सुलभ स्वच्छ भारत (अंक - 36)

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वर्ष-1 | अंक-36 | 21 - 27 अगस्त 2017

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

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06 महात्मा गांधी

वस्त्र नहीं, विचार

चरखे और खादी पर गांधी जी के ​िवचार

09 संत विनोबा भावे

काचे तांतणे रे मने...

चरखे पर गांधी विचार की संत विनोबा भावे द्वारा व्याख्या

स्वराज की खादी सद्भाव का चरखा

20 डॉ. विन्देश्वर पाठक

स्वच्छता सम्मान 2017

उन्नत भारत वेलफेयर सोसायटी द्वारा सम्मानित हुए डॉ. पाठक


02 आवरण कथा

21 - 27 अगस्त 2017

महात्मा गांधी

और चरखा

गांधी जी के लिए चरखा अपनाना- अहिंसा, हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत का खात्मा और स्त्री सम्मान के लिए जरूरी शर्त है

एसएसबी ब्यूरो

रखा और गांधी, ये एक ऐसा साझा है, जिसकी जमीन पर गांधी विचार से लेकर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन तक यात्रा एक साथ पूरी की जा सकती है। गांधी जी के लिए चरखे का मतलब क्या था, यह समझने के लिए उनके द्वारा 21 जुलाई, 1920 को ‘यंग इंडिया’ में छपा लेख पढ़ना चाहिए। अपने इस लेख में गांधी ने लिखा कि ‘जब यूरोप शैतान के चंगुल में नहीं फंसा था, उन दिनों वहां की रानियां भी सूत कातती थीं और इसे एक अच्छा काम मानती थीं।’ दरअसल गांधी जी ने यह बात मदन मोहन मालवीय के प्रयासों के संदर्भ में कही थी, जो भारत के राजा-महाराजा और रानीमहारानियों को भी चरखे पर बिठाकर सूत कतवाना चाहते थे। वैसे खादी और चरखे के बेजा इस्तेमाल से भी गांधी बेखबर नहीं थे। उन्होंने खादी के केवल सूत ही नहीं काते थे, बल्कि उसके सहारे देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक

रूई भी उधेड़ी। उनके लिए चरखा गरीबों की ओर समाज का ध्यान करने का जरिया है, छोटे और घरेलू उद्योगों की वापसी का रास्ता है। आर्थिक तकलीफ दूर करने का कुदरती तरीका है और शोषण से मुक्ति का रास्ता भी। इंसानियत की सेवा है, उत्पादन और वितरण का विकेन्द्रीकरण करने का विचार है। आर्थिक रूप से मजबूत होने का साधन है, गांवों को बचाने और आत्मनिर्भर बनाने का जरिया है। गांधी जी की ख्वाहिश थी कि हर घर से चरखे का संगीत सुनाई दे। उनके लिए चरखा कभी दिखावे की चीज नहीं रही, उनकी रूहानी ताकत चरखे में थी। इसीलिए जब वे चरखे की बात करते हैं तो वह सिर्फ सूत, कताई या खादी तक नहीं सिमटा है।

सबसे दिलचस्प और अहम बात है कि गांधी जी के लिए चरखा अपनाना- अहिंसा, हिंदू-मुस्लिम एकता, छुआछूत खात्मा, स्त्री सम्मान के लिए जरूरी शर्त है। 1921 में मद्रास की एक सभा में वे कहते हैं, ‘चरखा इस बात की सबसे खरी कसौटी है कि हमने अहिंसा की भावना को कहां तक आत्मसात किया है। चरखा एक ऐसी चीज है, जो हिंदू और मुसलमानों को ही नहीं, बल्कि भारत में रहने वाले अन्य धर्मावलंबियों को भी एक सूत्र में बांध देगा। चरखा भारतीय नारी के सतीत्व का प्रतीक है। ...हमने अछूत मानकर अभी तक जिनका तिरस्कार करने का पाप किया है, चरखा उनके लिए सांत्वना का स्रोत है।’ गांधी जी पहले बड़े ऐसा नेता हैं, जिन्होंने स्वराज

‘चरखा एक ऐसी चीज है, जो हिंदू और मुसलमानों को ही नहीं, बल्कि भारत में रहने वाले अन्य धर्मावलंबियों को भी एक सूत्र में बांध देगा’ –महात्मा गांधी

एक नजर

चरखे के जरिए सांप्रदायिक सद्भाव की कोशिश की गांधी जी ने इस बारे में उन्होंने कई पत्र भी तब के नेताओं को लिखे

वे अहिंसा के लिए भी चरखा को एक जरूरी कसौटी मानते थे

की राह में अंदरूनी रुकावट को सबसे बेहतर तरीके से समझा था, इसीलिए उनका मानना था कि स्वराज के लिए भारत के दो बड़े धार्मिक समुदायों के बीच नफरत की दीवार गिरनी चाहिए, छूआछूत खत्म होना चाहिए। इस काम के लिए चरखा और खादी की ताकत पर उनका भरोसा जबरदस्त था। वे कहते थे, ‘तुम मेरे हाथ में खादी दो और मैं तुम्हारे हाथ में स्वराज रख दूंगा। अंत्यजों की तरक्की भी खादी के


21 - 27 अगस्त 2017

‘तुम मेरे हाथ में खादी दो और मैं तुम्हारे हाथ में स्वराज रख दूंगा। अंत्यजों की तरक्की भी खादी के तहत आता है और हिंदू-मुस्लिम एकता भी खादी के बल पर टिकी रहेगी’-महात्मा गांधी तहत आता है और हिंदू-मुस्लिम एकता भी खादी के बल पर टिकी रहेगी। यह अमन की हिफाजत का भी जबरदस्त जरिया है।’ गांधी जी हिंदू-मुसलमानों की एका की पुरजोर वकालत करने वाले ऐसे नेता थे, जो इस राह से कभी डिगने को तैयार नहीं था। यह बात उनकी सियासी जिंदगी से आखिरी वक्त तक अटूट रही। दोनों धार्मिक समुदाय एक कैसे होंगे, इसका सूत्र उन्हों ने चरखे में तलाशा। उन्होंने खिलाफत आंदोलन के दौरान हिंदू-मुसलमानों को एक मंच पर लाने की कोशिश चरखे के जरिए ही की। वे चरखा और खादी अपनाने पर न सिर्फ जोर देते हैं, बल्कि इसे एकता के लिए जरूरी मानते हुए मजहबी फर्ज तक कह डालते हैं। वे मौलाना अब्दुशल बारी को एक खत लिखते हैं। वे उनसे कहते हैं, ‘खुद मैं बहुत गहराई से सोचने पर इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि ऐसी एक ही चीज है, जिसे हिंदू-मुस्लिम एकता की साफ और असरदार निशानी माना जा सकता है और तो वह

गां

है इन दोनों समुदायों के आम लोगों में चरखे का और हाथ के कते सूत से हथकरघे पर बुनी शुद्ध खादी को अपनाना। जब तक स्वराज्य हासिल नहीं हो जाता है, तब तक हर एक मर्द, औरत और बच्चे को अपना मजहबी फर्ज समझकर रोज चरखा चलाना चाहिए।’ गांधी जी 1924 में मोहम्मद अली को एक खत लिखते हैं। इस खत में भी एकता की बात वे दोहराते हैं और दो टूक लफ्जों में कहते हैं, ‘अगर हम देश में बढ़ती मुफलिसी की हालत के बारे में सोच सकते हैं तो सोचें और यह समझें कि चरखा ही इस रोग की अकेली दवा है, तो वही एक काम हमें (आपस में) लड़ने के लिए फुरसत नहीं मिलने देगा।’ दरअसल, एक ओर, गांधी जी के लिए चरखा आपस में लड़ने से बचने का रास्ता है तो दूसरी ओर यह गांव और गरीब से जुड़ने का जरिया भी है। पटना में खिलाफत सम्मे​ेलन में गांधी जी लोगों को खद्दर अपनाने को कहते हैं, क्योंकि ‘हिंदू- मुसलमान, दोनों

के लिए गांव के गरीबों द्वारा काते गए सूत से बने खद्दर को छोड़कर अन्य वस्त्र धारण करना पाप है। भारत के गांवों में ऐसे लाखों हिंदू और मुसलमान हैं, जिन्हें दोनों वक्त खाना भी नसीब नहीं होता है। गांव में भूखे मरने वालों की खातिर खादी और चरखे को अपनाएं। खद्दर को अपनाने से दो उद्देश्य सिद्ध होंगे। एक तो आपको अपने लिए कपड़ा मिल जाएगा दूसरे आप गांवों के लाखों भूखे गरीबों की सहायता कर सकेंगे। खुदा के वास्ते और गांवों के लाखों गरीबों के वास्तें आप सब आज ही, बल्कि इसी क्षण से चरखा और कताई को अपना लें।’ ऐसा नहीं है कि गांधी जी महज रणनीति के तहत हिंदू-मुसलमान एकता के नाम पर चरखा अपनाने की बात पर कह रहे हैं। गांधी जी के लिए यह यकीन का सवाल था, उन्हेंे यकीन था कि चरखा ही सभी लोगों को एक साथ जोड़ेगा। एकता की ऐसी शिद्दत भारत के किसी दूसरे नेता में नहीं दिखाई देती है। बकौल गांधी जी, ‘जब तक हम सूत कातने की इस साधना को नहीं अपनाएंगे, तब तक प्रेम की गांठ नहीं बंधेंगी। यदि समस्त जगत को आप प्रेम की गांठ से बांध लेना चाहते हैं तो दूसरा उपाय ही नहीं है। हिंदू–मुसलमान प्रश्न के लिए भी दूसरा कोई उपाय नहीं है। मेरी इस प्रार्थना को समझकर रोज आधा घंटा चरखा अवश्य चलाएं। उससे आपकी कोई हानि नहीं है और उससे देश की दरिद्रता दूर होगी। यदि आप अस्पृश्यता दूर न कर सकें तो धर्म का नाश हो जाएगा। आज तो वैष्व्िद धर्म के नाम पर अंत्यचजों का नाश हो रहा है। असपृश्यता निवारण, हिंदू-मुस्लिम एक्यम और खादी यह मेरी त्रिवेणी है।’ उत्पादन के किसी औजार का ऐसा समाजवादी तसव्वुमर, किसी नेता नहीं किया जैसा गांधी जी ने चरखा का किया है। गांधी जी चरखे के जरिए हर तरह के विभेद को खत्म करने की बात करते हैं। उनके लिए चरखा कई तरह की गैरबराबरियों, परेशानियों का एकमात्र इलाज है। चरखा वह मंच है, जिसका चक्र घुमाते ही सब एक जैसे हो जाते हैं, इसीलिए वे एक जगह लिखते हैं, ‘काम ऐसा होना चाहिए जिसे अपढ़ और पढ़े-लिखे, भले और बुरे, बालक और

एक लाख पौंड का चरखा

धी जी की आखिरी वसीयत ऐतिहासिक दस्तावेजों की नीलामी के दौरान 20,000 पौंड में बिकी थी। चरखे और इस वसीयत की नीलामी श्रॉपशर के मलॉक ऑक्शन हाउस ने करवाई। मलॉक के एक अधिकारी माइकल मॉरिस ने बताया, ‘गांधी जी का चरखा 110,000 पाउंड में नीलाम हुआ और उनकी वसीयत 20,000 पाउंड गांधी जी ने बाद में इस्तेमाल भी किया। उपनिवेश में।’ काल के दौरान पफर के काम के लिए गांधी जी ने चरखे की न्यूनतम बोली 60,000 लगाई उन्हें यह चरखा भेंट किया था। गई थी। पुणे की यरवडा जेल में गांधी जी ने इसे गांधी जी ने अपनी वसीयत 1921 में साबरमती इस्तेमाल किया था। बाद में यह चरखा उन्होंने आश्रम में गुजराती में लिखी थी। इसे एक अन्य एक अमेरिकी मिशनरी रेव्ड फ्लॉयड ए पफर नीलामी के दौरान बेचा गया। इसमें गांधी जी की को भेंट कर दिया। पफर भारत में शैक्षणिक और विचारधारा और आने वाले पांच साल के बारे में औद्योगिक सहकारी संघ बनाने वाले पहले व्यक्ति उनकी सोच दिखाई देती है। गांधी जी से जुड़ी थे। उन्होंने बांस का एक हल बनाया था, जिसे करीब 60 वस्तुएं, फोटो, किताबें और दस्तावेज

या तो नीलाम किए गए हैं या किए जाने वाले हैं। नीलामी से पहले मलॉक की वेबसाइट पर इस चरखे के बारे में लिखा, ‘यरवडा के पोर्टेबल चरखे के बनने और काम के बारे में अमेरिका की मासिक विज्ञान पत्रिका ने दिसंबर 1931 में लिखा गया कि महात्मा गांधी ने एक पोर्टेबल चरखा बनाया है, जो फोल्ड हो कर एक पोर्टेबल टाइपराइटर के आकार जितना हो जाता है। इसे उठाने के लिए इसमें एक हैंडल भी है। खोले जाने पर इसे एक कील से चलाया जा सकता है, जो दो चक्कों और तकले को चलाती है। कहा जाता है कि गांधी जी ने ये चरखा उस समय डिजाइन किया था जह वह यरवडा जेल में बंद थे। वो अक्सर कहते थे कि रोज चरखा चलाना उनके लिए ध्यान करने जैसा है।’

आवरण कथा

03

बूढ़े, स्त्री और पुरुष, लड़के और लड़कियां, कमजोर और ताकतवर- फिर वे किसी जाति और धर्म के हों- कर सकें। चरखा ही एक ऐसी वस्तु, है, जिसमें ये सब गुण हैं। इसीलिए जो कोई स्त्री या पुरुष रोज आधा घंटा चरखा कातता है, वह जन समाज की भरसक अच्छी से अच्छीं सेवा करता है।’ शायद इसीलिए, गांधी जी के लिए जो‍ सिद्धांत, जिंदगी में न उतारा जा सके, वह बेकार है। वे जो कहते हैं, उसे अपनाकर दिखाते हैं। इसलिए वह सत्याजग्रहियों से भी यही चाहते हैं कि चरखा और अहिंसा को जीवन में अपनाएं। यंग इंडिया में छपी एक टिप्पणी में वे कहते हैं, ‘मैंने जीवन में सदा यही माना है कि सच्चा। विकास तो भीतर से ही होता है। यदि भीतर से ही प्रतिक्रिया न हो तो बाहरी साधनों का प्रयोग बिलकुल निरर्थक है।’ गांधी जी को कुछ चीजें लगातार परेशान करती रहीं। इसीलिए वे बार-बार उन चीजों पर बात करना नहीं भूलते थे, वे हर मौके पर वे चीजें दोहराते थे। जैसे, 1924 में वे कहते हैं, ‘थोड़ा खयाल करके ही हम देख सकते हैं कि हमारे अमली कार्य में बाधा डालने वाली सबसे बड़ी वस्तु है, हिंदू-मुसलमान के बीच में अंतर पड़ जाना। सर्वसाधारण को एकत्र करने में बाधा डालने वाली वस्तु, चरखा और खद्दर के प्रति हमारी उदासीनता और हिंदू जाति को नष्टा करने वाली वस्तु असपृश्यता है। इस त्रिदोष को जब तक हम नहीं मिटाते तब तक मेरी अल्पतमति मुझको यही कहती है कि हमारे भाग्य में अराजकता, हमारी परतंत्रता और हमारी कंगाली बदी हुई है।’ देश की स्वाधीनता और बंटवारे के समय भी जिस चीज का उनका यकीन डिगा नहीं था, वह था चरखे की रूहानी और करामाती ताकत पर यकीन। 13 दिसंबर 1947 यानी हत्या से डेढ़ महीने पहले, सांप्रदायिक तनाव के माहौल के बीच प्रार्थना सभा में जो बात वे कहते हैं, वह गांधी जी के लिए ही मुमकिन था। वे कहते हैं, ‘चरखे में बड़ी ताकत है। वह ताकत अहिंसा की ताकत है। हमने चरखा चलाया, पर उसे अपनाया नहीं। आज जो हालत है, वह होने वाली नहीं थी। अगर हमें अहिंसक शक्ति बढ़ानी है तो फिर से चरखे को अपनाना होगा और उसका पूरा अर्थ समझना होगा। तब तो हम तिरंगे झंडे का गीत गा सकेंगे। पहले जब तिरंगा झंडा बना था, तब उसका अर्थ यही था कि हिंदुस्तान की सब जातियां मिल-जुलकर काम करें और चरखे के द्वारा अहिंसक शक्ति का संगठन करें। आज भी उस चरखे में अपार शक्ति भरी है। अगर सब भाई-बहन दुबारा चरखे की ताकत को समझकर अपनाएं तो बहुत काम बन जाए। अहिंसा बहादुरी की पराकाष्ठा है, आखिरी सीमा है। अगर हमें यह बहादुरी बताना हो तो समझ बूझ से, बुद्धि से चरखे को अपनाना होगा।’ आज गांधी जी को याद करने का मतलब है, उस चरखे की तलाश है, जिसके इस्तेमाल से अहिंसा और एका की ताकत मिलती हो, गैरबराबरियां दूर होती हों। क्यों कि गांधी जी के लिए चरखा अहिंसा, स्व राज्य, एकता की रूहानी ताकत थी। आर्थिक बदलाव का मजबूत औजार था। उनके इस करामती चरखे की तलाश के लिए गांधी जी की नजर वाली ऐनक पहननी पड़ेगी। उनके चरखा-दर्शन को जिंदगी में उतारना पड़ेगा।


04 आवरण कथा

21 - 27 अगस्त 2017

खादी का महात्मा खादी का इतिहास

कपड़े के मामले में भारत का इतिहास स्वावलंबन का रहा है। यही कारण है कि खादी के व्यवहार और प्रचलन के उल्लेख ऋग्वेद तक में मिलते हैं। वैसे खादी को देश में नए सिरे से व्यवहार में लाने का श्रेय निश्चित रूप से महात्मा गांधी को है

एक नजर

रामायणकाल में सिर्फ रेशमी वस्त्र पहनने का ही रिवाज था मौर्यकाल में ऊनी वस्त्र सोलह प्रकार के होते थे

1925 में अखिल भारतीय चरखा संघ की स्थापना हुई

की साड़ी तक रेशमी ही थी। आगे महाभारत काल में रूई के बारीक वस्त्रों के लिए तमिल देश प्रसिद्ध हुआ था। महाभारत में यह उल्लेख है कि राजसूय यज्ञ के समय चोल व पाण्ड्य राजाओं ने रूई के बारीक वस्त्र भेंट किए थे।

मौर्य, मैकाले और खुसरो

खा

एसएसबी ब्यूरो

दी को लेकर एक बात तो सबसे पहले यह समझनी होगी कि इसके चलन और उल्लेख का इतिहास काफी पुराना है। यह अलग बात है कि सौ साल पहले जब महात्मा गांधी ने भारत के स्वाबलंबन की चिंता करते हुए चरखे और खादी को अपनी नीति और कार्यक्रम का हिस्सा बनाया, तब से खादी को नई पहचान मिली। वस्तुत: कपास, रेशम या ऊन के हाथ कते सूत से भारत में हथकरघे पर बुना गया कोई भी वस्त्र खादी है। यह सर्वस्वीकृत सत्य है कि चरखा और करघा की जन्मभूमि हिंदुस्तान है। दुनिया में सबसे पहले सूत इस देश में काता गया और सबसे पहले कपड़ा भी यहीं बुना गया। सूत कातना और

कपड़ा बुनना यहां का उतना ही प्राचीन उद्योग है, जितनी कि स्वयं हिंदुस्तान की सभ्यता। वैदिक काल में माता अपने पुत्र के लिए और पत्नी अपने पति के लिए वस्त्र तैयार करती थीं। ऋग्वेद में इसका वर्णन इस प्रकार मिलता है‘वितन्वते धियो अस्मा अपांसि वस्त्रा पुत्राय मातरो वयंति। अन्वयार्थ- मातरः असो पुत्राय धियः अपांसि

वितन्वते वस्त्रा वयंति।।’ यानी अनेक माताएं इस लड़के के लिए सद्विचार का ताना तानती हैं और इसमें सत्कार्य का बाना डालकर वस्त्र बुनती हैं। रामायणकाल में सिर्फ रेशमी वस्त्र पहनने का ही रिवाज था। राजघरानों के स्त्री-पुरुषों के साथ-साथ साधारण लोगों की पोशाक रेशमी थी। रामायण के अयोध्याकांड के वर्णन से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि उस समय साधारण दासी

गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘मुझे याद नहीं पड़ता कि 1908 तक मैंने चरखा या करघा कहीं देखा हो। फिर भी मैंने ‘हिंद स्वराज’ में यह माना था कि चरखे के जरिए हिंदुस्तान की कंगालियत मिट सकती है

मौर्यकाल में ऊनी वस्त्र सोलह प्रकार के होते थे। उनमें पलंगपोश (तालिच्छाका), अंगरखे (बाराबाण), पतलून (संपुटिका), पड़ढे (लम्बार), दुपट्टे (प्रच्छापट्ट) तथा गलीचे (सत्तल) आदि का समावेश होता था। कौटिल्य-अर्थशास्त्र में उसकी सूक्ष्म जानकारी दी गई है। बुनाई के काम पर नियुक्त अधिकारी को ‘सूत्राध्यक्ष’ कहा जाता था। ऊन कातने तथा वृक्षों की छाल, घास, रामबाण आदि के तंतु निकालने और रूई का सूत कातने का काम अक्सर विधवाओं, जुर्माना देने में असमर्थ अपराधिनी स्त्रियों, जोगिनियों, देवदासियों, वृद्धावस्था को प्राप्त राजदासियों तथा वेश्याओं से करवा लिया जाता था। उन्हें उनके काम की सुघड़ता और परिमाण के अनुसार उसका वेतन दिया जाता था। इन सब मजदूर-वर्ग पर सूत्राध्यक्ष की कड़ी नजर रहती थी। बंगाल का वर्णन करते हुए लार्ड मैकाले कहते हैं, ‘लंदन और पेरिस की स्त्रियां बंगाल के करघों पर तैयार होने वाले कोमल वस्त्रों से विभूषित थीं।’ इन सस्ती और सुंदर छीटों और मलमल के तेजी से लोकप्रिय होने के कारण सत्रहवीं सदी के अंत में इंग्लैंड का ऊन और रेशम का व्यवसाय बैठ गया। इस कारण उसने 1700 और 1721 में पार्लियामेंट में कानून पास करवा कर, भारत के छपे हुए और रंगीन माल पर जबर्दस्त चुंगी लगवाई और इस प्रकार माल की आयात बंद करवाई। इस तरह हमारा देश कपड़े के मामले में स्वावलंबी था। कितना महीन सूत इस देश में काता जाता था तथा कितने महीन थान बनते थे, इसे लेकर कई कथन और मिसालें आज भी दोहराई जाती हैं। कहते हैं कि दियासलाई के बक्से में सारा थान आ जाए। यह मनगढंत कहानी नहीं है, इतिहास इसका साक्षी है। अंग्रेजों ने यहां आकर हमारे देश के ऐसे अनेक छोटे-मोटे हस्तोद्योग नष्ट किए और देश को परावलंबी बनाया। चरखे के बारे में आज से सात सौ साल पहले हिंदुस्तान कवि अमीर खुसरों ने जो लिखा है, वह हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं‘एक पुरुष बहुत गुनचरा, लेटा जागे सोये खड़ा उलटा होकर डाले बेल, यह देखो करतार का खेल।’ बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकरों ने जनता


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आवरण कथा

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जिम्मे खादी का सारा काम दिया गया। इसके पहले देशभर में कांग्रेस कमेटियों द्वारा जो खादी का काम चल रहा था, उन सब की जिम्मेदारी खादी बोर्ड पर आई। अगले साल गांधी जी जब जेल से मुक्त हुए तो उन्होंने देखा कि खादी बोर्ड, कांग्रेस की एक समिति जैसा होने के कारण उसकी दृष्टि स्पष्ट होना संभव नहीं हैं। उन्हें लगा कि कांग्रेस केवल राजकीय आजादी का ही काम कर सकती है। इस प्रकार गांधी जी की सलाह के अनुसार अखिल भारतीय कांग्रेस ने अपनी 23 सितंबर 1925 की बैठक में अखिल भारतीय चरखा संघ की स्थापना की। चरखा संघ की स्थापना से खादी की प्रगति में एक निश्चित बल मिला, और उसने तेज कदम आगे बढ़ाना शुरू किया। उस वक्त देश में निराशा छाई हुई थी। गांधी जी लोगों के बीच में रहकर उसमें शक्ति संचार का काम करने लगे। चरखा संघ से आगे खादी अलग-अलग दौरों में विकसित होती रही।

तीन अहम दौर

पर अत्याचार कर, जुलाहों को सता कर और नवाबों को लूट कर अपने खजाने भरे। कंपनी के जो नौकर जुलाहों से अपना माल जल्द देने के लिए तकाजा करने जाते थे, वे उन पर कितना जुल्म करते थे, इस संबंध में संसदीय समिति के सामने गवाही देते हुए सर थॉमस मनरो कहते हैं, ‘कंपनी के नौकर ‘वीर महाल’ जिले में मुखिया जुलाहों को इकट्ठे करते थे और जब तक वे जुलाहे इस आशय के इकरारनामे पर दस्तखत अथवा उन पर अपनी स्वीकृति नहीं कर देते थे कि ‘हम सिर्फ कंपनी को ही अपना माल बेचेंगे’ तब तक उन्हें हवालात में बंद रखा जाता था। ...जुलाहों पर जुर्माना होने पर उसकी वसूली के लिए उनके बर्तन तक जब्त कर लिए जाते थे। इस तरह गांव के जुलाहों को कंपनी के कारखाने में गुलामी करनी पड़ती थी।’ ब्रिटिश मजदूर दल के सुप्रसिद्ध नेता रेमजे मेकडॉनल्ड ‘हिंदुस्तान की जागृति’ नामक अपनी पुस्तक में लिखते हैं- ‘देहात में घूमने पर ऐसे शरीर दिखाई पड़ते हैं, जो दिन-रात के परिश्रम से चकनाचूर हो गए हैं और जो भूखे पेट मंदिर में खिन्न बदन होकर परमेश्वर की उपासना करते हैं।’

खादी का पुनर्जन्म

गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘मुझे याद नहीं पड़ता कि 1908 तक मैंने चरखा या करघा कहीं देखा हो। फिर भी मैंने ‘हिंद स्वराज’ में यह माना था कि चरखे के जरिए हिंदुस्तान की कंगालियत मिट सकती है और यह तो सबसे समझ सकने जैसी बात है कि जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज मिलेगा। 1915 में में दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान वापस आया, तब भी मैंने चरखे के दर्शन नहीं किए थे। आश्रम खुलते ही उसमें करघा शुरू किया था।’ इसका अर्थ यह है कि ‘हिंद स्वराज’ लिखने से पहले उनके मन में खादी और चरखे की उपयोगिता आ चुकी थी, लेकिन चरखे से उनका रूबरू-संपर्क नहीं

1920 तक खादी का यह काम गांधी जी के आश्रम तक ही सीमित रहा। 1921 में देशभर में राष्ट्रीय शिक्षण के विद्यापीठ, विद्यालय तथा आश्रम कायम हुए। इन संस्थाओं ने विद्यार्थियों को खादी की शिक्षा दी हो पाया था।

साबरमती आश्रम की स्थापना

1916 में गांधी जी ने साबरमती आश्रम की स्थापना की और उसमें आश्रम जीवन जीने की शुरुआत की। आश्रम में उनके साथ लगभग 20-22 कार्यकर्ता रखते थे। आश्रम-जीवन के लिए उन्हें वस्त्र स्वावलंबन की आवश्यकता महसूस हुई। यह वस्त्र स्वावलंबन ही गांधी जी को खादी उत्पादन की ओर ले जाता है। ‘हिंद स्वराज’ में गांधी जी ने माना था मैनचेस्टर को दोष कैसे दिया जा सकता है? हमने उसके कपड़े पहने, तभी तो उसने कपड़े बनाए। आश्रम की स्थापना के बाद से ही खादी और चरखे विषयक गांधी जी के प्रयोग शुरू हो जाते हैं। आश्रम के खुलते ही उसमें करघा शुरू करने में भी गांधी जी को बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा था। क्योंकि आश्रम में सब कलम चलाने वाले या व्यापार जानने वाले लोग इकट्ठा हुए थे। काठियावाड़ा और पालनपुर से करघा मिला और एक सिखानेवाला आया। उसने अपना पूरा हुनर नहीं बताया, किन्तु मगनलाल गांधी बुनने की कला को पूरी तरह से समझ ली और फिर आश्रम में एक के बाद एक नये-नये बुनने वाले तैयार हुए। बुनकर तैयार होने के बाद गांधी जी को हस्त निर्मित कपड़े पहनने की आशा जगी। वे कहते हैं ‘हमें तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे। इसीलिए आश्रमवासियों ने मिल के कपड़े पहनना बंद किया और यह निश्चय किया कि वे हाथकरघे

पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेंगे। ऐसा करने से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। हिंदुस्तान के बनुकरों के जीवन की, उनकी आमदनी की, सूत प्राप्त करने में होने वाली उनकी कठिनाई की, इसमें वे किस प्रकार ठगे जाते थे और आखिर किस प्रकार दिन पर दिन कर्जदार होते जाते थे। इस सब की जानकारी हमें मिली।’ आश्रमवासी स्वयं सारा कपड़ा तुरंत बुन सकने की स्थिति में नहीं थे। इसीलिए बाहरी बुनकरों से बुनवा लेते। बुनकर विलायती सूत का ही अच्छा कपड़ा बुनते थे। देशी मिलें महीन सूत कातती नहीं थीं। बड़े प्रयत्न के बाद कुछ बुनकर हाथ लगे, जिन्होंने देशी सूत का कपड़ा बुन देने की मेहरबानी की। इन बुनकरों को आश्रम के तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जाएगा।’ इस प्रकार गांधी जी ने हाथ बुना कपड़ा पहना, किन्तु वे अभी भी पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं हुए थे।

चरखा संघ की स्थापना

1920 तक खादी का यह काम गांधी जी के आश्रम तक ही सीमित रहा। 1921 में, देशभर में राष्ट्रीय शिक्षण के विद्यापीठ, विद्यालय तथा आश्रम कायम हुए। इन सब शिक्षण संस्थाओं ने अपने-अपने विद्यार्थियों को खादी की शिक्षा दी। इस प्रकार शिक्षा प्राप्त नौजवानों ने देशभर में खादी का संदेश फैलाया। 1923 में कोकोनाडा कांग्रेस ने अखिल भारतीय खद्दर बोर्ड की स्थापना की, और उसके

1924 से 1934 के दौर को खादी प्रसार काल कह सकते हैं। इस दौर में खादी के कार्य का विशेष लक्ष्य रहा कि सस्ती से सस्ती खादी बनाई जाए और इस सस्तेपन से खादी की बिक्री को बढ़ाया जाए। 1930 के सत्याग्रह आंदोलन में खादी की मांग बढ़ी। इस कारण भी खादी के प्रसार में बल मिला। इसके बाद का दौर 1935 से 1944 से बीच का है। इस दौर में मजदूरों को भरण-पोषण के लिए कम से कम 3 आने मजदूरी निर्धारित किया गया। गौरतलब है कि खादी को सस्ता करने के प्रयास में सबसे अधिक नुकसान मजदूरों को हुआ। अतः गांधी जी ने सस्ती खादी बनाने की नीति का विरोध किया और ‘निर्वाह मजदूरी का सिद्धांत’ खादी पर लागू करने का नया विचार चरखा संघ के सामने रखा। 1945 से देश की अजादी तक गांधी जी ने समझ लिया कि अब समय आ गया है कि जब खादी कार्य के असली मकसद की ओर कदम रखना है। उन्होंने कहा ‘खादी का एक युग समाप्त हो गया। खादी ने गरीबों के लाभ के लिए कुछ करके दिखा दिया। अब हमें यह दिखाना होगा कि गरीब स्वावलंबी कैसे बन सकते हैं, खादी अहिंसा का प्रतीक कैसे बन सकती है। यही हमारा असली काम है। इसमें हमें अपनी श्रद्धा का प्रत्यक्ष प्रमाण देना होगा।’

महात्मा के बाद खादी

यह प्रयोग गांधी जी के मार्गदर्शन में 1947 तक चला। गांधी जी के बाद इसके स्वरूप में परिवर्तन आ गया। स्वतंत्र भारत की सरकार ने इस उद्योग को संरक्षण दिया और इस प्रकार आजादी के बाद खादी कार्य सरकार से जुड़कर चलने लगा। केन्द्र सरकार ने इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रारंभ में ‘अखिल भारतीय खादी ग्रामोद्योग बोर्ड’ तथा बाद में 1956 में ‘खादी और ग्रामोद्योग आयोग’ की स्थापना संसद के एक अधिनियम द्वारा किया गया। यह सूक्ष्म,लघु एवं माध्यम उद्यम मंत्रालय,भारत सरकार के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्यरत है। यह आयोग खादी सब्सिडी, कर्ज, तकनीकी आदि सहायता खादी संस्थाओं के लिए करता है। इसके अतिरिक्त राज्य स्तर पर भी ‘खादी ग्रामोद्योग बोर्ड’ का गठन हुआ है जो खादी सब्सिडी देता है।


06 आवरण कथा

21 - 27 अगस्त 2017

वस्त्र नहीं, विचार है खादी खादी दर्शन

गांधी जी ने चरखे व खादी को अंग्रेजी शासन के दौरान भारत के गांवों में हुए आर्थिक पतन के खिलाफ अपने धर्मयुद्ध में प्रयोग किया तथा इन्हें देश के स्वतंत्रता संग्राम, राष्ट्र भावना और आर्थिक स्वराज के प्रतीक चिन्हों के रूप में अपनाया। चरखे से स्वदेशी और फिर स्वराज का पूरा ताना-बाना गांधी जी ने कैसे बुना‍‍? प्रस्तुत है उनकी पुस्तक ‘सत्य के प्रयोग’ के कुछ अंश ...

एक नजर

जब तक हाथ से कातेंगे नहीं, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज मिलेगा

देश में स्वदेशी माल उत्पन्न करने की आवश्यकता है, खपाने की नहीं

मु

महात्मा गांधी

झे याद नहीं पड़ता कि सन 1908 तक मैंने चरखा या करघा कहीं देखा हो। फिर भी मैंने 'हिंदस्वराज' में यह माना था कि चरखे के जरिए हिंदुस्तान की कंगालियत मिट सकती है और यह तो सबके समझ सकने जैसी बात है कि जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज मिलेगा। सन 1915 में मैं दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान वापस आया, तब भी मैंने चरखे के दर्शन नहीं किए थे। आश्रम के खुलते ही उसमें करघा शुरू किया था। करघा शुरू करने में भी मुझे बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा। हम सब अनजान थे, अतएव करघे के मिल जाने भर से करघा चल नहीं सकता था। आश्रम में हम सब कलम चलानेवाले या व्यापार करना जाननेवाले लोग इकट्ठा हुए थे, हममें कोई कारीगर नहीं था। इसीलिए करघा प्राप्त करने के बाद बुनना सिखानेवाले की

आवश्यकता पड़ी। काठियावाड़ और पालनपुर से करघा मिला और एक सिखानेवाला आया। उसने अपना पूरा हुनर नहीं बताया, परंतु मगनलाल गांधी शुरू किए हुए काम को जल्दी छोड़नेवाले न थे। उनके हाथ में कारीगरी तो थी ही, इसीलिए उन्होंने बुनने की कला पूरी तरह समझ ली और फिर आश्रम में एक के बाद एक नए-नए बुननेवाले तैयार हुए। हमें तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे। इसीलिए आश्रमवासियों ने मिल के कपड़े पहनना बंद किया और यह निश्चय किया कि वे हाथ-करघे पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेंगे। ऐसा

करने से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। हिंदुस्तान के बुनकरों के जीवन की, उनकी आमदनी की, सूत प्राप्त करने में होनेवाली उनकी कठिनाई की, इसमें वे किस प्रकार ठगे जाते थे और आखिर किस प्रकार दिन-दिन कर्जदार होते जाते थे, इस सबकी जानकारी हमें मिली। हम स्वयं अपना सब कपड़ा तुरंत बुन सकें, ऐसी स्थिति तो थी ही नहीं। इसी कारण से बाहर के बुनकरों से हमें अपनी आवश्यकता का कपड़ा बुनवाना पड़ता था। देसी मिल के सूत का हाथ से बुना कपड़ा झट मिलता नहीं था। बुनकर सारा अच्छा कपड़ा विलायती सूत का ही बुनते थे,

न तो कहीं चरखा मिलता था और न कहीं चरखे को चलाने वाला मिलता था। कुकड़ियां आदि भरने के चरखे तो हमारे पास थे, पर उन पर काता जा सकता है, इसका तो हमें खयाल ही नहीं था

क्योंकि हमारी मिलें सूत कातती नहीं थीं। आज भी वे महीन सूत अपेक्षाकृत कम ही कातती हैं, बहुत महीन तो कात ही नहीं सकतीं। बड़े प्रयत्न के बाद कुछ बुनकर हाथ लगे, जिन्होंने देशी सूत का कपड़ा बुन देने की मेहरबानी की। इन बुनकरों को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जाएगा। इस प्रकार विशेष रूप से तैयार कराया हुआ कपड़ा बुनवाकर हमने पहना और मित्रों में उसका प्रचार किया। यों हम कातनेवाली मिलों के अवैतनिक एजेंट बने। मिलों के संपर्क में आने पर उनकी व्यवस्था की और उनकी लाचारी की जानकारी हमें मिली। हमने देखा कि मिलों का ध्येय खुद कातकर खुद ही बुनना था। वे हाथ-करघे की सहायता स्वेच्छा से नहीं, बल्कि अनिच्छा से करती थीं। यह सब देखकर हम हाथ से कातने के लिए अधीर हो उठे। हमने देखा कि जब तक हाथ से कातेंगे नहीं, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी। मिलों के एजेंट बनकर देशसेवा करते हैं, ऐसा हमें प्रतीत नहीं हुआ, लेकिन न तो कहीं चरखा मिलता था और न कहीं चरखे को चलानेवाला मिलता था। कुकड़ियां आदि भरने के चरखे तो हमारे पास थे, पर उन पर काता जा सकता है, इसका तो हमें खयाल ही नहीं था। एक बार कालीदास वकील एक बहन को खोजकर लाए। उन्होंने कहा कि यह बहन सूत कातकर दिखाएंगी। उसके पास एक आश्रमवासी को भेजा, जो इस विषय में कुछ बता सकता था, मैं पूछताछ किया करता था। पर कातने का इजारा तो स्त्री का ही था। अतएव ओने-कोने में पड़ी हुई कातना जाननेवाली स्त्री तो किसी स्त्री को ही मिल सकती थी। सन 1917 में मेरे गुजराती मित्र मुझे भड़ोच शिक्षा परिषद में घसीट ले गए थे। वहां महासाहसी विधवा बहन गंगाबाई मुझे मिलीं। वे पढ़ी-लिखी अधिक नहीं थीं, पर उनमें हिम्मत और समझदारी साधारणतया


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दमयंती जिस प्रकार नल की खोज में भटकी थीं, उसी प्रकार चरखे की खोज में भटकने की प्रतिज्ञा करके बहन गंगाबाई ने मेरा बोझ हलका कर दिया जितनी शिक्षित बहनों में होती है, उससे अधिक थी। उन्होंने अपने जीवन में अस्पृश्यता की जड़ काट डाली थी, वे बेधड़क अंत्यजों में मिलती थीं और उनकी सेवा करती थीं। उनके पास पैसा था, पर उनकी अपनी आवश्यकताएं बहुत कम थीं। उनका शरीर कसा हुआ था। और चाहे जहां अकेले जाने में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती थी। वे घोड़े की सवारी के लिए भी तैयार रहती थीं। इस बहन का विशेष परिचय गोधरा की परिषद में प्राप्त हुआ। अपना दुख मैंने उनके सामने रखा और दमयंती जिस प्रकार नल की खोज में भटकी थीं, उसी प्रकार चरखे की खोज में भटकने की प्रतिज्ञा करके उन्होंने मेरा बोझ हलका कर दिया। गुजरात में अच्छी तरह भटक चुकने के बाद गायकवाड़ के बीजापुर गांव में गंगाबहन को चरखा मिला। वहां बहुत से कुटुंबों के पास चरखा था, जिसे उठाकर उन्होंने छत पर चढ़ा दिया था। पर यदि कोई उनका सूत खरीद ले और उन्हें कोई पूनी मुहैया कर दे, तो वे कातने को तैयार थे। गंगाबहन ने मुझे खबर भेजी। मेरे हर्ष का कोई पार न रहा। पूनी मुहैया कराने का मुश्किल मालूम हुआ। स्व. भाई उमर सोबानी से चर्चा करने पर उन्होंने अपनी मिल से पुनी की गुछियां भेजने का जिम्मा लिया। मैंने वे गुच्छियां गंगाबहन के पास भेजी और सूत इतनी तेजी से कतने लगा कि मैं हार गया। भाई उमर सोबानी की उदारता विशाल थी, फिर भी

उसकी हद थी। दाम देकर पुनियां लेने का निश्चय करने में मुझे संकोच हुआ। इसके सिवा, मिल की पूनियों से सूत कतवाना मुझे बहुत दोष पूर्ण मालूम हुआ। अगर मिल की पूनियां हम लेते हैं, तो फिर मिल का सूत लेने में क्या दोष है? हमारे पूर्वजों के पास मिल की पुनियां कहां थी? वे किस तरह पूनियां तैयार करते होंगे? मैंने गंगाबहन को लिखा कि वे पूनी बनानेवाले की खोज करें। उन्होंने इसका जिम्मा लिया और एक पिंजारे को खोज निकाला। उसे 35 रुपए या इससे अधिक वेतन पर रखा गया। बालकों को पूनी बनाना सिखाया गया। मैंने रुई की भिक्षा मांगी। भाई यशवंतप्रसाद देसाई ने रुई की गांठे देने का जिम्मा लिया। गंगाबहन ने काम एकदम बढ़ा दिया। बुनकरों को लाकर बसाया और कता हुआ सूत बुनवाना शुरू किया। बीजापुर की खादी मशहूर हो गई। दूसरी तरफ आश्रम में अब चरखे का प्रवेश होने में देर न लगी। मगनलाल गांधी की शोधक शक्ति ने चरखे में सुधार किए और चरखे तथा तकुए आश्रम में बने। आश्रम की खादी पहले थान की लागत प्रति गज सतरह आने आई। मैंने मित्रों से मोटी और कच्चे सूत की खादी के दाम 17 आना प्रति गज के हिसाब से लिए, जो उन्होंने खुशी-खुशी दिए। मैं बंबई में रोगशय्या पर पड़ा हुआ था, पर सबसे पूछता रहता था। मैं खादी शास्त्र में अभी निपट अनाड़ी था। मुझे हाथ से कते सूत की जरूरत थी। कत्तिनों की जरूरत थी। गंगाबहन जो भाव

देती थीं, उससे तुलना करने पर मालूम हुआ कि मैं ठगा रहा हूं, लेकिन बहनें कम लेने को तैयार न थीं। अतएव उन्हें छोड़ देना पड़ा। पर उन्होंने अपना काम किया। उन्होंने अवंतिकाबाई, रमीबाई कामदार, शंकरलाल बैकर की माताजी और वसुमती बहन को कातना सिखा दिया और मेरे कमरे में चरखा गूंजने लगा। यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि इस यंत्र ने मुझ बीमार को चंगा करने में मदद की। बेशक यह एक मानसिक असर था। पर मनुष्य को स्वस्थ या अस्वस्थ करने में मन का हिस्सा कौन कम होता है? चरखे पर मैंने भी हाथ आजमाया। किंतु इससे आगे मैं इस समय जा नहीं सका। बंबई में हाथ की पूनियां कैसे प्राप्त की जाए? श्री रेवाशंकर झवेरी के बंगले के पास से रोज एक घुनिया तांत बजाता हुआ निकला करता था। मैंने उसे बुलाया। वह गद्दों के लिए रुई धूना करता था। उसने पूनियां तैयार करके देना स्वीकार किया। भाव ऊंचा मांगा, जो मैंने दिया। इस तरह तैयार हुआ सूत मैंने वैष्णवों के हाथ ठाकुरजी की माला के लिए दाम लेकर बेचा। भाई शिवजी ने बंबई में चरखा सिखाने का वर्ग शुरू किया। इन प्रयोगों में पैसा काफी खर्च हुआ। श्रद्धालु देशभक्तों ने पैसे दिए और मैंने खर्च किए। मेरे नम्र विचार में यह खर्च व्यर्थ नहीं गया। उससे बहुत-कुछ सीखने को मिला। चरखे की मर्यादा का माप मिल गया। अब मैं केवल खादीमय बनने के लिए अधीर हो उठा। मेरी धोती देशी मिल के कपड़े की थी। बीजापुर में और आश्रम में जो खादी बनती थी, वह बहुत मोटी और 30 इंच अर्ज की होती थी। मैंने गंगाबहन को चेतावनी दी कि अगर वे एक महीने के अंदर 45 इंच अर्जवाली खादी की धोती तैयार करके न देंगी, तो मुझे मोटी खादी की घुटनों तक की धोती पहनकर अपना काम चलाना पड़ेगा। गंगाबहन अकुलाई। मुद्दत कम मालूम हुई, पर वे हारी नहीं। उन्होंने एक महीने के अंदर मेरे लिए 50 इंच अर्ज का धोती जोड़ा मुहैया कर दिया और मेरा दारिद्रय मिटाया। इसी बीच भाई लक्ष्मीदास लाठी गांव से एक अन्त्यज भाई रामजी और उसकी पत्नी गंगाबहन को आश्रम में लाए और उनके द्वारा बड़े अर्ज की खादी बुनवाई। खादी प्रचार में इस दंपती का हिस्सा ऐसा-

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वैसा नहीं कहा जा सकता। उन्होंने गुजरात में और गुजरात के बाहर हाथ का सूत बनने की कला दूसरों को सिखाई है। निरक्षर परंतु संस्कारशील गंगाबहन जब करघा चलाती हैं, तब उसमें इतनी लीन हो जाती हैं कि इधर उधर देखने या किसी के साथ बातचीत करने की फुरसत भी अपने लिए नहीं रखती। जिस समय स्वदेशी के नाम से परिचित यह आंदोलन चलने लगा, उस समय मिल मालिकों की ओर से मेरे पास काफी टीकाएं आने लगीं। भाई उमर सोबानी स्वयं एक होशियार मिल-मालिक थे। अतएव वे अपने ज्ञान का लाभ तो मुझे देते ही थे, पर दूसरों की राय की जानकारी भी मुझे देते रहते थे। उनमें से एक की दलील का असर उन पर भी हुआ और उन्होंने मुझे उस भाई के पास चलने की सूचना की। मैंने उसका स्वागत किया। हम उनके पास गए। उन्होंने आरंभ इस प्रकार किया, 'आप यह तो जानते हैं न कि आपका स्वदेशी आंदोलन पहला ही नहीं है?' मैंने जवाब दिया, 'जी हां।' 'आप जानते हैं न कि बंग-भंग के समय स्वदेशी आंदोलन ने खूब जोर पकड़ा था, जिसका हम मिलवालों ने खूब फायदा उठाया था और कपड़े के दाम बढ़ा दिए थे? कुछ नहीं करने लायक बातें की थीं?' 'मैंने यह बात सुनी है और सुनकर मैं दु:खी हुआ हूं।' 'मैं आपका दु:ख समझता हूं पर उसके लिए कोई कारण नहीं है। हम परोपकार के लिए व्यापार नहीं करते। हमें तो पैसा कमाना है। अपने हिस्सेदारों को जवाब देना है। वस्तु का मूल्य उसकी मांग पर निर्भर करता है, इस नियम के विरुद्ध कौन जा सकता है? बंगालियों को जानना चाहिए था कि उनके आंदोलन से स्वदेशी वस्त्र के दाम अवश्य बढेंगे।' 'वे बेचारे मेरी तरह विश्वासशील है। इसलिए उन्होंने मान लिया कि मिल-मालिक नितांत स्वार्थी नहीं बन जाएंगे। विश्वासधात तो कदापि न करेंगे। स्वदेशी के नाम पर विदेशी कपड़ा हरगिज न बेचेंगे।' 'मैं जानता था कि आप ऐसा मानते है। इसी से मैंने आपको सावधान करने का विचार किया और यहां आने का कष्ट दिया, ताकि आप भोले बंगालियों की तरह धोखे में न रह जाएं।' यह कहकर सेठजी ने अपने गुमाश्ते को नमूने लाने का इशारा किया। ये रद्दी रुई में से बने हुए कंबल के नमूने थे। उन्हें हाथ में लेकर वे भाई बोले, 'देखिए, यह माल हमने नया बनाया है। इसकी अच्छी खपत है। रद्दी रुई से बनाया है, इसीलिए यह सस्ता तो पड़ता ही है। इस माल को हम ठेठ उत्तर तक पहुंचाते हैं। हमारे एजेंट चारों ओर फैले हुए हैं। अतएव हमें आपके समान एजेंट की जरूरत नहीं रहती। सच तो यह है कि जहां आप-जैसो की आवाज नहीं पहुंचती, वहां हमारा माल पहुंचता है। साथ ही, आपको यह भी जानना चाहिए कि हिंदुस्तान की आश्यकता का सब माल हम उत्पन्न नहीं करते हैं। अतएव स्वदेशी का प्रश्न मुख्यतः उत्पादन का प्रश्न है। जब हम आवश्यक मात्रा में कपड़ा पैदा कर सकेंगे और कपड़े की किस्म में सुधार कर सकेंगे, तब विदेशी कपड़े का आना अपने आप बंद हो जाएगा। इसीलिए आपको मेरी सलाह तो यह है कि आप अपना स्वदेशी आंदोलन जिस तरह चला


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रहे हैं, उस तरह न चलाएं और नई मिलें खोलने की ओर ध्यान दें। हमारे देश में स्वदेशी माल खपाने का आंदोलन चलाने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसे उत्पन्न करने की आवश्यकता है।' मैंने कहा, 'यदि मैं यही काम कर रहा होऊं, तब तो आप उसे आशीर्वाद देंगे न?' 'सो किस तरह? यदि आप मिल खोलने का प्रयत्न करते हो, तो आप धन्यवाद के पात्र हैं।' 'ऐसा तो मैं नहीं कर रहा हूं, पर मैं चरखे के काम में लगा हुआ हूं।' 'यह क्या चीज है?' मैंने चरखे की बात सुनाई और कहा, 'मैं आपके विचारों से सहमत हूं। मुझे मिलों की दलाली नहीं करनी चाहिए। इससे फायदे के बदले नुकसान ही है। मिलों का माल पड़ा नहीं रहता। मुझे तो उत्पादन बढ़ाने में और उत्पन्न हुए कपड़े को खपाने में लगना चाहिए। इस समय मैं उत्पादन के काम में लगा हुआ हूं। इस प्रकार की स्वदेशी में मेरा विश्वास है, क्योंकि उसके द्वारा हिंदुस्तान की भूखों मरनेवाली अर्ध-बेकार स्त्रियों को काम दिया जा सकता है। उनका काता हुआ सूत बुनवाना और उसकी खादी लोगों को पहनाना, यही मेरा विचार है और यही मेरा आंदोलन है। मैं नहीं जानता कि चरखा आंदोलन कहां तक सफल होगा। अभी तो उसका आरंभ काल ही है, पर मुझे उसमें पूरा विश्वास है। कुछ भी हो, उसमें नुकसान तो है ही नहीं। हिंदुस्तान में उत्पन्न होनेवाले कपड़े में जितनी वृद्धि इस आंदोलन से होगी उतना फायदा ही है। अतएव इस प्रयत्न में आप बताते हैं वह दोष तो है ही नहीं।' 'यदि आप इस रीति से आंदोलन चलाते हो, तो मुझे कुछ नहीं कहना है। हां, इस युग में चरखा चल सकता है या नहीं, यह अलग बात है। मैं तो आपकी सफलता ही चाहता हूं।' इसके आगे खादी की प्रगति किस प्रकार हुई, इसका वर्णन इन प्रकरणों में नहीं किया जा सकता। कौन-कौन सी वस्तुएं जनता के सामने किस प्रकार आई, यह बता देने के बाद उनके इतिहास में उतरना इन प्रकरणों का क्षेत्र नहीं है। उतरने पर उन विषयों की अलग पुस्तक तैयार हो सकती है। यहां तो मैं इतना ही बताना चाहता हूं कि सत्य की शोध करते हुए कुछ वस्तुएं मेरे जीवन में एक के बाद एक किस प्रकार अनायास आती गईं। अतएव मैं मानता हूं कि अब असहयोग के विषय में थोड़ा कहने का समय आ गया है। खिलाफत के बारे में अली भाइयों का जबरदस्त आंदोलन तो चल ही रहा था। मरहूम मौलाना अब्दुलबारी वगैरा उलेमाओं के साथ इस विषय की खूब चर्चाएं हुईं। इस बारे में विवेचन हुआ कि मुसलमान शांति को, अहिंसा को, कहां तक पाल सकते है। आखिर तय हुआ कि अमुक हद तक युक्ति के रूप में उसका पालन करने में कोई एतराज नहीं हो सकता, और अगर किसी ने एक बार अहिंसा की प्रतिज्ञा की है, तो वह उसे पालने के लिए बंधा हुआ है। आखिर खिलाफत परिषद में असहयोग का प्रस्ताव पेश हुआ और बड़ी चर्चा के बाद वह मंजूर हुआ। मुझे याद है कि एक बार इलाहाबाद में इसके लिए सारी रात सभा चलती रही थी। हकीम साहब को शांतिमय असहयोग का शक्यता के विषय में शंका थी। किंतु उनकी शंका दूर होने पर वे उसमें सम्मिलित हुए और उनकी

जिस प्रकार की स्वदेशी में मेरा विश्वास है, उसके द्वारा हिंदुस्तान की भूखों मरनेवाली अर्ध-बेकार स्त्रियों को काम दिया जा सकता है। उनका काता हुआ सूत बुनवाना और उसकी खादी लोगों को पहनाना, यही मेरा विचार है और यही मेरा आंदोलन है सहायता अमूल्य सिद्ध हुई। इसके बाद गुजरात में परिषद हुई। उसमें मैंने असहयोग का प्रस्ताव रखा। उसमें विरोध करनेवालों की पहली दलील यह थी कि जब तक कांग्रेस असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार न करे, तब तक प्रांतीय परिषदों को यह प्रस्ताव पास करने का अधिकार नहीं है। मैंने सुझाया कि प्रांतीय परिषदें पीछे कदम नहीं हटा सकतीं, लेकिन आगे कदम बढ़ाने का अधिकार तो सब शाखा-संस्थाओं को है। यही नहीं, बल्कि उनमें हिम्मत हो तो ऐसा करना उनका धर्म है। इससे मुख्य संस्था का गौरव बढ़ता है। असहयोग के गुणदोष पर अच्छी और मीठी चर्चा हुई। मत गिने गए और विशाल बहुमत से असहयोग का प्रस्ताव पास हुआ। इस प्रस्ताव को पास कराने में अब्बास तैयबजी और वल्लभ भाई पटेल का बड़ा हाथ रहा। अब्बास साहब सभापति थे और उनका झुकाव असहयोग के प्रस्ताव की तरफ ही था। कांग्रेस की महास​िमति ने इस प्रश्न पर विचार करने के लिए कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन सन 1920 के सितंबर महीने में कलकत्ते में करने का निश्चय किया। तैयारियां बहुत बड़े पैमाने पर थी। लाला लाजपतराय सभापति चुने गए थे। बंबई से खिलाफत स्पेशल और कांग्रेस स्पेशल रवाना हुई। कलकत्ते में सदस्यों और दर्शकों का बहुत बड़ा समुदाय इकट्ठा हुआ। मौलाना शौकत अली के कहने पर मैंने असहयोग के प्रस्ताव का मसविदा रेलगाड़ी में तैयार किया। आज तक मेरे मसविदों में 'शांतिमय' शब्द प्रायः नहीं आता था। मैं अपने भाषण में इस शब्द का उपयोग करता था। सिर्फ मुसलमान भाइयों की सभा में 'शांतिमय' शब्द से मुझे जो समझाना था

वह मैं समझा नहीं पाता था। इसीलिए मैंने मौलाना अबुल कलाम आजाद से दूसरा शब्द मांगा। उन्होंने 'बाअमन' शब्द दिया और असहयोग के लिए 'तर्के मवालत' शब्द सुझाया। इस तरह अभी गुजराती में, हिंदी में, हिंदुस्तानी में असहयोग की भाषा मेरे दिमाग में बन रही थी कि इतने में ऊपर लिखें अनुसार कांग्रेस के लिए प्रस्ताव का मसविदा तैयार करने का काम मेरे हाथ में आया। प्रस्ताव में 'शांतिमय' शब्द लिखना रह गया। मैंने प्रस्ताव रेलगाड़ी में ही मौलाना शौकत अली को दे दिया। रात में मुझे खयाल आया कि मुख्य शब्द 'शांतिमय' तो छूट गया है। मैंने महादेव को दौड़ाया और कहलवाया कि छापते समय प्रस्ताव में 'शांतिमय' शब्द बढ़ा लें। मेरा कुछ ऐसा खयाल है कि शब्द बढ़ाने से पहले ही प्रस्ताव छप चुका था। विषय-विचारिणी समिति की बैठक उसी रात थी। अतएव उसमें उक्त शब्द मुझे बाद में बढ़वाना पड़ा था। मैंने देखा कि यदि मैं प्रस्ताव के साथ तैयार न होता, तो बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ता। मेरी स्थिति दयनीय थी। मैं नहीं जानता था कि कौन प्रस्ताव का विरोध करेगा और कौन प्रस्ताव का समर्थन करेगा। लालाजी के रुख के विषय में मैं कुछ न जानता था। तपे-तपाए अनुभवी योद्धा कलकत्ते में उपस्थित हुए थे। विदुषी एनी बेसेंट, पं. मालवीयजी, श्री विजयराघवाचार्य, पं. मोतीलालजी, देशबंधु आदि उनमें थे। मेरे प्रस्ताव में खिलाफत और पंजाब के अन्याय को ध्यान में रखकर ही असहयोग की बात कही गई थी। पर श्री विजयराघवाचार्य को इसमें कोई दिलचस्पी मालूम न हुई। उन्होंने कहा, 'यदि असहयोग ही कराना है, तो अमुक अन्याय के लिए

ही क्यों किया? स्वराज्य का अभाव बड़े-से-बड़ा अन्याय है। अतएव उसके लिए असहयोग किया जा सकता है।' मोतीलालजी भी स्वराज्य की मांग को प्रस्ताव में दाखिल कराना चाहते थे। मैंने तुरंत ही इस सूचना को स्वीकार कर लिया और प्रस्ताव में स्वराज्य की मांग भी सम्मिलित कर ली। विस्तृत, गंभीर और कुछ तींखी चर्चाओं के बाद असहयोग का प्रस्ताव पास हुआ। मोती लाल जी उसमें सबसे पहले सम्मिलित हुए। मेरे साथ हुई उनकी मीठी चर्चा मुझे अभी तक याद है। उन्होंने कुछ शाब्दिक परिवर्तन सुझाए थे, जिन्हें मैंने स्वीकार कर लिया था। देशबंधु को मना लेने का बीड़ा उन्होंने उठाया था। देशबंधु का हृदय असहयोग के साथ था, पर बुद्धि उनसे कर रही थी कि असहयोग को जनता ग्रहण नहीं करेगी। देशबंधु और लालाजी ने असहयोग के प्रस्ताव को पूरी तरह तो नागपुर में स्वीकार किया। इस विशेष अवसर पर लोकमान्य की अनुपस्थिति मेरे लिए बहुत दु:खदायक सिद्ध हुई। आज भी मेरा मत है कि वे जीवित होते, तो कलकत्ते की घटना का स्वागत करते। पर वैसा न होता और वे विरोध करते, तो भी मुझे अच्छा ही लगता। मुझे उससे कुछ सीखने को मिलता। उनके साथ मेरे मतभेद सदा ही रहे, पर वे सब मीठे थे। उन्होंने मुझे हमेशा यह मानने का मौका दिया था कि हमारे बीच निकट का संबंध है। यह लिखते समय उनके स्वर्गवास का चित्र मेरे सामने खड़ा हो रहा है। मेरे साथी पटवर्धन ने आधी रात को मुझे टेलीफोन पर उनके अवसान का समाचार दिया था। उसी समय मैंने साथियों से कहा था, 'मेरे पास एक बड़ा सहारा था, जो आज टूट गया।' उस समय असहयोग का आंदोलन पूरे जोर से चल रहा था। मैं उनसे उत्साह और प्रेरणा पाने की आशा रखता था। अंत में जब असहयोग पूरी तरह मूर्तिमंत हुआ, तब उसके प्रति उनका रुख क्या रहा होता सो तो भगवान जाने, पर इतना मैं जानता हूं कि राष्ट्र के इतिहास की उस महत्वपूर्ण घड़ी में उनकी उपस्थिति का अभाव सब को खटक रहा था।


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आवरण कथा

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काचे तांतणे रे मने हरिजीए रे बांधी खादी का महत्व

महात्मा गांधी ने किस तरह खादी और चरखे को भारत की स्वाधीनता और स्वावलंबन से जोड़ा, इस बारे में संत विनोबा भावे के विचार

गर गांधी जी हमें खादी न बताते, तो मुझे नहीं लगता कि सहज ही वह हमें सूझती, क्योंकि यह चीज सारे प्रवाह के बिल्कुल उल्टी थी। हास्यास्पद भी मालूम होती थी। फिर वह हमें कैसे सूझती? आखिर हम पढ़े-लिखे जो थे, बुद्धिमान थे और पश्चिम की विद्या पाए थे। अर्थशास्त्र भी काफी पढ़े हुए थे। उस हालत में, वह चीज हमें सूझना संभव ही न था। इसीलिए खादी के विषय में, कम-से-कम अपनी बुद्धि का उपयोग करने से पहले या साथ-साथ गांधीजी ने उस विषय में जो कुछ कहा है, उसका अध्ययन करना सबके लिए लाभदायक है। खादी तो गांधीजी की विशेष ही कल्पना-सृष्टि है। उनकी प्रतिभा, उनकी पुरुषार्थ-शक्ति ने खादी को एक व्यवहार्य रूप दे दिया। खादी के विषय में, उनके सारे विचार एकत्र कर, एक ग्रंथ प्रकाशित किया गया है। सभी उस ग्रंथ का अध्ययन करें, तो अच्छा होगा। अपनी बुद्धि से जो संशोधन कर सकते हैं, वे जरूर करें, लेकिन उस ऋषि की क्या कल्पना थी, यह जान लेना अत्यंत जरूरी है। पुराने लोग हाथ से सूत कातते थे, तो उसमें कोई बड़ी बात नहीं थी। कुछ लोग कहते हैं कि चरखे के रहते हुए भी हमने स्वराज गंवाया। अब उसके बाद चरखा चलाने को क्यों कहते हो? लेकिन वह चरखा पुराना था, आज का चरखा दूसरा है। उस चरखे के सामने कोई खड़ा नहीं था। जिस तरह चंद्र अकेला प्रकाशित होता है, उसी तरह उस समय चरखे की हालत थी। उन दिनों का चरखा लाचारी का था। शायद उसमें कुछ शोषण भी हो। हमारा चरखा वह पुराना जीर्ण चरखा नहीं है, जो मिलों के अभाव में नग्नता ढंकने के लिए अनिवार्य रूप से चलता था। हमारा चरखा मिलों का पूरक भी नहीं है, जो मिलों का स्थान मान्य करके उनके कारण पैदा हुई बेकारी की समस्या को, राहत के रूप में हल करने का ढोंग करता है। वह है नवयुग का संदेशवाहक चरखा। ग्राम-राज्य और राम-राज्य का प्रतिनिधि। हरिजनपरिजन भेद मिटाने वाला। सब धर्मों और पंथों को और फिरकों को एक परमेश्वर के प्रेम-सूत्र में बांधने वाला। अब हम सोचकर चरखे को अपनाते हैं। उसके पीछे चिंतन है, विचार है। समाज-रचना की एक नई तस्वीर हमारे सामने है। बापू मीरा का एक भजन अनेक बार स्मरण करते थे-काचे तांतणे रे मने हरिजीए रे बांधी- एक कच्चा तार है, उसने मुझे बांधा है और यह इतना मजबूत है कि उसके बल पर भगवान मुझे खींचते हैं, मैं उससे खींची जाती हूं। इस कच्चे तार की प्रेमरज्जु से सारे विश्व को खींच सकते हैं और हम भी इसके पास खींचे जाते हैं, यह भाव चरखे के पीछे निहित है। काका साहब कालेलकर ने आज (9 मार्च,

एक नजर

खादी तो गांधीजी की विशेष ही कल्पना-सृष्टि है

नवयुग का संदेशवाहक है गांधी का चरखा सर्वोदय विचार में खादी का स्थान सर्वोच्च है

1949) सुबह कहा कि 'आज नहीं तो कल-(क्योंकि आज वैसा कहने की हिम्मत नहीं आई है)-हिंदुस्तान को ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया को खादी अपनानी है।’ काका साहब का वाक्य मुझे ऋषि-वचन जैसा लगा। ऋषि भविष्य की बात देखता है। उन्होंने बापू के नाम से वह कहा-बापू का उसमें जो है, वह है ही, क्योंकि सब उन्हीं का है, लेकिन काका साहब का भी दर्शन उसमें पड़ा है। मैं मानता हूं कि न बापू पागल थे और न काका साहब पागल हैं। इसमें ठीक दृष्टि है। हमारे दूसरे काम भी अच्छे हैं और उन्हें करना चाहिए, लेकिन वे हमारी विचारधारा के प्रतिनिधि नहीं कहे जा सकते। क्योंकि उनके खिलाफ कोई विरुद्ध विचार खड़ा नहीं है। मिसाल के तौर पर कुष्ठ रोगियों की सेवा लीजिए। सब मानते हैं कि कुष्ठ रोगियों की सेवा होनी चाहिए। वह नहीं करनी चाहिए या दूसरे तरीके से वह सवाल हल हो सकता है, ऐसा कहने वाला कोई विरोधी विचार कुष्ठ-सेवा के खिलाफ खड़ा नहीं है। ग्राम-सफाई की बात हम आज करते हैं। वह काम भी जरूर करना चाहिए, लेकिन उसके विरोध में कोई विचार खड़ा नहीं है। सब उसे मंजूर करते हैं। पर खादी के बारे में वैसी बात नहीं है। खादी के विरोध में एक विचारधारा खड़ी है और खद्दर, उस विचारधारा के खिलाफ, एक बगावत है। आज सारी दुनिया की निष्ठा यंत्र विद्या में है। वैज्ञानिक इसे 'यंत्र-युग’ कहते हैं। पुराने लोग

कलियुग (कलयुग) कहते हैं। ऐसी स्थिति में जब हम खद्दर की बात करते हैं, तो समझना चाहिए कि दुनिया में जो विचारधारा आज चल रही है, उसके खिलाफ हमारा यह बगावत का झंडा है। किसी भी हालत में अन्न, पानी की जगह नहीं ले सकता। अन्न की महिमा मंजूर है, लेकिन पानी की भी अपनी महिमा है। पानी की महिमा पानी में ही भरी है। वही हाल चरखे का है। हमारे सर्वोदय-विचार में प्रचलित प्रवाह के विरुद्ध होकर जाना पड़ता है। यह एक तरह से हमारी बगावत है। उस बगावत की निशानी खेती नहीं हो सकती। उसकी निशानी तो चरखा ही हो सकता है। जहां हमें खेती को स्थान देने की इच्छा होती है, वहां कई लोगों को उसके साथ चरखे को पदच्युत करने की भी इच्छा रहती है। मैं कहना चाहता हूं कि इसमें विचार-दोष है, इससे सावधान रहना चाहिए। हमसे पूछा गया कि 'अब तो भूदान का काम शुरू हुआ है। जमीन का मसला प्रमुखत: सामने आया है। और उसमें क्रांति निहित है। ऐसी हालत में हमारा रोज का नित्य कार्य कातने के बजाए कुछ खेत का काम क्यों न रखा जाए?’ हमने कहा, 'यह ठीक है। यह काम हर एक के लिए प्राण-वायु का स्थान रखता है। फिर भी हमारा जो नित्य-यज्ञ है, वह कातना ही रहेगा।’ इस जमाने में कातना एक ऐसी चीज है, जिसके खिलाफ कोई दर्शन (फिलॉसफी) खड़ा है,

'स्वावलंबन की दृष्टि से जैसे किसान अपने लिए अनाज खुद पैदा करता है, उसके लिए काश्त करता है, इसी तरह हमारा कपड़ा भी हमें तैयार कर लेना चाहिए’

पर खेती के खिलाफ कोई दर्शन(फिलॉसफी) खड़ा है, पर खेती के खिलाफ कोई दर्शन नहीं। आज यह कहने वाला कोई दर्शन, कोई फिलॉसफी नहीं कि 'अनाज के बदले हम और कोई चीज खा लें और निर्वाह कर लें या खेती की उपासना करने की जरूरत नहीं, वह एक दकियानूसी चीज है।’ हम दुनिया के सामने जो बगावत का झंडा, क्रांतिकारी कदम, क्रांतिकारी विचार रखना चाहते हैं, चरखा उसका संकेत है। हमारी दृष्टि में, इस काम का यही महत्व है। हमारे सर्वोदय के विचार में खादी का जो स्थान है, वह दूसरी किसी चीज का नहीं। यह ध्यान में रहे कि हम दूसरी चाहे हजार बातें करें, लेकिन खद्दर में अगर कामयाब नहीं होते, तो गांधीजी के विचारों का दावा छोड़ देते हैं और हार कबूल करते हैं। खद्दर में हार कबूल करें, तो दूसरी सेवा भी हम छोड़ दें ऐसा नहीं है। वह तो हम करें भी, लेकिन वह सारी सेवा हमारे विचारों की दृष्टि से गौण हो जाती है, इसमें मुझे तनिक भी संदेह नहीं है। मैं यह नहीं कहना चाहता कि खद्दर छोड़ने पर हम असत्य और हिंसा का आचरण करते हैं। फिर भी जिस सामाजिक अहिंसा का विचार हम कर रहे हैं, उस तरह की अहिंसा के लिए मैं खतरा देखता हूं, अगर हम खादी को अव्यावहारिक मानते हैं। मान लीजिए, गांधी-विचार वाले रोज नियमित कातते और मरने तक कातते हैं। यह मान लिया कि 'मैंने यह व्रत लिया है, इसीलिए कातता हूं और उसे छोड़ने वाला नहीं हूं।’ किंतु यदि उन्हें निश्चय हो कि 'खादी की बात हिंदुस्तान में चलने वाली नहीं है, कोई बेकार हो और मजदूरी चाहता हो तो भले ही काते,’ साथ ही यह विश्वास न हो कि 'स्वावलंबन की दृष्टि से जैसे किसान अपने लिए अनाज खुद पैदा करता है, उसके लिए काश्त करता है, इसी तरह हमारा कपड़ा भी हमें तैयार कर लेना चाहिए,’ तो यह नहीं कहा जाएगा कि गांधी-विचार की दृष्टि से जो करना है, वही वे करते हैं। विचार तो ऐसा करना चाहिए कि चरखा एक विचार का चिन्ह है, प्रतीक है। चरखा यानी अहिंसा का विचार, अहिंसा का प्रतीक है।


10 आवरण कथा

21 - 27 अगस्त 2017

हर घर चूल्हा हर घर चरखा चरखे का इतिहास

गांधी जी ने चरखे की खोज भले नहीं की हो, पर उन्होंने इससे जुड़ी लोक संवेदना को सबसे पहले पहचाना। उनकी कोशिशों से समय के साथ चरखे का चलन और मॉडल दोनों बदले एक नजर

मार्कोपोलो और टेवर्नियर ने खादी पर कई कविताएं लिखी हैं 1960 में टैवर्नियर की डायरी में खादी की प्रशंसा की गई

आज चरखे का सोलर मॉडल भी उपलब्ध है

एसएसबी ब्यूरो भारतबसिया हो, गांधी के सनेसवा मन में रखीह खेत खेता बांगा बोअवइह, रूपिया होइहें ढेर सूतवा काति के कपड़ा बिनिहऽ, मति करीह तू देर। भारतबसिया हो... गांव गांव पंचायत करिके, झगड़ा लीह फरियाइ, अपने घर के निंदा गिल्ला, पर घर काहे जाई? भारतबसिया हो... चरखा मंगाइब हम सईंया से घिरिआई के बृन्दाबन पठाई के ना... काते हमर पड़ोसिन घर में, संझिया भोरे आ दुपहरिया में हमके लजवावे गांधी बात बताई के ऊंच नीच समुझाई के ना... चंपारण के गांवों में यह लोकगीत आज भी गाया जाता है। कपास, चरखे और सूत से अापसी एकता और स्वावलंबन की चीख देने वाले इस गीत में चरखे का पूरा शास्त्र है और गांधी के स्वराज का विचार भी। इसीलिए भारत के स्वतंत्रता संग्राम में यह आर्थिक स्वावलंबन का प्रतीक बन गया था। चरखे का निर्माण और विकास कब तथा कैसे हुआ, इस पर

चरखा संघ ने काफी खोजबीन की। अंग्रेजों के भारत आने से पहले भारत भर में चरखे और करघे का प्रचलन था। 1500 तक खादी और हस्तकला उद्योग पूरी तरह विकसित था। 1702 में अकेले इंग्लैंड ने भारत से 10,53,725 पाउंड की खादी खरीदी थी। मार्कोपोलो और टेवर्नियर ने खादी पर कई कविताएं भी लिखी हैं। 1960 में टैवर्नियर की डायरी में खादी की मृदुता, मजबूती, बारीकी और पारदर्शिता की प्रशंसा की गई है। भारत में चरखे का इतिहास बहुत प्राचीन होते हुए भी इसमें उल्लेखनीय सुधार का काम स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हुआ। सबसे पहले 1908 में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी, जब वे इंग्लैंड में थे। उसके बाद वे बराबर इस दिशा में सोचते रहे। वे चाहते थे कि चरखा कहीं न कहीं से लाना चाहिए। 1916 में साबरमती आश्रम (अहमदाबाद) की स्थापना हुई। बड़े प्रयत्न से दो वर्ष बाद 1918 में

गंगा बहन के पास खड़ा चरखा मिला। इस समय तक जो भी चरखे चलते थे और जिनकी खोज हो पाई थी, वे सब खड़े चरखे ही थे। आजकल खड़े चरखे में एक बैठक, दो खंभे, एक फरई (मोड़िया और बैठक को मिलाने वाली लकड़ी) और आठ पंक्तियों का चक्र होता है। देश के विभिन्न भागों में कई तरह के खड़े चरखे चलते थे। चरखे का व्यास 12 इंच से 24 इंच तक और तकुओं की लंबाई 19 इंच तक होती है। उस समय के चरखों और तकुओं की तुलना आज के चरखों से करने पर आश्चर्य होता है। अभी तक जितने चरखों के नमूने प्राप्त हुए थे, उनमें चिकाकौल (आंध्र) का खड़ा रखा चरखा सबसे अच्छा था। इसके चाक का व्यास 30 इंच था और तकुवा भी बारीक तथा छोटा था। इस पर मध्यम अंक का अच्छा सूत निकलता था। 1920 में विनोबा भावे और उनके साथी साबरमती आश्रम में कताई का काम सीखते थे। कुछ दिन बाद

29 जुलाई 1929 को चरखा संघ की ओर से गांधी जी की शर्तों के अनुसार चरखा बनाने वालों को एक लाख रुपए पुरस्कार देने की घोषणा की गई

ही (18 अप्रैल 1921 को) मगनवाड़ी (वर्धा) में सत्याग्रह आश्रम की स्थापना हुई। उस समय कांग्रेस महासमिति ने 20 लाख नए चरखे बनाने का प्रस्ताव किया। उद्देश्य चरखे को पूरे देश में फैलाने का था। 1923 में काकीनाडा कांग्रेस के समय अखिल भारत खादी मंडल की स्थापना हुई, किंतु तब तक चरखे के सुधार की दिशा में बहुत अधिक प्रगति नहीं हुई थी। कांग्रेस का ध्यान राजनीति की ओर था, पर गांधी जी उसे रचनात्मक कार्यों की ओर भी खींचना चाहते थे। इन्हीं प्रयासों के बीच पटना में 22 सितंबर 1925 को अखिल भारत चरखा संघ की स्थापना हुई। ‘अखिल भारत चरखा संघ’ की स्थापना से खादी की प्रगति में एक निश्चित बल मिला और उसने तेजी से कदम आगे बढ़ाना शुरू किया। चरखे में संशोधन हो, इसके लिए गांधी जी बहुत बेचैन थे। 1923 में 5,000 रुपए का पुरस्कार भी घोषित किया, किंतु कोई विकसित नमूना नहीं प्राप्त हुआ। 29 जुलाई 1929 को चरखा संघ की ओर से गांधी जी की शर्तों के अनुसार चरखा बनाने वालों को एक लाख रुपए पुरस्कार देने की घोषणा की गई। गांधी जी ने जो शर्ते रखी थीं, उन्हें पूरा करने की कोशिश तो कई लोगों ने की, लेकिन सफलता किसी को भी नहीं मिली। किर्लोस्कर बंधुओं द्वारा भी एक चरखा बनाया गया था, लेकिन वह भी शर्त पूरी न होने के कारण असफल ही रहा। इसके लिए अखिल भारत चरखा संघ की कार्यकारिणी ने यह फैसला किया कि जो शोधक नीचे लिखी शर्तों के मुताबिक चरखा या कातने और धुनने का एक संयुक्त यंत्र तैयार कर देंगे, उसे एक लाख रुपए या 7700 पौंड का इनाम दिया जाएगा • चरखा हल्का, आसानी से ले जाने योग्य और ऐसा होना चाहिए जो भारतवर्ष की देहाती झोपड़ों में हाथ या पैर की मदद से सहज ही


21 - 27 अगस्त 2017

पि

खादी के स्वावलंबन पर परिसंवाद

आवरण कथा

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जब तक गांव आधारित खादी नहीं बनेगा, तब तक खादी का कल्याण नहीं होगा

छले महीने दिल्ली में आचार्य कृपलानी मेमोरियल ट्रस्ट (एकेएमटी) एवं एवार्ड की ओर से 'गांधी-खादी एवं समग्र रचनात्मक कार्यक्रम' विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद का आयोजन हुआ। गांधी शांति प्रतिष्ठान में आयोजित इस परिसंवाद में आम राय से खादी के स्वावलंबन पर जोर दिया गया और यह कहा गया कि गांधी ने खादी को विचार, दर्शन एवं नई समाज रचना का आधार बनाकर पेश किया था। अहिंसक आर्थिक रचना का मतलब होता है किसी से किसी का शोषण नहीं। परिसंवाद में कहा गया कि खादी सरकार मुक्त हो, सरकारी आयोग से मुक्त हो, यह समय की मांग है। आजादी के समय से खादी का काम हो रहा है, लेकिन सरकारी सहायता से इसे शुरू नहीं किया गया था। सर्व सेवा संघ की रचनात्मक समिति जिस तरह से पहले खादी का प्रमाणपत्र देती थी, उसे पुनः उसे शुरू करने की जरूरत है। यह बात भी आई कि जब तक गांव आधारित खादी नहीं बनेगा, तब तक खादी का कल्याण नहीं होगा। गांवों में हम लोग गांव की बनी चीजों का उपयोग नहीं करते। गांवों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाए कि अपने जरूरत का साठ प्रतिशत वस्त्र वे खादी से पूर्ति करें। खादी की उपलब्धता सिर्फ गांधी आश्रमों तक सीमित न रहे बल्कि इसे सामान्य बाजार में भी उपलब्ध कराया जाए। सौर चरखे का प्रचार-प्रसार हो। इस अहम परिसंवाद में खादी मिशन के संस्थापक-संयोजक एवं आचार्य विनोबा भावे के सचिव रह चुके बाल विजय भाई, नगालैंड गांधी आश्रम के अध्यक्ष एवं शांति के लिए कार्य कर रहे वरिष्ठ गांधीवादी नटवर ठक्कर, वरिष्ठ गांधीवादी पीएम त्रिपाठी, खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के पूर्व अध्यक्ष लक्ष्मीदास चलाया जा सके। • चरखा बिना अधिक परिश्रम के लगातार 8 घंटों तक एक स्त्री द्वारा चलाने योग्य होना चाहिए। • चरखे में हाथ की बनी चूनी का इस्तेमाल हो सकना चाहिए या चरखे के साथ धुनने का साधन भी होना चाहिए। • लगातार आठ घंटे तक काम करने पर चरखे से 12 से 20 अंक का 16000 गज सूत कतना चाहिए। • यंत्र ऐसा होना चाहिए कि वह अधिक से अधिक रुपए 140 की कीमत में भारत में ही तैयार हो सके। • यंत्र की बनावट पक्की और मजबूत होनी चाहिए और समय-समय पर घिसे हुए पुर्जों की मरम्मत कराते रहने से 20 वर्षों तक बिना रूकावट के काम देने वाला होना चाहिए। मरम्मत में ज्यादा खर्च लगाने की जरूरत न रहे और हर साल मशीन की कीमत के 5 फीसदी से ज्यादा खर्च मरम्मत में न हो। इस प्रतियोगिता में विविध प्रकार के चरखे शामिल हुए, किंतु कोई कारगर नहीं हुआ। आजादी

एवं डॉ. महेश शर्मा, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एएन त्रिपाठी एवं ब्रह्मदेव तिवारी, गांधी विचार परिषद (वर्धा) के निदेशक डॉ. भरत महोदय, सर्व सेवा संघ के अध्यक्ष महादेव विद्रोही, गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष रामचंद्र राही, हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष शंकर सान्याल, गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत, पूर्व अध्यक्ष राधा बहन भट्ट, केंद्रीय श्री गांधी आश्रम के राष्ट्रीय महासचिव ब्रजभूषण पांडेय, सर्वोदय समाज के संयोजक आदित्य पटनायक, केंद्रीय गांधी स्मारक निधि के महामंत्री संजय सिंह, आचार्य कृपलानी के पुराने सहयोगी दीनानाथ तिवारी आदि ने अपने विचार रखे। दो वैज्ञानिकों सेंटर फॉर टेक्नोलॉजी एंड डेवलपमेंट के निदेशक डॉ. डी. रघुनंदन एवं मेजर एस. चटर्जी द्वारा आधुनिक प्रौद्योगिकी का पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन भी किया गया। परिसंवाद के अंत में प्रतिभागियों को चरखे का वितरण किया गया। परिसंवाद का उद्देश्य गांधी-खादी एवं समग्र रचनात्मक कार्यक्रम के नवसर्जनार्थ देशव्यापी लोक आधारित सहभागी अभियान चलाने हेतु आमराय बनाना था। परिसंवाद के आयोजन को केंद्रीय गांधी के बाद एकाम्बरनाथ ने चार तकुए वाला लकड़ी का चरखा बनाया जो ‘अम्बर चरखा’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आज उसी अंबर चरखे को विकसित कर 12 तकुए तक बनाया गया है और लकड़ी के जगह लोहा का ढांचा कर दिया गया है, जिसे ‘न्यू मॉडल चरखा’ नाम दिया गया है। ‘सौर चरखे’ में भी न्यू मॉडल चरखे को विकसित किया गया है, जिसमें हाथ के स्थान पर सौर ऊर्जा का प्रयोग होता है। चरखे के आकार पर उपयोगिता की दृष्टि से बराबर प्रयोग होते रहे। खड़े चरखे का किसान चरखे की शकल में सुधार हुआ। गांधी जी स्वयं कताई करते थे। यरवदा जेल में किसान चरखे को पेटी चरखे का रूप देने का श्रेय उन्हीं को है। सतीशचंद्र दासगुप्त ने खड़े चरखे के ही ढंग का बांस का चरखा बनाया, जो बहुत ही कारगर साबित हुआ। बांस का ही जनताचक्र (किसान चरखे की ही भांति) बनाया गया, जिस पर वीरेन्द्र मजूमदार लगातार बरसों कातते रहे। बच्चों के लिए या प्रवास में कातने के लिये प्रवास चक्र भी बनाया गया, जिसकी गति किसान चक्र से तो कम थी, लेकिन यह ले जाने लाने में सुविधाजनक था।

स्मारक निधि, राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय, हरिजन सेवक संघ, सर्व सेवा संघ, आदिम जाति सेवा संघ, गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, गांधी शांति प्रतिष्ठान, सेवाग्राम आश्रम प्रतिष्ठान, गांधी विचार परिषद (वर्धा) आदि जैसी राष्ट्रीय स्तर की अनेक प्रतिष्ठित गांधी-विचारनिष्ठ संस्थाओं का सहयोग प्राप्त था। परिसंवाद का संयोजन-संचालन सुरेन्द्र कुमार ने किया जबकि अतिथियों का स्वागत अभय प्रताप ने किया। आयोजन में विशेष मदद सर्व सेवा संघ के खादी समिति के संयोजक अशोक शरण ने की। गांधीजी की -दृष्टि में खादी का मतलब है, देश के सभी लोगों की आर्थिक स्वतंत्रता और समानता का आरंभ। इसीलिए स्वावलंबन और समानता का जो पाठ गांधी जी ने चरखा और खादी जरिए गुलामी के दौर में सिखाया आज भी देश को कहीं न कहीं उसी चरखे और खादी की जरूरत है। इस जरूरत को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महसूस किया और खादी को एक नई पहचान के साथ एक नए शिखर तक पहुंचाने में जुट गए। इसके पीछे भावना वही है, विचार वही है... मोरा चरखा के टूटे न तार, चरखवा चालू रहे...। इस प्रकार अब तक बने हुए चरखों में गति और सूत की मजबूती की दृष्टि से किसान चरखा सबसे अच्छा रहा। फिर भी देहात की कत्तिनों में खड़ा चरखा ही अधिक प्रिय बना रहा। गांधी जी के स्वर्गवास के बाद भी चरखे के संशोधन और प्रयोग का काम बराबर चलता रहा। चरखे को चूल्हे की तरह हर घर में पहुंचाने के काम में मिली रही सफलता के बाद गांधी जी ने खादी कार्य के असली मकसद की ओर कदम बढ़ाया। इसलिए 1944 में जेल से छूटने पर गांधीजी ने चरखा-संघ के कार्य की बुनियाद ही बदल डाली और चरखा अहिंसक समाज-रचना का प्रतीक निश्चित हो गया। 1 सितंबर 1944 में हुई चरखासंघ की सभा में उन्होंने कुछ सुझाव संघ के सामने विचारार्थ रखे– 1. चरखे की कल्पना की जड़ देहात है और चरखा संघ की कामना पूर्ति उसके देहात में विभक्त होने में है। इस ध्येय को खयाल में रखते हुए चरखा संघ की यह सभा इस निर्णय पर आती है कि कार्य की प्रणाली में निम्नलिखित परिवर्तन किये जाए –

सबसे पहले 1908 में गांधी जी को चरखे की बात सूझी थी, जब वे इंग्लैंड में थे। उसके बाद वे बराबर इस दिशा में सोचते रहे • जितने कार्यकर्ता तैयार हों और जिनको संघ पसंद करे, वे देहातों में जाएं। • बिक्री भंडार और उत्पत्ति केंद्र मर्यादित किए जाएं। • जो शिक्षालय हैं उन्हें विस्तृत रूप दिया जाए और अभ्यास-क्रम बढ़ाया जाए। • जो सूबा या जिला स्वतंत्र और स्वावलंबी होना चाहे, उसे यदि संघ स्वीकार करे तो, स्वतंत्रता दी जाए। 2. चरखा-संघ, ग्राम-उद्योग-संघ और हिंदुस्तानी तालीमी-संघ की एक स्थाई समिति नियत हो, जो नई पद्धति के अनुकूल आवश्यक सूचना निकाला करे। तीनों संस्थाएं समझें कि उन पर पूर्ण अहिंसा को प्रकट करना निर्भर है। इसके संपूर्ण विकास में पूर्ण स्वराज छिपा है। तीनों संस्थाओं का ज्ञान ऐसा होना चाहिए कि सारा राजकारण उन पर अवलंबित रहे न कि वे प्रचलित राजकारण पर अवलंबित रहें। यह स्वयंसिद्ध लगना चाहिए। इसका निचोड़ यह माना जाए कि इन तीनों संस्थाओं के कार्यकर्ता स्थितप्रज्ञ जैसे होने चाहिए। अगर यह संभव न हो तो हमारी कार्य रेखा बदलनी चाहिए। हमारा आदर्श नीचे जाना चाहिए। आज हमारी हालत विचित्र-सी मालूम होती है। स्वास्थ्य अच्छा न होने के कारण और समयाभाव के कारण उस पर थोड़ी चर्चा हुई। बाद में कृष्णदास जाजू ने गांधीजी से इन सिद्धातों को व्यावहारिक रूप देने के विषय में चर्चा की। इससे स्पष्ट होता है कि गांधीजी खादी को न केवल आर्थिक स्वावलंबन का साधन बनाना चाहते थे, अपितु अहिंसा का प्रतीक भी बनाना चाहते थे। नवसंस्करण काल में तो वे खादी के अहिंसक पक्ष पर अधिक जोर देते हैं। उन्होंने कहा, ‘खादी का एक युग समाप्त हो गया। खादी ने गरीबों के लाभ के लिए कुछ करके दिखा दिया। अब हमें यह दिखाना होगा कि गरीब स्वावलंबी कैसे बन सकते हैं, खादी अहिंसा का प्रतीक कैसे बन सकती है। यही हमारा असली काम है। इसमें हमें अपनी श्रद्धा का प्रत्यक्ष प्रमाण देना होगा।’


12 आवरण कथा

21 - 27 अगस्त 2017

खादी का सॉफ्ट पावर खादी की अर्थशक्ति

पेरिस और दुबई में अपने पहले ग्लोबल स्टोर्स खोलने जा रहा है खादी ग्रामाेद्योग आयोग एक नजर

खादी इंडिया ने तीन साल में 286 नए स्टोर्स खोले हैं इस साल 2000 करोड़ रुपए के खादी उत्पादन का लक्ष्य

अगले साल 5,000 करोड़ रुपए की खादी बिक्री का लक्ष्य

प्रोडक्ट्स और आयटम्स उपलब्ध होंगे। यहां समाज, गांव और संस्कृति के मामले में खादी उत्पादों के महत्त्व भी बताए जाएंगे।

सामाजिक समारोहों में खादी

दे

एसएसबी ब्यूरो

श में युवाओं के बीच खादी को लोकप्रिय बनाने के लिए टेक्सटाइल इंडस्ट्री हर प्यास कर रही है। इससे खादी अब युवाओं की पसंद में शामिल हो गई है और खादी पहने का फैशन चल गया है। खादी का फैशन अब हिंदुस्तान तक ही सीमित नहीं रह गया है, विदेशों में भी खादी की डिमांड बढ़ रही है। इसके साथ ही दुनिया के पटल पर भारत की बढ़ती सॉफ्ट पॉवर को जोरदार बूस्टर देने की सरकार ने एक और महत्वाकांक्षी योजना बनाई है। इसके तहत खादी को इंटरनेशनल ब्रांड के रूप में प्रमोट किया जाएगा। दुनियाभर में पहले खादी प्रदर्शनियां लगाई जाएंगी और बाद में खादी आउटलेट्स और दुकानें खोली जाएंगी। इससे पहले सरकार ने योग का दुनियाभर में जोर-शोर से प्रसार कर मुल्क की सॉफ्ट पॉवर का लोहा मनवाया था।

286 नए खादी इंडिया स्टोर्स

पिछले 3 साल में खादी इंडिया ने 286 नए स्टोर्स खोले हैं और खादी ग्रामोद्योग आयोग अब लाउंज स्टाइल में स्टोर्स खोलने का प्लान कर रहा है, जिसको 'खादी इंडिया लाउंज' का नाम दिया गया है। इस वर्ष के आखिर तक खादी और आयोग (केवीआईसी) पेरिस

खादी को फैशन में लाने का क्रेडिट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है, क्योंकि वह खुद तो खादी पहनते ही हैं, साथ ही दूसरे लोगों को भी खादी पहने की सलाह देते हैं और दुबई में अपने पहले ग्लोबल स्टोर्स खोलने जा रहा है, जिससे खादी उद्योग का और विस्तार तय है।

फिल्मी सितारे भी कर रहे सपोर्ट

केवीआईसी के अध्यक्ष विनय कुमार सक्सेना ने कहा कि खादी को फैशन में लाने का क्रेडिट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है, क्योंकि वह खुद तो खादी पहनते ही हैं, साथ ही दूसरे लोगों को भी खादी पहने की सलाह देते हैं। कुछ ही दिन पहले कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने भी खादी को प्रमोट करने के लिए ट्विटर पर कैंपेन शुरू किया था, जिसके बाद बॉलीवुड स्टार्स और आम लोगों ने खादी पहने हुए अपनी फोटो शेयर की थी।

5,000 करोड़ रुपए की बिक्री का लक्ष्य पिछले वित्तीय वर्ष में 1,510 करोड़ रुपए के मुकाबले 2016-17 में केवीआईसी ने 2,005 करोड़ रुपए की खादी उत्पादों बिक्री की थी, इसके बाद अब केवीआईसी ने 2018-2019 के अंत तक 5,000

करोड़ रुपए की बिक्री का लक्ष्य रखा है।

आउटलेट्स व दुकान के लिए इंसेंटिव

सरकार का सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय खादी की दुकानें और आउलेट्स की संख्या बढ़ाने के लिए महत्वाकांक्षी योजना की अगुवाई कर रहा है। इस के तहत यह मंत्रालय विदेशों में रह रहे भारतीयों को खादी आउटलेट्स और दुकान खोलने के लिए इंसेंटिव देने पर विचार किया जा रहा है। गौरतलब है कि केंद्र सरकार सेल्स आउटलेट्स को बेहतर बनाने के लिए शहरी इलाकों में हर यूनिट को 25 लाख रुपए और ग्रामीण इलाकों में 20 लाख रुपए देती है। दरअसल, खादी को प्रोत्साहन देने की योजना पर सरकार तीन चरणों में काम करने जा रही है। पहले चरण में दुनियाभर में भारतीय दूतावासों और कंसुलेट्स (वाणिज्यिक दूतावासों) में प्रदर्शनियां लगाई जाएंगी। ये प्रदर्शनियां इनके अहाते के अंदर और बाहर दोनों जगहों पर लगाई जा सकती हैं। इस मौके पर जहां पूरी जानकारियों के साथ खादी

दूसरे चरण में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय विदेशों में रह रहे भारतीयों को लक्ष्य कर खादी के विकास कार्यक्रम को आगे बढ़ाएगी। उनके सामाजिक समारोहों और कार्यक्रमों में खादी उत्पादों की प्रदर्शनियां लगाकार उनका प्रचार-प्रसार किया जाएगा। मंत्रालय तीसरे और अंतिम चरण में वाणिज्य मंत्रालय के सहयोग से खादी के एक्सपोर्ट को बढ़ावा देने पर काम करेगी। सरकार विदेशों में बसे भारतीयों को खादी की दुकानें और आउटलेट्स खोलने के लिए प्रोत्साहित करेगी।

बढ़ेगा उत्पादन

केंद्र सरकार ने 2017-18 के दौरान मार्केट वैल्यू के हिसाब से 2000 करोड़ रुपए के खादी प्रोडक्ट्स के उत्पादन का लक्ष्य रखा है। इससे ग्रामीण भारत में रोजगार के 1.95 मिलियन (19.5 लाख) अवसर निकलेंगे। 2014-15 में मार्केट वैल्यू के हिसाब से 880 करोड़ का प्रोडक्शन हुआ था, जो 2015-16 में बढ़कर 1065 करोड़ रुपए का हो गया और फिर 2016-17 में यह 31 फीसदी बढ़कर 1396 करोड़ रुपए का हो गया। 2014-15 खादी की बिक्री 1170.38 करोड़ रुपए, 2015-16 में यह 1510 करोड़ और 2016-17 में 32.83 फीसदी बढ़कर 2005.75 करोड़ रुपए की हो गई।

निफ्ट से सहयोग

केवीआईसी ने खादी उत्पादों की गुणवत्ता और बिक्री बढ़ाने के लिए नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी (निफ्ट), आदित्य बिड़ला और रेमंड के साथ सहयोग समझौते किए हैं। इसके अलावा देश की कई बड़ी टेक्सटाइल कंपनियां और फैशन डिजायनर खादी की बढ़ी डिमांड को देखते हुए खादी वस्त्रों को प्रमोट कर रहे हैं।


21 - 27 अगस्त 2017

आवरण कथा

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देखते-देखते बदल गया मुजफ्फरपुर का खद्दरी मंजर खादी परंपरा

बि

एसएसबी ब्यूरो

हार के मुजफ्फरपुर का मझौलिया गांव कभी हथकरघा उद्योग के लिए जाना जाता था। आज यहां काफी कुछ बदल गया है।आज यहां एक-दो परिवार ही बचे हैं, जो हथकरघा को जिंदा रखे हुए हैं। पहले इस गांव में करीब 150 हथकरघे हुआ करते थे। जो अब 2 तक आकर सिमट गए हैं। बिहार समेत पूरा हिंदुस्तान चंपारण का शताब्दी वर्ष मनाने में जुटा है। हर कोई महात्मा गांधी को अपने-अपने तरीके से याद कर रहा है, लेकिन गांधी की स्वराज संबंधी अवधारणा को पुनर्जीवित करने की प्रतिबद्धता कहीं नजर नहीं आ रही। मुजफ्फरपुर में पिछले दिनों गांधी 'हेरिटेज वाक' का आयोजन हुआ, लेकिन मूल भाव नदारद दिखे। महात्मा गांधी के स्वदेशी आंदोलन में मुजफ्फरपुर के खादी कार्यकर्ताओं और बुनकरों ने बड़ी उल्लेखनीय भूमिका निभाई थी। लिहाजा यह जरूरी है कि आज हम गांधी के स्वराज आंदोलन के मतलब को समझें। खादी को लेकर गांधीजी ने कहा था- काते सो पहने और पहने सो काते। तब बड़े उत्साह से लोग खादी आंदोलन में जुट गए थे। मझौलिया गांव के 75 वर्षीय बुजुर्ग मोहम्मद अमीरुद्दीन बताते हैं कि उनके दादा मखनुल्ला मियां स्वदेशी आंदोलन के दौरान सिर पर मोटा कपड़ा लादे घूम-घूम कर खादी बेचा करते थे। काफी मोटा होने के कारण खादी के कपड़े को तब लोग मोटिया कहते थे। अपने पिता मोहम्मद सुलेमान की तरह मोहम्मद नुरुद्दीन ने भी अपने इस खानदानी पेशे को अपनाया।

एक नजर

मुजफ्फरपुर में पिछले दिनों 'गांधी हेरिटेज वाक' का आयोजन हुआ 1961 में पहली बार मझौलिया गांव में बिजली आई थी

बिजली आपूर्ति में बाधा ने बदली इस गांव की तस्वीर

आज वे 78 साल के हो चुके हैं फिर भी कपड़ा बुनने का काम करते हैं। दो बेटे हैं, मोहम्मद अलाउद्दीन और मोहम्मद नशीम। दोनों कोलकाता में किसी बैग निर्माण कंपनी में मजदूरी करते हैं। नई पीढी को अब यह पुश्तैनी पेशा मंजूर नहीं है, क्योंकि अब इससे भरण पोषण नहीं हो पाता। मोहम्मद अमीरूद्दीन के पास दो पावर लूम हैं। बगल के नरसिंहपुर खादी भंडार से इन दिनों उनको साल भर का काम मिल जा रहा है। करघे पर कपड़ा बुनना अकेले का काम तो है नहीं, सो पोता और पोती इस काम में उनकी मदद कर देते हैं। गांव के जिस दूसरे परिवार में हस्तकरघा अब भी है, वह अब्दुल रहमान का परिवार है। वे बताते हैं कि मझौलिया गांव बड़ा गांव है। यहां नुनफर, मस्जिटोला, तेगियाटोला और उत्तर टोला नाम के चार

बिहार के मुजफ्फरपुर के मझौलिया गांव में पहले करीब 150 हथकरघे हुआ करते थे, पर यह संख्या अब 2 पर आकर सिमट गई है

टोले हैं। 65 वर्षीय अब्दुल रहमान कहते हैं कि जब उन्होंने होश संभाला तब गांव के हर घर में हस्तकरघा था और कपड़ा बुनना ही उनकी रोजी-रोटी थी। उस वक्त बाजार में इन कपड़ों की अच्छी मांग थी। कहीं प्रतिस्पर्धा नहीं थी। तब गांव में 150 हस्तकरघे थे। 1961 में पहली बार गांव में बिजली आई। उन दिनों को-आपरेटिव सोसाईटी से 50 पावरलूम गांव में लगाए गए। जिससे कपड़ा बुनना पहले से आसान हो गया। इस पेशे के प्रति युवा वर्ग में आकर्षण भी बढ़ा। हालांकि यह खुशफहमी ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाई। पहले तो बिजली की अनियमित आपूर्ति से काम बाधित हुआ और बाद में बिजली हमेशा के लिए गायब हो गई। कपड़ा बुनने वाले हाथ बेकार हो गए। बिजली आपूर्ति के लिए धरना प्रदर्शन हुआ, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। पावरलूम ने तो पहले ही हस्तकरघे को विस्थापित कर दिया था। अब पावरलूम बंद था और बिजली बिल का आना जारी। लोगों ने अपना अपना बिजली कनेक्शन कटवा दिया और यहीं से शुरू हुई पावरलूम के पतन की कहानी। भागलपुर के बुनकरों को जब इसकी जानकारी हुई तो वे लोग बारी-बारी से यहां के सभी पावरलूम औने-पौने दाम पर खरीद ले गए। बेरोजगारी बढ़ने लगी, जिससे युवा रोज-रोटी की तलाश में महानगरों की ओर पलायन करने लगा। अली ईमाम, मोहम्मद आलम, कलाम, मोहम्मद अब्दुल बताते हैं कि

कपड़ा बुनने वाले हाथों में अब मजदूरी के लिए हंसिया, खुर्पी, कुदाल और करनी-बसुली पकड़ा दिया गया। जिन्होंने ऐसा करना मुनासिब नहीं समझा, वे परदेस की राह चल दिए

भिवंडी में उन्हें 12 घंटे काम करना होता है और एक साथ उन्हें आठ से चौदह पावरलूम मशीन पर काम करना पड़ता है और मेहनताना मिलता है महज 250 से 400 रुपए प्रतिदिन। हस्तकरघे पर कपड़ा बुनने के लिए कम से कम तीन आदमी की जरूरत पड़ती है। जब बुनाई शुरू होती है तो एक आदमी करघा चलाता है और दो आदमी तखनी-भरनी बनाने में लगे रहते हैं, ताकि आगे का काम रूके नहीं। 34 नंबर के सूते की तानी और 12 नंबर सूते की भरनी से पूरे दिन में साढे ग्यारह मीटर कपड़ा हस्तकरघा पर बुना जा सकता है। तीन आदमी मिलकर यह काम पूरा करते हैं। खादी उत्पादन संस्था की ओर से इसकी मजदूरी मात्र 102 रुपए दी जाती है। खादी संस्था की और से मजदूरी दर 1912-13 में निर्धारित की गई थी। इस गांव में अधिकांश लोगों के पास खेती योग्य जमीन भी नहीं है, जिससे वे अपना गुजारा कर सकें। वक्त की मार ने उनकी कला भी छीन ली है। कपड़ा बुनने वाले हाथों में अब मजदूरी के लिए हंसिया, खुर्पी, कुदाल और करनी-बसुली पकड़ा दिया गया। जिन्होंने ऐसा करना मुनासिब नहीं समझा, वे परदेश की राह चल दिए। यह सब हुआ महात्मा गांधी के सपने के उस भारत के गांवों में जिसे उन्होंने स्वदेशी के माध्यम से कभी आत्मनिर्भर बनने की राह दिखाई थी। इतिहासकारों के मुताबिक स्वदेशी का पहला आह्वान 1905 के बंग-भंग विरोधी जन जागृति आंदोलन के दौरान उठा था। गांधी जी के 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने से पहले लाला लाजपत राय, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बाल गंगाधर तिलक, अरविंद घोष और सावरकर जैसे देश के महान सपूतों ने स्वदेशी का उद्घोष किया था।


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21 - 27 अगस्त 2017

गाएं तो भजन, ओटें तो कपास गांधी मार्ग

गांधी जी ने किसी वाद से खुद ही इंकार किया है। हां, उन्होंने दुनिया को सत्य और अहिंसा का एक समाधानकारी मार्ग जरूर दिया है, इस मार्ग पर चलने के लिए गांधी विचार के दो बीज-शब्द ‘भजन’ और ‘कपास’ की समझ जरूरी है महात्मा गांधी अगर विश्व इतिहास पुरुषों की कतार में अलग से दिखाई देते हैं और आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं, तो उसकी बड़ी वजह यह है कि उनके विचार, दर्शन और कर्म के बीच अलगाव नहीं, बल्कि एकता है। उनके करीब पहुंचें तो वे जहां कभी कभी सनातन भक्त के तौर पर दिखाई देते हैं, तो कभी लगता है कि उनकी सबसे बड़ी चिंता राष्ट्र निर्माण है। श्री भगवान सिंह ने गांधी विचार-दर्शन पर कई शोधपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं। उन्होंने अपने एक आलेख में गांधी जी के व्यक्तित्व और दर्शन को 'भजन' और 'कपास' के साझे के तौर पर देखा है। उनके इसी आलेख का संपादित अंशमहात्मा गांधी ने कहा कि ‘मेरा जीवन ही संदेश है।’ तब प्रश्न यह आता है कि इस संदेश या मार्ग को किन शब्दों के सहारे समझा जाए? जहां तक मैंने समझा है, गांधी-मार्ग को समझने के लिए जो दो बीज-शब्द हैं वे हैं ‘भजन’ और ‘कपास’। बहुश्रुत लोकोक्ति है ‘चले थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास’। इस लोकोक्ति में ‘हरिभजन’ को वरीयता दी गई है। हरि का भजन अध्यात्म हुआ, तो कपास ओटना अर्थ-उद्यम, अर्थात अध्यात्म को अर्थ से ऊपर का दर्जा दिया गया। मगर गांधी जी हमारे सामने भजन और कपास यानी अध्यात्म और अर्थ का सम्यक संतुलन साधने वाले साधक के रूप में आते हैं। सर्वविदित है कि उनके साबरमती, सेवाग्राम जैसे आश्रमों में सुबह-शाम विभिन्न धर्मों से संबद्ध भजन गाए जाते थे, तो कपास की बदौलत चलने वाले चरखे के संगीत से वहां अर्थ-उद्यम की महिमा भी चारों ओर विकीर्ण होती रहती थी। सेवाग्राम में आज भी खुले आकाश के नीचे सुबह-शाम भजन गाने की परंपरा जारी है। ‘वैष्णव जण तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे’ या ‘रघुपति राघव राजा राम’ जैसे भजन गा-गवा कर गांधी ने विशाल जन समुदाय को साम्राज्यवाद विरोधी संग्राम का योद्धा बना दिया। इसके साथ-साथ गांधी इस तथ्य से भी अच्छी तरह अवगत थे कि ‘भूखे भजन न होहिं गोपाला’। इसलिए उन्होंने कपास ओटने वाली बात को भी मजबूती से पकड़े रखा। कपास एक कृषि-उत्पाद है, जिससे रूई बनती है, फिर उससे पुनिया, जिससे चरखा चलता है और उससे बुने सूत से कपड़ा तैयार होता है। यानी यह कपास भारतीय जीवन में कृषि से लेकर चरखे जैसे हस्त-उद्योग का प्रतीक रहा है। गांधी जी ने कृषि और हस्त उद्योग को भारत का आर्थिक मेरुदंड मानते हुए चरखे के इस्तेमाल का राष्ट्रव्यापी प्रचार किया। श्रम आधारित चरखा जैसा उपकरण भारतीय उद्योग की ऐसी तकनीक थी जिससे आदमी के न हाथ-पैर बेकार रहते थे न समाज में बेरोजगारी का आलम रहता था। इसके जरिए वह उत्पादन भी इतनी अतिशयता में

कोई देश दूसरे देश को अपना उपनिवेश न बना सके और साथ ही अर्थोपार्जन में स्वावलंबी बना रहे, यह गांधी की उद्योग-नीति का मूलाधार था। इसीलिए वे भारत में पुराने उद्योग-शिल्प के नवीकरण के पक्ष में दृढ़ता से खड़े रहे नहीं कर पाता था, जिसकी खपत के लिए उसे दूसरे इलाके, दूसरे देश को अपना बाजार या उपनिवेश बनाना पड़े। कोई देश दूसरे देश को अपना उपनिवेश न बना सके और साथ ही अर्थोपार्जन में स्वावलंबी बना रहे, यह गांधी की उद्योग-नीति का मूलाधार था। इसीलिए वे भारत में पुराने उद्योग-शिल्प के नवीकरण के पक्ष में दृढ़ता से खड़े रहे। जाहिर है कि मानव जीवन का आर्थिक पक्ष, जिसे मार्क्सवादी शास्त्र में काफी गौरवान्वित किया जाता रहा है, गांधी के चिंतन में नगण्य नहीं है। मानव-जीवन का अस्तित्व बने रहने के लिहाज से भौतिक आवश्यकताओं की हरगिज उपेक्षा नहीं की जा सकती- कम से कम भोजन, वस्त्र, आवास जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति होनी ही चाहिए, लेकिन जब मनुष्य इन बुनियादी आवश्यकताओं की सीमा का अतिक्रमण करते हुए भोग-विलास, अंतहीन सुख-सुविधा की दुर्दमनीय चाहत की गिरफ्त में कैद होता जाता है तब वह एक ऐसे शैतान के रूप में कायांतरित हो जाता है जो अपने इंद्रिय-सुख की भट्ठी में सब कुछ झोंक देने को उतावला हो जाता है। दरअसल, गांधी हमारे सामने एक ऐसे चिंतक,

साधक और कर्मयोगी के रूप में आते हैं, जो धर्म या अध्यात्म के साथ-साथ अर्थ-पक्ष का भी सम्यक समन्वय कर बाह्य और आंतरिक- भौतिक और आत्मिक- दोनों का संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता का बोध कराते हैं। विनाशकारी होड़ को निरंतर प्रोत्साहन देने वाले पश्चिम के अंध मशीनीकरण की जगह भारत के प्राचीन उद्योग-शिल्प में ही उन्हें समस्त सृष्टि के संरक्षण की संभावना दिखाई पड़ी। इसीलिए उसके प्रतीकरूप चरखे के महत्त्व का उन्होंने पुनर्पाठ प्रस्तुत किया, तो साथ ही मनुष्य के अंत:करण में असीम भोग-वासना की इच्छा को नियंत्रित करने के लिए भजन यानी आध्यात्मिक मूल्यों की साधना पर बल दिया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भजन और कपास अर्थात अध्यात्म और अर्थ, गांधी मार्ग के दो तटबंध हैं, जिनके बीच से प्रवहमान जीवन-धारा कभी उच्छृंखल विनाशकारी जल-प्लावन का रूप नहीं ले सकती। अध्यात्म और अर्थ की यह जोड़ी उनके ‘सत्याग्रह’ के हाथ-पैर और मन-मस्तिष्क है। गांधी जी के इस अर्थ और अध्यात्म समन्वित चिंतन के मर्म को निबंधकार कुबेरनाथ राय की यह टिप्पणी बहुत स्पष्टता से उद्घाटित करती है-

‘अब तक का अर्थशास्त्र चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, उत्पादन और वितरण का शास्त्र रहा है। पर गांधी जी ने हिंदू होने के कारण, आत्मवादी, वेदांती होने के कारण इसे संशोधित किया ‘मनुष्य के लिए उत्पादन और वितरण का शास्त्र’ के रूप में और उन्होंने मनुष्य को उसकी आत्मिक-भौतिक समग्रता में स्वीकृत किया। अर्थनीति ही नहीं, उनकी राजनीतिक यूटोपिया ‘रामराज्य’ और ‘सर्वोदय’ दोनों ही उनकी इस मनोभूमि की उपज हैं। वे अराजकतावादी नहीं थे।’ गांधी जी ने बहुत सोच-समझ कर अबाध मशीनीकरण की जगह भारत के सदियों पुराने, हाथपैर पर आश्रित उद्योग-शिल्प को सामने रखा था, क्योंकि यही वह चीज थी, जिसके कारण मनुष्य भोजन, वस्त्र, आवास की दृष्टि से स्वावलंबी रहता आया था और अन्य प्राणी भी सुरक्षित रहते आए थे। न कभी पर्यावरण का संकट आया, न पीने के पानी का, न ग्लोबल वार्मिंग का खतरा पैदा हुआ और न किसी पशु-पक्षी-पेड़ की प्रजाति के समाप्त होने का। यूरोप की औद्योगिक क्रांति की कोख से जो उत्पादन-पद्धति निकल कर सामने आई वह मजदूरों का शोषण करने वाली तो थी ही, प्राकृतिक संपदाओं का भी निर्मम दोहन करने वाली थी। मार्क्स ने मजदूरों का शोषण तो देखा, लेकिन इस औद्योगीकरण के पैरों तले हो रहे मनुष्येतर के सर्वनाश को वे नहीं देख पाए। गांधी जी ने इस दानवी औद्योगिक-शिल्प के जुए तले मनुष्य और मनुष्येतर दोनों के धीरे-धीरे मिटते जाने के खतरे को देखा। यही कारण था कि वे हस्त-उद्योग और कृषि-उद्योग तक अर्थोपार्जन की गतिविधियों को सीमित रखने की हिमायत करते रहे, तो दूसरी तरफ देह-सुख को साध्य मान कर मनुष्य नाना अनर्गल वस्तुओं के आविष्कार और उत्पादन की अतिशयता में इस कदर प्रवृत्त न हो जाए कि वही उसके विनाश का कारण बन जाए, इसके लिए उन्होंने भजन यानी आत्मिक विकास को सामने रखा। इस प्रकार देखा जाए तो गांधी जी की अहिंसा को कपास (उद्योग-शिल्प) और भजन (अध्यात्म) दोनों मिल कर संपूर्णता प्रदान करते हैं। जाहिर है कि गांधी जी के लिए अहिंसावादी होने के लिए न सिर्फ मनुष्य और मनुष्येतर की हिंसा का निषेध करना, बल्कि औद्योगिकी द्वारा होने वाली हिंसा का भी निषेध करना आवश्यक है। न केवल राजनीतिकसामाजिक न्याय और समानता हासिल करने की दृष्टि से, बल्कि आज के भूमंडलीय उपभोक्तावादी महायान के पहिए तले आम आदमी से लेकर अन्य प्राणी जिस तरह रौंदे जा रहे हैं, बहुत सारी प्राकृतिक संपदा सदा-सदा के लिए नष्ट की जा रही है, उसे देखते हुए भी गांधी जी का कपास और भजन केंद्रित सत्याग्रह-मार्ग ही रामबाण सिद्ध हो सकता है।


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आवरण कथा

खादी से आदिवासियों को जोड़ने की पहल खादी पहल

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खादी और स्वावलंबन से जुड़ी योजनाओं का लाभ आदिवासियों को मिले, इसके लिए झारखंड सरकार और खादी ग्रामोद्योग आयोग की साझी पहल

एक नजर

लं

एसएसबी ब्यूरो

बे समय बाद सरकार ने खादी से आदिवासियों को जोड़ने की पहल की है। 1925 में ही आदिवासियों को चरखा और खादी से जोड़ने की बात कही गई थी, पर पहल अब हुई है। झारखंड एक आदिवासी बहुल राज्य और यहां इस तरह की पहल का महत्व है। हाल में वहां खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा दो दिवसीय 'अभयारण्य कार्यशाला' का शुभारंभ रांची के खेलगांव के डॉ. रामदयाल मुंडा कला भवन में किया गया। उद्घाटन राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू एवं खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के अध्यक्ष विनय कुमार सक्सेना तथा पद्मश्री अशोक भगत आदि ने किया। इस मौके पर राज्यपाल ने कहा कि झारखंड की धरती वीरों की है। यहां कई ऐसे सपूत एवं महानायक पैदा हुए, जिन्होंने समाज एवं देश के लिए अपनी कुर्बानी दी। बिरसा मुंडा, सिद्धो-कान्हू, चांद-भैरव, शेख भिखारी सरीखे अनगिनत नाम हैं, पर झारखंड उपेक्षित ही रहा। यह धरती प्राकृतिक रूप से भी समृद्ध है। धरती के नीचे और ऊपर अपार खनिज संपदा है। पर्यटन की असीम संभावना है, फिर भी यहां के युवक दूसरे शहरों में काम की तलाश में

भटकते हैं। ऐसे में बेरोजगार युवाओं को भटकाव से रोकने एवं विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए रोजगार से जोड़ने की पहल होनी चाहिए। वे आर्थिक रूप से मजबूत एवं सशक्त होंगे, तो सामाजिक दशा में भी सुधार होगा। राज्यपाल ने टाना भगतों का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए कहा कि इन्होंने गांधी जी के बताए मार्ग पर चलकर सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया। ये आज भी चरखा चलाते हुए गांधी टोपी पहनते हैं और तिरंगे की पूजा करते हैं। इनकी जितनी भी सराहना की जाए कम है। पर, कई सालों से टाना भगत भी सहायता की आस लिए हैं। ऐसे में खादी और ग्रामोद्योग आयोग इन टाना भगतों के आर्थिक विकास में अहम भूमिका अदा कर सकता है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि गांव के विकास से ही देश का विकास संभव है। उन्होंने बापू को याद करते हुए कहा कि राष्ट्रपति महात्मा गांधी का भी यही विचार था कि ग्रामीणों, आदिवासियों को उनके कार्य की उचित

मजदूरी मिले, जिससे उनका समग्र विकास हो सके। ऐसे में खादी और ग्रामोद्योग आयोग ग्रामीण क्षेत्र के कारीगरों को अपने कार्यक्रमों से जोड़कर उनकी आर्थिक समृद्धि में भागीदार बन सकता है। साथ ही विलुप्त हो रहे हुनर का संरक्षण कर सकता है। इस मौके पर खादी और ग्रामोद्योग आयोग के अध्यक्ष विनय कुमार सक्सेना ने कहा कि यह ऐतिहासिक दिन है। पहली बार आयोग आदिवासियों के उत्थान के लिए इस योजना का शुभारंभ कर रहा है। खादी कमीशन घर बैठे लोगों को रोजगार देता है। डेढ़ साल में खादी की शक्ति को पहचान मिली है। रोजगार सृजन में सबसे आगे आयोग रहा है। हमने चार लाख तीन हजार लोगों को रोजगार दिया है। हमें 11 सौ करोड़ का लक्ष्य दिया गया था और आयोग ने 1281 करोड़ रुपए का ऋण लोगों को दिया। अब आयोग में सीधे ऑनलाइन आवेदन कर सकते हैं। यह एक जुलाई से शुरू हुआ, तब से अब तक चार लाख आवेदन आ गए हैं। आदिवासी इन स्कीमों से नहीं जुड़ पाते थे या उन्हें जानकारी नहीं होती थी। इन स्कीमों के लागू होने से गांव से पलायन रुकेगा। घर बैठे वे कमा सकेंगे। इस योजना के तहत पांच

खादी ग्रामोद्योग आयोग ने चार लाख तीन हजार लोगों को रोजगार दिया है। उसे 11 सौ करोड़ का लक्ष्य दिया गया था और उसने 1281 करोड़ रुपए का ऋण लोगों को दिया

राज्य और केंद्र ने मिलकर आयोजित की 'अभयारण्य कार्यशाला' आदिवासियों के हुनर को भी संरक्षण देने की योजना

चरखा चलाते हुए गांधी टोपी पहनते हैं टाना भगत

हजार आदिवासी को रोजगार देने का अभी लक्ष्य रखा गया है। सक्सेना ने प्रधानमंत्री मोदी का जिक्र करते हुए स्वीट क्रांति की बात कही। कहा, झारखंड में भी स्वीट क्रांति के तहत हनी मिशन को लागू किया जाएगा। एक हजार हनी बाक्स लोगों को दिया जाएगा। इसके साथ ही झारखंड में खादी की नई संस्थाओं को भी आयोग से जोड़ा जाएगा और उन्हें ऋण मुहैया कराया जाएगा, ताकि अधिक से अधिक लोग रोजगार पा सकें। उन्होंने पद्मश्री अशोक भगत को भी झारखंड का गांधी करार दिया। इस मौके पर आयोग के सदस्य एवं विकास भारती के सचिव अशोक भगत ने कहा कि पहले आदिवासियों के लिए दंडकारण्य चला था, जो फेल हो गया। हम अभयारण्य लेकर आए हैं, इसे फेल होने नहीं देना है। आदिवासियों को मुख्यधारा में ले आना है, उन्हें रोजगार देना है। खादी आयोग रोजगार देने में सक्षम है। उन्होंने कहा कि ट्राइबल सब प्लान का पैसा भी दूसरे मद में खर्च हो जा रहा है, पर अब ऐसा नहीं होगा।


16 खुला मंच

21 - 27 अगस्त 2017

‘गेहूं पवित्र खाद्यान्न है, लेकिन उसे संन्यासी और चोर दोनों ही खाते हैं। इसी तरह पवित्र खादी पाखंडी भी पहनते हैं और पुण्यवान भी’ - महात्मा गांधी, 4 दिसंबर, 1921

इतिहास, विरासत और प्रेरणा गांधी जी के लिए चरखा देश की स्वाधीनता के साथ स्वावलंबन का भी मंत्र और यंत्र दोनों था

प्र

धानमंत्री नरेंद्र मोदी एक ऐसे दौर में देश का नेतृत्व संभाल रहे हैं, जब देश राष्ट्रीय आंदोलन की कई घटनाओं और प्रतीकों का नए सिरे से स्मरण कर रहा है। चंपारण सत्याग्रह और गांधी जी के चरखे को देश जहां सौ वर्ष पूरे होने पर याद कर रहा है, तो वहीं भारत छोड़ो आंदोलन के भी इसी वर्ष 75 वर्ष पूरे हुए हैं। दरअसल, यह एक ऐसा अवसर है, जब हम इस बात का मूल्यांकन कर सकते हैं कि स्वाधीनता के बाद की सात दशक की यात्रा में हमने क्या खोया और पाया है। बात करें राष्ट्रपिता की तो वे महज भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के सर्वमान्य नायक भर नहीं थे, बल्कि उन्होंने देश के भविष्य को लेकर भी कई गंभीर शुरुआत की थी। गांधी जी के लिए चरखा देश की स्वाधीनता के साथ स्वावलंबन का भी मंत्र और यंत्र दोनों था। प्रधानमंत्री खुद उस प्रदेश से हैं, जहां गांधी जी का जन्म हुआ। चंपारण सत्याग्रह के सौ वर्ष पूरे होने पर उन्होंने जहां ‘स्वच्छाग्रह’ की अपील देशवासियों से की तो, वहीं ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के 75 वर्ष पूरे होने पर उन्होंने ‘भारत जोड़ो’ का भावुक आह्वान लाल किले के प्राचीर से किया। साबरमती आश्रम के सौ साल पूरे होने पर उन्होंने आश्रम पहुंचकर चरखा काता और कहा कि देश कुटीर या लघु उपक्रमों के बूते ही स्वावलंबी बन सकता है। दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी की यह खासियत रही है कि देशवासियों के मनोबल को ऊंचा बनाए रखने और उन्हें राष्ट्र के नव-निर्माण के लिए पुरुषार्थ दिखाते हुए आगे बढ़ने के लिए हमेशा प्रेरित करते रहते हैं। यही नहीं, वे हमेशा ‘टीम इंडिया’ की भी बात करते हैं यानी ‘सबका साथ, सबका विकास’। इंफोसिस के सह संस्थापक एनआर नारायणमूर्ति तक ने उनकी इस सोच को शानदार बताया है। उम्मीद है कि देश अपने उत्साही प्रधानमंत्री के साथ सबल भारत के निर्माण में न सिर्फ पूरी ऊर्जा के साथ जुटेगा, बल्कि उस इतिहास और विरासत को भी प्राणवान बनाए रखेगा, जिस पर हमें हमेशा गर्व रहा है।

टॉवर

(उत्तर प्रदेश)

नितिन गडकरी

लेखक केंद्रीय सड़क यातायात एवं राजमार्ग और नौवहन मंत्री हैं

तरक्की का नया रोडमैप भारत में यातायात क्षेत्र बहुत तेजी से बदल रहा है और देश के विकास में वह बड़ी भूमिका निभाएगा

दु

निया के सबसे विशाल परिवहन नेटवर्क में से एक होने के बावजूद भारत का परिवहन नेटवर्क लंबे अर्से से यात्रियों की आवाजाही और माल ढुलाई के क्षेत्र में बहुत धीमी रफ्तार और अकुशलता से ग्रसित रहा। राजमार्ग संकरे, भीड़भाड़ वाले और खराब रख-रखाव वाले रहे, जिनकी वजह से यातायात की गति धीमी रहती थी, बहुमूल्य समय की हानि होती थी और प्रदूषण का भारी दबाव रहता था। इनकी वजह से आए दिन सड़क दुर्घटनाएं होती हैं और हर साल लगभग 1.5 लाख लोगों को जान गंवानी पड़ती हैं। हालांकि पिछले तीन-चार वर्षों से इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हुआ है। सरकार ने देश में ऐसी विश्वस्तरीय परिवहन अवसंरचना का निर्माण करने को प्रमुख रूप से प्राथमिकता दी है, जो किफायती हो, सभी को आसानी से सुलभ हो सके, सुरक्षित हो और ज्यादा प्रदूषण फैलाने का कारण भी न बने और जहां तक हो सके अधिक से अधिक स्वदेशी सामग्री पर निर्भर हो। इसमें निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी तथा ऐसी साझेदारी के लिए समर्थ बनाने वाले वातावरण का निर्माण करना और उसे प्रोत्साहन देना भी शामिल है। राष्ट्रीय राजमार्ग देश के सड़क नेटवर्क का महज दो प्रतिशत अंश है, लेकिन वह यातायात के 40 प्रतिशत भार का वहन करता है। सरकार राजमार्गों की लंबाई और गुणवत्ता, दोनों के संदर्भ में इस बुनियादी ढांचे में वृद्धि करने की दिशा में कड़ी मेहनत कर रही है। वर्ष 2014 में 96,000 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग से शुरूआत करते हुए अब हमारे पास 1.5 लाख किलोमीटर राजमार्ग हैं और जल्द ही इनके 2 लाख किलोमीटर तक पहुंच जाने की उम्मीद है। आगामी ‘भारतमाला’ कार्यक्रम सीमा और अन्तर्राष्ट्रीय संपर्क सड़कों को जोड़ेगा, आर्थिक गलियारों, अंतर-गलियारों और फीडर रूट्स का विकास करेगा, राष्ट्रीय गलियारों के संपर्क में सुधार लाएगा, तटीय और बंदरगाह संपर्क सड़कों और ग्रीनफील्ड, एक्सीप्रेसवेज का निर्माण करेगा। इसका आशय है कि देश के समस्त क्षेत्रों की राष्ट्रीय राजमार्गों तक सुगम पहुंच होगी। सड़क संपर्क का निर्माण करने के संदर्भ में पूर्वोत्तर क्षेत्र, नक्सगल प्रभावित क्षेत्र, पिछड़े और आंतरिक क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। असम में ढोला सादिया सेतु जैसे पुल और जम्मू कश्मीर की चेनानी नाशरी सुरंग जैसी अत्याधुनिक सुरंगें, दुर्गम स्थानों की दूरियों को कम कर रहे हैं और दूरदराज के इलाकों तक पहुंच को ज्यादा सुगम बना रहे हैं। वडोदरा-

मुम्बई,बेंगलुरू-चेन्नई और दिल्ली-मेरठ मार्ग जैसे यातायात के अधिक दबाव वाले गलियारे विश्वस्तरीय, एक्सेुस कंट्रोल्डऔ एक्स-प्रेसवेज के इंतजार में हैं, जबकि चार धाम और बौध सर्किट जैसे धार्मिक और पर्यटन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों तक यात्रा त्वरित और ज्यादा सुविधाजनक हो जाएगी। राजमार्गों के किलोमीटर बढ़ाने के अलावा, हम उन्हें यातायात के लिए सुरक्षित बनाने के लिए भी संकल्पंबद्ध हैं। इसके लिए, एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाया गया है, जिसमें सड़कों के डिजाइन में सुरक्षाद की विशेषताएं शामिल करना, दुर्घटना की आशंका वाले क्षेत्रों को दुरुस्त करना, सड़कों पर उचित संकेतक, ज्याहदा प्रभावी कानून, वाहनों से संबंधित सुरक्षा के बेहतर मानक,चालकों का प्रशिक्षण, बेहतर ट्रामा केयर और जनता में जागरूकता बढ़ाना शामिल हैं। ‘सेतु भारतम’ कार्यक्रम के अंतर्गत सभी रेलवे फाटकों को ओवर ब्रिज या अंडर पास से बदला गया है और राष्ट्रीय राजमार्ग पर सभी पुलों पर ढांचागत रेटिंग सहित एक इन्वेंरट्री तैयार की जा रही है, ताकि उनकी मरम्मत और पुनर्निर्माण का कार्य समय पर किया जा सकें। मोटर वाहन (संशोधन) विधेयक को लोकसभा में पारित कर दिया गया है और राज्यसभा द्वारा पारित किया जाना है। विधेयक में सख्त जुर्माना, वाहनों की उपयुक्तता के प्रमाणीकरण और वाहन चालकों को लाइसेंस देने जैसे विषयों को कम्प्यूटर द्वारा पारदर्शी बनाना, मानव हस्तक्षेप न्यूनतम करना, कानूनी प्रावधानों और सूचना प्रौद्योगिकी प्रणालियों का समावेश किया गया है। प्रदूषण की समस्या को कम करने के मुद्दे पर भी विचार किया गया है। इसके तहत पुराने वाहनों को हटाना, 01 अप्रैल, 2020 से बीएस-6 उत्सर्जन नियमों को अपनाना, स्थानीय आबादी के सहयोग से राजमार्गो पर वृक्षारोपण तथा इलेक्ट्रनिक टोल वसूली प्रक्रिया को लागू करना शामिल है, ताकि टोल प्लाजा के ऊपर वाहनों को कम समय तक इंतजार करना पड़े।

भारत में यातायात क्षेत्र बहुत तेजी से बदल रहा है और देश के विकास में वह बड़ी भूमिका निभाएगा। भारतीय परिदृश्य में यह क्रांति दृष्टिगोचर हो रही है


21 - 27 अगस्त 2017

पीयूष गोयल इथेनॉल, बायो-सीएनजी, बायो-डीजल, मीथेनॉल और बिजली के इस्तेमाल, जैसे वैकल्पिक ईंधनों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। प्रायोगिक स्तर पर इन वैकल्पिक ईंधनों को कुछ शहरों में इस्तेमाल किया जा रहा है। सस्ते और हरित जल यातायात की संभावनाएं खोजी जा रही हैं। भारत की 7500 किलोमीटर लंबी तटरेखा और 14 हजार से अधिक लंबे जलमार्गों का सागरमाला कार्यक्रम के जरिए क्षमता का आकलन किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि जलमार्गों को राष्ट्रीय जलमार्ग के रूप में घोषित किया गया है। ‘सागरमाला’ के तहत बंदरगाहों के विकास की रूपरेखा तैयार की जा रही है। 14 तटीय आर्थिक क्षेत्रों के विकास के जरिए बंदरगाहों के आसपास उद्योग लगाने का विचार है। इस विचार के तहत बंदरगाह संरचना का आधुनिकीकरण किया जाएगा और सड़क, रेल तथा जलमार्गों के जरिए अंदरूनी हिस्सों को बंदरगाहों से जोड़ा जाएगा। इसके साथ ही तटीय समुदायों का विकास किया जाएगा। उम्मीद की जाती है कि 35000- 40000 करोड़ रुपए की वार्षिक लॉजिस्टिक बचत के अलावा निर्यात लगभग 110 अरब अमेरिकी डॉलर तक बढ़ जाएगा तथा एक करोड़ नए रोजगार पैदा होंगे। अगले 10 वर्षों के दौरान सागरमाला द्वारा घरेलू जलमार्गों की हिस्सेदारी दुगनी हो जाएगी। कई अन्य जलमार्गों पर काम चल रहा है। इनमें गंगा और ब्रह्मपुत्र की नौवहन क्षमता का विकास किया जाएगा। गंगा नदी पर विश्व बैंक द्वारा सहायता प्राप्त जलमार्ग विकास परियोजना का उद्देश्य हल्दिया से इलाहाबाद तक के क्षेत्र को विकसित करना है, ताकि वहां 1500-2000 टन जहाजों का नौवहन हो सके। वाराणसी, साहेबगंज और हल्दिया में बहु-स्तरीय टर्मिनल बनाए जा रहे हैं। यहां अन्य आवश्यक संरचना का भी तेजी से विकास किया जा रहा है। इसके विकास से देश के पूर्वी और उत्तर पूर्वी हिस्सों में माल का आवागमन होने लगेगा, जिससे वस्तुओं की कीमतों में कमी आएगी। अगले तीन सालों में 37 अन्य जलमार्गों को विकसित किया जाएगा। राजमार्ग और जलमार्ग क्षेत्रों का तेजी से आधुनिकीकरण किया जा रहा है। इसके अलावा एकीकृत यातायात प्रणाली का विकास किया जा रहा है, जो इष्टतम मॉडल और निर्बाध अंतर-मोडल सम्पर्कता पर आधारित है। इस संबंध में लॉजिस्टिक एफिशिएंसी इनहांसमेंट प्रोग्राम तैयार किया गया है, ताकि देश में माल यातायात की क्षमता में बढ़ोतरी हो। इसमें 50 आर्थिक गलियारों, फीडर रूटों का उन्नयन, 35 मल्टीमोडल लॉजिस्टिक पार्कों का विकास शामिल है। इन पार्कों में भंडारण और गोदाम की सुविधाएं उपलब्ध होंगी। इनके अलावा विभिन्न यातायात माध्यमों के एकीकरण के लिए 10 अंतरमॉडल स्टेशनों का निर्माण भी किया जाएगा। भारत में यातायात क्षेत्र बहुत तेजी से बदल रहा है और देश के विकास में वह बड़ी भूमिका निभाएगा। भारतीय परिदृश्य में यह क्रांति दृष्टिगोचर हो रही है। इसके प्रकाश में हम यह आशा करते हैं कि इससे न केवल देश का तेज विकास होगा, बल्कि अब तक वंचित रहे क्षेत्रों और लोगों तक विकास के लाभ पहुंचेंगे।

खुला मंच

लेखक विद्युत, कोयला, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा और खान मंत्रालयों के मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) हैं

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डिजिटल पारदर्शिता का दौर

रीयल टाइम डेटा को एेप्प के एक बटन पर उपलब्ध कराने का कीर्तिमान रचा है बिजली और खान मंत्रालय ने

नता को अपने कामकाज की पड़ताल में भागीदार बनाकर और रीयल टाइम डेटा को सार्वजनिक करके विद्युत, कोयला, नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा और खान मंत्रालयों ने सरकारी संस्थाओं पर जनता का भरोसा फिर से कायम करने का बीड़ा उठाया है। प्रधानमंत्री ने 1,000 दिन के अंदर देश के सबसे दूर-दराज के गांव को भी विद्युतीकृत कर देने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इस भागीरथ प्रयास को पूरा करने में जनहित की भावना की बड़ी प्रेरणा रही है। ‘गर्व’ एेप्प ने विद्युतीकरण की दिशा में ग्रामवार प्रगति रिपोर्ट प्राप्त करने के लिए एक मंच उपलब्ध कराया और अब गर्व-।। ने उससे भी आगे बढ़कर और परिवार वार आंकड़े उपलब्धा कराकर उसे भी पछाड़ दिया है। पारदर्शिता से हमें बड़ा फायदा हुआ है, क्योंकि जब जनता पड़ताल करने लगती है तो ‘स्पीड, स्किल एंड स्केल’ (यानी ‘रफ्तार, हुनर और पैमाने’) के मंत्र में नई ऊर्जा का संचार हो जाता है। ग्रामीण विद्युतीकरण का व्यावहारिक स्तर पर असर गांवों में आटा चक्कियों, तरह-तरह के उपकरणों आदि के उपयोग के रूप में देखा जा सकता है। इससे पहले बिजली वितरण कंपनियों द्वारा बिजली की खरीद में भारी भ्रष्टाचार व्याप्त था, ‘मेरिट’ और ‘विद्युत प्रवाह’ नाम के एेप्प ने मनमानी खत्म की है और लागतों में कमी ला दी है। अगले पांच वर्षों में ‘मेरिट’ के जरिए बिजली खरीद की लागत में 20,000 हजार करोड़ की बचत होने की

आरएनआई नंबर-DELHIN

सव्तंत्र्ता लदवस की 70वीं

/2016/71597

वर्षगांठ पर लवशेर

वर्ष-1 | अंक-35 | 14

- 20 अगस्त 2017

harat.com

sulabhswachhb

06 महातमा गांधी

24 हथकरघा उद्योग

सवाधीन्ता और सद्ावना राष्ट्रलप्ता के जीवन के आलिरी पांच वर्ष

32 नमन

बलिदानी ्तरुणाई

करघे पर बुनी प्रगल्त

4.33 लमलियन ियोगों कयो हथकरघा से रयोजगार

संकलप से लसलधि पथ पर

देश

कम उम्र में देश के लिए बलिदान देने वािे नायक

‘करेंगे और करके रहेंगे’

करके रहेंगे भ्रष्ाचार दूर करेंगे और हम सभी लमिकर देश से गे और लदिाकर रहेंगे कयो उनका अलधकार लदिाएं हम सभी लमिकर गरीबों देकर रहेंगे... के और अवसर देंगे और ार सवरयोजग कयो ों हम सभी लमिकर नौजवान

संभावना है, जिसका फायदा बिजली बिलों के जरिए आम उपभोक्ताओं तक पहुंचेगा। ‘उदय’ और ‘ऊर्जा’ तो एक कदम और आगे बढ़ गए हैं और कई मानदंडों पर राज्यों/शहरों/वितरण कंपनियों की कारगुजारी का मूल्यांकन कर रहे हैं। ‘उजाला’ नाम का एेप्प तो एलईडी बल्बों का सबसे तेजी से इस्तेमाल सुनिश्चित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित इस एेप्प के पीछे एक कहानी है। उच्चतम न्यायालय ने जब 204 कोयला ब्लाकों का आवंटन रद्द कर दिया तो कोयला ब्लाकों की नीलामी की समीक्षा के लिए आयोजित बैठक के अंत में प्रधानमंत्री ने मुझ से पूछा कि अब तक कितने एलईडी बल्ब लोगों को बांटे जा चुके हैं। मेरे पास उस वक्त ताजा आंकड़े नहीं थे, इसीलिए मैंने कहा कि मैं देखकर बाद में आपको बताऊंगा। उसी वक्त प्रधानमंत्री ने मुझे अच्छे​े परिणाम हासिल करने के लिए नियमित रूप से स्थिति की समीक्षा करते रहने और कार्य निष्पादन के लिए जिम्मेदारी तय करने की याद

भा

स्वाधीनता और हम

रत ने स्वाधीनता के सात दशक पूरे कर लिए हैं। हम सबके लिए यह फख्र की बात है कि इन सालों में जहां देश की लोकतांत्रिक जड़ें मजबूत हुई हैं, वहीं देश ने विभिन्न षेत्रों में खासी तरक्की भी की है। हम एक एेसे दौर में पहुंच गए हैं, जहां एक तरफ हम स्वाधीनता आंदोलन के कई महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को नए सिरे से याद कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ कई तारीख सबक भी याद करने का यह मौका है। ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का मैं इस कारण से आभारी हूं कि वह इन महत्वपूर्ण अवसरों पर

दिलाई। मैंने तत्काल अपनी टीम को एक ऐसा इंटरनेट पोर्टल तैयार करने का निर्देश दिया जिसमें कोई भी व्यक्ति, कहीं भी और किसी भी जगह से जनता को बांटे गए बल्बों के बारे में जानकारी हासिल कर सके, लेकिन इससे सिर्फ एलईडी बल्बों की संख्या का ही पता नहीं चलता, बल्कि इस तरह के बल्बों के उपयोग से कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन में आई कमी, बिजली की बचत और बिजली बिलों में आई कमी से आम जनता के फायदे का भी अंदाजा लगाया जा सकता है। असल में यह एेप्प इतना लोकप्रिय हो गया कि एलईडी बल्बों की बिक्री की योजना को देश भर में चलाने और इनके बड़े पैमाने पर इस्तेमाल को बढ़ावा देने में भी इससे अपूतपूर्व सफलता मिली। खदानों के अंदर क्या होता है, इसकी जानकारी देनेवाले माइनिंग सर्विलांस सिस्टम यानी ‘एमएसएस’ एेप्प से अवैध खनन के बारे में जानकारी हासिल की जा सकती है। इसी तरह कोल मित्र एेप्प सबसे दक्षतापूर्वक कार्य कर रहे ताप बिजलीघरों का पता चलता है। ‘अरुण’ एेप्प से जानकारी हासिल कर छत पर सोलर प्रणाली खुद लगाने के साथ-साथ सरकार द्वारा दिए जा रहे प्रोत्साहन, इसकी लागत, स्थापना के तरीके आदि के बारे में भी जानकारी मिलती है। इससे उन बाधाओं को दूर किया जा सकता है, जिनके कारण भारत में छत पर सोलर प्रणालियां लगाने का अभियान क्रांति का रूप नहीं ले पा रहा है।

पाठकों को ढेर सारी पठनीय सामग्री देता है। पिछले अंक में स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी कई स्टोरी काफी सराहनीय लगी। विशेष तौर पर यह जानकारी नई पीढ़ी के लिए कापी महत्वपूर्ण है कि आजादी के समय महात्मा गांधी किसी जश्न में शरीक होने के बजाय दंगा पीड़ित इलाकों में शांति और सद्भाव के लिए घूम रहे थे। सेलुलर जेल से जुड़ी जानकारी तो रोंगटे खड़े कर देती है। वाकई स्वाधीनता के लिए देश के क्रांतिवीरों ने काफी कुर्बानी दी है। लिहाजा, यह आजादी काफी कीमती है और इसकी हिफाजत हम सबको तनमन-धन से करनी चाहिए। अनल अनंत, भागलपुर, बिहार


18 स्वा​धीनता दिवस

21 - 27 अगस्त 2017

लाल किले से प्रधानमंत्री का संबोधन

न्यू इंडिया का संकल्प

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 71वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए देशवासियों को ‘न्यू इंडिया’ का विजन दिया और इसके लिए संकल्प लेने का आह्वान किया

प्र

एसएसबी ब्यूरो

धानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 71वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित किया। इस मौके पर उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली समस्त महान विभूतियों का स्मरण किया। उन्होंने मौजूदा वर्ष को विशेष बताते हुए इसे ‘न्यू इंडिया’ के संकल्प का बड़ा अवसर बताया। उन्होंने कहा कि अब हम चलताऊ सोच के बजाए संकल्पबद्ध होंगे राष्ट्र निर्माण में लगना होगा। इस अवसर पर उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ जहां अपने सरकार की उपलब्धियों का जिक्र किया, वहीं आतंक और हिंसा को रोकने के लिए संवाद और सद्भाव पर विशेष जोर देने की बात कही।

विशेष है यह वर्ष

प्रधानमंत्री ने यह बात रेखांकित की कि वर्तमान वर्ष निश्चित तौर पर विशेष है, क्योंकि यह भारत छोड़ो आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ, चंपारण सत्याग्रह की

100वीं वर्षगांठ और बाल गंगाधर तिलक से प्रेरित ‘सार्वजनिक गणेश उत्सव’ के समारोह की 125वीं वर्षगांठ है। उन्होंने कहा कि राष्ट्र ने वर्ष 1942 और 1947 के बीच सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन किया था, जिसकी परिणति भारत की स्वाधीनता के रूप में हुई। हमें 2022 तक एक नए भारत के सृजन के लिए समान सामूहिक दृढ़ निश्चय और संकल्प का प्रदर्शन करना चाहिए। उन्होंने विशेष बल देते हुए कहा कि हमारे देश में सभी एक समान हैं और हम आपस में मिलकर गुणात्मक बदलाव ला सकते हैं।

बदलना होगा दृष्टिकोण

प्रधानमंत्री ने सकारात्मक बदलाव सुनिश्चित करने के लिए ‘चलता है’ वाले दृष्टिकोण को छोड़ ‘बदल सकता है’ नजरिया अपनाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि भारत की सुरक्षा हमारी प्राथमिकता

है तथा सर्जिकल स्ट्राइक ने इसे रेखांकित किया है। उन्होंने कहा कि विश्व स्तर पर भारत की हैसियत बढ़ रही है और कई देश आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए भारत के साथ सहयोग कर रहे हैं। विमुद्रीकरण का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जिन लोगों ने देश और गरीबों को लूटा है, वे चैन से सो नहीं पा रहे हैं और आज देश में ईमानदारी का जश्न मनाया जा रहा है। उन्होंने जोर देकर कहा कि कालेधन के खिलाफ लड़ाई जारी रहेगी और प्रौद्योगिकी पारदर्शिता सुनिश्चित करने में मददगार साबित होगी। उन्होंने लोगों का आह्वान किया कि वे डिजिटल लेन-देन को और ज्यादा बढ़ावा दें।

सहकारी संघवाद का उदाहरण

प्रधानमंत्री ने जीएसटी पर अमल को सहकारी संघवाद का उत्कृष्ट उदाहरण बताया। उन्होंने कहा

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान ‘भारत छोड़ो’ का आह्वान किया गया था, जबकि आज ‘भारत जोड़ो’ का आह्वान करने की आवश्यकता है

एक नजर

राष्ट्र ने 1942 और 1947 के बीच सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन किया था ‘चलता है’ की जगह ‘बदल सकता है’ का नजरिया अपनाए देश जीएसटी पर अमल सहकारी संघवाद का बेहतरीन उदाहरण

कि आज गरीब वित्तीय समावेश की पहल के जरिए मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं। उन्होंने विशेष रूप से कहा कि सुशासन का वास्ता निश्चित तौर पर प्रक्रियाओं की तेज गति और सरलीकरण से है। जम्मू-कश्मीर का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री ने विशेष जोर देते हुए कहा, ‘न गाली से, न गोली से, परिवर्तन होगा गले लगाने से।’ ‘लोक से तंत्र चलेगा’ प्रधानमंत्री ने नए भारत के अपने विजन का उल्लेख करते हुए कहा, ‘तंत्र से लोक नहीं, लोक से तंत्र


21 - 27 अगस्त 2017

प्रधानमंत्री के ट्वीट

हम उन महान महिलाओं और पुरुषों को याद करते हैं जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपना योगदान दिया हम सब सामूहिक संकल्प और प्रतिबद्धता के साथ 2022 में एक नए भारत का संकल्प लेकर देश को आगे बढ़ाएं हमारे देश में कोई बड़ा या छोटा नहीं है, सभी एक समान हैं। हम सब साथ में मिलकर राष्ट्र में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं अब हमें ‘चलता है’ का रवैया छोड़कर ‘बदल सकता है’ वाला रवैया अपनाने के बारे में सोचना होगा देश की सुरक्षा हमारी प्राथमिकता है जीएसटी सहकारी संघवाद की भावना को दर्शाता है, जीएसटी के समर्थन में पूरा देश एकजुट हो गया

भारत शांति, एकता और सद्भावना का देश। आस्था के नाम पर हिंसा बिल्कुल बर्दाश्त नहीं आस्था के नाम पर हिंसा कतई बर्दाश्त नहीं

संबोधन की खास बातें

की बात की हो, चाहे हमने प्रोसेस को खत्म करने की बात की हो। • आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में आज हम अकेले नहीं हैं। दुनिया के कई देश हमें सक्रिय रूप से मदद कर रहे हैं। हमारे वैश्विक संबंध भारत की शांति एवं सुरक्षा में भी एक नया आयाम जोड़ रहे हैं। • जम्मू-कश्मीर का विकास, जम्मू-कश्मीर की उन्नति, जम्मू-कश्मीर के सामान्य नागरिक के सपनों को पूरा करने का प्रयास, ये जम्मू-कश्मीर की सरकार के साथ-साथ, हम देशवासियों का भी संकल्प है। कश्मीर समस्या ‘न गाली से सुलझने वाली है, न गोली से। यह समस्या हर कश्मीरी को गले लगा कर के सुलझने वाली है। सवा सौ करोड़ का यह देश इसी परंपरा से पला बढ़ा है। • देश में दाल का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है। हिंदुस्तान में सरकार द्वारा दाल खरीदने की परंपरा नहीं रही है, इस बार जब मेरे देश के किसानों ने दाल उत्पादन करके गरीब को पौष्टिक आहार देने का काम किया, तो सरकार ने 16 लाख टन दाल खरीदने का ऐतिहासिक कार्य किया। • प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के अंतर्गत शुरू की गई योजानाओं में से 21 योजना हम पूर्ण कर चुके हैं और बाकी 50 योजनाएं आने वाले कुछ समय में पूर्ण हो जाएंगी। 2019 के पहले कुल 99 बड़ी-बडी योजनाएं को परिपूर्ण करके, किसान के खेत तक पानी पहुंचाने का काम हम पूर्ण कर देंगे। • हमारा भविष्य निर्माण करने के लिए हमारी माताओं, बहनों का योगदान बहुत बड़ा होता है, और इसलिए मातृत्व अवकाश जो 12 सप्ताह की थी, वो 26 सप्ताह, उसमें आय चालू रहेगी, इस प्रकार से देने का काम किया है।

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चलेगा।’ उन्होंने इस वर्ष रिकॉर्ड फसल पैदावार के लिए किसानों और कृषि वैज्ञानिकों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि सरकार ने इस वर्ष 16 लाख टन दालों की खरीदारी की है, जो विगत वर्षों में की गई खरीदारी की तुलना में बहुत अधिक है। प्रधानमंत्री ने कहा कि प्रौद्योगिकी के बदलते स्वरूप के परिणामस्वरूप आज रोजगार के लिए कुछ भिन्न कौशल की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी कहा कि युवाओं को कुछ इस तरह से कौशल युक्त किया जा रहा है, जिससे कि वे रोजगार मांगने की बजाय रोजगार सृजित करें। ‘तीन तलाक’ से पीड़ित महिलाओं का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि वह इस परंपरा के खिलाफ आवाज उठाने वाली महिलाओं के साहस की सराहना करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्र इस संघर्ष में उनके साथ खड़ा है।

शांति, एकता और सौहार्द

आतंकवाद पर नरम होने का कोई सवाल नहीं है

• ‘न्यू इंडिया’ का एक संकल्प लेकर के हमें देश को आगे बढ़ाना है। ‘न्यू इंडिया’ जो सुरक्षित हो, समृद्ध हो, शक्तिशाली हो, ‘न्यू इंडिया’ जहां हर किसी को समान अवसर उपलब्ध हो, ‘न्यू इंडिया’ जहां आधुनिक विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में भारत का विश्व में दबदबा हो। • 21वीं सदी का भाग्य ये नौजवान बनाएंगे जिनका जन्म 21वीं सदी में हुआ है, और अब 18 साल होने पर है। मैं इन सभी नौजवानों को हृदय से बहुत-बहुत स्वागत करता हूं, सम्मान करता हूं और उनका अभिनंदन करता हूं। • गरीबों को लूटकर के तिजोरी भरने वाले लोग आज चैन की नींद नहीं सो पा रहे हैं और उससे मेहनतकश और ईमानदार व्यक्ति का भरोसा बढ़ता है। आज ईमानदारी का महोत्सव मनाया जा रहा है और बेईमानी के लिए सिर छुपाने की जगह नहीं बच रही है। ये काम एक नया भरोसा देता है। 800 करोड़ रुपए से ज्यादा बेनामी संपत्ति सरकार ने जब्त कर ली है। • ‘वन रैंक-वन पेंशन’ का अटका हुआ मामला हल किए जाने से हमारे फौजियों की आशाआकांक्षाएं पूरी हुई है जिससे देश के लिए मरमिटने की उनकी ताकत और बढ़ जाती है। • आज दुगुनी रफ्तार से सड़के बन रही हैं, आज दुगुनी रफ्तार से रेलवे की पटरियां बिछाई जा रही हैं, आज 14 हजार से ज्यादा गांव, जो आजादी के बाद भी अंधेरे में पड़े हुए थे, वहां तक बिजली पहुंचाई जा चुकी है और देश उजाले की तरफ बढ़ रहा है। • वक्त बदल चुका है। आज सरकार जो कहती है वो करने के लिए संकल्पबद्ध नजर आती है। चाहे हमने इंटरव्यू (नौकरी के लिए) खत्म करने

स्वा​धीनता दिवस

• आस्था के नाम पर हिंसा का रास्ता, इस देश में कभी भी चल नहीं सकता, यह देश कभी स्वीकार नहीं कर सकता है। मैं देशवासियों से आग्रह करूंगा, उस समय ‘भारत छोड़ो’ का नारा था, आज नारा है ‘भारत जोड़ो’। • भ्रष्टाचार मुक्त भारत एक बड़ा अहम काम है, हम उस पर बल देने का प्रयास कर रहे है। सरकार बनने के बाद पहला काम किया था एसआईटी बनाने का। आज तीन साल के बाद मैं देशवासियों को बताना चाहता हूं, गर्व से बताना चाहता हूं कि तीन साल के भीतर-भीतर, करीब-करीब सवा लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा कालाधन को हमने खोज दिया है, उसको पकड़ा है और उसको सरेंडर करने के लिए मजबूर किया है। • हम सब मिलकर एक ऐसा भारत बनाएंगे जो स्वच्छ होगा, स्वस्थ होगा और स्वराज के सपने को पूरा करेगा। हम एक दिव्य और भव्य भारत के निर्माण के लिए काम कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत शांति, एकता और सौहार्द का हिमायती है। उन्होंने कहा कि जातिवाद और संप्रदायवाद से हमारा भला नहीं होगा। उन्होंने आस्था के नाम पर हिंसा करने वालों की कटु आलोचना की और कहा कि भारत इसे बर्दाश्त नहीं करेगा। उन्होंने कहा कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ‘भारत छोड़ो’ का आह्वान किया गया था, जबकि आज ‘भारत जोड़ो’ का आह्वान करने की आवश्यकता है। प्रधानमंत्री ने कहा कि पूर्वी भारत और पूर्वोत्तर भारत के विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। उन्होंने कहा कि सरकार विकास की गति को मंद किए बगैर ही देश को प्रगति के नए मार्ग पर ले जा रही है। इस अवसर पर शास्त्रों का उल्लेख करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा, ‘अनियत कालहा प्रभुतयो विप्लवन्ते’, जिसका अर्थ यह है कि यदि हम सही समय पर सही कदम नहीं उठाएंगे तो हम अपेक्षित परिणाम प्राप्त नहीं कर पाएंगे। उन्होंने कहा कि यह ‘टीम इंडिया’ के लिए ‘नए भारत’ का संकल्प लेने का बिल्कुल सही समय है।

नए भारत के सृजन का आह्वान

उन्होंने एक ऐसे नए भारत के सृजन का आह्वान किया, जिसमें गरीबों के पास अपना मकान होगा, पानी एवं बिजली की सुविधाएं उन्हें सुलभ होंगी, किसान चिंता मुक्त होंगे एवं आज के मुकाबले उनकी आमदनी दोगुनी होगी। उन्होंने कहा कि यह ऐसा नया भारत होगा जिसमें युवाओं एवं महिलाओं के पास अपने सपनों को साकार करने के लिए पर्याप्त अवसर होंगे। उन्होंने कहा कि यह ऐसा नया भारत होगा, जो आतंकवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद, भ्रष्टाचार एवं भाई-भतीजावाद से मुक्त होगा और इसके साथ ही स्वच्छ एवं स्वस्थ भी होगा। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने शौर्य पुरस्कार विजेताओं के सम्मान में एक वेबसाइट लांच करने की घोषणा भी की।


20 सम्मान

21 - 27 अगस्त 2017

‘स्वच्छता सम्मान 2017’ उन्नत भारत वेलफेयर सोसायटी

से सम्मानित हुए डॉ. पाठक

उन्नत भारत वेलफेयर सोसायटी द्वारा आयोजित स्वच्छ भारत कवि सम्मेलन और स्वच्छता सम्मान समारोह में चंपारण शताब्दी वर्ष स्मारिका का लोकार्पण भी किया गया

एक नजर

प्रियंका तिवारी

न्नत भारत सोशल वेलफेयर सोसाइटी द्वारा स्वच्छ भारत- कवि सम्मेलन और स्वच्छता सम्मान समारोह-2017 का आयोजन नई दिल्ली स्थित इंडियन सोसाइटी फॉर इंटरनेशनल लाॅ में किया गया। इस सम्मान समारोह में चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष स्मारिका का लोकार्पण सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक, महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री कृष्णा राज, भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्याम जाजू, दिल्ली भाजपा पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय, पूर्व विधायक विजय जौली, सुखी परिवार अभियान के प्रणेता गणेशश्री राजेंद्र विजयजी महाराज, दंडिया न्यूज के प्रबंध संपादक राणा यशवंत सिंह, ज्ञान एमएसएफ सिक्योरिटी के प्रबंध निदेशक प्रकाश सिंह, बीजेआरएनएफ के संजय निर्मल, चीफ विजिलेंस ऑफिसर संजय झा और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष एडवोकेट पी एच पारीख ने किया। इस अवसर पर डॉ. पाठक को उन्नत भारत सोसाइटी की तरफ से स्वच्छता सम्मान अवार्ड से भी सम्मानित किया गया।

पहले डॉ. पाठक ने शुरू किया स्वच्छता मिशन

भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्याम जाजू ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छता और हर घर में शौचालय के मिशन से पहले डॉ. विन्देशवर पाठक ने इस मिशन को शुरू किया, जो कि बहुत ही सराहनीय कार्य है। हमारे देश में विचारों, कल्पनाओं की कमी नहीं है, बल्कि इसे क्रियान्वित करने वालों की कमी है। डॉ. पाठक ने सिर्फ कल्पना नहीं की, बल्कि अपनी कल्पनाओं को मूर्त रूप भी दिया, जिसका स्वरूप हमें सुलभ शौचालय के रूप में मिलता है। हम सभी से आवाह्न करते हैं कि वे स्वच्छता पर विशेष ध्यान दें, ताकि हम स्वस्थ्य रहें और देश को सुदृढ़ बनाएं। यह कार्यक्रम स्वच्छ भारत अभियान को समर्पित है, इसके लिए मैं आयोजकों को बहुत बहुत धन्यवाद देता हूं।

स्वच्छता समृद्धि की है प्रतीक

कार्यक्रम की मुख्य अतिथि कृष्णा राज ने कहा कि स्वच्छता का सपना महात्मा गांधी ने देखा था। ये एक

अपनी कल्पना को मूर्त रूप दिया डॉ. पाठक ने - श्याम जाजू

डॉ. पाठक ने देश में स्वच्छता की अलख जगाई – कृष्णा राज

मैला ढ़ोने की कुप्रथा को डॉ. पाठक ने खत्म किया – सतीश उपाध्याय

सोच थी, एक विचार था, जिसे महात्मा गांधी ने शुरू किया था। स्वच्छता हम सब के लिए जरूरी है, यह सभी जानते हैं, लेकिन इस विषय पर हम लोग कुछ करते नहीं हैं, लेकिन आज वह समय आ गया जब देश के प्रधानमंत्री ने स्वच्छता के लिए झाड़ू उठाया और इतना ही नहीं उसे एक अभियान का रूप दिया, जिस पर आज सभी लोग विचार कर रहे हैं। इसके साथ ही सबके मन में भी यह विचार आया कि स्वच्छ भारत ही उन्नता भारत बन सकता है। आज स्वच्छता मिशन को लेकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में संगोष्ठियां हो रही हैं, मंथन हो रहा है। यह विषय आज का नहीं है, सच पूछिए तो महात्मा गांधी ने वर्षों वर्ष पहले इस सपने को देखा था। चंपारण सत्याग्रह के सौ वर्ष बाद भी वह विचार जन जन तक शायद नहीं पहुंच पाया हो, लेकिन आज देश के प्रधानमंत्री मोदी ने उस विचार को जन जन तक पहुंचाने का कार्य किया है। कृष्णा राज ने कहा कि विचार कभी मरता नहीं, विचार अंततः फलीभूत होता है भले ही उसमें वक्त लग जाए। उन्होंने कहा कि मेरे बड़े भाई डॉ. पाठक ने इस विचार को वर्षों पहले ठाना और देश के अलग अलग जगहों पर सुलभ कांप्लेक्स का निर्माण करा कर देश को स्वच्छ और स्वस्थ्य रखने मंो अपना महान योगदान दिया। उन्होंने देश

की महिलाओं और पुरुषों में स्वच्छ रहने की एक अलख जगाई है। हमारे संस्कारों और परंपराओं में कहा गया है कि स्वच्छता समृद्धि का प्रतीक है। हमारे देश में पुरातन काल से दिवाली, दशहरा और नवरात्रि जैसे त्योहारों पर साफ सफाई का विशेष ख्याल रखा जाता है। स्वच्छता हम भारतीयों के लिए नया विषय नहीं हैं। जरुरत है कि हम सभी लोग अपने आसपास स्वच्छता का विशेष ध्यान दें।

स्वच्छता मिशन में सब दें अपना सहयोग

सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक ने समारोह के आयोजक पर एक गिलहरी की कहानी सुनाते हुए कहा कि जब भी स्वच्छ भारत का इतिहास लिखा जाएगा उसमें उन्नत भारत सोशल वेलफेयर सोसाइटी का नाम जरूर शामिल किया जाएगा। यह हमारे लिए सुखद संयोग है कि जिस चंपारण से गांधी ने आजादी की अलख जगाई थी, उसी चंपारण से हमने स्वच्छता और मैला ढोने वालों को समाज में उचित स्थान दिलाने का कार्य आरंभ किया। उन्होंने कहा कि मैं चंपारण जिले के बेतिया गांव में तीन महीने तक रहा और उनके दर्द को समझा। इतना ही नहीं हमने खुद अपने हाथों से तीन दिन तक मैला

जिस चंपारण से गांधी ने आजादी की अलख जगाई थी, उसी चंपारण से हमने स्वच्छता और मैला ढोने वालों को समाज में उचित स्थान दिलाने का कार्य आरंभ किया – डॉ. पाठक

ढोया है, ताकि उनके दर्द को समझ सकूं, क्योंकि गांधी जी ने कहा था कि किसी के दर्द को तभी समझा जा सकता है जब उसे खुद जिया जाए। डॉ. पाठक ने कहा कि आप सभी लोगों से मैं आवाह्न करता हूं कि आप देश को स्वच्छ बनाने में अपना योगदान दें। आप सभी गर्व से कह सकें कि यह वह जगह है, जो सबसे साफ है, वह जगह आपका घर, मोहल्ला, गांव हो सकता है। यदि आप सभी इस मिशन में अपना योगदान देंगे तो महात्मा गांधी का सपना जरूर पूरा होगा। गांधी के बाद प्रधानमंत्री मोदी ऐसे दूसरे आदमी हैं, जिन्होंने स्वच्छता और शौचालय को महत्व दिया है। मैं बिहार का रहने वाला हूं, जब भी किसी से शौचालय की बात करने जाता था तो लोग कहते थे कि पहले चाय पी लीजिए फिर शौचालय पर बात करेंगे, नहीं तो फिर चाय कैसे पीएंगे। ऐसी सोच रखने वालों के बीच किस तरह काम किया जा सकता है, लेकिन हमने हार नहीं मानी और अपने संकल्प पथ पर आगे बढ़ता गया। आज हम आप सबसे आशा करते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत मिशन में सभी लोग योगदान दीजिए, जिससे 2019 तक भारत को स्वच्छ बनाने का उनका सपना पूरा हो सके।

डॉ. पाठक ने खत्म किया मैला ढोने की प्रथा

बीजेपी के पूर्व राज्य अध्यक्ष सतीश उपाध्याय ने कहा कि पहले स्वच्छता अभियान, बेटी पढ़ाओबेटी बचाओ ये सभी हमारे देश के मुद्दे ही नहीं थे, लेकिन मोदी जी के आने के बाद लगा कि देश में ये मुद्दे कितने गंभीर हैं। यदि मैला ढोने की प्रथा पर गंभीरता से किसी ने विचार किया तो वह डॉ. विन्देश्वर पाठक हैं। डॉ. पाठक ने इस पर विचार


21 - 27 अगस्त 2017

सुलभ

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रक्षाबंधन

वृदं ावन की विधवा माताओं ने बांधी पीएम को राखी प्रधानमंत्री ने सभी को रक्षाबंधन की बधाई देते हुए केंद्र सरकार की ओर से विधवाओं को वृंदावन में बेहतर जीवन जीने के लिए सभी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने का वचन दिया एसएसबी ब्यूरो

सदन में रह रहीं वृदावन ंविधवा केमाताओंमहिलाने आश्रय अपनी बनाई राखियां नई

दिल्ली स्थित पीएम हाउस पहुंचकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बांधीं। सुलभ इंटरनेशनल की उपाध्यक्ष विनीता वर्मा के नेतृत्व में पीएम हाउस पहुंचीं वृंदा दासी, बसंती दासी, कुसुम दासी, द्रोपती दासी और सरोजनी दासी ने प्रधानमंत्री की कलाई पर राखी बांधी और उन्हें इस मौके पर शुभ आशीर्वाद दिया। विधवा माताओं ने प्रधानमंत्री मोदी से महिला सशक्तीकरण की दिशा में और अधिक सशक्त कार्ययोजना पर कार्य करने की मांग की। इन

माताओं ने सामूहिक तौर पर कहा कि आज भी देश में विधवाओं और वृद्धाओं की स्थिति अच्छी नहीं है। देश के कई क्षेत्रों में यह दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। प्रधानमंत्री ने सभी को रक्षाबंधन की बधाई देते हुए केंद्र सरकार की ओर से विधवाओं को वृंदावन में बेहतर जीवन जीने के लिए सभी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने का वचन दिया है। गौरतलब है कि वृंदावन एवं वाराणसी के आश्रमों में विधवा एवं परित्यक्त जीवन बिता रहीं महिलाओं ने रक्षाबंधन के पावन पर्व पर एक बार फिर प्रधानमंत्री

नरेंद्र मोदी के लिए अपने हाथों से बनाकर 1500 राखियां भेजीं। इसके लिए वृंदावन के तकरीबन

पांच सदी पुराने ठाकुर गोपीनाथ मंदिर में एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन कर गाते-बजाते इन राखियों को मिठाई की टोकरियों के साथ पैक किया गया। इन राखियों को बनाने में वृंदावन के ‘मीरा सहभागिनी' आश्रम में निवास करने वाली विधवाओं ने खासा योगदान किया। इस कार्यक्रम का आयोजन वर्ष 2012 से वृंदावन, वाराणसी एवं उत्तराखंड की 1000 विधवाओं की देखभाल कर रही सुलभ संस्था ने किया। सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक को अपना भाई मानने वाली इन विधवा माताओं ने राखी बांधकर सदियों से चली आ रही कुप्रथा को तोड़कर खुशी-खुशी रक्षाबंधन का त्योहार मनाया।

स्वच्छता अभियान, बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ ये सभी हमारे देश के मुद्दे ही नहीं थे, लेकिन मोदी जी के आने के बाद लगा कि देश में ये मुद्दे कितने गंभीर हैं - सतीश उपाध्याय

ही नहीं किया, बल्कि इसे समाप्त करने का अथक प्रयास किया है। इनके प्रयासों का ही नतीजा है कि आज मैला ढोने वाली माताएं-बहने सर उठा कर समाज में सम्मान के साथ जी रहीं हैं। किसी भी कार्य को करने के लिए उसे क्रियान्वित करने की आवश्यकता होती है। डॉ. पाठक ने सिर्फ कहा ही नहीं, बल्कि इसे सफलतापूर्वक क्रियान्वित भी किया है। उन्होंने कहा कि बूंद-बूंद से घड़ा भरता है, इसलिए हम सब को इस देश के निर्माण में अपना

योगदान देना चाहिए। इस कार्यक्रम के आयोजकों को मैं बहुत बहुत बधाई देता हूं, क्योंकि ये लोग आने वाले समय में अच्छा काम करेंगे।

सालों से मंदिरों, आश्रमों को छोड़कर सरस्वती मंदिर बनाने में लगा हूं। जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब हमने उनसे वन-बंधु कल्याण योजना लागू करवाई और उसके तहत आदिवासी इलाके में हमने शौचालय बनवाने का कार्य किया है। हम सबसे पहले स्वच्छता का पाठ पढ़ाते हैं, फिर आगे के विषयों को पढ़ाते है। आदिवासी क्षेत्रों में हम स्वच्छता के लिए कार्य कर रहे हैं। गांधी के सपने को प्रधानमंत्री मोदी ने आगे बढ़ाने का कार्य किया है।

चंपारण से मिला साहस और स्वच्छता गांधी के सपने को मोदी जी ने आगे का रास्ता बढ़ाया वहीं वरिष्ठ मीडियाकर्मी राणा यशवंत सिंह ने कहा

सुखी परिवार अभियान के प्रणेता गणेशश्री राजेंद्र विजयजी महाराज ने कहा कि महात्मा गांधी ने कहा था कि जहां पर स्वच्छता है वहीं प्रभुत्ता है। मैं 20

कि चंपारण गांधी के लिए आजादी की प्रयोगशाला रही है, इतना ही नहीं हिंदी हिंदुस्तान की राष्ट्रीय भाषा होगी यह विचार भी उन्हें चंपारण में ही आया था।

चंपारण से ही भारतीयों को साहस और स्वच्छता दोनों का रास्ता मिला है। उन्होंने कहा कि जब तक व्यक्ति अपने मन से स्वच्छ नहीं होगा तो वह अपने घर, परिवार और समाज को कभी स्वच्छ नहीं रख सकता है। स्वच्छता सभी के लिए जरूरी है। इसलिए हम सभी को इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए। इस कार्यक्रम में आए सभी अतिथियों को उन्नत भारत सोसाइटी के संस्थापक अभिषेक मिश्रा और सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक द्वारा शाल व गांधी जी का चरखा देखर सम्मानित किया गया। इसके साथ ही कवि सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले कवियों, भारतीय साहित्य उत्थान समिति के अध्यक्ष बेबाक जौनपुरी, सुमीत कुमार दिलकश, डॉ. स्वप्नील जैन, प्रीति तिवारी अमिता, पंकज शर्मा, नंदनी श्रीवास्तवा, विमलेन्दु सागर और मुकेश कुमार सिन्हा को शाल व चरखा देखर सम्मानित किया गया। इस सम्मेलन में इन सभी कवियों ने अपनी अपनी कविता के माध्यम से देशभक्ति का पाठ पढ़ाया।


22 फोटो फीचर

21 - 27 अगस्त 2017

हाथ रिक्शा और कोलकाता

कोलकाता में हाथ रिक्शे का चलन 19वीं शताब्दी के आखिर से है और इसके पीछे ब्रिटिश का हाथ रहा है। रिक्शे के इस चलन को लेकर समय-समय पर आवाज भी उठती रही है। इसे अमानवीय तक ठहराया जाता रहा है। वैसे ये हाथ-रिक्शे आज कोलकाता की सांस्कृतिक पहचान के साथ काफी घुल-मिल गए हैं

फोटो ः डॉ. सव्यसाची दत्ता

कोलकाता में हाथ-रिक्शे हर कहीं दिख जाते हैं। इसने यहां पीढ़ियों की यात्रा की है। ज्यादातर हाथ-रिक्शा खींचने वाले बिहार से आते हैं। इनकी बोलचाल और खानपान भी दशकों से अमूमन एक जैसा है। पेड़ के नीचे बैठकर इन रिक्शा खींचने वालों को नमक, प्याज और अचार के साथ सत्तू पीते देखना या फिर रिक्शे पर ही पैर पसार कर सुस्ताते देखना, यहां के लोगों के लिए रोजमर्रा की बात है


21 - 27 अगस्त 2017

फोटो फीचर

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हाथ-रिक्शे के अमानवीय पहलू को अगर एक तरफ रहने दें तो यह कोलकातावासियों के लिए परिवहन का आम और सस्ता जरिया है। भीड़ भरी सड़कों पर ये रिक्शे आसानी से दौड़ते हैं। घर से बाजार और फिर बाजार से घर जाने के लिए इनका प्रयोग आमतौर पर लोग पारंपरिक तरीके से करते रहे हैं। दिन तपती गरमी का हो कि बरसात का, अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए लोग रिक्शा देखते ही आवाज लगा देते हैं- ‘रिक्शावाला’। संबोधन का यह आत्मीय शब्द यहां के आमजीवन में व्याप्त एक जरूरी और विश्वसनीय नाम है। पर कोलकाता के रोजमर्रा के जीवन में शरीक रहे ये रिक्शे ऐतिहासिक धरोहर होने के कगार पर हैं और आने वाले वर्षों में इन्हें लोग सड़कों पर नहीं, बल्कि संग्रहालयों में ही देख पाएंगे


24 गुड न्यूज

21 - 27 अगस्त 2017

स्वच्छता संदेश

पीएम मोदी का स्वभाव और स्वच्छता का संदेश प्रधानमंत्री सिर्फ देश के लोगों को स्वच्छता का पाठ ही नहीं पढ़ाते, बल्कि उसे अपने आचरण में शामिल भी कर चुके हैं

उन्होंने इसे नजरअंदाज नहीं किया और स्वयं झुककर इसकी सफाई की। बाद में वहां मौजूद कर्मचारियों ने पीएम का अनुकरण करते हुए मंच की सफाई की। पीएम मोदी की इस पहल को देखकर हॉल में उपस्थित लोगों ने तालियां बजाईं।

किताब विमोचन के बाद रैपर जेब में रखा

पीएम मोदी ने उठाए रैपर

प्र

धानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार यह दुहरा चुके हैं कि जब तक हम सफाई की सोच को व्यवहार में शामिल नहीं करेंगे, तब तक स्वच्छ रहने का और रखने का अभियान पूरा नहीं होगा। प्रधानमंत्री सिर्फ यह कहते ही नहीं हैं, बल्कि उसे अपने आचरण में उतारते भी हैं। एनडीए के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार वेंकैया नायडू के भाषणों लेखों के संकलन ‘Tireless Voice Relentless

journey: Key speeches & articles of Venkaiah Naidu’ के विमोचन के अवसर पर पीएम मोदी ने एक बार फिर देश के सामने स्वच्छता की नजीर पेश की। एनडीए सांसदों की उपस्थिति में उन्होंने अपने आचरण से न सिर्फ स्वच्छ भारत के संकल्प को दोहराया, बल्कि देश-दुनिया को स्वच्छता का संदेश भी दिया।

दरअसल जिस समय पीएम मोदी किताब का विमोचन कर रहे थे, उस वक्त मंच पर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, अरुण जेटली और वेंकैया नायडू उपस्थित थे। सभी ने किताब का विमोचन किया, लेकिन रैपर वहीं पीछे टेबल पर फेंक दिया। पीएम मोदी से रहा न गया और उन्होंने स्वयं ही रैपर उठाना शुरू कर दिया। उन्हें ऐसा करता देख उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने भी उनका साथ दिया।

जमीन पर पड़ा रैपर भी उठाया

इतना ही नहीं, जब पीएम मोदी जब वहां से जाने लगे तो आगे और भी रैपर फेंका हुआ था, लेकिन

11 अप्रैल, 2017 को लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन की किताब मातोश्री का विमोचन था, तब भी पीएम मोदी ने कुछ ऐसा किया कि लोग देर तक तालियां बजाते रह गए। संसद की लाइब्रेरी बिल्डिंग के ऑडिटोरियम में किताब विमोचन के बाद भी वे पैकिंग पेपर हाथ में ही पकड़े रहे। कुछ ही देर में उन्होंने पैकिंग पेपर को दोनों हाथों से मोड़ा और फिर तुरंत ही अपनी हाफ जैकेट की बाईं जेब में उसे रख लिया। महज 10 सेकंड में ये सब हुआ, लेकिन जैसे ही पीएम ने उस वेस्ट पैकिंग पेपर को अपनी जेब में रखा दर्शक दीर्घा में मौजूद लोग अपनी सीट से खड़े हो गए और करीब बीस सेकंड तक तालियां बजाते रहे। दरअसल पीएम मोदी ने यह आदतन किया, लेकिन पीएम मोदी का आदतन किया गया यह आचरण एक नजीर बन गया। (एजेंसी)

वॉटरक्राफ्ट निर्माण

गहरे समुद्र में जाने वाला वॉटरक्राफ्ट बनाएगा भारत

देश के वैज्ञानिक एक ऐसा वीइकल बना रहे हैं, जिसके जरिए इंसान गहरे समुद्र में जा सके

अं

तरिक्ष में कामयाबी के झंडे गाड़ने के बाद अब भारतीय वैज्ञानिक समुद्र की गहराइयों को नापने की तैयारियों में जुट गए हैं। वैज्ञानिक एक ऐसा वीइकल बना रहे हैं, जिसके जरिए इंसान गहरे समुद्र में जा सके। बता दें कि हाल ही में इसरो के वैज्ञानिकों ने सबसे भारी रॉकेट जीएसएलवी-एमके3 लांच किया था, जिसमें इंसान को अंतरिक्ष में ले जाने

की क्षमता है। ईएसएसओ- नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ ओशीन टेक्नॉलजी से जुड़े वैज्ञानिकों की एक टीम गहरे पानी में जा सकने वाले देश के पहले इंसानी वीइकल के शुरुआती डिजाइन के साथ तैयार हैं। इसमें तीन लोग सवार हो सकते हैं। इसके आने वाले पांच साल में तैयार होने की उम्मीद है। इसे बनाने में करीब 500 करोड़ रुपए खर्च होंगे। इसकी मदद

से वैज्ञानिक गहरे समुद्र में छह किमी नीचे तक जा सकेंगे। इसके जरिए दुर्लभ धातुओं और जीव-जंतुओं के बारे में पता लगाया जा सकेगा। वीइकल के तैयार होते ही भारत ऐसे चुनिंदा देशों में शुमार हो जाएगा, जो पानी के अंदर इंसानों को ऐसे यान के जरिए भेजने में सक्षम हों। वर्तमान में चीन, अमेरिका, रूस, फ्रांस और जापान जैसे देशों ने गहरे समुद्र में इंसानी मिशनों को अंजाम दिया है। एनआईओटी के डायरेक्टर सतीश शेनोई ने कहा कि उनके संगठन ने एक प्रस्ताव केंद्र सरकार को दिया है और मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं। उन्होंने कहा, 'एक बार मंजूरी मिलते ही वैज्ञानिकों की एक टीम डिजाइन का मूल्यांकन करके उसे बेहतर बनाएगी। इस टीम में इसरो, डीआरडीओ और आईआईटी के

एक्सपर्ट शामिल होंगे।' जो डिजाइन तैयार किया गया है, उसके मुताबिक, यान को एक शिप के जरिए गहरे समुद्र में उतारा जाएगा। इसमें तीन क्रू मेंबर एक टाइटैनियम के खोल में लेटे होंगे। वे पानी के अंदर आठ से 10 घंटे तक काम करने में सक्षम होंगे। एक रोबॉटिक हाथ की मदद से वे समुद्र के तल से सैंपल्स इकट्ठा कर सकेंगे। इसके अलावा, शीशे की खिड़की के जरिए समुद्री सतह का बेहतर ढंग से मुआयना भी कर सकेंगे। हालांकि, बड़े मिशन को अंजाम देने से पहले वैज्ञानिक इससे मिलता जुलता एक समुद्री यान अगले तीन साल में बनाने की योजना बना रहे हैं, जो इंसान को हिंद महासागर में 500 मीटर गहरे तक ले जा सके। (एजेंसी)


21 - 27 अगस्त 2017

स्वच्छता झारखंड

शौचालय का उपहार देने वाले भाई हुए सम्मानित

झारखंड के पलामू जिले में राखी पर अपनी बहनों को शौचालय का उपहार देने वाले भाइयों को सम्मानित किया गया

स्व

च्छ भारत मिशन के तहत सरैया पंचायत सचिवालय में बहनों को रक्षा बंधन के अवसर उपहार स्वरूप शौचालय प्रदान करने वाले सोलह भाईयों को प्रशस्ती पत्र देकर डीसी अमित कुमार ने सम्मानित किया एवं स्वयं सेवक संजय मेहता को भी सम्मानित किया। डीसी ने उपहार स्वरूप बहनों को शौचालय देने वाले भाईयो की प्रशंसा करते हुए कहा कि खुले में शौच से मुक्ति के लिए सभी भाईयों को आगे आना होगा, तब ही पूरा भारत खुले में शौच से मुक्त होगा। उन्होंने

कहा की पलामू जिला के सरैया पंचायत में सबसे अधिक 117 लाभुकों ने अपने पैसे से शौचालय का निर्माण कराया है यह काफी सराहनीय काम है। बाद में सभी लाभुको के खाता में बारह हजार भेज दिए गए हैं। डीसी ने खुले में शौच से आजादी कैंपेन की भी शुरुआत सरैया से किया यह अभियान पंद्रह अगस्त तक पूरे पलामू जिला में चलेगा डीसी ने कहा की खुले में शौच से कई रोग होते हैं रोगों से बचने के लिए खुले में शौच नहीं करें। उन्होंने सरैया पंचायत के लोगों की तारीफ करते हुए कहा की यहा के लोग काफी जागरूक हैं। उन्होंने पिपरा प्रखंड में शौचालय निर्माण काफी धिमी गति से चल रहा है इसमें तेजी लाने की बात कही। उन्होंने ग्रामीणों को चार महीनों में पिपरा प्रखंड को खुले में शौच से मुक्ति को लेकर संकल्प भी दिलाया। (एजेंसी)

स्वच्छता मध्य प्रदेश

भाइयों ने पढ़ाई के साथ काम करके पैसे जुटाए म

रक्षाबंधन पर भाइयों ने दिए अनोखा उपहार

उत्तर प्रदेश के कई भाइयों ने राखी के अवसर पर बहनों को शौचालय का उपहार दिया, तो कईयों ने देने का वादा किया

त्तर प्रदेश में रक्षाबंधन के अवसर पर पर कई भाइयों ने बहनों को शौचालय का उपहार दिया। कुशीनगर जिले में स्वच्छता का संदेश देने के लिए जिलाधिकारी द्वारा की गई पहल रंग लाई। रक्षाबंधन के खास दिन उपहार

के रूप में तीन भाइयों ने बहनों को शौचालय दिया तो दो भाइयों अहिरौली दान के रामप्यारे व बनकटा बाजार के कपिलदेव ने इसका भरोसा दिया। इसे पाकर बहनों के चेहरे खिल उठे। (एजेंसी)

स्वच्छता उत्तर प्रदेश

बहन ने बांधी राखी, भाई ने दिया शौचालय

‘अनोखी अमेठी की अनोखी बहन’ योजना के तहत पंजीकृत कुल 948 भाइयों ने बहनों को शौचालय का उपहार दिया

अ गिफ्ट में शौचालय दिया। ऐसे में उपहार पाने वाली बहनों का कहना है कि अब हमें खुले में शौच के लिए नहीं जाना पड़ेगा। (एजेंसी)

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स्वच्छता उत्तर प्रदेश

राखी पर बहन को उपहार देने के लिए भाइयों ने अपनी कमाई से जुटाए रुपए

ध्य प्रदेश में जबलपुर के हिनोतिया गांव में तीन भाइयों ने रक्षाबंधन पर अपने बहन को टॉयलेट गिफ्ट किया है। आशीष, गोविंद और रोशन लोधी ने अपनी बहन अवंती को इस रक्षाबंधन पर विशेष गिफ्ट देने का मन बनाया था। घर में टॉयलेट नहीं था, इसलिए सभी को बाहर जाना पड़ता है। तीनों भाइयों ने पढ़ाई के साथ कुछ काम करके 13 हजार रुपए जुटाए और बहन के घर में शौचालय बनवाया। हालांकि टॉयलेट बनाने के लिए सरकार भी मदद कर रही है, लेकिन भाइयों ने यह तय किया कि वे अपने रुपए से टॉयलेट बनवाएंगे। अवंती का कहना है कि महिलाओं को शौच के लिए बाहर जाना परेशानियों भरा रहता है। वह खुश है कि उसके भाइयों ने उसे

स्वच्छता

मेठी में रक्षा बंधन के अवसर पर 250 भाइयों ने बहनों को शौचालय बनवा कर गिफ्ट किया, तो वहीं निर्माणाधीन शौचालय 11 अगस्त तक पूरा कराने का लक्ष्य निर्धारित किया गया । अमेठी ब्लाक के जंगल रामनगर दुर्गापासी गांव निवासी राजेश ने रक्षाबंधन पर्व पर बहन खुशबू को उपहार स्वरूप शौचालय भेंट किया। घर के बाहर बनाए गए इस

शौचालय में किसी प्रकार की सरकारी सहायता नहीं दी गई। हालांकि, योजना के तहत अब प्रशासन पुरस्कार देने पर विचार कर रहा है। शौचालयों को पूरी तरह से सजा-धजा कर तैयार किया गया। ऐसी ही एक बहन खुशबू भी शौचालय पाकर खुशी से फूली नहीं समाई। भाई की कलाई पर उसने राखी बांधी तो भाई से मिले तोहफे को पाकर वह गदगद दिखाई पड़ी। घर के परिवारजन भी इसे लेकर काफी उत्साहित दिखे। इसके साथ ही अन्य स्थानों पर भी प्रोत्साहन के लिए अपील की गई। स्वच्छ भारत मिशन के जिला समन्वयक आरपी सिंह ने बताया कि अनोखी अमेठी का अनोखा भाई योजना के तहत 948 लोगों ने पंजीकरण कराया था। इनमें से 250 भाइयों ने बहन को रक्षाबंधन पर्व पर शौचालय उपहार दिया है। (एजेंसी)


26 गुड न्यूज

21 - 27 अगस्त 2017

पर्यावरण चेतना

सूखी पहाड़ी को हरा-भरा करने का प्रयास ए

गायत्री चेतना केंद्र ने गोलेगांव पंचायत की सूखी पहाड़ियों को हरा-भरा करने की संकल्प लिया

क सार्थक और समाजोपयोगी पहल हमेशा अच्छा परिणाम ही देती है। इसे साकार किया औरंगाबाद के मालीवाड़ा स्थित गायत्री चेतना केंद्र ने। इस केंद्र ने अखिल विश्व गायत्री परिवार के वृक्ष गंगा अभियान के तहत गोलेगांव पंचायत की सूखी पहाड़ियों को हरा-भरा करने की संकल्प लिया। लगभग पंद्रह हेक्टर जमीन में सत्तर प्रकार की वनौषधियों के 11 हजार पौधे लगाकर रिकार्ड बनाया। इन पौधों के संरक्षण की जिम्मेवारी गोलेगांव

ग्राम पंचायत ने ली। इस पौधारोपण कार्यक्रम में ग्रामीण जनों, स्थानीय विधायक प्रशांत बम्ब सहित अन्य कई सरकारी अधिकारिओं ने भी हिस्सा लिया। पौधारोपण क्षेत्र के निकट कृषि जलाशय का भी निर्माण किया गया। गायत्री चेतना केंद्र के अनुसार, यह समय पौधारोपण के लिए बहुत अच्छा होता है। बताया गया कि गायत्री परिवार वृक्ष गंगा अभियान के अंतर्गत पूरे देश में पौधारोपण कर रहा है। अभी तक एक

करोड़ से ज्यादा पौधों का रोपण किया जा चुका है। 187 पहाड़ियों पर श्रीराम स्मृति वन बनाए गए हैं। इसे 1008 की संख्या तक ले जाना है। इस मौके पर गायत्री परिवार के प्रमुख डॉ. प्रणव पांड्या ने हरिद्वार से अपने सन्देश भेजकर इस कार्य की सराहना की। उन्होंने कहा कि पौधारोपण कार्य ही ऐसा है, जिसे आम आदमी अपने भीतर

थोड़ी सी जागरुकता और संवेदना जगाकर सहजता के साथ कर सकता है। इसका लाभ भावी पीढ़ियों को मिलेगा। उन्होंने वृक्ष को पुत्र या मित्र बनाने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि स्वच्छ पर्यावरण और स्वस्थ जीवन के लिए पौधारोपण करना और उनका संरक्षण करना बहुत आवश्यक है। (मुंबई ब्यूरो)

सैन्य वीरता

कृषि उपज

शौर्य पुरस्कार विजेताओं के सम्मान में वेबसाइट लांच

खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन!

इस वेबसाइट में बहादुर पुरुषों, स्त्रियों, नागरिकों एवं सशस्त्र बल कर्मियों की प्रेरक कहानियां होंगी

प्र

जादी के बाद से शौर्य पुरस्कार पाने वालों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नई वेबसाइट लांच की। इस वेबसाइट में बहादुर पुरुषों, स्त्रियों, नागरिकों एवं सशस्त्र बल कर्मियों की प्रेरक कहानियां होंगी। पीएम ने इस वेबसाइट का जिक्र लाल किले से भाषण के दौरान भी किया। उन्होंने स्वाधीनता दिवस के अवसर पर इस वेबसाइट को लांच करने की घोषणा विभिन्न ट्वीट के जरिए दी। ट्वीट संदेशों की एक श्रृंखला के जरिये वेबसाइट

http://gallantryawards.gov.in/ के शुभारंभ की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि यह पोर्टल हमारे सैन्य-असैन्य दोनों ही क्षेत्रों के शूरवीर पुरुषों और महिलाओं की गाथाओं को संरक्षित रखेगा और उसे लोगों को उपलब्ध कराएगा। प्रधानमंत्री ने देश की जनता से कहा कि यदि उनके पास ऐसी कोई सूचना, फोटो उपलब्ध हो, तो उसे पोर्टल में शामिल किया जा सकता है। बता दें कि सैन्य अभियानों में अदम्य साहस और पराक्रम के लिए हर साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर

पर दिए जाने वाले कीर्ति चक्र के लिए इस साल पांच जवानों को चुना गया है। इनमें गढ़वाल राइफल के मेजर प्रीतम सिंह कुंवर और सीआरपीएफ के वरिष्ठ अधिकारी चेतन कुमार चीता को भी कीर्ति चक्र के दिया गया है। गौरतलब है कि कीर्ति चक्र वीरता के लिए दिया जाने वाला दूसरा शीर्ष पदक है। राष्ट्रपति रामनाथ कांविंद ने इस साल सैन्य और अर्धसैन्य बल के जवानों को दिए जाने वाले कुल 112 वीरता पुरस्कारों की सूची को मंजूरी प्रदान की है। (एजेंसी)

धानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के अन्नदाता को भारत का वास्तविक भाग्य विधाता मानते हैं। उनका स्पष्ट मत है कि किसानों और गांवों की समृद्धि की बुनियाद पर देश का भाग्य बदला जा सकता है। यही कारण है कि कृषि मंत्रालय का नाम बदलकर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय कर दिया। 2022 तक प्रधानमंत्री किसानों की आय को दोगुनी करने के लिए प्रतिबद्ध है। इस प्रतिबद्धता का असर अभी से देखने को मिलने लगा है। सरकार द्वारा जारी आकड़े के अनुसार वर्ष 2016-17 में खाद्यान्न का उत्पादन रिकार्ड 275.68 मिलियन टन होना है। अब तक चालू फसल वर्ष 2016-2017 में खाद्यान्न उत्पादन 27 करोड़ 33.8 लाख टन के सर्वकालिक स्तर को छूने की उम्मीद है। खरीफ सीजन 2017-2018 उत्पादन के लिहाज से बेहतर रहेगा। इस विषय में सरकार का लक्ष्य 1058.62 लाख हेक्टेयर पूरा करने के लिए पूरे देश में करीब 878.23 लाख हेक्टेयर बुआई हो चुकी है। देश के मौसम विभाग द्वारा यह घोषणा की गई है कि इस वर्ष भी मॉनसून सामान्य रहेगा। इससे पिछले वर्ष की ही तरह इस वर्ष भी उत्पादन के नए कीर्तिमान स्थापित होने का अनुमान है। (एजेंसी)


21 - 27 अगस्त 2017

मुस्लिम लड़कियों को सरकार देगी शगुन

म लड़कियों को उच्च शिक्षा के देशमकसदमें मुसेस्लिप्रोत्साहित करने के लिए केंद्र सरकार

उन अल्पसंख्यक लड़कियों की शादी में सरकार 51,000 रुपए की राशि बतौर शगुन देगी जो स्नातक की पढ़ाई पूरी करेंगी। केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय की अधीनस्थ संस्था मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन(एमएईएफ) ने मुस्लिम लड़कियों की मदद के लिए यह कदम उठाने का फैसला किया है। एमएईएफ का कहना है कि इस योजना का मकसद सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम लड़कियों और उनके अभिभावकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना है कि लड़कियां विश्वविद्यालय या कॉलेज स्तर की पढ़ाई पूरी कर सकें। इस कदम को अभी आरंभिक तौर पर शादी शगुन नाम दिया गया है। हाल में अल्पसंख्यक कार्य मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी की अध्यक्षता में हुई एमएईएफ की बैठक में लड़कियों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति के संदर्भ में कुछ फैसले किए गए, जिनमें यह फैसला प्रमुख है। इसके अलावा यह भी फैसला किया गया कि अब नौंवी और 10वीं कक्षा में पढ़ाई करने वाली मुस्लिम बच्चियों को 10 हजार रुपए की राशि दी जाएगी। अब तक 11वीं और 12वीं कक्षा में पढ़ाई करने वाली मुस्लिम लड़कियों को 12 हजार रुपए की छात्रवृत्ति मिल रही थी।

शिक्षा

प्रदेश सरकार ने स्कूली बच्चों को अन्य विदेशी भाषाएं सिखाने का फैसला किया है

पी बोर्ड के छात्र बहुत जल्द अंग्रेजी के साथ-साथ जर्मन, स्पैनिश, फ्रैंच व जापानी भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। इसकी पहल राज्य परियोजना निदेशक की तरफ से की जा रही है। यूपी बोर्ड के विद्यार्थियों को विदेशी भाषा स्किल डेवलपमेंट के तहत सिखाई जाएगी। नियमित रूप से चलने वाली कक्षाओं के दौरान

ही उन्हें विदेशी भाषा का भी ज्ञान दिया जाएगा। यूपी बोर्ड के विद्यार्थियों को विदेशी भाषा सिखाने के लिए शासन ने जनपद के सभी जिला विद्यालय निरीक्षकों से विदेशी भाषा के जानकारों का विवरण मांगा है। शासन का मानना है कि यूपी बोर्ड के विद्यार्थी अंग्रेजी के साथ विदेशी भाषाएं भी सीखेंगे तो इससे उन्हें भविष्य में काफी मदद मिलेगी। इससे छात्रों को देश-विदेश में नौकरी मिलने में आसानी होगी। विद्यार्थियों को जो विदेशी भाषाएं सिखाई जाएंगी, उनकी परीक्षा लेने की भी योजना है। बता दें, कक्षा 6 से 12 तक के छात्रों को यह भाषाएं सिखाई जाएंगी। शासन ने विदेशी भाषाओं के जानकारों का विवरण अगस्त में ही देने का निर्देश दिया है। (एजेंसी)

एमएईएफ के कोषाध्यक्ष शाकिर हुसैन अंसारी ने बताया, मुस्लिम समाज के एक बड़े हिस्से में आज भी मुस्लिम बच्चियों को उच्च शिक्षा नहीं मिल पाती है। इसकी एक बड़ी वजह आर्थिक तंगी है। हमारा मकसद बच्चियों और खासकर अभिभावकों को प्रोत्साहित करना है कि लड़कियां कम से कम स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी करें। ऐसे में शादी शगुन के तौर पर 51,000 रुपए की राशि देने का फैसला किया गया है। उन्होंने कहा, यह राशि बहुत ज्यादा नहीं है, लेकिन हमें उम्मीद है कि इससे मुस्लिम लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए लोगों का हौसला बढ़ेगा। कोषाध्यक्ष ने कहा कि इस संदर्भ में वेबसाइट तैयार की जा रही है और इस पूरा ब्यौरा दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि शादी शगुन की यह राशि स्नातक की पढ़ाई पूरी करने वाली उन्हीं मुस्लिम लड़कियों को मिलेगी जिन्होंने स्कूली स्तर पर एमएईएफ की ओर से मिलने वाली छात्रवृत्ति हासिल की होगी। अंसारी ने एमएईएफ के इस नए कदम का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और मुख्तार अब्बास नकवी के प्रयासों को देते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ने सबका साथ, सबका विकास के नारे को सच करने का काम किया है। प्रधानमंत्री के सशक्त नेतृत्व और नकवी जी के प्रयासों का नतीजा है कि अल्पसंख्यकों के विकास के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं। (एजेंसी)

खोज डायनासोर

यूपी बोर्ड के छात्र सीखेंगे विदेशी भाषा

यू

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अल्पसंख्यक शिक्षा

स्नातक स्तर की पढ़ाई करने वाली मुस्लिम लड़कियों की शादी में केंद्र सरकार 51 हजार रुपए का शगुन देगी

उत्तर प्रदेश

गुड न्यूज

वैज्ञानिकों ने खोजा सबसे बड़ा डायनासोर वै

122 फुट की औसत लंबाई वाले डायनासोर का जीवाश्म वैज्ञानिकों ने खोज निकाला है

ज्ञानिकों को एक नए शोध में डायनासोर की एक नई प्रजाति का पता चला है। यह प्रजाति डायनासॉर्स की अबतक की सभी ज्ञात प्रजातियों में सबसे बड़ी थी। ये इतने विशालकाय हुआ करते थे कि टायरनोसॉरस रेक्स भी इनके सामने बौने लगते थे। 76 टन वजनी ये डायनासोर शाकाहारी थे और किसी अंतरिक्षयान की तरह भारी-भरकम हुआ करते थे। इनकी औसत लंबाई करीब 122 फुट थी। इस शोध में शामिल शोधकर्ताओं का कहना है कि इतने विशाल आकार के बावजूद ये डायनासोर बिल्कुल भी डरावने नहीं थे। इस डायनासोर का जीवाश्म साल 2012 में दक्षिणी अर्जेंटीना में मिला था। जिन शोधकर्ताओं ने इस जीवाश्म का परीक्षण कर इसके काल का पता लगाया, उनका कहना है कि लंबी गर्दन वाला यह डायनासोर टाइटनॉसॉर्स कहे जाने वाले बेहद विशाल आकार के डायनासॉर समूह में सबसे विशालकाय

था। अर्जेंटीना स्थित जीवाश्मिकी म्यूजियम के एक शोधकर्ता डियागो पोल ने बताया, 'इस डायनासोर समूह में एक छोटा सा वर्ग ऐसे डायनासॉर्स का था जो कि आकार में बहुत-बहुत ज्यादा बड़े थे।' इस शोध के नतीजे जर्नल प्रॉसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित हुए। (एजेंसी)


28 गुड न्यूज

21 - 27 अगस्त 2017

स्वच्छता सौर ऊर्जा

सोलर पावर से चलने वाला स्कूल बेंगलुरु के एक इंटरनेशनल स्कूल ने 'जीरो कार्बन फुटप्रिंट' बिल्डिंग की मिसाल कायम की है

त्यधिक इस्तेमाल के कारण तेजी से देश में ऊर्जा के परंपरागत स्रोत कम हो रहे हैं। इस कारण देश में अक्षय ऊर्जा में दिलचस्पी बढ़ने लगी है। दिल्ली, कोच्चि और हैदराबाद समेत देश के बड़े एयरपोर्ट्स ने भी आंशिक या पूर्ण रूप से सौर ऊर्जा को अपना लिया है। कई शैक्षणिक संस्थान भी सौर ऊर्जा को अपनाने लगे हैं। पुडुचेरी के बाद बेंगलुरु के एक इंटरनेशनल स्कूल ने 'जीरो कार्बन फुटप्रिंट' बिल्डिंग की मिसाल कायम की है। जीरो एनर्जी बिल्डिंग वैसी बिल्डिंग होती है, जिसमें ऊर्जा के परंपरागत स्रोत का इस्तेमाल बिल्कुल नहीं होता है बल्कि उसमें अक्षय ऊर्जा

के स्रोत पर जोर दिया जाता है। बेंगलुरु के इस स्कूल का नाम कनैडियन इंटरनेशनल स्कूल-बेंगलुरु (सीआईएस) है। सीआईएस की एग्जिक्युटिव डायरेक्टर श्वेता शास्त्री ने बताया, 'अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल समय की जरूरत बन गया है। सीआईएस बेंगलुरु का पहला स्कूल बन गया है, जो पूरी तरह सौर ऊर्जा का इस्तेमाल करता है। मौजूदा समय में स्कूल 5,00,000 किलोवाट ऊर्जा पैदा करता है, जिससे कैंपस में बिजली की सारी जरूरतें पूरी होती हैं। इसके अलावा स्कूल के अन्य 20 पड़ोसी घरों को भी ऊर्जा की सप्लाई की जा रही है।' (एजेंसी)

रक्षा निर्माण

देश का पहला मानवरहित टैंक बनकर तैयार

डीआरडीओ ने देश का पहला मानवरहित टैंक विकसित किया, जिसे रिमोट से ही संचालित किया जा सकेगा

डि

फेंस रिसर्च ऐंड डिवेलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (डीआडीओ) ने एक मानवरहित, रिमोट से संचालित होनेवाला टैंक तैयार किया है। इस टैंक के तीन तरह के मॉडल्स विकसित किए गए हैंसर्विलांस, बारूदी सुरंग खोजने वाला और जिन इलाकों में न्यूक्लियर और जैविक हमलों का अंदेशा है, वहां गश्ती लगाने के लिए। इस टैंक का नाम मंत्रा रखा गया है। इस टैंक को कॉम्बैट वीइकल्स रिसर्च ऐंड डिवेलपमेंट इस्टैबलिशमेंट (सीवीआरडीई) ने इसे बनाया है और सेना के लिए इसका परीक्षण किया

है, लेकिन पैरामिलिटरी फोर्स ने इस टैंक का नक्सल प्रभावित इलाकों में इस्तेमाल करने की रुचि जाहिर की है। हालांकि, उन्होंने इसमें कुछ बदलावों की बात भी कही है। बख्तरबंद टैंक की तरह डिजाइन किए गए रिमोट से ऑपरेट होने वाले इस टैंक को अवाडी में साइंस फॉर सोल्जर्स नाम की प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया है। यह प्रदर्शनी डीआरडीओ ने पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित की है। मंत्रा-एस देश का पहला मानवरहित ग्राउंड वीइकल है, जिसे मानवरहित

सर्विलांस के लिए बनाया गया है। वहीं, मंत्राएम सुरंगों का पता लगाने और मंत्रा-एन उन इलाकों के लिए बनाया गया है, जहां न्यूक्लियर रेडिएशन या जैविक हथियारों का खतरा हो। इस वीइकल को राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके में

52 डिग्री सेल्सियस तापमान में टेस्ट किया जा चुका है। टैंक में सर्विलांस रडार, लेज़र रेंज फाइंडर के साथ कैमरा है। इसकी मदद से 15 किलोमीटर दूसर से ही जासूसी की जा सकती है। (एजेंसी)


21 - 27 अगस्त 2017

संरक्षण बया

दि

ल्ली के द्वारका सेक्टर-10 मेट्रो स्टेशन के पास डीडीए की खाली जगह में बया के घोंसलों को बचाने की मुहिम रंग लाई है। इस खाली जमीन पर डीडीए टूटी हुई चारदिवारी को फिर से बनवाने की तैयारी कर रही है। जब तक चारदिवारी नहीं बन जाती जब तक डीडीए ने इस जमीन के पास गहरे गड्ढे खोद दिए हैं, ताकि मलबा डालने वाली गाड़ियां यहां न आ सकें। डीडीए अधिकारियों ने कहा कि जैव विविधता को बचाने की हर संभव कोशिश की जा रही है। यह पक्षियों का स्वाभाविक पर्यवास है और इसका पूरा ख्याल रखा जाएगा। पिछले कई सालों से इस जगह पर बया बड़ी संख्या में आकर अपने घोंसले बना रही है। बया के लिए यह मौसम प्रजनन का है। ऐसे में इस बार भी यहां बड़ी संख्या में बया ने घोंसले बनाए

अध्ययन सौर मंडल

पृथ्वी जैसे ग्रह की तलाश में रुकावट

नए अध्ययन से पता चला है कि आकाशगंगा में छिपे हुए तारे पृथ्वी जैसे ग्रह की तलाश में बाधक हैं

हैं, लेकिन पिछले कुछ समय पहले इस खाली जगह बनी चारदिवारी को तोड़ दिया गया और यहां मलबा डाला जाने लगा। इस वजह से बया को परेशानी होने लगी। कुछ बया अपने अधूरे घोंसले छोड़कर चली गई हैं, जबकि कई घोंसलों में अंडे हैं। चारदिवारी टूटने की जगह से इस जगह पर पेड़ों की संख्या भी पिछले कुछ सालों में कम हुई है। इसी बात से पक्षी प्रेमी नाराज हैं। पक्षी व पर्यावरण प्रेमी रमेश मुमुक्षु ने इस जगह को जैव विविधता के लिए छोड़े जाने की मांग प्रधानमंत्री कार्यालय से भी की है। वहीं पिछले कुछ समय से राइज फाउंडेशन भी डीडीए के इस मैदान में बया को बचाने के लिए लगातार संपर्क कर रहा है। राइज फाउंडेशन ने भी डीडीए से पक्षियों को बचाने के लिए कुछ करने की मांग की थी। डीडीए, द्वारका के चीफ इंजीनियर एसएन सिंह ने बताया कि डीडीए हमेशा जैव विविधता को बचाने का प्रयास करता रहा है। हम इस जमीन की चारदिवारी फिर से बनवाने की तैयारी कर रहे हैं, लेकिन तब तक यहां मलबा न डाला जाए, इसके लिए हमने इस जमीन पर पहुंचने के रास्तों को गड्ढे खोदकर बंद कर दिए हैं। यह अस्थायी प्रक्रिया इसीलिए की गई है, ताकि प्रजनन के मौसम में उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो। (एजेंसी)

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स्वच्छता झारखंड

नहीं उजड़ेगा बया का आशियाना

दिल्ली के पक्षी प्रेमियों की मुहिम रंग लाई। अब सेक्टर 10 स्थित द्वारका मेट्रो के पास बया के पर्यवास को उजरने नहीं दिया जाएगा

गुड न्यूज

पेट्रोल पंपों, होटलों, ढाबों में बनेंगे शौचालय

सभी पेट्रोल पंपों, हाइवे एवं मुख्य सड़कों पर स्थित होटल-ढाबा संचालकों को शौचालय बनवाने का निर्देश

झा

रखंड के सरायकेला में विशेष स्वच्छता पखवाड़ा के तहत परिवहन पदाधिकारी दिनेश रंजन ने को जिले के पेट्रोल पंप, होटल व ढाबा संचालकों के साथ बैठक कर उन्हें स्वच्छता का पाठ पढ़ाया। डीटीओ दिनेश रंजन ने सभी पेट्रोल पंपों, हाइवे एवं मुख्य सड़कों पर स्थित होटल-ढाबा संचालकों को जहां शौचालय नहीं हैं, वहां पुरुष तथा महिला के लिए अलग-अलग शौचालय बना कर साफ-सफाई सुनिश्चित करने का निर्देश दिया। डीटीओ ने पेट्रोल पंपों, होटलों व ढाबों के संचालकों को सप्ताह में एक दिन स्वच्छता को लेकर जागरुकता कार्यक्रम आयोजित करने का भी निर्देश दिया। उन्होंने कहा कि स्वच्छता के लिए गठित टीम पूरे जिले के सभी पेट्रोल पंपो, होटलों व ढाबों का निरीक्षण करेगी, जिस दौरान स्वच्छता के सभी आयामों को पूरा नहीं करने वाले पेट्रोल पंपों व होटल

संचालकों से जुर्माना वसूला जाएगा, वहीं स्वच्छता को लेकर बेहतर कार्य करने या साफ सफाई में महत्वपूर्ण योगदान करने वालों को पुरस्कृत भी किया जाएगा। उन्होंने बताया कि पूरे जिले में 16 अगस्त से 31 अगस्त तक विशेष स्वच्छता पखवाड़ा मनाया जा रहा है, जिसमें विशेष रूप से पेट्रोल पंपों व होटलों में साफ सफाई व स्वच्छता को लेकर जागरुकता अभियान चलाया जाएगा। (एजेंसी)

वि

शाल आकाशगंगा में छिपे हुए तारों के कारण उस तारामंडल के दूसरे ग्रह अपने वास्तविक आकार से छोटे दिखते हैं, जिसके कारण पृथ्वी के समान ग्रह ढूंढने के लिए चलाए जा रहे अभियान एवं शोध प्रभावित होते हैं। शोधकर्ताओं ने यह खुलासा अपने हालिया अध्ययन में किया है। पृथ्वी जैसे ग्रह का पता लगाने में ग्रहों का घनत्व एक अहम कारक होता है। कम घनत्व होने से वैज्ञानिक यह संकेत पाते हैं कि ग्रह गैसों से भरा है, जैसे बृहस्पति। वहीं घनत्व अधिक होने का मतलब है कि ग्रह पृथ्वी जैसा चट्टानी है। लेकिन नए अध्ययन के मुताबिक, कुछ ग्रह पूर्व अनुमान से कम घनत्व के पाए गए, और ऐसा उस तारामंडल में विद्यमान एक दूसरे छिपे हुए तारों की वजह से हुआ। अध्ययन में कहा गया है कि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के केप्लर स्पेस टेलीस्कोप जैसे अत्याधुनिक वेधशालाओं द्वारा भी कई बार पास-पास अपनी कक्षाओं में चक्कर लगा रहे दो तारे तस्वीरों में प्रकाश के एक

बिंदु की तरह दिखाई पड़ सकते हैं। कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में इंफ्रारेड प्रॉसेसिंग एंड एनालिसिस सेंटर (आईपीएसी) में अध्ययन के लेखकों में से एक एलिस फुरलान ने कहा कि कितने ग्रह पृथ्वी के समान आकार में छोटे हैं

और कितने ग्रह बृहस्पति के समान आकार में बड़े हैं, इसे लेकर हमारी समझ तारों के बारे में बढ़ती सूचनाओं के साथ बदल सकती है। यह अध्ययन शोध-पत्रिका 'ऐस्ट्रोनॉमिकल जर्नल' के आगामी संस्करण में प्रकाशित होगा। (एजेंसी)


30 लोक कथा

21 - 27 अगस्त 2017

क जंगल में एक शेर रहता था। वो अब कुछ बूढ़ा हो चुका था। वो अकेला ही रहता था। कहने को वो शेर था, लेकिन उसमें शेर जैसी कोई बात नहीं थी। अपनी जवानी में वो दूसरे सभी शेरों से लड़ाई में हार चुका था। अब उसके जीवन में उसका एक दोस्त एक गीदड़ ही था। वो गीदड़ अव्वल दर्जे का चापलूस था। शेर को ऐसे एक चमचे की जरूरत थी, जो उसके साथ रहता। गीदड़ को भी बिना मेहनत का खाना चाहिए था। एक बार शेर ने एक सांड पर हमला कर दिया। सांड भी गुस्से में आ गया। उसने शेर को उठा कर दूर पटक दिया। इससे शेर को काफी चोट आई। किसी तरह शेर अपनी जान बचा कर भागा। जान तो बच गई, लेकिन जख्म दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहा था। जख्मों और कमजोरी के कारण शेर कई दिन तक शिकार नहीं कर सका। अब भूख से शेर और गीदड़ दोनों की हालत खराब होने लगी। शेर ने गीदड़ से कहा-‘देखो मैं जख्मी होने के कारण शिकार करने में असमर्थ हूं। तुम जंगल में जाओ और किसी मूर्ख जानवर को लेकर आओ। मैं यहां झाड़ियों के पीछे छिपा रहूंगा और उसके

बेवकूफ गधा

आने पर उस पर हमला कर दूंगा। तब हम दोनों के खाने का इंतजाम हो जाएगा।’ गीदड़ उसकी आज्ञा के अनुसार एक मूर्ख जानवर की तलाश करने के लिए निकल पड़ा। जंगल से बाहर जाकर उसने देखा एक गधा सूखी हुई घास चर रहा था। गीदड़ को वो गधा देखने में ही मूर्ख लगा। गीदड़ उसके पास गया और बोला, ‘नमस्कार चाचा, कैसे हो? बहुत कमजोर हो रहे हो। क्या हुआ?’ सहानुभूति पाकर गधा बोला, ‘नमस्कार, क्या बताऊं मैं जिस धोबी के पास काम करता हूं। वह दिन भर काम करवाता है और पेट भर चारा भी नहीं देता।’ ‘तो चाचा तुम मेरे साथ जंगल में चलो। वहां बहुत हरी-हरी घास है। आप की सेहत भी अच्छी हो जाएगी।’ “अरे! नहीं मैं जंगल नहीं जाऊंगा। वहां मुझे जंगली जानवर खा जाएंगे।’ ‘चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं चला। जंगल में एक बगुले भगत जी का सत्संग हुआ था। तब से जंगल के सारे जानवर शाकाहारी हो गए हैं।’

गधे को फंसाने के लिए गीदड़ बोला, सुना है पास के गांव से अपने मालिक से तंग होकर एक गधी भी जंगल में रहने आई है। शायद उसके साथ तुम्हारा मिलन हो जाए।’ इतना सुन गधे के मन में एक खुशी की लहर दौड़ गई। वह गीदड़ के साथ जाने के लिए राजी हो गया। गधा जब गीदड़ के साथ जंगल में पहुंचा तो उसे झाड़ियों के पीछे शेर की चमकती हुई आंखें दिखाई दीं। उसने आव देखा ना ताव। ऐसा भागना शुरू किया कि जंगल के बहार आकर ही रुका। तब गीदड़ ने शेर से कहा-‘भाग गया? माफ करना दोस्त इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम दुबारा उस बेवकूफ गधे को लेकर आओ। इस बार कोई गलती नहीं होगी।’ गीदड़ एक बार फिर उस गधे के पास गया। उसे मानाने के लिए गीदड़ ने मन में नई योजना बनाई, ‘अरे चाचा, तुम वहां से भाग क्यों आए?’ ‘भागता नहीं तो क्या करता? वहां झाड़ियों के पीछे शेर बैठा हुआ था। मुझे अपनी जान प्यारी थी तो भाग आया।’ ‘हा हा हा अरे कोई शेर नहीं, वो तो गधी थी

जिसके बारे में मैंने आपको बताया था।’ “लेकिन उसकी तो आंखें चमक रहीं थी।” ‘वो तो उसने जब आपको देखा तो खुशी के मारे उसकी आंखों में चमक आ गई। वो तो आपको देखते ही अपना दिल दे बैठी और आप उस से मिले बिना ही वापस दौड़ आए।’ गधे को अपनी इस हरकत पर बहुत पछतावा हुआ। वह गीदड़ कि चालाकी को समझ नहीं पा रहा था। समझता भी कैसे आखिर था तो गधा ही। वो गीदड़ की बातों में आकर फिर से जंगल में चला गया। जैसे ही झाड़ियों के पास पहुंचा। इस बार शेर ने कोई गलती नहीं कि और उसका शिकार कर अपने भोजन का जुगाड़ कर लिया। शिक्षा- मित्रों कहते हैं, जब तक इंसान को ठोकर नहीं लगती उसे अक्ल नहीं आती। इसीलिए ठोकर खाना अच्छी बात है, लेकिन एक ही पत्थर से बार-बार ठोकर खाना बेवकूफी की निशानी होती है। जैसा की गधे ने किया। आज के जीवन में हमें होशियारी से रहना चाहिए, नहीं तो इस जंगल में बहुत से गीदड़ हमसे अपना काम निकलवाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। इसीलिए सदैव सतर्क रहे, सुरक्षित रहें।


24 - 30 जुलाई 2017

sulabh sanitation

लोक कथा

Sulabh International Social Service Organisation, New Delhi is organizing a Written Quiz Competition that is open to all school and college students, including the foreign students. All those who wish to participate are required to submit their answers to the email address contact@sulabhinternational.org, or they can submit their entries online by taking up the questions below. Students are requested to mention their name and School/College along with the class in which he/she is studying and the contact number with complete address for communication

First Prize: One Lakh Rupees

PRIZE

Second Prize: Seventy Five Thousand Rupees Third Prize: Fifty Thousand Rupees Consolation Prize: Five Thousand Rupees (100 in number)

500-1000) ti on (W or d Li m it: ti pe m Co iz Qu en tt Qu es ti on s fo r W ri nounced? rt was ‘Swachh Bharat’ an Fo d be no open Re the m fro y da ich houses and there should the 1. On wh all in d cte ru nst co be by 2019, toilets should 2. Who announced that l. defecation? Discuss in detai Toilet? 3. Who invented Sulabh ovement? Cleanliness and Reform M 4. Who initiated Sulabh e features of Sulabh Toilet? ? 5. What are the distinctiv used in the Sulabh compost r ise til fer of ge nta rce pe d an 6. What are the benefits of the Sulabh Toilet? ’? 7. What are the benefits be addressed as ‘Brahmins to me ca g gin en av sc al nu discussing ople freed from ma If yes, then elaborate it by s? 8. In which town were pe ste ca r pe up of s me ho take tea and have food in the 9. Do these ‘Brahmins’ story of any such person. entions of Sulabh? 10. What are the other inv

Last

ritten Quiz Competition W of on si is bm su r fo te da

: September 30, 2017

For further details please contact Mrs. Aarti Arora, Hony. Vice President, +91 9899 855 344 Mrs. Tarun Sharma, Hony. Vice President, +91 97160 69 585 or feel free to email us at contact@sulabhinternational.org SULABH INTERNATIONAL SOCIAL SERVICE ORGANISATION In General Consultative Status with the United Nations Economic and Social Council Sulabh Gram, Mahavir Enclave, Palam Dabri Road, New Delhi - 110 045 Tel. Nos. : 91-11-25031518, 25031519; Fax Nos : 91-11-25034014, 91-11-25055952 E-mail: info@sulabhinternational.org, sulabhinfo@gmail.com Website: www.sulabhinternational.org, www.sulabhtoiletmuseum.org

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32 अनाम हीरो

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

14 - 20 अगस्त 2017

अनाम हीरो राजा सेठीमुरली

शिक्षा मित्र

11 सालों में कोयंबंटूर के ऑटो चालक ने सरकारी स्कूल के 1300 छात्रों की मदद की

टो चालक राजा सेठीमुरली जब छोटे थे तब उनके माता-पिता उन्हें शिक्षित नहीं कर सके। क्योंकि उनके पिता शराबी थे और उन्होंने उनकी मां को अकेले सेठीमुरली की जिम्मेदारी उठाने के लिए छोड़ दिया था। वह रोज मजदूरी करके घर का खर्च चलाती थीं, जिस दिन उन्हें पैसे नहीं मिलते वह लोग

भूखे सोते थे। स्कूल ना जा पाने का प्रभाव राजा के जीवन पर इतना गहरा पड़ा कि उन्होंने दूसरे बच्चों के साथ ऐसा ना होने देने की कसम खाई। वे लगभग 10 वर्षों तक अकादमिक रूप से सरकारी स्कूल के बच्चों की मदद करने के लिए अपनी छोटी सी आय का उपयोग करते रहे, लेकिन जब स्कूल बंद हो गए

तो वे कोयंबंटूर के अलग अलग स्कूलों में गए और वहां के अध्यापकों से बात की। राजा ने कहा कि स्कूल के अध्यापक मेरी उन छात्रों की पहचान करने में मदद करते हैं जो गरीब परिवारों से हैं। मैं उन बच्चों के लिए स्कूल बैग, किताबें और लंच बॉक्स खरीदता हूं। राजा इसके लिए प्रत्येक बच्चे पर 1700 रुपए खर्च करते हैं, जो कि उनकी बचत के पैसे हैं। राजा कहते हैं कि हमने तीन बच्चों से शुरुआत की थी और आज मैं 32 सरकारी स्कूलों में सालाना 150 छात्रों की मदद करने में सक्षम हूं। उन्होंने कहा कि यदि छात्र 10 वीं

कक्षा में अच्छा स्कोर करने में सक्षम हैं, तो वे अपने भविष्य में अच्छा प्रदर्शन कर पाएंगे। बता दें कि 11 वर्षों में राजा ने लगभग 1,300 छात्रों की मदद की है। जो लोग इस बारे में सुनते हैं कि वे अक्सर राजा के इस कार्य का समर्थन करते हैं। राजा ने कभी भी स्वयं के बारे में नहीं सोचा। उनका एकमात्र उद्देश्य है कि कोई भी बच्चा गरीबी की अभाव में पढ़ाई ना छोड़े। उन्होंने कहा कि देश के विकास के लिए शिक्षा, भोजन और एक अच्छा भविष्य होना चाहिए। इसके लिए सभी को अपना योगदान देना होगा।

न्यूजमेकर

अनोखा चित्रकार पदयात्री का सलाम

भा

सीताराम केदिलाया

रत के ज्यादातर आबादी गांवों में बसती है। आज भी दूर दराज के गांवों में सभी मूलभूत जरूरतें मुहैया नहीं हैं। इसी बात को ध्यान में रख कर सीताराम केदिलाया ने भारत परिक्रमा पदयात्रा की शुरुआत की और उसके सफल समापन के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। केदिलाया ने 9 अगस्त 2012 को कन्याकुमारी से भारत परिक्रमा यात्रा की शुरुआत की थी और इस वर्ष 9 जुलाई को कन्याकुमारी में यात्रा पूरी की। केदिलाया ने कहा कि इस यात्रा के दौरान वह सीधे 9000 गांवों तक पहुंचे । उन्होंने कहा कि इस यात्रा के दौरान उन्हें लाखों किसानों और ग्रामीण युवाओं से बातचीत करने का मौका मिला। वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने केदिलाया के प्रयासों की सराहना की और उनके भविष्य के प्रयासों के लिए अच्छी कामना की। आरएसएस कार्यकर्ता सीताराम केदिलाया ने ग्रामीण भारतीय

भारत के गांवों को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से की भारत परिक्रमा पदयात्रा

जीवन को समझने और उसे आगे बढ़ाने के उद्देश्य से कन्याकुमारी से भारत परिक्रमा अभियान की शुरुआत की। इस यात्रा में 15 हजार किलोमीटर की दूरी तय की गई।इस काम में पांच वर्ष लगे। सीताराम ने कहा कि इस यात्रा के दौरान उन्होंने प्रत्येक गांव के युवाओं से बातचीत की, उनकी समस्याएं सुनीं, किसानों से मिले। उन्होंने कहा कि यदि एकता की भावना और परिवार निर्माण को फिर से गांवों में लाया जाए तो बहुत हद तक सद्भाव कायम किया जा सकता है। मौजूदा दौर में जहां एक तरफ लोगों का रुझान व्यापारिक और वाणिज्यिक क्षेत्रों में बढ़ रहा है और गांवों को लोग भूलते जा रहे हैं ऐसे में सीताराम केदिलाया का यह कदम सराहनीय है। उन्होंने भारत के गांवों को समझने और उसके महत्व को लोगों को बताने का भरपूर प्रयास किया है।

दुबई में रहने वाले भारतीय चित्रकार ने कलाकृतियों के माध्यम से शहीद सैनिकों को दी श्रद्धांजलि

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अकबर साहेब

बई में रहने वाले एक भारतीय चित्रकार ने सेना के जवानों की कठिनाईयों और त्यागों को चित्रित किया है। ये कलाकृतियां स्वतंत्रता दिवस से पहले भारतीय सेना की कठिनाइयों और त्यागों से प्रेरित हैं। बता दें कि कलाकार अकबर साहेब कर्नाटक के रहने वाले हैं। अकबर साहेब ने 2015 में प्रधानमंत्री मोदी की संयुक्त अरब अमीरात यात्रा के दौरान अपनी बनाई हुए कई कलाकृतियां भेंट की थी। इतना ही नहीं साहेब एकमात्र ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की किताब, ‘मन की बात’ में चित्रों के माध्यम से जगह बनाई है। साहेब कहते हैं कि देश की सेवा करते समय इन सिपाहियों को कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश और नेपाल के साथ भारत की सीमाएं लगी हुई हैं। भारतीय सैनिक हमारे देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों की बलि दे रहे हैं। हमें उनका सम्मान करना चाहिए। हम देश में चैन और सुकुन से रह सकें, इसके लिए ही वे

सीमा पर अपनी प्राणों की चिंता किए बिना हमारी सुरक्षा कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि सेना के जवान हमारे लिए बहुत संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन सामान्य जनता उन सैनिकों के बारे में नहीं सोचती है। साहेब ने कहा कि इस प्रदर्शनी के बाद हमने सभी कलाकृतियों को नीलामी ब्लॉक पर लगाने की योजना बनाई है, जिससे मिलने वाली धनराशि से सैनिकों और उनके परिवार वालों की मदद की जाएगी। साहेब ने कहा कि उनकी कई कलाकृतियां मातृभूमि की लालसा से प्रेरित हैं। उन्होंने कहा कि मैं अपने देश को, उसकी संस्कृति को याद करता हूं। उन्होंने कहा वह 20 साल पहले संयुक्त अरब अमीरात में आए थे और वहां पर अब तक विभिन्न विषयों पर 1,000 से अधिक कलाओं की रचना की है। साहेब ने सिर्फ भारतीय सेना के लिए ही नहीं, अपितु 2015 यमन संघर्ष के दौरान अमीरात के शहीद सैनिकों की शहादत पर भी कई कलाकृतियों की रचना की हैं।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 1, अंक - 36


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