स्वच्छता
08 व्यक्तित्व
गरीबी से संघर्ष स्वच्छता का लक्ष्य
पर्यावरण के लोकतंत्र की रचयिता
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पुस्तक अंश
राजपथ बना योगपथ
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
26 कही-अनकही
29
आज जाने की जिद न करो...
sulabhswachhbharat.com
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
ऊर्जा और चेतना का योग वर्ष-2 | अंक-26 | 11 - 17 जून 2018
ईशा फाउंडेशन की विविध गतिविधियों द्वारा खासतौर पर योग और ध्यान की ऊर्जा का अहसास कराते हुए सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने देश-समाज से आगे पूरी दुनिया को अध्यात्म की नई ताजगी से भर दिया है। इस ताजगी में जहां प्रकृति प्रेम है, वहीं मनुष्य के लिए कई कल्याणकारी कार्यक्रम भी हैं
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एसएसबी ब्यूरो
क मनुष्य के लिए उसके जीवन के सभी प्रयासों में से सबसे पावन प्रयास, स्वयं को एक उच्चतर संभावना में रूपांतरित करना है। यही वह प्रयास है, जो मनुष्य होने के उद्देश्य को पूरा करता है तथा यही वह प्रयास है जो सभी के जीवन में कुशलता लाता है। ईशा फाउंडेशन का मूल उद्देश्य मनुष्य के अंदर की इस स्वाभाविक खोज को प्रेरित, प्रोत्साहित और पोषित करना और व्यक्ति को अपनी परम क्षमता को पहचानने में उसकी सहायता करना है।
ईशा फाउंडेशन की स्थापना
1992 में सद्गुरु जग्गी वासुदेव द्वारा स्थापित ईशा फाउंडेशन मानव क्षमता के विकास के लिए पूर्ण समर्पित, एक स्वयंसेवी, अंतरराष्ट्रीय लाभ-रहित संस्था है। यह फाउंडेशन एवं इसके सक्रिय एवं समर्पित संगठन तथा इसकी विभिन्न गतिविधियां मानव सशक्तीकरण और समुदाय के पुनरुत्थान के लिए विश्व के सामने एक सफल आदर्श के रूप में प्रस्तुत है। तमिलनाडु में वेल्लियांगिरि पर्वत की तलहटी में ईशा योग केंद्र स्थापित है। ध्यानलिंग योग मंदिर, लिंग भैरवी मंदिर, सूर्य कुंड, चंद्र कुंड, अदियोगी
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आवरण कथा
दिव्य पुरुष एक निर्भीक बालक, एक क्रांतिकारी किशोर और एक जुनूनी युवा, आज एक संत के रूप में लाखों लोगों की जिंदगी में सकारात्मक बदलाव ला रहा है। उनके दिव्य व्यक्तित्व के लोग न सिर्फ मुरीद हैं, बल्कि उनके अनुभव और ज्ञान गंगा में डूबने को सभी उतावले हैं
खास बातें 1992 में सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने ईशा फाउंडेशन की स्थापना की दुनिया भर में ईशा फाउंडेशन के 150 से भी अधिक शहरी केंद्र हैं ‘ईशा योग’ के नाम से सद्गुरु ने योग को नए सिरे से लोकप्रिय बनाया आलयम, स्पंद हॉल, ईशा रिजूवनेशन सेंटर, ईशा होम स्कूल और आवासीय सुविधाओं के साथ 150 एकड़ की भूमि में फैला यह केंद्र, इंसान की अंदरूनी यात्रा को सहज और सुगम बनाता है। यह फाउंडेशन एक मानव सेवी संस्था है, जो हर व्यक्ति के अंदर दूसरों को सशक्त करने की संभावना को स्वीकार करता है। फाउंडेशन अपनी विविध गतिविधियों और कोशिशों के जरिए व्यक्तिगत रूपांतरण और प्रेरणा
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दिव्य रहस्य
दिव्य लक्ष्य
हमारी दो आंखें सिर्फ भौतिक संसार को देख सकती हैं, पर यह बिना प्रकाश के असंभव है। पर दृष्टिहीन के लिए एेसी कोई बाधा नहीं है। तीसरी आंख के जरिए तो वह भी देखा जा सकता है, जो अदृश्य है। इसी रहस्य के जरिए सद्गुरु लोगों को ध्यान और आत्म-साक्षात्कार की प्रेरणा देते हैं
सद्गुरु का लक्ष्य हर व्यक्ति को आत्मबोध के उस विज्ञान से अवगत करना है, जो व्यक्ति को उसकी अधिकतम और अंतिम क्षमता से परिचित कराता है। हर व्यक्ति अपनी क्षमता के शिखर तक बढ़े, ताकि एक सर्व समावेशी और सद्भाव से भरी दुनिया का निर्माण हो
के माध्यम से एक सार्वभौमिक समाज बनाने में जुटा है। इस दृष्टि से इस संस्था की अभिनवता जहां लगातार चर्चा में है, वहीं लोग इससे लगातार जुड़ते भी जा रहे हैं। बड़ी बात यह है कि जुड़ाव के इस बढ़ते दायरे ने बहुत पहले ही मुल्क और सरहद की सीमा लांघ ली है।
सार्वभौमिकता का योग
‘योग’ शब्द का अनिवार्य रूप से जो अर्थ है, वह है- ‘जो आपको वास्तविकता की ओर लाता है।’ वस्तुतः इस अर्थ का अभिप्राय है- संघ। संघ का अर्थ है कि यह आपको अंतिम वास्तविकता की ओर ले है, जहां जीवन की व्यक्तिगत अभिव्यक्तियां सृजन की प्रक्रिया में सतह के बुलबुले हैं। धरती से ही मानव शरीर और इतने सारे प्राणियों ने जन्म लिया है। यह सब एक ही पृथ्वी है। इस तरह कह सकते हैं कि योग का अर्थ है, एक अनुभवात्मक वास्तविकता की ओर बढ़ना, जहां हम अस्तित्व की परम प्रकृति को, वह जिस तरह से बनी है, उसे जानते हैं। योग के अर्थ की इस व्यापकता को समझाते हुए सद्गुरु हमें सावधान भी करते हैं। वे कहते हैं, ‘एक बौद्धिक विचार के रूप में, यदि आप ब्रह्मांड की सामान्यता की गवाही देते हैं, तो यह आपको एक
ईशा फाउंडेशन अपनी विविध गतिविधियों और कोशिशों के जरिए व्यक्तिगत रूपांतरण और प्रेरणा के माध्यम से एक सार्वभौमिक समाज बनाने में जुटा है चाय पार्टी में लोकप्रिय बना सकता है, यह आपको एक निश्चित सामाजिक स्थान दे सकता है। लेकिन यह किसी अन्य उद्देश्य को पूरा नहीं करता। आप देखेंगे, जब चीजें धन तक पहुंच जाती हैं। यह मैं हूं, वह आप हैं। सीमा स्पष्ट है। आप और मैं एक हैं, ऐसा कोई सवाल ही नहीं उठता।’ योग की सार्वभौमिकता के लेकर अपने आशय को और स्पष्ट करते हुए सद्गुरु कहते हैं,
‘वैयक्तिकता एक विचार है। सार्वभौमिकता एक विचार नहीं है, यह एक वास्तविकता है। दूसरे शब्दों में, योग का अर्थ है कि आप अपने सभी विचारों को दफन कर दें।’
ईशा योग
फाउंडेशन की गतिविधियों में सबसे प्रमुख है विशेष रूप से तैयार की गई योग विधियां, जिन्हें ‘ईशा
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आवरण कथा
‘रैली फॉर रिवर्स’
नदियों को बचाने की राष्ट्रव्यापी पहल
भा
नदी संरक्षण की दिशा में एक बड़ी पहल करते हुए ईशा फाउंडेशन के बैनर तले सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने ‘रैली फॉर रिवर्स’ नाम से एक बड़ा और अभिनव आंदोलन चलाया
रत की नदियां तीव्र बदलाव से गुजर रही हैं। आबादी और विकास के दबाव के कारण हमारी बारहमासी नदियां मौसमी बन रही हैं। कई छोटी नदियां पहले ही गायब हो चुकी हैं। बाढ़ और सूखे की स्थिति बार-बार पैदा हो रही है, क्योंकि नदियां मानसून के दौरान बेकाबू हो जाती हैं और बारिश का मौसम खत्म होने के बाद गायब हो जाती हैं। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए नदी संरक्षण की दिशा में एक बड़ी पहल करते हुए ईशा फाउंडेशन के बैनर तले सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने ‘रैली फॉर रिवर्स’ नाम से एक बड़ा और अभिनव आंदोलन चलाया। सद्गुरु द्वारा सोचा और शुरू किया गया यह अभियान देश-समाज समाज के हर वर्ग तक पहुंचने में कामयाब रहा है। इस अभियान को लेकर वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने लिखा, ‘सद्गुरु जग्गी वासुदेव का नदी अभियान विनोबा के भूदान आंदोलन सरीखा है। विनोबा ने तब के सबसे बड़े सवाल पर जनमत जगाया। वैसे ही आज सबसे बड़ी चुनौती नदी को बचाने की है।’ इस बारे में वे आगे लिखते हैं, ‘यह हाथों हाथ होने वाला काम नहीं है। इसे समझकर ही एक संत भारत यात्रा पर निकल पड़ा है। ऐसा अचानक नहीं हुआ। अचानक कुछ होता भी नहीं है। हर घटना में एक इतिहास भी छिपा रहता है। जिस संत की यात्रा का यहां उल्लेख हो रहा है, वे सद्गुरु जग्गी वासुदेव हैं। ‘रैली फॉर रविर्स’ सोलह राज्यों से गुजरी। यह रैली तमिलमाडु में कन्याकुमारी से शुरू हुई और दिल्ली में आकर खत्म हुई। जिन सोलह राज्यों की राजधानियों से यह रैली गुजरी, वहां बड़े समारोह आयोजित हुए, जिससे बड़े स्तर पर नदियों को बचाने के बारे में जागरुकता फैली।’ ‘रैली फॉर रविर्स’ के जरिए जहां एक तरफ समन्वित और राष्ट्रव्यापी नदी संरक्षण नीति और कार्यक्रम की आवश्यकता पर जोर दिया गया, वहीं दूसरी तरफ इसका प्रामाणिक दस्तावेजी समाधान भी देश के सामने रखा गया। रैली के दौरान कुछ चौंकाने वाले तथ्य भी रखे गए। मसलन देश में बाढ़ और सूखे की जो स्थिति होगी, वह न सिर्फ भयावह होगी, बल्कि अगर हम समय से न चेते तो उस पर नियंत्रण पाना आसान नहीं होगा। ‘रैली फॉर रिवर्स’ के लिए सद्गुरु ने कहा कि यह कोई धरना या विरोध प्रदर्शन नहीं है, यह
नदियों के संरक्षण को लेकर चले इस अभियान को लेकर वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने लिखा, ‘सद्गुरु जग्गी वासुदेव का नदी अभियान विनोबा के भूदान आंदोलन सरीखा है’ अभियान इस जागरुकता को फैलाने के लिए है कि हमारी नदियां सूख रही हैं। हर वो इंसान जो पानी पीता है उसे इस नदी अभियान में अपना सहयोग देना चाहिए। इस अभियान के तहत नदी संरक्षण के कई समाधानकारी कार्यक्रम भी रखे गए। मसलन, नदी के दोनों ओर कम-सेकम एक किलोमीटर की चौड़ाई में बड़ी संख्या में पेड़ लगाने से पर्यावरण बेहतर होगा, साथ ही देश तथा समाज को सामाजिक और आर्थिक लाभ होंगे। इसी तरह, फसलों की जगह जैविक फलों की खेती करने पर किसानों की आय कम से कम तीन से चार गुना बढ़ जाएगी। किसान भारत की कार्यशक्ति का सबसे बड़ा हिस्सा
हैं मगर उनकी कमाई सबसे कम है। उनकी आय बढ़ने से काफी सकारात्मक असर पड़ेगा। यह भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सशक्त बनाएगा और उसमें विविधता भी लाएगा।
पेड़ और नदी संरक्षण
भारत की नदियां मुख्य रूप से वर्षा जल से पोषित होती हैं। तो वे साल भर, यहां तक कि सूखे मौसमों में भी कैसे बहती हैं? वनों के कारण। बारिश का मौसम खत्म होने के बाद भी बारहमासी नदियां बहती रहें, इसमें पेड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसीलिए इस अभियान का जोर खासतौर पर नदियों
नदियाें की दशा
के किनारे वाले इलाके में बड़े पैमाने पर पौधारोपण कार्यक्रम चलाना रहा। पेड़ की जड़ें मिट्टी को छेददार बना देती हैं, जिससे वह बारिश के समय पानी सोख लेती हैं और उसे थाम कर रखती हैं। मिट्टी में मौजूद यह जल साल भर धीरे-धीरे नदी में मिलता रहता है। अगर पेड़ नहीं होंगे, तो बाढ़ तथा सूखे का विनाशकारी चक्र चलता रहेगा। मानसून के दौरान अधिक पानी सतह पर आ जाएगा और बाढ़ लाएगा, क्योंकि मिट्टी बारिश के पानी को नहीं सोखेगी। मानसून के समाप्त होने के बाद नदियां सूख जाएंगी, क्योंकि उन्हें पोषित करने के लिए मिट्टी में नमी नहीं होगी। इसीलिए नदियों के दोनों ओर पेड़ों का होना बहुत जरूरी है। वैज्ञानिक अध्ययनों के मुताबिक भी नदियों के तटों पर पेड़ लगाने के बहुत से फायदे हैं। इससे नदियां बारहमासी रहती हैं, बाढ़ की घटनाएं कम होती हैं, सूखे से लड़ने में मदद मिलती है, भूजल फिर से भरने लगता है, वर्षा सामान्य होती है, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव कम होते हैं, मिट्टी का कटाव रुकता है, जल-मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होता है। भारत का 25 फीसदी भाग रेगिस्तान बन रहा है। हो सकता है अगले 15 सालों में अपने गुजारे के लिए जितने पानी की हमें जरूरत है उसका सिर्फ 50 फीसदी जल ही हमें मिले। इसीलिए भी व्यापक पैमाने पर पौधारोपण से नदियों के जल और प्रवाह को बरकरार रखना हमारे समय की सबसे बड़ी जरूरत है।
‘रैली फॉर रिवर्स’ ने नदियों को लेकर कई गंभीर तथ्यों से देश को अवगत कराया
• गंगा दुनिया की उन पांच नदियों में से है, जिनका अस्तित्व भारी खतरे में है। • गोदावरी पिछले साल कई जगहों पर सूख गई थी। • कावेरी अपना 40 फीसदी जल प्रवाह खो चुकी है। कृष्णा और नर्मदा में पानी लगभग 60 फीसदी कम हो चुका है। • अनुमान बताते हैं कि जल की हमारी 65 फीसदी जरूरत नदियों से पूरी होती है। • 3 में से 2 बड़े शहर पहले से ही रोज पानी की कमी से जूझ रहे हैं। बहुत से शहरी लोगों को एक कैन पानी के लिए सामान्य से दस गुना अधिक खर्च करना पड़ता है।
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हम सिर्फ पीने या घरेलू इस्तेमाल के लिए जल का उपयोग नहीं करते। 80 फीसदी पानी हमारे अन्न को उगाने के लिए इस्तेमाल होता है। हर व्यक्ति की औसत जल आवश्यकता 11 लाख लीटर सालाना है। बाढ़, सूखा और नदियों के मौसमी होने से देश में फसल बर्बाद होने की घटनाएं बढ़ रही हैं। अगले 25-30 सालों में जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ और सूखे की स्थिति और बदतर होगी। मानसून के समय नदियों में बाढ़ आएगी। बाकी साल सूखा रहेगा। ये रुझान शुरू हो चुके हैं।
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आवरण कथा
11 - 17 जून 2018
ईशा क्रिया की ग्लोबल सराहना
‘क्यों’ की फिक्र नहीं
मैं ईशा क्रिया पांच महीने से कर रही हूं और इससे मैंने जबरदस्त परिवर्तन अनुभव किया है। अब मैं कम सोचने लगी हूं। हर चीज के बारे में ‘ऐसा क्यों है’ जानने की आवश्यकता कम हो गई है। अब जीवन बिना किसी संघर्ष के चलने लगा है। - मैरी कोलारेडो, अमेरिका
ऑनलाइन ध्यान
‘फुलफिलिंग बापू’ज ड्रीम- प्राइम मिनिस्टर मोदी’ज ट्रिब्यूट टू गांधी जी’ का सद्गुरु के हाथों लोकार्पण
सु
लभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक की पुस्तक ‘फुलफिलिंग बापू’ज ड्रीमप्राइम मिनिस्टर मोदी’ज ट्रिब्यूट टू गांधी जी’ का लोकार्पण इसी वर्ष 9 मार्च को सद्गुरु जग्गी वासुदेव द्वारा किया गया। गांधी विचार और कार्यक्रमों के प्रति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिबद्धता को रेखांकित करने वाली इस विशिष्ट पुस्तक की प्रथम प्रति राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को भेंट की गई। इस मौके पर सद्गुरु ने पुस्तक के लेखन और प्रकाशन के लिए जहां डॉ. पाठक की सराहना की, वहीं यह बताया कि गांधीवादी मूल्य मानवता की गहरी संवेदना से जुड़े हैं। लिहाजा इस दिशा में किया जाने वाला हर कार्य सराहनीय है। उन्होंने पुस्तक
योग’ कहा जाता है। अधिक से अधिक शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक सुख-शांति के लिए ईशा योग आधुनिक व्यक्ति को प्राचीन, सशक्त यौगिक विधियों से जोड़ता है। पूर्ण सुख-शांति का यह आधार आंतरिक विकास की प्रकिया को तीव्र करता है तथा व्यक्ति को अपने आंतरिक स्पंदित जीवन के खजाने से लाभ उठाने में उसकी सहायता करता है। सद्गुरु जग्गी वासुदेव द्वारा अर्पित किए गए प्राथमिक कार्यक्रम ईशा योग में लोगों को शांभवी महामुद्रा से परिचित कराया जाता है। यह मुद्रा गहरे आंतरिक रूपांतरण की एक सरल, लेकिन शक्तिशाली क्रिया है।
ईशा क्रिया
आजकल अधिकतर लोगों के लिए ‘योग’ शब्द का अर्थ शरीर को असंभव तरीकों से तोड़ना मरोड़ना हो गया है। योग का शारीरिक पक्ष इस बहुआयामी विज्ञान का केवल एक पहलू है। योग अपनी शारीरिक और मनसिक क्षमताओं को शिखर पर पहुंचाने की तकनीक है, जिससे हम जीवन को संपूर्णता में जीने के योग्य बनाते हैं। सद्गुरु एक सिद्ध योगी और गुरु हैं। उनका यह
के लाकर्पण का अवसर देने के लिए अपनी तरफ से आभार जताया। सद्गुरु ने महात्मा गांधी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जो साधारण को असाधारण और सामान्य को भी विशिष्ट बना देते थे। इस मौके पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा, ‘आजादी के बाद के दौर में स्वच्छता को एक सुनियोजित सामाजिक अभियान के रूप में आगे बढ़ाने में डॉ. विन्देश्वर पाठक जी का सराहनीय योगदान रहा है, उन्होंने अपनी पीढ़ी की और अपने क्षेत्र के बहुत से लोगों की तथाकथित वर्ण, जाति और वर्ग से जुड़ी सोच से ऊपर उठते हुए शौच के लिए सुविधा, प्रबंधन और निस्तारण के क्षेत्र में पहल की।’ सपना है कि वह हर व्यक्ति को आध्यात्मिकता की एक बूंद प्रदान कर सकें। आध्यात्मिक विकास की संभावनाएं, जो पहले केवल योगियों और संन्यासियों के लिए ही थी, अब ईशा क्रिया के द्वारा सभी लोगों को उनके घर की सुख सुविधा में बैठे प्राप्त हो सकती है। दरअसल, योग विज्ञान के शाश्वत ज्ञान का हिस्सा। है- ईशा क्रिया। सद्गुरु ने ईशा क्रिया को एक सरल और शक्तिशाली विधि के रूप में पेश किया है। ‘ईशा’ का अर्थ है, ‘वह जो सृष्टि का स्रोत है’ और ‘क्रिया’ का अर्थ है, ‘आंतरिक कार्य’।
ईशा क्रिया का उद्देश्य
ईशा क्रिया का उद्देश्य मनुष्य को उसके अस्तित्व के स्रोत से संपर्क बनाने में सहायता करना है, जिससे वह अपना जीवन अपनी इच्छा और सोच के अनुसार बना सके। ईशा क्रिया के दैनिक एवं नियमित अभ्यास से जीवन में स्वास्थ, कुशलता, शांति और उत्साह बना रहता है। यह आज के भागदौड़ वाले जीवन के साथ तालमेल बिठाने का एक प्रभावशाली साधन है। ईशा क्रिया सरल व निशुल्क है। इसका आसानी से अभ्यास किया जा सकता है। फाउंडेशन द्वारा
मैंने बस ईशा क्रिया का ध्यान करना शुरू किया और मुझे आश्चिर्य हुआ कि सद्गुरु के साथ ये ध्यान करना कितना प्रभावशाली रहा, वह भी ऑनलाइन वीडियो के माध्यम से। मैं वास्तव में आंतरिक शांति, संतुलन और विरक्ति। अनुभव करने लगी हूं। - ओल्गा अविला, हॉलैंड मैंने आज ईशा क्रिया का अभ्यास किया और मेरी आंखों में आंसू उमड़ने लगे। मेरे अंदर एक तरह की इच्छा जगी कि इसका यूं ही अधिक देर तक आनंद लेती रहूं। -अपर्णा, हैदराबाद मेरी सहायता करने के लिए सद्गुरु का धन्यवाद। मैंने पिछली वर्ष जुलाई में इनर इंजीनियरिंग कोर्स किया और बहुत शांति का अनुभव किया, लेकिन दिसंबर में घुटना बदलने की सर्जरी के बाद अपने शरीर और मन को संभालना बहुत कठिन हो गया था। ईशा क्रिया को सीख कर अभ्यास करने से मुझे वह शांति पुनः प्राप्त हो गई है। - गिल जोंस, अमेरिका ईशा क्रिया स्वयं में बहुत अद्भुत है, कितनी सूक्ष्म, कितनी सरल है, यह और आपको बहुत गहराई में ले जाती है। आपमें बहुत आसानी से उमंग भर देती है। यह शांभवी, शक्तिचलन क्रिया और शून्य ध्यान के बीच बहुत अच्छी तरह फिट हो जाती है। - नदेश, बालरोग चिकित्सक, मलेशिया अपने एक दोस्त के अनुरोध से मैं इस साल मार्च में सद्गुरु को सुनने गया। मुझे ध्यान का पहले से कोई अनुभव नहीं था और योग के बारे में थोड़ा बहुत ही जानता था। उस सत्र में ध्यान की जो विधि उन्होंने सिखाई, उसका अनुभव बहुत अनोखा था। इस छोटे से अनुभव ने मुझे आंतरिक शांति की भावना दी जिसने मुझे मेरे निजी जीवन में चल रहे कठिन दौर को संभालने के लिए इतना सक्षम बनाया, जितना मैं कभी सोच नहीं सकता था। मुझे लगता है कि सद्गुरु की मजाक करने की आदत और जीवन और दुनिया को देखने के नजरिए से सीख कर हर व्यक्ति अच्छा जीवन जी सकता है। - अलिदा होरने, न्याय सचिव, पेनसिलवेनिया, अमेरीका तैयार विडियो में बताई गई विधि के साथ भी यह ध्यान सीखा जा सकता है और इसे जरूरत पड़ने पर डाउनलोड भी किया जा सकता है। जो लोग चंद मिनट का समय निकालने को तैयार हैं, उन सभी का जीवन रूपांतरित करने की इसमें शक्ति है। अपनी इस अनुकूलता के कारण ही ईशा क्रिया की तरफ लोगों का न सिर्फ तेजी से झुकाव बढ़ रहा है, बल्कि यह लोगों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन भी ला रहा है, उन्हें रचनात्मक ऊर्जा से भी भर रहा है।
कई और कार्यक्रम
ईशा फाउंडेशन दुनिया भर में फैले 150 से भी अधिक शहरी केंद्रों से कार्य करता है। यह 250,000 से भी अधिक स्वयंसेवकों के योगदान द्वारा चलाया जाता है। फाउंडेशन का मुख्यालय ईशा योग केंद्र
में है, जो दक्षिण भारत में वेल्लियांगिरि पर्वत की तलहटी के हरे-भरे वर्षा वन में स्थित है। अमेरीका के मध्य टेनेसी में शानदार कंबरलैंड पठार में स्थित ईशा इंस्टीट्यूट ऑफ इनर साइंस भी फाउंडेशन की आधुनिक प्रविधियों-गतिविधियों के लिए मुख्यालय की तरह ही कार्य कर रहा है। व्यक्तिगत विकास में मदद करने, मानवीय चेतना जागृत करने, समुदायों को पुनःस्थापित करने और पर्यावरण सुधार के लिए ईशा फाउंडेशन बड़े पैमाने की मानव सेवी योजनाओं पर भी अमल करता है।
ईशा फाउंडेशन के प्रमुख कार्यक्रमग्रामीण नवजीवन कार्यक्रम
(www.ruralrejuvenation.org) यह एक ग्रामीण पुनरुत्थान कार्यक्रम है, जो निशुल्क चिकित्सा सेवा प्रदान करने के साथ-साथ समुदायों को फिर से स्थापित कर रहा है, इससे दक्षिण भारत के ग्रामीण इलाके में 2,500 से अधिक असहाय गांवों में मानव उत्थान का कार्य हो रहा है।
प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स
(www.projectgreenhands.org) प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स, पर्यावरण-क्षरण को रोकने तथा पर्यावरण को स्वच्छ बनाने की दिशा में
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आवरण कथा
सद्गुरु का सफरनामा
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25 वर्ष की उम्र हुए दिव्य आत्म-साक्षात्कार के बाद सद्गुरु ने अपना पूरा जीवन मानवता की सेवा में लगाने का प्रण ले लिया
म
हान संत और में योगी जग्गी वासुदेव 'सद्गुरु' के नाम से ज्यादा लोकप्रिय हैं। वह ईशा फाउंडेशन के संस्थापक हैं। ईशा फाउंडेशन भारत सहित संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, लेबनान, सिंगापुर और ऑस्ट्रेलिया में योग कार्यक्रम सिखाता है साथ ही साथ कई सामाजिक और सामुदायिक विकास योजनाओं पर भी काम करता है। इसे संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक परिषद (ईसीओएसओसी) में विशेष सलाहकार की पदवी प्राप्त है। सद्गुरु न सिर्फ एक प्रखर वक्ता हैं, बल्कि उन्होंने 8 भाषाओं में 100 से अधिक पुस्तकों की रचना की है। शुरुआती जीवन सद्गुरु जग्गी वासुदेव का जन्म 5 सितंबर 1957 को कर्नाटक के मैसूर शहर में हुआ। उनके पिता एक डॉक्टर थे। बालक जग्गी को कुदरत से खूब लगाव था। अक्सर ऐसा होता था वे कुछ दिनों के लिए जंगल में गायब हो जाते थे, जहां वे पेड़ की ऊंची डाल पर बैठकर हवाओं का आनंद लेते और अनायास ही गहरे ध्यान में चले जाते थे। जब वे घर लौटते तो उनकी झोली सांपों से भरी होती थी जिनको पकड़ने में उन्हें महारत हासिल है। 11 वर्ष की उम्र में जग्गी वासुदेव ने योग का अभ्यास करना शुरू किया। इनके योग शिक्षक थे राघवेंद्र राव, जिन्हें मल्लाेडिहल्लिक स्वामी के नाम से जाना जाता है। आध्यात्मिक अनुभव 25 वर्ष की उम्र में अनायास ही बड़े विचित्र रूप से उन्हें गहन आत्मानुभूति हुई, जिसने इनके जीवन की दिशा को ही बदल दिया। एक दिन दोपहर में जग्गी वासुदेव मैसूर में चामुंडी पहाड़ियों पर चढ़े और एक चट्टान पर बैठ गए। तब उनकी आंखे पूरी खुली हुई थीं। अचानक उन्हें शरीर से परे का अनुभव हुआ। उन्हें लगा कि वह अपने शरीर में नहीं हैं, बल्कि हर जगह फैल गए हैं, चट्टानों में, पेड़ों में, पृथ्वी में। अगले कुछ दिनों में, उन्हें यह अनुभव कई बार हुआ और हर बार यह उन्हें परमानंद की स्थिति में छोड़ जाता। इस घटना ने उनकी जीवन शैली को पूरी तरह से बदल दिया। जग्गी वासुदेव ने उन अनुभवों को बांटने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने का फैसला किया। ईशा फाउंडेशन की स्थापना और ईशा योग कार्यक्रमों की शुरुआत इसी उद्देश्य को लेकर की गई ताकि यह संभावना विश्व को अर्पित की जा सके।
सम्मान पर्यावरण सुरक्षा के लिए किए गए महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए सद्गुरु द्वारा स्थापित और संचालित ईशा फाउंडेशन वर्ष 2008 का इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार दिया गया। वर्ष 2017 में सद्गुरु को अध्यात्म और मानव कल्याण के लिए उनकी सेवाओं के लिए पदमविभूषण से भी समानित किया गया। इसके अलावा उन्हें कई विशिष्ट अंतरराष्ट्रीय सम्मान भी मिल चुके हैं। कार्य करता है। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य तमिलनाडु राज्य में 11 करोड़ 40 लाख पेड़ लगाना है, जिससे राज्य के 33 प्रतिशत क्षेत्रफल को हरे आवरण से ढंका जा सके। प्रोजेक्ट ग्रीन हैंड्स ने सिर्फ तीन दिनों में 2,56,289 लोगों द्वारा 852,587 पौधे लगाकर गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में अपना नाम दर्ज कराया है। ईशा फाउंडेशन को उसके पर्यावरण संबंधी कार्यों के लिए वर्ष 2008 के इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
ईशा विद्या
(www.ishavidhya.org) ईशा विद्या, अंग्रेजी माध्यम व कंप्यूटर आधारित शिक्षा के क्षेत्र में एक विशेष पहल है। इसके अंतर्गत दक्षिण भारत के ग्रामीण इलाकों में 206 विद्यालयों
की स्थापना करने की योजना है। अच्छी बात यह है कि यह योजना ग्रामीण शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ा कदम तो है ही, ईशा फाउंडेशन ने इसे करने में अपेक्षित सफलता भी पाई है।
नदियों को बचाने की पहल
सद्गुरु ने नदियों को बचाने के लिए पिछले वर्ष ‘रैली फॉर रिवर्स’ नाम से एक बड़ा अभिनव छेड़ा। इस बारे में वे अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘नदियों, पहाड़ों और वनों से मेरा नाता बचपन से रहा है। मुझे स्मरण है, मैं 12 से 17 वर्ष की आयु तक प्रतिदिन कावेरी नदी में तैरता था, परंतु अब उस स्थान पर, जहां मैं प्राय: तैरा करता था, आप पैदल चलकर एक से दूसरे किनारे तक जा सकते हैं। आपको आश्चर्य होगा, मैंने 17 वर्ष की अवस्था में कावेरी पर 163 किलोमीटर, बागमंडला से मैसूर
सद्गुरु ने गत वर्ष नदियों को बचाने के लिए ‘रैली फॉर रिवर्स’ नाम से एक बड़ा अभियान चलाया तक, राफ्टिंग की थी... मात्र ट्रक की चार ट्यूब और बांसों के सहारे। यह केवल एक साहसिक संस्मरण नहीं है, बल्कि यह नदियों के साथ मेरे जीवन के गहरे संबंधों को दर्शाता है।’ इसी साक्षात्कार में वे आगे कहते हैं, ‘जब आप नदियों से गहराई से जुड़ जाते हैं, तो आपको महसूस होता है कि नदियां सजीव प्राणी के समान होती हैं। ये जीवन से परिपूर्ण हैं। इनका अपना चरित्र होता है, परंतु वर्तमान समय में नदियां दयनीय स्थिति में हैं। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि नदियों की इस दुर्दशा पर हमने आंखें क्यों मूंद रखी हैं? आप जानते
ही हैं, पिछले 12 वर्षों में लगभग लाखों किसानों ने आत्महत्या कर ली।’ सद्गुरु ने ‘रैली फॉर रिवर्स’ के जरिए नदी और वर्षा जल संरक्षण को लेकर देशव्यापी जागृति ही नहीं ला दिया, बल्कि उन्हें केंद्र के साथ राज्य सरकारों को इस बात पर सैद्धांतिक रूप से सहमत किया कि नदियों को लेकर अलगअलग प्रोजेक्ट बनाने और कार्य करने के बजाए एक राष्ट्रीय नीति और कार्यक्रम बने। उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने एक वैकल्पिक मसौदा भी रखा।
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आवरण कथा
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सद्गुरु के साथ महाशिवरात्रि
सद्गुरु जग्गी वासुदेव के साथ महाशिवरात्रि में भगवान शिव की भक्ति का ऐसा माहौल बनता है, जहां सब शिव की भक्ति में झूम उठते हैं
ल्लियांगिरि पहाड़ों की तलहटी में ईशा योग केंद्र में महाशिवरात्रि की पवित्र रात को बड़ा जश्न मानाया जाता है, जो पूरी दुनिया में आध्यात्मिक लिहाज से अपने तरह का सबसे बड़ा आयोजन होता है। इस वर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने कहा है कि एक खास तरीके से शिव की भक्ति से आपका भी त्रिनेत्र खुलेगा और आपको मिलेगा महाशक्ति का वरदान। सद्गुरु जग्गी वासुदेव के साथ महाशिवरात्रि में भगवान शिव की भक्ति का ऐसा माहौल बनता है, जहां सब शिव की भक्ति में झूम उठते हैं। सद्गुरु कहते हैं कि शिवरात्रि को शिव की साधना करने से अलौकिक ऊर्जा की प्राप्ति होती है और इस ऊर्जा की प्राप्ति से मनुष्य अपने सभी कष्टों से मुक्ति पा सकता है। इस ऊर्जा से मनुष्य शिवमय हो जाता है। शिवरात्रि का मतलब महीने का चौदहवां दिन होता है। यानी अमावस्या से ठीक एक दिन पहले यानी वो रात जब आसमान में चांद नहीं होता है। यह रात महीने की सबसे अंधेरी रात होती है और इसी अंधेरे में होती है शिव की साधना। वैसे तो हर महीने में शिवरात्रि आती है, लेकिन फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी को होने वाली शिवरात्रि खास होती है। महाशिवरात्रि के दिन पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में एक ऊर्जा का संचार होता है। धरती पर सभी मनुष्य और जीव अपने शरीर के अंदर ऊपर की तरफ चढ़ती ऊर्जा का अनुभव करता है। आप इस ऊर्जा का लाभ तभी ले सकते हैं जब आप पूरी रात अपने स्पाइन यानी मेरुदंड को सीधा रखें। दरअसल, इंसान के दिमाग का सचमुच का विकास तभी पूरा हुआ जब उनका मेरुदंड सीधा हो गया। महाशिवरात्रि के दिन जब एक प्राकृतिक ऊर्जा का संचार होता है, तब मेरुदंड को सीधा रखने पर काफी फायदा होता है। तो यही एक दिन है, जो
शिवरात्रि को शिव की साधना करने से अलौकिक ऊर्जा की प्राप्ति होती है और इस ऊर्जा की प्राप्ति से मनुष्य अपने सभी कष्टों से मुक्ति पा सकता है -सदगुरु
आपको एक ऐसे सफर पर ले जाएगा जहां आपकी तीसरी आंख खुल सकती है और आपको अपने बारे में दिव्य ज्ञान प्राप्त हो सकता है। सद्गुरु के मुताबिक उत्तरायण के समय जब धरती के उत्तरी गोलार्ध में सूरज की गति उत्तर की ओर होती है, तो मानव शरीर में ऊर्जाओं में कुदरती तौर पर एक प्राकृतिक उछाल आता है। इस रात को महाशिवरात्रि कहा जाता है। योग विज्ञान के अनुसार शून्य डिग्री अक्षांश से यानी विषुवतरेखा से तैंतीस डिग्री अक्षांश तक, शरीर के स्पाइन यानी मेरुदंड को सीधा रखते हुए जो भी साधना की जाती है, वो सबसे ज्यादा असरदार होती है उससे मनुष्य सारे दुखों से मुक्त हो जाता है और शिवमय हो जाता है। उनके अनुसार यही एक दिन है, जो आपको एक ऐसे सफर पर ले जाएगा जहां आपकी तीसरी आंख खुल सकती है और आपको अपने बारे में दिव्य ज्ञान प्राप्त हो सकता है। लेकिन सवाल ये है कि तीसरी आंख तो सिर्फ भगवान शिव के पास होता है। तभी तो उन्हें त्रिनेत्र कहते हैं। पौराणिक कथाओं के मुताबिक भगवान शिव जब भी अपनी तीसरी आंख खोलते हैं तो तांडव होता है और तबाही होती है। मनुष्य के शरीर पर तो तीसरी आंख होती ही नहीं है, तो फिर जग्गी वासुदेव के वायरल वीडियो में कैसे दावा किया जा रहा है कि
महाशिवरात्रि पर शिव की साधना से मनुष्य की तीसरी आंख खुल सकती है जिससे मनुष्य अपने बारे में दिव्य ज्ञान की प्राप्ति कर सकता है। तो इसका जवाब है....हम मनुष्यों के पास भी तीसरी आंख होती है। ये तीसरी आंख तब काम करती है जब हमारा मन शांत हो, चित्त स्थिर हो और ये समय होता है ध्यान का। मनुष्य की तीसरी आंख है उसका विवेक। सबसे मुश्किल सवाल का उत्तर और सबसे अच्छा विचार उसके विवेक से ही निकलता है और ये सब होता है शिव की साधना से, शिव की भक्ति से इसीलिए जग्गी वासुदेव कहते हैं हमें अपने भीतर से गलत विचारों को निकाल देना चाहिए और शिव के ध्यान में लग जाना चाहिए, क्योंकि ध्यान और चिंतन से मनुष्य में नई सोच पैदा होती है और जो नई सोच रखता है उसी की तीसरी आंख खुलती है, वही कामयाब होता है। महाशिवरात्रि के मौके पर जग्गी वासुदेव की शिव साधना का मुख्य कार्यक्रम कोयंबटूर में भगवान शिव की विशाल प्रतिमा के सामने आयोजित होता है। सदगुरु जग्गी वासुदेव के ईशा फाउंडेशन ने पिछले साल ही 112 फीट ऊंची आदियोगी भगवान शिव की इस प्रतिमा को बनवाया है, जिसका अनावरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था। कोयंबटूर में महाशिवरात्रि के मौके पर आदियोगी शिव की इसी विशाल प्रतिमा के आगे इस वर्ष महाशिवरात्रि को जग्गी वासुदेव के सामने हजारों शिव भक्तों ने शिव साधना की। पिछली बार शि व र ा त्रि
के मौके पर दुनिया के सभी भागों से 8 लाख से अधिक लोगों ने केंद्र में सद्गुरु जग्गी वासुदेव के साथ देर रात सत्संग में भाग लिया। इस अवसर पर गायन-वादन के क्षेत्र की कई बड़ी हस्तियां अपना कार्यक्रम पेश करती रही हैं
'शिव' शब्द की शक्ति
शिव शब्द का मतलब है- ‘वह जो नहीं है।’ सृष्टि वह है– ‘जो है।’ सृष्टि के परे, सृष्टि का स्रोत वह है– ‘जो नहीं है।’ शब्द के अर्थ के अलावा, शब्द की शक्ति, ध्वनि की शक्ति बहुत अहम पहलू है। सद्गुरु बताते हैं, ‘हम संयोगवश इन ध्वनियों तक नहीं पहुंचे हैं। यह कोई सांस्कृतिक चीज नहीं है, ध्वनि और आकार के बीच के संबंध को जानना एक अस्तित्वगत प्रक्रिया है। हमने पाया कि ‘शि’ ध्वनि, निराकार या रूपरहित यानी जो नहीं है, के सबसे करीब है। शक्ति को संतुलित करने के लिए ‘व’ को जोड़ा गया।’ अगर कोई सही तैयारी के साथ ‘शि’ शब्द का उच्चारण करता है, तो वह एक उच्चारण से ही अपने भीतर विस्फोट कर सकता है। इस विस्फोट में संतुलन लाने के लिए, इस विस्फोट को नियंत्रित करने के लिए, इस विस्फोट में दक्षता के लिए ‘व’ है। ‘व’ वाम से निकलता है, जिसका मतलब है, किसी खास चीज में दक्षता हासिल करना। इसीलिए सही समय पर जरूरी तैयारी के साथ सही ढंग से इस मंत्र के उच्चारण से मानव शरीर के भीतर ऊर्जा का विस्फोट हो सकता है। ‘शि’ की शक्ति को बहुत से तरीकों से समझा गया है। यह शक्ति अस्तित्व की प्रकृति है। ‘शिव’ शब्द के पीछे एक पूरा विज्ञान है। यह वह ध्वनि है, जो अस्तित्व के परे के आयाम से संबंधित है। उस तत्व – ‘जो नहीं है’ – के सबसे नजदीक ‘शिव’ ध्वनि है। इसके उच्चारण से, वह सब जो आपके भीतर है– आपके कर्मों का ढांचा, मनोवैज्ञानिक ढांचा, भावनात्मक ढांचा, जीवन जीने से इकट्ठा की गई छापें– वह सारा ढेर जो आपने जीवन की प्रक्रिया से गुजरते हुए जमा किया है, उन सब को सिर्फ इस ध्वनि के उच्चारण से नष्ट किया जा सकता है और शून्य में बदला जा सकता है। अगर कोई जरूरी तैयारी और तीव्रता के साथ इस ध्वनि का सही तरीके से उच्चारण करता है, तो यह आपको बिल्कुल नई हकीकत
11 - 17 जून 2018
आदियोगी शिव की प्रतिमा
ईशा योग फाउंडेशन द्वारा निर्मित शिव की आदियोगी मुद्रा वाली 112 फीट ऊंची मूर्ति का पीएम नरेंद्र मोदी ने अनावरण किया
ई
शा योग फाउंडेशन की ओर से तमिलनाडु के कोयंबटूर में स्थापित प्रतिमा भगवान शिव की 112 फीट ऊंची प्रतिमा ‘आदियोगी’ का नाम ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में शामिल किया गया है। प्रतिमा का अनवारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी वर्ष 24 फरवरी को किया था। इस प्रतिमा को ईशा योग फाउंडेशन ने स्थापित किया है। गिनीज बुक ने अपनी वेबसाइट पर इस प्रतिमा की विलक्षणता की विशेष रूप से चर्चा की। इसमें कहा गया कि ईशा योग फाउंडेशन की ओर से स्थापित प्रतिमा के विशाल वक्ष के कारण इसका रिकॉर्ड में नाम दर्ज किया है।
शिव के अनुपम योगदान के सम्मान में की गई है। भगवान शिव के इस विशाल चेहरे को सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने डिजाइन किया है। पहली बार दुनिया में भगवान शंकर की 112 फीट की प्रतिमा बनी है जिसमें सिर्फ उनका चेहरा है। फाउंडेशन के मुताबिक यह प्रतिष्ठित चेहरा मुक्ति का प्रतीक है और उन 112 मार्गों को दर्शाता है, जिससे व्यक्ति योग विज्ञान के जरिए अपनी परम प्रकृति को प्राप्त कर सकता है। प्रतिमा के चेहरे के डिजाइन को तैयार करने में करीब ढाई वर्ष लगे और ईशा फाउंडेशन की टीम ने इसे 8 महीने में पूरा किया।
यह प्रतिमा 112.4 फीट ऊंची, 24.99 मीटर चौड़ी और 147 फीट लंबी है। अब ईशा फाउंडेशन इस तरह की और प्रतिमाएं देश भर में लगाने की योजना बना रही है। बता दें कि ये दूसरी बार है जब फाउंडेशन का नाम गिनीज बुक में आया है। इससे पहले 17 अक्टू बर 2006 को फांउडेशन का नाम 8.52 लाख पौधे लगाने के लिए जोड़ा गया था।
इस प्रतिमा को स्टील से बनाया गया है और धातु के टुकड़ों को जोड़कर इसे तैयार किया गया है। आज से पहले इस तकनीक का कहीं प्रयोग नहीं किया गया है। इसका वजन 500 टन है।
प्रतिमा की खासियत
सद्गुरु ने डिजाइन किया
ईशा फाउंडेशन के मुताबिक धरती के इस सबसे विशाल चेहरे की प्रतिष्ठा मानवता को आदियोगी
स्टील से निर्माण
नंदी भी खास
नंदी को भी बड़े खास तरीके से तैयार किया गया है। धातु के 6 से 9 इंच बड़े टुकड़ों को जोड़कर नंदी का ऊपरी हिस्सा तैयार किया गया है। प्रतिमा के अंदर तिल के बीज, हल्दी, पवित्र भस्म, विभूति, कुछ खास तरह के तेल, थोड़ी रेत और कुछ अलग तरह की मिट्टी भरी गई है।
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आवरण कथा
प्रतिमा के अंदर 20 टन सामग्री भरी गई है और फिर उसे सील कर दिया गया। यह पूरा मिश्रण एक खास तरह से तैयार किया गया है।
नामकरण
सद्गुरु का विचार है कि यह प्रतिमा योग के प्रति लोगों में प्रेरणा जगाने के लिए हैं, इसीलिए इसका नाम 'आदियोगी' (प्रथम योगी) है। शिव को योग का प्रवर्तक माना जाता है। आदियोगी शिव ईशा योग परिसर में स्थित है, जो पश्चिमी घाटों की एक श्रृंखला, वेल्लियांगिरि पर्वत की तलहटी में तमिलनाडु के कोयंबटूर में ध्यानलिंगिग पर स्थित है। प्रतिमा को दो साल और आठ महीने में तैयार किया गया था। प्रतिमा की ऊंचाई, 112 फीट (34 मीटर), सद्गुरु ने यह भी कहा कि यह ऊंचाई मानव तंत्र में 112 चक्रों का प्रतिनिधित्व करती है।
तीन और प्रतिमाएं
ईशा फाउंडेशन, वाराणसी, मुंबई और दिल्ली में भारत के पूर्वी, पश्चिमी और उत्तरी हिस्सों में ऐसी तीन मूर्तियां स्थापित करने की योजना बना रही है। सबसे ऊंची शिव प्रतिमा, नेपाल में कैलाशनाथ महादेव प्रतिमा है, जो कि राजधानी काठमांडु के पूर्व में 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जो कि 44 मीटर (143 फीट) लंबा है।
में पहुंचा देगा। शिव शब्द या शिव ध्वनि में वह सब कुछ विसर्जित कर देने की क्षमता है, जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं। वह सब कुछ जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं, फिलहाल आप जिसे भी ‘मैं’ मानते हैं, वह मुख्य रूप से विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं, मान्यताओं, पक्षपातों और जीवन के पूर्व अनुभवों का एक ढेर है। अगर आप वाकई अनुभव करना चाहते हैं कि इस पल में क्या है, तो यह तभी हो सकता है जब आप खुद को हर पुरानी चीज से आजाद कर दें। ज्यादातर लोगों के लिए बचपन की मुस्कुराहटें और हंसी, नाचना-गाना जीवन से गायब हो गया है और उनके चेहरे इस तरह गंभीर हो गए हैं मानो वे अभी-अभी कब्र से निकले हों। यह सिर्फ बीते हुए कल का बोझ आने वाले कल में ले जाने के कारण होता है। अगर आप एक बिल्कुल नए प्राणी के रूप में आने वाले कल में, अगले पल में कदम रखना चाहते हैं, तो शिव ही इसका उपाय है। स्थायी शांति में – जिसे हम शिव कहते हैं – जब ऊर्जा का पहला स्पंदन हुआ, तो एक नया नृत्य शुरू हुआ। इसे हम सृजन का नृत्य कहते हैं। सद्गुरु के शब्दों में, ‘सृष्टि के उल्लास को प्रस्तुत करने की कोशिश में हमने उसे कई अलगअलग रूपों में नाम दिया। आदि-योगी को हम शिव भी कहते हैं। हिमालय के बहुत ऊंचाई वाले इलाकों में एक योगी प्रकट हुए। किसी को पता नहीं था कि वह कहां से आए थे। किसी को उनके अतीत की कोई जानकारी नहीं थी, न ही उन्होंने खुद अपना परिचय देने की जरूरत समझी। लोग बस उनका तेजस्वी रूप और भव्य मौजूदगी को देखते हुए उनके इर्द-गिर्द जमा हो गए। लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि वे उनसे क्या उम्मीद रखें। वह बिना कुछ कहे, बिना कुछ बोले, बिना हिलेडुले बस वहां बैठे रहे। दिन, सप्ताह, महीने गुजर गए, वह बस वहां बैठे रहे। फिर आम लोग अपनी दिलचस्पी खो बैठे, क्योंकि वे किसी चमत्कार की उम्मीद में थे। केवल सात लोग वहां लगातार बैठे रहे और इन सात लोगों को आज सप्तऋषि – इस धरती के विख्यात ऋषियों – के नाम से जाना जाता है। ये सात ऋषि शिव की शिक्षा के सात आयामों को दुनिया के अलग-अलग कोनों तक ले जाने के साधन बने। उनका कार्य अब भी दुनिया के कई हिस्सों में मौजूद है, भले ही वह विकृत हो गया हो मगर मौजूद है।’
अद्वितीय अवसर
महाशिवरात्रि, एक अद्वितीय अवसर है जो शरीर के पांच तत्वों को साफ करने के लिए व स्वास्थ्य और भलाई के लिए होता है। वर्ष के इस सबसे अंधेरी रात पर शिव की कृपा को मनाया जाता है जो आदि गुरु के रूप में जाने जाते हैं और जिनसे योग परंपरा की उत्पत्ति हुई है। इस रात को ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है, मानों वहां मानव प्रणाली में एक शक्तिशाली ऊर्जा कि प्राकृतिक लहर है। रात भर एक अवगत व ऊर्ध्वाधर स्थिति में जागते रहना शारीरिक और आध्यात्मिक भलाई के लिए काफी फायदेमंद है। इस कारण योग परंपरा में कहा जाता है कि एक व्यक्ति को महाशिवरात्रि की रात को सोना नहीं चाहिए।
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स्वच्छता
11 - 17 जून 2018
इथियोपिया
गरीबी से संघर्ष, स्वच्छता का लक्ष्य अफ्रीकी मुल्क इथियोपिया ने गरीबी और कुपोषण की मार के बीच स्वच्छता के प्रति जिस तरह अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध की है, वह एक मिसाल है
लोग इसे अपशगुन समझते हैं। इनका मानना है कि यह बुरी ताकतों को न्योता देने के समान है।
काफी है कॉफी
दुनिया के 5वें सबसे बड़े कॉफी उत्पादक देश इथियोपिया में कॉफी 7 अलग-अलग तरीकों से बनाई जाती है। इनमें से कुछ तरीकों में तो एक घंटे तक का समय लग जाता है। एक और खास बात जो इथियोपिया को लेकर जानने की है, वह है यहां के समाज में पुरुषों का महत्व। इथियोपिया के बच्चे अपने नाम के साथ माता-पिता का सरनेम नहीं लगाते। इसके बजाए कुछ पिता के नाम जरूर इस्तेमाल करते हैं।
भारतीय राष्ट्रपति का दौरा
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एसएसबी ब्यूरो
फ्रीकी देश इथियोपिया का नाम लेते ही गरीबी, कुपोषण और कचरों के पहाड़ जैसे चित्र उभरने लगते हैं। तथ्यात्मक रूप से यह बात काफी हद तक सही भी है। पर इथियोपिया का सच इतना भर नहीं है। यह देश ऐतिहासिक और सांस्कृतिक तौर पर काफी संपन्न रहा है। यह अलग बात है ग्लोबल विकास के नए दौर में इथियोपिया इतनी तेजी से समर्थ नहीं हो सका कि वह तीसरी दुनिया के आखिरी पायदान पर खड़े देशों की कतार से आगे निकल सके। जाहिर है कि इन स्थितियों का असर वहां चल रहे स्वच्छता कार्यक्रमों पर भी पड़ा। स्वच्छता को लेकर यह देश न सिर्फ खासा पिछड़ा है, बल्कि यहां के समाज में इस मुद्दे को लेकर पर्याप्त जागृति का भी अभाव है। इस अभाव के पीछे कोई बड़ा सांस्कृतिक कारण नहीं है, बल्कि यह भूख से लगातर लड़ रहे एक देश और उसके समाज की स्वाभाविक नियति है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2015 की स्वच्छता रैंकिंग में उसे 166वें स्थान पर रखा गया था और इस रैंकिंग में उसे 100 में से महज 28 अंक दिए गए थे
5वां सबसे गरीब मुल्क
दुनिया का पांचवां सबसे गरीब देश इथियोपिया सांस्कृतिक विविधता के मामले में समृद्ध है। यहां पर अलग-अलग भाषा बोलने वाले करीब 80 जनजाति के लोग हैं, लेकिन सभी दूसरों की संस्कृति का सम्मान करना जानते हैं। हालांकि, इन विभिन्न समूहों के बीच ऐसी कई प्रथा और मान्यताएं हैं, जो अन्य देशों के नागरिकों को अजीबो-गरीब लगती हैं। जिनमें से एक प्रथा है की मनपसंद लड़की से शादी के लिए लड़के अपनी क्षमता दिखाने के लिए लठबाजी करते हैं।
फुटबॉल और लठबाजी
इथियोपिया में फुटबॉल व बास्केटबॉल खेल लोकप्रिय है, लेकिन इससे ज्यादा शौक इन्हें लठबाजी का है। यहां युवक लठों से लड़ाई कर न सिर्फ अपनी क्षमता दिखाते हैं, बल्कि विजेताओं के लिए यह मनपसंद लड़की से शादी करने का जरिया भी होता है। यहां के लोग बेहद कम उम्र में ही अपने गृहस्थ जीवन की शुरुआत कर देते हैं। ऐसे में 49 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में हो जाती है। हालिया आंकड़ो पर नजर डालें तो 15 वर्ष से कम उम्र की हर पांच में से एक लड़की का विवाह यहां हो चुका होता है। स्वच्छता के साथ इथियोपिया के लोगों की सेहत को सबसे ज्यादा गरीबी ने प्रभावित किया है। एक अध्ययन के मुताबिक यहां औसतन दिनभर में लोग 1850 कैलोरी ही ग्रहण कर पाते हैं। जबकि किसी भी
खास बातें विश्व का पांचवां सबसे गरीब मुल्क है इथियोपिया 1990 के बाद स्वच्छता के क्षेत्र में इथियोपिया ने तेज प्रगति की 2015 तक वहां ओडीएफ का लक्ष्य 92 फीसदी पूरा हो चुका था महिला को 2000 व पुरुष को कम से कम 2400 कैलोरी की जरूरत होती है। इसीलिए इथियोपिया कम कैलोरी ग्रहण करने वाले देशों में से एक है।
हैलोवीन की तरह बुहे
गरीबी ने यहां की संस्कृति को एक अलग ही रंग दिया है। अमेरिका व यूरोपीय देशों में मनाए जाने वाले हैलोवीन की तरह ये ‘बुहे’ मनाते हैं। इस उत्सव के दौरान लड़के घर-घर जाकर खाने के लिए ब्रेड मांगते हैं। हालांकि, शहरों में लड़कों की टोली को ब्रेड के बजाए पैसा देने की प्रथा है। इसी तरह कुछ सामाजिक रूढ़ियां भी अब तक प्रभावी हैं। मसलन, इथियोपिया में जुड़वां बच्चे पैदा होना,
भारत के इथियोपिया के साथ संबंध गहरे और पुराने हैं। यही वजह है कि गत वर्ष जब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद जब अपनी पहली विदेश यात्रा पर निकले तो वे इथियोपिया गए। इससे पहले राष्ट्रपति के तौर पर वीवी गिरी ने 1972 में इस देश का दौरा किया था। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 4 अक्टूबर, 2017 को इथियोपिया में भारत के राजदूत अनुराग श्रीवास्तव द्वारा आयोजित भारतीय समुदाय स्वागत समारोह को संबोधित किया। इस अवसर पर अपने संबोधन में राष्ट्रपति कोविंद ने कहा कि इथियोपिया में भारतीय समुदाय भारत-इथियोपिया संबंधों का केंद्र रहा है। इन्होंने अध्यापक एवं शिक्षाविद् के तौर पर मेजबान देश के राष्ट्रीय निर्माण में सहयोग दिया है। उद्यमी के तौर पर आर्थिक सुअवसरों को उत्पन्न किया है और स्थानीय लोगों को कौशल प्रदान किया है। तकनीकी विशेषज्ञ एवं कर्मचारी के तौर पर इथियोपिया के उद्योग की महत्ता को बढ़ावा दिया है। भारतीय समुदाय ने इथियोपिया के समाज में अपने लिए सम्मान कड़ी मेहनत और समर्पण से प्राप्त किया है। भारतीय समुदाय ने भारतीय मूल्यों, पारिवारिक परंपरा और नैतिक कार्यों को संभाल कर रखा है एवं आगे बढ़ाया है।
विविधताओं से भरा देश
इस मौके पर राष्ट्रपति ने विशेष रूप से इस बात का उल्लेख किया कि इथियोपिया भी भारत की तरह विविधताओं से भरा देश है और विभिन्न भाषाओं और पाक कलाओं, संगीत, नृत्य एवं नाटय कलाओं की भूमि है। भारतीय समुदाय को स्थानीय ग्रहणशील संस्कृति का लाभ लेना चाहिए और अपनी संस्कृति को साझा एवं इसका प्रदर्शन करना चाहिए। राष्ट्रपति ने कहा कि भारत और इथियोपिया दोनों के पास विशाल युवा जनसंख्या है। युवा भविष्य हैं और नए विचारों का अाविर्भाव उन्हीं पर निर्भर करता है। उल्लेखनीय है कि भारतीय
11 - 17 जून 2018
स्वच्छता की बड़ी चुनौती
समुदाय इस पूरे देश में फैला हुआ है और इनकी संख्या लगभग 5000 है।
सुखे से निपटने का मॉडल
दिलचस्प है कि जिस देश में गरीबी एक आपदा की तरह है और वह कई तरह के अंतरराष्ट्रीय मदद के लिए गुहार लगाता रहा है। वह बाढ़ और सूखे से निपटने के मामले में एक मॉडल देश है। गत वर्ष जुलाई में बिहार में बाढ़ और सूखे को लेकर हुए एक सम्मेलन में इथियोपिया के वरीय आपदा प्रबंधन सलाहकार टीएबी फैटा आए थे। आपदा जोखिम न्यूनीकरण रोडमैप के एक साल पूरा होने पर आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन में इस पर सहमति बनी। सम्मेलन के तकनीकी सत्र में टीएबी फैटा ने कहा कि उनके देश में भीषण सूखा पड़ता है। पहले इससे लाखों लोगों की मौत होती थी। उस समय आपदा प्रबंधन का काम होता था, लेकिन मौत को रोकने के लिए जोखिम की पहचान कर उसे कम करने का काम शुरू हुआ। हम सूखा या जलवायु परिवर्तन को रोक नहीं सकते, लेकिन जान-माल की सुरक्षा कर सकते हैं। सरकार की मजबूत इच्छाशक्ति के आधार पर नीति बनी, निवेश हुआ और हर जोखिम पर काम हुआ। सूखा आने के पहले उसकी जानकारी देने को पूर्व चेतावनी प्रणाली विकसित हुई। परिणाम हुआ कि 2015-16 में अलनीनो जैसे भयंकर सूखे में भी किसी की मौत नहीं हुई। दरअसल, नव उदारवाद और नई तकनीक के साथ लोकतंत्र को लेकर प्रकट हुई वैश्विक ललक के बीच तीसरी दुनिया के देशों की स्थिति क्या है, यह समझना हो तो जिस देश को केस स्टडी के लिहाज से देखना सबसे सही होगा, वह है अफ्रीकी देश इथियोपिया। यह अफ्रीका का दूसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है और यहां 85.2 लाख से अधिक लोग बसे हुए हैं। क्षेत्रफल के हिसाब से यह अफ्रीका का 10वां सबसे बड़ा देश है। इसकी राजधानी अदीस अबाबा है।
पनबिजली क्षमता
इथियोपिया के पास आज अफ्रीका की दूसरी सबसे बड़ी पनबिजली क्षमता है। 1980 के दशक में अकाल की लंबी श्रृंखला, प्रतिकूल भू राजनीति और नागरिक युद्ध में न सिर्फ यहां सैकड़ों लोगों की जानें गई, बल्कि यह देश दुनिया की मुख्यधारा से एक तरह कट गया। पर इथियोपिया ने काफी कर्मठता के साथ अपने को इस जर्जर स्थिति से उबारा और आज इथियोपिया की अर्थव्यवस्था काफी तेजी से मजबूती की तरफ बढ़ रही है।
खुले में शौच करने के आदी
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के आंकड़े कहते हैं कि इंडोनेशिया, पाकिस्तान, इथियोपिया, नाइजीरिया, सूडान, नेपाल, चीन, बुर्किना फासो, मोजांबिक और कंबोडिया जैसे देशों में लाखों लोग खुले में शौच करने के आदी हैं। वैसे देशों की इस सूची में भारत का नाम भी शामिल है, पर 2014 के बाद से स्वच्छता जिस तरह भारत में सरकार और समाज दोनों का प्राइम एजेंडा बन गया है, उससे यहां हालात बहुत तेजी से बदले हैं।
स्वच्छता
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उप सहारा अफ्रीका में एक-चौथाई जनसंख्या खुले में शौच जाती है और वहां डायरिया एक बड़ी समस्या है
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युक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में करीब एक अरब जनसंख्या ऐसी है,
महिलाओं पर असर
डब्ल्यूएचओ और यूनिसेफ ने इस बारे में कई बार आगाह किया है कि महिलाओं की स्थिति में सुधार का कदम तब तक सार्थक नहीं हो सकता, जब तक उनके लिए स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच नहीं बढ़ती है। दरअसल, इस कमी या कोताही की वजह से औरतों को इसके कारण अपमान का सामना तो करना ही पड़ता है, उन्हें यौन शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। यूनिसेफ का ही एक आंकड़ा है जिसमें कहा गया कि तकरीबन 50 फीसदी बलात्कार के मामले तब होते हैं, जब औरतें मुंह अंधेरे शौच के लिए निकलती हैं। ऐसे दूसरे अध्ययन भी हुए हैं जिनमें कहा गया है कि जिन औरतों को घरों में शौचालयों की सुविधा नहीं मिलती, उनके यौन शोषण के शिकार होने की आशंका तब अधिक होती है जब वे पब्लिक वॉशरूम या खुले मैदान के लिए निकलती हैं।
स्वच्छता के क्षेत्र में प्रगति
यूनिसेफ ने इस बात पर चिंता जताई है कि दुनिया में
जिसके पास शौचालय की सुविधा नहीं है। उप सहारा अफ्रीका में एक चौथाई जनसंख्या खुले में शौच जाती है और वहां डायरिया एक बड़ी समस्या है और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का सबसे बड़ा कारण। दुनिया भर में हर ढाई मिनट में एक बच्चा इसीलिए मर जाता है क्योंकि या तो वह प्रदूषित पानी या फिर खराब सैनिटेशन से बीमार हो जाता है। महिलाओं को इसका सबसे बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है। खुले में शौच की प्रथा को जिस तेजी के साथ खत्म किया जाना चाहिए, वह अपेक्षित तौर पर नहीं दिख रहा है। अलबत्ता यह भी जान लेना दिलचस्प है कि इथियोपिया और नाइजीरिया जैसे देश स्वच्छता के क्षेत्र में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और इसकी सराहना विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ ने भी अपनी रिपोर्ट में की है। खासतौर पर बाकी अफ्रीकी मुल्कों के मुकाबले इथियोपिया में खुले में शौच की प्रथा तेजी से कम हो रही है। यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक साझा रिपोर्ट के मुताबिक इथियोपिया में 1990 में वहां शौचालय के अभाव में खुले में शौच के लिए जाने वालों की संख्या जहां 92 फीसदी थी, वहीं यह संख्या 2012 आते-आते 37 फीसदी रह गई। 2014 में आई इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि जनसंख्या और स्वच्छता को लेकर चुनौती को लेकर इथियोपिया में न सिर्फ पर्याप्त संख्या में स्वच्छताकर्मी काम कर रहे हैं, बल्कि पिछले 12 सालों में वहां स्वास्थ्य और उससे जुड़ी सेवाओं के लिए 38,000 कार्यकर्ता बहाल हुए हैं।
खासौतर पर लड़कियां स्कूल में खराब सैनिटेशन के कारण स्कूल जाना बंद कर देती हैं। संयुक्त राष्ट्र के उपमहासचिव यान एलियसन कहते हैं, ‘खराब सैनिटेशन के कारण लड़कियों का स्कूल छूट जाता है। खुले में शौच के कारण अक्सर महिलाओं और लड़कियां यौन हिंसा का शिकार हो जाती है। दुनिया भर में बेहतर सैनिटेशन महिला सुरक्षा, सम्मान और समानता में अहम भूमिका निभाता है।’
यूनिसेफ की नसीहत
इथियोपिया में कार्यरत यूनिसेफ के कार्यकारी प्रतिनिधि पैटरिजिया डॉयजियोवेनिया के मुताबिक यह मुल्क निस्संदेह स्वच्छता के क्षेत्र में अपेक्षा से तेज गति से बढ़ रहा है। पर वहां कुछ बड़ी चुनौतियां अभी भी हैं। मसलन, इथियोपिया के गांवों की दशा काफी खराब है। ग्रामीण इथियोपिया के कई इलाके विकास की मुख्यधारा से अब भी कटे हैं। यूनिसेफ ने अपनी तरफ से इस बात पर जोर दिया है कि स्थिति को देखते हुए इथियोपिया को टॉयलेट के सस्ते मॉडल को सामने लाना चाहिए। वहां तेजी से शहरीकरण की प्रक्रिया जरूर चल रही है, पर जरूरत इस बात कि है कि जो लोग अब भी सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे हैं, उन तक स्वच्छता के सस्ते विकल्प पहुंचे। यही नहीं ग्रामीण अंचलों में स्वास्थ्य सेवाओं के साथ स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था को सुनिश्चित करना इथियोपिया की प्राथमिकता होनी चाहिए।
इथियोपिया, नाइजीरिया और मोजांबिक
ऐसा नहीं है कि हालात सुधरे नहीं हैं, लेकिन सार्वजनिक शौचालयों या हर घर में शौचालय के अभियान अक्सर धन के अभाव के कारण अधूरे रह जाते हैं। हालांकि आज सिर्फ 10 देश ऐसे हैं जिनमें 80 फीसदी लोग खुले में शौच जाते हैं। इनमें से आधे भारत में हैं। इसके बाद इंडोनेशिया, नेपाल और चीन का नंबर आता है। अफ्रीका के नाइजीरिया में करीब 39 फीसदी लोग खुले में शौच जाने को मजबूर हैं। हालात इथियोपिया, नाइजीरिया और मोजांबिक में भी अच्छे नहीं हैं। एलियसन कहते हैं, ‘खुले में शौच की समस्या को पूरी तरह खत्म करना सिर्फ अच्छी संरचना से नहीं हो सकता है। इसके लिए व्यवहार, सांस्कृतिक और सामाजिक तौर तरीकों को समझना भी जरूरी है।’ बात करें अकेले इथियोपिया की तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2015 की स्वच्छता रैंकिंग में उसे 166वें स्थान पर रखा गया था और इस रैंकिंग में उसे 100 में से महज 28 अंक दिए गए थे। जाहिर है कॉफी और फुटबॉल के दीवाने इस देश को स्वच्छता के क्षेत्र में आगे काफी योजनागत कुशलता के साथ कार्य करना होगा।
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व्यक्तित्व
11 - 17 जून 2018
वंगारी मथाई
पर्यावरण के लोकतंत्र की चिंता
ग्रीन फॉरेस्ट आंदोलन के जरिए केन्या सहित पूरी अफ्रीका में हरियाली को लेकर जो ललक और जागरूकता वंगारी मथाई ने पैदा की, वह पर्यावरण की दृष्टि से तो अहम है ही, महिला सशक्तीकरण की भी एक तारीखी मिसाल है
खास बातें वंगारी मथाई ने 2004 में शांति का नोबेल पुरस्कार जीता मथाई ने 1977 में पर्यावरण के लिए अपनी मुहिम शुरू की पौधारोपण के लिए ग्रीन बेल्ट मूवमेंट की स्थापना की मथाई ने संघर्ष का प्रतीक बन गए। लोगों से कहा गया कि वे सत्ता के व्यापक दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और पर्यावरण के कुप्रबंधन के खिलाफ आवाज उठाएं।’
शांति के लिए पर्यावरण
पे
एसएसबी ब्यूरो
ड़ और प्रकृति को एक साथ देखने की नसीहत देने वाले तो कई मिलेंगे पर उसे जिस तरह वंगारी मथाई ने अपनी जिंदगी का मिशन बना लिया, वह काबिले तारीफ है। इसीलिए जब 25 सितंबर, 2011 को उनके निधन की खबर आई तो पूरी दुनिया ने उन्हें पेड़ और हरियाली से प्यार करने वाली प्रतिबद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में अपनी श्रद्धांजलि दी। 1940 में पैदा हुईं मथाई ने जब 1977 में पर्यावरण के लिए अपनी मुहिम शुरू की, वह तब से ही केन्या के अहम लोगों में शुमार रहीं। वह जीवन भर पर्यावरण संरक्षण और अच्छे प्रशासन पर जोर देती रहीं। उनके द्वारा स्थापित संस्था ग्रीन बेल्ट मूवमेंट ने पूरे अफ्रीका में करीब 4 करोड़ पेड़ लगाए हैं। 1980 के दशक में उन्होंने केन्या में रेड क्रॉस का नेतृत्व भी किया।
शांति का नोबेल
अपने कार्य के लिए मथाई ने 2004 में शांति का नोबेल पुरस्कार जीता। यह सम्मान उन्हें अपने देश केन्या में पर्यावरण के संरक्षण और फिर से जंगल
शांति के लिए पर्यावरण बहुत महत्वपूर्ण है। जब हम अपने संसाधनों को नष्ट करते हैं और हमारे संसाधन सीमित हो जाते हैं तो उनके लिए हम लड़ाइयां लड़ते हैं - वंगारी मथाई लगाने के लिए दिया गया। इसके अलावा मथाई को 2002 में संसद सदस्य भी चुना गया और वह सहायक पर्यावरण मंत्री बनाई गईं। वह 2003 से 2005 तक इस पद पर रहीं। केन्या के बाहर मथाई मध्य अफ्रीका के कांगो बेसिन फोरेस्ट को बचाने की कोशिशों में भी शामिल रहीं। यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उष्ण कटिबंधीय वन है। उनके निधन पर ग्रीन बेल्ट ने कहा, ‘जो लोग उन्हें जानते हैं, उनके लिए मथाई का जाना एक बहुत बड़ी क्षति है। वह एक मां, संबंधी, साथी, सहकर्मी, आदर्श और नायिका थीं। वह दुनिया के शांतिपूर्ण, स्वस्थ और एक बेहतर जगह बनाना चाहती थीं।’
पौधों से लोकतंत्र का संघर्ष
मथाई ने 2004 में नोबेल शांति पुस्कार लेते हुए
अपने भाषण में कहा कि उन्हें अपने काम के लिए प्रेरणा केन्या के ग्रामीण इलाके में बिताए अपने बचपन के अनुभवों से मिली। वह देखती थीं कि जंगलों को काटा जा रहा है और उनकी जगह मुनाफा देने वाले पौधे लगाए जा रहे हैं, जिससे जैव विविधता नष्ट हो गई और पानी को संरक्षित रखने की जंगल की क्षमता खत्म होती चली गई।
लोकतांत्रिक संघर्ष का प्रतीक
मथाई ने कहा कि वैसे तो ग्रीन बेल्ट मूवमेंट की पौधारोपण मुहिम ने शुरुआती तौर पर शांति और लोकतंत्र के मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन वक्त के साथ यह साफ हो गया कि पर्यावरण का जिम्मेदार शासन लोकतंत्र के बिना संभव नहीं। उनके ही शब्दों में, ‘इसीलिए पेड़ केन्या में लोकतांत्रिक
जब 2004 को उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार मिला तो यह अफ्रीकी इतिहास के लिए एक बड़ी घटना थी, क्योंकि पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली मथाई यह पुरस्कार पाने वाली पहली अफ्रीकी महिला थीं। मथाई के सम्मान में नोबल चयन समिति ने कहा, ‘पहली बार पर्यावरण ने नोबेल शांति पुरस्कार का एजेंडा तय किया है। हमने शांति में एक नया आयाम जोड़ा है।’ नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुने जाने के बाद वंगारी मथाई ने नॉर्वे टेलीविजन पर कहा, ‘शांति के लिए पर्यावरण बहुत महत्वपूर्ण है। जब हम अपने संसाधनों को नष्ट करते हैं और हमारे संसाधन सीमित हो जाते हैं तो उनके लिए हम लड़ाइयां लड़ते हैं।’
पर्यावरण को लेकर नई समझ
कहने की जरूरत नहीं कि मथाई ने अपने कार्य और विचार के जरिए दुनिया के आगे एक बार फिर से यह रेखांकित किया कि शांति के लिए पर्यावरण बहुत महत्वपूर्ण है। जब हम अपने संसाधनों को नष्ट करते हैं और हमारे संसाधन सीमित हो जाते हैं तो उनके लिए हम लड़ाइयां लड़ते हैं। स्वास्थ्य और प्रदूषण चिंता से आगे यह प्रकृति और पर्यावरण को लेकर एक नई और प्रासंगिक समझ थी। इस नई समझ में दो बातें अहम हैं। पहली, प्रकृति के साथ सहअस्तित्व को विकासवादी तकाजे में शुमार करना और दूसरा यह कि विश्व शांति का लक्ष्य तभी पूरा होगा, जब विश्व हराभरा होगा।
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केन्या का गर्व
मथाई को जब नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया तो केन्या सरकार के प्रवक्ता अल्फेड मुतुआ ने कहा कि यह केन्या के इतिहास का एक महान दिन है। गौरतलब है कि जिस वर्ष मथाई को यह पुरस्कार मिला, उस वर्ष, उनके साथ इसे पाने के लिए नामांकित 194 लोगों और संगठनों की सूची में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग, संयुक्त राष्ट्र के पूर्व हथियार निरीक्षक हांस ब्लिक्स के साथ अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और ब्रितानी प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की जोड़ी के भी नाम थे।
पेशे से पशु चिकित्सक
माथई पेशे से एक पशु चिकित्सक सह प्रोफेसर थीं। केन्या में 1980-90 के दौर में जंगलों को साफ करने के सरकार समर्थित अभियान के खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई जिससे उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली। केन्या में राष्ट्रपति डेनियल अरेप मॉई की सरकार के दौरान वे कई बार जेल गईं और उन पर कई तरह के गंभीर आरोप भी लगाए गए। जब माथई को नोबेल पुरस्कार दिया गया गया तब उन्होंने ये उम्मीद जताई थी कि उनकी सफलता से समाज में रह रही महिलाओं को सक्रिय भूमिका निभाने की प्रेरणा मिलेगी।
प्रेरक जीवन सफर
मशहूर लेखिका निकोला रिज्सडिक ने बच्चों के लिए वंगारी मथाई की जो जीवनी लिखी है, वह बालोपयोगी पुस्तकों की श्रेणी में आज भी काफी प्रसिद्ध है। निकोला के शब्दों में, ‘पूर्वी अफ्रीका में केन्या पर्वत के ढलानों पर स्थित एक गांव में, एक छोटी लड़की अपनी मां के साथ खेतों में काम करती थी। उसका नाम था वंगारी। वंगारी को घर के बाहर बहुत अच्छा लगता था। अपने घर के बगीचे में उसने कुदाल से जमीन खोदा। वहां पर छोटे बीज बोए। उसका पसंदीदा समय सूरज डूबने के बाद होता था। जब अंधेरा हो जाता और पौधे दिखने बंद हो जाते तो वंगारी समझ जाती कि अब घर जाने का समय है। वह संकरे रास्ते का प्रयोग करती। वह खेतों से होते हुए, नदियों को पार करते हुए संकरे रास्तों से होकर जाती।’
अध्ययन से काफी सीखा
वंगारी एक होशियार बच्ची थी, वह स्कूल जाना चाहती थी। लेकिन उसकी मां और पिता चाहते थे कि वह घर पर रहकर उनकी मदद करे। जब वह सात साल की थी, तो उसके बड़े भाई ने अपने माता-पिता को मनाया कि वह वांगारी को स्कूल जाने दें। वंगारी सीखना चाहती थी। वंगारी ने पढ़ी गई हर पुस्तक से अधिक से अधिक सीखा। उसने स्कूल में इतना अच्छा किया कि उसे संयुक्त राज्य अमेरिका में पढ़ने के लिए आमंत्रित किया गया। वंगारी उत्साहित थी, वह दुनिया के बारे में अधिक जानना चाहती थी। अमेरिकी विश्वविद्यालय में वंगारी ने कई नई चीजें सीखीं। उसने पौधों का अध्ययन किया समझा कि वे कैसे विकसित होते हैं। उसे याद आने लगा कि वह सुंदर केन्याई जंगलों
मथाई ने 2004 में नोबेल शांति पुस्कार लेते हुए अपने भाषण में कहा कि उन्हें अपने काम के लिए प्रेरणा केन्या के ग्रामीण इलाके में बिताए अपने बचपन के अनुभवों से मिली में पेड़ों की छाया में अपने भाइयों के साथ खेलते हुए बड़ी हुई थी।
केन्या के प्रति प्यार
जितना अधिक उसने सीखा, उतना ही उसने महसूस किया कि वह केन्या के लोगों से प्यार करती है। वह चाहती थी कि केन्यावासी खुश और स्वतंत्र रहें। जितना ज्यादा उसने सीखा, उतना ज्यादा उसने अपने अफ्रीकी घर को याद किया। जब उसने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली तो वह केन्या लौट आई। लेकिन उसका देश बदल चुका था। देश भर में जंगल की जगह विशाल खेत फैल चुके थे। औरतों के पास जलाने के लिए कोई लकड़ी नहीं थी। इससे वे खाना नहीं पका सकती थीं।
महिला जागरुकता और पेड़
निकोला ने मथाई की जो जीवनी लिखी है, उसके मुताबिक, ‘केन्या में लोग गरीब थे और बच्चे भूखे। वंगारी जानती थी उसे क्या करना है। उसने औरतों को बीज बोकर पेड़ उगाना सिखाया। महिलाओं
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व्यक्तित्व वंगारी का सफरनामा
जन्म : 1 अप्रैल, 1940 निधन : 25 सितंबर 2011
शिक्षा
1971 : पीएचडी (यूनिवर्सिटी ऑफ नैरोबी) 1966 : एम.एस, बॉयोलॉजिकल साइंसेज (यूनिवर्सिटी ऑफ पिट्सबर्ग, अमेरिका) 1964 : बी.एस, बॉयोलॉजी (माउंट सेंट स्कोलिस्टिका कॉलेज, अमेरिका)
प्रसिद्धि
केन्या में ग्रीन बेल्ट आंदोलन की संस्थापक और महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली प्रसिद्ध केन्याई राजनितिज्ञ और समाजसेवी
सार्वजनिक सेवा
2002 में सांसद बनीं और केन्या की सरकार में मंत्री भी रहीं
प्रमुख सम्मान
2010 : अर्थ हॉल ऑफ फेम, जापान 2009 : द ऑर्डर ऑफ राइजिंग सन, जापान 2006 : इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय सम्मान, भारत 2006 : केन्या के मानवाधिकार आयोग द्वारा लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड 2006 : डिज्नी वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन फंड अवार्ड, अमेरिका 2007 : अंतरराष्ट्रीय सद्भावना के लिए जवाहरलाल नेहरू पुरस्कार, भारत 2005 : प्रतिष्ठित ‘टाइम’ मैगजीन द्वारा विश्व के 100 सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल 2004 : नोबेल शांति पुरस्कार। नोबेल पुरस्कार पाने वाली पहली अफ्रीकी महिला 2004 : कंजर्वेशन साइंटिस्ट अवार्ड, कोलंबिया यूनिवर्सिटी, अमेरिका 1997 : ‘अर्थ टाइम्स’ द्वारा प्रयावरण के क्षेत्र में युगांतकारी कार्य करने वाले विश्व के 100 प्रमुख लोगों की सूची में शामिल 1994 : द ऑर्डर ऑफ गोल्डन आर्क अवार्ड, नीदरलैंड्स 1991 : गोल्डमैन फाउंडेशन द्वारा द गोल्डमैन इन्वॉयरमेंटल प्राइज, अमेरिका 1989 : वीमेन ऑफ द वर्ल्ड अवार्ड, वीमेन एड, यूनाइटेड किंग्डम
ने पेड़ों को बेचा और पैसा कमा कर परिवार की देखभाल की। औरतें बहुत खुश थी। वंगारी ने उन्हें शक्तिशाली और मजबूत महसूस करने में मदद की थी। जैसे-जैसे समय बीता। नए पेड़ों से जंगलों बने और नदियां फिर से बहने लगीं। वंगारी का संदेश पूरे अफ्रीका में फैल गया। आज, लाखों वृक्ष वंगारी के बीजों से तैयार हुए हैं।’
मथाई का निधन
नोबेल शांति पुरस्कार पाने वाली अफ्रीका की पहली महिला वंगारी मथाई का 71 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वह लंबे समय से कैंसर से पीड़ित थीं। उनकी मौत कैंसर से हुई। उनके निधन पर ग्रीन बेल्ट मूवमेंट ने एक वक्तव्य में कहा, ‘प्रोफेसर माथई की बेवक्त मौत एक बड़ी क्षति है। वे हमारे लिए एक मां, रिश्तेदार, सहायक, रोल मॉडल और हीरोइन थी, जो दुनिया को शांतिपूर्ण, स्वस्थ और बेहतर जगह बनाना चाहती थीं। हम इसकी सराहना करते हैं।’
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पर्यावरण
11 - 17 जून 2018
विश्व रेगिस्तान तथा सूखा रोकथाम दिवस (17 जून) पर विशेष
रेगिस्तान का विस्तार अब सागर तक मनुष्य को पर्यावरण के जिस खतरे का मोल सबसे ज्यादा चुकाना पड़ सकता है वह है उपजाऊ भूमि का रेगिस्तान में बदलना
खास बातें ग्लोबल वार्मिंग से समुद्र में निर्जीव क्षेत्र यानी रेगिस्तान बनने लगे हैं मशहूर सहारा रेगिस्तान भी कभी हराभरा क्षेत्र हुआ करता था उष्ण कटिबंधीय जंगल हर वर्ष दो करोड़ हेक्टेयर कम हो रहे हैं
रे
सुमित श्रीवास्तव
गिस्तान के बढ़ते दायरे के साथ इस खतरे ने एक ऐसी शक्ल अख्तियार कर ली है, जिसका विस्तार समुद्र तक हो चुका है। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण नुकसान सिर्फ जमीन पर ही नहीं, बल्कि महासागरों पर भी होने लगा है। हवाई यूनिवर्सिटी और अमेरिका के नेशनल मरीन फिशरीज सर्विस द्वारा समुद्री पारिस्थिकीय तंत्र पर प्रकाशित एक रिपोर्ट से पता चला है कि अब समुद्र में भी 'रेगिस्तान' बनने लगे हैं। हालांकि यह सुनने में बड़ा अजीब लगता है क्योंकि रेगिस्तान में तो पानी होता ही नहीं, जबकि इन समुद्री रेगिस्तानों में पानी तो भरपूर है, लेकिन समुद्री जीवन के लिए जरूरी ऑक्सीजन गायब हो रही है।
‘ओशियन डेजर्ट जोन’
इस रिपोर्ट के मुताबिक उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र के समुद्रों में पिछले पांच दशकों से लगातार ऐसे क्षेत्र बनते जा रहे हैं जहां पानी में से ऑक्सीजन गायब हो रही है। नतीजन अब समुद्र में भी निर्जीव रेगिस्तान बनने शुरू हो गए हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक समुद्री जल में जलीय जीव-जंतुओं और पादपों के लिए एक निश्चित मात्रा में ऑक्सीजन तथा कुछ तत्वों का होना बेहद जरूरी है, लेकिन ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण गरमाते समुद्री पानी से यह विशेषता खत्म हो रही है जो समुद्री पारिस्थतिकी तंत्र के लिए गंभीर
विश्व में कुल भूमि 33 अरब 12 करोड़ 60 लाख एकड़ है और कृषियोग्य भूमि 3 अरब 70 लाख एकड़ खतरा बन गया है। वैज्ञानिकों ने कम ऑक्सीजन या न्यूनतम ऑक्सीजन वाले समुद्री क्षेत्र को ‘ओशियन डेजर्ट जोन’ या ‘समुद्री रेगिस्तान’ का नाम दिया है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बढ़ती मानव गतिविधियों के कारण भी समुद्रों की सतह गरम होने से इसके पानी में ऑक्सीजन घुलने की क्षमता कम होती जा रही है जिससे यहां भी निर्जीव क्षेत्र यानी रेगिस्तान बनने लगे हैं। पिछले 30 सालों में भूमध्य रेखा में उप उष्णकटिबंधीय जलधाराओं के आसपास और पूरी धरती के महासागरों का लगभग 51 मिलियन वर्ग किलोमीटर समुद्री क्षेत्र निर्जीव हो गया है। इसे ही समुद्री रेगिस्तान के नाम से पुकारा जा रहा है। वैज्ञानिक इस बात से भी खासे चिंतित हैं कि समुद्री रेगिस्तान बढ़ने की यह रफ्तार उनके अनुमान से भी कहीं ज्यादा तेज साबित हुई है।
समुद्री सतह में इजाफा
समुद्र का अध्ययन करने के लिए रिमोट सेंसिंग के जरिए पानी के तापमान को विविध रंगों से आंका जाता है। इस रिमोट सेंसर्ड कलर डाटा का उपयोग समुद्री पानी में ऑक्सीजन, क्लोरोफिल व अन्य घटकों की मात्रा मापने के लिए किया जाता है। गौरतलब है कि पानी में क्लोरोफिल की मात्रा में
होने वाली कमी या वृद्धि समुद्री जीवन को बेहद नुकसान पहुंचा सकती है। यह आंकड़े दोनों गोलार्धों के उत्तरी और दक्षिणी प्रशांत महासागर, उत्तरी और दक्षिणी अटलांटिक महासागर तथा भूमध्य रेखा के बाहर से लिए गए हैं, जिनसे पता चलता है कि समुद्री पानी के तापमान में होने वाले बदलाव से कम क्लोरोफिल वाली समुद्री सतह में हर साल औसतन 0.8 से 4.3 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। एक अनुमान के मुताबिक इन सभी महासागरों में कम क्लोरोफिल वाली समुद्री सतह में वर्ष 1998 से लेकर वर्ष 2006 में 15 प्रतिशत या 6.6 मिलियन वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज की गई है। इसके अलावा आंकड़ो से यह भी पता चलता है कि पिछले नौ साल में समुद्री सतह के औसत तापमान में भी बढ़त देखी गई है, जो समुद्री पारिस्थिकीय तंत्र पर विपरीत असर डाल रही है। उष्ण कटिबंधीय समुद्र के छिछले पानी को असंख्य जीवों का स्वर्ग कहा जाता है पर तापमान में होते इन बदलावों के कारण प्रवाल, शैवाल तथा अन्य नाजुक प्रजातियों पर लुप्त हो जाने का खतरा बना हुआ है।
कम होती उपजाऊ भूमि
समुद्र के अलावा दुनिया के सामने पहले से एक
बड़ा संकट उपजाऊ भूमि के लगातार रेगिस्तान में बदलने को लेकर है। धरती के रेगिस्तान में बदलने की प्रक्रिया बड़े पैमाने पर चीन, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, भूमध्यसागर के अधिसंख्य देशों तथा पश्चिम एशिया, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के सभी देशों सहित भारत में भी जारी है। इतिहास गवाह है कि दुनिया के हर साम्राज्य का अंत उसके रेगिस्तान में बदल जाने के कारण ही हुआ है। सहारा दुनिया का आज सबसे बड़ा रेगिस्तान है। लेकिन लगभग पांच हजार से ग्यारह हजार साल पहले यह पूरा इलाका हरा-भरा था। आज के मुकाबले तब यहां दस गुना अधिक बारिश होती थी। यह बात एक नए अध्ययन में सामने आई है। सहारा रेगिस्तान में उस समय शिकारी रहा करते थे। ये शिकारी जीवनयापन के लिए इलाके में पाए जाने वाले जानवरों का शिकार करते थे और यहां उगने वाले पेड़-पौधों पर आश्रित थे। इस शोध में पिछले छह हजार सालों के दौरान सहारा में बारिश के प्रतिमानों और समुद्र की तलहटी का अध्ययन किया गया है।
सहारा कभी था हरा-भरा
यूनिवर्सिटी ऑफ अरिजोना की जेसिका टी इस अध्ययन की मुख्य शोधकर्ता हैं। उन्होंने कहा, 'आज की तुलना में सहारा मरुस्थल कई गुना ज्यादा गीला था।' अब सहारा में सालाना 4 इंच से 6 इंच तक बारिश होती है। इससे पहले हुए कुछ शोधों में हालांकि 'ग्रीन सहारा काल' के बारे में पता लगाया जा चुका था, लेकिन यह पहला मौका है कि इस पूरे इलाके में पिछले पच्चीस हजार सालों के दौरान होने वाली बारिश का रिकॉर्ड खोजा गया है। आज के मोरक्को, ट्यूनीशिया और अलजीरिया के वृक्षहीन सूखे प्रदेश किसी समय रोमन साम्राज्य के गेहूं उत्पन्न करने वाले प्रदेश थे। इटली और
11 - 17 जून 2018 सिलिका का भयंकर धरती-कटाव उसी साम्राज्य का दूसरा फल है। मेसोपोटेमिया, सीरिया, फिलस्तीन और अरब के कुछ भागों में मौजूदा सूखे वीरान भूभाग, बेबीलोन, सुमेरिया, अक्काडिया और असीरिया के महान साम्राज्यों के स्थान थे। किसी समय ईरान एक बड़ा साम्राज्य था। आज उसका अधिकांश भाग रेगिस्तान है। सिकंदर के अधीन यूनान एक साम्राज्य था। अब उसकी अधिकांश धरती बंजर है। तैमूरलंग के साम्राज्य की धरती पर उसके जमाने में जितनी पैदावार होती थी उसका अब एक छोटा-सा हिस्सा ही उर्वर है। ब्रिटिश, फ्रेंच और डच इन आधुनिक साम्राज्यों ने अभी तक मरुभूमियां उत्पन्न नहीं की हैं। पर एशिया, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और उत्तरी अमेरिका की धरती का सत चूसने में और खनिज संसाधनों का अपहरण करने में इन साम्राज्यों का बड़ा हाथ रहा है। केन्या, युगांडा और इथियोपिया में इमारती लकड़ी की कटाई से नील नदी का विशाल और समान प्रवाह जल्दी ही नष्ट हो सकता है।
जंगल की कटाई
पूरी दुनिया में उष्ण कटिबंधीय जंगल दो करोड़ हेक्टेयर हर साल की रफ्तार से कट रहे हैं। यह सिलसिला जारी रहा तो अगले बीस-पच्चीस सालों में सभी उष्णकटिबंधीय जंगल खत्म हो जाएंगे। यदि ऐसा हुआ, जिसकी आशंका है, तो पूरी दुनिया के सामने खाद्यान्न, जल और आक्सीजन का संकट इतना गहरा जाएगा कि वह धरती पर जीवन के अस्तित्व का संकट बन जाएगा।
खाद्य सुरक्षा व जलवायु परिवर्तन
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुमानों के अनुसार, 2009 में विश्व में प्रतिदिन भूखे रहने वाले लोगों की संख्या 1.02 अरब की ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गई, जो कि विश्व की संपूर्ण जनसंख्या का छठा भाग है। पिछले एक वर्ष में इसमें दस करोड़ की वृद्धि हुई है। संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव बान की मून ने खाद्य सुरक्षा एवं जलवायु परिवर्तन को वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी समस्या बताते हुए उन्हें परस्पर अंतरसंबंधित बताया। मून के अनुसार, 'विश्व में आवश्यकता से अधिक भोजन
मा
पर्यावरण
रेगिस्तान और सूखे से निपटने की जरूरत
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बढ़ते रेगिस्तान के खतरे से निपटने के लिए पेड़ और पानी दोनों की हिफाजत करनी होगी
नवीय गतिविधियां प्राणी जगत को न केवल वनों से वंचित कर रही हैं, बल्कि रेगिस्तान का दायरा भी बढ़ता जा रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञ इसे हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं, जो मानवीय जनजीवन से लेकर पर्यावरण तक को प्रभावित कर रही है। पर्यावरण विशेषज्ञ और प्रसिद्ध जल कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह कहते हैं कि वनों की अंधाधुंध कटाई पूरी पारिस्थितिकी को बदल रही है। ग्रीन हाउस गैसों के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए पेड़ लगाने और वनों की कटाई रोकने की जरूरत है। ये पेड़ ही कार्बन डाइऑक्साइड के सबसे बड़े अवशोषक हैं। पर्यावरण मामलों में खासी पकड़ रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और पूर्व आईएएस अधिकारी हर्ष मंदर कहते हैं वनों की कटाई रोकने और वन क्षेत्र का दायरा बढ़ाने में आदिवासी वर्ग की मदद ली जानी चाहिए जो वनों को अपना जीवन मानता है। इनके पास वन संरक्षण के है। इसके बावजूद एक अरब से ज्यादा लोग भूखे रहते हैं। 2050 तक विश्व की आबादी नौ अरब से ज्यादा हो जाएगी, अर्थात आज से दो अरब ज्यादा। प्रत्येक वर्ष साठ लाख बच्चे भुखमरी के शिकार होते हैं, खाद्य सुरक्षा जलवायु सुरक्षा के बिना संभव नहीं है।' जितनी तेजी से मानव जाति के मन, हृदय और आदतें बदल रही हैं, उतनी ही तेजी से या उससे भी ज्यादा तेजी से होने वाले धरती कटाव के कारण हमारे अन्न उत्पादन के साधन नष्ट हो रहे हैं। खाद्य पदार्थों की इस सतत बढ़ रही कमी के साथ-साथ (क्योंकि धरती कटाव का परिणाम यही
कुदरती उपाय होते हैं। राष्ट्रपति भवन के प्रसिद्ध मुगल गार्डन में औषधीय पौधों की नक्षत्र वाटिका लगाने वाले राधेकृष्ण मानते हैं कि जब पेड़ों को मनुष्य अपने परिवार का हिस्सा मानेगा तब जाकर ही उसके मन में उनके लिए ऐसा लगाव पैदा होगा जो पेड़ों की कटाई रोकेगा। जंगलों की समाप्ति का मतलब है मानव जीवन का अंत। राजेंद्र सिंह का कहना है कि वन क्षेत्र बढ़ाने का सबसे अच्छा उपाय है रेगिस्तान में वन लगाना। इसके लिए जल संकट बाधक नहीं होता। जोहड़ों ने राजस्थान के कई रेतीले इलाकों को हरा भरा
बनाया है। यह प्रयोग देश के अन्य क्षेत्रों में भी कारगर साबित हो सकता है। हर्ष मंदर राजेंद्र सिंह की बात से सहमति जताते हैं। वह कहते हैं वर्षा जल संचयन का सबसे अच्छा तरीका सूखी जमीन में पेड़ लगाना है। पेड़ों की जड़ें मिट्टी और जल के कणों को बांधती हैं। जड़ों में पाए जाने वाले तत्व मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। सरकार को वन क्षेत्र बढ़ाने के लिए एक विशेष कार्यक्रम चलाना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं कि वनों की कटाई और सूखा क्षेत्र में वृद्धि हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। यह चुनौती लगातार बढ़ रही है। वर्ष 1995 से हर साल 17 जून को ‘विश्व वर्षा जल संचयन का सबसे रेगिस्तान तथा सूखा रोकथाम दिवस’ मनाया जाता है। इस अच्छा तरीका सूखी जमीन दिन मानव जीवन के अस्तित्व में पेड़ लगाना है। पेड़ों की को चुनौती दे रही इस समस्या जड़ें मिट्टी और जल के से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निपटने कणों को बांधती हैं के लिए विचार विमर्श और योजनागत समाधानों पर विचार - हर्ष मंदर किया जाता है।
होता है) संसार की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। पिछले ढाई सौ वर्षो में इसकी गति और भी बढ़ गई है। 'हमारी लुटी हुई पृथ्वी' (अवर प्लन्डर्ड प्लेनेट) नामक अपनी पुस्तक में फेयरफील्ड ऑस्बर्न यह अनुमान लगाते हैं कि सारे जगत में 4 अरब एकड़ से अधिक खेती के लायक जमीन नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की खुराक और खेती संबंधी संस्था ने अपनी मासिक पत्रिका में यह अनुमान लगाया है कि संसार में कुल भूमि 33 अरब 12 करोड़ 60 लाख एकड़ है और कृषियोग्य भूमि 3 अरब 70 लाख एकड़ है। कार्नेल विश्वविद्यालय के पियरर्सन और हेईज ने 'संसार की भूख' (दि वल्र्ड हंगर) नामक अपने ग्रंथ में कुल भूमि के क्षेत्रफल का अंदाज 35 अरब 70 करोड़ एकड़ लगाया है। उन्होंने यह भी अनुमान लगाया है कि इस सारे क्षेत्रफल की 43 प्रतिशत भूमि में ही फसल उगाने के लिए पर्याप्त वर्षा होती है। उन्होंने वार्षिक 40 सेमी वर्षा ही पकड़ी है, जो काफी नहीं मानी जा सकती। इस सारी जमीन के 34 प्रतिशत भाग में ही इतनी वर्षा होती है जो पर्याप्त है। उनका यह विश्वास है कि 32 प्रतिशत जमीन पर ही फसल उगाने के लिए पर्याप्त वर्षा, विश्वस्त वर्षा और पर्याप्त गर्मी पड़ती है। केवल 7 प्रतिशत भाग पर ही भरोसे के लायक वर्षा होती है, पर्याप्त गर्मी पड़ती है, वह लगभग बराबर सतह वाला है और उसकी मिट्टी उपजाऊ है। 35 अरब 70 करोड़ एकड़ का 7 प्रतिशत भाग 2 अरब 49 करोड़ 90 लाख एकड़ कृषियोग्य जमीन के बराबर होता है। जलवायु परिवर्तन रोकने के साथ-साथ धरती के कटाव को भी रोकने के ठोस उपाय किए जाने
चाहिए। इस प्रकार संसार भर में 2 अरब 50 करोड़ और 3 अरब 70 करोड़ एकड़ के बीच ऐसी भूमि है जो मनुष्य के लिए खाद्यान्न पैदा कर सकती है। मनुष्य जलवायु या भूगोल को नहीं बदल सकता।
रोटी और आबादी
विशेषज्ञों ने काफी सोच-विचार के बाद यह राय प्रकट की है कि किसी भी उपाय से इससे अधिक जमीन को खेती के लायक बनाना संभव नहीं है और कुल मिलाकर खेती की पैदावार की वृद्धि उतनी नहीं हो सकेगी जितनी दुनिया की जनसंख्या के बढ़ने की संभावना है। खेती की दस से पंद्रह प्रतिशत जमीन का उपयोग पटसन और तंबाकू वगैरह की पैदावार के लिए किया जाता है। इसीलिए खाद्य पदार्थों के लिए उपरोक्त आंकड़ो द्वारा बताई गई जमीन से वास्तव में कम ही जमीन उपलब्ध है। इन आंकड़ो से स्पष्ट होता है कि अगर सारी जमीन संसार के तमाम लोगों में समान रूप से न्यायपूर्वक बांट दी जाए, व्यापार-वाणिज्य पूरी तरह आदर्श बन जाएं और खाद्यान्न लाने-ले जाने के लिए ढुलाई का खर्च और भाव के प्रतिबंध न हो और अगर सारी दुनिया शाकाहारी बन जाय, तो भी संसार के सारे लोगों को मुश्किल से खाना मिलेगा। यह समस्या बहुत पेचीदा है। इससे निपटने के लिए बहुत कुछ करना होगा। पर इतना साफ है कि भुखमरी मिटाने और खाद्य सुरक्षा के लिए कृषियोग्य भूमि को बचाने और कृषिभूमि की उर्वरता का संरक्षण करने, जहां यह उर्वरता क्षीण पड़ गई हो वहां उसे बहाल करने का तकाजा सर्वोपरि है।
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मिसाल
11 - 17 जून 2018
डीजीपी बने शिक्षक
असम के एक स्कूल में दो वर्षों से गणित के शिक्षक का रिक्त पद पूर्व डीजीपी मुकेश सहाय ने भरा
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सम के पूर्व डीजीपी मुकेश सहाय आजकल चर्चा का केंद्र बने हुए हैं। यह चर्चा उनके एक अच्छे काम के लिए हो रही है। हाल ही में रिटायर हुए मुकेश सहाय अब स्कूल में शिक्षक बन गए हैं। वह एक ऐसे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, जहां दो साल से गणित का कोई शिक्षक नहीं था। गुवाहाटी के सरकार द्वारा संचालित सोनाराम हायर सेकंडरी स्कूल में दो साल से कोई गणित का शिक्षक नहीं था। यहां के छात्रों को गणित पढ़ने के लिए प्राइवेट शिक्षकों का सहारा लेना पड़ता था। जो गरीब छात्र होते उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी होती, लेकिन अब इन छात्रों की सारी परेशानी दूर हो रही है। मुकेश सहाय जब असम के डीजीपी थे, तब वह सोनाराम स्कूल में मुख्य अतिथि बनकर गए थे। कार्यक्रम में सम्मानित होने के दौरान उन्हें पता चला कि स्कूल में दो साल से कोई भी गणित का शिक्षक नहीं है। छात्रों को बहुत परेशानी हो रही है। मुकेश सहाय ने बताया कि छात्रों की
परेशानी पता चलने के बाद भी वह कुछ करने की स्थिति में नहीं थे। उनके पास पूरे प्रदेश की कानून- व्यवस्था का जिम्मा था, इसीलिए वह खुद वहां समय नहीं दे सकते थे। उनके दिमाग में चिंता थी पर वह असहाय थे। मुकेश सहाय ने बताया कि उनके दिमाग में यह बात घर कर गई थी। 30 अप्रैल को वह रिटायर हुए, उसी दिन घर आकर उन्होंने स्कूल के प्रिंसिपल से फोन पर बात की और पूछा कि उन्हें कोई गणित का शिक्षक मिला या नहीं। प्रिंसिपल ने उन्हें बताया कि अभी तक स्कूल में 12वीं कक्षा के बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक नहीं मिला है। उन्होंने प्रिंसिपल से कहा कि कल से वह स्कूल में गणित पढ़ाने आएंगे। मुकेश सहाय जब कक्षा में पढ़ाने जाते हैं तो वह पढ़ाने में इतना खो जाते हैं कि उन्हें समय का ख्याल ही नहीं रहता है। सामान्यतया 40 मिनट का पीरियड एक घंटे से दो घंटे के बीच चलता है। इस बीच उनके छात्रों को भी समय का आभास नहीं होता है। उन्हें अपने नए गणित टीचर का पढ़ाने का तरीका इतना पसंद है कि वे क्लास में जरा भी नहीं ऊबते। मुकेश सहाय ने बताया कि उनका जन्म बिहार के छपरा में हुआ था, लेकिन वह पटना में पलेबढ़े। उन्होंने गणित और सांख्यिकी के साथ भौतिकी से परास्नातक किया। 1984 में उनका चयन आईपीएस में हो गया। 1990 में जब वह सीबीआई में थे, तब उन्होंने कानून की भी पढ़ाई की। (एजेंसी)
पीएफ की रकम से बनाया पुल
बांस के बने पुल से गिर कर एक बच्ची की मौत से आहत संतू प्रसाद ने अपनी जमा पूंजी से स्थाई पुल बनवाया
त्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के संतू प्रसाद ने जब बांस-बल्ली का अस्थाई पुल टूटने से नाले में गिरी बच्ची की मौत देखी तो वह विचलित हो गए। उन्होंने इस अस्थाई पुल की जगह स्थाई पुल बनाने की ठानी। अपने रिटायरमेंट में बाद मिली पीएफ की रकम से तीन लाख रुपए खर्चकर ग्रामीणों के श्रमदान से उन्होंने 70 फीट लंबा स्थाई पुल बना डाला। इस पुल के बन जाने से पांच किलोमीटर की दूरी एक किलोमीटर में सिमट गई। कुशीनगर जिले के कप्तानगंज ब्लॉक क्षेत्र के ग्राम भड़सर खास के माफी टोला से गुजरने वाले मौन नाले पर पहले बांस का अस्थायी पुल था। इससे गुजरना जोखिम भरा काम था। जुलाई 2013 में यह पुल अचानक टूट गया जिससे एक बच्ची नाले में जा गिरी और उसकी मौत हो गई। उन्हीं दिनों संतू रेलवे पैटमैन की नौकरी से रिटायर होकर गांव लौटे थे। इस हादसे ने उन्हें विचलित कर दिया। उन्होंने बताया कि उन्हें रिटायरमेंट के बाद पीएफ के 13 लाख रुपए मिले
थे। पेंशन 15,500 रुपए बनी। बच्ची की मौत से उन्हें बहुत दुख हुआ। उन्होंने सोचा कि यहां पुल बनना चाहिए। भले ही जीवनभर की पूंजी लग जाए। संतू प्रसाद ने पुल बनाने का बीड़ा उठाया। पीएफ के रुपए में से 10 लाख रुपए वह बेटों को दे चुके थे। बाकी तीन लाख रुपए से उन्होंने काम शुरू कराया। पांच पायों वाले पक्के पुल का निर्माण देख गांव के कई लोग साथ आए। किसी ने सीमेंट दी तो किसी ने लोहा। संतू के साथ तमाम लोगों ने श्रमदान भी किया। आखिर में पैदल और साइकिल-बाइक चलने लायक पुल बन गया। डेढ़ बीघा जमीन के मालिक संतू की इस पहल से 12 गांवों के लोगों को राहत मिली है। इनमें सोमली, पेमली, बरवां, जमुनी, नारायन भड़सर, भड़सर के 14 टोलों समेत अन्य गांव शामिल हैं। करीब दस हजार लोगों की कप्तानगंज ब्लॉक मुख्यालय से दूरी अब पांच किलोमीटर से घटकर एक किलोमीटर रह गई है। कई दशक से इस जगह बांस का पुल था। टोले के लोग समय-समय पर मरम्मत करके इसे चलने लायक बनाए रखते थे। कई सांसदोंविधायकों तक ग्रामीणों ने फरियाद की पर सुनवाई नहीं हुई। राजनीतिक लोगों से उन्हें बस आश्वासन मिलते रहे। संतू रोज पुल पर जाते हैं। कोई टूट-फूट दिखे तो खुद ठीक करते हैं। क्षेत्रीय विधायक रामानंद बौद्ध का कहना है कि वह संतू प्रसाद को उनके प्रयास के लिए सम्मानित करेंगे। (आईएनएस)
बाद वह पौधे लगाने के अभियान में जुट गए और अब तक अनिल करीब 1500 पौधे लगा चुके हैं। अनिल बताते हैं कि मैं पीपल, कुसुम, बरगद, जामुन, गुलमोहर सहित अधिकांश छायादार प्रजाति के पौधे लगाता हूं, जिससे लोगों को अधिक छांव मिल सके। अनिल न सिर्फ पौधा लगाते हैं, बल्कि पांच से छह फीट लंबा होने तक उसकी पूरी देखभाल भी करते हैं। पौधे की सुरक्षा में लगने वाला बांस गैबियन का खर्च भी वह स्वयं वहन करते हैं। वे आयुक्त कार्यालय परिसर, किला गेट से लेकर पोलो मैदान तक लगभग 500 पौधे लगा चुके हैं। पौधरोपण के प्रति उनकी लगन को देख कर लोग उन्हें अब 'पर्यावरण मित्र' के नाम से भी पुकारते
हैं। पौधरोपण के प्रति उनकी लगन को देखते हुए स्वयसेवी संस्था 'आनंद आश्रय' ने उन्हें पानी टैंक भी उपलब्ध करा दिया है, जिससे उन्हें पौधों को पानी देने में अब परेशानी नहीं होती। अनिल रविवार को अवकाश के दिन कम से कम दो पौधे जरूर लगाते हैं। इसके अलावा जिस दिन कार्यालय में अवकाश रहता है उस दिन भी वह सड़क किनारे पौधरोपण करते हैं। पौधों में कार्यालय अवधि के पूर्व और छुट्टी के बाद वह नियमित पानी का पटावन करते हैं। हरे-भरे पौधे देखकर उन्हें आत्मसंतुष्टि मिलती है। अनिल की बेटी प्रीति बताती हैं कि पापा ने पर्यावरण संरक्षण के लिए जब कार्य करना शुरू किया था, तब वे परिवार के प्रति समय नहीं दे पाते थे। इसे लेकर पापा से घर के सभी लोग खफा रहते थे। परंतु आज उनके द्वारा लगाए गए पौधों को देख परिवार वाले भी उनका समर्थन करने लगे हैं। अनिल कहते हैं कि आज इस कार्य में उनका पूरा परिवार समर्थन कर रहा है। वे कहते हैं कि उनकी छोटी बेटी जिसकी शादी कुछ दिन पूर्व हुई थी, वह भी अपने शादी के आमंत्रण पत्र में पर्यावण सरक्षण को लेकर स्लोगन लिखवाई थी। (एजेंसी)
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पौधों के प्रति लगाव ने बनाया 'पर्यावरण मित्र'
बिहार में सरकारी कर्मचारी अनिल करीब 20 वर्षों से पेड़ लगा रहे हैं
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ज जहां एक ओर सरकारी महकमा पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए जी तोड़ प्रयास में लगा है, वहीं बिहार के मुंगेर जिले का एक सरकारी कर्मचारी पर्यावरण के प्रति उत्साह के साथ समर्पित है। मुंगेर के आयुक्त कार्यालय में चतुर्थवर्गीय पद पर कार्यरत अनिल राम के पर्यावरण के प्रति समर्पण की भावना को देखकर लोग अब इन्हें 'पर्यावरण मित्र' से संबोधित करते हैं। अनिल करीब 20 वर्षो से न केवल सरकारी कर्मचारी के कर्तव्य को बखूबी निभा रहा हैं, बल्कि इस कार्य के बाद वे खुद के लगाए गए पौधों की देखभाल करना भी नहीं भूलते हैं। आचार्य लक्ष्मीकांत मिश्र स्मृति सम्मान सहित कई पुरस्कारों से सम्मानित अनिल कुमार राम मुंगेर के किला परिसर सहित सड़क किनारे पौधे लगा कर
लोगों को पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते हैं। अनिल ने कहा कि पौधरोपण और पौधों की देखभाल करना अब उनकी दिनचर्या में शामिल है। पूरबसराय, कृष्णापुरी निवासी अनिल के लिए इस कार्य को प्रारंभ करना भी कम दिलचस्प नहीं है। वे बताते हैं कि वे किसी काम से बरियारपुर गए थे, जहां जेबकतरों ने उनकी पॉकेटमारी कर ली थी। उनके पास वापस लौटने तक के लिए पैसे नहीं बचे थे। उस दिन चिलचिलाती धूप में वह बरियारपुर से मुंगेर करीब 20 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर घर पहुंचे। धूप में चलने के बाद उन्हें तपिश का जो एहसास हुआ, वह उसे आजतक भूल नहीं पाए। उसी समय उन्होंने संकल्प लिया कि आमलोगों को सड़क पर चलने के दौरान छांव का एहसास हो, इसके लिए वह सड़क किनारे पेड़ लगाएंगे। इसके
11 - 17 जून 2018
राजधानीशताब्दी की बदलेगी सूरत
उत्तरी रेलवे ने 16 ट्रेनों के लिए 'गोल्ड' स्टैंडर्ड तय किए
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ल्ली से राजधानी और शताब्दी से सफर करने वालों के लिए अच्छी खबर यह है कि इन ट्रेनों का सफर आपके लिए पहले की तुलना में अधिक आरामदेह होगा। उत्तरी रेलवे ने इसके लिए काफी तैयारी कर ली है और 16 ऐसी ट्रेनों के लिए 'गोल्ड' स्टैंडर्ड तय किए हैं। ट्रेन के डिब्बों की साफ-सफाई और सुंदरता के साथ बाहरी तौर पर भी ट्रेन को अच्छी हालत में दिखाने के लिए कुछ खास इंतजाम किए जाएंगे। डिब्बों में एलईडी लाइट्स, विनाइल रैपिंग और वॉल पेंटिंग्स आपको देखने मिलेगी। स्वर्ण प्रोजेक्ट के तहत ट्रेनों की दशा में सुधार लाने के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं। नई दिल्ली-काठगोदाम शताब्दी में सीसीटीवी कैमरे, फ्री वाई-फाई और इंटीरियर में काफी बदलाव किए जाएंगे। रेलवे का कहना है कि इस मुहिम में हर कोच के सौंदर्यीकरण पर लगभग 2.35 लाख रुपए तक खर्च किए जाएंगे। इसमें 11 शताब्दी और 5 राजधानी ट्रेन भी शामिल हैं। दिल्ली डिविजन के डिविजनल रेलवे मैनेजर आरएन सिंह का कहना है, 'दिल्ली से देहरादून शताब्दी ट्रेन में ये सभी सुविधाएं जल्द ही शुरू हो जाएगी। दूसरी अन्य ट्रेनों के लिए डेडलाइन अगस्त 2018 तक है। हमारा उद्देश्य है कि राजधानी और शताब्दी में यात्रियों के लिए सफर और आरामदायक और सुरक्षित बनाया जाए। रेलवे की योजना सभी कोच में सीसीटीवी कैमरा और जीपीएस लगाने का भी है। जीपीएस के जरिए लोगों को सफर की पूरी जानकारी मिलती रहेगी।' ट्रेन के बाहर डिब्बों पर विनाइल रैपिंग की जाएगी, ताकि ट्रेन दिखने में अधिक आकर्षक लगें। कोच में एलईडी लाइट्स और वॉल पेंटिंग होंगे। ट्रेन के टॉइलट को भी अधिक साफसुथरा और आरामदेह बनाने की कोशिश की जाएगी। इस प्रोजेक्ट के तहत जम्मू, डिब्रूगढ़ और बिलासपुर राजधानी शामिल हैं। शताब्दी ट्रेन में दिल्ली-कालका, हबीबगंज शताब्दी, अमृतसर जनशताब्दी और अजमेर शताब्दी शामिल हैं। (एजेंसी)
इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर मिलेगी शुद्ध हवा
इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर एयर प्यूरिफायर के बजाय डायल ने 35,000 इनडोर एयर प्यूरिफाइंग प्लांट्स लगाने की योजना बना रहा है
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ल्ली की प्रदूषित हवा से हवाई यात्रियों को बचाने के लिए इंदिरा गांधी हवाई अड्डा कुछ नया और अलग करने की तैयारी में है। हर वर्ष करीब 6.5 करोड़ यात्रियों का भार उठाने वाला इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट एयर प्यूरिफायर लगाने के बजाय एयरपोर्ट पर 35,000 इनडोर एयर प्यूरिफाइंग प्लांट्स लगाने की योजना बना रहा है, जो प्राकृतिक तरीके से हवा को शुद्ध बनाए रखेंगे और प्रदूषक तत्वों को दूर रखेंगे। एयरपोर्ट ऑपरेटर दिल्ली इंटरनेशनल एयरपोर्ट लिमिटेड (डायल) ने बताया कि वह हर साल 1000 पौधे लगा रहा है और इसकी संख्या बढ़ाने पर विचार किया जा रहा है। अधिकारी ने बताया कि एक्सटर्नल लैंडस्केपिंग की बात करें तो आईजीआई का 39 लाख वर्गफुट का एरिया पौधों से ढका है। हवा को प्राकृतिक तरीके से शुद्ध करने लिए फूलों वाले पेड़पौधे लगाए जा रहे हैं जिनमें स्पाइडर, एस्तोनिया,
स्नेक प्लांट औक बैंबू पाम जैसे कई इनडोर प्लांट्स शामिल हैं। स्पाइडर प्लांट हवा में बेनजीन और कार्बन मोनॉक्साइड आदि को घुलने से रोकता है, इसी तरह अन्य इनडोर पौधे अन्य किसी न किसी प्रदूषक तत्व को दूर रखते हैं। डायल ने कहा कि एयरपोर्ट पर लगाने के लिए कई पौधे चुने गए हैं और हर पौधा हवा को शुद्ध रखने में किसी न किसी तरह उपयोगी है। इनडोर प्लांट्स सिर्फ एयरपोर्ट की खूबसूरती नहीं बढ़ाएंगे, बल्कि हवा साफ करने का भी काम करेंगे। डायल के प्रवक्ता ने कहा, 'हम पर्यावरण के खराब प्रभाव को कम करने की कोशिश में जुटे हैं। इसके लिए हमने एमिशन रिडक्शन और प्लांटेशन जैसे कई कदम उठाए हैं। इससे हवा की क्वॉलिटी में काफी सुधार भी हुआ है।' जानकारों का कहना है कि दिल्ली एयरपोर्ट की तरफ से हवा साफ करने वाले इनडोर प्लांट्स लंबे समय में अच्छे नतीजे दिखाएगा। गर्म इलाकों के तापमान में न केवल इनसे कमी आती है, बल्कि प्रदूषण कम होता है और पानी की बर्बादी कम होती है। फिलहाल दिल्ली एयरपोर्ट की गिनती विश्व के 20 सबसे व्यस्त हवाई अड्डों में होती है और एशिया के व्यस्ततम हवाई अड्डों में यह 7वां है। (एजेंसी)
विश्व की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता वृद्धि
आरईएन-21 के नवीनीकृत 2018 वैश्विक स्थिति रिपोर्ट के अनुसार 2017 में वैश्विक ऊर्जा उत्पादन क्षमता में सर्वाधिक वृद्धि हुई
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र्ष 2017 में वैश्विक ऊर्जा उत्पादन क्षमता की कुल वृद्धि का 70 फीसदी नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में हुई, जोकि आधुनिक इतिहास में नवीकरणीय ऊर्जा की सबसे बड़ी वृद्धि है। एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है। आरईएन-21 के नवीनीकृत 2018 वैश्विक
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गुड न्यूज
स्थिति रिपोर्ट के अनुसार, सौर फोटोवोल्टिक (पीवी) क्षमता रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गई। सौर पीवी की नई क्षमता 2016 के मुकाबले 29 फीसदी अधिक रही, जो 98 गीगावॉट तक थी। रिपोर्ट में कहा गया है कि कोयले, प्राकृतिक गैस और परमाणु ऊर्जा के संयुक्त क्षमता वृद्धि की तुलना में बिजली व्यवस्था में अधिक सौर पीवी उत्पादन क्षमता को जोड़ा गया। पवन ऊर्जा में वैश्विक स्तर पर 52 गीगावॉट की बढ़ोत्तरी हुई है। इस दौरान नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में नए जीवाश्म और परमाणु ईंधन की तुलना में दोगुनी वृद्धि हुई। 2017 में बिजली क्षेत्र में दो-तिहाई निवेश नवीकरणीय ऊर्जा में किया गया। चीन, यूरोप और अमेरिका में 2017 में ऊर्जा क्षेत्र में किए गए निवेश का 75 फीसदी नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में किया गया। (आईएनएस)
मार्स की दिशा में छोटे सैटेलाइट्स
नासा के छोटे सैटेलाइट्स क्यूबसैट्स मार्को - ए और मार्को – बी सफलतापूर्वक मंगल की दिशा में बढ़ रहे हैं
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सा के इनसाइट मार्स लैंडर की निगरानी के लिए विकसित दुनिया के पहले छोटे उपग्रह सफलतापूर्वक लाल ग्रह की तरफ बढ़ गए हैं। नासा की तरफ से जारी एक बयान में कहा गया है कि क्यूबसैट्स मार्को - ए और मार्को - बी पिछले एक सप्ताह से अपनी प्रणोदन प्रणाली (प्रोपल्शन सिस्टम) का इस्तेमाल कर रहे हैं। वे मंगल की दिशा प्राप्त करने के लिए इस प्रणाली का उपयोग कर रहे हैं। इस प्रक्रिया को प्रक्षेप पथ सुधार अभ्यास (ट्रैजेक्टरी करेक्शन मनूवर) कहा जाता है। यह अंतरिक्ष यान को प्रक्षेपण के बाद मंगल ग्रह की तरफ अपने पथ की दिशा में सुधार की अनुमति देता है। दोनों क्यूब सैट ने इस अभ्यास को सफलतापूर्वक पूरा किया। इन दोनों छोटे उपग्रहों को इनसाइट लैंडर के साथ 5 मई को प्रक्षेपित किया गया था। इन्हें मंगल के रास्ते में बढ़ने के दौरान इनसाइट का पीछा करने के लिए डिजाइन किया गया है। इसका लक्ष्य इनसाइट के ग्रह के वातावरण में प्रवेश करने और उसपर उतरने के दौरान उसके बारे में वापस डाटा भेजना है। ये दोनों क्यूब सैट मार्स क्यूब वन (मार्को) मिशन का हिस्सा हैं। इनसे कभी विज्ञान संबंधी आंकड़े हासिल करने की मंशा नहीं थी। वे लघु स्तर पर संचार और दिशा सूचना के बारे में जांच हैं जो अन्य ग्रहों पर भेजे जाने वाले भविष्य के क्यूब सैट का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। अमेरिका में नासा के जेट प्रोपल्शन लेबोरेटरी में प्लैनेटरी स्मॉल सैट्स के प्रोग्राम मैनेजर जॉन बेकर ने बताया कि मार्को-ए और मार्को-बी ने पिछले कुछ सप्ताह में सफलतापूर्वक संचार परीक्षण को पूरा किया। जेपीएल ने ही दोनों मार्को क्यूब सैट्स का निर्माण किया है और मिशन की अगुवाई कर रहा है। (एजेंसी)
16 खुला मंच
11 - 17 जून 2018
जड़ से जुड़े साधारण लोग दुनिया को असाधारण रूप से बदल सकते हैं
अभिमत
- वंगारी मथाई
वैश्विक नेततृ ्व की राह पर
प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन के खिलाफ दृढ़ कारव्र ाई कर भारत को वैश्विक रूप से अग्रणी देशों में से एक बना दिया है
प्र
धानमंत्री नरेंद्र मोदी की वैश्विक स्तर पर असरदार भूमिका का कायल संयुक्त राष्ट्र भी हो गया है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक एरिक सोलहेम ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करते हुए उन्हें जलवायु परिवर्तन से निपटने में अग्रदूत बताया है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रमुख ने कहा कि जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में प्रधानमंत्री मोदी एक वैश्विक नेता है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी ने जलवायु परिवर्तन के खिलाफ दृढ़ कार्रवाई कर भारत को वैश्विक रूप से अग्रणी देशों में से एक बना दिया है। एरिक सोलहेम ने कहा कि विश्व पर्यावरण दिवस के आयोजन के लिए भारत उनकी पहली पसंद था। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों पहले ही इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जमकर प्रशंसा कर चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा करते हुए राष्ट्रपति मैक्रों ने कहा कि वह प्रधानमंत्री मोदी के विजन, विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से प्रभावित हैं। राष्ट्रपति ने कहा कि हम इस एजेंडे में भारत के साथ हैं, विशेष रूप से अंतरराष्ट्रीय सोलर एलायंस को लेकर। इसके पहले फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने प्रशंसा करते हुए कहा था कि मैं प्रधानमंत्री मोदी के दृढ़ निश्चय और कूटनीतिक सूझबूझ का कायल हूं। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर शुरू से भारत का स्पष्ट रुख रहा है कि कार्बन उत्सर्जन के मामले में विकसित देश अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाएं और सभी देश विकास को नुकसान पहुंचाए बिना जलवायु परिवर्तन के खिलाफ पक्के इरादे के साथ काम करें। इसी क्रम में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत द्वारा 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 33 से 35 फीसदी तक कटौती करने की प्रतिबद्धता जताना एक बड़ा कदम है। प्रधानमंत्री मोदी ब्रिटेन के प्रधानमंत्री और फ्रांस के राष्ट्रपति से भी मिलकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत द्वारा सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता पहले ही जता चुके हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों ही राष्ट्राध्यक्षों से कहा कि भारत इस मामले की अगुवाई करने को तैयार है। साफ है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ जंग में आनेवाले कई दशकों तक भारत के नेतृत्व की बेहद अहम भूमिका होगी।
टॉवर फोनः +91-120-2970819
(उत्तर प्रदेश)
रचना मिश्रा
लेखिका युवा पत्रकार हैं और देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखती हैं
पंच तत्वों में घुला प्लास्टिक का जहर
1960 में दुनिया में 50 लाख टन प्लास्टिक बनाया जा रहा था। आज यह बढ़कर 300 करोड़ टन के पार हो चुका है यानी हर व्यक्ति के लिए करीब आधा किलो प्लास्टिक हर वर्ष बन रहा है
रा
मचरित मानस के किषकिंधा कांड में कहा गया है, ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम शरीरा।’ तात्पर्य यह कि मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और गगन, इन्हीं पंच तत्वों से हमारा शरीर बना है। हमें चेतना इन्हीं पंच तत्वों से मिलती है। लेकिन चेतना के ये सारे स्रोत आज प्रदूषित हो चुके हैं। जब स्रोत प्रदूषित हुए तो निश्चित रूप से हमारी चेतना पर भी इसका असर होगा ही। आखिर क्यों और कैसे ये पंच तत्व प्रदूषित हुए? वह कौन सा प्रदूषक तत्व है जिसने हमार चेतना तक को प्रदूषित किया? इन सभी प्रश्नों का एक ही उत्तर है, प्लास्टिक। अजर अमर बन चुके इस प्लास्टिक को खत्म कर पाना इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि यह आज है और हमेशा रहेगा। यह हमारी जिंदगी में इस कदर रचा बसा है कि इससे मुक्ति का कोई आसान रास्ता नहीं है। आज प्लास्टिक के बने बर्तनों में ही हम खाते-पीते हैं, इसकी बनी कुर्सियों पर बैठते हैं। इसकी बनी वस्तुएं लंबे समय तक उपयोगी रहें, इसके लिए इन्हें ‘ड्यूरेबल’ बनाया जा रहा है। मतलब यह कि जैसे-जैसे इसका उपयोग बढ़ा इसके कई रूप और प्रकार बनाए गए। इसमें न सीलन आती और न ही तरल वस्तुएं लीक होती हैं। यह हल्का है, यह लचीला है, इसका उपयेग करना आसान है और सबसे बड़ी बात यह कि यह बेहद सस्ता है। इसके गुण इतने हैं कि आज यह हमारी जिंदगी का सबसे जरूरी हिस्सा बन गया है। लेकिन आज यह गुण्वान प्लास्टिक हमारी जिंदगी से लेकर पंच तत्वों तक के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। मुश्किल यह है कि जिस तरह हम लकड़ी, लोहे अथवा कागज की वस्तुओं के अनुपयोगी होने पर उन्हें फेंक देते हैं,
ठीक वैसे ही क्या प्लास्टिक की वस्तुओं कैसे भी कहीं भी फेंक सकते हैं? क्या होता है, जब हम इसे मिट्टी या पानी में फेंकते हैं? क्या होता है, जब इसे जलाते हैं? यह किसी अन्य तत्व या जैविक चीजों की तरह पर्यावरण में घुलेगा नहीं, बल्कि सदियों तक वहां वैसे ही रहेगा, जहां इसे फेंका गया था। साथ ही उस जगह को अपने केमिकल से जहरीला भी बनाता जाता है। जिस मिट्टी में यह प्लास्टिक जाता है, उसे बंजर बना देता है। पानी में जाता है, तो पानी को न केवल जहरीला बनाता है, बल्कि जलीय जीवों की मौत का कारण बन जाता है। पिछले 50 वर्षों में जितना उपयोग प्लास्टिक का बढ़ा है, किसी अन्य चीज का इतनी तेजी से नहीं बढ़ा। 1960 में दुनिया में 50 लाख टन प्लास्टिक बनाया जा रहा था, आज यह बढ़कर 300 करोड़ टन के पार हो चुका है। यानी हर व्यक्ति के लिए करीब आधा किलो प्लास्टिक हर वर्ष बन रहा है। विडंबना यह है कि पर्यावरण से लेकर हमारे जीवन तक पर इसका बुरा असर सामने आ रहा है, फिर भी प्लास्टिक का उत्पादन बढ़ता ही जा रहा है। कॉस्मेटिक में उपयोग किए जाने वाले हो रहा माइक्रो प्लास्टिक या प्लास्टिक बड्स पानी में घुलकर प्रदूषण बढ़ा रहे हैं। इसकी मौजूदगी जलीय जीवों में भी मिली है। माइक्रो
2016 में समुद्र में 70 खरब प्लास्टिक के टुकड़े मौजूद थे, जिसका वजन तीन लाख टन से अधिक है। अब तक 250 जीवों के पेट में खाना समझकर या अनजाने में प्लास्टिक खाने की पुष्टि हो चुकी है
11 - 17 जून 2018 प्लास्टिक मछलियों के साथ-साथ भोजन-श्रृंखला के जरिए पक्षियों और कछुओं में भी मिलने की पुष्टि हुई है। यही वजह है कि भारत सहित कई देशों ने जुलाई 2017 में इस पर प्रतिबंध लगाया, लेकिन अब तक इससे वातावरण को हुए नुकसान की भरपाई में कितना समय लगेगा, कहना मुश्किल है। रीसाइक्लिंग से बचे और बेकार हो चुके प्लास्टिक का बड़ा हिस्सा समुद्रों में डंप किया जा रहा है। वैज्ञानिक अध्ययनों का अनुमान है कि 2016 में समुद्र में 70 खरब प्लास्टिक के टुकड़े मौजूद थे, जिसका वजन तीन लाख टन से अधिक है। वैज्ञानिक अब तक 250 जीवों के पेट में खाना समझकर या अनजाने में प्लास्टिक खाने की पु्ष्टि कर चुके हैं। इनमें प्लास्टिक बैग, प्लास्टिक के टुकड़े, बोतलों के ढक्कन, खिलौने, सिगरेट लाइटर तक शामिल हैं। समुद्र में जेलीफिश समझकर प्लास्टिक बैग खाने वाले जीव हैं, तो हमारे देश में सड़कों पर आवारा छोड़ दी गई गायें इन प्लास्टिक के बैग में छोड़े गए खाद्य पदार्थों के साथ बैग भी खा जाती हैं। साथ ही 693 प्रजातियों के जलीय, पक्षी और वन्य जीव अब तक प्लास्टिक के जाल रस्सियों और अन्य वस्तुओं में उलझे मिले हैं, जो अक्सर उनकी मौत की वजह बनते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार, प्लास्टिक से बचाव में हो रहा निवेश विभिन्न देशों को आर्थिक रूप से भी नुकसान पहुंचा रहा है। अमेरिका अकेले 1300 करोड़ डॉलर अपने समुद्र तटों से प्लास्टिक साफ करने में खर्च कर रहा है। भारत जैसे देशों के लिए भी यह बड़ा भार है। जो जलीय जीव प्लास्टिक खा रहे हैं, उनमें से कई हम मनुष्यों की भोजन-श्रृंखला का हिस्सा भी हैं। जब ये जीव प्लास्टिक हजम करने लगते हैं, तो न केवल अन्य जीवों की जान के लिए खतरा बनते हैं, बल्कि उनका प्लास्टिक मनुष्यों की भोजन की थाली मे भी पहुंच रहा है, जिनके लिए सी-फूड ही मुख्य भोजन है। दुनिया के कई हिस्सों में अनुपयोगी प्लास्टिक कचरे से सड़कें बनाई जा रही हैं। ईरान सहित कई देश प्लास्टिक को छोटे टुकड़ों में तोड़कर उन्हें कंक्रीट के रूप में पत्थरों की कमी दूर करने के लिए उपयोग कर रहे हैं। इस समय दुनिया का एक तिहाई प्लास्टिक ही रीसाइकिल हो पा रहा है। वैज्ञनिकों के अनुसार, प्लास्टिक को अधिक से अधिक मात्रा में रीसाइकिल करने की जरूरत है। क्योंकि माना जा रहा है कि इस वक्त 903 करोड़ टन प्लास्टिक पृथ्वी पर मौजूद है। जाहिर है प्लास्टिक के खतरे से बचने की कोई भी मुहिम जनभगीदारी ओर जनजागरुकता के बिना संभव नहीं है। मुंबई के वर्सोवा तट को लोगों द्वारा प्लास्टिक से मुक्त करने के अभियान का एक अनूठा उदाहरण बना है। लेकिन देश में ऐसे कई अभियानों की जरूरत है। स्वच्छ और स्वस्थ जीवन की कल्पना प्लास्टिक कचरे से मुक्ति मिले बिना संभव नहीं है और यह तभी संभव है जब देश में स्वच्छ भारत अभियान की तरह एक दूसरा जन अथयान शुरू हो, जो प्लास्टिक के प्रदूषण के प्रति न सिर्फ जागरुकता फैलाए, बल्कि यह भी सुनिश्चित करे की आने वाले कुछ वर्षों में देश प्लास्टिक प्रदूषण से बचने के लिए पूरी तरह तैयार हो सके।
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आनंदमूर्ति गुरु मां
लीक से परे
आध्यात्मिक गुरु
ध्यान और नींद
जिनके अंदर गहरी श्रद्धा और ऐसा गहरा प्रेम उजागर हो जाता है, वे अपने आप में यूं समझिए कि बिना किए हुए ही ध्यान जैसी स्थिति में रहते हैं
जो
लोग नित्य प्राय: ध्यान कर रहे हैं या ध्यान न भी कर रहे हों तो प्रेम की गहराई में, श्रद्धा के भाव में ध्यान जैसी ही स्थिति बन जाएगी। यह नहीं कि कुछ विधि करेगा ध्यान की, तो कुछ उसको अनुभूति शुरू होगी। प्रेम अपने आप में ही एक ध्यान विधि है। हार्दिक गहरी जो श्रद्धा है, यह भी अपने आप में एक ध्यान ही है। जिनके अंदर ऐसी गहरी श्रद्धा और ऐसा गहरा प्रेम उजागर हो जाता है, वे अपने आप में यूं समझिए कि बिना किए हुए ही ध्यान जैसी स्थिति में रहते हैं। इसी कारण से ध्यान करने पर जो किसी के शरीर में अनुभूतियां उठती हैं, वे उनको सहज से ही अनुभव में आने लग जाती हैं। जब भी कभी प्रेम या श्रद्धा का भाव गहरा उठेगा तो उससे हमारे शरीर के भीतर शक्ति का जागरण होता है। और उसी शक्ति के जागरण की वजह से शरीर में कुछ कोई क्रिया न हो, मन बहुत गहरे उतार जाए, बहुत गहरे अंदर तक टिक जाए। दोनों में से कोई भी स्थिति हो सकती है। जो पहली बार ध्यान में बैठने लगा है, उसके लिए तो सीधा बैठना, शांत चित्त होके बैठना आवश्यक है। पर अगर पहले से ही किसी गुरु के आश्रम में आए हैं, भाव है, प्रेम है और पहले से ही दर्शन-लाभ, प्रेम-लाभ जो हो रहा है, उससे मन की स्थिति तो अच्छी हो ही जाती है। मन की स्थिति जब अच्छी होगी तो फिर ध्यान में भी जब आप बैठते हैं
0/2241/2017-19
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)1
तवचार
खुला मंच
03 सममान
समाज सेवा के तिए तिया अपना जीवन
प्रकृति की िरह करें सबकी परवाह
06
वयश्तितव
20
कही-अनकही
29
उसूिों के पकके ित्त साहब असमानिा के तििाफ तनभभीक आवाज
harat.com
sulabhswachhb
वर्ष-2 | अंक-25 | 04
- 10 जून 2018
बडी चुनौिी, बढी चेिना
/2016/71597 आरएनआई नंबर-DELHIN
तववि पया्षवरण तिवस 2018
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क् अहस्स र्यावरण को लेकर चुनौती क्रण है कक आज हर देश को है। रही पर वर्पक इस ब्रे में वैश्विक सतर तर करने को लेकर सहमकत और स्झी क्रयानीकत , पर इस दौर्न दुकनर् भले ही कई समसर्एं रही हों की तरफ से कई भर में सरक्रों और संस््ओं गए हैं, जो न कसफ्फ सक्र्तमक कदम भी उठ्ए रह उममीद भी जग्ते सम्ध्नक्री हैं, बश््क भकवषर में संकट क् हैं कक पर्यावरण को लेकर ग्। भ्रत सकहत कई क्ेत्रफल घटेग् न कक बढे को अंतरर्ष्टीर सर्हन् देशों में इस तरह की पहल वैसे भी पर्यावरण की कमल चुकी है। भ्रत के कलए है। इस वरया के आरंभ में समसर् जर्द् कचंत्जनक न सूचक्ंक में भ्रत ज्री वैश्विक पर्यावरण प्रदशया है और वह दो स्ल आकिरी प्ंच देशों में श्कमल । इसी तरह ग्ीनपीस के में 36 प्रद्न नीचे आर् है गर् है कक सवच्छ एक ह्कलर् अधररन में प्र् शहरों में एक भी व्रु के म्मले में 280 भ्रतीर ों पर िर् नहीं म्नदंड के कववि सव्स्थर संगठन उतर सक्।
शहरी प्रिूरण
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ध्यान न भी कर रहे हों तो प्रेम की गहराई में, श्रद्धा के भाव में ध्यान जैसी ही स्थिति बन जाएगी तो सहजता से गहराई हो जाती है। लोग कहते हैं कि ध्यान में कई बार ऐसा लगता है जैसे नींद हो। अब यह नींद होती तो आपको ध्यान में मेरी आवाज सुनाई नहीं पड़ती। क्योंकि नींद में बाहर से सारा संपर्क टूट जाता है। यहां ‘नींद जैसा है’ कह सकते हैं, पर नींद नहीं है। ध्यान की ही स्थिति है, जिसमें मन शांत हो जाता है। मन इतना रिलैकस्ड हो जाता है, इतना शिथिल हो जाता है, जैसे कि नींद में होता हो। पर हमें शिथिलता या
पत्रकारिता का नया युग देश में हो रहे सकारात्मक बदलावों और स्वच्छता को प्रमुखता से प्रकाशित करने और हम लोगों तक पहुंचाने में सुलभ स्वच्छ भारत आरंभ से अग्रणी रहा है। पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे को इस अंक में बहुत ही बेहतर तरीके से छापा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लिखी गई पुस्तक का धारावहिक प्रकाशन एक महत्वपूर्ण और स्वागत योग्य पहल है। इसके लिए आपकी टीम को बहुत बधाई। हमें उम्मीद ही नहीं, बल्कि पूरा भरोसा है कि सुलभ स्वच्छ भारत की सार्थक और सकारात्मक पत्रकारिता एक नए युग की शुरुआत करेगी। सुरेंद्र भटनागर दिल्ली
टोटल रिलैक्सेशन सिर्फ नींद में ही होती है। इसी कारण से ध्यान में जब भी साधक को ऐसे स्थिति आती है तो यही लगने लगता है- जैसे कहीं शायद हम नींद में चले गए थे, पर वह नींद नहीं है। क्योंकि नींद की सबसे बड़ी निशानी यह होगी- एक बाहर से आवाज आपको सुनाई देनी बंद हो जाएगी। दूसरा शरीर आलस में आएगा तो गर्दन बाएं-दाएं लुढ़केगी, कब नीचे हो गए पता भी नहीं चलेगा। नींद में शरीर की जो स्थिति है, वह एक जैसी नहीं रहेगी। जब ध्यान में मन गहरे उतरता है, मन एकाग्र होता है, मन के विचार जब पूरे थमने लग जाते हैं तो विचारों के पूरी तरह से थमते ही एक पूर्ण रिलैक्सेशन, शरीर में और मन में पूरी तरह से शिथिलता आ जाती है, जिसके कारण से नींद जैसा अहसास आता है। पर निश्चित रूप से वह नींद नहीं होती है। अब ध्यान के प्रभाव से वह शिथिलता आई, लेकिन कहीं न कहीं वह प्रेम ने, उस भाव ने, फिर से अंदर जो पुकार उठाई .... अब पुकार उठाई तो फिर वापस से उस रेचन की ओर या सक्रियता की ओर वह आ जाता है। लेकिन ऐसा कुछ बुद्धि से समझने की चेष्टा करने लगेंगे तो बुद्धि तो चक्कर में फंस ही जाएगी और कुछ नहीं होगा। तमाम चक्करों से मुक्ति के लिए बेहतर यह रहता है कि जब भी कभी कुछ ऐसी अनुभूति हो तो सजग रहें। जैसे अब लिख कर पूछ लिया कि यह नींद थी या कुछ और था, स्पष्ट करा लिया। लेकिन अपनी तरफ से बहुत विश्लेषण करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
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11 - 17 जून 2018
सुराही और पानी का शीतल रिश्ता
‘नए घड़े के पानी से जब मीठी खुशबू आती है, यूं लगता है मुझको जैसे तेरी खुशबू आती है।’ लेकिन िफ्रज और कूलर ने प्रकृति की यह मीठी सुगंध छीन ली है। आज जमाना बोतलबंद पानी का है। बाजार से खरीदकर या िफ्रज से निकाल कर हर किसी को बोतलबंद पानी ही चाहिए। इस दौर में सुराही को याद करने वाले गिनती के बचे हैं
11 - 17 जून 2018
सुराही, जितना सुरीला नाम, उतना ही बांकपन इसके आकार में भी है। तब शौकिया लोगों में नई डिजाइन की सुराही लाना जैसे अघोषित स्पर्धा हुआ करती थी। सुराही न सही लेकिन सुराहीदार गर्दन तो आज भी खूबसूरती का पैमाना है। मिट्टी की वो सुराही, वो मटका जो प्राकृतिक फ्रिज है, जो गला खराब नहीं करते और जो बिजली भी बचाते हैं, जो ग्लोबल वार्मिंग की चिंता कम करते हैं और सबसे बड़ी बात ठंडे पानी से मीठे-सोंधे रिश्ते बनाते हैं
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पहल
11 - 17 जून 2018
गांव का पानी गांव में, खेत का पानी खेत में इंदौर का बालौदा लक्खा गांव इस बात की मिसाल है कि अगर जल बूंदों को सहेजा जाए तो सूखा पड़ने पर भी पानी की कमी किसी को झेलनी नहीं पड़ेगी
खास बातें आपसी सहयोग और समझ से बेपानी गांव बना पानीदार बालौद लक्खा गांव में है करीब सौ जल संरचनाएं बारिश की एक बूंद भी गांव और खेतों से बाहर नहीं जाती
क
मनीष वैद्य
हते हैं कि आदमी के हौसले अगर फौलादी हों तो क्या नहीं कर सकता। और जब ऐसे लोगों का कारवां बन जाए तो असंभव भी संभव हो जाता है। हम बात कर रहे हैं उज्जैन जिले के एक छोटे से गांव बालौदा लक्खा और उसके बाशिंदों की। लोगों की एकजुटता और उनके प्रयास ने इस बेपानी गांव को पानीदार बना डाला। बीस साल पहले तक यह गांव बूंद-बूंद पानी को मोहताज था। पानी की कमी के कारण खेती दगा दे गई। युवा रोजगार की तलाश में उज्जैन और इंदौर पलायन करने को मजबूर थे। महिलाएं पानी की व्यवस्था करने में ही परेशान रहती थीं। बच्चे स्कूल जाने के बजाय हाथों में खाली बर्तन उठाए कुआं-दर-कुआं घूमते रहते। पर समय ने करवट ली और लोगों ने मेहनत के दम पर वहां की तस्वीर ही बदल डाली। अब यह गांव प्रदेश के लोगों के लिए कौतूहल का विषय है और वे पानी का काम देखने के लिए दूर-दूर से यहां आते हैं। मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले का बालौदा लक्खा गांव को अब जलतीर्थ कहा जाता है। इस साल इलाके में बहुत कम बारिश हुई है। 45 डिग्री पारे के साथ चिलचिलाती धूप में भी गांव के करीब 90 फीसदी खेतों में हरियाली देखकर मन को सुकून मिलता है। पर्याप्त पानी होने से किसान साल में दूसरी और तीसरी फसल भी आसानी से ले रहे हैं। लगभग एक हजार से ज्यादा किसान सोयाबीन, प्याज, मटर, गेहूं और चने की तीन फसलें लेते हैं। गांव की खेती लायक कुल 965 हेक्टेयर जमीन के
90 फीसदी खेतों में पर्याप्त सिंचाई हो रही है। एक हजार बोरिंग तथा 25 हैंडपंप में से कहीं पानी की किल्लत नहीं है। गांव में रोज एक घंटे तक नल चलते हैं। भीषण गर्मी में भी घरों में पानी की कमी नहीं है। बडनगर-रूनिजा मार्ग पर महज नौ किमी चलने पर ही करीब पांच हजार की आबादी वाला छोटा-सा गांव बालौदा लक्खा मिलता है। यहां के ज्यादातर लोग किसान हैं, जिनके पास अपनी जमीन नहीं है, वे खेतों में मजदूरी करते हैं। इस अकेले गांव में सवा सौ से ज्यादा जल संरचनाएं बनी हैं, जिनसे गांव का बरसाती पानी बाहर नहीं जाता। पास की पहाड़ी से भी नालियों के रूप में बारिश का पानी गांव और खेतों में जाकर धरती में समा जाता है। आप चौंक जाएंगे लेकिन यहां 11 तालाब, 15 सोख्ता तालाब, 6 सूक्ष्म तालाब (आरएमएस), 25 परकोलेशन टैंक, दर्जनों रीचार्ज पिट तथा पचास से ज्यादा बोल्डर चेकडैम और मिट्टी के बांध बनाए गए हैं। पूरे गांव और आसपास के इलाके में रनिंग वाटर सिस्टम के जरिए बारिश का अधिकांश पानी गांव और उसके खेतों से बाहर नहीं जा पाता है। इस साल बारिश सामान्य से लगभग आधी होने के बावजूद गांव में जलस्तर बना हुआ है। यहां गंगा सागर तालाब, मुक्ति सागर तालाब, भवानी सागर तालाब, माता सागर तालाब, रेडवाला तालाब, कृषि सागर आदि तालाबों में आमतौर पर
मार्च के आखिरी हफ्ते तक पानी भरा रहता है। हालांकि बारिश कम होने से इस बार ये जनवरीफरवरी में ही सूख चुके हैं। इलाके का भूजल स्तर जो कभी तीन सौ फीट से ज्यादा हो गया था आज भी महज 60 से सौ फीट है। मोटे तौर पर यहां ग्रामीणों के आपसी सहयोग से निर्मित 60 जल संरचनाएं तथा सरकारी खर्च से बनी 40 से 60 जल संरचनाएं हैं। बालौदा के आसपास बहने वाले तीन टेढ़े-मेढ़े नालों की कुल लंबाई 18 किमी तथा इसकी सहायक करीब 120 छोटी नालियों और छपरों का बहाव तालाबों और अन्य जल संरचनाओं से इस तरह जोड़ दिया गया है कि बारिश के पानी का एक भी बूंद व्यर्थ नहीं बहता। गांव में परंपरागत जल संरचनाओं का भी भरपूर इस्तेमाल किया गया है। रीचार्ज कर कई पुरानी संरचनाओं को पुनर्जीवित किया गया है। गांव वालों ने रिकार्ड तोड़ करीब 14 लाख रुपए का जन सहयोग इन कामों के लिए किया है। यही काम यदि सरकारी स्तर पर होता तो इसकी लागत 40 से 50 लाख रुपए तक की होती। इस गांव को जल संरचनाओं के कारण मध्य प्रदेश सरकार का प्रमाण पत्र भी मिल चुका है। ग्रामीण बताते हैं कि पच्चीस साल पहले तक गांव में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, लेकिन नब्बे के दशक के आसपास अचानक यहां पानी की कमी
जल तीर्थ बने बालौदा लक्खा के लोगों ने अपने गांव में पानी का जमीनी काम करते हुए एक मिसाल पेश की और आज इसका पूरा फायदा यहां के किसानों को मिल रहा है
होने लगी। खेती और खेत आधारित मजदूरी से ही जिस गांव की रोजी-रोटी चलती हो, उस गांव में पानी के मोल को समझा जा सकता है। पानी नहीं तो रोटी पर संकट आने लगा। जमीन का पानी गहरा और गहरा होता जा रहा था। लोग पानी की तलाश में गहरे से गहरे ट्यूबवेल करवा रहे थे। एक किसान सवाई सिंह झाला ने तो अपने खेतों में एक के बाद एक ढाई सौ बोरिंग करवा दिए, लेकिन पानी नहीं निकला। इतनी बड़ी तादाद में बोरिंग करवाने में उन्हें लाखों का नुकसान हुआ,वह अलग। लोगों के पास जमीनें तो थीं पर पानी के बिना क्या करते? हाथ-पर-हाथ धरे पानी के बारे में सोचते हुए कई बरस बीत गए। अर्जुन सिंह राठौर बताते हैं कि हमने सबसे पहले यह संकल्प लिया कि गांव का पानी गांव में और खेत का पानी खेत में, के नारे को जमीनी हकीकत बनाएंगे। हमने ग्रामीणों के साथ आपसी बातचीत कर समस्या का हल ढूंढने के तरीकों पर चर्चा की। सबसे पहले बरसाती पानी को गांव के पास से बहाकर ले जाने वाले बांकिया (टेढ़े-मेढ़े) नाले पर कंक्रीट के रोक बांध बनाए और बाकी बचे पानी को पुरानी बनी एक तलाई में रोकने का जतन किया। बदकिस्मती कि इस साल बारिश बहुत कम (औसत से भी आधी) ही हुई। किसानों को इसका कुछ खास फायदा नहीं मिला, लेकिन बड़ा चमत्कार यह हुआ कि भेरुलाल माली का ट्यूबवेल बिना थके पानी दे रहा था। भेरुलाल का खेत बांकिया नाले के आखिरी बिंदु पर था। आमतौर पर यह ट्यूबवेल नवंबर-दिसंबर में ही सूख जाया करता था। ग्रामीणों का रास्ता मिल गया था। इस सफलता से उत्साहित होकर गांव के कुछ लोग अन्ना हजारे के गांव में पानी का काम देखने जा पहुंचे। ग्रामीणों ने पहाड़ी पठार से आने वाले बरसाती पानी को गांव में ही रोकने के मकसद से जनसहयोग कर एक बड़ा तालाब बनाने का विचार किया।
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बालौदा के आसपास बहने वाले तीन टेढ़े-मेढ़े नालों की कुल लंबाई 18 किमी तथा इसकी सहायक करीब 120 छोटी नालियों और छपरों का बहाव तालाबों और अन्य जल संरचनाओं से इस तरह जोड़ दिया गया है कि बारिश के पानी का एक भी बूंद व्यर्थ नहीं बहता
देखते-ही-देखते कार्य योजना बन गई और किसी ने रुपए दिए, किसी ने श्रमदान तो किसी ने अपने ट्रैक्टर देने की बात कही। यानी जिससे जो बन पड़ा उसने वैसा ही सहयोग दिया। अब समस्या यह थी कि तालाब बनेगा कहां और इसके लिए अपनी जमीन कौन देगा। लेकिन जहां चाह, वहां राह की तर्ज पर इसका भी रास्ता निकल आया। हुआ कुछ यूं कि सरकारी सूखा राहत मद से सिंचाई विभाग ने एक तालाब बनाने के लिए गांव से लगी सरकारी जमीन पर खुदाई शुरू की थी, लेकिन आगे का बजट नहीं आने से वह तब से ऐसे ही पड़ा था। ग्रामीणों ने अपना पसीना बहाकर तालाब तैयार किया। इसी तरह मालगावड़ी से आने वाले बारिश की बूंदों को सहेजने के लिए एक और तालाब बनाया गया। इस तालाब के ओवरफ्लो होने पर पानी को
रोकने के लिए एक तलैया बनवाया गया। इस पानी से किसानों के कुएं रीचार्ज होते हैं। इसके आगे एक बोल्डर पाला बनाकर पानी को रोका गया। कुंडवाला नाले पर भी रोक बांध बनाया गया। गांव के ही भीम सिंह कारा ने आगे बढ़कर खेडवड़ाके नाले को रोककर एक और तालाब बनाने के लिए 25 हजार रुपए देने की घोषणा की तथा बाकी लोगों ने पांच से बीस हजार रुपए तक देने की बात कही। इससे तीन लाख रुपए लागत से तीसरा बड़ा तालाब भी बनकर तैयार हो गया। चौथा तालाब मालगावड़ी की ओर जाने वाले रास्ते पर कुछ किसानों ने अपने खर्च पर बना लिया। इन चारों तालाब से भी यदि कुछ बरसाती पानी ओवर फ्लो होता है तो उसे सहेजने के लिये ढाई लाख रुपए की लागत से डेढ़ हेक्टेयर का बड़ा तालाब बनाया गया। गांव के मुक्तिधाम में पानी का संकट होने पर
प्लास्टिक प्रदूषण के प्रति जागरुकता यात्रा
मृतक देह को अंतिम आचमन के लिए भी पानी नहीं मिल पाता था, ऐसे में ग्रामीणों ने विचार कर यहां भी एक तालाब बनाने का फैसला किया। तालाब बनाने के लिए लोग घर-घर पहुंचे और सहयोग मांगा। लोगों पर इसका बड़ा भावनात्मक असर हुआ और अच्छा जन सहयोग मिला। आज इस तालाब में पानी भरा हुआ है। इसी प्रकार किसान रमेश चंद्र ने अपनी निजी जमीन में तीन बीघे का बड़ा सा तालाब बनवाया। इससे भी बड़ी बात यह है कि बालौदा लक्खा में 'कर्मचारी तालाब' भी है और इसके बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। जिन दिनों गांव में तालाब बनाने की अलख जगाई जा रही थी तो कृषि अधिकारी अमर सिंह परमार और उनके कर्मचारी साथियों ने सोचा कि हम भी कब तक ग्रामीणों को सिर्फ पानी बचाने का भाषण ही पिलाते रहेंगे। हमें भी कोई संरचना बनाकर गांव को तोहफा देना चाहिए। गांव में तैनात कर्मचारियों ने अपने वेतन से पैसे जोड़े और तालाब बनाया तो उसका नाम ही पड़ गया कर्मचारी तालाब। इस तरह एक के बाद एक कई जल संरचनाएं बनीं। कहीं रोक बांध बनाए गए तो कहीं रीचार्ज पिट बनाए गए। इस तरह अब बारिश का एक बूंद पानी भी यहां से व्यर्थ बहकर बाहर नहीं जाता। पहाड़ियों से पानी को तालाबों तक लाने के लिए हर साल नालियों को साफ किया जाता है, ताकि पानी को ढंग से सहेजा
जा सके। इसके लिए नई तकनीकें ही नहीं, बालौदा गांव के बुजुर्गों को विरासत में मिले पानी से संबंधित परंपरागत ज्ञान का भी उपयोग किया गया है। जल तीर्थ बने बालौदा लक्खा के लोगों ने अपने गांव में पानी का जमीनी काम करते हुए एक मिसाल पेश की और आज इसका पूरा फायदा यहां के किसानों को मिल रहा है। पानीदार होने से बेहतर उपज ने उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में बड़ा बदलाव किया है। बीते सालों में गांव के किसानों के अधिकांश घर पक्के बन गए हैं। घर-घर बाइक है तो कहीं दालान में कारें खड़ी हैं। लगभग सभी बड़े किसानों के यहां चमचमाते ट्रैक्टर हैं। उनकी क्रय शक्ति बढ़ी है। उनके बच्चे बडनगर और उज्जैन के अच्छे स्कूलों तथा कॉलेजों में पढ़कर अपना भविष्य बना रहे हैं। पलायन कर उज्जैन और इंदौर गए लोग भी धीरे-धीरे गांव लौट रहे हैं। जिनके पास खेती नहीं है और मजदूरी पर ही जीविकोपार्जन करते हैं, उन्हें भी अब पर्याप्त कृषि मजदूरी मिल रही है। अब गांव के किसान जैविक खेती पर जोर दे रहे हैं। कुछ किसानों ने इसकी पहल शुरू भी कर दी है। बालौदा गांव से प्रेरणा लेकर कई गांवों ने अपने यहां भी जल संरचनाएं बनाने का काम शुरू किया है। कई जगह अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं, लेकिन हजारों गांवों में लोग अब भी पानी के लिए सरकार का मुंह ताक रहे हैं।
प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण के प्रति जागरुकता फैलाने के लिए गुजरात की राजेश्वरी सिंह ने पैदल दिल्ली तक की यात्रा की
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स्टिक प्रदूषण के खतरों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए गुजरात से दिल्ली तक की दूरी 45 दिनों में पैदल पूरी कर दिल्ली पहुंचीं राजेश्वरी सिंह का एक ही लक्ष्य है। और वह लक्ष्य है पूरे देश को प्लास्टिक के खतरे से मुक्त करने का। अपने इसी लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्होंने गुजरात से दिल्ली तक 1100 किमी पैदल चल कर पूरी की। विश्व पर्यावरण दिवस की तारीख को ध्यान में रखते हुए उन्होंने 22 अप्रैल को गुजरात से चलना शुरू किया था। वह राजस्थान और हरियाणा से होते हुए दिल्ली पहुंचीं और रास्तेभर में आने वाले शहरों में लोगों से बात करते हुए दिल्ली पहुंचीं। उन्होंने लोगों को जागरूक करने की कोशिश की और बताया कि कैसे प्लास्टिक पर्यावरण को
नुकसान पहुंचा रहा है। उन्होंने बताया, 'ज्यादातर शहरों में लोगों ने प्लास्टिक का उपयोग न करने की कसम खाई और अपनी जीवनशैली बदलने की इच्छा जाहिर की।' विश्व पर्यावरण दिवस से महज एक दिन दिल्ली पहुंचीं राजेश्वरी को यूनाइटेड नेशंस इन्वारन्मेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) के एरिक सोल्हेम ने सम्मानित किया। इस मौके पर 32वर्ष की राजेश्वरी सिंह का हौसला बढ़ाने के लिए बॉलीवुड अभिनेत्री दीया मिर्जा भी मौजूद थीं। पानी के बोतल के बिना यात्रा पूरी करने वाली राजेश्वरी ने बताया, 'आप अपने साथ अपनी बोतल रख सकते हैं और जब चाहें तब उसे भर सकते हैं। लेकिन मेरे पास पहले से ही भारी बैग था और मैं अपना बोझ बढ़ाना नहीं चाहती थी। मैं जिस गांव से गुजरती वहां से थोड़ा पानी पी लेती।
ऐसी छोटी-छोटी चीजें कर कोई भी बदलाव ला सकता है। प्लास्टिक की बोतलों और प्लास्टिक के बैग्स से भी शुरुआत की जा सकती है।' राजेश्वरी ने बताया कि 45 दिनों के सफर में रोजाना वह 20-25 किलोमीटर चल पाती थीं, फिर कहीं किसी कस्बे में रुक जातीं और वेंडरों से बात कर प्लास्टिक प्रदूषण के बारे में लोगों को जागरूक करने का काम करतीं। वह 'कारवां क्लासरूम' मुहिम के तहत लोगों से
प्लास्टिक से जुड़ी समस्याओं के बारे में जानतीं। इस यात्रा में राजस्थान के डूंगरपुर ने उन्हें खासा प्रभावित किया। यहां सड़क पर न कहीं गंदगी थी और न ही कोई प्लास्टिक। उन्होंने कहा कि छोटी-छोटी कोशिशें बड़ा असर दिखा सकती हैं, हमारा पर्यावरण बच सकता है। उन्होंने आगे कहा, ऐल्युमिनियम की बोतल, कपड़े के बैग का इस्तेमाल शुरू कर बड़ा बदलाव लाया जा सकता है।' (एजेंसी)
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जंेडर
11 - 17 जून 2018
प्रतिभा रॉय
वृंदावन ने उसके घाव भरे
प्रतिभा ने अपनी जिंदगी में सब-कुछ देखा है और अब वह सुकून से वृंदावन में ही अंत तक जीना चाहती हैं
‘मैं
स्वास्तिका त्रिपाठी
एक विधवा नहीं हूं, पर मैं कभी एक पत्नी भी नहीं थी। यह सब झूठ था। उन्होंने कहा कि उनकी पत्नी मानसिक रूप से बीमार थी, इसीलिए उन्हें और उनके बच्चों को मेरी आवश्यकता थी। यह सब झूठ था। वे चाहते थे कि उन्हें पूरी तरह से एक पूर्णकालिक नौकरानी मिले। मैं वास्तव में कभी नहीं चाहती थी, बस जरुरत थी। यह सब झूठ था ... और फिर उसने बोलना बंद कर दिया और कहा कि अब इस पर बातचीत करने का कोई मतलब है।’ यह कहानी है, पश्चिम बंगाल के पश्चिमी मेदिनीपुर जिले स्थित बलरामपुर की प्रतिभा रॉय की, जिन्होंने वर्ष 2003 से वृंदावन आने-जाने का सिलसिला शुरू किया। प्रतिभा का विवाह 15 साल की उम्र में उनसे दुगनी उम्र के एक व्यक्ति (32) के साथ हुआ और यहीं से झूठ, पीड़ा और कठिनाइयों के एक दुखद सिलसिले की शुरुआत हुई। यह उनके पति की दूसरी शादी थी, जिसकी पहली पत्नी को शुरुआत में मानसिक रूप से बीमार महिला के रूप में दिखाया गया जो अपने माता-पिता के साथ रहती थी। प्रतिभा को आश्वस्त किया गया कि पहली शादी से हुए दो बच्चों को एक मां की जरूरत
यह उनकी 'प्रतिभा' थी जिसने उन्हें सभी उत्पीड़न से मुक्ति दिलाई और उनके शांतिपूर्ण जीवन का मार्ग प्रशस्त किया
थी। प्रतिभा उस परिवार को अपना सबकुछ देने के लिए तैयार थी। लेकिन एक सादे शादी समारोह के तुरंत बाद, जब वह नए घर पहुंची तो यह जानकर चौंक गई कि पहली पत्नी पहले से ही वहां रह रही थी और जो उन्हें बताया गया था वह सब झूठ था। वह एक पत्नी से पूर्णकालिक नौकरानी बन गई। उसे बताया गया कि वह खुद के बच्चे नहीं पैदा कर सकती है। प्रतिभा के एक विवाहित जीवन के सारे सपने बिखर गए। वह वापस भी नहीं जा सकती थी, क्योंकि उनकी मां को लगता था कि यह परिवार के लिए समाज में शर्मिंदगी वाली बात होगी। प्रतिभा का बेरोजगार निकम्मा पति और उसकी पहली पत्नी दोनों मिलकर प्रतिभा को खूब पीटते थे। हालांकि शादी के 3 साल बाद उसने एक लड़की को जन्म दिया और उसके कुछ समय बाद उसे एक बेटा भी हुआ। प्रतिभा सुबकते हुए बताती हैं कि जब मैंने
बेटी को जन्म दिया, तो उन्हें इतनी फिक्र नहीं थी। लेकिन जब एक बेटा भी हो गया, तो मुझे क्रूरता से पीटा गया और मेरे बच्चे को मुझसे दूर कर दिया गया। मेरे बच्चों को कभी भी दूध और खाना नहीं दिया जाता था। अपने रोते हुए भूखे बच्चों को देखकर प्रतिभा को बहुत तकलीफ होती थी। तो वह उनके लिए एक सिलाई स्कूल में सिलाई सिखाने का काम करने जाने लगीं। इस बात से अनजान कि यह सब इतना आसान नहीं था, वह फिर भी खुश थी कि उसके बच्चों के पास उचित हिस्सा होगा। लेकिन, वह जो कुछ भी कमाती थी, वह सब घर चलाने में चला जाता था। अब वह आय का स्रोत बन गईं थीं। लेकिन समय के साथ स्पॉन्डिलाइटिस ने उन्हें घेर लिया। साथ ही उनकी आंखें दिन-ब-दिन कमजोर हो रही थीं। और वह लंबे समय तक काम नहीं कर सकीं। लेकिन जैसे ही पैसा आना बंद हुआ, दोनों पतिपत्नी उनके साथ दोबारा मार-पीट करने लगे। प्रतिभा ने यहां तक तो झेला और इसके बाद, वह वृंदावन चली गईं। प्रतिभा निश्चय करके वृंदावन तो चली गईं, लेकिन वहां रहने का फैसला नहीं कर सकीं। वह यहां एक से डेढ़ महीने तक रहीं और फिर अपने परिवार और बेटे से मिलने के लिए घर वापस आ गईं। वह घर पर ही अपने जीवन-यापन की की कोशिश करने लगीं, लेकिन एक वर्ष या इससे कुछ वक्त के बाद, प्रतिभा वृंदावन के लिए निकल पड़ीं। लेकिन उसके मन में कहीं एक उम्मीद की किरण जिंदा थी जो बार-बार उसे उसे बलरामपुर वापस ले जाती थी िक शायद सब कुछ ठीक हो जाए। वृंदावन में, वह ‘ओम नमः शिवाय आश्रम’ में रहकर अपना जीवनयापन का करने लगीं और इसके बदले में वह आश्रम के लिए सफाई से लेकर खाना पकाने और
खास बातें प्रतिभा का विवाह 15 वर्ष की उम्र में एक 32 वर्षीय व्यक्ति से हुआ उनकी शादी झूठ, पीड़ा और दर्द की एक लंबी श्रृंखला थी उन्होंने शांति के लिए वृंदावन में रहने का फैसला किया
भजन गाने का काम करने लगीं। कुछ समय पहले, प्रतिभा के बेटे और बहू वृंदावन आए और उन्हें घर लौटने के लिए मना लिया। प्रतिभा को संदेह तो था, लेकिन वह उनके अनुरोध को मना नहीं कर सकीं। वह बलरामपुर वापस चली गईं, लेकिन यह आखिरी बार था। क्योंकि किसी का भी प्रतिभा के प्रति जरा सा भी रवैया नहीं बदला था। वे लोग अब प्रतिभा को मारते नहीं थे, लेकिन उनका व्यवहार बहुत बुरा हो चुका था। प्रतिभा कहती हैं कि मैंने सोचा कि इस सब का फिर क्या मतलब था। उन्होंने तब मेरा सम्मान नहीं किया था, वे अब भी मेरा सम्मान नहीं करते हैं। उन्होंने कभी भी मेरी परवाह नहीं थी और इस तरह, यह हमेशा मेरे साथ होने वाला था। इसीलिए मैंने एक सच्चे, खुश परिवार की उम्मीद छोड़ दी। उस दिन के बाद से, प्रतिभा ने कभी पीछे नहीं देखा। प्रतिभा अब 68 वर्ष की हो चुकी हैं। इस जीवन में, उन्होंने सब कुछ देख लिया है। उन्होंने झूठ सहा, मार खाई, यातनाएं झेली, कई चोटों और स्ट्रोक का सामना किया। जिस तरह की जिंदगी की प्रतिभा ने कल्पना की थी, वैसी जिंदगी से वह कोसों दूर थी। लेकिन वह पूरे समय मजबूत से खड़ी रहीं। यह उनकी 'प्रतिभा' ही थी जिसने उन्हें सभी उत्पीड़न से ऊपर उठाया और उनके शांतिपूर्ण जीवन के लिए मार्ग प्रशस्त किया। वह कहती हैं कि वृंदावन मुझे शांति देता है। मैं भजन करती हूं। वृंदावन ने मेरे घाव भरे हैं। अब मैं सुलभ की विधवा-आश्रम में रहती हूं। मुझे अब जीवित रहने के लिए काम करने की जरुरत नहीं है। आश्रम मेरा ख्याल रखता है। मुझे पता है कि मेरे पास अब बहुत अधिक दिन शेष नहीं हैं और मुझे खुशी है कि मेरे ये आखिरी दिन शांतिपूर्ण हैं। वृंदावन वह जगह है जहां मैं शांति से मर सकूंगी।
11 - 17 जून 2018
मिसाल
अर्जुन ने कंचनजंगा फतह कर रचा इतिहास
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8,000 मीटर से अधिक दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंगा पर पहुंचने के बाद अर्जुन वाजपेयी का लक्ष्य तिब्बत के न्यालम काउंटी स्थित शीशपांगम चोटी है
प्रशांत सूद
र्वतारोही अर्जुन वाजपेयी ने विश्व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंगा को फतह कर इतिहास रच दिया है। इतिहास इसीलिए क्योंकि वह इस चोटी को फतह करने वाले सबसे कम उम्र के पर्वतारोही हैं। अपनी इस उपलब्धि के साथ जब वह पूर्वी नेपाल स्थित गांव पहुंचे तो लोग उनका स्वागत करने के लिए उमड़ पड़े। 24 वर्षीय इस पर्वतारोही ने 20 मई को यह उपलब्धि हासिल की थी। चोटी पर चढ़ाई के दौरान उन्हें बदलते मौसम से जूझना पड़ा और जब वह चोटी फतह करने के करीब थे, तब उन्हें ऑक्सीजन की कमी का भी सामना करना पड़ा। दुर्गम यात्रा के दौरान वह जरा भी भयभीत नहीं हुए और वे हिमस्खलन, चट्टानों के गिरने और दरारों को पार करते हुए आगे बढ़ते गए। अर्जुन वाजपेयी 8,000 मीटर से अधिक ऊंची चोटी को फतह करने वाले दुनिया के सबसे कम उम्र के पर्वतारोही बन गए हैं। अब उनका अगला लक्ष्य तिब्बत के न्यालम काउंटी में स्थित शीशपांगम चोटी (8,013 मीटर) है। दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंगा पर बिताए 15 मिनट के अपने अनुभव बयान करते हुए वाजपेयी कहते हैं कि यह बहुत ही शानदार अनुभव रहा। वाजपेयी ने कहा कि यह वही स्थान है, जहां मैं हमेशा पहुंचना चाहता था। यह वही जगह है, जहां पहुंचने के लिए मैं वर्षो से प्रयास कर रहा था। इसीलिए जब मैंने चढ़ाई शुरू की तो पूरी तरह भावनाओं से भरा हुआ था। मेरे भीतर न कोई और इच्छा, न कोई दूसरा सपना और न ही किसी तरह की अशांति थी। उन्होंने 20 मई को भारतीय समयानुसार सुबह 8.05 बजे चोटी फतह की और कहा कि वह शिविर
खास बातें
कंचनजंगा फतह करने वाले दुनिया के सबसे युवा पर्वतारोही हैं अर्जुन माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई कर चुके हैं अर्जुन वाजपेयी बिना अनुपूरक ऑक्सीजन के करना चाहते हैं शिखर विजय
चार के बाद की यात्रा से काफी चकित थे, क्योंकि यह लगातार ऊपर उठती जा रही थी। उन्होंने कहा कि आम तौर पर किसी पहाड़ी पर ऐसे स्थान होते हैं, जहां आप अपने पीठ से बस्ते को कुछ पल के लिए उतार सकते हैं। लेकिन शिविर चार (लगभग 7,400 मीटर) के बाद, वहां ऐसा कोई स्थान नहीं था, जहां आप अपना बस्ता पीठ से उतार सकें। वहां कोई ऐसी जगह नहीं, जहां आप थोड़ा आराम कर सकें। यह जटिल था और एक बिंदु के बाद परेशान करने वाला और थकाऊ था। उन्होंने कहा कि लगभग 8,300 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचने के बाद भी चोटी दिखाई नहीं दे रही थी और ऐसा लग रहा था कि चढ़ाई कभी खत्म ही नहीं होगी। वाजपेयी ने कहा कि यह जैसे अंतहीन लग रहा था। मेरे पैर ठंडे हो गए। मैं 12-13 घंटे से लगातार चढ़ाई करता जा रहा था। चढ़ाई का अंतिम बिंदु बहुत लंबा था और इसके लिए पहाड़ की पूरी चौड़ाई को पार करना था और यह एक दूसरी बड़ी चुनौती थी। अर्जुन वाजपेयी के भीतर पर्वतारोही बनने की इच्छा उस समय जागी, जब वह अपने दादा-दादी के साथ बचपन में सहयाद्रि पर्वतमाला गए थे। उन्होंने वर्ष 2009 में पर्वतारोहण के प्राथमिक और उन्नत पाठ्यक्रम किए और अगले वर्ष माउंट एवरेस्ट (8,848 मीटर) की चढ़ाई की। वर्ष 2011 में उन्होंने लोत्से (8,516 मीटर) और मनास्लु (8,156 मीटर) की चढ़ाई की। उन्हें अगले चार वर्षों में कोई सफलता नहीं मिली और वर्ष 2012 में चो ओयू (8,201 मीटर) की चढ़ाई के दौरान उन्होंने मौत को करीब से देखा, जब उनके शरीर के बाएं हिस्से को लकवा मार गया। स्वस्थ होने के बाद उन्होंने वर्ष 2013 में मकालू (8,481 मीटर) पर चढ़ाई की कोशिश और 2014 में उन्होंने एक बार फिर कोशिश की, लेकिन जब वह मंजिल के करीब पहुंच चुके थे, तभी उन्हें वापस लौटना पड़ा था। अंतत: वर्ष 2016 में उन्होंने मकालू और चो ओयू फतह कर ली। वर्ष 2017 में उन्होंने कंचनजंगा पर चढ़ाई का प्रयास किया, लेकिन खराब मौसम के कारण वह चोटी तक नहीं पहुंच पाए। उन्होंने बताया कि वर्ष 2018 में शेरपाओं और पर्वतारोहियों के बीच समन्वय काफी बेहतर था और हालांकि, प्रारंभ में खराब मौसम होने के बावजूद अंतत: सफलता मिल ही गई। उन्होंने बताया कि मैंने धरती पर नीचे तीन पहाड़ियों को देखा। और उस क्षण मेरे भीतर अपनी यात्रा की स्मृतियां कौध उठीं। मुझे लगा कि हम इस यात्रा में कितने दूर आ गए हैं। हम कितने संघर्ष किए हैं। हमने कितने ऊंचे सपने देखे हैं। सपने
कितने ऊंचे हो सकते हैं। वे सपने आपको कितना प्रेरित कर सकते हैं। और वे कैसे आपको यहां पहुंचा सकते हैं। शीतल पेय ब्रांड माउंटेन ड्यू 2016 से वाजपेयी के साथ उनके पर्वतारोहण में सहयोग कर रहा है। पेप्सिको इंडिया में माउंटेन ड्यू के निदेशक नसीब पुरी ने कहा कि वे अपनी यात्रा के जरिए युवाओं को असाधारण उपलब्धि हासिल करने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि हम युवाओं को वास्तविक शिखर (जो हम सभी के भीतर है) फतह को प्रेरित करने की कोशिश करते हैं। सेराम गांव 3,870 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और कंचनजंगा के अग्रिम आधार शिविर से लगभग 1,500 मीटर नीचे है। वाजपेयी का अगला लक्ष्य अनुपूरक ऑक्सीजन लिए बगैर 8,000 मीटर की किसी चोटी को फतह करना है।
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गुड न्यूज
11 - 17 जून 2018
गर्मी से बिगड़ता परीक्षाफल
अमेरिका में हुए एक शोध में यह दावा किया गया है कि गर्मी बढ़ने से छात्रों का परीक्षफल प्रभावित होता है
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से-जैसे गर्मी बढ़ती है, बच्चों का मन पढ़ाई में लगना कम हो जाता है और उनका रिजल्ट बिगड़ने लगता है। यह दावा अमरीका में हुए एक
अध्ययन में किया गया है। यहां के एक करोड़ स्कूली बच्चों पर 13 साल तक ये स्टडी की गई। इन बच्चों पर किए गए टेस्ट के नतीजों का विश्लेषण
हावर्ड, यूसीएलए और स्टेट ऑफ जार्जिया की टीमों ने किया। गर्मी के मौसम में परीक्षा देने वाले बच्चे हमेशा घुटन भरी गर्मी लगने की शिकायत करते हैं। स्टडी में शामिल एक प्रोफेसर जोशुआ गुडमैन ने कहा कि टीचर और छात्र इस समस्या से जूझते हैं, इसीलिए वो पहले से इस बारे में जानते हैं। शोध करने वालों का मानना है स्कूल और माता-पिता कभी इस बात पर ध्यान ही नहीं देते की क्लासरूम में अगर बहुत गर्मी होती है तो इसका नकारात्मक असर छात्रों के प्रदर्शन पर पड़ता है। रिसर्च में कई छात्रों ने अपने अनुभवों के बारे में बताया कि गर्मी की वजह से वो क्लास में या होमवर्क करते वक्त ध्यान नहीं लगा पाते हैं। उन्हें घबराहट होने लगती है और वो परेशान हो जाते हैं। विशेषज्ञों ने विश्लेषण कर ये पता लगाया कि साल के औसत तापमान में होने वाली हर 0.55 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी के चलते छात्रों की
सीखने की क्षमता में 1% की कमी आ जाती है। जब तापमान 21 डिग्री से ज्यादा हो जाता है तो पढ़ाई पर गर्मी का असर नजर आने लगता है। 38 डिग्री तापमान के बाद तो ये असर और बढ़ जाता है। हालांकि ठंड के दिनों में छात्रों के प्रदर्शन पर कोई असर नहीं पड़ता। छात्रों और शिक्षकों के लिए गर्मी एक स्वभाविक समस्या है। विशेषज्ञ इसका सामाधान एसी यानी एयर कंडिशनर को बताते हैं। स्टडी कहती है कि हो सकता है कि एयर कंडिशनर लगाने से स्कूलों का बजट कुछ बढ़ जाए, लेकिन हमारा अनुमान है कि एयर कंडिशनर का फायदा इससे ज्यादा होगा। हालांकि इस स्टडी ने कुछ सवाल भी अपने पीछे छोड़े हैं। जैसे ठंडे और गर्म देशों के छात्रों के प्रदर्शन में क्या कोई अंतर होता है? छात्रों पर गर्मी का लांग-टर्म इफेक्ट क्या पड़ता है? और गर्मी के असर को कम करने के लिए और क्या तरीके अपनाए जा सकते हैं? (एजेंसी)
कुछ घंटों में आप सीख सकते हैं नई चीज
शो
कोई नई भाषा हो या कोई नया विषय, हमारा दिमाग कुछ भी याद कर सकता है। कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो कितना मुश्किल है। खासकर कि तब जब हम उस नए विषय को पहली बार देखते हैं
ध बताते हैं कि अगर हम किसी विषय को पहली बार पढ़ रहे हैं तो हम उसे पहली बार पढ़ने के बाद से अगले 20 घंटों में सबसे ज्यादा बेहतर याद कर पाते हैं। उस दौरान किसी नई जानकारी के प्रति दिमाग की गति बहुत तेज होती है, क्योंकि नई जानकारी को लेकर दिलचस्पी का स्तर और उसके प्रति दिमाग की प्रतिक्रिया की क्षमता बहुत ज्यादा होती है। 19वीं सदी के जर्मन दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक हरमन एब्बिनगस इस अध्ययन को करने वाले वाले पहले शख्स थे कि दिमाग किसी नई जानकारी को किस तरह से इकट्ठा करता है। वे लर्निंग कर्व का आइडिया लेकर आए। लर्निंग कर्व का मतलब नए हुनर और उसे सीखने में लगने वाले समय के बीच संबंध से है। इसे ग्राफ में दिखाने के लिए आपको 'जानकारी' को वाई-एक्सिस और 'समय' को एक्सएक्सिस पर रखना होगा। इस अध्ययन में एब्बिनगस को पता चला कि पहले कुछ घंटों के दौरान आप किसी नए विषय को पढ़ने में जितना ज्यादा समय देते हैं उतनी ज्यादा जानकारी इकट्ठी करते हैं- इस तरह ग्राफ का कर्व ऊपर चढ़ता जाता है। इन दिनों, एब्बिनगस का ग्राफ यह मापने का तरीका बन गया है कि एक नए हुनर को सीखने में कितना समय लगता है। अपनी उत्पादकता को मापने के लिए कारोबारी दुनिया में इसका काफी इस्तेमाल भी होने लगा है। जब हम कोई नई चीज याद करना शुरू करते हैं,
तो शुरुआत के 20 घंटे बहुत महत्वपूर्ण और उत्पादक होते हैं। जब हमारे अंदर किसी नई जानकारी को लेकर उत्तेजना पैदा होती है तो हमारा दिमाग उसके अनुसार प्रतिक्रिया करता है और ज्यादा से ज्यादा सूचना ग्रहण करता है। समय के साथ जब बार-बार उत्तेजना पैदा होती है तो दिमाग की प्रतिक्रिया करने की शक्ति कम होती जाती है और तेज याद करने की प्रक्रिया रुक जाती है, इस फेज को हैबिचुएशन कहते हैं, यह ऐसा समय होता है जब हम अपनी कुशलता को धीरे-धीरे बढ़ाते जाते हैं। इसीलिए जब हम कुछ नया याद करते हैं, तो उसका ज्यादातर हिस्सा जल्दी और तेजी से याद हो जाता है, भले ही वो कितना कठिन हो। अमरीकी लेखक जोश कफमन ने सिखाया कि कैसे उत्पादकता को सुधारा जा सकता है। उन्हें शुरुआती दौर में तेजी से याद होने की इस दिमागी ताकत पर पूरा भरोसा है। यही विश्वास उनकी किताब 'द फर्स्ट 20 आवर्स: मास्टरिंग द टफेस्ट पार्ट ऑफ लर्निंग एनीथिंग' का आधार बना। जोश कफमन के अनुसार एक विषय को याद किए जा सकने वाले अलग-अलग हिस्सों में बांट दें, उसमें से ध्यान बंटाने वाली चीजें हटा दें और रोज 45 मिनट के लिए उस पर फोकस करें। आप उस विषय के विशेषज्ञ तो नहीं बनेंगे- लेकिन समय के साथ आप 20 घंटों में ठोस काम कर पाएंगे। जब आप कोई नई चीज सीख जाएंगे तो फिर उसमें निपुणता हासिल कर सकते हैं। नई जानकारी याद
करने का दूसरा तरीका 'पांच घंटे का नियम' है: हर दिन का एक घंटा कुछ नया याद करने के लिए रखें। पांच दिन ऐसा ही करें। बेंजामिन फ्रैंकलिन योजना बनाकर याद करने के इस तरीके के बहुत बड़े हिमायती थे। इस तरीके के मुताबिक नई जानकारी के बारे में सोचने और उसे याद करने के लिए रोजाना समय देना शामिल है। जब आपको लगता है कि आप एक विषय के बारे में काफी जान चुके हैं तो नए विषय की तरफ बढ़ जाएं और इसी तरह जिंदगी भर चलते रहें। विशेषज्ञों के मुताबिक अगर आप पांच घंटे वाले
नियम पर बने रहते हैं तो आप हर चार हफ्तों में एक नया हुनर सीख सकते हैं। यह निरंतरता और प्रेरणा पर निर्भर करता है। याद करने के इन तरीकों को मानने वाले दुनियाभर में कई लोग हैं। यहां तक कि ओप्रा विनफ्रे, इलॉन मस्क, वॉरन बफेट या मार्क जकरबर्ग ने याद करने के इस तरीके को लेकर अपनी पसंद जाहिर की है। अगर आप लगातार जानकारी पाने के इस रास्ते पर चलना चाहते हैं तो इसमें दो बातें मायने रखती हैं: एक हमेशा याद करते रहने की इच्छा और ऐसा करने के लिए अनुशासन। (एजेंसी)
11 - 17 जून 2018
विज्ञान
मंगल के आसमान पर उड़ेगा हेलिकॉप्टर
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किसी दूसरे ग्रह की जमीन से पहली बार नासा हेलिकॉप्टर उड़ाने की योजना को पूरी करना चाहता है
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मेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने बताया कि वह 2020 मिशन के तहत मंगल ग्रह पर
छोटा हेलिकॉप्टर भेजेगा। मिशन के तहत नासा मंगल की सतह पर नेक्स्ट जेनरेशन रोवर भेजेगा।
यह पहली बार होगा जब किसी और ग्रह पर इस तरह का विमान इस्तेमाल किया जाएगा। इसे इस तरह से डिजाइन किया गया है ताकि वह मंगल के पतले वायुमंडल में उड़ान भर सके। इस यान में दो काउंटर रोटेटिंग ब्लेड होंगे और इसका वजन करीब 4 पाउंड यानी 1.8 किलोग्राम होगा। नासा ने बताया कि इस यान का ढांचा एक गेंद जैसा होगा। इसके ब्लेड तकरीबन 3000 आरपीएम की गति से घूमेंगे, जो कि पृथ्वी पर चल रहे हेलिकॉप्टर की तुलना में 10 गुना तेज है। नासा के जेट प्रपलजन लैबरेटरी में मार्स हेलिकॉप्टर प्रॉजेक्ट की मैनेजर मिमी आंग कहती हैं, 'धरती पर अभी तक हेलिकॉप्टर ने 40 हजार फीट की ऊंचाई तक उड़ान भरी है। मंगल का वायुमंडल सिर्फ 1 प्रतिशत ही पृथ्वी जैसा है, इसीलिए जब हमारा हेलिकॉप्टर मंगल की सतह पर होगा तो
वह जितनी ऊंचाई पर होगा वह पृथ्वी से 1 लाख फीट ऊंचाई के बराबर होगा।' नासा के अधिकारियों ने बताया कि रोटरक्राफ्ट लाल ग्रह की सतह पर एक गाड़ी के आकार के यान के साथ जाएगा। हेलिकॉप्टर को सतह पर छोड़ने के बाद, यह यान एक सुरक्षित दूरी से कमांड देता रहेगा। नासा ने बताया कि पृथ्वी पर नियंत्रक इस हेलिकॉप्टर को तब मंगल के लिए रवाना करेंगे जब इसकी बैटरियां चार्ज हो जाएंगी और परीक्षण पूरे हो जाएंगे। नासा के ऐडमिनिस्ट्रेटर ब्रिडेनस्टीन ने एक बयान में कहा, 'किसी दूसरे ग्रह के आसमान पर हेलिकॉप्टर उड़ने का विचार काफी रोमांचकारी है।' इस हेलिकॉप्टर को भेजने का मकसद मंगल ग्रह पर ऐसे विमानों की उपयोगिता के बारे में पता लगाना है। (एजेंसी)
अंतरिक्ष यात्रियों ने किया स्पेसवॉक
नासा के दो अंतरिक्ष यात्रियों ने अब तक 210 वां स्पेस वॉक पूरा किया
चांद के दूर-दराज के सिरे का पता लगाएगा चीन
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चांद के नरम सतह की जांच के लिए चीन ने नेमड क्यूकीओ नाम का उपग्रह प्रक्षेपित किया है
द के दूर-दराज के रहस्यमय सिरे के बारे में जानकारी जुटाने के लिए चीन ने एक रिले उपग्रह का सफल परीक्षण किया। यह उपग्रह पृथ्वी और चीन के चंद्र अन्वेषण मिशन के बीच संवाद कायम करेगा। नेमड क्यूकीओ (मैपगी ब्रिज) नाम के इस उपग्रह का वजन 400 किलोग्राम है। यह तीन साल तक काम करेगा। चीन के राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन (सीएनएसए) ने बताया कि चीन के दक्षिण पश्चिम स्थित ‘जिचांग उपग्रह प्रक्षेपण केंद्र’ से लॉन्ग मार्च 4 सी रॉकेट से
इसे प्रक्षेपित किया गया। रिले उपग्रह परियोजना के प्रबंधक झांग लिहुआ ने कहा , ‘चांद के दूरदराज के सिरे पर नरम सतह की जांच शुरू करने वाला पहला देश बनने के लक्ष्य की दिशा में यह परीक्षण एक महत्वपूर्ण कदम है।’ उड़ान भरने के करीब 25 मिनट बाद उपग्रह रॉकेट से अलग हो गया और पृथ्वी-चंद्रमा स्थानांतरण कक्षा में दाखिल हो गया। इसके बाद उपग्रह के सौर पैनल और संचार ऐंटेना भी खुल गए। (एजेंसी)
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मेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के दो फ्लाइट इंजिनियरों ने अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन से बाहर इस साल का पांचवां स्पेसवॉक पूरा किया। नासा के हवाले से बताया गया है कि ड्रयू फ्यूस्टेल और रिकी ऑर्नोल्ड ने अमेरिकी पूर्वी समयानुसार रात 2 बजकर 10 मिनट पर अपना स्पेसवॉक पूरा किया, जो 6 घंटे और 31 मिनट में पूरा हुआ। दोनों ऐस्ट्रोनॉट्स ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से बाहर निकलकर मरम्मत और अपग्रेडेशन का काम पूरा किया। इस दौरान
स्टेशन के कूलिंग सिस्टम हार्डवेयर को अपग्रेड किया गया और नए संचार उपकरण लगाए गए। नासा ने इस स्पेसवॉक का लाइव टेलिकॉस्ट भी किया। बता दें कि आईएसएस पर 1998 से लेकर अब तक यह 210वां स्पेसवॉक था। नासा के मुताबिक, अंतरिक्ष यात्री परिक्रमा करती हुई लैबरेटरी की असेंबली और रखरखाव में सहायता के लिए स्टेशन के बाहर कुल 54 दिन, 16 घंटे और 40 मिनट बिता चुके हैं। (एजेंसी)
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पुस्तक अंश
11 - 17 जून 2018
राजपथ बना योगपथ
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सबसे बड़ा आयोजन नई दिल्ली में राजपथ पर हुआ, जहां 84 देशों के 35,985 लोगों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में योगाभ्यास किया। योग के इस असाधारण उत्सव ने लाखों लोगों को उत्साहित किया। इस दिन एक ही स्थान पर योगाभ्यास करने के लिए दो गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स बने। पहला रिकार्ड सबसे ज्यादा संख्या में लोगों के शरीक होने का और दूसरा सबसे ज्यादा देशों की शिरकत का
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राजपथ पर हजारों लोगों के साथ योगाभ्यास करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी।
धानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 27 सितंबर, 2014 को संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) के 60वें सत्र में अपने संबोधन के दौरान विश्व समुदाय को योग का अंतरराष्ट्रीय दिवस अपनाने का आग्रह किया। उनकी इस पहल को 170 देशों का समर्थन हासिल था। इस प्रस्ताव को यूएनजीसीए ने स्वीकार कर लिया और 21जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा की। इसी के साथ प्राचीन भारतीय विज्ञान के ‘स्वस्थ प्रसन्न रहने के समेकित दृष्टिकोण’ को फिर से एक वैश्विक अनुमोदन प्राप्त हुआ। 21 जून, 2015 को पहले अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर पूरे भारत में तो सक्रिय भागीदारी देखी ही गई, साथ में 192 देशों ने इस अवसर को चिह्नित करने के लिए योग सत्र और अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया। विदेश में कई
वास्तविक प्रसन्नता का अनुभव करने का एकमात्र तरीका खुद को आंतरिक रूप से जागृत करना। यही योग है, ...न ऊपर, न बाहर बल्कि अंदर। यही एकमात्र मार्ग है। सद्गुरु जग्गी वासुदेव ईशा फाउंडेशन के संस्थापक
21 जून, 2015 : चीन में योग के पहले अंतरराष्ट्रीय दिवस पर योग करने वाले सैकड़ों लोग।
भारतीय दूतावास इस दिवस को मनाने के साथ योग के बारे में जागरुकता फैलाने की पहल में शामिल थे। योग दिवस को लेकर व्यापक उत्साह को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजपथ को ‘योगपथ’ के रूप में संदर्भित किया। हालांकि मौसम खराब था। कई जगहों पर बारिश हुई। बावजूद इसके योग दिवस के
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21 जून, 2015 : फ्रांस के पेरिस में एफिल टॉवर के पास पैर पर सैकड़ों लोग योगाभ्यास करते हुए।
21 जून, 2015 : नई दिल्ली में राजपथ पर प्रथम अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर योगाभ्यास करने आए लोगों को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
21 जून, 2015 : नई दिल्ली में राजपथ पर अंतरराष्ट्रीय दिवस योग पर दूसरों के साथ योग करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
लिए पूरे देश में उत्साह कम नहीं हुआ। यह दिवस योग गुरुओं की शिक्षा और फिल्मी सितारों की उत्साहपूर्ण मौजूदगी में मनाया गया। योग दिवस के कार्यक्रम खुले मैदानों, सभागारों, स्कूलों और कॉलेजों आदि में आयोजित किए गए। इस आयोजन को लेकर एक उल्लेखनीय बात यह देखी गई कि कि हैदराबाद में बासवतारकम इंडो-अमेरिकन कैंसर हॉस्पिटल एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के रोगियों ने योग शिक्षकों से निर्देश पर योगाभ्यास किया।
पुस्तक अंश
किसी भी प्रधानमंत्री (मोदी के पहले) ने वैश्विक स्तर पर योग के बारे में बात नहीं की। यह मोदी जी ही हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के लिए अभियान चलाया और 177 देशों का समर्थन प्राप्त किया। यह पहली बार है कि संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव को 177 देशों का समर्थन मिला है। यहां तक कि एक भी देश इसका विरोध नहीं कर रहा है। बाबा रामदेव योगगुरु
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मैं संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व योग दिवस की घोषणा पर माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बधाई देता हूं। ... योग अब तक एक तरह से अनाथ की तरह रहा है। अब संयुक्त राष्ट्र द्वारा आधिकारिक मान्यता मिलने से पूरी दुनिया में योग का लाभ फैलेगा।
- श्री श्री रवि शंकर संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व योग दिवस की घोषणा पर
21 जून, 2015 : नई दिल्ली में राजपथ पर प्रथम अंतरराष्ट्रीय योग दिवस में शरीक होते विदेशी और राजनयिक
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को मनाने की शुरूआत ने जहां सांस्कृतिक महाशक्ति के रूप में भारत को एक वैश्विक उभार दिया, वहीं इससे मानवता के लाभान्वित होने की अनंत राहें भी खुलीं। यह दुनिया के साथ भारत की समृद्ध आध्यात्मिक विरासत को साझा करने का एक तरह का जीवंत उपकरण है। यही नहीं, इससे वैश्विक सद्भाव और शांति में मदद मिलेगी और विश्व के लिए अंतिम आध्यात्मिक गंतव्य बनने की दिशा में भारत और आगे बढ़ेगा।
21 जून को योग दिवस को अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में घोषित करके संयुक्त राष्ट्र आमसभा ने इस कालातीत अभ्यास के समग्र लाभ और संयुक्त राष्ट्र के सिद्धांतों व मूल्यों के साथ अपनी अंतर्निहित निष्ठा को पहचाना है। बान की मून तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महासचिव
योग एक धर्म नहीं है। यह एक विज्ञान है, स्वस्थ-प्रसन्न रहने का विज्ञान, युवता का विज्ञान, शरीर के साथ मन और आत्मा को एकीकृत करने का विज्ञान। - अमित रे अपनी पुस्तक ‘योग एंड विपश्यना : एन इंटिग्रेटेड लाइफ स्टाइल’ में (शेष अगले अंक में)
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खेल
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ब्राजील की कड़वी यादों को भुलाना चाहेगा स्पेन गौरव कुमार सिंह
ब्राजील में हुए विश्व कप में मौजूदा चैंपियन के रूप में उतरी स्पेन को निराशा हाथ लगी और टीम ग्रुप स्तर से आगे नहीं बढ़ पाई थी
द्रेस इनिएस्ता एवं सर्गियो रामोस जैसे अनुभवी खिलाड़ियों की मौजूदगी में स्पेन 2014 फीफा विश्व कप की कड़वी यादों को भुलाते हुए रूस में होने वाले बहुप्रतिष्ठित टूर्नामेंट में दूसरी बार खिताब पर कब्जा करना चाहेगा। ब्राजील में हुए पिछले विश्व कप में मौजूदा चैंपियन के रूप में उतरी स्पेन को निराशा हाथ लगी थी और टीम ग्रुप स्तर से आगे नहीं बढ़ पाई थी। टीम को शुरुआती मैच में ही नीदरलैंड्स के हाथों 5-0 से करारी शिकस्त झेलनी पड़ी थी और वह इस कड़वी हार से उबर नहीं सकी थी। दूसरे एकतरफा मुकाबले में चिली ने स्पेन को 2-0 से हराया। तीसरे मैच में जरूर स्पेन ने आस्ट्रेलिया को 3-0 से मात दी, लेकिन यह जीत उसे नॉकआउट स्तर तक नहीं पहुंचा पाई। स्पेन ने पहली बार 1934 फीफा विश्व कप में हिस्सा लिया था और विश्व विजेता बनने के लिए उसे 76 वर्षो का लंबा इंतजार करना पड़ा। 2010 विश्व कप में भाग लेने वाली स्पेन की टीम को टूर्नामेंट के इतिहास की सबसे महान टीमों में गिना जाता है। यह वही समय था जब स्पेनिश कोच पेप गार्डियोला के मागदर्शन में एफसी बार्सिलोना फुटबाल खेलने के अपने अनोखे तरीके टिकी-टाका
से यूरोप के शीर्ष क्लबों को परेशानी हुई थी। बार्सिलोना के अलावा रियल मेड्रिड एवं एटलेटिको मेड्रिड की टीम भी बेहद मजबूत थी जिससे स्पेन की राष्ट्रीय टीम को बहुत लाभ हुआ। हालांकि, दक्षिण अफ्रीका में हुए विश्व कप में टीम की शुरुआत खराब रही थी और उसे पहले मैच में स्विट्जरलैंड के खिलाफ 1-0 से अप्रत्याशित हार झेलनी पड़ी थी। पहले मैच में सीख लेते हुए
टूर्नामेंट के बाकी मुकाबलों में स्पेन ने अपने प्रदर्शन के स्तर को गिरने नहीं दिया और ग्रुप स्तर में पहला पायदान हासिल करते हुए नॉकआउट में प्रवेश किया। नॉकआउट स्तर के मुकाबलों में स्पेन ने गेंद पर गजब का नियंत्रण दिखाया और सभी मैचों में जीत दर्ज की। फाइनल मुकाबले में भी स्पेन ने अपने तरीके में बदलाव नहीं किया और अतिरिक्त समय में आंद्रेस
20 वर्ष बाद वापसी के लिए तैयार
फीफा विश्व कप
इनिएस्ता ने ऐतिहासिक गोल दागकर पहली बार स्पेन को खिताब दिलाया। इनिएस्ता आगामी विश्व कप में भी टीम के अहम खिलाड़ी होंगे। इनिएस्ता के अलावा सर्गियो रामोस, जेरार्ड पीके एवं सर्गियो बुस्क्वेट्स का यह आखिरी विश्व कप भी हो सकता है। ऐसे में वे अपने अनुभव का इस्तेमाल करके स्पेन को खिताब तक पहुंचाना चाहेंगे। इस विश्व कप में स्पेन की सबसे बड़ी ताकत युवा एंव अनुभवी खिलाड़ियों का मिश्रण है। स्पेन के पास हर पोजीशन पर खेलने के विश्वस्तरीय खिलाड़ी मौजूद हैं और टीम अभी भी गेंद पर नियंत्रण बनाकर खेलना पसंद करती है। नए कोच जुलेन लोप्तेगुई ने अपने कार्यकाल में अब तक स्पेन के खेलने के तरीके में कुछ खास बदलाव लाने का प्रयास नहीं किया है। क्वालीफाइंग राउंड में टीम का प्रदर्शन शानदार रहा। स्पेन ने क्वालीफाइंग राउंड के दस में से नौ मुकाबलों में जीत दर्ज की जबकि एक मैच ड्रॉ रहा। कोच ने मार्को असेंसियो एवं साउल निगुएज जैस खिलाड़ियों को भी टीम में शामिल किया है और आगामी प्रतियोगिता में प्रशंसकों की नजरें इन प्रतिभाशाली खिलाड़ियों पर होंगी। विश्व कप में स्पेन को पुर्तगाल, मोरक्को एवं ईरान के साथ ग्रुप बी में रखा गया है और दर्शक रोनाल्डो बनाम स्पेन के डिफेंस के बीच होने वाले मुकाबले को देखने के लिए उत्सुक होंगे।
मोरक्को का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1986 में रहा जब टीम ने पहली बार टूर्नामेंट के अंतिम-16 में जगह बनाई
मो
एजाज अहमद
रक्को 20 साल बाद कप्तान मेधी बनेटिया के नेतृत्व में 14 जून से रूस में शुरू होने वाले फीफा विश्व कप में वापसी करने के लिए तैयार है। मोरक्को ने आखिरी बार 1998 विश्व कप में हिस्सा लिया था जहां वह 18वें नंबर पर रही थी। फीफा विश्व कप में टीम का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 1986 में रहा था जब टीम ने पहली बार टूर्नामेंट के अंतिम-16 में जगह बनाई थी। फीफा रैंकिंग में 42वें नंबर पर काबिज मोरक्को एकमात्र ऐसी टीम है जिसने विश्व कप के अपने क्वालीफाइंग अभियान के दौरान छह मैचों में एक भी गोल नहीं खाया था। टीम ने पिछले साल गेबन को 3-0 से मात देकर 20 साल बाद विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया था। विश्व कप में टीम को इस बार पुर्तगाल, स्पेन और ईरान के साथ ग्रुप बी में रखा गया है, जो उसके लिए ग्रुप ऑफ डेथ से कम नहीं है। प्रतियोगिता के नॉकआउट स्तर तक पहुंचना टीम के लिए सबसे
बड़ी चुनौती होगी। मोरक्को अपना पहला मुकाबला ईरान के साथ खेलना है। टीम के कोच हर्वे रेनार्ड पहले ऐसे कोच हैं जिन्होंने कई देशों के साथ सीएएफ अफ्रीका कप का खिताब जीता था। वह 2016 में
मोरक्को के कोच बने थे और तब से टीम ने शानदार प्रदर्शन किया है और 1998 के बाद पहली बार विश्व कप में जगह बनाई है। हर्वे अफ्रीका में सबसे सफल विदेशी कोच हैं। उनके मार्गदर्शन में जांबिया और आइवरी कोस्ट ने अफ्रीकी कप जीता है। ऐसे में मोरक्को के लिए वह इस बार विश्व कप में कुछ सकारात्मक परिणाम दे सकते हैं, लेकिन स्पेन और पुर्तगाल जैसी टीमों को चुनौती देना उनके लिए आसान
नहीं होगा। मोरक्को के पास इस बार कप्तान मेधी बनेटिया के रूप में सर्वेश्रेष्ठ डिफेंडर मौजूद हैं जो टीम के लिए काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं। बनेटिया के अफ्रीका के सर्वश्रेष्ठ डिफेंडरों में से एक माने जाते हैं। बायर्न म्यूनिख और जुवेंतस के लिए खेल चुके बनेटिया से टीम को काफी उम्मीदें हैं। इसके अलावा करीम अल अहमदी बैक लाइन में टीम को मजबूती देने के लिए तैयार हैं। रियल मेड्रिड के लिए राइट बैक के रूप में खेलने वाले अशरफ हकीमी टीम के सबसे युवा खिलाड़ी हैं और वह विश्व कप में अपनी छाप छोड़ना चाहेंगे। उन्होंने सात मैच खेले हैं जिसमें एक गोल भी किया है। इंग्लिश क्लब साउथ हैंप्टन के लिए खेलने वाले सोफियाने बौफल पर भी सबकी नजरें होंगी, जिन्होंने इस सीजन में 26 लीग मैचों में दो गोल दागे हैं। अयुब अल काबी अफ्रीकी नेशन चैंपियनशिप में सर्वोच्च स्कोरर रहे हैं, तो वहीं यूसुफ इत बेनासर मार्च में चोटिल होने के बाद टीम में वापसी कर रहे हैं।
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कही-अनकही
आज जाने की जिद न करो...
सं
एसएसबी ब्यूरो
फरीदा खानम के गाए इस गीत ने मुल्क और पीढ़ियों के फासले को जिस तरह मिटाया है, संगीत और शायरी की दुनिया में ऐसी मिसालें कम ही देखने को मिलती हैं
गीत की दुनिया की यह खासियत है कि कई बार कोई आवाज अपने दौर से इतनी आगे निकल जाती है कि वह न सिर्फ अपने गानेवाले को अमर बना देती है, बल्कि कामयाबी और शोहरत की बड़ी मिसाल भी बन जाती है। जब 70 के दशक में फरीदा खानम ने, ‘आज जाने की जिद न करो’, को पहली बार गाया, तो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के संगीत प्रेमी मंत्रमुग्ध रह गए। वैसे यह भी एक हैरत की बात है कि फरीदा खानम का नाम तो सबकी जुबान पर चढ़ गया, लेकिन इसके रचयिता फैयाज हाशमी को लगभग भुला दिया गया। हाशमी वही शख्स थे, जिन्होंने पंकज मलिक की गाई मशहूर गजल, ‘ये मौसम, ये हंसना हंसाना’ लिखी थी। उनके ही लिखे गीत 'तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला न सकेगी', ने तलत महमूद को पहचान दी। फरीदा खानम से भी पहले इस गीत को पाकिस्तान के मशहूर गायक हबीब वली मोहम्मद ने पाकिस्तानी फिल्म ‘बादल और बिजली’ के लिए गाया था। फरीदा खानम याद करती हैं, ‘ये गाना तो शुरू से ही जहन में था, जब पहली बार इसे हबीब वली मोहम्मद से गाते सुना था। अल्फाज बहुत अच्छे थे। धुन बहुत अच्छी थी... यमन कल्याण में। मैं सोच रही थी कि गाऊं या न गाऊं, क्योंकि मैं सोच रही थी फिल्म का गाना है।’ अपने इस अनुभव को लेकर वह आगे बताती हैं, ‘एक दिन मैं हारमोनियम पर कुछ सुर देख रही थी, तो मेरे बच्चे कहने लगे कि आप क्यों नहीं इसे गातीं। मैं सोचने लगी कि अच्छा भी गा सकूंगी या नहीं। दो-तीन साल हो गए थे उस गाने को ऑन एयर आए हुए। कम ही आता था रेडियो पर। ...फिर मैंने इस गाने को याद किया और गाया। पहले थोड़ा सा हल्का रहा, क्योंकि स्टाइल मैं पूरी तरह अपना नहीं सकी। फिर मैंने इसे अपने अंदाज में गाया।’ इस गाने की खासियत है इसका अपने आप बहना। इसमें फरीदा खानम का जो मनुहार या इसरार करने का जो अंदाज है, उससे हर एक को लगता है कि यह गीत उसके लिए ही गाया जा रहा है। मशहूर पत्रकार नजम सेठी और जुगनू मोहसिन के बेटे और पाकिस्तान के उभरते हुए गायक अली सेठी कहते हैं, ‘फरीदा खानम ने इस गीत को रोक कर गाया। उन्होंने इसे दीपचंदी ताल में जो सात मात्रा की ताल होती है, उसमें गाया। ...रोक के
गाने से मेरा मतलब ये है कि ये राग यमन कल्याण में उतर आता है। अगर आप इस राग को जहन में रख कर गाएं तो उनकी भावनाओं को समझने की गुंजाइश बहुत बढ़ जाती है। अगर आप इसके वादी स्वर गंधार को दबाएं, उसका मजा लें, उसको रोकें, उस पर ठहरें तो एक खास सुकून सा तारी हो जाता है गाने में।’ इस गाने में वो जब कहती हैं कि यूं ही पहलू में बैठे रहो, तो वहां वो ठहराव पैदा कर देती है और क्योंकि मौजूं भी उन अल्फाज का वैसा ही है। वह दरख्वास्त कर रही हैं रुकने या ठहरने की। लिहाजा, ऐसा करने से से इसका असर बहुत बढ़ जाता है। फरीदा खानम याद करती हैं कि फैयाज हाशमी से उनकी मुलाकात इस गाने को गाने से कहीं पहले कोलकाता में हुई थी और हाशमी ने उनकी इस समय बहुत हौसला अफजाई की थी जब वह मात्र 14 साल की थीं। फरीदा के ही शब्दों में, ‘उस समय फैयाज ईएमआई में डायरेक्टर थे, जब मैं उनसे जा कर मिली थी। उस समय मेरी उम्र सिर्फ 14 साल की थी। मैंने सुन रखा था कि ये बड़े शायर भी हैं और सुर को भी बहुत पसंद करते हैं। बहुत मिलनसार हैं. बड़े अफसरों की तरह नहीं मिलते। सादगी से मिलते हैं।’ इस गीत की लोकप्रियता का राज है इसके आसान अल्फाज। आजकल के हिंदी उर्दू बोलने वाले इसे आसानी से समझ सकते हैं। अली सेठी कहते हैं, ‘एक तो ये आम बोलचाल की जुबान में है। मौजूं भी बहुत युनिवर्सल है। फरीदा खानम ने फैज को गाया है, दाग देहलवी को गया है, मिर्जा गालिब को गाया है। अल्लामा इकबाल को भी गाया है। उसमें उन्होंने पटियाला घराने की अपनी जो ट्रेनिंग है... खटका, मुर्की और तान, सबका बेहतरीन इस्तेमाल किया है।’ ‘आज जाने की जिद न करो’, सिर्फ फरीदा खानम तक ही महदूद नहीं रहा। इसे आशा भोंसले, एआर रहमान और
फरीदा याद करती हैं कि फैयाज हाशमी से उनकी मुलाकात इस गीत को गाने से कहीं पहले कोलकाता में हुई थी और हाशमी ने उनकी इस समय बहुत हौसला अाफजाई की थी, जब वह मात्र 14 साल की थीं
टीना सानी जैसे न कितने लोगों ने परफॉर्म किया है। मीरा नायर की फिल्म ‘मॉनसून वेडिंग’ में इसे थीम सांग बनाया गया है। पर अगर इस गाने की पहचान किसी के साथ सबसे ज्यादा जुड़ी है तो वो हैं, फरीदा खानम। अली सेठी बताते हैं कि एक बार वो और मशहूर गायिका रेखा भारद्वाज इस गीत के बारीक पहलुओं पर बात कर रहे थे। ‘उन्होंने मुझसे
खास बातें 70 के दशक में फरीदा खानम ने ‘आज जाने की जिद न करो’ गाया इस गाने के रचयिता फैयाज हाशमी को कम ही लोग जानते हैं फरीदा के अलावा भी कई गायकगायिकाओं ने इस गीत को गाया है कहा, मैं फरीदा जी की आशिक हूं। ये गीत अब गीतकार का न रह कर उनका बन गया है।’ अली सेठी आगे बताते हैं कि इस बात में अब कोई दो राय नहीं रही कि जिस तरह से वो गाने को गाती हैं उस तरह से कोई भी उसे नहीं गा सकता। वो जिस तरह से ‘हाय’ कहती हैं, उनकी अदायगी का सारा राज उस हाय को कहने में मिला हुआ है।’ एक बड़ी बात यह भी है कि फरीदा के साथ उनके गाए इस गाने ने मुल्क और पीढ़ियों के फासले को जिस तरह मिटाया है, संगीत और शायरी की दुनिया में, ऐसी मिसालें कम ही हैं।
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सािहत्य
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जाति
कविता
सच्चाई
कविता
जलक्रांति
दीपक
ना तीर न तलवार से मरती है सच्चाई जितना दबाओ उतना उभरती है सच्चाई ऊंची उड़ान भर भी ले कुछ देर को फरेब आखिर में उसके पंख कतरती है सच्चाई बनता है लोह जिस तरह फौलाद उस तरह शोलों के बीच में से गुजरती है सच्चाई सर पर उसे बैठाते हैं जन्नत के फरिश्ते ऊपर से जिसके दिल में उतरती है सच्चाई जो धूल में मिल जाए, बजाहिर, तो इक रोज बागे-बहार बन के संवरती है सच्चाई रावण की बुद्धि,बल से न जो काम हो सके वो राम की मुस्कान से करती है सच्चाई
गरीबी और अमीरी
अ
कबर बीरबल से तरह-तरह के प्रश्न पूछा करते थे। कुछ प्रश्न ऐसे भी होते थे जो वह बीरबल की बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए पूछते थे। एक बार बादशाह अकबर बीरबल से बोले – बीरबल इस दुनिया में कोई अमीर है कोई गरीब है, ऐसा क्यों होता है ? सब लोग ईश्वर को परमपिता कहते हैं इस नाते सभी आदमी उनके पुत्र ही हुए। पिता अपने बच्चों को सदा खुशहाल देखना चाहता है, फिर ईश्वर परमपिता होकर क्यों किसी को आराम का पुतला बनाता हैं और किसी को मुट्ठीभर अनाज के लिए दर-दर भटकाता है ? आलमपनाह अगर ईश्वर ऐसा न करें तो उसकी चल ही नहीं सकती। वैसे तो दुनिया में पांच पिता कहे गए हैं, इस नाते आप भी अपनी प्रजा के पिता हैं, फिर आप किसी को हजार किसी को पांच सौ किसी को पचास तो किसी को सिर्फ पांच- सात रुपए ही वेतन देते हैं। जबकि एक महीने तक आप सभी से सख्ती से काम लेते हैं। ऐसा क्यो ? सभी को एक ही नजर से क्यों नहीं देखते ? बीरबल ने बादशाह के प्रश्न का
सोनम मिश्रा
आ
सुपर्णा राय
चार्य जीवतराम भगवानदास (जे.बी) कृपलानी गांधीवादी नेता थे। एक बार की बार है वे यात्रा के दौरान रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में वह बैठे थे उसी डिब्बे में एक दंपत्ति भी था, लेकिन वे आचार्य कृपलानी को नहीं जानते थे, वे उनसे अनभिज्ञ थे। उन्होंने आचार्य कृपलानी से पूछा, ‘आपकी जाति क्या है ?’ उनकी जिज्ञासा को शांत करते हुए आचार्य कृपलानी बोले, मेरी एक जाति हो तो बताऊं, मेरी तो कई जातियां हैं। इस पर पति-पत्नी असमंजस में पड़ गए और उन्होंने पूछा, ‘ इसका का क्या मतलब हुआ ?’ कृपलानी बोले, ‘अधिकतर जब में जूते साफ करता हूं तो चर्मकार हो जाता हूं।| जब में मेरे कपड़ों की धुलाई करता हूं तो धोबी बन जाता हूं।| जब में कॉलेज में अध्यापन के लिए जाता हूं तो ब्राह्मण हो जाता हूं और जब तनख्वाह का हिसाब लगाने बैठता हूं तब वाणिक बन जाता
हूं। अब आप ही बताएं मेरी कौन सी जाती हुई ? कृपलानी जी के जवाब सुनकर वह पति-पत्नी निरुत्तर ही नहीं हुए बल्कि शर्म भी महसूस करने लगे।| हम एक ही जीवन में, एक ही दिन में कार्य तो अनेक करते हैं, लेकिन जाति एक बताते हैं। कृपलानी जी ने बिलकुल सही उत्तर दिया। हमें भी इस बात पर थोड़ा सोचना चाहिए कि जो सांस ब्राह्मण लेता है वही सांस एक दलित भी लेता है, अगर परमात्मा की नजरों में हम सब के लिए कोई भेद होता तो वह भी तो हम सब के लिए तरह-तरह के इंतजाम कर सकता था, लेकिन उसने तो सभी को एक ही नजरों से देखा, लेकिन हमने सभी को जातियों में बदल दिया । इंसानों को तो छोड़ो हमने तो भगवान पर भी लेबल लगा रखे हैं की ये ऐसे भगवान है, या वैसे भगवान हैं। हमारी दृष्टि ही ऐसी है कि हम हर चीज को भिन्न-भिन्न करके देखते हैं। जब की ईश्वर ने हम सबको एक भाव से बनाया है उसका प्रेम सबके लिए समान है। हमें भी सभी लोगों को एक दृष्टि से देखना चाहिए। अब जब भी आप कही दो-लोगों को जातिवाद के ऊपर बात करते देखें तो उनको यह कहानी जरूर सुनाइए।
बीरबल की कहानी
पूजा सोनी
उत्तर देने के बजाय प्रश्न किया बादशाह तुरंत कोई भी जवाब नहीं दे सके। वे सोच में पड़ गए। बादशाह को इस तरह खयालों में खोया देखकर बीरबल बोले – जो जैसा काम करता है, उसे वैसी ही मजदूरी मिलती है, और इसी पर दुनिया का कारोबार चलता है। अगर ऐसा न हो तो यह दुनिया चल ही नहीं सकती। इसी तरह ईश्वर का न्याय होता है। वह कभी
नहीं चाहता कि दुनिया के लोग दुख उठाएं। ईश्वर हमेशा उन्हें मुश्किलों से बचाता है लेकिन जो कोई उसकी बात नहीं मानता उसे सजा भुगतनी पडती है। जो जैसा काम करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। जो ज्यादा मेहनत करता है वह धनवान बनता है जो कम काम करता है वह गरीब होता है। इसमें ईश्वर का क्या दोष ?
आओ आज तुम्हें सुनाएं जल क्रांति की कहानी, आओ जल क्रांति के नायक से तुमको मिलवाएं, श्रद्धा से उनके आगे हम अपनी शीश झुकाएं, कैसे आया जल क्रांति ये तुमको हम बतलाएं मिदनापुर के लोगों में फैली थी एक बीमारी, आर्सेनिक के कारण झेल रहे महामारी, उन लोगों को पाठक जी ने दिया ये अनुपम ज्ञान, मत करो दूषित जल का पान मत करो दूषित जल का पान। पोखर जल को साफ कर दिया है जीवन दान, दुनिया झुक कर करे सलाम, दुनिया झुक कर करे सलाम। देखो अब आई हींगोलगंज की बारी, वहां पहुंच कर देखा पीड़ित थे सब नर नारी। उन लोगों को पाठक जी ने अपने गले लगाया, उनकी पीड़ा की खातिर कुएं का जल साफ कराया, कुएं के जल से अब हुआ बहुत आराम, अब नहीं डायरिया का नाम, अब नहीं डायरिया का नाम। पाठक जी ने देखो दिया ये अनुपम ज्ञान, मत करो दूषित जल का पान, मत करो दूषित जल का पान। देखो ये है शांति निकेतन, इसकी महिमा न्यारी, इसके कण - कण में बसते हैं कला संस्कृति के पुजारी, पाठक जी ने इन रत्नों को दिया ये अद्भुत ज्ञान, मत करो दूषित जल का पान, मत करो दूषित जल का पान। कुएं के जल को साफ करा कर दिया ये वरदान, नहीं अब डिसेंटरी का नाम, देखो आप सब उनकी बातों का रखना ध्यान, मत करो दूषित जल का पान, मत करो दूषित जल का पान।
11 - 17 जून 2018
आओ हंसें
स्कूल में लेट
पप्पू देर से स्कूल पहुंचा टीचर : इतना लेट स्कूल आता है ? पप्पू : मां कसम... पहली बार ही लेट हुआ हूं। टीचर : आज तुम नहाकर क्यों नहीं आए? कल मम्मी को बुलाकर लाना। अगले दिन टीचर मम्मी से : अपने बच्चे को नहला कर भेजा करो। मम्मी : आप बच्चों को पढ़ाया करो। उन्हें सूंघा मत करो? टीचर बेहोश।
जीवन मंत्र
सु
जो चाहा, वो मिल जाना सफलता है। जो मिला, उसे चाहना प्रसन्नता है।
डोकू -26
रंग भरो सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी विजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार दिया जाएगा। सुडोकू के हल के लिए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें
महत्वपूर्ण दिवस
• 11 जून आचार्य श्रीराम शर्मा की पुण्यतिथि • 12 जून अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम निषेध दिवस • 13 जून ऊधम सिंह शहीद दिवस • 14 जून विश्व रक्तदान दिवस, छत्रपति शिवाजी राज्याभिषेक दिवस • 16 जून
सुडोकू-25 का हल
अंतरराष्ट्रीय एकता दिवस • 17 जून विश्व रेगिस्तान तथा सूखा रोकथाम दिवस
बाएं से दाएं
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इंद्रधनुष
वर्ग पहेली-25 का हल
1. राज्य (3) 3.झूलता हुआ (5) 6. आलसी, धीमा (2) 7. मौका (4) 8. आराधना करने वाला (4) 9. होश, चेत (2) 10. प्रभु, भगवान (3) 12. सूर्य संबंधी (2) 14. जीवन के चार आश्रमों में से तीसरा (4) 15. वेतन के अतिरिक्त भत्ते आदि (4) 16. काँटा (2) 17.लेखक (5) 18. पुरस्कार (3)
ऊपर से नीचे
2. मृत्यु (5) 3.मित्र (2) 4. मृत्यु का देवता (4) 5. जहाँ नमक बनाया जाता हो (5) 6. सुरमे जैसा काला व नीलवर्ण (4) 9. भार वहन करने वाला (5) 11. मोती (4) 12. बार बार बहाने बनाना, अकड़ रखना(मुहावरा) (5) 13. अनुपम, बेजोड़ (4) 16. योद्धा, बढ़ा-चढ़ा (2)
कार्टून ः धीर
वर्ग पहेली - 26
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न्यूजमेकर
11 - 17 जून 2018
अनाम हीरो
मंजू देवी
अभय श्री
हौसले का बिल्ला
अभय होने की शिक्षा
जयपरु को मंजू देवी के रूप में मिली पहली महिला कुली
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कसर रेलवे स्टेशन पर आपने पुरुष कुलियों को देखा होगा, जो भारी-भारी बैग भी आसानी से उठा लेते हैं। लेकिन जयपुर को पहली महिला कुली मिली है, जिनका नाम मंजू देवी है। उनकी जिंदगी काफी संघर्षमय है। पुरुष कुलियों के साथ बैठकर वो यात्रियों का इंतजार करती है। हर कोई उन्हें कुली के रूप में देखकर हैरान रह जाता है। मंजू देवी घर की अकेली कमाने वाली है। पति की मौत के बाद वो मजबूरी में यह काम कर रही है। बच्चों के लिए उन्होंने कुली बनने का फैसला लिया। न तो उन्हें इस काम से शर्म आती है और न ही मुसाफिरों के वजनी सामान उठाने में उन्हें कोई तकलीफ महसूस होती है। उनके पति भी कुली थे। मंजू ने पति
का बिल्ला नंबर-15 लेकर काम करना शुरू कर दिया। मंजू देवी ने बताती है, ‘पति की मौत के बाद मैं और मेरे तीन बच्चे बेसहारा हो गए थे। लेकिन मैंने हार नहीं मानी और स्टेशन पर कुली का काम करने लगी। सभी कुली उनकी काफी मदद करते हैं।’ देशभर की 90 महिलाओं को अपनी अलग पहचान बनाने के लिए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद मंजू को पुरस्कृत कर चुके हैं।
शिक्षक अभय लंबे वक्त से दिव्यांग बच्चों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में जुटे हैं
‘हेयर फॉर होप’
कैंसर पीड़ितों के लिए केशदान
‘हेयर फॉर होप’ पहली ऐसी संस्था है, जिसने कैंसर पीड़ितों के लिए बाल दान करने की पहल की है
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सर से पीड़ित मरीज कीमोथेरेपी के दौरान अपने बालों को खो देते हैं। ऐसे में पीड़ित लोग समाज में जाने से कतराते हैं। उनकी इस समस्या को दूर करने के लिए ‘हेयर फॉर होप’ नामक संस्था ने एक कदम उठाया है। यह संस्था इन लोगों के लिए बाल दान करने की अपील कर रही है। संस्था ऐसा करके लोगों को थोड़ी सी खुशी प्रदान करना चाहती है। यह पहली ऐसी संस्था है, जिसने कैंसर पीड़ितों के लिए बाल दान करने की पहल की है। हाल में ही नगालैंड के दीमापुर के लाइटहाउस चर्च में कैंसर रोगियों के बाल दान समारोह आयोजित किया गया, जिसमें लगभग 30 लोगों ने विशेष रूप से बाल दान किए। हेयर फॉर
होप इंडिया की तरफ से उत्तर-पूर्वी भारत में यह अपने पहला कार्यक्रम है। दान किए गए बालों की विग बना कर उन्हें गरीबी से पीड़ित कीमोथेरेपी करा रहे मरीजों को दान किया जाएगा। इस कार्यक्रम के पीछे जिस महिला का हाथ है उसका नाम अमीन जामिर है। वह कहती हैं कि कैंसर से पीड़ित अपनी मां को खोने के बाद वह कैंसर के मरीजों की मदद करने के लिए कुछ बेहतर करना चाहती हैं। अमीन के शब्दों में, ‘हेयर फॉर होप पेज को मैंने फेसबुक पर कुछ वर्ष पहले देखा तो इस अभियान में स्वयंसेवक बनना चाहा। तब से मैंने दो बार बाल दान किए हैं। दान किए गए बालों को सीधे प्रसंस्करण के लिए हेयर फॉर होप, बेंगलुरु भेजा जाएगा।’
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4 साल के अभय यूं तो बेसिक शिक्षा विभाग में शिक्षक हैं लेकिन उनका परिचय इससे कहीं अधिक है। अभय लंबे वक्त से दिव्यांग बच्चों के लिए काम कर रहे हैं और विकलांगता की चारों विधाओं से ग्रस्त बच्चों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम कर रहे हैं। उनका मानना है कि हर बच्चा खास होता है, दिव्यांगता किसी भी बच्चे की प्रतिभा को जरा भी कम नहीं कर सकती। अभय बीते कई वर्षों से ऐसे बच्चों को कई तरह से प्रशिक्षित करते हैं। वे उनकी पढ़ाई-लिखाई के अलावा उनकी प्रतिभा को निखारते हैं। एक सरकारी शोध बताता है कि हमारे देश में ज्यादातर दिव्यांग बच्चे पांचवीं से आठवीं के दौरान पढ़ाई छोड़ देते हैं। क्योंकि वे शारिरिक दिक्कतों के चलते मन से टूट जाते है। शायद इसीलिए क्योंकि उन्हें अपना आने वाला कल मुश्किल लगता है। ऐसे बच्चे वो खुद को मुख्यधारा से नहीं जोड़ पाते। अभय दिव्यांग बच्चों के इस एहसास को समझते हैं। उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में उनके अभियान से तकरीबन पांच हजार बच्चे जुड़ चुके हैं, जो मौजूदा वक्त में दसवीं और बारहवीं के छात्र हैं। जब ऐसे छात्रों से बात की गई तो तो उन्होंने बताया कि मास्टर साहब के सहयोग के चलते ही वो आज अपनी तालीम पूरी कर पा रहे हैं। देश के सरकारी स्कूलों और शिक्षकों के बारे में आम राय चाहे जो भी हो, लेकिन ये बच्चे और इनके अभिभावक अभय सर को बहुत चाहते हैं। अभय के ट्रेंड बच्चों से मिलकर ऐसा लगता ही नहीं कि उन्हें कहीं किसी तरह की कोई दिक्कत है। वे खेलते हैं, कूदते हैं, पढ़ते हैं और हां शैतानी भी करते हैं।
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 26