वर्ष-1 | अंक-21 | 08-14 मई 2017
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10 नदी संरक्षण
भागीरथी प्रयास
नदियों को जीवन देने की ऐतिहासिक कोशिश
14 कृषि
हरियाली दीदी
छत पर फल-सब्जी उगाने वाली महिला रोल मॉडल
32 अनाम हीरो
मुंबई का ‘श्रवण कुमार’ बुजुर्गों को मुफ्त भोजन करा रहे हैं डॉ. उदय मोदी
‘पूरा देश शपथ ले देश स्वच्छ हो जाएगा’
हरिद्वार में पतंजलि आयुर्वेद शोध केंद्र के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता की दरकार पर जोर दिया
प्र
एसएसबी ब्यूरो
धानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगगुरु बाबा रामदेव के बीच संबंध की प्रगाढ़ता नई नहीं है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दोनों की नजदीकी ने एक राष्ट्रीय एजेंडे की शक्ल ली। योग और स्वच्छता पर जोर सरकार की प्राथमिकता तो बनी ही, इसने बीते तीन सालों में एक नए तरह के राष्ट्रीय आंदोलन का भी स्वरूप लिया है। इस दौरान 11 दिसंबर
‘साहस’ का संवाद आधी दुनिया साहस
महिलाओं की समस्याएं हमेशा से सरकारों के लिए चिंता का विषय रही हैं। यही कारण है कि इन समस्याओं से विकास की गति अवरुद्ध होती रही है। मोना और पूर्वी की मुहिम ‘साहस’ मानो आने वाली पीढ़ी के लिए ऐसे मुद्दों से निपटने के लिए योजना तैयार कर रही है
मैं
रॉबिन केशव
निशा से पहली बार मिल रहा था, अचानक उसके इस वाक्य ने मुझे भौचक्क कर दिया, भैया आपको ऐसा क्यों लगता है कि कोई लड़का सैनिटरी पैड के बारे में पूछे तो यह शर्मिंदगी वाली बात है। उसकी बातों में जरा भी शिकन नहीं थी। द्वारका सेक्टर तीन के जे जे कॉलोनी में रहने वाली इस लड़की की उम्र मात्र 14 साल है, और अभी नौंवी
क्लास में पढ़ रही है। खुशी की बात है कि निशा ने इतनी कम उम्र में ही अपने आस पास सैनिटरी पैड के बारे में बनाए गए रूढ़िवादी नजरिए को पहचान लिया है। वह कहती है कि आखिरकार यह स्त्रियों के शरीर की प्राकृतिक क्रिया है तो शर्म कैसी। निशा समेत 25 और लड़कियां ‘साहस’ के द्वारा महीने लंबी वर्कशॉप में भाग ले रही हैं। ‘साहस’ एक ऐसी संस्था है जो जेंडर के मुद्दों पर संवाद के लिए जगह बना रही है। सभी 12 से 14 के आयु वर्ग की ...जारी पेज 2
2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 21 जून को ‘विश्व अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की। दिलचस्प है कि इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र से इस बाबत अपील की थी। भारत ही नहीं विश्व में हाल के दो दशक में योग को नए सिरे से स्वीकृति दिलाने और इसे घर-घर में लोकप्रिय बनाने में बाबा रामदेव की बड़ी भूमिका रही है। वे योग के साथ आयुर्वेद के भी प्रसार के कार्य में सघन तत्परता से लगे हैं। उनकी इस कोशिश ने हाल में तब एक राष्ट्रीय ...जारी पेज 2
02 आवरण कथा
08-14 मई 2017
‘पूरा देश शपथ ले, देश स्वच्छ हो जाएगा’
साहस का संवाद
एक नजर
परिघटना का रूप ले लिया, जब प्रधानमंत्री मोदी हरिद्वार में योगगुरु रामदेव के आमंत्रण पर ‘पतंजलि आयुर्वेद शोध केंद्र’ के उद्घाटन के लिए पहुंचे। इस मौके पर प्रधानमंत्री ने जहां एक तरफ कहा कि आयुर्वेद जैसी पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को नजरअंदाज करना गलत है, वहीं उन्होंने स्वास्थ्य की दृष्टि से स्वच्छता के महत्व को एक बार फिर रेखांकित किया। उन्होंने कहा, ‘मुझे यकीन है कि जिस दिन 125 करोड़ लोग भारत को स्वच्छ बनाने की शपथ ले लेंगे, तब वह दिन दूर नहीं रहेगा, जब पूरा देश स्वच्छ हो जाएगा।’ इस मौके पर प्रधानमंत्री ने कई बार स्वास्थ्य और स्वच्छता के पूरक संबंधों की चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘अगर हम स्वच्छता की शपथ लें, गंदगी और कूड़ा-कचरा न फैलाने की शपथ लें, तो चिकित्सक जितनी जिंदगियां बचाते हैं, हम उनसे भी ज्यादा जिंदगियां बचा पाएंगे।’ इसके आगे उन्होंने यह भी जोड़ा कि भारत में स्वच्छता को लेकर कोई पहली बार जोर नहीं दिया जा रहा है, बल्कि स्वच्छता हमारी परंपरा और जीवनशैली का
दिलचस्प है कि योग, आयुर्वेद और स्वच्छता एक दूसरे से अलग नहीं, बल्कि आपस में जुड़े हैं। इसीलिए इनके बारे में अलग-अलग नहीं, बल्कि समेकित तरह से बात करनी होगी, साझे तौर पर ही इस बारे में कोई योजना या कार्यक्रम बनाना होगा। प्रधानमंत्री मोदी ने इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘दुनिया में अब केवल रोगों के इलाज पर ही जोर नहीं दिया जा रहा, बल्कि निवारक चिकित्सा पर भी जोर दिया जा रहा है। निवारक चिकित्सा सुनिश्चित करने और उसे बढ़ावा देने के लिए स्वच्छता सबसे जरूरी है।’ प्रधानमंत्री ने देश-विदेश में योग के प्रति
हिस्सा रही है। इस पारंपरिक विरासत को देश की मौजूदा पीढ़ी के लिए उन्होंने एक प्रेरक मिसाल की तरह बताया और कहा, ‘हमारे पुरखों ने अभिनव प्रयोग करने और इन प्रयोगों को मानवता की भलाई के लिए इस्तेमाल करने में अपनी जिंदगियां बिता दीं।’ आयुर्वेद शोध केंद्र का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘आजादी से पहले के दौर में भारत की आयुर्वेद जैसी स्वदेशी और पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों को नष्ट करने की कोशिश की गई, वहीं आजादी के बाद के दौर में इन्हें नजरअंदाज किया गया।’ उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि इन चिकित्सा पद्धतियों और परंपराओं का लाभ उठाते हुए अन्य देशों ने इनसे जुड़े पेटेंट हासिल कर लिए। हालांकि यह अच्छी बात है कि आज सरकार इस दिशा में नीतिगत तत्परता के साथ आगे बढ़ ही रही है, बाबा रामदेव का भी इस दिशा में अमूल्य योगदान है।
जागरुकता फैलाने के लिए बाबा रामदेव की सराहना की। उन्होंने कहा, ‘यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे बाबा रामदेव को करीब से जानने का मौका मिला। मुझे लगता है कि उनकी असली दौलत लोगों को स्वस्थ बनाने की उनकी प्रतिबद्धता है।’ प्रधानमंत्री ने कहा कि आयुर्वेद सहित कई क्षेत्रों में ज्यादा शोध नहीं किया गया, लेकिन आईटी के क्षेत्र में नई पीढ़ी द्वारा किए गए काम ने भारत की ओर दुनिया का ध्यान खींचा है। इस मौके पर बाबा रामदेव ने प्रधानमंत्री को 'राष्ट्र ऋषि' की उपाधि दी और कहा कि उनके काम को दुनिया भर में सराहा जा रहा है। योगगुरु ने कहा कि मोदी खुद रोजाना योग कर योग को विश्व में गरिमा दिला रहे हैं, वे ऋषि परंपरा को बढ़ा रहे हैं। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने आयुर्वेद पर एनसाइक्लोपीडिया के प्रथम संस्करण का भी विमोचन किया। यह पुस्तक डेढ़ लाख पृष्ठों की है।
पीएम मोदी को ‘राष्ट्रऋषि’ की उपाधि से सम्मानित किया गया
पीएम ने पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को नजरअंदाज करने को गलत बताया स्वच्छता के जरिए हम काफी लोगों की जिंदगी बचा सकते हैं
लड़कियां खुलकर बात करती हैं। मोना, पूर्वी ऐसे नाम हैं, जिन्होंने ‘साहस’ की नींव रखी और इनके साथी नाबार्ड में एक प्रोफेशनल हैं और पिछले छह महीने से ‘साहस’ में सहयोगी के रूप में काम कर रहे हैं। आज के दौर में लड़कियां, सामाजिक ढांचे में महिलाओं की भागीदारी की बात करती हैं, और समाज में व्याप्त स्त्री-पुरुष के बीच गढ़े हुए फर्क की भी बात कर रही हैं। स्त्रियों के सामाजिक भूमिका पर एक फिल्म दिखाए जाने के बाद पूर्वी उसकी व्याख्या करती है। ये हमारे लिए बहुत जरूरी है कि हम एक साथ बैठें और चर्चा करें। वे मुद्दे जिनपर हम बात कर रहे हैं, रूढ़िवादी समाज में उनकी कोई जगह है ही नहीं। जब तक लोग इन तमाम वजहों से पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहेंगे तब तक हमारे लिए उन पर चर्चा करना मुश्किल होता रहेगा। हम सभी इस समाज के बराबर हिस्सेदार और हकदार हैं। पूर्वी के ये शब्द मानो गूंजने लगते हैं, और सभी लड़कियों में एक प्रकार का आत्मविश्वास भर देते हैं। विनीत अपना अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि एक पुरुष होने के नाते समाज उनसे एक अलग भूमिका की उम्मीद करता है, बावजूद इसके कि वे उसके लिए तैयार न हों। लेकिन विनीत ठीक उस भूमिका के उलट व्यवहार करते हैं, उन्हें खाना बनाना पसंद है, लेकिन उन्हें कभी नहीं बनाने दिया
एक नजर
जेंडर के मुद्दों पर संवाद कायम करना मुख्य काम लगातार बढ़ रहा है साहस का दायरा
सुरक्षित और बराबरी का समाज निर्माण है लक्ष्य
गया, क्योंकि मां को लगता है कि यह काम पुरुषों का नहीं है। वे ये भी कहते हैं कि कई बार इन बातों का अहसास भी दिलाया जाता है। 13 वर्षीय चुलबुली पुष्पा कहती है कि जब मैं इस वर्कशॉप के लिए आ रही थी, मुझे काफी देर हो गई थी, मुझे किसी भी काम मे लेट होना कतई पसंद नहीं है, लेकिन मुझे घर में खाना भी बनाना था। हालांकि मेरा भाई फोन पर खेल रहा था, लेकिन फिर भी उसके लिए खाना बनाने जैसी कोई बाध्यता नहीं थी। इसके अलावा गौरी नाम की एक और लड़की ने कहा कि पिछले साल से मेरा शार्टस पहनना बंद करवा दिया गया है और दुपट्टा ओढ़ना अनिवार्य रूप में जिंदगी में आ गया है।
साहस की दूरगामी योजना ऐसे समाज के निर्माण की है जहां ऐसे मसलों पर खुलकर बिना किसी लोक लाज के चर्चा की जा सके। जहां सबके लिए सुरक्षित और बराबरी का स्थान हो
‘मुझे यकीन है कि जिस दिन 125 करोड़ लोग भारत को स्वच्छ बनाने की शपथ ले लेंगे, तब वह दिन दूर नहीं रहेगा, जब पूरा देश स्वच्छ हो जाएगा’ – नरेंद्र मोदी
‘साहस’ की कहानी
निशा, पुष्पा और गौरी कोई नए नाम नहीं हैं, इस समाज की तकरीबन सभी लड़कियों की कहानी मिलती जुलती ही है। बढ़ती उम्र के साथ शारीरिक और मानसिक बदलाव आना स्वभाविक है, और साथ ही स्वभाविक है उससे जुड़े प्रश्नों का मन मे आना। किशोरावस्था् उम्र का सबसे मुश्किल पड़ाव होता है। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे रूढ़िवादी समाज का ढांचा उन सवालों के जवाब जानने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता, बल्कि लोक-लाज के नाम पर छुपाने की प्रवृति को जन्म देता है। परिणाम स्वरूप
हमारे सवाल सिर्फ कभी न खत्म होने वाली जिज्ञासा बनकर मन में ही रह जाते हैं। जब तक हम पूर्ण व्यस्क हो पाते हैं ये तमाम बातें हमें नकारात्मक रूप से ही प्रभावित करती हैं। दिल्ली में बीते समय हुआ निर्भया कांड मनोविज्ञान में परा स्नातक करने वाली मोना के लिए आंखें खोल देने वाला था। वे स्वीकार करती हैं कि उनका पालन पोषण भी स्त्री-पुरुष के बीच गैर बराबरी वाले माहौल में हुआ। वे बताती हैं कि मेरी शिक्षा का फायदा ही क्या अगर मैं इस गैर बराबरी की लड़ाई में भागीदार न हो पाउं तो, मुझे उस घटना ने अंदर तक हिला दिया था, मैंने उसके विरोध में
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आवरण कथा
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‘लड़कों के लिए जरूरी है जेंडर ज्ञान’
समाज के बराबरी का सपना देखने और साकार करने की लगातार कोशिश करने वाली पूर्वी और मोना से एसएसबी की बातचीत दूरगामी परिणाम की यदि बात करें तो साहस की भूमिका को आप कैसे देखती हैं? अगर लंबे समय की बात करें तो हम जेंडर शिक्षा को स्कूल के पाठ्यक्रम के अभिन्न हिस्से के रूप में देखते हैं। इक्कीसवीं सदी में भी यह मुद्दा गंभीरता से नहीं लिया जाता है। मैं जब दसवीं में थी तो हमारी टीचर ही सेक्सुअल रिपरोडक्शन वाला पाठ बीच में ही छोड़ देती थीं,क्योंकि वे इसे पढ़ाते वक्त असहज हो जाती थीं। अगर ‘साहस’ जेंडर एजुकेशन से जुड़ी इस असहजता को हटा दे तो हमें लगेगा कि हमारा काम हो गया। क्या आपको लगता है कि आपकी वर्कशॉप से कोई मदद होगी और आपके सपोर्ट प्लान क्या हैं? हमें लगता है कि इस मोड़ पर आकर सूचनाओं की कमी प्राथमिक चुनौती है जिसे हम दूर करना चाहते हैं। हमारे दो तरह के दृष्टिकोण हैं- ज्ञान का विस्तार और क्षमताओं को बढ़ाना। सही ज्ञान के साथ किशोर सही तरह सवाल पूछ पाने में सक्षम होते हैं, जिन्हें समाज ने वर्जित किया है। हम प्रतिभागियों में से जेंडर लीडर चुनते हैं, और वे वापस अपने समाज में जाकर काम करते हैं और बच्चों को सिखाते हैं।
हम उन्हें संसाधन उपलब्धे करवाते हैं, जिससे वे बिना किसी शर्म के वर्कशाप करते हैं। आपको लगातार आगे बढ़ने की प्रेरणा कहां से मिलती है? मैं हमेशा से भविष्य को जवाब देने की तर्ज पर कल्पना करती हूं। अगर वह पूछे कि तुमने आखिर उस मुद्दे के लिए क्या किया जिससे तुम सबसे ज्यादा दिल से जुड़े हो? तो मैं खाली हाथ नहीं रहना चाहती। और यही बात मुझे प्रोत्साहित करती रहती है। मैं साहस की छोटी छोटी बातों को एंज्वाय करती हूं। इसमें सेशन, अपनी कहानियां साझा करना, बच्चों के सवाल लेना आदि शामिल है। और मेरी उर्जा कभी खत्म नहीं होती। क्या आपकी संस्था में लड़के और लड़की समान रूप से स्टेक होल्डर हैं? मुझे लगता है कि जेंडर पर आधारित ज्ञान लड़कों के लिए ज्यादा जरूरी है। अधिकतर मामलों में वे दोषी पाए जाते हैं और उनकी सही से परवरिश किया जाना बेहद जरूरी है और उनको चाहिए कि वे इस विषय में अपनी मां, बहन, बेटी और पत्नी आदि का साथ दें।
लिंग असमानता अपने आप में कोई बहुत बड़ी अवधारणा नहीं है, जिसे समझना कोई मुश्किल हो, बल्कि यह तो धीरे धीरे साल दर साल होने वाली प्रक्रिया है, जिसमें कई तरह के आयाम जुड़े होते हैं कई प्रोटेस्ट में हिस्सा लिया। लेकिन यह भी समझा कि जब तक जमीनी स्तर पर कोई बदलाव नहीं किया जाएगा, स्थिति में कोई खासा बदलाव नहीं आएगा। उसे इसकी जड़ को समझने में वक्त लगा। साथ ही उसने ऐसे कई कांफ्रेंस, वर्कशॉप आदि में भाग लिया। और इन सब में लगातार पूर्वी ने उसका साथ दिया और परिणाम निकल कर यह आया कि जब तक बचपन में ही इस गैर बराबरी को नहीं हटाया गया तो तब तक ऐसी ही मानसिक स्थितियां उत्पन्न होती रहेंगी। क्योंकि यही वह समय होता है जब आपके पूर्ण व्यक्तित्व की नींव रखी जा रही होती है
और आखिरकार साल 2016 में ‘साहस’ की नींव रखी गई।
लिंग असमानता का चक्र
लिंग असमानता अपने आप में कोई बहुत बड़ी अवधारणा नहीं है, जिसे समझना कोई मुश्किल हो, बल्कि यह तो धीरे धीरे साल दर साल होने वाली प्रक्रिया है, जिसमें कई तरह के आयाम जुड़े होते हैं। पूर्वी और मोना के सामने पहली चुनौती वर्कशॉप को डिजाइन करने की थी, जिससे वे इस पूरे विषय पर सही से परिणाम सामने ला सकें। एक तरफ वे यौन हिंसा आदि पर खुलकर बात करना चाहती थीं, दूसरी तरफ उनकी ऐसी समस्याएं जो एक दिन में नहीं बनतीं, बल्कि लंबे समय से पैदा की जा रही असुरक्षा का नतीजा होती हैं। आगे के शोध में और भी परिणाम सामने आए। उन्होंने अहसास किया कि किसी की अपनी पहचान और अपनी भावनाओं को पहचानना, अपने शारीरिक ढांचे के प्रति नजरिया आदि बातों का बहुत असर होता है। शरीर की कार्य शैली, जिसमें मासिक ध्ार्म बहुत महत्तवपूर्ण पड़ाव हैं, जिससे किशोरावस्था में बहुत बदलाव आते हैं और इसी के साथ इसी उम्र में मानसिकता विकसित होती है। और परिणाम स्वरूप समाज में प्रचलित स्त्री द्वेषी सोच पनपती है। मोना और पूर्वी का मानना है कि हमें ऐसे चीजों की गहरी समझ विकसित करनी होगी। कार्यक्रम विकसित करना तो मात्र पहला ही कदम था, लेकिन दूसरा कदम सही भागीदारों को लाना था। हालांकि लंबे समय के अंतराल के बाद साहस की कोशिश रहेगी कि समाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों पर काम किया जाए, लेकिन शुरुआती दौर में इनका चुनाव बहुत ध्यान से किया जाना बहुत जरूरी था। मोना कहती है कि स्लम वाले इलाकों में ऐसे माहौल की कमी है, जहां बच्चों को छोड़कर माता पिता काम पर निकल जाते हैं और उनकी परवरिश सही से नहीं हो पाती। कई परिवार केवल एक कमरे में रहते हैं, और ऐसे में बच्चे अपने माता पिता के बीच की करीबी को भी देखते हैं, और यह घातक होता है क्योंकि उनके अबोध मन में इसका बहुत असर पड़ता है। उन्होंने कालोनी के किशोरावस्था वाले बच्चों के बीच में सेक्स एजुकेशन पर जागरूक करना शुरू किया जो स्लम के बच्चों के बीच शिक्षा पर काम कर रही थीं इस प्रकार अपना दायरा बढ़ाने के लिए अन्य
कई संस्थाओं के साथ मिल कर काम करना शुरू किया तब अहसास हुआ कि यह जितना सोचा था उससे कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य है। पूर्वी बताती हैं कि जब मानव शारीरिक संरचना पर सेशन किया गया तो एक बच्ची ने आकर कहा कि अब से उसकी बहन इस सेशन के लिए नहीं आएगी। कारण पूछने पर बताया गया कि ऐसी बातों से बच्चे बिगड़ रहे हैं। उसकी यह बात भौचक्क करने वाली थी, क्योंकि समाज की कैसी स्थिति है कि इतनी सी ही उम्र में बच्चों ने तय कर लिया कि यह सब उन पर अच्छा नहीं बुरा असर डालेगा, लेकिन इन बातों ने हमें मजबूती से आगे बढ़ने को ही प्रेरित किया।
लगातार बढ़ने का साहस
शुरुआत के कुछ सेशन में, बीच में छोड़कर जाने वालों की संख्या बहुत थी। लड़के-लड़कियों का साथ होना भी बहुत हिचकिचाहट का विषय था। कई बार तो कई अभिभावक अपने बच्चों को भेजने में शर्माते थे। यह काफी मनोबल गिराने वाला था, लेकिन सही समय पर सही चीजें भी हुई। उनकी सहभागिता ‘छोटी सी खुशी’ द्वारका स्थित एनजीओ से हुई। साहस को लेकर आशान्वित मोना का मानना है कि इससे इसका दायरा बढ़ा है। उसका कहना है कि संस्था में कई लोग हैं जो समाज की आगे बेहतर तस्वीर देखना चाहते हैं, बस हमें एक मंच पर सही बातों को साझा करने की आवश्यकता है। वे बताती हैं कि ‘छोटी सी आशा’ की संस्थापक सीमा ने जब मासिक धर्म पर वर्कशाप लेना शुरू की तो जानकारी मिली कि अनेकों संस्थाएं सस्ते दर पर सैनिटरी नेपकिन उपलब्ध करा रही है और उसके बाद उन्होंने ‘गूंज’ नामक संस्था का दौरा किया, जो मासिक स्वच्छता पर काम कर रही है, और वहां से कुछ सैंपल लेकर आईं। ऐसी संस्थाओं ने भी पूर्वी और मोना का लगातार हौसला बढ़ाया। साहस की दूरगामी योजना ऐसे समाज के निर्माण की है जहां ऐसे मसलों पर खुलकर बिना किसी लोक लाज के चर्चा की जा सके। जहां सबके लिए सुरक्षित और बराबरी का स्थान हो। समाज में बदलाव कोई एक दिन का काम नहीं कई बार पीढ़ियां गुजर जाती हैं, लेकिन प्रयास लगातार जारी रहने चाहिए।
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संवाद
08-14 मई 2017
‘न्यू इंडिया’ के मन की बात मन की बात
युवाओं के लिए कंफर्ट जोन से बाहर निकलकर दुनिया को देखने-समझने का तरीका ऐसा भी हो सकता है कि बिना रिजर्वेशन लिए रेलवे के सेकेंड क्लास में चढ़ जाएं और कम से कम 24 घंटे का सफर करें
एक नजर
गुजरात और महाराष्ट्र के स्थापना दिवस पर दी शुभकामनाएं
देश की स्थिति के साथ संवेदनात्मक तरीके से जुड़ें युवा
गाड़ी से ही नहीं दिमाग से भी हटानी होगी लाल बत्ती
को, अपने परिवार को कहां पहुंचाएंगे। दिलचस्प है कि ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा देने वाले प्रधानमंत्री हमेशा राज्यों को टीम इंडिया की ताकत के तौर पर देखते हैं। साफ है कि उनकी दृष्टि में राज्यों की तरक्की ही देश की तरक्की है।
कंफर्ट जोन से बाहर निकलें युवा
इ
एसएसबी ब्यूरो
सी साल नई दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘मन की बात’ को लेकर आई एक पुस्तक के विमोचन समारोह में वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने कहा था कि प्रधानमंत्री निवास को एक मजबूत और अभेद्य किले की तरह माना जाता रहा है। वहां बैठकर प्रधानमंत्री क्या सोचते हैं, क्या करते हैं, किससे बात करते हैं, इसे अब तक एक रहस्य के तौर पर देखा जाता था। पर हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री इस मामले में अपने पूर्ववर्तियों से अलग हैं। वे मन की बात मन में नहीं रखते बल्कि देश-दुनिया के सामने खुलकर जाहिर करते हैं और ऐसा वे बिना नागा हर महीने करते हैं। वे खूब बातें करते हैं और कई तरह की बातें करते हैं। यही नहीं, बातें भी इस तरह से करते हैं जैसे देश का मुखिया किसी गांव-घर के चौपाल पर बैठकर लोगों से बेतकल्लुफी के साथ बतिया रहा हो। यह वाकई देश के लोकतांत्रिक इतिहास में एक अनूठा अनुभव है। आमतौर पर प्रधानमंत्री या तो बड़े सभागारों में बोलते हैं या बड़ी जनसभाओं में। इनमें कही गई बातें कई बार महज अकादमिक महत्व की होती हैं, तो कई बार कोरी सियासी। पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब ‘मन की बात’ करते हैं तो वे कोई
सियासी बात नहीं करते और न ही अकादमिक । वे हमेशा अपने ‘न्यू इंडिया विजन’ के बारे में बातें करते हैं। ये बातें सकारात्मकता से भरी होती हैं। इनमें प्रेरणा होती है, प्रेरणा से भरे उदाहरण होते हैं। आमतौर पर वे कोई बड़ी बात नहीं कहते, बल्कि साधारण और सहज शब्दों में वे आम जीवन के अनुभवों से ली गई बातों को कहते हैं। साधारण सी लगने वाली बातें भी कई बार बड़े महत्व की होती हैं और किसी देश के जीवन में इन बातों की कितनी बड़ी भूमिका रही है, यह प्रधानमंत्री मोदी की मन की बातों को सुनकर लगता है। बहरहाल, तीन अक्टूबर 2014 से आकाशवाणी से हर महीने के आखिरी रविवार को प्रसारित होने वाली ‘मन की बात’ की कड़ी में बीते 31 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने एक बार फिर देशवासियों से मन की बात कही। मीडिया ने अपनी तरह से इसमें दिलचस्पी दिखाई। इस बार उन्होंने शिक्षा और परीक्षा से लेकर नव उद्यम तक कई बातें की। कुछ बातें सूत्र रूप में
कहीं तो कुछ बातें साधारण अनुभव के तौर पर। पर हर बात, हर उल्लेख की दिशा एक ही थी- नए और सशक्त भारत का निर्माण।
राज्यों के स्थापना दिवस
प्रधानमंत्री ने एक मई यानी मजदूर दिवस को याद करते हुए कहा कि इसी दिन देश में दो महत्वपूर्ण राज्यों गुजरात और महाराष्ट्र की स्थापना हुई। उन्होंने कहा, ‘दोनों राज्यों के नागरिकों को मेरी तरफ से बहुत-बहुत शुभकामनाएं। दोनों राज्यों ने विकास की नई-नई ऊंचाइयों को पार करने का लगातार प्रयास किया है। देश की उन्नति में योगदान दिया है। दोनों राज्यों में महापुरुषों की श्रृंखला और समाज के हर क्षेत्र में उनका जीवन हमें प्रेरणा देता रहता है।’ उन्होंने इन दोनों राज्यों के आगे वर्ष 2022 या आजादी के 75 साल का लक्ष्य रखा और कहा कि उन्हें यह तय करना चाहिए कि आने वाले वर्षों में ये राज्य अपने देश को, अपने समाज को, अपने नगर
‘न्यू इंडिया’ का हमारा कांसेप्ट यही है कि देश में वीआईपी की जगह पर ईपीआई का महत्व बढ़े और जब मैं वीआईपी के स्थान पर ईपीआई कह रहा हूं तो मेरा भाव स्पष्ट है– एवरी पर्सन इज इंपॉर्टेंट’ - नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री बीते तीन सालों से लगातार इस बात को रेखांकित कर रहे हैं कि भारत दुनिया का न सिर्फ सबसे ज्यादा नौजवान देश है, बल्कि दुनिया के सबसे ज्यादा नौजवान भारत में ही हैं। इसीलिए जब भी वे अपने ‘न्यू इंडिया विजन’ की बात करते हैं, तो इसका सारा दारोमदार वे कहीं न कहीं युवाओं को ही मानते हैं। मेडिसन स्कवायर से लेकर ‘मन की बात’ तक उन्होंने बार-बार कहा है कि भारतीय युवाओं के सामने बहुत बड़ा अवसर है कि वे देश को दुनिया का अग्रणी देश बनाने में अपनी भूमिका निभाएं। एक बार फिर अपने ‘मन की बात’ में उन्होंने इसका जिक्र किया। उन्होंने कहा, ‘नौजवान दोस्तों, कुछ बातें आपके साथ भी तो मैं करना चाहता हूं। मुझे कभी-कभी चिंता होती है कि हमारी युवा पीढ़ी में कई लोगों को कंफर्ट जोन में ही जिंदगी गुज़ारने में मजा आता है| मां-बाप भी एक बड़े रक्षात्मक तरीके से ही उनका लालन-पालन करते हैं... अब परीक्षाएं समाप्त हो चुकी हैं ...मैं एक मित्र के रूप में आपकी छुट्टियां कैसे बीतें, इस बारे में कुछ बातें करना चाहता हूं। मुझे विश्वास है कुछ लोग जरूर प्रयोग करेंगे और मुझे बताएंगे भी ...मैं तीन सुझाव देता हूं, उसमें से तीनों करें तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन तीन में से एक करने का प्रयास करें।’ प्रधानमंत्री के ये तीन सुझाव हैं- ‘न्यू प्लेसेज’, ‘न्यू एक्सपीरिएंसेज’ और ‘न्यू स्किल्स’। वे कहते हैं कि कंफर्ट जोन से बाहर निकलकर दुनिया को देखनेसमझने का तरीका ऐसा भी हो सकता है कि बिना रिजर्वेशन लिए रेलवे के सेकेंड क्लास में चढ़ जाएं और कम से कम 24 घंटे का सफर करें| इसी तरह शाम के वक्त अपना फुटबॉल-वॉलीबाल या कोई
08-14 मई 2017
गौरैया की याद
रोटी बैंक
अपने आसपास की दुनिया में प्रकृति को लेकर जो कुछ भी घट रहा है, वह हमारी संवेदनाओं से जुड़ा पक्ष है
गौ
रैया के विलुप्ति के खतरे को लेकर देश में अब हर स्तर पर बातें हो रही हैं, कुछ अच्छी पहल भी इस बीच गौरैया को बचाने को लेकर हई है, पर हमारे प्रधानमंत्री इस मुद्दे को जिस संवेदना के साथ देखते हैं, वह दिलचस्प है। उनके ही शब्दों में, ‘ कुछ दिन पहले मुझे गुजरात से श्रीमान जगत भाई ने अपनी एक किताब भेजी है ‘सेव द स्पेरोज’, जिसमें गौरैया की संख्या जो कम हो रही है उस बारे में चिंता तो है ही, लेकिन खुद उन्होंने मिशन मोड में आकर उसके संरक्षण के लिए क्या प्रयोग किए हैं, क्या प्रयास किए हैं, इसका भी बहुत अच्छा वर्णन उस किताब में है।’ इससे आगे वे एक अनुभव साझा करते हैं, ‘जब मैं गुजरात में मुख्यमंत्री था तो दाऊदी बोहरा समाज के धर्मगुरु सैयदना साहब को सौ साल हुए थे। वे 103 साल तक जीवित रहे थे। उनके सौ साल पूरा होने पर बोहरा समाज ने बुरहानी
फाउंडेशन द्वारा गौरैयों को बचाने का बहुत बड़ा अभियान चलाया था। इसका शुभारंभ करने का मुझे अवसर मिला था। करीब 52 हज़ार बर्ड फीडर उन्होंने दुनिया के कोने-कोने में वितरित किए थे। गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में भी उसको स्थान मिला था।’ कहने की जरूरत नहीं कि जलवायु परिवर्तन से लेकर पशु-पक्षियों पर मंडरा रहे संकट पर वे दोहा दौर की बातचीत के लहजे में नहीं, बल्कि इस समझदारी के साथ बात करना पसंद करते हैं, अपने आसपास की दुनिया में प्रकृति को लेकर जो कुछ भी घट रहा है, वह हमारी संवेदनाओं से जुड़ा पक्ष है। इसके बारे में बड़ी-बड़ी सरकारी नीतियों और घोषणाओं की तरफ सिर उठाकर देखने के बजाय हमें अपनेअपने स्तर से पहल करने की जरूरत है।
सबका साथ सबका विकास का नारा देने वाले प्रधानमंत्री हमेशा
राज्यों को टीम इंडिया की ताकत के तौर पर देखते हैं। साफ है कि उनकी दृष्टि में राज्यों की तरक्की ही देश की तरक्की है और खेलकूद का साधन लेकर गरीब बस्ती में चले जाएं| गरीब बच्चों के साथ खेलें, उनसे बात करें। समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री सक्सेस और करियर के होड़ से बाहर निकालकर नौजवानों को देश के वर्तमान हालात के साथ संवेदनात्मक तरीके से जोड़ना चाहते हैं। भारत और इंडिया के बीच की दूरी को पाटना इसीलिए भी जरूरी है, क्योंकि तभी देश की हैसियत और छवि सही मायनों में बदलेगी। अगर अपने आसपास के जीवन और उससे जुड़ी चुनौतियों को लेकर हमारा कोई प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है तो फिर इस बारे में जीवन में हम चाहकर भी कुछ सार्थक न तो सोच सकते हैं और न कर सकते हैं। देश के नवनिर्माण का जुआ जिन कंधों पर है, उन्हें
तो और भी इस बारे में फिक्रमंद होने की जरूरत है। एक बात और यह कि जीवन और लक्ष्य के बारे में वैकल्पिक और प्रायोगिक सोच और सलूक की बात करके प्रधानमंत्री मोदी कहीं न कहीं उन खतरों का भी देश को भान करा रहे हैं, जिसमें गूगल और गैजेट्स की दुनिया के बीच हमारे परिवार और समाज का स्वाभाविक ताना-बाना ही टूटता-उलझता जा रहा है। उनके ही शब्दों में, ‘मुझे इस बात की भी चिंता सता रही है कि टेक्नोलॉजी दूरियां कम करने के लिए आईं, सीमाएं समाप्त करने के लिये आईं, लेकिन इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि एक ही घर में छह लोग एक ही कमरे में बैठे हों, लेकिन दूरियां इतनी हों कि कल्पना ही नहीं कर सकते| क्यों? हर कोई टेक्नोलॉजी से कहीं और बिजी हो गया है|’
संवाद
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प्रधानमंत्री ने खाने की बर्बादी की तरफ देश का ध्यान एक बार फिर खींचा है
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क ऐसे दौर में जब भूख और विकास के बीच साथ-साथ होड़ लगी है और सरकारों के आगे दबाव है कि वे एक तरफा नहीं, बल्कि समावेशी विकास की बातें करें, प्रधानमंत्री ने खाने की बर्बादी की तरफ देश का ध्यान एक बार फिर खींचा है। इससे पहले खुद उन्होंने मन की बात मे ही इस बारे में जिक्र किया था। वैसे भी ये मुद्दा पिछले कुछ समय से अलग-अलग मंचों से उठता रहा है। प्रधानमंत्री मोदी ने संतोष जताया कि इस तरह की बातों का असर हो रहा है और कई जगहों पर अच्छी पहल हुई है। उनके ही शब्दों में, ‘मैंने भी कभी सोचा नहीं था आज हमारे
दिमाग से गुम हो लाल बत्ती
प्रधानमंत्री ने हाल ही में लाल बत्ती पर देशव्यापी रोक के बहाने वीआईपी संस्कृति के खिलाफ एक बड़ा फैसला लिया। यह निस्संदेह एक ऐतिहासिक फैसला है और अच्छी बात यह है कि एक ऐसे समय में जब देश के लोगों के मन में इस संस्कृति को लेकर एक दबा गुस्सा है, तो सरकार खुद इसे खत्म करने के लिए आगे आई। प्रधानमंत्री कहते भी हैं, ‘ लाल बत्ती वीआईपी कल्चर का प्रतीक बन गयी थी। ...लाल बत्ती तो गाड़ी पर लगती थी, लेकिन धीरे-धीरे वो दिमाग में घुस जाती थी और दिमागी तौर पर वीआईपी कल्चर पनप चुका है। अभी तो लाल बत्ती गई है, पर इसके आगे कोई ये दावा नहीं कर सकता कि दिमाग में जो लाल बत्ती घुस गई है, वो निकल गई होगी’ स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री लाल बत्ती के बहाने देश में एक रुआबदार कहे जाने तबके के मानस में बदलाव की बात कर रहे हैं। वे यह मान रहे हैं कि सरकार का फैसला इस दिशा में जरूर बड़ा कदम है पर अपने ही लोगों
देश में, खासकर के युवा-पीढ़ी अरसे से इस काम को कर रही है। कुछ सामाजिक संस्थाएं करती हैं, ये तो हम कई वर्षों से जानते आए हैं, लेकिन मेरे देश के युवा इसमें लगे हुए हैं, ये तो मुझे बाद में पता चला कइयों ने मुझे वीडियो भेजे हैं। कई स्थान हैं, जहां रोटी बैंक चल रहे हैं। लोग रोटी बैंक में अपने यहां से रोटी जमा करवाते हैं, सब्जी जमा करवाते हैं और जो जरूरतमंद लोग हैं वे वहां उसे प्राप्त भी कर लेते हैं। देने वाले को भी संतोष होता है और लेने वाले को भी कभी नीचा नहीं देखना पड़ता है। समाज के सहयोग से कैसे काम होते हैं, इसका यह उदाहरण है।’ के ऊपर बेवजह रौब गालिब करने की मानसिकता अगर कायम रही तो देश में एक तबका हमेशा ऐसा रहेगा जो लाल बत्ती वाले रवैए से बाज नहीं आएगा। यह एक गैर मर्यादित और अलोकतांत्रिक स्थिति है। इसीलिए नए भारत के अपने सपने में प्रधानमंत्री ऐसी मानसिकता के लिए कोई स्पेस नहीं देखते हैं। वे कहते हैं, ‘न्यू इंडिया’ का हमारा कांसपे ्ट यही है कि देश में वीआईपी की जगह पर ईपीआई का महत्व बढ़े और जब मैं वीआईपी के स्थान पर ईपीआई कह रहा हूं तो मेरा भाव स्पष्ट है–एवरी पर्सन इज इपं ॉर्टेंट। हर व्यक्ति का महत्व है, हर व्यक्ति का माहात्म्य है। सवा-सौ करोड़ देशवासियों का महत्व हम स्वीकार करें, सवासौ करोड़ देशवासियों का माहात्म्य स्वीकार करें तो महान सपनों को पूरा करने के लिए कितनी बड़ी शक्ति एकजुट हो जाएगी।’ इससे आगे वे यहां तक कह जाते हैं कि भारत ने हमेशा ‘सबका साथ-सबका विकास’ इसी मंत्र को ले करके आगे बढ़ने का प्रयास किया है और जब हम सबका साथ-सबका विकास कहते हैं, तो उसका महत्व भारतीय ही नहीं, बल्कि वैश्विक परिवेश में भी है।
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गुड न्यूज
08-14 मई 2017
पेंशन
योजना
55 लाख पेंशनरों को केंद्र सरकार का बड़ा तोहफा
पेंशन संबंधी बदलाव एक जनवरी 2016 से प्रभावी होंगे, क्योंकि इसी तारीख से सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू हुई थीं
महिला प्रोत्साहन
एक रुपए में महिलाएं करा सकेंगी जमीन की रजिस्ट्री
झारखंड सरकार ने महिलाओं के नाम पर होने वाली अचल संपत्ति पर लगने वाली स्टांप व निबंधन शुल्क को लगभग खत्म कर दिया है
पि
छले कुछ समय से राज्यों के बीच कल्याणकारी कदम उठाने की होड़ मची है। इस दिशा में अब एक बड़ा फैसला झारखंड सरकार ने लिया है। महिलाओं को मुख्यधारा में लाने और घरेलू फैसलों में उनका महत्व बढ़ाने के उद्देश्य से राज्य सरकार ने अचल संपत्ति पर लगने वाली स्टांप ड्यूटी व निबंधन शुल्क को लगभग खत्म कर दिया है। अब यदि किसी जमीन की रजिस्ट्री किसी महिला के नाम पर करवाई जाती है, तो सिर्फ एक रुपया टोकन शुल्क लिया जाएगा। मुख्यमंत्री रघुवर दास ने राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग की समीक्षा बैठक में यह अहम घोषणा की। गौरतलब है कि झारखंड के ज्यादातर हिस्सों में जमीन-जायदाद की खरीद-फरोख्त में आमतौर पर महिलाओं को हिस्सेदार नहीं बनाया जाता है। आदिवासी इलाकों में तो इन फैसलों में महिलाओं से सलाह-मशविरा तक नहीं किया जाता है। मुख्यमंत्री रघुवर दास ने बैठक में इस तरह की घटनाओं का जिक्र
सस्ता
कें
द्र सरकार ने पेंशनरों को बड़ी राहत देते हुए बनाई गई, जिसने नया फार्मूला सुझाया। पेंशन तय करने के तरीके में बदलाव किया है। कैबिनेट ने रक्षा पेंशनरों के संबंध में डिसेबिलिटी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने इस पेंशन तय करने के तरीके में भी बदलाव को मंजूरी आशय के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। सरकार के इस दी है। माना जा रहा है कि इससे सरकार पर हर साल फैसले से सिविल और रक्षा दोनों तरह के करीब 55 130 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार पड़ेगा। लाख पेंशनरों को फायदा होगा और सरकारी खजाने संपदा योजना भी मंजूर पर 5,031 करोड़ रुपए से अधिक का अतिरिक्त भार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने पड़ेगा। खाद्य प्रसंस्करण की एक पेंशन के संबंध में कैबिनेट पेंशन फार्मूले में बदलाव इसीलिए नई योजना ‘संपदा’ को भी करना पड़ा क्योंकि सातवें वेतन ने जिन बदलावों को मंजूरी मंजूरी दी। संपदा योजना दी है वे एक जनवरी 2016 आयोग ने जो फार्मूला सुझाया था का पूरा नाम- स्कीम फॉर से प्रभावी होंगे, क्योंकि उससे पेंशन की गणना मुश्किल थी एग्रो-मरीन प्रोसेसिंग एंड इसी तारीख से सातवें वेतन डेवलपमेंट ऑफ एग्रोआयोग की सिफारिशें लागू हुई थीं। इस फैसले से प्रोसेसिंग क्लस्टर्स है। यह सेंट्रल सेक्टर की नई केंद्र सरकार पेंशन पर सालाना करीब 1,76,071 योजना है। इस पर करीब 6000 करोड़ रुपए का करोड़ रुपए खर्च करेगी। पेंशनरों के संबंध में कैबिनेट खर्च आने की उम्मीद है। माना जा रहा है कि संपदा का पहला फैसला उन कर्मचारियों के संबंध में है, योजना की इस धनराशि से देश में खाद्य प्रसंस्करण जो 2016 से पहले रिटायर हुए हैं। सरकार ने पेंशन के क्षेत्र में करीब 31,400 करोड़ रुपए का निवेश सचिव की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिश के आएगा। इससे 20 लाख किसानों को लाभ मिलने आधार पर इस प्रस्ताव को मंजूरी दी है। का अनुमान है। साथ ही इससे 5,30,500 लोगों को दरअसल, कैबिनेट को पेंशन तय करने के फार्मूले 2019-20 तक प्रत्यक्ष या परोक्ष रोजगार मिलने की में बदलाव की जरूरत इसीलिए पड़ी, क्योंकि सातवें उम्मीद है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बताया कि कि वेतन आयोग ने जो फार्मूला सुझाया था, उसके संपदा योजना एक अंब्रेला स्कीम होगी और मेगा जरिए पेंशन की गणना करना व्यावहारिक नहीं था। फूड पार्क जैसी मौजूदा योजनाएं इसके दायरे में इसीलिए पेंशन सचिव की अध्यक्षता में एक समिति आएंगी।
करते हुए कहा कि यदि अचल संपत्ति यानी जमीन-जायदाद महिलाओं के नाम होगी, तो संपत्ति बेचने या न बेचने जैसे अहम फैसले भी वे खुद ले पाएंगी। मुख्यमंत्री दास ने यह भी बताया कि सरकार का यह फैसला उसके राजस्व में कमी जरूर लाएगा, पर यह बड़ा कल्याणकारी कदम है, लिहाजा राज्य सरकार इस बारे में फैसला ले रही है। गौरतलब है कि राज्य सरकार को भूखंडों के निबंधन से सालाना 150-200 करोड़ रुपए के राजस्व की प्राप्ति होती है और इस फैसले से इस रकम में लगभग 50 फीसदी की गिरावट आ सकती है। झारखंड में फिलहाल जमीनों की रजिस्ट्री के वक्त चार प्रतिशत स्टांप ड्यूटी तथा तीन प्रतिशत रजिस्ट्रेशन शुल्क वसूला जाता है, जो नए फैसले के बाद महिलाओं के मामले में अब सिर्फ एक रुपया रह जाएगा। इस तरह अगर एक करोड़ रुपए की जमीन की रजिस्ट्री किसी महिला के नाम पर करवाई जाती है, तो उसे लगभग सात लाख रुपए का फायदा होगा।
भोजन
योगी सरकार शुरू करेगी अन्नपूर्णा भोजनालय
किसानों की कर्ज माफी के बाद यूपी की योगी सरकार गरीबों को काफी कम कीमत में भोजन उपलब्ध कराने जा रही है
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गी सरकार भी जल्द अन्नपूर्णा भोजनालय शुरू करने जा रही है। बताया जा रहा है कि इसमें गरीब लोगों को सस्ता खाना मिलेगा। यहां गरीबों को 3 रुपए में नाश्ता और पांच रुपए में खाना मिलेगा। यूपी के सीएम मंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार कई मौकों पर कह चुके हैं कि उनकी सरकार में कोई भी भूखा नहीं सोएगा। किसानों की कर्ज माफी के बाद योगी सरकार का यह फैसला गरीब लोगों में काफी लोकप्रिय हो सकता है। सरकारी सूत्रों की मानें तो अन्नपूर्णा भोजनालय को योजना की तैयारी पूरी कर ली गई है। इस योजना का एक प्रेजेंटेशन मुख्य सचिव पहले ही देख चुके हैं। बस अब इस पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मुहर लगनी भर बाकी है। इस योजना में सुबह के नाश्ते के साथ दिन और रात का भोजन शामिल होगा। इसमें नाश्ते में जहां दलिया, इडली-सांभर, पोहा और चाय-पकौड़ा दिया जाएगा, तो वहीं
दिन और रात के खाने में रोटी, मौसमी सब्जियां, अरहर की दाल और चावल मिलेगा। अन्नपूर्णा भोजनालय यूपी के सभी नगर निगमों में खोले जाएंगे। भोजनालय खासतौर पर उन जगहों पर खोलने की कोशिश होगी, जहां गरीब और मेहनतकश लोगों की तादाद ज्यादा होती है। योगी सरकार का यह कदम सरकार का संवेदनशील और मानवीय चेहरा सामने रखने की एक बड़ी कोशिश है। इससे पहले, मध्य प्रदेश में भी दीनदयाल अंत्योदय रसोई योजना की शुरुआत की गई है। दीनदयाल रसोई में सिर्फ 5 रुपए में खाना उपलब्ध कराया जाएगा। इस रसोई को खोलने का मकसद शहरों में दूरदराज के गांवों और दूसरे राज्यों से आए मजदूरों के अलावा गरीबों को कम कीमत पर पौष्टिक खाना देना है। इस योजना के माध्यम से गरीब लोगों को सस्ता और पौष्टिक खाना मिलना सरकार की तरफ से सुनिश्चित किया जाएगा।
08-14 मई 2017
उपग्रह प्रक्षेपण
गुड न्यूज
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संक्षेप में
जीसैट-9 का सफल प्रक्षेपण
आठ सार्क देशों में से सात देश भारत, श्रीलंका, भूटान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और मालदीव इस प्रोजेक्ट का हिस्सा हैं
मुंबई की सड़कों पर ‘बाइक एंबुलेंस’
ट्रैफिक जाम की समस्या से ग्रस्त मुंबई में मरीजों को अस्पताल पहुंचाने के लिए अब बाइक एंबुलेस की होगी व्यवस्था
स
जी
सैट-9 का सफल प्रक्षेपण, स्पेस डिप्लोमेसी में भारत की बड़ी जीत है। इसके साथ ही भारत ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में बड़ा कदम बढ़ा दिया है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो ने जीएसएलवी के जरिए साउथ एशिया उपग्रह जीसैट-9 को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित किया। इस खुशी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसरो की टीम को बधाई दी। साथ ही सार्क देशों को दिए इस तोहफे पर खुशी भी जताई। इस सैटेलाइट के प्रक्षेपण से दक्षिण एशियाई देशों के बीच संपर्क को बढ़ावा मिलेगा। आठ सार्क देशों में से सात देश भारत, श्रीलंका, भूटान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और मालदीव इस प्रोजेक्ट का हिस्सा हैं। पाकिस्तान इसमें शामिल नहीं है। पाकिस्तान ने यह कहते हुए खुद को इससे बाहर रखने का फैसला किया कि उसका अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम है। इस सैटेलाइट का उद्देश्य दक्षिण एशिया क्षेत्र के देशों को संचार और आपदा सहयोग मुहैया कराना है। इस भूस्थिर संचार उपग्रह का निर्माण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने किया है। भारत की ओर से प्रक्षेपित किए जा रहे ‘साउथ एशिया सैटेलाइट’ को सार्क के देशों को एक उपहार के रूप में देखा जा रहा है। इस
उपग्रह की लागत करीब 235 करोड़ रुपए है और पूरा मिशन 450 करोड़ का बताया जा रहा है। इस सैटेलाइट का वजन 2230 किलोग्राम और लाइफटाइम 12 साल है। दिलचस्प है कि मई 2014 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसरो के वैज्ञानिकों से सार्क सैटेलाइट बनाने के लिए कहा था। उनकी नजरों में यह सैटेलाइट पड़ोसी देशों को ‘भारत की ओर से उपहार’ होगा। हाल में प्रधानमंत्री ने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में भी घोषणा की थी कि दक्षिण एशिया उपग्रह अपने पड़ोसी देशों को भारत की ओर से ‘कीमती उपहार’ होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा कि इस परियोजना में भाग लेने वाले देशों की विकासात्मक जरुरतों को पूरा करने में इस उपग्रह के फायदे लंबा रास्ता तय करेंगे। बता दें कि दक्षिण एशिया के देशों को कम्युनिकेशन टेक्नोलॉजी का फायदा मिलेगा। प्राकृतिक आपदाओं के दौरान कम्युनिकेशन में मददगार होगा। इस सैटेलाइट का नाम पहले सार्क रखा गया, लेकिन पाकिस्तान के बाहर होने के बाद इसका नाम साउथ एशिया सैटेलाइट कर दिया गया। भारत अगले साल की शुरुआत में चंद्रयान-2 का भी प्रक्षेपण करेगा। साफ है एक के बाद सैटेलाइट प्रक्षेपणों से भारत विश्व भर में अपना लोहा मनवा रहा है।
आनंद भारती
ड़क जाम के कारण एम्बुलेंस का समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाना मुंबई में एक समस्या बनता जा रहा है। इस कारण मरीजों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने ‘बाइक एम्बुलेंस’ के रूप में तत्काल उसका एक विकल्प ढूंढा है। कुछ ऐसा ही प्रयोग आमिर खान ने फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में किया था, जो काफी सफल रहा और मरीज की जान बच गई थी।
प्लेटफॉर्म स्कूल
सरकार ने शुरुआत में इसके लिए मुंबई को चुना है और जून महीने से 10 ‘बाइक एम्बुलेंस’ को सड़कों पर उतारने का फैसला किया है। इस सेवा से खास तौर पर गरीब मरीजों को लाभ मिलेगा। अभी यह कालबा देवी, भेंडी बाजार, सायन, धारावी, नागपाड़ा, मालाड, मालवणी आदि इलाकों में उपलब्ध होगा। यह छोटे-मोटे अपघातों में तुरंत काम आएगा। इसे किसी भी पतली गली से भी निकाला जा सकेगा। माना जा रहा है कि इससे दुर्घटना से होने वाली मौतों में काफी कमी आ जाएगी।
रेलवे प्लेटफॉर्म पर आवारा घूमते बच्चों के लिए पाठशाला खोलने की तैयारी में ठाणे महानगरपालिका
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णे महानगरपालिका ने भीख मांगकर गुजारा करने वाले बच्चों की पढ़ाई की अनोखी व्यवस्था की घोषणा की है। ये वे गरीब और बेसहारा बच्चे हैं जो रेलवे स्टेशनों पर भीख मांगते हैं और वहीं रात किसी किनारे में सो कर बिता देते हैं। गंदे कपड़ों के कारण उन्हें दुत्कार भी मिलती है। ठाणे महानगरपालिका ने इस दिशा में उल्लेखनीय पहल करते हुए तय किया है कि उन बच्चों की पढ़ाई की तत्काल कुछ व्यवस्था की जाए ताकि वे साक्षर बन सकें। मुम्ब्रा रेलवे स्टेशन को इसके लिए चुना और वहां ‘प्लेटफॉर्म स्कूल’ बनाने का फैसला किया गया है। स्कूल का निर्माण शीघ्र किया जाएगा। महानगरपालिका का आकलन है कि हर स्टेशन पर लगभग डेढ़ से दो दर्जन बेसहारा बच्चे छोटी उम्र
से ही भीख मांगकर पेट पालना शुरू कर देते हैं। उन्हें न तो स्कूल की सुविधा मिल पाती है और न ठीक से जीवन को समझने के अवसर मिल पाता है। वे कभी कभी गलत रास्ते भी चुन लेते हैं। यही सोचकर उनके लिए ‘प्लेटफॉर्म स्कूल’ की व्यवस्था की जा रही है। मुम्ब्रा स्टेशन पर अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो और भी रेलवे स्टेशनों पर स्कूल बनाने का प्रयास किया जाएगा। महानगरपालिका आयुक्त संजीव जायसवाल का कहना है कि शिक्षा का अधिकार हर बच्चे को हासिल है, इसीलिए किसी भी सूरत में उन्हें शिक्षा मिलनी ही चाहिए।
08 गुड न्यूज
08-14 मई 2017
बंधुआ पुनर्वास
बंधुआ मजदूरों के सपनों का घर
बंधुआ मजदूर के रूप में जन्म लेने और जिंदगी के पच्चीस साल बिताने वाले एस अप्पू को अब आजादी के साथ अपना घर भी मिला है
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स. अप्पू ने अपने जीवन के 25 साल दक्षिण भारत की एक चावल मिल में पहले अपने पिता को कर्ज चुकाते देखते हुए और फिर स्वयं कर्ज अदा करने के लिए अथक काम करते हुए बिताए । 2015 में जब उसे तमिलनाडु में गुडुवनचेरी की मिल से मुक्त कराया गया , उस वक्त उसके पास ऐसा कोई स्थान नहीं था जिसे वह अपना घर कह सके। 27 साल के अप्पू ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया,‘चावल मिल ही मेरा घर था। यहां तक कि मेरी शादी भी वहीं हुई और इतने साल तक मुझे पता ही नहीं चला कि इस स्थान से बाहर भी कोई दुनिया है।’ लेकिन अप्पू आज अपने घर में रहता है। मुक्त कराए गए बंधुआ मजदूरों को दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए सरकार और धर्मार्थ संस्थाओं द्वारा दी गई वित्तीय सहायता से चेन्नई के मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज के छात्रों ने इनके लिए घर का निर्माण किया है। दिसम्बर में ईंट से बने एक कमरे के इस घर में आने से पहले अप्पू तमिलनाडु सरकार द्वारा बनावाए गए अस्थायी कैंप में अन्य आठ परिवारों के साथ रहता था। अप्पू का नया घर बनाने में मदद करने वाले 22 वर्षीय छात्र जेसर्सन जोएल ने कहा, ‘हमने देखा कि 2015 की बाढ़ के दौरान वे अस्थाई आश्रयों में रह रहे थे, जिसमें सारा क्षेत्र डूब गया था। वे खुले आसमान के नीचे बगैर सुरक्षा के रह रहे थे। उन्हें आश्रय की जरूरत थी।’ भारत में 1976 से बंधुआ मजदूरी पर प्रतिबंध है, लेकिन यह कुप्रथा अभी भी यहां बड़े पैमाने पर प्रचलित है। अप्पू जैसे लाखों वंचित दलित और जनजातीय समुदायों के लोग ऋण चुकाने के लिये खेतों, ईंट भट्ठों, चावल मिलों या घरेलू नौकरों के तौर पर काम करते हैं। पिछले वर्ष सरकार ने 2030 तक एक करोड़ 80 लाख से अधिक बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराने की योजना के साथ मुक्त कराए गए श्रमिकों की मुआवजा राशि को पांच गुना बढ़ाने की घोषणा की थी। कार्यकर्ताओं का कहना है कि घर, भूमि और नौकरी के बगैर मुक्त कराए गए मजदूर आसानी से दोबारा कर्ज में फंस सकते हैं। मुक्त
कराए गए बंधुआ मजदूरों के लिए काम करने और उनका जीवन दोबारा शुरू करने में मदद करने वाली धर्मार्थ संस्था इंटरनेशनल जस्टिस मिशन के सैम जेबादुराई ने कहा, ‘उन्हें मुआवजे की राशि दे दी गई है, लेकिन आवास और भूमि के लिए उन्हें फॉर्म भरना और अन्य प्रक्रियाओं का अनुपालन करना पड़ता है।’ अप्पू को मुक्त कराने में मदद करने वाले अधिकारियों ने जब उससे पूछा कि स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में वह कहां रहना चाहेगा, तो अप्पू ने अपने कंधे उचकाते और बुदबुदाते हुए कहा था कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। नये घर की सीढ़ियों पर बैठे अपनी बेटी को चेहरे पर पाउडर लगाते देखते हुए उसने कहा, ‘असल में मुझे मेरे माता-पिता के गांव का नाम तक नहीं पता था और इससे पहले मुझसे कभी किसी ने नहीं पूछा कि मैं क्या चाहता हूं।’ मुक्त कराए गए अन्य मजदूरों के साथ अप्पू भी तमिलनाडु में कांचीपुरम जिले के एक गांव के किनारे एक गैर सरकारी संगठन द्वारा उपलब्ध कराए गए तंबुओं में रहने लगा था। सहायक प्रोफेसर और कॉलेज प्रोजेक्ट के फील्ड कोऑर्डिनेटर प्रिंस सोलमन ने कहा, ‘इरूला जनजाति के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी बंधुआ मजदूरी करने वाले इन सभी लोगों को असल में भुला दिया गया था। मेरे एक छात्र को उन तक पंहुचने के लिए झील पार करनी पड़ी थी। उनकी दुर्दशा देखकर स्तंभित छात्रों ने वहां रह रहे परिवारों से उनकी जरूरतों के बारे में पूछा और उनके लिए स्थायी घर बनाने की परियोजना पर काम करना शुरू किया। 2016 के मध्य तक घरों की नींव रखी गई थी। प्रत्येक परिवार ने प्लास्टिक तथा एस्बेस्टॉस शीट्स के स्थान पर मजबूत खंभे और पक्की छत वाला अपना घर बनाने में छात्रों की मदद करने का वादा किया। अप्पू का कहना है कि बगीचे, शौचालय और पक्की छत वाला यह घर उसके सपनों का घर है। बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम करने के लिए इन घरों को जमीन से तीन फुट ऊपर बांस की बल्लियों पर बनाया गया है। इन घरों की अन्य महत्वपूर्ण विशेषता हैं उचित शौचालय। इससे पहले महिलाएं चार डंडे गाड़ कर उनके आस-पास साड़ी लपेट कर अपने नहाने के लिए जगह बनाती थीं। जोएल ने कहा, ‘एक महिला ने उन्हें बताया कि अब वह अपने आप को सुरक्षित महसूस करती हैं। पहले वे शौच के लिये जंगल में जाते थे और उन्हें हमेशा सांपों का डर लगा रहता था इसीलिए सूर्यास्त के बाद वे कभी बाहर नहीं जाते थे।’
किसान
अवसर
मधुमक्खी पालन से बढ़ेगी कमाई
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मधुमक्खी पालन से सिर्फ शहद ही नहीं, बल्कि प्रोपोसिल से भी होती है बेहतर कमाई
ती के साथ मधुमक्खी पालन किसानों की आय को काफी तेजी से बढ़ा सकता है, क्योंकि किसान शहद के मौसम में शहद निकालने के अलावा ऑफ सीजन में मधुमक्खी के छत्ते से प्राप्त होने वाला ‘प्रोपोलिस’ यानी मोमी गोंद की बिक्री करके अच्छी आय अर्जित कर सकते हैं। राष्ट्रीय मधुमक्खी बोर्ड के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य तथा हाईटेक नेचुरल प्रोडक्ट्स लिमिटेड के प्रबंध निदेशक देवव्रत शर्मा ने बताया, ‘मधुमक्खी पालन के साथ भारत में सिर्फ शहद का चित्र सामने आता है लेकिन यह बात काफी कम लोगों को पता है कि इस प्रक्रिया में मधुमक्खियां परागण क्रिया करती हैं जो खेती के उत्पादन को काफी बढ़ा सकता है। इसके अलावा ऑफ सीजन में मधुमक्खी पालन से प्राप्त होने वाले डंक, ‘प्रोपोलिस’, छत्ते से प्राप्त होने वाले मोम इत्यादि की बिक्री करके किसान अच्छी कमाई कर सकते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘अर्जेन्टीना, दक्षिण कोरिया, यूक्रेन, अमेरिका, ब्राजील और चीन जैसे दुनिया के कई देशों में प्रोपोलिस का दवाओं के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और कई देशों में इसका उपयोग सौंदर्य प्रसाधन के लिए भी किया जा रहा है। कई गंभीर रोगों के उपचार में प्रोपोलिस का उपयोग जबर्दस्त ढंग से बढ़ रहा है। यह एलर्जी रोधी, अस्थमारोधी, ‘एंटी सेप्टिक’ और कैंसर रोधी है। यह थॉयराइड के रोगियों के लिए, चर्बी जमाव को कम करने, कोलस्ट्रॉल को कम करने और लू लगने की स्थिति में भी उपयोगी है। इसमंे, मौजूद ‘फ्लेवोनाइड्स’ तत्व कैंसर के मरीजों को काफी राहत देता है, क्योंकि यह प्रभावित कोशिका को ठीक करने के साथ बाकी कोशिकाओं को सुरक्षा प्रदान
करता है। प्रोस्टेट कैंसर में यह काफी उपयोगी है। यह विकिरणरोधी भी है। भारत में कच्चे प्रोपालिस की बिक्री 1,500 रुपए किलो के हिसाब से हो रही है।’ शर्मा ने कहा कि भारत में मौजूदा समय में 12 लाख मधुमक्खी कॉलोनियां हैं और मौजूदा समय में प्रोपोलिस का बाजार लगभग 45 करोड़ रुपए सालाना का है।’ उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्राजील के प्रोपोलिस को बेहतरीन माना जाता है जिसका रंग हरापन लिए भूरे रंग का होता है । भारत में मधुमक्खी पालन करने वाले किसान इसे बेकार मानकर फेंक दिया करते थे, लेकिन धीरे धीरे उनके बीच इस संदर्भ में जागरुकता बढ़ रही है। मधुमक्खी जब फूल का रस और पराग लेकर अपने छत्ते में लौटती हैं तो उसे शहद बनाने की प्रक्रिया के लिए अंबी हाइव में आने वाली रोशनी को बंद कर अंधेरा करने के लिए उपयोग करती हैं। इसी प्रोपोलिस का उपयोग वह अपने खुद के इलाज के लिए भी करती हैं। इसी रेजिन और मोम के कारण प्रोपोलिस चिपचिपा पदार्थ होता है, इसीलिए इसे ठंडे स्थान पर रखकर निकाला जाता है, क्योंकि इससे इसका चिपचिपापन खत्म हो जाता है। बाजार में यह पाउडर, कच्चे स्वरूप में, पानी तथा अल्कोहल में घुलनशील पदार्थ के रूप में मिलते हैं। प्रोपोलिस का भारत में ज्यादा डेन्टल कॉलेजों में उपयोग दांत की अति संवेदनशीलता को दूर करने सहित मुंह के अल्सर को खत्म करने और तमाम अन्य रोगों के लिए हो रहा है। भारत में प्रोपोलिस को निकालने का समय मैदानी भागों में 15 फरवरी से लेकर अप्रैल तक का होता है लेकिन हिमालयी क्षेत्रों में यह समय पूरे गर्मी भर रहता है। (भाषा)
08-14 मई 2017
मध्य प्रदेश
मिसाल
स्कूली बच्चों के हक के लिए लड़ती गुलिया बाई
प्रेरक तथ्य
गुड न्यूज
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मध्य प्रदेश की आदिवासी गुलिया बाई पढ़ी लिखी नहीं है, लेकिन बच्चों की पढ़ाई बेहतर हो इसके लिए उन्होंने लंबा संघर्ष किया
बै
तूल जिले के शाहपुर ब्लॉक के गांव अडमाढ़ाना के गुलिया इवने की कहानी बदलाव की ऐसी तस्वीर पेश करती है, जिसमें शिक्षा का सूरज अपनी पूरी चमक के साथ दिखता है। वक्त के साथ शिक्षा की समझ अब आदिवासी समुदायों में भी विकसित हुई है, गुलिया बाई की कहानी यह बताने और समझाने के लिए एक मिसाल है। गुलिया बाई के प्रयासों का ही नतीजा है कि आज अडमाढ़ाना गांव के सैकड़ों बच्चों को बेहतर शिक्षा, पोषण और आहार मिलने लगा है। गुलिया बैतूल जिले की शाहपुर विकासखंड में अडमाढ़ाना में रहती हैं, उनकी उम्र 39 वर्ष है। उनके तीन बच्चे हैं, मोनिका कक्षा 10 में, पिंटू कक्षा 8 में और बंटी कक्षा 5 में पढ़ाई करता है। गुलिया अडमाढ़ाना की आदिवासी महिलाओं के बीच एक मिसाल है, जिसने अपने बच्चों की पढ़ाई, स्कूल की बेहतरी और सामाजिक बदलाव के लिये कई लड़ाईयां लड़ी हैं। आज वह शिक्षक और पालकों के बीच एक चर्चित नाम है। फिलहाल वो ‘एकलव्य मिडिल स्कूल शिक्षा प्रोत्साहन केन्द्र समिति’ सदस्य व माध्यमिक शाला समिति में सदस्य है। गुलिया ने पहली लड़ाई अपने पति के साथ ही लड़ी, जब बेटी मोनिका नौवीं कक्षा में फेल हो गई और पति ने बेटी को घर पर बैठने का फरमान सुना दिया। गुलिया ने कई दिनों तक अपने पति के गुस्से को झेला और अपने दम पर बेटी को फिर से स्कूल में प्रवेश दिलाया। गुलिया कहती हैं,‘अगर खेत में गेहूं लगाया और बारिश में खराब हो जाए तो क्या फिर नही लगाएंगे? मैं मेरी बेटी को फिर से पढ़ाऊंगी।’ यही बात उसने अपने पति को समझाई। आज मोनिका कक्षा दसवीं में पढ़ाई कर रही है। गांव की ग्राम सभा में जब भी गुलिया जाती थी तो उसके साथ कोई महिला नहीं होती थी। जब वो अपने साथ महिलाओं को लेकर ग्राम सभा में गई तो कुछ लोगों ने उन पर ताना कसा,‘बाई हुन का यां पर क्या काम, जाओ यां से।’ इस बात का जवाब गुलिया बाई ने ग्राम सभा में दिया, ‘बाई हुन नहीं आएगी तो मीटिंग भी नई होगी।’ आज इस पहल का ही असर है कि ग्राम सभा
में महिलाओं की सिर्फ उपस्थिति ही नहीं, बल्कि निर्णयों में उनकी भागीदारी भी बढ़ी है। अडमाढ़ाना प्राथमिक शाला की शाला प्रबंधन समिति के अध्यक्ष रहने के दौरान ही जब शाला में मिलने वाले खराब मिड डे मील की जानकारी गुलिया बाई को मिली तो वह 6-7 सहयोगी सदस्यों के साथ मिड डे मील की स्थिति देखने स्कूल गई। उन्होंने वहां पर देखा कि बारिश का पानी किचन में चूल्हे तक बहकर आ गया था। आटा एक दिन पहले का गूंथा हुआ रखा था, नमक भी ढेले वाला इस्तेमाल किया जा रहा था और मसालों के पैकेट में सीलन पड़ गई थी। गुलिया बाई ने मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता के बारे में रजिस्टर में अपनी आपत्ति दर्ज की, जनपद सदस्य और पंचायत के साथियों को बुलाकर स्थिति से अवगत कराया। पंचायत ने किचन से कीचड़ हटाने की बात कही पर यह तुरंत नहीं हो पा रहा था। इस पर गुलिया बाई ने पालकों से 10-10 रुपए चंदा लेकर पालकों के साथ श्रमदान करके व्यवस्था बनाई। स्कूल में एक टूटे हुए दरवाजे को भी सुधारा गया। वह समूह जिसके पास मध्याह्न भोजन बनाने का काम था, उसने शिक्षक को जाकर कहा कि हमारी शिकायत जिसने की है, उसका नाम बताओ हम उसे चमकाएंगे। जब शिक्षक ने यह बात गुलिया को बताई तो उसने कहा,‘मैं घर जाकर उनसे मिलूं या वह मेरे घर आएगा।’ जब समूह वाले गुलिया से मिलने आए तो गुलिया ने कहा, ‘यदि बच्चों के खाने की स्थिति नहीं सुधरी तो मैंने स्कूल में जो फोटो खीचे हैं उनके साथ मैं कलेक्टर से मिलने जाउंगी।’ इस पर समूह के साथियों ने भोजन की गुणवत्ता सुधारने की बात मानी और अब स्कूल में समूह ठीक खाना बना रहा है। संस्था एकलव्य, शाहपुर के निदेशक बताते हैं कि अडमाढ़ाना प्राइमरी स्कूल में बच्चों की संख्या ज्यादा है और केवल दो शिक्षक होने के कारण बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही थी। इस पर गुलिया बाई ने शाला प्रबंधन समिति में प्रस्ताव दिया और ग्राम सभा में बात की, फिर इस मसले पर बी.आर.सी.सी. से चर्चा की गई। सामूहिक सहयोग से यह समस्या हल हुई और आज इस शाला में पांच शिक्षकों का स्टाफ है। वहीं अडमाढ़ाना की आंगनबाड़ी में भी बच्चों को दिए जाने वाले पोषण आहार में गड़बड़ी पाए जाने पर पालकों ने गुलिया बाई को ही बुलाया। पालकों के साथ गुलिया बाई ने जैसे ही इस मामले में बात करनी शुरू की अगले दिन से ही बच्चों के नाश्ते व भोजन की व्यवस्था ठीक हो गई। जिसे समाज साक्षर या पढ़ा-लिखा कहता है वह गुलिया नहीं है, उसने अपना नाम लिखना भी अपनी बेटी की मदद से घर पर सीखा है। यही उसकी पढ़ाई है, पर सही मायनों में वह शिक्षित और जागरूक है। समाज एक शिक्षित से जो अपेक्षा करता है, गुलिया इवने उसे और बेहतर तरीके से पूरा करती है। (भाषा)
राजेंद्र बाबू के खाते में हैं मात्र कुछ रुपए
देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद का बैंक खाता आज भी सक्रिय है और उसमें 1813 रुपए हैं राजेंद्र बाबू का दे शबैंकके खाताप्रथम राष्ट्रपति आज भी देश के एक
राजनेता की सादगी और राजनीतिक चरित्र की अद्भुत नजीर है। पंजाब नेशनल बैंक की पटना स्थित एक्जिबिशन रोड शाखा के मुख्य प्रबंधक के अनुसार बाबू राजेंद्र प्रसाद ने 23 मई 1962 तक बतौर राष्ट्रपति देश की सेवा करने के बाद पटना लौटने पर पंजाब नेशनल बैंक की इस शाखा में 24 अक्तूबर 1962 को खाता खुलवाया था, जिसका खाता क्रमांक अब 038000010030687 है। उन्होंने बताया कि देश के प्रथम राष्ट्रपति के खाते को धरोहर के रूप में सहेज कर रखा गया है, क्योंकि यह पीएनबी के लिए गर्व की बात है। सम्मान के तौर पर प्रथम राष्ट्रपति को हमने ‘प्राइम कस्टमर’ का दर्जा दिया है। वह हमारे लिए सम्मानीय ग्राहक हैं। मुख्य प्रबंधक ने बताया कि नियमानुसार एक साल तक खाते का इस्तेमाल नहीं करने पर उसे निष्क्रिय घोषित कर दिया जाता है, लेकिन राजेन्द्र बाबू का खाता अभी भी सक्रिय है। इस खाते से लेन-देन नहीं होता है, लेकिन इसमें प्रति छमाही ब्याज जमा होता है और इस वक्त इसमें 1813 रुपए जमा है। इसमें अंतिम दफा छह मार्च 2012 को ब्याज जमा हुआ था। पंजाब नेशनल बैंक ने राजेंद्र बाबू की तस्वीर और उनके खाते को बैंक में प्रदर्शित किया है, जिस पर बड़े-बडे़ अक्षरों में खुदा है, ‘देश के प्रथम राष्ट्रपति भी हमारे सम्मानजनक ग्राहक
थे।’ राजनीतिक विचारक के. गोविंदाचार्य ने कहा, ‘भारत की परंपरा रही है कि सत्ता के सर्वोच्च पद पर आसीन व्यक्ति सादगी, मितव्ययता और देशभक्ति का जीवंत स्वरूप हो, जैसे डाॅ. राजेंद्र प्रसाद रहे हैं।’ उन्होंने कहा कि बाजारवाद का भार, अभाव में तड़पता 80 फीसदी जनमानस अपेक्षा करता है कि राष्ट्रपति पद के साथ अपना रिश्ता जोड़ सके। इस तरह देश के आमजन का भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ नाता जुड़ेगा। गांधीवादी विचारक और पटना के गांधी संग्रहालय के सचिव रजी अहमद राजेंद्र बाबू की सादगी को आने वाली पीढ़ी के लिए मिसाल बताते हैं। वे कहते हैं, ‘राजनीतिक गिरावट के इस दौर में राजेंद्र बाबू, डाॅ. जाकिर हुसैन और सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे राष्ट्रपति आने वाली पीढ़ियों के लिए रोशनी हैं। वर्तमान दौर का राजनीतिक चरित्र भावी पीढ़ी को दिशा नहीं दे सकता।’ अहमद कहते हैं, ‘राजेंद्र प्रसाद जैसे लोगों ने भारत को स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर बनाने में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। अब समय बदलने के साथ राजनीति का चरित्र बदला है। अब सेवा पर नहीं मेवा पर जोर दिया जाता है।’ वे कहते हैं कि आज का समाज सब कुछ पैसे पर तौलता है। अब मर्यादाओं पर हमले हो रहे हैं और राजनीति की लक्ष्मण रेखा लांघी जा रही है। (भाषा)
10 पर्यावरण
08-14 मई 2017
नदी बचाने के भागीरथी प्रयास नदी संरक्षण
देश में एक तरफ जल संकट बढ़ा है, तो वहीं दूसरी तरफ नदियों के मृत होते जाने के खतरे भी बढ़ गए हैं। ऐसे में नदियों को पुनर्जीवित करने की कोई भी कोशिश ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है
भा
एसएसबी ब्यूरो
लेकिन 2005 तक यह रेत खनन और पानी में कचरे की डंपिंग के कारण 15-10 मीटर रह गई थी। धीरे-धीरे यह नदी एक ऐसा स्थान बन गई, जहां ट्रकों से लाकर सेप्टिक कचरे डंप किए जाने लगे। इसके आलावा नदी में प्लास्टिक के कचरे को भी बड़ी मात्रा में फेंका जाने लगा। नदी में प्रदूषण इतना ज्यादा था कि 2011 में एक नाव इस नदी में घास के बीच बुरी तरह फंस गई। स्थिति इतनी खतरनाक हो गई थी कि यात्रियों को बचाने के लिए अग्निशामक दस्ते को बुलाना पड़ा। 1997 के दौरान नदी को भू माफिआओं का भी सामना करना पड़ा, क्योंकि उस वक्त रेत खनन कानूनी रूप से मान्य था। जल्द यह नदी खनन माफियाओं का अड्डा बन गई। धीरे-धीरे नदी के पानी का प्रवाह खत्म हो गया। हालांकि साल 2013 में कई संगठनों ने कुट्टमपरूर को बचाने के लिए अपनी आवाज बुलंद की। बुधनूर पंचायत की अगुवाई में एक परियोजना का प्रस्ताव रखा गया, लेकिन चार साल तक यह परियोजना शुरू नहीं हो पाई। आखिरकार जनवरी, 2017 में यह यह प्रोजेक्ट शुरू हो पाया। कुट्टमपरूर को साफ करने की इस परियोजना को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के जरिए चलाया गया, जिसके तहत करीब एक करोड़ रुपए खर्च किए गए। 700 महिला और पुरुषों ने अंततः 70 दिनों में इस नदी को नया जीवन प्रदान किया। मजदूर गंदे पानी में गए, प्लास्टिक के कचरे को बड़ी मात्रा में निकाला। परिणामस्वरूप 45 दिन की मेहनत के बाद नदी से पानी बहना शुरू हो गया और नया पानी आने लगा। वैसे मजदूरों के लिए यह काम आसान नहीं था, क्योंकि सीवेज, प्लास्टिक अपशिष्ट और मिट्टी की तलछट इतनी मोटी थी कि मजदूरों को वहां खुदाई के लिए काफी पसीना बहाना पड़ा। उल्लेखनीय है कि इस काम से जुड़े मजदूर भी मानते हैं कि यह काम उन्होंने केवल पैसे की खातिर नहीं किया, बल्कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से नदी के जीवन को लौटाने की कोशिश की थी। अंततः पानी की सफाई का पूरा काम 20 मार्च 2017 को पूरा हुआ और नदी में पानी फिर से सहज तरीके से बहने लगा। हालांकि अभी इसके पानी काे पीने और खाना पकाने के लिए उपयोग नहीं किया जा रहा है, लेकिन बुधनूर के निवासियों
रत की सबसे पवित्र और महत्वपूर्ण नदी गंगा है और इसको लेकर जो पैराणिक मान्यता है वह काफी दिलचस्प है। वरिष्ठ पत्रकार सूर्यकांत बाली अपनी पुस्तक ‘भारतगाथा’ में लिखते हैं कि गंगा पहले स्वर्ग की नदी थी। वहां यह मंदाकिनी के नाम से भी जानी जाती थी। स्वर्ग से धरती पर गंगा को लाने का श्रेय अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश के राजा भगीरथ को जाता है। भगीरथ कपिल मुनि के शाप से भस्म हुए अपने साठ हजार पूर्वजों की भटकती आत्माओं की मुक्ति के लिए ब्रह्मा की घोर तपस्या कर मां गंगा को पृथ्वी पर लाए थे। कहने को तो यह कथा गंगा का वैज्ञानिक इतिहास भले नहीं है, पर यह कथा भारत की लोक-स्मृति में काफी रची-बसी है। इसीलिए जब भी नदियों के पुनर्जीवन को लेकर कोई कोशिश होती है, तो कहा जाता है कि यह भागीरथी प्रयास है। अच्छी बात यह है कि एक ऐसे दौर में जब जल संकट की भयावहता दुनिया के साथ भारत में भी बढ़ती जा रही है, तो कई भागीरथी प्रयास नदियों को सजल करने को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में देखने को मिलते हैं।
खत्म हो चुका था। कुट्टमपरूर एक वक्त पंबा और अचंकोविल नदियों की एक सहायक नदी हुआ करती थी, लेकिन बाद में यह नदी महज एक गंदा नाला बनकर रह गई। पर अब इस नदी को पुनर्जीवित कर लिया गया है। इसका श्रेय उन 700 मजदूरों का जाता है, जिन्होंने इस नदी को पुनर्जीवित किया। कुट्टमपरूर नदी को लेकर की गई स्थानीय पंचायत की पहल आज मिसाल बन गई है। एक समय था जब कुट्टमपरूर बुधनूर की लाइफलाइन हुआ करती थी। इसके आसपास के लोगों को इसके कारण न कभी पेय जल की समस्या का सामना करना पड़ा और न ही सिंचाई के लिए पानी की। यह नदी 25,000 एकड़ में फैले धान के खेतों के लिए सिंचाई का एकमात्र स्रोत हुआ करती थी। यही नहीं, इस नदी का इस्तेमाल व्यापारियों द्वारा परिवहन के लिए भी किया जाता था। यह नदी कई बार लोगों को बाढ़ के प्रकोप से बचाने के भी काम आई। होता यह था कि जब पंबा और अचंकोविल में जल का प्रवाह बढ़ता तो कुट्टमपरूर अतिरिक्त पानी अपने साथ बहा ले जाती थी। सरकार के पुराने रिकॉर्ड के अनुसार 12 किमी लंबी यह नदी बुधनूर पंचायत से अलापुजहा जिले तक फैली हुई थी। यह 100 मीटर चौड़ी थी,
हाल में ऐसा ही भागीरथी प्रयास केरल की एक पंचायत ने किया, जो सफल भी रहा। केरल में कुट्टमपरूर नदी आज से 20 साल पहले प्रदूषण और खनन माफिया की ज्यादतियों के कारण सूख चुकी थी। नदी का प्रवाह लगभग
700 महिला और पुरुषों ने मिलकर 70 दिनों में कुट्टमपरूर नदी को जिंदा कर दिया। मजदूरों ने नदी से प्लास्टिक के कचरे को बड़ी मात्रा में निकाला। परिणामस्वरूप 45 दिन की मेहनत के बाद नदी से पानी बहना शुरू हो गया और नया पानी आने लगा
700 मजदूरों का भागीरथी प्रयास
एक नजर
20 साल पहले मृत हो चुकी केरल की कुट्टमपरूर नदी पुनर्जीवित हुई वाल्मीकि और राप्ती नदी को बचाने के लिए भी कामयाब पहल
मनरेगा के जरिए कई जगहों पर हो रही नदियों की खुदाई
को विश्वास है कि निकट भविष्य में नदी जल की स्वच्छता का स्तर और बेहतर होगा और इसे पीने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकेगा।
फिर बहने लगी वाल्मीकि नदी
पिछले साल मानसून की बारिश से पहले उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में स्थनीय प्रशासन के प्रयास से जीवित हुई वाल्मीकि नदी ने करीब दो दर्जन गांवों को नया जीवन दिया है। इन गांव में लगातार सूखा पड़ने के कारण पानी का भीषण संकट था। लोग तो किसी तरह प्रयास कर पानी का इंतजाम कर लेते थे, लेकिन मवेशी प्यास बुझाने को दरदर भटकते थे। करीब एक दर्जन ग्राम पंचायतों ने मनरेगा के जरिए खुदाई करके वाल्मीक नदी को पुर्नजीवित कर दिया। वाल्मीकि नदी के उद्गम स्थल कर्का पड़रिया से पयश्वनी में संगम स्थल सगवारा तक नदी के पुनर्जीवन को लेकर कई जगहों पर अब भी कार्य चल रहा है। बहिलपुरवा, ऐंचवारा, चर, बगरेही, देवकली, पैकारामीफी, देहरुच माफी, उन्नाय बन्ना, कंधवनिया, हरदौली, कौहारी और सगवारा आदि एक दर्जन ग्राम पंचायतें मनरेगा के तहत नदी की खुदाई का काम करा रही हैं। जल संकट को दूर करने वाले इस काम में जिलाधिकारी मोनिका रानी की खास रुचि रही है। वह हर दिन के काम की खुद निगरानी करती रही हैं। इसी का परिणाम है कि काम शुरू होने दो हफ्ते के भीतर वाल्मीकि नदी पुनर्जीवन की ओर बढ़ गई थी। जो नदी अभी तक मृत प्रायः थी, उसमें पानी आ जाने से ग्रामीणों में इस काम को लेकर और उत्साह आ गया है। जिलाधिकारी का मानना है, ‘यह बड़ा काम है। अभी तो लोगों को राहत मिलेगी ही आगे नदी में इतना जल संचय हो जाएगा कि बार-बार पड़ने वाले सूखे से निजात मिलेगी।’ स्थानीय प्रशासन
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काका कालेलकर के शब्दों में नदी
पर्यावरण
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‘आदि और अंत को ढूंढने की सनातन खोज हमें शायद नदी में ही मिली होगी’
ए
क सर्वे के मुताबिक हाल के दशक में 70 से ज्यादा नदियां या तो विलुप्त हो चुकी हैं या इनका घटता जलस्तर इनके विलुप्त होने के खतरे को रेखांकित कर रहा है। दरअसल नदियों की विलुप्ति कोई साधारण प्राकृतिक घटना नहीं, बल्कि यह हमारी लापरवाहियों और बढ़ते प्रदूषण के कारण है। किसी नदी के विलुप्त होने से उसके किनारे बसी सभ्यता, पेयजल स्रोत, खाद्य पदार्थ और कृषि से जुड़ी एक पूरी जल परंपरा दम तोड़ जाती है। नदियां हमारे सामाजिक जीवन के संस्कारों व लोकाचारों के भागी रही हैं, साक्षी रही हैं। नदियों को लेकर काका साहब कालेलकर ने लिखा है, ‘नदी को देखते ही मन में विचार आता है कि ये कहां से आती
है और कहां जाती है। आदि और अंत को ढूंढने की सनातन खोज हमें शायद नदी में ही मिली होगी। पानी के प्रवाह या विस्तार में जो जीवन लीला प्रकट होती है उसके प्रभाव जैसा कोई प्राकृतिक अनुभव नहीं। पहाड़ चाहे कितना ही गगनभेदी क्यों न हो, लेकिन जब तक उसके विशाल वक्ष को चीर कर कोई जलधारा नहीं निकलती, तब तक उसकी भव्यता कोरी और सूनी ही मालूम होती है।’ साफ है कि एक ऐसे दौर में जब नदियां हमारी आंखों के सामने एक के बाद दम तोड़ रही हैं, इनको बचाने का प्रयास खुद को और खुद से जुड़ी जल संस्कृति को बचाने का प्रयास है।
वाल्मीकि नदी का पुनर्जीवन जिले के लिए एक सफल कहानी है। इसको मॉडल बनाकर दूसरी नदी और नालों में भी मनरेगा के तहत काम कराए जाएंगे जैसी कामयाबी वाल्मीकि नदी को लेकर मिली है, उससे सूखे के संकट से जूझ रहे अन्य लोगों को उम्मीद बंधी है। क्षेत्र की जनता नदी के फिर से जीवित होने से खुशी मना रही है। कनवनिया पंचायत प्रधान राम रहीम कहते हैं कि जितने लोग काम करने आते हैं, उससे अधिक देखने वाले रहते हैं। वाल्मीकि नदी से लगे गांव सगवारा में जब नदी में पानी आया तो लोग खुशी से उछल गए। सगवारा गांव में ही बाल्मीकि और पयस्वनी नदी का संगम है।
राप्ती को नवजीवन
देहरुचमाफी पंचायत के प्रधान जागेश्वर यादव कहते हैं कि जो काम अभी हुआ है यदि पहले हो जाता तो लोगों को सूखे से राहत मिल गई होती, लेकिन देर आए दुरुस्त आए की तरफ से सभी ग्राम पंचायतों को आदेश दे दिए गए हैं कि जहां पर भी अभी नदी की खुदाई का काम अधूरा है उसको जल्द से जल्द पूरा कर लें, क्योंकि मानसून के दस्तक देने में समय कम ही बचा है। डीएम मोनिका रानी के शब्दों में, ‘वाल्मीकि नदी का पुनर्जीवन जिले के लिए एक सफल कहानी है। इसको मॉडल बनाकर दूसरी नदी और नालों में भी मनरेगा के तहत काम कराए जाएंगे। सभी अधिकारियों से कहा गया है कि छोटी नदी
व नालों को चििन्हत कर खुदाई के लिए मनरेगा की कार्ययोजना बनाएं।’ देहरुचमाफी पंचायत के प्रधान जागेश्वर यादव कहते हैं कि जो काम अभी हुआ है यदि पहले हो जाता तो लोगों को सूखे से राहत मिल गई होती, लेकिन देर आए दुरुस्त आए। उनकी ग्राम पंचायत में करीब ढाई किलोमीटर नदी पड़ती है, जिसमें खुदाई का काम तकरीबन पूरा हो चुका है। इसी तरह हरदौली ग्राम पंचायत के प्रधान आनंद प्रताप सिंह कहते हैं कि प्रशासन को
करीब एक साल पहले उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती में बूढ़ी राप्ती नदी को नवजीवन देने का भगीरथ प्रयास शुरू हुआ। इस पहल के पीछे श्रावस्ती के तत्कालीन जिलाधिकारी नीतीश कुमार रहे। कुमार ने बाकायदा भूमि पूजन के साथ नदी से सिल्ट की सफाई का अभियान शुरू कराया था। शुरू में कम से कम दस किलोमीटर तक नदी से सिल्ट साफ करने का लक्ष्य रखा गया थी। खास बात यह भी रही कि इस सिल्ट सफाई के लिए किसी तरह के बजट की कोई मांग नहीं की। इस अभियान को जन सहयोग और मनरेगा के तहत मजदूरी के जरिए पूरा होना है। अपना अनुभव साझा करते हुए कुमार बताते हैं कि इसके लिए 55 किलोमीटर लंबी नदी को दो भागों में बांटा गया है। एक भाग को जन सहयोग से मशीनों से साफ कराने की योजना है, जिसमें बैंक, सामाजिक संगठन, व्यापारिक संगठन आदि का सहयोग लिया जाएगा। दूसरा हिस्सा, जो गांवों के करीब का है, वहां का कार्य नदी क्षेत्र से लगी ग्राम पंचायतों को सौंपा गया है। पंचायतें मनरेगा के तहत सिल्ट सफाई का काम करा रही हैं। भारी मात्रा में सिल्ट जमा होने के चलते बूढ़ी राप्ती बीते 50 सालों से मृतप्राय हो चुकी है। कुछ स्थानों पर सिल्ट जमा होकर चट्टान का रूप ले चुकी है, जहां लोगों ने खेती शुरू कर दी है। उम्मीद है कि इस मानसून से पहले राप्ती पूरी तरह सजल हो जाएगी।
हिरण्यवती का पुनरोद्धार
ऐसी ही एक और कोशिश उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में विलुप्त हो चुकी हिरण्यवती नदी के पुनरुद्धार की गई है, जिसका आरंभ जिलाधिकारी शंभू कुमार ने खुद फावड़ा चलाकर कराया। हिरण्यवती वही नदी है जिसके तट पर भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार हुआ था। बौद्ध हिरण्यवती नदी को गंगा की तरह पूजते हैं। कुशीनगर आने वाले सभी देसीविदेशी बौद्ध पर्यटक नदी की पूजा करने के साथ ही इसके जल को अपने घर ले जाते हैं। लिहाजा जिलाधिकारी ने भी बौद्ध भिक्षुओं के मंत्रोच्चार और विधिवत पूजन के बाद नदी की खुदाई का कार्य शुरू कराया। नदी पुनरोद्धार के पहले चरण में तीन किलोमीटर का कार्य होना है। इस नदी को पुनर्जीवित करने का भागीरथ प्रयास सराहनीय है। कुशीनगर स्थित रामाभार स्तूप के निकट हिरण्यवती नदी के जीर्णोद्धार और सुंदरीकरण कार्य के शुभारंभ कार्यक्रम को संबोधित करते हुए डीएम शंभू कुमार ने इस नदी की ऐतिहासिकता और उसके महत्व को लोगों के सामने रखा और नदी पुनरोद्धार के लिए जनभागीदारी की अपील की। इस मौके पर उन्होंने मनुष्य और जीवन के साझे को रेखांकित करते हुए कहा कि विश्व की सारी सभ्यताएं नदियों के किनारे ही विकसित हुईं हैं। कुमार ने कहा कि हिरण्यवती नदी विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी है। इसके अस्तित्व को बचाने के लिए प्रशासन के साथ जन-सहयोग की भी जरूरत है। काम बहुत बड़ा और कठिन है, लेकिन लगातार प्रयास से सफलता हासिल की जा सकती है। डीएम ने कहा कि अगर हिरण्यवती नदी का जीर्णोद्धार हो जाता है तो इस काम की सराहना देश के साथ ही विदेश में भी होगी। दिलचस्प है कि उनकी अपील पर सैकड़ों मनरेगा मजदूरों के साथ जिलाधिकारी ने खुद फावड़ा चलाकर इस कार्य का शुभारंभ किया।
12 साइंस एंड टेक्नोलॉजी
08-14 मई 2017
कैंसर तकनीक
कैंसर के मरीजों की नई उम्मीद
डेन्ड्रिटिक सेल थेरेपी ने कैंसर से जूझ रहे लोगों में एक नई आस जगाई
कैं
सर के इलाज के लिए कई तकनीकें ‘डेन्ड्रिटिक सेल थेरेपी’ ने इस गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों में एक नयी आस जगाई है। यह थेरेपी जानलेवा कैंसर के लिए बहुत फायदेमंद साबित हो रही है और शायद यही वजह है कि ‘डेन्ड्रिटिक सेल’ की खोज करनेवाले राल्फ एम स्टाइनम को मेडिसिन और फिजियोलॉजी के लिए साल 2011 के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है। ‘डेन्ड्रिटिक सेल थेरेपी’ प्रतिरोधक प्रणाली पर आधारित एक ऑटोलोगस चिकित्सा है जो कैंसर के मरीज की प्रतिरोध क्षमता को स्वाभाविक रूप से बढ़ाकर उसे कैंसरकारी कोशिकाओं से मुकाबला करने के काबिल बना देती है। गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में चिकित्सा विज्ञान और रक्त विज्ञान विभाग के अध्यक्ष डॉ. अशोक वैद्य ने बताया, ‘प्रतिरोधक क्षमता शरीर की बीमारियों के खिलाफ लड़ने की प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली है। श्वेत रक्त कोशिकाएं प्रतिरोधक प्रणाली की प्रभावी कोशिकाएं होती हैं। डेन्ड्रिटिक कोशिका सफेद रक्त कोशिकाओं का एक अति विशिष्ट क्षेत्र है। यह किसी भी बाहरी कोशिका, यहां तक कि कैंसरकारक कोशिका को भी अपने दायरे में ले आती है और कई टुकड़ों में बांटकर उन्हें कोशिका की सतह पर ले आती है। यह इन्हें कड़ों में विभाजित कर प्रतिरोधक प्रणाली की कोशिकाओं को भी सर्तक कर देती हैं और कैंसर की कोशिकाओं को पहचान कर उन्हें नष्ट कर डालती है।’ डॉ. अशोक ने बताया कि डेन्ड्रिटिक सेल थेरेपी से मरीज की प्रतिरोधक क्षमता स्वाभाविक तरीके से मजबूत हो जाती है और कैंसरकारी कोशिका से लड़ने में मदद करती है।
डेन्ड्रिटिक सेल में ट्यूमर कोशिकाएं खत्म करने की क्षमता तो होती ही है और साथ ही ये कैंसर को नष्ट करने के लिए रोगी की प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाती है।’ राजीव गांधी कैंसर संस्थान में वरिष्ठ संकाय सदस्य डॉ. विनीत तलवार ने बताया,‘असंयमित जीवन शैली, तनाव और खाने की चीजों में मिलावट जैसे कारणों से कैंसर के रोगियों की संख्या बढ़ रही है।’ विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक आकलन के मुताबिक, साल 2020 तक कैंसर का प्रकोप इतना बढ़ जाएगा कि हर एक परिवार में औसतन एक व्यक्ति कैंसर का शिकार हो जाएगा। कैंसर भी मधुमेह, रक्तचाप जैसी आम बीमारी हो जाएगी। डॉक्टर तलवार ने बताया,‘डेन्ड्रिटिक सेल थेरेपी से अभी सिर्फ प्रोस्टेट कैंसर के इलाज के लिए अनुमति दी गई है। कैंसर के कई चरण होते हैं। पहले चरण में दवाएं दी जाती हैं। अगले चरण में कीमोथेरेपी की जाती है और उसके बाद डेन्ड्रिटिक सेल थरेपी से इलाज किया जाता है। 80 फीसदी लोगों में कैंसर होने का कारण पता नहीं चलता है। शेष मामलों में यह वंशानुगत, सिगरेट, तंबाकू के कारण होता है। राम मनोहर लोहिया अस्पताल में कैंसर विशेषज्ञ डॉक्टर राजीव सूद ने बताया कि डेन्ड्रिटिक सेल थेरेपी से विदेश में इलाज करवाने पर 50 लाख रुपए तक का खर्च आता है, जबकि भारत में इस विधि से इलाज में चार से पांच लाख रुपए तक का खर्च आता है। हालांकि भारत में इस विधि से उपचार की सुविधा चुनिंदा अस्पतालों में ही है। उन्होंने बताया कि डेन्ड्रिटिक सेल थेरेपी कीमो थेरेपी या इलाज की अन्य विधि के साथ भी की जा सकती है।
संक्षेप में
मिल गया प्लास्टिक खाने वाला जीव
कैं
ब्रिज यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीव की पहचान की है जो प्लाटिक को खा सकता है। हो सकता है पूरी दुनिया के लोगों को एक दिन प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण से छुटकारा मिल जाए । प्लास्टिक एक ऐसा कचरा है, जिससे सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलता है। आज भी ऐसा कोई तरीका नहीं है जिसके सहारे प्लास्टिक से फैलने वाले प्रदूषण को खत्म किया जा सके। लेकिन वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीव को खोज निकाला है, जो प्लास्टिक में मौजूद केमिकल बॉन्ड को तोड़ सकता है। वैज्ञानिकों ने जानकारी दी है कि, कमर्शियल रूप से विकसित कैटरपिलर पॉलिथिन बैग्स को जल्दी से तोड़ सकता है, जिससे मिट्टी और समुद्रों में जमा हो रहे प्लास्टिक से छुटकारा पाया जा सकता है। इस स्टडी को करेंट बायोलॉजी जर्नल में प्रकाशित किया गया है। यूके के कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीव की पहचान की जो मधुमक्खी का छत्ता खा सकता है और यही जीव प्लास्टिक को भी खा सकता है। जब वैज्ञानिकों ने इस जीव को एक प्लास्टिक बैग पर कुछ देर के लिए छोड़ के देखा तो पाया कि 40 मिनट बाद बैग में छेद दिखने लगे
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क शोध के मुताबिक, नॉन-ओ ब्लड ग्रुप वाले लोगों में दिल का दौरा पड़ने की संभावना ज्यादा होती है। शोधकर्ताओं ने कहा है कि ऐसा शायद इसीलिए है क्योंकि ब्लड ग्रुप ए, बी और एबी में खून जमाने वाले प्रोटीन का स्तर ज़्यादा होता है। उनका कहना है कि इन नतीजों से ये समझने में मदद मिलेगी कि किस पर दिल के दौरे का खतरा अधिक है। यूरोपियन सोसाइटी ऑफ कार्डियोलॉजी कांग्रेस में पेश की गई इस रिपोर्ट में करीब 13 लाख लोगों पर अध्ययन किया गया है।
और 12 घंटे बाद प्लास्टिक के मास में 92 मिलिग्राम तक कमी आ गई। वैज्ञानकों ने एक स्पेकट्रोस्कोपिक एनालिसिस के जरिए दिखाया कि ये जीव किस तरह प्लास्टिक में मौजूद केमिकल बॉन्ड को तोड़ रहे हैं। मतलब कि ये जीव केवल प्लास्टिक को खाते नहीं है, बल्कि उसे ट्रांसफॉर्म भी कर देते हैं। शोध से जुड़े एक वैज्ञानिक बॉम्बेली का कहना है कि इन जीवों द्वारा प्लास्टिक को डिग्रेड करने की गति हाल ही में खोजे गए एक बैक्टिरीया से काफी तेज है, जो 0.13 मिग्रा प्रतिदिन की गति से प्लास्टिक को नष्ट करता था। बॉम्बेली का ये भी मानना है कि इस केमिकल प्रक्रिया में यदि एक ही जीव शामिल है तो इसका रिप्रोडक्शन बायोटेक्नोलॉजिकल तरीके से बड़े पैमाने पर किया जाएगा। (भाषा)
क्या दिल के दौरे में है ब्लड ग्रुप का भी हाथ इससे पहले हुई रिसर्च में पता चला था कि दुर्लभ ब्लड ग्रुप एबी वाले लोगों पर दिल के दौरे का सबसे ज्यादा खतरा रहता है। असल में ब्रिटेन में ‘ओ’ ब्लड ग्रुप सबसे आम है। ऐसे लोगों की संख्या 48 प्रतिशत है। नीदरलैंड्स की यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर ग्रोनिनजेन की शोधकर्ता टेस्सा कोले ने बताया कि हर ब्लड ग्रुप से जुड़े खतरों पर अध्ययन होना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘आने वाले समय में, दिल के दौरे से बचने के लिए की जाने वाली जांच में ब्लड ग्रुप की जानकारी को भी शामिल किया जाना चाहिए।’ (भाषा)
क्वांटम क्लाउड कंप्यूटर
08-14 मई 2017
आईबीएम की इस साल दुनिया की पहली वाणिज्यिक 'सार्वभौमिक' क्वांटम-कंप्यूटिंग सेवा शुरू करने की योजना
डॉ. राहुल कुमार मिश्र लेखक आईआईटी टॉपर हैं। इस्राइल में रसायन शास्त्र में पीएचडी करने के बाद फिलहाल वे एंटीबैक्टरियल तत्वों को लेकर शोध और लेखन का कार्य कर रहे हैं
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ईबीएम कंपनी ने एक बड़ी और बेहतर प्रणाली बनाने की योजना बनाई है, ताकि अपरिपक्व प्रौद्योगिकी के लिए एक बाजार तैयार किया जा सके। आईबीएम ने इस साल दुनिया की पहली वाणिज्यिक 'सार्वभौमिक' क्वांटमकंप्यूटिंग सेवा शुरू करने की योजना बनाई है। कंपनी ने 6 मार्च को इस बात की घोषणा की। 'आईबीएम क्यू' नाम का यह सिस्टम इंटरनेट से भी खरीदा जा सकेगा। यह कंप्यूटर आजकल के परंपरागत कंप्यूटरों को मात देने की कोशिश नहीं करेगा। लेकिन कंपनी का कहना है कि आने वाले समय में क्वांटम मशीनों के लिए एक बाजार विकसित करने में यह सिस्टम महत्वपूर्ण होगा। यह वर्तमान में उपयोग किए जा रहे क्लासिकल कंप्यूटरों की जटिल गणना को नियंत्रित कर सकने में सक्षम होगा। बता दें कि एक उपयोगी क्वांटम कंप्यूटर बनाने के लिए क्लॉउड सर्विस उत्तेजित कर सकने में नवीनतम सल्वो का काम करती है। यह परियोजना आईबीएम की मौजूदा क्लाउड कंप्यूटिंग सेवा को विकसित करती है। क्वांटम एक्सपीरियंस कोई भी मुफ्त में एक्सेस कर सकता है। यह सिस्टम मई 2016 में ऑनलाइन चला गया था और हाल ही में एक उन्नत यूजर इंटरफेस प्राप्त हुआ। भौतिक विज्ञानी जेरी चाउ का कहना है कि दस महीनों में इसने हमें बहुत कुछ सिखाया है। बता दें कि जेरी न्यूयॉर्क के यॉर्कटाउन हाइट्स में
आईबीएम के अनुसंधान केंद्र के क्वांटम-कंप्यूटिंग प्रयोगशाला को लीड करती हैं। उन्होंने बताया कि इसने अपने क्वांटम कंप्यूटर को एक्सेस किए बिना ही क्वांटम एल्गोरिदम के निर्माण के लिए दुनिया भर के शोधकर्ताओं को एक तरीका प्रदान किया है। आईबीएम की रणनीति इस तकनीक के चारों तरफ एक समुदाय और एक पारिस्थितिकी तंत्र बनाना है। कंपनी ने इस बारे में सिर्फ इतना कहा कि इस साल वास्तव में आईबीएम क्यू ऑनलाइन आएगा। कंपनी ने यह भी खुलासा नहीं किया है कि सिस्टम कितना शक्तिशाली होगा या इसकी पहुंच लोगों में कितनी होगी। इस मामले पर कंपनी का कहना है कि उसने पहले से ही अपने ग्राहक तैयार कर लिए हैं। हालांकि कंपनी उन ग्राहकों की पहचान भी नहीं कर रही है, वह केवल यह कह रही है कि कई वाणिज्यिक भागीदारों ने मशीन के लिए अपने अनुप्रयोगों का परीक्षण और विकास किया है। क्वांटम कंप्यूटर मूलभूत भौतिकी के काउंटरसहज गुणों का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें सूचना के बिट्स होते हैं। इसे क्वांटम बिट्स या क्यूबिट्स कहते हैं। क्वांटम कंप्यूटर सिर्फ 0 या 1 का प्रतिनिधित्व करने के बजाय एक साथ कई स्थितियों को ग्रहण कर सकते हैं, जैसा बिट्स क्लासिकल कंप्यूटिंग में करते हैं। 1990 के दशक में आईबीएम के कुछ सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानियों ने क्यूबिट-आधारित एल्गोरिदम विकसित किए, जो सिद्धांत में कुछ कार्यों को क्लासिकल कंप्यूटरों
की तुलना में तेजी से कर सकते हैं। लेकिन इसकी कार्य प्रणाली में किसी भी ऐसे एल्गोरिदम को चलाने के लिए पर्याप्त क्यूबिट्स मिलते हैं, जो कि एक सार्वभौमिक क्वांटम कंप्यूटर के रूप में जाना जाता है और यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण साबित हुआ है। दो टेक्नोलॉजी जो क्यूबिट्स से निपटने के लिए फ्रंट धावक के रूप में उभरी हैं। एक इलेक्ट्रिक और चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग करके एक वैक्यूम में अलग-अलग आयनों को फंसाता है तो दूसरा शून्य से ऊपर कुछ डिग्री पर रखे सूक्ष्म चालक के सर्किट में क्यूबिट्स को शामिल करता है। हाल के वर्षों में गूगल ने काफी लड़ाई के बाद सांता बारबरा, कैलिफोर्निया में एक सुपरकंडक्टिंग-क्यूबिट लैब की स्थापना की है। गूगल, आईबीएम और दूसरी कंपनियों और अकादमिक प्रयोगशालाओं ने मशीनों के निर्माण के लिए आक्रामक रोड मैप्स की घोषणा की है, जो क्लासिकल कंप्यूटर को पीछे छोड़ सकते हैं, लेकिन इन मशीनों को लगभग 50 क्यूबिट्स पर चलने की आवश्यकता होगी। वर्तमान रिकॉर्ड लगभग 20 क्यूबिट्स का है, जो सरल कंप्यूटेशन के लिए मुश्किल से पर्याप्त है। इसलिए जब आईबीएम ने क्वांटम एक्सपिरियंस को शुरू किया, जो पांच सुपर कंडक्टिंग क्यूबिट्स पर चलता है, तो इसके कुछ बिंदु नहीं देखे गए। कॉलेज पार्क में मैरीलैंड विश्वविद्यालय की आयन-ट्रैप प्रयोगशाला चलाने वाले भौतिक विज्ञानी क्रिस्टोफर मोनरो कहते हैं कि बहुत से लोगों ने इसे प्रचार स्टंट के रूप में देखा, लेकिन मुझे लगता है कि यह एक बहुत बड़ा सौदा है। यद्यपि यह अत्याधुनिक मशीन नहीं है, फिर भी आईबीएम को ऑनलाइन क्वांटम एक्सपीरियंस पाने के लिए कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा और यह भौतिक विज्ञानियों और उनके लिए उपयोगी नहीं है, जिन्होंने कभी भी क्वांटम कंप्यूटर पर काम नहीं किया है। यह शोधकर्ताओं के लिए उपयोगी है। इसमें एक ऐसी प्रणाली शामिल है, जो भौतिक विज्ञानियों के निरंतर ध्यान के बिना काम करती है। मोनरो कहते हैं कि मशीन को क्लाउड्स पर रखना एक स्पष्ट बात है, लेकिन उस स्तर पर एक प्रणाली प्राप्त करने में बहुत सारे काम करने की आवश्यकता होती है। क्वांटम एक्सपीरियंस या आईबीएम क्यू जैसे सिस्टम तक पहुंच बनाने का मतलब यह भी है कि दुनिया भर के शोधकर्ताओं ने क्वांटम प्रोग्रामिंग की अनूठी चुनौतियों पर काम करना शुरू कर दिया है। यह पारंपरिक कोडिंग से बहुत अलग है और प्रोग्रामरों को भौतिक क्यूबिट्स की
गूगल, आईबीएम और दूसरी कंपनियों और अकादमिक प्रयोगशालाओं ने मशीनों के निर्माण के लिए आक्रामक रोड मैप्स की घोषणा की है, जो क्लासिकल कंप्यूटर को पीछे छोड़ सकते हैं
साइंस एंड टेक्नोलॉजी
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एक नजर
क्वांटम एक्सपीरियंस कोई भी मुफ्त में एक्सेस कर सकता है
क्वांटम कंप्यूटर काउंटर-सहज गुणों का इस्तेमाल करते हैं क्वांटम एक्सपिरियंस के लगभग 40,000 यूजर्स
सीमाओं को समझने और उन्हें अनुकूलित करने की आवश्यकता है। मोनरो कहते हैं कि सिद्धांत रूप में एक पांच क्यूबिट्स की मशीन का इस्तेमाल करना क्लासिकल कंप्यूटर से ज्यादा आसान है, लेकिन वास्तविक क्यूबिट्स इतना आसान नहीं हैं। कैम्ब्रिज के मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में भौतिक विज्ञानी इसाक चुआंग कहते हैं कि असली चुनौती यह है कि क्या आप अपने असली हार्डवेयर पर काम कर सकते हैं जो अपूर्ण है। चाउ का कहना है कि आईबीएम क्वांटम एक्सपीरियंस से ज्यादा क्यूबिट्स होंगे, लेकिन कंपनी अभी तक किसी विशिष्ट नंबर पर स्थापित नहीं हुई है। बता दें कि क्वांटम एक्सपिरियंस ने अब तक 100 से अधिक देशों के लगभग 40,000 यूजर्स को आकर्षित किया है। चुआंग ने उदाहरण के लिए क्वांटम कंप्यूटिंग पर एक ऑनलाइन, ग्रेजुएट स्तरीय कक्षा में इसे इस्तेमाल किया, जिसे उन्होंने पिछले साल पढ़ाया था, जिससे कि छात्र एक वास्तविक क्वांटम कंप्यूटर प्रोग्रामिंग का अभ्यास कर सकें। इस सिस्टम के यूजर्स ने 2,75,000 बार इसका प्रयोग किया है और लगभग 15 शोध पत्र भी तैयार किए गए हैं। उनमें से एक मोनरो की अगुवाई वाली टीम है, जिसमें उनके सहयोगियों ने प्रयोगशाला में सुपरकंडक्टिंग मशीन के साथ पांच क्यूबिट आयन ट्रैप मशीन की तुलना की। कंपनी की क्वांटम क्लाउड सेवा तेज थी, लेकिन मोनरो की मशीन अधिक सटीक थी। मोनरो ने आयन क्यू नाम के एक स्टार्ट-अप की स्थापना की है, जो एक क्लाउड-आधारित, ट्रैप्ड-आयन क्वांटम सेवा को रोल करने की क्षमता रखता है, लेकिन वह उस पर विचार नहीं करेगा। सांता बारबरा में कंपनी के क्वांटम-कंप्यूटिंग प्रयोगशाला के प्रमुख जॉन मार्टिनिस का कहना है कि गूगल अपने सुपर कॅन्डक्टिंग-क्यूबिट मशीनों के साथ ऐसा करने की योजना बना रहा है, लेकिन इसके बाद उसने 50-क्यूबिट के कंप्यूटर पर काम कर लिया है। इस बीच, बर्नाबी, कनाडा में स्थित एक कंपनी डी-वेव साल 2010 से क्लाउड पर एक क्वांटम-कंप्यूटिंग सेवा देती है। सिस्टम के वरिष्ठ उपाध्यक्ष जेरेमी हिल्टन ने कहा कि हमारी रणनीति का मुख्य भाग सचमुच क्लाउड एक्सेस मॉडल की ओर बढ़ रहा है। लेकिन डी-वेव की मशीन 'सार्वभौमिक' कंप्यूटर नहीं हैं और वह केवल क्वांटम एल्गोरिदम की एक सीमित श्रेणी को चला सकते हैं। फिर भी कई शोध समूहों ने इसे अपनी परियोजनाओं के लिए उपयोग किया है।
14 कृषि
08-14 मई 2017
जैविक खेती
हरियाली दीदी की हरीभरी छत
छत को खेत बना देने और उसमें मनपसंद फलों और मसालों की खेती करने वाली हरियाली दीदी आज एक रोल मॉडल बन चुकी हैं
कृ
एसएसबी ब्यूरो
षि उद्यम के क्षेत्र में महिलाओं का नाम अक्सर नहीं लिया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि कृषि और बागवानी से उनका रिश्ता ज्यादा प्रगाढ़ रहा है। आज भी इस क्षेत्र में महिलाएं अपने अभिनव प्रयोग और सफलता से कई बार दंग कर देती हैं। ऐसी ही एक महिला हैं, पुष्पा साहू। पुष्पा साहू पिछले चार साल से लगातर अपने घर की छत पर विभिन्न प्रकार के फल, साग-भाजी, फूल, औषधीय एवं मसाले वाली फसलों की सफलतापूर्वक जैविक खेती कर रही हैं। जैविक खेती में उनके इस प्रयोग की प्रसिद्धि इतनी है कि लोग अब उन्हें ‘हरियाली दीदी’ के नाम से ज्यादा जानते हैं। वह सेब, मौसंबी, चीकू, पपीता, केला और सीताफल के अलावा कई चीजों को जैविक खेती की तकनीक से पैदा कर रही हैं। उनकी खेती का तरीका इतना अनूठा है कि महज दो साल के सेब के पेड़ में फल आ गए है। उनकी छत पर फलों और सब्जियों के अलावा विभिन्न प्रकार के फूल जैसे गुलाब, नीलकमल, दहेलिया, गेंदा, गुलदाउदी, चीनी गुलाब, चमेली, ग्लेडियोलस भी नजर आते हैं। उन्होंने ओवरहैड पानी की टंकियों की मदद से ड्रिप लाइनों से सिंचाई की तथा वर्मी वाश और वर्मी कंपोस्ट के साथ घरेलू जैव जीवनाशियों का उपयोग किया है। पुष्पा के मुताबिक ग्लोबल वार्मिग के दुष्परिणाम
के फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन के इस युग में खासकर कृषि एवं पर्यावरण के क्षेत्र में सर्वाधिक नुकसान हो रहा है। इस नुकसान से बचने एवं महिलाओं तथा बेरोजगार नवयुवकों को रोजगार मुहैया कराने की दिशा में छत पर फलों, साग-सब्जियों और औषधीय पौधों की खेती एक नई संभावनाओं से भरा क्षेत्र हैं। इसके सहारे मनुष्य के स्वास्थ्य में सुधार, आर्थिक लाभ तथा पर्यावरण में सुधार के क्षेत्र में महती भूमिका निभाई जा सकती है। उनके मुताबिक किचन गार्डन वर्तमान दौर की आवश्यकता है। आजकल शहरी एवं अर्ध शहरी क्षेत्रों में किचन गार्डन का क्रेज बढ़ता जा रहा है। वैसे छत पर खेती करना सामान्य खेती करने से अलग है। छत पर गीली मिट्टी बिछाकर खेती नहीं की जा सकती, क्योंकि पानी रिसाव (सीपेज) से छत एवं मकान को क्षति पहुंचती है। इसके लिए विभिन्न प्रकार के उपायों को अपनाया जा सकता है, जैसे सीपेज रोधी केमिकल की कोटिंग के साथ उच्च गुणवत्ता वाली पॉलीथिन शीट बिछा कर क्यारी का निर्माण किया जा सकता है। घर बनाते समय ही पूरी योजना के तहत क्यारी को बनाया जाए तो छत के एक हिस्से में 3-4 फीट चौड़ी एवं 5-10 फीट लंबी क्यारी छत की सतह पर तथा छत की सतह से 1/2 फुट ऊंची आरसीसी
क्यारी बनाई जा सकती है। क्यारियों की गहराई 1/2 फुट से 3-4 फुट तक रखी जा सकती है। छत के कालम से कालम को मिला कर फाल्स छत का निर्माण आरसीसी द्वारा करने से मजबूत क्यारी बनाई जा सकती है। पुष्पा बताती हैं कि आज महंगाई के कारण लोगों के लिए सब्जी और फल खरीदना जहां एक ओर मुश्किल हो गया है, वहीं दूसरी और रसायन मुक्त जैविक साग-सब्जी भी नहीं मिल पा रही है। इसीलिए छत पर बागवानी कर वह परिवार को केमिकल मुक्त सब्जियां खिला रही हैं। साथ ही महीने में तकरीबन हजार रुपए बचा रही हैं। मात्र दो-तीन हजार रुपए खर्च करने से आप पूरे साल भर मौसमी जैविक सब्जियों का स्वाद ले सकते हैं। इसी प्रकार पांचसात हजार रुपए खर्च कर आम, अमरूद, केला और चीकू जैसे फलों की भी खेती छत की की जा सकती है। विभिन्न ऋतुओं के हिसाब से फलों की उन्नत प्रजाति के पौधे लगाने से साल भर विभिन्न फल मिलें इस सोच के साथ पुष्पा ने छत पर बागवानी का काम साल 2013-14 से शुरू किया। उनके द्वारा उपजाए गए फल और सब्जियां ताजा, जैविक तथा उच्च गुणवत्ता वाले हैं। पुष्पा साहू को छत की खेती (उद्यानिकी) में
पुष्पा साहू को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा ‘अभिनव कृषक सम्मान’ मिल चुका है। यह सम्मान पाने वाली वह अपने सूबे छत्तीसगढ़ की पहली महिला कृषक हैं
एक नजर
पुष्पा साहू पिछले चार साल से छत पर जैविक खेती कर रही हैं कई राष्ट्रीय सम्मानों से नवाजी जा चुकी हैं पुष्पा साहू अब हरियाली दीदी के नाम से जानी जाती हैं पुष्पा
नवाचार हेतु ‘भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान’, नई दिल्ली द्वारा ‘अभिनव कृषक सम्मान’ मिल चुका है। उन्हें यह सम्मान इसी साल संस्थान द्वारा कृषि उन्नति मेला-2017 के दौरान दिया गया। केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री पुरुषोत्तम रुपाला के हाथों उन्हें यह सम्मान प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। यह सम्मान पाने वाली वह अपने सूबे छत्तीसगढ़ की पहली महिला कृषक हैं। पुष्पा को उनके नवाचार हेतु इसके अलावा भी अनेक संस्थाओं द्वारा पूर्व में राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है। इनमें नवाचारी कृषक अवार्ड, स्त्री शक्ति सम्मान, भुइंया के भगवान, किसान सम्मान पत्र, इंद्रावती विशिष्ट सेवा सम्मान आदि प्रमुख हैं। वह कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों, कार्यशालाओं और कृषि प्रर्दशनियों में अपने नवाचार के बारे में लोगों को जानकारी दे चुकी हैं। ‘हरियाली दीदी’ ने छत पर खेती कर किसानों खासकर युवा किसानों को एक नई राह दिखाई है। वह कहती हैं कि प्राकृतिक संसाधन खासकर भूमि एवं जल की उपलब्धता सीमित है। साथ ही जमीन, पानी और अन्य कृषि जन्य संसाधनों की उपलब्धता से जुड़े पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी के प्रभाव के फलस्वरूप आधुनिक कृषि प्रणालियों को और अधिक कारगार बनाने की जरूरत है, ताकि बढ़ती जनसंख्या की खाद्यान्न की मांग की पूर्ति की जा सके। पुष्पा एक बात और जोर देकर कहती हैं, कि कृषि को अब उद्योग के रूप में अपनाना होगा। पुष्पा के नवाचारी उद्यम को देखकर लगता है कि खासतौर पर शहरी क्षेत्रों में घरेलू कार्बनिक कचरा (साग-सब्जी के छिलके, बचे हुए खाद्य सामग्री आदि) आसपास के वातावरण को जिस गंभीर रूप से प्रभावित कर रहे हैं, उसमें कृषि और बागवानी के नए तरीकों पर विचार करना समय की मांग है। अच्छी बात यह है कि इस कार्य को करने के लिए पुष्पा जैसी साधारण महिला न सिर्फ आगे आ रही हैं, बल्कि अपनी उपलब्धियों से वह औरों के लिए नजीर भी बन रही हैं। खुद पुष्पा भी कहती हैं कि उनका प्रयोग इसीलिए सफल रहा, क्योंकि इसके लिए उन्होंने काफी मेहनत की। यह सिर्फ उनके लिए शगल नहीं था। वे इसे आजीविका के एक बेहतर विकल्प के तौर पर देख रही थीं। आज पुष्पा को भी इस बात का संतोष है कि महज चार साल में उन्होंने वह मंजिल हासिल कर ली है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। उनकी उपलब्धि का इसीलिए भी महत्व है, क्योंकि इसने एक स्त्री के तौर पर उन्हें नई पहचान दी है। अब वह महज पुष्पा साहू नहीं, ‘हरियाली दीदी’ हैं, एक रोल मॉडल हैं।
स्वच्छता का असर बढ़ा इंदौर सबसे स्वच्छ शहर स्वच्छता सर्वे
स्वच्छता सर्वेक्षण-2017 में 83 फीसदी लोगों ने माना कि साफ-सफाई की स्थिति में बेहतरी आई है। 434 शहरों के सर्वे में मध्य प्रदेश के इंदौर को सबसे स्वच्छ शहर आंका गया, तो यूपी का गोंडा सबसे फिसड्डी रहा
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एसएसबी ब्यूरो
धानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘स्वच्छ भारत मिशन’ का असर अब वाकई दिखने लगा है। अलबत्ता इस साल जो स्वच्छता सर्वेक्षण के नतीजे आए हैं, उसमें जहां 83 फीसदी लोगों ने स्वच्छता के बढ़े असर को स्वीकार किया है, वहीं रैंकिंग के लिहाज से देश के कई शहरों की स्थिति में बड़ा फेरबदल हुआ है। इस बार मध्य प्रदेश का इंदौर पहले नंबर पर और भोपाल दूसरे नंबर पर रहा है, जबकि तीसरे नंबर पर विशाखापट्टनम आया है। इस सूची में सूरत को चौथा स्थान मिला है, जबकि पिछली बार टॉप पर रहने वाला मैसूर शहर इस बार पांचवें नंबर पर खिसक गया है।
दिल्ली का एनडीएमसी भी सफाई के मामले में पिछले साल के चौथे नंबर से फिसलकर सातवें नंबर पर पहुंच गया है। इस बार कुल 434 शहरों ने स्वच्छता सर्वेक्षण में हिस्सा लिया था। दिलचस्प है कि सफाई के मामले में टॉप पर रहने वाले 50 शहरों में गुजरात के 12 और मध्य प्रदेश के 11 शहर हैं। वहीं, इस सूची में महाराष्ट्र के तीन और तमिलनाडु के चार शहरों को स्थान मिला है। दिल्ली का एनडीएमसी इलाका भी टॉप फिफ्टी में है, लेकिन दिल्ली के बाकी तीनों नगर निगम टॉप 50 तो क्या टॉप 100 में भी जगह नहीं बना सके। वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है और संयोग से जो सूची जारी हुई है, उसमें उत्तर प्रदेश का
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चरा सफाई के मामले में आगे नवी मुंबई अब मुंबई को रास्ता दिखा रही है। मुंबई महानगर पालिका (मनपा) उसी तकनीक के सहारे कचरा साफ करेगी जिस तरह नवी मुंबई कर रही है। इस तकनीक के अनुसार बिल्डिंगों में जमा कचरे को दो भागों, सूखा और गीला, में बांटा जाएगा। डब्बों पर उसका टैग लगाया जाएगा, ताकि कचरा ढोने
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एक नजर
80 फीसदी लोगों ने माना कि सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति बेहतर सफाई के मामले में गुजरात और मध्य प्रदेश बाकी राज्यों से आगे
बिहार, राजस्थान और पंजाब स्वच्छता के लिहाज से काफी पीछे
यही शहर टॉप-50 में अपना स्थान बना पाया है। बिहार, राजस्थान और पंजाब का कोई भी शहर इतना स्वच्छ नहीं पाया गया कि वह टॉप-50 में नजर आए। हरियाणा का भी कोई शहर टॉप-50 में जगह नहीं पा सका है। बात करें स्वच्छता के पैमाने पर आंके गए सबसे फिसड्डी शहरों की तो इसमें यूपी का गोंडा सबसे अव्वल है। 434 शहरों के सर्वे में उसका सबसे आखिरी नंबर है। उससे ऊपर 433 नंबर पर महाराष्ट्र का भुसावल शहर है। उसके बाद बिहार का बगहा, उत्तराखंड का हरदोई, बिहार का कटिहार, यूपी का बहराइच, पंजाब का मुक्तसर, अबोहर, यूपी का शाहजहांपुर और खुर्जा हैं। सूची में सबसे नीचे के 50 शहरों में से 25 अकेले यूपी से हैं, जबकि बिहार से नौ, राजस्थान, पंजाब से
मुलुंड। दहिसर-बोरीवली-कांदिवली से लगभग एक हजार मीट्रिक टन कचरा निकलता है जो अपने हिसाब से काफी है। इन क्षेत्रों से सटे मीरा-भायंदर महानगरपालिका, जो मुंबई से
बाहर है, में पहले ही इसी प्रोजेक्ट के अनुसार काम शुरू हो चुका है। यहां इसी साल चुनाव भी होने हैं। हाउसिंग सोसायटी के लोगों की जागरुकता के कारण यह योजना सही आकार लेती जा रही है। मुंबई में प्रतिदिन साढ़े आठ सौ मैट्रिक टन से भी अधिक कचरा निकलता है। उसकी डंपिंग की भी समस्या बनी रहती है। लेकिन माना जा रहा है कि नई तकनीक से यह संकट भी कम हो जाएगा। यह तकनीक बता देगी कि किस बिल्डिंग से कचरा उठाना है और किससे नहीं। अभी तक महानगरपालिका ही सोसाइटियों को कचरे के िडब्बे उपलब्ध कराती रही है, लेकिन नई व्यवस्था के बाद यह एजेंसी की जिम्मेदारी हो जाएगी।
सफाई के लिए मुंबई ने सीखा नवी मुंबई से सबक
वाली गाड़ियों को दिक्कत नहीं हो। उन गाड़ियों पर भी नजर रखी जाएगी कि वह दोनों को मिक्स तो नहीं कर रही है। यह काम एक नई एजेंसी को सौंपा जाएगा। कचरा उठाने से लेकर उसे सही तरीके से डंपिंग ग्राउंड तक पहुंचाने की जिम्मेदारी उसी की होगी। उसे यह भी सावधानी रखनी होगी कि रास्ते में कचरा न गिरे। पायलट प्रोजेक्ट के तहत शुरू में इसे चार क्षेत्रों में लागू किया जाएगा। बोरीवली, कांदिवली, दहिसर और
स्वच्छता
पांच-पांच शहर हैं। स्वच्छता सर्वे के मुताबिक देश के 434 शहरों के 83 फीसद लोग मानते हैं कि पिछले वर्ष की तुलना में उनके इलाके साफ-सुथरे हुए हैं। स्वच्छता को लेकर ऐसे ही कुछ और दिलचस्प तथ्य स्वच्छता सर्वेक्षण-2017 की रिपोर्ट में सामने आए हैं। उल्लेखनीय है कि केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने एक लाख या उससे अधिक आबादी वाले 500 शहरों में जनवरी और फरवरी में सर्वेक्षण शुरू किया था। इसके लिए 18 लाख से अधिक लोगों से शहरों की साफ- सफाई स्थिति के बारे में सवाल पूछे गए थे। सर्वे में 83 फीसद लोगों ने स्वीकार किया है कि कचरा पात्र की उपलब्धता और घर-घर जाकर ठोस अपशिष्ट इकट्ठा करने जैसी सफाई सुविधाएं बेहतर हुई हैं। सर्वेक्षण में भाग लेने वाले 80 फीसद लोगों ने कहा कि सार्वजनिक शौचालयों में बेहतरी आई है। स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत के बाद से यह दूसरा सर्वेक्षण है। इस मिशन का लक्ष्य महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगांठ यानी दो अक्टूबर 2019 तक देश को स्वच्छ और खुले में शौच से मुक्त बनाना है। सर्वे में और भी कई प्रमुख निष्कर्ष सामने आए। मसलन, 404 शहरों के 75 फीसद रिहायशी इलाके काफी हद तक साफ-सुथरे पाए गए। 185 शहरों में रेलवे स्टेशन परिसर पूरी तरह स्वच्छ पाए गए। 75 फीसद सार्वजनिक शौचालय हवादार, रोशनी और पानी की आपूर्ति वाले पाए गए। 297 शहरों के 80 फीसद वार्ड में घर-घर जाकर कचरा इकट्ठा किए जा रहा है। स्वच्छता को लेकर बढ़ी जागरुकता का आलम यह है कि 226 शहरों के 75 फीसद अधिसूचित वाणिज्यिक इलाकों में दो बार झाड़ू लगाई जाती है। क्वालिटी कंट्रोल ऑफ इंडिया (क्यूसीआइ) ने यह सर्वेक्षण संचालित किया है।
अब नई तकनीक से उठेगा कचरा आनंद भारती / मुंबई
08-14 मई 2017
16 खुला मंच
08-14 मई 2017
‘महान विचार ही कार्य रूप में परिणत होकर महान कार्य बनते हैं’ - आचार्य विनोबा भावे
अरुण तिवारी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और तीन दशकों से पर्यावरण से जुड़े आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं
धरती की डाक सुनो रे केऊ !
हम प्रकृति को नहीं छेड़ेंगे, तो प्रकृति हमें नहीं छेड़ेगी। हम प्रकृति से जितना लें, उसी विन्रमता और मान के साथ उसे उतना और वैसा लौटाएं भी
थ्ाैलासीमिया की चुनौती
भारत में हर वर्ष 7 से 10 हजार बच्चे थ्ाैलासीमिया से पीड़ित पैदा होते हैं
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ठ मई को विश्व थ्ाैलासीमिया दिवस है। यह बीमारी वैसी नहीं है, जिसके लिए महज एक दिन चिंता जताने से काम चल जाए। यह एक अनुवांशिक रक्त रोग है। इसकी वजह से शरीर में हीमोग्लोबिन निर्माण में गड़बड़ी होती है और इसमें रोगी को बार-बार रक्त चढ़ाना पड़ता हैं। भारत में हर वर्ष 7 से 10 हजार बच्चे थ्ाैलासीमिया से पीड़ित पैदा होते हैं। यह रोग न केवल रोगी के लिए कष्टदायक है, बल्कि पूरे परिवार के लिए मुसीबतों के लंबे सिलसिले की तरह है। पिछले महीने ही थैलासीमिया से पीड़ित एक सात वर्षीय बच्चे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मदद की गुहार लगाई थी। सत्यम शुक्ला नाम का यह बच्चा झारखंड के चक्रधरपुर का रहने वाला है। कक्षा दो का छात्र सत्यम बचपन से ही थैलासीमिया से ग्रसित है, जिसके कारण उसे हर माह खून चढ़ाया जाता है और महंगी दवाइयां खानी पड़ती हैं, लेकिन उसके पिता इतने गरीब हैं कि बहुत लंबे समय तक उसका इलाज करा पाने में असमर्थ हैं। इस खबर के मीडिया में आने पर चाईबासा के सिविल सर्जन का बयान आया कि थैलासीमिया का मेडिकल साइंस में स्थायी इलाज नहीं है और न ही कोई दवा, लेकिन सरकार ने ऐसे मरीजों के लिए मुफ्त खून चढ़ाने की व्यवस्था की है। राज्य के सभी मेडिकल कॉलेज में खून चढ़ाया जाता है। साफ है कि इस गंभीर बीमारी को लेकर जहां एक तरफ सरकारी मदद के लिए लोग आस लगाए रहते हैं, वहीं अगर अस्पतालों में थैलासीमिया मरीजों की सही देखभाल हो, तो उन्हें दर-दर न भटकना पड़े। कुछ साल पहले थैलासीमिया से जुड़े एक मामले की सुनवाई में केंद्र सरकार की तरफ से बताया गया था कि इस तरह के मरीजों के मुफ्त उपचार की योजना 2008 से ही शुरू की जा चुकी है। यही नहीं, इस बीमारी से पीड़ित बच्चों के उपचार के लिए सरकार विशेष दिशा-निर्देश भी जारी कर चुकी है। देश के शहरी और कई अस्पतालों में थैलासीमिया पीड़ितों की मदद के लिए अच्छी व्यवस्था है, वहां अस्पताल प्रशासन भी ऐसे मामलों में संवेदनशील रवैया अपनाता है। कठिनाई तो दूर-दराज के इलाकों में होती है, जहां न तो अस्पतालों में थैलासीमिया रोगियों के लिए जरूरी इंतजाम हैं और न ही विशेषज्ञ डॉक्टर। दवाओं के महंगे होने का रोना अलग से है। साफ है कि इस बारे में सरकारी तत्परता के साथ कुछ गैर सरकारी संस्थाएं भी मदद के लिए आगे आएं तो सूरतेहाल में बड़ा बदलाव आ सकता है।
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नुस्मृति के प्रलय खंड में प्रलय आने से पूर्व लंबे समय तक अग्नि वर्षा और फिर सैकड़ों वर्ष तक बारिश ही बारिश का जिक्र है। क्या वैसे ही लक्षणों की शुरुआत हो चुकी है ? तापमान नामक डाकिये के जरिए भेजी पृथ्वी की चिट्ठी का ताजा संदेशा तो यही है और मूंगा भित्तियों के अस्तित्व पर मंडराते संकट का संकेत भी यही। अलग-अलग डाकियों के सहारे धरती ऐसे संदेशे भेजती ही रहती है। अब जरा जल्दी-जल्दी भेज रही है। हम ही हैं कि उन्हें अनसुना करने से बाज नहीं आ रहे। हमें चाहिए कि धरती के धीरज की और परीक्षा न लें। उसकी चिट्ठी पढ़ें भी, सुनें भी और बेहतर कल के लिए कुछ अच्छा गुनें भी। गौरतलब है कि मूंगा भित्तियां कार्बन अवशोषित करने का प्रकृति प्रदत अत्यंत कारगर माध्यम हैं। इन्हें पर्यावरणीय संतुलन की सबसे प्राचीन प्रणाली कहा जाता है। हमारी पृथ्वी पर जीवन का संचार सबसे पहले मूंगा भित्तियों में ही हुआ। यदि जीवन संचार के प्रथम माध्यम का ही नाश होना शुरू हो जाए, तो समझ लेना चाहिए कि अंत का प्रारंभ हो चुका है। खबर है कि लाखों एकड़ मूंगा भित्तियां हम पहले ही खो चुके हैं। समुद्र का तापमान मात्र आधा इंच बढ़ने से शेष मूंगा भित्तियों का अस्तित्व भी खतरे पड़ जाएगा। यदि इस सदी में 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान वृद्धि की रिपोर्ट सच हो गई और अगले एक दशक में 10 फीसदी आधिक वर्षा का आकलन झूठा सिद्ध नहीं हुआ, तो समुद्र का जलस्तर 90 सेंटीमीटर तक बढ़ जाएगा। तटवर्ती इलाके डूब जाएंगे। इसके अन्य विनाशकारी नतीजे तो होंगे ही, धरती पर जीवन की नर्सरी कही जाने वाली मूंगा भित्तियां पूरी तरह नष्ट हो जाएंगी, तब जीवन बचेगा, इस बात की गारंटी कौन दे सकता है? एटमोस्फियर, हाइड्रोस्फियर और लिथोस्फियर–इन तीन के बिना किसी भी ग्रह पर जीवन संभव नहीं होता। ये तीनों मंडल जहां मिलते हैं, उसे ही बायोस्फियर यानी जैवमंडल कहते हैं। इस मिलन क्षेत्र में ही जीवन संभव माना गया है। यदि इन तीनों पर ही प्रहार होने लगें, यदि ये तीनों ही नष्ट होने लगें, तो जीवन पुष्ट कैसे हो सकता है ? परिदृश्य देखें तो चित्र यही है। जिस अमेरिका में पहले वर्ष में 5-7 समुद्री चक्रवात का औसत था, उसकी संख्या 25 से 30 हो गई है। न्यू आर्लिएंस नामक शहर ऐसे ही चक्रवात में नेस्तनाबूद हो गया। लू ने फ्रांस में हजारों को मौत दी। कायदे के विपरीत आबूधाबी में बर्फ की बारिश हुई। जमे हुए ग्रीनलैंड की बर्फ भी अब पिघलने लगी है। पिछले दशक की तुलना में धरती के समुदों का तल 6 से 8 इंच बढ़ गया है। परिणामस्वरूप, दुनिया का सबसे बड़ा जीवंत ढांचा कहे जाने वाले ग्रेट बैरियर रीफ का अस्तित्व खतरे में है।
करीब 13 साल पहले प्रशांत महासागर का एक टापू किरीबाटी को हम समुद्र में खो चुके हैं। ताज्जुब नहीं कि वनुबाटू द्वीप के लोग द्वीप छोड़ने को विवश हुए। न्यू गिनी के लोगों को भी एक टापू से पलायन करना पड़ा। भारत के सुंदरवन इलाके में स्थित लोहाचारा टापू भी आखिरकार डूब ही गया। मात्र तीन दिन की प्रलयंकारी बारिश ने मुंबई शहर का सीवर तंत्र व जमीनी ढांचों की उनकी औकात बता ही दी थी। सुनामी का कहर अभी हमारे जेहन में जिंदा है ही। हिमालयी ग्लेशियरों का 2077 वर्ग किमी का रकबा पिछले 50 सालों में सिकुड़कर लगभग 500 वर्ग किमी कम हो गया है। गंगा के गोमुखी स्रोत वाला ग्लेशियर का टुकड़ा भी आखिरकार चटक कर अलग हो ही गया। अमरनाथ के शिवलिंग के रूप-स्वरूप पर खतरा मंडराता ही रहता है। उत्तराखंड विनाश के कारण अभी खत्म नहीं हुए हैं। तमाम नदियां सूखकर नाला बन ही रही हैं। भूजल में आर्सेनिक, फ्लोराइड के अलावा भारी धातुओं के इलाके बढ़ ही रहे हैं। यह सच है कि अपनी धुरी पर घूमती पृथ्वी के झुकाव में आया परिवर्तन, सूर्य के तापमान में आया सूक्ष्म आवर्ती बदलाव तथा इस ब्रह्मांड में घटित होने वाली घटनाएं भी पृथ्वी की बदलती जलवायु के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। लेकिन इस सच को झूठ में नहीं बदला जा सकता कि विकास के लिए प्रकृति के अधिकतम दोहन से जुड़ी इंसानी गतिविधियों ने इस पृथ्वी का सब कुछ छीनना शुरू कर दिया है। जीवन, जैव-विविधता, धरती के भीतर और बाहर मौजूद जल, खनिज, वनस्पति, वायु, आकाश, वह सब कुछ जो उसकी पकड़ में संभव है। गौरतलब है कि अपने घरों में तरह-तरह के मशीनी उपाय बढ़ाकर हम समझ रहे हैं कि हमने प्रकृति के क्रोध के प्रति अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा ली है। लेकिन सच यह है कि हमारे शरीर व मन की प्रतिरोधक क्षमता घट रही है। थोड़ी
धरती को चिंता है कि बढ़ रहे भोग का यह चलन यूं ही जारी रहा, तो आने वाले कल में ऐसी तीन पृथ्वी के संसाधन भी इंसानी उपभोग के लिए कम पड़ जाएंगे
08-14 मई 2017 सी गर्मी, सर्दी, बीमारी और संताप सहने की हमारी प्राकृतिक प्रतिरोधक शक्ति कम हुई है। अब न सिर्फ हमारा शरीर, मन और समूची अर्थव्यवस्था अलगअलग तरह के एंटीबायोटिक्स पर जिंदा हैं। धरती को चिंता है कि बढ़ रहे भोग का यह चलन यूं ही जारी रहा, तो आने वाले कल में ऐसी तीन पृथ्वी के संसाधन भी इंसानी उपभोग के लिए कम पड़ जाएंगे। मानव प्रकृति का नियंता बनना चाहता है। वह भूल गया है कि प्रकृति अपना नियमन खुद करती है। धरती चिंतित इस प्रवृति के परिणाम को लेकर भी है। दुनिया के शक्तिशाली कहे जाने वाले देश जिस तरह दूसरे देशों के संसाधनों से आर्थिक लूट का खेल चला रहे हैं, बिगड़ते पर्यावरण के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है। महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा था कि धरती हमारे असीमित लालच और भोग का भार नहीं सह सकती है। हमें इस बारे में अब निर्णायक तरीके से सोचना ही होगा। आज संकट साझा है, पूरी धरती का है। अतः प्रयास भी सभी को साझा करना होगा। समझना होगा कि अर्थव्यवस्था को वैश्विक करने से नहीं, बल्कि ’वसुधैव कुटुंबकम’ की पुरातन भारतीय अवधारणा को लागू करने से ही धरती और इसकी संतानों की सांसें सुरक्षित रहेंगी। यह नहीं चलने वाला है कि विकसित को साफ रखने के लिए उसका कचरा विकासशील देशों को
‘प्रकृति हमारी हर जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक का भी नहीं।’– बापू का यह संदेश धरती के संकट का समाधान है। यह मानवीय भी है और पर्यावरणीय भी भेजा जाए। निजी जरूरतों को घटाए और भोग की जीवनशैली को बदले बगैर इस भूमिका को बदला नहीं जा सकता है। ‘प्रकृति हमारी हर जरूरत को पूरा कर सकती है, लेकिन लालच किसी एक का भी नहीं।’ – बापू का यह संदेश इस संकट का समाधान है। यह मानवीय भी है और पर्यावरणीय भी। यदि हम सचमुच प्रकृति के गुलाम नहीं बनना चाहते, तो जरूरी है कि प्रकृति को अपना गुलाम बनाने का हठ और दंभ छोड़ें। कुदरत को जीत लेने में लगी प्रयोगशालाओं को प्रकृति से प्राप्त सौगातों को और अधिक समृद्ध, सेहतमंद व संरक्षित करने वाली धाय मां में बदल दें। नदियों को तोड़ने, मरोड़ने और बांधने की कोशिश न करें। पानी, हवा और जंगलों को नियोजित करने के बजाए प्राकृतिक रहने दें। बाढ़ और सुखाड़ के साथ जीना सीखें। जीवनशैली, उद्योग, विकास, अर्थव्यवस्था आदि के नाम पर जो कुछ भी करना चाहते हैं करें, लेकिन प्रकृति के चक्र में कोई अवरोध या विकार पैदा किए बगैर। उसमें असंतुलन पैदा करने की मनाही है। हम प्रकृति को नहीं छेड़ेंगे, तो प्रकृति हमें नहीं छेड़ेगी। हम प्रकृति से जितना लें, उसी विन्रमता और मान के साथ उसे उतना और वैसा लौटाएं भी। यही साझेदारी है और मर्यादित भी। इसके बिना प्रकृति के गुस्से से बचना संभव नहीं है।
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भारतीय मेधा का ‘सत्या’ मॉडल
भारतीय ज्ञान परंपरा की पुरानी जड़ों को मजबूत बनाने के लिए देश की उस नौजवान पीढ़ी को आगे आना होगा, जिसने आईटी क्षेत्र में पूरी दुनिया में कामयाबी और स्वीकृति हासिल की है
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धानमंत्री नरेंद्र मोदी जब हरिद्वार में पतंजलि आयुर्वेद शोध केंद्र का उद्घाटन करने पहुंचे तो उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि कई परंपरागत क्षेत्रों में तो इन दिनों में नए शोध और अनुसंधान में कमी के कारण हम पिछड़ रहे हैं, पर आईटी जैसे क्षेत्र में भारत का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। भारतीय ज्ञान परंपरा की पुरानी जड़ों को मजबूत बनाए रखने की चुनौती निस्संदेह बड़ी है। इस दिशा में उम्मीद एक बार फिर हमें देश की उसी नौजवान पीढ़ी से करनी होगी, जिसके लिए पीएम मोदी कई मौकों पर कहते हैं कि सांप-बिच्छू से खेलने वाले बच्चे आज माउस से खेल रहे हैं। बात करें आईटी क्षेत्र की तो इस क्षेत्र में भारतीय प्रतिभा ने इतनी दूर तक झंडे गाड़ दिए हैं कि अब शायद ही कोई उसकी बराबरी कर पाए। ‘मैं 46 साल का हूं। 22 सालों से शादीशुदा हूं। मेरे तीन बच्चे हैं। जो लोग मुझे जानते हैं, वे कहते हैं कि मेरी पहचान मेरी जिज्ञासा और सीखने की उत्कंठा है। मैं जितनी किताबें पढ़ सकता हूं, उससे कहीं ज्यादा किताबें खरीदता हूं। मैं जितने ऑनलाइन कोर्सेज कर सकता हूं, उससे कहीं ज्यादा कोर्सेज में दाखिला लेता हूं। परिवार, जिज्ञासा और ज्ञान की भूख ही मुझे परिभाषित करते हैं।’ ये बातें उस व्यक्ति ने कुछ साल पहले अपने बारे में अपने साथियों के साथ साझा की, जिसे इस बात का फख्र हासिल है कि वह दुनिया के कंप्यूटर और टेक्नॉलाजी के क्षेत्र की दिग्गज कंपनी माइक्रोसॉफ्ट का सीईओ है।
दरअसल, हम बात कर रहे हैं सत्या नडेला की। सत्या ने नाम, सम्मान और सफलता की यह ऊंचाई ऐसे ही नहीं हासिल की है। सत्या के ही बारे में और बात करें तो साफ हो जाएगा कि देश की नौजवान पीढ़ी में आईटी को लेकर किस तरह का जुनून समाया है और वह अपनी मेधा से कामयाबी के कितने सुलेख एक साथ लिख लेने का हौसला रखता है। पूर्व आईएएस अधिकारी के बेटे सत्या 1992 में माइक्रोसॉफ्ट से जुड़े और कंपनी से मिली भूमिकाओं में खुद को साबित करते आए। उनकी अलग सोच और तेज रणनीति के नतीजे से कंपनी को अपनी साख और सफलता का ग्लोबल रकबा बढ़ाने में खासी मदद मिली। उन्होंने
कई आलेख पसंद आए
मैं ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का नया पाठक हूं, पर कुछ ही अंकों को पढ़ने के बाद मैंने तय कर लिया कि मैं इस अखबार का स्थायी पाठक बनना पसंद करूंगा। पिछले अंक में कई आलेख मुझे खासतौर पर पसंद आए, मसलन ‘जैविक खेती की महिला रोल मॉडल’ और ‘आधी दुनिया का साझा बल’। एक तो ये दोनों ही आलेख काफी सुरुचिपूर्ण तरीके से लिखे गए हैं। आधी दुनिया का उद्यम आज कई क्षेत्रों में अपनी पहचान बना रहा है। अखबारों में आए दिन इस तरह की खबरें भी आती रहती हैं, पर कृषि जैसे पारंपरिक क्षेत्र में महिलाएं इतना कुछ कर रही हैं, यह नई बात है। वाकई वे सारी महिलाएं देश की रोल मॉडल हैं, जिन्होंने खेती को नए समय के मुताबिक नए सिरे
सर्च इंजन ‘बिग’ और माइक्रोसोफ्ट ऑफिस के ‘क्लाउड वर्जन ऑफिस 365’ को लांच करने में अहम भूमिका निभाई। सत्या की पैदाइश भारत की है। उनका जन्म 1967 में हैदराबाद में हुआ। वे बचपन से ही तेजस्वी और कुशाग्र थे। उन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई से लेकर उच्चतर शिक्षा भी भारत में ही पूरी की। दिलचस्प है कि आज भले सत्या को कंप्यूटर तकनीक के क्षेत्र में एक बेहतरीन प्रतिभा के रूप में देखा जा रहा हो पर उनकी पहली पसंद कभी क्रिकेट खेलना था। अलबत्ता उनकी यही पसंद बाद में उनके लिए अलग तरीके से मददगार भी साबित हुई। वे खुद कहते भी हैं, 'मुझे लगता है कि क्रिकेट से मैंने टीम में खेलने और नेतृत्व के बारे में सीखा और मेरे पूरे करियर में वह मेरे साथ रहा।’ आज जिस तरह के क्षेत्र में सत्या हैं, उसमें प्रतिभा के साथ एकाग्रता और धैर्य की काफी जरूरत है। यही कारण है कि उन्हें आज भी फटाफट क्रिकेट की बजाय टेस्ट क्रिकेट देखना पसंद है। इसकी वजह बताते हुए वे कहते हैं कि दुनिया में कोई भी खेल इतने लंबे समय तक नहीं खेला जाता। यह बिल्कुल किसी रूसी नॉवेल को पढ़ने जैसा है। सत्या जिस पीढ़ी की क्षमता का प्रतिनिधित्व करते हैं, उससे अब एक बड़ी अपेक्षा यही है कि वह भारत की ज्ञान परंपरा की पुरानी जड़ों को भी बचाए और उसे नए अनुसंधान और अपडेट वर्जन के साथ दुनिया के सामने रखें। आखिर अपने प्रधानमंत्री भी तो इसी दरकार को देश के सामने रख रहे हैं। से करने का न सिर्फ तरीका ढूंढा, बल्कि अपनी इस पहल में वे काफी सफल भी रहीं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हम सबके प्रिय नेता हैं। उन्होंने जिस तरह देश में हवाई सफर को कॉमन मैन की पहुंच में लाने की पहल की है, वह काबिले तारीफ है। इस बारे में लीड स्टोरी प्रकाशित करआपने इस पूरी योजना के बारे में तफ्सील से बताया है, जो पढ़कर अच्छा लगा। इसी तरह दिवंगत अभिनेता और राजनेता विनोद खन्ना को काफी संवेदना के साथ आपने याद किया। यह श्रद्धांजलि विनोद के जीवन के कई दिलचस्प पक्षों से तो अवगत कराता है, साथ ही यह भी बताता है कि उन्होंने अपने जीवन में कई बार शून्य से शिखर तक की यात्रा की। प्रियम भारती, मुजफ्फरपुर, बिहार
18 फोटो फीचर सीएम का संगम 08-14 मई 2017
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों से नई दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय में मिले। प्रधानमंत्री ने उनके कामकाज की समीक्षा की और कई अहम सुझाव दिए
फोटो ः शिप्रा दास
1.मुख्यमंत्रियों के साथ भाजपाध्यक्ष अमित शाह माला
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पहनाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत करते हुए 2.मुख्यमंत्रियों को संबोिधत करते प्रधानमंत्री 3.मुख्यमंत्रियों को संबोिधत करते भाजपाध्यक्ष अमित शाह 4. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह से गुफ्तगू करते प्रधानमंत्री 5. वरिष्ठ भाजपा नेता रामलाल और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ वित्त मंत्री अरुण जेटली
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6. प्रधानमंत्री का गर्मजोशी के साथ स्वागत
करते भाजपा कार्यकर्ता 7. कार्यकर्ताओं का अभिवादन स्वीकार करते पार्टी अध्यक्ष अमित शाह 8. मथुरा से भाजपा सांसद हेमा मालिनी 9. भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्याम जाजू, दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी और विजेंद्र गुप्ता 10. दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी 11. नागरिक उड्डयन राज्य मंत्री जयंत सिन्हा 12. उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य
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स्वच्छता मध्य प्रदेश
संक्षेप में
स्वच्छता की निगरानी के लिए कोड
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त्तर प्रदेश के फतेहपुर में शौचालय निर्माण में गड़बड़ी रोकने और स्वच्छता कार्यक्रम की निगरानी के उद्देश्य से सरकारी शौचालयों की निगरानी शुरू की गई है। अब हर शौचालय के निर्माण के बाद पंचायती राज विभाग निर्मित शौचालय को एक कोड प्रदान करेगा, जिसे शौचालय में पेंट से अंकित किया जाएगा। एक बार निर्मित शौचालयों की कोडिंग पूरी होने के बाद इस कोड को लाभार्थी के नाम के साथ आनलाइन कर दिया जाएगा, ताकि एक क्लिक में यह जाना जा सके कि कौन से नंबर का शौचालय किस लाभार्थी को मिला है। एक परिवार को शौचालय का लाभ सरकार से एक बार ही मिले इसके लिए निगरानी का नया फार्मूला लागू किया है। जिला पंचायत राज विभाग अधिकारी अजय आनंद सरोज ने बताया कि शौचालयों की कोडिंग की जा रही है। जिले में अब तक करीब 11 हजार शौचालयों को कोड प्रदान किया जा चुका है। (भाषा)
बनेंगे सामुदायिक शौचालय
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हिबगंज ( झारखं ड ) जिले में नौ सामुदायिक शौचालय निर्माण का काम शुरू कर दिया गया है। नप अध्यक्ष राजेश गोंड ने कहा कि साहिबगंज शहरी में सामुदायिक शौचालय की परेशानी जल्द ही दूर हो जाएगी। एक भी सामुदायिक शौचालय के नहीं रहने से दूर दराज से आने वालों को परेशानी होती थी। नगर परिषद लगभग 2.50 करोड़ की लागत से 10 सामुदायिक शौचालय शहर के विभिन्न स्थानों पर बनाएगी। इसके लिये नौ स्थानों का चयन कर लिया गया है। एक शौचालय के निर्माण पर नगर परिषद लगभग 25 लाख खर्च करेगी। इसमें महिला और पुरुषों के लिए अलग-अलग व्यवस्था होगी। नौं में से हटिया में दो शौचालय, झंडा मेला, चानन, कबूतरखोपी, वार्ड नंबर दो, वार्ड नंबर नौ, बिजली घाट और पीएचइडी में एक एक शौचालय बनना है। (भाषा)
पहले शौचालय, बाद में फेरे
कोली माहौर समाज ने सामूहिक विवाह के लिए यह शर्त रखी कि जिन घरों में शौचालय होगा सम्मेलन में उनकी ही शादी हो पाएगी
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ध्य प्रदेश के वीरपुर में अक्षय तृतीया के अवसर पर कोली माहौर समाज द्वारा आयोजित सामूहिक विवाह सम्मेलन में 40 जोड़े परिणय सूत्र में बंधे। इस विवाह सम्मेलन की खास बात यह रही कि इस आयोजन में उन्हीं जोड़ों के फेरे हुए, जिनके घरों में शौचालय बने हुए थे। माहौर समाज द्वारा की गई इस अनूठी पहल को खूब सराहा जा रहा है। इस सम्मेलन में 18 ऐसे जोड़े थे, जिन्होंने जब पंजीयन कराया था तब उनके घरों में शौचालय नहीं थे, लेकिन समिति के फरमान के बाद उन्होंने शौचालय बनवाए इसके बाद सम्मेलन
में उनका विवाह हो पाया। कोली माहौर समाज द्वारा खुले में शौच मुक्त अभियान को सफल बनाने एवं अभियान में अपनी सहभागिता के लिए वीरपुर में अनूठी पहल की गई। माहौर समाज की इस पहल में 80 परिवारों को शौचालय वाला परिवार व खुले में शौचमुक्त परिवार घोषित कर दिया है। सामूहिक विवाह सम्मेलन में विवाह कराने के लिए मुख्य शर्त शौचालय को पूरा नहीं करने पर 18 परिवारों में शादी नहीं होने का संकट आ गया था। समिति ने स्पष्ट कह दिया की जब तक घर में शौचालय नहीं बनेगा तब तक फेरे नहीं डलवाए जाएंगे। समिति के इसी फरमान से डरकर 18 परिवारों ने विवाह पंजीयन होने के बाद घरों में शौचालय बनाकर समिति को दिखाया तब जाकर समिति ने संबंधित जोड़ों को विवाह के लिए हरी झंडी दी। विवाह समिति के अध्यक्ष मनीराम माहौर ने बताया कि स्वच्छ भारत अभियान की परिकल्पना को साकार करने के लिए यह हमारा पहला प्रयास था जो सफल रहा है। अब जहां भी समाज में इस तरह के आयोजन होंगे उनमें भी इसी तरह के सकारात्मक कदम उठाए जाएंगे। (भाषा)
स्वच्छता उत्तर प्रदेश
मांगने आया शौचालय, मिल गई नौकरी शौचालय के लिए गए एक दिव्यांग की लिखावट से प्रभावित प्रभारी जिलाधिकारी ने उसे नौकरी का ऑफर दे दिया
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त्तर प्रदेश में योगी सरकार बनने के बाद अधिकारियों की कार्यशैली में खासा परिवर्तन आया है। औरैया में ऐसा ही कुछ जिलाधिकारी कार्यालय में हुआ। एक दिव्यांग शौचालय मांगने कार्यालय पहुंचा। प्रभारी जिलाधिकारी ने उसकी लिखावट देखकर उसकी शिक्षा पूछी और उसे नौकरी करने का ऑफर दे दिया। जिलाधिकारी की जगह अपर जिलाधिकारी फरियादियों की समस्याएं सुन रहे थे। इसी बीच बिधूना तहसील क्षेत्र के गांव बराहार में रहने वाले दिव्यांग बृजेंद्र प्रताप सिंह डीएम कार्यालय पहुंचे। हाथों का सहारा लेकर उन्हीं हाथों में प्रार्थना पत्र दबाए वह प्रभारी डीएम रामसेवक द्विवेदी के सामने पहुंचे। उन्होंने उन्हें कुर्सी पर बैठने को कहा। इसके बाद बृजेंद्र ने बताया कि गांव में शौचालय कागजों पर
बनाए जा रहे हैं। इसके बाद उसने प्रार्थना पत्र उन्हें दे दिया। प्रार्थना पत्र पढ़ते-पढ़ते अचानक एडीएम बोले लिखावट तो अच्छी है, कितना पढ़े हैं। दिव्यांग ने जवाब दिया हाईस्कूल तक। उन्होंने कहा कि नौकरी करोगे, यहीं लिखा-पढ़ी करते रहना। गांव कितनी दूर है। उसने बताया कि 30 किलोमीटर दूर है। बृजेंद्र बोले कि कोई बात नहीं साहब, आप पहले शौचालय बनवा दो फिर में सोचकर और घर वालों से पूछकर नौकरी के लिए बताऊंगा। इस पर अपर जिलाधिकारी ने डीपीआरओ के लिए प्रार्थना पत्र लिखा और फोन कर उनकी समस्या का निस्तारण करने का आश्वासन दिया। बृजेंद्र जाने लगे तो एडीएम बोले कि अब चिट्ठी लिखने की कोई जरूरत नहीं है। शौचालय न बने तो सीधे मेरे कार्यालय आना। (भाषा)
संक् क्षेपषे में
जल्द पूरा करें निर्माण पीलीभीत जिले में चल रहे शौचालयों के निर्माण कार्य 20 मई तक पूरा करने का लक्ष्य
को ओडीएफ बनाने पी कीलीभीतदिशा(यूमेंपी)चलजिलेरहे कार्यों की समीक्षा के
दौरान डीपीआरओ ने धीमी गति से हो रहे काम पर अपनी नाराजगी जताई और 20 मई तक कार्य पूरा करने के निर्देश दिए। स्वच्छ भारत मिशन के तहत पीलीभीत को खुले में शौच मुक्त बनाने का अभियान चल रहा है। इसके तहत चििन्हत गांवों में शौचालय बनाने का कार्य कराया जा रहा है। डीपीआरओ शशिकांत पांडेय ने दो चरणों में सभी आठ ब्लाकों की समीक्षा की। जिला समन्वयक, पंचायत, खंड प्रेरक एवं डाटा एंट्री आपरेटरों के साथ हुई समीक्षा बैठक में यह पाया गया कि ब्लाकों में लक्ष्य के अनुरूप शौचालयों का निर्माण नहीं हो पाया है। करीब 15 दिन पूर्व 5046 शौचालय निर्माण की धनराशि ब्लाकों को आंवटित की गई थी, जिसमें मात्र 410 पर ही काम शुरू हो सका है। इन पर 210 राज मिस्त्री काम कर रहे हैं। इस पर डीपीआरओ ने सभी एडीओ पंचायत एवं खंड प्रेरकों को 20 मई तक लक्ष्य पूरा करने के निर्देश दिए। डीपीआरओ ने कहा कि शौचालय निर्माण एवं इससे जुड़े कार्यों की अब प्रत्येक शनिवार को समीक्षा की जाएगी।
स्टेशन परिसर में बनेगा शौचालय घाटशिला स्टेशन परिसर में शौचालय के लिए स्वीकृति दी गई
झा
रखंड के घाटशिला में शौचालय निर्माण के लिए निविदा खोली गई। बीडीओ संजय पांडेय की देख रेख में धरम बहाल के पीआर इंटरप्राइजेज का चयन किया गया। पीआर इंटरप्राइजेज द्वारा 10 प्रतिशत कम दर पर निविदा भरी गई थी। पावड़ा के मुखिया बैजू मुर्मू ने बताया कि 14वें वित्त आयोग से पावड़ा पंचायत के फंड से 4.50 लाख खर्च कर घाटशिला स्टेशन परिसर में सार्वजनिक शौचालय बनाने की स्वीकृति प्रदान की गई थी। इसके लिए निविदा निकाली गई। योजना कार्य प्राप्ति के लिए पीआर इंटरप्राइजेज, अभय कंस्ट्रक्शन, बाबा वैद्यनाथ, चित्रा कंस्ट्रक्शन ओम कंस्ट्रक्शन ने निविदा भरी थी। (भाषा)
08-14 मई 2017
स्वच्छता दिल्ली
स्वच्छता कर्नाटक
शौचालय की कमी की समस्या से मुक्ति के लिए कर्नाटक की एक ग्राम पंचायत ने अनोखा रास्ता चुना
साउथ जोन में शौचालयों की सफाई का विशेष अभियान शुरू किया गया
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सत्यम
क्षिणी दिल्ली नगर निगम अपने शौचालयों की सफाई पर विशेष ध्यान दे रहा है। यही वजह है कि निगम इनकी सफाई के लिए निजी कंपनी का सहारा लेगा। पायलट प्रोजेक्ट के तहत साउथ जोन के 15 शौचालयों की सफाई के लिए दूसरी कंपनी को काम सौंप दिया गया है। निगम के पर्यावरण एवं प्रबंधकीय सेवाएं विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि साउथ जोन में शौचालयों की सफाई का विशेष अभियान
स्वच्छता राजस्थान
पहले बनाओ शौचालय, फिर आओ जीमने ! राजसमंद जिले के राजेंद्र सिंह कितावत ने अपनी शादी के निमंत्रण पत्र पर स्वच्छता को बढावा देने वाले स्लोगन छपवाए हैं
शौचालय, फिर आओ ‘कार्डपपरहलेजीमनेलिखा,बनाओ ’ ऐसा आपने पहले कभी शादी के हुआ देखा हैं? जी हां, आजकल
शादी के कार्ड पर यह लिखा हुआ दिखाई दे रहा हैं। मामला राजस्थान के राजसमंद जिले की नाथद्वारा तहसील का है, जहां पर यह एक अनूठी पहल की गई है। यहां के एक व्यक्ति ने अपनी शादी के कार्ड पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विशेष मुिहम का संदेश दिया है। खमनोर पंचायत समिति की ग्राम पंचायत उपली ओड़न के गांव डिंगेला के रहने वाले राजेन्द्र सिंह कितावत ने शादी के निमंत्रण पत्र पर स्वच्छ भारत अभियान को बढ़ावा देने वाले स्लोगन छपवाए हैं। शादी के निमंत्रण पत्र पर साफसाफ शब्दों में ये लिख दिया है कि जिसके घर शौचालय न हो, कृपया जीमने न पधारें
और नीचे स्वच्छ भारत मिशन भी लिखा है। इस स्लोगन से कोई रिश्तेदार या ग्रामीण नाराज हो तो इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं है। जीमना राजस्थानी परंपरा में भोज को कहा जाता है। राजेन्द्र सिंह के भाई लाल सिंह का कहना है कि जब वे सरपंच सुरेशचंद्र जलानिया से मिले तो उनके मन में ग्राम पंचायत को ओडीएफ मुक्त करने के लिए कुछ अलग करने की सोची। इसी दौरान सरपंच सुरेशचंद्र ने शादी के निमंत्रण पत्र पर स्वच्छ भारत अभियान को बढ़ावा देने वाला स्लोगन लिखने की बात कही। उनका एक ही उद्देश्य है कि ग्राम पंचायत में सभी घरों में शौचालय का निर्माण हो। लालसिंह ने बताया कि वे खुद भी स्वच्छ भारत अभियान के प्रति जागरूक हैं और लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करते हैं।
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एक दिन में बने 115 शौचालय
अब गंदे नहीं दिखेंगे शौचालय
भी शुरू कर दिया गया है। निगम के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि अधिकतर बीमारियां शौचालयों व यूरिनल में गंदगी के कारण फैलती हैं। गंदगी के कारण इनमें मौजूद मच्छर, मक्खियों व दुर्गंध के कारण इससे आसपास के लोग भी प्रभावित होते हैं। इसलिए इनकी सफाई सबसे ज्यादा जरूरी है। इनकी सफाई इसीलिए भी जरूरी है, क्योंकि यदि यूरिनल गंदा होता है तो लोग उसमें जाने के बजाय सड़क के किनारे, फ्लाईओवरों के नीचे व आसपास की दीवारों पर पेशाब करते हैं। अधिकारी ने बताया कि जिन 15 शौचालयों की सफाई का काम दूसरी कंपनी को सौंपा गया है, उन्हें सोशल कारपोरेट रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के तहत बनवाया गया था। इनमें नौ फाइबर वाले शौचालय भी शामिल हैं। ये सभी स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनाए गए थे। अधिकारी ने बताया कि शौचालयों की सफाई के अभियान से लोगों में सकारात्मक संदेश जाएगा और वे खुले में पेशाब करने के बजाए यूरिनल का इस्तेमाल करेंगे। अभी साउथ जोन में कुल 120 शौचालय व 150 यूरिनल हैं। आने वाले दिनों में इनकी संख्या बढ़ाए जाने पर भी विचार किया जा रहा है। (भाषा)
स्वच्छता
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र्नाटक के बेलगाम जिले की ग्राम पंचायत बडास (खलसा) ने अपनी स्वच्छता को लेकर नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। ग्राम पंचायत के निवासियों की समस्याओं के समाधान के लिए पंचायत प्रमुख नेहा गंगाधर ने एक ही दिन में 115 शौचालयों का निर्माण करवा कर एक नई मिसाल पेश की है। खुले में शौच करना इस गांव की प्रमुख समस्याओं में से एक था, जिसे लेकर उनके पास अक्सर शिकायतें आती रहती थीं। गांव में शौचालयों की कमी होने से लोग खुले में शौच करने को मजबूर थे, जिससे गांव का पर्यावरण तो प्रदूषित हो ही रहा था,साथ ही लोगों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से भी जूझना पड़ता था। शौचालय की समस्या के निपटारे के लिए सरपंच ने पूरी ग्राम पंचायत में स्वच्छ भारत अभियान की तर्ज पर ‘स्वच्छ हब्बा’ अभियान की शुरुआत की । कन्नड़ भाषा के शब्द हब्बा का शाब्दिक अर्थ ‘उत्सव’ होता है। नेहा ने स्वच्छता के इस उत्सव को सफल बनाने के लिए सबसे पहले अपनी पंचायत के सदस्यों को विश्वास में लिया और रणनीति तैयार की। साथ ही तय किया कि अभियान का प्रचार-प्रसार हो और एक ही दिन में पूरी ग्राम पंचायत में बतौर मिसाल 101 शौचालय बनाए जाएं। इसके लिए घर-घर जाकर उन्होंने लोगों से मुलाकात की। स्वच्छता के महत्व और शौचालय की आवश्यकताओं के बारे में हर एक निवासी को विस्तार से बताया गया और इस अभियान में जुड़ने के लिए प्रेरित किया गया। स्थानीय राजनेताओं, अधिकारियों और युवाओं को इस अभियान का प्रमुख हिस्सा बनाया गया। देखते ही देखते नेहा के नेतृत्व
में सभी ग्रामीण ‘स्वच्छ हब्बा’ की सफलता के लिए जुट गए। इसके बाद अपनी अनोखी कार्यशैली और नेतृत्व से नेहा ने अभियान की सफलता के परचम लहरा दिए। एक दिन में 101 शौचालय बनाने के लक्ष्य को साधते हुए बडास (खलसा) पंचायत में एक ही दिन में 115 शौचालयों का निर्माण हो गया। नेहा गंगाधर बताती हैं, ‘रोज 6 बजे से लेकर देर रात तक ग्राम पंचायत के घरों में दस्तक दी जाती थी और देर रात तक लोगों को ‘स्वच्छ हब्बा’ के बारे में जानकारी दी जाती थी। हर ग्राम पंचायत सदस्य को इस बात की जिम्मेदारी दी गई कि वो अपनी एक अलग टीम बनाएं और इस अभियान की सफलता तय करें।’ स्थानीय अखबारों और पर्चियों में लिखकर ‘स्वच्छ हब्बा’ अभियान का प्रचार-प्रसार किया गया। प्रचार-प्रसार की सारी सामग्री स्थानीय कन्नड़ भाषा में प्रकाशित की गई। शौचालयों के निर्माण के लिए गांव और आसपास के इलाकों से 19 राजमिस्त्री बुलाये गए और तय किया गया कि एक ही दिन में सारे शौचालय बनें। ‘स्वच्छ हब्बा’ की सफलता के पीछे ग्रामीणों का योगदान तो है, लेकिन सबसे बड़ा श्रेय ग्राम पंचायत अध्यक्षा नेहा गंगाधर घसारी के कुशल नेतृत्व का है। अब ग्रामीण खुले में शौच नहीं जाते और पूरी ग्राम पंचायत स्वच्छता को लेकर जागरूक हो चुकी है। सच है कि सफलता किसी का इंतजार नहीं करती, बस जरूरत होती है सिर्फ एक नेक शुरुआत की। इस अभियान को अंजाम देने से पहले आम लोगों को जागरूक करने का बीड़ा उठाया गया, ताकि उनका सहयोग मिल पाए और किसी तरह का विरोधाभास ना हो और ये भी तय किया गया कि सारा अभियान गैर-राजनीतिक हो। (भाषा)
भा स्वच्छता के लिए रैली
छत्तीसगढ़ की घोठा ग्राम पंचायत में स्वच्छता के प्रति जागरुकता फैलाने के लिए रैली निकाली गई
स्वच्छता छत्तीसगढ़
नुप्रताप पुर जिले में घोठा ग्राम पंचायत को ओडीएफ बनाने के लिए स्वच्छता सप्ताह के अंतिम दिन जागरुकता रैली निकाली गई। इसमें स्कूली बच्चों ने लोगों को शौचालय बनाने और उसका उपयोग करने के बारे में जागरूक किया। सरपंच विमला दर्रो ने कहा कि ग्राम पंचायत में शौचालय निर्माण चल रहा है। ग्राम पंचायत ओडीएफ घोषित हो जाएगी। इसके लिए सभी लोगों को प्रेरित किया जा रहा है। शौचालय का निर्माण और इसका उपयोग करने के लिए यह रैली निकाली गई। लोगों को शौचालय बनने से क्या फायदे हैं, इसकी जानकारी दी जा रही है।
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स्वच्छता उत्तर प्रदेश
बेटी-बहू दूर न जाएं शौचालय घर में बनवाएं
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लिया जिले के नगरा ब्लाक के ग्राम पंचायत महरी मे ग्रामीणों की चौपाल लगा कर खुले मे शौच से मुक्ति के लिए लोगों को जागरूक किया गया। खंड प्रेरक डा. मन्नू कुमार कनौजिया ने ग्रामीणों को संबोधित करते हुए कहा कि खुले मे शौच करना रोग को आमंत्रण देने के समान है। स्वच्छता अभियान की चर्चा करते हुए
उन्होंने कहा कि इस अभियान की सफलता तभी संभव है, जब इसे जन आंदोलन बनाया जाए। शौचालय आज हर घर की आवश्यकता है। जिस घर मे शौचालय नहीं है, वहां महिलाओं का सम्मान नहीं होता है। इस मौके पर प्रधान प्रतिनिधि राहुल रंजन, बाबूनंदन , रोशन कुमार , जावेद अहमद , राबिया खातून आदि मौजूद रहे। (भाषा)
स्वच्छता मध्य प्रदेश
शौचालय निर्माण में गति के लिए मॉर्निंग फॉलोअप का निर्देश
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ध्य प्रदेश के कुक्षी शासकीय उत्कृष्ट विद्यालय में अनुभाग स्तर पर स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के अंतर्गत एक दिवसीय उन्मुखीकरण प्रशिक्षण हुआ। प्रशिक्षण दोपहर 2 से शाम 6 बजे तक चला। एसआरजी की दल प्रमुख पूनम तिवारी एवं दल सदस्य प्रशांत चौरसिया, एस सोनी एवं एस कोचले ने मिशन के संबंध में प्रशिक्षण दिया। जनपद पंचायत कुक्षी, डही, निसरपुर एवं बाग के प्रेरक, एडीईओ, पीसीओ, ग्राम रोजगार, सहायक, बीईओ,
बीआरसी, जनशिक्षक शामिल हुए। ग्रामीण क्षेत्रों में 100 प्रतिशत शौचालय निर्माण करवाने के लिए सभी को प्रशिक्षण दिया। एसडीएम गुप्ता ने विशेष रूप से शौचालय निर्माण में गति लाने के लिए मॉर्निंग फॉलोअप में पुनः लगने के निर्देश दिए। जनपद सीईओ एमएल काग ने भी प्रशिक्षण दिया। गणेश सेन, जिला प्रभारी फिरोज खान, डही ब्लॉक समन्वयक एस मुझाल्दा,बाग ब्लॉक समन्वयक समरथ गवली सहित अधिकारी व कर्मचारी मौजूद थे।
स्वच्छता महाराष्ट्र
‘शौचालय ढूंढने के लिए बने ऐप’ बॉलीवुड अभिनेता अक्षय कुमार ने देश में कई ऐप्स के बीच एक ऐसे ऐप की मांग की जिससे लोग शौचालय भी ढूंढ पाएं
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हाराष्ट्र दिवस के लिए आयोजित समारोह पिछले दिनों अक्षय कुमार ने भारत के वीर नाम के दौरान अभिनेता अक्षय ने अपील कि से एक ऐप बनाया था, जिसमें सैनिकों के लिए देश में जगह जगह शौचालय बनाए जाने चाहिए। आम लोग अपना योगदान दे सकते हैं। इस ऐप अक्षय ने कहा, ‘मैं सरकार से आग्रह करता हूं कि से जुड़े सवाल पर अक्षय कुमार ने बताया,‘एक हर नुक्कड़ और कोनों में टेलीफोन बूथ जैसे छोटे- दिन मैं टीवी पर एक डाक्यूमेंट्री देख रहा था। वह छोटे शौचालय बनाए जाने चाहिए, ताकि राज्य को डाक्यूमेंट्री नौजवानों को गुमराह करके आतंकवादी खुले में शौच से मुक्त किया जा सके। अगर संभव बनाने के विषय पर थी। इसमें नौजवानों को उनके हो तो हर 500 मीटर पर ऐसे बूथ लगाए जाने कामों के प्रायश्चित के तौर पर दंगे करने की बात चाहिए।’ कही गई थी।’ अक्षय कुमार ने बताया कि नौजवानों अक्षय ने महाराष्ट्र के को भड़काने वाला आदमी मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ‘टॉयलेट-एक प्रेम कथा’ भी इसी यह भी कह रहा था कि वो से राज्य के लिए एक ऐसा थीम पर आधारित है और फिल्म में अपने परिवारों की चिंता ऐप बनाने का आग्रह किया एक संवाद भी है, ‘अगर बीबी पास ना करें। उनके मरने के है, जिससे लोग जरूरत चाहिए, तो घर में संडास चाहिए’ बाद उनके परिवारों को पड़ने पर शौचालयों को पैसे भिजवा दिए जाएंगे।’ जीपीएस की मदद से वैसे ही ढूंढ सकें जैसे वो यह सुनकर अक्षय कुमार को लगा कि अगर वह किसी कैब या किसी रेस्तरां को ढूंढ लेते हैं। अक्षय आतंकवादी बुरे कामों के लिए मारे गए लोगों के कुमार ने कहा,‘जैसे घर में शौचालय न होने पर परिवारों की देखभाल कर सकते हैं तो हम देश एक महिला ने अपने पति को तलाक दे दिया था, के शहीदों के लिए ऐसा क्यों नहीं कर सकते जो उस अनुभव को याद रखते हुए सभी पुरुषों से मेरी मानवता की रक्षा करते हुए शहीद हुए हैं। अक्षय अपील है कि अगर वे शादी कर रहे हैं तो अपने कुमार ने कहा कि शहीदों के परिवारों को दिया घरों में शौचालय जरूर बनवाएं।’ उनकी आगामी गया पैसा कोई दान नहीं है। यह उनके प्रति हमारा फिल्म ‘टॉयलेट-एक प्रेम कथा’ भी इसी थीम पर कर्तव्य है। अक्षय कुमार देश की युवा पीढ़ी के प्रति आधारित है और फिल्म में एक संवाद भी है, ‘अगर बेहद संवेदनशील हैं और नौजवानों के प्रति अपने बीबी पास चाहिए, तो घर में संडास चाहिए।’ अक्षय कर्तव्य को समझते हैं। अक्षय के अनुसार भारत के कुमार के सुझाव का स्वागत करते हुए फडणवीस युवा बहुत होशियार हैं और उनके पास नए-नए ने कहा कि राज्य में सार्वजनिक शौचालयों की आईडिया हैं और जितनी समझ वो बॉलीवुड में संख्या में बढ़ाने के काम को प्राथमिकता के आधार बिताए अपने 26 सालों में नहीं ले पाए हैं, उतनी पर पूरा करवाएंगे। आज के नौजवानों में अभी से है। (भाषा)
08-14 मई 2017
स्वच्छता बिहार
स्वच्छता कर्नाटक
स्वच्छता
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टमाटर के साथ स्वच्छता का मंत्र
छात्रा ने बनाया शौचालय
कर्नाटक की शरणम्मा अपने गांव के साथ पूरे देश को खुले में शौच से मुक्त बनाना चाहती हैं
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वहर जिले के छाबोखड़ा में लोहिया स्वच्छता अभियान के तहत प्रखंड की विभिन्न पंचायतों को खुले में शौच से मुक्ति के लिए गांव-गांव में बनाये जा रहे शौचालयों का डीएम राजीव रौशन ने अधिकारियों की टीम के साथ जायजा लिया। इसी क्रम में डीएम बुधनगरा पहुंचे, जहां उन्हें जानकारी मिली कि अर्चना कुमारी नामक बीए की एक छात्रा ने अपने हाथों से शौचालय का निर्माण किया है। यह सुन कर आश्चर्यचकित डीएम
उक्त शौचालय को देखने को उत्सुक हुए। डीएम की इच्छा जान कर मौजूद जनप्रतिनिधि उन्हें अर्चना के घर की ओर ले गए। अर्चना के द्वारा बनाए गए शौचालय को देख वे काफी खुश हुए। अर्चना काे आशीर्वाद देते हुए डीएम ने कहा कि वह एक दिन बिहार की रोल मॉडल बनेगी। डीएम ने शौचालय निर्माण से होने वाले फायदे की जानकारी देते हुए ग्रामीणों के आग्रह पर यथासंभव प्रयास करने का आश्वासन दिया। (भाषा)
स्वच्छता उत्तर प्रदेश
बनेगा शौचालय तब आऊंगी रिश्तेदारी में
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जियाबाद जनपद के एक गांव में रिश्तेदारों ने खुले में शौच प्रथा बंद होने तक गांव में आने से इंकार कर दिया है। मामला जिले के बसंतपुर सैंथली गांव का है। यहां खुले में शौच के लिए जाने वाले लोगों को टोका गया। गांव में रिश्तेदारी में आईं राजवती खुले में शौच को जा रहीं थीं, लेकिन मौके पर टोके जाने से वो शर्मिंदा हो गईं और शौचालय न बनने तक गांव की रिश्तेदारी में आने से इंकार कर दिया। ग्राम प्रधान अर्णिमा त्यागी ने बताया कि खुले में शौच के लिए उन्होंने एक निगरानी समिति का गठन कर रखा है। इसके तहत हर रोज की तरह वानर सेना और
निगरानी समिति खुले में शौच जाने वालों की निगरानी में जुटी थी। उन्होंने बताया कि कुछ महिलाएं खुले में शौच करने जा रही थीं, जिन्हें रोका गया। बाद में मालूम हुआ कि उनमें गांव में किराए पर रह रहे परिवार के पास आई हुईं एक रिश्तेदार भी थीं। जिन्हें समझाया गया तो उन्होंने साफ तौर पर एेलान किया कि अब वो तभी गांव में रिश्तेदार के यहां आएंगी जब गांव में उनके रिश्तेदारों के यहां शौचालय बन जाएगा। अर्णिमा त्यागी ने बताया कि गांव से कुछ किरायेदार जो बिना शौचालय के मकान में रह रहे थे, अब उन्होंने भी मकान खाली करना शुरू कर दिया है।
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र्नाटक के कोप्पल जिले के दानापुर हैं जो उनका इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। शरणम्मा गांव की शरणम्मा बकर गांव में टमाटर बताती हैं, ‘कई ग्रामीण कहते हैं कि वे खुले में ही बेचने का काम करती हैं। शरणम्मा हर दिन लोगों के जाकर शौच करेंगे क्योंकि यही वो इतने सालों से घर जाती हैं, लेकिन टमाटर बेचने के इरादे से नहीं, कर रहे हैं। मैं उनके इस रवैये को बदलना चाहती लोगों को शौचालय के इस्तेमाल के प्रति जागरूक हूं, इसीलिए मैंने ऐसे घरों में जाना शुरू कर दिया है, करने के लिए। वजह बेहद दिलचस्प है। शरणम्मा जहां लोग शौचालय होने के बावजूद लोग उसका प्रधानमंत्री के स्वच्छ भारत इस्तेमाल नहीं करते।’ अभियान की सबसे बड़ी शरणम्मा की दो महीने की कोशिशों लोगों के दरवाजे पर का ही यह नतीजा है कि गां व में अब प्रशंसक हैं और चाहती हैं कि शरणम्मा टमाटर बेचने के तक 300 परिवारों ने अपने घरों में उनके गांव के साथ पूरा देश लिए नहीं जातीं हैं, बल्कि खुले में शैाच से मुक्त बने। लोगों को साफ-सफाई का शौचालय बनवाए यूं तो स्वच्छ भारत मंत्र देने जाती हैं। वे लोगों से अभियान के तहत लोगों को खुले में शौच करने कहती हैं, ‘शौचालय एक आवश्यकता है, आपके से रोकने के लिए तरह-तरह के जतन किए जा रहे पास होना चाहिए।’ वे खुले में शौच जाने से होने हैं। योजनाएं चल रहीं, प्रचार-प्रसार किए जा रहे हैं, वाले खतरे के बारे में लोगों को आगाह करती हैं। लेकिन 45 साल की शरणम्मा का तरीका रोचक साथ ही वह बताती हैं कि किस तरह वे इससे होने और सबसे अलग है। शरणम्मा अपने ऐसे ग्राहकों वाली जानलेवा बीमारियों से बच सकते हैं। को, जिनके घर में शौचालय बना हुआ है और वे उसका इस्तेमाल करते हैं, उन्हें बोनस देती हैं। जी क्यों आया ऐसा विचार? हां, टमाटर का बोनस। शरणम्मा अपने ऐसे ग्राहकों जब शरणम्मा को पता चला कि उनके गांव के को एक किलो टमाटर मुफ्त देती हैं। अपनी जिंदगी लगभग 1,300 परिवार शौचालय से कोसों दूर में कई उतार-चढ़ाव देखने के बावजूद शरणम्मा हैं, इसके इस्तेमाल के लिए जागरूक नहीं हैं तो अपने लिए न सोचकर दूसरों के बारे में सोचती उन्होंने ये तरीका उपनाया। वे कहती हैं, ‘आज हैं। टमाटर बेचना ही उनकी आमदनी का एकमात्र मेरे पास साफ-सुथरा शौचालय है, लेकिन कुछ जरिया है, लेकिन फिर भी वो अपना नुकसान झेल साल पहले जब ये नहीं था तो मैं खुले में शौच कर लोगों की मदद करना चाहती हैं। करने के लिए बाहर जाती थी। मुझे पता है, खुले शरणम्मा की दो महीने की कोशिशों का ही में शौच करना मुश्किल है। मैं इससे अनजान और यह नतीजा है कि गांव में अब तक 300 परिवारों अशिक्षित थी कि शौचालय होना कितना जरूरी है। ने सफाई की अहमियत समझी और अपने घरों में मैं कभी भी बाकी लोगों को भी इससे अनजान नहीं शौचालय बनवाए। इसके बावजूद कई ऐसे भी लोग रखना चाहती थी।’ (भाषा)
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स्क्वेटर्स बेहतर या सिटर्स स्वच्छता तकनीक
शौच को लेकर परंपराअों का इतिहास भ्ाा ही पुराना है। दिलचस्प यह कि इसमें भारतीय परंपरा पाश्चात्य परंपरा से हर लिहाज से बेहतर रही है
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एक नजर
‘हमारा शरीर सिटिंग टॉयलेट के लिए बना ही नहीं है’
एनो रेक्टल एंगल सिटिंग पोजीशन में कम हो जाता है स्क्वेटिंग पोजीशन कोलोन कैंसर से बचाती है
जिमी कार्टर, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति एसएसबी ब्यूरो
भिनेत्री विद्या बालन जब घर-घर शौचालय बनाने के अपने अभियान के लिए विज्ञापन में कहती हैं कि ‘जहां सोच, वहीं शौचालय’, तो इस बात का अर्थ सिर्फ शौचालय को लेकर लोक शिक्षण या लोक जागरुकता भर से नहीं जुड़ा है। शौच और उससे जुड़ी आदतों और परंपराओं का इतिहास भी उतना ही पुराना है, जितना धरती पर जीवन का। ज्यादातर वैज्ञानिकों की राय यह है कि धरती पर मनुष्य का इतिहास करीब 60 लाख वर्ष पुराना है। कह सकते हैं शौच से लेकर सोच की जड़ें भी इतिहास में तकरीबन इतनी ही गहरी हैं। दुर्भाग्य से मनुष्य के शरीर और जीवन से जुड़ी सबसे महत्वपूर्ण प्रक्रिया के बारे में या तो हम बहुत कम जानते हैं या जो जानते भी हैं, वह शोध तथ्यों पर नहीं, बल्कि धारणाओं के आधार पर बनी राय है। इस कारण कई भ्रामक धारणाएं हमारे बीच कायम हैं। इन धारणाओं में पूर्व और पाश्चात्य का भेद भी खूब है। मसलन, आमतौर पर भारत में शिक्षित लोग अपनी परंपराओं को दकियानूसी नजरिए से देखते रहे हैं। इसके उलट पश्चिमी प्रचलन और परंपराओं को लेकर ललक हमारे यहां खूब देखी जाती है। दिलचस्प यह कि हमें ये परंपराएं विज्ञान सम्मत भी लगती रही हैं। मल विसर्जन के पाश्चात्य तरीके को ही लें, जिस तेजी के साथ हमने इसे अपनाया वह दंग कर देने वाली स्थिति है। दिलचस्प यह कि चिकित्सा
विज्ञानियों की तकरीबन पूरी जमात ने भी इसे अपनी तरह से स्वीकृति प्रदान की है। इस तरह की धारणाएं हमारे यहां तो पाश्चात्य ठप्पे के कारण संभ्रांत जीवनशैली का हिस्सा बन जाती हैं, जबकि अमेरिका जैसे देश में इस तरह के किसी प्रचलन को लेकर बहस होती है। बात सिटिंग टॉयलेट की करें तो इसको लेकर भारत में यही धारणा है कि यह पुराना तरीका है जो आज की फैशन डिमांड से पूरी तरह बाहर है। डॉ. मनोहर भंडारी अपने एक शोधपूर्ण लेख में बताते हैं कि 1978 के क्रिसमस के कुछ पहले की बात है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर को गंभीर खूनी बवासीर (सिवियर हिमोरायड्स) के कारण हुए अत्यधिक कष्ट और दर्द ने इतना परेशान किया कि उन्हें एक दिन की छुट्टी लेनी पड़ी और एक शल्य क्रिया से गुजरना पड़ा। इजिप्ट के राष्ट्रपति अनवर सादात ने अपने परम मित्र की व्यथा से उद्वेलित होकर अपने देशवासियों से अपील की कि वे सभी जिमी कार्टर के लिए प्रार्थना करें। इस घटना के कुछ सप्ताह बाद ‘टाइम’ मैगजीन ने वहां के सुप्रसिद्ध प्रोक्टोलाजिस्ट डॉ.माइकेल फ्रेलिच से प्रेसिडेंट की बीमारी के बारे में
पूछा तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि हमारा शरीर सिटिंग टॉयलेट के लिए बना ही नहीं है, बल्कि यह स्क्वेटिंग के लिए ही बना है। उन्होंने तब मीडिया को बताया था कि हिमोरायड्स में एनल केनाल की रक्त शिराएं (वेंस) फूल जाती हैं और कभी-कभी उनसे रक्तस्राव भी होने लगता है। वैसे तो हिमोरायड्स मोटापे, एनल सेक्स और प्रिगनेंसी के कारण हो सकता है, परंतु सबसे बड़ा कारण है मल त्याग के समय का स्ट्रेन। सिटिंग पोजीशन में स्क्वेटिंग की अपेक्षा तीन गुना ज्यादा जोर लगता है, जिसके कारण रक्त शिराएं फूल जाती हैं। यही वजह है कि लगभग पचास प्रतिशत अमेरिकन इस रोग से ग्रस्त हैं। उन्होंने अपने चिकित्सा विज्ञान के ज्ञान तथा अनुभवों के आधार पर बताया था कि स्क्वेटिंग कोलोन कैंसर से भी बचाती है। हालांकि इसको लेकर वे जरूरी शोध पूरा नहीं कर सके। इजरायली शोधकर्ता डॉ. डोव सिकिरोव ने 2003 में किए अपने एक अन्य अध्ययन में पाया कि स्क्वेटर्स को मल निष्कासन में औसत 51 सेकेंड लगते हैं और सिटर्स को 130 सेकेंड। उनका यह शोध अध्ययन ‘डायजेस्टिव डिसीजेस एण्ड साइंसेज’
प्रसिद्ध आर्किटेक्ट एलेक्जेंडर कीरा ने 1966 में अपनी पुस्तक ‘द बाथरूम्स’ में स्पष्ट लिखा है कि स्क्वेटिंग पोजीशन मानव शरीर के लिए सर्वथा अनुकूल है
में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने इसके लिए एनो रेक्टल एंगल को जिम्मेदार ठहराया था, जो कि सिटिंग पोजिशन में कम हो जाता है और मल मार्ग को संकरा कर देता है। इस अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए जापानी चिकित्सकों ने मलाशय यानी रेक्टम में रेडियो कंट्रास्ट साल्यूशन डाल कर वीडियोग्राफी की और पाया कि सिटिंग में एनो रेक्टल एंगल 100 डिग्री का होता है और स्क्वेटिंग पोजिशन में यह 126 डिग्री का हो जाता है। उनका यह अध्ययन ‘लोअर यूरिनरी ट्रेक्ट सिमटम्स’ नामक मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था। भंडारी अपने लेख में बताते हैं कि वैसे सिटिंग टॉयलेट के खिलाफ वैज्ञानिकों ने मोर्चा जिमी कार्टर को हुए कष्ट की घटना से काफी पहले ही खोल दिया था। दरअसल, 1960 और 1970 के दशक के दौरान इस अभियान ने अच्छा जोर पकड़ा। बोकूस की ‘गेस्ट्रोएंट्रोलाजी को-टेक्स्ट बुक’ (1964), जो कि उस समय की बेहद प्रचलित और मानक पुस्तक मानी जाती थी, में स्पष्ट लिखा है कि मल त्याग के लिए स्क्वेटिंग ही आदर्श स्थिति है, जिसमें जांघें मुड़कर पेट को दबाती हैं। प्रसिद्ध आर्किटेक्ट एलेक्जेंडर कीरा ने 1966 में अपनी पुस्तक ‘द बाथरूम्स’ में स्पष्ट लिखा है कि स्क्वेटिंग पोजीशन मानव शरीर के लिए सर्वथा अनुकूल है। एक नए अध्ययन के अनुसार अमेरिका में ही 12 लाख लोग शौचालय नहीं होने से स्क्वेटिंग पोजीशन में ही मल त्याग करते हैं। उससे भी कहीं बहुत ज्यादा संख्या में
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फिजियोलॉजी के नजरिए से डिफिकेशन स्क्वेटिंग पोजीशन में अपशिष्ट भोजन की एन्टीग्रेविटी यात्रा आसान हो जाती है
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दि हम शौच की क्रिया की फिजियोलॉजी का एक बार पुनरावलोकन करें तो शौच के श्रेष्ठ तरीके को समझने में आसानी होगी। पौष्टिक तत्वों को जज्ब करने के बाद छोटी आंत शेष बचे हुए अवशिष्ट पदार्थ को इलियोसिकल वाल्व के जरिए बड़ी आंत को सौंप देती है। सिकम एक छोटे से थैले की तरह फूला रहता है। इसके निचले हिस्से से अपेंडिक्स लटका होता है। यहां से बचा हुआ भोजन यानी जलयुक्त मल बड़ी आंत के प्रथम सोपान यानी एसेन्डिंग कोलोन में जल का त्याग कर पेरिस्टाल्सिस (आंतों की गति) के जरिये एल्टीग्रेविटी चढ़ता है और फिर ट्रांसवर्स कोलोन से होते हुए, डिसेन्डिंग कोलोन की यात्रा लोग एशिया, मिडिल ईस्ट और यूरोप के कई हिस्सों में आज भी स्क्वेटिंग के हिसाब से बनी टॉयलेट्स का ही इस्तेमाल करते हैं। बताया जाता है कि 18वीं सदी में शौच के लिए पूरी दुनिया के लोग घर से बाहर ही उकड़ू बैठकर शौच करते थे। 1850 के आसपास ब्रिटेन के किसी राजपुरुष की बीमारी के दौरान सुविधा की दृष्टि से शौच के लिए कुर्सीनुमा शौच सीट यानी कमोड जैसी व्यवस्था का आविष्कार किया था। बाद में तो गोरे अंग्रेजों के राजा-रानियों को खुश करने की नीयत से सुतारों और प्लंबरों ने कुर्सी की डिजाइन मे थोड़ा परिवर्तन करते हुए बैठक वाली शौच सुविधा को प्रचलित कर दिया। राज घराने के पीछे बिना सोचे-
कर सिग्माइड कोलोन होते हुए रेक्टम (मलाशय) तक पहुंचता है। डिफिकेशन के पूर्व जब मास पेरिस्टाल्सिस तथा डिफिकेशन रिफ्लैक्स के साथ अन्य तरह के रिफ्लैक्सेस एकजुट हो जाते हैं तथा मल विसर्जन के लिए व्यक्ति को अनुकूल माहौल मिलता है तो ही डिफिकेशन सफल हो पाता है। परंतु इन सब के अलावा पेट पर लगभग 200 मिलीमीटर ऑफ मर्करी तक के प्रेशर की भी जरूरत पड़ती है। पेट पर जांघों का दाब, लंबी गहरी सांस, ग्लाटिस का बंद होना, एब्डामिनल मसल का संकुचन तथा पेल्विक फ्लोर का रिलैक्सेशन तथा नीचे की तरफ मूवमेंट मल विसर्जन के लिए जरूरी होते हैं।
स्क्वेटिंग पोजीशन में जब दाईं जांघ का दबाव सिकम पर पड़ता है तो अपशिष्ट भोजन की ऊपर की तरफ की यानी एन्टीग्रेविटी यात्रा आसान हो जाती है। यदि यह अपशिष्ट पदार्थ ज्यादा देर तक सिकम या एसेन्डिंग कोलोन में रहेंगे तो मल कण एपेंडिक्स में प्रवेश कर सकते हैं, जो संक्रमण का कारण बन सकता है। यदि मल पदार्थ अधिक समय तक एसेन्डिंग कोलोन से रुकता है तो जल का अवशोषण होता रहता है लिहाजा मल कठोर हो जाता है और कब्ज का खतरा भी शुरू हो जाता है। सिटिंग पोजिशन में ही ऐसा सम्भव है, स्क्वेटिंग पोजिशन में इसी आशंका न के बराबर है।
समझे भागने की मानवीय प्रवृति के चलते कमोड ने पश्चिम में व्यापक रूप धारण कर लिया। हालांकि उन्नीसवी सदी तक यह राज घरानों और प्रभावी लोगों के बीच ही प्रचलन में रहा।
के जरिए ही मल निष्कासन करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए जिन बुनियादी बातों की जरूरत होती है, उनमें स्क्वेटिंग, पानी का खूब सेवन, अच्छी नींद, संतुलित आहार और नियमित व्यायाम सम्मिलित हैं। असल में जांघों के दबाव के अभाव में ज्यादा जोर लगाना जरूरी हो जाता है, जिसके कारण मल मार्ग की रक्त शिराएं फूल
नैसर्गिक है स्क्वेटिंग
विश्व के अधिकांश शिशु नैसर्गिक रूप से स्क्वेटिंग
अमेरिका के जे.लियू ने वहां स्क्वेटिंग का प्रचार करने वाले लोगों का उत्साह बढ़ाते हुए बताया था कि मैंने अपनी चीन यात्रा के दौरान स्क्वेटिंग को अपनाया और मल निष्कासन के आनंद का अनुभव किया
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एनो रेक्टल एंगल
रेक्टम और एनल केनाल के संधि स्थल पर जो कोण यानी एंगल बनता है, उसे एनो रेक्टल एंगल कहा जाता है। इसे सबसे पहले नापा था 1966 में वैज्ञानिक टगर्ट ने। ‘टाउन सेंड लेटर फॉर डॉक्टर्स एण्ड पेशेन्ट्स’ शीर्षक से टगर्ट का एक लेख प्रकाशित हुआ। उन्होंने शौच की विभिन्न स्थितियों में एनो रेक्टल एंगल को नापा और पाया कि स्क्वेटिंग में यह कोण थोड़ा सीधा हो जाता है, जिसके कारण मल निष्कासन में समय तथा जोर (स्ट्रेन) कम लगता है। इस कारण से कब्ज तथा हिमोराइड्स के रोगियों के उपचार मे यह मददगार होती है। आमतौर पर यह कोण करीब 90 डिग्री का होता है। इस कोण को यानी रेक्टम और एनल केनाल के जंक्शन (मिलन स्थल) को पुबो रेक्टेलिस मसल थामे रखती है। यदि यह मसल रिलैक्स रहती है तो रेक्टम और एनल केनाल एक सीध में आ सकते हैं तथा रास्ता खुल जाता है और यदि यह मसल कांट्रेक्टेड रहती है तो रेक्टम और एनल केनाल के बीच 90 डिग्री का कोण बनता है, जिसके कारण मल मार्ग संकरा हो जाता है। अप्रैल 2002 में ईरान के रेडियोलॉजिस्ट डॉ. सईद राद ने अपने एक क्लीनिकल अध्ययन के दौरान पाया कि सिटिंग टॉयलेट के समय एनो रेक्टल एंगल लगभग 92 डिग्री का रहता है, जबकि उकड़ू स्थिति (स्क्वेटिंग पोजिशन) मे यह कोण सामान्यतया 132 डिग्री से 180 डिग्री तक का हो जाता है। जिसके कारण मल का विसर्जन पूर्णरूपेण तथा आसानी से हो जाता है। उन्होंने 11 से 75 वर्ष के 21 पुरुषों तथा 9 महिलाओं पर दोनों ही स्थितियों में बेरियम एनिमा के माध्यम से अपने अनूठे क्लीनिकल अध्ययन को अंजाम दिया। अपने शोध अध्ययन के निष्कर्ष में उन्होंने बताया कि सिटिंग पोजीशन के कारण रेक्टोसिल हो जाता है। डॉ. सईद ने पाया कि उकड़ू स्थिति में पुबो रेक्टेलिस मसल आसानी से पूरी तरह रिलैक्स हुई, जिसके कारण मल का निष्कासन पूर्णरूपेण शीघ्र सम्पन्न हो सका। जबकि सिटिंग पोजीशन में पुबो रेक्टीलिस मसल के रिलैक्स न होने के कारण मल विसर्जन पूर्णरूपेण भी नहीं हो पाता है और रेक्टोसिल की भी आशंका बढ़ जाती है। जाती हैं। इजरायली शोधकर्ता डॉ. बेरको सिकिरोव ने अपने शोध के निष्कर्ष में पाया कि सिटिंग मेथड कब्जियत का कारण बनती है, जिसके कारण व्यक्ति को मल त्यागने के लिए लगभग तीन गुना अधिक जोर लगाना पड़ता है, जिसकी वजह से चक्कर और हृदयतंत्र की गड़बड़ियों के कारण लोगाें की जान भी चली जाती है। इसके अलावा स्क्वेटिंग की तुलना में कोलोनिक डाइवरटीकुलोसिस की संभावना 75 प्रतिशत अधिक रहती है। सिकिरोव ने अपने एक अन्य शोध के तहत हिमोराइड्स के रोगियों के एक छोटे समूह को स्क्वेटिंग पद्धति से शौच करने की सलाह दी। उन्होंने पाया कि बीस रोगी हिमोराइड्स से पूरी तरह मुक्त ...जारी पेज 26
स्वच्छता
08-14 मई 2017
‘न्यू लेबल ऑफ कंफर्ट’
हो चुके हैं, लगभग पचास प्रतिशत रोगियों को कुछ दिनों में ही काफी लाभ हुआ, जबकि शेष की स्थिति में सुधार होने में अधिक समय लगा। यानी सभी को लाभ जरूर हुआ।
टॉयलेट पेपर से कोमल त्वचा में होने वाले घावों के खतरों से वैज्ञानिक चिंतित हैं
स्क्वेटिंग के पक्ष में कई अध्ययन
स्क्वेटिंग के पश्चिमी प्रचारक मानते हैं कि सिटिंग के दौरान मल का पूरी तरह निष्कासन नहीं होने से यानी फिकल स्टेगनेशन के कारण अपेंिडसाइटिस तथा क्रोंस डिसीज हो जाती है, जो कि परम्परागत स्क्वेटिंग को अपनाने वालों में तुलनात्मक दृष्टि से बहुत कम (रेयर) होती है, जबकि वेस्टर्न पद्धति को अपनाने वालों में तुलनात्मक रूप से अधिक लोग इन रोगों के शिकार होते हैं। इसके लिए उनका वैज्ञानिक तर्क है कि सिटिंग के दौरान एनो रेक्टल एंगल के संकुचित होने के कारण रेक्टम में बचा मल दबाव के कारण विपरीत दिशा में गतिमान होता है। वे इसे समझाने के लिए टूथपेस्ट के ट्यूब को बीच से दबाने पर होने वाले प्रभाव का उदाहरण देते हैं। जिसमे पेस्ट नीचे तथा ऊपर की तरफ गतिमान होता है। उनके अनुसार लम्बे समय का फिकल स्टेगनेशन अंतत: मल को सिकम की तरफ धकेलता है, जो एपेंडिक्स के लिए खतरनाक सिद्ध होता है। माइचीलीन ड्यूक्लेफ ने बिल और मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के एक कार्यक्रम के दौरान शौच की वेस्टर्न पद्धति को कब्जियत तथा हिमोराइड्स के लिए दोषी ठहराते हुए मायो क्लीनिक के हवाले से बताया कि पचास वर्ष की उम्र तक आते-आते पचास प्रतिशत अमेरिकन हिमोराइड्स के लक्षणों से पीड़ित हो जाते हैं। वे मानते हैं कि इसमें सिटिंग पद्धति की महत्वपूर्ण भूमिका है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि वेस्टर्न वर्ल्ड में कोलोन कैंसर, कब्ज, डाइवरटीकुलोसिस, इरिटेबल बावेल सिन्ड्रोम, प्रोस्टेट व गर्भाशय संबंधी डिसआर्डर्स तथा अन्य कुछ बीमारियों के प्रकरण तुलनात्मक रूप से ज्यादा होते हैं। इन सबका उत्तर खोजने के बाद उन्होंने मल विसर्जन की सिटिंग पोजीशन को दोषी पाया। शोधों मे पाया गया कि स्क्वेटिंग पोजीशन कई बीमारियों का अंत करने में समर्थ है। जापान में 2010 में हुए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि हिप जाइंट पर अधिकतम फ्लैक्शन (मुड़ना) हो तो एनो रेक्टल कोण अधिक सीधा होता
स्क्वेटिंग पोजीशन फायदे ही फायदे
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मेरिका में भले टॉयलेट पेपर का चलन है। पर वहां के वैज्ञानिकों का कहना है कि धोना ज्यादा प्रभावी और सर्वश्रेष्ठ तरीका है,क्योंकि इसमें गंदा रह जाने का अहसास नहीं बना रहता है जो कि पोंछने में हमेशा ही बना रहता है। अमेरिका में भी शौच के बाद पानी के इस्तेमाल का चलन शुरू हुआ है, उसके विषय में वैज्ञानिकों का यह कथन अब काफी लोकप्रिय हो रहा है कि यह ‘ए न्यू लेवल ऑफ कंफर्ट’ है, यानी यह एक नए स्तर का सुखद अहसास है। दरअसल, टॉयलेट पेपर से कोमल त्वचा में होने वाले घावों के खतरों से वैज्ञानिक चिंतित हैं। इसके अतिरिक्त टॉयलेट पेपर को सुगंधित बनाने के लिए मिलाए गए रसायन भी त्वचा को नुकसान पहुंचाते हैं।
एक अनुमान के मुताबिक अमेरिका मे प्रतिवर्ष 15 मिलियन पेड़ों के गुदे से बने 36.5 बिलियन टॉयलेट पेपर रोल इस्तेमाल किए जाते हैं। इन्हें बनाने मे 473.6 अरब गैलन पानी और साफ करने में ढाई लाख टन क्लोरीन खर्च हो जाता है। इसके अतिरिक्त टॉयलेट पेपर के कचरे का निपटान भी एक बड़ी समस्या है। शौच के बाद पानी के इस्तेमाल से गुदा में बैक्टीरिया के प्रजनन के अवसर कम हो जाते हैं, जबकि टॉयलेट पेपर बैक्टीरिया को पनपने और फैलाने का काम करते हैं। यही नहीं, वैज्ञानिकों के अनुसार खूनी बवासीर के रोगियों को धोने से ज्यादा आराम मिलता है, वे क्योंकि पेपर से घाव होने के खतरों से बच जाते हैं। मासिक धर्म के दौरान और नव प्रसूताओं को भी टॉयलेट पेपर के इस्तेमाल से संक्रमण का भारी खतरा होता है।
जापान में 2010 में हुए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि हिप जाइंट पर अधिकतम फ्लैक्शन (मुड़ना) हो तो एनो रेक्टल कोण अधिक सीधा होता है और मल निष्कासन आसानी से होता है है और मल निष्कासन आसानी से होता है। अमेरिका के चिकित्सक तथा आधुनिक गेस्ट्रोइंट्रोलाजी के शोधकर्ता डॉ. एम.के.रिज्क स्क्वेटिंग पोजीशन को बेसबाल की कैचर्स पोजीशन का नाम देते हैं और उनका कहना है कि स्क्वेटिंग पोजीशन श्रेष्ठ है। स्क्वेटिंग के अपने अनुभवों का वर्णन करते हुए अमेरिका के जे.लियू ने वहां स्क्वेटिंग का प्रचार करने वाले लोगों का उत्साह बढ़ाते हुए बताया था कि मैंने अपनी चीन यात्रा के दौरान स्क्वेटिंग को अपनाया और मल निष्कासन के आनंद का अनुभव किया है। उन्होंने मल त्याग के वेस्टर्न तरीके को कोसते हुए कहा है कि आप लोग वेस्टर्न वर्ल्ड को मल त्याग के अंधे युग से निकालकर उन्हें सिविलाइज्ड बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
मूत्राशय तथा गर्भाशय की नर्व्स को स्ट्रेच तथा डेमेज होने से बचाव lपुबो रेक्टीलिस मसल पूरी तरह रिलैक्स होने से रेक्टम चोक नहीं होता है l यह हिमोराइड्स का अत्यधिक प्रभावशाली तथा नॉन इन्वेसिव उपचार है l मल विसर्जन शीघ्र, पूर्णरूपेण, आसान और तीव्रता से हो जाता है lफिकल स्टेग्नेशन नहीं होने से कोलोन कैंसर, एपेंडीसायटिस तथा इन्फ्लेमेटरी बावेल डिसीज नहीं होते हैं l इलियोसिकल वाल्व के सील हो जाने से छोटी आंत में बैकफ्लो के कारण बड़ी आंत से मल प्रवेश नहीं हो पाता है, यानी छोटी आँत न तो प्रदूषित होती है और न ही संक्रमित lजांघों के सहयोग से कोलोन पर नैसर्गिक दाब के कारण ज्यादा जोर (स्ट्रेन) नहीं लगाना पड़ता है। अधिक समय तक यदि अधिक जोर लगाना पड़े तो हर्निया, डाइवरटीकुलोसिस तथा पेल्विक आर्गन्स के प्रोलेप्स का खतरा हो सकता है l गर्भवती स्त्री यदि नित्य इस पोजिशन में मल विसर्जन करे तो गर्भाशय पर दबाव नहीं पड़ता है तथा यह पोजिशन नैसर्गिक प्रसव के लिए पेल्विक फ्लोर को तैयार करने मे सहायक सिद्ध होती है
प्रसव और पीठ दर्द में आराम
वैज्ञानिकों के अनुसार गर्भवती महिलाएं यदि नियमित रूप से प्राचीन यानी भारतीय शैली को अपनाएं तो सामान्य प्रसव की सम्भावनाएं बढ़ती हैं और मल निष्कासन के दौरान गर्भाशय में पल रहे शिशु पर प्रतिदिन पड़ने वाले दबावों से भी बचा जा सकता है। कमर दर्द के लिए भी स्क्वेटिंग को वैज्ञानिक बेहतर मानते हैं। एक अध्ययन ‘गिव योर स्पाइन ए बेनिफिशिअल स्ट्रेच’ में कहा गया है कि स्क्वेटिंग शैली से पीठ और कमर दर्द में आराम मिलता है। डेनिस बर्किट नामक चिकित्सक युगांडा में मेडिसिनल प्रैक्टिस करते थे। जब उन्होंने देखा कि वहां के लोग कोलोन कैंसर, कब्ज, डाइवरटीकुलोसिस, इरिटेबल बावेल सिन्ड्रोम आदि से पीड़ित नहीं होते हैं, तो उनका दिमाग ठनका। सूक्ष्म अध्ययन के बाद उन्हें दो बातें समझ में आईं, एक तो शौच के लिए स्क्वेटिंग पोजीशन और दूसरा भोजन में फायबर्स की अधिक मात्रा। डेनिस बर्किट मानते है कि स्क्वेटिंग पोजीशन कोलोन कैंसर से बचाती है।
08-14 मई 2017
‘सम्मान’ का शौचालय स्वच्छता बिहार
शौचालय को महिलाओं के सम्मान से जोड़ा गया तो लोगों ने लोन लेकर निर्माण कार्य पूरा करवाया
कि
एसएसबी ब्यूरो
सी लक्ष्य को हासिल करने के लिए किसी की सहायता की जरूरत नहीं होती, जरूरत होती है लक्ष्य को पाने की जिद और जज्बे की। कुछ ऐसा ही बिहार के रोहतास जिले के विक्रमगंज अनुमंडल के संझौली प्रखंड ने कर दिखाया है। संझौली ब्लॉक का एक छोटा सा गांव है उदयपुर। गांव में तालाब के बीच सूर्य मंदिर है, जहां आस-पास के गांव की महिलाएं हर साल छठ पूजा करने आती हैं, लेकिन इस बार यहां का पूरा नजारा ही बदल गया। सड़कें एकदम साफ, गंदगी का दूर तक कोई निशान नहीं। अचानक यह सब हुआ कैसे। गंदगी और बदबू से भरा रास्ता अचानक साफ कैसे हुआ। सबके लिए इस सम्मान घर की व्यवस्था । इस गांव में शौचालय को ‘सम्मान घर’ कहा जाता है । इस ‘सम्मान घर’ की वजह से उदयपुर का सम्मान पूरे जिले में बढ़ गया है। उदय पुर स्वच्छता का मानक गांव बन चुका है। यानी खुले में शौच से मुक्त गांव। छह पंचायत और 64 गांवों वाले संझौली ब्लॉक ने जन-भागीदारी, प्रशासन और यूनिसेफ के सहयोग से बहुत ही कम समय में स्वच्छता की ओर कदम बढ़ाया है। महज 55 दिन में खुले में शौच से मुक्त होने वाला संझौली बिहार का पहला ब्लाॅक है। अब
तक बिहार में रोहतास का संझौली और पश्चिम चंपारण का पिपरासी प्रखंड पूरी तरह से शौच से मुक्त हो चुके हैं। 55 दिनों की इस अवधि में इस प्रखंड में लगभग 7000 शौचालय बनाए गए। संझौली प्रखंड के लिए प्रेरण-स्रोत बनीं बाराखाना की ‘मिड-डे मील योजना’ की रसोईया फूल कुमारी, जिन्होंने बड़ी पहल करते हुए अपना मंगलसूत्र गिरवी रखकर शौचालय बनवाया था। फूल कुमारी की पहल से शौचालय को लेकर यहां के लोगों में एक नई सोच विकसित हुई है। रोहतास के डीएम अनिमेष कुमार पराशर ने खुले में शौच से मुक्ति के संकल्प के साथ मिशन प्रतिष्ठा की शुरुआत की थी। इसका मकसद शौचालय को बहू-बेटियों के सम्मान से जोड़कर लोगों को उसका महत्व समझाना था। संझौली के एसडीएम राजीव कुमार कहते हैं, ‘इससे पहले के कैपेंनों के दौरान सारा ध्यान शौचालय बनाने पर होता था, उनके वास्तविक इस्तेमाल की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। पुरानी कमियों से सीख लेते हुए इस बार हमारा पूरा फोकस लोगों के व्यवहार में बदलाव लाकर लोगों में शौचालय प्रयोग की आदत विकसित करने में है। शौच की गुणात्मक गणना, शुभ 11, सम्मान घर, राखी में शौचालय का तोहफा जैसी छोटी-छोटी अनेक पहलों के जरिए से इस कैंपेन को एक जन आंदोलन का रूप दिया गया।’ उदयपुर
पंचायत के पूर्व मुखिया वशिष्ठ पासवान बताते हैं, ‘प्रशासन और फीडबैक फाउंडेशन के लोग आते थे और पूरे गांव का चित्र बनावाते थे फिर वो अपने तरीके से समझाते थे कि एक आदमी अगर एक दिन में इतना शौच करता हैं तो पूरे गांव की और पूरे साल की अगर हम गणना करेंगे तो वो कितना होगा। तब हमें समझ में आया कि कैसे घर से बाहर शौच के लिए जाना हमारे और हमारे बच्चों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। यही वजह है कि किसी को भी सरकारी अनुदान नहीं दिया गया है। बावजूद सबने अपने पैसे से या एसएफजी से लोन लेकर शौचालय बनवाया।’ संझौली के उदयपुर पंचायत को खुले में शौच मुक्त बनाने का सफर आसान नहीं था । लोग बताते हैं कि सुबह 4 बजे से एसडीएम, डीएसपी समेत अन्य अधिकारी और गांव के प्रेरक खुले में शौच जाने वालों पर नजर रखते थे और उन्हें खुले में शौच जाने से रोककर शौचालय का उपयोग करने को प्रेरित करते थे। हर पंचायत के लिए एक जिला स्तर के पदाधिकारी को नोडल पदाधिकारी बनाया गया। उदयपुर पंचायत के नोडल अधिकारी विक्रमगंज अनुमंडल के एसडीएम राजीव कुमार थे। जिले में यह अपनी तरह का पहला प्रयोग है। सुबहसुबह अधिकारी ग्रामीण अंचलों में पहुंच कर खुले में शौच जाने वालों पर निगरानी रख रहे है। साथ ही उन्हें रोक भी रहे है। एसडीएम राजीव कुमार कहते
स्वच्छता एक नजर
महिलाओं ने संभाली अपने प्रखंड में स्वच्छता की कमान
लोक गायक विभेद पासवान गा रहे हैं स्वच्छता के गीत केंद्र व राज्य की योजना की मदद से चल रहा स्वच्छता अभियान
हैं, ‘लोगों को जागरूक करने के बाद यह तय किया गया कि एक नियमित समय पर शौचालय निर्माण का काम शुरू किया जाए। ऐसे में यह तय हुआ कि हर महीने की 11 तारीख को हर गांव में 11 गड्ढे की खुदाई करके शौचालय निर्माण करवाया जाए। ‘सम्मान घर’ सुनने में अच्छा लगता था और इससे महिलाएं अपनापन महसूस करती थीं, क्योंकि यह मामला था भी महिलाओं के मान-सम्मान का। संझौली को ओडीएफ बनाने के बाद नोखा, सूर्यपुरा व तिलौथू प्रखंड में यह प्रयास जोरों पर है। हम इस अनुमंडल को खुले में शौच से मुक्त करने की अपनी पहल में सफल होंगे।’ गंदगी के खिलाफ इस जंग की कहानी फूल कुमारी, सरोज कुमारी, अवधेश और विभेद पासवान जैसे लोगों के बिना अधूरी है। शौचालय के लिए अपना मंगल सूत्र गिरवी रखने वाली फूल कुमारी को रोहतास के जिलाधिकारी ने स्वच्छता अभियान का ब्रांड एंबेसडर बनाया। उदयपुर पंचायत की सरोज कुमारी ने बाहर शौच करने के दौरान सांप काटने से अपने पति की मृत्यु के बाद शौचालय निर्माण के लिए लोगों को प्रेरित करना जीवन का ध्येय बना लिया। वे अपनी कहानी बता कर लोगों से शौचालय बनावाने का आग्रह करतीं और उन्हें समझाती है कि अगर वो अपने पति और बच्चों की सलामती चाहती हैं तो अपने घरों में शौचालय बनावाएं। इन नायकों के अतिरिक्त विभेद पासवान जैसे लोक गायक इस मुहिम को जन आंदोलन का रूप देने में महती भूमिका निभा रहे हैं। पासवान, शौचालय निर्माण के महत्व पर गीत लिखकर लोगों के बीच उसे गाते हैं और उन्हें अपने गीत और संगीत के माध्यम से प्रेरित करते हैं। सूबे को खुले में शौच से मुक्त करना बिहार सरकार की भी प्राथमिकताओं में शामिल है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सात निश्चयों में हर घर में शौचालय का निर्माण भी है। यह योजना केंद्र प्रायोजित स्वच्छ भारत मिशन और ग्रामीण और राज्य पोषित लोहिया स्वच्छता मिशन के माध्यम से क्रियान्वित किया जा रहा है। स्वच्छ भारत मिशन में केंद्र सरकार साठ फीसदी राशि उपलब्ध करा रही है, जबकि राज्य सरकार की हिस्सेदारी 40 फीसदी है। बिहार में हाल में ही शौचालय निर्माण के लिए ग्राम विकास विभाग को नोडल विभाग बनाया गया है। जनगणना, 2011 के अनुसार बिहार में कुल 75.8 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं है। साल 2001 की जनगणना की तुलना में ऐसे घरों की संख्या में मात्र 3.9 प्रतिशत की ही कमी आई है, जिनमें शौचालय नहीं थे। शौचालय की उपलब्धता के मामले में 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बिहार 32वें स्थान पर है।
28 मिसाल
08-14 मई 2017
बच्चों ने बनाई अपनी सरकार बाल
पंचायत
भोपाल शहर की 30 से ज्यादा बस्तियों में कमल, गपशप, हरियाली और सम्मान जैसे नामों के साथ 500 से अधिक बाल पंचायतें काम कर रही हैं
एक नजर
नौ साल पहले शुरू हुईं ये बाल पंचायतें
नियमित तौर पर होती है पंचायत की बैठक
कई राष्ट्रीय कार्यशालाओं में शरीक हो चुके हैं ये बच्चे
प्रा
एसएसबी ब्यूरो
थमिक शिक्षा के प्रथम प्रयोग-पुरुष गिजुभाई बधेका हमेशा कहा करते थे कि बच्चों के साथ बड़ों के काम करने में यह पूर्वाग्रह काम करता है कि वे कुछ नहीं जानते, उन्हें हर कुछ सिखाना होता है। जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से यह बात गलत है। बच्चों की सीखने की क्षमता बड़ों से काफी ज्यादा तो होती ही है, वे कई मामलों में मौलिक प्रयोगधर्मी भी होते हैं। यही नहीं, कई ऐसी मिसालें हैं, जिसमें बच्चों ने बड़े काम किए। ऐसी है एक मिसाल भोपाल के कुछ बच्चों ने एक अनूठी पहल कर कायम की है। बच्चों की यह कोशिश इस शिकायत के साथ शुरू हुई कि उनकी बातें नहीं सुनी जातीं और न ही उनके अधिकार ही सुनिश्चत हैं। यहां के कुछ बच्चों ने इस मुद्दे पर आपस में एक जागरूक सहमति बनाई। उन्होंने तय किया कि वे अपना एक साझा मंच बनाएंगे, ताकि उनकी आवाज परिवार तो क्या सरकार भी सुने। इस तरह देखते-देखते बाल पंचायत का एक अनूठा स्वरूप सामने आया। आज इस शहर की गरीब बस्तियों में बच्चे बाल पंचायत से जुड़कर अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। करीब नौ साल पहले शुरू हुई इन बाल पंचायतों को इस कदर प्रसिद्धि हासिल हुई कि इनसे जुड़े बच्चों को कई राष्ट्रीय कार्यशालाओं में आमंत्रित किया जाता है। जहां वे बालश्रम और बाल असुरक्षा से लेकर बाल केंद्रित शहरी विकास जैसे मुद्दों पर मुखरता से अपनी बात कहते हैं और अहम सुझाव देते हैं। बाल पंचायत का यह मॉडल नाम और गठन दोनों ही नजरिए से प्रेरक और अनूठा है। सबसे अच्छी बात तो यह है कि ये पंचायतें मुख्य तौर पर भोपाल की बस्तियों में काम करती हैं। आज की
तारीख में भोपाल शहर की 30 से ज्यादा बस्तियों में लॉयन, एकता, कमल, गपशप, हरियाली, सम्मान, साथिया, उमंग, जवाहर और मस्ती जैसे नामों के 500 से अधिक बाल पंचायतें काम कर रही हैं। ये पंचायतें अपने कार्य और गठन दोनों ही मामलों में खासी लोकतांत्रिक हैं। तमाम बस्तियों में बच्चों ने अपने छोटे-छोटे समूह बना रखे हैं, जो हर दो साल में बाल पंचायत का चुनाव करते हैं। सभी बाल पंचायतें नियमित तौर पर अपनी साप्ताहिक बैठक करती हैं। महीने में एक बार एरिया लेवल पर कार्यकारिणी की बैठक होती है। इसी तरह साल में एक बार शहर की सभी पंचायतों का सम्मेलन होता है। साफ है कि भोपाल की इन बाल पंचायतों के अंदर और आपस में संवाद का क्रम लगातार बना रहता है, जिससे सभी पंचायतें एक-दूसरे की गतिविधियों से तो अवगत रहती ही हैं, वे आपस में एक-दूसरे से जरूरी सीख और सलाह भी बांटती रहती हैं। पिछले साल नवंबर में भोपाल बाल पंचायत का चौथा चुनाव संपन्न हुआ, जिसमें 32 बाल पंचायतों के करीब 500 बच्चों ने हिस्सा लिया। बच्चों के इन प्रयासों को जानने-समझने के लिए राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष डॉ. राघवेंद्र शर्मा स्वयं बाल पंचायत की बैठक में हिस्सा ले चुके हैं। इसके अलावा स्थानीय विधायक भी पंचायत की बैठक में शरीक हो चुके हैं। ‘नीवसीड बचपन’ से जुड़े रामकुमार विद्यार्थी के मुताबिक, ‘बाल पंचायत एक तरह से बच्चों
की अपनी सरकार है, जो बच्चों के लिए, बच्चों के द्वारा और बच्चों के साथ मिलकर काम करती है।’ बाल पंचायत के नवनिर्वाचित अध्यक्ष रोहित अहीरवार बताते हैं कि आज भी बाल मजदूरी और बस्तियों में पानी व साफ-सफाई की दिक्कत के कारण बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। वे अपने जनप्रतिनिधयों से मिलकर बच्चों की कठिनाइयां बताने की कोशिश लगातार कर रहे हैं, लेकिन अभी तक उनकी समस्या का कोई हल नहीं निकला है। कई बार बच्चा समझकर लोग उनकी बात गंभीरता से नहीं लेते हैं। ऐसी दिक्कतें घर के अंदर भी हैं, जहां अपनी बात सुनाने के लिए उन्हें कई बार खासी मशक्कत करनी पड़ती है। राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष डॉ. राघवेंद्र शर्मा भी मानते हैं कि बच्चों के साथ संवेदनशील व्यवहार न होने और उन्हें न सुने जाने से बच्चे हताश हो जाते हैं। कई बार बच्चे इस वजह से घर-परिवार तक छोड़कर चले जाते हैं। यह एक खतरनाक स्थिति है और समाज में हमें इसे एक प्रवृत्ति की शक्ल में नहीं उभरने देना चाहिए। रेलवे आरक्षण में बच्चों को छूट के लिए सांसद आलोक संजर को ज्ञापन देने से लेकर शहरी विकास में बच्चों की पार्क व लर्निंग सेंटर जैसी जरूरतों पर नगर निगम के बजट सत्र में प्रतिनिधियों का ध्यान आकर्षित करने तक उपलब्धियां इन बाल पंचायतों के नाम दर्ज हैं। उल्लेखनीय है कि बच्चों की ये पंचायतें अपनी मांगों और हक के प्रति ही जागरूक नहीं हैं, बल्कि ये आपस में मिलकर कई रचना-
बाल पंचायत का यह मॉडल नाम और गठन दोनों ही नजरिए से प्रेरक और अनूठा है। सबसे अच्छी बात तो यह है कि ये पंचायतें मुख्य तौर पर भोपाल की बस्तियों में काम करती हैं
त्मक कार्य भी कर रही हैं। ये पंचायतें अपनी-अपनी बस्तियों में साफ-सफाई का खास ख्याल रखती हैं। साथ ही स्थानीय लोगों को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराना भी इनकी प्राथमिकताओं में शामिल है। अपने-अपने इलाकों में पेयजल, स्ट्रीट लाइट की व्यवस्था दुरुस्त रखने में भी बाल पंचायतों की अहम भूमिका होती है। वे इन समस्याओं को समय-समय पर जनप्रतिनिधियों के सामने उठाते हैं और उसका समय से उचित समाधान हासिल करने के लिए तत्पर रहते हैं। ये बाल पंचायतें ‘नीवसीड बचपन’ और ‘हमारा बचपन’ जैसे अभियानों से भी जुड़ी हैं और इन बैनरों के तहत चल रही पहलों में भी बढ़-चढ़कर शरीक होती हैं। मीरा नगर बस्ती में ‘हमारा बचपन’ अभियान के तहत बाल पंचायत से जुड़े बच्चों ने विधायक सुरेंद्रनाथ सिंह, स्थानीय पार्षदों व कलेक्टर निशांत वरबड़े की उपस्थिति में स्वच्छता अभियान चलाया। ईश्वर बाल पंचायत ने अस्थायी कचरा डंपिंग की समस्या उठाई। इसी तरह अब्बास नगर की साथिया नाम से चल रही बाल पंचायत ने शौचालय व स्वच्छता की मांग को लेकर दीवार लेखन किया है। बच्चों के साथ बढ़ती शोषण की घटनाओं के विरोध में कोलार में मानव श्रृंखला बनाने से लेकर नशामुक्ति के खिलाफ तक कई मुहिमों को इन बाल पंचायतों ने कारगर मुकाम तक पहुंचाया है। इन बाल पंचायतों का इलाके की पुलिस के साथ भी बेहतर तालमेल है। कई अभियान तो वे पुलिस के साथ मिलकर भी चलाती हैं। सूखी सेवनिया की ‘मस्ती बाल पंचायत’ ने प्राथमिक स्कूल में शिक्षक की मांग को लेकर मुख्यमंत्री व शिक्षा विभाग को पत्र लिखा है। बालश्रम के खिलाफ आवाज उठाने में तो तकरीबन सभी बाल पंचायतें आगे हैं। वे स्कूल छोड़ने वाले बच्चों को लेकर भी कुछ करने का प्रयास कर रही हैं। ऐसा नहीं कि ये बाल पंचायतें सिर्फ बड़ों की तरह जिम्मेदारी भरे बड़े-बड़े काम ही कर रही हैं। अपनी शिक्षा के साथ खेलकूद की सुविधाओं को लेकर भी वे पूरी तरह तत्पर और जागरूक रहती हैं।
नया चोगा
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केवुन अप्पू का दुपट्टा श्रीलंका की लोककथा
ची
उसने सोचा, ‘मैं शायद घर में भूल आया। नहीं, मैंने ऐसा नहीं किया होगा। मुझको चिढ़ाने के लिए पत्नी ने ले लिया होगा।’ सोचता-सोचता वह घर पहुंचा। उसकी पत्नी दरवाजे पर बैठी चावल चुन रही थी। केवुन अप्पू ने गुस्से से कहा,‘अभी निकालो मेरा दुपट्टा!’ पत्नी ने आश्चर्य से केवुन अप्पू की ओर देखा। फिर मुस्करा कर वह अपना काम करने लगी। ‘तो तुम भी मेरे साथ मजाक कर रही हो, क्यों’ उसी तरह गुस्से से उसने कहा फिर दुपट्टा ढूंढ़ने के लिए सारा घर उलट-पुलट डाला। लेकिन वह नहीं मिला। फिर शेर की तरह गरज कर वह तीर की तरह घर से बाहर निकल गया और सड़क के किनारे खड़ा-खड़ा सोचने लगा कि अब क्या करूं। सड़क पर कुछ लड़के कंचे खेल रहे थे। केवुन उनके पास गया। उसने उनसे पूछा, ‘थोड़ी देर पहले जब मैं इधर से गुजर रहा था तो तुमने मेरा दुपट्टा चुरा लिया था। है न?’ लड़कों ने उसको देखा और मुस्करा दिए। ‘वापस करो मेरा दुपट्टा, वर्ना...’ उसने उन्हें धमकाया। लड़कों ने एक दूसरे से फुसफुसाकर कुछ कहा। फिर वे हंसे, और अपने कंचे उठाकर हंसते-हंसते वहां से भाग गए। केवुन अप्पू हैरान खड़ा रहा। ‘कौन ले गया होगा मेरा दुपट्टा? यह तो अच्छा मजाक है। मैं चोर को पकड़ कर रहूंगा।’ इस प्रकार बड़बड़ाता हुआ वह चाय की दुकान में वापस पहुंचा। वह दुकान की तीन सीढ़ियां चढ़ा, फिर चिल्लाने लगा। ‘यह हंसी की बात नहीं है’ मेरा दुपट्टा वापस देनी पड़ेगी।’ गुंडा की पत्नी एक और थाली भर गरमागरम केवुन ले आई और उसे शीशे की अलमारी के अंदर रख दिया। बेंच पर जो लोग बैठे थे उन्होंने खुद ही निकाल लिए और खाने लगे। गुंडा ने कहा, ‘केवुन खाओ, भाई। सब ठीक हो जाएगा।’ लेकिन केवुन अप्पू का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। वह रोनी-सी आवाज में बोला, ‘यह बहुत बुरी बात है। वह रोनी-सी आवाज में बोला, ‘यह बहुत बुरी बात है। मेरा दुपट्टा वापस क्यों नहीं कर देते?’ वह दोनों हाथों से अपना सिर थाम कर बोला, ‘मैं पागल हो जाऊंगा।’ फिर उसका मुंह पूरा का पूरा खुल गया अक्षर ‘औ’ की तरह, और उसकी आंखें आकाश की ओर उठ गईं। उसका दुपट्टा उसके सिर पर बंधा था।
चमत्कारी पौधा
के
वुन श्रीलंका के सिंहली लोगों की प्रिय मिठाई है। यह मैदा और गुड़ से बनाई जाती है और तेल में तली जाती है। एक बार एक आदमी था जो हमेशा केवुन खाता रहता था। उसका नाम ही पड़ गया केवुन अप्पू। गुंडा की चाय की दुकान में ताजे बने केवुन शीशे की अलमारी में रखे रहते थे। गुंडा की पत्नी उन्हें बनाती थी। पूरे गांव में सिर्फ यही एक चाय की दुकान थी। इसीलिए वह खूब चलती थी। गुंडा खुद एक बर्तन में चाय बनाता। फिर जोर-जोर से चम्मच खनखनाता हुआ उसमें दूध और चीनी मिलाता। फिर एक बर्तन से दूसरे में डालता जब तक उसमें झाग न उठ जाए। बड़ी स्वादिष्ट चाय बनाता था वह। केवुन अप्पू अपने कंधे पर हमेशा एक दुपट्टा डाले रहता था। यह गांव वालों की आम आदत थी। गांव के लोग कंधे पर एक छोटा दुपट्टा डालते थे, जिसके एक कोने में चाबियों का गुच्छा बंधा होता। लेकिन केवुन अप्पू के दुपट्टे में चाबी का गुच्छा नहीं बंधा होता था। लोग जब उसे उसको केवुन अप्पू पुकारने लगे थे, उसको सब के सामने केवुन खाने में बड़ी शरम आती। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उसने खाना छोड़ दिया। उसकी जितनी इच्छा होती खाता और जब जी चाहे खाता। जब वह खाता तो दुपट्टे के एक कोने से मुंह ढंक लेता। इसीलिए केवुन खाने के लिए दुपट्टे का होना बहुत जरूरी हो गया। एक दिन केवुन अप्पू घूमतेघामते चाय की दुकान में पहुंचा। एक बेंच पर बैठ कर उसने केवुन मांगे। फिर उसने कंधे पर दुपट्टे को टटोला। लेकिन वह वहां नहीं था। उसने इधर-उधर देखा। दूसरी बेंच पर बिंदू बैठा था। वह तश्तरी से चाय पी रहा था। कादिरा सिगार पी रहा था और हवा में धुएं के छल्ले उड़ा रहा था, और बुट्टा अखबार पढ़ कर सबको सुना रहा था। सिर्फ सोक्का केवुन खा रहा था और लग रहा था कि उसको बहुत मज़ा आ रहा था। केवुन अप्पू के मुंह में पानी भर आया। लेकिन मुंह ढंके बिना वह खा कैसे सकता था। उसको दुपट्टे की सख्त जरूरत थी। वह उठ गया।
न के क्विंग वंश के राज्य में देहात के एक मजिस्ट्रेट ने दर्जी से एक नया सरकारी चोगा सी देने को कहा। दर्जी ने पूछा, ‘पहले यह बताइए कि आप किस प्रकार के अफसर हैं। आप अभी-अभी अफसर बने हैं, या कोई नया पद संभाल रहे हैं या बहुत समय से अफसर रहे हैं।’ अफसर ने हैरानी से पूछा, ‘नए चोगे का इन सब बातों से क्या मतलब?’ दर्जी ने जवाब दिया, ‘ओह, इसी पर तो सब-कुछ निर्भर करता है।’ अगर आप अभी-अभी अफसर बने हैं तो कचहरी में सारे वक्त खड़े रहना पड़ेगा। इस हालात में चोगे की समाने की और पीछे की लंबाई बराबर होनी
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लोककथा
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चीन की लोककथा
चाहिए। नए-नए अफसर बने हैं तो लंबाई सामने से ज्यादा और पीछे से कम होनी चाहिए, क्योंकि नए अफसर ज्यादा घमंडी होते हैं। वे सिर ऊंचा उठाए रहते हैं और छाती फुलाए रहते हैं। जो पुराने अफसर हैं उनका चोगा अलग किस्म का होता है। उनको इतनी बार अपने उच्चाधिकारियों से डांट पड़ चुकी होती है कि उनके सामने बराबर झुकते-झुकते उनके कंधे झुक जाते हैं और गर्दन लटक जाती है। इसीलिए उनको ऐसे चोगे की जरूरत होती है जो सामने कम और पीछे ज्यादा लंबा हो। मुझे नहीं मालूम कि आप किस श्रेणी के अफसर हैं। बिना यह जाने आपके लिए मैं चोगा कैसे बना सकता हूं।
वियतनाम की लोककथा
क थका-हारा भिखारी एक गांव में आया। उसने दो दिन से कुछ नहीं खाया था। भूख ने उसको एक सुझाव दिया। वह जो मिलता उसके कान में कहता, ‘मैं एक ऐसे चमत्कारी पौधे के बारे में जानता हूं जो ऐसे आदमी में भी जान डाल सकता है जो कब्र में जाने वाला हो। मैं अपना रहस्य आपको बता सकता हूं।’ एक अमीर आदमी से जब उसने यह बात कही तो उसने उसे अपने घर पर बुलाया और उसको बढ़िया खाना खिलाया। जब खाना खत्म हो गया तो अमीर-आदमी
ने उसको वायदे की याद दिलाई। मेहमान ने कहा, ‘आइए मेरे साथ। वह पौधा इस मोहल्ले में ही है।’ जब गांव कुछ ही दूर रह गया तो उस आदमी ने धान के खेत की ओर इशारा किया। ‘यह रहा वह चमत्कारी पौधा’, उसने कहा। ‘क्या? धान? तुम मजाक कर रहे हो क्या?’ ‘नहीं बिल्कुल नहीं। अगर आपके घर मैंने अभी चावल न खाया होता तो मैं अब तक मर गया होता।’ और वह धूर्त भाग खड़ा हुआ।
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भारतीय संस्कृति में ढली इतालवी बेटी प्रेरक व्यक्तित्व
इलियाना मूल रूप से इतालवी हैं, पर अब भारत ही उनके लिए सब कुछ है। वह आज ओडिसी और आदिवासी नृत्य छऊ की देश की बड़ी नृत्यांगनाओं में एक है। भारत सरकार उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित कर चुकी है
एक नजर
इटली छोड़ कर इलियाना अब स्थायी रूप से भुवनेश्वर में रहती हैं वह कथकली, ओडिसी और छऊ नृत्य शैली में पारंगत हैं
इलियाना ने कई फिल्मों में भी नृत्य निर्देशन किया है
म
एसएसबी ब्यूरो
हात्मा गांधी के साथ जुड़ी एक दिलचस्प कैरेक्टर हैं मीरा बेन। मीरा बेन कई कारणों से याद की जाती है, पर जो वजह सबसे दिलचस्प है, वह यह कि वे भारतीय नहीं थीं। उन्हें गांधी की प्रिय शिष्या के तौर पर देखा गया। उनका मूल नाम मिस स्लेड था और वह ब्रििटश सेना के एक अधिकारी की बेटी थीं। भारत और यहां के लोग उन्हें इतना पसंद आए कि वह यहीं की होकर रह गईं। बाद में उनके इस इरादे को गांधी के सान्निध्य ने और पक्का कर दिया। गांधी ने ही उन्हें भारतीय नाम दिया- मीरा बहन। दरअसल, यह सिलसिला आज भी खत्म नहीं हुआ है। भारत की संस्कृति और यहां के लोग कई विदेशी लोगों को इतना रास आते हैं कि वे न सिर्फ भारत में रहने लग जाते हैं, बल्कि पूरी तरह भारतीय रंग में रंग जाते हैं। ऐसी ही एक महिला हैं इलियाना चितारीस्ती। इलियाना मूल रूप से इतालवी हैं पर अब भारतवर्ष ही उनके लिए सब कुछ है। वह आज ओडिसी और आदिवासी नृत्य छऊ की देश की बड़ी नृत्यांगनाओं में से एक है।
इलियाना का जन्म इटली के बेर्गमो शहर में हुआ। उनके पिता सेर्विनो चितारीस्ती मशहूर राजनेता थे। वे क्रिस्चियन डेमोक्रेसी पार्टी से सांसद भी थे। इलियाना का जब जन्म हुआ था तो इटली में बदलाव का दौर शुरू हो चुका था। नई पीढ़ी रूढ़िवादी परंपराओं, रीति-रिवाजों और दकियानूसी खयालों से समाज को मुक्ति दिलाना चाहती थी। रूस में आई क्रांति का भी गहरा असर इटली के युवाओं के मन मस्तिष्क पर पड़ा था। बदलाव के लिए इटली में जो जन-आंदोलन शुरू हुआ,उसमें सबसे सक्रीय भूमिका विद्यार्थियों की थी। नारी आंदोलन ने भी गति पकड़ ली थी। परिवर्तन की इन आहटों ने इलियाना को भी अंदर से झकझोर दिया। उसके स्वभाव में बगावत थी। उसने अपनी मर्जी से अपना जीवन जीने का फैसला किया। जीवन में मौलिकता की यह ललक ही उन्हें भारतीय कलासंस्कृति और अध्यात्म से जोड़ गई। वह 1974 में वह
मुंबई आईं। तब वह शोधार्थी थीं और उसके शोध का विषय दर्शन-शास्त्र था। रंगमंच से भी उन्हें बेहद प्यार हो गया था। जब वह मुंबई के चर्चगेट पर उतरी थीं, तब उन्हें इस बात का जरा भी अनुमान नहीं था कि वे भारतीय कला-संस्कृति में कुछ इस तरह से रम-रमा जाएंगी कि वह भारत में ही हमेशा के लिए यहीं का हो कर रह जाएंगी। इलियाना आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। भारतीय नृत्य-कला की दुनिया में वह लब्धप्रतिष्ठित व्यक्तित्व हैं। वह भारत के प्राचीन ओडिसी शास्त्रीय नृत्य और आदिवासी नृत्य छऊ की बड़ी जानकार और गुरु हैं। उन्होंने खुद को अब इन दोनों नृत्य-कलाओं के प्रचार-प्रसार में समर्पित कर दिया है। भारत को अपना देश और यहां की संस्कृति को अपनी संस्कृति बताने वाली इलियाना बताती हैं कि उन्हें बचपन से की नृत्य का शौक था। वह खुलकर
इलियाना ने जब गुरु केलुचरण महापात्र से ओडिसी नृत्य सीखना शुरू किया तो उनका विचार था कि छह महीने वह नृत्य का ज्ञान लेकर इटली लौट जाएंगी, लेकिन वह नृत्य में इतना तल्लीन हो गईं कि छह माह छह साल में बदल गए
नाचना चाहती थीं। वह बैले ग्रुप का हिस्सा बनना चाहती थीं, लेकिन परिवार ने उन्हें इसकी इजाजत नहीं दी। फिर क्या था, इलियाना ने बागी तेवर अपना लिया और वही करना शुरू किया जो उन्हें अच्छा लगने लगा। भारत को लेकर अपने अनुभव को लेकर वह कहती हैं, ‘भारत आने के कई सारे मकसद थे, लेकिन, सबसे बड़ा मकसद था भारत को देखना और समझना।‘ इलियाना ने यह भी बताया कि 70 और 80 के दशक में इटली के कई सारे कवियों और लेखकों ने लोगों को दर्शन और आध्यात्म के लिए पूरब की ओर रुख करने को प्रेरित किया था। इलियाना भी उन्हीं लोगों में से एक थीं। अपनी पहली भारत-यात्रा के दौरान इलियाना ने खजुराहो, बनारस जैसे धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक शहरों की यात्रा की। उन्होंने अपना काफी समय नेपाल में भी बिताया। अपनी पहली यात्रा में इलियाना भारत की कला-संस्कृति और लोगों से बहुत प्रभावित हुई थीं। भारत से लौटते वक्त ही उन्होंने फैसला कर लिया था वे दोबारा भारत वापस आएंगी। लेकिन उन्हें भारत वापस आने में तीन साल से ज्यादा का समय लग गया। वह 1978 में दूसरी बार भारत आईं। उन दिनों वह रंगमंच के रंग में रंगी हुईं थीं। बतौर रंगमंच कलाकार उन्होंने कई सारे प्रयोग भी करने शुरू कर दिए थे। वह बताती हैं, ‘जब मैं दूसरी बार भारत आई, तब मैं अपने शरीर के साथ प्रयोग कर रही थी। भाव-भंगिमाएं समझने की कोशिश में थी।’ इटली में इलियाना ने एक बार केरल का शास्त्रीय नृत्य कथकली देखा था। कथकली नृत्य देखने के बाद उन्हें अहसास हुआ कि भारत की ये प्राचीन नाट्य-कला अपने आप में परिपूर्ण है। उन्होंने यह भी महसूस किया कि भारतीय नृत्य-कला में पूरी कहानी कहने की क्षमता है। जब उन्होंने कथकली के बारे में जाना तो वह इससे जुड़ी भाव-भंगिमाओं का व्याकरण समझना और सीखना चाहने लगीं। कथकली कलाकारों की भाव-भंगिमाओं से वह बहुत प्रभावित हुई थीं। यह वह समय भी था जब वह दर्शन-शास्त्र की पढ़ाई कर रही थीं। दरअसल, भारतीय दर्शन को बे ह तर ढ ं ग से समझने और
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छऊ में भी छा गईं इलियाना
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उन्होंने गुरु हरि नायक से मयूरभंजी छऊ नृत्य सीखा और भुवेनश्वर के संगीत महाविद्यालय से आचार्य की उपाधि भी हासिल की
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डिशा में अपने प्रवास के दौरान इलियाना मयूरभंजी छऊ के प्रति भी आकर्षित हुईं। छऊ भारत का एक आदिवासी नृत्य है जो पश्चिम बंगाल, ओड़ीसा और झारखंड राज्यों मे काफी लोकप्रिय है। इस आदिवासी नृत्य-कला के मुख्य रूप से तीन प्रकार हैं – सेरैकेल्लै(झारखंडी) छऊ, मयूरभंजी(उड़ीसी) छऊ और पुरुलिया(बंगाली) छऊ। ओडिसी शास्त्रीय नृत्य में पारंगत होने के बाद इलियाना ने मयूरभंजी छऊ में दक्षता हासिल करने की कोशिश शुरू की। उन्होंने गुरु हरि नायक से मयूरभंजी छऊ नृत्य सीखा और भुवेनश्वर के संगीत महाविद्यालय से आचार्य की उपाधि भी हासिल की। बड़ी बात यह भी है
कि इलियाना ने न सिर्फ ओडिसी शास्त्रीय नृत्य और छऊ नृत्य सीखा बल्कि ओडिसी रहनसहन, संस्कृति और भाषा को भी अपना बना लिया। वह बताती हैं, ‘मेरे लिए ओड़िया भाषा सीखना बहुत जरूरी हो गया था। गुरु केलुचरण महापात्र से नृत्य सीखने के दौरान मैं कटक में जिस परिवार के यहां गेस्ट बनकर ठहरी थी उनके यहां एक के सिवाय किसी को भी अंग्रेजी नहीं आती थी। जिस लड़के को अंग्रेजी आती थी वो भी किसी तरह से मैनेज करता। चूंकि घर के सभी लोग ओड़िया ही जानते थे मुझे भी भाषा सीखनी पड़ी।’ इलियाना ने नृत्य-संगीत के जरिए पूरब और पश्चिम को जोड़ने की भी सफल कोशिश की हैं। उन्होंने ओडिसी और छऊ नृत्यों में पश्चिमी नृत्य-कलाओं के कुछ महत्वपूर्ण अंगों को जोड़कर उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर स्थापित किया। मयूरभंजी छऊ नृत्य-शैली में ग्रीक माइथोलॉजी यानी यूनानी पौराणिक कथाओं को ‘इको नद नारसिसिस’ नामक नृत्य-नाटिका में पेश करने के लिए इलियाना को 1985 में मुंबई के ईस्ट वेस्ट डांस एनकाउंटर में बहुत सराहा गया। ऐसे प्रयोग उन्होंने कई सारे किए हैं। इलियाना ने नृत्य-संगीत-रंगमंच-चित्रकला जैसी कलाओं से जुड़े विचारों के आदान-प्रदान के लिए 1996 में ‘आर्ट विजन अकादमी’ नाम से एक संस्था की भी शुरुआत की। इसी संस्था के जरिया इलियाना लोगों को ओडिसी और छाऊ नृत्य-कला का शिक्षण और प्रशिक्षण भी दे रही हैं।
70 और 80 के दशक में इटली के कई सारे कवियों और लेखकों ने लोगों को दर्शन और अध्यात्म के लिए पूरब की ओर रुख करने को प्रेरित किया था। इलियाना भी उन्हीं लोगों में से एक थीं कथकली से अपने रं ग मं च के लिए कु छ नया सीखने के इरादे के साथ इलियाना दू स री बार भारत आईं। इस तरह इलियाना ने केरल में कथकली नृत्य सीखना शुरू किया। केरल में रहकर कथकली सीखने का उनका अनुभव बेहद रोमांचकारी रहा। इलियाना ने अपने कुछ साथियों के साथ केरल में तीन महीने तक कथकली नृत्य सीखने के लिए एक वर्कशॉप अटेंड की थी। कथकली सीखने के लिए इलियाना को तड़के उठना पड़ता और देर रात तक अभ्यास में लगे रहना पड़ता। इलियाना कहती हैं , ‘शु रू से ही मे र ी एक आदत रही है । मैं जो कोई काम अपने हाथ में ले त ी हूं , उसे पू र ा मन
लगाकर करती ह ूं । बे म न से मैं कोई काम नहीं करती। मैं ने कथकली भी ऐसे ही सीखी। मैंने खुद को कथकली के लिए समर्पित कर दिया था।’ इलियाना यहीं नहीं रुकीं, वह जैसे-जैसे भारतीय नृत्य-कलाओं और दर्शन के बारे में सिखती-समझती गईं, वैसे-वैसे भारत के प्रति उनका प्रेम, सम्मान और आकर्षण लगातार बढ़ता चला गया। इस तरह उन्होंने फैसला कर लिया कि जितना मुमकिन होगा, उतना वह भारतीय कलाओं और संस्कृति के बारे में सीखेंगीं। ओडिसी से इलियाना के जुड़ने का किस्सा भी दिलचस्प है। संयुक्ता पाणिग्रही अपने जमाने की बहुत ही लोकप्रिय कलाकार थीं। इलियाना एक दिन संयुक्ता पाणिग्रही से मिलीं। संयुक्ता ने इलियाना को
गुरु केलुचरण महापात्र के बारे में बताया। केलुचरण महापात्र उन दिनों दुनिया-भर में मशहूर थे और उन्हें ओडिसी नृत्य का सबसे बड़ा जानकार और गुरु माना जाता था। केलुचरण महापात्र के बारे में जानकारी हासिल करने के बाद इलियाना अपने देश इटली लौट गईं । 1979 में वह तीसरी बार भारत आईं। भारत आते ही वह ओडिशा में गुरु केलुचरण महापात्र के यहां गईं। इलियाना वह दिन कभी नहीं भूल सकती जब पहली बार वे गुरु केलुचरण महापात्र से मिली थीं। उन्हें याद है कि पहली बार जब वे गुरुजी के घर उनसे नृत्य सीखने की इच्छा लेकर पहुंची तब वे पश्चिमी परिधान में थीं। इलियाना की वेशभूषा, भाषा और उनके हावभाव देखकर वहां मौजूद सभी लोगों को बहुत ताज्जुब हुआ था। वह बताती हैं, ‘सबसे ज्यादा हैरान गुरु की पत्नी हुई थीं, वे मुझे गुरुजी की शिष्यमंडली में शामिल करने की इच्छुक भी नहीं दिखाई दे रही थीं। लेकिन मेरी खुशनसीबी थी कि मुझे गुरु केलुचरण महापात्र जैसे महान व्यक्ति ने अपना शिष्य बना लिया।’ इलियाना ने जब गुरु केलुचरण महापात्र से ओडिसी नृत्य सीखना शुरु किया तो उनका विचार था कि छह महीने वह नृत्य का ज्ञान लेकर इटली लौट जाएंगी। लेकिन वह नृत्य में इतना तल्लीन हो गईं कि छह माह छह साल में बदल गए। पूरे 6 साल तक इलियाना भारत में ही रहीं और भारतीय शास्त्रीय नृत्य को आत्मसात करने में ही अपना सारा समय बिताया। इलिआना में नृत्य के लिए आवश्यक प्रतिभा होने के साथ-साथ मेहनत करने का जबरदस्त माद्दा था। गुरु केलुचरण महापात्र भी अपनी इस विदेशी शिष्या की मेहनत, लगन और ईमानदारी देखकर काफी प्रभावित हुए थे। देखते-देखते इलियाना के नृत्य का सौंदर्य लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। आगे चलकर इलियाना ने भारत के सभी छोटे-बड़े शहरों में अपने नृत्य का प्रदर्शन किया। आज इलियाना ओड़िसी और छऊ नृत्य के एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में अपनी पहचान रखती हैं। दुनिया-भर में उनकी पहचान ओडिसी और छऊ नृत्य की एक बड़ी कलाकार, विद्वान और गुरु के रूप
में है। दुनिया के कई देशों में वे ओड़िसी और छऊ नृत्य-कला का प्रदर्शन कर लाखों-करोड़ों लोगों को अपना प्रशंसक बना चुकी हैं। इलिआना ने देश और दुनिया के कई सारे सांस्कृतिक और कला उत्सवोंसमारोहों में हिस्सा लेकर उनकी शोभा बढ़ाई है। आज ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में ही उनका स्थायी निवास है। भुवनेश्वर में वे लोगों को ओडिसी और छऊ नृत्य भी िसखा रही हैं। इलियाना के शिष्यों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इलियाना एक उम्दा कलाकार होने के साथ एक सक्रीय और बेहतरीन लेखिका भी हैं। उन्होंने कलासंस्कृति, दर्शन जैसे विषयों पर कई सारे लेख लिखे हैं। उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं। वह आत्मकथा भी लिख चुकी हैं। भारत सरकार उन्हें ‘पद्मश्री’ सम्मान से भी नवाज चुकी है। इलियाना ने फिल्मों के लिए भी नृत्य-निर्देशन किया है। अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित फिल्म ‘युगांतर’ में उनके नृत्य-निर्देशन के लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था। वह एमएफ हुसैन की बहुचर्चित फिल्म ‘मीनाक्षी : ए टेल ऑफ थ्री सिटीज’ और गौतम घोष की ‘अबार अरण्ये’ जैसी फिल्मों के लिए शानदार नृत्य निर्देशन कर चुकी हैं। अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि के बारे में पूछे जाने पर वे कहती हैं कि सबसे बड़ी उपलब्धि अभी प्राप्त करना शेष है, लेकिन ‘पद्मश्री’ जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार पाना निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। भारत के बारे में बात करते हुए इलियाना बहुत ही भावुक हो जाती है। वह कहती हैं ‘भारत महान देश है। यह मेरा सौभाग्य है कि यहां के लोगों ने मुझे पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है। मुझे पूरे भारत में बहुत प्यार मिला। ओडीसा के लोगों ने भी मुझे बहुत प्यार दिया। मैं तो भारत की संस्कृति में पूरी तरह से रम चुकी हूं।’ दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से भारत आने वाले कई विदेशी सैलानी और शोधार्थी यहां की संस्कृति से प्रभावित होकर यहीं के रंग में रंग जाते हैं, लेकिन जिस तरह से इलियाना ने खुद को भारतीय रंग में रंग गई हैं, वैसी मिसाल वाकई बहुत कम देखने को मिलती है। मीरा बहन जैसी महिलाओं की परंपरा में निस्संदेह इलियाना एक बड़ा नाम है।
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08-14 मई 2017
अनाम हीरो डॉ. उदय मोदी
मुंबई का ‘श्रवण कुमार’ मुंबई के भायंदर इलाके में करीब 200 बुजुर्गों को मुफ्त भोजन करा रहे हैं डॉ. उदय मोदी
डॉ
. उदय मोदी ने अपनी पूरी जिंदगी बुजुर्गों के नाम कर दी है। वे मुंबई के भायंदर में ‘श्रवण टिफिन सेवा’ नाम से बुजुर्गों को मुफ्त भोजन उपलब्ध कराते हैं। उनकी इस टिफिन सेवा से करीब 200 वरिष्ठ नागरिकों को मुफ्त भोजन दिया जा रहा है। वे जिस पवित्र और निस्वार्थ भाव से बुजुर्गों की सेवा में जुटे हैं, उस कारण लोग उन्हें ‘मुंबई का श्रवण कुमार’ तक कहने लगे हैं। डॉ. उदय बताते हैं कि उनकी इस तरह की सेवा की शुरुआत उनके अस्पताल के पास एक वृद्ध दंपति के लिए खाना पकाने से हुई थी, जो खुद के लिए खाना बनाने में असमर्थ थे। कुछ दिनों तक इस दंपति को भोजन उपलब्ध कराने के बाद, उनकी पत्नी ने उन्हें इसी तरह के और लोगों का पता लगाने और उन लोगों की भी मदद करने का आग्रह किया,
न्यूजमेकर
सिनेमा के विश्वनाथ
तेलुगु फिल्मकार के. विश्वनाथ वर्ष 2016 के दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किए गए हैं
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कसीनथुनी विश्वनाथ
शहूर तेलुगु फिल्म निर्माता और अभिनेता कसीनथुनी विश्वनाथ को साल 2016 के प्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है। सिनेमा के क्षेत्र में यह देश का सर्वोच्च पुरस्कार है। तमिल, तेलुगु और हिंदी फिल्मों के प्रमुख नाम 87 वर्षीय विश्वनाथ दादासाहेब फाल्के पुरस्कार सम्मान के रूप में एक स्वर्णकमल, 10 लाख रुपए, शाल और प्रशस्ति पत्र शामिल है। के. विश्वनाथ की कुछ प्रमुख फिल्मों में ‘सरगम’, ‘कामचोर’, ‘संजोग’, ‘जाग उठा इंसान’ और ‘ईश्वर’ शामिल हैं। वे ‘सप्तापदी’ और ‘शंकराभरणम’ जैसी राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म
में भी काम कर चुके हैं। उनका जन्म गुंटुर (आंध्र प्रदेश) में फरवरी 1930 में हुआ। उन्होंने अभिनेता और निर्देशक दोनों ही रूप में अपनी पहचान बनाई है। इतना ही नहीं, वह क्लासिकल व ट्रेडिशनल आर्ट, म्यूजिक व डांस में भी रुचि रखते हैं। 1965 के बाद से निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखने के बाद से उन्होंने करीब 50 फिल्में बनाईं। उनकी फिल्में साहस और दुर्बलता, आकांक्षाओं और प्रतिबद्धता, दृढ़ता और विकर्षण, सामाजिक मांगों और व्यक्तिगत संघर्ष से भरी होती थीं। उनकी राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली फिल्मों में ‘स्वाति मुथ्यम’ शामिल है। उनकी सबसे यादगार फिल्मों में से एक ‘श्रीवेन्नेला’ है। इसमें एक नेत्रहीन बांसुरीवाले और गूंगे चित्रकार की कहानी है, जो आपस में प्रेम करने लगते हैं। के. विश्वनाथ ने पांच राष्ट्रीय पुरस्कार, 20 नंदी अवार्ड (आंध्र प्रदेश सरकार का सम्मान), लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड सहित 10 फिल्म फेयर पुरस्कार प्राप्त किए हैं। उन्हें 1992 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया जा चुका है।
स्वर्णिम सुदर्शन
रेत से कलाकृतियां बनाने वाले सुदर्शन पटनायक ने मास्को प्रतियोगिता में जीता स्वर्ण पदक
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डिशा के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के रेत कलाकार सुदर्शन पटनायक ने 10वें मास्को सैंड स्कल्पचर प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता है। बता दें कि यह चैंपियनशिप 22 अप्रैल से 28 अप्रैल के बीच रूस की राजधानी मास्को के कोलोमेन्सकोये में आयोजित की गई थी। इस प्रतियोगिता में पटनायक ने भारत की तरफ से हिस्सा लिया था। इस प्रतियोगिता में दुनिया भर से 25 प्रतियोगियों ने हिस्सा लिया था। पटनायक को यह अवार्ड एक समारोह के दौरान कार्यक्रम के मुख्य आयोजककर्ता पेवल मेनीकोव ने प्रदान किया। बता दें कि इस प्रतियोगिता में पटनायक ने गो ग्रीन संदेश के साथ भगवान गणेश की 10 फीट ऊंची प्रतिमा बनाई थी। पटनायक ने बताया कि इस साल रूस का स्लोगन गो ग्रीन था, इसीलिए हमने इसे अपनी थीम के रूप में चुना। अभी हाल
संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 1, अंक - 21
जो इस बुजुर्ग दंपति जैसे ही पीड़ित हों। शुरुआत में उन्होंने ग्यारह लोगों के भोजन का इंतजाम किया। पहले तो डॉ. उदय की पत्नी खुद ही खाना बनाया करती थीं, पर अब जब करीब 200 लोगों के लिए रोजाना भोजन तैयार करना होता है, तो उन्होंने इसके लिए अलग से चार कुक रख लिए हैं। दिलचस्प है कि एक जमाने में डॉ. उदय के पिता भी समाज सेवा से जुड़े थे। उनके पिता अपने इलाके में निर्माण क्षेत्र से जुड़े गरीब मजदूरों को मुफ्त चप्पल बांटा करते थे। आज तकरीबन तीन दशक बाद डॉ. उदय अपने पिता की तरह से ही सेवा के कार्य में तल्लीनता से जुटे हैं। वे आज सैकड़ों बुजुर्गों के जीवन में एक भरोसेमंद सहारे की तरह हैं। अच्छी बात यह भी है कि डॉ. उदय की इस निस्वार्थ सेवा में उनकी पत्नी का भी पूरा सहयोग है।
सुदर्शन पटनायक
ही में पुरी के तट पर पटनायक ने दुनिया का सबसे बड़ा रेत का किला बनाया था। उनकी इस कलाकृति को गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज किया गया था। पिछले साल भी पटनायक ने मास्को में विश्व शांति थीम पर महात्मा गांधी की प्रतिमा बना स्वर्ण पदक जीता था। केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने सुदर्शन को रूस में रेत प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने पर बधाई दी। मुख्यमंत्री पटनायक ने ट्वीट कर कहा कि विश्व रेत प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने पर आपको ढेरों शुभकामनाएं। आपने ओडिशा के साथ ही साथ पूरे देश को गौरवान्वित किया है। केंद्रीय मंत्री ने ट्वीट कर कहा कि सुदर्शन ने ओडिशा और भारत को गौरवान्वित किया है। इतना ही नहीं सुदर्शन ने ओडिशा की रेत कला और उड़िया पहचान को वैश्विक मानचित्र पर भी उभारा है।