सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 31)

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व्यक्तित्व

06

स्वच्छता

जीवट संघर्ष का शिलालेख

24 पुस्तक अंश

26 कही-अनकही

29

शालीन संगीत की ‘उषा’

स्वच्छता के आदर्श स्वास्थ्य के लिए के लिए जूझता देश कल्याणकारी योजनाएं

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

बदलते भारत का साप्ताहिक

दु:स्वप्न का अंत

sulabhswachhbharat.com

वर्ष-2 | अंक-31 | 16 - 22 जुलाई 2018

फीफा वर्ल्ड कप का चरम पर पहुंचा रोमांच और फुटबॉल के उभरते नए सितारों की चमक, एक ऐसी टीम के सामने धुंधली पड़ गई, जिसके अनाम सितारे 18 दिनों तक एक ऐसा मैच खेलते रहे, जिसमें हार का मतलब सिर्फ मौत था। मौत की खौफनाक अंधेरी सुरंग में वे लगातार बिना थके जिंदगी का फुटबॉल खेलते रहे। आखिरकार जीत जिंदगी की हुई... रोशनी की हुई... उम्मीद और दुआओं की हुई

थाईलैंड की 10 किमी लंबी

थाम लुआंग गुफा

6 देशों के 90 गोताखोर बचाव अभियान में थे शामिल

दो गोताखारों के पास एक बच्चे को बाहर लाने की जिम्मेदारी थी

यहां थे बच्चे

ये हिस्से पानी से भरे थे

बचाव कैंप

3.2 किमी लंबी रस्सी के सहारे बाहर आए बच्चे

एसएसबी ब्यूरो

र्ष 2015 में हॉलीवुड की फिल्म ‘द 33’ आई थी। यह फिल्म वर्ष 2010 में चिली के कॉपर और गोल्ड के सैनोजे माइंस में फंसे 33 खनिकों को बचाने के लिए 69 दिनों तक चले जीवन संघर्ष पर आधारित है। माइंस में हमले की वजह से फंसे 33 खनिकों के साहस और रेस्क्यू टीम की मेहनत को पूरी संजीदगी के साथ फिल्माया गया। कुछ ऐसी ही त्रासद घटना हाल में थाईलैंड में घटी। थाईलैंड की थाम लुआंग गुफा में फंसी बच्चों की फुटबॉल टीम के सभी सदस्यों को 17 दिन बाद सुरक्षित निकाला गया। इन दिनों में कई तरह की सरगर्मियां एक साथ चलीं। सबसे अहम था गुफा के अंदर फंसे बच्चों की खैर-खबर। इसके साथ ही इन बच्चों को सकुशल

खास बातें

फुटबॉल टीम 23 जून को गुफा देखने गई, लेकिन बाढ़ में फंस गई 6 देशों के 90 गोताखोर इस बचाव अभियान में हुए शामिल 8 जुलाई को शुरू हुआ फाइनल रेस्क्यू ऑपरेशन 10 जुलाई को खत्म


02 04 जल्दी वहां से निकालने के प्रयास में जुटे दुनिया भर के गोताखोरों और सुरक्षाकर्मियों के प्रायस और उनकी बचाव रणनीति पर भी लोगों की आंखें लगी रहीं। इस दौरान बच्चों के परिजनों का दुख हर बीतते पल के साथ जहां बढ़ता जा रहा था, वहीं इन बच्चों की खैर के लिए दुनिया भर में दुआएं मांगी जा रही थी। इन दिनों के कई पन्ने हैं। इनसे जुड़ी कई तस्वीरें, कई पहलू, कई आवेग, संवेदना की कई परतें, आंसुओं में डूबती उम्मीद को थामने वाली कई मुस्कानें... सबने मिलकर इस घटना को डर और रोमांच का एक ऐसा साझा अनुभव बना दिया, उस अनुभव को सबने अपनी तरह से जिया।

आखिरकार जीती जिंदगी

जिंदगी आखिरकार जीत गई। 6 देशों के 90 गोताखोरों ने जब गुफा में फंसे सबसे छोटे बच्चे और कोच को बाहर निकाला तो 17 दिनों की त्रासदी का सुखद पटाक्षेप हुआ। ‘मिशन इंपॉसिबल’ पॉसिबल हो गया। 17 दिनों तक जिंदगी और मौत की जंग झेलने वाले चेहरों, 17 दिनों तक अथक बचाव में जुटे लोग, दुआओं के लिए उठे हाथ, 17 दिनों तक अपनों की प्रतिक्षा में चिंतातुर दोस्त और परिजन... सब के चेहरे की चमक लौट आई। चिताएं मिटीं तो जश्न की तैयारी शुरू हो गई, एक दूसरे को धन्यवाद देने का दौर चल पड़ा।

लौटेंगे सपनों वाले दिन!

इन बच्चों के कदमों की आहट को जानने-पहचानने वाला वह फुटबॉल ग्राउंड जहां ये बच्चे खेला करते थे, अब भी उनके लौटने के इंतजार में है। उनके स्कूल के दोस्तों को भी इसी बात का इंतजार है। जल्द ही सब अपनी-अपनी जगह लौट आएंगे, सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। लेकिन क्या

आवरण कथा

16 - 22 जुलाई 2018

कामयाबी से पहले सांसत के नौ दिन

था

‘आप कितने लोग हैं’, ये वो शब्द हैं जो थाईलैंड की गुफा में फंसे 12 बच्चों और उनके एक कोच ने 9 दिन बीत जाने के बाद सबसे पहले सुने

ईलैंड की गुफा से सभी 12 बच्चों और उनके कोच को आखिरकार सुरक्षित बाहर निकाल लिया गया। संकरे, टेढ़े-मेढ़े रास्तों, पानी से लबालब और घुप अंधेरी गुफा में से बच्चों को वापस लाना, मौत के मुंह से वापस लाने से कम नहीं था। एक तरफ लगातार हो रही बारिश मिशन के रास्ते में बाधा डाल रही थी तो दूसरी ओर मुश्किल यह थी बच्चों को ठीक से तैरना भी नहीं आता था। ऑक्सीजन कम थी सो अलग। ये सब इतना मुश्किल था कि शुरू में कहा गया कि बच्चों को बाहर निकलने में महीनों लग सकते हैं। हालांकि ये बच्चे जिस टीम से फुटबॉल खेलते थे, उनके मुख्य कोच नोप्पारात कंतावोंग जरूर भरोसे से भरे थे। वे गुफा में बच्चों के साथ तो नहीं थे। पर जब बच्चों के मुसीबत में फंसने की खबर आई तो उन्होंने कहा कि ये सभी बच्चे एक दिन प्रोफेशनल फुटबॉलर बनने का ख्वाब रखते हैं और उन्हें विश्वास है कि सभी लड़के एक-दूसरे के साथ रहेंगे और एक-दूसरे को कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे।

जानलेवा हालात

हालात की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ऑक्सीजन का सिलेंडर पहुंचाने गुफा में गए एक गोताखोर की लौटते वक्त रास्ते में मौत हो गई। लेकिन, अनगिनत मुश्किलों के

‘मिशन इंपॉसिबल’ के नायक

बाद भी सबको सुरक्षित बाहर निकाला गया और वह भी तीन दिनों के भीतर। इस कामयाबी के पीछे एक टीम काम कर रही थी जो पूरी तरह प्रतिबद्ध थी।

'आप कितने लोग हैं?'

‘आप कितने लोग हैं’, ये वो शब्द हैं जो थाईलैंड की गुफा में फंसे 12 बच्चों और उनके एक कोच ने 9 दिन बीत जाने के बाद सबसे पहले सुने। गुफा के बाहर से यह सवाल एक ब्रिटिश बचावकर्मी जॉन वोलेंथन ने पूछा था। इसके जवाब में गुफा के अंदर से आवाज आई... ‘13’। इस जवाब

वोलेंथन की बात करें तो वे कई मैराथन में हिस्सा ले चुके हैं। वोलेंथन मजाक में कहते हैं कि वे सिर्फ इसीलिए भागते हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा बिस्कुट खा सकें। हालांकि वोलेंथन ब्रिस्टल में एक आईटी सलाहकार थे और उन्होंने गुफाओं में जाने का काम एक स्काउट के तौर पर शुरू किया था। गुफा में किसी को तलाश करने के काम को वोलेंथन एक अनसुलझी पहेली को हल करने जैसा मानते हैं। वर्ष 2012 में वोलेंथन और स्टेनटोन को फ्रांस में उनके बेहतरीन बचावकार्य के लिए ‘रॉयल’ सम्मान से सम्मानित किया गया था।

रिचर्ड स्टेनटोन

जॉन वोलेंथन

जॉन वोलेंथन वह शख्स हैं, जिनकी आवाज गुफा में नौ दिन से फंसे बच्चों और उनके कोच ने सबसे पहले सुनी। ​िशयांग रे स्थित थाम लियांग

गुफा में फंसे बच्चों को खोजने के लिए थाईलैंड सरकार ने ब्रिटेन के वोलेंथन, रिचर्ड स्टेनटोन और रॉबर्ट चार्ल्स हार्पर को मदद के लिए बुलाया था। ये तीनों ही केव एक्सपर्ट हैं।

स्टेनटोन पहले फायर ब्रिगेड में भी काम कर चुके हैं। स्टेनटोन अपने साथियों के साथ नॉर्वे, फ्रांस और मैक्सिको में भी ऐसे बचाव अभियान को अंजाम दे चुके हैं। स्टेनटोन को उनके साहसिक कार्यों के लिए साल 2012 में प्रसिद्ध एमबीई (मेंबर ऑफ ब्रिटिश इंपायर) सम्मान से सम्मानित भी किया जा चुका है। कुछ वर्ष पहले उन्होंने बताया था कि जब वे छोटे थे

के साथ ही यह बात पक्की हो गई कि गुफा में फंसे सभी बच्चों और उनके कोच को खोज लिया गया है और वे सभी जीवित हैं। 9 दिन से थाईलैंड की ​िशयांग रे स्थित थाम लियांग गुफा में फंसे बच्चों को खोजने के लिए थाईलैंड सरकार ने ब्रिटेन के तीन 'केव एक्सपर्ट' वोलेनथन, रिचर्ड स्टेनटोन और रॉबर्ट चार्ल्स हार्पर को मदद के लिए बुलाया था। इन बच्चों के गुफा में गुम हो जाने के 3 दिन बाद ये तीनों लोग थाईलैंड पहुंच चुके थे। इससे पहले इस खोजी अभियान में हजारों लोग लगे हुए थे।

तब उन्होंने एक कार्यक्रम 'अंडरग्राउंड ईगर' देखा था, जिससे प्रेरित होकर वे गोताखोरी की तरफ आकर्षित हो गए थे। बाद में वे यूनिवर्सिटी में केविंग और डाइविंग क्लब में शामिल हो गए।

समन गुनन

38 वर्ष के समन गुनन लापता समूह को ऑक्सीजन की टंकी पहुंचाने के बाद वापस आते वक्त बेहोश हो गए और बाद में उनकी मौत हो गई। समन गुनन थाई नौसेना के पूर्व गोताखोर थे। उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी, लेकिन बचाव अभियान में शामिल होने के लिए वो लौट आए थे। थाईलैंड के राजा ने समन गुनन को राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार की घोषणा की।

डॉक्टर रिचर्ड हैरिस

ऑस्ट्रेलिया के डॉक्टर रिचर्ड हैरिस को डाइविंग (गोताखोरी) का दशकों का अनुभव है। उन्होंने गुफा में बच्चों की जांच करने के बाद ग्रीन सिग्नल दिया जिसके बाद बचाव अभियान आगे बढ़ पाया।


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आवरण कथा

मुसीबत में काम आए दो भारतीय

23 जून से गायब 12 बच्चों समेत 13 लोगों को गुफा से बाहर निकालने की कोशिश में दो भारतीय प्रसाद कुलकर्णी और श्याम शुक्ला भी जी-जान एक कर रहे थे

था

ईलैंड की गुफा में से जब आखिरी चार बच्चों को बाहर निकाला गया तो दुनियाभर के लोगों के साथ मौके पर मौजूद दो भारतीयों की भी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। बीते 23 जून से गायब 12 बच्चों समेत 13 लोगों को गुफा से बाहर निकालने की कोशिश में प्रसाद कुलकर्णी और श्याम शुक्ला भी जी-जान एक कर रहे थे। वे दोनों थाईलैंड द्वारा काम पर लगाई गई पंप बनाने वाले कंपनी किर्लोस्कर ब्रदर्स लिमिटेड की सात सदस्यीय टीम का हिस्सा थे। महाराष्ट्र के सांगली जिले के रहने वाले प्रसाद और पुणे के इंजीनियर श्याम शुक्ला के अलावा इस टीम में एक नीदरलैंड और एक युनाइटेड किंगडम का सदस्य भी शामिल था। बाकी सभी लोग थाईलैंड से थे। दरअसल, किर्लोस्कर के साथ थाईलैंड सरकार पहले भी कई प्रोजेक्टस पर काम कर चुकी है। उसका काम यहां पानी निकालने का था, जो बच्चों को सुरक्षित तरीके से बाहर निकालने के लिए जरूरी था। टीम को 5 जुलाई को बेहद खराब मौसम में 4 किलोमीटर लंबी गुफा से पानी निकालने के काम पर लगाया गया था।

लगातार बारिश

किर्लोस्कर में प्रॉडक्शन डिजाइनर हेड ऐसा होगा? इन 17 दिनों के बुरे सपने से ये बच्चे कैसे अपना पीछा छुड़ाएंगे? कैसे भूल पाएंगे अंधेरी गुफा के उस अंधेरे को, जो उनके जीवन को अपने जाल में फंसा सकता था। जहां से निकल पाना इन बच्चों के लिए लगभग नामुमकिन था? लेकिन जब वे अंधेरे और मौत की आहट भरे दिन नहीं रहे तो उनकी यादों वाले दिन भी जल्द ही लद जाएंगे और उम्मीद वाले, सपनों वाले दिन जल्द ही लौट आएंगे।

कुलकर्णी बताते हैं, ‘हमारा काम गुफा से पानी निकालने का था, जिसमें 90 डिग्री तक के मोड़ हैं। लगातार हो रही बारिश ने बहुत परेशानी खड़ी की, क्योंकि पानी का स्तर कम ही नहीं हो रहा था। जेनरेटर से मिल रही पावर सप्लाइ भी निरंतर नहीं थी, इसीलिए हमें छोटे पंप इस्तेमाल करने पड़े।’ कुलकर्णी पिछले 25 साल से सांगली में किर्लोस्कर में काम कर रहे हैं।

गुफा से निकाला पानी

उन्होंने बताया कि बचाव दल को निराश करनेवाली चुनौतियों का सामना करना पड़ा। गुफा 20 स्क्वेयर किलोमीटर के पहाड़ में थी जहां अंधेरा और काफी नमी थी। वह ऐसी जगह थी कि स्कूबा ड्राइवर्स भी कई बार मदद नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में पंप के सहारे ही कुछ किया जा सकता था। वहीं, शुक्ला बताते हैं कि लड़कों तक पहुंचना मुश्किल काम था। गुफा बहुत पतली थी और जमीन समतल नहीं थी, लेकिन उन्होंने गुफा में से पानी निकाल लिया। मिशन पूरा होने के बाद भारत के इस योगदान की सराहना थाईलैंड के राजदूत ने भी की। उन्होंने इससे पहले किर्लोस्कर टीम की कोशिशों की तारीफ करते हुए ट्विटर पर धन्यवाद भी कहा था।

‘ब्रिलियंट 13’

23 जून को गुफा देखने गई टीम बाढ़ की वजह से उसमें फंस गई थी। 9 दिन बाद 2 ब्रिटिश गोताखोरों ने गुफा में फंसे बच्चों को सबसे पहले खोजा था। इस घटना का वीडियो सामने आया था। मुश्किल हालात में भी इतने दिन तक संघर्ष करने वाले टीम के सदस्यों को ‘ब्रिलियंट 13’ का नाम दिया गया। बचाव अभियान के आखिरी दिन 11वां बच्चा चैनिन विबूरॉन्गैंग बाहर आया। वह जूनियर फुटबॉल टीम

23 जून को गुफा देखने गई टीम बाढ़ की वजह से उसमें फंस गई थी। 9 दिन बाद 2 ब्रिटिश गोताखोरों ने गुफा में फंसे बच्चों को सबसे पहले खोजा था का सबसे छोटा साथी है। टीम के सभी सदस्य उसे टाइटन के नाम से बुलाते हैं। उसने 5 साल पहले फुटबॉल खेलना शुरू किया था।

विज्ञान या कुछ और

बचाव कार्य में लगे नेवी अफसरों ने अपने फेसबुक पेज पर एक पोस्ट डाला है। इसमें उन्होंने लिखा है कि हमें नहीं पता कि यह चमत्कार है, विज्ञान है या कुछ और...। फिलहाल 13 वाइल्ड बोर (फुटबॉल टीम का नाम) के खिलाड़ी गुफा से बाहर आ चुके हैं। एक बच्चे को निकालने का जिम्मा दल के दो गोताखोरों पर था। इनमें एक गोताखोर बच्चे के आगे और एक पीछे था। अगला गोताखोर बच्चे के साथ खुद को रस्सी बांधकर उसे सहारा देते हुए तैरता था। उसके हाथ में ही बच्चे का ऑक्सीजन सिलेंडर होता था। पीछे वाला गोताखोर गुफा में बांधी गई रस्सी के सहारे बच्चे की मदद करता हुआ तैरता था। हर बच्चे और कोच को फुल मास्क और वेट सूट में बाहर लाया गया। ऑपरेशन को ‘केव मेज-बॉटलनेक’ नाम दिया गया।

बचाव में लगे 90 गोताखोर

गुफा के मुख्य निकास से बच्चों के फंसे होने की जगह 3.2 किलोमीटर दूर थी। इसमें कुछ हिस्सों में पानी था। अंधेरे की वजह से इसमें देख पाना भी मुश्किल था। इसके अलावा संकरे रास्ते अभियान में बड़ी रुकावट थे। थाईलैंड के अलावा अमेरिका, चीन, जापान, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के 90 गोताखोर बचाव कार्य में लगे थे। एक हजार से ज्यादा जवान और एक्सपर्ट इस अभियान में मदद कर रहे थे।

एक गोताखोर की मौत

बच्चों को बचाने की कोशिश में थाईलैंड की नौसेना के एक पूर्व गोताखोर की 6 जुलाई को मौत हो गई थी। समन कुनन (38) बच्चों के पास रसद पहुंचाने के बाद लौट रहे थे। ऑक्सीजन की कमी के चलते वे रास्ते में बेहोश हो गए। बाद में उनकी मौत हो गई। कुनन ने नौसेना छोड़ दी थी, लेकिन बच्चों को बचाने के लिए वे लौटे थे।


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छोटी पनडुब्बी के साथ थाईलैंड पहुंचे मस्क

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1.अब्दुल समुन 2.पनुमास सांगदी 3.नात्तावुत ताकमरोंग 4.एकरात वोंगसुकचन 5.पोर्नचई कमुलांग 6.पिपत बोधी 7. मोंगकोल बूनेइआम 8.दुगनपेच प्रोमटेप 9.सोमेपोंग जाइवोंग 10.प्राजक सुथम 11.पीरापत सोमपिआंगजई 12.टाइटन 13.कोच इकापोल चांटावांग

गुफा बनेगा संग्रहालय

दुनिया के सबसे मुश्किल रेस्क्यू ऑपरेशन के सफल होने के बाद थाम लुआंग गुफा को संग्रहालय में तब्दील किए जाने की योजना है

त्तरी थाईलैंड की जिस गुफा में 12 बच्चे और उनके फुटबॉल कोच दो हफ्ते से ज्यादा समय तक फंसे रहे, उसे अब संग्रहालय में तब्दील किया जाएगा। बचाव अधिकारियों ने कहा कि संग्रहालय में यह दिखाया जाएगा कि कैसे थाम लुआंग गुफा में यह अभियान चलाया गया। यह थाईलैंड में एक बड़ा आकर्षण का केंद्र होगा। कम से कम दो फिल्म कंपनियां इस बचाव अभियान पर फिल्म बनाने की भी तैयारी कर रही हैं। बचाए गए सभी बच्चे और कोच अभी अस्पताल में हैं। एक वीडियो रिलीज किया गया, जिसमें दिखाया गया है कि बच्चे स्वस्थ हैं। लेकिन, उन्हें अभी एक सप्ताह और डॉक्टरों की निगरानी में रहना पड़ेगा। थाई नेवी सील ने भी अभियान का फुटेज जारी किया है, जिसमें दिखाया गया है कि कैसे

हीरो हैं जॉन

ब्रिटिश गोताखोर जॉन वोलेंथन और रिक स्टैटन रेस्क्यू ऑपरेशन के हीरो हैं। दोनों ने ही गुफा में फंसे बच्चों को सबसे पहले खोजा। ये बच्चे कीचड़ के बीच एक छोटी सी चट्टान पर बैठे मिले थे। जॉन ने जब उनसे पूछा कि आप कितने लोग हो? ...तो अंदर से आवाज आई- 13। गोताखोरों ने कहा कि सबसे पहले आने वाले हम हैं, लेकिन अभी बहुत

अं

तरिक्ष विज्ञान से संबंधित अमेरिकी कंपनी स्पेसएक्स के सीईओ एलेन मस्क एक छोटी पनडुब्बी के साथ थाईलैंड की उस गुफा तक पहुंच गए, जहां फुटबाल टीम के पांच सदस्य अब भी फंसे हुए हैं। मस्क ने ट्वीटर पर यह जानकारी देते हुए बताया, ‘ गुफा तीन (केव-3) से अभीअभी लौटा हूं।' इंस्टाग्राम पर उन्होंने बाढ़ग्रस्त गुफा और बचावकर्मियों का वीडियो पोस्ट किया। मस्क ने लिखा, जरूरत पड़े तो छोटी पनडुब्बी तैयार है। यह रॉकेट के पुर्जों से तैयार

की गई है और बच्चों की फुटबॉल टीम के नाम पर इसका नाम वाइल्ड बोर

रखा गया है। गुफा तीन, गुफा के प्रवेश द्वार से दो किलोमीटर दूरी पर स्थित है और थाईलैंड के बचावकर्मियों का संचालन केंद्र है। फुटबॉल टीम इससे करीब दो किलोमीटर और अंदर ऐसी जगह मौजूद थी, जहां पहुंचना बेहद मुश्किल था। थाई बचावकर्मी मस्क के की मदद का उपयोग तो नहीं कर सके, पर उनके इस प्रयास के लिए उन्होंने आभार जरूर जताया।

विशेषज्ञों ने वाइल्ड बोर फुटबॉल टीम के सदस्यों को मुश्किल अभियान के बाद गुफा से बाहर निकाला। राहत अभियान के प्रमुख और पूर्व गवर्नर नारोंगस्क ओसोटानकोर्न ने बताया कि क्षेत्र को जीवंत संग्रहालय बनाया जाएगा, यह दिखाने के लिए कि कैसे अभियान चलाया गया।उन्होंने कहा कि एक इंटरैक्टिव डाटा बेस स्थापित किया जाएगा। यह थाईलैंड के लिए एक बड़ा आकर्षण का केंद्र बनेगा। थाईलैंड के प्रधानमंत्री प्रयुथ चान-ओछा ने कहा है कि पर्यटकों की सुरक्षा के लिए गुफा के बाहर और अंदर एहतियाती उपाय किए जाएंगे। थाईलैंड की सबसे लंबी गुफाओं में से एक थाम लुआंग देश के उत्तर में स्थित ​शियांग रे प्रांत के कस्बे माए साई के पास है। यह इलाका पिछड़ा है और यहां पर्यटकों के लिए बहुत कम सुविधाएं हैं। सारे लोग तुम्हारी मदद के लिए आएंगे। गुफा में फंसे बच्चों के पास जब जब ब्रितानी गोताखोर पहुंचे तो उन्होंने शुक्रिया अदा करने के बाद सबसे पहले यही पूछा, ‘हम बाहर कब निकलेंगे।’ गोताखोरों ने उन्हें बताया, ‘आज नहीं।’ फिर उन्होंने पूछा, ‘आज कौन सा दिन है’, इस पर गोताखोरों ने कहा ‘सोमवार, आप यहां दस दिन से हो, आप बहुत मजबूत हैं, बहुत मजबूत।’

सांसत में जिंदगी

थाईलैंड की एक गुफा में 9 दिनों तक लापता रहने के बाद 12 लड़के और उनके फुटबॉल कोच को तलाशा गया, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती इन बच्चों को गुफा से बाहर निकालने की थी। चियंग राय स्थित थाम लुआंग गुफा में चलाए गए तलाशी अभियान की जानकारी देते हुए एक अधिकारी ने बताया था, ‘सभी लोग सुरक्षित हैं, लेकिन गुफा में

पानी का स्तर बढ़ रहा है और कीचड़ की वजह से उन तक पहुंचना मुश्किल था।’

बचाव के विकल्प

बचाव कार्य में लगी थाईलैंड की सेना ने गुफा से बाहर निकलने के लिए इन बच्चों को तैराकी सिखाने या फिर उन्हें बाढ़ के पानी के उतर जाने तक इंतजार करने जैसे विकल्पों को आजमाने का भी विचार


16 - 22 जुलाई 2018

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रेस्क्यू का प्रिंस

कौन थे ये बच्चे!

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• सभी 12 बच्चे मू पा (जिसे वाइल्ड बोर भी कहते हैं) फुटबॉल टीम के सदस्य हैं।

• 25 साल के उनके सहायक कोच इक्कापोल जनथावोंग कभी-कभी इन बच्चों को घुमाने ले जाते थे। • दो साल पहले भी इसी गुफा में कोच इक्कापोल बच्चों को घुमाने लाए थे।

• टीम में सबसे छोटा खिलाड़ी 11 साल का चैन 'टाइटन' है, उसने 7 वर्ष की उम्र से फुटबॉल खेलना शुरू किया था।

• टीम के कप्तान 13 साल के डुआंगपेट 'डोम' हैं, वे अपनी टीम के मोटिवेटर यानी उत्साह बढ़ाने वाले सदस्य भी हैं। • क्लब के मुख्य कोच नोप्पारात कंतावोंग टीम के साथ घूमने नहीं गए थे।

बर्फ की कब्र से जिंदा निकला जवान

दो वर्ष पूर्व सियाचिन के उत्तरी ग्लेशियर में बर्फ की तूफान में फंसने के छह दिन बाद जिंदा निकल आने वाले भारतीय जवान हनुमनथप्पा के साहस को भूले नहीं हैं लोग

न दिनों पूरी दुनिया में थाईलैंड के फुटबॉल खिलाड़ियों के पानी से भरे लंबी सुरंग से जिंदा बाहर निकाल लेने की घटना की चर्चा है। दो वर्ष पहले कुछ ऐसी ही एक घटना भारत में चर्चा में आई थी, जब सेना के 10 जवान सियाचीन में बर्फ के नीचे दब गए थे। बर्फ में दबे जवानों को सुरक्षित बाहर निकालने के लिए सेना की राहत टीम ने बड़ी कवायद की, पर पांच दिनों की उनकी मेहनत पर तब पानी फिर गया जब आखिरकार उनके हाथ कोई कामयाबी हाथ नहीं लगी। पर तब छठे दिन एक जवान हनुमनथप्पा के जीवित बच निकलने की घटना को लोगों ने किसी चमत्कार से कम नहीं माना। किया। लेकिन ऐसा करने में महीनों लग सकते थे और बच्चों की जिंदगी को खतरा हो सकता था।

बढ़ते जलस्तर की चुनौती

लगातार बढ़ता जलस्तर बचाव कार्य में लगे कर्मचारियों के लिए अंत तक चुनौती बना रहा। बचावकर्मी बच्चों के लिए खाने और दवाओं की

3 फरवरी, 2016 को सियाचिन के उत्तरी ग्लेशियर में बर्फ की तूफान में 10 जवान दब गए थे। किसी के भी जिंदा बचे होने की उम्मीद नहीं थी। प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री से लेकर सेना प्रमुख तक ने इन बहादुरों को श्रद्धांजलि दे चुके थे। लेकिन जिसने ठान ली हो कि उसे मौत को हराना हो तो फिर कौन उससे जीत सकता था। बहादुर सिपाही हनुमनथप्पा को दिल्ली में इलाज के लिए भर्ती कराए जाने की खबर के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इनसे मिलने अस्पताल पहुंचे। 25 फुट मोटी बर्फ की परत के नीचे दबा सेना का यह जवान जिस चमात्कारिक रूप से जिंदा मिला, उस पर मेडिकल साइंस की दुनिया भी हैरान थी। व्यवस्था लगातार करते रहे, ताकि उन्हें ज्यादा परेशानी न हो। सेना बच्चों के लिए ऐसा खाना जुटाने में लगी रही कि जो कम से कम चार महीने तक चल सके। मतलब बचाव दल की तैयारी लंबी और बड़ी थी। थामलुआंग गुफा बरसात के समय हमेशा पानी से भर जाती है और बारिश का पानी सितंबर या

क समय हरियाणा के पांच साल के प्रिंस का नाम देश के प्रधानमंत्री से लेकर बॉलीवुड के महानायक बिग बी की जुबान पर थे। सब उसकी सकुशलता और लंबी उम्र के लिए दुआएं कर रहे थे। हुआ कुछ यूं था कि 21 जुलाई 2006 को हरियाणा में कुरुक्षेत्र जिले के एक छोटे-से गांव हल्देहड़ी में रहने वाला प्रिंस खेतों में घूमते-घूमते 55 फीट गहरे बोरवेल में गिर गया। राहत के लिए स्थानीय स्तर पर हुई शुरुआती नाकाम कोशिशों के बाद सेना को बुलाया गया। पूरे दो दिन के राहत-बचाव कार्य के बाद इस बच्चे को बोरवेल से सुरक्षित निकाल

लिया गया। यही वे 50 घंटे थे जिनके दौरान प्रिंस नाम के इस बच्चे के बारे में पूरा भारत जान गया। सेना की इस पूरी कार्रवाई की मीडिया में भारी कवरेज का असर ऐसा था कि हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रिंस के गांव पहुंच गए और तब तक वहीं रहे जब तक उसे गड्ढे से निकाल नहीं लिया गया। प्रिंस को बचाए जाने के कई महीनों बाद तक आसपास के गांव से लोग केवल उसे देखने के लिए उसके घर आते रहे। उसे पूजा-जागरण और दूसरे धार्मिक आयोजनों में खास मेहमान के तौर पर बुलाया जाने लगा। हर तरफ प्रिंस की चर्चा थी।

आखिरकार नाउम्मीदी की अंधेरी सुरंग में उम्मीद की मीलों लंबी रस्सी मिल ही गई और 17 दिनों के बाद बच्चों की फुटबॉल टीम के कोच और सबसे छोटे खिलाड़ी अंधेरे से उजाले में आए अक्टूबर के महीने तक रहता है। गुफा में भरे पानी को पंप के ज़रिए बाहर निकालने की कोशिशें भी की गई, लेकिन इसमें अधिक सफलता नहीं मिली। बचावकर्मियों के अनुसार गुफा में फंसे बच्चों और उनके कोच ने जमीन के भीतर कोई ऐसी जगह तलाश ली थी, जिससे वे बाढ़ के पानी की चपेट में आने से बच गए।

चिंता में डूबा थाईलैंड

गोताखोरों के बच्चों के पास पहुंचने का वीडियो थाईलैंड नेवी सील ने जारी किया। गुफा में लापता हुए 12 लड़कों और उनके कोच को लेकर पूरे देश में चिंता का माहौल था। इन सभी के सुरक्षित होने की खबर उनके परिजनों के लिए खुश होने की वजह लेकर आई।

करुणा का दिन

जब उनके जिंदा होने की खबर बाहर आई तो गुफा के बाहर मौजूद एक बच्चे की मां ने कहा, ‘आज का दिन सबसे अच्छा है। मैं कब से अपने बेटे का इंतजार कर रही हूं। मुझे लग रहा था कि उसके जिंदा होने की संभावना 50 फीसदी ही है। अब मैं बहुत उत्साहित हूं। जब वो बाहर आएगा तो सबसे

पहले मैं उसे गले लगाऊंगी। मैं सबका शुक्रिया अदा करना चाहती हूं।’

खोजी अभियान में मुश्किलें

लगातार बढ़ते पानी और कीचड़ के चलते इस खोजी अभियान में बहुत-सी मुश्किलें आईं। वहां हालात कितने मुश्किल हैं, ये बताया बचाव टीम में शामिल बेल्जियम के गोताखोर बेन रेमेनेंट्स ने। बच्चों के मिलने से पहले उन्होंने कहा, ‘वो बहुत भीतर हैं और वहां सिर्फ तैरकर ही जाया जा सकता है। ये गुफाएं भूल-भुलैया जैसी हैं, तापमान 21 डिग्री है और बहुत चिपचिपाहट है। ये छोटी-छोटी सुरंगों की भूल-भुलैया है, जो कई किलोमीटर तक है। पहले दिन मुझे बहुत निराशा हुई क्योंकि अंधेरे की वजह से हम कुछ देख ही नहीं पा रहे थे।’ आखिरकार नाउम्मीदी की अंधेरी सुरंग में उम्मीद की मीलों लंबी रस्सी मिल ही गई और 18 दिनों के बाद बच्चों की फुटबॉल टीम के कोच और सबसे छोटे खिलाड़ी अंधेरे से उजाले में आए। इन बहादुर अनाम खिलाड़ियों को फीफा की तरफ से फाइनल मुकाबला देखने का न्योता मिला, पर वे अस्पताल में भर्ती होने के कारण इसे देख नहीं पाए।


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व्यक्तित्व

16 - 22 जुलाई 2018

नेल्सन मंडेला जयंती (18 जुलाई) पर विशेष

जीवट संघर्ष का शिलालेख

रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने वालों में महात्मा गांधी के बाद अगर किसी का नाम जेहन में आता है, तो वह मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला ही हैं

एसएसबी ब्यूरो

हात्मा गांधी ने रंगभेद के खिलाफ अगर अपना संघर्ष दक्षिण अफ्रीका में शुरू किया, तो नेल्सन मंडेला ने उसी जमीन पर गांधी की विरासत को आगे बढ़ाया। भारत का जितना गहरा रिश्ता दक्षिण अफ्रीका से है, उतना ही नेल्सन मंडेला से भी। भारत का सबसे बड़ा सम्मान ‘भारत रत्न’ पाने वाले नेल्सन मंडेला भारतीय उप

खास बातें

भारतीय उप महाद्वीप के बाहर ‘भारत रत्न’ पाने वाले पहले शख्स राष्ट्रव्यापी हड़ताल और राजद्रोह के जुर्म में 27 वर्ष तक जेल में रहे मंडेला दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने

प्रेरक कथन

महाद्वीप के बाहर के पहले शख्स बने। उन्हें 1990 में यह सम्मान दिया गया। हालांकि इससे पहले पाकिस्तान के खान अब्दुल गफ्फार खान को भी यह सम्मान दिया जा चुका था, लेकिन सरहदी गांधी का जन्म अविभाजित भारत में हुआ था। मदर टेरेसा को भी इस सम्मान से नवाजा गया, लेकिन मदर टेरेसा के पास भी भारत की नागरिकता थी। रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने वालों में गांधी के बाद अगर किसी का नाम जेहन में आता है, तो वह मार्टिन लूथर किंग जूनियर और नेल्सन मंडेला ही हैं। मंडेला के एक-एक शब्द में जादू हुआ करता था और लोग उनकी बातों पर मुग्ध हुआ करते थे। दक्षिण अफ्रीका का इतिहास उनके पहले और उनके बाद के काल के तौर पर तय किया जाएगा। वह किसी सरहद में बंधने वाले शख्स नहीं थे। ‘भारत रत्न’ के बाद उन्हें पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान ‘निशाने पाकिस्तान’ भी मिला। मंडेला भारत के भी थे, पाकिस्तान के भी। वह चीन और अमेरिका के भी थे। असल में वह पूरी दुनिया के थे। नेल्सन मंडेला की आपबीती ‘लांग वॉक टू फ्रीडम’ में ‘टाइम’ मैगजीन के एडिटर रिचर्ड स्टेंगल ने मंडेला से जुड़ा एक किस्सा कुछ यूं बयान किया हैएक बार मैं और मदीबा (दक्षिण अफ्रीका के लोग प्यार से मंडेला को मदीबा कहते थे। स्थानीय

शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिससे आप दुनिया को बदल सकते हैं।

जब पानी उबलना शुरू होता है, उस समय ताप को बंद करना

मूर्खता है।

जेल के दौरान ही मंडेला विश्वभर में लोकप्रिय हो गए थे और पूरे अफ्रीका महाद्वीप में रंग-भेद के खिलाफ लड़ने वाले सबसे बड़े नेता बन गए जुबान में मदीबा का मतलब होता है– पिता ) नताल जा रहे थे। यह छह सीट वाला हवाई जहाज था। मदीबा जहाज में बैठे और अखबार पढ़ने लग गए। उन्हें अखबार पढ़ना बहुत अजीज था। वे हर छोटी से छोटी खबर भी पढ़ते थे। जहाज ऊपर उड़ रहा था। तभी उन्होंने देखा कि जहाज के पंखे पर लगे प्रोपेलर ने काम करना बंद दिया है। मदीबा ने मुझसे कहा कि मुझे यह सूचना पायलट को देनी चाहिए। ऐसा कहते वक्त उनकी आवाज हमेशा की तरह संयत थी। मैं बहुत डर गया था। प्रोपेलर बंद होने का मतलब था कि जहाज क्रैश हो सकता है। मैं उठा और पायलट को बताने के लिए केबिन की तरफ भागा। जब वापस आया तो देखा मदीबा अखबार पढ़ रहे थे। उन्होंने मुझसे पूछा तो मैंने कहा कि पायलट को मालूम चल गया है और वो आपातकाल लैंडिंग के लिए नजदीक के एयरपोर्ट से संपर्क करने की कोशिश कर रहा है। मदीबा यह सुनकर फिर अखबार पढ़ने लग गए। मौत का डर मेरे चहरे पर साफ पढ़ा जा सकता था। वहीं मदीबा बेखबर होकर, जैसे कुछ हुआ ही न हो, अखबार पढ़े जा रहे थे। जहाज को सकुशल उतार लिया गया था।

सभी लोगों के लिए काम, रोटी, पानी और नमक हो।

उतरने के बाद मैंने हिम्मत करके मदीबा से पूछा, ‘क्या उन्हें डर नहीं लगा था।’ मदीबा का जवाब था, ‘डर! मैं अंदर ही अंदर कांप रहा था, रिचर्ड। पर अगर जाहिर कर देता तो तुम, पायलट और दूसरे सब लोग घबरा जाते।’ रिचर्ड आगे कहते हैं, ‘तब मुझे समझ आया कि साहस क्या होता है।’ अपने डर को चेहरे पर ना आने देना ही साहस है। अगर लोग आपको आदर्श मानते हैं तो आपका आचरण ही देखा जाता है। मदीबा यह बात हमेशा याद रखते थे। बहुत लाजमी है कि मंडेला में यह गुण जन्मजात हो और बहुत संभव है कि यह उन्होंने अपने गुरु महात्मा गांधी से सीखा हो। गांधी में भी गजब का साहस था। याद कीजिए रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ का वह दृश्य, जहां वे दक्षिण अफ्रीका में एक पत्रकार के साथ बात करते हुए चले जा रहे हैं और आगे एक गली के नुक्कड़ पर कुछ श्वेत लड़के उन्हें रोकने के लिए खड़े हैं। गोरा पत्रकार गांधी से रास्ता बदलने का आग्रह करता हैं। गांधी आग्रह ठुकरा देते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। पत्रकार डर जाता है, पर गांधी पूरा आत्मविश्वास और साहस जाहिर करते हुए उन लड़कों की आखों

मैंने यही सीखा कि साहस डर का अभाव नहीं था, बल्कि इस पर विजय थी। बहादुर आदमी वह नहीं है जो डर को महसूस नहीं करता है, बल्कि वह है, जो उस डर को भी जीत ले।

लोगों को उनके मानव अधिकारों से वंचित रखना, उनकी असल मानवता को

चुनौती देना है।


16 - 22 जुलाई 2018

नेल्सन मंडेला जब पांच दिसंबर, 2013 को जब दुनिया का साथ छोड़ कर चले गए, तो उन्हें याद करने वालों ने उनके साथ गांधी की स्मृति और प्रेरणा को भी नमन किया में आंखें डालकर खड़े हो जाते हैं। गांधी की आंखों में हिंसा नहीं है, बस निश्चयात्मक आग्रह है कि भाई जो सच है उसे अपनाओ। यही ‘सत्याग्रह’ है। यही निश्चयात्मक आग्रह मंडेला की जिंदगी में भी रहा, जब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद खत्म करने का बीड़ा उठाया। ‘द स्ट्रगल इज माय लाइफ’ उनके लेखों और भाषणों का संकलन है। यहां इसी शीर्षक से छपे एक लेख में वे कहते हैं, ‘दुनिया की कोई भी ताकत दबे-कुचले हुए लोगों के उस आंदोलन को मिटा नहीं सकती, जिसमें उन्होंने जनता विरोधी सत्ता को उखाड़ फेंकने का संकल्प किया हो।’ इसी लेख में वे आगे कहते हैं कि जब कोई सरकार निहत्थे लोगों के शांतिपूर्ण आंदोलन को दबाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दे तो यह मान लेना चाहिए कि सरकार को उस आंदोलन की ताकत समझ में आ गई है। हालांकि यह भी सच है कि मंडेला ने अपने शांतिपूर्ण आंदोलन के साथ-साथ एक हिंसक क्रांति का भी आह्वान किया था। 1961 में उन्होंने अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस की सशस्त्र शाखा ‘उम्खोंतो वे सिजवे’ का गठन किया था और वे इसके कमांडर इन चीफ थे। मंडेला कुछ हद तक साम्यवाद के दर्शन से भी जुड़े रहे और क्यूबा के आंदोलन ने भी उन्हें प्रभावित किया था, लेकिन उनके लिए सबसे ताकतवर प्रेरणा गांधीवाद से निकला दर्शन ही था। दिल्ली यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ साउथ अफ्रीका के प्रोफेसर केके विरमानी अपनी किताब ‘नेल्सन मंडेला और दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद’ में लिखते हैं, ‘मंडेला ने अफ्रीकी देश अल्जीरिया में जाकर सैन्य प्रशिक्षण लिया था और वे इस पर गर्व भी महसूस करते थे। पर यह भी मानते थे कि अफ्रीकन नेशनल पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा रंगभेदी सरकार के खिलाफ पूरी तरह से हथियार उठाने में कई साल लग जाएंगे।’ 1962 में इसी संघर्ष की वजह से नेल्सन मंडेला को आजीवन कारवास की सजा सुनाई गई थी। वे लगभग 27 साल जेल में रहे और उन्हें फरवरी 1990 में रिहा किया गया। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के आधार पर ट्रेन से बाहर फेंके जाने की घटना गांधी के जीवन में निर्णायक मोड़ मानी जाती है। उनके सत्याग्रह आंदोलन की बुनियाद में इस घटना की भी अहम भूमिका रही होगी। नेल्सन मंडेला ने भी ‘द स्ट्रगल इज माइ लाइफ’ में अपने साथ हुई ऐसी ही दो घटनाओं का जिक्र किया है। जाहिर तौर पर यही

कोई भी देश वास्तव में तब तक विकसित नहीं हो सकता, जब तक उसके सभी नागरिक शिक्षित नहीं हो जाते।

वे घटनाएं होंगी जो उनके लिए रंगभेद के खिलाफ लड़ाई की सबसे मजबूत प्रेरणा बनी। इनमें से पहला किस्सा यूं है कि जब वकालत करने के बाद मंडेला एक कंपनी में बतौर वकील भर्ती हुए तो वहां एक श्वेत टाइपिस्ट ने कहा कि उनकी कंपनी रंगभेद में यकीन नहीं करती और जब कोई बैरा (अश्वेत व्यक्ति) चाय लेकर आता है तो खुद ही जाकर उससे चाय लेनी होती है। इसके बाद टाइपिस्ट का कहना था- हमने दो नए कप मंगवाए हैं, एक तुम्हारे लिए और दूसरा तुम्हारे अफ्रीकी अश्वेत साथी गोर राडिक के लिए। दूसरा किस्सा भी इसी कंपनी के साथ जुड़ा हुआ है। कंपनी की एक श्वेत टाइपिस्ट जब भी खाली होती थी तो जाकर मंडेला से कुछ काम मांग लेती थी। एक बार वे उसे टाइपिंग में कुछ डिक्टेशन दे रहे थे कि एक अंग्रेज क्लाइंट दफ्तर में आया। उस अंग्रेज को देखकर टाइपिस्ट झेंप गई और तुरंत मंडेला से बोली, ‘नेल्सन ये लो पैसे और मेरे लिए दुकान से शैंपू लेकर आ जाओ।’ इन घटनाओं ने मंडेला को अहसास करवा दिया था कि अश्वेत लोगों के प्रति दुराग्रह की जड़ें दक्षिण अफ्रीकी समाज में बहुत गहरी हैं। और शायद इन वाकयों से उन्हें वैसी ही गहरी चोट भी लगी होगी। मंडेला की पहली राजनीतिक पारी सिर्फ 18 वर्ष की है। 1944 में उन्होंने अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस की सदस्यता ली थी। 1952 में वे इसकी ट्रांसवाल शाखा के अध्यक्ष और फिर राष्टीय उपाध्यक्ष चुने गए। 1953 में पहली बार वे जेल गए थे। फिर अपने आंदोलनों की वजह से उन पर देशद्रोह का मुकदमा चला और 1956 में उन्हें पांच साल की सजा सुनाई गई। पांच अगस्त, 1962 को देशव्यापी हड़ताल और राजद्रोह के जुर्म में उन्हें दोबारा गिरफ्तार किया गया और फिर वे 27 साल तक जेल में रहे। जेल के दौरान ही मंडेला विश्वभर में लोकप्रिय हो गए थे और पूरे अफ्रीका महाद्वीप में रंग-भेद के खिलाफ लड़ने वाले सबसे बड़े नेता बन गए थे। विरमानी लिखते हैं कि मंडेला कर्म-प्रधान थे। उनके साहस, धैर्य, जनता से जुड़ाव और त्याग की भावना ने उन्हंन अफ्रीका ही नहीं, बल्कि विश्वभर के अश्वेत और हाशिए पर मौजूद लोगों का नेता बना दिया था। नेल्सन मंडेला जब पांच दिसंबर, 2013 को जब दुनिया का साथ छोड़ कर चले गए, तो उन्हें याद करने वालों ने उनके साथ गांधी की स्मृति और प्रेरणा को भी नमन किया। दिलचस्प है कि 20वीं सदी ने जहां मध्यकालीन युद्धक बर्बरता से लेकर

मेरे देश में लोग पहले जेल जाते हैं और फिर राष्ट्रपति बन जाते हैं।

पैसे से सफलता हासिल नहीं होगी, यह स्वतंत्रता से

हासिल होगी।

व्यक्तित्व मदीबानामा

पूरा नाम : नेल्सन रोलीह्लाला मंडेला

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विचारधारा नेल्सन मंडेला बहुत हद तक महात्मा गांधी की तरह अहिंसक मार्ग के समर्थक थे। उन्होंने गांधी को प्रेरणा स्रोत माना था और उनसे अहिंसा का पाठ सीखा था।

जन्म : 18 जुलाई 1918 निधन : 5 दिसंबर 2013 प्रसिद्धि : दक्षिण अफ्रीका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति। राष्ट्रपति बनने से पूर्व वे दक्षिण अफ्रीका में सदियों से चल रहे रंगभेद का विरोध करने वाले अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और इसके सशस्त्र गुट उमखोंतो वे सिजवे के अध्यक्ष रहे। रंगभेद विरोधी संघर्ष के कारण उन्होंने 27 वर्ष रॉबेन द्वीप के कारागार में बिताए, जहां उन्हें कोयला खनिक का काम करना पड़ा था। 1990 में श्वेत सरकार से हुए एक समझौते के बाद उन्होंने नए दक्षिण अफ्रीका का निर्माण किया। संयुक्त राष्ट्र ने उनके जन्म दिन को नेल्सन मंडेला अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।

प्रमुख पुस्तकें • आई एम प्रिपेअर्ड टू डाय • लांग वाक टू फ्रीडम • मंडेला- द ऑथराइज्ड बॉयोग्राफ्री • डेअर नॉट लिंगर : द प्रेसिडेंशियल इयर्स पुरस्कार एवं सम्मान • गांधी शांति पुरस्कार (2008) • एमनेस्टी इंटरनेशनल्स एंबेसेडर ऑफ कान्शन्स अवार्ड (2006) • फ्रीडम ऑफ द सिटी ऑफ लंदन (1996) • फिलाडेल्फिया लिबर्टी मेडल (1993) • ओलंपिक गोल्ड ऑर्डर (1994) • नोबेल शांति पुरस्कार (1993) (द. अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति फेडरिक डी क्लार्क के साथ संयुक्त रूप से) • भारत रत्न (1990)

दो विश्व युद्ध देखे, वहीं गांधी, मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला जैसे महापुरुष भी देखे, जिनके संघर्ष में धैर्य और प्रतिरोध मानवीयता की सीमा का कहीं भी उल्लंघन नहीं करता है। यह अलग बात है कि 21वीं सदी की दुनिया ने खुद को रफ्तार और तकनीक की स्पर्धा में इस तरह लगा दिया कि उसने इन विभूतियों को स्मरणीय तो बनाए रखा पर इनके अनुकरण की लीक छोटी पड़ती गई। 27 वर्ष का जीवन जेल की सलाखों के पीछे बिताने के बावजूद अपने संघर्ष की अलख को जलाए

एक महान पहाड़ी चढ़ने के बाद, हर कोई केवल यही पाएगा कि चढ़ने के लिए कई और पहाड़ियां हैं।

जीवन में सबसे बड़ा

गौरव कभी नहीं गिरने में निहित नहीं है, बल्कि हर बार गिर कर हमारे उठने में है।

रखना कोई मामूली बात नहीं है। 1990 में जब वे जेल से रिहा हुए तो देखते-देखते दुनिया के हर हिस्से में अन्याय के खिलाफ संघर्ष और क्रांतिकारी-वैचारिक गोलबंदी के जीवंत प्रतीक बन गए। एक ऐसे दौर में जब दुनिया भले कहने को एक छतरी में खड़ी हो पर लैंगिक और नस्ली विभेद से लेकर मानवाधिकार हनन तक के मामले हमारी तमाम तरक्की और उपलब्धि को सामने से मुंह चिढ़ाते हैं, संघर्ष के प्रतीकों और नायकों का बने और टिके रहना बहुत जरूरी है।

साहसी लोग शांति के लिए, क्षमा करने से भी घबराते नहीं हैं।

मैं जातिवाद से बहुत नफरत करता हूं, मुझे यह बर्बरता लगती है। फिर चाहे वह अश्वेत व्यक्ति से आ रही हो या श्वेत व्यक्ति से।


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गुड न्यूज

16 - 22 जुलाई 2018

ट्वीट ने लड़कियों को तस्करी से बचाया!

हाल में घटी एक घटना में ट्रेन यात्री के सिर्फ एक ट्वीट ने 26 नाबालिग लड़कियों को तस्करी से बचाया

प क्या करेंगें अगर आप किसी ट्रेन में यात्रा करते समय कुछ लड़कियों को डरा हुआ व रोता हुआ देखेंगे? क्या आप उनसे मुंह फेर लेंगें या फिर बात की तह तक जाने की कोशिश करेंगें? 5 जुलाई को आदर्श श्रीवास्तव मुजफ्फरपुर-बांद्रा अवध एक्सप्रेस में यात्रा कर रहे थे। अपने कोच में उन्होंने 26 लड़कियों के एक ग्रुप को सहमा हुआ और रोता हुआ देखा। और उन्होंने उन लड़कियों की मदद करने का फैसला किया। यहां एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आदर्श का ट्विटर अकाउंट 5 जुलाई, 2018 को ही बना है। अपने पहले पोस्ट में उन्होंने प्रशासन को उन लड़कियों के बारे में आगाह किया। उन्होंने तुरंत ट्रेन और कोच की सभी जानकारी के साथ ट्वीट किया। खबरों के मुताबिक वाराणसी और लखनऊ के अधिकारीयों ने जैसे ही पोस्ट को देखा तो उन्होंने उस पर गौर किया। लगभग आधे घंटे के भीतर ही उन्होंने इस मामले की छानबीन शुरू कर दी। ये 26 लड़कियां दो आदमियों के साथ थीं। उनमें से एक 22 साल तथा एक 55 साल का था। वे सभी बिहार में पश्चिम चंपारण से हैं। लड़कियों को नरकटियागंज से ईदगाह ले जाया जा रहा था। जब पूछताछ की गई, तो लड़कियां कोई भी जवाब देने में असमर्थ थीं, इसीलिए उन्हें बाल कल्याण समिति को

पीरियड्स को लेकर कर रहीं जागरूक सौंप दिया गया है। सरकारी रेलवे पुलिस (जीआरपी) और रेलवे पुलिस बल (आरपीएफ) द्वारा की गई तीव्र कार्रवाई के चलते 10 से 14 साल की उम्र की उन लड़कियों को समय रहते बचा लिया गया। जून 2018 में रेलवे द्वारा उनके संपर्क में आने वाले ऐसे बच्चे, जो घर से भागे हुए हैं, या फिर तस्करी किये जाने वाले बच्चों की संख्या के बारे में एक अभियान चलाया गया है। यह अभियान रेलवे बोर्ड के चेयरमैन अश्विनी लोहानी ने राष्ट्रीय बाल संरक्षण संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) की अध्यक्ष स्तुति कक्कर के साथ शुरू किया है।

इस अभियान के लॉन्च के वक़्त अश्विनी ने बताया, ‘यह अभियान पूरे रेलवे सिस्टम में बच्चों की सुरक्षा के मुद्दे को हल करने और सभी स्टेकहोल्डर, यात्रियों, विक्रेताओं, बंदरगाहों को संवेदनशील बनाने के लिए शुरू किया गया है। वर्तमान में, रेलवे में बच्चों की देखभाल और संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए रेलवे के लिए मानक ऑपरेटिंग प्रक्रिया (एसओपी) 88 स्टेशनों पर सफलतापूर्वक लागू की गई है। अब हम इसे 174 स्टेशनों पर लागू करना चाहते हैं।’ इस तरह के अभियान वास्तव में संदेश फैलाने और इन बच्चों की मदद करने में कारगर साबित हो रहे हैं। (एजेंसी)

तिरंगा बनाने वाली देश की अकेली कंपनी

पूरी दुनिया में कर्नाटक की इन महिलाओं द्वारा बनाए गए तिरंगों को किया जाता है सलाम

न औरतों ने भले ही अपने गांव से बाहर की दुनिया नहीं देखी, लेकिन इनके द्वारा बनाए गए तिरंगों का पूरी दुनिया में सम्मान होता है। देश की राजधानी से 2,000 किलोमीटर (1,200 मील) दूर इस कंपनी में लगभग 400 कर्मचारी काम करते हैं, जिनमें से औरतों की संख्या पुरुषों की तुलना में बहुत ज्यादा है। कंपनी की सुपरवाइजर अन्नपूर्णा कोटी ने कहा, ‘औरतों के मुकाबले आदमियों में कम धैर्य होता है। बहुत बार जल्दी में वे माप गलत ले लेते हैं। ऐसा होने पर फिर से सिलाई उधेड़ कर दोबारा सारी प्रक्रिया करनी पड़ती है। 4 दिन के बाद वे काम छोड़कर चले जाते हैं और वापिस नहीं आते।’ यहां औरतें ही सब कुछ करती हैं। कपास की कताई से लकेर सिलाई तक। पिछले साल, उन्होंने लगभग 60,000 तिरंगे बनाए थे। दुनिया भर में भारतीय दूतावासों के साथ-साथ स्कूलों, गांवों के हॉलों और आधिकारिक कारों पर, आधिकारिक कार्यक्रमों और सरकारी भवनों पर उनके द्वारा बनाये तिरंगे लगाए जाते हैं। तिरंगे के रंगों से लेकर सिलाई के माप तक

सब कुछ भारतीय ध्वज संहिता और भारतीय मानक ब्यूरो से दिशानिर्देश के अनुसार किया जाता है। 15 साल से प्रिंटिंग विभाग में काम कर रहीं निर्मला एस. इलाकाल ने बताया कि यदि जरा सी भी गलती हो तो भी पीस वापिस आ जाता है। ये सभी महिला कर्मचारी काम के साथ-साथ

अपना घर भी देखती हैं। शायद ही ये कभी अपने जिले से बाहर गयी हों। इस पर सुपरवाइजर कोटी ने कहा कि हम अलग-अलग जगह नहीं जा पाते। लेकिन जो तिरंगा हम बनाते हैं वह पूरी दुनिया में जाते हैं और गर्व महसूस होता है जब लोग उन्हें सलाम करते हैं। (एजेंसी)

गाजियाबाद की तीन सहेलियां आसपास के सरकारी स्कूलों और स्लम एरिया में शॉर्ट फिल्म दिखाकर बच्चियों को जागरूक कर रही हैं

रम में रहने वाली तीन सहेलियां स्कूल इंदिरापु में पढ़ने वाली लड़कियों को पीरियड्स और

इससे जुड़ी चीजों को लेकर जागरूक कर रही हैं। गाजियाबाद के अलग-अलग कॉलेजों में पढ़ने वाली इन युवतियों का कहना है कि अक्सर लड़कियां पीरियड्स के दौरान लापरवाही बरतती हैं। शर्म और झिझक की वजह से ये अपनी देखभाल नहीं कर पाती हैं। कई बार हाइजीन का ध्यान रखने पर परेशानी खड़ी हो जाती है। यही कारण है कि वे आसपास के सरकारी स्कूलों और स्लम एरिया में शॉर्ट फिल्म दिखाकर बच्चियों को जागरूक कर रही हैं, जिससे वे अपना ध्यान रख सकें। प्रज्ञा, प्रियंका और विदुषी तीनों गाजियाबाद के कॉलेजों में पढ़ती हैं। प्रियंका ने बताया कि उन्होंने पाया कि आसपास के स्लम इलाकों में लड़कियां पीरियड्स को लेकर काफी लापरवाह हैं। एक दिन ईवनिंग वॉक के दौरान तीनों ने तय किया कि वह स्कूलों, स्लम इलाकों में जाकर इस बारे में जागरूक करेंगी। अक्सर पीरियड्स के दौरान ज्यादातर लड़कियां और महिलाएं लापरवाही बरतती हैं और बीमारियों की चपेट में आ जाती हैं। हाइजीन का ख्याल नहीं रखने की वजह से ऐसा होता है। इसके अलावा मासिक धर्म को लेकर कई महिलाओं व लड़कियों में कई तरह की भ्रांतियां भी हैं। इन्हें भी दूर करना उनका मकसद है। यही कारण है कि तीनों सहेलियां शनिवार को स्कूल और स्लम इलाकों में जाकर शॉर्ट फिल्म दिखाकर बच्चियों और महिलाओं को जागरूक कर रही हैं। प्रज्ञा ने बताया कि उनका फोकस पहले इंदिरापुरम के सरकारी स्कूलों पर है। वहीं, सितंबर से तीनों सहेलियां स्लम इलाकों में जाएंगी। उन्होंने अपने साथ सोसायटी की 4 अन्य युवतियों को भी अपने साथ जोड़ा है। प्रियंका के अनुसार जुलाई के पहले सप्ताह में सबसे पहले मकनपुर के नगर निगम स्कूल से उन्होंने शुरुआत की। उन्होंने यहां 94 लड़कियों को पीरियड्स के बारे में जानकारी दी। साथ ही इस दौरान बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में भी बताया। (एजेंसी)


16 - 22 जुलाई 2018

एक इंजेक्शन से ठीक होगा मोटापा और डायबिटीज

यूनीवर्सिटी ऑफ बार्सिलोना में हुए एक शोध में यह दावा किया गया है कि डायबिटीज और मोटापे की समस्या का एक इंजेक्शन से इलाज संभव है

डा

यबिटीज और मोटापा एक दूसरे से काफी हद तक जुड़े हुए हैं। मोटापे को कई समस्याओं की जड़ माना जाता है। इसे ध्यान में रखते हुए विशेषज्ञों ने एक ऐसा इंजेक्शन बनाने का दावा किया है, जिससे मोटापे और डायबिटीज दोनों का इलाज किया जा सकता है। यह अध्ययन चूहों पर किया गया है, जिसके सकारात्मक नतीजे मिले हैं। यह शोध यूनीवर्सिटी ऑफ बार्सिलोना में किया गया है। विशेषज्ञों का दावा है कि इस इंजेक्शन के कोई साइड इफेक्ट नहीं हैं। शोधकर्ताओं ने इस शोध के लिए स्वस्थ वजन वाले चूहों को प्रयोग के तौर पर एफजीएफ21 के इंजेक्शन दिए गए। यह अध्ययन ईएमबीओ मॉलीक्यूलर मेडिसिन पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। चूहों पर हुए शोध में विशेषज्ञों ने देखा कि हॉर्मोन एफजीएफ21 को इंजेक्शन के जरिए चूहों के शरीर में पहुंचाने पर उनका वजन कम हुआ और इनसुलिन के प्रति संवेदनशीलता एक साल के लिए बढ़ गई। समझा जाता है कि इस हॉर्मोन से चूहों में ऊर्जा का स्तर काफी बढ़ गया था, जिससे उनकी सक्रियता अधिक हो गई।इसके अलावा उनके शरीर का तापमान भी बढ़ा और कैलोरी की काफी खपत हुई। प्रयोग के दौरान विशेषज्ञों ने देखा कि इस

क्या

इंजेक्शन का चूहों पर कोई साइड इफेक्ट नहीं हुआ। इनसुलिन के प्रति अवरोध इस हॉर्मोन के प्रति उन कोशिकाओं की असमर्थता है, जो खून से ग्लूकोज को दूर करने का काम करती हैं। यह अवस्था टाइप 2 डायबिटीज के लिए जिम्मेदार होती है। एफजीएफ21 की मदद से चूहों में सक्रियता का स्तर बढ़ाकर वजन घटाने में मदद मिली। मोटापा टाइप 2 डायबिटीज का सबसे बड़ा कारण है। एक अनुमान के मुताबिक ब्रिटेन में 35 लाख लोग, अमेरिका में तीन करोड़ और भारत में 7 करोड़ लोग डायबिटीज के शिकार हैं। इनमें से तकरीबन 95 फीसदी टाइप 2 डायबिटीज से पीडि़त हैं। (एजेंसी)

स्वास्थ्य

वायु प्रदूषण से लाखों लोगों को होता है मधुमेह

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वैज्ञानिकों का कहना है वायु प्रदूषण की वजह से हर साल दुनिया के करीब दुनियाभर में 32 लाख लोगों को मधुमेह की समस्या होती

यु प्रदूषण एक खतरनाक समस्या है, जो कि प्रतिदिन लोगों को अस्वस्थ बना रही है। इसकी वजह से कई त्वचा, श्वास और हृदय संबंधी बीमारियां होती हैं। लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि वायु प्रदूषण की वजह से लोगों को मधुमेह की समस्या होती है। एक अनुमान के मुताबिक साल 2016 में वायु प्रदूषण की वजह से दुनियाभर में 32 लाख लोगों को मधुमेह की बीमारी हुई और यह स्थिति हर साल बरकरार है। शोधकर्ताओं ने अमेरिका के 17 लाख बुजुर्गों को एक दशक तक निगरानी में रखा। जिसमें उनमें मधुमेह की समस्या की संभावना के आंकड़े दर्ज किए गए। साथ ही इन शोधकर्ताओं ने अमेरिका पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी और नासा से वायु प्रदूषण के आंकड़े जुटाए, ताकि मधुमेह और वायु प्रदूषण के बीच का संबंध देखा जा सके। इसमें पाया गया कि दुनियाभर में मधुमेह के मरीजों में 14 प्रतिशत नए मरीजों में यह समस्या वायु प्रदूषण के कारण है। यह

शोध जुलाई में लेंसेट प्लेनेटरी हेल्थ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आजकल दुनियाभर में 422 मिलियन लोग टाइप-2 डायबिटीज से पीड़ित हैं। इस रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि भारत, पाकिस्तान और चीन जैसे अति प्रदूषित देशों में वायु प्रदूषण की वजह से मधुमेह होने के मामले ज्यादा हैं। जबकि कम प्रदूषित देशों में यह खतरा कम है। (एजेंसी)

कैंसर से बचाएगी अनार के छिलकों की चाय

कोई शोधों में यह तथ्य सामने आया है कि के छिलके की चाय पीने से कैंसर ही नहीं कई दूसरी बीमारियों से बचाव होता है

आपने कभी अनार के छिलके की चाय के बारे में सुना है? जी हां, अनार के छिलके की चाय भी बनती है और इसके फायदे हैरान कर देने वाले हैं। अनार के छिलकों से बनी चाय में मौजूद कई महत्वपूर्ण एंटी ऑक्सिडेंट्स के कारण ये दिल की बीमारियों, कई तरह के कैंसर से बचाती है और त्वचा पर उम्र के प्रभाव को कम करती है। अनार के छिलकों की चाय बनाने के लिए सबसे पहले किसी बर्तन में एक कप पानी गर्म करें। अब इस पानी में एक चम्मच अनार के छिलकों का पाउडर मिलाएं। थोड़ी देर पाउडर को पानी में भीगने दें। अब इसे एक कप में छान लें। स्वाद बढ़ाने के लिए इसमें थोड़ा सा नींबू का रस और ऑर्गेनिक शहद मिलाएं। होती है और कई तरह के गंभीर रोगों से शरीर को अनार के छिलकों में मौजूद कई एंटी बचाती है। खाने के बाद इस चाय को पीने से ऑक्सिडेंट्स के कारण ये चाय बहुत फायदेमंद आपका पाचन ठीक रहता है। अगर आपके गले

में खराश है या आप टॉन्सिल दर्द से परेशान है तो इस चाय का सेवन करें। इससे आपको इस समस्या से तुरंत राहत मिल जाएगी। फ्लेवेनॉइड्स,

फेनॉलिक्स जैसे एंटी ऑक्सिडेंट्स के कारण इस चाय को पीने से दिल की बीमारियों की आशंका भी कम होती है। इस चाय को पीने से आपका ब्लड प्रेशर कंट्रोल में रहता है और शरीर में बैड कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम होता है। चाय में मौजूद इन एंटी ऑक्सीडेंट्स की वजह से इसे पीने से आप पर उम्र का प्रभाव कम होता है और आप अपनी उम्र से ज्यादा जवान लगते हैं। दरअसल ये एंटी ऑक्सिडेंट्स फ्री रेडिकल्स को न्यूट्रिलाइज करते हैं, जिससे झुर्रियां और काले घेरे नहीं होते हैं। इस चाय को पीने से जोड़ों के दर्द और हड्डी की कमजोरी में भी फायदा मिलता है। कई तरह के शोधों में ये बात सामने आई है कि अनार के छिलकों में ऐसे कई तत्व मौजूद होते हैं जो शरीर में कैंसर की आशंका को कम करते हैं। इसका सबसे ज्यादा फायदा स्किन कैंसर में देखा गया है। (एजेंसी)


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पुस्तक अंश

16 - 22 जुलाई 2018

बचपन का मोहन

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महात्मा गांधी ने अपने जीवन के साधारण अनुभवों को भी असाधारण बना दिया। खासकर उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में पढ़कर लगता है कि जीवन के साधारण प्रवाह और प्रभाव के बीच से भी निकलकर कोई व्यक्ति महात्मा जैसी ऊंचाई को प्राप्त कर सकता है

प्रथम भाग 1. जन्म

जान पड़ता है कि गांधी-कुटुंब पहले तो पंसारी का धंधा करनेवाला था। लेकिन मेरे दादा से लेकर पिछली तीन पीढ़ियों से वह दीवानगीरी करता रहा है। ऐसा मालूम होता है कि उत्तमचंद गांधी अथवा ओता गांधी टेकवाले थे। राजनीतिक खटपट के कारण उन्हें पोरबंदर छोड़ना पड़ा और उन्होंने जूनागढ़ राज्य में आश्रय लिया था। उन्होंने नवाब साहब को बाएं हाथ से सलाम किया। किसी ने इस प्रकट अविनय का कारण पूछा, तो जवाब मिला : ‘दाहिना हाथ तो पोरबंदर को अर्पित हो चुका है।‘ ओता गांधी के एक के बाद दूसरा यानी दो विवाह हुए थे। पहले विवाह से उनके चार लड़के थे और दूसरे से दो। अपने बचपन को याद करता हूं तो मुझे खयाल नहीं आता कि ये भाई सौतेले थे। इनमें पांचवे करमचंद अथवा कबा गांधी और आखिरी तुलसीदास गांधी थे। दोनों भाइयों ने बारी-बारी से

पोरबंदर में दीवान का काम किया। कबा गांधी मेरे पिताजी थे। पोरबंदर की दीवानगीरी छोड़ने के बाद वे राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य थे। बाद में राजकोट में और कुछ समय के लिए वांकानेर में दीवान थे। मृत्यु के समय वे राजकोट दरबार के पेंशनर थे। कबा गांधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो कन्याएं थीं; अंतिम पत्नी पुतलीबाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे। उनमें से अंतिम मैं हूं। पिता कुटुंब-प्रेमी, सत्यप्रिय, शूर, उदार किंतु क्रोधी थे। थोड़े विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका

आखिरी ब्याह चालीसवें साल के बाद हुआ था। हमारे परिवार में और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी से दूर भागते हैं और इसीलिए शुद्ध न्याय करते हैं। राज्य के प्रति वे वफादार थे। एक बार प्रांत के किसी साहब ने राजकोट के ठाकुर साहब का अपमान किया था। पिताजी ने उसका विरोध किया। साहब नाराज हुए, कबा गांधी से माफी मांगने के लिए कहा। उन्होंने माफी मांगने से इनकार किया। फलस्वरूप कुछ घंटों के लिए उन्हें हवालात में भी रहना पड़ा। इस पर भी जब वे न डिगे तो अंत में साहब ने उन्हें छोड़ देने का हुक्म दिया। पिताजी ने धन बटोरने का लोभ कभी नहीं किया। इस कारण हम भाइयों के लिए बहुत थोड़ी संपत्ति छोड़ गए थे। पिताजी की शिक्षा केवल अनुभव की थी। आजकल जिसे हम गुजराती की पांचवीं किताब का ज्ञान कहते हैं, उतनी शिक्षा उन्हें मिली होगी। इतिहास-भूगोल का ज्ञान तो बिलकुल ही न था। फिर भी उनका व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊंचे दरजे का था कि बारीक से बारीक सवालों को सुलझाने में अथवा हजार आदमियों से काम लेने में भी उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी। धार्मिक शिक्षा नहीं के बराबर थी, पर मंदिरों में जाने से और कथा वगैरह सुनने से जो धर्मज्ञान असंख्य हिंदुओं को सहज भाव से मिलता है वह उनमें था। आखिर के साल में एक विद्वान ब्राह्मण की सलाह से, जो परिवार के मित्र थे, उन्होंने गीता-पाठ शुरू किया था और रोज पूजा के समय वे थोड़े बहुत ऊंचे स्वर से पाठ किया करते थे। मेरे मन पर यह छाप रही है कि माता साध्वी स्त्री थीं। वह बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करतीं। हमेशा हवेली (वैष्णव-मंदिर) जातीं। जब से मैंने होश संभाला तब से मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो। वे कठिन से कठिन व्रत शुरू करतीं और उन्हें निर्विघ्न पूरा करतीं। लिए हुए व्रतों को बीमार होने पर भी कभी न छोड़तीं। ऐसे एक समय की मुझे याद है कि जब उन्होंने चांद्रायण का व्रत लिया था। व्रत के दिनों में वे बीमार पड़ीं, पर व्रत नहीं छोड़ा। चातुर्मास में एक बार खाना तो उनके लिए सामान्य बात थी। इतने से संतोष न करके एक चौमासे में उन्होंने तीसरे दिन भोजन करने का व्रत लिया था। लगातार दो-तीन उपवास तो उनके लिए मामूली बात थी।

मेरे मन पर यह छाप रही है कि माता साध्वी स्त्री थीं। व​ह बहुत श्रद्धालु थीं। बिना पूजा-पाठ के कभी भोजन न करतीं। हमेशा हवेली (वैष्णव-मंदिर) जातीं। जब से मैंने होश संभाला तब से मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास का व्रत तोड़ा हो। वे कठिन से कठिन व्रत शुरू करतीं और उन्हें निर्विघ्न पूरा करतीं


16 - 22 जुलाई 2018

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पुस्तक अंश

मेरा आदर बना ही रहा। मैं यह जानता था कि बड़ों की आज्ञा का पालन करना चाहिए। वे जो कहें सो करना; करें उसके काजी न बनना। इसी समय के दो और प्रसंग मुझे हमेशा याद रहे हैं। साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों को छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था। सबक याद करना चाहिए, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसीलिए मैं पाठ याद करता था। लेकिन मन अलसा जाता, इससे अक्सर सबक कच्चा रह जाता। ऐसी हालत में दूसरी कोई चीज पढ़ने की इच्छा क्यों कर होती? किंतु पिताजी की खरीदी हुई एक पुस्तक पर मेरी दृष्टि पड़ी। नाम था ‘श्रवण-पितृभक्ति नाटक’। मेरी इच्छा उसे पढ़ने की हुई और मैं उसे बड़े चाव के साथ पढ़ गया। उन्हीं दिनों शीशे में चित्र दिखानेवाले भी घर-घर आते थे। उनके पास मैंने श्रवण का वह दृश्य भी देखा, जिसमें वह अपने माता-पिता को कांवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाता है। दोनों चीजों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। मन में इच्छा होती कि मुझे भी श्रवण के समान बनना चाहिए। श्रवण की मृत्यु पर उसके माता-पिता का विलाप मुझे आज भी याद है। उस ललित छंद को मैंने बाजे पर बजाना भी सीख

एक चातुर्मास में उन्होंने यह व्रत लिया था कि सूर्यनारायण के दर्शन करके ही भोजन करेंगी। उस चौमासे में हम बालक बादलों के सामने देखा करते कि कब सूरज के दर्शन हों और कब मां भोजन करें। यह तो सब जानते है कि चौमासे में अक्सर सूर्य के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। मुझे ऐसे दिन याद हैं कि जब हम सूरज को देखते और कहते, ‘मां-मां, सूरज दिखा’ और मां उतावली होकर आतीं इतने में सूरज छिप जाता और मां यह कहती हुई लौट जातीं कि ‘कोई बात नहीं, आज भाग्य में भोजन नहीं है’ और अपने काम में डूब जातीं। माता व्यवहार-कुशल थीं। राज-दरबार की सब बातें वह जानती थी। रनिवास में उनकी बुद्धि की अच्छी कदर होती थी। मैं बालक था। कभीकभी माताजी मुझे भी अपने साथ दरबार गढ़ ले जाती थीं। 'बा-मांसाहब' के साथ होनेवाली बातों में से कुछ मुझे अभी तक याद हैं। इन माता-पिता के घर में संवत 1925 की भादो बदी बारस के दिन, अर्थात 2 अक्तूवर, 1869 को पोरबंदर अथवा सुदामापुरी में मेरा जन्म हुआ। बचपन मेरा पोरबंदर में ही बीता। याद पड़ता है कि मुझे किसी पाठशाला में भर्ती किया गया था। मुश्किल से थोड़े पहाड़े मैं सीखा था। मुझे सिर्फ इतना याद है कि मैं उस समय दूसरे लड़कों के साथ अपने शिक्षकों को गाली देना सीखा था। और कुछ याद नहीं पड़ता। इससे मैं अंदाज लगाता हूं कि मेरी स्मरण शक्ति उन पंक्तियों के कच्चे

पापड़-जैसी होगी, जिन्हें हम बालक गाया करते थे। वे पंक्तियां मुझे यहां देनी ही चाहिए : एकड़े एक, पापड़ शेक पापड़ कच्चो मारो पहली खाली जगह में मास्टर का नाम होता था। उसे मैं अमर नहीं करना चाहता। दूसरी खाली जगह में छोड़ी हुई गाली रहती थी, जिसे भरने की आवश्यकता नहीं।

2. बचपन पोरबंदर से पिताजी राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य बनकर राजकोट गए। उस समय मेरी उमर सात साल की होगी। मुझे राजकोट की ग्रामशाला में भरती किया गया। इस शाला के दिन मुझे अच्छी तरह याद हैं। शिक्षकों के नाम-धाम भी याद हैं। पोरबंदर की तरह यहां की पढ़ाई के बारे में भी ज्ञान के लायक कोई खास बात नहीं हैं। मैं मुश्किल से साधारण श्रेणी का विद्यार्थी रहा होऊंगा। ग्रामशाला से उपनगर की शाला में और वहां से हाईस्कूल में। यहां तक पहुंचने में मेरा बारहवां वर्ष बीत गया। मुझे याद नहीं पड़ता कि इस बीच मैंने किसी भी समय शिक्षकों को धोखा दिया हो। न तब तक किसी को मित्र बनाने का स्मरण हैं। मैं बहुत ही शरमीला लड़का था। घंटी बजने के समय पहुंचता और पाठशाला के बंद होते ही घर भागता। 'भागना' शब्द मैं जान-बूझकर लिख रहा हूं, क्योंकि बातें करना मुझे अच्छा न लगता था। साथ ही यह डर भी रहता था कि कोई मेरा मजाक उड़ाएगा तो?

साधारणतः पाठशाला की पुस्तकों को छोड़कर और कुछ पढ़ने का मुझे शौक नहीं था। सबक याद करना चाहिए, उलाहना सहा नहीं जाता, शिक्षक को धोखा देना ठीक नहीं, इसीलिए मैं पाठ याद करता था हाई स्कूल के पहले ही वर्ष की परीक्षा के समय की एक घटना उल्लेखनीय है। शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर जाइल्स विद्यालय का निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने पहली कक्षा के विद्यार्थियों को अंग्रेजी के पांच शब्द लिखाए। उनमें एक शब्द 'केटल' (kettle) था। मैंने उसके हिज्जे गलत लिखे थे। शिक्षक ने अपने बूट की नोक मारकर मुझे सावधान किया। लेकिन मैं क्यों सावधान होने लगा? मुझे यह खयाल ही नहीं हो सका कि शिक्षक मुझे पासवाले लड़के की पट्टी देखकर हिज्जे सुधार लेने को कहते हैं। मैंने यह माना था कि शिक्षक तो यह देख रहे हैं कि हम एक-दूसरे की पट्टी में देखकर चोरी न करें। सब लड़कों के पांचों शब्द सही निकले और अकेला मैं बेवकूफ ठहरा। शिक्षक ने मुझे मेरी बेवकूफी बाद में समझाई लेकिन मेरे मन पर कोई असर न हुआ। मैं दूसरे लड़कों की पट्टी में देखकर चोरी करना कभी न सीख सका। इतने पर भी शिक्षक के प्रति मेरा विनय कभी कम न हुआ। बड़ों के दोष न देखने का गुण मुझमें स्वभाव से ही था। बाद में इन शिक्षक के दूसरे दोष भी मुझे मालूम हुए थे। फिर भी उनके प्रति

लिया था। मुझे बाजा सीखने का शौक था और पिताजी ने एक बाजा दिला भी दिया था। इन्हीं दिनों कोई नाटक कंपनी आई थी और उसका नाटक देखने की इजाजत मुझे मिली थी। हरिश्चंद्र का आख्यान था। उस बार-बार देखने की इच्छा होती थी। उस नाटक को देखते हुए मैं थकता ही न था। उसे बार-बार देखने की इच्छा होती थी। लेकिन यों बार-बार जाने कौन देता? पर अपने मन में मैंने उस नाटक को सैकड़ों बार खेला होगा। मुझे हरिश्चंद्र के सपने आते। हरिश्चंद्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते? यह धुन बनी रहती। हरिश्चंद्र पर जैसी विपत्तियां पड़ीं वैसी विपत्तियों को भोगना और सत्य का पालन करना ही वास्तविक सत्य है। मैंने यह मान लिया था कि नाटक में जैसी लिखी हैं, वैसी विपत्तियां हरिश्चंद्र पर पड़ी होगी। हरिश्चंद्र के दुख देखकर उसका स्मरण करके मैं खूब रोया हूं। आज मेरी बुद्धि समझती है कि हरिश्चंद्र कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं था। फिर भी मेरे विचार में हरिश्चंद्र और श्रवण आज भी जीवित हैं। मैं मानता हूं कि आज भी उन नाटकों को पढ़ूं तो आज भी मेरी आंखों से आंसू बह निकलेंगे। (शेष अगले अंक में)


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गुड न्यूज

16 - 22 जुलाई 2018

दोपहर में सोइए ठीक रहेगी दिल की सेहत दोपहर में सोने और न सोने को लेकर बहस न जाने कब से की जा रही है। लेकिन एक रिसर्च से पता चला है कि दिन में सोना दिल के लिए फायदेमंद है

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गों में अक्सर इस बात को लेकर संशय होता है कि दोपहर में सोना अच्छा होता है या बुरा। कई लोगों को दोपहर में सोने का आदत होती है, वहीं कई लोग इससे परहेज करते हैं। कई लोग सोना चाहते भी हैं तो उनके काम का रूटीन उन्हें सोने नहीं देता और दोपहर के खाने के बाद आलस आने लगती है। दोपहर में सोने वालों के लिए अब खुशखबरी है। दोपहर में सोना अच्छा होता है, इस बात को विज्ञान का समर्थन मिल गया है।

यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिलवेनिया में साइकलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर फिलिप ने कहा है कि दोपहर की नींद न सिर्फ आपके आलस को दूर करती है, बल्कि आपके ओवरऑल परफॉर्मेंस को भी बेहतर करती है। दोपहर में नींद लेने से इम्यूनिटी भी बढ़ती है और इससे दिल की बीमारी का खतरा कम होता है। 15 से 30 मिनट की झपकी आलस को दूर करने में कारगर है लेकिन अगर आप मानसिक रूप से भी थके हुए हैं तो आपको 90 मिनट की नींद लेनी चाहिए। इतनी देर में आप गहरी नींद की अवस्था में जाकर जग सकते हैं, लेकिन अगर आप इस अवस्था के बीच में ही उठ जाते हैं तो हो सकता है कि आप और भी ज्यादा थकान महसूस करें। रिसर्चर्स का कहना है कि वर्कआउट के तुरंत बाद

सोने का आइडिया अच्छा नहीं है। वर्कआउट करने के बाद दिमाग तेज काम करने लगता है, ऐसे में नींद आने में परेशानी होगी। वर्कआउट के कम से कम 2 घंटे के बाद ही आपको सोने जाना चाहिए। ध्यान रहे कि अगर आपको दोपहर में सोने की जरूरत महसूस नहीं होती है तो न सोएं। हर किसी को इसका फायदा नहीं होता है। कुछ लोगों का शरीर दिन-रात के साइकल को फॉलो करता है और उन्हें दोपहर में नींद कम आती है। (एजेंसी)

ताकि स्कूल हों रोशन

औरंगाबाद के मॉडल स्कूलों में बिजली मिले इसके लिए बिजली विभाग के कर्मचारियों ने अपने एक दिन का वेतन दान में दिया

रंगाबाद के इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रिब्यूशन कॉर्पोरेशन लिमिडेट (एमएसईडीसीएल) के कर्मचारियों ने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। यहां के कर्मचारियों ने जिले के 35 मॉडल स्कूल में बिजली मुहैया कराने के लिए अपने एक दिन का वेतन दान में दिया है। इन स्कूलों की बिजली बिल जमा नहीं किए जाने के कारण काट दी गई थी। जिले के ये 35 मॉडल स्कूल आईओएस सर्टिफाइड तो थे, लेकिन यहां पिछले छह महीनों से बिजली नहीं थी। स्कूलों के दो साल का बिजली का बिल बकाया होने के कारण इन स्कूलों में बिजली काट दी गई थी। एमएसईडीसीएल औरंगाबाद के जॉइंट

मैनेजिंग डायरेक्टर ओमप्रकाश बकोरिया ने बताया कि उनके कर्मचारियों ने नेक काम के लिए अपने एक दिन का वेतन दान दिया है। जो वेतन उन लोगों ने दान दिया है उससे स्कूलों का बकाया बिजली का बिल भर दिया गया है। चूंकि ये स्कूल डिजिटल हैं, इसीलिए यहां बिजली की बहुत जरूरत थी। एक अधिकारी ने बताया कि जिले में 2,000 स्कूल हैं जो जिला परिषद द्वारा संचालित होते हैं। इनमें से 150 स्कूल मॉडल हैं। इन मॉडल स्कूलों का

3.22 लाख का बकाया भुगतान कर दिया गया है और अब स्कूलों में वापस बिजली जोड़ने का काम शुरू हो गया है। औरंगाबाद के जिला परिषद सीईओ पवनीत कौर ने कहा कि एमएसडीसीएल विभाग के कर्मचारियों ने बहुत ही

अच्छा काम किया है। वहीं शिक्षा विभाग में तैनात अधिकारी ने कहा कि बीते दो वर्षों में कोई भी प्रतिनिधि सामने नहीं आया और न ही किसी संस्था ने स्कूलों में बिजली व्यवस्था बहाल करवाने के बारे में सोचा। स्कूलों के बिजली का बिल भुगतान करने की हमेशा समस्या आती है। ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में बिजली न होना कभी खबर भी नहीं बनती है। (एजेंसी)

मिला दुनिया का सबसे पुराना रंग

ताओदेनी बेसिन के समुद्री काले पत्थर से निकला करीब 1.1 अरब साल पुराना चटख गुलाबी रंग

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ज्ञानिकों ने भूगर्भीय रेकॉर्ड में ज्ञात दुनिया के सबसे पुराने रंगों की खोज की है। करीब 1.1 अरब साल पुराना गुलाबी रंग अफ्रीका के सहारा रेगिस्तान में काफी गहराई में मिली चट्टानों से निकाला गया है। ऑस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी

(एएनयू) की नूर गुएनेली ने बताया कि यह रंग पश्चिम अफ्रीका के मॉरिटानिया में ताओदेनी बेसिन के समुद्री काले पत्थर से लिया गया जो इससे पहले खोजे गए रंग वर्णों से करीब आधा अरब साल पुराना है। नूर ने बताया, ‘ये चटख गुलाबी रंगवर्ण क्लोरोफिल के मॉलेक्यूलर जीवाश्म हैं, जिसका उत्पादन समु्द्र में रहने वाले प्राचीन प्रकाशसंश्लेषक जीवों ने किया और इन जीवों का अस्तित्व नहीं रहने के बावजूद लंबे समय से यह वहीं मौजूद था।’

‘पीएनएएस’ मैगजीन में छपे अध्ययन के मुताबिक, जीवाश्मों से मिले रंगों में गहरे लाल रंग से लेकर बैंगनी रंग गाढ़े रूप में मौजूद थे, लेकिन जब उन्हें तरल पदार्थ मिलाकर पतला किया गया तब इनमें से चटख गुलाबी रंग मिला। नूर ने बताया, ‘प्राचीन रंगवर्णों के विश्लेषण से इस बात की पुष्टि हुई कि करीब एक अरब साल पहले छोटे इनोबैक्टीरिया समुद्र में खाद्य श्रृंखला का आधार थे। इससे यह जानने में मदद मिली कि उस समय पशु

अस्तित्व में क्यों नहीं थे।’ एएनयू में सहायक प्रोफेसर एवं वरिष्ठ मुख्य अनुसंधानकर्ता जोचेन ब्रॉक्स ने बताया कि बड़े, सक्रिय जीव जैसे कि शैवाल के उद्भव को संभवत: वृहद खाद्य कणों की सीमित आपूर्ति से अवरूद्ध किया गया। ब्रॉक्स ने बताया , ‘शैवाल को अब भी माइक्रोस्कोप से देखा जा सकता है हालांकि वे इनोबैक्टीरिया से हजार गुणा बड़े और कहीं अधिक प्रचुर खाद्य स्रोत हैं।' (एजेंसी)


16 - 22 जुलाई 2018

मेनुका

हर खालीपन को भर देता है वृंदावन जीवन में उसे सब कुछ मिला, लेकिन अचानक पति के न रहने पर, जो खालीपन उसकी जिंदगी में आया उसको भरने का कोई रास्ता न था

अयोध्या प्रसाद सिंह

क विधवा जीवन की शून्यता, ऐसा खालीपन है जिसे भरा जाना नामामुकिन सा लगता है। और जब इस शून्यता में, समाज की बंदिशें जुड़ जाती हैं, तो उसकी वेदना असहनीय हो जाती है। कुछ ऐसी ही कहानी है, पश्चिमी बंगाल के सिलीगुड़ी की रहने वाली मेनुका पाल की। 10 साल की उम्र में मेनुका की शादी 18 साल के आदमी से कर दी गई थी। उस वक्त शादियां कम उम्र में ही हो जाया करती थीं, शायद यही समाज का रिवाज था। इस रिवाज को मेनुका ने भी निभाया और उस उम्र में, जब उसे शादी के मायने भी नहीं पता थे, वह अपने पति के साथ रहने उसके घर चली गई। किसी नए सामान्य जोड़े की तरह, उन दोनों ने भी जिंदगी के ढेरों सपने सजाए और अपनी खूबसूरत कहानी लिखने की कोशिशें शुरू की। उसके पति की आमदनी बहुत ज्यादा तो नहीं थी, लेकिन जीवन आसानी से आगे बढ़ सके और वो दोनों खुशहाल पल बिता सके, इतनी जरूर थी। जिंदगी की इसी भागदौड़ और संघर्षों के बीच उसने 3 लड़कियों को जन्म दिया। मेनुका कहती हैं, ‘मेरी शादी बहुत कम उम्र में हो गई थी, लेकिन मेरे पति ने कभी मुझे ये अहसास नहीं होने दिया कि अपना घर छोड़कर आई हूं। हम दोंनों अपनी छोटी सी जिंदगी में बहुत खुश थे। मैंने 3 बेटियों को जन्म दिया, मेरे पति 2 लड़कियों के बाद एक बेटा चाहते थे। लेकिन लड़की होने पर भी, उसे कोई परेशानी नहीं थी और वो खुश थे। हमने अपने बच्चों को बहुत प्यार से बड़ा किया।’ जब लड़कियां बड़ी हो गईं, तो मेनुका और उनके पति ने अपनी क्षमता के अनुसार खूब धूमधाम से तीनों लड़कियों की शादी की। शादी के बाद जब लड़कियां अपने घर चली गईं तो दोनों पति-पत्नी ही एक-दूसरे का सहारा बने। मेनुका को बच्चों के बिना घर में अकेलापन लगने लगा,

लेकिन उसके पति ने उसे संभाला और दोनों इस मुश्किल वक्त में एक-दूसरे का हाथ मजबूती से थामे रहे। मेनुका भावुक होकर कहती हैं, ‘हमारे समाज में तो बेटियों को पराया ही समझा जाता है। उनका अपना घर तो उनके पति का घर होता है। हमने अपने बच्चों को बहुत प्यार से पाला था, जब वो घर से चले गए, तो बहुत अकेलापन लगता था। बच्चों के बिना, मेरे पति भी बहुत परेशान रहने लगे थे। लेकिन हम दोनों ने एक-दूसरे को संभाला और सच्चे साथी की तरह सहारा बने रहे।’ लेकिन शायद जिंदगी को कुछ और मंजूर था, उसे अभी सबसे बड़ा इम्तिहान लेना था। लगभग 20 साल पहले मेनुका जब 55 साल की थी, उनके पति गुजर गए और उनकी जिंदगी में छोड़ गए वैधव्य का वो खालीपन, जिसे शायद किसी भी भावनात्मक रिश्ते से नहीं भरा जा सकता था। मेनुका ने कई बार सोचा कि वो अब अपनी लड़कियों के पास चली जाए और वहीं रहे। लेकिन समाज का दकियानूसी चेहरा उसके सामने आ जाता था, जिस पर साफ-साफ लिखा था, मांबाप बेटियों के यहां नहीं रह सकते हैं। मेनुका भी इस सच को पढ़ चुकी थी और बेटियों के यहां न जाकर, अकेले ही, वैधव्य के सफेद रंग के साथ अपना जीवन जिए जा रही थी। मेनुका बताती हैं, ‘पति के गुजर जाने के बाद, मेरा मन अशांत सा रहने लगा। बहुत अकेलापन सताता था और ऊपर से बढ़ती उम्र में शरीर भी साथ छोड़ रहा था। मुझे आराम की जरुरत थी। कई बार मन किया कि बेटियों के यहां चली जाऊं, पर समाज क्या सोचेगा, ये बात बार-बार मन आ जाती थी। अगर सच कहूं तो मुझे भी कहीं न कहीं बेटियों के घर जाना सही नहीं लग रहा था, अब चाहे इसे समाज का डर कहो या कुछ और। लेकिन ये भी सच है कि

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जेंडर

अकेले मुझे जिंदगी बोझ लग रही थी और मुझे शांति भरी जिंदगी की तलाश थी।’ पति की मौत के 10 साल बाद, जब मेनुका शांति की तलाश में तीर्थ यात्रा पर थी, वह वृंदावन पहुंची। इस पवित्र शहर में राधा-रानी और कान्हा की भक्ति में मेनुका का मन रमने लगा। उसे लगा कि शायद यहां उसका अकेलापन दूर हो सकता है और उसे, वह शांतिभरी जिंदगी मिल सकती है, जिसकी उसे तलाश थी। क्योंकि वृंदावन में मेनुका जैसी कई अन्य महिलाएं भी थीं जो वैधव्य के सफेद रंग में लिपटी जिंदगी जी रही थीं, लेकिन उनकी जिंदगी में ठहराव था और संतुष्टि का भाव भी। अब, मेनुका पिछले 10 सालों से वृंदावन में रह रही हैं। लेकिन वह अब अपने जीवन को मुकम्मल मानती हैं। मेनुका एक विधवा आश्रम में रहती हैं, जहां पर विधवाओं की सारी जिम्मेदारी सुलभ सोशल सर्विस आर्गेनाइजेशन द्वारा उठाई जाती है। साथ ही, उनके गुजारे

खास बातें सिलीगुड़ी की मेनुका की शादी 10 साल की उम्र में हुई थी 20 वर्ष पहले पति गुजर गए और उसके जीवन में छोड़ गए वैधव्य लड़के नहीं थे और बेटियों के यहां रह नहीं सकती थीं के लिए हर महीने दो हजार रुपए भी दिए जाते हैं। मेनुका खूबसूरत मुस्कान बिखेरते हुए कहती हैं, ‘पति के जाने के बाद, मैं अधूरी हो गई थी। लेकिन वृंदावन ने मुझे फिर से पूरा कर दिया। यह धरती सच में बहुत पावन है जो सबके दुःख हर लेती है। मुझे लाल बाबा (डॉ. विन्देश्वर पाठक) जहाज में घुमाते हैं, कई धार्मिक जगहों पर ले जाते हैं और वो सब देते हैं जिसकी हमें जरुरत होती है। मैं उनकी शरण में खुश हूं और जिंदगी का अब एकमात्र फलसफा कान्हा की भक्ति है।’ मेनुका के शब्दों में अगर कहें तो ढेर सारे दुखों के बाद भी, सार्थक परिपूर्णता वृंदावन में आकर मिल जाती है।

‘अकेलेपन का दर्द और वैधव्य का सफेद रंग मेरा नया जीवनसाथी बन चुका था। समाज की बनाई हुई बेड़ियों में, मैं इस कदर फंसी थी कि निकलने का रास्ता नहीं था, लेकिन तभी कान्हा की नगरी वृंदावन का सहारा मिला और मेरी जिंदगी को असली मायने’


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विशेष

16 - 22 जुलाई 2018

राष्ट्रीय आइसक्रीम दिवस (21 जुलाई) पर विशेष

आइसक्रीम का स्वादिष्ट सफर आइसक्रीम एक ऐसा डेजर्ट है, जिसे हर कोई खाना चाहता है, पर इस आइसक्रीम को मौजूदा शक्ल में आने में कम से कम 4000 वर्ष लगे ऐसे फ्रांस आई आइसक्रीम

मौ

सम कोई सा भी हो, आइसक्रीम खाने का मन करता ही है। यह एक ऐसा डेजर्ट है, जिसे हर कोई खाना चाहता है। आजकल लोग अपनी पसंद के मुताबिक तरह-तरह की आइसक्रीम का स्वाद लेते हैं। लेकिन इनके आविष्कार की कहानी भी कम रोचक नहीं हैं। पूरे 4000 वर्ष लगे हैं आइसक्रीम को इन नए-नए रूपों में आने में। दिलचस्प है कि जब किसी को फ्रिज के बारे में पता नहीं था उस समय लोग गर्मी से बचने के लिए पहाड़ों पर जमी नदियों की बर्फ को आइसक्रीम के लिए इस्तेमाल करते थे। 500 ईसा पूर्व एथेंस में बर्फ, शहद और फल वाले आइसक्रीम कोन प्रचलित थे। 13वीं सदी के अंत में आइसक्रीम की रेसिपी एक व्यापारी मार्को पोलो यूरोप ले गए, जहां यह काफी पसंद की गई। आइए जानते हैं, आइसक्रीम के इतिहास से जुड़ी रोचक बातें-

सीरिया का रिकॉर्ड

अब तक आइसक्रीम का पहला लिखित रिकॉर्ड सीरिया का है। 1780 ईसा पूर्व पत्थर पर अंकित प्राचीन लिपि के अनुसार मारी के राजा ने एक आइस हाउस बनवाया था, जिसमें पहाड़ों से बर्फ लाकर जमा की जाती थी।

ईरान में भी थे आइस हाउस

ईरान में ईसा से 500 साल पहले पर्शियन लोग सर्दियों की बर्फ को अपने आइस हाउस

सन 1533 में इटली की राजकुमारी का विवाह फ्रांस के राजा हेनरी-2 से हुआ था। राजकुमारी अपने साथ कुछ इटेलियन शेफ भी ले आई थी, जो जायकेदार बर्फ की रेसिपी जानते थे। सन 1660 में पेरिस के एक कैफे ने दूध, क्रीम, मक्खन और अंडे को फेंटकर आइसक्रीम बनाने की रेसिपी को प्रचारित किया। में संजोकर रखते थे, जिन्हें यखचल कहा जाता था। पर्शियन भाषा में यख का मतलब बर्फ और चल का अर्थ गड्ढा है। इस बर्फ को वह पूरे साल तक बचाकर रखते थे। उसे वह अंगूर के रस के साथ मिलाकर खाते थे।

सिकंदर की पसंद

करीब 350 वर्ष ईसा पूर्व के उल्लेखों से पता चलता है कि सिकंदर भी आइसक्रीम का बहुत शौकीन था। वह शहद और फूलों के शरबत से बनी आइसक्रीम खाता था, जबकि 54 में फ्रांस का शासक नीरो फलों के रस से बनी आइसक्रीम खाता था।

पहली बार दूध का प्रयोग

चार्ल्स-2 ने गुप्त रखी रेसिपी

आइसक्रीम खाने वालों की लिस्ट में थे।

फादर ऑफ आइसक्रीम इंडस्ट्री

सन 1851 में इंसुलेटिड आइस हाउस के आविष्कार से आइसक्रीम को बड़े पैमाने पर तैयार किया जाने लगा। अमेरिका के बाल्टीमोर के दूध व्यापारी जैकब फसेल ने बड़े पैमाने पर आइसक्रीम का उत्पादन शुरू किया, जिससे यह आम आदमी तक पहुंच गई।

सन 1671 में पहली बार ब्रिटेन के शासक चार्ल्स-2 के पास आइसक्रीम पहुंची। वह उससे इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपने आइसक्रीम बनाने वाले कुक को इसकी रेसिपी गुप्त रखने के लिए आजीवन पेंशन दी। 1744 में ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में आइसक्रीम शब्द प्रकाशित हुआ।

क्वीन ऑफ आइसेज

इंग्लैंड से आइसक्रीम

रॉबर्ट ग्रीन ने सन 1874 में आइसक्रीम सोडा का आविष्कार किया। 20वीं सदी के अंत तक ‘आइसक्रीम संडे’ का आविष्कार हो गया। अब आइसक्रीम में फल और मेवा आदि को मिलाया जाने लगा।

अमेरिका

पहुंची

अमेरिका में क्वेकर मूवमेंट के लोग आइसक्रीम लेकर आए, जो इंग्लैंड से आकर वहां बस गए थे। बेंजामिन फ्रैंकलिन, जॉर्ज वाशिंगटन, थॉमस जैफरसन जैसे महान लोग

इंग्लैंड की एग्नेस मार्शल ने सन 1885 से 1894 तक आइसक्रीम पर चार पुस्तकें लिखीं, जिससे इसकी प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई। उन्होंने आइसक्रीम बनाने के लिए लिक्विड नाइट्रोजन का प्रस्ताव रखा।

आइसक्रीम संडे

चीन का राजा तेंग (सन 618 से 697) दूध से बनी आइसक्रीम खाता था। उसने 90 लोग इसे बनाने के लिए रखे थे। यहां युवराज झांगहुई के मकबरे पर बनी एक वाली आइसक्रीम पेंटिंग में कुछ महिलाएं 19वीं सदी में बनी। आइसक्रीम खा रही पहले यह आइसक्रीम हैं। ग्लास या मेटल के कप में दी जाती थी। पहली बार इंग्लैंड में एंटोनिया वाल्वोना ने बिस्किट कप यूरोप में आई में आइसक्रीम भरकर बेचना शुरू किया। यह कप नीचे से समतल और ऊपर से पतला था। आज जिस नई रेसिपी आइसक्रीम कोन का इस्तेमाल हो रहा है उसे अमरीका के आइसक्रीम की यह अर्नेस्ट हाम्बी ने बनाया था। यहीं से तैयार हुआ दुनिया का पहला नई रेसिपी इटली आइसक्रीम कोन, जिसे आज भी आइसक्रीम इंडस्ट्री अपनाए हुए का व्यापारी मार्को है । वहीं सं त लुइस मिस्सौरी के चार्ल्स इ मिंचेस को आइसक्रीम कोन पोलो (सन 1254के आविष्कारक के रूप में जाता है। 23 जुलाई 1904 को वर्ल्ड फेयर में 1324) पूर्वी देशों से इन्होंने पेस्ट्री कोन में दो स्कूप आइसक्रीम रख कर दुनिया का पहला लेकर वापस लौटा था, आइसक्रीम कोन बनाया था। जिसे शरबत कहा जाता था।

कोन

कोन वाली आइसक्रीम


16 - 22 जुलाई 2018

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परंपरा

जहां होती है पेड़ों की पूजा

पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति के बढ़ते प्रचलन के बीच मिथिला अपनी परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए हुए है

डॉ. बीरबल झा

र्यावरण संरक्षण को लेकर मिथिला के लोग आदिकाल से ही काफी जागरूक रहे हैं। पर्यावरण के प्रति यहां के लोगों में बहुत ही ममत्व है। यहां के लोग पेड़-पौधों की पूजा करते हैं। पेड़ काटना तो बहुत ही दूर की बात है। मनुष्य का जीवन प्रकृति पर निर्भर करता है। अत: उसके अस्तित्व के लिए प्रकृति का परिवेश अनिवार्य है। मिथिला में कई पर्व-त्योहार ऐसे हैं, जिसमें पेड़ों की पूजा की जाती है और उसके संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम किए जाते हैं। ऐसा ही एक त्योहार है जूड़ शीतल। इस त्योहार के अवसर पर वृक्ष की जड़ों में पानी डालकर उसे सिंचित किया जाता है और लोग गीत गाते हैं। साथ ही अपने शरीर पर मिट्टी का लेप लगाते हैं, जिसे आजकल शहरों में 'मड थेरेपी' के नाम से जाना जाता है। वटवृक्ष के पूजा की परंपरा बहुत पुरानी है। मिथिलांचल की महिलाएं वटवृक्ष की पूजा करती हैं। शास्त्रों के अनुसार, इस दिन व्रत रखकर वटवृक्ष के नीचे सावित्री, सत्यवान और यमराज की पूजा करने से पति की आयु लंबी होती है और संतान-सुख प्राप्त होता है। मान्यता है कि इसी दिन सावित्री ने यमराज

के फंदे से अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा की थी। इस दौरान सत्यवान का मृत शरीर वटवृक्ष के नीचे पड़ा था और सावित्री ने रक्षा की जिम्मेवारी इसी वटवृक्ष को दी थी। इसीलिए वटवृक्ष की पूजा की जाती है। मिथिला में पीपल के पेड़ की भी पूजा की जाती है। पीपल के पेड़ की पूजा का वैज्ञानिक आधार भी है। पीपल हमेशा ऑक्सीजन छोड़ता है जो मानव जाति के कल्याण के लिए जरूरी है। पीपल की पूजा के लिए विशेष गीत भी है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में स्वयं कहते हैं- मैं पेड़ों में पीपल हूं। मिथिला का कोई भी घर ऐसा नहीं होगा, जहां तुलसी का पौधा न हो। तुलसी भी दिन-रात ऑक्सीजन ही देती है। साथ ही तुलसी औषधीय पौधा है। कई दवाओं में तुलसी का इस्तेमाल किया जाता है। मिथिला में तुलसी पूजन एवं सेवन दैनिक क्रिया

का हिस्सा है। मिथिला के लोग इतने धर्मिक होते हैं कि पेड़पौधों को काटने की क्रिया को भी पाप-पुण्य से जोड़कर देखते हैं। तुलसी में नित्य पानी डालना एक धार्मिक क्रिया बन गया है। तुलसी पूजन के दौरान महिलाएं गीत गाती हैं। प्रत्येक शाम तुलसी के समक्ष दीप जलाकर संध्या वंदन की परंपरा है। महाकवि विद्यापति 13वीं सदी में हुए थे। उन्होंने उस दौरान पर्यावरण संरक्षण को लेकर चिंता जताई थी। 'गंगा विनती' में वे लिखते हैं :

पीपल के पेड़ की पूजा का वैज्ञानिक आधार भी है। पीपल हमेशा ऑक्सीजन छोड़ता है जो मानव जाति के कल्याण के लिए जरूरी है।

अर्थात् विद्यापति गंगा में स्नान के लिए पांव से चलकर जो प्रवेश करते हैं, उससे उन्हें अपराध-बोध होता है और इसे अपवित्र मानते हैं। इससे पर्यावरण

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे। छोड़इत निकट नयन बह नीरे।। कर जोरि विनमओं विमल तरंगे। पुन दरसन होए पुन मति गंगे।।

के प्रति उनका लगाव परिलक्षित होता है।बांस को वंश से जोड़कर इसकी पूजा की जाती है। वहीं पर फलों के राजा आम के पेड़ की पूजा विवाह संस्कार के दैरान की जाती है। आंवला का औषधि प्रयोग है। इसकी पूजा करते हुए विशेष भोज का आयोजन किया जाता है। सावन के महीने में मधुश्रावणी एक विवाहेत्तर उत्सव होता है। नवविवाहिता पंद्रह दिनों तक फूलों और पत्तों का संग्रह करती हैं। मिथिला में नीम की पूजा की की जाती है। नीम की हवा रोगनिरोधक होती है। आज वक्त का तकाजा है कि लोगों को मिथिला से प्रकृति संरक्षण का मंत्र सीखना चाहिए। मिथिला में ऋतु-परिवर्तन के साथ ही पर्यावरण संरक्षण का कार्य भी बदल जाता है। यहां के लोग नदी-नालों की भी सफाई करते हैं। मिथिला सदियों से अपनी संस्कृति को लेकर दुनिया के समक्ष कौतूहल का विषय बना हुआ है। आज पूरी दुनिया पर पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति हावी हो रही है, ऐसी स्थिति में भी मिथिला अपनी परंपराओं को अक्षुण्ण बनाए हुए है।


16 खुला मंच

16 - 22 जुलाई 2018

जो तलवार चलाना जानते हुए भी अपनी तलवार को म्यान में रखता है, उसी को सच्ची अहिंसा कहते हैं

अभिमत

– सरदार पटेल

अयोध्या प्रसाद सिंह

लेखक युवा पत्रकार हैं और सामयि​क मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखते हैं

समन्वित खेती यानी लाभ का मंत्र

कम जोत में उचित फसल या कृषि गतिविधियों का चयन कर कम लागत में उपज लेने की विधा के रूप में समन्वित खेती न सिर्फ हमारे दौर की दरकार है, बल्कि यह आज किसानों के कई संकटों का व्यावहारिक समाधान भी है

अंतरिक्ष की ओर बढ़ते कदम

अगर भारत अंतरिक्ष में यात्री भेजने में कामयाब रहा तो अमेरिका, रूस और चीन के बाद ऐसा करने वाला चौथा देश बन जाएगा

मेरिका, रूस और चीन के बाद भारत अंतरिक्ष में अपना कदम रखने की तैयारी में जुटा है। इस दिशा में इसरो ने एक बड़ी कामयाबी हासिल की है। हाल ही में इसरो ने क्रू एस्केप सिस्टम का सफल परीक्षण किया है जो अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षा को लेकर बड़ा कदम है। क्रू एस्केप सिस्टम अंतरिक्ष अभियान को रोके जाने की स्थिति में अंतरिक्ष यात्रियों को वहां से निकलने में मदद करेगा। इससे पहले सिर्फ तीन देशों- अमरीका, रूस और चीन के पास इस तरह की सुविधा है। हाल ही में पांच घंटे चली उल्टी गिनती के बाद श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से डमी क्रू मॉड्यूल के साथ 12.6 टन वजनी क्रू स्केप सिस्टम का परीक्षण किया गया। यह परीक्षण 259 सेकेंड में सफलतापूर्वक पूरा हुआ। इस दौरान क्रू मॉड्यूल के साथ क्रू एस्केप सिस्टम ऊपर की ओर उड़ा और फिर श्रीहरिकोटा से 2.9 किलोमीटर दूर बंगाल की खाड़ी में पैराशूट की मदद से उतर गया। इसरो का यह प्रयोग इसीलिए जरूरी था क्योंकि इसके बिना भारतीय अंतरिक्ष यात्री को नहीं भेजा जा सकता। किसी अंतरिक्ष यात्री को स्पेस में भेजे जाने के दौरान जब रॉकेट लॉन्च पैड से छोड़ा जाता है तब क्रू को सबसे ज्यादा खतरा होता है। लॉन्च पैड पर होने के दौरान अगर फट जाए या रॉकेट में आग लग जाए या कुछ अन्य गड़बड़ी हो जाए तो उस वक्त अंतरिक्ष यात्रियों को कैसे बचा सकते हैं, इसके लिए एक टेस्ट होता है जिसे भारत ने पहली ही बार में पास कर लिया है। अभी ह्यूमन स्पेस फ्लाइट सरकार की ओर से पूरी तरह से क्लियर नहीं है और यह कार्यक्रम अब सूक्ष्म तकनीक विकास की ओर बढ़ा है। बहुत सारे परीक्षण साथ साथ चल रहे हैं। इसरो छोटे छोटे कदम उठाकर सूक्ष्म तकनीक के विकास में लगा है। वह अंतरिक्ष में भारतीयों को भेजने की तैयारी कर रहा है, ताकि जब सरकार से अंतरिक्ष यात्रियों को भेजने में की हरी झंडी मिले तो वो आसानी से और जल्दी ऐसा कर सके। अभी तक ह्यूमन स्पेस फ्लाइट करने वाले केवल तीन ही देश हुए हैं- रूस, अमरीका और चीन। ये तीनों स्पेस में अंतरिक्ष यात्रियों को भेजने और वापस लाने के मामले में आत्मनिर्भर हैं। अगर भारत अंतरिक्ष में यात्री भेजने में कामयाब रहा तो वो ऐसा करने वाला चौथा देश बन जाएगा।

टॉवर फोनः +91-120-2970819

(उत्तर प्रदेश)

भी बाढ़ तो कभी सूखा, कभी बीजों का न मिलना तो कभी सिंचाई के लिए पानी का अकाल। देश में खेती-किसानी का यह संकट आज भी एक बड़ी चुनौती है। अच्छी बात यह है कि सरकारी योजना और मदद के अलावा खेती करने की परंपरा में बदलाव लाकर इस दिशा में न सिर्फ महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं, बल्कि वे अपने उद्यम से यह भी सिद्ध कर रहे हैं खेती घाटे का नहीं, बल्कि एक लाभकारी सौदा है। यह सवाल हर किसान का है। अभी हाल में आई बाढ़ ने तटवर्ती इलाकों में किसानों की कमर तोड़ दी है, अनाज खेतों में ही सड़ गए। ऐसे में अब खेतों से अधिक उत्पादन लेने की जुगत करनी होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी विभिन्न अवसरों पर अपने भाषणों में मंशा जताई है कि वर्ष 2022-23 तक किसानों की आय दोगुना होते देखना चाहते हैं। इस प्रयास की सफलता का मूल मंत्र है कृषि लागत में कमी और उत्पादकता में वृद्धि। लघु और सीमांत किसानों, जिनका रकबा दो से तीन एकड़ या उससे भी कम होता है, उनके पास खेती के अलावा अन्य विकल्प मौजूद नहीं हैं। उनके लिए सही फसल का चयन करना और उपज का वाजिब मूल्य मिलना बड़ी चुनौती है। कम जोत में उचित फसल या कृषि गतिविधियों का चयन कर कम लागत में उपज लेना अलग ही विधा है। इसे समन्वित कृषि कहा जाता है। किसान द्वारा उन गतिविधियों

का चयन करना जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं तथा जिनमें एक गतिविधि में पैदा होने वाले अवशेष या अपशिष्ट को दूसरी गतिविधियों में खाद एवं खाद्य के रूप में प्रयोग में लाया जा सके, समन्वित खेती का मुख्य सिद्धांत है। दरअसल समन्वित खेती का सार यही है कि किसान अपने खेत में विभिन्न प्रकार के क्रियाकलाप इस प्रकार करें कि उत्पादकता बढ़े और साथ ही साथ निवेश लागत भी कम हो। किसान कौन-सी गतिविधि अपनाएं यह इस पर निर्भर करेगा कि उसकी कृषि भूमि की गुणवत्ता कैसी है, सिंचाई की क्या व्यवस्था है, उसे उपज का अच्छा बाजार मूल्य मिले और नई गतिविधियों में प्रशिक्षित हो। समन्वित कृषि प्रणाली किसानों के साथ-साथ वित्तीय संस्थाओं एवं बैंकों के लिए अपेक्षाकृत नई गतिविधि है। कृषि विविद्यालय, कृषि विज्ञान केंद्र और अन्य संस्थाओं की ओर से कई मॉडल किसानों को सुझाए गए हैं, परंतु इनमें से ज्यादातर को मानकीकृत नहीं किया गया है। इसके चलते वित्तीय संस्थाएं और बैंक इन गतिविधियों को वित्त पोषण हेतु अपनाने में सहयोग नहीं दे पा रहे हैं। निकट वर्षो में मौसम परिवर्तन का भी खेती पर विपरीत असर पड़ने की आशंका है। देश में कृषिगत क्षेत्र का लगभग 65 प्रतिशत भाग वर्षा पर आधारित है। ऐसे में मिश्रित या समन्वित खेती सुरक्षा कवच का काम करती है। जब एक खेत में एक ही साथ दो-या-दो से अधिक

खेती योग्य भूमि पर जनसंख्या का बोझ निरंतर बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति में मिश्रित या समन्वित खेती से किसान प्रति इकाई भूमि से अधिक उत्पादन ले सकते हैं


खुला मंच

16 - 22 जुलाई 2018 फसलें उगाई जाती हैं, तो संभावना होती है कि कोई फसल मौसम की असामान्यता के कारण नष्ट हो जाए तो भी दूसरी या तीसरी फसल बच सकती है। खेती योग्य भूमि पर जनसंख्या का बोझ निरंतर बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति में मिश्रित या समन्वित खेती से किसान प्रति इकाई भूमि से अधिक उत्पादन ले सकते हैं। जहां पानी की कमी नहीं है, उन क्षेत्रों में पेड़-पौधे लगाने की योजना इस प्रकार हो सकती हैखेत की मेड़ों पर पीछे की ओर शीशम और बबूल जैसी इमारती लकड़ी के वृक्ष और सामने की ओर कलमी आम, पपीता, अमरूद, नींबू और संतरा जैसे फलों के वृक्ष लगाने चाहिए। स्वादिष्ट शाक-सब्जी के रूप में काम आने वाले कटहल के भी एक-दो वृक्ष उगाए जा सकते हैं। मिश्रित या समन्वित खेती द्वारा मनुष्य, पशु, वृक्ष और भूमि सभी एक सूत्र में बंध जाते हैं। इस प्रकार की कृषि व्यवस्था में प्रत्येक परिवार गाय, भैंस, बैलों की जोड़ी और, संभव हो तो, मुर्गियां भी पाल सकता है। संभव हो तो किसान अपने फार्म में छोटे से कुंड में मछलियां भी पाल सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) भी सहयोगी बैंकों और गैरसरकारी संगठनों को इन गतिविधियों पर जानकारियां और प्रशिक्षण दे रहा है। छोटे राज्य, पूर्वोत्तर राज्यों एवं सभी पहाड़ी राज्यों के लिए यह कृषि पद्धति उपयोगी साबित होगी। जरूरत है कि इस तकनीक का ज्यादा से ज्यादा प्रचार-प्रसार हो और राज्यवार एवं क्षेत्रवार उचित मॉडल विकसित हों तथा उनकी जानकारी बैंकों और किसानों को दी जाएं। शुरुआती तौर पर समन्वित कृषि प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारों की ओर से, विशेषकर लघु एवं सीमांत किसानों के लिए, कुछ अनुदान योजना भी घोषित करने की आवश्यकता होगी। विभिन्न मॉडलों का अध्ययन करने के बाद महसूस किया गया है कि जो किसान समन्वित कृषि प्रणाली अपनाते हैं, उनकी आमदनी अन्य किसानों की अपेक्षा तीन से चार गुना तक बढ़ाई जा सकती है। घटती हुई कृषि योग्य भूमि और बढ़ती हुई आबादी को खिलाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि प्रति हेक्टेयर उपज बढ़ाई जाए। इसके लिए समन्वित कृषि प्रणाली को अपनाना होगा। इससे लाभकारी उपज तो मिलेगा ही लोगों को रोजगार भी मुहैया होंगे।

ल​ीक से परे

स्वामी चिदानंद सरस्वती प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु

गुरु-शिष्य संबंध और परंपरा

कि

ज्ञान की खोज में शिष्य की भागीदारी उसके गुरु की भागीदारी से समान रूप से जुड़ा होता है

सी गुरु के साथ केवल एक भौतिक संगति को सत्संग नहीं माना जा सकता है। सत्संग का वास्तविक अर्थ है कि ज्ञान की खोज में शिष्य की भागीदारी उसके गुरु की भागीदारी से समान रूप से जुड़ा होता है। गुरु अपने शिष्य को ज्ञान की तलाश में राह दिखाता है। इसीलिए उपनिषद की कथा में हम देखते हैं कि किस प्रकार नचिकेता यम को उत्तर देने का हठ करता है। उद्दालक को भी हम स्वेतकेतु से ‘स्वयं’ की प्रकृति को दोहराते हुए देखते हैं। उद्दालक जीव और ब्रह्म के बीच समीकरण दिखाने के लिए नौ चित्रण प्रस्तुत करते हैं जो उस करूणा का साक्ष्य है जो वैदांतिक गुरुओं का उनके शिष्य के प्रति था। संक्षेप में, यह एक गुरु और उनकी दी हुई शिक्षा की अर्थपूर्ण भागीदारी है जो सत्संग कहलाता है। बृहदअरण्यक उपनिषद में, याज्ञवल्क्य मैत्रेयी को सत्संग के सिद्धांत की व्याख्या आजादी के साधन के रूप में करते हैं। वह कहते हैं कि सुनना पहला चरण है जो किसी का नेतृत्व सहज रूप से उस प्रतिबिंब की ओर करता है जिसके द्वारा शुद्ध मन वास्तविक रूप में स्वयं का अनुभव करता है। सुनना या श्रवण उन कारणों पर बार-बार जोर डालता है कि दिमाग आत्म चिंतन की राह में बिल्कुल नया है और इन प्रक्रियाओं के लिए इसके पास कोई योग्यता नहीं है। लेकिन शिक्षा के प्रकाश में इसे विचारशील बनाया जा सकता है, जिसमें सुनना भी शामिल है। आप खुद से लगातार प्रश्न कर सच को जान सकते हैं और उस गुरु की सेवा करके भी जो ‘स्वयं’ की सच्चाई को जानते हैं। यहां सेवा का अर्थ ‘खुद’ को जानने से संबंधित सभी प्रश्नों का जबाव ढ़ूंढने मंत खुद की भागीदारी से है। इसका अर्थ गुरु की शिक्षा के द्वारा ज्ञान की तलाश करना भी है।

ऋषियों द्वारा बताए अनुसार जीवन जीना ही सर्वोच्च सेवा है, ताकि एक अपूर्ण नश्वर एक पूर्ण व्यक्ति के सामने प्रस्तुत हो सके। पूर्णता शब्द का प्रयोग कृष्ण के द्वारा हुआ है, जिसका अर्थ है बार-बार समीक्षा के द्वारा सवालों के जवाब को तलाशना। गुरु को अपना संदेह जताकर हम अपने मन के भीतर के ज्ञान के बक्से को खोल सकते हैं। एक आदर्श गुरु तुरंत अपने शिष्य के संदेह को पहचान लेते हैं और उसे दूर कर देते हैं। संदेह को दूर करने के दौरान गुरु अतिसूक्ष्म रूप से शिष्य के सोच के ढ़ांचे या स्वरूप को वापस से संगठित या

/2241/2017-19

डाक पंजी्यन नंबर-DL(W)10

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व्यक्तितव

सवच्छिा

24

पुसिक अंश

के सार्र, सवच्छिा और विशेष अनुभागों सौं्​्य्ष की भूवम कल्ाण के विए ्ोजनाएं

ववज्ान का मान, शांवि का ज्ान

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29

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वर्ष-2 | अंक-30 | 09

आरएनआई नंबर-DELHIN

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सुलभ जल कांवि

- 15 जुलाई 2018

पश्चिम बंग

ने ्ेश-समाज िा डॉ. ववन्ेश्वर पाठक वलखने के साथ सुलभ प्रणे पीवडिों के वलए से सवच्छिा की नई इबारि जल’ कैसे लाखों आससेवनक टू वपट-पोर फलश िकनीक बीडा उठा्या है। ‘सुलभ से लेकर ्यजल उपलब्ध कराने का वम्नापुर और मुवश्ष्ाबा् के वंवि​ि वर्गों को शुद्ध पे बंर्ाल के म्धुसू्नकािी, है विकारी पहल को पक्चिम से जाना-समझा जा सकिा जीवन-जल बना, इस कां व्ल्ी िक बेहिर िरीके राज्धानी की श ्े और उत्तर प्र्ेश के वाराणसी

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एसएसबी ब्यूरो

के नीचे कास की एक ग्लोब् छतरी देशों के कई आने के बाद से दुवनया की वदशा में ने तकनीक और विकास तीन दशकों से जारी ्ंबे डग भरे हैं। पर तकरीबन छ अंतरविरलोध भी इनहीं विकास की इस हलोड़ के कु शौचा्य से ्ेकर िर्षों में सामने आए हैं। बात न से ्ेकर ज् की सिचछता की करें या भलोज अफ्ीकी मुलकों के उप्बधता की करें तलो कई देश इन मलोचषों साथ दवषिण एवशया के जयादातर हैं। इसी चुनौती कर रहे पर बड़ी चुनौती का सामना ने सहस्ाबबद विकास कलो देखते हुए संयुक्त राष्ट्र 30) तय वकया है। ्क्य-2030 (एमडीजी-20 और सिचछता वजसमें शुद्ध पेयज् की उप्बधता पयायािरण प्ेमी न वसर्फ का सिा् सबसे ऊपर है। ज् और सिचछता कलो भी ी समाज-विज्ान बबलक खते हैं। इस व्हाज से मानिावधकार से जलोड़कर दे

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जीवन के प्रति सोच बदली ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ वाकई एक अलग तरह का अखबार है। यह हमारे लिए हर हफ्ते वैचारिक खुराक लेकर आता है। साथ ही अखबार में समाज सेवा से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक कई ऐसी स्टोरीज छपती हैं, जिससे मन में सकर्मक प्रेरणा जन्म लेती है। हालिया अंक में छपी ‘वृंदावन वैधव्य के जीवन में भी रंग भर देता है’ पढ़कर मैं काफी भावुक हो गई। इसे पढ़कर जीवन के प्रति मेरी सोच काफी सकारात्मक हुई है। मैं अखबार की पूरी संपादकीय टीम को इसके लिए शुक्रिया अदा करना चाहती हूं। कुसुमलता, कोटला मुबारकपुर, दिल्ली

आर्सेनिक की चुनौती पानी जीवन की मूलभूत जरूरतों में शामिल है। दुर्भाग्य यह है कि न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में शुद्ध पानी की उपलब्धता को लेकर संकट अब भी बना हुआ है। सुलभ ने पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक से प्रदूषित जल को जिस किफायती तरह से शुद्ध पेयजल में बदला है, वह वाकई बड़ी बात है। आज दुनिया के 70 मुल्कों में कई लाख लोग प्रदूषित जल पीने को मोहताज हैं। भारत में इस तरह के प्रदूषित जल को शुद्ध पेयजल बनाने की दिशा में सुलभ तकनीक के जरिए भविष्य में एक बड़ी उम्मीद हाथ लगी है। राकेश सिन्हा, राजनगर, गाजियाबाद

उसे सही क्रम में ले आते हैं। इस प्रकार यह हिंदुओं की एक सदियों पुरानी परंपरा है, जो शिक्षक और शिक्षा के बीच के संवाद को प्रोत्साहित करता है और जिसे सही रूप में सत्संग कहा जाता है। बुद्धिमत्ता से जुड़ाव से इंद्रियों के सुख से अलगाव तक। यह एक मोड़ है जो इस भ्रम से आजादी दिलाता है कि यह दुनिया एक सच है। जब वास्तविकता की झूठी भावना चली जाती है तो दिमाग स्वंय में टिका रहता है। किसी का स्वंय के साथ टिके रहने की अवस्था ही आजादी है। इस प्रकार सत्संग आजादी के मार्ग को प्रशस्त करता है।

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फोटो फीचर

16 - 22 जुलाई 2018

चलऽ सखी... रोपनी शुरू भेलै हे! और सिहर उठते हैं खेत पहले प्यार की तरह...

कविताई के अंदाज में कही गई ये बातें भारतीय लोकमानस की उस खूबी को बयां करता है, जिसके लिए खेती महज आजीविका नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक कर्म भी है


16 - 22 जुलाई 2018

मानसून की बारिश के साथ देश के विभिन्न हिस्सों में शुरू हो जाती है धान की रोपाई। पारंपरिक रूप से महिलाएं इस काम को करती हैं। धान रोपाई का समय पूरे देश में एक एेसे उत्सव की तरह है, जिसमें श्रम और सृजन की जुगलबंदी चलती है। यही कारण है कि इस अवसर के ढेर सारे गीत आज भी लोक कंठों में बसे हैं

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कला

16 - 22 जुलाई 2018

मुस्लिम बनाते हैं हिंदुओं के विवाह मंडप

ताजिया बनाने वाले मुस्लिम कलाकार अब उसी कलात्मकता से विवाह मंडप बना रहे हैं

मु

अर्चना शर्मा

स्लिम समुदाय के कारीगर सदियों से जिस कलात्मकता का ताजिए के लिए करते रहे हैं, उसी कलात्मकता का उपयोग वे अब हिंदुओं का विवाह मंडप बनाने में कर रहे हैं। विवाह मंडप को वे कर्बला के मकबरे का शक्ल दे रहे हैं। ये कारीगर अधिकांश शिया मुसलमान हैं। कर्बला की जंग सातवीं शताब्दी में हुई थी, जिसमें पैगंबर मुहम्मद के नाती इमाम हुसैन अली शहीद गए थे। उनकी याद में इराक के कर्बला शहर में एक मकबरा बनवाया गया है, जहां की मस्जिद दुनिया की सबसे पुरानी मस्जिदों में एक है। यह शिया मुसलमानों का पवित्र स्थल है। ताजिया इसकी ही प्रतिकृति है, जिसके साथ हर साल मुहर्रम में ताजिया जुलूस निकाला जाता है। ताजिया की शक्ल में बने मंडपों में सैकड़ों हिंदू जोड़े जीवन-साथी बनने की कसमें ले चुके हैं। विवाह मंडप ही नहीं जन्मदिन की पार्टियों के लिए भी समारोह-स्थल को सजाने के लिए इस कलात्मकता का उपयोग होने लगा है। कारीगर मोहम्मद बिलाल अजीमुद्दीन ने कहा कि भारत में ताजिया बनाने की कला मध्य एशिया से आई और मुगल शासन के दौरान इसका प्रसार हुआ। बिलाल ने बताया कि हाल ही में उन्होंने मुंबई के होटल ग्रैंड हयात में हिंदू विवाह का एक मंडल बनाया है। ग्राहक हमसे कुछ उत्कृष्ट डिजाइन की अपेक्षा रखते हैं। उन्होंने कहा कि कला के इस क्षेत्र में जाति या वर्ग कोई मायने नहीं नहीं रखता है। उन्होंने कहा कि हमारी डिजाइन का इस्तेमाल हिंदुओं के विवाह समारोह और बच्चों के जन्मदिन की पार्टियों में भी होता है। ग्राहक सजी हुई मीनार को पसंद करते हैं। मीनार की आकृति ने लाखों लोगों का दिल जीत लिया है और इसका चलन पूरे देश में देखा जा रहा है। उन्होंने बताया कि कला के कई कद्रदानों ने अपने घरों, दफ्तरों में थीम

पार्टी और कॉरपोरेट कार्यक्रमों में सजावट के लिए ताजिया से प्रेरित मीनार और बत्तियों का इस्तेमाल किया है। मूल रूप से ये कारीगर मुहर्रम का जुलूस निकालने के लिए ताजिया बनाते हैं। मुसलमान समुदाय के लिए असल में यह शोक का प्रतीक है, इसीलिए कारीगर ताजिया बनाने के लिए कोई कीमत नहीं लेते हैं। मोहम्मद बिलाल अजीमुद्दीन कहते हैं-यह तो खुदा की सेवा है। अपने समुदाय में अजीमुद्दीन भाई के नाम से चर्चित बिलाल ने यह शिल्प कला अपने पिता से सीखी है। उन्होंने अपनी इस शिल्प कला को व्यावसायिक परियोजना का रूप दे दिया है, जिससे उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बेहतर हो गई है। इस ताजिया समुदाय की किस्मत तब बदली, जब देश की एक अग्रणी डिजाइनर गीतांजलि कासवालीवाल ने पहली बार जयपुर में ताजिया जुलूस देखा और उन्होंने इस शिल्प को प्रसारित करने का फैसला किया। गीतांजलि की स्वामित्व वाली संस्था

'अनंत्या' अत्याधुनिक डिजाइन के फर्नीचर, कपड़े व अन्य वस्तुएं बनाने के लिए दुनियाभर में चर्चित है और इसे यूनेस्को पुरस्कार भी मिल चुका है। 'अनंत्या' सदियों पुराने स्थानीय शिल्प के विकास के लिए प्रतिबद्ध है। वह सड़कों पर ताजिया देखकर आकर्षित हुईं। इसके तुरंत बाद उनके पति की कंपनी एकेएफडी स्टूडियो को जब जयपुर विरासत हेरिटेज फेस्टिवल-2007 के दौरान पूरे शहर में मार्कर बनाने का ऑर्डर मिला, तो उनके मन में शहर के लिए ताजिया-प्रेरित डिजाइन का उपयोग करने का विचार आया। गीतांजलि ने कहा कि हम इस कार्यक्रम के लिए मूर्ति जैसी कुछ कलाकृतियां पेश करना चाहते थे, जिससे मेहमान सांस्कृतिक शिल्प के बेहतरीन नमूने देखकर उनका आनंद उठा सकें। ताजिया कारीगरों को यह काम सौंपा गया, क्योंकि वे इस शिल्प के उस्ताद थे और प्रोजेक्ट के प्रमुख अजीमुद्दीन भाई थे। इसके बाद गीतांजलि ने अपनी बेटियों की जन्मदिन पार्टियों प्लास्टिक के गुब्बारे सजाने के बजाय, ताजिया प्रेरित सजावट की। ताजिया कारीगरों ने अपने हाथों से पार्टी स्थल को सजाया। गीतांजलि ने इस शिल्प कला को आगे प्रसारित करने का फैसला किया और कारीगरों को वर्ष 2009 में नई दिल्ली में अपनी बहन की शादी में विवाह मंडप सजाने का काम सौंपा। गीतांजलि ने कहा कि उन्होंने इस काम को पूरे तन मन से किया, जिससे उन्हें अद्भुत प्रतिक्रिया मिली। हर कोई इन डिजाइनों की बात कर रहा था, जिसके बाद उनकी कला को पंख लग गए और उसका इतना प्रसार हुआ कि अब वह बुलंदियों पर

बिलाल चाहते हैं कि सभी जातियों और समुदायों के लोग हमारे काम की तारीफ करें और दूसरों को भी इसके बारे में बताएं। इसके सिवा एक कमाने-खाने वाले कारीगर को और क्या चाहिए

खास बातें ताजिए की तरह ही बनाते हैं विवाह के मंडप डिजाइनर गीतांजलि कासवालीवाल ने बढ़ाया ताजिया कला को ताजिया कलाकारों को हो रहा है आर्थिक फायदा है। उन्होंने कहा कि मुस्लिम कारीगरों द्वारा विवाह का मंडप सजाए जाने से हमारे परिवार में किसी ने कोई आपत्ति नहीं दर्ज की। सबने सजावट में उनकी निष्ठा और लगन की तारीफ की। इस कहानी का एक और सकारात्मक पहलू यह है कि ताजिया कारीगर जो कलाकृति बनाते हैं, उसमें कागज और बांस का इस्तेमाल होता है, जो पारिस्थितिकी संतुलन का महत्वपूर्ण संदेश देता है। बिलाल ने बताया कि मंडप या पार्टी स्थल के आकार के अनुसार उनका पारिश्रमिक तय होता है, जोकि इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें कितना काम करना होगा और उसके लिए कितने लोगों की जरूरत होगी। हमारे काम को देखकर ही हमें राजस्थान हेरिटेज वीक फेस्टिवल में सजावट का काम मिला। भारत में 2009 में जब आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो के प्रतिनिधिमंडल आए थे, तो हमने डिजाइन किया था। हमने बांस से स्टेज बनाया था, जिसकी काफी तारीफ की गई थी। बिलाल ने कहा कि हम यही चाहते हैं कि सभी जातियों और समुदायों के लोग हमारे काम की तारीफ करें और दूसरों को भी इसके बारे में बताएं। इसके सिवा एक कमाने-खाने वाले कारीगर को और क्या चाहिए?


16 - 22 जुलाई 2018

मोबाइल ऐप्प से चुनें सेहतमंद खाना

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जयदीप सरीन

ज्ञानिकों ने एक ऐसे मोबाइल ऐप्प का विकास किया है जो स्वास्थ्यवर्धक भोज्य पदार्थ चुनने में आपकी मदद कर सकता है। फूडस्विच नामक यह एेप्प ऑस्ट्रेलिया के जॉर्ज इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ और अमेरिका के नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा विकसित किया गया है। यह फूडस्विच भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और हांगकांग समेत कई देशों में पहले ही लॉन्च हो चुका है। मोबाइल स्क्रीन पर एक टैप के साथ उपयोगकर्ता पैक्ड किए गए भोजन के बारकोड को स्कैन करने के साथ ही उस खाद्य पदार्थ की गुणवत्त की रेटिंग करने के अलावा अन्य स्वास्थ्यवर्धक भोज्य पदार्थों की पहचान भी कर सकते हैं। यह एेप्प हेल्थ स्टार रेटिंग उपलब्ध कराता है जो प्रत्येक भोजन को 0.5 स्टार (अस्वास्थ्यकर) से 5 स्टार (स्वस्थ) के बीच स्कोर करता है। यह गणना एक कंप्यूटर एल्गोरिदम पर आधारित है जो

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विविध ऑस्ट्रेलिया के जॉर्ज इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल हेल्थ और अमेरिका के नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक ऐसा ऐप्प विकसित किया है जो स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन चुनने में आपकी मदद करेगा

स्वास्थ्य पर विभिन्न पोषक तत्वों के पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बताता है। शोधकर्ताओं का दावा है कि यह एप भोजन में वसा, संतृप्त वसा, चीनी और नमक की जानकारी देने के साथ ही एक व्यस्क व्यक्ति के इनके दैनिक सेवन का प्रतिशत भी बताता है। ऐप्प में यातायात सिग्नल की तरह लाल, पीले और हरे रंग की रोशनी है। यदि किसी भोज्य पदार्थ में कुछ स्टार अथवा कई लाल रोशनी दिखती है तो इसका मतलब यह हुआ कि इसमें वसा, चीनी और नमक की भारी मात्रा विद्यमान है। यदि कोई उपयोगकर्ता बारकोड स्कैन करता है और डाटाबेस में वह भोज्यपदार्थ उपलब्ध नहीं है तो ऐप्प उपयोगकर्ता को पैकेजिंग, इसके पोषण तथ्यों और घटक सूची की तस्वीर उपलब्ध करने के लिए संकेत देता है ताकि एेप्प की टीम इसे डेटाबेस में जोड़ सके। अमेरिका के नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर मार्क हफमैन कहत हैं कि इस प्रकार की क्राउडसोर्सिंग (विभिन्न स्रोतों प्राप्त जानकारी) ऐप्प की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि

निर्माता अ क्स र उ त ्पा द ों को अपडेट करते रहते हैं जिसे इस ऐप्प के द्वारा ट्रैस किया जा सकता है। एेप्प के भीतर एक साल्टस्विच फिल्टर उपयोगकर्ताओं को कम नमक वाले खाद्य पदार्थों के लिए मार्गदर्शन कर सकता है। वहीं, उपयोगकर्ताओं को एेप्प के 268,000-उत्पाद डेटाबेस को अपडेट करने के लिए नए और बदलते खाद्य पदार्थों पर जानकारी को उपलब्ध कराने के लिए कहा गया है। (एजेंसी)

वॉटर कैन से बनवाए यूरिनल छात्रों केलिए टाॅयलेट की कमी महसूस कर तमिलनाडु के शिक्षक मुरुगेसन ने वाटर कैन से यूरिनल बनवाया

मिलनाडु के विलुप्पुरम में एक स्कूल शिक्षक के नायाब आइडिया की चहुंओर तारीफ हो रही है। यहां एक सरकारी स्कूल के शिक्षक ने वॉटर कैन के इस्तेमाल से बच्चों के लिए यूरिनल बनवाए हैं। यह सरकारी स्कूल जिले के सेरानूर में है। यहां की कुल आबादी 1000 लोगों की है।

दरअसल, शुरू से ही स्कूल के शिक्षक मुरुगेसन अपने छात्रों को कई सुविधाएं उपलब्ध कराने का प्रयासरत रहे हैं। स्कूल में छात्रों के लिए सारी मूलभूत और जरूरी सुविधाएं उपलब्ध हैं, इसके लिए वह अक्सर कोई न कोई सकारात्मक कदम उठाते हैं। कुछ दिनों पहले ही मुरुगेसन ने

छात्रों के लिए यूरिनल बनवाए। खास बात यह है कि यूरिनल बनाने के लिए वॉटर कैन का प्रयोग हुआ है। यह टॉइलट लोगों के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। इतना ही नहीं मुरुगेसन छात्रों को फ्री कंप्यूटर की शिक्षा देते हैं और उन्हें आर्ट भी सिखाते हैं। वैसे स्कूल में बच्चों के लिए टायलेट तो हैं। कुछ दिनों पहले टायलेट में कुछ समस्या आ गई। उसका प्रयोग प्रयोग बंद हो जाने के बाद छात्र इधर-उधर खुले में जाने लगे। मुरुगेसन ने बताया कि उन्हें बच्चों की सेहत और सुरक्षा की चिंता होने लगी। वह

परेशान हो गए। एक दिन मुरुगेसन ने यूट्यूब में एक विडियो देखा। विडियो को देखकर उन्हें स्कूल में बेकार वॉटर कैन के मदद से यूरिनल बनवाने का आइडिया आया। उन्होंने ऐसा ही किया। मुरुगेसन के दोस्तों और दूसरे शिक्षकों ने प्लास्टिक ट्यूब्स खरीदने के लिए दान दिए। कुछ दोस्तों ने खुद आगे आकर इस पहल में मदद की। सबकी मदद से बहुत ही कम खर्च में ये यूरिनल बन गए। इसकी खास बात यह है कि इन यूरिनल की सफाई बहुत ही आसान और सस्ती है। (एजेंसी)


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स्वास्थ्य

16 - 22 जुलाई 2018

हाल ही में हुए एक शोध से पता चला है कि भारतीय महिलाओं में विटामिनडी की मात्रा बेहद कम है, जिसकी वजह से उन्हें कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं से जूझना पड़ता है

खास बातें उत्तर भारत की 69 फीसदी महिलाओं में विटामिन-डी की कमी

भारतीय महिलाओं में विटामिन-डी!

म्स, सफदरजंग और फोर्टिस अस्पताल के डॉक्टरों द्वारा मिलकर किए गए शोध से पता चला है कि उत्तर भारत में रहने वाली करीब 69 फीसदी महिलाओं में विटामिन-डी की कमी है और करीब 26 फीसदी महिलाओं में विटामिन-डी की मात्रा पर्याप्त है। मात्र 5 फीसदी महिलाओं में ही सही मात्रा में विटामिन-डी पाया जाता है। विटामिन-डी का वैसे तो सीधा संबंध धूप से है। सूर्य की किरणों से मिलने वाला विटामिन स्वस्थ हड्डियों के लिए ही नहीं, बल्कि शरीर के प्रतिरोधी तंत्र के लिए भी बहुत जरूरी है। चूंकि भारतीय महिलाएं ज़्यादातर घर के कामकाज में व्यस्त रहती हैं इस वजह से धूप का सेवन कम करती हैं। दूसरी वजह, महिलाओं में होने वाला हॉर्मोनल बदलाव है। मेनोपोज के बाद और बच्चों को दूध पिलाने वाली महिलाओं में ये दिक्कत ज्यादा देखने को मिलती है। पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा, आर.वेंकटरमन और प्रणब मुखर्जी के फीजिशियन रह चुके डॉ. मोहसीन वली के मुताबिक विटामिन डी की कमी की एक अन्य वजह भी है और वह है खाने में रिफाइंड तेल का इस्तेमाल। रिफाइंड तेल के इस्तेमाल की वजह से शरीर में कोलेस्ट्रॉल मॉलिक्युल (कण) कम बनते हैं। शरीर में विटामिन-डी बनाने में कोलेस्ट्रॉल के कणों का काफी योगदान होता है। इसकी वजह से विटामिन-डी को शरीर में प्रोसेस करने में दिक्कत

आने लगती है। डॉ. वली कहते हैं कि रिफाइंड तेल पर निर्भरता को खत्म करने की कोशिश जरूर करनी चाहिए। अगर एक बार में ऐसा करना संभव न हो तो धीरे-धीरे घी और सरसों के तेल पर निर्भरता बढ़ाई जा सकती है। रिफाइंड में ट्रांस फैट ज्यादा होता है। ट्रांस फैट शरीर में अच्छे कोलेस्ट्रॉल को कम करता है और बुरे कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। इस वजह से दूसरी बीमारियों का भी खतरा बढ़ता है। विटामिन-डी की मात्रा खून में 75 नैनो ग्राम हो तो ही सही माना जाता है। जब खून में विटामिन-डी की मात्रा 50 से 75 नैनो ग्राम के बीच होती है तो व्यक्ति में विटामिन डी की मात्रा को अपर्याप्त माना जाता है। डॉक्टरों के मुताबिक, खून में विटामिन-डी की मात्रा 50 नैनो ग्राम से कम हो तो उस शख्स को विटामिन-डी की कमी का शिकार मानते हैं। डॉ. वली की मानें तो विटामिन-डी की कमी को भारत सरकार को महामारी करार दे देना चाहिए, क्योंकि 95 फीसदी महिलाएं इससे पीड़ित हैं। वे कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि पुरुषों को ये बीमारी नहीं होती, लेकिन महिलाओं के मुकाबले उनमें ये समस्या कम पाई जाती है। आज ज्यादातर भारतीयों में विटामिन-डी 5 से 20 नैनोग्राम के बीच में पाया जाता है। बिना काम के जल्दी थकान, जोड़ों में दर्द, पैरों में सूजन, लंबे वक्त तक खड़े रहने में दिक्कत,

करीब 26 फीसदी महिलाओं में विटामिन-डी की मात्रा पर्याप्त है मात्र 5 फीसदी महिलाओं में सही मात्रा में विटामिन-डी है

मांस-पेशियों में कमजोरी, विटामिन-डी की कमी के लक्षण है। ये ऐसे लक्षण हैं जिन्हें लोग ज्यादा गंभीरता से नहीं लेते। दरअसल यही नुकसान की सबसे बड़ी वजह है। विटामिन-डी की कमी धीरेधीरे शरीर के सभी हिस्सों को कमजोर बना देती है जिसकी वजह से बुढ़ापे में हड्डियों, मांसपेशियों और जोड़ो में ज्यादा दर्द होता है। डॉक्टरों के मुताबिक, विटामिन-डी की कमी से सीधे कोई नुकसान नहीं होता। लेकिन शरीर में विटामिन-डी की कमी हो तो शरीर में कैल्शियम सोखने की क्षमता कम हो जाती है और शरीर में दूसरी समस्याएं शुरू हो जाती हैं। इस वजह से हड्डियों, मांसपेशियों और जोड़ो में सबसे अधिक परेशानी होती है। सबसे ज्यादा खतरा हड्डियों के फ्रैक्चर होने का होता है। भारत में हुए शोध में पाया गया है कि जिन महिलाओं में विटामिन-डी की कमी है, उनमें डायबिटीज का खतरा ज्यादा होता है। इसीलिए उत्तर भारत की 800 महिलाओं पर शोध किया गया, जिनकी उम्र 20 से 60 साल के बीच थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोध की बात करें तो ब्रिटेन में इस पर काफी काम हुआ है। ब्रिटेन की 'न्यूरोलॉजी' नाम की पत्रिका में छपे शोध में कहा गया है कि विटामिन-डी की कमी से उम्रदराज लोगों में पागलपन का खतरा बढ़ जाता है। इस शोध के लिए 65 साल से अधिक की उम्र के 1,650 से अधिक लोगों पर अध्ययन किया गया, जिसके बाद

भारत की भौगोलिक स्थिति ऐसी है जहां साल भर धूप अच्छी मिलती है, इसके बावजूद अगर भारत में ये समस्या तेजी से पैर पसार रही है तो ये बेहद गंभीर है

इस नतीजे पर पहुंचा गया है। ऐसा ही एक शोध यूनिवर्सिटी ऑफ एकेस्टर मेडिकल स्कूल में हुआ। वहां डेविड लेवेलिन के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय टीम ने लगभग छह साल तक उम्रदराज लोगों पर शोध किया। शोध से पहले इन सभी व्यक्तियों में पागलपन, दिल की बीमारियां और दिल का दौरा जैसी बीमारियां नहीं थीं। अध्ययन के अंत में पाया गया कि 1,169 लोगों में विटामिन-डी का स्तर अच्छा था और उनमें 10 में से एक व्यक्ति में पागलपन का खतरा होने की आशंका थी। जिन 70 व्यक्तियों में विटामिन-डी का स्तर बहुत कम था, उनमें से पांच में से एक में पागलपन का खतरा होने की आशंका जताई गई। एम्स में हड्डियों के विभाग में डॉक्टर सी एस यादव के मुताबिक खाने के जरिए विटामिन- डी की कमी को दूर करना थोड़ा मुश्किल है। अंडे के पीले वाले हिस्से में और कुछ खास तरह की मछली में विटामिन-डी पाया जाता है। इसीलिए विटामिन-डी की कमी को दूर करने का सबसे अच्छा उपाय है धूप में कम कपड़ों के साथ घूमना और विटामिनडी का ओरल सप्लीमेंट लेना। डॉक्टर कहते हैं एक घंटा रोज धूप में रहने से विटामिन-डी की कमी की समस्या से निजात मिल सकती है। वैसे सुबह और शाम की धूप में बाहर टहलना ज्यादा अच्छा माना जाता है, लेकिन डॉ. यादव कहते हैं कि किसी भी समय की धूप में एक्सपोज होने पर काम बन सकता है। विटामिन-डी की कमी से निपटने में ओरल सप्लीमेंट बहुत कारगर होता है। आठ सप्ताह तक तक हर सप्ताह विटामिन-डी के ओरल सप्लीमेंट खाए जाएं तो ये कारगर होता है। आमतौर पर एक सप्ताह में 60 हजार यूनिट की विटामिनडी सप्लीमेंट से लेने की जरूरत पड़ती है। वैसे भारत की भौगोलिक स्थिति ऐसी है जहां साल भर धूप अच्छी मिलती है, इसके बावजूद अगर भारत में ये समस्या तेजी से पैर पसार रही है तो ये बेहद गंभीर है।


16 - 22 जुलाई 2018

'मेरा देश मेरा संगीत'

नन्हें बेटे की जिंदगी बचाने मां ने दिया लीवर

छत्तीसगढ़ की एक गरीब महिला ने अपने छोटे बेटे की जान बचाने के लिए अपना लीवर दिया

भारतीय लोक संगीत को देश और दुनिया के सामने लाने के लिए शंकर महादेवन और टूमॉरोज इंडिया ने मिल कर 'मेरा देश, मेरा संगीत' नामक एक कार्यक्रम तैयार किया है जिसकी प्रस्तुति अक्टूबर में होगी

सं

गीत न किसी सीमाओं को जानता है, न ही बाधाओं को। ऐसे ही फलसफे के साथ संगीतकार शंकर महादेवन और टूमॉरोज इंडिया ने साथ मिलकर एक ऐसी योजना बनाई है, जिसके जरिए भारत के लोक संगीत को देश और दुनिया के सामने लाया जा सके। शंकर महादेवन के 'मेरा देश, मेरा संगीत' प्रोजेक्ट के लिए टूमॉरोज इंडिया एक बड़ा मंच लेकर आया है, जिसका नाम है 'टूमॉरोज इंडिया ग्लोबल समिट एडिशन 4'। यह कार्यक्रम इस साल 6 अक्टूबर को दिल्ली के इंदिरा गांधी इनडोर स्टेडियम में आयोजित होगा। यह ग्लोबल सोशल (इंडिया) फाउंडेशन की पहल है, जो इस सबसे बड़े लोकतंत्र के उज्ज्वल भविष्य के लिए काम कर रहा है। इसी साल की शुरुआत में टूमॉरोज इंडिया ने जन जागरूकता और भागीदारी अभियान गुरुग्राम के साइबर हब से शुरू किया था, जो दिल्ली के कनॉट प्लेस, कमला नगर और नोएडा के किडजानिया में चलाया गया। इस अभियान के तहत हर एक शख्स से शपथ लेने और उसका पालन करने की अपील की गई थी। केवल 30 दिनों में ही टूमॉरोज इंडिया 4 लाख लोगों तक पहुंच गया है, वह भी अभियान के लिए 5 हजार प्रविष्टियों के साथ। हर शपथ के साथ टूमॉरोज इंडिया 1 रुपए का दान तीन वजहों के लिए करता है- बाल मजदूरी को खत्म करने, सेहत की

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विविध

बेहतरी और स्वच्छता और बच्चों की बेहतर शिक्षा के लिए। टूमॉरोज इंडिया ग्लोबल समिट एक ऐसा कार्यक्रम है, जिसमें सभी को कल्पना, चिंतन और नई राह चुनने का मौका मिलता है। इस आयोजन की शोभा बढ़ाएंगे कुछ खास शख्सियतें- जैसे लेखक अमीश त्रिपाठी, अभिनेत्री शबाना आजमी, तकनीक गुरु तन्मय बख्शी, मशहूर शेफ मनीष मल्होत्रा, रितु बेरी और भी बहुत से लोग, जो अपनी प्रेरणादायक कहानियों और शब्दों से देश को ऊंचा उठाने के लिए प्रेरित करेंगे। इसी रात को लोग गवाह बनेंगे शंकर महादेवन की असाधारण प्रस्तुति के। 'मेरा देश, मेरा संगीत' के विचार के साथ शंकर महादेवन देश के कोने-कोने से चुने गए संगीतकारों को लाएंगे, जो देश और देशवासियों की सीमाओं को खत्म कर देंगे। इस रात को समर्पित किया जाएगा भारतीय सेना के जांबाज जवानांे को जो देश की विविधता में मौजूद संगीतमय एकता की एक नई परिभाषा के गवाह बनेंगे। यह परफॉर्मेंस एक कोशिश होगी एशियन रिकॉर्डस में शामिल होने की, क्योंकि ये एशिया में पहली बार होगा जब भारतीय सेना और उनकी बहादुरी को एक लाइव संगीतमय सम्मान दिया जाएगा। भारत के भविष्य की ऊंची उड़ान की पहलों और विचारों के साथ परिवर्तन के दूत सभी के लिए एक नया कल लेकर आएंगे। (आईएएनएस)

त्तीसगढ़ के कोरिया जिले के गांव रामपुर (पटना) निवासी एक गरीब श्रमिक परिवार के चार वर्षीय नन्हें बच्चे अश्विन को नया जीवन मिल गया है। बच्चे की मां ने अपना लीवर प्रत्यारोपण के लिए दिया। नई दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर एंड बाइलरी सांइस में लीवर प्रत्यारोपण सफलतापूर्वक किया गया। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने जे. पी. नड्डा को पत्र लिखकर इस बच्चे का नि:शुल्क इलाज करवाने का आग्रह किया था। बच्चे के मातापिता सुनीता साहू और राजपाल साहू गांव में रोजी-मजदूरी करके जीवनयापन करते हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री नड्डा के निर्देश पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से बच्चे के लीवर प्रत्यारोपण के लिए राष्ट्रीय आरोग्य निधि से 14 लाख रुपए की धनराशि तत्काल मंजूर कर दी गई और यह राशि अस्पताल को दी गई। दरअसल, मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह कुछ महीने पहले जब कोरिया जिले के प्रवास पर थे, तो गरीब माता-पिता ने अपने बच्चे की जान बचाने के लिए उनसे मुलाकात की थी। मुख्यमंत्री ने संजीवनी कोष से बच्चे की प्रारंभिक चिकित्सा के लिए तत्काल एक लाख 50 हजार रुपये मंजूर कर दिया था। मुख्यमंत्री ने बच्चे के लीवर प्रत्यारोपण में मदद के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा को तुरंत चिट्टी लिखी। साथ ही उन्होंने श्रममंत्री और बैकुण्ठपुर के विधायक

भईयालाल राजवाड़े को बच्चे के इलाज के लिए आगे की कार्रवाई पूर्ण करने की जिम्मेदारी दी। मंत्री राजवाड़े ने अपनी ओर से सक्रिय पहल करते हुए इस गरीब परिवार को दिल्ली में इलाज के लिए रहने की सुविधा दिलाई। सुनीता और राजपाल साहू अपने बच्चे के इलाज के लिए दिल्ली के बसंत कुंज में किराए के मकान में लगभग ढाई महीने से निवास कर रहे हैं। आज हुए सफल ऑपरेशन पर मुख्यमंत्री रमन सिंह और श्रम मंत्री राजवाड़े ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए बच्चे के स्वस्थ और सुखी जीवन की कामना की है। डॉक्टरों के अनुसार, लीवर प्रत्यारोपण के बाद बच्चे के दवा आदि पर लगभग 10 लाख रुपए का खर्च संभावित है। श्रममंत्री राजवाड़े ने यह खर्च अपनी ओर से वहन करने का आश्वासन दिया है। (आईएएनएस)

मिर्गी की दवा दिमागी ट्यूमर में भी कारगर

ग्लू

एक शोध का दावा है कि ग्लूकोमा, मिर्गी व हार्ट फेल्योर के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा दिमागी ट्यूमर पीड़ितों के लिए कारगर है

कोमा, मिर्गी व हार्ट फेल्योर के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा तेजी से बढ़ते दिमागी ट्यूमर के पीड़ितों के लिए सहायक हो सकती है, वह ज्यादा समय तक जी सकते हैं। दिमागी ट्यूमर को ग्लिओब्लास्टोमा के नाम से जानते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया है कि ज्यदातर ग्लिओब्लासटोमा मरीजों में उच्च स्तर का प्रोटीन बीसीएल-3 टेमोजोलोमाइड (टीएमजेड) के

फायदेमंद प्रभावों पर उदासीन व्यवहार करता है। टीएमजेड बीमारी की कीमोथेरपी के लिए अक्सर प्रयोग किया जाता है। प्रोटीन टीएमजेड से कैंसर कोशिकाओं की रक्षा करता है। यह एक बचाव करने वाले एंजाइम को सक्रिय करके कैंसर कोशिकाओं की रक्षा करता है। इस एंजाइम का नाम काबोर्निक एनहाइड्रेज 2 है। शोधकर्ताओं के दल ने कहा कि ऊंचाई की बीमारी

की दवा एसिटाजोलमाइड एक कार्बनिक एनहाइड्रेज अवरोधक है और टीएमजेड की ट्यूमर कोशिकाओं को मारने की क्षमता को पुनस्र्थापित कर सकती है। इस प्रकार टीएमजेड को एसीटाजोलमाइड जोड़ने से ग्लिओब्लास्टोमा के साथ लंबे समय तक जीवित रहने में मदद मिल सकती है।


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स्वच्छता

16 - 22 जुलाई 2018

तंजानिया

तंजानिया की गिनती जहां एक तरफ खूबसूरत अफ्रीकी देश के रूप में होती है, वहीं यह देश गरीबी के साथ स्वच्छता के मोर्चे पर बड़ा संघर्ष कर रहा है

खास बातें तंजानिया के उत्तरी भाग में इथोपिया, केन्या और युगांडा देश हैं तंजानिया में 50 हजार से अधिक भारतीय मूल के लोग रहते हैं तटीय क्षेत्रों में सफाई के लिए बड़े स्तर पर अभियान चलाए जा रहे हैं

स्वच्छता के आदर्श के लिए जूझता देश

एसएसबी ब्यूरो

पने फिल्मी अवॉर्ड शो में कई बार दक्षिण अफ्रीका को देखा होगा। कई बार क्रिकेट खेलते खिलाड़ियों के साथ आपने केन्या के मैदान देखे होंगे। ईदी अमीन के जुल्मों की कहानियां आपने युगांडा के इतिहास में पढ़ी होंगी, किंतु इन देशों के बीच एक पूर्वी अफ्रीकी देश के बारे में शायद बहुत सारे लोगों को कुछ नहीं पता। पूर्वी अफ्रीका का यह देश तंजानिया है, जिसे पहले ‘तांगानिका’ कहा जाता था। इस देश की आजादी के बाद इसका नाम ‘तंजानिया’ रखा गया, जिसके बारे में भारत में बहुत कम लोग जानते हैं। तंजानिया के उत्तरी भाग में इ​िथयोपिया, केन्या और युगांडा हैं।

खूबसूरत देश

तंजानिया वैसे तो एक अभावग्रस्त देश है, पर यह एक बहुत खूबसूरत देश भी है। यहां के संग्रहालय और प्राकृतिक सुंदरता दर्शनीय है। तंजानिया की राजधानी दार-ए-सलाम है, जो कि भूमध्य रेखा पर स्थित है। इस वजह से यहां (दार-ए-सलाम में) गर्मी हुआ करती है। किंतु तंजानिया में हिमालय के बाद का दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा पर्वत किलिमंजारो है, जो अरुशा शहर के निकट है। दारए-सलाम से 650 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अरुशा शहर किलिमंजारो की तलहटी में बसा हुआ है। यह किलिमंजारो पर्वत का नयनरम्य दृश्य है, जो मन को मोह लेता है।

गोरोंगोरो नेशनल पार्क

यहां से गोरोंगोरो नेशनल पार्क जाया जा सकता है। जहां जिराफ, तेंदुए, शेर, हाथी शुतुरमुर्ग और जेबरा जैसे कई अलग-अलग प्रजातियों के वन्य प्राणियों को देखने लोग यूरोप और अमेरिका से यहां आते हैं और प्राकृतिक सौंदर्य के साथ जानवरों को देखने का लुत्फ उठाते हैं। यहां मोसी नामक एक दूसरा छोटा-सा शहर है, जिसके 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित 'किलिमंजारो क्रिश्चियन मेडिकल सेंटर' विश्व विख्यात है।

हर धर्म का सम्मान

यहां के लोग हरेक धर्म को बेहद सम्मानपूर्ण दर्जा देते हैं। हर धर्म के लोग यहां हैं और बड़े प्यार से सब साथ रहते हैं। यहां जात-पात को लेकर मनमुटाव या भेदभाव आमतौर पर नहीं होते हैं। यहां पूजा स्थल के रूप में गुरुद्वारे, सनातन मंदिर, स्वामीनारायण मंदिर, मस्जिदें और गिरिजाघर सभी हैं। यहां के लोग श्यामवर्णी जरूर होते हैं, किंतु होते हैं बहुत भोले। तंजानिया में स्वाहिली भाषा बोली जाती है। वैसे इंग्लिश, गुजराती व हिंदी का भी प्रचलन है। हिंदी व गुजराती हिंदुस्तानी लोग बोलते हैं। यहां के स्कूलों में स्वाहिली और इंग्लिश सिखाई

जाती है। कुल मिलाकर तंजानिया एक बहुत ही प्यारा देश है। यहां की करंसी को शीलिंग कहा जाता है।

जंजीबार टापू

जंजीबार तंजानिया का टापू है, जो मसालों के लिए विश्व विख्यात है, जहां लौंग, इलायची, जायफल, तेजपत्ता, दालचीनी मुख्य रूप से उगाई जाती है और इन चीजों का निर्यात भी किया जाता है विश्व के अन्य देशों को। जंजीबार में कई जगह देखने और घूमने लायक हैं। यह टापू चारो ओर से समुद्र से घिरा हुआ है। दार-ए-सलाम से बोट द्वारा डेढ़ से दो घंटे में जंजीबार पहुंचा जा सकता है और प्लेन में 15 मिनट में हम दार-ए-सलाम से जंजीबार पहुंच सकते हैं, जहां आधुनिक सज्जा से सजी नई-नई होटल्स भी हैं तथा आप वहां इंडियन व अफ्रीकन फूड का लुत्फ उठा सकते हैं। यदि आप जंजीबार जाएं तो वहां के लौंग के बगीचे देखने जरूर जाइए। इसे 'स्पाइस टूर' कहा जाता है। यहां के गहरे रंग के लोग जिस आत्मीयता के साथ आपका स्वागत करेंगे, वह आपको जरूर बेहद पसंद आएगा।

तंजानिया पिछले दशक से अपेक्षाकृत स्थिर और उच्च विकास दर दर्ज करने में कामयाब रहा है। पर्यटन देश के लिए विदेशी मुद्रा यहां के लिए शीर्ष स्रोत जरूर है, पर कृषि के जरिए आज भी वहां लगभग 70 प्रतिशत परिवारों की आजीविका मिलती है


16 - 22 जुलाई 2018

टारगेट 2030

तंजानिया स्वच्छता के क्षेत्र में सामुदायिकता के मॉडल को आदर्श मानकर काम कर रहा है

तं

जानिया ने वर्ष 2030 तक पानी और स्वच्छता के क्षेत्र में सौ फीसद कवरेज का लक्ष्य रखा है। वहां सबसे बड़ी चुनौती इस लक्ष्य को ग्रामीण क्षेत्रों में हासिल करने की है, जहां वर्ष 2015 तक महज एक फीसद लोगों तक पानी का जलापूर्ति का सुरक्षित प्रबंध था। जाहिर है कि बगैर जलापूर्ति की व्यवस्था को सुधारे स्वच्छता के क्षेत्र में दो कदम भी आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। अच्छी बात यह है कि तंजानिया स्वच्छता के क्षेत्र में सामुदायिकता के मॉडल को आदर्श

मानकर काम कर रहा है। इससे जहां शौचालय निर्माण की लागत में कमी आएगी, वहीं उसका ज्यादा से ज्यादा लोगों द्वारा इस्तेमाल सुनिश्चित हो सकेगा। अफ्रीका के कई दूसरे देश भी कम्युनिटी सैनिटेशन के मॉडल के आधार पर ही अपने यहां स्वच्छता अभियान चला रहे हैं।

तंजानिया में भारतवंशी

तंजानिया में 50 हजार से अधिक भारतीय मूल के लोग रहते हैं। उनमें से बहुत से लोग व्यवसायी हैं, जिनके हाथों में तंजानिया की अर्थव्यवस्था का एक अच्छा-खासा हिस्सा है। तंजानिया में भारतीयों के आने का इतिहास 19वीं शताब्दी से शुरू होता है, जब गुजराती व्यवसायी वहां पहुंचे थे। धीरे-धीरे जंजीबार का सारा व्यापार उनके हाथ में आ गया। उस काल में निर्मित अनेकों भवन आज भी स्टोन टाउन में बचे हुए हैं, जो इस द्वीप का व्यापार का केंद्र था।

10 निर्धनतम देशों में शामिल

बात करें अभाव और निर्धनता की तो विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा तय किए गए सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों पर तैयार की गई प्रगति रिपोर्ट के अनुसार जिन देशों में स्वच्छता और स्वास्थ्य के साथ मानवीय सूचकांक निम्नतम स्तर पर है, उनमें तंजानिया शामिल है। ग्लोबल

तंजानिया- वाश (वाटर, सैनिटेशन और हाइजीन) सर्विसेज कवरेज- 2015

सेवाएं शहरी बुनियादी जल आपूर्ति 46 जलापूर्ति का सुरक्षित प्रबंध 34 बुनियादी स्वच्छता सेवाएं 15 खुले में शौच सुरक्षित स्वच्छता सेवाएं 01 हाथ धोने की सुविधा 15 (साबुन और पानी की व्यवस्था)

ग्रामीण 37 01 18 83 34 15

स्वच्छता

स्वच्छ तंजानिया के लिए ‘सुलभ’ पहल

सुलभ शौचालय के नाम से लोकप्रिय ‘टू पिट पोर फ्लश’ तकनीक को तंजानिया सहित चीन, बांग्लादेश, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका, भूटान, नेपाल और अफगानिस्तान आदि देशों ने अपनाया है

ज तंजानिया, डॉमिनिक रिपब्लिक, प्यूर्टो रिको जैसे देशों ने तटीय क्षेत्रों में सफाई के लिए बड़े स्तर पर अभियान चलाए जा रहे हैं। इस देश को स्वच्छ और सुंदर बनाने में सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक की भी बड़ी भूमिका है। उनके द्वारा आविष्कार किया गया ‘टू पिट पोर फ्लश’ तकनीक वाला टॉयलेट मॉडल, पूरी दुनिया में किफायत और इस्तेमाल में आसान होने के कारण सराहा जाता है। अपने इन्हीं गुणों के कारण सुलभ शौचालय के नाम से लोकप्रिय इस टॉयलेट तकनीक को तंजानिया सहित चीन, बांग्लादेश, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका, भूटान, नेपाल और अफगानिस्तान आदि देशों ने अपनाया है। इस बारे में खुद डॉ. पाठक कहते हैं, ‘हमारी तकनीक की मदद से धरती पर रहने

मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2014-15 के अनुसार वर्ष 2011 में दुनिया भर में करीब 101 करोड़ गरीब व्यक्ति थे। विश्व बैंक रोजाना 1.25 डॉलर (करीब 75 रुपए) से कम खर्च करने वाले को गरीब की श्रेणी में रखता है। रिपोर्ट के अनुसार 2011 में दुनिया की 60 फीसदी गरीब आबादी महज पांच देशों- बांग्लादेश, चीन, कांगो, भारत और नाइजीरिया में थी। इसमें से करीब 30 फीसदी गरीब भारत में थे। 10 फीसदी नाइजीरिया में थे। इसके बाद 8 फीसदी चीन में, बांग्लादेश में 6 फीसदी और कांगो में 5 फीसदी गरीब थे। इथियोपिया, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, मेडागास्कर और तंजानिया को भी शामिल कर लिया जाए तो दुनिया की करीब 70 फीसदी आबादी इन 10 देशों में ही थी।

स्रोत जरूर है, पर कृषि के जरिए आज भी वहां लगभग 70 प्रतिशत परिवारों की आजीविका मिलती है। वैसे तो गरीबी की दर में हाल के वर्षों में गिरावट आई है, लेकिन गरीबों की कुल संख्या मुख्य रूप से उच्च जनसंख्या वृद्धि दर के कारण नहीं बदली है। यह देश तेल, गैस, और यूरेनियम जैसे प्राकृतिक संसाधनों में भी समृद्ध है। इसके अलावा, हिंद महासागर पर सबसे लंबी तटरेखा इसी देश की है, जिसकी बदौलत यह इस क्षेत्र की सुरक्षा और भूसामरिक परिवेश के लिहाज से अत्यं्त महत्वपूर्ण बन गया है।

विकास की दिशा में अग्रसर

भारत की दवा

तंजानिया पिछले दशक से अपेक्षाकृत स्थिर और उच्च विकास दर दर्ज करने में कामयाब रहा है। पर्यटन देश के लिए विदेशी मुद्रा यहां के लिए शीर्ष

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तंजानिया द्वारा आयात की जाने वाली सभी दवाओं और अन्य दवा उत्पादों में से लगभग 36 प्रतिशत भारत से ही हासिल किया जाता है। मुख्य रूप से

वाले 2.3 अरब ऐसे लोगों की समस्या दूर हो सकती है, जिनके पास सुरक्षित और स्वच्छ शौचालय की सुविधा नहीं है। इनमें से ज्यादातर लोग अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में रहते हैं।’ गौरतलब है कि सुलभ टॉयलेट तकनीक को जहां बीबीसी ने दुनिया के पांच विशिष्ट आविष्कारों में शुमार किया है, वहीं इसे यूनिसेफ और यूएन-हैबिटेट ने इसके इस्तेमाल को प्रस्तावित किया है। डॉ. पाठक ने कई वर्ष पहले ही तंजानिया सहित 15 अफ्रीकी देशों में सुलभ तकनीक के शौचालय बनाने की पहल कर चुके हैं। इस लिहाज से देखें तो आज अगर तंजानिया की सरकार और वहां का समाज स्वच्छता तरफ तेज कदमों के साथ बढ़ने का अटल इरादा दिखा रहा है तो इसमें सुलभ संस्था और डॉ. पाठक की भी बड़ी भूमिका है। सोने के आयात में तेजी से वृद्धि होने के कारण वर्ष 2012 से ही भारत में तंजानिया से आयात में भारी बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। वर्ष 2015 में तंजानिया से भारत सोने का आयात कुल मिलाकर 539.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर का हुआ, जो इस देश से भारत में हुए कुल आयात का 53.7 प्रतिशत आंका गया। अन्य महत्वपूर्ण वस्तुओं में काजू और दालें शामिल हैं।

भारत तीसरा बड़ा निवेशक

ब्रिटेन एवं चीन के बाद भारत ही तंजानिया में तीसरा सबसे बड़ा निवेशक है और वर्ष 1990 से लेकर वर्ष 2014 तक इसका कुल निवेश 2,000.04 मिलियन अमेरिकी डॉलर आंका गया। इस व्यापक निवेश से 426 परियोजनाओं में 54,176 से भी अधिक लोगों को रोजगार मिला है।


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पुस्तक अंश

16 - 22 जुलाई 2018

स्वास्थ्य के लिए कल्याणकारी योजनाएं

मिशन इंद्रधनुष

सरकारी सुपर स्पेशियलिटी अस्पतालों का निर्माण वर्ष 2003 में एनडीए सरकार के समय, छह नए एम्स स्थापित करने और एम्स की तर्ज पर ही छह अस्पतालों को अपग्रेड किया गया था। अब उसी योजना का दायरा बढ़ाते हुए, सरकार ने 11 नए एम्स स्थापित करने और पिछली सरकारों द्वारा स्थापित 58 कॉलेजों को अपग्रेड करने का फैसला किया है। आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में नए एम्स के लिए स्वीकृति दे दी गई है। साथ ही, असम, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर (2), पंजाब,

तमिलनाडु और बिहार में भी नए एम्स प्रस्तावित हैं।

सरकार ने बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था के क्षेत्र में कई कदम उठाए हैं। हम बीमारी के समय, अपना पूरा सहयोग देना चाहते हैं। हमें स्वास्थ्य सेवा से आगे बढ़कर, अच्छे स्वास्थ्य के लिए लक्ष्य रखना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

पीआईओ और ओसीआई कार्ड का कन्वर्जेंस

भारतीय मूल के लोगों और अनिवासी भारतीयों को अलग-अलग प्रकार के कार्ड जारी किए जा रहे थे। इन कार्डों के माध्यम से प्राप्त सुविधाएं भी अलग थीं। लेकिन अब, भारत के विदेशी नागरिकों (ओसीआई) के नाम पर एक ही कार्ड जारी किया जा रहा है, जो आजीवन वीजा की सुविधा के साथ-साथ, अन्य कई सुविधाएं प्रदान करता है। अब तक लगभग 2 लाख कार्डों को ओसीआई (ओवरसीज सिटीजन ऑफ इंडिया) कार्ड में बदला जा चुका है। दुनिया में जहां कहीं भी, मेरे साथी भारतीय हैं, उनके लिए, हम पासपोर्ट का रंग नहीं देखते हैं। रक्त का रंग पर्याप्त है, धरती मां का संबंध पर्याप्त है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

इस आंदोलन के माध्यम से, बच्चों और गर्भवती महिलाओं को टीबी, पोलियो, हेपेटाइटिस, डिप्थीरिया, टेटनस, काली खांसी और खसरा जैसी सात घातक बीमारियों से बचाने के लिए मुफ्त टीकाकरण किया जाता है। इस पहल के माध्यम से, 2.8 करोड़ से अधिक बच्चे और 55.4 लाख से अधिक गर्भवती महिलाओं को टीका लगाया जा चुका है।

मातृत्व और प्रसवपूर्व टेटनस और पोलियो मुक्त राष्ट्र बनाने के लिए, हमारी सरकार, दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण कार्यक्रम 'मिशन इंद्रधनुष' शुरू कर चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी


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पुस्तक अंश

अनिवासी भारतीयों के लिए कल्याणकारी योजनाएं ‘मदद’ पोर्टल

प्रवासी कौशल विकास योजना

खाड़ी देशों में जाने वाले भारतीय कामगार, अपने अधिकारों और सुरक्षा उपायों को उचित रूप से जाने बिना ही जाते हैं और इस प्रकार आसानी से उनका शोषण किया जाता है। लेकिन इस योजना के तहत, विदेश मंत्रालय, कौशल विकास मंत्रालय के साथ मिलकर, इन श्रमिकों को उचित प्रशिक्षण और नीति प्रदान करता है। इसकी टैगलाइन ‘सुरक्षित रूप से जाना, प्रशिक्षित होकर जाना’ है। अक्टूबर, 2016 से इसका प्रशिक्षण शुरू हो गया है। साल के अंत तक 50 विशेष कौशल केंद्रों को स्थापित करने का प्रस्ताव है। हिंदुस्तान में दुनिया को वह श्रम शक्ति देने की ताकत है, जिसकी आज इसको जरूरत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

अनिवासी भारतीयों की मुश्किल समय में देश में सुरक्षित वापसी

मोदी सरकार को संघर्ष वाले क्षेत्रों में फंसे भारतीयों को निकालने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है और सभी अवसरों पर देश ने सफलतापूर्वक इस चुनौती से पार पाया है। सरकार ने, इराक से 7200 भारतीय, लीबिया से 3750, यमन से 4748, यूक्रेन से 1100 और दक्षिण सूडान से 157 भारतीयों को निकाला है। इसने विदेशों में काम कर रहे भारतीयों के मनोबल को बढ़ावा दिया है और

उनमें आत्मविश्वास विकसित किया है।

यदि पासपोर्ट आवेदक, आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, पैन कार्ड और उसके खिलाफ कोई आपराधिक मुकदमा न चलने का स्वयं प्रमाणित हलफनामा अपने आवेदन के साथ प्रस्तुत करता है,

तो उसे पुलिस जांच की प्रतीक्षा किए बिना ही पासपोर्ट जारी कर दिया जाएगा। पुलिस जांच बाद में की जाएगी। दूरदराज के इलाकों में पासपोर्ट सुविधा सुलभ बनाने के लिए, नए पासपोर्ट केंद्र भी खोले गए हैं।

हमारी सरकार परेशानी में घिरे, अनिवासी भारतीयों की समस्याओं के प्रति संवेदनशील है और यह उन्हें हल कर रही है। हमने मुश्किल में फंसे भारतीयों को सुरक्षित रूप से भारत में लाने में सफलता पाई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

विदेशों में रहने वाले भारतीयों की शिकायतों के एकीकृत निवारण के लिए, विदेश मामलों के मंत्रालय द्वारा मदद पोर्टल की स्थापना की गई है। इस पोर्टल पर कोई भी अनिवासी भारतीय अपनी शिकायत दर्ज करा सकता है। शिकायतों को पोर्टल में ही वर्गीकृत किया जाता है और यहीं से भारतीय दूतावास तक सीधे पहुंचा जाती हैं जहां शिकायतों को हल करने की प्रक्रिया शुरू कर दी जाती है। सभी दूतावासों को 'मदद' पोर्टल से जोड़ा गया है। अध्ययन के लिए विदेश जाने वाले छात्रों के पंजीकरण की सुविधा भी ‘मदद’ पोर्टल पर शुरू की जा चुकी है।

सिर्फ आधुनिक तकनीक और प्रभावी संचार के सही समागम के साथ ही, भारत सरकार, विदेशों में रहने वाले भारतीयों के करीब आएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

पासपोर्ट प्रक्रिया का सरलीकरण

पिछले दो वर्षों में, विजयवाड़ा में एक नया क्षेत्रीय पासपोर्ट कार्यालय खोला गया है और 12 नए पासपोर्ट केंद्र खोले गए हैं, जिनमें उत्तर पूर्व के सभी राज्य शामिल हैं।


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खेल

16 - 22 जुलाई 2018

हिट मैन की बड़ी पारियों का राज

वनडे क्रिकेट में तीन दोहरे शतक के बाद टी 20 में तीन शतक लगाने वाले रोहित भारत के ऐसे अकेले बल्लेबाज हैं, जिनकी बड़ी पारियों का रहस्य जानने को हर कोई बेकरार है एसएसबी ब्यूरो

हले सुनील गावस्कर, उनके बाद सचिन तेंदुलकर और फिर विराट कोहली, टीम इंडिया को हर दौर में बल्लेबाजी का सितारा मिला है और इन अलग-अलग दौर में इन सितारों की चमक तले कुछ ऐसे हीरो रहे, जो अपने दौर में अपने से बड़े हीरो की वजह से चमक के मामले में ज़रा पीछे रह गए। गावस्कर के वक्त गुंडप्पा विश्वनाथ, तेंदुलकर के समय वीरेंद्र सहवाग और इन दिनों रोहित शर्मा वहीं हीरो हैं।

रोहित की कीमत

विश्वनाथ जहां फ्लिक शॉट की वजह से जाने जाते हैं, सहवाग आक्रामक बल्लेबाजी के लिए मशहूर हुए और रोहित शर्मा वनडे क्रिकेट में लंबी पारियों के लिए शोहरत बटोर रहे हैं। रोहित शर्मा तीन बार वनडे मैचों में दोहरे शतक जड़ चुके हैं। उनके नाम अंतरराष्ट्रीय वनडे क्रिकेट का सबसे बड़ा व्यक्तिगत स्कोर दर्ज है। साल 2014 में कोलकाता के इडेन गार्डेन मैदान पर श्रीलंका के खिलाफ ही उन्होंने 264 रनों की रिकॉर्डतोड़ पारी खेली थी। वहीं इससे पहले साल 2013 में बंगलुरू के एम चिन्नास्वामी स्टेडियम में उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई गेंदबाजी को तहस-नहस करते हुए 209 रनों की पारी खेली थी। रोहित के अलावा सचिन तेंदुलकर और वीरेंद्र सहवाग दो अन्य भारतीय हैं, जिन्होंने वनडे मैचों में दोहरा शतक लगाया है। अंतरराष्ट्रीय वनडे क्रिकेट का पहला दोहरा शतक मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंडुलकर के बल्ले से निकला था। उन्होंने साल 2010 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 200 रनों की पारी खेली थी। इसके बाद साल 2011 में वीरेंद्र सहवाग ने वेस्ट इंडीज के खिलाफ शानदार बल्लेबाजी करते हुए 219 रन ठोक डाले थे। रोहित 'टैलेंट' लफ्ज से सराहे

खास बातें वनडे में तीन दोहरे शतक का विश्व रिकॉर्ड रोहित के नाम टी20 मैचों में तीन शतक के रिकॉर्ड की बराबरी रोहित के लंबे छक्कों और ताबड़तोड़ बल्लेबाजी का कोई जोड़ नहीं

भी जाते हैं और तंज भी झेलते हैं, लेकिन सवाल है कि वो इतनी लंबी पारियां खेलते कैसे हैं? मोहाली में अपने वनडे करियर का तीसरा दोहरा शतक लगाने के बाद उन्होंने इस सवाल का कुछ-कुछ जवाब दिया। रोहित ने कहा, 'मैं हालात का विश्लेषण कर रहा था जो शुरुआत में आसान नहीं थे। मैं कुछ ओवर निकालना चाहता था। मैं एबी डीविलयर्स, क्रिस गेल या धोनी जैसा नहीं हूं। मेरे पास इतनी पावर नहीं है।'

विपक्ष की दीवार ऐसे भेदते हैं

'मुझे अपने दिमाग का इस्तेमाल करते हुए फील्ड के मामले में तिकड़म लगानी होती है और मैं लाइन के हिसाब से खेलता हूं जो मेरी ताकत है।' 153 गेंदों में 208 रनों की इस पारी में रोहित शर्मा ने छक्कों की मदद से 40 से 50 ओवर के बीच रन बनाने की रफ्तार काफी

बढ़ा दी थी। इस पारी में उन्होंने 13 चौक्के और 12 छक्के लगाए। लेकिन ये आसान नहीं होता। उन्होंने कहा, 'छक्के मारना आसान नहीं है, विश्वास कीजिए। ये काफी अभ्यास और कड़ी मेहनत के बाद आता है। क्रिकेट में कुछ भी आसान नहीं होता। टीवी पर किसी को भले ही आसान लगे।'

शतक से दोहरे शतक तक

रोहित ने अपना सैकड़ा भारतीय पारी के 40वें ओवर में पूरा किया था और दोहरा शतक पूरा होने पर

भारतीय पारी का 50वां ओवर चल रहा था। 115 गेंदों में पहला शतक और महज 36 गेंदों में दूसरा शतक, रोहित की लंबी पारियों का राज इन्हीं आंकड़ो से समझा जा सकता है और उनके करियर के आंकड़े भी बताते हैं कि वो अपनी पारी को किस कलाकारी से सजाते हैं। 10 साल लंबे करियर में रोहित ने अब तक 16 शतक लगाए हैं जिनमें से तीन को वो 200 के पार ले जाने में कामयाब रहे। वनडे क्रिकेट ने ऐसे कई बल्लेबाज देखे हैं कि जो शतक लगाने के तुरंत बाद पवेलियन लौट जाते हैं।

बड़ी पारियों के बॉस

लेकिन रोहित ऐसे नहीं हैं। 18 शतकों में वो 14 बार 120 रन के पार गए हैं। सात दफा 130 से आगे। तीन दोहरे शतकों के अलावा वो 171, 150 और 147 रनों की पारी भी खेल चुके हैं। मतलब ये कि अगर वो शतक तक पहुंचते हैं तो आसानी से क्रीज नहीं छोड़ते। और स्कोर करने की रफ्तार में वो वही तरीका अपनाते हैं जिसके लिए सचिन, कोहली या महेंद्र सिंह धोनी जाने जाते रहे हैं। सैकड़े तक अच्छी-खासी गेंद खेलना और उसके बाद आक्रामक हाथ दिखाना। और शॉट चुनने के लिए वो एरिया चुनना, जहां बाउंड्री की दूरी सबसे कम हो। यूं भी कहा जाता है कि भारतीय टीम में विश्वनाथ जहां फ्लिक उनसे अच्छा शॉट की वजह से पुल शॉट कोई नहीं जाने जाते हैं, सहवाग खे ल त ा आक्रामक बल्लेबाजी और इसी के लिए मशहूर हुए और शॉट के रोहित शर्मा वनडे क्रिकेट बदौलत वो आसानी से में लंबी पारियों के लिए छक्के बटोरते शोहरत बटोर रहे हैं हैं।

पुल और स्कूप का शहंशाह

पुल या हुक के अलावा एक शॉट जो उन्होंने काफी इस्तेमाल करना शुरू किया है, वो है स्कूप। मोहाली में खेली गई पारी के बाद उन्होंने खुद इस शॉट का खास जिक्र किया। देखना है कि 2010 में अपना पहला शतक और 2013 में पहला दोहरा शतक लगाने वाले रोहित आगे क्या रंग दिखाते हैं?


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कही-अनकही

उषा खन्ना

शालीन संगीत की ‘उषा’

हिंदी फिल्म संगीत की दुनिया में जद्दनबाई और सरस्वती देवी की परंपरा में उषा खन्ना एक बिल्कुल अलग ही धरातल पर खड़ी दिखाई देती हैं। उनके खाते में ऐसे दर्जनों लोकप्रिय धुनें हैं, जिन्हें लोग आज भी सुनते और गुनगुनाते हैं एसएसबी ब्यूरो

षा खन्ना हिंदी फिल्म संगीत के बड़े पुरुष प्रधान समाज में ऐसी महत्वपूर्ण महिला संगीतकार के रूप में मौजूद रहीं, जिन्होंने लोकप्रियता के शिखर पर जाकर अपने लिए एक नया और पुख्ता मुकाम बनाया। दरअसल, जद्दनबाई और सरस्वती देवी की परंपरा में उषा खन्ना एक बिल्कुल अलग ही धरातल पर खड़ी दिखाई देती हैं। उनके खाते में दर्जनों ऐसी सुपरहिट फिल्में हैं, जिनसे हम उषा खन्ना को लेकर एक अलग ही किस्म का सांगीतिक विमर्श रच सकते हैं।

धुनों में नाजुक अहसास

पहली ही फिल्म ‘दिल दे के देखो’ (1959) से कामयाबी के झंडे गाड़ने वाली उषा ने बाद में अपनी प्रतिभा से कुछ बेहतरीन फिल्मों का संगीत रचा, जिनमें याद रह जाने वाली फिल्में हैं‘शबनम’, ‘हम हिंदुस्तानी’, ‘आओ प्यार करें’, ‘एक संपेरा एक लुटेरा’, ‘निशान’, ‘एक रात’ और ‘सौतन’। उषा खन्ना के संगीत का सबसे सार्थक पहलू यह है कि उसे आप अनुशासित तरीके से बेहद परिष्कृत संगीत के रूप में देख सकते हैं। धुनों में नाजुक रेशमी अहसास को बेहद सहजता से विकसित करने का कौशल उनकी सबसे बड़ी खासियत के रूप में प्रसिद्ध है। यदि हम उषा खन्ना के पूरे करियर में से कुछ गीतों के आधार पर उनकी शिनाख्त करना चाहें, तो कह सकते हैं कि वह किसी भी तरह की अतिरंजना से दूर आधुनिक अर्थों में बेहद परिष्कृत, मुलायम और शालीन किस्म का संगीत है, जिस पर उत्साह की छाया तो पड़ती है, मगर उसमें अतिरिक्त जोश भरी अतिरंजना से दूरी बरती गई है। उदाहरण के तौर पर उनके द्वारा कंपोज और लता मंगेशकर के द्वारा गाए हुए ‘आओ प्यार करें’ का गीत ‘एक सुनहरी शाम थी’ को सुनें या लता जी का ही ‘हम हिंदुस्तानी’ के लिए ‘मांझी मेरी किस्मत के जी चाहे जहां ले चल’ पर गौर करें या फिर ‘शबनम’ के लिए मोहम्मद रफी की आवाज में बेहद खूबसूरत ‘मैंने रखा है मोहब्बत तेरे अफसाने का नाम’ जैसा गीत, धुनों में शालीनता उभरकर सामने आ खड़ी होती है।

पुरुष वर्चस्व को चुनौती

उषा खन्ना के लिए एक चुनौतीपूर्ण बात यह रही कि पुरुषों के वर्चस्व वाले हिंदी फिल्मी संगीत के समाज में उन्हें बड़े बैनरों की फिल्में बेहद कम

मिलीं। बावजूद इसके उन्होंने तमाम सारे साधारण बैनरों की फिल्मों के लिए अविस्मरणीय संगीत रचा। ‘शबनम’, ‘निशान' और ‘एक संपेरा एक लुटेरा’ जैसी फिल्में इसी बात के उदाहरण हैं। इनमें कुछ और फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं, जिनके कुछ गीतों ने कमाल की लोकप्रियता हासिल की थी। ‘मुनीम जी’, ‘दादा’, ‘हवस, ‘मेरा नाम जौहर’, ‘मैं वही हूं’, ‘फैसला’ और ‘स्वीकार किया मैनें’ जैसी फिल्में उसी परंपरा को आगे बढ़ाती हैं। उषा खन्ना एक हरफनमौला संगीतकार के रूप में भी प्रभावित करती हैं, जब वे बाउल शैली में ‘चोरी-चोरी तोरी आई है राधा’ (हम हिंदुस्तानी), अरबी शैली के दिलकश अंदाज में 'हसनुल अली हबा' (शबनम), कव्वाली की ठेठ पारंपरिक बहार लिए हुए ‘रात अभी बाकी है, बात अभी बाकी है’ (दो खिलाड़ी) और नए अंदाज में रूमानियत की खुशबू लिए ‘साजन बिना सुहागन’ का गीत ‘मधुबन खुशबू देता है’ जैसी बेहतरीन धुनें बनाती हैं।

ओपी नैयर की छाया

यह हमेशा ही विमर्श का विषय रहेगा कि अपने समकालीनों के साथ कदम से कदम मिलाते हुए इतनी कल्पनाशील धुनों को रचकर भी वे संगीतकार के बतर्ज वह मुकाम क्यों नहीं बना सकीं, जो उनके समानांतर उस दौर में लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंदजी, आरडी बर्मन और यहां तक कि अस्सी के दशक में बप्पी लाहिड़ी को हासिल था। उनकी शैली में इंटरल्यूड और प्रील्यूड में पियानो और वॉयलिन के साथ हल्की-फुल्की संवाद जैसी लड़ंत, शालीन किस्म का ऑर्केस्ट्रेशन रचने और अंतरों में बहुत गरिमा के साथ बोल उठाने की तरकीब कमाल की है। इसी के बीच अक्सर तेज गति का वॉयलिन टुकड़ों-टुकड़ों में

इतने सुंदर ढंग से आकार लेता है कि वह पूरी धुन को एक नए ढंग का तर्जे-बयां देता है। यह आधुनिक किस्म का संगीत उन्होंने कुछ-कुछ उसी परिपाटी के तहत विकसित किया है, जिस तरह उनकी पहली संगीतबद्ध फिल्म के संगीत पर ओपी नैयर की छाया पड़ती दिखाई देती है।

सांगीतिक उत्कर्ष

‘बड़े हैं दिल के काले’ (दिल दे के देखो) जैसा गीत उषा खन्ना ही रच सकती थीं। उन्होंने सुगम संगीत बाकायदा रॉबिन बनर्जी जैसे संगीतकार से सीखा हुआ था। बाद में जब उन्होंने अपना खुद का मुहावरा विकसित कर लिया तब एक गंभीर शैली की चेतना से सजी हुई धुनों ने उषा खन्ना का सांगीतिक उत्कर्ष रचा। फिर एक लंबी सूची है, जिनमें इस तरह के दर्जनों गीतों को याद किया जा सकता है।

खास बातें

पहली ही फिल्म ‘दिल दे के देखो’ (1959) में गाड़े कामयाबी के झंडे उषा खन्ना को बड़े बैनरों की फिल्में बेहद कम मिलीं बावजूद इसके उन्होंने कई सदाबहार धुन रचकर अपना लोहा मनवाया

उनके तुरंत याद आने वाले स्तरीय गीत हैं- ‘ऐ शाम की हवाओं उनसे सलाम कहना’ (एक रात), ‘बरखा रानी जम के बरसो’ (सबक), ‘पानी में जले मेरा गोरा बदन’ (मुनीम जी), ‘हम तुमसे जुदा हो के मर जाएंगे रो रोके’ (एक संपेरा, एक लुटेरा), ‘तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है’ (आप तो ऐसे न थे) और ‘जिंदगी प्यार का गीत है’ (सौतन)।

कमाल का आर्केस्ट्रेशन

इस तरह हम यह कह सकते है कि एक लंबे संगीत सफर में उषा खन्ना ने अतिरंजना से बचते हुए ढेरों लोकप्रिय धुनें बनाईं, जिनसे आधुनिक किस्म का संगीत पैदा हुआ। उन्होंने अपनी धुनों को बेहद संतुलित ढंग से विकसित करते हुए भावनाओं के कोमलतम स्तर पर जाकर गीतों को चमकदार और सुंदर बनाया है। आर्केस्ट्रेशन का काम अलग से उनकी समकालीनता को एक खास ढंग से चिन्हित करता है। एक हद तक उनका संगीत अतिरेकी नहीं, बल्कि धीरज और विवेक का संगीत है, जिनमें एक स्त्री की कोमलता चुपचाप गुंथी हुई है।


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सा​िहत्य कविता

मेरे सपने प्रियंका

पंछी की तरह उड़ जाऊं मैं लोगों से कुछ अलग कर दिखाऊं मैं आसान जिंदगी तो सब जीते हैं कांटो की राह पर चल कर फूल बनकर खिल जाऊं मैं खुद को कुछ ऐसा बनाऊं मैं की बड़ी भीड़ में सबसे आगे निकल जाऊं मैं दुनिया के किसी भी कोने में जाऊं अपनी सूरत से नहीं हुनर से पहचानी जाऊं मैं सबको अपना एक रंग दिखाऊं मैं की दुनिया की आंखों में बस जाऊं मैं हर परीक्षा को पार कर लूं एक दिन आसमान को छू जाऊं मैं।

16 - 22 जुलाई 2018

साक्षी

क दिन एक किसान का बैल कुएं में गिर गया। वह बैल घंटों जोर -जोर से रोता रहा और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिऐ और क्या नहीं।अंततः उसने निर्णय लिया कि चूंकि बैल काफी बूढा हो चुका था अतः उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं था और इसलिए उसे कुएं में ही दफना देना चाहिए। किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएं में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही बैल कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है वह और जोर-जोर से चीख चीख कर रोने लगा और फिर,अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया। सब लोग चुपचाप कुएं में मिट्टी डालते रहे तभी किसान ने कुएं में झांका तो वह आश्चर्य से सन्न रह गया.. अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह बैल एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था। जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे -वैसे वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता और एक सीढी ऊपर

साहस

चढ़ आता जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित करते हुए वह बैल कुएं के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया । ध्यान रखे आपके जीवन में भी बहुत तरह से मिट्टी फेंकी जाएगी बहुत तरह की गंदगी आप पर गिरेगी जैसे कि, आपको आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में ही आपकी आलोचना करेगा कोई आपकी सफलता से ईर्ष्या के कारण आपको बेकार में ही भला बुरा कहेगा कोई

खुद का मूल्य पहचानो

क आदमी ने भगवान बुद्ध से पूछा : जीवन का मूल्य क्या है? बुद्ध ने उसे एक पत्थर दिया और कहा : जाओ और इस पत्थर का मूल्य पता करके आओ, लेकिन ध्यान रखना इसे बेचना नहीं। वह आदमी पत्थर को बाजार में एक संतरे वाले के पास लेकर गया और बोला : इसकी कीमत क्या है? संतरे वाला चमकीले पत्थर को देख कर बोला- '12 संतरे ले जा और इसे मुझे दे दो।' आगे एक सब्जी वाले ने उस चमकीले पत्थर को देखा और कहा- 'एक बोरी आलू ले

जा और इस पत्थर को मेरे पास छोड़ जा।' वह आदमी आगे एक सोना बेचने वाले के पास गया और उसे पत्थर दिखाया। सुनार उस चमकीले पत्थर को देखकर बोला- 'मुझे 50 लाख में बेच दो।' उसने मना कर दिया, तो सुनार बोला- '2 करोड़ में दे दो या तुम खुद ही बता दो इसकी कीमत क्या है, जो तुम मांगोगे वह दूंगा।' उस आदमी ने सुनार से कहा- मेरे गुरु ने इसे बेचने से मना किया है। आगे वह आदमी हीरे बेचने वाले एक जौहरी के पास गया और उसे वह पत्थर दिखाया।

जौहरी ने जब उस बेशकीमती रूबी को देखा, तो पहले उसने रूबी के पास एक लाल कपड़ा बिछाया, फिर उस बेशकीमती रूबी की परिक्रमा लगाई, माथा टेका। फिर जौहरी बोला- 'कहां से लाया है ये बेशकीमती रूबी? सारी कायनात, सारी दुनिया को बेचकर भी इसकी कीमत नहीं लगाई जा सकती, ये तो बेशकीमती है। वह आदमी हैरान-परेशान होकर सीधे बुद्ध के पास आया। अपनी आपबिती बताई और बोला- 'अब बताओ भगवान, मानवीय जीवन का मूल्य क्या है? बुद्ध बोले- संतरे वाले को दिखाया उसने इसकी कीमत '12 संतरे' की बताई। सब्जी वाले के पास गया उसने इसकी कीमत '1 बोरी आलू' बताई। आगे सुनार ने इसकी कीमत '2 करोड़' बताई और जौहरी ने इसे 'बेशकीमती' बताया। अब ऐसा ही मानवीय मूल्य का भी है। तू बेशक हीरा है..!! लेकिन, सामने वाला तेरी कीमत, अपनी औकात, अपनी जानकारी, अपनी हैसियत से लगाएगा। घबराओ मत दुनिया में, तुझे पहचानने वाले भी मिल जाएंगे।

आपसे आगे निकलने के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ दिखेगा जो आपके आदर्शों के विरुद्ध होंगे... ऐसे में आपको हतोत्साहित हो कर कुएं में ही नहीं पड़े रहना है, बल्कि साहस के साथ हर तरह की गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख ले कर उसे सीढ़ी बनाकर बिना अपने आदर्शों का त्याग किए अपने कदमों को आगे बढ़ाते जाना है। सकारात्मक रहें। सकारात्मक जिएं.......

कविता

निराश न होना अंशुमन दुबे

एक चमकती किरण कई पुष्प खिला सकती है, क्षणभर की हिम्मत जीत का एहसास दिला सकती है। वे लोग जो असफलता से निराश हो अंधकार में जी रहे हैं, एक छोटी सी मुस्कान कितने ही दीप जला सकती है। इस दुनिया में कष्ट से कोई नहीं अछूता है, किसी न किसी दुख से भरी गागर है। हंसकर सहो तो कड़वी बूंदों के कुछ घूंट हैं, रोकर सहो तो दुखों का विशाल सागर है। जब असफलता की चोट लगे गहरी, तो सारा साहस बटोरकर, मुस्कुराहट ला सकते हो। हारे हुए मन को जीने का साहस दिलाकर, जीने की एक वजह से मिला सकते हो। तुमसे कोई जीवन की सीख ले सकता है, तुम्हें देखकर कोई और भी जी सकता है। गम को कभी कमजोरी न बनने देना, अपनी आंखों को कभी नम न होने देना। यहां जीवन जीकर सभी को मरना है, दो वक्त की रोटी से अपना पेट भरना है। फिर तकलीफों से क्यों डरता है दोस्त, भला निराश होकर भी क्या करना है।


आओ हंसें

पूरे रास्ते प्यासा पिंकी : कल तुम्हारे घर ताला लगा था कहां गई थी। चिंकी : पति के साथ पिकनिक मनाने। पिंकी : फिर तो खूब मजा आया होगा। चिंकी : नहीं यार, मेरे पति पानी लेने उतरे थे। तुरतं बस चल पड़ी वो बस स्टैंड पर ही रह गए। पिंकी : फिर? चिंकी : ...फिर क्या पूरे रास्ते प्यासा ही रहना पड़ा।

अगर जिंदगी में कुछ पाना है तो तरीके बदलो इरादे नहीं।

सु

जीवन मंत्र

डोकू -31

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विश्वास नहीं! आज के दौर में विश्वास नाम की चीज ही नहीं रही। फोटो खिंचवाते ही... आदमी कहता है ...ला दिखा।

सुडोकू-30 का हल

महत्वपूर्ण तिथियां

• 16 जुलाई साझा सेवा केंद्र (सीएससी) दिवस, वीर शासन जयंती (दिगंबर जैन) • 18 जुलाई नेल्सन मंडेला जयंती • जुलाई का तीसरा रविवार राष्ट्रीय आईसक्रीम दिवस

बाएं से दाएं

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इंद्रधनुष

16 - 22 जुलाई 2018

1. पति का छोटा भाई (3) 3. साधना करने वाला (3) 6. काले रंग की एक चिड़िया (3) 8. पता, ठीहा (3) 10. तीर रखने का पात्र (4) 11. अभिकर्ता, मुंशी (3) 12. नया (2) 15. खोली (3) 17. मंदिक का पुजारी, मठाधीश (3) 18. पेंदा, शिकन (2) 20. मिट्टी खोदने का औजार (3) 21. वक्ता, बकवादी (4) 23. अर्थ (3) 24. धनी, मालदार (3) 25. हाथ का एक जोड़ (3) 26. झुकना (3)

विजेता का नाम श्री गोपाल कायस्थ

वर्ग पहेली-30 का हल

ऊपर से नीचे

1. सुर सरिता, गंगा (6) 2. रसिया (3) 3. एक कटीला जंगली पशु (2) 4. बहुत कठिन (5) 5. वीरान (2) 7. प्रकाशमान (3) 9. समय (2) 13. मना किया हुआ, बाधित (3) 14. चर्चा चलना (मुहावरा) (2,4) 16. परिणाम देने वाला (5) 19. हवा संबंधी (3) 20. दर्ब, डाब, एक प्रकार की घास (2) 22.वस्त्र (3) 23. निष्ठा (2) 24. छाछ बिलोने वाली मथानी (2)

कार्टून ः धीर

वर्ग पहेली - 31


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न्यूजमेकर

रो

ही म ा न अ

स्वच्छता का जुनून

पलामू के गरीब ग्रामीण अनोद ने शौचालय का निर्माण अपनी पालतू बकरी बेचकर जुटाए पैसों से कराया

हते है इरादे नेक हो तो कोई काम असंभव नहीं है। बस किसी काम को करने का जुनून होना चाहिए। ऐसा ही एक मामला सामने आया है झारखंड के पलामू जिले में, जहां एक दिव्यांग को शौचालय बनाने का ऐसा भूत चढ़ा कि अपनी आजीविका के साधन को बेचकर उसने शौचालय का निर्माण करवा डाला। आज पूरे देश में स्वच्छ भारत मिशन के तहत घर-घर शौचालय बनाने को लेकर सरकार ने लक्ष्य रखा है। अधिकारी से लेकर पंचायत प्रतिनिधि तक शौचालय निर्माण को लेकर लोगों को जागरूक करने में लगे हैं। लेकिन झारखंड में चैनपुर प्रखंड के बसरीया खुर्द गांव का रहने वाले दिव्यांग अनोद कुमार सिंह ने वह कर दिखाया, जो काफी प्रेरक और प्रशंसनीय है। गरीब अनोद ने शौचालय का निर्माण अपनी पालतू बकरी बेचकर जुटाए पैसों से कराया है। अनोद ने बताया कि गांव में प्रशासन द्वारा चौपाल लगी थी। उसी चौपाल में ही उसे शौचालय के बारे में जानकारी मिली। मगर गरीब व असहाय अनोद के पास पैसे नहीं थे कि वह शौचालय का निर्माण कर पाए। फिर भी हौसला मजबूत था। उसने अपने आजीविका के लिए पालतू बकरी को बेच दिया और जुटाए पैसों और कर्ज लेकर शौचालय का निर्माण करा डाला। अनोद की पहल के पीछे एक बड़ी प्रेरणा स्वच्छ भारत मिशन की मोबिलाइजर स्वीटी कुमारी भी रही हैं। स्वच्छता के लिए स्वीटी के विशेष अभियान से अनोद काफी

श्रीधर चिल्लाल

कीर्तिमान के नाखून की विदाई

दु

16 - 22 जुलाई 2018

प्रभावित हुआ। स्वीटी लोगों को शौचालय बनवाने के लिए प्रेरित किया था और खुले में शौच से होने वाली हानि के बारे में भी जागरूक करने में जुटी हैं। वह ग्रामीणों को शौचालय निर्माण के लिए प्रोत्साहन राशि के रूप में केंद्र सरकार की ओर से 12 हजार रुपए दिए जाने की बात भी बताती हैं। पलामू के उपायुक्त अमित कुमार को जब दिव्यांग अनोद कुमार के स्वच्छता और शौचालय के प्रति इस समर्पण की जानकारी मिली तो उन्होंने अनोद को पुरस्कृत करने की बात कही। कुमार ने कहा कि अनोद जैसे लोग, खुले में शौच से मुक्ति और शौचालय निर्माण के कार्य में लगे लोगों और पदाधिकारियों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। अनोद का कहना है कि खुले में शौच करना अच्छी बात नहीं है। अनोद की पहल से गांव में चर्चा बनी हुई है कि दिव्यांग होते हुए भी अपने पशुओं को बेचकर शौचालय का निर्माण करा डाला तो दूसरे क्यों नहीं कर सकते। दूसरे गांव के भी लोग अनोद से प्रेरणा लेकर अपने घरों में शौचालय बनवा रहे हैं।

न्यूजमेकर

66 साल बाद नाखून कटवाएंगे गिनीज रिकॉर्डधारी श्रीधर चिल्लाल

निया में सबसे लंबे नाखूनों के लिए रिकॉर्ड दर्ज कराने वाले भारत के श्रीधर चिल्लाल ने 66 वर्षों के बाद अपने नाखून कटवा लिए इन्हीं नाखूनों की वजह से उनका नाम गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में दो साल पहले दर्ज हुआ था। उनके एक अंगूठे के नाखून की लंबाई 197.8 सेंटीमीटर थी जबकि सभी नाखूनों की संयुक्त लंबाई 909.6 सेंटीमीटर। सबसे लंबे नाखूनों के लिए गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज कराने वाले 82 वर्षीय चिल्लाल ने 1952 के बाद अपने बाएं हाथ के नाखून नहीं काटे। उनका नाखून टाइम्स स्क्वायर में 'बिलीव इट और नॉट म्यूजियम' में काटा गया, जहां इसके लिए बकायदा एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। चिल्लाल ने दो वर्ष पहले ही ‘एक हाथ में सबसे लंबे नाखूनों’ को लेकर गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज

कराया था। हालांकि उन्हें अपने नाखूनों से अब भी बेहद प्यार है और इसीलिए उन्होंने अपने कटे हुए नाखूनों को म्यूजियम में ही सहेज कर रखने का अनुरोध किया है। चिल्लाल मूल रूप से पुणे के रहने वाले हैं। नाखून काटने के इस कार्यक्रम के लिए उन्हें खास तौर पर भारत से अमेरिका बुलाया गया है, ताकि इस घटना को यादगार बनाया जा सके। चिल्लाल के नाखून की म्यूजियम में आधिकारिक तौर पर प्रदर्शनी लगाई जाएगी।

प्ला

फैज मोहम्मद

अनोद कुमार

प्लास्टिक के खिलाफ फैज

पर्यावरण जागरुकता के लिए भारतीय मूल के 10 वर्षीय फैज सम्मानित

स्टिक कचरा आज दुनिया में पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा खतरा है। कई देश इस दिशा में कड़े कानून बनाकर पहल तो कर रहे हैं पर यह चुनौती तब तक बनी रहेगी जब तक लोग प्लास्टिक के खिलाफ अभियान में सक्रिय हिस्सेदारी नहीं लेंगे। हाल में दुबई में एक भारतीय मूल का बच्चा इसी मुद्दे पर अपनी जागरूकता दिखाने के लिए चर्चा में आया है। दुबई में भारतीय मूल के 10 वर्षीय फैज मोहम्मद को पर्यावरण को लेकर जागरूकता फैलाने के लिए सम्मानित भी किया गया है। फैज को दुबई नगर पालिका ने ‘युवा स्थिरता राजदूत’ के तौर पर सम्मानित किया है। इस बारे में फैज बताते हैं कि उसकी एक जागरूक पहल उसे इस तरह चर्चा में ला देगी, ऐसा उसने सोचा भी नहीं था। फैज ने पर्यावरण

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 31

के संबंध में जागरूकता फैलाने के लिए ईद पर मिले 150 दिरहम से 130 दोबारा इस्तेमाल किए जाने वाले बैग खरीदे और उन्हें किराने के समान की दुकानों पर बांटा। प्लास्टि बैगों को डिलिवरी में बर्बाद होता देख फैज ने हाथ से सजाए दोबारा इस्तेमाल किए जाने योग्य बैगों को अल करामा के आसपास किराने की दुकानों पर बांटा। फैज का इरादा आगे भी इस तरह के कार्यों से पर्यावरण की रक्षा में मदद करना है।


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