व्यक्तित्व
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विज्ञान का मान, शांति का ज्ञान
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स्वच्छता
पुस्तक अंश
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
26 कही-अनकही
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अभिनय की बनारसी ‘लीला’
सागर, स्वच्छता और विशेष अनुभागों के सौंदर्य की भूमि कल्याण के लिए योजनाएं
sulabhswachhbharat.com आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
वर्ष-2 | अंक-30 | 09 - 15 जुलाई 2018
पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक से प्रभावित क्षेत्र में
सुलभ जल क्रांति
टू पिट-पोर फ्लश तकनीक से स्वच्छता की नई इबारत लिखने के साथ सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक ने देश-समाज के वंचित वर्गों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने का बीड़ा उठाया है। ‘सुलभ जल’ कैसे लाखों आर्सेनिक पीड़ितों के लिए जीवन-जल बना, इस क्रांतिकारी पहल को पश्चिम बंगाल के मधुसूदनकाती, मिदनापुर और मुर्शिदाबाद से लेकर उत्तर प्रदेश के वाराणसी और देश की राजधानी दिल्ली तक बेहतर तरीके से जाना-समझा जा सकता है
वि
एसएसबी ब्यूरो
कास की एक ग्लोबल छतरी के नीचे आने के बाद से दुनिया के कई देशों ने तकनीक और विकास की दिशा में लंबे डग भरे हैं। पर तकरीबन तीन दशकों से जारी विकास की इस होड़ के कुछ अंतरविरोध भी इन्हीं वर्षों में सामने आए हैं। बात शौचालय से लेकर स्वच्छता की करें या भोजन से लेकर जल की उपलब्धता की करें तो कई अफ्रीकी मुल्कों के साथ दक्षिण एशिया के ज्यादातर देश इन मोर्चों पर बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। इसी चुनौती को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने सहस्राब्दि विकास लक्ष्य-2030 (एमडीजी-2030) तय किया है। जिसमें शुद्ध पेयजल की उपलब्धता और स्वच्छता का सवाल सबसे ऊपर है। न सिर्फ पर्यावरण प्रेमी बल्कि समाज-विज्ञानी भी जल और स्वच्छता को मानवाधिकार से जोड़कर देखते हैं। इस लिहाज से
खास बातें स्वच्छता के बाद देशभर में जल प्रदूषण दूर करने की दिशा में बढ़ा सुलभ
आर्सेनिक- प्रदूषित जल को जीवनदायी बनाने में सुलभ की बड़ी पहल सहस्राब्दि विकास लक्ष्य-2030 के एजेंडे में जल और स्वच्छता सर्वोपरि
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आवरण कथा
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छह जगहों पर सुलभ जल शोधन संयंत्र
विचार करें तो शुद्ध जल और शुद्ध परिवेश के बिना न तो हम किसी तरह के विकास का दावा कर सकते हैं और न ही अपने विकास की दिशा को सही मान सकते हैं।
जो लोग कभी आर्सेनिक मिले पानी को पीकर बीमार हो रहे थे, वे सुलभ के इस सजल पहल को एक वरदान की तरह देख रहे हैं
सुलभ की बड़ी पहल
बात भारत की करें तो इस दिशा में सबसे पहले जिसका ध्यान गया वे हैं- सुलभ आंदोलन के प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक। डॉ. पाठक के नेतृत्व में सुलभ संस्था लगातार लोगों के जीवन को स्वच्छ और सजल बनाने के लिए प्रयास कर रहा है। बीते पांच दशकों डॉ. पाठक के नेतृत्व में चल रहे इस सेवा कार्य का ही नतीजा है कि बात स्वच्छता की करें या प्रदूषित जल के शुद्धीकरण की, हर जगह आज सबसे पहले सुलभ तकनीक और सुलभ द्वारा किए गए कार्यों की चर्चा होती है।
वाकई बड़ी चुनौती
अन्य बातों को छोड़कर बात अकेले पानी की करें तो यह आज देश के लिए वाकई एक बड़ी चुनौती है। देश में प्रदूषण के बढ़ते प्रकोप का असर पेयजल की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है, जिसकी वजह से देश की 47.41 करोड़ आबादी फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौह तत्व और नाइट्रेट सहित अन्य लवण एवं भारी धातुओं के मिश्रण वाला पानी पीने को मजबूर है। पेयजल की उपलब्धता और इसकी गुणवत्ता से जुड़े सरकार के आंकड़े बताते हैं कि सेहत के लिए खतरनाक रासायनिक तत्वों की मिलावट वाले दूषित पानी की उपलब्धता से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में राजस्थान, पश्चिम बंगाल और असम शीर्ष पायदान पर हैं। पर्यावरण मंत्रालय की मदद से केंद्रीय एजेंसी ‘एकीकृत प्रबंधन सूचना प्रणाली’ (आईएमआईएस) द्वारा देश में पानी की गुणवत्ता को लेकर तैयार किए गए आंकड़ो के मुताबिक राजस्थान की सर्वाधिक 19,657 बस्तियां और इनमें रहने वाले 77.70 लाख लोग दूषित जल से प्रभावित हैं। आईएमआईएस द्वारा पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय को सौंपे गए आंकड़ों के मुताबिक, पूरे देश में 70,736 बस्तियां फ्लोराइड, आर्सेनिक, लौह तत्व और नाइट्रेट सहित अन्य लवण एवं भारी धातुओं के मिश्रण वाले दूषित जल से प्रभावित हैं। इस पानी की उपलब्धता के दायरे में 47.41 करोड़ आबादी आ गई है।
सु
लभ का शोधित पेय जल सुलभ की अत्याधुनिक टेक्नॉलॉजी है। नदियों, तालाबों, कुओं, जलाशयों और नलों के अशुद्ध जल को इस टेक्नॉलॉजी से शुद्ध पेयजल के रूप में परिवर्तित किया जाता है और यह जल मानव के प्रयोग के लिए सुरक्षित है। इस प्रकार का सुलभ जल-शोधन-संयंत्र पश्चिम बंगाल में छह जगहों पर लगाया गया है। ये जगह हैं उत्तरी 24 परगना जिले के
राजस्थान में चिंताजनक स्थिति
राजस्थान में फ्लोराइड, नाइट्रेट और लवणता युक्त भूजल का प्रकोप सबसे ज्यादा है। राज्य में 5,996 बस्तियों के 40.94 लाख लोग फ्लोराइड के, 12,606 बस्तियों में रहने वाले 28.53 लाख लोग लवणता युक्त पानी के और 1050 बस्तियों के 8.18 लाख लोग नाइट्रेट मिश्रित पानी के इस्तेमाल को विवश हैं। आर्सेनिक युक्त पानी की उपलब्धता से असम सर्वाधित प्रभावित है। राज्य की 4,514 बस्तियों में रहने वाली 17 लाख की आबादी को आर्सेनिक युक्त पानी मिल रहा है।
मधुसूदनकाती एवं इस्कॉन-हरिदासपुर, मुर्शिदाबाद जिले के मुर्शिदाबाद, नदिया जिले के मायापुर, दक्षिण 24 परगना जिले के सुवसग्राम और पश्चिम मिदनापुर जिले में चकसुल्तान। ‘सुलभ सुरक्षित पेयजल’ के नाम से प्रचलित यह शुद्ध जल पश्चिम बंगाल में 50 पैसे प्रति लीटर की दर से उपलब्ध है। इसी प्रकार का शुद्ध जल दिल्ली के सुलभ-प्रांगण के प्रवेश-द्वार पर एक रुपया प्रति लीटर में सुलभ वॉटर-एटीएम के
प. बंगाल का संकट
द्वारा मिलता है। आज व्यापक प्रयोग और सफलता के साथ स्वच्छता अभियान से शुरुआत करने वाले सुलभ आंदोलन का विस्तार पानी की स्वच्छता तक जा पहुंचा है। पश्चिम बंगाल के 24 परगना, मुर्शिदाबाद और नदिया जिलों में आर्सेनिक से प्रदूषित हुए भूजल के उपयोग से लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव ने सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक का ध्यान इस तरफ खींचा। डॉ. पाठक आर्सेनिक से प्रदूषित जल को शुद्ध पेय जल में बदलने की अपनी पहल को ‘सुलभ नीर आंदोलन’ कहते हैं। आज यह आंदोलन जिलों और राज्यों की सीमा को लगातार लांघते हुए एक अखिल भारतीय आंदोलन की शक्ल लेता जा रहा है। डॉ. पाठक खुद भी कहते हैं कि आर्सेनिक मुक्त पानी मुहैया कराने की उनके इस प्रकल्प का और विस्तार होगा। जो लोग कभी आर्सेनिक मिले पानी को पीकर बीमार हो रहे थे, वे सुलभ के इस सजल पहल को एक वरदान की तरह देख रहे हैं। कुछ वर्षों में ही सुलभ के इस इस प्रयोग का विस्तार पश्चिम बंगाल से लेकर उत्तर प्रदेश (वाराणसी) और देश की राजधानी तक होना एक बड़ी सफलता है।
पानी की समस्या से प्रभावित 28 हजार बस्तियों पश्चिम बंगाल इन सभी हानिकारक तत्वों के सहित पूरे देश में राष्ट्रीय जल गुणवत्ता मिश्रण वाले पानी की उपलब्धता के मामले अभियान गत वर्ष मार्च में शुरू किया था। में दूसरा सबसे प्रभावित राज्य है। राज्य की इन बस्तियों को चार साल के भीतर इस 17650 बस्तियों के 1.70 करोड़ लोग इस समस्या से निजात दिलाने का लक्ष्य समस्या के घेरे में आ गए हैं। दूषित जल रखा गया है। साथ ही केंद्र सरकार की उपलब्धता से प्रभावित आबादी के राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल योजना के मामले में पश्चिम बंगाल अव्वल तहत राज्य सरकारों को पानी है। जबकि गोवा, गुजरात और की गुणवत्ता सुधारने के लिए हिमाचल प्रदेश के अलावा तकनीकी एवं वित्तीय मदद बीते पांच दशकों से पूर्वोत्तर राज्य में मणिपुर, मुहैया करा रही है। डॉ. पाठक के नेतृत्व में चल मिजोरम तथा सिक्किम जल संरक्षण रहे से व ा कार्य का ही नतीजा है एवं केंद्र शासित क्षेत्र के क्षेत्र में कार्यरत पुदुच्चेरी में एक भी विशेषज्ञ मनोज कि बात स्वच्छता की करें या बस्ती किसी भी मिश्रा बताते हैं कि प्रदूषित जल के शुद्धिकरण की, प्रकार के दूषित पानी में फ्लोराइड हर जगह आज सबसे पहले सु ल भ जल से प्रभावित की अधिकता से तकनीक और सुलभ द्वारा किए गए नहीं है। फ्लूरोसिस, नाइट्रेट की अधिकता कार्यों की चर्चा होती है ग्रामीण क्षेत्रों में से सांस संबंधी ज्यादा असर बीमारियां, लौह पेयजल एवं स्वच्छता एवं लवणयुक्त पानी मंत्रालय के एक अधिकारी ने से ऑस्टियोपोरोसिस, बताया कि खतरनाक रासायनिक अर्थराइटिस और आर्सेनिक युक्त तत्वों के मिश्रण वाले पानी से प्रभावित दूषित जल से कैंसर जैसी बीमारियों का इलाकों में ग्रामीण क्षेत्रों की हिस्सेदारी ज्यादा है। खतरा होता है। समस्या के समाधान को लेकर केंद्र सरकार ने आर्सेनिक और फ्लोराइड मिश्रित मिश्रा इस बात पर जोर देते हैं कि प्रभावित इलाकों
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भूजल, प्रदूषण और भारत
सुलभ इंटरनेशनल ने मधुसूदनकाती कृषक कल्याण समिति और एक फ्रांसीसी गैर सरकारी संगठन '1001 फाउंटेंस’ के साथ िमलकर सुलभ सेफ ड्रिंकिंग वॉटर प्रोजेक्ट शुरू करने की एक अनूठी पहल की
सुलभ का सफल प्रयोग
एसएसडीडब्ल्यू्पी
सुलभ इंटरनेशनल ने मधुसूदनकाती कृषक कल्याण समिति (एमकेकेएस) और एक फ्रांसीसी गैर सरकारी संगठन '1001 फाउंटेंस’ के साथ मिलकर यहां सुलभ सेफ ड्रिंकिंग वॉटर प्रोजेक्ट
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भूजल के बेतहाशा दोहन से एक तो जल स्तर बेहद नीचे चला गया, साथ ही जहरीला भी होता जा रहा है। देश के लगभग एक-तिहाई जिलों का भूगर्भ जल पीने लायक नहीं है
में सरकार को तत्काल पेयजल के रूप में दूषित पानी का प्रयोग रोक कर वैकल्पिक स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराते हुए इन इलाकों में पानी को माइक्रो ट्रीटमेंट तकनीक से साफ करना चाहिए। साथ ही भूजल को दूषित कर रही औद्योगिक इकाइयों को तत्काल बंद करने के उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन भी सुनिश्चित कराना जरूरी है। भारत-बांग्ला देश सीमा से लगा और कोलकाता से हटकर एक हराभरा सा गांव है-मधुसूदनकाती। गांव में नारियल-ताड़ के लंबे दरख्त, जगह-जगह पानी से भरे पोखर, ताल-तलैया। सब कुछ आंखों को भरमा सा देने वाला। अचानक गांव के बीचो-बीच बने एक पोखर के सामने आते हैं तीन लोग। तीनों प्रौढ़ से लगते हैं। तीनों दुबले-पतले और बीमार से दिखते हैं। उनके बदन पर काले-काले चकत्ते हैं। खास बात यह है कि इस पोखर के पानी के पास सभी मुस्कराते हुए खड़े हैं। इसका पानी अब इन्हें डराता नहीं, बल्कि इनके लिए अब यह ‘जीवनदायी’ बन गया है। जबकि कुछ समय पूर्व तक यह पानी बहुत कुछ पौराणिक कथाओं वाले उस सरोवर के किस्सों सा था जिसको पीने से लोग बीमार पड़ जाते थे और मर तक जाते थे। यही पानी बरसों-बरस तक पीने से इनकी यह हालत हुई तब इसका पानी आर्सेनिक ‘प्रदूषण’ या ‘जहर’ भरा हुआ करता था। तीनों अपने व्यथित शरीर की पीड़ा दिखा रहे हैं, उनमें से एक स्वपन दास बांग्ला में मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘अब तो मैं ठीक हो रहा हूं। पीड़ा कम हो रही है।’ पोखर में लगा एक छोटा संयंत्र दिखाते हुए वह कहते हैं, ‘इसकी वजह से अब हमें वो खराब पानी पीने को नहीं मिलता, जिसे पीने से हम सब, हमारे बच्चे सब बीमार सब पड़ गए।’
आवरण कथा
ज
मीन में पानी का अकूत भंडार है। यह पानी का सर्वसुलभ और स्वच्छ स्रोत है। लेकिन यदि एक बार दूषित हो जाए तो इसका परिष्करण लगभग असंभव होता है। भारत में जनसंख्या बढ़ने के साथ घरेलू इस्तेमाल, खेती और औद्योगिक उपयोग के लिए भूगर्भ जल पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। जमीन से पानी निकालने की प्रक्रिया ने भूजल को खतरनाक स्तर तक जहरीला बना दिया है। भारत कृषि प्रधान देश है। दुनिया में सबसे ज्यादा खेती भारत में ही होती है। यहां पांच करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर जुताई होती है। खेतों की जरूरत का 41 फीसद पानी सतही स्रोतों से व 51 फीसद जमीन से मिलता है। पिछले पचास सालों के दौरान भूजल के इस्तेमाल में एक सौ पंद्रह गुना का इजाफा हुआ है। भूजल के बेतहाशा दोहन से एक तो जल स्तर बेहद नीचे चला गया है, साथ ही जहरीला भी होता जा रहा है। देश के लगभग एक-तिहाई जिलों का भूगर्भ जल पीने लायक नहीं है। 254 जिलों में पानी में लौह तत्व
रसायन घुल जाने का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहा है। इसके बावजूद लोग हैंडपंपों का पानी पीने को मजबूर हैं और बीमार हो रहे हैं। राज्य के ग्वालियर सहित तेरह जिलों के भूजल में नाइट्रेट का असर निर्धारित मात्रा से कई गुना ज्यादा मिला है। फ्लोराइड के आधिक्य की मार झेल रहे जिलों की संख्या हर साल बढ़ रही है। इस समय ऐसे जिलों की संख्या नौ है। नागदा, की मात्रा अधिक है, तो 224 जिलों के जल में रतलाम, रायसेन, शहडोल आदि जिलों में विभिन्न फ्लोराइड तय सीमा से बहुत ज्यादा है। 162 कारखानों से निकले अपशिष्टों के रसायन जमीन जिलों में खारापन और 34 जिलों में आर्सेनिक में कई-कई किलोमीटर गहराई तक घर कर चुके पानी को जहर बनाए हुए है। हैं और इससे पानी अछूता नहीं है। देश के 360 जिलों के भूजल स्तर में गिरावट उत्तर प्रदेश का भूजल परिदृश्य तो बेहद खतरनाक स्तर पर चिह्नित किया गया है। भूजल डरावना बन गया है। लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस स्तर बढ़ाने के लिए प्रयास तो किए जा रहे हैं, सहित इक्कीस जिलों में फ्लोराइड का आधिक्य लेकिन खेती, औद्योगीकरण और शहरीकरण के दर्ज किया गया है। बलिया का पानी आर्सेनिक कारण जहर होते भूजल को लेकर कोई चिंता नहीं की अधिकता से जहर हो चुका है। गाजियाबाद, की जा रही। बारिश, झील व कानपुर आदि औद्योगिक तालाब, नदियों और भूजल देश के 360 जिलों के भूजल जिलों में नाइट्रेट और के बीच यांत्रिकी अंतर्संबंध स्तर में गिरावट खतरनाक स्तर भारी धातुओं की मात्रा है। जंगल और पेड़ भूजल निर्धारित मापदंड से पर चिह्नित किया गया है स्तर बढ़ाने में अहम भूमिका काफी ज्यादा है। निभाते हैं। इसी प्रक्रिया में कई जहरीले रसायन देश की राजधानी दिल्ली और उससे सटे जमीन के भीतर रिस जाते हैं। ऐसा ही दूषित पानी हरियाणा और पंजाब में भूजल खेतों में अंधाधुंध पीने के कारण देश के कई इलाकों में अपंगता, रासायनिक खादों के इस्तेमाल और कारखानों के बहरापन, दांतों का खराब होना, त्वचा के रोग, अपशिष्टों के जमीन में रिसने से दूषित हुआ है। पेट खराब होना जैसी बीमारियां फैली हुई हैं। ऐसे दिल्ली में नजफगढ़ के आसपास के इलाके के ज्यादातर इलाके आदिवासी बहुल हैं और वहां भूजल को तो इंसानों के इस्तेमाल के लायक नहीं पीने के पानी के लिए भूजल के अलावा कोई करार दिया गया है। खेती में रासायनिक खादों व विकल्प नहीं है। दवाइयों के बढ़ते प्रचलन ने जमीन की नैसर्गिक अहमदनगर से वर्धा तक लगभग आधे क्षमता और उसकी परतों के नीचे मौजूद पानी को महाराष्ट्र के 23 जिलों के जमीन के भीतर के पानी भारी नुकसान पहुंचाया है। में नाइट्रेट की मात्रा पैंतालीस मिलीग्राम के स्तर राजस्थान के कोई बीस हजार गांवों में जल से ज्यादा हो चुकी है। इनमें मराठवाड़ा क्षेत्र के की आपूर्ति का एकमात्र जरिया भूजल ही है और लगभग सभी तालुके शमिल हैं। भंडारा, चंद्रपुर, उसमें नाइट्रेट व फ्लोराइड की मात्रा खतरनाक औरंगाबाद और नांदेड़ जिले के गांवों में हैंडपंप स्तर पर पाई गई है। यहां के 27 जिलों में खारापन, का पानी पीने वालों में दांत के रोगी बढ़ रहे हैं, तीस में फ्लोराइड का आधिक्य और अट्ठाईस में क्योंकि इस पानी में फ्लोराइड की मात्रा काफी लौह तत्व अधिक हैं। दिल्ली सहित कुछ राज्यों में ज्यादा है। भूजल के अंधाधुंध इस्तेमाल को रोकने के लिए तेजी से हुए औद्योगीकरण और शहरीकरण कानून बन गए हैं। लेकिन ये कानून किताबों से का खमियाजा गुजरात के भूजल को चुकाना बाहर नहीं आ पाए हैं। यह अंदेशा सभी को है कि पड़ रहा है। यहां के आठ जिलों में नाइट्रेट और आने वाले दशकों में पानी को लेकर सरकार और फ्लोराइड का स्तर जल को जहर बना रहा है। समाज को बेहद मशक्कत करनी होगी। ऐसे में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के बड़े हिस्से के प्रकृतिजन्य भूजल का जहर होना मानव जाति के भूजल में यूनियन कारबाइड कारखाने के जहरीले अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा सकता है।
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आवरण कथा
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(एसएसडीडब्ल्यूपी) शुरू करने की एक अनूठी पहल की। इसके तहत आर्सेनिक प्रदूषण वाले इस पोखर सहित तीन अन्य स्थानों पर पानी के शुद्धीकरण के संयंत्र लगाए गए। उत्तर 24 परगना जिले के अलावा यह संयंत्र नादिया जिले के मायापुर और मुर्शिदाबाद जिले में भी लगाए गए हैं।
सबसे सस्ता सुरक्षित पेयजल
सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक बताते हैं, ‘हम फिलहाल महज पचास पैसे प्रति लीटर की दर से ग्रामीणों को पेयजल उपलब्ध करवा रहे हैं। यह मिनरल वॉटर की तरह तो नहीं है, लेकिन यह दुनिया का सबसे सस्ता और सुरक्षित पेयजल है।’ बीस लाख रुपए की लागत से गांव में उपरोक्त तीनों साझीदारों ने मिलकर निहायत ही आसान और सस्ती तकनीक से यह वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाया है। यहां हर दिन 8000 लीटर पानी
साफ होता है। यूवी तकनीक से साफ किए गए पानी को ‘सुलभ जल’ नाम से 20 लीटर की बोतल में 10 रुपए प्रति बोतल की दर से भरकर घर-घर पहुंचाया जाता है।’
सबसे सस्ता सुलभ जल
देश में अलग-अलग ब्रांड के बोतलबंद पानी जहां 15 से 20 रुपए प्रति लीटर की दर से मिलते हैं, ऐसे में महज पचास पैसे में साफ बोतलबंद पानी उपलब्ध करवाना एक अनूठी पहल है। यह जल आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और अन्य साधनों से गांव वालों को मुहैया कराया जाता है।
बीमारी में कमी
मधुसूदनकाती में ऐसे रोगग्रस्त लोगों का इलाज करने वाले डॉक्टर सुबलचंद्र सरकार ने बताया
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2021 तक आर्सेनिक मुक्त होगा भारत
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भारत सरकार ने फ्लोराइड और आर्सेनिक युक्त पानी से प्रभावित 28 हजार क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से राष्ट्रीय जल गुणवत्ता उप-मिशन की घोषणा की है
रत सरकार लोकसभा में कह चुकी है कि देश के जो भी इलाके आर्सेनिक और फ्लोराइड युक्त पानी के संकट को झेल रहे हैं, उनमें 2021 तक शुद्ध पेयजल पहुंचाने के लक्ष्य के साथ वह काम कर रही है। केंद्रीय पेयजल और स्वच्छता मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने प्रश्नकाल में कहा कि देश में 28,000 बसावटें ऐसी हैं, जहां पानी में आर्सेनिक और फ्लोराइड जैसे खतरनाक तत्वों का स्तर बहुत ज्यादा है। खासतौर पर पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक युक्त पानी और राजस्थान में अधिक फ्लोराइड वाले जल से लोगों को बीमारियों के मामले सामने आ रहे हैं। उन्होंने कहा कि सरकार ने 2021 तक इन क्षेत्रों को फ्लोराइड और आर्सेनिक युक्त पानी से मुक्त करने और शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से राष्ट्रीय जल गुणवत्ता उप-मिशन की घोषणा की गई और काम शुरू हो गया है। मंत्री ने कहा कि राज्यों को पैसा देना शुरू कर दिया है और वर्ष 2021 तक देश आर्सेनिक और फ्लोराइड वाले पानी के उपयोग से मुक्त हो सके, यह हमारा प्रयत्न है। तोमर ने पूरक प्रश्न के उत्तर में कहा कि कृत्रिम जल संचय और वर्षा जल संचय के लिए
देश के ग्रामीण इलाकों में करीब 23 लाख और शहरी इलाकों में 88 लाख जलाशय के निर्माण की वृहद योजना पर सरकार काम कर रही है। केंद्रीय भूजल बोर्ड ने एक अवधारणा पत्र तैयार किया है, जिसे बनाने में जलविज्ञानी और विशेषज्ञ शामिल होंगे। उन्होंने बताया कि पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने देश के ग्रामीण
कि इस परियोजना के शुरू होने के बाद चर्म रोग,फेफड़े, दिल, लीवर, दस्त, पेट की दूसरी बीमारियों और स्त्री रोग के मरीजों की संख्या में भारी कमी आई है। समिति के प्रमुख बताते हैं कि इसी कारण कई लोगों की मौत भी हो चुकी है। गांव में रहने वाली सुप्रिया घोष बताती हैं, ‘पहले हम लोगों को गहरे ट्यूबवेल का फिल्टर किया हुआ पानी मिलता था। यह शुरू में कुछ दिन तो ठीक चला, पर बाद में उसके इस्तेमाल से लोगों की सेहत खराब होने लगी।’ राज्य के दक्षिणी इलाकों के 37 ब्लॉकों में रहने वाले दूसरे लोगों के पोखर में लगा एक छोटा संयंत्र कारगर नहीं था। उनके इलाके के पानी में आर्सेनिक मिला होने के कारण वह पीने लायक नहीं है। इस क्षेत्र के कम से कम आठ लाख लोग इस तरह का दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। गांव के ही अन्य निवासी भुवन मंडल का भी कहना है, ‘बरसों बरस से यह पानी पीने के बाद अब हमें लग रहा है कि हम और हमारे बच्चों को कम से कम पानी तो पीने लायक मिल सकेगा।’
इलाकों में करोड़ों रुपए खर्च कर आर्सेनिक दूर करने वाले संयंत्र लगाए, पर हालत जस की तस है।’ उन्हें उम्मीद है कि अब इस तकनीक को अपनाने से जिंदगी आसान हो सकेगी, खासतौर पर जब सुलभ उन्हें इस काम के लिए खुद बनाने के लिए तैयार कर रहा है।
पहले के प्रयोग नाकाम
मानक से ज्यादा आर्सेनिक
इसी जिले के मंतोष विश्वास बताते हैं, ‘ये सभी बीमारियां आर्सेनिक मिला पानी पीने से होती हैं। इनका इलाज दवा नहीं बल्कि साफ पानी का सेवन ही है। एक अन्य ग्रामीण बताते हैं, ‘इस समस्या से निपटने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार ने प्रभावित
एक ग्रामीण के अनुसार, ‘तालाब के ऊपरी सतह में पानी में आर्सेनिक नहीं होता है और यदि होता है तो उसकी मात्रा निहायत ही कम होती है, लेकिन नीचे भूमिगत पानी में आर्सेनिक का स्तर काफी होता है।’ आर्सेनिक से आसपास के आठ लाख लोग प्रभावित
क्षेत्रों में पेयजल गुणवत्ता में सुधार के लिए 35 अनुसंधान और विकास परियोजनाएं संचालित की हैं। तोमर ने कहा कि देश में 53 प्रतिशत बसावटों में पाइपलाइन से पेयजल पहुंचाने का लक्ष्य पूरा कर लिया गया है और सभी क्षेत्रों में शुद्ध पेयजल पहुंचाने की दिशा में सरकार काम कर रही है
हैं। गौरतलब है कि निकटवर्ती बांग्लादेश की ढाई से लेकर चार करोड़ से अधिक आबादी को भी आर्सेनिक प्रदूषित पानी पीना पड़ता है,जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मान्य मानकों से बीस गुना ज्यादा है। भारत में यह मानक 0.05 प्रतिशत है, लेकिन इस गांव तथा देशभर के आर्सेनिक प्रदूषण वाले इलाकों में यह स्तर कई गुना ज्यादा है। पश्चिम बंगाल में भी बड़ी आबादी उन इलाकों में रहती है, जहां का पानी आर्सेनिक से बुरी तरह दूषित है।
सुलभ योजना का विस्तार
पश्चिम बंगाल के तीन जिलों में साफ पानी पहुंचाने की योजना सफल होने के साथ ही सुलभ
जिसमें समय लगेगा। इसके लिए भारत सरकार राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम कर रही है। गौरतलब है कि विगत कुछ वर्षों में भारत सहित विश्व के कई भागों के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा अंतरराष्ट्रीय मानकों से अधिक पाई गई है। भारत के अलावा 20 से अधिक राष्ट्र आर्सेनिक प्रदूषण से प्रभावित हैं। इनमें चीन, बांग्लादेश, ताईवान, चिली, अर्जेंटीना, अमेरिका, वियतनाम, मेक्सिको, थाईलैंड आदि देश शामिल हैं। आर्सेनिक एक अत्यधिक विषैला तत्व है और इसकी बहुत कम मात्रा भी मानव शरीर को प्रभावित करने लगती है। आर्सेनिक की उपयोगिता विज्ञान, औषधि एवं तकनीकी कार्य में सर्वविदित है। पर भूजल में आर्सेनिक की सांद्रता 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक होने पर इसका स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव दिखाई पड़ने लगता है। आर्सेनिक का प्रयोग कीटनाशक, सेमी कंडक्टर तथा कॉपर और लैड के अयस्क को मजबूती देने के लिए किया जाता है। भारत में गंगा एवं ब्रह्मपुत्र नदी के कछारीय क्षेत्रों के भूजल में आर्सेनिक की सांद्रता 0.01 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक पाई गई है। भारत के सात राज्य भूजल में आर्सेनिक प्रदूषण की समस्या से प्रभावित हैं। इंटरनेशनल इसे देश के बाकी हिस्सों में भी ले जाने की भी सोच रहा है। अगला पड़ाव बिहार, केरल और तमिलनाडु होगा, लेकिन साथ ही सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक कहते हैं, ‘हमने शुरुआत कर दी है, अब आगे बढ़ाने का काम तो स्थानीय लोगों को ही करना होगा। मुझे पूरी उम्मीद है कि इसे सभी स्थान पर लोग एक आंदोलन का रूप देंगे।’ मैला ढोने वाले कर्मियों को इस अमानवीय कुप्रथा से मुक्ति दिलाकर समाज की मुख्यधारा में शामिल करना, सफेद धोतियों में उम्रकैद भोग रहीं विधवाओं के जीवन को सम्मान देने की मुहिम के बाद अब क्या साफ पानी पीने को तरसते लोगों की प्यास बुझाने की एक नई मुहिम सुलभ ने शुरू की है? इस सवाल के जबाव में डॉ. पाठक सिर्फ मुस्करा देते हैं।
70 देशों में आर्सेनिक
यूनिसेफ के आंकड़ो के अनुसार दुनियाभर में 70 से अधिक देशों में 14 करोड़ से अधिक की आबादी आर्सेनिक मिले दूषित पानी पीने से प्रभावित है और इनमें से ज्यादातर एशिया में रहते हैं। इससे बच्चों में अपंगता तक का खतरा रहता है एवं वयस्कों को त्वचा से सम्बद्ध विभिन्न रोगों से लेकर कैंसर जैसे रोगों यहां तक कि मौत का भी खतरा रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे होने वाली बीमारियों का इलाज नहीं है, सिर्फ इस पानी का सेवन रोकना होगा।
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अल्बर्ट आइंस्टीन
विज्ञान का मान, शांति का ज्ञान
आइंस्टीन ने जहां अपने जीवन में एक असामान्य और बचपन से असाधारण वैज्ञानिक प्रतिभा तक की यात्रा पूरी की, वहीं उन्होंने विज्ञान के विध्वंसकारी रूप को लेकर बड़ी चिंता भी व्यक्त की
खास बातें आइंस्टीन को मॉडर्न फिजिक्स का गॉडफादर कहा जाता है उन्हें जर्मनी और अमेरिका सहित कई देशों की नागरिकता प्राप्त थी सापेक्षता के सिद्धांत के लिए 1921 में भौतिकी का नोबेल मिला
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एसएसबी ब्यूरो
ड़ी खोज के साथ बड़े वैज्ञानिक के तौर पर तो दुनिया में कई महान प्रतिभाओं को ऐतिहासिक प्रसिद्धि हासिल है, पर अल्बर्ट आइंस्टीन की प्रसिद्धि और सफलता इससे भी आगे तक जाती है। उन्होंने जहां अपने जीवन में एक असामान्य बचपन से असाधारण वैज्ञानिक प्रतिभा तक की यात्रा पूरी की, वहीं उन्होंने विज्ञान के विध्वंसकारी रूप को लेकर बड़ी चिंता भी व्यक्त की। उनकी इस चिंता ने ही उन्हें महात्मा गांधी और उनके अहिंसा के सिद्धांत का मुरीद बना दिया था। गांधीजी के साथ तो आइंस्टीन की भेंट नहीं हो सकी, पर 14 जुलाई 1930 को बर्लिन में उनकी मुलाकात भारत के महान साहित्यकार गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से अवश्य हुई थी। पश्चिम की
तार्किक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले अपने समय के महान वैज्ञानिक और पूरब की धार्मिक-दार्शनिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले एक महान विचारक एवं कवि की इस मुलाकात और उनके बीच हुए संवाद को इतिहास की एक अनूठी विरासत माना जाता है।
शताब्दी-पुरुष
बात अकेले आइंस्टीन के वैज्ञानिक देनों की करें तो विज्ञान की दुनिया के लिए आइंस्टीन एक महान
सैद्धांतिक भौतिकविद थे। वे सापेक्षता के सिद्धांत और द्रव्यमान-ऊर्जा समीकरण E=mc2 के लिए जाने जाते हैं। उन्हें सैद्धांतिक भौतिकी, खासकर प्रकाश-विद्युत उत्सर्जन की खोज के लिए 1921 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। उन्हें जर्मनी और अमेरिका सहित कई देशों की नागरिकता प्राप्त थी। उन्हें मॉडर्न फिजिक्स का गॉडफादर भी कहा जाता है। आइंस्टीन ने पचास से अधिक शोध-पत्र और विज्ञान से अलग किताबें लिखीं। 1999 में उन्हें ‘टाइम’ पत्रिका ने शताब्दी-पुरुष घोषित किया। एक सर्वेक्षण के अनुसार वे सार्वकालिक महानतम वैज्ञानिक माने गए। आइंस्टीन शब्द बुद्धिमान का पर्याय माना जाता है। आइंस्टीन ने भौतिक विश्व को उसके यथार्थ स्वरूपों में ही समझने का प्रयास किया। इस संबंध में उन्होंने कहा था, ‘शब्दों का भाषा को जिस रूप में लिखा या बोला जाता है। मेरी विचार पद्धति में उनकी उस रूप में कोई भूमिका नहीं है। पारंपरिक शब्दों अथवा अन्य चिन्हों के लिए दूसरे चरण में मात्र तब परिश्रम करना चाहिए जब संबंधीकरण का खेल फिर से दोहराया जा सके।’
शुरुआती जीवन
अल्बर्ट आइंस्टीन का जन्म 14 मार्च 1879 को जर्मनी के उल्म नामक छोटे से कस्बे में हुआ था। उनके पिता का नाम हर्मन आइंस्टीन और माता का नाम पौलिन था। पौलीन को अपने पुत्र से बहुत प्यार था और कभी वो उसको अपने से दूर नहीं करती
गांधीजी के साथ तो आइंस्टीन की भेंट नहीं हो सकी, पर 14 जुलाई 1930 को बर्लिन में उनकी मुलाकात भारत के महान साहित्यकार गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर से हुई थी
थीं। आइंस्टीन तीन वर्ष के हुए तो उनकी माता के लिए एक समस्या खड़ी हो गई कि वो बोलता नहीं था। सामान्यत: तीन वर्ष के बालक तुतलाकर बोलना सीख जाते हैं। फिर भी मां ने उम्मीद नहीं छोड़ी और उसे पियानो बजाना सिखाया। बचपन में आइंस्टीन शांत स्वाभाव के और शर्मीले थे। उनका कोई मित्र नहीं था। वे अपने पड़ोस में रहने वाले बच्चों के साथ भी खेलना पसंद नहीं करते थे। उन दिनों उनके माता -पिता म्यूनिख में रहने लगे थे। बच्चे म्यूनिख की सड़कों पर सेना
आइंस्टीननामा जन्म: 14 मार्च 1879 (उल्म, वुर्ट्टनबर्ग, जर्मनी) मृत्यु: 18 अप्रैल 1955 (प्रिंस्टन, न्यू जर्सी, अमेरिका) नागरिकता जर्मनी (1879–1896) राज्यविहीन (1896–1901) स्विट्जरलैंड (1901–1955) ऑस्ट्रिया (1911–1912) जर्मनी (1914–1933) अमेरिका (1940–1955) प्रसिद्ध सिद्धांत सापेक्षता व विशिष्ट आपेक्षिकता, प्रकाश वैद्युत प्रभाव, द्रव्यमान-ऊर्जा-समतुल्यता और ब्राउनियन गति के सिद्धांत प्रमुख सम्मान - भौतिकी का नोबेल पुरस्कार (1921) - मेट्यूक्सी पदक (1921) - कोप्ले पदक (1925) - मैक्स प्लैंक पदक (1929) - ‘टाइम’ पत्रिका के सर्वे में सदी के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति (1999)
09 - 15 जुलाई 2018
व्यक्तित्व
महात्मा को समझने का सूत्र वाक्य देने वाला वैज्ञानिक शु
‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था’ – अल्बर्ट आइंस्टीन
रुआती दौर में एक वैज्ञानिक के रूप में आइंस्टीन ने दो महान वैज्ञानिकों को ही अपना आदर्श माना था। और ये दो वैज्ञानिक थे- आइजेक न्यूटन और जेम्स मैक्सवेल। उनके कमरे में इन दो वैज्ञानिकों की पोर्ट्रेट टंगी थीं। लेकिन अपने सामने दुनिया में तरह-तरह की भयानक हिंसक त्रासदी देखने के बाद आइंस्टीन ने अपने घर में लगे इन दोनों पोर्ट्रेट के स्थान पर दो नई तस्वीरें टांग दीं। इनमें एक तस्वीर थी महान मानवतावादी अल्बर्ट श्वाइटजर की और दूसरी थी महात्मा गांधी की। इसे स्पष्ट करते हुए आइंस्टीन ने कहा था- ‘समय आ गया है कि हम सफलता की तस्वीर की जगह सेवा की तस्वीर लगा दें।’ पर महात्मा गांधी के साथ अल्बर्ट श्वाइटजर की ही तस्वीर क्यों? इस पर आइंस्टीन ने कहा था- ‘पश्चिम में अकेले अल्बर्ट श्वाइटजर ही ऐसे हैं, जिनका इस पीढ़ी पर उस तरह का नैतिक प्रभाव पड़ा है, जिसकी तुलना गांधी से की जा सकती हो। गांधी की ही तरह श्वाइटजर का भी उन पर इतना ज्यादा प्रभाव इसीलिए पड़ा, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन से इसका उदाहरण पेश किया।’ सफलता के स्थान पर सेवा को अपना आदर्श घोषित कर देने वाले आइंस्टीन के जीवन-दर्शन में यह बड़ा बदलाव दिखाता है कि मनुष्य में ज्ञान का विकास रुकता नहीं है। जीवन के अनुभव, सामाजिक वातावरण और वैश्विक परिस्थितियां मनुष्य के विचार को और व्यक्तित्व को बदलती रहती हैं। फिर चाहे वह आइंस्टीन हों या महात्मा गांधी। ऐतिहासिक शख्सियतों के अध्ययन में हमें इस बात का लगातार ध्यान रखना होता है। यह बात उन व्यक्तित्वों पर खासतौर पर लागू होता है, जिनका जीवन चिंतनशील और प्रयोगशील होता है। आइंस्टीन महात्मा गांधी से उम्र में केवल 10 साल छोटे थे। वे दोनों व्यक्तिगत रूप से कभी एकदूसरे से मिले नहीं। लेकिन एक बार आत्मीयतापूर्ण पत्राचार अवश्य हुआ। यह चिट्ठी आइंस्टीन ने 27 सितंबर, 1931 को वेल्लालोर अन्नास्वामी सुंदरम के हाथों गांधीजी को भेजी थी। इस चिट्ठी में आइंस्टीन ने लिखा- ‘अपने कारनामों से आपने की परेड को देखकर उनकी नकल उतारा करते थे, जबकि आइंस्टीन सिपाहियों को देखते ही रोने लगते थे। उस समय दूसरे सभी बच्चे बड़ा होकर सिपाही बनने की बात करते थे, लेकिन उनकी सिपाही बनने में कोई रुचि नहीं थी।
उपहार में कंपास
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जब आइंस्टीन पांच वर्ष के हो गए तो और जन्मदिन पर माता-पिता ने उन्हें मैग्नेटिक कंपास उपहार में दिया, जिसे देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। जब उस मैग्नेटिक कंपास की सुई हमेशा उत्तर दिशा की
आइंस्टीन महात्मा गांधी से उम्र में केवल 10 साल छोटे थे। वे दोनों व्यक्तिगत रूप से कभी एक-दूसरे से मिले नहीं। लेकिन एक बार आत्मीयतापूर्ण पत्राचार अवश्य हुआ बता दिया है कि हम अपने आदर्शों को हिंसा का सहारा लिए बिना भी हासिल कर सकते हैं। हम हिंसावाद के समर्थकों को भी अहिंसक उपायों से जीत सकते हैं। आपकी मिसाल से मानव समाज को प्रेरणा मिलेगी और अंतरराष्ट्रीय सहकार और सहायता से हिंसा पर आधारित झगड़ों का अंत करने और विश्वशांति को बनाए रखने में सहायता मिलेगी। भक्ति और आदर के इस उल्लेख के साथ मैं आशा करता हूं कि मैं एक दिन आपसे आमनेसामने मिल सकूंगा।’ गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने गए गांधीजी ने 18 अक्टूबर, 1931 को लंदन से ही इस पत्र का जवाब आइंस्टीन को लिखा। अपने संक्षिप्त जवाब में उन्होंने लिखा- ‘प्रिय मित्र, इससे मुझे बहुत संतोष मिलता है कि मैं जो कार्य कर रहा हूं, उसका आप समर्थन करते हैं। सचमुच मेरी भी बड़ी इच्छा है कि हम दोनों की मुलाकात होती और वह भी भारत-स्थित मेरे आश्रम में।’ इसी दौरान आइंस्टीन ने दुनिया की सेनाओं से अपील की कि वे युद्ध में शामिल होने से इनकार
कर दें। इससे पहले लियो टॉल्सटॉय भी लोगों को सेना में शामिल होने से इंकार करने का आह्वान कर चुके थे। लेकिन आइंस्टीन की इस अपील से यूरोप के कुछ शांतिवादी भी विचलित हुए और उन्हीं में से एक ब्रिटिश शांतिवादी रुनहम ब्राउन ने चार फरवरी, 1931 को महात्मा गांधी को चिट्ठी लिखी। ब्राउन यह जानना चाहते थे कि आइंस्टीन ने सैनिकों से युद्ध में शामिल न होने की जो अपील की है, उस पर गांधी के क्या विचार हैं। यह संभवतः पहला अवसर था, जब गांधी और आइंस्टीन एक-दूसरे के विचारों पर सार्वजनिक रूप से चर्चा कर रहे थे। छह मई, 1931 को ब्राउन के पत्र का जवाब देते हुए महात्मा गांधी ने लिखा- ‘मेरा खयाल है कि प्रोफेसर आइंस्टीन का सुझाव सर्वथा तर्कसंगत है। यदि युद्ध में विश्वास न करने वालों के लिए युद्ध संबंधी सेवाओं में शामिल होने से इनकार करना उचित माना जाता है, तो इससे अनिवार्य निष्कर्ष यही निकलता है कि युद्ध का प्रतिरोध करनेवालों को कम से कम उनके साथ सहानुभूति तो रखनी ही
1905 में आइंस्टीन ने सापेक्षता का सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसने उन्हें विश्वविख्यात कर दिया। इस विषय पर उन्होंने केवल चार लेख लिखे थे, पर इन लेखों ने भौतिकी का चेहरा ही बदल दिया। इस सिद्धांत का प्रसिद्ध समीकरण E=mc2 है, जिसके कारण ही परमाणु बम बन सका तरफ रहती तो उनके दिमाग में प्रश्न आते थे कि ऐसा कैसे और क्यों होता है। कहते हैं कि कंपास से शुरू हुई इस जिज्ञासा ने आइंस्टीन के अंदर वैज्ञानिक शोध की प्रवृति विकसित की।
आइंस्टीन बचपन से ही पढ़ने-लिखने में होशियार थे, लेकिन शिक्षकों के साथ उनका तालमेल नहीं बैठता था क्योंकि वे रटंत विद्या सिखाते थे। उनका बचपन में एक ही मित्र बना था, जिसका नाम मैक्स
चाहिए; भले ही उनमें अपने अंतःकरण की खातिर कष्ट सहन करने वाले लोगों के उदाहरण पर स्वयं अमल कर सकने जितना साहस न हो।’ इसके सात महीने बाद लंदन से लौटते हुए जब गांधी स्विटजरलैंड के शहर लोजान पहुंचे, तो वहां 8 दिसंबर, 1931 को उनकी पहली सभा में ही लोगों ने उनसे कई सवाल किए। इस सभा में उनसे फिर से किसी ने सीधे-सीधे आइंस्टीन के हवाले से वही सवाल किया- ‘आइंस्टीन ने आह्वान किया है कि सैनिकों को युद्ध में भाग लेने से इंकार कर देना चाहिए। उनके इस आह्वान पर आपके क्या विचार हैं?’ इस बार गांधीजी का जवाब दिलचस्प तो था ही, लेकिन इस जवाब के माध्यम से वे आइंस्टीन को इस विषय पर थोड़ा गहराई से सोचने के लिए प्रेरित भी कर रहे थे। उन्होंने कहा- ‘मेरा उत्तर केवल एक ही हो सकता है। अगर यूरोप इस तरीके को उत्साहपूर्वक अपना सके तो मैं यही कहूंगा कि आइंस्टीन ने मेरा तरीका चुरा लिया है।’ इस जवाब को आइंस्टीन ने अवश्य ही पढ़ा होगा और इसने उन्हें बाध्य किया होगा कि अहिंसा और असहयोग जैसे गहरे विषयों को केवल तात्कालिक और ऊपरी तरीकों से समझना ही पर्याप्त नहीं है। इसके बाद तो आइंस्टीन आजीवन ही गांधीजी के जीवन और विचारों के प्रति लगातार अपनी श्रद्धा व्यक्त करते रहे। गांधी जी की मृत्यु पर लिखे संदेश में आइंस्टीन ने कहा था, ‘लोगों की निष्ठा राजनीतिक धोखेबाजी के धूर्ततापूर्ण खेल से नहीं जीती जा सकती, बल्कि वह नैतिक रूप से उत्कृष्ट जीवन का जीवंत उदाहरण बनकर भी हासिल की जा सकती है।’ इससे पहले दो अक्टूबर, 1944 को महात्मा गांधी के 75वें जन्मदिवस पर आइंस्टीन ने अपने संदेश में लिखा- ‘आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।’ यह वाक्य गांधी को जानने-समझने वाली कई पीढ़ियों के लिए एक सूत्रवाक्य ही बन गया और आज भी इसे विभिन्न अवसरों पर उद्धृत किया जाता है। टेमले था। टेमले से वे अपने मन की बातें और कई तर्क संगत प्रश्न करते थे। एक दिन आइंस्टीन ने मैक्स से पूछा कि यह ब्रह्मांड कैसे काम करता है, तो इसका उत्तर उसके पास नहीं था। साफ है कि बचपन से ही उनके अंदर भौतिकी से जुड़े रहस्यों को समझने-सुलझाने के प्रति बहुत दिलचस्पी थी। आइंस्टीन के चाचा जैकब एक इंजीनियर थे, जिन्होंने आइंस्टीन के मन में गणित के प्रति रुचि जगाई थी। उन्होंने ही आइंस्टीन को सिखाया था कि जब भी बीजगणित में कुछ अज्ञात वस्तु को ढूंढना चाहते हैं तो उसे बीजगणित में ‘X’ मान लेते हैं
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व्यक्तित्व
और तब तक ढूंढ़ते रहते हैं जब तक कि उसका सही उत्तर पता नहीं लगा लेते हैं। आइंस्टीन जब 15 वर्ष के हुए तो उनके पिता के कारोबार में समस्याएं आ गई, जिसके कारण उन्हें कारोबार बंद करना पड़ा। उनके माता पिता उसको जिम्नेजियम स्कूल में दाखिला दिलाकर नौकरी की तलाश में दूसरे शहर चले गए। माता-पिता के जाने के बाद आइंस्टीन उदास रहने लगे और उनका पढ़ाई में ध्यान नहीं लगने लगा। आखिरकार वे भी अपने परिवार के पास इटली चले गए। इटली में उन्होंने बहुत सुखद समय बिताया। उसके बाद 16 वर्ष की उम्र में आइंस्टीन को स्विटजरलैंड के एक स्कूल में पढ़ने के लिए रखा गया। यहां पर उन्हें भौतिकी के योग्य अध्यापक मिले। यहीं पर उन्होंने सापेक्षता का सिद्धांत का पता लगाया था।
अध्यापक के रूप में
आइंस्टीन ने ज्यूरिख से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। स्नातक की डिग्री लेने के बाद उन्होंने
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विद्यार्थियों को पढ़ाने के बारे में विचार किया, लेकिन अधिक ज्ञान की वजह से प्रारंभ में उन्हें नौकरी मिलने में कठिनाई हुई। 1902 में आइंस्टीन को स्विट्जरलैंड के बर्न शहर में एक अस्थायी नौकरी मिल गई। इससे उन्हें अपने शोध पत्रों को लिखने और प्रकाशित कराने का बहुत समय मिला। उन्होंने डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त करने के लिए मेहनत करनी शुरू कर दी और अंत में उन्हें डाक्टरेट की उपाधि मिल ही गई।
वैज्ञानिक के रूप में
ज्यूरिख विश्वविद्यालय में उनको प्रोफेसर की नियुक्ति मिली। इस दौरान लोगों ने उन्हें महान वैज्ञानिक मानना शुरू कर दिया था। 1905 में 26 वर्ष की आयु में उन्होंने सापेक्षता का सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसने उन्हें विश्वविख्यात कर दिया। इस विषय पर उन्होंने केवल चार लेख लिखे थे, पर इन लेखों ने भौतिकी का चेहरा ही बदल दिया। इस सिद्धांत का प्रसिद्ध समीकरण E=mc2
नई थेरेपी नशे की लत से निपटने में मददगार
अमेरिका के गल्वेस्टोन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी थेरेपी विकसित की जो नशे की लत छुड़ाने में मददगार है
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धकर्ताओं ने एक थेरेपी विकसित की है, जो मादक पदार्थो के सेवन से दिमाग को होने वाले रासायनिक असंतुलन को दूर करने में मदद कर सकती है और भविष्य में मादक पदार्थों के आदी लोगों को ठीक करने व इसके सेवन से बचने में मदद कर सकती है। शोध के निष्कर्षो के अनुसार, इस नई थेरेपी का जब चूहों पर परीक्षण किया गया तो इसे जानवरों में लत कम करने में प्रभावी पाया गया। इस निष्कर्ष को जर्नल ऑफ मेडिसिनल केमिस्ट्री में प्रकाशित किया गया है। जब भी कोई व्यक्ति आदतन मादक पदार्थो का सेवन करता है, उसके दिमाग के रसायन इस तरीके से बदल जाते हैं कि वह नकारात्मक परिणामों के बावजूद मादक पदार्थ छोड़ नहीं पाता है। किसी के दिमाग में यह विकृति एक बार विकसित हो जाने बाद उसका दिमाग मादक पदार्थ सेवन करने की तरफ तेजी से ध्यान देता है, जिससे उसका खुद को रोक पाना मुश्किल हो जाता है। इन बदलावों के लिए सिरोटोनिन एक प्रमुख
भूमिका निभाता है। यह एक दिमागी रसायन है, जो तंत्रिका क्षेत्र में सूचनाएं फैलाता है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि मादक पदार्थ के आदी लोगों में सेरोटोनिन 2सी रिसेप्टर ठीक प्रकार से कार्य नहीं करता, जैसा कि उसे करना चाहिए। अमेरिका के गल्वेस्टोन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय की चिकित्सा शाखा के शोधकर्ताओं की अगुआई वाली टीम ने कमजोर संकेतकों को बहाल करने के लिए छोटे अणु वाले चिकित्सा पदार्थों की एक श्रृंखला डिजाइन की और इसका संश्लेषण किया तथा इसका औषधीय रूप से मूल्यांकन किया। निष्कर्षो से पता चला है कि नई थेरेपी से मादक पदार्थो के आदी लोगों के दिमाग के रासायनिक असंतुलन को ठीक करने में मदद मिल सकती है। (आईएएनएस)
है, जिसके कारण ही परमाणु बम बन सका। इसी के कारण ध्वनि चलचित्र और टीवी पर शोध हो सके। आइंस्टीन को अपनी इसी खोज के लिए विश्व प्रसिद्ध नोबेल पुरुस्कार मिला था। इतनी सफलता और प्रसिद्धि बाद भी वे हमेशा नम्रता से रहते थे। आइंस्टीन विश्व शांति और समानता में विश्वास रखते थे। आइंस्टीन को अपने जीवन में सबसे ज्यादा दुख तब हुआ, जब उनके वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण बाद में परमाणु बम बना, जिससे 1945 में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी जैसे नगर ध्वस्त हो गए थे।
आइंस्टीन का परिवार
1903 में अल्बर्ट आइंस्टीन का विवाह मिलवा मैरिक से हुआ था। इस दांपत्य से उन्हें दो पुत्र अल्बर्ट और एडूआई प्राप्त हुए। आइंस्टीन को विवाह के पहले से भी एक पुत्री थी, जिसे उन्होंने गोद लिया था, लेकिन उसकी बचपन में ही मौत हो गई थी। 14 फरवरी 1919 को उनका मैरिक से
तलाक हो गया। इसी वर्ष उन्होंने दूसरी शादी की। उनकी दूसरी पत्नी का नाम एलसा था, लेकिन वो भी 1936 में चल बसीं। बताते हैं कि आइंस्टीन का पारिवारिक जीवन जहां अस्थिर रहा, वहीं पारिवारिकता को लेकर वे थोड़े उदास खयाल के भी थे। वे अपना ज्यादातर समय अपनी वैज्ञानिक खोजों में लगाते थे।
आइंस्टीन की मृत्यु
18 अप्रैल 1955 को इस महान वैज्ञानिक की अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में मृत्यु हो गई। वे अपने जीवन के अंत तक कार्य करते रहे। मानवता की भलाई में उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया था। इतना सब होने के बाद भी वे किसी के घनिष्ठ मित्र नहीं बन सके, क्योंकि उनका लक्ष्य हमेशा सृष्टि को जानने का रहा था। आइंस्टीन की प्रतिभा से प्रभवित होने के कारण मृत्यु के बाद उनके दिमाग का अध्ययन किया गया, लेकिन कुछ विशेष तथ्य हाथ नहीं आए।
गर्भपात का कारण बन सकता है जीका वायरस
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं का दावा है कि जीका वायरस, गर्भपात और गर्भधारण में जटिलताओं का एक बड़ा कारण भी हो सकता है
शो
धकर्ताओं का मानना है कि जीका संक्रमण, कई बार जिसके लक्षण भी दिखाई नहीं देते हैं, गर्भावस्था में कमी, गर्भपात और गर्भधारण में जटिलताओं का एक बड़ा कारण हो सकता है। इस पर अध्ययन के लिए छह राष्ट्रीय प्राइमेट रिसर्च सेंटर (एनपीआरसी) से आंकड़े एकत्रित किए गए थे, जहां टीम ने गर्भवती महिलाओं की निगरानी की ताकि उनके शरीर और भ्रूण का विकास करने वाले ऊत्तकों में जीका वायरस की प्रगति को देखा जा सके। निष्कर्षों से पता चला है कि जीका से संक्रमित 26% गैर-मानव जीव भी गर्भावस्था के प्रारंभिक चरणों के दौरान गर्भपात या गर्भपात का अनुभव करते हैं, भले ही जानवरों ने संक्रमण के कुछ संकेत दिखाए। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक कोएन वान रोम्पे ने कहा कि जीका-संक्रमित गर्भवती मादा बंदरों में भ्रूण की हानि और गर्भपात की ये दरें आमतौर पर इन शोध केंद्रों में अप्रत्याशित बंदर आबादी में देखी गई तुलना में लगभग चार गुना अधिक थीं। रोम्पे ने कहा कि कई भ्रूण और प्लेसेंटल ऊत्तकों में जीका वायरस प्रतिकृति का सबूत था और इसमें पैथोलॉजिकल घाव भी थे, जो इस हानिकारक परिणाम में जीका वायरस की
भूमिका का समर्थन करता है। जीका वायरस व्यापक रूप से बच्चों को सूक्ष्मता और अन्य विकृतियों नामक मस्तिष्क असामान्यता के साथ पैदा करने के लिए जाना जाता है। मानव वयस्कों में जीका रोग में बुखार, दांत, सिरदर्द, संयुक्त और मांसपेशी दर्द, साथ ही लाल आंखें भी शामिल हैं। लार्क कॉफी के एक अर्बोविरोलॉजिस्ट यूसी डेविस ने कहा कि जिन इलाकों में जीका वायरस प्रचलित है वहां गर्भवती महिलाएं सहजता से गर्भपात का अनुभव कर सकती हैं, जीका वायरस संक्रमण के संभावित रूप को याद किया जा सकता है। नेचर मेडिसिन पत्रिका में प्रकाशित लेख में उन्होंने कहा कि बंदरों में हमारा डेटा इंगित करता है कि अधिक शोध की आवश्यकता है, इसलिए शोधकर्ता गर्भवती महिलाओं और उनके भ्रूण को जीका वायरस से बचाने के लिए रणनीतियों को विकसित कर सकते हैं। (एजेंसी)
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सामने आईं नवजात ग्रह की तस्वीरें यूरोपियन सदर्न ऑब्जर्वेटरी के काफी बड़े टेलिस्कोप से ली गई धरती से 370 प्रकाश वर्ष दूर नए ग्रह की तस्वीर
हा
ल ही में पहली बार वैज्ञानिकों के हाथ किसी नए ग्रह की रचना से जुड़ी तस्वीरें लगी हैं। इन तस्वीरों में यह ग्रह, गैस और धूल से घिरे पीडीएस70 नाम के सितारे के अंदर से गुजरता नजर आ रहा है। बताया जाता है कि इसकी पृथ्वी से दूरी लगभग 370 प्रकाश वर्ष है। इन तस्वीरों को यूरोपियन सदर्न ऑब्जर्वेटरी के काफी बड़े टेलिस्कोप से खींचा गया है। वृहस्पति से भी काफी बड़ा है और इसकी दूरी अपने सितारे से उतनी ही है जितनी दूरी पर सूर्य से यूरेनस (वरुण) ग्रह स्थित है। इसके अलावा पता लगा है कि यहां के सतह का तापमान लगभग 1000 डिग्री सेल्सियस है और इसका वातावरण काफी बादलों से घिरा हुआ है। इस बारे में मीडिया से हुई बातचीत में जर्मनी की प्रसिद्ध वैज्ञानिक मीरियम केपलर ने बताया, 'ऐसे नए सितारों के चारों ओर बने डिस्क (ग्रहपथ) कई ग्रहों के जन्मस्थान होते हैं, मगर अभी तक इस बारे में सीमित जानकारी ही वैज्ञानिकों के पास है, जिनके आधार पर यह पुष्टि की जा सके कि किसी डिस्क के
अंदर कोई नन्हा ग्रह वाकई है।' हालांकि, अभी इस नए ग्रह को लेकर अन्य जानकारी इकट्ठा करना बाकी है। अपने द्वारा की गई इस खोज को लेकर मीरियम का मानना है कि आज से पहले इतनी विस्तृत जानकारी का पता नहीं लग सका था। जबकि उनकी इस खोज का यह फायदा हुआ है कि इस नए ग्रह को लेकर कई तरह के इंस्ट्रूमेंट्स और फिल्टर बैंड्स के इस्तेमाल से कई तरह की नई जानकारियां सामने आई हैं। आज से पहले हुई खोजों पर सितारों से आते प्रकाश पर निर्भर रहना पड़ता था, मगर इस बार किसी नए ग्रह की अपने जन्मस्थान से सीधे तौर पर इतनी साफ तस्वीरें ली जा सकी हैं। जबकि पहले अपनाए जाते केपलर टेलिस्कोप से ऐसा हो पाना संभव नहीं था। बताया जा रहा है कि अब वैज्ञानिक चारों ओर से नक्षत्र मंडल (डिस्क) से घिरे सितारों से ग्रहों की कैसे उत्पत्ति होती है, उसकी पहले से कहीं बेहतर समीक्षा कर पाएंगे। अगर इस ग्रह की बात करें तो बताया जा रहा है कि इसके चारों ओर जो सितारे का नक्षत्र मंडल (डिस्क) है, वह कुछ पांच से छह मिलियन साल का है, मगर यह ग्रह उससे काफी ज्यादा नया है। हालांकि, अभी इस बारे में और खोज करना बाकी है कि कैसे एक ग्रह की उत्पत्ति पैरंट स्टार से इतनी दूरी पर हो रही है। क्योंकि ग्रहों को लेकर जो थिअरी अभी तक चली आ रही है उससे इस बारे में अभी कुछ भी ठीक से नहीं कहा जा सकता है। (एजेंसी)
नीम यौगिक से होगा स्तन कैंसर का इलाज
हैदराबाद स्थित एनआईपीईआर के वैज्ञानिकों का दावा है कि नीम के पत्तों और फूलों से स्तन कैंसर का इलाज संभव है
है
दराबाद स्थित एनआईपीईआर के वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि नीम के पत्तों और फूलों से प्राप्त एक रासायनिक यौगिक निंबोलाइड स्तन कैंसर के इलाज में कुशलतापूर्वक काम कर सकता है। वैज्ञानिक चंद्रयाह गोडुगु ने कहा कि वे आगे अनुसंधान करने और नैदानिक परीक्षण के वित्त पोषण के लिए जैव प्रौद्योगिकी विभाग, आयुष और विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभागों और विभिन्न एजेंसियों के संपर्क में हैं। उन्होंने कहा कि उन्नत तकनीकी प्रक्रियाओं द्वारा इससे सस्ती एंटी-कैंसर दवा बनाई जा सकती है, क्योंकि नीम का पेड़ भारत में हर जगह पाया जाता है। अनुसंधान कार्यक्रम से जुड़े गोडुगु ने कहा, इसके ‘कैंसर विरोधी तत्वों के अलावा, यह एक आशाजनक केमोप्रेंटेंटिव एजेंट साबित हो सकता
है।’ उन्होंने कहा कि यद्यपि नीम के पौधे के विभिन्न हिस्सों का इस्तेमाल परंपरागत रूप से कई विकारों को ठीक करने के लिए किया जाता है, उनके तर्क के लिए वैज्ञानिक साक्ष्य की कमी थी। उन्होंने कहा, ‘हमने हाल ही में नए आणविक मार्गों से स्तन कैंसर में निंबोलाइड की कैंसर विरोधी क्षमता को साबित कर दिया है। यह सेल मौत को प्रेरित करता है और कैंसर की कोशिकाओं के प्रसार को रोकता है। हमने पाया कि निंबोलाइड ने स्तन कैंसर और ट्रिपल नकारात्मक स्तन कैंसर कोशिकाओं के विकास को काफी हद तक रोक दिया है।’ नीम के पेड़ का भारतीय चिकित्सा प्रणाली में एक बड़ा महत्व है और आयुर्वेद में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें यह एंटी-माइक्रोबियल, एंटी-कैंसर,
विविध
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पशु-पक्षियों की मदद कर रहीं कमलेश 17 वर्षों से पशु-पक्षियों की सेवा में जुटी हैं कमलेश चौधरी
म्र 57 साल, शरीर स्लिप डिस्क के दर्द से परेशान लेकिन बेजुबानों के लिए यह कमलेश का प्यार ही है जो पिछले 17 सालों से लगातार उनकी सेवा में लगी हैं। कमलेश अब तक दो हजार से ज्यादा पशु-पक्षियों का इलाज करा चुकी हैं। यही नहीं, वह रोजाना इन्हें खाने से लेकर दवाइयां तक अपने हाथों से खिलाती हैं। इनके जुनून और जज्बे को हर कोई सलाम करता है। बचपन से पशु और पक्षियों को पालने का शौक रखने वाली कमलेश चौधरी अपने परिवार के साथ मॉडल टाऊन स्थित गुजरावालां टाउन-2 में रहती हैं। पति ऋषिपाल चौधरी दिल्ली जलबोर्ड के डायरेक्टर पद से रिटायर्ड हैं। परिवार में बेटा वरुण, बेटी पूजा के अलावा बहू शांभवी हैं। कमलेश बताती हैं कि बेटा, बेटी और बहू तीनों डॉक्टर हैं। घर में भगवान का दिया सबकुछ है। बचपन से पशु और पक्षियों का शौक कब जुनून में बदल गया पता ही नहीं चला। कमलेश ने इसकी शुरुआत साल 2001 से पहाड़गंज स्थित आरामबाग से की थी। यहां 14 साल सेवा करने के बाद सिविल लाइन स्थित कैंप में रहने चली गईं। अब दो सालों से मॉडल टाउन इलाके में पशु-
पक्षियों की सेवा में जुटी हैं कमलेश कहती हैं कि इन 17 सालों में बेजुबानों की सेवा कर उनकी भाषा समझ चुकी हैं। उनके दुख दर्द को समझती हैं। यही कारण है कि कमलेश मॉडल टाउन इलाके में जहां भी जाती हैं, जानवर कमलेश की आहट से पास आ जाते हैं। मॉडल टाउन इलाके में कमलेश ने 6 जगहों पर पशु और पक्षियों के लिए 50 से अधिक मिट्टी के बर्तन रखवाए हैं। सुबह और शाम यहां जानवरों और पक्षियों का सेवा करने खुद आती हैं। पक्षियों को दाना डालती हैं और मिट्टी के बर्तनों में पानी डालती हैं। शाम को यही काम दोहराती हैं। रोजाना 15 लीटर दूध, 2 किलो अनाज और पानी जानवरों और पक्षियों को पिलाती हैं। इस काम में कमलेश का परिवार भी हाथ बंटाता है। कमलेश बताती हैं कि जैसे ही किसी बेजुबान जानवर की पीड़ा को लोग देखते हैं, तुरंत खबर करते हैं। इसके बाद तुरंत पशु की सेवा के लिए पहुंच जाती हैं। मरहम पट्टी से जब जानवरों की पीड़ा दूर नहीं होती तो वह ऐसे जानवरों को अस्पताल तक पहुंचाती हैं। जिन पक्षियों का इलाज घर पर करती हैं, सही होने के बाद उन्हें दोबारा पार्कों में ले जाकर छोड़ देती हैं। कमलेश बताती हैं कि करीब 6 साल पहले पार्क से घायल गिलहरी को घर लेकर आई थीं। मरहम पट्टी के बाद परिवार के अन्य सदस्यों को इसकी जिम्मेदारी देकर शिमला चली गईं। इस दौरान पता चला कि कपड़े में दम घुटने से गिलहरी की मौत हो गई। इसके बाद से ही कमलेश ने बाहर जाना छोड़ दिया, जब तक कोई घायल बेजुबान ठीक नहीं हो जाता, वह उसे अकेला नहीं छोड़ती हैं। (एजेंसी)
एं ट ी - ड ा इ बे टि क जैसे कई गुण हैं। उन्होंने कहा इसकी कैंसर विरोधी गतिविधि का व्यापक रूप से पता लगाया गया है जो मुख्य रूप से सक्रिय घटक निंबोलाइड के कारण है। निंबोलाइड केमोथेरेपीटिक दवाओं से जुड़े गंभीर साइड इफेक्ट्स को भी कम कर सकता है। चूंकि यह एं ट ी - क ैं स र गतिविधि दिखाता है। साथ ही दवा प्रतिरोध की संभावना बहुत कम है। यह ठीक होकर दोबारा हो जाने वाले ट्यूमर के खिलाफ फायदेमंद साबित हो सकता है, जो दवा प्रतिरोध की चुनौती उत्पन्न करता है। गोडुगु ने कहा कि यह निष्क्रिय और प्रतिरोधी कैंसर स्टेम कोशिकाओं को भी मार सकता है। एनआईपीईआर, हैदराबाद में उन्नत शोध के
लि ए उत्कृष्टता केंद्र बनने के घोषित उद्देश्यों के साथ राष्ट्रीय महत्व का एक संस्थान है। मौखिक जैव उपलब्धता और निंबोलाइड के फार्माकोकेनेटिक्स की पहेली को हल करने के लिए एनआईपीईआर ने फार्माकोलॉजी और फार्मास्यूटिकल विश्लेषण के क्षेत्र में विशेषज्ञों की एक टीम बनाई, जिसमें शांडिलिया बैरा, अमित खुराना, जगनमोहन सोमागोनी, आर श्रीनिवास, गोडुगु, एमवीएन कुमार तल्लुरी शामिल हैं। (एजेंसी)
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पुस्तक अंश
09 - 15 जुलाई 2018
सत्य के प्रयोग न सिर्फ विचार, बल्कि साहित्य की दृष्टि से भी महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ दुनिया भर में सर्वाधिक पढ़ी और सराही जाने वाली पुस्तकों में शामिल है। इस पुस्तक को कई महापुरुषों ने अपनी आदर्श पुस्तक कहा है। महात्मा की इस प्रेरक आत्मकथा को ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ के इस अंक से हम आपके लिए धारावाहिक रूप में लेकर आ रहे हैं। इस बार पढ़ें सत्य के प्रयोग के लिए लिखी गई बापू की ‘प्रस्तावना’, मूल गुजराती से जिसका हिंदी में अनुवाद काशीनाथ त्रिवेदी ने किया है...
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र या पांच वर्ष पहले निकट के साथियों के आग्रह से मैंने आत्मकथा लिखना स्वीकार किया और उस आरंभ भी कर दिया था। किंतु फुल-स्केप का एक पृष्ठ भी पूरा नहीं कर पाया था कि इतने में बंबई की ज्वाला प्रकट हुई और मेरा काम अधूरा रह गया। उसके बाद तो मैं एक के बाद एक ऐसे व्यवसायों में फंसा कि अंत में मुझे यरवडा का अपना स्थान मिला। भाई जयरामदास भी वहां थे। उन्होंने मेरे सामने अपनी यह मांग रखी कि दूसरे सब काम छोड़कर मुझे पहले अपनी आत्मकथा ही लिख डालनी चाहिए। मैंने उन्हें जवाब दिया कि मेरा अभ्यास-क्रम बन चुका है और उसके समाप्त होने तक मैं आत्मकथा का आरंभ नही कर सकूंगा। अगर मुझे अपना पूरा समय यरवडा में बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ तो मैं जरूर आत्मकथा वहीं लिख सकता था। परंतु अभी अभ्यास क्रम की समाप्ति में भी एक वर्ष बाकी था कि मैं रिहा कर दिया गया। उससे पहले मैं किसी तरह आत्मकथा का आरंभ भी नहीं कर सकता था। इसलिए वह लिखी नहीं जा सकी। अब स्वामी आनंद ने फिर वही मांग की है। मैं दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास लिख चुका हूं,
इसीलिए आत्मकथा लिखने को ललचाया हूं। स्वामी की मांग तो यह थी कि मैं पूरी कथा लिख डालूं और फिर वह पुस्तक के रूप में छपे। मेरे पास इकट्ठा इतना समय नहीं है। अगर लिखूं तो 'नवजीवन' के लिए ही मैं लिख सकता हूं। मुझे ‘नवजीवन’ के लिए कुछ तो लिखना ही होता है, तो आत्मकथा ही क्यों न लिखूं? स्वामी ने मेरा यह निर्णय स्वीकार किया और अब आत्मकथा लिखने का अवसर मुझे मिला। किंतु यह निर्णय करने पर एक निर्मल साथी ने, सोमवार के दिन जब मैं मौन में था, धीमे से मुझे यों कहा,‘आप आत्मकथा क्यों लिखना चाहते हैं? यह तो पश्चिम की प्रथा है। पूर्व में तो किसी ने लिखी जानी नहीं। और लिखेंगे क्या? आज जिस वस्तु को आप सिद्धांत के रूप में मानते हैं, उसे कल मानना छोड़ दें तो? अथवा सिद्धांत का अनुसरण करके जो भी कार्य आज आप करते हैं, उन कार्यों में बाद में हेरफेर करें तो? बहुत से लोग आपके लेखों को प्रमाणभूत समझकर उनके अनुसार अपना आचरण
गढ़ते हैं। वे गलत रास्ते पर चले जाएं तो? इसीलिए सावधान रहकर फिलहाल आत्मकथा जैसी कोई चीज न लिखें तो क्या ठीक न होगा?’ इस दलील का मेरे मन पर थोड़ा-बहुत असर हुआ। लेकिन मुझे आत्मकथा कहां लिखनी है? मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किए, उनकी कथा लिखनी है। यह सच है कि उनमें मेरा जीवन ओतप्रोत होने के कारण कथा एक जीवन-वृतांत जैसी बन जाएगी। लेकिन अगर उसके हर पन्ने पर मेरे प्रयोग ही प्रकट हों, तो मैं स्वयं उस कथा को निर्दोष मानूंगा। मैं ऐसा मानता हूं कि मेरे सब प्रयोगों का पूरा लेखा जनता के सामने रहे तो वह लाभदायक सिद्ध होगा अथवा यों समझिए कि यह मेरा मोह है। राजनीति के क्षेत्र में हुए मेरे प्रयोगों को तो अब हिंदुस्तान जानता है, यही नहीं बल्कि थोड़ी-बहुत मात्रा में सभ्य कही जाने वाली दुनिया भी जानती है। मेरे मन में इसकी कीमत कम से कम है, और इसीलिए इन प्रयोगों के द्वारा मुझे ‘महात्मा’
मुझे आत्मकथा कहां लिखनी है? मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के जो अनेक प्रयोग मैंने किए, उनकी कथा लिखनी है
09 - 15 जुलाई 2018
का जो पद मिला है, उसकी कीमत भी कम ही है। कई बार तो इस विशेषण ने मुझे बहुत अधिक दुख भी दिया है। मुझे ऐसा एक भी क्षण याद नहीं है जब इस विशेषण के कारण मैं फूल गया होऊं। लेकिन अपने आध्यात्मिक प्रयोगों का, जिन्हें मैं ही जान सकता हूं और जिनके कारण राजनीति के क्षेत्र में मेरी शक्ति भी जन्मी है, वर्णन करना मुझे अवश्य ही अच्छा लगेगा। अगर ये प्रयोग सचमुच आध्यात्मिक हैं तो इनमें गर्व करने की गुंजाइश ही नहीं। इनसे तो केवल नम्रता की ही वृद्धि होगी। ज्यों-ज्यों मैं विचार करता जाता हूं, भूतकाल के अपने जीवन पर दृष्टि डालता हूं, त्यो-त्यों अपनी अल्पता मैं स्पष्ट ही देख सकता हूं। मुझे जो करना है, तीस वर्षों से मैं जिसकी आतुर भाव से रट लगाए हुए हूं, वह तो आत्म-दर्शन है, ईश्वर का साक्षात्कार है, मोक्ष है। मेरे सारे काम इसी दृष्टि से होते हैं। मेरा सब लेखन भी इसी दृष्टि से होता है, और राजनीति के क्षेत्र में मेरा पड़ना भी इसी वस्तु के अधीन है। मेरा यह मत रहा है कि जो एक के लिए शक्य है, वह सबके लिए शक्य है। इस कारण मेरे प्रयोग खानगी नहीं हुए, नहीं रहे। उन्हें सब देख सकें तो मुझे नहीं लगता कि उससे उनकी आध्यात्मिकता कम होगी। अवश्य ही कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन्हें आत्मा ही जानती है, जो आत्मा में ही समा जाती हैं। परंतु ऐसी वस्तु देना मेरी शक्ति से परे की बात है। मेरे प्रयोगों में तो आध्यत्मिकता का मतलब है नैतिक, धर्म का अर्थ है नीति, आत्मा की दृष्टि से पाली गई नीति धर्म है। इसीलिए जिन वस्तुओं का निर्णय बालक, नौजवान और बूढ़े करते हैं और कर सकते हैं, इस कथा में उन्हीं वस्तुओं का समावेश होगा। अगर ऐसी कथा मैं तटस्थ भाव से निरभिमान रहकर लिख सकूं तो उसमें से दूसरे प्रयोग करनेवालों को कुछ सामग्री मिलेगी। इन प्रयोगों के बारे में मैं किसी भी प्रकार की संपूर्णता का दावा नहीं करता। जिस तरह वैज्ञानिक अपने प्रयोग अतिशय नियम-पूर्वक, विचारपूर्वक और बारीकी से करता है फिर भी उनसे उत्पन्न परिणामों को अंतिम नही कहता, अथवा वे परिणाम सच्चे ही हैं इस बारे में भी वह सशंक नहीं तो तटस्थ अवश्य रहता है, अपने प्रयोगों के विषय में मेरा भी वैसा ही दावा है। मैंने खूब आत्म-निरीक्षण किया है, एक-एक भाव की जांच की है, उसका पृथक्करण किया है। किंतु उसमें से निकले हुए परिणाम सबके लिए अंतिम ही हैं, वे सच हैं अथवा वे ही सच हैं ऐसा दावा मैं कभी करना नहीं चाहता। हां, यह दावा मैं अवश्य करता हूं कि मेरी दृष्टि से ये सच हैं और इस समय तो अंतिम जैसे ही मालूम पड़ते हैं। अगर न मालूम हों तो मुझे उनके सहारे कोई भी कार्य खड़ा नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं तो पग-पग पर जिन-जिन वस्तुओं को देखता हूं, उनके त्याज्य और ग्राह्य ऐसे दो भाग कर लेता हूं और जिन्हें ग्राह्य समझता हूं उनके अनुसार अपना आचरण बना लेता हूं।
और जब तक इस तरह बना हुआ आचरण मुझे अर्थात मेरी बुद्धि को और आत्मा को संतोष देता है, तब तक मुझे उसके शुभ परिणामों के बारे में अविचलित विश्वास रखना ही चाहिए। यदि मुझे केवल सिद्धांतों का अर्थात तत्वों का ही वर्णन करना हो तो यह आत्मकथा मुझे लिखनी ही नहीं चाहिए। लेकिन मुझे तो उन पर रचे गए कार्यों का इतिहास देना है और इसीलिए मैंने इन प्रयत्नों को ‘सत्य के प्रयोग’ जैसा पहला नाम दिया है। इसमें सत्य से भिन्न माने जाने वाले अहिंसा, ब्रह्यचर्य इत्यादि नियमों के प्रयोग भी आ जाएंगे। लेकिन मेरे मन सत्य ही सर्वोपरि है और उसमें अगणित वस्तुओं का समावेश हो जाता है। यह सत्य स्थूल (वाचिक) सत्य नही हैं। यह तो वाणी की तरह विचार का भी है। यह सत्य केवल हमारा कल्पित सत्य ही नहीं है, बल्कि स्वतंत्र चिरस्थायी सत्य है, अर्थात परमेश्वर है। परमेश्वर की व्याख्याएं अनगिनत हैं, क्योंकि उसकी विभूतियां भी अनगिनत हैं। ये विभूतियां मुझे आश्चर्यचकित करती हैं। क्षण भर के लिए ये मुझे मुग्ध भी करती हैं। किंतु मैं पुजारी तो सत्यरूपी परमेश्वर का ही हूं। वह एक ही सत्य है और दूसरा सब मिथ्या है। यह सत्य मुझे मिला
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पुस्तक अंश
नहीं है, लेकिन मैं इसका शोधक हूं। इस शोध के लिए मैं अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु का त्याग करने को तैयार हूं और मुझे यह विश्वास है कि इस शोधरूपी यज्ञ में इस शरीर को भी होम करने की मेरी तैयारी है और शक्ति है। लेकिन जब तक मैं इस सत्य का साक्षात्कार न कर लूं, तब तक मेरी अंतरात्मा जिसे सत्य समझती है उस काल्पनिक सत्य को आधार मानकर, अपना दीपस्तंभ, उसके सहारे अपना जीवन व्यतीत करता हूं। यद्यपि यह मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है, तो भी मुझे यह सरल से सरल लगा है। इस मार्ग पर चलते हुए अपनी भयंकर भूलें भी मुझे नगण्य सी लगी हैं, क्योंकि वैसी भूलें करने पर भी मैं बच गया हूं और अपनी समझ के अनुसार आगे बढ़ा हूं। दूर दूर से विशुद्ध सत्य की - ईश्वर की - झांकी भी मैं कर रहा हूं। मेरा यह विश्वास दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है कि एक सत्य ही है, उसके अलावा दूसरा कुछ भी इस जगत में नहीं है। यह विश्वास किस प्रकार बढ़ता गया है, इसे मेरा जगत अर्थात 'नवजीवन' इत्यादि के पाठक जानकर मेरे प्रयोगों के साझेदार बनना चाहे और उस सत्य की झांकी भी मेरे साथ करना चाहे तो भले करे। साथ ही, मैं यह भी अधिकाधिक मानने
लगा हूं कि जितना कुछ मेरे लिए संभव है, उतना एक बालक के लिए भी संभव है और इसके लिए मेरे पास सबल कारण हैं। सत्य की शोध के साधन जितने कठिन हैं उतने ही सरल हैं। वे अभिमानी को असंभव मालूम होंगे और एक निर्दोष बालक को बिल्कुल संभव लगेंगे। सत्य के शोधक को रजकण से भी नीचे रहना पड़ता है। सारा संसार रजकणों को कुचलता है पर सत्य का पुजारी तो जब तक इतना अल्प नहीं बनता कि रजकण भी उसे कुचल सके, तब तक उसके लिए स्वतंत्र सत्य की झांकी भी दुर्लभ है। यह चीज वशिष्ठ विश्वामित्र के आख्यान में स्वतंत्र रीति से बताई गई है। ईसाई धर्म और इस्लाम भी इसी वस्तु को सिद्ध करते हैं। मैं जो प्रकरण लिखनेवाला हूं, उनमें यदि पाठकों को अभिमान भास हो तो उन्हें अवश्य ही समझ लेना चाहिए कि मेरी शोध में खामी है और मेरी झांकियां मृगजल के समान हैं। मेरे समान अनेकों का क्षय चाहे हो, पर सत्य की जय हो। अल्पात्मा को मापने के लिए हम सत्य का गज कभी छोटा न करें। मैं चाहता हूं कि मेरे लेखों को कोई प्रमाणभूत न समझे। यही मेरी बिनती है। मैं तो सिर्फ यह चाहता हूं कि उसमें बताए गए प्रयोगों को दृष्टांतरूप मानकर सब अपने अपने प्रयोग यथाशक्ति और यथामति करें। मुझे विश्वास है कि इस संकुचित क्षेत्र में आत्मकथा के मेरे लेखों से बहुत कुछ मिल सकेगा, क्योंकि कहने योग्य एक भी बात मैं छिपाऊंगा नहीं। मुझे आशा है कि मैं अपने दोषों का खयाल पाठकों को पूरी तरह दे सकूंगा। मुझे सत्य को शास्त्रीय प्रयोगों का वर्णन करना है, मैं कितना भला हूं इसका वर्णन करने की मेरी तनिक भी इच्छा नही है। जिस गज से स्वयं मैं अपने को मापना चाहता हूं और जिसका उपयोग हम सब को अपने अपने विषय में करना चाहिए, उसके अनुसार तो मैं अवश्य कहूंगामो सम कौन कुटिल खल कामी? जिन तनु दियो ताहि बिसरायो ऐसो निमकहरामी। क्योंकि जिसे मैं संपूर्ण विश्वास के साथ अपने श्वासोच्छ्वास का स्वामी समझता हूं जिसे मैं अपने नमक का देनेवाला मानता हूं, उससे मैं अभी तक दूर हूं, यह चीज मुझे प्रतिक्षण खटकती है। इसके कारण रूप अपने विकारों को मैं देख सकता हूं पर उन्हें अभी तक निकाल नही पा रहा हूं। परंतु इसे यहीं समाप्त करता हूं। प्रस्तावना में से मैं प्रयोग की कथा में नहीं उतर सकता। वह तो कथा प्रकरणों में ही मिलेगी। आश्रम साबरमती मार्गशीर्ष शुक्ल 11, 1982
मोहनदास करमचंद गांधी
(शेष अगले अंक में)
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गुड न्यूज
09 - 15 जुलाई 2018
मधुबनी से पटना पहुंची क्राफ्टवाला की टीम
विद्यापति मार्ग स्थित चेतना समिति के विद्यापति भवन में मिथिला चित्रकला की गैलरी का निर्माण 'क्राफ्ट विलेज' जितवारपुर से आए कलाकारों की टीम द्वारा किया जा रहा है
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मनोज पाठक
हार के मुख्यमंत्री आवास पहुंचने वाला कोई भी व्यक्ति अब दुनियाभर में विख्यात लोक कला मधुबनी पेंटिंग की विविध कलाकृतियों को देख यहां की प्राचीन कलासंस्कृति से न केवल रूबरू होगा, बल्कि उनकी बारिकियों को भी समझेगा। बिहार के मधुबनी स्टेशन परिसर को मधुबनी पेंटिंग से सजाने-संवारने के बाद गांव के कलाकर अब राजधानी पटना की दीवारों पर अपनी कला को उकेर कर उन्हें खूबसूरत बनाने में जुटे हैं। पटना स्थित प्रसिद्ध विद्यापति भवन की दीवारों पर भी कलाकार मधुबनी पेंटिंग उकेर कर इस भवन की रौनक बढ़ा रहे हैं। बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र खासकर दरभंगा और मधुबनी के अलावा नेपाल के कुछ क्षेत्रों में मधुबनी पेंटिंग की खास पहचान है। रंगोली के रूप में शुरू हुई यह कला धीरे-धीरे आधुनिक रूप में कपड़ों, दीवारों एवं कागज पर उतर आई है। मिथिला की महिलाओं द्वारा शुरू की गई इस घरेलू चित्रकला को पिछले कुछ दशकों में पुरुषों ने भी अपना लिया है।
मधुबनी पेंटिंग को बिहार की गलियों और घरों तक पहुंचाने का संकल्प लिए स्वयंसेवी संस्था 'क्राफ्टवाला' के कलाकार अब राजधानी पटना पहुंचे हैं। पटना के विद्यापति मार्ग स्थित चेतना समिति के विद्यापति भवन में मिथिला चित्रकला की आर्ट गैलरी का निर्माण 'क्राफ्ट विलेज' जितवारपुर से आए कलाकारों की टीम द्वारा किया जा रहा है। क्राफ्टवाला के संस्थापक राकेश झा बताते हैं, 'इस कार्य का उद्देश्य विद्यापति भवन में मधुबनी पेंटिंग के परंपरागत स्वरूप को प्रदर्शित करना है, जिसके तहत मिथिला क्षेत्र के लोक संस्कारों जैसे विवाह, मुंडन, जनेऊ आदि में प्रयुक्त विभिन्न प्रकार के अल्पना (अरिपन), कोहबर (कोबर), सीतायन (सीता का जीवन चरित्र), लोक नायकों की गाथा आदि का चित्रण मधुबनी पेंटिंग शैली में किया जा रहा है।' उन्होंने कहा कि चेतना समिति वर्षों से मिथिला की लोक कला संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए प्रयत्नशील रही है। ऐसे में विद्यापति भवन को बिहार का पहला मधुबनी पेंटिंग आर्ट गैलरी बनाने का दायित्व क्राफ्टवाला को सौंप समिति ने हमें गर्व का पल प्रदान किया है।
चेतना समिति के उमेश मिश्र बताते हैं कि विद्यापति भवन को मधुबनी पेंटिंग से सजाने का उद्देश्य आने वाली पीढी को मिथिला पेंटिंग से केवल रूबरू कराना है। राकेश झा कहते हैं कि क्राफ्टवाला की टीम ने मधुबनी पेंटिंग को जगह-जगह बढ़ाने की कोशिश की है। उन्होंने कहा कि इसके तहत मधुबनी स्टेशन से मधुबनी पेंटिंग की शुरूआत की गई थी, उसे देखकर लोग अब कई स्थानों पर मधुबनी पेंटिंग बनाने लगे हैं। पटना के मुख्यमंत्री आवास परिसर की दीवारों पर भी मधुबनी पेंटिंग बनाई गई है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पेंटिंग की तस्वीर ट्विटर पर साझा भी की है। विद्यापति भवन में क्राफ्टवाला के प्रोजेक्ट प्रमुख कौशल कहते हैं, 'विद्यापति भवन की दीवारों पर करीब 20 कलाकारों द्वारा मधुबनी पेंटिंग बनाई जा रही हैं। भवन में विद्यापति के चित्रण के अलावे रामसीता, राधा-कृष्ण और बिहार के अन्य संस्कृतियों
मन को शांति देता है संगीत
को भी चित्र के जरिए प्रस्तुत किया जाएगा।' विद्यापति भवन की दीवारों में पेंटिंग करने में जुटी कलाकार रेणु देवी कहती हैं, इस कार्य से न केवल अपनी कला दिखाने का अवसर मिलता है, बल्कि मधुबनी पेंटिंग को भी राज्य के लोगों तक पहुंचाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में महाकवि विद्यापति और मिथिला लोक नृत्य, मिथिला लोककलाओं को भी प्रदर्शित किया जा रहा है। मधुबनी पेंटिंग को मिथिला पेंटिंग भी कहा जाता है। किंवदंतियों के मुताबिक यह कला मिथिला नरेश राजा जनक के समय से ही मिथिलांचल में चली आ रही है। आधुनिक समय में मधुबनी चित्रकला को पहचान बिहार के मधुबनी जिले के जितवारपुर गांव की रहने वाली सीता देवी ने दिलाई। इस गांव की तीन कलाकारों जगदंबा देवी, सीता देवी और बौआ देवी को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
राग चिकित्सा, नाद योग पुरातन समय से हमारे देश में आज भी प्रयोग की जाने वाली संगीत चिकित्सा है, जो आपके अंर्तमन को उच्च जीवनी शक्ति प्रदान करती है
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डॉ. गार्गी सिंह
ज भाग-दौड़ भरे रफ्तार से चलने वाले जीवन में मानसिक दबाव से मस्तिष्क थककर कह रहा है- अब और नहीं, मगर उसकी आवाज सुनकर भी हम सभी अनसुना कर अपनी दिनचर्या पहले की भांति ही रखते हैं। इसके परिणामस्वरूप हम खुद को एकाकी महसूस कर मानसिक रोगों की गिरफ्त में आ जाते हैं। मस्तिष्क में स्फूर्ति के लिए निश्चित समय पर विश्राम, और मनोरंजन की आवश्यकता की पूर्ति मानसिक स्वस्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। बढ़ती उम्र का दबाव हो या किशोरावस्था का प्रतिबल, प्रत्येक प्रकार के चिंता रूपी नकारात्मक विचारों को परिवर्तित दिशा देने की ऊर्जा सात सुरों के सरगम तबला, हारमोनियम, सितार, वीणा, तानपुरा अन्य विभिन्न वाद्य यंत्रों द्वारा उत्पन्न कर्णप्रिय
संगीत मस्तिष्क में कंपन कर शांति प्रदान करता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत के सा.. रे.. ग.. म.. प.. ध.. नी.. सा.. सरगम की ध्वनि तीनों सप्तक कोमल तीव्र स्वरों की तुलना आप झरने, पवन, कोयल, मोर, पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों के प्राकृतिक मधुर संगीत आदर के साथ कर सकते हैं। भारतीय संगीत गायन, वादन, नृत्य हो या फिर प्राकृतिक संगीत सभी में सात सुरों के सरगम का समावेश है। राग चिकित्सा, नाद योग पुरातन समय से हमारे देश में आज भी प्रयोग की जाने वाली संगीत चिकित्सा है जो आपके अंर्तमन को उच्च जीवनी शक्ति प्रदान कर कैंसर जैसी लाइलाज रोग को भी मात देने में काफी हद तक सफल है। नाद योग द्वारा लयबद्ध श्वास लेने की एक निश्चित आवृत्ति वाद्य यंत्र ध्वनि उत्पन्न करती है, जिसका निरंतर प्रयोग मानव शरीर के मेरुदंड में सातों चक्रों के प्रबंध तक पहुंचती है।
कुछ चुने गए रागों के माध्यम से संगीत मनोचिकित्सकों द्वारा अवसाद, विषाद, दबाव, प्रतिबल आदि मानसिक विकृतियों के मनोभाव, आवेश, संवेग, चित्त, क्षोभ को दूर करके व्यक्ति को मानसिक रूप से स्वस्थ बना नई ऊर्जा का मस्तिष्क में संचार करते हैं। संगीत सकारात्मक आत्मछवि का निर्माण कर जीवन की शारीरिक व मानसिक समस्याओं का सामना करने की नीतिगत विचार तकनीक सिखाता है। संगीत ध्यान को स्थिर करके श्वासों की निश्चित स्थिर गति योग अचेतन मस्तिष्क की मधुर तरंगों को उदीप्त करती है। अक्सर हमने देखा है कि रोते हुए बच्चे मधुर संगीत सुनकर सो जाते हैं, जिससे हम सभी जानते हैं कि संगीत मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है। कुछ अच्छे शब्दों को बोलने की अपेक्षा लयबद्ध संगीत बच्चे के मन को शांति देने में प्रभावी है। मनोचिकित्सा के अतिरिक्त
संगीत व्यक्ति के मन:स्थिति को ठीक करके जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार करता है। संगीत सुनने मात्र से ही दुखी व्यक्ति में हर्ष के मनोभाव संवेग उत्पन्न होते हैं जो नकारात्मक विचारों को साफ करके नई सकारात्मक ऊर्जा द्वारा उमंग के साथ जीवन जीने के लिये प्रेरित करती है। संगीत मनोचिकित्सा द्वारा आज क्रोध, ईर्ष्या, शोक आदि संज्ञानात्मक संवेगों को परिवर्तित करना, प्रौढ़ावस्था की शारीरिक व मानसिक समस्याओं से संगीत द्वारा जीवन जीने की इच्छा प्रबल करना, मादक द्रव्यों का सेवन करने वालों का उपचार, बच्चों को संगीत द्वारा शिक्षा एवं मानसिक विकास, विकलांग बच्चों को संगीत द्वारा शिक्षा आदि के दिशा में नित नए सफल प्रयोग एवं विश्व में मनोरोग विशेषज्ञ शोधकर्ताओं द्वारा शोध कार्य हो रहे हैं।
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जेंडर
रीना गुप्ता
वृंदावन वैधव्य के जीवन में भी रंग भर देता है
खुशहाल जिंदगी की नैया आसानी से जीवन के सागर पर तैर रही थी, लेकिन तभी दंगों का एक जलजला आया और सबकुछ हमेशा के लिए बदल गया
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अयोध्या प्रसाद सिंह
हाराष्ट्र के गढ़चिरौली की रहने वाली रीना गुप्ता ने अपनी जिंदगी में उस दर्द को महसूस किया है, जिसको अब इतिहास में पढ़ाया जाता है। उन्होंने क्षोभ, निराशा और उजाड़पन के उस दौर को देखा, जिसने उन्हें सोचने को मजबूर और मन को हमेशा के लिए अशांत कर दिया। लेकिन जिंदगी के एक मोड़ पर अचानक उनका आना, उन कुंज गलियों की तरफ हुआ जहां कभी अपनी गोपियों से घिरे भगवान कृष्ण बांसुरी बजाया करते थे। और इन्हीं गलियों ने रीना के अशांत मन को संतुष्टि और शांति दी। रीना 12 साल की थीं, जब उनकी शादी बांग्लादेश (उस वक्त पूर्वी पकिस्तान) के 20 साल के एक व्यक्ति से कर दी गई। वह अपने पति के साथ बांग्लादेश के खुलना शहर में स्थित प्रसिद्ध मोंगला पोर्ट के पास रहती थीं। उनका जीवन शांति से खुशहाली के रास्ते पर चल रहा था। लेकिन तभी कुछ ऐसा घटित हुआ जिसकी कल्पना रीना ने शायद कभी सपने में भी नहीं की होगी। बंगाल से अलग होकर बने पूर्वी पाकिस्तान में साल 1971 में दंगे भड़क उठे। हर तरफ खून और लाशों का मंजर था। इतिहास के सबसे क्रूरतम दंगों में से एक, इस दंगे ने रीना की जिंदगी बदल दी। रीना भावुक होकर भारी मन से बताती हैं, ‘हमारा जीवन सामान्य रूप से चल रहा था और हमें ऐसी कोई परेशानी नहीं थी। लेकिन मुझे नहीं पता था कि हमारी खुशहाल जिंदगी में एक ऐसा जलजला आने वाला है जो सब कुछ बदल देगा। मेरी आंखों के सामने लोग काटे जा रहे थे। जिधर देखती थी सिर्फ लाशें नजर आती थीं। लोगों के घर जलाए जा रहे थे। शवों को गाड़ियों में भर-
भरकर नदी में फेंका जा रहा था। दंगों की इस विभीषिका को देख मेरा मन द्रवित हो गया, ऐसा लगने लगा कि शायद यह दुनिया मिथ्या है। अगर इंसानी जिंदगी इतनी सस्ती है तो जीवन जीने का कोई मतलब नहीं है।’ भारत में सत्तासीन इंदिरा सरकार ने उस वक्त पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे भारतीयों को वापस बुला लिया। उन्हें जीवन जीने के नए साधन मुहिया कराए गए, गुजारे के लिए उनकी मदद की गई। इसी मदद से रीना और उसके पति ने फिर से जीवन के संघर्षों में अपना मुकाम तलाशने की कोशिश शुरू की। लेकिन रीना का अंतर्मन अब इतना बेचैन हो चुका था कि उसके अंदर जीवन की आस खत्म सी हो गई थी। वह एक जिंदा लाश सी, बस अपना कर्म करती जा रही थी, लेकिन जीवन के रस का स्वाद अब शायद हमेशा के लिए बहुत तीखा हो चुका था। इस सब के बीच, उसने 2 लड़कों और 2 लड़कियों को जन्म दिया। बच्चों के पालन-पोषण में उसका समय व्यतीत होने लगा, उसे लगा कि शायद अब उसके अशांत मन को शांति मिल सके। लेकिन वह गलत थी, अभी भी रह-रहकर दंगों की आग में सुलगते लोग उसकी आंखों के सामने आ जाते थे। रीना कहती हैं, ‘मैं आज भी नहीं भूली कि किस तरह पागल लोग औरतों के अंगों को काटकर, उनकी लाश को पानी में फेंक रहे थे। भीड़ लोगों को पकड़कर, आग लगा रही थी। मेरे सामने अक्सर खून से सने लोगों के चेहरे आ जाते
थे, जो मन को और बेचैन कर देते थे।’ इसी कशमकश में और शांति की तलाश में एक दिन, उन्होंने वृंदावन आने के बारे में सोचा और लगभग 15 साल पहले वह वृंदावन की सड़कों पर भटकने लगी, लेकिन राधा और कृष्ण के मंदिरों में घूमते हुए उन्हें उस असीम शांति का अनुभव हुआ, जिसे शायद दंगों की आग ने छीन लिया था। रीना एक संतुष्टि के भाव वाली मुस्कान चेहरे पर बिखेरते हुए कहती हैं, ‘जब मैं वृंदावन आ रही थी तब सोचा नहीं था कि जो अशांति और बेचैनी मेरे मन में सालों पहले घर कर गयी थी, वह कभी मेरे मन से निकल पाएगी। लेकिन यहां की मिट्टी में कुछ तो ऐसा है जो सब कुछ ठीक कर देता है। वृंदावन ने मुझे वो दिया जिसकी तलाश में, मैं सालों से भटक रही थी।’ रीना पहली बार वृंदावन आई और यहां कुछ ऐसा मन रमा, कि वापस घर जाकर उन्होंने अपना फैसला अपने पति और बच्चों को सुनाते हुए कहा कि अब वह वृंदावन की दासी बनकर ही रहेंगी। 4 साल पहले उनके पति गुजर गए और उनके जीवन में वैधव्य का सफेद रंग भर गया। लेकिन जो साहस और शांति उन्हें वृंदावन ने दी थी, इसी वजह से, वह सबकुछ झेल सकीं। वृंदावन ने ही, उन्हें पहले अपने पति से अलग होने और फिर हमेशा के लिए बिछड़ने के दर्द से लड़ने की हिम्मत दी। उनके जीवन में परमात्मा के भाव और संतुष्टि का जो रस वृंदावन ने घोला, इसी से, वह आज अपनी जिंदगी को मुकम्मल मानती हैं।
‘दंगों की विभीषिका देख मन द्रवित हो गया, ऐसा लगने लगा कि शायद यह दुनिया मिथ्या है, लेकिन वृंदावन आकर अशांत मन इतनी खुशी मिली कि परिवार को छोड़कर यहीं रहने लगी’
खास बातें महाराष्ट्र के गढ़चिरौली की रीना गुप्ता की शादी बांग्लादेश में हुई शादी के समय रीना 12 की वर्ष और पति 20 वर्ष के थे दंगों से उपजी अशांति वृंदावन आने से पहले बुझी ही नहीं
वह पहले वृंदावन में एक माता जी के पास, उनके आश्रम में रहती थीं और उनकी सेवा करती थीं। लेकिन अब वह एक ऐसे विधवा आश्रम में रहती हैं, जहां कि महिलाओं की देखरेख तथा अन्य सुविधाएं सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन द्वारा प्रदान की जाती है।सुबह-शाम भजन करते हुए जिस आनंद की अनुभूति उन्हें होती है, यही उनके जीवन की कमाई की है। रीना कहती हैं, ‘लाल बाबा (डॉ. विन्देश्वर पाठक) की शरण में, मैं खुद को अपने जीवन की सबसे बेहतर स्थिति में पाती हूं, क्योंकि यहां मुझे किसी चीज की चिंता नहीं करनी है। बस मुझे, राधा-कृष्ण के भजन गाने हैं और खुद को तलाश करना है।’ चेहरे पर एक खूबसूरत मुस्कान के साथ रीना कहती हैं कि वैधव्य भरे जीवन में भी वृंदावन और लाल बाबा रंग भर देते हैं।
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पहल
09 - 15 जुलाई 2018
जिंदगी की जंग में लड़कियों का भाग्योदय
हिंसा और उत्पीड़न की घरेलू सीमा से निकल कर उत्तर प्रदेश की सीमा आज सैकड़ों लड़कियों के भग्योदय का सबब बन गई है
धुं
उमर राशिद
धले प्रकाश में चल रही कक्षा की दीवारें बच्चों की बनाई पेंटिंग्स से अटी पड़ी हैं। इसी कक्षा के एक कोने में सीमा यादव 25 लड़कियों को बिठाकर पढ़ा रही हैं। इनमें से कुछ लड़कियां ऐसी हैं, जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा है तो कुछ ने देखा भी तो शुरुआती दौर में ही पढ़ाई से विमुख हो गईं। सीमा प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 125 किलोमीटर दूर हरदोई जिले में केयर इंडिया की ओर से संचालित नवोन्मेषी स्कूल 'उड़ान' में 10 से 16 साल की उम्र की लड़कियों को पढ़ाती हैं। इस स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां महज 11 महीने में छह साल का पाठ्यक्रम पूरा करती हैं। इन्हें पांचवीं की वार्षिक परीक्षा में शामिल किया जाता है, जिसके बाद इनका दाखिला प्रदेश के किसी औपचारिक स्कूल में होता है। बुनियादी शिक्षा के इस स्कूल की स्थापना 1999 में सर्वोदय आश्रम के सहयोग से केयर इंडिया प्रोजेक्ट के तहत की गई।
खास बातें सीमा 10 से 16 वर्ष की उम्र की लड़कियों को पढ़ाती हैं लड़कियां 11 महीने में छह वर्ष का पाठ्यक्रम पूरा कर लेती हैं शिक्षित लड़कियां अब अपनी मर्जी से जीवनसाथी चुनने में सक्षम हैं
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से करीब 125 किलोमीटर दूर हरदोई जिले में केयर इंडिया की ओर से संचालित नवोन्मेषी स्कूल 'उड़ान' में सीमा 10 से 16 वर्ष की लड़कियों को पढ़ाती हैं भारत में स्कूली शिक्षा से विमुख होने वाली लड़कियों की दर चिंता का विषय है। वार्षिक शिक्षा सर्वेक्षण-2017 की रिपोर्ट (एएसईआर) के अनुसार, आठ साल की बुनियादी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई जारी नहीं रखने वाले बच्चों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की दर ज्यादा है। रिपोर्ट के मुताबिक, प्राथमिक स्तर पर 5.7 फीसदी लड़कियों का नामांकन स्कूलों में नहीं हो पाता है, जबकि 4.7 फीसदी लड़के स्कूल नहीं पहुंच पाते हैं। बढ़ती उम्र के साथ लड़के व लड़कियों की शिक्षा में यह खाई बढ़ती ही चली जाती है। माध्यमिक स्तर 18 वर्ष की उम्र होने पर 32 फीसदी लड़कियां सकूल से विमुख हो जाती हैं, जबकि लड़कों में यह आंकड़ा 28 फीसदी है। सर्वेक्षण में लड़कियों के स्कूल से विमुख होने का मुख्य कारण परिवारिक प्रतिबंध बताया गया है। अध्ययन में यह भी जाहिर हुआ है कि 70 फीसदी युवती मां बन गई हैं, जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा है। मिर्जापुर जिले की रहने वाली सीमा महज 17 साल की थीं तभी उन्होंने अपनी पढ़ाई खर्च चलाने के लिए सबसे पहले यहां पढ़ाना शुरू किया। वह पिछले 18 साल से इस आवासीय स्कूल से जुड़ी हैं। इस स्कूल की हर लड़की के पास साझा करने को घरेलू हिंसा, गरीबी, अस्पृश्यता, भेदभाव और हाशिए पर होने की अपनी दुखद कहानी है, जो कि उत्तर प्रदेश के अधिकांश जिलों में देखने व सुनने को मिलती हैं। सीमा भी इससे अलग नहीं है। सीमा का बचपन घरेलू हिंसा की दहशत में
बीता। अपने कमरे के भीतर वह असहाय होकर अपने बेरोजगार पिता का हिंसात्मक व्यवहार देखती रहती थी जो उनकी मां पर अपनी कुंठा का कहर बरपाते थे। वह उस माहौल से निकलने के लिए जूझती रही। आखिरकार दूसरी जाति के एक आदमी के साथ वह भाग खड़ी हुई। लेकिन उसकी तकलीफ कम होने बदले और बढ़ ही गई। सीतापुर अदालत में शादी करने के कुछ ही साल बाद उसके पति हरिराम सिंह कैंसर की बीमारी के कारण कुछ साल बाद चल बसे। सीमा ने बताया कि मेरे पिता ने मुझसे सब कुछ भूलकर यह बहाना बनाने की सलाह दी कि मैंने कभी शादी की ही नहीं। लेकिन मैंने उनसे कहा कि मैं तभी शादी करूंगी जब वह मुझे यह भरोसा दिलाएंगे कि कोई घरेलू हिंसा नहीं होगी। उनके पास मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं था। उन्होंने कहा कि बचपन में आपके साथ जो घटना घटती है उसका असर आपके जीवन में हमेशा बना रहता है। मैंने अपने घर में डरावना माहौल देखा था, जिससे मेरी रूह कांप जाती थी। बचपन में उस पर पढ़ाई छोड़कर फालतू काम करने का दबाव रहता था, लेकिन उन्होंने कड़ी मेहनत की। उनकी जिंदगी भेदभाव और गरीबी के कठिन दौर से गुजरी। लेकिन उन्होंने हर मुश्किलों का डटकर सामना किया और किसी तरह ग्रेजुएट की डिग्री हासिल की। उनके गांव में कुछ ही लड़कियां ग्रेजुएट की डिग्री हासिल कर पाई थीं। पोस्ट ग्रेजुएट और बीएड की डिग्री हासिल करने के बाद सीमा ने सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के लिए शिक्षक पात्रता परीक्षा पास की।
वह लड़कियों को गणित पढ़ाती है। वह मुसीबतों से जूझ रही लड़कियों को जिदंगी जीने की कला सिखाकर उनकी तकदीर बदलने की कोशिश कर रही है, क्योंकि शिक्षा से ही उनके जीवन में बदलाव आ सकता है। उड़ान स्कूल में पढ़ाई कर रही 14 साल की सीमा और 16 साल की रीतू ने कहा कि सीमा दीदी उनकी प्रेरणा हैं। रीतू ने बताया कि उसके पिता शराब पीकर घर में मारपीट करते थे। उसने कहा कि कुछ महीने पहले जब इस स्कूल में हमारा दाखिला हुआ तो हम कुछ नहीं जानते थे। हमें हाथ में कलम थामने में भी डर लगता था। हम पढ़ना, लिखना या ढंग से बोलना भी नहीं जानते थे, क्योंकि आत्मविश्वास का अभाव था। लेकिन अब हम कहानी की किताबें पढ़ते हैं और गणित के सवाल बना लेते हैं। हम पढ़ाई के अतिरिक्त कार्यकलापों में भी हिस्सा लेकर उसका आनंद उठाते हैं। रीतू पुलिस अधिकारी बनकर अपने गांव में शराबियों को अपराध करने से रोकना चाहती है। स्कूल की कार्यक्रम समन्वयक उर्मिला श्रीवास्तव के अनुसार, उड़ान परियोजना से उत्तर प्रदेश की पूरी शिक्षा व्यवस्था प्रेरित है। उन्होंने कहा कि आरंभिक शिक्षा के मॉड्यूल को अब उत्तर प्रदेश के सभी प्रारंभिक विद्यालयों में शामिल किया गया है इससे यह पता चलता है कि हमारी पाठ्यचर्या कितनी प्रभावोत्पादक है। कार्यक्रम प्रबंधक वंदना मिश्रा का कहना है कि हम लड़कियों को न सिर्फ पढ़ाते हैं, बल्कि हम उनको नेतृत्व कौशल, व्यवहार कला और व्यक्तिगत स्वास्थ्य संबंधी शिक्षा भी देते हैं, जोकि जीवन के लिए जरूरी है। जिस प्रदेश में जातीयता का बोलबाला और निरक्षरता और बाल विवाह की प्रथा हो वहां शिक्षा से ही सामाजिक बदलाव आ सकते हैं। उड़ान की अध्यापिकाओं की ओर से करवाए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, इस स्कूल से पढ़कर निकलीं 1,567 लड़कियों में 460 अब तक अविवाहित हैं। शिक्षित होने से लड़कियां अब अपनी मर्जी के जीवनसाथी चुनने में सक्षम हो गई हैं। ये लड़कियां न सिर्फ खुद की बल्कि अपने भाई-बहनों की परवरिश करने में भी सक्षम हैं। सीमा ने 2017 में अपने रिश्तेदार से नौ साल के लड़के अनिरुद्ध को गोद लिया। वह कहती हैं कि कमजोर पृष्ठिभूमि के बच्चों को तालीम से उनको इतनी संतुष्टि मिलती है कि उसे वह शब्दों में बयां नहीं कर सकती। अपने इस अनुभव को साझा करते हुए सीमा की आंखों में आंसू आ गए। उसने कहा कि मैं उनकी आंखों में खुद को देखती हूं। मैं उनकी जिंदगी से अपने संघर्ष को जोड़ती हूं। इससे मुझे उनके जीवन में बदलाव लाने के लिए ज्यादा कोशिश करने की प्रेरणा मिलती है।
09 - 15 जुलाई 2018
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विज्ञान
कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में शोध की नई पहल
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कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग शिक्षा, कौशल विकास, चिकित्सा, खेती और परिवहन समेत दैनिक जीवन से जुड़े अन्य क्षेत्रों उपयोगी हो सकता है
ने वाला समय कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का होगा। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2030 तक चीन अपनी जीडीपी का करीब 26 प्रतिशत और ब्रिटेन 10 प्रतिशत निवेश कृत्रिम बुद्धिमत्ता संबंधित गतिविधियों और व्यापार पर करेंगे। तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था एवं आबादी में दूसरा सबसे बड़ा देश होने के कारण भारत के लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता का विशेष महत्व है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सरकार द्वारा नीति आयोग को इस विषय पर विस्तृत दस्तावेज उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी दी गई थी। दुनिया भर में जब सामाजिक और आर्थिक स्तर पर कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) के फायदों पर विचार हो रहा है तो भारत में भी इस दिशा में शोध एवं विकास को बढ़ावा देने की पहल की जा रही है। नीति आयोग ने इस नए एवं उभरते हुए क्षेत्र में शोध एवं विकास को बढ़ावा के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम की रूपरेखा पेश की है। नीति आयोग द्वारा हाल में प्रस्तुत किए गए एआई फॉर ऑल नामक दस्तावेज में कृत्रिम बुद्धिमत्ता को एक ऐसे माध्यम से रूप में देखा जा रहा है, जो मानवीय मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाने में सहायक हो
सकता है। इस दस्तावेज में देश में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में शोध के लिए सेंटर ऑफ रिसर्च एक्सिलेंस और इंटरनेशनल सेंटर फॉर ट्रांसफॉरमेशनल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस समेत द्वी स्तरीय संरचना पर जोर दिया गया है। पहला केंद्र मौजूदा शोध के बारे में बेहतर समझ विकसित करने और नए ज्ञान के निर्माण के जरिए प्रौद्योगिकी के विकास पर केंद्रित है। इसके अलावा दूसरे केंद्र में अनुप्रयोग आधारित अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा दिया जाएगा। इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी की भूमिका भी अहम होगी। नीति आयोग के इस दस्तावेज में ऊर्जा क्षेत्र, स्मार्ट सिटी, निर्माण, कृषि, शिक्षा और कौशल विकास और स्वास्थ्य समेत अनेक क्षेत्रों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का लाभ लेने के लिए सटीक नीति की आवश्यकता महसूस की गई है। माना जा रहा है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग शिक्षा, कौशल विकास, चिकित्सा, खेती, परिवहन समेत दैनिक जीवन से जुड़े अन्य क्षेत्रों उपयोगी हो सकता है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से जुड़े शोध में भी इसकी भूमिका महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में विकास के लिए मुख्यतः पांच
स्तंभों नीति निर्माताओं, बड़ी कंपनियों, स्टार्टअप्स, विश्वविद्यालयों और अन्य भागीदारों को आपस में मिलकर कार्य करना होगा। एक समय था जब कंप्यूटरों की प्रोसेसिंग क्षमता बहुत अधिक नहीं थी, लेकिन अब स्थिति अलग है। आज सुपर कम्प्यूटरों का प्रयोग उच्च-गणना आधारित कार्यों में किया जा रहा है। मौसम की भविष्यवाणी, जलवायु शोध, अणु मॉडलिंग आदि अनेक क्षेत्रों में सुपर कंप्यूटरों का उपयोग किया जा रहा है। कुछ महीनों पहले ही पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे में मौसम के पूर्वानुमान के लिए प्रत्युष नामक सुपर कंप्यूटर स्थापित किया गया है। भविष्य में कृत्रिम बुद्धिमत्ता द्वारा ड्राइवर रहित वाहनों के संचालन सहित अनेक ऐसे कार्य देखने
के मिल सकते हैं, जो फिलहाल असंभव लगते हैं। कृत्रिम बुद्धिमत्ता द्वारा अनेक रोगों का ईलाज भी किया जा सकेगा। हरियाणा के मानेसर में स्थित राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिक मस्तिष्क के अलगअलग हिस्सों की विभिन्न प्रवृत्तियों का पता लगाने के लिए रोगियों के मस्तिष्क को स्कैन करने की परियोजना पर कार्य कर रहे हैं। भविष्य में वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की जा रही कृत्रिम बुद्धिमत्ता में सभी प्रकार के मस्तिष्क की तस्वीरों का डाटाबेस होगा, ताकि उनमें होने वाले किसी भी परिवर्तन की जानकारी मिल सके। इससे शरीर में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों के विषय में जानकारी प्राप्त हो सकेगी। इस प्रकार कृत्रिम बुद्धिमत्ता मानवीय मस्तिष्क की जटिलताओं को समझने में सहायक साबित होगी। इन सभी बातों पर गौर करें तो नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत किया गया दस्तावेज इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। अमेरिका, फ्रांस, जापान, चीन और ब्रिटेन के बाद भारत ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में जो दस्तावेज प्रस्तुत किया है, वह भारत में इस क्षेत्र के विकास के लिए मार्गदर्शक साबित हो सकता है। (एजेंसी)
बदली- बदली सी है भारत की हवा अंतरिक्ष से भारत की हवा फॉर्मलडिहाइड की वजह से अपने आसपास के देशों की हव से बदली हुई दिखती है
भा
रत की हवा अपने आसपास के दक्षिण एशियाई देशों की हवा से थोड़ी अलग है। ऐसा इसीलिए, क्योंकि भारत की हवा में फॉर्मलडिहाइड मौजूद है। फॉर्मलडिहाइड ऐसी रंगहीन गैस है, जो वैसे तो प्राकृतिक तौर पर पेड़पौधों और अन्य वनस्पतियों के जरिए छोड़ी जाती है, लेकिन इसके साथ-साथ प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधियों के कारण भी यह उत्पन्न होती है। यूरोप के नए उपग्रह सेंटनल-5पी ने भारत के ऊपर मौजूद वायुमंडल में इस गैस की बढ़ी हुई मात्रा का पता लगाया है। सेंटनल-5पी उपग्रह को पिछले साल अक्तूबर में दुनिया भर में हवा की गुणवत्ता पर नजर रखने के लिए लॉन्च किया गया था। इससे जुटाई गई जानकारियों के आधार पर वायुमंडल को साफ रखने के लिए नीतियां बनाने में मदद मिलेगी। वायमुंडल में नाइट्रोजन और ऑक्सिजन जैसे अहम घटकों की तुलना में
फॉर्मलडिहाइड (सीएच2ओ) का सिग्नल बहुत कमजोर होता है। हवा के एक अरब अणुओं में सीएच2ओ के कुछ ही अणु होंगे। मगर रॉयल बेल्जियन इंस्टिट्यूट फॉर स्पेस एरोनमी से जुड़ीं इजाबेल डि स्मेट कहती हैं कि फिर भी इससे प्रदूषण से जुड़े संकेत मिल सकते हैं। उन्होंने बताया कि फॉर्मलडिहाइड में कई तरह के अस्थिर जैविक यौगिक होते हैं। वनस्पति उनका प्राकृतिक स्रोत है मगर आग या प्रदूषण के कारण भी उनकी मात्रा बढ़ सकती है। वैसे तो यह बात इलाके के ऊपर निर्भर करती है मगर 50 से 80 प्रतिशत संकेत जीव जनित स्रोतों से आते हैं। अगर संकेत इससे ज़्यादा आया तो ऐसा प्रदूषण और आग के कारण ही होगा। कोयला जलाने या जंगल की आग के कारण ऐसा हो सकता है मगर भारत में खेतों में भी बहुत ज्यादा आग लगाई जाती है।
भारत में घर पर खाना बनाने और गर्माहट आदि के लिए अभी भी ठीक-ठाक मात्रा में लकड़ी जलाई जाती है। अस्थिर जैविक यौगिक जब जीवाश्म ईंधनों के जलने से पैदा होने वाली नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और सूरज की रोशनी के संपर्क में आते हैं तो प्रतिक्रिया होती है और इससे ग्राउंड लेवल ओजोन बनती है। ग्राउंड लेवल ओजोन सांस लेने में गंभीर दिक्कत पैदा करती है और इससे कई स्वास्थ्य संबंधित समस्याएं हो सकती हैं। तस्वीर देखने से पता चलता है कि कैसे हिमालय पर्वत मैदानी हिस्से की हवा को उत्तर में जाने से रोकता है। नक्शे में उत्तर पश्चिम भारत में जहां पर फॉर्मलडिहाइड का घनत्व कम दिख रहा है, वह राजस्थान की मरुभूमि है जहां वनस्पति भी कम है और आबादी भी। सेंनिटल-5पी को यूरोपियन स्पेस एजेंसी ने यूरोपियन यूनियन के कॉपरनिकस अर्थमॉनिटरिंग कार्यक्रम के लिए लॉन्च किया था। इस सेटेलाइट में लगा ट्रोपोमी उपकरण वायुमंडल में फॉर्मलडिहाइड के अलावा नाइट्रोजन ऑक्साइड, ओजोन, सल्फर डाइऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनॉक्साइड और एरोसोल्स (छोटे वाष्प या कण) के अंशों का पता लगा सकता है। ये सभी उस हवा को प्रभावित करते हैं, जिसे हम सांस से ग्रहण
करते हैं. इनमें से कई तो जलवायु परिवर्तन के लिए भी ट्रोपोमी उपकरण अपने पूर्ववर्ती सिस्टम 'ओमी' से बेहतर है। ओमी अभी भी काम कर रहा है और अमरीकी स्पेस एजेंसी के एक उपग्रह के साथ धरती के चक्कर काट रहा है। डॉक्टर डी स्मेट कहती हैं कि हमारे पास पहले से अच्छा डेटा था मगर इस स्तर की जानकारियां इकट्ठा करने के लिए हमें कई दिनों तक नजर रखनी पड़ती थी। कई बार तो कई सालों तक। वह बताती हैं कि भारत के नए नक्शे में चार महीने का डेटा है। ट्रोपोमी एक महीने में वह सब कर सकता है, जिसे करने में ओमी को छह महीने लगते हैं। अब हमें तेजी से जानकारियां मिलती हैं। हम छोटे स्तर पर होने वाले उत्सर्जन पर भी नजर रख सकते हैं। ऐसे संकेत पहले अच्छी तरह नहीं दिखते थे। उदाहरण के लिए हमें तेहरान में उत्सर्जन देखने के लिए 10 साल के डेटा की जरूरत पड़ी, लेकिन इस नक्शे में आप सिर्फ चार महीने का ट्रोपोमी डेटा देख पा रहे हैं। एक टेस्ट के बाद सेंनिटल-5पी पूरी तरह काम करने लगेगा और महीने के आखिर तक नाइट्रोजन ऑक्साइड और कार्बन मोनॉक्साइड का डेटा भी जुटाने लगेगा और नतीजे आने के लिए हमें सर्दियों तक का इंतजार करना होगा। (एजेंसी)
16 खुला मंच
09 - 15 जुलाई 2018
जब तक किसी काम को किया नहीं जाए तब तक वह असंभव लगता है
– नेल्सन मंडेला
अभिमत
नितिन जयराम गडकरी वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री
नदी जुड़े तो खेती बढ़े
स्वाभाविक रूप से पानी की समस्या को जब तक सुलझाया नहीं जाता तब तक खेती के क्षेत्र में प्रगति और समृद्धि आने का सवाल ही नहीं उठता
सेवा के अधिकारी
सेवा और विकास के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए मोदी सरकार नौकरशाहों के साथ सहयोग और सौहार्द का संबंध बनाकर चलना चाहती है
लो
कतांत्रिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण स्तंभ नौकरशाही भी है। देश ने लोकतंत्र के 70 साला अपने सफरनामे में अगर कामयाबी के कई मीलस्तंभ कायम किए हैं, तो उसमें जन प्रतिनिधियों के साथ प्रतिबद्ध नौकरशाहों की भी बड़ी भूमिका रही है। हालांकि हाल के दशकों में एक शिकायत यह जरूर बढ़ी है कि दिल्ली से लेकर राज्यों तक सत्ता के तीखे होते संघर्ष में नौकरशाही को सेवा का माध्यम की जगह राजनीति का मोहरा बनाने की प्रवृति बढ़ी है। पर ‘सबका साथ, सबका विकास’ करने वाली नरेंद्र मोदी सरकार इस प्रवृति से अपने को न सिर्फ अलगाती है, बल्कि वह सेवा और विकास के अपने उद्देश्यों को हासिल करने के लिए नौकरशाहों के साथ सहयोग और सौहार्द का संबंध बनाकर चलना चाहती है। इसी सिलसिले में हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 170 से अधिक युवा आईएएस अधिकारियों से मुलाकात की, जिन्हें हाल में भारत सरकार में सहायक सचिवों के रूप में नियुक्त किया गया है।प्रधानमंत्री ने उन्हें फील्ड प्रशिक्षण के उनके अनुभवों को साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने उनके साथ जन भागीदारी, सूचना प्रवाह, संसाधनों का श्रेष्ठतम उपयोग एवं शासन में लोगों के विश्वास सहित अच्छे शासन के कुछ तत्वों पर उनके साथ चर्चा की। इस मौके पर ग्राम स्वराज अभियान और आयुष्मान भारत जैसी शासन की कुछ हाल की पहलों पर भी चर्चा हुई। प्रधानमंत्री की युवा आईएएस अधिकारियों से यह कोई पहली मुलाकात नहीं है। इससे पूर्व जब वह गत वर्ष नए अधिकारियों से मिले थे तो उन्होंने वर्ष 2022 तक देश के स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों का भारत बनाने के लिए कार्य करने की उनसे अपील की थी। उन्होंने युवा अधिकारियों से टीम भावना के साथ काम करने की बात भी कही थी। उनके ही शब्दों में ‘अधिकारियों का मुख्य लक्ष्य राष्ट्र और इसके नागरिकों का कल्याण करना होना चाहिए।’
टॉवर फोनः +91-120-2970819
(उत्तर प्रदेश)
स्वा
भाविक रूप से खेती बड़े संकट में है और यह ऐसा संकट है, जिसे ठीक प्रकार से समझना होगा। इसमें कोई बड़ी समस्या है तो वह पानी की समस्या है। यह सच है कि दिल्ली के लोगों को पानी की समस्या क्या है? हमारे यहां पानी के लिए 400 फीट नीचे जाना होता है। तब जाकर पानी मिलता है। पानी की गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड में अधिक समस्या है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड में भी थोड़ी समस्या है। पंजाब, हरियाणा और बिहार के छोटे-छोटे पॉकेट में भी थोड़ी-थोड़ी समस्या हो सकती है। सबसे कम सिंचाई झारखंड में है। पानी पर कोई सरकार सबसे अच्छा काम कर रही है तो वह तेलंगाना की सरकार है। उन्होंने 7000 करोड़ का जो बजट था सिंचाई का, उसे बढ़ाकर 24000 करोड़ किया है। महाराष्ट्र तेलंगाना की तुलना में तीन गुणा बड़ा है और हमारे महाराष्ट्र का बजट 7000 करोड़ का है। चंद्रबाबू नायडू सिंचाई के महत्व को समझते हैं और वे लगातार इस दिशा में काम कर रहे हैं। हम पोलावरम बांध बना रहे हैं। जो भी आंध्र प्रदेश से आता है, उसी बांध की चर्चा करता है। क्या हुआ? मुझे चंद्रबाबू ने बताया कि केवल गोदावरी का 150 केएमसी पानी पाइप लाइन से नहर तक लाया गया है। आज देश के सामने सबसे बड़ी कोई समस्या है तो वह पानी ही है। पानी की समस्या का दुर्भाग्य ऐसा है कि जितना पानी बरसात से आता है, उसमें 15-20 प्रतिशत पानी हमलोग बांध में, झील में, रोक पाते हैं। 15 से 20 प्रतिशत पानी संरक्षित होता है और 60 से 70 प्रतिशत पानी समुद्र बह जाता है। मैं जल संसाधन का मंत्री हूं। जो पानी समुद्र में जा रहा है। कोई मंत्री, कोई विधायक, कोई सांसद इसकी बात लेकर नहीं आया। हां, झगड़े जरूर हुए। पानी की कमी नहीं है देश में, लेकिन पानी के बंटवारे का झगड़ा है। हमारे विभाग में एक प्रस्ताव ऐसा आया कि
भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद छह नदियों में से तीन पाकिस्तान को और तीन भारत को मिली। हमारी तीन नदियों का पानी जो पाकिस्तान जा रहा है और समझौते के हिसाब से वह हमारे हिस्से का है। वह हम नहीं ले पा रहे हैं। उन नदियों के पानी को हमने छोड़ दिया है। पंजाब और हरियाणा में वह पानी आ जाएगा तो हम दोनों राज्यों की पानी की समस्या को सुलझा सकते हैं। वह पानी लाने की बात दोनों राज्य नहीं कर रहे हैं। जो हमारे पास है, उसे समस्या बताकर कह रहे हैं कि हमें इसका बंटवारा करना है। स्वाभाविक रूप से पानी की समस्या को जब तक सुलझाया नहीं जाता तब तक खेती के क्षेत्र में प्रगति और समृद्धि आने का सवाल ही नहीं उठता। उसमें भी दूसरी समस्या है कि बड़े बांध बनाने हैं या छोटे। इस वक्त नदियों को जोड़ने की तीस योजनाएं सरकार के पास विचाराधीन है। पहली बात मुझे ध्यान आया कि गोदावरी का 3000 टीएमसी पानी समुद्र में जा रहा है। पहले गैर हिमालय क्षेत्र में जो नदियां हैं। उसके पानी के वितरण के लिए सोचे। हमने तीस नदियों को जोड़ने वाली परियोजनाओं को प्राथमिकता देने की बात कही। पैसा कोई समस्या नहीं है, यह बताते हुए इस बात की खुशी है कि गुजरात और महाराष्ट्र के बीच जो पानी समुद्र में जा रहा था, उस पर काम करने के लिए दोनों राज्यों से हमें सहमति मिल गई है। उसमें महाराष्ट्र के सीएम ने कहा कि मुझे चार परियोजनाओं पर और सहमति चाहिए। गोदावरी का पानी ठाणे जिले में है। उसे लेकर पश्चिम महाराष्ट्र के अहमदनगर, नासिक, धूले, नंदूरबार में जो बांध है और मराठवाड़ा तक समुद्र में जाने वाले पानी ले जाते हैं तो यह सभी बांध 100 फीसदी भर जाएंगे। इतना पानी हमारे पास उपलब्ध है, जो महाराष्ट्र का चित्र बदल देगा। हमारी केन बेतवा जो मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में है, उससे करीब साढ़े नौ लाख हेक्टेयर जमीन
09 - 15 जुलाई 2018 सिंचित होगी। उसमें साढ़े छह लाख हेक्टेयर जमीन मध्य प्रदेश की सूखाग्रस्त है और तीन लाख हेक्टेयर जमीन लगभग उत्तर प्रदेश की आएगी। यह बहुत बड़ा परिवर्तन उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लिए होगा। यह 25000 करोड़ की परियोजना है। अब देश में पंचेश्वर की एक योजना है। जिस पर भारत नेपाल के साथ लंबे समय से बात चल रही है। शारदा में पानी देना और वहां का पानी लाना। राजस्थान और गुजरात में नर्मदा के कारण चित्र बदल गया है। यह परियोजना आएगी तो सरदार सरोवर के कारण 22 लाख हेक्टेयर भूमि को पानी मिल रहा है। साढ़े छह लाख लोग जो फ्लोराइड युक्त पानी पीते थे। उन्हें शुद्ध जल मिल रहा है। यह कितना बड़ा आर्थिक सामाजिक बदलाव का कदम है, मुझे समझ में आता है। आज हमने पांच परियोजनाएं ली है। दो महत्वपूर्ण परियोजनाओं का जिक्र मैं यहां करने जा रहा हूं। गोदावरी में हमारे महाराष्ट्र, तेलंगाना की सीमा पर कालेश्वर नाम से एक बांध है। कालेश्वर के बाद इंद्रावती नदी आती है, छत्तीसगढ़ से। इंद्रावती नदी में बहुत पानी है और वहां बांध बन नहीं सकता, क्योंकि गढ़चिरौली और तेलंगाना घना जंगल क्षेत्र है। मैं जानता हूं कि यह संभव नहीं है। इंद्रावती का पानी गोदावरी को मिलता है। हमने दो परियोजनाएं तैयार की है। काफी चर्चा हुई। हमने तय किया है कि इंद्रावती का पानी आगे आकर हम तेलंगाना और रायलसीमा से जोड़कर हम उसे तमिलनाडु में कावेरी के अंतिम छोर तक लेकर जाएंगे। 880 किमी तक। एक जगह पानी चढ़ाना होगा। बाकी वह आगे चढ़ता जाएगा। ...और दूसरी परियोजना जो हमने ली है, वह पोलावरम पर है। जो पोलावरम है, उसका पानी फिर से एक बार दो बांधों में पहुंचाकर उसे कावेरी से जोड़ेंगे। इन दो परियोजनाओं के कारण हम 650-700 टीएमसी पानी अगर तमिलनाडुआंध्र प्रदेश-कर्नाटक और तेलंगाना को बांटेगे तो मैं आपको बताता हूं कि दक्षिण भारत की पानी की समस्या और सारा झगड़ा समाप्त हो जाएगा। (गडकरी ने यह वक्तव्य दिनांक 24 जनवरी 2018 को प्रथम सोपान स्टेप डेवलपमेंट लेक्चर में दिया। यहां वक्तव्य का संपादित अंश प्रस्तुत है)
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वर्त-2 | अंक-29 | 02
- 08 जुलाई 2018
दूसिा नाम है सुलभ’ ‘परिवरन्त औि आदं ोलन का
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परिसंवाद में गुजिार आयोजन वकया गया। इस वत्र-वदवसीय परिसंवाद का त्री शावमल हुए का समाजशासत्र’ ववरय पि कई वशक्ाववद औि समाजशास 25-27 जून रक ‘सवच्छरा डॉ. ववनदेश्वि पाठक सवहर गुजिार ववश्वववद्ालय में कोहली, सुलभ संस्ापक के िाजयपाल ओम प्रकाश
गुजरात के राज्यपाल ओम
प्रकाश कोहली और सुलभ
प्रणेता डॉ. विन्ेश्वर पाठक
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प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु
जैसा आचार वैसा विचार
मनुष्य से देवता बनना, सद्गुणों का विकास करना, चारित्रिक रूप से महान बनना ही मनुष्य का ध्येय होना चाहिए। इस ध्येय के फलस्वरूप मनुष्य को यह ध्यान रहेगा कि मुझे अच्छे कर्म करने हैं
ज्ञानिकों ने विद्युत, चुंबकत्व, प्रकाश, ध्वनि और उष्माइन शक्तियों को जानकर बड़ेबड़े आविष्कार किए हैं। इससे उन्होंने समाज को अनेक प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध कराई है। पदार्थ जगत में अणु के विस्फोट से भी एक बहुत बड़ी शक्ति को हासिल किया गया है। इन शक्तियों को अपने नियंत्रण में लाकर इनके द्वारा अद्भुत मशीनों एवं साधनों का निर्माण करने के फलस्वरूप आज का मानव विज्ञान के चमत्कारों से बहुत ही प्रभावित है। परंतु ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन शक्तियों को भी अपने वश में करके इनके द्वारा कार्य करने वाली शक्ति तो विचारशक्ति ही है। विचार अथवा चिंतन एक बहुत ही बड़ी शक्ति है। लोगों ने आज जड़ अथवा भौतिक शक्तियों के महत्व को तो समझा और माना है, लेकिन विचार-शक्ति के महत्व अथवा मूल को पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं। विचार न केवल भौतिक, रासायनिक, प्राकृतिक और जैविक शक्तियों को जानकर और उन्हें अपने नियंत्रण में करके उन्हें अच्छा तथा आवश्यकता के अनुसार कार्य में जुटाने में समर्थ होते हैं, बल्कि समाज में बड़ी-बड़ी आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक क्रांतियों को भी जन्म देने में समर्थ हैं। बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाकर उन्हें क्रियान्वित करने वाली शक्ति भी विचार ही है। वास्तव में मनुष्य के समस्त कर्मों की प्रेरक-शक्ति यही है। मनुष्य के चरित्र की नींव यदि ध्यान से देखा
जाए तो अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, दुराचार इत्यादि किसी कुविचार अथवा घृणित विचार ही की अभिव्यक्ति मात्र है। इसी प्रकार सदाचार, सद् व्यवहार, श्रेष्ठाचार इत्यादि की नींव भी मनुष्य के शुद्ध अथवा नैतिक विचारों से ही बनी है। किसी ने ठीक ही कहा है कि मनुष्य के जैसे विचार होते हैं, वैसा ही वह बन जाता है। मनुष्य की मान्यताएं उसके विश्वास, दृष्टिकोण, संकल्प, विचारधारा से ही उसे किन्हीं कर्मों की ओर प्रेरित करती हैं और उनको देखकर ही हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति अच्छा है या बुरा है। इन्हीं विचारों के आधार पर मनुष्य सतोगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी कहलाते हैं। सतोगुणी मनुष्य वह होता है, जो अपने सुख के अतिरिक्त दूसरों की भलाई का भी विचार करता है। वह स्वयं भी शांत रहता है और दूसरों को भी सुखशांति से जीने में सहयोग देता है। रजोगुणी मनुष्य वह है, जो केवल अपनी ही सुख-शांति का विचार करता
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खुला मंच
प्रेरक साथी मैं ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का नया पाठक हूं। पिछले अंक में मैंने सुलभ संस्था के कार्यों और विचारों को बारे में पढ़कर अभिभूत रह गया। सुलभ एक एेसे दौर में मानवता की सेवा कर रहा है, जब सेवा और सहयोग जैसे भाव समाज में भी कम होते जा रहे हैं। खासतौर पर स्वच्छता के क्षेत्र में अथक कार्य और उपलब्धि के लिए सुलभ संस्था का मेरी तरफ से विनम्र अभिवादन। ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ मेरे लिए अखबार से ज्यादा नया प्रेरक साथी है।
किताबों की दुनिया पत्र विलंब से लिख रहा हूं, पर जो बात कहनी थी, वह कहना जरूरी लगा इसलिए अपनी प्रतिक्रिया से अवहत कराना जरूरी समझा। हाल में मैंने ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ की किताबों पर आधारित कवर स्टोरी ‘फिर भी आबाद है किताबों की दुनिया’ पढ़ी। यह मुझे और मेरे परिवार के सभी सदस्यों को काफी पसंद आई। सुलभ स्वच्छ भारत का यह अंक हमारे लिए पठनीय के साथ संग्रहणीय अंक बन गया है। इसके लिए अखबार की पूरी संपादकीय टीम को बधाई।
अमित सिंह, जकनपुर, पटना
मेहुल विरमानी, विकास पुरी, नई दिल्ली
है। वह ऐंद्रिक सुख अथवा पदार्थों से प्राप्त होने वाले सुख को अधिक महत्व देता है। उनके मन में नैतिक मूल्य स्थिरता से नहीं टिक पाते। वह आत्मिक अथवा शाश्वत सुख की प्राप्ति का अनुभवी नहीं होता। तमोगुणी मनुष्य तो अपने सुख के लिए दूसरों के सुख को भी छीनने में संकोच नहीं करता। उसका विचार केवल अपने ही लाभ पर केंद्रित रहता है। संसार में बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनका लक्ष्य खाना, पीना और मौज उड़ाना ही है। वे शरीर से अलग आत्मा नाम की शाश्वत सत्ता को नहीं मानते। वे पुनर्जन्म और कर्म के अटल सिद्धांत में भी आस्था नहीं रखते। उनका मत होता है कि जब तक यह शरीर है, तब तक ही सब कुछ है। अतः उनका लक्ष्य भी यहीं तक सीमित रहता है और उनमें लक्षण भी तदनुसार ही होते हैं। कोई अभिनेता बनना चाहता है तो कोई कुछ और। इससे उसके क्रिया-कलाप, हाव-भाव, वार्तालाप उसी प्रकार के होने लगते हैं। कोई सेठ बनना चाहता है तो उसकी बुद्धि उसकी ओर चलने लगती है। वास्तव में देखा जाए तो यह सब जीविकोपार्जन के साधन हैं और ये लक्ष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य नहीं हैं। मनुष्य से देवता बनना, सद्गुणों का विकास करना, चारित्रिक रूप से महान बनना ही मनुष्य का ध्येय होना चाहिए। इस ध्येय के फलस्वरूप मनुष्य को यह ध्यान रहेगा कि मुझे अच्छे कर्म करने हैं। इस लक्ष्य से उसमें दैवी लक्षण आएंगे और उसका चरित्र महान होगा।
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09 - 15 जुलाई 2018
हमी अस्तो, हमी अस्तो, हमी अस्त..! मुगल शासक जहांगीर ने कश्मीर की सुंदरता से प्रभावित होकर इसे धरती का स्वर्ग कहा था। कश्मीर से उसकी दीवानगी का पता इससे लगाया जा सकता है कि जहां औरंगजेब अपने दौर में सिर्फ एक बार यहां आया, वहीं जाहंगीर ने 13 बार इसकी यात्रा की। मशहूर सूफी संत और कवि अमीर खुसरो ने खूबसूरती के साथ कश्मीर के बारे में बयां किया- ‘गर फिरदौस बर-रूऐ जमीं अस्त...हमी अस्तो, हमी अस्तो, हमी अस्त..!’
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09 - 15 जुलाई 2018
तमाम मुिश्कल भरे दौर के बीच कश्मीर की घाटियां आज भी ठीक वैसी ही हैं, जैसी थीं। पत्थरों के बीच फूल अब भी खिलते हैं, बच्चों के चेहरे पर कोमल मुस्कान आज भी है, मेहनतकशों की रोजमर्रा जिंदगी रास्ते पर है, मतलब उम्मीद की खुशबू चारो तरफ आज भी फैली है। जरूरत आगे बढ़ने और साथ चलने की है
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शिक्षा
09 - 15 जुलाई 2018
शिक्षा का समान अवसर देने वाला स्कूल
लक्ष्मी कौल घरों में काम करने वाली आया, ड्राइवर, चपरासी जैसे कम आय वाले लोगों के बच्चों को अपने स्कूल में पढ़ाती हैं। उन्होंने यह सुनिश्चित किया है कि बच्चों के साथ स्कूल में कोई भेदभाव न हो
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खास बातें
मोहित दुबे
रत की संसद द्वारा वर्ष 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून बनाने से करीब दो दशक पहले एक अध्यापिका ने समाज के हर तबके के बच्चों को एक साथ समान शिक्षा प्रदान करने के मकसद से लखनऊ में एक निजी स्कूल खोला था। यह स्कूल आज सामाजिक समाकलन में शिक्षा के समान अवसर की बानगी पेश करता है। स्कूल में उच्च सामाजिक दर्जा और आर्थिक रूप से संपन्न परिवार से लेकर गरीब, सुविधाहीन और वंचित परिवार के बच्चों को एक साथ पढ़ाया जाता है और उनकी शैक्षणिक तरक्की में उनकी आर्थिक व सामाजिक पृष्ठभूमि बाधक नहीं है। मूल रूप से केरल निवासी लक्ष्मी कौल घरों में काम करने वाली आया, ड्राइवर, चपरासी जैसे कम आय वाले लोगों के बच्चों को अपने स्कूल में पढ़ाती हैं। उन्होंने यह सुनिश्चित किया है कि उनके बच्चों के साथ स्कूल में कोई भेदभाव न हो। शहर के मध्य इंदिरानगर इलाके में कौल का 'केके एकेडमी' नामक स्कूल में चार्टर्ड अकाउंटेंट, डॉक्टर, वकील जैसे पेशेवरों के बच्चे भी पढ़ते हैं। मतलब, यहां गरीब और अमीर की शिक्षा में कोई अंतर नहीं है। कौल ने अपनी बेटी को प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने के लिए 1989 में इस स्कूल की स्थापना की थी। लक्ष्मी कौल ने कहा कि उस समय भी स्कूल काफी महंगे थे। गरीब तबकों के लिए अपने बच्चों को निजी स्कूल भेजना काफी महंगा था। मैं और मेरे पति (अरविंद कौल) इससे चिंतित थे। एक दिन हमने सोचा कि क्यों न अपना स्कूल खोला जाए। कौल ने 1980 के दशक के आरंभ में ही भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) बेंगलुरू में प्रबंधन का गुर सीखा था लेकिन कॉरपोरेट की नौकरी उन्हें रास नहीं आई और उन्होंने अपने जीवन में कुछ सार्थक करने को सोचा। उन्होंने अपने घर के गैराज में पांच बच्चों के साथ स्कूल खोला। जल्द ही उसमें काफी बच्चे हो गए, क्योंकि स्कूल की फीस कम थी और लोगों के लिए यहां अपने बच्चों को पढ़ाना आसान था। स्कूल में बच्चों की तादाद बढ़ने पर उन्होंने अपने घर से कुछ सौ मीटर की दूरी पर एक घर ले लिया। उन्होंने बताया कि बतौर प्रबंधन क्षेत्र के पेशेवर हमने यह महसूस किया कि लक्ष्य बहुत अच्छा है। मगर घर चलाने की भी जम्मेदारी थी, इसीलिए फैसला लिया। फैसला लेना थोड़ा मुश्किल था, लेकिन हम कहीं दांव लगाने को तैयार नहीं थे। आखिरकार मैं और मेरे पति ने यह तय कर लिया कि स्कूल को ही अपने बेहतर कौशल से संवारना है। स्कूल का विस्तार अब कई गुना हो चुका है।
लखनऊ में है लक्ष्मी कौल का 'केके एकेडमी' स्कूल डॉक्टर से लेकर आया तक के बच्चे समान रूप से पढ़ते हैं इस स्कूल से पढ़े कई बच्चे अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करते हैं
हमारा मुख्य मकसद यह है कि गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा सबको मिलनी चाहिए, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या आर्थिक पृष्ठभूमि का हो इसमें 3,250 से भी ज्यादा बच्चे हैं और यहां पहली से लेकर सातवीं कक्षा तक बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था है। उन्होंने कहा कि हमारा मुख्य मकसद यह है कि गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा सबको मिलनी चाहिए, चाहे वह किसी जाति वर्ग धर्म और विशेष वर्ग या आर्थिक पृष्ठभूमि का हो। कौल ने कहा कि इस स्कूल में पढ़ने वाले कई बच्चों के माता-पिता ऐसे हैं जो गर्व से कहते हैं कि साहब के बच्चे भी उसी स्कूल में पढ़ते हैं जिसमें उनके बच्चे पढ़ते हैं। उन्होंने कहा कि ये सब कुछ ऐसी बातें हैं जो निर्बाध रूप से समाजिक समाकलन की सच्ची मिसाल पेश करती हैं। हमारे पास किसी भी बच्चे के माता पिता की ओर से कोई शिकायत नहीं आती है। जो हमारी संकल्पना को सही नहीं ठहराते हैं। स्कूल के संस्थापक कहते हैं कि मैंने कभी बच्चों को उनकी पृष्ठभूमि के आधार पर तुलना
करते हुए नहीं पाया। सच तो यह है कि हमने उनको बहुत अधिक समझदार और मददगार पाया है। इसका श्रेय शिक्षकों को जाता है जो बिल्कुल भी भेदभाव नहीं करते हैं किसी प्रकार के पूर्वाग्रह हो सहन नहीं करते हैं। बच्चे भी इसका अनुकरण करते हैं। उन्होंने बताया कि 2011 में स्कूल में एक सालाना अवार्ड शुरू किया गया। यह अवार्ड आईआईएम के प्रोफेसर जीके वैलेचा की याद में शुरू की गई। इस अवार्ड के लिए बच्चों का चयन उनकी अकादमिक प्रगति नेतृत्व कौशल और सीखने के लिए ललक और छात्रों व शिक्षकों के साथ घुलने मिलने के आधार पर किया जाता है। पिछले पांच साल में चार साल के दौरान उन्हीं बच्चों को यह अवार्ड मिले हैं, जिनका खर्च स्कूल उठाते हैं। इस स्कूल से पढ़े कई बच्चे अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करते हैं और अपने
अपने क्षेत्र में सफल हैं। इस साल सीबीएसई बोर्ड की 10वीं कक्षा परीक्षा में 93 फीसदी अंक लाने वाला हृतिक वर्मा स्कूल की मेड का पोता है और 91 फीसदी अंक लाने वाला कनौजिया ड्राइवर का बेटा है। दोनों ने सातवीं तक की पढ़ाई हमारे स्कूल से की है। आईसीएससी बोर्ड परीक्षा में 92 फीसदी अंक लाने वाले कबीर अली के पिता दर्जी हैं। स्कूल के प्रबंधन व संचालन के लिए बहुत कम शुल्क रखा गया है और स्कूल को कभी-कभी कुछ मदद भी मिल जाती है। खासतौर से कॉरपोरेट जगत में महत्वपूर्ण व शक्तिशाली पद संभालने वाले आईआईएम में लक्ष्मी के बैचमेट स्कूल के संचालन में उन्हें आर्थिक मदद करते हैं। स्कूल में आज एक कंप्यूटर लैब जहां बच्चों के लिए कई टैबलेट हैं। इसके अलावा एक पुस्तकालय भी है। प्रमुख आईटी कंपनी में कार्यरत स्कूल का एक छात्र हाल ही में अपनी गर्लफ्रेंड के साथ स्कूल आया था। भावुक होकर लक्ष्मी ने बताया कि लड़के ने कहा कि वह अपनी होने वाली पत्नी को अपने माता-पिता से पहले मुझसे मिलाना चाहता था। आया फूलमी के तीन पोते-पोतियां इस स्कूल से पढ़कर निकलने के बाद अब ऊंचे दर्जे में दूसरे अच्छे स्कूल में पढ़ते हैं। स्कूल में प्रथम आरटीई छात्र के रूप में दाखिल छात्र दुर्गेश की मां गुलाब देवी ने बताया कि पहले उनका बेटा बोल भी नहीं पाता था मगर अब वह बोले बिना रुकता ही नहीं है। फार्मासिस्ट की बेटी श्रेया वर्मा ने भी कहा कि स्कूल ने उसकी जिंदगी बदल दी है। महिला पुलिस इंस्पेक्टर की बेटी आव्या के गाने की तारीफ उसकी अध्यापिका भी करती हैं। लक्ष्मी कौल ने कहा कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की प्रसिद्ध काव्य पंक्ति 'एकला चलो..' से प्रेरणा लेकर वह समाज के हर तबके के बच्चों को शिक्षित करने के मिशन पर निकली थीं।
09 - 15 जुलाई 2018
शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने में जुटा एनआरआई
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शिक्षा
ब्रिटेन के शीर्ष व्यवसायियों में से एक 'लॉर्ड' दिलजीत राणा ने कृषि प्रधान राज्य पंजाब के दूर-दराज के गांवों के विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए कई शिक्षण संस्थान स्थापित किए हैं
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जयदीप सरीन
न्होंने भले ही बड़ी संपत्ति खड़ी कर ली हो और 'ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस' के एक सदस्य बन चुके हों, लेकिन जहां तक मातृभूमि से प्यार करने की बात है, तो वह अपनी जड़ों से गहरे तक जुड़े व्यक्ति हैं। जी हां, ब्रिटेन के शीर्ष व्यवसायियों में से एक 'लॉर्ड' दिलजीत राणा ने कृषि प्रधान राज्य पंजाब के दूर दराज के गांवों के विद्यार्थियों को बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए पंजाब की ग्रामीण इलाकों में कई शिक्षण संस्थान स्थापित किए हैं। चंडीगढ़ से लगभग 40 किलोमीटर दूर संघोल गांव में हड़प्पा खुदाई स्थल के दाहिनी तरफ स्थित 'द कोर्डिया एजुकेशन कॉम्प्लेक्स' को राणा ने राज्य के पिछड़े और ग्रामीण इलाके तक बेहतर शिक्षा पहुंचाने के उद्देश्य से स्थापित किया था। यह स्थान फतेहगढ़ साहिब जिले में आता है। राणा ने कहा कि मैंने पंजाब के ग्रामीण इलाके में अच्छी शिक्षा पहुंचाने का निश्चय किया था, क्योंकि गांवों के अधिकतर विद्यार्थियों के पास गांव छोड़ने और उच्च शिक्षा पाने के साधन नहीं थे। हमारा पहला कॉलेज 2005 में शुरू हुआ। हमारे
अब छह कॉलेज हैं, जिनमें स्नातक, परास्नातक पाठ्यक्रम चलते हैं। लॉर्ड राणा एजु-सिटी 27 एकड़ के क्षेत्रफल में फैली हुई है, जिसमें व्यापार प्रबंधन, हॉस्पिटलिटी और पर्यटन प्रबंधन, कृषि, शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण और कौशल विकास के पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं। राणा कहते हैं कि मेरी मां ज्वाला देवी का जन्मस्थान होने के कारण संघोल को मैंने शिक्षण संस्थान स्थापित करने के लिए चुना। परियोजना में प्रतिबद्धता, समय और धन का निवेश हुआ है। यहां आने वाले ज्यादातर छात्र ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों से होते हैं, जिसके कारण उन्हें पढ़ाना एक चुनौती है। पंजाब मूल के राणा 1955 में इंग्लैंड चले गए थे और तब उनका वहां बसने का कोई मन नहीं था। उत्तरी आयरलैंड में कुछ समय बिताने के बाद रेस्तरां, होटल और अन्य व्यवसाय के जरिए छह करोड़ पाउंड का साम्राज्य खड़ा करने में उन्होंने काफी कड़ी मेहनत की। ग्रामीण पंजाब में शिक्षा जैसी परोपकारी पहल करने वाले राणा को दुख है कि उन्हें भी दफ्तरशाही और नौकरशाही से संबंधित परेशानियों का सामना करना पड़ा। राणा कहते हैं कि विश्वविद्यालय
परिसर स्थापित करने के लिए न्यूनतम 35 एकड़ भूमि की अनिवार्यता आड़े आ रही थी। उन्होंने कहा कि यहां कानून पुराने हैं। दुनियाभर में कई विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में इससे भी कम जमीन है। यहां नियमों में बदलाव किए जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने के लिए दो करोड़ रुपए जो राज्य सरकार को वहन करने हैं, लगभग 2.5 वर्षो से अटके हैं, जिससे हमें आर्थिक समस्या हो रही है। उनका कहना है कि ग्रामीण क्षेत्रों के लिए बेहतर शिक्षक ढूढ़ना भी एक मुश्किल काम है। परियोजना की प्रगति देखने के लिए मैं तीन-चार महीनों में भारत का दौरा करता हूं। देश का विभाजन देख चुके और खुद एक शरणार्थी परिवार से ताल्लुक रखने वाले राणा ने
कहा कि वह जब भारत के पंजाब आए थे तो उनके पास कुछ नहीं था। राणा का परिवार विभाजन के बाद पाकिस्तान के लायलपुर से भारत के पंजाब आकर बस गया था। 1980 के दशक में उत्तरी आयरलैंड में सांप्रदायिक हिंसा में उनके कुछ प्रतिष्ठानों पर 25 से ज्यादा बम विस्फोट हुए थे, लेकिन राणा हिंसाग्रस्त क्षेत्र में भी दृढ़ बने रहे। इसके बाद वह यूनाइटेड किंगडम के सबसे सफल और सम्मानित व्यवसायियों में शुमार हो गए। वह उत्तरी आयरलैंड में भी समाज कल्याण के काम करते रहते हैं और ब्रिटिश सरकार उनकी सेवाओं का सम्मान करती है। उत्तरी आयरलैंड में भारत के मानद महावाणिज्यदूत के तौर पर नियुक्त राणा 'ग्लोबल ऑर्गनाइजेशन ऑफ पीपुल ऑफ इंडियन ऑरिजिन' के अध्यक्ष भी हैं।
आदिवासी बच्चों को पढ़ाने में ‘रुचि’
कि
सी भी क्षेत्र में शोहरत और कामयाबी आपको समाज के लिए कार्य करने की अभिरुचि से दूर नहीं ले जाता, बल्कि तब आप अपनी इस ललक को ज्यादा समर्थ तरीके से पूरा करना का सामर्थ्य देता है। इलस्ट्रेटर रुचि शाह ने बच्चों की पढ़ाई को सुरुचिपूर्ण बनाने के लिए जिस तरह याहू की नौकरी छोड़ी, उससे यह बात एक बार फिर साबित हुई है। मुंबई में पली बढ़ी रुचि शाह के माता-पिता आर्टिस्ट थे, इस वजह से शुरू से
याहू की नौकरी छोड़ने वाली इलस्ट्रेटर रुचि शाह बच्चों की पढ़ाई को सुरुचिपूर्ण बनाने के लिए कई तरह के प्रोजेक्ट पर कार्य कर रही हैं ही उनकी दिलचस्पी पेंटिंग और आर्ट में थी। उन्होंने आईआईटी बॉम्बे के इंडस्ट्रियल डिजाइन सेंटर से पढ़ाई की। कॉलेज से निकलते ही उन्हें याहू में बतौर डिजाइनर नौकरी मिल गई। यहां काम करने के दौरान ही उन्हें 2012 में यूके के कैंबरवेल कॉलेज से विजुअल आर्ट्स में स्कॉलरशिप मिल गया। 2013 में वह लंदन से वापस आ गईं और उन्हें अवलोकितेश्वर ट्रस्ट ने लद्दाख के दूरस्थ इलाकों के स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने के लिए
बुलाया। उन दिनों को याद करते हुए वह बताती हैं, ‘लद्दाख में लमायुरू मॉनेस्ट्री में वॉलंटियर करते वक्त मुझे लगा कि क्लासरूम में मुझे एक खाली दीवार मिली। क्लास को जीवंत बनाने के लिए मैंने दीवार पर गांव का भित्ति-चित्र बना दिया।’ स्कूल की इस पेंटिंग को फ्रेशडेस्क की टीम ने देखा और उन्होंने अपने ऑफिस की दीवार को पेंट करने के लिए रुचि को बुलाया। अगले चार सालों तक रुचि ने फ्रेशडेस्क के लिए 20 से भी ज्यादा दीवारें पेंट की। उनके
काम को काफी सराहना भी मिली और देसी क्रिएटिव, पोल्का कैफे जैसे प्लेटफॉर्म में उनको प्रकाशित भी किया गया। इसी दौरान रुचि को आईडीसी द्वारा एक किताब का इलस्ट्रेशन करने का मौका मिला। रुचि अभी वैंकूवर के द वॉकिंग स्कूल बस और भारत के प्रथम बुक्स संस्थान के साथ काम कर रही हैं। प्रथम बुक्स के साथ छपने वाली उनकी किताब पूरी तरह से हिमालयन पब्लिक स्कूल उत्तराखंड के बच्चों द्वारा तैयार की जाएगी। (एजेंसी)
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पहल
09 - 15 जुलाई 2018
अमेरिकी पिता-पुत्री सिखा रहे बच्चों को कंप्यूटर अमेरिका के माइक और उनकी बेटी लिलियाना अरुणाचल प्रदेश के सुदूरवर्ती इलाके में बच्चों को कंप्यूटर का पाठ पढ़ा रहे हैं
खास बातें नेशनल ज्योग्राफिक के अन्वेषक है माइक लिबेकी पिता-पुत्री मानवतावादी अभियानों में शामिल होते हैं डेल कंपनी के साथ तवांग के गांव में कंप्यूटर शिक्षा के प्रचार में जुटे
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साकेत सुमन
शनल ज्योग्राफिक के अन्वेषक माइक लिबेकी और उनकी 14 वर्षीया बेटी लिलियाना ने दुनिया के कई दूर-दराज के इलाकों की यात्राएं की हैं, मगर समुद्र से काफी दूर अरुणाचल के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों का सैर करना अमेरिकी पिता-पुत्री के लिए बेहद अनोखा रहा है। पिता-पुत्री बहुधा मानवतावादी व परोपकार के अभियानों के लिए सुदूरवर्ती इलाकों की खाक छानते रहे हैं। हाल ही में इन्होंने कंप्यूटर प्रौद्योगिकी क्षेत्र की अग्रणी कंपनी डेल के साथ एक समझौता किया है और वे तवांग के सुदूर गांव में कंप्यूटर शिक्षा के प्रचार-प्रसार में जुटे हुए हैं। पिता-पुत्री द्वारा संचालित 'झमत्से गत्सल चिल्ड्रन कम्युनिटी' में इलाके के करीब 90 बच्चों का पालन-पोषण और उनकी शिक्षा की व्यवस्था की गई है। इन बच्चों को यहां कंप्यूटर का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। इस काम में पिता-पुत्री को डेल कर्मचारियों का भी सहयोग मिल रहा है, जिन्होंने इस केंद्र में 20 नए लैपटॉप, नए प्रिंटर, इंटरनेट की सुविधा प्रदान की है। इस केंद्र में तावांग के बच्चों और अध्यापकों को कंप्यूटर की शिक्षा दी जा रही है। कंप्यूटर केंद्र और कम्युनिटी की अन्य इमारतों में बिजली के लिए सौर ऊर्जा पैनल और सौर जनरेटर भी स्थापित किए गए हैं। माइक ने कहा कि हम कम्युनिटी के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। केंद्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे सभी बच्चे या तो अनाथ हैं या पारिवारिक समस्याओं के कारण यहां रहने आए हैं। ये ऐसे बच्चे हैं, जिनके परिवार में कभी किसी बच्चे
को पढ़ाई करने का मौका नहीं मिला और ये शिक्षा ग्रहण करने वाली अपने परिवार की पहली पीढ़ी के बच्चे हैं। उन्होंने कहा कि हमने यहां अनाथ बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के मकसद से सौर ऊर्जा की व्यवस्था और कंप्यूटर लैब व इंटरनेट की सुविधा प्रदान की है। समुदाय के लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे कॉलेज जाएं। कंप्यूटर और इंटरनेट के बगैर वे पीछे रह जाएंगे और अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाएंगे। आज हम जिस दौर में रह रहे हैं, वहां प्रौद्योगिकी प्रगति की जरूरत है। कंप्यूटर और इंटरनेट जैसी प्रौद्योगिकी के बिना प्रगति संभव नहीं है। माइक ने बताया कि तवांग में सभी उपकरण अमेरिका से मंगाए गए हैं और डेल के कर्मचारियों ने यहां इन उपकरणों की संस्थापना में मदद की है। लेकिन सिर्फ कंप्यूटर स्थापित करना काफी नहीं था। हमें यह भी सुनिश्चित करना था कि बच्चे इनका इस्तेमाल करने में सक्षम हो पाएं। इसीलिए उनको समुचित ढंग से प्रशिक्षण दिया जा रहा है। जब कभी कोई समस्या हो तो उन्हें तकनीशियनों से मदद मिले। हमें यह भी सुनिश्चित करना था कि सिस्टम सौर ऊर्जा से संचालित हों, क्योंकि इस तरह के दूरदराज के इलाकों में प्राय: बिजली नहीं होती है।
ज ब उ न ्ह ों ने काम शुरू किया तो अच्छे नतीजे देखने को मिले और अनुभव संतोषजनक रहा, क्योंकि गत्सल चिल्ड्रन कम्युनिटी के बच्चों ने पहली बार कंप्यूटर देखा था। माइक ने बताया कि छोटे-छोटे बच्चों ने जब लिलियाना को कंप्यूटर चलाते और इंटरनेट का इस्तेमाल करते देखा तो उनके चेहरे खिल गए। लिलियाना ने 14 साल की उम्र में सभी सात महादेशों के 26 देशों की यात्राएं की है और उसने यहां कंप्यूटर लगाने में अपने पिता की मदद की है। उसे कंप्यूटर चलाते देख बच्चे ही नहीं यहां के शिक्षक और अन्य कर्मी भी रोमांचित थे। उनमें सीखने की
केंद्र में शिक्षा ग्रहण कर रहे सभी बच्चे या तो अनाथ हैं या पारिवारिक समस्याओं के कारण यहां रहने आए हैं। ये ऐसे बच्चे हैं, जिनके परिवार में कभी किसी बच्चे को पढ़ाई करने का मौका नहीं मिला और ये शिक्षा ग्रहण करने वाले अपने परिवार की पहली पीढ़ी के बच्चे हैं
लालसा बलवती हो गई। माइक कहते हैं कि हर समय हम समुदाय से जुड़ते हैं और हमें उनसे जो मिलता है, उसके एवज में उन्हें कुछ वापस करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि हम उनको जो देते हैं, उससे ज्यादा हमें मिलता है। हमारे पास जो अवसर हैं, वे उनके पास नहीं हैं और उनकी जिंदगी में थोड़ा बदलाव लाकर सचमुच हमें बड़ी तसल्ली मिलती है। हम उनको कंप्यूटर और इंटरनेट प्रदान कर रहे हैं। आप अपने और मेरे बारे में सोचिए। हमें ये प्रौद्योगिकी वरदान के रूप में मिली है, लेकिन हम कभी इसके महत्व को नहीं समझते हैं। हम यह कभी यह नहीं समझते हैं कि अगर हम भी इनके जैसे बदकिस्मत होते तो हमारी जिंदगी कैसी होती। माइक ने कहा कि जिस तरह टेक्नोलॉजी शब्द ‘टू’ से बना है, उसी प्रकार वे इस प्रोजेक्ट के बारे में परिकल्पना करते हैं। माइक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल एक औजार के रूप में कर रहे हैं। ये बच्चे भी अन्य लोगों की तरह ही कॉलेज जाना चाहते हैं। तो फिर इन सुदूर इलाके के बच्चों को भी हमारी सबकी तरह अवसर क्यों न मिले। इसी दिशा में माइक अपना काम कर रहे हैं। अगर इस योगदान से एक समुदाय के जीवन में बदलाव लाते हैं और उससे हजारों लोगों के जीवन में बदलाव आ सकता है, क्योंकि इस तरह की पहलों का प्रभाव तरंग की तरह दूर तक जाता है। जो आज इस प्रयास से लाभ उठा रहे हैं, उनको जब कभी मौका मिलेगा तो वे दूसरों की जिंदगी में बदलाव लाने की कोशिश करेंगे। झमत्से गत्सल चिल्ड्रन कम्युनिटी अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिला में स्थित है। यहां से सबसे नजदीक में लुमला शहर है, जहां कार से महज आधा घंटे में पहुंचा जा सकता है और पैदल चलने पर एक-दो घंटे लगते हैं। यहां कम्युनिटी स्कूल चलता है, जिसमें 90 छोटे-छोटे बच्चों से लेकर किशोर उम्र के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं।
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संस्कृति
जहां गीत गाकर सोते को जगाने की है परंपरा
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मिथिला में सूर्योदय के साथ ही और गीत-संगीत की दैनिक क्रिया शुरू हो जाती है। मानो यहां हर घर अपने आप में गायन का केंद्र है
डॉ. बीरबल झा
सु
दादी जगे पराती ले मां हुलसे संझबाती ले...
बह- सवेरे पराती और शाम ढलते ही संझवाती गाना बिहार की लोक परंपरा है। लेकिन मिथिला की यह परंपरा सबसे खास है। यहां गीत गाकर सुबह में जगाने की परंपरा है। इसे पराती कहते हैं, इस परंपरा को बचाने में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का योगदान कहीं ज्यादा है। पराती का मतलब है सुबह की अगवानी में गया जाने वाला गीत। मिथिला के लोगों की दिनचर्या कुछ ऐसी है कि सूर्योदय से पहले अपने विस्तर छोड़ देते हैं और गीत संगीत की दैनिक क्रिया शुरू हो जाती है। मानो यहा हर घर अपने आप में गायन का केंद्र है। गीत-संगीत
खास बातें गीत-संगीत व चित्रकला मिथिला के लोगों की सांसों में रचा – बसा है जन्म से लेकर मृत्यु तक हर अवसर पर गाए जाते हैं गीत जार्ज ग्रियर्सन ने मैथिली को को विश्व की मधुरतम भाषा की संज्ञा दी
व चित्रकला यहां के लोगों की सांसों में रच बस गया है। फलत: यह एक जीवन शैली बन गई है। यहां निरक्षरों में गाने की कला के प्रति अतिशय अनुराग देखने को मिलता है। यद्यपि साक्षरता दर पिछले एक दशक की तुलना में काफी बढ़ी है। यहां की गायन परंपरा सही मायने में अद्भुत एवं देखने सुनने योग्य है, यह गीत-संगीत की परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी से चलती आ रही है। इसे संरक्षित करने में बड़े बुजुर्गों का बहुत बड़ा हाथ है, लेकिन प्रवासी मैथिलों में यह परंपरा घट रही है। बच्चों के जन्म से लेकर व्यक्ति के मृत्यु पर्यंत गीत गाने की अनोखी परंपरा है। जीवन के हर क्षण व उत्सव के लिए अलग-अलग सुर-ताल गीत एवं
संगीत है। घर में मेहमान आने पर स्वागत गीत की परंपरा है और प्रस्थान के लिए विदाई गीत, भोजन व मेहमानवाजी के लिए अलग गीत है। बारह महीनों के लिए गीत माला बनी हुई है जिसे बारहमासा कहते है, बदलते ऋतु के हिसाब से गीत का प्रयोग होता है, वसंत में सुर लय ताल बदल जाते हैं। भारत कृषि प्रधान देश है और मिथिला एक ऐसा भूभाग है जहां पर कृषि वर्षा पर आधारित है। वर्षा के लिए इंद्रदेव को गाना गाकर रिझाया जाता है, जिसे जट्टा-जट्टिन कहते हैं। प्रकृति पूजन के लिए अलग गीत है। सीता की धरती मिथिला की भाषा मैथिली है जो सीता का पर्याय भी है। इस भाषा को अंग्रेजी
नए अवसर, नए गीत
बच्चों के जन्म पर सोहर: आंगन में चान उतरलै लैह बौआ जन्म लेलक ललना रे.. मुंडन संस्कार: हजमा नहुं नहुं कटिहें बौआ के केस रे... जनेऊ के अवसर पर: मड़वा पर बैसल छथि बड़वा भिखाड़ी बनि क'.. परिछन गीत: परिछन चलियो सखी सुंदर जमाय हे सेहाओन लागय.. विवाह गीत: जेहने किशोरी मोरी तेहने किशोर हे विधना लगावल जोड़ी .. डहकन: समधी को खाना खिलाने के दौरान गया जाता है: सुनाउ हिलिमिल क' समधि के डहकन सुनाउ .. समदाउन गीत बेटी के विदाई पर: बड़ रे जतन सं सिया धिया के पोसलहुं सेहो रघुवर लेने जाय. विरह गीत: बाबा के दुलारी धिया नैहर मे रहलौं बड़ दुख माय गे सासुर में सहलौं आदि।
मिथिला में अतिथि सत्कार को देखकर कहा जा सकता है कि सही मायने में 'अतिथि देवो भव' की परिकल्पना को मिथिला सौ फीसदी पूरा करता है।
भाषाविद् जार्ज ग्रियसर्न ने दुनिया की मधुरतम भाषा की संज्ञा दी थी, ग्रियर्सन भारत में भाषाई सर्वेक्षण पर बहुत बड़ा काम किया था। मैथिली की मधुरता को बयां करते हुए उन्होंने लिखा था जब दो मैथिली महिलाएं किसी कारण आपस में झगड़ती हैं, तो महसूस होता है कि वे गाना गा रही हैं। इस क्रिया में वे सूर्य व अग्नि को साक्षी बनाती हैं। यहां की जीवन शैली कुछ ऐसा है कि जिंदगी उत्सव मनाने जैसी है, विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार कि गीत गाए जाते हैं, बच्चों के जन्म पर शुभ आगमन को दर्शाते हुए सोहर गीत, बच्चा लड़का हो या लड़की जन्म के छठे दिन छठियारी मनाई जाती है। इस अवसर पर छठियारी गीत गाया जाता है। अमूमन जन्म के तीन साल बाद पहली बार कैंची से बाल काटने की परंपरा है और इसके लिए पूजा-अर्चना की जाती है। इस संस्कार में मुंडन गीत गाने की परंपरा है। इस गाने में पारंपरिक वाद्ययंत्र का भी प्रयोग किया जाता है। इसमें ढोलक का स्थान प्रमुख है। उम्र के पांच, सात व नौ वर्ष में उपनयन संस्कार की परंपरा है, इस परंपरा में िसर के बाल का मुंडन किया जाता है। एक वृहद यज्ञोपवीत यज्ञ किया जाता है। समाज के सभी जाति-वर्गों का शामिल होना अनिवार्य माना जाता है। इस यज्ञोपवीत संस्कार में जनेऊ गीत गाने की परंपरा है। कई वाद्ययंत्र का प्रयोग किया जाता है, जिसमें ढोलबांसुरी आवश्यक है। परिछन का अर्थ है परीक्षा लेना। स्वास्थ्य की सलामती के लिए दुआ करना। इस स्वास्थ्य लाभ की कामना को भी संगीत में पिरोया गया है। स्वास्थ्यवर्धन के लिए चूमने की परंपरा है। जिसे चुमाउन कहते हैं। और इस अवसर पर चुमाउन गीत महिला टोली बनाकर गीत गाती हैं। जो विहंगम दृश्य पैदा करता है। ललाट पर तिलक, लाल व पीत वस्त्र देखने को मिलता है। आमतौर पर वर व कन्या के पिता को समधी कहा जाता है। समधी का स्थान काफी ऊंचा होता है। उनके साथ काफी हास्य-व्यंग्य किया जाता है। गाली को संगीत में पिरोकर समधी को सुनाया जाता है। जो बड़ा ही रोचक होता है। संगीतमय गाली शायद ही दुनिया के किसी कोने में होगी। इस गाली को बुरा नहीं माना जाता है, बल्कि लुत्फ के साथ ठहाका लगाते हैं। धन्य है मिथिला की संगीत दुनिया व जीवन शैली। मिथिला अपने आप में एक दर्शन है। बेटी का स्थान मिथिला में सर्वोपरि है माना जाता आ रहा है कि हर कण में यहां बेटी है। चूंकि सीता का जन्म मिट्टी के गर्भ से हुआ था। अपनी बेटी के प्रति असीम अनुराग को व्यक्त करने के लिए समदाउन गीत गाया जाता है। इस गीत के दौरान पुरुष हो या स्त्री सबके आंखों से आंसू बहने लगता है। मानो, रोने-रुलाने के लिए भी गीतसंगीत है।
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स्वच्छता
09 - 15 जुलाई 2018
ऑस्ट्रेलिया
सागर, स्वच्छता और सौंदर्य की भूमि
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एसएसबी ब्यूरो
गारुओं की धरती ऑस्ट्रेलिया विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जो अपने आपमें एक महाद्वीप भी है। इसकी विशालता ने इसे अनेक विविधताओं से नवाजा है। इस देश को ‘लैंड आफ सनशाइन’ भी कहा जाता है। ऑस्ट्रेलिया का बहुत बड़ा भाग विशाल मरुस्थल से ढका है। मरुस्थल भी ऐसा जहां कुछ स्थानों पर तो वर्षों तक पानी की एक बूंद भी नहीं बरसती। मनमोहक सागरतट, हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखला,
खास बातें
ऑस्ट्रेलिया का बहुत बड़ा भाग विशाल मरुस्थल से ढका है इस देश को ‘लैंड आफ सनशाइन’ भी कहा जाता है यहां अपार्टमेंट्स में अलग से कूड़ा निस्तारण के लिए इंतजाम हैं
स्वच्छता से लेकर पर्यावरण संतुलन तक हर दिशा में दुनिया के सर्वाधिक विकसित देशों में से एक ऑस्ट्रेलिया से बहुत कुछ सीखा जा सकता है उष्ण कटिबंधीय वर्षा तथा दूर तक विस्तार लिए मैदान और आधुनिक शहर इस देश की खासियत हैं। यहां आने वाले सैलानी इन विविधताओं में खो जाते हैं। एक ऐसे दौर में जब स्वच्छता और जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक स्तर पर चिंता जताई जा रही है, तो इससे निपटने के लिए तमाम तरह के उपाय भी आजमाए जा रहे हैं। इस दृष्टि से विचार करें तो ऑस्ट्रेलिया एक आदर्श देश के तौर पर नजर आता है। स्वच्छता से लेकर पर्यावरण संतुलन तक हर दिशा में दुनिया के सर्वाधिक विकसित देशों में से एक इस देश से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
पेरिस एग्रीमेंट पर सहमति
जलवायु परिवर्तन के बहुत से कारण हैं और इस चुनौती से निपटने के लिए विश्व के सभी देशों को इसके विरुद्ध एकजुट होने की आवश्यकता अनुभव हुई। यही कारण है कि चर्चित पेरिस एग्रीमेंट को लगभग सभी देशों ने अपनी मान्यता दी। ऑस्ट्रेलिया ने भी पेरिस एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किया और यहां के लोगों ने इसका समर्थन किया। ऑस्ट्रेलिया ने पर्यावरण के लिए कई गंभीर और अहम नीतियां बनाई है। यह भी देखने योग्य है कि
यदि कोई इन नीतियों का पालन नहीं करता तो उसे दंड भी भुगतना पड़ता है। दंड की रकम भी बहुत ही भारी-भरकम है।
वातावरण शुद्धता के मानक
जलवायु परिवर्तन का एक मुख्य कारण है कार्बन जैसी गैसों का भारी मात्रा में उत्सर्जन, जिसे बड़े-बड़े उद्योग निरंतर वातावरण में निर्बाध गति से छोड़ते हैं। ऑस्ट्रेलिया में जब भी कोई नई इंडस्ट्री या कंपनी या प्लांट लगाया जाता है तो उससे वातवरण को सुरक्षित रखने के आश्वासन लिए जाते हैं और उसे बहुत से मानकों से गुजरना पड़ता है और यह बताना पड़ता है कि वह कैसे हवा पानी और जमीन को कम से कम दूषित होने देगी। इस तरह की शर्तें ऑस्ट्रेलिया में पुराने उद्योगों पर भी लागू किए जा रहे हैं। इन शर्तों के पालन की समय-समय पर जांच पड़ताल होती रहती है। एक विकसित देश होने के कारण ऑस्ट्रेलिया में वातवरण को सुरक्षित रखने के लिए भी बहुत सी प्रणाली है, जो कि यहां की जीवनशैली में भी देखी जा सकती है। ऑस्ट्रेलिया में जब आप किसी भी कार्बन एमिशन वस्तु को खरीदने जाते हैं, जैसे
फ्रिज इत्यादि, तो उनमें अधिकतर पर एक पर्चा चिपका रहता है, जिस पर वह वस्तु पर्यावरण के लिए कितनी अनुकूल है यह बताया जाता है। यहां के निवासी पैसे को न देखकर पर्यावरण के अनुकूल वस्तु ही खरीदते हैं, वह चाहे मंहगी ही क्यों न हो क्योंकि वे पर्यावरण के प्रति बहुत ही जागरूक हैं। इसके लिए जो भी छोटा या बड़ा योगदान किसी भी रूप में दे सकते है, वे तो देते हैं। चाहे फिर वो पर्यावरण के अनुकूल वस्तु पर अधिक खर्च करना हो या फिर सरकार के बनाए नियमों को पालन करना हो या फिर सरकार को और कड़ी नियमावली बनाने के लिए सड़कों पर जुलूस निकलना।
09 - 15 जुलाई 2018
स्वच्छता
सजल, स्वच्छ और समृद्ध राष्ट्र
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डिसेलिनेशन तकनीक के जरिए ऑस्ट्रेलिया लंबे समय से समुद्री जल को मीठा बना रहा है, इसी तरह इस समृद्ध देश में स्वच्छता चुनौती का जगह बड़ी उपलब्धि है
ऑ टॉयलेट बाउल में सांप
ऑस्ट्रेलिया में खुद को ठंडा रखने के लिए सांप बाथरूम या टॉयलेट में जाकर छिप जाते हैं, क्योंकि यह उनके लिए सबसे मुफीद जगह होती है
ऑ
स्ट्रेलिया में यदि आप टॉयलेट यूज करने जा रहे हैं, तो थोड़ा सतर्क रहें नहीं तो वहां आपको एक अनजाना और खतरनाक दोस्त मिल सकता है। दरअसल, हाल के महीनों में कई लोगों ने शिकायत की है कि उनके टॉयलेट बाउल में सांप छिपे हुए मिले हैं। स्थानीय सांप पकड़ने वाले इलिओट बड ने हाल ही में फेसबुक पर तीन मीटर लंबे कार्पेट पायथन (अजगर) की तस्वीर पोस्ट की है। इसे उन्होंने टॉयलेट के अंदर से निकाला था। अजगर को निकालने के लिए इलिओट को बुलाया गया था। खुद को ठंडा रखने के लिए सांप बाथरूम या टॉयलेट में जाकर छिप जाते हैं, क्योंंकि यह उनके लिए सबसे मुफीद जगह होती है। इसके कुछ दिनों बाद क्रिस डेवोन एक शौचालय की हौज में छिपे 7.5 फीट के अजगर की तस्वीरें पोस्ट की थीं। तस्वीर पोस्ट करने के साथ उन्होंने लिखा था- ‘मेरे दोस्त ने सुबह फोन किया कि वह उसने टॉयलेट यूज किया था, लेकिन फ्लश नहीं चल रहा है.... अब पता चला कि वह काम क्यों नहीं कर रहा था।’
स्वच्छता और जल संरक्षण
ऑस्ट्रेलिया में लोगों के बीच स्वच्छता और जल संरक्षण को लेकर जागरुकता काफी सराहनीय है। आपको मेलबोर्न शहर में जगह-जगह जागरूक करने वाले कागज के पोस्टर या लेन और चौराहों पर लोग स्वयं भी जागरूकता अभियान चलाते दिख जाएंगे। वे कभी पानी बचाने का संदेश देते दिखेंगे तो कभी हवा को साफ रखने की अपील करते दिखेंगे। इसके लिए स्वयंसेवी संगठन के साथ लोग व्यक्तिगत स्तर पर भी कार्य करते दिखते हैं।
स्वच्छ समुद्र तट
ऑस्ट्रेलिया अपने सुंदर तटों को लेकर बहुत ही
स्ट्रेलिया और समुद्र के बीच का रिश्ता ऐसा है कि वहां यह फर्क कर पाना आसान नहीं होता कि वहां समुद्र के बीच जीवन है या जीवन के बीच समुद्र। वहां 10 हजार से ज्यादा समुद्री बीच हैं, यानी आप अगर रोज एक बीच की सैर करें तो भी आपको सारे बीच देखने में 27 वर्ष लग जाएंगे। पर समुद्र के खारे पानी को पीने लायक और अन्य मानवीय इस्तेमाल लायक कैसे बनाएं, यह कठिन चुनौती ऑस्ट्रेलिया के सामने काफी समय पहले ही आ गई थी। अच्छी बात यह है कि पचास के दशक से ही वहां इस दिशा में तकनीकी और योजनागत प्रयास शुरू हो गए, जो काफी सफल भी रहे।
डिसेलिनेशन
दिलचस्प है कि समुद्र के खारे जल को मीठे पानी में बदलने की यह प्रक्रिया आसान नहीं है। नमक छान कर समुद्री जल को मीठे पानी बनाने में फिलहाल थर्मल डिसेलिनेशन तकनीक को काम में लाया जा रहा है, पर रिवर्स ऑस्मोसिस के इस काम की लागत काफी ज्यादा है। डिसेलिनेशन की प्रक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा खर्च होती है, जो उससे मिलने वाले पानी को बेहद महंगा बना देता है। हालांकि ऑस्ट्रेलिया जैसे देश मुख्यत: इसी प्रक्रिया पर निर्भर हैं, क्योंकि उनके अन्य जल स्त्रोतों से जरूरत के सचेत रहता है। यह बात विश्व में प्रसिद्ध है और यह देखा जा सकता है कि यहां के समुद्र तट बहुत हद तक साफ हैं। उसका एक कारण यह भी है न केवल सरकार और स्वयंसेवी संस्थाएं, वरन आम लोग भी वातावरण का बहुत ख्याल रखते हैं। यहां की सरकार ने बहुत सारी ऐसी व्यवस्थाएं की हैं, जिनके कारण समुद्र तट स्वच्छ और सुंदर रहते हैं।तटों पर कूड़ा-करकट सैलानी हमेशा कूड़ेदान में फेंकते हैं, न कि जहां मन करे वहां डाल दें।
दो या तीन डस्टबिन
ऑस्ट्रेलिया में आप कहीं भी चले जाएं, जैसे शॉपिंग मॉल से लेकर समुद्र तटों तक, आपको हर जगह कूड़ेदान जरूर दिखाई देंगे। यहां तक कि सड़कों के किनारे थोड़ी थोड़ी दूर पर भी कूड़े दान के प्रबंध किए गए हैं। हर अच्छे कार्य का शुभारंभ घर से होता है यह सही कहावत है जो कि यहां की जीवनशैली में देखी जा सकती है। यहां पर हर घर के बाहर दो या तीन डस्टबिन होते हैं- रिसाइकल बिन और नॉन रिसाइकल बिन। ये म्युनिसिपल कॉरपोरेशन की तरफ से प्रदान किए जाते हैं। हर दिन सवेरे सरकारी ट्रक आते हैं और इन्हें खाली कर जाते हैं। ट्रकों से कूड़ा बड़ी-बड़ी रिसाइकल कंपनियों में ले जाया जाता है, जहां कूड़े को बिना वातावरण को नुकसान
मुताबिक पानी नहीं मिल पाता। फिलहाल भारत जैसे देश में इस तरह डिसेलिनेशन से मिलने वाले पानी की मौजूदा कीमत 50-55 रुपए प्रति लीटर बैठती है, जो बोतलबंद पानी से कई गुना ज्यादा है।
एमडीजी-2030
ऑस्ट्रेलिया दुनिया के सबसे खुशहाल देशों में शामिल है। यहां की अर्थव्यवस्था दुनिया की 12वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। 2014 में प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज से ऑस्ट्रेलिया विश्व का चौथा सबसे समृद्ध देश था। इस लिहाज से जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य की सुविधाओं के मोर्चों पर यहां लोगों को प्राथमिक संघर्ष तो लंबे
समय से नहीं ही करना पड़ा, उल्टे इन सुविधाओं को उन्नत बनने को लेकर वहां लगातार प्रयास होते रहे। आज जबकि संयुक्त राष्ट्र को अपने सहस्राब्दि विकास लक्ष्य-2030 (एमडीजी2030) को पूरा करने के लिए एशियाई और अफ्रीकी देशों में काफी मेहनत और कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। ऑस्ट्रेलिया इस मुद्दे पर वैसे देशों में शामिल है जो इन लक्ष्यों को खुद तो काफी पहले ही पूरा कर चुका है, अब वह बाकी देशों को इन लक्ष्यों को हासिल करने में संसाधनों की मदद कर रहा है। गौरतलब है कि ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में ऑस्ट्रेलिया उन्नत स्वच्छता सुविधाओं का सौ फीसदी इस्तेमाल करने वाला देश है।
ऑस्ट्रेलिया अपने सुंदर तटों को लेकर बहुत ही सचेत रहता है। यह बात विश्व में प्रसिद्ध है और यह देखा जा सकता है कि यहां के समुद्र तट बहुत हद तक साफ हैं पहुंचाए रिसाइकल किया जाता है। गलत कूड़ा गलत डिब्बे में डालने पर फाइन भी भरना पड़ता है। आप को पुरानी या खराब इलेक्ट्रिकल वस्तुएं जैसे टीवी, वाशिंग मशीन इत्यादि को रिसाइकल करने के लिए अलग से पैसे देने होते हैं। अच्छी बात यह है कि वातावरण को बचाने के लिए सभी लोग नियमों का पालन करते हैं। यहां अपार्टमेंट्समें अलग से कूड़ा निस्तारण के लिए इंतजाम रहते हैं। जहां चीजें इतनी अच्छी हैं, वहीं कुछ ऐसी बातें भी हैं, जिनसे निपटना ऑस्ट्रेलिया के लिए बड़ी चुनौती है। इनमें सबसे बड़ी चुनौती पॉलीथिन का इस्तेमाल है। यहां पर शॉपिंग बैग के रूप में पॉलीथिन बहुत अधिक मात्रा में प्रयोग की जाती है। इसके खिलाफ वहां बहुत सी संस्थाएं जागरूकता बढ़ाने में लगी हैं। कोशिश इस बात की है कि पॉलीथिन के स्थान पर कपड़े के दोबारा प्रयोग करने वाले थैलों का इस्तेमाल हो। सरकारी स्तर पर भी पॉलीथिन की समस्या से निपटने के लिए कारगर कदम उठाने को
लेकर गंभीरता से विचार चल रहा है।
यारा नदी के लिए मुहिम
ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य में बहुत ही पुरानी यारा नदी है। यह नदी लगातार प्रदूषण के प्रभाव में आती जा रही है। इसको साफ करने के लिए यहां नागरिकों की मुहिम काफी सघनता और गंभीरता से चल रही है। लोग यहां की राज्य सरकार से इसके लिए कठोर कानून बनाने की मांग कर रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया अपनी खदानों के लिए प्रसिद्ध है और बहुत हद तक इसकी अर्थव्यवस्था खदान व्यापार पर आधारित है। प्रदूषण बढ़ने का यह भी एक बहुत बड़ा कारण है, जिसकी वजह से ऑस्ट्रेलिया को और भी कड़े कदम और नियम बनाने की आवश्यकता है। बड़े उद्योगों को खदानें शुरू करने से पहले पर्यावरण विभाग को पूरी तरह संतुष्टि का आश्वासन देना होता है कि वह यहां की जलवायु को बिल्कुल भी दूषित नहीं करेंगे।
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पुस्तक अंश
09 - 15 जुलाई 2018
विशेष अनुभागों के कल्याण के लिए योजनाएं
वन रैंक वन पेंशन
भारतीय सैनिकों की लंबे समय से चल रही मांग को केंद्र की राजग सरकार द्वारा स्वीकृत कर लिया गया और इससे 24 लाख से अधिक पूर्व सैनिक और पूरे भारत में सैनिकों की लगभग 6 लाख विधवाएं लाभान्वित होंगी। देश के सैनिकों के सम्मान से बढ़कर, हमारे लिए कुछ और महत्वपूर्ण नहीं हो सकता है, क्योंकि उन्होंने, देश के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। हमने अपने देश के सैनिकों से वादा किया था और हमारी सरकार उस वादे को पूरा कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
नई मंजिल
इस योजना की मुख्य विशेषता ओपन स्कूलों और व्यावसायिक प्रशिक्षण में अल्पसंख्यक समुदायों के युवाओं को लाना और उन्हें प्रवेश दिलाना है, जिससे कि वे छात्र जिन्होंने मदरसों जैसे सामुदायिक संस्थानों में शिक्षा ली है, मुख्यधारा में आ सके। अल्पसंख्यक समुदायों की लड़कियों के लिए 30 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गई हैं। इस योजना के लिए 650 करोड़ रुपए की राशि मंजूर की गई है। विकास के लिए मेरा मंत्र सबका साथ, सबका विकास है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
स्टैंडअप इंडिया
इस योजना से, मुख्यता वंचित वर्गों (अनुसूचित जातियों और जनजातियों) की महिलाओं और उद्यमियों को बढ़ावा मिलेगा। इस योजना के तहत, गैर-कृषि क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना के लिए 10 लाख रुपए से लेकर 1 करोड़ रुपए तक का ऋण प्रदान किया जाता है। सरकार ने अगले 5 वर्षों के लिए 5 हजार करोड़ रुपए का ऋण गारंटी फंड बनाने की मंजूरी दे दी है। इस योजना से कम से कम 2 लाख 50 हजार उद्यमियों को फायदा होगा। इस पहल का मुख्य उद्देश्य, उद्यमशीलता की नई ऊंचाइयों को छूना और भारतीयों को उद्यमी बनने में सहायता प्रदान करना है। इस योजना के साथ, विशेष रूप से महिलाएं, युवा और हाशिए पर रह रहे निचले तबके को लाभ मिलेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
स्वावलंबन
गरीब दिव्यांगों के लिए, एक आर्थिक और भरोसेमंद स्वास्थ्य बीमा योजना लागू की गई। यह योजना उन गरीब परिवारों के दिव्यांग के लिए है, जिनकी वार्षिक आय 3 लाख रुपए से कम है। इन परिवारों का 65 साल की उम्र तक
श्रमिकों के लिए विशिष्ट पहचान पत्र (यूएएन)
सार्वभौमिक खाता संख्या प्राप्त करने के बाद, श्रमिक और कारीगर, नौकरी बदलने के समय अपने पुराने खाते को बंद करने और एक नया खाता खोलने के झंझट से मुक्त हो जाएंगे। किसी नई जगह पर, नई नौकरी पाने के बाद, श्रमिकों को अपना यूएएन नंबर बताना होगा और नई कंपनी/ संगठन पुराने खाते में ही पीएफ योगदान का हस्तांतरण शुरू कर देगा। श्रमिकों के पंजीकरण के लिए, एक पोर्टल भी स्थापित किया गया है। अभी तक 6 करोड़ 77 लाख कार्ड जारी किए जा चुके हैं। यूएएन के प्रयासों के कारण, गरीबों द्वारा अपनी मेहनत के बल पर अर्जित 27000 करोड़ रुपए उन्हीं से संबंध रखते हैं, न कि सरकार से। मुझे, इन गरीबों को यह पैसा वापस लौटाना होगा और यह इस खाता संख्या के साथ शुरू किया जा चुका है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए 2 लाख रुपए की राशि का बीमा होता है। विकास समावेशी और व्यापक होना चाहिए। साथ ही, यह सभी तक पहुंचे और सभी लोगों का कल्याण हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
वन बंधु कल्याण योजना
साल 2014-15 से केंद्र सरकार ने अन्य सामाजिक समूहों के लोगों की तुलना में जनजातीय लोगों के मानव संसाधन सूचकांक के बीच अंतर को खत्म करने के लिए रणनीतिक प्रक्रिया शुरू कर दी है। यह परिणाम उन्मुख कार्य योजना, जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका विकास और बुनियादी ढांचे के विकास पर विशेष ध्यान देगी। 2014-15 में, अनुसूचित क्षेत्रों के 10 विकास खंडों के लिए 10 करोड़ रुपए प्रति ब्लॉक के हिसाब से 100 करोड़ रुपए की राशि जारी की थी। वहीं साल 2015-16 में, दीर्घकालिक योजना को ध्यान में रखते हुए 200 करोड़ रुपए की राशि का आवंटन किया गया। अटल जी के संयोजन में एनडीए सरकार ने भी जनजातियों के कल्याण के लिए एक अलग मंत्रालय बनाया था और पर्याप्त धन भी आवंटित किया था। आगे भी, हमारा प्रयास यही है कि आदिवासी समुदाय मुख्यधारा में आएं और विकास का लाभ उठाएं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
09 - 15 जुलाई 2018
उस्ताद
इस योजना का उद्देश्य कला और शिल्प से जुड़ी विरासत को संरक्षित करना है। इसकी मुख्य विशेषता, उन अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों, जो कला और शिल्प से जुड़े हुए हैं, की क्षमता में वृद्धि करना है। साथ ही, यह इन कारीगरों को, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों से इस तरह से जोड़ देगा कि वे बड़ी कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा कर सकें। अल्पसंख्यक समुदायों से लड़कियों और महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित हैं। उस्ताद हमारी सरकार की वह पहल है जिसके माध्यम से इस देश की समृद्ध विरासत संरक्षित की जा रही है, जिसे पहले अनदेखा किया गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
सुगम्य भारत अभियान
इस मिशन का मुख्य उद्देश्य अपने आस-पास, कार्यस्थल, परिवहन प्रणाली और सूचना और संचार प्रणालियों को दिव्यांगों के लिए सुलभ बनाना है, ताकि उन्हें सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में गरिमा के साथ समान रूप से भाग लेने में सक्षम बनाया जा सके। लगभग 50 शहरों के 1700 सामुदायिक भवनों में, सभी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे और 709 रेलवे स्टेशनों को सुलभ पार्किंग, सुलभ रैंप, सुलभ शौचालय आदि प्रदान कर दिव्यांगों के लिए सुविधाजनक बनाया जा रहा है। विभिन्न राज्यों के 50 शहरों की 1400 सामुदायिक इमारतों का मार्च 2018 तक सुगम्य ऑडिट हो चुका है। इसके साथ ही 10 फीसदी सरकारी परिवहन वाहन भी पूरी तरह से सुगम्य बनाए जाएंगे। हमारे दिव्यांग भाइयों और बहनों के पास विस्मयकारी दृढ़ संकल्प है। मैं उनके साहस और दृढ़ संकल्प का आभारी हूं। हम उन्हें आसान पहुंच और अवसर प्रदान करने में कोई भी कसर नहीं छोड़ेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
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पुस्तक अंश
शिक्षा के लिए योजनाएं जीआईएएन
पंडित मदन मोहन मालवीय राष्ट्रीय शिक्षक एवं शिक्षण मिशन इस मिशन का उद्देश्य, शिक्षकों के प्रशिक्षण के साथ-साथ स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की संस्कृति और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार है, साथ ही मेधावी छात्रों को शिक्षण के क्षेत्र में आकर्षित करना है। इस योजना के लिए 900 करोड़ रुपए की राशि आवंटित की जा चुकी है।
राष्ट्रीय कैरियर सेवाएं
नौकरियों की उपलब्धता की तलाश को सुगम बनाने के लिए, खासकर समाज के गरीब तबके के युवा वर्गों के लिए, इस योजना के तहत एक राष्ट्रीय कैरियर पोर्टल तैयार किया गया है। इस पोर्टल पर लॉग इन कर के, सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्रों में उपलब्ध अवसरों तक पहुंचा जा सकता है। 100 पूर्ण कैरियर केंद्र स्थापित किए गए हैं, इससे 416 प्रकार के रोजगार को बढ़ावा मिलेगा। सरकार का लक्ष्य यह देखना है कि कैसे 125 करोड़ हिंदुस्तानियों के सपने पूरे हो सकते हैं और उनके चेहरे पर मुस्कराहट लाई जा सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
जब कोई व्यापारी बाहर जाता है, तो वह डॉलर या पाउंड लाता है। लेकिन जब कोई शिक्षक जाता है तो वह पूरी पीढ़ी को स्वयं के साथ ले आता है। यह सपना पूरा करने के लिए, यह मिशन पंडित मदन मोहन मालवीय जी के नाम से शुरू किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री विद्यालक्ष्मी पोर्टल सरकार ने शिक्षा के लिए,छात्रों को बैंकों से ऋण के आसान वितरण की व्यवस्था की है। विद्यालक्ष्मी पोर्टल ऐसी एकल खिड़की है, जिसमें बैंक द्वारा सरकारी छात्रवृत्ति और शिक्षा ऋण वितरण के साथ-साथ आवेदन जमा करने के बारे में जानकारी प्राप्त करने की भी सुविधा है। इस योजना में 39 बैंक शामिल किए गए हैं और 70 ऋण योजनाएं प्रभावी कर दी गई हैं।
मेरा मानना है कि तकनीक ऐसा साधन है, जो हमारे जीवन जीने के अपने तरीके को बदल सकता हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
इस योजना का मुख्य उद्देश्य, देश के उच्च शिक्षा संस्थानों को बेहतर बनाना है। इसके लिए प्रारंभ में, आईआईटी, आईआईएम, केंद्रीय विश्वविद्यालय, आईआईएससी, बेंगलुरु, आईआईएसईआर और एनआईटी की पहचान की गई है। इस योजना की सहायता से, विदेशी शिक्षकों की भागीदारी के साथ, संस्थान में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना संभव होगा। 68 देशों के 836 शिक्षक, विभिन्न संस्थानों में पढ़ा रहे हैं। 21 वीं शताब्दी ज्ञान का युग है। ज्ञान के इस युग में, केवल वह समाज प्रगति कर सकता है, जो ज्ञान के सही महत्व को पहचान सकता हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल
सभी छात्रवृत्ति के लिए एकीकृत आवेदन के साथ, एक ही बिंदु पर, छात्रवृत्ति की आवेदन प्रक्रिया, स्वीकृति और वितरण लाने के लिए, एक प्रयास किया जा रहा है। पोर्टल बताएगा कि छात्रों के लिए कौन सी छात्रवृत्ति उपयुक्त है। 7 मंत्रालयों की 20 छात्रवृत्ति योजनाएं इस वक्त चल रही हैं। छात्रवृत्ति योजना में, 16 लाख 17 हजार उम्मीदवार पंजीकृत हैं। मेरा मानना है कि यदि तकनीक का सही ढंग से उपयोग किया जाता है, तो यह हमारे जीवन के तरीकों को बदलने में सहायक हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
(जारी अगले अंक में)
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खेल
09 - 15 जुलाई 2018
फुटबॉल विश्व कप में कब लहराएगा तिरंगा भारत में खेल संस्कृति तो है, लेकिन अभी फुटबॉल संस्कृति नहीं है। अगर एक बार फुटबॉल संस्कृति विकसित हो गई तो पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं होगी
दु
एसएसबी ब्यूरो
निया की साढ़े सात अरब से ज्यादा की आबादी में से फुटबॉल विश्व कप में कुल 736 खिलाड़ी हिस्सा ले रहे हैं। और इनमें भारत कहीं नहीं है। भारत के फुटबॉल विश्व कप में ना पहुंच पाने पर बहस सालों से होती रही है, लेकिन ऐसा क्या कारण है कि भारत विश्व कप के लायक टीम तैयार नहीं कर पाता? पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी बनने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत होती है। शारीरिक और मानसिक मेहनत के अलावा रणनीतिक कुशलता भी जरूरी है। सर्वश्रेष्ठ कोचिंग, विश्वस्तरीय सुविधाएं और हजारों घंटे पसीना बहाने के बाद कोई पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी बन पाता है। फीफा के पूर्व अध्यक्ष सेप ब्लेटर ने एक समय कहा था कि भारत फुटबॉल जगत का सोता हुआ शेर है। बीते चार सालों में भारतीय पुरुष फुटबॉल टीम की रैकिंग में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है। साल 2014 में भारतीय टीम दुनिया में 170वें नंबर पर थी जो अब 97वें नंबर पर है। इंडियन सुपर लीग (आईएसएल), आई-लीग और यूथ लीग भारत में फुटबॉल के प्रचार में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन क्या ये काफी हैं? भारत को विश्व कप में अपनी टीम को देखने के लिए कितना और इंतजार करना होगा? दौड़ना फुटबॉल का सबसे अहम हिस्सा है और कुछ खिलाड़ी तो एक मैच में 14.5 किलोमीटर तक दौड़ लेते हैं और कई बार मैदान पर 35 किलोमीटर प्रतिघंटा तक की रफ्तार पकड़ लेते हैं। बाकी खेलों के मुकाबले फुटबॉल में दौड़ने की जरूरत ज्यादा
फीफा के पूर्व अध्यक्ष सेप ब्लेटर ने एक समय कहा था कि भारत फुटबॉल जगत का सोता हुआ शेर है। बीते चार वर्षांे में भारतीय पुरुष फुटबॉल टीम की रैकिंग में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है होती है। अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के साथ काम करने वाले डॉ. विजय सुब्रमण्यम कहते हैं कि फुटबॉल में आपको कुछ विशेष शारीरिक क्षमताओं की जरूरत होती है। विजय कहते हैं कि शारीरिक फिटनेस के मामले में पिछले कुछ सालों में भारतीय खिलाड़ियों में सुधार हुआ है। ऐसा सिर्फ फुटबॉल में ही नहीं, बल्कि बाकी खेलों में भी हुआ है। क्या लंबाई और मांशपेशियों की ताकत अंतरराष्ट्रीय फुटबॉल में निर्णायक भूमिका निभाते हैं? भारतीय फुटबॉल फेडेरेशन के कार्यकारी टेक्निकल डायरेक्टर सेवियो कहते हैं कि रक्षक दल के खिलाड़ी के लिए अच्छी लंबाई मददगार होती है, लेकिन असल में खिलाड़ी की लंबाई या माशपेशियों की ताकत के बजाए शारीरिक ताकत और रणनीतिक कुशलता ज्यादा अहम होती है। सावियो कहते हैं कि आमतौर पर लोगों को लगता है कि भारतीय खिलाड़ियों और पश्चिमी देशों के खिलाड़ियों में मूल फर्क शारीरिक शक्ति का है, लेकिन मुझे लगता है कि भारतीय खिलाड़ी तकनीकी दक्षता और रणनीतिक कुशलता में ज्यादा पिछड़ते हैं। राष्ट्रीय स्तर के फुटबॉल खिलाड़ी रह चुके आशीष पेंडसे कहते हैं कि फुटबॉल सिर्फ मैदान में ही नहीं, बल्कि दिमाग में भी खेली जाती है। किसी भी खिलाड़ी के लिए मजबूत जेनेटिक्स बहुत जरूरी है। इस क्षेत्र में भारतीय खिलाड़ी यूरोपीय खिलाड़ियों से पिछड़ते नजर आते हैं। लेकिन
रणनीतिक कुशलता में सुधार करके इससे उबरा जा सकता है। नए दौर के पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ियों में टीम की रणनीति बनाने की प्राकृतिक क्षमता होनी चाहिए। इसके अलावा जगह बनाना, हमले का जवाब देना और कई अन्य रणनीतिक कुशलताओं की भी जरूरत होती है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि फुटबॉल में मानसिक ताकत के बिना शारीरिक ताकत किसी काम की नहीं है और क्लब के सामान्य खिलाड़ियों और विश्वस्तरीय पेशेवर खिलाड़ियों में यही फर्क होता है। फुटबॉल विशेषज्ञ नोवी कपाड़िया का कहना है कि बच्चों को 12-13 साल की उम्र तक मैदान में खेलने भेजना चाहिए। उस समय उनकी योग्यता आसानी से परखी जा सकती है और खेल को लेकर उनके जुनून को देखते हुए सही फैसला लिया जा सकता है। पेंडसे के मुताबिक फुटबॉल की अहम बातें जैसे की गेंद पर नियंत्रण, ड्रिबलिंग, गेंद के साथ दौड़ना और अन्य रणनीतियां एक अच्छा कोच ही सिखा सकता है। दुर्भाग्यवश भारत इस मामले में पिछड़ा हुआ है और उसे बेहतर कोचों की बहुत ज्यादा जरूरत है। पेंडसे कहते हैं कि हाल ही में भारत में यूथ कप हुआ था जिसमें कई देशों ने हिस्सा लिया। अमरीकी टीम के साथ तकनीकी दल के सात लोग थे जो खेल से जुड़ी गणनाएं टीम के लिए कर रहे थे, लेकिन भारतीय टीम के साथ कोई वीडियो या डाटा एनेलिस्ट नहीं था। ये सामान्य और मूल
चीजें हैं जो अन्य देशों में उपलब्ध हैं, लेकिन भारत के पास नहीं। पेंडसे कहते हैं कि भारतीय टीम को बेहतर खिलाड़ियों के साथ खेलने के मौके कम ही मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर भारत बेल्जियम जैसे देश के साथ खेलता है तो धीरे-धीरे भारत में फुटबॉल का स्तर भी बढ़ जाएगा। लेकिन भारत बेल्जियम जैसी कम रैंक वाली टीम के साथ क्यों खेलेगा? कपाड़िया कहते हैं कि भारत में फुटबॉल में कोई प्रतियोगिता ही नहीं है। अंडर 17 में पूर्वोत्तर राज्यों से 8 खिलाड़ी होते हैं और बाकी दो-तीन खिलाड़ी अन्य प्रांतों से होते हैं, तो हम कैसे कह सकते हैं कि पूरा भारत फुटबॉल खेल रहा है? 60-70 के दशक में कई फ़ुटबॉल स्टेडियम थे जो धीरे-धीरे क्रिकेट स्टेडियमों में बदल गए। फुटबॉल की दुनिया में अच्छे कोच बदलाव ला रहे हैं। भारत की घरेलू टीमों को अच्छे कोचों की जरूरत है क्योंकि सिर्फ अच्छे कोच ही अच्छे खिलाड़ी पैदा कर सकते हैं। पूर्व भारतीय खिलाड़ी प्रकाश मानते हैं कि भारत को अच्छे कोचों का एक दल विकसित करने की जरूरत है। वो कहते हैं कि एक दशक पहले तक युवा खिलाड़ी अच्छा कोच पाने के लिए संघर्ष करते थे। उसकी तुलना में अब हालात कुछ बेहतर हुए हैं। कई खिलाड़ी और कोच दस हजार घंटों के अभ्यास की थ्योरी में यकीन रखते हैं। माना जाता है कि दस हजार घंटों के अभ्यास से बेहतर फुटबॉलर बना जा सकता है। लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि ये सिद्धांत सभी खिलाड़ियों पर लागू नहीं होता और हर किसी खिलाड़ी के लिए ये अलग-अलग है। बेकहम और रोनाल्डो जैसे खिलाड़ियों ने अभ्यास में खूब पसीना बहाया है। फ्री किक और गेंद पर प्रहार जैसी दक्षता हासिल करने के लिए वो घंटों अभ्यास करते रहे हैं। भले ही भारतीय टीम देरी से ही सही कुछ कामयाबियां हासिल कर रही है, लेकिन ये सवाल अभी भी बरकरार है कि क्या भारत मेसी या रोनाल्डो जैसा टेलेंट पैदा कर सकता है? अगर भारत में फुटबॉल संस्कृति विकसित होती है तो एक स्टार खिलाड़ी भी अपने आप ही पैदा हो जाएगा। तब इस सवाल की शायद जरूरत ही नहीं होगी। प्रकाश कहते हैं कि मेसी या रोनाल्डो सिर्फ एक नाम ही तो है। भारत ने भी बाइचुंग भूटिया, आईएम विजयन, पीटर थंगराज जैसे महान खिलाड़ी दिए हैं। सुनील छेत्री को भी याद रखिए। मेसी और रोनाल्डो अपने क्लब की स्टार पॉवर और अपने देशों में फुटबॉल के प्रति दीवानगी की वजह से इतने चर्चित नाम हैं। भारत में खेल संस्कृति तो है, लेकिन अभी फुटबॉल संस्कृति नहीं है। अगर एक बार फुटबॉल संस्कृति विकसित हो गई तो पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं होगी।
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कही-अनकही
09 - 15 जुलाई 2018
लीला मिश्रा
अभिनय की बनारसी ‘लीला’
दशकों तक फिल्मी दुनिया का हिस्सा होते हुए भी उससे अलिप्त रहीं लीला मिश्रा का अभिनय सफर अपनी देशजता को हर हाल में बहाल रखने की जिद की अनूठी मिसाल है
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एसएसबी ब्यूरो
ल्म ‘शोले’ में मौसी के किरदार में अभिनेत्री लीला मिश्रा ने जरूर लोकप्रियता की बुलंदी तक पहुंची, पर उनके सिने-सफर को देखें तो उनके अभिनय के कई और भी आयाम हैं। कभी वह ‘राम और श्याम’ में दिलीपकुमार (राम) की मां बनीं, तो कभी ‘दासी’ में मौसमी चटर्जी की ‘मामी’। दिलचस्प है कि कभी लीला मिश्रा को पर्दे पर अपना काम देखने के लिए सिनेमाघर जाना भी पसंद नहीं था। उन्होंने अपने ‘पवित्र बनारस’ वाले भाव को मुंबई में भी बरकरार रखा और फिल्में नहीं देखती थीं, यहां तक कि ‘शोले’ और सत्यजीत रे की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ भी नहीं। लीला मिश्रा के लिए फिल्मों में अभिनय करना नौकरी करने जैसा था। फिल्मों के ग्लैमर से वह हमेशा दूर रहीं। 1987 में ‘माधुरी’ में इशाक मुजावर की लिखी उनकी जीवन-कथा के अंशों से पता चलता है कि
लीला के अभिनय जीवन में भी निरूपा राय की तरह पति के अभिनय के शौक ने बड़ी भूमिका निभाई थी। लीला की शादी 12 वर्ष की उम्र में हो गई थी और उनके पति राम प्रसाद मिश्रा को अभिनय का भारी शौक था। वे आगा हश्र कश्मीरी के नाटकों में काम करते थे। लेकिन उन्हीं दिनों बोलती फिल्मों का दौर शुरू हुआ। इसीलिए नाटकों के कलाकारों के लिए उस नए माध्यम के दरवाजे भी खुले थे। इसी सिलसिले में राम प्रसाद प्रतापगढ़, बनारस और मुंबई आते-जाते रहते थे।
500 रुपए वेतन
मिश्रा जी को मुंबई में एक फिल्म कंपनी में नौकरी तो मिल गई,जहां खाना उन्हें मेहर सुलतान नामक एक अभिनेत्री बनाकर देती थी। मेहर की सलाह पर मिश्राजी ने पत्नी को बंबई बुला लिया। उन दिनों सिनेमा की सबसे बड़ी समस्या थी, अभिनेत्रियों की कमी। अभिनय करने वालों को बिरादरी से बाहर कर दिया जाता था। फिर लीला मिश्रा और उनके पति दोनों तो जमींदार परिवार के थे। इसीलिए जब नासिक की एक फिल्म कंपनी ने लीला को अभिनेत्री बनने का प्रस्ताव रखा, तो निर्णय लेना काफी मुश्किल था। कंपनी ने भी लीला को पांच सौ रुपए महीने का वेतन ऑफर किया था। उन दिनों उनके पति को मासिक 150 रुपए मिलते थे। ऐसे में पति-पत्नी ने परिवारजनों और बिरादरी से संबंध को जोखिम में डालकर भी उस प्रस्ताव क ो
स्वीकार कर लिया। वह फिल्म थी ‘सती सुलोचना’ और लीला मिश्रा को ‘मंदोदरी’ की भूमिका मिली थी। मगर लीला तो बनारस की एक घरेलू औरत थीं, जिन्हें पराए मर्द का छूना तक नागवार था। यहां तक कि पहली बार जब मेकअप मैन ने उनके चेहरे को छुआ तब वहां मौजूद अपने पति से वे बेहद नाराज हो गईं कि ये कैसे मर्द हैं, जो अपनी पत्नी के चेहरे को पराए मर्द के हाथों स्पर्श करवा रहे हैं? इसीलिए किसी पराए पुरुष (अभिनेता) के गले में हाथ डालकर उससे प्रेमालाप करने का तो सवाल ही कहां उठता था? परिणाम यह हुआ कि उस फिल्म से उन्हें निकाल दिया गया। मगर इससे एक फायदा यह हुआ कि कोल्हापुर की एक अन्य कंपनी ने उन्हें ऑफर दिया। उनकी तनख्वाह फिर एक बार 500 रुपए तय हुई और दो साल का करार किया गया। मगर यहां भी वही दिक्कत आई। इस फिल्म में भी उन्हें हीरो मास्टर विनायक (अभिनेत्री नंदा के पिताजी) के गले में हाथ डालकर उन्हें लुभाना था। ‘मौसी’ फिर अड़ गईं कि वह ऐसे दृश्य नहीं करेंगीं। अब कंपनी के लिए मुश्किल आ गई कि कॉन्ट्रेक्ट में तो कुछ लिखा नहीं था कि अभिनेत्री को क्या क्या करना होगा? लिहाजा उस पिक्चर के निर्माण के दौरान बिना काम किए वेतन देना पड़ा। इसीलिए जब नई फिल्म ‘होनहार’ का शूटिंग प्रारंभ हुई तब कंपनी को उन्हें ऐसा काम देना था, जिसमें पराए मर्द से ‘नैन मटक्का’ करना न हो। आखिरकार एक ऐसा रास्ता निकाला गया, जिससे दोनों की बात रहे। लीला मिश्रा से हीरो शाहू मोडक की माता की भूमिका करवाई गई। तब से चरित्र अभिनेत्री बन गईं लीला अंत तक उसी तरह की भूमिकाएं करतीं रहीं। उनकी बतौर नायिका आई एक मात्र फिल्म ‘गंगावतरण’ को छोड़ दें तो लीला मिश्रा हिंदी सिनेमा की शायद एकमात्र अभिनेत्री होंगी, जिन्होंने अपनी कम उम्र से ही
खास बातें
‘राम और श्याम’ में दिलीप कुमार (राम) की मां बनीं थीं लीला बनारसी लहजे में संवाद बोलने का उनका अंदाज खूब सराहा गया उन्हें अपनी फिल्में देखने के लिए भी सिनेमाघर जाना पसंद नहीं था
अपने से उम्र में बड़े अभिनेता-अभिनेत्रीओं की माता, चाची या मौसी की भूमिकाएं कीं।
बार-बार बनारस लौटना
‘गंगावतरण’ दादा साहब फाल्के की एकमात्र सवाक फिल्म थी। जैसा कि सभी जानते हैं, भारतीय सिनेमा की प्रथम (मूक) फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ बनाने वाले फाल्के ही थे। ‘गंगावतरण’ उनकी अंतिम फिल्म साबित हुई और लीला मिश्रा के लिए भी। क्योंकि उस कंपनी के साथ अनुबंध समाप्त हो गया था। अब काम नहीं होने के कारण तथा अपनी प्रथम संतान के जन्म के लिए गर्भवती लीला मिश्रा और उनके पति वापस बनारस चले गए। यानी अपनी जिंदगी में मां बनने से पहले ‘मौसी’ ने पर्दे पर अपने से बडी उम्र के कलाकारों की माता की भूमिका करना शुरू कर दिया था। लीला ने जब प्रथम संतान के रूप में बेटी के जन्म के बाद फिर से काम ढूंढने का प्रयत्न किया तो कलकत्ता में फिल्म कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया में उन्हें नौकरी मिल गई। यहां उन्होंने ‘चित्रलेखा’ जैसी कुछ फिल्में कीं। मगर उसी दौरान विश्व युद्ध हुआ और सारी गतिविधियां ठप हो गईं। एक बार फिर वह वापस बनारस आ गईं। अब उनका तीन बच्चों (दो बेटियां और एक बेटे) वाला परिवार था। बाद में उन्होंने फिर से बंबई का रुख किया। अब कि बार काम आए बनारस के कैमरामैन ‘केजी’,जिन्होंने उन्हें लीला चिटिणस से मिलवाया। ‘मौसी’ अपने परंपरागत तरीके से लंबा घूंघट निकालकर स्टुडियो पहुंचीं। तब के जी ने उन्हें समझाया तो वह अपना चेहरा दिखाकर इंटरव्यू देने के लिए तैयार हुईं। लीला चिटणिस ने अपनी साथी कलाकार के रूप में ‘किसी से न कहना’ के लिए लीला मिश्रा को पसंद किया। तब से मुंबई की फिल्मों में ‘मौसी’ का जो सफर शुरू हुआ, वो लंबे समय तक जारी रहा।
बनारसी अंदाज
‘मौसी’ की याद आते ही अपने सिर को ढंकने के लिए साड़ी को ठीक करती प्रौढ़ महिला ही नजरों के सामने आती है। उनके बोलने का अंदाज भी बनारसी था। इसीलिए भारतीय पृष्ठभूमि की फिल्में बनाने वाले ‘राजश्री प्रोडक्शन’ की तो लीला मिश्रा जैसे स्थायी सदस्या ही थीं। इतनी सारी फिल्मों में काम करने के बावजूद लीला कई हीरो-हीरोइन को पहचान नहीं सकती थीं। उन्होंने खुद 1978 के एक साक्षात्कार में बताया था कि ‘दुश्मन’ की शूटिंग के पहले दिन राजेश खन्ना को वह पहचान नहीं पाई थीं। फिल्मी दुनिया का हिस्सा होते हुए भी उससे अलिप्त रहीं इस चरित्र अभिनेत्री ने 1988 की 17 जनवरी के दिन अंतिम सांस ली।
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सािहत्य कविता
परिवार आरती
मेरा है प्यारा परिवार, सभी करते एक दूसरे से प्यार। परिवार की है बात निराली, जो जग में है सबसे प्यारी। परिवार ही है मुस्कराहट की वजह, परिवार के बिना सारा जग बेवजह। परिवार में हैं माता- पिता, भाई- बहन और दादा- दादी। और भी हैं कई रिश्ते, जो हमारे दिल में बसते। परिवार में ही मिलता है, संस्कृति और संस्कार। जिसके बिना हमारा जीवन, हो जाता बेकार। परिवार ही है वो प्रथम, जो देता हमें ज्ञान। और हमारे जीवन को, देता एक आयाम। सभी समाजों का केंद्र , परिवार ही होता है। परिवार ही हर सदस्य को सुकून पहुंचता है। जहां प्रेम बरसता हो, प्यार का अहसास हो। चले कहीं भी जाएं, वहां लौटना आसान हो । जो अपनों के साथ मजबूती से खड़ा रहे, वही होता है परिवार।
ए
योग्यता
क बार गुरु नानक देव अपने शिष्यों के साथ घूमने निकल गए। चलते चलते वो एक गांव में पहुंचे। इस गांव के लोग बहुत ही दुर्व्यव्हारी थे। इस गांव में कोई भी साधु- संत नहीं आता था। क्योंकि गांव के लोग साधु- संतों की सेवा तो करते नहीं, उन्हें परेशान और करते थे। जब गुरु नानक देव उस गांव के अंदर पहुंचे तो अपनी बुरी आदतों के चलते, गांव वालों ने उनके साथ भी दुर्व्यवहार किया। उन्हें जाता देख उनकी हंसी उड़ाने के उद्देश्य से गांव वालों ने कहा, ‘महात्मन, हमने आपकी इतनी सेवा की। जाने से पहले कम से कम आशीर्वाद तो देते जाइए।’ गुरु नानक देव उनकी बात सुनकर मुस्कुराए और उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘तुम सभी खूब आबाद रहो।’ ऐसा कहकर गुरु नानक देव वहां से आगे बढ़ गए। आगे चलते चलते अब गुरु नानक देव एक दूसरे गांव पहुंचे। यहां के लोग पहले वाले गांव के बिलकुल विपरीत थे।
ए
योग्यता
09 - 15 जुलाई 2018
इज्जत
क पति-पत्नी में तकरार हो गई -पति कह रहा था : ‘मैं नवाब हूं इस शहर का लोग इसीलिए मेरी इज्जत करते हैं और तुम्हारी इज्जत मेरी वजह से है।’ पत्नी कह रही थी : ‘आपकी इज्जत मेरी वजह से है। मैं चाहूं तो आपकी इज्जत एक मिनट में बिगाड़ भी सकती हूं और बना भी सकती हूं।’ नवाब को तैश आ गया। नवाब बोला : ‘ठीक है दिखाओ मेरी इज्जत खराब करके।’ बात आई गई हो गई। नवाब के घर शाम को महफिल जमी थी ... हंसी मजाक हो रहा था कि अचानक नवाब को अपने बेटे के रोने की आवाज आई। वो जोर-जोर से रो रहा था और नवाब की पत्नी बुरी तरह उसे डांट रही थी। नवाब ने जोर से आवाज देकर पूछा कि क्या हुआ बेगम क्यों डांट रही हो? तो बेगम ने अंदर से कहा कि देखिए न-आपका बेटा खिचड़ी मांग रहा है और जब कि भर पेट खा चुका है। नवाब ने कहा कि दे दो थोड़ी सी और बेगम ने कहा घर में और भी तो लोग हैं सारी इसी को कैसे दे दू?ं पूरी महफिल शांत हो गई । लोग कानाफूसी करने लगे कि कैसा नवाब है ? जरा सी खिचड़ी के लिए इसके घर में झगड़ा होता है। नवाब की पगड़ी उछल गई। सभी लोग चुपचाप उठ
कर चले गए। नवाब उठ कर अपनी बेगम के पास आया और बोला कि मैं मान गया तुमने आज मेरी इज्जत उतार दी। अब तुम यही इज्जत वापस लाकर दिखाओ। बेगम बोली : ‘इसमें कौन सी बड़ी बात है आज जो लोग महफिल में थे उन्हें आप फिर किसी बहाने से निमंत्रण दीजिए।’ नवाब ने सबको बुलाया बैठक और मौज मस्ती के बहाने। सभी मित्रगण बैठे थे । हंसी मजाक चल रहा था कि फिर वही नवाब के बेटे की रोने की आवाज आई-नवाब ने आवाज देकर पूछा : ‘बेगम क्या हुआ क्यों रो रहा है हमारा बेटा ?’ बेगम ने कहा फिर वही खिचड़ी खाने की जिद कर रहा है। ‘लोग फिर एक दूसरे का मुहं देखने लगे कि यार एक मामूली खिचड़ी के लिए इस नवाब के घर पर रोज झगड़ा होता है।’ नवाब मुस्कुराते हुए बोला, ‘अच्छा बेगम तुम एक काम करो तुम खिचड़ी यहां लेकर आओ .. हम खुद अपने हाथों से अपने बेटे को देंगे । वो मान जाएगा और सभी मेहमानो को भी खिचड़ी खिलाओ।’ बेगम ने आवाज दी ‘जी नवाब साहब’ बेगम बैठक खाने में आ गई पीछे नौकर खाने का सामान सर पर रख आ रहा था। हंडिया नीचे रखी और मेहमानो को भी देना शुरू किया। सारे नवाब के दोस्त
आशीर्वाद का रहस्य
जब गुरु नानक देव अपने शिष्यों के साथ इस गांव में पहुंचे तो पूरा गांव उनकी आवभगत में लग गया। अब इन गांव वालों को गुरु नानक देव ने आशीर्वाद दिया, “तुम सब उजड़ जाओ।” गुरु नानक देव के ऐसे अटपटे आशीर्वाद से उनके शिष्यों को बड़ी हैरानी हुई। जब उनकी मंडली गांव से बाहर निकल गई तो एक शिष्य
ने गुरु नानक देव से पूछने की हिम्मत की, ‘महाराज! आज हम दो गांवों में गए। दोनों जगह आपने अलग अलग आशीर्वाद दिए। लेकिन ये आशीर्वाद हमारे समझ में नहीं आए।’ नानक ने प्रेमपूर्वक पूछा, ‘तुम्हें क्या समझ में नहीं आया।’ शिष्यों ने कहा, ‘महाराज! हम अचंभित हैं कि जिन लोगों ने हमारा तिरस्कार किया, अतिथि धर्म नहीं निभाया। उन्हंे तो आपने हमेशा
आबाद रहने का आशीर्वाद दिया। और जिन लोगों ने हमारा आदर-सत्कार किया, अपना अतिथि धर्म निभाया। उन्हें आपने उजड़ जाने का आशीर्वाद दे दिया। इसका रहस्य हमें तो समझ नहीं आया गुरुजी।’ गुरु नानक देव ने शिष्यों को समझाते हुए कहा, ‘इसमें रहस्य जैसा कुछ नहीं है। एक बात हमेशा ध्यान रखो – सज्जन व्यक्ति जहां भी जाता है, वो अपने साथ सज्जनता और अच्छाई लेकर जाता है। वो जहां भी रहेगा, अपने चारों ओर प्रेम और सद्भाव का वातावरण बना कर रखेगा। अतः मैंने सज्जन लोगों से भरे गांव के लोगों को उजड़ जाने को कहा। जिससे वो जहां भी जाए, अपनी नेकी और सज्जनता से उस जगह को भी सद्भावपूर्ण बना दें। इसी तरह दुर्जन व्यक्ति जहां भी जाएगा वो अपने साथ अपनी बुराई और दुर्व्यवहार लेकर जाएगा। इसीलिए दुर्जनों के लिए ये बेहतर है कि वो एक ही जगह पर रहें। दूसरी जगहों पर जाकर अपनी बुराई वहां पर नहीं फैलाएं। इसीलिए मैंने दुर्जनों से भरे गांव के लोगों को खूब आबाद रहने का आशीर्वाद दिया।’
हैरान–जो परोसा जा रहा था वो चावल की खिचड़ी तो कतई नहीं थी। उसमे खजूर-पिस्ता-काजू बादामकिशमिश-गरी इत्यादि से मिला कर बनाया हुआ सुस्वादिष्ट व्यंजन था। अब लोग मन ही मन सोच रहे थे कि ये खिचड़ी है? नवाब के घर इसे खिचड़ी बोलते हैं तो -मावा-मिठाई किसे बोलते होंग?े नवाब की इज्जत को चार-चांद लग गए । लोग नवाब की रईसी की बातें करने लगे। नवाब ने बेगम के सामने हाथ जोड़े और कहा, ‘मान गया मैं कि घर की औरत इज्जत बना भी सकती है बिगाड़ भी सकती है-और जिस व्यक्ति को घर में इज्जत हासिल नहीं उसे दुनिया में कहीं इज्जत नहीं मिलती।
कविता
आओ योग करें
रुद्रपकाश गुप्त 'सरस'
भाई अपने तन से मन से, दूर कुरोग करें। आओ योग करें। आओ योग करें।। स्वास्थ्य हमारा अच्छा है तो, सारा कुछ है अच्छा। रोग ग्रसित अब नहीं एक भी, हो भारत का बच्चा।। सूर्योदय से पहले उठकर, निपटे नित्य क्रिया। सदा नीरोगी काया जिसकी, जीवन वही जिया।। उदाहरण कोई बन जाए, वह उद्योग करें।। आओ योग करें। आओ योग करें।। सांसों का भरना-निकालना, प्राणायाम हुआ। अपने दिल-दिमाग का भाई, यह व्यायाम हुआ।। किया भ्रामरी और भस्त्रिका, शुचि अनुलोम-विलोम। सुदं र है कपाल की भाती, पुलक उठे हर रोम।। सांस-सांस द्वारा ईश्वर से, हम संयोग करें। आओ योग करें। आओ योग करें।। सभी शक्तियों का यह तन है, सुदं र एक खजाना। यौगिक क्रिया-कलापों द्वारा, सक्रिय इन्हें बनाना।। ज्ञान और अपने विवेक से, हम सब भोग करें। आओ योग करें। आओ योग करें। पानी और हवा दूषित हो, कुछ न करें ऐसा हम। चले संभलकर थोड़ा तो यह, दुनिया बड़ी मनोरम।। सुख से जिएं और सुख से ही, हम जीने दें सबको। वेद-पुराण-शास्त्र सारे ही, यह बतलाते हमको।।
09 - 15 जुलाई 2018
आओ हंसें
सोच ले ! फिर तेरी मां कहीं ये न कहे कि बदमाशों के साथ घूमता है? हाजिर जवाबी लड़की : क्या कर रहे हो? लड़का : मूगं फली खा रहा हूं। लड़की : ओ... अकेल-े अकेल।े लड़का : अब 10 रुपए की मूगं फली में भंडारा करूं क्या!
बुरा वक्त कभी बता कर नहीं आता पर सिखा कर बहुत जाता है
डोकू -30
रंग भरो सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी विजेता को 500 रुपए का नगद पुरस्कार दिया जाएगा। सुडोकू के हल के लिए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें
महत्वपूर्ण तिथियां
• 9 जुलाई राष्ट्रीय विद्यार्थी दिवस • 11 जुलाई विश्व जनसंख्या दिवस • 13 जुलाई शहीद दिवस (कश्मीर) • 14 जुलाई वायु परीक्षा दिवस • 15 जुलाई श्री सनातन गोस्वामी का तिरोभाव दिवस, तेरापंथ स्थापना दिवस (जैन)
बाएं से दाएं
सु
जीवन मंत्र
लिफ्ट का चक्कर दो चूहे बाइक पर घूम रहे थे। शेर के बच्चे ने लिफ्ट मांगी। एक चूहा बोला –
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इंद्रधनुष
सुडोकू-29 का हल
वर्ग पहेली-29 का हल
1. कुल्हाड़ा (3) 3. लाट (3) 6. कमी (3) 8. उत्तर (3) 10. दया (4) 11. अभिकर्ता, मुंशी (3) 12. पर्यंत (4) 15. प्रकाशित या व्यक्त करने वाला (3) 17. लहर (3) 18. हठ, धुन, रट (2) 20. सुअर (3) 21. एक सुगंधित फूल व उसका पेड़ (4) 23. नयनपट (3) 24. अंदर (3) 25. लेप करना (3) 26. बालक, पुत्र (3)
ऊपर से नीचे
1. छोटा उद्योग जो घर से किया जा सके (6) 2. राशि, रुपया-पैसा (3) 3. इस्लामिक नेता (2) 4. चंद्रमा (5) 5. बहुत (2) 7. लगातार (3) 9. बायाँ (2) 13. इत्र के लिये प्रसिद्ध उत्तर प्रदेश का एक शहर (3) 14. नगर की व्यवस्था करने वाली संस्था (3,3) 16. एक आभूषण, लौंग (5) 19. खुला तंबू (3) 20. काँटा (2) 22. विष (3) 23. पत्ता (2) 24. गीला (2)
कार्टून ः धीर
वर्ग पहेली - 30
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न्यूजमेकर
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मदद की खाकी
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दिल्ली पुलिस की डीसीपी असलम खान जम्मू-कश्मीर के फ्लोरा गांव के एक परिवार को हर महीने अपनी सैलरी का हिस्सा भेजकर मदद करती हैं
रत-पाक बॉर्डर पर स्थित जम्मूकश्मीर के एक गांव से दिल्ली पुलिस की डीसीपी असलम खान का एक खास रिश्ता है। देश के अंतिम छोर पर बसे इस गांव के एक परिवार का मदद कर उन्होंने इंसानियत की एक मिसाल कायम की है। इस परिवार को असलम खान अपनी सैलरी से हर महीने पैसे भेजती हैं। इतना ही नहीं, वह इस परिवार से हमेशा बातचीत कर हालचाल भी जाना करती हैं। दिल्ली पुलिस के डीसीपी (नॉर्थ वेस्ट) असलम खान इस परिवार को हर महीने अपनी सैलरी का एक हिस्सा भेजकर मदद करती हैं। इसी साल जनवरी में परिवार के एक मात्र कर्ताधर्ता की हत्या हो गई थी। परिवार पर दो जून की रोटी की आफत आ गई थी। परिवार का कहना है कि हम डर गए थे, लेकिन इन्होंने हमारी मदद करनी शुरू कर दी। हम मैडम के आभारी हैं।
असलम खान ने बताया कि मान सिंह एक ट्रक ड्राइवर थे और इसी वर्ष 9 जनवरी को लड़कों के एक समूह ने उनकी हत्या कर दी। मैं किसी तरह परिवार के संपर्क में आई तब मुझे पता चला कि परिवार काफी गरीब है। उन्होंने बताया कि ये सब जानने के बाद मैंने फरवरी से हर महीने अपने सैलरी का एक हिस्सा उन्हें भेजती हूं। खान के मुताबिक, ‘कई लोगों ने परिवार की मदद के लिए उनसे संपर्क भी किया है।’ मान सिंह जम्मू-कश्मीर के आरएसपुरा सेक्टर में सुचेतगढ़ इंटरनेशनल बॉर्डर पर बसे फ्लोरा गांव के रहने वाले थे। उनके बाद परिवार में 2 बेटियां बलजीत कौर (18), जसमीत कौर (14), बेटा असमीत सिंह (9) और पत्नी दर्शन कौर (40) रह गए। उनकी बेटी बलजीत का कहना है कि करीब 150 घरों वाला फ्लोरा गांव बॉर्डर से 2 किलोमीटर दूर है। पाकिस्तान
डॉ. माही तलत सिद्दीकी
उर्दू में रामायण
उ
09 - 15 जुलाई 2018
न्यूजमेकर
रामायण का उर्दू में अनुवाद करने को लेकर डॉ. माही तलत सिद्दीकी इन दिनों चर्चा में हैं
त्तर प्रदेश के कानपुर की रहने वाली डॉ. माही तलत सिद्दीकी ने रामायण का उर्दू में अनुवाद किया है। डॉ. माही का कहना है वो अपने इस प्रोजक्ट पर काफी वक्त से काम कर रही थीं और आज जब उन्होंने इसे पूरा कर लिया है तो काफी अच्छा महसूस कर रही हैं। तमाम दूसरी मजहबी किताबों की तरह रामायण भी लोगों को भाईचारे और शांति से रहने को कहती है और रामायण को पढ़ते हुए उन्होंने बहुत सुकून महसूस किया। डॉ. माही के परिचित और आसपास के लोग इसे एक अच्छी पहल बता रहे हैं। लोगों का कहना है कि माही ने आपसी सद्भाव का एक नमूना सबसे सामने पेश किया है। पूरी रामायण का उर्दू में अनुवाद करने पर डॉ. माही को बधाइयां भी मिल रही हैं। डॉ. माही पेशे से शिक्षिका हैं। उन्होंने दो
का सियालकोट शहर इस गांव से सिर्फ 11 किलोमीटर दूर है। दो वक्त की रोटी के नाम पर 2 कैनाल पर खेती है। वह दोनों देशों के बीच नियंत्रण रेखा में फंसी है। तनाव के बीच पाकिस्तान की ओर से आए दिन मोर्टारों से मान सिंह का कच्चा घर पहले ही छलनी पड़ा था। हत्या से परिवार पर आफत आ गई। गौरतलब है कि सरदार मान सिंह को दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में मार दिया गया था। ट्रक ड्राइवर मान सिंह चंडीगढ़ से दिल्ली आए थे। इस घटना के बाद डीसीपी असलम खान परिवार के संपर्क में आईं और मदद करने लगीं। हालांकि जिस परिवार का वो मदद कर रही हैं, उस परिवार के लोग कभी इनसे मिले भी नहीं हैं।
साल में रामायण का उर्दू अनुवाद मुकम्मल किया। उन्हें उम्मीद है कि इससे व्यापक मुस्लिम समाज भगवान राम की शख्सियत के तमाम पहलुओं से आसानी से रूबरू हो सकेगा। डॉ. माही ने बताया कि उन्हें उनके शहर के बाशिंदे बद्री नारायण तिवारी ने रामायण भेंट करते हुए इसे उर्दू में अनूदित करने की सलाह दी थी, ताकि मुस्लिम समाज के लोग भी भगवान राम और रामायण से वाकिफ हो सकें। उर्दू भाषा में अनुवाद के दौरान डॉ. माही ने इस बात का खास ध्यान रखा है कि मूल रामायण के भावार्थ से कहीं से भी छेड़छाड़ न हो। हिंदी साहित्य में एमए की डिग्री हासिल करने वाली माही का कहना है कि आगे भी वह अपनी लेखनी के जरिए समाज में परस्पर सौहार्द को बनाए रखने का काम करती रहेंगी। वह इससे पहले भी एक कथा संग्रह का उर्दू में अनुवाद कर चुकी हैं।
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संजय करोल
जज साहब की मुस्तैदी
शिमला जल संकट के खिलाफ जज संजय करोल ने दिखाया न्यायिक के साथ व्यक्तिगत सक्रियता
माचल प्रदेश की राजधानी शिमला में बारिश के बाद जल संकट का कोहराम कुछ थम जरूर गया है, क्योंकि वहां जल स्तर 28.4 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रति दिन) तक पहुंच गया है। पर वहां पानी की आपूर्ति को लेकर अब भी कई तरह की शिकायतें बनी हुई हैं। यही वजह है कि शिमला का जल संकट अब भी चर्चा में है। इस संकट की गंभीरता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि हिमाचल हाईकोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश संजय करोल अपनी तरफ से इसे दूर करने और इसके लिए सुचारु व्यवस्था बनाने के लिए न्यायिक के साथ व्यक्तिगत सक्रियता दिखा रहे हैं। हाल ही में उन्होंने आधी रात तक शिमला की सड़कों पर घूमकर पेयजल संकट का निरीक्षण किया। लोगों को हो रही परेशानियों
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 30
को देखते हुए रात में उन्होंने खुद से पूरे शहर में पेयजल सप्लाई की व्यवस्था जांची। संजय करोल इस दौरान छोटा शिमला, संजौली और चौड़ा मैदान पहुंचे। कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ये जानना चाहते थे कि आम जनता की ओर से की जा रही शिकायतों को दर्ज किया जा रहा है या नहीं। वह यह भी जानना चाहते थे कि शिकायतों को करने में जनता को किस तरह कि दिक्कतें आ रही हैं। प्रशासन के आला अफसर भी मुख्य न्यायाधीश के साथ मौजूद थे। रात लगभग ढ़ाई बजे तक ग्राउंड रियलिटी जानने के बाद कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश घर गए। ऐसा पहली बार हुआ जब किसी मुख्य न्यायाधीश ने आधी रात तक शहर भर में घूमकर पेयजल सप्लाई का औचक निरीक्षण किया।