बसन्तराज शायद किसी ने गिराया था या शायद खुद से ही गिरा था पता नहीं पर वो एक कमीलया का फूल था अपनी कामुक सुंदरता को विसरित किये बीच गली में अबला पड़ी थी और उसके निकट- ही वो महाभागी रसभोगी धूल था हरे दरख़्त की ओछावस्त्र लिए, और पायाबजल की माला प्रिय मिलन कि चाह में, यह धरती सजी है अपनी काया कुहू -कुहू कर एक नभचर अपने संगिनी को जता रहा है कि उसकी इक्छा भी जाग गई है , ऋतुराज कामरूप में छा गया है हाँ जी फैज़, अहमद फैज़ साहब, अब बसंत आ गया है इसीबेला की राह दे खती ये मिट्टी भी, कि कब उसके सांवरे आएं गे वो काले घनेरे बादल कब अपना प्रेम बरसायेंगे .... निकम्मा है वो नीला आकाश, बस ताड़ता रहता है अपने सुन्दर-वृहद् होने का बस, शेख़ी झाड़ता रहता है इसी प्रेम संयोग से, बीज और गुठलियां जो दबी थी मिट्टी के नीचे बन गयीं हैं फूल और कलियाँ संतति रूप में खिल उठी हैं उसके लचीले तने नन्ही डालियाँ, सुगंधमयी फूल, और सुन्दर पत्तियां...... हाय ये कितना सुन्दर है मन करता है इस सुन्दर फूल को, दूँ जाकर अपने प्रियतमा को हा-हा-हा पर मेरी प्रियतमा कहाँ ...? शायद इसी प्रयोजन से किसी ने तोड़ा होगा कमीलया का वो फूल, और प्रियतमा के न मिलने पर, नाराज़गी से उसे फेंका होगा, मानकर अपनी भूल...... प्रेम संयोग के इस मौसम में, कहीं-कहीं पर वियोग भी है कहीं पर वो घनेरे बादल, काल बनकर मंडराए हैं तो कहीं पर धरती की प्यास बुझाने, पहुंच ही नहीं पाए हैं ऐसा असंतुलन निश्चय ही, हमारे कर्मों के परिणाम हैं लोभवश होकर धरती के, ओछावस्त्र - पेड़ो को, उखाड़ने का अंजाम है अभी भी वक्त है सम्भलने का, जल्द सचेत हो जाओ और जितना ज्यादा हो सके, पेड़ लगाओ - पेड़ लगाओ ..... ~