर एक आखरी या वविेर् बाि यह है की
पांच सौ या हजार के जाली नोट की िरह नामी - चगरामी जाली कवविायेँ भी हैं
पर जहाँ िक मालम ू है की इसमें कोई वविे िी हाथ नहीं है |
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
०००० ककताब ०००० टे बल पर ककिाब ही ककिाब
हर ककसी में ही ढे र सारी बािें
पर मझ ु में ज्ञान ही हैं और न ही बोध
िभी मैं और भी अन्द्य कई बािें सोच रहा हूँ हँस भी रहा हूँ और चचड़चचड़ भी कर रहा हूँ कक ककिाबों में पड़े कीड़े और उसके बाि वे मेरे भीिर प्रवेि करें ।
123
तुम्िािी दी िुई जाग़ीि ( 'धचंतलनाि से धचंतलनाि तक' से )
* लक्ष्मीनारयण पयोचध
न ष्जज्ञासा, न असमंजस,
आिंका और संिेह से परे िुम्हारा मन। प्रश्न नहीं, हाथों में िे खा हमेिा हल,
धरिी के पष्ृ ठ पर शलखिे आने वाला कल, या कक
फ़सल।
पास अक्षर नहीं, फ़क़ि भुजाओं में श्रम
और आँखों में खखले हुए स्त्वप्न । अपमातनि अिीि और पसीने की गंध से महमहािा एक अिि आत्मववश्वास । िुमने ख़रीिी कलमऔर थमा िी मेरे हाथ,
उसकी नोक से झरिा रहा संकल्प का उजाला। िुम्हारी िी हुई जाग़ीर से रचा मैंने िब्िों का साम्राज्य। िम् ु हारे शलखे फ़सलों के गीि बसाकर अपने कंठ में
उिारिा रहा मैं काग़ज़ पर पष्ृ ठ-िर-पष्ृ ठ आने वाली पीदढ़यों के शलए । ओ वपिा ! िे खो िो... िुम्हारे सौंपे हुए उजाले के ववस्त्िार का अनुगमन कर रहा सूयष ।
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
124
कविता िोता जो समय कृष्णा िमाा
होिा जो समय रे ज़गारी सा डालिी रहिी गुल्लक में बचे छुट्टे पैसों की िरह
दिला लािी उसकी मन पसंि
अपनी खशु ियों के शलए
खखला लािी कुल्फी चाट-पकौड़ी
अपनों को शमलने की
लडडया कर अम्मा से
कर लेिी ख़चष
शमटा लेिी िर् ृ ा
चडू ड़याँ ररब्बन लहँ गा-चोली
झुला लािी घुमतनया झूले पे
शभगो आिी पलकें
कफर िोहरा आिी अपना बचपन
िल ु ार की फुहारों से
भर लािी माँ के चौके की
िस अधरू े काम
जी आिी सख ु के कुछ क्षण
घर की साफ-सफाई में
पि ु वा आिी खशु ियाँ
सँवार आिी माँ-बाप के बँटा िे िी अम्मा का हाथ सँजो िे िी अनचाहा सामान
सग ु ंध नथन ू ों में
माँ की स्त्नेह छाया में मन की िीवारों पर
बिल आिी
खखल उठिा
माँ की उिासी खशु ियों में
मेरी वीरातनयों में भी
हल्का कर आिी
मोहक वसंि
उसकी छािी को सालिा िख ु
बचा पािी जो थोड़ा सा समय
जुड़ा िे िी वपिा की ऐनक की टूटी कमानी
गंठवा लािी उनकी जूतियों के िले
कुछ और समय चलने को शसमटवा आिी उनके अधरू े दहसाब-ककिाब बटोर लािी उनके
हौसले और अनुभवों की अनमोल पँज ू ी
ले जािी छोटी बहन को बाज़ार घूमाने
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
सरपट भागिी ष्जन्द्िगी से।
125
“जुआिी एक बना” अतनल पुिोहित
भेज दिया इस बाजार में । िेरे ही खेल, िेरे ही तनयम, िेरे ही पररणाम, िेरे ही बाज़ार। मैं बस मिमस्त्ि। सारे माहौल में - बबखेर दिया निीला धआ । ुँ
कहीं खेल हो रहा कहीं नाच, गाने िो कहीं िमािे। कहीं कहकहे , िो कहीं अट्टहास। कोई गुमसुम , िो कोई धि ु । सब पर िेरी िीखी नज़र। निा सा छा रहा, जहाँ में सारे ना कोई सोच, ना कोई उम्मीि। लि एक लगा िी बस हारने की। मैं हारिा जािा,
~~सविता अग्रिाल "सवि", कैनेडा ~~ गीत मेिे भािों के घि िैं तेिी िी पूजा के स्िि िैं
मंत्र अनेकों इनमें समहित दृगों से अध्या दे ते तनझाि पीडा की अनुभूतत इनमें
तछपा तयाि इनमें अनश्िि िन की ककसी तुला पि तुलते ये मेिी अनमोल ििोिि
गीत मेिे भीगे औि ति िैं गीत मेिे भािों के घि िैं िब्दों को शिल्पी से गढ़ते भाि हिया के स्ितः िी पढ़ते इनमें ििदानों के िि िैं इनमें िंदन औि अचान िैं गीत मेिे तनमाल दपाण िैं गीत मेिे वििं सता मन िैं रिश्तों के ये बंिन िैं
इनमें िास औि रुदन िै इनमे प्रभु का सशु मिन िै
िू खेले जािा।
जीिन जीने का भी पन िै
अजीब सा रचा-
सुिभी का अदभुत उदगम िै
खेला िन ू े।
कहाँ से सीखा, कहाँ से लाया खेल इिने। कहीं िू भी िो कभी ना कहीं
रहा- एक जुआरी िो नहीं।
इंदस े ना ु ंचत
“गीत-भाि”
वििेष प्रततभा वििेषांक
गीतों में ना कोई भ्रम िै गीत मेिे भािों के घि िैं
तेिी िी पूजा के स्िि िैं ॥
126
क्यों छोडा दे ि
राज महे श्वरी (कनाडा)
कहने को कह सकिा हूं अपने को समझा सकिा हूं सुखमय जीवन के शलए
अपना िे ि छोड़ आया हूं मुझसे पूंछिे हैं लोग जब मैं घूमने जािा हूं क्यों अपना िे ि छोड़ा
क्यों न वापस आ जािा हूं जो कारण हैं इसके बिाना बड़ा कदठन है बस इिना भर मालम ू है कक समय के प्रारम्भ से गतिमान मनष्ु य है । यदि मनुष्य कहीं न जािा नए स्त्थान कहीं न बसिे मानव की प्रगति के इतिहास ररक्ि ही पड़े रहिे िे ि को छोड़ने की पीड़ा हृिय में सिै व रहिी है ककन्द्िु नया घर बसाने में खि ु ी भी िो होिी है ।
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
नए स्त्थान पर आिमी प्रेरणा से भरा होिा है नव सज ृ न करने में
जी-जान लगा िे िा है
और मानव की कहानी को नयी दििा में आगे बढ़ािा है कोई रोक सकिा नहीं प्रकृति का िकाज़ा है
हवा के साथ तिनका सा मनुष्य उड़ा जािा है । क्यों छोड़ा िे ि मझ ु े कुछ पिा नहीं
केवल इिना जानिा हूं आिमी कभी रुका नहीं।
127
बबन शलखा इतिहास
िैल िमाष
जो ककिाबों में शलखा न,
वह
और ककसी से भी सूना न,
सफों में हो गयीं यूं बंि,
अनकहा इतिहास भी है ,
बन सके न वे िरि , प्रेमचन्द्ि,
बबन शलखा इतिहास भी है |
या महािे वी , तनराला , पन्द्ि ,
वह समय का रूप भी था,
कोइ भी उनको शमला न नाम ,
सत्य था साकार भी था,
ऐसे लेखक हो गये हैं,
पर ककसी ने न शलखा था ,
और बबन जाने ककसी के ,
और न कोइ शलखेगा,
गाँव में , या िहर में ,
अनशलखा इतिहास भी है |
अंधेरों में कहीं वे खो गये हैं,
लोग वे हैं जो समय से जझ ू िे हैं ,
बबन पढ़ा इतिहास भी है |
नाम है उनका भी कोइ,
कोयलों में खींचिे आकार,
समय का वः भी फ्ल,ू
कहानी , लेख कवविाएँ
या िीमक खा गयी ष्जनको,
हर पहे ली बूझिे हैं, पर नं कोई
जानिा है ,
काम ककिने कर गये वो, न कोई
पहचानिा है ,
अनेकों गशलयों –कंू चों में , फुटपाथों पर, झोपड़ों में ,
सडक पर बैठे शमलें गे ,यूं िुम्हें ,सुकराि, आइन्द्स्त्टाइन जैसे,
जो अभावों की वजह से, काम कोइ क्र सके न, और जो ककया जो काम उनने, आप ,हमने न उसे िे खा , न पहचाना, न
ये जाना ,
कौन इनको क्र गया है , हर िहर में बहुि से ककस्त्से शमलें गे , अनकही कुछ बाि भी है , बबन शलखा इतिहास भी है | कुछ समय से भी शभड़े थे, कुछ अभावों से लिे थे ,
उम्र भर उनने शलखा न जाने ककिना ? न कहीं छपा न और बबका न, न कहीं िे खा ककसी ने ,
न शमली िोहरि उन्द्हें कुछ ,
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
शमट्टी में बने वे चचर सन्द् ु िर,
शमल सका न रं ग , ब्रि ,कैनवास उनको, ष्ज़न्द्िगी में िे ख पाए जो केवल अभावों के रं ग, और उम्र के कैनवास पर, खीचा ककए जो गरीबी के चचर भख ू के ब्रि से,
वे अनजाने माइकल एंष्जलो , वपकासो भी हैं | चचर ष्जनके न बबके हैं , न प्रििषन हो सका है , जो समय के पूवष ही बिरं ग जैसे हो गये हैं , बबन खींचे वे चचर भी हैं ,
कुछ अधरू े बबन बने वे चचर भी हैं ,
िुम सुधारोगे कहां िक और उभारोगे कहां िक ? िुम शमटाओगे कहां िक इन अभावों को ? कुछ नहीं होगा , मुझे मालूम , बहस के केवल ववर्य हैं ,
और यही है तनयति इसकी, बबन शलखा इतिहास जो जो है , बबन पढ़ा इतिहास जो है , बबन पढ़ा सादहत्य जो है , यह अधूरा चचर जो है |
128
कैनेडा के आहद तनिासी १९७९
श्याम त्रत्रपाठी –प्रमुि सम्पादक हिन्दी चेतना
है , ष्जनका यह िे ि आज हैं वे, रोटी कपड़े को मौिाज़
सभी प्रवासी हरे - भरे हैं, और हैं, मालामाल,
बाहर वाले मौज उड़ािे,
केवल आदि - वाशसयों का है खस्त्िा
और करिे उन पर राज |
ितु नयांवालो यह िे ि
कहिे इसको , अपना िे ि
िो िािब्िी पहले यरु ू प के लोग यहाँ आये,
जो हैं इसके ,आदि तनवासी
शसगरे ट और िरावें भर –भर के लाये ,
वे पड़े हुए हैं, सडकों पर बेहोि |
इन्द्हें इन चीज़ों का और इनको,इनका
कोई इनको कहे िराबी कोई कहिा , इन्द्हें जुआरी ।
इनके चेहरे मुरझाये और उिास |
हुए हैं, इन पर ककिने अत्याचार इनकी ,माँ बहनों की अस्त्मि लूटी
क्या
हर दिन होिे इन पर
इंदस े ना ु ंचत
अत्याचार |
वििेष प्रततभा वििेषांक
वह दिन आयेगा ?
जब , इनकी हालि में होगा सुधार,
इनके शििुओं का बलात्कार |
अपने ही िे ि में भटक रहे हैं ये लाचार,
बनाया |
आज रोटी ,कपड़े के शलए ये मौिाज,
यदि इनका इतिहास पढो
संस्त्कृति का पररहास,
िास
इनका बना दिया इनका यह भेर्!
लेककन इनका जीवन जैसे हो िमिान |
सभी कर रहे हैं , इनकी सभ्यिा ,भार्ा और
स्त्वाि कराया ,
सब कुछ इनका लूट - खसोटकर
सब के पास है ,रहने को बड़े मकान ,
धमष और इतिहास ,
जहाँ हम रहिे हैं ,
ष्जसे बड़े गवष से हम कैनेडा कहिे हैं |
िे ि - िे ि के लोग बसे हैं ,
इन कफरं गी िै त्यों ने शमटा िी इनकी नसलें
हाल।
–
िायि कोई गांधी या लूथर
ले,
कफर से इस जग में अविार ||
129
िाइकू
डॉ योगेन्द्र नाथ िमाा "अरुण"
"प्यार" िम ु ने छुआ
अमि ृ हो गया मैं प्यार हुआ ये नैन िेरे िे खिे जब मुझे िू पास मेरे
कमल खखला कमाल प्यार का जीवन शमला पास आओ ना पुकारिा है दिल अब जाओ ना िम ु हो मेरे
दिल में रहिे हो ककस के फेरे ?
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
130
गजि
सुनीता काम्बोज होके अब िो वविा चल पड़ी बेदटयाँ मेरे आँगन की थी रौिनी बेदटयाँ गुडड़या गुड्डे खखलौनें
पड़े रह गए
हो गई अब िो िायि बड़ी बेदटयाँ
सूखी मेहंिी गई रं ग को छोड़ कर इस िरह बाटँ िी है ख़ि ु ी बेदटयाँ
पूछिे है वो जन्द्नि शमलेगी कहाँ
ष्जसके आँगन में हों
खेलिी बेदटयाँ
करिी महसूस माँ की कमी को बड़ा
प्यार -सत्कार थोडा सा गर शमल सके
लौटी पीहर से कफर अनमनी बेदटयाँ
और कुछ भी नहीं माँगिी बेदटयाँ
ये सहनिष्क्ि का ही एक भण्डार हैं
घर की िीवार को गौर से िे खिी
जानें
ककस चीज की बनी बेदटयाँ
दिन ढले अब वो घर से तनकलिी नहीं रहिी हैं
आजकल क्यों डरी बेदटयाँ
कुल को िीपक शमले सब यही चाहिे कोख में इसशलए ही मरी बेदटयाँ
जाने ककस बाग के फूल टूटे हैं
ये
िे ख ककसने खरीिी बबकी बेदटयाँ
अधढका -सा है िन वो चथरकिी रही आज महकफ़ल में क्यों नाचिी बेदटयाँ
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
बीिा बचपन रही खोजिी बेदटयाँ ििष में माँ वपिा जी अगर हो कभी रहिी बैचन े सी हर घड़ी बेदटयाँ भाव
मन के सन ु ीिा उिारा करे
अब िो जािी नही इस गली बेदटयाँ
131
----2 --सभी इल्जाम मुझ पर हैं ,रकीबों पर नहीं आिे सफ़ीने रोज चलिे हैं ,ककनारों पर नहीं आिे ।
मेरी उनको जरूरि है नहीं अब मेरे अपनों के चेहरे बोलिे हैं
परे िां दिख रहें है क्यों ,ये सारे फूल बागों के
ये भँवरें आजकल ही क्यों गल ु ाबों पर नहीं आिे । नए इस िौर में कुछ िो गया है छूट ही पीछे
पुराने गीि अब उनके भी होठों पर नहीं आिे। सभी िो उड़ गए जब से पहर ये िीसरा आया पररंिे भी िो अब सूखे से पेड़ों पर नहीं आिे । मझ ु े गम ु राह करके िम ु कभी रस्त्िा न पाओगे
महकिे फूल ये हरचगज भी काँटों पर नहीं आिे --3---समंिर और ककनारें बोलिे हैं सुनो नदियाँ व झरने बोलिे हैं वो अच्छा सामने कहिे हैं मुझको बुरा बस पीठ पीछे हैं बोलिे हैं ख़िा िूने भले अपनी न मानी िेरे कपड़े के छीटें बोलिे हैं
जो सख ू ें हैं वो ज्यािा फड़फड़ािे हवा चलिी िो पत्ते बोलिे हैं
िम् ु हारी ही दहफाज़ि कर रहे हम यही फूलों से काँटें बोलिे हैं
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
न उसकी बाि को हल्की
शलया कर
िजुअबो से सयाने बोलिे हैं नई िहजीब ये ली सीख ककससे बड़ों के बीच बच्चें बोलिे हैं कभी इस घर में चड़ ू ी थी खनकिी कक अब टूटे झरोखे बोलिे हैं
िरक्की को बयाँ ये कर दिया ही जो इन सड़कों के गड्ढे बोलिे हैं
132
गीत आओ कोयल गीत सुनाओ~
सन ु ीता जैन अम्बर ने बाँहें फैलाईं, मेघ चलें तनि चाल नवेली। वर्ाष करिी िाक् चधना चधन, सूरज की है बंि हथेली।
सावन ककिना बरसोगे िम ु , आँखें भी हैं पानी-पानी।
दिया सलाई सील गई हैं, बािी ने जलना है ठानी। सूरज िुमसे ही है जीवन, ऊर्ा की ललछोंई लाओ।
कलरव सुनने को हम िरसे, कोयल आकर गीि सुनाओ। मरुथल में अंकुर फूटे हैं ,
पत्थर से झरने हैं बहिे । बेलों पे िरुणाई झम ू े,
झींगरु भी सरु में हैं गािे।
पराग भरीं सम ु न की पाँखें, धप ू गन ु गन ु ी से बतियािीं। बािल की संधों से ककरणें ,
धरिी पर आिरु हो आिीं।
बबछी मखमली िब ू धरा पर, सूरज आँख शमचौली खेले। खेिों की बाढ़ों पर िे खो,
दटटहरी के लग गए मेले।
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
133
संस्मिण
पिले मझ ु े गोली माि ! प्रस्तुतत-जय प्रकाि मानस उन दिनों मंि ु ी प्रेमचंि गोरखपरु में शिक्षक थे। उन्द्होंने गाय पाल रखी थी। एक दिन चरिे-
चरिे उनकी गाय वहाँ के अंग्रेज़ ष्जलाधीि के आवास के बाहरवाले उद्यान में घस ु गई ।
अभी वह गाय वहाँ जाकर खड़ी ही हुई थी कक वह अँगरे ज़ बंिक ू लेकर बाहर आ गया और उसने आग बबूला होकर बंिक ू में गोली भर ली। उसी समय अपनी गाय को खोजिे हुए प्रेमचंि वहाँ पहुँच गए। अँगरे ज ने घुड़किे हुए कहा - ‘'यह गाय अब िुम यहाँ से ले नहीं जा सकिे। िुम्हारी इिनी दहम्मि कक िुमने अपने जानवर को मेरे उद्यान में घस ु ा दिया । मैं इसे अभी गोली मार िे िा हूँ, िभी िुम काले लोगों को यह बाि समझ में आएगी कक हम यहाँ हुकूमि कर रहे हैं।" उसने भरी बंिक ू गाय की ओर िान िी। प्रेमचंि ने नरमी से उसे समझाने की कोशिि की, ‘'महोिय! इस बार गाय पर मेहरबानी करें । यह िो अबोध पिु है । ग़लिी से यहाँ आ गई हुजरू ।’ कफर भी अंग्रेज़ झल्लाकर यही कहिा रहा, ‘'िुम काला आिमी ईडडयट हो – हम गाय को गोली मारे गा।'’ अँगरे ज गुस्त्से में िमिमािे हुए बंिक ू से गाय को तनिान बनाना चाहा। प्रेमचंि झट से गाय और अंग्रेज़ ष्जलाधीि के बीच में आ खड़े हुए और ग़स्त् ु से से बोले - ‘'िो कफर चला गोली । िे खूँ िुझमें ककिनी दहम्मि है । ले। पहले मुझे गोली मार।’'
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
134
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
135
लघु कथा
ग्रामीण चीन का एक अनभ ु ि
आिीष गोिे कल साप्िादहक अवकाि का दिन था | अचानक िंघाई के नजिीक चोंगशमंग द्वीप के ग्रामीण इलाके में जाने का कायषक्रम बना | पहले एक झील िे खी,िंघाई महानगर की िौड़ भाग और प्रिर् ु ण से िरू एक अच्छी लेककन सामान्द्य सी जगह, कुछ समय बबिाने के शलए पयाषप्ि | ड्राइवर से कहा चलो वापस चलिे हैं , पर एक नए प्रस्त्िाव के साथ उसका
जवाब आया | उसने कहा, "मैं एक चीनी ककसान के घर जाना चाहूंगा, आपने चीन के महानगरो को िे खा है चीन के ग्रामीण पररसर को भी िे खखये | यह ग्रामीण इलाका खेिी बाड़ी के शलए मिहूर है | वहां ले जाने के शलए ड्राइवर के िकष बढ़िे जा रहे थे | प्रस्त्िावअनुरोध का स्त्वरुप लेने लगा था | मैंने कुछ सोचा, घडी िे खी, कफर सोचा और आखखरकार हामी भर िी| ड्राइवर अपने प्रस्त्िाव की सफलिा पर खि ु था, कार की बढ़ी हुई गति इसका सबूि थी | मैंने पूछा ककस ककसान के घर जायेंगे | उसका जवाब था, "एक ड्राइवर साथी है , इसी ग्रामीण क्षेर का, उसके
वपिा
और
भाई
ककसान
हैं | उन्द्ही
के
घर
चल
रहे
हैं |”
स्त्माटष फ़ोन पर We Chat (चीन में लोकवप्रय Whatsapp का समकक्ष) पर और बािों के साथ यह योजना भी बन गयी थी | घर पर सभी उपष्स्त्थि रहें , समय िय हो गया| मेरे बारे में अचग्रम जानकारी िी गयी, भारि से हूँ, चीन में क्या करिा हूँ आदि- आदि| मझ ु से पछ ू ा जाने लगा क्या खाएंगे-वपएंगे| मेरी अपने तनणषय पर िवु वधा बढ़ चक ु ी थी| कहावि याि आ रही थी " मान न मान मैं िेरा मेहमान !! खैर, कार का रुख बिलने का समय जा चक ु ा था और
अब मेरी सोच चीनी ककसान के घर पर केंदरि हो गयी थी | बाि चीन की हो और मेरे जैसा एक भारिीय िल ु नात्मक ववश्लेर्ण की िैयारी में न जट ु ा हो ये िो नामम ु ककन है |. ककन प्रश्नो
और ककन वविेर् पहलओ ु ं पर ध्यान दिया जाये इसी किमकि के बीच कार ग़ांव मे प्रवेि कर गयी |
रास्त्िे कम चौड़े पर अच्छी हालि में थे, प्रकाि व्यवस्त्था पयाषप्ि थी, लोग घरों के आँगन में बैठे थे, कुल शमलाकर ष्स्त्थति संिोर्जनक लग रही थी | िायिड्राइवर मेरे हावभाव पढ़ रहा था
उसने जो कहा वह मेरे कुिूहल पर हावी था, ये ष्स्त्थति पहले नहीं थी | मैंने पूछा पहले मिलब कब ? उत्तर था िस से पन्द्िह साल | ित्कालीन चीनी िासकों के उसने नाम चगनाये, मेरे सामने भारि में चन ु ावों के समय रटी रटाई "समावेिी ववकास" की बाि सामने आई पर इसमें
काल्पतनकिा नहीं, कुछ वास्त्िववकिा की िस्त्वीर थी | गांव एकिम अति आधतु नक नहीं था पर अपने आप में संपूणष था | इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
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कार अब चीनी ककसान के घर पर थी, सामूदहक पररवार था िो भाइयों और उनके वपिा के
अलग अलग िो मंष्जला मकान थे पर एक िस ू रे से जुड़े हुए| चीनी ककसान के साि वर्ीय पोिे ने एक बोडष पर शलखा था अंग्रेजी में "वेलकम", मेरे शलए | मैंने उसे प्यार दिया | िबिक ककसान का सारा पररवार, पत्नी, लड़का,बहु और पोिा मेरे स्त्वागि में खड़े थे | पोिे ने अंग्रेजी में शलखा इस बाि की प्रिंसा करने का मेरे शलए एक सुअवसर था | इस पररवार से जुड़ कर मेरा ड्राइवर अब "अनुवािक" के नए ककरिार में था |
चीनी ककसान और उसकी पत्नी की आयु िे खकर अनायास ही मेरे हाथ नमस्त्िे की मर ु ा में
आये ष्जसे िे खकर ककसान ने चीनी भार्ा में कहा "भारि" और"बद् ु ध" | काफी िे र िक हमारी बािें गौिम बुद्ध के बोधगया पर दटकी रही |मैं उनके घर जाने वाला पहला भारिीय ही नहीं
पहला वविे िी नागररक भी था, शलहाज़ा साथ में फोटो लेने का अनुरोध हुआ | मैं भी यही चाहिा ही था |उन्द्होंने अपने खेि में उगाये गए पीच फल मुझे दिए गए जो वास्त्िव में बहुि ही मीठे थे | चीन में प्रचशलि हरी चाय साथ में थी | ककसान ने अपनी खेिी का भी अच्छा वणषन ककया, चावल, फल और फूलों की बहार थी उसके पास.
भारि के बारे में काफी बािें हुयी | भारि की आईटी क्षेर में िक्षिा उन्द्हें पूरी िरह से याि थी | भारिीय ज्यािािर िाकाहारी क्यों हैं, बॉलीवुड के कफल्म में डांस, जैसी बािें | बािचीि और पररवेि में उपष्स्त्थि आत्मीयिा अब भार्ा का ज्ञान न होिे हुए भी संवाि हीनिा की ष्स्त्थति को िरू रखने में सफल थी| अब जाने का समय हो चला था| यह अनुभव हम सबके शलए अच्छा था शलहाज़ा कफर जरूर शमलेंगे यह कहना स्त्वाभाववक ही था | कार का रुख अब
िंघाई की ओर था, रास्त्िे में 9.६ ककलो मीटर लम्बा पुल था | यह पुल निी और समुर के
ऊपर बना हुआ, ष्जसके चलिे ही समद् ृ चध और खशु िहाली उस चीनी ककसान के खेि िक पहुंचीं थी| चीनी ककसान पररवार का भारि को सम्मान से िे खना मुझे हिप्रभ कर गया | १९६२ का युद्ध, लगािार चालू सीमा वववाि,असली- नकली के फेर में गुणवत्ता पर प्रश्नचचन्द्ह लगे कारोबार, सरकारों की अनबन और अववश्वास की उिासीन पष्ृ ठभूशम से परे भारि और
चीन
को
िे खने
का
यह
अवसर
मेरे
शलए
अनूठा
था|
मुझे िो उपहार शमले, पहला यह यािगार अनुभव और िस ू रा चीनी ककसान ने अपने खेि में उगाये िो लहसुन .....
इंदस े ना ु ंचत
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लघु कथा
बॉय मााँ……..
वप्रयंका पाण्डेय
सुबह 6.30 बजे अलामष बजा। तनिा ऊंघिे हुए ककचन में गई। चाय का पानी गैस पर चढाया और सष्ब्जयाँ काटने लगी। हफ्िे के पाँच दिनों की उसकी ऐसे ही िुरूआि होिी है । आज इस नए िहर में आए उसे आठ महीने हो गए।
चाय बन गई। उसने कुसी बॉलकनी में रखी और चाय पीने लगी। चाय खत्म कर कफर ककचन में गई। साि बज गए थें। वह आज कुछ अलसाई थी। खाना बनाने का मन न
होिे हुए भी आलू काटने लगी। भष्जया चढा कर अचानक उसका ध्यान ककचन की खखडकी के बाहर गया। आठ बजने को थें……..अभी िक आवाज नहीं आई।
वह कफर अपने काम में म्न हो गई। काम करिे-करिे ऑकफस जाने का समय हो गया। िैयार हो कर वह ऑकफस चल िी।
सुबह हुई….रोज की िरह तनिा का वही कायषक्रम रहा। आठ बजने को थें और उसका ध्यान कफर खखडकी के बाहर…..। आज िीन दिनों बाि आवाज आई……बॉय माँ। माँ का जवाब नहीं आया, लडके ने िब ु ारा कहा…..बॉय माँ। माँ का जवाब आया….बॉय। गैस पर सब्जी चढी
थी तनिा कुछ िे र के शलए खो गई। घर से तनकलिे हुए तनिा ने कहा –आिी हूँ माँ। माँ ने नही सुना। उसने कफर कहा, अन्द्िर से माँ िौडिी आई, बोली…..आओ बेटा। बॉय……तनिा चली गई। आठ महीनों से लगािार वह उस छोटे लडके का ठीक बॉय माँ….कहना सुनिी है ।
स्त्कूल जािे हुए उस छोटे लडके में वह खुि को खोजिी है । रोज उसका बॉय माँ कहना तनिा को माँ और घर िोनों की याि दिलािा है ओर इस भागिे िहर में वह अपने बॉय माँ का जवाब पाने के शलए उसका मन पागलो की िरह बेचन ै रहिा है ।
सुबह के आठ बजे हैं। तनिा का ध्यान कफर ककचन की खखडकी के बाहर है …………..
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
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हरलसांगार सुनीता जैन
“िलक कि घ ल डाला यूाँ नशा बिसात र्ें छकसने .....” ने हा ग़ज़ल गुनगुनाती हुई घि के छपिवाड़े खुले अहाते र्ें हिछसंगाि के पेड़ से गुलर् हि के पेड़ के बीच बाँिी िस्सी पि कपड़े फैला िही थी।एक ि ि से दू सिे ि ि क िूती हुई ने हा ज् ं ही पलटने क हुई,अचानक हिछसंगाि की ि टी सफेद पााँ खुरियााँ ज केसरिया डं डी पि खखलीं थीं, नख से छशख तक ने हा क बिस कि नहला गईं। फूल झिते िहे , ने हा की आाँ खें र्ुाँ दती चलीं गईं।
...... छकतने हाँ सीन थे व पल, जब िाज उसे ि ज़ छभग ता था इस तिह! उसका पेड़ तले खड़े ह ना,िाज का झटके से डाल झटकना, फूल ं का बिसना औऱ उसका भीगना....सब कुि ने हा क बंद आाँ ख ं से नज़ि आ िहा था। भीगते रिश् ं क संज िही थी ने हा आज छफ़ि.............भीगते-भीगते कब छदन भागते िहे उसे पता ही नहीं लगा! एक छदन छपता ने तल्ख़ आवाज़ र्ें कहा तुर् छर्ल ल ,एक लड़का है बाकीी़ र्ााँ बता दे गी! ने हा के पैि ं तले ज़र्ीन खखसक गई। संतुलन बनाती ज् -ं त् ं अपने कर्िे तक पहाँ ची। स चती िही कहीं छपताजी क र्ालुर् त नहीं ह गया!!
सुबह से ने हा िाज की प्रतीक्षा र्ें थी, िाज नहीं आया। ऐसा कभी नहीं हुआ छक िाज छबना बताए न आए। िाज ने हा का सीछनयि था कॉले ज र्ें। ने हा क वनस्पछत छवज्ञान पढ़ाने आता था,बहुत सहृदय था औऱ छपता के परिचय से ही उसे घि र्ें प्रवेश छर्ला था। आज िाज के न आने से ने हा बहुत अनर्नी थी, तभी सहे ली िाज का संदेशा लाई,कहीं बाहि छर्लने का। पहली बाि ने हा िाज से अन्यि छर्ल िही थी। िाज ने द न ं हाथ ने हा के हाथ र्ें ले कि सर्झाना शु रु छकया__दे ख ने हा तुर् र्ध्यर्वगीय परिवाि से ह ,ऐसा र्े िी र्ााँ का र्ानना है .... औऱ....झटके से ने हा ने हाथ िु ड़ा छलऐ औऱ तर्तर्ाकि पूिा तुम्हािा क्ा र्ानना है !!!!
.... हकलाते हुए नीची नज़ि से िाज ने कहा, र्ैं अपनी र्ााँ की छख़लाफ़त नहीं कि सकता....!!! हााँ !! ये तय है कभी शादी करुाँगा त छसफ़ा तुर्से!! अलछवदा!! कहकि िाज छबना र्ु ड़े चला गया ,ने हा उसकी जाती पीठ दे खती िही दे ि तलक!! बहुत थकान र्हसूस कि िही थी पि आश्चया र्न शााँ त था।
कब छदन बीतते गए पता नहीं लगा.... र्ााँ ,छपता के लाख अनु ि ि पि ने हा भी छववाह क िाजी नहीं थी...। एक-एक कि द न ं ने संसाि से छवदा ले ली! बस िहा त ये खु ला अहाता औऱ इसर्ें लगा हिछसंगाि!! ने हा स्वप्न से बाहि आई, गहिी सााँ स ि ड़-कि ज् ं ही र्ु ड़ी... सार्ने िाज क खड़ा दे ख,ठगी िह गई!! तुर् कब आए!!! हतप्रभ थी ने हा। िाज के आछलं ग्गन र्ें दे ि तक सुबकती िही ने हा,ज् ं लवालब भिा पानी बााँ ि त ड़कि बह जाना चाहता ह ।
हााँ ने हा हााँ !!र्ैं तुम्हें ले ने आया हाँ । तुम्हािी तपस्या पूिी हुई र्ााँ ने र्ु झे ले ने भे जा है , क्ा तुर् र्ु झे स्वीकाि कि गी!! तुर् र्ु झे र्ाफ किद ,र्ैं डिप क छनकला या शायद संस्कारिक! द न ं हथे छलय ं र्ें ने हा का चेहिा छलए िाज अाँजुरि र्ें आाँ सू भि िहा था। र्ैं ने तुम्हें त्ागा ही कब था िाज, ज अब अपनाउं । पि र्ैं भी संस्काि ं क जीती हाँ ,तुर्ने बहुत दे ि कि दी.... र्ााँ ,छपता द न ं ही त चले गए। छबना अपिाि की सजा भु गतने क सहषा तैयाि-िाज औऱ ने हा छबिड़ने से पहले एक ह जाना चाहते थे !!!आज वे द न ं छर्लकि ि ना चाहते थे !!!
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
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भगवान की कसीदाकारी
मािा वमाा जब र्ैं ि टा था अर्क्ि अपनी र्ााँ क हम्बायडिी (कसीदाकािी) किते पाता। र्ााँ के घु टने के पास बैठा हुआ दे खता। लकड़ी के एक बड़े ग लाकाि फ्रेर् के ऊपि भी के हाथ सूई िाग ं से खेलते िहते। नीचे से दे खते हुए र्ै ाँ र्ााँ से पूिता-"तुर् क्ा कि िही ह । " र्ााँ कहती… "बेटा, र्ैं कपड़े पि इं ब्रायाडिी कि िहीं हाँ ।" र्ैं कहता- "र्ााँ , नीचे से यह यान ं का जाल नज़ि आता है , कुि भी स्पि नहीं छदखता ये िागे आपस र्ें उलझे छकतने बेिौनक भद्दे लग िहे है ।ाँ जाने कौन सी छडजाइन तुर् गढ़ िही ह ! र्ु झे त कुि भी सर्झ र्ें नहीं आता। " र्े िी बात सुनकि र्ााँ र्ु स्कान, नीचे र्े िी औि दे खा औि कह उठ … "दे ना, अभी तुर् बाहि खे लने जाओ, जब र्ै ाँ अपनी छडजाइन पूिी कि लूाँगी तब तुम्हें अपनी ग द र्ें छबठाकि उपि से इस फ्रेर् र्ें कैद छडजाइन क छदखाऊंगी। "र्ै ाँ आश्चया र्ें था- आखखि भी इन काले िाग ं क अन्य सुन्दि चर्कीले िाग ं के साथ छर्लाकि क् ं उलझा िही हैं ? इन उलझे िाग ं से वे क्ा बनाना चाहती थी, ये सभी िागे आपस र्ें उलझे छकतने बेतितीब लगते हैं ! र्ैं बाहि खेलने चला गया। किीब आिे घंटे के बाद उनकी आवाज़ सुनाई द … "बेटा… आओ, र्े िे घुटन ं पि बैठ जाओ । "र्ैं दौड़ता हुआ आया औि र्ााँ की ग द र्ें बैठ गया। उन् न ं े फ्रेर् वाली छडजाइन र्े िे सार्ने कि दी। अिे !! र्ैं आश्चया व छवस्मय से भि उठा। यह क्ा? इतनी सुन्दि कसीदाकािी! फूल व सूयाा स्त एक कपड़े के टु कड़े पि? र्ु झे अब भी छवश्वास नहीं ह िहा था। ज चीज़ नीचे से इतनी खिाब व उलझी छदख िही थी च ऊपि से इतनी खू बसूित जै से हौं सकती है ! र्ु झे हक्का –बक्का दे ख र्ााँ कह उठी… ""बेटा, ज चीज तुम्हें नीचे से इतनी उलझी औि अजीब लग िही थी तुर् स च भी नहीं सकते छक फ्रेर् के ऊपि छडजाइन पहले से आं का हुआ था बाकी पूवा छनय छजत था । र्ैं ने त छसफा उन िे खाओं र्ें िागे भि छदए। जब तुर्ने ऊपि से दे खा तब कहीं पता चला र्ैं इतनै छदन ं से क्ा कि िही थी। " वषों बीत गए इस बात क । र्ैं उपि आकाश र्ें दे खता हाँ । सृछिकताा से प्रश्न किता हाँ … "हे ईश्विा आप क्ा कि िहे ह ?" व जवाब दे ता है - "र्ै ाँ तुम्हािे जीवन र्ें छडजाइन व िं ग भि िहा हाँ ।" र्ैं ने प्रश्व छकया… "ले छकन यह नीचे से उलझा छदख िहा है । अभी िागे अंिेिे र्ें डूबे हैं । वे चर्कते क् ं नहीं?" ईश्वि ने जवाब छदया… "र्े िे बच्चे, तुर्ने अभी अपनी कही, अपना छबजने स संभाल औि र्ु झे अपना कार् किने द ।एक छदन आयेगा जब र्ैं तुम्हें उपि अपनी दु छनया र्ें बुलाऊाँगा औि तुम्हें अपने कदर् ं पि छबठाकि नीचे छदखाऊाँगा। र्े िी प्लाछनं ग, र्े िा छडजाइन, ज र्ैं ऊपि बैठा हुआ तुम्हािी दु छनया र्ें गढ़ता िहता हाँ - एक छवशालकाय फ्रेर् र्ें जड़ा खू बसूित छडजाइन है छजसर्ें तुर् सब जीव जगत छवचिते ह ।
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
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लघुकथाएाँ
िोभा िस्तोगी
पन ु : भगत शसंि
“सुनो ! िुम मुझे िुम्हारे ववयोग के गहरे अहसास में अधषचि े न-सा छोड़ गए थे। अपना
जीवन स्त्वाहा करने
की मंिा शलए मैंने जाना कक
नवांकुर फूट गया है । िब से अब िक
पल-पल, क्षण क्षण िुम्हे नैनों में बबठा िुम्हारे फूल को सींचा। आज िुम्हारा बेटा वक्ष ृ बन गया है । उसे समझाओ न, िुम्हारी राह पर न चले। उसे भी िुम्हारी िरह फौजी बनने
का
चाव है । उसी पथ का पचथक बन उड़ जाना चाहिा है मुझसे िरू ।
डरिी हूँ… कहीं वह भी िुम्हारी िरह…न-न… नहीं, मैं उसे कोई फौजी- वौजी नहीं बनने िँ ग ू ी। पहले मेरा पति और अब मेरा ही लाल ?… और भी माँओं के बेटे हैं िहािि के शलए…।” माँ-माँ पुकारिा नमन उसके नजिीक आया िो वह झट आँचल से आँसू पौंछने लगी। “ओह माँ ! कफर ये नमकीन पानी ?…मेरा िश्ु मन…।” “िझ ु े क्या ? अपनी माँ से अचधक मािभ ृ शू म फ़ौज में जाने नहीं िे रही।”
जो प्यारी है िझ ु ।े एक बाि सन ु ले… मैं िझ ु े
“माँ ! भगि शसंह की माँ भी बबलकुल िम् ु हारी िरह थी। भोली। मासम ू । उसने भी िायि यही कहा होगा। आप ऐसा क्यों सोचिी हो कक
मैं भी पापा की िरह…।”
“बस्त्स चप ु ।” ऊँगली धर िी माँ ने बेटे के लबों
पर।
“माँ ! सभी माँएँ यही कहें गी िो भारि माँ ककसे पुकारे गी ? उसके िार-िार होिे मान को िे ख सकोगी आप ?” बेटे की आँखों में भगि शसंह खड़ा था ष्जसकी एक ककरण ने माँ की ममिा पर लटके जाले साफ़ कर दिए। रौिन हो गयी हृिय गली। माँ ने न्द्यौछावर कर दिया एक बार कफर अपने भगि शसंह को।
मट् ु ठी भि िप ू कमरा बुहारिी सतिया चप ु थी आज। आँखें नम थीं। लपालप बोलने वाली के होठों पर टे प ?
दििा से न रहा गया – “क्या है री ? आज मौन व्रि ? वो भी िेरा ? िेरी बोलिी चप्ु पी ?”
“ कछु न दिदिया।”
“न-न… है कुछ ?” पूछिे ही िरबिरा गया चेहरा । िोनों टं की खल ु गईं। “ कफर मारा इंदस े ना ु ंचत
िेरे मरि ने ?”
वििेष प्रततभा वििेषांक
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“हाँ, दिदिया… िारू वास्त्िे हम पइसा नाई िे रहे । बच्चन के टूसन
काजे जोड़े रहे । िो बोल
बोल दिए, बस्त्स…।”
“बोलिी ही क्यूँ है िू ? औरि ककिना ही करे … बोल नहीं सकिी। मुझे ही िे ख। के आगे होंठ सी के रहिी हूँ। क्या करे … घर जो चलाना
िेरे साहब
है ।”
“का घर औरि का ही होय करे ? मिष न का कोई लेन- िे न
नहीं ? झाड़ू-पौंछा, रसोई-बिषन, बाज़ार-हाट, बच्चा-बुजुग,ष िीज-त्यौहार, रस्त्म-नेग…ई सब महरारू के पल्ले? मरि मस्त्ि… िोपर भी चौधरी ?” एक ही रौ में बोले जा रही थी सतिया।
“धरिी धरिी ही रहिी है। असमान नहीं बन सकिी।” दििा का घुटा ििष िड़पा।
“कौन हम आसमान के चाँि िारे चाहे रही… मुट्ठी भर धप ू और हवा भी नही…।”
“ झाड़ू से बबस्त्िर िक बना सकिा है मिष औरि को।” “ई सब के इलावा थोड़ी धप ू की सेंक और बयार की ठं डक भी बनना चाहे है औरि… मैं ई
हवा और िाप बन के ही रहूँगी।” िोनों की अधमुंिी तनस्त्िेज आँखें एक ही प्रश्न और प्रत्युत्तर में एक क्षीण आस की ककरण िे ख रही थीं। ककरण… जो तनकलेगी… अवश्य तनकलेगी।
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
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लघुकथा
डॉ० पदमजा िमाा फका रामियाल
पेड-पौधों
की,सार-सम्भाल
अपने बच्चों की
िरह करिा
है ।
शलली
को
पानी वपलािे हुए कहिा है 'सुगनी, प्यासी मि रह जाना। ' जूही को खप ु ी िे िे हुए कहिा है 'मेरी मोहनी खब ू खखल रही है '।
रािरानी को खाि िे िे हुए बबरहा गािा है । गुलाब के पास से गुजरिा है और गुलाब पकड ले िो समझ जािा है कक उसे बािें करनी हैं। और वह बािें करिा है । रं गों की,खि ु बुओं की। कशलयों की,काँटों की। फूलों की,चाँि िारों की। बािलों की, हवाओं की।
हम सब उसकी ये बािें सुनकर हं सिे थे कक रामियाल भोला है ।
एक बार की बाि है । रामियाल गमी की छुट्दटयों में महीने भर के शलए गांव चला गया। बगीचे की िे ख-भाल की ष्जम्मेिारी मझ ु े िे गया। मैं बबना नागा
पेड-पौधों को पानी िे रही
थी। सब ु ह नहीं िे पािी िो िाम को िे िी । िाम को नहीं िे पािी िो सब ु ह िे िी। पर िे िी जरूर कक जेठ महीने की गमी प्राण लेवा होिी है । दिन
बीििे जा रहे
थे।
पर,जाने क्यों पौधे जलिे जा
रहे
थे।
पानी कम
हो
िो
सख ू जाएँ,ज्यािा हो िो गल जाएँ। क्या क रूँ, क्या न करूँ कुछ समझ में न आए।
महीने भर बाि रामियाल लौट आया। उसने बगीचा िे खा। बगीचे में बगीचा नहीं था। न हररयाली न कोई रं ग बचा ने लम्बी सांस ली और
था। और न फूल-पत्ते थे। काँटों जैसे कांटे भी नहीं थे। रामियाल
ित्काल पेड-पौधों की सार - संभाल में लग गया,यह कहिे हुए कक 'हमारे बबना इनका जी नहीं लगा। हम भी िो छटपटा रहे थे '। वह ककसी पौधे को सहलािा। ककसी को छूिा। ककसी से बतियािा िो ककसी के कान में गुनगुनािा। उन्द्हें खखलािे-वपलािेसंवारिे हुए उसने राि-दिन एक कर दिए। िसेक दिन बाि ही क्या िे खिे हैं कक पौधों में जान आ गई
है । वे नौ महीने के बच्चे की
िरह,सहारे के साथ उठना-चलना सीख रहे हैं। मैं प्रकृति की इस अिा पर चककि ही नहीं मोदहि भी थी।
पहली बार जाना कक तनजीव हो या सजीव ककसी अपने के होने या न होने का फकष सब पर पड़िा है । इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
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एक छोटा सा मज़ाक अन्तोन चेख़फ़
मूल रूसी से अनुिाद — अतनल जनविजय सरदियों की ख़ब ू सरू ि िोपहर... सरिी बहुि िेज़ है । नाद्या ने मेरी बाँह पकड़ रखी है । उसके घुँघराले बालों में बफ़ष इस िरह जम गई है कक वे चाँिनी की िरह झलकने लगे हैं। होंठों के ऊपर भी बफ़ष की एक लकीर-सी दिखाई िे ने लगी है । हम एक पहाड़ी पर खड़े हुए हैं। हमारे पैरों के नीचे मैिान पर एक ढलान पसरी हुई है ष्जसमें सूरज की रोिनी ऐसे चमक रही है
जैसे उसकी परछाई िीिे में पड़ रही हो। हमारे पैरों के पास ही एक स्त्लेज पड़ी हुई है ष्जसकी गद्िी पर लाल कपड़ा लगा हुआ है । —चलो नाद्या, एक बार कफसलें ! — मैंने नाद्या से कहा— शसफ़ष एक बार ! घबराओ नहीं, हमें कुछ नहीं होगा, हम ठीक-ठाक नीचे पहुँच जाएँगे । लेककन नाद्या डर रही है। यहाँ से, पहाड़ी के कगार से, नीचे मैिान िक का रास्त्िा उसे बेहि लम्बा लग रहा है । वह भय से पीली पड़ गई है । जब वह ऊपर से नीचे की ओर झाँकिी है और जब मैं उससे स्त्लेज पर बैठने को कहिा हूँ िो जैसे उसका िम तनकल जािा है । मैं
सोचिा हूँ— लेककन िब क्या होगा, जब वह नीचे कफसलने का ख़िरा उठा लेगी! वह िो भय से मर ही जाएगी या पागल ही हो जाएगी । —मेरी बाि मान लो ! — मैंने उससे कहा — नहीं-नहीं, डरो नहीं, िम ु में दहम्मि की कमी है क्या ?
आखख़रकार वह मान जािी है । और मैं उसके चेहरे के भावों को पढ़िा हूँ। ऐसा लगिा है जैसे मौि का ख़िरा मोल लेकर ही उसने मेरी यह बाि मानी है । वह भय से सफ़ेि पड़ चक ु ी है और काँप रही है । मैं उसे स्त्लेज पर बैठाकर, उसके कन्द्धों पर अपना हाथ रखकर उसके पीछे
बैठ जािा हूँ। हम उस अथाह गहराई की ओर कफसलने लगिे हैं। स्त्लेज गोली की िरह बड़ी िेज़ी से नीचे जा रही है । बेहि ठं डी हवा हमारे चेहरों पर चोट कर रही है । हवा ऎसे चचंघाड़ रही है कक लगिा है , मानों कोई िेज़ सीटी बजा रहा हो। हवा जैसे गस्त् ु से से हमारे बिन को चीर रही है , वह हमारे शसर उिार लेना चाहिी है । हवा इिनी िेज़ है कक साँस लेना भी
मष्ु श्कल है । लगिा है , मानों िैिान हमें अपने पंजों में जकड़कर गरजिे हुए नरक की ओर इंदस े ना ु ंचत
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खींच रहा है । आसपास की सारी चीज़ें जैसे एक िेज़ी से भागिी हुई लकीर में बिल गई हैं। ऐसा महसूस होिा है कक आनेवाले पल में ही हम मर जाएँगे । मैं िम ु से प्यार करिा हूँ, नाद्या ! — मैं धीमे से कहिा हूँ । स्त्लेज की गति धीरे -धीरे कम हो जािी है । हवा का गरजना और स्त्लेज का गँज ू ना अब इिना भयानक नहीं लगिा। हमारे िम में िम आिा है और आखख़रकार हम नीचे पहुँच जािे हैं। नाद्या अधमरी-सी हो रही है । वह सफ़ेि पड़ गई है । उसकी साँसें बहुि धीमी-धीमी चल रही हैं... मैं उसकी स्त्लेज से उठने में मिि करिा हूँ ।
अब चाहे जो भी हो जाए मै कभी नहीं कफसलँ ग ू ी, हरचगज़ नहीं! आज िो मैं मरिे-मरिे बची हूँ। — मेरी ओर िे खिे हुए उसने कहा। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में ख़ौफ़ का साया दिखाई िे रहा है । पर थोड़ी ही िे र बाि वह सहज हो गई और मेरी ओर सवाशलया तनगाहों से िे खने
लगी। क्या उसने सचमच ु वे िब्ि सुने थे या उसे ऐसा बस, महसूस हुआ था, शसफ़ष हवा की गरज थी वह? मैं नाद्या के पास ही खड़ा हूँ। मैं शसगरे ट पी रहा हूँ और अपने िस्त्िाने को ध्यान से िे ख रहा हूँ।
नाद्या मेरा हाथ अपने हाथ में ले लेिी है और हम िे र िक पहाड़ी के आसपास घूमिे रहिे हैं। यह पहे ली उसको परे िान कर रही है । वे िब्ि जो उसने पहाड़ी से नीचे कफसलिे हुए सन ु े थे, सच में कहे गए थे या नहीं? यह बाि वास्त्िव में हुई या नहीं। यह सच है या झठ ू ? अब यह सवाल उसके शलए स्त्वाशभमान का सवाल हो गया है . उसकी इज़्ज़ि का सवाल हो गया
है । जैसे उसकी ष्ज़न्द्िगी और उसके जीवन की ख़ि ु ी इस बाि पर तनभषर करिी है । यह बाि उसके शलए महत्त्वपण ू ष है , ितु नया में िायि सवाषचधक महत्त्वपण ू ।ष नाद्या मझ ु े अपनी अधीरिा भरी उिास नज़रों से िाकिी है , मानों मेरे अन्द्िर की बाि भाँपना चाहिी हो। मेरे सवालों का
वह कोई असंगि-सा उत्तर िे िी है । वह इस इन्द्िज़ार में है कक मैं उससे कफर वही बाि िुरू
करूँ। मैं उसके चेहरे को ध्यान से िे खिा हूँ — अरे , उसके प्यारे चेहरे पर ये कैसे भाव हैं ? मैं िे खिा हूँ कक वह अपने आप से लड़ रही है , उसे मुझ से कुछ कहना है , वह कुछ पूछना चाहिी है । लेककन वह अपने ख़यालों को, अपनी भावनाओं को िब्िों के रूप में प्रकट नहीं कर
पािी। वह झेंप रही है , वह डर रही है , उसकी अपनी ही ख़ि ु ी उसे िंग कर रही है ...। — सुतनए! — मुझ से मँह ु चरु ािे हुए वह कहिी है । — क्या बाि है ? — मैं पूछिा हूँ । — चशलए, एक बार कफर कफसलें । हम कफर से पहाड़ी के ऊपर चढ़ जािे हैं। मैं कफर से भय से सफ़ेि पड़ चक ु ी और काँपिी हुई नाद्या को स्त्लेज पर बैठािा हूँ। हम कफर से भयानक गहराई की ओर कफसलिे हैं। कफर से
हवा की गरज़ और स्त्लेज की गँज ू हमारे कानों को फाड़िी है और कफर जब िोर सबसे अचधक था मैं धीमी आवाज़ में कहिा हूँ — मैं िम ु से प्यार करिा हूँ, नाद्या । इंदस े ना ु ंचत
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नीचे पहुँचकर जब स्त्लेज रुक जािी है िो नाद्या एक नज़र पहले ऊपर की िरफ़ ढलान को
िे खिी है ष्जससे हम अभी-अभी नीचे कफसले हैं, कफर िस ू री नज़र मेरे चेहरे पर डालिी है । वह ध्यान से मेरी बेपरवाह और भावहीन आवाज़ को सुनिी है । उसके चेहरे पर है रानी है । न
शसफ़ष चेहरे पर बष्ल्क उसके सारे हाव-भाव से है रानी झलकिी है । वह चककि है और जैसे उसके चेहरे पर यह शलखा है — क्या बाि है ? वे िब्ि ककसने कहे थे? िायि इसी ने? या हो सकिा है मुझे बस, ऐसा लगा हो, बस ऐसे ही वे िब्ि सुनाई दिए हों ? उसकी परे िानी बढ़ जािी है कक वह इस सच्चाई से अनशभज्ञ है । यह अनशभज्ञिा उसकी अधीरिा को बढ़ािी है । मझ ु े उस पर िरस आ रहा है । बेचारी लड़की! वह मेरे प्रश्नों का कोई
उत्तर नहीं िे िी और नाक-भौंह चढ़ा लेिी है । लगिा है , वह रोने ही वाली है । — घर चलें? — मैं पूछिा हूँ। — लेककन मुझ.े .. मुझे िो यहाँ कफसलने में ख़ब ू मज़ा आ रहा है । — वह िमष से लाल होकर कहिी है और कफर मुझ से अनुरोध करिी है — और क्यों न हम एक बार कफर कफसलें ?
हुम... िो उसे यह कफसलना 'अच्छा लगिा है '। पर स्त्लेज पर बैठिे हुए िो वह पहले की िरह ही भय से सफ़ेि दिखाई िे रही है और काँप रही है । उसे साँस लेना भी मष्ु श्कल हो रहा है ।
लेककन मैं अपने होंठों को रुमाल से पोंछकर धीरे से खाँसिा हूँ और जब कफर से नीचे कफसलिे हुए हम आधे रास्त्िे में पहुँच जािे हैं िो मैं एक बार कफर कहिा हूँ — मैं िम ु से प्यार करिा हूँ, नाद्या !
और यह पहे ली पहे ली ही रह जािी है । नाद्या चप ु रहिी है , वह कूछ सोचिी है ... मैं उसे
उसके घर िक छोड़ने जािा हूँ। वह धीमे-धीमे क़िमों से चल रही है और इन्द्िज़ार कर रही है कक िायि मैं उससे कुछ कहूँगा। मैं यह नोट करिा हूँ कक उसका दिल कैसे िड़प रहा है । लेककन वह चप ु रहने की कोशिि कर रही है और अपने मन की बाि को अपने दिल में ही रखे हुए है । िायि वह सोच रही है ।
िस ू रे दिन मुझे उसका एक रुक्का शमलिा है —"आज जब आप पहाड़ी पर कफसलने के शलए जाएँ िो मुझे अपने साथ ले लें । नाद्या।" उस दिन से हम िोनों रोज़ कफसलने के शलए पहाड़ी पर जािे हैं और स्त्लेज पर नीचे कफसलिे हुए हर बार मैं धीमी आवाज़ में वे ही िब्ि कहिा हूँ — मैं िुम से प्यार करिा हूँ, नाद्या ! जल्िी ही नाद्या को इन िब्िों का निा-सा हो जािा है , वैसा ही निा जैसा िराब या माफ़ीन का निा होिा है । वह अब इन िब्िों की ख़म ु ारी में रहने लगी है । हालाँकक उसे पहाड़ी से नीचे कफसलने में पहले की िरह डर लगिा है लेककन अब भय और ख़िरा मौहब्बि से भरे
उन िब्िों में एक नया स्त्वाि पैिा करिे हैं जो पहले की िरह उसके शलए एक पहे ली बने हुए हैं और उसके दिल को िड़पािे हैं। उसका िक हम िो ही लोगों पर है — मझ ु पर और हवा इंदस े ना ु ंचत
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पर। हम िोनों में से कौन उसके सामने अपनी भावना का इज़हार करिा है , उसे पिा नहीं। पर अब उसे इससे कोई फ़कष नहीं पड़िा। िराब चाहे ककसी भी बिषन से क्यों न पी जाए — निा िो वह उिना ही िे िी है । अचानक एक दिन िोपहर के समय मैं अकेला ही उस पहाड़ी पर जा पहुँचा। भीड़ के पीछे से मैंने िे खा कक नाद्या उस ढलान के पास खड़ी है , उसकी आँखें मुझे ही िलाि रही हैं। कफर वह धीरे -धीरे पहाड़ी पर चढ़ने लगिी है ...अकेले कफसलने में
हालाँकक उसे डर लगिा है , बहुि ज़्यािा डर! वह बफ़ष की िरह सफ़ेि पड़ चुकी है , वह काँप रही है , जैसे उसे फ़ाँसी पर चढ़ाया जा रहा हो। पर वह आगे ही आगे बढ़िी जा रही है , बबना खझझके, बबना रुके। िायि आखख़र उसने फ़ैसला कर ही शलया कक वह इस बार अकेली नीचे कफसल कर िे खेगी कक "जब मैं अकेली होऊंगी िो क्या मुझे वे मीठे िब्ि सुनाई िें गे या
नहीं?" मैं िे खिा हूँ कक वह बेहि घबराई हुई भय से मँह ु खोलकर स्त्लेज पर बैठ जािी है । वह अपनी आँखें बंि कर लेिी है और जैसे जीवन से वविा लेकर नीचे की ओर कफसल पड़िी है ... स्त्लेज के कफसलने की गँूज सुनाई पड़ रही है । नाद्या को वे िब्ि सुनाई दिए या नहीं — मुझे नहीं मालूम... मैं बस यह िे खिा हूँ कक वह बेहि थकी हुई और कमज़ोर-सी स्त्लेज से उठिी है । मैं उसके चेहरे पर यह पढ़ सकिा हूँ कक वह ख़ि ु नहीं जानिी कक उसे कुछ सन ु ाई दिया या नहीं। नीचे कफसलिे हुए उसे इिना डर लगा कक उसके शलए कुछ भी सन ु ना या समझना मष्ु श्कल था। कफर कुछ ही समय बाि वसन्द्ि का मौसम आ गया। माचष का महीना है ... सूरज की ककरणें
पहले से अचधक गरम हो गई हैं। हमारी बफ़ष से ढकी वह सफ़ेि पहाड़ी भी काली पड़ गई है , उसकी चमक ख़त्म हो गई है । धीरे -धीरे सारी बफ़ष वपघल जािी है । हमारा कफसलना बंि हो गया है और अब नाद्या उन िब्िों को नहीं सुन पाएगी। उससे वे िब्ि कहने वाला भी अब कोई नहीं है — हवा ख़ामोि हो गई है और मैं यह िहर छोड़कर वपिेरबग ु ष जाने वाला हूँ — हो सकिा है कक मैं हमेिा के शलए वहाँ चला जाऊँगा।
मेरे वपिेरबुगष रवाना होने से िायि िो दिन पहले की बाि है । संध्या समय मैं बगीचे में बैठा
था। ष्जस मकान में नाद्या रहिी है , यह बगीचा उससे जुड़ा हुआ था और एक ऊँची बाड़ ही नाद्या के मकान को उस बगीचे से अलग करिी थी। अभी भी मौसम में काफ़ी ठं ड है , कहींकहीं बफ़ष पड़ी दिखाई िे िी है , हररयाली अभी नहीं है लेककन वसन्द्ि की सुगन्द्ध महसूस होने
लगी है । िाम को पक्षक्षयों की चहचहाट सुनाई िे ने लगी है । मैं बाड़ के पास आ जािा हूँ और एक िरार में से नाद्या के घर की िरफ़ िे खिा हूँ। नाद्या बरामिे में खड़ी है और उिास नज़रों से आसमान की ओर िाक रही है । बसन्द्िी हवा उसके उिास फीके चेहरे को सहला रही
है । यह हवा उसे उस हवा की याि दिलािी है जो िब पहाड़ी पर गरजा करिी थी जब उसने वे िब्ि सुने थे। उसका चेहरा और उिास हो जािा है , गाल पर आँसू ढुलकने लगिे हैं... और बेचारी लड़की अपने हाथ इस िरह से आगे बढ़ािी है मानो वह उस हवा से यह प्राथषना कर
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रही हो कक वह एक बार कफर से उसके शलए वे िब्ि िोहराए। और जब हवा का एक झोंका आिा है िो मैं कफर धीमी आवाज़ में कहिा हूँ — मैं िुम से प्यार करिा हूँ, नाद्या ! अचानक न जाने नाद्या को क्या हुआ! वह चौंककर मस्त् ु कराने लगिी है और हवा की ओर हाथ बढ़ािी है । वह बेहि ख़ि ु है , बेहि सख ु ी, बेहि सन्द् ु िर। और मैं अपना सामान बाँधने के शलए घर लौट आिा हूँ...। यह बहुि पहले की बाि है । अब नाद्या की िािी हो चक ु ी है । उसने ख़ि ु िािी का फ़ैसला ककया या नहीं, इससे कोई फ़कष नहीं पड़िा। उसका पति एक बड़ा अफ़सर है और उनके िीन बच्चे हैं। वह उस समय को आज भी नहीं भूल पाई है , जब हम कफसलने के शलए पहाड़ी पर
जाया करिे थे। हवा के वे िब्ि उसे आज भी याि हैं, यह उसके जीवन की सबसे सुखि, हृियस्त्पिी और ख़ब ू सूरि याि है ।
और अब, जब मैं प्रौढ़ हो चक ु ा हूँ, मैं यह नहीं समझ पािा हूँ कक मैंने उससे वे िब्ि क्यों कहे थे, ककसशलए मैंने उसके साथ ऐसा मज़ाक ककया था!... पररचय : अतनल जनविजय-अनुवािक अतनल जनववजय बरे ली, उत्तरप्रिे ि में जन्द्मे। वपछले 33 साल
से मास्त्को में रह रहे हैं। वह मास्त्को ववश्वववद्यालय के दहंिी ववभाग में एसोशसयेट प्रोफेसर हैं, साथ ही ‘स्त्पूितनक’ रे डडयो में प्रोड्यस ू र हैं और दहंिी डेस्त्क िे खिे हैं। रूसी और अंग्रेजी से सैकड़ों कवविाओं और कई कहातनयों का अनव ु ाि ककया है ।
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एक अनुभि
अतनल जयविजय अन्द्िोन चेख़फ़ (1860-1904) को रूसी सादहत्य में ही नहीं बष्ल्क ववश्व सादहत्य में महानिम कहानीकारों में से एक माना जािा है। उन्द्होंने न केवल कहातनयां शलखीं, बष्ल्क चार कालजयी नाटक भी शलखे, ष्जनमें ‘चेरी का बगीचा’ और ‘िीन बहनें’ नाटकों को अप्रतिम माना जािा है । उनकी कहातनयां ववश्व के समीक्षकों और आलोचकों में बहुि सम्मान के साथ सराही जािी हैं। चेख़फ़ पेिे से चचककत्सक थे। अपनी पढ़ाई का खचष तनकालने के शलए उन्द्होंने कहातनयाँ शलखना िुरू ककया था और बाि में वह लेखक बन गए। वह कहा करिे थे, डॉक्टरी मेरी धमषपत्नी है और सादहत्य प्रेशमका।
िाल ही में मैंने अपने बच्चों की अध्यावपका यूशलया वशसल्येव्ना को अपने िफ्िर में बुलाया। मुझे उनसे उनके वेिन का दहसाब-ककिाब करना था।
मैंने उनसे कहा, ‘आइए...आइए...बैदठए। ज़रा दहसाब कर लें। आपको पैसों की जरूरि होगी। पर आप इिनी संकोची हैं कक जरूरि होने पर भी आप खि ु पैसे नहीं मांगेगी। खैर। हमने िय ककया था कक हर महीने आपको िीस रुबल दिए जाएंगे। ‘चालीस’ ‘नहीं...नहीं... िीस। िीस ही िय हुए थे। मेरे पास शलखा हुआ है। वैसे भी मैं हमेिा अध्यापकों को िीस रुबल ही िे िा हूं। आपको हमारे यहां काम करिे हुए िो महीने हो चक ु े हैं...।’ ‘िो महीने और पांच दिन हुए हैं।’ ‘नहीं, िो महीने से ज्यिा नहीं। बस, िो ही महीने हुए हैं। यह भी मैंने नोट कर रखा है । िो इस िरह मुझे आपको कुल साठ रूबल िे ने हैं। लेककन इन िो महीनों में कुल नौ इिवार पड़े हैं। आप इिवार को िो कोल्या को पढ़ािी नहीं हैं, शसफष थोड़ी िे र उसके साथ घम ू िी हैं, इसके अलावा िीन छुट्दटयां त्योहार की भी पड़ी हैं।’
यूशलया वसील्येव्ना का चेहरा आक्रोि से लाल हो उठा था। लेककन उन्द्होंने कुछ नहीं कहा और अपने इंदस े ना ु ंचत
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घाघरे की सलवटें ठीक करिी रहीं।‘िीन त्योहार की छुट्दटयों को शमलाकर बारह दिन हुए। इसका मिलब आपकी िनख्वाह में से बारह रूबल कम हो गए। चार दिन कोल्या बीमार रहा और आपने उसे नहीं पढ़ाया। िीन दिन िक आपके िांि में ििष रहा। िब भी मेरी पत्नी ने आपको यह इजाजि िे िी थी कक आप उसे िोपहर में न पढ़ाया करें । इसके हुए साि रूबल। िो बारह और साि शमलाकर हुए कुल उन्द्नीस रूबल। अगर साठ रुबल में से उन्द्नीस रूबल तनकाल दिए जाएं िो आपके बचे कुल इकिालीस रूबल। क्यों मेरी बाि ठीक है न?’
यूशलया वशसल्येव्ना की िोनों आंखों के कोरों पर आंसू चमकने लगे थे। उनका चेहरा कांपने लगा था।
घबराहट में उन्द्हें खांसी आ गई और वह रुमाल से अपनी नाक साफ करने लगीं। पर उन्द्होंने कोई आपवत्त नहीं की। ‘नए साल के समारोह में आपने एक कप-प्लेट भी िोड़ दिया था। िो रूबल उनके भी जोडड़ए। प्याला िो बहुि ही महंगा था। बाप-िािा के जमाने का था। लेककन, चशलए, छोड़ िे िा हूं। आखखर नुकसान िो हो ही जािा है । बहुि-कुछ गंवाया है । एक प्याला और सही। आगे आपकी लापरवाही के कारण कोल्या पेड़ पर चढ़ गया था और उसने अपनी जैकेट फाड़ ली थी। िस रूबल उसके। कफर आपकी लापरवाही के कारण ही
नौकरानी वायाष के जूिे लेकर भाग गई। आपको सब चीजों का खयाल रखना चादहए। आखखर आपको इसी काम के शलए रखा गया है । जूिों के भी पांच रूबल लगाइए। िस जनवरी को आपने मुझसे िस रूबल उधार शलए थे।’
‘नहीं, मैंने आपसे कुछ नहीं शलया।’ यशू लया वशसल्येव्ना ने फुसफुसा कर कहा। ‘लेककन मैंने यह नोट कर रखा है ।’ चशलए ठीक है । कुल सत्ताईस रूबल हुए।’ ‘इकिाशलस में से सिाईस घटाइए। बाकी बचे चौिह।’ उनकी िोनों आंखें आंसओ ु ं से भर गई थीं। उनकी संि ु र और लंबी नाक पर पसीने की बंि ू े झलकने लगी थीं। बेचारी लड़की!
‘मैंने शसफष एक ही बार पैसे शलए थे।’ उन्द्होंने कांपिी आवाज में कहा। ‘आपकी पत्नी से मैंने िीन रूबल शलए थे। इसके अलावा कभी कुछ नहीं शलया।’ ‘अच्छा? अरे , यह िो मेरे पास शलखा हुआ ही नहीं है। िो चौिह में से िीन और घटा िीष्जए। बाकी बचे ्यारह। लीष्जए, ये रहे आपके पैसे। िीन...िीन...िीन... एक... और एक... उठा लीष्जए।’
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और मैंने उन्द्हें ्यारह रूबल िे दिए। उन्द्होंने चप ु चाप पैसे ले शलए और कांपिे हुए हाथों से उनको अपनी जेब में रख शलया।
‘धन्द्यवाि। उन्द्होंने फ्रांशससी भार्ा में फुसफुसाकर कहा।’ मैं झटके से उठ खड़ा हुआ और कमरे में चक्कर काटने लगा। मुझे गुस्त्सा आ गया था। ‘ककसशलए धन्द्यवाि?’ मैंने पछ ू ा। ‘पैसों के शलए धन्द्यवाि।’ ‘पर मैंने िो आपको लट ू शलया है । बेड़ा गकष हो मेरा! ककसशलए धन्द्यवाि?’ ‘िस ू री जगहों पर िो मुझे यह भी नहीं दिया जािा था।’ ‘नहीं दिया जािा था? िो इसमें आश्चयष की क्या बाि है ? मैंने िो आपसे मजाक ककया है । मैंने आपको एक क्रूर सबक शसखाया है । मैं आपका एक-एक पैसा िे िं ग ू ा। ये िे खखए, यह शलफाफे में आपकी पूरी
िनख्वाह रखी हुई है। आप गलि बाि का ववरोध क्यों नहीं करिीं। आप चप ु कैसे रह जािी हैं? क्या इस ितु नया में कोई इिना बेचारा और असहाय भी हो सकिा है ? क्या आपकी इच्छािष्क्ि इिनी कमजोर है ? क्या यह संभव है?’
वह उिासी से मस्त् ु कराई और मैंने उसके चेहरे पर पढ़ा, ‘हां, यह संभव है ।’ मैंने अपने क्रूर व्यवहार के शलए उससे माफी मांगी और उसे िो महीने की पूरी िनख्वाह के अस्त्सी रूबल
िे दिए। वह आश्चयषचककि हो उठी और बेहि संकोच के साथ मेरा आभार प्रकट करने लगीं। कफर वह कमरे से बाहर चली गईं और मैं सोचने लगा कक इस ितु नया में िाकिवर बनना बहुि आसान बाि है !
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िता मूल किानी- दी बेट (The Bet)
लेिक- अंतोन पी. चेकि (Anton P Chekhov)
अनुिाद- अपणाा घोष िरि की काली राि थी। वद् ृ ध बैंकर अपने कमरे में चहलकिमी कर रहा था, उसे पंरह
साल परु ानी बािें याि आ रही थीं। िरि की एक िाम उसने पाटदी िी थी। कई चिरु लोग वहाँ मौज़ि ु थे, रोचक ववर्यों पर बािें हो रही थी। अन्द्य कई ववर्यों के अतिररक्ि, उन्द्होंने मत्ृ यि ु ं ड पर भी चचाष की थी। अचधकांि मेहमान, ष्जनमें कई परकार और बद् ु चधजीवी भी थे,
ने मत्ृ युिंड को अनुमोदिि नहीं ककय़ा। उनका मानना था कक ईसाई धमाषवलम्बी िे िों के शलए
इस प्रकार का िं ड पुराना, अनैतिक और अनुपयुक्ि है । उनमें से कुछ के अनुसार सभी जगह मत्ृ युिंड को आजीवन कारावास में पररवतिषि कर िे ना चादहए।
“मैं आपसे सहमि नहीं हूँ”, मेज़बान बैंकर ने कहा। “न िो मैंने मत्ृ यि ु ं ड आज़माया है और न ही आजीवन कारावास, परं िु अनम ु ानि: आजीवन कारावास की अपेक्षा मत्ृ यि ु ं ड अचधक नैतिक और मानवोचचि है । मत्ृ यि ु ं ड ककसी इंसान को एक ही बार मारिा है पर आजीवन कारावास उसे धीरे - धीरे मारिा है । कौन हत्यारा अचधक ियालु है , जो आपको चंि शमनटों में मारे या वह जो आपसे आपकी ष्ज़न्द्िगी धीरे - धीरे तनकाले?”
“िोनों समान रूप से अनैतिक हैं”, ककसी मेहमान का कहना था, िोनों का उद्िे श्य एक ही है - ष्ज़न्द्िगी ले लेना। िे ि इश्वर नहीं है । उसे वह छीन लेने का कोई अचधकार नहीं है , जो वह जब लौटाना चाहे िो लौटा न सके।” मेहमानों में एक वकील भी था, पच्चीस वर्ष का नौजवान। जब उनसे उनकी राय माँगी गई, उन्द्होंने कहा: “मत्ृ युिंड और आजीवन कारावास िोनों समान रूप से अनैतिक हैं, परं िु यदि मुझे
मत्ृ युिंड और आजीवन कारावास के बीच ककसी एक को चन ु ने के शलए कहा जाए िो मैं तनष्श्चि रूप से िस ू रे ववकल्प को ही चन ु ँग ू ा। मर जाने से बेहिर है ककसी भी प्रकार ष्जया जाए।”
रोचक चचाष िुरू हुई। बैंकर, ष्जनकी उमर उन दिनों कम थी और कुछ अधीर भी था, उत्तेजना में बह गया। उसने मेज़ पर घुँसा मारिे हुए उस नौजवान से चचल्लाकर कहा: “यह सही नहीं है ! मैं िुमसे बीस लाख की ििष लगािा हूँ, िुम पाँच साल िक एकांि कारावास में नहीं रह पाओगे।” इंदस े ना ु ंचत
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नौजवान ने कहा, “यदि आप ऐसा अकपट रूप से कह रहे हैं !, िो मैं यह ििष लगाने के शलए िैयार हूँ, पर मैं पाँच नहीं पंरह साल रहुँगा।” “पंरह? चलो मंज़रू है ! बैंकर ने ज़ोर से कहा। “ जनाब, मैं बीस लाख िाँव पर लगािा हूँ!” “राज़ी! आप बीस लाख िाँव पर लगािे हैं और मैं अपनी आज़ािी िाँव पर लगािा हूँ!” नौजवान ने कहा। और इस प्रकार बेिुक, अथषहीन ििष लगी! बैंकर, जो उन दिनों बबगड़ा हुआ, अष्स्त्थरमति था, उसके पास बेिम ु ार िौलि थी। उसे ििष लगाकर खि ु ी का दठकाना नहीं रहा। खाने के मेज़ पर उसने नौजवान का मज़ाक उड़ािे हुए कहा:
“नौजवान, अच्छी िरह से सोच लो, अभी भी समय है । मेरे शलए बीस लाख मामुली बाि
है , पर िुम अपनी ष्ज़न्द्िगी से बेहिरीन िीन या चार साल गंवा रहे हो। मैं िीन या चार
साल कह रहा हूँ क्योंकक िुम अचधक दिनों िक ष्जयोगे भी नहीं। हे िख ु ी इंसान, यह भी मि भूलो कक अतनवायष कारावास की अपेक्षा स्त्वैष्च्छक कारावास कहीं िभ ु र होिा है । जब िुम कारावास में रहोगे िब िुम्हें ककसी भी पल आज़ाि हो जाने का अचधकार है , ऐसी सोच ही कारागार में बंि िुम्हारे संपूणष अष्स्त्ित्व में ज़हर घोल िे गी। मुझे िुम पर िरस आ रहा है ।”
और अब वही बैंकर चहलकिमी करिे हुए सबकुछ याि करिा है , वह अपने आप से पूछिा है : “उस ििष का मकसि क्या था? उस आिमी के पंरह साल और मेरे बीस लाख गवाने में ककसकी क्या भलाई हुई? क्या इससे यह साबबि होगा कक मत्ृ युिंड आजीवन कारावास से अच्छा है या बुरा? नहीं, नहीं। यह सबकुछ मुखि ष ा और अथषहीनिा थी। मेरे शलए िो वह ककसी शसर चढ़े आिमी का मौज था, और उसके शलए शसफष पैसों की लालच....”
उसे कफर याि आया उस िाम आगे क्या घटी थी। यह फैसला ककया गया कक नौजवान अपना कैिी जीवन बैंकर के बगीचे के ककसी लॉज में कड़ी तनगरानी में बबिाएगा। यह िय ककया गया कक पंरह साल िक उन्द्हें लॉज की िहलीज़ पार करके इंसान का चेहरा िे खने ,
उनकी आवाज़ सुनने या चचट्ठी और अख़बार लेने की भी छूट नहीं होगी। उन्द्हें वाद्ययंर, ककिाब रखने, चचट्ठी शलखने, िराब पीने, धम्र ु पान करने की अनुमति िी गई थी। करार के
मुिाबबक वह बाहरी ितु नया से संपकष केवल एक छोटी सी खखड़की, ष्जसे केवल उसी मकसि
से बनाया गया था, के ज़रीए रख सकिा है । वह जो चाहे माँग सकिे है - ककिाब, संगीि, िराब, और ऐसे बहुि कुछ..अपनी इच्छा व मारानुसार उनके शलखखि आिे ि करने पर ही उसे िी जाएगी, और वह सामान खखड़की से लेना होगा। करार में सूक्ष्मिम ब्यौरा भी शलखा गया था , ष्जसके अनुसार उनका कारावास पूणष एकांि का होगा एवं नौजवान को ठीक पंरह साल रहना होगा, जो 14 नवंबर, 1870 के बारह बजे से िुरू होकर 14 नवंबर, 1885 के बारह बजे िक समाप्ि होगी। ििों को िोड़ने की ज़रा सी भी कोशिि, समय पूरा होने से िो शमनट पहले भी यदि की गई िो भी, बैंकर उन्द्हें बीस लाख का भग ु िान नहीं करे गा। इंदस े ना ु ंचत
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उसकी संक्षक्षप्ि दटप्पखणयों से जहाँ िक पिा चलिा है कक कारावास के पहले साल में वह अकेलेपन और अवसाि से काफी ग्रस्त्ि था। उसके लॉज से दिन- राि, लगािार वपयानो की आवाज़ सन ु ाई पड़िी थी। उसने िराब और िंबाकू का सेवन नहीं ककया। उसने शलखा कक िराब कामनाओं को उत्तेष्जि करिा है और ककसी भी बंिी के शलए कामना उसकी सबसे बड़ी िश्ु मन होिी है और सबसे बड़ा उिासी का कारण क्या हो सकिा है जब कोई िराब पीए पर
ककसी को िे ख नहीं सके। िंबाकू से कमरे की आबोहवा िवू र्ि होिी है । पहले साल उसने खासकर जदटल प्रेम कथा वाला हल्का –फुल्का उपन्द्यास और बेहिरीन कहातनयों की माँग की।
िस ू रे साल लॉज का वपयानो खामोि था, बंिी ने शसफष बेहिरीन ककिाबों की माँग की।
पाँचवे साल में लॉज में संगीि कफर से गँज ू उठा और बंिी ने िराब की माँग की। ष्जन्द्होंने
उसे खखड़की से िे खा उनका कहना था कक उस िौरान उसने खाने- पीने, बबस्त्िर पर लेटे रहने, बार- बार जंभाई लेने और गस्त् ु से में अपने आप बरबड़ाने के शसवाए कुछ भी नहीं ककया। उसने
ककिाब नहीं पढ़ा। कभी- कभी राि में बैठकर शलखिा था, वह घंटों शलखा करिा था, और सुबह उसे फाड़ िे िा था। एकाचधबार उसके रोने की आवाज़ आई थी। छठवें साल के द्वविीयाधष में बंिी ने उत्साह के साथ भार्ा, ििषन और इतिहास पढ़ना िरू ु कर दिया। उसने इिना व्यग्र होकर पढ़ाई की कक बैंकर को हमेिा उसे उसके द्वारा माँगी गई ककिाबों की आपतू िष करनी पड़ी। अगले चार सालों में उसके अनरु ोध पर कुछ छह
सौ खंड ककिाबें उसे दिलवाई गई। इस अवचध के िौरान बैंकर ने बंिी से तनम्नशलखखि पर प्राप्ि ककया:
“वप्रय कारापाल, मैं आपको ये चंि पंष्क्ियाँ छह ववशभन्द्न भार्ाओं में शलख रहा हूँ, जो ये भार्ाएँ जानिे हैं, उन्द्हें आप ये दिखाइए। आप उन्द्हें ये पढ़ने के शलए िें । मेरी आपसे गज़ ु ाररि है कक अगर वे एक भी गलिी नहीं तनकाल पाएं िो आप बगीचे में एकबार गोली चलाएँ। उस
गोली की आवाज़ मुझे बिाएगी की मेरी कोशिि बेकार नहीं गई है । सभी युगों और सभी िे िों के प्रतिभािाली व्यष्क्ि ववशभन्द्न भार्ाएँ बोलिे हें , पर उन सबमें एक ही लौ जलिी है। हाए! काि आप जान पािे कक उन्द्हें जान कर मेरी आत्मा को ककिना अपाचथषव आनंि प्राप्ि हुआ है!” बंिी की इच्छापूतिष की गई। बैंकर ने बगीचे में िो बार गोली चलाने का आिे ि दिया। िस साल बाि, बंिी मेज़ पर ष्स्त्थर बैठकर ईसाई धमष की वाणी, संिेि के अलावा कुछ
भी नहीं पढ़िा था। बैंकर को यह अजीब लगा था कक ष्जस िख़्स ने महज़ चार सालों में छह
सौ खंड ककिाबों पर महारि हाशसल की थी, वह लगभग एक साल से भी अचधक समय, एक पिली सी ककिाब, ष्जसे समझना काफी आसान था, के पीछे बरबाि कर रहा था। ईसाई धमष की वाणी के बाि उसने धमषिास्त्र और धमों का इतिहास पढ़ना िुऱू ककया। इंदस े ना ु ंचत
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कारावास के अंतिम िो वर्ों में , बंिी नें अंधाधध ुं बहुि सारी ककिाबें पढ़ डाली। कभी वह ववज्ञान की ककिाबों में मिरूफ़ हो जािा, िो कभी बॉयरन या िेक्सवपयर की माँग करिा। ऐसी कई पचचषयाँ हैं, ष्जनमें उसने एकसाथ रसायण पर ककिाब और चचककत्सा पुष्स्त्िका, और उपन्द्यास िथा ििषन या धमषिास्त्र पर कुछ आलेख की माँग की थी। उसके अध्ययन से ऐसा
लगिा था, जैसे जहाज़ डूब गया है , और कोई इंसान सागर में िैरकर जहाज़ का मस्त्िुल पकड़कर अपनी जान बचाने की कोशिि कर रहा हो। वद् ृ ध बैंकर को यह सब याि आया, उसने सोचा: “कल बारह बजे उसे आज़ािी शमलेगी। हमारे करार के मि ु ाबबक मझ ु े उसे बीस लाख िे ना
है । अगर मैं वह राशि चक ु ािा हूँ, िो मैं खत्म हो जाऊँगा, मैं परू ी िरह से बरबाि हो जाऊँगा।” पंरह साल पहले, उनके पास अनचगनि पैसे थे; अब उन्द्हें अपने आप से यह पूछिे हुए भी डर लगिा था, कक उनके पास क्या अचधक है , उनका कज़ष या उनकी िौलि। आनेवाले वर्ों में वे जुआ और स्त्टॉक एक्सचें ज में बेधड़क सट्टे बाजी करिा रहा और उनकी बिककस्त्मति िुरु
हो गई। वे अहं कारी, बेखौफ, आत्मववश्वासी लखपति से सामान्द्य बैंकर रह गए थे, और अपने तनवेि के हर उिार चढ़ाव से घबड़ा उठिे थे। तनरािा में अपना शसर पकड़ कर वद् ृ ध व्यष्क्ि बि ु बि ु ाया “िावपि ििष!” “वह आिमी मर क्यों नहीं गया?” वह मार चालीस साल का है । वह
मझ ु से मेरा आखरी पैसा भी ले लेगा, वह िािी करे गा, अपनी ष्ज़ंिगी में ऐि करे गा, एक्सचें ज
में जआ खेलेगा; जबकक मैं उसकी िरफ शभखारी की भाँति ईष्याष से िे खग ँू ा और हर दिन वह ु
मझ ु से एक ही वाक्य कहे गा: ‘मेरी ष्ज़न्द्िगी की खि ु ी के शलए मैं िम् ु हारा ऋणी हूँ, मझ ु े िम् ु हारी मिि करने िो!’ नहीं, यह बरिाश्ि के बाहर होगा! दिवाशलया और अपमान से बचने का एकमार उपाय उस आिमी की मौि है ! ”
बैंकर को िीन बजने की घंटी सुनाई िी; घर में सब गहरी नींि में थे, बाहर बफष से ढके
पेड़ों की सरसराहट के अलावा और कुछ सन ु ाई नहीं िे रहा था। बबना कोई आवाज़ ककए
अष््नरोधक अल्मारी में से वपछले पंरह वर्ों से बंि पड़े िरवाज़े की चाबी तनकाली, ओवरकोट पहनकर घर से तनकल गए। बगीचे में अंधेरा और ठं ड थी। बाररि हो रही थी। बगीचे में हड्डडयों को चीरने वाली ठं डी हवा चल रही थी, गरजिी हुई िेज़ हवा से पेड़ भी दहल रहे थे। बैंकर ने अपनी आँखों पर ज़ोर दिया पर अंधेरे में उन्द्हें न िो ज़मीन दिख रहा था और न ही श्वेि मतु िषयाँ, वे न िो लॉज िे ख पा रहे थे और न ही पेड़। उन्द्होंने लॉज के तनकट पहुँचकर चौकीिार को आवाज़ िी। पर उन्द्हें कोई जवाब नहीं शमला। ज़ादहर है चौकीिार ने मौसम के कहर से बचने के शलए रसोईघर या ग्रीनहाउस में पनाह ली होगी। वह अभी सो रहा होगा। इंदस े ना ु ंचत
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वद् ृ ध ने सोचा, “अगर मैं अपने इरािा में कामयाब हुआ, िो िक सबसे पहले चौकीिार पर ककया जाएगा।” वे अंधेरे में ही शसढ़ी चढ़कर लॉज की िरवाज़े िक पहुँच।े अंधेरे में रास्त्िा टटोलकर वे गली
पार करिे हुए अंिर घुसे। माचचस की तिली जलाकर चधमी रोिनी में िे खा कक वहाँ पर कोई नहीं था। पलंग पर बबस्त्िर नहीं था, कोने में काले रं ग का लोहे का चल् ू हा रखा था। बंिी के
कमरे के िरवाज़े पर लगी मुहर अक्षि थी। माचचस की तिशल बुझ जाने पर वद् ृ ध व्यष्क्ि ने भावावेि में आकर छोटी सी खखड़की से काँपिे हुए अंिर झांका। बंिी के कमरे के अंिर मोमबत्ती दटमदटमा रही थी। वह मेज़ पर बैठा हुआ था। पीछे से शसफष उसका पीठ, उसके शसर के बाल और उसके हाथ दिख रहे थे। मेज़ पर, िो कुशसषयों पर, मेज़ के तनकट कालीन पर ककिाबें पड़ी हुई थीं।
पांच शमनट बीि गया और वह बंिी एकबार के शलए भी नहीं दहला। पंरह सालों के कैि ने उसे ष्स्त्थर बैठना शसखाया था। बैंकर ने खखड़की पर अपनी उं गशलयों से खटखटाया, और वह बंिी तनश्चल बैठा रहा, उसने कोई हरकि नहीं की। िब बैंकर ने सावधानी से िरवाज़े पर से मुहर िोड़ी और िाले के छे ि में चाबी घुसाई। जंग खाए हुए िाले से चरमरािी हुई आवाज़ तनकली, िरवाजे से भी चचरशमराहट की आवाज़ आई। बैंकर ने िुरंि किमों की आहट और चौंकने की आवाज़ की उम्मीि की पर िीन शमनट बीि जाने के बाि भी कमरे के अंिर सन्द्नाटा था। उन्द्होंने कमरे के अंिर घुसने का इरािा कर शलया। मेज़ पर कोई आिमी अववचल बैठा हुआ था। वह कंकाल दिख रहा था, ष्जसकी हड्डडयाँ शसफष चमड़े में शलपटी हुई थी, औरि की भाँति लंबे घंघ ु राले बाल और झबरा िाड़ी। उसका चेहरा शमट्टी का रं गि शलए पीला दिख रहा था, उसके गाल वपचक गए थे, पीठ लंबा और
िब ु ला नज़र आ रहा था। ष्जस हाथ पर उसने अपना झबरा सर दटका रखा था, वह इिना िब ु ला और नाज़ुक था कक िे खने से ही डर लग रहा था। उसके बालों में सफेिी झलक रही थी, उसके क्षीण और जीणष चेहरे को िे खकर ककसी को यह ववश्वास नहीं होगा कक वह केवल
चालीस वर्ष का था। वह नींि में था........ मेज़ पर उसके झुके हुए शसर के सामने कागज़ के एक पन्द्ने पर खब ू सूरि शलखावट में कुछ शलखा हुआ था। “बेचारा!” बैंकर ने सोचा, ‘वह नींि में है और संभवि: लाखों का ख़्वाब िे ख रहा होगा। मझ ु े बस इस अधमरे आिमी को उठाकर पलंग पर फेंकना है , िककए से सांस िबा िे ना है
और सबसे वववेकिील वविेर्ज्ञ भी इसे दहंसात्मक मत्ृ यु नहीं मानेगें। पर सबसे पहले उसने यहाँ क्या शलखा है वह पढ़ शलया जाए..... ”
बैंकर ने मेज़ पर से उस पन्द्ने को उठाया और तनम्नशलखखि को पढ़ने लगा: इंदस े ना ु ंचत
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“कल बारह बजे मुझे आज़ािी शमलेगी और अन्द्य लोगों के साथ शमलने का अचधकार
शमलेगा, पर इस कमरे को छोड़ने और सूयष की रोिनी िे खने से पहले, मुझे लगिा है कक यह आवश्यक है कक मैं आपसे कुछ कहूँ। साफ अन्द्िरात्मा से, मैं आपसे और इश्वर से, ष्जनके िरण में मैं हूँ, यह कहिा हूँ कक मैं आज़ािी, जीवन, सेहि और आपकी ककिाबों में शलखी ितु नया की उन सभी बेहिरीन चचज़ों से घण ृ ा करिा हूँ।
“पूरे पंरह साल िक मैंने पाचथषव जीवन का गहन अध्ययन ककया। यह सच है कक मैंने
पथ् ृ वी या मनुष्य नहीं िे खा, पर आपकी ककिाबों से मैंने सुगंचधि सुरापान ककया, मैंने गाना गाया, मैंने दहरण और वन्द्य वराह का शिकार ककया, नारी से प्रेम ककया.....। आपके कववयों
और प्रतिभािाशलयों के जाि ू द्वारा रचचि स्त्वगीय बािलों के समान सुन्द्िरिा का साक्षात्कार मैंने राि को ककया, ष्जन्द्होंने मेरे कान में फुसफुसाकर बेहिरीन कहातनयाँ सुनाई, ष्जससे मेरा दिमाग घुम गया। आपकी ककिाबों से मैं एलबजष और मॉ ब्लॉ ँ की शिखर पर चढ़ा, और वहाँ
से मैंने सूयष को उगिे हुए िे खा और िाम को उसे मैंने उसकी स्त्वखणषम और रष्क्िम आभा से आसमान, सागर और पवषिों की चोदटयों को सरोबार करिे हुए िे खा। मैंने वहाँ से अपने शसर के ऊपर चमकिी हुई बबजली को िफ ू ानी बािल को चीरिे िे खा। मैंने हरा जंगल, मैिान, नदियाँ, िालाब, िहर िे खा। मैंने मत्स्त्यांगना की गीि सन ु ी, गड़ेररया की बाँसरु ी सन ु ी। मेरे
पास इश्वर की बाि करने के शलए उड़ के आए हुए िे विि ू ों, के पंखों का स्त्पिष ककया .......। आपकी ककिाबों से मैंने अिल खड्डे में छलाँग लगाई, मैंने चमत्कार ककया, मैंने हत्या की, िहरों को जलाया, नए धमों की स्त्थापना की, पण ू ष साम्राज्यों पर ववजय प्राप्ि ककया.....
“आपकी ककिाबों ने मुझे प्राज्ञिा िी। युगों से मनुष्य के अिांि मन ने ष्जसे रचा है , वह
संकुचचि होकर छोटे से कंपास में मेरे दिमाग में समा गया है । मैं जानिा हूँ कक मैं आप सबसे अचधक बुद्चधमान हूँ। “और मैं आपकी ककिाबों से घण ृ ा करिा हूँ, मैं बुद्चधमत्ता से और ववश्व के आिीवाषिों से
घण ृ ा करिा हूँ। यह सबकुछ मग ृ िष्ृ णा के समान बेकार, क्षखणक और भ्रामक है । आप अशभमानी, बुद्चधमान और उत्कृष्ट होंगे, परं िु मत्ृ यु आपको इस धरिी से ऐसे साफ कर िे गी
जैसे आप ज़मीन के नीचे बबल खोिनेवाला ककसी चह ू ा से बढ़कर और कुछ न हो, आपकी भावी पीढ़ी, आपका इतिहास, आपकी अमर प्रतिभा पाचथषव ितु नया के साथ जल जाएगी या जम कर बफष बन जाएगी।
“आपने अपना वववेक खोकर गलि रास्त्िा अपनाया है । आपने असत्य को सत्य और उग्रिा को सुन्द्िरिा माना है । आपको है रि होगी अगर कुछ अजीबोगरीब घटनाओं के चलिे
अचानक में ढक और तछपकली सेब और संिरे के पेड़ों पर उग आएं, या गल ु ाबों से पसीने से इंदस े ना ु ंचत
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िर घोड़े की बू आए; मुझे आपको िे खकर है रि होिी है जो स्त्वगष को धरिी से ववतनमय करिा है । मैं आपको समझना नहीं चाहिा हूँ।
“मैं उन वस्त्िु को घण ृ ा करिा हूँ ष्जसके शलए आप जीिे हैं और इसे साबबि करने के
शलए मैं वह बीस लाख त्याग करिा हूँ ष्जसे पहले कभी मैंने स्त्वगष माना था और अब मुझे
उससे घण ृ ा है । इस धनराशि के अचधकार से स्त्वयं को वंचचि करने के शलए मैं यहाँ से तनधाषररि समय से पांच घंटा पहले चला जाऊँगा और इस प्रकार करार का भंग करूँगा.......।”
बैंकर ने इसे पढ़ने के बाि उस पन्द्ने को मेज़ पर रखा और उस अजीब आिमी के शसर
को चम ू कर वे रोिे हुए उस लॉज से तनकल गए। इसके पहले उन्द्हें कभी भी, जब वे स्त्टॉक एक्सचें ज में बुरी िरह से हारे थे, इिनी नफरि खि ु से नहीं हुई थी। घर लौटकर वे पलंग पर सो जािे हैं, पर उनकी आँसुओं और भावनाओं ने उन्द्हें घंटों सोने नहीं दिया।
अगले दिन सुबह चौकीिारों ने मुझाषए चेहरे के साथ उन्द्हें बिाया कक लॉज में रहनेवाला
आिमी खखड़की से बगीचे में कूिकर गेट की िरफ चला गया है । बैंकर िरु ं ि अपने नौकरों के साथ लॉज में जाकर बंिी के भागने की पुष्ष्ट करिे हैं। अनावश्यक चचाषओं को रोकने के शलए, वे मेज़ पर से उस पर को उठा लेिे हैं , ष्जसमें लाखों को त्यागा गया था। घर लौटकर वे उसे अष््नरोधक अल्मारी में रखकर िाला लगा िे िे हैं।
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किानी
कल-(ल-ु सेन)
अनुिाद-त्रबनय कुमाि िुक्ल क्या हो गया ? बच्चों की आवाज नहीं आ रही है | एक हाथ में पीली िराब का प्याला शलए पकौड़े सी लाल नाक वाले कंु ग ने
पड़ोसी के घर
की िरफ िे खिे हुए कहा | नीली चमड़ी वाले अह-वू ने आपन प्याला नीचे रखा और जोर से उसकी पीठ में घूँसा मारा | “वह ििष से बबलबबला उठा और बुरी िरह से चचल्लाया |”कफर से भावुक हो उठा!”
िायि अब लु-सेन पुराने ख़यालाि का हो चला था | राि के पहले पहर से पहले ही सारे
साथी अपने िरवाजे
बंि कर नींि के आगोि में जा चक ु े थे |आधी राि िक शसफष िो घर के
लोग अब भी जाग रहे था | प्रॉस्त्पेररटी
रावेन जहाँ कुछ भुक्खड़ बार के आस पास मंडरा रहे
थे और इसके पास का मकान जहां फोथष िं की पत्नी रहिी है | िो साल पहले ही ववधवा हो गयी थी | उसके पास अपना और पाने िीन वर्ष के बेटे के जीवन यापन के शलए एक करघा के शसवा कुछ भी िो नहीं बचा था | यही वजह थी उसके जगे रहने का | यह भी सत्य था कक वपछले कुछ दिनों से करघे की आवाज नहीं आ रही थी | अब चँ कू क
आधी राि को वद् ृ ध कंु ग और इस घर के ही
लोग जगे हुए थे, िो यह स्त्वाभाववक है कक करघा चलने की आवाज इन्द्हें ही सुनाई िे िी | पर ककसी प्रकार की कोई आवाज का न आना यह ििाषिा है कक फोथष-िं के घर के अंिर से करघा चलने की आवाज नहीं आ रही |
चोट खाने के बाि बूढा कंु ग गहरी साँस लेिा हुआ िराब की लंबी घँट ू भरिे हुए कोई लोक गीि गन ु गन ु ाने लगा | इस बीच फोथष-िं की पत्नी अपने कलेजे के टुकड़े पाओ-एर को अपनी गोि में शलए हुए बबस्त्िर के एक कोने में बैठी थी, उसका करघा खामोि सा एक कोने में पड़ा हुआ था | दटमदटमािे िीपक की रोिनी पाओ-एर के चेहरे पर पड़ी, उसके बीमार चेहरे पर एक जीवंि बालक का स्त्वरूप प्रतिववष्म्बि हो रहा था | “इसे स्त्वस्त्थ कराने के शलए मैंने भगवान के सामने, मूतिष के आगे बहुि बार मत्था टे का पर कुछ भी िो नहीं हुआ |” वह बैठी सोच रही थी, “अब कफर भी यदि यह ठीक नहीं हुआ इंदस े ना ु ंचत
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िो मजबूरन डॉक्टर के पास ले जाना ही होगा| और भला मैं कर भी क्या सकिी हूँ ? अब इसे डॉ0 शियो-िेन के पास ले जाना ही होगा | हो सकिा है राि के कारण पाओ-एर को सांस की िकलीफ हो रही हो, सूयोिय के साथ ही इसमें सुधार भी आ सकिा है | हो सकिा है कल उसका बुखार भी ठीक हो जाए | कई बीमाररयां ऐसी भी होिी हैं |”
फोथष िं की पत्नी सीधी सािी औरि थी ष्जसे "लेककन" िब्ि ककिना खिरनाक हो सकिा है , िायि पिा ही न था | इस 'लेककन' का बहुि धन्द्यवाि ष्जसके प्रभाव से कई ख़राब चीजें अच्छी हो जािी हैं और कभी-कभी अच्छी चीजें खराब भी हो जािी हैं | गमी की राि छोटी होिी है | बूढा कंु ग और अन्द्य लोग जैसे ही गाना बंि ककये, पूरब के आकाि में रोिनी जगमगा उठी| खखड़की के टूटे हुए िीिे से छनकर सूरज की सुनहली ककरणे घर में आने लगीं|
फोथष िं की पत्नी के शलए सूयोिय का इन्द्िजार अन्द्य लोगों जैसा नहीं था | समय बहुि ही मंि गति से बीि रहा था | पाओ- एर द्वारा शलए जाने वाली हर सांस मानो उसकी अंतिम सांस हो | पर अब उजाला हो चक ु ा
था
| सरू ज की रोिनी ने िीपक के प्रकाि को
तनगल शलया | जब-जब पाओ एर सांस लेिा, उसकी नाक घड़- घड़ा
उठिी |
फोथष िं की पत्नी को इस बीमारी का फल पिा था, वह शससक उठी | पर कर भी क्या सकिी
थी ? परे िान थी | अब डॉ0 हो से उसे एकमार आिा थी | वह एक सीधी- सािी
औरि हो सकिी है , पर इच्छािष्क्ि की धनी थी | वह उठकर अलमारी िक गई और अपनी कुल बचि ष्जसमें िेरह छोटे चांिी के डॉलर और 180
िाँबे के शसक्के थे, तनकालकर जेब में
रख पाओ-एर को गोि में शलए िरवाजा बंि ककया और िेजी से डॉ0 हो के घर की िरफ चल पड़ी | हालाँकक वह जल्ि ही आई थी पर वहां पहले से ही चार और मरीज बैठे हुए थे | पंजीकरण के शलए उसने चालीस सेंट का भुगिान ककया | पाओ- एर पांचवा मरीज था | डॉ0 हो ने अपनी िो अँगुशलयों से उसकी नाड़ी जांच ककया | उनके नाखन ू चार
इंच लंबे थे
|फोथष िं की पत्नी अंिर ही अंिर शसहर उठी पर मन ही मन सोचने लगी, “ मेरा पाओ-एर अवश्य ही ठीक हो जाएगा | पर िष्ु श्चंिा के मारे कुछ बािें पूछने से खि ु को रोक भी न सकी:
"डॉक्टर मेरे पाओ- एर को क्या हुआ है ?" “अंिडड़यों में कुछ रूकावट आ रही है |” “क्या यह खिरनाक हो सकिा है ? क्या वो …...?” “इन िो िवाओं को िुरू करों" इंदस े ना ु ंचत
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“वह सांस नहीं ले पा रहा है , उसके नथन ु े में ऐठन हो रही हैं?” “धािु ित्व पर अष््न ित्व भारी पड़ रहा है …..|” अपनी बाि अधरू ी रख डॉ0 हो ने अपनी आँखें बंि कर ली, फोथष िं की पत्नी कुछ
और कहना नहीं चाही | िरवाजे के िस ू री िरफ डॉक्टर के ववपरीि दििा में लगभग 30 वर्ष का एक आिमी बैठा हुआ था | उसने िवा बना दिया था |
“पहली िवा बच्चे की रक्षा के शलए है ,” कागज़ के एक कोने में शलखे हुए अक्षर की िरफ इिारा करिे हुए उसने कहा| “िुम्हे यह शसफष चीन पररवार की िक ू ान पर ही शमलेगा|” फोथष िं की पत्नी ने कागज़ शलया और जैसे सोचिे हुए आई थी वैसे ही सोचिे हुए बाहर तनकली | सीधी- सािी औरि होने के बावजि ू उसे पिा था कक उसका घर, डॉ हो का घर और चेन की िक ू ान एक बरकोड में हैं अिः घर लौटने से पहले िवा खरीििे हुए जाना काफी आसान होगा | वह ष्जिनी िेजी से जा सकिी थी, चेन के िक ू ान की िरफ बढ़ चली | सहायक के अँगुशलयों के नाखन ू भी काफी लंबे थे | उसने धीरे से िवा की पची शलया और
िवा तनकाला | पाओ- एर को गोि में शलए हुए वो इन्द्िजार करिी रही | अचानक पाओ एर ने अपने छोटे हाथ तनकल कर उसके बालों को पकड़ शलया |उसने ऐसा कभी पहले नहीं ककया था इसशलए उसकी माँ डर सी गयी | सरू ज काफी ऊंचाई पर था | एक हाथ में िवा का थैला, गोि में बच्चा िोनों का वजन
उसे काफी अचधक लग रहा था | बच्चा भी मचल रहा था ष्जसके कारण उसे राह काफी लंबी
लग रही थी | थोड़ी िे र ववश्राम करने के शलए उसे सड़क के ककनारे एक बड़े से मकान की सीढ़ी पर बैठ जाना पड़ा | उसके कपडे पसीना से लथ-पथ हो उठे थे
| पाओ-एर गहरी नींि
में था | वह धीरे से चलने को उद्धि हुई, उसे अब भी वह भारी लग रहा था |उसके पीछे से एक आवाज आयी, फोथष िं की पत्नी चलो मैं िम् ु हे छोड़ िे िा हूँ !, ऐसा लगा जैसे नीली चमड़ी वाले अह- वू की आवाज हो | जब उसने ऊपर िे खा, तनष्श्चि ही यह अह-वू था जो उसे िे ख रहा था | उसकी आँखें अब भी नींि से बोखझल
थीं |
हालाँकक फोथष िं की पत्नी चाहिी थी की कोई िे विि ू उसकी मिि के शलए आये पर उस
अह वू को उस
िे व िि ू के स्त्थान पर िे खने की उसकी किई मंिा नहीं थी | पर अह
वू के अनरु ोध में कुछ ऐसी बाि थी की कई बार मना करने के बाि अंििः वह राजी हो गई
| ज्यों ही उसने बच्चा लेने के शलए उसकी छािी और बच्चे के बीच में हाथ डाला, उस स्त्पिष से उसके िरीर में शसहरन सी िौड़ गयी | उसके कान लाल हो गए | इंदस े ना ु ंचत
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ढाई फुट की एक िस ु रे से िरू ी बनािे हुए वो साथ-साथ चल पड़े | अह वू ने कुछ कहा ष्जनमें से अचधकांि का फोथष िं की पत्नी ने कोई भी जवाब नहीं दिया | वो ज्यािा िरू नहीं गए होंगे िभी उसने बच्चा उसे सौंपिे हुए कहा, उसने कल अपने एक िोस्त्ि के साथ इसी समय भोजन का कायषक्रम बनाया था | फोथष िं की पत्नी ने पाओ- एर को वापस पकड़
शलया | संयोगवि अब िरू ी अचधक नहीं बची थी | उसे नाइंथ चची वांग को गली के पास बैठा िे खा | उसने आवाज लगाया :
"फोथष िं की पत्नी, बच्चा कैसा है ? क्या िुम्हारी मुलाकाि डॉक्टर से हुई ? नाइंथ चाची वांग मैंने उसे दिखाया | आप बूढी और अनुभवी हैं और आपने बहुि कुछ िे खा है | क्या मेरे बेटे को िे खकर बिा सकिी हैं कक इसे क्या हुआ है ?” "चलो" ठीक है ... ?” "हूँ …...........” पाओ- एर की जांच करने के बाि नाइंथ चाची वांग ने िो बार अपना सर दहलाया और कफर िो बार सर को झटका दिया | जबिक पाओ- एर ने िवा शलया, िोपहर हो चक ु ी थी | फोथष िं की पत्नी ने बारीकी से
उसका मुआयना ककया | अब वह काफी ठीक लग रहा था | िोपहर में उसने अचानक आँख खोला और पुकारा : “मां!" कफर से उसने आँख बंि कर शलया और सो गया | काफी िे र से
वह सोया नहीं था |उसका शसर और नाक पसीने से भर उठा था |जब उसकी मां ने उसे छूकर
िे खा िो उसमें गोंि जैसा चचपचचपापन था | घबराहट में उसके सीने में स्त्पंिन हुई और वह रो पड़ी | थोड़ी िे र ववलाप करने
में वह चचर िांि हो गया | उसकी सांसें थम चक ु ी थीं | शससकारी के बाि वह लगी | िीघ्र ही उसके
कमरे में लोगों की भीड़ जमा होने लगी | नाइंथ चाची
वांग, नीली चमड़ी वाला अह-वू और ऐसे ही अन्द्य लोग जैसे प्रोस्त्पेररटी टे वनष का माशलक, लाल नाक वाला कंु ग |
नाइंथ चाची वांग ने सलाह दिया कक कागज के शसक्के की रस्त्सी
जलाई जानी चादहए, कफर जो लोग मिि कर रहे थे उनके शलए खाना तिपाई और कपड़े
बनाने के शलए िो
के पांच सामान जमानि के रूप में रखकर फोथष िं की पत्नी के शलए िो
डॉलर उधार लाई | पहली समस्त्या थी िाबूि | फोथष िं की पत्नी के पास अब भी एक जोड़ी चांिी की बाली
और सोने की पाशलि चढ़ाया हुआ एक चांिी का बालों का वपन बचा हुआ था | उसने इन चीजों को प्रोस्त्पेररटी टे वनष के माशलक को दिया ष्जससे कुछ नकि िे कर एवं कुछ उधार पर इंदस े ना ु ंचत
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वह एक िाबूि ला सके | नीली चमड़ी वाले अह-वू ने मिि के शलए हाथ आगे बढ़ाना चाहा
पर नाइंथ चाची वांग ने इस िरफ कोई ध्यान ही नहीं दिया | उसने उसे अगले दिन िाबूि
ढोने की ष्जम्मेिारी दिया | “अरे ... िष्ु टा!” उसने िाप दिया और अपने होठ भींचिे हुए एक कोने में खड़ा रहा | मकान माशलक चला गया, िाम को आकर उसने बिाया कक िाबूि अलग से बनाना पड़ेगा और अगले दिन सुबह से पहले िैयार नहीं हो सकिा |
जब िक मकान माशलक वापस वापस आया, बाकी के मिि करने वाले भोजन कर चक ु े
थे |चँ कू क पुराने ख़यालाि की ररवाजें थीं अिः सब सोने के शलए अपने घर चले गए | शसफष अह वू प्रोस्त्पेररटी टे वनष के बार में बैठा िराब पीिा रहा और बूढा कंु ग गीि गािा रहा |
इस बीच फोथष िं की पत्नी बबस्त्िर के एक कोने में बैठी रोिी रही | पाओ- एर बबस्त्िर पर लेटा था, करघा िांि तनस्त्चल फिष पर पड़ा था | काफी िे र बाि जब फोडष िं की पत्नी के आंसू सूख चक ु े , उसने अपनी आँखें
खोली और कमरे में चारों िरफ िे खी | यह असंभव था!,
“यह शसफष एक सपना है ,” उसने सोचा | "यह सब एक सपना है | कल मैं जब सब ु ह नींि से
उठूंगी िब पाओ- एर को बबस्त्िर पर अपने बगल में लेटा हुआ पाउं गी | वह उठे गा और मझ ु े माँ कहकर पक ु ारे गा और नन्द्हे िेर के िावक की िरह खेलने के शलए कूि पडेगा |” बढ ू ा कंु ग गाना बंि कर चक ु ा था और प्रोस्त्पेररटी टे वनष की बबजली जा चक ु ी थी | फोथष िं
की पत्नी सब घरू िे हुए बैठी थी पर जो कुछ भी हुआ उसपर उसे ववश्वास नहीं हो रहा था | मग ु े ने बांग लगाई,पव ू ष दििा में आकाि में उजाला हो उठा और खखड़की के टूटे िीिे से सुनहली रष्श्मयां घर के अंिर आने लगीं |
सूरज की सुनहली ककरणे जैसे िाम्र रं ग की हुईं, सूरज छि की सीध में आ गया | फोथष िं की पत्नी छि को घूरिी हुई बैठी थी िभी ककसी ने िरवाजे पर िस्त्िख दिया और वह िरवाजा खोलने के शलए िौड़ पड़ी |पीठ पर कुछ लािे हुए एक अजनबी खड़ा था, उसके पीछे नाइंथ चाची वांग खड़ी थी | आह, यह िो िाबूि था ष्जसे वो लेकर आया था | चँ कू क फोथष िं की पत्नी रोिी रही, ढे रों बािें करिी रही और ढक्कन बंि करने नहीं िे रही
थी अिः
िोपहर िक िाबूि के ढक्कन को बंि नहीं ककया गया | सौभा्य से नाइंथ चाची
वांग इन्द्िजार करिे हुए थक गयीं थी, िेजी से आगे आयीं और जल्िी से उन्द्होंने िाबूि का ढक्कन बंि कर दिया |
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फोथष िं की पत्नी ष्जिना भी कर सकिी थी, उसने अपने बेटे के शलए ककया | कुछ भी
िो भूली नहीं
थी | वपछली राि को कागज़ के शसक्के की एक लड़ी जलाई थी , आज सुबह
इनकानेिन ऑफ़ ग्रेट मसी की उनचास पुस्त्िकें जलाई थी और उसे िाबूि में रखने के पहले
उसे नए कपडे पहनाए थे, उसके िककये के पास उसके पसंि के सारे खखलौने रख दिया था, थोड़ी सी चचकनी शमट्टी के खखलौने, िो छोटे -छोटे लकड़ी के कटोरे , िो कांच की बोिलें | इसके बावजूि उसे ऐसा लग रहा था कक कुछ भूल रहे हों | चँ कू क नीली चमड़ी वाला अह-वू अबिक आया नहीं, इसशलए मकान माशलक ने फोथष िं की
पत्नी के शलए 210 बड़े िांबे की िर से िो कूली लाया जो िाबि ू को सरकारी कबब्रस्त्िान िक ले गए और एक कब्र खोिे | ष्जन लोगों ने उसकी अंगुली पकड़ी और उसका मँह ु खोलने में
सहायिा ककया या जो आमंबरि थे उनके शलए भोजन बनाने में नाइंथ चाची ने सहायिा ककया |जल्ि ही सूरज अस्त्िाचल की िरफ चल पड़ा, आमंबरि लोग न चाहिे हुए भी अपने घर वापस चले गए | . फोथष िं की पत्नी िरू ु में बेहोिी की हालि में थी पर थोड़ा आराम शमलने के बाि वह
ठीक हुई | हालांकक पहली नजर में उसे ऐसा लगा की सब अजीब सा हो रहा है | जो कुछ उसके साथ पहले कभी नहीं हुआ था और ष्जसकी उसने कभी सपने में भी आिंका नहीं की थी, आज उसके साथ सबकुछ घदटि हो गया | ष्जिना भी उसने सोचा उिनी ही उलझिी गयी | उसके शलए सबसे अचधक है रानी की बाि यह थी कक अचानक उसका एक कमरा खाली और िांि हो गया था | इसके बाि जब उठकर उसने िीपक जलाया, कमरे में सन्द्नाटा और भी बढ़ गया | उठकर उसने िरवाजा बंि ककया, बबस्त्िर पर आकर बैठी, अब भी करघा फिष पर िांि पड़ा हुआ था | बेचन ै सी थी उसके शलए बैठना या खड़ा रहना िोनों मुष्श्कल लग रहा था | कमरा िांि ही नहीं था बष्ल्क बहुि बड़ा और खाली-खाली सा लग रहा था | यह सन्द्नाटा मानो उसे खाये जा रहा था | सांस लेना भी उसके शलए िभ ू र सा हो रहा था |
उसे अब ववश्वास हो गया कक उसका बेटा अब मर चक ु ा है | उसके कमरे की िरफ उसे
िे खना भी गवारा नहीं लग रहा था | उसने िीपक बुझा दिया और रोिे हुए सोचने लगी | उसे याि आ रहा था कक कैसे पाओ- एर खेलिे और खािे हुए उसके आस पास चक्कर लगाया करिा था | वह उसे अपनी सुन्द्िर काली आँखों से घूरिे हुए कहिा,”मां, वपिाजी 'हुन-िुन' बेचा करिे थे, मैं भी बड़ा होकर मैं भी 'हुन-िुन' बेचग ूं ा | इससे ढे र सारा पैसा कमाऊंगा और सब िुमको लाकर िं ग ू ा |
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जो भी धागा वह बनािी थी उसका हर इंच जीवंि और कीमिी होिा था | पर अब क्या ? फोथष िं की पत्नी ने अपने विषमान के बारे में कुछ भी नहीं सोचा क्योंकक मैंने पहले ही कहा था कक वह एक शसफष एक सीधी-सािी औरि
है | वह और क्या सोच सकिी है ? उसे
शसफष यही पिा था कक यह कमरा काफी बड़ा है , इसमें काफी सन्द्नाटा है | शसधाई के बावजूि
उसे पिा था कक मरने के बाि लोग वापस नहीं आिे, और वह अपने पाओ- एर को िब ु ारा िे ख नहीं पायेगी | सन्द्नाटे में उसे अपनी गहरी साँसों की आवाज साफ़ सुनाई िे रही थी |
अंि में फोथष िं की पत्नी को नींि आ गयी और पूरे कमरे में सन्द्नाटा पसर गया | लाल
नाक वाले कंु ग के गीि कबके बंि हो चुके थे और वह प्रोस्त्पेररटी टे वनष के बाहर एक नए रास्त्िे पर जाने के शलए बढ़ रहा था|
“ मझ ु े िम ु पर िया आिी है मेरी जान ….........अकेले- अकेले ….....” . नीली चमड़ी वाले अह वू ने बूढ़े कंु ग का कंधा पकड़ रखा था, िोनों हँसिे-मुस्त्कुरािे बढ़ रहे
थे |
फोथष िं की पत्नी सो रही थी | बूढा कंु ग और बाकी सब लोग जा चक ु े थे | प्रोस्त्पेररटी टे वनष का िरवाजा बंि
था | लुसेन में सन्द्नाटा पसरा हुआ था | शसफष राि सुबह में बिलने के शलए बेचन ै थी | कभी कभी कुत्तों के भूकने की आवाज आ जािी थी |
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किानी
अपने पिाये
िोभा िस्तोगी िोनों हाथों में पानी भरी पंरह -पंरह लीटर की बाष्ल्टयाँ उठाये सरोज | चक्करिार संकरे जीने से ऊपर िालान पर, कफर अपनी छि पर आ बड़े -बड़े ड्रम में ओझिी सरोज | मँह ु में कपडा ठूंस - ठूंस कर माँ-बहनों से वपटिी सरोज | पड़ोस की चाची, भाभी ,सखी से बतियािी सरोज | हर काम के शलए सिा िैयार रहिी सरोज |
छुटपन से िे खिी आ रही थी कक सरोज जीजी ककिना काम करिी | सुबह-सुबह उठकर घर के िस काम कर टाइप सीखने जािी | बड़ी बहनों की नौकरी लगने पर उनकी चाकरी
करिी | वे एक पैसा भी घर में न िे िीं | सरोज जीजी टाइवपंग में पूरे दिन खटर - पटर कर चार पैसे जुटािी िो वे भी घर में लगा िे िी |मामूली सी िक्ल- सूरि
पर दिल इत्ता बड़ा |
माँ-बापू से कभी िारीफ के बोल न शमलिे | बाबूजी व इकलौिे भाई अिुल के शलए चाय बनिी | मुआ कड़क टाइपराइटर जब उसकी नरम अंगुशलयाँ टक-टक कर थका िे िा िो उसका
भी जी करिा कक एक कप चाय उसे भी नसीब हो | पर वह िो सरोज ठहरी | ककस्त्मि की मारी | कोई नेह नहीं |लगाव नहीं | मोह, प्रेम, लगाव बस काम करवाने का | घर की माली हालि भी ठीक न थी | बाबूजी मुनीमी में िो वक़्ि की रोटी भी न जग ु ाड़ पािे | ऊपर से चार छोरी, एक छोरा | साि प्राखणयों की गुजर-बसर एक महाभारि थी | सारा िारोमिार
सरोज पर था | घर - बाहर कफरकी बनी घूमिी | कंधे पर सलीब उठा रखा था | कमरिोड़ मेहनि ने रं ग दिखाया |
टाइवपस्त्ट बनी प्रिे ि के सेल टे क्स ऑकफस में | पगार शमलने लगी | घर चमकने लगा | बेंि
का फनीचर आ गया | गोिरे ज की अलमारी आ गयी | सबने अपना -अपना सामान
जँचा दिया | सरोज के शलए जगह एक इंच भी न बची | िीवार में लगी बबना पल्ले की परु ानी अलमारी में
ही उसने सामान ठीक ककया | कुछ महीने बाि नया छोटा टी. वी. आ गया | अपना -अपना
काम तनबटािे सब चचरहार , वपक्चर , सीररयल्स पर आ धमकिे | पडोसी भी िालान में , छज्जे पर मंड ु रे पर भीड़ जट ु ािे | उस ििषक - िीघाष में टी.वी. मालककन सरोज ही निारि
रहिी | टाइपराइटर उसे अपने से अलग ही न करिा | एक्स्त्रा काम , एक्स्त्रा पैसा | घर के एक्स्त्रा खचे | बड़ी बहन की िािी हुई | सरोज ने पैसा लगाया | िस ू री बहन के वववाह में भी सरोज की कमाई दठकाने लगी | सरोज की माँ को अब चचंिा सिाने लगी ,'सरोज के बाउजी ! अब सरोज को ही ब्याहनो है | पर जाके जाए घर कैसे चलेगो ? ' 'िू का बावरी है गयी है
? जाए हवाल कैसे ब्याह दिंगे ? ' वपिा की व्याव्हररकिा दृष्टव्य थी | माँ की चचंिा भी इंदस े ना ु ंचत
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सहज थी | ' िो का घर बैठारोगे ? '
'अरी नाय, अभी साधना बैठी है |' वपिा ने
सहज ही
कहा | ' साधना िो सरोज िे छोटी है | पहले छोटी कौ.......?' माँ ने संिेह ककया िो वपिा ने आश्वस्त्ि ककया ,'और का...... साधना िो नौकरी करि नाय | कफर सरोज के जाए पीछे साधना
को
ब्याह
कैसे
होएगो
?
सो
पैले
साधना
कफर
सरोज|
अभी अिुल भी पढ़ रह्यो है |'
' सरोज िे का ककंगे ...?' माँ का स्त्वर चचंतिि था | चचंिा थी सरोज को मनाने की , उसका घर बसाने की नहीं | ' बाए मै िे ख लँ ग ू ो | िू चप ु कर |' बाउजी ने माँ को िसल्ली िी |
सरोज को प्यार-मनुहार दिखाया | घर की परे िानी बिा साधना की िािी के शलए मना शलया
गया | साधना के फेरे पढिे सरोज खल्लास | पाई-पाई चक ु गयी | और उम्र यौवन की ढलान
पर | लम्बी चौड़ी किकाठी, भरपूर यौवन शलए अपनी उम्र में सरोज भी आकर्षक दिखा करिी |
ककन्द्िु अब कुम्हलाये गोभी के फूल जैसी होिी जा रही थी | मोटा चश्मा अब आँखों
का हमिम बन गया था |
बहनें आिी-जािी | उनके लेन-िे न के
नेग तनभािी सरोज के दिल में हूक उठिी | काि ! उसका अपना भी घर होिा | पति-बच्चे होिे | यहाँ सब पैसे के साथी हैं | भावना का कोई साथी
नहीं | माँ भी नहीं | चालीस पर होिे ही ररश्िे आने बंि हो गए | माँ-बाबज ू ी की
िो मन की हो गयी | दिखावा करिे,' जा छोरी की ककस्त्मि में का शलखो है | कहीं बाि ही न बनि |' मन ही मन आक्रोि
का ज्वालामख ु ी फटिा - उसकी उम्र में िो चचंिा नहीं की | अब नौटं की
दिखा रहे है | ' मन मसोसिी बेचारी |
अपने संपकष से सरोज ने कम पढ़े भाई की भी नौकरी लगवा िी | अिुल ने कोटष -मेररज
कर ली | नई भाभी को खटकिी रही सरोज | चप्ु पा सरोज का मँह ु नई भाभी के सामने खल ु ने लगा | अिुल भी बीबी की दहमायि लेिा | घर में िनािनी रहिी | माँ-बाबूजी भी
सरोज को समझािे | बहनें भाभी का ही पक्ष लेिी, 'िेरा अपना कोई नहीं | माँ-बाबूजी कब िक हैं ? भैया -भाभी के सहारे ही जीना है
िूने | गम खाने से कोई छोटा नहीं हो
जािा | इस उम्र में कहाँ जाएगी भला | माँ-बाबूजी भी इनके भरोसे है |'
सरोज समझ न पािी, ' सबको संभाला मैने | घर भरा मैने | बहनें ब्याहीं मैने | माँ-
बाबूजी की ष्जम्मेवारी तनभाईं मैने | नेग-रसम संजोए मैने | और मेरा आसरा ये ............ !
मेरा पैसा भी इन्द्हें व इनके बच्चों को ही पुजिा रहे गा न | कफर भी चप ु रहूँ मै ?' िमिमाई भुनी लाल शमची सी िहकिी रही सरोज | इिना अकेलापन ......सबको अपना समझा | सबके
िःु ख-ििष सांझी ककये | आंसू की जगह मुस्त्कान भरी | सब पराए तनकले | इन सबके शलए वह
ही गलि .....?
नहीं.. अब और
नहीं | एक बफीली ख़ामोिी ओढ़ ली सरोज ने |
दिमाग सुन्द्न हो गया | मिीनवि कायष करने लगी | ऑकफस में भी सुनिी --- बुदढया होिी इंदस े ना ु ंचत
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जा रही है | सदठया गयी है | ब्याह नहीं हुआ न | कोई प्यार का मरहम रखने वाला नहीं | यिा-किा कोई मुंहजोरी भी करने लगिा | सहयोगी मजे लेिे | चटखारे ले बाि बनािे | नया कपडा पहनने पर बूढी घोड़ी लाल लगाम से नवाजिे | सरोज के िन-बिन में आग लग
जािी | घर-ऑकफस िोनों मोचों पर सरोज ने कभी माि न खाई | अब ढलिी आयु के ढलवां ढलान पर िोनों उसे नोचे जािे है | उसकी भावनाओं पर िुर्ारापाि होिा है |
सीली लकड़ी की मातनंि सुलगिी रहिी | क्या करे ? घर छोड़ िे ? नौकरी छोड़ िे ? ष्जए न
ष्जए ? ष्जए िो ककसके शलए ? अपने शलए ? अपने शलए भी लोग जीने नहीं िे िे | मरना आसान है जीना मुष्श्कल | तिल-तिल कर जीना मरने से भी भयावह है | काले पानी की सजा से भी बढ़कर
|
जब हम किमकि की घनी अँधेरी तनजषन गफ ु ा में हाथ-पांव मार रहे होिे है
िो कोई
जुगनू अँधेरा चीर रास्त्िा बन जािा है | सरोज के ऑकफस में ओल्ड एज होम से एक सरकारी
काम आ गया | फोन शमलाया| समय शलया | संपकष बढाए | बाि बन गयी | ज्ञाि होिे ही माँ ने नाराजगी ज़ादहर की, 'अब िू ओल्ड एज होम में बूडन के संग रहे गी?' 'िो क्या हुआ माँ ? मै भी िो बढ ू ी हो रही हूँ 'और िेरी नौकरी ? िनख्वाह ?'
|' वाि-प्रतिवाि बढ़िा गया |
' मेरे साथ मेरी नौकरी | नौकरी के साथ पगार |'
सरोज दृढ थी |
'िो अब सब कुछ वहीँ पे िे िे गी ? जे भाई-भिीजा सबन कू भल ू जाएगी | माँ-बाबज ू ी ....?' माँ ने ररसिे ररश्िों का वास्त्िा िे िे हुए फुसलाना चाहा | 'जहाँ मझ ु े अपना समझेंगे , उनका सख ु -िःु ख बाटूंगी | उनका भी मेरी िरह कोई अपना नहीं | सब मिलब के यार है | अपनों के सिाए हुओं को मेरी पीड़ा अनुभूि होगी | रही बाि बाबूजी की िो अब मैने अपना रास्त्िा पकड़ शलया है | रास्त्िा है -- अपनेपन का , प्रेम का , ववश्वास का | िहर की िस ू री
ब्रांच में रांसफर करवा सरोज सिा के शलए ओल्ड एज होम आ गयी | गैरों
को छोड़कर जो अपनों के भेर् में उसे लूट- खसोट रहे थे | िखु खयों के बीच जहाँ हरे क अपना िःु ख बाँटना चाहिा था | साथी चाहिा था | ख़ि ु ी के शलए नहीं , िःु ख के शलए | सहारा िो है िःु ख का ही सही | िःु ख अपनों का, अपने जैसा िःु ख |
इंदस े ना ु ंचत
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हथेशलयों में कंपन
तेजेन्द्र िमाा नरे न के शलये यह पहली हररद्वार यारा नहीं है ... वह इससे पहले बहुि बार हररद्वार जा चुका है । उसके ररश्िेिारों में िायि ही कोई ऐसा पररवार होगा ष्जसके पररवार के ककसी न ककसी सिस्त्य की अष्स्त्थयां उसने वहां जा कर गंगा में न बहाई हों। वह शिव है ... हर पररवार की मत्ृ यु का ज़हर वह स्त्वयं पी जािा है । वैसे मुझे उनके बारे में आिर से बाि करनी चादहये क्योंकक वे मेरे मौसा हैं। ककन्द्िु नरे न्द्र
नाथ बरखा शलखने में िि बाि नहीं आिी जो नरे न में है । पूरा नाम शलखने से आिर भाव िो आ जाएगा मगर चररर पूरे का पूरा बिल जाएगा। मौि का जो ज़हर उन्द्होंने अपने भीिर कहीं तछपा कर रखा हुआ है , उस ज़हर का आभास नरे न नाम से अचधक हो सकिा है ।
मत्ृ यु क्या केवल एक िारीररक ष्स्त्थति है ? क्या कमषकाण्ड जीवन और मत्ृ यु के साथ जुड़ा रहना चादहये? क्या ककसी की मत्ृ यु पर रोना आवश्यक है ?... मुझ
जैसे अज्ञानी लोग इन
सवालों से जझ ू िे रहिे हैं। नरे न को इन सवालों से कुछ लेना िे ना नहीं है । उसका बचपन जीन्द्ि नाम के छोटे से िहर में बीिा है । उसके वपिा घर में स्त्याही बनाने का काम करिे थे
और अपने िहर में सप्लाई करके ककसी िरह घर का ख़चाष चलािे थे। आयष-समाजी थे वपिा। घर में हर रवववार को हवन होिा था। परू े घर में हवन-सामग्री और िे सी घी की ख़ि ु बू हमेिा महसस ू की जा सकिी थी। उसी हवन-सामग्री और िे सी घी से बना था नरे न का व्यष्क्ित्व।
सािगी की इन्द्िेहा यह कक जो कपड़े उनकी पत्नी ख़रीि िे िी, बस पहन लेिे। जब वववाह
हुआ था िो भारिीय रे ल में फ़ायरमैन की नौकरी करिे थे। फ़ायरमैन आजकल नहीं होिे क्योंकक रे लगाड़ी अब भाप के इंष्जन से नहीं चलिी। फ़ायरमैन अब केवल हमारी यािों का दहस्त्सा हैं। वह रे लगाड़ी चलािे नहीं थे उनका काम होिा था भाप इंष्जन में कोयला भट्टी में झोंकना। कफर उस कोयले से पानी गरम होिा और भाप बनिी ष्जससे इंष्जन चलिा और रे लगाड़ी को खींचिा। मुझे भी मौक़ा शमला था नरे न मौसा के साथ उनके इंष्जन में बैठकर दिल्ली से जीन्द्ि जाने
का। उनके ड्राइवर का नाम शिवनाथ था... गहरी िोस्त्िी थी िोनों में । िो महीने पहले उसकी अष्स्त्थयां भी हररद्वार पहुंचाने गये थे। शिवनाथ का िरीर पांच फ़ुट ्यारह इंच से शसकुड़ कर इंदस े ना ु ंचत
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िायि पांच फ़ुट का ही रह गया था।.. कैंसर... िरीर को खोखला कर के, उसे तनचोड़ कर बस एक कमण्डल भि अष्स्त्थयों में पररवतिषि कर गया था।
मझ ु े याि है कैसे नरे न मौसा जब इंष्जन की भट्ठी में कोयला डाल रहे थे िो उनके गोरे
बिन पर कोयलों की काशलख़ भी उन्द्हें स्त्माटष -लक ु िे रही थी। नरे न मौसा उन दिनों बबल्कुल कफ़ल्म कलाकार धमेन्द्र जैसे दिखा करिे थे। दिसम्बर की छुट्दटयां जब कक्रसशमस मनाने
लोग दिल्ली और मंब ु ई जािे थे, मैं ऐसे समय में जीन्द्ि जा रहा था। छठी कक्षा में भी मैं
अंग्रेज़ी अच्छी बोल लेिा था... नरे न मौसा रास्त्िे भर मझ ु से अंग्रेज़ी में बाि करिे रहे ... िायि ड्राइवर शिवनाथ अंकल पर मेरी अंग्रेज़ी की धौंस जमा रहे थे। इंष्जन की आग की
गमी दिसम्बर की सिदी को हमसे िरू रखे हुए थी। इंष्जन का माहौल भी कुछ रहस्त्यमयी सा था... गाड़ी बहािरु गढ़ और रोहिक होिी हुई जीन्द्ि जा रही थी। मझ ु े इंष्जन यारा का िि
रोमांच जीवन भर याि रहे गा... मैं सारी राि जागिा रहा... बाल मन की उत्सुकिाएं... भला कैसे आसानी से िान्द्ि हो पािीं.... नरे न मौसा का
वववाह मुझे हमेिा उन पर अत्याचार जैसा लगा। नरे न मौसा के मुक़ाबले
हमारी ववमला मौसी सािा और घरे लू ही मानी जाएगी। कहने को िो िोनों ही िसवीं पास
थे... उस ज़माने के पंजाब मैदरक... सन ु कर बहुि अच्छा लगिा था कक फ़लां फ़लां ने पंजाब मैदरक पास कर ली है । कफर कुछ लोग प्रेप करिे थे, कफर इन्द्टर और बाि में बी.ए.... मगर न िो नरे न मौसा ने ही बी.ए. की और न ही ववमला मौसी ने। मगर नरे न मौसा ने हमारी मौसी को हमेिा बहुि आिर सत्कार के साथ रखा... परू े पररवार में उनकी परू ी इज्ज़ि थी। नरे न मौसा को अब िो हररद्वार का रास्त्िा भी अच्छी िरह याि हो गया है । दिल्ली से
ग़ाष्ज़याबाि, मेरठ, मुज़्ज़फ़र नगर, रूड़की और हररद्वार।... करीब पांच घण्टे का रास्त्िा पड़िा है कार से। वैसे पानीपि और सहारनपुर के रास्त्िे भी हररद्वार जाया जा सकिा है , मगर नरे न मौसा को मेरठ और मुज़्ज़फ़र नगर वाला रास्त्िा ही पसन्द्ि है ।
अपने वपिा, चाचा, मामा, िो साढ़ुओं, एक साली, एक साले, अपने समधी और कई िोस्त्िों की अष्स्त्थयां हररद्वार पहुंचा चक ु े हैं। आजकल हमारे कुनबे के वररष्ठ नागररक हैं। उन्द्हें पररवार के बारे में पूरी जानकारी भी है कक मेरी मां झंग (अब पाककस्त्िान में ) में कहां
रहिी थीं, या कफर मेरे वपिा जी पाककस्त्िान में कहां रहिे थे। भारि में भी अम्बाला, करनाल, कफ़रोज़पुर, दिल्ली, मुंबई – सभी जगह के ररश्िेिारों के साथ उनका संपकष रहिा है। वे सबके हैं... बस सवाल एक ही है क्या कोई उनका भी है ।
“काका, असी पंजािी ब्राहम्ण होन्द्िे हां।... यातन पंज जािां... िस ु ी मोहला हो... िे मैं बरखा...
िे िह ु ाडे मािा जी होए खझंगन.... यातन कक बरखा, मोहला, खझंगन, जेिली िे कुमडड़या... बस ऐ पंज जािां होष्न्द्ियां ने। साढ़ा इलाका वेस्त्ट पंजाब है िे असी सारस्त्वि ब्राहम्ण होन्द्िे हां। इंदस े ना ु ंचत
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गोर साढे साररयां िे अलग अलग ने। साढा गोर है वशिष्ट, िे िुहाडी मािा जी िा है
भारद्वाज, पर िुहाडा गोर बड़ा मुष्श्कल वाला है ... बड़ा घट सुणन ववच आन्द्िा है ... िुसी लोग सोमस्त्थम गोर वाले हो।... बहुि पुराणे ऋवर् सी सोमस्त्थम... कहन्द्िे ने कक वेिां िे दहसाब नाल हवन िुरू करन वाले ऋवर् सी।” यह मेरी नरे न मौसा के साथ पहली हररद्वार यारा थी।
नरे न मौसा जानिे हैं कक मझ ु े पंजाबी ठीक से समझ नहीं आिी... अचधकांि समय मंब ु ई में
बीिा है ... अंग्रेज़ी में पढ़ाई, रहने को मंब ु ई िहर... थोड़ी बहुि मराठी िो समझ भी लेिा था, बोल भी लेिा था मगर पंजाबी भला ककस ककस के साथ बोलिा। कफर भी मझ ु से हमेिा
पंजाबी में ही बाि करिे हैं। वैसे मेरी मां भी मझ ु से पंजाबी में ही बाि करिी हैं... मां की पंजाबी के एक एक िब्ि का अथष समझ जािा हूं।
भार्ा ककस िरह का जुड़ाव पैिा कर िे िी है । मराठी का काम-चलाऊ ज्ञान होने के बावजूि जब आसपास कोई मराठी बोलिा है िो लगिा हे कक मेरा कोई अपना है । ठीक उसी िरह पंजाबी में पैिल होने के बावजूि जब कोई पंजाबी बोलिा है िो भी अपना ही लगिा है । मगर
घर से इिनी िरू वविे ि में बसने के बाि िो ककसी भी भारिीय भार्ा बोलने वाला अपना लगिा है ।
हररद्वार के पण्डों की भार्ा मुझे बबल्कुल समझ नहीं आई थी।
नरे न मौसा ने मुझे रास्त्िे में
ही समझा दिया था, “काका, िूं उत्थे कुझ बोलणा नहीं। बस चप ु करके िे खिा रहीं। मैनूं गल करण िईं। ऐह पण्डे खल लाह लैन्द्िे नें।”
नरे न मौसा इन पण्डों को अच्छी िरह समझिे थे। उन्द्हें इन सबसे बािचीि करने का एक लम्बा अनभ ु व है । यह सोचने पर मजबरू हो जािा हूं कक इिने धाशमषक होने के बावजि ू नरे न मौसा कमषकाण्ड में पूरा ववश्वास नहीं रख पािे । िरअसल आयषसमाजी होने की वजह से भी सोच कुछ अलग थी...
हररद्वार पहुंचिे ही मेरे मन में ववचार आया कक सुबह िक प्रिीक्षा करिे हैं और सुबह अपने पाररवाररक पण्डे को ढूंढ कर उसी से श्रद्धापूवषक सारी ववचध करवा ली जाए। मगर नरे न मौसा भला कहां मानने वाले थे, “ओय, िैनू नहीं पिा, सब िे सब लुटेरे ने। असी कोई सीधा सािा पण्डा ढूंढ के उससे अष्स्त्थ ववसजषन करवा लें गे।... बस सवेरे जा कर िुम्हारे पररवार के पण्डे के पास जा कर मौि िजष करवा लें गे। उसके पास यही ज़रूरी काम है ।”
बाऊजी की मत्ृ यु के झटके से भला कहां उबरा था। नरे न मौसा की एक एक बाि मेरे शलये
फ़रमान था। मुझे आिा थी कक ककसी ऐसी जगह जाकर अष्स्त्थ ववसजषन करें गे जैसा कक गंगा
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निी को चचरों में िे खा है । मगर नहीं... एक पण्डा शमला ष्जसने कहा कक यहां ऊपर जो धारा बहिी है यहां बेहिर अष्स्त्थ ववसजषन होिा है । नरे न मौसा ने हामी भर िी। मझ ु े कुछ समझ नहीं आ रहा था... मत्ृ यु सीधी और सरल क्यों नहीं हो सकिी? क्यों कुछ
लोग मत्ृ यु में भी ऑनसष और पीएच. डी. कर लेिे हैं। क्यों हम मरने के बाि उनके द्वारा
लट ू े जाने पर भी उफ़ नहीं करिे? क्यों हर मज़हब का इन्द्सान मौि के सामने इिना बेचारा
हो जािा है ? क्यों हम मि ृ क की आत्मा की िाष्न्द्ि के शलये बेवक़ूकफ़यों पि बेवक़ूकफ़यां करिे
चले जािे हैं? हम िो महानगरों में रहने के कारण परू ी िरह से धाशमषक नहीं रहे ... मगर जो छोटे िहरों, कस्त्बों या गांव में रहिे हैं ... उनका िोर्ण ये धमष के ठे केिार ककस िरह करिे होंगे। मैनें एक बार कफर िंका जिाई कक हमें अपने पुरखों वाले पण्डे को सुबह ढूंढना चादहये। इस पर पण्डे को लगा कक शिकार हाथ से गया। बबना वक़्ि गंवाए बोला, “जी, अपना नाम
बिाइये, मरने वाले का नाम बिाइये... पूरा नाम... आपसे क्या ररश्िा था... कहां के रहने वाले थे... उनके वपिा का नाम... गोर क्या था....” पूरी िरह से यांबरक िरीक़े से बािचीि हो
रही थी। पण्डा सही ग़लि संस्त्कृि में श्लोक बोले जा रहा था और मझ ु े अपने पीछे िोहराने के शलये कह रहा था। ष्जिना मझ ु े समझ आ रहा था उिना मैं िोहराए जा रहा था।
इिने में उसे पीछे से एक आवाज़ आई। लगा कक कोई और नई आसामी फंसने वाली है । पण्डे ने कहा, बस थोड़ी िे र के शलये रोक के रख। अभी आिा हूं।
मझ ु े अपने बाऊजी की बािें याि आ रही थीं... बाऊजी अब केवल अष्स्त्थयां बन चक ु े थे। मेरे बाऊजी अपने ज़माने के मॉडनष आिमी थे। उनका एक अंग्रेज़ औरि से इश्क था। िोनों िािी
करना चाहिे थे। मगर िािा जी के िबाव, पररवार की कटिी नाक, और बबरािरी का डर... सब मेरे बाऊजी के प्रेम पर हॉवी हो गये... बाऊजी अपनी मजी का वववाह नहीं कर पाए। और भारि का बंटवारा हो गया...स्त्विन्द्र भारि में ष्जस औरि के साथ िािा जी ने बांध दिया... बंध गये। अगर बाऊजी ने उस अंग्रेज़ औरि से वववाह कर शलया होिा िो क्या मेरा कोई वजूि होिा? कफर िो बाऊजी का बेटा एं्लो इष्ण्डयन होिा... क्या वह मेरे बाऊजी की अष्स्त्थयां ले कर हररद्वार आिा। वैसे कई बार यह भी सोचा कक अचानक एक दिन एक गोरा सा लड़का आकर सामने खड़ा हो जाए और मेरे बाऊजी से कहे कक मैं िो आपका पुर हूं।... मैं िो पल भर में उसे बाहों में भर कर अपना भाई बना लेिा... मगर मां... ! उन पर क्या गज़ ु रिी... ? लेककन मेरा वववाह बाऊजी और मां ने मेरी मज़ी के दहसाब से कर दिया था। एक बार भी
नहीं कहा कक पन ू म के मां बाप की जाति हमसे नीची है या कफर बबरािरी का रोना... कुछ भी
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नहीं हुआ... बस मैंने बिाया और बाऊजी और मां जा कर पूनम के मािा वपिा से बाि कर आए। पण्डे ने मेरी सोच को झटका दिया, “जी जजमान, आपने अभी ्यारह पष्ण्डिों को भोजन करवाने का संकल्प शलया है । आप उसके पांच सौ पचास रुपये यहां रख िीष्जये।” “मगर, मैंने कब संकल्प शलया?” “अरे अभी आप मेरे श्लोकों के पीछे िोहरा रहे थे न।” मौसा जी का एक नया ही रूप मेरे सामने उभर कर आया, “िे ख भाई जवान, हमारे काके ने ्यारह नहीं इक्कीस ब्राहम्णों को खाणा खखलाणे का संकल्प शलत्ता है । मगर वो खाणा यहां
नहीं खवाएगा। ये खाणा खखलावेगा मुम्बई में , जहां ये रहिा है । आप इक्कीस ब्राहम्ण ले कर इनके घर पहुंच जाओ, बस जाके छक के भोजन कर आवो।”
पण्डा बगलें झांक रहा था। “ऐसे थोड़े ही होिा है सेठ।” अचानक हम जजमान से सेठ बन गये थे। “ओए गल्ल सुण जवान, िूं साढे नाल मज़ाक ना कर, िे हम िेरे नाल मजाक नहीं करें गे। लै
पकड़ इक सौ इक्यावन रुपय्ये... आप वी ख़ि ु रह िे सानू वी ख़ि ु रहण िे ।” मौसा जी का अनभ ु व उनके िब्िों में साफ़ सन ु ाई िे रहा था।
अंतिम संस्त्कार में भी िक ु ानिारी... कफर वही पुरानी कहावि याि आिी है ... कहाविें पुरानी हो कर भी अपना अथष नहीं खोिी हैं... घोड़ा अगर घास से यारी करे गा िो खाएगा क्या... िायि इन पण्डों के शलये भी मजबूरी है । महं गाई के साथ साथ घर चलाना है ... कोई और ज़ररया िो है नहीं आमिनी का... जैसे डॉक्टर अपने मरीज़ों के साथ सहानुभूति नहीं कर सकिा ठीक वैसे ही मिघट और हररद्वार के पण्डे भी अपने ग्राहकों के साथ ररयायि नहीं कर सकिे। इनका ररश्िा ही ऐसा है । ररश्िे कैसे हमें छोड़ छोड़ कर कहीं िरू चले जािे हैं। मगर हम उन्द्हें केवल हररद्वार िक
पहुंचा पािे हैं... हररद्वार से हरर िक की यारा वे अकेले ही करिे हैं ...हररद्वार जब पहली बार राि को िे खा िो समझ ही नहीं आया कक जो हम वपक्चरों में िे खिे हैं िि हररद्वार कहां है ... नरे न मौसा राि को अपने जाने पहचाने गेस्त्ट हाउस में ले गये। न जाने वहां ककिनी बार ठहर चक ु े हैं... ररसेप्िन पर बैठे व्यष्क्ि ने उन्द्हें पहचान भी शलया। उसकी आंखों में एक प्रश्न दिखाई िे रहा था, “अबकी ककसे ले आए?”
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नरे न मौसा भी िे ख कर ख़ि ु थे कक ररसेप्ितनस्त्ट उनको पहचानिा है , “िे ख भाई जवान, हमें एक कमरा चादहये ष्जसमें िो बेड हों, साफ़ सुथरा हो, और बस आज की राि ही रहना है
हमको।... और हां नाश्िा हम बाहर ही करने वाले हैं ... अगर सुबह की चाय शमल जाए िो हमारा काम हो जाएगा।” मैनें होटल का नाम पढ़ा... हर की पौड़ी !
अब मेरी बारी थी। नरे न मौसा अब मुझे समझाने लगे, “िे खो पत्त ु र, रहणे को िो हम फाइव
स्त्टार होटल में भी रह लें । मझ ु े पिा है कक िझ ु े पैसे की कोई कमी नहीं। पर असी अपणा पैसा सट् ु दटये क्यों? रािां दिया नौकररयां कर कर के पैसा कमाया है िं।ू ”
राि को नीन्द्ि कैसे आिी... क्या राि अभी बाक़ी थी... घड़ी िे खी... अब इसे सुबह के िो बज कर पैंिालीस शमनट कहे या कफर या कफर राि के। सुबह सुबह िो नहा धो कर तनकलना होगा अपने पण्डे को खोजने।
“काका िूं वेखीं... कोई परे िानी नहीं होणीं... बस असी उत्थे ककसी वी पण्डे नूं पुछ लांगे कक साढा पण्डा ककथे है , िे मजाल है कक कोई वी साढे नाल झूठ बोल जावे... इन्द्हां पण्डयां ववच आपस ववच बड़ी ईमानिारी है । कोई ककसे िा जजमान नहीं मारिा। िूं कल वेखीं।”
मौसा जी को िायि थोड़ी परे िानी हो रही थी कक मैं कुछ जवाब नहीं िे रहा था।
मैं
लगािार सोच रहा था कक बाऊजी को राि को कैसा महसस ू हुआ होगा। ऐसा कैसे संभव है कक एक इन्द्सान राि को सोए और सब ु ह उठे ही नहीं। नरे न मौसा भी कह रहे थे, “काका िेरे
बाऊजी नंू िां िे वियां वगी मौि शमली है । इस िरह नीन्द्ि ववच उडारी भर लैणी।... बड़े ककस्त्मि वाशलयां नंू एहो जही मौि शमलिी है ।”
बाि करिे करिे नरे न मौसा के ख़राषटे सुनाई िे ने लगे। उनका जीवन ककिना सरल है ककिना
तनश्छल। मेहनिी इन्द्सान हैं, मानविा उनमें कूट कूट कर भरी है । ककसी के साथ छल कपट
नहीं। मेरे बाऊजी ने ही उनका ररश्िा मेरी मासी से करवाया था। बाऊजी हमेिा कहा करिे – “भाई नरे न्द्िर ने तनभाया बहुि सोहणा है ... अपणे परवार लई जान िें िा है ।”
मेरे िरीर का कुछ ऐसा हाल था कक जागूं िो नींि आए और सोने का प्रयास करूं िो नींि
तनकट न आए। उस थके हुए िरीर को जब गरम पानी से स्त्नान करवाया िो महसूस हुआ कक िरीर अभी जीववि है । कमरे में फ़ोन नहीं था। नरे न मौसा मुझसे पहले ही नहा चक ु े थे। मैंने अभी िक कमरे को ठीक से िे खा नहीं था। िो शसंगल बैड जोड़ कर बबछाए हुए थे। इसीशलये राि को िोनों को अलग अलग कम्बल शमल गये थे। कम्बलों के नीचे और ऊपर
सफ़ेि रं ग की चािरें थी। कपड़े टांगने की एक अल्मारी, एक मेज़ और एक कुसी। टी.वी. या रे डडयो जैसी कोई चीज़ नहीं दिखाई िे रही थी। हां ऊपर एक सीशलंग फ़ैन यातन कक छि का
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पंखा ज़रूर लगा हुआ था। मौसम ऐसा नहीं था कक हमें उस पंखे की आवश्यकिा महसूस होिी। कमरा साफ़ था... यही वािा नरे न मौसा ने ककया भी था कक कमरा साफ़ होगा। नरे न मौसा के आिे िानस ु ार रे में रखी िो चाय और बबस्त्कुट भी आ पहुंच।े मौसा चाय को सड़ ु क कर पीिे हैं। कहिे हैं कक जब िक चाय को सड़ ु का ना जाए िो चाय का स्त्वाि ही नहीं पिा चलिा। चाय पीिे पीिे ही एक सवाल िाग़ दिया, “मौसा जी, जब अष्स्त्थ ववसजषन हो ही गया है िो कफर हम अपने पण्डे से शमलने क्यों जा रहे हैं।” “काका जी, बाि ये है कक हमने जाके आपके पण्डे के पास बाऊजी की मौि रष्जस्त्टर करवानी है । ये पण्डे ितु नयां के ककसी भी कम्प्यूटर से ज़्यािा ऑगेनाइज़्ड हैं। ये आपकी वपछली साि पुश्िों की दहस्त्टरी आपको बिा सकिे हैं। आपके बाऊजी जब अपने वपिा जी को यहां छोड़ने
आए थे िो उन्द्होंने एक रष्जस्त्टर में साइन ककये होंगे। उसकी एन्द्री भी आपको शमले गी। इन पण्डों के बहीखािे िो चगनेस बुक में रष्जस्त्टर होणे चादहयें।” मौसा जी ने पहले एक िक ु ान पर रुक कर पूरी भाजी का ऑडषर दिया... वहीं कुशसषयां लगी
थीं। अनमने भाव से मैंने पूरी खानी िुरू की... वैसे ही पूरी परांठे छोड़े हुए एक लम्बा असाष हो गया है ... कमर का कमरा बनिा जा रहा है ... मगर बेदिली से ही पूरी और आलू की भाजी खाने लगा...पूररयां अच्छी बनी थीं मगर जब खाने की इच्छा न हो िो माल पड़ ू े भी लौकी और िुरई जैसे लगने लगिे हैं।
मैंने अपने मन की िवु वधा नरे न मौसा के सामने उड़ेल िी, “मौसा जी, ब्राह्मण िो हम भी हैं, कफर हम अपने ही अंतिम संस्त्कार के शलये आचायष और पण्डों पर क्यों तनभषर करिे हैं। हम लोग अपने पररवार में ही ककसी को यह ववचध क्यों नहीं शसखा लेिे? ” “कौण शसखेगा ? ना िूं शसखेंगा ?.... काका कहणा बड़ा असान है , पर करण वास्त्िे कोई
िैयार नहीं होन्द्िा। िूं आप हवाई जहाज िी नौकरी करिां हैं... भला िूं एह कम ककवें कर
सकिा हैं।... िरअसल असी उच्चे कुल िे ब्राहम्ण होन्द्िे हां। ऐह आचायष वगैरह मैले ब्राह्मण होन्द्िे ने... छोटे ब्राहम्ण... मुिषयां िा ऐही खा सकिे ने। सानु मनाही है मुिषयां िा खाणा।”
बािें करिे करिे हम पहुंच गये हर की पौड़ी... मझ ु जैसा नाष्स्त्िक भी उस दृश्य को िे ख कर कुछ समय के शलये परमात्मा में ववश्वास करने लगा... अद्भि ु नज़ारा... वहां एक पण्डे से पूछा कक पंजाब के मोहला लोगों के महन्द्ि कहां होिे हैं... उन लोगों ने आपस में कुछ खस ु र
पुसर की... इससे पहले कक कोई हमें बिा सकिा एक और पण्डा आया, “बोलो साब, क्या काम है ?”
पहले पण्डे ने उसे बीच में ही टोक दिया, “अरे कुछ नहीं, इनका अपना महन्द्ि है ।... जी सेठ, आपके पण्डे का नाम है पंडडि हुकुम चन्द्ि पाठक... िरअसल आपके पण्डे थे पाठक जी, इंदस े ना ु ंचत
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उनकी िो हो गई मत्ृ यु। आजकल उनका काम उनकी पत्नी िे ख रही है – िकुन्द्िला पाठक। यहां नज़िीक ही बड़े बाज़ार में उनकी हवेली है – रामचगरी हवेली। यहां से कोई िस बारह
शमनट लगें गे पैिल चलने में । ...वहां आप मौि रष्जस्त्टर करवा सकिे हैं।... वैसे वह डांट िे िी है .... बुरा ना मातनयेगा। ” इिनी ईमानिारी बहुि कम िे खी थी। अभी कुछ ही क़िम चले थे के मौसा जी ने कहा, “काका जी, गंगा-स्त्नान करणा है ?” “जी मौसा जी, पहले काम कर आिे हैं, कफर वापसी में कर लेंगे। ” मौसा जी को पण्डों का मज़ाक उड़ाने में बहुि आनन्द्ि की अनुभूति होिी थी, “काका, ऐथों िे पण्डयां ने इक अलग ितु नयां वसाई होई है । ऐ लोग इन्द्सान िी तछल लाह लैन्द्िे ने।... आ िैनूं इक िमािा दिखावां।”
इसके साथ ही मैंने िे खा कक चारों िरफ़ से तघरा एक स्त्थान है जहां एक गाय बंिी खड़ी है , एक चारपाई है , एक बबस्त्िर बंधा हुआ है , एक लालटे न, एक छािा, एक टाइम पीस, एक जोड़ी मिाषना कपड़े और एक जोड़ी ज़नाना कपड़े, एक मिाषनी चप्पल और एक ज़नाना चप्पल। वहां पास एक और खदटया पर एक पण्डा सस्त् ु िा रहा था। मैं अनायास पछ ू बैठा, “ये सब क्या है ?”
नरे न मौसा से पहले ही पण्डा स्त्वयं बोल पड़ा, “िे खो बेटा हम यहां कक्रयाकमष करिे हैं। मरने वाले की आत्मा की िाष्न्द्ि के शलये हम वे सब चीज़ें यहां रखिे हैं ष्जनकी उसे अगली ष्ज़न्द्िगी में ज़रूरि होगी। िुम यहां मि ृ क के नाम से जो जो चीज़ें िान कर जाओगे, वे सब उसे स्त्वगष में मुहैय्या हो जाएंगी। यहां पांच सौ से ले कर पांच हज़ार िक के कक्रयाकमष की सुववधा मौजूि है ।”
मेरी आंखों में अतनष्श्चििा िे ख कर पण्डा स्त्वयं ही बोल पड़ा, “इसमें परे िान होने की िो
कोई बाि ही नहीं ना। िे खखये अगर आपका बजट पांच सौ रुपये का है िो बस आप खाट, बबस्त्िर और कपड़ों को हाथ लगा िीष्जये। ये मि ृ क के नाम से िान हो जाएंगे। जैसे जैसे आप नग बढ़ािे जाएंगे, वैसे वैसे िाम बढ़िे जाएंगे। पांच हज़ार में गौिान का लाभ भी शमल जाएगा।” हड्डडयां दिखाई िे िी गाय जैसे परु ज़ोर िरीके से हमें बिा रही थी कक जो पैसे गौिान से पण्डे को शमलिे हैं उनके िस प्रतििि भी गाय के पेट में नहीं जािा। कहिे हैं कक धमष श्रद्धा पर तनभषर करिा है मगर यहां िो धमष का परू ा व्यवसायीकरण हो चक ु ा है ।
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मेरी कोई रुचच न िे खकर पण्डे ने आखख़री अस्त्र चलाया, “िे ख लीष्जये सेठ, आपको डडस्त्काउण्ट भी शमल सकिा है । चशलये हटाइये साढ़े िीन हज़ार में पांच हज़ार वाली कक्रया करवा लीष्जये। आपको कुछ ख़ास िो करना नहीं है , बस जो जो चीज़ कक्रयाकमष में िाशमल
करनी है उसको छूना है और मेरे पीछे मन्द्रों का जाप करना है । ज़्यािा से ज़्यािा बीस शमनट का काम है ।” और मैं सोच रहा था कक यह सारा सामान जो सामने रखा है , दिन भर में
ककिनी आत्माओं की िांति के शलये इस्त्िेमाल में लाया जािा होगा... दिन-ब-दिन, सप्िाह िर सप्िाह और कफर महीना और साल। आत्माओं को भी ठगा जा रहा है । मुझे यह भी समझ नहीं आ रहा था कक मैं अपने बाऊजी के अष्स्त्थ ववसजषन के शलये आया
हूं या आलू बैंगन ख़रीिने। ककिनी बेिरमी से मोल भाव हो रहा था। दढठाई उस पण्डे के चेहरे पर बेग़ैरिी से छाई हुई थी। वहां रुकना संभव नहीं लग रहा था। बाज़ारवाि िो यहां
नहीं पहुंचा कफर यह सब क्या है ? एक िरह से मत्ृ यु का बाज़ार िो लगा ही है ... गंगा के ककनारे आपके सामने निी से पानी भर भर कर गंगाजल बबक रहा है ... सबकुछ िे ख कर लग रहा था जैसे यहां से सारा सामान हमारे मि ृ कों की आत्माओं के साथ हवाई जहाज़ द्वारा भेज दिया जाएगा।
वहां से गंगा निी की ख़ब ू सरू िी िे खिे िे खिे हम चल दिये अपने महन्द्ि का अड्डा िे खने के शलये। रास्त्िे में बािें बाऊजी की सोच के बारे में हो रही थीं। क्या वे यह सब करिे जो हम
कर रहे हैं। कफर याि आया कक बाऊजी भी िो मेरे िािाजी की अष्स्त्थयां यहां लाए थे। उनके हस्त्िाक्षर भी िे खने को शमलें गे। आज बाऊजी की अनप ु ष्स्त्थति में उनके हस्त्िाक्षर िे खने के ववचार से ही रोमांच सा हो रहा था।
हम पहुंच भी गये। हमारा महन्द्ि िो ख़ासा खािा पीिा इन्द्सान लग रहा था। भव्य सी धमषिाला और बहुि से कमरे । एक कमषचारी ने थोड़ी बेरूख़ी से पूछा, “ककससे काम है ?” “भाई हम दिल्ली से आए हैं, अष्स्त्थ ववसजषन...।” उसने बाि पूरी भी नहीं होने िी, बीच में ही काटिे हुए बोला, “पष्ण्डिाइन से शमल लीष्जये। वही करिी हैं सब दहसाब ककिाब।”
उस व्यष्क्ि ने हमें एक मोटी, दठगनी, गोरी, चश्मेधारी मदहला के सामने ले जा कर खड़ा कर
दिया। वह नरे न मौसा को िायि पहचान भी गयी थी, “हां जी कहां है अष्स्त्थयां ?” उसने बबना ककसी ख़ैर-ख़रीयि पूछिे हुए सवाल िाग़ दिया। और मैं िो िमष के मारे गढ़ा जा रहा था। “वह काम िो हम कर आए।... अब िो नाम शलखवाने आए हैं।” जैसे बबफर ही िो पड़ी पण्डिाइन, “आप जजमान लोगों के शसर पर ही िो इिनी बड़ी धमषिाला खड़ी की है । न िो आप आकर इसमें रहो, और न ही आप हमसे अष्स्त्थ ववसजषन इंदस े ना ु ंचत
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करवाओ। िो हम यह िामझाम ककसके शसर पर चलाएंगे।... ना उस पण्डे ने भी िो अष्स्त्थ ववसजषन की िक्षक्षणा कुछ न कुछ िो ली होगी।... हमारे िो रे ट भी सामने बोडष पर शलखे हैं। अब आप बिाइये कक आपकी रष्जस्त्री करने में हमारा टाइम बरबाि न होगा क्या?”
मैं उस पष्ण्डिाइन के सामने अपराधी सा महसूस करने लगा। मैं नहीं चाहिा था कक नरे न
मौसा उसके साथ ककसी भी िरह की बहस में पड़ें। बबना ककसी ना नुकर ने मैंने एकिम ठण्डी आवाज़ में पछ ू ा, “जी, अगर आप अष्स्त्थ ववसजषन करवािीं िो ककिना पैसा लगिा।”
“हम कोई लुटेरे नहीं है जजमान, हम भी शसफ़ष िो सौ इक्यावन रुपये ही चाजष करिे हैं।...
िे ख लो सामने बोडष पर शलखा है । वैसे आप चाहें िो जो मज़ी हो िान कर सकिे हैं।... यह सब चलाने में ख़चाष िो होिा है ना।” “और अगर हम िोनों एक राि आपकी धमषिाला में रहिे, िो ककिना पैसा लगिा ?” “उसके सौ रुपये लगिे।... सुबह की चाय हम मुफ़्ि में िे िे हैं।” मैंने चप ु चाप अपनी जेब से पसष तनकाला और पांच सौ रुपये तनकाल कर पष्ण्डिाइन के हाथ में रखिे हुए कहा, “माफ़ कीष्जयेगा, हमसे ग़लिी हो गई। ये पांच सौ रुपये आपके बनिे हैं। हमें इधर उधर कहीं भटकना ही नहीं चादहये था। सीधे आप ही के पास आना चादहये था।
अब आप हमारे वपिा जी की मत्ृ यु िजष कर लीष्जये।” नरे न मौसा कसमसाए, मगर मौक़े की नज़ाकि को िे खिे हुए चुप रह गये।
पष्ण्डिाइन हमें एक बड़े से हॉल में ले गई, जहां लाल रं ग की पोचथयां ही पोचथयां रखी थीं, “ऐसे चार हॉल हैं हमारे पास ष्जनमें आप जजमानों के ररकॉडष रखे हैं। इनकी संभाल आपको
मालम ू ककिनी कदठन होिी है ?... हां रे जरा िे खखयो... ये मोहला हैं झंग के... िे खो जी, अगर
आपकी सच ू ना सही होवे न िो हमारे यहां ढूंढने में पांच से िस शमनट लगिे हैं बस।... क्यों रे , शमला के.... ?”
और मैं हिप्रभ उन पोचथयों की महक महसूस कर रहा था... उन पोचथयों में ककिने मि ृ कों के नाम िफ़न होंगे... उन्द्हीं में आज मैं भी अपने बाऊजी का नाम भर कर अपने हस्त्िाक्षर कर िं ग ू ा... वहां बाऊजी के भी हस्त्िाक्षर होंगे... िािाजी का भी नाम होगा... कल को मेरा पुर
यदि यहां आिा है िो, वह भी मेरा नाम िजष करवा के अपने हस्त्िाक्षर करे गा... इन पोचथयों में मरे हुए नामों के साथ ष्ज़न्द्िा लोगों के हस्त्िाक्षर साक्षी हैं कक जीवनधारा अववरल बहिी रहिी है ... कभी रुकिी नहीं। लगभग बारह शमनट में पष्ण्डिाइन के कमषचारी ने एक बहीखािा मेरे सामने लाकर रख दिया। उसमें शलखा था कक मेरे बाऊजी वहां अपने वपिा की अष्स्त्थयां लेकर आए थे। बाऊजी इंदस े ना ु ंचत
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अपने हस्त्िाक्षरों में अंग्रेज़ी के ‘कैवपटल लेटर ’ का
इस्त्िेमाल नहीं करिे थे बष्ल्क ‘लोअर
केस’ से ही काम चलािे थे। यही उनके हस्त्िाक्षरों की पहचान भी थी ‘एन’ और ‘जी’ को ष्जस िरह शमलाया करिे थे...। मैंने िे खा, और बाऊजी को उन काग़ज़ के पन्द्नों पर महसूस ककया... उन हस्त्िाक्षरों पर अपने िाएं हाथ की उं गशलयां कफराईं... आंखें बन्द्ि करके मैंने अपनी ष्ज़न्द्िगी भर की बेहूिचगयों के शलये बाऊजी से क्षमा मांगी। उस बहीखािे में मैंने अपने हाथों से अपने बाऊजी की मत्ृ यु के बारे में वववरण शलखा। ऐसा
लगा जैसे बाऊजी की मत्ृ यु अब हुई है , इसी पल। कमरे की सीलन... बहीखािों की महक... और फ़ाउण्टे न पेन से की गई एन्द्री... आंखों में जमे हुए आंसू... एक बार छि की िरफ़
िे खा... कम से कम बीस फ़ुट ऊंची िो होगी ही... ऊपर िक बहीखािे ही बहीखािे... चारों िरफ़ से िीवारें िो दिखाई ही नहीं िे रही थीं... ट्यूब-लाइट जल रही थी... कमरा उजला था...
बस लाल लाल बहीखािे... क्या कभी ये सभी नाम एक िस ू रे से बािचीि करिे होंगे... ये िो सभी एक ही बबरािरी, भार्ा और क्षेर के लोग हैं... क्या उस कमरे में सरायकी भार्ा सुनाई िे िी होगी... ये मि ृ क आपस में क्या बािें करिे होंगे... इिनी िांति मुझे अष्स्त्थ ववसजषन
करिे समय नहीं शमली थी ष्जिनी कक िकुन्द्िला पाठक की हवेली में मत्ृ यु िजष करवािे समय शमली।
यह िे ख कर अच्छा लगा कक नरे न मौसा ने िकुन्द्िला पाठक के साथ मेरे व्यवहार पर एक
भी दटप्पणी नहीं की। िायि उन्द्हें भी पहली बार महसस ू हुआ था कक मैं बड़ा हो गया हूं। या कफर पैसे की िाक़ि होिी ही ऐसी है कक सामने वाला उसके िबाव में आ ही जािा है । मेरे ररश्िेिारों में मेरी छवव एक अमीर आिमी की है । न जाने कैसे बन गई है ... मगर महसस ू करिा हूं कक... वहीं ररश्िेिारों की एक ऐसी जमाि भी है जो मझ ु े आज भी लोअर शमडल क्लास का लड़का ही समझिी है ... मझ ु े कोई फ़कष नहीं पड़िा।...
दिमाग़ में सुकून शलये हम वावपस गंगा जी के सामने आ पहुंच.े .. वहां पानी के बहाव को िे खकर कुछ डर का सा अहसास होने लगा था। ककन्द्िु सामने मदहलाओं, पुरुर्ों और बच्चों को पानी में डुबकी लगािे िे ख मन में ज़ोरिार इच्छा जागि ृ होने लगी कक गंगा जी में हम भी उिर ही जाएं। मौसा जी ने मेरे मन की इच्छा को भांप शलया था। मैं जीवन में पहली
बार ककसी निी में उिरा था, और वह भी सीधे गंगा-स्त्नान... क्या सच में मेरे शलये इिना महत्वपण ू ष है यह पल... न जाने क्यों अच्छा लग रहा है ... पानी का िापमान मेरी हड्डडयों को महसस ू हो रहा था... बहाव इिना िेज़ था कक वहीं लगी लोहे की संगलों को पकड़ कर खड़ा
होना पड़ रहा था... पांव के नीचे से ज़मीन को पानी उड़ाए शलये जा रहा था... जैसे मैं अचानक जीववि हो उठा था। मौसा चाहिे थे कक मैं राि को महा-आरिी िे ख कर ही जाऊं, “काका जी, गंगा जी िी आरिी िःु खां नूं ग़ायब कर िे न्द्िी है । मन िे ववचों सारे कष्ट आपे ही ख़िम हो जान्द्िे ने।” इंदस े ना ु ंचत
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मेरी चप्ु पी नरे न मौसा के शलये स्त्वीकृति थी और मैं अपने आप को छल रहा था। मेरे भीिर
का वामपन्द्थी यह मानने को िैयार नहीं था कक मुझे इस सबसे सुख प्राप्ि हो रहा है । मैं अपने आपसे कह रहा था कक मैं िो नरे न मौसा की बाि रख रहा हूं... मगर क्या यह सच था... नहीं... मैं गंगाजी के वैभव से इिना सम्मोदहि हो चक ु ा था कक उन्द्हें केवल गंगा नहीं
कह पा रहा था... अचानक वहां की हर नकारात्मक चीज़ सकारात्मक लगने लगी... आरिी यदि न िे खी होिी िो िायि कभी न पिा चलिा कक जीवन में ककस चीज़ की कमी रह गयी... पानी पर चलिे िीपक... पानी और आग का ऐसा संगम... अद्भुि! नरे न मौसा के साथ पहली यारा की वापसी भी वैसी ही रही जैसी कक िुरूआि थी। मौसा जीवन, मत्ृ यु, गरुण पुराण, भगवि गीिा और मनु स्त्मतृ ि की बािें करिे रहे । बाऊजी को याि करिे रहे ... और मैं सुनिा रहा।
मगर आज, बाि िस ू री है ... यह हमारी िस ू री यारा है आगे टै क्सी ड्राइवर और पीछे मैं और नरे न मौसा। आज उनके हाथ में उनके पुर की अष्स्त्थयां हैं। िीस वर्ीय पुर... हमारे घरों में
िायि सभी पुरों को काका ही कहा जािा है ... नरे न मौसा उसे भी काका ही कहिे हैं... वैसे नाम िो अमर था... ष्जसका अमरत्व बस िीस वर्ष िक ही चल पाया...
आज मौसा की आंखों में मौि का सन्द्नाटा पसरा हुआ था। उनका भववष्य उनके साथ एक कलि में बन्द्ि था... कैंसर ने अमर को परास्त्ि कर दिया था... कभी छोटा सा अमर ऐसे ही नरे न मौसा की गोि में खेलिे खेलिे सो जािा होगा... िीन बहनों का अकेला भाई... पत्नी बेहाल... अभी कोई बच्चा नहीं... बस िो साल पहले ही वववाह हुआ था...चेहरे पर हमेिा मुस्त्कान... बड़ों का सम्मान... इज्ज़ि... स्त्नेह... आज गंगा उल्टी बहने वाली है ... आज पुर अपने वपिा की मत्ृ यु बहीखािे में नहीं भरे गा... आज वपिा अपने पुर का नाम शलख कर हस्त्िाक्षर करे गा... ठीक उसी पन्द्ने में नीचे जहां उसने अपने वपिा की मत्ृ यु का वववरण भरा था।
आज टै क्सी कहीं रास्त्िे में नहीं रुकेगी... कोई पण्डा हमें कहीं अन्द्जान जगह पर ले जाकर ्यारह पष्ण्डिों को भोजन करवाने का संकल्प नहीं करवाएगा... आज टै क्सी सीधी बड़े बाज़ार की रामचगरी हवेली के सामने जा कर रुकी। नरे न मौसा और मैं उसी धमषिाला में जा कर दटके ष्जसकी मालककन िकुन्द्िला पाठक थी। सब ु ह मल ु ाक़ाि हुई हवेली के नये माशलकों से - िकुन्द्िला पाठक के िोहिे नन्द्ि कुमार और राजीव से। पढ़े शलखे महन्द्ि... एक कंप्यट ू र एक्सपटष िो िस ू रा गरू ु कुल कांगड़ी का ववद्वान। छोटे राजीव ने बिाया, “हमारा प्रयास यह है कक हमारे पास ष्जिना भी डाटाबेस है उसे हम कंप्यट ू र की हाडष डडस्त्क में सेव कर लें। काम जारी है मगर आप समझ सकिे हैं कक ककिना
बड़ा काम है ।... हो सकिा है कक जब आप अगली बार आएं िो आपको हमारी ये पोचथयां इंदस े ना ु ंचत
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दिखाई ही न िें ... कम्प्यूटर ने सब काम बहुि सरल कर दिया है । मेरा मानना है कक वैज्ञातनक उपलष्ब्धयों का इस्त्िेमाल जीवन में होना बहुि ज़रूरी है ।” आज नरे न मौसा ने इिनी बड़ी सच ू ना पर कोई प्रतिकक्रया नहीं िी। उनकी आंखों में गहरे िक
केवल मौि की सच्चाई थी। उनके अपने भववष्य मे उल्टा हो रहा था... कंप्यट ू र से बहीखािे की ओर वापसी हो रही थी। िो बेदटयों की िािी हो चक ु ी है ... अभी िीसरी िो घर पर है कंु वारी... और काका उन्द्हें छोड़ अपनी अंतिम यारा पर तनकल चक ु ा है ...
अबकी बार कोई डुबकी नहीं, बस बेदिली से ककया गया नाश्िा... केवल टोस्त्ट और चाय...
अबकी बार िो अष्स्त्थ-ववसजषन भी नन्द्ि कुमार ने ही ककया... िकुन्द्िला को ककया वािा उसके िोहिों के साथ तनभाया जा रहा था।
टै क्सी वावपस दिल्ली की यारा के शलये चल िी थी। नरे न मौसा की आंखों से आंसू बाहर आना चाह रहे थे। मैं िे खिा था मगर नहीं िे खिा था। उनकी गीली आंखों में भी एक सवाल था कक कल को उनकी अष्स्त्थयां कौन लाएगा... कौन संभालेगा उनका उत्तरिातयत्व? जैसे जैसे दिल्ली तनकट आ रही थी, मेरे मन की बेचन ै ी बढ़िी जा रही थी... मैंने नरे न मौसा का हाथ अपने हाथ में ले शलया, उनकी नम आंखों की िरफ़ िे खा। मेरी हथेली उनकी हथेली से कह रही थी, “नरे न मौसा... बस... आज से आपको आपकी ष्ज़म्मेिाररयों से ररटायर कर रहा हूं... अब पररवार की यह ष्ज़म्मेिारी मेरी है ... जब िक जीववि हूं... मैं हूं न.... ” नरे न मौसा की हथेशलयों में कंपन साफ़ सुना जा सकिा था।
िचनाकाि का परिचय
जन्म / बचपन :21 अक्टूबर 1952 को पंजाब के िहर जगरांव में । उचाना, रोहिक (अब हरयाणा में ) व मौड़ मंडी में बचपन के कुछ वर्ष बबिा कर 1960 में वपिा का िबािला उन्द्हें
दिल्ली ले आया । पंजाबी भाषी िेजेन्द्र िमाष की स्त्कूली पढ़ाई दिल्ली के अंधा मुग़ल क्षेर के सरकारी स्त्कूल में हुई।
शिक्षा:दिल्ली ववष्श्वद्यालय से बी.ए. (ऑनसष) अंग्रेज़ी, एवं एम.ए. अंग्रेज़ी, कम्पयूटर कायष में डडप्लोमा ।
प्रकाशित कृततयां :1. काला सागि (1990) हढबिी टाईट (1994), दे ि की कीमत (1999) यि क्या िो गया ! (2003), बेघि आंिें (2007), सीिी िे िा की पितें (2009 - िेजेन्द्र िमाष की समग्र कहातनयां भाग-1), कब्र का मुनाफ़ा (2010) सभी कहानी
संग्रह । ये घि तुम्िािा िै ... (2007 - कवविा एवं ग़ज़ल संग्रह)। दीिाि में िास्ता (कहानी संग्रह – 2012), प्रतततनधि किातनयां (कहानी संग्रह – 2014), मेिी वप्रय कथाएं (2014), सपने मिते निीं (कहानी संग्रह – 2015), श्रेष्ठ किातनयां (कहानी संग्रह – 2015, National Book Trust)।
इंदस े ना ु ंचत
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181 अनूहदत कृततयां
: Grave Profits (In English), हढबिी टाइट, एवं कल फेि आणा नाम से पंजाबी, इाँटों का जंगल नाम से
उिष ू , पासपोटा का िं गिरू नाम से नेपाली व तनिााधचत काितनयां (बां्ला) में भी उनकी अनूदिि कहातनयों के संग्रह प्रकाशिि हुए हैं। िेजेन्द्र िमाष की कहातनयां उडड़या, मराठी, गज ु रािी, चेक भार्ा एवं अंग्रेज़ी में भी अनदू िि हो चक ु ी हैं।
संपादन – समुद्र पाि िचना संसाि (2008) (21 प्रवासी लेखकों की कहातनयों का संकलन)। यिां से ििां तक – (2006-बब्रटे न के कववयों का कवविा संग्रह), त्रब्रटे न में उदा ू कलम (2010), समुद्र पाि हिन्दी ग़ज़ल (2011), प्रिासी संसाि – कथा वििेषांक (2011)। सज ृ न संदभा पबरका का प्रवासी सादहत्य वविेर्ांक (2012)। दे िान्ति – प्रवासी कहानी संग्रह (दिल्ली दहन्द्िी अकािमी – 2012),लन्द्िन से प्रकाशिि पबरका पुििाई का संपािन।
अंग्रेज़ी में : 1. Black & White (biography of a banker – 2007), 2. Lord Byron - Don Juan (1976), 3. John Keats The Two Hyperions (1977) *कहानी अशभितत चौधरी चरण शसंह ववश्वववद्यालय, मेरठ के एम.ए. दहन्द्िी के पाठ्यक्रम में िाशमल। पासपोटष का रं ग महात्मा बुद्ध ववश्वववद्यालय नोयडा में ।
तेजेन्द्र िमाा के लेिन पि उपलब्ि पस् ु तकें : 1. िेजेन्द्र िमाष – िक़्त के आइने में (संपािकः हरर भटनागर), 2. िचना
समय – तेजेन्द्र िमाा वििेषांक (संपािकः हरर भटनागर), 3. बातें (तेजेन्द्र िमाा के साक्षात्काि) – संपािकः मधु अरोड़ा 4. हिन्दी की िैप्श्िक किानी (संिभष िेजेन्द्र िमाष का रचना संसार) – संपािकः नीना पॉल, 5. कथा त्रत्रकोण (संपािक श्रीतनवास श्रीकान्द्ि), 6. नई िािा वििेषांक (संपािक शिवनारायण – 2015)। 7. कभी अपने कभी पिाए – तेजेन्द्र िमाा (2015 संपािक – आिीर् कंधवे) अन्य लेिन:
िरू ििषन के शलये िांतत सीररयल का लेखन ।
गततविधियां : अन्द्नु कपूर द्वारा तनिे शिि कफ़ल्म अभय में नाना पाटे कर के साथ अशभनय। बी.बी.सी. लंिन, ऑल
इंडडया रे डडयो, व िरू ििषन से कायषक्रमों की प्रस्त्िुति, नाटकों में भाग एवं समाचार वाचन। ऑल इंडडया रे डडयो, व सनराईज़ रे डडयो लंिन से बहुि सी कहातनयों का प्रसारण । पुिस्काि/सम्मान: 1. 2. 3. 4.
केन्द्रीय दहन्द्िी संस्त्थान, आगरा का डॉ. मोटुिी सत्यनािायण सम्मान – 2011. यू.पी. दहन्द्िी संस्त्थान का प्रिासी भाितीय साहित्य भष ू ण सम्मान 2013. िरियाणा िाज्य साहित्य अकादमी सम्मान - 2012
दढबरी टाइट के शलये मिािाष्र िाज्य साहित्य अकादमी पुिस्काि
- 1995 प्रधानमंरी श्री अटल बबहारी
वाजपेयी के हाथों । 5.
अंतििाष्रीय स्पंदन हिन्दी कथा सम्मान - 2012
6.
सियोग फ़ाउं डेिन का यव ु ा सादहत्यकार परु स्त्कार - 1998
7. 8. 9.
सुपथगा सम्मान - 1987
कृतत यू.के. द्वारा वर्ष 2002 के शलये बेघि आंिें प्रथम संकल्प साहित्य सम्मान – दिल्ली (2007)
को सवषश्रेष्ठ कहानी का पुरस्त्कार।
10. तििली बाल पबरका का साहित्य सम्मान – बरे ली (2007) 11. भारिीय उच्चायोग, लन्द्िन द्वारा डॉ. िरििंििाय बच्चन सम्मान (2008)
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
182 वििेष : वर्ष 1995 से भारि में 40 वर्ष से कम उम्र के कथाकारों के शलये इंद ु िमाा कथा सम्मान की स्त्थापना। लंिन में प्रवासी हो जाने के पश्चाि नई ििाब्िी के साथ ही इंि ु िमाष कथा सम्मान को अंिराषष्रीय स्त्वरूप दिया गया। वर्ष 2000 से
ही
इंगलैंड में रह कर दहन्द्िी सादहत्य रचने वाले सादहत्यकारों को सम्मातनि करने हे िु पदमानंद साहित्य सम्मान की िुरूआि की गई। अंतिााष्रीय इंद ु िमाा कथा सम्मान एवं पदमानंद साहित्य सम्मान का आयोजन अब प्रति वर्ष बब्रटे न के हाउस ऑफ़ लॉड्षस में आयोष्जि ककया जािा है ।
कथा (य.ू के.) के माध्यम से लंिन में तनरं िर कथा गोष्ष्ठयों, कायषिालाओं एवं सादहष्त्यक कायषक्रमों का आयोजन । लंिन में कहानी मंचन की िुरूआि िापसी से की। लंिन एवं बेष्ज़ंगस्त्टोक में , अदहंिीभार्ी कलाकारों को लेकर एक दहंिी नाटक िनीमून का सफल तनिे िन एवं मंचन ।
अंतिााष्रीय हिन्दी सम्मेलन : 1999 में लन्द्िन ववश्व दहन्द्िी सम्मेलन, 2002 में बरतनिाि में आयोष्जि अंिराषष्रीय दहन्द्िी सम्मेलन में शिरकि की। लंिन, मैनचेस्त्टर, ब्रैडफ़डष व बरशमंघम में आयोष्जि कवव सम्मेलनों में कवविा पाठ ।यॉकष ववष्श्वद्यालय में कहानी कायषिाला करने वाले बब्रटे न के पहले दहन्द्िी सादहत्यकार। बशमिंघम में रवीन्द्र काशलया एवं ममिा काशलया के साथ संयुक्ि रूप से दहन्द्िी कायषिाला का संचालन। 2010 में डी.ए.वी. गल्ज़ष कॉलेज, यमुना नगर के साथ शमल कर कथा य.ू के. ने 3-दिवसीय प्रवासी कथा सम्मेलन का आयोजन ककया। 2012 में एस.आई.ई.एस. कॉलेज, मुंबई के साथ शमल कर 2-दिवसीय प्रवासी सादहत्य सम्मेलन का
आयोजन। 2013 में डी.ए.वी. गल्ज़ष कॉलेज, यमुना नगर के साथ शमल कर कथा यू.के. ने 2-दिवसीय प्रवासी कथा सम्मेलन का आयोजन ककया। BHU के साथ शमल कर 2016 में प्रवासी दहन्द्िी सम्मेलन का आयोजन। संप्रततः बब्रदटि रे ल (लंिन ओवरग्राउण्ड) में कायषरि।
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क्या आपने िमें दे िा िै
जया जादिानी क्या आपने उस भूरे –लम्बे बालों वाले लड़के को िे खा है ? ष्जसे मैं कई दिनों से िे ख
रही हूँ. ष्जसने दहप्पी स्त्टाइल में ढीले –ढाले कपड़े पहन रखे हैं ...तघसी हुई जीन्द्स...सलवटों वाली टी िटष और खूब सारे जेबों वाली जैकेट. जेबें जो खाली झूलिी रहिी हैं िुम्हारी चाहनाओं की िरह. उसके चलने में एक लापरवाह ककस्त्म की लापरवाही है जैसे वह कहीं नहीं
पहुंचना चाहिा. मुझे ऐसे लोग अच्छे लगिे हैं जो कहीं नहीं पहुंचना चाहिे. क्या आपने ककसी को कहीं पहुँचिे िे खा है ? इअरफोन अपने कानों से लगाये वह िायि म्युष्ज़क के साथ ही इस िहर को िे खिा है , म्युष्ज़क बैकग्राउं ड का काम करिा होगा जैसे हम कफल्मों में
िे खिे हैं बहुि सारी चीजें एक साथ पर जुड़िे उसी से हैं ष्जससे हमारी भीिर की िान शमल जाये. आप समझ रहे हैं न मैं क्या कह रही हूँ. जनाब ये िब्ि अक्सर गलि समझे जािे हैं जब शलखे जा रहे हों िब भी, जब कहे जा रहे हों िब भी. सबसे बेहिर है मौन.... रास्त्िा
मुष्श्कल जरूर है पर आपको सही जगह पहुंचािा है . अगर आप िरू से इन न जाने ककन-ककन िे िों –प्रिे िों से आये जवान लड़के –लड़ककयों को िे खें िो आप इनकी बाबि बहुि कुछ जान सकिे हैं. ष्जस्त्म का रांसमीटर बहुि पावरफुल होिा है . गािा हुआ ष्जस्त्म िो बहुि साफ़ सुनाई िे िा ही है रोिा हुआ भी. इन सबकी अलग –अलग कहानी और घर हैं .ष्जनसे ये उब और भागकर यहाँ आये होंगे. अगर मैं कोई लेखक होिी िो जरूर इनके बारे में न जाने ककिने ककस्त्से आपको सुना िे िी और सब सच होिे हालांकक मैं इनमें से ककसी को नहीं
जानिी. हर लेखक एक चलिा –कफरिा कबब्रस्त्िान होिा है , ष्जस भी मुिे को आवाज़ िें गे वही उठकर आपको एक कहानी सुनाने लगेगा. िे खखये जनाब जब मैं बहका करूँ आप मुझे टोक दिया कीष्जये.
हां िो मैं कह रही थी एक ही दिन अलग –अलग चार जगहों पर मुझे वह लड़का
दिखा...माउन्द्टररंग इंस्त्टीट्यूट के घने इलाके में जब मैं सुबह की सैर से वापस आ रही थी, एक पत्थर पर बैठा अपनी मोबाईल पर झुका न जाने क्या कर रहा था....आहट पाकर उसने क्षण भर को अपना शसर उठाया...एक सरसरी सी तनगाह मुझ पर डाल वापस उसी मुरा में .
नहीं –नहीं मुझे जरा भी बुरा नहीं लगा. जनाब, अब मेरी उम्र कोई इस िरह की बािों से बुरा
मानने की िो है नहीं. हालाँकक न िे खे जाने पर हर उम्र की औरि बुरा मानिी है और बड़ी उम्र की औरिें िो थक जािी होंगी अपनी िरफ ककसी चाहना से भरी तनगाह की प्रिीक्षा में
और उसी थकन में कफर वे चगर पड़िी होगीं अपनी पति की उिनी ही व्यस्त्ि और रस्त्ि गोि
में . आपने सूखी पष्त्त्तयाँ चबािे जानवरों को िे खा होगा. जब हमारे जीवन में रस नहीं रहिा हम एक –िस ू रे को बबल्कुल इसी िरह चबाने लगिे हैं. ये आनंि है जनाब ...एक वीभत्स इंदस े ना ु ंचत
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आनंि, अपनी जरुरि भर पूरी कर लेने का ...जानवरों से ऊपर उठने के पश्चाि ् भी जब –जब
मनुष्य उनके लेवल पर आया है इसी वीभत्स आनंि को जीने .पर इस बाि का यह अथष बबलकुल न तनकाशलयेगा कक अब मुझमें िे खने को कुछ नहीं बचा. जनाब, ये िो मेरी मुरव्वि है . आप एक बार शमलकर िो िे खखये, सोचने लगें गे काि! मैं इसके साथ जरा सा चल
पािा....जरा सा इसे छू पािा. खुि को िरािने का हुनर अगर बचपन में आपको ककसी ने शसखाया न हो िो बड़ी यािना सहने के बाि आिा है . इसके बाि िो इससे बड़ी ख़ुिी कोई
नहीं. आप बड़े मजे से अपने साथ रह लेिे हैं जैसे मैं रह रही हूँ वपछले पैिीस सालों से यह जानिे और िे खिे हुये भी कक अभी भी न जाने ककिनी आँखें और पैर मेरा पीछा कर रहे हैं. खैर, िस ू री बार उस छोटी सी बेकरी में बैठी जब मैं अपनी गमष वपज़्ज़ा का इंिज़ार कर रही
थी, वह भी िस ू री मेज पर बैठा कांच के िोकेस में सजी ठं डी पेस्त्रीयों और केक को िे ख रहा
था. जैसे कोई बच्चा िे खिा है ....उसने एक मैंगो पेस्त्री मंगवाई और खाने लगा. इस बार मैं उसे िे र िक िे खिी रही थी. गेहुंये रं गि वाला वह िब ु ला –पिला दहप्पी सा दिखिा लड़का मुझे रूठे हुए बच्चे सा ही िो लगा था. ष्जसका खखलौना ककसी ने तछपा दिया हो. हो सकिा है ... ष्जसके साथ आया हो या आना चाहिा हो वह ककसी िस ू रे के साथ चली गयी हो.
आजकल के लड़के –लड़ककयां एक –िस ू रे से बहुि जल्िी ऊब जािे हैं. उन्द्हें एक –िस ू रे के भीिर उिरने की ष्जिनी जल्िी रहिी है , बाहर आने की उससे ज्यािा. एक –िस ू रे को समझने
की लम्बी –काली- अंधेरी सुरंग...ककिना भी धीरे चलो हर बार पैर कफसलिा है ? यह संसार का सबसे मुष्श्कल रास्त्िा है जनाब ....बहुि कम लोग बहुि िरू िक जा पािे हैं. खैर, उसके लम्बे बाल इस वक्ि पोनी की िक्ल में पीछे बंधे हैं . बड़ा सा माथा चचकना ऐसा जान पड़िा
है , जैसे ....मैं कुछ सोच ही रही थी कक ...उसकी नज़र घूमी, मुझ पर पड़ी और मुड़ गयी. इस बार मुझे सचमुच अच्छा नहीं लगा. मुझे इिना साधारण ककसी ने महसूस नहीं कराया था. मैं मन ही मन हं स पड़ी और उठी एक तनणषय के साथ अपनी वपज़्ज़ा ख़त्म ककये बगैर. िीसरी बार वह उसी बस में बैठा था, ष्जसमें ‘कोठी’ जाने के शलए मैं बैठी थी. मुझे उम्मीि थी वह ऊपर ‘कोठी’ में भी जरूर दिखेगा अपनी मोबाईल से पहाड़ों और झरनों का कोई
वीडडयो बनािे हुये या अकेले में शसगरे ट या बबयर पीिे हुए िो मैं उससे खुि बाि करने की कोशिि करुँ गी. पर वह वहां सचमुच नहीं दिखा. वापसी की आखखरी बस में सबसे आगे की सीट पर वह बैठा था. उस दिन ऊपर कोठी में मैंने उसे ढूँढने के शसवा कुछ और नहीं ककया था. सारे नजारों ....सारी हररयाली को उस एक चेहरे ने ढँ क शलया था. गनीमि है कक बािल अब िक अछूिे थे. उन नीले बािलों पर ककसी की परछाई नहीं थी. न उसके चेहरे की न मेरे
ववचारों की. इत्तफ़ाकों के ये कैसे शसलशसले थे, जो इिना िरिीबवार घट रहे थे. मनाली बस
स्त्टैंड पर जब हम उिरे िो समूचा बाज़ार गुलज़ार था. लोग घूम –कफर कर वापस आ गए थे. सारी होटल्स और रे स्त्टारें ट ठसाठस भरे पड़े थे. मैंने उसे एक बार में घुसिे िे खा िो न जाने कब से िबी बबयर पीने की िलब जोर मारने लगी. मैंने माल से बबयर की िो बोिलें खरीिीं और अपने कमरे में वापस आ गयी. इंदस े ना ु ंचत
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उस राि मुझे नींि नहीं आ रही थी. मैं सीधी लेटी सफ़ेि छि को तनहार रही
थी...बाहर अँधेरा था ...और ठं डी हवा और तनस्त्िब्ध ख़ामोिी...राि के नीम अँधेरे में अपने
साथ जागना एक ववर्ािकारी अनुभव साबबि होिा है .कहिे हैं अपने भीिर झाँकने का सबसे
महत्वपूणष क्षण यही राि की घड़ी है , जब आपको अपनी नंगी –ठण्ड और अकेलेपन में कांपिी
आत्मा का िीव्र साक्षात्कार होिा है . बहुि कदठन क्षणों में मैंने यह साक्षात्कार ककया है . जब मेरा पति मेरे ष्जस्त्म के खखलौनों से खेल कर उन्द्हें िोड़कर थक कर सो जािा था....िब. कभी
आपने टूटे हुये खखलौनों के रोने की आवाज़ सुनी है ? कुछ औरिें ऐसे ही रोिी हैं अपने उन टुकड़ों के शलये जो कफर उनसे कभी नहीं जुड़ पािे. आपमें से अचधकिर जानिे होंगे औरिों के टूटने का शसलशसला अक्सर उनके बचपन से ही िुरू हो जािा है जब उन्द्हें साधारणिा की
बेडड़यों में जकड़ दिया जािा है जैसे मुझे जकड़ा गया था वजषनाओं की बेडड़यों से. मेरे भाई को ष्जिनी स्त्विंरिा थी उससे आधी भी नहीं थी मेरे पास .और मेरा बाप .....मुझे नफरि है उससे ....बारह साल िक उसने मुझे ......और मेरी मां चुप रहिी थी ....ऐसी कौन सी वववििा होिी है जनाब कक औरिें मुंह नहीं खोलिीं .बारह सालों के बाि मैंने मुंह खोला और मैं हास्त्टल भेज िी गयी. छुट्दटयों में मैं अपने घर जाने की बजाय अपने ककसी फ्रेंड के घर जाना ज्यािा पसंि करिी थी .कालेज के बाि मेरी िािी कर िी गयी और कफर मेरा पति
......क्या सारे पुरुर् एक जैसे होिे हैं ? नहीं जनाब मैं यह बाि मानने को िैयार नहीं हूँ ....पर पुरुर् अकेलेपन को उस िरह नहीं जान सकिा ष्जस िरह एक औरि जान सकिी है .
पुरुर् औरि के पास जािा िो है िाकि बटोरने पर उसकी िाकि छीन लेना चाहिा है . उससे उसका वज़ूि िक. वह नहीं चाहिा कोई उसको चैलेन्द्ज करे . मैंने पहली राहि की सांस ली अपने डाइवोसष के बाि. मैंने उन सबको अपनी ष्ज़न्द्िगी से तनकाल बाहर फेंका ष्जन्द्हें मैं नहीं
चाहिी थी और मैं अकेली हो गयी. अकेलापन जो कभी वरिान की िरह लगिा है ....कभी अशभिाप की िरह .इस वक्ि मैंने िे खा मेरे भीिर का अकेलापन न जाने कब बाहर चला
आया था और चुपचाप मुझे घूर रहा था. आज यह आक्रामक नहीं है मैंने इस बाि का फायिा उठाया और अपना कम्बल शसर िक खींच शलया.
िस ू रे दिन न वह सुबह की सैर पर शमला, न बेकरी में , न बस स्त्टॉप पर मैं दिन भर
माल पर भटकिी रही, िाम को वन ववहार में . और साि दिन यह लुका तछपी चलिी रही.
कभी नीला आसमान बािलों से ढँ क जािा....कभी बािल पहाड़ों के उस पार चले जािे. मैं कभी अगस्त्ि की बारीक बाररि में भीगिी कभी भीिर के सूखे से लडिी. कफर मैंने एक राि उसे ढूंढ लेने का तनश्चय ककया. जी हां ....आप बबल्कुल ठीक समझिे हैं, मैं राि नौ बजे उस बार में जा पहुंची जहाँ मैंने उसे जािे िे खा था. वह वहीं था.
इस वक्ि जहाँ मैं हूँ, बहुि िोर है और इस िोर में भी मैं अपनी चेिावनी िे िी आंसुओं में डूबी आवाज़ सुन सकिी हूँ......उठ भाग ..तनकल यहाँ से ..ये िेरी जगह नहीं है . यहाँ कुछ नहीं शमलेगा ..... मैं उठिी नहीं ...मेरा अपने साथ युद्ध है और मुझे जीिना ही है बबना अपना मष्ष्िष्क काटे . आप पूछ सकिे हैं मैंने क्या ककया....कुछ नहीं जनाब ...जबकक जी इंदस े ना ु ंचत
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चाह रहा है इस समस्त्ि बार को िोड़ –फोड़ िं ू ....ये ्लास ..प्लेट्स ...बाटलस ...सब ...सब
कुछ ...नसों को िोड़िा –फोड़िा कोई िूफान है जो बाहर आना चाहिा है ....मैं कस के िबाये बैठी हूँ. मैंने खुि को कभी इस बाि की इजाज़ि नहीं िी कक अपने मन का कर सकूँ. जब छािी से रुिन फूटकर बाहर आना चाहिा है मैं हंस रही होिी हूँ. जब मेरी प्यास समंिर पी जाना चाहिी है ...मैं िपिी रे ि पर चल रही होिी हूँ....... खुिाया ! क्या मैं ककसी को अपना वास्त्िववक रूप दिखा पाउं गी ? 000
आपको क्या लगिा है मैं नहीं जान पाया था. आप बहुि भोले हैं श्रीमान. औरिों के मामले में हम पुरुर् बहुि िरू से सूंघ लेिे हैं. और इस औरि में िो मुझे कायल करने के समस्त्ि गुण हैं. कुछ खास है इसमें . इसके ष्जस्त्म में एक पुकार है .....आँखों में एक अनछुही सी रह –रह कर कांपिी चाह ......भीिर की चाह कैसे ष्जस्त्म की त्वचा पर चमक जािी है यह
िो खुि चाहने वाले को नहीं पिा. यह जब िरू िक पसरे पहाड़ों पर बबछी बफ़ष की िस्त्वीरें ले
रही थी अपनी मोबाईल से ....मैं इसकी नाज़ुक उँ गशलयों और जीन्द्स और टॉप में फंसे िरािे
ष्जस्त्म को िे ख रहा था...पहली नज़र में ही पूरी की पूरी छाप मेरे भीिर उिर गयी थी हालाँकक मैं न िे खने का दिखावा करिा रहा. औरिों का ककस्त्सा बड़ा जानलेवा होिा है श्रीमान. इनकी भीिर की भूलभुलैया में अगर आप उिर गए िो ये जहाँ ले जाकर आपको छोड़ेगी
आपको वापसी का रास्त्िा भी न शमलेगा और अपनी चाहि की बाि िो इन्द्हें भूल कर भी न बिाइयेगा. औरिें उन्द्हीं को ज्यािा पसंि करिी हैं जो उन्द्हें पसंि नहीं करिा. िभी िो सभी
खलनायकों की ढे र सारी प्रेशमकाएं होिी हैं. मैं भी यही चाहिा हूँ श्रीमान मेरी ढे र सारी प्रेशमकाएं हों. सब की सब मुझे पसंि करें ...मेरी बाि मानिी रहें . आप जानिे हैं न श्रीमान, औरिें िाशसि होना पसंि करिी हैं कहें चाहे कुछ भी....बस आपमें ये हुनर होना चादहये. आप इन्द्हें अपने पीछे िौड़ाना चाहिे हैं िो इनसे िरू रदहये. अपनी अकड़ में रदहये. जैसे मैं रहा और िे खखये कैसे आई है साि दिनों के बाि आखखरकार. इन्द्हें ‘मैन’ चादहये ‘बच्चा’ नहीं.
हालाँकक मैं कोशिि करके भी उस िरह से खुरिरु ा नहीं बन पाया िभी िो श्रीमान लड़ककयां मुझे छोड़कर चली जािी हैं. इस बार मैं बेहि सावधान रहा. मैं उस दिन कोठी में भी उससे
छुपिा कफर रहा था और कफर वापस आने पर इस बार में घुस आया था. वैसे भी मुझे कुछ दिनों के शलए एक अंग्रेज लड़की शमल गयी थी और मेरी रािें बड़े मज़े से गुज़र रही थी. क्या कहा ?मैं झूठ बोल रहा हूँ. नहीं श्रीमान. िरअसल मुझे इन जल्ि हाशसल होने वाली औरिों से नफरि है पर यह भी सच है ये आपको वहां िक ले जािी हैं जहाँ आप इनके बबना नहीं पहुँच सकिे. वजषनाओं और डरों से िरू ...इनके सामने आपको वे कपड़े पहनने की कोई जरूरि
नहीं है जो आप हर वक्ि पहने रहिे हैं. आप नंग –धड़ंग इनके सामने ववचर सकिे हैं . कपड़े चगरािे ही आपमें से बहुि कुछ चगर जािा है ....और आप फूल से हलके हो जािे हैं. और श्रीमान सच िो यह है कोई औरि बाजारू नहीं होिी .हम ही साले उसे बाज़ार में खड़ा कर िे िे हैं अपने शलए ....एक घर में ...एक बाज़ार में .....पर श्रीमान ये मामले इिने िोटूक नहीं इंदस े ना ु ंचत
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होिे कक आप कह कर समझा सकें.....मैंने अपने पापा को िे खा है ....जब वे तछप –तछप कर नंगी औरिों की िस्त्वीरें िे खिे हैं. मुझे िया आिी है उन पर. जब उन्द्हें िस रोदटयों की भूख
होिी है , िो रोदटयां शमलिी हैं उन्द्हें .....और सालों बाि इस िरह के लोग एक लम्बी भूख बन कर रह जािे हैं. हालाँकक िािी नाम की कैि बनाई ही इसशलये गई है कक कोई भूखा न रहे
पर अचधकिर लोग भूखे रहिे हैं और सड़क ककनारे बनी िक ु ानों पर टूट पड़िे हैं. िे खखये
श्रीमान, मैं आपको भटका नहीं रहा. मैं चाहिा हूँ आपको उस पाइंट पर खड़ा कर िं ू जहाँ से आप सब िे ख सकें. कफर भी ऐसा बहुि कुछ छूट जायेगा ष्जसे आप पकड़ नहीं सकेंगे. और अगर ऐसा हो िो यही समखझयेगा मैं ठीक से अपनी बाि समझा नहीं सका आपको .अब वह
अन्द्िर आ गई है ...आप चुपचाप यहीं बैठे रदहये अपने चगलास के सामने और मुझे अपना काम करने िीष्जये. 000
न िे ह, न रूह, ककसी को िे खकर आप यह अनुमान नहीं लगा सकिे कक वह ककिनी
उजली या मैली है . हम िे खिे हैं त्वचा या बालों का रं ग, आँखों की चमक, चेहरे की िाब और वह खामोि भार्ा जो कहने –सुनने से परे अपना मायाजाल खुि रचिी है .
मैं जानिी हूँ आप क्या सोच रहे हैं मेरे बारे में ?क्या मुझे इससे कोई फ़कष पड़िा है ? ष्जसके संबंधों का इतिहास आपको नहीं मालूम उसके बारे में ककया गया कोई भी फैसला एक गलि फ़ैसला होगा.
जैसे ही मैं उसके सामने बैठी उसने मुस्त्कुरा कर मुझे िे खा ....
‘प्लीज़ कम ...वेदटंग फॉर यू ...’
मेरी आँखें चौड़ी हो गयी ...’िुम मुझे िे खिे रहे हो ....’
‘आफकोसष यस .यू आर वेरी ब्यूटीफुल. एक जलिी हुई लपट हैं आप, कोई भी भस्त्म होना
चाहे गा.’
‘िो वह नाटक था कक िुम मुझे नहीं िे ख रहे .’ ‘ऑफकोसष ...आपको तनकट लाने का......’ ‘पुराना फामूल ष ा ?’ मुझे हं सी आ गई.
‘कुछ फामूल ष े कभी पुराने नहीं पड़िे. कुछ ररश्िे भी कभी पुराने नहीं पड़िे.... औरि –मिष का
ररश्िा. अगर आप उस िस ू रे के बारे में सोच रहे हैं िो यकीन मातनये वह भी आपके बारे में सोच रहा है . आप िो मुझसे ज्यािा एक्सपीररयंसड हैं.’
‘ क्या िुम्हें नहीं लगिा ितु नया इस पैग की िरह होनी चादहये ....आओ ...वपयो और
जाओ....एक्सपीररयंस हमारे पाँव की बेडी बन जािा है . एक्सपीररयंस के दहसाब से िो मुझे पुरुर्ों से नफ़रि होनी चादहये......’ मैं आदहस्त्िा हं स पड़िी हूँ. ‘मुझसे शमलने के बाि आपको पुरुर्ों से प्यार हो जाएगा.’ उसने बेहि कोमल स्त्वर में कहा. ‘हा .....हा .....हा.... अगर मैं शसफ़ष िुम्हीं से प्यार कर सकूँ ?’
‘अगर ऐसा हो जाये मुझे बिा ज़रूर िीष्जयेगा ...’ वह उसी िरह मुस्त्करािा रहा. इंदस े ना ु ंचत
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‘िुमसे शमलने वाली सारी लड़ककयों की यही गति होिी है क्या ?’
नहीं ....पर मैं चाहिा हूँ आपकी हो ...’
और हम िोनों हं स पड़िे हैं .उसने वेटर को बुलाया और मेरे शलए वोिका ऑडषर कर िी.
‘आपने सोचा नहीं यह अजनबी आवारा लड़का और मैं एक संभ्रांि मदहला......’ उसने कहा .
‘मैं अपनी सोच से आगे जाना चाहिी हूँ....और ष्जसे िुम सम्भ्रांि होना कहिे हो वह बड़ी
यािना सहने के बाि आिा है ....’ पिा नहीं वह समझा या नहीं. पर मुझे उसका उत्साह से
िमकिा चेहरा अच्छा लगिा है .....मैंने शिद्िि से महसूस ककया...ष्जस चीज़ की गुज़र जाने के बाि बेिहािा िलब होिी है वह है जवानी. जब सारी ितु नया िुम पर टूट पड़ना चाहिी है
िब िुम भागे –भागे कफरिे हो. और जब िुम उन पर टूट पड़ना चाहिे हो वे भागी –भागी
कफरिी हैं. मैं उससे बहुि सी चीजें कभी नहीं कहूँगी ....वह नहीं समझेगा...वह समझे मैं चाहिी भी नहीं हूँ. ‘ आप क्या करिी हैं ?’
‘ मेरा एक बुटीक है ष्जसे मैंने वपछले पंरह सालों की अनथक मेहनि से खड़ा ककया है .
अपने डायवोसष के बाि ......वे बड़े कदठन दिन थे. सच िो यह है अपने काम को अपना
जीवन सौंपने के बाि आपके पास बहुि कुछ बचा नहीं रह जािा या अगर बचिा भी होगा िो आपको पिा नहीं चल पािा...और आप चाहिे भी नहीं हैं आपको पिा चले .िुम्हें पिा है हम सबसे ज्यािा ककससे डरिे है ....खुि से ...’ ‘इंरसदटंग ...’ उसने कहा.
‘मैं भी खुि से डरिी थी. अपनी मांगों से ....अपनी चाहनाओं से ...’ ‘और अब आपने खुि से डरना छोड़ दिया है ?’
‘मैं खुि को दिखा िे ना चाहिी हूँ कक मैं िुमसे नहीं डरिी .’ मैंने मुस्त्करा कर कहा िो वह
बहुि ज़ोर से हं स पड़ा .मैं उसकी हं सी िे खिी रही. वह मुझे गौर से िे खिा अपनी वोिका पी रहा है . बहुि आदहस्त्िा –आदहस्त्िा हम एक –िस ू रे की िरफ बढ़ रहे थे. िुरू में िो वह मुझसे ‘मैम....मैम...’ कहकर बाि करिा रहा. आखखर मैं कमजकम उससे िस साल बड़ी थी...कफर धीरे –धीरे हम खुलिे चले गए. उसने बिाया कक अपनी पढाई पूरी करने के बाि वह एक ऐसे जॉब की िलाि में है जो उसके पांव की बेडी न
बने. उसके पहले वह यूँ ही एक आवारा ककस्त्म की ष्ज़न्द्िगी जीना चाहिा है . ‘आवारा ककस्त्म की ष्ज़न्द्िगी’.... इन िब्िों को मैं एक –एक घूँट की िरह पीिी रही. क्या यह शसफ़ष पुरुर्ों के भा्य में है ?
‘ इसके पहले कक िुम्हें िािी के खूंटे से बाँध दिया जाये ....?’
‘इस खूट ं े से िो मैं बंधने से रहा. आपको बिाने में कोई हज़ष नहीं है मैं िो साल शलव इन
ररलेिन में रहा हूँ.’ ‘कफर ?’
‘कफर क्या ?सब ख़त्म......वह चली गयी.’ इंदस े ना ु ंचत
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‘उसका अहसान मानो कक वक्ि रहिे उसने िुम्हें छोड़ दिया और अब िुम िोनों स्त्विंर हो
....’
‘आप मुझे मेरे चगल्ट से तनकाल रही हैं ....’
‘एक बाि अच्छी िरह समझ लो. ऐसा कोई नहीं जो अनंिकाल िक आपके साथ चलने को
राजी हो सके. ऐसी मांग, ऐसी चाह ही पागलपन है . लोग आिे हैं अपना रोल प्ले कर चले
जािे हैं. हम क्यों उन्द्हें रोककर रखना चाहिे हैं ? उनका और अपना जीवन नरक बनाने के
शलए ? और कफर हर िोस्त्ि हमारे अन्द्िर एक नया संसार पैिा करिा है , यह संसार हममें ही छुपा रहिा है जब िक वह आकर इसे अनावि ृ नहीं कर िे िा .’
‘इस िरह िो आपके भीिर बहुि से संसार अनावि ृ हो गए होंगे ?’
‘और बहुि से अभी नहीं हुए हैं ......’ मैं मुस्त्करािी रही. ष्जस क्षण गलि समझे जाने का
भय आपके भीिर से तनकल जािा है उस क्षण के बाि अपना सच जीने का हुनर आपको आ जािा है . वह ध्यान से सुन रहा है ....उसकी आँखें शसकुड़ गयी हैं.पिा नहीं ककिना समझा. ‘िो आपने ककसी को रोकने की कोशिि नहीं की?’ ‘नहीं ....सब चले गए क्योंकक सब चले जािे हैं .’
िो पैग के बाि मैं खुलिी चली गयी. िराब कुछ िे र के शलए ष्ज़न्द्िगी के मामूली मसलों से िुम्हें ऊपर उठा िे िी है ...खुि से ऊपर उठा िे िी है . वपछले कुछ सालों से वक्ि का गुजरिे
जाना मैं बबलकुल साफ़ –साफ़ महसूस कर पा रही हूँ ...क्यों चाहिी हूँ मैं इसका साथ? अपने अकेलेपन से मुष्क्ि पाने के शलए? मुझे उस निे में एक िीव्र अहसास हुआ..... वपछले न जाने ककिने सालों से मैं अपनी स्त्विंरिा में भी अकेलेपन की पीड़ा भोग रही हूँ. हम ष्स्त्रयों का जीवन एक अजीब सी िष्ु श्चंिा और डर में बीििा है . डर ....असुरक्षा का, लोगों का, भूि –भववष्य का, पुरुर्ों का और इस बाि का कक ये डर कोई िे ख न ले. हम अपने मन का नहीं जी पािे िो सोचिे हैं क्यों नहीं? जी लेिे हैं िो सोचिे हैं क्यों ?
आप कहें गे, बेवकूफ औरि !जरूर कदहये जनाब....ये हमें बहुि बाि में पिा चलिा है एक लम्बी उम्र गुज़ारने के बाि कक िरअसल हम खुि पर बोझ हैं . हम खुि को ककसी को िे िे ना चाहिे हैं. क्या आपको लगिा है अकेलेपन की पीड़ा से छुटकारा पाने का कोई िस ू रा रास्त्िा भी है ?
हम िोनों के हाथ में िीसरा पैग है ....मैं उसकी आँखों में अचानक पैिा हुई लपट साफ़ िे ख पा रही हूँ ....वह कभी आगे बढ़िा कभी पीछे हटिा जान पड़िा है ....मुझे हं सी आ
रही है ...िे ह और मन का यह द्वंि मेरे शलए ककिना जाना –पहचाना और यािनािायी है . ये िोनों कभी एक –िस ू रे से हाथ नहीं शमलािे. िे ह नैसचगषक होना चाहिी है , मन उसे बाँध कर
रखना चाहिा है . मैंने उसे कुछ नहीं कहा. उसने चौथा पैग बना दिया और इसके बाि मुझे शसफष इिना याि है कक उसके कंधे का सहारा लेकर मैं बाहर आई थी. ऑटो में बेसुध बैठी थी और उसके बाि अपने कमरे में .... इंदस े ना ु ंचत
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वह मेरे पास बैठा है ...धीरे –धीरे मुझे खोलिा और खुलिा....परि िर परि......
‘ िुम सोचिे होगे ये औरि मेरी मां की उम्र की है और ....’ ‘िटअप....मैं इस िरह नहीं सोचिा ....’ ‘डज़ इट मेक एनी डडफरे न्द्स ?’
‘ इट डज़....शलसन ...आय वांट यू ...आय नीड यू ...’ ‘बट यू डोंट लव मी.’
‘ हा ....हा.......हा......यू नो ...औरिें कभी बड़ी नहीं हो पािीं ...न कभी प्रेष्क्टकल हो पािी
हैं ...िुम अभी भी इस िब्ि के पीछे भाग रही हो? मेरी गलषफ्रेंड भी मुझसे हमेिा यही पूछिी थी ....डू यू लव मी ? मैं हमेिा कहिा था ..यस . क्योंकक इसके अलावा कोई कुछ सुनना ही नहीं चाहिा. कुछ िब्ि बनाये ही गए हैं िस ू रों को बेवकूफ बनाने के शलए .....लव ...गॉड
...आस्त्था ...ववश्वास .... ये िब्ि सुनने में अच्छे लगिे हैं पर हकीक़ि से इनका कोई वास्त्िा नहीं होिा.’
‘िुम इस उम्र में इिने प्रेष्क्टकल कैसे हो ?’
‘ लड़ककयां बना िे िी हैं पर अफ़सोस वे खुि नहीं बन पािीं .’ वह कफर हं सा.
‘मुझमें आओ....हम एक सांस लेंगे और एक हो जायेंगे....आपको इिना और इस िरह का
प्यार ककसी ने नहीं ककया होगा. यू आर थस्त्टदी ....वाटर इन मी....िूफान हूँ मैं...नष्ट हो जाऊंगा नष्ट कर िं ग ू ा.’ और वह मुझ पर टूट पड़ा .....
वह एक आदिम ष्जप्सी नृत्य था ....वह ष्जिनी बार मुझे पकड़िा मैं छूट –छूट जािी थी ......मुझे वहां मि ढूंढो जहाँ मैं नहीं हूँ....नाशभ के नीचे नहीं..... नाशभ के ऊपर है रहस्त्य ...पवषिों के बीच उदिि होिा है वहीँ सूयष ..आओ ..उसे िे खें ...उसके आने से आिी है
हरीतिमा. समस्त्ि कायनाि खखल उठिी है . आओ ...आकाि से इसे झपक लें . पी लें इसे
...रुको –रुको सुनो ..उडो ऊपर ....और ऊपर ..और ऊपर .. िुम्हारे पंख ककिने बेचन ै हैं ?और ये बािल हमें कहाँ उडाये शलये जा रहे हैं ? ये उडान ....ओह ..... और ऊपर ....और ऊपर ....इन बािलों के पार ....यह भूरा कोमल अहसास .....ये हरे रं ग ......आओ ....प्रकृति ने एक गीि गाया है ? हम इस धुन पर नृत्य करें ....ये फूल से हलके पैर ....मुझे उठा लो.....ओह ......ओह......एक आवारा चीख कमरे में बबखर गयी. 000
आज आपके मैं एक कन्द्फेिन करना चाहिा हूँ.... मैंने आपको बिाया था न मुझे इस
िरह की जल्ि हाशसल होने वाली औरिों से सख्ि नफ़रि है .....हालाँकक जब मैं इससे शमला
यह मुझे बबल्कुल अलग लगी. आप जानिे हैं न यह मेरे शलए पहली बार नहीं है पर आज मैं भूल गया कक मैं कौन हूँ और क्या कर रहा हूँ ?यह मुझे बहा ले गयी. मैं समंिर में िैरने का अभ्यास कर रहा था....मुझे उस पार पहुंचना था जो न जाने कहाँ था ? मुझे लगा मेरी नाव पलट गयी है और मैं डूब रहा हूँ.....वह डूबने का अद्भुि सुख और कफर उस नाव के एक इंदस े ना ु ंचत
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पट्टे को पकड़ कर िैरिे हुए ऊपर आना....तनढाल ष्जस्त्म को ककनारे पर ढहा िे ना.....लहरों ने जब हमें ककनारे पर फेंका ....हम उसी िरह पड़े रहे ....एक –िस ू रे में गुंथे ..... इस राि के बाि हम अपनी अपनी ितु नयाओं में वापस चले जायेंगे ...... पर मैं इसे
कभी नहीं भूल पाउँ गा......
मैं इससे वह सब नहीं कह पाया जो मैं कहना चाहिा था....पर जो भी मैंने कहा, वह
चुपचाप सुनिी रही कफर सो गयी. मैं उसे सोिे हुये िे ख रहा हूँ....मैं उसकी नींि नहीं िोडना चाहिा .
कुछ िे र बाि उसने आँखें खोली और मुझे िे खा ....उसकी आँखों में है रानी उिर आई ..मैं अब िक वहीँ था ? ‘सुनो .....’मैंने उसे पुकारा .... ‘आय लव यू ....ररयली.....’
‘सुनो ......क्या िुम थोड़ा सा मुझे िे ख सके ?’ उसकी वह आवाज़ मेरे आर –पार तनकल गयी
.
000
िस ू रे दिन मैंने आईने में खुि को िे खा और है रान रह गयी. न जाने ककिने बरस मेरे
ष्जस्त्म से झर गए थे....िायि िस ...िायि बीस...मुझे सचमुच नहीं पिा...पर मैं नई सी हो गयी थी. नई सी नहीं, नई. मानो मैं अपनी बेटी हूँ..और मैं पीड़ा और प्रसन्द्निा से पुलककि हो उठी. जानिी हूँ आप ितु नयािार लोगों को लगिा है वक्ि और पररष्स्त्थतियों के साथ औरि
को खुि को मार िे ना चादहये और हम मार िे िे हैं क्योंकक आप लोग ऐसा चाहिे हैं. एक बाि बिाइये आप लोगों को औरि की स्त्विंरिा से इिना डर क्यों लगिा है ? हमें बाँध नहीं पािे
इसशलये ?औरि को खुि को मारने की िरकीबें आप उन्द्हें उनके बचपन में ही शसखा िे िे हो. मैंने भी मार दिया था खुि को अपने जादहल पति से डाइवोसष के बाि. फेंक दिया था खुि को खुि के अन्द्िर पर क्या करें ?सालों बाि जब ढक्कन उठाकर भीिर झांकिे हैं िो अपनी साँसें
चलिी हुई पािे हैं, अपने अनजाने मैं ष्जन्द्िा थी और ये जो आईने के सामने खुि को तनहार रही है ...वही है. यकीन नहीं आिा आपको ? िो इसकी आँखों में िे खखये ...इन्द्हीं आँखों के अन्द्िर नीचे उिरने वाली सीदढयां हैं...क्या कहा...आपका इससे कोई पररचय नहीं है ...जानिी हूँ जनाब, ऐसी औरिों को आप घरों में रहने कहाँ िे िे हैं ? घरों में िो वो क्या कहिे हैं
पालिू मुिाष औरिें रहिी हैं ....जो ककसी रोबोट की िरह आपके बिाये काम करिी हैं ....घरों में ‘ये ष्जंिा औरिें ’ नहीं रहिीं ‘ये’ अपने अन्द्िर तछप कर बैठी रहिी हैं और आप उनसे कभी शमल नहीं पािे.....कभी इनसे शमलने की ख्वादहि हो िो जरा संभल कर ये सीदढयां उिररयेगा ...अपना हाथ छूटा िो खुि को कभी ढूंढ न पाएंगे.
इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
192
किानी
सफ़ीना क़ै स िौनपरु ी -“िैलो...सर...! आपसे हमलने सफ़ीना आई िुई िैं बैंक से...” ये आवाि थी मेरे ऑहफस की ररसेप्शहनस्ि की. मैं न चािते िुए भी बैंक से फोन करने वालों को मना निीं कर पाया था. और उसका हसला ये िुआ हक सफ़ीना नए सेहविं अकाउंि के हलए मेरे डॉक्यमू िें ् स लेने आई थी. मैंने सोचा, “लड़की आई िै...डॉक्यमू िें ् स लेने...? क्या बात िै...! बैंक वाले भी क्या-क्या करते रिते िैं....! पिले तो लड़हकयां हसफत फोन पर बात करती थीं....अब पेपसत लेने भी खदु आने लिी िैं...” खैर...मैं बेमन से कुछ सोचता िुआ आया...और ररसेप्शन पे बैठे लोिों पर एक नज़र दौड़ाई...एक पतली सी लड़की बैठी िुई थी, लाल सोफे पे, एक हकनारे ...मैंने उसी से पछ ू ा... “सफ़ीना...?” वो मस्ु कुरा कर खड़ी िो िई...मैंने आदतन िाथ हमलाने के हलए िाथ आिे बढ़ाया...सफ़ीना हसफत देखने े में छोिी सी, पतली सी लड़की लि रिी थी मिर उसे सब बातें मालमू थीं हक लोि हमलते िैं तो िाथ हमलाते िैं...और मस्ु कुराते िैं.... खैर, तब तक मैं सफ़ीना के चेिरे को देख चक ु ा था... सफ़ीना एक खबू सरू त लड़की थी...मासमू सी...फूल िैसी...कोमल...अनछुई...कच्ची कली िैसी...मिर इतनी छोिी सी उमर में माके हिंि िैसा िद्दोज़िद वाला काम कर रिी थी.... सफ़ीना का िाथ मेरे िाथ में था और मझु े लिा िैसे मैं हकसी मख़मल की चादर के एक कोने को पकड़े िुए खड़ा ि.ँ ..और चादर के मख़मली अिसास को मिससू करके खश ु िो रिा ि.ँ ..हफर मैंने सफ़ीना से किा... “आइये...” सफ़ीना को लेकर मैं मीहिंि रूम में आ िया...अब उस रूम में हसफत मैं था और सफ़ीना थी....सफ़ीना ने फॉमत हनकाल हलया था...और वो उसी काम के हलए आई भी थी... सफ़ीना अपना काम बिुत िी खबू सरू ती से कर रिी थी....और मैं...उसकी खदु की खबू सरू ती में बार-बार खो िा रिा था...हफर िब कोई बात ऐसी िोती थी िब मझु े िवाब देना िोता था तब मैं वापस अपने िोश में आ िाता था...और िब सफ़ीना बोलती थी...तो मैं उसके चेिरे को एक तरफ से दसू री तरफ नज़र घमु ा कर देख ले रिा था. िब मेरी और सफ़ीना की नज़रें हमलतीं तो थोड़ी देर के हलए मैं अपनी नज़र ििा लेता था...मिर ऐसी िालत में बिुत महु श्कल िो िाता िै....अिर आपके हदमाि में कुछ और चल रिा िै....... तो आप नज़र हमला के बात निीं कर सकते...... और िब आप नज़र निीं हमला पाते िैं........ तब इधर-उधर देखते िैं... और हफर िब सामने सफ़ीना िैसी िसीन लड़की िो तो इधर-उधर देखना........ खदु को भी बरु ा लिता िै... मिर िरा सी देर के इस इधर-उधर में मैंने देख हलया था हक सफ़ीना वाकई बिुत पतली थी... मझु े पता निीं उसकी उमर क्या रिी िोिी मिर देखने में वो हबलकुल पन्द्रि साल की एक कमहसन लड़की लि रिी थी... लेहकन वो बैंक में काम करती थी तो इतना तो तय िै हक वो कुल पन्द्रि साल की तो निीं रिी िोिी... मिर इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
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मेरे हलए उसकी उमर उतनी मायने निीं रखती थी हितना हक उसका खबू सरू त चेिरा.... और िैसा मेरे साथ अक्सर िोता िै... एक खबू सरू त चेिरा हदखा निीं हक मैं हफ़दा.... मैं सफ़ीना के खबू सरू त चिरे पर भी हफ़दा िो िया था... सफ़ीना का छोिा सा िोरा चेिरा ऐसा लि रिा था िैसी हकसी हचिकार की कला िो...एक पेंहिंि िो.... िब वो बोल रिी थी तो उसके िल ु ाबी िोंठ ऐसे लि रिे थे िैसे कोई फूल हखल रिा िो... उसकी पंखहु डयां फ़ै ल रिी िों... हफर हसकुड़ िा रिी िों... हफर एक खश्ु बू सी हबखर रिी िो... सफ़ीना इस नए सेहविं अकाउंि के फायदे बता रिी थी... हिनमें फायदे ज्यादा थे...नक ु सान हबलकुल निीं...तो मैंने पछ ू ा...“ऐसा क्यँू कर रिे िो आपलोि...? इतना सबकुछ फ्री में क्यों दे रिे िो...? आप कै से मैनेि करोिे...???” तब सफ़ीना मस्ु कुराई थी...उसने किा....“सर, ये बैंक ऑफर दे रिी िै...अब कुछ नया निीं रिेिा तो कस्िमर कै से आयेंि.े ..? ज्यादा कस्िमर को अरैक्ि करने के हलए खचात तो करना िी पड़ेिा...” मैंने पछ ू ा...“वसल ू ोिे कै से...?” इस बार सफ़ीना हखलहखलाकर िसं ी थी... मझु े उससे बात करके अच्छा लि रिा था...एक तरफ मेरे हदमाि में ये ख्याल आ रिा था हक “ये बैंक वाले सब अच्छा-अच्छा हदखा के बाद में चनू ा लिाते िैं...” दसू री तरफ सफ़ीना का रूिानी चेिरा देखकर मैं सबकुछ भल ू िा रिा था...या यँू किँ तो िानबझू कर ऐसा कर रिा था...क्योंहक सफ़ीना के मासमू चिरे के आिे मैं कोई भी धोखा खाने को तैयार था...ज्यादा से ज्यादा क्या िाएिा...? कुछ पैसे....? इतना कमाया...आिे भी कमा लँिू ा.... बिरिाल...सफीना ने मझु े तैयार कर िी हलया...मैं और कुछ सोच भी निीं पा रिा था...सफ़ीना ऐसे अकाउंि की बात कर रिी थी हिसमें मझु े पच्चीस ििार रूपए कम से कम रखने पड़ेंि.े ..मैं ये भी सोच रिा था...“क्या मैं इतने पैसे रख पाऊंिा...?” लेहकन हफर मैंने सफीना से पछ ू ा...“अिर हकसी मिीने पच्चीस ििार से कम िो िए तो...?” तो सफ़ीना ने मस्ु कुरा कर ये परे शानी भी दरू कर दी...उसने बैंक के सारे हनयम-काननू बता डाले...हिसमें मझु े कोई हदलचस्पी निीं थी...मैं तो ये अकाउंि बस सफ़ीना के किने पर खोल रिा था....वो िो-िो कि रिी थी....मैं एक अच्छे बच्चे की तरि सारी बातें मान रिा था...किीं हदल के भीतर से ये आवाि आ रिी थी...“डरो मत...इतनी खबू सरू त लड़की धोखा निीं दे सकती...” उसने किा “चेक दे दीहिए....” मैंने पछ ू ा...“हकतने का...?” उसने किा ...“पच्चीस...” मैंने पछ ू ा....“परू ा....?” मेरे इस बचकाने सवाल पर सफ़ीना एक बार हफर िोर से िसं ी थी....और मेरे हदल को एक तसल्ली हमल िई....उस वक़्त अिर वो किती “पचास...” तो भी शायद मैं पीछे निीं ििता... मैंने पच्चीस ििार का चेक भी दे हदया.... इस बार सफ़ीना ने मेरी िािं खीची....“सर...चेक हक्लयर िो िाएिा ना....?” और इतना किते िी िम दोनों िसं ने लिे...ऐसा लि रिा था िैसे िम दोनों एक-दसू रे को बिुत पिले से िानते िैं...और बिुत अच्छे दोस्त िैं...मिर ऐसा निीं था. सफ़ीना अभी थोड़ी देर पिले िी मझु से हमली थी...मिर उसका बात करने का अदं ाि इतना प्यारा था हक बात कुछ और िी िो रिी थी.... मैंने सफ़ीना से कि हदया...“पिली बार मैं हकसी ‘सेल्स िलत’ से इस तरि बात कर रिा ि.ँ ...सफ़ीना ने अपनी सफाई में किा....“सर...आिकल कम्पिीशन बिुत बढ़ िया िै...अब आपको कुछ अलि करना पड़ता िै...तब हबिनेस आिे िाता िै...तभी लोि िड़ु ते िैं...और एक ररलेशन बनता िै...” इंदस े ना ु ंचत
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सफ़ीना की बात हबलकुल सिी थी...उसने अपनी बातों से एक ररश्ता बना हलया था...मेरे और अपने बीच...मझु े ये ररश्ता एक खबू सरू त ररश्ते िैसा लि रिा था...एक सेल्स िलत और एक अकाउंि िोल्डर का ररश्ता....एक खबू सरू त ररश्ता हिसमें दोनों अपनी-अपनी पिचान भल ू कर एक इसं ान की तरि पेश आ रिे थे.... सफ़ीना ने िल्दी-िल्दी फॉमत भर हदया...और मझु े दस्तख़त करने को किा...मैंने हबना देखे-पढ़े िर ििि दस्तख़त कर हदए...मझु े सफ़ीना पर भरोसा था...क्योंहक सफ़ीना एक बेिद खबू सरू त लड़की थी...और खबू सरू ती िी मेरी कमिोरी िै...मझु े कुछ हदखाई निीं देता िै...अिर मेरे सामने एक खबू सरू त चेिरा आ िाए...कई बार इस विि से मझु े नक ु सान भी िोता िै....लड़हकयां मेरे बारे में िलत राय बना लेती िैं...हक...मैं ऐसा ि.ँ ..मैं वैसा ि.ँ ...लेहकन इन लड़हकयों को मालमू निीं िोता िै हक...मैं हकस चीि पर मर रिा ि.ँ ... “नॉहमनी हकसको बनायेंिे सर....?” ये एक अचानक सा सवाल मेरे कानों को सनु ाई हदया. अब बात कुछ और िो िई थी...मैंने एक नाम बताया. सफ़ीना ने वो नाम हलख हदया...हफर सफ़ीना ने पछ ू ा...”नॉहमनी से आपका क्या ररश्ता िै....” थोड़ी हिचक तो िुई मिर बताना तो था...हिचक इसहलए िुई हक अभी तक िम खल ु कर बात कर रिे थे...िसं रिे थे...मझु े डर लिा किीं सफ़ीना ये िानने के बाद हक मैं शादी-शदु ा ि.ँ ..मझु से दरू ी ना बना ले...बस इसी डर से मैं हिचक रिा था...लेहकन सफ़ीना का हदल बिुत साफ़ था...उसके चिरे पे एक हशकन भी निीं आई...हफर मझु े लिा...मैं हबला विि डर रिा था... अब सफ़ीना के िाने का वक़्त था...लेहकन सफ़ीना ने िाने से पिले कुछ बातें ऐसी किीं...हक मैं कुछ सोचने पर मिबरू िो िया....सफ़ीना ने किा....“सर िाचं कौन सी रखना चािेंि.े ..? आप किाँ रिते िैं...?” मैंने किा...“अधं ेरी वेस्ि...” सफ़ीना ने किा...“अधं ेरी वेस्ि में िे. पी. रोड़ पर िमारी िांच िै...” मैंने किा...“िा,ं मेरे हलए विी सिी रिेिा...मेरे घर के पास भी िै...” मिर सफ़ीना ने कुछ ऐसा किा हिसने परू ी बातचीत का रुख मोड़ हदया...उसने किा....“लेहकन सर....मैं चािती ि.ँ .हक आप अधं ेरी ईस्ि िाच ं रहखये...क्योंहक यिाँ पर मैं बैठती ि.ँ ..कल को आपको कोई िरुरत पड़ती िै तो मैं िेल्प कर सकती ि.ँ ..और आपका अकाउंि खल ु ते िी मैं खदु आकर आपको ‘वेलकम हकि’ दे िाउंिी...” सफ़ीना ने सारी बातें एक सांस में कि डालीं....मेरे हलए सोचने का वक़्त िी निीं था...सफ़ीना खदु कि रिी थी...हक वो खदु आएिी...मझु से हमलने....उसने अपना हवहज़हिंि काडत भी हदया हिस पर उसका मोबाईल नंबर भी था....सफ़ीना हबलकुल भी हझझक निीं रिी थी... अभी तक मैंने हितनी भी माके हिंि िल्सत को देखा िै...सब सोचती िैं हक हकतनी िल्दी इस आदमी से पीछा छूिे...और ऐसी लड़हकयों के हलए आदमी भी यिी सोचता िै....हक...हकतनी घमडं ी िै...माके हिंि कै से करती िै...? मिर सफ़ीना समन्ु दर में तैरता िुआ एक ऐसा फूल थी....िो लिर के साथ ऊपर-नीचे िो रिी थी...और देखने वाले को एक तसल्ली हमल रिी थी...देखने वाला ये सोच रिा था हक...हकतना खबू सरू त फूल िै...देखो हकतनी बेपरवािी से अके ला समन्ु दर की लिरों पर तैर रिा िै.... सफ़ीना को देखकर ऐसा लि रिा था हक...सफ़ीना खदु चािती िै हक मैं उससे हमलं.ू ...तो हफर मझु े मना करने का कोई बिाना निीं हमला...और हफर मेरे हलए तो अच्छा िी था...सफ़ीना हफर हमलने का वादा करके चली िई...िाते िुए उसके चेिरे पे एक मस्ु कान थी...हक हिस काम से वो आई थी....वो िो चक ु ा था...और मेरे चेिरे पे एक मस्ु कान थी...िो सफ़ीना को देखने के बाद आई थी...मैं भल ू िया हक वो लड़की पच्चीस ििार का चेक लेकर िई िै...पता निीं क्या करे िी...? इंदस े ना ु ंचत
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हफर दोपिर में उसका फोन आया...“सर आपका ‘वेलकम हकि’ रे डी िै....मैं आ िाऊं देने के हलए...?” मैंने पछ ू ा...“इतनी िल्दी...? आपने तो किा था...दो हदन लिेंि.े ..?” हफर उसने किा...“िां सर...सब हडिेल्स ठीक थीं इसहलए िल्दी िो िया...” उस वक़्त एक बि रिा था...नमाज़ का वक़्त िो रिा था...मैंने किा...“अभी तो मैं नमाज़ के हलए िा रिा ि.ँ ..आप उसके बाद आइये...” सफ़ीना ने किा...“ठीक सर...मैं आपको दो बिे फोन करती ि.ँ ..अल्लाि िाहफ़ज़....” सफीना ने िो किना था कि हदया...मझु े बस ये समझ में आया हक वो मझु से हमलने आ रिी िै...दो बिे. उसका वो बाद में किना...“अल्लाि िाहफ़ज़...” मेरे हदल को छू िया था...उसने मेरी हिफाज़त के हलए ऐसा किा था...इसका मतलब उसे मेरी हफक्र थी...और ये अिसास मेरे हलए ऐसा था िैसे मेरे अदं र दो बोतल खनू एकाएक बढ़ िया िो... मैंने नमाज़ खत्म िोने के बाद सफ़ीना को फोन हकया...सफ़ीना ने किा...“सर, मैं बांद्रा के हलए हनकल िई ि.ँ ..मेरा एहक्ज़क्यहू िव आएिा और वो आपको हकि दे देिा....” मझु े ये कतई मिं रू निीं था...अभी तो मैं अपने ख़दु ा का शहु क्रया अदा करके आ रिा था हक उसने मझु े इस खबू सरू त सफ़ीना से हमलाया...और अब सफ़ीना कि रिी थी हक वो निीं आ रिी िै...उसकी ििि कोई और आ रिा िै... तब तक मझु े भी इतना िौसला हमल चक ु ा था हक मैं अपने हदल की बात कि सकता था...सो मैंने भी कि हदया...“िी... ये ठीक निीं िै....आपने किा था हक आप आएँिी...अब आप हकसी और को मत भेहिए...मैंने तो सोचा था आप आएँिी हफर िम दोनों एक साथ लंच करें ि.े ...” सफ़ीना का हदल बिुत बड़ा था...उसने मझु े नाराि निीं हकया और अिली सबु ि साढ़े नौ बिे अधं ेरी स्िेशन पर हमलने का वादा हकया...अिली सबु ि मैं िल्दी-िल्दी तैयार िोकर स्िेशन पिुचँ िया...मिर सफ़ीना अभी निीं आई थी...मैंने फोन हकया तो उसने किा...“मैं दस हमनि में पिुचँ रिी ि.ँ ..” दस हमनि बीस हमनि में बदल िए...दस बिने को आये थे मिर सफ़ीना अभी निीं आई थी...मेरे हदमाि में बिुत सारे ख्याल आ-िा रिे थे...मैं सोच रिा था... सफ़ीना के साथ मैक्डॉनल्ड में नाश्ता करूँिा....हफर साथ में ऑिो में बैठकर अधं ेरी ईस्ि चलेंि.े ..दोनों का ऑहफस उधर िी था... काफी देर इन्तिार करने के बाद सफ़ीना आई...मैंने सफ़ीना को देखा...वो मेरी िी तरफ आ रिी थी...मिर आि मझु े उसके चेिरे पर वो रौनक हदखाई निीं दी...शायद मेरी नज़र में कोई कमी आ िई थी...शायद मैं सफ़ीना को अके ले हमलना चािता था और सफ़ीना अपने साथ एक बॉडीिाडत लेकर आई थी...सफ़ीना के साथ में एक लड़की और थी...मझु े उस लड़की के बारे में कुछ निीं किना था...मझु े हशकायत िो रिी थी सफ़ीना से....मझु े हबलकुल अच्छा निीं लिा था...इतनी सारी बातों के बाद सफ़ीना मझु से हसफत काम के हसलहसले में हमलने आई थी...उसने मझु े ‘वेलकम हकि’ हदया और किा... “इसमें से एक पेपर मझु े चाहिए...” उसने मझु े हलफ़ाफ़ा खोलने के हलए किा....मिर मैं तब तक इतना िार चक ु ा था हक एक हलफ़ाफ़ा भी निीं खोल सकता था...मैंने उसी से किा...“आप िी खोहलए...” सफ़ीना ने िल्दी-िल्दी हलफ़ाफ़ा खोला और मझु े सारी चीिें हदखाई...“ये ं िै आपका एिीएम काडत... ये िै चेक बक ु ...ये तीनों पासवडत...एक एिीएम का ...एक...नेिबैंहकंि का...और ये फोन बैंहकंि का...” मैंने पछ ू ा...“अब आपको हकधर िाना िै...?” सफ़ीना ने अपनी उसी मोिक अदा से किा...“अब मझु े दादर िाना िै...” पिली बार मझु े लिा हक सफ़ीना झठू बोल रिी िै....सच िो भी िो लेहकन एक सच ये था हक सफ़ीना मेरे इंदस े ना ु ंचत
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साथ निीं थी...उसने...किा...“और कुछ...?” मैं किना तो चाि रिा था मिर मैं कै से किता? उसके साथ एक लड़की और थी...मैं कुछ न कि सका...सफ़ीना...“ओके ...बाय...” किके चल दी....मैं उसे िाते िुए देख रिा था...मैं सोच रिा था...हकसी ने सच िी किा िै....धोखा िमेशा खबू सरू त िी िोता िै...लेहकन सफ़ीना ने कोई धोखा निीं हदया था...वो तो बस अपना काम एक ‘अपनेपन’ से कर रिी थी....वो तो मैं था िो उसके इस बेबाक ‘अपनेपन’ में अपने आप को ढूँढ़ रिा था.... *******
इंदस े ना ु ंचत
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शभन्न-शभन्न चीतनयों की नज़ि
में भाित के विशभन्न रूप
ततआन केवपंग(Tian Keping) गआ ु ं्डोंग वविे िी अध्ययन
ववश्वववद्यालय, गआ ु ंगज़ौ, चीन
भारि एक कैसा िे ि है?
इस प्रश्न का जवाब जानने की ष्जज्ञासा चीनी लोगों के हृिय
में अचधक और अचधक उत्पन्द्न होने लगी है । लेककन शभन्द्न-शभन्द्न चीनी लोगों की नज़र में भारि का रूप
बबल्कुल अलग-अलग है । मैं उन्द्हें िो भागों में बांटिी हूँपहले प्रकार चीनी लोगों की आंखों में भारि एक धाशमषक िे ि है , ष्जसका मुख्य धमष
बौद्ध धमष है । उन्द्हें लगिा है कक भारि और चीन के बीच सब से बड़ी शभन्द्निा धमष की भारिीय लोग ईश्वर को मानिे हैं जबकक चीनी लोग उसे
है ।
नहीं मानिे। इसशलए भारिीय लोग
भा्य पर ववश्वास करिे हैं और चीनी लोग केवल अपने आप पर ववश्वास करिे हैं। उन्द्हें लगिा है कक भारिीय लोग इस जन्द्म की अपेक्षा अगले जन्द्म में ज्यािा रुचच लेिे हैं। इसशलए िारीररक और मानशसक
श्रम की कोशिि से अपना जीवन
उन्द्हें सभी चीज़ो को िांि मन से स्त्वीकार करने का प्रववृ त्त अचधक िस ू रे
स्त्िर बिलने की बजाए है ।
प्रकार वे लोग हैं ष्जनकी नज़र में
भारि में बहुि धमष िो हैं पर साथ में उसके संववधान में धमषतनरपेक्षिा की घोर्णा भी की गई है और इसका संख्या की दृष्ष्ट से सबसे बडा धमष बौद्ध धमष नहीं है , दहंि ू धमष है । हां , बहुि से भारिीय लोग जो भा्य िो मानिे हैं लेककन इसका यह मिलब नहीं है कक वे िै तनक जीवन में मेहनि नहीं करिे। उन्द्हें भी ववश्वास है कक वे अपनी श्रम-िष्क्ि से और ईश्वर के
आिीवाषि से अपना भा्य स्त्वयं बिल
सकिे हैं। इसशलए वे भी चीनी लोगों की िरह कोशिि से काम करिे रहिे हैं। लेककन उनका काम करने का
िरीका चीनी लोगों से शभन्द्न हैं। उन्द्हें लगिा है कक काम करने का अंतिम
उद्िे श्य अपने लाभ के शलए नहीं है , बष्ल्क ईश्वर के शलए है । इसशलए अपना कायष चाहे सफल हो या
ववफल, यह सबसे महत्वपू ्णष बाि नहीं है । बष्ल्क सबसे महत्वपू ्णष बाि यह है
कक वे ईश्वर के ऊपर कभी अपना काम नहीं छोड़िे और श्रीमिभगवद्गीिा के जीवन-ििषन के अनुसार कभी अपना कमष-फल पाने का हठ भी नहीं करिे। अि :ऊपर-ऊपर से िे खने में
सफलिा प्राप्ि करने की इच्छा इिनी बड़ी नहीं लगिी है ,जबकक वास्त्िव में ऐसा नहीं
होिा वे िांि मन से काम करिे हुए अपने लक्ष्य िक पहुंचना चाहिे हैं। इंदस े ना ु ंचत
वििेष प्रततभा वििेषांक
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पहले प्रकार के लोगों की नज़रों में भारि में जो सामाष्जक समस्त्याएं हैं, उन्द्हें समझने में बहुि मुष्श्कल है । जैसे, जाति-प्रथा, िहे ज़-प्रथा और स्त्री की तनम्न ष्स्त्थति आदि। उन्द्हें समझ में नहीं आिा है कक क्यों भारिीय लोगों को चार वणों के अनस ु ार ववभाष्जि ककया गया
है और क्यों कुछ लोग आज भी अछूि हैं?क्यों ववशभन्द्न वणष के लोग परस्त्पर वववाह
नहीं कर सकिे ?क्यों स्त्री के साथ काफ़ी अन्द्याय होिे हैं, जैसे बाल-वववाह , यौन-िोर्ण
और ववधवा होने के बाि िस ू रा वववाह बहुि बड़ी मुष्श्कल हो पाना आदि। िस ू रे प्रकार के चीनी लोगों ने भी ये समस्त्याएं िे खी और महसस ू ी हैं पर वे रामायण और
महाभारि पढ़कर इन समस्त्याओं का उद्भव जान सके हैं। जैसे वे जानिे हैं कक ऋ्वेि के अनुसार ितु नया के सबसे पहला पुरुर् यानी ब्रह्मा के मुख, भुजा, उिर(पेट) और पैर से
ब्रहमण, क्षबरय, वैश्य और िूर पैिा हुए हैं। आज िक भी अचधकिर भारिीय लोग ऋ्वेि पववर मानिे हैं और इसका ववश्वास करिे हैं। यही जाति-प्रथा का एक आधार यह भी है । उनके ववचार से ववशभन्द्न जाति के बीच वववाह नहीं होना चादहये िाकक वणष का शमश्रण न हो। इसके साथ जब िस ू रे प्रकार चीनी लोग सत्यमेवजयिे जैसे कायषक्रम के द्वारा भारिीय लोगों में अपनी समस्त्याओं का सामना करने का साहस िे खिे हैं िो खि ु होिे हैं। िस ू रे
प्रकार के लोगों की आंखों में
भारिीय संस्त्कृति
की वविेर्िा सचमच ु
ववववधिा(अनेकिा) अनेकिा में एकिा भी है । चाहे ककिने धमष हो, चाहे ककिनी जातियां हों,
चाहे ककिने ववशभन्द्न प्राकृतिक क्षेर हों, चाहे इतिहास में ककिनी बार वविे िी सेनाओं ने आक्रमण ककया हो, भारिीय लोगों के ववराट हृिय के अंिर सब जाति-धमों के शलए
एक
समान भावना मौज़ि ू रही है.वह भावना है ---ववश्वबंधत्ु व की भावना। इसीशलए जब िस ू रे प्रकार लोग ख़ि ु भारि में गए और उन्द्हें भारिीय लोगों से मिि शमली िो उनकी वह मिि
हमेिा
के शलए एक याद्गार बन गई।
अब िायि आप मुझ से पूछना चाहिे होंगे कक ये पहले प्रकार चीनी लोग और िस ू रे प्रकार के
चीनी लोग कौन हैं ?क्यों उनकी आंखों में
लोग हैं जो
भारि
ववशभन्द्न है ? पहले प्रकार के वे
चीनी या अंग्रेज़ी भार्ा के टीवी. अख़बार . इन्द्टरनेट आदि मीडडया से भारि को
जानिे-समझिे हैं, उन्द्हें दहन्द्िी आदि भारिीय भार्ाएं नहीं आिीं और ख़ि ु भारि भी नहीं गए। िस ू रे प्रकार के चीनी लोगों में वे हैं ष्जन्द्होंने दहन्द्िी पढ़ी है और ख़ि ु भी भारि गए हैं. वे
अपनी आंखों से भारि िे ख के आए हैं. अपने मुंह से भारिीय लोगों से बािचीि की है ।
भारि को जानने का उनका माध्यम दहन्द्िी ककिाब, दहन्द्िी वैबसाइट(website, दहन्द्िी
रे डडयो, दहन्द्िी टीवी और दहन्द्िी शसनेमा है । यह मेरा बड़ा सौभा्य है कक मैं िस ू रे प्रकार की चीनी हूं,ष्जसे दहन्द्िी पढ़ने का मौका शमला है और ख़ि ु भारि िे खने का मौका भी। जब मेरे कुछ शमरों ने मझ ु से पूछा था कक िुम
दहन्द्िी क्यों पढ़ना चाहिी हो ?अंग्रेज़ी काफ़ी नहीं है क्या? िो मैंने उन्द्हें जवाब दिया
था कक अगर आप भारि के बाहरी रूप और भारिीय लोगों का दिमाग जानना चाहिे हैं िो अंग्रेज़ी काफ़ी है । पर, अगर आप भारि के अंिरूनी रूप को जानना चाहिे हैं एवं भारिीय इंदस े ना ु ंचत
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लोगों के दिल एवं आत्मा जानना-समझना चाहिे हैं िो दहन्द्िी और उसकी अन्द्य भारिीय भार्ाएं पढ़ना
ज़रूरी है !अगर अन्द्य कोई भार्ा न भी आए िो चलेगा लेककन दहंिी के
बबना दहंिस्त् ु िान को जाने ज्यािा से
अभी चीन में दहन्द्िी पढ़ने वालों की संख्या तनरं िर बढ रही है .
ज्यािा लोग दहंिी सीखने में रुचच ले रहे हैं. । मुझे गहरा अनुभव होिा रहा है कक
हम सब दहन्द्िी जानने वाले चीतनयों का एक ज़रूरी िातयत्व है कक सच्चा भारि चीन िक पहुंचाएं(उसको बिाएं) और सच्चा चीन भारि िक िब हम िे ख सकेंगे कक भारि और चीन के बीच अनेक समानिाएं हैं जो वपछले कालखंडों में हम िे ख नहीं पाए ! परिचय : श्रीमिी तिआन केवपंग(Tian Keping)भी गुआं्डोंग वविे िी अध्ययन ववश्वववद्यालय, गुआंगज़ौ, चीन के दहंिी ववभाग में लेक्चरर हैं। इनका जन्द्मस्त्िान----हबे प्रांि है । बेइष्जंग ववश्वववद्यालय से इन्द्होंने दहन्द्िी में एम.ए
ककया
है । चीन सरकार की फ़ेलोशिप पर दहंिी में प्रवीणिा के शलए सन ् 2009 में भारि जाकर आगरा केंरीय दहंिी संस्त्थान में एक साल िक पढ़ाई की । सन ् 2010 में उन्द्होंने दिल्ली में ववश्व दहंिी दिवस पर दहंिी में एक भार्ण दिया,ष्जसकी खब ू चचाष रही। इसी साल
इन्द्हें भारि सरकार से आयोष्जि अखखल भारिीय दहंिी वाि-वववाि प्रतियोचगिा में भार्ा पुरस्त्कार भी शमला। 18
िरीख़ मई सन ् 2015 से 20 िरीख़ िक जब गुजराि की मुख्यमंरी आनंिी बेनपटे ल चीन आई हुई थी थीं। उन दिनों ये उनकी तनजी दहंिी अनुवािक रहीं। इसक िौरान इन्द्होंने कई महत्वपूणष कायषकमों के अनुवाि का काम ककया। इनके अद्वविीय दहंिी प्रेम और अनथक श्रम से वे बहुि प्रभाववि हुईं।
इंदस े ना ु ंचत
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िोि पत्र
भारतीय नविािरण और पारसी रंिमंच डॉ. रािुल हमश्र प्राध्यापक, हिदं ी कें द्रीय बौद्ध हवद्या संस्थान (मानद हवश्वहवद्यालय)
न ठे ठ ह दिं ी न खाहिस उद,ूद जबान गोया हि हििी जि ु ी ो। अिग र े न दधद से हिश्री, डिी डिी दधद िें घि ु ी ो ।। नारायणप्रसाद बेताब द्वारा रहचत ि ाभारत नािक की इन पहं ियों में हिदं ी और उदतू के समन्वय के माध्यम से भारत की साझी सस्ं कृ हत को, ििं ा-िमनु ी तििीब को पिु करने का सफल प्रयास प्रकि िोता िै। य नाटि सर्ूप्रथि िार्स जी पािन जी खटाऊ िी ििंपनी ने सगिं ि हथयेटर दे िी िें खेिा। इसिी अपर्द ू सफिता देखिर नाटि ििंपहनयों िे िाहििों ने अपना रुख बदि हदया, िेखिों ने इसिा अनि ु रण िल्याणिारि सिझा। अश्लीि नाटिों से घृणा िरिे हजन सश ु ीि सज्जनों ने नाटि न देखने िी प्रहत्ा िर रखी थी, उनिी प्रहत्ा टदट गई।....देहर्यों ने तो इसिा इतना आदर हिया हि सेठ जी िो हर्शेष रूप से िे र्ि हियों िे हिए प्रहत सप्ता एि नाटि िरना पड़ता था...।1 21 िनवरी, 1913 को हदल्ली में इसका मचं न िुआ और इसके साथ िी हिदं ी नािकों की और रंिमचं में एक नए यिु की शरुु आत िुई। नारायणप्रसाद बेताब के साथ िी आिा िश्र कश्मीरी और राधेश्याम कथावाचक की ियी ने हिदं ी नािकों की परंपरा को ऐसे अनठू े ढंि से हवकहसत हकया, हिसे पारसी रंिमचं ीय प्रवृहि की साथतक-सकारात्मक प्रिहत भी किा िा सकता िै, पारसी रंिमचं का दसू रा अध्याय भी किा िा सकता िै। उन्नीसवीं सदी तक आते-आते भारत के प्राचीनतम रंि-हवधान का लोक-सपं कत परू ी तरि िूि चक ु ा था। सैकड़ों वर्ों की िल ु ामी के दौरान सस्ं कृ त की स्थाहपत नाि्य-परंपरा का अहस्तत्व हसमि चक ु ा था और इसके स्थान पर मनोरंिन के हलए स्वाँि, खयाल, लीला और नौिंकी िैसे मचं ीय करतब शेर् थे। धाहमतक आस्थावान लोिों के हलए िररकथाएँ, िािाएँ, रामलीलाएँ और रासलीलाएँ थीं। िसु ििानी शासन िे पररणािस्र्रूप जनता उदूद साह त्य से अहधि प्रभाहर्त ो चि ु ी थी। उदूद साह त्य फारसी साह त्य से प्रभाहर्त था ी। अतः जनता िी प्रेिियी भार्नाओ िं िें तड़पना, ििछना, िर्ाब िी सींि बनिर जिना, आ ें भरना, ित्ि िरना; शराब, प्यािा, बे ोशी आहद ी प्रधान रूप थे। प्रेि िें उत्सगू एर्िं त्याग िा भार् प्रायः िप्तु था। साधारण जनता िे सिक्ष इसी प्रिार िा र्ातार्रण र ता था।2 देश में बदलते सामाहिकसांस्कृ हतक वातावरण का यि अलि पक्ष था, िो आम िनता और अहभिात्य वित के मनोरंिन िेतु अलिअलि हकस्म की स्थापनाएँ दे रिा था। देश के अलि-अलि स्थानों में मनोरंिन िेतु इस तरि के ऐसे साधन प्रचहलत थे, िो सामान्य लोिों के हलए रंिमचं ीय अपेक्षाओ ं की पहू तत करने में अक्षम हसद्ध िो रिे थे। इस इंदस े ना ु ंचत
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तरि एक ररिता उत्पन्न िुई। दसू री ओर कलकिा और बम्बई में अंग्रेिों की बहस्तयाँ स्थाहपत िो चक ु ी थीं। सन् 1854 में कलकिा में पिले अंग्रेिी नािक का मचं न अंग्रेि िुक्मरानों के मनोरंिन के उद्देश्य से िुआ और अंग्रेिी नािकों के मचं न की परंपरा चल पड़ी। ये नािक प्रायः अग्रं ेिी में िोते थे। इन नािकों में मख्ु यतः शेक्सपीयर के नािक िोते थे, हिनमें मारधाड़, िाद-ू िोना, भतू -प्रेत और रिस्य-रोमाचं िोता था। तत्कालीन अहभिात्य भारतीयों और हवशेर्कर पारसी व्यापाररयों ने अग्रं ेिों की इस रंिमचं ीय परंपरा में सभं ावनाओ ं को देखा और देशी हथयेिसत स्थाहपत करने की शरुु आत िुई। इस क्रम में सबसे पिले बगिं ाि हथयेटर और ओररएिंटि हथयेटर की स्थापना कलकिा में िुई। रिंगिचिं पर नाटि िे अहभनय िी ओर झााँसी िे ि ाराज गिंगाधररार् और िखनऊ िे नर्ाब र्ाहजदअिी शा िी दृहि भी गई। र्ाहजदअिी शा ने ‘हिस्सा राधा िन् यै ा’ स्र्यिं हिखा। सन् 1853 ई. िें अिानत ने ‘इन्दर सभा’ नाटि हिखा। य स ी अथू िें ओपेरा था। य िाफी िोिहप्रय ुआ। पारसी रिंगिचिं ों िो ‘इन्दर सभा’ िी परिंपरा से जोड़ा जा सिता ।ै 3 अमानत सािब के इन्दर सभा नािक की तित पर ‘सभा’ शब्द को िोड़कर अनेक नािक हलखे िए और उनके मचं न की परंपरा भी शरू ु िो िई। नवाब वाहिदअली शाि के बाद ‘इन्दर सभा’ के यिु का अंत िो िया और पारसी नािक कंपहनयाँ अहस्तत्व में आने लिीं। सन् 1853 में िी पिली पारसी नािक मडं ली की स्थापना फराम िी िस्ु ताम िी दलाल ने की थी। इसके बाद कई पारसी नािक मडं हलयाँ बनती और हबिड़ती रिीं। इन मडं हलयों का मख्ु य उद्देश्य धन अहितत करना िी था, हिसके हलए पारसी व्यापारी खबू धन हनवेश भी करते थे। ििाँिीर पेस्तन, िोरमस िी ताँतरा, माहणक िी िीवन िी, ििाँिीर िी कावस िी, दादाभाई पिेल, मिमदू अली वोरा, सोिराब िी फराम िी, सोिराब िी बल्लीवाला, माहणक शाबलसरा और मेिरबान िी कापहड़या आहद पारसी व्यापाररयों ने पारसी नािक मडं हलयों की स्थापना की। बीसवीं शताब्दी के आते-आते पारसी नािक मडं हलयों का प्रभत्ु व स्थाहपत िो चक ु ा था। पारसी नािक मडं हलयों का मख्ु य उद्देश्य धन कमाना िी था, मिर उसके हलए, व्यावसाहयक हितों को साधने के हलए पारसी रंिमचं ने सबसे पिले रीहतकालीन हवलाहसता को अपनाया, हफर हर्क्टोररयन हथयेहििि हवशेर्ताओ ं को अपनाया। शौयू, चित्िार, भार्ि ु ता और आश्चयू जैसे भार्ों िो रचिर पारसी रिंगिचिं ने दशूिों िो खींचिर प्रेक्षागृ िें बि ु ाने और बााँधे रखने िे हिए पहश्चि िी अहभनय शैिी िा स ारा हिया। एि तरफ पद्यिय सर्िं ाद, िोिहप्रय सगिं ीत िी ध्र्हनयााँ और यद्ध ु िा शोर था, जो दशूिों िी सनु ने िी भख द िो तृप्त िरता था, तो दसद री तरफ साज-सज्जा, र्ेशभषद ा और दृश्यफििों िी चिाचौंध िे बीच थे िचिं पर घहटत ोते चहित िरने र्ािे िायू-व्यापार। प्रेि और यद्ध ु िे िाध्यि से शेक्सपीयर िी भोंड़ी निि िरने िा य हसिहसिा िुछ हदनों िे बाद बदिा और य ीं से पारसी रिंगिचिं िी अहभनय शैिी िें िुछ नए तत्त्र् आिर शाहिि ो गए। भारतीय दशूिों िी रुहचयों िा ध्यान रखते ुए जब नए नाट्यािेखों िी रचना और प्रस्तहु त आरिंभ ुई, तब पारसी रिंगिचिं िो अपनी अहभनय शैिी िें बदिार् िी आर्श्यिता ि ससद ुई। अहभनेताओ िं ने जनसाधारण िे रिंगिचिं - यात्रा, भर्ई, नौटिंिी, िाच, ख़याि, स्र्ााँग और तिाशा आहद से अहभनय िे तत्त्र्ों िो चनु िर जाने-अनजाने अपने िो बदिा। अहभनय िा य रूप हर्क्टोररयन रूप से परद ी तर अिग था, हजसे अग्रिं ेजों ने हदया था।4 पारसी रंिमचं में अिला बदलाव नारायणप्रसाद बेताब, आिा िश्र कश्मीरी और राधेश्याम कथावाचक की ियी के आिमन के साथ देखने को हमलता िै। मारधाड़, िाद-ू िोना और रोमांस की नाि्य इंदस े ना ु ंचत
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प्रस्तहु तयाँ िब पारसी नािक मडं हलयों के व्यावसाहयक हितों के हलए नकाफी साहबत िोने लिीं और भारतीय समाि में आिादी के हलए छिपिािि मिससू िोने लिी, उस समय पारसी रंिमचं अपने हलए तय हकए िए नवीन दाहयत्वों के हनवतिन िेतु स्वतः आिे आ िया। इसका नेतत्ृ व नािककारों की इस ियी ने हकया। बेताब िी के मिाभारत नािक के साथ पारसी रंिमचं के नए यिु का सिू पात िुआ। बीसर्ीं सदी िे प्रथि दशि से िराठी, गजु राती, िारर्ाड़ी और उत्तर भारत िे ह दिं ी भाषी अहभनेताओ,िं हनदेशिों, गायिों तथा बेताब, िथार्ाचि जैसे नाटििारों ने पारसी रिंगिचिं िे स्र्रूप और प्रिृ हत, दोनों िो ी बदि हदया। इस पररर्तून ने हजस रिंगिचिं िो जन्ि हदया, उस ओर िराठी, गजु राती और उदूद भाषी ििािार भी आिृ ि ुए। गाने िे बोि ह दिं ी िें ोने िगे। इन बोिों से ह दिं द और ह दिं ी भाषा िे सस्िं िार बोिने िगे। इस िाि िे नाटििार एि साथ तीन पररदृश्यों िो जनता िे सािने प्रस्ततु िरने िें पणद ू सफि ो र े थे- अिंग्रेजी राज्य िे अत्याचार, भारतीयों िें जागृहत और गािंधी, गोखिे, हतिि आहद िे व्यहित्र् िी झिि। ये सब पौराहणि िथाओ िं िे बीच से व्यहि हिया जाता था। इन नाटििारों ने राििीिा, रासिीिा, स्र्ािंग आहद िोिनाट्य िे तत्त्र्ों िो अपने अिंदर पचा हिया। इस प्रिार दशूि एि ओर नाटि िा आनदिं िेते थे और दसद री ओर उनिा अध्यात्ि सतिं िु ोता था। इन पारसी ह दिं ी नाटिों ने जनिानस िे साथ-साथ राजनीहति नेताओ,िं राजा-ि ाराजाओ िं िो इतना अहधि प्रभाहर्त हिया हि हजनिें भी थोड़ी-सी राष्ट्िीय चेतना ोती थी, र्े बार-बार ऐसे नाट्यिारों िो अपने य ााँ आिहिं त्रत िरता था।5 यिी कारण था हक पारसी नािक मडं हलयाँ वर्त-पयंत देश-भर में भ्रमण करती थीं और अपनी प्रस्तहु तयों के माध्यम से िनसाधारण का मनोरंिन करने के साथ िी राष्रीय चेतना के हवकास में योिदान देती थीं। इसी कारण पारसी रंिमचं से िड़ु े नािककारों-कलाकारों के प्रहत आम-िन का िड़ु ाव िोता था। आम िनता के साथ पारसी रंिमचं के घहनष्ठ िड़ु ाव के लोक-हितकारी स्वरूप का अत्यंत रोचक वणतन राधेश्याम कथावाचक ने अपने सस्ं मरण में हकया िै। राधेश्याम कथावाचक सन् 1911-12 के आसपास के एक सस्ं मरण का हिक्र करते िुए हलखते िैं हक काशी में हिदं ू हवश्वहवद्यालय की स्थापना िेतु धन-सग्रं ि के हलए मिामना मदनमोिन मालवीय, दरभंिा नरे श, हशवप्रसाद िप्तु और दीनदयालु शमात के साथ िी कई िणमान्य व्यहि पधारे थे। उनके अहभयान के हलए राधेश्याम कथावाचक ने 8-10 िीत हलखे और वे िीत िाए िए, हिनसे प्रभाहवत िोकर बरे ली की िनता ने कई ििार रुपये दान में हदए, िो काशी हिदं ू हवश्वहवद्यालय की स्थापना के हलए उस समय का बिुत बड़ा आहथतक योिदान था।6 राधेश्याम कथावाचक द्वारा हलखे िए िीतों में से एक चहचतत िीत की पहं ियाँ हनम्नहलहखत िैंह िहिि िरो जाहत-उद्धार, भाइयो सिय न बारम्बार । िोहटपती दें िक्ष-िक्ष, िखपती जार- जार । िध्यि श्रेणी देंय सैिड़ों, हनधून िे दो-चार। िें दो पैसे भी स्र्ीिार- भाइयो, सिय न बारम्बारराधेश्याम कथावाचक द्वारा रहचत नािक भि प्रलादाद में बतातहनया िुकूमत के हखलाफ राष्रीय चेतना की, नविािरण की साक ं े हतक-प्रतीकात्मक अहभव्यहि िुई। इस नािक में हिरण्यकश्यपु को अग्रं ेिों के रूप में और भि प्रलादाद को अहिसं क सत्याग्रिी के रूप में प्रस्ततु हकया िया था। इस नािक की प्रशसं ा आचायत इंदस े ना ु ंचत
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मिावीरप्रसाद हद्ववेदी, िणेशशक ं र हवद्याथी और बालकृ ष्ण शमात ‘नवीन’ िैसे पिकारों ने की थी और भारत की आिादी के हलए चल रिे आदं ोलन के हलए एक सदं श े माना था। भारतीय स्वाधीनता आदं ोलन कालांतर में भि प्रलादाद िैसे सत्याग्रहियों के रास्ते पर िी चला था। ऐसा िी एक प्रसिं नारायणप्रसाद बेताब के नािक ‘हकन्नर कुमारी’ के साथ िड़ु ा िुआ िै। सन् 1927-28 में एक अमेररकी महिला के थरीन मेयो (हमस मेयो) ने ‘मदर इहं डया’ नाम से एक हकताब हलखी, हिसमें भारत की तमाम बरु ाइयों का हिक्र हकया िया था। लाला लािपत राय ने इस हकताब को ‘ििर इस्ं पेक्िसत ररपोित’ बताया था। बेताब िी ने इस हकताब में हकए िए वणतनों की प्रहतहक्रया के तौर पर ‘हकन्नर कुमारी’ नािक की रचना की, हिसमें उन्िोंने अंग्रिे ों की मानहसकता का सिीक और तीक्ष्ण हवश्लेर्ण हकया। उन्िोंने एक चहचतत िीत भी नािक में िोड़ा, हिसके बोल हनम्न थेबिारे िल ु को बल ु बल ु िी, खश ु ी से देख सकती िै, िमेशा चील तकती िै, तो मरु दारों को तकती िै । शराबी ढूँढ़ लेता िै, ििाँ िोता िै मयखाना, स-ू ए-दैरो-िरम िाते िैं, हिनके हदल में भहि िै । िवन कुण्डों को देखेिा, न दारोगा सफाई का, फक़त कूड़े के ढेरों पर, नज़र उसकी लपकती िै । हशवालय और महस्िद के , खल ु े िैं िो हक दरवाज़े, कुमारी हकन्नरी लेहकन, विाँ िाते हझझकती िै ।7 पारसी रंिमचं की उत्पहि के प्रारंहभक वर्ों में खदु ा दोस्त, लैला मिन,ू इसरत सभा, लैलो हनिार, फरे बे मिु ब्बत, हवक्रम हवलास, मार आस्तीन, सफे द खनू और अंिामे उलफत िैसे नािक खेले िाते थे। बाद के वर्ों में, हवशेर्कर नारायणप्रसाद बेताब, आिा िश्र कश्मीरी और राधेश्याम कथावाचक की ियी के आिमन के उपरांत मिाभारत, रामायण, वीर अहभमन्य,ु श्रवण कुमार, िररिद्रं , छिसाल, यिदी की लड़की, मातृभहि, कुमारी हकन्नरी उफत मदर इहं डया, खिान-ए-दीन और नरू े इस्लाम िैसे नािकों का मचं न िोने लिा, हिसे आम िनता ने न के वल खल ु े मन से स्वीकार हकया, वरन् इन नािकों की अतं हनतहित मल ू भावना को आत्मसात् भी हकया। पारसी रंिमचं अपने हवकासक्रम में रोमाचं कारी घिनाओ ं से प्रारंभ िोकर पौराहणक कथाओ ं से ििु रता िुआ सामाहिक समस्याओ ं और समाधान की ओर मड़ु ता िया। यिी वि यिु था, िब भारत में नविािरण का सिू पात िुआ। आयत समाि, प्राथतना सभा और िह्मसमाि िैसे सिं ठन देश की परु ातन िररमा को पनु िीहवत करने का प्रयास कर रिे थे और राष्रीय चेतना के हवकास में योिदान दे रिे थे। उस समय का समाि शैहक्षक और आहथतक स्तर पर उन्नत निीं था, हलिािा साहित्य के माध्यम से नविािरण की अहभव्यहि को अनभु तू करने वाले लोिों की सख्ं या सीहमत िी थी और नविािरण की साहित्य पर आधाररत धारा का प्रवाि निरों में रिने वाले पढ़े-हलखे लोिों तक िी सीहमत था। िाँवों-कस्बों में बसने वाली भारतीय आत्मा तक नविािरण की चेतना को पिुचँ ाने के हलए साहित्य की भहू मका अत्यतं सीहमत थी और ऐसे में एक ररिता उत्पन्न िुई, हिसे भरने का काम पारसी नािक मडं हलयों ने हकया। पारसी नािक मडं हलयों ने राष्रीय और पनु रुत्थानवादी भावनाओ ं को अिीबोिरीब इंदस े ना ु ंचत
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दृश्यों और चमत्कारपणू त घिनाओ ं के मचं न के साथ रँ िकर प्रस्ततु हकया। शद्ध ु शािीय, िोि-सगिं ीत िे साथ ‘इदिं र सभा’ िी सगिं ीत परिंपरा िो भी इन् ोंने एि नई ि र प्रदान िी। इतना ी न ीं पारसी, यनद ानी, अिंग्रजे ी, अरबी धनु ों िो भी इन् ोंने अपने आिषूण िें शाहिि िर हिया। भारत िे हर्हभन्न अिंचिों िी तानों और पल्टों िो भी इन् ोंने स षू स्र्ीिार िर आि आदिी िे िन िो र्शीभतद िर हिया।8 पारसी रंिमचं में भारतीय िायकी- ठुमरी, राई, दादरा, किरी, िोरी, ििल आहद को समेिकर नविािरण की धारा से आम िनमानस को िोड़ने का प्रयास हकया िया। इस कारण पारसी रंिमचं का, पारसी नािक मडं हलयों का हवस्तार कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कच्छ का रन से लेकर बंिाल की खाड़ी तक था। पारसी नािक मडं हलयों के व्यापक िन-सिभाि को इसी से समझा िा सकता िै। इसी दौरान भारतेंदु िररिंद्र का आिमन िुआ। वे बिुमख ु ी प्रहतभा के धनी थे। भारतेंदु के नाि्य-लेखन और नािकों के मचं न के संबंध में प्रचहलत िै हक उन्िोंने एक पारसी नािक मडं ली द्वारा मचं न हकए िा रिे शकंु तला नािक को देखा, हिसमें दष्ु यंत और शकंु तला का हचिण अत्यंत फूिड़ तरीके से हकया िा रिा था। इसे देखकर उन्िें बिुत दःु ख िुआ और उन्िोंने नािकों को यिु ीन सदं भों से, राष्र के पनु रुत्थान से िोड़ने के हलए आदं ोलन चलाया। र् हनरिंतर हथयेटराना जगत से अिग नयी नाट्य परिंपरा, हभन्न नाट्यहशल्प और ह दिं ी रिंगिचिं िी स्र्तत्रिं हर्िास-परिंपरा िे प्रहत सघिं षूरत र ।े 9 भारतेंदु के द्वारा हकए िए प्रयासों के पररणामस्वरूप ऐसे नािकों के लेखन और मचं न की शरुु आत िुई, हिन्िें सभ्रं ातं और अहभिात्य वित के अनक ु ू ल किा िा सकता िै, हिन्िें सभ्य-हशि-शालीन किा िा सकता िै और हिन्िें नविािरण की प्रवृहियों से पणू त भी किा िा सकता िै। इसके बाविदू पारसी रंिमचं की व्यापक िनस्वीकायतता भारतेंदु और उनकी मडं ली के नािककारों से कम निीं थी। इस तरि भारतेंदु का रंिमचं और पारसी रंिमचं समानांतर चल रिे थे। भारतेंदु का रंिमचं शद्ध ु तावाद से पणू त और साहित्यकारों द्वारा स्वीकृ त था, िबहक पारसी रंिमचं अपने शरुु आती दौर की हवकृ हतयों के आरोपों से मि ु निीं िो पाया था। इस सदं भत में भारतेंदु के परवती ियशक ं र प्रसाद का उल्लेख करना प्रासहं िक िोिा। पारसी हथयेटर िे सिान ी उन् ोंने पौराहणि और ऐहत ाहसि नाटिों िो पनु रुत्थानर्ादी और राष्ट्िीय भार्ना िो छायार्ाद िे झीने परदे िें से अहभव्यि हिया। उनिा रिंगबधिं पारसी ै और िथानि िाव्यात्िि और साह हत्यि। इसीहिए र्े न िोि िे ो सिे और न िाव्य और साह त्य िे । उन् ोंने इश्ि और राष्ट्िीय भार्ना िे हर्रोधी तत्त्र्ों िो हििाने िे प्रयास िें नाट्यििा िो खो हदया। पारसी इसी हर्रोधी भार्ना द्वारा सफि ुए, क्योंहि र्े िोि िे सिीप थे और प्रसाद असफि र ,े क्योंहि र्े िोि से भरे पिायनर्ाद िे सिीप प चुाँ गये।10 पारसी रंिमचं साहिहत्यक पररहध में इसी कारण सहम्महलत निीं िो सका, क्योंहक उस पर स्तरिीन और फूिड़ िोने के आरोप लिते रिे और शद्ध ु तावाद के समथतक साहित्यकारों के हलए उसकी लोकहप्रयता को सिि रूप में स्वीकार कर पाना कहठन िोता रिा। पारसी रंिमचं के साथ िड़ु ी उसके अतीत की हवकृ त छहवयों के कारण उसके अहस्तत्व को नकार हदया िाना और उसे राष्रीय धारा से अलि, नविािरण की भावना से अलि मान लेना अनहु चत और अप्रासहं िक िोिा। पारसी रिंगिचिं िो एि झटिे िें ‘रूढ़ रिंगिचिं ’ ि िर निारा न ीं जा सिता। पहश्चि िे रिंगिचिं िे साथ-साथ िारे पारिंपररि रिंगिचिं िे िई अर्शेष इस रिंगिचिं िे भीतर उपिब्ध ।ैं 11 वस्ततु ः इंदस े ना ु ंचत
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पारसी रंिमचं हिदं ी रंिमचं और भारत के परु ातन सस्ं कृ त नाि्य-परंपरा के बीच की वि कड़ी िै, हिसने सस्ं कृ त नाि्य परंपरा की लोकहप्रयता को भारतीय समाि में, भारत के सदू रू वती आचं हलक क्षेिों में पनु स्थातहपत करने में अिम भहू मका हनभाई िै। साह त्य िे इहत ासिारों ने नाटिों िी इस हर्स्तृत दहु नया िो असाह हत्यि ि िर उसिी उपेक्षा िी तथा ह दिं ी रिंगिचिं िे इस िोिहप्रय हर्धान िो नाटि िे तत्त्र्ों से रह त बताया। परिंतु बात ऐसी न ीं ।ै पारसी रिंगिचिं िे नाटिों ने ह दिं ी भाषा और साह त्य िे हर्िास तथा उसिी सिृहद्ध िें ि त्त्र्पणद ू योगदान हिया ।ै इनिा तथ्यात्िि िल्द याि िं न इहत ास िी सरु क्षा िी दृहि से तो आर्श्यि ै ी, इस िािखिंड िी नाट्य-हर्षयि गहतहर्हधयों से भी पररहचत ोने िे हिए भी आर्श्यि ।ै 12 भारतेंदु िररिद्रं के नािकों के हवधान को देखें, तो स्पि िोता िै हक भारतेंदु ने भी भारतीय नाि्य हवधा के परंपराित तत्त्वों की प्रहतबद्धता त्यािकर ऐसे नािक हलखे, िो आम-िन की रुहचयों पर खरे उतर सकें । इस तरि भारतेंदु के नािकों में पारसी नािकों के पररवहधतत-सवं हद्धतत रूप के िी दशतन िोते िैं। पारसी रंिमचं को निरों-मिानिरों के हशि-सभ्रं ांत वित में भले िी अपेहक्षत स्थान न हमला िो, मिर ‘वास्तहवक भारत’ को मनोरंिन के साथ िी राष्रीय चेतना का अिसास कराने के हलए पारसी रंिमचं का योिदान अतल ु नीय िै। भारतेंदु के असामहयक देिातं और उनके बाद हफर से उत्पन्न िुई ररिता को एक बार हफर पारसी रंिमचं ने िी पणू त हकया और कालातं र में भारतीय हसनेमा की उत्पहि के साथ पारसी रंिमचं ने अपनी हवरासत भारतीय हसनेमा को सौंप दी। हिदं ी हसनेमा के शरुु आती दौर में अपनी रचनाधहमतता से भारतीय समाि का, भारतीय राष्रीय चेतना का, नविािरण की प्रवृहियों का उत्कृ ि प्रदशतन करने वाले हसने कलाकार पृथ्वीराि, राि कपरू , शहश कपरू , सज्िन, सदु शतन सेठी, श्रीराम, उिरा और िोिरा सििल आहद पारसी रंिमचं से िी हिदं ी हसनेमा में आए थे। पारसी रंिमचं की उत्पहि हर्क्टोररयन शैिी के नािकों की प्रहतहक्रया के तौर पर िुई और पारसी व्यापाररयों के व्यावसाहयक हित-साधन के आवरण में भारतीय परंपराित तत्त्वों को और आम िनमानस में प्रचहलत लोकनाि्य हवधाओ ं को अपने में हमलाती चली िई। अपने हवकास के क्रम में हिस तरि भारतीय समाि में हिस िहत से बदलाव की अपेक्षाएँ हवकहसत िोती िई,ं उसी तीव्रता के साथ पारसी रंिमचं अपने सामाहिक दाहयत्वों का हनवतिन करने िेतु तत्पर िोता िया। हृर्ीके श सल ु भ के शब्दों में, सन् सत्तार्न िी गदर िे बाद स्र्तत्रिं ता िी चा त पनपी और य चा त जैस-े जैसे हर्िहसत ोती गई, उसिा प्रभार् पारसी रिंगिचिं पर पड़ता गया। इसी प्रभार् ने र् ााँ राष्ट्िीयता िा एि रोिानी ससिं ार भी रचा।13 इस तरि पारसी रंिमचं भले िी साहिहत्यकों के हलए ‘अस्पृश्य’ रिा िो, मिर उसने अपने दाहयत्वों के हनवतिन में कोई कमी निीं छोड़ी। पारसी रंिमचं के माध्यम से भारतदेश के सदू रू वती अंचलों में नविािरण की उस धारा का उदय इतनी तीव्रता-तीक्ष्णता के साथ िुआ, हिसने कालांतर में राष्रीय हचतं नधारा को समृद्ध हकया और देश की आिादी के आदं ोलन को ऐसी ताकत दी, हिसका पररणाम सकारात्मक रूप में प्रकि िुआ। सदं भत1. बच्चन हसिं , हिदं ी नािकों के उद्भव के पवू त, हिदं ी नािक (आलोचना), राधाकृ ष्ण प्रकाशन, नई हदल्ली, प्रथम स.ं 1989, पृ. 21 इंदस े ना ु ंचत
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2. डॉ. प्रेमनारायण शक्ु ल, नािक का उद्भव और हवकास, भारतेन्दु की नाि्य-कला, ग्रन्थम,् रामबाि, कानपरु , हद्वतीय स.ं 1972, पृ. 33 3. बच्चन हसिं , हिदं ी नािकों के उद्भव के पवू त, हिदं ी नािक (आलोचना), राधाकृ ष्ण प्रकाशन, नई हदल्ली, प्रथम स.ं 1989, पृ. 20 4. हृर्ीके श सल ु भ, पारसी रंिमचं : हनकि अतीत का वैभव, रंिमचं का िनतिं , रािकमल प्रकाशन, नई हदल्ली, प्रथम स.ं 2009, पृ. 62 5. रघवु रदयाल वाष्णेय, पारसी रंिमचं , रंिमचं की भहू मका और हिदं ी नािक, इद्रं प्रस्थ प्रकाशन, हदल्ली, प्रथम स.ं 1979, पृ. 275-276 6. प.ं राधेश्याम कथावाचक, तरुणावस्था (पवू ातद्ध)त , मेरा नािक-काल, राष्रीय नाि्य हवद्यालय, नई हदल्ली, प्रथम स.ं 2004, पृ. 43 7. वेब रे फ़रें स, http://iptanama.blogspot.in/2012/01/blog-post_15.html 8. रघवु रदयाल वाष्णेय, पारसी रंिमचं , रंिमचं की भहू मका और हिदं ी नािक, इद्रं प्रस्थ प्रकाशन, हदल्ली, प्रथम स.ं 1979, पृ. 278 9. हिरीश रस्तोिी, अन्धेर निरी : समकालीन व्यग्ं य और लोक का िीवतं मिु ावरा, हिदं ी नािक का आत्मसघं र्त, लोकभारती, इलािाबाद, प्रथम स.ं 2002, पृ. 03 10. रघवु रदयाल वाष्णेय, पारसी रंिमचं , रंिमचं की भहू मका और हिदं ी नािक, इद्रं प्रस्थ प्रकाशन, हदल्ली, प्रथम स.ं 1979, पृ. 321 11. हृर्ीके श सल ु भ, पारसी रंिमचं : हनकि अतीत का वैभव, रंिमचं का िनतंि, रािकमल प्रकाशन, नई हदल्ली, प्रथम स.ं 2009, पृ. 61 12. भवानीलाल भारतीय, हसनेमा पवू त का रंिमचं ीय पररदृश्य, बॉलीवडु नामा, सत्साहित्य प्रकाशन, हदल्ली, प्रथम स.ं 2011, पृ. 203 13. हृर्ीके श सल ु भ, पारसी रंिमचं : हनकि अतीत का वैभव, रंिमचं का िनतंि, रािकमल प्रकाशन, नई हदल्ली, प्रथम स.ं 2009, पृ. 61
इंदस े ना ु ंचत
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आओ! िांगकांग में हिन्दी को दल ु ािें ................
डॉ. प्रणि िास्त्री
डी.शलट
अध्यक्ष- ववश्व दहन्द्िी मंच जून, 2015 में ही कुछ दहन्द्िी सेवी शमरों के साथ बैठकर यह योजना बनी कक इस बार ववश्व
दहन्द्िी मंच की चिुथष अन्द्िरराष्रीय दहन्द्िी ‘िोध संगोष्ठी हांगकांग में आयोष्जि की जाय।
प्रस्त्िाव अच्छा लगा। अध्यक्षीय िातयत्व तनभाना ‘िुरू कर दिया गया। 21-27 जून, 2016
की तिचथ िय की गयी। लगािार एक वर्ष के पररश्रम और प्रिीक्षा के बाि 49 सहयाबरयों की ववववधवणी सूची िैयार हुई। इसमें थे, कुछ प्राघ्यापक, कुछ इंजीतनयर, कुछ पररजन, कुछ वाखणज्य के मनीर्ी, कुछ प्रबंधन के आचायष और साथ में नौ खखलखखलािे ववशभन्द्न आयु के
बच्चे। 21 जून, 2016 (मंगलवार) को हम सब िस लोग पीलीभीि से रोडवेज की ए.सी.बस से प्रािः 9 बजे बरे ली के शलए चल दिए। रास्त्िे में इन्द्रिे व वविाई-वर्ाष करिे चल रहे थे।
बरे ली, महानगर पर 18 अन्द्य सहचर हमारी, एक प्राइवेट ए.सी. बस में प्रिीक्षा कर रहे थे। सभी मौज-मस्त्िी करिे आगे बढ़े । आकािवाणी रामपुर में सहधशमषणी डॉ. प्रणीिा गोस्त्वामी जी की ‘गुरूबषह्मा गुरूववषष्णुः’ ववर्य पर आकािवाणी वािाष ररकाडष कराई। सभी ने आकािवाणी केन्द्र के अन्द्िर जाकर ररकॉडडिंग-प्रसारण की प्रकक्रया िे खी। आगे चलने पर मुरािाबाि में एक अन्द्य सहचर शमल गए। गजरौला के ‘भजन स्त्वाि’ रे स्त्टोरे ट में सभी ने िाजा भोजन ककया।
सायं 7 बजे हम सभी इंदिरा गांधी अन्द्िरराष्रीय एयरपोटष पहुँच।े यहाँ पहले से आए हुए बीस शमर हम लोगों की प्रिीक्षा में व्याकुल हो रहे थे। सभी शमले। परस्त्पर पररचय, मेल-मल ु ाकािों का शसलशसला ‘िुरू हुआ। रै क वल्र्ड वेकेिन्द्स, दिल्ली के तनिे िक श्री मनीर् िायल िथा अतनल रावि जी हम सभी याबरयों के शलए जलपान लाए थे। राबर 9 बजे सभी ने चेक-इन ककया। हमारी फ्लाइट कैथे पैसेकफक की थी । इसने राबर 10.45 पर उड़ान भरी। 22 जन ू , 2016 को प्रािः 7 बजे हम सब मन में उल्लास और उमंग शलए हांगकांग एयरपोटष पर उिरे । इमीग्रेिन में हमारे ग्रप ु के 20 याबरयों को चैककंग के शलए रोक
शलया गया। इन्द्हें 2 घण्टे
बाि वापस भेज दिया। इन िो घंटों में हम सभी की जान सख ू ी रही। समूह भाव पहली बार
वहीं िे खा गया। जब इमीग्रेिन के एक अचधकारी ने हमारे पास आकर कहा कक आप लोग होटल जाइए। आपके बाकी साथी बाि में आ जाएँगे िब कोई भी जाने को राजी नहीं हुआ। यह प्रेम-प्रििषन सभी को अच्छा लगा। 2घण्टे बाि बाकी 20 साथी सुरक्षा-जाँच के बाि जब
बाहर आए, िब सबकी जान में जान आयी। एयरपोटष के बाहर तनकलिे ही हमारी गाइड ऐमी, ग्रुप की नाम-पट्दटका लेकर खड़ी थी। सुन्द्िर वािानुशलि बस में सामान रखकर सभी इधरउधर िे खिे हुए, आंनदिि होिे हुए, चककि होिे हुए, होटल ि एम्परर है प्पी वैली पहुँच।े यह भव्य फोर स्त्टार होटल है । सभी को अपने-अपने कमरे पसंि आए। पैक्ड लंच के साथ रे वल
एजेंट श्री ववकास राय होटल की लॉवी में शमले। भारिीय भोजन का आनन्द्ि लेकर सभी 4 इंदस े ना ु ंचत
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बजे सायं पुनः होटल की लॉबी में एकर हुए। गाइड के साथ हम सभी हांगकांग शसटी- टूर हे िु तनकले। सबसे पहले रे न से ववक्टोररया पीक पहुँच।े यह हांगकांग की सबसे ऊँची जगह
है । यहाँ से गगनचब ुं ी इमारिों, समुर में आिे-जािे समुरी जहाजों का नजारा बड़ा मनभावन
लगिा है । आधे घण्टे घूमने के बाि हम सभी मैडम िुसाि वैक्स म्यूष्जयम िे खने गए। यहाँ ववश्वप्रशसद्व व्यष्क्ियों, खखलाडड़यों, शसने अशभनेिाओं, संगीिकारों, राजनेिाओं के मोम के बड़े कलात्मक पुिले (प्रतिरूप) बनाए गए हैं। वप्रंस चाल्र्स, मैडम एशलजाबेथ, ओबामा को िे खकर
जैसे ही थोड़ा आगे बढ़े , सारे भारिीय मोिी जी का पुिला िे खकर चांंैक पड़े। उस प्रतिकृति के साथ सभी ने जी भर के फोटो खखंचाए। आगे सुपरस्त्टार अशमिाभ बच्चन जी का भी
पुिला शमला। इसके बाि हम सभी यूतनवशसषटी आफ हांगकांग का म्यूष्जयम िे खने गए। राबर 9 बजे समुर-िट पर ‘ शसम्फनी आफ लाइट’ का मनोरम नजारा िे खा। राि 11 बजे भारिीय भोजनालय ‘खाना खजाना’ में स्त्वादिष्ट भारिीय भोजन करके सभी होटल वापस लौट आए।
अगले दिन 23 जून 2016 को प्रािः 9 बजे हम सभी होटल से चिुथष अन्द्िरराष्रीय ‘िोध-
संगोष्ठी हे िु बासमिी इंडडयन रे स्त्टोरे न्द्ट के सभागार में एकर हुए। अंिरराष्रीय ‘िोध संगोष्ठी के उिघाटन-सर की कायषवाही आरम्भ हुई। मंच पर अध्यक्षीय िातयत्व तनभाया डॉ.
रामसनेहीलाल ‘िमाष ‘यायावर‘ (कफरोजाबाि) ने। ववशिष्ट अतिचथ के रूप में मंच पर ववद्यमान थे, डॉ. िे वराज ‘िमाष (बरे ली) डॉ. मदु ििा चन्द्रा (जमिेिपुर) प्रो. रे नू ‘िक् ु ला (िे हरािन ू ) िथा मख् ु य अतिचथ के रूप में गुआंगिोंग अन्द्िरराष्रीय भार्ा ववश्वववद्यालय,
्वान्द््जाऊ (चीन) के भार्ा ववभाग के तनिे िक डॉ. हू रूई, प्राध्यावपका डॉ.थ्यान ख कफं ग िथा इसी ववभाग में तनयक् ु ि, गि िीन वर्ों से दहन्द्िी अध्यापन कर रहे प्रो. गंगाप्रसाि ‘िमाष ‘गण ु िेखर’ जी, उपष्स्त्थि रहे । संचालन का िातयत्व सँभाला ववश्व दहन्द्िी मंच, भारि के अध्यक्ष डॉ. प्रणव िास्त्री ने। इस सर का ‘िुभारं भ
डॉ. रं जन वमाष ‘वविि’, की सरस्त्विी
वंिना से हुआ। ववशिष्ट वक्िा के रूप में गोरखपुर से पधारे संस्त्कृि मनीर्ी प्रो. मुरलीमनोहर पाठक ने अपने ओजस्त्बी उद्बोधन से सभी को मु्ध कर दिया। ‘िोध संगोष्ठी के मूल ववर्य
‘सादहत्य और संवेिना’ पर बोलिे हुए उन्द्होंने कहा कक हम सभी भारिीय िो जन्द्मजाि संवेिनिील होिे ही हैं। प्रकृति, गाय, पौधे, निी, मनष्ु य यह सभी हमारी प्रीति का आधार भी हैं और उपािान भी। सभी वक्िाओं के सारगशभषि उद्बोधन के साथ िोपहर 12 बजे उद्घाटन
सर की इतिश्री हुइ्। पुनः िोपहर 12.15 बजे प्रथम िकनीकी सर आरम्भ हुआ । इस सर में मंच पर ववशिष्ट अतिचथ के रूप में ववराष्जि रहे डॉ. बी. के झा (सुल्िानपुर) डॉ. वी.एस.राव (कुनूल ष ) डॉ. अनुराग अग्रवाल (िाहजहाँपुर) प्रो. के. श्रीलिा (बरवेन्द्रम) डॉ.बुद्धिे व आयष, (शभवानी) डॉ. राकेिकुमार आजाि (बरे ली) डॉ. प्रणीिा गोस्त्वामी (पीलीभीि) डॉ. मंगला रानी (पटना)। मुख्य
अतिचथ रहीं डॉ. ऊर्ा प्रसाि (पटना)। इस सर में डॉ. राहुल अवस्त्थी (बरे ली) डॉ. रं जन वमाष (बरे ली) डॉ. योगेन्द्र शसंह (बरे ली) ने ‘िो धपर वाचन ककया। इस सर का संचालन सक ु वव डॉ. राहुल अवस्त्थी िथा अध्यक्षिा इंदस े ना ु ंचत
प्रो. मुरलीमनोहर पाठक (गोरखपुर) ने की। इस सर के अंि
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में डॉ.ं राहुल अवस्त्थी, डॉ. रामसनेहीलाल ‘िमाष, डॉ. रं जन वमाष ‘वविि’ िथा सेशमनार के ‘िोधपरों की पुस्त्िक ‘सादहत्य और संवेिना’ का ववमोचन भी ककया गया। िोपहर 2 से 3 बजे िक भोजन अवकाि रहा। िोपहर 3 बजे द्वविीय िकनीकी सर आंरम्भ
हुआ। इस सर में अध्यक्ष के रूप में मंच की ‘िोभा बढ़ायी, प्रो. गोववन्द्ि शसरसाटे (बालाघाट) ने िथा ववशिष्ट अतिचथ रहे प्रो. गंगाप्रसाि ‘िमाष (चीन), डॉ. प्रणव ‘िास्त्री (पीलीभीि)। ‘िोधपर वाचन करने वालों में डॉ. रष्श्म (बरे ली) डॉ. प्रणीिा (पीलीभीि) डॉ. ब्रजलाल (पीलीभीि) डॉ.अनुराग अग्रवाल (िाहजहाँपुर) प्रमुख रहे । इस सर का सरस संचालन आन्द्र प्रिे ि से पधारे डॉ. वी. एस. राव ने ककया। इस सर के अंि में एकािि दहन्द्िी सेववयों को
‘‘ववश्व दहन्द्िी सेवी सम्मान’’ से ववभूवर्ि ककया गया। चीन से पधारे डॉ. हू रूई िथा डॉ. थ्यान ख कफं ग ने अपने व्याख्यान दहन्द्िी में दिए िथा आयोजन की भूरर-भूरर प्रिंसा की। राष्रगान के साथ चिुथष अन्द्िरराष्रीय ‘िोध-संगोष्ठी के िीनों सरों का अवसान हुआ। सायंकाल को सभी लोग स्त्थानीय भ्रमण पर गए जहाँ सभी ने कुछ न कुछ ‘िॉवपंग भी की।
राबर भोजन ‘‘पालकी’’ रे स्त्टोरे न्द्ट में करने के उपरान्द्ि होटल में ववश्राम ककया। अगले दिन 24 जन ू ,2016 को सभी लोग ‘ओिन पाकष’ घम ू ने गए। यहाँ परू ा दिन मौज-मस्त्िी चलिी रही। डॉष्ल्फन ‘िो, राली-राइड का सभी ने आनंि शलया। सायंकाल सभी बद् ु धमष्न्द्िर िथा
पस्त् ु िकालय िे खने गए। 25 जन ू , 2016 को सभी सहचर ववश्वप्रशसद्व डडज्नीलैण्ड घम ू ने गए। यहाँ थ्री-डी कफल्म, रे न-राइड, लाइट एण्ड साउं ड ‘िो, काटूषन- परे ड आदि प्रमख ु आकर्षण रहे ।
हमारे ग्रप ु के एक पररवार के चार पासपोटष यहाँ खो गये। वैसे िो भारि भी ईमानिारी के शलये मिहूर है , पर हॉगकांग के लोगों की ईमानिारी और कत्र्िव्यतनष्ठा िे खकर हम सभी आनष्न्द्िि हुये। खोये हुये चारों पासपोटष एक घण्टे बाि ‘गैस्त्ट ररलेिन’ नामक काउन्द्टर पर
शमल गये। हमेिा अपने पासपोटष अपने होटल के कमरे में सुरक्षक्षि रख िे ने चादहये, इस घटना के बाि सभी ने यह सीख ली। राबर में 9 से 11 िक होटल में सरस काव्य-गोष्ठी
सम्पन्द्न हुई। इसके संचालन का िातयत्व सँभाला, सुकवव डॉ. राहुल अवस्त्थी ने िथा अध्यक्षिा की प्रख्याि नवगीिकार डॉ. रामसनेहीलाल ‘िमाष ‘यायावर’ ने। 26 जन ू कोंे हम सभी ने प्रािः जलपान के बाि स्त्टीमर से मकाऊ के शलए प्रस्त्थान ककया। एक घंटे के
आनंििायी समुरी सफर ने रोमांचचि कर दिया। 12ंः30 पर मकाऊ के होटल रीजेन्द्सी पहुँच।े
यह फाइव स्त्टार होटल बड़ा ‘िानिार लगा। होटल में चेकइन करके सभी शसटी टूर पर तनकले। यहाँ ऐतिहाशसक चचष, मकाऊ टावर, बुद्ध मष्न्द्िर, संग्रहालय के बाि होटल वेनेशियन
के ‘िानिार पररसर का भ्रमण ककया। राि में पूरे ‘िहर की सुन्द्िर लाइदटंग का मनोरम दृश्य िे खा। मकाऊ के ववकास को िे खकर मनुष्य की दृढ़ इच्छािष्क्ि का आभास हुआ। समुर के बीच ष्स्त्थि छोटे से द्वीप को क्या खब ू सजाया, संवारा है मकाऊ वाशसयों ने। यहाँ घरों से
अचधक बड़े-बड़े होटल और कैशसनो है । मकाऊ में ‘टे स्त्ट आफ इंडडया’ ‘इडडयन गाडषन’ का भारिीय खाना सिा याि रहे गा। अगला दिन, 27 जून, 2016 हमारे वविे ि प्रवास का आखखरी
दिन था। सभी स्त्विे ि लौटने की खि ु ी में म्न थे। फेरी टशमषनल आिे समय एक प्रशसद्व इंदस े ना ु ंचत
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लाइब्रेरी का भी भ्रमण ककया। स्त्टीमर ने सीधे हांगकांग एयरपोटष ही उिारा। ‘िाम 5.45 की कैथे पैसेकफक की फ्लाइट द्वारा हम सभी राबर 8.30 पर दिल्ली उिर गए। सभी मीठी यािों के साथ अपने-अपने गन्द्िव्यों पर रवाना हुए। इस यारा में राजुल ‘िमाष, पीयूर् ‘िमाष, रवव ‘िमाष, ‘िान्द्िम ‘वमाष, काव्या ‘वमाष, राकेि आजाि, प्रणीिा गोस्त्वामी का वविेर् सहयोग रहा। ईश्वर की कृपा पग-पग पर हमें िल ु ारिी रही। इस प्रकार दहन्द्िी की ववश्व यारा का यह एक
प्रमुख ववनम्र चरण पूणष कर ववश्व दहन्द्िी मंच यदि चाहे िो अपने चगलहरी- प्रयासों पर इठला सकिा है , इिरा सकिा है और चाहे िो
इंदस े ना ु ंचत
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गववषि भी हो सकिा है । जय दहन्द्िी-जय भारि।
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पस् ु तक चचाा
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दिू दे ि की पाती Deputy Secretary General <dsg@vishwahindi.com> ने लिखा: ववश्व दहंिी पररवार के सभी आिरणीय सहयारी, नमस्त्कार। आपको ज्ञाि होगा कक वपछले 27 मई को भारि से आए डॉ. ववनोि कुमार शमश्र ने ववश्व दहंिी सचचवालय के
महासचचव के रूप में पि ग्रहण कर शलया है ।उनके मॉरीिस आगमन और कायों के हस्त्िांिरण के शलए आवश्यक
समय के बाि आगामी 26 जून को मैं सचचवालय से सेवामुक्ि हो जाऊँगा िथा पुनः मॉरीिस के महात्मा गांधी संस्त्थान में कायष करने लगँग ू ा। सचचवालय में लगभग 6 साल के कायषकाल ने मॉरीिस, भारि व ववश्व भर के आप सभी शमरों/सहयोचगयों/ सहयाबरयों
के साथ सम्पकष बनाने, कायष करने का अद्भुि अवसर दिया ष्जससे आज इस
संस्त्था से वविा लेिे हुए मैं अपने आपको अनुभव और स्त्नेह का बहुि ही धनी पा रहा हूँ। एक नई संस्त्था को सींचने, सँवारने िथा आपकी अपेक्षाओं, आिाओं और आस्त्थाओं के यो्य बनाने का प्रयास
करने का जो अवसर शमला उसके शलए आभार। अशभयान में जो असफलिाएँ शमलीं उन्द्हें साथ शलए जा रहा हूँ – वे
भववष्य में चुनौिी बनकर मागषििषन करिी रहें गी। लेककन सफलिाएँ सभी आपको सोंपे जा रहा हूँ क्योंकक उनका लेिमार भी आपके सहयोग और समथषन के बबना सम्भव न होिा। इसशलए आज आज्ञा मांगिे हुए यह भी ववश्वास पाना चाहूँगा कक आप सभी भववष्य में इसी प्रकार अपनी इस संस्त्था और इसके सभी पिाचधकाररयों व सेववयों को वैसा ही अचक ू सहयोग और समथषन िे िे रहें गे जैसे मेरे इस कायषकाल में मझ ु े प्राप्ि हुआ।
एक ववश्वास मैं भी दिलािा हूँ कक दहंिी के समथषन में जो, ष्जिना आप सभी से सीखा है , जो भावना ववकशसि
हुई है ,वह आगे भी जारी रहे गी। पिा िफ़्िर का और इ-मेल का बिल रहा है (gulshansooklall@gmail.com), भावनाएँ और आस्त्था अब भी हृिय वाले उसी मकान में रहें गी जहाँ आप सभी का वास है । सब को साथ शलए जा रहा हूँ... आज्ञा िें ।
गंगाििशसंि गुलिन सुिलाल उप मिासधचि
विश्ि हिंदी सधचिालय
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------Respected friends of the Global Hindi Community, Namaskaar. As you may be aware, Dr. Vinod Kumar Mishra Has assumed his post as Secretary General (Indian Side) of the World Hindi Secretariat on 27th May 2016. Following his assumption of duty and after the phase necessary for handing over all Secretariat responsibilities to him, I shall relinquish charge from the Secretariat as from 26 th June 2016 and revert to my Senior Lecturer post at the Mahatma Gandhi Institute in Mauritius. My tenure of almost six years of at the WHS has been an extraordinary opportunity to connect and collaborate with friends, collaborators and people sharing the same passion for Hindi from Mauritius, India and across the globe. This opportunity has blessed me with not only your affection but experience galore. I express my most sincere gratitude towards one and all for the marvelous opportunity to make a humble contribution to the growth, evolution and emancipation of a budding Institution and the opportunity to place it at par with your expectations and faith. The journey has had its share of failures which I shall carry forward with me as lighthouses for future challenges. But the innumerable successes shall always be इंदस े ना ु ंचत
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213 dedicated to all of you as they all proudly stand on the robust foundation of your support and cooperation. Hence, today, when I take your leave I also wish to take along the strong belief that you shall all continuously support the Institution and all its officials like you have been doing during my tenure. I also leave with a pledge that all that I have learnt from you while supporting the Hindi cause, all the passion that you have all inculcated, remain intact. No matter if the postal and email addresses change (gulshansooklall@gmail.com), the passion for Hindi shall cohabitate with the affection for all of you in the most secure corner of my heart. With these words, I take your leave. Gangadharsing Gulshan Sooklall Deputy Secretary General World Hindi Secretariat, Mauritius www.vishwahindi.com ****** dsg@vishwahindi.com https://www.facebook.com/groups/vishwahindisachivalay/ +230-6761196
िलचल
शहापुर, में महन्दी की अंर्रातष्ट्रीय सगं ोष्ठी का आयोजन सोनभु ाऊ बसवतं कला व वाहणज्य मिाहवद्यालय, शिापरु के ‘हिन्दी हवभाि’ एवं ‘आतं ररक िणु विा हनधातरण प्रकोष्ठ’ द्वारा “वैश्वीकरण और समकालीन हिन्दी साहित्य” हवर्य पर शोधाथी एवं हवद्याहथतयों को कें द्र में रखकर हकया िया एक हदवसीय अंतरातष्रीय संिोष्ठी का आयोिन संम्पन िुआ । कुमारी पहु णतमा चौरे ने समु धरु स्वर में सरस्वती वंदना तथा स्वाित िीत प्रस्ततु हकया। मिाहवद्यालय के प्रचायत डॉ. सािर सर तथा हिन्दी हवभािाध्यक्ष डॉ. अहनल हसंि ने उपहस्थत सभी अहतहथयों का स्वाित एवं पररचय हदया । कायतकारी सहमहत के सहचव श्री. हदलीप भोपत राव ने देश-हवदेश से आये अहतहथ हवद्वानों का स्वाित करते िुए मिाहवद्यालय की िहतहवहधयों से अवित कराया । समाि और साहित्य में उल्लेखनीय कायत िेतु श्री. हफ़रोि पैच (रस्िी एवं मानद सहचव, हिदं स्ु तानी प्रचार सभा, मंबु ई) को “जीवन गौरव” सम्मान से सम्माहनत हकया िया । साहिहत्यक योिदान के हलए डॉ. सश ु ीला िप्तु ा ( हवशेर् कायत इंदस े ना ु ंचत
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अहधकारी,हिदं स्ु तानी प्रचार सभा, मंबु ई), डॉ. सरु े श चन्द्र,(सम्पादक,दपतण ओस्लोस्पाइल,नॉवे),डॉ.हसरािद्दु ीन नमु ाततोव,(अध्यक्ष, साउथ एहशयन लैंिवेि, उिबेहकस्तान), डॉ. ई.िी. डब्ल्य.ू पी. िनु सेना ( भार्ा हवभाि, ियवेनपरु ा हवश्वहवद्यालय, (श्रीलंका ) डॉ. रामेश्वर हसंि (संस्थापक अध्यक्ष, भारत-रूसी मैिी संघ ‘हदशा’ मास्को, रूस),को “सामहत्य गौरव” सम्मान प्रदान हकया िया । हिन्दी की सेवा में हनरंतर संलग्न रिने वाले डॉ. अशोक फडे ( मंबु ई ), डॉ. बलवंत हसंि,( मंबु ई ) और डॉ. पी.के हसंि को “सामहत्य श्री ” सम्मान से नवािा िया । इस अवसर पर डॉ.
ऋर्भदेव शमात (िैदराबाद), डॉ.नारायण (आद्रं प्रदेश), डॉ.प्रभा दीहक्षत (लखनऊ)प्रा.पी.रवीन्द्रनाथन (तेलंिाना),आहद स्थनों से आये हवद्वानों के साथ हवश्वस्त मंडल के सदस्य श्री. हकशोर कुडव कायतकारी सहमहत के अध्यक्ष श्री. मिेन्द्रभाई वासा , उपाध्यक्ष श्री. हवलास क्षीरसािर, कायतकारी सहमहत के सहचव श्री. हदहलप भोपतराव , कायतकारी सहमहत के सदस्य श्री. रमेश ििे, श्री. मामा हवशे, श्री. बालासािेब खारीक ,श्री.आनदं सानप आहद मान्यवर उपहस्थत थे । डॉ. रामेश्वर हसंि ने अपने बीि विव में वैश्वीकरण के प्रभाव को रे खांहकत हकया । श्री. हफ़रोि पैच ने किाँ की दहु नया िैसे-िैसे ग्लोबल िोती िा रिी िै, वैसे-वैसे हिन्दी की मििा हदन पर हदन और बढ़ती िी िा रिी िै। डॉ. सश ु ीला िप्तु ा ने किाँ की हवद्याहथतयों को अद्ययन अद्यापन के साथसाथ िोष्ठीयों में सिभािी िोने से ििाँ नई िानकाररयाँ प्राप्त िोती िैं,विी देश-हवदेश के हवद्वानों को सनु ने का सनु िला अवसर भी हमलता िै । डॉ.अशोक फडे ने किाँ की ग्रामीण और आहदवासी क्षेि के इस मिाहवद्यालय में आयोहित अंतरातष्रीय संिोष्ठी हनहित िी हवद्याहथतयों के हलए उपयोिी हसद्ध िोिा । डॉ. बलवंत हसंि ने किाँ की हिन्दी भार्ा का समचू े हवश्व पिल पर समग्र प्रसार िो रिा िै । उद् इंदस े ना ु ंचत
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घािन सि का संचालन करते िुए संसयोिक प्रा.संतोर् िायकवाड़ देश-हवदेश से आये सभी अहतहथयों का आभार ज्ञायाहपत हकया । “वैश्वीक पररदृस्य में मीहडया, समाि और ससं कृ हत” हवर्य पर के हन्द्रत प्रथम सि में प्रो०सज्ं योहत सानप,प्रा.िोहवदं मरु ारका, प्रो०सतं ोर् िायकवाड़, प्रो०मधु हतवारी, प्रो०िर्तद आविे, प्रो०प्रहतभा नाहवक, प्रो०मधक ु र डोंिरे , प्रो०सयू तभान उपाध्याय, प्रा.शैलेश दबु े , प्रो०प्रदीप हमश्र, प्रो०नािनीन सरताि खान, प्रा.उल्िास पाहिल, प्रो०साधना माली, सहु मिा पाहिल, प्रा.मीरा हसंि आहद ने अहभपि प्रस्ततु हकया । इस सि की अध्यक्षता डॉ. रामेश्वर हसिं (मास्को),ने की हवर्य प्रवततन डॉ .हसरोहिद्दीन नमु ाततोव (ताशकंद),ने हकया । डॉ.नारायना (आंद्रप्रदेश) , प्रा.पी.रवीन्द्रनाथन ( तेलंिाना ), प्रमख ु अहतहथ के रूप में उपहस्तहथत थे । संचालन प्रा.उमाशंकर पाल और आभार प्रा.अनंत हद्ववेदी ने प्रकि हकया । “वैश्वीकरण और समकालीन हिन्दी साहित्य” हवर्य पर हनधातररत हद्वतीय सि में प्रो०योिेंद्र खिी,प्रा.बालासािेब पिारे , प्रो०उमाशंकर पाल, प्रो०रिनी िप्तु ा, प्रो०पावसकर, प्रो०हनिाररका देशमख ु , प्रो०रीना हसिं , प्रो०अनतं हद्ववेदी,प्रा.ज्योहत थोरात, प्रो०हवलास डोंिरे , प्रो०ममता पाठक, प्रो०हििेश पाण्डेय,आहद ने अहभपि प्रस्ततु हकया ।साथ िी साथ प्रो०संज्योहत सानप, प्रो०ज्योहत थोरात, प्रो०हििेश पाण्डेय, प्रो०सयू तभान उपाध्याय,सलीम हपिं रीआहद ने इस अतं रातष्रीय सिं ोष्ठी के संदभत में अपना अहभमत प्रस्ततु हकया । इस सि की अध्यक्षता डॉ. सरु े श चंद्र (नावे) ने की तथा हवर्य प्रवततन डॉ. ई.िी. डब्ल्य.ू पी.िनु सेना(श्रीलंका) ने हकया। डॉ. प्रभा दीहक्षत(लखनऊ ), प्रो०िर्तद आविे ( हसंधदु िु त ) हवशेर् अहतहथ के रूप में उपहस्थत थे । संचालन प्रो०रीना हसंि ने हकया कायतक्रम के समापन पर अंतरातष्रीय संिोष्ठी के सयोिक एवं हिन्दी हवभािाध्यक्ष डॉ. अहनल हसंि सभी के प्रहत आभार प्रकि हकया ।
******** साठ्ये मिाविदयाय द्वारा
मंब ु ई में भम ू ंडलीकरण के पररप्रेक्ष्य में सादहत्य,समाज,संस्त्कृति और भार्ा
ववर्यक िो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन ककया गया । इस समारोह में ववशिष्ट अतिचथ के रूप में चीन
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216 से डॉ० गंगा गुणिेखर आमंबरि अतिचथ थे । चचर में महाववद्यालय के कुलपति से वविेर् सम्मान प्रपट करिे हुए डॉ० गुणिेखर ।
एशिया के सबसे बड़े आवासीय कािी दहंि ू ववश्वववद्यालय में दिनांक १ और २ अक्िूबर २०१६ को दहंिी के अति मह्त्त्वपूणष और अपने लेखन धमष की प्रासंचगकिा
के साथ आज भी चन ु ौिी
बने कथाकर ,नाटककार और आत्मकथा लेखक भीष्म
साहनी पर केंदरि राष्रीय संगोष्ठी संपन्द्न
हुई.इसका उद्घाटन ख्यातिलब्ध दहंिी रं गकमी एम के रै ना ने ककया और इस सर की अध्यक्षिा सादहत्य अकािमी सम्मान से ववभूवर्ि बहुचचचषि कथाकार कािीनाथ शसंह ने की। संगोष्ठी के सम्मातनि वररष्ठ सादहत्यकार प्रोफेसर अब्िल ु
बबष्स्त्मल्लाह ,चीन से आए प्रोफेसर गंगा प्रसाि पंकज कुमार मख् ु य आकर्षण रहे ।
डॉ० रघव ु ंि मखण, डॉ० वैभव शसंह,डॉ०
'गण ु िेखर'और समापन सर के अध्यक्ष प्रोफेसर वप्रयम अंककि और डॉ०
पल्लव आदि आलोचना
कशमषयों ने भीष्म साहनी के सादहत्य के मल् ू यांकन के बहाने पन ु पाषठ के नए गवाक्ष खोले
और अनेक ऐसे नए
आयाम उद्घादटि ककए ष्जनके अशभज्ञान से
हमारा दहंिी संसार
अब िक तनिांि अछूिा था।
राधाकृष्णन सभागार में सपन्द्न संगोष्ठी के ६ मुख्य सरों के अतिररक्ि ववशभन्द्न सभा
कक्षों में संपन्द्न८ समानांिर िकनीकी सरों में भी गंभीर ववचार-ववमिष हुआ.इनमें ििाचधक िोध छार/छाराओं ने अपने नवोन्द्मेर्ी दृष्ष्ट से संपन्द्न बहुमूल्य और स्त्िरीय िोध परों का
वाचन ककया। बाहरी वक्िाओं और प्रतिभाचगयों के अतिररक्ि बी एच यू के प्रोफेसर बलराज पांडे ,प्रोफेसर अवधेि प्रधान,प्रोफेसर चंर कला बरपाठी,प्रोफेसर श्रद्धा शसंह,डॉ०
नीरज खरे ,डॉ०
आिीर् बरपाठी, डॉ० प्रभाकर शसंह, डॉ० मनोज कुमार शसंह,डॉ० सवेि शसंह,डॉ० अखखलेि
िब ु े,डॉ० वंिना चौबे और डॉ० वंिना झा आदि ने अपनी मौशलक स्त्थापनाओं, सम्मोहक वाचचक
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अशभव्यष्क्ि िथा संचालन आदि िातयत्त्वों के कुिल तनवषहन के साथ इस संगोष्ठी को एक आििष ऊंचाई िथा साथषक गररमा प्रिान की।
इंदस े ना ु ंचत
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सुमन जी के ििती के सिोकाि बडे प्रबल िैं-
प्रो िमाा
शििमंगलशसंि सुमन ितिावषाकी संगोष्ठी सम्पन्न
उज्जैन। सादहत्य अकािे मी, नई दिल्ली एवं दहन्द्िी अध्ययनिाला, ववक्रम ववश्वववद्यालय, उज्जैन
के
शिवमंगलशसंह
संयक् ु ि
सम ु न
ित्वावधान जन्द्म
में
ििाब्िी
सोमवार
को
समारोह
के
अंिगषि राष्रीय संगोष्ठी का आयोजन िलाका िीघाष सभागार में ककया गया। संगोष्ठी का िभ ु ारं भ सम ु न
जी के सप ु र ु श्री अरुणकुमार शसंह, समालोचक प्रो धनंजय वमाष एवम ् सादहत्य अकािे मी के अध्यक्ष प्रो
ववश्वनाथप्रसाि तिवारी ने िीपिीपन एवं सुमन जी के
चचर पर पुष्पांजशल अवपषि कर ककया। समालोचक प्रो धनंजय वमाष ने अपने वक्िव्य में कहा कक उनके
धरिी के सरोकार बड़े प्रबल हैं। वे गहरे आवेग के कवव हैं। सुमन जी का ववशिष्ट रष्श्म वलय था। काव्य रूदढ़यों को िोड़मे का कायष उन्द्होंने ककया। उनकी कवविा में क्रांतिकारी स्त्वछं ििावाि के स्त्वर हैं। वे समग्र मनुष्यिा के कवव हैं।
प्रो ववश्वनाथप्रसाि तिवारी ने अपने उद्बोधन में कहा कक सुमन जी आकाि गुरु थे। अपनी धरिी, प्रकृति और लोगों से उनका गहरा अनुराग था। सादहत्य समाज का िपषण मार नहीं है , वह समाज का तनमाषिा भी है । श्री अरुणकुमार शसंह ने सुमन जी से जुड़े संस्त्मरण सुनाए।
प्रथम सर पंछी उन्द्मुक्ि गगन के, सुमन जी के व्यष्क्ित्व और कृतित्व पर केंदरि था, ष्जसमें
प्रो.
अध्यक्षिा
प्रभाि
में
प्रो.
कुमार
सरोज
भट्टाचायष
की
कुमार,
प्रो.
िैलेन्द्रकुमार िमाष, मुकेि वमाष ने आलेख प्रस्त्िुि ककए। प्रो भट्टाचायष ने कहा कक सुमन जी से जुड़ी कई स्त्मतृ ियाँ हैं। वे कई पीदढ़यों
के प्रेरणा पुंज रहे हैं। प्रो सरोज कुमार ने कहा
कक सुमन जी की कवविा का िायरा व्यापक था। वे गहरे अध्ययनिील थे। श्री सरोज
कुमार ने सम ु न जी पर एकाग्र अपनी कवविा भी सन ु ाई। प्रो. िैलेन्द्रकुमार िमाष ने कहा कक सम ु न
के
नाम-रूप
का
स्त्मरण
आिे
ही
औिात्य का एक ववराट बबम्ब आकार लेिा है । बहुि कम रचनाकारों को इस िरह जीवंि ककंविं िी होने का सौभा्य शमला है , सम ु न जी उस ववलक्षण कववमाला के अनठ ू े रत्न हैं। वे िमाम प्रकार की असहमतियों और ववसंवािों के बीच सहज संवाि के कवव हैं। उन्द्होंने अपना
समूचा जीवन उत्कट मानविा और अववराम सजषना को अवपषि ककया। मुकेि वमाष ने कहा कक इंदस े ना ु ंचत
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सुमन जी का समुचचि आकलन नहीं हुआ है । उनकी कवविाएं बहुआयामी हैं। उनका काव्य स्त्वभाव सामंिवाि और पूंजीवाि के ववरुद्ध है । द्वविीय सर में डॉ सुमन के काव्य में संस्त्कृति के स्त्वरूप पर मन्द्थन हुआ। सर की अध्यक्षिा प्रो. रमेि िवे ने की। आलेख पाठ प्रो. तनरं जन श्रोबरय, प्रो. प्रमोि बरवेिी एवम ् डॉ. िोभना तिवारी ने ककया। प्रो िवे ने कहा कक सुमन जी ने गहरे सांस्त्कृतिक बोध के साथ
महान रचनाकारों का आस्त्वाि शलया था। उन्द्हें पढ़िे हुए युग जीवन से साक्षात्कार का अनुभव शमलिा है । प्रो. श्रोबरय ने कहा कक सुमन जी के मन में स्त्विन्द्रिा का उजास था। अपने
पररवेि से उनकी गहरी संपष्ृ क्ि थी। प्रो प्रमोि बरवेिी ने कहा कक सुमन जी राग के साथ आग के कवव हैं। वे िमस से ज्योति की ओर ले जाने वाले रचनाकार हैं।
िि ृ ीय सर में डॉ सुमन और वाचचक कवविा की परम्परा पर चचाष हुई। सर की अध्यक्षिा डॉ मोहन गुप्ि ने की िथा आलेख पाठ प्रो. हररमोहन बुधौशलया एवं श्यामसुंिर िब ु े ने ककया। डॉ गुप्ि ने कहा कक भारिीय काव्य की परं परा वाचचक रही है । श्यामसुंिर िब ु े ने कहा कक आज भी आम जन में वाचचक परं परा का महत्त्व बना हुआ है । सुमन जी में गहरी लोक चेिना थी। सम ु न जी ने उस परं परा को नए यग ु में साकार ककया। प्रो बध ु ौशलया ने सुमन जी से जड़ ु े कई संस्त्मरण सन ु ाए।
अतिचथ स्त्वागि प्रो प्रेमलिा चट ु ै ल, प्रो गीिा नायक, प्रो. िैलेन्द्रकुमार िमाष, डॉ जगिीिचन्द्र िमाष, डॉ प्रतिष्ठा िमाष, डॉ भेरूलाल मालवीय आदि ने ककया। इस अवसर पर डॉ हरीि
प्रधान, प्रो गोपाल िमाष, प्रो राकेि ढं ड, डॉ उशमष िमाष, डॉ शिव चौरशसया, डॉ वपलकेन्द्र अरोरा, डॉ अरुण वमाष, श्रीराम िवे, डॉ तनरं जन श्रोबरय, डॉ जफर महमि ू , डॉ रफीक नागौरी आदि सदहि अनेक सादहत्यकार, संस्त्कृतिकमी और गणमान्द्य जन उपष्स्त्थि थे। कायषक्रम में सम ु न
िोध संस्त्थान द्वारा अतिचथयों को स्त्मतृ ि चचह्न, िॉल-श्रीफल अवपषि कर उनका सम्मान ककया गया।
संचालन सादहत्य अकािे मी, नई दिल्ली के सम्पािक कुमार अनुपम एवं प्रो गीिा नायक ने ककया। आभार प्रििषन प्रो प्रेमलिा चट ु ै ल ने ककया।
(प्रो िैलेन्द्रकुमार िमाष)
आचायष एवम ् कुलानुिासक
ववक्रम ववश्वववद्यालय, उज्जैन
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इजिायल की हिंदी सेिा के पयााय प्रो० गेनादी से साक्षात्काि
इज़राइल के गेनािी श्लोम्पर और उनके शिष्यों के उज्जतयनी प्रवास के स्त्मतृ ि बबम्ब
प्रस्त्िुति-प्रो िैलेन्द्रकुमार िमाष संघर्षमय इतिहास के बीच पले-बढ़े इज़राइल के िेल अवीव ववश्वववद्यालय के भारिववद्या और दहन्द्िी को समवपषि शिक्षाववद् प्रो श्लोम्पर से उनके उज्जैन आगमन पर भें ट स्त्मरणीय रही। वे अपने शिष्यों तयफा याकोब, मािान मस्त्सीका और जॉडषन यिे न अमीर के साथ इस पुरािन नगरी में आए थे। ववगि कई ििकों से दहंिी अध्ययनअध्यापन से जड़ ु े इस िख़्स ने अपने शिष्यों के शलए दहन्द्िी शिक्षण की नई
िकनीकें इज़ाि की हैं। वे हर बरस उन्द्हें लेकर भारि आिे हैं। इस बार ववक्रम
ववश्वववद्यालय,
उज्जैन
को
उनकी मेजबानी का मौका शमला। मैंने इन भारिप्रेशमयों को ववश्वववद्यालय के शसंचधया
प्राच्यववद्या
प्रतिष्ठान
की
िल ष पांडुशलवपयों और पुराित्व संग्रहालय के कलात्मक मूतिषशिल्पों और पुरासामग्री का ु भ
अवलोकन कराया, जहाँ वे सभी अशभभूि नज़र आए। उनके शिष्य जहाँ भारि के पुरावैभव से चमत्कृि थे, वहीं जदटल दहंिी िब्िों को अपने मोबाइल में अथषसदहि िजष करने में ित्पर भी। इंदस े ना ु ंचत
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डॉ श्लोम्पर से इसराइल में दहंिी शिक्षण के सांप्रि पररदृश्य पर अच्छी चचाष हुई, जो आश्वस्त्ि करिी है । वे बिािे हैं , इस छोटे से िे ि की सड़कों पर घूमें, िो उिनी सारी भार्ाएँ और
बोशलयाँ सुनने में आ जाएँगी, ष्जिनी कक अमरीका, रूस या भारि सरीख़े बहुजािीय और बहुभार्ीय िे िों में ही गँज ू िी हैं। ये भार्ाएँ वविे िी याबरयों की नहीं, वरन ् इज़रायल के उन नागररकों की हैं जो यहाँ ववश्व के कोने-कोने से आ बसे हैं। यहाँ की 70 लाख वाली आबािी में भारिीय मूल के लगभग सत्तर हज़ार लोग रहिे हैं। उनमें से अचधकांि महाराष्र से आये
हुए हैं और मराठी उनकी मािभ ृ ार्ा है । अश्िोि, िीमोना, राम्ला जैसे िहरों में मराठी भावर्यों की संख्या काफ़ी बड़ी है । वहाँ जगह-जगह पर दहंिस्त् ु िानी ढं ग के रे स्त्िराँ और िक ु ानें हैं, जहाँ भारिीय खाना शमलिा है , भारिीय कफ़ल्मों और संगीि के सी.डी. बबकिे हैं।
इजरायल और भारि सम्बन्द्ध के नए िौर को लेकर उत्सादहि श्लोम्पर बिािे हैं , इज़रायली समाज में भारि के प्रति रुचच की जड़ें गहरी और पुरानी हैं। िे ि की स्त्थापना के बीस से
ज़्यािा वर्ष पहले, 1926 में , यरुिलम के दहब्रू
ववश्वववद्यालय में अफ़्रीकी-एशियाई अध्ययन के संस्त्थान का उद्घाटन ककया गया था। मैं कोई बीस साल से दहंिी-उिष ू पढ़ाने में लगा रहा।
1996 में
मुझे
यरुिलम
के
दहब्रू
ववश्वववद्यालय के भारि-ित्व ववभाग में दहंिी
के अध्यापक के पि पर तनयुक्ि ककया गया।
ववद्याचथषयों में दहंिी की बढ़िी हुई माँग को लेकर 2001 में िेल-अवीव ववश्वववद्यालय में भी इस भार्ा को शसखाने का तनणषय शलया गया, और मुझे वहाँ भी पूवी एशिया के ववभाग में दहंिी पढ़ाने के शलये आमंबरि ककया गया।
दहंिी के कोसष बहुि ही सफल रहे , ष्जसका अनुमान इस बाि से लगाया जा सकिा है कक हर वर्ष िोनों ववश्वववद्यालयों में कुल शमलाकर पचास के करीब नये-नये छार आ जािे हैं। वे बिािे हैं, िुरू में दहंिी भार्ा का पाठ्यक्रम यहाँ िो वर्ों का था। प्रथम वर्ष में ववद्याचथषयों को
शलखने, पढ़ने और बोलने का अभ्यास दिया जािा है ।
एक
वर्ष
के
अंिर
वे
दहंिी
व्याकरण
के
आधारभि ू तनयमों को पढ़ लेिे हैं। प्रतिदिन की आवश्यकिा के ववर्यों पर बािचीि करना सीख लेिे
हैं। एक साल की पढ़ाई के बाि छुट्दटयों के समय जो ववद्याथी भारि की यारा पर जािे हैं , वे अपनी प्राथशमक जानकारी का प्रयोग कर बहुि ख़ि ु होिे हैं। दहंिी जैसी भार्ा गहराई से सीख लेने के शलये इंदस े ना ु ंचत
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िो वर्ष अवश्य पयाषप्ि नहीं हैं। इसशलये िस ू रे वर्ष के पाठ्यक्रम को मैंने कुछ ऐसी सामग्री पर
आधाररि ककया है ष्जसके माध्यम से ववद्याथी व्याकरण के सब से महत्त्वपूणष तनयमों को अपना कर िब्िकोि की सहायिा से दहंिी में कोई भी ककिाब पढ़ सकें। िस ू रे वर्ष के अंि में ववद्याचथषयों को इस स्त्िर पर िैयार ककया जािा है कक वे दिनकर जैसे लेखक की रचनाएँ पढ़
सकें। कोि और व्याकरण की सहायिा से वे अनुवाि करिे हैं और जहाँ कदठनाई होिी है , मैं उनकी मिि करिा हूँ।
डॉ श्लोम्पर ने दहब्रू के माध्यम से दहंिी सीखने की पस्त् ु िकें िैयार की हैं। साथ ही नाटक, दहंिी शसनेमा और शसनेगीिों की मिि भी लेिे हैं। दहंिी अध्यापन से जड ु ी चन ु ौतियों को लेकर वे
कहिे हैं, वहां आधारभूि स्त्िर की पाठ्य-पुस्त्िकों की कमी नहीं है । लेककन उनमें कोई न कोई अवगुण ज़रूर पाया जािा है । उनमें या िो सामग्री के चयन और प्रस्त्िुिीकरण में सिहीपन है , या उलट, व्याकरण के तनयमों को ही भार्ा समझ कर उनपर बल दिया जािा है । िब मैंने
अपने अनुभव पर आधाररि एक ऐसी पाठ्य-पुस्त्िक शलखने की चेष्टा की, ष्जसमें व्याकरण के संग जीवंि व सरल भार्ा प्रस्त्िुि की जाए और जो पढ़ने में रोचक हो और उसमें भारि के
बारे में ववववध जानकारी भी शमले। कफर मेरा इरािा था कक ववद्याथी यह पुस्त्िक अपनी मािभ ृ ार्ा, यातन कक दहब्रू में पढ़ें । 2000 िक मैंने यह कायष पूणष ककया, और अब मेरे पास िो
साल की पढ़ाई के शलये पयाषप्ि सामग्री है । उनके शलए दहंिी अध्यापन व्यवसाय नहीं, शमिन का पयाषय बन चक ु ा है । उज्जतयनी की परु ा-धरोहर के अवलोकन के बाि डॉ श्लोम्पर ने अपनी दटप्पणी अतिचथ पंजी
में िजष की और शिष्यों सदहि दहंिी में िस्त्िखि करना न भल ू े। उनका भारि और भारिवाणी के प्रति प्रेम प्रणम्य है ।
प्रो िैलेन्द्रकुमार िमाष,प्रोफेसर एवं कुलानुिासक,ववक्रम ववश्वववद्यालय,उज्जैन म प्र 456 010 Email shailendrasharma1966@gmail.com
अपनी भाषा की वावर्षक साधारण माशसक बैठक भारिीय भार्ा पररर्ि, कोलकािा, के सभागार में संध्या 4.00-6.30 बजे संपन्द्न हुई ष्जसमें कोर्ाध्यक्ष श्रीराम तिवारी ने आय व्यय और महासचचव प्रो. अरुण होिा ने महासचचव की वावर्षक ररपोटष प्रस्त्िि ु की. बैठक में संस्त्था की नई कायषकाररणी, संचालन सशमति और वावर्षक पबरका 'भार्ा ववमिष' की संपािक मंडल का
गठन ककया गया. महासचचव की वावर्षक ररपोटष संक्षक्षप्ि, सारगशभषि और संिशु लि होने के साथसाथ पारििी अचधक थी, ष्जसके कारण संस्त्था के सिस्त्यों में सहर्ष स्त्वीकार की गई. आगामी
वर्ष के योजना पर ववचार करिे हुए पारस बोथरा जी, डॉ. वासुमति डॉगा, डॉ. आिुिोर् और डॉ. दहमांिु और अशभजीि शसंह के ववचार सराहनीय रहे . संस्त्था के अध्यक्ष पि से प्रो.
अमरनाथ ने पूंजी, सत्ता और राजनीति की आकर्षक गठजोड़ की ओर संकेि करिे हुए वैश्वीकरण के मख् ु य चररर मनष्ु य को एंकागीपन बनाने की उसके प्रवतृ ि पर जोरिार िरीके से इंदस े ना ु ंचत
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प्रहार ककये. भार्ा मनुष्यों को जोड़िी है लेककन कुछ िथाकचथि वगष व समुिाय हमारी भार्ा
को हमसे छीन लेने की उसकी सकक्रय कोशिि को पहले की िुलना में आज हमें अचधक चौकस रहने को कहिा है . उनकी मंिा को सही रुप से उजागर करना ही अपनी भार्ा के प्रति सच्ची तनष्ठा होगी. धन्द्यवाि.
स्टोिी शमिि यि ु ा सज ृ न मेले का भिय समापन आज के युवा वगष में सज ृ नात्मकिा की असीम संभावनाएं छुपी हुई हैं। जरूरि उसे एक साथषक मंच िे ने की है और स्त्टोरीशमरर ये काम बेहिरीन िरीके से कर रहा है । ये बाि आज कहानी पोटष ल स्त्टोरीशमरर.कॉम द्वारा दिलली वविरण ् में आयोष्जि युवा सज ् ृ न मेले के समापन और पुरसकार
समारोह के अवसर पर मख् ु य अतिचथ के रूप में बोलिे हुए भारि सरकार के आचथषक सलाहकार डॉ० एन के साहू ने कही। हंसराज कॉलेज के खचाखच भरे ऑडडटोररयम में ववशभन्द्न प्रतियोचगिाओं के ववजेिाओं को एकल और सामदू हक परु स्त्कार दिये गये। हं सराज कॉलेज और दिल्ली कॉलेज ऑफ ऑफ
आट्षस एंड कामसष में चार दिन िक चले इस भवय ् आयोजन में ववद्याचथषयों में सादहिय, ् चचरकला,
नि ् संगीि और फोटोग्राफी में रुचच जगाने और उनकी छुपी हुई सज ृ य, ृ नात्मकिा को दििा िे ने के शलए स्त्टोरीशमरर की ओर से कुल 35 एकल और समह ू प्रतियोचगिाओं का आयोजन ककया गया और कैररयर,
लेखन, बबष्जनेस, माकेदटंग, मीडडया जैसे सामतयक ववर्यों पर कायषिालाओं का भी आयोजन ककया गया। इस भवय ् मेले में दिल्ली और एनसीआर के 150 महाववद्यालयों के लगभग 6000 ववद्याचथषयों ने कुल 35 प्रतियोचगिाओं में भाग शलया।
स्त्टोरीशमरर पोटष ल और पुस्त्िक प्रकािन के क्षेर में एक उभरिा हुआ नाम है । इस समय पोटष ल पर दहंिी, ओडडया और अंग्रेजी के 5000 लेखकों की 50000 कहातनयां और कवविाएं हैं। सटोरीशमरर के ्
पाठकों की संख्या िीस लाख है । इसने 6 महीने की अलप् अवचध में इसने दहंिी, ओडडया और अंग्रेजी की कुल 14 पुसिकों का प्रकािन ककया है । सटोरीशमरर युवा वगष में लेखन के प्रति ललक जगाने के शलए ् ् चेननै ् , नई दिलली ् िथा मंब ु ई में रचना शिववर िथा कहानी पाठ के कायषक्रम तनयशमि रूप से आयोष्जि करिा है ।
स्त्टोरीशमरर ज्ञान के उपहार के जररये पूरे भारि में यव ु ा वगष के शलए बहुि बड़े पैमाने पर कायष करना चाहिा है । इसके शलए स्त्टोरीशमरर तनकट भववष्य में नये कलाकारों और लेखकों को आगे लाने के शलए और अचधक रचना शिववर और सज ृ न मेले आयोष्जि करे गा। सरू ज प्रकाि
सादहिय ् सलाहकार suraj@storymirror.com
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आपकी प्रततकक्रया डॉ० साहब
नमस्त्कार।
इंि ु संचि े ना का नवीन अंक शमला। आत्मीय आभार।
यह पबरका ववश्व मंच पर दहन्द्िी की प्रतिष्ठा का साथषक उपक्रम कर रही है । प्राप्ि अंक में दहंिी के िकनीकी ववस्त्िार पर महत्त्वपूणष सामग्री संजोई गई है । साथ ही समकालीन सजषन
और आलोचन का पयाषप्ि प्रतिबबंबन इस अंक में हुआ है । एििथष मेरी ओर से आप सदहि सभी लेखकों को साधव ु ाि और िुभकामनाएं। आगामी अंकों की प्रिीक्षा रहे गी।
िैलेन्द्रकुमार िमाष
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, दहन्द्िी अध्ययन मण्डल और कुलानि ु ासक
ववक्रम ववश्वववद्यालय उज्जैन म प्र 456 010 मोबाइल 098260 47765 Email shailendrasharma1966@gmail.com
सािर नमस्त्कार िमाष जी, आपके स्त्नेहपूणष संिेि के शलए आभार... िुभकामनाएँ आत्मसाि... पर आपके नाम भेजा है ... परू े ववश्व दहंिी समाज के ... उसमें अशभव्यक्ि भावनाओं के अचधकारी और संरक्षक भी आप ही हैं... अपनी सम्पवत्त के शलए हमसे ककस बाि की अनुमति? सम्पकष में रहें और स्त्नेह बनाए रखें।
सािर
गंगाधरसिंह गुलशन िंुखलाल उप महािंचिव चवश्व सहदी िंचिवालय, मॉरीशिं www.vishwahindi.com dsg@vishwahindi.com facebook.com/groups/vishwahindisachivalay/ +230- 6705026/6761196
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Dear Dr. Sharma, Many thanks for including my write up in your Indusanchetna Publication. Please let me know if you in Shanghai we will plan to meet Thanks for your understanding and support Kind Regards / Mit freundlichen Grüßen
Ashish Gore Vice President Regional Business Unit Brake Components: Asia Pacific Automotive Aftermarket (AA-BC/RBU-AP) -----------------------------------------------------------------------------------Bosch Trading (Shanghai) Co. Ltd 333, Fuquan Road North, IBP Changning District Shanghai 200335 , Peoples Republic of China
आिरणीय डॉ० िमाषजी,
पबरका के शलए असंख्य आभार । चीन की धरिी से प्रकाशिि यह दहंिी पबरका वविे ि में दहंिी के फूल खखलने की िुरुआि है । आपके अथक प्रयास से दहंिी सादहत्य और भी आगे बढ़े गी ।
सािर, अंजनी कुमार ओझा मुंबई
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इस अंक के लेिकों के पते – डॉ॰ श्याम गुतत, सुश्यातनिी,के-348,आशियाना,लखनऊ-226012 मोबाइल+91-9415156464 प्रो॰सी.बी.श्रीिास्ति ‘विदग्ि’ ,ओ बी ११ , ववद्यि ु मण्डल कालोनी, रामपरु , जबलपरु मो +91-9425806252 मेल-vivek1959@yahoo।co।in
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MkW- cythr dqekj JhokLro vflLVasV izksQslj fgUnh foHkkx ,-ih-,l-ih-th-dkWyst cLrh ¼m0iz0½ दयानन्द पाण्डेय,सरोकारनामा ब्लाग,sarokarnama.blogspot.in,वेबसाइट:sarokarnama.com,
संपकष :5/7, डालीबाग आकफ़ससष कालोनी,लखनऊ- 226001,0522-4037652,0933523342409415130127 dayanand.pandey@yahoo.com/dayanand.pandey.novelist@gmail.com
डॉ०.मोिशसन ख़ान,दहन्द्िी ववभागाध्यक्ष एवं िोध तनिे िक,जे.एस.एम.महाववद्यालय,अलीबाग-402201,ष्ज़लारायगढ़- (महाराष्र)(भारि)- मोबाइल - +91-9860657970 ई-मेल- khanhind01@gmail.com
सपना
मांगशलक,F-659
Agra
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282005
मो.+91-9548509508
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िमेि
उपाध्याय,107,
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अपाटष मेंट्स,ए-3,
पष्श्चम
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दिल्ली-110063
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MkW- cythr dqekj JhokLro, vflLVasV izksQslj fgUnh foHkkx, ,-ih-,l-ih-th-dkWyst cLrh ¼m0iz0½(भारि) panzdkar frokjh,;w0th0lh0&usV]mRrjk[k.M lsV, dqekÅ¡ fo'ofo|ky;] uSuhrkyQksu ua0 & 08586098669] 09411579915Email id- damantewari@gmail.com Shiam Tripathi <shiamtripathi@gmail.com श्रीमती सुनीता काम्बोज, पत्नी श्री राजेि कुमार काम्बोज ,मकान नंबर -120 टाइप -3,ष्जला –संगरूर ,
स्त्लाईट लोंगोवाल पंजाब 148106,स्त्थाई तनवासी –यमुनानगर ,हररयाणा,मोबाइल नंबर -+919464266415,-+91-9779773491, ईमेल -Sunitakamboj31@gmail.com
डॉ. राहुि ममश्र,प्राध्यापक, हिदं ी ,कें द्रीय बौद्ध हवद्या संस्थान (मानद हवश्वहवद्यालय),लेि-लदाख- 194101 (िम्मू व कश्मीर),सपं कत - 09452 031190 / 09419 973362,rahul.mishra378@gmail.com, http://bundela-desake.blogspot.com डॉ योगेन्द्र नाथ िमाा "अरुण",पव ू ष प्राचायष,74/3,न्द्यू नेहरू नगर,रुड़की-247667
प्रोफेसि हदविक िमेि - : बी-295, सेक्टर -20, नोएडा-201301, मो- 9910177099 divik_ramesh@yahoo.com डा॰ पदमजा िमाा, 15-बी ,पंचवटी कॉलोनी ,सेनापति भवन के पास ,जोधपुर (राजस्त्थान) 342011,ई मेल - padmjasharma@gmail.com मोब -+91-9414721619
इंदस े ना ु ंचत
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डॉ.गर्ु रमकोंडा नीर्जा प्राध्यापि, उच्च हशक्षा और शोध सस्िं थान, दहक्षण भारत ह दिं ी प्रचार सभा, खैरताबाद, दै राबाद – 500004 . (भारत) आर्ास : 303, िेधा टॉर्सू, राधािृ ष्ट्ण नगर, अत्तापरु , दै राबाद - 500048. (भारत) िोबाइि : 09849986346. ईमेल : neerajagkonda@gmail.com डॉ. ऋषभदेव शमार, [पर्द ू आचायू एर्िं अध्यक्ष, उच्च हशक्षा और शोध सिंस्थान, दहक्षण भारत ह दिं ी प्रचार सभा, दै राबाद]/ आर्ास : 208-ए, हसद्धाथू अपाटूिटें ् स, गणेश नगर, राितिं ापरु , दै राबाद - 500013. (भारत) िोबाइि : 08121435033. ईमेल : rishabhadeosharma@yahoo.com
मािा वमात, C/o डॉo डी डी वमात, ररवर साईड क्वािर, िुकुमचदं ििू हमल, िािीनिर, उिर 24 परिना,पहिम बंिाल हपन-743136 मप्रयक ं ा पांड,े सीएिी कायातलय, िवु ािािी,असम (भारत) मेल- s.priyanka.pandey@gmail.com र्ेजेन्र शमात- 33-A, Spencer Road, Harrow & Wealdstone, Middlesex HA3 7AN (United Kingdom). Mobile: 00-44-7400313433 E-mail: tejinders@live.com , kathauk@gmail.com
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