ग्रीष्म संस्करण
खिड़की आवाज़ अंक #9
जश्न और लोग
12 पन्ने
शहर के अजीबो-गरीब दृश्य
3
5
हाशिये से आवाज़
रिफ्यूजी कैंप में डर और उम्मीद की किरण
8
के सहयोग से
कचरा कम करने के नुस्खे
11
दस ू रों से मुलाकात
मौसम की रिपोर्ट जू न - स ि तं ब र 2 0 1 9
इं ड ि ग ो
तस्वीर: एकता चौहान
आबिजान, ऐवेरी कोस्ट
चौधरी पूरन सिंह, अपने पुश्तैनी घर में अपने परिवार के साथ।
ज़्यादातर तेज़ धूप बीच-बीच में आं धी-तूफ़ान
ब् लॉ क प ्रिं ट
दिल्ली, भारत
जून में गर्म और शुष्क जुलाई के बाद गर्म और नम
क ि ल् ली म
काबुल, अफगानीस्तान
गर्म और शुष्क कभी-कभी बादल
किन्शासा, कॉन्गो
कु ब ा
खिड़की एक्सटें श न की सं क री गलियों के बीच एक ऐसा मोहल्ला है , जिसमें जाने से लोग सं क ोच करते हैं । एकता चौहान इन आशावादी लोगों कि छु पी हुई जिं दगी और सच्चाई को उजागर करती हुईं। गर्म, बादल और नम के साथ आँ धी-तूफ़ान,जुलाई में धूप
मैं
अकवित
लेगोस, नाइजीरिया
गर्म, बादल और आँ धी-तूफान और बीच-बीच में बारिश
अ बे र व ा बे न
मोगदिशु, सोमालिया
गर्म, धूप और बीच-बीच में बादल और बारिश
धूप, गर्म और जुलाई में बारिश
पारंपरिक पैटर्न और बुनाई: अरु बोस
भ ा ग ल पु र ी
पटना, भारत
खिड़की गाँ व में पै द ा हु ई और मु झे अपने समाज पर बहु त गर्व था। मु झे यहाँ अपनापन और चिर-परिचित महसू स होता था। मु झे अच्छा लगता था कि मैं हर गली, हर परिवार और चप्पेचप्पे से अच्छी तरह वाकिफ थी। लेक िन एक ऐसी गली थी, जो मु झे मालू म नहीं थी। जबकि यह गली, गाँ व के बिल्कु ल बीच में थी, मैं ने वहाँ से कभी नहीं गु ज़ री। जब मैं बड़ी हो रही थी, मे रे बु ज़ुर्गों ने वहाँ ना जाने की सख्त हिदायत दी। मैं वहाँ चक्कर काटकर बाहर से गु ज रती और यही आदत भी बन गयी। यह गली चमार और जाटव समु द ाय की है । मैं दिसं ब र की कड़ाके की ठण्ड में ‘उस’ गली से गु ज़ री। मे रे पिताजी ने मु झे समु द ाय के एक यु व ा वकील से मिलवाया था जो यु व ा सशक्तिकरण के लिए काम करता है । जै से ही मैं उस गली में दाखिल हु ई , आसपास की दनि ु या ही मानो बदल गयी। जबकि खिड़की गाँ व , मध्यम और कम आय वाले समु द ाय के रूप में जाना जाता है , यह ‘मोहल्ला’ हमसे कई गु न ा पिछड़ा हु आ है । कु छ गालियां तो इतनी सं क री हैं , कि वहाँ धू प भी नहीं घु स पाती। मकान छोटे से हैं ,
ज़्यादातर एक या दो कमरों वाले जिसमें गलियों के अहाते को बर्त न और कपड़े धोने के लिए इस्तेमाल किया जाता है । मु झे चौधरी पू र न के घर ले जाया गया, जो समु द ाय के सबसे बु जु र्ग लोगों में से एक हैं । मैं आर्काइवल प् रो जे क ्ट के लिए कु छ इं ट रव्यू पहले कर चु की थी, तो जानती थी कि ज़्यादातर बु जु र्ग रात होने से पहले घर पर ही मिल जाते हैं , खासतौर पर सर्दियों में । और शाम का वक़्त उनसे बातचीत के लिए उचित होता है । जै से ही मैं उनके घर पहुं ची तो, उनकी बहू ने बताया कि वे अभी काम से लौटे नहीं हैं । एक 85 साल के बु जु र्ग अभी भी काम कर रहे हैं ? मैं ने उनसे पू छ ा, तो पता चला कि वे कें द ्र सरकार की नौकरी में माली के पद से रिटायर हु ए थे और आज भी छोटा-मोटा प् रा इवे ट काम उठा ले ते हैं । मैं उनसे मिलने से पहले ही, उनकी निष्ठा दे ख कर काफी प्र भ ावित हो गई थी। मैं एक बगीचे नु म ा किचन में उनका इं त ज़ार कर रही थी, तो एक अजनबी को अपने घर में दे ख कर, उनके पोते - पोतियों ने मु झे घे र लिया। आखिरकार, पू र न बाबा आये और मैं ने उनका अभिवादन
किया। उन्होंने ज़ोर दे क र कहा कि मैं कु र्सी पर बै ठूं और उन्हें लकड़ी की सख्त तख्ती पर बै ठ ने की आदत है । जब हमने बातचीत शु रू की तो, मे री नज़र उनके हाथों पर पड़ी। वे एक मे ह नतकश आदमी के हाथ थे , कठिन परिश्र म की रेख ाएं और दरारें साफ़ नज़र आ रही थीं। पू री बातचीत के दौरान, पू र न बाबा थोड़े विचलित से नज़र आ रहे थे , जब भी मैं उनके समु द ाय की सामाजिक स्तिथि के बारे में पू छ ती तो उनकी आवाज़ बदल जाती। शायद पहली बार कोई उनकी कहानी में दिलचस्पी दिखा रहा था। शायद पहली बार कोई उन्हें सु न रहा था। सालों के दबे हु ए भाव और गु स ्सा बाहर आने लगा, जायज़ भी था। उन्होंने गाँ व में कानू न बनने के बावजू द छु आछू त के अनियंत्रि त प्रचलन के बारे मे बताया, कि कै से ऊँ ची जात वालों ने उन्हें कभी नहीं अपनाया और बराबरी का दर्जा नहीं दिया। पु र ाने सामाजिक भे द भाव आज भी कै से उनकी ज़िन्दगी को प्र भ ावित करते हैं । इन पू र्व धारणाओं और भे द भाव की वजह से इस समु द ाय की आर्थिक स्थिति पर
सीधा असर पड़ता है । इस समु द ाय को किसी भी आर्थिक सं पत्ति का हिस्सा या ज़मीन नहीं दी गयी। ऐतिहासिक रूप से ये दे ह ाड़ी मज़द रू थे और पू री तरह द स ू रों के खे तों में काम करने को मजबू र थे । 1970 के दशक के बाद जहाँ ऊं ची जात के लोगों ने ज़मीनें बे च कर या किराये पर दे क र बहु त पै स ा जोड़ा, वहीँ जाटव लोगों के पास सं पत्ति के रूप में यही छोटे घर हैं । पू र न बाबा के मु त ाबिक, नयी पीढ़ी के लिए असल सं पत्ति और उम्मीद अच्छी शिक्षा और नौकरी है । जबकि समु द ाय को सरकारी आरक्षण का फायदा मिलता है (ये अनु सूच ित जातियों में आते हैं ) , पू र न बाबा एक अलग कहानी बयाँ करते हैं । उनके मु त ाबिक, अच्छी शिक्षा होने के बावजू द , उनके पास अच्छी नौकरियाँ नहीं हैं । वे अपने दो पोतियों और पोते की ओर इशारा करते हु ए बताते हैं कि एक साल पहले ग्रे जु ए शन पू री करने के बावजू द , उन्हें कोई अच्छी नौकरी नहीं मिली है । मैं उनकी आँ खों में लाचारी और निराशा साफ-साफ दे ख पा रही थी। ऊँ ची जात के लोग अपने 2
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