व्यक्तित्व
10
स्वच्छता
समानता के लिए लोकतंत्र का मंत्र
24
पर्यटन और स्वच्छता का आदर्श
पुस्तक अंश
विशेष अभियान
26 कही-अनकही
29
हर इक पल मेरी हस्ती है... डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
बदलते भारत का साप्ताहिक
sulabhswachhbharat.com
वर्ष-2 | अंक-33 | 30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि
धर्म क्षेत्रे... कर्म क्षेत्रे... भारत की संत परंपरा मानव कल्याण का निस्वार्थ मार्ग है। स्वामी अवधेशानंद गिरि जी एक ऐसे ही आध्यात्मिक गुरु व संत हैं, जिन्होंने अपने ज्ञानध्यान, उपदेश और सेवा कार्यों से दुनियाभर में अपने साथ भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान के लिए आदर और आस्था का विस्तार किया है
साधु के लिए पूरा संसार ही उसका परिवार है
जीवन में संतुलन बनाकर सब कुछ किया जा सकता है
हम उस परंपरा को प्रणाम करते हैं, जहां गुरु तत्व का निवास है
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आवरण कथा
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
खास बातें स्वामी जी का जन्म एक विद्वान ब्राह्मण परिवार में हुआ स्वामी जी के परिवार में शुरू से था आध्यात्मिक वातावरण ‘ज्ञान वह है, जो आपको मुक्त कर दे, जो आपको आनंद दे’
गु
रीता सिंह
रु पर्व के मौके पर जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि का एक सारस्वत व्याख्यान दिल्ली में हुआ। इस व्याख्यान में उन्होंने भारतीय परंपरा में गुरु और ज्ञान के महत्व पर प्रकाश डाला। स्वामी जी ने भारत में गुरु परंपरा को लेकर कहा, ‘अस्मादाचार्य पर्यन्ताम् वन्दे गुरु परम्पराम्। यानी आदि पुरुष नारायण या प्रथम पुरुष देवादि देव महादेव के समय से चली आ रही गुरु परंपरा का वंदन हम करते हैं। हम उस परंपरा को प्रणाम करते हैं, जहां गुरु तत्व का निवास है, जो प्रेरक है, जिसके आशीष-अनुग्रह से, जिसकी सहसा कृपा दृष्टि से, दुर्बोध सुबोध हो जाता है।’ भारत की ज्ञान परंपरा में गुरु का महात्मय ही वह बोध तत्व है, जिससे जहां एक तरफ ज्ञान की गंगा आगे बहती जाती है, वहीं कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त होता जाता है।
भारतीय लोक और ज्ञान
गुरु परंपरा को लेकर और आगे बात करें तो हमें यह समझना होगा कि भारतीय लोक और ज्ञान परंपरा को लेकर अब तक जो भी अध्ययन हुए हैं, वे ये बताते हैं कि यह परंपरा प्राचीन से लेकर वर्तमान समय तक इसीलिए आगे बढ़ सका क्योंकि इसमें जीवन और अध्यात्म का सहज समन्वय है। पर दुनिया भर में विकास और संस्कृति की लीक जैसे-जैसे भौतिकता की तरफ बढ़ी है, अशांति, हिंसा और असंवेदनशीलता की चुनौतियां बढ़ी हैं। इस दौर की विडंबना है कि इसमें सुख और समृद्धि के लिए अगर चौतरफा होड़ है, तो वहीं आत्मिक शांति और संतोष को लेकर भी नए सिरे से ललक भी जगी है। फलस्वरूप, लोग फिर से धर्म, अध्यात्म और योग की तरफ प्रवृत हो रहे हैं। इस प्रवृति को संतोष और समाधान का सुख देने वाला देश कोई और नहीं भारत वर्ष है। वेदांत की शिक्षा के साथ आध्यात्मिक ज्ञान की जिस ऊंचाई को भारत ने अतीत में प्राप्त किया है, हमारे ऋषियों और आचार्यों ने उसे मौजूदा दौर में भी भारतीय गौरव का आधार बनाए रखा है।
संत परंपरा के ‘गिरि’
अहिंसा, योग, शांति और सेवा की राह से भटके
स्वामी जी के प्रेरक ट्वीट्स मनोवृत्ति की महानता तभी है जब वह श्रेयस पथानुगामी हो। जीवन के यथार्थ का अन्वेषण ही मानव-मन की उच्चतर भूमिका है। अतः मोक्ष, मानव के अंत:करण की पूर्ण शुचिता का परिणाम है । लोगों को भारतीय गुरुओं-आचार्यों से जहां एक बड़ा समाधान मिलता है, वहीं यह सीख भी दुनिया भर में पहुंचती है कि भौतिकवादी होड़ में शामिल रहते हुए मनुष्य भले और कुछ भी पा ले, पर वह अपने जीवन और मनुष्यता को तो कतई एक सार्थक अर्थ नहीं ही दे पाएगा। स्वामी अवधेशानंद गिरि जी एक ऐसे ही आध्यात्मिक गुरु व संत हैं, जिन्होंने अपने ज्ञान-ध्यान, उपदेश और सेवा कार्यों से दुनियाभर में अपने साथ भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान के लिए आदर और आस्था का विस्तार किया है।
विद्वान ब्राह्मण परिवार में जन्म
स्वामी अवधेशानंद गिरि जी का जन्म एक विद्वान ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनकी विलक्षणता परिवार के साथ अन्य लोगों को दिखने लगी थी। इस विलक्षणता के केंद्र में कम उम्र से ही उनका अध्यात्म के प्रति झुकाव था। जैसा कि बातचीत के क्रम वे बताते हैं, ‘मेरे परिवार में शुरू से आध्यात्मिक वातावरण था। निरंतर संतों और आध्यात्मिक पुरुषों का का घर में आना-जाना लगा रहता था। प्रायः कथा, कीर्तन
और धार्मिक अनुष्ठान होते रहते थे। इस कारण मेरी अध्यात्म के प्रति स्वाभाविक रूप से अभिरुचि विकसित हुई।’ अपने संन्यास को लेकर वे विनम्रता से ज्यादा बातें नहीं बताते हैं, पर इतना जरूर कहते हैं, ‘बचपन से ही मेरे अंदर जिस तरह से लेखनअध्ययन की प्रवृतियां रहीं और जिस तरह हिमालय का आकर्षण मुझे बरबस अपनी ओर खींचता था, यही सब समन्वित रूप में मेरे संन्यास का बीज बन गया।’
बचपन में ही हिमालय प्रवास
स्वामी जी ने बाल्यकाल में ही यह संकल्प कर लिया था कि वे संन्यास का मार्ग चुनेंगे और उसी संकल्प के कारण उन्होंने हिमालय की ओर प्रस्थान किया। हिमालय में भ्रमण करने के बाद उन्हें अनेक संतमहात्माओं के दर्शन हुए और उसी क्रम में उन्होंने भारत माता मंदिर के अधिष्ठाता निवृत्त जगद्गुरु शंकराचार्य परम पूज्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज से दीक्षा प्राप्त की।
जूना अखाड़ा के महामंडलेश्वर
आ
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आवरण कथा
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
अक्षर व्यक्तित्व
चार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी के जीवन में विचार का अक्षर विस्तार है। समस्त व्यस्तताओं के बावजूद वे लगातार अध्ययनरत रहते हैं। उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखी हैं। अपनी पसंदीदा किताब के बारे में मुस्कुराते हुए स्वामी जी कहते हैं, ‘मुझे शास्त्र ही सबसे अधिक पसंद हैं, क्योंकि वे समाधानकारक हैं। इसीलिए मुझे शास्त्र से जुड़ी हुई कोई भी पुस्तक अच्छी लगती हैं। मैं शास्त्रों के निकट ही रहता हूं।’
लाखों यति योगी-संन्यासियों का प्रसिद्ध समूह श्री पंच दशनाम जूना अखाड़ा पूरे विश्व में नागा सन्यासियों के विशाल समूह के लिए प्रसिद्ध है। इस विशाल संत समुदाय के पूज्य स्वामी अवधेशानंद गिरी जी महाराज आचार्य महामंडलेश्वर हैं। इस कारण उन्हें प्रथम आचार्य भी कहते हैं। आचार्य महामंडलेश्वर का चयन 1998 में कुंभ के बाद किया गया। तब से लेकर अभी तक स्वामी अवधेशानंद गिरी जी महाराज लोक कल्याण के लिए समर्पित हैं।
पूरा विश्व ही परिवार
स्वामी अवधेशानंद गिरि जी कहते हैं कि मेरा परिवार पूरा विश्व है। इस परिवार में पक्षी, नदियां, पहाड़, खेत-खलिहान और वन सब आते हैं। साधु के लिए पूरा संसार ही उसका परिवार है। साधु इस तरह जीता है कि संसार का हर व्यक्ति उसके परिवार का हिस्सा हो जाता है।
पश्चिम की भौतिकवादी सोच
इस क्रम में बातचीत करते हुए वे कहते हैं, ‘हमारी संस्कृति ने पूरी दुनिया को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का संदेश दिया है। मैं पश्चिम का अनादर नहीं करता हूं, लेकिन पश्चिम ने पूरी दुनिया को व्यापारबाजार माना है। पश्चिम की नजर में पूरी दुनिया बाजार है, भारत की नजर में पूरी दुनिया परिवार है। हमारा मानना है कि यह पूरा ब्रह्मांड ही एक परिवार जैसा है।’ ज्ञान को लेकर स्वामी अवधेशानंद जी कहते हैं कि ज्ञान वह है, जो आपको मुक्त कर दे, जो आपको आनंद दे दे। ज्ञान वही है जो जीवन के सत्य का बोध कराकर जीवन की पूर्णता को प्रकट कर दे। ज्ञान में शांति निहित होती है।
धर्म का अर्थ सेवा
धर्म की व्याप्ति तो हर दौर में रही है, पर इसके अर्थ को लेकर कालांतर में भ्रम बढ़ता गया है। स्थिति यह है कि धर्म को लेकर इस तरह की भी सोच देखी जाती है, जिसका कम से कम धर्म से तो कई लेनादेना नहीं है। इस बारे में जब स्वामी जी से बातचीत
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आत्मानुसंधान सागर के मोती आत्म अवबोध सत्यम शिवम सुंदरम मुक्तिपथ सवारें अपना जीवन जीवन दर्शन साधना मंत्र
स्वामी जी द्वारा लिखी गईं कुछ पुस्तकें
होती है तो वे न सिर्फ धर्म को लेकर भ्रम और दुविधा की स्थिति को दूर करते हैं, बल्कि इस बारे में वे काफी सहजता से अपनी बातें रखते हैं। वे कहते हैं कि ‘कर्तव्यों का निर्वाह करना ही धर्म है। धर्म वह है, जो हमें श्रेष्ठ और श्रेयस्कर की ओर लेकर जाए, जो वर्तमान और भविष्य को निरापद करे। धर्म वह है, जो हमें चिरस्थायी समाधान प्रदान करे। धर्म वह है, जिसमें निरंतर उन्नति हो, जिसमें जीवन का उत्कर्ष हो। धर्म वह है, जिसमें सबका कल्याण हो अर्थात
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प्रेरणा के पुष्प स्वर्णिम सुक्त्य अमृत गंगा कल्पवृक्ष की छांव ज्ञान सूत्र स्वयं के लिए यात्रा आत्म अनुभव पूर्णता की ओर
जो मेरे और सबके कल्याण के निमित्त है, वही धर्म है। धर्म किसी एक व्यवस्था तक सीमित नहीं है।’ उपभोग की लिप्सा के दौर में इस बात को समझना थोड़ा मुश्किल हो सकता है कि मानवीय श्रेष्ठता और पुरुषार्थ से जुड़े तमाम गुणधर्मों में सेवा भाव को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। भारतीय अध्यात्म और दर्शन की तो यह आधारभूत टेक रही है कि दूसरों की खुशी में ही अपनी खुशी है। भक्तिकाल के कवियों ने श्रद्धा के साथ सेवा और दान के न जाने
स्वामी जी के प्रेरक ट्वीट्स प्राच्य में प्रकाश रश्मियों के साथ सूर्य का उदय, आरोहण और अस्त होना इस बात का सूचक है कि उद्भव, उत्कर्ष और पराभव प्रकृति का शाश्वत नियम है। इस नश्वर-क्षणभंगरु जगत में ज्ञान, विवक े और विचार द्वारा अपनी सनातन नित्य-चिर स्थायी सत्ता को अनुभतू किया जा सकता है
• आध्यात्मिक कथाएं • साधना पथ
• अमृत प्रभाकरण • ब्रह्म ही सत्य है
• दृष्टांत महासागर • आत्म आलोक
कितने लोकप्रिय छंद लिखे हैं।
समरसता पर जोर
स्वामी अवधेशानंद जी के लिए भी सेवा का पथ काफी महत्वपूर्ण है और इस दिशा में वे प्रतिबद्ध भाव से लगातार आगे बढ़ रहे हैं। स्वामी जी कहते हैं, ‘हमारे संन्यासी, हजारों मठ और शिक्षण संस्थाएं देश भर में फैली हुई हैं। साथ ही हम राहत शिविर लगाते हैं और दिव्यांग जनों के लिए भी कार्य करते हैं। इसके आलावा जातीय समरसता को कायम रखना और बढ़ाना हमारा विशेष उद्देश्य रहता है। इसीलिए जूना अखाड़ा में सभी जाति के संन्यासी मिल जाएंगे।’ ध्यातव्य है कि कुछ धर्मगुरु स्वयं काे सामाजिक विभेद के विषयों से खुद को दूर रखते हैं, पर स्वामी अवधेशानंद जी के साथ ऐसा नहीं है। उनकी दृष्टि में समाज और देश की सेवा के लिए लिए यह भी एक पुण्य कार्य है, इसीलिए इस मुद्दे पर उनका
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आवरण कथा
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राजनीति की उपेक्षा नहीं
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राजनीति के धर्म का यदि सही से निर्वहन किया जाए तो लोक कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से पूरे समाज और राष्ट्र को लाभान्वित किया जा सकता है
जनीति को अब हमारे समाज में बुरी दृष्टि से देखा जाने लगा है। लेकिन स्वामी अवधेशानंद जी राजनीति को समाज का अभिन्न अंग मानते हैं। इस बारे में बातचीत के क्रम में वे बताते हुए कहते हैं कि हमारी संस्कृति और सभ्यता में धर्म के साथ राजनीति को भी बहुत सम्मान दिया गया है। राजनीति की उपेक्षा और इसका तिरस्कार कभी नहीं किया गया है। राजनीति के धर्म का यदि सही से निर्वहन किया जाए तो लोक कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से पूरे समाज और राष्ट्र को लाभान्वित किया जा सकता है। खासा जोर रहता है। वे कहते भी हैं कि सभी जातियों के प्रति हमारा आदर-भाव और स्वीकार्यता रहती है। स्वामी जी की प्रेरणा और उनके नेतृत्व में चलाए जा रहे सेवा-अभिक्रमों में संस्कार जागरण कार्यशालाएं, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज सहित अनेक शिक्षण संस्थाएं देश भर में चल रही हैं। अन्न, अक्षर और औषधि के क्षेत्र में उनके द्वारा चलाए जा रहे देशव्यापी सेवा कार्यों के बारे में जानना, मानवता के एक अखिल और पुनीत कर्तव्य से अवगत होना है।
एकल परिवार : चुनौती और समाधान
भारत में एकल परिवार को लेकर विकसित हो रहे मनोभाव और प्रचलन को लेकर स्वामी अवधेशानंद जी कहते हैं कि पश्चिमी देशों में भी एकल परिवारों के परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं। एकल परिवार के कारण आई सामाजिक त्रासदी को पूरे यूरोप में देखा जा सकता है। कुटुंबिक प्रवृतियां नष्ट होते जाने से उनकी पारिवारिक-सामाजिक परंपराएं ध्वस्त होती गई हैं। ‘कुटुंब’ एक समावेशी पारिवारिक-सामाजिक संकल्पना और प्रचलन है, जिसमें व्यक्ति सुरक्षित रहता है और परस्पर एक-दूसरे से लाभान्वित होते रहते हैं। स्वामी जी के ही शब्दों में, ‘एक-दूसरे के आश्रय, एक-दूसरे के अवलंब, एक-दूसरे के संरक्षण और एक-दूसरे के आश्वासन में जीवन जीना बहुत सरल और सहज हो जाता है।’ जिस ढंग से भारत में जीवनशैली बदल रही है और एकाकी प्रवृति को अपनाया जा रहा है, वह हमारे समाज के लिए अहितकर है। दरअसल, नगरीय जीवन में जीवन-निर्वाह के अधिक अवसर और आकर्षण के कारण लोग वहां जाकर एकल परिवार की व्यवस्था की तरफ बढ़ जाते हैं। पर स्वामी जी
वे कहते हैं कि जितने भी लोग सियासी गलियारे में हैं, वे बड़े सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए हैं। उनके पास अनेक दायित्व हैं, बहुत सारे सेवा प्रकल्पों के साथ वे जुड़े हुए हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति में सभी जगह मूल्य शिथिल हुए हैं, इसीलिए दोष देकर राजनीति की उपेक्षा की जाए, यह सही नहीं है। बल्कि राजनीति तो अधिक चुनौतीपूर्ण है। स्वामी जी के शब्दों में, ‘मेरा मानना है कि आज भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो राजनीतिक दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन कर रहे हैं।’
इस बात को जोर देकर कहते हैं कि अंततः भारतीय मूल्य, संस्कार और हमारी सभ्यता ही व्यक्ति को बांधकर रख सकती है, उनसे विरक्त होकर इंसान नहीं रह सकता। इसीलिए हमारी परंपराएं, संस्कार, जीवनशैली, रहन-सहन, विचार आदि बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो अपनी ओर पूरी दुनिया को खींचती हैं। उन्हीं में सुख-शांति, स्वास्थ्य, सौंदर्य, सम्मान और अस्तित्व की रक्षा है। सच तो यह है कि जीवन का विकास यहीं सीमित है। इसीलिए वैदिक सभ्यता आज भी उतनी ही प्रासंगिक, समीचीन और कल्याणकारी है, जितनी वह अपने युग में थी।
मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:
एकल परिवार व्यवस्था की वजह से बढ़ते वृद्धाश्रम पर वे कहते हैं, “इस देश में ओल्ड ऐज होम या वृद्धाश्रम बनें, यह कोई अच्छा संकेत नहीं है। पहले इस देश में वानप्रस्थ की व्यवस्था थी और आज भी हमारे यहां वृद्ध माता-पिता हमारे लिए पूजनीय होते हैं। इसीलिए ये भावना रहनी चाहिए कि घर के वृद्ध हमारे लिए सबसे पूजनीय हैं, वे हमारे घर के देवता हैं। हमारी संस्कृति में ‘मातृ देवो भव:, पितृ देवो भव:’ की धारणा है, अर्थात देवताओं की गणना में प्रथम पूज्य देव माता-पिता ही हैं। मुझे लगता है कि कुछ संस्कारों के लोप की वजह से ऐसा है, लेकिन पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव बहुत समय तक स्थिर नहीं रहने वाला है। पश्चिमी सभ्यता की जीवन शैली में सुरक्षा का भाव नहीं है, इसीलिए इसका प्रभाव ज्यादा दिन तक नहीं रहेगा।’
अंतस की यात्रा
भौतिकता और आध्यात्मिकता में सबसे बड़ा फर्क
स्वामी जी के प्रेरक ट्वीट्स आध्यात्मिक उन्नयन-उत्कर्ष की आरंभिक पात्रता है - अन्त:करण की निर्मलता-शुचिता, शुभसंकल्प और पारमार्थिक भाव संपदा। है। भौतिकता जहां आपकी चेतना को तदर्थ और शिथिल बनाती है और अंतर से बहिर्जगत की ओर उन्मुख होने के लिए प्रेरित करती है, तो वहीं आध्यात्मिकता आपकी चेतना और विवेक धीरता प्रदान करती है तथा अंतस की यात्रा के लिए अभिप्रेरित करती है। सांसारिक दुनिया में रहकर भी अंतस को जाना जा सकता है और उस परम
सत्य को खोजा जा सकता है। स्वामी अवधेशानंद जी का भी यही मानना है। वे कहते हैं, ‘जीवन में संतुलन बनाकर सब कुछ किया जा सकता है। मैं भी संतुलन बनाने का प्रयास करता हूं। हमारे साधन, व्रत-उपवास या जो हमारी आध्यात्मिक साधनाएं और व्यवहार हैं, यदि उनमें संतुलन बना रहे तो परम सत्य की खोज की जा सकती है।’
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आवरण कथा
पूज्य आचार्यश्री परिचय
• जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी एक उत्कृष्ट
वक्ता, भारतीय सनातन संस्कृति के संवाहक, साधकों के मार्गदर्शक, सरलता और प्रेम के पर्याय और मधुरभाषी हैं। वे अपने प्रवचनों द्वारा तिमिराच्छादित साधक समूह के अंतःकरण में मुमुक्षा एवं स्वयं के प्रति सचेत होने की प्रेरणा पैदा करने वाले महान संत हैं।
• श्री पंचदशनाम जूना अखाड़ा भारत का सबसे विराट संत-समूह है, जिसमें लाखों
नागा संन्यासी गिरि-कंदराओं, पूर्ण कुटीरों, मठों-आश्रमों एवं नगर-नगर में तप के साथ आध्यात्मिक चेतना का संचार कर रहे हैं। इस विशाल संत-समुदाय के पूज्य स्वामी जी आचार्य एवं पीठाधीश हैं। वर्तमान तक पूज्य आचार्यश्री ने लगभग 6-7 लाख नागा संन्यासियों को संन्यास दीक्षा प्रदान की है।
चारों शंकराचार्य एवं सभी आचार्य सम्मिलित हैं, उस ‘हिंदू धर्म आचार्य सभा’ के पूज्य आचार्यश्री अध्यक्ष हैं।
शाखाएं मानव-चेतना के उत्थान एवं अन्न, अक्षर और औषधि के लिए समर्पित है। प्रभु प्रेमी संघ विशुद्ध आध्यात्मिक संस्था है,जो नैतिक मूल्यों के संरक्षण, पर्यावरण के प्रति जागरुकता एवं विश्व शांति के लिए आध्यात्मिक, सांस्कृतिक चेतना के जागरण के प्रति कृत संकल्पित है। देश-विदेश में अनेकों सर्वधर्मसम्मेलनों में संस्था की सक्रिय सहभागिता है।
हरिद्वार के वर्तमान अध्यक्ष हैं, जिसके देश-विदेश में अनेकों शाखाएं आध्यात्मिक उत्थान के लिए कार्यरत हैं।
समर्थ लेखक के रूप में ख्यात हैं। उनके आध्यात्मिक प्रवचन प्रायः विश्व के अनेक देशों में टीवी चैनलों पर प्रसारित किए जाते हैं।
• हिंदू धर्म के सभी मत-पंथ संप्रदायों के प्रमुख धर्माचार्यों की सर्वोच्च संस्था, जिसमें • पूज्य आचार्यश्री ‘प्रभु प्रेमी संघ’ के संस्थापक हैं। इसकी देश-विदेश में अनेकों
• पूज्य आचार्यश्री जी विश्व प्रसिद्ध ‘भारतमाता मंदिर’ एवं ‘समन्वय सेवा ट्रस्ट’,
• पूज्य आचार्यश्री अनेक पुस्तकों के रचयिता एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए
पुस्तक लेखन और चिंतन
स्वामी जी ने कई पुस्तकें लिखी हैं, जो समाज को मानव कल्याण की राह दिखाती हैं। पुस्तक लेखन की प्रेरणा पर वे कहते हैं कि यदि व्यक्ति चिंतन की दिशा में जाए तो विचार, ग्रंथ, अध्ययन और स्वाध्याय सहायक बनता है। मुझे ऐसा लगता है कि स्वाध्याय का प्रमाद ही मृत्यु है और शास्त्र भी ऐसा ही कहते हैं। अतः जीवन की प्रगति, उन्नयन व इसकी पूर्णता स्वाध्याय में ही निहित है। वे कहते हैं, “मुझे महापुरुषों के सानिध्य में अध्ययन और स्वाध्याय का अवसर मिला और वहीं से लेखन और चिंतन की प्रेरणा मिली।”
पौराणिक कथाएं या मिथक
भारत के गौरवशाली अतीत को कई बार मिथक बता दिया जाता है। इस पर स्वामी जी स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि कोई चीज जो बहुत पुरातन है उसे माइथोलॉजी या पौराणिक कह दिया गया है, पर वह इतिहास का ही एक अंग है। हमारी संस्कृति बहुत ही प्राचीन है। मानवीय सभ्यता का यदि इतिहास देखा जाए तो सबसे प्राचीन लेखन ऋग्वेद का मिलता है। इसीलिए भारत की सभ्यता हजारों वर्ष पुरानी है। गंगा कितनी पुरातन है, सरस्वती कितनी पुरातन है,
स्वामी जी के प्रेरक ट्वीट्स आत्म-अनुशासन, संकल्प-दृढ़ता, समयप्रतिबद्धता और पारमार्थिक-प्रवृत्तियां जीवन सिद्धि-सफलता के स्वाभाविक साधन हैं यह किसी से छिपा नहीं है। मोहनजोदड़ो हो या सिंधु घाटी की सभ्यताएं, इन सबसे पता चलता है कि भारत का अतीत बहुत ही गौरवशाली रहा है। वे कहते हैं, ‘तक्षशिला हो या पाटलिपुत्र, पूरी दुनिया से लोग यहां अध्ययन करने आते थे। लोगों ने यहां जीवन को बेहतर ढंग से समझा है। इसीलिए मुझे लगता है कि बहुत प्राचीन चीजों को लोग कभीकभी मिथक या ‘माइथोलॉजी’ कह देते हैं। जबकि हमारा इतिहास ऐसा नहीं है, जो कुछ बढ़ा-चढ़ाकर बोलता है। हमारी चीजें बहुत ही प्रमाणिक और वैज्ञानिक हैं। अध्ययन के बाद ही वैदिक सभ्यता का महत्त्व पता चलता है, जिसमें आश्वासन और जीवन की सुरक्षा है। साथ ही, वह वैज्ञानिक और समीचीन भी है। यह प्रत्येक संदर्भ में नूतन और सामयिक
है। हमें इस बात का गर्व है कि हम जिस संस्कृति का हिस्सा हैं वह कालजयी, सनातनी और वैदिक है। हमारी संस्कृति आदिकाल से लेकर आजतक जीवित है। हमारी संस्कृति आत्मा की अमरता की बात करती है, इसीलिए कालजयी है। भारत की संस्कृति सत्य का बोध कराती है।’
तारिकाएं और जीवन बोध
ज्ञान, भक्ति और समर्पण किस तरह स्वामी जी के जीवन में शामिल है, इस बारे में एक बात काफी दिलचस्प है। स्वामी जी बताते हैं, ‘प्रतिदिन संध्या होने पर मैं आसमान में तारों के झुरमुट और चंद्रतारिकाओं को प्रणाम करता हूं। एक तरफ जहां मैं हर दिन भोर के समय सूरज को प्रणाम करता हूं,
वहीं सांध्य वेला में निहारिका, नक्षत्रों और दूधिया आकाशगंगाओं को भी प्रणाम करता हूं। मैं केवल प्रकाश का ही उपासक नहीं हूं, बल्कि मैं रात्रि का भी आभारी हूं कि उसने हमें तारों का बोध कराया है। जब सांध्य के तारों को प्रणाम करता हूं, तो मुझे जीवन के सत्य की भी अनुभूति होती है कि जीवन को भी एक दिन ढलना है।’ इसी तरह, स्वामी जी अन्न के भी उपासक हैं। वे कहते हैं कि हम तो अन्न को ब्रह्म मानने वाले प्राणी हैं। हमें सारे अन्न बहुत पसंद हैं। अन्न-आश्रित सभी वस्तुएं ईश्वर का ही स्वरूप हैं। साधु के लिए तो अन्न परमात्मा है। अन्न परमात्मा से अलग नहीं है।
आशीष से प्रगति
लोग अक्सर बड़े काम करने से पहले गुरुओं का आशीर्वाद लेना नहीं भूलते। घर में भी हम पहले माता-पिता का आशीष लेते हैं, फिर किसी नए या बड़े काम की ओर प्रवृत होते हैं। स्वामी अवधेशानंद जी कहते हैं, ‘यदि किसी व्यक्ति को अपनी प्रगति में माता-पिता, विद्वानों, चरित्रवान पुरुषों, समाज के शीर्षस्थ अध्ययनशील और आचार-विचार से जुड़े लोगों का आशीर्वाद मिलता है तो उसे लेना ही चाहिए। यही तो हमारी संस्कृति है।’
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आवरण कथा
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
मिशन बने गंगा को बचाने का विजन
स्वामी अवधेशानंद गिरि जी के साथ हुई लंबी बातचीत का संपादित अंश पर्यावरण से लेकर जीवन और समाज से जुड़ी चिंताओं के संदर्भ में स्वामी अवधेशानंद गिरि जी अपनी बात न सिर्फ पूरी स्पष्टता के साथ रखते हैं, बल्कि वे इसके लिए समाधान का वह मार्ग भी बताते हैं, जिसका अनुसरण वे पहले से अत्यंत प्रतिबद्ध भाव के साथ कर रहे हैं
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रीता सिंह
मी अवधेशानंद गिरि से बात करना जहां एक तरफ ज्ञान की अतल गहराइयों में उतरने का सहज अनुभव है, वहीं उनसे बात करते हुए हम स्वयं को, अपने समय की चिंताओं और चुनौतियों के बारे में आंतरिक रूप से जागरुक होते हैं। मसलन, पर्यावरण को लेकर स्वामी जी समझाते हुए कहते हैं, ‘पर्यावरण का अर्थ है, जिससे जैव संतुलन रहता है। जैव जगत में जो कुछ भी है, धरती, अंबर, जल, अग्नि, वायु, नक्षत्र, विविध प्राणी... इन सबका संबंध पर्यावरण से है। आज ग्लोबल वार्मिंग, उच्च तापमान के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। जिस तरह से हरीतिमा का हनन हुआ है, न केवल वन, अपितु वन्य संपदा भी जिस तरह से छीन ली गई है। जिस ढंग से सलिलाओं का सातत्य, नदियों का प्रवाह बाधित हुआ है, उनकी अविरलता, निर्मलता, शुचिता, सातत्य, स्वभाव, सबका हनन हुआ है। उसे देखकर कहा जा सकता है कि जीवन अब उतना सुगम और सहज नहीं रहा। अंबर और अंतरिक्ष में अब असहजता है। धरती पर तो पर्यावरण के असंतुलन को सीधे देखा जा सकता है।’ स्वामी जी के साथ सत्संग के साथ जो बड़ी बात है, वह यह कि वे सिर्फ चिंता या चुनौतियों की बात नहीं करते बल्कि वे इसके समाधान को लेकर भी चर्चा करते हैं। पर्यावरण को ही लें तो वे इसके असंतुलन से आगे उन बातों और प्रयासों पर भी जोर देते हैं, जिससे जीवन और प्रकृति के बीच विसंगति न बढ़े। वे कहते हैं, ‘पर्यावरण के लिए, हमने बहुत पहले वृक्ष को चुना। अगर धरती पर वृक्ष है तो प्राण है, आद्रता है, जलवायु है, औषधि है, उसके पल्लव-पात, छत्रछाया, हरीतिमा, गंध-सुगंध, मकरंद, प्राण-वायु सब हमारे जीवन के लिए हैं। उससे पैदा होने वाली आद्रता बादलों को आमंत्रित करती है। उसकी जड़ें भूस्खलन को रोकती हैं, अथवा जल का संतुलन बनाती हैं। ये बात पूरे देश में कही गईं और अभी हाल में ही मध्य प्रदेश सरकार ने 25 करोड़ पेड़ लगाए हैं। उत्तर प्रदेश सरकार भी पेड़ लगा रही है। अन्य राज्य सरकारें भी इस बात पर सचेत हुई हैं। हमारा पर्यावरण को लेकर प्रकल्प बहुत पुराना है। हमने गांव-गांव, हर शहर और अनगिनत स्थानों पर लोगों को वृक्षारोपण के लिए प्रेरित किया है। हमने कहा कि तुलसी घर-घर पहुंचनी चाहिए, पेड़ों में भी नीम, पीपल, कदंब, पाकर लगने चाहिए क्योंकि ऐसे पेड़ों में नित्य प्राण वायु है।’ स्वामी अवधेशानंद गिरि अनेक सेवा और
कल्याण कार्यों से जुड़े हैं, उसमें जल को लेकर चिंता सर्वोपरि है। उनके ही शब्दों में, ‘हम लोगों ने वर्ष 2004 में पहली बार उज्जैन में जल पर एक चर्चा की। हालांकि इसके लिए जो शब्द दिया गया, मैं उसके पक्ष में नहीं था, लेकिन जल पुरुष राजेंद्र सिंह और प्रोफेसर राम राजेश मिश्र और डॉ. चौहान जैसे बड़े पर्यावरणविदों ने कार्यक्रम को नाम दिया ‘जल संसद’। पूरे देश से लगभग 250 जल वैज्ञानिकों ने इस कार्यक्रम में भाग लिया। फिर वर्ष 2005 में हमने इंदौर में भी जल को लेकर चर्चा की। वर्ष 2007 में प्रयाग के कुंभ में ‘जल संसद’ हुई, 2010 में हरिद्वार के कुंभ में, 2013 में फिर से प्रयाग के कुंभ में और 2016 में उज्जैन में ‘जल संसद’ आयोजित की गई। आईआईटी से लेकर कई बड़े संस्थानों के वैज्ञानिकों ने अपने शोध पत्र पढ़े, अपने अनुभवों को साझा किया। इन सबसे जो बात निकलकर आई, वह यह थी कि धरती पर 1 फीसदी से भी कम पीने योग्य जल बचा है। इसीलिए तत्काल नदियों को बचाना, जलस्तर को बढ़ाने के लिए पेड़ लगाना बहुत ही जरूरी है। पहली आवश्यकता यह है कि नदियों की अविरलता, निर्मलता को सहेज कर रखा जाए।’ अपनी इन्हीं बातों और पहल की चर्चा करते हुए वे आगे कहते हैं, ‘वर्ष 2001 में जब अटल जी की सरकार थी, तब टिहरी बांध को रोकने के निमित्त एक गंगा यात्रा निकाली गई। मैं उस ‘गंगा रक्षा यात्रा’ का अध्यक्ष था। 5000 साधु-संत हरिद्वार से दिल्ली गए। जगह-जगह पर हम लोगों ने जल सभाएं की। उस वक्त माननीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी से बात हुई और कई वैज्ञानिकों ने चिंता व्यक्त की कि हमने अपनी नदियों की घोर उपेक्षा की है, हम अपनी नदियों के प्रति उदासीन रहे हैं। आज यमुना की स्थिति आप देख सकते हैं कि दिल्ली के बाहर उसमें जल नहीं है, 99 फीसदी से ज्यादा पानी सीवर का है। यही स्थिति गंगा की भी है।’ इन्हीं कुछ बातों को लेकर जब उनसे कुछ प्रश्न किए तो उसके उत्तर उन्होंने काफी स्पष्टता के साथ दिए।
गंगा के बारे अभी एक रिपोर्ट आई है कि 2060 तक गंगा में पानी नहीं रहेगा। इस बारे में आप क्या कहेंगे?
आज भी गंगा में पानी नहीं है। आज भी कुछ क्यूसेक पानी के लिए हरिद्वार के लोग तरसते रहते हैं कि हमारे सामाजिक सरोकार, पूजा-पाठ के लिए पानी मिल जाए। आने वाले कुंभ के लिए जो पानी चाहिए, उसके लिए अभी से रणनीति बन रही है। इसके लिए हमने कई संगोष्ठियां की हैं, वृक्षारोपण के कार्यक्रम किए हैं, अनेक जागरुकता कार्यक्रम चलाए हैं, हमने विधिवत कई जल संसद आयोजित की हैं। लेकिन
हमारी जल संसद नारों में, आंदोलनों में परिवर्तित नहीं हुई है, क्योंकि मैं संन्यासी हूं, एक्टिविस्ट नहीं हूं। मैं वैचारिक आंदोलन का पक्षधर हूं। मैं चाहता हूं कि लोगों की मानसिकता बदले। लोग यह बात समझें कि हमारा परमात्मा नीर से ही पैदा हुआ है, इसीलिए इसे बचाना जरूरी है। परमात्मा की उत्पति नीर से है, सारे रत्न समुद्र ने दिए हैं, इसीलिए हमने जल को बचाने के लिए कहा है। पर्यावरण पर मेरा यही कहना है कि इस देश के जल को बचाया जाए, जल को बचाने का एक ही जरिया है कि पेड़ लगाए जाएं, नदियों के किनारों को खोदा जाए, सीवर के पानी के लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जाए। गंगा-यमुना के साथ इस देश की अनेक नदियां को बचाने की जरूरत है। लोग यह बात सुनकर चकित होंगे कि चंबल का पानी प्रयाग में पहुंच रहा है, यमुना का जल तो पहुंच ही नहीं रहा है। आप सोचिए, कितनी उदासीनता है।
इतनी संगोष्ठियां होती हैं, सेमिनार होते हैं, वैज्ञानिक अपने तर्कों और शोधों पर बात करते हैं, उपाय सुझाते हैं, लेकिन यह सब धरातल पर नहीं उतर पाता है, आपके क्या विचार हैं कि कैसे इनका कार्यान्वयन किया जाए?
समाज में प्रच्छन्न उपभोगवाद है। स्वार्थ चरम पर है, अपने हितों की रक्षा के लिए लोगों का जीवन समर्पित हो गया है। हमें कुछ और दिखता ही नहीं। जब आपको सिर्फ अपना घर दिखे और मोहल्ले की गली न दिखे। आप गली में कूड़ा फेंक दें, आप सड़क पर लगे हुए बल्ब को निकालकर ले जाएं, नए बने हुए पुल के लोहे को निकालकर ले जाएं तो सोचिए समाज किधर जा रहा है। हमें आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। अभी हम जिस दिशा में जा रहे हैं, वह राह मानव जाति की समाप्ति की और ले जाती है। हम इस धरती की हत्या की और बढ़ रहे हैं, हमारी जो प्रवृतियां हैं, वे सब आत्मघाती हैं। हमें कुछ दिख ही नहीं रहा है, न हम इस धरा के लिए सोचते हैं न इस जलवायु के लिए। यहां तक कि हम अपने स्वास्थ्य के लिए भी चिंतित नहीं हैं। हम इतनी गहरी तंद्रा में हैं कि तत्काल कुछ पदार्थों के आकर्षण में उलझे हुए हैं।
आपके अनुसार गंगा कब तक अविरल और स्वच्छ हो जाएगी?
मुझे लगता है कि गंगा के लिए जो गंभीर प्रयासों का सिलसिला पहले होना चाहिए था, वो अब दिखाई दे रहा है। अब उसके कितने परिणाम आएंगे, यह अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन प्रयास कुछ मिशन
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13 मई, 2016 : प्रख्यात आध्यात्मिक गुरु स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज, सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक के साथ अलवर और टोंक (राजस्थान) की पुनर्वासित स्केवैंजर महिलाओं तथा वृंदावन और काशी की विधवा माताओं को उज्जैन महाकुंभ में शुभाशीष देते हुए
जैसा बने, यह अब भी नहीं दिख रहा है। विजन तो है लेकिन यह एक मिशन में बदले, यह नहीं लग रहा।
एक रिपोर्ट के अनुसार नदियों में गिरते सीवर पहले से बढ़ गए हैं। कहीं न कहीं सरकारी तंत्र की कमी तो साफ दिखती है?
मैं 1830 का उदहारण देता हूं, जब दिल्ली में पहली बार फ्लश सिस्टम आया। उससे पहले दिल्लीवासियों ने कभी यमुना का पानी पीने के लिए नहीं लिया। दिल्ली में बावड़ियां थीं, वहीं से पीने का पानी आता था। फ्लश सिस्टम के बाद यमुना के जल का दोहन शुरू हो गया। पहले लोग सिर्फ तर्पण और आचमन के लिए नदियों के जल का प्रयोग करते थे। लेकिन अब उससे सिंचाई भी हो रही है और अब उसे फ्लशिंग सिस्टम में भी उपयोग किया जाता है। सोचिए जरा कि पीने के पानी का उपयोग फ्लशिंग में हो रहा है, सड़के धोईं जा रही हैं, कपड़े धोए जा रहे हैं। नतीजतन अब यमुना में जल ही नहीं है।
अटल जी ने कहा था कि नदियों को जोड़ा जाए। आपके अनुसार हर नदी का स्वभाव अलग होता है। ...तो क्या उनको जोड़कर आपदाएं रोकी जा सकती हैं। आपका इस पर क्या कहना है?
हमने बहुत से देश देखें हैं जहां नदियों के जल को रोका जाता है, उसके अनेक उपाय हैं। बिजली बनाने के लिए भी हाइड्रोलिक सिस्टम के तहत अनेक उपाय हैं। बांधों की भी इतनी आवश्यकता नहीं है। यह सब हम जानते हैं, लेकिन वो कौन सी
विवशताएं हैं जिस कारण हम इस बारे में निर्णय नहीं ले पाते हैं। यह सच है कि आजादी के 70 वर्षों के बाद भी हम खड़े नहीं हो पाए हैं। आर्थिक रूप से भले ही सबल हो रहे हों लेकिन नदियां कहां हैं, वन्य संपदा कहां हैं, खेत-खलिहान कहां हैं। 5 करोड़ जीवाश्म होते हैं एक ग्राम मिटटी में, अब 40 लाख बचे हैं। इतना दोहन हमने किया है। अगर फिर से गोबर की खाद डाली जाए, प्राकृतिक व्यवस्थाएं अपनाई जाएं, खेती सही से की जाए, तो हम फिर से धरती को उसके असली स्वरूप में ला सकते हैं।
इस दुर्दशा के लिए दोषी शहरीकरण है या बढ़ती हुई आबादी?
देखिए, मुझे लगता है कि स्मार्ट सिटीज का कांसेप्ट अच्छा है, लेकिन हमें अपने गांवों को भी स्मार्ट बनाना होगा, सारी सुविधाएं देनी होंगी। इस दिशा में सरकार की कई बेहतर योजनाएं भी हैं। गांव की प्रतिभा को पलायन से रोकना होगा, वहां के संसाधनों को वहीं रोकना होगा, स्वरोजगार की व्यवस्था वहीं होनी चाहिए। छोटी-छोटी कॉटेज इंडस्ट्री वहीं लगानी होगी। अगर हर गांव में संभव न हो तो इसके लिए सहकारी व्यवस्था हो। यह पहले से हमारे देश में होता भी रहा है। अमूल किस तरह से हमारे देश में दूध का आंदोलन बन गया, जिससे दूध के मामले में देश में आत्मनिर्भरता आई है।
आज समाज में इतना तनाव देखा जा रहा है, मूल्यों में गिरावट आई है, लोग सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं। आपको इस देश
में अध्यात्मिक शांतिवादी के रूप में देखा जाता है। आप आज की परिस्तिथियों पर क्या कहेंगे?
बढ़ते तनाव के लिए मैं फिर से कहूंगा कि इसके लिए हमारा स्वार्थ जिम्मेदार है। हम दूसरे के स्वाभिमान, गौरव, उनकी निजता की चिंता नहीं रख पा रहे हैं। हम अपने संप्रदाय, जाति, कुल गोत्र, वंश, समुदाय को लेकर प्रचंड होते जा रहे हैं। हम भारतीय एक हैं, यह भावना तब संभव है जब व्यक्ति अध्यात्मिक बने। अध्यात्मिक प्राणी बहुत ही अनुशासित होता है। वो सबके हितों, सम्मान, स्वाभिमान की चिंता करता है। वह समतावादी मूल्यों में विश्वास रखता है। हमारी संस्कृति एकत्व की है, जो पूरे विश्व को परिवार मानती है। यह ज्ञान हमारी जीवन शैली, हमारे आचरण, चरित्र, प्रकृति और हमारे स्वभाव में उतरना चाहिए।
आध्यात्मिकता के साथ सामाजिक जिम्मेदारियों को जोड़ने में आप कहां तक सफल रहे हैं?
हमने अपने कार्यों से जीवन में कुछ अच्छे परिणाम देखे हैं। लोग व्यसन मुक्त हुए हैं, प्रकृति प्रेमी बने हैं, लोगों ने विकारों से खुद को अलग रखा है, कुरीतियों से दूर हो रहे हैं, अर्थ का अपव्यय नहीं कर रहे हैं, परिवारों में एकता आई हैं, लोगों के अंदर देश प्रेम की भावना जगी है, परमार्थिक भाव भी जगे हैं। जब आप कुछ अच्छा संकल्प लेकर निकलते हैं, तो लोग प्रेरित होते हैं। इस तरह एक परिवर्तन भी आता है। यह सच है कि एक तरफ बढ़ता उपभोगवाद है,
तो वहीं दूसरी तरफ अध्यात्म के लिए भी उत्सुकता है। जहां पदार्थों का आकर्षण और प्रलोभन लोगों के चित्त को झकझोर रहा है, वहीं दूसरी और कहीं आत्मा का सत्य भी उसे पुकार रहा है, वह अपने अस्तित्व को भी जानना चाहता है। इसके परिणाम देखिए कि योग के लिए एक विश्वव्यापी स्वीकृति बनी है। योग के कारण मैं एक बहुत ही सुखद भविष्य देख रहा हूं। अभी व्यक्ति योग से अपने शरीर को ठीक कर रहा है, एक दिन आएगा जब व्यक्ति योग से अपने मन को ठीक करेगा, मन की व्याधियों को ठीक करेगा। यह सुखद है कि भारत ने दुनिया को योग से प्रेरित किया है। जिस दिन भी योग देह से मन तक उतरेगा पूरा विश्व एक हो जाएगा। मैं इस विश्व को एक गांव, एक परिवार के रूप में देखना चाहता हूं।
स्वामी विवेकानंद की 125वीं जयंती पर आपको शिकागो आने का निमंत्रण मिला है। क्या संदेश लेकर जाएंगे आप?
मेरा भी वही पुराना संदेश होगा, जो विवेकानंद जी लेकर गए थे, संस्कृति और संस्कार का। यह विश्व एक कुटुंब है। एक संदेश यह भी रहेगा कि इतना अधिक धन हम युद्ध, उन्माद और सुरक्षा पर क्यों खर्च कर रहे हैं। यह धन मानव जाति के कल्याण पर क्यों नहीं खर्च किया जा रहा है। सामरिक नीतियों को छोड़कर यह धन शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च हो तो बेहतर है। भले ही वहां दोस्ती अस्त्र-शस्त्र को लेकर होती हो, लेकिन मैं अकेला नहीं हूं। मैं उन्हें जगाने की पूरी कोशिश करूंगा।
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परहित सरिस धरम नहीं भाई गुरु पूर्णिमा के मौके पर दिल्ली के सीरी फोर्ट सभागार में जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी के सारस्वत व्याख्यान का संपादित अंश
उघरहिं विमल विलोचन ही के...
सारी संभावनाएं हमारे आस-पास ही तो हैं, पर हमें इनकी अनुभूति नहीं होती है। मनुष्य जीवन अंतहीन संभावनाओं का नाम है। यहां अनेक अवसर हैं। जब ये सारे अवसर प्रकट होने लगते हैं, सारी संभावनाएं उजागर होने लगती हैं तो स्वयं के प्रति गौरव का बोध होने लगता है। फिर अज्ञानता के कारण असमर्थता, विवशता, अल्पता के रूप में जो एक बड़ा अभाव जो दिखाई दे रहा होता है, वह पल भर में मिट जाता है, जैसे स्वप्न के दुख चले जाते हैं, आंख खुल जाने के बाद। ‘उघरहिं विमल विलोचन ही के, मिटहिं दोष दुख भवरजनी के’, कुछ ऐसा सत्पुरुषों का कहना है कि हृदय के नेत्र खुल जाते हैं तो फिर भाषा बदल जाती है, चिंतन बदल जाता है, दिशा बदल जाती है, हमारा पूरा जीवन बदल जाता है। यह केवल परिवर्तन नहीं, रूपांतरण होता है। हमारे अंदर जो विद्यमान है, वह प्रकट होने लगता है। जब ऐसा अनुभव होता है, तो दैन्य के लिए कोई स्थान नहीं रहता। हताशा, निराशा न जाने कहां चले जाते हैं, भय और संशय नहीं रहते। ये सब तब होता है, जब कहीं हमारे
ज्ञान चक्षु खुल जाएं और वह एक बड़ी घटना होती है। एक बार खुद को समझना जरूरी है कि हमारी विचार शक्ति कितनी बड़ी है, क्योंकि विचार बदलने से दुनिया बदल जाती है। जैसे व्यक्ति और साधक अंतर्मुखी होता है, उसमें शुभ संकल्प जगने लगते हैं और वही दिशा बदलता है। हमारे अंदर एक सकल रूपांतरण घटित होता है। कहीं जानेअनजाने किसी आध्यात्मिक परिवेश का हम हिस्सा बन जाएं और उसकी समीपता हमें मिल जाए, साथ ही यह आध्यात्मिक परिवेश हमें लंबे समय के लिए मिल जाए, तो हमारे भीतर शुभ संकल्प जगने लगते हैं।
गुरु परंपरा और मां
गुरु पूजा का पर्व, परंपरा को आदर देने का पर्व है- अस्मादाचार्य पर्यन्ताम्। गुरु
को सिर्फ एक देह नहीं माना गया है। देव गणनाओं में मां गुरु है, जिससे हम ने प्रारंभिक आचरण से लेकर दिशा बोध, अन्न-अक्षर का बोध, संबंधों का ज्ञान सब सीखा है। इसीलिए प्रथम आचार्य मां ही है। फिर पिता को दूसरा आचार्य बताया गया है। पिता को दूसरा आचार्य इसीलिए बताया क्योंकि वह अपने पुरुषत्व को गर्भ में स्थापित कर पृथक हो जाता है फिर मां नौ माह तक उसे सेती है। मां के गर्भ से जब वह बाहर आता है तो संवाद से लेकर हाव-भाव, प्रतिक्रियाएं सब कुछ सीख चुका होता है। आजकल की चिकित्सा विज्ञान से अगर इसे समझा जाए तो पूरी कुल परंपरा डीएनए में उतर आती है। और कहीं उसी के भीतर कुल देवता, ग्राम देवता और वास्तु देवता भी चैतन्य होने लगते हैं। ऐसा हमारे शास्त्र
देव गणनाओं में मां गुरु है, जिससे हमने प्रारंभिक आचरण से लेकर दिशा बोध, अन्न-अक्षर का बोध, संबंधों का ज्ञान सब सीखा है। इसीलिए प्रथम आचार्य मां ही है
भी कहते हैं कि वहां (गर्भ में) वह मां से सब कुछ सीख रहा होता है। बहुत से ऐसे प्रसंग भी आते हैं। एक बार एक ऋषि ने कहा कि कौन है जो मेरी अशुद्धियों की ओर इशारा कर रहा है, मेरे वैदिक स्वर तो ठीक हैं, फिर मेरे उच्चारण को सुधारने के लिए कौन मुझसे कह रहा है? जबकि यहां तो वनस्पतियों और वन्य जीवों के अलावा कोई और नहीं है। तब अंदर से आवाज आई कि मैं आपका ही अंश हूं, आपका पुत्र हूं और मां के गर्भ में हूं। मैंने आपसे और मां से सब सीखा है, इसीलिए जो मुझे गलत लगा, मैंने वो बता दिया। ऋषि को क्रोध आ गया, उन्होंने उसे 8 जगह से टेढ़ा होने का शाप दे दिया। लेकिन पुत्र ने गुरु परंपरा का निर्वाह किया और सही विषयवस्तु को बताया। अष्टावक्र और अभिमन्यु ने मां के गर्भ से ही सब प्राप्त किया। इसीलिए मां के गर्भ से ही ज्ञानार्जन आरंभ हो जाता है।
पहले ज्ञानार्जन, फिर धनार्जन
पहले ज्ञानार्जन कीजिए, फिर धनार्जन तभी धन का सही उपयोग कर पाएंगे। लेकिन बिना ज्ञान के जो धन आया है,
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वह अनर्थ भी कर सकता है। मनुष्य जीवन के लिए सबसे उपयोगी हैं- ज्ञानार्जन, फिर धनार्जन और फिर पुण्यार्जन। हम पूरी प्रकृति से परहित के बारे में सीख सकते हैं, किस तरह से वृक्ष छांव दे रहे हैं, किस तरह से औषधियां हैं। अंबर, धरा, जल, वायु, नक्षत्र, तारिकाएं सब परहित के लिए काम कर रही हैं। इसीलिए कुछ सत्कर्म करके दूसरे के बारे में भी सोचना जरूरी है।
रामराज्य
राजनीति चार चीजों से चलती है- साम, दाम, दंड और भेद। रामराज्य केवल धर्म और अर्थ से चलता था। इसीलिए जिस दिन आपके पास ज्ञान आएगा, अर्थ का मर्म भी समझ आ जाएगा। अर्थ का संचय, अर्थ विनिमय, अर्थ का लाभ, सब आसानी से समझ जाएंगे। मेरा ये मानना है कि जैसे ही आप अाध्यात्मिक होते हैं, तो अर्थ प्रसाद बन जाता है, वह सबके लिए बन जाता है, परोपकार में खर्च होने लगता है। आज हम इतना आगे बढ़ गए हैं कि परोपकार के ये कार्य पीछे छूट गए हैं। दूसरों का हिस्सा हम भूल गए हैं। यदि आप बहुत अधिक सामर्थ्यवान बनना चाहते हैं, तो समता में जीकर देखें। गुरुतत्व का अर्थ भी वही है, जिसमें समता है।
प्रतिक्रियावादी न बनें
आजकल लोग बहुत प्रतिक्रियावादी हो गए हैं। सोशल मीडिया के प्रचलन में आने से लोगों को लगता है कि उन्हें असली आजादी मिल गई है। बिना विषयवस्तु के बोध के, बिना किसी गंभीरता के लोग संवेदनशील विषयों पर कुछ भी लिख रहे हैं। इसका गलत असर हो रहा है। इसीलिए जिस विषय में आपका बोध नहीं है, उस पर प्रतिक्रियावादी मत बनिए। अपने धर्म से, स्वभाव से, प्रकृति से परे मत जाइए।
संस्कारित प्रतिक्रिया दें
यह याद रहे कि हम एक साधक हैं। सच मानिए, मुझे एक बात हमेशा याद रहती है कि मैं अपने गुरु का लाड़ला हूं, मैं साधक हूं। मेरी यह विनम्रता आपको आकर्षित करने के लिए नहीं हैं। विश्वास कीजिए कि मैं खुद को आज भी सिद्ध नहीं मानता हूं, मैं एक साधक हूं। मैं अभी भी सीख रहा हूं। अगर मैं खुद को सिद्ध मान लूं, तो बहुत बड़ा अहित हो जाएगा। भले ही अाज आपने हाथ में आधुनिक
संचार प्रणाली है, आपको एक प्लेटफार्म मिल चुका है, जहां आप अपने विचार रख सकते हैं, लेकिन यह कभी मत भूलिए कि आप एक साधक हैं और आपकी प्रतिक्रिया हमेशा सधी हुई होनी चाहिए। आपकी प्रतिक्रिया से किसी का भी अहित नहीं होना चाहिए, किसी को दुख नहीं पहुंचना चाहिए। संस्कारित प्रतिक्रिया दीजिए, ऐसी बात रखिए जिसमें मीठे शब्द हों।
बड़ी सीख
यदि आपको सुंदर बनना हो तो एक युक्ति मैं आपको बताता हूं। विचार सुंदर रखना, आप सुंदर हो जाओगे। भीषण नहीं है, इसीलिए विभीषण है। वे किसी को दुखी नहीं करते, किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते। वे बहुत सभ्य हैं, बहुत संतुलित हैं, क्योंकि आध्यात्मिक हैं। गुरु ने दुर्योधन से पूछा कि तुझे देखकर अच्छा नहीं लगता, तेरा आचरण सबको दुख देता है, तू खुद को सही राह पे क्यों नहीं लाता? दुर्योधन कहता है, ‘जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्तिः। जानामि अधर्मम् न च मे निवृत्तिः।।’ अर्थात गुरुदेव ऐसा नहीं है कि मैं धर्म नहीं जानता हूं, मैं धर्म को जानता हूं, लेकिन उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाता अर्थात उसका पालन नहीं कर पाता हूं। गुरुदेव ने कहा कि जब तुझमें सत्कर्मों की प्रवृत्ति होगी, तब तू ठीक हो जाएगा। तू मेरे पास सत्संग के लिए आया कर, सब ठीक हो जाएगा। ऐसा नहीं है कि हम लोग जानते नहीं हैं, बस अभ्यास नहीं कर रहे हैं। अगर अभ्यास
सोशल मीडिया के प्रचलन में आने से बिना विषयवस्तु के बोध के, बिना गंभीरता के लोग संवेदनशील विषयों पर कुछ भी लिख रहे हैं। इसका गलत असर हो रहा है करते भी हैं, तो वह बहुत छोटे स्तर पर होता है। हम स्वयं को देह माने बैठे, कुल गोत्र माने बैठे हैं। खुद को हमने संकुचित कर रखा है। हमें अपने ज्ञान चक्षु खोलने होंगे। जो चीज भी हमारी उदारता, शालीनता, विनम्रता आदि को चुनौती देती हो, उसका त्याग कीजिए और खुद को बेहतर बनाइए।
हरिद्वार बनाइए। सारे तीर्थ घर में ही हों। अपनों को समय दें, माता-पिता के साथ रहें। हमारी व्यस्तताओं में बहुत सी बातें अनर्गल भी हैं, जिसका कुछ मतलब नहीं है। हमने अपनी जीवनशैली बदल दी है और ऐसी जीवनशैली अपना ली है जो गलत दिशा में लिए जा रही है।
‘मेरा घर-मेरा तीर्थ’
ज्ञान की ओर चलें
सोशल मीडिया के प्लेटफार्म ने एक और काम किया है। हम अपनों से विमुख होकर परायों से संबंध बना रहे हैं। ध्यान रखिए कि यदि आपको सच्चा सुख और सामर्थ्य कहीं से मिलेगा तो वह है अपना घर, अपने लोग। अपने घर को तीर्थ बनाइए। ‘मेरा घरमेरा तीर्थ’- घर को काशी, मथुरा, अयोध्या,
आप लिखना आरंभ कीजिए। अच्छे विचारों का संकलन करिए। विचार संपदा बनाइए, विचार आपमें ताजगी लेकर आएगा। सारे दुखों की कोई जननी है तो वह अज्ञानता है, अविवेक है। इस गुरु पर्व पर ज्ञान की ओर चलें क्योंकि गुरु हर चीज को सरल बनाता है, वह हर चीज को संभव बनाता है।
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व्यक्तित्व
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अब्राहम लिंकन निर्धन और अश्वेत परिवार में जन्म लेने वाले अब्राहम लिंकन आजीवन सादगी और समानता के महान मूल्यों पर कायम रहे। अमेरिका के राष्ट्रपति के तौर पर रंगभेद मिटाने की उनकी लोकतांत्रिक पहल ऐतिहासिक रही
समानता के लिए
लोकतंत्र का मंत्र
अ
एसएसबी ब्यूरो
मेरिका को ‘गृह युद्ध’ के बड़े संकट से उबारने और दासता खत्म करने वाले अब्राहम लिंकन का जीवन संघर्ष और सफलता का एक ऐसा आख्यान है, जिससे दुनिया आज भी प्रेरणा लेती है। एक गरीब परिवार में जन्म लेने वाले लिंकन कैसे अमेरिका के राष्ट्रपति के पद तक पहुंच गए, यह कहानी बेहद रोचक है। दिलचस्प है कि राष्ट्रपति बनने से पूर्व वे दो बार सीनेट के चुनाव में असफल भी हुए थे। पर लिंकन ने कभी हार नहीं मानी। उन्हें गिरकर संभलना आता
था। लिंकन कहते थे, ‘जब मैं कुछ अच्छा करता हूं तो अच्छा अनुभव करता हूं और जब बुरा करता हूं तो बुरा अनुभव करता हूं। यही मेरा मजहब है।’ ‘थैंक्स गिविंग डे’ को राष्ट्रीय पर्व के रूप में अब्राहम लिंकन ने ही मनाना शुरू किया था। वे कहते थे कि इस बात का हमेशा ख्याल रखें कि सिर्फ आपका संकल्प ही आपकी सफलता के लिए मायने रखता है, कोई और चीज नहीं।
असामान्य बचपन
लिंकन जब महज नौ साल के थे तो उनकी मां की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात बहन सारा ने उनका ख्याल
रखा। पिता थॉमस ने उसके बाद एक विधवा सारा बुश जांसटन से पुनर्विवाह कर लिया और उसके तीन बच्चों के सौतेले पिता बन गए। लिंकन को सौतेली मां ने सगी मां से भी अधिक स्नेह और मार्गदर्शन दिया, जो पिता से उन्हें कभी नहीं मिला था। लिंकन की शिक्षा-दीक्षा महज औपचारिक हुई, पर किताबों और सीखने में उनकी गहरी रुचि थी। उन्हें अधिकांश सीख किताबों से स्व-शिक्षा से प्राप्त हुई थी। कभी-कभी किताब उधार लेने के लिए मिलों दूर पैदल गए। उनकी पसंदीदा पुस्तकों में से एक थी, ‘द लाइफ ऑफ जॉर्ज वॉशिंगटन’।
कई नौकरियां
1830 में 21 वर्ष की उम्र में वह परिवार के साथ इलिनोएस आ गए। यहां उन्होंने एक खेत पर साल भर मजदूरी की। पिता फिर विस्थापित हुए। पर लिकंन कहीं और नहीं गए, बल्कि अब भी न्यू सलेम, इलिनोएस में ही बने रहे। युवक लिंकन ने दुकानदार, सर्वेक्षक, और पोस्टमास्टर सहित कई
खास बातें लिंकन जब महज नौ साल के थे तो उनकी मां की मृत्यु हो गई ‘थैंक्स गिविंग डे’ को अमेरिका को राष्ट्रीय पर्वों में शामिल किया लिंकन 1861 से 1865 तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे
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व्यक्तित्व
बेटे के अध्यापक को लिंकन का पत्र
‘प्रजातंत्र के संबंध में उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ विचार संपूर्ण
विश्व को यह दिया- ‘प्रजातंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा चलाया गया शासन है’ किस्म की नौकरियों में कार्य किया। यहां तक कि एक बार जीविका के लिए कुल्हाड़ी से जलावन की लकड़ी चीड़ने का कार्य भी किया। वह जल्द ही राजनीति में चले गए। 25 वर्ष की उम्र में इलिनोएस विधानमंडल की एक सीट जीती। वे इलिनोइस राज्य विधानमंडल के लिए कई बार चुने गए। इस दरम्यान कानून का अध्ययन किया और एक वकील के रूप में काम करना शुरू किया।
पारिवारिक शोक
1842 में लिंकन का मैरी टोड से विवाह हुआ। मैरी ने एक के बाद एक चार बेटों को जन्म दिया। उनमें से 1843 में जन्मा रॉबर्ट टोड एकमात्र वयस्कता तक पहुंच सका। बाकी सभी बच्चे असमय काल के गाल में समा गए। एडवर्ड 1846 में पैदा हुआ और 1850 में उसकी तपेदिक से मृत्यु हो गई। विली का 1850 में जन्म हुआ और 1862 में निधन हो गया। जबकि पुत्र टाड 1853 में जन्मा और 1871 में 18 वर्ष की आयु में दिल के दौरे से मृत्यु हो गई।
राजनीतिक पारी
1845 में उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस के लिए दौड़ लगाई। वे चुनाव जीते और एक कार्यकाल के लिए एक कांग्रेस नेता के रूप में कार्य किया। कांग्रेस के नेता के रूप में सेवा करने के उपरांत उन्होंने एक वकील के रूप में काम करना जारी रखा। फिर अमेरिकी सीनेट के लिए लड़े। वह जीते नहीं, पर बहस के दौरान दासता के खिलाफ अपने तर्क से राष्ट्रीय स्तर पर पहचान हासिल कर ली।
राष्ट्रपति बनने में सफल
1860 में लिंकन संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के लिए चुनाव लड़े। वह न्यू रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य थे, जिसने दक्षिणी राज्यों में से किसी को भी पृथक करने की अनुमति का दृढ़तापूर्वक विरोध किया। रिपब्लिकन भी दासता के खिलाफ थे। लिंकन 1860 का चुनाव जीते और 1861 के मार्च में राष्ट्रपति के रूप में मनोनीत किए गए। अमेरिका के दक्षिणी राज्य नहीं चाहते थे कि लिंकन राष्ट्रपति हों। वे उनकी नीतियों से सहमत नहीं थे। आधिकारिक तौर पर कार्यालय में कार्यभार संभालने के पहले ही उन्होंने अलग होना (देश छोड़ना) शुरू कर दिया। दक्षिण कैरोलिना प्रथम राज्य था, जो अलग हुआ। लेकिन जल्द ही छह और राज्यों ने इसका अनुसरण किया और साथ मिलकर एक नए देश महासंघ का गठन किया। यह सब लिंकन के चुनाव जीतने के बाद, पर कार्यालय में शपथ लेने के पहले हुआ।
गृहयुद्ध की चुनौती
लिंकन के कार्यभार संभालने के महज एक महीने बाद 12 अप्रैल, 1861 को दक्षिण कैरोलिना में
फोर्ट सम्टर में गृहयुद्ध शुरू हुआ। लिंकन ने राज्यों के संघ को बनाए रखना तय कर रखा था। उन्होंने दक्षिण को हराने के लिए उत्तरी राज्यों से सेना को बुलाया। यह एक खूनी युद्ध था, जो 600,000 अमेरिकियों के जीवन की कीमत पर चार साल तक चला। युद्ध के दौरान लिंकन को विपक्ष के विविध प्रहारों का सामना करना पड़ा, लेकिन वे देश को एकजुट रखने में कामयाब रहे। एक जनवरी, 1863 को लिंकन ने मुक्ति उद्घोषणा जारी की। यह संघीय राज्यों में दासों को मुक्त करने का एक आदेश था। हालांकि सभी दास तुरंत मुक्त नहीं हुए थे। इसने 13 वें संशोधन के लिए मार्ग प्रशस्त किया, जिसके तहत संयुक्त राज्य अमेरिका में कुछ साल बाद सभी दास मुक्त हुए।
गेटिस्बर्ग उद्बोधन’
लिंकन अक्सर 1 नवंबर, 1863 को गेटिस्बर्ग में दिए अपने एक संक्षिप्त भाषण के लिए याद किये जाते है। यह ‘गेटिसबर्ग उद्बोधन’ कहलाता है। यह महज कुछ ही मिनट लंबा था, लेकिन अमेरिकी इतिहास में महान भाषणों में से एक माना जाता है। 9 अप्रैल, 1865 को अंततः गृह युद्ध समाप्त हो गया। जनरल रॉबर्ट ई ली ने वर्जीनिया के एप्पोमेटोक्स कोर्ट हाउस में आत्मसमर्पण कर दिया।
प्रजातंत्र की व्याख्या
लिंकन देश का भला, क्षमा और पुनर्निर्माण करना चाहते थे। वे दक्षिणी राज्यों के पुनर्निर्माण के दौरान उन्हें मदद करने में उदार होना चाहते थे। राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए लिंकन ने प्रजातांत्रिक व्यवस्था को शासन-प्रणाली की प्रक्रिया के रूप में अपनाया। प्रजातंत्र के संबंध में उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ विचार संपूर्ण विश्व को यह दिया- ‘प्रजातंत्र जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा चलाया गया शासन है।’ आज अमेरिका विश्व के
लिंकननामा
जन्म: 12 फरवरी 1809 (हार्डिन काउंटी, अमेरिका)
मृत्यु: 15 अप्रैल 1865 (वॉशिंगटन डीसी, अमेरिका)
ख्याति: अब्राहम लिंकन अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति थे। उनका कार्यकाल 1861 से 1865 तक रहा। वे रिपब्लिकन पार्टी से थे। उन्होंने अमेरिका को बड़े गृहयुद्ध से उबारा था। अमेरिका में दास प्रथा के अंत का श्रेय लिंकन को ही जाता है। प्रजातंत्र को लेकर उनकी व्याख्या को आदर्श माना जाता है।
11 अब्राहम लिंकन ने यह पत्र अपने बेटे के स्कूल प्रिंसिपल को लिखा था। लिंकन ने इसमें वे तमाम बातें लिखी थीं जो वे अपने बेटे को सिखाना चाहते थे
आदरणीय सर, मैं जानता हूं कि इस दुनिया में सारे लोग अच्छे और सच्चे नहीं हैं। यह बात मेरे बेटे को भी सीखनी होगी। पर मैं चाहता हूं कि आप उसे यह बताएं कि हर बुरे आदमी के पास भी अच्छा हृदय होता है। हर स्वार्थी नेता के अंदर अच्छा लीडर बनने की क्षमता होती है। मैं चाहता हूं कि आप उसे सिखाएं कि हर दुश्मन के अंदर एक दोस्त बनने की संभावना भी होती है। ये बातें सीखने में उसे समय लगेगा, मैं जानता हूं। पर आप उसे सिखाइए कि मेहनत से कमाया गया एक रुपया, सड़क पर मिलने वाले पांच रुपए के नोट से ज्यादा कीमती होता है। आप उसे बताइएगा कि दूसरों से जलन की भावना अपने मन में न लाए। साथ ही यह भी कि खुलकर हंसते हुए भी शालीनता बरतना कितना जरूरी है। मुझे उम्मीद है कि आप उसे बता पाएंगे कि दूसरों को धमकाना और डराना कोई अच्छी बात नहीं है। यह काम करने से उसे दूर रहना चाहिए। आप उसे किताबें पढ़ने के लिए तो कहिएगा ही, पर साथ ही उसे आकाश में उड़ते पक्षियों को, धूप में हरे-भरे मैदानों में खिले-फूलों पर मंडराती तितलियों को निहारने की याद भी दिलाते रहिएगा। मैं समझता हूं कि ये बातें उसके लिए ज्यादा काम की हैं। मैं मानता हूं कि स्कूल के दिनों में ही उसे यह बात भी सीखना होगी कि नकल करके पास होने से फेल होना अच्छा है। किसी बात पर चाहे दूसरे उसे गलत कहें, पर अपनी सच्ची बात पर कायम रहने का हुनर उसमें होना चाहिए। दयालु लोगों के साथ नम्रता से पेश आना और बुरे लोगों के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए। दूसरों की सारी बातें सुनने के बाद उसमें से काम की चीजों का चुनाव उसे इन्हीं दिनों में सीखना होगा। आप उसे बताना मत भूलिएगा कि उदासी को किस तरह प्रसन्नता में बदला जा सकता है। और उसे यह भी बताइएगा कि जब कभी रोने का मन करे तो रोने में शर्म बिल्कुल न करे। मेरा सोचना है कि उसे खुद पर विश्वास होना चाहिए और दूसरों पर भी। तभी तो वह एक अच्छा इंसान बन पाएगा। ये बातें बड़ी हैं और लंबी भी। पर आप इनमें से जितना भी उसे बता पाएं उतना उसके लिए अच्छा होगा। फिर अभी मेरा बेटा बहुत छोटा है और बहुत प्यारा भी। आपका अब्राहम लिंकन सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में से एक है। विश्व के सभी लोगों को बिना किसी भेदभाव के वहां की विकास प्रक्रिया में भागीदार होने का अवसर प्रदान किया जाता है।
अटल पुरुषार्थ
वे 1861 से 1865 तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे। इस पद पर रहते हुए उन्होंने अमेरिका को एक शक्तिशाली, प्रजातांत्रिक राष्ट्र होने की पहचान दी। वे कहते थे- ‘आज का काम कल पर मत डालो। क्या पता कल आए या न आए। यह मानकर चलो कि इस संसार में कभी-नकभी सच्चा न्याय अवश्य मिलता है। इस बात पर विश्वास करके अपने कर्तव्यपूर्ति में लगे रहो। देश का अच्छा नागरिक बनना हर देशवासी का कर्तव्य होना चाहिए।’
दुखद अंत
दुर्भाग्य से, वह देश का पुनर्निर्माण होते हुए देखने के
लिए ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे। 14 अप्रैल 1865 को राष्ट्रपति लिंकन और श्रीमती लिंकन वॉशिंगटन डीसी में फोर्ड थियेटर में एक नाटक में भाग ले रहे थे। यहीं राजनीति व दासता के विषय में अतिवादी विचार रखने वाले अभिनेता जॉन विल्केस बूथ ने उन्हें गोली मार दी। अगले ही दिन 15 अप्रैल, 1865 को उनकी मौत हो गई। अपनी हत्या के चंद घंटे पहले ही देश की सुरक्षा को मजबूती प्रदान करने के लिए उन्होंने सीक्रेट सर्विसेज का गठन किया था। पर उनकी यह पहल उनकी ही जान बचाने में नाकाम रही। लिंकन एक अच्छे शासक ही नहीं, अपितु एक अच्छे व्यक्ति भी थे। आर्थिक अभाव और असफलता पाकर भी व्यक्ति किस तरह अपने लक्ष्य को पा सकता है, वे इसके जीवंत प्रतीक थे। उन्होंने अपने राष्ट्र की एकता और संगठन शक्ति को बनाए रखने के लिए कोई समझौता नहीं किया। यहां तक कि उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका को अपने जीते-जी कभी अलग नहीं होने दिया।
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पुस्तक अंश
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30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
अपनी होशियारी का कोई गर्व नहीं
गांधी के जीवन में आगे चलकर जो आत्मविश्वास और भाषा के संस्कार दिखाई पड़ते हैं, उसके बीज उनकी स्कूली शिक्षा के दौरान ही पड़ गए थे। तभी यह भी जाहिर हो गया था कि उनके मन में हर बात के लिए एक तर्क होता था। वे किसी की भी हर बात ऐसे ही नहीं मान लेते थे
प्रथम भाग
5. हाईस्कूल में
मैं ऊपर लिख चुका हूं कि ब्याह के समय मैं हाई स्कूल में पढ़ता था। उस समय हम तीनों भाई एक ही स्कूल में पढ़ते थे। जेठ भाई ऊपर के दर्जे में थे और जिन भाई के ब्याह के साथ मेरा ब्याह हुआ था, वे मुझसे एक दर्जा आगे थे। ब्याह का परिणाम यह हुआ कि हम दो भाइयों का एक वर्ष बेकार गया। मेरे भाई के लिए तो परिणाम इससे भी बुरा रहा। ब्याह के बाद वे स्कूल पढ़ ही न सके। कितने नौजवानों को ऐसे अनिष्ट परिणाम का सामना करना पड़ता होगा, भगवान ही जानें! विद्याभ्यास और विवाह दोनों एक
साथ तो हिंदू समाज में ही चल सकते है। मेरी पढ़ाई चलती रही। हाईस्कूल में मेरी गिनती मंदबुद्धि विद्यार्थियों में नहीं थी। शिक्षकों का प्रेम मैं हमेशा ही पा सका था। हर साल माता-पिता के नाम स्कूल में विद्यार्थी की पढ़ाई और उसके आचरण के संबंध में प्रमाणपत्र भेजे जाते थे। उनमें मेरे आचरण
या अभ्यास के खराब होने की टीका कभी नहीं हुई। दूसरी कक्षा के बाद मुझे इनाम भी मिले और पांचवीं तथा छठी कक्षा में क्रमशः प्रतिमास चार और दस रुपए की छात्रवृत्ति भी मिली थी। इसमें मेरी होशियारी की अपेक्षा भाग्य का अंश अधिक था। ये छात्रवृत्तियां सब विद्यार्थियों के लिए नहीं थी, बल्कि सोरठवासियों में से सर्वप्रथम आनेवालों के लिए थी। चालीस-पचास विद्यार्थियों की कक्षा में उस समय सोरठ प्रदेश के विद्यार्थी कितने हो सकते थे। मेरा अपना खयाल है कि मुझे अपनी होशियारी का कोई गर्व नहीं था। पुरस्कार या छात्रवृत्ति मिलने पर मुझे आश्चर्य होता था। पर अपने आचरण के विषय में मैं बहुत सजग था। आचरण में दोष आने पर मुझे रुलाई आ जाती थी। मेरे हाथों कोई भी ऐसा काम बने, जिससे शिक्षक को मुझे डांटना पड़े अथवा शिक्षकों का वैसा खयाल बने तो वह मेरे लिए असह्य हो जाता था। मुझे याद है कि एक बार मुझे मार खानी पड़ी थी। मार का दुख नहीं था, पर मैं दंड का पात्र माना गया, इसका मुझे बड़ा दुख रहा। मैं खूब रोया। यह प्रसंग पहली या दूसरी कक्षा का है। दूसरा एक प्रसंग सातवीं कक्षा का है। उस समय दोराबजी एदलजी गीमी हेड-मास्टर थे। वे विद्यार्थी प्रेमी थे, क्योंकि वे नियमों का पालन करवाते थे, व्यवस्थित रीति से काम लेते और अच्छी तरह पढ़ाते थे। उन्होंने उच्च कक्षा के विद्यार्थियों के लिए कसरत-क्रिकेट अनिवार्य कर दिए थे। मुझे इनसे अरुचि थी। इनके अनिवार्य बनने से पहले मैं कभी कसरत, क्रिकेट या फुटबाल में गया ही न था। न जाने का मेरा शर्मीला स्वभाव ही एकमात्र कारण था। अब मैं देखता हूं कि वह अरुचि मेरी भूल थी। उस समय मेरा यह गलत खयाल बना रहा कि शिक्षा के साथ कसरत का कोई संबंध नहीं है। बाद में मैं समझा कि विद्याभ्यास में व्यायाम का, अर्थात शारीरिक शिक्षा का, मानसिक शिक्षा के समान ही स्थान होना चाहिए। फिर भी मुझे कहना चाहिए कि कसरत में न जाने से मुझे नुकसान नहीं हुआ। उसका कारण यह रहा कि मैंने पुस्तकों में खुली हवा में घूमने जाने की
आचरण में दोष आने पर मुझे रुलाई आ जाती थी। मेरे हाथों कोई भी ऐसा काम बने, जिससे शिक्षक को मुझे डांटना पड़े अथवा शिक्षकों का वैसा खयाल बने तो वह मेरे लिए असह्य हो जाता था
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
सलाह पढ़ी और वह मुझे रुची थी। इसके कारण हाईस्कूल की उच्च कक्षा से ही मुझे हवाखोरी की आदत पड़ गई थी। वह अंत तक बनी रही। टहलना भी व्यायाम तो ही है ही, इससे मेरा शरीर अपेक्षाकृत सुगठित बना। अरुचि का दूसरा कारण था, पिताजी की सेवा करने की तीव्र इच्छा। स्कूल की छुट्टी होते ही मैं सीधा घर पहुंचता और सेवा में लग जाता। जब कसरत अनिवार्य हुई, तो इस सेवा में बाधा पड़ी। मैंने विनती की कि पिताजी की सेवा के लिए कसरत से छुट्टी दी जाए। गीमी साहब छुट्टी क्यों देने लगे? एक शनिवार के दिन सुबह का स्कूल था। शाम को चार बजे कसरत के लिए जाना था। मेरे पास घड़ी नहीं थी। बादलों से धोखा खा गया। जब पहुंचा तो सब जा चुके थे। दूसरे दिन गीमी साहब ने हाजिरी देखी, तो मैं गैर-हाजिर पाया गया। मुझसे कारण पूछा गया। मैंने सही-सही कारण बता दिया उन्होंने उसे सच नहीं माना और मुझ पर एक या दो आने (ठीक रकम का स्मरण नहीं है) का जुर्माना किया। मुझे बहुत दुख हुआ। कैसे सिद्ध करूं कि मैं झूठा नहीं हूं। मन मसोसकर रह गया। रोया। समझा कि सच बोलनेवालों को गाफिल भी नहीं रहना चाहिए। अपनी पढ़ाई के समय में इस तरह की मेरी यह पहली और आखिरी गफलत थी। मुझे धुंधली सी याद है कि मैं आखिर यह जुर्माना माफ करा सका था। मैंने कसरत से तो मुक्ति कर ही ली। पिताजी ने हेडमास्टर को पत्र लिखा कि स्कूल के बाद वे मेरी उपस्थिति का उपयोग अपनी सेवा के लिए करना चाहते है। इस कारण मुझे मुक्ति मिल गई। व्यायाम के बदले मैंने टहलने का सिलसिला रखा, इसीलिए शरीर को व्यायाम न देने की गलती के लिए तो शायद मुझे सजा नहीं भोगनी पड़ी, पर दूसरी गलती की सजा मैं आज तक भोग रहा हूं। मैं नहीं जानता कि पढ़ाई मे सुंदर लेखन आवश्यक है, यह गलत खयाल मुझे कैसे हो गया था। पर ठेठ विलायत जाने तक यह बना रहा। बाद में, और खासकर जब मैंने वकीलों के तथा दक्षिण अफ्रीका में जन्मे और पढ़े-लिखे नवयुवकों के मोती के दानों-जैसे अक्षर देखे तो मैं शर्माया और पछताया। मैंने अनुभव किया कि खराब अक्षर अधूरी शिक्षा की निशानी मानी जानी चाहिए। बाद में मैंने अक्षर सुधारने का प्रयत्न किया, पर पके घड़े पर कहीं गला जुड़ता है? जवानी में मैंने जिसकी उपेक्षा की, उसे आज तक नहीं कर सका। हर एक नवयुवक और नवयुवती मेरे उदाहरण से सबक ले और समझे कि अच्छे अक्षर विद्या का आवश्यक अंग हैं। अच्छे अक्षर सीखने के लिए चित्रकला आवश्यक है। मेरी तो यह राय बनी है कि बालकों को चित्रकला पहले सिखानी चाहिए। जिस तरह पक्षियों, वस्तुओं आदि को देखकर बालक उन्हें याद रखता है और आसानी से उन्हें पहचानता है, उसी तरह अक्षर पहचानना सीखे और जब चित्रकला सीखकर चित्र आदि बनाने लगे तभी अक्षर लिखना सीखे, तो उसके
पुस्तक अंश
जितनी संस्कृत मैं उस समय सीखा उतनी भी न सीखा होता, तो आज संस्कृत शास्त्रों का मैं जितना रस ले सकता हूं, उतना न ले पाता। मुझे तो इस बात का पश्चाताप होता है कि मैं अधिक संस्कृत न सीख सका अक्षर छपे अक्षरों के समान सुंदर होंगे। इस समय के विद्याभ्यास के दूसरे दो संस्मरण उल्लेखनीय है। ब्याह के कारण जो एक साल नष्ट हुआ, उसे बचा लेने की बात दूसरी कक्षा के शिक्षक ने मेरे सामने रखी थी। उन दिनों परिश्रमी विद्यार्थो को इसके लिए अनुमति मिलती थी। इस कारण तीसरी कक्षा में छह महीने रहा और गरमी की छुट्टियों से पहले होनेवाली परीक्षा के बाद मुझे चौथी कक्षा मे बैठाया गया। इस कक्षा से थोड़ी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से होनी थी। मेरी समझ में कुछ न आता था। भूमिति भी चौथी कक्षा से शुरू होती थी। मै उसमें पिछड़ा हुआ था ही, तिस पर मैं उसे बिलकुल समझ नहीं पाता था। भूमिति के शिक्षक अच्छी तरह समझाकर पढ़ाते थे, पर मैं कुछ समझ ही न पाता था। मैं अकसर निराश हो जाता था। कभी-कभी यह भी सोचता कि एक साल में
दो कक्षाएं करने का विचार छोड़कर मैं तीसरी कक्षा में लौट जाऊं। पर ऐसा करने में मेरी लाज जाती, और जिन शिक्षक ने मेरी लगन पर भरोसा करके मुझे चढ़ाने की सिफारिश की थी उनकी भी लाज जाती। इस भय से नीचे जाने का विचार तो छोड़ ही दिया। जब प्रयत्न करते-करते मैं युक्लिड के तेरहवें प्रमेय तक पहुंचा, तो अचानक मुझे बोध हुआ कि भूमिति तो सरल से सरल विषय है। जिसमें केवल बुद्धि का सीधा और सरल प्रयोग ही करना है, उसमें कठिनाई क्या है? उसके बाद तो भूमिति मेरे लिए सदा ही सरल और सरस विषय बना रहा। भूमिति की अपेक्षा संस्कृत ने मुझे अधिक परेशान किया। भूमिति में रटने की कोई बात थी ही नहीं, जब कि मेरी दृष्टि से संस्कृत में तो सब रटना ही होता था। यह विषय भी चौथी कक्षा
13 में शुरू हुआ था। छठी कक्षा में मैं हारा। संस्कृत के शिक्षक बहुत कड़े मिजाज के थे। विद्यार्थियों को अधिक सिखाने का लोभ रखते थे। संस्कृत वर्ग और फारसी वर्ग के बीच एक प्रकार की होड़ रहती थी। फारसी सिखानेवाले मौलवी नरम मिजाज के थे। विद्यार्थी आपस में बात करते कि फारसी तो बहुत आसान है और फारसी शिक्षक बहुत भले हैं। विद्यार्थी जितना काम करते हैं, उतने से वे संतोष कर लेते हैं। मैं भी आसान होने की बात सुनकर ललचाया और एक दिन फारसी वर्ग में जाकर बैठा। संस्कृत शिक्षक को दुख हुआ। उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, ‘यह तो समझ कि तू किनका लड़का है। क्या तू अपने धर्म की भाषा नहीं सीखेगा? तुझे जो कठिनाई हो सो मुझे बता मैं तो सब विद्यार्थियों को बढ़िया संस्कृत सिखाना चाहता हूं। आगे चल कर उसमें रस के घूंट पीने को मिलेंगे। तुझे यों तो हारना नहीं चाहिए। तू फिर से मेरे वर्ग में बैठ।’ मैं शर्माया। शिक्षक के प्रेम की अवमानना न कर सका। आज मेरी आत्मा कृष्णशंकर मास्टर का उपकार मानती है। क्योंकि जितनी संस्कृत मैं उस समय सीखी उतनी भी न सीखा होता, तो आज संस्कृत शास्त्रों का मैं जितना रस ले सकता हूं, उतना न ले पाता। मुझे तो इस बात का पश्चाताप होता है कि मैं अधिक संस्कृत न सीख सका। क्योंकि बाद में मैं समझा कि किसी भी हिंदू बालक को संस्कृत का अच्छा अभ्यास किए बिना रहना ही न चाहिए। अब तो मैं यह मानता हूं कि भारतवर्ष की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में मातृभाषा के अतिरिक्त हिंदी, संस्कृत, फारसी, अरबी और अंग्रेजी का स्थान होना चाहिए। भाषा की इस संख्या से किसी को डरना नहीं चाहिए। भाषा पद्धतिपूर्वक सिखाई जाए और सब विषयों को अंग्रेजी के माध्यम से सीखने-सोचने का बोझ हम पर न हो, तो ऊपर की भाषाएं सीखना न सिर्फ बोझरूप न होगा, बल्कि उसमें बहुत ही आनंद आएगा। और जो व्यक्ति एक भाषा को शास्त्रीय पद्धति से सीख लेता है, उसके लिए दूसरी का ज्ञान सुलभ हो जाता है। असल में तो हिंदी, गुजराती, संस्कृत एक भाषा मानी जा सकती हैं। इसी तरह फारसी और अरबी एक मानी जाएं। यद्यपि फारसी संस्कृत से मिलती-जुलती है और अरबी का हिब्रू से मेल है, फिर भी दोनों का विकास इस्लाम के प्रकट होने के बाद हुआ है, इसीलिए दोनों के बीच निकट का संबंध है। उर्दू को मैंने अलग भाषा नहीं माना है, क्योंकि उसके व्याकरण का समावेश हिंदी में हो जाता है। उसके शब्द फारसी और अरबी ही हैं। ऊंचे दर्जे की उर्दू जाननेवाले के लिए अरबी और फारसी का ज्ञान जरूरी है, जैसे उच्च प्रकार की गुजराती, हिंदी, बांग्ला, मराठी जाननेवाले के लिए संस्कृत जानना आवश्यक है। (अगले अंक में जारी...)
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तकनीक
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
भारत में निर्मित रडार से मानसून की निगरानी भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा विकसित सीयूसैट-एसटी-205 नामक रडार को केरल में ऐसे स्थान पर लगाया गया है, जहां से मानसून भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करता है
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आईएसडब्ल्यू
द महासागर के ऊपर मौसम और मानसून की अधिक सटीक निगरानी के लिए भारत में निर्मित सीयूसैट-एसटी-205 रडार ने कोचीन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में काम करना शुरू कर दिया है। भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा डिजाइन और विकसित किए गए इस रडार को केरल में ऐसे स्थान पर लगाया गया है, जहां से मानसून भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करता है। इससे मौसम, खासतौर पर मानसून संबंधी अधिक सटीक भविष्यवाणी करने में मदद मिल सकती है। पृथ्वी के ऊपरी वातावरण में वायुमंडल की दशाओं की निगरानी के लिए देश में पहले से कई रडार तथा सोनार मौजूद हैं। इस नए रडार के आने से मौसम पूर्वानुमान की भारत की क्षमता में बढ़ोत्तरी हो सकती है। रडार का उपयोग आमतौर पर विमानों का पता लगाने के लिए किया जाता है। रडार की कार्य प्रणाली रेडियो तरंगे भेजने और तरंगों के परावर्तन पर आधारित होती है। तरंगें जब परावर्तित होकर वापस लौटती हैं तो इससे किसी वस्तु की उपस्थिति का पता
लगाने में मदद मिलती है। मौसम के मामले में रडार प्रणाली के इन्हीं सिद्धांतों का उपयोग वायुमंडलीय हलचलों और उसमें मौजूद नमी का पता लगाने के लिए किया जाता है। एसटी-205 रडार वायुमंडलीय हलचलों का पता लगाने के लिए 205 मेगाहर्ट्ज की रेडियो तरंगे भेज सकता है। कोचीन यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस ऐंड टेक्नोलॉजी के एडवांस्ड सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रडार रिसर्च के निदेशक डॉ के. मोहन कुमार ने बताया, ‘इस रडार को वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में स्थित समताप मंडल में होने वाली हलचलों का पता लगाने के लिए विशेष रूप से डिजाइन किया गया है।’ कुमार के अनुसार, ‘क्षोभमंडल पृथ्वी के वायुमंडल का सबसे निचला हिस्सा है और यह 17 किलोमीटर की ऊंचाई पर है। वायुमंडल के इस हिस्से में ऊंचाई बढ़ने के साथ तापमान घटने लगता है। बादल, बारिश, आंधी, चक्रवात जैसी मौसमी घटनाएं वायुमंडल के इसी निचले हिस्से में ही होती हैं। दूसरी ओर, समताप मंडल 17 किमी से ऊपर का क्षेत्र है, जहां वातावरण काफी शांत रहता है। वायुमंडल का यह क्षेत्र शुष्क तथा विकिरण के प्रति संवेदनशील होता है और इस क्षेत्र में मौसम संबंधी
इस रडार को वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में स्थित समताप मंडल में होने वाली हलचलों का पता लगाने के लिए विशेष रूप से डिजाइन किया गया है
प्रणाली नहीं पाई जाती है।’ वायुमंडल के निचले हिस्से में चलने वाली वायुधाराएं, जिन्हें निम्न स्तरीय मानसून जेट धाराएं कहते हैं, भारत के दक्षिणी छोर पर मानसून के समय देखी जा सकती हैं। धरातल से करीब 1.5 किलोमीटर की ऊंचाई पर ये धाराएं चलती हैं। लगभग 14 किलोमीटर की ऊंचाई पर समताप मंडल के पास एक अन्य जेट धारा 40-50 मीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से पूरब की ओर से आती है। इन जेट धाराओं की गति और उत्तर तथा दक्षिण की ओर इनके प्रवाह से ही भारत में मानसून का विस्तार होता है। कुमार बताते हैं कि इस नए रडार की मदद से 315 मीटर से 20 किलोमीटर की ऊंचाई तक क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर हवाओं की सटीक ढंग से निगरानी अधिक परिशुद्धता के साथ की जा सकती है। मानसून की निगरानी के अलावा एसटी-205 रडार सुविधा का उपयोग अन्य वैज्ञानिक अनुसंधानों में भी हो सकता है, जिसके कारण दुनिया भर के वैज्ञानिकों का आकर्षण इसकी ओर बढ़ा है। यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने लॉन्च होने वाले अपने नए उपग्रह के प्रमाणीकरण के लिए इस नए रडार के आंकड़ो के लिए संपर्क किया है। इसी तरह इंग्लैंड के मौसम विभाग और यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग की ओर से भी एक संयुक्त शोध कार्यक्रम का प्रस्ताव मिला है। इसके साथ ही क्षोभमंडल तथा समताप मंडल की परस्पर क्रियाओं के अध्ययन के लिए इस रडार के अवलोकनों का उपयोग करने के
खास बातें नए रडार से मौसम पूर्वानुमान की भारत की क्षमता बढ़ गई है एसटी-205 रडार 205 मेगाहर्ट्ज की रेडियो तरंगे भेज सकता है इस रडार का उपयोग अन्य वैज्ञानिक अनुसंधानों में भी होगा लिए एक इंडो-फ्रांसीसी कार्यक्रम भी चल रहा है। रडार टीम में डॉ कुमार के अलावा, के.आर. संतोष, पी. मोहनन, के. वासुदेवन, एम.जी. मनोज, टीटू के. सैमसन, अजीत कोट्टायिल, वी. राकेश, रिजॉय रिबेलो और एस. अभिलाष शामिल थे। इस रडार परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक तथ्यों को शोध पत्रिका ‘करंट साइंस’ में प्रकाशित किया गया है। इस रडार परियोजना के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की ओर से अनुदान दिया गया है और चेन्नई की कंपनी डाटा पैटर्न इंडिया ने वैज्ञानिकों और इंजीनियर्स की देखरेख में इसे बनाया है।
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
कोल्लानी
खुद की तलाश पूरी हुई...
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जिंदगी की नाव जब डगमगाती है, तो ऐसी लहरों की थपेड़ों पर छोड़ती है, जहां संभलना बहुत मुश्किल होता है। कोल्लानी के जीवन की खूबसूरत नाव भी ऐसे ही हादसे का शिकार हो गई अयोध्या प्रसाद सिंह
शहूर शायर राना अकबराबादी ने कुछ लोगों का दर्द यूं बयां किया है, ‘दुनिया भी मिली है गम-ए-दुनिया भी मिला है, वो क्यूं नहीं मिलता जिसे मांगा था खुदा से।’ पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले की रहने वाली कोल्लानी पाल की खूबसूरत जिंदगी में भी किस्मत ने कुछ ऐसे ही खेल खेले कि उन्हें सबकुछ मिलते हुए भी कुछ न मिला और उनकी जिंदगी दोराहे पर खड़ी हो गई, जहां से एक रास्ता सिर्फ विरह और वेदना का था तो दूसरा कान्हा की नगरी वृंदावन में ले जाकर संतुष्टि का भाव स्फुटित करता था। और कोल्लानी ने दूसरा रास्ता चुना। नाजुक उम्र में शादी के पवित्र बंधन में बंधी, कोल्लानी जिस बेहतर और खूबसूरत जिंदगी के ख्वाब संजोती थीं, वह उसके कदमों में थी। पति एक अच्छे ऑफिस में काम करते थे और उसकी आमदनी बेहतर थी। साथ ही पारिवारिक खेती भी थी। इसीलिए, आय के दो स्रोत थे और आर्थिक रूप से उनका जीवन सबल था। इस तरह सुकून की छांव में और मोहब्बत की राहों में आगे बढ़ते हुए, कोल्लानी ने एक लड़के
खास बातें बीरभूम जिले की कोल्लानी का विवाह अच्छी जगह हुआ पति की मौत कैंसर से हो गई तो बेटे का सहारा था लेकिन बहू से रिश्ते उलझते गए और घर छोड़ दिया
और दो लड़कियों को जन्म दिया। अब जिंदगी में जज्बातों और श्रृंगार के प्रेम की जगह ममत्व की छांव ने ले ली थी। कोल्लानी अपने बच्चों के खुशियों से भरे भविष्य के प्रति सचेत थी। कोल्लानी और उसके पति ने दिन-रात मेहनत करके अपने बच्चों का भविष्य संवार दिया। उन्हें प्यार से भरा बेहतर बचपन दिया, पढ़ाया-लिखाया, फिर धूम-धाम से उनकी शादी की। कोल्लानी को लगा कि उसने अपने दायित्वों का निर्वाह कर लिया है, लेकिन यहीं से उसकी नियति बदलने वाली थी। एक दिन पति की तबियत खराब हो गई, इलाज चला, कई जतन किए गए, लेकिन पति के स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ और दिन पर दिन उसकी तबियत बिगड़ती जा रही थी। डॉक्टरों ने उसे बताया कि उसके पति को कैंसर है और उसके पास ज्यादा दिन शेष नहीं हैं। इतना सुनते ही, कोल्लानी की आंखों के सामने अंधेरा छा गया, तूफान के थपेड़े उसे आगोश में लेने लगे, उसे लगा कि जैसे उसने इसी पल में जो इतने दिन कमाया था, सब खो दिया। कोल्लानी बताती हैं कि मैं उस पल को आज तक नहीं भूली, जब डॉक्टर ने मुझे बताया था कि तुम्हारे पति को कैंसर है। मैंने पहले भी इस खतरनाक बीमारी का नामा सुना था, इसीलिए मुझे पता था कि इसमें बचने के मौके बहुत कम होते हैं। उस पल ऐसा लग रहा था कि या तो सब कुछ अभी ठीक हो जाए या भगवान मुझे भी मौत दे दे। फिर वही हुआ, जिसका डर था। कोल्लानी के पति की जिंदगी को कैंसर ने लील लिया । अब कोल्लानी के पास बचा था, तो वैधव्य का सफेद रंग और यादें। साथ में, अपने पति को न बचा पाने का एक ऐसा खाली दर्द था, जिसे भरना शायद नामुमकिन था। कोल्लानी विरह के भाव चेहरे पर लाते हुए कहती हैं कि वैधव्य का दर्द बांटा नहीं जा
जेंडर
सकता है, इसे महसूस नहीं किया जा सकता। वह कितने मेहरबान थे, कि हजारों खुशियों से हमें नवाज गए, लेकिन हम उन्हें चाहकर भी बचा न पाए। हमारी हर कोशिश बेकार गई। मेरे पास अब केवल मेरा बेटा और बहू थे। लेकिन पति की मौत के साथ शायद सबकुछ बदलने लगा था। बहू से कोल्लानी के रिश्ते अब वैसे नहीं रहे, उन दोनों में बिलकुल भी नहीं पटती थी। बेटे ने कोशिशें भी की, लेकिन रिश्तों में जो दरार आई थी, वह गांठ में बदल चुकी थी, जिसका खुलना मुमकिन न था। कोल्लानी कहती हैं, ‘मेरा बेटा बहुत अच्छा है और मुझे बहुत मानता है लेकिन बहू से मेरी अनबन शुरुआत से रही, धीरे-धीरे में उसके साथ रहना, उसे खटकने लगा। मैं अपने दर्द के घेरे और विरह की आंधी से निकलकर बाहर जाना चाहती थी, लेकिन आए दिन खराब होते रिश्तों ने ऐसा होने न दिया और फिर मैंने एक दिन घर छोड़ दिया।’
15 कोल्लानी ने पहले से वृंदावन के बारे में सुना था कि वहां दीन-दुखी और सताए हुए लोगों को जिंदगी का नया मर्म मिलता। अध्यात्म और संतुष्टि के सुगम रास्ते इसी पवित्र माटी से ही निकलते हैं। फिर कोल्लानी 13 साल पहले, सब कुछ छोड़कर वृंदावन आ गईं। यहां आकर पहले मीरा बाई आश्रम में रहीं, जहां कपड़े सिलती थी, जिससे खाना और पैसा मिलता था, उसी से गुजारा चलता था। शुरुआत में कई मुश्किलें आईं, लेकिन धीरेधीरे सब सही हो गया। कोल्लानी कहती हैं, ‘राधा-रानी की कृपा से मेरी हर राह आसान होती गई। अब गुरुकुल आश्रम में रहने लगी हूं, जबसे लाल बाबा (डॉ. विन्देश्वर पाठक) की शरण में आई हूं, कोई कमी न रही। अब कपड़ा और खाना सब मुफ्त मिलता है, साथ में अन्य किसी जरुरत के लिए 2 हजार रुपए भी हर महीने मिलते हैं। मैं राधा-रानी का भजन गाती हूं और खुद को तलाशती हूं।’ कोल्लानी पहले अथाह पीड़ा में तपी, लेकिन वृंदावन की छांव ने उसके जीवन को सार्थक बनाते हुए पूरा कर दिया, अब वह बची हुई जिंदगी वृंदावन में शांति से बिताना चाहती हैं। कोल्लानी अपने बूढ़ी संवेदनाओं को समेटे चेहरे पर एक हलकी सी मुस्कान लाते हुए कहती हैं कि बेहद खूबसूरत जिंदगी से गुजरते बेइंतहां दर्द को महसूस किया मैंने, लेकिन इस शहर की मिट्टी ने आखिर में सब घावों को भर दिया। अब शायद मेरी खुद की तलाश भी पूरी हो जाए।
संवेदनाओं के सारे बांध, संचित सभी व्यथाएं, टूटी हुई सभी आशाएं, पीड़ा के सारे प्रवाह, ये सब मेरी दर्द की व्याख्या के आगे नतमस्तक लग रहे थे। क्योंकि मैं जिस खुशहाल जिंदगी में थी, वहां से अचानक इतने बड़े दुःख को समेटना बहुत मुश्किल था। लेकिन वृंदावन की माटी ने, मेरे आवेगों को नई राह दी
16 खुला मंच
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
यही पशु प्रवृति है कि आप ही आप चरे वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
अभिमत
अयोध्या प्रसाद सिंह
लेखक युवा पत्रकार हैं और सामयिक मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखते हैं
मुश ं ी प्रेमचंद जयंती (31 जुलाई) पर विशेष
समाज, साहित्य और प्रेमचंद
– मैथिलीशरण गुप्त
प्रेमचंद की लोकप्रियता आज भी बरकरार है। उनकी यह लोकप्रियता हिंदी साहित्य की सार्थकता की बड़ी पूंजी है
नई खेल संस्कृति
देश में जिस तरह से योजनाओं को मूर्त रूप दिया जा रहा है, उससे न सिर्फ नई खेल प्रतिभाओं को अवसर मिलेगा बल्कि देश में एक नई खेल संस्कृति भी विकसित होगी
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फी समय बाद भारत में सरकार की प्राथमिकताओं में खेल को शामिल किया गया है। प्रधानमंत्री देश को स्पोर्टिंग सुपर पॉवर बनाना चाहते हैं। इसके लिए वह संकल्पित हैं। उनकी पहल पर भारत में पहली बार खेल प्रतिभाओं की पहचान के लिए ‘खेलो इंडिया’ का कार्यक्रम लॉन्च किया गया। ‘खेलो इंडिया’ के पहले संस्करण के उद्घाटन के समय पीएम मोदी ने आह्वान किया कि आओ खेलें भी और खिलें भी। भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) ने खेलो इंडिया प्रतिभा पहचान विकास के तहत देशभर के 734 खिलाड़ियों का चयन किया है। चयनित खिलाड़ियों में सबसे ज्यादा 100 खिलाड़ी हॉकी से हैं जबकि शूटिंग से 85 और कुश्ती से 65 खिलाड़ी हैं। बॉक्सिंग से 66, तीरंदाजी से 59, टेबल टेनिस से 57, बास्केटबॉल से 40, एथलेटिक्स से 34, स्वीमिंग से 39, वॉलीबॉल से 35, वेटलिफ्टिंग से 27, फेंसिंग से 24 खिलाड़ियों को स्कॉलरशिप के लिए चुना गया है। इन खिलाड़ियों को दैनिक खर्चे, इलाज और दूसरी जरूरतों को पूरा करने के लिए सालाना एक लाख 20 हजार रुपए दिया जाएगा। यह राशि उन्हें चार भागों में तीन-तीन महीने पर दी जाएगी। खेलो इंडिया के तहत चयनित प्रतिभा खिलाड़ियों को सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त अकादमियों में प्रशिक्षण मिलेगा। इन अकादमियों को खिलाड़ियों के प्रशिक्षण रहने और टूर्नामेंट खर्च का ध्यान रखना होगा। खेल मंत्रालय के अनुसार, देश में पहली बार उभरती हुई प्रतिभाओं के लिए मजबूत पारिस्थितिक व्यवस्था बनाने के लिए विभिन्न निजी, राज्यों और भारतीय खेल प्राधिकरण की अकादमियों को मान्यता दी गई है। एक उच्च समिति ने 21 गैर साई अकादमियों को भी मान्याता दी है। योजना और अधिक अकादमी बनाने की है ताकि युवा खिलाड़ियों को ज्यादा दूर जाए बिना प्रशिक्षण के लिए सर्वश्रेष्ठ सुविधाएं मिल सके। साफ है कि देश में जिस तरह से योजनाओं को मूर्त रूप दिया जा रहा है, उससे न सिर्फ नई खेल प्रतिभाओं को अवसर मिलेगा बल्कि देश में एक नई खेल संस्कृति भी विकसित होगी।
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(उत्तर प्रदेश)
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लम के सिपाही कहे गए प्रेमचंद के बारे में कभी मशहूर फिल्मकार सत्यजीत रे ने कहा था कि अगर उन्होंने इस महान साहित्यकार की आंखों से देश के गांवों को नहीं देखा होता, तो उनकी कई फिल्मों की योजना आकार भी नहीं ले पाती। प्रेमचंद की मशहूर कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ पर इसी नाम से फिल्म भी बनाई, जो आज भी एक क्लासिक मानी जाती है। इस फिल्म के अंत को रे थोड़ा जरूर बदला था, पर इस कारण उन पर कहानी की आत्मा से छेड़छाड़ जैसा आरोप नहीं लगा, बल्कि इसे एक फिल्मकार का रचनात्मक विवेक और उसकी स्वतंत्रता माना गया। प्रेमचंद जिस समय लिख रहे थे, वह औपनिवेशिक शासन का समय था। वह शासन जो अपने व्यापारिक हितों की पूर्ति के लिए ही स्थापित हुआ था और जिसे इस देश को कच्चे माल का आपूर्तिकर्ता बनाना था। कृषि व्यवस्था को छिन्न-भिन्न किया गया और अठारहवीं सदी राजकीय संरक्षण में जमीन की लूट-खसोट की सबसे भयानक घटनाओं की प्रत्यक्षदर्शी बनी, लेकिन इसी के बरअक्स आजादी की लड़ाई के साथ पलता वह स्वप्न भी था कि अपना राज जब आएगा तो यह दुख दूर होगा, आखिरी आदमी तक पहुंचेगी मुस्कान और एक बराबरी वाले सर्वकल्याणकारी समाज की स्थापना होगी। उनका किसान इसी अत्याचार की मार झेलता और इस स्वप्न को जीता किसान था।
एक तरफ अत्याचारी शासन तो दूसरी तरफ अपने ही समाज का वह बर्बर ढांचा जो उसे जाति की अमानवीय श्रेणियों में बांटकर निष्ठुर कर्मकांडों और क्रूर परंपराओं की जंजीरों में ऐसा कसे हुए था कि एक एक सांस लेनी मुश्किल थी। इन हालात कि एक पैदाइश था हल्कू, जो पूस की रात में किसानी से जान छूटने से संतोष पाता है और मजदूरी करने का तय करता है, तो एक पैदाइश वे घीसू- माधव भी थे जिन्होंने हाड़ तोड़ मेहनत के फल के बारे में ठीक-ठीक जान लिया था और उन परंपराओं के मासूम फायदे उठाना सीख लिया था। प्रेमचंद ने लिखते हुए एक तरफ तो किसान के दुख-दर्द और सामजिक-आर्थिक विडंबनाओं को एकदम सीधे सीधे दर्ज किया, तो वहीं दूसरी तरफ उस समय की राजनीतिक सामाजिक जीवन की सांप्रदायिकता, जाति प्रथा, आर्थिक विषमता आदि को भी कहानियों में ही नहीं, बल्कि अपने लेखों में भी दर्ज किया और साथ ही अपनी प्रतिबद्धता भी साफ की। यह उनकी सफलता है कि वे आज भी प्रासंगिक हैं, लेकिन हमारे समाज और राजनीति की विफलता है। वैसे देश और खासतौर पर ग्रामीण भारत के मौजूदा हालात को देखकर यह जरूर कहा जा सकता है कि आज अगर वह होते तो जाहिर तौर पर उस समय से अधिक उद्विग्न होते कि मुसीबतें तो नए-नए रूपों में सामने उपस्थित हैं,
वे उर्दू की पृष्ठभूमि से आए थे तो उनके साथ सिर्फ दो भाषाएं ही नहीं, दो सांस्कृतिक परंपराएं भी थीं। संस्कृतियों का एक सम्मिलित रूप था। उदार और मानवतावादी संस्कृतियां उनकी पूंजी थी, जिसे हम प्रेमचंद की प्रगतिशीलता कहते हैं
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018 लेकिन स्वप्न सारे खंडित। प्रेमचंद की बाद उनकी परंपरा से जोड़े गए राजेंद्र यादव कहते हैं कि 20वीं शताब्दी के बाक़ी जो उनके समकालीन लेखक थे, वो उनकी तरह के नहीं थे। वे उर्दू की पृष्ठभूमि से आए थे तो उनके साथ सिर्फ दो भाषाएं ही नहीं, दो सांस्कृतिक परंपराएं भी थीं। संस्कृतियों का एक सम्मिलित रूप था। उदार और मानवतावादी संस्कृतियां उनकी पूंजी थी, जिसे हम प्रेमचंद की प्रगतिशीलता कहते हैं। वे जो दबे, कुचले, शोषित वर्ग हैं जिनकी आवाज कोई नहीं सुनता था, जिनके बारे में कोई बोलता नहीं था। उन्होंने उसके बारे में लिखना शुरू किया। मध्यवर्ग के लोगों में साहित्य सीमित था उससे उन्होंने हमारे कथा साहित्य को बाहर निकाला। प्रेमचंद के बिना हम भारतीय समाज को नहीं समझ सकते। आज भी स्थिति वैसी ही है। किसानों की हालत लगातार बुरी होती जा रही। सरकारें कोशिश कर रही हैं पर किसानों के बुनियादी सवाल अब तक अनुत्तरित हैं। गरीबी की चक्की में आज भी पिसने को देश के अन्नदाता मजबूर हैं। हम उनकी आखिरी दौर की कहानियों में चाहे वह कफन, पूस की रात, सद्गति, ठाकुर का कुआं हो, गरीबी का जो चित्र देखते हैं, उस गरीबी से आज भी यह देश मुक्त नहीं हुआ है। विकास की तमाम उपलब्धियों के बीच देश में कायम यह गरीबी हमारी समृद्धि के दावे को गलत साबित करती हैं। प्रेमचंद के लिए ये सवाल सैद्धांतिक से ज्यादा मानवीय थे। उनकी कहानी में मानवता का यह पक्ष बार-बार उभरा। प्रेमचंद की प्रासंगिकता की चर्चा के बीच हमें उनके योगदान को भी नहीं भूल सकते कि उन्होंने हिंदी उपन्यास को भारतीय समाज से सीधेसीधे जोड़ा। उनके पूर्व की परंपरा में बालकृष्ण भट्ट, श्रीनिवास दास, राधाचरण गोस्वामी, ठाकुर जगमोहन सिंह, गोपालराम गहमरी,गौरी दत्त, किशोरीलाल गोस्वामी, देवकीनंदन खत्री आदि ने विविध विषयों पर उपन्यासों की रचना की। इनमें कोई तिलस्मी और अय्यारी की गाथा लिखकर अपनी कल्पना शक्ति का परिचय दे रहा था, तो कोई जासूसी और साहसिक उपन्यासों की रचना में मशगूल था। सुखद यह है कि प्रेमचंद की लोकप्रियता आज भी बरकरार है। उनकी यह लोकप्रियता हिंदी साहित्य की सार्थकता की बड़ी पूंजी है।
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व्यक्तितव
सवच्छ्ता
सत्ी संघर्ष का घोरणापत् आरएनआई नंबर-DELHIN
24 कही-अनकही
22 पुस्तक अंश
41/2017-19
डाक पंजी्यन नंबर-DL(W)10/22
/2016/71597
क
बदल्ते भार्त का साप्ाहह
rat.com sulabhswachhbha
वर्ष-2 | अंक-32 | 23
- 29 जुलाई 2018
भ जल’
अब मिमिला िें ‘सुल
करोड़ देश के शहरों में करीब 9.7 लोगों को पीने का साफ पानी नहीं ममलता। गांवों में तो 70 पीने फीसदी लोग प्रदूमित जल को मववश है। ऐसे में सवच्छता लभ से आगे कदम बढाते हुए सु सुलभ प्रणेता डॉ. मवनदेश्वर पाठक जल की मकफायती तकनीक लेकर सामने आए हैं
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एसएसबी ब्ययूरो
सबसे नव अस्तितव के लिए पानी ी दुलनया जरूरी है। िेलकन आज पूर लवकराि में जि संकट धीरे-धीरे संकट होतिा नजर आ रहा है। इस में भी समझा जा सकतिा है की गंभीरतिा को इस रूप तिो छोल़िए, पीने लिए के काययों अनय लक िोगों को नहीं लमि पा रहा है। जि तिक के लिए शुद्ध पेयजि द स्थिलतियां लवकट हैं। संसाधनों की प्रचुरतिा के बावजू करें तिो यहां नलदयों की बाति हमारे अपने देश में लबहार सम्या की ट वह जि-संक का जाि लबछा है। लिर भी से जूझ रहा है।
लह्से में भू-जि खास तिौर पर लबहार के पसचिमी । िोग बूंद-बूंद जाने िगा है ्तिर धीरे-धीरे नीचे की ओर । राजय का िोक ्वा््थय पानी के लिए तिरसने िगे हैं पानी उपिबध कराने में अलभयंत्रण लवभाग िोगों को में कम से कम 20 लजिे सिि नहीं हो पा रहा है। राजय से बीतिे एक दशक में ऐसे हैं, जो कम वराषा की वजह आए हैं। में ट चपे की े ख सू बार कई
सुलभ की बडी पहल
मार्कण्डेय काटजू
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उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एवं प्रखर विचारक
विज्ञान की भाषा के रूप में संस्कृत
संस्कृत स्वतंत्र चिंतकों कि भाषा थी, जिन्होंने अपने समय में कई महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए और जिन्होंने विभिन्न विषयों पर विभिन्न विचार व्यक्त किए
आ
संस्कृत दिवस (3 अगस्त) पर विशेष
ज भारत कई बड़ी समस्याओं का सामना कर रहा है और मेरे राय में ये सिर्फ विज्ञान के द्वारा ही सुलझाई जा सकती है। अगर हमें विकास करना है तो हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण को देश के कोने-कोने तक पहुंचाना होगा। यहां विज्ञान से मेरा मतलब भौतिकी, रसायन विज्ञान और जीवन विज्ञान से नहीं है बल्कि पूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण से है। हमें लोगों को तार्किक व प्रश्नाकूल बनाना होगा और अंधविश्वासों व खोखली रीती-रिवाजों को खत्म करना होगा। भारतीय संस्कृति के आधार में संस्कृत भाषा है। संस्कृत भाषा के बारे में एक बड़ी भ्रांति यह है कि यह केवल मंदिरों या धार्मिक आयोजनों में मंत्रोच्चार के लिए है। जबकि यह संपूर्ण संस्कृत साहित्य के 5 प्रतिशत से भी कम है। संस्कृत साहित्य के 95 प्रतिशत से अधिक हिस्से का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। इसका संबंध दर्शन, न्याय, विज्ञान, साहित्य व्याकरण, ध्वनि-विज्ञान निर्वचन आदि से है। यहां तक कि संस्कृत स्वतंत्र चिंतकों कि भाषा थी, जिन्होंने अपने समय में कई
महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े किए और जिन्होंने विभिन्न विषयों पर विभिन्न विचार व्यक्त किए। वास्तव में प्राचीन भारत में संस्कृत हमारे विज्ञानिकों कि भाषा थी। निसंदेह आज हम विज्ञान के क्षेत्र में दूसरे देशों कि तुलना में पीछे है, लेकिन एक समय था जब भारत पूरे विश्वभर में अग्रणी था। ‘संस्कृत’ शब्द का अर्थ होता है- पूर्ण, संपूर्ण, शुद्ध और परिष्कृत। इसे ‘देववाणी’ भी कहा गया है। संस्कृत हमारे दार्शनिकों वैज्ञानिकों गणितज्ञों, कवियों, नाटककारों, व्याकरण आचार्यो आदि की भाषा थी। व्याकरण के क्षेत्र में पाणिनी और पंतजलि (अष्टाध्यायी और महाभाष्य के लेखक) के समतुल्य पूरे विश्वभर में कोई दूसरा नहीं है। खगोलशास्त्र और गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर के कार्यों ने मानव जगत को नवीन मार्ग दिखाया। वहीं औषधि के क्षेत्र में चरक और सुश्रुत ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। दर्शन के क्षेत्र में गौतम (न्याय व्यवस्था के जन्मदाता), शंकराचार्य और वृहस्पति आदि ने पूरे विश्वभर में विस्तृत दार्शनिक व्यवस्था को प्रतिपादित किया है। साहित्य में संस्कृत का योगदान सबसे
महत्वपूर्ण है। कालिदास का लेखन, भवभूति और वाल्मीकि, व्यास आदि के महाकाव्य को पूरे विश्वभर में जाना जाता है। प्राचीन भारत में ढ़ेर सारे बौद्धिक क्रियाकलाप होते थे। इस भाषा के जन्मदाता व्याकरण आचार्य पाणिनी माने जाते हैं, जिन्होंने संस्कृत को इतना सक्षम बनाया कि इसमें तकनीकि विचारों को पूरे विशुद्धता, तार्किकता और सुस्पष्टता के साथ व्यक्त किया जा सके। विज्ञान में परिशुद्धता कि आवश्यकता होती है। साथ ही विज्ञान को एक लिखित भाषा कि जरूरत होती है, जिसमें विचारों को पूरे स्पष्टता और तार्किकता के साथ व्यक्त किया जा सके। पाणिनी ने जो सबसे महत्पूर्ण काम किया, वह यह था कि उन्होंने अपने समय में प्रचलित संस्कृत भाषा का गहराई से अध्ययन किया और उसके बाद उसे परिष्कृत परिशुद्ध और व्यवस्थित किया जिसके कारण वह एक तार्किक, परिशुद्ध और परिष्कृत भाषा बन सकी। इस तरह से पाणिनी ने संस्कृत को एक ऐसा विकसित व सशक्त वाहक बना दिया, जिसमें तकनीकि विचारों को अत्यंत शुद्धता व स्पष्टता के साथ व्यक्त किया जा सके। आज हमें ये झिझ़क के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि पश्चिम की तुलना में हम आधुनिक विज्ञान में हम पीछे हैं। अपनी व्यापक समस्याओं के समाधान के लिए हमें विज्ञान के क्षेत्र में पश्चिम की बराबरी करनी होगी। सिर्फ विज्ञान की सहायता से ही हम गरीबी, बेरोजगारी जैसी बड़ी सामाजिक समस्याओं को खत्म कर सकते हैं और यह काम बगैर संस्कृत को साथ लिए नहीं हो सकता है। (13 अक्टूबर, 2009 को भारतीय विज्ञान संस्थान, बंेगलुरू में दिए गए व्याख्यान का संपादित अंश)
सदस्य बनें
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एक््टिंग का सककूल
आधारभूत संरचना सुंदर्ता और सवच्छ्ता की द्ीपमाला का विसतार
लीक से परे
खुला मंच
लिए शुद्ध पेयजि मुहैया ऐसे में लबहार के िोगों के सं्थिा की तिरि से की गई कराने की ब़िी पहि सुिभ ही डॉ. लवनदेश्वर पाठक ने है। सुिभ प्रणेतिा ने हाि में यजि सम्या का समाधान प्रदेश के दरभंगा लजिे में पे
तिलक का जीवन मैं ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का पाठक पहले से हूं। मुझे लगता है कि हर बार इस अखबार के अंक में कई एेसी सामग्रियां रहती हैं, जो हमें नई जानकारी देती है। खासतौर पर ये बातें जिस प्रेरक अंदाज में कही जाती हैं उनका पाठकों पर बहुत असर होता है। अभी जो हालिया अंक मैंने पढ़ा, उसमें मुझे लोकमान्य तिलक के बारे में पढ़ना सबसे अच्छा लगा। तिलक भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के भाल पर अंकित तिलक की तरह थे। उनका जीवन, उनकी सोच और उनके कार्य का विस्तार इतना ज्यादा है कि कोई भी उनके व्यक्तित्व से अभिभूत हो जाएगा। आपको इस सुंदर आलेख के प्रकाशन के लिए बधाई। श्वेत मधुर, मॉडल टाउन दिल्ली
सुलभ जल सुलभ ने स्वच्छता से आगे शुद्ध पेयजल के क्षेत्र में कदम बढ़ा दिए हैं। सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक का यह कदम देश में नई जल क्रांति लेकर आएगा, एेसी उम्मीद है। मैं ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ के माध्यम से सुलभ के कार्यों के बारे में पहले से पढ़ता रहा हूं। मुझे लगता है कि दुनिया में शायद ही कोई सामाजिक संस्था होगी, जिसका कार्यक्षेत्र इतना सघन और विस्तृत हो। सुलभ को उसके नेक और सफल इरादे के लिए हम सबकी तरफ से शुभकामनाएंं। नर्मदेश्वर झा, समस्तीपुर, बिहार
वार्षिक सदस्यता
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सदस्यता ग्रहण करने के लिए संपर्क करें सुलभ स्वच्छ भारत
825 वेव सिल्वर टाॅवर, सेक्टर-18, नोएडा-201301 (उत्तर प्रदेश) फोनः +91-120-2970819
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फोटो फीचर
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
सजल आस्था का हरिद्वार
किसी नदी को कितनी श्रद्धा और आस्था से देखा जा सकता है, इसकी सबसे बड़ी मिसाल है गंगा और उससे जुड़ी भक्ति की परंपरा। हरिद्वार से गंगा पर्वतीय मार्ग छोड़कर पूरी तरह स्थलीय हो जाती है। यही कारण है कि हरिद्वार में श्रद्धा-भक्ति की परंपरा बहुत पुरानी है। सुबह हो कि शाम हरिद्वार के मुख्य घाट हर की पौड़ी का भक्तिमय नजारा देखते ही बनता है
फोटोः जयराम
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन के बाद जब विश्वकर्मा अमृत के लिए झगड़ रहे देव-दानवों से बचाकर अमृत ले जा रहे थे तो पृथ्वी पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गईं। अमृत की कुछ बूंदें हरिद्वार में भी गिरीं। जहां पर ये बूंदें गिरीं, वह स्थान हर की पौड़ी हैं। हरिद्वार आने वाले हर श्रद्धालु की सबसे प्रबल इच्छा होती है वह हर की पौड़ी में एक बार आस्था की डुबकी जरूर लगा ले
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स्वास्थ्य
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
ड्रैगन फ्रूट यानी ‘सुपर फूड’
ड्रैगन का नाम सुनते ही जेहन में एक आग उगलने वाले खतरनाक जीव की छवि उभरती है। लेकिन ड्रैगन फ्रूट की विशेषता इसके ठीक विपरीत है। यह फल बीमारियों से लड़ता है न कि किसी जीव से
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चैतन्य चंदन
गन फ्रूट कैक्टस प्रजाति के एक पौधे का फल है, जिसे ‘सुपर फूड’ भी कहा जाता है। क्योंकि इसमें कैंसर सहित कई बीमारियों से लड़ने की क्षमता है और इसमें पाए जाने वाले पोषक तत्व शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाता है। ड्रैगन फ्रूट को पिताया और स्ट्रॉबेरी पेयर के नाम से भी जाना जाता है। इसका वानस्पतिक नाम हायलोसेरीयस उंडटस है। यह मुख्यतः उष्णकटिबंधीय क्षेत्र का पौधा है और इसकी उत्पत्ति मध्य और दक्षिणी अमेरिका माना जाता है। एनसायक्लोपीडिया ऑफ फ्रूट्स एंड नट्स के अनुसार ड्रैगन फ्रूट को पहली बार करीब 2300 वर्ष पूर्व प्री-कोलंबियन सेटलमेंट के दौरान देखा गया था। इसके बाद यूरोप के लोग इसका बीज ताइवान लेकर आए। वर्ष 1870 में फ्रांसीसी लोगों ने वियतनाम के लोगों का ड्रैगन फ्रूट से परिचय करवाया। वर्तमान में वियतनाम ड्रैगन फ्रूट का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। ड्रैगन फ्रूट के साथ जुड़ी एक लोककथा के अनुसार, हजारों साल पहले एक युद्ध के दौरान ड्रैगन जब सांस छोड़ता था तो उससे एक गोले जैसी कोई वस्तु भी गिरती थी। उस युद्ध में जब सभी ड्रैगन मारे गए तो सैनिकों ने उन गोलों को इकट्ठा कर लिया और उसे राजा को भेंट कर दिया। राजा ने उन गोलों को विजयी सैनिकों को ही ईनाम के तौर पर
खास बातें
ड्रैगन फ्रूट बहुत ज्यादा गर्मी और ठंड को आसानी से झेल सकते हैं पुणे सहित देश के कई हिस्सों में इसकी खेती की जा रही है इसको उगाने वाले किसान काफी मुनाफा कमा रहे हैं
लौटा दिया। जब सैनिकों ने उस गोले को काटा तो उसमें से सफेद और मीठा गूदा निकला, जिसे खाने से वे सैनिक भी ड्रैगन के समान ताकतवर बन गए। ऐसा माना जाता है कि एशिया महाद्वीप में ड्रैगन फ्रूट को लोकप्रिय बनाने के लिए यह लोककथा गढ़ी गई थी, ताकि इस फल की विशेषताओं को आसानी से लोगों के बीच प्रचारित किया जा सके। ड्रैगन फ्रूट के पौधे कैक्टस फैमिली के होने के कारण बहुत ज्यादा गर्मी और ठंड को भी आसानी से झेल सकते हैं। साथ ही यह कम पोषक तत्वों वाली मिट्टी में भी जीवित रह सकते हैं और इसे पानी की भी बहुत कम आवश्यकता होती है। ड्रैगन फ्रूट के एक फल का वजन 300 ग्राम से 600 ग्राम तक हो सकता है। दुनियाभर में ड्रैगन फ्रूट की मुख्यतः तीन प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें लाल छिलका और सफेद गूदा, लाल छिलका और लाल गूदा और पीला छिलका और सफेद गूदे वाले ड्रैगन फ्रूट शामिल हैं। ड्रैगन फ्रूट की सभी प्रजातियों में गूदों के अनगिनत कीवी जैसे बीज होते हैं, जिसे गूदे के साथ ही खाया जाता है। ड्रैगन फ्रूट का स्वाद ह ल ्का म ी ठ ा होता है। ड्रैगन फ्रूट के पौधे का इस्तेमाल सजावटी पौधे के तौर पर भी किय ा जाता है। पौधे में मई-जून के महीने में फूल आते हैं और अगस्त से दिसंबर के महीने तक फल लगते हैं। ड्रैगन फ्रूट के फूल रात में ही खिलते हैं, इसीलिए इसे क्वीन ऑफ द नाइट भी कहते हैं। इसके फूल का इस्तेमाल चाय बनाने में फ्लेवर के लिए किया जा सकता है। वहीं इसके तने के गूदे का इस्तेमाल सौंदर्य
•
औषधीय गुणों का बखान
ड्रैगन फ्रूट में प्रचुर मात्रा में पोषक तत्व पाए जाते हैं जो कैंसर सहित कई बीमारियों से बचाव में सक्षम हैं। इसमें फ्लू से लड़ने वाला विटामिन- सी पाया जाता है जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाता है।
• 100 ग्राम ड्रैगन फ्रूट में 11 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 1.1 ग्राम प्रोटीन, 0.4 ग्राम वसा, 3 ग्राम फाइबर, 20.5 मिलीग्राम विटामिन सी, 1.9 मिलीग्राम आयरन, 0.05 मिलीग्राम विटामिन बी2, 0.04 मिलीग्राम विटामिन बी1, 22.5 मिलीग्राम फोस्फोरस, 8.5 मिलीग्राम कैल्शियम और 0.16 मिलीग्राम विटामिन बी3 पाया जाता है। • ‘जर्नल ऑफ फूड साइंस’ में वर्ष 2011 में प्रकाशित एक शोध के अ नु स ा र , ड्रैगन फ्रूट में
प्रसाधन बनाने के लिए किया जाता है। भारत में पिछले कुछ सालों से ड्रैगन फ्रूट की मांग बढ़ने के कारण कई किसानों ने इसकी खेती की तरफ रुख किया है। पुणे सहित देश के कई हिस्सों में इसकी खेती की जा रही है और इसको उगाने वाले किसान काफी मुनाफा कमा रहे हैं। छत्तीसगढ़ के धमधा और कुम्हारी क्षेत्र के किसान
पॉलीफीनॉल और फ्लावोनोइड पाया जाता है जो कई प्रकार के कैंसर की कोशिका को बनने और बढ़ने से रोकने में कारगर है।
• ‘फूड केमिस्ट्री’ नामक जर्नल में वर्ष 2010 में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि ड्रैगन फ्रूट में बड़ी मात्रा में फाइबर पाया जाता है जो कि पाचन शक्ति बढ़ाता है। •
‘जर्नल ऑफ फार्माकोग्नोसी रिसर्च’ में वर्ष 2010 में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, ड्रैगन फ्रूट का नियमित सेवन तनाव को दूर करता है और मधुमेह को भी नियंत्रित रखता है।
• ‘3बायोटेक’नामकजर्नलमेंवर्ष 2012 में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि ड्रैगन फ्रूट में मोटापा दूर करने वाले तत्व पाए जाते हैं तथा यह कई प्रकार के हृदय रोगों को भी ठीक कर सकता है।
ड्रैगन फ्रूट की खेती कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के हॉर्टिकल्चर डिपार्टमेंट के अनुसार, ‘प्रदेश में ड्रैगन फ्रूट की खेती नौ साल पहले शुरू की गई और वर्तमान में छत्तीसगढ़ प्रतिवर्ष लगभग 50 करोड़ रुपए के ड्रैगन फ्रूट की आपूर्ति देश एवं विदेशों में करता है।’ उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले में भी ड्रैगन फ्रूट की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। जिला प्रशासन और जिला उद्यान विभाग के द्वारा ड्रैगन फ्रूट की खेती के लिए किसानों को प्रशिक्षण के साथ ही पौधों की सैपलिंग भी वितरित की जा रही है, जिससे आ र्थि क तंगी से जूझ रहे किसानों की माली हालत में सुधार लाया जा सके। उ त्त र प्रदेश के ही मेरठ जिले के मोदीपुरम स्थित भारतीय कृषि प्रणाली अनुसंधान संस्थान में भी ड्रैगन फ्रूट के उत्पादन को लेकर चल रहा शोध अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका है
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कला खास बातें
राम–सीता की शादी के अवसर पर पहली बार बनाए गए थे चित्र 1934 में विलियम आर्चर ने कैमरे में कैद की पेंटिंग की तस्वीरें मास्टर क्राफ्ट्समैन एसोसिएशन ऑफ मिथिला की स्थापना 1977 में
मिथिला पेंटिंग के मुरीद
प्र
रामायण काल से चली आ रही मधुबनी पेंटिंग की परंपरा के मुरीद दुनिया भर में हैं। अंतरराष्ट्रीय पहचान मिलने के बाद इस लोक कला में नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं
डॉ. बीरबल झा
धानमंत्री नरेंद्र मोदी हाल ही में जब अपने नेपाल दौरे के दौरान जनकपुर गए थे तो मिथिला पेंटिंग वाले दुपट्टे के साथ उनकी तस्वीर सोशल मीडिया पर काफी ट्रेंड की थी। राजनीतिक पंडित इस तस्वीर का अलग निहितार्थ लगा रहे हैं। उनका कहना है कि भाजपा का नैया पार लगाने में श्रीराम की अहम भूमिका रही है। प्रधानमंत्री मोदी एक बार फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सीता-राम के सहारे वैतरणी पार करना चाहते हैं। मधुबनी पेंटिंग मिथिला की लोक कला है। इसमें मिथिलांचल की सांस्कृतिक विशेषता को कैनवास पर उतारा जाता है। कहा जाता है कि मधुबनी का अस्तित्व रामायण काल में भी था। एक किंवदंती है कि यहीं वन में राम और सीता ने पहली बार एकदूसरे को देखा था। मधुबनी पेंटिंग की शुरुआत रामायण काल में ही हुई थी। उस समय मिथिला के राजा जनक थे। राम के धनुष तोड़ने के बाद जनक की बेटी सीता की शादी राम से तय हुई थी। राम के पिता अयोध्या के राजा थे। मिथिला में अयोध्या से बारात आने वाली थी। जनक ने सोचा, शादी ऐसी होनी चाहिए कि लोग याद करें। उन्होंने जनता को आदेश दिया कि सभी लोग अपने घरों की दीवारों और आंगन में पेंटिंग बनाएं, जिसमें मिथिला की संस्कृति की झलक हो। इससे अयोध्या से आए बारातियों को मिथिला की महान संस्कृति का पता चलेगा।
शुरुआत में ये पेंटिंग्स आंगन और दीवारों पर रंगोली की तरह बनाई जाती थी। फिर धीरे-धीरे ये कपड़ों, दीवारों और कागजों पर उतर आईं। मिथिला की महिलाओं द्वारा शुरू की गई इन फोक पेंटिंग्स को पुरुषों ने भी अपना लिया। शुरू में ये पेंटिंग्स मिट्टी से लीपी झोपड़ियों में देखने को मिलती थीं। लेकिन अब इन्हें कपड़े के कैनवस या पेपर पर बनाया जाता है। इन पेंटिंग्स में खासतौर पर देवीदेवताओं व लोगों की आम जिंदगी और प्रकृति से जुड़ी आकृतियां होती हैं। इनमें आपको सूरज, चंद्रमा, पनघट और शादी जैसे नजारे आम तौर पर देखने को मिलेंगे। मधुबनी पेंटिंग्स दो तरह की होती हैं- एक, भित्ति पेंटिंग जो घर की दीवारों (मैथिली में दीवारों को भित्ति भी कहते हैं) पर बनाई जाती है और दूसरी अरिपन (अल्पना) जो आंगन में बनाई जाती है। इन पेंटिंग्स को माचिस की तीली और बांस की कलम से बनाया जाता है। चटख रंगों का खूब इस्तेमाल होता है- जैसे गहरा लाल, हरा, नीला और काला चटख रंगों के लिए अलग अलग रंगों के फूलों और उनकी पत्तियों को तोड़कर उन्हें पीसा जाता है, फिर उन्हें बबूल के पेड़ के गोंद और दूध के साथ घोला जाता है। पेंटिंग्स में कुछ हल्के रंग भी प्रयोग किए जाते हैं, जैसे- पीला, गुलाबी और नींबू रंग। खास बात ये
है कि ये रंग भी हल्दी, केले के पत्ते और गाय के गोबर जैसी चीजों से घर में ही बनाए जाते हैं। लाल रंग के लिए पीपल की छाल प्रयोग में लायी जाती हैं। आमतौर पर ये पेंटिंग्स घर में पूजाघर, कोहबर घर (नवदंपति का कमरा) और किसी उत्सव पर घर की दीवार पर बनाई जाती है। हालांकि अब इंटरनेशनल मार्केट में इसकी मांग देखते हुए कलाकार आर्टिफिशियल पेंट्स भी प्रयोग करने लगे हैं और लेटेस्ट कैनवस पर बनाने लगे हैं। भरनी, कचनी, तांत्रिक, गोदना और कोहबर ये मधुबनी पेंटिंग्स के पांच स्टाइल हैं। भरनी, कचनी और तांत्रिक पेंटिंग स्टाइल के धार्मिक तरीके हैं। इसकी शुरूआत मधुबनी की ब्राह्मण और कायस्थ समाज की महिलाओं ने की थी। 1960 के दशक में दुसाध समुदाय की दलित महिलाओं ने भी इन पेंटिंग्स को नए अंदाज में बनाना शुरू किया। उनकी पेंटिंग में राजा सलहेस के कथाओं की झलक दिखाई देती है। दुसाध समाज के लोग राजा सलहेस को अपना कुल देवता मानते हैं। हालांकि आज मधुबनी पेंटिंग्स पूरी दुनिया में धूम मचा रही है और जाति के दायरे से ऊपर उठ चुकी है। अब कलाकार इंटरनेशनल मार्केट का रुख देखते हुए विविध प्रयोग भी कर रहे हैं। इसका सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिल
भरनी, कचनी, तांत्रिक, गोदना और कोहबर ये मधुबनी पेंटिंग्स के पांच स्टाइल हैं। भरनी कचनी और तांत्रिक पेंटिंग धार्मिक हैं। इसकी शुरूआत मधुबनी की ब्राह्मण और कायस्थ समाज की महिलाओं ने की
रहे हैं। मिथिला में मधुबनी पेंटिंग्स हजारों सालों से चलन में है, पर 1934 से पहले ये सिर्फ गांवों की एक लोककला थी। 1934 में मिथिलांचल में बड़ा भूकंप आया था, जिससे वहां काफी नुकसान हुआ। मधुबनी के ब्रिटिश ऑफिसर विलियम आर्चर जब भूकंप से हुए नुकसान को देखने गए तो उन्होंने ये पेंटिंग्स देखीं जो उनके लिए नई और अनोखी थीं। उन्होंने बताया कि भूकंप से गिर चुके घरों की टूटी दीवार पर जो पेंटिंग्स हैं वो मीरो और पिकासो जैसे मॉडर्न कलाकार की पेंटिंग्स जैसी थीं, फिर उन्होंने इन पेंटिंग्स की ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें निकालीं जो मधुबनी पेंटिंग्स की अब तक की सबसे पुरानी तस्वीरें मानी जाती हैं। उन्होंने 1949 में मार्ग के नाम से एक लेख लिखा था, जिसमें मधुबनी पेंटिंग की खासियत बताई थी। इसके बाद पूरी दुनिया को मधुबनी पेंटिंग की खूबसूरती का अहसास हुआ। 1977 में मोजर और रेमंड ली ओवेंस उस समय के एक फुलब्राइट स्कॉलर के फाइनेंशियल सपोर्ट से मधुबनी के जितबारपुर में मास्टर क्राफ्ट्समैन एसोसिएशन ऑफ मिथिला की स्थापना की गई। इसके बाद जितबारपुर मधुबनी पेंटिंग का हब बन गया। इससे मधुबनी पेंटिंग के कलाकारों को बहुत फायदा हुआ। उनकी कला को सही कीमत मिलने लगी। फोर्ड फाउंडेशन का भी मधुबनी पेंटिंग के साथ लंबा एसोसिएशन रहा है अब तो बहुत सी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं मधुबनी पेंटिंग्स को अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहुंचा रहे हैं। मधुबनी पेंटिंग्स को आधिकारिक पहचान तब मिली, जब 1969 में सीता देवी को बिहार सरकार ने मधुबनी पेंटिंग के लिए सम्मानित किया था। 1975 में मधुबनी पेंटिंग के लिए जगदंबा देवी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया। सीता देवी को भी 1984 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। बाद में सीता को मधुबनी पेंटिंग के लिए बिहार रत्न और शिल्प गुरु सम्मान से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 2011 में महासुंदरी देवी को भी मधुबनी पेंटिंग के लिए पद्मश्री से नवाजा गया और 2017 में बउआ देवी को पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। इनके अलावा भी कई महिलाओं को मधुबनी पेंटिंग्स के लिए सम्मानित किया गया। पिछले साल जब पीएम मोदी जर्मनी दौरे पर थे तो हनोवर के मेयर स्टीवन शोस्टॉक से मुलाकात के दौरान उन्होंने शोस्टॉक को बउआ देवी का बनायी हुई मधुबनी पेंटिंग उन्हें गिफ्ट की थी।
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स्वच्छता
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ई-कचरे से रोजगार सृजन
भारतवंशी आस्ट्रेलियाई वैज्ञानिक वीना सहजवल्ला ने ई- कचरे से मोटी कमाई के तरीके बताए हैं
कचरे से बनेगी बिजली
इस परियोजना के लिए नागपुर सॉलिड वेस्ट प्रोसेसिंग एंड मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड 218.80 करोड़ रुपए का निवेश करेगी
आ
आईएएनएस
ज के समय में स्मार्टफोन, कंप्यूटर, लैपटॉप, प्रिंटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के फेंके गए पुर्जों को नष्ट करना तथा उनका प्रभावशाली प्रबंधन करना बहुत बड़ी चुनौती है। लेकिन एक भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई का कहना है कि इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के बेकार होने से विशाल आर्थिक लाभ तथा रोजगार सृजन की संभावनाएं होती हैं और प्रतिवर्ष 20 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा उत्पन्न करने वाले भारत को इससे निश्चित रूप से बहुत लाभ होगा। सिडनी स्थित 'नॉर्थ-साउथ वेल्स विश्वविद्यालय' में पदार्थ वैज्ञानिक वीना सहजवल्ला ने कहा कि ई-कचरे से रोजगार उत्पन्न करने का समाधान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया अभियान में भी है। सहजवल्ला ने 'माइक्रोफैक्ट्रीज' नामक मशीन का आविष्कारक किया है। इसकी सहायता से ई-कचरे को दोबारा उपयोग में लाने योग्य पदार्थ में बदला जाता है, जिससे बाद में 3डी प्रिंटिंग बनाने के लिए मिट्टी या प्लास्टिक के फिलामेंट बनाए जाते हैं। ई-कचरे में से
सोना, चांदी, कॉपर, पै ले डिय म जैसी उच्च ग्रेड की धातुओं को दोबारा बेचने के लिए अलग-अलग किया जा सकता है और यह पूरी तरह सुरक्षित है। भारत के लिए फायदे का सौदा होने की बात को समझाते हुए वे बताती हैं कि गलियों में कचरा इकट्ठा करने वालों की संख्या भारत में बहुत है। उन्हें रोजगार दिया जा सकता है, प्रशिक्षित किया जा सकता है और माइक्रोफैक्ट्रीज के बारे में बताया जा सकता है। उन्होंने कहा कि भारत के पास पहले से ही कबाड़ी वाले, जमीनी स्तर पर कूड़ा बटोरने वाले हैं, जो कूड़े को बटोरकर उसे उसकी श्रेणी के हिसाब से अलग करते हैं और भारत का ये सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू है।
सहजवल्ला ने 'माइक्रोफैक्ट्रीज' नामक मशीन का आविष्कारक किया है। इसकी सहायता से ई-कचरे को दोबारा उपयोग में लाने योग्य पदार्थ में बदला जाता है
मुंबई में जन्मीं और 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान - कानपुर' में 'धातु कर्म' विभाग की पूर्व छात्रा वीना ने कहा कि हमें और सरकार को उन्हें सिर्फ प्रौद्योगिकी, कचरा रखने के लिए माइक्रोफैक्ट्रीज को स्थापित करने और इसका उपयोग करने का प्रशिक्षण देने की जरूरत है। इसके बाद ये लोग ई-कचरे को जलाने की अपेक्षा किसी जहरीले अपशिष्ट को उत्पन्न किए बगैर टिकाऊ और सुरक्षित वातावरण में काम करेंगे। इस तरीके से हम कबाड़ी बालों और कचरा बीनने वालों को बेरोजगार नहीं करेंगे, बल्कि रोजगार के और अवसर उत्पन्न होंगे। विज्ञान में अपने उल्लेखनीय योगदान के लिए 2011 में प्रवासी भारतीयों को दिया जाने वाला सर्वश्रेष्ठ सम्मान 'प्रवासी भारतीय सम्मान' के अलावा अन्य पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त कर चुकीं वीना ने दिल्ली के सीलमपुर में एक माइक्रोफैक्ट्री स्थापित करने का प्रस्ताव दिया है। सीलमपुर राजधानी में मोबाइल फोन और कम्प्यूटरों का डिजिटल कब्रगाह है। उन्होंने कहा कि यह हमारे शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के नए अवसर उत्पन्न करेगा। उनका मानना है कि मेक इन इंडिया अभियान को सफल बनाने के लिए शुरुआती निवेश जरूरी है। एक छोटे निवेशक के पास कुछ करने के लिए पर्याप्त धन नहीं होता है। प्रधानमंत्री अगर 'मेक इन इंडिया' अभियान को लेकर आशान्वित हैं, तो शुरुआती निवेश और वित्त जरूरी है।
हा
ल में नागपुर सुरेश भट सभागृह में आयोजित एक कार्यक्रम में केंद्रीय कोयला मंत्री पीयूष गोयल, केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी और मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की उपस्थिति में मनपा के कचरे से बिजली बनाने की परियोजना का भूमिपूजन किया गया। नवीनतम तकनीक पर आधारित यह परियोजना महाराष्ट्र में अपनी तरह की पहली परियोजना होगी। इस परियोजना की घोषणा से पहले, भांडेवाड़ी डंपिंग यार्ड में कचरे में भीषण आग लगने जैसी दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। इसके आसपास के रहवासियों की शिकायत रही है कि कचरे से उत्पन्न विषैले तत्वों के हवा व पानी में रिसाव के कारण प्राणघातक बीमारियां हो रही हैं। इस परियोजना के प्रति नागरिकों ने प्रसन्नता जताई है। एस्सेल इंफ्रा प्रोजेक्ट्स के तत्वावधान में नागपुर सॉलिड वेस्ट प्रोसेसिंग एंड मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड नामक कंपनी परियोजना के अंतर्गत 218.80 करोड़ रुपए का निवेश कर नवीनतम तकनीक से लैस प्लांट स्थापित करेगी। इस परियोजना को 2 वर्षों में पूर्ण होना है। यही कंपनी इसे 13 वर्ष तक चलाएगी व रख-रखाव करेगी। यहां प्रतिदिन 800 टन सघन कचरा प्रोसेस किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि नागपुर में रोज लगभग 1100 टन सघन कचरा निकलता है, जिसे भांडेवाड़ी डंपिंग यार्ड परिसर तक पहुंचाया जाता है। इस प्लांट में सघन कचरे को प्रोसेसिंग कर 11.5 मेगावॉट बिजली का उत्पादन किया जाएगा। इससे बनी बिजली को महापारेषण की ग्रिड में भेजा जाएगा। एस्सेल इंफ्रा ने बताया है कि कंपनी मौजूदा कचरा फेंकने की खाली जगह का कचरा प्रोसेस तो करेगी ही, साथ ही दो और ऐसे क्षेत्रों का निर्माण करेगी। एस्सेल इंफ्रा और हिताची जोसेन के इस संयुक्त उपक्रम के तैयार होने पर सघन कचरे का बेहतर इस्तेमाल और निस्तारण हो सकेगा। (एजेंसी)
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प्रेरक
नासा की 'जीनियस' बना रही है हाई स्पीड ट्रेन!
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गल ग्रह भेजे गए नासा के क्यूरोसिटी रोवर को वहां उतरे 5 साल बीत चुके हैं। वहां जीवन होने की भरपूर संभावनाएं पाई गई हैं। इस मिशन की एक महत्वपूर्ण सदस्य भारतीय मूल की एयरोस्पेस इंजीनियर अनीता सेनगुप्ता हैं।पश्चिम बंगाल की रहने वाले अनीता एक भारतीय-अमेरिकी साइंटिस्ट हैं, जिन्हें नासा की जीनियस कहा जाता है। अनीता वहीं हैं, जिन्होंने ब्रह्मांड में सबसे ठंडा स्थान बनाने के लिए नासा के भौतिकी प्रयोग पर काम किया है। अनीता सेनगुप्ता दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में विटरबी स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग के एयरोस्पेस और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं, वह नासा के एम्प्लॉई में से एक नहीं हैं- बल्कि वह एक स्टार एम्प्लॉई हैं। अनीता उस टीम की मुख्य सिस्टम इंजीनियर रहीं, जिन्होंने क्रांतिकारी सुपरसोनिक पैराशूट सिस्टम विकसित किया, जिसे मंगल विज्ञान प्रयोगशाला पर लैंडिंग के दौरान तैनात किया गया था। वह कैल्टेक में जेट प्रोपल्सन प्रयोगशाला में कोल्ड एटम लेबोरेट्री प्रयोगशाला की प्रोजेक्ट मैनेजर भी रहीं और वर्तमान में वर्जिन हाइपरलूप वन में सिस्टम्स इंजीनियरिंग की वाइस प्रेसिडेंट के तौर पर काम कर रही हैं। उन्होंने एक स्पॉट बनाने पर भी काम किया, जो अंतरिक्ष के वैक्यूम से 10 अरब गुना अधिक ठंडा होगा। एक वैक्यूम ट्यूब में 1123 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने की क्षमता होगी। आप घंटों
के बजाय कुछ मिनटों में अपनी मंजिल तय कर सकेंगे। वर्जिन के हाइपरलूप वन प्रोजेक्ट की ये वो बात है, जो कभी इसका लक्ष्य नहीं रही थी। टेस्ला कंपनी के सहसंस्थापक इलोन मस्क ने पहली बार हाइपरलूप का आइडिया दिया था। फिर इससे जुड़ी कई परियोजनाओं पर काम शुरू हुआ। इस प्रोजेक्ट को शुरू करने वाली भी
पश्चिम बंगाल की रहने वाले अनीता सेनगुप्ता एक भारतीय-अमेरिकी साइंटिस्ट हैं, 1123 कि.मी. की रफ्तार से चलने वाली एक मैग्लेव ट्रेन बना रही हैं जो वैक्यूम ट्यूब में चलेगी
मैग्नेटिक लेविटेशन टेक्नॉलॉजी के सहारे एक वैक्यूम ट्यूब में ट्रेन चलाई जा सकती है और आने वाले कल की ये एक क्रांतिकारी परिवहन व्यवस्था होगी अनीता सेनगुप्ता ही थीं। दुनिया ने देखा कि मैग्नेटिक लेविटेशन टेक्नॉलॉजी (चुंबकीय उत्तोलन तकनीक) के सहारे एक वैक्यूम ट्यूब में ट्रेन चलाई जा सकती है और आने वाले कल की ये एक क्रांतिकारी परिवहन व्यवस्था होगी। ऐसी ही एक ट्रेन शंघाई से उसके एयरपोर्ट के बीच 430 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलती है। लेकिन, अब माग्लेव या मैग्नेटिक लेविटेशन ट्रेन को एक
बृहस्पति के 10 नए चांद मिले
इस विशाल ग्रह के कुल चंद्रमा की संख्या 79 हो गई है जो किसी भी ग्रह के चंद्रमाओं की तादाद से ज्यादा है
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वैक्यूम ट्यूब में रखकर चलाने की योजना पर काम किया जा रहा है। इसका नाम 'हाइपरलूप वन' है। लास वेगास से 40 मील उत्तर में मौजूद रेगिस्तान में पहुंचकर आप इस महंगी परियोजना पर चल रहे काम का जायजा ले सकते हैं। प्रयोग के लिए 500 मीटर लंबा टेस्ट ट्रैक तैयार किया गया है। 300 लोगों की टीम इस प्रोजेक्ट पर काम कर रही है, जिनमें 200 काबिल
गोलशास्त्रियों ने सौरमंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के 10 नए चंद्रमाओं की खोज की है। इस तरह इस विशाल ग्रह के कुल चंद्रमा की संख्या 79 हो गई है जो किसी भी ग्रह के चंद्रमाओं की तादाद से ज्यादा है। सबसे ज्यादा चांद के मामले में बृहस्पति के बाद शनि दूसरे पायदान पर है, जिसके 61 चांद हैं। खगोलशास्त्रियों की एक टीम सोलर सिस्टम के बाहरी हिस्सों में खगोलीय पिंडों की खोज कर रही थी तभी उन्हें बृहस्पति के नए चांद
नजर आए। उन्हें एक दर्जन छोटेछोटे चांद मिले। इनमें से 10 नए चांद की खोज की पुष्टि मंगलवार को की गई, जबकि 2 चांद की पुष्टि पहले ही की जा चुकी थी। खगोलशास्त्रियों ने इनमें से एक चांद के लिए 'विचित्र गोला' शब्द का इस्तेमाल
इंजीनियरों का दल है। हाइपरलूप वन ने अभी तक कई प्रयोग किए हैं और ट्यूब में पॉड की रफ्तार को 378 किलोमीटर प्रति घंटे की चाल तक ले जाने में कामयाबी पाई है। हालांकि, अभी तक पॉड में किसी को बिठाया नहीं गया है। अंतरिक्ष वैज्ञानिक अनीता सेनगुप्ता इंजीनियरों की इस टीम का नेतृत्व कर रही हैं। अनीता सेनगुप्ता नासा के मार्स क्यूरोसिटी रोवर प्रोजेक्ट को डेवलप करने में मदद दे चुकी हैं। वे दूसरे ग्रहों पर किसी गाड़ी को उतारने की 'इंजीनियरिंग संबंधी चुनौतियों' की बात करते हुए इस प्रोजेक्ट को हकीकत में बदलने में जुटी हैं। अनीता के मुताबिक, ये एक रियलिस्टिक प्रोजेक्ट है क्योंकि यहां अपने आस-पास डेवलेपमेंट टेस्ट का जायजा ले सकते हैं। अनीता के मुताबिक, हाइपरलूप एक मैग्लेव ट्रेन है जो वैक्यूम ट्यूब में चलेगी। आप इसे ऐसे भी देख सकते हैं कि एक विमान दो लाख फिट की ऊंचाई पर चल रहा हो। लोगों को हवाई जहाज में यात्रा करने में कोई दिक्कत नहीं होती है और लोगों को मैग्लेव ट्रेनों में भी यात्रा करने पर एतराज नहीं होगा। अनीता के मुताबिक, हाइपरलूप वन प्रोजेक्ट सुरक्षा टेस्ट पास कर जाएगा और साल 2021 तक व्यावसायिक रूप से इसका ऑपरेशन शुरू हो जाएगा। (एजेंसी) किया है, क्योंकि इसकी कक्षा (ऑर्बिट) असामान्य है। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये चांद पहले नहीं दिखे थे, क्योंकि ये आकार में काफी छोटे हैं। बृहस्पति के इन नए चंद्रमाओं की खोज और पुष्टि के लिए चिली, हवाई और ऐरिजोना के दूरबीनों का इस्तेमाल किया गया। (एजेंसी)
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स्वच्छता
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इटली
पर्यटन और स्वच्छता का आदर्श जिस देश में सबसे ज्यादा वर्ल्ड हेरिटेज साइट हैं, वह देश पर्यटकों के लिए तो आदर्श है ही, स्वच्छता के लिहाज से भी एक आदर्श देश है
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खास बातें एसएसबी ब्यूरो
टली की खूबसूरती सिर्फ साधरण पर्यटकों को तो रास आती ही है, दुनिया भर के लेखकों और कवियों को भी यहां रहकर सृजनात्मक कार्य करना खूब रास आता है। अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककर शेक्सपियर ने अपने कई नाटकों को यहां की खूबसूरती बयां की है। यहां के विंटेज हवेलियों से लेकर आईलैंड तक पूरी दुनिया में मशहूर हैं। यहां सबसे ज्यादा यूनेस्को का वर्ल्ड हेरिटेज साइट हैं। इसकी संख्या 50 से ज्यादा है। इटली में करीब 2800 वर्षों से शराब बन रही है और इस लिहाज से मधुपान करने वालों के लिए इटली एक खासा परिचित और पसंदीदा नाम है। इटली का इतिहास ईसा पूर्व नौवीं शताब्दी से आरंभ होता है। इसी समय वर्तमान इटली के केंद्रीय भाग में इतालवी जनजातियों के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं। भाषाई रूप से वे मुख्यतः तीन भाषाएं बोलते थे- ओस्कान, अंब्रियान तथा लैटिन। कालांतर में 350 ईसा पूर्व जब रोम शक्तिशाली नगर-राज्य के रूप में उभरा तो लातिन संस्कृति का वर्चस्व स्थापित होता गया। रोमन पूर्व काल में आठवीं शती ईसापूर्व वृहत यूनान नामक सभ्यता भी थी, जब यूनानी लोग इटली के दक्षिणी भागों में बसने लगे थे। बाद में रोमन साम्राज्य का पूरे पश्चिमी यूरोप तथा भूमध्य क्षेत्र पर कई शताब्दियों तक वर्चस्व
रहा। 476 ई. के आसपास जब रोमन साम्राज्य का पतन हुआ तो इटली लगभग एक हजार वर्षों तक छोटे-छोटे नगर-राज्यों के रूप में बिखरा और विभिन्न विदेशी शक्तियों के अधीन रहा। तीसरी सदी ईसा पूर्व में पहली बार पूरे देश का नाम ‘इतालिया’ पड़ा। इतालिया से ही आजकल का इताली या ‘इटली’ शब्द बना है। इतालिया नाम एक इतालियाई शब्द के यूनानी रूप ‘वाइतालिया’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘चरागाह’। यूनानी इटली को ‘इतालियम’ अर्थात ‘चरागाह’ कहते थे। इटली में जूलियस सीजर की बहन के पोते और रोमन साम्राज्य के पहले सम्राट ओगुस्तन सीजर का शासनकाल स्वर्णयुग कहलाया। जूलियस सीजर के समय के इतालियाई गद्य लेखकों में सिसरो का नाम बहुत प्रसिद्ध है। सिसरो की भाषा में यूनानी प्रभाव दिखाई देता है। सीजर की हत्या के बाद सिसरो की भी हत्या कर दी गई।
विदेशी शासन से मुक्त हुआ, किंतु 16वीं शताब्दी के आरंभ में वह फिर यूरोपीय राजनीति के शिकंजे में जकड़ गया। स्पेनी सत्ता अपने चरम उत्कर्ष पर थी। फ्रांस के साथ उसके युद्ध चल रहे थे। स्पेन, फ्रांस और आस्ट्रिया तीनों में रोम के प्रदेशों पर अधिकार करने के लिए प्रतिस्पर्धा चलने लगी। यह स्थिति नेपोलियन के आक्रमण के समय तक बनी रही। 18 मई, 1804 ई. में नेपोलियन ने इटली के ऊपर आधिपत्य की घोषणा की और 26 मई 1805 ई. को मिलान के गिरजाघर में नेपोलियन ने इटली के लोंबार्द नरेशों का लौह-मुकुट धारण किया। इटली के ऊपर नेपोलियन का शासन यद्यपि क्षणिक रहा, फिर भी नेपोलियन के शासन ने इटलीवालों में एक राष्ट्र की ऐसी भावना भर दी और उनमें ऐसा संगठन और अनुशासन पैदा कर दिया जो उन्हें निरंतर स्वाधीन होने की प्रेरणा देता रहा। नई संधि के अनुसार इटली के ऊपर आस्ट्रिया का संरक्षण लाद दिया गया। अंदर ही अंदर इस संरक्षण को हटाने के प्रयत्न होते रहे।
नेपोलियन का आधिपत्य
फासिस्ट सत्ता का अंत
ऐसे पड़ा ‘इटली’ नाम
15वीं शताब्दी के अंत में अल्प काल के लिए इटली
दूसरे विश्वयुद्ध में इटली ने धुरीराष्ट्रों का साथ दिया।
यूरोपीय संघ ने चेतावनी दी है कि अगर इटली ने अपने यहां कचरे को साफ करने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए तो उस पर भारी जुर्माना किया जा सकता है
शेक्सपियर ने अपने कई नाटकों में इटली की खूबसूरती बयां की है तीसरी सदी ईसा पूर्व में पहली बार देश का नाम ‘इतालिया’ पड़ा उन्नत शौचालयों के मामले में भी इटली का रिकार्ड काफी बेहतर है मित्रराष्ट्रों की विजय के बाद इटली से फासिस्ट सत्ता का अंत हुआ। इटली 10 जून 1946 ई. को गणतंत्र राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। 18 जून को तत्कालीन अस्थायी सरकार ने ‘आर्डर ऑव द डे’ नामक एक पत्रक जारी करके कानूनी तथा सरकारी बयानों एवं कागज पत्रों में पहले से चले आ रहे सभी साम्राज्यपरक संदर्भों तथा अवशेषों को पूर्णत: समाप्त करने की आज्ञा दी। संविधान सभा ने 22 दिसंबर 1947 को नया संविधान 62 के मुकाबले 453 मतों से पारित कर दिया और 1 जनवरी 1948 को यह संविधान लागू हो गया। इसमें 139 अनुच्छेद तथा 18 संक्रमणकालीन धाराएं हैं। संविधान में इटली का उल्लेख श्रम पर आधारित जनतांत्रिक गणतंत्र के रूप में किया गया है।
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पेयजल स्रोत
स्वच्छ या शोधित
पेयजल और स्वच्छता
शहरी : 100% आबादी ग्रामीण : 100% आबादी कुल : 100% आबादी
अस्वच्छ या अशोधित
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स्वच्छता
स्वच्छ व उन्नत
शहरी : 99.5% आबादी ग्रामीण : 99.6% आबादी कुल : 99.5% आबादी
अस्वच्छ या पारंपरिक
शहरी : 00% आबादी ग्रामीण : 00% आबादी कुल : 00% आबादी (2015 तक अनुमानित)
शहरी : 0.5% आबादी ग्रामीण : 0.4% आबादी कुल : 0.5% आबादी (2015 तक अनुमानित)
स्रोत : सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक (जनवरी, 2018)
स्वच्छता सुविधाएं
गोल्डन टॉयलेट
सऊदी अरब के किंग अब्दुल्ला बिन अब्दुल अजीज ने अपनी बेटी को जो सोने का टॉयलेट भेंट किया था, उसका निर्माण इटली में ही हुआ था
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पने तोहफो के लेने-देने के बारे में कई बार सुना होगा लेकिन क्या आपने सुना है कि कोई किसी को सोने का टॉयलेट गिफ्ट में दे। सुनने में आपको भले ही अजीब लगे लेकिन सऊदी अरब के किंग अब्दुल्ला बिन अब्दुल अजीज ने अपनी बेटी की शादी में किंग अब्दुल्ला ने उसे न सिर्फ सोने की ड्रेस दी, बल्कि सोने का एक टॉयलेट भी दिया। यह टॉयलेट 19 नबंवर, 2016 को विश्व शौचालय दिवस के दिन गिफ्ट किया गया है।
आर्थिक चुनौतियां
20वीं सदी में इटली की अर्थव्यवस्था बाकी यूरोपीय देशों से बहुत पीछे हो गई थी। इसके बावजूद आज इटली की अर्थव्यवस्था दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। बावजूद इसके इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि यूरोप की तीसरी और दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश इटली इन दिनों कई मोर्चों पर आर्थिक चुनौतियां झेलने को विवश है। इटली में हालिया आम चुनाव में लोकलुभावन कदम उठाने वालों की जीत होने के बाद से यह संकट और बढ़ गया है। सरकार की मौजूदा नीतियों और प्राथमिकताओं को देखकर लगता नहीं कि वे देश में गहन ढांचागत सुधारों को अंजाम दें, जिसकी इटली को जरूरत है। आज इटली में लाल फीताशाही है, करों की दर अधिक है, वृद्धि दर बमुश्किल 1.5 फीसदी है, युवाओं की बेरोजगारी दर 30 फीसदी
इस गोल्डन टॉयलेट के साथ इटली भी चर्चा में आ गया। यह टॉयलेट इटली के एक आर्टिस्ट मौरोजियो कैटेलन ने न्यूयार्क के गुगनहैम म्यूजियम में बना था। इस टॉयलेट को बनाने में कई सप्ताह का समय लगा। यह टॉयलेट पूरा शुद्ध सोने का बना है। इस शादी में किंग अब्दुल्ला ने अपनी बेटी को 180 करोड़ रुपए कीमत की वेंडिंग ड्रेस भी दी थी। फोर्ब्स मैग्जीन के अनुसार, किंग अब्दुल्ला दुनिया के आठवें सबसे अमीर और ताकतवर व्यक्ति हैं। वह दुनिया के सबसे अमीर मुस्लिम शख्स भी माने जाते हैं।
के स्तर से अधिक है और देश का कर्ज जीडीपी के 133 फीसदी के बराबर है। ऐसे में जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में इटली के लिए कोई नई और बड़ी पहल आसान नहीं है।
जलापूर्ति और स्वच्छता
इन खासियतों से आगे बात समृद्धि, संपन्नता और स्वच्छता की करें तो इटली की दशा निराश तो नहीं करती पर वहां स्वास्थ्य और स्वच्छता के क्षेत्र में बेहतरी को आगे भी बनाए रखने को लेकर कुछ चुनौतियां जरूर हैं। खासतौर पर शहरीकरण और विकास के नए दौर के इस अगुवा देश को कचरा प्रबंधन को लेकर बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है। शुद्ध जलापूर्ति के मामले में इटली की स्थिति आदर्श है और वह उन देशों में शामिल है, जहां लोग अशुद्ध जल पीने की विवशता से बहुत पहले
सौर ऊर्जा का सिरमौर
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बोलोनिया की लाल छतों को देखकर समझ में आ जाता है कि क्यों इटली सौर ऊर्जा का सिरमौर है
टली में सौर ऊर्जा के लिए सरकारी प्रोत्साहन की समाप्ति के बाद उत्पादकों को इसे बनाए रखने के लिए नए तरीके अपनाने पड़ रहे हैं। बोलोनिया में एक सब्जी और फल बाजार में यूरोप की सबसे बड़ी सौर छत है और यह सौर ऊर्जा से इलेक्ट्रिक कारों को चार्ज करती है। बोलोनिया की लाल छतों पर जब सुबह सूरज की रोशनी पड़ती है तो समझ में आ बाहर आ गए हैं। उन्नत शौचालयों के इस्तेमाल के मामले में भी इटली का रिकार्ड काफी बेहतर है। वहां शहरी और ग्रामीण मिलाकर बमुश्किल आधी फीसद आबादी ही ऐसी है, जो आज भी अस्वच्छ या पारंपरिक शौचालय के इस्तेमाल को मजबूर हैं। इटली की यह उपलब्धियां इसीलिए भी अहम है, क्योंकि यह एक तरफ तो वह आधुनिक राष्ट्र है, वहीं वहां का पारंपरिक समाज अपनी प्राचीन संस्कृति और परंपरा से आज भी पूरी तरह मुक्त नहीं है।
यूरोपीय संघ की चेतावनी
यूरोपीय संघ ने इटली को चेतावनी दी है कि अगर इटली ने अपने यहां कचरे को साफ करने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए तो उस पर भारी
जाता है कि क्यों इटली सौर ऊर्जा का सिरमौर है। 2014 में इसकी कुल ऊर्जा का आठ प्रतिशत सौर ऊर्जा से आया था, जो किसी भी देश से अधिक है। यह इसीलिए भी एक उपलब्धि है, क्योंकि चिह्नित ऐतिहासिक इमारतों पर सौर ऊर्जा पैनल लगाना संभव नहीं। पर जैसे ही आप शहर के केंद्र से बाहर निकलते हैं आपको सौर ऊर्जा के इस्तेमाल की चाहत नज़र आने लगती है।
जुर्माना किया जा सकता है। इटली में कचरे का संकट बढ़ रहा है और यूरोपीय संघ इस पर गंभीर है। यूरोपीय संघ के पर्यावरण मामलों के आयुक्त यानेस पोटोचनिक के मुताबिक, ‘हाल के वर्षों में इंटली के कंपानिया क्षेत्र में जो कुछ हो रहा है, उससे मैं काफी चिंतित हूं। मौजूदा हालात हमें यह मानने पर मजबूर कर रहे हैं कि इटली के अधिकारियों ने 2007 से अब तक जो भी उपाय किए हैं, वे नाकाफी रहे हैं।’ पोटोचनिक ने बताया कि संघ का पर्यावरण आयोग उस इलाके में एक टीम भेजने पर विचार कर रहा है, जो इस बात का पता लगाएगी कि इटली ने कचरे के निपटारे के लिए यूरोपीय संघ के नियमों का पालन किया है या नहीं। इससे पहले यूरोप के सर्वोच्च न्यायालय ने इटली को यूरोपीय संघ के
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पुस्तक अंश
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विशेष अभियान
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस
26 सितंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहा कि 21 जून को ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ घोषित किया जाना चाहिए। इसके बाद सिर्फ 75 दिनों के भीतर ही, 177 देशों ने इस प्रस्ताव को समर्थन दे दिया। इस तरह 11 दिसंबर 2014 को संयुक्त राष्ट्र ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। तब से हर साल 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जाता है।
नमामि गंगे मां गंगा को साफ और प्रदूषण से मुक्त बनाने के लिए इस महत्वाकांक्षी परियोजना में गंगोत्री से गंगा सागर तक एक स्वच्छता अभियान शुरू किया गया जिसके लिए 20 हजार करोड़ रुपए के बजट का प्रावधान किया गया है।
साथ ही, यह प्रतिबद्धता भी दिखाई गई है कि यह लक्ष्य 2019 से पहले हासिल किया जाना चाहिए। इस योजना के तहत उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, हरियाणा और दिल्ली राज्यों में 231 परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जो सीधे गंगा से जुड़ी हुई हैं।
अगर हम गंगा को साफ करने में सक्षम हैं, तो देश की 40 फीसदी आबादी के लिए, यह एक बड़ी मदद होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
मृत्यु के बाद क्या हासिल होगा, इसका मार्ग योग द्वारा नहीं दिखाया गया है और इसीलिए, यह एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है। योग, शरीर को फिट रखने और समाज में एकता बनाए रखने के द्वारा, इस शाश्वत दुनिया में मानसिक शांति पाने की ताकत देता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
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स्वच्छ भारत
सामाजिक सद्भावना मुहिम
• अलीपुर रोड, दिल्ली और चैत्य भूमि, मुंबई में स्मारकों के लिए निर्माण कार्य शुरू किया गया।
वर्ष 2016, डॉ. आंबेडकर की 125 वीं जयंती का साल था। इसे विशेष बनाने के लिए एक सामाजिक सद्भावना अभियान शुरू किया गया, जिसके अंतर्गत डॉ. आंबेडकर की जयंती बहुत बड़े पैमाने पर मनाई गई।
• लंदन में भी मेमोरियल का उद्घाटन किया गया है।
• 26 नवंबर 2016 को संविधान दिवस के रूप में मनाया गया, जिसके अंतर्गत संसद का एक विशेष सत्र बुलाया गया था।
• 125 दलित शोधकर्ताओं को कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में भेजा गया, जहां बाबा साहेब को शिक्षा मिली थी।
• बाबा साहेब आंबेडकर के नाम पर महू रेलवे स्टेशन का नाम रखा गया। • बाबा साहेब आंबेडकर को समर्पित, अंतरराष्ट्रीय स्मारक के निर्माण के लिए नई दिल्ली में नींव रखी गई।
• बाबा साहेब आंबेडकर की याद में एक डाक टिकट और एक सिक्का जारी किया गया।
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पुस्तक अंश
महात्मा गांधी के सपने को पूरा करने के लिए ‘स्वच्छ भारत अभियान’ हमारे प्रधानमंत्री की प्रतिबद्धता है। आंदोलन के पहले चरण में उन स्कूलों का लक्ष्य रखा गया है, जहां लड़के और लड़कियों के लिए अलग शौचालयों का निर्माण किया जाएगा। दूसरे चरण में, खुले में शौचालय के पूर्ण उन्मूलन के लिए, एक आंदोलन शुरू किया गया। साथ ही, देश भर के सभी शहरों और कस्बों में स्वच्छता का आंदोलन शुरू किया गया। 2.31 करोड़ शौचालयों का निर्माण किया गया और 75,072 गांव खुले में शौच से पूरी तरह से मुक्त किए गए।
सांसद आदर्श ग्राम योजना यह योजना संसद सदस्यों के माध्यम से चल रही है, जो अपने संसदीय क्षेत्र में गोद लेने वाले गांवों को, सभी तरह के बेहतर विकास के जरिए, मॉडल गांवों में परिवर्तित करेंगे। ऐसा करने के लिए, संसद के सदस्य, केंद्र और राज्यों की सभी विकास योजनाओं का लाभ उठा सकते हैं और जनता की भागीदारी भी आमंत्रित कर सकते हैं। पांच वर्षों के कार्यकाल में, संसद के प्रत्येक सदस्य को दो गांवों को गोद लेना होगा। प्रत्येक संसदीय क्षेत्र में तीन गांवों को इस योजना के तहत मॉडल गांव बनाया जाएगा।
जितना अधिक हम डॉ. आंबेडकर के विचारों को याद करते हैं, उतना ही उनकी समझ और उनके दृष्टिकोण पर उनके लिए सम्मान बढ़ता है।
भारत माता के बच्चे होने के नाते यह हमारी जिम्मेदारी है कि न तो हम गंदगी करेंगे और न ही हम किसी को ऐसा करने देंगे।
यह योजना जनता द्वारा प्रेरित है और इसे सांसदों की निगरानी और सार्वजनिक भागीदारी के माध्यम से पूरा किया जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
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खेल
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हौसले का स्वर्णिम शिखर
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असम के एक छोटे से गांव की हिमा दास आज सुर्खियों में है। वजह आईएएएफ अंडर-20 विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक जीतना है। प्रस्तुत है हिमा के गांव और घर में मनाए जा रहे जश्न देख कर लौटे त्रिदिब बापरनाश की रिपोर्ट
सम के पांचवें सबसे बड़े शहर नगांव वाले किसान रंजीत दास और जोनाली दास के घर के जिला मुख्यालय से करीब 20 हिमा का जन्म हुआ था। किलोमीटर दूर स्थित ढींग नाम के इस गांव की आबादी 5,000 के करीब कस्बे करीब स्थित छोटे से गांव कंधुलिमारी से है। उस दिन पूरे गांव में उत्सव जैसा कुछ दिनों पहले तक इस देश के लोग वाकिफ नहीं नजारा था। स्थानीय लोग ढोल, ताल थे, लेकिन इसी गांव की 18 साल की बेटी हिमा और बीहू महोत्सव के वक्त इस्तेमाल दास ने आईएएएफ अंडर-20 विश्व चैंपियनशिप होने वाले संगीत वाद्य यंत्र-गोगोना में स्वर्ण पदक जीतकर न सिर्फ इतिहास रच दिया, के जरिए अपने गांव की बेटी की बल्कि भारत के नक्शे में अपने गांव को एक खास उपलब्धि का जश्न मना रहे थे। पहचान दिला दी। हिमा ने पिछले सप्ताह फिनलैंड कई लोग स्थानीय मंदिर नामगढ़ में में आयोजित इस चैंपियनशिप में महिलाओं की प्रार्थना भी कर रहे थे। 400 मीटर स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतने का गौरव कंधुलिमारी गांव का तीसरा हासिल कर न केवल अपने गांव, बल्कि पूरे देश नंबर घर हिमा का को गौरवान्वित किया। है। हिमा के घर मैं एक सप्ताह की छुट्टियां मनाने नगांव के के अंदर और पास अपने पैतृक घर पहुंचा था। मानसून यहां बाहर सैकड़ों अपने चरम पर था। हर दिन की तरह उस दिन लोग मौजूद भी मैं उठा, लेकिन और दिनों की तरह वह दिन थे। हिमा आम नहीं था। मुझे हिमा के स्वर्ण पदक जीतने की सं यु क्त जानकारी मिली। हिमा के गांव की ओर निकलते हुए मैंने स्थानीय निवासियों को उसकी उपलब्धि का जश्न मनाते हुए देखा। अपनी बेटी की इस उपलब्धि पर यहां के लोगों की गर्मजोशी का यह आलम था कि ढींग जाने वाले रास्ते जाम से भर गए थे। आखिरकार हिमा असम की दूसरी ऐसी खिलाड़ी थी, जिसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक जीता था। इससे पहले, असम के भोगेश्वर बरुआ ने बैंकॉक में साल 1966 में आयोजित एशियाई खेलों में पुरुषों की 800 मीटर स्पर्धा का सोना अपने नाम करने का गौरव हासिल किया था। भोगेश्वर ने एक समय पर इस बात का दुख जताया था कि क्या वह किसी अन्य भोगेश्वर को इस उपलब्धि को हासिल करते हुए देखने के लिए जीवित रहेंगे, लेकिन खास बातें हिमा ने उनकी इस निराशा को अपनी जीत से दूर कर दिया। असम के ढींग नाम के कस्बे के छोटे असम के 77 वर्षीय भोगेश्वर से गांव कंधुलिमारी में रहती है हिमा ने कहा कि मुझे खुशी है कि हमारे पास और भी बेहतर कोई है। हिमा की जीत के बाद गांव और मैं किसी तरह एक घंटे घर में मेले जैसा माहौल या शायद उससे अधिक समय तक ट्रैफिक से जूझते हुए कंधुलिमारी गांव पहुंचा। यह हिमा एक एथलीट ही नहीं, बल्कि गांव ब्रह्मपुत्र नदी के पूर्वी एक नेतृत्वकर्ता भी है किनारे पर स्थित पांच गांवों में से एक है। इसी गांव में मुख्यतया धान की खेती करने
परिवार का हिस्सा हैं और उनके परिवार में कुल 18 सदस्य हैं। जिस दिन हिमा ने फिनलैंड में इतिहास रचा था, उस दिन उनके घर बिजली नहीं थी और इस कारण उनके परिजन उनकी जीत के पल को नहीं देख सके। हिमा की चाची पुष्पलता ने कहा कि हिमा ने अपनी मां को उस रात को नौ बजे फोन किया और कहा कि उसकी स्पर्धा
सुनकर उठे और भावुकता में निकले खुशी के आंसू परिजनों की आंखों से नहीं रुक रहे थे। पूरे गांव में जश्न का माहौल बन गया। राष्ट्रमंडल खेलों में उसकी असफलता के कारण हम दुखी थे, लेकिन हिमा का कभी न हार मानने वाला हौसला उसे सफलता की ओर ले गया। यह तो अभी शुरुआत है। इस खुशी के मौके पर हिमा के बचपन को याद करते हुए उनकी मां जोनाली ने कहा कि एथलीट का हमेशा प्रतिस्पर्धी रहने का रवैया होता है और वह कभी हार नहीं मानता। एक बार एक गाड़ी चालक ने हिमा को स्कूल से घर ले जाने के आग्रह से इनकार कर दिया था। हिमा ने उस चालक को चुनौती दी और उसे हराकर घर पहुंची। उसका स्कूल यहां से दो किलोमीटर दूर है। जोनाली ने कहा कि उनकी बेटी खेतों में चराई से पहले अभ्यास करती है, जो उनके घर से 50 मीटर की दूरी पर है। इसके बाद गांव के लोग वहां अपने मवेशियों को चराने ले जाते हैं। नौ साल की उम्र में हिमा ने एथलेटिक्स को चुना था। उसने अपने पिता के साथ प्रशिक्षण की शुरुआत की थी। एक दिन ढींग नवोदय विद्यालय के खेल अध्यापक समसुल हक की नजर हिमा पर एक स्कूल प्रतियोगिता के एक बार एक गाड़ी चालक ने दौरान पड़ी। हक ने हिमा स्कूल से घर ले जाने के इसके बाद हिमा की प्रतिभा को पहचाना आग्रह से इनकार कर दिया और उसे जिला एवं था। हिमा ने उस चालक को राज्य चयनकर्ताओं चुनौती दी और उसे हराकर घर से मिलाया, जिसके पहुंची। उसका स्कूल यहां से दो बाद उसने गुवाहाटी में निपोन दास के किलोमीटर दूर है मार्गदर्शन में 17 माह का प्रशिक्षण लिया कुछ घंटों में शुरू और इसके बाद सब इतिहास बन गया। होने वाली है। हम हिमा का हुनर केवल एक एथलीट के रूप सब उसकी स्पर्धा में ही नहीं, बल्कि एक नेतृत्वकर्ता के रूप में भी को टेलीविजन उभर कर आया, जब उसने ओनी-एती में एक पर देखने के लिए अवैध शराब की दुकान को खत्म करने के लिए उत्सुक थे, लेकिन महिलाओं के एक समूह का नेतृत्व किया। इस बिजली न होने घटना ने उसके नेतृत्व कौशल को सबके सामने के कारण हम इस लाकर रखा। सुखद पल से वंचित शराब की दुकान के मालिक ने हिमा के 52 वर्षीय पिता को अदालत में घसीटा, लेकिन रह गए। करीब चार उनके पिता ने कहा कि यह मामला चल घंटे तक बिजली नहीं रहा है, लेकिन मैं इससे बिल्कुल भी चिंतित नहीं आई। पुष्पलता ने कहा हूं। आखिरकार मेरी बेटी ने कुछ भी गलत नहीं किया है। मुझे उस पर तथा उसकी उपब्धियों पर कि हम हिमा के स्वर्ण गर्व है। पदक जीतने की खबर
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कही-अनकही मुकेश
हर इक पल मेरी हस्ती है...
सादा और सरल गाकर भी कोई कालजयी गायक बन सकता है, मुकेश का सुरीला सफर इसकी मिसाल है
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एसएसबी ब्यूरो
केश के हिस्से में शायद ही कभी मस्तीभरे गाने आए हों लेकिन अपने गानों के मिजाज से अलग वे मासूमियत भरे मजाक करने में कभी चूकते नहीं थे। यहां तक कि उन्हें खुद पर मजाक करने से भी गुरेज नहीं था। कहते हैं कि वे जब स्टेज परफॉर्मेंस के लिए जाते थे तो अक्सर वहां लता मंगेशकर का जिक्र करते थे। वे श्रोताओं से कहते कि लता दीदी इतनी उम्दा और संपूर्ण गायिका उनकी वजह से समझी जाती हैं क्योंकि युगल गानों में वे खुद खूब गलतियां करते हैं, ऐसे में लता मंगेशकर लोगों को ज्यादा ही भाने लगती हैं। इस मजाक के साथ मुकेश एक तरह से अपने ऊपर होने वाली उस छींटाकशी को स्वीकार कर लेते थे कि वे सीमित प्रतिभा के गायक हैं। हालांकि यह संगीत की बौद्धिक समझ रखने वालों की ईजाद की गई शब्दावली है, जिससे शायद ही कभी आम संगीत प्रेमियों को फर्क पड़ा हो। उनके लिए तो मुकेश उनकी भावनाओं को सबसे सच्ची आवाज देने वाले गायक थे और यही बात मुकेश को आज भी लोकप्रिय बनाए हुए है। दिलचस्प यह भी है कि मुकेश फिल्म उद्योग और उम्र में भी लता मंगेशकर से काफी सीनियर थे, लेकिन उन्हें दीदी कहते थे। लता भी आजीवन उन्हें भैया कहती रहीं।
लोकप्रियता की चौकड़ी
हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में 1950 और उसके बाद के तीन
दशकों के दौरान यदि सबसे लोकप्रिय रहे पुरुष गायकों के नाम किसी से पूछे जाएं तो जेहन में सबसे पहले चार नाम आते हैं – मोहम्मद रफी, किशोर कुमार, मुकेश और मन्ना डे। ऐसा नहीं है कि इस दौर में और किसी ने गाने नहीं गाए, लेकिन ये चार नाम अक्सर एक साथ लिए जाते हैं। शायद इसीलिए कि ये लोकप्रियता में एक दूसरे के आसपास ही ठहरते हैं। इन चारों के बारे में दिलचस्प बात यह है कि इनका गाने का अंदाज एक-दूसरे से इतना अलहदा रहा कि संगीत के जानकार उसी के चलते इन्हें चार खानों में बांटते हैं। रफी को विविधता भरा गायक माना जाता है तो किशोर को विद्रोही। इनमें मन्ना डे की शास्त्रीय संगीत की शिक्षा और समझ बाकियों से ज्यादा थी। संगीत के जानकार इस वजह से उन्हें संपूर्ण गायक का दर्जा देते हैं। मुकेश के बारे में आम राय रही कि वे बहुत सादा गाते थे। यहां सादे का मतलब बोझिल नहीं, बल्कि सरल गाने से है और बौद्धिक संगीत विशारद इसी सादगी को लंबे समय तक उनकी सीमित प्रतिभा कहते रहे। लेकिन यही वह आवाज थी जिसने फिल्मी गीतों के माध्यम से हमारे जीवन में पैदा होने वाली उदासी और दर्द को सबसे असरदार तरीके से साझा किया।
हताशा और दिलासा का दर्शन
दर्द भरे गाने मोहम्मद रफी, तलत महमूद और किशोर कुमार जैसे उस समय के दिग्गज गायकों ने भी कम नहीं गाए। फिर ऐसा क्या है कि मुकेश की आवाज में, जो उनके गाए उदासी भरे गीत इतने लोकप्रिय हुए कि उन्हें दर्द की आवाज ही मान लिया गया। इस सवाल का सबसे सही जवाब शायद इन गानों को सुनकर ही मिल सकता है। मुकेश को सुनते हुए उनकी आवाज में दर्द की गहराई और उसकी टीस महसूस की जा सकती थी। मुकेश के गीतों से जुड़ी एक दिलचस्प बात है कि जब वे ‘जिंदगी हमें तेरा ऐतबार न रहा...’ गाते हैं तो बेहद धीरे-धीरे गहरी हताशा की तरफ ले जाते हैं, वहीं एक दूसरे गीत ‘गर्दिश में तारे रहेंगे सदा...’ गाते हुए बहुतकुछ खत्म होने बाद भी थोड़ा बहुत बचा रहने की दिलासा भी देते हैं। हताशा और दिलासा का यह दर्शन मुकेश के कई गानों में है। ये दोनों भाव निकलते दर्द से ही हैं, उस दर्द से जो हम सबके जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। इसीलिए हर शब्द जो मुकेश के गले से निकलता है हमारे आसपास से गुजरता हुआ महसूस होता है। मुकेश के हिस्से में हताशा और उसी गहराई के साथ दिलासा देने वाले कई गाने हैं। जैसे फिल्म ‘कभी-कभी’ में उन्होंने गाया है ‘पल दो पल का शायर हूं’ इसी गीत में एक जगह बोल हैं, ‘वो भी इक पल का किस्सा थे, मैं भी इक पल का किस्सा हूं, कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा जो आज तुम्हारा हिस्सा हूं...’ उदासी भरा यह गीत सुनते हुए लगता है जैसे मुकेश यह खुद के लिए गा रहे हैं। हम आज भी इस गीत को सुनते हुए इसके दर्शन की पूरी कद्र करते हैं और यह मानने सा रफी, मन्ना डे और किशोर की शोहरत के बीच एक लगते हैं कि होगा कोई जो बड़ा स्थान मुकेश का भी मुकेश से बेहतर कहेगा और हताशा और दिलासा को एक साथ साधने वाले हमसे बेहतर सुनेगा। लेकिन गायक थे मुकेश हम आज भी घंटों का वक्त मुकेश दर्द भरे गानों के लिए आज भी बेहतरीन आवाज माने जाते हैं
खास बातें
खर्च कर मुकेश को न सिर्फ सुनते हैं बल्कि याद भी करते हैं। तभी तो इसी गाने के दूसरे संस्करण में मजबूरन उन्हें भी कहना पड़ता है ‘हर इक पल मेरी हस्ती है, हर इक पल मेरी जवानी है।’
जाने कहां गए वो दिन
1960-70 के दशक में यह तो स्थापित हो गया था कि मुकेश दर्द भरे गानों के लिए बेहतर आवाज हैं, लेकिन उनके साथ संगीत या फिल्म निर्देशक प्रयोग करने से हिचकते थे। कुछ ऐसा ही वाकया राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ से भी जुड़ा हुआ है। मुकेश राज कपूर के लिए फिल्मों में उनकी आवाज थे, लेकिन जब इस फिल्म के गाने ‘जाने कहां गए वो दिन’ के लिए गायक चुनने की बारी आई तो राज कपूर भारी असमंजस में पड़ गए। उन्हें यकीन नहीं था कि मुकेश इस गाने के साथ न्याय कर पाएंगे। राज कपूर का कहना था कि दर्द में डूबे स्वर और होते हैं और किसी के लिए भर चुके जख्म को याद करने की पीड़ा कुछ और। यह गाना इसी पीड़ा को सुर देता है। हालांकि राज कपूर बाद में मुकेश के नाम पर ही सहमत हुए और मुकेश ने इस गाने को जिस तरह गाया, उसकी कल्पना अब किसी दूसरी आवाज में मुमकिन ही नहीं है।
गायकी का सादगी
संगीत के जानकार मानते हैं कि मुकेश के स्वरों में रफी सा विस्तार नहीं था, मन्ना डे जैसे श्रेष्ठ सुर नहीं थे और न ही किशोर जैसी चंचलता, इसके बावजूद उनमें एक अपनी तरह की मौलिकता और सहजता थी। एक बातचीत में संगीतकार कल्याण जी ने मुकेश की इस खूबी को उनकी सबसे बड़ी खासियत बताते हुए कहा था, ‘जो कुछ भी सीधे दिल से आता है, आपके दिल को छूता है। मुकेश की गायकी कुछ ऐसी ही थी। उनकी गायकी की सरलता और सादापन जिसे कुछ लोगों ने कमी कहा, हमेशा संगीत प्रेमियों पर असर डालती थी।’
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सािहत्य
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
कविता
अंधे की सीख
सुबह
वंदना
मैंने बचपन में एक बार मां से कहा, मां कचरेवाला आया है, मां ने जवाब दिया- बेटा कचरे वाले तो हम हैं, वो तो सफाई वाला है। अपना दर्द सबको ना बताएं, क्योंकि सबके घर में मरहम नहीं होता। मगर नमक हर एक के घर में होता है..! दूसरों की छांव में खड़े रहकर हम अपनी परछाई खो देते हैं, अपनी परछाईं के लिए हमें धूप में खड़ा होना पड़ता है ..!! कचरे में फेंकी रोटीयां रोज ये बयां करती हैं, कि पेट भरते ही इंसान अपनी औकात भूल जाता है। क्यों हम भरोसा करें गैरों पर जबकि हमें चलना है अपने ही पैरों पर ठंडी रोटी अक्सर उनके नसीब में होती है जो अपनों के लिए कमाई करके देरी से घर लोटते हैं। समाज बारह लोगों का बना है चार सच्चे, चार कच्चे और चार लुच्चे। हमें सबको स्वीकार करके आगे बढ़ते रहना है।
ए
ए
क छोटा सा गांव था। वहां एक आदमी रहता था जो देख नहीं सकता था । वह अंधा था । फिर भी, जब भी वह रात में बाहर जाता था तो अपने हाथ मे एक लैंप उठाया करता था । एक रात को वह बाहर खाने के बाद घर आ रहा था, और गांव में कुछ युवा यात्रियों का एक समूह आया था । वह अंधा आदमी उनके पास से जब गुजर रहा था तब उन्होंने देखा कि वह अंधा है , फिर भी उसने एक लैंप अपने हाथ मे ले रखा है । उन्होंने उस पर टिप्पणियां देना शुरू कर दिया और उसका मजाक उड़ाया। उनमें से एक ने उससे पूछा-आप अंधे हैं। कुछ भी नहीं देख
प्रतीक्षा का फल सागरिका
क बार महात्मा बुद्ध एक शहर से दूसरे शहर में अपने कुछ अनुयायियों के साथ चल रहा थे । यह प्रारंभिक दिनों की बात थी ।
कविता
जब वे यात्रा कर रहे थे, तो उन्हें एक झील दिखाई दी । उन्होंने वहां रुक कर अपने शिष्यों में से एक से कहा- मैं प्यासा हूं। कृपया मुझे उस झील से कुछ पानी ला दो। शिष्य झील से पानी लेने चला गया। जब वह उस पर पहुंचा, तो उसने देखा कि कुछ लोग पानी में कपड़े धो रहे थे और, ठीक उसी समय, एक
सकते हैं, तो आप अपने साथ इस लैंप को क्यों लेते हैं ? अंधे आदमी ने जवाब दिया- हां, दुर्भाग्य से, मैं अंधा हूं और मैं कुछ भी नहीं देख सकता, लेकिन यह लैंप जो मे अपने साथ रखता हु वह आपके जैसे लोगों के लिए है। क्योकि आप अंधे आदमी को नहीं देख सकते हैं और मुझे धक्का दे सकते हैं। इसी कारण मैं एक लैंप साथ रखता ह।ूं यात्रियों के समूह ने उनके इस व्यवहार के लिए उस अंधे आदमी से माफी मांगी। हमें दूसरों के बारे मे कुछ भी बोलने से पहले सोचना चाहिए। हमेशा विनम्र रहें और दूसरों के दृष्टिकोण से चीजों को देखना सीखें।
बैल गाड़ी ने झील को दाहिनी तरफ से पार करना शुरू कर दिया। जिसकी वजह से , पानी बहुत गंदा हो गया , शिष्य ने सोचा, मैं बुद्ध को यह गंदा पानी कैसे पीने दे सकता हूं ? तो वह वापस आया और बुद्ध को बताया -वहां पानी बहुत गंदा है। मुझे नहीं लगता कि यह पीने के लिए उपयुक्त है। तो, बुद्ध ने कहा, चलो पेड़ के नीचे बैठ कर थोड़ा आराम करते है ।लगभग आधा घंटे बाद, बुद्ध ने फिर से उसी शिष्य से झील पर वापस जाने और उसे पीने का पानी लाने के लिए कहा। शिष्य झील तक वापस चला गया। इस बार उन्होंने पाया कि झील में बिल्कुल साफ पानी था। तो उसने एक बर्तन में कुछ पानी इकट्ठा किया और इसे बुद्ध के पास लाया । बुद्ध ने पानी को देखा, और फिर उसने शिष्य की तरफ देखा और कहा- देखो, तुमने पानी को थोड़ी देर वेसे ही रहने दिया जिसकी वजह से पानी मे मिली मिट्टी अपने आप नीचे बैठ गई। और आपको साफ पानी मिल गया । इसके लिए किसी भी प्रयास की आवश्यकता नहीं थी। आपका दिमाग भी इसी तरह है। जब यह परेशान होता है, तो बस इसे होने दें। इसे थोड़ा समय दें। यह अपने आप शांत जाएगा।
कविता
पता ही नहीं चला बबली
जिंदगी की आपाधापी में, कब निकली उम्र हमारी, पता ही नहीं चला। कंधे पर चढ़ने वाले बच्चे, कब कंधे तक आ गए, पता ही नहीं चला। साइकिल के पैडल मारते हुए, हांफते थे उस वक़्त, अब तो कारों में घूमने लगे हैं, पता ही नहीं चला। हरे भरे पेड़ों से भरे हुए जंगल थे तब, कब हुए कंक्रीट के, पता ही नहीं चला। कभी थे जिम्मेदारी मां बाप की हम, कब बच्चों के लिए हुए जिम्मेदार हम, पता ही नहीं चला। एक दौर था जब दिन में भी बेखबर सो जाते थे, कब रातों की उड़ गई नींद, पता ही नहीं चला। जिन काले घने बालों पर इतराते थे हम, कब रंगना शुरू कर दिया, पता ही नहीं चला। दर दर भटके हैं, नौकरी की खातिर , कब रिटायर होने का समय आ गया पता ही नहीं चला।
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
आओ हंसें
नाप-तौल पिताजी : अरे चिंपू बेटा क्या हुआ? आज तुम तराजू और बाट लेकर स्कूल क्यों जा रहे हो? चिंपू - पापा, कल टीचर ने हमें सिखाया था कि हमें हर बात को नाप-तौल कर बोलनी चाहिए। ........... अच्छा वाला साबुन पप्पू : डेटोल साबुन है? दुकानदार : हां है...। पप्पू : अच्छा वाला? दुकानदार : हां, अच्छा वाला है...। पप्पू : ..तो फिर हाथ धोकर एक किलो आटा दे दो!
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इंद्रधनुष
जीवन मंत्र
सु
कौन, कब, किसका और कितना अपना है यह सिर्फ वक्त बतलाता है
डोकू -33
रंग भरो
महत्वपूर्ण तिथियां
• 31 जुलाई मुंशी प्रेमचंद जयंती • 1 अगस्त विश्व स्तनपान दिवस, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जयंती, लोकमान्य तिलक स्मृति दिवस • 1 - 7 अगस्त विश्व स्तनपान सप्ताह • 2 अगस्त संस्कृत दिवस • 3 अगस्त मैथिलीशरण गुप्त जयंती अंतरराष्ट्रीय मैत्री दिवस
बाएं से दाएं
1. चमकीला (5) 3. कमल (3) 5. धरती (2) 6. राज सभा (2,4) 8. समस्त (2) 9. आंवल, कमलडंडी (2) 10. मिट्टी या रेत का घर (3) 11. जो टूटे नहीं (3) 12. वध करने वाला (3) 13. जहां, जब (2) 15. चुप (2) 16. साफ करना और पोतना (3,3) 18. निष्कर्ष (2) 19. रुई का पौधा (3) 20. शासन व्यवस्था हुकूमत (3,2)
सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी विजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार दिया जाएगा। सुडोकू के हल के लिए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें
सुडोकू-32 का हल विजेता का नाम देवेश सिंह नोएडा
वर्ग पहेली-32 का हल
ऊपर से नीचे
1. चक्कर खाना (4) 2. सफेद कमल (3) 3. ठीक (2) 4. उत्तर (3) 5. श्मशान (4) 7. बाढ़ (2,3) 8. सच्चरित्र, सज्जनता (5) 11. प्रायः (4) 14. दाई का काम (4) 15. मुंह जबानी (3) 17. पूंछ वाला तारा (3) 18. पति की मां (2)
कार्टून ः धीर
वर्ग पहेली - 33
32
न्यूजमेकर
रो
ही म ा न अ
श्री
30 जुलाई - 05 अगस्त 2018
यशस्वी
क्रिकेट का नया यश
मुंबई के आजाद मैदान पर गोल-गप्पे की दुकान पर काम करने वाले यशस्वी को देश के लिए खेलने का मौका मिला
लंका दौरे पर जा रही भारत की अंडर-19 टीम में उत्तर प्रदेश के भदोही के यशस्वी जगह बनाने में सफल हुए हैं। मुंबई के आजाद मैदान पर गोल-गप्पे की दुकान पर काम करने वाले यशस्वी को वनडे टीम में जगह मिली है। इस युवा प्रतिभाशाली खिलाड़ी के कोच ज्वाला सिंह बताते हैं कि यशस्वी के अंदर क्रिकेट की एक दीवानगी है। वह पैसे के लिए नहीं नाम के लिए खेलना चहता है। यशस्वी के लगन और उपलब्धि पर उसका परिवार खुश है। सुरियावां नगर में पेंट की दुकान चलाने वाले उसके पिता भूपेंद्र जायसवाल उर्फ गुड्डन ने बताया कि क्रिकेट यशस्वी के जिंदगी का सपना था। उसने कहा था कि बूट पॉलिश करना पड़ेगा तो भी करुंगा, लेकिन एक दिन अच्छा क्रिकेटर बन कर दिखाऊंगा। यशस्वी की प्रतिभा के कायल क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर भी हैं। उसके पिता बताते हैं कि सचिन ने यशस्वी को अपने घर भी बुलाया था और खेल के गुर सिखाने के बाद खुद के हस्ताक्षर वाला बैट सौंपा था। सचिन के बेटे का भी अंडर-19 टीम में चयन हुआ है, लेकिन वे टेस्ट टीम में चुने गए हैं। यशस्वी के अंदर महज पांच वर्ष की उम्र से क्रिकेट का जुनून सवार था। दिलचस्प है कि यशस्वी के पिता भी एक अच्छे क्रिकेटर रहे हैं। वे अपने बेटे
के कोच भी है। भूपेंद्र अहमदाबाद की सिल्वर कंपनी के लिए कभी खेला करते थे। यशस्वी की कामयाबी के पीछे क्रिकेट अकादमी चलाने वाले सर ज्वाला सिंह का बड़ा हाथ है, जिन्होंने 10 वर्ष की उम्र में उसकी प्रतिभा को समझा और उसे आजाद मैदान उठाकर अपने पास ले गए। यशस्वी की प्रतिभा काफी पहले ही नजर आ गई थी। उन्होंने मुंबई के घरेलू मैच में 319 रन का रेकॉर्ड बनाया, वहीं 13 विकेट भी लिए। 2017 में उनका चयन मुंबई की अंडर-16 टीम के लिए हुआ। मुंबई प्रीमियर लीग में भी यशस्वी ने अपनी चमक बिखेरी। यहां से उन्होंने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।
कुंदन कुमार
प्रतिभा उन्नयन का एेप्प
बि
बिहार के बांका जिले में जिलाधिकारी कुंदन कुमार ‘बांका उन्नयन’ एेप्प की धूम
हार के नक्सल प्रभावित जिले बांका में इन दिनों एक एेप्प के कारण शिक्षा को लेकर तेजी से जागरुकता बढ़ रही है। इस एेप्प को शुरू करने का श्रेय जिलाधिकारी कुंदन कुमार को है। शिक्षा के इस अभियान से 56 चुनिंदा शिक्षक के अलावा आईआईटी के पूर्व छात्र जुड़े हैं, जो इस एेप्प को सुचारु रूप से चलाने के लिए 24 घंटे तैनात रहते हैं। ‘बांका उन्नयन’ नाम के इस एेप्प के जरिए छात्र 10वीं, 12वीं, एसएससी, बैंक पीओ व आईआईटीजी की तैयारी कर रहे हैं। इससे जहां बच्चों को उनके सवालों के जवाब मिल रहे हैं, वहीं वे सामूहिक चर्चा में शरीक होकर भी अपना ज्ञान बढ़ा रहे हैं। कुमार की पहल पर तैयार हुआ यह एेप्प हिंदी
न्यूजमेकर
व अंग्रेजी दोनों भाषाओं में है। पायलट प्रोजेक्ट के तहत छह विद्यालयों में इसकी मदद ली जा रही है। पायलट प्रोजेक्ट के बाद अगले चरण में जल्द ही 20 और स्कूलों को जोड़ा जाएगा। इस एेप्प की लोकप्रियता और सफलता को देखते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसे पूरे राज्य में अपनाने की बात कह रहे हैं। इस एेप्प के जरिए बांका के अलावा दूसरे जिलों और प्रदेशों के छात्र भी लाभान्वित हो रहे हैं। यही नहीं, इस एेप्प की लोकप्रियता विदेशों तक पहुंच गई है और वहां भी कई छात्र इसके इस्तेमाल से लाभान्वित हो रहे हैं। ‘उन्नयन बांका’ की गति यही रही तो आने वाले समय में जिले से कई प्रतिभावान छात्र-छात्राएं ऊंची छलांग लगा सकते हैं।
करण जौहर
दिव्यांगों का बैंड
6 दिव्यांग बच्चों के साथ मिलकर ‘6 पैक बैंड 2.0’ लॉन्च किया है
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लीवुड के जाने-माने फिल्म निर्मातानिर्देशक करण जौहर ने कुछ समय पहले मुंबई में एक बैंड लॉन्च किया है। इस बैंड की खास बात यह है कि यह 6 बच्चों का बैंड है और ये सभी बच्चे अलग-अलग रूप से दिव्यांग हैं। इस बैंड का नाम उन्होंने ‘6 पैक बैंड 2.0’ रखा है। करन जौहर इससे पहले 2016 में भी एक अलग तरह के बैंड को लॉन्च करने को लेकर चर्चा में आए थे। तब उन्होंने 'हम हैं हैप्पी' नाम से इंडिया के पहले ट्रांसजेंडर बैंड को लॉन्च किया था। इस बैंड का मकसद गानों के जरिए सामाजिक जागरूकता फैलाने का है। इस बार करण ने जो बैंड लॉन्च किया है उसका मकसद खासतौर पर बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ाना है। इसमें तीन लड़के और
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 33
तीन लड़कियां हैं। बैंड अपने आप में इसलिए भी खास है क्योंकि इससे खासतौर पर आत्मकेंद्रित बच्चों की परेशानियों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। बैंड की लॉन्चिंग के वक्त करण ने कहा कि इन सुपर टैलेंटेड बच्चों को देखकर बड़ी खुशी होती है। इनके पास गजब की प्रतिभा है। वह इनके साथ जुड़कर खुद को बहुत भाग्यशाली मानते हैं। इस बैंड को यशराज फिल्मस के हेड आशीष पटेल ने प्रोड्यूस किया है। इसके अलावा शमीर टंडन ने म्यूजिक कंपोज किया है। बताया जा रहा है कि करण ने जब से फिल्म 'माई नेम इज खान' को डायरेक्ट किया है तब से वह ऐसे कमजोर लोगों के बेहद करीब आ चुके हैं, इसलिए उन्होंने इन बच्चों को सपोर्ट करने का फैसला किया।