वर्ष-1 | अंक-43 | 09 - 15 अक्टूबर 2017
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
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06 जयप्रकाश नारायण
अंतिम हथियार
मौजूदा चुनौतियों से निपटने में सत्याग्रह सक्षम
10 डॉ. लोहिया
'तीन बनाम पंद्रह आना' समाजवादी सरोकार की राजनीति के आदर्श पुरुष
16 एम. वेंकैया नायडू
स्वच्छ भारत
भारतीय संस्कृति में आत्मा की पवित्रता पर जोर
स्वच्छता मिशन के तीन वर्ष
दूर नहीं मंजिल!
2019 तक स्वच्छ भारत का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना अब हकीकत में बदलने लगा है। स्वच्छता मिशन के तीन वर्षों में देश में स्वच्छता का कवरेज एरिया 67.5 फीसदी तक पहुंच गया है
02 आवरण कथा
09 - 15 अक्टूबर 2017
स्वच्छता मिशन के तीन वर्ष
दूर नहीं मंजिल!
2019 तक स्वच्छ भारत का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना अब हकीकत में बदलने लगा है। स्वच्छता मिशन के तीन वर्षों में देश में स्वच्छता का कवरेज एरिया 67.5 फीसदी तक पहुंच गया है। यही नहीं इस दौरान कई पंचायतों और इलाकों में स्वच्छता संकल्प को पूरा करने के लिए लोक पुरुषार्थ की बड़ी मिसालें देखने को मिली हैं
दो
एसएसबी ब्यूरो
अक्टूबर को ‘स्वच्छ भारत अभियान’ तीन साल पूरे हो गए। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता के प्रति देश में आई जागरुकता की सराहना की। उन्होंने भरोसा जताया कि स्वच्छता को लेकर देश में आई जन-जागृति के चलते महात्मा गांधी की 150वीं जयंती, यानी 2019 तक इसे और अधिक सफलता मिलेगी। देशवासियों की मूल प्रकृति स्वच्छता को पसंद करने की है, लेकिन जब करने की बारी आती है तो प्रश्न उठ खड़ा होता है कि यह दायित्व किसका है? प्रधानमंत्री ने कहा, ‘अगर 1000 महात्मा गांधी आ जाएं, एक लाख मोदी मिल जाएं, सभी मुख्यमंत्री मिल जाएं,
सभी सरकारें भी मिल जाएं तो भी स्वच्छता का सपना नहीं पूरा हो सकता। लेकिन अगर सवा सौ करोड़ देशवासी मिल जाएं तो स्वच्छता का सपना पूरा होकर के रहेगा।’
‘स्वच्छाग्रह के केंद्र में स्वच्छाग्रही’
दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह पहले दिन से कोशिश है कि स्वच्छता मिशन एक सरकारी कार्यक्रम बन कर रहकर न रह जाए। वे इस बात को आरंभ से समझते रहे हैं कि स्वच्छ भारत का संकल्प तभी पूरा होगा जब सरकार और समाज का साझा पुरुषार्थ प्रकट होगा, इसीलिए प्रधानमंत्री ने कहा, ‘अगर समाज की शक्ति को स्वीकार करके चलें, जन-भागीदारी को साथ लेकर चलें, सरकार
‘अगर 1000 महात्मा गांधी आ जाएं, एक लाख मोदी मिल जाएं, सभी मुख्यमंत्री मिल जाएं, सभी सरकारें भी मिल जाएं तो भी स्वच्छता का सपना नहीं पूरा हो सकता, लेकिन अगर सवा सौ करोड़ देशवासी मिल जाएं तो स्वच्छता का सपना पूरा होकर के रहेगा’- नरेंद्र मोदी
की भागीदारी को कम करके चलें, तो स्वच्छता का आंदोलन तमाम रुकावटों के बाद भी सफल होकर रहेगा।’ वैसे तीन साल पूरा होने पर भारत स्वच्छता की दिशा में जितना आगे बढ़ चुका है, वह जहां अब तक की प्रगति को संतोषजनक मानने के लिए पर्याप्त है, वहीं अब तक की सफलता इस मिशन की सफलता का भरोसा जगाता है। इस बात को प्रधानमंत्री ने भी स्वीकार करते हुए कहा है- ‘अब यह अभियान न बापू का है और न ही सरकारों का है। आज स्वच्छता अभियान देश के सामान्य मानव का अपना सपना बन चुका है। ... अब तक जो भी सिद्धि मिली है, वह सरकार की सिद्धि नहीं है। अगर सिद्धि मिली है तो यह स्वच्छाग्रही देशवासियों की सिद्धि है। उन्होंने कहा कि बापू के स्वराज का शस्त्र था सत्याग्रह। श्रेष्ठ भारत का शस्त्र है स्वच्छाग्रह। स्वराज के केंद्र में सत्याग्रही थे और स्वच्छाग्रह के केंद्र में स्वच्छाग्रही हैं।’
छोटे बच्चे स्वच्छता के बड़े एंबेसडर
स्वच्छता की रैंकिंग के चलते नेताओं एवं अफसरों पर समाज का सकारात्मक दबाव पड़ रहा है। आज घर-घर के छोटे बच्चे स्वच्छता के सबसे बड़े
एक नजर
स्वच्छता आंदोलन तमाम रुकावटों के बाद भी सफल होगा- पीएम मोदी शहरी इलाकों में अब तक 38 लाख शौचालयों का निर्माण हुआ ठोस कचरे से 500 मेगावॉट बिजली पैदा करने का लक्ष्य
एंबेसडर बन गए हैं। वह घर में ही गंदगी देखने पर बड़ों को टोकने लगे हैं, जिससे लोगों के स्वभाव में परिवर्तन आने लगा है। प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में, ‘तीन सालों में स्वच्छता के प्रति लोगों की सोच में बड़ा बदलाव आया है। पहले स्कूलों में बच्चों से सफाई का काम देखकर लोग भड़क जाते थे, लेकिन आज बच्चे स्कूल में स्वच्छता से जुड़ते हैं तो टीवी की बड़ी खबर बन जाती है।’ उन्होंने स्वच्छता के प्रति जागरूता बढ़ाने के लिए मीडिया की भी जमकर सराहना की।
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आवरण कथा
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बापू की प्रेरणा
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‘स्वच्छता केवल सफाई कर्मचारियों और सरकारी विभागों की जिम्मेदारी ही नहीं है’
ष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गांधी जयंती की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा है कि गांधी जयंती राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों और मूल्यों के प्रति फिर से समर्पित होने का अवसर है। गांधी जी स्वच्छता को अराधना मानते थे। यह ऐसा राष्ट्रीय आंदोलन है जिसमें सभी लोगों की भागीदारी आवश्यक है। स्वच्छ भारत मिशन के लक्ष्य को हासिल करना गांधी जी की जयंती पर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। राष्ट्रपति ने कहा कि सादा जीवन और उच्च नैतिक आदर्श के प्रतिरूप गांधीजी ने अपने नेतृत्व के जरिए देश को एक नई दिशा दी। उनका अहिंसा और शांति का दर्शन आज के युग में और भी अधिक प्रासंगिक है। चरखे और खादी के जरिए उन्होंने आत्मनिर्भरता और श्रम की गरिमा का संदेश दिया। राष्ट्रपति ने कहा, ‘स्वच्छता केवल सफाई कर्मचारियों और सरकारी विभागों की जिम्मेदारी ही नहीं है। आज भारत स्वच्छता ही सेवा अभियान के जरिए स्वच्छता और हाईजिन के लिए संघर्ष कर रहा है।’ गांधी जी कहते थे कि स्वच्छता ईश्वर की
आलोचना से फर्क नहीं
स्वच्छता मिशन की तीसरी वर्षगांठ पर प्रधानमंत्री ने साफ किया कि 2022 तक दुनिया में देश को आगे बढ़ा के रखना है। चुनौतियों के लिए देश को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। सरकार सिर्फ वाहवाही वाले काम हाथ में नहीं ले सकती। तीन साल पहले ‘स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू होने पर भी उनकी बहुत आलोचना शुरू की गई थी। गांधी जयंती की
आराधना के समान ही है। उन्होंने तीन आयामों – स्वच्छ मस्तिष्क, स्वच्छ शरीर और स्वच्छ वातावरण को स्वच्छता के मानदंड के तौर पर सामने रखा। ने राष्ट्रपति ने आम लोगों से स्वच्छता अभियान के लिए आह्वान करते हुए कहा कि आइए हम जन स्वच्छता, व्यक्तिगत स्वच्छता और वातावरण की स्वच्छता के लिए प्रतिबद्ध हों। यह एक ऐसा राष्ट्रीय आंदोलन है, जिसमें सभी लोगों की भागीदारी आवश्यक है।
छुट्टी खराब करने जैसे आरोप लगाए गए थे। पीएम मोदी ने कहा कि, ‘मेरा स्वभाव है कि बहुत कुछ चुपचाप झेलता हूं। धीरे-धीरे अपनी कैपिसिटी बढ़ा रहा हूं झेलने की।’ उन्होंने ‘स्वच्छता ही सेवा’ के तहत 15 दिनों में फिर से स्वच्छता को गति देने के लिए लोगों को बधाई दी। उन्होंने देशवासियों का आह्वान किया कि श्रेष्ठ भारत बनाने के लिए थोड़ाथोड़ा स्वच्छता के कार्य में सबको जुटना होगा।
पीएम मोदी ने पेश की स्वच्छता की मिसाल
रावण वध के कार्यक्रम में हाथ पोंछने के लिए दिए गए टिश्यू पेपर को फेंका नहीं, बल्कि अपनी जेब में रख लिया
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धानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वच्छता को सबसे बड़ी सेवा कहते हैं और इसे संस्कार के रूप में विकसित करने पर बल देते हैं। प्रधानमंत्री स्वयं भी साफ-सफाई को लेकर कितने सजग रहते हैं इसकी बानगी दिल्ली में विजयदशमी के दिन दिखी। सुभाष पार्क में आयोजित रावण दहन कार्यक्रम में पूजा करने के बाद प्रधानमंत्री ने स्वच्छता की अलग मिसाल कायम की। दरअसल हुआ यूं कि सुभाष पार्क में रावण दहन के दौरान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू की
मौजूदगी में पीएम मोदी और अन्य अतिथियों ने पूजा की और उसके बाद रावण दहन का कार्यक्रम आयोजित किया। भगवान राम, लक्ष्मण के रुप धारण किए हुए युवाओं की तिलक लगाकर पूजा की। उसके बाद मोदी को हाथ पोंछने के लिए एक टिश्यू पेपर दिया गया। प्रधानमंत्री मोदी ने उससे अपने हाथ पोंछे और उसके बाद उस टिश्यू पेपर को फेंका नहीं। उन्होंने इस टिश्यू पेपर को किसी को दिया भी नहीं और इसे अपनी जेब में रख लिया।
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सर्वे में स्वच्छता मिशन सफल
स्व
च्छ भारत मिशन के तीन सालों में शौचालय निर्माण के कुछ विरोधाभासी आंकड़े और खबरें भी आई हैं। खासतौर पर शौचालय निर्माण और उसके इस्तेमाल को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं। क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया (क्यूसीआई) ने ग्रामीण इलाकों में एक व्यापक सर्वेक्षण के जरिये देखना चाहा कि सेवा दायरे और गुणवत्ता के लिहाज से किए गए वादे से कितना मेल खाती है। क्यूसीआई प्रमाणन (एक्रीडेशन) की एक राष्ट्रीय संस्था है, जिसने साफ-सफाई का मूल्यांकन अंतरराष्ट्रीय मानकों के आधार पर किया है। क्यूसीआई के सर्वेक्षण का नाम है, स्वच्छ सर्वेक्षण (ग्रामीण)- 2017। इसके अंतर्गत 700 जिलों के 140,000 घरों का जायजा लिया गया है। सर्वेक्षण में शामिल हर घर की जियोटैगिंग (भौगोलिक आधार पर नाम देना) हुई ताकि सर्वेक्षण को लेकर कोई संदेह न रह जाए। सर्वेक्षण में तकरीबन छह माह लगे और सर्वेक्षण 2017 के अगस्त महीने में पूरा हुआ, जिससे कुछ चौंकाने वाले निष्कर्ष निकले। स्वच्छता मिशन की आलोचना करते हुए बताया गया कि बने हुए टॉयलेट में अनाज रखा जा रहा है लेकिन सर्वे का निष्कर्ष यह है कि टॉयलेट की तादाद और इस्तेमाल में बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी हुई है। योजना के तीन साल बाद कहा जा सकता है कि लोगों की टॉयलेट जाने की आदतों में स्पष्ट अंतर आया है, खासकर ग्रामीण भारत में। 2011 की जनगणना के मुताबिक 10 में से 5 घरों में टॉयलेट नहीं थे, यानी तकरीबन 50 फीसदी परिवारों के घर टॉयलेट विहीन थे। ग्रामीण इलाकों में 10 में से 7 घरों में टॉयलेट सुविधा नहीं थी, जबकि शहरों में 10 में से 2 परिवारों के सदस्य खुले में
पांच और राज्य ओडीएफ
स्वच्छ भारत अभियान के 3 वर्ष पूरा होने के अवसर पर पांच और र ा ज ्य ों मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड और हरियाणा ने अपने सभी शहरों और कस्बों को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया है। इसकी घोषणा केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने स्वच्छ भारत अभियान की तीसरी वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान की।
स्वच्छता मिशन से सबसे ज्यादा सुधार ग्रामीण इलाकों में आया है, जहां िबना शौचालय वाले घरों की तादाद घटकर 32.5 प्रतिशत रह गई है
टॉयलेट जाने पर मजबूर थे। किंतु सर्वेक्षण कहता है कि 10 में से 3 से भी कम घरों (26.75 फीसदी) अब टॉयलेट नहीं हैं। सबसे ज्यादा सुधार ग्रामीण इलाकों में आया है, जहां ऐसे घरों की तादाद घटकर 32.5 प्रतिशत रह गई है, जहां टॉयलेट नहीं है। जबकि, 2011 की जनगणना में ऐसे घरों की तादाद 69 प्रतिशत थी। यानी तीन वर्षों में वहां टॉयलेट की संख्या दोगुनी बढ़ी है। शहरी इलाकों में टॉयलेट रहित घरों की संख्या 18 से घटकर 14.5 फीसदी रह गई है। जहां तक इस्तेमाल की बात है तो टॉयलेट सुविधा वाले 10 में से 9 घरों (91.29 प्रतिशत) में इसका इस्तेमाल हो रहा है। यही शहरी इलाकों में हुआ। स्वच्छ सर्वेक्षण 2016 में 73 शहरों को शामिल किया गया था। इसमें से 54 शहरों ने ठोस कचरा प्रबंधन (सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट) के
मामले में अपने अर्जित अंकों में इजाफा किया है। कोई कह सकता है कि खुले में टॉयलेट से मुक्त घोषित शहर में अब भी यह जारी है, लेकिन ऐसे मामले इक्का-दुक्का ही मिलेंगे। भले शतप्रतिशत कामयाबी नहीं मिली है लेकिन, स्वच्छ भारत मिशन के विशाल आकार को देखते हुए क्या 90 प्रतिशत से ज्यादा का आंकड़ा उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं है? मिशन के कारण शहरों और जिलों में एक स्वस्थ प्रतियोगिता शुरू हुई है। स्वसहायता समूह, स्वयंसेवी संस्थाएं और इलाके के जाने-माने लोगों ने योगदान दिया है और नतीजे साफ दिखाई दे रहे हैं। बेशक, मिशन को सरकार का सहारा है, लेकिन यह सामाजिक परियोजना है और हम सब इसके भागीदार और संचालक हैं। इस योजना का एक पक्ष अगर स्थानीय निकायों को धन तथा संसाधन
स्वच्छ सर्वेक्षण 2016 में 73 शहरों को शामिल किया गया था। इसमें से 54 शहरों ने ठोस कचरा प्रबंधन (सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट) के मामले में अपने अर्जित अंकों में इजाफा किया है
देश भर में शहरी क्षेत्रों में अभियान की प्रगति के संबंध में जानकारी देते हुए पुरी ने कहा कि 66 लाख व्यक्तिगत घरेलू शौचालयों के लक्ष्य के मुकाबले अब तक 38 लाख शौचालयों का निर्माण किया जा चुका है और 14 लाख शौचालयों का निर्माण प्रगति पर है। अभियान के तहत 5 लाख सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालयों के लक्ष्य के मुकाबले 2 लाख से अधिक शौचालयों का निर्माण
अब तक किया जा चुका है। पुरी ने कहा की अब ठोस कचरा प्रबधंन पर विशेष जोर दिया जा रहा है और शहरी क्षेत्रों में पूरे ठोस कचरे को परिवर्तित कर 500 मेगावॉट बिजली और 50 लाख टन से अधिक कूडे की खाद बनाने के प्रति प्रयास जारी है। पुरी ने कहा की स्वच्छता जन्मसिद्ध अधिकार होने के साथसाथ प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी भी है। उन्होंने जानकारी दी कि एक पखवाड़े तक चले ‘स्वच्छता ही सेवा’ अभियान में शहरी क्षेत्रों में 80 लाख से
मुहैया कराना है तो दूसरा पक्ष जाति, लिंग और गरीबी का है जो उतना ही महत्वपूर्ण है। योजना का मापन, उसके दर्जे का निर्धारण और साथ ही खुले में टॉयलेट के चलन पर अंगुली उठाना तथा ऐसा करने वालों को शर्मिंदा करना- ये तीन काम स्वच्छ भारत मिशन से जुड़े हैं, जो कारगर साबित हुए हैं। हमें इस फार्मूले का इस्तेमाल कामकाज के अन्य क्षेत्रों में भी करना चाहिए। रेलवे एंड पोर्ट (बंदरगाह) अथॉरिटी ने इससे मिलती-जुलती परियोजना पर काम शुरू कर दिया है। ढांचागत सुविधाओं के साथ व्यवहार में आए बदलाव का भी आकलन जरूरी है। सफाई की समस्या को सिर्फ कंक्रीट के ढांचे खड़े करके दूर नहीं किया जा सकता। अगर इसे लेकर जन आंदोलन चले, साथ ही गति देने के लिए जमीनी तैयारी हो और किए गए काम के असर का आकलन किया जाए तो नतीजे ज्यादा तेजी से आएंगे, लेकिन बड़ी सच्चाई यह भी है कि सैकड़ों भारतीय आज भी ऐसी बीमारियों के कारण जान गंवाते हैं, जिनसे आसानी से बचा जा सकता है। मानसून के बाद एन्सिफेलाइटिस और डायरिया फैलने की एक बड़ी वजह है भूमिगत पानी में मल आ जाना। डायरिया के कारण माताओं का वजन सामान्य से कम होता है। फिर ऐसी महिलाओं की संतान मानक से कम वजन और लंबाई की होती है। ऐसे बच्चे जल्दी-जल्दी बीमार पड़ते हैं। यह अंतहीन दुष्चक्र है। समाधान ज्यादा महंगा नहीं पड़ता, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के संकट का उठ खड़ा होना कहीं ज्यादा महंगा साबित होता है। ठीक इसी कारण से स्वच्छ भारत मिशन जोर-शोर से जारी रहना चाहिए तथा प्रभावों के आकलन से जुड़े अध्ययन और उनसे हासिल सीख के सहारे इसे ज्यादा से ज्यादा कारगर बनाया जाना चाहिए। अधिक लोगों ने 3.5 लाख से अधिक गतिविधियों में भागीदारी की है। स्वच्छता कवरेज बढ़ा सरकारी आंकड़ो के अनुसार 85 प्रतिशत से अधिक लोग अब शौचालयों का उपयोग कर रहे हैं। स्वच्छता का कवरेज स्वच्छ भारत मिशन लॉन्च के समय 39 प्रतिशत था। अब यह बढ़कर 67.5 प्रतिशत हो गया है। 2,39,000 गांव और 196 जिले खुले में शौच मुक्त हो चुके हैं। यह अपने आप में बड़ी सफलता है। यूनिसेफ ने ताजा स्वतंत्र सर्वेक्षण
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कुछ चुनौतियां भी
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क अनुमान के मुताबिक भारत में 1,57,478 टन कचरा हर रोज़ इकट्ठा होता है, लेकिन सिर्फ 25.2 फीसदी के निपटारे (ट्रीटमेंट एंड मैनेजमेंट) का ही प्रबंध है। बाकी सारा कूड़ा खुले में पड़ा रहता है और प्रदूषण फैलाता रहता है तथा दिल्ली के गाजीपुर में हुए हादसे जैसे
थ से मैला ढोना (मैन्युअल स्कैवेंजिंग) भारत में प्रतिबंधित काम है। इसी साल मार्च में राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में केंद्र सरकार में मंत्री थावरचंद गहलोत ने बताया था कि देश में 26 लाख ऐसे शौचालय हैं जहां पानी नहीं है। जाहिर है वहां हाथ से मैला ढोना पड़ता है। सफाई कर्मचारी आंदोलन ने अपने सर्वे में बताया है कि रिपोर्ट के मुताबिक साल (जो 12 राज्यों के 10000 अलग-अलग परिवारों पर आधारित है) में पाया कि खुले में शौच मुक्त होने पर प्रति एक परिवार ने समय, दवाइयों पर खर्च और जानलेवा बीमारियों से सुरक्षा के माध्यम से साल में पचास हजार रुपए की बचत की। पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय के सचिव परमेश्वरम अय्यर के मुताबिक भारत सरकार स्वच्छ
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खतरे भी पैदा करता है। कचरे के प्रबंधन के लिए पहला कदम घरघर से कूड़ा उठाना है, लेकिन शहरों में अभी ये आंकड़ा सिर्फ 49 फीसदी ही पहुंचा है। बीते एक साल में इसमें महज 7 फीसदी का ही सुधार आया है।
मैली प्रथा
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आवरण कथा
1993 से अब तक 1,370 सीवर वर्कर्स की मौत हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मृतकों के परिवारों को 10 लाख का मुआवजा देने का आदेश दिया था। 1370 में से सिर्फ 80 परिवारों को ही मुआवजा मिला है। 2013-14 में मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए 557 करोड़ का बजट रखा गया था, जबकि 2017-18 के बजट में सिर्फ 5 करोड़ रखा गया है। भारत अभियान को लेकर बेहद गंभीर है। सरकार किसी भी कीमत पर इस में सफलता हासिल करना चाहती है। सरकार के सभी मंत्रालयों को यह आदेश दिया गया है कि वह हर महीने में एक बार कार्यालय में सफाई अभियान के तहत साफ-सफाई करें। सरकार 2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त करना चाहती है। थर्ड पार्टी सर्वेक्षण के हवाले से
सरकारी आंकड़ो के अनुसार 85 प्रतिशत से अधिक लोग अब शौचालयों का उपयोग कर रहे हैं। स्वच्छता का कवरेज स्वच्छ भारत मिशन लांच के समय 39 प्रतिशत था। अब यह बढ़कर 67.5 प्रतिशत हो गया है उन्होंने दावा किया कि 91 प्रतिशत लोग शौचालय का उपयोग कर रहे हैं। पानी की कमी को मानते हुए उन्होंने ओडीएफ गांव को पानी मुहैया कराने में प्राथमिकता देने की बात कही। उनके अनुसार ग्रामीण पैन में कम पानी खर्च होता है, सरकार सूखे गड्ढे वाले और जैव शौचालय को बढ़ावा देना चाहती है, ताकि पानी बच सके। उनका मानना है कि व्यवहार में बदलाव के बिना इस अभियान में सफल नहीं हो सकते। इसीलिए सरकार ने अडवाइजरी जारी की है। अय्यर का कहना है कि अब लोग सफाई के महत्व को महसूस करने लगे हैं तभी तो कई गांवो ने शौचालय बनाने के लिए दिए गए सरकार के पैसे वापस कर दिए बिजनौर जिले का मुबारकपुर गांव इस का एक उदाहरण है।
चार लाख गांव ओडीएफ होने हैं
प्रश्न यह है कि भारत में वह कौन से कारण हैं जो खुले में शौच मुक्त होने में बाधक हैं। पिछले तीन वर्षों में सफाई से संबंधित जो कुछ प्रकाश में आया उसमें आमतौर पर लोगों ने गंभीरता से काम किया और अपने क्षेत्रों को ओडीएफ बना लिया। पर कहीं न कहीं मंजिल अभी दूर है। आधिकारिक आंकड़ो के बारे में बात करें तो अब भी 6,40,867 गांवों में से 4,01,867 गांवों खुले में शौच से मुक्त होने की
प्रतीक्षा कर रहे हैं। 511 जिलों को ओडीएफ होना है। इसी प्रकार, स्वच्छता का कवरेज 67.5 प्रतिशत होने की घोषणा की गई है, लेकिन देश के बड़े राज्यों, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश और केरल में यह केवल 50 प्रतिशत तक है। इस स्थिति को बदलने के लिए अधिक काम और ध्यान की आवश्यकता है। वैसे इस वर्ष सौ प्रतिशत के लक्ष्य को हासिल करने के लिए जो योजना बनाई गई है उस से स्थिति के बदलने की आशा की जा सकती है।
निजी क्षेत्र से वित्तीय सहायता
स्वच्छता कार्य योजना के अंतर्गत 76 मंत्रियों को 12000 करोड़ रुपए दिए गए हैं। 100 प्रसिद्ध स्थानों को साफ करने के लिए ‘स्वच्छ सभ्य स्थान’ का नाम दिया गया है। इसमें 20 स्थान ऐसे हैं, जिनकी दूरी बहुत अधिक है। नमामी गंगे कार्यक्रम के तहत 4500 गंगा किनारे के गांवों को ओडीएफ किया जाना है। स्वच्छता पखवाड़े में सभी मंत्री और उनके विभाग स्वच्छता से जुड़े विभिन्न क्रिया-कलापों से जुड़े। जिला स्वच्छ भारत प्रेरक के रूप में 600 युवा पेशेवर निजी क्षेत्र के फंड की सहायता से जिले का विकास करेंगे। इस परियोजना को लागू करने के लिए स्वच्छ भारत कोष से 660 करोड़ रुपए दिए गए हैं। ।
06 स्मरण
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सत्याग्रह का अंतिम हथियार हमारे पास लोकनायक जयप्रकाश नारायण जयंती (11 अक्टूबर) विशेष
पहले की अपेक्षा सर्व-साधारण इस समय अधिक चेतनाशील हैं। उनकी इस चेतनाशीलता का एक लक्षण यह है कि हिंसाशक्ति अथवा दंड-शक्ति से जैसी भी समाज-रचना अब तक हुई है या जैसी भी राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था उनके द्वारा कायम की गई है, उससे उन्हें संतोष नहीं है
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जयप्रकाश नारायण
क प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि गांधी के बाद उनकी अहिंसक नीति या सत्याग्रह प्रयोग की प्रासंगिकता कितनी बच गई है। इस प्रश्न का सीधा उत्तर तो यही है कि भय और हिंसा के रास्ते मनुष्य न तो पहले किसी कल्याणकारी गंतव्य तक पहुंचा है और न ही आगे इसकी कोई उम्मीद है। ऐसे में समय और समाज की हर चुनौती का समाधान महज सत्याग्रह है, जिसके लिए आज स्थिति विपरीत नहीं, बल्कि ज्यादा अनुकूल है। इस अनुकूलता को जेपी करीब साढ़े चार दशक पूर्व कैसे महसूस कर रहे हैं, वह दिलचस्प तो है ही, ऐतिहासिक तौर पर हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण सबक भी है। प्रस्तुत है जेपी के 1969 में कही बातों का संपादित अंशतीन गुण, तीन दोष, तीन मूर्ति, तीन लोक आदि की कल्पना भारतीय समाज ने प्राचीन काल से कर रखी है। वर्तमान इतिहास में तीन दुनिया की कल्पना की गई है। दुनिया का जो भाग अमेरिका अथवा रूस के प्रभाव या ‘गुट’ में नहीं है, उसे ‘थर्ड वर्ल्ड’ या तीसरी दुनिया कहते हैं। इसी प्रकार एक तीसरी शक्ति (थर्ड फोर्स) की भी एक धुंधली कल्पना इन दिनों है, जो विश्व शांति की शक्ति मानी जाती है। इस शक्ति की रूपरेखा काफी अस्पष्ट है। सर्वोदय अथवा गांधी-विनोबा की यह ‘तीसरी शक्ति’ है क्या? मानव-समाज के परिवर्तन तथा
पुनर्निर्माण के लिए इतिहास में केवल दो शक्तियों का ही जिक्र आता है- हिंसा-शक्ति तथा दंड-शक्ति। प्रेम की शक्ति का भी जिक्र है, परंतु वह परिवार के सीमित दायरे के बाहर काम करती नहीं दीखती। ईसा ने अवश्य उसके दायरे को पड़ोसी तक फैलाने की कल्पना की और वैसा उपदेश भी किया। पड़ोसी का अर्थ व्यापक रूप में लिया जा सकता है और पूरे सामाजिक जीवन से उसका अभिप्राय माना जा सकता है, परंतु प्रेम धर्म को सामाजिक जीवन में उतारने का ईसा के अनुयायियों ने कोई प्रयत्न किया, ऐसा विदित तो नहीं है। हां, ईसाई-धर्म के प्रारंभिक काल में प्रेमाधारित बस्तियों की स्थापना हुई थी। ये बस्तियां ईसाई-धर्म के आदर्शों पर अपना जीवन व्यवहार चलाने में काफी सफल रहीं। बाद में, जब ईसाई-धर्म का प्रसार हुआ और वह रोमनसाम्राज्य का राज्य-धर्म बन गया तो उसके प्रेमतत्व का सामाजिक प्रभाव क्षीण होता गया। वर्तमान
ईसाई-समाज के लिए यह तो कदापि नहीं कहा जा सकता कि वह किसी माने में ईसा के प्रेम या अहिंसा के उपदेशों पर कायम है। जब तक ईसाई-धर्म राज्य-धर्म नहीं बना था, तब तक ईसाइयों ने रोमन-साम्राज्य के अत्याचारों का ईसा के उपदेशों के अनुसार पूर्ण अहिंसक रीति से, बड़े साहस और वीरता के साथ सामना किया था। परंतु राज्य-धर्म बनने के बाद सामाजिक जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं (राजनीतिक, आर्थिक) आदि को अहिंसक रूप देने का प्रयत्न लगभग समाप्त हो गया। जो कुछ बचा या आगे जाकर प्रकट हुआ, वह छोटे-छोटे समूहों तक सीमित रहा- जैसे सोसाइटी ऑफ फ्रेंड्स (क्वेकर जमात) में। पाश्चात्य समाज में समय-समय पर आदर्शवादियों ने आदर्श बस्तियां कायम कीं, परंतु न वे स्थायी ही रह सकीं, न सामान्य समाज पर उनका विशेष प्रभाव ही पड़ा।
चाहे लोकतंत्र हो, एकतंत्र हो अथवा और कोई अन्य तंत्र हो, मानव एक अति-केंद्रित, अति-यांत्रिक राजनीतिक-आर्थिक संगठन के नीचे दबकर अपना व्यक्तित्व तथा स्वायत्तता खो चुका है। सबसे धनी देश अमेरिका में भी 15 फीसदी गरीब हैं, अपार विषमता है, रंग (जाति) भेद है, तरुण तथा बुद्धिजीवी वर्गों में विद्रोह है
भारत में महावीर तथा बुद्ध ने अहिंसा तथा करुणा को धर्म का आधार बनाया। परंतु यह धर्म व्यक्ति अथवा भिक्षु-संघ के आंतरिक जीवन तक सीमित रहा। सम्राट अशोक जगत के एकमात्र ऐसे शासक हुए, जिन्होंने बौद्ध-धर्म को स्वीकार करने के बाद तथा कलिंग-विजय के रक्तपात से संतप्त होकर आगे युद्ध न करने का संकल्प किया। फिर भी अशोक कालीन भारतीय समाज अहिंसक अथवा करुणामय बना, ऐसा तो नहीं लगता। प्रत्यक्ष हिंसा जहां नहीं है, वहां अहिंसा है, ऐसा मानना बड़ी भूल है। शोषण, उत्पीड़न, विषमता तथा अन्य प्रकार के सामाजिक-आर्थिक अन्याय, जो राज्य की दंडशक्ति के बल पर चलते हैं, हिंसा ही तो हैं! प्रेम-अहिंसा-करुणा की आधारशिला पर स्थापित इन तीनों धर्मों के मानने वाले अपने-अपने समाज की रचना इस आधारशिला पर नहीं कर सके। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि महावीर, बुद्ध अथवा ईसा ने समाज में छिपी हुई, परंतु निरंतर चलती हुई हिंसा को पहचाना नहीं। उन सबने गरीबी-अमीरी के संबंध में, संग्रह- तृष्णा आदि के संबंध में जो गूढ़ उपदेश दिए हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि समाज की अप्रत्यक्ष हिंसा के प्रति वे पूर्ण जाग्रत थे। समाज के अंतस से हिंसा को निकालने में इन धर्मों की जो विफलता हुई, उसके दो मुख्य कारण मुझे प्रतीत होते हैं। एक यह कि संयम, अपरिग्रह, त्याग, तृष्णा-क्षय, करुणा आदि गुण व्यक्ति के
09 - 15 अक्टूबर 2017 आध्यात्मिक उत्थान अथवा निर्वाण के साधनमात्रा मान लिए गए; लोक का परिवर्तन तथा परिष्कार इनके द्वारा करना है, ऐसा उन महात्माओं का उद्देश्य भले हो, इन धर्मों की संगठित संस्थाओं ने इसे नहीं माना, क्योंकि ऐसा करने से समाज के शासक तथा शोषक-वर्ग की अप्रसन्नता और संभाव्य विरोध का सामना करना पड़ता, जिससे धर्म (संप्रदाय) का ‘प्रसार’ नहीं हो पाता। दूसरा कारण जो धर्म-प्रसार की इसी मनोवृत्ति से उत्पन्न हुआ, वह यह था कि ये तीनों धर्म राज्य-धर्म बने और राज्य की संगठित हिंसा तथा दंड-शक्ति के पोषक बन गए। जब यह हुआ तब तो यह असंभव हो गया कि वे समाज में अहिंसा की प्रतिष्ठा कर सकें। हिंसा-शक्ति तथा दंड-शक्ति (जो स्वयं भी प्रच्छन्न हिंसा-शक्ति ही है, यद्यपि लोकतंत्र में उतनी हिंसा लोकसम्मत होती है) आज तक मानव-समाज को शासित करती रही है। उनके कारण जहां एक ओर मानव-समाज आणविक युद्ध की संभावना के कगार पर खड़ा है; दूसरी ओर चाहे लोकतंत्र हो, एकतंत्र हो अथवा और कोई अन्य तंत्र हो, मानव एक अतिकेंद्रित, अति-यांत्रिक राजनीतिक-आर्थिक संगठन के नीचे दबकर अपना व्यक्तित्व तथा स्वायत्तता खो चुका है। सबसे धनी देश अमेरिका में भी 15 फीसदी गरीब हैं, अपार विषमता है, रंग (जाति) भेद है, तरुण तथा बुद्धिजीवी वर्गों में विद्रोह है। उधर रूस में साम्यवादी शासन के बाद भी आज न मजदूरों के हाथों में कारखाने हैं, न किसानों के हाथ में खेत, न विद्यार्थियों के हाथ में विश्वविद्यालय, न विचारस्वातंत्र्य, न श्रमिकों का अपना राज्य जिसमें सत्ता (आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक) श्रमजीवियों की सोवियतों अथवा पंचायतों के हाथों में हो। अमेरिका के ‘मनरो डॉक्ट्रिन’ की भांति रूस में ‘ब्रेजनियेफ डॉक्ट्रिन’ का उद्घोष हुआ। इसके अनुसार सोवियत रूस ने अपने इस जन्मजात अधिकार की घोषणा की है कि वह यूरोप के अपने प्रभाव-क्षेत्र में यानी जहां-जहां साम्यवादी पक्षों का राज्य हैं वहां, जैसा भी चाहे हस्तक्षेप- यहां तक कि सामरिक हस्तक्षेप भी, जैसा चेकोस्लोवाकिया में उसने किया, कर सकता है। चीन के माओ ने तो बंदूक की नली को सत्ता की जननी बताकर वर्तमान मानव-सभ्यता के एक अत्यंत कटु सत्य को नग्न रूप दे दिया। जो लोकतांत्रिक समाजवादी हैं, उनकी दौड़ तो राष्ट्रीयकरण तक ही है। परंतु जहां-जहां समाजवादी शासनों के तत्त्वावधान में भी राष्ट्रीयकरण हुआ है, वहां-वहां विषमता, शोषण आदि का अंत हो गया है अथवा सत्ता श्रमजीवियों के हाथों में आ गई है; अथवा इतना भी हो गया है कि राष्ट्रीयकृत आर्थिक क्षेत्रों में मजदूर प्रबंधकों के समकक्ष आ बैठे हैं और निर्णायक अधिकारों में उन्हें उचित भाग प्राप्त हो चुका है; अथवा उन क्षेत्रों में कोई नवीन भावना पैदा हुई है, जो प्रबंधक तथा श्रमजीवी दोनों को प्रेरित कर रही है और उनके पारंपरिक संबंधों तथा उनके अपने-अपने कार्यों के प्रति उनके दृष्टिकोण को परिवर्तित कर पाई है, ऐसा तो कुछ भी लक्षित नहीं होता। तकनीकी और औद्योगिक विकास के चलते मजदूरों की आर्थिक स्थिति में उन्नति अवश्य हुई है; मजदूर यूनियनों की शक्ति में बड़ी वृद्धि हुई है; मंगलकारी राज्य का उदय हुआ है, परंतु इन सबको
अशोक कालीन भारतीय समाज अहिंसक अथवा करुणामय बना, ऐसा तो नहीं लगता। प्रत्यक्ष हिंसा जहां नहीं है, वहां अहिंसा है, ऐसा मानना बड़ी भूल है। शोषण, उत्पीड़न, विषमता तथा अन्य प्रकार के सामाजिक-आर्थिक अन्याय, जो राज्य की दंड-शक्ति के बल पर चलते हैं, हिंसा ही तो हैं! मिलाकर भी तो समाजवाद नहीं बनता! निष्कर्ष निकलता है कि हिंसा-शक्ति तथा दंडशक्ति, दोनों ही मानव-समाज की मूल समस्याओं को हल करने में विफल हुई हैं। किसी तीसरी शक्ति की आवश्यकता है। यही शक्ति है जिसका महावीर, बुद्ध, ईसा ने इतनी कुशलता से प्रतिपादन किया। प्रेम-अहिंसा-करुणा की शक्ति! परंतु प्रश्न यह उठता है कि जब यह शक्ति उनके समय में अथवा उनके मतावलंबियों के समाज में सामाजिक समस्याओं को हल न कर सकीं- व्यक्ति के स्तर पर वह चाहे कितनी ही सफल हुई हों- तो इस युग में उनकी सफलता की क्या संभावना है? यह एक सर्वथा समीचीन प्रश्न है। पूर्ण रूप से इसका उत्तर तो आज किसी के पास नहीं है। फिर भी परिस्थिति, अनुभव तथा विचार से इतना और ऐसा उत्तर आज प्राप्त है कि उपर्युक्त संभावना पहले से कहीं अधिक सबल हुई है। पहले की अपेक्षा सर्व-साधारण इस समय अधिक चेतनाशील हैं। उनकी इस चेतनाशीलता का एक लक्षण यह है कि हिंसा-शक्ति अथवा दंडशक्ति से जैसी भी समाज-रचना अब तक हुई है या जैसी भी राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्था उनके द्वारा कायम की गई है, उससे उन्हें संतोष नहीं है। पाश्चात्य देशों के तरुण वर्तमान सामाजिक व्यवस्था से विशेष रूप से असंतुष्ट दिखते हैं। साम्यवादी देशों
के तरुणों में भी यह असंतोष व्याप्त है। इसीलिए वर्तमान ऐतिहासिक परिस्थिति की यह मांग है कि इन दोनों शक्तियों से भिन्न किसी तीसरी शक्ति का आश्रय लिया जाए। आज की पीढ़ी के लिए यह संभव है कि वह पहले की गलतियों को न दोहराए। प्रेम आदि की शक्ति ने पूर्वकाल में एक बड़ी गलती यह की थी कि राज्य का आश्रय लेकर अपना प्रसार करना चाहा था। परिणाम उलटा हुआ। प्रेम-शक्ति पर दंडशक्ति, अहिंसा-शक्ति पर हिंसा-शक्ति तथा करुणाशक्ति पर कानून-शक्ति हावी हो गई और विनायक वानर बन गया! इस अनुभव का लाभ उठाकर हमें राज्य-सत्ता से अलग रहकर, तीसरी शक्ति का विकास करना है। इसीलिए गांधी जी ने कहा था कि अहिंसा में विश्वास करने वालों को राज्य-सत्ता में नहीं जाना चाहिए, और इसीलिए विनोबाजी ने लोक-सेवकों को राजनीतिक पक्षों में जाने की सलाह नहीं दी और राजनीति के बदले में लोकनीति की कल्पना की। पुराने अनुभव से एक सबक और सीखा जा सकता है। जहां पुराने प्रयोगकर्ताओं ने व्यक्तिगत जीवन तथा धर्म-संघों तक प्रेम आदि शक्ति को सीमित रखा, वहां हमें संकल्पपूर्वक समाज के सभी व्यवहारों तथा संस्थानों में उस शक्ति को प्रतिष्ठित
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करना है और तदनुसार प्रेमाधारित अहिंसक समाज का निर्माण करना है। इसके लिए समाज के अंदर जो अप्रत्यक्ष हिंसा निहित है, उसे उन्मूलित करना प्रत्यक्ष हिंसा को रोकने या शांत करने से अधिक महत्त्व रखता है, यह सदा ध्यान में रखना होगा। तीसरी बात यह कि पिछले अनुभवों को ध्यान में रखते हुए हम विचार करते हैं तो इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि यदि पिछली गलतियों की पुनरावृत्ति नहीं करनी है तो अपने सारे कार्यों का आधार विचार-शासन को बनाना होगा और कर्तृत्वशक्ति का पूर्ण विभाजन करना होगा। लोगों को विचार समझाना, समझाकर उनके पूर्वाग्रहों को बदलना तथा उनकी व्यक्तिगत तथा सामूहिक कर्तृत्वशक्ति को जाग्रत करना। यही हमारा सही मार्ग हो सकता है और विचार करने से ऐसी प्रतीति बनती है कि इस पद्धति से सामाजिक क्रांति का प्रयास किया जाए तो जहां पहले के प्रयोग विफल हुए, वहां नये प्रयोग सफल हो सकते हैं। वैसे, आदर्श तथा व्यवहार में जो अनिवार्य अंतर रह जाता है उतना तो रहेगा ही जितना रेखा की परिभाषा में और पतली-से-पतली रेखा में होता है। चैथी बात। आधुनिक काल में गांधीजी ने इस तीसरी शक्ति का समाज के स्तर पर जो व्यापक प्रयोग दक्षिण अफ्रीका तथा भारत में किया, उसने भी हमें महत्त्वपूर्ण पाठ सिखाए हैं। ये सब पाठ हमारे लिए नए हैं, जो पहले के प्रयोगों से उपलब्ध नहीं थे। विनोबाजी ने भी जो व्यापक प्रयोग किए हैं, उनसे भी हमें कई नए सबक मिले हैं। इनसे आगे के प्रयोगकर्ताओं को बड़ी सहायता मिलेगी। ये कुछ कारण हैं जिनसे मैं मानता हूं कि जिस कार्य में महावीर, बुद्ध, ईसा नहीं सफल हो पाए, उसमें आज हम जैसे सामान्य जन सफल हो सकते हैं। (1 सितंबर 1969)
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09 - 15 अक्टूबर 2017
भूमि समस्या का अहिंसक समाधान लोकनायक जयप्रकाश नारायण जयंती (11 अक्टूबर) विशेष
क्या हिंसा तारक सिद्ध हुई है, जैसा कि उसके बारे में विश्वास दिलाया जाता है? ऐसा नहीं है कि हम इतिहास की प्रथम हिंसक क्रांति की प्रभात-वेला में हैं। ऐसी अनेक क्रांतियां हो चुकी हैं और उनकी वह चमक बहुत धूमिल हो चुकी है, उनके प्रति विकर्षण की भावना भी पैदा हुई है
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जयप्रकाश नारायण
नोबा भावे के भूदान आंदोलन में जयप्रकाश नारायण पूरे मन से शामिल हुए थे। विनोबा के भूदान प्रयोग का सबसे बड़ा केंद्र बिहार ही था। पर इसी दौरान जेपी को यह लगने लगा कि गरीबी और भूमिहीनता का सवाल पेचीदा है और कुछ लोग इसका हिंसक समाधान भी देख रहे हैं। मुजफ्फरपुर के मुसहरी में लंबे समय तक रहकर उन्होंने शासन के रूख और भूमिहीनता के आक्रोश का अनुभव किया। अपने अनुभव से वे फिर से इस नतीजे पर पहुंचे कि गरीबी और भूमिहीनता की सरजमीनी सच्चाई भले काफी जटिल है, पर इससे पार पाने का कोई हिंसक रास्ता तो कदापि नहीं हो सकता है। अहिंसा और प्रेम की शक्ति बड़ी तो है ही यह मनुष्य और समाज के लिए हमेशा समाधानकारी और कल्याणकारी साबित हुई है। 1970 यानी आपातकाल से ठीक पांच साल पहले भूमि समस्या
और उसके समाधान के अहिंसक विकल्प की बात कह रहे हैं तो एक बात तो साफ है कि संपूर्ण क्रांति के इस महान नायक की अहिंसक निष्ठा न सिर्फ आजीवन बनी रही, बल्कि उनकी यह प्रतिबद्धता जीवन और समाज के उनके तमाम अनुभवों से और पुष्ट ही होती गई। भूमि समस्या के प्रत्यक्ष अनुभव और उसके अहिंसक समाधान को लेकर प्रस्तुत है जेपी के 1970 में कही बातों का संपादित अंशस्वयं एक ग्रामीण होने के नाते मैं ग्रामीण जीवन को प्यार करता हूं और पटना या दिल्ली जैसे नगरों की अपेक्षा अपने गांव में ही किसी दिन रहना पसंद करूंगा। इस पक्षपात के बावजूद मैं यह स्वीकार करूंगा कि गांव की जो सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताएं हैं, वे निकट से अत्यंत कुरूप दिखाई पड़ती है। वास्तविकताओं को आमने-सामने देखकर मेरी पहली प्रतिक्रिया यह हुई कि दिल्ली और पटना में की जा रही बड़ी-बड़ी घोषणाएं वास्तविक
गांधी जी अपनी योजना कार्यान्वित करने के लिए जीवित नहीं रहे। उनके जाने के बाद उनके तत्कालीन सहयोगियों ने, इस भ्रम में पड़कर कि राजनीतिक सत्ता के सहारे ही देश की समस्याओं को हल करने में वे समर्थ हो जाएंगे, उनके मार्ग पर दोबारा विचार तक नहीं किया स्थिति से कितनी दूर और अयथार्थपूर्ण हैं। बुलंद अल्फाज, शानदार योजनाएं, अनेकानेक सुधार! लेकिन किसी-न-किसी कारण वे सभी या उनमें से अधिकांश आसमान में त्रिशंकु की भांति लटके रह गए हैं और आंखों को तो बस ये ही दिखाई पड़ते हैं- घोर दारिद्रय, दुख, विषमता, शोषण, पिछड़ापन, गतिहीनता, पस्ती और निराशा! कुछ वर्ष पूर्व मैंने कहा था कि भूमि सुधार के जो कानून पहले बन चुके हैं, वे ही अगर पूरी तरह और ठीक से कार्यान्वित कर दिए जाएं तो ग्रामीण
क्षेत्र में एक छोटी-मोटी सामाजिक क्रांति हो जाएगी। इन कानूनों का लाभ उन लोगों को, जिनके लिए ये बनाए गए हैं, तब तक नहीं मिलने वाला है जब तक ग्राम-समुदाय को संगठित नहीं किया जाता तथा उसका संचालन और अधिक लोकतांत्रिक ढंग से नहीं होता। एक पिछड़े इलाके में, जहां मजदूरों की आबादी जरूरत से ज्यादा है, किसी मजदूर में इतना साहस कहां कि वह श्रम-पदाधिकारी या निरीक्षक के सामने शिकायत पेश करे! गरीब खेतिहर मजदूर अपना संघर्ष जारी नहीं रख
09 - 15 अक्टूबर 2017
यह निश्चित नहीं है कि हिंसक क्रांति हमेशा सामाजिक क्रांति की तरफ ही हमें ले जाएगी। उसमें से प्रतिक्रिया भी पैदा हो सकती है, जो अंत में एक फासिस्ट तानाशाही का रूप ले सकती है। देखिए कि नक्सलवादी हिंसा कैसे प्रतिहिंसा को जन्म देने लगी है पाता और बाध्य होकर अपने मालिक के आगे घुटने टेक देता है या भूखों मरता है अथवा गांव छोड़कर चला जाता है। ग्रामीण हिंसा में जो वृद्धि हम देख रहे हैं, वह इतने लंबे अरसे तक इन कानूनों को कार्यान्वित न कर सकने का ही अनिवार्य परिणाम है। इस हिंसा के जनक तथाकथित नक्सलवादी नहीं हैं, बल्कि वे हैं जिन्होंने लगातार इतने वर्षों तक उक्त कानूनों की अवज्ञा की है और उनके उद्देश्यों को पराजित किया है- चाहे वे राजनेता हों, प्रशासक हों, भूमिपति हों या महाजन हों। वे बड़े किसान, जिन्होंने हदबंदी कानून को बेनामी तथा फर्जी बंदोबस्तियों के जरिए धोखा दिया है; वे भद्र लोग, जिन्होंने सरकारी जमीन और गांव की सामूहिक भूमि हड़प रखी है; वे भूमिपति, जिन्होंने अपने बटाईदारों को कानूनी हक देने से हमेशा इनकार किया है और उन्हें उनकी जमीन से बेदखल किया है, जो मजदूरों को कम मजदूरी देते रहे हैं और उन्हें बासगीत भूमि से भी वंचित कर रखा है; वे व्यक्ति, जिन्होंने धोखाधड़ी या जबरदस्ती से कमजोर-वर्ग के लोगों की जमीन छीन ली है; वे तथाकथित ऊंची जाति के लोग, जो हरिजन भाइयों को हमेशा घृणा की नजर से देखते रहे हैं, उनके साथ बुरा व्यवहार करते रहे हैं तथा उनके प्रति सामाजिक भेदभाव बरतते रहे हैं; वे महाजन, जिन्होंने अत्यधिक ब्याज वसूल करते हुए गरीबों तथा कमजोरों की जमीन हथिया ली है; वे राजनेता, प्रशासक और सभी अन्य लोग जिन्होंने इन अन्यायपूर्ण कार्यों में मदद पहुंचाई है या उन्हें प्रोत्साहित किया है- ये सभी इस स्थिति के लिए
जिम्मेवार हैं! गरीबों और दलितों के मन में अन्याय, दुख और उत्पीड़न-जन्य भावना इकट्ठी हो गई है, जो अब हिंसा के रूप में बाहर निकलने का मार्ग ढूंढ रही है। इस स्थिति के लिए ये कानून की अदालतें और न्याय पाने की पद्धतियां तथा उसके लिए चुकाए जाने वाले मूल्य भी जिम्मेवार हैं, जिन्होंने हमारे समाज के दुर्बल वर्गों के साथ षड्यंत्रपूर्वक न्याय नहीं होने दिया है। फिर शिक्षा की यह व्यवस्था और नियोजन का ढंग भी जिम्मेवार है, जो अपने गलत तरीके के कारण शिक्षित, निराश और बेकार युवकों की बढ़ती हुई सेना तैयार कर रहा है और आर्थिक विषमताओं को भी बढ़ा रहा है। फिर वे राजनेता भी जिम्मेवार हैं, जिनकी स्वार्थ-साधन की भावना ने लोकतंत्र को, दलीय व्यवस्था को और उसकी विचारधाराओं को मजाक की वस्तु बना दिया है। जब स्थिति ऐसी है और जब लोकतंत्र की संस्थाएं और प्रक्रियाएं इतनी दयनीय व त्रुटिपूर्ण हैं, तो क्या आश्चर्य कि असंतोष, निराशा, क्षोभ और अभाव कुछ लोगों के दिमाग को हिंसा की तरफ मोड़ दे और वे उसको ही एकमात्र तारक शक्ति मान बैठें! लेकिन यह पूछना प्रासंगिक है कि क्या हिंसा तारक सिद्ध हुई है, जैसा कि उसके बारे में विश्वास दिलाया जाता है? ऐसा नहीं है कि हम इतिहास की प्रथम हिंसक क्रांति की प्रभात-वेला में हैं। ऐसी अनेक क्रांतियां हो चुकी हैं और उनकी वह चमक बहुत धूमिल हो चुकी है, उनके प्रति विकर्षण की भावना भी पैदा हुई है। पहली बात तो यह है कि राजनीतिक हिंसा
क्रांतिकारी और प्रतिक्रांतिकारी, दोनों हो सकती है। यह निश्चित नहीं है कि हिंसक क्रांति हमेशा सामाजिक क्रांति की तरफ ही हमें ले जाएगी। उसमें से प्रतिक्रिया भी पैदा हो सकती है, जो अंत में एक फासिस्ट तानाशाही का रूप ले सकती है। देखिए कि नक्सलवादी हिंसा कैसे प्रतिहिंसा को जन्म देने लगी है! जो लोग हिंसा का प्रचार करते हैं, उन्हें इन संभावनाओं पर विचार करना चाहिए। दूसरी बात यह है कि क्रांतियां क्रांतिकारियों की बिलकुल मर्जी पर ही नहीं हुआ करतीं। क्रांति की सफलता के लिए सामाजिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियां परिपक्व होनी चाहिए। इसमें पूरी शताब्दी लग सकती है, जैसा कि इतिहास में अक्सर हम देखते हैं। भारत में हिंसा के जो पक्षधर हैं, वे तेलंगाना के रक्तपात के समय से ही क्रांति का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन वे कहां तक आगे बढ़े हैं? हिंसक क्रांति के आयोजन में कम समय लगता है, यह एक भोली मान्यता है; इससे अधिक गलत और कोई बात नहीं हो सकती। तीसरी बात यह है कि लंबी तैयारी के बाद जब क्रांति सफल भी होती है, तो उसकी इस सफलता का क्या अर्थ होता है? उसका अर्थ इतना ही होता है कि पुरानी समाज व्यवस्था को ध्वस्त किया जा चुका है। लेकिन ध्वंस ही किसी क्रांति का लक्ष्य नहीं हो सकता। उसका लक्ष्य तो हमेशा एक नई समाज-व्यवस्था का निर्माण करना होता है, लेकिन हिंसक क्रांति के सफल होने के बाद क्रांतिकारियों को, जिनका पहला काम हमेशा यह देखा गया है कि वे सत्ता के लिए आपसी खूनी संघर्ष में पिल पड़ते हैं, अपने सपनों का समाज- जो सपने आपसी रक्तपात में बह न गए हों- बनाने में कितना समय लगता है? इतिहास में क्या ऐसी एक भी सामाजिक क्रांति हुई है, जो अपने अभीष्ट आदर्शों को प्राप्त करने में सफल हुई हो? चौथी बात, सभी क्रांतियों में केंद्रीय प्रश्न सत्ता
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का ही होता है, लेकिन सभी क्रांतियों का आयोजन जनता के लिए सत्ता प्राप्त करने के नाम पर किया जाता है। सत्ता हमेशा ही क्रांति करने वालों में से ऐसे मुट्ठी भर लोगों द्वारा हड़प ली जाती है, जो सबसे ज्यादा निर्मम होते हैं। ऐसा होना अनिवार्य ही है, क्योंकि सत्ता बंदूक की नली से निकली है और बंदूक सामान्य जनता के हाथ में नहीं, हिंसा के उन संगठित तंत्रों के हाथ में रहती है जो हर सफल क्रांति में से क्रांतिकारी सेना तथा उसकी सहायक जमातों के रूप में पैदा होते हैं। इन पर जिनका नियंत्रण होता है, उनके ही नियंत्रण में सत्ता रहती है। यही कारण है कि हिंसक क्रांति हमेशा किसी-न-किसी प्रकार की तानाशाही को जन्म देती है। इसीलिए मैं तो कहूंगा कि नहीं, हिंसा कभी तारक नहीं सिद्ध हुई है, जैसा कि पीड़ित और शोषित लोगों को समझा दिया गया है। टॉलस्टॉय की एक प्रसिद्ध उक्ति है, जिसको थोड़ा बदलकर कहा जा सकता है कि क्रांतिकारियों ने जनता के लिए सब कुछ तो किया है, केवल उसकी पीठ से उतरने का कष्ट नहीं किया है! यदि लोकशाही अक्षम सिद्ध होती है और हिंसा से भी कोई समाधान नहीं निकलता है तो फिर रास्ता क्या है? रास्ता पाने के लिए हमें गांधीजी की ओर लौटना होगा। गांधीजी अपनी योजना कार्यान्वित करने के लिए जीवित नहीं रहे। उनके जाने के बाद उनके तत्कालीन सहयोगियों ने, इस भ्रम में पड़कर कि राजनीतिक सत्ता के सहारे ही देश की समस्याओं को हल करने में वे समर्थ हो जाएंगे, उनके मार्ग पर दोबारा विचार तक नहीं किया। यदि उन्होंने वैसा किया होता और, जैसा कि गांधीजी चाहते थे, राज्य और जनता के बीच अपनी शक्तियों को विभाजित किया होता, तो स्वतंत्रता के बाद के भारत का इतिहास बहुत भिन्न होता। मैं समझता हूं उनकी कठिनाई! गांधीजी द्वारा बताया गया मार्ग परंपरागत मार्ग से मूलतः इतना भिन्न था कि उनके लिए उसका न कोई अर्थ बनता था और न वह उन्हें रुचता ही था। सफल क्रांतिकारियों द्वारा सत्ता से अलग रहने तथा जनता के स्वैच्छिक संगठन द्वारा क्रांति के लक्ष्यों को प्राप्त करने की कोशिश की बात कब किसने सुनी थी! एक मौजू सवाल यह है कि यह सब करेगा कौन? यह काम मुट्ठीभर सर्वोदय कार्यकर्ता नहीं कर सकते, सरकारी एजेंसियों और कर्मचारियों से भी यह हरगिज नहीं होने वाला है। मुख्य जिम्मेदारी ग्रामीण समुदायों को स्वयं उठानी होगी। यह नहीं होता है तो ग्रामदान और ग्राम स्वराज्य भी सामुदायिक विकास एवं पंचायती राज योजनाओं के साथ इतिहास के कूड़ेखाने में शामिल हो जाएंगे। यही मुख्य चुनौती है। चुनौती केवल हम सर्वोदय के लोगों के लिए नहीं, बल्कि सच पूछिए तो शांतिपूर्ण सामाजिक परिवर्तन एवं विकास में विश्वास रखने वाले उन सब के लिए है, जो किसी दल में हैं या दलों के बाहर हैं। हम उन शक्तियों के प्रति असावधान नहीं हैं, जिनसे हमारे काम में बाधा पहुंचने की संभावना है, लेकिन उनसे संघर्ष करने के लिए हमारे पास तर्क, विचार तथा मैत्री की भावना को छोड़ और कोई साधन नहीं है। सत्याग्रह का अंतिम साधन हमें उपलब्ध अवश्य है। (1970)
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09 - 15 अक्टूबर 2017
'तीन आना बनाम पंद्रह आना' डॉ. राम मनोहर लोहिया स्मृति दिवस (12 अक्टूबर) पर विशेष
डॉ. लोहिया एक तरफ जहां देश में समाजवादी सरोकार की राजनीति के आदर्श बने हुए हैं, वहीं देश के मौजूदा कई सवालों के हल का उनका दिखाया मार्ग आज भी प्रासंगिक बना हुआ है
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एसएसबी ब्यूरो
नेवा में लीग ऑफ नेशंस की सभा चल रही थी। वहां बीकानेर के महाराजा भारत के प्रतिनिधि के रूप में गए थे। महाराजा अंग्रेजों के समर्थक थे। जैसे ही वे बोलने के लिए खड़े हुए, दर्शकों की भीड़ से एक नौजवान ने खड़े होकर उनका विरोध किया। नौजवान का कहना था कि महाराजा को भारत को रिप्रजेंट करने का कोई हक नहीं है, क्योंकि वे वहां की जनता के हितैषी नहीं हैं। वे तो ब्रिटिश शासकों के मित्र हैं। यह शख्स राम था। डॉ. राम मनोहर लोहिया। इस घटना ने रातों-रात उन्हें भारत में मशहूर कर दिया। बाद में वे राजनीति में आए और आजादी की लड़ाई में शामिल हुए। कई लोगों की यह मान्यता है कि डॉ. लोहिया भारत की राजनीति के आखिरी विचारक राजनेता थे। डॉ. लोहिया ने विदेश से आयातित समाजवाद का भारतीयकरण किया। उन्होंने आजीवन पिछड़ों, वंचितों और स्त्रियों के हक की बात की। कई किताबें लिखीं। उनके कई भाषण देश ही नहीं, बल्कि देश से बाहर भी मशहूर हुए। वे अपने समय के दुनिया के तमाम राजनेताओं और प्रखर बौद्धिकों के साथ विभिन्न मुद्दों पर संवाद करते थे। कई वैश्विक मुद्दों पर बहस की दिशा को उन्होंने पूरी तरह बदल दिया था। समाजवाद को स्थायी मंच देने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी बनाई। वह भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी थे। संसद में भारत सरकार के अपव्यय पर की गई उनकी बहस 'तीन आना बनाम पंद्रह आना' आज भी प्रसिद्ध है। स्वभाव से फक्कड़ और जनप्रिय डॉ. लोहिया कहा करते थे, लोग मेरी बातें सुनेंगे जरूर, शायद मेरे मरने के बाद, मगर सुनेंगे जरूर। 1967 में भारत में अनेक राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें उन्हीं की देन थीं। उन सरकारों में कथित दक्षिणपंथी और वामपंथियों को एक झंडे के नीचे लाने वाले लोहिया ही थे। हालांकि उनकी असामयिक मृत्यु 1967 में ही हो गई थी, मगर उनके गैर कांग्रेसवाद के एजेंडे को बाद में उन्हीं के साथी जय प्रकाश नारायण ने 10 साल बाद 1977 में अमली जामा पहनाया।
रचनात्मक विरोध
लोहिया अपने रचनात्मक विरोध के लिए देशभर में जाने जाते थे। गांधीवादी और पंडित नेहरु के अभिन्न मित्र होने के बावजूद उन्होंने नेहरु की नीतियों का समय समय पर घोर विरोध किया। 1962 में उन्होंने नेहरु के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़ा और हारे।
ओज है। लोकसभा में लोहिया की ‘तीन आना बनाम पंद्रह आना’ बहस बहुत चर्चित रही। उस समय उन्होंने 18 करोड़ आबादी के चार आने पर जिंदगी काटने तथा प्रधानमंत्री पर 25 हजार रुपए प्रतिदिन खर्च करने का आरोप लगाया। देश आज भी लोहिया की शुद्ध संसदीय बहस का कायल है। विपक्ष ही नहीं, तत्कालीन सत्ता पक्ष के नेताओं ने भी लोहिया के तर्क पूर्ण भाषण की भूरी भूरी प्रशंसा की थी।
भावी समस्याओं की समझ
लोहिया अपने रचनात्मक विरोध के लिए देशभर में जाने जाते थे। गांधीवादी और पंडित नेहरु के अभिन्न मित्र होने के बावजूद उन्होंने नेहरु की नीतियों का समय समय पर घोर विरोध किया बाद में अपने साथियों का अनुरोध स्वीकार करते हुए उन्होंने फर्रुखाबाद से उप चुनाव लड़ा और लोकसभा में पहुंचे। लोकसभा में पहला अविश्वास प्रस्ताव पेश हुआ। अविश्वास प्रस्ताव के प्रमुख वक्ता डॉ. राममनोहर लोहिया थे। नब्बे मिनट तक डॉ. लोहिया धारा प्रवाह हिंदी में संसद में बोलते रहे। लोहिया ने कहा, ‘मेरे प्यारे प्रधानमंत्री नेहरुजी के राज में आम जनता तीन आना से कम पर ही गुजार करती है। प्रधानमंत्री के कुत्ते का खर्च तीन रुपए रोज का है। तत्कालीन मंत्री गुलजारी लाल नंदा ने पंडित नेहरु को एक पर्चा दिया जिसमें लिखा था- तीन आना नहीं पंद्रह आना। पंडित नेहरु ने अध्यक्ष की
अनुमति से हस्तक्षेप करते हुए कहा- राममनोहर, यह तीन आना नहीं पंद्रह आना है। पंडित जी को संसदीय शिष्टाचार याद आ गया। उन्होंने अपने आपको संभालते हुए कहा- माननीय सदस्य, आम आदमी की उपलब्धि तीन आना नहीं पंद्रह आना है। डॉ. लोहिया ने आंकड़े पेश करते हुए कहा, ‘पंडित जी, नंदा जी को उनके अफसर भरमा रहे हैं। आंकड़ा तीन आना ही है, पंद्रह आना नहीं। मैं नंदा जी से उनके दफ्तर में मिल कर सफाई दूंगा। अगले दिन ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पहले पेज में संपादकीय छपा। अखबार ने हिंदी में ऐसे संसदीय भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा कि हिंदुस्तानी भाषाओं में भी
साठ के दशक में ही डॉ. लोहिया ने देश की भावी समस्याओं को बखूबी समझ लिया था। इसीलिए वह कहा करते थे- गरीबी हटाओ, दाम बांधो, हिमालय बचाओ, अंग्रेजी हटाओ, नदियां साफ करो, पिछड़ों को विशेष अवसर दो, बेटियों की शिक्षा व विकास का समुचित प्रबंध हो, गरीबों के इलाज का इंतजाम हो, किसानों को उपज का लाभकारी मूल्य मिले, खेती और उद्योग में समन्वय बनाकर विकास का एजेंडा तय हो, गरीबी के पाताल और अमीरी के आकाश का फासला कम करने के जतन हों। लोहिया के उठाए मुद्दे आज भी प्रासंगिक और ज्वलंत हैं। देश की राजनीति आज भी उनके इर्द गिर्द चक्कर काट रही है। दरअसल, भारत की राजनीति में स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और उसके बाद ऐसे कई नेता आए जिन्होंने अपने दम पर राजनीति का रुख बदल दिया, उन्ही नेताओं में एक थे डॉ. राममनोहर लोहिया। वे अपनी प्रखर देशभक्ति और तेजस्वी समाजवादी विचारों के लिए जाने गए और इन्ही गुणों के कारण अपने समर्थकों के साथ-साथ उन्होंने अपने विरोधियों से भी बहुत सम्माोन हासिल किया।
प्रारंभिक जीवन
राम मनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर में हुआ था। उनकी मां एक शिक्षिका थीं। जब वे बहुत छोटे थे तभी उनकी मां का निधन हो गया था। अपने पिता से जो एक राष्ट्रभक्त थे, उन्हें युवा अवस्था में ही विभिन्न रैलियों और विरोध सभाओं के माध्यम से भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में भाग लेने की प्रेरणा मिली। उनके जीवन में नया मोड़ तब आया, जब एक बार उनके पिता, जो महात्मा गांधी के घनिष्ठ अनुयायी थे, गांधी से मिलाने के लिए राम मनोहर को अपने साथ लेकर गए। राम मनोहर गांधी के व्यक्तित्व और सोच से बहुत प्रेरित हुए तथा जीवनपर्यन्त गांधी जी के आदर्शों का समर्थन किया।
09 - 15 अक्टूबर 2017
डॉ. लोहिया ने हमेशा भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी से अधिक हिंदी को प्राथमिकता दी। उनका भरोसा था कि अंग्रेजी शिक्षित और अशिक्षित जनता के बीच दूरी पैदा करती है 1921 में वे पंडित जवाहर लाल नेहरु से पहली बार मिले और कुछ वर्षों तक उनकी देखरेख में कार्य करते रहे, लेकिन बाद में उन दोनों के बीच विभिन्न मुद्दों और राजनीतिक सिद्धांतों को लेकर टकराव हो गया। 18 साल की उम्र में युवा लोहिया ने ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित ‘साइमन कमीशन’ का विरोध करने के लिए प्रदर्शन का आयोजन किया। उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद इंटरमीडिएट में दाखिला बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कराया। उसके बाद उन्होंने 1929 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और पीएचडी करने के लिए बर्लिन विश्वविद्यालय, जर्मनी, चले गए। वहां उन्होंने शीघ्र ही जर्मन भाषा सीख लिया और उनको उत्कृष्ट शैक्षणिक प्रदर्शन के लिए वित्तीय सहायता भी मिली।
हिंदी के हिमायती
डॉ. लोहिया ने हमेशा भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में अंग्रेजी से अधिक हिंदी को प्राथमिकता दी।
उनका भरोसा था कि अंग्रेजी शिक्षित और अशिक्षित जनता के बीच दूरी पैदा करती है। वे कहते थे कि हिंदी के उपयोग से एकता की भावना और नए राष्ट्र के निर्माण से संबंधित विचारों को बढ़ावा मिलेगा। वे जात-पात के घोर विरोधी थे। उन्होंने जाति व्यवस्था के विरोध में सुझाव दिया कि ‘रोटी और बेटी’ के माध्यम से इसे समाप्त किया जा सकता है। वे कहते थे कि सभी जाति के लोग एक साथ मिल-जुलकर खाना खाएं और उच्च वर्ग के लोग निम्न जाति की लड़कियों से अपने बच्चों की शादी करें। इसी प्रकार उन्होंने अपने ‘युनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी’ में उच्च पदों के लिए हुए चुनाव के टिकट निम्न जाति के उम्मीदवारों को दिया और उन्हें प्रोत्साहन भी दिया। वे ये भी चाहते थे कि बेहतर सरकारी स्कूलों की स्थापना हो, जो सभी को शिक्षा के समान अवसर प्रदान कर सकें।
स्वाधीनता आंदोलन में योगदान
स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की उनकी बचपन से
ही प्रबल इच्छा थी, जो बड़े होने पर भी खत्म नहीं हुई। जब वे यूरोप में थे तो उन्होंने वहां एक क्लब बनाया जिसका नाम ‘एसोसिएशन ऑफ यूरोपियन इंडियंस’ रखा। जिसका उद्देश्य यूरोपीय भारतीयों के अंदर भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति जागरुकता पैदा करना था। उन्होंने जिनेवा में ‘लीग ऑफ नेशन्स’ की सभा में भी भाग लिया। यहीं उन्होंने फिरंगी सरकार की हिमायत के कारण बीकानेर के महाराजा का विरोध किया था। बाद में अपने विरोध के कारणों को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने समाचार-पत्र और पत्रिकाओं के संपादकों को कई पत्र लिखे। इस पूरी घटना ने रातों-रात राम मनोहर लोहिया को भारत में एक सुपर स्टार बना दिया। भारत वापस आने पर वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए और 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की आधारशिला रखी। 936 में पंडित जवाहर लाल नेहरु ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का पहला सचिव नियुक्त किया।
‘सत्याग्रह नाउ’
24 मई, 1939 को लोहिया को उत्तेजक बयान देने और देशवासियों से सरकारी संस्थाओं का बहिष्कार करने के लिए पहली बार गिरफ्तार किया गया, पर युवाओं के विद्रोह के डर से उन्हें अगले ही दिन रिहा कर दिया गया। हालांकि जून 1940 में उन्हें ‘सत्याग्रह नाउ’ नामक लेख लिखने के आरोप में पुनः गिरफ्तार किया गया और दो वर्षों के लिए कारावास भेज दिया गया। बाद में उन्हें दिसंबर 1941 में आजाद कर दिया गया। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 1942 में महात्मा गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद और वल्लभ भाई पटेल जैसे कई शीर्ष नेताओं के साथ उन्हें भी कैद कर लिया गया था। इसके बाद भी वे दो बार जेल गए। एक बार उन्हें मुंबई में गिरफ्तार कर लाहौर जेल भेजा गया था और दूसरी बार पुर्तगाली सरकार के खिलाफ भाषण और सभा करने के आरोप में गोवा। जब भारत स्वतंत्र होने के करीब था तो उन्होंने दृढ़ता से अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से देश के
स्मृति
विभाजन का विरोध किया था। वे देश का विभाजन हिंसा से करने के खिलाफ थे। आजादी के दिन जब सभी नेता 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली में इकट्ठे हुए थे, उस समय वे भारत के अवांछित विभाजन के प्रभाव के शोक की वजह से अपने गुरु महात्मा गांधी के साथ दिल्ली से बाहर थे।
स्वतंत्रता के बाद
आजादी के बाद भी वे राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में ही अपना योगदान देते रहे। उन्होंने आम जनता और निजी भागीदारों से अपील की कि वे कुओं, नहरों और सड़कों का निर्माण कर राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए योगदान में भाग लें। ‘तीन आना, पंद्रह आना’ के माध्यम से राम मनोहर लोहिया ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु पर होने वाले खर्च की राशि (एक दिन में 25000 रुपए) के खिलाफ आवाज उठाई। उस समय योजना आयोग के आंकड़े के अनुसार देश में प्रति व्यक्ति औसत आय 15 पंद्रह आना था। डॉ. लोहिया ने संसद के अंदर और बाहर उन मुद्दों को उठाया, जो लंबे समय से राष्ट्र की सफलता में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। उन्होंने अपने भाषण और लेखन के माध्यम से जागरुकता पैदा करने, अमीर-गरीब की खाई, जातिगत असमानताओं और स्त्री-पुरुष असमानताओं को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने कृषि से संबंधित समस्याओं के आपसी निपटारे के लिए ‘हिंद किसान पंचायत’ का गठन किया। वे सरकार की केंद्रीकृत योजनाओं को जनता के हाथों में देकर अधिक शक्ति प्रदान करने के पक्षधर थे। अपने अंतिम कुछ वर्षों के दौरान उन्होंने देश की युवा पीढ़ी के साथ राजनीति, भारतीय साहित्य और कला जैसे विषयों पर चर्चा की। डॉ. लोहिया का निधन 57 साल की उम्र में 12 अक्टूबर, 1967 को नई दिल्ली में हुआ। अपनी मृत्यु के छह दशक बाद भी डॉ. लोहिया एक तरफ जहां देश में समाजवादी सरोकार की राजनीति के आदर्श बने हुए हैं, वहीं देश के मौजूदा कई सवालों के हल का उनका दिखाया मार्ग आज भी प्रासंगिक बना हुआ है।
बापू के कहने पर छोड़ी सिगरेट
गांधी जी के टोकने के दो महीने के भीतर डॉ. लोहिया ने सिगरेट पीना छोड़ दिया। खबर गांधी जी तक पहुंची तो वे मुस्करा दिए
डॉ
. लोहिया पर गांधी जी का प्रभाव बचपन से ही था। उनके पिता भी गांधी जी से खासे प्रभावित थे और जब भी वे बापू से मिलने जाते तो साथ में उन्हें भी ले जाते। यही कारण है कि
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डॉ. लोहिया के जीवन में कई नैतिक संस्कारों के बीज काफी पहले ही पड़ गए थे। ऐसी ही एक घटना 1947 की है। हर रोज की तरह गांधी जी एक शाम प्रार्थना करने के बाद घूमने जा रहे थे। इस दौरान उनके कई शिष्य भी साथ थे, लेकिन उन्होंने डॉ. लोहिया के कंधे पर हाथ रखा और बाकी लोगों से थोड़ा हटकर टहलने निकल गए। जल्द ही बातों का सिलसिला शुरू हो गया। गांधी जी एक के बाद एक सवाल लोहिया जी से करते चले गए। जैसे- तुम सिगरेट पीते हो? तुम बहुत चाय व कॉफी भी पीते हो? इस तरह गांधी जी ने इस
बातचीत को फिर समाजवाद से जोड़ दिया और बोले, एक समाजवादी की हैसियत से तुम्हें एकरूप होना चाहिए। जो सिगरेट तुम्हें भारत में जनता से एकरूप और प्रतिनिधि नहीं बनने देगी, फिर तुम इसका समर्थन कैसे करोगे? गांधी जी प्रश्न किए जा रहे थे और लोहिया संकोचवश बस सुनते जा रहे थे। गांधी जी का हाथ लोहिया जी के कंधे पर था इसीलिए इन सवालों से बच भी नहीं सकते थे। लोहिया गांधी जी की बातों को ध्यान से सुनते रहे। काफी समय तक लगातार बोलने के बाद जब लोहिया ने किसी सवाल का
जवाब गांधी जी को नहीं दिया तो गांधी जी बोले, क्या तुम कुछ नहीं कहोगे? लोहिया चुप रहे, कुछ नहीं बोले। बस गंभीरता से सुनते रहे। अपने किसी भी प्रश्न का जवाब न पाकर गांधी जी ने लोहिया से कहा, क्या तुम मुझे बोलने से रोकना चाहते हो? इस प्रश्न पर लोहिया जी ने अपना मौन तोड़ा और कहा, ऐसी बात नहीं है किंतु मैं आज आपको कोई जवाब नहीं दे सकता। लेकिन जल्दी ही दूंगा। लगभग दो महीने बाद लोहिया जी ने सिगरेट पीना छोड़ दिया। खबर गांधी जी तक पहुंची तो वे मुस्करा दिए।
12 स्वच्छता स्वच्छता के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय पुरस्कृत 09 - 15 अक्टूबर 2017
स्वच्छता पखवाड़े के दौरान बेहतरीन योगदान के लिए यह पुरस्कार प्रदान किया गया
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आईएएनएस
द्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय को स्वच्छता पखवाड़े के दौरान बेहतरीन योगदान देने के लिए पुरस्कृत किया गया है। भारत सरकार के पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय ने स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत अंतर-मंत्रालय प्रदर्शन में इसे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया। स्वास्थ्य मंत्रालय ने 1 फरवरी से 15
फरवरी, 2017 तक स्वच्छता पखवाड़े का आयोजन किया था। स्वच्छ भारत मिशन की तीसरी वर्षगांठ पर यह पुरस्कार प्रदान किया गया। स्वास्थ्य परिवार कल्याण मंत्रालय के सचिव सी.के. मिश्रा ने यह
पुरस्कार ग्रहण किया। स्वच्छता पखवाड़ा के दौरान मंत्रालय के कार्यालयों, केंद्र सरकार के अस्पतालों, 36 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के जनस्वास्थ्य सुविधा केंद्र में स्वच्छता से जुड़ी गतिविधियां चलाई गईं। इसके अलावा जन-जागरूकता के लिए कई कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इनमें नुक्कड़ नाटक, चित्रकला प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया। इन कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में जनप्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। स्वयंसेवी संगठनों, विद्यार्थियों और समुदाय के लोगों की भागीदारी प्रशंसनीय रही। स्वच्छता पखवाड़ा के दौरान केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री जे.पी. नड्डा ने 15 फरवरी, 2017 को मंत्रालय द्वारा चलाई जा रही विशेष स्वच्छता अभियान का निरीक्षण किया। मंत्री महोदय ने मंत्रालय के स्टाफ के साथ निर्माण भवन के गलियारों की सफाई गतिविधियों में हिस्सा लिया और मंत्रालय के विभिन्न कमरों और क्षेत्रों में स्वच्छता
स्वास्थ्य मंत्रालय ने 1 फरवरी से 15 फरवरी, 2017 तक स्वच्छता पखवाड़े का आयोजन किया था
एक नजर
स्वच्छ भारत मिशन की तीसरी वर्षगांठ पर मिला पुरस्कार
सर्वश्रेष्ठ अंतर-मंत्रालय प्रदर्शन के लिए पुरस्कार
स्वास्थ्य सचिव सी.के. मिश्रा ने पुरस्कार ग्रहण किया
का जायजा लिया। मंत्रालय की विभिन्न विभागों की गैर वांछित और पुरानी फाइलों का निपटान किया गया। मंत्रालय में स्वच्छता पखवाड़ा अप्रैल, 2016 में आरंभ किया गया। स्वच्छता पखवाड़ा स्वच्छता गतिविधियों की पूर्व कार्ययोजना के लिए मंत्रालय ने पहले ही एक वार्षिक कलेंडर जारी किया। मंत्रालय ने स्वच्छता पखवाड़ा के दौरान स्वच्छता समीक्षा के तहत ऑन लाइन निगरानी प्रणाली के तहत योजना चित्र, वीडियो अपलोड किए गए, जिसमें स्वच्छता गतिविधियों की जानकारी मुहैया कराई गई, इसे शेयर भी किया गया।
मलिन बस्तियों में रहते हैं 25 करोड़ लोग विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्व एशिया-शांत क्षेत्र में सबसे ज्यादा शहरी विकास क्षेत्र हैं, लेकिन इन्हीं देशों में दुनिया की सबसे बड़ी गरीब आबादी रहती है
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आईएएनएस
श्व बैंक ने एक रिपोर्ट जारी कर कहा है कि पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में 25 करोड़ लोग खराब गुणवत्ता वाले आवास के साथ बुनियादी सुविधाओं तक सीमित पहुंच के साथ रह रहे हैं। 'शहरी गरीबों के लिए अवसरों का विस्तार' शीर्षक रिपोर्ट में पाया गया है कि पूर्व एशिया और प्रशांत क्षेत्र में सबसे ज्यादा शहरी विकास क्षेत्र हैं, लेकिन इन्हीं देशों (चीन, इंडोनेशिया और फिलीपींस के रूप में) में दुनिया की सबसे बड़ी गरीब आबादी 25 करोड़ है जो सार्वजनिक सेवाओं की कमी से जूझ रही है। इन बस्तियों में स्थिति निराशाजनक हैं, इन भीड़भाड़ वाली कॉलोनियों में रहने वाले लोग पानी, बिजली, मलजल निपटान, सार्वजनिक परिवहन और किफायती आवास की कमी से जुझ रहे हैं। विश्व बैंक ने रिपोर्ट में कहा, 'झुग्गियां' शहरी निर्मित पर्यावरण के भीतर अभाव और बहिष्कार (मौद्रिक, ढांचागत, सामाजिक और राजनीतिक) की साइटें
चिह्न्ति करती हैं और गरीबी के शहरीकरण की दिशा में एक प्रवृत्ति का संकेत देती हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शहरी विकास ने पिछले 20 सालों में पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र में लगभग 65.5 करोड़ लोगों गरीबी से उभरने में सहायता की है, लेकिन इसने असमानता की खाई को भी चौड़ा किया है। विश्व बैंक ने कहा है कि जापान, साउथ
कोरिया और सिंगापुर जैसे देशों ने न केवल शहरी बुनियादी सुविधाओं में सुधार कर गरीब लोगों की मदद की है, बल्कि अपनी अर्थव्यवस्था में वृद्धि में भी योगदान दिया है। इंडोनेशिया में शहरी आबादी का 27 प्रतिशत प्रभावी स्वच्छता सुविधाओं तक नहीं पहुंच पा रहा है, जबकि फिलीपींस में यह संख्या 21 प्रतिशत है।
विश्व बैंक के मुताबिक, शहरी गरीबों में रोजगार के अवसर और सार्वजनिक परिवहन तक पर्याप्त पहुंच की कमी है, जबकि वे प्राकृतिक आपदा जोखिम के बारे में ज्यादा उजागर हैं। पूर्व एशिया और प्रशांत में विश्व बैंक की उपाध्यक्ष विक्टोरिया कवाकवा ने कहा, ‘पूर्वी एशिया के शहरों ने इस क्षेत्र की भारी वृद्धि को बढ़ावा दिया है। हमारी सामूहिक चुनौती शहरों में सभी के लिए अवसरों का विस्तार करना है - परिधि में रहने वाले नए प्रवासियों से लेकर किराया देने के लिए संघर्ष कर रहे कारखाने में काम कर रहे श्रमिकों तक - ताकि वे शहरीकरण से अधिक लाभान्वित हों और अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने में मदद करें।’ विश्व बैंक ने रिपोर्ट में सिफारिशें की हैं, जिनमें नौकरी बाजार के साथ शहरी गरीबों को जोड़ने, शहरी नियोजन में निवेश करने, आवास सुनिश्चित करने, शहरी गरीबों में उपेक्षित उप-समूहों की मदद करने और सूचना प्रणाली में सुधार करने जैसी सिफारिशें शामिल हैं।
09 - 15 अक्टूबर 2017
स्वच्छता
स्वच्छता के लिए बच्चों की प्रभातफेरी
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महाराष्ट्र के जालना में स्कूली बच्चे स्वच्छता अभियान को गति देने में लगे हुए
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हाराष्ट्र के जालना शहर से कुछ ही दूरी पर मौजूद तीर्थ क्षेत्र राजूर और भोकरदन तहसील के पोखरी में इन दिनों मेला जैसा दृश्य उपस्थित हो रहा है। यह मेला है
स्कूली बच्चों का, जो स्वच्छता अभियान को गति देने में लगे हुए हैं। यह अभियान कई मामलों में अलग है। बच्चे साफ-सफाई तो कर ही रहे हैं, प्रभातफेरी निकालकर स्वच्छता का संदेश दे भी
रहे हैं और तीसरी सबसे बड़ी बात यह है कि वे बड़े-बुजुर्गों से मिलकर उन्हें अपने रहने के स्थान, परिसर और गली-मोहल्लों को साफसुथरा रखने के लिए प्रेरित भी कर रहे हैं। वे नन्हें मुन्ने बच्चे अपनी जुबान में बात करते हैं और स्वच्छता को जरुरी बताते हुए अमल में लाने का अनुरोध करते हैं। बच्चे घरघर जाकर शौचालयों के इस्तेमाल पर बल दे रहे हैं और बाहर खेतों-मैदानों में शौच जाने से मना कर रहे हैं, ताकि बीमारियों से बचा जा सके। इसका काफी असर भी देखा जा रहा है। उनकी इस मुहिम को समर्थन मिल रहा है। इस काम में बच्चों को पंचायतकर्मी और अधिकारियों के साथ-साथ जिला परिषद् के सदस्यों, शिक्षकों, ग्राम संगठन के बचत गट के सदस्यों और समाज सेवियों का भरपूर सहयोग मिल रहा है। वालुज में भी स्कूली बच्चों ने भी स्वच्छता अभियान चलाकर लोगों को जागरूक करने का
संकल्प लिया। इसमें उनके शिक्षकों ने भी भाग लिया। कन्नड़ नगर परिषद ने भी 25 सितम्बर से 2 अक्टूबर तक सघन स्वच्छता अभियान चलाया हुआ है। पहले चरण में नगर के सभी उद्यानों की सफाई की गई, ताकि लोग-बाग आराम से बैठ सकें, टहल सकें और बच्चे खेल-कूद सकें। उधर जालना जिले में सक्रिय सामाजिक संस्था भाईश्री फाउंडेशन ने शहर को साफ़ सुथरा रखने के ख़याल से लगभग डेढ़ सौ कूड़ेदानों का वितरण किया है। इसकी तारीफ हो रही है। इस मौके पर आयोजित कार्यक्रम में पूर्व विधायक कैलाश गोरंट्याल ने कहा कि वैसे तो शहर को साफ रखने की जिम्मेदारी नगरपालिका की होती है, लेकिन नागरिक भी इसमें पीछे नहीं रहते हैं। अधिकारियों ने लोगों से अपील की कि लोग अपने घरों के कचरे को इधर-उधर न फेंककर कूड़ेदान में ही डालें। इससे न केवल शहर को साफ-सुथरा रखा जा सकेगा, बीमारियों के फैलने को भी रोका जा सकेगा। (मुंबई ब्यूरो)
ग्रामीणों ने भिक्षुक के लिए बनाया पक्का मकान रो
बड़ेकनेरा के ग्रामीणों ने दिखाया कि आपसी सहभागिता और संवेदनशीलता से समाज के अंतिम छोर के व्यक्तियों को योजनाओं से किस प्रकार लाभान्वित किया जा सकता है
टी, कपड़ा, मकान हर व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता होती है। रोटी और कपड़ा तो आदमी किसी तरह जुटा ही लेता है, लेकिन एक पक्का मकान बनाने की क्षमता हर व्यक्ति में नहीं होती। छत्तीसगढ़ में कोंडागांव से 17 किलोमीटर दूर ग्राम पंचायत बड़ेकनेरा में भिक्षा मांगकर जीवन यापन करने वाले हीरानाथ सागर ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी वह एक पक्के मकान का मालिक बनेगा। वर्षों से पॉलिथीन लगी हुई जर्जर झोपड़ी में रहकर ठंड, गर्मी, बरसात को झेलना उनकी नियति बन चुकी थी। इसे देखकर ही गांव के ही कुछ जागरुक युवा पंचों ने पंचायत के तहत प्रधानमंत्री आवास योजना सूची में उनका नाम दर्ज करवाकर उसके लिए पक्का मकान बनाने का जिम्मा उठाया, क्योंकि निराश्रित हीरानाथ सागर स्वयं सक्षम नहीं था कि वह नाम दर्ज कराने के बाद भी मकान निर्माण कराने की पहल कर सकें। इसके साथ ही पंचायत के तकनीकी सहायक वीरेंद्र साहू ने तुरत-फुरत मकान का ले-आउट तैयार करके घर निर्माण का कार्य शुरू कर दिया। इस कार्य
एक नजर
वर्षों से पॉलिथीन लगी झोपड़ी में दिन काटने को मजबूर थे हीरानाथ युवा पंचों ने आवास योजना की सूची में उनका नाम डलवाया घर बनाने में गांव की महिला शक्ति ने भी किया योगदान
में युवा पंच प्रकाश चुरगिया ने स्वयं के चार पहिया वाहन से मकान निर्माण सामग्री का वहन किया। इस एकजुटता का परिणाम यह हुआ कि, लगभग दो महीने में एक छोटा पक्के छत वाला मकान तैयार हो गया।
स्थानीय स्व-सहायता समूह की महिलाओं ने भी अपना योगदान देते हुए मकान के रंग-रोगन का कार्य किया और इस कार्य में जनपद पंचायत सीईओ दिगेश पटेल, करारोपण अधिकारी प्रमोद कुमार साव, सचिव महेश्वर कोर्राम, उप सरपंच आनंद पवार का
भी योगदान रहा। वर्तमान में हीरानाथ सागर अपने नव निर्मित मकान में निवास कर रहै हैं और शासन की योजना की तारीफ करते हुए नहीं थकते हैं। बड़ेकनेरा के ग्रामीणों ने दिखाया कि आपसी सहभागिता और संवेदनशीलता से समाज के अंतिम छोर के व्यक्तियों को योजनाओं से किस प्रकार लाभान्वित किया जा सकता है और वास्तव में वे साधुवाद के हकदार भी हैं, जिन्होंने एक निराश्रित बेघर व्यक्ति की व्यथा को गहराई तक महसूस कर उसे छत मुहैया कराया। (आईएएनएस)
14 स्वच्छता
09 - 15 अक्टूबर 2017
शौचालय के लिए रूठा दामाद
प्रशासन ने दामाद को किया सम्मानित। अब ससुर दामाद दोनों मिल कर बनाएंगे शौचालय
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रखंड में एक शख्स ने अपने ससुराल जाने से सिर्फ इसीलिए इंकार कर दिया क्योंकि वहां शौचालय नहीं है। झारखंड के धनबाद जिले के भूली निवासी प्रमोद कुमार की गिरीडीह जिले
के जोगतियाबाद की रहने वाली एक लड़की से इस साल 15 अप्रैल को शादी हुई थी। शादी के बाद उन्होंने अपने ससुराल वालों से पूछा कि शौचालय कहां है तो उन्हें एक बर्तन देकर खेत का रास्ता
बताया गया। इस घटना से वह बहुत शर्मिंदा हुए। अपने घर आने के बाद प्रमोद ने पत्नी पर उसके मायके जाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। उन्होंने शर्त रखी वह तभी वहां आएंगे जब वहां शौचालय का निर्माण हो जाएगा। प्रमोद के ससुर जगेश्वर पासवान ने कहा, "मेरा दामाद हमसे नाखुश है, क्योंकि हमारे घर में शौचालय नहीं है। शौचालय का निर्माण होने तक उसने हमारे घर आने से इंकार कर दिया है। वह यहां आ सके इसीलिए मैंने अपने घर में शौचालय बनाने का मन बना लिया है।" आखिरकार गांधी जयंती के अवसर पर गिरिडीह जिला प्रशासन ने रूठे दामाद को मनाने की पहल शुरू कर दी। डीसी की पहल के बाद शौचालय निर्माण का रास्ता निकाला गया। समाहरणालय के सभाकक्ष में स्वच्छता ही सेवा समारोह के दौरान शौचालय निर्माण की मांग पर अड़े दामाद बीसीसीएल कर्मी प्रमोद कुमार की नाराजगी दूर करने का प्रयास किया गया।
15 दिन में बनाए 25 हजार शौचालय
खुले में शौच से मुक्त हुआ जैसलमेर प्र
राज्यपाल और मुख्यमंत्री ने लखनऊ में किया स्वच्छता के दूत का सम्मान
66,594 शौचालयों के निर्माण के साथ जैसलमेर हुआ ओडीएफ
धानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत मिशन के तहत जैसलमेर ने अपना अहम रोल अदा करते हुए जिले को खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिया है। गौरतलब है कि जैसलमेर जिले में खुले में शौच की समस्या बहुत बड़ी थी। रूढ़िवादी परंपरा के चलते ग्रामीण क्षेत्रों में घर घर में शौचालय नहीं थे। ऐसे में जिला परिषद के स्वच्छ भारत मिशन के तहत गांव गांव में शौचालय बनाने की अलख जगाई और पिछले दो सालों में युद्धस्तर पर शौचालय बनाए गए। जिले के कलेक्टर कैलाशचंद मीणा ने जैसलमेर को ओडीएफ घोषित कर दिया। उन्होंने इस संबंध में केन्द्र राज्य सरकार को पत्र भी लिखा है। जिले के जनप्रतिनिधियों में ओडीएफ की घोषणा से खुशी की लहर दौड़ गई है। जानकारी के अनुसार इस संबंध में पहले अंतर जिला और बाद में अंतर राज्य सत्यापन होगा। उसके बाद केंद्र स्तर से जैसलमेर को फाइनल तौर पर ओडीएफ घोषित कर दिया जाएगा। जैसलमेर की इस उपलब्धि पर कलेक्टर मीणा सीईओ अनुराग भार्गव ने जिलेवासियों को बधाई दी। जानकारी के अनुसार प्रदेश में जैसलमेर सहित डूंगरपूर, सिरोही,
सीकर और नागौर ने अपने अपने जिले को भी ओडीएफ घोषित किया है। जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में घर में शौचालय बनाने की परंपरा नहीं रही है। ऐसे में लोग खुले में ही शौच करते थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मिशन के बाद राजस्थान सरकार ने भी गंभीरता से इस पर काम किया और जैसलमेर जिला परिषद ने बेस लाइन सर्वे के अनुसार जिले में 66 हजार 594 शौचालय बनाकर जिले को खुले में शौच से मुक्त कर दिया। (एजंेसी)
डीसी उमाशंकर सिंह ने शौचालय की मांग पर अड़े दामाद सहित जोगटियाबाद निवासी ससुर जागेश्वर पासवान की बेटी दीपा देवी को सम्मानित किया। फिर बारी आयी शौचालय निर्माण की जिम्मेवारी उठाने की। डीसी ने प्रमोद की पत्नी दीपा पर इसकी जिम्मेदारी सौंपी। दीपा ने सकुचाते हुए कहा मायके में शौचालय का निर्माण पापा ही कराएंगे। मामले में ससुर के ना नुकुर के बाद कहा कि सीसीएल कर्मी के आवास में शौचालय का नहीं होना चिंता का विषय है। दूसरी बात ये भी है कि सरकारी नौकरी में होने के कारण जागेश्वर को सरकारी लाभ के तौर निर्धारित 12 हजार भी नहीं मिल सकता है। फिर डीसी ने ही बीच का रास्ता निकालते हुए कहा कि शौचालय निर्माण का आधा-आधा खर्च ससुर-दामाद दोनों उठाएंगे। दामाद भी नौकरी करता है, इसीलिए बहुत बड़ा बोझ नहीं होगा। मौके पर अगले दस दिनों में शौचालय निर्माण का वादा ससुर-दामाद द्वारा किया गया। (एजंेसी)
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च्छता ही सेवा अभियान के दौरान बेहतर करने वाले अधिकारियों और सामाजिक संस्थाओं को प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और राज्यपाल राम नाईक ने लखनऊ में सम्मानित किया। सम्मानित होने वालों में मेरठ से डीएम समीर वर्मा, सीडीओ आर्य अखौरी, डीपीआरओ आलोक शर्मा, शकुंतला मेमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष जितेंद्र कुमार गुप्ता का नाम मुख्य रूप से शामिल है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 15 सितंबर से 2 अक्टूबर के मध्य 'स्वच्छता ही सेवा' अभियान शुरू किया था। अभियान के पखवाड़े के दौरान स्वच्छता के लिए बेहतर करने वाले अधिकारियों
और समाज सेवी संगठनों को लखनऊ में गांधी जयंती पर सम्मानित किया। इनमें मेरठ के साथ गौतमबुद्धनगर के अधिकारी भी शामिल रहे। स्वच्छता ही सेवा अभियान के दौरान जिले में बड़े स्तर पर शौचालय निर्माण के लिए अभियान चलाया गया। इस दौरान करीब दो हजार राजमिस्त्री और मजदूरों को शौचालयों के निर्माण में लगाया गया। 15 दिन में जिले में 25 हजार नए शौचालयों का निर्माण किया गया। प्रदेश में सबसे अधिक शौचालयों का निर्माण मेरठ में होने के कारण सरकार ने अधिकारियों को सम्मानित करने का निर्णय लिया। (एजंेसी)
भोपाल में थर्ड जेंडर के लिए भी शौचालय
संक्षेप में
शौचालय के लिए बहू पहुंची थाने
09 - 15 अक्टूबर 2017
भोपाल में मंगलवारा क्षेत्र के करीब बने इस शौचालय का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लोकार्पण किया
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में एक बहू ने अपने ससुर को थाने तक इसीलिए ले गई क्योंकि घर में शौचालय नहीं है
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संक्षेप में
404 दिव्यांग शौचालय बने बोकारो में सबसे अधिक 404 दिव्यांग शौचालय बनवाने वाले डीसी राय महिमापत रे हुए सम्मानित
बो
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हार के मुजफ्फरपुर जिले के मिनापुर ब्लाक में छेग्गन (नूरा गांव) में एक बहू घर में शौचालय नहीं होने की वजह से थाने पहुंच गई। महिला पुलिस स्टेशन की प्रभारी ज्योति ने कहा कि एक औरत ने 25 सितंबर को अपने ससुर और देवर के खिलाफ लिखित शिकायत करवाई थी, जिसमें उसने बताया था कि उसके शौचालय बनवाने की प्राथनाओं को अनसुना कर दिया था। महिला अधिकारी ने आगे बताया जब कोई निपटारा नहीं हुआ तो उस महिला ने पुलिस को बताया और पुलिस दोनों पक्षों को पुलिस स्टेशन ले गई। दोनों पुलिस के सामने थे, तभी पति ने आकर शौचालय के मामले पर हस्ताक्षर किया, जिसमें उसने कहा कि वह जल्द ही अपने घर पर शौचालय का निर्माण करवाएगा। महिला अधिकारी के मुताबिक परिवार वालों का कहना है कि शौचालय बनवाने में कुछ समय और लगेगा। कुछ समय बाद उस महिला ने अपनी शिकायत वापस ले ली और सुलह कर ली (एजंेसी)
स्वच्छता
म
आईएएनएस
ध्यप्रदेश की राजधानी में शायद देश का पहला ऐसा शौचालय बना है, जो थर्ड जेंडर (किन्नर) के लिए है। मंगलवारा क्षेत्र के करीब बने इस शौचालय का मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लोकार्पण किया। इस मौके पर मुख्यमंत्री चौहान ने कहा कि प्रधानमंत्री आवास योजना में किन्नरों को आवास निर्माण के लिए केंद्र सरकार के अनुदान के अलावा राज्य सरकार की ओर से डेढ़ लाख रुपए का अनुदान दिया जाएगा। इसके अलावा राज्य सरकार शीघ्र ही किन्नर पंचायत का आयोजन करेगी। किन्नर देश के सम्मानित नागरिक हैं। प्रदेश सरकार उनका पूरा सम्मान करती है। सकारात्मक कार्यो में उनकी सेवाओं का उपयोग सरकार करेगी। मुख्यमंत्री चौहान ने कहा कि समाज में किन्नरों
की सार्थक भूमिका सुनिश्चित की जाएगी। स्वच्छता का संदेश घर-घर पहुंचाने के लिए प्रदेश में किन्नरों का सहयोग लिया जाएगा। कुपोषण को दूर करने और बेटी बचाओ अभियान के संदेश को भी सर्वव्यापी बनाने में किन्नर समुदाय का सहयोग लिया जाना चाहिए। चौहान ने कहा कि किन्नर समुदाय को बदनाम करने वाले अवांछनीय तत्वों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही के लिए प्रशासन को निर्देशित किया जाएगा। इस मौके पर किन्नर समुदाय के प्रतिनिधियों मंगलवारा के उस्ताद सुरैया नायर और बुधवारा की पल्लवी नायर को पुष्पगुच्छ भेंट कर सम्मानित किया। नगर निगम भोपाल द्वारा बनवाया गया जनसुविधा केंद्र देश एवं प्रदेश में इकलौता समावेशी जनसुविधा केंद्र है। इसमें एक ही परिसर में अलग-अलग प्रवेशद्वार से महिला, पुरुष, दिव्यांग व थर्ड जेंडर के लिए मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं।
कारो में सबसे अधिक 404 दिव्यांग शौचालय बनाए गए हैं। भारत सरकार से सम्मानित होकर रांची पहुंचने पर मुख्यमंत्री रघुवर दास ने भी डीसी राय महिमापत रे को सम्मानित किया। साथ ही डीसी को भारत सरकार की ओर से सम्मानित किए जाने पर बधाई दी। मुख्यमंत्री ने स्वच्छता कार्यक्रम के दौरान सभी सक्रिय सहयोग के प्रति भी आभार प्रकट किया है। सीएम के अनुसार स्वच्छता ही सेवा के दौरान झारखंड के सभी जिलों ने अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश की है। मुख्य सचिव राजबाला वर्मा ने बधाई देते हुए कहा है कि मुख्यमंत्री के नेतृत्व में विभाग के कामों के सतत पर्यवेक्षण और पूरी टीम की कड़ी मेहनत से आज 41 शहरी क्षेत्र तथा तीन जिले ओडीएफ हो चुके हैं। भारत सरकार पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय ‘‘स्वच्छता ही सेवा‘‘ राष्ट्रीय स्वच्छ भारत पुरस्कार 2017, स्वच्छ भारत दिवस के अवसर पर बोकारो जिला को स्वच्छता में किए गए कामों के लिए सर्वश्रेष्ठ जिला पुरस्कार प्रदान किया गया। यह पुरस्कार उपायुक्त राय महिमापत रे को जिले में दिव्यांगों के लिए अधिक संख्या में शौचालय 404 निर्माण के लिए दिल्ली में केंद्र सरकार के द्वारा विज्ञान भवन में आयोजित कार्यक्रम में दिया गया। (एजंेसी)
मप्र के सभी नगरीय निकाय खुले में शौच से मुक्त मध्य प्रदेश सरकार का दावा कि प्रदेश के सभी 378 नगरीय निकाय अोडीएफ घोषित हो चुके हैं
म
ध्य प्रदेश के सभी 378 नगरीय निकायों के खुले में शौच से मुक्त होने का सरकार ने दावा किया है। राज्य की नगरीय विकास मंत्री माया सिंह ने इस उपलब्धि पर प्रसन्नता और आम लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया है। माया सिंह ने मंगलवार को एक बयान जारी कर कहा, ‘मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में वर्ष 2018 तक मध्य प्रदेश राज्य खुले में शौच से पूर्ण रूप से मुक्ति पा लेगा। स्वच्छता अभियान से लोगों की मानसिकता में परिवर्तन आया
है, लोग अपने गांव और शहरों को स्वच्छ रखने के लिए प्रेरित हुए हैं, शौचालय का उपयोग करने की मानसिकता विकसित हुई है।’ नगरीय विकास मंत्री ने आगे कहा कि स्वच्छता सर्वेक्षण में भारत के सौ शहरों में राज्य के 22 शहरों का चुना जाना प्रदेश के लिए गौरव की बात है। सभी नगरीय क्षेत्रों में अभी तक 4 लाख 80 हजार व्यक्तिगत शौचालय बनवाए गए हैं। इस वित्तवर्ष में लगभग दो लाख व्यक्तिगत शौचालय निर्माण का
लक्ष्य है। उल्लेखनीय है कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के सफल क्रियान्वयन के लिए राज्य सरकार द्वारा निकायों को 20 प्रतिशत अनुदान तथा 30 प्रतिशत तक राशि पांच प्रतिशत ब्याज पर ऋण दिए जाने का प्रावधान है। साथ ही व्यक्तिगत शौचालय के लिए हितग्राही को 6,880 रुपए तथा सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय के लिए निकाय को 32 हजार 500 रुपए प्रति सीट का अनुदान दिया जाता है। (आईएएनएस)
16 खुला मंच
09 - 15 अक्टूबर 2017
‘यह जरूरी है कि हम ‘हमारी राष्ट्रीय पहचान’ के बारे में सोचें। इसके बिना ‘आजादी’ का कोई अर्थ नहीं है ’
अभिमत
उपराष्ट्रपति
आत्मा, विवेक और स्वच्छ भारत
-पंडित दीनदयाल उपाध्याय
ऊर्जा का ‘सौभाग्य’
एम. वेंकैया नायडू
स्वच्छ भारत विश्व के लिए भारत द्वारा दिया जाने वाला सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य है
हर घर को 2022 तक 24 घंटे बिजली देने का लक्ष्य
प्र
धानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 सितंबर को जब ‘प्रधानमंत्री सहज बिजली हर घर योजना’ (सौभाग्य) की शुरुआत की, तो यह सरकार के एक महत्वाकांक्षी और कल्याणकारी प्रोजेक्ट के साथ इस बात की भी घोषणा थी कि देश अब ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो चुका है। सौभाग्य योजना के तहत मार्च 2019 तक सभी घरों को बिजली उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है। इस योजना का फायदा उन लोगों को मिलेगा, जो पैसों की कमी के चलते अभी तक बिजली कनेक्शन हासिल नहीं कर पाए हैं। इस योजना पर 16 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा का खर्च आएगा। यह योजना उन चार करोड़ परिवारों के घर में नई रोशनी लाने के लिए है, जिनके घरों में आजादी के 70 साल के बाद भी अंधेरा है। यह सब इसलिए संभव हुआ है, क्योंकि कुछ साल पहले तक जहां सभी डिस्कॉम कंपनियां घाटे में चल रही थीं, वहीं अब प्रधानमंत्री मोदी के कुशल नेतृत्व में गंभीर बिजली संकट से गुजरने वाला देश आज बिजली निर्यात भी करने लगा है। देश में पवन ऊर्जा की दर घटकर 2.64 रू यूनिट के रिकार्ड निचले स्तर पर पहुंच गई है। नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय की ओर से भारतीय सौर ऊर्जा निगम लिमिटेड (एसईसीआई) द्वारा दूसरी पवन ऊर्जा बोली में यह दर लगाई गई है। इस वर्ष फरवरी में पहली पवन ऊर्जा बोली में लगाई गई 3.64 प्रति यूनिट की दर से यह काफी कम है। ऐसा पहली बार हुआ है कि अब देश में खपत से अधिक बिजली उत्पाद होने लगा है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुसार भारत ने पहली बार वर्ष 2016-17 ( फरवरी 2017 तक) के दौरान नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार को 579.8 करोड़ यूनिट बिजली निर्यात की, जो भूटान से आयात की जाने वाली करीब 558.5 करोड़ यूनिटों की तुलना में 21.3 करोड़ यूनिट अधिक है। ऊर्जा क्षेत्र की छोटी-छोटी समस्याओं को दूर करने के लिए लागू की गई विभिन्न योजनाओं के अच्छे परिणाम सामने आए हैं। देश के हर घर को 2022 तक चौबीसों घंटे बिजली देने का लक्ष्य है, लेकिन जिस गति से काम चल रहा है उससे अब यह प्राप्त कर लेना आसान लगने लगा है।
टॉवर
(उत्तर प्रदेश)
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हाराष्ट्र के वाशिम जिले के साईखेड़ा गांव की रहने वाली संगीता अहवाले ने अपने घर में शौचालय का निर्माण करवाने के लिए अपना मंगलसूत्र तक बेच दिया। छत्तीसगढ़ के धमतारी जिले में स्थित कोटाभारी गांव की 104 वर्ष आयु की वृद्धा कुंवर बाई ने अपने घर में शौचालय बनवाने के लिए अपनी बकरियां बेच दीं। कोलारस ब्लॉक के गोपालपुरा गांव की आदिवासी नववधू प्रियंका ससुराल में शौचालय न होने के कारण अपने माता-पिता के घर लौट आई। आंध्रप्रदेश के गुंटुर जिले की एक मुस्लिम महिला ने अपनी नई पुत्रवधू को एक शौचालय उपहार में दिया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां लड़कियों ने ऐसे घरों में शादी करने से मना कर दिया जहां शौचालय नहीं बने थे। इन सभी मामलों में महिलाएं ही आत्म सम्मान को कायम रखने के लिए नई भावना को जागृत करने में आगे रही हैं। स्कूल की छात्रा लावण्या तब तक भूख हड़ताल पर बैठी रही जब तक कर्नाटक स्थित उनके गांव हालनहल्ली के सभी 80 परिवारों में शौचालयों का निर्माण नहीं हो गया। स्वच्छ भारत की दिशा में आए बदलाव के इस भारी परिवर्तन की ये कुछ झलकियां ही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2 अक्तूबर, 2014 को शुरू किया गया स्वच्छ भारत मिशन पिछले दो वर्षों के दौरान शुरू की गई अग्रणीय पहलों में से एक है। निश्चित रूप से देश को स्वच्छ बनाने का यह विचार बिलकुल नया नहीं है। इससे पहले भी संपूर्ण स्वच्छता मिशन और निर्मल भारत अभियान
जैसे इसी प्रकार के प्रयास किए गये हैं, लेकिन इस बार इसमें इरादे और कार्यान्वयन की शक्ति के अंतर का है। इस बार व्यवहार परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित किया गया है जो शौचालयों के उपयोग के लिए बहुत जरूरी है। शौचालय बना लेना आसान है, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती यह है कि लोगों को उन्हें उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित कैसे किया जाए। यह उल्लेखनीय है कि 100 साल पहले महात्मा गांधी ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी में देश में सफाई की खराब स्थिति के बारे में अपनी आवाज उठाई थी। काशी में विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वानाथ मंदिर को जाने वाली सभी सड़कों को देखकर वे स्तंभित रह गए थे। गांधी जी ने कहा था कि स्वच्छता, राजनीतिक आजादी जितनी ही महत्त्वपूर्ण है। भारत को औपनिवेशिक शासन से आजाद हुए सात दशक हो चुके हैं, लेकिन यह देश खुले स्थानों में चारों और फैली गंदगी के अभिशाप से आजाद नहीं हुआ है। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2019 तक देश को इस गंदगी से निजात दिलाने के लिए इस मिशन की शुरूआत की। युगों-युगों से भारतीय संस्कृति और लोकाचार में आत्मा की पवित्रता पर जोर दिया है। व्यक्तिगत मुक्ति के एक साधन के रूप में आत्मा की पवित्रता की अवधारणा वास्तव में प्रकृति के साथ सद्भाव से रहने के साथ-साथ वैचारिक प्रक्रियाओं और कार्यों के सभी पहलुओं से जुड़ी है। चारों और फैले कचरे के ढेर, खुले में कूड़ा करकट फेंकने, नहरों और नदियों को प्रदूषित
प्रधानमंत्री ने पहले ही दिन मुझसे कहा कि स्वच्छ भारत मिशन को केवल सरकारी कार्यक्रम ही नहीं, बल्कि जन-आंदोलन बनाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। हमने इस दिशा में ठोस प्रयास किए हैं
09 - 15 अक्टूबर 2017 करने, अवरूद्ध सीवर और नाले, बढ़ते हुए जल और वायु प्रदूषण, पेड़ों और वनों की कटाई, आत्मा की पवित्रता से प्रेरित जीवन की पवित्रता के अनुरूप नहीं हैं। स्वच्छ भारत मिशन का उद्देश्य लोगों के सोचने की प्रक्रियाओं और कार्यों के रुख और विश्वास में बदलाव लाकर आत्मा और प्रकृति के बीच सद्भाव बहाल करना है। ये सभी आशय व्यावहारिक संशोधन और समग्र विकास अनुरूप हैं। खुले में शौच करना, ठोस और तरल अपशिष्ट प्रबंधन स्वच्छ भारत के लक्ष्यौ को साकार करने के लिए दो महत्त्वपूर्ण घटक हैं। खुले में शौच ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आम चिंता का विषय है, जबकि अपशिष्ट प्रबंधन शहरी क्षेत्रों की प्रमुख चिंता है। सफाई की खराब स्थिति के कारण होने वाली बीमारियों के कारण गरीबों के ऊपर विशेष रूप से पड़ने वाले आर्थिक बोझ के संबंध में स्वास्थ्य के बारे में सबसे प्रमुख चिंता यह है कि स्वच्छ शहरों सहित पूरे देश को खुले में शौच से मुक्त बनाना आज समय की मांग है। व्यावहारिक परिवर्तनों में शौचालय उपयोग की आदत को बढ़ावा देने, खुले में गंदगी न फैलाने, स्त्रोत पर ठोस कचरे को अलगअलग करने, खाने से पहले हाथ धोने जैसे व्यवहारों को स्वच्छता आदत में शामिल करने, रिहायशी और कार्य स्थल तथा सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ बनाए रखने, लोक स्वच्छता प्रबंधन में जनभागीदारी, पार्क रख-रखाव को शामिल किया जाएगा। वास्तव में रिहायशी और सार्वजनिक स्थलों की स्वच्छता को सभी नागरिकों के लिए चिंता का विषय बनाना होगा। स्वच्छ भारत के जारी प्रयासों की सफलता के केंद्र में लोगों को इस विषय में संवेदी बनाना है। असमान विकास पर तीखी टिप्पणी के अतिरिक्त खुले में शौच अपने सम्मान को नकारना है। बाध्यता के कारण यह लोगों की आदत बन गई है। शौचालय बनाने का अवसर मिलने पर कोई भी खुले में शौच करना नहीं चाहेगा। इस व्यवहार का कोई औचित्य नहीं है। शहरी क्षेत्रों में तो यह और अपमानजनक है। यह जानकर प्रसन्नता होती है कि धीमी शुरुआत के बाद स्वच्छ भारत मिशन ने गति हासिल की है और आगे इसकी गति बनाई रखी जाएगी, ताकि देश गंदगी की पीड़ा से मुक्त हो सके। हम गर्व के साथ विश्व को 2019 तक स्वच्छ भारत कह सकते हैं। स्वच्छ भारत मिशन की वर्षगांठ के मौके पर स्वच्छता का अलख जगाने और स्वच्छ भारत का संकल्प लेने के लिए देश के विभिन्न भागों में अभियान और गतिविधियां चलाई जा रही हैं। प्रधानमंत्री ने पहले ही दिन मुझसे कहा कि स्वच्छ भारत मिशन को केवल सरकारी कार्यक्रम ही नहीं, बल्कि जनआंदोलन बनाना सुनिश्चित किया जाना चाहिए। हमने इस दिशा में ठोस प्रयास किए हैं। हम इस जन अभियान में लोगों की भागीदारी, सभी वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए लोगों तक पहुंचे हैं। जारी स्वच्छ भारत कार्यक्रम में अब राज्यपाल, मुख्यमंत्री, विभिन्न स्तरों पर निर्वाचित जन प्रतिनिधि, उद्योग संस्थान, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की जानीमानी हस्तियां शामिल हो गई हैं। आत्मा की शुद्धता के भारतीय मूल्य के परिप्रेक्ष्य में लोग शौचालय बनाने के लिए अपनी संपत्ति बेच रहे हैं। अब इस अभियान ने जनस्वरूप ले लिया है। स्वच्छ भारत अब सपना नहीं रहेगा।
लीक से परे
प्रियंका तिवारी
खुला मंच
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लेखिका युवा पत्रकार हैं और देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखती हैं
लक्ष्यहीन होना दृष्टिहीन होने से भी बुरा
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‘दृष्टिहीनों की प्रगति में मुख्य बाधा दृष्टिहीनता नहीं, बल्कि दृष्टिहीनों के प्रति समाज की नकारात्मक सोच है’- हेलेन केलर
क यूनानी कहावत है कि दुनिया उतनी ही है, जितनी आपके आंखों के आगे है। महान यूनानी दार्शनिक सुकरात ने इस कहावत को अपनी तरह से बदला और कहा कि आंखें हैं तो जहान है। वैसे सुकरात ने इस बात को दार्शनिक अंदाज में कहा था, पर इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि दृष्टि बाधित लोगों के लिए जीवन की चुनौतियां आम लोगों के मुकाबले काफी बढ़ जाती है। वैसे आम अनुभव यह बताता है कि दृष्टि बाधित लोगों में जहां गजब की बोधगम्यता होती है, वहीं वे कुछ असामान्य किस्म के गुणों से संपन्न होते हैं। इतिहास में विकलांगता के बावजूद अनुपम उपलब्धियां हासिल करने वाली महान विभूतियों की कमी नहीं, परंतु दृष्टिहीनता एवं बधिरता जैसी दोहरी विकलांगता के बावजूद न केवल अपना जीवन सफल बनाया, बल्कि अपने जैसे लाखों लोगों के लिए भी कार्य कर सबके लिए प्रेरक मिसाल बन जाने वाले व्यक्तियों के उदाहरण के रूप में हेलेन केलर का नाम प्रमुखता से आता है। ‘दृष्टिहीनों की प्रगति में मुख्य बाधा दृष्टिहीनता नहीं, बल्कि दृष्टिहीनों के प्रति समाज की नकारात्मक सोच है’- यह वक्तव्य उसी महान स्त्री हेलेन केलर के हैं, जिन्होंने दृष्टिहीन एवं बधिर होने के बावजूद अध्ययन, लेखन एवं रचनाशीलता से अन्य क्षेत्रों में अद्भुत मिसाल कायम की। हेलेन के शब्दों में यूनानी कहावत को कहेंगे तो कहना होगा कि दृष्टिहीन होने से ज्यादा खतरनाक है, लक्ष्यहीन होना। दिव्यांगता के बावजूद उनकी विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर विंस्टन चर्चिल ने हेलेन को अपने युग की सर्वाधिक महान स्त्री की संज्ञा दी थी। हेलन
विश्व दृष्टि दिवस (12 अक्टूबर) पर विशेष
हेलेन केलर के मित्रों एवं प्रशंसकों की सूची में मार्क ट्वेन, विंस्टन चर्चिल, चार्ली चैपलिन जैसे विश्वविख्यात नाम शामिल हैं केलर का पूरा नाम हेलेन एडम्स केलर है। उनका जन्म संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित अलबामा प्रांत के उत्तर-पश्चिमी इलाके के छोटे से कस्बे टसकम्बिया में 27 जून 1880 को हुआ था| मात्र 19 माह की आयु में उन्हें एक ऐसी बीमारी ने जकड़ लिया, जिसका इलाज उन दिनों संभव नहीं था और जिसके परिणाम स्वरूप एक दिन उनकी मां को यह अहसास
संग्रहणीय अंक
सुलभ स्वच्छ भारत का गांधी जयंती विशेषांक पढ़ने के बाद मैं खुद को पत्र लिखने से रोक नहीं पायायह संग्रहणीय अंक है। गांधीजी के संबंध में इतनी जानकारी आजकल कहीं किसी पत्र पत्रिका में मिलती नहीं। इस हिसाब से आप ऐतिहासिक काम कर रहे हैं। गंभीर संपादकीय दृष्टि और समझ के बगैर इस तरह के अंक नहीं निकाले जा सकते। इसके लिए आपकी टीम को साधुवाद। आपने पहले भी कई विधेषांक प्रकाशित किए हैं। सारे विशेषांक एक से बढ़ कर एक हैं। विशेषांकों की यह ज्ञानवर्द्धक सिलसिला आगे भी जारी रहना चाहिए। ऐसी मेरी अपेक्षा है। दुर्गेश सिन्हा, गोमती नगर , लखनऊ
हुआ कि उनकी नन्ही बच्ची की दृष्टि एवं श्रव्य-शक्ति जा चुकी है। उनकी बीमारी इस हद तक गंभीर हो चुकी थी कि उनके माता-पिता को हेलेन का बचना असंभव लगता था। दृष्टि एवं श्रव्य-शक्ति खोने के बाद हेलेन का बचपन न केवल संघर्षपूर्ण, बल्कि कष्टमय भी हो गया था। वह काफी चिड़चिड़ी एवं तुनकमिजाज भी हो गई थीं| एक अच्छे विशेषज्ञ डॉक्टर ने हेलेन को कुछ दिनों तक देखने पर पाया कि वे अपने रसोइए के इशारों को आसानी से समझ लेती थीं। डॉक्टर ने हेलेन को मूक-बधिर बच्चों के विशेषज्ञ एक स्थानीय व्यक्ति से मिलने की सलाह दी| ये विशेषज्ञ थे- अलेक्जेंडर ग्राहम-बेल, जिन्होंने टेलीफोन का आविष्कार किया था| बेल ने उन्हें पर्किन्स इंस्टीट्यूट फॉर द ब्लाइंड जाने की सलाह दी| इस तरह जीवन के संघर्षों के बीच से रास्ता निकालते हुए हेलेन एक विश्व-प्रसिद्ध वक्ता एवं लेखक बनीं | हेलेन केलर की लिखी कुल 12 पुस्तकें एवं कई आलेख प्रकाशित हुए| उन्होंने दृष्टिहीनों के लिए समर्पित संस्था के लिए 44 वर्षों तक काम किया| विकलांगों की सहायता के लिए उन्होंने विश्व के 39 देशों की यात्रा की| उनके मित्रों एवं प्रशंसकों की सूची में मार्क ट्वेन, विंस्टन चर्चिल, चार्ली चैपलिन जैसे विश्वविख्यात नाम शामिल हैं| हेलेन केलर से एक बार पूछा गया कि दृष्टिहीन होने से भी बुरा क्या हो सकता है, तब उन्होंने कहा था, ‘लक्ष्यहीन होना दृष्टिहीन होने से भी बुरा है| यदि आपको अपने लक्ष्य का पता नहीं है तो आप कुछ नहीं कर सकते हैं|’
स्वच्छता मिशन में अग्रणी भूमिका
प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छता मिशन में सुलभ स्वच्छ भारत भी अग्रणी भूमिका निभा रहा है। इस समाचार पत्र ने स्वच्छता मुहिम से जुड़े सभी तथ्यों को बड़ी ही सरलता के साथ प्रस्तुत किया है, जिससे लोगों को देश में चल रही स्वच्छता की इस से जुड़ने की प्रेरणा मिलती रहे। इस अंक की कवर स्टोरी “गांधी का आदर्श मोदी का संकल्प” काफी उम्दा लेख रहा। इस लेख में लेखक ने लिखा है कि सरकार ने स्वच्छता को भारतीय समाज का एक कोर एजेंडा बना दिया है... जो कि धरातल पर दिख रहा है। मैं भी लेखक के इस कथन से सहमत हूं और लेखक को ऐसे प्रखर लेखन के लिए साधुवाद देता हूं। नागेश त्रिपाठी, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश
18 फोटो फीचर
09 - 15 अक्टूबर 2017
महापुरुष की स्मृति
पंडित दीनदयाल उपाध्याय शताब्दी समारोह का भव्य आयोजन दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में हुआ। समारोह पंडित दीनदयाल जी के व्यक्तित्व की तरह ही भव्य और गरिमापूर्ण था फोटो ः शिप्रा दास
09 - 15 अक्टूबर 2017
फोटो फीचर
समारोह के दौरान कई सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हुए। समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भाजपा के तमाम बड़े नेता मौजूद थे। यह कार्यक्रम वर्ष भर चले पंडित दीनदयाल उपाध्याय शताब्दी समारोह का भव्य समापन था
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20 स्वास्थ्य 12 लाख गर्भवती महिलाओं को मिलेगा पौष्टिक भोजन 09 - 15 अक्टूबर 2017
'मथरु पूर्णा' योजना के तहत कर्नाटक की गर्भवती महिलाओं को पोषण की खुराक, परामर्श और अन्य मातृत्व लाभ आंगनवाड़ियों के जरिए दिए जाएंगे
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र्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 'मथरु पूर्णा' योजना को हरी झंडी दिखाई है। इस योजना के तहत करीब 12 लाख गर्भवती महिलाओं के साथ स्तनपान कराने वाली माताओं को पौष्टिक भोजन प्रदान किया जाएगा। मुख्यमंत्री ने योजना की शुरुआत करते हुए कहा, ‘इस योजना का उद्देश्य महिलाओं और बच्चों के अंदर कुपोषण को कम करना है।’ सिद्धारमैया ने कहा, ‘इस योजना के तहत महिलाओं को पोषण की खुराक, परामर्श और अन्य मातृत्व लाभ आंगनवाड़ियों के जरिए दिए जाएंगे।’ राज्य सरकार ने वित्त वर्ष 2017-2018 के लिए कर्नाटक के सभी 30 जिलों में इस योजना को लागू करने के लिए 302 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है। कर्नाटक सरकार के मुताबिक गर्भवती महिलाओं को गर्म पकाया हुआ भोजन जिसमें चावल, पत्तेदार सब्जियां, सांबर के साथ दाल, 200 मिलीलीटर दूध,
एक नजर
योजना का उद्देश्य महिलाओं और बच्चों के कुपोषण को कम करना कर्नाटक में योजना के लिए 302 करोड़ रुपए का प्रावधान
पौष्टिक भोजन 25 दिनों के लिए उपलब्ध कराए जाएंगे
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 'मथरु पूर्णा' योजना की शुरुआत करते हुए कहा, ‘इस योजना का उद्देश्य महिलाओं और बच्चों के अंदर कुपोषण को कम करना है’
उबला हुआ अंडा, अंकुरित फलियां महीने में 25 दिनों के लिए उपलब्ध कराई जाएंगी। दरअसल, प्रदेश में महिला और बाल विकास मंत्रालय के पूरक और पोषण कार्यक्रम के बावजूद कर्नाटक में मातृ एवं बाल स्वास्थ्य संकेतकों में सुधार दक्षिण भारत के दूसरे राज्यों की तुलना में धीमा रहा है। इस सुस्ती के कारण ही प्रदेश में 'मथरु पूर्णा' योजना को शुरू किया गया है। इस योजना के जरिए गर्भवती महिलाओं में एनीमिया के प्रसार को कम करने की कोशिश करते हुए राज्य में गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के औसत दैनिक सेवन और अनुशंसित आहार भत्ते के बीच की खाई को पाटने का लक्ष्य रखा गया है। आंगनवाड़ी महिलाओं को भी इस योजना के तहत लाभ मिलेगा। (आईएएनएस)
कम किया जा सकता है। कॉफी में कई यौगिक पाए जाते हैं, जो कैफीन और एंटीऑक्सीडेंट समेत शरीर की कोशिकाओं के साथ तालमेल बिठा लेते हैं। वहीं वैज्ञानिकों का मानना है कि इनमें से कुछ यौगिकों का सुरक्षात्मक प्रभाव पड़ता है। शोधकर्ताओं ने बताया कि कॉफी में एंटीऑक्सिडेंट्स, एंटीकार्किनोजेनिक और अन्य फायदेमंद गुण पाए जाते हैं, जो पुराने से पुराने जिगर की बीमारी और यकृत कैंसर का खतरा
कम कर सकते हैं। अध्ययन में 19, 896 लोगों को शामिल किया गया था, जिनकी औसत उम्र 37.7 वर्ष थी। दस साल के फॉलो-अप के दौरान, 337 प्रतिभागियों की मृत्यु हो गई। उनमें जिन लोगों की उम्र 45 साल थी उन्हें प्रति दिन 2 कप कॉफी अधिक पिलाई गई जिससे उनमें मृत्युदर का जोखिम 30 प्रतिशत तक कम हो गया। (एजेंसी)
स्वास्थ्य शोध
चार कप कॉफी बढ़ाएगी आपकी उम्र
कॉफी में एंटीऑक्सिडेंट्स, एंटीकार्किनोजेनिक और अन्य फायदेमंद गुण पाए जाते हैं, जो पुराने से पुराने जिगर की बीमारी और यकृत कैंसर का खतरा कम करने में समक्ष होते हैं
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एसएसबी ब्यूरो
दि आप लंबे समय तक जीवित रहना चाहते हैं तो प्रत्येक दिन 4 कप कॉफी का सेवन कीजिए। ऐसा हम नहीं एक रिसर्च में कहा गया है। निष्कर्षों से पता चला है कि जो लोग प्रति दिन कम से कम चार कप कॉफी का सेवन करते हैं, उनमें मृत्यु की संभावना 64 प्रतिशत तक कम हो जाती है और वहीं 2 कप कॉफी प्रति दिन पीने से 22 प्रतिशत तक मृत्युदर कम हो जाती है। स्पेन के डी नवारो अस्पताल के
कार्डियोलॉजिस्ट एडेला नवारो ने कहा कि कॉफी दुनिया भर में सबसे अधिक खपत पेय पदार्थों में से एक है। हमने कॉफी पीने वाले लोगों, विशेषकर 45 वर्ष और उससे अधिक लोगों के मृत्युदर में कमी पाई, जिसके परिणाम बार्सिलोना में यूरोपीय सोसायटी ऑफ कार्डियोलॉजी कांग्रेस में प्रस्तुत किए गए थे। पिछले अध्ययनों से पता चला है कि एक दिन में पांच कप कॉफी पीने से प्राथमिक जिगर के कैंसर के जोखिम को कम किया जा सकता है और एक दिन में तीन कप से ज्यादा कॉफी पीने से प्रोस्टेट कैंसर के जोखिम को भी
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नवजात शिशुओं के संक्रमण और मृत्यु दर में गिरावट
स्वास्थ्य
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लैंसेट पत्रिका के ताजा अध्ययन में कहा गया है कि राष्ट्रीय स्वास्थ मिशन के अंतर्गत प्राथमिकता के रूप में तय स्थितियों का बहुत गहरा प्रभाव मृत्युमें गिरावट में दिखा
एक नजर
एसएसबी ब्यूरो
डायरिया के देसंशक्रमेंमणनवजातऔर जन्मशिशुओंके समयमें निमोनिया, दम घुटने से मृत्यु की
दर में भारी गिरावट आई है। लैंसेट पत्रिका के ताजा अध्ययन में कहा गया है कि राष्ट्रीय स्वास्थ मिशन के अंतर्गत प्रथमिकता के रूप में तय स्थितियों का बहुत गहरा प्रभाव मृत्यु में गिरावट में दिखा। निमोनिया और डायरिया से होने वाली मृत्यु में 60 प्रतिशत से अधिक (कारगर इलाज के कारण) की गिरावट आई। जन्म संबंधी सांस की कठिनाई और प्रसव के दौरान अभिघात से होने वाली मृत्यु में 66 प्रतिशत ( अधिकतर जन्म अस्पतालों में होने के कारण) की कमी आई। खसरे और टिटनेस से होने वाली मृत्यु में 90 प्रतिशत (अधिकतर विशेष टीकाकरण अभियान के कारण) की कमी आई। अध्ययन में निकले परिणाम बताते हैं कि स्वास्थ मंत्रालय द्वारा उठाए गए रणनीतिक कदम के लाभ दिखने शुरू हो गए हैं और कम गति से आगे बढ़ने वाले राज्यों पर फोकस करने के प्रयास सफल हो रहे हैं। अध्ययन में कहा गया है कि नवजात शिशु कि मृत्यु दर (1000 प्रति जन्म ) में 2000 के 45 शिशुओं से 2015 में 27 हो गई (3.3 प्रतिशत वार्षिक गिरावट) और 1-59 महीने के बच्चों की मृत्यु दर 2000 के 45.2 से गिरकर 2015 में 19.6 रह गई (5.4 प्रतिशत वार्षिक गिरावट)। 1-59 महीने के बच्चों के बीच निमोनिया से होने वाली मृत्यु) में 63 प्रतिशत की कमी आई। डायरिया से होने वाली मृत्युु में 66 प्रतिशत तथा खसरे से होने वाली मृत्यु में 90 प्रतिशत से अधिक कमी आई। यह गिरावट लड़कियों में रही। लड़कियों में गिरावट संकेत देता है कि भारत में लड़के और
नवजात शिशु कि मृत्यु दर 2015 में 27 हो गई खसरे और टिटनेस से होने वाली मृत्यु में 90 प्रतिशत की कमी निमोनिया तथा डायरिया से होने वाली मृत्युु में भी कमी
अध्ययन में निकले परिणाम बताते हैं कि स्वास्थ मंत्रालय द्वारा उठाए गए रणनीतिक कदम के लाभ दिखने शुरू हो गए हैं और कम गति से आगे बढ़ने वाले राज्योंे पर फोकस करने के प्रयास सफल हो रहे हैं लड़कियों की मृत्यु दर समान है। यह पिछले कुछ वर्षों की तुलना में काफी सुधरी स्थिति है। 1-59 माह के बच्चों में निमोनिया तथा डायरिया से होने वाली मृत्यु में 2010 व 2015 के बीच महत्त्वपूर्ण कमी आई। यह कमी राष्ट्रीय वार्षिक गिरावट को 8-10 प्रतिशत के औसत से रही। गिरावट विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों और गरीब राज्यों में दिखी।
द
लैंसेट पत्रिका के ताजा अंक में प्रकाशित अध्ययन ‘इंडिया मिलियन डेथ स्टडी’ ऐसा पहला अध्ययन है जिसको प्रत्यक्ष रूप से भारत में बच्चों की कारण विशेष मृत्यु में हुए बदलावों का अध्ययन किया गया है। इसे भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा लागू किया गया है और इसमें 2000-15 के बीच के अकस्मात चुने गए घरों को शामिल करते हुए राष्ट्रीय
और उपराष्ट्रीय रूप में बच्चों की कारण विशेष मृत्युु का अध्ययन किया गया है। मिलियन डेथ स्टडी में प्रत्यक्ष रूप से 1.3 मिलियन (13 लाख) घरों में मृत्युृ के कारणों की प्रत्यक्ष मॉनिटरिंग की गई। 2001 से 900 कर्मियों द्वारा सभी घरों में रह रहे लगभग एक लाख लोगों के साक्षात्कार लिए गए जिनके बच्चों की मृत्यु हुई थी (लगभग 53,000 मृत्यु जीवन के पहले महीने में हुई तथा 1-59 महीनों में 42,000 मृत्यु)। मृत्यु की मॉनिटरिंग में स्थानीय भाषा में आधे पन्ने0 में बीमारी के लक्षण और उपचार की जानकारी के साथ साधारण दो पन्नों का एक फार्म तैयार किया गया। रिकार्डों का डिजिटलीकरण किया गया है। इसमें विश्वा स्वास्थ्य संगठन द्वारा स्वीकृत प्रक्रियाओं का उपयोग करते हुए 400 प्रशिक्षित चिकित्सकों में से दो चिकित्सकों द्वारा स्वतंत्र रूप से मृत्यु के कारण को एकरूपता के साथ कोड किया गया है। यह प्रत्यक्ष अध्ययन है जो परिवारों के साथ आमने-सामने के साक्षात्कार पर आधारित है। यह अध्ययन छोटे नमूने लेकर मॉडलिंग और प्रोजेक्शन पर आधारित नहीं है।
बहुत फायदेमंद है 20-30 मिनट की पावर नैप दोपहर में एक छोटी सी झपकी आपके शरीर के संचालन तंत्र को नई स्फूर्ति से भर देता है
क्षिणी यूरोप में दोपहर में नैप या सिएस्ता की परंपरा लंबे समय है, लेकिन कामकाज के आधुनिक माहौल में पावर नैप कहीं खो चुकी है। अब कई जगह इसे आलस्य से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन यह धारणा गलत है। असल में दोपहर के आस पास शरीर का थकना और एकाग्रता में कमी आना बहुत ही सामान्य जैविक
प्रक्रिया है। ऐसा शरीर की बायोरिदम के चलते होता है। कई लोगों को दोपहर बाद जम्हाइयां भी आने लगती हैं। इसी वजह से स्पेन, पुर्तगाल और इटली समेत कई देशों में दोपहर में एक छोटी सी झपकी मारना आम आदत है। वैज्ञानिकों के मुताबिक पावर नैप से दिल की बीमारी होने का खतरा कम होता है। एकाग्रता बेहतर होती है। साथ ही शरीर में सेरोटॉनिन
की बढ़ी मात्रा से मूड भी बढ़िया रहता है। लेकिन पावर नैप कितनी लंबी हो। इसका जवाब है 20 से 30 मिनट। एक घंटे से ज्यादा तो यह किसी कीमत पर नहीं होनी चाहिए, क्योंकि उससे शरीर की जैविक घड़ी प्रभावित होगी और रात की नींद में खलल पड़ेगा। हालांकि यह बात बच्चों पर लागू नहीं होती है। (एजंेसी)
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तीन वैज्ञानिकों को चिकित्सा का नोबेल इन वैज्ञानिकों को यह पुरस्कार जैवचक्रीय आवर्तन कार्य या शरीर की आंतरिक घड़ी के काम करने के तरीके का खुलासा करने के लिए दिया गया है
मेरिका के तीन वैज्ञानिकों को फिजियोलोजी या चिकित्सा के क्षेत्र में 2017 का नोबेल पुरस्कार दिया गया है। इन वैज्ञानिकों को यह पुरस्कार जैवचक्रीय आवर्तन कार्य या शरीर की आंतरिक घड़ी के काम करने के तरीके का खुलासा करने के लिए दिया गया है जिससे डॉक्टरों को सोने के पैटर्न, खाने के व्यवहार, हार्मोन बहाव, रक्तचाप और शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी। पुरस्कार समिति ने सोमवार को एक बयान में यह जानकारी दी। वैज्ञानिक जेफ्री सी. हॉल, माइकल रोसबाश और माइकल वी. यंग को मानव जैव घड़ी (ह्यूमन बॉयलोजिकल क्लॉक) और इसके आंतरिक कार्य पर प्रकाश डालने के लिए यह पुरस्कार दिया गया। विजेता पुरस्कार के रूप में 825000 ब्रिटिश पाउंड साझा करेंगे। नोबेल समिति के मुताबिक, ‘उनके खोज बताते हैं कि कैसे पौधे, जानवर और मनुष्य अपना जैविक लय अनुकूल बनाते हैं ताकि यह धरती के बदलाव के साथ सामंजस्य बैठा सके।’ बयान के अनुसार, फल मक्खियों को मॉडल जीव के रूप में प्रयोग करते हुए, वैज्ञानिकों ने एक जीन की खोज की है जो प्रतिदिन के सामान्य जैविक आवर्तन को नियंत्रित करता है। यह जीन 'पीइआर' प्रोटीन
भौ
एक नजर
ये तीन वैज्ञानिक हैं हॉल, रोसबाश और वी. यंग
विजेता पुरस्कार के रूप में 825000 ब्रिटिश पाउड ं साझा करेंगे नई खोज से शरीर के तापमान नियंत्रित करने में मदद मिलेगी
का निर्माण करती है और जैसे ही 'पीइआर' का स्तर बढ़ता है यह अपने जेनेटिक निर्देशों को बंद कर देता है। उनकी खोज इस बात का खुलासा करती है कि यह जीन प्रोटीन को इनकोड करती है जो रात में कोशिका में एकत्रित होता है और दिन के दौरान इसका क्षरण हो जाता है।इस खोज से जैविक घड़ी के मुख्य क्रियाविधिक
सिद्धांत स्थापित हुए हैं जिससे हमें सोने के पैटर्न, खाने के व्यवहार, हार्मोन बहाव, रक्तचाप और शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी। हमारी जीवनशैली और बाहरी पर्यावरण की वजह से इस जैविक घड़ी में दीर्घकालिक अप्रबंधन रहने से कई लोगों में बीमारियों का खतरा बढ़ जाता
नोबेल विजेता तीनों वैज्ञानिकों के खोज बताते हैं कि कैसे पौधे, जानवर और मनुष्य अपना जैविक लय अनुकूल बनाते हैं ताकि यह धरती के बदलाव के साथ सामंजस्य बैठा सके
है। यहां तक कि इस वजह से विभिन्न समय खंडों (टाइम जोन) में यात्रा करने वाले यात्रियों को भी जेट लैग यानी अस्थायी भटकाव का सामना करना पड़ता है। हेल का जन्म न्यूयार्क और रोसबाश का कंशास सिटी में हुआ और दोनों ने ब्राडियास विश्वविद्यालय में एक साथ काम किया। वहीं मियामी में जन्मे माइकल यंग ने रॉकफेलर विश्वविद्यालय में काम किया है। पिछले वर्ष यह पुरस्कार जापानी कोशिका जैव वैज्ञानिक योशिनोरी आहसुमी को प्रदान किया गया था। उन्हें यह पुरस्कार कोशिका से जुड़े 'ऑटोफेगी' की खोज के लिए प्रदान किया गया था। (आईएएनएस)
भौतिकी का नोबेल भी तीन वैज्ञानिकों को
गुरुत्वीय तरंगों की खोज करने के लिए तीन वैज्ञानिकों वीस, बेरिश और थोर्न को भौतिकी विज्ञान का नोबेल देने की घोषणा
तिकी विज्ञान के क्षेत्र में अमेरिका के तीन वैज्ञानिकों रैनर वीस, बैरी सी बेरिश और किप्स एस थोर्न को संयुक्त रूप से भौतिकी विज्ञान का नोबेल पुरस्कार दिया जाएगा। नोबेल पुरस्कार कमेटी ने ये घोषणा की कि गुरुत्वीय तरंगों की खोज करने के लिए इन तीनों को यह पुरस्कार दिया जाएगा। इन तीनों वैज्ञानिकों ने लेजर इंर्टफेरोमीटर ग्रैविटेशनल-वेव ऑब्जर्वेटरी (लिगो) डिटेक्ट्र और गुरुत्वा्कर्षण तरंगों के अध्यफयन के लिए संयुक्त रूप से यह सम्मासन दिया जाएगा। नोबेल कमेटी ने बताया कि इस साल यह पुरस्कार उस खोज के लिए दिया गया है, जिसने पूरी दुनिया को चौंका दिया। राइनर वाइस मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से जुड़े हैं, जबकि बैरी बैरिश और किप थोर्ने कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से जुड़े हैं। गुरुत्वीय तरंगों की खोज में इन तीनों वैज्ञानिकों की अहम भूमिका थी। कई महीनों के बाद जब इस खोज का एलान किया गया था तब ना सिर्फ भौतिक विज्ञानियों में, बल्कि आम लोगों में भी सनसनी फैल गई
एक नजर
राइनर वाइस मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से जुड़े हैं बैरिश और थोर्ने कैलिफोर्निया इसं ्टीट्यूट से संबद्ध हैं
इन तीनों वैज्ञानिकों ने आइंस्टाइन के सिद्धांत को सच साबित किया
थी। इन तीनों वैज्ञानिकों ने गुरुत्वीय तरंगों के अस्तित्व का पता लगाया और अल्बर्ट आइंस्टाइन के सदियों पुराने सिद्धांत को सच साबित किया। ये तीनों वैज्ञानिक लेजर इंटरफेरोमीटर ग्रैविटेशनल वेव ऑब्जर्वेशन यानी लीगो रिसर्च प्रोजेक्ट से जुड़े थे, जिसने आंस्टाइन के ग्रैविटेशनल रिलेटिविटी के सिद्धांत को सच साबित करने में सफलता पाई। नोबेल फाउंडेशन की ओर से
स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल की याद में यह पुरस्कार दिया जाता है। साल 1901 से यह पुरस्कार देना शुरू किया गया था. नोबेल पुरस्कार शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन, चिकित्सा विज्ञान और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में दिया जाने वाला विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार है। इस पुरस्कार के रूप में विजेताओं को प्रशस्ति-पत्र के साथ 14 लाख डालर की राशि प्रदान की जाती है।
1901 से अभी तक चिकित्सा के क्षेत्र में कुल 214 लोगों को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें से केवल 12 महिलाएं हैं, जिनमें से केवल एक महिला बार्बरा मेकक्लिंटन ने यह पुरस्कार किसी के साथ शेयर नहीं किया। इन्हें साल 1983 में इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। अभी तक किसी भी भारतीय को चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला है। (आईएएनएस)
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नोबेल
काजुओ इशिगुरो को साहित्य का नोबेल
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स्वीडिश अकादमी ने अपनी घोषणा में कहा कि इशिगुरो ने अपने उपन्यासों में दुनिया के साथ हमारे जुड़ाव की अवास्तविक भावना के नीचे के शून्य को दिखाया है
अकादमी के अनुसार ‘द रिमेन्स ऑफ स्वीडिश द डे’ उपन्यास के लिए मशहूर ब्रिटिश
एक नजर
लेखक काजुओ इशिगुरो को इस वर्ष के साहित्य नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है। अकादमी ने अपनी घोषणा में कहा कि 62 साल के लेखक ने ‘शानदार भावनात्मक प्रभाव वाले उपन्यासों में दुनिया के साथ हमारे जुड़ाव की अवास्तविक भावना के नीचे के शून्य को दिखाया है।’ इशिगुरो ने आठ किताबें और साथ ही फिल्म एवं टेलीविजन के लिए पटकथाएं भी लिखी हैं। उन्हें 1989 में ‘द रिमेन्स ऑफ दि डे’ के लिए मैन बुकर प्राइज जीता था। जापान के नागासाकी में जन्मे इशिगुरो पांच साल की उम्र में अपने परिवार के साथ ब्रिटेन चले गए थे और वयस्क होने पर जापान की यात्रा की। उनका पहला उपन्यास ‘अ पेल व्यू ऑफ दि हिल्स’ (1982) और दूसरा उपन्यास ‘ऐन आर्टिस्ट ऑफ दि
उनका पहला उपन्यास ‘अ पेल व्यू ऑफ दि हिल्स’ (1982) और दूसरा उपन्यास ‘ऐन आर्टिस्ट ऑफ दि फ्लोटिंग वर्ल्ड’ (1986) दोनों द्वितीय विश्वयुद्ध के कुछ सालों के बाद के नागासाकी की पृष्ठभूमि पर आधारित है
काजुओ इशिगुरो को 62 साल की उम्र में मिला यह सम्मान
द्वितीय विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि पर लिखे दो उपन्यास दस दिसंबर को स्टॉकहोम में मिलेगा नोबेल सम्मान
फ्लोटिंग वर्ल्ड’ (1986) दोनों द्वितीय विश्वयुद्ध के कुछ सालों के बाद के नागासाकी की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। अकादमी ने कहा, ‘इशिगुरो को सबसे ज्यादा जिन विषयों के साथ जोड़ा जाता है, वे यहां पहले से ही मौजूद हैं स्मृति, समय और आत्म विमोह।’ अकादमी के अनुसार, ‘यह उनके सबसे मशहूर उपन्यास ‘द रिमेन्स ऑफ दि डे’ में खासतौर पर
दिखता है, जिस पर बनी फिल्म में एंथनी होपकिंस ने काम को लेकर बेहद समर्पित रसोइए स्टीवेंस की भूमिका निभायी थी।’ अकादमी की तरफ से कहा गया, ‘इशिगुरो की रचनाओं में अभिव्यक्ति का एक संयमित माध्यम दिखता है जो घटनाक्रमों से अप्रभावित होता है।’ नोबेल निर्णायक मंडल के अनुसार लेखक की मशहूर रचनाओं में 2005 में आई किताब ‘नेवर लेट मी गो’ शामिल है, जिसमें उन्होंने
अपनी रचना में साइंस फिक्शन के ‘धीमे अंतर्प्रभाव’ को पेश किया। 2015 में आए उनके नवीनतम उपन्यास ‘द बरिड जाइंट’ में ‘एक गतिशील तरीके से दिखाया गया है कि स्मृति का विस्मृति, इतिहास का वर्तमान और फंतासी का वास्तविकता से क्या संबंध है।’ दिलचस्प है कि इशिगुरो इस साल के नोबेल की रेस में सबसे आगे चल रहे साहित्यकारों में शामिल नहीं थे, उनकी किताबों का प्रकाशन करने वाली ‘फेबर एंड फेबर’ ने ट्विटर पर लिखा, ‘हम काजुओ इशिगुरो के नोबेल पुरस्कार जीतने को लेकर बेहद खुश हैं।’ नोबल पुरस्कार के साथ 90 लाख क्रोनर (11 लाख डॉलर) की राशि दी जाती है। इशिगुरो को 10 दिसंबर को स्टॉकहोम में एक औपचारिक समारोह में पुरस्कार दिया जाएगा।
आईकैन कैंपेन को नोबेल शांति पुरस्कार आईकैन को यह पुरस्कार दुनिया को परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की भयावहता से परिचित कराने के लिए दिया गया
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रमाणु हथियारों को खत्म करने वाले अंतरराष्ट्रीय अभियान (आईकैन) को इस साल शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है। नॉर्वे की नोबेल कमिटी के मुताबिक आईकैन को यह पुरस्कार दुनिया को परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के बाद भयावह परिस्थितियों से अवगत कराने के लिए उसके प्रयासों की वजह से दिया गया है। इस बार नोबेल शांति पुरस्कार की दौड़ में पोप फ्रैंसिस, सऊदी के ब्लॉगर रैफ बदावी, ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जावेद जरीफ भी शामिल थे। स्वीडिश अकादमी ने पुरस्कार की घोषणा के समय कहा कि हम इसके जरिए सभी परमाणु हथियार संपन्न देशों को यही संदेश देना चाहते हैं कि अगर वे इसका इस्तेमाल करते हैं तो यह कितना विनाशकारी साबित हो सकता है। अकादमी ने कुल 300 नामांकनों में से आईकैन को इस साल के शांति पुरस्कार के लिए चुना है। पुरस्कार की घोषणा ओसलो में की गई।
एक नजर
नोबेल शांति पुरस्कार की दौड़ में सऊदी के ब्लॉगर रैफ बदावी भी थे 300 नामांकनों में चुना गया आईकैन कैंपेन का नाम
पुरस्कार के माध्यम से एटमी होड़ समाप्त करने की कोशिश
हालांकि घोषणा के समय यह नहीं बताया कि इस पुरस्कार के लिए किनके नामों पर विचार किया गया, लेकिन यह बताया गया कि पुरस्कार के लिए 215 लोगों और 103 संस्थाओं को नामांकित किया गया था।
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बाल विवाह और दहेज के खिलाफ अभियान इस अभियान के अंतर्गत बिहार सरकार अगले वर्ष 21 जनवरी को एक मानव श्रृंखला का आयोजन करेगी
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आईएएनएस
हार में बाल विवाह और दहेज के खिलाफ सोमवार को एक बड़ा अभियान शुरू किया गया। इस अभियान के अंतर्गत राज्य सरकार अगले वर्ष 21 जनवरी को एक मानव श्रृंखला का आयोजन करेगी। महात्मा गांधी की 148वीं जयंती समारोह के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने नवनिर्मित बापू सभाघर में राज्यव्यापी अभियान शुरू किया। इस मौके पर उन्होंने बाल विवाह और दहेज के खिलाफ लड़ने के लिए मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, सरकारी अधिकारियों और अन्य लोगों सहित 5,000 से ज्यादा लोगों को शपथ दिलाई। नीतीश कुमार ने कहा, ‘यह राज्य में बाल विवाह और दहेज के खिलाफ लड़ने की शुरुआत भर है। हम आने वाले वर्षों में बाल विवाह एवं दहेज मुक्त बिहार को सुनिश्चित करने के लिए अभियान को तेज करेंगे और पुलिस, शिक्षकों सहित सरकारी अधिकारियों, पांच लाख से अधिक महिला स्वयं सहायता समूहों, नागरिक समाज संगठनों सहित लोगों को भी शामिल करेंगे।’ इस वर्ष जनवरी में राज्य में निषेध और व्यसन के समर्थन में दुनिया की सबसे बड़ी मानव श्रृंखला बनाने वाले नीतीश कुमार ने कहा, ‘हम अगले साल जनवरी में बिहार में बाल विवाह और दहेज के खिलाफ एक मानव श्रृंखला बनाएंगे। बिहार अब बाल विवाह और दहेज के खिलाफ मानव श्रृंखला बनाकर एक और उदाहरण पेश करेगा। यह देश के अन्य राज्यों को भी प्रेरित करेगा।’ बिहार महिला जागरुकता के मामले में पिछड़ा माना जाता है पर मौजूदा मुख्यमंत्री के अब तक कार्यकाल में यहां महिला सशक्तिकरण के लिए कई उल्लेखनीय पहल हुई है। अपने इन प्रयासों के बारे में नीतीश कुमार ने कहा, ‘हमने पंचायत चुनाव
एक नजर
महात्मा गांधी की 148वीं जयंती पर मुख्यमंत्री ने की अभियान की घोषणा बाल विवाह और दहेज के खिलाफ 5,000 से ज्यादा लोगों ने ली शपथ महिला विकास निगम और समाज कल्याण विभाग का अभियान
बिहार सरकार इस अभियान से जुड़े लोगों से जानकारी का आदान-प्रदान करने के लिए सोशल मीडिया, विशेषकर फेसबुक और ट्विटर का इस्तेमाल करेगी। वह एसएमएस भेजेगी और जागरूकता पैदा करने के लिए व्हाट्सएप का उपयोग भी करेगी में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण, लड़कियों के लिए साइकिल और समान योजनाएं, पुलिस कांस्टेबल नौकरी में महिलाओं के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण, सभी सरकारी नौकरियों में 35 प्रतिशत आरक्षण समेत बिहार में महिला सशक्तिकरण के लिए कई उपायों की शुरुआत की।’ उन्होंने कहा कि भरोसा है कि जनता, पुलिस
सहित सरकारी अधिकारी, छह लाख से ज्यादा स्वयं सहायता समूहों और नागरिक समाज संगठनों के सक्रिय समर्थन से हम अगले एक साल में बाल विवाह और दहेज मामलों की संख्या को कम कर सकेंगे। नीतीश कुमार ने लोगों से बाल विवाह में भाग न लेने और दहेज लेने वालों के विवाह का बहिष्कार करके समाज में एक मजबूत संदेश देने
के लिए कहा। उन्होंने कहा, ‘ऐसे लोगों को अलग करने का यह सबसे अच्छा तरीका है, जो बाल विवाह और दहेज कृत्यों का उल्लंघन करते हैं।’ महिला विकास निगम ने समाज कल्याण विभाग के साथ मिलकर इस अभियान के लिए अगले छह महीनों के लिए रोड मैप तैयार किया है। बिहार सरकार इस अभियान से जुड़े लोगों से जानकारी का आदान-प्रदान करने के लिए सोशल मीडिया, विशेषकर फेसबुक और ट्विटर का इस्तेमाल करेगी। वह एसएमएस भेजेगी और जागरूकता पैदा करने के लिए व्हाट्सएप का उपयोग भी करेगी। गौरतलब है बाल विवाह के खिलाफ कड़े कानून होने के बावजूद यह बिहार में काफी प्रचलित है। खासकर बिहार के ग्रामीण इलाकों में यह कुप्रथा बड़े स्तर पर फैली हुई है। वर्तमान में, राज्य में बाल विवाह की घटनाएं 39.1 प्रतिशत है। कुछ वर्ष पहले तक बिहार में होने वाले कुल विवाह में से करीब 69 प्रतिशत बाल विवाह होते थे। लेकिन हाल ही में हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 में खुलासा हुआ कि लड़कियों की शिक्षा पर जोर के कारण पिछले 10 सालों में यह आंकड़ा घटा है।
‘लोटा बंदी’ अभियान हुआ सफल
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हाराष्ट्र सरकार का दावा है कि खुले में शौच पर राज्य को 88 प्रतिशत सफलता हासिल हुई
है। यह इसीलिए संभव हो पाया, क्योंकि सरकार ने शौचालय बनाने में निधि की कोई कमी नहीं होने दी। खुले में जो लोग शौच करने जाते थे, उन्हें पहले समझाया गया और फिर कड़ाई का नियम लागू किया गया। हालांकि अभी भी कुछ क्षेत्रों में लोग लोटा लेकर बाहर जाने की आदत को छोड़ नहीं पा रहे हैं, लेकिन उम्मीद है कि अगले कुछ महीनों में उसपर भी काबू पा लिया जाएगा।
खुले में शौच को नियंत्रित करने में सफलता पर केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र को अब्बल बताया है और इसके लिए चार पुरस्कारों से नवाजा भी गया है। बड़े-बड़े शौचालयों के निर्माण और सामान्य जनों को निधि उपलब्ध कराने के कारण सरकार को यह सफलता हासिल हुई है। घर में शौचालय बनाने के लिए 14 हजार रुपए का अनुदान दिया जा रहा है। तेरह जिले और 384 शहर खुले में शौच से मुक्त हो गए हैं। इसके लिए 43 लाख शौचालयों का निर्माण किया गया। इस पर अभी तक तीन हजार करोड़ की राशि खर्च हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छता
अभियान को सफल बनाने के लिए कई कार्यक्रम हाथ में लिए गए, जिनमें लोटा बंदी प्रमुख था। राज्य के स्वच्छता मंत्री बबन राव लोनेकर का कहना है कि अब तक जो भी लक्ष्य हासिल किया गया है, वह जनसहयोग और प्रशासन की मेहनत का नतीजा है। अभी भी जिन इलाकों में लोटा लेकर खुले में जाने के आदत बनाए हुए हैं, उनपर कड़ी निगरानी की जा रही है। लोटा लेकर जाने वालों का लोटा जब्त कर उसका सरे बाजार नाम के साथ नीलामी की जा रही है। इससे वैसे लोगों को शर्मशार होना पड़ रहा है। (मुंबई ब्यूरो)
जयपुर शौचालय निर्माण में तीसरे स्थान पर
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'स्वच्छ भारत अभियान' के तहत व्यक्तिगत शौचालयों के निर्माण में जयपुर पूरे देश में तीसरे स्थान पर पहुंच गया है
एक नजर
आईएएनएस
अभियान' की भावना को साकार 'स्व च्छकर भारत 'सुहावणो जैपुर' की परिकल्पना के
साथ कदमताल करते हुए जयपुर जिला पूरे देश में इस अभियान की शुरुआत से अब तक व्यक्तिगत शौचालयों के निर्माण की दृष्टि से तीसरे स्थान पर पहुंच गया है। जहां तक राज्य स्तर की बात है, जयपुर गत वित्तीय वर्ष में भी सबसे अधिक शौचालय का निर्माण कर प्रदेश में पहले स्थान पर था, चालू वर्ष में भी अब तक की उपलब्धि के आधार पर वह प्रदेश के सभी जिलों से आगे है। जिला कलक्टर सिद्धार्थ महाजन ने बताया कि स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत वर्ष 2013-14 में हुई थी, पूरे भारत में तब से लेकर अब तक कुल व्यक्तिगत शौचालय निर्माण की उपलब्धि को देखा जाए तो इसमें जयपुर जिला समूचे देश में 5 लाख 40 हजार 785 शौचालयों के निर्माण के साथ तीसरे स्थान पर है। उन्होंने कहा कि जयपुर से आगे पश्चिम बंगाल के 24 परगना (5 लाख 98 हजार शौचालयों का निर्माण) तथा मुर्शिदाबाद (5 लाख 95 हजार 728) जिले हैं। ज्ञातव्य है कि पश्चिम बंगाल के जिलों का जनसंख्या घनत्व 1029 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, इसके मुकाबले राज्य के जिलों का औसत घनत्व
201 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है। जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में भी बिखरी हुई आबादी के कारण घरों में व्यक्तिगत शौचालयों का निर्माण मुश्किल और अधिक चुनौतीपूर्ण है। जयपुर जिले में अभियान के तहत अब तक बनाए गए शौचालयों की संख्या (5,40,785) में तो प्रदेश के कई जिले पूरी तरह खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) हो गए होते। जयपुर में बने शौचालय की इस संख्या में भरतपुर (कुल लक्ष्य-2,89,714) एवं चितौड़गढ़ (लक्ष्य-2,32,887) अथवा डूंगरपुर (2,85,395) एवं टोंक (2,08,321) या जैसलमेर (56,594) एवं व बाड़मेर (3,59,670) जैसे जिलों के समूह पूरी तरह 'ओडीएफ' हो जाते हैं। जयपुर में जितने शौचालय बने हैं, उतने में जैसलमेर जैसा जिला करीब 9 बार, चितौड़गढ़ जिला करीब 2 बार और टोंक जिला भी 2 बार 'ओडीएफ' हो जाता। महाजन ने बताया कि जयपुर जिले ने एक बार फिर वर्ष 2017-18 में अब तक की उपलब्धि के आधार पर पूरे देश में ग्रामीण क्षेत्र में कुल व्यक्तिगत शौचालयों के निर्माण की दृष्टि से भी उल्लेखनीय प्रदर्शन किया है। चालू वित्तीय वर्ष के पहले 6 महीनों में सर्वाधिक शौचालयों का निर्माण करने वाले जिलों में जयपुर एक लाख 17 हजार 785 शौचालयों का निर्माण करते हुए आंधप्रदेश के नैल्लोर (लगभग 2 लाख 12 हजार शौचालयों
जयपुर गत वित्तीय वर्ष में भी सबसे अधिक शौचालय का निर्माण कर प्रदेश में पहले स्थान पर था, चालू वर्ष में भी अब तक की उपलब्धि के आधार पर वह राजस्थान के सभी जिलों से आगे है
'सुहावणो जैपुर' की परिकल्पना को साकार करने पर जोर
जयपुर जिले में 5 लाख 40 हजार 785 निजी शौचालयों का निर्माण जयपुर से आगे पश्चिम बंगाल के 24 परगना और मुर्शिदाबाद जिले
का निर्माण) एवं गुजरात के दाहोद (1,20,601 शौचालय) जिलों के बाद देश के अन्य सभी जिलों से आगे तीसरे स्थान पर हैं। उन्होंने बताया कि वर्ष 2016-17 में भी जयपुर जिला देशभर में एक साल में कुल शौचालयों के निर्माण की दृष्टि से पश्चिम बंगाल के चार जिलों मुर्शिदाबाद, साउथ 24 परगना, मिदनापुर वेस्ट और कूच बिहार के बाद सबसे आगे रहा था, इस वर्ष जयपुर नैल्लोर एवं दाहोद के बाद पांचवे से तीसरे स्थान पर पहुंच गया है। महाजन ने बताया कि जयपुर जिले में 5 लाख 80 हजार 310 शौचालयों के निर्माण के लक्ष्य की तुलना में वर्ष 2013-14 से लेकर अब तक 5 लाख 40 हजार 785 शौचालयों का निर्माण हुआ है, इसमें से 68 प्रतिशत उपलब्धि गत एक वर्ष के दौरान हासिल की गई है। अब जिले की ग्राम पंचायतों में करीब 40 हजार शौचालय का निर्माण किया जाना शेष है। जिले की शेष ग्राम पंचायतों में 14 नवंबर तक बचे हुए शौचालयों का निर्माण पूर्ण कर लिया जाएगा। उन्होंने बताया कि सितम्बर 2016 से सितम्बर 2017 की अवधि में जिले में 3 लाख 40 हजार शौचालयों का निर्माण स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) के तहत किया गया है, जो प्रदेश में एक कीर्तिमान है।
स्वच्छता
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स्वच्छता अभियान में 80 लाख ने हिस्सा लिया ‘स्वच्छता ही सेवा’ पखवाड़े के दौरान देशभर में साढ़े तीन लाख से ज्यादा अभियान चलाए गए हैं
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द्रीय आवास एवं शहरी विकास मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने कहा कि पिछले महीने की 15 तारीख को आरंभ हुए ‘स्वच्छता ही सेवा’ पखवाड़े के दौरान देशभर में स्वच्छता का एक बड़ा अभियान चलाया गया, जिसमें देश के शहरी हिस्सों में 80 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया है। उन्होंने कहा कि साढ़े तीन लाख से ज्यादा अभियान चलाए गए हैं। पुरी ने देश की राजधानी में सीवर की सफाई के दौरान सफाई कर्मचारियों की मृत्यु पर गहरा दुख व्यक्त किया है। दिल्ली के इंडिया गेट में सीपीडब्ल्यूडी द्वारा आयोजित ‘स्वच्छता ही सेवा’ अभियान के दौरान उन्होंने सीवरों की मशीनों द्वारा सफाई की आवश्कता पर बल दिया। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग द्वारा आयोजित इस समारोह में स्वच्छता, चित्रकला प्रतियोगिता के विजेताओं को पुरस्कार देने के बाद उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित करते हुए पुरी ने असुरक्षित और मानव द्वारा सीवरों की सफाई किए जाने पर गहरी चिंता व्यक्त की। पुरी ने कहा कि उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मुलाकात कर इस इस मामले पर बात की थी। उन्होंने कहा कि उनके मंत्रालय द्वारा दिल्ली के तीन निगमों को स्वीकृत की गई 300 करोड़ रुपए की राशि का एक बड़ा हिस्सा मशीनों द्वारा सीवर सफाई के कार्य में खर्च किया जाएगा। पुरी ने कहा कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली विश्व के बड़े शहरों में है। इसे इसके स्टेटस के अनुरूप स्वच्छ करने की आवश्यकता है। केंद्रीय लोक निर्माण विभाग के महानिदेशक अभय सिन्हा ने कहा कि संगठन कार्बन फूटप्रिंट को कम करने के लिए ऊर्जा आधारित निर्माण सुनिश्चित करने के लिए नई निर्माण टेक्नोलॉजी पर बल दे रहा है, ताकि स्वच्छ और सुरक्षित पर्यावरण बना रहे। उन्होंने बताया कि सीपीडब्ल्यूडी ने लगभग 20 करोड़ रुपये की लागत से महानदी कोल फील्ड में 1200 शौचालय बनवाए हैं। इस मौके पर हरदीप सिंह पुरी ने स्वच्छता पर अपने विचारों को रंगों के माध्यम से व्यक्त करने वाली दिव्यांग छात्रा आकांक्षा को पुरस्कृत किया। (आईएएनएस)
26 गुड न्यूज विकास के पथ पर अग्रसर है पूर्वोत्तर डॉ. जितेन्द्र सिंह से मुलाकात की 09 - 15 अक्टूबर 2017
अरुणाचल प्रदेश के छात्रों के एक दल ने आज यहां केन्द्रीय पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास, प्रधानमंत्री कार्यालय, कार्मिक, जन शिकायत, पेंशन, परमाणु ऊर्जा और अंतरिक्ष राज्य मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह से मुलाकात की
न
रेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार की प्राथमिकता पूर्वोत्तर क्षेत्र है। पूर्वोत्तर के लिए विभिन्न पहलों को उजागर करते हुए, केंद्रीय पूर्वोत्तर विकास राज्य मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह ने कहा कि सरकार ने
मा
पूर्वोत्तर में रेल, सड़क और वायु संपर्क को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न कदम उठाए हैं। उन्होंने कहा कि ईटानगर में नए हवाई अड्डे का निर्माण जल्द शुरू होने वाला है। डॉ. जितेन्द्र सिंह ने कहा कि
अरुणाचल प्रदेश में दूसरे भारतीय फिल्म और प्रशिक्षण संस्थान (एफटीआईआई) की स्थापना की जाएगी, पहला फिल्म संस्थान पुणे, महाराष्ट्र में है। उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए क्षेत्र आधारित सड़क विकास योजना ‘‘पूर्वोत्तर सड़क क्षेत्र विकास योजना’’ (एनईआरएसडीएस) की शुरूआत की जा चुकी है, ताकि ऐसी सड़कों का रखरखाव, निर्माण और उन्नयन किया जा सकें, जो दो राज्यों को आपस में जोड़ने वाली सड़कों के कारण उपेक्षित रहती हैं, बिना स्वामित्व के रहने के परिणामस्वरूप उन्हें ‘‘अनाथ सड़कें’’ कहा जाता है। डॉ. जितेन्द्र सिंह ने कहा कि पूर्वोत्तर राज्यों में पर्यटन को बढ़ावा देने को प्राथमिकता दी जा रही है। सरकार की ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ के बारे में उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर क्षेत्र की संस्कृति, जीवन शैली और खान-पान की आदतें पड़ोसी देशों से मिलती हैं। उन्होंने कहा कि इस बात को ध्यान में रखते हुए पूर्वोत्तर राज्यों को ऐसे उत्पादों के निर्माण पर ध्यान देना चाहिए, जिन्हें बाजार में स्थान मिल सके और पूर्वोत्तर राज्यों में व्यापार को बढ़ावा मिले।
इंग्लैंड में 14 साल का प्रोफेसर
इंग्लैंड की लीसेस्टर यूनिवर्सिटी में ईरानी मूल का 14 साल का याशा एस्ले गणित का प्रोफेसर है
त्र 14 साल की उम्र में बच्चों को गलियों या ग्राउंड में खेलते देखना आम बात है, लेकिन किसी 14 साल के बच्चे को यूनिवर्सिटी जाते देखना और वहां जाकर अपने से बड़े बच्चों की क्लास लेना कुछ खास होने की कहानी बयां करता है। जी हां, वाकया इंग्लैंड की लीसेस्टर यूनिवर्सिटी का है जहां ईरानी मूल का 14 साल का मुस्लिम किशोर यूनिवर्सिटी में गणित का प्रोफेसर बन बच्चों की क्लास ले रहा है। इस मुस्लिम किशोर का नाम है याशा एस्ले, जो लीसेस्टर यूनिवर्सिटी में बतौर अतिथि शिक्षक के रूप में चयनित हुआ है। इतना ही नहीं, वह इस यूनिवर्सिटी में छात्रों को पढ़ाने के साथ यहां से अपनी डिग्री भी ले रहा है। यूनिवर्सिटी ने उसकी इस काबिलियत को देखते हुए उसे सबसे कम उम्र के छात्र और सबसे कम उम्र के प्रोफेसर का उपनाम दिया है। याशा के पिता मूसा एस्ले उसकी इस काबिलियत पर गर्व करते हैं और रोजाना उसे अपनी कार से
छोड़ने यूनिवर्सिटी जाते हैं। याशा की गणित में बहुत रुचि है, गणित में अविश्वसनीय ज्ञान को देखते हुए उसके अभिभावकों ने उसे ‘मानव कैल्कुलेटर’ नाम दे रखा है। याशा अपनी डिग्री कोर्स खत्म करने के करीब है और जल्द ही पीएचडी शुरू करने वाला है।
याशा कहते हैं कि उन्होंने 13 साल की उम्र में यूनिवर्सिटी से इस बारे में संपर्क किया था। यूनिवर्सिटी ने उनकी कम उम्र को देख सवाल किए, लेकिन जब जवाब उम्मीदों से आगे मिले तो गणित पैनल उनके ज्ञान को देखकर अंचभित हो गया, जिसके बाद यूनिवर्सिटी ने याशा को अतिथि शिक्षक के रूप में नियुक्त किया। यूनिवर्सिटी को ईरानी मूल के याशा को अतिथि शिक्षक का पद देने के लिए मानव संसाधन विकास विभाग से विशेष अनुमति लेनी पड़ी। यूनिवर्सिटी ने जब यह अनुमति लीसेस्टर परिषद के सामने रखी तो परीषद को यकीन ही नहीं हुआ कि 14 साल के किसी बालक के पास इतना
पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय द्वारा युवाओं से जुड़ी पहलों के बारे में डॉ. जितेन्द्र सिंह ने कहा कि दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में पूर्वोत्तर के छात्रों के लिए बराक छात्रावास और बेंगलूरू में पूर्वोत्तर की लड़कियों के लिए छात्रावास की आधारशिला रख दी गई है। उन्होंने बताया कि नई दिल्ली के द्वारका इलाके में जल्द ही पूर्वोत्तर सांस्कृतिक सूचना केन्द्र स्थापित किया जाएगा। इस अवसर पर अरुणाचल प्रदेश के युवकों ने डॉ. जितेन्द्र सिंह को सरकार के ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम की तर्ज पर उनके द्वारा बनाई गई मिट्टी की एक प्रतिमा भेंट की। डॉ. सिंह ने स्वदेशी निर्माण और सरकार के मेक इन इंडिया कार्यक्रम को बढ़ावा देने की इस अनोखी पहल के लिए युवकों को बधाई दी, जिसका उद्देश्य देश के युवाओं को रोजगार प्रदान करना है। उन्होंने युवकों से अपील की कि वे स्वदेशी निर्माण की दिशा में प्रयास करें, जिससे अर्थव्यवस्था में तेजी लाने और रोजगार के अवसर बढ़ाने में मदद मिलेगी। (आईएएनएस)
एक नजर
याशा एस्ले लीसेस्टर यूनिवर्सिटी में ही आगे की पढ़ाई भी कर रहे हैं
गणित ज्ञान को देखते हुए अभिभावक उन्हें ‘मानव कैल्कुलेटर’ कहते हैं याशा से 13 साल की उम्र में ही प्रोफेसर बनने के लिए संपर्क किया
ज्ञान हो सकता है और वह क्लास में खड़ा होकर अपने से अधिक उम्र के बच्चों को पढ़ा सकता है। लेकिन जब परिषद के अधिकारी याशा से मिले तो आश्चर्यचकित रह गए। यूनिवर्सिटी में नौकरी मिलने के बाद याशा एस्ले ने कहा कि यह साल मेरे जीवन का सबसे अच्छा साल है। याशा ने कहा, ‘मुझे नौकरी मिलने से ज्यादा अच्छा यह लगता है कि मैं दूसरे छात्रों की मदद करूं और उनके ज्ञान को बढ़ाने में मदद करूं।’ इतनी कम उम्र में याशा ने दुनिया के सामने एक नजीर पेश की है कि किसी के पास ज्ञान, दूसरों की मदद और आगे बढ़ने की लालसा हो तो दुनिया उसका साथ देने में पीछे नहीं हटती। (आईएएनएस)
09 - 15 अक्टूबर 2017
पीड़ित मानवता को समर्पित सेवा का मंदिर
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संस्था
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दिव्यांग मुक्त बिहार के लक्ष्य को पाने के लिए पटना स्थित दिव्यांग सेवा केंद्र में विश्व की सर्वश्रेष्ठ तकनीक से से दिव्यांगों का इलाज किया जा रहा है
एक नजर
आनंद भारती
धानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2015 के अंतिम अपने 'मन की बात' संबोधन में शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को ‘दिव्यांग’ नाम दिया। उन्होंने कहा कि शारीरिक रूप से अक्षम के लिए 'दिव्यांग' शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, क्योंकि उनके पास एक अतिरिक्त शक्ति होती है। तब से ऐसे लोगों को दिव्यांग कहा जाने लगा, लेकिन इस नए नाम के बाद सवाल उठा कि क्या इससे उनकी समस्याओं का अंत हो जाएगा? इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि शारीरिक अक्षमता भारत क्या, दुनिया के लिए एक चुनौती की तरह है। एक अच्छी बात यह भी है कि पोलियो पर नियंत्रण के बाद उम्मीद की गई है कि भारत में दिव्यांगों की संख्या में कमी आएगी। भारत में अनुमानतः ढाई करोड़ से भी ज्यादा लोग दिव्यांगता से जूझ रहे हैं, लेकिन इनकी परेशानियों को समझने और उन्हें जरूरी सहयोग देने में सरकार और समाज को जो अपनी भूमिका अदा करनी चाहिए थी, उसका अभी भी अभाव है। पहले भी जब दिव्यांगता की बात उठती थी तो इलाज के लिए सबसे पहले लोगों का ध्यान जयपुर की ही तरफ जाता था। आज भी उसकी जगह बरकारार है, लोग वहीं जाना पसंद करते हैं, जबकि देश के बाकी कई शहरों में वैसी ही सुविधा मिलने लगी है। उन्हें वहां जो कृत्रिम हाथ-पैर मिलते हैं, वह पटना जैसे शहर में भी मिल रहे हैं। ‘एक्सेसिबल इंडिया कैंपेन' यानी ‘सुगम्य भारत अभियान' के तहत किए गए एक सर्वे में कहा गया था कि मुंबई, दिल्ली, चंडीगढ़, देहरादून, फरीदाबाद, गुरुग्राम, वाराणसी, जयपुर जैसे शहरों में भी दिव्यांगों को वैसी सुविधा हासिल नहीं है, जिसके वे हकदार हैं। सबसे निराशाजनक स्थिति यह है कि लोग विकलांगों के प्रति अपनी बुनियादी सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं ला पाए हैं। वे आज भी उनके प्रति उपेक्षा, तिरस्कार और दया का ही भाव रखते हैं। उन्हें समाज की मुख्य धारा में हम शामिल नहीं कर पाए हैं। उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने कहा था, ‘विकलांगों को समाज की मुख्य धारा में तभी शामिल किया जा सकता जब समाज इन्हें अपना हिस्सा समझे।’ यही सोच लगभग 17 साल पहले भारत विकास परिषद् के कुछ सदस्यों में आई। उन्होंने दिव्यांगों की
देश में ढाई करोड़ से ज्यादा हैं दिव्यांग
17 साल पहले हुई दिव्यांग सेवा केंद्र की स्थापना
श्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय तकनीक से बनते हैं उपकरण
हालत को देखकर यह तय किया कि बिहार में एक बहुद्देश्यीय दिव्यांग सेवा केंद्र-सह-अस्पताल का निर्माण किया जाए। 17 दिसंबर, 1999 को पटना के कंकड़बाग में एक छोटे से परिसर से सेवा यात्रा प्रारंभ की गई। उसकी सफलता और मरीजों की प्रसन्नता को देखकर अस्पताल को बाद में एक बड़ा रूप दिया गया। शहर से थोड़ा बाहर पटना-गया राजमार्ग पर तीन मंजिला भवन बनाया गया। आज यह बिहार तथा आसपास के राज्यों के लिए एक राहत केंद्र बन गया है। इस केंद्र में हर से आने वाले गरीब मरीज को कैलीपर, कृत्रिम पैर, बैसाखी, आर्थो शूज, श्रवण यंत्र, तिपहिया साइकिल देने के साथसाथ पोलियोग्रस्त लोगों की चिकित्सा निःशुल्क की जाती है। सुदूर स्थलों पर शिविर आयोजित कर दिव्यांगों की अनवरत सेवा की जा रही है। बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और नेपाल में शिविर आयोजित हो रहे हैं। इन कार्यों में अन्य समाज सेवी संस्थाओं का हर सहयोग मिल रहा है। इस केंद्र के महासचिव विमल जैन ने बताया कि ‘हमने 21 वीं सदी का बिहार, दिव्यांगमुक्त बिहार
का संकल्प लिया है और उसपर तेजी से काम कर रहे हैं। हमारे केंद्र द्वारा निःशुल्क सेवा प्रदान करने के बावजूद सुदूर गांवों के दिव्यांग अर्थाभाव और जानकारी के अभाव में केंद्र तक नहीं पहुंच पाते हैं। हमने तय किया है कि एक-एक पंचायत का सर्वे कराकर, दिव्यांगों को चिन्हित कर उन्हें कृत्रिम उपकरण और शल्य चिकित्सा उपलब्ध कराकर अपने पैरों पर खड़ा करेंगे।’ उन्होंने यह भी कहा कि अभी तक 40 वर्ष पुरानी जयपुर फुट तकनीक के आधार पर कृत्रिम उपकरण का निर्माण किया जा रहा था, लेकिन पटना में विश्व की सर्वश्रेष्ठ तकनीक से उपकरण का निर्माण किया जा रहा है। इसके लिए जर्मनी के ओटोबोक कंपनी से समझौता किया गया है। केंद्र ने उन लोगों के लिए मोबाइल सेवा रथ का इंतजाम किया है, जो लोग अस्पताल तक नहीं पहुंच पाते हैं। यह रथ खुद गांव-गांव तक जाता है और दिव्यांगों का पता लगाकर उसी जगह पर जांच आदि प्रारंभ कर देता है। जरुरत के अनुसार उन्हें कृत्रिम उपकरण भी प्रदान किया जाता है। इस
‘सुगम्य भारत अभियान' के तहत किए गए एक सर्वे में कहा गया था कि मुंबई, दिल्ली, चंडीगढ़, देहरादून, फरीदाबाद, गुरुग्राम, वाराणसी, जयपुर जैसे शहरों में भी दिव्यांगों को वैसी सुविधा हासिल नहीं है, जिसके वे हकदार हैं
दिव्यांग अस्पताल सह सेवा केंद्र का यह प्रयास हो रहा है कि केंद्र सरकार से मान्यता प्राप्त कर इसे तकनीकी इंस्टीच्यूट के रूप में विकसित किया जाए, जहां प्रोस्थेसिस,आर्थोटीक्स, फिजियोथैरेपी, श्रवण जांच, पुनर्वास कार्यक्रम आदि विषयों पर डिप्लोमा, स्नातक, स्नातकोत्तर की गुणवत्तापूर्ण पढाई और प्रशिक्षण की व्यवस्था हो सके। इस केंद्र की एक बड़ी उपलब्धि यह भी है कि यहां मानसिक रूप से विकृत बच्चों में सुधार के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है। उन बच्चों में आत्मविश्वास भरा जाता है, ताकि वे खुद को दूसरों से कम नहीं समझें। अभी तक बिहार में ऐसे बच्चों के लिए कहीं कोई सुविधा मौजूद नहीं है। प्रशिक्षण के दौरान बच्चों के साथ उनके मां –बाप के रहने, खाने आदि की व्यवस्था भी निःशुल्क की जाती है। गरीब मां बाप इस तरह के बच्चों को स्कूल ले जाने और लाने में सक्षम नहीं होते हैं। ऐसे बच्चों को को भगवान का अभिशाप मान लिया जाता है। उस धारणा को भी यह केंद्र बदलने का प्रयास कर रहा है। इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर की सुविधा उपलब्ध कराने की भी कोशिश हो रही है। इसमें बड़े-बड़े चिकित्सकों और विशेषज्ञों का सहयोग मिल रहा है। इस केंद्र को देखने के लिए अभी तक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत, भैयाजी जोशी, मदनदास देवी, न्यायमूर्ति रामा जायस, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उप मुख्य मंत्री सुशील कुमार मोदी, नंदकिशोर यादव, केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद, थावरचंद गहलोत, अश्विनी कुमार चौबे, बिहार विधान परिषद के पूर्व सभापति ताराकांत झा, जैन आचार्य साध्वी चंदना, सांसद आरके सिन्हा आदि आ चुके हैं। नीतीश कुमार केंद्र के दिव्यांग मित्र परिवार के आजीवन सदस्य हैं, जो हर महीने एक हजार रूपए की राशि दे रहे हैं।
28 स्वच्छता
09 - 15 अक्टूबर 2017
संक्षेप में
12 जगहों पर बनेंगे सामुहिक शौचालय उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ नगर के 12 स्थलों पर सामूहिक शौचालय बनाने का फैसला किया गया
‘
स्वच्छता ही सेवा है’ कार्यक्रम के तहत पल्हनी विकास खंड परिसर और नगरपालिका परिसर में कार्यशाला का आयोजन किया गया। जिसमें जिलाधिकारी ने चंद्रभूषण सिंह ने उपस्थित लोगों को स्वच्छता की शपथ दिलाई। साथ ही बताया कि नगर के 12 जगहों पर सामुहिक शौचालय बनाए जाएंगे। कार्यशाला में जिलाधिकारी ने बताया कि प्रत्येक सफाई कर्मी और पंचायत सेक्रेट्री को दो अक्टूबर तक 25-25 शौचालय का निर्माण करना है। दो अक्टूबर 2018 तक पूरे जनपद को ओडीएफ घोषित करना है। नगर पालिका में 24 वार्ड हैं जिसमें से सात वार्ड ओडीएफ घोषित हो चुके हैं। उन्होंने कहा कि इस सफाई अभियान में जो ठेकेदार रूचि नहीं ले रहा हो अथवा लापरवाही बरत रहा हो उसे नोटिस देते हुए यदि एक सप्ताह के अंदर उसमें सुधार नहीं होता है तो उसे ब्लैक लिस्ट कर दिया जाए। (एजेंसी)
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शौचालय के लिए मंगलसूत्र बेच बदली गांव की तस्वीर
उत्तर प्रदेश के गाेरखपुर की सविता देवी ने शौचालय के लिए अपना मंगल सूत्र बेच दिया
रत अगर देवी है तो चंडी उसका दूसरा रूप माना जाता है। वहीं औरत अगर कुछ करने की ठान लेती है, तो उसे कोई रोक नहीं सकता। ये बात गोरखपुर की सविता ने साबित की है। जिसने अपनी सुहाग की निशानी बेचकर पीएम मोदी के सपने को पूरा किया है। उल्लेखनीय है कि स्वच्छ भारत अभियान पीएम मोदी का सपना होने के साथ-साथ बीजेपी का लक्ष्य भी है। वहीं शौच मुक्त अभियान को सविता ने अपने मंगलसूत्र की कुर्बानी देकर पूरा किया है। दरअसल गोरखपुर के बूढ़ाडीह गांव की रहने वाली सविता की वीरेन्द्र मौर्य से शादी हुई, तो वह सविता को लेकर शिमला रहने के लिए चला गया। जब 8 माह बाद सविता अपने ससुराल बूढ़ाडीह पहुंची, तो उन्हें यह जानकर हैरत हुई कि उसे यहां खुले में शौच जाना होगा। उसके बाद तो घर में तूफान आ गया। सविता ने पति से खुले में शौच जाने से साफ इंकार कर दिया। उसे पता चला कि सुसराल में शौचालय नहीं है और लोग यहां पर खुले में शौच जाते हैं तो उसके पैरों तले जमीन
खिसक गई। उसने पति को घर में शौचालय बनवाने के लिए कहा। जब पति ने 6 माह का समय मांगा, तो सविता ने अपने गहने और मंगलसूत्र बेच दिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2014 में 'स्वच्छ भारत' का सपना देखा। लेकिन, यूपी के गोरखपुर की सविता ने यह सपना 2011 में ही देख लिया था। यही वजह है कि आज सविता पूरे गांव के लिए रोल मॉडल हैं। उसने न सिर्फ अपने घर में शौचालय का बनवाया, बल्कि पूरे गांव को खुले में शौच से मुक्त
कर दिया। सविता बताती हैं कि शुरू में उसे गांव के पुरुष और महिलाओं के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन वह हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठी। वह और उनकी टोली डंडा और सीटी लेकर सुबह और शाम खेत और सड़क की ओर शौच जाने वाले लोगों को समझाती हैं और खुले में शौच करने से होने वाले नुकसान के बारे में भी बताती हैं। इतना ही नहीं सविता और गांव की महिलाएं अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छ भारत मिशन का हिस्सा भी हैं। ग्रामीण दुर्गा बताती है कि अब गांव में इसका असर दिखने लगा है। अब तक गांव में 160 घरों में शौचालय बन गए हैं और 300 घरों में और शौचालय बन रहे हैं। इसमें गांव के प्रधान राम भुआल का भी काफी सहयोग रहा है। उन्हों ने सरकार की ओर से मिलने वाली सहायता राशि उपलब्ध कराकर मदद की है। उनका कहना है कि वह दिन दूर नहीं, जब गांव खुले में शौच से मुक्त हो जाएगा। (एजेंसी)
शौचालय ना इस्तेमाल करने वालों से वसूले 10 लाख रुपए बि
रोहतास जिले में खुले में शौच करने वालों से न सिर्फ जुर्माना वसूला जा रहा है, बल्कि उन्हें एक पेड़ लगाने और उसके देखभाल की जिम्मेदारी भी दी जा रही है
हार के रोहतास जिले में खुले में शौच करने वालों की अब खैर नहीं है। खुले में शौच से मुक्ति अभियान के तहत रोहतास जिले में जबरदस्त अभियान चलाया जा रहा है। जिले में अब शौचालय का उपयोग नहीं करने वालों से ओडीएफ टीम ने 10 लाख रुपए तक का जुर्माना वसूला है। जुर्माने की राशि से 83 शौचालयों का निर्माण कराया जा सकता है। बिहार शौचालय के निर्माण में लक्ष्य से काफी पीछे चल रहा है। बिहार में अभी एक भी जिला ओडीएफ यानी खुले में शौच से मुक्त नहीं हुआ है, जबकि देश में ऐसे 192 जिले हैं, जो इस स्थिति को पा चुके हैं। बिहार में रोहतास और शेखपुरा जिले ऐसे है जहां ओडीएफ का काम प्रगति पर दिख रहा है।
रोहतास जिले में कुल 19 प्रखंड है, जिसमें 13 प्रखंड ओडीएफ घोषित हो किए जा चुके हैं, बाकी के 6 प्रखंडों में 70 प्रतिशत काम हो चुका है. बिहार में रोहतास जिला ओडीएफ में सबसे आगे है, तो उसके पीछे यहां के प्रशासन की कड़ाई है। खुले में शौच करने पर यहां दंड का प्रावधान है। शौचालय रहते हुए जो लोग बाहर शौच करने के लिए जाते हैं, उन पर दोगुना जुर्माना होता है। जुर्माने की राशि 500 से लेकर 1000 रुपये तक है। रोहतास के जिलाधिकारी अनिमेश पराशर ने बताया कि ओडीएफ की टीम जिसे पकड़ती है,
उस व्यक्ति पर हर शनिवार को पंचायत में 133 अधिनियम के तहत दंड दिया जाता है। जिसमें पैसे के अलावा उस व्यक्ति को दंड स्वरूप एक पेड़
लगाकर उसकी देखभाल करने की जिम्मेदारी होती है। अगर पेड़ सूख गया तो दंड और बढ़ाया जा सकता है। बिहार में कुल 96 लाख 95 हजार शौचालय के निर्माण का लक्ष्य है, लेकिन ये अभी लक्ष्य से काफी दूर है। बिहार में अभी तक केवल 32.5 फीसदी ही शौचालय बने हैं, जो कि राष्ट्रीय औसत से आधा है। बिहार सरकार ने दिसंबर 2018 तक खुले में शौच मुक्त प्रदेश बनाने का लक्ष्य रखा है। अभी बिहार में प्रतिदिन 9 हजार शौचालय बन रहे हैं, लेकिन लक्ष्य प्राप्ति के लिए इसे प्रतिदिन 25 हजार शौचालय बनाना पड़ेगा। बिहार सरकार को लक्ष्य पाना है, तो उसे रोहतास में चलाए जा रहे दंड प्रावधान को पूरे प्रदेश में लागू करना होगा। (एजेंसी)
09 - 15 अक्टूबर 2017
वरिष्ठ रचनाकार डॉ. देवेंद्र दीपक के कविता संग्रह "गौ उवाच" का लोकार्पण
साहित्य अकादमी द्वारा ‘प्रकृति और साहित्य: अंतस्संबंध’ विषय पर परिसंवाद संपन्न
सा
अजय कुमार शर्मा
हित्य अकादमी द्वारा आयोजित ‘प्रकृति और साहित्य: अंतस्संबंध’ विषय पर आयोजित परिसंवाद में सभी विद्वानों ने प्रकृति और साहित्य के रिश्तेे पर अपने-अपने विचार प्रस्तुत किए। प्राचीन काल से लेकर आज तक साहित्य की विभिन्न विधाओं में प्रकृति चित्रण को लेकर सभी ने उदाहरण के साथ अपनी बात रखी। बीज वक्तव्य देते हुए प्रसिद्ध हिंदी-मलयालम-संस्कृत विद्वान डॉ. सुधांशु चतुर्वेदी ने कहा कि प्रकृति का वर्णन सभी साहित्यों में अनुभूति प्रधान और परंपरागत प्रधान के रूप में उपलब्ध है। अनुभूति प्रधान वर्णन जहां सहज और सरल है, वहीं परंपरागत प्रधान में परंपरा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उन्होंने संस्कृत साहित्य
प्रकृति और स्वास्थ्य के बीच साहित्य के संबंधों के उदाहरण देते हुए कहा कि संपूर्ण भारतीय साहित्य विशेषकर वैदिक साहित्य प्रकृति और स्वास्थ्य के साथ मानव के सहज संबंधों को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत करता है
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'गौ उवाच' का लोकार्पण
लोक साहित्य में प्रकृति के प्रति हमारी संवेदनाएं सुरक्षित हैं का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां प्रकृति को देवी के रूप में चित्रित किया जाता है। उन्होंने कालिदास की रचनाओं से अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि कौतूहल एवं दुःख में भी प्रकृति अनेक रूप में रचनाकारों का साथ देती रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी के प्रोफेसर एवं विद्वान् डॉ. पूरनचंद टंडन ने हिंदी साहित्य में प्रकृति के विभिन्न चित्रों को प्रस्तुत करते हुए मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक की रचनाओं और लेखकों के बारे में बताते हुए कहा कि छायावाद के बाद भी प्रकृति चित्रण की परंपरा बढ़ती रही है। उन्होंने रसखान, सूरदास से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक की रचनाओं के उदाहरण से स्पष्ट किया कि हिंदी में तो प्रकृति के नाम पर काव्य-संग्रहों के नाम तक रखे जाते रहे हैं। डॉ. दीप्ति त्रिपाठी ने संस्कृत साहित्य, प्रो. सादिक ने उर्दू साहित्य एवं डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने महत्त्वपूर्ण प्राकृतिक स्थल हिमालय को केंद्र में रखकर अपनी बात कही। उन्होंने ‘हिंदी कविता में हिमालय का सौंदर्य और ऐश्वर्य’ विषयक लेख और प्रकृति के सामाजिक सरोकारों से संबंधित प्रकृति चित्रण को श्रोताओं के सामने प्रस्तुत किया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि डॉ. रमाकांत शुक्ल ने प्रकृति और साहित्य के बीच भारतीय परंपरा को स्मरण करते हुए सभी भारतीय साहित्य में प्रकृति की विलक्षण भूमिका को सबके सामने प्रस्तुत किया। उन्होंने प्रकृति और स्वास्थ्य के बीच साहित्य के संबंधों के उदाहरण देते हुए कहा कि संपूर्ण भारतीय साहित्य विशेषकर वैदिक साहित्य प्रकृति और स्वास्थ्य के साथ मानव के सहज संबंधों को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत करता है। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य मंे डॉ. विद्याबिंदु सिंह ने लोकसाहित्य में प्रकृति के कई बिंबों को प्रस्तुत करते हुए कहा कि भारतीय लोक साहित्य प्रकृति के बिना अधूरा है। उन्होंने अवधी भाषा के कई उदाहरण प्रस्तुत करते हुए प्रकृति और साहित्य के संबंधों को प्रस्तुत किया। आगे उन्होंने कहा कि लोकसाहित्य में ही प्रकृति के प्रति हमारी संवेदनाएं और सद्भावनाएं सुरक्षित हैं। अतः उसे संरक्षित किए जाने की आवश्यकता है।
आयोजन
गा
घनश्याम मैथिल ‘अमृत’
य मात्र पशु नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति का आधार और उसकी धुरी है, यह उदगार हैं जगतगुरु रामानन्दाचार्य पद प्रतिष्ठित स्वामी श्री रामनरेशाचार्य के। उन्होंने यह विचार प्रकट करते हुए वर्तमान समय में गाय पर की जा रही राजनीति को भी दुःखद बताया। वे इंद्रा पब्लिसिंग हाउस द्वारा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवम संचार विश्वविद्यालय के सभागार में वरिष्ठ रचनाकार डॉ. देवेंद्र दीपक के कविता संग्रह ‘गौ उवाच’ के लोकार्पण अवसर पर बोल रहे थे। कार्यक्रम के प्रारम्भ में मां सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण एवम दीप प्रज्वलन अतिथियों द्वारा किया गया, वरिष्ठ गीतकार श्री राजेन्द्र शर्मा ‘अक्षर’ ने ‘मां मुझे वह मंत्र वर दे’, सरस्वती वंदना प्रस्तुत की। इस अवसर पर पुस्तक के प्रकाशक मनीष गुप्ता ने पुस्तक प्रकाशन के बारे में प्रकाश डालते हुए इस कृति को गौ वंश रक्षा की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बताते हुए, दीपक जी को साधुवाद दिया। अपने स्वागत उदबोधन में विश्वविद्यालय की ओर से लाजपत आहूजा ने उपस्थित लोगों का आभार प्रकट करते हुए आज की पत्रकारिता एवम इस पुस्तक के महत्व को रेखांकित करते हुए सभी का अभिनन्दन किया। इस अवसर पर डॉ. देवेंद्र दीपक का स्वामी जी ने स्वस्ति वाचन मंत्रों के साथ भाल पर तिलक लगा कर, पुष्पहार एवं शॉल से स्वागत किया। डॉ. देवेंद्र दीपक ने इस अवसर पर कहा कि जीवन में जो भी दायित्व मिला उसका निर्वहन मैंने पूरी निष्ठा व ईमानदारी से किया है। इस अवसर पर स्वामी जी एवम दीपक जी
का स्वागत नगर की अनेक साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा किया गया, जिनमें प्रमुख रूप से साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. उमेश सिंह, मध्य प्रदेश लेखक संघ के डॉ. राम वल्लभ आचार्य, अखिल भारतीय साहित्य परिषद के श्यामबिहारी सक्सेना ,कला मंदिर भोपाल के डॉ. गौरीशंकर शर्मा गौरीश, तुलसी साहित्य अकादमी के डॉ. मोहन तिवारी आनंद, भंवरलाल श्रीवास, सम्पादक ‘कला समय’, सजल मालवीय, सम्पादक ‘शिवम पूर्णा’ और अर्घ्य कला समिति के वरिष्ठ रंगकर्मी प्रेम गुप्ता प्रमुख थे। इस अवसर पर कृति केंद्रित महत्वपूर्ण विमर्श का भी आयोजन किया गया, जिसमें कृति पर केंद्रित समीक्षात्मक आलेख पढ़े गए। जिन्होंने इस कृति पर विस्तार से विमर्श किया उनमें डॉ. प्रेम भारती, डॉ. बिनय राजाराम, डॉ. कृष्ण गोपाल मिश्र, डॉ. मयंक चतुर्वेदी एवं घनश्याम मैथिल ‘अमृत’ थे। इस अवसर पर डॉ. उदय प्रताप सिंह ने अपनी बात रखते हुए डॉ. देवेंद्र दीपक को भारतीय संस्कार और संस्कृति से संपृक्त महत्वपूर्ण व्यक्तित्व बताया जो अपने सृजन और आचरण से समाज को एक नई दिशा दे रहे हैं। इस अवसर पर मुख्य वक्ता स्वामी जी ने ‘मीडिया और उसका धर्म’ विषय पर बोलते हुए मीडिया की शुचिता पर चिंता प्रकट की उन्होंने कहा कि वर्तमान में पत्रकारों को दर्शन और आध्यत्म की शिक्षा से जोड़ना आवश्यक है, क्योंकि मीडिया में लाभ और लोभ की बढती लिप्सा से इसकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई है, जो हमारे समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है। श्रीमती देवेंद्र दीपक ने मंचस्थ अतिथियों को स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मानित किया। कार्यक्रम का संचालन डॉ. साधना बलबटे ने किया।
30 लोक कथा
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09 - 15 अक्टूबर 2017
गिजुभाई बधेका की बाल कथाएं
तीन लोक का टीपना
क था किसान। उसने एक खेत जोता। खेत में ज्वार बोई। ज्वार में बड़े-बड़े भुट्टे लगे। किसान ने कहा, "अब एक रखवाला रखना होगा। वह दिनभर पक्षियों को उड़ाएगा और रात में रखवाली करेगा। रखवाला रात में रखवाली करता और दिन में पक्षियों को उड़ाता रहता। इस तरह काम करते-करते कई दिन बीत गए। चोरों ने उस रखवाले को मार दिया। उसने फिर से रखवाला रखा। चोरों ने दूसरे रखवाले को भी मार डाला और भुट्टे चुरा लिए। किसान सोचने लगा—‘अब मैं क्या करूं? यह तो बड़ी मुसीबत खड़ी हो गई। इसका कोई इलाज तो करना ही होगा।‘ सोचते-सोचते किसान को क्षेत्रपाल की याद आ गई। क्षेत्रपाल तो बड़े ही चमत्कारी और प्रतापी देवता हैं। याद करते ही सामने आ गए। उन्होंने पूछा, ‘मेरे सेवक पर क्या संकट आया है?’ किसान ने कहा, ‘महाराज, आपकी कृपा से ज्वार में बड़े-बड़े भुट्टे लगे हैं, पर चोर इन्हें यहां रहने कहां दे रहे हैं! चोरों ने दो रखवालों को तो मार डाला है। महाराज, अब आप की इसका कोई इलाज कीजिए। कोई रास्ता दिखाइये।’ क्षेत्रपाल बोले, ‘भैया! आज से तुम्हें कोई चिन्ता नहीं करनी है। खेत में एक मचान बंधवा लो और वहां एक बांस गाड़ दो। फिर देखते रहो।’ क्षेत्रपाल ने जो कहा, सो किसान ने कर दिया। शाम हुई। क्षेत्रफल तो एक चिड़िया का रूप रखकर बांस पर बैठ गए। आधी रात हुई चोर आए। चोर चारों ओर घूमने-फिरने लगे। इसी बीच चिड़िया बोली: ओ, घूमते-फिरते चोरो! तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला। चोर चौंके। बोल, ‘अरे यह कौन बोल रहा है?’
इधर-उधर देखा, तो कोई दिखाई नहीं पड़ा। चोरों ने भुट्टे काटना शुरू कर दिया। तभी चिड़िया फिर बोली: ओ, काटने-वाटने वालों चोरा! तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला। चोरों ने चारों तरफ देखा, पर कोई दिखाई नहीं पड़ा। उन्होंने भुट्टों की गठरी बांध ली। चिड़िया फिर बोली-ओ, बांधने-वाधने वाले चोरो! तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला। चोर इधर-उधर देखने लगे। उन्होंने चिड़िया को बोलते देख लिया। पत्थर फेंक-फेंककर वे उसे मारने लगे। इस पर चिड़िया बोली: ओ, मारने वाले चोरो! तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला।
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चोरों ने बांस पर बैठी चिड़िया को नीचे उतार लिया। नीचे उतरते-उतरते चिड़िया फिर बोली: ओ, उतारने वाले चोरो! तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला। चोर चिड़िया पर टूट-पड़े और उसे पीटने लगे। चिड़िया फिर बोली: ओ पीटने वाले चोरो! तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला। इस पर चोर इतने गुस्सा हुए कि वे चिड़िया को काटने लगे। चिड़िया फिर भी बोली: ओ काटने वाले चोरो! तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला। चोरों ने आग जलाई और चिड़िया को भूनने लगे।
चिड़िया बोली: ओ, भुनने वाले चोरो! तीन लोक का टीपना और तीसरा रखवाला। फिर सब चोर खाने बैठे। ज्यों ही उन्होंने चिड़िया के टुकड़े मुंह में रखे, चिड़िया फिर बोली: ओ, खाने वाले चोरो! तीन लोक को टीपना और तीसरा रखवाला। चोर बोल, ‘बाप रे, यह तो बड़े अचम्भे की बात है! जरूर यह कोई भूत-प्रेत होगा।’ चोर इतने डर गए कि अपना सबकुछ वहीं छोड़कर भाग खड़े हुए। उसके बाद फिर चोर कभी आए ही नहीं। किसान के खेत में ज्वार खूब पकी। अच्छी फसल हुई।
बावला-बावली
क था बावला, एक थी बावली। दिन भर लकड़ी काटने के बाद थका-मादा बावला शाम को घर पहुंचा और उसने बावली से कहा, ‘बावली! आज तो मैं थककर चूर-चूर हो गया हूं। अगर तुम मेरे लिए पानी गरम कर दो, तो मैं नहा लूं, गरम पानी से पैर सेक लूं और अपनी थकान उतार लूं।’ बावली बोली, ‘वाह, यह तो मैं खुशी-खुशी कर दूंगी। देखो, वह हंडा पड़ा है। उसे उठा लाओ।’ बावले ने हंडा उठाया और पूछा, ‘अब क्या करूं?’ बावली बोली, ‘अब पास के कुंए से इसमें पानी भर लाओ।’ बावला पानी भरकर ले आया। फिर पूछा, ‘अब क्या करूं?’ बावली बोली, ‘अब हंडे को चूल्हे पर रख दो।’ बावले ने हंडा चूल्हे पर रख दिया और पूछा, ‘अब क्या करूं?’ बावली बोली, ‘अब लकड़ी सुलगा लो।’ बावले ने लकड़ी सुलगा ली और पूछा, ‘अब क्या करूं?’
बावली बोली, ‘बस, अब चूल्हा फूंकते रहो।’ बावले ने फूंक-फूंककर चूल्हा जला लिया और पूछा, ‘अब क्या करूं?’ बावली बोली, ‘अब हंडा नीचे उतार लो।’ बावले ने हंडा नीचे उतार लिया और पूछा, ‘अब क्या करूं?’ बावली बोल, ‘अब हंडे को नाली के पास रख लो।’ बावली ने हंडा नाली के पास रख लिया और पूछा, ‘अब क्या करूं?’ बावली बोली, ‘अब जाओ और नहा लो।’ बावला नहा लिया। उसने पूछा, ‘अब क्या करूं?’ बावला बोली, ‘अब हंडा हंडे की जगह पर रख दो।’ बावले ने हंडा रख लिया और फिर अपने सारे बदन पर हाथ फेरता-फेरता वह बोला, ‘वाह, अब तो मेरा यह बदन फूल की तरह हल्का हो गया है। तुम रोज इस तरह पानी गरम कर दिया करो तो कितना अच्छा हो।’ बावली बोली, ‘मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती है। सोचो, इसमें आलस्य किसका है?’ बावली बोली, ‘बहुत अच्छा! तो अब तुम सो जाओ।’
09 - 15 अक्टूबर 2017
लोकार्पण
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32 अनाम हीरो
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
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अनाम हीरो
बंजर जमीन पर उम्मीद की फसल मुजफ्फरपुर जिले के किसानों ने चौर की बंजर जमीन को उपजाऊ बनाया
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गों द्वारा हमेशा से उपेक्षित वेटलैंड यानी आर्द्रभूमि को किसानों के एक समूह ने उपयोगी बन दिया है। इन किसानों के प्रयास से ही आज यह उपेक्षित भूमि मत्स्य पालन, कृषि, विद्यालय और बागवानी में बदल गया है। इसके साथ ही इन किसानों ने गरीब ग्रामीणों को रोज़गार और आजीविका के अवसर भी प्रदान किए हैं। मुल्लूपुर की एक किसान मुलकी देवी ने कहा कि मैंने कभी नहीं सोचा था कि यह जमीन मेरे जीवनकाल में उपजाऊ हो जाएगी। वहीं शत्रुघ्न महतो अपनी जमीन से आय अर्जित कर खुश हैं क्योंकि इससे पहले उन्हें कभी लाभ नहीं मिला था। मुल्की देवी और शत्रुघ्न महतो दोनों अपनी इस बंजर जमीन के बारे में अब चिंता नहीं करते हैं और यह अविश्वसनीय है कि बंजर जमीन अब उनके आय का स्रोत बन गई है। बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के मुल्लूपुर
में 87 एकड़ जमीन निचले झीलों की है, जिसे स्थानीय तौर पर "चौर" के रूप में जाना जाता है। बाढ़ प्रभावित होने के कारण और इस जमीन के उपजाऊ न होने की वजह से इसे पहले बेकार माना जाता था। किसानों के एक समूह ने इस
न्यूजमेकर
अनन्य अनामिका अनामिका मजूमदार ने केबासी में जीते पैसे एनजीओ को दिए
अनामिका मजूमदार
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नामिका मजमूदार केबीसी में मिली राशि का इस्तेमाल झारखंड के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के उन्नयन के लिए बनाई गई अपनी गैर-सरकारी संगठन को चलाने के लिए करेंगी। जमशेदपुर निवासी अनामिका मजूमदार ने हाल ही में अमिताभ बच्चन के क्वीज शो- कौन बनेगा करोड़पति में एक करोड़ रुपए जीते हैं। बता दें कि अनामिका मजूमदार एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और वह एक गैर सरकारी संगठन भी चला रही हैं। संगीत प्रेमी अनामिका अपने गैर-सरकारी संगठन के माध्यम से झारखंड में खासकर ग्रामीण महिलाओं के
जमीन के परिदृश्य को ही बदल दिया है और इसे कई लोगों के लिए आय और आजीविका के स्रोत के रूप में परिवर्तित कर दिया है। मुल्लूपुर में रहने वाले राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व उपाध्यक्ष गोपालजी
उत्थान के लिए काम कर रही हैं। बता दें कि केबीसी के इस सीजन में 1 करोड़ रुपए जीतने वाली वह पहली प्रतियोगी हैं। इस शो ने अपने शुरुआत से ही टीआरपी बनाए रखा है और इसके साथ ही दर्शकों द्वारा इस शो को इसके ज्ञान, प्रेरणादायक कहानियों और मानव मूल्यों के लिए हमेशा से प्रोत्साहन मिलता रहा है। हालांकि इस शो में अमिताभ बच्चन ने स्टार बैडमिंटन खिलाड़ी पी.वी. सिंधु के साथ एक विशेष एपिसोड भी बनाया है। इस विशेष प्रकरण को जल्द ही प्रसारित किया जाएगा।
त्रिवेदी ने पूसा में कृषक को कृषि उद्देश्यों के लिए बंजर भूमि का उपयोग करने के लिए आश्वस्त किया। गोपालजी कहते हैं कि मैंने किसानों को मुल्लूपुर के निकट कोरलाहा चौर को बदलने के लिए प्रेरित किया। शुरुआत में लोगों ने अनिच्छा जाहिर की, लेकिन निरंतर प्रयास से वह लोग इस मुहिम में शामिल हो गए और दशकों से बंजर पड़ी इस जमीन का कायाकल्प कर दिया। किसानों के समूह ने पशु चिकित्सा, कृषि, मत्स्य पालन और बागवानी विशेषज्ञों से परामर्श किया ताकि एकीकृत खेती में नवीनतम तकनीक और विकास का इस्तेमाल किया जा सके। गोपालजी ने कहा कि हमारा ध्यान मत्स्य पालन पर है, क्योंकि यह आर्द्रभूमि के लिए सबसे उपयुक्त होता है। हमने विकास योजना में एक मुर्गी, एक बकरी खेत और एक डेयरी इकाई को एकीकृत किया है।
जगमीत की जय
भारतवंशी जगमीत सिंह लड़ेंगे कनाडा में राष्ट्रपति पद का चुनाव
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रतीय मूल के सिख वकील जगमीत सिंह को कनाडा में अगले संघीय चुनाव के लिए न्यू डेमोक्रेट्स पार्टी (एनडीपी) का नेता चुना गया है। अब वे कनाडा के राष्ट्रपति के चुनाव में अपनी दावेदारी पेश करेंगे। उनकी पार्टी कनाडा की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। यह पहला मौका है जब भारतीय मूल का कोई व्यक्ति कनाडा में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में चुना गया हो। बता दें कि जगमीत सिंह को एनडीपी का नेतृत्व करने के लिए मतदान के पहले दौर में शानदार जीत मिली है। उन्हें 53.6 फीसदी वोट मिले। पहले दौर के मतदान के नतीजों
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 1, अंक - 43
जगमीत सिंह के ऐलान के बाद वह अपने विरोधियों को पछाड़ते हुए शीर्ष स्थान पर पहुंच गए। सिंह संसद में 44 सदस्यीय कॉकस का नेतृत्व करने वाले थॉमस मुलकेयर का स्थान लेंगे। एनडीपी का नेतृत्व करने वाले जगमीत पहले सिख हैं। नतीजों के ऐलान के बाद जगमीत सिंह ने कहा कि नतीजे हममें विश्वास करने वाली अद्भुत टीम और हजारों स्वयंसेवियों एवं समर्थकों के विश्वास का प्रमाण हैं। उन्होंने कहा कि कनाडा के लोगों को डर की राजनीति के बजाए साहस की राजनीति और विभाजन की राजनीति से लड़ने के लिए प्यार की राजनीति के लिए एकजुट होना चाहिए।