‘महुआचरित’ पर एक टीप

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‘महुआचरित’ पि एक टीप प्रो. काशीनाथ सिंह की िंद्य: प्रकाशशत कहानी है- ‘महुआचरित’। अपने एक िंाक्षात्काि में लेखक ने इिं पि बातचीत किते हुए कहा था कक ‘‘पशत औि पत्नी के रिश्ते में बीते कल की बात नहीं किनी चाशहए, क्योंकक हि ककिंी का अतीत होता है औि इिंिंे दोनों के मन में मैल आ जाता है।’’ ठीक, पि क्या इिंे पशत-पत्नी के आदशश रिश्ते की शनशानी माना जा िंकता है? ख़ािंतौि पि ‘प्रेम-शि​िाह’ माने जाने िाले रिश्तों की किंौटी तो कतई नहीं। िंािी िैचारिक आधुशनकता औि शिमशश के शिपिीत यह देह की जीत का एक पािम्परिक प्रशतमान भि है, जो आज भी हमािे पुरुषिादी मनोमशततष्क पि क़ायम है। आज भी रिश्तों का यह ‘मैल’ शजतना पुरुष की ओि िंे अपने शिध्िंिंक औि ‘पजेशिंि’ रूप में प्रकट होता है, उतना स्त्री की ओि िंे अशभव्यक्त नहीं होता। पशत के शि​िाहेति िं​ंबंधों पि औितें आज भी प्राय: तियं को आत्मपीड़ा में डु बो लेती हैं। कहानी के पात्र महुआ औि हषुशल, दोनों के िं​ंबंधों का भी एक अतीत िहा है, पि हषुशल िंे शादी के बाद महुआ उिंे अपने ितशमान तक नहीं लाती, हालांकक शि​िाह के बाद भी अपने प्रेमी िंाशजद द्वािा कदलिाई मालाएँ िं​ंजोए िखना (एक माला तो िह प्राय: पहने िहती थी) उिंके अिचेतन में कहीं न कहीं िंाशजद की मौजूदगी का पता देता है, पि उिंके ितशमान गृहतथ जीिन पि उिंका कोई प्रकट अथश नहीं कदखता बशकक िह तो हषुशल िंे इिं बात को शिपाए िखने की भि​िंक कोशशश किती है। यही कािण है कक िह हषुशल के शि​िाहेति िं​ंबंधों के बािे में जानकि भी अनजान बनी िहती है। बािजूद इिंके , यही अतीत महुआ के ितशमान पि इिं कदि हािी हो जाता है कक उिंकी बनी-बनाई गृहतथी खत्म हो जाती है। हषुशल का अतीत जो भी िहा हो, उिंके ितशमान दो जरूि हैं, महुआ के िंाथ शादीशुदा होने के बािजूद िह शबना ककिंी मलाल औि उलझन के अपनी िंहकमी िर्ततका बनजी के िंाथ ‘िं​ंबंध’ िखे हुए है औि महुआ इिंे जानती है, पि न तो कभी पत्नी की हैशिंयत िंे पूिती है औि न ही बाधा बनती है, बशकक तियं को इिंिंे अलग िखती है। शायद खुद भी िं​ंबंधों में िह चुकने के कािण उिंे पूिना नैशतक नहीं लगता। उिंे हषुशल के इिं िं​ंबंध के बािे में जानकि गहिा धक्का ज़रूि लगता है। पिन्तु हषुशल के आगे ज्यों ही महुआ के अतीत का पदाश खुलता है, उिंका पुरुष अहं बुिी तिह आहत होता है, कु ि िंमय भीति-भीति शांत िहने के बाद अंतत: िह शबफ़ि ही पड़ता है औि महुआ के पेट में पल िहे ढाई माह के अपने बच्चे तक को शनकलिाने को कह देता है। यद्यशप महुआ का इिंिंे इन्काि कि देना औि होने िाले बच्चे की पूिी शजम्मेदािी खुद ले लेना, आज की स्त्री की तिायत्तता औि तिाशभमान को िे खांककत किता है। इिंके बािजूद िंािे बौशिक शिमशश औि अशधकािों की जागरुकता होने पि भी देह औि उिंकी मांिंलता शि​िेक पि बाजी माि ही लेती है। एक ही ‘अपिाध’ के बािजूद स्त्री औि पुरुष की नैशतकताओं का यह अंति ‘महुआचरित’ िंे िंमझा जा िंकता है। इिंके बात के 1


अलािा शनजी तौि पि मुझे यह उतनी मजबूत नहीं लगी, शजतनी आजकल चचाश (शि​िादों) में है अथिा शजतनी काशीनाथ जी की अन्य िचनाएं हैं। खािंकि िंिोकाि औि िृत्तांत के तति पि। हालांकक लेखक का मानना है कक उन्होंने “इिं कहानी के जरिये उिं ढांचे को तोड़ने की कोशशश की है, शजिं पि शपिले किीब 100 िंाल िंे शहन्दी कहाशनयाँ चल िही थीं।” हो िंकता है, पि मेिे शिचाि िंे यह िचना अपने ‘नए’ शशकप के तति भी उतना हॉन्ट नहीं किती, शजतना काशीनाथ जी कह िहे हैं, न ही कथ्य िैिंा है। बिं एक लंबी कहानी को ‘लघु’ उपन्यािं के रूप में प्रोजेक्ट किने (िाजकमल प्रकाशन ने कम िंे कम यही शलखा है) औि कहानी को कशिता का आि​िण ओढ़ाने की कोशशश भि लगती है। हाँ, देह का शचत्रण जरूि िंमकालीन िचनाओं िंे कु ि ज्यादा शमलता है, पि इिंे भी लेखक के यहाँ अपिाद नहीं माना जा िंकता। ( डॉ. जय कौशल)

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