वर्ष-1 | अंक-22 | 15-21 मई 2017
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
sulabhswachhbharat.com
04 बातचीत
10 शिक्षा
भविष्य का बल
परदादा-परदादी स्कूल
सीआईएसएफ के डीजी ओपी सिंह से बातचीत
बुलंदशहर के ‘अंकल सैम’ का अनोखा स्कूल
26 अनूठा गांव
बंद किवाड़ों का गांव
उत्तराखंड के मुसमोला गांव में अकेली रहती हैं लीला देवी
स्वच्छ भारत कोष के लिए करोड़ों का दान स्वच्छ भारत मिशन के लक्ष्य को पूरा करने में ‘स्वच्छ भारत कोष’ की स्थापना सार्थक सिद्ध हो रही है। कोष के लिए सरकारी उपक्रमों, निजी कंपनियों व संस्थाओं के अलावा सामान्य लोग भी बढ़-चढ़ कर दान कर रहे हैं
प्र
एसएसबी ब्यूरो
सुविधाओं में सुधार करने और गंगा नदी के संरक्षण के राष्ट्रीय प्रयासों में जनसाधारण की भागीदारी को बढ़ाने के लिए अधिनियम की धारा 80 धानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘स्वच्छ भारत मिशन’ आज एक (6) में संशोधन का प्रस्ताव है। राष्ट्रीय आंदोलन का शक्ल ले चुका है। इसमें जहां एक तरफ कोष में अंशदान के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए यह कॉरपोरेट घराने, फिल्मी हस्तियां, प्रावधान भी किया गया है कि घरेलू दाताओं खिलाड़ी और अन्य क्षेत्रों की नामवर हस्तियां को दान की कुल राशि पर कोई कर नहीं एक नजर जुड़ रही हैं, तो वहीं आम लोग भी स्वत: स्फूर्त लगेगा। यह छूट ‘स्वच्छ गंगा निधि’ में दिए भाव से इसका हिस्सा बन रहे हैं। गौरतलब गए दान पर प्रभावी है। इसी तरह कंपनी ‘स्वच्छ भारत कोष’ की स्थापना है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने लोकसभा अधिनियम 2013 के तहत सामाजिक दायित्व 2015 में हुई थी में वर्ष 2015-16 का आम बजट पेश करते के लिए खर्च की गई कोई भी राशि दाता की 2016-17 तक कोष में 245 करोड़ हुए ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों तथा विद्यालय कुल आय से कटौती के योग्य नहीं होगी। ये रुपए जमा परिसरों में ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के माध्यम सारे प्रावधान एक अप्रैल 2015 से लागू हैं से स्वच्छता संबंधी सुविधाओं में सुधार के और इसके अच्छे नतीजे भी देखने में आए हैं। कॉरपोरेट घराने अलग से भी चला लिए ‘स्वच्छ भारत कोष’ की स्थापना की सार्वजनिक उपक्रमों, निजी कंपनियों रहे स्वच्छता अभियान घोषणा की थी। इसके तहत स्वच्छता संबंधी और जागरूक नागरिकों की तरफ से ‘स्वच्छ ...जारी पेज 2
02 आवरण कथा
15-21 मई 2017
स्वच्छ भारत कोष के लिए करोड़ों का दान
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‘न गंदगी करेंगे, न करने देंगे’
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो अक्टूबर, 2014 को स्वयं झाड़ू उठाकर की थी ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत
अक्टूबर 2014 को देश भर में एक राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की शुरुआत हुई। राजपथ पर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का शुभारंभ करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘2019 में महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर भारत उन्हें स्वच्छ भारत के रूप में सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि दे सकता है।’ इस मौके पर स्वच्छता के लिए जन आंदोलन की अगुवाई करते हुए प्रधानमंत्री ने लोगों से आह्वान किया कि वे साफ और स्वच्छ भारत के महात्मा गांधी के सपने को पूरा करें। उन्होंने स्वयं उस दिन नई दिल्ली के मंदिर मार्ग पुलिस स्टेशन के पास सफाई अभियान शुरू किया। प्रधानमंत्री ने स्वयं झाड़ू उठाई और देश भर में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को एक जन आंदोलन बनाते हुए कहा कि लोगों को न स्वयं गंदगी फैलानी चाहिए और न किसी और को फैलाने देनी चाहिए। उन्होंने ‘न गंदगी करेंगे, न करने देंगे’ का मंत्र दिया। प्रधानमंत्री ने अपने आह्वान और कार्यों के माध्यम से लोगों के बीच स्वच्छ भारत का संदेश फैलाया। उन्होंने वाराणसी में भी सफाई अभियान चलाया। उन्होंने ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत वाराणसी
के अस्सी घाट में गंगा नदी के पास कुदाल से साफ-सफाई की। स्थानीय लोगों के एक बड़े दल ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में उनका साथ दिया। साफ-सफाई के महत्व को समझते हुए प्रधानमंत्री ने भारतीय परिवारों की उन स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का भी जिक्र किया, जो उन्हें घर में समुचित शौचालयों के अभाव के कारण झेलनी पड़ती हैं। बाद के तीन सालों में समाज के विभिन्न वर्गों के लोग आगे आए और सफाई के इस जन आंदोलन में शामिल होते गए। सरकारी अधिकारियों से
भारत कोष’ में वित्तीय वर्ष 2016-17 में 245 करोड़ रुपए जमा कराए जा चुके हैं। इसमें सबसे बड़ा अंशदान सार्वजनिक उपक्रमों का है। पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन, रूरल इलेक्ट्रीफिकेशन कॉरपोरेशन और पावर ग्रिड जैसे सार्वजनिक उपक्रमों ने कोष के लिए उदारता के साथ अंशदान किया और इस तरह बीते वित्तीय वर्ष में करीब 212 करोड़ रुपए जमा हुए हैं। अलबत्ता, बड़े कॉरपोरेट घरानों से जितनी उम्मीद थी, उतनी सहायता स्वच्छ भारत कोष को नहीं मिली। हां, इस दौरान कुछ छोटे स्तर की और स्थानीय पहचान वाली कंपनियों, चैरिटेबल संस्थाओं और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर जरूर स्वच्छता को लेकर उठाए गए सरकार के इस कदम को आगे बढ़ाने में बढ़-चढ़कर योगदान किया है। ऐसी कंपनियों, संस्थाओं और लोगों ने तकरीबन 33
करोड़ रुपए पिछले साल तक ‘स्वच्छ भारत कोष’ के लिए जमा कराए। दिलचस्प है कि निजी क्षेत्र की कंपनियां अपने तरीके से सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के कई कार्यक्रमों में पहले से हाथ बंटा रही हैं। इनमें कई कार्यक्रमों ने तो शिक्षा और कौशल विकास के क्षेत्र में काफी बड़ी भूमिका निभाई है। बजाज, लार्सन एंड टर्बो, नेस्ले, जनरल इलेक्ट्रिक, आईटीसी, मेरिल लिंच आदि कंपनियों ने ‘स्वच्छ भारत कोष’ में भले ही कोई बड़ा अंशदान नहीं किया है, पर सामाजिक दायित्व के कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान कर रही हैं। इस बारे में अपनी स्थिति और रुख साफ करते हुए बजाज आलियांज जनरल इंश्योरेंस के प्रवक्ता ने बताया कि ‘स्वच्छ भारत कोष’ के स्थापना वर्ष में हमने इसके लिए अंशदान किया, ताकि इसके जरिए
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स्वच्छ भारत कोष में 2016-17 में योगदान करने वाले टॉप-5 सार्वजनिक उपक्रम
पावर फाइनेंस कॉरपोरेशन रूरल इलेक्ट्रीफिकेशन कॉरपोरेशन पावर ग्रिड कॉरपोरेशन एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया न्यूक्लीयर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया
54.82 करोड़ रुपए 50 करोड़ रुपए 30 करोड़ रुपए 20 करोड़ रुपए 17 करोड़ रुपए
लेकर जवानों तक, बॉलीवुड अभिनेताओं से लेकर खिलाड़ियों तक, उद्योगपतियों से लेकर आध्यात्मिक गुरुओं तक, सभी इस पवित्र कार्य से जुड़े। देश भर में लाखों लोग दिन-प्रति-दिन सरकारी विभागों, एनजीओ और स्थानीय सामुदायिक केंद्रों के स्वच्छता कार्यक्रमों से जुड़ रहे हैं। देश के हर कोने में सफाई को लेकर जागरुकता आई है। हाल में आए स्वच्छता सर्वे में भी करीब 83 फीसद लोगों ने माना कि उनके आसपास साफसफाई को लेकर पहले से हालात काफी बेहतर हुए हैं। इस बीच, देश भर में सफाई अभियानों के निरंतर आयोजनों के साथ-साथ देश भर में नाटकों और संगीत के माध्यम से सफाई के प्रति लोगों को जागरूक किया जा रहा है। बॉलीवुड हस्तियों से लेकर टीवी कलाकार भी सक्रिय रूप से इस अभियान में शामिल हुए। अमिताभ बच्चन, आमिर खान, कैलाश खेर, प्रियंका चोपड़ा जैसी प्रसिद्ध हस्तियों और सब टीवी शो ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ की पूरी टीम ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में अपना योगदान दिया। ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में सचिन तेंदुलकर, सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल और मैरी कॉम एवं अन्य कई खिलाड़ियों के योगदान भी सराहनीय हैं। ‘राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन’ को गति मिले। इसके बाद हमने पहले से चलाए जा रहे सीएसआर कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित किया, क्योंकि इसके जरिए भी हम राष्ट्र की प्रगति में बड़ा योगदान कर रहे हैं। इसमें नेस्ले जैसी कंपनियां भी हैं, जो पहले से शौचालय निर्माण और पेयजल उपलब्धता के लिए कार्य कर रही हैं। लिहाजा, स्वच्छता कोष से न जुड़कर भी ऐसी कंपनियां कहीं न कहीं ‘राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन’ की दिशा में ही काम कर रही हैं। ऐसा वह अपने सामाजिक दायित्व कार्यक्रमों के तहत कर रही हैं। जहां तक रही बात निजी संस्थाओं की तो इसमें 2015 में केरल का माता अमृतानंदमयी मठ सबसे आगे है। मठ की तरफ से स्वच्छता कोष में सौ करोड़ रुपए दान किए गए। हालांकि अगले साल कहानी बदल गई। 2015 में नई दिल्ली के बाबा खडग सिंह मार्ग पर स्थित गणेशजी मंदिर ट्रस्ट 1.5 करोड़ रुपए दान करके निजी संस्थाओं की सूची में सबसे ऊपर आ गया। इस साल इस सूची में जो दूसरे बड़े दानकर्ता प्रमुख रहे, उनमें विद्या देवी ट्रस्ट (मुंबई) ने 52 लाख और मोडाइन थर्मल सिस्टम प्राइवेट लिमिटेड (कांचीपुरम) ने 39 लाख रुपए दिए।
मिसाल बने चंद्रकांत कुलकर्णी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रेडियो कार्यक्रम 'मन की बात' में बीते साल पुणे के एक बुजुर्ग रिटायर्ड
15 अगस्त, 2015 को पीएम मोदी के भाषण में सुना कि देश में 73 फीसद लोगों के पास टॉयलेट नहीं है, मुझे बहुत दुख हुआ। उसके बाद ही अपनी पेंशन का पैसा देश के विकास में लगाने का फैसला लिया
चंद्रकांत कुलकर्णी सरकारी कर्मचारी का जिक्र करते हुए उनकी जमकर तारीफ की। ये शख्स हैं पुणे के चंद्रकांत कुलकर्णी। चंद्रकांत को 16 हजार रुपए पेंशन के तौर पर मिलते हैं। पर उन्होंने इच्छा जाहिर की है कि वे 5,000 रुपए हर महीने स्वच्छता कोष में देंगे। इसके लिए चंद्रकांत कुलकर्णी ने प्रधानमंत्री को 52 पोस्ट डेटेड चेक दान के तौर पर भेज दिए। प्रधानमंत्री ने अपनी 21वीं 'मन की बात' में कुलकर्णी का जिक्र करते हुए कहा कि वे आज हमारे बीच एक उदाहरण हैं। ‘राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन’ में बुजुर्ग कुलकर्णी का योगदान देश के लिए कितना मायने रखता है और यह अपने आप में इस मिशन के लिए कितनी बड़ी प्रेरक शक्ति है, इसका अहसास इस बात से लगाया जा सकता है कि पुणे में 'स्मार्ट सिटीज मिशन' के कार्यक्रम में शामिल होने के लिए जब प्रधानमंत्री पहुंचे तो उन्होंने खासतौर पर कुलकर्णी से मुलाकात की। पीएम ने मंच पर सबके सामने उनका आभार जताते हुए उन्हें और उनके परिवार को सम्मानित किया। नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया कि वे ‘स्वच्छ भारत अभियान’ में इस बुजुर्ग शख्स के योगदान को देखकर उनके मुरीद हो चुके हैं। इस बारे में जब कुलकर्णी से बात की गई तो उन्होंने बताया कि उन्हें प्रधानमंत्री मोदी पर पूरा भरोसा है। ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के लिए 2 लाख 60 हजार की राशि के 52 चेक देने वाले चंद्रकांत ने कहा, ‘पीएम मोदी जैसी बड़ी हस्ती मुझसे मिलने आए, यह देखकर मैं हैरान रह गया। 15 अगस्त, 2015 को पीएम मोदी के भाषण में सुना कि देश में 73 फीसद लोगों के पास टॉयलेट नहीं है, मुझे बहुत दुख हुआ। उसके बाद ही अपनी पेंशन का पैसा देश के विकास में लगाने का फैसला लिया।’ चंद्रकांत कुलकर्णी का स्वच्छता को लेकर जज्बा वाकई अभिभूत करने वाला है। वे खुद को मोदी का फैन बताते हैं। वैसे भी पीएम से मिलने के बाद कुलकर्णी खुशी और गौरव से भरे हैं। उनके ही शब्दों में, ‘ प्रधानमंत्री मोदी मेरे जैसे आम आदमी से मिलने आए, यह बड़ी बात है।’
15-21 मई 2017
सम्मान
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शिखर सम्मान
सुलभ प्रणेता को ‘संस्कृति समन्वय शिखर सम्मान’ अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति के आठवें तीन दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन में सम्मानित किए गए सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक
सु
एसएसबी ब्यूरो
लभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक को शिरडी में आयोजित अखिल भारतीय सर्वभाषा संस्कृति समन्वय समिति के आठवें तीन दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन में ‘संस्कृति समन्वय शिखर सम्मान’ से विभूषित किया गया। इस समारोह की अध्यक्षता सुविख्यात अंतरराष्ट्रीय संत महामंडलेश्वर स्वामी डॉ. प्रज्ञानदं गिरि जी महाराज ने की। इस मौके पर ‘धर्म और राजनीति का अंतःसंबधं ’ विषय पर डॉ. पाठक ने अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि आज जब धर्म, साहित्य और राजनीति को बुद्धिजीवियों ने तीन अलग-अलग सत्ताएं मान ली हैं, तो उस दौर में धर्म और राजनीति में अंतःसंबधं की साहित्यिक ढंग से की जा रही यह पड़ताल निश्चित ही अपने आप में एक जरूरी और अनूठी कोशिश कही जाएगी। इस विषय पर आगे बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘जब व्यक्ति एक समाज में साथ-साथ रहते हैं तो उनका सामान्य जीवन, सामान्य हितों को जन्म देता है, जिनकी सिद्धि में सामान्य भलाई है
और इन सामान्य हितों को सिद्ध करने का प्रयत्न करना ही राजनीति का मुख्य ध्येय होता है। भारत में गांधी जी मूलभूत रूप से अपने दर्शन में इसी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं और राजनीति को सामान्य भलाई का औजार मानते हैं।’ धर्म और राजनीति के संबधं को लेकर डॉ. पाठक ने कहा, ‘जब धर्म और राजनीति दोनों ही समाज-सापेक्ष हैं, तो इन दोनों में अंतःसंबधं होना
तो स्वाभाविक है ही। धर्म और राजनीति दोनों का अस्तित्व ही समाज है। और चूकि ं समाज व्यक्ति से बनता है, इसीलिए धर्म और राजनीति दोनों का ही संबधं व्यक्ति से भी जुड़ जाता है। भारतीय दर्शन में धर्म को जीवन में धारण करने, समझने और परिष्कृत करने की विधि बताया गया है। धर्म के नियमों का पालन करना ही धर्म को धारण करना है। दुनिया के तमाम विचारकों ने यह भी कहा है कि सृष्टि और स्वयं के हित
और विकास में किए जानेवाले सभी कर्म धर्म ही हैं। धर्म आत्मा के उद्धार का, आत्मा के उत्थान की एक सुव्यवस्थित पद्धति है, जिसका अनुसरण कर हम एक सुदं र समाज का निर्माण कर सकते हैं।’ सुलभ प्रणेता के शब्दों में, ‘राजनीति, धर्म और साहित्य हमारी सामाजिक चेतना का प्रयाग है। इसमें गंगा-यमुना-सरस्वती तीनों एक साथ प्रवाहित होती हैं।’
प्रेरक संबोधन
सहयोग और समन्वय से पूरा होगा
स्वच्छ भारत मिशन एसएसबी ब्यूरो
‘स्वच्छबड़ाभारतसंकल्पमिशन’लियाकेहै लिएऔर सुवहलभइसने
राष्ट्रीय मिशन को पूरा करने में प्राणपन से जुटा है। ये बातें सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक ने 11 मई को नई दिल्ली स्थित पीएचडी चैंबर ऑफ कॉमर्स में आयोजित ‘इंडिया इंटरनेशनल सीएसआर कॉन्क्लेव एंड अवार्ड- 2017’ में कहीं। डॉ. पाठक कॉन्क्लेव को संबोधित करने वाले विशिष्ट वक्ताओं में से एक थे। गौरतलब है कि यह कॉन्क्लेव सीएसआर (कॉरपोरेट सोसल रिस्पांसब्लिटी) के बारे में चर्चा करने का आदर्श प्लेटफार्म है। इस मौके पर डॉ. पाठक ने ‘स्वच्छ भारत मिशन’ को पूरा करने की चुनौती देश के सामने है, जिसे सरकार के साथ कारोबारी जगत और
सुलभ इंटरनेशनल मिलकर पूरा कर सकता है। उन्होंने कहा, ‘यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि तकरीबन आधे भारतीयों के पास शौचालय नहीं है और वे शौच के लिए खुले में जाते हैं। इस समस्या को दूर करने के लिए सुलभ के 50 हजार प्रतिबद्ध स्वयंसवे क पूरे देश में काम कर रहे हैं। जब ‘स्वच्छ भारत मिशन’ शुरू हुआ तो इसे पूरा करने के लिए सुलभ ने भारती भारती फाउंडश े न, ओएनजीसी, मारुति, एचडीएफसी बैंक, एसबीआई और टीएचडीसीआईएल जैसे कॉरपोरेट फर्मों के साथ मिलाया। हाल में ही हमने करीब 12 हजर शौचालय पंजाब के ग्रामीण क्षेत्रों में बनवाया है।’ डॉ. पाठक ने जोर देकर कहा, ‘अगर सही तालमेल के साथ स्वच्छता आंदोलन आगे बढ़े तो कौशल विकास के विविध आयामों के समन्वय और तीव्र क्रियान्वयन के साथ वांछित
नतीजे तक पहुंचा जा सकता है। इससे भारत को न सिर्फ गंदगी से आजादी मिलेगी, बल्कि बड़ी संख्या में लोगों को स्वच्छता अभिप्रेरक और कारीगर के तौर पर रोजगार भी मिलेगा।’ सुलभ प्रणेता ने उम्मीद जताई कि कॉरपोरेट सेक्टर के साथ सरकार और समाज स्वच्छता और शौचालय निर्माण से जुड़ी चुनौती को सिर्फ आर्थिक सहयोग के तौर पर नहीं लेंग,े बल्कि ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के लिए धरातल पर कार्य करने के प्रभावी ढंग और सीएसआर के लिए प्रतिबद्ध कैडर निर्माण करने के तौर पर भी लेंग।े कॉन्क्लेव को जिन और विशिष्ट लोगों ने संबोधित किया, उनमें आईआईसीए के सीईओ भास्कर चटर्जी, कारुण्या यूनिवर्सिटी के चांसलर डॉ. पॉल दिनाकरन और ‘स्वच्छ भारत मिशन’ की ब्रांड एंबस े ड े र शाजिया इल्मी आदि शामिल थीं।
04 बातचीत
15-21 मई 2017
भविष्य का बल है सीआईएसएफ सीआईएसएफ कामकाज
केंद्रीय सुरक्षा बल (सीआईसीएफ) देश का न सिर्फ सबसे बड़ा अर्द्ध सैनिक बल है, बल्कि इसके ऊपर महत्वपूर्ण लोगों से लेकर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के उपक्रमों का भी सुरक्षा दायित्व है। तनाव और दूसरी तरह की आपात स्थितियों में सीआईएसएफ के जवानों को ही सबसे पहले तैनात किया जाता है। ऐसे में देश के इस प्रमुख सुरक्षा बल के कामकाज का अंदरूनी तंत्र कैसा है और कैसे वह भविष्य की चुनौतियों को लेकर खुद को तैयार कर रहा है, यह जानना दिलचस्प है। इसी सिलसिले में रीता सिंह ने बातचीत की सीआईएसएफ के डीजी ओपी सिंह से। प्रस्तुत है इसी बातचीत के प्रमुख अंश-
एक नजर
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल का गठन 1939 में हुआ था
1969 के बाद से औद्योगिक सुरक्षा की भी मिली जिम्मेदारी ‘कॉस्ट रिंबर्समेंट बेसिस’ पर काम करता है सीआईएसएफ
सी
आईएसएफ अर्द्ध सैनिक बल है, पर यह सीमा पर नहीं है। यह उस वक्त सुर्खियों में आया जब कंधार विमान अपहरण मामला सामने आया। आप एनडीआरएफ में भी थे और अभी सीआईएसएफ में हैं। इस तरह आप सीआईएसएफ में क्या खास देखते हैं? देखिए, जितने भी अर्द्ध सैनिक बल हैं, वे सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्सेज हैं। वो चाहे सीआरपीएफ हो, बीएसफ हो, आईटीबीपी हो, सभी का एक ही काम है, एक जैसा चरित्र है। सबसे पुराना इसमें सीआरपीएफ है, जिसका जन्म 1939 में हुआ। जब किसी राज्य में आंतरिक सुरक्षा का संकट या विरोध की स्थिति आ जाए, तो उससे निपटने के लिए सीआरपीएफ का गठन किया गया। इसी तरह दूसरे अर्द्ध सैनिक बलों का भी निर्माण हुआ। अलबत्ता, सीआईएसएफ को एक एक्सक्लूसिव कैरेक्टर दिया गया है। इसके पीछे एक अहम घटना जुड़ी है। 1969 में रांची के हेवी इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन (एचईसी) में आग लगी और इस कारण वहां सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया। स्थानीय पुलिस ऐसी स्थिित को काबू करने में असमर्थ थी। उसी समय हमारे योजनाकारों ने यह सोचा कि औद्योगिक सुरक्षा के लिए अलग से बल होना होना चाहिए। आपको
मालूम होगा कि 1956 में जब औद्योगिक नीति आई तो उसमें औद्योगिकीकरण पर खासा जोर था और मिश्रित अर्थव्यवस्था की बात कही गई थी। उसी दौर में कोयला खनन और ऊर्जा से क्षेत्रों में बड़े-बड़े सार्वजनिक उपक्रम सामने आए। तब इन उपक्रमों को प्रोफेशनल ढंग से सुरक्षा देने की चुनौती देश के सामने थी। इस चुनौती पर विचार करने के लिए एक समिति बनाई गई और उसने ही एक नए बल के गठन का प्रस्ताव दिया। इस तरह सीआईसएएफ को औद्योगिक सुरक्षा के साथ राष्ट्रीय संपत्ति की सुरक्षा का बड़ा दायित्व सौंपा गया। कालांतर में सीआईएसएफ के प्रोफाइल में और भी बदलाव आए। इसमें सबसे अहम था हवाईअड्डों की सुरक्षा की जवाबदेही। इसके लिए 2001 में जयपुर में पहली बार हमारी तैनाती हुई। आज सीआईएसएफ के जिम्मे देश के 59 हवाईअड्डों की सुरक्षा है। आज जो सीआईएसएफ का प्रोफाइल है, वो औद्योगिक से आगे बढ़कर क्रिटिकल इंफ्रास्ट्रक्चर तक पहुंच गया है। नतीजतन, आज हम सिर्फ सार्वजिनक
उपक्रमों को ही नहीं, बल्कि परमाणु ऊर्जा इकाइयों, अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्रों, दिल्ली मेट्रो, हवाईअड्डों और बंदरगाहों को भी सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं। आज हमारी सुरक्षा निगरानी के तहत 332 इकाइयां हैं। धीरे-धीरे हमने निजी क्षेत्र के उपक्रमों को भी सुरक्षा प्रदान करना शुरू किया है। असल में 11/26 के हमले के बाद पूरी दुनिया में यह धारणा बनी कि भारत एक असुरक्षित देश है। इंफोसिस और रिलायंस जैसी कंपनियों ने भारत सरकार से संपर्क किया और कहा कि हमें एक प्रोफेशनल बल दिया जाए, ताकि हम अपने ‘क्विक रिस्पांस टाइम’ को कम कर सकें और पूरी दुनिया को दिखा सकें कि हम न सिर्फ सुरक्षित हैं, बल्कि हमारी अर्थव्यवस्था भी सुरक्षित है। निजी क्षेत्र की वे कौन सी कंपनियां हैं, जिन्हें आप सुरक्षा मुहैया करा रहे हैं और क्या आप इसके बदले उनसे कुछ चार्ज भी करते हैं? जी हां, चार्ज करते हैं। 10-2009 में सात और
‘26/11 के हमले के बाद इंफोसिस और रिलायंस जैसी कंपनियों ने भारत सरकार से संपर्क कर कहा कि हमें एक प्रोफेशनल बल दिया जाए, ताकि हम अपने ‘क्विक रिस्पांस टाइम’ को कम कर सकें
अब नौ ऐसी निजी क्षेत्र की कंपनियां हैं, जिन्हें हम सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं। इनमें इंफोसिस, रिलायंस की जामनगर इकाई, इलेक्ट्रॉनिक सिटी (बेंगलुरु), कोस्टल पावर लिमिटेड (गुजरात), टाटा स्टील (कलिंग नगर), पतंजलि और आईटी पार्क रिलायंस (मुंबई) शामिल हैं। हमारे लिए यह वाकई बड़ा दायित्व है कि निजी क्षेत्र के उपक्रमों को भी हम सुरक्षा को लेकर उतना ही भरोसा दें, जितना हम सार्वजिनक क्षेत्र को मुहैया कराते हैं। चूंकि हमारे पास सुरक्षा को लेकर उच्च स्तर की योग्यता और दक्षता है, लिहाजा हम सुरक्षा संबंधी परामर्श का भी कार्य करते हैं। अभी तक हमने 134 यूनिटों को इस तरह की सेवा दी है। इस तरह के कार्य से हमने करोड़ों रुपए कमाए, जिसे हमने सरकार को दे दिया। दरअसल, देश में सीआईएसएफ अकेला ऐसा बल है, जो ‘कॉस्ट रिंबर्समेंट बेसिस’ पर काम करता है। हम जिसे भी अपनी सेवाएं देते हैं, बदले में उससे चार्ज करते हैं, फिर वे चाहे सार्वजनिक उपक्रम हों, निजी या हवाईअड्डे। कमांडो ट्रेनिंग के बारे में कुछ बताएं? कमांडो की जरूरत है, क्योंकि आपात स्थिति में ‘क्विक रिस्पांस टाइम’ का बहुत महत्व है। कमांडो की सेवा आमतौर पर हम उन लोगों को देते हैं, जिनकी सुरक्षा को ज्यादा खतरा हो। हम उन्हें वीआईपी के लिहाज से नहीं, बल्कि खतरे के लिहाज से सुरक्षा देते हैं। मसलन, केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली, केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू आदि को हम कमांडो सुरक्षा दे रहे हैं। ऐसे 75 लोग हैं, जिन्हें हम एक्स-वाई जैसी अलग-अलग श्रेणियों में सुरक्षा दे रहे हैं और इस काम में हमारे करीब 2500 जवान लगे हैं। इन जवानों की तैनाती को एक तो हम क्रम से बदलते रहते हैं, दूसरे उन्हें हम शारीरिक, मानसिक और रणनीतिक तौर पर दक्ष बनाने के लिए सघन प्रशिक्षण देते हैं। अभी कुछ दिन पहले ही हमने राष्ट्रीय औद्योगिक सुरक्षा एजेंसी, हैदराबाद में एक रणनीतक शाखा शुरू की है। इसमें हम जवानों को विशेष शारीरिक कौशल से लेकर विषम परिस्थितयों में तीव्र आक्रामक कार्रवाई
रैपिड फायर राउंड
- देश में सबसे सुंदर जगह? राजस्थान। - आराम के क्षणों में क्या करना पसंद? किताबें पढ़ना। - इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं? कई किताबें पढ़ रहे हैं। खासतौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा पर आधारित कहानियों की कुछ किताबें। विदेश मामलों को लेकर भी कुछ किताबें पढ़ रहा हूं। - सबसे प्रिय लेखक? झुंपा लाहिड़ी। - पसंदीदा इत्र? पोलीस। - आपके शौक? बैडमिंटन, टेनिस, गोल्फ खेलने के अलावा टीवी और फिल्में देखना। - सीआईएसएफ में कैसे आए? मैंने प्राध्यापन से शुरुआत की। दिल्ली विश्वविद्यालय में एक साल पढ़ाने के बाद पुलिस
तक के बारे में प्रशिक्षण दे रहे हैं। सीआईएसएफ के साथ जो एक बात और उल्लेखनीय है, वह यह कि हम तकनीक का काफी इस्तेमाल करते हैं। ऐसा हमारे लिए इसीलिए भी जरूरी है, क्योंकि कई सरकारी इमारतों-दफ्तरों की सुरक्षा हमारे जिम्मे है। मसलन, नई दिल्ली में नार्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक और सीजीओ कॉम्पलेक्स आदि। इन जगहों की सुरक्षा के लिए हम केवल मैन पावर पर निर्भर नहीं रह सकते, लिहाजा डिटेक्टर से लेकर स्कैनर तक हम लेटेस्ट टेक्नोलॉजी के साथ सुरक्षा प्रबंध को चाक-चौबंद करते हैं। जवानों पर मानसिक दबाव को लेकर आप क्या कहेंगे, क्योंकि इसके गंभीर दुष्परिणाम देखने में आ रहे हैं। खुद आपका भी इस बारे में बयान है कि जवानों पर 50 फीसद स्ट्रेस पारिवारिक कारणों से होता है। ऐसे में जवानों को तनावमुक्त रखने और उनके कल्याण के लिए आप क्या कदम उठा रहे हैं? जी, बिल्कुल सही कहा है आपने। चाहे मामला बीएसफ का हो, सीआईएसएफ का हो या सीआरपीएफ का, आंतरिक सुरक्षा के कार्य में लगे सभी जवानों को काफी हार्ड ड्यूटी करनी होती है। स्वाभाविक तौर पर एक तो जवानों को प्रोफेशनल स्ट्रेस रहता है, दूसरे आज के जमाने में कई तरह के मानसिक तनाव भी रहते हैं। इससे निपटने के लिए हरेक फोर्स ने कुछ मैकेनिजम डेवलप किए हैं, जिससे हम जवानों के तनाव को कम कर सकें या दूर कर सकें। हम अपने यहां जवानों को मानसिक तनाव से निपटने के लिए कई गतिविधियां चलाते हैं, इनमें योग और ध्यान शामिल हैं। इससे तनाव मुक्ति में काफी मदद मिलती है, लेकिन अगर इसके बावजूद लगता है कि जवान तनावग्रस्त है तो हम काउंसलिंग की मदद लेते हैं। इसके अलावा अलगअलग स्तरों पर भी कुछ समस्याएं रहती हैं, जैसे लोकल, जोनल, हेडक्वार्टर या फिर हमारे लेवल पर। हम चाहते हैं कि अलग-अलग स्तरों पर उन्हें
में आ गया। मुझे यह प्रोफेशन पसंद है, इसीलिए इसका चयन किया। मुझे एक सच्चा पुलिसमैन होना और कहलाना पसंद है। - सबसे खूबसूरत लम्हा? न्याय और सुरक्षा के लिए अपनी सेवाएं उपलब्ध कराने से बड़ा और क्या सुख हो सकता है, इससे बड़ा संतोष और क्या होगा। - पसंदीदा हीरो? रितिक रोशन। - पसंदीदा हीरोइन? प्रियंका चोपड़ा। - हाल में कौन सी फिल्म देखी? अक्षय कुमार की ‘एयरलिफ्ट’। - क्या बनने का सपना था? वकील। - आपका रोल मॉडल? स्वयं।
तत्परता से दूर किया जाए। रही निजी या पारिवारिक समस्या की बात तो इसके लिए हम काउंसलिंग के दौरान अलग से कोशिश करते हैं। बात अगर गांव के स्तर की हो, किसी पड़ोसी के कारण कोई समस्या हो, भूमि विवाद हो या स्थानीय स्तर की कोई दूसरी समस्या है तो इसके लिए हम स्थानीय पुलिस की मदद लेते हैं। हम संबंधित क्षेत्र के आरक्षी अधीक्षक को इसके लिए पत्र लिखते हैं कि आप अपने स्तर से इसे देख लें, क्योंकि हम जवान को इसके लिए ज्यादा लंबा अवकाश नहीं दे सकते। कुछ समस्याएं वैवाहिक या घरों में बुजुर्गों की देखरेख जैसी समस्याओं से जुड़ी होती हैं। इसके लिए भी हम काउंसलिंग की मदद लेते हैं। इस सिलसिले में जो एक बात और मैं बताना चाहूंगा, वह यह कि ‘सीआईएसएफ वाइव्स वेलफेयर एसोसिएशन’ है, जिसे हम ‘संरक्षिका’ कहते हैं, इसमें डीजी का पत्नी अध्यक्ष होती हैं और दूसरे अधिकारियों की पत्नियां भी अलग-अलग जिम्मेदारियां संभालती हैं। एसोसिएशन की नियमित बैठक होती है। इसके जरिए हम काउंसलिंग का कार्य तो करते ही हैं, कई तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम भी करते हैं। बच्चों को भी ध्यान में रखकर कई कार्यक्रम होते हैं। इन तमाम गतिविधियों से भी जवानों का स्ट्रेस कम करने में मदद मिलती है। आपके पास कोई आंकड़ा होगा, जिससे पता चले कि इनसे कितने लोगों को लाभ मिला? देखिए यह एक डायनेमिक प्रोसेस है। काउंसलिंग हमेशा होती रहती है। ऐसा नहीं कि यह महीने में एक या दो बार होती रहती है। इसके अलावा मैं स्वयं लोगों से मिलता हूं। मैंने एक नया आदेश जारी किया है कि कोई भी जवान अपनी समस्या को लेकर मुझे सीधे ईमेल कर सकता है, फोन कर सकता है। चाहे तो हमारी वेबसाइट पर जाकर ऑनलाइन अपनी बात कह सकता है। मैं हर सोमवार को परेशान चल रहे जवानों से मिलता हूं। पिछले सोमवार को भी मैंने करीब 50 जवानों की समस्याएं सुनी। इस तरह
15-21 मई 2017 की पहल हम ऊपर से नीचे तक हर अधिकारी के स्तर पर करते हैं। इसी तरह की पहल ‘संरक्षिका’ भी अपनी तरफ से करती है। हाल में छुट्टियों के लिए अलग से एक लीव कमेटी बनाई है। अब जवान खुद भी परादर्शी तरीके देख सकेंगे कि कैसे हम प्रथमिकता के आधार पर छुट्टियों के बारे में फैसला लेते हैं। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर भी हम कई तरह की पहल करते हैं। कुछ जवानों का कहना है कि जब हम मांगते हैं तब हमें अवकाश नहीं मिलता है। छुट्टी दोतीन महीने बाद मिलती है, जब इसका कोई मतलब नहीं रह जाता है? यह कहना गलत है कि जरूरत पड़ने पर जवानों को छुट्टी नहीं मिलती। असल में, हमारे पास एक लाख 80 हजार जवान हैं। छुट्टियां देते वक्त ध्यान रखना पड़ता है कि हमारी कोर ड्यूटी कहीं प्रभावित न हो। फिर हम लोग ड्यूटी करने के लिए ही तो हैं, न कि छुट्टियां लेने के लिए। ऐसे में ध्यान रखना होता है कि हमारी ड्यूटी प्रभावित न हो। मान लीजिए किसी की शादी होनी है और किसी की भतीजी की शादी होनी है तो हम प्राथमिकता के आधार पर उसे अवकाश देना चाहेंगे, इसमें जो एक जरूरी बात है, वह यह कि हमें अपना जीवन काफी प्लान्ड-वे में जीना होता है और अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होती है। कुछ अरसे पहले कई जगहों पर जवानों के खाने को लेकर लापरवाही और भेदभाव के मामले सामने आए थे? हमारे यहां क्वालिटी ऑफ फूड काफी है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ग्रास रूट लेवल पर हमने मेस कमेटी बनाई है, जिसका संचालन जवान खुद करते हैं। खाने के समान की खरीद-फरोख्त के लिए अलग से परचेज कमेटी है। इसमें जवान बजार से सैंपल लाकर खुद खरीदारी करते हैं। मेस कमेटी देखती है कि खाना अच्छे तरीके से बनाया जाए। हमने अभी मेस ऑडिट का भी आदेश दिया है। हमने यह कहा है कि हर लोकल कमांडर न्यूट्रीशन एक्सपर्ट से मिलेगा और वह उनको बताएगा कि एक हेल्दी डाइट के लिए कितनी कैलोरी जरूरी है। यह भी कि हम तेल, मिर्च, नमक आदि का कितना कम प्रयोग करें, ताकि बीमारियों से बचे रहें। इस तरह की पहल हम समय-समय पर करते रहते हैं और यही कारण भी है कि सीआईएसएफ में खानपान का स्तर काफी अच्छा है। आप महत्वपूर्ण और विशिष्ट लोगों की सुरक्षा करते हैं। देखने में यह भी आया है कि कई बार ऐसे लोगों के कारण हवाईअड्डों पर परेशानी काफी बढ़ जाती है? देखिए वीआईपीज अपने आप में कोई समस्या नहीं हैं। सब आजाद परिंदे की तरह रहना चाहते हैं। कोई नहीं चाहता कि अलग से कोई टोका-टोकी हो। अलग से सुरक्षा भी कोई नहीं चाहता है। हम लोग तो बस अपनी ड्यूटी को सर्वोपरि मानते हैं। हां, यह जरूर है कि सुरक्षा के लिहाज से कुछ नियम-कायदे तय करने पड़ते हैं, जिसका पालन सबको करना होता है। मसलन, एयरपोर्ट पर एक्सेस कंट्रोल हमारा है तो स्वाभाविक तौर पर जिनके पास मान्य आईडी और टिकट होंगे हम उन्हीं को अंदर आने की इजाजत देंगे। कई बार लोगों के पास मान्य आईडी नहीं होते, टिकट भी फर्जी बनवा लेते हैं। ऐसे में हमें पूरी पड़ताल करनी पड़ती है और कई
बातचीत
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बार सामने आता है कि फलां आदमी अंदर जाने लायक नहीं है। ऐसे में कुछ लोग नाराजगी दिखाने लगते हैं पर हम बहुत विनम्रता से उन्हें समझाते हैं और वे मान भी जाते हैं। आपको यह जानकर खुशी होगी कि हमारी सुरक्षा को दुनिया की बेहतरीन सुरक्षा व्यवस्थाओं में से एक माना गया है। हम सुरक्षा का हर कार्य विनम्रता और सहयोग की भावना के साथ तत्परता से करते हैं। साथ ही यह भी ध्यान रखते हैं कि कोई सुरक्षा चूक न रह जाए। हमारी इन्हीं कसौटियों के कारण दुबई, फ्रैंकफर्ट, हिथ्रो जैसे कई अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डों से दिल्ली, हुबली, हैदराबाद और बेंगलुरु आदि के हवाईअड्डों की सुरक्षा व्यवस्था ज्यादा बेहतर आंकी गई है। इन सब बातों का श्रेय सीआईएसएफ के अधिकारियों और जवानों को जाता है। सीआईएसएफ में महिलाओं की भर्तियां भी बड़े पैमाने पर हो रही हैं तो उनके लिए क्या कल्याणकारी योजनाएं हैं? यह सही है कि सीआईएसएफ में अन्य संस्थाओं के मुकाबले महिलाओं की संख्या ज्यादा है। हमारे यहां कुल कार्यबल का 5.63 फीसदी महिलाएं हैं। महिलाओं की समस्याएं अलग तरह की होती हैं। लिहाजा, उनके लिए वेलफेयर एंगल अलग होता है। हमारी बहुत सी महिला जवान दिल्ली मैट्रो और हवाईअड्डों पर तैनात हैं, जहां भारी संख्या में महिलाएं सफर करती हैं, जिनकी सुरक्षा का अलग से ख्याल रखना जरूरी है। कुछ उनकी समस्याएं होती हैं, जैसे बच्चों की देखभाल, मातृत्व अवकाश आदि। इनके बारे में हम काफी चिंतित रहते हैं और जरूरी फैसले लेते हैं। महिला जवान कार्यस्थल पर कैसे सुरक्षित रहें, इसके लिए हम उन्हें अलग से प्रशिक्षण देते हैं। लैंगिक भेदभाव किसी स्तर पर न हो, इसके लिए हम अतिरिक्त रूप से संवेदनशील रवैया अपनाते हैं, ताकि किसी तरह की कोई समस्या पैदा ही न हो। मुझे लगता है कि इस कार्य में ‘संरक्षिका’ ज्यादा अहम भूमिका निभाती होगी? जी हां, इसमें ‘संरक्षिका’ की भूमिका बहुत ज्यादा है। इस बारे में ‘संरक्षिका’ नियमित तौर पर बैठकें और कार्यशालाएं आदि आयोजित करती है, जिनमें युवा लड़कियों और महिलाओं को यह बताया जाता है कि वह कैसे अपने आपको ज्यादा प्रोफेशनल बनाएं। यह भी कि घर और बाहर के काम के बीच कैसे संतुलन बैठाया जाए। भविष्य के लिए क्या नई योजनाएं हैं? सीआईएसएफ का बहुत ही सुंदर भविष्य है और इसीलिए इसे भविष्य का फोर्स कहा जाता है। फिर जिस तरह से औद्योगिकरण हो रहा है, विनिर्माण इकाइयां लग रही हैं और विदेशी निवेश बढ़ा है, उसमें साफ लग रहा है कि हम काफी आगे निकल रहे हैं। अकेले उड्डयन क्षेत्र में 23 फीसदी की विकास दर दर्ज करी है। ऐसे में हमारी भूमिका भी बढ़ रही है। हमारा देश की प्रगति में अहम रोल होगा। आने वाले पांच-दस वर्षों में हमें न सिर्फ अपना विस्तार करना है, बल्कि इस विस्तार में तकनीक और गुणवत्ता का अधिकतम समावेश बनाए रखना है। डिजिटल इंडिया से लेकर मेक इन इंडिया के लक्ष्य के साथ हमें सर्विस एट द डोरस्टेप, सुरक्षा मुस्कान और विनम्रता के साथ जैसे अपने उच्च मानकों को पूरा करना है और यही आगे चलकर हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।
06 पर्यावरण
15-21 मई 2017
असम में बाघों का संरक्षण रंग लाया, बढ़ी आबादी ! बाघ संरक्षण
असम में बाघों की जनसंख्या में महत्वपूर्ण बढ़ोतरी दर्ज की गई है
अ
राज कश्यप / गुवाहाटी
सम में बाघों की जनसंख्या ने पिछले साल की तुलना में इस साल दोगुना वृद्धि दर्ज की है। मानस नेशनल पार्क के डायरेक्टर एच के सरमा ने मीडिया को बताया कि पार्क में 30 बाघ हैं, जो पिछली साल की गणना से 16 अधिक हैं। उन्होंने कहा कि पार्क के एक-तिहाई हिस्से, यानी पनबारी सेक्टर को नवीनतम जनगणना में शामिल किया गया। असम में बाघों के संरक्षण के चार स्थानों में से दो विश्व धरोहर स्थलों-मानस नेशनल पार्क और काजीरंगा नेशनल पार्क शामिल हैं। इसके अलावा हाल ही में सोनितपुर जिले में ब्रह्मपुत्र नदी के उत्तरी तट पर स्थित ओरांग राष्ट्रीय उद्यान को भी शामिल किया गया है। मानस नेशनल पार्क में 24 वयस्क बाघों में से 12 नर और 11 मादा हैं। इसके अलावा बाकी बचे बाघ
सब वयस्क हैं। ओरंग नेशनल पार्क में हुई जनगणना में 28 बाघों की संख्या दर्ज की गई है, जबकि काजीरंगा नेशनल पार्क और नामेरी नेशनल पार्क के आंकड़े अभी तक घोषित नहीं किए गए हैं। हालांकि अधिकारियों ने बताया है कि बाघों की जनसंख्या इन दोनों पार्कों में भी बढ़ने की संभावना है। असम के चार पार्कों के अलावा पूर्वोत्तर में तीन और पार्क बाघों के भंडार हैं। इनमें से दो पक्के और नामदाफा अरुणाचल प्रदेश में और एक दम्पा मिजोरम में स्थित है। पिछले कुछ सालों से पूर्वोत्तर के सभी पार्कों में बाघ संरक्षण लगातार सुधर रहा है। बाघों की आबादी 2014 में बढ़कर 201 हो गई है, जो 2010 में 148 थी और यह वृद्धि असम में सबसे ज्यादा दर्ज
की गई। पूर्वोत्तर के पास दो बाघ संरक्षण इकाइयां हैं, जिनमें से एक में मानस टाइगर रिजर्व शामिल है, जो भूटान और अरुणाचल प्रदेश में फैला है, जबकि दूसरा काजीरंगा और मेघालय तक फैला है। बता दें कि असम के अधिकतर पार्कों में बोडो समस्या के दौरान जंगलों और वन्यजीवों का विनाश हुआ था। बोडो विद्रोही समूहों-बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स और नेशनल डेमोक्रेटिक फ्टरं ऑफ बोडोलैंड ने पार्कों में अस्थायी शिविर स्थापित किए थे, जिसमें मानस नेशनल पार्क ज्यादा प्रभावित हुआ था। उस समय यहां से यूनसे ्को विश्व धरोहर स्थल का प्रतिष्ठित टैग हटा दिया गया था। तब पार्क के अधिकारी रिजर्व से विद्रोहियों और शिकारियों को बाहर निकालने के
असम के चार पार्कों के अलावा पूर्वोत्तर में तीन और पार्क बाघों के भंडार हैं। इनमें से दो पक्के और नामदाफा अरुणाचल प्रदेश में और एक दम्पा मिजोरम में स्थित है
एक नजर
मानस नेशनल 30 बाघ
पार्क
में
हैं
ओरंग नेशनल पार्क में बाघों की संख्या 28 है काजीरंगा और नामेरी नेशनल पार्क के आंकड़े अभी नहीं हुए जारी
लिए अत्यधिक सक्रिय हो गए हैं। यदि भूटान से लगे रॉयल मानस नेशनल पार्क को भी गिना जाए तो पार्क में और अधिक बाघ होंग।े सीमा पार्क की तरफ से बहने वाली मानस नदी भारत और भूटान के बीच की सीमा को अलग करती है। पार्क में विशाल पर्णपाती जंगल हैं, जहां अक्सर घने आवरण प्रकाश को ढक ़ं लेते हैं। इसकी गीले घास के मदै ान, पानी भैंस, हाथी, गैंडे और शेर का घर हैं। मानस दुर्लभ प्रजाति के स्वर्ण लंगरू ों की अधिक आबादी के लिए प्रसिद्ध है, जो केवल देश के इसी हिस्से में पाया जाता है। वे अक्सर लंबें पेड़ों पर देखे जाते हैं। पार्क कम से कम 55 स्तनधारी प्रजातियों, 36 सरीसृप प्रजातियों और 3 उभयचर प्रजातियों को आश्रय देता है, जिससे यह संख्याओं के मामले में भारत का सबसे ज्यादा संरक्षित क्षेत्र बन गया है। बाघों के अलावा अन्य प्रजातियों के वन्यजीवों ने भी असम में बढ़ोतरी दर्ज की है। राज्य में जंगली हाथियों की संख्या बढ़ी है, जिनमें से 5620 हाथी 2011 में गिने गए थे, जो कि 2002 के 5246 के मुकाबले ज्यादा थे। हाल ही के वर्षों में जंगलों की कटाई और अतिक्रमण के परिणामस्वरूप मनुष्यों और हाथियों के बीच संघर्षों में वृद्धि हुई है। एक सींग वाले गैंडों की जनसंख्या 1999 में 1672, 2006 में 2006 और 2009 में 2201 थी। अधिकारियों ने कहा कि इसके लिए भविष्य में सकारात्मक प्रवृत्ति बनाए रखी जा सकती है और इसे नियंत्रण में भी लाया जा सकता है। खासतौर पर एक सींग वाले गैंडो का शिकार काजीरंगा और ओरांग राष्ट्रीय उद्यानों में सबसे अधिक होता है। एक अनुमान के मुताबिक गैंडो का काला बाजार चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ हिस्सों में 300,000 अमरीकी डालर प्रति किलोग्राम में होता है। क्योंकि इसका मुख्य रूप से उपयोग परंपरागत दवाओं के निर्माण और सभी चीजों के इलाज में किया जाता है। वहीं इसी तरह की काला बाजारी बाघों के शिकार को भी बढ़ावा देता है। असम के पार्कों में बाघों और गैंडों का शिकार करने में स्थानीय आतंकवादी संगठनों की सहभागिता का संदहे हो गया है। बाघ आरक्षित घोषित होने के कुछ दिन बाद ही ओरंग पार्क के अधिकारियों को गश्त के दौरान तीन साल पहले की पुरानी एम 16 राइफल मिली, जिससे अधिकारियों ने अपने संदहे की पुष्टि करते हुए कहा कि शिकारियों ने अब और अधिक जटिल हथियारों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। एक महीने के बाद ही एक ऐसी ही घटना काजीरंगा में भी हुई थी। अधिकारियों ने बताया कि इस तरह के हथियार केवल आतंकवादियों के पास मिलते हैं और उच्च दर पर म्यांमार, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के चयनित स्थानों पर इसे बेचे जाने की सूचना भी मिली है।
मंुबई साफ करने में जुटी मनपा स्वच्छता मंुबई
मॉनसून आते ही मुंबईकरों के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आती हैं, लेकिन मनपा युद्धस्तर पर नालों की सफाई में जुटी है, जिससे लोगों को भरोसा हुआ कि इस बार वे डूबेंगे नहीं
‘पा
आनंद भारती / मुंबई
नी- पानी होना,’ यह मुहावरा मुबं ई के संदर्भ में दोहरा अर्थ लिए हुए है। एक मतलब जलभराव से है, तो दूसरा शर्मशार होने से। इनसे हमेशा इस शहर का पाला पड़ता है। मॉनसून आते ही मुबं ई के डूबने का खतरा हर साल बना रहता है। जीवन दायिनी जल मुबं ई के लोगों के लिए भय का एक प्रतीक बन गया है। 2005 की विनाशकारी बरसात ने शहर को जिस तरह कई दिनों तक डुबोए रखा और जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया, उससे शहर के माथे पर चिंता की एक स्थाई लकीर बन गई। कई लोग मरे, कई मकान ध्वस्त हुए, हजारों गाड़ियां बर्बाद हुईं, ट्रेनें बंद हो गईं, जो जहां रुके थे वहीं ठहरे रह गए। घर-दूकान-ऑफिस में पानी घुसा रहा, कारोबार थम गया, गंदे पानी से होने वाली बीमारियों ने तबाही मचाई। लोग खाने-पीने को तरस गए। बाहर से आए लोगों ने जो तकलीफें झेलीं, वह किसी दु:स्वप्न से कम नहीं थी। अब तो हाल यह है कि मानसून के सीजन में ज्यादातर पर्यटक मुबं ई आने से कतराने लगे हैं। उसके बाद से हर साल उस बरसात को लोग इसीलिए याद करते हैं कि फिर वैसी घटना न हो जाए और वे माहौल बनाते हैं, ताकि प्रशासन समय रहते सचेत हो जाए। सरकार-महानगर पालिका के लिए यह सब याद रखना इसीलिए जरूरी हो गया है ताकि समय से पहले नाले-नदियों को कचरा-मुक्त किया जा सके और लोगों को आश्वस्त कर सकें कि उसकी पुनरावृत्ति नहीं होने दी जाएगी। एक अच्छी बात यह है
कि इस बार शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे स्वयं पहले की अपेक्षा ज्यादा सक्रिय हो गए हैं और जगह-जगह जाकर नालों की सफाई का जायजा ले रहे हैं। महानगर पालिका पर शिव सेना का ही कब्जा है, इसीलिए उनकी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई है। पिछले सालों में शिव सेना और भाजपा मिलकर काम कर रही थी। ठाकरे की सक्रियता के कारण सफाई के काम में तेजी आई है और यह बताने की कोशिश हो रही है कि मुबं ई अब नहीं डूबगे ी। उद्धव ठाकरे ने प्रशासन को सख्त हिदायत दी है कि किसी भी काम में अब सुस्ती को बर्दाश्त नहीं की जाएगी। उन्होंने निरीक्षण के दौरान कहा, ‘मैं पिछले बीस वर्षों से नाला सफाई कार्यों का निरीक्षण कर रहा हूं। इन सालों में काफी सुधार हुए हैं। नालों के चौड़ीकरण के साथ-साथ सुरक्षा दीवारों का भी निर्माण किया गया। नाला सफाई का काम कभी पूरा नहीं होता, यह अनवरत चलता रहता है। बारिश के पहले, बारिश में और बारिश के बाद भी। इस साल समय से पहले ही सफाई का काम पूरा हो जाएगा। मुबं ई इस वर्ष भी डूबे नहीं, इसीलिए मनपा पूरी तरह सतर्क है।’ भौगोलिक स्थिति के कारण मुबं ई में कई निचले हिस्से हैं, जहां जल जमाव होता है। महानगर पालिका द्वारा पम्पिंग स्टेशन बनाए जाने से पानी की निकासी जल्दी हो जाती है। उद्धव ठाकरे ने अपने सभी नगर
सेवकों को स्पष्ट आदेश दिया कि वे अपने-अपने विभाग में सक्रिय रहें, ताकि संकट से बचा और मुकाबला किया जा सके। इस साल उद्धव ठाकरे ने निरीक्षण की शुरुआत उपनगर माहिम के रहेजा अस्पताल के समीप मीठी नदी से की। उल्लेखनीय है कि मुबं ई के बीचों-बीच चार नदियां गुजरती हैं जो अब नालियों की शक्ल में तब्दील हो गई हैं। वे नदियां हैं, मीठी, ओशिवारा, पोइसर और दहिसर। मीठी को छोड़कर बाकी तीनों नदियों के नाम से उपनगर बसे हुए हैं। ये सभी नदियां कभी मुबं ई को स्वच्छ जल उपलब्ध कराती थीं, लेकिन अतिक्रमण, बिल्डगिं निर्माण, कचरा, केमिकल ने उन्हें किसी लायक नहीं छोड़ा। ये नदियां अब गंदे पानी के जमाव के लिए प्रसिद्ध हो गईं हैं और बीमारियां फैलाने में अहम भूमिका निभा रही हैं। मीठी नदी की सफाई पर तो अब तक करोड़ों रुपए स्वाहा हो चुके हैं, लेकिन उसका न तो रूप बदला है और न रंग और गंध। वहां से गुजरना एक त्रासद अनुभव है। ओशिवारा, पोइसर और दहिसर नदियों की हालत को देखते हुए स्थानीय लोगों ने अन्य संगठनों की मदद से स्वयं सफाई का काम शुरू कर दिया है। वे सिर्फ प्रशासन के भरोसे बठै ना नहीं चाह रहे हैं। पिछले दिनों एक अच्छी खबर यह मिली कि ‘वॉटरमनै ऑफ इंडिया’ के नाम से विख्यात राजेंद्र सिंह ने बरसाती नाले, मुबं ई की मृतप्राय हो चुकी जीवनदायी नदियों को पुनर्जीवित करने का अभियान शुरू किया है, ताकि इनमें फिर से स्वच्छ और कलकल पानी बह सके। उन्होंने इसकी शुरुआत कांदिवली स्थित पोइसर नदी से की। उनके साथ उत्तरी मुबं ई के बीजेपी सांसद गोपाल शेट्टी, चारकोप के विधायक योगेश सागर सहित रिवर मार्च वॉलनटियर्स शामिल थे। राजेंद्र सिंह के नेततृ ्व में कांदिवली पोइसर में करीब साढ़े तीन किलोमीटर तक रिवर मार्च का आयोजन किया गया। अभियान में विभिन्न स्कूलों के सैकड़ों छात्र समेत करीब 2,500 लोगों ने हिस्सा लिया। सिंह ने इस मौके पर कहा कि ‘जीवनदायी नदियों को फिर से जल से भरना जरूरी है। अगर जल है तो कल है, क्योंकि जल के बिना जीवन कुछ भी नहीं है। इसीलिए शहर की जरूरतों को देखते हुए इन नदियों पर ध्यान
ओशिवारा, पोइसर और दहिसर नदियों की हालत को देखते हुए स्थानीय लोगों ने अन्य संगठनों की मदद से स्वयं सफाई का काम शुरू कर दिया है। वे सिर्फ प्रशासन के भरोसे बैठना नहीं चाह रहे हैं
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स्वच्छता
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एक नजर
उद्धव ठाकरे खुद कर रहे हैं सफाईव्यवस्था निरीक्षण
मुंबई की नदियों को साफ करने की मुहिम
राजेंद्र सिंह पोइसर नदी की सफाई के लिए हुए सक्रिय
देना आवश्यक है।’ सांसद गोपाल शेट्टी ने भी मुहिम की सराहना करते हुए आश्वस्त किया, ‘मैं और मेरी पार्टी पूरी तरह से इस मुहिम में साथ हैं। मैं चाहता हूं कि मुबं ई की नदियां फिर से साफ पानी उगलने लगे और जलसंकट को दूर कर सके। स्थानीय लोग भी अभियान में सहयोग देंग,े ताकि यह मिशन पूरा किया जा सके।’ विधायक योगेश सागर ने भी पोइसर नदी को जीवित करने का संकल्प किया। उन्होंने कहा, ‘जहां से पोइसर नदी की शुरुआत होती है, वहां से 5 किलोमीटर तक की साफ-सफाई की जिम्मेदारी मैं लेता हूं।’ रिवर मार्च के वॉलनटियर्स ने लोगों को बैनर और पोस्टरों के जरिए जल की अहमियत, सुरक्षा एवं बचत करने के बारे में जागरूक किया। यह हर साल की कहानी है कि मानसून के पहले प्रशासन के साथ-साथ उन मुबं ईकरों को भी कचरा सफाई की चिंता सताने लगती है जो खुद सड़कोंनालियों को कूड़ा से भरने में पीछे नहीं रहते हैं। खास तौर पर प्लास्टिक के कचरे के मामले में मुबं ई अव्वल है। मुबं ई में कुल कचरों में लगभग 7 प्रतिशत प्लास्टिक होता है, जो सब्जी, फल, किराने दुकानदारों के यहां से सामानों की आपूर्ति से घर तक आते हैं। पैकटे बंद सामानों में आजकल प्लास्टिक की ही बहुतायत है। सेनटे री नैपकिन और डायपर तो जहां तहां फेंके मिलते हैं, जो नालियों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं। प्लास्टिक कचरा आज मुबं ई के जलजमाव के लिए एक गंभीर संकट बन गया है। अनुमान के अनुसार, हर परिवार हर साल करीब तीन-चार किलो प्लास्टिक थैलियों का इस्तेमाल करता है। बाद में यही प्लास्टिक के थैले कूड़े के ढेर में समा जाते हैं जो पर्यावरण को भी दूषित करते हैं। समुद्र की तरफ बहने वाली नालियां हमेशा प्लास्टिक के कारण जाम रहती हैं। वह बरसात के पानी को समुद्र में जाने से तो रोकती ही है, समुद्र के ज्वार के कारण जो पानी शहर में प्रवेश करता है वह भी ठहर जाता है। उसे निकलने का रास्ता ही नहीं मिल पाता है। हर साल इसके लिए कवायद होती है। फौरी तौर पर राहत के उपाय कर दिए जाते हैं, लेकिन स्थाई समाधान की दिशा में अभी तक कोई ठोस काम नहीं हुआ है। इस मानसून में मुबं ई का क्या होगा, इसका सही आकलन कोई भी नहीं कर सकता। यह बरसात में ही पता चलता है, जब लोकल गाड़ियां पटरियों पर जलजमाव के कारण आगे चलने से मना कर देती हैं। लाखों लोग ठसाठस भीड़ भरे डब्बे में सांस लेने में तकलीफ महसूस करने लगते हैं और जब सड़कों पर वाहन ठहर जाते हैं तब समझ में आता है कि क्या काम हुआ है? वैसे यह उम्मीद करनी चाहिए कि इस बार भी ऐसा कुछ नहीं हो जो जनजीवन को सांसत में डाल दे और प्रशासन को ‘पानी- पानी’ कर दे।
08 इतिहास
15-21 मई 2017
धरोहर हरदयाल लाइब्रेरी
इतिहास में दर्ज पुस्तकालय
हरदयाल लाइब्रेरी में सिर्फ दुर्लभ और ऐतिहासिक महत्व की किताबें ही नहीं सहेजी गई हैं, बल्कि इसमें आजादी के आंदोलन के कई सफों को भी करीने से संजोया गया है
सा
सत्यम
ल 1863 से पहले की दिल्ली में स्वायत शासन का कोई अभिलिखित इतिहास उपलब्ध नहीं है, लेकिन 1862 में किसी एक प्रकार की नगर पालिका की स्थिति के कुछ सबूत मौजूद हैं। पंजाब सरकार की अधिसूचना दिनांक 13 दिसंबर, 1862 द्वारा 1850 का अधिनियम दिल्ली में लागू हुआ था। नगर पालिका की पहली नियमित बैठक 23 अप्रैल, 1863 को हुई थी, जिसमें स्थानीय निवासी आमंत्रित किए गए थे। एक जून 1863 को आयोजित हुई अन्य बैठक की अध्यक्षता दिल्ली के कमिश्नर ने की थी और उपयुक्त ढंग से उसके कार्यवृत लिखे गए थे। यह दिल्ली नगर निगम का इतिहास है। पर इस इतिहास से एक साल पहले ही ‘हरदयाल म्युनिसिपल हेरीटेज पब्लिक लाइब्रेरी’ की स्थापाना की नींव पड़ चुकी थी। मौजूदा समय में इस लाइब्रेरी की 28 शाखाएं है। चांदनी चौक के गांधी ग्राउंड में इसका मुख्यालय है। निगम के सौ फीसद अनुदान से संचालित होने वाली यह लाइब्रेरी एक स्वायत्तशासी संस्था है। मुख्यालय में 30 कर्मचारी काम करते हैं। दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेंद्र गुप्ता की पत्नी पूर्व निगम पार्षद डॉ. शोभा विजेंद्र इसकी मानद सचिव हैं और उत्तरी निगम के मेयर इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं। हरदयाल म्युनिसिपल लाइब्रेरी दिल्ली की सबसे पुरानी लाइब्रेरी है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानी लाला हरदयाल के नाम पर बनी यह लाइब्रेरी कई उतार-चढ़ाव को पार कर आज भी कायम है। साल 1862 में एक अंग्रेज का भारत में आना और उसकी रूचि पढ़ाई में होना ही इस लाइब्रेरी की स्थापना का मूल कराण है। भारत में
प्रसाद की अध्यक्षता में दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की नई बिल्डिंग की नींव पड़ी। इस समिति ने 70 हजार रुपए जमा किए। खान साहब हाजी बख्सी इलाही ने अकेले 14 हजार रुपए का दान दिया। फिर महाराजा कश्मीर ने भी दस हजार रुपए दिए। लाइब्रेरी का नाम हार्डिंग्स म्युनिसिपल पब्लिक लाइब्रेरी कर दिया गया। यह साल 1916 की बात है। लाइब्रेरी का नया नामकरण हुआ और उसे नई बिल्डिंग में स्थानांतरित कर दिया गया। कुछ दिनों के बाद साल 1941 में जब भारत में आजादी का आंदोलन चरम पर था, तब इस लाइब्रेरी का नाम ‘हार्डिंग लाइब्रेरी’ कर दिया गया। उसी दौरान लाइब्रेरी और म्युनिसिपल कमिटी के बीच एक समझौता हुआ। यह तय कर दिया गया कि यह लाइब्रेरी म्युनिसिपैलिटी की होगी। इसमें सौ फीसद अनुदान निगम का होगा, पर यह स्वायतशासी निकाय होगा। समय का चक्र चलता रहा। स्थानीय लोग इसमें भागीदारी करते रहे और फिर आजादी रहने के दौरान उसने अपने पास ढेर सारी किताबें मिली तो साल 1970 में इसका नाम पूरी तरह से जुटा ली थीं। लेकिन किताबों को अपने साथ ले जाना स्वतंत्रता सेनानी हरदयाल जी के नाम पर ‘हरदयाल शायद उसके लिए संभव नहीं था, इसीलिए उसने म्युनिसिपल पब्लिक लाइब्रेरी’ कर दिया गया। सारी किताबें एक कमरे में उसे संजोकर रख दी। इस समय दिल्ली में तीन नगर निगम है। साल कमरे का नाम दिया गया- ‘इंस्टीट्यूट लाइब्रेरी’। बाद 2012 में निगम का बंटवारा हुआ तो इस लाइब्रेरी को में जब भारत आजाद हुआ तो उस कमरे का नाम रख अपने निगम में लेने के लिए भी होड़ लग गई। पर दिया गया-‘लारेंस इंस्टीट्यूट’। यह बिल्डिंग 1861 उसकी स्वायत्तता को देखते हुए यह तय किया गया और 1866 के दौरान बनी थी। आज यह बिल्डिंग कि इसका मुख्यालय चांदनी चौक में ही रहेगा, टाउन हाल के नाम से जानी जाती है। 2012 से पहले अलबत्ता दोनों दक्षिणी और पूर्वी निगम में इसकी और दिल्ली नगर निगम का यह मुख्यालय था। एक लाख शाखाएं खोली जाएंगी। उत्तरी दिल्ली में मुख्यालय 86 हजार की लागत से 1866 में बने टाउन हाल को के होने के बावजूद दक्षिणी और पूर्वी दिल्ली हर तब इंस्टीट्यूट बिल्डिंग कहा जाता था। समय इसे आर्थिक रूप से सहयोग करते रहे। 1902 में लाइब्रेरी का नाम बदल कर दिल्ली जिससे लाइब्रेरी के मुख्यालय की मरम्मत, रीडिंग पब्लिक लाइब्रेरी कर दिया गया और उसे कूचा बाग रूम, फर्नीचर, फिटिंग्स आदि अन्य अत्याधुनिक के एक छोटे भवन में स्थानांतरित कर दिया गया। तकनीकों का सहारा लेने में किसी प्रकार की तब इसमें एक लाइब्रेरियन, एक क्लर्क और एक आर्थिक परेशानियां सामने नहीं आई। लाइब्रेरी का चपरासी को नियुक्त किया गया। लाइब्रेरी किस तरह प्रशासन भी पूरी तरह खुला है। निगम के एक पार्षद आजादी आंदोलन का हिस्सा बन गई इसकी कहानी को इसका सचिव बनाया जाता है। उत्तरी दिल्ली के बेहद रोचक और मजेदार है। 23 दिंसबर 1912 मेयर पदेन अध्यक्ष होते हैं। मैनेजिंग कमेटी में अन्य की एक घटना ने लाइब्रेरी के भविष्य को बदल संभ्रात लोग होते हैं, जो समय-समय पर लाइब्रेरी के दिया। पुरानी दिल्ली के कंपनीबाग इलाके में एक विकास के लिए फैसले करते हैं। मैनेजिंग कमेटी में जुलूस में लॉर्ड हार्डिंग हाथी पर बैठकर जा रहे थे। मेयर के अलावा उत्तरी दिल्ली नगर निगम के छह तभी उनके उपर एक बम फेंका गया। उसी कंपनी चुने हुए सदस्य होते हैं। एक सदस्य दक्षिणी दिल्ली बाग को इस समय गांधी मैदान कहा जाता है। लार्ड नगर निगम से और एक सदस्य पूर्वी दिल्ली नगर हार्डिंग बम हमले से बचकर भागने में सफल रहे। निगम से बनाया जाता है। चार सदस्य लाइब्रेरी के जिस जुलूस में हाथी पर बैठकर लॉर्ड जा रहे थे उस सदस्यों में से चुने जाते हैं। जुलूस का आयोजन लाला हरदयाल, एमए ने किया साल के 365 दिनों में 358 दिन यह लाइब्रेरी था। वे चांदनी चौक के थे। हार्डिंग के बम हमले से खुली रहती है। सुबह आठ बजे से रात दस बजे बच निकलने के बाद इस घटना की जांच के लिए तक रीडिंग रूम आम लोगों के लिए खुला रहता एक समिति बनाई गई। फिर रायबहादुर लाला शिव है। लाइब्रेरी में एसी सहित अन्य सभी सुविधाएं
लाइब्रेरी किस तरह आजादी आंदोलन का हिस्सा बन गई इसकी कहानी बेहद रोचक है। 23 दिंसबर 1912 की एक घटना ने लाइब्रेरी के भविष्य को बदल दिया
एक नजर
एक लाख 86 हजार की लागत से 1866 में बनी टाउन हॉल की इमारत 155 साल पुरानी हरदयाल लाइब्रेरी की 28 शाखएं हैं एक लाख 70 हजार पुस्तकें और पांडुलिपियां हैं इस लाइब्रेरी में उपलब्ध कराई जा रही हैं। यह सुविधा इंस्टीट्यूट चाटर्ड एकाउंटेंट ऑफ इंडिया, नई दिल्ली के द्वारा उपलब्ध कराई जा रही है। इसके लिए एक एमओयू पर दस्तखत भी किया गया है। पाठकों के लिए 31 अखबार, हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, पंजाबी की 72 पत्रिकाएं उपलब्ध हैं। लाइब्रेरी में मौजूद किताबें खराब नहीं हो, इसके लिए उन्हें लेमिनेशन सेक्शन और बुक बाइडिंग के द्वारा सज्जित कर रखा जाता है। लाइब्रेरी में कई दुर्लभ किताबें और पांडुलिपियां हैं । भारत सरकार के 3123 गजट और 1972 से 1998 के गर्वमेंट नोटिफिकेशन के साथ टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, नवभारत टाईम्स, हिंदुस्तान हिंदी दैनिक और जनसत्ता यहां प्रमुख रूप से उपलब्ध है। दो सौ रुपए में पाठकों को एक साल की सदस्यता दी जाती है और 15 सौ रुपए आजीवन सदस्यता का शुल्क है। पुस्तकालय की साज सज्जा पुरानी दिल्ली के पुराने दिनों की याद को ताजा कराती है। मौजूदा समय में यहां एक लाख 70 हजार किताबों का जखीरा है। जिसमें हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी और संस्कृत की प्रमुख किताबें शामिल हैं। साल 1634 में ट्रेवेली बेगवेगवेन लिखित ‘ए रिलेशन आफ सम ईयर्स’ 1676 और 1677 के बीच लिखी सर वालटर राले की ‘हिस्ट्री आफ द वर्ल्ड’, 1705 में लिखित जान फ्रांसिस जेनेली कोरिरी की ‘वोयजेज एराउंड द वर्ल्ड’, 1828 में चार्ल्स स्टीवार्ड लिखित ‘ताजकीरा-एल-वाकयत’, 1794 में विलियम होजेज लिखित ‘ट्रेवल्स इन इंडिया’, 1854 में एच एच विल्सन लिखित ‘ऋगवेद संहिता’, 1881 में स्वामी दयानंद सरस्वती लिखित ‘सत्यार्थ प्रकाश’, अबुल रैजी द्वारा पारसी भाषा में लिखा गया ‘महाभारत’, 1928 में लिखा गया ‘कुरान ए माजिद’ और औरंगजेब लिखित ‘कुरान की आयत’ प्रमुख रूप से शामिल हैं। इस प्रकार की दुर्लभ किताबें दिल्ली में शायद इसी लाइब्रेरी की शोभा बढ़ाती हैं। बहरहाल, मुख्यालय होने के कारण उत्तरी दिल्ली में सबसे ज्यादा 13 शाखाएं हैं, जबकि दक्षिणी दिल्ली में 12 और पूर्वी दिल्ली में तीन शाखाओं में लोगों को सारी सुविधाएं मिल रही है। भविष्य में पूरी तरह कंप्यूटरीकरण की दिशा में अग्रसर लाइब्रेरी में सूचना तकनीकी, माइक्रोफिल्मिंग की विशेष व्यवस्था की तैयारी चल रही है। दिल्ली के प्रत्येक वार्ड में लाइब्रेरी की शाखा खुले और अधिक से अधिक लोग इसकी ऐतिहासिकता के साथ जुड़ें इस महत्वाकांक्षी परियोजनाओं पर भी काम शुरू है। इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरीटेज (इएनटीएसीएच) भी पूरे प्रोजेक्ट पर गंभीरता से ध्यान देकर इसकी एेतिहासिकता को संजोने की कोशिश में है।
15-21 मई 2017
शहीद परिवार
शहीदों के परिवार को गोद लेंगे आईएएस अधिकारी
आईएएस अधिकारियों की एसोशिएशन ने एक ऐसा प्रस्ताव तैयार किया है, जिसके तहत हर अधिकारी को अपने क्षेत्र के एक शहीद परिवार की देख-रेख करनी होगी
प्र
स्ताव के मुताबिक 2012-15 बैच के 600 से 700 अधिकारियों को अपने पोस्टिंग क्षेत्र के कम से कम एक परिवार को अपनाना होगा। यह प्रस्ताव आईएएस अधिकारियों की एसोशिएशन द्वारा शहीद सुरक्षा कर्मियों के परिवारों को समर्थन देने के लिए प्रस्तावित किया गया है। इस विचार से इन शहीदों के बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सकेगी और इसके साथ ही अन्य परिवार के सदस्यों को सरकार की क्षतिपूर्ति नीति के तहत निर्धारित वित्तीय सहायता भी मिलती रहेगी। आईएएस अधिकारियों के संघ द्वारा तैयार किए गए इस प्रस्ताव में यह कहा गया है कि देश भर में शहीदों के एक परिवार को रक्षा, सीआरपीएफ या राज्य पुलिस बल के अधिकारी स्वेच्छा से अपनाएंगे, जिसमें 5-10 साल की अवधि में समर्थन के तौर पर एक संस्थागत व्यवस्था प्रदान की जाएगी। इसके साथ ही बेहतर संचार और सहजता सुनिश्चित करने के लिए प्रभारी अधिकारी उसी राज्य (कैडर) से जुड़ा हो सकता है, जिस राज्य का दत्तक परिवार है।
शहीदों के परिवार को गोद लेने वाले अधिकारी को कोई सीधी वित्तीय सहायता देने की आवश्यकता नहीं होगी, बल्कि अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर उन्हें समर्थन प्रदान करना होगा, ताकि वे सुरक्षा और आश्वासन की भावना के साथ जी सकें। शुरुआती योजना में 600 से 700 युवा अधिकारियों को इस प्रस्ताव में शामिल करना है, जहां प्रत्येक अधिकारी को अपने क्षेत्र में कम से कम एक परिवार को अपनाने की आवश्यकता होगी। उन्हें उन परिवारों से संपर्क करना होगा और स्वेच्छा से उन्हें सभी सुविधा प्रदान कराने वाले की भूमिका निभानी होगी, जो उन्हें पेंशन, ग्रेच्युटी या नौकरियों के आवंटन जैसे पेट्रोल पंप, विद्यालय में दाखिला प्राप्त करने में उनके बच्चों की सहायता या उन्हें सरकार के कौशल भारत या डिजिटल भारत कार्यक्रम से जोड़ना होगा। अगर कोई वित्तीय संस्था इन निर्भर परिवारों के सदस्यों की मदद करना चाहे तो वह कर सकती है, यदि वे इस तरह के व्यवसाय या स्टार्टअप में निवेश करने में रुचि रखते हैं। पहल के तहत सुविधाकर्ता की भूमिका निभाने वाले अधिकारी अधिकतर उप-डििवजनल,
अतिरिक्त जिला या जिला मैजिस्ट्रेट स्तर से संबंधित होंगे। संयुक्त सचिव स्तर के आईएएस अधिकारी संजय आर भूसरेड्डी ने कहा कि वरिष्ठ अधिकारी या वे जो राज्य सिविल सेवा स्तर के अधिकारी हैं, अपनी स्वेच्छा से ऐसे परिवारों को अपना सकते हैं। उन्होंने कहा कि हमने राज्य और केंद्र सरकार दोनों से इस संबंध में आवश्यक निर्देश जारी करने का अनुरोध कर रहे हैं, ताकि यह व्यवस्था जल्द से जल्द संस्थागत हो सके। इसके अलावा राज्य सरकारों को पहले से ही एसोसिएशन के साथ इस तरह के परिवारों के विवरण साझा करने के लिए कहा गया है। भूसरेड्डी ने कहा कि इसी तरह की जानकारी रक्षा मंत्रालय या केंद्रीय बल जैसे बीएसएफ, सीआरपीएफ, सीआईएसएफ, आईटीबीपी या अन्य लोगों से भी ली जा रही हैं। उन्होंने आईएएस अधिकारियों की स्थानीय प्रशासकीय मशीनरी पर भी प्रभाव की संभावना का उल्लेख किया है, जिसे प्रभावी ढंग से और निरंतर तरीके से शहीद सिपाही के परिवारों के समर्थन और सहायता के लिए सकारात्मक रूप से प्रसारित किया जा सकता है।
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बागवानी बच्चे
छुट्टियों में बागवानी
गर्मी की छुट्टियों में ‘स्वरूप एग्रोकेमिकल इंडस्ट्रीज’ बच्चों को जल, जमीन और बागवानी से संबंधित जानकारियां देगी
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एसएसबी ब्यूरो
गुड न्यूज
आनंद भारती / मुंबई
हुत सारी संस्थाएं बच्चों के लिए तरह-तरह की कार्यशालाएं आयोजित करती हैं, ताकि बच्चों का मानसिक विकास हो सके। नाटक, नृत्य, व्यक्तित्व विकास के साथ अन्य चीजों की ट्रेनिंग की व्यवस्था की जाती है, लेकिन ‘स्वरूप एग्रोकेमिकल इंडस्ट्रीज’ ने एक अलग रास्ता चुना है। इस कंपनी की ‘गार्डन शॉपी’ ने ‘ग्रीन किड्ज’ परियोजना का शुभारंभ किया है, जो शहरी बच्चों को अपनी बुनियाद की शिक्षा देगा। वह उन्हें जल, जमीन और बागवानी से संबंधित जानकारियां देगा। इसके पीछे एक मकसद श्ह है कि बच्चे पर्यावरण, प्रदूषण और जल संरक्षण आदि के मामले में जागरूक हों। इस प्रयास से उनके अंदर पर्यावरण को लेकर दिलचस्पी भी पैदा होगी। यह परियोजना देश भर के महानगरों में शुरू की जाएगी। कंपनी का मानना है कि इस पहल से लाखों घरों में हरित वातावरण और स्वच्छ परिवेश को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए खासकर मुंबई की हाउसिंग सोसाइटियों में सप्ताह के अंत में कार्यशालाओं का आयोजन किया जाएगा। इसमें उर्वरक और मिट्टी के रखरखाव, गुणवत्ता के साथ-साथ बागवानी की पद्धतियों के बारे में जानकारियां दी जाएगी तथा पौधों और फूलों से बच्चों को परिचित कराया जाएगा। इससे बच्चों में न केवल उसके प्रति लगाव बढ़ेगा, बल्कि वे अपनेअपने घरों में बागवानी के लिए प्रेरित भी होंगे।
10 विशेष
15-21 मई 2017
शिक्षा
मिसाल
छात्राओं की जिंदगी बदल रहा
परदादा-परदादी स्कूल
बुलंदशहर के ‘अंकल सैम’ कहे जाने वाले वीरेंद्र सिंह ने डेढ़ दशक पहले गंगा किनारे बसे खादर के गांवों की बेटियों की जिंदगी बदलने की सोची। साथ ही अपने निजी साधनों से बेटियों को पढ़ाने के लिए एक अनोखा स्कूल शुरू किया
आ
इंदिरा सील
खिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर को अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके जब रंगून भेज दिया तो वहां जेल की सलाखों के पीछे उन्हें अपने वतन की इतनी याद आई कि उन्होंने इल्तजा जताई कि जीते-जी न सही, लेकिन कम से कम उन्हें मरने के बाद अपने देश में दफनाया जाए। दरअसल, देशप्रेम है ही एक ऐसा जज्बा जो स्वदेश से दूर होकर कम नहीं होता, बल्कि और जोर मारने लगता है। आज कई प्रवासी भारतीय ऐसे हैं, जो भारत की तरक्की में अपना योगदान निभा रहे हैं। इनमें कई तो ऐसे हैं, जो दशकों विदेश में रहने के बाद भी मन से भारतीय बने रहे और आखिरकार स्वदेश आ गए और यहीं लोगों के बीच सेवा कार्य में रम गए। ऐसे ही एक किरदार हैं यूपी के बुलंदशहर के रहने वाले वीरेंद्र सिंह। 40 साल यूरोप के देशों में शानदार जिंदगी बिताने वाले बुलंदशहर के ‘अंकल सैम’ कहे जाने वाले वीरेंद्र सिंह ने डेढ़ दशक पहले गंगा किनारे बसे खादर के गांवों की बेटियों की जिंदगी बदलने की सोचीऔर अपने निजी साधनों से बेटियों को पढ़ाने के लिए एक अनोखा स्कूल शुरू किया। उस स्कूल का नाम
रखा 'परदादा-परदादी स्कूल'। आज उनके स्कूल की बेटियां देश की बेहतरीन यूनीवर्सिटीज के अलावा अमेरिका और ब्रिटेन में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं।
देश के मान के लिए खोला स्कूल
इस स्कूल की स्थापना की कहानी काफी दिलचस्प है। टेक्सटाइल के बिजनेस से जुड़े 76 साल के अंकल सैम ने यूरोप के देशों में 40 साल तक नौकरी की। विदेशों में उन्हें और उनकी दो बेटियों को भारतीयों के बारे में काफी कुछ बुरा सुनने को मिलता था। इस बाबत वीरेंद्र सिंह सैम बताते हैं कि इसीलिए उन्होंने कुछ ऐसा करने की ठानी, जिससे देश और समाज को विकास की राह दिखाई जा सके। लिहाजा, अपनी बेटियों से किए गए वादे को पूरा करते हुए वे अपना गांव लौटे। इसके बाद उन्होंने इलाके की बेटियों को आर्थिक और सामाजिक रूप से स्वाबलंबी बनाने की शुरुआत की। परदादा-परदादी स्कूल खोली, जिसके जरिए उन्होंने इलाके की बेटियों को मुफ्त
शिक्षा के साथ उन्हें किताबें, ड्रेस, साइकिल,जूतों का मुफ्त पैकेज देना शुरू किया। इतना ही नहीं, स्कूल में पढ़ने वाली बेटियों के परिवार की महिलाओं के लिए रोजगार की भी व्यवस्था की, ताकि परिवार की आर्थिक स्थिति बदली जा सके।
नौकरी की गारंटी
परदादा-परदादी स्कूल की निदेशक रेणुका बताती हैं कि पूरे देश में अंकल सैम का यह ऐसा अनोखा स्कूल है, जो इंटर पास बेटी को जॉब गारंटी देता है। इतना ही नहीं हर रोज की हाजिरी के साथ जमा होने वाला 10 रुपए का स्टाइपेंड, स्कूली शिक्षा पूरी करके निकलने वाली बेटी के लिए रोजगार, हायर एजुकेशन या फिर शादी का विकल्प खोलता है। आज इस स्कूल की 200 से ज्यादा छात्राएं देश के बेहतरीन विश्वविद्यालयों में हायर एजुकेशन प्राप्त कर रही हैं। इसमें कुछ ऐसी भी छात्राएं हैं, जिन्हें अमेरिका और ब्रिटेन में पढ़ने का मौका मिला है।
इस स्कूल की हर लड़की अपने तरीके से जिंदगी जीने का सपना देखती है। वीरेंद्र सिंह खुद भी कहते हैं कि आज उनकी एक नहीं, बल्कि 1,267 बेटियां हैं, जिनकी जिंदगी परदादा-परदादी स्कूल में पढ़ने के कारण बदली है
एक नजर
40 साल यूरोप में रहकर लौटे वीरेंद्र सिंह ने खोला स्कूल अब तक 1,267 बेटियों की जिंदगी में आ चुका है बदलाव यह स्कूल छात्राओं को देता है रोजगार की भी गारंटी
रूढ़ियों के खिलाफ जागरुकता
परदादा-परदादी स्कूल केवल छात्राओं के रोजगार पर ही ध्यान नहीं देता है, बल्कि इस बात को भी सुनिश्चित करता है कि वह 'सामाजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र और जागरूक मां बनें।' ये लड़कियां बाल विवाह, पर्दा प्रथा, लैंगिक भेदभाव और परिवार नियोजन को लेकर इस इलाके में जागरुकता भी फैला रही हैं, जो ऑनर किलिंग, सामंती सोच और अपराध के लिए कुख्यात है। इस स्कूल के पहले बैच में सीनियर सेकेंड्री की शिक्षा पाने वाली 14 लड़कियों में से एक प्रीति चौहान पर्दा को खारिज कर चुकी हैं। वह इसी स्कूल में प्रबंधकीय सहायक के रूप में काम करती हैं और अपने ससुराल से स्कूल तक रोजाना मोटरसाइकिल से आती-जाती हैं।
लैंगिक बराबरी
स्कूल की कई छात्राओं ने प्रेम विवाह किया है और इनमें से लगभग हर लड़की ने अपने ससुराल में पर्दा प्रथा को खत्म किया है। दो बच्चों की मां आशा, अपने पति दाल चंद के साथ अभिभावकों को अपनी बेटियों की पढ़ाई बीच में छुड़वाने के खिलाफ, समझाने और मनाने की जिम्मेदारी निभाती हैं। कंप्यूटर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए अमेरिका जा चुकी रीता बताती
15-21 मई 2017
य
ह स्कूल छात्राओं के साथ इतनी गहराई बाद उसने अपने प्रोत्साहन कार्यक्रमों में थोड़ी से जुड़ जाता है कि कई बार वह उनकी कटौती भी की है। यह स्कूल 2013 तक छात्राओं घर की समस्याएं सुलझाने के की उच्च शिक्षा का पूरा खर्च लिए पहल भी अपनी तरफ से उठाता था, उसके बाद इस करता है। छठी कक्षा की छात्रा सुविधा को आधे छात्राओं तक मनीषा के घर टॉयलेट नहीं था। सीमित कर दिया गया है। शेष यही नहीं, मनीषा के मां-बाप छात्राओं की मदद बैंकों और नहीं हैं। स्कूल ने खुद से पहल अन्य वित्तीय संस्थाओं के जरिए करके उसके घर में शौचालय की जाती है। इसी तरह स्थापना बनवाया। बात शौचालय की के बाद छह साल तक स्कूल ने चली है तो यह भी जान लें कि सभी छात्राओं को प्रतिदिन 10 यह स्कूल ऐसी छात्राओं के घर रुपए दिए, लेकिन साल 2006 शौचालय भी बनवाता है, जो से इसे कक्षा छह और इससे अपनी कक्षा में टॉप- थ्री में परदादा परदादी स्कूल 2013 ऊपर के छात्राओं के लिए आती हैं। अब तक स्कूल ने सीमित कर दिया गया। तक अपने छात्राओं की उच्च सैकड़ों लड़कियों की पढ़ाई लड़कियों के बैंक खाते में का खर्च उठाया है और इसी शिक्षा का पूरा खर्च उठाती जमा पैसे निकालने के लिए तरह उसने अब तक सौ से स्कूल की कुछ शर्तें भी हैं, ज्यादा शौचालय बनवाए थी, उसके बाद इस सुविधा इनमें से एक शर्त ये है कि हैं। हालांकि इस बारे में यह को आधे छात्राओं तक उन्हें 21 साल की उम्र से उल्लेखनीय है कि स्कूल में पहले शादी नहीं करनी छात्राओं की संख्या बढ़ने के सीमित कर दिया गया है होगी।
परदादा-परदादी स्कूल केवल छात्राओं के रोजगार पर ही ध्यान नहीं देता है, बल्कि इस बात को भी सुनिश्चित करता है कि वह 'सामाजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र और जागरूक मां बनें' हैं कि उन्होंने स्कूल में लैंगिक बराबरी पर विश्वास करना सीखा। रीता कहती हैं, ‘यहां आप एक-दूसरे का ध्यान रखना और अपना सम्मान करना सीखते हैं। ठीक-ठाक अंग्रेजी से आपका आत्मविश्वास बढ़ता है।’ अनूपशहर में ही मदार गेट के इलाके में देह व्यापार में लगी एक महिला की बेटी सोनम भी इसी स्कूल में पढ़ती है। सोनम कहती है, ‘अच्छी अंग्रेजी बोलना मेरा सपना है।’ परदादा-परदादी स्कूल की एक खासियत यह भी है कि इसमें छठी कक्षा से ऊपर की हर छात्रा को कक्षा में आने के लिए प्रतिदिन 10 रुपए दिए जाते हैं। यह पैसा छात्राओं के बैंक खातों में जमा कर दिया जाता है। इसके अलावा स्कूल की ओर से हर छात्रा को दो जोड़ी ड्रेस, एक स्वेटर और एक जोड़ी जूते, किताबें और दवाएं भी दी जाती हैं। स्कूल इन लड़कियों की देश या विदेश में होने वाली उच्च शिक्षा का आधा खर्च भी उठाता है।
गरीब परिवारों में फैली शिक्षा
स्कूल के संचालन और उपलब्धियों के बारे में शिक्षिका तरुणा ने बताया कि इलाके के गरीब और मजदूर परिवारों के लोग अपनी बेटियों को पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन स्कूल के सीईओ वीरेंद्र सिंह ने उनकी सोच बदली। शुरुआत में केवल 13 बच्चियों ने ही स्कूल में आना शुरू किया, जिसका इलाके के लोगों ने बहुत मजाक बनाया। इतना ही नहीं उनका सामाजिक विरोध भी हुआ, लेकिन वीरेंद्र सिंह ने
हार नहीं मानी। आज इसी का नतीजा है कि अंकल सैम द्वारा खोले गए परदादा-परदादी स्कूल में करीब 1400 बेटियां पढ़ती हैं। स्कूल की एक शिक्षिका ने बताया कि सर्दियों में 8 और गर्मियों में 9.30 घंटे चलने वाले इस अनोखे स्कूल में छात्राओं को हर रोज ब्रेकफास्ट, लंच और आफ्टरनून स्नैक्स भी दिए जाते हैं। स्कूल का आधा समय पढ़ाई में और आधा समय व्यक्तित्व विकास में जाता है। छात्राओं की हर समस्या चाहे वह परिवार से ही जुड़ी क्यों न हो, यहां उसका भी हल निकालना स्कूल की जिम्मेदारी है।
छात्राओं की बदली जिंदगी
परदादा-परदादी स्कूल में कक्षा 10 में पढ़ने वाली आशू कहती है कि उसके पिता एक होटल में मजदूर हैं, इसीलिए वह अपनी दादी के पास रहती है, जहां वो घर के काम के साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी करती है। आशू की मानें तो पढ़ने के साथ उसे गाना गाने का भी बहुत शौक है। अपने इसी शौक के जरिए वह दुनिया में अपना बड़ा नाम करने का सपना रखती है। आशू को यह सपना दिया है अंकल सैम यानी वीरेंद्र सिंह ने, जिन्होंने इस स्कूल की शुरुआत की थी। सिर्फ आशू ही नहीं, बल्कि इस स्कूल की हर लड़की अपने तरीके से जिंदगी जीने का सपना देखती है। वीरेंद्र सिंह खुद भी कहते हैं कि आज उनकी एक नहीं बल्कि 1,267 बेटियां हैं, जिनकी जिंदगी परदादापरदादी स्कूल में पढ़ने के कारण बदली है।
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स्टार्टअप मिसाल
टॉयलेट बनवाने की मुहिम
अब तक स्कूल ने सैकड़ों लड़कियों की पढ़ाई का खर्च उठाया है और इसी तरह उसने अब तक सौ से ज्यादा शौचालय बनवाए हैं
स्वच्छता
कबाड़ से कमाल
वाराणसी की शिखा शाह के स्टार्टअप का नाम है ‘स्क्रैपशाला’। यह खूबसूरत स्टार्टअप स्वच्छता अभियान और स्टार्टअप इंडिया से प्रेरित होकर शुरू किया गया है। इसमें शहर से कबाड़ का जुगाड़ कर उसे सुंदर और अनोखा स्वरूप प्रदान किया जा रहा है
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श्रवण शुक्ला
नारस की तस्वीर बदलने के लिए यह एक अनूठी पहल है, जिसकी शुरुआत 27 साल की शिखा शाह ने की है। शिखा का कहना है, 'मोदी के ‘स्टार्टअप इंडिया’ के विजन ने भारत के शहर से लेकर गांव में रहने वालें लोगों की सोच को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है।' प्रकृति से प्यार करने वाली शिखा ने अपने करियर की शुरुआत दिल्ली से की। दिल्ली में एन्वायरमेंटल साइंस से ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने नौकरी की। नौकरी के दौरान कई जगहों पर प्रोजेक्ट्स पर काम के दौरान पर्यावरण के प्रति लोगों की उदासीनता और संवेदनहीनताको उन्होंने करीब से देखा और महसूस किया। लेकिन पर्यावरण के प्रति उनका लगाव लगातार बढ़ता ही गया। शिखा कुछ ऐसा करने की सोच रही थी जिससे कारोबार भी हो और जरुरतमंदों को नौकरी भी मिल सके और समाज को स्वच्छता का संदेश भी दिया जा सके। मिशन स्टार्टअप की शुरुआत शिखा ने अपने घर के कबाड़ से की। वक्त के साथ काम बढ़ा तो शिखा ने नगर निगम से कबाड़ खरीदना शुरू कर दिया। नगर निगम के कबाड़ से काशी के हर घर को संवारने की शिखा की कोशिश जारी है। यही नहीं कबाड़ से बनी खूबसूरत और उपयोगी चीजों को काशी से लेकर क्योटो तक और लखनऊ से लेकर लंदन तक फेसबुक, स्नैपडील जैसी साइट्स के जरिए बेच रही हैं। दिल्ली की अक्ष्छी खासी नौकरी छोड़ कर शिखा ने अपना स्टार्टअप ‘स्क्रैपशाला’ शुरू किया । शिखा बताती हैं कि उन्होंने सबसे पहले अपने घर के कबाड़ से इस मिशन को शुरू किया था। इसके बाद उन्होंने नगर निगम में आने वाले कबाड़ को लेना शुरू किया और कबाड़ के सामान को कांट-छांटकर
खूबसूरत चीजें तैयार करने लगीं। इतने सुंदर क्राफ्ट्स, जिन्हें देख कर किसी को भरोसा ही नहीं होता है, कि कबाड़ से भी इतने खूबसूरत और उपयोगी सामान बनाए जा सकते हैं। शिखा का व्यापार अब बढ़ने लगा है। वो अब अपनी वर्कशाप के लिए बड़ी जगह तलाश रही हैं। शिखा की योजना कबाड़ से बनी चीजों को बाजार उपलब्ध कराने के लिए शहर में तमाम स्थानों पर अपना आउटलेट खोलने की है। शिखा अपना हुनर दूसरों को सैलरी देकर सिखाती हैं। वे दो साल पहले बिना किसी की मदद के ही नगर निगम के बेकार पड़े कबाड़ को बीस हजार में खरीदकर काशी को सवांरने के साथ ही स्वच्छता का संदेश देने की राह पर अकेले ही निकल पड़ी थीं। आज शिखा के पीछे कारवां सा बनता जा रहा है और उन्होंने अपनी प्रतिभा, लगन और मेहनत से आधा दर्जन से ज्यादा बेरोजगार हुनरमंदों को अपने पैरों पर खड़ा कर दिया है। शहर में बना ‘स्क्रैपशाला’ आज उन लोगों के लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ है, जो अपने घर के कबाड़ को या तो बेच दिया करते हैं या फिर सड़क पर फेंक देते हैं, क्योंकि उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि इस कबाड़ से भी लाखों का व्यवसाय किया जा सकता हैं।शिखा अब ये हुनर और भी कारीगरों को सिखा रही हैं और बाकायदा 15 से 20 हजार रुपए की सैलरी भी दे रही हैं। साथ में काम करने वाले कारीगर भी काफी खुश हैं। उनका कहना है कि यहां रोज काम मिल जाता है। ऐसे में परिवार का खर्च चलाना अब आसान हो गया हैं। शहर में बना ‘स्क्रैपशाला’ आज उन लोगों के लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ है, जो अपने घर के कबाड़ को या तो बेच दिया करते हैं या फिर सड़क पर फेंक देते हैं, क्योंकि उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि इस कबाड़ से भी लाखों का व्यवसाय किया जा सकता हैं।
12 समाज
15-21 मई 2017
परिवार दिवस
15 मई
बदला दौर तो बदले परिवार
परिवार के मायने वक्त के साथ तो बदलते रहे, लेकिन परिवार की जरूरत नहीं बदली। परिवार के इसी महत्व को रेखांकित करने के लिए हर साल ‘अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस’ मनाया जाता है
एक नजर
शहरीकरण की वजह से एकल परिवारों का चलन संयुक्त परिवार की पारंपरिक अवधारण कमजोर हुई
दो दशक में 13 प्रतिशत बढ़े एकल परिवार
असर चीन, सिंगापुर, ब्राजील, संयुक्त अरब अमीरात और भारत में देखा जा सकता है।
मध्यम वर्गीय परिवारों में इजाफा
1990 से यह कथित तौर पर माना जा रहा है कि बेशक मध्यम वर्गीय परिवारों में उछाल आता रहेगा, लेकिन यह कभी भी देश का सबसे बड़ा हिस्सा नहीं होंगे। हालांकि साल 2025 तक सबसे अधिक उपभोग करने वालों का हिस्सा बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो जाएगा। यह आंकड़ा विश्व में मध्यम परिवारों की बढ़ती संख्या को दर्शाता है।
मूलभूत खर्चों से कहीं आगे
बीते कुछ समय से भारतीयों के खर्च करने के तरीकों में बहुत बदलाव आए हैं। एक बहुत बड़ी रकम शिक्षा, संचार और छुट्टियों में खर्चने की प्रवृति बढ़ी है। महंगी चीजों की मांग में भी बहुत इजाफा हुआ है।
प
अनुपमा यादव
रीक्षित शर्मा के घर में कब सुबह से शाम हो जाती है पता ही नहीं चलता। पूरा घर ऊर्जा से भरा, कभी न खत्म होने वाली बातें, बच्चों का मीठा शोर और साथ में स्वादिष्ट खाने का सुख। दिल्ली के सुल्तानपुरी में परीक्षित अपने तीन भाईयों के और माता-पिता के साथ पिछले तीस सालों से रह रहे हैं। इस भरे पूरे घर को देखकर लगता है कि यहां हर दिन कोई उत्सव मनाया जाता है। परीक्षित कहते हैं, ‘मेरे घर में कुल मिलाकर 10 सदस्य हैं। मेरी मां की दिली इच्छा थी कि हम सभी भाई एक साथ रहें। घर में पैसा कोई मुद्दा नहीं रहा, क्योंकि हमारे परिवार का बिजनेस है, जिसमें हम सब की आमदनी एक साथ होती है। जिंदगी बहुत स्थायी है और कोई बाहरी डर नहीं है।’ परिवारों की ऐसी ही महत्ताओं को देखते हुए ‘अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस’ हर साल 15 मई को मनाया जाता है। ज्ञातव्य है कि साल 1994 को संयुक्त राष्ट्र ने ‘इंटरनेशनल फैमिली इयर’ के रूप में घोषित किया था। इसी क्रम में एक मजेदार किस्सा है। विश्व की जानी मानी एंकर ओपरा विंफ्रे ने एक इंटरव्यू में अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय से पूछा था कि आप दोनो एक घर में अपने माता पिता के साथ रहते हैं, यह कैसे मुमकिन है? जवाब में अभिषेक बच्चन ने ओपरा से पूछा कि आप बिना परिवार के अकेली रहती हैं? ओपरा ने कहा हां, तो अभिषेक ने कहा, यह कैसे मुमकिन है? अभिषेक बच्चन के जवाब
रूपी सवाल ने दर्शकों में हंसी की लहर दौड़ा दी। आगे इस संवाद ने संयुक्त परिवारों की महत्ता पर भी प्रकाश डाला, साथ ही यह बात भी सामने आई कि आज भी किस तरह संयुक्त परिवारों की दुनिया में अपनी एक जगह है। साल 2011 के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली के 69.5 फीसदी घरों में एक ही शादीशुदा जोड़ा है, साथ ही 6 फीसदी से अधिक भारतीय घरों में नौ या उससे अधिक सदस्य रह रहे हैं। रोजगार के कारणों से एकल परिवारों की संख्या बढ़ रही है। शायद परिवार ही वह आखिरी शरण है, जहां लोग एक साथ खाते-बैठते और विकास करते हैं, लेकिन सच्चाई यह भी है कि समय के हिसाब से बदलाव भी आए हैं, जिसके तहत पारंपिरक परिवारों के ढांचे की जगह मॉडर्न फैमिली स्ट्रक्चर ले रहा है। परिवारों के अंदर की आपसी निर्भरता की जगह एकल परिवारों की आत्मनिर्भरता ने ली है। 30 वर्षीय अनीता इंदौर में रहती हैं, और प्राइमरी स्कूल में टीचर हैं। अनीता के पति मनीष एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में फाइनेंशियल एनालिस्ट हैं। दोनो मिलकर करीब 90000 रुपए कमाते हैं। बेटी याश्वी सीबीएसई के इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ती है। वर्किंग डेज की व्यस्तता के बाद संडे उनके लिए मिलकर छुट्टी मनाने का समय होता है।
बेशक 90000 की रकम बहुत कम लगे, लेकिन एक बात तय है कि अनीता के लिए यह बड़ी बात है, क्योंकि उसके माता पिता निम्न मध्यम परिवार से ताल्लुक रखते हैं। अनीता की परवरिश शिवपुरी में एक संयुक्त परिवार में हुई, उनके पिता एक सरकारी बैंक में क्लर्क थे, मां गृिहणी। हालांकि मां अनपढ़ थीं, लेकिन अनीता को अच्छी शिक्षा देने की पूरी कोशिश की। यह कहानी सिर्फ अनीता की नहीं, बल्कि उन लोगों की है जिनके जीवन में शिक्षा, बेहतर सुविधाओं की जद्दोजहद में गुजरी है। पिछले दशक से आर्थिक विकास और शहरीकरण के कारण देश में मध्यम वर्ग के विकास में काफी इजाफा हुआ है। एक ऐसा समय जब हर साल तकरीबन 10 लाख लोग बेहतर अवसरों की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, तकनीक और संचार के विकास में बहुत बढ़ोतरी हुई है। भारत की खास बात यह भी है कि यहां का मध्यम वर्ग बहुत ऊर्जावान और महत्वाकांक्षी है। नए वैश्विक शोध इन परिवारों में प्रेरणा का कारण पारंपरिक से हटकर कहीं आगे के बताते हैं। ‘ऑर्गनाइजेशन फॉर कॉपरेशन एंड डेवलेपमेंट’ के अनुसार इसके 2030 तक 4.9 बिलियन हो जाने की उम्मीद है, जो कि साल 2009 में 1.7 बिलियन था। मध्यम वर्ग का यह विस्तार वैश्विक है, लेकिन मुख्य रूप से इसका
साल 2011 के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली के 69.5 फीसदी घरों में एक ही शादीशुदा जोड़ा है, साथ ही 6 फीसदी से अधिक भारतीय घरों में नौ या उससे अधिक सदस्य रह रहे हैं
बढ़ता शहरीकरण
भारत में शहरीकरण बाकी देशों से कई मायनों में बिल्कुल अलग रहा है, क्योंकि इसका थाइलैंड और इंडोनेशिया जितना कम विस्तार नहीं है, न ही चीन जितना तेज रफ्तार और न ही इसका भौगोलिक दायरा अमेरिका जितना फैला है। अनुमान है कि भारत की तकरीबन 40 फीसदी जनता साल 2025 तक शहरों में रहेगी।
एकल परिवारों की ओर बढ़ते कदम
भारत में एकल परिवारों का बढ़ना किसी एक कारण से नहीं है, बल्कि इसमें कई कारण शामिल हैं। आज 70 प्रतिशत भारतीय घरों का ढांचा एकल परिवार का है, जो पिछले दो दशकों में 13 प्रतिशत का उछाल दिखाता है। इस अवधारणा को लेकर सबके अपनेअपने मत हैं। एकल परिवार संयुक्त परिवार के मुकाबले प्रति व्यक्ति 20 से 30 प्रतिशत तक अधिक खर्च करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सामाजिक मापदंड के अनुसार इसको देखने के अपने पैमाने हैं, लेकिन हमें समझना होगा कि संयुक्त और एकल दोनों परिवारों की अपनी खामियां और खूबियां हैं, और दोनों का संज्ञान लिया जाना चाहिए। माता सुंदरी कालेज की काउंसलर भावना मलिक का कहना है कि चाहे दूर रहें या पास-आपसी आदर जरूरी है, जो हमें एक दूसरे से जोड़ता है, नहीं तो हम देखते हैं कि एक ही छत के नीचे कड़वाहट कैसे भर जाती है। अमरीकी कवयित्री माया एंजेलो ने ठीक ही कहा है कि परिवार हमेशा खून के रिश्तों से ही नहीं बनते, बल्कि उन लोगों से बनते हैं जो आपको अपनी जिंदगी में रखना चाहते हैं और जो आपको बिना किसी स्वार्थ के प्यार करते हैं।
15-21 मई 2017
समाज सेवा
कासा के हाथों सेवा की कमान
विभाजन की त्रासदी झेल रहे लोगों को राहत पहुंचाने से लेकर सुनामी पीड़ितों के जख्मों को सहलाने तक, मनरेगा से लेकर फूड सिक्यूरिटी बिल के बारे में वंचितों को शिक्षित करने तक का कासा का सफर बेहद जिम्मेदारी से भरा रहा है भारत में चिंता की लहर पैदा कर दी थी। उस स्थिति में भी कासा राहत के लिए लांग टर्म री हैबिलिटेश्न प्रोग्राम के साथ सामने आई। सन 1960 से संस्थापक का कासा फूड सपोर्ट फॉर कम्यूनिटी मोबिलाइजेशन या फूड फॉर वर्क प्रोजेक्ट सूखे से प्रभावित इलाकों में गरीबों और वंचितों को 3000 मीट्रिक टन प्रति वर्ष के हिसाब से अनाज मुहैया करवा रहा है। प्रोजेक्ट का उद्देश्य लोगों को उनके अपने इलाकों में ही वाटर हारवेस्टिंग, अन्य ढांचागत निर्माण विकास के काम में रोजगार उपलब्ध करवाने का है।
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आशिमा
सा यानी ‘चर्चेज ऑक्सिलरी फॉर सोशल एक्शन’ पिछले सत्तर सालों से मानवता की सेवा को समर्पित है। संस्थान के कार्यकर्ता बताते हैं कि इसका मूल उद्देश्य वंचितों को उनके हकों के बारे में जानकारी देना और उनके बारे में समझाना है। संस्थान की शुरुआत भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद हुई तबाही में पीड़ितों को राहत पहुंचाने में मदद करने से हुई थी। गौरतलब है कि कासा आज देश की प्रमुख राहत पहुंचाने वाली संस्थाओं में से है। इसकी पहुंच देश के 26 राज्यों 249 जिलों में है।
हेल्प पीपल टु हेल्प देमसेल्व्स
आपदा राहत में खासा काम करने वाली संस्थान कासा का काम आज वंचितों के विकास पर आधारित है। कासा का मूल रूप से मानना है कि ‘ब्रिंगिंग पीपल टुगेदर’ यानी लोगों को एकजुट किया जाए और उन्हें उनके हकों के प्रति जागरूक किया जाय। उदाहरण के लिए, सरकार के पास उनके लिए कौन कौन सी योजनाएं हैं या वे कौन से तरीके हैं जहां वे अपनी बात रख सकते हैं, वे कौन से हक हैं, जो उनके लिए संविधान में लिखे हैं और वे उनसे अब तक अनजान हैं। कासा के प्रयासों का ही नतीजा है कि मनरेगा और नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट 2013
के सही क्रियान्वयन में कई ग्रामीण इलाकों में मदद ही मिली है।
कासा की शुरूआत
देश के विभाजन के समय हुए दंगे मानवता की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक से है। कासा का शुरुआती मकसद भारत पाकिस्तान विभाजन के पीड़ित शरणार्थियों की मदद करना था। कासा का काम बदलते दौर के साथ और भी व्यापक हुआ। समय के हिसाब से समाज बदलता है, और साथ ही उसकी जरूरतों में भी बदलाव आता है। ऐसे में कासा ने भी खुद को आगे बढ़ाया। आज कासा का दायरा, महिला सशक्तिकरण, स्वास्थ्य, सैनिटेशन आदि क्षेत्रों में भी फैला हुआ है। चाहे महिलाओं के लिए फैब्रिक पेंटिंग, कढ़ाई आदि सिखाने के लिए कासा वोकेशनल ट्रेनिंग की बात हो या फिर आईटी लिटरेसी के लिए कासा स्किल ट्रेनिंग सेंटर, आज कासा का काम बहुत से क्षेत्रों में व्यापक है।
कासा और आपदा प्रबंधन
आपदा चाहे प्राकृतिक हो या मानव जनित, दोनो ही सूरतों में क्षति मानव की ही होती है। ऐसे में कासा का काम सराहनीय रहा है। 2004 की सुनामी में भी राहत पहुंचाने के काम में कासा के कार्यकर्ता मुस्तैदी से काम करने नजर आए। उत्तराखंड बाढ़ और भूस्खमलन, कश्मीर में बाढ़ जैसी आपदाओं ने
कासा के प्रयासों का ही नतीजा है कि मनरेगा और नेशनल फूड सिक्योरिटी एक्ट 2013 के सही क्रियान्वयन में कई ग्रामीण इलाकों में मदद ही मिली है
एनजीओ
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एक नजर
सत्तर साल पहले शुरू हुआ कासा का सफर वंचितों को उनके हक के प्रति जागरूक करना है उद्देश्य
हर साल 3000 मीट्रिक टन अनाज मुहैया करवा रहा कासा
करना ही मकसद नहीं है, बल्कि उससे संबंधित पूरी प्रक्रिया की जानकारी भी लेना है, उसके वैकल्पिक तरीकों के भी बारे में सोचना है। ऐसे में कासा लोगों को अलग-अलग जगह से प्लेटफार्म दिलाकर उनको शिक्षित करने का काम कर रही है। निर्मल जे सिंह कहते हैं कि पहले ग्रामीण स्तर पर लोगों को एक साथ लाकर समस्याओं पर चर्चा की जाती है, सबकी राय ली जाती है, ऐसे में जब लोगों की आपसी भागीदारी बढ़ती है, फिर उसके बाद स्टेट या फिर केंद्र के स्तर पर जाकर चर्चा की जाती है।
आपदा के साथी
सा का प्रमुख उद्देश्य मूल रूप से ईसाई मूल्यों पर आधारित हैं। जो सैद्धांतिक रूप से ही किसी भी दुनियाबी फर्क से परे विश्व में शांति और सद्भाव और न्यायपूर्ण व्यवस्था की बात करता है। प्राकृतिक और मानव जनित दोनो तरह की आपदाओं से पीड़ित लोगों की हर संभव मदद करना है। कासा के डायरेक्टर डा सुशांत अग्रवाल कहते हैं कि कहा जाता है कि ऊपर से किसी को भगवान ने गरीब बनाकर भेजा है, किसी
बदलता दौर और बदलता समाज-सेवा का तरीका
समाज-सेवा का पहले तरीका पारंपरिक तरीके से दान करने की प्रवृति को समझा जाता था। जिसके तहत किसी को जिस चीज की आवश्यकता है, तो उसको वह उपलब्ध करवा दिया जाना सही समझा जाता था। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि समय के साथ इस तरीके में भी बदलाव आया है। अब माना यह जाता है कि केवल जरूरतमंद की जरूरत पूरी कर देना उसको आत्मनिर्भर होने की राह में रोड़ा है। अब समाज सेवा के अधिकतर ऐसे तरीके खोजे जाते हैं कि पाने वाले का आत्मसम्मान भी बना रहे और आत्मनिर्भता का भी बोध हो। इसी क्रम में संस्था के हेड ऑफ एमरजेंसी निर्मल जे सिंह बदलते दौर की और भी साफ तस्वीर सामने लाते हैं। वे कहते हैं कि पहले यह तरीका नीड बेस्ड यानी जरूरत पर निर्भर था, फिर इश्यू बेस्ड हुआ, यानी मुददे पर आधारित और आज राइट बेस्ट यानी हकों की जानकारी के आधार पर है। और इसे हमारे विकास के पैमाने को भी ध्यान में रखकर बनाया जाता है। क्योंकि आज लोगों की केवल जरूरत पूरी
को अमीर, लेकिन यह तो सिस्टम की वजह से है, और इसे तभी दूर किया जा सकता है यदि हमारे अंदर दृढ़ इच्छाशक्ति हो कि हम उन लोगों की मदद करने को तैयार रहें जो अपनी जिंदगी में बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं। वे यह भी कहते हैं कि भारत तेजी से विकास करता देश है, इसीलिए हम अपने देश के गरीबों की मदद के लिए यदि बाहर के देशों की मदद पर ही निर्भर रहेंगे तो हमें एक बार फिर से सोचने की जरूरत है। यह समस्या सुलझाने का अच्छा तरीका नजर आता है, लीडरशिप स्किल भी बढ़ती है और साथ ही सबकी भागीदारी भी सुनिश्चित होती है, लोग स्वयं भी जिम्मेदार बनते हैं।
चुनौतियां
समाज के विकास में सत्तर साल का लंबा वक्त देने वाली संस्था कासा के हेड ऑफ एमरजेंसी, निर्मल जे सिंह का कहना है कि कासा का काम ग्रामीण इलाकों में बिल्कुल बुनियादी स्तर पर जाकर होता है। इसीलिए गांव में जाति प्रथा को लेकर कई बार कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। क्योंकि एक सामाजिक सोच के तहत एक बहुत बड़े तबके को वंचित रखा जाता है, तो ऐसी सोच रखने वाले लोग काम करने की राह में बाधक बनते हैं। इसके अलावा भी यदि बात करें तो असली समस्याएं जमीनी स्तर पर जाकर ही देखने को मिलती हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि चुनौतियां केवल चुनौतियों की तरह ही रहीं, धैर्य के साथ हमारी संस्थाा लगातार काम करती रही और कर रही है। समाज-सेवा की राह में चुनौतियां तो रहती ही हैं।
14 पर्यावरण
15-21 मई 2017
वन संरक्षण
जंगल बचाने के लिए खेत की कुर्बानी
जंगल बचाने के संकल्प के साथ उत्तराखंड के डांग गांव के लोगों ने मात्र 82 दिनों में करीब 560 मीटर सड़क का निर्माण कर दिया
एक नजर
2007 में ही स्वीकृत हो गई थी सड़क योजना
स्वार्थी तत्वों के कारण 2016 तक नहीं बनी सड़क आखिरकार डांग के ग्रामीणों ने श्रमदान करके सड़क बनाई
कि पोखरी तक सड़क पहुंचाने में 469 से एक भी अधिक पेड़ नहीं कटना चाहिए। न्यायालय से कोई राहत क्यों नहीं मिली, इसका जवाब ग्रामीण देते हैं कि जो बुद्धिजीवी न्यायालय गए थे, उन्होंने न्यायालय के सामने यह बात प्रमुखता के साथ रखी ही नहीं कि जब सड़क दोनों गांवो के लिए स्वीकृत है तो केवल एक गांव (पोखरी) के लिए ही क्यों सड़क बनाई जा रही है, साथ ही जब एक ऐसी सड़क बन सकती है, जो दोनों गांवों को जोड़ सकती है तथा जिसके निर्माण में पर्यावरण को भी कोई हानि नहीं होगी तो फिर ऐसी सड़क क्यों नहीं बनाई जा रही है।
‘मातृ शक्ति’
उ
अभिरेख अरुणानंदन
त्तराखंड के उत्तर में स्थित चीन की सीमा से लगे उत्तरकाशी जनपद के मुख्यालय के निकट एक छोटे से गांव डांग ने पूरे भारत वर्ष तथा दुनिया के सामने एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है। डांग गांव, ग्राम पंचायत डांग का हिस्सा है। ग्राम पंचायत डांग में दो गांव डांग तथा पोखरी हैं। डांग में लगभग 100 परिवार तथा पोखरी में 25 परिवार निवास करते हैं। ये दोनों गांव मुख्य सड़क से 800 मीटर से भी कम की दूरी पर स्थित हैं। 2004 में दोनों गांवों ने एक ऐसी सड़क का निमार्ण करवाना चाहा, जो डांग गांव से होते हुए पोखरी जाए और दोनों गांवों को आपस में जोड़ सके। ग्राम पंचायत डांग ने ‘डांग-पोखरी मोटर सड़क’ नाम से प्रस्ताव पारित कर दिया तथा 2007 में उत्तराखंड शासन द्वारा उक्त सड़क ‘डांग-पोखरी मोटर सड़क’ नाम से स्वीकृत भी हो गई, लेकिन वर्ष 2016 तक दोनों गांव के लिए सड़क का निर्माण नहीं हो सका।
नक्शे का विरोध
सड़क निर्माण में हुई देरी का कारण पूछने पर ग्रामीण बताते हैं कि लोक निर्माण विभाग और कुछ वन माफियाओं ने ‘डांग-पोखरी मोटर सड़क’ के प्रस्तावित नक्शे के विपरीत दोनों गांवों से लगभग 4 किलोमीटर दूर ‘एनआईएम (नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग) से पोखरी’ कर दिया। जन भावना के
1982 में सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा तथा डांग गांव के ही एक नवयुवक गोपाल गुसाईं के नेतृत्व में ‘चिपको आंदोलन’ हुआ था। तब भी ग्रामीणों ने विकास योजनाओं के लिए अपने खेत दिए, लेकिन अपना जंगल को नहीं कटने दिया विरुद्ध बनाए गए इस नक्शे का बहुत विरोध हुआ, क्योंकि इस नक्शे के आधार पर बनने वाली सड़क से नुकसान ज्यादा और लाभ कम होता है।
चढ़ती सैकड़ों पेड़ों की बलि
सबसे बड़ा नुकसान तो यह है कि इस नक्शे पर यदि सड़क बनती है तो सैकड़ों हरे भरे पेड़ों की बलि चढ़ जाती। दूसरा यह नक्शा केवल एक ही गांव पोखरी को सड़क से जोड़ता है, डांग गांव को नहीं। ‘एनआईएम से पोखरी’ सड़क का नक्शा डांग गांव के ऊपर स्थित घने मिश्रित आरक्षित वन से गुजरता है। अब यदि उत्तराखंड में आपदा के लिहाज से अति संवेदनशील जिले उत्तरकाशी में किसी गांव के ऊपर से सड़क जाती है तो यह भू-स्खलन को खुला आमंत्रण देने जैसा होता। जब नक्शे में इस प्रकार का उलट-फेर हो गया, तो डांग गांव के ग्रामीणों ने इसका घोर विरोध किया। इस विरोध के पीछे डांग गांव का अपने जंगल से अटूट प्रेम था। डांग गांव की वयोवृद्धा बचना बिष्ट
बताती हैं कि इस जंगल को ग्रामीणों ने अपने बच्चों की तरह पाला है। 75 वर्षीय बचना कहती हैं, ‘अपने जंगल को बचाने के लिए 1982 में सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा तथा डांग गांव के ही एक नवयुवक गोपाल गुसाईं के नेतृत्व में ‘चिपको आंदोलन’ चलाया था। उस समय सरकार इनके जंगल को काट कर सरकारी आवासीय कॉलोनी बनाना चाह रही थी। तब भी ग्रामीणों ने विकास योजनाओं के लिए अपने खेत दिए, लेकिन अपना जंगल नहीं कटने दिए। ग्रामीणों ने अपने जंगल को बचाने के लिए कई बार ‘रक्षासूत्र’ आंदोलन भी चलाया है।
जनहित याचिका
नक्शे में हुए बदलाव के खिलाफ कुछ बुद्धिजीवियों ने न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की, लेकिन न्यायालय से उनको कोई राहत नहीं मिली। न्यायालय ने यह आदेश दिया कि हम किसी का विकास नहीं रोक सकते हैं। साथ ही यह भी कहा
इस तरह के घटनाक्रमों के बीच कई साल बीत गए, लेकिन दोनों गांव सड़क से वंचित रहे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि डांग तथा पोखरी गांव के बीच मन-मुटाव भी होने लगा, क्योंकि पोखरी के ग्रामीणों को यह समझाया जाने लगा कि डांग वालों ने तुम्हारी सड़क रोक रखी है। तब डांग गांव के ग्रामीणों ने ‘मातृ शक्ति’ के नेतृत्व में 11 दिसंबर, 2016 से ग्राम पंचायत के नए प्रस्ताव के तहत श्रमदान करके, आपस में धन एकत्रित करके डांग से पोखरी के लिए सड़क का निर्माण कार्य शुरू कर दिया। डांग गांव के ग्रामीणों ने ग्राम पंचायत के सड़क बनाने के मूल प्रस्ताव के तहत अपने खेतों को स्वयं काट कर सड़क बनानी शुरू की और दो मार्च, 2017 तक मात्र 82 दिनों में करीब 560 मीटर सड़क का निर्माण कर दिया। डांग गांव के ग्रामीणों ने अपने खेतों की अंतिम सीमा तक सड़क बनाई। श्रमदान से बनी इस सड़क के अंतिम बिंदु से पोखरी गांव की दूरी लगभग 130 मीटर बच गई है। इस सड़क पर छोटे-बड़े वाहन भी चलने लगे हैं।
सड़क काे पक्का बनाना
इतना सब कर लेने के बाद भी डांग गांव के ग्रामीणों द्वारा अपने जंगल और पर्यावरण को बचाने के लिए शुरू की गई लड़ाई अपने अंजाम तक नहीं पहुंची है। प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि आप लोग कोर्ट से हार चुके हैं। जबकि, न्यायालय ने तो अपना निर्णय तब सुनाया था जब डांग-पोखरी के लिए कोई सड़क बनी ही नहीं थी। आज तो ग्रामीणों ने श्रमदान करके सड़क बना दी है। ग्रामीणों का कहना है कि उनके द्वारा श्रमदान से बनाई गई सड़क को ही 130 मीटर आगे पोखरी गांव तक बनाया जाए और अब हमारे हरे-भरे जंगल को सड़क के नाम पर न काटा जाए। साथ ही ग्रामीणों द्वारा बनाई गई इस सड़क में जो भी कमियां हैं उसे दूर करते हुए सड़क काे पक्का बनाया जाए।
सत्तर साल के किसान ने बदली अपने गांव की पहचान जैविक खेती
जैविक खाद से प्रेरित करने वाले नाटक ने बदला एक सत्तर साल के किसान का खेती करने का तरीका। आज उनके गांव की पहचान एक आर्गेनिक विलेज के रूप में है
15-21 मई 2017
कृषि
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एक नजर
अनछ यादव हर बात पर प्रकृति से जुड़ा मुहावरा बोलते हैं
चार साल पहले एक नाटक देखकर जैविक खेती के प्रति हुए आकर्षित आज केडिया गांव में 70 फीसदी किसान कुदरती खेती कर रहे हैं
‘हमने बाजार आधारित खेती को छोड़कर प्रकृति के साथ सहजीवन वाली खेती को अपनाया है। मोटर की जगह हम कुएं से सिंचाई करते हैं जिससे हमारा पानी भी बचता है और खेतों में पानी की अधिकता से होने वाले दुष्प्रभाव भी कम होते हैं’ -अनछ यादव
भा
एसएसबी ब्यूरो
रतीय किसान और किसानी कई तरह के संकटों के बीच कई कामयाबियों और बदलाव की कहानी एक साथ लिख रहा है। ऐसे ही एक किसान हैं अनछ यादव। धोती लपेटे एक बुजुर्ग, चेहरे पर कसावट, लंबा कद और आंखों में एक अलग तरह की रोशनी। पहली बार में किसी भी दूसरे किसानों की तरह ही सामान्य दिखते हैं अनछ यादव, लेकिन उनकी कहानी असाधारण है। 70 साल के अनछ यादव के गांव का नाम है खेड़िया। यह गांव बिहार के जमुई जिले में है। अनछ बड़े नहीं, बल्कि सामान्य वर्ग के किसान हैं। धान, रबी, प्याज जैसी फसलों को उपजाते हैं। एक समय में अपने समुदाय में अनछ यादव पहले सबसे पढ़े-लिखे आदमी थे। वे मैट्रिक थे, सो खूब सारी नौकरियां भी मिली, लेकिन की नहीं। उनके मुताबिक किसी और की नौकरी करने से अपनी जमीन पर खेती करके अपना मालिक खुद बने रहना ज्यादा अच्छा है। साफ है कि खेती कहीं न कहीं उनका प्यार भी है, तभी तो वे इस क्षेत्र में आज असाधारण हैं और उनकी लोग चर्चा कर रहे हैं। अनछ यादव हर बात पर प्रकृति से जुड़ा मुहावरा बोलते हैं। करीब चार साल पहले अनछ यादव किसी
काम से पास के गांव गए थे। वहीं दस-बारह लोगों की एक टीम नुक्कड़ नाटक कर रही थी। उस नाटक में बताया जा रहा था कि कैसे रासायनिक खाद की खेती करने से मिट्टी बर्बाद हो रही है, किसानों को कर्ज में डूबना पड़ रहा है और बीमारियों वाला भोजन करना पड़ रहा है। अनछ यादव के मन में नाटक की ये बातें बैठ गईं। वे वापस आकर शांत नहीं बैठे, बल्कि अपने गांव वालों से चर्चा करने लगे। कुछ दिनों बाद फिर कुछ गांव वालों के साथ अनछ यादव नाटक देखने गए। फिर क्या था नाटक मंडली जहां-जहां जाती अनछ यादव अपने साथियों के साथ वहां-वहां पहुंच जाते। आसपास के 20 गांवों में वे नाटक मंडली के साथ गए। धीरे-धीरे अनछ यादव ने अपने गांव वालों को रासायनिक खेती से तौबा करने के लिए राजी कर लिया। आज इस गांव में लगभग 70 फीसदी किसान कुदरती यानी जैविक खेती कर रहे हैं। खेड़िया जैविक ग्राम (आर्गेनिक विलेज) बन चुका है। किसान अपने घर में ही जैविक खाद और कीटनाशक का निर्माण करते हैं। वे अपनी खेती के लिए बाजार पर निर्भर नहीं हैं। अनछ यादव बताते हैं, ‘हमने बाजार आधारित खेती को छोड़कर प्रकृति के साथ सहजीवन वाली खेती को अपनाया है। हमने खेती में ऐसे रसायनों का इस्तेमाल बंद कर दिया है, जिससे जीव-जंतुओं
और मिट्टी को नुकसान पहुंचता है। मोटर की जगह हम कुएं से सिंचाई करते हैं, जिससे हमारा पानी भी बचता है और खेतों में पानी की अधिकता से होने वाले दुष्प्रभाव भी कम होते हैं।’ कभी धीमी तो कभी तेज आवाज, अनछ यादव के बोलने का अपना अंदाज है। हिंदी में बात करतेकरते वे स्थानीय बोली में बोलने लगते हैं। जैविक खेती का महत्व बताते हुए अनछ कहते हैं- खेड़िया गांव अभी जैविक खेती सीख ही रहा है। हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। कुदरती खेती नहीं होने पर आदमी कमजोर हो रहा है, रासायानिक खाद वाली फसल सेहत के लिए नुकसानदेह साबित हो रही है। जैविक खेती से मिट्टी की जान बची है, मिट्टी का रस लौट रहा है। रासानयिक खाद से जमीन जल जाती है। यह किसानों के लिए आर्थिक रूप से भी बोझ ही साबित होता था। पहले एक एकड़ में एक फसल में पांच हजार रुपए लग जाते थे, लेकिन अब जैविक खेती की वजह से पैसा बच जाता है। अनछ बताते हैं कि दो साल पहले तक खाद-पानी के लिये ऋण पर गांव वाले पैसा लेकर रासानयिक खाद और कीटनाशक खरीदते थे। खेती बारिश के भरोसे टिके होने के कारण हमेशा घाटे की आंशका बनी रहती थी। अगर फसल नहीं होती थी तो महाजन का सूद भरना भी कठिन हो जाता था। पहले सरकारी स्तर पर हमेशा उपेक्षा का दंश झेलना पड़ता था। फिर खेड़िया गांव के किसानों ने एक संगठन बनाया और नाम दिया ‘जीवित माटी किसान संगठन’। अब संगठन की ताकत का कमाल है कि गांव में मंत्री भी आते हैं
और कृषि विभाग के अधिकारी भी मदद करने का प्रस्ताव देते हैं। संगठन की वजह से ही जैविक खाद के लिए लोगों को वर्मी-बेड (कीड़ों से तैयार खाद यानी कम्पोस्ट तैयार करने का उपकरण) मिल पाया। अनछ बताते हैं कि पहले हमें सरकारी कर्मचारी कहते थे कि एक पंचायत में सिर्फ 9 वर्मी-बेड दिए जाते हैं, जबकि यह योजना कोटा आधारित नहीं मांग आधारित है। संगठन ने दबाव बनाया और आज गांव के किसानों के पास 262 वर्मी-बेड है। केड़िया के किसान गांव में पैदा होने वाली सभी तरह के जैविक अवशेष से खाद और कीट नियंत्रक दवाइयां बनाते हैं। गोबर और मवेशी के पेशाब को संग्रहित करने के लिए उन्होंने अपने पशुशेड की फर्श को पक्का कर लिया है। बायोगैस प्लांट लगाकर गोबर आदि के सड़ने से निकली मीथेन गैस को जलावन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। बायोगैस से निकली स्लरी और बचे-खुचे कृषि अवशेष वर्मीखाद बनाने के काम आते हैं। उन्होंने मानव मलमूत्र के सही प्रबंधन के लिए शौचालय बनाने भी शुरू किए हैं। अनछ यादव गांव की दूसरी समस्याओं को भी सुलझाने की कोशिश में हैं। उनकी पोती नीलम गांव की पहली लड़की है जो विज्ञान विषय में कॉलेज में पढ़ाई कर रही है। अनछ यादव और उनके गांव के लोग खेती के पारंपरिक और देशज तरीकों को अपनाकर प्रकृति और खुशहाली की तरफ बढ़ चुके हैं। उन्हें उम्मीद है देश के दूसरे किसान भी उनके रास्ते की तरफ लौटेंगे और खेती-किसानी के साथ धरती और प्रकृति भी बचेगी।
16 खुला मंच
15-21 मई 2017
‘यदि आप चाहते हैं कि लोग आपके साथ सच्चा व्यवहार करें तो आप खुद सच्चे बनें और अन्य लोगों से भी सच्चा व्यवहार करें’ - महर्षि अरविंद
लीला सेठ को याद करते हुए
स
‘वे महान जज थीं, महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली महिला थीं और एक अच्छी इंसान थीं’
म्मान और शिक्षा का जो साझा देश में महिलाओं को एक जमाने में संघर्ष करके बुनना पड़ता था, वह आज भारत की महिला आबादी का संस्कार है, उसकी जीवनशैली है। हाल में जब देश में हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश बनने वाली पहली महिला लीला सेठ का निधन हुआ तो उन्हें जानने वालों ने इस बात को खास तौर पर रेखांकित किया। लीला सेठ के बारे में उल्लेखनीय यह भी है कि वे जाने-माने अंग्रेजी लेखक विक्रम सेठ की मां हैं। लीला 86 वर्ष की आयु तक हमारे साथ रहीं। लखनऊ में वर्ष 1930 में जन्मी लीला सेठ भारत की पहली महिला थीं, जिन्होंने 1958 में लंदन बार की परीक्षा पास की थी। वह बचपन में नन बनना चाहती थीं, लेकिन पिता राज बिहारी सेठ की मौत के बाद उनका जीवन अचानक बदल गया । लीला बताती थीं कि कानून की पढ़ाई करना उनकी किस्मत में लिखा था और पढ़ाई के लिए बहुत कम समय मिलने के बावजूद उन्होंने लंदन बार की परीक्षा में टॉप किया। जुलाई 1978 में लीला सेठ को न्यायाधीश की शपथ दिलाई गई और अगले ही वर्ष दिल्ली हाईकोर्ट में नियुक्त किया गया। इसके साथ ही वे भारत में किसी हाईकोर्ट में पहली महिला न्यायाधीश बनीं। कालांतर में लीला को हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायायल का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। ये साल 1992 की बात है और तब ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी महिला को किसी उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश बनने का अवसर मिला। उनके निधन पर इतिहासकार इरफान हबीब ने सही याद दिलाया, ‘वे महान जज थीं, महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली महिला थीं और एक अच्छी इंसान थीं।’ लीला को श्रद्धांजलि देते हुए यह याद रखना जरूरी है कि वह 15वें विधि आयोग की सदस्य थीं। इसके अलावा 2012 में बनाई गई जस्टिस वर्मा समिति की भी सदस्य थीं, जिसे दिल्ली के निर्भया बलात्कार कांड के बाद कानून में बदलाव संबंधी सुझाव देने के लिए गठित किया गया था।
शैलेश सृष्टि
लेखक वरिष्ठ सािहत्यकार और तीन दशकों से जनांदोलनों में सक्रिय
सू
स्वास्थ्य और संवेदना
स्वास्थ्य के मामलों में खिलवाड़ को देखते हुए मीडिया को आगे आना होगा और एक सतर्क प्रहरी की भूमिका निभानी होगी
चना के दौर में बड़ी से बड़ी खबर भी अल्पायु की शिकार हो रही है। आलम यह है कि कई बड़ी खबरें जो मानवीय संवेदना के लिहाज से ही काफी अहम होती हैं, टीवी चैनलों के एक-दो बुलेटिन से आगे नहीं चल पातीं। अखबारों में ऐसी खबरों के लिए थोड़ी जगह जरूर होती हैं, पर इनके बारे में बात बहुत संक्षेप में होती है और वह भी भीतर के किसी पन्ने पर। बमुश्किल तीन महीने पहले की बात होगी। कर्नाटक के कलबुर्गी में एक ऐसे रैकेट का पर्दाफाश हुआ, जो महिलाओं के गर्भाशय को निकालने जैसा जघन्य अपराध करता था। इसमें मिलीभगत का आरोप चार अस्पतालों पर लगा। थोड़ी तफ्तीश की गई तो पता चला कि कलबुर्गी के स्थानीय लोग पिछले दो वर्ष से इस मुद्दे को उठा रहे हैं। मीडिया में यह खबर चली पर इसका फॉलोअप करना किसी ने जरूरी नहीं समझा। इस बारे में मीडिया ने एक-दो दिन तक सनसनी वाले लहजे में दिलचस्पी जरूर दिखाई, पर इस तरह के अपराध ने मानवीय संवेदना को जिस तरह झकझोरा, उस मर्म को उठाना किसी ने जरूरी नहीं समझा। बीते ढाई दशक में भारत ने विकास की कई बड़ी ऊंचाइयां देखी हैं। पर नव उदारवाद के इस दौर ने जो सबसे बड़ा खतरा पैदा किया है, वह मनुष्य और मनुष्यता के साझे में पड़ती जा रही बड़ी दरार है। स्थिति तब वाकई चिंताजनक लगने लगती है जब पता चलता है कि सेहत और तालीम को फाइव स्टार सर्विस के तौर पर मुहैया करा रहे संस्थानों में सीधे-सीधे लोगों की जिंदगियों से खेला जा रहा है। कर्नाटक के कलबुर्गी में महिलाओं के साथ जो कुछ हुआ, वह ऐसा ही एक मामला है। गौरतलब है कि जिन 2200 महिलाओं के गर्भाशय को निकाले जाने का मामला सामने आया, वो लुंबानी और दलित समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। पीड़ित महिलाओं की उम्र 40 साल तक है। पेट में दर्द की शिकायत लेकर जब वो अस्पताल में इलाज के लिए पहुंचती थीं तो डॉक्टर ने उन्हें पेट में कैंसर बता कर डरा देते थे और गर्भाशय (यूट्रस) निकलवाने की सलाह देते थे। महिलाओं ने डर के चलते अपना गर्भाशय निकलवा दिया। इसी तरह किडनी प्रत्यारोपण में गड़बड़ी को लेकर जबतब बड़े खुलासे होते रहते हैं। इसमें जो पिछला सबसे बड़ा
मामला था उसमें अवैध तरीके से किडनी प्रत्यारोपण करने वाले मुंबई के हीरानंदानी अस्पताल के सीईओ और मेडिकल डायरेक्टर के साथ कई डॉक्टरों की गिरफ्तारी हुई थी। दिलचस्प है कि इस मामले में गिरफ्तार मुख्य आरोपी बिजेंद्र बिसेन इसके पहले साल 2007 में भी गिरफ्तार हो चुका है। यह इस बात की ओर साफ इशारा है कि किडनी रैकेट देशभर में बेखौफ अपना काम कर रहे हैं। नहीं तो ऐसा कभी नहीं होता कि गुरुग्राम, दिल्ली, साणंद से लेकर मुंबई तक फैले किडनी रैकेट की काली दुनिया सिमटने के बजाय और फैलती चली जाती। ड्रग तस्करी की तरह इस रैकेट का संजाल विदेशों तक फैला है। कहने की जरूरत नहीं कि किडनी हमारे शरीर का एक अहम हिस्सा है। किडनी की खराबी या उसका पूरी तरह फेल होना जानलेवा हो सकता है। राहत की बात यह है कि हमारे शरीर में एक के बजाय दो किडनी हैं और मेडिकल साइंस की मदद से इसमें से एक को दूसरे के शरीर में प्रत्यारोपित किया जा सकता है। पर किडनी प्रत्यारोपण का यह खेल जब बड़े अस्पताल और डॉक्टर लाखों-करोड़ों रुपयों की कमाई के लालच में खेलने लग जाते हैं तो स्वास्थ्य की एक बड़ी सेवा महज खिलवाड़ बनकर रह जाती है। आलम यह है कि किडनी कारोबार के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खुलासे के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन को भी इस बात की ताकीद करनी पड़ी है कि मानव शरीर और इसके अंगों को व्यापारिक लेन-देन की वस्तु नहीं बनाया जा सकता है। बात करें भारत की तो 1994 में सरकार ने मानव अंग प्रत्यारोपण कानून बनाया था। इसके मुताबिक रोगी का निकटतम रक्त संबंधी ही किडनी जैसा जीवनदायी अंग दे सकता है। इसे परिभाषित करते हुए कहा गया है कि मरीज के माता-पिता, भाई-बहन, बेटा-बेटी और पति-पत्नी ही अंगदान
बीते ढाई दशक में भारत ने विकास की कई बड़ी ऊंचाइयां देखी हैं। पर नव उदारवाद के इस दौर ने जो सबसे बड़ा खतरा पैदा किया है, वह मनुष्य और मनुष्यता के साझे में पड़ती जा रही बड़ी दरार है
15-21 मई 2017 के अधिकारी हैं। इसमें बाद में समस्या यह आई कि कानूनी बंदिश के कारण कई मौकों पर कोई दूसरा व्यक्ति जरूरतमंद को अंगदान नहीं कर सकता था। ऐसी ही कई और कठिनाइयों को देखते हुए इस कानून में 1999, 2001 और फिर 2011 में संशोधन हुए। इनमें अंगदाता का दायरा अब काफी बढ़ा दिया गया है। अब तो स्थिति यह है कि रोगी की हालत और मेडिकल जरूरत के हिसाब से कोई भी अंगदान कर सकता है, बशर्ते इसके लिए पैसों का कोई लेनदेन न किया गया हो। गौरतलब है कि कानूनी सुधार के लिए दबाव बनाने वालों में सबसे ज्यादा सक्रिय प्राइवेट हॉस्पिटल लॉबी और मेडिकल सहायता के क्षेत्र में सक्रिय कुछ एनजीओ थे। आज जब इनके नाम किडनी कारोबार के एक के बाद एक खुलासे में समाने आ रहे हैं, तो समझा जा सकता है इस देश में मेडिकल सेवा कैसे लोगों और संस्थाओं के हाथों में है। तकरीबन 6-7 साल पहले किडनी रैकेट का एक बड़ा पर्दाफाश हुआ था। जांच एजेंसियों ने 300 से ज्यादा अवैध किडनी प्रत्यारोपण करने का खुलासा कयि था। यहां एक बात और समझनी जरूरी है कि कानूनी अनुकूलता बढ़ने के बावजूद देश में वैधानिक किडनी ट्रांसप्लांटेशन को लेकर कई कठिनाइयां हैं, जिसका फायदा किडनी के खरीद-फरोख्त करने वाले उठा रहे हैं। दरअसल, हमारे यहां जरूरत के मुताबिक किडनी का प्रत्यारोपण हो ही नहीं पा रहा है। नतीजतन किडनी का अवैध लेनदेन फल-फूल रहा है। हर साल 2.1 लाख भारतीयों को किडनी की जरूरत पड़ती है, लेकिन तय नियमों के मुताबिक 3-4 हजार मामलों में ही कानूनी प्रत्यारोपण मुमकिन हो पाता है। इससे किडनी के अवैध कारोबार के नेटवर्क को एक स्वाभाविक प्रश्रय मिल रहा है। डॉक्टरोंअस्पतालों की मिलीभगत से फर्जी मेडिकल रिपोर्ट संबंधित सरकारी समिति को भेजे जाते हैं। मरीज और अंगदाता के लिए अलग से जरूरी फर्जी दस्तावेज तैयार कर लिए जाते हैं। इस कागजी फर्जीवाड़े के आधार पर किडनी प्रत्यारोपण की सरकारी इजाजत हासिल कर ली जाती है। ऐसे में दरकार इस बात की है कि किडनी ट्रांसप्लांटेशन के लिए जरूरी कागजी कार्रवाई को ज्यादा पारदर्शी बनाए ताकि फर्जीवाड़े की गुंजाइश न के बराबर हो। अच्छा तो यह हो कि इस मामले में खुद मेडिकल प्रैक्टिशनर्स पहल करें, क्योंकि कुछ बड़े अस्पतालों और डॉक्टरों के गैरकानूनी हथकंडे के कारण पूरा मेडिकल प्रोफेशन दागदार हो रहा है। रही इस तरह के मामलों को उठाने की तो मीडिया को भी ऐसे मामलों में सतर्क प्रहरी की भूमिका निभानी होगी। इससे पहले देशभर में कन्या भ्रूण परीक्षण मामले में मीडिया ने सकारात्मक रोल अदा कर चुका है और आज इस तरह के मामले काफी कम हो गए हैं। इसी तरह अगर तमाम क्षेत्रों के बड़े आइकन्स अगर इस बारे में जागरुकता फैलाने में लगें तो भी इस तरह के जघन्य अपराध में कमी आ सकती है। ये सारी पहल इसीलिए भी जरूरी है क्योंकि पिछले कुछ समय में दुनिया भर में सस्ती और वैकल्पिक मेडिकल सुविधाओं को लेकर भारत की एक आकर्षक छवि बनी है, देश की इस छवि की सुरक्षा का दायित्व हम सब पर है।
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अरब की महिलाएं और शिरीन फेकी
ब्रितानी लेखिका और पत्रकार शिरीन एल फेकी ने अरब की महिलाओं को लेकर काफी अध्ययन किया है। अपने इस अध्ययन के नतीजों को उन्होंने काफी मुखरता के साथ लोगों के सामने रखा है
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रत के बाजार भले पिछले दो दशकों में ज्यादा उदार हुए हों, पर विचार के क्षेत्र में यह उदारता काफी पहले से रही है। भारतीय चिंतन का चरित्र समन्वयवादी इसीलिए है, क्योंकि नए विचारों का हमने हमेशा खुले हाथों से स्वागत किया है। बहरहाल, ये बातें यहां इसीलिए, क्योंकि हम चर्चा करने जा रहे हैं एक ऐसी लेखिका की, जो भारतीय नहीं हैं और न ही भारतीय जीवन और समाज को लेकर उन्होंने कोई उल्लेखनीय कार्य किया है, पर उन्हें पढ़ने-सुनने के लिए यहां के प्रबुद्ध लोगों में गजब का आकर्षण है। ब्रितानी लेखिका और पत्रकार शिरीन एल फेकी की प्रबुद्धों की दुनिया में एक जाना-पहचाना नाम है। शिरीन ने अरब की महिलाओं को लेकर काफी अध्ययन किया है। अपने इस अध्ययन के नतीजों को काफी मुखरता के साथ लोगों के सामने रखा है। कहने की जरूरत नहीं कि महिलाओं को लेकर अरब का समाज आज भी बहुत खुला नहीं है। वहां पर्दा प्रथा जैसी तमाम मध्यकालीन परंपराएं और मान्यताएं आज भी प्रचलन में हैं, जो वहां की महिलाओं को बाहरी दुनिया में खुलकर सांस लेने से रोकती हैं। शिरीन कुछ साल पहले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत करने आईं थीं। वहां एक संवाद सत्र में उन्होंने कहा कि लोगों को उनका अध्ययन इसीलिए आकर्षक लगता है, क्योंकि इसके केंद्र में
वर्ष-1 | अंक-21 | 08-14
इलियाना के बारे में पढ़ना सुखद
मई 2017
harat.com
sulabhswachhb
10 नदी संरक्षण
भागीरथी प्रयास
नषदयों को जीवन देने की ऐष्तहाषसक कोषिि
14 कृषर
हररयाली दीदी
छ्त पर फल-सबजी उगाने वाली मषहला रोल मॉडल
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अनाम हीरो
मुंबई का ‘श्रवण कुमार’ बुजुगगों को मुफ्त भोजन करा रहे हैं डॉ. उदय मोदी
‘पूरा देि िपथ ले देि सवचछ हो जाएगा’
के मौके पर वेद िोध केंद्र के उद्ाटन हररद्ार में प्तंजषल आयुव पर जोर षदया के षलए सवचछ्ता की दरकार प्रधानमंत्ी मोदी ने सवास्थय जूि को ‘नवश्व सं्युक्त राष्ट महासभा िे 21
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2014 को रूप में मिािे की घोषणा एसएसबी बयूरो अंतरराष्टी्य ्योग निवस’ के प्धािमंत्री िरेंद्र मोिी िे निलचत्प है नक इससे पहले रु बाबा रामिेव की। थी। धािमंत्री िरेंद्र मोिी और ्योगगु राष्ट से इस बाबत अपील की िई िहीं है। 2014 सं्युक्त के िो िशक में ्योग को के बीच संबंध की प्गाढ़ता भारत ही िहीं नवश्व में हाल बििे के बाि िोिों इसे घर-घर में लोकनप््य में िरेंद्र मोिी के प्धािमंत्री और निलािे त न त्वीकृ से नसरे एजेंडे की शक् ली। ्योग िए नमका रही है। वे ्योग की िजिीकी िे एक राष्टी्य में बाबा रामिेव की बड़ी भू बिािे बिी तो प्ाथनमकता की में सघि ततपरता और त्वचछता पर जोर सरकार आ्युविवे के भी प्सार के का्य्म िए तरह के राष्टी्य के साथ एक में में तब एक राष्टी्य हाल सालों िे तीि कोनशश बीते ही, इसिे से लगे हैं। उिकी इस ...जारी पेज 2 है। इस िौराि 11 निसंबर आंिोलि का भी त्वरूप नल्या
‘साहस’ का संवाद आधी दुषनया साहस
्ता का षवरय िा से सरकारों के षलए षिं मषहलाओं की समसयाएं हमे की गष्त अवरुद्ध इन समसयाओं से षवकास रही हैं। यही कारण है षक आने वाली पीढी ववी की मुषहम ‘साहस’ मानो रही है हो्ती रही है। मोना और पू के षलए योजना ्तैयार कर षनपटने से ों द् मु ऐसे के षलए
ी की बात है नक निशा िे क्ास में पढ़ रही है। खुश आस पास सैनिटरी पैड के रॉषबन केिव इतिी कम उम्र में ही अपिे िजररए को पहचाि नल्या बारे में बिाए गए रूनढ़वािी स्त्त्र्यों के शरीर रहा था, अचािक कहती है नक आनखरकार ्यह निशा से पहली बार नमल कर नि्या, है। वह कैसी। उसके इस वाक्य िे मुझे भौचकक की प्ाकृनतक नरि्या है तो शम्म कोई नक है ‘साहस’ के द्ारा भै्या आपको ऐसा क्यों लगता निशा समेत 25 और लड़नक्यां ले रही हैं। ‘साहस’ एक में पूछे तो ्यह शनमिंिगी भाग बारे में के ॉप ड श पै वक्क ी िटरी ब न सै लं महीिे लड़का में जरा भी नशकि िहीं थी। ऐसी संत्था है जो जेंडर के मुद्ों पर संवाि के नलए वाली बात है। उसकी बातों वाली रहिे में से 14 के आ्यु वग्म की जे कॉलोिी जगह बिा रही है। सभी 12 द्ारका सेकटर तीि के जे ...जारी पेज 2 साल है, और अभी िौंवी इस लड़की की उम्र मात्र 14
मैं
महिलाएं हैं और उनके निजी जीवन के कुछ तत्यगत साक्ष्य हैं। पर यह उनके काम को महत्वहीन करने वाला नजरिया है। इस तरह के नजरिए के कारण महिलाओं के जीवन से जुड़ी कई समस्याओं और उनके उत्पीड़न के मुद्दों को सही तरीके से समझने की कोशिश अनावश्यक रूप से प्रभावित होती है। फेकी कहती हैं कि उनका मकसद बस यह रहा है कि वे अरब की महिलाओं की जिंदगी के उन पन्नों को खोलना चाहती थीं, जिसके बारे में आमतौर पर बात नहीं होती है। अपने बारे में फेकी बताती हैं कि वे ब्रितानी जरूर हैं, पर उनकी परवरिश वहां नहीं हुई। उनके पिता वेल्स के और मां मिस्र की हैं। मां-पिता के कनाडा चले जाने के कारण उनकी पढ़ाई भी बाहर ही हुई। सितंबर 2००1 में अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमला होने तक उन्होंने अरब दुनिया के साथ कभी कोई जुड़ाव महसूस नहीं किया था। पर इसके बाद इस्लामी मुल्कों, खासतौर
मैंने बहुत साल पहले कोलकाता में इलियाना का ओडिसी नृत्य देखा था। तब मैं उनके बारे में बहुत कुछ नहीं जानती थी। फिर एक दिन टीवी के एक टॉक शो में उन्हें सुना। जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि वे इटली से पढ़ाई के लिए भारत आईं और आज भारतीय संस्कृति की पहचान बन गई हैं। उनके साथ जो सबसे बड़ी बात है, वह यह कि वह काफी मृदुभाषी और विनम्र हैं। शायद यही कारण है कि उनसे नृत्य सीखने की इच्छा रखने वाले काफी है। ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ के पिछले अंक में इलियाना के बारे में पढ़कर काफी अच्छा लगा। आपने उनके बारे में बताते हुए मीरा बेन की भी याद दिलाई। वाकई यह भारतीय संस्कृति और परंपरा ही है, जिससे जुड़कर कोई भी इससे अलग
पर अरब की महिलाओं के जीवन को लेकर उनके मन में कई तरह की जिज्ञासा और सवाल पैदा हुए। फेकी को जब 'द इकोनामिस्ट’ अखबार के लिए स्वास्थ्य संवाददाता के रूप में काम करने का मौका मिला तो उन्होंने एचआईवी पर एक महत्वपूर्ण स्टोरी की। इसी क्रम में पुरातनपंथी मूल्यों वाले अरब मुल्कों की महिलाओं के साथ उन्हें बातचीत का मौका मिला। फेकी का मानना है कि समाज का व्यवहार सामाजिक से ज्यादा निजी अनुभवों में दर्ज होता है। अरब की महिलाएं इस लिहाज से बाकी दुनिया से कतई अलग नहीं हैं कि प्यार और संवेदना को लेकर उनका दिलो दिमाग किसी और तरह की बनावट का है, बल्कि सच तो यह है कि यहां की महिलाओं की जीवन के कुछ कोमल अनुभवों को लेकर आपबीती इतनी खुरदरी और उत्पीड़न भरी है कि उसके बारे में जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। फेकी कहती हैं कि अरब मुल्कों की महिलाओं के बारे में आमतौर पर जिस तरह की बातें की जाती हैं, वह सचाई से निहायत परे हैं। अगर आज आधी दुनिया लैंगिक समानता जैसे महिलावादी तकाजों पर मुट्ठी बांध रही है, तो उसमें अरब की महिलाओं का संघर्ष अलग से रेखांकित होना चाहिए। फेकी भी इस तकाजे को ही अपना लेखकीय मिशन मानती हैं। नहीं हो पाता है। नए दौर में जब भारत की पहचान ग्लोबल हुई है, तो हमें भारत की सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के प्रति सजग रहना होगा। कई बार ऐसा होता है कि बेहतर मौका और करियर के आकर्षण में युवा कहीं और चले जाते हैं। ऐसा करने में कोई बुराई भी नहीं है, पर स्वदेश प्रेम और सेवा की कीमत पर अगर हम कोई निर्णय लें तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। आपके अखबार को इस बात के लिए बधाई देना जरूरी समझता हूं कि आप लागातर साकारात्मक मुद्दों को उठाते हैं। अखबार में जो संपादकीय आलेख भी छपते हैं, वे काफी स्तरीय होते हैं। पिछले अंक में भी अरुण तिवारी ने जिस तरह प्रकृति के बारे में लिखा, वह काफी विचारोत्तेजक है। विजय कुंवर, भागलपुर, बिहार
18 फोटो फीचर 64वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार 15-21 मई 2017
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फोटो ः शिप्रा दास 1
1.वरिष्ठ फिल्मकार के. विश्वनाथ को दादा साहेब फाल्के सम्मान 2.अभिनेता मनोज जोशी और अक्षय कुमार 3. सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म ‘कासव’ के लिए सम्मान लेते मोहन आगाशे 4. फिल्म ‘रूस्तम’ में अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार
लेते अक्षय कुमार 5. सर्वश्रेष्ठ महिला पार्श्व गायिका का सम्मान लेतीं ईमान चक्रवर्ती 6. सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म ‘नीरजा’ के लिए पुरस्कार लेतीं अभिनेत्री सोनम
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15-21 मई 2017
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फोटो फीचर
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7. सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का सम्मान लेेतीं मलयाली अभिनेत्री सुरिभ लक्ष्मी 8. सर्वश्रेष्ठ बाल अिभनेता का संयुक्त पुरस्कार आदिश प्रवीण को 9. के. विश्वनाथ के साथ अनिल कपूर और अक्षय कुमार 10. के. विश्वनाथ के साथ अभिनेत्री सोनम कपूर 11. के. विश्वनाथ के साथ अभिनेत्री सुरभि लक्ष्मी और मनोज जोशी 12. मोहन आगाशे 13. अक्षय कुमार के साथ सोनम कपूर और सुरभि लक्ष्मी 14. अक्षय कुमार की पत्नी ट्विंकल खन्ना और पुत्र आरव 11 10
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20 स्वच्छता
15-21 मई 2017
संक्षेप में
शौचालय निर्माण की जागरुकता
म
ऊ (यूपी) के उमापुर गांव में शनिवार को एडीओ पंचायत व कृषि विभाग की ओर से रैली निकालकर ग्रामीणों को शौचालय बनवाने व उसका अनिवार्य रूप से इस्तेमाल करने के लिए जागरूक किया गया। गांव के प्राथमिक विद्यालय से होते हुए रैली राजभर बस्ती, दलित बस्ती आदि स्थानों का भ्रमण करती हुई वापस प्राइमरी स्कूल पर जाकर संपन्न हुई। रैली के बाद हुई गोष्ठी में एडीओ पंचायत बृजराज राम ने कहा कि प्रधानमंत्री की ओर से भारत के गांवों को स्वच्छ बनाए जाने का अभियान चलाया जा रहा है। स्वस्थ समाज के लिए स्वच्छता जरूरी है। बिना शौचालय बनवाए स्वच्छता नहीं आ सकती। गांव में चौपाल लगाकर उन्होंने ग्रामीणों से खुले में शौच न करने की अपील की। कहा कि शौचालय बनवाने के लिए सरकार की ओर से भी चयनित पात्रों को आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है। परदहां ब्लाक संयोजक सुनील सिंह ने कहा कि योजना के तहत चयनित सभी लोगों को अविलंब शौचालय बनवाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है। (भाषा)
स्कूलों में और बनेंगे शौचालय
स्वच्छता मध्य प्रदेश
ये दोस्ती कुछ खास है
फि
शौचालय उपहार में देकर करवाई दोस्त की शादी
ल्मी से लेकर असल जिंदगी में दोस्ती की कई कहानियां आप सब जानते होंगे, लेकिन मध्यप्रदेश में जबलपुर के बिजौरा में रहने वाले महेश गौड़ और शेख मोहतसीन की दोस्ती की कहानी जब आप जानेंगे तो यह जरूर कहेंगे कि यह दोस्ती कुछ खास है। दोस्ती की इस कहानी में एक ने अपने दोस्त की गृहस्थी बसाने के लिए बेहद नायाब उपहार दिया। महेश और मोहतसीन बीए के छात्र हैं। जबलपुर में एक निजी कॉलेज में पढ़ाई के साथ ही काम कर खर्चा निकालते हैं। मोहतसीन गांव में ही कम्प्यूटर ऑपरेटिंग का काम करता है। बिजौरा में रहने वाले महेश गौड़ के घर पर शौचालय न होने से उसकी शादी नहीं हो पा रही थी। जबलपुर, मंडला व आस-पास से शादी के 4 रिश्ते तो आए, लेकिन घर में शौचालय न होने से बात नहीं बन सकी। महेश की गृहस्थी बसने से पहले उजड़ते देख गांव में ही रहने वाले उसके दोस्त शेख मोहतसीन ने ठान लिया कि दोस्त की शादी में शौचालय का अड़ंगा दूर करके रहेगा। उसमें अपनी मेहनत की कमाई से स्वच्छ भारत
मिशन के तहत शौचालय बनवाया और महेश को तोहफे में दे दिया। घर पर शौचालय बनने के बाद महेश के सिर 3 मई को सेहरा भी बंध गया। महेश की शादी नहीं होने से उसके परिजन भी परेशान थे। यह देख मोहतसीन ने दोस्त को शौचालय तोहफे में देने की ठानी। इसके लिए उसने पढ़ाई के साथ काम किया और 12 हजार रुपए खर्च कर स्वच्छ भारत मिशन योजना के तहत दोस्त महेश के घर शौचालय बनवाकर तोहफे में दे दिया। नतीजा ये हुआ कि महेश की शादी नारायणगंज से 30 किमी दूर चुटका पठरा में तय हो गई और 3 मई को उसने सात फेरे लिए। (भाषा)
स्वच्छता उत्तर प्रदेश
शौचालय के लिए जमा हुए फार्म
संतकबीर नगर में शौचालय के लिए 8,693 लोगों ने आवेदन दिए
रा
वतभाटा परमाणु बिजलीघर की ओर से स्वच्छ भारत अभियान में 50 स्कूलों में शौचालय का निर्माण कराया जाएगा। राजस्थान परमाणु बिजली घर के सामाजिक सरोकार दायित्व के अंतर्गत यह निर्माण कार्य कराया जाएगा। इस पर 2.50 करोड़ की राशि खर्च होगी। इन शौचालयों पर सिंगल फेज मोटर लगाकर पानी की व्यवस्था भी की जाएगी। स्कूलों में आवश्यकतानुसार टाइप वन, टाइप सेकंड, टाइप थर्ड शौचालय का निर्माण कराया जाएगा। इससे पूर्व 38 स्कूलों में शौचालयों का निर्माण कराया जा रहा है। 15 स्कूलों में शौचालयों का निर्माण पूरा हो चुका है। (भाषा)
के डीएम मार्कण्डेय शाही के दिशासंतकबीरनगर निर्देशन में सभी ब्लॉक मुख्यालयों में स्वच्छता
कैंप आयोजित किया गया। इसमें सांथा में 540, बेलहर में 1737, हैंसर में 1510, नाथनगर में 1550, बघौली में 110, मेहदावल में 845, सेमरियावां में 750, पौली में 1050 तथा खलीलाबाद ब्लॉक मुख्यालय में 601, यानी इस दिन शौचालय बनवाने के लिए लोगों ने कुल 8,693 मांग पत्र जमा कराए। अब इन मांग पत्रों की जांच होगी, बेसलाइन सर्वे
रिपोर्ट के जरिए यह पता लगाया जाएगा कि ये कहां के मूल निवासी हैं, इसी से यह भी पता चल जाएगा कि ये पात्र हैं या अपात्र। पात्र व्यक्तियों को संबंधित ब्लॉक मुख्यालय के एडीओ पंचायत स्वीकृति पत्र देंगे। इसके पश्चात प्रत्येक पात्र व्यक्तियों के खाते में स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय बनाने के लिए 12 हजार रुपए भेजे जाएंगे। डीपीआरओ आलोक कुमार प्रियदर्शी ने कहा कि सारी कार्यवाही जल्द पूरी की जाएगी। (भाषा)
संक्षेप में
बनेंगे 39 हजार शौचालय
गंगा किनारे के गांवों में शौचालय बनाने की तैयारी
सा
रण (बिहार) जिले के तीन प्रखंडों के गंगा नदी के किनारे बसे 61 गांवों को 31 मई तक खुले में शौच से मुक्त करने के लिए जिला प्रशासन ने कमर कस ली है। इसके लिए 85 पदाधिकारियों के अलावा संबंधित प्रखंडों के आवास सहायक विकास मित्र, सेविका, सहायिका और सीडीपीओ को लगाया गया है, जो इन गांवों में जाकर शौचालय निर्माण एवं उपयोग के फायदे बताकर शौचालय निर्माण के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। जिले के डीएम हरिहर प्रसाद के नेतृत्व में ‘नमामि गंगे’ योजना के तहत 45 इंजीनियर, 25 जिला एवं प्रखंड स्तरीय पदाधिकारी जीविका की दीदी, जीविका के डीपीएम आदि लगे हुए हैं। जल एवं स्वच्छता समिति के अध्यक्ष सह सारण के डीएम हरिहर प्रसाद के नेतृत्व में समिति के सचिव डीआरडीए के निदेशक सुनील कुमार पांडेय, डीडीसी सह जल एवं स्वच्छता समिति के उपाध्यक्ष सुनील कुमार की देख-रेख में छपरा सदर, सोनपुर तथा दिघवारा के चयनित गांवों में शौचालय का निर्माण 31 मई तक पूरा करने की दिशा में प्रगति की समीक्षा डीएम ने की। डीडीसी सुनील कुमार के अनुसार ‘नमामी गंगे’ योजना के तहत सोनपुर, दिघवारा तथा छपरा सदर के गंगा के किनारे अवस्थित 31 पंचायतों के 61 गांव जो पूरी तरह गंगा नदी के किनारे स्थित हैं, उनमें हर हाल में 30 मई तक शेष 15 हजार शौचालय का निर्माण पूरा कर लेने की तैयारी की गयी है। डीएम ने इस पूरे मामले में सभी पदाधिकारियों को अपने दायित्वों का निर्वहन करने में किसी भी प्रकार की कोताही नहीं बरतने का निर्देश दिया है। साथ ही इन 31 पंचायतों के शेष 51 गांवों में स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय का निर्माण चालू वित्तीय वर्ष में पूरा कराया जाएगा। डीएम ने यह भी कहा कि वे गंगा तट पर शौचालय निर्माण के साथ-साथ घाटों का निर्माण तथा शमशान घाटों पर शौचालय का निर्माण संबंधित प्रस्ताव भी पदाधिकारी दे सकते हैं। इस योजना के तहत शौचालय निर्माण करने वाले व्यक्ति को 12 हजार रुपए खाते के माध्यम से देना है।
15-21 मई 2017
स्वच्छता झारखंड
गुणवत्तापूर्ण शौचालय के लिए सम्मान
मु
स्वच्छता सर्वेक्षण में सूबे में तीसरा स्थान पाने के बाद गिरिडीह गुणवत्तापूर्ण शौचालय निर्माण के लिए हुआ सम्मानित
ख्यमंत्री रघुवर दास ने रांची में आयोजित समारोह में गिरिडीह के डीसी उमाशंकर सिंह को सम्मानित किया। यह सम्मान उन्हें गुणवत्तापूर्ण शौचालयों के निर्माण के लिए मिला है। समारोह में राज्य के कई जिलों ने अपना-अपना प्रजेंटेशन दिया। गिरिडीह की ओर से डीसी उमाशंकर सिंह के प्रजेंटेशन पर राज्यों से आए प्रतिनिधियों ने संतोष व्यक्त किया। लोगों ने यह भी जानने का प्रयास किया कि सुदूरवर्ती व नक्सल प्रभावित इलाके में गुणवत्तापूर्ण शौचालय का निर्माण किन परिस्थितियों में कराया गया। श्री सिंह ने बताया कि क्वालिटी नियंत्रण के लिये कई कदम उठाये गए थे। स्वयं सहायता समूह और उपयोगिता प्रमाण पत्र के साथ दो फोटो लगाने के प्रावधान से गुणवत्ता नियंत्रण में काफी सफलता मिली। बता दें कि गिरिडीह जिले में कुल 358 पंचायतों में से 63 पंचायतों को ओडीएफ घोषित किया जा चुका है। ओडीएफ की घोषणा भी त्रि-स्तरीय जांच के बाद ही की जाती है। स्वच्छ भारत मिशन के तहत कराये गये शौचालय निर्माण में गुणवत्ता के साथ-साथ संख्या
स्वच्छता मुंबई
में भी गिरिडीह जिला राज्य में सबसे आगे है। स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत से अब तक सबसे ज्यादा व्यक्तिगत शौचालय गिरिडीह में बने हैं। वित्तीय वर्ष 2016-17 की समाप्ति पर जो आंकडे़ पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय की अधिकारिक वेबसाइट पर जारी किए गए हैं, उससे साफ है कि वित्तीय वर्ष 2016-17 में गिरिडीह जिले में लक्ष्य से ज्यादा व्यक्तिगत शौचालय का निर्माण कराया है। वित्तीय वर्ष 2016-17 में गिरिडीह जिले को 41,255 व्यक्तिगत शौचालय निर्माण का लक्ष्य दिया गया था। इसकी तुलना में 54,119 शौचालयों का निर्माण कराया गया। पिछले तीन वित्तीय वर्ष, यानि जब से स्वच्छ भारत मिशन के तहत शौचालय निर्माण शुरू किया गया तब से अब तक गिरिडीह जिले में 83,520 शौचालयों का निर्माण कराया गया,जो झारखंड के जिलों में सर्वाधिक है। दूसरे नंबर पर हजारीबाग में 80512, रामगढ़ में 75670, रांची में 74814 और चाईबासा में 73326 व्यक्तिगत शौचालयों का निर्माण कराया गया है। (भाषा)
स्वच्छता बिहार
जैविक खाद बनेंगे मॉडल शौचालय श्मशान के फूल कार्य का निरीक्षण मुंबई महानगरपालिका ने तय किया है कि श्मशान भूमि में जो हार और फूल जमा होते हैं उसे जैविक खाद में तब्दील किया जाए
जि
स बहुतायत में फूलों की खपत बढ़ रही है, उसी अनुपात में उसका उत्पादन भी बढ़ रहा है, लेकिन उसके इस्तेमाल के बाद उसे ठिकाने लगाने की समस्या भी पैदा हो रही है। डंपिंग ग्राउंड में इन फूलों का अंबार चिंतित करने वाला है। इसी समस्या को देखते हुए मुंबई महानगरपालिका ने एक युक्ति ढूंढ निकाली। उसने तय किया कि श्मशान भूमि में जो हार और फूल भारी मात्रा में जमा होते हैं उसे जैविक खाद में तब्दील कर दिया जाए। प्रशासन ने इसकी तैयारी कर ली है। इस परियोजना की शुरुआत चूना-भट्टी श्मशान भूमि के पास खाली पड़ी जमीन से की जा रही है। इसके बाद और भी जगहों पर इसे अमल में लाया जाएगा। इन फूलों से जैविक खाद बनाने की मांग काफी समय से की जा रही थी। इस जैविक खाद का इस्तेमाल महानगरपालिका के उद्यानों में तो किया ही जाएगा, इसे मार्केट में बेचा भी जाएगा ताकि महानगर पालिका को आमदनी भी हो सके।
जिले में ‘लोहिया स्वच्छता सीतामढ़ी मिशन’ के तहत सोनबरसा प्रखंड
कार्यालय में बन रहे मॉडल शौचालय कार्य का निरीक्षण डीआरडीए निदेशक सह नोडल अधिकारी रोहित कुमार ने किया। निरीक्षण के बाद उन्होंने मॉडल शौचालय निर्माण कार्य की प्रशंसा की। निदेशक कुमार ने बताया कि प्रखंड एवं सभी पंचायतों में इसी मॉडल के दो-दो शौचालय के निर्माण कार्य किए जाएंगे। क्योंकि ये वैज्ञानिक एवं पर्यावरण के दृष्टिकोण से कम खर्च में बेहतर शौचालय हैं। ऐसे मॉडल शौचालय के निर्माण के लिए आम जनता को प्रेरित करने की जरूरत है, जिससे गरीब से गरीब जनता भी अपने घर में शौचालय का निर्माण करा सके।
स्वच्छता
21
स्वच्छता उत्तर प्रदेश
एक पिता ने बेटी को दहेज में दिया
शौचालय
दहेज में गहने, बाइक, अलमारी और सोफासेट अब पुरानी बातें हो गईं। यूपी के लखीमपुर खीरी जिले में एक पिता ने अपनी बेटी को दहेज में शौचालय दिया
त
बस्सुम और शफीक के लिए ये मिलाद यूं मैं बेटी के लिए शौचालय बनवाऊंगा। तबस्सुम के ही नहीं पढ़ी जा रही, इस घर में खुशियां जो अब्बू इकबाल कहते हैं कि बेटियां बाहर सुरक्षित आई हैं। मौका ही बड़ा मुकद्दस है। शफीक और नहीं, आए दिन घटनाएं होती रहती हैं। बेटी की तबस्सुम की शादी हुई है और दहेज में शौचालय बात बड़ी लगी तो खुद ही शुरुआत करवा दी। बात मिला है। हुई तो बात बन गई। ससुराल वाले भी राजी हो तबस्सुम विदा होकर ससुराल आई है। जितनी गए। एक पढ़ी-लिखी बहू ने सबकी आंखें खोल खुशी उसको ससुराल आने की है, उससे ज्यादा दीं। दूल्हे के पिता लाल मोहम्मद कहते हैं कि ससुराल में अपने अब्बू से गिफ्ट में मिले शौचालय पढ़ी-लिखी बहू की बात लाख टके की थी। हमारी की है। दहेज में शौचालय मिलने की खबर पर हैसियत नहीं थी कि हम शौचालय बनवा सकते, आसपास वाले भी आए हैं और दुआ कर रहे हैं। सो बहू के मायके वालों की मदद से बनवा लिया। दुल्हन कह रही है मुझे दहेज से ज्यादा अहम लाल मोहम्मद कहते हैं अब बहू भी आ गई और शौचालय लगा और मेरे अब्बू ने मुराद पूरी की। अक्ल भी। अब वह लोगों को भी शौचालय के तबस्सुम कहती हैं कि उन्होंने पीएम मोदी को लिए प्रेरित करेंगे। अक्सर टीवी पर शौचालय बनवाने की जरूरत शादी में अपने पिता से तोहफे में शौचालय बताते सुना। जब पता चला ससुराल में शौचालय मांगने वाली तबस्सुम खीरी जिले में अब स्वच्छता नहीं है तो घबराहट हुई। आईकॉन बनेगी। बशीरगंज की इस पढ़ी-लिखी दरअसल खीरी लड़की की शादी चंद जिले के गोला इलाके के एक पढ़ी-लिखी बहू ने सबकी आंखें रोज पहले ही बिजुआ में बशीरगंज गांव में तबस्सुम हुई है। बेटी कि ख्वाहिश खोल दीं। बहू भी आ गई और का मायका है। मायके में पूरी करने को पिता ने अक्ल भी। अब लोगों को भी शौचालय है पर बिजुआ पहले उसके ससुराल में शौचालय के लिए प्रेरित करेंगे में जहां शादी तय हुई वहां शौचालय बनवाया तब घर में शौचालय नहीं था। बेटी विदा की। लड़की ब्लाक चार कदम पर है, लेकिन शौचालय घर में और उसके परिवार के इस कदम की सराहना नहीं था। तबस्सुम को जब ये बात पता चली तो करते हुए डीएम खीरी आकाशदीप ने तबस्सुम वो घबरा गई। ग्रेजुएट तबस्सुम ने अपनी अम्मी से को स्वच्छता आईकॉन बनाने को कहा है। साथ चुपके से दिल की बात कही। अम्मी ने भी उसका ही परिवार भी सम्मानित होगा। खीरी के डीएम दर्द समझा। बात छोटी थी पर ससुराल वाले कहीं आकाशदीप कहते हैं कि ऐसी बेटी को खीरी जिले इसे गलत ढंग से न लें लें, डर ये भी था। खैर में स्वच्छता आईकॉन बनाने की तैयारी है, जल्द तबस्सुम के अब्बू ने पहल की, उन्होंने ससुराल ही उस परिवार को सम्मानित किया जाएगा, जहां वालों से बात की। ससुराल वालों की माली हालत दहेज में शौचालय देने के रिवाज की शुरुआत हुई खराब थी। आखिरकार तबस्सुम के अब्बू ने कहा है। (भाषा)
22 स्टेट न्यूज
15-21 मई 2017
विकास असम
विकास अरुणाचल प्रदेश
अरुणाचल में विकास कार्यों को बढ़ाने के लिए निर्देश
रा
मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने योजनाओं और लक्ष्य को निर्धारित समय पर पूरा करने के निर्देश दिए
ज्य में विकास कार्यों को बढ़ाने के लिए अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने विभिन्न विभागों के सभी मंत्रियों को व्यापक कार्य योजना तैयार करने का निर्देश दिया है। सभी विभागों की कार्य योजनाओं को संकलित किया जाएगा और अंत में उसकी निगरानी के लिए पीएमओ और नीती आयोग को सौंपा जाएगा। मंत्रियों को अलग-अलग लिखे पत्रों में, खांडू ने कहा कि नई दिल्ली में हाल में आयोजित नीति आयोग की तीसरी शासकीय परिषद की बैठक में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सभी योजनाओं और मुद्दों को समय-समय पर लागू करने और इसके लिए तय किए गए लक्ष्य के कार्यान्वयन को मजबूती से पूरा करने के निर्देश दिए हैं। पेमा ने अपने पत्र में प्रधानमंत्री के हवाले से कहा कि केंद्र और राज्य की योजनाओं के अपेक्षित परिणामों का संकेत देकर अपने विभागों की सभी योजनाओं को सफलतापूर्वक समय पर लागू करने के लिए एक विस्तृत कार्य योजना लक्ष्य को निर्धारित करके बनाई जा सकती है। महत्वपूर्ण योजनाओं के सफल कार्यान्वयन पर जोर देते हुए पेमा ने कहा कि राज्य को डिजिटल पेमेंट मिशन पर काम करना चाहिए।
सभी सरकारी और अर्ध-सरकारी कार्यालयों, पीएसयू और स्वायत्त निकायों को डिजिटल प्लेटफॉर्म से भुगतान करना चाहिए। बता दें कि राज्य में आधार संतृप्ति केवल 65 प्रतिशत है, पेमा ने अगले कुछ महीनों में आधार संतृप्ति में 90 प्रतिशत की वृद्धि के लिए कठोर प्रयास करने को कहा है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि राज्य की विभिन्न योजनाओं के तहत सेवाएं प्रदान करने और सीधे लाभ हस्तांतरित करने के लिए आधार का सक्रिय रूप से प्रयोग करना चाहिए। उन्होंने कहा कि इसके साथ ही स्वच्छ भारत मिशन के तहत राज्य के सभी 29 शहरी स्थानीय निकायों को 2 अक्टूबर 2019 तक खुले में शौच से मुक्त करना है। मुख्यमंत्री ने कहा कि पीएमएवाई (शहरी) के तहत केवल 21.6 प्रतिशत की मांग की गई है। 2017-18 के दौरान राज्य सरकार को कम से कम 5000 घरों के लिए प्रस्ताव भेजने की आवश्यकता है। इसके साथ ही मुख्यमंत्री ने मंजूरी मिल चुके घरों को जल्द पूरा करने की जरूरत पर जोर दिया। मुख्यमंत्री ने 23-8.5 किलोमीटर की मुर्कोंगसेलेक -पासीघाट नई रेल लाइन के लिए 163 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहण में तेजी लाने के लिए कहा।
स्वास्थ्य महाराष्ट्र
जंक फूड के खिलाफ आदेश
म
स्कूलों में बर्गर, पिज्जा, आलू बेफर्स, चॉकलेट, जलेबी, गुलाब जामुन, पेस्ट्री, नूडल्स, चिप्स, आदि पर रोक
हाराष्ट्र प्रशासन ने एक कठोर कदम उठाते हुए स्कूलों की कैंटीन में जंक फूड पर प्रतिबंध लगा दिया है। इनमें बर्गर, पिज्जा, आलू बेफर्स, मैदे से बनी चीजें, चॉकलेट, जलेबी, बूंदी, गुलाब-जामुन, पेस्ट्री, नूडल्स, तले हुए चिप्स, जेली, पानीपूरी आदि शामिल हैं। शासन ने स्कूल शिक्षा विभाग को इसे तुरत लागू करने का स्पष्ट निर्देश दिया है। आदेश में ये कहा गया है कि जंक फूड बच्चों के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है। इसीलिए उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए जरूरी है कि इनकी बिक्री पर रोक लगाई जाए। प्रशासन ने अपने दिशा निर्देश में विस्तार से बच्चों की चिंता की है और कहा है कि कैंटीनों में बिकने वाली चीजों में मीठे पदार्थ का इस्तेमाल ज्यादा होता है, इसका अधिक सेवन हानिकर होता है। इन पदार्थों से होने वाले नुकसान
की जांच के लिए केंद्रीय स्तर पर एक समिती का गठन किया गया था। उस रिपोर्ट के आधार पर ही प्रशासन ने यह कदम उठाया है। रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि ओबेसिटी, डायबिटीज, दंतरोग, हृदयरोग को बढ़ावा देने वाले पदार्थों को प्रतिबंधित किया जाए। (मुंबई ब्यूरो)
असम में लॉजिस्टिक हब गु
लॉजिस्टिक हब और चेक पोस्ट के विकास के लिए दो एमओयू पर हुए हस्ताक्षर
वाहाटी में मल्टी मॉडल लॉजिस्टिक हब (एमएमएलएच) और दूसरा सुतरकंडी में इंटीग्रेटेड चेक पोस्ट के विकास के लिए असम सरकार ने दो एमओयू पर हस्ताक्षर किए हैं। ट्रांसपोर्ट सेक्रेटरी और कमीश्नर आशुतोष अग्निहोत्री ने दिल्ली में असम सरकार की तरफ से इस एओमओयू पर हस्ताक्षर किए। एमएमएलएच माल ढुलाई के लिए एक हब के रूप में कार्य करेगा, जो माल की ढुलाई और उसके वितरण को सक्षम बनाता है और इसके साथ ही यह आधुनिक मैकेनाइज्ड वेयरहाउसिंग स्पेस और वैल्यू-एडेड सेवाओं के साथ मल्टी मॉडल माल ट्रांसपोर्टेशन उपलब्ध कराता है। हाइवे, बंदरगाह, अंतर्देशीय जलमार्ग और रेलवे के अलावा विमानन क्षेत्र भी इस हब का एक हिस्सा होगा। इस अवसर पर सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि ये पहल असम
के विकास को एक निश्चित और टिकाऊ बढ़ावा देगी, जो कानून के पूर्व विजन को एक वास्तविकता प्रदान करेगा। परिवहन, उद्योग और वाणिज्य मंत्री चंद्र मोहन पटवारी ने कहा कि बुनियादी ढांचा क्षेत्र में विकास के मकसद से और बहु-मॉडल लॉजिस्टिक हब के विकास से व्यापार और वाणिज्य को बढ़ावा मिलेगा और जिससे असम भारत को दक्षिण पूर्व एशिया इंटरफेस के केंद्र में लाएगा। अगले 5 सालों में शहर में 15 मल्टी मॉडल लॉजिस्टिक पार्क बनाने की योजना है, जबकि 20 से अधिक अगले 10 सालों में बनाने की योजना है। बता दें कि भारत सरकार ने सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय नई दिल्ली में 3 से 5 मई 2017 तक ‘इंडिया इंटीग्रेटेड लॉजिस्टिक समिट’ का आयोजन किया था। इस शिखर सम्मेलन में राज्य सरकारों, बहुपक्षीय एजेंसियों, उद्योगों और निजी क्षेत्रों के सभी स्टॉकहोल्डर्स को एकजुट किया गया था।
कैंसर मदद
कैंसर पीड़ित बच्चों को लेकर जाएंगे मलेशिया
विवेक ओबेरॉय सीपीएए के ब्रांड एंबेसेडर हैं। पिछले 13 साल से वे इस संस्था के जरिए कैंसर पीड़ित बच्चों की मदद कर रहे हैं
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भिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता विवेक ओबेरॉय गर्मियों की छुट्टियों में कैंसर पेशेंट एड एसोसिएशन (सीपीएए) के बच्चों को मलेशिया घुमाने ले जा रहे हैं। विवेक एसोसिएशन के ब्रांड एंबेसेडर हैं। पिछले 13 सालों से वे सीपीएए बच्चों के साथ अपना जन्मदिन मनाते आए हैं। साथ ही, एसोसिएशन के लिए होनेवाली फंड रेजिंग एक्टिविटी में भी वह हिस्सा लेते हैं। इसके अलावा कभी खिलौने देना हो या कभी फिल्म दिखाने लेकर जाना हो, विवेक इन बच्चों के लिए हर साल कुछ न कुछ करते ही रहते हैं। इस साल विवेक ने बच्चों को छुट्टियों में मलेशिया ले जाने का फैसला इसीलिए किया कि बच्चों ने भारत से बाहर घूमने और जिंदगी में एक बार फ्लाइट में बैठने की इच्छा जाहिर की थी। विवेक व्यक्तिगत रूप से विदेश यात्रा के दौरान बच्चों का ध्यान रखना चाहते हैं और उनके साथ खुशियां बांटना चाहते हैं। विवेक मलेशिया में पांच
दिन रहनेवाले हैं। विवेक ओबेरॉय कहते हैं, ‘मुझे खुशी है कि भगवान ने मुझे इन बच्चों के चेहरे पर मुस्कुराहट लाने का मौका दिया है। उन्हें मुस्कुराते हुए देखना हमेशा एक संतुष्टिदायक अनुभव होता है।’ विवेक इस समय साउथ की एक फिल्म ‘विवेगम’ की शूटिंग सर्बिया में कर रहे हैं, वे जल्द ही यशराज की आनेवाली फिल्म ‘बैंकचोर’ और एक्सेल एंटरटेन्मेट की वेब सीरिज ‘पॉवरप्ले’ में नज़र आनेवाले हैं। (मुंबई ब्यूरो)
15-21 मई 2017
पर्यटन मेघालय
ट्रेवल कंपनी देशने होमकी सबसेस्टे, यानीबड़ी स्थाऑनलाइन नीय लोगों के साथ
उनके घरों में रह का पर्यटन का आनंद उठाने के लिए स्थानीय लोगों के साथ एक मीटिंग में मेहमान नवाजी आदि सेवाओं की ट्रेनिंग देने की इच्छा जाहिर की। कंपनी के अधिकारियों ने कहा कि वे राज्य के पर्यटन विभाग के साथ इस विषय पर बातचीत की प्रक्रिया में हैं और बहुत जल्द किसी एग्रीमेंट के साथ सामने आएंगे। कपंनी के मैनेजर स्वप्निल वत्स ने कहा कि कंपनी ने पहले ही असम, सिक्किम और आंध्र प्रदेश की राज्य सरकारों के साथ अनुबंध किया है। शिलांग के 80 से अिधक होम स्टेज मेक
माई ट्रिप के साथ लिस्टेड हैं। वत्स ने कहा कि हम घर के मालिकों की मूल पहचान की जांच करते हैं, हमारे बिजनेस ओनर खुद उनकी सारी जानकारियां रखते हैं। साथ ही यह भी बताया कि दस प्रतिशत कमीशन होम स्टे ओनर का बनता है। कंपनी के अधिकारियों ने कहा कि मेघालय में होम स्टे की मांग बहुत बढ़ रही है, लेकिन मांग और आपूर्ति में फर्क एक समस्या है। और इस फर्क को खत्म करने के लिए स्थानीय लोगों को अपने घरों को होम स्टे के लिए तैयार करना होगा, खासकर ज्यादा मांग के दिनों में। (भाषा)
अब इलेक्ट्रिक वाहन चार्जिंग स्टेशन
ठाणे देश का पहला शहर होगा, जहां इलेक्ट्रिक वाहन चार्जिंग स्टेशन उपलब्ध होंगे
मुं बईशहरसेहोगा,लगाजहांठाणेइलेदेशक्ट्रिकाक पहला वाहन
चार्जिंग स्टेशन उपलब्ध होंगे। शहर में बढ़ते वाहनों की संख्या और उससे होने वाला प्रदूषण महानगर पालिका के लिए चिंता का विषय बन गया है। इस प्रदूषण को कम करने के लिए महानगर पालिका (मनपा) प्रशासन के पास एक जरूरी विकल्प बन गया है कि इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ाने पर जोर दिया जाए, लेकिन इसके लिए पहली आवश्यकता है कि उन वाहनों के चार्जिंग की कोई ठोस व्यवस्था की जाए। प्रशासन ने इसके लिए सर्वेक्षण भी शुरू कर दिया है। इस सिलसिले में पिछले दिनों मनपा आयुक्त संजीव जायसवाल और अंतरराष्ट्रीय संस्था के प्रतिनिधियों के साथ एक बैठक भी हुई। इस संस्था के सहयोग से पेट्रोल पंप की
ची
फ मिनिस्टर स्पेशल स्कॉलरशिप स्कीम यानी सीएमएसएसएस के अंतर्गत असम के मुख्यमंत्री ने कामरूप जिले के प्रतिभावान बच्चों को एक कार्यक्रम में वजीफा बांटा। कार्यक्रम सरूसजाई स्पोर्टस स्टेडियम में किया गया, जिसमें पांचवीं और आठवीं के बच्चों को इस वजीफे से लाभान्वित किया गया। दरअसल सीएमएसएसएस के अंतर्गत बच्चों को 5000 रुपए दिए जाते हैं। यह रकम उन बच्चों के लिए है जिन्होंने साल 2016 की यह स्कॉलर शिप परीक्षा पास की थी। एलिमेंट्री एजुकेशन डिपार्टमेंट की तरफ से पांचवी कक्षा के 46809 बच्चों को और आठवीं कक्षा के 46964 बच्चों को वजीफे के सर्टिफिकेट प्रदान किए जाएंगे। राज्य के शिक्षा मंत्री डॉ. हेमंत बिस्वा शर्मा ने कहा कि वजीफे की योजना साल 2012-13 की है, जिसका मकसद पांचवी और आठवीं कक्षा के छात्रों को मदद करना है। हालांकि योजना पिछले कुछ समय से बंद थी, लेकिन सरकार राज्य की शिक्षा के क्षेत्र में योगदान के उद्देश्य से दोबारा लेकर आई
है। क्योंकि सीएमएसएसएस छात्रों की शिक्षा में सहायक होगा। डॉ शर्मा ने बताया कि इस योजना के अंतर्गत अगले साल से यह परीक्षा आयोजित की जाएगी और उत्तीर्ण बच्चों को मार्कशीट दिया जाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि अगले साल से आरटीजीएस के सहारे बच्चों को रकम ट्रांसफर की जाएगी। राज्य के शिक्षा मंत्री ने यह भी कहा कि रकम देने का काम एक महीने के अंदर अंदर हो जाना चाहिए।
तरह शहर के विभिन्न स्थानों पर इलेक्ट्रिक वाहन चार्जिंग स्टेशन का निर्माण किया जाएगा। इस बारे में मनपा आयुक्त जायसवाल बताते हैं, ‘सर्वेक्षण के बाद शीघ्र ही चार्जिंग स्टेशन बनाने का फैसला ले लिया जाएगा। इससे कुछ हद तक प्रदूषण को नियंत्रित किया जा सकेगा।’ यदि यह सफल रहा तो इस तरह की योजना लागू करने वाली ठाणे महानगर पालिका देश की पहली नगर (भाषा) पालिका होगी।
ट्रांसजेंडर तमिलनाडु
स्कॉलरशिप असम
स्कॉलरशिप का तोहफा
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स्वच्छता मुंबई
मेघालय में होम स्टे को बढ़ावा
मेघालय में होम स्टे को बढ़ावा देने के लिए और पर्यटकों का ज्यादा आकर्षित करने के लिए मेक माई ट्रिप आगे आई
स्टेट न्यूज
त
बोर्ड परीक्षा पास करने वाली पहली ट्रांसजेंडर
मिलनाडु की बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में ट्रांसजेंडर के रूप में पंजीकृत होने वाली तारिका पहली स्टूडेंट है। चार भाईयों में सबसे छोटी तारिका 16 साल की थीं, तब उन्हें पता चला कि वह अपने भाईयों से अलग है। वह लड़कियों के कपड़े पहनना और उनके साथ ही रहना चाहती थीं। जब लोगों ने उनके व्यवहार को लेकर सवाल खड़े किए तब उन्हें समझ आया कि वह औरों से अलग हैं। साल 2013 में तारिका ने थूथुक्कुडी जिले के अपना घर छोड़ दिया। 22 साल की उम्र में वह 12वीं बोर्ड की परीक्षा पास करने वाली राज्य की पहली ट्रांसजेंडर स्टूडेंट है। उन्होंने इस परीक्षा में 537 मार्क्स स्कोर किए हैं। वह कहती हैं ,'जब मैं घर छोड़कर चेन्नै आई थी उस वक्त मैंने सोचा नहीं था कि मेरी जिंदगी इस तरह से बदल जाएगी। इसके लिए मैं अपनी मां ग्रेस की शुक्रगुजार हूं। वह आगे बताती हैं ,'मेरी मां ने मुझे सरकारी पहचान पत्र दिलवाने, नाम
बदलवाने, पुनः लिंग परीक्षण में काफी मदद की, तब जाकर मैंने एक नई शुरुआत करने के बारे में सोचा और अपनी पढाई जारी रखी। 'कोदाम्बक्कम इलाके में ग्रेस के साथ तारिका के अलावा अजित ,रेगिना और रंजीता भी रहती हैं। हाल ही में अपनी इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी करने वाली ग्रेस का कहना है, 'मैं अपने समाज के लोगों के लिए एक ऐसा सुरक्षित माहौल तैयार करना चाहती हूं जिससे की उन्हें उन दिक्कतों का सामना करना ना पड़े जो मैंने झेलीं हैं।
24 खोज
15-21 मई 2017
एक विलुप्त नदी की खोज चंद्रभागा नदी
पौराणिक कथाओं में बहने वाली चंद्रभागा नदी की खोज में जुटे वैज्ञानिकों ने उसके अस्तित्व का पता लगाया
एक नजर
पौराणिक कथाओं में है चंद्रभागा नदी का जिक्र आईआईटी खड्गपुर की टीम ने की खोज
कोणार्क सूर्य मंदिर के करीब से बहती थी नदी
को
एसएसबी ब्यूरो
णार्क सूर्य मंदिर से जुड़ी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। चूंकि सूर्य ? मंदिर अब भी शान से खड़ा है इसीलिए इससे जुड़ी पौराणिक कहानियों पर लोगों को आसानी से भरोसा हो जाता है। इन्हीं पौराणिक कथाओं में चंद्रभागा नदी का भी जिक्र है। कहा जाता है कि कृष्ण के पुत्र साम्बा को कोढ़ का रोग था, जिसे दूर करने के लिये उन्होंने इसी नदी के किनारे सूर्य देवता की आराधना की थी। इस नदी को लेकर और भी कई पौराणिक कथाएं हैं, लेकिन अभी इस नदी का कोई अस्तित्व नहीं है। ऐसे में यह स्वीकार करना बहुत कठिन है कि चंद्रभागा नाम की नदी सचमुच में कभी बहा करती थी या यह केवल दंतकथाओं में ही बहती रही है, लेकिन हाल ही में किए गए एक शोध ने इस मिथक को तोड़ दिया है। इस शोध में कई ऐसे साक्ष्य मिले हैं जो चंद्रभागा नदी के अस्तित्व से जुड़े तर्कों को मजबूत करते हैं। यह शोध इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, खड्गपुर के प्रोफेसरों ने किया है। करंट साइंस में ‘मल्टीप्रोलांग्ड सर्च फॉर प्लीओ-चैनल्स नीयर कोणार्क टेम्पल, ओडिसा : इम्प्लिकेशन फॉर द माइथोलॉजिकल रीवर चंद्रभागा’ शीर्षक से छपे इस शोध पत्र में शोध की तकनीकों और शोध से प्राप्त
तथ्यों के बारे में विस्तार से बताया गया है जो साबित करता है कि तेरहवीं शताब्दी में जब राजा लांगूल नृसिंह देव प्रथम ने कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था, तब नदी अविरल बहा करती थी। उस समय कई तरह के धार्मिक कर्म कांड इस नदी से जुड़े हुए थे। हालांकि मंदिर के निकट ये कर्म कांड अब भी आयोजित होते हैं, लेकिन नदी का भौतिक अस्तित्व मिट चुका है। चंद्रभागा नदी मंदिर से लगभग 2 किलोमीटर दूर बहती थी जो आगे जाकर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती थी। शोधपत्र के मुताबिक, मंदिर के पास दलदली भूमि व प्लीओचैनल मिला है जिससे इस मान्यता को बल मिलता है कि नदी सचमुच बहा करती थी। अत्याधुनिक तकनीक ‘फॉल्स कलर कम्पोजिट इमेज’ से भी पुरातात्विक नदी मार्ग का पता चलता है। नदी को जब पाट दिया जाता है या फिर गाद के चलते उसका अस्तित्व लगभग समाप्त हो जाता है, तो उसका जो अवशेष बचा रह जाता है उसे
‘प्लीओचैनल’ कहा जाता है। शोध में बार-बार ‘प्लीओचैनल’ के सबूत मिले हैं। शोध में कहा गया है कि जीआईएस की मदद से ‘थीमेटिक मैप’ तैयार किए गए उसमें भी ‘प्लीओचैनल’ मिला है जो गूगल अर्थ और सेटेलाइट डाटा के तथ्यों का समर्थन करता है। सेटेलाइट ईमेज, फील्ड वैलिडेशन स्टडी, सबसरफेस स्टडी और डाटा इंटिग्रेशन के जरिए इस शोध को अंजाम दिया गया और इसमें गूगल ईमेज का भी सहारा लिया गया। शोध पत्र के अनुसार चिन्हित स्थान पर वे पेड़ मिले हैं जो नदी क्षेत्रों में ही मिलते हैं और-तो-और यहां नदी क्षेत्र में पाई जाने वाली जलोढ़ या कछारी मिट्टी भी मिली है। टेक्टोनिक मैप से पता चला है कि नदी के तटीय क्षेत्रों का जो चरित्र होता है, वही चरित्र चिन्हित स्थान पर मिला है। यही नहीं ‘वी’ आकार का डिप्रेशन भी मिला है, जो नदी घाटी के अस्तित्व की गवाही देता है। शोध की मानें तो चंद्रभागा नदी की लंबाई लगभग 10 किलोमीटर रही होगी और वह मंदिर के
मंदिर के पास दलदली भूमि व प्लीओचैनल मिला है जिससे इस मान्यता को बल मिलता है कि यहां कभी सचमुच नदी का अस्तित्व था। अत्याधुनिक तकनीक ‘फॉल्स कलर कम्पोजिट इमेज’ से भी पुरातात्विक नदी मार्ग का पता चलता है
उत्तर की तरफ बहती होगी। शोध में कहा गया है, ‘चंद्रभागा झील से नदी का कोई संबंध शोध में नहीं मिला है, लेकिन ऐसी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।’ पूरा शोध इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (खड्गपुर) के जियोलॉजी व जियोफिजिक्स विभाग के प्रोफेसर विलियम कुमार मोहंती के नेतृत्व में किया गया है। शोध कार्य को पूरा करने में लगभग एक साल का वक्त लगा। प्रो. विलियम कुमार मोहंती ने बताया, ‘पौराणिक कथाओं में इस नदी का जिक्र तो मिलता है, लेकिन इसमें कितनी सच्चाई है, यह जानने के लिए यह शोध कार्य किया गया। शोध में जो तथ्य सामने आये हैं, उससे यह साबित होता है कि चंद्रभागा नदी का कभी अस्तित्व था।’ प्रो. मोहंती आगे कहते हैं, ‘पहले हमने सेटेलाइट ईमेज का अध्ययन किया जिसमें कुछ संकेत मिले। इसके बाद हम ग्राउंड (शोध स्थल) में उतरे और कई तरह के जमीनी शोध किए, ताकि सेटेलाइट ईमेज से प्राप्त जानकारियों की सत्यता को प्रमाणित कर सकें। ग्राउंड पर काम करने के बाद हमने उपकरणों की मदद से जिओफिजिकल सर्वे किया। इन सर्वेक्षणों के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि चंद्रभागा नदी कपोल कल्पना नहीं, बल्कि सच है।’ इस नदी के अस्तित्व को लेकर सदियों से जो धुंध थी वो तो अब छंटती दिख रही है, लेकिन इस नदी से जुड़े दूसरे पहलुओं पर अब भी काम करना बाकी है। मसलन यह नदी कब तक अविरल बहती रही और कब सूख गई, नदी अगर सूख गई तो इसके पीछे की वजहें क्या थीं, नदी ने आसपास के क्षेत्रों को कितना प्रभावित किया था, नदी सूख गई तो इससे आसपास के क्षेत्रों पर क्या असर पड़ा था आदि। प्रो. मोहंती बताते हैं, ‘हम लोग इस नदी को लेकर आगे भी शोध करेंगे और हमारा अगला शोध इसी को लेकर होगा कि आखिर नदी कब और क्यों सूख गई। इस शोध से कई नई चीजें सामने आएंगी।’ चंद्रभागा नदी को लेकर हुए शोध से आम लोगों को भी फायदा मिलेगा, क्योंकि इस शोध में यह भी पता चलेगा कि नदी के डेल्टा क्षेत्र का भूजल पीने योग्य है कि नहीं। प्रो. मोहंती ने कहा, ‘शोध से हमें यह जानने में मदद मिलेगी कि डेल्टा क्षेत्र से पीने के लिये स्वच्छ पानी मिल सकता है या नहीं। शोध का उद्देश्य न केवल नदी के अस्तित्व की खोज है, बल्कि इसके जरिए आम लोगों की भलाई भी है।’
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वास्तु
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आईआईटी वास्तुशास्त्र
आईआईटी के गलियारे में वास्तुशास्त्र आईआईटी खड्गपुर का मानना है कि कोई भी पूरी तरह से आर्किटेक्ट नहीं बन सकता जब तक कि वह वास्तु के मूल नियमों से वाकिफ न हो
मुं
बई में एक प्लांट की उत्पादकता को बढ़ाने के तरीकों की खोज के दौरान बेंगलुरु के वास्तुशास्त्री वसंत के भट्ट को बुलाया गया। फैक्ट्री जाने के रास्ते में भट्ट ने मैनेजर से मास्टर प्लान के बारे में जानना चाहा और साथ ही पूछा कि क्या यह प्लांट मजदूरों की कमी से जूझ रहा है? जो वाकई सच था। भट्ट कहते हैं कि यहां प्रशासन और वर्करों के बीच लगातार खींचतान रहती है। मास्टर प्लान से पता चलता है कि उसका प्रवेश द्वार दक्षिण पश्चिम की ओर है और वास्तु के नियमों के अनुसार ठीक नहीं है। वास्तु, प्राचीन भारत की वह कला है जिसमें भवन निर्माण का आदर्श वर्णन है। इसके अनुसार दक्षिण पश्चिम दिशा में अग्नि देव का वास माना गया है। वर्करों और मालिकों के बीच तल्खी इस दरवाजे का परिणाम है। तीन महीने बाद भट्ट की सलाह पर जब प्रवेश द्वार बदला गया, सकारात्मक बदलाव आने शुरू हो गए। कुछ लोगों के लिए वास्तु शास्त्र वैज्ञानिक सोच की नुमाइंदगी नहीं करता, इस श्रेणी में योग और आयुर्वेद भी शामिल हैं। भारत में भवन निर्माण का विज्ञान वास्तु मूलभूत रूप से प्रकृति की ऊर्जा को बराबर करने का काम करता है, उसके तहत किस चीज की सही जगह क्या है यह बताया जाता है। बीते साल वास्तु तब भी चर्चा का विषय बना जब तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने वास्तु के सिद्धांतों पर बने बंगले में कदम रखा, जिसकी कीमत लगभग 50 करोड़ रुपए थी। उसके बाद एक और घटना घटी है। नई दिल्ली के दीन दयाल मार्ग
पर भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय का भूमिपूजन वास्तु के अनुरूप ही करवाया गया। अब आईआईटी खड्गपुर का कहना है कि कोई भी पूरी तरह से आर्किटेक्ट नहीं बन सकता जब तक कि वह वास्तु के मूल नियमों से वाकिफ न हो। इसीलिए अगस्त महीने में भारत के सबसे पुराने आईआईटी में आर्किटेक्चर के शोध छात्रों को वास्तु के नियमों से परिचित करवाया जाएगा। हाल ही में आईआईटी खडगपुर में हुई एक वर्कशॉप में रनबीर एंड चित्रगुप्त स्कूल ऑफ इन्फ्रास्ट्रक्चर डिजाइन एंड मैनेजमेंट के हेड जॉय सेन ने यह एेलान किया कि हम ऐसी कोई भी राजनीतिक विचारधारा को अनुमति नहीं दे सकते जिससे वैज्ञानिक सोच प्रभावित होती हो। वर्कशॉप में बड़ी संख्या में उद्यमी और वास्तु इन ग्लोबल पर्सपेक्टिव के शोधकर्ता शामिल थे। सेन के मुताबिक इसके दो तरह के दृष्टिकोण हैं, पहला तो दिल लुभाने वाला पश्चिमी मॉडल है, जहां पर किसी भी भारतीय चीज को अंधविश्वास की संज्ञा देकर नीची नजरों से देखा जाता है। दूसरा उसको रूढ़िवादी करार दे दिया जाता है, जिसके द्वारा प्राचीन विज्ञान का गलत इस्तेमाल किया जाता है। आईआईटी खडगपुर में सेन ने विज्ञान और विरासत के इस ताने बाने को स्वीकृति दी। वे चाहते
हैं कि डिजाइन और मैनेजमेंट के सिद्धांतों को फिर से नए परिप्रेक्ष्य में देखा जाए। जाहिर है कि इस एेलान ने देश के आर्किटेक्ट्स का ध्रवीकरण कर दिया है। कोलकाता के एक आर्किटेक्ट दुलाल मुखर्जी कहते हैं कि वास्तु का किसी धर्म से कोई संबंध नहीं है। भले ही इसकी उत्पत्ति वेदों से हुई हो, लेकिन इसकी अवधारणा पूरी तरह व्यवहारिक है, जिसमें कहा गया है कि किस तरह की स्थितियों में रहना सही रहेगा। बेंगलुरू के आर वी कॉलेज के स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर के वागिश नागानुर का कहना कि वास्तु विज्ञान, धर्म, आस्था आदि का मिला-जुला स्वरूप है और इसके इस स्वरूप को जान-बूझ कर तोड़ा मरोड़ा जा रहा है, और मुझे संदेह है कि आईआईटी जैसा संस्थान इतने जटिल मुद्दे को कैसे संभाल पा रहा है। फेडरेशन ऑफ इंडियन रेशनलिस्ट असोसिएशन के प्रेजिडेंट नरेंद्र नायक का मानना है कि इस कदम का मुख्य मकसद सत्ता को लुभाना मात्र है। यह शर्मनाक है कि आईआईटी जैसे संस्थान ऐसे झांसे में आ रहे हैं। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि किसी के निजी विश्वास और विज्ञान दोनों का मेल बहुत ही घातक है। जादवपुर विश्वविद्यालय के आर्किटेक्चर के प्रोफेसर शुभ्रजीत दास का कहना है कि आर्किटेक्चर में जाने-अनजाने बहुत से आइडिया वास्तु से जुड़े होते हैं। वहीं बेंगलुरू स्थित आर्किटेक्चर फर्म के सत्या प्रकाश वाराणसी कहते हैं कि ऐसी तमाम किताबें उपलब्ध हैं, जैसे ‘मनुष्याला चंद्रिका’ जो आर्किटेक्चर का जन्म केरल में सोलहवीं शताब्दी के आस पास का बताती है, एक ‘मनासारा’ है, जिसे छठी शताब्दि में लिखा गया था, जो मूल रूप से नगरों की बनावट पर केंद्रित है। साथ ही ‘समरकना सूत्रधारा’ जिसे 11शताब्दी में मध्य प्रदेश के एक राजा द्वारा लिखा गया था, में स्थापत्य कला और मंदिरों के निर्माण के बारे में लिखा गया है। क्योंकि अब अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग किताबें हैं, वास्तु हमेशा से रेफर किया गया, लेकिन प्राथमिक स्रोत नहीं रहा। वास्तु के अब अन्य आयामों पर यदि बात हो ही रही है तो यह भी जरूरी है कि इसके पारंपरिक भाग पर भी बात हो। वाराणसी का कहना है कि पुराने जमाने में, प्रवेश द्वार पूर्व की तरफ बनाए जाते थे, क्योंकि वहां
वास्तु को ज्योतिष विद्या के भी करीब रखने का प्रयास होता है। कई वास्तुशास्त्री ज्योतिष के अनुसार चार्ट तक बनाते हैं, जो जन्म के आधार पर होते हैं
एक नजर
भारत में भवन निर्माण का विज्ञान है वास्तु आर्किटेक्ट को आईआईटी खड्गपुर देगा वास्तु का ज्ञान
वास्तु का किसी धर्म से संबंध नहीं है
से सूर्य की रोशनी सीधे रसोई समेत तमाम जरूरत वाली जगहों पर आती थी और इसे शुभ माना जाता था। हालांकि यह पारंपरिक मानकर किया जाता था, लेकिन इसका संबध निश्चित रूप से वास्तु से है। चंडीगढ़ के रहने वाले आर्किटेक्ट अमित मल्होत्रा का मानना है कि वास्तु के प्रति राय एक दम निजी है। अपने दस साल के अनुभव से वे बताने हैं कि दक्षिणमुखी प्रॉपर्टी किसी के लिए भले ही सही हो, लेकिन यह भी मुमकिन है कि वह किसी के लिए शायद बिल्कुल काम न करे। मल्होत्रा के 95 प्रतिशत से ज्यादा क्लाइंट वास्तु, ज्योतिष आदि से सलाह लेते हैं। सभी क्लाइंट जो भट्ट के पास आते हैं उनसे वास्तु के अनुसार भवन निर्माण करने को कहते हैं और वे बदले में वही कहते हैं कि कोई भी घर पूरी तरह से वास्तु के नियम मानकर बनाया ही नहीं जा सकता। वास्तु की इतने व्यापक पैमाने पर चर्चा जटिल है। बिल्डर भी अपने बनाए मकानों का विज्ञापन पूर्व मुखी कहकर करते हैं, वास्तु के अनुसार बने घरों का अलग रेट होता है। वास्तु को ज्योतिष विद्या के भी करीब रखने का प्रयास होता है। कई वास्तुशास्त्री ज्योतिष के अनुसार चार्ट तक बनाते हैं, जो जन्म के आधार पर होते हैं। मल्होत्रा का कहना है कि वास्तु के अनुसार बना घर होना निश्चित रूप से खुशहाली लाता है। वास्तु की शिक्षा भारतीय विद्या भवन अपने अलग अलग सेंटरों में देती है। महर्षी महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय भी कुछ ऐसा ही करता है। वास्तु शास्त्री फेंग शुई की भी मदद लेते हैं, जो कि मूल रूप से चीन की वास्तु जैसी ही विद्या है। उस पर तो छोटे-छोटे कोर्सेज भी हैं। कई सारे ऑनलाइन मिल जाएंगे। एजेंसी के अनुसार आर्किटेक्ट के अश्विन कहते हैं कि उनके एक क्लाइंट ने चार लाख रुपए सिर्फ ढलान वाले घर पर लगा दिए, क्योंकि वास्तु के अनुसार दक्षिण पश्चिम कोना सबसे उपरी होना चाहिए, और यह संभव नहीं हो पा रहा था। 1990 के आस-पास, जैसा कि कहा जाता है, दिल्ली के एक पांच सितारा होटल को पूरा होने में बहुत समय लग रहा था, लॉबी बनाने में ही सात साल लग गए। तब एक वास्तुशास्त्री ने इसके लिए वहां पर एक गड्ढे को जिम्मेदार बताया और कहा कि यह इसकी सारी सकारात्मक ऊर्जा को खींच रहा है। गड्ढे को भरा गया और भरते ही एक साल के अंदर अंदर होटल पूरा हो गया।
26 विशेष
15-21 मई 2017
अनूठा गांव
बंद किवाड़ों का गांव
पलायन का चलन इतना बढ़ा कि आज उत्तराखंड का मुसमोला गांव पूरी तरह वीरान हो गया है जहां लीला देवी अकेली रहती है
भा
एसएसबी ब्यूरो
रत को गांवों का देश तो आज भी मानते हैं, पर गांवों से जिस तरह शहरों की तरफ पलायन हो रहा है, उससे भारत की यह पहचान शायद ही लंबे समय तक टिके। एक ऐसे समय में जब हर तरफ स्मार्ट सिटी की चर्चा है और शहरीकरण को जोर बढ़ा है, गांवों की कुछ तस्वीर ऐसी हैं, जो चकित करती हैं। ऐसा ही एक गांव है, उत्तराखंड का मुसमोला गांव। यह एक ऐसा गांव जिसमें सिर्फ एक ही महिला रहती है। सुनने में यह थोड़ा अजीब जरूर है, लेकिन उत्तराखंड के मुसमोला गांव की यही हकीकत है। उत्तराखंड में पलायन की अलग-अलग कहानियों को जानने और डॉक्यूमेंट करने के सिलसिले में इस गांव के लीला देवी की कहानी सामने आई। लीला इस गांव में अब अकेली रहती हैं। इस गांव से बाकी सभी लोग बेहतर या आसान जिंदगी के लिए पलायन कर चुके हैं। वैसे पहाड़ी क्षेत्रों में गांवों की जनसंख्या मैदानी इलाकों की तरह नहीं होती है। अगर सौ से ज्यादा लोग रह रहे हैं, तो मान लिया जाता है कि वह गांव बड़ा है और वहां की आबादी ज्यादा है। अपने गांव मुसमोला की चर्चा करते हुए तकरीबन 50 साल की लीला देवी बताती हैं कि एक समय उनके गांव में 4 संयुक्त परिवारों के करीब 30 से 40 लोग रहा करते थे, लेकिन आज वहां केवल वे ही बची हैं। परिवार के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके पति का देहांत काफी समय पहले हो गया था, एक बेटी है जो शादी के बाद देहरादून में रहती है। अगर एक गांव में कोई अकेला ही रहे तो
जाहिर है कि उसके आगे कई परेशानियां होंगी। इन परेशानियों में खानपान से लेकर सुरक्षा तक सारी दुश्वारियां शामिल हैं। लीला देवी से जब उनके अकेलेपन और इस कारण होने वाली कठिनाइयों के बारे में पूछा जाता है तो वो पहले तो कुछ बोलने से बचती हैं। फिर भावुक होकर बस इतना ही कहती हैं, ‘अकेले डर लगता है’। दिलचस्प है कि लीला देवी भले गांव में अकेले रहती हैं, पर आज भी वह कोशिश यही करती हैं कि वह सामान्य ग्रामीण की तरह जीवन जीएं। वह पशु पालती हैं, थोड़ी बहुत खेती भी करती हैं। इसके साथ ही वह पास के प्राइमरी स्कूल में ‘भोजन माता’ यानी मिड-डे मील
लीला देवी मेरी बेटी मुझे लंबे अरसे से देहरादून बुला रही है और मैं कभी-कभी जाती भी हूं, पर वहां मुझे अच्छा नहीं लगता
पकाने का भी काम करती हैं। लीला के साथ एक दिलचस्प बात यह भी है कि वह गांव में अपनी मर्जी से रहती हैं। वो गांव नहीं छोड़ना चाहतीं, क्योंकि यहां के घर और परिवेश के साथ उन्हें प्यार है। वह बताती हैं, ‘मेरी बेटी मुझे लंबे अरसे से देहरादून बुला रही है और मैं कभी-कभी जाती भी हूं, पर वहां मुझे अच्छा नहीं लगता। जब तक बच्चे स्कूल में आते रहेंगे मैं यहीं रहूंगी और जब स्कूल बंद हो जाएगा तो मैं भी अपनी बेटी के पास चली जाऊंगी’ गौरतलब है कि जिन स्कूली बच्चों के भरोसे लीला गांव में अकेले रहने का साहस दिखा रही हैं, उस प्राइमरी स्कूल में भी दो गांवों के मात्र 9 बच्चे ही आते हैं। बात करें मुसमोला गांव की कि यह कैसा दिखता है तो बता दें इस गांव में मौजूद 4 बड़े-बड़े घरों में से 2 पूरी तरह टूट चुके हैं, एक घर में ताला लगा है और एक घर में वो खुद रहती हैं। इस घर की स्थिति भी कुछ खास अच्छी नहीं है। वो बताती हैं कि पहले वो उन दो घरों में से एक में रहती थीं जो अब टूट चुके हैं। वो हंसते हुए बताती हैं कि एक दिन रात को वो जब सो रही थी तो घर की छत टूट गई, बड़ी मुश्किल से वो बाहर आ पाईं उसके बाद से वो दूसरे घर में रहने लगीं। यहां के घरों की बनावट बड़ी साधारण होती है, आम तौर पर ये मिट्टी-पत्थर और लकड़ी से बने दोमंजिले घर होते हैं, जिनकी छत पठाल (काले पत्थर की स्लेट) से बनी होती है। स्थानीय लोग बताते हैं कि अगर ज्यादा समय तक घर की लिपाई गोबर और लाल मिट्टी से ना करें तो वो टूट जाते हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि अकेले खेती के साथ
एक नजर
लीला को गांव से प्यार इसीलिए नहीं जाती शहर
पलायन के कारण लोगों ने छोड़ा गांव पड़ोस के स्कूल में मिड-डे मील बनाती हैं लीला
भारत में गांव
आज भी देश की 70 प्रतिशत से ज्यादा आबादी गांव में रहती है भारत में कुल 640 जिले हैं, जिनमें 2011 की जनगणना के अनुसार 250 अति पिछड़े हैं देश में कुल 6,49,481 गांव हैं
सबसे ज्यादा गांव उत्तर प्रदेश में और सबसे कम चंडीगढ़ में हैं उत्तर प्रदेश में 1,07,053 गांव हैं जबकि चंडीगढ़ में महज 13
पशुओं को संभालने में तो परेशानी होती होगी, इसके जवाब में उन्होंने बताया कि ‘अकेले करना भी क्या है? बात करने के लिए तो कोई है नहीं यहां, गाय, भैंस और खेती में थोड़ा ‘टाइमपास’ भी हो जाता है।’ लीला देवी के घर से सबसे करीब दूसरा गांव करीब 500 से 700 मीटर की दूरी पर है और वहां भी बहुत ज्यादा लोग नहीं बचे हैं। किसी भी क्षेत्र विशेष से पलायन क्यूं हो रहा है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल ये है कि पलायन को कैसे रोका जाए? हम सभी जानते हैं की ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों को लेकर क्या स्थिति है। बात अगर उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की हो, तो विषम भौगोलिक परिवेश के चलते समस्या और गंभीर हो जाती है।
15-21 मई 2017
सांकेतिक भाषा
भाषा
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एक नजर
बन रही है भारत की पहली
साइन लैंग्वेज डिक्शनरी
भारतीय संकेत भाषा शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र आधिकारिक रूप से भारत की संकेत भाषा में प्रयोग होने वाले संकेतों के लिए एक शब्दकोश तैयार कर रहा है
देश में एक समान रूप से अपनाया जा सके। ‘भारतीय संकेत भाषा शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र’ में 12 सदस्यों की एक टीम बनाई गई है, जो कि करीबन 6000 संकेतों के संकलन का कार्य कर रही है। इन 12 लोगों में बधिर, मूक-बधिर या फिर किसी न किसी प्रकार से विशेष रूप से सक्षम लोग हैं। 6000 शब्दों को चिन्हित करने के लिए 12 सदस्यीय टीम ने 44 ऐसे हाथ द्वारा उपयोग किए गए संकेतों का चयन किया है जो पूरे भारत में उपयोग किए जाते हैं। विभिन्न क्षेत्र जैसे विधि, चिकित्सा, प्रोद्योगिकी,
शब्दकोश निर्माण का कार्य अक्टूबर 2016 से चल रहा है
फिलहाल देश में महज 300 संकेत भाषा के अनुवादक हैं देश में तकरीबन 15 लाख बधिर बच्चे स्कूल जाने की उम्र के हैं
है। इसी रिपोर्ट में मंत्रालय के अधिकारी ने बताया, ‘वर्तमान में हमारे देश में तकरीबन 15 लाख बधिर बच्चे ऐसे हैं जो स्कूल जाने की आयुवर्ग के हैं, पर इनमें से बहुत कम ही शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं। एक बार ये शब्दकोश तैयार हो जाए तो इसे हर स्कूल में पहुंचाया जाएगा, ऑनलाइन किया जाएगा, ताकि हर कोई इससे अवगत हो सके। हम चाहते हैं कि देश के हर एक स्कूल में कम से कम एक टीचर ऐसा हो जो संकेत भाषा जानता और समझता हो।’ भारतीय संकेत भाषा शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र के सलाहकार
बात कहने के जुदा अंदाज
अमेरिका में शादी का संकेत है, ‘अंगूठी पहनाने की प्रक्रिया’ पर भारत में शादी को ‘दोनों हाथों को पकड़ कर’ दिखाया जाता है
य
त भाषा को लेकर जो सबसे बड़ी सं केसमस्या आती है, वह है अपनी बात व्यक्त
एसएसबी ब्यूरो
दि आप मन में पढ़ रहे हैं, तो शीर्षक पढ़ते हुए आप अपने दिमाग में एक आवाज भी सुन पा रहे होंगे। जैसे-जैसे आप ये सब अपने मन में पढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे ही ये आवाज भी सुनाई पड़ती जाती है, है न? ये हर उस इंसान के साथ होता है जो सुन और बोल सकता है। आप जब बिना बोले पढ़ते हैं तो अपने मस्तिष्क में एक ध्वनि का अनुभव करते हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि एक बधिर को क्या महसूस होता होगा? जिसने जन्म लेने के बाद से ही न तो अपनी आवाज सुनी ना ही किसी दूसरे की, वो क्या अनुभव करता होगा या होगी? जिन्होंने कुछ समय तक आवाजों को सुना, उन्हें महसूस किया पर कुछ समय बाद बधिर हो गए, उन्हें कैसा लगता होगा? क्या वो भी पढ़ते वक्त हम जैसा ही अनुभव कर पाते होंगे? हम उनसे इतने अलग हैं कि हमें उनके एहसास के बारे में भी नहीं पता। इसी दूरी को कम करने के लिए और सभी को बधिर लोगों द्वारा उपयोग की जाने वाली सांकेतिक भाषा को समझाने के लिए
भारत सरकार के सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय द्वारा एक महत्वाकांक्षी परियोजना की शुरुआत की गई है, जिसके अंतर्गत ‘भारतीय संकेत भाषा शोध एवं प्रशिक्षण केंद्र’ आधिकारिक रूप से भारत की संकेत भाषा में प्रयोग होने वाले संकेतों के लिए एक शब्दकोश तैयार कर रहा है। इस संस्था की स्थापना 2015 में की गई थी, जिसका उद्देश्य भारत के 50 लाख बधिरों को सहायता प्रदान करना तथा उनके लिए शिक्षा, रोजगार और सामाजिक जीवन के अन्य कार्यों की उपलब्धता सुनिश्चित करना है। शब्दकोश के संकलन की शुरुआत अक्टूबर 2016 में ही हो गई थी। एक बार ये शब्दकोश तैयार हो गया तो इसे स्कूल और कॉलेज में पढ़ाया जाएगा, ताकि हर कोई संकेतों का अर्थ समझ सके और ये जो अलगाव है उसे कम किया जा सके। उम्मीद है कि जल्द ही यह शब्दकोश बनकर तैयार हो जाएगा। इसे ऑनलाइन और प्रिंट दोनों रूपों में लाया जाएगा। आज भी भारत में कई ऐसे शब्दकोश हैं, जो ऑनलाइन मिल जाते हैं पर वो आधिकारिक नहीं हैं और न ही उनमें सभी संकेतों का वर्णन है। इसीलिए एक ऐसे शब्दकोश की जरूरत थी जो पूरे
भारत में कई ऐसे शब्दकोश हैं, जो ऑनलाइन मिल जाते हैं पर वो आधिकारिक नहीं हैं। इसीलिए एक ऐसे शब्दकोश की जरूरत थी जो पूरे देश में एक समान रूप से अपनाया जा सके
करने के तरीके में विविधता। मसलन, अमेरिका में शादी का संकेत है ‘अंगूठी पहनाने की प्रक्रिया’ पर भारत में शादी को ‘दोनों हाथों को पकड़ कर’ दिखाया जाता है। इसी प्रकार भारत के ही कुछ राज्यों में लड़की के लिए तर्जनी को माथे के बीचों बीच लाया जाता है – ये ‘बिंदी’ को दर्शाता है तो कुछ राज्यों में लड़की के लिए तर्जनी को नाक के किनारे रखा जाता है, जो कि ‘नथनी’ को दर्शाता है। एक बार ये शब्दकोश बन के तैयार हो जाएगा तो देश भर में एक ही संकेत हर जगह शिक्षा आदि में उपयोग होने वाले हिंदी तथा अंग्रेजी शब्दों के लिए संकेत या चिन्ह निर्धारित कर इस शब्दकोश में डाला जा रहा है। इस शब्दकोश की ये खासियत है कि इसे भारत के विभिन्न राज्यों में प्रयोग की जाने वाली सांकेतिक तथा स्थानीय भाषाओं को ध्यान में रख कर संकलित किया जा रहा है, ताकि इसे पूरे भारत में एक समान रूप से प्रयोग किया जा सके। सरकार के एक सर्वे में यह पाया गया कि देश में सिर्फ 300 संकेत भाषा के अनुवादक हैं, जिसके कारण ही सभी विशेष रूप से सक्षम व्यक्तियों में बधिरों की पढ़ने और लिखने की स्थिति सबसे खराब
उपयोग में लाए जा सकेंगे। जिससे एकरूपता भी आएगी और समानता भी। इससे पचास लाख लोगों से सहज संवाद स्थापित हो सकेगा और बहुत सारे लोगों को शून्य से शिखर तक पहुंचने का सुनहरा मौका मिल पाएगा। शब्दकोश बनाने के कार्य में अपना योगदान दे रहे इस्लाम उल हक, जो खुद सुन नहीं सकते हैं, इन संभावनाओं पर खुश होते हुए कहते हैं, ‘स्वीडन में जब मैंने मैकडोनाल्ड्स में अपना आर्डर दिया तो वहां के कैशियर ने मुझसे सांकेतिक भाषा में बात की, हम इसे भारत में साकार होते जल्द ही देख पाएंगे।’ मदन वशिष्ट ने यह पाया है कि भारत में कुल बधिर बच्चों में से सिर्फ 5 फीसदी ही ऐसे हैं जो शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं और इनमें से महज 0.5 फीसदी ऐसे हैं, जिन्हें सांकेतिक भाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिल पाता है। स्थिति इतनी खराब इस वजह से है, क्योंकि भारत में सांकेतिक भाषा को लेकर लोग जागरूक नहीं हैं। जो लोग सुन नहीं सकते, उनमें से अधिकतर को ही नहीं पता कि कहां पर उन्हें ऐसी शिक्षा मिल सकती है, जो सांकेतिक भाषा में पढ़ाई जाती हो। एक आकलन के मुताबिक देश में 700 ऐसे स्कूल हैं जो सांकेतिक भाषा में पढ़ाते हैं, पर इनके आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
28 स्वच्छता
15-21 मई 2017
स्वच्छता की उड़ान को पंख लगे स्वच्छता आंध्र प्रदेश
स्वच्छ भारत मिशन से प्रेरित होकर आंध्र प्रदेश की शम्शुन शौचालय के प्रति जागरुकता फैला रही हैं
शौ
अनुपमा यादव
चालय की सुविधा ना तो मायके में थी और ना ही ससुराल में। विडंबना यह कि खुले में शौच करना एक आदत-सी बन गई थी, लेकिन मैं यह कतई नहीं चाहती थी कि मेरी बहू को भी ये दिन देखने पड़ें। इसीलिए मैंने अपने घर में शौचालय बनवाया। साथ ही उसकी मां से भी कहा की वह भी अपने यहां शौचालय जरूर बनवाए। ऐसा कहना है आंध्र प्रदेश में गुंटूर जिले के बोल्लावरम में रहने वाली शम्शुन का। शम्शुन को इस तरह का कदम उठाने की प्रेरणा स्वच्छ भारत मिशन से मिली। देश के कई राज्यों में ऐसे अनगिनत मिसालें हैं, जिन्होंने खुले में शौच को रोकने के लिए अपने प्रयासों से तमगे पाए हैं। लेकिन ऐसा कर पाना आसान नहीं होता। इसके लिए सबसे बड़ी समस्या होती है- स्तर और प्रेरणा को बनाए रखना। आंध्रप्रदेश में गुंटूर जिले के मुप्पाला मंडल के बोल्लावरम को ही लीजिए। वहां के ग्रामीण और पंचायत की टीम एक बार हासिल सफलता को बनाए रखने के लिए बाद के दुष्परिणामों को लेकर भी सतर्क रही। इसीलिए उन्होंने ऐसा तंत्र विकसित कर लिया, जिसमें जागरुकता के साथ-साथ एकदूसरे पर नजर भी रखी जा सके। इतना ही नहीं, इस गांव में अगर कोई खुले में शौच करता पाया जाता था तो पंचायत परिषद या तो उसे इस आदत को त्याग कर पुरस्कार प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती थी या फिर उस पर सजा के तौर पर कुछ न कुछ जुर्माना लगाती थी। गौरतलब
है कि 353 परिवारों वाली इस बोल्लावरम पंचायत की कुल आबादी 1433 है। उल्लेखनीय है कि 2015 में बोल्लावरम को खुले में शौचमुक्त (ओडीएफ) पंचायत घोषित किया जा चुका है। सवाल उठता है कि यह सब हुआ कैसे? दरअसल स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत सरपंच और पंचायत सचिवों के साथ मंडल अधिकारी स्वछता की आवश्यकता पर चर्चा किया करते थे। समाज को पूर्ण स्वच्छता की दिशा में जागरूक बनाने के तौर-तरीकों पर तो खास तौर पर चर्चा की जाती थी। इतना ही नहीं, पूर्ण स्वच्छता की आवश्यकता और इसकी अपरिहार्यता समझाने के लिए पंचायत सचिव, सरपंच, आशा कर्मी और आंगनबाड़ी के कर्मियों वाली ग्राम पंचायत की टीम ने घर-घर जाकर लोगों से मिलने की अनोखी पहल की। पहला कदम था शौचालय बनाना। दिक्कतें आईं। कुछ लोगों ने अपने घरो में शौचालय बनाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। ऐसे में ग्राम पंचायत की टीम ने समझाया कि शौचालय बनाना कैसे महिलाओं की मान-मर्यादा से लेकर स्वास्थ्य, बल्कि हर तरह की खुशहाली से जुड़ा है। कहा जाता है कि 1937 में एक बार गांधीजी को एक पत्र मिला। पत्र भारत के पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल के बीरभूम में रहने वाले एक ग्रामीण ने लिखा था। उसने गांधीजी से पूछा था कि वह एक ‘आदर्श
गांव’ किसे मानते हैं और भारतीय गांव किस तरह की समस्याओं से ग्रसित हैं। उनका जवाब 1937 में ‘हरिजन’ में प्रकाशित हुआ, जो एक साप्ताहिक था। इसका संपादन गांधी जी ने 1930 के आरंभ के दिनों में शुरू किया था। उन्होंने लिखा था, ‘आदर्श गांव वह होगा जहां की धरती पर पूर्ण स्वच्छता हो...वहां के लोगों को सबसे पहले स्वच्छता की समस्या से पार पाना होगा।’ कहना ना होगा कि यूनिसेफ जैसे सहयोगियों के साथ मिलकर भारत सरकार देश को खुले में शौच से मुक्त बनाने की चुनौती के प्रति काफी गंभीर हैI सरकार ने 2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त करने का लक्ष्य निर्धारित कर रखा है। स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) के जरिए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के उद्देश्य में यूनिसेफ प्रमुख सहयोगी है। बोल्लावरम की ही एक अन्य महिला ने अपना अनुभव सुनाते हुए कहा, ‘जब भी कोई रिश्तेदार या पारिवारिक मित्र हमसे मिलने शहर से आते थे तो वह 12 घंटे से ज्यादा नहीं रहते थे। सिर्फ इस डर से कि शौच के लिए खुले में जाना पड़ेगा। एक करीबी रिश्तेदार जब विदेश से भारत आया तो उसने हमारे घर आने से इसीलिए मना कर दिया कि हमारे घर में शौचालय नहीं है।’ उसने आगे बताया, ‘जैसे ही मैंने खुद और बच्चों के लिए घर में शौचालय के होने के महत्व को समझा, मैंने सरकार की मदद आने से पहले ही खुद अपने पैसे को इसमें लगा दिया।’ शौचालय बनाने में जो सबसे बड़ी दिक्कत आती थी, वह थी वित्तीय कमी। कई परिवारों ने तो इस डर से ही आगे बढ़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाई कि एक बार बन जाने के बाद शायद सरकारी पैसा मिले ही ना। दूसरी समस्या जगह की थी, जहां घर वाले शौचालय बनाना चाहते थे। बहरहाल, ग्राम पंचायत की टीम ने ग्रामीणों से बात की और समझाया कि योजना के समाप्त होने से पहले हर घर में शौचालय अवश्य बन कर रहेगा। ग्राम पंचायत की टीम ने इस निर्णय लेने में भी हस्तक्षेप किया कि घर में शौचालय कहां बनवाया जाए ताकि उसे तोड़ना या दुबारा बनाने की जरूरत ना पड़े। कुल मिला कर तमाम प्रेरणाओं के बावजूद सरपंच को भी कुछ पैसों का योगदान करना पड़ा। इसके अलावा आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवारों से आर्थिक बोझ कम करने की खातिर कच्चे माल और सामानों पर कुछ छूट भी देनी पड़ी। बहरहाल, ग्रामीणों के लिए शौचालयों का निर्माण ही राम बाण नहीं था। अगली चुनौती थी उन्हें शौचालय की आदत लगाना और यह भ्रम तोड़ना था कि शौचालय का प्रयोग तभी करना चाहिए जब खुले में शौच के लिए कहीं जगह ना मिले। यह बहुत सराहनीय बात है कि ग्रामीण पंचायत की टीम अब तक ग्रामीणों को इस बात के प्रेरित करने में लगी हुई है कि शौच के लिए खुले में जाने के बजाय घर में
‘अगर भारत के लोग कम पैसों में मंगल ग्रह पर पहुंच सकते हैं तो वे अपने मोहल्लों और गलियों को साफ क्यों नहीं रख सकते।’ - नरेंद्र मोदी
एक नजर
सफलता की ओर कदम बढ़ाता स्वच्छ भारत मिशन अब तक 1,80,000 से अधिक गांव हुए खुले में शौच से मुक्त
130 जिले और तीन राज्य हुए खुले में शौच से मुक्त
मौजूद शौचालय का ही इस्तेमाल किया करें। अच्छी बात यह है कि घर में शौचालय होना अब लोगों के लिए गर्व का प्रतीक बन चुका है। ऐसे शिक्षाप्रद और संदेश देने वाले नुक्कड़ नाटकों, कठपुतलियों के खेल और चर्चाओं में बढ़ोतरी देखी जा रही है, जिनमें समाज में स्वस्छता के प्रति संवेदनशीलता की बात होती है। यकीनन, स्वच्छ भारत मिशन ने महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती यानी 2 अक्टूबर 2019 तक भारत को खुले में शौच से मुक्त कर देने के लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के लिए देश के स्वच्छता क्षेत्र को बड़े पैमाने पर लामबंद कर दिया है। इस दिशा में सबसे स्थायी दृष्टिकोण तो यही होगा कि समाज खुद पूर्ण स्वच्छता को बढ़ावा दे। तब समाज के लोग खुद अपने-अपने तरीके से भागीदारी करते हैं और स्वच्छता की अच्छी आदतें अपनाने के लिए जागरूक माहौल बनाने में सहयोग करने लगते हैं। इस लिहाज से हाल में कराए गए स्वच्छ सर्वेक्षण नामक राष्ट्रीय सर्वे के निष्कर्ष अहम हैं। इसमें स्वच्छता के कई मानकों के आधार पर 434 शहरों को रैंकिंग दी गई। मानकों में इस तरह की बातें शामिल थीं, जैसे कि कूड़ा उठाना, खुले में शौच की स्थिति आदि पर लोगों की राय और अनुभव। इस सर्वे का लक्ष्य स्वच्छ भारत मिशन की प्रगति को जानना था। सबसे स्वच्छ शहरों की सूची में मध्य प्रदेश का इंदौर अव्वल रहा। इंदौर नगर निगम ने दावा किया है कि उसने सभी वार्डों के हर घर से कूड़ा उठाने से लेकर उसके निस्तारण तक की व्यवस्था कर ली है। यह बात और सराहनीय है कि इंदौर शहर में जो प्लास्टिक निकलता है, उसका इस्तेमाल सड़क बनाने और मरम्मत में कर लिया जाता है। सर्वे के अनुसार,मध्य प्रदेश का दूसरा शहर और राज्य की राजधानी भोपाल इन स्वच्छ शहरों की सूची में दूसरे नंबर पर रहा। विश्व बैंक के एक अध्ययन में अनुमान लगाया है कि स्वच्छता के अभाव के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6.4 प्रतिशत का नुकसान होता है। स्वच्छ भारत मिशन के शुरू के ढाई साल में स्थिति यह है कि 1,80,000 से अधिक गांव, 130 जिले और तीन राज्यों को खुले में शौच मुक्त घोषित किया जा सका है। अर्थात स्वच्छता अब एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और अधिक से अधिक राज्य खुले में शौच से मुक्त राज्य का तमगा हासिल करना चाहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शब्दों में, ‘अगर भारत के लोग कम पैसों में मंगल ग्रह पर पहुंच सकते हैं तो वे अपने मोहल्लों और गलियों को साफ क्यों नहीं रख सकते।’
होशियार
‘
सड़क पर गाड़ियों से होशियार रहना! नाले में गिर मत जाना!’
‘ओह, मां मैं तो सिर्फ दुकान तक जा रहा हूं तुम्हारे लिए डबलरोटी खरीदने। तुम तो ऐसे कह रही हो कि पड़ोसी समझेंगे मैं लंदन जा रहा हूं। तुम तो जानते हो, हमारे मोहल्ले की सड़कों पर बहुत कम गाड़ियां चलती हैं और नाले इतने बड़े नहीं हैं कि मैं उसमें गिर जाऊं!’ शेन की मां ने ठंडी सांस ली और हाथ हिला कर उसको विदा किया। जब वह साइकिल पर फाटक से बाहर निकला तो उसने फिर पुकारा, ‘मोटरों से संभल कर! होशियार रहना!’ सिर हिलाकर शेन घरों की कतारों के सामने से निकला, बाईं तरफ पीछे वाली गली में मुड़ा और फिर दाएं हाथ को मोहल्ले के तंदूर वाले की तरफ। उसने पहले तंदूर वाले लड़के से बहस की, रोटी तो दिन पर दिन छोटी होती जा रही है, जबकि वह दाम दस सेंट ज्यादा मांग रहा है। उसके बाद उसने एक डबलरोटी खरीदी। शेन दुकान से बाहर निकला तो बहुत नाराज था। वह इतना नाराज था कि उसने यह भी नहीं देखा कि वह वैन आकर रोटीवाली दुकान के सामने रुकी। दो आदमी उसमें से उतरे और उन्होंने उसको धक्का देकर वापिस दुकान के अंदर कर दिया। एक ने पिस्तौल दिखाई। उसने गुर्राकर कहा, ‘अगर अपने सिर के आरपार छेद नहीं चाहते तो मुंह बंद रखो।’ दूसरा आदमी दौड़कर दुकान के अंदर गया और तंदूरवाले लड़के की गर्दन पर पिस्तौल रख दी। डर से लड़के का चेहरा उस रोटी के टुकड़े की तरह सफेद हो गया जिसे वह काट रहा था। उसके घुटने कांपने लगे, उसके दांत किटकिटाने लगे। ‘तिजोरी की चाबी दो, वर्ना इस कान से उस कान तक तुम्हारा गला चीर कर रख दूंगा।’ तंदूरवाला लड़का चाबी निकालने की कोशिश कर रहा था तो दूसरे आदमी ने शेन को धक्का देकर दुकान के काउंटर के साथ लगा कर खड़ा कर दिया। लड़के का हाथ इतना कांप रहा था कि चाबी उसके हाथ से छूट कर शेन के पैरों के पास गिर गई। इतने में तंदूरवाला चिल्लाया, ‘ये ! यह क्या हो रहा है! कौन हो तुम लोग?’ वह अभी-अभी पीछे वाले कमरे से दुकान में आया था। धांय! बंदूक चली! उस आदमी ने बंदूक के घोड़े को दबा दिया था! गोली शेन के पांव के पास गिरी। शेन और तंदूरवाला लड़का डर से उछल पड़े। तंदूरवाला पीछे वाले कमरे में भाग गया और जोर से दरवाजा बंद कर लिया। तंदूरवाला और उसका साथी दुकान के बाहर भागे, वैन में कूदे, शेन की साइकिल को टक्कर मारकर उसे गिराया, और बिजली की तेजी से हवा हो गए। शेन मुंह फाड़े देखता रहा। उसने देखा कि वैन सड़क पर भागी जा रही है और मोड़ पर जाकर
15-21 मई 2017
सिंगापुर की लोककथा
आंखों से ओझल हो गई। शेन ने झुककर अपनी डबलरोटी उठाई, मुड़ा और दुकान से बाहर हो गया। अब वह एक मिनट भी और ज्यादा वहां रुकने को तैयार नहीं था। ऐसा उसके साथ पहले कभी नहीं हुआ था। उसकी मां ने गाड़ियों से और नाली से बचने को सावधान किया था, उसने कहा था साइकिल से गिर मत पड़ना, लेकिन यह तो कुछ और ही था! वह अपनी साइकिल तक दौड़ा और जब उसका पिचका टायर देखा तो गुस्से से चीख पड़ा। वैन उसके ऊपर से निकल गया था। अब वह अपनी मां को क्या बताएगा? उसको साइकिल उठाकर ले आते देखेगी तो उसकी जान निकल जाएगी। पांच सेकेंड तो उसकी मां के मुंह से आवाज ही नहीं निकली। तब वह घबराई आवाज में बोली, ‘ओह शेन! तुम किसी गाड़ी से टकरा गए! तुम साइकिल से गिर पड़े! तुम नाली में गिर पड़े। तुम...।’ ‘मां...चुप भी रहो, मां...मुझको समझाने दो! ...नहीं...नहीं...कुछ मत बोलो। मैं बहुत सावधान था। मोटरों से संभल कर गया, अपना बहुत बचाव किया...लेकिन आखिर में तंदूरवाली दुकान में फंस गया।’ उसकी मां रोने लगी, ‘हाय मेरा बेटा, मेरा बेचारा शेन, हाय...।’ गंभीर चेहरे से शेन ने रोटी वाला हाथ बढ़ाया। मां ने रोटी ले ली। उसकी एक उंगली रोटी में एक छेद में घुस गई। ‘अरे यह क्या है?’ उसने चौंककर पूछा और रोटी की ओर घूरकर देखा। बंदूक की गोली से बना छेद! जब बंदूक गलती से छूट गई तो गोली रोटी में लग गई थी। ‘यह बंदूक की गोली का छेद है। बंदूक वाला आदमी...।’ लेकिन इसके पहले कि शेन अपनी बात खत्म करता, उसकी मां बेहोश हो गई। ‘मां...मां...तुमने मेरी पूरी बात नहीं सुनी।’ वह एकदम रुक गया और अपनी बेहोश मां को आंखें फाड़े देखता रहा। ‘ओह, भगवान! अब मैं क्या करूं?’ शेन घबराया। शेन ने मां के हाथों से डबलरोटी निकाल कर उसके सिर के नीचे तकिए की तरह रख दिया। फिर अपनी नानी को बुलाने दौड़ा। उनको मालूम होगा कि इस हालत में क्या करना चाहिए। शेन फाटक की तरफ भागा। इतने में कुछ पड़ोसिनें आ गईं। ‘क्या हुआ, शेन?’ ‘तुम्हारी मां को क्या हुआ?’ एक औरत ने मां को घर से बाहर बरसाती में पड़े देखा तो घबरा कर पूछा। ‘ओह...बीबी सलीमा...कृपा कर के मां के पास थोड़ी देर रहिए। मैं अपनी नानी को बुलाने जा रहा हूं। अपनी मौसियों को भी बुला लाऊंगा।’
‘हां, हां, ठीक है, बेटे। लेकिन हुआ क्या?’ ‘बंदूक की गोली लग गई है। छेद हो गया है। बंदूक छूट गई। बंदूकवाला आदमी भाग गया। उसकी गाड़ी मेरी साइकिल के ऊपर से निकल गई। कृपा कर के मां के पास रहिए। मैं जाता हूं अपनी मौसियों को बुलाने।’ दोनों पड़ोसिनें एक दूसरे की ओर देखती रह गईं। दूसरे पड़ोसी भी आ गए। एक पड़ोसिन ने बढ़ती भीड़ को देखा और डरी हुई आवाज में बोल पड़ी,‘उसकी मां के सिर में गोली लगी है, छेद हो गया है।’ औरतें चौंक पड़ीं! मैडम सलीमा ने रोती-सी आवाज में कहा, ‘बंदूक लिए एक आदमी आया, उसने गोली चला दी।’ ‘उसने शेन की साइकिल ही कुचल दी।’ दूसरी पड़ोसिन ने रोते हुए कहा। पड़ोसिन बाला ने चिंता भरे स्वर में पूछा,‘अब हमें क्या करना चाहिए?’ ‘पुलिस को बुलाओ। एम्बुलेंस के लिए फोन करो। शेन के पिता को फोन करो। शेन की मां बोल पड़ी। कई आवाजें आईं, ‘क्या हुआ...’ ‘मैं कहां हूं?...’ शेन की मां बोल पड़ी। पहले तो पड़ोसी चौंक पड़े। फिर शेन की मां के ऊपर झुक गए। ‘हिलना मत!’ बिल्कुल नहीं। तुम्हारे सिर में गोली लगी है-छेद हो गया है।’ किसी ने कहा। ‘श्रीमती लिन पुलिस को फोन करने गई है।’ ‘एम्बुलेंस आ रही है।’ ‘संभल कर! बिल्कुल बिना हिले-डुले लेटी रहो।’ पड़ोसियों ने सलाह दी। पुलिस की कोई जरूरत नहीं है। एम्बुलेंस नहीं चाहिए मुझको! गोली मेरे सिर में नहीं लगी, डबलरोटी में लगी है। छेद डबलरोटी में है।’ शेन की मां ने जोर से कहा। उसने उन हाथों को झटक दिया जो उसको थामे हुए थे और खड़ी हो गई। श्रीमती चेन, बीबी सलीमा, श्रीमती लिन और सारे पड़ोसी भौच्चके रह गए। एक ने रोटी उठाकर देखा। सचमुच, उसके ठीक बीच में गोली का छेद था। आर-पार। सचमुच की गोली! ‘लेकिन डबलरोटी को किसने गोली मारी?’ इतने में शेन आ पहुंचा! ‘ओह मां...ठीक हो
लोककथा
29
तुम? नानी तो घर में है नहीं! सारा घर बंद पड़ा है।’ ‘हुआ क्या था, शेन? क्या था,’ उसकी मां ने पूछा। ‘तुम बैठ जाओ, मां। बैठ जाओ, मैं बताता हूं।’ शेन ने सारा किस्सा सुनाया। उसकी मां ने और दूसरी स्त्रियों ने कई बार आश्चर्य और डर से सांस अंदर खींची। लोग लगातार सवाल पूछते जा रहे थे। शेन जवाब दे रहा था। ऊंची आवाजें हवा में गूंज रही थीं। आखिरकार पुलिस आ गई। एम्बुलेंस भी आ गई। शेन ने सारा किस्सा फिर से सुनाया। उसने एम्बुलेंस वालों को रोटी में हुआ छेद भी दिखाया। सिर हिलाकर वे चले गए। लोगों के दल यहां-वहां डबलरोटी को लगी गोली की चर्चा कर रहे थे। फिर सब लोग पुलिस वालों के पीछे-पीछे तंदूरवाले की दुकान पर गए जहां उन्होंने जांच-पड़ताल शुरू की। तंदूरवाले लड़के ने अपनी कहानी सुनाई, तंदूरवाले ने अपना और शेन का किस्सा फिर सुनाया। अब तक उसका डर दूर हो चुका था और उसको लग रहा था कि छापामारों के साथ उसकी मुठभेड़ उसकी छोटी-सी जिंदगी की सबसे रोमांचक घटना था। सब से दिलचस्प घटना! डबलरोटी अपने साथ लेकर पुलिस चली गई तो वहां इक्ट्ठी हुई भीड़ ने तीन बार और उसकी कहानी सुनी। जब उनका सारा माहौल शांत हो गया तो एक-एक करके सब चले गए। शेन ने ठंडी सांस भरी, एक दूसरी डबलरोटी ली और अपनी मां के साथ घर चला। अंधेरा हो चला था। अब पिताजी भी घर आते होंगे। हां, अब वह उनको अपनी कहानी सुनाएगा। फिर नानी को, मौसियों को। वह भी तो सुनना चाहेंगी। ‘तुम अब ठीक हो न, मां?’ शेन ने पूछा। मां ने सिर हिला दिया। उसने उसके कंधों को अपने हाथ से घेर लिया! ‘ईश्वर का धन्यवाद कि तुम सकुशल हो।’ शेन ने मुस्करा कर मां का गाल चूमा। वह हमेशा उसका कृतज्ञ रहेगा। अगर वह यह न कहती, ‘होशियार रहना’ तो यह मजेदार रोमांचक घटना न घटती!
30 संयंत्र
15-21 मई 2017
कचरे से मुक्ति, बिजली उत्पादन की युक्ति दिल्ली उत्पादन
कहते हैं कि आम के आम और गुठलियों के दाम। कचरे से बिजली उत्पादन कर दिल्ली के तीनों निगम कुछ ऐसा ही कर रहे हैं, जिससे एक तरफ तो बिजली मिलेगी और दूसरी तरफ कूड़े से मुक्ति
एक नजर
उत्तरी निगम कर रहा है 24 मेगावाट बिजली का उत्पादन
दक्षिणी निगम करता है 16 मेगावाट बिजली का उत्पादन
पूर्वी निगम कर रहा है करीब 12मेगावाट बिजली का उत्पादन
दि
सत्यम
ल्ली में प्रतिदिन हजारों मीट्रिक टन पैदा हो रहे कूड़े को स्वचालित अपशिष्ट संसाधन संयंत्र के सहारे बिजली पैदा कर दिल्ली नगर निगमों ने फैल रहे प्रदूषण की रोकथाम में एक महत्वपूर्ण पहल की है। हालांकि निगम ने इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को आगे बढ़ाने का एक हिस्सा भर माना है। पर कचरे से बिजली बनाने की यह महत्वाकांक्षी योजना राजधानी को प्रदूषण से मुक्ति दिलाने की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कदम साबित होने वाला है। दिल्ली के तीनों निगमों में उत्तरी नगर निगम का कहना है कि नरेला-बवाना में दो हजार मीट्रिक टन कूड़े से 24 मेगावाट बिजली का प्रतिदिन उत्पादन किया जाता है, वहीं दक्षिणी नगर निगम ओखला और तेहखंड में कूड़े का निबटान कर 16 मेगावाट बिजली के उत्पादन में लगा हुआ है। पूर्वी दिल्ली नगर निगम इस मामले में थोड़ा कम उत्पादन कर रहा है। गाजीपुर कचरा संयंत्र से करीब दस से 12 मेगावाट बिजली उत्पादन कर प्रदूषण अभियान में अपनी भूमिका निभा रहा है। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण है
कि दक्षिणी निगम ने प्रतिदिन तीन हजार टन कार्बन डायऑक्साइड के उत्सर्जन पर रोक लगाने का दावा करते हुए प्रतिदिन 2.5 मेगावॉट बिजली पैदा करने में सफल हो रहा है। इस प्रकार के संयंत्र देश के लिए शुभ संकेत है। इसी साल 24 फरवरी को दक्षिणी नगर निगम ने 351 करोड़ रुपए की लागत से तेहखंड में कचरे से बिजली बनाने का संयंत्र शुरू किया। इसमें प्रतिदिन 1200 मीट्रिक टन कचरे से प्रतिदिन 15 मेगावाट बिजली पैदा करने की बात कही गई। 1200 सौ मीट्रिक टन प्रति दिन कूड़े का इस्तेमाल इस संयंत्र में किया जा रहा है जिससे मौजूदा लैंडफिल साइट को राहत मिलेगी। यह साइट 1996 में बनी थी और इसमें क्षमता से अधिक कूड़ा डाला जा चुका है तथा हर रोज 1800 टन और कूड़ा डाला जा रहा है। कूडे़ की ऊंचाई की तय सीमा 90 फुट है, जो आज बढ़ कर
160 फुट हो गई है। संयंत्र के लिए ‘स्वच्छ भारत मिशन’ से 122.38 करोड़ और बिजली मंत्रालय से 52.66 करोड़ रुपए मिलेंगे। इसके लिए निगम को 175.46 करोड़ रुपए अपने पास से लगाने होंगे। दक्षिणी निगम ने अपनी सबसे महत्वपूर्ण परियोजना ‘ओखला लैंडफिल साइट’ पर जमा हो रहे कूड़े का निबटान करते हुए वहां भी 16 मेगावाट बिजली का उत्पादन शुरू कर दिया है। निगम के अधिशासी अभियंता तोफेल अहमद ने बताया कि निगम यहां प्रतिदिन दो सौ मीट्रिक टन कचरा उपलब्ध करा रहा है। पूरी परियोजना दिल्ली सरकार और जिंदल कंपनी की है। आगे इसमें प्रतिदिन तीन हजार मीट्रिक टन कूड़े की रोज खपत की जाएगी और इससे 18 मेगावाट बिजली पैदा होगी। दो से तीन महीने में हम अपने लक्ष्य पूरा करने में सफल हो जाएंगे। इस दिशा में प्रतिदिन काम हो रहा है। यहां
बिजली संयंत्र लगाने और कूड़े का निस्तारण करने के लिए उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने अपनी ओर से बड़ी पहल की है। इसी साल मार्च में निगम ने 2000 मीट्रिक टन कूड़े से प्रतिदिन 24 मेगावाट बिजली के उत्पादन की शुरुआत की
से पैदा हो रही बिजली पावर ग्रिड को चली जाती है और फिर वहां से इसे दिल्ली की निजी बिजली वितरण कंपनियों को उपलब्ध कराया जाता है। बिजली संयंत्र लगाने और कूड़े का निस्तारण करने के लिए उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने अपनी ओर से बड़ी पहल की है। इसी साल मार्च में निगम ने 2000 मीट्रिक टन कूड़े से प्रतिदिन 24 मेगावाट बिजली के उत्पादन की शुरूआत की। उत्तरी दिल्ली नगर निगम के नरेला-बवाना में देश के अत्याधुनिक कूड़े से बिजली बनाने के संयंत्र का मार्च में केन्द्रीय शहरी विकास मंत्री वैंकया नायडू के हाथों लोकार्पण किया गया। बिजली संयंत्र लगाने और कूड़े का निस्तारण करने के लिए उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने अपनी ओर से बड़ी पहल की है। इसी साल मार्च में निगम ने 2000 मीट्रिक टन कूड़े से प्रतिदिन 24 मेगावाट बिजली के उत्पादन की शुरूआत की कहा जा रहा है कि उत्तरी निगम द्वारा विकसित अत्याधुनिक कूड़े से बिजली बनाने का यह संयंत्र देश का सबसे बड़ा संयंत्र है। निगम आयुक्त प्रवीण कुमार गुप्ता का कहना है कि ठोस कूड़े का निपटान व प्रबंधन हमारे देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। ‘स्वच्छ भारत मिशन’ को तब तक सफल नहीं बनाया जा सकता जब तक हम ठोस कूड़े के प्रबंधन नहीं कर लेते। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत निर्मित यह संयंत्र नेशनल ग्रीन ट्राईब्यूनल के द्वारा निर्धारित सभी मानदंडों को भी पूरा करता है। इस संयंत्र से न केवल 2000 मीट्रिक टन कूड़े का प्रबंधन होगा, बल्कि बिजली के साथ ही खाद का भी निर्माण होगा। यह निजी व सरकारी उद्यमों के कार्य करने का सबसे अच्छा उदाहरण है। हमारे देश के लिए 55 मिलियन मीट्रिक टन कूड़ा व 38 बिलियन लीटर सीवर का निष्पादन एक प्रमुख चुनौती है। नरेला बवाना संयंत्र ठोस कूड़े के प्रबंधन की ओर बढ़ाया गया ठोस कदम है, जिसमें 2000 मीट्रिक टन कूड़े से 24 मेगावाट बिजली का उत्पादन प्रतिदिन किया जाएगा, जिसे आने वाले समय में और अधिक बढ़ाया जा
15-21 मई 2017
दिल्ली
मिसाल
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अमेरिका होगा ‘रोशन’ रोशनआरा ने न सिर्फ अपनी, बल्कि अपने जैसी कई लड़कियों की जिंदगी बदली
कूड़े से बिजली बनाने के संयंत्र की शुरुआत को ‘स्वच्छ भारत मिशन’ और प्रदूषण कम करने की दिशा में निगम द्वारा उठाया गया एक बड़ा कदम माना जा सकता है सकता है। यह पूरे देश के विभिन्न विभागों के लिए प्रेरणास्त्रोत का कार्य करेगा। निगम द्वारा तैयार किए गए इस ठोस कूड़े से बिजली बनाने के संयंत्र के सफलतापूर्वक चालू होने के बाद इस संयंत्र में अभी 2000 मीट्रिक टन कूड़े का निस्तारण होता है और आने वाले समय में इसे बढ़ाकर 4000 मीट्रिक टन किया जा सकेगा। इस तरह से तकनीकी क्षेत्र में विकास और कूड़े से बिजली बनाने के संयत्र के निर्माण के बाद वह दिन दूर नहीं जब आने वाले समय में नागरिकों को कूड़े के लिए भी भुगतान किया जाएगा। निगम आयुक्त गुप्ता इस विशाल व अत्याधुनिक कूड़े से बिजली बनाने के संयंत्र की शुरुआत को ‘स्वच्छ भारत मिशन’ और प्रदूषण कम करने की दिशा में निगम द्वारा उठाया गया सबसे बड़ा कदम मानते हैं। इसमें वातावरण के अनुकूल ठोस कूड़े का निपटान किया जा रहा है। नरेला बवाना में पर्याप्त जमीन की उपलब्धता है जो हमें आने वाले समय में संयंत्र में बनने वाली 24 मेगावाट बिजली के उत्पादन को और अधिक करने के लिए सहायक सिद्व होगी। नरेला-बवाना में स्थित ठोस कूड़े से बिजली बनाने को पूर्णत: आधुनिक रूप में विकसित किया गया है, जिसमें कूड़े से वातावरण को किसी भी प्रकार की हानि से बचाए रखने के लिए पूरी सावधानी बरती गई है। यह संयंत्र ‘स्वच्छ भारत मिशन’ को सफल बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। पूर्वी नगर निगम ने भी गाजीपुर लैंडफिल साइट पर कूड़े के निबटान के लिए एक संयंत्र लगाया है। पूर्वी दिल्ली में सभी ढलावों, सड़कों और गलियों की सफाई सुनिश्चित करते हुए कूड़े को सेनेटरी लैंडफिल साइट तक लाने ले जाने के लिए विशेष इंतजाम किए हैं। यहां कचरे के निपटान की मात्रा 14 सौ मीट्रिक टन से भी ज्यादा हो गई है। उर्जा पैदा करने और कार्बन डाईऑक्साइड को खत्म करने की मुहिम में तब और तेजी आई जब दक्षिणी निगम ने निगम भवनों की छतों पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने की सफल शुरुआत की। 2.5 मेगावाट क्षमता का सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने के लिए पावर ट्रेडिंग कॉरपोरेशन
के साथ एमओयू पर दस्तखत किए गए। निगम को अपने पूंजी निवेश पर प्रतिवर्ष 16 प्रतिशत आमदनी और जमीन की लीज से हर वर्ष 7.26 लाख रुपए मिलने की उम्मीद है। इससे प्रतिवर्ष लगभग 3000 टन कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन पर रोक लगाने का दावा किया गया है। दक्षिणी निगम आयुक्त डॉ. पुनीत कुमार गोयल ने बताया कि निगम कई विकल्पों पर विचार करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि वह अपनी खाली पड़ी जमीन पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगा सकता है। इससे निगम को जमीन की लीज से वार्षिक किराया मिलेगा और अपनी लगाई पूंजी राशि से भी आमदनी होगी। इस परियोजना से प्रतिवर्ष लगभग 3000 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन रोका जा सकेगा। इसीलिए निगम ने पॉवर ट्रेडिंग कॉरपोरेशन के साथ मिलकर दिल्ली के पास फिरोजपुर में सौर ऊर्जा संयंत्र परियोजना लगाने का फैसला किया है। इससे निगम को अपनी पूंजी लगभग 148 लाख रुपए के अंश पर 16 प्रतिशत की आईआरआर की दर से सालाना लगभग 24 लाख रुपए की राशि मिलेगी। इसके अलावा निगम को प्रतिवर्ष अपनी पट्टे पर दी गई जमीन का लगभग 7.26 लाख रुपए किराया भी मिलेगा। संयंत्र 25 वर्ष तक काम करेगा और इसकी क्षमता 2.75 मेगावाट होगी। परियोजना की लागत 1187 लाख रुपए होगी और इसमें 70 प्रतिशत ऋण और 30 प्रतिशत पूंजी निवेश शामिल है। संयंत्र लगाने के लिए कंपनी कानून के अंतर्गत एक एसपीवी का गठन किया गया है और पूंजी निवेश में निगम और पीटीसी का आधा-आधा भाग शामिल हैं। संयंत्र लगाने, चलाने और इसका काम-काज देखने और सौर ऊर्जा की तय दर पर बिक्री की जिम्मेदारी पीटीसी की है। पीटीसी ने सौर ऊर्जा के क्षेत्र में मध्यप्रदेश नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा निगम, केंद्रीय नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय, नई दिल्ली पालिका परिषद, भारतीय सौर ऊर्जा निगम तथा दिल्ली मेट्रो रेल निगम के साथ करार किए हैं। इस संयंत्र के बनने से फिरोजपुर गांव में निगम की 9.42 एकड़ जमीन का सदुपयोग होगा और इससे आमदनी भी होने लगेगी।
दि
हर्ष रंजन
ल्ली से रूम टू रीड गर्ल्स एजुकेशन प्रोग्राम (जीईपी) की भूतपूर्व छात्रा रोशनआरा 15 मई, 2017 को रूम टू रीड के वार्षिक निधि कार्यक्रम में बोलने के लिए न्यू यॉर्क सिटी और वाशिंगटन डीसी जा रही हैं। रात्रिभोज जोन्स डे की छत पर यूएस कैपिटल के पास ही आयोजित किया जाएगा। किसी समय में रोशनआरा ने शादी के लिए परिवार के बढ़ते दबाव के कारण स्कूल जाना छोड़ दिया था, लेकिन रूम टू रीड के जीवन कौशल प्रशिक्षण के कारण, आज वह जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर रही हैं और अपने भाई-बहनों को पढ़ाने के लिए एक डॉक्टर के क्लीनिक पर पार्ट टाईम जॉब भी करती हैं। उसने संचार, पारस्परिक कौशल, मातापिता के समर्थन को कैसे प्राप्त करें और उन्हें एक लड़की को शिक्षित करने के महत्व के बारे में कैसे प्रभावित करें इत्यादि के बारे में सीखा। उसने न केवल अपनी जिंदगी बदली, बल्कि एक सक्रिय भूतपूर्व छात्रा की तरह लड़कियों को शिक्षित और जीवन कौशल में प्रशिक्षित करने के लिए इवेंट भी आयोजित किए। उसने कई लड़कियों को जीवन कौशल प्रशिक्षण के लिए रूम टू रीड में दाखिला लेने के लिए तैयार किया। भारत एक अरब से अधिक लोगों का घर है, यहां भारत में दुनिया के 36 प्रतिशत अशिक्षित रहते हैं और रिसर्च से पता चलता है कि यह संख्या 2020 तक बढ़कर 50 प्रतिशत हो सकती है। रूम टू रीड का मानना है कि विश्व परिवर्तन, शिक्षित बच्चों के साथ शुरू होता है और भारत के आठ राज्यों में संचालित किया जाता है। रोशनआरा की तरह 11,000 से अधिक लड़कियां हैं, जिन्होंने जीवन कौशल प्रशिक्षण का उपयोग किया है। रूम टू रीड के जीईपी रणदीप कौर
कहती हैं कि शिक्षा में लिंग समानता लाने के लिए जीईपी महत्वपूर्ण है। न्यूयॉर्क में आयोजित गाला डिनर में रूम टू रीड के संस्थापक जॉन वुड, लड़कियों की शिक्षा कार्यक्रम की भूतपूर्व छात्रा रोशनआरा, विशेष अतिथि एच.ई. और संयुक्त राज्य अमेरिका में भारत के राजदूत नवतेज सरना शामिल होंगे। यह विशेष रात ‘सक्रिय शिक्षा के लिए’ भारत में रहने वाले 20,000 बच्चों के जीवन को बदल देगी। चुनिंदा दर्शकों के लिए दो पुरस्कार विजेता लघु वृत्तचित्र प्रदर्शित किए गए। इन लघु वृत्तचित्रों को इलेक्ट्रॉनिक वृत्तचित्र श्रेणी में जेंडर संवेदनशीलता के लिए लाडली मीडिया और एडवरटाइजिंग अवार्ड से सम्मानित किया गया और बाल अधिकार संरक्षण के लिए राष्ट्रीय आयोग द्वारा लघु फिल्म श्रेणी प्रतियोगिता में दूसरा स्थान प्राप्त करने के लिए सम्मानित किया गया। दोनों सम्मान संगठन द्वारा उत्पादित वीडियो के लिए दिया गया, जो लड़कियों के शिक्षा कार्यक्रम के प्रभाव को उजागर करती है और इसके साथ ही नौ देशों में लड़कियों को अपनी माध्यमिक स्कूलों तक की पढ़ाई, कौशल के साथ-साथ अपने जीवन के प्रमुख निर्णयों को लेने में पूरी सहायता करता है। देश में रूम टू रीड के निदेशक सौरव बनर्जी अपनी रणनीति के बारे में बताते हैं कि रूम टू रीड माध्यमिक विद्यालय में 6ठी, 7वीं कक्षा के दौरान लड़कियों में आए परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित करता है, जब उसके विद्यालय छोड़ने का खतरा ज्यादा होता है। क्योंकि हम जानते हैं कि प्रत्येक अतिरिक्त वर्ष में मजदूर लड़कियों की संख्या में 15-25% की बढ़ोत्तरी हो रही है। ऐसे में रूम टू रीड, उन्हें अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी करने में पूरा सहयोग करता है और साथ ही उन्हें कौशल विकास के गुर भी सिखाता है।
32 अनाम हीरो
15-21 मई 2017
अनाम हीरो होनोली
सबसे बड़े चर्च की महिला वास्तुकार
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एशिया के सबसे बड़े सुमी बैप्टिस्ट चर्च की वास्तुकार हैं नगालैंड की होनोली
गालैंड में बनाया गया है एशिया का सबसे बड़ा सुमी बैप्टिस्ट चर्च। इस आलीशान चर्च को बनाने का सबसे पहला ख्याल आज से तेरह साल पहले आर्किटेक्ट होनोली को आया, जो खुद भी नगालैंड की रहनेवाली हैं। इस चर्च को बनाने में लगभग 36 करोड़ रुपए का खर्च आया, जो चर्च के सदस्यों से प्राप्त दान और मौजूदा फंड से जुटाया गया। वास्तुकार होनोली ने बताया कि चर्च में 8000 लोगों के बैठने की आरामदेह व्यवस्था है। यही नहीं, चर्च में दूल्हा–दूल्हन के लिए ड्रेसिंग रूम, पूल, कैफेटेरिया,
कांफ्रेंस रूम्स आदि बनाए गए हैं। चर्च का निर्माण 5 मई, 2007 को शुरू हुआ था। इसे बनने में लगभग 10 साल का वक्त लगा। चर्च समुद्र तल से 1864.9 मीटर की ऊंचाई पर है। चर्च बनाने के लिए पिछले नौ सालों में 2000 से अधिक श्रमिकों ने काम किया। अंडे के आकार में बने इस चर्च की लंबाई 203 फुट, चौड़ाई 153 फुट और 166 फुट ऊंचाई है। इस चर्च का क्षेत्रफल 23 लाख 73 हजार 476 वर्ग फुट है। इतने बड़े चर्च की वास्तुकार होने का फख्र तो होनोली को है ही, वह इसके निर्माण के कार्य के पूरा होने पर काफी खुश भी हैं।
छात्रों ने जीता हैकेथॉन-2017
त
चेन्नै के राजलक्ष्मी इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों ने इसरो के कामकाज की सरलता के लिए डिजिटल समाधान खोजा
कनीकी क्रांति के दौर के बावजूद अब भी कई ऐसी कठिनाइयां हैं, जो खास तौर पर बड़े संस्थानों या दफ्तरों में काम करने वाले लोगों को होती है। इसी तरह की एक अखिल भारतीय प्रतियोगिता हाल में मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय ने ‘स्मार्ट इंडियन हैकेथॉन-2017’ नाम से आयोजित की। इस प्रतियोगिता को जीता चेन्नै के राजलक्ष्मी इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के एक समूह ने। इन छात्रों ने एक ऐसे सिस्टम की खोज की जिसमें इसरो जैसे संस्थान में किसी डॉक्यूमेंट को खोजने में शीघ्रता आएगी। इससे किसी भी डॉक्यूमेंट का संस्थान के भीतर बहुत आसानी से न सिर्फ पता लगाया जा सकता है, बल्कि इससे एक व्यवस्थित डाक्यूमेंटेशन में
न्यूजमेकर
भी मदद मिलेगी। दरअसल, हैकेथॉन का मकसद इनोवेशन को बढ़ावा देना है। इसमें करीब 10 हजार छात्रों को 36 घंटे के भीतर केंद्र सरकार के 29 विभागों की 598 समस्याओं की पहचान और उसका डिजिटल समाधान प्रस्तुत करना था। जाहिर है कि यह चुनौती बड़ी थी। चेन्नै के छात्रों ने इसरो के कामकाज की सरलता के लिए जो डिजिटल समाधान खोजा, वह आखिरी दौर के लिए चयनित किए गए 50 छात्रों के डिजिटल समाधानों में से एक था, पर इनोवेशन की श्रेष्ठता के लिहाज से बाजी उनके हाथ लगी। इससे इसरो की एक बड़ी समस्या का तो समाधान हो ही गया, इससे अब उसकी कार्य दक्षता भी काफी बढ़ जाएगी।
दानवीर जनार्दन
84 साल के बुजुर्ग रिटायर्ड बैंककर्मी जनार्दन भट्ट ने अपने जीवनभर की जमा पूंजी में से एक करोड़ रुपए नेशनल डिफेंस फंड को दान किया
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रत में दानवीरता को शुरू से उदारता का श्रेष्ठ लक्षण माना गया है। यही कारण है कि दान-पुण्य की परंपरा आज भी देश में कायम है। वैसे आमतौर पर फिल्मी हस्तियों और बड़े कारोबारियों द्वारा लाखों-करोड़ों रुपए की रकम दान देने की खबरें ज्यादा सुर्खियां बनती है। आम जीवन में जो भी दानपुण्य होते हैं वे ज्यादातर पूजास्थलों और व्रत-त्योहारों के मौके पर ही देखे जाते हैं। ऐसे में अगर पता चले कि कोई साधारण बुजुर्ग अपनी जिंदगीभर की बचत दान कर रहा है, तो यह वाकई बड़ी बात लगेगी। पर ऐसा कर दिखाया है 84 साल के एक रिटायर्ड बुजुर्ग बैंककर्मी ने। उन्होंने अपने जीवनभर की बचत पूंजी में से एक करोड़ रुपए ‘नेशनल डिफेंस फंड’ को दान कर दिए। दरअसल, हम बात कर रहे हैं गुजरात के भावनगर के रहने वाले जनार्दन भट्ट की। एसबीआई से क्लर्क
जनार्दन भट्ट
के पद से रिटायर हुए जनार्दन ने सीमा पर आर्मी जवानों के शहीद होने की खबरें देखीं और देखा कि कैसे देश के सामने पाकिस्तान द्वारा आतंक प्रमोट किया जा रहा है। आतंक दैत्य बनकर खड़ा है। यह सब देखनेसमझने के बाद उन्होंने भारतीय सेना के लिए छोटा-सा कदम उठाने के बारे में सोचा और नेशनल डिफेंस फंड को एक करोड़ रुपये दान कर दिए। जनार्दन ने अपनी कमाई से बचत की थी और उन्होंने कई जगह निवेश भी किया था, जिससे उन्हें अच्छे रिटर्न मिले। बुजुर्ग जनार्दन ने अपनी अब तक की जिंदगी में लोगों की हर मौके पर मदद की। एसबीआई में नौकरी के दौरान बतौर यूनियन लीडर भी जनार्दन ने अपने सहकर्मियों की समस्याएं सुलझाईं। दिलचस्प है कि यह पहली बार नहीं है जब उन्होंने इतनी बड़ी रकम कहीं डोनेट की हो। इससे पहले भट्ट और उनके सहकर्मी ने किसी की मदद के लिए 54 लाख रुपए डोनेट किए थे।
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 1, अंक - 22