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गांधी जयंती विशेष
गांधी जयंती विशेष
शास्त्री जयंती विशेष
तारीखी संबोधन
महात्मा का सुलभ मार्ग
भारत का असाधारण लाल
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
बदलते भारत का साप्ताहिक
वर्ष-2 | अंक-42 |01 - 07 अक्टूबर 2018
मौजूदा दौर की बड़ी दरकार
गांधी विचार
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गांधी जयंती विशेष
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जिन लोगों ने धैर्य से और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों को छोड़कर गांधी जी के जीवन और उनके विचारों की छाया में समय बिताया है, उन्हें अपने लिए और अपने दौर की चुनौतियों के समाधान की नई राह मिली है
आप मुझे जंजीरों में जकड़ सकते हैं, यातना दे सकते हैं, यहां तक कि आप इस शरीर को नष्ट कर सकते हैं, लेकिन आप कभी मेरे विचारों को कैद नहीं कर सकते हैं
गां
एसएसबी ब्यूरो
धी विचार को लेकर हर उस व्यक्ति को परेशानी हो सकती है, जिसे विचारों को पक्ष की तरह देखने की आदत हो। यह
खास बातें
गांधी जी सदैव गांवों की रचनात्मक ताकत को चिन्हित करते हैं वे आजीवन अंध मशीनीकरण का विरोध करते रहे 1909 में प्रकाशित हुई थी गांधी जी की पुस्तिका ‘हिंद स्वराज’
पर्यावरण को लेकर चिंता आधुनिक विश्व के लिए भले नई हो, पर महात्मा गांधी जी के अहिंसक चिंतन का आरंभ ही इस सूत्र से होता है कि मनुष्य को समाज और प्रकृति दोनों के साथ जिम्मेदार सहअस्तित्व बोध के साथ अपनी प्रगति और विकास के मार्ग पर आगे बढ़ना होगा एकांगी समझ गांधी विचार को समझने में हमारी मदद तो खैर नहीं ही करते हैं, इससे कई नई गलतफहमियां अलग से जरूर जन्म ले लेती हैं। जबकि जिन लोगों ने धैर्य से और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों को छोड़कर गांधी जी के जीवन और उनके विचारों की छाया में समय बिताया है, उन्हें अपने लिए और अपने दौर की चुनौतियों के समाधान की नई राह मिली है।
सभ्यता और विकास
बात शुरू करें पर्यावरण की तो इसको लेकर चिंता आधुनिक विश्व के लिए भले नई हो, पर महात्मा गांधी जी के अहिंसक चिंतन का आरंभ
ही इस सूत्र से होता है कि मनुष्य को समाज और प्रकृति दोनों के साथ जिम्मेदार सहअस्तित्व बोध के साथ अपनी प्रगति और विकास के मार्ग पर आगे बढ़ना होगा। साथ ही उन्होंने इस बात की चेतावनी भी दी कि मानवीय समाज और प्रकृति के बीच का संबंध अगर उपभोग या दोहन की दिशा में बढ़ेगा तो, इसके प्रभाव कदापि कल्याणकारी नहीं हो सकते। दरअसल, उन्होंने बहुत पहले ही आधुनिक औद्योगिक समाज के पारिस्थितकीय संकट का अनुमान लगा लिया था और वे इसके दूरगामी दुष्परिणामों का अंदाजा लगा चुके थे। इस दृष्टि से गांधी जी की पुस्तिका ‘हिंद स्वराज’ सबसे अहम है। दिलचस्प है कि यह पुस्तिका वास्तव में
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गांधी जयंती विशेष
प्रकृति, संस्कृति और पुरुषार्थ जिस मशीनीकरण की बुनियाद पर विकास की पूरी संकल्पना खड़ी हो, उस मशीन के साथ गांधी जी मनुष्यता का कल्याण नहीं देखते हैं और वे इस बात को काफी तार्किक तरीके से रखते हैं
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शीनीकरण को लेकर गांधी जी के बीज विचार ‘हिंद स्वराज’ में प्रकट हुए हैं। 1909 में प्रकाशित यह पुस्तिका गांधी जी के विचार की कुंजी मानी जाती है। बाद में खुद गांधी जी ने भी माना था कि वे ‘हिंद स्वराज’ में प्रकट विचार पर आजीवन कायम रहेंगे और इसमें एक शब्द तक के हेर-फेर के लिए वे तैयार नहीं हैं। 1909 में आई इस पुस्तिका को प्रकाशित हुए सौ साल से ज्यादा हो गए हैं, पर आज भी गांधी जी के विचार की यह टेक अपनी प्रासंगिक व्याख्याओं के साथ लगातार चर्चा में बनी हुई है। इसमें मशीनीकरण के अंधे दौड़ को लेकर एक जगह वे दो टूक कहते हैं, ‘ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरह की खोज करना आता नहीं था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग यंत्र वगैरह की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझ कर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदुरुस्ती है।’ वस्तुत: गांधी जी की दृष्टि में श्रम आधारित उद्योग-शिल्प ही वह चीज है, जिसकी बदौलत
मनुष्य भोजन, वस्त्र, आवास जैसी आवश्यकताओं के लिहाज से स्वावलंबी रहता आया था और अन्य प्राणी भी सुरक्षित रहते आए थे। इस जीवन संस्कार की ही यह देन रही कि पेयजल संकट, ग्लोबल वार्मिंग, पशु-पक्षियों और पेड़ों की कई प्रजातियों के समाप्त होने के खतरे जैसे अनुभव लंबे दौर में कभी हमारे सामने नहीं आए। ये संकट तो उस आधुनिकता के साथ सामने आए जिसकी शुरुआत यूरोपीय औद्योगिक क्रांति से मानी जाती है। औद्योगिक क्रांति ने उत्पादन के जिस अंबार और उसके असीमित अनुभव के लिए हमें प्रेरित किया, उसकी पूरी बुनियाद मजदूरों के शोषण पर टिकी थी। दिलचस्प है कि ज्यादा उत्पादन और असीमित उपभोग को जहां आगे चलकर विकास का पैमाना माना गया, वहीं प्राकृतिक संपदाओं के निर्मम दोहन को लेकर सबने एक तरफ से आंखें मूंदनी शुरू कर दी। कार्ल मार्क्स ने उत्पादन-उपभोग की इस होड़ में मजदूरों के शोषण को तो देखा, लेकिन मनुष्येतर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को, मशीनीकरण की आंधी से उजड़ते यूरोप को वे नहीं देख सके। इसे अगर किसी ने देखा तो वे थे गांधी जी।
ऐसा नहीं था कि हमें यंत्र वगैरह की खोज करना आता नहीं था। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि लोग यंत्र वगैरह की झंझट में पड़ेंगे, तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नीति को छोड़ देंगे। उन्होंने सोच-समझ कर कहा कि हमें अपने हाथ-पैरों से जो काम हो सके वही करना चाहिए। हाथ-पैरों का इस्तेमाल करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तंदुरुस्ती है- महात्मा गांधी तब लिखी गई थी जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में थे। इसमें उन्होंने सभ्यता और विकास को लेकर अपनी अहिंसक समझ की पूरी अवधारणा को स्पष्ट किया है। 1914 में भारत आगमन पर गांधी जी ने अपने आप को तत्काल गांवों की सामाजिक व आर्थिक स्थितियों का प्रत्यक्ष परिचय पाने में लगा दिया। भारतीय गांवों में उनकी यात्राओं के द्वारा तथा
चंपारण व खेड़ा में किसानों द्वारा प्रारंभिक सत्याग्रहों के दौरान गांधी जी ने उपनिवेशवाद को एक आर्थिक शोषण और जातीय विभेद की व्यवस्था की तरह स्पष्ट रूप से देखा। वैसे इसका अनुभव वह दक्षिण अफ्रीका में भी कर चुके थे। भारतीय गांवों में अपनी तल्लीनता तथा उपनिवेशवाद की इस गहरी समझ के द्वारा गांधी जी ने यह देखा कि औद्योगिक विकास के पश्चिमी नमूने के साथ बराबरी करना भारत के
उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ में साफ शब्दों में कहा, ‘मशीनें यूरोप को उजाड़ने लगी हैं और वहां की हवा अब हिंदुस्तान में चल रही है। यंत्र आज की सभ्यता की मुख्य निशानी है और वह महापाप है। मशीन की यह हवा अगर ज्यादा चली, तो हिंदुस्तान की बुरी दशा होगी।’ कहना नहीं होगा कि गांधी जी ने औद्योगीकरण की अविवेकी राह पर चलते हुए मनुष्य और प्रकृति दोनों के धीरे-धीरे मिटते जाने का खतरा आज से सदी पहले भांप लिया था। लिहाजा, आज ग्लेशियरों के पिघलने से बढ़े ग्लोबल वार्मिंग के संकट से लेकर जल और वायु प्रदूषण के तमाम खतरों के बीच प्रकृति, प्रेम और करुणा का गांधी जी का समन्वयवादी पक्ष एकमात्र समाधान की तरह दिखता है। अच्छी बात यह होगी कि यह समाधान चिंतन और चर्चा से आगे हमारे जीवन में भी स्थायी जगह बनाए। गांधी जी 'हिंद स्वराज’ में बड़ी लागत, बल्क प्रोडक्शन, मशीनीकरण इन सब का विरोध एक स्वर में करते हैं। उनकी नजर में प्रकृति, संस्कृति और पुरुषार्थ का साझा बनाए रखना इसलिए जरूरी है क्योंकि इससे विकास और स्वावलंबन के अस्थायी या गैर टिकाऊ होने का संकट तो नियंत्रित होता ही है, उस विकासवादी जोर से भी मोहभंग होता है जो हमें एक एेसे संकट की तरफ लगातार ले जा रहा है, जहां धूप-पानी-धरती सब हमारे लिए प्रतिकूल होते जा रहे हैं। आखिर में गांधी जी की पर्यावरणवादी दृष्टि की व्यापकता को समेकित तौर पर समझने के लिए प्रसिद्ध लेखक और ‘हिंद स्वराज’ की पुनर्व्याख्या का जोखिम उठाने वाले वीरेंद्र कुमार बरनवाल का यह कथन गौरतलब है- ‘गांधी जी ने अपनी आधी सदी से अधिक चिंतन के दौरान यह सिद्ध करने का अनवरत प्रयास किया कि लगातार धरती के पर्यावरण के विनाश की कीमत चुका कर अंधाधुंध औद्योगीकरण आर्थिक दृष्टि से भी निरापद नहीं है। गांधी जी हमें यह देखने की दृष्टि देते हैं कि हमारे जल-जंगल-जमीन के लगातार भयावह रूप से छीजने से हो रही भीषण हानि के सहस्रांश की भी भरपाई की क्षमता हमारे सुरसाबदन बढ़ते उद्योगों में नहीं है। इसका आर्थिक मूल्य अर्थशास्त्र की बारीकियों को बिना जाने भी समझा जा सकता है। गांधी-चिंतन का यह प्रबल उत्तर आधुनिक पक्ष है।’ लिए असंभव होगा। इसके लिए तो भारत को अपनी परंपरा और पुरुषार्थ की जमीन को हराभरा करना होगा।
उद्योगों को लेकर भिन्न समझ
‘यंग इंडिया’ में 20 दिसंबर, 1928 को वे लिखते हैं, ‘ईश्वर न करे कि भारत भी कभी पश्चिमी देशों के ढंग का औद्योगिक देश बने। एक अकेले इतने
हो सकता है आप कभी न जान सकें कि आपके काम का क्या परिणाम हुआ, लेकिन यदि आप कुछ करेंगे नहीं तो कोई परिणाम नहीं होगा
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गांधी जयंती विशेष
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स्वच्छता और सत्याग्रह
स्वच्छता की कमी एक अदृश्य हत्यारे की तरह है। गांधी जी को गंदगी में हिंसा का सबसे घृणित रूप छिपा हुआ दिखता था। इसीलिए वह सामाजिक-राजनीतिक, दोनों ही तरह की स्वतंत्रता के मार्ग में स्वच्छता और अहिंसा को सहयात्री की तरह मानते थे
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आप मानवता में विश्वास मत खोइए। मानवता सागर की तरह है। अगर सागर की कुछ बूंदें गंदी हैं, तो सागर गंदा नहीं हो जाता
हात्मा गांधी जी ने आजादी हासिल करने के अपने अहिंसक आंदोलन की समूची अवधि के दौरान स्वच्छता के अपने संदेश को जीवंत बनाए रखा। नोआखाली नरसंहार के बाद अहिंसा के अपने विचार और व्यवहार की अग्निपरीक्षा की घड़ी में गांधी जी ने अपने इस संदेश को जन-जन तक पहुंचाने का कोई अवसर नहीं गंवाया कि स्वच्छता और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक दिन नोआखाली के गड़बड़ी वाले इलाकों में अपने शांति अभियान के दौरान उन्होंने पाया कि कच्ची सड़क पर कूड़ा और गंदगी इसलिए फैला दी गई है, ताकि वह हिंसाग्रस्त इलाके के लोगों तक शांति का संदेश न पहुंचा पाएं। गांधी जी इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और उन्होंने इसे उस कार्य करने का एक सुनहरा अवसर माना जो सिर्फ वही कर सकते थे। आस-पास की झाड़ियों की टहनियों से झाड़ू बनाकर शांति और अहिंसा के इस दूत ने अपने विरोधियों की गली की सफाई की और हिंसा को और भड़कने से रोक दिया। उनके लिए ‘स्वस्थ तन, स्वस्थ मन’ की कहावत में कोई मूर्त अभिव्यक्ति अंतर्निहित नहीं थी, बल्कि इसमें एक गहरा दार्शनिक संदेश छिपा हुआ था। स्वच्छता की कमी एक अदृश्य हत्यारे की तरह है। गांधी जी को गंदगी में हिंसा का सबसे घृणित रूप छिपा हुआ दिखता था। इसीलिए वह सामाजिक-राजनीतिक, दोनों ही तरह की स्वतंत्रता के मार्ग में स्वच्छता और अहिंसा को सहयात्री की तरह मानते थे। गांधी जी पश्चिम में स्वच्छता के सुचिंतित नियमों को देख चुके थे, इसीलिए वे इन्हें अपने और अपने करोड़ों अनुयायियों के जीवन में अपनाने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। हालांकि इसके लिए उन्होंने जो कार्य शुरू किया उसमें से ज्यादातर अब भी अधूरे ही हैं। ‘वर्षों पहले मैंने जाना कि शौचालय भी उतना ही साफ-सुथरा होना चाहिए जितना कि ड्राइंग रूम’, गांधी जी का यह कथन स्वच्छता अभियान के दौरान बार-बार उद्धृत किया जाता है। अपनी जानकारी को ऊंचे स्तर पर ले जाते हुए गांधी जी ने अपने शौचालय को (सेवाग्राम आश्रम में) शब्दश: पूजास्थल की तरह बनाया क्योंकि उनके लिए स्वच्छता दिव्यता के समान थी। शौचालय को इतना महत्व देकर ही जनता को इसके महत्व के बारे में समझाया जा सकता है। इस पर अमल के लिए हमें गंदगी में रहने के बारे में अपनी उस धारणा में बदलाव लाना होगा जिसके तहत हम स्वच्छता को आम बात न मानकर एक अपवाद अधिक मानते हैं। देश को 2 अक्टूबर 2019 तक खुले में शौच से मुक्ति दिलाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य
‘वर्षों पहले मैंने जाना कि शौचालय भी उतना ही साफ-सुथरा होना चाहिए जितना कि ड्राइंग रूम’, गांधी जी का यह कथन स्वच्छता अभियान के दौरान बार-बार उद्धृत किया जाता है
उसी दिशा में उठाया गया पहला कदम है। देश भर में 5 करोड़ से ज्यादा घरों में से हर एक में शौचालय का निर्माण करने का वादा एक चुनौती भरा लक्ष्य है, लेकिन ‘शौचालय आंदोलन’ को ऐसे ‘सामाजिक आंदोलन’ में बदलना, जिसमें शौचालयों का उपयोग आम बात बन जाए, तभी संभव है जब हम गांधी जी के जीवन से सबक लें। अन्य बातों के अलावा हमें शौचालयों की सफाई करने और सीवेज के गड्ढों को खाली करने के बारे में गांव के लोगों की अनिच्छा जैसी सामाजिक-सांस्कृतिक वर्जना को दूर करना होगा। कोई भी इस समस्या की गंभीरता का अनुमान उस तरह से नहीं लगा सकता जिस तरह गांधी जी ने खुद इसका आकलन किया था। एक बार जब कस्तूरबा गांधी जी ने शौचालय साफ करने और
गंदगी का डब्बा उठाने में घृणा महसूस की थी तो गांधी जी ने उन्हें झिड़की दी थी कि अगर वह सफाईकर्मी का कार्य नहीं करना चाहतीं तो उन्हें गृह-त्याग कर देना चाहिए। स्वच्छता उनके लिए अहिंसा की तरह, या शायद इससे भी ऊंची चीज थी। गांधी जी के जीवन के इस छोटे-से मगर महत्वपूर्ण प्रकरण में एक बहुमूल्य संदेश निहित है। अपने बाकी जीवन में इस पर अमल करते हुए कस्तूरबा ने अनजाने में ही ‘स्वच्छता ही व्यवहार है’ का परिचय दे दिया। देश में चल रहे स्वच्छता अभियान के लिए यह प्रेरक संदेश हो सकता है। आखिर यही तो वह व्यवहार-परिवर्तन है, जिसके संदेश को स्वच्छ भारत मिशन के जरिए करोड़ों लोगों के मन में बैठाने का प्रयास किया जा रहा है।
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गांधी जयंती विशेष को पर्यावरण कार्यकर्ता या प्रेमी कहलाने के बजाय प्रकृतिवादी अथवा प्रकृति प्रेमी कहलाना पसंद करते हैं। दरअसल, सभ्यता विकास के जिन आरंभिक बोधों के साथ मनुष्य आगे बढ़ा, उनमें हवा, पानी, पर्वत, नदी, वन, वनस्पति, पशु-पक्षी आदि के साथ एक समन्वयवादी संबंध शामिल रहा। उषा की प्रार्थना, सूर्य नमस्कार, नदियों की पूजा-आरती, पर्वतों की वंदना, जड़-चेतन सबमें ब्रह्म के होने की परिकल्पना, प्रकृति के प्रति करुणा का भाव आदि ने एक तरह से भारतीय जीवनशैली को गढ़ा है। भारतीय चिंतन की यही प्रवृति हमें गांधी जी के चिंतन में भी दिखाई पड़ती है।
‘पर्यावरण’ शब्द नहीं
आज पर्यावरण-रक्षा के नाम पर पौधरोपण का जो अभियान चलाया जा रहा है, उसके महत्व से गांधी जी भी अवगत थे और अपने धर्म का दायरा विस्तृत करते हुए उसमें वृक्ष-पूजा को भी उन्होंने शामिल कर लिया था छोटे से द्वीप (इंग्लैंड) का आर्थिक साम्राज्यवाद ही आज संसार को गुलाम बनाए हुए है। 30 करोड़ आबादी वाला हमारा समूचा राष्ट्र भी अगर इसी प्रकार के आर्थिक शोषण में जुट गया तो वह सारे संसार पर एक टिड्डी दल की भांति छाकर उसे तबाह कर देगा।’
गांव और गरीब की फिक्र
गांधी जी अपनी इस पूरी समझ में गांव और गरीब के हक में इस लिहाज से भी खड़े दिखाई देते हैं कि वे हमेशा गांवों की रचनात्मक ताकत को चिन्हित करते हैं और इसे ही भविष्य के भारत की ताकत बनाना चाहते हैं। 23 जून, 1946 को ‘हरिजन’ में छपे एक आलेख में वे कहते हैं, ‘ग्रामीण रक्त ही वह सीमेंट है, जिससे शहरों की इमारतें बनती हैं।’ ‘हरिजन’ में ही 11 मई, 1935 को दर्ज अपने एक अनुभव में वे कह चुके होते हैं, ‘हम इस सुंदर पंडाल में बिजली की रोशनी की चकाचौंध में बैठे हैं, लेकिन हम नहीं जानते कि हम इस रोशनी को गरीबों की कीमत पर जला रहे हैं।’
दिलचस्प है कि गांधी जी के लेखन या चिंतन में ‘पर्यावरण’ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। वैसे यह एक भाषागत मुद्दा है न कि वैचारिक। हिंदी में ‘पर्यावरण’ शब्द वैसे भी ‘एनवायरेंमेंट’ शब्द के हिंदी अनुवाद से ही ज्यादा प्रचलन में आया है। वरिष्ठ पर्यावरणविद अनुपम मिश्र भी कहते थे कि अगर हमें जीवन और प्रकृति के बीच संबंधों को लेकर उनके देशज जड़ों तक पहुंचना है तो हमें देशज भाषा की मदद लेनी चाहिए। उन्होंने शोध करके बताया था कि जिस राजस्थान में बादल का बरसना तो दूर, उसकी छाया भी वहां के लोगों को नसीब नहीं होती, वहां बादल और मेघ के लिए एक-दो नहीं, बल्कि दर्जनों स्थानीय शब्द हैं। तारीफ ये कि इसमें एक भी शब्द दूसरे शब्द के पर्यायवाची नहीं, बल्कि सभी अलग-अलग लक्ष्यार्थों को व्यक्त करते हैं। साफ है कि पर्यावरण शब्द का प्रचलन और उसको लेकर चिंता भले नई हो, पर पर्यावरण के साथ हमारे भाषिक-सांस्कृतिक सरोकार और संस्कार बहुत पहले से जुड़े रहे हैं। इन सरोकारों-संस्कारों के कारण ही कई लोग खुद
गांधी जी पर्यावरण शब्द का इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि उनके समय में यह शब्द प्रचलित नहीं था। पर पर्यावरण को लेकर आज जो भी आशय प्रकट किए जाते हैं या चिंता जताई जा रही है, गांधी जी उससे पूरी तरह जुड़े दिखाई पड़ते हैं। प्रेम और करुणा का भाव उन्हें प्रकृति के साथ रचनात्मक साहचर्य के लिए तो प्रेरित करता ही रहा, संत विनोबा सरीखे कुछ विद्वानों की नजर में ये भाव उन्होंने प्रकृति से ही ग्रहण भी किए। प्रकृति प्रदत्त नियमों से उनका गहरा लगाव व्यवहार में तो सामने आया ही है, इसे उन्होंने शब्दों में भी व्यक्त किया है। 20 अक्टूबर 1927 के ‘यंग इंडिया’ के अंक में छपे एक लेख में हिंदू धर्म की विशेषता बताते हुए वे कहते हैं- ‘हिंदू धर्म न केवल मनुष्य मात्र की, बल्कि प्राणिमात्र की एकता में विश्वास करता है। मेरी राय में गाय की पूजा करके उसने दया धर्म के विकास में अद्भुत सहायता की है। यह प्राणिमात्र की एकता में विश्वास रखने का व्यावहारिक प्रयोग है।’ जाहिर है कि जो व्यक्ति प्राणिमात्र की एकता में विश्वास करेगा, वह चर-अचर, पशु-पक्षी, नदीपर्वत-वन सबके सहअस्तित्व में भी जरूर विश्वास करेगा और उस सब के संरक्षण के लिए सदैव तत्पर रहेगा। आज पर्यावरण बचाने के नाम पर बाघ, शेर, हाथी आदि जानवरों, नदियों, पक्षियों, वनों आदि को बचाने का जो विश्वव्यापी स्वर उठ रहा है, गांधी जी की दृष्टि में इसका सबसे अच्छा समाधान सभी प्राणियों की एकता और सहअस्तित्व को जीवन संस्कार बनाना है।
वृक्ष पूजा का काव्यमय सौंदर्य
आज पर्यावरण-रक्षा के नाम पर पौधरोपण का जो अभियान चलाया जा रहा है, उसके महत्व से गांधी जी भी अवगत थे और अपने धर्म का दायरा विस्तृत करते हुए उसमें वृक्ष-पूजा को भी उन्होंने शामिल कर लिया था। इस संबंध में ‘यंग इडिया’ के 26 सितंबर 1929 के अंक में उनके छपे लेख का यह अंश दृष्टव्य है- ‘ वृक्ष पूजा में कोई मौलिक बुराई या हानि दिखाई देने के बजाय मुझे तो इसमें एक गहरी भावना और काव्यमय सौंदर्य ही दिखाई देता है। वह समस्त वनस्पति-जगत के लिए सच्चे पूजाभाव का प्रतीक है। वनस्पति जगत तो सुंदर रूपों और आकृतियों का भंडार है, उनके द्वारा वह मानो असंख्य जिह्वाओं से ईश्वर की महानता और गौरव की घोषणा करता है। वनस्पति के बिना इस पृथ्वी
पूंजी अपने-आप में बुरी नहीं है। उसके गलत उपयोग में ही बुराई है। किसी ना किसी रूप में पूंजी की आवश्यकता हमेशा रहेगी
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गांधी जयंती विशेष
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पर जीवधारी एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकते। इसीलिए ऐसे देश में जहां खासतौर पर पेड़ों की कमी है, वृक्ष-पूजा का एक गहरा आर्थिक महत्व हो जाता है।’
अहिंसा के लिए श्रम जरूरी
हम जो दुनिया के जंगलों के साथ कर रहे हैं, वो कुछ और नहीं बस उस चीज का प्रतिबिंब है जो हम अपने साथ और एक दूसरे के साथ कर रहे हैं
गांधी जी जहां एक तरफ आसपास के वातावरण को स्वच्छ रखने पर बल देते और इस कार्य को खुद भी करते थे, तो वहीं दूसरी तरफ वे अहिंसा के अंतर्गत समस्त प्राणियों की रक्षा पर बल देते हुए ऐसी उत्पादन-पद्धति को वांछनीय समझते थे जो प्रकृति के दोहन-शोषण से मुक्त रह कर मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इसी सोच की भूमि पर खड़े होकर वे आजीवन अंध मशीनीकरण का विरोध करते रहे। वे इसे मनुष्य को उसके शारीरिक श्रम से वंचित करने का कारण मानते थे। जो लोग गांधी जी की अहिंसा का दायरा सिर्फ मनुष्य द्वारा मनुष्य के खिलाफ हिंसा का विरोध या शाकाहार भर समझते हैं, वे उनकी अहिंसा को अधूरे तरीके से समझते हैं। वस्तुत: जब तक नाना प्राकृतिक संसाधनों-वनस्पतियों, नदियों, पर्वतों के साथ-साथ पशु-पक्षियों को आवास सुलभ कराने वाले स्थानों की कीमत पर चलने वाली औद्योगिक पद्धति को बदल कर उसे मानव श्रम, प्रकृति की संगति पर आधारित नहीं करते, तब तक अहिंसा अपने संपूर्ण संदर्भ में अर्थपूर्ण नहीं हो सकती।
विकेंद्रित अर्थव्यवस्था
गांधी जी जिस ग्राम स्वराज की बात करते हैं उसकी रीढ़ है- कृषि और ग्रामोद्योग। इसे ही विकेंद्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। गांधी जी ने कृषि अर्थव्यवस्था में भारत के चिरायु स्वावलंबन के बीज देखे थे। ऐसा भला होता भी क्यों नहीं, क्योंकि वे दक्षिण अफ्रीका से भारत आने पर सबसे पहले गांवों की तरफ गए, किसानों के बीच खड़े हुए। चंपारण सत्याग्रह इस बात की मिसाल है कि गांधी जी स्वराज की प्राप्ति के साथ जिस तर्ज पर अपने सपनों के भारत को देख रहे थे, उसमें किसान महज हरवाहा-चरवाहा या कुछ मुट्ठी अनाज के लिए चाकरी करने वाले नहीं थे, बल्कि देश के स्वावलंबन का जुआ अपने कंधों पर उठाने वाले पुरुषार्थी अहिंसक सेनानी थे। गांधीवादी अर्थ दृष्टि और कृषि-ग्रामोद्योग की उनकी दरकार को तार्किक
गांधी जी जिस ग्राम स्वराज की बात करते हैं उसकी रीढ़ है- कृषि और ग्रामोद्योग। इसे ही विकेंद्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। गांधी जी ने कृषि अर्थव्यवस्था में भारत के चिरायु स्वावलंबन के बीज देखे थे आधार देने वाले प्रसिद्ध विद्वान डॉ. जेसी कुमारप्पा ने मशीनीकरण के जोर पर बढ़े शोषण की जगह सहयोग और उपभोग की जगह जरूरी आवश्यकता को मनुष्य के विकास और कल्याण की सबसे बड़ी कसौटी माना। सहयोग और आवश्यकता की इस कसौटी से स्वावलंबी आर्थिक स्थायित्व को तो पाया ही जा सकता है, प्राकृतिक असंतुलन जैसे खतरे से भी बचा जा सकता है। कहने की जरूरत नहीं कि विकास को होड़ की जगह सहयोग के रूप में देखने वाली गांधीवादी दृष्टि विकास और जीवन मूल्यों को अलगाकर नहीं बल्कि साथ-साथ देखती है।
तार्किक दरकार को सरकारों की नीति पर हावी कराने के संघर्ष में जुटे कि विकास की समझ और नीति मानव अस्मिता और प्रकृति के लिहाज से अकल्याणकारी न हो। आज अर्थ और विकास की हर उपलब्धि को जिस समावेशी दरकार पर खरे उतरने की बात हर तरफ हो रही है, उसके पीछे का तर्क गांधी जी की समन्वयवादी अवधारणा की ही देन है। वैसे यहां यह भी समझ लेना जरूरी है कि यह देन हमें गांधी जी के करीब तो जरूर ले जाती है, पर उनसे सीधे जुड़ने से परहेज भी बरतती है। यह परहेज कोई चालाकी है, ऐसा भी नहीं है।
विकास का स्थायित्व
'असंभव संभावना’
कुमारप्पा अपनी किताब 'द इकोनमी ऑफ परमानेंस’ के पहले अध्याय में ही इस मिथ को तोड़ते हैं कि अर्थ और विकास कभी स्थायी हो ही नहीं सकते। औद्योगिक क्रांति से लेकर उदारीकरण तक का अब तक हमारा अनुभव यही सिखाता रहा है कि विकास की दरकार और उसके मानदंड बदलते रहते हैं। इसी लिहाज से सरकार और समाज भी अर्थ और विकास को लेकर अपनी प्राथमकिताओं में हेरफेर भी करते रहते हैं। पर इस बदलाव का अंतिम लक्ष्य क्या है, इसको लेकर कोई गंभीर सोच कभी सामने नहीं उभरी। जो सोच हर बार सतह पर दिखी, वह यही कि बचेगा वही, टिकेगा वही, जो ताकतवर होगा। अर्थशास्त्रीय शब्दावली में इसके लिए जो सैद्धांतिक जुमला इस्तेमाल होता है, वह हैसर्ववाइवल ऑफ द फिटेस्ट। इस दृष्टि में मानवीय करुणा और अस्मिता के लिए कितना स्थान है, समझा जा सकता है। यह समृद्धि और विकास की हिंसक दृष्टि है। एक ऐसी दृष्टि जो बूट पहनकर दूसरों को रौंदते हुए सबसे आगे निकल जाने की सनक से हमें लैस करती है। इस हिंसक विकास को लेकर कोई एतराज किसी स्तर पर कभी जाहिर नहीं हुआ, ऐसा भी नहीं है। खासतौर पर शीतयुद्ध के खात्मे के साथ भूमंडलीकरण का ग्लोबल जोर शुरू होने पर अमेरिका से लेकर भारत तक कई अराजनीतिक जमात, चिंतक और जागरूक लोगों का समूह इस
गांधी जी और उनके मूल्यों को लेकर नई व सामयिक व्याख्या रचने वाले सुधीर चंद्र इस परहेज को अपनी तरह से एक 'असंभव संभावना’ के तौर पर देखते हैं। यानी सत्य, प्रेम और करुणा के दीए सबसे पहले मन में जलाने का आमंत्रण देने वाले गांधी जी के पास आधे-अधूरे मन से जाया भी नहीं जा सकता। क्योंकि फिर वो सारी कसौटियां एक साथ हमें सवालों से वेध डालेंगी, जो गांधी जी की नजरों में मानवीय अस्मिता की सबसे उदार और उच्च कसौटियां हैं। बात पर्यावरण संकट को लेकर हो रही है तो गांधी जी के विकेंद्रीकरण की चर्चा भी जरूरी है। भारतीय ग्रामीण परंपरा और संस्कृति में सहअस्तित्व और स्वावलंबन का साझा स्वाभाविक तौर पर मौजूद है। जो ग्रामीण जीवन महज कुछ कोस की दूरी पर अपनी बोली और पानी के इस्तेमाल तक के सलूक में जरूरी बदलाव को सदियों से बरतता रहा है, उसे यह अक्ल भी रही है कि उसकी जरूरत और पुरुषार्थ को एक जमीन पर खड़ा होना चाहिए। गैरजरूरी लालच से परहेज और मितव्ययिता ग्रामीण स्वभाव का हिस्सा है। पर बदकिस्मती देखिए कि इस स्वभाव पर रीझने की जगह इसे विकास की मुख्यधारा से दूरी के असर के रूप में देखा गया। नतीजतन, एक परावलंबी विकास की होड़ उन गांवों तक पहुंचा दी गई, जो स्वावलंबन को अपनी जीवन जीने की कला मानते थे।
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गांधी जयंती विशेष
अगस्त क्रांति का उद्घोष
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(8 अगस्त 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैंदान में गांधी के दिए भाषण का संपादित अंश)
‘हिंसात्मक यात्रा में तानाशाही की संभावनाएं ज्यादा होती हैं जबकि अहिंसा में तानाशाही के लिए कोई जगह ही नहीं है। एक अहिंसात्मक सैनिक खुद के लिए कोई लोभ नहीं करता, वह केवल देश की आजादी के लिए ही लड़ता है’
लो
ग मुझसे यह पूछते हैं कि क्या मैं वही इंसान हूं, जो मैं 1920 में हुआ करता था और क्या मुझमें कोई बदलाव आया है। ऐसा प्रश्न पूछने के लिए आप बिल्कुल सही हो। मैं जल्द ही आपको इस बात का आश्वासन दिलाऊंगा कि मैं वही मोहनदास गांधी हूं जैसा मैं 1920 में था। मैंने अपने आत्मसम्मान को नहीं बदला है। आज भी मैं हिंसा से उतनी ही नफरत करता हूं जितनी उस समय करता था, बल्कि मेरा बल तेजी से विकसित भी हो रहा है। मेरे वर्तमान प्रस्ताव और पहले के लेख और स्वभाव में कोई विरोधाभास नहीं है। हमारी कार्यकारी समिति का बनाया हुआ प्रस्ताव भी अहिंसा पर ही आधारित है और हमारे आंदोलन के सभी तत्व भी अहिंसा पर ही आधारित होंगे। यदि आपमें से किसी को भी अहिंसा पर भरोसा नहीं है तो कृपया करके वो इस प्रस्ताव के लिए वोट ना करे। भगवान ने मुझे अहिंसा के रूप में एक मूल्यवान हथियार दिया है। मैं और मेरी अहिंसा ही आज हमारा रास्ता है। हमारी यात्रा ताकत पाने के लिए नहीं बल्कि भारत की आजादी के लिए अहिंसात्मक
लड़ाई के लिए है। हिंसात्मक यात्रा में तानाशाही की संभावनाएं ज्यादा होती हैं जबकि अहिंसा में तानाशाही के लिए कोई जगह ही नहीं है। एक अहिंसात्मक सैनिक खुद के लिए कोई लोभ नहीं करता, वह केवल देश की आजादी के लिए ही लड़ता है। कांग्रेस इस बात को लेकर बेफिक्र है कि आजादी के बाद कौन शासन करेगा। आजादी के बाद जो भी ताकत आएगी उसका संबंध भारत की जनता से होगा और भारत की जनता ही यह निश्चित करेगी कि उन्हें यह देश किसे सौंपना है। हो सकता है कि भारत की जनता अपने देश को पेरिस के हाथों सौंपे। कांग्रेस सभी समुदायों को एक करना चाहता है न कि उनमें फूट डालकर विभाजन करना चाहता है। आजादी के बाद भारत की जनता अपनी इच्छानुसार किसे भी अपने देश की कमान संभालने के लिए चुन सकती है और चुनने के बाद भारत की जनता को भी उसके अनुरूप ही चलना होगा। मेरा इस बात पर भरोसा है कि दुनिया के इतिहास में हमसे बढ़कर और किसी देश ने
लोकतांत्रिक आजादी पाने के लिए संघर्ष किया होगा। जब मैं पेरिस में था तब मैंने कार्लाइल फ्रेंच प्रस्ताव पढ़ा था और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी मुझे रशियन प्रस्ताव के बारे में थोड़ा बहुत बताया था। लेकिन मेरा इस बात पर पूरा विश्वास है कि जब हिंसा का उपयोग कर आजादी के लिए संघर्ष किया जाएगा, तब लोग लोकतंत्र के महत्त्व को समझने में असफल होंगे। जिस लोकतंत्र का मैंने विचार कर रखा है उस लोकतंत्र का निर्माण अहिंसा से होगा, जहां हर किसी के पास समान आजादी और अधिकार होंगे। जहां हर कोई खुद का शिक्षक होगा और इसी लोकतंत्र के निर्माण के लिए आज मैं आपको आमंत्रित करने आया हूं। एक बार यदि आपने इस बात को समझ लिया तब आप हिंदू और मुस्लिम के भेदभाव को भूल जाएंगे। तब आप एक भारतीय बनकर खुद का विचार करेगें और आजादी के संघर्ष में साथ देंगे। अब प्रश्न ब्रिटिशों के प्रति आपके रवैए का है। मैंने देखा है कि कुछ लोगों में ब्रिटिशों के प्रति नफरत का रवैया है। कुछ लोगों का कहना है कि वे ब्रिटिशों के व्यवहार से चिढ़ चुके हैं। कुछ लोग ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ब्रिटिश लोगों के बीच के अंतर को भूल चुके हैं। उन लोगों के लिए दोनों ही एक समान हैं। उनकी यह घृणा जापानियों को आमंत्रित कर रही है। यह काफी खतरनाक होगा। इसका मतलब वे एक गुलामी की दूसरी गुलामी से अदला-बदली करेंगे। हमें इस भावना को अपने दिलोदिमाग से निकाल देना चाहिए। हमारा झगड़ा ब्रिटिश लोगों के साथ नहीं है बल्कि हमें उनके साम्राज्यवाद से लड़ना है। ब्रिटिश शासन को खत्म करने का मेरा प्रस्ताव गुस्से से पूरा नहीं होने वाला। मैं जानता हूं कि ब्रिटिश सरकार हमसे हमारी आजादी नहीं छीन सकती, लेकिन इसके लिए हमें एकजुट होना होगा। इसके लिए हमें खुद को घृणा से दूर रखना चाहिए। खुद के लिए बोलते हुए मैं कहना चाहूंगा कि मैंने कभी घृणा का अनुभव नहीं किया, बल्कि मैं समझता हूं कि मैं ब्रिटिशों के सबसे गहरे मित्रो में से एक हूं और यह मेरा कर्तव्य होगा कि मैं उन्हें आने वाले खतरे की चुनौती दूं। इस समय जहां मैं अपने जीवन के सबसे बड़े संघर्ष की शुरुआत कर रहा हूं, मैं नहीं चाहता कि किसी के भी मन में किसी के प्रति घृणा का निर्माण हो।
सत्य एक विशाल वृक्ष है। उसकी ज्यों-ज्यों सेवा की जाती है, त्यों-त्यों उसमें अनेक फल आते हुए नजर आते हैं, उनका अंत ही नहीं होता
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गांधी जयंती विशेष
01 - 07 अक्टूबर 2018
खादी का रिलांच
आज की शब्दावली में कहें तो गांधी जी ने भारतीय जीवन में खादी को रिलांच किया। उन्होंने स्वाधीनता के साथ भारत के स्वावलंबन की चिंता करते हुए चरखे और खादी को अपनी नीति और कार्यक्रम का हिस्सा बनाया खास बातें यह सर्वस्वीकृत सत्य है कि चरखा और करघा की जन्मभूमि भारत है लंदन-पेरिस की स्त्रियां भी भारतीय करघों से बने वस्त्र पहनती थीं
पूर्ण धारणा के साथ बोला गया ‘नहीं’, सिर्फ दूसरों को खुश करने या समस्या से छुटकारा पाने के लिए बोले गए ‘हां’ से बेहतर है
हिंद स्वराज्य’ में गांधी जी ने चरखे से गरीबी मिटाने की बात कही है
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एसएसबी ब्यूरो
दी भारत की वस्त्र संस्कृति का हिस्सा है। इसलिए खादी को लेकर भारतीय परंपरा और उसका इतिहास काफी पुराना है। पर भारतीय राष्ट्रीय में महात्मा गांधी के बढ़े कद और प्रभाव के बीच जिस तरह खादी और चरखे के चलन ने जोर पकड़ा, उसने खादी को देखते ही देखते गांधीवादी वर्दी की शक्ल दे दी। इसी के साथ यह अहिंसा का भी प्रतीक बन गया। आज की शब्दावली में कहें तो गांधी जी ने भारतीय जीवन में खादी को रिलांच किया। उन्होंने स्वाधीनता के साथ भारत के स्वावलंबन की चिंता करते हुए चरखे और खादी को अपनी नीति और कार्यक्रम का हिस्सा बनाया। वस्तुत: कपास, रेशम या ऊन के हाथ कते सूत से भारत में हथकरघे पर बुना गया कोई भी वस्त्र खादी है। यह सर्वस्वीकृत सत्य है कि चरखा और करघा की जन्मभूमि हिंदुस्तान है। दुनिया में सबसे पहले सूत इस देश में काता गया और सबसे पहले कपड़ा भी यहीं बुना गया। सूत कातना और कपड़ा बुनना यहां का उतना ही प्राचीन उद्योग है, जितनी
कि स्वयं हिंदुस्तान की सभ्यता। वैदिक काल में माता अपने पुत्र के लिए और पत्नी अपने पति के लिए वस्त्र तैयार करती थीं। इस आशय के वाक्य हैं। ऋग्वेद में इसका वर्णन इस प्रकार मिलता है‘वितन्वते धियो अस्मा अपांसि वस्त्रा पुत्राय मातरो वयंति। अन्वयार्थ- मातरः असो पुत्राय धियः अपांसि वितन्वते वस्त्रा वयंति।।’ यानी अनेक माताएं इस लड़के के लिए सद्विचार का ताना तानती हैं और इसमें सत्कार्य का बाना डालकर वस्त्र बुनती हैं। रामायणकाल में सिर्फ रेशमी वस्त्र पहनने का ही रिवाज था। राजघरानों के स्त्री-पुरुषों के साथ-साथ साधारण लोगों की पोशाक रेशमी थी। रामायण के अयोध्याकांड के वर्णन से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि उस समय साधारण दासी की साड़ी तक रेशमी ही थी। आगे महाभारत काल में रूई के बारीक वस्त्रों के लिए तमिल देश प्रसिद्ध हुआ था। महाभारत में यह उल्लेख है कि राजसूय यज्ञ के समय चोल व पाण्ड्य राजाओं ने रूई के बारीक वस्त्र भेंट किए थे। मौर्यकाल में ऊनी वस्त्र सोलह प्रकार के होते थे। उनमें पलंगपोश (तालिच्छाका), अंगरखे (बाराबाण), पतलून (संपुटिका), पड़ढे (लम्बार),
गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘मुझे याद नहीं पड़ता कि 1908 तक मैंने चरखा या करघा कहीं देखा हो। फिर भी मैंने ‘हिंद स्वराज’ में यह माना था कि चरखे के जरिए हिंदुस्तान की कंगालियत मिट सकती है’
दुपट्टे (प्रच्छापट्ट) तथा गलीचे (सत्तल) आदि का समावेश होता था। कौटिल्य-अर्थशास्त्र में उसकी सूक्ष्म जानकारी दी गई है। बुनाई के काम पर नियुक्त अधिकारी को ‘सूत्राध्यक्ष’ कहा जाता था। ऊन कातने तथा वृक्षों की छाल, घास, रामबाण आदि के तंतु निकालने और रूई का सूत कातने का काम अक्सर विधवाओं, जुर्माना देने में असमर्थ अपराधिनी स्त्रियों, जोगिनियों, देवदासियों, वृद्धावस्था को प्राप्त राजदासियों तथा वेश्याओं से करवा लिया जाता था। उन्हें उनके काम की सुघड़ता और परिमाण के अनुसार उसका वेतन दिया जाता था। इन सब मजदूर-वर्ग पर सूत्राध्यक्ष की कड़ी नजर रहती थी।
करघे का डंका लंदन तक
बंगाल का वर्णन करते हुए लार्ड मैकाले कहते हैं, ‘लंदन और पेरिस की स्त्रियां बंगाल के करघों पर तैयार होने वाले कोमल वस्त्रों से विभूषित थीं।’ इन सस्ती और सुंदर छीटों और मलमल के तेजी से लोकप्रिय होने के कारण सत्रहवीं सदी के अंत में इंग्लैंड का ऊन और रेशम का व्यवसाय बैठ गया। इस कारण उसने 1700 और 1721 में पार्लियामेंट में कानून पास करवा कर, भारत के छपे हुए और रंगीन माल पर जबर्दस्त चुंगी लगवाई और इस प्रकार माल का आयात बंद करवाया। इस तरह हमारा देश कपड़े के मामले में स्वावलंबी था। कितना महीन सूत इस देश में काता जाता था तथा कितने महीन थान बनते थे, इसे लेकर कई कथन और मिसालें आज भी दोहराई जाती हैं। कहते हैं कि दियासलाई के बक्से में सारा थान आ जाए। यह मनगढं़त कहानी नहीं है, इतिहास इसका साक्षी है। अंग्रेजों ने यहां आकर हमारे देश के ऐसे अनेक छोटे-मोटे हस्तोद्योग नष्ट किए और देश को परावलंबी बनाया।
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खादी का पुनर्जन्म
गांधी जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘मुझे याद नहीं पड़ता कि 1908 तक मैंने चरखा या करघा कहीं देखा हो। फिर भी मैंने ‘हिंद स्वराज’ में यह माना था कि चरखे के जरिए हिंदुस्तान की कंगालियत मिट सकती है और यह तो सबसे समझ सकने जैसी बात है कि जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज मिलेगा। 1915 में मैं दक्षिण अफ्रीका से हिंदुस्तान वापस आया, तब भी मैंने चरखे के दर्शन नहीं किए थे। आश्रम खुलते ही उसमें करघा शुरू किया था।’ इसका अर्थ यह है कि ‘हिंद स्वराज’ लिखने से पहले उनके मन में खादी और चरखे की उपयोगिता आ चुकी थी, लेकिन चरखे से उनका रूबरू-संपर्क नहीं हो पाया था।
साबरमती आश्रम की स्थापना
1916 में गांधी जी ने साबरमती आश्रम की स्थापना की और उसमें आश्रम जीवन जीने की शुरुआत की। आश्रम में उनके साथ लगभग 20-22 कार्यकर्ता रहते थे। आश्रम-जीवन के लिए उन्हें वस्त्र स्वावलंबन की आवश्यकता महसूस हुई। यह वस्त्र स्वावलंबन ही गांधी जी को खादी उत्पादन की ओर ले जाता है। ‘हिंद स्वराज’ में गांधी जी ने माना था मैनचेस्टर को दोष कैसे दिया जा सकता है? हमने उसके कपड़े पहने, तभी तो उसने कपड़े बनाए। आश्रम की स्थापना के बाद से ही खादी और चरखे विषयक गांधी जी के प्रयोग शुरू हो जाते हैं। आश्रम के खुलते ही उसमें करघा शुरू करने में भी गांधी जी को बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ा था। क्योंकि आश्रम में सब कलम चलाने वाले या व्यापार जानने वाले लोग इकट्टा हुए थे। काठियावाड़ और पालनपुर से करघा मिला और एक सिखानेवाला आया। उसने अपना पूरा हुनर नहीं बताया किन्तु मगनलाल गांधी ने बुनने की कला को पूरी तरह से समझ लिया और फिर आश्रम में एक के बाद एक नए-नए बुनने वाले तैयार हुए। बुनकर तैयार होने के बाद गांधी जी को हस्त निर्मित कपड़े पहनने की आशा जगी। वे कहते हैं ‘हमें तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे। इसीलिए आश्रमवासियों ने मिल के कपड़े पहनना बंद किया और यह निश्चय किया कि वे हथकरघे पर देसी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेंगे। ऐसा करने से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला। हिंदुस्तान के बुनकरों के जीवन की, उनकी आमदनी की, सूत प्राप्त करने में होने वाली उनकी कठिनाई की, इसमें वे किस प्रकार ठगे जाते थे और आखिर किस प्रकार दिन पर दिन कर्जदार होते जाते थे, इस सब की जानकारी हमें मिली।’ आश्रमवासी स्वयं सारा कपड़ा तुरंत बुन सकने की स्थिति में नहीं थे। इसीलिए बाहरी बुनकरों से बुनवा लेते थे। बुनकर विलायती सूत का ही अच्छा कपड़ा बुनते थे। देशी मिलें महीन सूत कातती नहीं थीं। बड़े प्रयत्न के बाद कुछ बुनकर हाथ लगे, जिन्होंने देशी सूत का कपड़ा बुन देने की मेहरबानी की। इन बुनकरों को आश्रम के तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देसी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जाएगा।’ इस प्रकार गांधी जी ने हाथ बुना कपड़ा पहना, किन्तु वे अभी भी पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं हुए थे। सूत आखिर मिल से लेना पड़
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गांधी जयंती विशेष
‘यह देखो करतार का खेल’
अंग्रेजों के आने के पहले तक खादी सबसे लोकप्रिय भारतीय वस्त्र ही नहीं आजीविका का भी बड़ा साधन था, पर ईस्ट इंडिया कंपनी के दमनात्मक रवैए ने भारतीय जुलाहों-बुनकरों की कमर तोड़कर रख दी
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रखे के बारे में आज से सात सौ साल पहले हिंदुस्तान के कवि अमीर खुसरो ने जो लिखा है, वह हमारा ध्यान आकर्षित करता है‘एक पुरुष बहुत गुनचरा, लेटा जागे सोये खड़ा उलटा होकर डाले बेल, यह देखो करतार का खेल।’ बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकरों ने जनता पर अत्याचार कर, जुलाहों को सता कर और नवाबों को लूट कर अपने खजाने भरे। कंपनी के जो नौकर जुलाहों से अपना माल जल्द देने के लिए तकाजा करने जाते थे, उन पर कितना जुल्म होता था, इस संबंध में संसदीय समिति के सामने गवाही देते हुए सर थॉमस मुनरो कहते हैं, ‘कंपनी के नौकर ‘वीर महाल’ जिले में मुखिया जुलाहों को इकट्ठे करते थे और जब तक वे जुलाहे इस आशय के इकरारनामे पर दस्तखत अथवा उन पर अपनी स्वीकृति नहीं देते थे कि ‘हम सिर्फ कंपनी को ही अपना माल बेचेंगे’ तब तक उन्हें हवालात में बंद रखा जाता था। ...जुलाहों पर जुर्माना होने पर उसकी वसूली के लिए उनके बर्तन तक जब्त कर लिए जाते थे। इस तरह गांव के सब जुलाहों को कंपनी के कारखाने में गुलामी करनी पड़ती थी।’ ब्रिटिश मजदूर दल के सुप्रसिद्ध नेता रेमजे मेकडॉनल्ड ‘हिंदुस्तान की जागृति’ नामक अपनी पुस्तक में लिखते हैं- ‘देहात में घूमने पर ऐसे शरीर दिखाई पड़ते हैं, जो दिन-रात के परिश्रम से चकनाचूर हो गए हैं और जो भूखे पेट मंदिर में खिन्न बदन होकर परमेश्वर की उपासना करते हैं।’ रहा था। मिल चाहे देसी हो या विदेशी, पराधीनता तो बनी रही। यह सब देख कर गांधी जी हाथ से कातने के लिए अधीर हो उठे। 1917 में गुजराती मित्र गांधी जी को भरूच शिक्षा परिषद में ले गए थे। वहां महासाहसी विधवा बहन गंगाबाई उन्हें मिलीं। गांधी जी लिखते हैं, ‘अपना दुख मैंने उनके सामने रखा और दमयंती जिस प्रकार नल की खोज में भटकी थी, उसी प्रकार चरखे की खोज में भटने की प्रतिज्ञा करके उन्होंने मेरा बोझ हल्का कर दिया।’
चरखा संघ की स्थापना
1920 तक खादी का यह काम गांधी जी के आश्रम तक ही सीमित रहा। 1921 में, देशभर में राष्ट्रीय शिक्षण के विद्यापीठ, विद्यालय तथा आश्रम कायम हुए। इन सब शिक्षण संस्थाओं ने अपने-अपने विद्यार्थियों को खादी की शिक्षा दी। इस प्रकार शिक्षा प्राप्त नौजवानों ने देशभर में खादी का संदेश फैलाया। 1923 में काकीनाडा कांग्रेस ने अखिल भारतीय खद्दर बोर्ड की स्थापना की और उसके जिम्मे खादी का सारा काम दिया गया। इसके पहले देशभर में कांग्रेस कमेटियों द्वारा जो खादी का काम चल रहा था, उन सब की जिम्मेदारी खादी बोर्ड पर आई। अगले साल गांधी जी जब जेल से मुक्त हुए तो उन्होंने देखा कि खादी बोर्ड, कांग्रेस की एक समिति जैसा होने के कारण उसकी दृष्टि स्पष्ट होना संभव नहीं है। उन्हें लगा कि कांग्रेस केवल राजकीय आजादी का ही काम कर सकती है। इस प्रकार गांधी जी की सलाह के अनुसार अखिल भारतीय कांग्रेस ने अपनी 23 सितंबर 1925 की बैठक में अखिल भारतीय चरखा संघ की स्थापना की। चरखा संघ की स्थापना से खादी की प्रगति में
एक निश्चित बल मिला और उसने तेज कदम आगे बढ़ाना शुरू किया। उस वक्त देश में निराशा छाई हुई थी। गांधी जी लोगों के बीच में रहकर उनमें शक्ति संचार का काम करने लगे। चरखा संघ से आगे खादी अलग-अलग दौरों में विकसित होती रही।
तीन अहम दौर
1924 से 1934 के दौर को खादी प्रसार काल कह सकते हैं। इस दौर में खादी के कार्य का विशेष लक्ष्य रहा कि सस्ती से सस्ती खादी बनाई जाए और इस सस्तेपन से खादी की बिक्री को बढ़ाया जाए। 1930 के सत्याग्रह आंदोलन में खादी की मांग बढ़ी। इस कारण भी खादी के प्रसार में बल मिला। इसके बाद का दौर 1935 से 1944 से बीच का है। इस दौर में मजदूरों को भरण-पोषण के लिए कम से कम 3 आने मजदूरी निर्धारित किया गया। गौरतलब है कि खादी को सस्ता करने के प्रयास में सबसे अधिक नुकसान मजदूरों को हुआ। अतः गांधी जी ने सस्ती खादी बनाने की नीति का विरोध किया और ‘निर्वाह मजदूरी का सिद्धांत’ खादी पर लागू करने का नया विचार चरखा संघ के सामने रखा। 1945 से देश की अाजादी तक गांधी जी ने समझ लिया कि अब समय आ गया है कि जब खादी कार्य के असली मकसद की ओर कदम रखना है। उन्होंने कहा, ‘खादी का एक युग समाप्त हो गया। खादी ने गरीबों के लाभ के लिए कुछ करके दिखा दिया। अब हमें यह दिखाना होगा कि गरीब स्वावलंबी कैसे बन सकते हैं, खादी अहिंसा का प्रतीक कैसे बन सकती है। यही हमारा असली काम है। इसमें हमें अपनी श्रद्धा का प्रत्यक्ष प्रमाण देना होगा।’
एक देश की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से आंका जा सकता है कि वहां जानवरों से कैसे व्यवहार किया जाता है
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गांधी जयंती विशेष
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प्रासंगिक व सार्वभौमिक
विचार महात्मा गांधी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितना कि एक सदी पहले थे, जब इनका प्रतिपादन हुआ था। गांधी जी के विचारों की खूबी यह है कि उनका संदेश एक सार्वभौमिकता लिए हुए है
पूर्ण धारणा के साथ बोला गया ‘नहीं’, सिर्फ दूसरों को खुश करने या समस्या से छुटकारा पाने के लिए बोले गए ‘हां’ से बेहतर है
(प्रसिद्ध
गुरचरण दास
अर्थशास्त्री और लेखक)
वक्त के साथ चलने को ही आधुनिकता कहा जाता है। अगर इस तकनीकी दौर के साथ हम नहीं चलते, तो लोग इसे पिछड़ापन मानेंगे, लेकिन ध्यान रहे कि यह बात तकनीक पर लागू हो सकती है, विचार पर नहीं। अच्छे और मौलिक विचार हमारे जीवन के लिए हमेशा प्रासंगिक रहते हैं। यही वजह है कि महात्मा गांधी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितना कि एक सदी पहले थे, जब इनका प्रतिपादन हुआ था। गांधी जी के विचारों की खूबी यह है कि उनका संदेश एक सार्वभौमिकता लिए हुए है, इसीलिए वह सिर्फ भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रेरणात्मक है। हर समय, हर देश और हर माहौल के लिए उनका विचार प्रासंगिक है। हमें राजनीतिक आजादी 1947 में मिली थी और आर्थिक आजादी 1991 के बाद मिली। आजादी के पहले हमें आजादी की तलाश थी, इसीलिए जब गांधी जी आजादी की लड़ाई के नायक बने, तो हम उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा जानने-समझने की कोशिश करने लगे। उनके विचारों से प्रेरणा लेने लगे और मैं समझता हूं कि हम आज भी उनसे प्रेरणा पा रहे हैं। तब आधुनिक तकनीक का दौर नहीं था। तब नौकरियों के लिए तकनीक की उतनी जरूरत भी नहीं थी, जितनी आज है। आज तकनीक और उद्यमिता का दौर है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का दौर है। साथ ही, देश में बेरोजगारी भी पहले के मुकाबले ज्यादा है। अब हमारे युवाओं को जरूरत है नौकरियों की। अब यह तो जाहिर है कि मौजूदा दौर में नौकरियां तकनीक के रास्ते से होकर ही निकलती हैं, इसीलिए हमारे युवा
दुनिया के बड़े-बड़े एंटरप्रेन्योर और उद्योगपतियों के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा जानने की कोशिश करते हैं। लेकिन, जब भी अहिंसा की बात होती है, तो यही युवा गांधी जी के सत्य और अहिंसा के विचारों को ही प्रेरणा का स्रोत मानते हैं। गांधी जी का विचार मानव मूल्यों से जुड़ा हुआ है, जबकि आज के कामयाब एंटरप्रेन्योर और उद्योगपतियों को अपना आदर्श मानने की बात पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में युवाओं की आजीविका के सवाल से जुड़ा हुआ है। इसीलिए तकनीक और उद्यमिता से इतर जब भी मानव मूल्यों की बात आएगी, गांधी जी के विचार हमेशा प्रासंगिक हो जाएंगे। गांधी जी के ग्राम स्वराज की अवधारणा को मैं आर्थिक नजरिए से देखता हूं। हो सकता है यह अवधारणा उस वक्त के लिए उचित रही हो, लेकिन आज के दौर के ऐतबार से तो नहीं है। आज वैश्विक अर्थव्यवस्था का दौर है, किसी एक देश की अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव से दूसरे देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर असर पड़ने लगता है। आज से तीन सौ साल पहले, जब से औद्योगिक क्रांति दुनिया में आई है, इतिहास यही बताता रहा है कि लोग आधुनिकता की ओर भागे चले आए हैं। होना भी चाहिए। गांवों से लोग अगर शहर में काम करने जा रहे हैं, तो इसमें कुछ बुरा नहीं है, इससे गांवों का भी विकास होता है। दरअसल, हमारे देश की ग्राम्य व्यवस्था कई तरह की परंपरावादी मानसिकता लिए हुए है, इसीलिए भी लोग शहरों में आने लगे, क्योंकि शहरों में रूढ़ियों से थोड़ी-बहुत आजादी जरूर मिल जाती है। शहरों में खास तौर पर जाति से आजादी है। शहर में रह कर कुछ भी कर सकते हैं, जो गांवों में संभव नहीं हो पाता है, इसीलिए मेरे ख्याल में आज
ग्राम स्वराज की अवधारणा उचित नहीं जान पड़ती। लेकिन हां, गांवों का विकास होना चाहिए और वहां हर बुनियादी चीज मुहैया होनी चाहिए, ताकि लोगों का जीवन समृद्ध हो सके। भारत को कुटीर उद्योग को नहीं अपनाना चाहिए। यह बहुत पीछे की बात है। आज यह संभव नहीं है। कुटीर उद्योग की अवधारणा गांधी जी ने इसीलिए दी थी, क्योंकि उन्हें मशीनीकरण पसंद नहीं था। एक दूसरी बात यह है कि जो भी शहरों में पला-बढ़ा होता है, वह गांवों की ओर भागने की कोशिश करता है। शहरों में रहते हुए ग्रामीण जीवन को लेकर, किसान-खेत-हरियाली को लेकर एक प्रकार का रोमांस आने लगता है। गांधी जी भी शहर में ही पले-बढ़े थे, इसीलिए उन्होंने कुटीर उद्योग का एक रोमांटिक आइडिया दिया। तकरीबन सौ साल पहले दुनिया की आबादी दो-ढाई अरब के आसपास थी, लेकिन आज यह आठ अरब के करीब है। अगर सिर्फ भारत की ही बात करें, तो इतनी बड़ी आबादी के लिए कुटीर उद्योग का कोई मतलब ही नहीं बनता। हम बड़े उद्योगों को, बड़ी कंपनियों को किसी भी तरह नकार नहीं सकते। यह तकनीक और औद्योगीकरण की ही देन है कि आज की आम जिंदगी सौ साल पहले की आम जिंदगी से ज्यादा अच्छी है। आज तमाम सुखसुविधाएं हैं और इसीलिए आज लोगों की जीवन प्रत्याशा भी बढ़ी है, जो सौ साल पहले बहुत कम थी। यह उपलब्धि तकनीक और औद्योगीकरण की ही देन है। इसका अर्थ यह कतई नहीं कि गांधी जी महान नहीं थे। वे महान थे, खासकर मानव मूल्यों के लिए उत्तम विचारों का प्रतिपादन करने के मामले में तो वे बहुत महान व्यक्ति थे। हमारे नैतिक जीवन और धार्मिक जीवन के लिए गांधी का बहुत महत्व है। अगर हम नैतिक और धार्मिक रूप से सत्य-अहिंसा का पालन करने लगें, तो इसका असर हमारे जीवन के हर पहलू पर पड़ेगा ही, फिर चाहे वह हमारी राजनीति हो या शासन व्यवस्था। जाहिर है, अगर ऐसा नहीं होगा, तो गांधी जी एक प्रतीक के रूप में ही रह जाएंगे। अब यह हमारे ऊपर है कि हम गांधी जी को क्या बनाना चाहते हैं।
01 - 07 अक्टूबर 2018
तारीखी संबोधन
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गांधी जयंती विशेष
गांधी जी ने अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण भाषण दिए। इन भाषणों से उनकी अहिंसक आस्था के साथ भारत के भविष्य को लेकर उनकी सोच का भी पता है
4 फरवरी, 1916
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का भाषण
‘भारत के अंग्रेजीदां ही देश की अगुवाई कर रहे हैं और वे ही राष्ट्र के लिए सब कुछ कर रहे हैं। ... मान लीजिए हमने पिछले पचास वर्षों में अपनी-अपनी भाषाओं के जरिए शिक्षा पाई होती, तो हम आज किस हालत में होते?’
फ
रवरी 1916 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर बोलने के लिए, पं मदन मोहन मालवीय ने महात्मा गांधी को आमंत्रित किया था। वहां सभी उपस्थित लोग, महात्मा गांधी के भाषण सुनकर विचार-विमर्श करने पर मजबूर हो गए थे। शाही राजा और युवराजों, एनी बेसेंट और बाकी सभी, ब्रिटिश नेताओं के प्रति भारतीय नेताओं
दांडी मार्च भाषण
‘हमने विशेष रूप से एक अहिंसात्मक संघर्ष की खोज में, अपने सभी संसाधनों का उपयोग करने का संकल्प किया है। क्रोध में कोई भी गलत निर्णय न लें’
य
ह भाषण ऐतिहासिक दांडी नमक मार्च की पूर्व संध्या पर था, जिसमें कि महात्मा गांधी ने असहयोग के लिए, एक अच्छी तरह से सोचे-समझे कार्यक्रम का उल्लेख किया था। उन्होंने अपने अनुयायियों के साथ समुद्र के पानी से नमक बनाने की स्थापना करते हुए ब्रिटिश भारतीयों से कहा कि अंग्रेजों द्वारा लगाए गए करों की अवहेलना करनी होगा। उन्होंने भारतीयों से विदेशी शराब और कपड़े, करों का विरोध करने
द्वारा अपनाने वाले विनीत भाषण की उम्मीद लगाकर आए थे। गांधी जी ने अंग्रेजी भाषा के जरिए भारी आलोचना और स्वराज्य की मांग के मुद्दे को प्रस्तुत करके दर्शकों को चौंका दिया था और महात्मा गांधी ने पहली बार बनारस में देश के स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने का संकेत प्रदर्शित किया था। ब्रिटिश शासन से भारत को आजाद कराने की आग को भड़काने वाला यह पहला भाषण था।
11 मार्च 1930
और (ब्रिटिश) अदालतों व सरकारी कार्यालयों से दूरी बनाकर रहने को कहा। इस भाषण ने न केवल भारतीयों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने और औपनिवेशिक शासन को चुनौती देने के लिए मजबूर किया, बल्कि साथ ही कई दशकों के बाद अमेरिका के नागरिक अधिकार आंदोलन को भी प्रभावित किया। भारतीयों का मानना है कि इस भाषण ने ‘सत्याग्रह’ के प्रारंभ होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
8 अगस्त 1942
‘भारत छोड़ो’ भाषण
इ
‘मेरा मानना है कि दुनियाभर के इतिहास में, स्वतंत्रता के लिए हमारे वास्तविकता से ज्यादा यथार्थवादी लोकतांत्रिक संघर्ष नहीं रहा है’
स संबोधन को ‘भारत को आजादी के कगार पर लाने वाले भाषण’ के रूप में संदर्भित करता है। ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन की पूर्व संध्या पर गांधी जी के संबोधन में अहिंसा (अहिंसा) और हमारी आजादी के आदर्शों को शामिल किया गया। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों को स्वेच्छा
से भारत छोड़ने के लिए काफी प्रयास किए और लाखों भारतीयों को बंधन और गुलामी से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए प्रेरित भी किया। उनको अपने दृष्टिकोण की नवीनता और अहिंसात्मक ढंग का उपयोग करने वाले दुनिया के सबसे बड़े नेताओं में से एक के रूप में जाना जाता है।
एक देश की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से आंका जा सकता है कि वहां जानवरों से कैसे व्यवहार किया जाता है
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जब मैं निराश होता हूं तो मैं याद कर लेता हूं कि समस्त इतिहास के दौरान सत्य और प्रेम के मार्ग की ही हमेशा विजय होती है। कितने ही तानाशाह और हत्यारे हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अजेय लग सकते हैं, लेकिन अंत में उनका पतन होता है
गांधी जयंती विशेष
01 - 07 अक्टूबर 2018
गांधी जी के ये जाने-अनजाने दोस्त इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब 'गांधी बिफोर इंडिया' का हिंदी अनुवाद हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है पुस्तक का एक ऐसा अंश जो गांधी जी के कुछ ऐसे जाने-अनजाने मित्रों के बारे में बताता है, जिन्होंने उनके विचारों और दर्शन को गहराई से प्रभावित किया
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रामचंद्र गुहा
हात्मा गांधी ने जो संबंध विकसित किए वे निजी तो थे ही, उपयोगी भी थे। उन्हें अपने बेटों से, भतीजों से और अपने भारतीय और यूरोपीय दोस्तों से अपार स्नेह था। लेकिन उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था कि ये लोग उनके सामाजिक और राजनीतिक कामकाज में मदद करते थे। वे उनके अखबार और उनकी वकालत के काम में सहयोग करते थे। वे सामुदायिक कल्याण के काम के लिए समर्थन जुटाते थे। साधन होने पर वे उनकी सार्वजनिक और सामाजिक गतिविधियों के लिए आर्थिक मदद करते थे और वे उनके साथ जेल जाने के लिए भी तैयार रहते थे। ये ‘सहायक’ चरित्र अपने आप में महत्वपूर्ण हस्तियां थीं। ये विद्वान और समर्पित लोग थे
दोस्तों और प्रशंसकों की ही तरह आलोचकों और शत्रुओं ने 1893 में डरबन में आने वाले एक गंभीर और निष्कपट वकील को 1914 में उसके केपटाउन से भारत लौटते वक्त तक एक तीक्ष्ण, चतुर और जागरूक चिंतक आंदोलनकारी में तब्दील कर दिया था
और इन्हीं के जरिए हम गांधी के व्यक्तित्व और ऐतिहासिक चरित्र को बेहतर तरीके से जानते हैं। हेनरी पोलक, थंबी नायडू, एएम केचेलिया, सोन्जाश्लेजिन और पारसी रुस्तमजी के साथ उनके रिश्तों के जरिए ही हम गांधी के राजनीतिक अभियान का सही मूल्यांकन कर सकते हैं। हरमन कालेनबाख के साथ उनके प्रयोगों की वजह से हमें टॉल्सटॉय और उनके अनुयायी लोगों के साथ उनके वाद-विवाद और आत्म-सुधार की उनकी कामना
के बारे में पता चलता है। रायचंद भाई, जोसेफ डोक और सीएफ एंड्रयूज के साथ उनके वार्तालाप के जरिए हम यह समझ पाते हैं कि किस तरह गांधी ने धार्मिक बहुलता को लेकर अपनी समझदारी विकसित की। प्राणजीवन मेहता के साथ उनकी दोस्ती और पत्रचार के जरिए हम उनके खुदकी मातृभूमि के लिए उनके बड़े लक्ष्यों को समझ पाते हैं। कस्तूरबा, हरिलाल और मणिलाल के साथ उनके रिश्तों के जरिए हम उस गांधी को बेहतर
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गांधी जयंती विशेष
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लेखन-संपादन में महारत
तरीके से समझ पाते हैं, जिसकी पारिवारिक संबंधों में असफलता उसके सामाजिक और आध्यात्मिक सफलता के साथ-साथ खड़ी दिखती है। जैसा कि साफ दिखता है, हम गांधी को उनके दक्षिण अफ्रीका में उनके विरोधियों के जरिए भी बेहतर तरीके से जान पाते हैं। संकीर्ण सोच वाले मोंटफोर्ड चेमनी, अहंकारी जनरल स्मट्स, ईस्ट रैंड के उन्मादी सदस्य और नटाल के उन्मादी श्वेत लोगों ने गांधी की दुनिया और दुनिया के बारे में उनकी सोच को आकार दिया था। इसमें उग्र पठानों और डरबन के ईर्ष्यालु संपादक पीएस अय्यर का भी योगदान था।
आंदोलनकारी गांधी
दोस्तों और प्रशंसकों की ही तरह आलोचकों और शत्रुओं ने 1893 में डरबन में आने वाले एक गंभीर और निष्कपट वकील को 1914 में उसके केपटाउन से भारत लौटते वक्त तक एक तीक्ष्ण, चतुर और जागरूक चिंतक आंदोलनकारी में तब्दील कर दिया था। उनके इन विरोधियों में दो सबसे ताकतवर लोग थे-दक्षिण अफ्रीका में साम्राज्य के एक प्रशासक (प्रो-काउंसल) अल्फ्रेड मिलनर और विद्वान और योद्धा यान क्रिश्चियन स्मट्स। इतिहास ने गांधी को स्मट्स से कहीं ऊंचा और मिलनर से तो काफी ऊंचा दर्जा प्रदान कर दिया है। लेकिन दक्षिण अफ्रीका में गांधी के बिताए दिनों में ये दोनों उनके मुकाबले कहीं महत्वपूर्ण हस्तियां थीं। हैसियत की इसी असमानता की वजह ये दोनों गांधी की मामूली मांगों को भी उपेक्षा और अपमान की निगाह से देखते थे।
होनी-अनहोनी और इतिहास
अगर इनमें से कोई भी थोड़ा नरम होता और
भारतीय दृष्टिकोण की परवाह करता तो फिर कौन जानता है कि गांधी को लेकर इतिहास का फैसला क्या होता? यदि 1904 में मिलनर, ट्रांसवाल में भारतीय कारोबारियों के तत्कालीन अधिकारों को कानूनी दर्जा देने पर राजी हो जाता तो गांधी के मन में वतन-वापसी तक सविनय अवज्ञा का विचार दूरदूर तक नहीं आता। यदि तीन साल बाद स्मट्स ने एशियाटिक एक्ट वापस ले लिया होता और करीब एक हजार भारतीयों के बोअर युद्ध पूर्व के अधिकारों पर राजी हो जाता तो वतन वापसी के बाद तक गांधी को कभी ये पता नहीं चल पाता कि वे अपने समर्थकों का मनोबल कब तक कायम रख सकते हैं! साल 1903 में डेली टेलीग्राफ के जोहांसबर्ग संवाददाता ने लॉर्ड मिलनर के प्रतिबंध (उसने भारतीयों के रहने के लिए खास-खास 'लोकेशंस' तय कर दिए थे) के बारे में कहा कि ‘इससे उत्पन्न विवाद सिर्फ ट्रांसवाल तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह इंग्लैंड और भारत तक फैल जाएगा’। 1907 में नटाल मरकरी ने जनरल स्मट्स की जिद के बारे में लिखा कि यहां और भारत दोनों जगहों में इसके अनपेक्षित परिणाम होंगे। दोनों ही बयान भविष्य को बतलाने वाले थे। यदि मिलनर या स्मट्स ने शुरुआत में ही गांधी के साथ समझौता कर लिया होता,तो उन्हें कभी भी सत्याग्रह की तकनीक विकसित करने का मौका नहीं मिलता, ना ही इस बात का विश्वास जगता कि यह भारत जैसे वृहद और विभाजित देश में भी काम कर सकता है। इस मामले में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और बोअर नस्लवादियों ने गांधी को दक्षिण अफ्रीका में और बाद में उनकी मातृभूमि में भी एक जननेता के तौर पर उभरने का भरपूर मौका दे दिया।
दक्षिण अफ्रीका में ही गांधी ने एक लेखक और संपादक के तौर पर महारत हासिल की। उनकी शुरुआत हुई थी इंग्लैंड में, जहां उनके सहयोगियों ने उन्हें एक पत्रिका निकालने की खुली छूट दी थी। नटाल में अपने शुरुआती दिनों में उन्होंने अखबारों को चिट्ठियां और सरकार को ढेर सारे आवेदन लिखे। 1903 में उन्होंने अपना पत्र शुरू कर दिया। इसका उद्देश्य दस्तावेजी और राजनीतिक था। यह पत्रिका गांधी के हितों को आगे बढ़ाने के लिए नहीं बल्कि नटाल और ट्रांसवाल में भारतीयों के हितों के लिए निकाली गई थी। गांधी ने इसके लिए गुजराती और अंग्रेजी में कई लेख लिखे। वे हफ्ते दर हफ्ते इसकी छपाई पर नजर रखते और इसके लिए पैसे जुटाने की मुख्य जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी। एक लेखक और संपादक के तौर पर गांधी की कुशलता लाजवाब थी। लेकिन जहां तक भाषण देने की बात है तो वह एक बहुत खराब नहीं तो एक सपाट वक्ता जरूर थे। उनके मित्र और प्रशंसक जोसेफ डोक ने लिखा कि ‘जोहांसबर्ग में ही कई ऐसे भारतीय थे जो वक्ता के तौर पर गांधी से कहीं बेहतर, स्वाभाविक और अप्रभावित थे’। गांधी धीमे स्वर में बोलते थे और उनका भाषण नीरस होता था। डोक ने लिखा कि भाषण देते समय वे कभी भी हाव-भाव का प्रदर्शन या हाथ नहीं लहराते थे और ‘कभी-कभी ही अपनी उंगलियां हिलाते थे’। लेकिन इसके बावजूद भारतीय उन्हें ध्यान से सुनते थे क्योंकि भले ही बोलने का तरीका नीरस हो, उनके शब्दों में दृढ़ता होती थी। गांधी ने अपने लेख और भाषणों से उतने समर्पित कार्यकर्ता नहीं तैयार किए, जितने अपनी जीवनशैली और व्यवहार से किए। उनका संयम, उनका परिश्रम, उनका साहस अलग-अलग पृष्ठभूमि के लोगों को आकर्षित करने के लिए काफी था। चाहे वे मुस्लिम हों या यहूदी, ईसाई हों या तमिल, व्यापारी हों या फेरीवाले और पुजारी हों या बंधुआ मजदूर। अलगअलग पृष्ठभूमि के लोगों को प्रभावित कर उन्होंने एक नैतिक और फिर राजनीतिक समुदाय तैयार कर लिया, जिसके सदस्य उनके नेतृत्व और दिशानिर्देशों के तहत गरीबी भरा जीवन जीने और जेल जाने के लिए सहर्ष प्रस्तुत रहते थे।
‘बड़े सरदार’
गांधी के प्रति उनके दोस्तों की प्रतिबद्धता सचमुच आश्चर्यजनक थी। एलडब्ल्यू रिच के लिए वे हमेशा ही ‘बड़े सरदार’ थे। पोलक ने गांधी के प्रति सम्मान की वजह से अपनी पत्नी और बच्चों से दूर होकर महीनों एक अनजान जगह में उनके साथ यात्रा करना पसंद किया था। थांबी नायडू बारबार गिरफ्तारी देने और गांधी की जिंदगी बचाने के लिए अपनी जिंदगी को दांव पर लगाने में भी खुशी महसूस करते थे। पीके नायडू जब भी कैद से बाहर आते, वे सबसे पहले गांधी से मिलना पसंद करते थे। ऊर्जावान सोन्जा श्लेजिन सारा दिन गांधी के दफ्तर में काम करती थीं और इसके बाद भी तमिल महिलाओं की मदद करने और उनके पतियों को जेल में खाना पहुंचाने के लिए समय और ऊर्जा निकाल लेती थीं और हरमन कालेनबाख की निष्ठा तो इन सबसे बढ़कर थी।
विश्व इतिहास में आजादी के लिए लोकतांत्रिक संघर्ष हमसे ज्यादा वास्तविक किसी का नहीं रहा है। मैंने जिस लोकतंत्र की कल्पना की है, उसकी स्थापना अहिंसा से होगी। उसमें सभी को समान स्वतंत्रता मिलेगी। हर व्यक्ति खुद का मालिक होगा
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गांधी जयंती विशेष
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संबंधों के कुछ और सूत्र महात्मा गांधी 1914 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे। इस दौरान कालेनबाख ही उनके सबसे विश्वसनीय और आत्मीय सहयोगी बने रहे। इसी तरह साहित्यकार लियो टॉल्सटॉय ने निर्विवाद रूप से महात्मा गांधी पर गहरा प्रभाव डाला
आपकी मान्यताएं आपके विचार बन जाते हैं। आपके विचार आपके शब्द बन जाते हैं। आपके शब्द आपके कार्य बन जाते हैं। आपके कार्य आपकी आदत बन जाते हैं। आपकी आदतें आपके मूल्य बन जाते हैं। आपके मूल्य आपकी नियति बन जाती है
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हरमन कालेनबाख
हात्मा गांधी से जुड़े सैकड़ों पत्र, दस्तावेज और फोटो दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में हैं। ये दस्तावेज हरमन कालेनबाख से संबंधित हैं जो दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए महात्मा गांधी के मित्र बने थे। इन दोनों की मुलाकात 1904 में दक्षिण अफ्रीका में हुई थी। इसके बाद 1907 से अगले दो साल तक गांधी कालेनबाख के साथ ही रहने लगे थे। महात्मा गांधी 1914 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे। इस दौरान कालेनबाख ही उनके सबसे विश्वसनीय और आत्मीय सहयोगी बने रहे। कसरती बदन वाले कालेनबाख ने गांधी को कई 'तार्किक और प्यार भरी टिप्पणियां' भेजी थीं, कहा जाता है कि इन्हें बाद में नष्ट कर दिया गया। उपलब्ध संग्रह अच्छी तरह संरक्षित किया हुआ और अनमोल है। इस संग्रह में गांधी और कालेनबाख के बीच पांच दशकों तक हुआ पत्राचार शामिल है। दोनों के बीच 1905 से लेकर 1945 तक चिट्ठियों के ज़रिए बातचीत होती रही। इसमें बहुत सी सामग्री कभी प्रकाशित नहीं हुई। इन पत्रों में गांधी और कालेनबाख ने कानूनी मामलों, रूसी लेखक टॉल्सटॉय में अपनी साझा
दिलचस्पी का ज़िक्र किया है। साथ ही दोनों ने दक्षिण अफ्रीका के टॉल्सटॉय फार्म में जो वक्त साथ गुजारा, उस वक्त की बातों की चर्चा की गई हैं। इन पत्रों में गांधी की भारत वापसी, शुरुआती राजनीतिक अभियान के बारे में भी बात की गई है।
बा के बारे में
महात्मा गांधी ने अपनी पत्नी कस्तूरबा गांधी के बारे में भी बातें की हैं। इन पत्रों में उन्होंने ‘बा’ की बीमारी का भी जिक्र किया है। महात्मा गांधी लिखते हैं, ‘अब मैं अपनी पत्नी से और नाराज नहीं रहना चाहता क्योंकि वो बहुत ही प्यारी हैं। उन्होंने आज कुछ अंगूर खाए लेकिन फिर बीमार हो गई। मुझे लगता है कि धीरे-धीरे वो ढलती जा रही हैं।’ इनमें महात्मा गांधी के भारत लौटने के दौरान उनके मनोभावों का भी पता चलता है। महात्मा गांधी लिखते हैं, ‘मैं जमीन पर बैठ कर लिखता हूं और उंगलियों से खाना खाता हूं, मैं भारत पहुंच कर अलग-थलग नहीं दिखना चाहता हूं।” कालेनबाख ने अपनी चिट्ठियों में यूरोप में नाज़ीवाद के प्रचार-प्रसार और यहूदियों की स्थिति पर चिंता जताई है। इन चिट्ठियों में महात्मा गांधी के पुत्रों और सौतेले भाइयों के साथ-साथ टॉल्सटॉय
के अनुवादक आईएफ मेयो के पत्र भी हैं। टॉल्सटॉय फार्म, फलों के पेड़ की खरीद संबंधी दस्तावेजों के साथ-साथ ऐसे दस्तावेज़ भी हैं जिनमें पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की गई है। महात्मा गांधी ने कालेनबाख को कई उपहार भी भेजे थे। इन उपहारों में एक झंडा, एक सूती खादी का स्कार्फ और चरखा भी था। इन दस्तावेजों में वे मार्मिक पत्र भी शामिल हैं, जो महात्मा गांधी ने अपने पहले बेटे हरिलाल गांधी, दूसरे बेटे मणिलाल गांधी और तीसरे बेटे रामदास गांधी के आपसी संबंधों के बारे में लिखा है। इन पत्रों से ये भी जाहिर होता है कि कालेनबाख की गांधी के दूसरे बेटे मणिलाल गांधी के साथ गहरी दोस्ती थी। गांधी और कालेनबाख ने 1910 में ‘टॉलस्टॉय फार्म’ की स्थापना की थी जिसमें गांधी जी छह साल से 16 साल तक के बच्चों को व्यावसायिक प्रक्षिक्षण देते थे। यह शायद असफल प्रयोग था जिसे 1913 में बंद कर दिया गया था।
लियो टॉल्सटॉय
लियो टॉल्सटॉय को निर्विवाद रूप से रूस का सबसे महान साहित्यकार कहा जाता है। उनकी सोच ने महात्मा गांधी पर गहरा प्रभाव डाला। उनके
01 - 07 अक्टूबर 2018 सामाजिक जीवन को टॉलस्टॉय के विचारों की ही देन कह सकते हैं। अमीर घराने से ताल्लुक रखने वाले टॉलस्टॉय ने 55 साल की उम्र तक आते-आते बिलकुल सादा जीवन अपना लिया था: नंगे पांव चलना, खेती करना और किसानों जैसे कपड़े पहनना। उन्होंने धूम्रपान, शिकार करना और मांसाहार सब छोड़ दिया था। 1891 में अपनी जायदाद का ज्यादातर हिस्सा अपनी पत्नी और बच्चों में बांट कर वे ग्रामीण जीवन से जुड़ गए और दुनिया भर के धर्मों को मानने वालों के साथ संगत करने लगे। बक़ौल टॉल्सटॉय, ‘चर्च का इतिहास क्रूरतापूर्ण और भयावह है और ईसा के सिद्धातों के खिलाफ है। हिंसा का जवाब उन्होंने ईसा के सिद्धांतों पर चलने से दिया - ‘अगर तुम ईसाई हो तो अपने पड़ोसी से झगड़ो मत, और न ही हिंसा का सहारा लो; किसी और को पीड़ा देने से अच्छा है खुद पीड़ित हो जाओ और बिना किसी प्रतिरोध के हिंसा का सामना करो।’ जिस तरह टॉलस्टॉय ने अपनी संपत्ति का बड़ा हिस्सा बांट दिया था, ठीक उसी प्रकार गांधी ने भी वे सब उपहार, गहने और पैसे लोगों में बांट दिए जो उन्हें और परिवार को साउथ अफ्रीका में आंदोलन के दौरान लोगों ने प्रेम स्वरूप दिए थे। गांधी के ‘सत्याग्रह’ का आधार भी शांति और सविनय अवज्ञा ही था। गोपाल कृष्ण गोखले गांधी के राजनैतिक गुरु थे पर टॉलस्टॉय शायद उनके आध्यात्मिक गुरु थे। विचारों की इसी समानता ने दोनों को एक-दूसरे के करीब ला खड़ा किया। दोनों के बीच रिश्ते की शुरुआत टॉलस्टॉय की किताब ‘ईश्वर की सत्ता तुम्हारे अंदर ही है’ से हुई। इससे प्रभावित होकर उन्होंने एक अक्टूबर 1909 को टॉलस्टॉय को पहला खत लिखा। इसमें गांधी जी ने ट्रांसवाल, साउथ अफ़्रीका में अपने द्वारा चलाये गए सविनय अवज्ञा आंदोलन, जिसको आम भाषा में ‘सिविल डिसओबीडिएंस मूवमेंट’ कहते हैं, का ज़िक्र किया। गांधी का आंदोलन टॉलस्टॉय की विचारधारा से प्रभावित था। इस खत का ज़िक्र टॉलस्टॉय ने अपनी डायरी में किया है, ‘आज मुझे एक हिंदू द्वारा लिखा हुआ दिलचस्प पत्र मिला है।’ इसके जवाब में उन्होंने गांधी को लिखा, ‘मुझे अभी आपके द्वारा भेजा गया दिलचस्प पत्र मिला है और इसे पढ़कर मुझे अत्यंत ख़ुशी हुई। ईश्वर हमारे उन सब भाइयों की मदद करे जो ट्रांसवाल में संघर्ष कर रहे हैं। ‘सौम्यता’ का ‘कठोरता’ से संघर्ष, ‘प्रेम’ का ‘हिंसा’ से संघर्ष हम सभी यहां पर भी महसूस कर रहे हैं। मैं आप सभी का अभिवादन करता हूं।’ गांधी ने उन्हें दूसरा खत 4 अप्रैल, 1910 को लिखा और साथ में अपनी किताब ‘हिंद स्वराज’ भी भेजी और आग्रह किया कि अगर उनकी (टॉलस्टॉय की) सेहत ठीक हो तो किताब के बारे में उनके विचारों से अवगत कराएं। ये टॉलस्टॉय के जीवन के आख़िरी महीनों की बात है। तब उनकी तबियत अमूमन बिगड़ी रहती थी। लेकिन उस समय भी काफी लोग उनसे मिलने आते थे। उनकी डायरी में 10 अप्रैल 1910 की तारीख में एक वाकया दर्ज है, ‘आज मुझसे दो जापानी मिलने आये जो यूरोपियन सभ्यता पर क़सीदे पढ़े जा रहे थे और वहीं मुझे एक हिंदू का पत्र और उसकी किताब मिली जो यूरोप की सभ्यता में कमियों को साफ-साफ उजागर करते
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गांधी जयंती विशेष
एक देश की महानता और नैतिक प्रगति को इस बात से आंका जा सकता है कि वहां जानवरों से कैसे व्यवहार किया जाता है
हैं। अगले दिन, यानी 11 अप्रैल को एक और बात उनकी डायरी में दर्ज है, ‘आज मैंने गांधी की जीवनी पढ़ी और मुझे लगता है कि मुझे उनको इस बारे में लिखना चाहिए।’ जिस जीवनी का ज़िक्र उन्होंने किया है वह जेजे डोक द्वारा लिखी हुई थी। गांधी जी के खत के जवाब में टॉलस्टॉय ने 24 अप्रैल 1910 को लिखा, ‘मुझे आपका पत्र और किताब मिली। सत्याग्रह सिर्फ हिंदुस्तान के लिए ही नहीं वरन, संपूर्ण विश्व के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण है।’गांधी 15 अगस्त 1910 को लिखे अपने अगले खत में टॉलस्टॉय को बताते हैं कि उन्होंने और उनके एक साथी (कालेनबाख) ने जोहांसबर्ग में ‘टॉलस्टॉय फार्म’ की स्थापना की है। गांधी जी के इन खतों ने और ख्यालों ने टॉलस्टॉय की उनमें दिलचस्पी बढ़ा दी थी और वह इसलिए कि गांधी उनके विचारों को मूर्त रूप दे रहे थे। अब उनकी डायरी में ‘गांधी’ शब्द कई बार आने लग गया था और वे उनके ट्रांसवाल के संघर्ष में काफी दिलचस्पी भी ले रहे थे। इधर गांधी का उदभव हो
रहा था, उधर टॉलस्टॉय के जीवन की शाम बस ढलने ही को थी। उन्होंने गांधी को अपना आख़िरी खत 20 सितम्बर 1910 को लिखा जो उनका गांधी को लिखा सबसे लंबा खत भी था‘अब जब मौत को मैं अपने बिलकुल नजदीक देख रहा हूं तो मैं कहना चाहता हूं जो मेरे जेहन में साफ-साफ नजर आता है और जो आज सबसे ज्यादा जरूरी है, और वह है - ‘निष्क्रिय प्रतिरोध ‘ (इसे आप ‘सत्याग्रह’ भी कह सकते हैं) जोकि कुछ और नहीं बल्कि प्रेम का पाठ है। प्रेम इंसान के जीवन का एकमात्र और सर्वोच्च नियम है और यह बात हर इंसान की आत्मा भी जानती है; और अगर इंसान किसी गलत अवधारणा को न माने, तो शायद वह इसे समझ सकता है। इसी प्रेम की उद्घोषणा सभी संतों ने की है फिर वह चाहे भारतीय हो, चीनी हो, यहूदी हो, यूनानी हो या रोमन हो। जब प्रेम में बल का प्रवेश हो जाता है तो फिर वह जीवन का नियम नहीं रह पाता और हिंसा का रूप धारण कर लेता है और ताकतवर की शक्ति बन जाता है।’
16 खुला मंच
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आप मानवता में विश्वास मत खोइए। मानवता सागर की तरह है। अगर सागर की कुछ बूंदें गंदी हैं, तो सागर गंदा नहीं हो जाता – महात्मा गांधी
राष्ट्रपिता का सबक
ध ा न मं त्री नरेन्द्र मोदी जब किसी विदेशी राष्ट्राध्यक्ष को लेकर महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम पहुंचते हैं, तो बातचीत में वे इस सौभाग्य को दोहराते हैं कि भारतीय होने के साथ गुजरात की भूमि पर पैदा होने के कारण गांधी जी को स्मृति से आगे अपनी प्रेरणा बनाने में मदद मिली। यह वह प्रेरणा ही है, जिस कारण उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद जो सबसे पहला कार्यक्रम देश को दिया वो राष्ट्रपिता की स्वच्छता की सीख से जुड़ा था। राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन को उन्होंने बापू के चरणों में पूरे देश की कार्यांजलि बताया। आगे गांधी जी के ही शब्द ‘सत्याग्रह’ को उन्होंने ‘स्वच्छाग्रह’ के रूप में लोकप्रिय बनाया। दरअसल, लोकतांत्रिक व्यवस्था में नेतृत्व की बड़ी जिम्मेदारी संभालने वाले दुनिया के तमाम बड़े नेताओं में एक खास गुण यह रहा है कि जहां वे एक साथ साधारण से लेकर विशिष्ट लोगों से संवाद करते हैं, वहीं अपने इतिहास और स्मृतियों को भी नहीं भूलते हैं। भारत के लिए यह गर्व और संतोष की बात है कि पीएम मोदी न सिर्फ गुण और योग्यता की इन कसौटियों पर खरा उतरते हैं, बल्कि वे एक ऐसे नेता हैं, जिसने सामान्य जनों को भी असाधारण सम्मान दिया है। रही बात इतिहास और विशिष्ट जनों की तो ये भी उनके लिए बराबर समादरणीय और प्रेरक बने रहे हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को तो वे तकरीबन हर अवसर पर याद करते हैं। यह हमारे राष्ट्रीय जीवन में उच्च नैतिक मूल्यों के ह्रास को रोकने की दिशा में एक कारगर कदम भी साबित हो रहा है। वैसे भी भूख और अशांति के कारण कराहती मानवता गांधी को और संघर्ष करने के उनके अहिंसक तरीके को शायद ही भूल पाए। महात्मा गांधी इसीलिए लगातार प्रासंगिक भी रहेंगे।
टॉवर फोनः +91-120-2970819
वरिष्ठ गांधीवादी लेखक-पत्रकार और गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के अध्यक्ष
इतिहास का पारस-स्पर्श इतिहास के कुछ पन्ने ऐसे होते हैं कि वे जब भी आपको या आप उनको छूत-े खोलते हैं तो आपको कुछ नया बना कर जाते हैं। इसे पारस-स्पर्श कहते हैं। इतिहास का पारस-स्पर्श! चंपारण का गांधी-अध्याय ऐसा ही पारस है
भूख और अशांति के कारण कराहती मानवता गांधी को और संघर्ष करने के उनके अहिंसक तरीके को शायद ही भूल पाए
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अभिमत
कुमार प्रशांत
(उत्तर प्रदेश)
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से तो इतिहास की हर घटना की शताब्दी आती है और उसे सौ साल पुराना बना कर चली जाती है। हम भी इतिहास को बीते समय और गुजरे लोगों का दस्तावेज भर मानते हैं। लेकिन इतिहास बीतता नहीं है, नए रूप और संदर्भ में बार-बार लौटता है और हमें मजबूर करता है कि हम अपनी आंखें खोलें और अपने परिवेश को पहचानें! इतिहास के कुछ पन्ने ऐसे होते हैं कि वे जब भी आपको या आप उनको छूते-खोलते हैं तो आपको कुछ नया बना कर जाते हैं। इसे पारस-स्पर्श कहते हैं। इतिहास का पारस-स्पर्श! चंपारण का गांधी-अध्याय ऐसा ही पारस है! इस पारस के स्पर्श से ही गांधी को वह मिला और वे वह बने जिसकी खोज थी उन्हें, यानी इतिहास ने जिसके लिए उन्हें गढ़ा था। और वह गांधी का स्पर्श ही था कि जिसने अहिल्या जैसे पाषाणवत् चंपारण को धधकता शोला बना दिया था। यह सब क्या था और कैसे हुआ था? 15 अप्रैल, 1917 को राजकुमार शुक्ल जैसे एक अनामसे आदमी के साथ मोहनदास करमचंद गांधी नाम का आदमी चंपारण आया था। मोहनदास वर्षों बाद स्वदेश लौटे थे, चंपारण का नाम भी नहीं सुना था और नील की खेती के बारे में न के बराबर जानते थे। कानूनी पढ़ाई के लिए इंग्लैंड से जो विदेश-यात्रा शुरू हुई थी वही उन्हें दक्षिण अफ्रीका ले गई और फिर वहीं अवस्थित भी कर आई थी सपरिवार! सब कुछ ठीकठाक ही चल रहा था। वकालत भी जम गई थी कि मॉरित्सबर्ग स्टेशन पर उस मूढ़मति टिकट चेकर ने उन्हें डिब्बे से उतार फेंकने का कारनामा कर डाला। अगर उस टिकट चेकर को जरा भी इल्म होता कि इस काले को डब्बे से उठा फेंकने से गोरों के साम्राज्य की नींव ही उखड़ जाएगी तो वह ऐसा कभी न करता, लेकिन उसने बैरिस्टर एमके गांधी को भीतर से मोहनदास करमचंद गांधी कर दिया जो धीरे-धीरे चोला उतारता-उतारता कब महात्मा गांधी और फिर बापू बन गया, इसकी खोज में आज भी इतिहास भटक ही रहा है। इसीलिए यह याद रखने जैसा तथ्य है कि गांधी जी जब चंपारण गए तब तक वे एकदम परिपक्व सत्याग्रही बन चुके थे। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का हथियार उन्हें मिला, जिसे धारदार बना कर उन्होंने रंग और जातीय भेद के खिलाफ इस्तेमाल भी किया, अपने जीवन में भी और जीवन की दिशा में भी कितने फेर-फार किए। परिवार को अपनी
तरह से जीने की दिशा में ढाला, अपने आश्रम बनाए, उसके अनुरूप जीने की पद्धतियां विकसित कीं, अपनी लड़ाई के पक्ष में जनमत बनाने के लिए इंग्लैंड तक की यात्रा की और विदेशी सरकार से लेकर विदेशी अखबार और विदेशी सामाज के लोगों तक को साथ लेने की कला विकसित की। जनरल स्मट्स के साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत का वह नया रिश्ता बनाया जिसमें नागरिक और उसकी सरकार एक हैसियत पर आ सकती है। चंपारण आने से पहले गांधी युद्धभूमि में उतर चुके थे। जूलू विद्रोह के दौरान सार्जेंट मेजर एमके गांधी के नाम की पट्टी लगा कर भारतीयों की टुकड़ी के कमांडर बन कर वे युद्ध के मैदान में गोलियों के
गांधी और चंपारण दोनों ही आज के हिंदस्ता ु न की दशा सुधारने और दिशा दिखाने का काम एक साथ कर सकते हैं। शर्त इतनी ही है कि हम दशा सुधारने और दिशा खोजने के बारे में ईमानदार तो हों
01 - 07 अक्टूबर 2018 बीच भागते-दौड़ते घायल सिपाहियों की तिमारदारी कर चुके थे। ‘हिंद-स्वराज’ नाम की कालजयी पुस्तिका लिख चुके थे। दक्षिण अफ्रीका का अपना संघर्ष जीत कर भारत आए तो रही-सही कसर गुरु गोखले ने पूरी कर दी। वचनबद्ध गांधी पूरे साल भर तक ‘आंख खुली, मुंह बंद’ कर सारा भारत घूमते रहे। देश देखा, लोग देखे, प्रकृति देखी और देखा हर मान-अपमान को सह कर जीने का भारतीय स्वभाव! इसी भारत-दर्शन के क्रम में वे यह पहचान सके कि सैकड़ों साल की गुलामी अब अवस्था नहीं, मन:स्थिति में बदल चुकी है। राजकुमार शुक्ल गांधी को नील किसानों की दुरवस्था दिखाने के लिए चंपारण ले गए। गांधी ने यहां आ कर वह सब देखा जो गुलामी की बीमारी के विषाणु थे। यह जानना बड़ा मजेदार भी है और आंखें खोलने वाला भी कि वे यहां आकर अंग्रेजों से, निलहों से कोई लड़ाई लड़ते ही नहीं हैं। वे लड़ाई शुरू करते हैं गुलामी की मानसिकता से। वे रात-दिन गुलाम भारतीयों को उनकी गुलामी का अहसास कराते रहे। बिहार के पहले दर्जे के वकीलों की फौज उनके साथ आ जुटी। बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, रामनवमी प्रसाद, राजेंद्र प्रसाद, धरणीधर बाबू आदि सभी गांधी से सुरक्षित दूरी रख कर, गांधी के करीब आते गए। ये तब के वक्त में दस हजार रुपए तक की फीस वसूलने वाले वकील थे। गांधी ऐसी वकालत और ऐसी कमाई का संसार छोड़ कर ही आए थे तो इनकी चमक-दमक से अप्रभावित इन्हें समझाते थे कि लड़ाई न अधूरी होती है और न अधूरेमन से लड़ी जाती है। प्रोफेसर कृपलानी भी थे आसपास लेकिन वे गांधी को ताड़ने में ही अधिक लगे थे। गांधी ने अपने मतलब के लोगों को गुजरात, महाराष्ट्र आदि से बुलाया और सफाई से रहना, पढ़ना, खाना बनाना आदि शुरू करवाते हैं। सबसे पहले सबकी रसोई एक साथ, एक ही जगह से बने- वे इसका आग्रह करते हैं। हर बड़ा वकील अपने साथ सेवक, रसोइया ले कर आया होता है। गांधी धीरे से इसे अनावश्यक बताते हैं और समझाते हैं कि सब मिल कर एक-दूसरे की मदद से वे सारे काम कर सकते हैं जिनके लिए हम इन पर अश्रित हैं। वे कहते ही नहीं, बल्कि खुद ही करने भी लगते हैं। उस दिन तो हद ही हो गई जिस दिन दीनबंधु सीएफ एंड्रूज को (जो तब दीनबंधु नहीं कहलाते थे) मोतिहारी से बाहर जाना था और उनके लिए खाना बनाने वाला कोई नहीं था। जैसे-तैसे रोटी और उबले आलू का खाना बना और एंड्रूज खाने बैठे तभी गांधी जी उन्हें देखने आ गए और यह देख कर पानी-पानी हो गए कि एंड्रूज एकदम कच्ची रोटी खा रहे थे, जो उनकी थाली में धर दी गई थी। गांधी लोगों पर नाराज हुए और फिर खुद ही रोटियां बनाने बैठे। वे रोटियां बेलते रहे, करीने से सेंकते रहे और मान-दुलार से एंड्रूज की थाली में डालते गए। बस, उस दिन से रसोई भी और नौकर भी एक हो गए। इन सबमें कहीं भी न अंग्रेज आते हैं और न उनसे लड़ाई आती है। लेकिन गांधी के चंपारण पहुंचने से पहले ही उनकी कीर्ति वहां पहुंच चुकी थी। जनमानस में बनने वाली छवि अहिंसक लड़ाई का बड़ा प्रभावी हथियार होती है। दक्षिण अफ्रीका में गांधी ने क्या
गांधी के चंपारण पहुंचने से पहले ही उनकी कीर्ति वहां पहुंच चुकी थी। जनमानस में बनने वाली छवि अहिंसक लड़ाई का बड़ा प्रभावी हथियार होती है। दक्षिण अफ्रीका में गांधी ने क्या किया, इसे न जानने वाले भी यह जान गए कि यह चमत्कारी आदमी है किया, इसे न जानने वाले भी यह जान गए कि यह चमत्कारी आदमी है। रास्ते भर किसान ही नहीं, सरकारी अधिकारी भी गांधी को देखने आते रहते रहे। जितने लोग आते जाते, बातें उतने ही रंग की फैलती जातीं। अंग्रेज अधिकारी और प्रशासन हैरान था कि यह आदमी करना क्या चाहता है और यह जो करना चाहता है वह इसे करने दिया जाए तो पता नहीं यह क्या-क्या करने लग जाएगा! दक्षिण अफ्रीका में इनके आका इस आदमी के जाल में इसी तरह जा फंसे थे, वह कहानी गांधी के लोगों से ज्यादा अच्छी तरह सरकारी लोगों को पता थी। 15 अप्रैल को गांधी मोतिहारी पहुंचे और बाबू गोरख प्रसाद के घर पर उन्हें ठहराया गया। अंग्रेजों के बात-व्यवहार का गांधी को दक्षिण अफ्रीका से अनुभव था। इसीलिए वे तुरंत गिरफ्तारी की संभावना मान कर तैयार थे। उसी आधार पर सामान की गठरी बनी थी। सब जानना चाहते थे कि गांधी कल से सत्याग्रह कैसे शुरू करेंगे! गांधी एकदम ठंडे स्वर में बोले, ‘कल मैं जसवलपट्टी गांव जाऊंगा!’ सब एक-दूसरे से पूछते हैं-क्यों, वहां क्यों? पता चलता है कि वहां के एक प्रतिष्ठित गृहस्थ पर अत्याचार की ताजा खबर आई है! सब बड़े लोग कुछ परेशान हो जाते हैं। अत्याचार कहां नहीं है कि आप जसवलपट्टी जा रहे हैं! मोतिहारी मुख्य शहर है। यहां से आपको प्रचार मिलेगा न कि जसवलपट्टी से! रात बीती। सुबह गांधी जसवलपट्टी जाने के लिए तैयार। धरणीधर बाबू और रामनवमी बाबू साथ निकले। सवारी मंगाई गई हाथी। जलता हुआ सूरज सिर पर है और गर्म हवा झुलसा रही थी। गांधी ने कभी हाथी की सवारी की नहीं थी और वह भी तीन आदमी एक साथ! लगभग टंगी हुई हालत में सफर शुरू। और गांधी की बात भी शुरू हुई। वे जब से मोतिहारी आए थे, यहां की महिलाओं की दशा उन्हें मथ रही थी। इसीलिए इसकी ही चर्चा उन्होंने निकाली और कहा यह कि यह तो हमारी महिलाओं को मार ही देगा! अंग्रेज अधिकारी भी यही समझ रहे थे कि यह आदमी पता नहीं कब,
कहां और कैसे हमें मार ही देगा और इसलिए बगैर कोई वक्त खोए वे ही आगे बढ़ कर गांधी से लड़ाई मोल लेते। रास्ते में हाथी से उतर कर बैलगाड़ी, बैलगाड़ी से उतर कर इक्का और इक्का से उतर कर टमटम की यात्रा करवाता है प्रशासन और फिर जिला छोड़ कर चले जाने का फरमान थमा देता है। ‘मुझे इसका अंदेशा तो था ही!’ कह कर गांधी चंपारण के जिलाधिकारी का आदेशपत्र लेते हैं। लिखा है, ‘आपसे अशांति का खतरा है!’ गांधी यह आदेश मानने से सीधे ही इनकार कर देते हैं। वे अपने साथियों में पहले से बना कर लाया वह हिदायतनामा बांट देते हैं जिसमें लिखा है कि अगर उनकी गिरफ्तारी होती है तो किसे क्या करना है। यह सब तो अभूतपूर्व था! अगले दिन, अगला नजारा कचहरी में खुला। बेतार से बात सारे चंपारण में फैल गई थी कि अब गांधी जी का चमत्कार होगा। कचहरी में किसानों का रेला उमड़ा पड़ा था! सरकारी वकील पूरी तैयारी से आया था कि इस विदेशपलट वकील को धूल चटा देगा! जज ने पूछा कि गांधी साहब आपका वकील कौन है, तो गांधी जी ने जवाब दिया कोई भी नहीं! फिर ? गांधी बोले, ‘ मैंने जिलाधिकारी के नोटिस का जवाब भेज दिया है! अदालत में सन्नाटा खिंच गया! जज बोला, ‘वह जवाब अदालत में पहुंचा नहीं है।’ गांधीजी ने अपने जवाब का कागज निकाला और पढ़ना शुरू कर दिया। कचहरी में इतना सन्नाटा था कि गांधी जी के हाथ की सरसरहाट तक सुनाई दे रही थी। और उन्होंने कहा कि अपने देश में कहीं भी आने-जाने और काम करने की आजादी पर वे किसी की, कैसी भी बंदिश कबूल नहीं करेंगे। हां, जिलाधिकारी के ऐसे आदेश को न मानने का अपराध मैं स्वीकार करता हूं और उसके लिए सजा की मांग भी करता हूं। गांधी जी का लिखा जवाब पूरा हुआ और इस खेमे में और उस खेमे में सारा कुछ उलट-पुलट गया। न्यायालय ने ऐसा अपराधी नहीं देखा था जो बचने की कोशिश ही नहीं कर रहा था। देशी-विदेशी सारे वकीलों के लिए यह
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हैरतअंगेज था कि यह आदमी अपने लिए सजा की मांग कर रहा है जबकि कानूनी आधार पर सजा का कोई मामला बनता ही नहीं है। सरकार, प्रशासन सभी अपने ही बुने जाल में उलझते जा रहे थे। जज ने कहा कि जमानत ले लो तो जवाब मिला, ‘मेरे पास जमानत भरने के पैसे नहीं हैं!’ जज ने फिर कहा कि बस इतना कह दो कि तुम जिला छोड़ दोगे और फिर यहां नहीं आओगे तो हम मुकदमा बंद कर देंगे। गांधीजी ने कहा, ‘यह कैसे हो सकता है! आपने जेल दी तो उससे छूटने के बाद मैं स्थाई रूप से यही चंपारण में अपना घर बना लूंगा।’ यह सब चला और फिर कहीं दिल्ली से निर्देश आया कि इस आदमी से उलझो मत, मामले को आगे मत बढ़ाओ और गांधी को अपना काम करने दो। बस, यही सरकारी आदेश वह कुंजी बन गई, जिससे सत्याग्रह का ताला खुलता है। ताला क्या खुलता है सारे वकील, प्रोफेसर, युवा, किसान-मजदूर सब खिंचते चले आए और जितने करीब आए, उतने ही बदले। गांधी सबसे वादा भी ले लेते हैं कि जेल जाने की घड़ी आएगी तो कोई पीछे नहीं हटेगा। इन नामी वकीलों ने अब तक दूसरों को जेल भिजवाने का या जेल जाने से बचाने का ही काम किया था, खुद जेल जाने की तो कल्पना भी नहीं की थी। जेल जाना बदनामी की बात भी थी। गांधी सबको समझा रहे थे कि सच की लड़ाई में जेल जाना सम्मान की ही बात नहीं है, बल्कि जरूरी बात भी है। और जब वे यह कह रहे थो तो सभी जानते थे वे खुद दक्षिण अफ्रीका की जेलों में रह कर और जीत कर आए हैं। किसानों से बयान दर्ज करवाने का काम किसी युद्ध की तैयारी जैसा चला। देश भर से आए विभिन्न भाषाओं के लोग, बिहार के लोगों की मदद से बयान दर्ज करने के काम में जुटे। गांधी जैसे एक वकालतखाना ही चला रहे हों। तथ्यों का सच्चा और संपूर्ण आकलन कैसे एक अकाट्य हथियार बन गया-‘डेटा कलेक्शन’ की आज की पेशेवर दुनिया में चंपारण इसका पदार्थ-पाठ बन सकता है। गांधी यह भी पहचान गए कि नील की खेती के पीछे अंग्रेजों की दमनकारी नीतियां तो हैं ही, नकदी फसल का किसानों का आकर्षण भी है। इस लोभ में वे अपनी कृषि-प्रकृति के खिलाफ जा कर काम करने को तैयार हुए। आज खेती का सबसे बड़ा संकट यह है कि हमने इसे प्रकृति के साथ रासायनिक युद्ध में बदल दिया है, जबकि खेती है तो शरीर-विज्ञान। चंपारण सत्याग्रह का यह पहलू बहुत उभरा नहीं, क्योंकि मैदान में लड़ाई कुछ और ही चल रही थी। लेकिन चंपारण के काम की दिशा का जब विस्तार हुआ और गांधी का सत्याग्रह पूरी तरह खिला तब गांधी इन सारे सवालों को छूने में कामयाब हुए। आज हमारी खेती-किसानी जब लाचारी का दूसरा नाम बन गई है, हमें चंपारण सत्याग्रह की इस दिशा का ध्यान करना चाहिए। गांधी और चंपारण दोनों ही आज के हिंदुस्तान की दशा सुधारने और दिशा दिखाने का काम एक साथ कर सकते हैं। शर्त इतनी ही है कि हम दशा सुधारने और दिशा खोजने के बारे में ईमानदार तो हों।
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फोटो फीचर
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शताब्दी पुरुष
महात्मा गांधी को 20वीं सदी का नायक कहा गया। उनका नायकत्व 21वीं सदी में भी बरकरार है। जीवन को सत्य का प्रयोग बनाने की उनकी सीख लोगों को हमेशा एक श्रेष्ठ मनुष्य होने की प्रेरणा देती रहेगी
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गांधी जयंती विशेष
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डाक टिकट पर
महात्मा
महात्मा गांधी को उनके जीवित रहते ही ‘विश्व मानव’ कहा जाने लगा था। यही कारण है उनके निधन के बाद भी दुनिया भर के मुल्कों ने उनकी प्रेरक स्मृति में समय-समय पर डाक टिकट जारी किए। यह ‘विश्व मानव’ के प्रति जहां एक तरफ वैश्विक सद्भाव और सम्मान का प्रमाण है, वहीं ये डाक टिकटों से महात्मा से जुड़े एेतिहासिक संदर्भों की भी याद दिलाते हैं
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अपनी गलती को स्वीकार करना झाड़ू लगाने के सामान है, जो धरातल की सतह को चमकदार और साफ़ कर देती है
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स्वच्छता का दर्शन सुदर्शन अयंगर
ह दिलचस्प है कि पहली बार गांधी जी ने स्वच्छता के मसले को दक्षिण अफ्रीका में भारतीय व्यापारियों को अपने-अपने व्यापार के स्थानों को साफ रखने के संबंध में उठाया था। भारतीय और एशियाई समुदाय की ओर से एक याचिकाकर्ता के रूप में दक्षिण अफ्रीका में दी गई एक याचिका में गांधी जी ने भारतीय व्यापारियों की स्वच्छता के प्रति उनके रवैये और व्यवहार का बचाव किया और उन्होंने सभी समुदायों से सफाई रखने के लिए लगातार अपील भी की थी। लार्ड रिपन स्वच्छता मामले में एक मुद्दे को एक याचिका में इस प्रकार उठाया गया था- ‘1881 के सम्मेलन का 14वां खंड जो मूल निवासियों के साथ-साथ सभी व्यक्तियों के हितों की समान रक्षा करता है, उसमें कहा गया था कि ट्रांसवाल में भारतीय स्वच्छता का पालन नहीं करते हैं और यह कुछ लोगों द्वारा गलत धारणा के आधार पर बनाया था।’ गांधी जी यह स्थापित करना चाहते थे कि भारतीयों को व्यापार का लाइसेंस इसीलिए नहीं दिया जा रहा था क्योंकि वह अंग्रेज व्यापारियों को कड़ी टक्कर दे रहे थे। दूसरे, उन्होंने यह तर्क भी दिया कि भारतीय व्यापारी और अन्य लोग सफाई रखने के आदी होते हैं। उन्होंने म्यूनिसिपल डॉक्टर वियेले का उदाहरण दिया, जिन्होंने भारतीयों को सफाई के प्रति सचेत और जागरूक बताया था। डॉक्टर वियेले ने भारतीयों को धूल और लापरवाही से होने वाली बीमारियों से मुक्त बताया था। भारतीय व्यापारियों को व्यापार का लाइसेंस देने से इनकार क्यों किया जा रहा था, उस संबंध में भी याचिका में दिए गए तर्क में बताया था कि यह व्यापारिक जलन की वजह से किया गया है। भारतीय स्वभाव से मितव्ययी और शांत होते हैं। भारतीय व्यापारी जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं की कीमत कम रखते थे और उन्हें सस्ते दाम में बेचते थे, जिससे श्वेत व्यापारियों के साथ वह भी प्रतिस्पर्धा में आ गए थे।
समाजशास्त्र और स्वच्छता
गांधी जी ने समाजशास्त्र और स्वच्छता के महत्व को समझा। पारंपरिक तौर पर सदियों से सफाई के काम में लगे लोगों को गरिमा प्रदान करने की कोशिश की। आजादी के बाद से हमने उनके अभियान को योजनाओं में बदल दिया। योजना को लक्ष्यों, ढांचों और संख्याओं तक सीमित कर दिया गया। हमने मौलिक ढांचे और प्रणाली से ‘तंत्र’ पर तो ध्यान दिया और उसे मजबूत भी किया, लेकिन हम ‘तत्व’ को भूल गए जो व्यक्ति में मूल्य स्थापित करता है। गांधी जी भारतीय लोगों की साफ-सफाई कम रखने की आदतों से भी परिचित थे। इसीलिए उन्होंने 1914 तक अपने 20 वर्षों के प्रवास के दौरान साफ-सफाई रखने पर विशेष
दक्षिण अफ्रीका में जब ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों से उनके स्थानों को गंदा रखने के आधार पर भेदभाव किया था, तब से लेकर अपनी हत्या के एक दिन पहले 30 जनवरी 1948 तक गांधी जी लगातार स्वच्छता पर जोर देते रहे
बल दिया। गांधी जी इस बात को समझते थे कि किसी भी इलाके में बहुत अधिक भीड़भाड़ गंदगी की एक मुख्य वजह होती है। दक्षिण अफ्रीका के कुछ शहरों में विशेष इलाकों में भारतीय समुदाय के लोगों को पर्याप्त जगह और ढांचागत सुविधाएं नहीं मुहैया कराई गई थीं। गांधी जी मानते थे कि उचित स्थान, मूलभूत और ढांचागत सुविधाएं और स्वच्छ वातावरण उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी नगरपालिका की है। गांधी जी ने इस संबंध में जोहांसबर्ग के चिकित्सा अधिकारी को एक पत्र भी लिखा था। उन्होंने पत्र में लिखा था, ‘मैं आपको भारतीयों के रहने वाले इलाकों की स्तब्ध कर देने वाली स्थिति के बारे में लिख रहा हूं। एक कमरे में कई लोग एक साथ इस तरह ठूंस कर रहते हैं कि उनके बारे में बताना भी मुश्किल है। इन इलाकों में सफाई सेवाएं अनियमित हैं और सफाई न रखने के संबंध में बहुत से निवासियों ने मेरे कार्यालय में शिकायत करके बताया है कि अब स्थिति पहले से भी बदतर हो गई है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-4, पृष्ठ 129)
स्वच्छता और सफाई का मूल्य
गांधी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘नगरपालिका की आपराधिक लापरवाही और सफाई के प्रति भारतीय निवासियों की अज्ञानता की वजह से कई इलाकों को पूरी तरह गंदा रखने की साजिश रची गई थी।’ (एक आत्मकथा, पृष्ठ 265) एक बार दक्षिण अफ्रीका में काले प्लेग का प्रकोप फैला। सौभाग्य से उसके लिए भारतीय जिम्मेदार नहीं थे। यह जोहांसबर्ग के आस-पास के क्षेत्र में सोने की खादानों वाले इलाके में फैला था। गांधी जी ने अपनी पूरी शक्ति के साथ, स्वेच्छा से और स्वयं के जीवन को खतरे में डालकर रोगियों की सेवा की। नगर चिकित्सक और अधिकारियों ने गांधी जी की सेवाओं की बहुत तारीफ की। गांधी जी चाहते थे कि लोग उस घटना से सबक लें। उन्होंने एक जगह लिखा था ‘इस तरह के कठोर नियमों पर निस्संदेह हमें गुस्सा आता है। परंतु हमें इन नियमों काे मानना चाहिए क्योंकि इससे हम गलती दोहराएंगे नहीं। हमें स्वच्छता और सफाई का मूल्य पता होना चाहिए...गंदगी को हमें अपने बीच से हटाना होगा...क्या स्वच्छता स्वयं
01 - 07 अक्टूबर 2018 ईनाम नहीं है? हाल ही में जो घटना हुई है यह हमारे देशवासियों के लिए एक सबक है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-4 पृष्ठ 146)
भारत में स्वच्छता और गांधी
भारत में गांधी जी ने गांव की स्वच्छता के संदर्भ में सार्वजनिक रूप से पहला भाषण 14 फरवरी 1916 को मिशनरी सम्मेलन के दौरान दिया था। उन्होंने वहां कहा था, ‘देसी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा की सभी शाखाओं में जो निर्देश दिए गए हैं, मैं स्पष्ट कहूंगा कि उन्हें आश्चर्यजनक रूप से समूह कहा जा सकता है,... गांव की स्वच्छता के सवाल को बहुत पहले हल कर लिया जाना चाहिए था।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13, पृष्ठ 222) गांधी जी ने स्कूली और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में स्वच्छता को तुरंत शामिल करने की आवश्यकता पर जोर दिया था। 20 मार्च 1916 को गुरुकुल कांगड़ी में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा था, ‘गुरुकुल के बच्चों के लिए स्वच्छता और सफाई के नियमों के ज्ञान के साथ ही उनका पालन करना भी प्रशिक्षण का एक अभिन्न हिस्सा होना चाहिए,... इन अदम्य स्वच्छता निरीक्षकों ने हमें लगातार चेतावनी दी कि स्वच्छता के संबंध में सब कुछ ठीक नहीं है... मुझे लग रहा है कि स्वच्छता पर आगन्तुकों के लिए वार्षिक व्यावहारिक सबक देने के सुनहरे मौके को हमने खो दिया।’ (गांधी वाङ्मय, भाग13, पृष्ठ 264)
चंपारण का प्रयोग
गांधी जी नील की खेती करने वाले किसानों की समस्याओं को सुलझाने के लिए चंपारण गए थे। जांच दल के रूप में तैनात एक गोपनीय पत्र में उन्होंने उस स्थिति में स्वच्छता की महत्ता को बताया। गांधी जी चाहते थे कि अंग्रेज प्रशासन उनके कार्यकताओं को स्वीकारें, ताकि वे समाज में शिक्षा और सफाई के कार्यों को भी शुरू कर सकें। इस बारे में उन्होंने कहा, ‘क्योंकि वे गांवों में ही रहते हैं, इसीलिए वे गांव के लड़के और लड़कियों को सिखा सकते हैं और वे स्वच्छता के बारे उन्हें जानकारी भी दे सकते हैं।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13 पृष्ठ 393)
गुजरात विद्यापीठ की स्थापना
1920 में गांधी जी ने गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की। यह विद्यापीठ आश्रम की जीवन पद्धति पर आधारित था, इसीलिए वहां शिक्षकों, छात्रों और अन्य स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं को प्रारंभ से ही स्वच्छता के कार्य में लगाया जाता था। यहां के रिहायशी क्वार्टर्स, गलियों, कार्यालयों, कार्यस्थलों और परिसरों की सफाई दिनचर्या का हिस्सा था। गांधी जी यहां आने वाले हर नए व्यक्ति को इस संबंध में विशेष पढ़ाते थे। यह प्रथा आज भी कायम है। लोग गांधी जी के साथ रहने की इच्छा जाहिर करते तो इस बारे में उनकी पहली शर्त होती थी कि आश्रम में रहने वालों को आश्रम की सफाई का काम करना होगा जिसमें शौच का वैज्ञानिक निस्तारण करना भी शामिल है। गांधी जी ने रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे में बैठकर देशभर में व्यापक दौरे किए थे। वह भारतीय रेलवे के तीसरे श्रेणी के डिब्बे की गंदगी से स्तब्ध और भयभीत थे। उन्होंने समाचारपत्रों को लिखे
पत्र के माध्यम से इस ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया था। 25 सितंबर 1917 को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा, ‘इस तरह की संकट की स्थिति में तो यात्री परिवहन को बंद कर देना चाहिए, लेकिन जिस तरह की गंदगी और स्थिति इन डिब्बों में है उसे जारी नहीं रहने दिया जा सकता, क्योंकि वह हमारे स्वास्थ्य और नैतिकता को प्रभावित करती है। निश्चित तौर पर तीसरी श्रेणी के यात्री को जीवन की बुनियादी जरूरतें हासिल करने का अधिकार तो है ही। तीसरे दर्जे के यात्री की उपेक्षा कर हम लाखों लोगों को व्यवस्था, स्वच्छता, शालीन जीवन की शिक्षा देने, सादगी और स्वच्छता की आदतें विकसित करने का बेहतरीन मौका गवां रहे हैं।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-13, पृष्ठ 264 पृष्ठ 550)
धार्मिक स्थलों में फैली गंदगी
गांधी जी ने धार्मिक स्थलों में फैली गंदगी की ओर भी ध्यान दिलाया था। 3 नवंबर 1917 को गुजरात राजनीतिक सम्मेलन में उन्होंने कहा था, ‘पवित्र तीर्थ स्थान डाकोर यहां से बहुत दूर नहीं है। मैं वहां गया था। वहां की पवित्रता की कोई सीमा नहीं है। मैं स्वयं को वैष्णव भक्त मानता हूं, इसीलिए मैं डाकोर जी की स्थिति की विशेष रूप से आलोचना कर सकता हूं। उस स्थान पर गंदगी की ऐसी स्थिति है कि स्वच्छ वातावरण में रहने वाला कोई व्यक्ति वहां 24 घंटे तक भी नहीं ठहर सकता। तीर्थ यात्रियों ने वहां के टैंकरों और गलियों को प्रदूषित कर दिया है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-14, पृष्ठ 57) इसी तरह ‘यंग इंडिया’ में 3 फरवरी 1927 को उन्होंने बिहार के पवित्र शहर गया की गंदगी के बारे में भी लिखा और यह इंगित किया कि उनकी हिंदू आत्मा गया के गंदे नालों में फैली गंदगी और बदबू के खिलाफ बगावत करती है।
कांग्रेस सम्मेलनों में सीख
गांधी जी ने सार्वजनिक रूप से स्वच्छता की ओर सबका ध्यान खींचा। 29 दिसंबर 1919 को अमृतसर कांग्रेस में एक भाषण में सीएफ एंड्रयूज का हवाला दिया। उनके अनुसार यूरोपीय मानते हैं कि बाहर से देखने पर भारतीय बहुत आकर्षक नहीं लगते, क्योंकि वह सफाई और स्वच्छता के प्रति बहुत अधिक ध्यान नहीं देते और उसे गैर जरूरी समझते हैं। कांग्रेस के करीब-करीब हर सम्मेलन में दिए अपने भाषण में गांधी जी ने स्वच्छता के मामले को उठाया। अप्रैल 1924 में उन्होंने दाहोद शहर के कांग्रेस सदस्यों को अच्छी साफ-सफाई रखने के लिए बधाई दी और उन्हें सुझाव दिया कि वह अछूत समझे जाने वाले समुदाय के इलाकों में जाएं और उनमें स्वच्छता के प्रति जागरुकता जगाएं। उन्होंने उसी तरह 1925 में कानपुर कांग्रेस में सफाई रखने के इंतजामों की भी बहुत प्रशंसा की थी। गांधी जी मानते थे कि नगरपालिका का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सफाई रखना है। उन्होंने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को पार्षद बनने के बाद स्वच्छता के काम करने का सुझाव दिया। 25 अगस्त 1925 को कलकत्ता (अब कोलकाता) में दिए गए भाषण में उन्होंने कहा, ‘वह (कार्यकर्ता) गांव के धर्मगुरु या नेता के रूप में लोगों के सामने न आएं, बल्कि
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गांधी जयंती विशेष अपने हाथ में झाड़ू लेकर आएं। गंदगी, गरीबी, निठल्लापन जैसी बुराइयों का सामना करना होगा और उससे झाड़ू कुनैन की गोली और अरंडी के तेल साथ लड़ना होगा...।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 109) पंचायतों की भूमिका के बारे मे गांधी जी ने कहा था कि गांव में रहने वाले प्रत्येक बच्चे, पुरुष या स्त्री की प्राथमिक शिक्षा के लिए, घर-घर में चरखा पहुंचाने के लिए, संगठित रूप से सफाई और स्वच्छता के लिए पंचायत जिम्मेदार होनी चाहिए। 19 नवंबर 1925 के यंग इंडिया के एक अंक में गांधी जी ने भारत में स्वच्छता के बारे में अपने विचारों को लिखा। उन्होंने लिखा, ‘देश के अपने भ्रमण के दौरान मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ गंदगी को देखकर हुई...इस संबंध में अपने आप से समझौता करना मेरी मजबूरी है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-28, पृष्ठ 461)
स्वच्छता की शिक्षा
कई लोगों ने गांधी जी को पत्र लिखकर आश्रम में उनके साथ रहने की इच्छा जाहिर की थी। इस बारे में उनकी पहली शर्त होती थी कि आश्रम में रहने वालों को आश्रम की सफाई का काम करना होगा जिसमें शौच का वैज्ञानिक ढंग से निस्तारण करना भी शामिल है। गांधी जी ने हमारा ध्यान इस ओर खींचा। उन्होंने हमें बताया कि हमें पश्चिमी देशों में सफाई रखने के तरीकों को सीखना चाहिए और उनका उसी तरह पालन करना चाहिए। 21 दिसंबर 1924 को बेलगांव में अपने नागरिक अभिनंदन के जवाब में उन्होंने कहा था, ‘हमें पश्चिम में नगरपालिकाओं द्वारा की जाने वाली सफाई व्यवस्था से सीख लेनी चाहिए...पश्चिमी देशों ने कॉरपोरेट स्वच्छता और सफाई विज्ञान किस तरह विकसित किया है उससे हमें काफी कुछ सीखना चाहिए... पीने के पानी के स्रोतों की उपेक्षा जैसे अपराध को रोकना होगा...।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-25, पृष्ठ 461) प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के लिए मसौदा मॉडल नियमों में उन्होंने पंचायत की भूमिका को रेखांकित किया और और लिखा, ‘गांव में रहने वाले प्रत्येक बच्चे, पुरुष या स्त्री की प्राथमिक शिक्षा के लिए, घर-घर में चरखा पहुंचाने के लिए, संगठित रूप से सफाई और स्वच्छता के लिए पंचायत जिम्मेदार होनी चाहिए।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-19, पृष्ठ 217) उन्होंने स्वच्छता के लिए शिक्षा के पक्ष में स्पष्ट रुख ले लिया। 1933 में उन्होंने लिखा, ‘शिक्षा देने के लिए तीन आर का ही ज्ञान होना काफी नहीं है। हरिजन मानवता के लिए अन्य चीजों का भी अर्थ होता है। शिष्टाचार और स्वच्छता का तीनों आर की शिक्षा से पहले अपरिहार्य है।’ (गांधी वाङ्मय, भाग-56, पृष्ठ 91) शहरी मूलभूत सुविधाएं गांवों से पलायन करके शहरों में आए लोगों तक पहुंच नहीं पातीं। गांधी जी ने 1935 में स्वच्छता की सीख देने का प्रयास करते हुए तीन ‘आर’ की चिंता किए बिना लोगों को सफाई के प्रति जागरूक किया। उन्होंने ‘हरिजन’ के एक अंक में लिखा भी था कि सफाई और स्वच्छता के मामले में ‘तीन आर’ का मतलब सिर्फ कहने भर के लिए ही है। वास्तव में उसका कोई महत्व नहीं है। (गांधी वाङ्मय, भाग-60, पृष्ठ 120)
दुनिया में ऐसे लोग हैं जो इतने भूखे हैं कि भगवान उन्हें किसी और रूप में नहीं दिख सकता सिवाय रोटी के रूप में
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गांधी जयंती विशेष
01 - 07 अक्टूबर 2018
स्वच्छता का नया समाजशास्त्र
सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक ने विश्व को स्वच्छता का नया समाजशास्त्र दिखाया है, जिसमें सफाई के साथ मानवीय प्रेम और करुणा को भी पर्याप्त महत्व दिया गया है
प्रार्थना मांगना नहीं है। यह आत्मा की लालसा है। यह हर रोज अपनी कमजोरियों की स्वीकारोक्ति है। प्रार्थना में बिना वचनों के मन लगाना, वचन होते हुए मन ना लगाने से बेहतर है
न
एसएसबी ब्यूरो
ब्बे के दशक में भारत को 21वीं सदी में जाने की बात खूब होती थी। ये बातें जहां संसद के बाहर-भीतर राजनीतिक लाइन के साथ कही जाती थी, वहीं आर्थिक-सामाजिक स्तर पर भी भावी भारत से जुड़े सरोकारों और चुनौतियों को लेकर विमर्श चलता था। पर किसी ने कभी सोचा भी होगा कि 21वीं सदी के दूसरे दशक तक पहुंचकर स्वच्छता देश का प्राइम एजेंडा बन जाएगा। इस बदलाव के पीछे बड़ा संघर्ष है। आज देश में स्वच्छता को लेकर जो विभिन्न अभियान चलाए जा रहे हैं, उसमें जिस संस्था और व्यक्ति का नाम सबसे पहले जेहन में आता है, वह है सुलभ इंटरनेशनल और इस संस्था के प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक। दुनिया आज डॉ. पाठक को ‘टॉयलेट मैन’ के रूप में जानती है। उन्होंने एक तरफ जहां सिर पर मैला ढोने की मैली प्रथा को खत्म करने का बीड़ा उठाया, वहीं देशभर में सुलभ शौचालय की उपलब्धता से उन्होंने आम लोगों की स्वच्छता जरूरत को पूरा करने के क्षेत्र में महान कार्य किया। बड़ी बात यह है कि डॉ. पाठक द्वारा शुरू किया गया स्वच्छता का सुलभ अभियान अब भी थमा नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दो अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत मिशन शुरू होने के बाद डॉ. पाठक के मार्गदर्शन में सुलभ का स्वच्छता अभियान नई
दुनिया आज डॉ. पाठक को ‘टॉयलेट मैन’ के रूप में जानती है। उन्होंने एक तरफ जहां सिर पर मैला ढोने की मैली प्रथा को खत्म करने का बीड़ा उठाया, वहीं देशभर में सुलभ शौचालय की उपलब्धता से उन्होंने आम लोगों की स्वच्छता जरूरत को पूरा करने के क्षेत्र में महान कार्य किया प्रेरणा और गति के साथ आगे बढ़ रहा है। शौचालय और स्वच्छता को पांच दशक से अपनी समझ और विचार की धुरी बनाकर चल रहे डॉ. विन्देश्वर पाठक ने एक तरह से दुनिया को स्वच्छता का नया समाजशास्त्र सिखाया है, जिसमें साफ-सफाई के सबक तो हैं ही, मानवीय प्रेम और करुणा को भी पर्याप्त महत्व दिया गया है। बिहार गांधी शताब्दी समिति में एक कार्यकर्ता के नाते गांधी विचार और कार्यक्रमों के करीब आए डॉ. पाठक तब से न सिर्फ पूरे देश में, बल्कि अखिल विश्व में स्वच्छता का अलख जगा रहे हैं। सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को लेकर सुलभ ने उल्लेखनीय कार्य किए हैं। सिर पर मैला ढोने वाले लोगों को इस अमानवीय कार्य से मुक्ति दिलाने की सोच की ही देन है सुलभ द्वारा विकसित हुआ दो गड्ढों वाला शौचालय। आज यह तकनीक पूरी दुनिया में ‘सुलभ शौचालय’ के रूप में जानी जाती है। इस तकनीक में पहले गड्ढे में जमा शौच खाद में बदल जाता है। सुलभ ने शौचालय के जरिए गैस
बनाने और उसे बिजली तक बनाने के कामयाब प्रयोग किए हैं। 1970 में सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना हुई और आज शौचालय निर्माण की सस्ती तकनीक के लिए इसकी दुनियाभर में पहचान है। सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक भी मानते हैं कि गांधी जी के बाद अगर इस देश में स्वच्छता के महत्व को किसी ने गहराई से समझा है तो वे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। हाथ से मैला ढोना (मैन्युअल स्कैवेंजिंग) भारत में प्रतिबंधित काम है। इसी साल मार्च में राज्यसभा में एक प्रश्न के जवाब में केंद्र सरकार में मंत्री थावरचंद गहलोत ने बताया था कि देश में 26 लाख ऐसे शौचालय हैं जहां पानी नहीं है। जाहिर है वहां हाथ से मैला ढोना पड़ता है। सफाई कर्मचारी आंदोलन ने अपने सर्वे में बताया है कि 1993 से अब तक 1,370 सीवर वर्कर्स की मौत हो चुकी है। इस दिशा में स्कैवेंजर्स के पुनर्वास का सबसे बड़ा अभियान सुलभ संस्था ने ही छेड़ा है। डॉ. पाठक को इस बात का श्रेय जाता है कि जिस मैली
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गांधी जयंती विशेष
महात्मा का सुलभ मार्ग
मैंने टू-िपट तकनीक से टॉयलेट बनाने की पद्धति विकसित कि, जो की सुलभ की दुनिया को देन है। केंद्र सरकार ने भी हमारी तकनीक को 2008 में मान्यता दे दी
शौ
डॉ. विन्देश्वर पाठक
चालय क्रांति की दिशा में इस देश में अब तक महात्मा गांधी और मैंने ही काम किया है। इसके बाद मोदी जी पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने इतनी संजीदगी से इस मुद्दे को उठाया है। ऐसा नहीं कि बाकी लोगों ने इस मुद्दे को नहीं उठाया। लेकिन बड़े पैमाने पर हम ही लोगों ने इस मुद्दे को उठाया है। गांधी जी तो इस मसले को इतना अधिक महत्व देते थे कि उन्होंने कहा कि हमें आजादी से पहले देश की सफाई चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश इस तरफ बाद में किसी ने संजीदगी से ध्यान नहीं दिया। देश में अंग्रेजों के आने के पहले आमतौर पर खुले में ही शौच की परंपरा थी, वह आज भी है। लेकिन अगर शौच का इंतजाम था भी तो वह इंसानों के जरिए सफाई वाली व्यवस्था पर था। गांधी जी ने सबसे पहले उनकी मुक्ति की दिशा में काम किया गांधी जी ने अपने डरबन के आश्रम में सबसे पहले फैंस लैट्रिन यानी चारदीवारी के भीतर शौच का इंतजाम शुरू किया। उनकी व्यवस्था में हर व्यक्ति को अपना शौचालय साफ करना होता था। आज भी पुराने गांधीवादियों में आप यह चलन देख सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए उनका सुझाव था कि झाड़ी में जाइए और शौच कीजिए। शौच के बाद उस पर मिट्टी डालिए। दरअसल, शौचालय की सफाई के जरिए वे मैला साफ करनेवाले लोगों को समाज में बेहतर स्थान दिलाना चाहते थे। हमारे यहां परंपरा रही है कि घर के नजदीक शौच न करें। गांधी जी ने उसमें बदलाव का इंतजाम किया और प्रथा को लेकर कभी महात्मा गांधी ने कहा था कि उनके सपनों के भारत में इसके लिए कोई जगह नहीं होगी, उस प्रेरणा को उन्होंने अपनी जिंदगी का मिशन बना लिया। स्वच्छता के क्षेत्र में सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक के अतुलनीय योगदान को देखते हुए कभी महात्मा गांधी के प्रपौत्र राजमोहन गांधी ने कहा था, ‘मैं महात्मा गांधी के पुत्र का पुत्र हूं, पर डॉ. विन्देश्वर पाठक गांधी जी के मानस पुत्र हैं।’ यह वाकई सही है कि जब कई लोग महज गांधी जी की जीवनशैली के अनुकरण की कोशिश करते हैं, डॉ. पाठक ने राष्ट्रपिता के विचार और दर्शन को न सिर्फ जीवन में बल्कि सरजमीं पर भी उतारा है। स्वच्छता को अपना मिशन, मानव उत्थान को अपना लक्ष्य बताने वाले डॉ. पाठक कहते हैं, ‘स्वच्छता एक मिशन है। यह बिल्कुल उस तरह नहीं है जैसे पुल या सड़क का निर्माण। मैं इस मामले में खुशनसीब हूं कि अपने जीवनकाल में स्कैवेंजिंग को दूर करने और स्केवैंजर्स के जीवन को बेहतर बनाने के संकल्प को मैं पूरा कर पाया।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब 2014 में राष्ट्रीय
चारदीवारी के भीतर शौच व्यवस्था की शुरुआत की। उनकी कोशिश इन लोगों को शौच सफाई के घिनौने काम से मुक्ति दिलानी थी। वे शौचालय को सामाजिक बदलाव के औजार के तौर पर देखते थे। गांधी शताब्दी के दौरान 1969 में मुझे लगा कि इस दिशा में काम किया जाना चाहिए। इसीलिए मैंने सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना की और इसकी तरफ काम शुरू किया। जो मौजूदा शौचालय व्यवस्था है, उसमें पानी की खपत ज्यादा होती है। इसके लिए हम चाहेंगे कि हमारी तकनीक से विकसित शौचालय व्यवस्था का प्रयोग बढ़े। हमने जो शौचालय डिजाइन किया है, उससे सिर्फ एक लीटर पानी में मल और मनुष्य दोनों की सफाई हो जाती है। करीब उतना ही पानी लगता है, जितना लोग खेत में जाते वक्त इस्तेमाल करते रहे हैं। इसीलिए मैं तो चाहूंगा कि इसी व्यवस्था को बढ़ावा दिया जाए, तभी सही मायने में स्वच्छता क्रांति आ पाएगी और पानी की कमी की समस्या से भी नहीं
स्वच्छता मिशन की घोषणा की तो देश में स्वच्छता कार्यक्रम को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर प्राथमिकता मिली। अपने स्वच्छता कार्यक्रमों के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति और सम्मान प्राप्त कर चुके डॉ. पाठक कहते भी हैं, ‘स्वच्छता को लेकर देश में गंभीरता की कमी रही। इसे महत्व नहीं दिया गया। इस क्षेत्र में निवेश का भी अभाव रहा, पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पूरे परिदृश्य को बदल कर रख दिया। वे ऐसे पहले राष्ट्रीय नेता रहे जिन्होंने न सिर्फ लाल किले के प्राचीर से शौचालयों की बात की, बल्कि इस बारे में विदेशी नेताओं तक से लगातार चर्चा करते रहे। उन्होंने देश को यह सोचने और मानने के लिए बाध्य किया कि अगर हम स्वच्छता के
जूझना होगा। मैंने टू-िपट तकनीक से टॉयलेट बनाने की पद्धति विकसित की, जो कि सुलभ की दुनिया को देन है। केंद्र सरकार ने भी हमारी तकनीक को 2008 में मान्यता दी। राज्य सरकारों ने तो पहले से ही इस तकनीक को मान्यता दे दी थी। इस व्यवस्था में हाथ से मैला को साफ करने की जरूरत नहीं पड़ती। सुलभ ने आगे चलकर पहाड़ी और मुश्किल इलाकों में भी स्थानीय संसाधनों से टू-िपट टॉयलेट बनाने की तकनीक का ईजाद किया है। 1974 में पहली बार पटना में सार्वजनिक शौचालय का निर्माण किया। पटना नगर निगम ने जमीन दी और कहा- पब्लिक से पैसा लीजिए और शौचालय चलाइए। डॉ. पाठक कहते हैं, उस समय शौचालय के लिए पैसा देने की बात कहने पर लोग मजाक उड़ाते थे। आज उसी सुलभ शौचालय के कांसेप्ट पर पूरी दुनिया में शौचालय बन रहे हैं। आज करीब 1.5 करोड़ लोग सुलभ शौचालय की सेवा ले रहे हैं।
मामले में आगे नहीं बढ़े तो फिर एक विकसित राष्ट्र के रूप में हमारा उभरना मुश्किल है। लिहाजा यह समय है जब हम देश को स्वच्छ और सुंदर बनाने के लिए एक साथ खड़े हों, ताकि सभ्य, सुसंस्कृत औऱ स्वच्छ देशों की कतार में हम भी फख्र से खड़े हो सकें।’ प्रधानमंत्री के स्वच्छता मिशन से डॉ. पाठक द्वारा पहले से किए जा रहे प्रयासों को जहां नए सिरे से महत्व मिला, वहीं वे इस बात से खासे प्रोत्साहित और प्रेरित भी हुए कि देश का प्रधानमंत्री इतने वर्षों के बाद गांधी जी के स्वच्छता कार्यक्रमों को न सिर्फ अपना रहा है, बल्कि उसे देश में एक जनांदोलन की शक्ल देने में लगा है। बात स्वच्छता की करें तो इसमें कहीं कोई दो मत नहीं कि इस काम को जिस लगन और विस्तार के साथ डॉ. पाठक ने अब तक किया है, वैसा उदाहरण भारत तो क्या दुनिया में दुर्लभ है।
आप तब तक यह नहीं समझ पाते कि आपके लिए कौन महत्त्वपूर्ण है, जब तक आप उन्हें वास्तव में खो नहीं देते
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पुस्तक अंश
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ऐसे पहुंचे विलायत
10 एक व्यक्ति जो कभी अपने परिवार और परंपरा से लड़ते हुए विलायत पहुंचा, उसे जिस तरह उस समय जाति और संस्कार के नाम पर खान-पान से लेकर रहन-सहन तक में असहजता हुई, उसका ब्योरा इसलिए खासतौर पर दिलचस्प है कि यह मोहन के महात्मा होने की कहानी की पृष्ठभूमि है
प्रथम भाग
12. जाति से बाहर
माता जी की आज्ञा और आशीर्वाद लेकर और पत्नी की गोद में कुछ महीनों का बालक छोड़कर मैं उमंगों के साथ बंबई पहुंचा। पहुंच तो गया, पर वहां मित्रों ने भाई को बताया कि जून-जुलाई में हिंद महासागर में तूफान आते हैं और मेरी यह पहली ही समुद्री यात्रा है, इसीलिए मुझे दीवाली के बाद यानी नवंबर में रवाना करना चाहिए। ...और किसी ने तूफान में किसी अगनबोट के डूब जाने की बात भी कही। इससे बड़े भाई घबराए। उन्होंने ऐसा खतरा उठाकर मुझे तुरंत भेजने से इनकार किया और मुझको बंबई में अपने मित्र के घर छोड़कर खुद वापस नौकरी पर हाजिर होने के लिए राजकोट चले गए। वे मुझे एक बहनोई के पास छोड़ गए और कुछ मित्रों से मेरी मदद करने की सिफारिश करते गए। बंबई में मेरे लिए दिन काटना मुश्किल हो गया। मुझे विलायत के सपने आते ही रहते थे। इस बीच जाति में खलबली मची। जाति की सभा बुलाई गई। अभी तक कोई मोढ़ बनिया विलायत नहीं गया था और मैं जा रहा हूं, इसीलिए मुझसे जवाब तलब किया जाना
चाहिए। मुझे पंचायत में हाजिर रहने का हुक्म मिला। मैं गया। मैं नहीं जानता कि मुझ में अचानक हिम्मत कहां से आ गई। हाजिर रहने में मुझे न तो संकोच हुआ, न डर लगा। जाति के सरपंच के साथ दूर का रिश्ता भी था। पिता जी के साथ उनका संबंध अच्छा था। उन्होंने मुझसे कहा, ‘जाति का खयाल है कि तूने विलायत जाने का जो विचार किया है, वह ठीक नहीं है। हमारे धर्म में समुद्र पार करने की मनाही है, तिस पर यह भी सुना जाता है कि वहां पर धर्म की रक्षा नहीं हो पाती। वहां साहब लोगों के साथ खाना-पीना पड़ता है।’ मैंने जवाब दिया, ‘मुझे तो लगता है कि विलायत जाने में लेशमात्र भी अधर्म नहीं है। मुझे तो वहां जाकर विद्याध्ययन ही करना है। फिर जिन बातों का आपको डर है, उनसे दूर रहने की प्रतिज्ञा मैंने अपनी माता जी के सम्मुख ली है, इसीलिए मैं उनसे दूर रह सकूंगा।’ सरपंच बोले, ‘पर हम तुझसे कहते हैं कि वहां धर्म की रक्षा नहीं हो सकती। तू जानता है कि तेरे पिता जी के साथ मेरा कैसा संबंध था। तुझे मेरी बात माननी चाहिए।’ मैंने जवाब में कहा, ‘आपके साथ के संबंध को मैं जानता हूं। आप मेरे पिता के समान हैं। पर इस बारे
में मैं लाचार हूं। विलायत जाने का अपना निश्चय मैं बदल नहीं सकता। जो विद्वान ब्राह्मण मेरे पिता के मित्र और सलाहकार हैं, वे मानते हैं कि मेरे विलायत जाने में कोई दोष नहीं है। मुझे अपनी माता जी और अपने भाई की अनुमति भी मिल चुकी है।’ ‘पर तू जाति का हुक्म नहीं मानेगा?’ ‘मैं लाचार हूं। मेरा खयाल है कि इसमें जाति को दखल नहीं देना चाहिए।’ इस जवाब से सरपंच गुस्सा हुए। मुझे दो-चार बातें सुनाईं। मैं स्वस्थ बैठा रहा। सरपंच ने आदेश दिया, ‘यह लड़का आज से जातिच्युत माना जाएगा। जो कोई इसकी मदद करेगा अथवा इसे विदा करने जाएगा, पंच उससे जवाब तलब करेंगे और उससे सवा रुपया दंड का लिया जाएगा।’ मुझ पर इस निर्णय का कोई असर नहीं हुआ। मैंने सरपंच से विदा ली। अब सोचना यह था कि इस निर्णय का मेरे भाई पर क्या असर होगा। कहीं वे डर गए तो? सौभाग्य से वे दृढ़ रहे और मुझे लिख भेजा कि जाति के निर्णय के बावजूद वे मुझे विलायत जाने से नहीं रोकेंगे। इस घटना के बाद मैं अधिक बेचैन हो गया? दूसरा कोई विघ्न आ गया तो...? इस चिंता में मैं अपने दिन बिता रहा था कि इतने में खबर मिली कि 4 सितंबर को रवाना होनेवाले जहाज में जूनागढ़ के एक वकील बैरिस्टरी के लिए विलायत जानेवाले हैं। बड़े भाई ने जिनके मित्रों से मेरे बारे में कह रखा था, उनसे मैं मिला। उन्होंने भी यह साथ न छोड़ने की सलाह दी। समय बहुत कम था। मैंने भाई को तार किया और जाने की इजाजत मांगी। उन्होंने इजाजत दे दी। मैंने बहनोई से पैसे मांगे। उन्होंने जाति के हुक्म की चर्चा की। जातिच्युत होना उन्हें पुसाता न था। मैं अपने कुटुंब के एक मित्र के पास पहुंचा और उनसे विनती की कि वे मुझे किराए वगैरह के लिए आवश्यक रकम दे दें और बाद में भाई से ले लें। उन मित्र ने ऐसा करना कबूल किया। इतना ही नहीं, बल्कि मुझे हिम्मत भी बंधाई। मैंने उनका आभार माना, पैसे लिए और टिकट खरीदा। विलायत की यात्रा का सारा सामान तैयार करना था। दूसरे अनुभवी मित्र ने सामान तैयार करा दिया। मुझे सब अजीब सा लगा। कुछ रुचा, कुछ बिलकुल नहीं।
सरपंच ने आदेश दिया, ‘यह लड़का आज से जातिच्युत माना जाएगा। जो कोई इसकी मदद करेगा अथवा इसे विदा करने जाएगा, पंच उससे जवाब तलब करेंगे और उससे सवा रुपया दंड का लिया जाएगा।’ मुझ पर इस निर्णय का कोई असर नहीं हुआ
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मुझे याद है कि मेरे हिस्से का होटल का बिल लगभग तीन पौंड का हुआ था। मैं तो चकित ही रह गया। तीन पौंड देने पर भी भूखा रहा। होटल की कोई चीज रुचती नहीं थी, दूसरी ली, पर दाम तो दोनों के चुकाने चाहिए। यह कहना ठीक होगा कि अभी तो मेरा काम बंबई से लाए हुए पाथेय से ही चल रहा था
जिस नेकटाई को मैं बाद में शौक से लगाने लगा, वह तो बिल्कुल नहीं रुची। वास्कट नंगी पोशाक मालूम हुई। पर विलायत जाने के शौक की तुलना में यह अरुचि कोई चीज न थी। रास्ते में खाने का सामान भी पर्याप्त ले लिया था। मित्रों ने मेरे लिए जगह भी त्रयंबकराय मजूमदार (जूनागढ़ के वकील का नाम) की कोठरी में ही रखी थी। उनसे मेरे विषय में कह भी दिया था। वे प्रौढ़ उम्र के अनुभवी सज्जन थे। मैं दुनिया के अनुभव से शून्य अठारह साल का नौजवान था। मजूमदार ने मित्रों से कहा, ‘आप इसकी फिक्र न करें।’ इस तरह 1888 के सितंबर महीने की 4 तारीख को मैंने बंबई का बंदरगाह छोड़ा।
13. आखिर विलायत पहुंचा
जहाज में मुझे समुद्र का जरा भी कष्ट नहीं हुआ। पर जैसे-जैसे दिन बीतते जाते, वैसे-वैसे मैं अधिक परेशान होता जाता था। ‘स्टुअर्ड’ के साथ बातचीत करने में भी शरमाता था। अंग्रेजी में बात करने की मुझे आदत ही न थी। मजूमदार को छोड़कर दूसरे सब मुसाफिर अंग्रेज थे। मैं उनके साथ बोल नहीं पाता था। वे मुझसे बोलने का प्रयत्न करते, तो मैं समझ न पाता और समझ लेता तो जवाब क्या देना, सो सूझता न था। बोलने से पहले हरेक वाक्य को जमाना पड़ता था। कांटे-चम्मच से खाना आता न था और किस पदार्थ में मांस है, यह पूछने की हिम्मत नहीं होती थी। इसीलिए मैं खाने की मेज पर तो कभी गया ही नहीं। अपनी कोठरी में ही खाता था। अपने साथ खास करके जो मिठाई वगैरह लाया था, उन्हीं से काम चलाया। मजूमदार को तो कोई संकोच न था। वे सबके साथ घुलमिल गए थे। डेक पर भी आजादी से जाते थे। मैं सारे दिन कोठरी में बैठा रहता था। कभी-कभार जब डेक पर थोड़े लोग होते, तो कुछ देर वहां जाकर बैठ लेता था। मजूमदार मुझे समझाते कि सब के साथ घुलो-मिलो आजादी से बातचीत करो। वे मुझसे यह भी कहते कि वकील की जीभ खूब चलनी चाहिए। वकील के नाते वे अपने अनुभव सुनाते और कहते कि अंग्रेजी हमारी भाषा नहीं है, उसमें गलतियां तो होगी ही, फिर भी खुलकर बोलते रहना चाहिए। पर मैं अपनी भीरुता छोड़ न पाता था। मुझ पर दया करके एक भले अंग्रेज ने मुझसे बातचीत शुरू की। वे उम्र में बड़े थे। मैं क्या खाता हूं, कौन हूं, कहां जा रहा हूं, किसी से बातचीत क्यों नहीं करता आदि प्रश्न वे पूछते रहते। उन्होंने मुझे खाने की मेज पर जाने की सलाह दी। मांस न खाने के मेरे आग्रह की बात सुनकर वे हंसे और मुझ पर तरस खाकर बोले, ‘यहां तो (पोर्टसईद पहुंचने से पहले तक) ठीक है, पर बिस्के की खाड़ी में पहुंचने पर तुम अपना विचार बदल लोगे। इंग्लैंड में तो इतनी ठंड पड़ती है कि मांस खाए बिना चलता ही नहीं।' मैंने कहा, ‘मैंने सुना है कि वहां लोग मांसाहार के बिना रह सकते है।’ वे बोले, ‘इसे गलत समझो। अपने परिचितों में मैं ऐसे किसी आदमी को नहीं जानता, जो मांस न खाता
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पुस्तक अंश
हो। सुनो, मैं शराब पीता हूं, पर तुम्हें पीने के लिए नहीं कह सकता। लेकिन मैं समझता हूं कि तुम्हें मांस खाना ही चाहिए।’ मैंने कहा, ‘इस सलाह के लिए मैं आपका आभार मानता हूं, पर मांस न खाने के लिए मैं अपनी माता जी से वचनबद्ध हूं। इस कारण मैं मांस नहीं खा सकता। अगर उसके बिना काम न चला तो मैं वापस हिंदुस्तान चला जाऊंगा, पर मांस तो कभी न खाऊंगा।’ बिस्के की खाड़ी आई। वहां भी मुझे न तो मांस की जरूरत मालूम हूई और न मदिरा की। मुझसे कहा गया कि मैं मांस न खाने के प्रमाण पत्र इकट्ठा कर लूं। इसीलिए इन अंग्रेज मित्र से मैंने प्रमाण पत्र मांगा। उन्होंने खुशीखुशी दे दिया। कुछ समय तक मैं उसे धन की तरह संभाले रहा। बाद में मुझे पता चला कि प्रमाण-पत्र तो मांस खाते हुए भी प्राप्त किए जा सकते हैं। इसीलिए उनके बारे में मेरा मोह नष्ट हो गया। अगर मेरी बात पर भरोसा नहीं है तो ऐसे मामले में प्रमाण-पत्र दिखा कर मुझे क्या लाभ हो सकता है? दुख-सुख सहते हुए यात्रा समाप्त करके हम साउथेंप्टन बंदरगाह पर पहुंचे। मुझे याद है कि उस दिन शनिवार था। जहाज पर मैं काली पोशाक पहनता था। मित्रों ने मेरे लिए सफेद फलालैन के कोट-पतलून भी बनवा दिए थे। उन्हें मैंने विलायत में उतरते समय पहनने का विचार कर रखा था, यह समझकर कि सफेद कपड़े अधिक अच्छे लगेंगे! मैं फलालैन का सूट पहनकर उतरा। मैंने वहां इस पोशाक में एक
अपने को ही देखा। मेरी पेटियां और उनकी चाबियां तो ग्रिंडले कंपनी के एजेंट ले गए थे। सबकी तरह मुझे भी करना चाहिए, यह सोच कर मैंने तो अपनी चाबियां भी दे दी थी। मेरे पास चार सिफारशी पत्र थे : डॉक्टर प्राणजीवन मेहता के नाम, दलपतराम शुक्ल के नाम, प्रिंस रणजीतसिंह के नाम और दादाभाई नौरोजी के नाम। मैंने साउथेंप्टन से डॉक्टर मेहता को एक तार भेजा था। जहाज में किसी ने सलाह दी थी कि विक्टोरिया होटल में ठहरना चाहिए। इस कारण मजूमदार और मैं उस होटल में पहुंचे। मैं अपनी सफेद पोशाक की शरम से गड़ा जा रहा था। तिस पर होटल में पहुंचने पर पता चला कि अगले दिन रविवार होने से ग्रिंडले के यहां से सामान नहीं आएगा। इससे मैं परेशान हुआ। सात-आठ बजे डॉक्टर मेहता आए। उन्होंने प्रेमभरा विनोद किया। मैंने अनजाने रेशमी रोओंवाली उनकी टोपी देखने के खयाल से उठाई और उस पर उलटा हाथ फेरा। इससे टोपी के रोएं खड़े हो गए। डॉक्टर मेहता ने देखा, मुझे तुरंत ही रोका। पर अपराध तो हो चुका था। उनके रोकने का नतीजा तो यही निकल सकता था कि दुबारा वैसा अपराध न हो। समझिए कि यहीं से यूरोप के रीति-रिवाजों के संबंध में मेरी शिक्षा का श्रीगणेश हुआ। डॉक्टर मेहता हंसते-हंसते बहुत-सी बातें समझाते जाते थे। किसी की चीज छूनी नहीं चाहिए, किसी से जान-पहचान
होने पर जो प्रश्न हिंदुस्तान में यों ही पूछे जा सकते है, वे यहां नहीं पूछे जा सकते, बातें करते समय ऊंची आवाज से नहीं बोल सकते, हिंदुस्तान में अंग्रेजों से बात करते समय ‘सर’ कहने का जो रिवाज है, वह यहां अनावश्यक है। ‘सर’ तो नौकर अपने मालिक से अथवा बड़े अफसर से कहता है। फिर उन्होंने होटल में रहने के खर्च की भी चर्चा की और सुझाया कि किसी निजी कुटुंब में रहने की जरूरत पड़ेगी। कई सलाहें देकर डॉक्टर मेहता विदा हुए। होटल में आकर हम दोनों को यही लगा कि यहां कहां आ फंसे। होटल महंगा भी था। माल्टा से एक सिंधी यात्री जहाज पर सवार हुए थे। मजूमदार उनसे अच्छे से घुलमिल गए थे। ये सिंधी यात्री लंदन के अच्छे जानकार थे। उन्होंने हमारे लिए दो कमरे किराए पर लेने की जिम्मेदारी उठाई। हम सहमत हुए और सोमवार को जैसे ही सामान मिला, बिल चुका कर उक्त सिंधी सज्जन द्वारा ठीक किए कमरों में हमने प्रवेश किया। मुझे याद है कि मेरे हिस्से का होटल का बिल लगभग तीन पौंड का हुआ था। मैं तो चकित ही रह गया। तीन पौंड देने पर भी भूखा रहा। होटल की कोई चीज रुचती नहीं थी, दूसरी ली, पर दाम तो दोनों के चुकाने चाहिए। यह कहना ठीक होगा कि अभी तो मेरा काम बंबई से लाए हुए पाथेय से ही चल रहा था। इस कमरे में भी मैं परेशान रहा। देश की याद खूब आती थी। माता जी का प्रेम मूर्तिमान होता था। रात पड़ती और मैं रोना शुरू करता। घर की अनेक स्मृतियों की चढ़ाई के कारण नींद तो आ ही कैसे सकती थी? इस दुख की चर्चा किसी से की भी नहीं जा सकती थी, करने से लाभ भी क्या था? मैं स्वयं नहीं जानता था कि किस उपाय से मुझे आश्वासन मिलेगा। यहां के लोग विचित्र, रहन-सहन विचित्र, घर भी विचित्र, घरों में रहने का ढंग भी विचित्र! क्या कहने और क्या करने से यहां शिष्टाचार के नियमों का उल्लंघन होगा, इसकी जानकारी भी मुझे बहुत कम थी। तिस पर खाने-पीने की परहेज और खाने योग्य आहार सूखा तथा नीरस लगता था। इस कारण मेरी दशा सरौते के बीच सुपारी जैसी हो गई। विलायत में रहना मुझे अच्छा नहीं लगता था और देश भी लौटा नहीं जा सकता था। विलायत पहुंच जाने पर तो तीन साल वहां पूरे करने का मेरा आग्रह था। (अगले अंक में जारी)
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शास्त्री जयंती विशेष
01 - 07 अक्टूबर 2018
भारत का असाधारण लाल सादगी, साहस और दृढ़ निश्चय के साथ एक साधारण पृष्ठभूमि से देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे लाल बहादुर शास्त्री का पूरा जीवन ही एक प्रेरक अध्याय है
यदि लगातार झगड़े होते रहेंगे तथा शत्रुता होती रहेगी तो हमारी जनता को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। परस्पर लड़ने की बजाय हमें गरीबी, बीमारी और अज्ञानता से लड़ना चाहिए। दोनों देशों की आम जनता की समस्याएं, आशाएं और आकांक्षाएं एक समान हैं। उन्हें लड़ाई-झगड़ा और गोला-बारूद नहीं, बल्कि रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता है
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एसएसबी ब्यूरो
सहयोग आंदोलन और फिर उसके बाद भारत छोड़ो आंदोलन के कारण देश के कई युवा राष्ट्र सेवा के लिए सार्वजनिक जीवन में आए। इन युवाओं ने स्वाधीनता के बाद भी देश की सेवा की और सार्वजनिक जीवन की शुचिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को अटूट बनाए रखा। ऐसे ही युवाओं में एक थे लाल बहादुर शास्त्री जो स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री भी बने। उनके प्रधानमंत्रित्व काल में देश में नई स्फूर्ति तथा राष्ट्रीय भावना का जागरण हुआ। ‘जय जवान- जय किसान’ का नारा देकर उन्होंने देश में नई चेतना का संचार किया था। शास्त्रीजी सज्जनता, त्याग, सादगी, मनुष्यता के पुजारी थे। उनके व्यक्तित्व में असाधारण दृढ़ता और विपरीत परिस्थितियों में अडिग बने रहने की साहसिकता भी कूट-कूट कर भरी हुई थी। उनका
जन्म उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में 2 अक्टूबर 1904 को हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव इलाहाबाद के कायस्थ पाठशाला में प्राइमरी के अध्यापक थे और बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाया करते थे। शारदा प्रसाद साधारण परिवार के तो थे ही, साथ ही स्वभाव से सरल तथा सच्चाई, ईमानदारी के आदर्शों के प्रति निष्ठावान थे। बचपन में शास्त्रीजी को घर– परिवार में ‘नन्हे’ कहकर बुलाया जाता था। उनकी मां का नाम रामदुलारी देवी था। जिस समय नन्हे की अवस्था मात्र डेढ़ वर्ष की थी, उसी समय उनके पिता शारदा
प्रसाद का प्लेग के कारण देहांत हो गया। 1906 में पिता के देहांत के बाद नन्हे का पालन-पोषण ननिहाल में हुआ था। जब नन्हे की अवस्था 2 महीने की थी, उस समय वह इलाहाबाद में गंगा स्नान मेले में अपनी मां की गोद से छूटकर एक गड़रिए की टोकरी में जा गिरे थे। पुत्र के भीड़ में छिटककर गायब हो जाने से मां बुरी तरह से रोने लगीं। किंतु शीघ्र ही पुलिस ने नन्हे को गड़रिए से लेकर उनकी माता को सौंपा तो घर में प्रसन्नता की सीमा ना रही। शास्त्री जी जब 6 वर्ष के थे, उस समय की एक घटना ने उनके जीवन पर बहुत असर डाला। इसी घटना से जीवन में सोच-समझकर चलते हुए श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा मिली। हुआ यह था कि 6 वर्षीय नन्हे एक बार अपने साथियों के साथ एक आम के बगीचे में जा घुसे। बगीचे में सभी बच्चे पेड़ पर चढ़कर आम तोड़कर खाने लगे। नन्हे चुपचाप एक ओर खड़े थे। साहसा उन्होंने गुलाब का एक सुंदर फूल देखा, तो उसे तोड़ कर सूंघने लगे। तभी वहां बाग का माली आ गया, सभी बच्चे माली को देख कर भाग गए। किंतु नन्हे वहीं खड़े रहे। माली ने नन्हे के गाल पर जोर का तमाचा मारा, तो नन्हे ने रोते हुए कहा, ‘मैंने तो आम नहीं तोड़े थे। तुमने मुझे क्यों मारा, तुम्हें पता नहीं है कि मेरे पिता नहीं हैं।’ इस पर माली ने नन्हे से कहा, ‘बेटा पिता के न होने से तो तुम्हें और भी सोच– समझ कर चलना चाहिए और चोरी न करके अच्छा बच्चा बनने का प्रयास करना चाहिए।’ माली की इस शिक्षा से नन्हे को अपने जीवन को श्रेष्ठ दिशा देने का ज्ञान मिला। उसी दिन उन्होंने संकल्प किया कि भविष्य में दूसरों को हानि पहुंचाने वाला कोई काम नहीं करूंगा। लाल बहादुर महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के समय दसवीं कक्षा के छात्र थे, उसी समय वे भी असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे। 1925 में लाल बहादुर शास्त्री ने काशी विद्यापीठ से दर्शन शास्त्र की उच्च शिक्षा लेकर स्नातक की डिग्री प्राप्त की। तभी ‘शास्त्री’ सर्वदा के लिए उनके नाम के साथ जुड़ गया और उन्हें लाल बहादुर शास्त्री कहा जाने लगा। 1925 में शास्त्रीजी का परिचय देश के दिग्गज नेताओं से हुआ जिनमें बनारस के भारत रत्न डॉक्टर भगवानदास, आचार्य कृपलानी, श्री प्रकाश, डॉक्टर संपूर्णानंद, लाला लाजपत राय आदि थे। लाला लाजपत राय ने ‘लोक सेवक समाज’ की स्थापना की थी। शास्त्री जी उसके नियमित सदस्य
लाला लाजपत राय ने ‘लोक सेवक समाज’ की स्थापना की थी। शास्त्रीजी उसके नियमित सदस्य बन गए। शास्त्रीजी को मेरठ के कुमार आश्रम में रहकर हरिजनों की सेवा का कार्य सौंपा गया
01 - 07 अक्टूबर 2018 बन गए। शास्त्री जी को मेरठ के कुमार आश्रम में रहकर हरिजनों की सेवा का कार्य सौंपा गया। शास्त्रीजी इस सेवा के कार्य के लिए प्राय: मेरठ और सहारनपुर आदि स्थानों पर आते-जाते रहते थे। इस कार्य में वह पूर्ण मनोयोग से लगे रहे थे। इसी दौरान 1927 में शास्त्रीजी का विवाह ललिता देवी से हुआ। 1930 में शास्त्रीजी की पत्नी ने भी राजनीति में पदार्पण किया, जबकि शास्त्रीजी सन 1920–21 मई में ही कांग्रेस में शामिल होकर असहयोग आंदोलन में जेल यात्रा कर चुके थे। 1930–1945 तक शास्त्रीजी अधिकतर कारागार में ही रहे। कारागार के दौरान उन्होंने अनेक राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक विचारकों के ग्रंथों का गहरा अध्ययन किया। लाल बहादुर शास्त्री में असाधारण नैतिकता का गुण था, जो कई बार विभिन्न घटनाओं के बीच देखा गया। शास्त्री जी एक बार नैनी जेल में थे, उस समय घर से उनकी पुत्री की बीमारी के बारे में समाचार पहुंचा। जेल के अधिकारियों ने उन्हें पैरोल पर रिहा करना स्वीकार कर लिया और उन्हें 15 दिन का अवकाश दिया गया। परंतु शास्त्री जी जब घर पहुंचे तो उससे पूर्व ही उनकी पुत्री चल बसी थी। दाह क्रिया आदि के बाद शास्त्रीजी शीघ्र ही नैनी जेल के लिए रवाना हो गए। घर परिवार के सदस्य जब उन्हें रोकने लगे तो उन्होंने कहा, ‘जिस कार्य के लिए मुझे पैरोल पर रिहा किया गया था, वह काम तो समाप्त हो चुका है।’ 1935 में ब्रिटिश संसद द्वारा एक भारतीय शासन अधिनियम के सुधार के अनुसार 1947 में कांग्रेस ने विधानसभा के चुनाव लड़े और बहुमत प्राप्त किया। लाल बहादुर शास्त्री ने भी विजय होकर विधानसभा की सदस्यता प्राप्त कर ली। भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने पर कांग्रेस ने सभी प्रदेशों से त्यागपत्र दे दिए। 1940 में जब विनोबा भावे ने सत्याग्रह शुरू किया तो, उस सत्याग्रह में भाग लेने के कारण शास्त्रीजी भी बंदी हुए और उन्हें एक वर्ष का कारावास हुआ। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र हुआ तो शास्त्रीजी को मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के मंत्रिमंडल में शामिल किया गया। शास्त्रीजी को पुलिस तथा परिवहन मंत्रालय के साथ-साथ प्रदेश का गृह मंत्री भी बनाया गया। 1949 में जब शास्त्रीजी गृह मंत्री पद पर आसीन थे, तब छात्र–छात्राओं के एक आंदोलन में भीड़ को तितर–बितर करने के लिए उन्होंने लाठी चार्ज का आदेश नहीं दिया, उसके स्थान पर उन्होंने पानी की बौछार का आदेश दिया, जिसका बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ा। 1950 में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के बाद लाल बहादुर शास्त्री कांग्रेस के महामंत्री बने। 1952 के चुनाव में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा चुनाव के पश्चात वे राज्यसभा सदस्य बने, जहां केंद्रीय मंत्रिमंडल में उन्हें रेल और यातायात का कार्यभार सौंपा गया। अपने मंत्रित्वकाल में एक रेल दुर्घटना होने पर उन्होंने नैतिकता के नाते अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। 27 मई 1964 को जवाहर लाल नेहरू के निधन के पश्चात कांग्रेस संसदीय दल ने शास्त्रीजी को सर्वसम्मति से अपना नेता चुना और वे भारत के दूसरे प्रधानमंत्री बने। जिस समय शास्त्री जी ने देश
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शास्त्री जयंती विशेष
शास्त्री जी का कुर्ता
प्र
धानमंत्री लालबहादुर शास्त्री एक बार किसी अधिवेशन में शामिल होने भुवनेश्वर गए। अधिवेशन से पहले जब शास्त्री जी स्नान कर रहे थे, तब दयाल महोदय ने इस भावना से कि शास्त्री जी का अधिक समय कपड़े पहनने में व्यर्थ न जाए, सूटकेस से उनका खादी का कुर्ता निकालने लगे। उन्होंने एक कुर्ता निकाला तो देखा कुर्ता फटा हुआ था। उन्होंने वह कुर्ता ज्यों का त्यों तह करके वापस रख दिया और उसके स्थान पर दूसरा कुर्ता निकाला। परंतु उन्हें देखकर और भी ज्यादा अचंभा हुआ कि दूसरा कुर्ता पहले की अपेक्षा अधिक फटा था और जगह-जगह से सिला हुआ भी था। उन्होंने सूटकेस के सारे कुर्ते निकाले तो देखा कि एक भी कुर्ता साबूत नहीं था। यह देखकर वह परेशान हो उठे कि शास्त्री जी स्नान करके आ गए। उन्होंने दयाल जी की परेशानी देखकर कहा, इसमें चिंता की कोई बात नहीं। जाड़े में फटे और की बागडोर संभाली, उस समय देश में अनेक चुनौतियां थीं, जिनका निराकरण शास्त्री जी ने बड़ी सूझ – बूझ के साथ किया। ऐसे संकट के समय 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया। परंतु शास्त्रीजी रत्ती भर विचलित नहीं हुए। उन्होंने भारतीय सेना को पाकिस्तान के आक्रमण का मुंहतोड़ जवाब देने का आदेश दिया। शास्त्रीजी ने ओजस्वी स्वर में कहा था, ‘इस बार युद्ध भारत की धरती पर नहीं, बल्कि पाकिस्तान की धरती पर होगा।’ इस युद्ध में भारतीय जवानों ने पाकिस्तानी सेना
उधड़े कुर्ते कोट के नीचे पहने जा सकते हैं। इसमें कैसी परेशानी और शर्म। अधिवेशन के बाद शास्त्री जी दयाल जी के साथ कपड़े की एक मिल देखने गए। शोरूम में उन्हें बहुत खूबसूरत साड़ियां दिखाई गईं। शास्त्रीजी ने कहा, 'साड़ियां तो बहुत अच्छी हैं पर इनकी कीमत क्या है? मिल मालिक ने कहा, 'जी यह आठ सौ की और ये वाली हजार रुपए की। शास्त्री जी ने कहा, 'यह बहुत महंगी हैं, मुझ जैसे गरीब के मतलब की दिखाइए।' 'आपको तो ये साड़ियां हम भेंट करेंगे। आप देश के प्रधानमंत्री जो हैं-' मिल मालिक ने कहा। 'प्रधानमंत्री तो हूं, पर मैं आपसे भेंट कभी नहीं लूंगा और साड़ियां भी अपनी हैसियत के मुताबिक ही खरीदूंगा।' उन्होंने अपनी हैसियत के अनुसार सस्ती साड़ियां अपने परिवार के लिये खरीदीं। लालबहादुर शास्त्री जैसे प्रधानमंत्री के विचारों के समक्ष दयालजी के साथ मिल मालिक भी नतमस्तक हो गए। को पूरा सबक सिखाया। पाकिस्तान इस युद्ध में बुरी तरह पराजित हुआ। सारे देश में विजय की खुशी मनाई गई। इस दौरान रूस के प्रधानमंत्री कोसिगन ने भारत–पाकिस्तान के बीच शांति समझौता कराने के लिए ताशकंद में वार्ता आयोजित की। 3 जनवरी 1966 से 10 जनवरी 1966 तक लगातार 8 दिन तक ताशकंद में बैठक चलती रही। आपस में समझौता हुआ, जिसे ताशकंद समझौता कहा गया। परंतु ना जाने क्या रहस्यमयी परिस्थितियां थीं कि 11 जनवरी 1966 को दिल का दौरा पड़ने से भारत माता का यह लाड़ला सपूत संसार से चल बसा।
यदि कोई एक व्यक्ति भी ऐसा रह गया, जिसे किसी रूप में अछूत कहा जाए तो भारत को अपना सर शर्म से झुकाना पड़ेगा
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पुस्तक अंश
01 - 07 अक्टूबर 2018
श्रीलंका
श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का स्वागत करते हुए इस यात्रा की ऐतिहासिक प्रकृति पर जोर दिया। श्रीलंका के लिए किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की पिछले 28 सालों में यह पहली यात्रा थी। सिरीसेना ने फरवरी 2015 में भारत की अपनी बेहद सफल राजकीय यात्रा को याद किया। साथ ही उन्होंने भारत सरकार और भारत के लोगों द्वारा दिखाई गई गर्मजोशी और उदारता के लिए उन्हें धन्यवाद दिया और अपनी कृतज्ञता को दोहराया।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यात्रा के दौरान भारत और श्रीलंका के बीच कई समझौतों पर हस्ताक्षर हुए
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श्रीलंका में बौद्ध भिक्षुओं के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
सालों बाद भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा 13 से 14 मार्च, 2015 के बीच श्रीलंका की दो दिवसीय राजकीय यात्रा कई मायनों में महत्वपूर्ण थी। इस यात्रा में नई दिल्ली और कोलंबो ने अपने द्विपक्षीय संबंधों को एक नए उच्च स्तर पर
पहुंचाया। श्रीलंका के राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे के साथ बैठक के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि भारत दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार संबंधों को मजबूत करना चाहता है। दोनों पक्षों ने वीजा, सीमा शुल्क, युवा
भारत में मेरे मंत्रियों और अन्य प्रतिनिधियों के साथ हालिया यात्रा के दौरान हासिल की गई उपलब्धियों और द्विपक्षीय संबंधों को आज श्रीलंका में भारतीय प्रधानमंत्री के आगमन के साथ बेहद मजबूत और विस्तारित किया जा रहा है। मैत्रिपला सिरीसेना, श्रीलंका के राष्ट्रपति
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जाफना में युद्ध के कारण विस्थापित तमिलों और गरीबों को भारत द्वारा वित्त पोषित घरों को सौंपा
विकास और श्रीलंका में रवींद्रनाथ टैगोर स्मारक के निर्माण के लिए चार समझौतों पर हस्ताक्षर किए। इस अवसर पर मोदी ने यह भी बताया कि भारत आपसी सहयोग के माध्यम से श्रीलंका में रामायण गलियारा और
भारत में बुद्ध सर्किट बनाने का इच्छुक है। उन्होंने महाबोधि सोसाइटी का भी दौरा किया और कोलंबो में बौद्ध भिक्षुओं से बातचीत की। मोदी ने 13 मार्च को श्रीलंकाई संसद को संबोधित किया और श्रीलंका के लोगों के प्रति भारत की तरफ से आभार व्यक्त किया। श्रीलंका को कौशल, उद्यम और असाधारण बौद्धिक विरासत की धरोहर के रूप में वर्णित करते हुए उन्होंने दोनों देशों के बीच स्वस्थ और बेहतर साझेदारी के विकास की दिशा में नई दिल्ली की पूर्ण प्रतिबद्धता के लिए कोलंबो को आश्वासन दिया। मोदी ने शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए भारतीय शांति रखरखाव बल (आईपीकेएफ) स्मारक का भी दौरा किया। उन्होंने विपक्ष और श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के नेता निमल सिरिपला डी सिल्वा से मुलाकात की। साथ ही उन्होंने तमिल राष्ट्रीय गठबंधन के नेताओं और पूर्व श्रीलंकाई राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा के साथ भी बातचीत की।
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पुस्तक अंश
सिंगापुर
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भारत के सबसे नजदीकी बिंदु उत्तर पश्चिमी तालाइमानार शहर में तालाइमानार-मदु रोड ट्रेन को हरी झंडी दिखाते हुए
29 मार्च, 2015: सिंगापुर के उप-प्रधानमंत्री थर्मन शनमुगरात्नाम से मुलाकात करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
श्रीलंका में बौद्ध भिक्षुओं के साथ संवाद करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
हम श्रीलंका के लिए एक पुल का निर्माण करेंगे। मैं इस पुल के निर्माण की आशा के साथ आया हूं, एक पुल जो हमारी 14 मार्च को उन्होंने प्राचीन श्रीलंकाई राजधानी अनुराधापुर और जाफना का दौरा किया, जहां उन्होंने महाबोधि वृक्ष के सामने प्रार्थना की। उन्होंने जाफना सांस्कृतिक केंद्र की नींव रखी और
साझा विरासत के मजबूत खंभे पर खड़ा होगा। यह पुल हमारे साझा मूल्यों और दृष्टि, पारस्परिक समर्थन और एकजुटता, दोस्ताना लेन-देन और उत्पादक सहयोग और इन सबसे ऊपर, एक दूसरे में विश्वास और हमारी साझा मंजिल के साथ खड़ा होगा।
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धानमंत्री नरेन्द्र मोदी 29 मार्च, 2015 को सिंगापुर के पूर्व प्रधान मंत्री ली कुआन यू के अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए सिंगापुर के एक दिवसीय दौरे पर गए। मोदी ने ली कुआन यू को आधुनिक युग के सबसे महान नेताओं में से एक बताया। उन्होंने सिंगापुर के साथ
भारत के मजबूत संबंधों को रेखांकित किया और सिंगापुर को भारत की एक्ट ईस्ट पॉलिसी का एक प्रमुख स्तंभ बताया। साथ ही मोदी ने सिंगापुर के एमेरिटस वरिष्ठ वरिष्ठ मंत्री गोह चोक टोंग और उप-प्रधानमंत्री थर्मन शनमुगरात्नाम के साथ अलग से बैठक भी की।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी श्रीलंका में तालाइमानार और मधु रोड के बीच एक ट्रेन को हरी झंडी दिखाई। यह दौरा श्रीलंका में भारतीय उच्चायोग द्वारा आयोजित एक स्वागत समारोह के साथ संपन्न हुआ।
29 मार्च, 2015: सिंगापुर के राष्ट्रपति टोनी तन केंग याम से मिलते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (जारी अगले अंक में)
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गांधी जयंती विशेष
01 - 07 अक्टूबर 2018
गांधी जी का अस्थि कलश मथुरा के संग्रहालय में महात्मा गांधी का एक अस्थि कलश आज भी सुरक्षित
दू धर्म के अनुसार किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर को जलाने का रिवाज है। दाह-संस्कार के बाद उसकी बची हुई अस्थियां चिता स्थान से लेकर नदियों में विसर्जित कर दी जाती हैं। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अस्थियां और राख भी कई कलशों में भरकर देश-दुनिया की कई नदियों में विसर्जित की गई थीं। साथ ही देशविदेश में रहने वाले उनके कई अनुयायियों को भी ये कलश भेजे गए थे ताकि वे अपने हाथों से इसे नदियों में विसर्जित कर सकें। भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी मथुरा के राजकीय संग्रहालय
में महात्मा गांधी का एक अस्थि कलश आज भी सुरक्षित रखा हुआ है। महात्मा गांधी की अस्थियां मथुरा में यमुना नदी के विश्राम घाट पर विसर्जित करने के बाद उनके अस्थि कलश को जिलाधिकारी आवास लाया गया था। साल 1970
गांधी से जुड़ी वस्तुओं को लेकर आज भी पूरी दुनिया में कितना आकर्षण है, इसकी मिसाल है उनके एक पत्र की 6358 डॉलर में हुई नीलामी
प्रवाहित की गई थीं। कृष्ण की नगरी मथुरा में यमुना नदी के तट पर उनकी अस्थियां विसर्जित करने के लिए एक कलश में लाई गई थी। अस्थियां विसर्जित करने के बाद कलश जिलाधिकारी आवास में रख दिया गया लेकिन साल 1970 में संग्रहालय के तत्कालीन डायरेक्टर डॉ. आरसी शर्मा के प्रयासों के तहत अस्थि कलश मथुरा के राजकीय संग्रहालय में भेज दिया गया और तब से यह यहीं पर सुरक्षित रखा हुआ है। एसपी सिंह कहते हैं कि आम जनता की मांग पर विशेष अवसरों और आयोजनों पर दर्शन के लिए बापू का अस्थि कलश बाहर निकाला जाता है। उन्होंने यह भी बताया कि मथुरा के इस संग्रहालय में प्राचीन काल की कई मूर्तियां भी रखी हैं। इसीलिए काफी लंबे समय से अस्थि कलश को बाहर नहीं निकाला गया था, लेकिन जनता की मांग पर तीन साल पहले इस अस्थि कलश को बाहर निकाला गया। गौरतलब है कि महात्मा गांधी की 62वीं पुण्यतिथि के मौके पर 30 जनवरी 2010 को उनकी पौत्री इला गांधी ने उनके एक अस्थि कलश को दक्षिण अफ्रीका में डरबन के निकट हिंद महासागर में विसर्जित किया था। महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद उनकी अस्थियों के कलश एक तरफ जहां पूरी दुनिया में कई जगहों पर विसर्जन के लिए भेजे गए थे, वहीं कई लोग स्मृतिस्वरूप उनकी अस्थियां ले गए थे, इसी में से एक कलश उनके एक पारिवारिक मित्र के पास 62 वर्षों से सुरक्षित रखा था।
तक यह कलश जिलाधिकारी आवास पर ही रखा रहा, लेकिन उसके बाद इसे मथुरा के राजकीय संग्रहालय में रखा गया। कई ऐतिहासिक धरोहरों को सहेजे मथुरा के राजकीय संग्रहालय में भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का अस्थि कलश भी रखा हुआ है, जिसे उनकी पुण्यतिथियों पर दर्शन के लिए बाहर निकाला जाता है। मथुरा के राजकीय संग्रहालय के डायरेक्टर डॉ एसपी सिंह बताते हैं कि बापू की मृत्यु के बाद उनकी अस्थियां पूरी दुनिया में कई जगह
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बापू के पत्र की नीलामी
ष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा लिखा गया एक पत्र हाल ही में 6358 डॉलर में नीलाम हुआ है। गुजराती भाषा में लिखे गए इस पत्र पर कोई तारीख नहीं है। अमेरिका के आरआर ऑक्शन के अनुसार गांधी ने यह पत्र यशवंत प्रसाद नाम के व्यक्ति को संबोधित करते हुए लिखा है। महात्मा गांधी ने पत्र में लिखा है, ‘हमें मिलों से जो उम्मीद थी, वही हुआ है। यद्दपि आप जो कहते हैं वह सही है, सब कुछ करघे पर निर्भर करता है।’ गांधी ने इस पत्र में चरखे के महत्व पर बहुत जोर दिया है। गौरतलब है कि आजादी की
लड़ाई में गांधी ने चरखे को आर्थिक आजादी के प्रतीक के तौर पर अपनाया था। भारत की आजादी के लिए लड़े गए स्वतंत्रता संग्राम में गांधी विदेशी वस्तुओं का त्याग कर स्वदेशी अपनाने पर शुरुआत से जोर देते रहे। गांधी ने भारतीयों से आह्वान करते हुए कहा कि आंदोलन के समर्थन में सभी लोग प्रतिदिन खादी की कताई में व्यतीत करें और चरखे से सूत काटें। इसी क्रम में उन्होंने इंग्लैंड से निर्मित कपड़ों को जगह-जगह जलाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हुए खादी पहनने के लिए प्रेरित किया।
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 42