सुलभ स्वच्छ भारत (अंक - 42)

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वर्ष-1 | अंक-42 | 02 - 08 अक्टूबर 2017

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

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05 स्वच्छता

गांधी विचार का केंद्र गांधी जी के विचार के केंद्र में है स्वच्छता

गांधी का आदर्श मोदी का संकल्प

महात्मा गांधी के दिए गए स्वच्छता के सबक ने एक शती से अधिक की लंबी यात्रा पूरी कर ली है। श्रेय देना होगा प्रधानमंत्री मोदी को कि स्वच्छता जैसे बुनियादी सवाल को उन्होंने न सिर्फ अपनी सरकार, बल्कि भारतीय समाज का एक कोर एजेंडा बना दिया है और इसका असर हर तरफ दिखाई दे रहा है

20 विमर्श

ब्राउन का गांधी विमर्श समकालीन संदर्भों में गांधी जी की प्रासंगिकता

26 नमन

घर का नन्हे, देश का लाल शास्त्री जी का पूरा जीवन ही एक प्रेरक अध्याय


02 आवरण कथा

गांधी जंयती विशेष

02 - 08 अक्टूबर 2017

गांधी का आदर्श, मोदी का संकल्प महात्मा गांधी के दिए गए स्वच्छता के सबक ने एक शती से अधिक की लंबी यात्रा पूरी कर ली है। श्रेय देना होगा प्रधानमंत्री मोदी को कि स्वच्छता जैसे बुनियादी सवाल को उन्होंने न सिर्फ अपनी सरकार, बल्कि भारतीय समाज का एक कोर एजेंडा बना दिया है और इसका असर हर तरफ दिखाई दे रहा है

जब मैं निराश होता हूं तो मैं याद कर लेता हूं कि समस्त इतिहास के दौरान सत्य और प्रेम के मार्ग की ही हमेशा विजय होती है। कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं और कुछ समय के लिए वो अजेय लग सकते हैं, लेकिन अंत में उनका पतन होता है

गां

एसएसबी ब्यूरो

धी का काल, उनके आदर्श और उनके आह्वान ने कई मामलों में एक शती लंबी यात्रा पूरी कर ली है। उनके विचारों के आदर्श ‘हिंद स्वराज’ पुस्तिका के रूप में दुनिया के सामने सबसे पहले 1909 में आए। चंपारण सत्याग्रह और साबरमती आश्रम के स्थापना के सौ साल तो हम मना ही रहे हैं, खादी को लेकर उनके प्रयोग के भी सौ वर्ष पूरे हो गए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो अक्टूबर 2014 को जब स्वच्छ भारत मिशन की बात कही तो इसके पीछे उन्होंने गांधी को अपनी प्रेरणा, अपना आदर्श बताया। आज जब स्वच्छता अभियान देश में एक जनांदोलन की शक्ल ले चुका है, तो इस बात को रेखांकित करना ऐतिहासिक तौर पर जरूरी है कि राष्ट्रपिता ने प्रमुखता के साथ स्वच्छता का सार्वजनिक आह्वान सबसे पहले 14 फरवरी 1916 को किया था। यानी गांधी जी द्वारा दिए गए स्वच्छता के सबक ने भी एक शती से अधिक लंबी यात्रा पूरी कर ली है। कमाल की बात यह है कि ग्रामोत्थान

और ग्रामस्वराज की बात करने वाले इस महापुरुष ने स्वच्छता को लेकर अपने संबोधन में भी गांव को याद किया और कहा कि गांवों की स्वच्छता के सवाल को बहुत पहले हल कर लिया जाना चाहिए था। श्रेय देना होगा प्रधानमंत्री मोदी को स्वच्छता जैसे बुनियादी सवाल को उन्होंने न सिर्फ अपनी सरकार, बल्कि भारतीय समाज का एक कोर एजेंडा बना दिया है और इसका असर हर तरफ दिखाई दे रहा है। स्वच्छता के संकल्प के साथ गांवों के स्वावलंबन का एक नया अध्याय देश में शुरू हो गया है। यहां एक बात और जो बेहद मह्तवूर्ण है, वह यह कि दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के दो दशक लंबे प्रवास को जिन वजहों से खासतौर पर याद किया जाता है, उसमें साम्राज्यवादी अंग्रेजों के द्वारा भारतीय समुदाय के बहुस्तरीय दमन-उत्पीड़न के खिलाफ अहिंसक तरीके से संघर्ष को आगे बढ़ाना सर्वप्रमुख है, पर बात दक्षिण अफ्रीका की हो या भारत लौटने के बाद चंपारण सत्याग्रह की, रचनात्मक कार्यक्रम गांधी जी के हर अभियान का अभिन्न हिस्सा रहा है। इस लिहाज से स्वच्छता की बात उन्होंने हर मौके

राष्ट्रपिता ने अपनी स्वच्छता खुद करने को कहा था। वे चाहते थे कि हम अपनी सफाई स्वयं करें और छूआछूत की इस घृणित परिपाटी को समाप्त कर दें

एक नजर

स्वच्छता का पहला सार्वजनिक आह्वान 14 फरवरी 1916 को किया बापू की 150वीं जन्मशती तक खुले में शौच से मुक्त भारत का लक्ष्य अब तक 2.44 लाख गांव और 203 जिले ओडीएफ घोषित

पर न सिर्फ कही है, बल्कि इसके लिए खुद झाड़ू उठाकर सामने आए हैं। नरेंद्र मोदी सरकार ने दो अक्टूबर, 2019 तक यानी महात्मा गांधी 150वीं जन्मशती के अवसर तक खुले में शौच से मुक्त भारत का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। सुखद यह है इस दिशा में मिलती पर्याप्त सफलता दिखने भी लगी है। स्वच्छ भारत अभियान के तहत दो अक्टूबर 2014 तक 4.90 करोड़ शौचालय बन चुके थे। पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय के अनुसार 24 सितंबर 2017 तक 2.44 लाख गांव और 203 जिले खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिए गए हैं। इस कार्यक्रम की विशेषता यह है कि बहुत से सार्वजनिक क्षेत्रों के साथ-साथ निजी संस्थानों ने भी सरकार की इस अहम योजना


गांधी जंयती विशेष

02 - 08 अक्टूबर 2017

आवरण कथा

नहाए धोए क्या भया जो मन मैल न जाय स्वच्छता एक तरह से गांधी जी के लिए मन की प्रार्थना है, विश्व कल्याण का मंत्र है

धीजी को उनके स्वच्छता के सबक के लिए जब हम याद करते हैं, तो इसे थोड़ी गहराई गां से समझने की जरूरत है। ऐसा इसीलिए क्योंकि स्वच्छता का मुद्दा महज गांधीजी के आह्वान, उनके सामाजिक कार्यक्रमों से जुड़ा नहीं है। स्वच्छता एक तरह से उनके लिए मन की प्रार्थना है, विश्व कल्याण का मंत्र है। दिलचस्प है कि स्वच्छता पर बात करते हुए अक्सर कबीरदास का यह दोहा याद आ जाता है: ‘नहाए धोए क्या भया जो मन मैल न जाय, मीन सदा जल में रहे धोए बास न जाय।’ इसका मतलब यह नहीं कि संत कबीर नहाने-धोने का विरोध करते हैं, बल्कि वे तो यह अहसास कराना चाहते हैं कि नहाना-धोना, शरीर को साफ रखना जरूरी है, पर इतने भर से सफाई का काम पूरा नहीं हो जाता। असली सफाई का संबंध तो मन का मैल साफ करने से है, यानी मन से ईर्ष्या, द्वेष, वासना, तृष्णा जैसी दुष्प्रवृत्तियों का सफाया करना मनुष्य होने के लिए आवश्यक है। बाहरी सफाई के बावजूद मन से अगर वासनाओं का सफाया नहीं किया गया, तो मनुष्य उसी तरह गंधाता रहेगा जिस तरह जल में निरंतर वास करने के बावजूद मछली गंधाती रहती है। यानी सफाई तन से होते हुए मन तक जाए, बाह्य गंदगी के साथ-साथ अंत:करण में लोभ, कामुकता, घृणा आदि के रूप में जमी हुई काई का भी प्रक्षालन हो, तभी स्वच्छता पूर्णता को प्राप्त कर सकती है। गांधी के जीवन-दर्शन में स्वच्छता के बाहरी और आंतरिक दोनों पक्षों का एक-दूसरे से अटूट संबंध दिखता है। यह सत्य है कि बाहरी सफाई गांधी को इतनी प्रिय थी कि वे काया, कपड़े, घरबार से लेकर मल-मूत्र तक की सफाई के काम खुद करते थे। अपना तो अपना, दूसरों का मलमूत्र भी साफ करने से उन्हें परहेज नहीं था। अपनी ‘आत्मकथा’ (सत्य के प्रयोग) में उन्होंने अपने सफाई संबंधी कई कार्यों का उल्लेख किया है, जिनका संबंध उनके कपड़े धोने, हजामत बनाने से लेकर मल-मूत्र तक की सफाई से था। उनके लिए सफाई का मतलब तड़क-भड़क वाली पोशाक पहनना, भव्य मकान में रहना नहीं था, न नाना आभूषणों से शरीर को सजाना था। उनकी सफाई सादगी का पर्याय थी। साफ-सुथरे पहनावे में मिलकर काम किया है और इसे सफल बनाया है। कई औद्योगिक घरानों ने कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व के तहत कई गांवों को गोद लिया है और वहां शौचालय बनाने की जिम्मेदारी ली है। 2012 में केवल 38 प्रतिशत क्षेत्र स्वच्छता कवरेज से जुड़े थे। अब यह बढ़कर 68 प्रतिशत हो गया है। साफ है कि स्वच्छता की घोषित मंजिल से अब हम ज्यादा दूर नहीं हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए सरकार ने एक पखवाड़े के लिए ‘स्वच्छता ही सेवा’ (क्लीनलीनेस इज सर्विस) अभियान आरंभ किया। इस अभियान के तहत देश भर में स्वच्छता मुहिम को प्रोत्साहित

से लेकर मिट्टी, बांस, खपरैल से बने मकानों की सादगी ही उन्हें पसंद थी। उनके दक्षिण अफ्रीका में बनाए फीनिक्स आश्रम से लेकर अहमदाबाद के साबरमती, वर्धा के सेवाग्राम, बिहार के भीतिहरवा जैसे आश्रमों को देख कर इस सत्य का पता चल जाता है। दरअसल, गांधीजी की स्वच्छता प्रकृति की संगति में सन्निहित थी। पर अब तो स्वच्छता के नाम पर भव्यता-प्रदर्शन के लिए प्रकृतिविरोधी कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति की सुरक्षा के बिना स्वच्छता जैसे कार्यक्रम का कोई महत्व नहीं है। इसीलिए वन क्षेत्रों से लेकर जल के प्राकृतिक स्रोतों तक सबकी सुरक्षा की हमें फिक्र करनी होगी। यही नहीं, स्वच्छ आवास, विलासितापूर्ण रहन-सहन के लिए नदी, पहाड़, जंगल सबकी हम ‘सफाई’ करते जा रहे हैं, जो गांधीजी के स्वच्छता संबंधी सिद्धांतों का सरासर हनन है, क्योंकि उनका मानना था कि हमारी जीवन-शैली ही ऐसी हो जो अधिक से अधिक प्रकृति के साथ तालमेल करके चले। न अतिशय औद्योगीकरण से नदियों का नाश करें, न पर्यावरण प्रदूषण करें, न प्रकृति का क्षरण करें। भारत को ‘स्वच्छ’ बनाने के नाम पर परमाणु संयंत्र, स्मार्ट सिटी, बहुमंजिली इमारतों के करने के लिए कई कार्यक्रम चलाए गए। इसका उद्देश्य तीन वर्ष पहले राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में आरंभ किए गए स्वच्छ भारत अभियान को बल देना है। पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय ने इस अभियान का प्रचार प्रसार के लिए काफी मेहनत की है। इस अभियान में अन्य मंत्रालय, सरकारी विभाग, गैरसरकारी संगठन भी स्वच्छता के प्रति जागरूकता फैलाने के कार्य में जुटे। दरअसल, गांधी जयंती और स्वच्छता कार्यक्रम के साझे को जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के सामने रखा, उससे महात्मा गांधी को उनके कार्यक्रमों और आदर्शों को याद रखने का एख नया

जाल आदि के अभिलाषी हमारे विकास-पुरुषों को गांधी के इस गूढ़ स्वच्छता-बोध पर ध्यान देने की आवश्यकता है। गांधीजी की दृष्टि में सभ्य होने के लिए केवल तन, वस्त्रों, सड़कों, घर का स्वच्छ होना पर्याप्त नहीं, बल्कि मन का विकार-रहित होना अधिक आवश्यक है, क्योंकि मन में अगर मैल हो तो आदमी न खुद को पहचान सकता है, न नीति का पालन कर सकता है। यानी गांधी जी का स्वच्छता-बोध पूर्णत: एक नैतिक मूल्य है। इसे साधने के लिए ही उन्होंने ब्रह्मचर्य के महत्त्व को रेखांकित किया। उन्होंने खुद ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन शुरू किया और उसका निर्वाह जीवन के आखिरी पहर तक किया। ब्रह्मचर्य का पालन वे हर व्यक्ति के लिए आवश्यक मानते थे, क्योंकि यही समस्त विकारों के दमन और इंद्रियों को वश में रखने का अमोघ अस्त्र था। गांधीजी ने अपने आश्रमों में सुबह-शाम प्रार्थनाएं करने का सिलसिला चलाया। उनके आश्रम में सभी धर्मों से जुड़ी प्रार्थनाएं गाई जाती थीं। नवजीवन प्रेस अमदाबाद ने ‘आश्रम भजनावलि’ नाम से गांधी द्वारा गवाए जाने वाले भजनों का एक संग्रह छापा है, जिसमें दो सौ से अधिक भजन हैं। इन भजनों से साफ पता चलता है कि गांधीजी ने मन और इंद्रियों को वश में करने और त्याग, अपरिग्रह, सेवा, सादगी, करुणा, दया, क्षमा, सहिष्णुता आदि का महत्त्व दर्शाने वाले भजनों को ही महत्त्व दिया है। गांधीजी के स्वच्छता-बोध को संपूर्णता में समझने के लिए इन भजनों में भी पैठना आवश्यक है। गांधीजी का स्वच्छता-बोध केवल घर बुहारने या कचरा साफ करने तक सीमित नहीं है, बल्कि वह इससे आगे बढ़ कर व्यक्ति के भौतिक जीवन से लेकर अंत:करण तक की स्वच्छता से संबद्ध है। गांधीजी के नाम पर स्वच्छता अभियान चलाने वालों को उनके समग्र स्वच्छता-बोध को आत्मसात कर क्रियान्वित करना होगा। ऐसा करके ही हम धरती की जंगल, नदी, पहाड़, पशुपक्षी जैसी न्यामतों को बचा सकते हैं, क्योंकि इनका बचे रहना मनुष्य जाति के बचे रहने के लिए अपरिहार्य है- यही सबक सिखाता है गांधीजी का स्वच्छता-बोध। मंत्र देश को मिला है। इस लिहाज से दो अक्टूबर, 2014 का तारीखी महत्व है। इस दिन प्रधानमंत्री मोदी ने नई दिल्ली में स्वच्छता के लिए खुद झाड़ू लगाई थी। प्रधानमंत्री ने स्वच्छता का बिगुल बजाया और लोगों ने इस महत्वपूर्ण कार्य में उनका साथ दिया, क्योंकि यही महात्मा गांधी को सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि है। महात्मा गांधी एक शती पूर्व ही भारत के लिए स्वच्छता को पहली प्राथमिकता देना चाहते थे। इस अभियान का उद्देश्य स्वच्छता के अन्य लक्ष्यों के साथ खुले में शौच की आदत को समाप्त करना है और अधिक शौचालयों का निर्माण एवं कूड़े-कचरे के प्रबंधन में सुधार लाना है। स्वच्छता के महत्व पर

विश्व इतिहास में आजादी के लिए लोकतांत्रिक संघर्ष हमसे ज्यादा वास्तविक किसी का नहीं रहा है। मैंने जिस लोकतंत्र की कल्पना की है, उसकी स्थापना अहिंसा से होगी। उसमें सभी को समान स्वतंत्रता मिलेगी। हर व्यक्ति खुद का मालिक होगा

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04 आवरण कथा

आपकी मान्यताएं आपके विचार बन जाते हैं। आपके विचार आपके शब्द बन जाते हैं। आपके शब्द आपके कार्य बन जाते हैं। आपके कार्य आपकी आदत बन जाते हैं। आपकी आदतें आपके मूल्य बन जाते हैं। आपके मूल्य आपकी नियति बन जाती है

02 - 08 अक्टूबर 2017 बल देते हुए प्रधानमंत्री ने कई बार कहा है कि स्वच्छ भारत के विचार का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। यह देशभक्ति से प्रेरित है। हमें स्मरण होना चाहिए कि गांधी जी ने कहा था कि स्वच्छता, स्वाधीनता से अधिक महत्वपूर्ण है। राष्ट्रपिता ने अपनी स्वच्छता खुद करने को कहा था। वे चाहते थे कि हम अपनी सफाई स्वयं करें और छूआछूत की इस घृणित परिपाटी को समाप्त कर दें। यह आंदोलन स्वाधीनता के बाद धीमा पड़ गया। हालांकि विभिन्न सरकारों ने इस दिशा में कई कार्यक्रम चलाए, लेकिन यह दुखद है कि स्वच्छता और अस्पर्शता दोनों विषय बापू के निधन के सात दशक बाद भी देश में विद्यमान हैं। अपर्याप्त स्वच्छता स्वास्थ्य संबंधी कई बीमारियों और असमय मृत्यु का कारण बनती है। एक स्वयंसेवी संगठन ‘वॉटर ऐड’ ने 2014 की अपनी एक रिपोर्ट में इस गंभीर स्थिति के बारे में जिक्र किया था। इसने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि भारत में 1.2 बिलियन लोगों में से एक तिहाई से कम लोगों की पहुंच स्वच्छता तक है। पांच साल की उम्र तक के 1,86,000 से भी अधिक बच्चे हर साल असुरक्षित जल और दयनीय स्वच्छता सेवाओं के वजह से डायरिया रोगों के कारण मौत के मुंह में समा जाते हैं। इससे भारत की आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है। अनुमान लगाया गया है कि देश में हर साल स्वच्छता की दयनीय स्थिति के कारण बीमारियों और असमय मृत्यु से देश अपनी जीडीपी का 6.4 प्रतिशत खो देता है। अब स्थिति बदल रही है और विभिन्न सरकारी एजेंसियां स्वच्छता की चुनौती का सामना करने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य कर रही है। आज देश में स्वच्छता को लेकर जो विभिन्न अभियान चलाए जा रहे हैं, उसमें जिस संस्था और व्यक्ति का नाम सबसे पहले जेहन में आता है, वह सुलभ इंटरनेशनल और इस संस्था के प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक। करीब चार दशक पहले बिहार गांधी शताब्दी समिति में एक कार्यकर्ता के नाते गांधी विचार और कार्यक्रमों के करीब आए डॉ. पाठक ने तब से न सिर्फ पूरे देश में, बल्कि अखिल विश्व में स्वच्छता का अलख जगा रहे हैं। सिर पर मैला ढोने की प्रथा को लेकर सुलभ ने उल्लेखनीय कार्य किए हैं। सिर से मैला ढोने वाले लोगों को इस अमानवीय कार्य से मुक्ति दिलाने की सोच की ही देन है सुलभ द्वारा विकसित हुआ दो गड्ढों वाला शौचालय। आज यह तकनीक पूरी दुनिया में ‘सुलभ शौचालय’ के रूप में जानी जाती है। इस तकनीक में पहले गड्ढे में जमा शौच खाद में बदल जाता है। सुलभ ने शौचालय के जरिए गैस बनाने और उसे बिजली तक बनाने के कामयाब प्रयोग किए हैं। 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना हुई और आज शौचालय निर्माण की सस्ती तकनीक के लिए इसकी दुनियाभर में पहचान है। सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक भी मानते हैं कि गांधी जी के बाद अगर इस देश में स्वच्छता के महत्व को किसी ने गहराई से समझा है तो वे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा है कि पूर्व में स्वच्छता और निजी स्वच्छता की कमी के कारण भारत में अनुमानतः प्रति व्यक्ति साढ़े छह हजार रुपए बर्बाद होते हैं। उन्होंने कहा कि स्वच्छ भारत अभियान जन-स्वास्थ्य पर अपना विशिष्ट प्रभाव छोड़ेगा।

2012 में केवल 38 प्रतिशत क्षेत्र स्वच्छता कवरेज से जुड़े थे। अब यह बढ़कर 68 प्रतिशत हो गया है इससे निर्धनों की आय की बचत होगी और अंततः राष्ट्र की आर्थिक स्थिति सुधरेगी। उन्होंने कहा कि स्वच्छता को राजनीतिक हथियार के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसे राष्ट्रभक्ति और जन-स्वास्थ्य की प्रतिबद्धता से जोड़ा जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने एक सर्वेक्षण किया है, जिसमें स्वच्छ भारत मिशन के लाभों के बारे में एक अनुमान लगाया गया है। हाल ही में आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वच्छता के सुधार के कार्य में निवेश किए गए एक रुपए से साढ़े चार रुपए की बचत होगी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि खुले में शौच से मुक्त समाज का निर्माण होता है तो चिकित्सा खर्च कम होगा, समय की बचत होगी और जलजनित रोगों से होने वाली मृत्यु दर को रोका जा सकेगा, जिससे प्रति वर्ष हर घर में लगभग 50,000 रुपए की बचत हो सकती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इससे निर्धनतम लोगों को सर्वाधिक फायदे होंगे, लेकिन इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए स्थानीय

निकायों और राज्य सरकारों को दोगुने प्रयत्न करने होंगे और जागरूकता के प्रसार तथा निजी स्वच्छता और शुद्धता के बारे में लोगों के पुरातन दृष्टिकोण को बदलना होगा। सरकार के अथक प्रयासों के बावजूद कई स्थानों पर बड़ी संख्या में आज भी लोगों का मिथक है कि घर में शौचालय का इस्तेमाल करना उस स्थान को अशुद्ध करना है। सरकार और औद्योगिक घराने शौचालय का निर्माण करवा सकते हैं, लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि लोगों को खुले स्थानों में शौच के नुकसान के प्रति जागरूक करके शौचालयों की परिधि में लाया जाए। उन्हें स्वच्छता के स्वास्थ्य संबंधी और आर्थिक लाभों के बारे में जानकारी दी जाए और यह एहसास दिलाया जाए कि स्वच्छता उनके लिए कितनी आवश्यक है। इस कार्यक्रम की सफलता जनभागीदारी पर निर्भर है। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि स्वच्छ और स्वस्थ भारत के निर्माण के लिए सरकार के साथ समाज की जागरुकता और बढ़े और यह एक स्थायी राष्ट्रीय प्रवृति की शक्ल ले। ।


गांधी जंयती विशेष

02 - 08 अक्टूबर 2017

स्वच्छता का आग्रह गांधी विचार का केंद्र

गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका के अपने प्रवास के दौरान जिन कुछ मुद्दों को उठाया था, उसमें स्वच्छता भी अहम था। इस अहमियत को उन्होंने भारत लौटने पर चंपारण में और उसके बाद भी अपने विचार और आचरण के केंद्र में बनाए रखा

ज्या

सुदर्शन अयंगर

दातर भारतीयों के पास मोबाइल फोन तो हैं, लेकिन घर में शौचालय नहीं है। यह लोगों की स्वच्छता के प्रति जागरुकता, समाज और प्राचलिकता को दर्शाता है। गांधी जी ने अपने बचपन में ही भारतीयों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता की कमी को महसूस कर लिया था। उन्होंने किसी भी सभ्य और विकसित मानव समाज के लिए स्वच्छता के उच्च मानदंड की आवश्यकता को समझा। उनमें यह समझ पश्चिमी समाज में उनके पारंपरिक मेलजोल और अनुभव से विकसित हुई। अपने दक्षिण अफ्रीका के दिनों से लेकर भारत तक वह अपने पूरे जीवन काल में निरंतर बिना थके स्वच्छता के प्रति लोगों को जागरूक करते रहे। गांधी जी के लिए स्वच्छता एक बहुत ही

महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दा था। 1895 में जब ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और एशियाई व्यापारियों से उनके स्थानों को गंदा रखने के आधार पर भेदभाव किया था, तब से लेकर अपनी हत्या के एक दिन पहले 30 जनवरी 1948 तक गांधी जी लगातार सफाई रखने पर जोर देते रहे। लोक सेवक संघ के संविधान मसौदे में उन्होंने कार्यकर्ताओं के संबंध में जो लिखा था, वह इस प्रकार है- ‘कार्यकर्ता को गांव की स्वच्छता और सफाई के बारे में जागरूक करना चाहिए और गांव में फैलने वाली बीमारियों को रोकने के लिए सभी जरूरी कदम उठाने चाहिए।’ इस लेख में स्वच्छता पर गांधी जी के विचारों को संक्षेप में देने और वर्तमान स्थिति में इसकी समीक्षा की कोशिश की गई है।

दक्षिण अफ्रीका में गांधी

1895 में जब ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और एशियाई व्यापारियों से उनके स्थानों को गंदा रखने के आधार पर भेदभाव किया था, तब से लेकर अपनी हत्या के एक दिन पहले 30 जनवरी 1948 तक गांधी जी लगातार सफाई रखने पर जोर देते रहे

यह दिलचस्प है कि पहली बार गांधी जी ने स्वच्छता के मसले को दक्षिण अफ्रीका में भारतीय व्यापारियों को अपने-अपने व्यापार के स्थानों को साफ रखने के संबंध में उठाया था। भारतीय और एशियाई समुदाय की ओर से एक याचिकाकर्ता के रूप में दक्षिण अफ्रीका में दी गई एक याचिका में गांधी जी ने भारतीय व्यापारियों की स्वच्छता के प्रति उनके रवैये और व्यवहार का बचाव किया और उन्होंने सभी समुदायों से सफाई रखने के लिए लगातार अपील भी की थी। लार्ड रिपन स्वच्छता मामले में एक मुद्दे को एक याचिका में इस प्रकार उठाया गया था- ‘1881 के सम्मेलन का 14वां खंड जो मूल निवासियों के साथ-साथ सभी व्यक्तियों के हितों की समान रक्षा करता है, उसमें कहा गया था कि ट्रांसवाल में भारतीय स्वच्छता का पालन नहीं करते हैं और यह कुछ लोगों द्वारा गलत धारणा के आधार पर बनाया था।’ गांधी जी यह स्थापित करना चाहते थे कि भारतीयों को व्यापार का लाइसेंस इसीलिए नहीं दिया जा रहा था क्योंकि वह अंग्रेज व्यापारियों को कड़ी टक्कर दे रहे थे। दूसरे, उन्होंने यह तर्क भी दिया कि भारतीय व्यापारी और अन्य लोग सफाई रखने

स्वच्छता

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एक देश की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से आंका जा सकता है कि वहां जानवरों से कैसे व्यवहार किया जाता है


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02 - 08 अक्टूबर 2017 के आदी होते हैं। उन्होंने म्यूनिसिपल डॉक्टर वियेले का उदाहरण दिया, जिन्होंने भारतीयों को सफाई के प्रति सचेत और जागरूक बताया था। डॉक्टर वियेले ने भारतीयों को धूल और लापरवाही से होने वाली बीमारियों से मुक्त बताया था। भारतीय व्यापारियों को व्यापार का लाइसेंस देने से इनकार क्यों किया जा रहा था, उस संबंध में भी याचिका में दिए गए तर्क में बताया था कि यह व्यापारिक जलन की वजह से किया गया है। भारतीय स्वभाव से मितव्ययी और शांत होते हैं। भारतीय व्यापारी जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं की कीमत कम रखते थे और उन्हें सस्ते दाम में बेचते थे, जिससे श्वेत व्यापारियों के साथ वह भी प्रतिस्पर्धा में आ गए थे।

समाजशास्त्र और स्वच्छता

अपनी गलती को स्वीकार करना झाड़ू लगाने के सामान है, जो धरातल की सतह को चमकदार और साफ़ कर देती है

भारत में गांधी जी ने गांव की स्वच्छता के संदर्भ में सार्वजनिक रूप से पहला भाषण 14 फरवरी 1916 में मिशनरी सम्मेलन के दौरान दिया था। उन्होंने वहां कहा था ‘गांव की स्वच्छता के सवाल को बहुत पहले हल कर लिया जाना चाहिए था’

गांधी जी ने समाजशास्त्र और स्वच्छता के महत्व को समझा। पारंपरिक तौर पर सदियों से सफाई के काम में लगे लोगों को गरिमा प्रदान करने की कोशिश की। आजादी के बाद से हमने उनके अभियान को योजनाओं में बदल दिया। योजना को लक्ष्यों, ढांचों और संख्याओं तक सीमित कर दिया गया। हमने मौलिक ढांचे और प्रणाली से ‘तंत्र’ पर तो ध्यान दिया और उसे मजबूत भी किया, लेकिन हम ‘तत्व’ को भूल गए जो व्यक्ति में मूल्य स्थापित करता है। गांधी जी भारतीय लोगों की साफ-सफाई कम रखने की आदतों से भी परिचित थे। इसीलिए उन्होंने 1914 तक अपने 20 वर्षों के प्रवास के दौरान साफ-सफाई रखने पर विशेष बल दिया। गांधी जी इस बात को समझते थे कि किसी भी इलाके में बहुत अधिक भीड़भाड़ गंदगी की एक मुख्य वजह होती है। दक्षिण अफ्रीका के कुछ शहरों में विशेष इलाकों में भारतीय समुदाय के लोगों को पर्याप्त जगह और ढांचागत सुविधाएं नहीं मुहैया कराई गई थी। गांधी जी मानते थे कि उचित स्थान, मूलभूत और ढांचागत सुविधाएं और स्वच्छ वातावरण उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी नगरपालिका की है। गांधी जी ने इस संबंध में जोहांसबर्ग के चिकित्सा अधिकारी को एक पत्र भी लिखा था। उन्होंने पत्र में लिखा था। ‘मैं आपको भारतीयों के रहने वाले इलाकों की स्तब्ध कर देने वाली स्थिति के बारे में लिख रहा हूं। एक कमरे में कई लोग एक साथ इस तरह ठूंस कर रहते हैं कि उनके बारे में बताना भी मुश्किल है। इन इलाकों में सफाई सेवाएं अनियमित हैं और सफाई न रखने के संबंध में बहुत से निवासियों ने मेरे कार्यालय में शिकायत करके बताया है कि अब स्थिति पहले से भी बदतर हो गई है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-4, पृष्ठ 129)

भारत में स्वच्छता और गांधी

गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, ‘नगरपालिका की आपराधिक लापारवाही और सफाई के प्रति भारतीय निवासियों की अज्ञानता की वजह से कई इलाकों को पूरी तरह गंदा रखने की साजिश रची गई थी।’ (एक आत्मकथा, पृष्ठ 265) एक बार दक्षिण अफ्रीका में काले प्लेग का प्रकोप फैला। सौभाग्य से उसके लिए भारतीय जिम्मेदार नहीं थे। यह जोहांसबर्ग के आस-पास के क्षेत्र में सोने की खादानों वाले इलाके में फैला था। गांधी जी ने अपनी पूरी शक्ति के साथ, स्वेच्छा से और स्वयं के जीवन को खतरे

चंपारण का प्रयोग

स्वच्छता और सफाई का मूल्य

में डालकर रोगियों की सेवा की। नगर चिकित्सक और अधिकारियों ने गांधी जी की सेवाओं की बहुत तारीफ की। गांधी जी चाहते थे कि लोग उस घटना से सबक लें। उन्होंने एक जगह लिखा था ‘इस तरह के कठोर नियमों पर निस्संदेह हमें गुस्सा आता है। परंतु हमें इन नियमों काे मानना चाहिए क्योंकि इससे हम गलती दोहराएगें नहीं। हमें स्वच्छता और सफाई का मूल्य पता होना चाहिए...गंदगी को हमें अपने बीच से हटाना होगा...क्या स्वच्छता स्वयं ईनाम नहीं है? हाल ही में जो घटना हुई है यह हमारे देशवासियों के लिए एक सबक है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-4 पृष्ठ 146)

भारत में गांधी जी ने गांव की स्वच्छता के संदर्भ में सार्वजनिक रूप से पहला भाषण 14 फरवरी 1916 में मिशनरी सम्मेलन के दौरान दिया था। उन्होंने वहां कहा था ‘देसी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा की सभी शाखाओं में जो निर्देश दिए गए हैं, मैं स्पष्ट कहूंगा कि उन्हें आश्चर्यजनक रूप से समूह कहा जा सकता है,... गांव की स्वच्छता के सवाल को बहुत पहले हल कर लिया जाना चाहिए था।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13, पृष्ठ 222) गांधी जी ने स्कूली और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में स्वच्छता को तुरंत शामिल करने की आवश्यकता पर जोर दिया था। 20 मार्च 1916 को गुरुकुल कांगड़ी में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा था, ‘गुरुकुल के बच्चों के लिए स्वच्छता और सफाई के नियमों के ज्ञान के साथ ही उनका पालन करना भी प्रशिक्षण का एक अभिन्न हिस्सा होना चाहिए,... इन अदम्य स्वच्छता निरीक्षकों ने हमें लगातार चेतावनी दी कि स्वच्छता के संबंध में सब कुछ ठीक नहीं है... मुझे लग रहा है कि स्वच्छता पर आगन्तुकों के लिए वार्षिक व्यावहारिक सबक देने के सुनहरे मौके को हमने खो दिया।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13, पृष्ठ 264) गांधी जी नील की खेती करने वाले किसानों की समस्याओं को सुलझाने के लिए चंपारण गए थे। जांच दल के रूप में तैनात एक गोपनीय पत्र में उन्होंने उस स्थिति में स्वच्छता की महत्ता को बताया। गांधी

जी चाहते थे कि अंग्रेज प्रशासन उनके कार्यकताओं को स्वीकारें, ताकि वे समाज में शिक्षा और सफाई के कार्यों को भी शुरू कर सकें। इस बारे में उन्होंने कहा, ‘क्योंकि वे गांवों में ही रहते हैं, इसीलिए वे गांव के लड़के और लड़कियों को सिखा सकते हैं और वे स्वच्छता के बारे उन्हें जानकारी भी दे सकते हैं।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13 पृष्ठ 393)

गुजरात विद्यापीठ की स्थापना

1920 में गांधी जी ने गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की। यह विद्यापीठ आश्रम की जीवन पद्धति पर आधारित था, इसीलिए वहां शिक्षकों, छात्रों और अन्य स्वयं सेवकों और कार्यकर्ताओं को प्रारंभ से ही स्वच्छता के कार्य में लगाया जाता था। यहां के रिहायशी क्वार्टर्स, गलियों, कार्यालयों, कार्यस्थलों और परिसरों की सफाई दिनचर्या का हिस्सा था। गांधी जी यहां आने वाले हर नए व्यक्ति को इस संबंध में विशेष पढ़ाते थे। यह प्रथा आज भी कायम है। लोग गांधी जी के साथ रहने की इच्छा जाहिर करते तो इस बारे में उनकी पहली शर्त होती थी कि आश्रम में रहने वालों को आश्रम की सफाई का काम करना होगा जिसमें शौच का वैज्ञानिक निस्तारण करना भी शामिल है। गांधी जी ने रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे में बैठकर देशभर में व्यापक दौरे किए थे। वह भारतीय रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे की गंदगी से स्तब्ध और भयभीत थे। उन्होंने समाचार पत्रों को लिखे पत्र के माध्यम से इस ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया था। 25 सितंबर 1917 को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा, ‘इस तरह की संकट की स्थिति में तो यात्री परिवहन को बंद कर देना चाहिए, लेकिन जिस तरह की गंदगी और स्थिति इन डिब्बों में है उसे जारी नहीं रहने दिया जा सकता, क्योंकि वह हमारे स्वास्थ्य और नैतिकता को प्रभावित करती है। निश्चित तौर पर तीसरी श्रेणी के यात्री को जीवन की बुनियादी जरूरतें हासिल करने का अधिकार तो है ही। तीसरे दर्जे के यात्री की उपेक्षा कर हम लाखों लोगों को व्यवस्था, स्वच्छता, शालीन जीवन की शिक्षा देने, सादगी और स्वच्छता की आदतें विकसित करने का बेहतरीन मौका गवां रहे हैं।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13, पृष्ठ 264 पृष्ठ 550)


02 - 08 अक्टूबर 2017

धार्मिक स्थलों में फैली गंदगी

गांधी जी ने धार्मिक स्थलों में फैली गंदगी की ओर भी ध्यान दिलाया था। 3 नवंबर 1917 को गुजरात राजनीतिक सम्मेलन में उन्होंने कहा था, ‘पवित्र तीर्थ स्थान डाकोर यहां से बहुत दूर नहीं है। मैं वहां गया था। वहां की पवित्रता की कोई सीमा नहीं है। मैं स्वयं को वैष्णव भक्त मानता हूं, इसीलिए मैं डाकोर जी की स्थिति की विशेष रूप से आलोचना कर सकता हूं। उस स्थान पर गंदगी की ऐसी स्थिति है कि स्वच्छ वातावरण में रहने वाला कोई व्यक्ति वहां 24 घंटे तक भी नहीं ठहर सकता। तीर्थ यात्रियों ने वहां के टैंकरों और गलियों को प्रदूषित कर दिया है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-14, पृष्ठ 57) इसी तरह ‘यंग इंडिया’ में 3 फरवरी 1927 को उन्होंने बिहार के पवित्र शहर गया की गंदगी के बारे में भी लिखा और यह इंगित किया कि उनकी हिंदु आत्मा गया के गंदे नालों में फैली गंदगी और बदबू के खिलाफ बगावत करती है।

कांग्रेस सम्मेलनों में सीख

गांधी जी ने सार्वजनिक रूप से स्वच्छता की ओर सबका ध्यान खींचा। 29 दिसंबर 1999 को अमृतसर कांग्रेस में एक भाषण में सीएफ एंड्रयूज का हवाला दिया। उनके अनुसार यूरोपीय मानते हैं कि बाहर से देखने पर भारतीय बहुत आकर्षक नहीं लगते, क्योंकि वह सफाई और स्वच्छता के प्रति बहुत अधिक ध्यान नहीं देते और उसे गैर जरूरी समझते हैं। कांग्रेस के करीब-करीब हर सम्मेलन में दिए अपने भाषण में गांधी जी ने स्वच्छता के मामले को उठाया। अप्रैल 1924 में उन्होंने दाहोद शहर के कांग्रेस सदस्यों को अच्छी साफ-सफाई रखने के लिए बधाई दी और उन्हें सुझाव दिया कि वह अछूत समझे जाने वाले समुदाय के इलाकों में जाएं और उनमें स्वच्छता के प्रति जागरुकता जगाएं। उन्होंने उसी तरह 1925 में कानपुर कांग्रेस में सफाई रखने के इंतजामों की भी बहुत प्रशंसा की थी। गांधी जी मानते थे कि नगरपालिका का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सफाई रखना है। उन्होंने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को पार्षद बनने के बाद स्वच्छता के काम करने का सुझाव दिया। 25 अगस्त 1925 को

कलकत्ता अब (कोलकाता) में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा, ‘वह (कार्यकर्ता) गांव के धर्मगुरु या नेता के रूप में लोगों के सामने न आएं, बल्कि अपने हाथ में झाड़ू लेकर आएं। गंदगी, गरीबी, निठल्लापन जैसी बुराइयों का सामना करना होगा और उससे झाड़ू कुनैन की गोली और अरंडी के तेल साथ लड़ना होगा...।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 109) पंचायतों की भूमिका के बारे मे गांधी जी ने कहा था कि गांव में रहने वाले प्रत्येक बच्चे, पुरुष या स्त्री की प्राथमिक शिक्षा के लिए, घर-घर में चरखा पहुंचाने के लिए, संगठित रूप से सफाई और स्वच्छता के लिए पंचायत जिम्मेदार होनी चाहिए। 19 नवंबर 1925 के यंग इंडिया के एक अंक में गांधी जी ने भारत में स्वच्छता के बारे में अपने विचारों को लिखा। उन्होंने लिखा, ‘देश के अपने भ्रमण के दौरान मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ गंदगी को देखकर हुई...इस संबंध में अपने आप से समझौता करना मेरी मजबूरी है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 461)

स्वच्छता की शिक्षा

कई लोगों ने गांधी जी को पत्र लिखकर आश्रम में उनके साथ रहने की इच्छा जाहिर की थी। इस बारे में उनकी पहली शर्त होती थी कि आश्रम में रहने वालों को आश्रम की सफाई का काम करना होगा जिसमें शौच का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करना भी शामिल है। गांधी जी ने हमारा ध्यान इस ओर खींचा। उन्होंने हमें बताया कि हमें पश्चिमी देशों में सफाई रखने के तरीकों को सीखना चाहिए और उनका उसी तरह पालन करना चाहिए। 21 दिसंबर 1924 को बेलगांव में अपने नागरिक अभिनंदन के जवाब में उन्होंने कहा था, ‘हमें पश्चिम में नगरपालिकाओं द्वारा की जाने वाली सफाई व्यवस्था से सीख लेनी चाहिए...पश्चिमी देशों ने कॉरपोरेट स्वच्छता और सफाई विज्ञान किस तरह विकसित किया है उससे हमें काफी कुछ सीखना चाहिए... पीने के पानी के स्रोतों की उपेक्षा जैसे अपराध को रोकना होगा...।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-25, पृष्ठ 461) प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के लिए मसौदा मॉडल नियमों में उन्होंने पंचायत की भूमिका का रेखांकित किया और और लिखा, ‘गांव में रहने वाले प्रत्येक

गांधी जी नील की खेती करने वाले किसानों की समस्याओं को सुलझाने के लिए चंपारण गए थे। जांच दल के रूप में तैनात एक गोपनीय पत्र में उन्होंने उस स्थिति में स्वच्छता की महत्ता को बताया

स्वच्छता

बच्चे, पुरुष या स्त्री की प्राथमिक शिक्षा के लिए, घर-घर में चरखा पहुंचाने के लिए, संगठित रूप से सफाई और स्वच्छता के लिए पंचायत जिम्मेदार होनी चाहिए।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-19, पृष्ठ 217) उन्होंने स्वच्छता के लिए शिक्षा के पक्ष में स्पष्ट रुख ले लिया। 1933 में उन्होंने लिखा, ‘शिक्षा देने के लिए तीन आर का ही ज्ञान होना काफी नहीं है। हरिजन मानवता के लिए अन्य चीजों का भी अर्थ होता है। शिष्टाचार और स्वच्छता का तीनों आर की शिक्षा से पहले अपरिहार्य है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग56, पृष्ठ 91) शहरी मूलभूत सुविधाएं गांवों से पलायन करके शहरों में आए लोगों तक पहुंच नहीं पातीं। गांधी जी ने 1935 में स्वच्छता की सीख देने का प्रयास करते हुए तीन ‘आर’ की चिंता किए बिना लोगों को सफाई के प्रति जागरूक किया। उन्होंने ‘हरिजन’ के एक अंक में लिखा भी था कि सफाई और स्वच्छता के मामले में ‘तीन आर’ का मतलब सिर्फ कहने भर के लिए ही है। वास्तव में उसका कोई महत्व नहीं है। (गांधी वाङ्मय, भाग-60, पृष्ठ 120)

स्वच्छता और सफाई कर्मचारी

गांधी जी को अस्पृश्यता से घृणा थी। बचपन से बालक मोहन के मन में अपनी मां के प्रति स्नेह सम्मान होने के बावजूद उस छोटी आयु में भी अपनी मां की उस बात का विरोध किया जब उनकी मां ने सफाई करने वाले कर्मचारी के न छूने और उससे दूर रहने के लिए कहा था। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि स्वच्छता और सफाई प्रत्येक व्यक्ति का काम है। वह हाथ से मैला ढोने और किसी एक जाति के लोगों द्वारा ही सफाई करने की प्रथा को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने भारतीय समाज में सदियों से मौजूद अस्पृश्यता की कुरीति और जातीय प्रथा का विरोध किया। सफाई करने वाले जाति के लोगों को गांवों से बाहर रखा जाता था। और उनकी बस्तियां बहुत ही खराब, मलीन और गंदगी से भरी हुई थीं। समाज में हेय समझे जाने, गरीबी और शिक्षा की कमी की वजह से वह ऐसी बुरी स्थिति रहते थे। गांधी जी ने उन मलिन बस्तियों में गए और उन्होंने अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों को गले लगाया और अपने साथ गए अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी वैसा करने के लिए कहा। गांधी जी चाहते थे कि इन लोगों की स्थिति सुधरे और वह भी समाज की मख्यधारा में शामिल हों। उन्होंने पूरे भारत में छात्रों सहित सभी से ऐसी मलिन बस्तियों के लोगों की मदद करने के लिए कहा। गांधी जी ने भारतीय समाज में सफाई करने और मैला ढोने वालों द्वारा किए जाने ले अमानवीय कार्य पर तीखी टिप्पणी की उन्होंने कहा, ‘हरिजनों में गरीब सफाई करने वाला या ‘भंगी’ समाज में सबसे नीचे खड़ा है, जबकि वह सबसे महत्वपूर्ण है। अपरिहार्य होने के नाते समाज में उसका सम्मान होना चाहिए ‘भंगी’ जो समाज की गंदगी साफ करता है उसका स्थान मां की तरह होता है। जो काम एक भंगी दूसरे लोगों की गंदगी साफ करने के लिए करता है वह काम अगर अन्य लोग भी करते तो यह बुराई कब की समाप्त हो जाती।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-54, पृष्ठ 109)

दुनिया में ऐसे लोग हैं जो इतने भूखे हैं कि भगवान उन्हें किसी और रूप में नहीं दिख सकता सिवाय रोटी के रूप में

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गांधी जंयती विशेष

02 - 08 अक्टूबर 2017

स्वच्छता के महात्मा

सफाई और स्वच्छता गांधी जी के दैनिक जीवन में शामिल व्यवहार और आचरण था। वे अपने आसपास के वातावरण को साफ-सुथरा रखने पर जोर देते थे और खुद सफाई के काम में हाथ बंटाते थे

प्रार्थना मांगना नहीं है। यह आत्मा की लालसा है। यह हर रोज अपनी कमजोरियों की स्वीकारोक्ति है। प्रार्थना में बिना वचनों के मन लगाना, वचन होते हुए मन ना लगाने से बेहतर है

फि

ल्म लेखक, निर्माता, निर्देशक बृजेंद राही ने गांधी जी के प्रेरणादायी प्रसंगों पर दूरदर्शन के लिए ‘महात्मा’ के नाम से एक धारावाहिक बनाया था। उन्होंने गांधी पर कार्य करते हुए गांधी साहित्य का भी काफी गहनता से अध्ययन किया। ऐसा करते हुए जहां एक तरफ वे गांधी विचार से खासे प्रभावित हुए, वहीं वे लोगों को भी गांधी जी के स्वच्छता जैसे सबक के बारे में जागरुक करने में लग गए। प्रस्तुत लेख में बृजेंद्र राही ने गांधी के सादगीपूर्ण जीवन में स्वच्छता का महत्व कितना बड़ा था, इसे विभिन्न प्रामाणिक उदाहरणों से सामने रखा है-

महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देते हुए देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने कहा था कि गांधी जी एक महान द्रष्टा थे। अपने समय में वे बहुत आगे देखते थे। जीवन के अंत तक वे अपने सिद्धांत पर दृढ़ रहे। उसी रास्ते को अपना कर हम अपने देश का रुतबा विश्व में ऊंचा कर सकते हैं। सरदार वल्लभभाई पटेल की यह बात आज सौ फीसदी सच साबित हो रही है। हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री और जननेता नरेंद्र मोदी ने सामाजिक बदलाव के लिए भारत के हर नागरिक को साथ लेकर काम करने का बीड़ा उठाया है। यही कारण है कि आजादी के बाद पहली बार देशवासियों और युवा पीढ़ी को यह

‘शिक्षा में मन और शरीर की सफाई ही पहला कदम है। आप के आसपास की जगह की सफाई जिस प्रकार झाड़ू और बाल्टी की मदद से होती है, उसी प्रकार मन की शुद्धि प्रार्थना से होती है’ – महात्मा गांधी, 19 नवंबर 1944

एक नजर

गांधी जी जीवन में छोटी-छोटी बातों पर बहुत ध्यान देते थे

सफाई को वह छोटा नहीं, बल्कि बड़ा और जरूरी कार्य मानते थे

बड़े से बड़े मौकों पर वे स्वच्छता का संदेश देना नहीं भूलते थे

महसूस हो रहा है कि आज दुनिया में भारत का रुतबा और हौसला दोनों ही बढ़ता हुआ दिखाई दे रहा है। कोई भी देश बिना सामाजिक परिवर्तन के आगे नहीं बढ़ सकता। सामाजिक परिवर्तन के लिए जरूरी है कि हम उन बुराइयों को दूर करें, जो हमारे आसपास के माहौल को प्रदूषित कर रही हैं। गांधी जी ने खुद कहा था कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। यदि गांधी जी के जीवन का अध्ययन करें और रोजमर्रा


गांधी जंयती विशेष

02 - 08 अक्टूबर 2017

बिड़ला जी की धोती

ह दिल्ली की बात है। गांधी जी बिड़ला भवन में ठहरे हुए थे। वे स्नानघर में घुसे। थोड़ी देर पहले ही सेठ घनश्यामदास बिड़ला वहां से स्नान करके निकले थे। उनकी भीगी हुई धोती वहीं पड़ी हुई थी। नहाने से पहले बापू ने बिड़ला जी की धोती धो दी। फिर नहा-धोकर बाहर निकले। पहले उन्होंने अपना अंगोछा सूखने के लिए फैलाया और बाद में सेठ जी की धोती भी झटक कर फैला रहे थे। इतने में सेठ जी आ गए। उन्होंने बापू के हाथ से छोती छीन ली और बोले- ‘बापू यह क्या कर रहे हैं?’ गांधी जी ने सहजता के साथ कहा- ‘किसी का पैर पड़ जाता तो धोती और गंदी हो जाती। मैंने इसे धो दिया तो क्या बुरा हुआ? सफाई के कार्य से बढ़कर महान कार्य और कौन सा है? हमें भी अपने जीवन में छोटी-छोटी बातों पर उसी तरह गौर करना चाहिए। इससे न केवल हम अपने आसपास के वातावरण को वाइब्रेंट रखेंगे, बल्कि आत्मविश्वास से भरे भी रहेंगे। गांधी जी जैसा महान व्यक्ति होना बहुत ही मुश्किल है तभी तो आइंस्टीन ने कहा था, ‘आने वाली पीढ़ियां शायद ही विश्वास कर पाएंगी कि उन जैसा हाड़मांस का पुतला भी जमीन पर कभी चला था।’

के क्रियाकलापों पर नजर डालें तो पता चलेगा कि वे जीवन में वे छोटी-छोटी बातों पर कितना ध्यान देते थे। इन बातों में सफाई और स्वच्छता भी उनके दैनिक कार्यों का हिस्सा थी। वे अपने आसपास के वातावरण को साफ-सुथरा रखने पर जोर देते थे और खुद सफाई के काम में हाथ बंटाते थे। 19 नवंबर 1944 को महात्मा जी ने सेवाग्राम में हिंदुस्तानी तालीमी संघ द्वारा आयोजित प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने वाले सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘शिक्षा में मन और शरीर की सफाई ही पहला कदम है। आप के आसपास की जगह की सफाई जिस प्रकार झाड़ू और बाल्टी की मदद से होती है, उसी प्रकार मन की शुद्धि प्रार्थना से होती है, इसीलिए हम अपने काम की शुरूआत प्रार्थना से करते हैं।’ उन्होंने अन्य बातों की चर्चा करते हुए आगे कहा, ‘यदि शरीर को ईश्वर की सेवा का साधन मानते हुए हम शरीर को पोषण देने के लिए ही भोजन करें, तो इससे हमारे मन और शरीर ही स्वच्छ और स्वस्थ नहीं होंगे, बल्कि हमारी आंतरिक स्वच्छता हमारे चारों ओर के वातावरण में भी झलकेगी। हमें अपने शौचालयों को रसोईघर जैसा स्वच्छ रखना चाहिए।’

अगर हम अपने आसपास, अपने घर, सार्वजनिक स्थानों और आवागमन के साधनों पर नजर डालें तो पाएंगे कि हमने वहां बने शौचालयों को साफ रखने की कोई कोशिश नहीं की। भारतीय समाज में शौचालय का स्थान सबसे उपेक्षित स्थान है, जिसकी साफ-सफाई पर लगभग ध्यान ही नहीं दिया जाता। जबकि सच यह है कि गंदे शौचालयों के इस्तेमाल से हम अपने साथ अनेक बीमारियों को जोड़ लेते हैं और फिर इलाज में धन और समय की बर्बादी करते हैं।

शांति निकेतन में रसोई

आगे बढ़ते हैं और गांधी जी के जीवन के कुछ प्रेरणादायी प्रसंगों को समझने की कोशिश करते हैं। अपने समय के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद् और लेखक काकासाहब कालेलकर ने गांधी जी के साथ के संस्मरणों को ‘बापू की झांकियां’ में लिपिबद्ध किया हैवह उन दिनों की बात है जब गांधी जी 1915 में शांति निकेतन आए। गुरुदेव रवि बाबू उन दिनों कहीं बाहर गए हुए थे। गांधी जी और काका कालेलकर के बीच रसोईघर के बारे में चर्चा हुई। गांधी जी

गांधी जी के जीवन में स्वच्छता का महत्व व्यवहार जगत की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में था। वे यह मानते थे कि स्वच्छता या सफाई व्यक्ति को हर तरह से आत्मविश्वासी, अनुशासित और स्पष्ट नजरिए वाला इंसान बनाती है

को महसूस हुआ कि रसोइयों की संख्या जरूरत से ज्यादा है। उन्होंने प्रस्ताव किया कि इनकी संख्या कम की जानी चाहिए। शांति निकेतन के व्यवस्थापक विचारने लगे कि यकायक रसोई कम कैसे की जा सकती हैं? वे सकते में आ गए। गुरुदेव के दामाद नगीनदास गांगुली भी बापू के प्रभाव में आ गए। मिस्टर एंड्रयूज भी उन्हीं दिनों शांति निकेदन का कामकाज देख रहे थे। उन्होंने गांधी जी से कहा‘आज तो तुमको अपनी प्रभावशाली भाषण शैली काम में लानी होगी और विद्यार्थियों को जोश से समझाना होगा।’ दरअसल गांधी जी चाहते थे कि विद्यार्थी और टीचर सभी मिलकर खाना बनाने से लेकर बर्तनों की सफाई का काम करें। इससे उनमें आत्मविश्वास और जिम्मेदारी तथा एक-दूसरे के प्रति आत्मीयता बढ़ेगी। फिर हुआ भी वही। गांधी जी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध नहीं हुए थे और मेहमान के तौर पर ही दक्षिण अफ्रीका से आए थे। लोगों ने उनका नाम सुन रखा था। विद्यार्थी इकट्ठे हुए। व्यवस्थापक और अन्य लोग पशोपेश में थे। गांधी जी ने मामूली और ठंडी आवाज में विद्यार्थियों से व्यावहारिक बात की। न उनकी बातों में भावुकता थी और न ही उनकी बातों में जोश, पर गांधी जी के दलीलें और व्यावहारिक बातें काम में आ गईं। दूसरे ही दिन से रसोई का काम विद्यार्थियों और अन्य लोगों ने संभाल लिया। बड़े विद्यार्थियों की एक टुकड़ी बर्तन मांजने और साफ-सफाई के लिए तैयार हो गई और महात्मा बनने से पहले ही गांधी जी का सफाई अभियान शुरू हो गया था। उन दिनों के गांधी जी से संबंधित एक छोटी सी कथा और है जो विशेष रूप से स्वच्छता से संबंधित है। इस कथा का मर्म यह है कि बड़े से बड़े लोगों को भी सफाई का संदेश देने में गांधी जी अपने जीवन व्यवहार से कैसे सफल हुए है।

अहिंसा और स्वच्छता

1932 की वसंत ऋतु थी, गांधी जी यरवदा जेल में नजरबंद थे। महादेव देसाई और सरदार वल्लभभाई पटेल भी उनके साथ थे। गांधी जी सुबह 4 बजे की प्रार्थना के बाद नींबू और शहद का पानी पीते थे। गांधी जी हमेशा उबला हुआ पानी शहद और नींबू के रस पर उड़ेलते थे। जब तक पानी पीने योग्य न हो जाए तब तक महादेव भाई और सरदार वहीं बैठे-बैठे पढ़ते रहते थे। एक दिन अचानक गांधी जी ने दोनों से कहा इस पानी को एक कपड़े के टुकड़े से ढक देना चाहिए। दोनों ने वैसा ही किया। दूसरे दिन गांधी जी बोले, ‘महादेव तुम्हें मालूम है, कपड़ा ढंकने के लिए मैंने क्यों कहा? हवा में छोटे-छोटे जंतु होते हैं, वे पानी में से उठती हुई भाप के कारण वे उसके अंदर पड़ सकते हैं। कपड़ा ढंकने से बचाव हो जाता है।’ सरदार यह सुनकर हंसे और व्यंग्य से बोले- ‘इस हद तक तो हम अहिंसक नहीं हो सकते।’ गांधी जी ने उसी सहज भाव से हंस कर उत्तर दिया- ‘अहिंसा तो नहीं पाली जा सकती, मगर स्वच्छता तो पाली जा सकती है न।’ वस्तुतः गांधी जी के जीवन में स्वच्छता का महत्व व्यवहार जगत की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में था। वे यह मानते थे कि स्वच्छता या सफाई व्यक्ति को हर तरह से आत्मविश्वासी, अनुशाषित और और स्पष्ट

स्वच्छता

आप तब तक यह नहीं समझ पाते कि आपके लिए कौन महत्त्वपूर्ण है, जब तक आप उन्हें वास्तव में खो नहीं देते

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गांधी जंयती विशेष

02 - 08 अक्टूबर 2017

अहिंसा का साक्षात पाठ

नजरिए वाला इंसान बनाती है। गांधी ऐसे ही महान इंसान थे जो छोटी-छोटी बातों पर गौर करते थे।

मकड़ी का जाला

आप मुझे जंजीरों में जकड़ सकते हैं, यातना दे सकते हैं, यहां तक कि आप इस शरीर को नष्ट कर सकते हैं, लेकिन आप कभी मेरे विचारों को कैद नहीं कर सकते हैं

गांधी जी का एक उदाहरण और सुनाता हूं। गांधी जी की दृष्टि इतनी व्यापक थी कि आश्चर्य होता था। देश की बड़ी-बड़ी समस्याओं की सुलझाते हुए भी वह अपने आश्रम के रसोईघर के छोटे-छोटे कामों में खूब रस लेते थे। कभी-कभी तो घंटों आटा पीसने की चक्की दुरुस्त करते रहते थे, कभी-कभी चावल और दूसरे अनाजों की सफाई उनके ही कमरे में होती थी। रसोई घर में जाकर स्वयं वहां की सफाई और व्यवस्था देखते थे। ऐसे ही समय एक दिन उन्होंने देखा कि रसोईघर के एक अंधेरे कोने की छत में मकड़ी का जाला लगा हुआ है। उसकी तरफ इशारा करते हुए उन्होंने रसोईघर के व्यवस्थापक बलवंत सिंह से कहा, ‘देखो, वह क्या है? रसोईघर में जाला हमारे लिए शर्म की बात है।’ बलवंत ने अपनी भूल स्वीकार की और भविष्य में लापरवाही न करने की कसम खाई।

गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में कई ऐसे अनुभवों को बेबाकी से रखा है, जिसमें वे पहले तो बुरी आदतों और संसर्गों से घिरते हैं और फिर बाद में उस पर विजय पाते हैं। इन अनुभवों में उनके बचपन के अनुभव खास तौर पर दिलचस्प और प्रेरक हैं

‘कर्म ही पूजा’

यह उन दिनों की बात है जब साबरमती आश्रम की स्थापना की गई थी और आश्रम का कामकाज शुरू ही हुआ था। गांधी जी अफ्रीका से सत्याग्रह का सफल प्रयोग करके भारत लौटे ही थे। अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह के अनुसार भारत भ्रमण करके वे साबरमती के किनारे अहमदाबाद में आश्रम स्थापित करने की साधना में लग गए थे। गांधी जी कभी-कभी अहमदाबाद की अदालत के बार रूम में जाकर बैठ जाते और चर्चा करते थे। सरदार वल्लभ भाई भी वहां होते थे और वकीलों के साथ ताश खेलते रहते थे। गांधी जी की ओर कोई खास ध्यान नहीं देता था पर सब यही जानते थे कि इन्होंने यहां एक आश्रम खोला है। सभी वकील उनको कुतूहल से देखते थे। आश्रम में गांधी जी और विनोबा भावे साथ-साथ एक ही चक्की पर पिसाई करते थे। इस समय पिसाई नहीं, अनाज की सफाई का काम चल रहा था। गांधी जी और विनोबा अनाज साफ कर रहे थे। इतने में कुछ वकील आ गए। गांधी जी ने उनके बैठने के लिए खजूर की चटाई बिछाई और बोले- ‘बैठिए।’ ‘हम बैठने नहीं आए हैं, हमें कुछ काम दीजिए, हम आश्रम में कुछ न कुछ काम करने के विचार से आए हैं।’ वकीलों ने कहा। गांधी जी बोले- ‘ठीक है, यह तो खुशी की बात है।’ उन्होंने दो-तीन थालियों में अनाज लेकर वकीलों के आगे रख दिया और बोले- ‘यह अनाज साफ कीजिए और ठीक से साफ कीजिए।’ वकीलों में से एक बोला- ‘हम क्या ये ज्वारबाजरा साफ करने के लिए बैठेंगे?’ गांधी जी बोले- ‘जी हां! इस समय यही काम है।’ क्या करते वे बेचारे। सफेदपोश वकील अनाज साफ करने बैठे और कुछ देर बाद नमस्कार करके चले गए और फिर कभी काम मांगने नहीं आए। ...और जाते-जाते उनको गांधी जी ने संदेश दिया‘सेवा का प्रत्येक कर्म पवित्र है। कर्म ठीक से करना ही परमेश्वर की पूजा है।’

मे

महात्मा गांधी

रे एक रिश्तेदार के साथ मुझे बीड़ी-सिगरेट पीने का चस्का लगा। हमारे पास पैसे तो होते नहीं थे। हम दोनों में से किसी को यह पता नहीं था कि सिगरेट पीने से कोई फायदा होता है या उसकी गंध में कोई आनंद होता है, लेकिन हमें लगा

कि सिगरेट का धुंआ उड़ाने में ही असली मजा है। मेरे चाचा को सिगरेट पीने की लत थी। उन्हें और दूसरे बुजुर्गों को धुंआ उड़ाते देख हमारी भी सिगरेट फूंकने की इच्छा हुई। गांठ में पैसे तो थे नहीं, इसीलिए चाचा सिगरेट पीने के बाद जो ठूंठ फेंक देते, हमने उन्हें ही चुरा कर पीना शुरू कर दिया। लेकिन सिगरेट के ये ठूंठ हर समय तो मिल नहीं


गांधी जंयती विशेष सकते थे और इनमें से धुआं भी बहुत नहीं निकलता था, इसीलिए नौकर की जेब में पड़े पैसों में से एकाध पैसा चुराने की आदत डाली और इन पैसों से हम बीड़ी खरीदने लगे, लेकिन अब सवाल पैदा हुआ कि उसे संभाल कर रखें कहां? हम जानते थे कि बुजुर्गों की निगाह के सामने तो हम बीड़ी-सिगरेट पी ही नहीं सकते। जैसे-तैसे दो चार पैसे चुरा कर कुछ हफ्ते काम चलाया। इस बीच पता चला कि एक तरह का पौधा होता है (उसका नाम तो मैं भूल ही गया हूं) जिसके डंठल सिगरेट की तरह जलते हैं और फूंके जा सकते हैं। हमने ऐसे डंठल खोजे और उन्हें सिगरेट की तरह फूंकने लगे। लेकिन इससे हमें संतोष न हुआ। अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी। हमें दुख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हम ऊब गए और हमने आत्महत्या कर फैसला कर डाला! पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन देगा? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु हो जाती है। हम जंगल में जा कर धतूरे के बीज ले आए। शाम का समय तय किया। केदारनाथ जी के मंदिर में दीप माला में घी चढ़ाया, भगवान के दर्शन किए और सुनसान जगह की तलाश की, लेकिन जहर खाने की हिम्मत न हो। अगर तुरंत मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए? फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक बीज खाने की हिम्मत ही न हुई। हम दोनों ही मौत से डरे और तय किया कि राम जी के मंदिर में दर्शन करके शांत हो जाएं और आत्महत्या करने की बात भूल जाएं। मैं इस बात को समझ पाया कि मन में आत्महत्या का विचार लाना कितना आसान है और सचमुच आत्महत्या करना कितना मुश्किल, इसीलिए जब कोई आत्महत्या करने की धमकी देता है तो मुझ पर उसका बहुत कम असर होता है या यह भी कहा जा सकता है कि बिल्कुल भी नहीं होता। आत्महत्या के इस विचार का नतीजा ये हुआ कि हम दोनों की सिगरेट चुरा कर पीने की और नौकरों की जेब से पैसे चुरा कर सिगरेट फूंकने की आदत जाती रही। बड़े हो कर सिगरेट पीने की कभी इच्छा ही नहीं हुई। मैं हमेशा यही मान कर चलता रहा कि सिगरेट पीने की आदत जंगली, गंदी और नुकनदायक है। मैं आज तक इस बात को समझ नहीं सका हूं कि पूरी दुनिया में सिगरेट-बीड़ी पीने या धूम्रपान करने का इतना शौक क्यों है? रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में सिगरेट पी जाती है, उसमें बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है और धुएं से मेरा दम घुटने लगता है। सिगरेट के ठूंठ चुराने और इस सिलसिले में नौकर की जेब से पैसे चुराने का दोषी तो मैं हूं ही, एक और चोरी का जो दोष हुआ मुझ से, मैं उसे ज्यादा गंभीर मानता हूं। सिगरेट पीने के दोष के समय मेरी उम्र बारह या तेरह बरस की रही होगी। शायद इससे भी कम हो। दूसरी चोरी के समय मेरी उम्र पंद्रह बरस के आसपास थी। यह चोरी मेरे मांसाहारी भाई के सोने के कड़े के एक टुकड़े की थी। उन पर मामूली-सा, लगभग पच्चीस रुपए का कर्ज हो गया था। हम दोनों भाई इस बात को ले कर परेशान थे कि ये कर्ज कैसे चुकाया जाए। मेरे भाई के हाथ में खरे सोने का कड़ा था। उसमें से एक तोला सोना काट

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सिगरेट पीने के दोष के समय मेरी उम्र बारह या तेरह बरस की रही होगी। शायद इससे भी कम हो। दूसरी चोरी के समय मेरी उम्र पंद्रह बरस के आसपास थी लेना मुश्किल न था। कड़ा कटा। कर्ज चुकाया गया। लेकिन मेरे लिए यह बात सहन करना आसान न था। मैंने तय किया कि आगे से कभी चोरी नहीं करूंगा। मुझे ऐसा भी लगा कि पिताजी के सामने जा कर अपना गुनाह भी कबूल कर लेना चाहिए, लेकिन जुबान ही न खुले। इस बात का डर तो था ही नहीं कि पिताजी पीटेंगे। इस बात की कोई याद नहीं थी कि कभी उन्होंने किसी भाई को पीटा-वीटा हो, लेकिन खुद तो दुखी होंगे ही ना! शायद सिर फोड़ लें! मैंने यह सोचा‍कि यह जोखिम उठाते हुए भी अपने दोष को कबूल करना ही होगा। इसके बिना शुद्धि नहीं होगी। आखिर मैंने तय किया कि एक पत्र लिख कर अपना दोष स्वीकार कर लिया जाए और माफी मांग ली जाए। मैंने पत्र लिख कर उन्हें हाथों-हाथ थमा दिया। पत्र में मैंने सब दोष स्वीकार किए और सजा मांगी। आग्रहपूर्वक यह विनती भी की कि वे अपने आपको दुख में न डालें और भविष्य में ऐसा अपराध फिर न करने की प्रतिज्ञा की। मैंने कांपते हाथों से पत्र पिताजी के हाथ में थमाया। मैं उनके तख्त के सामने बैठ गया। उन दिनों वे भगंदर के रोग से पीड़ित थे। इस कारण बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। खटिया के बदले तख्त से काम लेते थे। उन्होंने पत्र पढ़ा। उनकी आंखों से मोती टपकने लगे। पत्र भींग गया। उन्होंने पल भर के लिए आंखें मूंदी, पत्र फाड़ डाला। पत्र पढ़ने के लिए वे उठे थे,

वापिस लेट गए। मैं भी रोया। पिताजी का दुख समझ सका। यदि मैं चित्रकार होता तो उस पल का सम्पूर्ण चित्र बना सकता था। वह दृश्य आज भी मेरी आंखों के सामने जस का तस झिलमिला रहा है। मोती की बूंदों के उस प्रेम बाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध हो गया। इस प्रेम को तो वही जान सकता है जिसे इसका अनुभव हुआ हो। राम की भक्ति का बाण जिसे लगा हो, वही जान सकता है। मेरे लिए ये अहिंसा का साक्षात पाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के अतिरिक्त कुछ न देखा। परंतु आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूं। ऐसी अहिंसा जब विराट रूप धारण कर लेती है तो उसके स्पर्श से कौन बच सकता है। ऐसी विराट अहिंसा की थाह लेना असंभव है। ऐसी शांत क्षमा पिता के स्वभाव के प्रतिकूल थी। मैं तो ये मान कर चल रहा था कि वे गुस्सा होंगे, कड़वे बोल बोलेंगे, शायद सिर भी फोड़ें, लेकिन उन्होंने जिस तरह से अपार शांति धारण की, मेरे विचार से उसके पीछे अपराध की सरल स्वीकृति थी। जो व्यक्ति अधिकारी के सामने स्वेच्छा से और निष्कपट भाव से अपने दोष को स्वीकार कर लेता है और फिर कभी वैसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करता है तो वह शुद्धतम प्रायश्चित करता है। मैं जानता हूं कि इस स्वीकृति से पिताजी मेरे बारे में निर्भय बने और मेरे प्रति उनका असीम प्रेम और भी बढ़ गया।

अहिंसा

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हो सकता है आप कभी न जान सकें कि आपके काम का क्या परिणाम हुआ, लेकिन यदि आप कुछ करेंगे नहीं तो कोई परिणाम नहीं होगा


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गांधी जंयती विशेष

महात्मा की शिक्षा गांधी जी ने शिक्षा और उसकी भाषा को लेकर जो विचार किए, उन पर उन्होंने अमल भी किया।1920 में असहयोग आंदोलन चलाने के बाद उन्होंने जिन विद्यापीठों की स्थापना कराई, उनमें शिक्षा का उन्होंने अपना सोचा हुआ ही मॉडल चलाया

अपने ज्ञान के प्रति जरूरत से अधिक यकीन करना मूर्खता है। यह याद दिलाना ठीक होगा कि सबसे मजबूत कमजोर हो सकता है और सबसे बुद्धिमान गलती कर सकता है

शिक्षा और अपनी भाषा को महत्व दिए बिना कोई भी देश या समाज तरक्की नहीं कर सकता पर शिक्षा और उसकी भाषा को आज जिस अर्थ और उपयोग के नजरिए से देखा जाता है, वह पारंपरिक अवधारणा के तो विपरीत है ही गांधी की बुनियादी तालीम और भाषा की सीख से भी काफी अलग है। ऐसे में यह विचार और मूल्यांकन का विषय है कि आज के दौर में अगर हम गांधी जी की प्रासंगिकता की बात करते हैं तो उनके शिक्षा और भाषा दर्शन को लेकर हम क्या कहेंगे? क्या इस दृष्टि से गांधी जी की प्रासंगिकता को रेखांकित करना एक चुनौती है या इस बहाने हम मौजूदा शिक्षा की लीक और उपयोग की पूरी व्यवस्था की कमियों के बारे में ठहराव के साथ विचार करते हुए आगे के लिए मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं। इसी मुद्दे पर इतिहासकार और गांधीवादी लेखक श्रीभगवान सिंह ने विचार किया है। एक वृहद लेख में इस बारे में उन्होंने इस मुद्दे से जुड़े कई पक्षों पर विचार किया है। प्रस्तुत है इसी आलेख का संपादित अंश-

गां

धी जी का सपना देश की राजनीतिक स्वाधीनता की प्राप्ति तक सीमित नहीं था, बल्कि वे आर्थिक, शैक्षिक, आध्यात्मिक, नैतिक, ग्रामोत्थान आदि सभी क्षेत्रों में भारत की देशज परंपराओं का नवीनीकरण करते हुए नए भारत का निर्माण करना चाहते थे, लेकिन उनके इस सोच से स्वाधीन भारत का शासक-वर्ग लगातार छत्तीस का रिश्ता बनाता गया। इस लघु लेख में यह देखने का प्रयास करेंगे कि भारत में अंग्रेजों द्वारा चलाई गई शिक्षा-पद्धति के प्रति गांधी जी ने आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखते हुए जिस वैकल्पिक शिक्षा-पद्धति के ‘मॉडल’ का सपना देखा था, वह आजाद भारत में किस हद तक मूर्त हो सका है।

चेतना और शिक्षा

दरअसल, किसी भी देश एवं समाज के लोगों के सोच, चेतना के निर्माण में शिक्षा की नियामक भूमिका होती है। अक्षर-ज्ञान से आगे बढ़कर अपने देशसमाज की परम्पराओं, जीवन-बोध, जीवन-मूल्यों का अभिज्ञान कराते हुए उसके अनुरूप राष्ट्रोत्थान एवं समाजोत्थान की


गांधी जंयती विशेष दिशा में लोगों को जागरूक एवं सक्रिय करने के अमोघ अस्त्र का दूसरा नाम ही शिक्षा है। लेकिन अंग्रेजों ने अपने शासन-तंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए यहां पर ऐसी शिक्षा पद्धति का चलन किया जो शिक्षित वर्ग को यहां के जन-जीवन से विमुख करने वाली एवं उनकी चाकरी करने के लिए प्रेरित करने वाली हो। दुर्भाग्यवश राजा राम मोहन राय जैसे राष्ट्रप्रेमी अंग्रेजी शिक्षा के इस कृष्ण पक्ष को देख नहीं सके और भारत के नवोत्थान के लिए इसे वांछनीय समझ बैठे। उसके बाद के कतिपय भारतीय बुद्धिजीवी भी इस अंग्रेजी शिक्षा की हिमायत में खड़े होते गए। पर इस अंग्रेजी शिक्षा के जन विरोधी के चरित्र को पहचानने का कार्य भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से शुरू होने लगा। मसलन, ‘बंग-दर्शन’ नाम की पत्रिका में 1878 में बंकिमचंद का ‘लोक शिक्षा’ नाम से जो लेख छपा था, उसमें उन्होंने अंग्रेजी भाषा एवं शिक्षण के नाम पर दी जाने वाली वैज्ञानिक एवं आधुनिक शिक्षा को अपर्याप्त बताते हुए इस तथ्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया था, ‘हमारा विश्वास है कि व्याकरण और रेखागणित का ज्ञान मानसिक उन्नत्ति के लिए जरूरी होते हुए भी व्यावहारिक जीवन के मसलों से जूझने में संपूर्ण रूप से सहायक नहीं है। हमें लगता है कि इन तथ्यों और मसलों से राममोहन राय से लेकर श्री फटिकचंद तक पाश्चात्य रंग में रंगे हुए सभी प्रतिष्ठित लोग अवगत नहीं हैं या इसकी उपेक्षा करते आए हैं। ... अंग्रेजी शिक्षा के कारण शिक्षितों और अशिक्षितों के बीच कोई सहानुभति, कोई संवाद नहीं है। शिक्षित समुदाय अशिक्षित समुदाय के दिल की धड़कन को महसूस करने में असमर्थ है। यही नहीं, शिक्षित अशिक्षित की तरफ नजर उठाकर भी नहीं देखते। कृषक राम की अगर खेत जोतते-जोतते थककर मौत भी हो जाती है, तो हमें क्या? कृषक राम कैसे जीवन-यापन करता है, उसकी रूचि क्या है, अंग्रेजीयत के रंग में रंगे बंगाली युवकों को इन सवालों से कोई मतलब नहीं।’

‘हिंद स्वराज’

अंग्रेजी शिक्षा किस तरह यहां के शिक्षित और अशिक्षित के बीच खाई, विषमता पैदा कर रही थी, इसकी गहरी पीड़ा बंकिम बाबू के उपरोक्त कथन में दिखाई पड़ती है। अंग्रेजी शिक्षा के इस जनविरोधी चरित्र को लेकर ऐसी ही गहरी पीड़ा लेकर महात्मा गांधी हमारे सामने प्रकट हुए ‘हिंद स्वराज’ जैसी पुस्तक के लेखक रूप में। 1909 में छपी इस पुस्तक में गांधी जी ने जहां यूरोप की मशीनी सभ्यता की कठोर आलोचना की, वहीं उन्होंने भारत में अंग्रेजों द्वारा थोपी गई शिक्षा पद्धति का तीव्र प्रतिवाद किया। अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से क्षुब्ध, असंतुष्ट गांधी ने दो टूक शब्दों में यह कहने का साहस किया, ‘करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने जिस शिक्षण की नींव डाली, वह सचमुच गुलामी की नींव थी। उसने इसी इरादे से वह योजना बनाई, यह मैं नहीं कहना चाहता, किन्तु उसके कार्य का परिणाम यही हुआ है। हम स्वराज्य की बात भी पराई भाषा में करते हैं, यह कैसी बड़ी दरिद्रता है। ... अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षण से दंभ, द्वेष, अत्याचार आदि बढ़े हैं। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त

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1909 में छपी ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक में गांधी जी ने जहां यूरोप की मशीनी सभ्यता की कठोर आलोचना की, वहीं उन्होंने भारत में अंग्रेजों द्वारा थोपी गई शिक्षा पद्धति का तीव्र प्रतिवाद किया लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी। भारत को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं।’ गौरतलब है कि अंग्रेजी शिक्षा को बंकिमचंद ने जनता से, कृषक वर्ग से विच्छिन्न करने वाले मारक हथियार के रूप में देखा, तो इस धारणा को आगे बढ़ाते हुए गांधी जी ने उसे भारत को गुलाम बनाए रखने वाली घातक वस्तु के रूप में देखा। इसीलिए उनकी दृष्टि में इस गुलाम बनाने वाली शिक्षण पद्धति से मुक्त होना अति आवश्यक मसला प्रतीत होने लगा और इस दिशा में वे चिंतन एवं कार्य के स्तर पर लगातार प्रयास करते रहे। भारत की स्वदेशी परंपराओं, सांस्कृतिक मूल्यों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप वे जिस शिक्षण-पद्धति की निरंतर हिमायत करते रहे, उसकी कुछ खास बातों पर दृष्टिपात करना यहां प्रासंगिक प्रतीत होता है।

शिक्षा की भाषा

गांधी जी ने अपनी शिक्षा योजना में सबसे पहले माध्यम के सवाल को महत्वपूर्ण मानते हुए इस

बात पर बल दिया कि भारत के विभिन्न प्रांतों में शिक्षा देने का काम प्रांतीय भाषाओं में यानी वहां की मातृभषाओं में किया जाना चाहिए। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा के बरक्स मातृभाषा के माध्यम से दी जाने वाली शिक्षा ही उन्हें अत्यधिक सहज-स्वाभाविक लगी। प्रमाण स्वरूप ‘इंडियन ओपिनियन’ पत्रिका के 19 अगस्त 1910 के अंक में गांधी जी के छपे लेख ‘शिक्षा का माध्यम क्या हो’ का यह कथन प्रस्तुत है– ‘हम लोगों में बच्चों को अंग्रेज बनाने की प्रवृति पाई जाती है। मानो उन्हें शिक्षित करने का और साम्राज्य की सच्ची सेवा के योग्य बनाने का वही सबसे उत्तम तरीका है। हमारा ख्याल है कि समझदार से समझदार अंग्रेज भी यह नहीं चाहेगा कि हम अपनी राष्ट्रीय विशेषता, अर्थात परंपरागत प्राप्त शिक्षा और संस्कृति को छोड़ दें अथवा यह कि हम उनकी नकल किया करें। इसीलिए जो अपनी मातृभाषा के प्रति चाहे वह कितनी ही साधारण क्यों न हो इतने लापरवाह हैं, वे एक विश्वव्यापी धार्मिक सिद्धान्त को भूल जाने का खतरा मोल ले रहे हैं।’

शिक्षा

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अहिंसात्मक युद्ध में अगर थोड़े भी मर मिटने वाले लड़ाके मिलेंगे तो वे करोड़ों की लाज रखेंगे और उनमें प्राण फूंकेंगे। अगर यह मेरा स्वप्न है, तो भी यह मेरे लिए मधुर है


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गांधी जंयती विशेष

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भाषा में ऐसे शब्द नहीं जिनमें हमारे ऊंचे विचार प्रकट किए जा सकें, किन्तु यह कोई भाषा का दोष नहीं। भाषा को बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्तव्य है। एक समय ऐसा था जब अंग्रेजी भाषा की भी यही हालत थी। अंग्रेजी का विकास इसीलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषा की उन्नति की। यदि हम मातृभाषा की उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धांत रहे कि अंग्रेजी के जरिए ही हम अपने ऊंचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उनका विकास कर सकते हैं, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदा के लिए गुलाम बने रहेंगे। जब तक हमारी मातृभाषा में हमारे सारे विचार प्रकट करने की शक्ति नहीं आ जाती और जब तक वैज्ञानिक विषय मातृभाषा में नहीं समझाए जा सकते, तब तक राष्ट्र को नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा।’

अपनी बुद्धिमता को लेकर बेहद निश्चित होना बुद्धिमानी नहीं है। यह याद रखना चाहिए की ताकतवर भी कमजोर हो सकता है और बुद्धिमान से भी बुद्धिमान गलती कर सकता है

विदेशी भाषा के खिलाफ

गांधी जी ने अपनी शिक्षा योजना में सबसे पहले माध्यम के सवाल को महत्वपूर्ण मानते हुए इस बात पर बल दिया कि भारत के विभिन्न प्रांतों में शिक्षा देने का काम प्रांतीय भाषाओं में यानी वहां की मातृभाषाओं में किया जाना चाहिए मातृभाषा के महत्व को लेकर गांधी जी ने उपरोक्त विचार दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए व्यक्त किए थे और 1915 में भारत आने के बाद भी वे अपने इस विचार से देशवासियों को मातृभाषा के महत्व के प्रति जागृत करते रहे। मसलन फरवरी 1916 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में भी उन्होंने देश के उपस्थित गणमान्य लोगों के बीच बगैर किसी संकोच के यह बात कही–‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े, यह अत्यंत अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है। ... मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा। हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिंब है और इसलिए यदि आप मुझ से यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है। ... यदि पिछले

पचास वर्षों में हमें देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गई होती, तो आज हम किस स्थिति में होते! हमारे पास एक आजाद भारत होता, हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते, बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता।’

मातृभाषा का महत्व

देश के विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण करने के दौरान भी गांधी जी हर अवसर पर शिक्षा में मातृभाषा के महत्व को उजागर करने का अभियान चलाते रहे। 15 अक्टूबर 1917 को बिहार के भागलपुर शहर में छात्रों के एक सम्मेलन में भाषण करते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा – ‘मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है, वह स्वदेश भक्त कहलाने लायक नहीं है। बहुत से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि ‘हमारी

यही नहीं, एक अवसर पर गांधी जी ने विदेशी भाषा द्वारा दी जाने वाली शिक्षा से होने वाली हानियों का उल्लेख करते हुए कहा– ‘मां के दूध के साथ जो संस्कार और मीठे शब्द मिलते हैं, उनके और पाठशाला के बीच जो मेल होना चाहिए, वह विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देने में टूट जाता है। इसके अतिरिक्त विदेशी भाषा द्वारा शिक्षा देने से अन्य हानियां भी होती हैं। शिक्षित वर्ग और सामान्य जनता के बीच में अंतर पड़ गया है। हम जनसाधरण को नहीं पहचानते। जनसाधरण हमें नहीं जानता। वे हमें साहब समझते हैं और हमसे डरते हैं। यदि यही स्थिति अधिक समय तक रही तो एक दिन लार्ड कर्जन का यह आरोप सही हो जाएगा कि शिक्षित वर्ग जनसाधारण का प्रतिनिधि नहीं है।’ साफ है कि गांधी जी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर रहे ताकि शिक्षा प्राप्त व्यक्ति जनसाधारण का प्रतिनिधि हो सके। वैसे वे वैकल्पिक विषयों के रूप में उच्च शिक्षा के स्तर पर विदेशी भाषाओं को जानने-पढ़ने के विरूद्ध नहीं रहे, लेकिन प्रारंभिक अवस्था में बच्चों को मातृभाषा द्वारा शिक्षा दी जाए, इसके पक्ष में वे मजबूती से खड़े रहे। प्रसंगवश यह तथ्य भी ध्यान में रखने लायक है कि गांधी जी विभिन्न प्रांतों में वहां कि संबंद्ध भाषाओं के माध्यम से शिक्षा देने के पक्षधर जरूर थे, किंतु इसके साथ ही वे सभी प्रांतों मंष राष्ट्रभाषा के रूप में यानि राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा के रूप में हिंदी की शिक्षा देना भी आवश्यक मानते रहे और राष्ट्रभाषा के रूप में वे हिंदी के प्रचार कार्य में जीवनपर्यंत लगे रहे।

शारीरिक श्रम की प्रतिष्ठा

इसके अतिरिक्त उन्होंने शिक्षा में अक्षर ज्ञान को महत्वपूर्ण मानते हुए भी उससे अधिक महत्व दिया शारीरिक श्रम की प्रतिष्ठा को। इस संबंध में उनके कुछ महत्वपूर्ण मंतव्य ध्यान में रखने लायक है। एक सितंबर1921 के ‘यंग इंडिया’ में तालीम की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा – अन्य देशों के बारे में कुछ भी सही हो, कम-से-कम भारत में तो जहां अस्सी फीसदी आबादी खेती करने वाली है और दूसरी दस फीसदी उद्योगों में काम करने वाली है, शिक्षा को निरी साहित्यिक बना देने तथा लड़कों और लड़कियों को उत्तर-जीवन में हाथ के काम के लिए अयोग्य बना देना गुनाह है। मेरी तो राय है कि चूंकि हमारा


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शिक्षा

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उच्च शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। वस्तुतः इस प्रकार की प्रारंभिक शिक्षा की बुनियादी पर ही वे उच्च शिक्षा का भव्य भवन खड़ा करना चाहते थे, जो देश की आवश्यकताओं के अनुकुल हो। इस संबंध में उनका यह मंतव्य देखने लायक है- ‘मैं कॉलेज की शिक्षा में कायापलट करके उसे राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुकुल बनाऊंगा। यंत्र-विद्या के तथा अन्य इंजीनियरों के लिए डिग्रियां होंगी। वे भिन्न-भिन्न उद्योगों के साथ जोड़ दिए जाएंगे और उन उद्योगों को जिन स्नातकों की जरूरत होंगी उनके प्रशिक्षण का खर्च वे उद्योग ही देंगे। ... वाणिज्यव्यवसाय वालों का अपना कॉलेज होगा।’ (हरिजन, 31जुलाई,1937)

सहशिक्षा का समर्थन

गांधी जी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर रहे, ताकि शिक्षा प्राप्त व्यक्ति जनसाधारण का प्रतिनिधि हो सके। वैसे वे वैकल्पिक विषयों के रूप में उच्च शिक्षा के स्तर पर विदेशी भाषाओं को जानने-पढ़ने के विरूद्ध नहीं रहे अधिकांश समय रोजी कमाने में लगता है, इसीलिए हमारे बच्चों को बचपन से ही इस प्रकार के परिश्रम का गौरव सिखाना चाहिए। हमारे बालकों की पढ़ाई ऐसी नहीं होनी चाहिए जिससे वे मेहनत का तिरस्कार करने लगे। कोई कारण नहीं कि क्यों एक किसान का बेटा किसी स्कूल में जाने के बाद खेती के मजदूर के रूप में आजकल की तरह निकम्मा बन जाए। यह अफसोस की बात है कि हमारी पठशालाओं के लड़के शारीरिक श्रम को तिरस्कार की दृष्टि से चाहे न देखते हों, पर नापसंदगी की नजर से तो जरूर देखते हैं।’ अक्षर-ज्ञान की तुलना में हाथ की शिक्षा को प्राथमिकता देते हुए उन्होंने कहा– ‘मेरी राय में तो इस देश में, जहां लाखों आदमी भूखों मरते हैं, बुद्धिपूर्वक किया जाने वाला श्रम ही सच्ची प्राथमिक शिक्षा या प्रौढ़ शिक्षा है। ... अक्षर-ज्ञान हाथ की शिक्षा के बाद आना चाहिए। हाथ से काम करने की क्षमता यानी हस्त-कौशल ही तो वह चीज है, जो मनुष्य को पशु से अलग करती है। लिखना-पढ़ना जाने बिना मनुष्य का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता, ऐसा मानना एक वहम ही है। इसमें कोई शक नहीं कि अक्षर-ज्ञान से जीवन का सौंदर्य बढ़ जाता है, लेकिन यह बात गलत है कि उसके बिना मनुष्य का नैतिक, शारीरिक और आर्थिक विकास हो ही नहीं सकता।’ (हरिजन-सेवक 15 मार्च,1935)

भी सहायक हो। उनकी दृष्टि में शरीर के साथ-साथ आत्मा का विकास भी शिक्षण का अविभाज्य अंग होना चाहिए। इसलिए अक्षर-ज्ञान से आगे बढ़कर उन्होंने शिक्षा के लिए यह आवश्यक माना – ‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय यह है कि बालक की या प्रौढ़ की शरीर, मन तथा आत्मा की उत्तम क्षमताओं को उद्घाटित किया जाए और बाहर प्रकाश में लाया जाए। अक्षर-ज्ञान न तो शिक्षा का अन्तिम लक्ष्य है और न उसका आरंभ। वह तो मनुष्य की शिक्षा के कई साधनों में से केवल एक साधन है। अक्षर-ज्ञान अपने आप में शिक्षा नहीं है। इसीलिए मैं बच्चे की शिक्षा का श्री गणेश उसे कोई उपयोगी दस्तकारी कर सिखा कर और जिस क्षण से वह अपनी शिक्षा का आरंभ करे उसी क्षण से उसे उत्पादन के योग्य बना कर करूंगा। मेरा मत है कि इस प्रकार की शिक्षाप्रणाली में मस्तिष्क और आत्मा का उच्चतम विकास संभव है।’ (हरिजन, 31जुलाई, 1937) इसी क्रम में उन्होंने बुनियादी शिक्षा पर प्रकाश डालते हुए इस बात पर बल दिया। उनके ही शब्दों में, ‘बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों का शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास करना है। मैं मानता हूं कि कोई भी पद्धति, जो शैक्षणिक दृष्टि से सही हो और जो अच्छी तरह चलाई जाए, आर्थिक दृष्टि से भी उपयुक्त सिद्ध होगी।’

गांधी जी शिक्षा का उद्देश्य केवल बुद्धि या मस्तिष्क के विकास तक सीमित नहीं मानते थे, बल्कि उसे एक संपूर्ण साधना-पद्धति के रूप में चलाना चाहते थे, जो मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, आर्थिक विकास के साथ-साथ उसके आध्यात्मिक उत्कर्ष में

उपरोक्त मंतव्यों के आलोक में साफ है कि गांधी जी बच्चों के लिए दी जाने वाली प्रारंभिक शिक्षा में मातृभाषा का ज्ञान, दस्तकारी, नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के शिक्षण को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं। किंतु इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने

शिक्षा का उद्देश्य

संपूर्ण शिक्षा

प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि गांधी परिकल्पित इस शिक्षण में लड़के-लड़कियां समान रूप से शामिल हैं। 16 वर्ष की उम्र तक उन्होंने दोनों की सहशिक्षा का समर्थन किया। कुछेक विषयों में लड़कियों को अलग से शिक्षा देना जरूर आवश्यक बताया। यहां यह भी स्मरण में रखने योग्य है कि गांधी जी ने शिक्षा को लेकर जो विचार किए, उन पर उन्होंने अमल भी किया। दक्षिण अफ्रीका के फिनिक्स आश्रम, टॉल्सटॉय आश्रम हों या अहमदाबाद का साबरमती आश्रम, उन सब में उन्होंने बच्चों के शिक्षण की व्यवस्था अपने उपरोक्त विचरों के अनुरूप ही की थी। 1920 में असहयोग आंदोलन चलाने के बाद उन्होंने जिन विद्यापीठों की स्थापना कराई, उनमें शिक्षा का उन्होंने अपना सोचा हुआ ही मॉडल चलाया। आज भी अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ में, जिसकी स्थापना 1920 में उन्होंने की थी, सभी छात्र-छात्राएं एवं शिक्षक-शिक्षकेतर कर्मी सामूहिक रूप से प्रार्थना करने के बाद एक घंटा तक पेटी चरखा से सूत कातने का काम करते हैं। दरअसल, गांधी जी भारत को राजनीतिक रूप से स्वतंत्र कराने के साथ-साथ उसे अपनी भाषा, संस्कृति, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों से विछिन्न करने वाली आर्थिक रूप से पराश्रयी बना कर गुलाम बनाने वाली औपनिवेशिक शिक्षण-प्रणाली के जुए से भी मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने भारत के संदर्भ में जिस तरह की शिक्षण पद्धति पर बल दिया वह सदियों से यहां पर प्रचलित रही शिक्षण पद्धति, जिसमें शारीरिक श्रम की प्रतिष्ठा थी, नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के विकास एवं चरित्र निर्माण का महत्व था, की संगति में थी। 1931 में जब वे दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन गए, तो वहां पर उन्होंने एक सभा में बोलते हुए बहुत क्षोभ के साथ कहा था कि भारत में शिक्षा का जो ‘रमणीय वृक्ष’ था, उसकी जड़ों से अंग्रेजों ने मिट्टी हटा दी और उसे खुला छोड़ दिया, जिससे वह रमणीय वृक्ष सूख गया। इस ‘रमणीय वृक्ष’ के सत्य के संबंध में जिन पश्चिमी अनुरागियों को संदेह हो, उन्हें प्रसिद्ध गांधी वादी चिंतक धर्मपाल जी की पुस्तक ‘द ब्यूटीफूल ट्री’ (इसका हिंदी अनुवाद ‘रमणीय वृक्ष’ नाम से छपा है) पढ़ लेनी चाहिए जिसमें उन्होंने प्राचीन काल से लेकर अंग्रेजों के आगमन के पूर्व तक की भारतीय शिक्षण-पद्धति का विस्तृत रूप से तथ्यात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया है।

निरंतर विकास जीवन का नियम है और जो व्यक्ति खुद को सही दिखाने के लिए हमेशा अपनी रूढ़िवादिता को बरकरार रखने की कोशिश करता है, वो खुद को गलत स्थिति में पंहुचा देता है


16 खुला मंच

02 - 08 अक्टूबर 2017

"आर्थिक मुद्दे हमारे लिए सबसे जरूरी है, जिससे हम अपने सबसे बड़े दुश्मभन गरीबी और बेराजगारी से लड़ सके" - लाल बहादुर शास्त्री

जस्टिस चंद्रशेखर धर्माधिकारी

अभिमत

लेखक बंबई उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं और वर्तमान में गांधी अध्ययन संस्थान, वर्धा और गांधी अनुसंधान प्रतिष्ठान, जलगांव के अध्यक्ष ह​ ैं

मेरा जीवन, मेरा संदेश

गांधी जी की प्रार्थना एक दूसरे मनुष्य की आंतरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए है, उनका चरखा उत्पादक श्रम की गरिमा के लिए है और उनकी छड़ी जन्म के आधार पर फैली सामाजिक असमानताओं के उन्मूलन के लिए है

स्मरण से जुड़ी प्रेरणा

पीएम मोदी जहां साधारण से लेकर विशिष्ट लोगों से संवाद करते हैं, वहीं अपने इतिहास और स्मृतियों को भी नहीं भूलते हैं

लो

कतांत्रिक व्यवस्था में नेतृत्व की बड़ी जिम्मेदारी संभालने वाले दुनिया के तमाम बड़े नेताओं में एक खास गुण यह रहा है कि जहां वे एक साथ साधारण से लेकर विशिष्ट लोगों से संवाद करते हैं, वहीं अपने इतिहास और स्मृतियों को भी नहीं भूलते हैं। भारत के लिए यह गर्व और संतोष की बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न सिर्फ गुण और योग्यता की इन कसौटियों पर खरा उतरते हैं, बल्कि वे एक ऐसे नेता हैं, जिसने सामान्य जनों को भी असाधारण सम्मान दिया है। रही बात इतिहास और विशिष्ट जनों की तो ये भी उनके लिए बराबर समादरणीय और प्रेरक बने रहे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को तो वे तकरीबन हर अवसर पर याद करते हैं। इसके अलावा स्वामी विवेकानंद से लेकर सरदार वल्लभ भाई पटेल और पंडित दीनदयाल उपाध्याय तक वे भारतीय इतिहास के हर उस हस्ताक्षर को अपने प्रेरणापुंज से जोड़ते हैं, जिनका राष्ट्रीय जीवन में बड़ा योगदान है और जो आज भी भारत की प्रगति की दिशा और ऊर्जा के लिए प्रेरणा के बड़े स्रोत हैं। हाल में जब स्वर कोकिला लता मंगेशकर 88 साल की हुईं तो प्रधानमंत्री उन्हें बधाई देने वालों में सबसे आगे रहे। उन्होंने अपने ट्वीट में लिखा, ‘आदरणीया लता दीदी को जन्मदिन की शुभकामनाएं। आपकी मधुर आवाज करोड़ों भारतीयों के दिलों पर राज करती है। मैं आपके लंबे और स्वस्थ जीवन की कामना करता हूं।’ गौरतलब है कि इससे पूर्व मोदी सरकार ने जब अपने तीन साल पूरे किए थे तो लता मंगेशकर ने भी ट्वीट कर प्रधानमंत्री को उनके कुशल नेतृत्व के लिए शुभकामनाएं दी थीं। भारत दुनिया का सबसे युवा देश है और पीएम मोदी ऐसा कोई भी अवसर खाली नहीं जाने देते जिससे देश के युवाओं का हौसला बढ़े। हाल में जब शहीदे आजम भगत सिंह की जयंती आई तो उन्होंने कहा, 'मैं बहादुर शहीद भगत सिंह को उनकी जयंती पर नमन करता हूं। उनकी महानता और अद्वितीय साहस भारतीयों की आनेवाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा।' साफ है कि न सिर्फ आचरण, बल्कि देश के शीर्ष नेतृत्व के तौर पर पीएम मोदी देश की महान परंपराओं को बखूबी सींच रहे हैं।

टॉवर

(उत्तर प्रदेश)

हात्मा गांधी ने अपने जीवन दर्शन को इन शब्दों "मेरा जीवन ही मेरा संदेश है" से व्यक्त किया है। उनका विविध और सक्रिय व्यक्तित्व सत्य और सिर्फ सत्य पर ही आधारित था। अहिंसा इनके जीवन का दूसरा सबसे बड़ा सिद्धांत था। भारत छोड़ो आंदोलन की पूर्व संध्या पर 8 अगस्त 1942 को बंबई में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में महात्मा गांधी ने घोषणा की थी कि मैं अपने जीवन की पूरी अवधि को जीना चाहता हूं और मेरे अनुसार पूरी अवधि 125 वर्षों की है। उस समय तक न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया मुक्त (आजाद) हो जाएगी। मैं नहीं मानता कि आज अंग्रेज स्वतंत्र हैं, मैं ये भी नहीं मानता कि आज अमेरिकन स्वतंत्र हैं। वे क्या करने के लिए स्वतंत्र हैं? मानवता के दूसरे पहलू को बंधक बनाने के लिए? क्या वे अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे हैं ? मैं अहंकारी नहीं हूं। मैं घमंडी नहीं हूं। मैं गर्व, अहंकार, धृष्टता और इन सबके बीच अंतर को भली भांति समझता हूं, लेकिन मैं यह कहता हूं कि मुझे भगवान में विश्वास है। यह एक ऐसा आधारभूत सत्य है जो मैं आपको कह रहा हूं। गांधी जी एक सामान्य मनुष्य थे। वे एक ऐसे सार्वभौम व्यक्ति थे, जिसको आप माप, तौल से अनुमान नहीं लगा सकते। वे इन सब बातों से ऊपर थे। गांधी जी न तो एक दार्शनिक थे और न ही एक राजनीतिज्ञ। वे सत्य के सबसे बड़े साधक थे। सत्य सबको जोड़ता है, क्योंकि यह केवल एक और एक ही हो सकता है। आप किसी व्यक्ति का सिर काट सकते हैं पर उसके विचारों को नहीं काट सकते। अहिंसा सत्य का ही दूसरा पहलू है। अहिंसा प्रेम है, जो जीवन का सार भी है।

अहिंसा के इसी सिद्धांत को अपनाते हुए गांधी जी ने बुराई और असत्य के खिलाफ प्रतिरोध शुरू किया। उनका सत्याग्रह अपार प्रेम और करुणा से प्रेरित है। उन्होंने पाप का विरोध किया पापी का नहीं, बुराई का विरोध किया बुरा करने वाले का नहीं। उनके लिए सत्य खुद भगवान थे और इसीलिए वे भगवान के आदमी थे। सत्य न तो हमारा है और न ही तुम्हारा। यह न तो पश्चिम वालों का है और न तो पूरब वालों का। गांधी जी की प्रार्थना एक दूसरे मनुष्य की आंतरिक शक्ति को बढ़ाने के लिए है, उनका चरखा उत्पादक श्रम की गरिमा के लिए है और उनकी छड़ी जन्म के आधार पर फैले सामाजिक असमानताओं के उन्मूलन के लिए है। वे व्यापारिक वस्तुओं के लिए बनाए गए नियम से आजादी चाहते थे। वे उत्पादक प्रणाली में तार्किकता चाहते थे जो मानवता पर आधारित हो। वे एक रूढ़िवादी अर्थशास्त्री नहीं थे। उनकी योजना पूरी मानव जाति की शांति, सुरक्षा और प्रगति के लिए थी। उनका मानना था कि योजना पूरी तरह मानव आधारित होनी चाहिए। ये सारे मुद्दे सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि वैश्विक हैं। ये सिद्धांत सार्वभौमिक हैं। उन्होंने मानवता के आचरण पर जोर दिया। उन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए नए तरीके भी पेश किए। सत्याग्रह को रचनात्मक कार्य अथवा आश्रम नियमों के अनुपालन के साथ जोड़े बिना नहीं समझा जा सकता। यदि गांधी जी एक समाज सुधारक और महात्मा नहीं होते, तो वे एक राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी भी नहीं हो सकते थे। यह पूरी गरिमा के साथ सत्य की खोज है, जो गांधी जैसे व्यक्ति का सृजन करती है। गांधी जी अपने जीवन में पहले बनी किसी विचारधारा के साथ कभी भी दृढ़ नहीं रहते थे। आवश्यकता पड़ने पर

वे एक रूढ़िवादी अर्थशास्त्री नहीं थे। उनकी योजना पूरी मानव जाति की शांति, सुरक्षा और प्रगति के लिए थी। उनका मानना था कि योजना पूरी तरह मानव आधारित होनी चाहिए


02 - 08 अक्टूबर 2017 वे अपना आग्रह हमेशा छोड़ देते थे। उनकी इस 'अदृढ़ता' या लचीलेपन के कारण उनके विरोधी उन्हें 'अस्थिर राजनीतिज्ञ' कहते थे। मेरा यह मानना है कि उनका यह लचीलापन उनके सतत विकासमान व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति था, जिनके लिए 'दृढ़ता' उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं थी, जितना कि यह महत्वपूर्ण था कि किसी निर्दिष्ट समय पर सत्य। की भीतरी आवाज को समझें। गांधी जी ने अहिंसा के एक प्राचीन, परन्तु शक्तिशाली सिद्धांत को आधार बनाया और उसे विश्व भर में, विशेषकर राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में, लोकप्रिय बनाया। परंतु, अहिंसा का अर्थ अत्यन्त व्यापक है, वह हिंसा न करने मात्र तक सीमित नहीं है। अहिंसा अधिक रचनात्मक, अधिक सार्थक और अधिक गतिशील है और गांधी जी उसे लोगों के कल्याण के दायित्व के साथ जोड़ कर देखते थे। उनकी महान उपलब्धि यह थी कि वे स्वयं के उदाहरण से दिखलाते थे कि अहिंसा को न केवल राजनीतिक जीवन में कारगर ढंग से लागू किया जा सकता है, बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में भी वह उतनी ही सार्थक है। उनका समूचा जीवन सत्य के साथ प्रयोग से संबद्ध रहा। वे जानते थे कि मानव गरिमा को परोपकार पर संरक्षित नहीं किया जा सकता। पारस्परिकता और खुशहाली जीवन का सार है। इसलिए केवल ‘एस’ और ‘जी’ (साइंस और गांधी) की धारणा ही धरती को बचा सकती है। गांधी जी शांति और भाईचारे के देवदूत थे। आधुनिक परमाणु हथियार न केवल विश्वक शांति के प्रति एक खतरा हैं, बल्कि वे धरती को नष्ट कर देंगे। गांधी जी ने विकास के पारिस्थितिकी विषयक टिकाऊ मॉडल का प्रचार करने के अलावा, अहिंसा पर आधारित सामाजिकआर्थिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण और लोक शक्ति के निर्माण, जन-सहयोग पर आधारित सांप्रदायिक सद्भाव पर बल दिया, न कि केवल राजसत्ता को एक विकल्प समझा। कुछ लोग यह समझते हैं कि करुणा या अहिंसा कार्य के प्रति एक युक्तिसंगत प्रेरणा के बजाय एक परोक्ष भावनात्मक कार्रवाई है। वे भूल जाते हैं कि गांधी जी इसे जिम्मेदारी की भावना के साथ जोड़ते हैं। वे महज एक मूकदर्शक नहीं थे, बल्कि एक सक्रिय कार्यकर्ता थे। वे पहले अनुपालन करते थे और फिर प्रचार करते थे। उक्ति संदर्भ में वे एक सही नेता थे। जब कभी जीवन में कोई संकट आता था, तो वे हमेशा आगे रहते थे और सत्ता या संपदा की इच्छा नहीं रखते थे। बलिदान उनके जीवन का केंद्र बिंदु था। वे सामान्य जरूरतों पर आधारित जीवन जीते थे, क्योंकि वे जानते थे कि जरूरतें समाप्त हो जाएगी, परंतु लालच का अंत नहीं होगा। गांधी जी समझते थे कि 'आने वाले समय में लोग इस आधार पर मूल्यांकन नहीं करेंगे कि हमने किस पंथ का प्रचार किया,या हमने कौन सा बिल्ला लगाया, या कौन सा नारा दिया, बल्कि हमारी पहचान हमारे द्वारा किए गए कार्यों, उद्यम,बलिदान, ईमानदारी और चरित्र की पवित्रता के साथ की जाएगी।' वे यह भी जानते थे कि जो व्यक्ति स्वतंत्रता की मांग करता है, उसे बहुत सारे खतरे उठाने पड़ते हैं। यही उनके जीवन का सार था, और इसीलिए वे कह पाए कि 'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।'

ल​ीक से परे

प्रियंका तिवारी

खुला मंच

17

लेखिका युवा पत्रकार हैं और देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखती हैं

देसी माटी का बहादुर लाल

भारत आज भी अपने इस महान सपूत को उनके अमिट देशप्रेम और जीवट जीवन संस्कारों के लिए याद करता है

क अत्यंत साधारण परिवार में जन्म लेने वाला कोई व्यक्ति भी देश के सर्वोच्च शासकीय पद पर पहुंच सकता है, यह जहां भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी और ताकत है तो वहीं इसके सबसे प्रेरक उदाहरण हैं लाल बहादुर शास्त्री। शास्त्री जी के जीवन में एक तरफ जहां काफी संघर्ष रहा, वहीं वे इन संघर्षपूर्ण चुनौतियों से आगे निकलते हुए आजादी से पूर्व ही देश की पहली पांत के नेताओं में शुमार होने लगते हैं, वे हमें प्रेरणा और संवेदना के कई स्तरों पर प्रभावित करते हैं। उनका जन्म 2 अक्टूबर 1901 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे, जिनकी मृत्यु तब हुई जब शास्त्री महज डेढ़ वर्ष के थे। लाल बहादुर शास्त्री बचपन से ही दृढ़ निश्चयी थे। अक्सर वे कई मील की दूरी नंगे पांव से ही तय कर विद्यालय जाते थे। यहां तक की भीषण गर्मी में जब सड़कें अत्यधिक गर्म हुआ करती थीं, तब भी उन्हें ऐसे ही जाना पड़ता था। वे जब थोड़े बड़े हुए तो उन्हें भी लगने लगा कि भारत को विदेशी दासता से मुक्ति मिलनी ही चाहिए। इस तरह वे आजादी के लिए देश के संघर्ष में शामिल हुए और जब महात्मा गांधी ने भारत में रहने वाले उन राजाओं की निंदा की, जो कि भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे थे। दरअसल, लाल बहादुर शास्त्री गांधीजी से काफी प्रभावित थे। मात्र 11 साल की उम्र में ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया और जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया,

तो मात्र 16 साल की उम्र में गांधीजी के आह्वान पर उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ कर असहयोग आंदोलन में जोर-शोर से सहयोग दिया। महात्मा गांधी की राजनीतिक शिक्षाओं से शास्त्री खासे प्रभावित थे और अपने गुरु महात्मा गांधी के ही लहजे में एक बार उन्होंने कहा था कि- मेहनत प्रार्थना करने के समान है। शास्त्री ने न केवल आजादी से पहले, बल्कि आजादी के बाद भी भारत के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। वे जितना दृढ निश्चियी थे, उतने ही नरम दिल भी थे और इससे संबंधित एक घटना का अक्सर उल्लेख भी किया जाता है, जिसके तहत कांग्रेस के शासन काल में जब वे रेल मंत्री थे, तब एक ट्रेन दुर्घटना हो गई थी और उस घटना से शास्त्री जी इतने आहत हुए, कि उन्होंने ये कहकर

ज्ञानवर्धक सामग्री

सुलभ स्वच्छ भारत में प्रकाशित सभी सामग्री बहुत ही ज्ञानवर्धक होती है। इसके कुछेक अंक छोड़कर हमने सभी पढ़े हैं। हमें यह साप्ताहिक समाचार पत्र समाज से जुड़े होने के कारण काफी पसंद है। सुलभ स्वच्छ भारत समाज के हर तबके के लिए ज्ञानवर्धक है। इसे सभी को पढ़ना चाहिए। इसके साथ ही इस समाचार पत्र की ग्रॉफिक डिजाइन और अंदरुनी साज सज्जा बहुत ही आकर्षक होती है, इसके लिए हम सुलभ स्वच्छ भारत की डिजाइन टीम को आभार व्यक्त करते हैं और उम्मीद करते हैं कि हमें हमेशा उम्दा लेखनशैली के साथ खुबसुरत डिजाइन में पिरोया हुआ समाचार पत्र मिलता रहेगा। दिपेश गुप्ता, गुरुग्राम, हरियाणा

अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया कि- मेरे रेलमंत्री रहते हुए रेल से संबंधित होने वाली किसी भी घटना के लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफी सराहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस घटना पर संसद में बोलते हुए लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी एवं उच्च आदर्शों की काफी तारीफ की। उन्होंने कहा कि उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसीलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ, वे इसके लिए जिम्मेदार हैं, बल्कि इसलिए स्वीकार किया है, क्योंकि इससे संवैधानिक मर्यादा में एक मिसाल कायम होगी। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए तब लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था- ‘शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ़ नहीं हो पा रहा हूं। यद्यपि शारीरिक रूप से मैं मजबूत नहीं हूं, लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूं।’ शास्त्री जी के प्रधानमंत्रित्व काल में 1965 में पाकिस्तान को युद्ध में मिली करारी शिकस्त को लोग आज भी याद करते हैं। 1965 में जब पाकिस्तान ने एक बार नहीं, बल्कि 3-3 बार भारत की सरहद लांघने की कोशिश की। शास्त्री ने 2 बार पाकिस्तान की गलती को नजरअंदाज किया, लेकिन तीसरी बार जब भारतीय सेना आगे बढ़ी तो पाकिस्तान के लिए लाहौर को बचाना मुश्किल हो गया था। भारत आज भी अपने इस महान सपूत को उनके अमिट देशप्रेम और जीवट जीवन संस्कारों के लिए याद करता है। ‘जय जवान, जय किसान’ का उनका नारा राष्ट्रीय स्वाभिमान और शक्ति का सबसे बड़ा मंत्र है।

दिलचस्प जानकारियां

सुलभ स्वच्छ भारत का मैं नियमित पाठक हूं। मुझे ये समाचार पत्र बहुत पसंद है क्योंकि इसमें समाज से जुड़े हर पहलुओं को बड़ी ही सरलता के साथ दिखाया जाता है। हमें कई बार इसे ढूंढ़ने में कठिनाई होती है, फिर भी इसे पढ़ने का जो लोभ है वह कम नहीं होता है। सुलभ स्वच्छ भारत का यह 41वां अंक है। हर बार की तरह इस अंक में भी कई दिलचस्प जानकारियां हैं, लेकिन इसमें प्रकाशित बुजुर्गों का क्लब आलेख बहुत ही पसंद आया। इससे मैं काफी प्रभावित हुआ। मैं इस आलेख के प्रकाशन के लिए सुलभ स्वच्छ भारत की संपादकीय टीम को बहुत ही आभार व्यक्त करता हूं। राकेश गंगवार, पटपड़गंज, दिल्ली


18 विचार

गांधी जंयती विशेष

02 - 08 अक्टूबर 2017

हर दौर में पहली चुनौती हैं गांधी

गांधी और मौजूदा पीढ़ी के बीच एक सदी लंबा फासला है। पर विचार को सामने रखकर गौर करें तो गांधी का नाम, उनके कार्य और उनके आदर्श आज भी न सिर्फ प्रासंगिक हैं, बल्कि वे हर बार हमारे सामने एक चुनौती की तरह सामने आते हैं

हम जो दुनिया के जंगलों के साथ कर रहे हैं, वो कुछ और नहीं बस उस चीज का प्रतिबिंब है जो हम अपने साथ और एक दूसरे के साथ कर रहे हैं

कुमार प्रशांत

ह एक दिलचस्प बात है कि हमारी हर क्षुद्रता, हर संकीर्णता, हर प्रतिगामी विचार को गांधी जी पहली चुनौती लगते हैं। सबको यही लगता है कि यह मानक गिरे तो हम अपने मन

की करें! यह ताकत है प्रतीक गांधी जी की! अगर ताकत कोई मूल्य है, नैतिक विवेक प्रासंगिक है, तो गांधी जी हमारे लिए आज की जरूरत हैं।

हर युग तकनीक का

आज तकनीक की बात काफी होती है। तकनीक के

गांधी जी की लड़ाई मशीनों से या तकनीक से थी ही नहीं और आज भी है नहीं। उनका सवाल तब भी और आज भी जमाने के सामने खड़ा है कि मशीनों और तकनीक के इस जंगल में मनुष्य की जगह कहां है

साथ विकास का जोर आज हर तरफ दिखाई देता है। पर गौर करें तो दुनिया में हर युग तकनीक का युग ही रहा है, क्योंकि मनुष्य जो भी करता है किसी-नकिसी तकनीक के सहारे ही! इसीलिए हमें इस भ्रम या गुरूर में नहीं रहना चाहिए कि हम ही हैं तकनीक के जनक, या हमारा ही युग तकनीक का युग है। गूगल, फेसबुक, ट्विटर, इंटरनेट आदि भी तकनीक के नाम हैं, जो कल कहीं पीछे छूट जाएंगे और कुछ दूसरे नाम हमारे सामने होंगे।

मशीन और तकनीक

गांधी जी की लड़ाई मशीनों से या तकनीक से थी ही


गांधी जंयती विशेष

02 - 08 अक्टूबर 2017

जैसे समाज की और जैसे मनुष्य की कल्पना गांधी जी करते हैं, वह आज से नितांत भिन्न है। वे सभ्यता का नया प्रवाह बनाने और नया मानक गढ़ने की बात करते हैं नहीं और आज भी है नहीं। उनका सवाल तब भी और आज भी जमाने के सामने खड़ा है कि मशीनों और तकनीक के इस जंगल में मनुष्य की जगह कहां है और उसकी भूमिका क्या है? वह मशीनों और तकनीक के हाथ का गुलाम है या कि उनका मास्टर है? वे तब भी पूछ रहे थे और आज भी पूछ रहे हैं कि आज की सूचना तकनीक (आईटी) हमें जैसी दुनिया में पहुंचा रही है, क्या वह कल की दुनिया से अधिक नैतिक और मानवीय दुनिया है? क्या इन सारी नई तकनीकों से एक नई अनैतिक, मनुष्यता निरपेक्ष, कठोर दुनिया हमारे सामने नहीं खुल रही है? क्या इसने युद्धों को ज्यादा अमानवीय नहीं बना दिया है? क्या इसने विकास और संसाधनों की असमानता को ज्यादा मजबूत नहीं किया है? संवाद, संचार, विचार-विनमय सबको अति केंद्रित व्यवस्था में जकड़ नहीं दिया है? सारी जानकारी, सारा ज्ञान, सारी सूचनाएं एक अति केंद्रित व्यवस्था के हाथों में कैद हैं और हमें उतना ही बताया, दिखाया जा रहा है जितना वे चाहते हैं! आजादी का ऐसा छलावा! आप देखिए कि साइबर क्राइम क्या एक नया ही अपराधशास्त्र लिख नहीं रहा है? सेक्स की जैसी दुकान इस तकनीक ने खोली और सुलभ कर दी है, क्या उसकी कभी कल्पना भी की थी किसी ने?

गांधी जी की ताबीज

गांधी जी एक ताबीज दे कर गए हैं हमें कि जब कभी संशय में पड़ो और अनिश्चय से घिरो तो इसका अवलंबन लो। हम वही ताबीज लेकर यूट्यूब, इंटरनेट, फेसबुक, गूगल, ट्विटर आदि सबके जनकों के पास चलते हैं और पूछते हैं कि बताओ, तुम्हारी यह सारी तकनीक तुम्हारे ही देखे सबसे असहाय, गरीब, अकिंचन मनुष्य व प्रकृति को क्या इतना समर्थ बनाती है कि वह अपनी किस्मत के पन्ने खुद लिख सके? मैं नहीं समझता हूं कि इनमें से कोई

इसका जवाब भी दे सकेगा! आज के युवा जिन चेहरों के दीवाने बना कर पेश किए जा रहे हैं, क्या वैसी दीवानगी रचे बिना इन बिल गेट्सों का, मार्क जुकरबर्गों आदि का साम्राज्य टिक सकता है? कंप्यूटरों को जिस तरह सारी दुनिया पर लाद कर, इसे हमारा अनिवार्य अंग बना दिया गया है, क्या आपने कभी सोचा है कि यदि ऐसा न किया गया होता तो क्या कंप्यूटर संभव होते? ये कंप्यूटर बन पा रहे हैं, बिक पा रहे हैं, तो सिर्फ इस कारण कि इनका एकाधिकार सुनिश्चित कर दिया गया है। सरकारें, व्यापार, कॉरपोरेट जगत, सब कंप्यूटर के पीछे खड़े हैं तो यह जादू चल रहा है। गांधी जी ने भी तो इतनी ही बात रखी थी न कि खादी को मिलों से संरक्षण दीजिए, बाकी सारा जादू खादी खुद ही कर देगी।

खादी और स्वदेशी

बगैर किसी संरक्षण-समर्थन के गुलामी के दिनों में भी खादी ने लंकाशायर की मिलें बंद कर अपनी ताकत तो दिखा ही दी थी न! गांधी जी की स्वदेशी की सारी मांग तो इतनी ही थी कि जीवन जीने के जरूरी संसाधन आप लोगों के हाथों में रहने दीजिए, लोग अपने सार्थक, समृद्ध जीवन की रचना खुद कर लेंगे। ऐसे में गांधी जी के बारे में शिद्दत से जानकारी पाने की जरूरत इसीलिए है कि उमंग, उत्साह के साथ जीवन जीने की कला तो उनके पास ही मिलती है।

‘फेस-टू-फेस सोसाइटी’

अगर यह सच है कि आज ‘ग्लोबल विलेज’ की कल्पना साकार हो रही है तो हमें यह सोचना ही चाहिए कि फिर दुनिया के सारे देश एक-दूसरे से इतने डरे हुए क्यों हैं? हथियारों की ऐसी होड़ क्यों है? सोचने की जरूरत आ पड़ी है कि यह ‘ग्लोबल विलेज’ है या गुफायुग का ‘सर्वाइवल फॉर

द फिटेस्ट’ है? आज सारे यूरोप में शरणार्थियों की जैसी भगदड़ मची है, क्या वह किसी ‘फेस-टू-फेस सोसाइटी’ की कल्पना जगाता है? ‘ग्लोबल विलेज’ का यह शब्दजाल अच्छा है, लेकिन एकदम अर्थहीन है। गांधी जी का ग्रामस्वराज्य बुनियादी इकाई के स्तर पर मनुष्य की आत्मनिर्भरता और सार्वभौमता को पाने का उपक्रम है। जब तक मनुष्य है, तब तक ग्रामस्वराज्य की अवधारणा प्रासंगिक है। एक तरफ हम ‘ग्लोबल विलेज’ की तरफ जा रहे हैं तो दूसरी तरफ मल्टीनेशनल कंपनियों की बात भी खूब हो रही है। जरा ध्यान दीजिए, इन दोनों में से कोई एक ही अवधारणा सही हो सकती है। समाज ‘ग्लोबल विलेज’ का बने और उसमें तिजारत मल्टीनेशनल कंपनियां करें, यह बात अगर अकल में बैठती हो तो मुझे भी समझाइएगा। हम उतने समर्थ नहीं हैं इसीलिए हम अपने गांवों को, अपने असमर्थ पड़ोसियों को लूटते हैं। लूट का तंत्र भी एक ही है, लूट की रणनीति भी एक ही है। फर्क सामर्थ्य का है। अब हम भी सामर्थ्यवान हो रहे हैं। हमारी कंपनियां भी बड़े लुटेरों के साथ दो-दो हाथ कर रही हैं, ऐसा कहने में जिन्हें गर्व होता है, उन्हें मुबारक, लेकिन मुझे तो अपने हाथों में लगा खून दिखाई देता है। आदमखोर शेर हो या आदमी या कंपनियां, सब एक ही तरह से मनुष्य के लिए घातक हैं।

गांधी की कल्पना का समाज

जैसे समाज की और जैसे मनुष्य की कल्पना गांधी जी करते हैं, वह आज से नितांत भिन्न है। वे सभ्यता का नया प्रवाह बनाने और नया मानक गढ़ने की बात करते हैं। तथाकथित सभ्यता से अलग, नया मानवमन और नई सामाजिकता को स्थापित करने की एक जंग जारी है। जब सारी सत्ताएं, सारे स्थापित स्वार्थ, परंपराएं, संकीर्ण हित-विचार आपको चुनौती दे रहे हों और आपकी जड़ काटने में लगे हों, तब आसान नहीं होता है, अपने विश्वासों पर जीने-चलने की कोशिश करना! हमें गांधी जी के नाम की इस ताकत को पहचानना ही चाहिए कि उसने हजारों-हजार लोगों में यह आस्था भरी कि वे वक्ती सफलताओं की तरफ पीठ करके जी सके, जी रहे हैं।

आज की जरूरत हैं बापू

गांधी जी को जिस दिन हमने गोली मारी, उसी दिन से वे प्रतीक-मात्र बचे हैं! आखिर जीवन क्या है? मृत्यु के सामने खड़ा एक प्रतीक ही तो है!! और कैसा है यह प्रतीक? जिसे सत्ता की, धर्म की, जाति की, सिद्धांतों-वादों की अंधता और क्रूरता की हर ताकत छिन्न-भिन्न कर देना चाहती है। यह प्रतीक बना हुआ है, यही इन ताकतों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसीलिए सभी मदमत्त होकर गांधी जी पर सब तरफ से वार करते हैं- धुर दक्षिणपंथ से लेकर धुर वामपंथ तक! हमारी हर क्षुद्रता, हर संकीर्णता, हर प्रतिगामी विचार को गांधी जी पहली चुनौती लगते हैं। सबको यही लगता है कि यह मानक गिरे तो हम अपने मन की करें! यह ताकत है प्रतीक गांधी जी की! अगर ताकत कोई मूल्य है, नैतिक विवेक प्रासंगिक है, तो गांधी जी हमारे लिए आज की जरूरत हैं। (वरिष्ठ पत्रकार एवं गांधीवादी चिंतक और गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के अध्यक्ष)

विचार

19

सत्य एक विशाल वृक्ष है। उसकी ज्यों-ज्यों सेवा की जाती है, त्यों-त्यों उसमे अनेक फल आते हुए नजर आते है, उनका अंत ही नहीं होता


20 विमर्श

02 - 08 अक्टूबर 2017

गांधी जंयती विशेष

ब्राउन का गांधी विमर्श

मार्क टली एक ऐसे पत्रकार रहे हैं, जिन्होंने विदेशी होने के बावजूद भारत के सामाजिक-राजनीतिक जीवन को बहुत करीब से देखा है। वे खासतौर पर भारत की कई ऐतिहासिक घटनाओं के साक्षी भी रहे हैं। अपने इन्हीं अनुभवों के आधार पर उन्होंने ‘नो फुल स्टॉप इन इंडिया’ नाम से एक बहुचर्चित किताब भी लिखी है। मार्क टली ने समकालीन भारतीय संदर्भों को ध्यान में रखकर गांधी जी के जीवन और आदर्शों की प्रासंगिकता को अपने तरीके से रेखांकित किया है

चिंता से अधिक कुछ और शरीर को इतना बर्बाद नहीं करता और वह जिसे ईश्वर में थोड़ा भी यकीन है उसे किसी भी चीज के बारे में चिंता करने पर शर्मिंदा होना चाहिए

हात्मा गांधी के बताए रास्ते पर चलने की जगह आज उनका गुणगान ही ज्यादा किया जाता है। 1989 में थियानमेन चौक पर चीन ने जिस तरह प्रदर्शनकारियों के खिलाफ बल का प्रयोग किया था और अब वह जिस तरह तिब्बत में भी ताकत का प्रयोग कर रहा है, उससे शांतिपूर्ण या अहिंसक विरोध की बात बेमानी ही मालूम होती है। आज बाजार का अर्थशास्त्र भी गांधीवादी अर्थशास्त्र के स्वदेशीवाद को झुठला चुका है। नैतिकता की बजाए अवसरवाद पर आधारित आज की यथार्थवादी राजनीति के दौर में नैतिकता की बात हास्यास्पद ही लगती है। इसके बावजूद जब मैंने दुनिया के कुछ बड़े गांधीवादी विद्वानों में शुमार एक महिला को दिल्ली में भाषण देते सुना और उनका इंटरव्यू लिया तो मुझे आज के दौर में गांधी जी की प्रासंगिकता का अहसास हुआ। वह चाहे अरब देशों में तानाशाही शासकों के खिलाफ विरोध हो, भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन हो, इस

देश में सरकारों की वैधता को चुनौती की बात हो, भारतीय कुलीन वर्ग में राजनीति के प्रति तिरस्कार की बात हो या फिर अर्थव्यवस्था में नैतिकता की भूमिका की बात हो।

जूडिथ ब्राउन के बारे में

व्याख्यान देने वाली महिला थीं जूडिथ ब्राउन, जो अभी हाल तक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में कॉमनवेल्थ हिस्ट्री की प्रोफेसर रही थीं। वे ‘गांधी और सविनय अवज्ञा : नैतिक राजनीति की सीमाएं’ विषय पर बोल रही थीं। नेहरू मेमोरियल संग्रहालय और पुस्तकालय के संस्थापक-निदेशक और प्रसिद्ध इ ति ह ा स क ा र बी.आर. नंदा के सम्मान में आ य ो जि त व ा र्षि क

कार्यक्रम में यह दूसरा व्याख्यान था। ब्राउन ने गांधी जी पर नंदा की लिखी हुई जीवनी के बारे में कहा कि यह गांधी जी के जीवन और उनके कार्यों पर गंभीर शोधकार्य की परंपरा का उदाहरण है। जुडिथ ब्राउन अपने विषय में प्रवीण हैं। उन्होंने मुझसे कहा, ‘मैंने गांधी जी को बहुत करीब से जिया है।’ एक प्रोफेशनल इतिहासकार के तौर पर वे महात्मा गांधी की जीवनी लिख चुकी हैं और बाद में उन्होंने नेहरू की भी जीवनी लिखी। उसमें भी वे गांधी जी पर ही लौट आती हैं। वे गांधी जी से काफी सहानुभूति रखती हैं। उत्तर प्रदेश में मेरठ के नजदीक उनका जन्म हुआ था। उनके पिता वहां अंग्रेज पादरियों के एक धार्मिक स्कूल के प्रिंसिपल थे। वे अब खुद भी एक अंग्रेज पादरी हैं। ब्राउन नैतिकतापूर्ण राजनीति की पक्षधर हैं। उन्होंने श्रोताओं को बताया, ‘नैतिकतावादी राजनीति की गांधीवादी परंपरा राजनीतिक गतिविधियों का अनिवार्य हिस्सा बन चुकी है।’ उन्होंने अपना व्याख्यान यह कहते हुए खत्म किया कि ‘गांधी जी दुनिया में प्रेरणा की मूर्ति बन चुके हैं।’ ब्राउन ने नंदा को इतिहासकारों के इतिहासकार की संज्ञा दी, जबकि यही संज्ञा उन्हें भी दी जा सकती है। उन्होंने मुझसे कहा, ‘मैं व्याख्यान के अंत में नोट्स मुहैया कराने से रोक नहीं सकी।’ उनका व्याख्यान बहुत संतुलित था, जिसमें कहीं से भी गांधी जी की खोखली तारीफ नहीं झलकती थी। उन्होंने यह कहकर दो श्रोताओं को नाराज कर दिया कि ‘ब्रिटिश शासन को हटाने में सविनय अवज्ञा की कोई भूमिका नहीं थी।’ उन्होंने यह भी कहा कि ‘भारत की आजादी के संघर्ष में अहिंसक आंदोलन की सीमित भूमिका ही थी।’

जुडिथ ब्राउन अपने विषय में प्रवीण हैं। उन्होंने मुझसे कहा, ‘मैंने गांधी जी को बहुत करीब से जिया है।’ एक प्रोफेशनल इतिहासकार के तौर पर वे महात्मा गांधी की जीवनी लिख चुकी हैं और बाद में उन्होंने नेहरू की भी जीवनी लिखी


गांधी जंयती विशेष अपने इस दृष्टिकोण को सही साबित करते हुए ब्राउन ने कहा कि आजादी का आंदोलन उन दिनों दुनिया में घटित हो रही घटनाओं और भारत में हो रही हलचल से प्रभावित था। उन्होंने कहा कि अमेरिका ने मांग की थी कि द्वितीय विश्व युद्ध में दी गई सहायता की कीमत के रूप में ब्रिटेन भारत को आजाद करने की गारंटी दे। उन्होंने मुझे बताया कि युद्ध के बाद ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने महसूस किया कि ब्रिटेन अब भारत को अपने कब्जे में ज्यादा दिन तक नहीं रख सकता और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि अंग्रेजी शासन को बनाए रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश सेना को अगर भारत में लड़ने के लिए वापस जाने को कहा गया तो वह बगावत कर देगी।

स्वाधीनता और महात्मा

वैसे ब्राउन ने यह माना कि स्वतंत्रता आंदोलन में गांधी जी की बड़ी भूमिका थी। उन्होंने बताया कि गांधी जी की उपलब्धियों में से एक बड़ी उपलब्धि यह थी कि उन्होंने ब्रिटिश राज की वैधता को चुनौती दी। यह महत्वपूर्ण बात थी। प्रोफेसर ब्राउन ने कहा, ‘यह सोचना गलत है कि ब्रिटेन ने ताकत के बूते भारत पर शासन किया।’ उनका कहना था, ‘ब्रिटेन अपने भारतीय सहयोगियों पर निर्भर था, कुछ सहयोगी सीधे सरकार के लिए काम कर रहे थे तो कुछ वे थे जो न्यायिक व्यवस्था से जुड़े थे। इसके अलावा भारत के रजवाड़ों का भी सहयोग था।’ इन सहयोगियों के महत्व को बताने के लिए ब्राउन ने ऐसे आंकड़े पेश किए जिन्होंने न सिर्फ मुझे हैरान कर दिया, बल्कि उनकी एक पुस्तक के प्रकाशक को भी चकित कर दिया। प्रकाशक को जैसे उन पर विश्वास ही नहीं हुआ और उसने कहा कि वे दोबारा उन आंकड़ो को जांचसमझ लें। ये आंकड़े 1921 की जनगणना से लिए गए थे। इस जनगणना से पता चलता था कि ब्रिटिश भारत में यूरोपीय लोगों की आबादी मात्र 1,57,000 थी और इनमें से लगभग एक-तिहाई महिलाएं थीं। ब्रिटिश शासन के अधीन भारत की कुल आबादी 2417 करोड़ थी। ब्राउन ने मुझे बताया, ‘इसीलिए गांधी जी ने महसूस किया कि अगर वे ब्रिटिश शासन की वैधता पर सवाल खड़ा करते हैं तो उसके भारतीय सहयोगियों की वैधता भी सवालों के घेरे में आ जाएगी और इस प्रकार ब्रिटिश राज पूरी तरह से कमजोर हो जाएगा।’ जब मैंने उनसे पूछा कि अरब में आंदोलन के दौरान काहिरा के तहरीर चौक पर जो भीड़ जुटी थी, क्या उसमें गांधी जी की प्रासंगिकता दिखाई दी थी, तो ब्राउन का जवाब था, ‘मैं समझती हूं कि हमारे अनुमान से कहीं ज्यादा लोग गांधी जी का नाम सुन चुके थे और जाने या अनजाने उनके नाम पर जुट रहे थे।’ भारत में गांधी जी की प्रासंगिकता का सवाल मेरी नजर में आज भी वाजिब है। भ्रष्टाचार के खिलाफ चलने वाला आंदोलन एक प्रकार से सरकार की वैधता को सीधी चुनौती है। कुछ साल पहले जनता ने जिस तरह से इस आंदोलन को भारी समर्थन दिया था, वह सभी नेताओं के लिए एक चेतावनी है। भारत के लिए खतरे की बात यह है कि उस आंदोलन के कमजोर पड़ने और आंदोलन के नेतृत्व में फूट पड़ने से देश के राजनेता यह सोचने लगेंगे कि उन्हें अपनी

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विमर्श

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ब्राउन ने अपने व्याख्यान में कहा, ‘मानव जीवन के स्वभाव की नैतिक समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति गांधी जी के विचारों और उनके आचरण से प्रभावित होकर राजनीति से जुड़ने के लिए विवश हो जाता था’ वैधता को लेकर किसी तरह की चिंता करने की जरूरत नहीं है।

व्यावहारिक संकेत

गांधी जी के सविनय अवज्ञा आंदोलन पर जूडिथ ब्राउन का विश्लेषण भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नेताओं के लिए कुछ व्यावहारिक संकेत उपलब्ध कराता है। उन्होंने कहा कि इस तरह के आंदोलनों के लिए कोई निश्चित ब्लू प्रिंट नहीं होता, उन्हें विशेष परिस्थितियों के अनुरूप तैयार करना पड़ता है। उन्होंने बताया कि गांधी जी अपने विरोधी की सबसे कमजोर नस को अपना निशाना बनाते थे, जैसा कि उन्होंने ब्रिटिश राज की वैधता पर निशाना साधा था, जो कि उसकी सबसे कमजोर नस थी। वे उस जगह पर कभी वार नहीं करते थे, जो ज्यादा मजबूत होती थी।यानी वे ऐसे बिंदु को निशाना बनाने से बचते थे, जो आंदोलन के खिलाफ सरकार के बल प्रयोग को सही ठहराए। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी को यह कहकर कुछ हद तक सही ठहराने की कोशिश की थी कि उनके विरोधी केंद्र सरकार के कामकाज को पंगू बनाना चाहते थे।

तटस्थता का अपराध

जब मैंने ब्राउन से पूछा कि गांधी जी आज होते तो भारत में व्याप्त उस भ्रष्टाचार के बारे में क्या सोचते, जो इतना बड़ा मुद्दा बन चुका है, तो उनका जवाब था, ‘वे सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार का बुनियादी नैतिक डर दिखाते और कहते, एक बड़ी समस्या यह है कि भारत 1947 के बाद से ज्यादा नहीं बदला है।’ यहां एक बार फिर गांधी जी आज के भारत में सीधे प्रासंगिक हो जाते हैं। प्रोफेसर ब्राउन के मुताबिक, गांधी जी ने 1937 में प्रांतीय विधानसभाओं में चुने गए कांग्रेस के राजनेताओं से कहा था, ‘तुम लोग मोटरगा​िड़यों में चलते हो। तुम लोग औपनिवेशिक और साम्राज्यवादी तौर-तरीके अपनाते हो, इसीलिए मैं समझता हूं कि कुछ खास नहीं बदला है।’ ब्राउन ने आजाद भारत में बदलाव लाने में नाकाम रहने के विषय पर भी बात की। ऐसा बदलाव जिसमें ‘पूरी तरह से प्रशासनिक सुधार किए गए हों और जिनके आधार पर जमीन पर कोई बड़ा परिवर्तन दिखाई देता।’ लेकिन सभी राजनेताओं को भ्रष्ट कहकर खारिज कर देना सही नहीं है, क्योंकि आज भी देश में कई ईमानदार सांसद और विधायक हैं। इसी तरह सभी प्रशासनिक अधिकारियों को बाबू कह देना भी ठीक नहीं है। इसके विपरीत राजनीति को गंदा खेल बताते हुए अपने आपको सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर लेना बहुत आसान है। ब्राउन ने अपने व्याख्यान में कहा, ‘मानव जीवन के स्वभाव की नैतिक समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति गांधी जी के विचारों और उनके आचरण से प्रभावित होकर राजनीति से जुडऩे

के लिए विवश हो जाता था।’ इसीलिए गांधी जी कहते थे कि भारत के संभ्रांत वर्ग के राजनीति से मुंह मोड़े रखने या उसके प्रति तिरस्कार का भाव रखने के पीछे नैतिक या आध्यात्मिक बहाना खोजने का कोई मतलब नहीं है।

गांधी जी के आर्थिक विचार

अपने इंटरव्यू में जब हमने गांधी जी के आर्थिक विचारों की प्रासंगिकता पर चर्चा की तो प्रोफेसर ब्राउन ने एक आश्चर्य में डालने वाली तुलना सामने रखी। उन्होंने कहा कि भारत अगर गांधी जी के आर्थिक उपदेशों का पालन करना चाहता है तो उसे उत्तर कोरिया का अनुकरण करना चाहिए। जब मैंने कहा कि गांधी जी के विचारों की तुलना उस तानाशाही वाले देश से भला कैसे की जा सकती है, तो वे हंसने लगीं और जवाब दिया, ‘उत्तर कोरिया ने बाकी दुनिया से खुद को अलग कर लिया है और भारत को गांधी जी के रास्ते पर चलना है तो उसे भी दुनिया के उपभोक्तावाद और दूसरी शक्तियों से बचने के लिए खुद को अलग करना होगा।’

नैतिक नजरिए की दरकार

मैंने सवाल किया, ‘तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि गांधी जी का अर्थशास्त्र अप्रासंगिक हो गया है या मैं दूसरे शब्दों में कहूं तो अव्यावहारिक है?’ इस पर ब्राउन ने कहा, ‘मैं गांधी जी की नैतिक परिकल्पना को खारिज नहीं कर सकती। समाज के लिए नैतिक परिकल्पना ऐसी होनी चाहिए, जिसमें वह देखे कि वह किधर जा रहा है और वह राजनीतिक ऐक्शन का आधार बने। हमें नहीं लगता कि हम सिर्फ पैसा बनाने और अपना घर संवारने के लिए दुनिया में आए हैं।’ हमें सचमुच एक ऐसे नैतिकतावादी नजरिए की जरूरत है, जो आज गांधी जी की प्रासंगिकता पर ब्राउन के नजरिए को सही ठहराता हो। उन्होंने मुझसे कहा, ‘भारत की समस्याओं पर गांधी जी के सभी जवाब भारतीय समाज की पूरी तरह से अलग नैतिक परिकल्पना पर आधारित थे। अपने भाषण में उन्होंने यह भी बताया कि क्यों भारत गांधी जी की नैतिकता में रुचि नहीं रखता। उन्होंने बी.आर. नंदा का एक उद्धरण सुनाया, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘यह जरूरी है कि गांधी जी की छवि भगवान की न बने।’ नंदा चाहते थे कि गांधी जी को एक मनुष्य के तौर पर याद किया जाए, न कि भगवान के रूप में, ‘उन्हें एक इंसान के तौर पर याद किया जाए जिसने बड़ी मेहनत से ऐसे मूल्यों को स्थापित किया। उसका सम्मान तो सभी करते हैं, लेकिन व्यवहार में उसका पालन नहीं करते।’ भारत ने भले ही गांधी जी को भगवान का दर्जा न दिया हो, लेकिन उन्हें एक चौकी पर जरूर विराजमान कर दिया है। किसी को अप्रासंगिक बनाने के लिए इससे अच्छा कोई तरीका नहीं।

हमेशा अपने विचारों, शब्दों और कर्म के पूर्ण सामंजस्य का लक्ष्य रखें। हमेशा अपने विचारों को शुद्ध करने का लक्ष्य रखें और सब कुछ ठीक हो जाएगा


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प्रार्थना सभा में गांधी

गांधी विचार और आचार की सबसे बड़ी कसौटी अहिंसा है और इस कसौटी पर वे आजीवन अपने आप को कसते रहे

आप मानवता में विश्वास मत खोइए। मानवता सागर की तरह है। अगर सागर की कुछ बूंदें गंदी हैं, तो सागर गंदा नहीं हो जाता

गां

धी जब सत्य, प्रेम और करुणा की बात करते हैं, तो उनके मूल केंद्र में कहीं न कहीं मानवीय सद्भाव है। यही कारण है कि भारत जब आजाद होने के करीब पहुंचने लगा तो उन्हें देश में हुई हिंसा से काफी तकलीफ हुई। हिंसा की कीमत पर उन्हें कुछ भी स्वीकार्य नहीं था। वे आजादी पूर्व और उसके बाद देश में हुई हिंसा और लोगों के बीच के सौहार्द में पड़ी दरार के बीच क्या सोच रहे थे और देश-दुनिया के लिए उनका क्या संदेश था, यह जानना काफी महत्वपूर्ण है। प्रस्तुत है 29 मई, 1947 को नई दिल्ली की प्रार्थना सभा में गांधी जी के संदेश का संपादित अंश-

जब तक प्रार्थना समाप्त न हो जाए और मैं अपनी बात कहना खत्म न कर लूं, तब तक आप मौन रहें। मैं चाहता हूं कि मैं जब तक यहां मौजूद हूं और जिंदा हूं, तब तक आप लोग जो रोज भक्तिभाव से यहां आते रहें। जो केवल तमाशा देखने आते हैं उनकी बात जाने दीजिए। प्रभु के नाम लेने में मेरा साथ दें और बाद में भी मेरी बात शांति से सुनें। आज जो मैं कहने वाला हूं, वह बड़े काम की बात है। आज और 2 जून के बीच थोड़े ही दिन रह गए हैं। इन दिनों मैं रोज ही एक विषय के किसी-न-किसी पहलू पर बोलूंगा, जो आप लोगों के दिलों में सबसे ज्यादा समाया हुआ है। आप लोगों ने शांति और

संयम रखकर मुझे अपनी ओर खींच लिया है और दिल खोल कर रख देने को बाध्य किया है। कितना अच्छा हो कि जो लोग अपने को इस देश की संतान मानते हैं, वे ठीक तरह से सोचें और बहादुरी से चलें। यह मुश्किल काम जरूर है, जबकि अखबारों में पागलपन से भरी हुई आग और मारपीट की भयंकर खबरें छपती रहती हैं। मैं इस बात की कोई चिंता नहीं करता कि 2 जून को क्या होने वाला है या माउंटबेटन साहब आकर क्या सुनाएंगे। मेरी ऐसी आदत ही नहीं है कि सरकार क्या कहेगी, इसकी चिंता में रहूं। 1915 में मैं यहां आया, तबसे लेकर आज तक मैंने ऐसा ही किया है।


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‘कोई अमर तो पैदा हुआ नहीं है, तो फिर हम यही निश्चय क्यों न कर लें कि हम बहादुरी से मरेंगे और मरते दम तक अपनी ओर से बुराई नहीं करेंगे। जान-बूझकर किसी को मारेंगे नहीं’ मेरा जन्म तो यहीं का है। 22 वर्ष की उम्र में मैं यहां से चला गया। मानों मैं बनवास में रहा और बीस बरस तक दक्षिण अफ्रीका में रहने के बाद यानी अपनी असली जवानी बिताकर मैं यहां लौटा। इस बीच मैंने कोई पैसे इकट्ठे नहीं किए। मैंने शुरू में ही समझ लिया था कि भगवान ने मुझे ऐसा ही बनाया है कि पैसों की ओर मैं न जाऊं, पर उसकी खिदमत करूं। ईश्वर ने मुझसे कहा कि तू दूसरा काम करेगा तो सफल नहीं होगा। सेवा का तरीका ‘गीता’ ने मुझे बताया है। यह भी कि मेरे पास जो है, वह मेरा नहीं है, ‘तेरा है’ (ईश्वर का है)। तब प्रश्न यह सामने आया कि वह ‘तू’ कहां पर है? जवाब मिला कि संसार के सारे व्यक्तियों में। यानी जो मनुष्य-जाति की सेवा करता है, वह ईश्वर की सेवा करता है। तब हम ‘ईशावास्योपनिषद’ के उस मंत्र पर आ जाते हैं, जिसमें कहा है, ‘सारा जगत ईश्वर से ही भरा है।’ जब मैं त्रावणकोर में था, तब रोजाना इस मंत्र का अर्थ सुनाता था। उसमें आगे कहा है, ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।’ यानी सब कुछ छोड़कर काम कर, किसी का कुछ भी लेने का लालच मत कर। बात तो यह सादी है, बच्चा भी समझ सकता है, पर वह उसका भेद नहीं समझ सकता। हम बड़े हैं, हमें उसका भेद समझना

चाहिए, इसीलिए मैंने आपको यह बड़ी बात सुना दी। इसका भेद अगर हम समझ लें तो फिर हम किसके लिए लड़ें? यह तो बड़ी बात हो गई। अब जो सुनाना चाहता हूं, उस बात पर आऊं। आज मैंने थोड़ा कष्ट किया है। मेरे पास इतना समय कहां कि रोज मैं अपने भाषण को अंग्रेजी में लिख दिया करूं। हमारे अखबार, जो अंग्रेजी में चलते हैं उन्हें तो मेरा भाषण छापना चाहिए ही; परंतु हमारे अखबारनवीस उसे अंग्रेजी में किस प्रकार दें! वे बेचारे अंग्रेजी पूरी तरह कहां समझ पाते हैं? वैसे तो वे लोग बी.ए., एम.ए. होते हैं, लेकिन इतनी अंग्रेजी नहीं जानते कि मैं जो हिंदुस्तानी में कहता हूं उसका सही मतलब अंग्रेजी में समझा सकें। क्योंकि वह भाषा उनकी नहीं है, दूसरों की है। यहां तो मैं हिंदुस्तानी में कहूंगा; क्योंकि वह तो करीब-करीब मेरी भी और सबकी पूरी तौर से मातृभाषा है। इसीलिए उसमें मैं जो कुछ कहूंगा वह आप सही-सही मेरा जन्म तो यहीं का है। इसलिए मैं जो कुछ कहूंगा, वह आप सही-सही समझ सकते हैं। सुशीला नायर मेरे भाषण को अंग्रेजी में कर तो लेती हैं, क्योंकि वह खासी अंग्रेजी जानती है, फिर भी उसमें कमी रह जाती है। इसीलिए आज मैंने थोड़ा समय निकालकर अंग्रेजी में लिख रखा है।

यहां मैं उसकी बात को ध्यान में रखते हुए बात कहूंगा। परंतु अखबारों में वही छपेगा जो मैंने लिख रखा है। तो शुरू में उस खत की बात बता देना चाहता हूं, जिसमें मुझे प्रार्थना चालू रखने के बारे में कोसा गया है और लिखा है कि झूठा है, ठीक तरह से जवाब भी नहीं देता। ऐसा जो लिखते हैं, वे बालक हैं। उम्र में भले ही सयाने हो गए हों, पर बुद्धि में बालक ही रहे हैं। उनको मेरी यह बात चुभती है कि मैं यही क्यों कहता हूं कि ‘मरो-मरो’, ऐसा क्यों नहीं कहता कि पहले ‘मारो-काटो और फिर मरो’। वे चाहते हैं कि मैं हिंदुओं से तलवार का बदला तलवार से और आग का बदला आग से लेने को कहूं, लेकिन मैं अपने सारे जीवन के विरुद्ध नहीं जा सकता और मानव-कानून की जगह पाशविक-कानून की हिमायत करने का अपराधी नहीं बन सकता। जब कोई मुझे मारने आएगा तब मैं यह कहते-कहते मरूंगा कि ईश्वर तेरा भला करे। इसके बदले उनका आग्रह है कि मैं पहले मारने को कहूं और बाद में मरना पड़े तो मरने को कहूं। अगर मैं ऐसा कहने को तैयार नहीं हूं तो वे मुझे कहते हैं कि ‘तुम अपनी बहादुरी अपनी जेब में रखो और यहां से जंगल में भाग जाओ।’ एक मुसलमान महिला का खत मेरे पास आया है। उसमें लिखा है कि जब आप ‘ओज अबिल्ला’ ईश्वर की स्तुति करते हैं तो उसे उर्दू नज्म में क्यों नहीं करते? मेरा उत्तर यह है कि जब मैं नज्म पढ़ने लगूंगा, तब उस पर खफा होकर मुसलमान पूछेंगे कि अरबी का तर्जुमा करने वाले तुम कौन होते हो? और वे पीटने आएंगे, तब मैं क्या कहूंगा? सही बात यह है कि जो चीज जिस भाषा में कही गई और जिस पर तप किया गया, उसी भाषा में उसका माधुर्य होता है। बिशपों ने अंग्रेजी ‘बाइबिल’ की भाषा को बहुत परिश्रम से मधुर बनाया है और वह लैटिन से भी अंग्रेजी में किस तरह मीठी हो गई है! अंग्रेजी सीखना चाहने वाले को ‘बाइबिल’ तो सीखनी ही चाहिए। मैं अंग्रेजी भाषा का द्वेषी नहीं, उसका माधुर्य छोड़ने को तैयार नहीं; क्यों हमारे पास ऐसे कवि नहीं हैं, जो वैसी ही मधुरता से उनका अनुवाद कर सकें। आज मैं अहिंसा के शाश्वत नियम की बात नहीं कहूंगा, हालांकि उस पर मेरा दृढ़ विश्वास है। यदि सारा हिंदुस्तान उसे सोच-समझकर अपना ले तो वह बेशक सारी दुनिया का नेता बन जाएगा। यहां तो मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि कोई आदमी विवेक के अलावा और किसी चीज के आगे न झुके। लेकिन आजकल तो हमने विवेक बिलकुल ही

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पूंजी अपने-आप में बुरी नहीं है। उसके गलत उपयोग में ही बुराई है। किसी ना किसी रूप में पूंजी की आवश्यकता हमेशा रहेगी


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पूर्ण धारणा के साथ बोला गया ‘नहीं’, सिर्फ दूसरों को खुश करने या समस्या से छुटकारा पाने के लिए बोले गए ‘हां’ से बेहतर है

‘मैंने शुरू में ही समझ लिया था कि भगवान ने मुझे ऐसा ही बनाया है कि पैसों की ओर मैं न जाऊं, पर उसकी खिदमत करूं। ईश्वर ने मुझसे कहा कि तू दूसरा काम करेगा तो सफल नहीं होगा’ भुला दिया है। विवेक तभी कायम रह सकता है जब हममें बहादुरी हो। आज जो चल रहा है वह बहादुरी नहीं है। इंसानियत भी नहीं है। हम बिलकुल जानवर जैसे बन गए हैं। हमारे अखबार रोज-रोज हमें सुनाते हैं कि यहां हिंदुओं ने बरबादी कर डाली और वहां मुसलमानों ने। क्या हिंदू और क्या मुसलमान, दोनों ही बुरा काम करते हैं। यह मैं मानने को तैयार हूं कि मुसलमान ज्यादा बरबादी कर रहे हैं; पर जब दोनों ही बुराई करते हैं तब किसने ज्यादा बुराई की और किसने कम, यह जानना बेकार है। दोनों गलती पर हैं। खबर आई है कि हमारे नजदीक ही गुड़गांव में कई गांव जल गए हैं। किसने किसके मकान जलाए हैं, इसका पता चलाने की कोशिश में मैं हूं पर सही पता लगना कठिन है। लोग कहेंगे कि जब इतने करीब में यह सब हो रहा है तब यहां बैठा मैं लंबी-चैड़ी बातें कैसे सुना रहा हूं? जब आप लोग यहां आ गए हैं और हमारी बदकिस्मती से गुड़गांव में यह हो रहा है तब अपने मन की बात मैं आपसे कहूंगा ही। मेरा यही कहना है कि हमारे चारों ओर अंगार जलते रहें तो भी हमें तो शांत ही रहना है और चित्त स्थिर रखते हुए हमें भी इस अंगार में जलना है। हम क्यों दहशत के मारे यह कहते फिरें कि दूसरी जून को यह होने वाला है, वह होने वाला है? जो बहादुर होंगे, उनके लिए उस दिन कुछ भी होने वाला नहीं है, यह यकीन रखिए। सबको एक बार मरना ही है। कोई अमर तो पैदा हुआ नहीं है तो फिर हम

यही निश्चय क्यों न कर लें कि हम बहादुरी से मरेंगे और मरते दम तक अपनी ओर से बुराई नहीं करेंगे। जान-बूझकर किसी को मारेंगे नहीं। एक बार मन में ऐसा निश्चय कर लेंगे तब आप स्थिर-चित्त रहेंगे और किसी की ओर नहीं ताकेंगे। जो डरा-धमकाकर पाकिस्तान लेना चाहेंगे उनसे कह देंगे कि इस तरह रत्तीभर भी पाकिस्तान मिलने वाला नहीं है। आप इंसाफ पर रहेंगे, हमारी बुद्धि को समझा देंगे, दुनिया को समझा देंगे तो आप पूरा-का-पूरा हिंदुस्तान ले जा सकते हैं। जबरदस्ती से तो हम पाकिस्तान कभी नहीं देंगे। और अंग्रेजों से क्या कहूं? अगर वे मिशन-योजना से हटते हैं तो वे दगाबाज हैं। हम दगाबाज न बनेंगे और न बनने देंगे। हमारा और उनका संबंध 16 मई की घोषणा से है। उसी के आधार पर विधान-परिषद बना है। अंग्रेजों को सत्ता सौंप कर चले जाना चाहिए। संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान के अनुसार स्वतंत्र भारतीयों की जो सरकार बने, वह बाद में कुछ भी कर सकती है, वह चाहे तो भारत को एक रखे अथवा उसे दो या अधिक हिस्सों में बांट दे। उसके मुताबिक हम चलेंगे। इसके अलावा हम कुछ नहीं जानते कि अगर हम अपने देश की भलाई की खातिर वास्तविकता का सामना करें तो सबसे पहले हम देश में शांति कायम करेंगे और देश के दंगा-फसाद करने वाले लोगों से सख्ती और साहस के साथ कह देंगे कि जब तक वे अपनी खूनी कार्रवाई बंद नहीं करते तब तक 16 मई के बयान

में कोई फेरफार नहीं होगी। दूसरा कुछ तभी हो सकता है जब हम खामोश हो जाएं, लड़ाई-दंगा न रहे और हम शांत होकर बैठें। पर हम दबेंगे नहीं। इन चार दिनों में इतना पाठ आप सीख लें तो सब-कुछ मिलने वाला है। भले ही वे सारे हथियार जो बटोरे हैं, आजमा लें। जब हम इतनी बड़ी सल्तनत के मुकाबले में डट गए और उनके इतने सारे हथियारों से नहीं डरे, उसके झंडे के सामने सिर नहीं झुकाया तो अब हम क्यों लड़खड़ाएं, जबकि आजादी मिलने ही वाली है। हम ऐसा सोचने की गलती न करें कि अगर हम न झुके, चाहे वह झुकना पाशविक शक्ति के आगे ही क्यों न हो तो आजादी हमारे हाथों से निकल जाएगी। अगर हम ऐसा सोचेंगे तो हमारा नाश निश्चित है। मैं लंदन से आने वाले तारों में विश्वास नहीं करता। मैं यह आशा नहीं छोड़ूंगा कि ब्रिटेन गत वर्ष के 16 मई के कैबिनेट मिशन के वक्तव्य की इबारत और भावना से बाल बराबर भी नहीं हटेगा, जब तक कि भारत की पार्टियां अपने-आप कोई फर्क करने को रजामंद न हो जाएं। इस काम के लिए दोनों को एक जगह मिलना होगा और मानने लायक हल निकालना पड़ेगा। कैबिनेट मिशन के उस बयान को कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार, दोनों ने मंजूर कर लिया है। अगर इनमें से किसी ने भी उसे नामंजूर किया तो वह विश्वासघात होगा। अंग्रेज अधिकारियों को जानना चाहिए कि लोग उनके बारे में क्या-क्या बातें कर रहे हैं। यहां के अंग्रेज अफसरों के लिए कहा जाता है कि वे बदमाश हैं। इन दंगों में उनका हाथ है, वे ही हमें लड़ाते हैं, लेकिन जब तक यह गंभीर आरोप ठीकठीक साबित नहीं हो जाता, तब तक हमें उन पर इल्जाम नहीं लगाना चाहिए। मैं तो कहूंगा कि अगर हम लड़ना नहीं चाहते तो लड़ाई कैसे होगी? और माउंटबेटन साहब का काम आसान नहीं है। वे बड़े सेनापति हैं, बहादुर हैं; पर अपनी उस बहादुरी को वे यहां नहीं बता सकते। यहां पर वे अपनी सेना लेकर नहीं आए हैं। यहां वे फौजी वर्दी में नहीं आए हैं, सिविलियन बनकर आए हैं और उनका कहना है कि मैं अंग्रेजों से हिंदुस्तान छुड़वा देने के लिए आया हूं। अब हमें देखना है कि वे किस तरह जाते हैं। माउंटबेटन साहब को अपने गवर्नर-जनरल के पद को शोभित करना है। उन्हें अपनी सारी चतुराई और सच्ची राजनीतिज्ञता बतानी है। अगर वे जरा भी चूक जाएंगे, जरा भी सुस्ती कर जाएंगे तो ठीक न होगा। इसीलिए हम और आप सब मिलकर प्रार्थना करें कि भगवान उनको सन्मति दे और इतनी बात वे जान लें कि 16 मई की बात से बालभर भी फरक जबरदस्ती से वे नहीं कर सकते। अगर करते हैं तो वह दगा होगा, दगा देने से किसी का भला नहीं होता। दगा का परिणाम कभी अच्छा नहीं हो सकता।


गांधी जंयती विशेष

रामजीवन हमारे लिए अछूत नहीं थे

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प्रेरक

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गांधी के स्वच्छता के आदर्श में वह व्यक्ति ज्यादा महत्वपूर्ण और महान है जो शौचालयों की सफाई जैसे कार्य में लगा है

एक नजर

सरकारी कार्यक्रमों से बढ़ी कई गुना जागरुकता 2.38 लाख गांवों हुए खुले में शौच से मुक्त सभी 4500 नमामि गंगे गांव हुए ओडीएफ

संजय त्रिपाठी

हात्मा गांधी ने स्वच्छता का जो पाठ पढ़ाया था, अगर हमने, हमारी पीढ़ियों ने भूला न होता तो शायद स्थिति इतनी बुरी नहीं होती। स्वच्छता का वह पाठ मौखिक नहीं था, व्यावहारिक था कि किस तरह अपनी गंदगी हम खुद साफ करें। अपना शौचालय भी खुद साफ करें। और तो और, जो हमारे शौच की सफाई कर रहे थे, उसे अछूत भी बना देने का पाप हमने ही किया है। एक समय था, जब गांधी की हर बात मानने को देश तैयार था। तब न जाति थी, न धर्म। था तो सिर्फ और सिर्फ गांधी और गांधी के विचार। गांधी के उन्हीं विचारों में एक स्वच्छता और दूसरा वाल्मिकी-समुदाय के लोगों को मुख्यधारा से जोड़ना था। लोग गांधी के इस मुहिम में भी शामिल हुए। शैक्षणिक और सामुदायिक संस्थाओं ने उसे अपनाया भी। 30 जनवरी, 1948 में गांधी की हत्या होने के करीब 22 साल बाद मेरा जन्म हुआ और जब होश आया तो गांधी के इन्हीं विचारों को अपनाने वाले एक शैक्षणिक संस्थान में। बिहार के डुमरांव और विक्रम के टीचर ट्रेनिंग स्कूल में रहते हुए मैंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की। यहां नवनियुक्त शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाता था। प्रशिक्षुओं के हॉस्टल और उन्हें प्रशिक्षित करनेवाले शिक्षकों के घरों वाला एक कैंपस लगभग 300 लोगों से भरा रहता था। सुबह की नींद, प्रभात फेरी के गीत और जयकारों से टूटती। पिताजी प्रभात फेरी में शामिल होने के लिए निकल चुके होते। सुबह का उजाला अभी ठीक से फैला भी नहीं होता कि पूरा संस्थान कर्म में जुट जाता और वह

कर्म था स्वच्छता का। सभी के हाथ में झाड़ू, खुरपी, कुदाल और छटनी होती। कोई घास छिल रहा होता तो कोई झाड़ू से उसे साफ कर छटनी में इकट्ठा कर रहा होता। गर्मी के दिनों में सड़कों और पगडंडियों पर पानी का छिड़काव करने के बाद झाड़ू लगाया जाता और फिर सारी गंदगी कंपोस्ट में डाल दी जाती। पूरे कैंपस में दो बड़े-बड़े कंपोस्ट बने होते। एक सूखा कचरा के लिए तो दूसरा गीले कचरे के लिए। भर जाने पर उसे मिट्टी से दबाकर बंद कर दिया जाता और दो साल बाद उसे खाद के रूप में निकालकर खेतों में डाल दिया जाता और यह सारा काम शिक्षकों और प्रशिक्षु शिक्षकों का होता था। घरों की नाली की सफाई खुद घर के सदस्य करते थे। सफाई और स्वयं काम करने की प्रेरणा हमें भी वहां रहते मिली। खेती से लेकर बागबानी करना तक हम सीख गए थे। कैंपस में रबी और खरीफ की फसल हर साल शिक्षक ही करते थे। कुएं में रहट लगा होता था और उसी से खेतों की सिंचाई होती थी। अपने-अपने खेत तक पानी की धार को मोड़कर कैसे लाया जाए, यह हम भी जान गए थे। समाज की परिभाषा वहीं रहते सीखी। महात्मा गांधी जब पटना जिला के विक्रम में आए तो उसी ट्रेनिंग कॉलेज के मंच से उन्होंने जनता को संबोधित किया था। बात 80 के दशक की है। तब मैं विक्रम के पार्वती हाई स्कूल का छात्रा था। डुमरांव से विक्रम तक कैंपस में कोई खास बदलाव नहीं आया था। वही दिनचर्या। शिक्षकों के एक-दो घरों को छोड़कर सारे घरों में कमाऊ शौचालय थे। होस्टल में रह रहे प्रशिक्षु शिक्षकों के लिए भी महज दो फ्लश शौचालय था। ऐसे में अधिकतर लोगों को

यह गांधी के विचारों का ही प्रभाव था कि रामजीवन हमारे लिए अछूत नहीं थे। हम ब्राह्मण परिवार के थे और मेरे घर में फ्लश टॉयलेट था। रामजीवन से हमारा कोई सीधा संबंध नहीं था। बावजूद वे मेरे घर पर आते। बाबूजी ने कभी उन्हें जमीन पर बैठने नहीं दिया

खेतों का सहारा लेना पड़ता था। यहां भी जिनके घरों में कमाऊ शौचालय था, वहां का शौच स्कैवेंजर ही साफ करते थे। रामजीवन नाम था उनका, जो हमारे कमाऊ शौचालय को साफ करते थे और टीन के डिब्बे में शौच भरकर दूर फेंकने जाते थे और लौटकर उसी हैंडपंप पर स्नान करते थे, जहां हम सभी स्नान करते थे, पीने का पानी भरते थे। रामजीवन को नहाते देखना भी अच्छा लगता। रोज साबुन रगड़-रगड़कर आधे घंटे तक नहाना उनका काम था। यह गांधी के विचारों का ही प्रभाव था कि रामजीवन हमारे लिए अछूत नहीं थे। हम ब्राह्मण परिवार के थे और मेरे घर में फ्लश टॉयलेट था। रामजीवन से हमारा कोई सीधा संबंध नहीं था। बावजूद वे मेरे घर पर आते। बाबूजी ने कभी उन्हें जमीन पर बैठने नहीं दिया। उनके लिए कुर्सी निकाली जाती। होली के अवसर पर जब वे बाबूजी के पांव पर अबीर रखने आते तो बाबूजी को उन्हें गुलाल लगाकर गले लगाते भी देखा है और हम भाई बहन भी रामजीवन के पैर पर अबीर रखकर आशीर्वाद लेते। अगर रास्ते में कुछ शरारत करते या असमय घर से बाहर देखते तो हमें डांटने का अधिकार भी वे रखते थे। रामजीवन पढ़े लिखे थे और अखबार खरीदकर पढ़ते थे। रामजीवन का कोई परिवार नहीं था। मेरे पड़ोस में आंगनबाड़ी की एक शिक्षिका रहती थीं, उनके यहां ही उनका खाना-पीना और रहना होता था। शाम को कुछ घरों की सब्जी लाने से लेकर गेहूं पिसवाने का काम भी रामजीवन का ही था। कोई पर्व-त्योहार हो, रामजीवन अपने साफ कपड़ों के साथ वहां मौजूद रहते। तकली और चरखे से सूत कातना और करघे पर कपड़ा बुनना भी पाठ्यक्रम में शामिल था। जल्दी-जल्दी सूत कातने में रामजीवन माहिर थे। चरखा गीतों के वे बोल तो अब याद नहीं, लेकिन रामजीवन उन गीतों से लोगों में उत्साह भरते रहते थे। रामजीवन-जैसे लोग कैसे अछूत बनने से बच गए, यह मैंने देखा है। आज गांधी के विचार हमारे समाज में विद्यमान तो हैं, उनपर चर्चाएं भी होती हैं, लेकिन क्रियात्मक-परिवर्तनात्मक रूप में उनका उपयोग बहुत कम देखने में मिलता है। ऐसे में सुलभ इंटरनेशनल-जैसी संस्थाओं का ही उल्लेख किया जा सकता है।

एक देश की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से आंका जा सकता है कि वहां जानवरों से कैसे व्यवहार किया जाता है


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शास्त्री जंयती विशेष

02 - 08 अक्टूबर 2017

घर का नन्हे, देश का लाल

सादगी, साहस और दृढ़ निश्चय के साथ एक साधारण पृष्ठभूमि से देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे लाल बहादुर शास्त्री का पूरा जीवन ही एक प्रेरक अध्याय है

यदि कोई एक व्यक्ति भी ऐसा रह गया, जिसे किसी रूप में अछूत कहा जाए तो भारत को अपना सर शर्म से झुकाना पड़ेगा

एसएसबी ब्यूरो

सहयोग आंदोलन और फिर उसके बाद भारत छोड़ो आंदोलन के कारण देश के कई युवा राष्ट्र सेवा के लिए सार्वजनिक जीवन में आए। इन युवाओं ने स्वाधीनता के बाद भी देश की सेवा की और सार्वजनिक जीवन की शुचिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अटूट बनाए रखा। ऐसे ही युवाओं में एक थे लाल बहादुर शास्त्री जो स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री भी बने। उनके प्रधानमंत्रित्व काल में देश में नई स्फूर्ति तथा राष्ट्रीय भावना का जागरण हुआ। ‘जय जवान- जय किसान’ का नारा देकर उन्होंने देश में नई चेतना का संचार किया था। शास्त्रीजी सज्जनता, त्याग, सादगी, मनुष्यता के पुजारी थे। उनके व्यक्तित्व में असाधारण दृढता और विपरीत परिस्थितियों में अडिग बने रहने की साहसिकता भी उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में 2 अक्टूबर 1904 को हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव इलाहाबाद के एक कायस्थ पाठशाला में प्राइमरी के अध्यापक थे और बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाया करते थे। शारदा प्रसाद साधारण परिवार के तो थे ही, साथ ही स्वभाव से सरल तथा सच्चाई, ईमानदारी के आदर्शों के प्रति निष्ठावान थे। बचपन में शास्त्रीजी को घर– परिवार में ‘नन्हे’ कहकर बुलाया जाता था। उनकी मां का नाम व रामदुलारी देवी था। जिस समय नन्हे की अवस्था मात्र डेढ़ वर्ष की थी, उसी समय उनके पिता शारदा

प्रसाद का प्लेग के कारण देहांत हो गया। 1906 में पिता के देहांत के बाद नन्हे का पालन पोषण ननिहाल में हुआ था। जब नन्हे की अवस्था 2 महीने की थी, उस समय वह इलाहाबाद में गंगा स्नान मेले में अपनी मां की गोद से छूटकर एक गड़रिए की टोकरी में जा गिरे थे। पुत्र के भीड़ में छिटककर गायब हो जाने से मां बुरी तरह से रोने लगीं। किंतु शीघ्र ही पुलिस ने नन्हे को गड़रिए से लेकर उनकी माता को सौंपा तो घर में प्रसन्नता की सीमा ना रही। शास्त्री जी जब 6 वर्ष के थे, उस समय की एक घटना ने उनके जीवन पर बहुत असर डाला। इसी घटना से जीवन में सोच समझकर चलते हुए श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा मिली। हुआ यह था कि 6 वर्षीय नन्हे एक बार अपने साथियों के साथ एक आम के बगीचे में जा घुसे। बगीचे में सभी बच्चे पेड़ पर चढ़कर आम तोड़कर खाने लगे। नन्हे चुपचाप एक ओर खड़े थे। साहसा उन्होंने गुलाब का एक सुंदर फूल देखा, तो उसे तोड़ कर सूंघने लगे। तभी वहां बाग का माली आ गया, सभी बच्चे माली को देख कर भाग गए। किंतु नन्हे वहीं खड़े रहे। माली ने नन्हे के गाल पर जोर का तमाचा मारा, तो नन्हे ने रोते हुए कहा, ‘मैंने तो आम नहीं तोड़े थे। तुमने मुझे क्यों मारा, तुम्हें पता

नहीं है कि मेरे पिता नहीं हैं।’ इस पर माली ने नन्हे से कहा, ‘बेटा पिता के न होने से तो तुम्हें और भी सोच– समझ कर चलना चाहिए और चोरी न करके अच्छा बच्चा बनने का प्रयास करना चाहिए।’ माली की इस शिक्षा से नन्हे को अपने जीवन को श्रेष्ठ दिशा देने का ज्ञान मिला। उसी दिन उन्होंने संकल्प किया कि भविष्य में दूसरों को हानि पहुंचाने वाला कोई काम नहीं करूंगा। लाल बहादुर महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के समय दसवीं कक्षा के छात्र थे, उसी समय वो भी असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे। 1925 में लाल बहादुर शास्त्री ने काशी विद्यापीठ से दर्शन शास्त्र की उच्च शिक्षा लेकर स्नातक की डिग्री प्राप्त की। तथा तभी ‘शास्त्री’ सर्वदा के लिए उनके नाम के साथ जुड़ गया और उन्हें लाल बहादुर शास्त्री कहा जाने लगा। 1925 में शास्त्रीजी का परिचय देश के दिग्गज नेताओं से हुआ। जिनमें बनारस के भारत रत्न डॉक्टर भगवानदास, आचार्य कृपलानी, श्री प्रकाश, डॉक्टर संपूर्णानंद, लाला लाजपत राय आदि थे। लाला लाजपत राय ने ‘लोक सेवक समाज’ की स्थापना की थी। शास्त्री जी उसके नियमित सदस्य बन गए। शास्त्री जी को मेरठ के कुमार आश्रम में रहकर हरिजनों की सेवा का कार्य सौंपा गया। शास्त्रीजी इस सेवा के कार्य के लिए प्राय: मेरठ और सहारनपुर आदि स्थानों पर आते-जाते रहते थे। इस कार्य में वो पूर्ण मनोयोग से लगे रहे थे। इसी दौरान यानी 1927 में शास्त्रीजी का विवाह ललिता देवी से हुआ। 1930 में शास्त्रीजी की पत्नी ने भी राजनीति में पदार्पण किया, जबकि शास्त्रीजी सन 1920 – 21 मई में हीं कांग्रेस में शामिल होकर असहयोग आंदोलन में जेल यात्रा कर चुके थे। 1930 – 1945 तक शास्त्रीजी अधिकतर कारागार में ही रहे। कारागार के दौरान उन्होंने अनेक राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक विचारकों के ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया। लाल बहादुर शास्त्री में असाधारण नैतिकता का गुण था, जो कई बार विभिन्न घटनाओं के बीच देखा गया। शास्त्री जी एक बार नैनी जेल में थे, उस समय घर से उनकी पुत्री की बीमारी के बारे में समाचार पहुंचा। जेल के अधिकारियों ने उन्हें पैरोल पर रिहा करना स्वीकार कर लिया और उन्हें 15 दिन का अवकाश दिया गया। परंतु शास्त्री जी जब घर पहुंचे

लाला लाजपत राय ने ‘लोक सेवक समाज’ की स्थापना की थी। शास्त्रीजी उसके नियमित सदस्य बन गए। शास्त्रीजी को मेरठ के कुमार आश्रम में रहकर हरिजनों की सेवा का कार्य सौंपा गया


शास्त्री जंयती विशेष तो उससे पूर्व ही उनकी पुत्री चल बसी थी। दाह क्रिया आदि के बाद शास्त्रीजी शीघ्र ही नैनी जेल के लिए रवाना हो गए। घर परिवार के सदस्य जब उन्हें रोकने लगे तो उन्होंने कहा, ‘जिस कार्य के लिए मुझे पैरोल पर रिहा किया गया था, वह काम तो समाप्त हो चुका है।’ 1935 में ब्रिटिश संसद द्वारा एक भारतीय शासन अधिनियम के सुधार के अनुसार 1947 में कांग्रेस ने विधानसभा के चुनाव लड़े और बहुमत प्राप्त किया। लाल बहादुर शास्त्री ने भी विजय होकर विधानसभा की सदस्यता प्राप्त कर ली। भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने पर कांग्रेस ने सभी प्रदेशों से त्यागपत्र दे दिए। 1940 में जब विनोबा भावे ने सत्याग्रह शुरू किया तो, उस सत्याग्रह में भाग लेने के कारण शास्त्रीजी भी बंदी हुए और उन्हें एक वर्ष का कारावास हुआ। 15 अगस्त सन 1947 को देश स्वतंत्र हुआ तो शास्त्रीजी को मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। शास्त्रीजी को पुलिस तथा परिवहन मंत्रालय के साथ-साथ प्रदेश का गृह मंत्री भी बनाया गया। 1949 में जब शास्त्रीजी गृह मंत्री पद पर आसीन थे, तब छात्र – छात्राओं के एक आंदोलन में भीड़ को तितर बितर करने के लिए उन्होंने लाठी चार्ज का आदेश नहीं दिया, उसके स्थान पर उन्होंने पानी की बौछार का आदेश दिया। जिसका बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ा। 1950 में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के बाद लाल बहादुर शास्त्री कांग्रेस के महामंत्री बने। 1952 के चुनाव में आपने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा चुनाव के पश्चात वे राज्य सभा सदस्य बने, जहां केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन्हें रेल और यातायात का कार्यभार सौंपा गया। अपने मंत्रित्व काल में एक रेल दुर्घटना होने पर उन्होंने नैतिकता के नाते अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। 27 मई 1964 को जवाहर लाल नेहरू के निधन के पश्चात कांग्रेस संसदीय दल ने शास्त्रीजी को सर्वसम्मति से अपना नेता चुना। और वो भारत के दूसरे प्रधानमंत्री बने। जिस समय शास्त्री जी ने देश की बागडोर संभाली, उस समय देश में अनेक चुनौतियां थी, जिनका निराकरण शास्त्री जी ने बड़ी सूक्ष – बूझ के साथ किया। ऐसे संकट के समय 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। परंतु शास्त्रीजी रत्ती भर विचलित नहीं हुए। उन्होंने भारतीय सेना को पाकिस्तान के आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब देने का आदेश दिया। शास्त्रीजी ने ओजस्वी स्वर में कहा था, ‘इस बार युद्ध भारत की धरती पर नहीं, बल्कि पाकिस्तान की धरती पर होगा।’ इस युद्ध में भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सेना को पूरा सबक सिखाया। पाकिस्तान इस युद्ध में बुरी तरह पराजित हुआ। सारे देश में विजय की खुशी मनाई गई। इस दौरान रूस के प्रधानमंत्री कोसिगन ने भारत– पाकिस्तान के बीच शांति समझौता कराने के लिए ताशकंद में वार्ता आयोजित की। 3 जनवरी 1966 से 10 जनवरी 1966 तक लगातार 8 दिन तक ताशकंद में बैठक चलती रही। आपस में समझौता हुआ, जिसे ताशकंद समझौता कहा गया। परंतु ना जाने क्या रहस्यमयी परिस्थितियां थीं कि 11 जनवरी 1966 को दिल का दौरा पड़ने से भारत माता का यह लाड़ला सपूत संसार से चल बसा।

02 - 08 अक्टूबर 2017

लाल बहादुर शास्त्री जी का कुर्ता

प्र

धानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री एक बार किसी अधिवेशन में शामिल होने भुवनेश्वर गए। अधिवेशन से पहले जब शास्त्री जी स्नान कर रहे थे, तब दयाल महोदय ने इस भावना से कि शास्त्री जी का अधिक समय कपड़े पहनने में व्यर्थ न जाए, सूटकेस से उनका खादी का कुर्ता निकालने लगे। उन्होंने एक कुर्ता निकाला तो देखा कुर्ता फटा हुआ था। उन्होंने वह कुर्ता ज्यों का त्यों तह करके वापस रख दिया और उसके स्थान पर दूसरा कुर्ता निकाला। परंतु उन्हें देखकर और भी ज्यादा अचंभा हुआ कि दूसरा कुर्ता पहले की अपेक्षा अधिक फटा था और जगह-जगह से सिला हुआ भी था। उन्होंने सूटकेस के सारे कुर्ते निकाले तो देखा कि एक भी कुर्ता साबुत नहीं था। यह देखकर वह परेशान हो उठे कि शास्त्री जी स्नान करके आ गए। उन्होंने दयाल जी की परेशानी देखकर कहा, इसमें चिंता की कोई बात नहीं। जाड़े में फटे और

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यदि लगातार झगड़े होते रहेंगे तथा शत्रुता होती रहेगी तो हमारी जनता को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। परस्पर लड़ने की बजाय हमें गरीबी, बीमारी और अज्ञानता से लड़ना चाहिए। दोनों देशों की आम जनता की समस्याएं, आशाएं और आकांक्षाएं एक समान हैं। उन्हें लड़ाई-झगड़ा और गोला-बारूद नहीं, बल्कि रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता है उधड़े कुर्ते कोट के नीचे पहने जा सकते हैं। इसमें कैसी परेशानी और शर्म। अधिवेशन के बाद शास्त्री जी दयाल जी के साथ कपड़े की एक मिल देखने गए। शोरूम में उन्हें बहुत खूबसूरत साड़ियां दिखाई गईं। शास्त्रीजी ने कहा, 'साड़ियां तो बहुत अच्छी हैं पर इनकी कीमत क्या है? मिल मालिक ने कहा, 'जी यह आठ सौ की और ये वाली हजार रूपए की। शास्त्री जी ने कहा, 'यह बहुत महंगी हैं, मुझ जैसे गरीब के मतलब की दिखाइए।' 'आपको तो ये साड़ियां हम भेंट करेंगें। आप देश के प्रधानमंत्री जो हैं।' मिल मालिक ने कहा। 'प्रधानमंत्री तो हूं, पर मैं आपसे भेंट कभी नहीं लूंगा और साड़ियां भी अपनी हैसियत के मुताबिक ही खरीदूंगा।' उन्होंने अपनी हैसियत के अनुसार सस्ती साड़ियां अपने परिवार के लिये खरीदीं। लालबहादुर शास्त्री जैसे प्रधानमंत्री के विचारों के समक्ष दयालजी के साथ मिल मालिक भी नतमस्तक हो गए।


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शक्ति-रूपेण संस्थिता दुर्गा पूजा के सजे पंडालों में देवी की भव्य प्रतिमाएं हमें बार-बार यही सीख देती हैं कि दुर्विचार और अंधकार का नाश सुनिश्चित है। प्रेरणा का यह उत्सव भारतीय परंपरा की रौनक तो है ही, बड़ी शक्ति भी है। फोटो ः शिप्रा दास

नवरात्रि के आखिर के तीन दिनों में दुर्गा पूजा की शोभा देखते ही बनती है। घर-परिवार के लोग अपने बच्चों के साथ जहां दुर्गा की प्रतिमाएं देखने निकलते हैं, वहीं इस दौरान उपहारों की खरीददारी और खानपान का लुत्फ भी सभी मिलकर उठाते हैं।


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फोटो फीचर

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लीला अनंत रघुनंदन की

रामलीला और दशहरे का साझा देश में सैकड़ों वर्षों से एक सांस्कृतिक परंपरा के तौर पर आगे बढ़ रहा है। बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रेरक सबक इस परंपरा को हमारी भावनाअों के साथ अभिन्न बनाता है।

फोटो ः जयराम

देशभर में रामलीलाएं पूरे उत्साह से खेली जाती हैं। स्कूलों से लेकर विभिन्न सामाजिक संस्थाएं इस आयोजन को हर साल मिल-जुलकर करती हैं।


30 आयोजन

02 - 08 अक्टूबर 2017

गोवा में साहित्योत्सव

सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति एवं गोवा विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग के संयुक्त तत्त्वावधान में ‘गोवा-साहित्योत्सव’ का आयोजन हुआ

एक नजर

‘संस्कृति-समन्वय-शिखर-सम्मान’ से विभूषित हुई डॉ. मृदुला सिन्हा डॉ. सीपी ठाकुर को मिला ‘प्रज्ञाप्रखर-सम्मान’ पंडित सुरेश नीरव के नेतृत्व में कवि साहित्यकार गोवा में जुटे

सु

सुनीता शर्मा

रेश नीरव जी की अध्यक्षता में अखिल भारतीय सर्वभाषा-संस्कृति-समन्वय-समिति एवं गोवा विश्वविद्यालय के हिंदी-विभाग के संयुक्त तत्त्वावधान में 8 और 9 सितंबर, 2017 को ‘गोवा-साहित्योत्सव’ का आयोजन हुआ। 8 सितंबर, 2017 को गोवा विश्वविद्यालय के सम्मेलन सभागार में त्रिसत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत प्रथम सत्रा का विषय ‘वैश्विक संदर्भ में हिंदी: संभावनाएं एवं चुनौतियां’ था। इस सत्र में प्रमुख वक्ता थे-डॉ. अशोक विठोबा बाचुलकर, महाराष्ट्र, प्रो. वृषाली मांद्रेकर,गोवा विश्वविद्यालय, आचार्य श्याम स्नेही, गुरुग्राम और शोध-छात्रा चंदन कुमार, दिल्ली। सभी विद्वानों ने विषय से संबंधित समस्याओं एवं समाधान पर श्रोताओं के समक्ष अपने मूल्यवान विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने सभागार में उपस्थित दर्शकों तथा देशभर से आए कवियों तथा गोवा विश्वविद्यालय के छात्रों से हिंदी को अधिक-सेअधिक प्रचलित करने का वचन भी लिया। कार्यक्रम का कुशल संचालन डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने किया। हिंदी के लिए समर्पित ‘प्रेक्षा’ पत्रिका के संपादक जगदीश ठकराल ने अखिल भारतीय सर्वभाषासंस्कृति-समन्वय-समिति के विषय में अपने विचार रखे और प्रतिभागियों को अपनी शुभकामनाएं प्रदान कीं।

कार्यक्रम की अध्यक्षता पं. सुरेश नीरव जी ने की। अपने व्याख्यान से उन्होंने न केवल श्रोताओं को मंत्रामुग्ध किया वरन् उनकी समस्याओं का समाधान भी किया। कार्यक्रम का दूसरा सत्र देश के विभिन्न भागों से आए हुए कवियों के द्वारा उत्कृष्ट कविता-पाठ से संपन्न हुआ, जिसमें देश के जाने-माने कवि डॉ. भुवनेश सिंघल, दिल्ली, डॉ. प्रेमलता नीलम, दमोह, डॉ. रुचि चतुर्वेदी, आगरा, डॉ. प्रतिभा माही, पंचकुला, डॉ. काजी तनवीर, ग्वालियर, श्री प्रकाश प्रलय, कटनी, रामवरण ओझा, ग्वालियर, हरियाणवी फिल्मी गीतों के मशहूर गीतकार मुनीष

भाटिया ‘घायल’, हिसार, मनोज आनंद, कटनी, डॉ. पुष्पा जोशी, नोएडा, डॉ. अशोक कुमार ज्योति, गुरुग्राम, डॉ. अशोक विठोबा बाचुलकर, कोल्हापुर, सुनीता ‘श्रुतिश्री’, दिल्ली, मधु मिश्रा, गाजियाबाद और जयप्रकाश ‘विलक्षण’, दिल्ली ने कविता पाठ किया। इस अवसर पर दिल्ली से संस्था के सदस्य शिवनरेश पांडेय अपनी धर्मपत्नी श्रीमती अनीता पांडेय के साथ उपस्थित रहे। गोवा की महामहिम राज्यपाल डॉ. मृदुला सिन्हा जी ने कवियों की श्रेष्ठता को प्रकट करते हुए उदाहरण-सहित कहा, ‘जिस प्रकार पतीली में पकते हुए चावलों के एक-दो दानों से ही हम अनुमान लगा लेते हैं कि चावल पक

‘गोवा-साहित्योत्सव’ का दीप प्रज्वलन कर उद्घाटन करते अखिल भारतीय सर्वभाषा-संस्कृति-समन्वय-समिति के अध्यक्ष पं. सुरेश नीरव, ‘प्रेक्षा’ पत्रिका के संपादक श्री जगदीश ठकराल, कार्यक्रम की सह-संयोजिका डॉ. वृषाली मांद्रेकर तथा डॉ. इशरत खां

चुका है, उसी प्रकार नीरव जी के साथ आए विद्वानों के समूह को देखकर उनके स्तर का अनुमान लग गया कि यह कितना अच्छा है। उन्होंने विश्वपटल पर हिंदी की स्थिति की चर्चा की और सामान्य आचरण में हिंदी को अपनाने की अपील की। कार्यक्रम के तीसरे सत्र में संस्था की ओर से महामहिम डॉ. मृदुला सिन्हा जी को उनकी उल्लेखनीय साहित्यिक सेवाओं के लिए ‘संस्कृतिसमन्वय-शिखर-सम्मान’ एवं पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री तथा राज्यसभा स्टैंडिंग कमिटी के चेयरमैन डॉ. सी.पी. ठाकुर को उनकी साहित्यिक एवं चिकित्सकीय के क्षेत्रा में उत्कृष्ट सेवाओं के लिए ‘प्रज्ञा-प्रखर-सम्मान’ से सम्मानित किया गया। इसके पश्चात कार्यक्रम में सम्मिलित कवियों का सम्मान महामहिम डॉ. मृदुला सिन्हा और डॉ. सी.पी. ठाकुर के द्वारा किया गया। तत्पश्चात ‘वैश्विक संदर्भ में हिंदी: संभावनाएं एवं चुनौतियां’ विषय पर क्रमशः दोनों महानुभावों के व्याख्यान भी हुए। कार्यक्रम की सह-संयोजिका डॉ. वृषाली मांद्रेकर ने स्वीकार किया कि गोवा विश्वविद्यालय में हिंदी के संदर्भ में ऐसा कार्यक्रम कभी नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि हमारे यहां हिंदी के कार्यक्रम तो होते रहे हैं, जिनमें हिंदी के अनेक विद्वान आते हैं, परंतु इतने विद्वान एक साथ कभी नहीं आए। यह कार्यक्रम इतना रोचक रहा कि महामहिम को भी उससे बहुत प्रसन्नता हुई और उन्होंने अगले दिन यानी 9 सितंबर को सभी प्रतिभागियों को सुबह 9 बजे राजभवन में चाय पर आमंत्रित किया। अगले दिन राजभवन जाने से पहले प्रातःकाल में ही गोवा के समुद्र-तट ‘दोना पावला’ पर पुनः कवि-सम्मेलन हुआ। इस कवि-सम्मेलन में भी देशभर से गोवा पहुंचे लगभग सभी कवियों काव्य पाठ किया। कवि सम्मेलन के बाद सभी राजभवन पहुंचे, जहां डॉ. मृदुला सिन्हा के पति डॉ. रामकृपाल सिन्हा से भेंट हुई। वे सभी कवियों से आत्मीयता से मिले। कुछ ही समय में महामहिम भी पधारीं। सभी ने उनके साथ तस्वीरें खिंचवाईं व विभिन्न विषयों पर परिचर्चा की।


02 - 08 अक्टूबर 2017

प्रधानमंत्री मोदी पर लिखी किताब का ग्लोबल लांच

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन के विविध पड़ावों, विचारों और उपलब्धियों को रेखांकित करने वाली डॉ. पाठक द्वारा रचित कॉफी टेबल बुक 'द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड' को वाशिंगटन में लोकार्पित किया गया

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रत के ओजस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन पर लिखी कॉफी टेबल बुक 'द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड' को अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में ग्लोबली लांच किया गया। इस अवसर पर इस किताब की प्रतियां खासतौर पर अमेरिकी सांसदों एच मॉर्गन ग्रिफिथ, थॉमस ए गैरेट, बारबरा कॉमस्टोक, टेड योहो और एमी बेरा को भेंट की गईं। अमेरिकी सांसदों ने किताब की रचना के साथ प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तित्व और कार्यों की जमकर तारीफ की। इस पुस्तक के लेखक सुलभ स्वच्छता व सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक हैं। इस मौके पर डॉ. पाठक ने कहा कि पीएम मोदी एक सच्चे और जमीनी स्तर के नेता हैं। 26 सितंबर को बंबई तंदूर रेस्त्रां में आयोजित पुस्तक विमोचन समारोह में वाशिंगटन और वर्जिनिया के गणमान्य लोगो उपस्थित थे। जिन विशिष्ट लोगों

की उपस्थिति इस समारोह में रही, उनमें फेयरफैक्स काउंटी रिपब्लकिन कमेटी, वर्जिनिया के चेयरमैन मैट एम्स, वाशिंगटन में अफगान दूतावास के रक्षा अधिकारी अहमद शाह कतावजाई, ट्रंप एडवाइजरी कमेटी के सदस्य पुनीत अहलूवालिया और ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी के प्रमुख अडप्पा प्रसाद के अलावा बड़ी संख्या में मीडिया प्रतिनिधि शामिल थे। इस मौके पर डॉ. पाठक को विशेष तौर पर पुस्तक लेखन को लेकर उनके अनुभव और प्रेरणा के साथ स्वच्छता के क्षेत्र में उनके पांच दशक लंबे अनुभव को साझा करने के लिए आमंत्रित किया गया। सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की विशिष्टताओं के साथ उनकी उपलब्धियों पर प्रकाश डाला। उन्होंने उम्मीद जताई कि जैसा पीएम मोदी ने संकल्प लिया है, उम्मीद है कि भारत 2019 तक सौ फीसदी स्वच्छता का लक्ष्य निश्चित तौर पर हासिल कर लेगा। इस मौके पर डॉ. पाठक ने पीएम मोदी की विशेषताओं के बारे में चर्चा करते हुए कहा, ‘यह उनकी आदत में शुमार है कि वे लोगों के लिए कार्य करें और ऐसा करने के लिए ईश्वर ने उन्हें जो भी अवसर दिया है, उसका वे भरपूर लाभ उठाएं।’ उन्होंने अपनी बातों को कहते हुए यह भी जोड़ा कि शहर और गांव के विकास में कोई अंतर नहीं होना चाहिए और यह पीएम मोदी ने भारत में करके दिखाया है। सुलभ प्रणेता ने प्रधानमंत्री मोदी को कुशल और योग्य बताते हुए सामाजिक कल्याण और विकास के लिए एक बड़ा मार्गदर्शक बताया। डॉ. पाठक द्वारा रचित कॉफी टेबल बुक 'द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड' में नरेंद्र मोदी के जीवन के विविध पड़ावों के साथ, उनके विचार और उपलब्धियों की सचित्र और तथ्यगत तौर पर प्रामाणिक रूप से चर्चा की गई है। भारत में इस किताब का विमोचन इस साल जुलाई में हुआ था।


32 प्रेरक प्रसंग

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

02 - 08 अक्टूबर 2017

ऐसे थे लाल खुद ही धोते थे कपड़े

लाल बहादुर शास्त्री जी के घर में सफाई करने वाली बाई आती थी उसे आने से उन्होंने मना कर दिया और खुद ही अपने कपड़ धोने शुरु कर दिए। शास्त्रीजी ने बाई को यह कहते हुए नहीं आने को कहा कि देश हित के लिए मैं इतना खर्चा नहीं कर सकता। जिस वक्त लाल बहादुर शास्त्रीजी ने बाई को आने से मना किया था उस वक्त उनकी पत्नी ललिता देवी काफी बीमार रहा करती थीं। शास्त्री जी ने खुद ही अपने कपड़े धोने शुरु कर दिए। यही नहीं घर की सफाई भी वह स्वयं करते थे।

नहीं लेते थे वेतन

शास्त्री जी के त्याग और बलिदान की कहानी यहीं नहीं खत्म होती हैं। शास्त्रीजी ने खुद के लिए धोती खरीदने से भी इनकार कर दिया था। उन्होंने अपनी पत्नी को फटी हुई धोती को सिल देने को कहा। शास्त्री जी ने उस वक्त वेतन लेना भी बंद कर दिया था।

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खुद के खर्चों में कमी

रत और पाकिस्तान के बीच 1965 के युद्ध को आज 50 साल हो गए हैं। उस युद्ध में भारत ने पाक सेना को बुरी तरह से मात दी थी, लेकिन उस जीत के पीछे खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का बड़ा योगदान है। यूं तो सेना सीमा पर लड़ती है, लेकिन देश के भीतर लोगों में देश के लिए जज्बे को बढ़ाना और उन्हें देश

के लिए प्रेरित करना एक सच्चे नेता की निशानी होती है। इस विधा में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री एक सच्चे राजनेता था। लाल बहादुर शास्त्री ने जहां लोगों से सप्ताह में एक बार व्रत रखने की अपील की वहीं खुद सबसे पहले व्रत रखना शुरू कर दिया था। यही नहीं शास्त्रीजी ने स्वंय के खर्चों में बेहद कमी कर दी थी।

अंग्रेजी का ट्यूटर हटा दिया

लाल बहादुर शास्त्री जी ने ना सिर्फ बाई को आने से मना कर दिया, बल्कि उनके बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाने वाले ट्यूटर को भी आने से मना कर दिया। उस वक्त जब ट्यूटर ने कहा कि आपका बच्चा अंग्रेजी में फेल हो जाएगा तो उन्होंने कहा कि देश के हजारो बच्चे अंग्रेजी मे ही फेल होते हैं तो इसे भी होने दो। अगर अंग्रेज हिन्दी मे फेल हो सकते हैं तो भारतीय अंग्रेजी में फेल हो सकते हैं । ये तो स्वाभाविक है क्योंकि अंग्रेजी अपनी भाषा नहीं है।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 1, अंक - 42


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