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स्वच्छता
स्वच्छता की चुनौती से जूझता ब्राजील
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वर्जीनिया वुल्फ
विरासत
खतरे में बिहार का ‘खजुराहो’
नारीवादी संघर्ष की अक्षर धुरी
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
बदलते भारत का साप्ताहिक
वर्ष-2 | अंक-48 |12 - 18 नवंबर 2018 मूल्य ` 10/-
वृंदावन में विधवा माताओं की ग्रीन दिवाली
सूखे पेड़ में हरी पत्तियां जीवन में एक नया उल्लास, नई उमंग इन्हें भी है जीने एवं खुशियां मनाने का अधिकार
वृंदावन की विधवा माताओं ने सुलभ के अंदाज में दिवाली मनाई। इस दौरान सभी के चेहरे पर खिली मुस्कान ने एक हरी-भरी, पर्यावरण के अनुकूल दिवाली मनाने का संदेश पूरे देश को दिया
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आवरण कथा
12 - 18 नवंबर 2018
खास बातें वृंदावन की विधवा माताओं ने उल्लास के साथ ग्रीन दिवाली मनाई डॉ. पाठक ने विधवाओं के प्रति रूढ़िगत सोच बदली विधवा माताएं डॉ. पाठक को अंधरे े जीवन में प्रकाश की तरह देखती हैं
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स्वस्तिका त्रिपाठी
वा में फूलों की एक मिठी महक थी। मिट्टी के दीयों के साथ चमकदार रोशनी हर तरफ जगमगा रही थी। दूर से ही मंत्रमुग्ध कर देने वाले भजन कानों तक पहुंच रहे थे। हर तरफ हंसी थी, खुशी थी। हर चेहरे पर एक चमकीली और खूबसूरत मुस्कुराहट थी। यह शाम किसी परीकथा से कम नहीं थी। और यह ऐसा हो भी क्यों न? आखिरकार यह वाकई एक विशेष दिन था। यह वृंदावन की विधवा माताओं की ‘ग्रीन दिवाली’ का उत्सव जो था। लगातार छठे साल वृंदावन की हजारों विधवा माताएं प्रकाश का उत्सव मना रही थीं। पहली बार ऐसा था कि पटाखे जलाने की बजाय विधवा माताओं ने खुशियों की फुलझड़ी जलाई। दिवाली मनाने का यह नया विचार सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक का है। सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक एक समाज सुधारक हैं, जिनके प्रयासों से ही किसी भी पवित्र उत्सव में विधवा माताओं के भाग न लेने की लंबे समय से चली आ रही प्रथा छह वर्ष पहले टूटी थी।
पटाखे नहीं, खुशियों की फुलझड़ी
इस अवसर पर अपना संदेश देते हुए डॉ. पाठक ने
कहा, ‘हम सभी जानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण पर काबू पाने लिए पटाखों पर आंशिक रूप से प्रतिबंध लगा दिया है। इसीलिए मैंने सोचा कि हमें दिवाली मनाने के लिए पटाखों की जरूरत ही नहीं है, इसके बदले में हम लोगों के चेहरों पर मुस्कराहट ला सकते हैं और अपने परिवेश को उल्लास से भर सकते हैं। इसीलिए यहां हमने प्रकाश के त्योहार को इको-फ्रेंडली तरीके से मनाने की पहल की है। फायर क्रैकर्स के स्थान पर हमने संगीत से भरी एक शाम का आयोजन किया, जहां भजनों की धुन, मिट्टी के दीपक की रोशनी और लोगों के चेहरे पर छाई खुशियों ने इसे यादगार बना दिया।’ पारिस्थितिकी के अनुकूल दिवाली मनाने की प्रेरक पहल ने पूरे देश को रास्ता दिखाया है कि अगर लोगों के चेहरों पर उज्ज्वल और चिर मुस्कान है तो पटाखों के बिना भी दिवाली बहुत प्रकाशमय हो सकती है। इस अवसर पर जिस तरह विधवा माताओं ने भजन गाए, नृत्य किया, दीए जलाए और रोशनी के उत्सव को पूर्ण उत्साह से मनाया, वह यादगार क्षण था।
उदास जीवन में रोशनी भरना दिवाली आंतरिक प्रकाश को उभारने का प्रतीक है, जो हमें अंधेरे और बुराई से बचाती है।
भगवान ने हमारे अंधेरे जीवन में प्रकाश लाने के लिए लाल बाबा को भेजा है। हमें इससे अधिक खुशी नहीं मिल सकती थी। यह हमारे लिए सच में शांति है - कनक लता, इस अवसर पर मौजूद सबसे बुजुर्ग विधवा माता
वृंदावन के ऐतिहासिक गोपीनाथ मंदिर में यही हुआ। इस दुनिया में हर दुखी आत्मा की देखभाल भगवान और उनके फरिश्ते करते हैं। इन विधवा माताओं के लिए डॉ. विन्देश्वर पाठक ऐसे ही फरिश्ते हैं। उन्होंने इन महिलाओं के उदास और दुखी जीवन में रोशनी भर दी है। वे उनके साथ मिलते हैं, उनकी परेशानियों को सुनते हैं, उनके दुख-दर्द को साझा करने के लिए हाथ बढ़ाते हैं और उन्हें अंधेरे से बाहर निकाल लेते हैं। उन्होंने उन्हें समाज के बुरे रीति-रिवाजों से बचाया है। इस अवसर पर सुलभ प्रणेता ने कहा, ‘हमारे समाज में कुछ रीति-रिवाज बहुत बुरे हैं। विधवाओं से जुड़े रीति-रिवाज या टैबू उनमें से ही एक है। अगर किसी व्यक्ति की पत्नी का देहांत हो जाता है, तो वह अपने जीवन को पूर्ण आनंद के साथ आगे
ले जाने के लिए स्वतंत्र है। पर यदि कोई महिला विधवा हो जाती है तो उसे एकांत और प्रतिबंधों से लदा जीवन जीने के लिए विवश कर दिया जाता है। उसे हंसने, गाने या नृत्य करने की अनुमति नहीं है। वह सिर्फ भगवान के नाम का जप करने और अपनी मृत्यु का इंतजार करने के लिए जिंदा रहती है।’ उन्होंने कहा, ‘हमने इन विधवा माताओं को बताया कि उनके पास भी खुशहाली से जीवन जीने का अधिकार है। आप को भी हंसना, नृत्य करना और गाना चाहिए। आज हम यहां हैं। सारी विधवा माताएं दिवाली मना रही हैं। उन्हें पहले दिवाली मनाने, दीये जलाने या होली खेलने की इजाजत नहीं थी। अब वे यह सब खुशी-खुशी कर रही हैं।’ इस अवसर पर मौजूद सबसे उम्रदराज विधवा माता कनक लता ने कहा, ‘लाल बाबा (डॉ. पाठक) ने हमें सच्ची खुशी के साथ आशीर्वाद दिया है। पहले हमारे जीवन में काफी दुख-दर्द थे। भगवान ने हमारे अंधेरे जीवन में प्रकाश लाने के लिए लाल बाबा को भेजा है। हम गरीब लोग हैं। हम आज सामान्य रूप से रह रहे हैं। इससे अधिक खुशी हमें नहीं मिल सकती थी। यह हमारे लिए सच में शांति पाने जैसा है। जय लाल बाबा, जय गोपीनाथ। भगवान ने पाठक जी को हमारे लिए भेजा है।’ कनक लता की उम्र 100 साल से अधिक है, लेकिन वह अब भी पूरे उत्साह से दिवाली हजारों लोगों के साथ मनाती हैं।
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आवरण कथा
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दिवाली मनाएं, 'स्वच्छ भारत' में योगदान दें
आते ही लोग अपने घरों, कार्यालय दिवाली परिसर इत्यादि की सफाई में व्यस्त हो
भगवान ने डॉ. पाठक के रूप में भेजा फरिश्ता - ओ. पी. यादव
इस अवसर पर वृंदावन के पूर्व डीपीओ ओम प्रकाश यादव भी उपस्थित थे, जो इन विधवा माताओं को खुशियां मनाते देख आनंद से भर गए थे। उन्होंने बताया कि 2011 में जब उन्होंने डीपीओ के रूप में प्रभार संभाला, उस समय इन विधवा माताओं की हालत दयनीय थी। वे आश्रय घरों में रहती थीं
और उन्हें अपने पेट भरने के लिए बहुत काम करना पड़ता था। पूर्व वृंदावन डीपीओ ने याद करते हुए कहा, ‘एक दिन मुझे एंबुलेंस की जरूरत थी, लेकिन दो दिनों तक कोई भी सुविधा नहीं मिली। मैंने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की और सवाल किया कि जब मैं एंबुलेंस की व्यवस्था करने में भी सक्षम नहीं हूं, तो मुझे यहां क्यों भेजा गया है? लेकिन जैसा कि
लोग कहते हैं कि भगवान के अपने तरीके होते हैं। भगवान कृष्ण, कुछ लोगों या अन्य स्रोतों के माध्यम से लोगों की समस्याओं को हल करते हैं। वह अपना काम करने के लिए फरिश्तों को भेजते हैं।’ उन्होंने आगे कहा, ‘इन सभी परेशानियों के बीच सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस अॉर्गेनाइजेशन से पूछा जाए कि क्या वह इन विधवा माताओं को भोजन की सुविधा प्रदान कर सकता है। डॉ. विन्देश्वर पाठक ने तुरंत इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। ऐसा लगता है कि भगवान कृष्ण ने इन विधवा माताओं की दुर्दशा को सुधारने के लिए डॉ. पाठक को भेजा है।" यादव ने कहा कि डॉ. पाठक जब वृंदावन आए, इन विधवा माताओं से मुलाकात की, उनकी परेशानियों को सुना और उनकी आवश्यकताओं
जाते हैं। दिवाली जितना प्रकाश का त्योहार है, उतना ही यह स्वच्छता का भी त्योहार है, जो सफाई के महत्व को दर्शाता है। सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक ने ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ के साथ विशेष बातचीत में देश के लिए स्वच्छता का संदेश दिया‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूरे देश में अपना स्वच्छता अभियान फैलाया है। हम इसे जनजागरूकता कह सकते हैं। हर कोई स्वच्छता की बात कर रहा है। सुलभ 1968 से ही ऐसा कर रहा है। यदि आप सुलभ परिसर के चारों ओर देखें, तो यह साफ और स्वच्छ नजर आता है। जब आप दिवाली मना रहे हैं, तो आपको यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आपका परिसर साफ रहे। एक गंदे क्षेत्र में इस तरह के पवित्र त्योहार का जश्न मनाने का क्या फायदा होगा? दिवाली रोशनी का त्योहार है, जो स्वच्छता का संदेश भी देता है। आप दिवाली मनाएं, साथ ही 'स्वच्छ भारत' में भी योगदान दें।’
भगवान के अपने तरीके हैं। ऐसा लगता है कि भगवान कृष्ण ने इन माताओं की पीड़ाओं को समझने और उन्हें दूर करने के लिए डॉ. पाठक को भेजा है - ओम प्रकाश यादव, पूर्व वृंदावन डीपीओ
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आवरण कथा
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‘लाल बाबा हमारे भगवान हैं, हमारे सब कुछ हैं’
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वि शर्मा आज जिस तरह से रहती हैं, वह आश्वस्त, साहसी और खुश दिखती हैं। गुवाहाटी की रहने वाली, छवि 2013 में अपने वैधव्य जीवन में शांति की तलाश में वृंदावन आई थीं। जब वह पहली बार इस पवित्र भूमि में पहुंचीं, तो वह आगे के जीवन और रास्ते से अनजान थीं। तब उन्हें इस शहर में रहने वाली हजारों विधवाओं में लोकप्रिय नाम के बारे में बिलकुल भी अंदाजा नहीं था। वह नाम था- ‘लाल बाबा’! 2013 से आज तक अपनी यात्रा का वर्णन करते हुए छवि शर्मा ने ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ से विशेष रूप से बात की और अपने अनुभव साझा किए‘मैं गुवाहाटी, असम से 2013 में वृंदावन आई थी। यहां और वहां कुछ दिन बिताने के बाद, मैंने एक और विधवा मां से मुलाकात की जो मुझे गुरुकुल आश्रम ले गईं। वहां मैंने सुना कि 'सेठ' दिल्ली से वृंदावन आते हैं। मैंने उनके बारे में पूछा और पता चला कि उन्हें 'लाल बाबा' कहा जाता है। मैंने लाल बाबा से मिलने का आग्रह किया था। दिन बीत गए और फिर दिवाली आई। यह त्योहार उस साल पागल बाबा आश्रम में मनाया जा रहा था। वह पहला दिन था जब मैंने उन्हें देखा था। उस वर्ष से ही इस तरह की सुंदर दिवाली हम उनके साथ पूरे उल्लास
और उत्साह से मना रहे हैं, हम उनके साथ होली खेलते हैं, रक्षाबंधन पर उनकी कलाई पर राखी बांधते हैं। लाल बाबा के बारे में मैं क्या कहूं? वह बहुत महान व्यक्ति हैं। वह हमारे लिए एक भगवान हैं। हम ऐसे गरीब लोग हैं कि हम ट्रेनों में भी आरक्षित कक्षा में यात्रा करने की हिम्मत नहीं कर सकते हैं। लेकिन यहां वह हमें कोलकाता, उज्जैन, मुंबई, पुणे और न जाने कहां-कहां,जहाज से ले जाते हैं। वह हमें 2000 रुपए प्रति माह दे रहे हैं। उन्होंने हमें मुफ्त चिकित्सा सुविधाएं भी प्रदान की है। वह हमारे लिए सब कुछ कर रहे हैं। मैं उनके बारे में क्या कहूं? किसी भी भाषा में कोई भी शब्द उन्हें परिभाषित करने के लिए या उनकी प्रशंसा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। वह हमारे मित्र हैं, हमारे भाई, हमारे बेटे, हमारे बाबा - वह हमारे सब कुछ हैं! उनसे मिलने से पहले, हमारा पहला जन्म था। और उनसे मिलने के बाद, ऐसा लगता है जैसे हमने एक ही जीवनकाल में एक और जन्म ले लिया है।’
ये पत्तियां सूख गईं थीं, लेकिन हमने उनमें हरियाली बहाल कर दी है। उस आनंद को व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है, जो मुझे इन्हें खुश देख कर होता है - डॉ. विन्देश्वर पाठक
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का अध्ययन किया तो पहले दिन ही उन्होंने इन माताओं को पांच एंबुलेंस उपहार में दिए। इसके बाद उन्होंने कई और पहल शुरू की। इससे भोजन के साथ सिलाई मशीन आदि जैसी सुविधाएं और मदद इन माताओं तक पहुंची। उनके ही शब्दों में, ‘हम यहां एक एंबुलेंस के लिए लालायित थे और अचानक पांच मिल गईं थीं। चुटकी में ही यह समस्या खत्म हो गई। पूरा परिदृश्य बदल गया है और यह हमारी आंखों के सामने है। यहां कुछ समय पहले ही मैंने उस विधवा माता को देखा है, जिसकी उम्र 100 साल से अधिक है। वह आनंद, खुशी और हंसी के साथ पल बिता रही हैं। 90 वर्ष की एक और विधवा माता मेरे बगल में नृत्य कर रही थीं। कौन सोच सकता था कि दुख भरे वर्षों को इस तरह इतनी जल्दी मिटा दिया जा सकता है? यह केवल डॉ. पाठक के प्रयासों के कारण ही संभव हो पाया है। मुझे यकीन है कि सुलभ उन्हें और भी ऊंचाइयों तक ले जाएगा।’
पीली पत्तियां फिर से हरी हो गईं
इस मौके पर डॉ. पाठक ने बताया कि 2012 से
पहले इन विधवाओं को दो जून का खाना मांग कर जुटाना पड़ता था। उन्हें भजन गाने पर केवल 4 से 8 रुपए मिलते थे। उनके लिए कोई चिकित्सा की सुविधा नहीं थी। सबसे बुरी बात यह थी कि मृत्यु के बाद उनके शरीर को बोरों में भर यमुना नदी में फेंक दिया जाता था। क्योंकि उनके अंतिम संस्कार के लिए कहीं से कोई आर्थिक मदद नहीं थी। विधवा माताओं की यह दुखद स्थिति ‘द हिंदू’अखबार में प्रकाशित हुई, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को संज्ञान में लिया।
आवरण कथा
सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (एनएएलएसए) से पूछा कि सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन, जो कि एक एक गैर-लाभकारी स्वैच्छिक परोपकार सामाजिक संगठन है, क्या इन माताओं के भोजन की जिम्मेदारी उठा सकता है? डॉ. पाठक ने कहा, ‘फिर मुझे उनसे एक पत्र प्राप्त हुआ। मैंने कहा कि यह एक अच्छा अवसर है। 2012 में मैं वृंदावन आया, इन माताओं से मुलाकात की। वे अपने दुख व्यक्त करने के लिए
2012 में सुलभ ने विधवा माताओं को फिर से अपनी जिंदगी जीने में मदद की। उन्हें वो खुशी मिलने लगी जो किसी को अपने माता-पिता के घर में मिलती है। उस दिन से इन विधवा माताओं ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा
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रोती थीं। यहां तक कि मैं कई बार उनकी परेशानियां सुनकर रोया। वे सभी कहती थीं कि वे मरना चाहती हैं। इसके बाद मैंने न केवल उनके लिए भोजन सुनिश्चित किया, बल्कि एंबुलेंस सुविधाएं, शिक्षा के अवसरों, फ्रिज, टीवी इत्यादि भी प्रदान किए। मैं उन्हें कई जगहों पर ले गया, उनसे उनके जीवन में घर बना लेने वाले एकांत को दूर करने के लिए त्योहारों का जश्न मनाने का आग्रह किया।’ 2012 में सुलभ ने विधवा माताओं को फिर से अपनी जिंदगी जीने में मदद की। उन्हें वो खुशी मिलने लगी जो किसी को अपने माता-पिता के घर में मिलती है। उस दिन से इन विधवा माताओं ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। डॉ. पाठक मुस्कुराते हुए कहते हैं, ‘ये पत्तियां सूख गई थीं, लेकिन हमने इनमें हरियाली बहाल कर दी है। यह किसी रोने वाले व्यक्ति को हंसाने जैसा है। हमारी मां और बहनें जो विधवा हो गई थीं, एक साथ दिवाली मना रही हैं। यह हम सभी के लिए एक सुखद अवसर है। इस खुशी को व्यक्त करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है, मैं उन्हें खुश देख रहा हूं।’
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परंपरा
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पूरी दुनिया में प्रकाश का उत्सव
दिवाली की धूम सिर्फ भारत या पड़ोसी मुल्कों में नहीं मचती पर दुनिया के कम से कम 250 देश ऐसे हैं, जहां या तो भारतीय समुदाय धूमधाम से यह पर्व मानता है या वहां दिवाली जैसा कोई और पारंपरिक पर्व पहले से लोकप्रिय है लाम क्रियोंघ
दिवाली
एसएसबी ब्यूरो
नेपाल और मॉरिशस नेपाल और मॉरिशस में दिवाली भारत जैसी मनाई जाती है, लेकिन वहां पर नई-नवेली दुल्हन दीपक जलाती हैं। वहीं, मलेशिया में भी दिवाली के दिन छुट्टी होती है, लोग दीपक जलाकर और रंगोली बनाकर माता लक्ष्मी के आगमन की खुशी मनाते हैं। लोग एक-दूसरे से गले मिलकर त्योहार की बधाई और उपहार देते हैं।
दीपोत्सव
श्रीलंका रावण के वध के बाद विभीषण लंका के राजा बने। उन्होंने बुराई पर अच्छाई की जीत के उपलक्ष्य में दीपोत्सव का आदेश दिया था, जिसके बाद से ही श्रीलंका में भी लोग अमावस्या के दिन दीपक जलाते हैं।
भी अक्टूबर में मनाया जाता है।
ओनियो फायर
जापान जापान में बुरी आत्माओं को भगाने के लिए ओनियो फायर फेस्टिवल मनाया जाता है। एक सप्ताह तक चलने वाले इस त्योहार में 6 बड़े फायर टॉर्च जलाए जाते हैं। यह त्योहार फुकुओका समेत कई शहरों में जनवरी के प्रारंभ में मनाया जाता है। जनवरी में आने वाला ओनियो फेस्टिवल जापान का सबसे पुराना फेस्टिवल भी है। जापान के फुकुओका में ये सबसे ज्यादा अच्छे से मनाया जाता है और दिवाली की तरह ही लोग मोमबत्तियों और मशालों के जरिए शहर को रोशनी से भर देते हैं। इस दौरान जो छह मशालें जलाई जाती हैं वो आपदा को खत्मर करने के प्रतीक के रूप में होती हैं।
लाइटिंग फेस्टिवल म्यांमार
दक्षिण कोरिया दक्षिण कोरिया में फरवरी में जेजू फायर फेस्टिवल मनाया जाता है। बेहतर स्वास्थ्य और अच्छी पैदावार के लिए यह त्योहार पिछले 20 वर्षों से मनाया जा रहा है।
ऑटरी सेंट मैरी फेस्ट
इंग्लैंड दुनिया में भारत के बाद अगर कहीं दिवाली का
अप हेली
स्कॉाटलैंड हर साल जनवरी के आखिरी मंगलवार को स्कॉाटलैंड के लेर्विक में भी दिवाली की ही तरह ‘अप हेली’ नाम का त्योहार मनाया जाता है। इस पर्व के पीछे की कथा भी दिवाली से बहुत मिलतीजुलती है। इस त्योमहार में लोग प्राचीन समुद्री योद्धाओं जैसी पोशाक पहने हाथ में मशाल लिए जुलूस निकालते हैं। इस दौरान पूरे शहर को रोशनी से सजाया जाता है।
फालेस फायर
स्पेन स्पेन में मार्च के महीने में फालेस फायर फेस्टिवल मनाया जाता है। 5 दिन तक चलने वाले इस फेस्टिवल में आतिशबाजी के करतब होते हैं।
जॉय ऑफ लाइट
सादेह जेजू फायर
म्यांमार में तीन दिन तक चलने वाले इस त्योहार को ‘लाइटिंग फेस्टिवल ऑफ म्यांमार’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन भगवान बुद्ध और उनके शिष्यों के स्वागत में घरों को रौशन करते हैं। यह त्योहार
जश्न बेहद धूम-धाम से मनाया जाता है तो वो जगह है इंग्लैंड का लेस्टर शहर। जंगलों से घिरे इस शहर में दिवाली का जश्न देखने लायक होता है। असल में इस शहर में हिंदू, सिख और जैन समुदाय के काफी लोग रहते हैं, लेकिन अब तो हर धर्म के लोग ही यहां हर साल दिवाली मनाने लगे हैं। भारत की तरह ही यहां पूरे शहर के लोग रात को अपना घर दीयों से सजाते हैं और मिठाइयां बांटते हैं। यहां भी लोग पार्क और स्ट्रीट में निकलकर पटाखे फोड़ते हैं और जमकर सेलिब्रेट करते हैं। इंग्लैंड के ऑटरी सेंट मैरी शहर में हर 5 नवंबर को ऑटरी सेंट मैरी फेस्ट होता है, जिसका मुख्य आकर्षण आतिशबाजी होती है। इसकी शुरुआत 1605 में हुई थी।
थाइलैंड थाईलैंड में भी बिलकुल दीवाली जैसा ही एक त्योहार मनाया जाता है हालांकि यहां इसे ‘लाम क्रियोंघ’ के नाम से जाना जाता है। इस त्योहार पर थाई लोग रात में केले की पत्तियों से बने दीपक और धूप को जलाते हैं और प्रार्थना भी करते हैं। दिवाली की तरह ही इस पर्व के अनुष्ठान में भी पैसा रखा जाता है। बाद में इन जलते हुए दीयों को नदी के पानी में बहा दिया जाता है।
ईरान ईरान में अंधकार और सर्दी पर जीत तथा अग्नि के सम्मान में जनवरी के अंतिम सप्ताह में फायर फेस्टिवल ‘सादेह’ मनाया जाता है। करीब 5 दशक से इस फेस्टिवल के मनाए जाने की परंपरा है।
कनाडा कनाडा के न्यूफाउंड लैंड में भी 5 नवंबर को दिवाली की ही तरह एक रात ऐसी आती है, जब प्रकाशपर्व मनाया जाता है। इस रात को शहर रोशनी से सजाया जाता है और लोग आतिशबाजी करके खुशियां मनाते हैं। इसके पीछे कहानी है कि अंग्रेज और आयरिश लोग अच्छी जिंदगी की तलाश में कनाडा आकर बस गए थे और फिर यहीं रह गए। इसी दिन की याद में ये त्योहार ‘जॉय ऑफ लाइट’ मनाया जाता है। यहां भी लोग घरों को पेंट करते हैं और आग जलाकर रात में मस्ती करते हैं।
सैमहेन
फ्लोरिडा फ्लोरिडा के अल्टूना शहर में भी दिवाली की ही तरह मनाया जाने वाला ‘सैमहेन’ फेस्टिवल काफी मशहूर है। इसे हर साल 31 अक्टूबर से 1 नवंबर के बीच मनाया जाता है। मान्यता है कि ये त्योहार भूतों के सम्मान में मनाया जाता है।
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मिसाल
डीएम ने बेटे को आंगनबाड़ी भेजा
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उत्तराखंड में कार्यरत आईएएस दंपति ने अपने बच्चे को किसी महंगे प्ले ग्रुप स्कूल में भेजने के बजाए सरकार द्वारा संचालित आंगनबाड़ी में पढ़ने भेजा
एसएसबी ब्यूरो
शासन का कार्य सेवा का तो है ही, पर उससे भी ज्यादा यह कार्य सेवा के दायित्व को एक अनुशासित पद्धति में बदलने का है। उसी अनुशासन को बहाल करने की मिसाल कायम की है एक आईएएस दंपति ने। अक्सर यह बात सामने आती रहती है कि अगर सरकारी अध्यापक और अधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने लग जाएं तो इन स्कूलों की हालत अपने आप सुधर जाएगी। कुछ इसी सोच के साथ इस आईएएस दंपति ने अपने बच्चे को किसी महंगे प्ले ग्रुप स्कूल में भेजने के बजाय सरकार द्वारा संचालित आंगनबाड़ी में पढ़ने भेजा। स्वाभाविक है कि अब आंगनबाड़ी केंद्र भी सजग रहेगा और वहां किसी भी बच्चे को कोई परेशानी नहीं हो पाएगी। हमारे देश में सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं है। फिर चाहे वह प्राइमरी स्कूलों की बात हो या फिर डिग्री कॉलेज की। देश की विडंबना यह है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले अध्यापक तक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते, बल्कि उन्हें किसी महंगे प्राइवेट स्कूलों में भेज देते हैं। इससे समझा जा सकता है कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं पढ़ाना चाहते। हम बात कर रहे हैं उत्तराखंड के आईएएस नितिन भदौरिया व उनकी पत्नी स्वाति श्रीवास्तव की। ये दोनों पूरे देश के अधिकारियों और मातापिताओं के लिए एक नायाब उदाहरण पेश कर रहे हैं। दंपति ने अपने दो साल के बेटे अभ्युदय को पढ़ने के लिए आंगनबाड़ी भेजा। स्वाति उत्तराखंड के चमोली जिले की डीएम हैं तो वहीं उनके पति नितिन अल्मोड़ा के जिलाधिकारी हैं। अगर हैसियत की बात करें तो वे अपने बच्चे को किसी भी बड़े और महंगे स्कूल में भेज सकते थे, लेकिन उन्होंने एक ऐसी सरकारी संस्था को चुना जिसे कुलीन वर्ग के लोग हेय दृष्टि से देखते हैं। स्वाति ने अपने बच्चे अभ्युदय का गोपेश्वर गांव स्थित आंगनबाड़ी केंद्र में दाखिला कराया है। उन्हें इस बात की खुशी भी है कि बड़े बंगले के अंदर की हलचल से हटकर आम बच्चों के साथ रहकर बच्चा खुश है और नए माहौल में कुछ नया सीख रहा है। स्वाति ने कहा, 'आंगनबाड़ी केंद्र में वे सारी सुविधाएं मौजूद होती हैं जिन्हें किसी छोटे बच्चे के विकास के लिए जरूरी माना जाता है।' वह
खास बातें उत्तराखंड में सेवाएं दे रहे हैं नितिन भदौरिया व उनकी पत्नी स्वाति दो साल के बेटे अभ्युदय को पढ़ने के लिए आंगनबाड़ी भेजा आंगनबाड़ी की दशा सुधारने के लिए आईएएस दंपति की बड़ी पहल अपने बच्चे को एक ऐसे माहौल में बड़ा होते देखना चाहती थीं जहां वह बहुत कुछ अपने आप सीख सके। आंगनबाड़ी केंद्रों में खाना, नाश्ता, वजन, चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था है। यहां पर टेक होम के जरिए आसपास के बच्चों को भी राशन िदया जाता है। बातचीत के क्रम में स्वाति के पति नितिन भदौरिया ने बताया, ‘हमने यह फैसला एक अभिभावक के रूप में लिया है। हर पैरेंट्स यही चाहते हैं कि अपने बच्चों को बेहतर सुविधाएं उपलब्ध करा सकें। आंगनबाड़ी केंद्र को देखकर यह लगा कि यहां पर बच्चों के लिए बहुत अच्छा वातावरण है। ईश्वर ने सबको बराबर बनाया है। शुरू से ही बच्चा आम बच्चों के साथ ही खेलता था।
स्वाति ने कहा कि आंगनबाड़ी जैसी संस्थाओं के प्रति लोगों का नजरिया बदलना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘मेरा बच्चा अपने साथी बच्चों के साथ खाना बांटकर खाता है और घर लौटने पर वह खुश भी नजर आता है’
कई और अधिकारियों ने भी कायम की मिसाल
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सी साल केरल के वायनाड जिले के आईएएस अधिकारी सुहास शिवन्ना ने सरकारी स्कूल के बच्चों के साथ लंच शेयर किया था। छत्तीसगढ़ के भी एक अधिकारी ने अपने बच्चे का दाखिला सरकारी स्कूल में ही कराया है और वह अपने बच्चे के साथ मिड डे िमल का आनंद लेते नजर आते हैं। उत्तराखंड में भी ऐसे और भी अधिकारी हैं, आंगनबाड़ी केंद्र में उसे बेहतर माहौल मिल रहा है। घर पर अकेला रहेगा तो कई चीजें नहीं सीख पाएगा। घर से बाहर निकलकर ग्रुप में रहकर बच्चे का विकास भी होगा।’ गोपेश्वर आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकत्री माधुरी किमोठी ने कहा कि इस आंगनबाड़ी केंद्र में टेक होम राशन वाले 23 बच्चों को खाद्यान्न वितरित किया जाता है, उन्होंने बताया कि जिलाधिकारी के बेटे सहित 11 बच्चे आंगनबाड़ी में आते हैं। उन्होंने कहा कि एक दिन में ही यह बच्चा ऐसे घुल-मिल गया कि बच्चों के अलावा शिक्षिकाओं को भी खुद जाकर अपने टिफिन भी शेयर करता है। उनके इस फैसले से यह संदेश भी जा रहा
जो सरकारी स्कूलों की स्थिति पर ध्यान देते हैं। रुद्रप्रयाग के डीएम मंगेश घिल्डियाल व उनकी पत्नी उषा घिल्डियाल सरकारी स्कूलों में छात्रों से रू-ब-रू होकर न केवल उनकी समस्याएं सुनते हैं, बल्कि होनहार छात्रों की लिस्ट भी तैयार करते हैं। इसके अलावा वह इंटर कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चों को मेडिकल, इंजीनियरिंग व सिविल सेवा की मुफ्त तैयारी भी करा रहे हैं। है कि सरकारी अधिकारी भी सरकारी संस्थाओं में विश्वास करते हैं। इसके साथ ही वे देशभर के तमाम लोगों के लिए एक नजीर भी पेश कर रहे हैं, जो यह सोचते हैं कि सरकारी स्कूलों का मतलब कम सुविधाएं और कम गुणवत्ता की पढ़ाई होती है। कम से कम उनके लिए जो अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजने की हैसियत नहीं रखते। इस फैसले पर उत्तराखंड के शिक्षक नेताओं ने भी अपनी खुशी जाहिर की। स्वाति ने कहा कि आंगनबाड़ी जैसी संस्थाओं के प्रति लोगों का नजरिया बदलना चाहिए। उन्होंने कहा, ‘मेरा बच्चा अपने साथी बच्चों के साथ खाना बांटकर खाता है और घर लौटने पर वह खुश भी नजर आता है।’
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स्वच्छता
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स्वच्छता की चुनौती से जूझता एक संपन्न देश ब्राजील
लैटिन अमेरिका की सबसे बड़ी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था कहे जाने वाले देश को लेकर विकास की जो छवि उभरती है, कम से कम स्वच्छता के क्षेत्र में उसकी वह स्थिति नहीं है
खास बातें लैटिन अमेरिकाकी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है ब्राजील 2033 तक तक स्वच्छता का शतप्रतिशत लक्ष्य प्राप्त करने की योजना जल प्रबंधन के मुकाबले स्वच्छता के क्षेत्र में काफी पीछे है ब्राजील
बेहतर जल प्रबंधन
ब्रा
स्वच्छता और जल प्रबंधन वैसे तो एक-दूसरे से जुड़ा है। पर स्वच्छता के मुकाबले जल प्रबंधन के क्षेत्र में ब्राजील की स्थिति बेहतर है। 80 फीसद से ज्यादा आबादी तक वहां स्वच्छ जल पहुंच रहा है। पर दुर्भाग्य से पिछले एक दशक में इस आंकड़े में ज्यादा वृद्धि नहीं हो रही है। यानी जल प्रबंधन को लेकर वहां एक स्थिति आ गई है, जहां से आगे सुधार किसी चुनौती से कम नहीं है।
एसएसबी ब्यूरो
जील दक्षिण अमेरिका का सबसे बड़ा देश है। क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से यह विश्व का पांचवां सबसे बड़ा देश है। प्रकृति से लेकर अर्थव्यवस्था तक ब्राजील दुनिया के अग्रणी देशों की कतार में तो जरूर खड़ा है, पर उसके साथ यह विडंबना भी जरूरी है कि वहां विकास और संपन्नता का सर्वसमावेशी चरित्र अभी तक उभरना बाकी है।
सेनेटेशन कवरेज
बात अकेले स्वच्छता की करें तो ब्राजील की दशा अच्छी नहीं मानी जा सकती। यहां चूंकि अमीरीगरीबी का फर्क बहुत ज्यादा है। लिहाजा जिन समुदायों और इलाकों तक पेयजल आपूर्ति के साथ स्वच्छता संबंधी सुविधाओं का अभाव है, वहां की स्थिति खासी दयनीय है। ‘द ब्राजिलियन रिपोर्ट’ में एक साल पहले प्रकाशित एक आलेख के मुताबिक
प्राचीनतम स्थलखंड का अंग
ब्राजील में जल प्रबंधन की स्थिति शहरी स्वच्छता 54,7 %
शहरी जलापूर्त्ति 37,8 %
ग्रामीण 55, %
स्वच्छता 3,0 %
जलापूर्त्ति 3,0 %
राष्ट्रीय स्वच्छता योजना 2030 तक शत-प्रतिशत स्वच्छता का लक्ष्य 2014 तक ब्राजील में सेनेटेशन कवरेज का आंकड़ा 50 फीसद के नीचे ही था। इस दिशा में वहां की सरकार लगातार चिंतित है। यूनिसेफ जैसी संस्थाएं
6% 4%
9%
16%
8%
उत्तर उत्तर- उत्तर- दक्षिण पूर्व पूर्व जलापूर्त्ति
4%
मध्यपश्चिम
स्वच्छता
भी इसके लिए प्रयासरत हैं। पर योजनागत अमल में कई खामियों के कारण वहां स्थिति में सुधार अपेक्षित ढंग से नहीं हो रहा है।
दक्षिण अमरीका के मध्य से लेकर अटलांटिक महासागर तक फैले हुए इस संघीय गणराज्य की तट रेखा 7411 किलोमीटर की है। यहां बहने वाली अमेजन नदी विश्व की सबसे बड़ी नदी है। इसका मुहाना (डेल्टा) क्षेत्र अत्यंत उष्ण तथा आर्द्र क्षेत्र है जो एक विषुवतीय प्रदेश है। इस क्षेत्र में जंतुओं और वनस्पतियों की कई प्रजातियां वास करती हैं। ब्राजील का पठार विश्व के प्राचीनतम स्थलखंड का अंग है। अतः यहां पर विभिन्न भूवैज्ञानिक कालों में अनेक प्रकार के भूवैज्ञानिक संरचना संबंधी परिवर्तन दिखाई देते हैं। यहां की जनसंख्या लगभग 209.3 (2017) मिलियन है। दक्षिण अमेरिका का यह एकमात्र ऐसा देश है, जहां पुर्तगीज भाषा बोली जाती है। ब्राजीलवासी रोमन कैथोलिक हैं। यहां विश्व के सबसे अधिक कैथोलिक परिवार निवास करते हैं। ब्राजील में 73 प्रतिशत से ज्यादा लोग रोमन कैथोलिक हैं।
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स्वच्छता
राष्ट्रीय स्वच्छता योजना
स्वच्छता संबंधी चुनौती से योजनागत ढंग से निपटने के लिए ब्राजील सरकार ने राष्ट्रीय स्वच्छता योजना शुरू की है
ब्रा
जील की सरकार ने दिसंबर, 2013 में ‘राष्ट्रीय स्वच्छता योजना’ शुरू की है। इस योजना का लक्ष्य है कि 2033 तक ब्राजील स्वच्छता के शत प्रतिशत लक्ष्य को हासिल कर ले। पर जिस गति से इस योजना का क्रियान्वयन हो रहा है और इसके लिए सरकारी प्रयास और प्रबंधन में चुस्ती की जिस तरह की कमी देखी जा रही है, उससे नहीं लगता कि ब्राजील 2033
आबादी प्रतिशत
ब्राजील में जल प्रबंधन की स्थिति 100% 80% 60% 40% 20% 0%
बुनियादी जलापूर्त्ति सुरक्षित स्वच्छता प्रबंधन
शहरी सुरक्षित जलापूर्त्ति हाथ धोने के लिए नल आदि की व्यवस्था
नामकरण
ऐसा लगता है कि ‘ब्राजील’ शब्द ब्राजीलवुड के पुर्तगाली शब्द से आता है, जो कि एक पेड़ है जो ब्राजील के तट के साथ भरपूर मात्रा में पाया जाता है। मूल पुर्तगाली अभिलेखों में भूमि का आधिकारिक पुर्तगाली नाम पवित्र क्रांति की भूमि’ (टेरा दा सांता क्रूज) था, लेकिन यूरोपीय नाविकों और व्यापारियों ने ब्राजीलवुड के व्यापार की वजह से इसे आमतौर पर ‘ब्राजील की भूमि’ (टेरा डू ब्राज़िल) ही कहते थे। कुछ शुरुआती नाविकों इसे ‘तोते की भूमि’ भी कहा करते थे। पैराग्वे की आधिकारिक भाषा गुआरानी भाषा में, ब्राजील को ‘पिंडोरमा’ कहा जाता है। यह नाम वहां की स्थानीय आबादी का नाम था, जिसका अर्थ है ‘पाम के पेड़ों की भूमि’।
कई देशों से मिलती है सीमा
ब्राजील दक्षिण अमेरिका के पूर्वी तट के साथ एक बड़ा क्षेत्र है और इसमें महाद्वीप के अधिकांश
ग्रामीण सुरक्षित स्वच्छता सार्वजनिक स्वच्छता
आंतरिक क्षेत्र शामिल हैं, और यह चिली और एक्वाडोर को छोड़ कर बाकी सभी दक्षिण अमेरिकी देशों के साथ भूमि-सीमा साझा करता है। इसकी सीमा दक्षिण में उरुग्वे, दक्षिण-पश्चिम में अर्जेंटीना और पैराग्वे, पश्चिम में बोलीविया और पेरू, उत्तरपश्चिम में कोलंबिया और उत्तर में वेनेजुएला, गुयाना, सूरीनाम और फ्रांस (फ्रेंच गुयाना के फ़्रान्सीसी विदेशी क्षेत्र) के साथ लगा हुआ है। इसमें फर्नांडो डी नोरोन्हा, रोकास एटोल, सेंट पीटर और पॉल रॉक्स, और ट्रिंडेड और मार्टिम वाज जैसे कई महासागर द्वीपसमूह शामिल हैं।
अमेजन का देश
ब्राजील की प्रमुख नदियों में अमेजन (दुनिया की दूसरी सबसे लंबी नदी और पानी की मात्रा के मामले में सबसे बड़ी), पराना और इसकी प्रमुख सहायक इगुआकू (जिसमें इगाज़ू फॉल्स शामिल है), नेग्रो, साओ फ्रांसिस्को, ज़िंगू, मदीरा और तपजोस नदियों आदि शामिल है।
2014 तक ब्राजील में सेनेटेशन कवरेज का आंकड़ा 50 फीसद के नीचे ही था। इस दिशा में वहां की सरकार लगातार चिंतित है। यूनिसेफ जैसी संस्थाएं भी इसके लिए प्रयासरत हैं। पर योजनागत अमल में कई खामियों के कारण वहां स्थिति में सुधार अपेक्षित ढंग से नहीं हो रहा है
उष्ण कटिबंधीय जलवायु
ब्राजील की जलवायु में बड़े क्षेत्र और विभिन्न स्थलाकृति में मौसम की स्थिति की विस्तृत श्रृंखला शामिल है, हालांकि अधिकांश देश में उष्ण कटिबंधीय जलवायु है। कोपेन प्रणाली के अनुसार, ब्राजील छह प्रमुख जलवायु मौसम देखे जा सकता है- मरुस्थल, भूमध्य रेखीय, उष्णकटिबंधीय, अर्ध-शुष्क, महासागरीय और उपोष्णकटिबंधीय। विभिन्न जलवायु स्थितियां भिन्न-भिन्न पर्यावरण निर्माण करती हैं जिसमें उत्तर में भूमध्य रेखीय और पूर्वोत्तर में अर्ध-शुष्क मरूस्थली, से लेकर दक्षिण में समशीतोष्ण शंकुधारी जंगलों और मध्य ब्राजील में उष्णकटिबंधीय सवाना तक शामिल हैं। मध्य ब्राजील की वर्षा ज्यादातर मौसमी होती है, जो एक सवाना जलवायु की विशेषता है। यह क्षेत्र अमेजन बेसिन के रूप में फैला हुआ है लेकिन इसकी जलवायु बहुत अलग है क्योंकि यह एक उच्च ऊंचाई पर दक्षिण की ओर स्थित है। पूर्वोत्तर में, मौसमी वर्षा और भी चरम है। अर्ध-शुष्क जलवायु क्षेत्र में आमतौर पर बारिश से 800 मिलीमीटर (31.5 इंच) से कम होती है, जिनमें से अधिकतर आम तौर पर वर्ष के तीन से पांच महीने की अवधि में ही गिरते हैं और कभी-कभी इससे भी कम जिससे कभी-कभी सूखे की स्थिति भी बन जाती हैं।
विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र
ब्राजील के बड़े क्षेत्र में विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र शामिल हैं। इनमें सबसे अहम है अमेजन वर्षावन। यह दुनिया में सबसे बड़ी जैविक विविधता के लिए जाना जाता है। ब्राजील के समृद्ध वन्यजीवन प्राकृतिक आवासों की विविधता को दर्शाता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि ब्राजील में पौधे और पशु प्रजातियों की कुल संख्या चार मिलियन, जिनमें अधिकतर अकशेरुकी है।
सरकार
राष्ट्रपति प्रणाली के साथ सरकार का रूप लोकतांत्रिक संघीय गणराज्य का है। राष्ट्रपति राज्य और संघ दोनों का प्रमुख होता है। डेमोक्रेसी इंडेक्स 2010 के अनुसार ब्राजील एक लोकतांत्रिक देश है।
तक या उसके पांच साल बाद तक स्वच्छता के पूर्ण लक्ष्य तक पहुंचने की स्थिति में होगा। इस योजना की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें नगर निगमों को जिस तरह अपने क्षेत्र के आधार पर योजनागत पहल करनी चाहिए, उस शुरुआती दरकार पर भी अभी तक महज 30 फीसदी निगम प्रशासन ही खरा उतर पाए हैं।
अर्थव्यवस्था
2017 के एक आकलन के अनुसार ब्राजील लैटिन अमेरिका की सबसे बड़ी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था है, यह दुनिया की आठवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और क्रय-शक्ति समता (पीपीपी) में आठवां सबसे बड़ा अर्थव्यवस्था है। बिखरे हुए प्राकृतिक संसाधनों के साथ ब्राजील की मिश्रित अर्थव्यवस्था है। यह देश अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और वस्तुओं के बाजारों में अपनी उपस्थिति का विस्तार कर रहा है और ब्रिक्स नामक पांच उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समूह देशों में से एक है। ब्राजील पिछले 150 वर्षों से कॉफी का दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक रहा है। इसके अलावा यह देश संतरे, चीनी गन्ना, कसावा और सिसाल, सोयाबीन और पपीते के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। ब्राजील में दुनिया का चौथा सबसे बड़ा कार बाजार है। ऑटोमोबाइल, स्टील और पेट्रोकेमिकल्स, कंप्यूटर, विमान और उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं के उद्योग का सकल घरेलू उत्पाद में 30.8 फीसदी हिस्सा है। यहां का ट्रांसपोर्ट सिस्टम भी बहुत बड़ा है। सड़क और रेलमार्ग का यहां बहुतायत से उपयोग होता है। ब्राजील में 4,072 एयरपोर्ट हैं, जो विश्व में दूसरे क्रम पर हैं। ब्राजील में पर्यटन एक बढ़ता हुआ क्षेत्र है और देश के कई क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था का प्रमुख उद्योग है। 2015 में देश में 6.36 मिलियन आगंतुक आए थे, जो दक्षिण अमेरिका में मुख्य गंतव्य और मेक्सिको के बाद लैटिन अमेरिका में दूसरे अंतरराष्ट्रीय पर्यटक आगमन के रूप में श्रेणीगत थे। प्राकृतिक क्षेत्र इसके सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल हैं, अवकाश और मनोरंजन, मुख्य रूप से सूर्य और समुद्र तट, और रोमांचक यात्रा, साथ ही साथ सांस्कृतिक पर्यटन के साथ पारिस्थितिकता का संयोजन देखने को मिलता है। सबसे लोकप्रिय स्थलों में अमेजन वर्षावन, पूर्वोत्तर क्षेत्र के समुद्र तटों, मध्य-पश्चिमी क्षेत्र में पैंटानल, रियो डी जेनेरो और सांता कातारीना के समुद्र तट, मिनास जेरायज़ के सांस्कृतिक पर्यटन और साओ पाउलो शहर के व्यापार यात्राएं शामिल हैं।
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स्वच्छता
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पर्यावरण बचाने में जुटी ‘सफाई सेना’ जयप्रकाश ने दिल्ली और एनसीआर में कूड़े उठाने वालों का नेटवर्क तैयार कर उन्हें उनके हक के बारे में अवगत कराते हुए सफाई सेना नाम का संगठन खड़ा किया है
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एसएसबी ब्यूरो
धुनिक और द्रुत विकास की होड़ ने लोगों के साथ देश के जीवन में चाहे लाख उपलब्धियां जोड़ दी हों, पर इसने बेहिसाब कूड़े के रूप में जो संकट खड़ा किया है वह आज पर्यावरण के लिए बड़ी चुनौती बन गई है। अच्छी बात यह है कि बगैर किसी सरकारी प्रोत्साहन के स्वप्रेरणा से इस संकट से निपटने का संकल्प कुछ लोगों ने लिया है। ऐसा ही एक नाम है जयप्रकाश चौधरी। 1994 तक कचरे के ढेर से चीजें ढूंढने और उन्हें बेचकर गुजारा करने वाले जयप्रकाश चौधरी उर्फ संटू आज करीब 170 लोगों को रोजगार दे रहे हैं। कूड़े के ढेर से अपनी किस्मत चमकाने वाले जयप्रकाश महीने में 11 लाख रुपए कमा रहे हैं।
23 वर्ष कूड़े के बीच
41 साल के जयप्रकाश चौधरी ने अपनी जिंदगी
के 23 वर्ष कूड़े में ही िबता दिए। दिल्ली के कनॉट प्लेस में कुछ साल पहले तक दिनभर की मेहनत और कूड़े के बीच जद्दोजहद कर वह 150 रुपए तक ही कमा पाते थे, लेकिन उन्होंने कूड़े से पैसे कमाने के आइडिया पर काम किया और इसे सफलतापूर्वक दूसरे लोगों तक पहुंचाया। जयप्रकाश ने कूड़े के निस्तारण से लेकर रिसाइक्लिंग की अहमियत को जाना और अपने जैसे लोगों को साथ लाकर अपने काम को नई पहचान दी। भारतीय शहरों में कूड़े के पहाड़ आम बात हैं। कूड़े और उससे होने वाले प्रदूषण के बारे में कुछ ही लोग चिंतित दिखते हैं।
सफाई सेना का गठन
जयप्रकाश ने दिल्ली और एनसीआर में कूड़े उठाने वालों का नेटवर्क तैयार कर उन्हें उनके हक के बारे में अवगत कराते हुए ‘सफाई सेना’ नाम का संगठन खड़ा किया। 1999 में जयप्रकाश चौधरी ने दिल्ली के कनॉट प्लेस से कूड़े उठाने और रिसाइक्लिंग लायक चीजों को बेचने का काम शुरू किया। जयप्रकाश ने शीशे की बोतल, कागज, गत्ते
1994 तक कचरे के ढेर से चीजें ढूंढने और उन्हें बेचकर गुजारा करने वाले जयप्रकाश चौधरी उर्फ संटू आज करीब 170 लोगों को रोजगार दे रहे हैं। कूड़े के ढेर से अपनी किस्मत चमकाने वाले जयप्रकाश महीने में 11 लाख रुपए कमा रहे हैं
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पर्यावरण को बचाने में जुटे कूड़ा बीनने वाले
खास बातें कभी कूड़ा बीनकर 150 रुपए रोजाना कमाते थे जयप्रकाश कूड़ा बीनने से पर्यावरण की सुरक्षा के साथ रोजगार का भी अवसर
सिर्फ हमारी दिल्ली में लगभग 40 हजार कूड़ा बीनने वाले हैं, जो प्रतिदिन पैदा होने वाले कूड़े का लगभग 20-25 फीसदी हिस्सा लैंडफिल में जाने से रोकते हैं
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र्यावरण के प्रति सफाई सेना के योगदान के बारे में गैर सरकारी संगठन चिंतन की चित्रा मुखर्जी बताती हैं, ‘सिर्फ हमारी दिल्ली में लगभग 40 हजार कूड़ा बीनने वाले हैं, जो प्रतिदिन पैदा होने वाले कूड़े का लगभग 20-25 फीसदी हिस्सा लैंडफिल में जाने से रोकते हैं और उसका रिसाइक्लिंग करते हैं, जिसमें कि सफाई सेना के ही 12,000 से ज्यादा सदस्य हैं। ये सदस्य रिसाइक्लिंग होने वाले कूड़े का लगभग 30-35 फीसदी हिस्से का निपटारा करते हैं जो कि कूड़े का एक बड़ा भाग है।’ केवल दिल्ली में ही हर दिन करीब 10,000 टन कचरा होता है। सफाई के प्रति जागरूकता के अभाव में शहर कूड़ेदान बनते जा रहे हैं। आपको जानकार हैरानी होगी कि दिल्ली के सबसे बड़े डंपिंग ग्राउंड भलस्वा की क्षमता 2006 में ही खत्म हो गई थी। यहीं नहीं दिल्ली के सबसे पुराने डंपिंग ग्राउंड गाजीपुर की क्षमता 2002 में ही खत्म हो चुकी है। चित्रा का कहना
है कि कूड़ा बीनने वालों के हक और पर्यावरण को बचाने के लिए चिंतन और सफाई सेना लड़ती रहेगी, साथ ही चित्रा सरकार से मांग करती हैं, ‘सरकार ठोस कचरा प्रबंधन नियम 2016 को जमीनी स्तर पर लागू करे, कबाड़ियों की पहचान कर उनको आई कार्ड दे, कबाड़ी के काम में लगे लोगों को स्वास्थ्य बीमा मिले, इस काम में लगे लोगों को पेंशन मुहैया कराए, कूड़े के काम में लगे लोगों के बच्चों को स्कॉलरशिप दे। तब जाकर उन लोगों को समाज में सही पहचान मिल पाएगी।’ पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक, भारत में हर साल 620 लाख टन कूड़ा पैदा होता है। इसमें ई-वेस्ट और हैजर्डस वेस्ट शामिल नहीं है। 620 लाख टन कचरे में 56 लाख टन प्लास्टिक और 2 लाख टन बायोमेडिकल कचरा है। भारत में प्रतिदिन हर व्यक्ति 400 ग्राम कचरा पैदा करता है। आपको जानकार हैरानी होगी कि 620 लाख टन कूड़े में से 70 फीसदी कूड़ा ही
आज दिल्ली-एनसीआर में सफाई सेना के 12 हजार सदस्य हैं। 2009 से शुरू हुआ सफाई सेना अब एक अभियान बन गया है। हम पर्यावरण के बारे में तो सोचते हैं, साथ ही कूड़ा उठाने वालों के हितों की रक्षा भी करते हैं –जयप्रकाश चौधरी और प्लास्टिक के स्क्रैप को जमा कर उसे बेचकर पैसे कमाने तरीका जाना, जयप्रकाश बताते हैं कि शुरुआत में उन्होंने 10-12 लोगों को साथ लेकर कूड़ा इकट्ठा कर उससे रिसाइक्लिंग लायक चीजों
को अलगकर बेचना शुरू किया। जयप्रकाश चौधरी के मुताबिक, ‘शुरू में चिंतन नाम के एनजीओ ने हमारी बहुत मदद की और सफाई सेना के गठन में सहयोग दिया। चिंतन ने हमें ट्रेनिंग दी, कूड़ा उठाने
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इकट्ठा किया जाता है। यानी 190 लाख टन कूड़ा ऐसे ही इधर-उधर पड़ा रह जाता है। यही कूड़ा जमीन, पानी और वायु को प्रदूषित करता है। 620 लाख टन कूड़े में से सिर्फ 30 फीसदी कूड़ा ही ट्रीट हो पाता है, जैसे खाद या फिर उससे बिजली बनाई जाती है। बाकी का कचरा डंपिंग ग्राउंड या फिर लैंडफिल के लिए भेज दिया जाता है, जो समय के साथ बड़े पहाड़ का रूप ले लेते हैं और बदबू के साथ-साथ हर तरह का प्रदूषण फैलाते हैं। असहनीय दुर्गंध के बीच आसपास के लोगों को इन कूड़े के पहाड़ों के पास से गुजरना पड़ता है। भारत में वेस्ट मैनेजमेंट नियमों के मुताबिक बायो-डिग्रेडेबल, रिसाइकिल और खतरनाक कचरा अलग-अलग जमा होना चाहिए। इन सब खतरों के बीच कूड़े से लड़ते और जूझते जयप्रकाश चौधरी जैसे न जाने कितने हजार कूड़ा बीनने वाले लोग रोज पर्यावरण और समाज को गुमनामी के साथ स्वच्छ बना रहे होंगे।
पूरे एनसीआर में सक्रिय है जयप्रकाश द्वारा गठित सफाई सेना
से गीला, सूखा और रद्दी उठाकर उसे रिसाइक्लिंग लायक बनाते हैं।
कूड़े को लेकर जागरूकता
वालों के क्या-क्या अधिकार होते हैं, इस बारे में भी हमें जानने को मिला, कचरे के ढेर से पर्यावरण को कैसे बचाना है, यह भी हमें बताया गया। खतरनाक रसायनों और जहरीले गैस से कैसे बचना है, हमें इसकी ट्रेनिंग दी गई। आज दिल्ली-एनसीआर में सफाई सेना के 12 हजार सदस्य हैं। 2009 से शुरू हुआ सफाई सेना अब एक अभियान बन गया है। हम पर्यावरण के बारे में तो सोचते हैं, साथ ही कूड़ा उठाने वालों के हितों की रक्षा भी करते हैं।’
जयप्रकाश चौधरी कहते हैं, ‘सब लोग कूड़ा फैलाना तो जानते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि उस कूड़े का क्या होगा, उसे कौन हटाएगा और यह पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक है। आज हम जो कूड़ा उठा रहे हैं उससे 20 फीसदी ग्रीन हाउस गैस कम करने में मदद करते हैं। साथ ही साथ हम सरकार के कई करोड़ रुपए बचा रहे हैं। अगर यह काम हम नहीं करेंगे तो सरकार को इस कूड़े को उठाने के लिए लोगों को लगाना होगा और उसके बदले में उन्हें पैसे देने होंगे, लेकिन हम तो सरकार के बोझ को ही कम कर रहे हैं।’ जयप्रकाश चौधरी शिकायती लहजे में कहते हैं, ‘हमने अपनी मांगों को लेकर कई बार सरकार से बात करने की कोशिश की, लेकिन हमारी बात नहीं सुनी गई, दूसरी ओर सरकार बड़ी-बड़ी कंपनियों को कूड़ा उठाने के लिए प्रति किलो के हिसाब से पैसे देती है, तकनीक और मशीन मुहैया कराती है लेकिन सरकार हमें आज तक जगह नहीं दे पाई है। सरकार ने तो हमारे बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा की व्यवस्था तक नहीं की। अगर आज हमारे साथ चिंतन नहीं होता तो शायद हमारे बच्चे स्कूल नहीं जा रहे होते।’
पूरे एनसीआर में प्रसार
सरकारी मदद से बनेगी बात
सफाई सेना ने सरकार से दो साल तक संघर्ष करने के बाद खुद को 2009 में पंजीकृत कराया। सफाई सेना अभी दिल्ली, उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद और हरियाणा के कुछ हिस्सों में काम कर रही है। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन परिसर में रेलवे ने सफाई सेना को कचरा पृथक्करण केंद्र चलाने की अनुमति दी। रेलवे स्टेशन पर लगे कचरे के डिब्बे से सफाई सेना के कर्मचारी सूखा और गीला कूड़ा उठाकर अलगअलग करते हैं। सूखे कूड़े से रिसाइक्लिंग का माल निकाला जाता है और वह रिसाइक्लिंग करने वालों को बेच दिया जाता है तो दूसरी तरफ गीले कूड़े का इस्तेमाल खाद बनाने के लिए किया जाता है। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के अलावा सफाई सेना का एक केंद्र गाजियाबाद के साहिबाबाद में भी चल रहा है। सफाई सेना के जवान घर, दफ्तर, होटल और मॉल
जयप्रकाश कहते हैं कि स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनाने में उनके जैसे लोग अहम कड़ी हैं और कूड़ा उठाने वाले और उसे अलग-अलग कर रिसाइक्लिंग करने वालों को सरकार पहचान दे और साथ ही साथ कूड़ा छंटाई केंद्र के लिए जमीन और तकनीक मुहैया कराए। कूड़ा प्रबंधन और रिसाइक्लिंग पर ब्राजील, लक्जमबर्ग और कोपनहेगन में लेक्चर दे चुके जयप्रकाश कूड़ा उठाने वाले लोगों की तुलना सीमा पर तैनात जवानों से करते हैं और कहते हैं कि कूड़ा भी एक खतरनाक दुश्मन की तरह है जो जल, जमीन और वायु पर हमले करता है। अगर कूड़ा उठाने वाले लोग जान जोखिम में डालकर साफ-सफाई न करें तो शहरों का हाल बुरा हो जाएगा, लोग बीमार पड़ेंगे और पर्यावरण तेजी से दूषित होगा।
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जल संरक्षण
12 - 18 नवंबर 2018
जल से मिला जीवन
उत्तराखंड के कई गांव के लोग पानी के लिए मीलों की दूरी तय करते थे, लेकिन अब यह कल की बात है। आज जलागम योजना की वजह से न सिर्फ गांवों तक पानी की पहुंच बनी, बल्कि गांव वालों को राेजगार के अवसर भी मिले एसएसबी ब्यूरो
ज्य बनने के कुछ समय बाद विश्व बैंक के सहयोग से उत्तराखंड के आठ जिलों में ‘जलागम परियोजना’ की शुरुआत की गई थी। वर्तमान में इस योजना का दूसरा चरण आरंभ हो चुका है। अक्टूबर माह के आरंभ में विश्व बैंक की एक टीम देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार में इस योजना की समीक्षा के लिए आई थी। वहां के लोगों ने टीम के लोगों का जोरदार स्वागत किया। योजना की सफलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसने हजारों मायूस चेहरों पर फिर से मुस्कान लौटा दी है। जलागम परियोजना का ही कमाल है कि जिन गांवों में कभी लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए मीलों दौड़ लगाते थे, अब पानी की पहुंच उनके गांव तक हो चुकी है। झुटाया ग्राम पंचायत के प्रधान बिशन सिंह चौहान ने बताया कि जलागम योजना के फलस्वरूप उनके गांव की तस्वीर ही बदल गई। उन्होंने कहा, ‘गांव में पेयजल की सुविधा तो बहाल हुई ही, छोटे व मझोले किसान नगदी फसलों के उत्पादन से भी जुड़ गए जिससे स्वरोजगार को बढ़ावा मिला।’ कालसी विकासखंड में परियोजना क्षेत्र के 75 राजस्व ग्रामों में से 46 राजस्व ग्रामों में पानी पहुंच चुका है, लोग आसानी से अब सिंचाई की सुविधा पा रहे हैं। इसी का प्रतिफल है कि कृषि एवं सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में वहां जबरदस्त वृद्धि हुई है। टीम के सदस्यों को ग्रामीणों ने बताया कि आने वाले वर्ष में भी 24 राजस्व ग्रामों में पानी पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया है। वहीं योजना के अंतर्गत 187 जलस्रोतों के उपचार पर कार्य भी किया जा रहा है। अलग-अलग ग्रामों में 56 प्राकृतिक जलस्रोतों के उपचार का कार्य काफी तेजी से हो रहा है। लोग खुश हैं कि उनके गांव के जलस्रोत में पानी लौट आया है। कालसी विकासखंड के 46 गांवों में वानिकी और उद्यानीकरण के कार्य में विशेषकर निर्बल वर्ग
खास बातें
जलागम परियोजना से उत्तराखंड के गांवों की बदल रही तस्वीर विश्व बैंक मिशन टीम द्वारा किया गया जलागम कार्यों का निरीक्षण कालसी विकासखंड के 5000 लोग जुड़े हैं जलागम परियोजना से
के लोगों की सहभागिता को सुनिश्चित किया जा रहा है। विश्व बैंक द्वारा पोषित जलागम योजना से सीधे 5000 लोग लाभान्वित हुए हैं। यह तब संभव हो पाया जब लाभार्थी समूह के साथ सीधे ग्राम पंचायत की भागीदारी को बढ़ावा दिया गया। यहां ग्राम पंचायत की सिफारिश के बिना कोई भी कार्य नहीं किया जाता है। उल्लेखनीय है कि विश्व बैंक द्वारा वित्त पोषित, उत्तराखंड विकेंद्रीकृत जलागम विकास परियोजना (ग्राम्या-2) को वर्ष 2014 में आरंभ किया गया था। इस जलागम योजना की खास बात यह है कि विश्व बैंक की टीम प्रत्येक छह माह के अंतराल में परियोजना क्षेत्रों के अर्न्तगत कराए गए कार्यों का निरीक्षण करती है। टीम के सदस्य रंजन सामन्त्रय, फोके फेनेमा, सुधरेन्द्र शर्मा, सोनाली ए डेविड, लीना मल्होत्रा, एबेल लुफाफा ने बताया कि वे गांव-गांव जाकर ग्रामीणों का सुझाव एकत्रित करते हैं और उनके आधार पर ग्राम पंचायत के साथ बैठकर योजना के क्रियान्वयन की रणनीति बनाते हैं। ये बातें उन्होंने देहरादून प्रभाग के विकासनगर ग्राम्या-2 के अंतर्गत कालसी विकास खंड के ग्राम पंचायत झुटाया के राजस्व ग्राम निछिया तथा ग्राम पंचायत चापनू में कराए गए कार्यों के निरीक्षण दौरान बताया। उत्तराखंड विकेंद्रीकृत जलागम विकास परियोजना (ग्राम्या-2) से जुड़े अधिकारी भी जलागम परियोजना की सफलता की कहानी बयां करते हैं। अपर परियोजना निदेशक सह परियोजना निदेशक, ग्राम्या-2, नीना ग्रेवाल, कुमाऊं एवं गढ़वाल मंडलों के परियोजना-निदेशक पीके सिंह, संयुक्त निदेशक डॉ. आर.पी. कवि, सहित अन्य अधिकारियों का
कालसी विकासखंड के 46 गांवों में वानिकी और उद्यानीकरण के कार्य में विशेषकर निर्बल वर्ग के लोगों की सहभागिता को सुनिश्चित किया जा रहा है। विश्व बैंक द्वारा पोषित जलागम योजना से सीधे 5000 लोग लाभान्वित हुए हैं कहना है कि गांवों के विकास में इस परियोजना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे कहते हैं कि जब गांवों में पेयजल की सुविधा हो, सिंचाई के साधन हों और समय-समय पर ग्रामीण किसान सरकारी विकास की योजनाओं से लाभान्वित हो रहे हों तो गांव में खुशहाली स्वतः ही दिखाई देने लगती है। जलागम परियोजना की बदौलत ही राज्य के आठ जिलों के किसानों में स्वरोजगार के प्रति आकर्षण पैदा हुआ है। योजना का पहला कार्य गांव में सिंचाई व पेयजल की सुविधा को जुटाना होता है। इसके लिए गांव के ही प्राकृतिक जलस्रोतों का सुधारीकरण किया जाता है। इसके साथ ही गांवों में जल का आगमन होता है तो लोग कृषि और विकास कार्यों से स्वतः ही जुड़ जाते हैं। इसका सफल उदाहरण है कालसी विकासखंड के ग्राम पंचायत चापनू में विकसित हुआ 1.25 हेक्टेयर का अनार उद्यान एवं 5 हेक्टेयर क्षेत्रफल में झुटाया ग्राम पंचायत के निछिया गांव में वनीकरण का कार्य। इसके अलावा 46 ग्राम पंचायतों में सामूहिक सिंचाई टैंक, सम्पर्क मार्ग-सुदृढ़ीकरण, पॉली हाउस, वाटर हार्वेस्टिंग टैंक, पशु आवास तथा कृषि सब्जी हेतु बाजार उपलब्ध करवाने के लिए सामूहिक संग्रहण केंद्र जैसे कार्य भी किए गए हैं। विश्व बैंक मिशन टीम जैसे चापनू और झुटाया गांव में पहुंची ग्रामीणों ने जौनसारी रीति-रिवाज से
उनका आतिथ्य सत्कार किया। ग्रामीणों के अनुसार अतिथि ईश्वर तुल्य होते हैं। गांव के चौपाल पर एकत्रित ग्रामीणों ने जलागम एवं पर्यावरण से सम्बन्धित सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किये। झुटाया ग्राम पंचायत के प्रधान बिशन सिंह चौहान ने अतिथियों का अभिनंदन किया। देहरादून प्रभाग के उप परियोजना निदेशक पीएन शुक्ला ने स्वागत करते हुए कहा कि ग्राम्या-2 परियोजना का मुख्य उद्देश्य जल, जंगल एवं जमीन का विकास करना है। उन्होंने यह भी बताया कि कोई भी विकास पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए। जून 2013 में केदारनाथ में हुई भयावह त्रासदी तथा केरल में आये विनाशकारी बाढ़ का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि यदि हम अब भी नहीं चेते तो इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृति हो सकती है। योजना की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि परियोजना क्षेत्र के अंतर्गत 187 जलस्रोतों का ट्रीटमेंट प्लान बना लिया गया है और 56 जलस्रोतों के ट्रीटमेंट का कार्य प्रारंभ भी कर दिया गया है। पीएन शुक्ला ने कहा, ’शीघ्र ही अन्य जलस्रोतों के ट्रीटमेंट का भी कार्य शुरू कर दिया जाएगा जिससे परियोजना क्षेत्र के जलस्रोतों में पानी की वृद्धि होगी।’ उन्होंने बताया कि उक्त समस्त कार्यों में पारदर्शिता का ध्यान रखते हुए ग्राम पंचायतों के माध्यम से ही कार्य कराया जाता है।
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गुड न्यूज
छात्रों ने मानव मूत्र से बनाई ईंट
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केप टाउन विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए ईंट बनाने में मानव मूत्र का इस्तेमाल किया
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क्षिण अफ्रीका के केप टाउन विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए एक नया प्रयोग किया है, इन छात्रों ने ईंट बनाने के लिए मानव मूत्र का इस्तेमाल किया है। इन छात्रों ने मूत्र के साथ रेत और बैक्टीरिया को मिलाया जिससे वे सामान्य तापमान में भी मजबूत ईंट बना सकें। केप टाउन विश्वविद्यालय में इन छात्रों के निरीक्षक डायलन रैंडल ने बताया कि ईंट बनाने की यह प्रक्रिया ठीक वैसी ही है जैसे समुद्र में कोरल (मूंगा) बनता है। सामान्य ईंटों को भट्ठियों में उच्च तापमान में पकाया जाता है, जिसकी वजह से काफी मात्रा में कार्बन-डाईऑक्साइड बनती है और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है। ईंट बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले केप टाउन विश्वविद्यालय (यूसीटी) के इंजीनियरिंग के छात्रों ने पुरुष शौचायल से मूत्र इकट्ठा किया। औसतन एक व्यक्ति एक बार में 200 से 300 मिलीलीटर मूत्र उत्सर्जित करता है। एक बायोब्रिक बनाने के लिए 25-30 लीटर मूत्र की जरूरत
होती है। यह मात्रा थोड़ी अधिक लग सकती है, लेकिन एक किलो खाद बनाने के लिए भी लगभग इतने ही मूत्र का आवश्यकता पड़ती है। मूत्र से ईंट बनाने की इस प्रक्रिया को माइक्रोबायल कार्बोनेट प्रीसिपिटेशन कहा जाता है। इस प्रक्रिया में शामिल बैक्टीरिया एक एंजाइम पैदा करता है जो मूत्र में से यूरिया को अलग करता है। ये कैल्शियम कार्बोनेट बनाता है, जो रेत को ठोस सिलेटी ईंटों का रूप देता है। बायोब्रिक्स (जैव-ईंटों) के आकार और क्षमता को आवश्यकतानुसार बदला जा सकता है। डॉक्टर रैंडल ने बताया कि जब पिछले वर्ष हमने इस प्रक्रिया को शुरू किया तो जो ईंट हमने बनाई वह आम चूना पत्थर से बनने वाली ईंट के लगभग 40 प्रतिशत तक मजबूत थी। कुछ महीनों बाद हमने इस क्षमता को दोगुना कर दिया और कमरे में जीरो तापमान के साथ उसमें बैक्टीरिया को शामिल किया ताकि सीमेंट के कण लंबे समय तक रहें। केप टाउन विश्वविद्यालय के अनुसार, सामान्य ईंट को 1400 डिग्री सेल्सियस
के आसपास भट्ठी में रखा जाता है। लेकिन डॉक्टर रैंडल मानते हैं कि इसकी प्रक्रिया बहुत ही बदबूदार होती है। वह कहते हैं कि ये वैसा ही है जैसे आपका पालतू जानवर एक कोने में पेशाब कर रहा है और उसकी गंदी बदबू फैली हो, उसमें से अमोनिया निकल रहा हो। ये प्रक्रिया अमोनिया का गौण उपज पैदा करती है और इसे नाइट्रोजन खाद में बदल दिया जाता है। लेकिन 48 घंटों के बाद ईंटों से अमोनिया की गंध पूरी तरह खत्म हो जाती है और इनसे स्वास्थ्य को कोई नुकसान भी नहीं
पहुंचता। प्रक्रिया के पहले चरण में ही खतरनाक बैक्टीरिया को बेहद उच्च पीएच के जरिए खत्म कर दिया जाता है। यूरिया के जरिए ईंट बनाने का काम कुछ साल पहले अमेिरका में भी शुरू हुआ था। उस समय सिंथेटिक यूरिया का इस्तेमाल किया गया था। लेकिन डॉक्टर रैंडल और उनके छात्र सुजैन लैम्बर्ट और वुखेता मखरी ने पहली बार इंसान के असली पेशाब का इस्तेमाल ईंट बनाने के लिए किया है। इससे मानव मल के दोबारा प्रयोग की संभावनाएं बढ़ जाती है। (एजेंसी)
96 वर्षीय महिला को 100 में 98 अंक कार्ति ने साक्षरता मिशन की परीक्षा में 100 में से 98 नंबर हासिल किए हैं
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कार्ति ने अंग्रेजी सीखने का मन बना लिया है। वह कहती हैं, ‘मेरे परपोते अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ते हैं, इसलिए मैं भी अंग्रेजी सीखना चाहती हूं’
एसएसबी ब्यूरो
रल की 96 वर्षीय कार्तियनियम्मा कृष्णपिल्ला ने चौथी कक्षा की परीक्षा 98 प्रतिशत अंकों के साथ पास करके यह साबित कर दिया है कि सीखने की कोई उम्रसीमा नहीं होती। कार्ति ने केरल के अक्षरलक्षम प्रोजेक्ट के तहत आयोजित होने वाली परीक्षा में 100 में से 98 नंबर हासिल किए हैं। यह एक ऐसा प्रोजेक्ट है जिसे राज्य में 100 फीसदी साक्षरता दर हासिल करने के लिए चलाया जा रहा है। कार्ति ने बताया कि उन्होंने अपने परपोतियों की मदद से यह कारनामा कर
दिखाया। कार्ति ने बताया कि उनकी परपोतियां अपर्णा (12) और अंजना (9) ने उनकी खूब मदद की और लिखने, पढ़ने और जोड़ने के बारे में बताया। कार्ति का कहना है कि वह सिर्फ इतने से रुकने वाली नहीं हैं। अब उन्होंने अंग्रेजी सीखने का मन बना लिया है। वह कहती हैं, ‘मेरे परपोते अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ते हैं, इसलिए मैं भी अंग्रेजी सीखना चाहती हूं।’ कार्ति ने बताया कि उनकी सबसे छोटी बेटी अम्मीनि अम्मा जो कि 51 साल की है, उनके लिए प्रेरणा की स्रोत बनी। अम्मी की पढ़ाई भी छूट गई थी और उन्होंने हाल ही में दसवीं की परीक्षा दी। बातचीत के क्रम में कार्ति ने कहा,
‘हमारे दिनों महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा जाता था और वे स्कूल नहीं जाती थीं। अभी कुछ साल पहले मेरी छोटी बेटी ने फिर से दसवीं की परीक्षा देने का फैसला किया था। उससे मैं खुश हुई और मैंने भी पढ़ाई करने का फैसला ले लिया।’ कार्ति की निरीक्षक के. सती ने उनकी जमकर तारीफ की। उन्होंने कहा कि इस उम्र में भी कार्ति की याददाश्त काफी तेज है और वह कुछ भी नहीं भूलतीं। कार्ति के हौसले की तारीफ करते हुए केंद्रीय पर्यटन मंत्री के अल्फॉन्स ने कहा, ‘कार्ति हमारे समाज में शिक्षा की मशाल थामने वाले महिला हैं। उनसे न जाने कितने लोग प्रभावित होंगे। मैं उनके इस कारनामे की प्रशंसा करता हूं।’
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पुस्तक अंश
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अजीब लेखक से भेंट और पेरिस की सैर
16 विलायत में गांधीजी का शुरुआती जीवन जितना असहज रहा, बाद के उनके जीवन में उतने ही रोचक प्रसंग जुड़ते गए। इन अनुभवों के साथ परदेस में गांधीजी की समझ और विवेक लगातार परिपक्व होता जा रहा था
प्रथम भाग
22. नारायण हेमचंद्र
‘स्टोर स्ट्रीट में’ ‘तब तो हम पड़ोसी हैं। मुझे अंग्रेजी सीखनी है। आप मुझे सिखाएंगे?’ मैंने उत्तर दिया, ‘अगर मैं आपकी कुछ मदद कर सकूं, तो मुझे खुशी होगी। मैं अपनी शक्ति भर प्रयत्न अवश्य करूंगा। आप कहें तो आपके स्थान पर आ जाया करूं।’ ‘नहीं, नहीं, मैं ही आपके घर आऊंगा। मेरे पास पाठमाला है। उसे भी लेता आऊंगा।’ हमने समय निश्चित किया। हमारे बीच मजबूत स्नेह-गांठ बंध गई। नारायण हेमचंद्र को व्याकरण बिलकुल नहीं आता था। वे ‘घोड़ा’ को क्रियापद बना देते और ‘दौड़ना’ को संज्ञा। ऐसे मनोरंजक उदाहरण तो मुझे कई याद हैं। पर नारायण हेमचंद्र तो मुझे घोंटकर पी जानेवालों में थे। व्याकरण के मेरे साधारण ज्ञान से मुग्ध होनेवाले नहीं थे। व्याकरण न जानने की उन्हें कोई शर्म ही नहीं थी। ‘तुम्हारी तरह मैं किसी स्कूल में नहीं पढ़ा हूं। अपने विचार प्रकट करने के लिए मुझे व्याकरण की आवश्यकता मालूम नहीं होती। बोलो, तुम बंगला जानते हो? मैं बंगाल में घूमा हूं। महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर की पुस्तकों के अनुवाद गुजराती जनता को मैंने दिए हैं। मैं गुजराती जनता को कई भाषाओं के अनुवाद देना चाहता हूं। अनुवाद करते समय मैं शब्दार्थ से नहीं चिपकता, भावार्थ देकर संतोष मान लेता हूं। मेरे बाद दूसरे भले ही अधिक देते रहें। मैं बिना व्याकरण के भी मराठी जानता हूं, हिंदी जानता हूं और अब अंग्रेजी भी जानने लगा हूं। मुझे तो शब्द भंडार चाहिए। तुम यह न समझो कि अकेली अंग्रेजी से मुझे संतोष हो जाएगा। मुझे फ्रांस जाना है और फ्रेंच भी सीख लेनी है। मैं जानता हूं कि फ्रेंच साहित्य विशाल है। संभव हुआ तो मैं जर्मनी भी जाऊंगा और जर्मन सीख लूंगा।’ नारायण हेमचंद्र की वाग्धारा इस प्रकार चलती ही रही। भाषाएं सीखने और यात्रा करने की उनके लोभ की कोई सीमा न थी। ‘तब आप अमेरिका तो जरूर ही जाएंगे?’ ‘जरूर। उस नई दुनिया को देखे बिना मैं वापस कैसे लौट सकता हूं।’ ‘पर आपके पास इतने पैसे कहां हैं?’ ‘मुझे पैसों से क्या मतलब? मुझे कौन तुम्हारी तरह टीमटाम से रहना है? मेरा खाना कितना है और पहनना कितना है? पुस्तकों से मुझे जो थोड़ा मिलता है और मित्र जो थोड़ा देते हैं, वह सब काफी हो जाता है। मैं तो सब कहीं तीसरे दर्जें में ही जाता हूं। अमेिरका डेक में जाऊंगा।’ नारायण हेमचंद्र की सादगी तो उनकी अपनी ही चीज थी। उनकी निखालिसता भी वैसी ही थी। अभिमान उन्हें छू तक नहीं गया था। लेकिन लेखक के रूप में अपनी शक्ति पर उन्हें आवश्यकता से अधिक विश्वास था। हम रोज मिला करते थे। हममें विचार और आचार की पर्याप्त समानता थी।
इन्हीं दिनों स्व. नारायण हेमचंद्र विलायत आए थे। लेखक के रूप में मैंने उनका नाम सुन रखा था। मैं उनसे नेशनल इंडियन एसोसिएशन की मिस मैनिंग के घर मिला। मिस मैनिंग जानती थीं कि मैं सबके साथ हिल-मिल नहीं पाता। जब मैं उनके घर जाता, तो मुंह बंद करके बैठा रहता। कोई बुलवाता तभी बोलता। उन्होंने नारायण हेमचंद्र से मेरी पहचान कराई। नारायण हेमचंद्र अंग्रेजी नहीं जानते थे। उनकी पोशाक अजीब थी। बेडौल पतलून पहले हुए थे। ऊपर सिकुड़नों वाला, गले पर मैला, बादामी रंग का कोट था। नेकटाई या कॉलर नहीं थे। कोट पारसी तर्ज का, पर बेढंगा था। सिर पर ऊन की गुंथी हुई झल्लेदार टोपी थी। उन्होंने लंबी दाढ़ी बढ़ा रखी थी। कद इकहरा और ठिगना कहा जा सकता था। मुंह पर चेचक के दाग थे। चेहरा गोल। नाक न नुकीली, न चपटी। दाढ़ी पर उनका हाथ फिरता रहता। सारे सजे-धजे लोगों के बीच नारायण हेमचंद्र विचित्र लगते थे और सबसे अलग नारायण हेमचंद्र को व्याकरण बिलकुल नहीं आता था। वे ‘घोड़ा’ को क्रियापद पड़ जाते थे। बना देते और ‘दौड़ना’ को संज्ञा। ऐसे मनोरंजक उदाहरण तो मुझे कई याद हैं। ‘मैंने आपका नाम बहुत सुना है। कुछ लेख भी पढ़े पर नारायण हेमचंद्र तो मुझे घोंटकर पी जानेवालों में थे। व्याकरण के हैं। क्या आप मेरे घर पधारेंगे?’ मेरे साधारण ज्ञान से मुग्ध होनेवाले नहीं थे। व्याकरण न जानने की उन्हें नारायण हेमचंद्र की आवाज कुछ मोटी थी। उन्होंने मुस्कराते हुए जवाब दिया, ‘आप कहां रहते हैं?’ कोई शर्म ही नहीं थी
12 - 18 नवंबर 2018
दोनों अन्नाहारी थे। दोपहर का भोजन अक्सर साथ ही करते थे। यह मेरा वह समय था, जब मैं हफ्ते के 17 शिलिंग में अपना निर्वाह करता था और हाथ से भोजन बनाता था। कभी मैं उनके मुकाम पर जाता, तो किसी दिन वे मेरे घर आते थे। मैं अंग्रेजी ढंग की रसोई बनाता था। उन्हें देशी ढंग के बिना संतोष ही न होता। दाल तो होनी ही चाहिए। मैं गाजर वगैरह का झोल (सूप) बनाता तो इसके लिए वे मुझ पर तरस खाते। वे कहीं से मूंग खोजकर ले आए थे। एक दिन मेरे लिए मूंग पकाकर लाए और मैंने उन्हें बड़े चाव से खाया। फिर तो लेन-देन का हमारा यह व्यवहार बढ़ा। मैं अपने बनाए पदार्थ उन्हें चखाता और वे अपनी चीजें मुझे चखाते। उन दिनों कार्डिनल मैनिंग का नाम सबकी जुबान पर था। डक के मजदूरों की हड़ताल थी। जॉन बर्न्स और कार्डिनल मैनिंग के प्रयत्न से हड़ताल जल्दी ही खुल गई। कार्डिनल मैनिंग की सादगी के बारे में डिजरायेली ने जो लिखा था, सो मैंने नारायण हेमचंद्र को सुनाया। ‘तब तो मुझे इन साधु पुरुष से मिलना चाहिए।’ ‘वे बहुत बड़े आदमी हैं। आप कैसे मिलेंगे?’ ‘जैसे मैं बतलाता हूं। तुम मेरे नाम से उन्हें पत्र लिखो। परिचय दो कि मैं लेखक हूं और उनके परोपकार के कार्य का अभिनंदन करने के लिए स्वयं उनसे मिलना चाहता हूं। यह भी लिखो कि मुझे अंग्रेजी बोलना नहीं आता, इसीलिए मुझे तुम को दुभाषिए के रूप में ले जाना होगा।’ मैंने इस तरह का पत्र लिखा। दो-तीन दिन बाद कार्डिनल मैनिंग का जवाब एक कार्ड में आया। उन्होंने मिलने का समय दिया था। हम दोनों गए। मैंने प्रथा के अनुसार मुलाकाती पोशाक पहन ली थी। पर नारायण हेमचंद्र तो जैसे रहते थे वैसे ही रहे। वही कोट और वही पतलून। मैंने मजाक किया। मेरी बात को उन्होंने हस ं कर उड़ा दिया और बोले, ‘तुम सभ्य लोग सब डरपोक हो। महापुरुष किसी की पोशाक नहीं देखते। वे तो उसका दिल परखते हैं।’ हमने कार्डिनल के महल में प्रवेश किया। घर महल ही था। हमारे बैठते ही एक बहुत दुबलेपतले, बूढे़, ऊंचे पुरुष ने प्रवेश किया। हम दोनों के साथ हाथ मिलाया। नारायण हेमचंद्र का स्वागत किया। ‘मैं आपका समय नहीं लूंगा। मैंने आपके बारे में सुना था। हड़ताल में आपने जो काम किया, उसके लिए आपका उपकार मानना चाहता हूं। संसार के साधु पुरुषों के दर्शन करना मेरा नियम है, इस कारण मैंने आपको इतना कष्ट दिया।’ नारायण हेमचंद्र ने मुझसे कहा कि मैं इन वाक्यों का उलटा कर दूं।
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पुस्तक अंश
पेरिस का फैशन, पेरिस के स्वेच्छाचार और उसके भोगविलास के विषय में मैंने काफी पढ़ा था। उसके प्रमाण गली-गली में देखने को मिलते थे। पर ये गिरजाघर उन भोग विलासों से बिल्कुल अलग दिखाई पड़ते थे। गिरजों में घुसते ही बाहर की अशांति भूल जाती है। लोगों का व्यवहार बदल जाता है निश्चय पूरा किया। बड़ी मुश्किल से डेक का या तीसरे दर्जे का टिकट पा सके थे। अमेरिका में धोती-कुर्ता पहनकर निकलने के कारण ‘असभ्य पोशाक पहनने’ के अपराध में वे पकड़ लिए गए थे। मुझे याद पड़ता है कि बाद में वे छूट गए थे।
23. महाप्रदर्शनी
‘आपके आने से मुझे खुशी हुई है। आशा है, यहां आप सुखपूर्वक रहेंगे और यहां के लोगों का परिचय प्राप्त करेंगे। ईश्वर आपका कल्याण करे।’ यह कहकर कार्डिनल खड़े हो गए। एक बार नारायण हेमचंद्र मेरे यहां धोती-कुर्ता पहनकर आए। भली घर-मालकिन ने दरवाजा खोला और उन्हें देख कर डर गई। मेरे पास आकर (पाठकों को याद होगा कि मैं अपने घर बदलता ही रहता था। इसीलिए यह मालकिन नारायण हेमचंद्र को नहीं जानती थीं ) बोली, ‘कोई पागलसा आदमी तुमसे मिलना चाहता है।’ मैं दरवाजे पर गया तो नारायण हेमचंद्र को खड़ा पाया। मैं दंग रह गया। पर उनके मुंह पर तो सदा की हंसी के सिवा और कुछ न था। ‘क्या लड़कों ने आपको तंग नहीं किया?’ जवाब में वे बोले, ‘मेरे पीछे दौड़ते रहे। मैंने कुछ ध्यान नहीं दिया, इसीलिए वे चुप हो गए।’ नारायण हेमचंद्र कुछ महीने विलायत रहकर पेरिस गए। वहां फ्रेंच का अध्ययन शुरू किया और फ्रेंच पुस्तकों का अनुवाद करने लगे। उनके अनुवाद को जांचने लायक फ्रेंच मैं जानता था, इसीलिए उन्होंने उसे देख जाने को कहा। मैंने देखा कि वह अनुवाद नहीं था, केवल भावार्थ था। आखिर उन्होंने अमेरिका जाने का अपना
सन् 1890 में पेरिस में एक बड़ी प्रदर्शनी हुई थी। उसकी तैयारियों के बारे में पढ़ता रहता था। पेरिस देखने की तीव्र इच्छा तो थी ही। मैंने सोचा कि यह प्रदर्शनी देखने जाऊं, तो दोहरा लाभ होगा। प्रदर्शनी में एफिल टॉवर देखने का आकर्षण बहुत था। यह टॉवर सिर्फ लोहे का बना है। एक हजार फुट ऊंचा है। इसके बनने से पहले लोगों की यह कल्पना थी कि एक हजार फुट ऊंचा मकान खड़ा ही नहीं रह सकता। प्रदर्शनी में और भी बहुत कुछ देखने जैसा था। मैंने पढ़ा था कि पेरिस में एक अन्नाहारवाला भोजन गृह है। उसमें एक कमरा मैंने ठीक किया। गरीबी से यात्रा करके पेरिस पहुंचा। सात दिन रहा। देखने योग्य सब चीजें अधिकतर पैदल घूमकर ही देखीं। साथ में पेरिस की और उस प्रदर्शनी की गाइड तथा नक्शा ले लिया था। उसके सहारे रास्तों का पता लगाकर मुख्य-मुख्य चीजें देख लीं। प्रदर्शनी की विशालता और विविधता के सिवा उसकी और कोई बात मुझे याद नहीं है। एफिल टॉवर पर तो दो-तीन बार चढ़ा था, इसीलिए उसकी मुझे अच्छी तरह याद है। पहली मंजिल पर खाने-पीने का प्रबंध था। यह कह सकने के लिए कि इतनी ऊंची जगह पर भोजन किया था, मैंने साढ़े सात शिंलिग फूंककर वहां खाना खाया। पेरिस के प्राचीन गिरजाघरों की याद बनी हुई है। उनकी भव्यता और उनके अंदर मिलनेवाली शांति भुलाई नहीं जा सकती। नोत्रदाम की कारीगरी और अंदर की चित्रकारी को मैं आज भी भूला नहीं हूं। उस समय मन में यह खयाल आया था कि जिन्होंने लाखों रुपए खर्च करके ऐसे स्वर्गीय मंदिर बनवाए हैं, उनके दिल की गहराई में ईश्वर प्रेम तो रहा ही होगा।
पेरिस का फैशन, पेरिस के स्वेच्छाचार और उसके भोग-विलास के विषय में मैंने काफी पढ़ा था। उसके प्रमाण गली-गली में देखने को मिलते थे। पर ये गिरजाघर उन भोग विलासों से बिल्कुल अलग दिखाई पड़ते थे। गिरजों में घुसते ही बाहर की अशांति भूल जाती है। लोगों का व्यवहार बदल जाता है। लोग अदब से पेश आते हैं। वहां कोलाहल नहीं होता। कुमारी मरियम की मूर्ति के सम्मुख कोई न कोई प्रार्थना करता ही रहता है। यह सब वहम नहीं है, बल्कि हृदय की भावना है, ऐसा प्रभाव मुझ पर पड़ा था और बढ़ता ही गया है। कुमारिका की मूर्ति के सम्मुख घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना करनेवाले उपासक संगमरमर के पत्थर को नहीं पूजते थे, बल्कि उसमे मानी हुई अपनी कल्पित शक्ति को पूजते थे। ऐसा करके वे ईश्वर की महिमा को घटाते नहीं बल्कि बढ़ाते थे, यह प्रभाव मेरे मन पर उस समय पड़ा था, जिसकी धुंधली याद मुझे आज भी है। एफिल टॉवर के बारे में दो शब्द कहना आवश्यक है। मैं नहीं जानता कि आज एफिल टॉवर का क्या उपयोग हो रहा है। प्रदर्शनी में जाने के बाद प्रदर्शनी संबंधी बातें तो पढ़ने में आती ही थीं। उसमें उसकी स्तुति भी पढ़ी और निंदा भी। मुझे याद है कि निंदा करने वालो में टॉल्स्टॉय मुख्य थे। उन्होंने लिखा था कि एफिल टॉवर मनुष्य की मूर्खता का चिह्न है, उसके ज्ञान का परिणाम नहीं। अपने लेख में उन्होंने बताया था कि दुनिया में प्रचलित कई तरह के नशों में तंबाकू का व्यसन एक प्रकार से सबसे ज्यादा खराब है। कुकर्म करने की जो हिम्मत मनुष्य में शराब पीने से नहीं आती, वह बीड़ी पीने से आती है। शराब पीनेवाला पागल हो जाता है, जबकि बीड़ी पीनेवाले की अक्ल पर धुआं छा जाता है और इस कारण वह हवाई किले बनाने लगता है। टॉल्स्टॉय ने अपनी यह सम्मति प्रकट की थी कि एफिल टॉवर ऐसे ही व्यसन का परिणाम है। एफिल टॉवर में सौंदर्य तो कुछ है ही नहीं। ऐसा नहीं कह सकते कि उसके कारण प्रदर्शनी की शोभा में कोई वृद्धि हुई। एक नई चीज है, बड़ी चीज है, इसीलिए हजारों लोग देखने के लिए उस पर चढ़े। यह टॉवर प्रदर्शनी का एक खिलौना था। और जब तक हम मोहवश हैं तब तक हम भी बालक हैं, यह चीज इस टॉवर से भलीभांति सिद्ध होती है। मानना चाहे तो इतनी उपयोगिता उसकी मानी जा सकती है। (अगले अंक में जारी)
16 खुला मंच
12 - 18 नवंबर 2018
अच्छे शब्दों के प्रयोग से बुरे लोगों का भी दिल जीता जा सकता है
अभिमत
दुनिया में सबसे ज्यादा महिला पायलट भारतीय हैं। खास बात यह है कि भारत में महिला पायलटों की जितनी संख्या है, वह वैश्विक औसत की दोगुनी है
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कास के सर्व समावेशी तकाजों में लैंगिक समानता भी शामिल है। विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश आज न सिर्फ विकास से जुड़े आंकड़ो में अपनी सशक्तता दिखा रहा है, बल्कि इसी के साथ यहां सामाजिक बदलाव का एक नितांत नया चरण भी शुरू हुआ है। यह चरण है शिक्षा से लेकर विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के बढ़े दमखम का। देश की महिलाओं में न सिर्फ आत्मविश्वास जगा है, बल्कि वे आत्मनिर्भर भी हो रही हैं। यह परिवर्तन देश में लैंगिक समानता से जुड़ी एक बड़ी दरकार को भी क्रांतिकारी तरीके से पूरा कर रहा है। आलम यह है कि दुनिया में सबसे ज्यादा महिला पायलट भारतीय हैं। खास बात यह है कि भारत में महिला पायलटों की जितनी संख्या है, वह वैश्विक औसत की दोगुनी है। इंटरनेशनल सोसायटी ऑफ वीमैन एयरलाइन पायलट्स (आईएसए+21) की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया कुल पायलटों में से 5.4 फीसदी महिलाएं हैं, जबकि भारत में महिला पायलटों का अनुपात 12.4 प्रतिशत है, जो विश्व में सर्वाधिक अधिक है। भारत में कुल 8797 पायलट हैं, जिनमें 1092 महिला पायलट और 385 महिला कप्तान हैं। इंडिगो एयरलाइंस में 351, जेट एयरवेज में 241, एयर इंडिया में 217 महिला पायलट हैं। सरकार की ‘उड़ान’ योजना के बाद भारत में एविएशन का बाजार तेजी से बढ़ रहा है। महिलाओं को उचित मौका देने और उन पर भरोसा जताने से न केवल उनका आत्मविश्वास जगा है, बल्कि वे आत्मनिर्भर भी हो रही हैं। इससे पहले देश की वायु सेना में फाइटर पायलट के रूप में तीन महिलाओं की नियुक्ति ने पूरे देश को गर्व से भर दिया था। अवनी चतुर्वेदी, भावना कंठ और मोहना सिंह भारतीय वायु सेना के उस लड़ाकू बेड़े में शामिल की गई थीं। यह अपने-आप में बहुत बड़ी उपलब्धि भी है और बहुत बड़ी मिसाल भी। देश में परिवर्तन की यह बयार महिला सशक्तीकरण से आगे लैंगिक समानता का सर्वथा नया सर्ग है।
टॉवर फोनः +91-120-2970819
(उत्तर प्रदेश)
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
राष्ट्रीय पुस्तकालय सप्ताह (14-20 नवंबर) पर विशेष
आबाद रहनी चाहिए किताबों की दुनिया
– महात्मा बुद्ध
महिला आत्मविश्वास की उड़ान
प्रो. मणींद्र नाथ ठाकुर
क्या हमारे समाज को पुस्तकालय की जरूरत नहीं रह गई है? तमाम इंटरनेट की सुविधा के बावजूद फ्रांस जैसे देश में पुस्तकालयों को लेकर बहस है। मुद्दा यह है कि कैसे उन्हें रविवार को भी खुला रखा जाए
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छ समय पहले गांधी जयंती पर बिहार के बेगुसराय के गोदरगावां गांव में जाने का मौका मिला था। इस गांव में एक एक अद्भुत संस्था है। इसकी कहानी यह है कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजी सरकार ने रेल की पटरी उखाड़ने की सजा में इस गांव पर एक सामूहिक जुर्माना लगाया था। स्वतंत्रता मिलने के बाद नई सरकार ने गांव को जुर्माने की रकम वापस कर दी। गांववालों ने उसी पैसे से यहां एक पुस्तकालय बनवाया। इसीलिए इसका नाम भी रखा ‘विप्लवी पुस्कालय’। मैं चिंतित था कि गांधी और राष्ट्रवाद जैसे विषय पर मैं ग्रामीण श्रोताओं के बीच कैसे बोलूं। लेकिन मुझे आश्चर्य यह हुआ कि इस पुस्तकालय के सभागार में सात सौ से ज्यादा लोग उपस्थित थे और आयोजकों ने मुझे सुझाव दिया कि आप ठीक उसी तरह से बोलें, जैसे किसी बड़े विश्विद्यालय में हों। फिर मुझे पता चला कि इस पुस्तकालय में हिंदी के लगभग सभी साहित्यकार और आलोचक अपना वक्तव्य दे चुके हैं।
समृद्ध परंपरा
क्या यह थी बिहार के गांवों में पुस्तकालयों की परंपरा? तब से आज तक जब भी मैं किसी गांव में जाता हूं, सबसे पहले यही पता करने का प्रयास करता हूं कि क्या इस गांव में भी कोई पुस्तकालय है। लेकिन जानकार दुख होता है कि लगभग सब जगह खबर यह होती है कि किसी जमाने में गांवों में दो-दो पुस्तकालय हुआ करते थे। अब सवाल है कि कहां गायब हो गए ये पुस्तकालय? क्या अब उनकी जरूरत नहीं रही? मुझे याद है कि बचपन में बिहार में पूर्णिया शहर के महत्वपूर्ण लोगों में वहां के जिला पुस्तकालय के प्रभारी भी हुआ करते थे। शहर के एक कोने में बना पुस्तकालय शाम में खचाखच भरा रहता था। शहर में एक नेहरू युवक केंद्र था, जिसमें छोटा-सा पुस्तकालय था। मेरी पूरी मित्र मंडली शाम में वहां पहुंच जाती थी। आपस में किताबों को लेकर बहस होती थी। ‘राग दरबारी’ तो जैसे हमारे बालमन पर छाया रहा था कई दिनों तक। इस बार की शोध-यात्रा में उन पुस्तकालयों को
खोजता रहा। सभी वीरान हो चुके हैं या मर चुके हैं। शहर में अब कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां लोग आपस में समसामयिक स्थितियों पर या साहित्य पर कोई चर्चा कर सकें। किसी-किसी शहर में ‘कला भवन’ जैसे सांस्कृतिक संस्थाएं भी हैं। लेकिन, लोग वहां केवल कार्यक्रमों पर ही जमा होते हैं। अनायास ही शाम में साहित्य चर्चा के लिए जमा होने की परंपरा मर सी गई है। ऐसी परंपराओं का चल पाना पुस्तकालयों के बिना संभव भी नहीं है।
तीन हजार पुस्तकालय बंद
बिहार के गांवों में लगभग तीन हजार पुस्तकालय बंद हो गए हैं। क्योंकि नौ करोड़ की जनसंख्या वाले इस राज्य में सालाना पुस्तकालयों पर केवल दस लाख रुपए खर्च किए जाते हैं। सुना था कि पंचायती राज में पुस्तकालय की चर्चा है, लेकिन इसका कोई नामों-निशान नहीं दिखता है। यह एक पहेली है कि बिहार में शिक्षा को लेकर जबरदस्त जागरूकता होने के बावजूद पुस्तकालयों की बदहाली क्यों है। अब तो विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी पुस्तकालय के लिए राशि घटती जा रही है। शायद ही कोई विद्यालय, महाविद्यालय या विवि में एक सुचारु रूप से संचालित पुस्तकालय होने का दावा कर सकता है।
समाज की तरक्की के लिए, उसमें अमन के लिए ज्ञान की जरूरत है, समझदारी की जरूरत है। सच तो यह है कि मनुष्य को मुक्ति के लिए भी ज्ञान मार्ग को उत्तम बताया गया है। निरंतर ज्ञान का श्रोत पुस्तकालय नहीं तो और क्या हो सकता है
12 - 18 नवंबर 2018
पुस्तकालय की जरूरत
क्या हमारे समाज को पुस्तकालय की जरूरत नहीं रह गई है? तमाम इंटरनेट की सुविधा के बावजूद फ्रांस जैसे देश में पुस्तकालयों को लेकर बहस है। मुद्दा यह है कि कैसे उन्हें रविवार को भी खुला रखा जाए। आप किसी भी विकसित देश में चले जाएं तो आपको पुस्तकालय की बेहतरीन सुविधा मिल जाएगी। इसीलिए यह कहना बिलकुल सही नहीं होगा कि भारत के समाज को इसकी जरूरत अब नहीं रही। सच तो यह है कि पुस्तकालयों की जरूरत लोगों को अब ज्यादा है। आप समाज की बैद्धिकता का आकलन इस बात से कर सकते हैं कि वहां पुस्तकालय कैसे हैं और कितने लोग उसमें पाए जाते हैं। इस विषय पर कोई तर्क देने की जरूरत तो नहीं है कि समाज की तरक्की के लिए, उसमें अमन के लिए ज्ञान की जरूरत है, साझदारी की जरूरत है। सच तो यह है कि मनुष्य को मुक्ति के लिए भी ज्ञान मार्ग को उत्तम बताया गया है। निरंतर ज्ञान का श्रोत पुस्तकालय नहीं तो और क्या हो सकता है। पुस्तकालय के बारे में बात करने की प्रेरणा मुझे उस पुरस्कार वितरण समारोह से मिली, जहां बहुत दिनों के बाद किसी मंत्री को कहते सुना कि हर विधानसभा क्षेत्र में कम-से-काम चार पुस्तकालय खुलने चाहिए। अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ। हिंदी के साहित्यकारों, पत्रकारों, कवियों, आलोचकों को हाल में दिल्ली सरकार ने सम्मान से नवाजा है। साहित्य जगत की खोज खबर लेने मैं भी पहुंचा था, क्योंकि लगने लगा है कि साहित्य में आम लोगों की रुचि घटने लगी है। किताबें बिकती नहीं हैं, लोगों तक पहुंचती नहीं हैं। पुरस्कार शायद इसीलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि इससे साहित्यकारों की तरफ भी खबरिया चैनलों का ध्यान जाए और लोगों तक उनके होने की खबर फैले। यहां पुस्तकालय की चर्चा हो, इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है।
नए पुस्तकालय कैसे हों
अब सवाल है कि पुस्तकालय कैसे हों? और इसी संदर्भ में मुझे विप्लवी पुस्तकालय की याद आ गई, उसकी आधुनिकता ने मुझे बेहद प्रेरित किया। आज के जमाने में पुस्तकालयों का स्वरूप भी बदलना चाहिए। यहां केवल पुस्तक ही न हों, बल्कि इंटरनेट सुविधा युक्त कंप्यूटर भी अच्छी संख्या में होने चाहिए। इसे एक तरह का ज्ञान केंद्र होना चाहिए, जहां हर उम्र, हर धर्म, हर जाति के स्त्री पुरुष अध्ययन तो करें ही, साथ ही उनके बीच संवाद भी हो सके। नाटक, संगीत, लोक कला, आदि की शिक्षा भी हो सके। संवाद और शिक्षा के नए केंद्र के रूप में यदि पुस्तकालयों की कल्पना भारत में की जाए, तो शायद जनता को यह बड़ी देन होगी। शिक्षा के लिए जो चाहत यहां की जनता में है, उसके लिए उनके पास उतनी क्रयशक्ति नहीं है। इसीलिए यह सरकारों का दायित्व है कि इसे बजट का आवश्यक हिस्सा बनाए। लेकिन, बिना जनआंदोलन के क्या हमारी सरकारें इस दिशा में कोई कदम उठाने के बारे में सोच सकती हैं? नेताओं में अवाम को शिक्षित करने की कोई इच्छा शायद ही है।
ओशो
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लीक से परे
महान दार्शनिक और विचारक
जलाने वाला नहीं, जिलाने वाला प्रेम मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं उसमें जलकर कोई जलता नहीं, और जीवंत हो जाता है। व्यर्थ जल जाता है, सार्थक निखर आता है
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म शब्द से न चिढ़ो। यह हो सकता है कि तुमने जो प्रेम समझा था वह प्रेम ही नहीं था। उससे ही तुम जले बैठे हो और यह भी मैं जानता हूं कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीने लगता है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं, उस प्रेम का तो तुम्हें अभी पता ही नहीं है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह तो कभी असफल होता ही नहीं। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं उसमें अगर कोई जल जाए तो निखरकर कुंदन बन जाता है, शुद्ध स्वर्ण हो जाता है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं उसमें जलकर कोई जलता नहीं और जीवंत हो जाता है। व्यर्थ जल जाता है, सार्थक निखर आता है। जॉर्ज बर्नाड शॉ ने कहा है- दुनिया में दो ही दुख हैं, एक तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा तुम जो चाहो वह मिल जाए। एक दुख मैं कहता हूं। जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह तो भीतर मौजूद है। इसीलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है। रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है और पहुंचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसीलिए भ्रांति हो गई। प्यास
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समरण
खुला मंच
शिक्षा और भषाईचषारे को समश्पित जीवन
कही-अनकही बषाल शसतषारों की दुशनरषा
सवच्छतषा
सवच्छतषा कषा चमकतषा सूरपि
241/2017-19
डषाक ्ंजीरन नंबर-DL(W)10/2
/2016/71597 आरएनआई नंबर-DELHIN
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बदलते भषारत कषा सषाप्षाशह
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10/11 नवंबर 2018 मूलर `
ौचालय जब बना सुलभ श जादी आ ी ल स अ ई आ तो
श्वर ्षाठक दौरषा शकरषा, जहषां डॉ. शवनदे गषा प्रसषाद ने सुलभ ग्षाम कषा सवषागत शकरषा शसक्कम के रषाजर्षाल गं शवधवषा मषातषाओं ने उनकषा ्ुनवषापिशसत सककैवेंजसपि और
ने ही सपना पैदा कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया। बाहर जिसे हम तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिल्कुल न हार जाएं, समग्ररूपेण न हार जाएं, तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता। ‘दिल की वीरानी का क्या मजकूर है, यह नगर सौ मरतबा लूटा गया।’ इतनी दफे लुट चुका है यह दिल! इतनी बार तुमने प्रेम किया और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे हो। मैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लुटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे। लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-
सुलभ का प्रशंसनीय कार्य अभी मेरे सामने ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का नया अंक है। आवरण कथा का शीर्षक है- ‘जब बना सुलभ शौचालय तो आई असली आजादी’। सुलभ शौचालय से मेरा परिचय बहुत पुराना है। मैं पहले पटना में रहता था। वहां गांधी मैदान में खेलने जाया करता था। बीच में अगर किसी को शौच जाना हो तो बहुत मुश्किल से बगल के किसी भवन या दफ्तर में जाकर आरजू-मिन्नत करनी होती थी। हमारे कई साथी बच्चे तो सीधे घर का रुख कर लेते थे। मैंने वहां पास में जब सुलभ शौचालय बनते देखा तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अपने अनुभव से कह सकता हूं कि देशभर में सार्वजनिक जगहों पर शौच की समस्या को जिस तरह सुलभ ने दूर
छोटी बातों में लुट गए! चुल्लूचुल्लू पानी में डूबकर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ,कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब मैं तुमसे कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जंचती, क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर
भी है। मैं तुमसे उस जगत की बात कर रहा हूं, जहां आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूं। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं, जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह कुछ और है। वह मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया। तुम्हारी फिल्मोंवाला प्रेम नहीं, नाटक नहीं। और जिन्होंने यह प्रेम किया उन सबने यहीं कहा कि वहां हार नहीं है, वहां जीत ही जीत है। वहां दुख नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है। अगर तुम इस प्रेम को न जान पाए तो जानना,जिंदगी व्यर्थ गई। मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख खोलकर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम होता है, वह अरूप से प्रेम है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।
किया, वह अपने आप में एक मिसाल है। राजेश कुमार, अंकुर विहार, गाजियाबाद बाल कलाकारों की दुनिया मुझे फिल्में पसंद हैं। खासतौर पर वो फिल्में जिसमें बच्चों ने लाजवाब अभिनय किया है। ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ के नए अंक में ‘बाल सितारों की दुनिया’ शीर्षक से छपा आलेख काफी रोचक लगा। बाल कलाकारों का आगे का जीवन वाकई चुनौती भरा होता है। यही वजह है कि कम ही बाल कलाकार फिल्मी दुनिया में आगे भी टिके रह सके। इस बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराने के लिए आभार। तृप्ति मिश्रा, राजघाट, वाराणसी
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फोटो फीचर
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सुलभ ग्रीन दिवाली
वृंदावन की विधवा माताओं ने सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक की पहल पर ग्रीन दिवाली मनाकर देश-दुनिया को दिया प्रदूषण कम करने का संदेश फोटो : मंटू
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पर्यावरण
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कहीं प्रदूषण का सबब न बन जाए प्रकाश
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डॉ. ओपी जोशी
पावली को ‘प्रकाश पर्व’ कहा जाता है। अमावस की इस रात को हम ज्यादा-सेज्यादा कृत्रिम प्रकाश फैलाकर अंधेरे के साम्राज्य को समाप्त या कम करने का प्रयास करते हैं। इस उपभोक्तावादी समय में तो दीपावली के अलावा हर दिन बहुत अधिक कृत्रिम प्रकाश फैलाया जाता है। आवश्यकता से अधिक फैलाया गया यह कृत्रिम प्रकाश ही प्रकाश प्रदूषण की समस्या पैदा कर रहा है। कृत्रिम प्रकाश से आकाश की प्राकृतिक अवस्था में आया परिवर्तन प्रकाश-प्रदूषण कहलाता है। शहरों और गांवों की सड़कों पर लगी लाइटें, जगमगाते बाजार, मॉल, खेल के मैदान, विज्ञापन बोर्ड, वाहनों की हेडलाइट तथा मकानों के परिसर
खास बातें कृत्रिम प्रकाश का अध्ययन सबसे पहले डॉ. पी. सिजनोमे ने किया आकाश का 20 प्रतिशत भाग प्रकाश प्रदूषण के घेरे में प्रदूषण बढ़ने से तारों के दिखने की संख्या घटती जा रही है
में लगी लाइट आदि प्रमुख रूप से प्रकाश प्रदूषण के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं।
सिजनोमे का अध्ययन
विभिन्न माध्यमों से फैल रहे कृत्रिम प्रकाश का अध्ययन सर्वप्रथम इटली के वैज्ञानिक डॉ. पी. सिजनोमे ने वर्ष 2000 के आसपास सेटेलाइट से प्राप्त चित्रों की मदद से किया था। इस अध्ययन के आधार पर बताया गया है कि धरती के ऊपर आकाश का लगभग 20 से 22 प्रतिशत भाग प्रकाश प्रदूषण की चपेट में है। कनाडा व जापान का 90 प्रतिशत, यूरोपीय संघ के देशों का 85 प्रतिशत एवं अमेरिका का 62 प्रतिशत आकाश प्रकाश प्रदूषण से प्रभावित है।
आकाश में प्रकाश प्रदूषण
लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियर्स के अनुसार आकाश का 20 प्रतिशत भाग वैश्विक स्तर पर प्रकाश प्रदूषण के घेरे में है। वर्ष 2016 में ‘नासा’ (नेशनल एरोनाटिक स्पेस एडमिनिस्ट्रशन) के वैज्ञानिकों ने भी उपग्रहों से प्राप्त जानकारी के आधार पर बताया था कि विश्व के कई हिस्सों में प्रकाश-प्रदूषण लगातार फैलता जा रहा है।
कृत्रिम प्रकाश
विभिन्न माध्यमों से निकले कृत्रिम प्रकाश की काफी मात्रा आकाश में पहुंचकर वहां उपस्थित कणों (धूल व अन्य) से टकराकर वापस आ जाती है, जिससे आकाश व तारे साफ दिखाई नहीं देते। नक्षत्र वैज्ञानिकों के अनुसार कृष्ण-पक्ष की साफसुथरी रात में बादल आदि नहीं होने की स्थिति में
लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियर्स के अनुसार आकाश का 20 प्रतिशत भाग प्रकाश प्रदूषण के घेरे में है। 2016 में नासा के वैज्ञानिकों ने भी बताया कि विश्व के कई हिस्सों में प्रकाश प्रदूषण लगातार फैलता जा रहा है
किसी स्थान से लगभग 2500 तारे देखे जा सकते हैं। जहां प्रकाश प्रदूषण नगण्य होता है वहां यह एक आदर्श स्थिति मानी गई है। प्रदूषण बढ़ने से तारों के दिखने की संख्या घटती जा रही है। हाल में किए गए कुछ अध्ययनों के अनुसार अमेरिका में न्यूयॉर्क के आसपास 250 एवं मैनहटन में केवल 15-20 तारे ही दिखाई देते हैं।
जीवों पर विपरीत प्रभाव
बढ़ता प्रकाश प्रदूषण मानव स्वास्थ्य, कीट- पतंगों व पक्षियों, पेड़-पौधों तथा जलीय जीवों पर विपरीत प्रभाव डाल रहा है। तनाव, सिरदर्द, देखने की क्षमता में कमी तथा हार्मोन संतुलन में गड़बड़ी आदि मानव स्वास्थ्य पर होने वाले सामान्य प्रभाव हैं। कृत्रिम प्रकाश में अधिक समय तक कार्य करने से स्तन व कोलोरेक्टल कैंसर की आशंका बढ़ जाती है।
जैविक-घड़ी पर असर
कुछ वर्ष पूर्व ‘फर्टीलिटी एंड स्टेरिलिटी जर्नल’ में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार प्रकाश-प्रदूषण मेलाटोनिन हार्मोन की मात्रा कम कर स्त्रियों की
प्रजनन क्षमता तथा पुरुषों में शुक्राणुओं की संख्या व गुणवत्ता को कम कर रहा है। कीट-पतंगों व पक्षियों की जैविक-घड़ी (बॉयलोजिकल क्लॉक) भी प्रकाश प्रदूषण के प्रभाव से गड़बड़ा रही है। चांद व धुंधले प्रकाश में अपना रास्ता तय करने वाले कई कीटपतंगे तेज प्रकाश से रास्ता भूल जाते हैं।
घायल हो रहे पक्षी
फिलाडेल्फिया (अमेरिका) के कीट वैज्ञानिक प्रो. केनेश फ्रेंक के अनुसार तेज प्रकाश में तितलियां प्रजनन नहीं कर पातीं एवं मार्ग भी भटक जाती हैं। टोरंटो की एक संस्था के अध्ययन के अनुसार अमेरिका की जगमगाती गगनचुंबी इमारतों से प्रतिवर्ष लगभग दस करोड़ पक्षी टकराकर घायल हो जाते हैं या मर जाते हैं। इसका कारण यह है कि अंधेरा होने पर जब पक्षी वापस लौटते हैं तो तेज प्रकाश के कारण वे भ्रमित हो जाते हैं।
पानी पर भी असर
जल वैज्ञानिक बताते हैं कि रात के समय जलाशयों में पानी के जीव सतह पर आकर छोटे-छोटे शैवाल (एल्गी) खाते हैं। जलाशयों के आसपास तेज कृत्रिम प्रकाश के कारण जल-जंतु भ्रमित होकर सतह पर नहीं आते एवं भूख से मर जाते हैं। फूल बनने हेतु
पटाखा और पर्यावरण
तेज आवाज करने वाले पटाखों को चलाने का सबसे अधिक असर बच्चों, गर्भवती महिलाओं और दिल तथा सांस के मरीजों पर पड़ता है
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वाली खुशियों एवं रोशनी का त्योहार है लेकिन दिवाली के दौरान छोड़े जाने वाले तेज आवाज के पटाखे पर्यावरण पर कहर बरपाने के अलावा जन स्वास्थ्य के लिए खतरे पैदा कर सकते हैं। दिवाली के दौरान पटाखों एवं आतिशबाजी के कारण दिल के दौरे, रक्त चाप, दमा, एलर्जी, ब्रोंकाइटिस और निमोनिया जैसी स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है और इसलिए दमा एवं दिल के मरीजों को खास तौर पर सावधानियां बरतनी चाहिए। नोएडा स्थित मेट्रो हास्पीटल्स एंड हार्ट इंस्टीट्यूट के निदेशक पद्म विभूषण डॉ. पुरुषोत्तम लाल बताते हैं कि पिछले कई वर्षों से यह देखा जा रहा है कि दिवाली के बाद अस्पताल आने वाले हृदय रोगों, दमा, नाक की एलर्जी, ब्रोंकाइटिस और निमोनिया जैसी बीमारियों से ग्रस्त रोगियों की संख्या अमूमन दोगुनी हो जाती है। साथ ही जलने, आंख को गंभीर क्षति पहुंचने और कान का पर्दा फटने जैसी घटनायें भी बहुत होती हैं। डॉ. लाल ने आम लोगों को पटाखे नहीं छोड़ने अथवा धीमी आवाज वाले पटाखे छोड़ने की सलाह देते हुए कहा कि दिल और दमे के मरीजों को खास तौर पर पटाखों से पूरी तरह दूर रहना चाहिए। दिवाली के दौरान पटाखों के कारण
दुनियाभर के 7 बच्चों में से 1 बच्चा दूषित हवा में सांस लेता है।
दिवाली का समय न केवल पटाखों के कारण बल्कि अन्य कारणों से भी मुसीबत भरा होता है। दिवाली से पहले अधिकतर घरों में रंगरोगन कराया जाता है, घरों की सफाई की जाती है। लेकिन पेंट की गंध, घरों की मरम्मत और सफाई से निकलने वाली धूल दमा के रोगियों के साथ-साथ सामान्य लोगों के लिए भी खतरनाक साबित हो सकती है। अंदरूनी प्रदूषण के अलावा दिवाली के दौरान बाहरी प्रदूषण और दिवाली के पटाखे से निकलने वाले धुएं, पटाखों के कारण वातावरण में रसायन और गंध दमा के रोगियों के लिए घातक आवाज का स्तर 15 डेसीबल बढ़ साबित होते हैं। इसलिए जाता है, जिसके कारण श्रवण क्षमता दिवाली के दिन और उसके बाद के कुछ दिनों प्रभावित होने, कान के पर्दे फटने, दिल में भी दमा के रोगियों को के दौरे पड़ने, सिर दर्द, अनिद्रा और हर समय अपने पास इनहेलर रखना चाहिए उच्च रक्तचाप जैसी समस्यायें और पटाखों से दूर रहना उत्पन्न हो सकती हैंचाहिए। इन दिनों उनके लिए सां स लेने में थोड़ी सी परेशानी डॉ. पुरुषोत्तम लाल या दमे का हल्का आघात भी घातक वातावरण साबित हो सकता है। में आवाज का डॉ. लाल ने बताया कि अध्ययनों से पाया स्तर 15 डेसीबल बढ़ जाता गया है कि दमा का संबंध हृदय रोगों एवं दिल है, जिसके कारण श्रवण क्षमता प्रभावित होने, के दौरे से भी है इसलिए दमा बढ़ने पर हृदय कान के पर्दे फटने, दिल के दौरे पड़ने, सिर रोगों का खतरा बढ़ सकता है। तेज आवाज वाले दर्द, अनिद्रा और उच्च रक्तचाप जैसी समस्यायें पटाखे सामान्य पटाखों से अधिक खतरनाक हैं उत्पन्न हो सकती हैं। क्योंकि इनसे कान के पर्दे फटने, रक्तचाप बढ़ने तेज आवाज करने वाले पटाखों को और दिल के दौरे पड़ने की घटनायें बढ़ जाती चलाने का सबसे अधिक असर बच्चों, गर्भवती हैं। हृदय रोगों की चिकित्सा के क्षेत्र में विशेष महिलाओं और दिल तथा सांस के मरीजों पर योगदान के लिए डा. बीसी राय राष्ट्रीय अवार्ड पड़ता है। दिवाली के दौरान छोड़े जाने वाले से सम्मानित डा. लाल के अनुसार मनुष्य के पटाखों के कारण वातावरण में हानिकारक गैसों लिए 60 डेसीबल की आवाज सामान्य होती है। तथा निलंबित कणों का स्तर बहुत अधिक बढ़ आवाज के 10 डेसीबल अधिक तीव्र होने के जाने के कारण फेफड़े, गले तथा नाक संबंधी कारण आवाज की तीव्रता दो दोगुनी हो जाती गंभीर समस्यायें भी उत्पन्न होती हैं। उन्होंने है, जिसका बच्चों, गर्भवती महिलाओं, दिल तथा बताया कि दिल तथा दमा के मरीजों के लिए सांस के मरीजों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
विश्व में हर साल 11 लाख लोगों की मौत होती सिर्फ सांस लेने से हो रही है। सबसे ज्यादा मौतें भारत और चीन में
भारत में 2015 म 10.90 लाख ें वायु प्रदूषण से लोगों की मौत हुई
वाली मौत प्रदूषण से होने है ें ोन म ज त ओ ार भ क त ऊपर 1990 से अब की दर 48 में भारत सबसे ौत म े स प्रदूषण वायु प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार ै फीसदी बढ़ी ह अप्रैल 2020 से बीएस वीआई नियम लागू करने वाली है
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पर्यावरण
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178 ें भारत है म ्स े क इंड पर पर्यावरण ें 155वें स्थान देशों म
तेल कंपनियां बीएस वीआई के लिए 30,000 करोड़ निवेश करेंगी
प्रकाश प्रदूषण में भारत चौथे नंबर पर
चंडीगढ़, अमृतसर, पुणे, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ, कानपुर व इंदौर पर प्रकाश प्रदूषण का असर सर्वाधिक
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काश प्रदूषण की समस्या से हमारा देश भी अछूता नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व नई दिल्ली स्थित नेहरू तारा मंडल ने खगोलशािस्त्रयों के साथ छह माह तक अध्ययन कर बताया था कि प्रकाश प्रदूषण के संदर्भ में यूरोप, अमेरिका व जापान के बाद भारत का चौथा स्थान है। लगभग 2800 किमी की ऊंचाई से उपग्रहों की मदद से लिए गए चित्रों के अनुसार दिल्ली गहरे प्रकाश प्रदूषण से प्रभावित है। अन्य शहरों में चंडीगढ़, अमृतसर, पुणे, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ, कानपुर व इंदौर भी काफी प्रभावित बताए गए हैं।
कनाडा व जापान का 90 प्रतिशत, यूरोपीय संघ के देशों का 85 प्रतिशत एवं अमेरिका का 62 प्रतिशत आकाश प्रकाश प्रदूषण से प्रभावित है कई पौधों में एक निश्चित समय की प्रकाश अवधि (फोटोपीरियड) जरूरी होती है। कृत्रिम प्रकाश इस अवधि में गड़बड़ पैदा करता है।
ऊर्जा की भी बर्बादी
पर्यावरण वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाले समय में पर्यावरण को सबसे ज्यादा खतरा प्रकाश प्रदूषण से ही होगा। प्रकाश प्रदूषण से ऊर्जा की भी बर्बादी होती है। इतनी ऊर्जा पैदा करने में लगभग 1.20 करोड़ टन कार्बन डाय ऑक्साइड, जो कि एक ग्रीनहाउस गैस है, का उत्सर्जन होता है। इस समस्या के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए अमेिरका में ‘इंटरनेशनल डार्क स्काय एसोसिएशन’ की स्थापना की गई है जिसमें 70 देश शामिल हैं। हमारे देश में भी ‘नेहरू तारा मंडल’ एवं ‘साइंस पॉपुलेराइजेशन एसोसिएशन ऑफ कम्युनिकेटर्स एंड एजुकेटर्स’ प्रयासरत हैं। इस पृष्ठभूमि में हम दीपावली इस प्रकार मनाएं कि वायु एवं शोर के साथ प्रकाश प्रदूषण भी कम-से-कम हो तो बेहतर।
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स्वास्थ्य
12 - 18 नवंबर 2018
विश्व मधुमेह दिवस (14 नवंबर) पर विशेष
रोग पुराना
शोध नया
डायबिटीज एक नहीं, असल में पांच अलगअलग बीमारियां हैं और इन सभी का इलाज भी अलग-अलग होना चाहिए फिर ये उनके शरीर में इंसुलिन बनाने की मात्रा कम करने लगता है।
क्लस्टर-2
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एसएसबी ब्यूरो
धुनिक जीवनशैली और स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही ने जिस बीमारी का प्रसार देश-दुनिया में सबसे ज्यादा किया है, उसमें डायबिटीज (मधुमेह) का नाम प्रमुख है। दुनिया में प्रत्येक 11 में से एक वयस्क मधुमेह से पीड़ित है। मधुमेह की वजह से दिल का दौरा पड़ना, स्ट्रोक, अंधापन और किडनी फेल होने के खतरे बने रहते हैं। डायिबटीज शरीर में शुगर की मात्रा बढ़ जाने से होती है, इसे सामान्यतः दो प्रकारों टाइप-1 और टाइप-2 में बांटा गया है। लेकिन स्वीडन और फिनलैंड के शोधकर्मियों का मानना है कि
खास बातें
दुनिया में प्रत्येक 11 में से एक वयस्क मधुमेह से पीड़ित डायबिटीज को दो श्रेणियों में बांटा गया है- टाइप-1 और टाइप-2 टाइप-2 प्रकार का मधुमेह आमतौर पर गलत जीवनशैली के कारण होता है
उन्होंने इस बीमारी से जुड़ी और भी अधिक जटिल तस्वीर सबके सामने लाने में कामयाबी प्राप्त की है और इससे मधुमेह के उपचार का तरीका बदल सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि इस स्टडी से मधुमेह के बारे में काफी नई जानकारियां मिलती हैं, लेकिन फिलहाल इस स्टडी के आधार पर मधुमेह के उपचार में बदलाव नहीं किया जा सकता। टाइप-1 प्रकार के मधुमेह का असर इंसान की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) पर पड़ता है। यह सीधा शरीर की इंसुलिन फैक्ट्री (बेटा-सेल) पर हमला करता है, जिस वजह से हमारा शरीर शुगर की मात्रा नियंत्रित करने के लिए हार्मोन पर्याप्त मात्रा में नहीं बना पाता। टाइप-2 प्रकार के मधुमेह का कारण आमतौर पर गलत जीवनशैली होता है, जिसमें शरीर में फैट बढ़ने लगता है और वह इंसुलिन पर असर दिखाता है। स्वीडन के ल्युंड यूनिवर्सिटी डायबटीज सेंटर और फिनलैंड के इंस्टीट्यूट फॉर मॉलिक्यूलर मेडिसिन ने 14,775 मधुमेह के मरीजों के खून की जांच कर अपने नतीजे दिखाए हैं। यह नतीजे लैंसेट डायबिटीज एंड एंटोक्रिनोलोजी में प्रकाशित हुए हैं। इसमें बताया गया है कि मधुमेह के मरीज को पांच अलग-अलग क्लस्टर में बांटा जा सकता है।
क्लस्टर-1
गंभीर प्रकार का ऑटो इम्यून मधुमेह मोटे तौर पर टाइप-1 मधुमेह जैसा ही है। इसका असर युवा उम्र में देखने को मिलता है, जब वे स्वस्थ होते हैं और
गंभीर प्रकार से इंसुलिन की कमी वाले मधुमेह को शुरुआती दौर में टाइप-1 की तरह ही देखा जाता है। इसके पीड़ित युवा होते हैं, उनका वजन भी ठीक रहता है, लेकिन उनमें इंसुलिन बनने की क्षमता कम होती जाती है और उनका इम्यून सिस्टम सही तरीके से काम नहीं कर रहा होता।
क्लस्टर-3
अभी भारत में 5 करोड़ से ज्यादा मरीज विश्व में 23 करोड़ से ज्यादा मरीज
शनल डायटबिटीज फेडरेशन इंटरने(आईडीएफ) का कहना है कि भारत में
डायबिटीज के पांच करोड़ से ज्यादा मरीज हैं। आईडीएफ के मुताबिक आने वाले दो दशकों में लगभग 8.7 करोड़ भारतीय इस खतरनाक बीमारी की चपेट में आ जाएंगे। एंडोक्रायनोलॉजी के विशेषज्ञ डॉ. तीर्थंकर चौधरी इस सूरत को बहुत ज्यादा खतरनाक
गंभीर रूप से इंसुलिन प्रतिरोधी मधुमेह के शिकार मरीज का वजन बढ़ा हुआ होता है। उनके शरीर में इंसुलिन बन तो रहा होता है, लेकिन शरीर पर उसका असर नहीं दिखता।
क्लस्टर-4
हल्के मोटापे से जुड़े मधुमेह से पीड़ित लोग आमतौर पर भारी वजन होते हैं, लेकिन उनकी पाचन क्षमता क्लस्टर 3 वालों के जैसे ही होती है।
क्लस्टर-5
उम्र से जुड़े मधुमेह के मरीज आमतौर पर अपनी
भारत में डायबिटीज को लेकर आईडीएफ की चेतावनी आईडीएफ ने चेताया है कि अगले दो दशकों में लगभग 8.7 करोड़ भारतीय डायबिटीज की चपेट में आ जाएंगे
मानते हैं। वे कहते हैं, ‘दुनियाभर में 23 करोड़ लोग इस क्रॉनिक बीमारी के साथ जी रहे हैं। आने वाले 20 साल में यह तादाद बढ़कर 35 करोड़ तक पहुंच सकती है।’ डॉ. चौधरी कहते हैं, ‘अब इस बात को समझना बहुत जरूरी हो गया है कि डायबिटीज को सलीके से मैनेज करना ही होगा।’
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स्वास्थ्य
पसीना बता देगा कि डायबिटीज है कि नहीं
नए विकसित सेंसर से पसीने वाली त्वचा के विश्लेषण से खून में शुगर के स्तर का पता लगाया जा सकता है
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यबिटीज को लेकर एक बड़ी जिज्ञासा लोगों में यह रहती है कि आखिर कैसे पता लगाएं कि उन्हें यह रोग है या नहीं। इसके लिए वैज्ञानिकों ने एक सेंसर विकसित किया है जिससे पसीने वाली त्वचा के विश्लेषण से खून में शुगर के स्तर का पता लगाया जा सकता है। इसके लिए पसीने की बहुत थोड़ी मात्रा ही पर्याप्त है। दक्षिण कोरिया में वैज्ञानिकों की एक टीम ने दिखाया कि सेंसर इस मामले में बिल्कुल माकूल ही उम्र के बाकी लोगों से थोड़े ज्यादा उम्रदराज दिखने लगते हैं। शोध में शामिल प्रो. लीफ ग्रूफ बताते हैं, ‘यह शोध बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके जरिए हम मधुमेह की सटीक दवाइयों की तरफ कदम बढ़ा सकते हैं। आदर्श स्थिति में तो इस इलाज को मधुमेह की पहचान होने के बाद ही शुरू कर देना चाहिए।’ प्रो. लीफ कहते हैं कि अंतिम दो तरह के मधुमेह के मुकाबले शुरुआती तीन तरह के मधुमेह का इलाज जल्दी शुरू होना चाहिए। क्लस्टर-2 के मरीजों को अभी टाइप-2 प्रकार के मधुमेह की श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि वे ऑटो इम्यून से पीड़ित नहीं होते। हालांकि स्टडी यह भी बताती है कि जिन मरीजों को इस शोध में शामिल किया गया उनमें से अधिकतर मरीज टाइप1 मधुमेह से पीड़ित थे। क्लस्टर-2 के मरीजों में अंधेपन का खतरा ज्यादा होता है, जबकि क्लस्टर -3 में किडनी फेल होने का खतरा ज्यादा रहता है। लंदन के इंपीरियल कॉलेज में सलाहकार और क्लीनिकल साइंटिस्ट डॉक्टर विक्टोरिया सलेम कहती हैं कि अधिकतर विशेषज्ञ पहले से ही मानते थे कि टाइप-1 और टाइप-2 तरीकों में मधुमेह का महज दो श्रेणियों में बांटना उचित नहीं था। यह शोध वैसे तो सिर्फ नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड और आइसलैंड (स्कैनडिनेविया) के लोगों पर ही किया गया है लेकिन दुनियाभर में इसके नतीजे बदल सकते हैं। डॉक्टर सलेम कहती हैं, ‘दुनिया भर में मधुमेह से पीड़ित लोगों की कई श्रेणियां बनाई जा सकती हैं। विश्वभर में आनुवांशिक और स्थानीय पर्यावरण के आधार पर लगभग 500 उपसमूह बनाए जा सकते हैं। इस स्टडी में तो पांच क्लस्टर बनाए गए हैं, लेकिन ये ज्यादा भी हो सकते हैं।’ वॉरविक मेडिकल स्कूल में मेडििसन के प्रोफेसर सुदेश कुमार कहते हैं, ‘हमें यह जानने की जरूरत भी है कि क्या इन तमाम क्लस्टर का अलग-अलग इलाज करने से इलाज के नतीजों में कुछ बदलाव आएगा।’
है और उनका मानना है कि इससे डायबिटीज से पीड़ित मरीजों को मदद मिलेगी। सेंसर एक पैच के जरिए एक छोटे निडल से जुड़ा है। यह डायबिटीज की दवाई को अपने आप भीतर पहुंचा देता है। सियोल यूनिवर्सिटी की यह टीम डायबिटीज के मरीजों को ‘दर्द भरे ब्लड कलेक्शन’ के तरीकों से निजात दिलाने की कोशिश में जुटा था। एक तरह की डायबिटीज इम्यून सिस्टम (रोग प्रतिरोधक क्षमता) की उस प्रवृत्ति के कारण होता है जिसमें वह खून में शुगर को नियंत्रित रखने वाले हिस्सों पर हमला करता
डायबिटीज में व्यक्ति में शुगर का स्तर बहुत बढ़ जाता है डायबिटीज दो तरह का होता है- टाइप-1 और टाइप-2 इंसुलिन शुगर
शुगर
टाइप-1
टाइप-2
टाइप-1 और 2 में अंतर दोनों तरह की डायबिटीज शरीर में मौजूद एक हार्मोन इंसुलिन से जुड़ी हैं। इंसुलिन पैंक्रियाज नाम के अंग से उत्पन्न होता है पैंक्रियाज पेट के पीछे होता है। इंसुलिन शरीर में शुगर की मात्रा को नियंत्रित करता है टाइप-1 डायबिटीज तब होता है जब शरीर में इंसुलिन उत्पन्न करने वाली कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं टाइप-2 डायबिटीज तब होता है, जब शरीर पर्याप्त इंसुलिन उत्पादित करना बंद कर देता है या कोशिकाएं इंसुलिन पर प्रतिक्रिया नहीं करतीं टाइप-1 डायबिटीज : खास बातें • यह पूरी जिंदगी बना रहता है • यह खाने की आदतों या डाइट के कारण नहीं होता • इसका पूरा इलाज नहीं है और इससे गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं टाइप-1 में क्या? • यह तब होता है जब इंसुलिन बनाने वाली कोशिकाएं नष्ट हो जाती हैं। इसके कारण
है। एक तरह की डायबिटीज अनियमित जीवन शैली के कारण होती है, जिससे शरीर की उन क्षमताओं को नुकसान पहुंचता है जिनसे खून में शुगर का स्तर नियंत्रित रहता है। इन दोनों तरह की डायबिटीज में मरीजों को खून में शुगर के स्तर को दवाई से नियंत्रित करके रखना होता है। इसमें लापरवाही से शरीर को इतना नुकसान पहुंचता है कि इस ं ान की मौत तक हो जाती है। सेंसर बहुत लचीला होता है इसीलिए इसे त्वचा के साथ खिसकाना आसान होता है। हालांकि इस मामले में वैज्ञानिकों की चुनौतियां अभी खत्म नहीं हुई हैं। खून में जितनी शुगर होती है उसके मुकाबले पसीने में काफी कम होती है।
डायबिटीज
शरीर ग्लूकोज का इस्तेमाल नहीं कर पाता, जो एक तरह का शुगर है • ग्लूकोज से शरीर को ऊर्जा मिलती है और ग्लूकोज का इस्तेमाल न कर पाने से शरीर कहीं और से ऊर्जा लेता है। इसके लिए शरीर फैट और प्रोटीन का इस्तेमाल करता है, जो शरीर के अन्य हिस्सों में मौजूद होते हैं। इसीलिए डायबिटीज होने पर लोगों का वजन कम हो जाता है और वे अस्वस्थ महसूस करते हैं • टाइप-1 डायबिटीज से पीड़ित लोग बार-बार टॉयलेट आने, थकान महसूस होने और प्यास लगने की शिकायत करते हैं। इलाज • यह साफ तौर पर नहीं कहा जा सका है कि इंसुलिन का उत्पादन करने वाली कोशिकाएं काम करना क्यों बंद कर देती हैं • समय-समय पर इंसुलिन के इंजेक्शन लगाकर इसका इलाज किया जा सकता है जिससे शरीर ऊर्जा के लिए ग्लूकोज का इस्तेमाल करना जारी रखता है टाइप 2 : खास बातें • अधिकतर मामलों में टाइप 2 डायबिटीज अत्यधिक शुगर और फैट वाली चीजें ज्यादा खाने और कसरत न करने से होती है। कुछ मामलों में ये अन्य कारणों से भी होती है। • इसका भी पूरा इलाज संभव नहीं है। इससे भी अन्य गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं
ऐसे में शुगर का पता लगाना आसान नहीं होता है। पसीने में कई तरह के केमिकल्स भी होते हैं। इन केमिकल्स में लेक्टिक एसिड होता है जो नतीजे को प्रभावित करता है। ऐसे में पैच में तीन सेंसर हैं जिनसे खून में शुगर के स्तर का पता लगाया जाता है। पसीने में एसिडिटी की जांच और एक ह्मयू डिटी सेंसर से पसीने के स्तर का पता लगाया जाता है। इन सभी को छिद्रपूर्ण परतों में लगाया जाता है जो पसीने को सोखने में सक्षम होते हैं। इस प्रक्रिया में सारी सूचना एक पोर्टेबल कंप्यूटर के जरिए मिलती और इसी से खून में शुगर से स्तर का पता चलता है।
टाइप-2 में क्या? • टाइप-2 डायबिटीज टाइप-1 से ज्यादा पाया जाता है और करीब 85 से 90 प्रतिशत डायबिटीज के मरीज इससे पीड़ित मिलते हैं • हम जो खाना खाते हैं, इंसुलिन उससे ग्लूकोज बाहर निकालने और शरीर के अन्य अंगों में पहुंचाने मदद करता है। हमारे शरीर को ग्लूकोज की जरूरत ऊर्जा के लिए होती है • इंसुलिन हमारे शरीर में विभिन्न कोशिकाओं को ग्लूकोज ग्रहण करने में मदद करता है। बिना इसके कोशिकाएं ग्लूकोज ग्रहण नहीं कर पातीं और वह शरीर में इकट्ठा होता रहता है • कई लोग अपने खानपान के कारण लंबे समय तक टाइप-2 डायबिटीज से बचे रहते हैं, लेकिन बच्चों और युवाओं में यह समस्या बढ़ रही है
इलाज • टाइप-2 डायबिटीज का पता चलने पर मरीज को खाना-पान में बदलाव और व्यायाम करने की सलाह दी जाती है • टाइप-2 डायबिटीज शरीर में बहुत ज्यादा ग्लूकोज इकट्ठा होने से होती है। ऐसे में ज्यादा फैट और शुगर वाला खाना कम करने और कसरत के जरिए उसे बर्न करने से शरीर में ग्लूकोज कम होने में मदद मिलती है • कुछ मामलों में टाइप-2 के मरीजों को दवाई या अतिरिक्त इंसुलिन भी दिया जाता है
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व्यक्तित्व
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वर्जीनिया वुल्फ
नारीवादी संघर्ष की अक्षर धुरी
20वीं सदी के आरंभ में जब देश और समाज हर तरह की पराधीनता से जूझ रहे थे। उसी दौर में वर्जीनिया वुल्फ महिलाओं को स्वतंत्रता का नया अर्थ समझा रही थीं
वर्जीनिया वुल्फ : प्रसिद्ध कथन
• आप जीवन को नजरअंदाज करके शांति नहीं प्राप्त कर सकते। • जो कुछ भी टुकड़े आपके रास्ते में आएं उन्हें ही व्यवस्थित करें। • इतिहास के अधिकांश हिस्से में ‘अज्ञात’ दरअसल एक महिला थी। • यदि एक महिला को उपन्यास लिखना है तो उसके पास पैसा और खुद का एक कमरा होना चाहिए। • एक महिला होने के नाते मेरा कोई देश नहीं है, एक महिला होने के नाते पूरी दुनिया ही मेरा देश है। • बाहर से कोई दरवाजा बंद कर दे तो ये कितनी अप्रिय स्थिति है, लेकिन उससे भी अप्रिय, मुझे लगता है, वो स्थिति है जब दरवाजा अंदर से बंद हो। • कुछ लोग धर्म गुरुओं के पास जाते हैं, कुछ शायरी का दामन थामते हैं, मैं अपने दोस्तों के पास जाती हूं। • अगर आप अपने बारे में सच नहीं कह सकते तो आप दूसरों के बारे में भी सच नहीं जान पाएंगे। • अगर आप चाहें तो अपनी लाइब्रेरी को ताला मार सकते हैं, लेकिन आपकी मानसिक आजादी को कैद कर सके ऐसा कोई गेट, ताला या बोल्ट नहीं है। • कोई अच्छी तरह से नहीं सोच सकता, अच्छी तरह से प्रेम नहीं कर सकता, अच्छी तरह सो नहीं सकता, यदि उसने अच्छी तरह से खाया न हो।
साहित्यिक योगदान
व
एसएसबी ब्यूरो
र्जीनिया वुल्फ अपने बेहतरीन उपन्यासों और निबंधों के लिए जानी जाती हैं। उन्हें औरतों के लिए साहित्य की दुनिया में जगह बनाने के लिए जाना जाता है। जहां उनकी रचनाएं अब भी प्रासंगिक बनी हुई हैं, वहीं उनके कई उपन्यासों पर बेहतरीन फिल्में भी बन चुकी हैं। वर्जीनिया वुल्फ का जन्म 25 जनवरी, 1882 को लंदन के केन्सिंगटन में हुआ था। उनका नाम पूरा एडेलीन वर्जीनिया स्टेफन है। उनके माता-पिता
प्रतिष्ठित लोग थे। उनकी परवरिश भी साहित्यिक माहौल में हुई थी। वह काफी कम उम्र से ही लिखने लगी थीं। 1895 में उनकी मां का निधन हुआ, जिसके बाद वह मानसिक रूप से टूट गईं। 1904 में उनके पिता का निधन हो गया। यह भी वह बर्दाश्त नहीं कर पाईं। लेकिन इसी साल उनकी पहली रचना दिसंबर में ‘टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट’ में प्रकाशित हुई। 1912 में उन्होंने लियोनार्डो वुल्फ से शादी कर ली। इसके बाद उनका असल साहित्यिक करियर शुरू हुआ। वह उस वक्त के जाने-माने लेखकों के ब्लूम्सबरी ग्रुप में शामिल हो गईं।
1915 में उनका पहला उपन्यास ‘द वोयेज आउट’ पब्लिश हुआ। इससे उन्हें काफी ख्याति मिली। उन्होंने इसके बाद इस दुनिया से जाने तक लिखा। उनके प्रसिद्ध उपन्यासों में ‘ऑरलैंडो’, ‘मिस डैलोवे’, ‘बिटवीन द एक्ट्स’, ‘नाइट एंड डे’ और ‘द इयर्स’ हैं। उनका प्रसिद्ध निबंध है- ‘ए रूम ऑफ वन्स ओन’। उन्हें उनके साहित्यिक योगदान के लिए मार्गरेट एटवुड और गैब्रिएल गार्सिया मार्खेज की श्रेणी में रखा जाता है। वर्जीनिया वुल्फ का लेखन 1970 के नारीवादी संघर्ष में आंदोलनकारियों के लिए प्रेरणास्रोत था। वर्जीनिया वुल्फ को लोग जन्मजात प्रतिभावान मानते हैं। ऐसा उनके जीवन को देखकर भी लगा है। बचपन से ही साहित्य में वह पूरी तरह रच-बस गई थीं। उन्होंने इंग्लिश क्लासिक्स से लेकर विक्टोरियन लिटरेचर तक को पढ़ा और दुनियाभर में महिलाओं को लेखन और जीवन जीने के बिंदास सूत्र दिए। वह न सिर्फ पश्चिम में ही लोकप्रिय थीं, बल्कि दुनिया भर में उनकी लेखनी का जादू सिर चढ़कर बोला। वर्जिनिया वुल्फ अपने बचपन ने इंग्लिश क्लासिक्स और विक्टोरियन लिटरेचर को पूरी तरह घोलकर पी गईं लेकिन वर्जीनिया वुल्फ ने लेखन की शुरुआत 1900 में की। उनका पहला उपन्यास ‘द वोयेज आउट’ 1915 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास को उनके पति लियोनार्ड वुल्फ के प्रकाशन संस्थान हॉगर्थ प्रेस ने छापा था। उनके श्रेष्ठ उपन्यासों
खास बातें प्रतिष्ठित परिवार में जन्म, बचपन से ही साहित्यिक अभिरुचि मां-पिता के निधन से काफी टूट गई थीं वर्जीनिया 1970 के नारीवादी संघर्ष में आंदोलनकारियों की प्रेरणा में ‘मिसेज डैलोवे (1925)’, ‘टू द लाइटहाउस (1927)’, ‘ऑरलैंडो (1928)’ खास तौर से पहचाने जाते हैं। उन्होंने एक लंबा निबंध ‘अ रूम ऑफ वन्स ओन’ भी लिखा, जिसमें उनका कहना था कि अगर औरतों का फिक्शन लिखना है तो औरत के पास अपना पैसा और कमरा होना चाहिए। वर्जीनिया वुल्फ की यादगार उक्तियां उन्हें आज भी लोकप्रिय बनाए हुए हैं और उनकी कही बातें आज भी भविष्य के राइटर्स के लिए सूत्र वाक्य हैं। उन्होंने ऐसा ही एक सूत्र ‘ए रूम ऑफ वन्स ओन’ नामक अपने लेख में दिया है, जिसमें वह लेखन करने वाली महिलाओं के लिए अलग कमरे की बात करती हैं। इसे पढ़कर साफ लगता है कि 20वीं सदी
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वर्जीनियानामा पूरा नाम : एडेलिन वर्जीनिया स्टीफन जन्म : 25 जनवरी 1882 (केंसिंग्टन, मिडिलसेक्स, इंग्लैंड) मृत्यु : 28 मार्च 1941 (उम्र 59) (ससेक्स, इंग्लैंड) उच्च शिक्षा : किंग्स कॉलेज, लंदन ख्याति : उपन्यासकार, निबंधकार, प्रकाशक, आलोचक के रूप में ऐतिहासिक ख्याति उल्लेखनीय कार्य : मिस डैलोवे, टू द लाईट हाउस, द वेव्स जीवनसाथी : लियोनार्ड वूल्फ
मौत से पहले की इबारत
विपुल साहित्य उपन्यास
वर्जीनिया वुल्फ ने अपने पति को जो पत्र लिखा था, उसे पढ़कर कोई भी टूट सकता है। उन्होंने लिखा थाप्रियतम, मुझे यकीन है कि मैं फिर से पागल हो रही हूं। मुझे लगता है कि इस बार हम हमेशा की तरह इस मुश्किल वक्त से नहीं गुजर पाएंगे। मैं इस बार इससे नहीं उबर पाऊंगी। मुझे आवाजें सुनाई दे रही हैं और मैं ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रही हूं। इसलिए मैं वह कर रही हूं जो मैं इससे बेहतर कर सकती हूं। तुमने मुझे सबसे बड़ी खुशी दी है। तुम हर तरह के वक्त में मेरे साथ रहे। मुझे नहीं लगता इस बीमारी के आने से पहले हम जितने खुश थे, उससे ज्यादा दो लोग एक दूसरे के साथ खुश रह सकते हैं। लेकिन अब मैं इससे ज्यादा और नहीं लड़ सकती। मुझे पता है मैं तुम्हारी जिंदगी बरबाद कर रही हूं और अगर मैं न रहूं तो तुम अपना काम अच्छी तरह कर पाओगे। तुम देख ही रहे हो कि मैं अब न सही की शुरुआत में ही वर्जीनिया दुनियाभर की महिलाओं की निजता और उनकी सुरक्षा के सवाल को उठा रही थीं। उनके आगे यह साफ हो गया था कि पुरुष, परंपरा और समाज के बीच स्त्री के जीवन में अपना कुछ नहीं रह जाता है। कुछ आलोचकों ने माना है कि वर्जीनिया वुल्फ ने महिलाओं की रचनात्मक सक्रियता पर जोर दिया है, इसलिए वह एकांत की बात करती हैं। पर वर्जीनिया के जीवन और विचार को को देखें तो वह लगातार इस बात पर जोर दे रही थीं कि महिलाओं को अपने भीतर की ताकत और क्षमता पहचाननी होगी और यह तभी होगा जब वह खुद को लेकर जागरूक होंगी। जो दुनिया है और जो परिवेश है, उसमें महिला के गुम हो जाने का खतरा है। इसलिए वह पर्सनल स्पेस की बात करती हैं, उसकी पूरजोर तरीके से वकालत करती हैं। वर्जीनिया का ही एक और विख्यात कथन है-
से लिख पाती हूं, न पढ़ पाती हूं। मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि मेरी जिंदगी की खुशी बस तुमसे है। तुम मेरे साथ बहुत ही सब्र के साथ और आश्चर्यजनक रूप से प्यार से रहे हो। मैं ये कहना चाहती हूं और सब ये जानते हैं। अगर मुझे बचाने की किसी के पास क्षमता होती, तो वह तुम होते। मैं सबकुछ खोती जा रही हूं लेकिन ये मुझे पता है कि तुम कितने अच्छे हो। लेकिन अब मैं तुम्हारी जिंदगी और बरबाद नहीं कर सकती। मुझे नहीं लगता कि हम साथ में जितने खुश रहे, उतना कोई हो सकता है। अपने पति के नाम इस खत को लिखने के बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। वर्जीनिया वुल्फ की जगह अब भी साहित्य की दुनिया में कोई नहीं ले सकता।
• द वोयेज आउट (1915) • नाइट एंड डे (1919) • जैकब्स रूम (1922) • मिस डैलोवे (1925) • टु द लाइटहाउस (1927) • और्लेंडो (1928) • ट वेव्स (1931) • द ईयर्स (1937) • बिट्वीन द ऐक्ट्स (1941)
‘महिला होने के नाते मेरा कोई देश नहीं है। एक महिला होने के नाते पूरी दुनिया मेरा देश है।’ साफ है कि वह संभावना और रचनात्मक ऊर्जा के साथ महिलाओं के आगे नए सपने और नए अवसरों का द्वार खोल रही थीं। दिलचस्प यह कि 20वीं सदी के आरंभ में जब देश और समाज हर तरह की अधीनता से जूझ रहा था, वर्जीनिया वुल्फ महिलाओं को स्वतंत्रता का नया अर्थ समझा रही थीं।
आत्मकथाएं वर्जिनिया वुल्फ ने निम्नलिखित तीन पुस्तकें प्रकाशित कीं जिन्हें उन्होंने आत्मकथा का उपशीर्षक दिया• ऑर्लैंडो: ए बायोग्राफी (1928, वीटा सैकविलवेस्ट के जीवन से प्रेरित) • फ्लश: ए बायोग्राफी (1933, एलिजाबेथ बैरेट
कई किताबों पर बनीं फिल्में
वर्जीनिया वुल्फ की किताब ‘ऑरलैंडो’ पर 1992 में फिल्म बनी थी, जिसमें टिंडा स्विल्टन ने काम किया था। फिल्म को सैली पोटर ने डायरेक्ट किया था और आईएमडीबी पर इसे 7.2 की रेटिंग हासिल है। यही नहीं, ‘मिसेज डैलोवे’ पर भी फिल्म बन चुकी है। 1997 में बनी इस फिल्म को काफी पसंद किया गया था और इसे एक बेहतरीन फिल्म भी बताया
लघु कथा संग्रह • मंडे एंड ट्यूज्डे (1921) • द न्यू ड्रेस (1924) • अ हौन्टिड हाउस और अन्य लघु कथाएं (1944) • मिस डैलोवेज पार्टी (1973) द कंप्लीट शॉर्टर फिक्शन (1985)
गया था। उनकी कई कहानियों को टीवी धारावाहिकों में उकेरा गया। उनके लिखे पत्रों पर आधारित फिल्म ‘वीटा और वर्जीनिया’ पर पोस्ट प्रोडक्शन में काम चल रहा है।
मौत की त्रासदी
वर्जीनिया की मौत उनकी जिंदगी जितनी ही त्रासदी से भरी हुई है। उन्होंने आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने
ब्राउनिंग के कुत्ते फ्लश कि नज़र से उनकी जीवन गाथा) • रॉजर फ्राई: ए बायोग्राफी (1940) निबंध-आलोचना • मॉडर्न फिक्शन (1991) • द कॉमन रीडर (1925) • ए रूम ऑफ वन्स ओन (1929) • ऑन बीइंग इल (1930) • द लंदन सीन (1931) • द कॉमन रीडर : द्वितीय शृंखला (1932) • थ्री गिनीज़ (1938) • द डेथ ऑफ मोथ एंड अदर ऐस्सैज (1942) • द मोमेंट एंड अदर ऐस्सैज (1947) • द कैप्टेनज डेथ बीएड एंड अदर ऐस्सैज (1950) • ग्रेनाइट एंड रेनबो (1958) • बुक्स एंड पोर्ट्रेट्स (1979) • वीमेन एंड राइटिंग (1979) • कलेक्टेड ऐस्सैज (छह संस्करण) नाटक फ्रेशवाटर: ए कॉमेडी (1923 में प्रस्तुत, 1935 में संशोधित और 1976 में प्रकाशित)
इंग्लैंड के ससेक्स िस्थत अपने घर के पास की नदी में खुद को डुबो लिया था। उस वक्त वह महज 59 साल की थीं। उस वक्त उन्होंने डायरी लिखी थी और अपने पति को लिखे उनके आखिरी पत्र से पता चलता है कि वह कितने गहरे अवसाद में डूबी हुई थीं। उनकी डायरियों से पता चलता है कि वह मौत के प्रति कितनी आसक्त होती जा रही थीं।
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विरासत
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खतरे में बिहार का 'खजुराहो' बिहार का खजुराहो कहे जाने वाले 18वीं सदी में बने नेपाली मंदिर में काम-कला के अलग-अलग आसनों का चित्रण लकड़ी पर उकेरित है
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मनोज पाठक
हार का 'खजुराहो' कहे जाने वाले हाजीपुर के नेपाली मंदिर का अस्तित्व खतरे में है। रखरखाव के अभाव में यह मंदिर जर्जर हो चुका है। इस मंदिर को देखने कभी दूर-दूर से पर्यटक आया करते थे और इसे देखकर प्रसन्न होते थे, लेकिन आज इस नेपाली मंदिर को देखने पर्यटक आते तो जरूर हैं, लेकिन इसकी हालत देख मायूस लौट जाते हैं। बिहार का खजुराहो या मिनी खजुराहो वैशाली जिला मुख्यालय हाजीपुर के गंगा-गंडक नदी के संगम के कौनहारा घाट पर बना नेपाली मंदिर है। भगवान शिव के इस मंदिर में काष्ठ कला की खूबसूरत कारीगरी की गई है। इसी काष्ठ (लकड़ी) कला में काम कला के अलग-अलग आसनों का चित्रण है। यही कारण है कि इसे बिहार का खजुराहो कहा जता है। हाजीपुर के आरएन कॉलेज में इतिहास विभाग की अध्यक्ष डॉ. जयप्रभा अग्रवाल ने बताया कि
तीन तल्लों में निर्मित मंदिर के मध्य कोने के चारों किनारों पर कलात्मक काष्ठ स्तंभ हैं, जिनमें युगल प्रतिमाएं रोचकता लिए हुए हैं। मंदिर के निर्माण में ईंट, लौहस्तंभ, पत्थरों की चट्टानें, लकड़ियों की पट्टियों का भरपूर इस्तेमाल हुआ है इस ऐतिहासिक मंदिर का निर्माण 18वीं सदी में नेपाली सेना के कमांडर मातबर सिंह थापा ने करवाया था। नेपाली वास्तुकला शैली के इस मंदिर में काम-कला के अलग-अलग आसनों का चित्रण लकड़ी पर किया गया है। इस मंदिर का संरक्षण ठीक से नहीं हो पाया, इसीलिए इन बेशकीमती लकड़ियों में दीमक भी लग गई है। उन्होंने बताया कि मंदिर को नेपाली सेना के कमांडर ने बनवाया था, इसलिए आम लोगों में यह 'नेपाली छावनी' के तौर पर भी लोकप्रिय है। तीन तल्लों में निर्मित मंदिर के मध्य कोने के चारों किनारों पर कलात्मक काष्ठ स्तंभ हैं, जिनमें युगल प्रतिमाएं रोचकता लिए हुए हैं। मंदिर के निर्माण में ईंट, लौहस्तंभ, पत्थरों की चट्टानें,
लकड़ियों की पट्टियों का भरपूर इस्तेमाल हुआ है। मंदिर के गर्भगृह में लाल बलुए पत्थर का शिवलिंग विद्यमान है। ऐतिहासिक धरोहरों को सहजने में दिलचस्पी रखने वाले सुयोग कुमार गोगी का कहना है कि खजुराहो से यह मंदिर किसी मायने में कम नहीं। वे कहते हैं कि पटना से यहां पहुंचने वाले अधिकारी हों या मंत्री सभी को इस मंदिर के बारे में बताया जाता है, मगर अब तक कोई ध्यान नहीं दे रहा है। आज इस मंदिर में जगह-जगह से लकड़ी गिर रही है। लकड़ियों को दीमक खाए जा रही है। वे कहते हैं कि आज भी इस मंदिर देखने पर्यटक खुशी-खुशी आते हैं, लेकिन आने के बाद इसके रखरखाव की स्थिति देखकर उन्हें दुख
होता है। इसके संरक्षण को लेकर पुरातात्विक निदेशालय (बिहार सरकार) के निदेशक अतुल कुमार वर्मा ने कहा कि कुछ दिनों पूर्व भवन निर्माण विभाग को इसके सुधार के लिए राशि आवंटित की गई थी, मगर उनके पास इस काम के लिए दक्ष अभियंताओं की कमी के कारण वह इसके लिए तैयार नहीं हो सका। उन्होंने कहा, ‘नेपाली मंदिर के संरक्षण को लेकर सरकार गंभीर है और हमने इंटेक (इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हैरिटेज) से संपर्क साधा है। उम्मीद है 15-20 दिनों में इंटेक के साथ समझौता हो जाए और संरक्षण का काम प्रारंभ किया जा सके।’ उन्होंने कहा कि इस मंदिर में लकड़ी पर नक्काशी उकेरी गई है। इसके संरक्षण के लिए दक्ष अभियंताओं की आवश्यकता होती है। बहरहाल, यह मंदिर आज अपनी दुर्दशा पर रो रहा है। अगर सरकार अपने आश्वासनों पर खरा उतर पाई तो बिहार में पर्यटन को बढ़ाने के लिए बहुत मददगार साबित होगा।
12 - 18 नवंबर 2018
‘मेघे ढाका तारा’ बनकर आज भी जीवित ऋत्विक घटक
‘मेघे ढाका तारा’ पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से आए तथा कलकत्ता में गुजर कर रहे शरणार्थी परिवार की एक युवती की गमजदा कहानी बयान करती है। इस फिल्म के जरिए ऋत्विक हमेशा जीवित रहेंगे
भा
एसएसबी ब्यूरो
रतीय सिनेमा को वैश्विक पहचान दिलाने वालों में ऋत्विक घटक का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ के जरिए घटक ने मेलोड्रामा विधा को एक नई ऊंचाई प्रदान की। मेलोड्रामा को तार्किकता से प्रेरित किया लेकिन फिर भी उन्हें वह स्थान नहीं मिला, जो उन्हें मिलना चाहिए था। भारतीय सिने इतिहास में फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ एक विलक्षण स्थान रखती है। निर्देशक ऋत्विक घटक सत्यजीत रे के समकालीन थे। सिर्फ बदकिस्मती ही थी कि वे सत्यजीत के बराबर प्रसिद्ध नहीं हो सके। अन्यथा विधा के स्तर पर ऋत्विक सत्यजीत से कमतर नहीं थे। घटक ने एक गमगीन जिंदगी गुजारी। उनकी अनेक फिल्में लंबे अरसे तक रिलीज नहीं हो सकीं, जबकि कुछ ने दिन के उजाले को भी नहीं देखा। घटक को उन्हें बीच रास्ते में ही छोड़ देना पड़ा, या यूं कहें वे फिल्में ही बेवफा हो गईं। कहते हैं कि आप अपने सपनों की ताबीर की मुकम्मल तस्वीर नहीं देख सकें। सफलता के इंतजार में घोर उदासी एवं एकांत के शिकार हो गए। साठ के दशक की शुरुआत में शराब की लत से वे मनोरोग की चपेट में आए। तबीयत बिगड़ने पर 1965 में उन्हें पहली बार आपको अस्पताल में दाखिल किया गया लेकिन यह तो महज एक दुखदायी अनुभव यात्रा की शुरुआत थी, क्योंकि ताउम्र जब तक ऋत्विक जीवित रहें उनका मनोरोग अस्पताल आना-जाना लगा रहा। 1976 में 51 वर्ष की आयु में असामयिक निधन होने के साथ आपकी विलक्षण रचनात्मकता घुटकर मर गई। ऋत्विक घटक की फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ को सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म होने का गौरव प्राप्त है। ‘मेघे ढाका तारा’ पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से आए तथा कलकत्ता में गुजर कर रहे शरणार्थी परिवार की एक युवती की गमजदा कहानी बयान करती है। यहां उसका परिवार एक साधारण जिंदगी गुजर कर रहा है। फिल्म नीता के किरदार में मध्यवर्गीय युवती की कथा को लेकर बढ़ती है। नीता का जीवन मध्यवर्गीय अवरोधों से दो-चार है। परिवार को चलाने के लिए उसे काम करना होगा। कॉलेज के फाइनल इयर तक आते-आते वो काफी सहयोग करने लगी। अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए वो पिता का सहयोग करती है लेकिन आए दिन सदस्यों की जरूरतें बढ़ रही थीं, जो कि मानसिक दबाव का
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कही-अनकही
ऋत्विक घटक की फिल्म ‘मेघे ढाका कारण बन रही थी। नीता भूमिकाओं का निर्वाह किया। तारा’ के जरिए चित्रात्मक रूप से एक के इस कठोर संघर्ष में सुप्रिया जी का किरदार एक बुलंद सनक एवं अत्यधिक पूर्ण किंतु प्रेरणा एवं सहारे के रूप में दिलचस्प रूप लिए हुए है। उत्तेजक रूप से मोहक एवं गं भ ीर रूप शंकर एवं सनत जैसे लोग ऋत्विक घटक की से निर्धनता, मोहभंग तथा वनवास थे। गायन में अपना करियर फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ का व्यक्तिगत आख्यान प्रस्तुत हुआ बनाने के लिए नीता का के जरिए चित्रात्मक रूप भाई उसके प्यार-दुलार का से एक बुलंद सनक एवं फायदा अकसर उठाता रहा अत्यधिक पूर्ण किंतु उत्तेजक जबकि दूसरी ओर उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद लिए रूप से मोहक एवं गंभीर रूप से निर्धनता, मोहभंग मंगेतर सनत पीएचडी कर रहा है। परिवार के सदस्य तथा वनवास का व्यक्तिगत आख्यान प्रस्तुत हुआ। अपने-अपने अवसरवादी तरीके से प्रतिक्रियाएं दे रहे प्रकाश एवं छाया के रोचक परस्पर क्रिया के साथ हैं। जीने के व्यक्तिगत संघर्ष में सभी अपने हिस्से का आक्रामक ध्वनियों का इस्तेमाल (जो कि एक दबाव नीता के हिस्से में जोड़ रहे हैं। प्रभावपूर्ण भावनात्मक स्तर की रचना कर गए) का ये तमाम बातें नीता के लिए अत्यंत पीड़ा एवं इस्तेमाल हुआ। संघर्ष का सबब बन रही है जो कि अंततः परिवार घटक एक अद्भुत संवेदनात्मक अनुभव यात्रा की एकमात्र खेवनहार रह गई थी। परिवार के निर्मित करने में सफल रहें जिसमें कि मानवीय हित में नीता अपना सर्वस्व त्याग देती है, अपनी आत्मा का संस्थागत तरीके से विघटन का चित्रण व्यक्तिगत खुशियां, धन एवं स्वास्थ्य को उसने भूला मिलता है। परिवार चलाने के लिए पढ़ाई त्याग देने दिया। दुख की इंतिहा देखिए कि उसके एहसान को बाध्य हो जाने बाद नीता पर क्या गुजरी? सीढ़ियों एवं त्याग को आसपास के लोगों ने कभी सम्मान से उतरती नीता का दृश्य याद करें, मां खाना बना नहीं दिया।अभिनय में नीता के किरदार में सुप्रिया रही, जहां से सामान्य से अधिक आवाजें छन कर आ चौधरी एवं सनत के रोल में निरंजन रॉय ने दमदार रही हैं। मां सनत एवं नीता की चुपके से जासूसी कर
खास बातें भारतीय सिने इतिहास में फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ एक विलक्षण स्थान वे सत्यजीत रे के समकालीन थे, पर उनके जैसा सम्मान नहीं मिला 1976 में 51 वर्ष की आयु में असामयिक निधन हुआ ऋत्विक का रही जो कि रिश्ते को लेकर उसकी चिंता एवं खीझ को व्यक्त करती है। चिंता इसकी कि वो परिवार की आय का एकमात्र सहारा खो देगी। नीता की तुलनात्मक छायाएं, पहली वो जब जालीदार खिड़की के समक्ष खड़ी होकर सनत का खत पढ़ रही। दूसरी वो नीता जो कि शंकर की वापसी के बाद खिड़की के उस पार छिपी हुई प्रकट हुई। नीता, शंकर द्वारा गुरुदेव रवींद्रनाथ का एक दर्द भरा गीत गाने के साथ दर्द की अभूतपूर्व दुनिया रचती है। दोस्तोवस्की की रचना ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ में बोझ एवं जिम्मेदारी के संदर्भ में कुछ ऐसा ही था। ऋत्विक घटक ने ‘मेघे ढाका तारा’ को बंगाल विभाजन की त्रासद परिणीति का रूपक बनाने में सफलता अर्जित की। गरीबी, स्थानांतरण, स्वार्थ एवं आंतरिक मतभेदों के परिणाम में एक बंगाली परिवार किस तरह से टूट-बिखर गया इसे दिखाया गया है। दूर क्षितिज को दो भागों में विभाजित करती रेलगाड़ी की आकृति बार-बार दिखाना दरअसल घर नामी विरासत के विभाजन का प्रतिबिंब था। नीता आत्म-निषेध, जरूरत एवं शोषण से उपजी बर्बादी की स्थिति से उबरने की कोशिश से हार नहीं रही। उसकी वेदना से फूट पड़ना, बेघर शरणार्थियों की आत्मा से उपजी तड़प का रुदन प्रतिबिंब थी। पूरे कथाक्रम में घटक ने मानवीय प्रवृत्ति एवं जीने की इच्छा को यथार्थ के कठोर सत्य एवं निर्दयता के स्तर तक भट्टी में उबाला। घटक की फिल्म निश्चित रूप से वैचारिक एवं अकाट्य किस्म की है लेकिन इसमे बुलंद अथवा अहंकारी आदर्शों को कोई जगह नहीं मिली। अपनी उजाड़ दुनिया के पूरे परिप्रेक्ष्य में ‘मेघे ढाका तारा’ भारतीय सिनेमा की एक अनिवार्य एवं महानतम मौलिक प्रस्तुतियों में एक थी। जीवन के अंतिम अरण्य में ऋत्विक घटक ने लिखा, ‘मुझे एक कलाकार नहीं कहें, ना ही मुझे सिनेमा का मर्मज्ञ सम्बोधित करना ठीक होगा। सिनेमा मेरे लिए एक कला नहीं, यह लोगों की सेवा करने का एक माध्यम मात्र है। मैं एक समाजशास्त्री नहीं इसलिए मुझे सिनेमा को लेकर जनलोकप्रिय मान्यता कि ‘सिनेमा लोगों को बदलने में सक्षम’ पर यकीन नहीं। कोई फिल्मकार दुनिया को कभी बदल नहीं सकता।’ ऋत्विक घटक ने न लोगों को और ना ही दुनिया को बदला लेकिन वो आज भी अपने प्रशंसकों के बीच अपनी विलक्षण प्रतिभा के साथ ‘मेघे ढाका तारा’ बनकर जीवित हैं।
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पुस्तक अंश
12 - 18 नवंबर 2018
संयक्त ु अरब अमीरात
प्रधानमंत्री मोदी की संयक्त ु अरब अमीरात की यह यात्रा, भारत और संयक्त ु अरब अमीरात के बीच व्यापार संबधं ों को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कदम के रूप में देखी गई। साथ ही अबू धाबी में एक भव्य मंदिर बनाने के लिए भूमि आवंटित करने का निरय्ण दोनों देशों की रणनीतिक दृष्टि को दिखाता है।
प्रधानमंत्री की यात्रा हमारे द्विपक्षीय संबंधों में बेहद महत्व की है और हमारे दोनों देशों के बीच बढ़ती राजनयिक, आर्थिक, ऊर्जा और रक्षा सहयोग की ऊंचाई को दर्शाती है।
17 अगस्त, 2015: दुबई के जाबेल पैलेस में संयुक्त अरब अमीरात के उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री एचएच मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम के साथ मुलाकात करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
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से 17 अगस्त, 2015 के बीच मोदी ने संयुक्त अरब अमीरात की दो दिवसीय यात्रा की। यह 34 वर्षों में एक खाड़ी राष्ट्र के लिए किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली यात्रा थी। मोदी ने संयुक्त अरब अमीरात के शीर्ष नेतृत्व के साथ वार्ता की, जिसमें अबू धाबी के क्राउन प्रिंस और संयुक्त अरब अमीरात सशस्त्र बलों के डिप्टी सुप्रीम कमांडर तथा दुबई और संयुक्त अरब अमीरात के शासक शेख मोहम्मद बिन जायद अल नाहयान के साथ एक मुलाकात भी शामिल थी। उन्होंने प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम के साथ भी मुलाकात की और दुबई क्रिकेट ग्राउंड में भारतीय समुदाय को संबोधित किया। भारतीय समुदाय के अपने संबोधन में उन्होंने मलयाली भाषा में बात की, जिसने पूरी भीड़ को उत्साह से भर दिया। भारतीय प्रवासियों को अपने उत्साही भाषण में पीएम मोदी ने कहा कि संयुक्त अरब अमीरात, संयुक्त अरब अमीरात-भारत इंफ्रास्ट्रक्चर इंवेस्टमेंट फंड की स्थापना के माध्यम से भारत में 75 अरब डॉलर निवेश करने के लिए प्रतिबद्ध है, जिसका उपयोग
शेख अब्दुल्ला बिन जायद अल नाहयान विदेश मंत्री, संयुक्त अरब अमीरात
संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा के दौरान मासदर शहर में एक स्वचालित कार में पीएम मोदी
रेलवे, बंदरगाहों, सड़कों, हवाई अड्डों और औद्योगिक गलियारे के निर्माण के लिए किया जाएगा। मोदी ने अबू धाबी में एक हिंदू मंदिर के लिए भूमि आवंटित करने के लिए संयुक्त अरब
अमीरात सरकार की प्रशंसा की और इसे ‘एक महान कदम’ के रूप में वर्णित किया। उन्होंने अबू धाबी में शेख जायद ग्रैंड मस्जिद का दौरा किया, जहां उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात के उच्च शिक्षा और वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्री शेख
संयक्त ु अरब अमीरात में भारतीय प्रवासी समुदाय दुबई क्रिकेट स्टेडियम में प्रधानमंत्री मोदी के इंतजार में
हमदान बिन मुबारक अल नाहयान के साथ एक सेल्फी भी खींची। दोनों देश नियमित अभ्यास और प्रशिक्षण तथा भारत में रक्षा उपकरणों के निर्माण के माध्यम से रक्षा सहयोग को और मजबूत करने पर भी सहमत हुए। यात्रा के दौरान जारी किए गए संयुक्त बयान में आतंकवाद और खुफिया साझाकरण में सहयोग बढ़ाने की प्रतिबद्धता जाहिर की गई, साथ ही मोदी ने कहा कि यह वैश्विक शक्तियों के लिए इस समस्या से निपटने के लिए एकजुट होने का समय है। संयुक्त अरब अमीरात, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में स्थाई सीट के लिए भारत का समर्थन करने के लिए भी सहमत हो गया और खाड़ी देशों में भारत के दूसरे सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार के रूप में अगले पांच वर्षों में 60 प्रतिशत तक व्यापार को बढ़ावा देने के लिए सहमत हुआ। भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच व्यापार पिछले साल 60 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। संयुक्त अरब अमीरात ने यह भी कहा कि वह भारत को उसके अपस्ट्रीम और डाउनस्ट्रीम पेट्रोलियम क्षेत्रों के अलावा रणनीतिक पेट्रोलियम भंडार विकसित करने में भी मदद करेगा।
यूके
12 - 18 नवंबर 2018
मुझे यहां प्रधानमंत्री मोदी का स्वागत करने में प्रसन्नता हो रही है। वह भारत के लोगों के एक विशाल जनादेश के साथ आते हैं, जिन्होंने उन्हें बहुत बड़े और ऐतिहासिक बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनाया। मुझे लगता है कि यह एक आधुनिक, गतिशील साझेदारी के रूप में है... जगुआर लैंड रोवर - ब्रिटेन में सबसे सफल कार निर्माताओं में से एक भारतीय पैसे और ब्रिटिश डिजाइन और विनिर्माण विशेषज्ञता का संयोजन है। डेविड कैमरन, यूनाइटेड किंगडम के पूर्व प्रधानमंत्री
पुस्तक अंश
13 नवंबर, 2015: लंदन के 10 डाउनिंग स्ट्रीट पर यूक-े इंडिया सीईओ फोरम में पूर्व प्रधान मंत्री डेविड कैमरून और पीएम मोदी
हमें ब्रिटेन के साथ निकट संबंध और लंबी साझेदारी का अनुभव है। ब्रिटेन का पुनरुत्थान प्रभावशाली है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के भविष्य पर इसका प्रभाव मजबूत बना हुआ है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ब्रिटिश संसद के अपने संबोधन में
ग्रेट ब्रिटेन की संसद के सदन की रॉयल गैलरी में भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
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नवंबर से 15 नवंबर, 2015 के बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यूनाइटेड किंगडम (यूके)के दौरे पर गए। ब्रिटेन में दोनों प्रधानमंत्रियों मोदी और डेविड कैमरन ने द्विपक्षीय संबंधों की बढ़ती ताकत और गहराई का जश्न मनाया और दोनों देशों के लोगों की सुरक्षा और समृद्धि को सुरक्षित रखने और बढ़ावा देने के लिए ब्रिटेन और भारत के बीच स्थाई संपर्क पर जोर दिया। यूके नेतृत्व ने भारत के आर्थिक विकास और वैश्विक शक्ति के रूप में बढ़ते कदमों को भी स्वीकार किया, जिसमें कहा गया कि आर्थिक विकास और समावेशी विकास को बढ़ावा देने, नियमों को अंतरराष्ट्रीय प्रणाली और वैश्विक खतरों से मुकाबले को मजबूत करने के लिए द्विपक्षीय साझेदारी को आगे बढ़ाने और विस्तार करने के अवसर प्रदान किए जाएंगे। दोनों प्रधानमंत्रियों ने ‘विजन स्टेटमेंट’ का समर्थन किया जो कि मौलिक सिद्धांतों को निर्धारित करता है जिस पर यूके-इंडिया भागीदारी का निर्माण किया गया है, साथ ही सहयोग को बेहतर बनाने के लिए एक रोडमैप रेखांकित किया गया है। उन्होंने
भागीदारी को आगे बढ़ाने के लिए द्विपक्षीय पीएम-स्तरीय शिखर सम्मेलन आयोजित करने का संकल्प किया। उन्होंने साइबर सुरक्षा, आतंकवाद और समुद्री सुरक्षा सहित रक्षा और सुरक्षा पर सहयोग को तेज करने के लिए एक नई रक्षा और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा भागीदारी पर भी सहमत होने का संकल्प किया। यात्रा के दौरान भारत और ब्रिटेन दोनों ऊर्जा और जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त बयान का समर्थन करने के लिए सहमत हुए। वे ‘तीसरे देशों में सहयोग के लिए साझेदारी के इच्छुक होने के वक्तव्य’ के माध्यम से विकास के लिए वैश्विक साझेदारी के लिए द्विपक्षीय सहयोग को बढ़ाने और पूरी तरह मांग-संचालित तरीके से विकास की चुनौतियों को दूर करने में सहायता प्रदान करने पर भी सहमत हुए। तत्कालीन प्रधानमंत्री कैमरन ने प्रधानमंत्री मोदी की ‘मेक इन इंडिया’ पहल का स्वागत किया, जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि सहयोग के इस मॉडल को ब्रिटेन के निवेश और भारत के साथ साझेदारी में पहले ही गहराई से शामिल
13 नवंबर, 2015: बकिंघम पैलसे में क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय से मुलाकात करते हुए प्रधानमंत्री नरन्े द्र मोदी
किया गया था। प्रधानमंत्री कैमरन और मोदी ने यात्रा के दौरान ब्रिटेन और भारत के बीच 9.2 अरब पाउंड के वाणिज्यिक सौदों का स्वागत किया। यूके ने पिछले 15 वर्षों के दौरान भारत में कुल विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का 8.56 प्रतिशत हिस्सा निवेश किया है और भारतीय कंपनियां ब्रिटेन में 110,000 लोगों को रोजगार देती हैं। दोनों प्रधानमंत्रियों ने तकनीकी सहायता, विशेषज्ञता साझा करने और व्यापारिक भागीदारी के माध्यम से भारत के महत्वाकांक्षी शहरी विकास लक्ष्यों का समर्थन करने के लिए इंदौर, पुणे और अमरावती के साथ तीन यूके-भारत शहर साझेदारी की भी घोषणा की। स्वास्थ्य संस्कृति और अपराध के क्षेत्र
29 वेम्बले(ब्रिटेन)में भारतीय समुदाय को प्रधानमंत्री मोदी का संबोधन भारत में कबीर और रहीम की शिक्षा पूरे देश को प्रेरणा देती है
जहां भी मैं प्रधानमंत्री के रूप में जाता हूं, नेता मुझसे पूछते हैं कि 1.25 अरब की विशाल आबादी आपके देश में कैसे इतने शांतिपूर्ण तरीके से रह रही है, जबकि विभिन्न समुदायों की मांगों को पूरा करने की कोशिश करते समय हमारे छोटे राष्ट्र इतनी सारी समस्याओं से जूझ रहे हैं। भारत में कबीर और रहीम की शिक्षा पूरे देश को प्रेरणा देती है। आज जबकि दुनिया आतंकवाद के कारण इस तरह के विनाश को देख रही है, मुझे लगता है कि यदि भारत की सूफी संस्कृति को इस्लाम में प्रमुखता दी गई होती, तो कोई भी बंदूक उठाने का विचार नहीं करता। (13 नवंबर, 2015)
यूनाइटडे किंगडम की प्रधानमंत्री थेरसे ा मे के साथ प्रधानमंत्री नरन्े द्र मोदी
में सहयोग के लिए समझौतों को भी शामिल किया गया था। मोदी ने बकिंघम पैलेस में क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय से मुलाकात की और अपने ब्रिटिश समकक्ष डेविड कैमरन के साथ वेम्बले स्टेडियम में भारतीय समुदाय को संबोधित भी किया। उन्होंने इंग्लैंड के वेस्ट मिडलैंड्स क्षेत्र में टाटा मोटर्स के स्वामित्व वाली जगुआर लैंड रोवर फैक्ट्री का भी दौरा किया और शीर्ष उद्योग के नेताओं से मुलाकात (अगले अंक में जारी)
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सुलभ संसार
12 - 18 नवंबर 2018
सुलभ अतिथि
कई आगंतुकों ने सुलभ परिसर का अवलोकन किया। इन दौरान ये लोग खासतौर पर सुलभ इंटरनेशनल म्यूजियम ऑफ टॉयलेट्स में ईसा पूर्व 2500 से इस्तेमाल हो रहे विभिन्न तरह के शौचालयों को देखकर अभिभूत रह गए।
लेखक-निर्देशक अभय सिंह के साथ कैमरामैन केशा, साउंडपर्सन अभिजीत के अलावा लंदन से आए रिसर्च थीम लीडर और सीनियर लेक्चरर (केमिकल इंजनीयरिंग) डॉ. दिगंत बी. दास के अलावा अन्य अतिथियों ने सुलभ ग्राम का दौरा किया।
नवभारत टाइम्स के संवाददाता सुजीत मिश्रा और ग्रेटर नोएडा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के 80 छात्रों के समूह ने सुलभ ग्राम का दौरान किया।
मेरठ के साथ म्यूनिसपल कमिशनर मनोज चौहान के साथ 28 विभागीय कर्मचारियों के समूह ने सुलभ ग्राम का दौरान किया। इस दौरान इन लोगों ने यहां चल रही विविध गतिविधियों के बारे में जानकारी लेने में दिलचस्पी दिखाई।
दुख और सुख
ए
चेतना
क सेठ जी थे - जिनके पास काफी दौलत थी। सेठ जी ने अपनी बेटी की शादी एक बड़े घर में की थी। परंतु बेटी के भाग्य में सुख न होने के कारण उसका पति जुआरी, शराबी निकल गया। जिससे सब धन समाप्त हो गया। बेटी की यह हालत देखकर सेठानी जी रोज सेठ जी से कहती कि आप दुनिया की मदद करते हो, मगर अपनी बेटी परेशानी में होते हुए उसकी मदद क्यों नहीं करते हो? सेठ जी कहते कि "जब उनका भाग्य उदय होगा तो अपने आप सब मदद करने को तैयार हो जाएंगे..."
एक दिन सेठ जी घर से बाहर गये थे कि, तभी उनका दामाद घर आ गया। सास ने दामाद का आदर-सत्कार किया और बेटी की मदद करने का विचार उसके मन में आया कि क्यों न मोतीचूर के लड्डूओं में अर्शफिया रख दी जाए... यह सोचकर सास ने लड्डूओं के बीच में अर्शफिया दबा कर रख दी और दामाद को टीका लगा कर विदा करते समय पांच किलो शुद्ध देशी घी के लड्डू, जिनमें अर्शफिया थी, दिए... दामाद लड्डू लेकर घर से चला, दामाद ने सोचा कि इतना वजन कौन लेकर जाए क्यों न यहीं मिठाई की दुकान पर बेच दिए जाएं और दामाद ने वह लड्डुयों का पैकेट मिठाई वाले को बेच दिया और पैसे जेब में डालकर चला गया। उधर सेठ जी बाहर से आये तो उन्होंने सोचा घर के लिये मिठाई की दुकान से मोतीचूर के लड्डू लेता चलू और सेठ जी ने दुकानदार से लड्डू मांगे...मिठाई वाले ने वही लड्डू का पैकेट सेठ जी को वापिस बेच दिया। सेठ जी लड्डू लेकर घर आए.. सेठानी ने जब लड्डूओं का वही पैकेट देखा तो सेठानी ने लड्डू फोड़कर देखे, अर्शफिया देख कर अपना माथा पीट लिया। सेठानी ने सेठ जी को दामाद के आने से लेकर जाने तक और लड्डुओं में अर्शफिया छिपाने की बात कह डाली।
सेठ जी बोले कि भाग्यवान मैंने पहले ही समझाया था कि अभी उनका भाग्य नहीं जागा। देखा मोहरें ना तो दामाद के भाग्य में थी और न ही मिठाई वाले के भाग्य में। इसीलिए कहते हैं कि भाग्य से ज्यादा और... समय से पहले न किसी को कुछ मिला है और न मीलेगा! इसीलिए ईश्वर जितना दे उसी मैं संतोष करो। झूला जितना पीछे जाता है, उतना ही आगे आता है। एकदम बराबर। सुख और दुख दोनों ही जीवन में बराबर आते हैं। जिंदगी का झूला पीछे जाए, तो डरो मत, वह आगे भी आएगा।
गणित जीवन का अंगिता
जोड़ (+) सदा ऊपर ले जाए एक-एक मिल भवन बनाए गुणा (X) सकल गुणों की खान पाने वाला बड़ा महान करे घटाना (-) घर को खाली बिगड़ रही हालत है माली भाग (/) सदा हिस्सा दर्शाए अंतर मन में द्वंद्व मचाए यही अंग जीवन के सारे, भलि-भांति तुम समझो प्यारे
आओ हंसें
जीवन मंत्र
किसी भी कागज पर वजन रखे तो वो अपनी जगह से हिलता नहीं - न्यूटन लेकिन सरकारी फाइल पर वजन रखने से वो तेजी से हिलता है- न्यूटन का चचेरा भाई यूटर्न
बच्चे का जवाब
शिक्षक : 1 से 10 तक गिनती सुनाओ। संता : 1, 2, 3, 4, 5, 7, 8, 9, 10.. शिक्षक : 6 कहां है? संता : जी, वो तो मर गया। शिक्षक : मर गया? कैसे मर गया? संता : जी मैडम, आज सुबह टीवी पर न्यूज में बता रहे थे कि डेंगू से 6 की मौत हो गई! शिक्षक बेहोश।
सु
जिसे खुद पर विश्वास होता है वह दूसरों का भी विश्वास जीत लेता है
न्यूटन का भाई यूटर्न
डोकू -48
रंग भरो सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी विजेता को 500 रुपए का नगद पुरस्कार दिया जाएगा। सुडोकू के हल के लिए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें
महत्वपूर्ण तिथियां
• 14 नवंबर बाल दिवस, विश्व मधुमहे दिवस • 14-20 नवंबर राष्ट्रीय पुस्तकालय सप्ताह • 15 नवंबर बिरसा मुंडा जयंती • 16 नवंबर अंतरराष्ट्री य सहनशीलता दिवस • 17 नवंबर लाला लाजपत राय बलिदान दिवस, विश्व विद्यार्थी दिवस
बाएं से दाएं
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इंद्रधनुष
12 - 18 नवंबर 2018
1. चंद्रिका (3) 3. भाईचारा, निकट संबंधर (5) 6. दहकता पत्थर, शोला (3) 7. पक्ष लेने वाला (5) 8. उल्टी, कै (3) 9. अन्नकण (2) 10. आनंद का खजाना, एक प्राचीन कवि (4) 13. अभिलाषा (4) 15. कामदेव की पत्नी (2) 16. एक फल जिसमें भुनगे रहते हैं (3) 17. मन को लुभाने वाला (5) 19. बचाने का प्रयास (3) 20. अपने देश का (2,3) 21. जुआ खेलने का लती (3)
सुडोकू-47 का हल विजेता का नाम लोकेश तिवारी पटना, बिहार
वर्ग पहेली-47 का हल
ऊपर से नीचे
2. परम्परा, प्रथा (3) 3. भंडार, खजाना (3) 4. दूरी पर, ब्रह्म-विद्या (2) 5. भोज का निमंत्रण (5) 6. अनुमानतः, लगभग (4) 7. चित्र (3) 8. आक का पेड़ (3) 11. सबसे सरल (5) 12. आदर-सत्कार, वास्ते (3) 13. बिलकुल नया (4) 14. नाचने वाला (3) 17. रखवाली के लिये बना ऊँचा स्थान (3) 18. सीरा (3) 19. बात का संक्षिप्त (2)
कार्टून ः धीर
वर्ग पहेली - 48
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न्यूजमेकर
अनाम हीरो
रा
प्रवीण रंजन
लड़कियों का मददगार ऑटो ड्राइवर ऑटो ड्राइवर की तारीफ में लिखा गया एक लड़की का पोस्ट हुआ वायरल
त में यात्रा करना खासकर लड़कियों और महिलाओं के लिए चिंताजनक होता है और यह चिंता गलत भी नहीं है। आए दिन ऐसी वारदातें होती रहती हैं, जिससे डर और बढ़ जाता है, लेकिन दिल्ली के एक ऑटो ड्राइवर ने ऐसी मिसाल पेश की है, जिसे जानकर आपको भी सुखद आश्चर्य होगा। कुछ दिनों पहले एक लड़की देर रात अपने ऑफिस से घर लौट रही थी। इसी बीच, उसकी मुलाकात एक ऑटो-रिक्शा वाले से हुई। लेकिन उस रिक्शा चालक ने उस लड़की से साथ ऐसा नेक व्यवहार किया है, जिसकी सोशल मीडिया पर जमकर तारीफ हो रही है। कोलकाता की रहने वाली नेहा दास ने फेसबुक पर अपनी कहानी साझा करते हुए बताया कि कुछ दिन पहले दिल्ली में ऑफिस से निकलने के बाद वो बाहर ऑटो का इंतजार कर रही थी। इसी बीच एक ऑटोवाला आकर रुकता है। किराया
पूछने पर उसने ऐसा जवाब दिया, जिसे सुनकर नेहा हैरान रह गईं। ऑटो ड्राइवर प्रवीण रंजन ने कहा- ‘मैडम मैं कुछ नहीं लेता लड़कियों से इतनी रात को, उनको ठीक से घर पहुंचाना ज्यादा जरूरी है।’ हालांकि नेहा की बहुत जिद करने पर प्रवीण ने सिर्फ बेसिक किराया लिया, लेकिन नाइट चार्ज लेने से उसने इनकार कर दिया। नेहा ने अपने पोस्ट में बताया है कि जब वो घर पहुंच गईं और ऑटो ड्राइवर ने एक्सट्रा चार्ज लेने से मना कर दिया तब उन्होंने शख्स की फोटो लेने की बात कही। जिसके लिए प्रवीण रंजन ने मुस्कुराते हुए हामी भर दी। नेहा ने अपने पोस्ट में रंजन का आभार व्यक्त करते हुए कहा है कि इस तरह के नेक और अच्छे लोगों के लिए भगवान का शुक्रिया। सोशल मीडिया यूजर्स भी प्रवीण रंजन की तारीफ कर रहे हैं, वहीं कई यूजर्स ने प्रवीण रंजन को सैल्यूट किया है।
समय गोडिका
मेधावी समय
बें
12 - 18 नवंबर 2018
‘ब्रेकथ्रू जूनियर चैलेंज’ में सेमीफाइनल तक पहुंचे भारतीय छात्र समय
न्यूजमेकर
गलुरु के रहने वाले समय ने ‘ब्रेकथ्रू जूनियर चैलेंज’ में दुनियाभर के 6,000 स्टूडेंट्स को पीछे छोड़ते हुए सेमीफाइनल में अपनी जगह पक्की कर ली है। इस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार पाने वाले प्रतिभागी को लगभग डेढ़ करोड़ रुपए प्रदान किए जाएंगे, वहीं जिस अध्यापक से प्रेरित होकर प्रतिभागी ने इस प्रतियोगिता में भाग लिया होगा उसे भी तीस लाख का पुरस्कार मिलेगा। समय को यह पुरस्कार फेसबुक पर उसके वीडियो को मिले लाइक, शेयर और पॉजिटिव रिएक्शंस के आधार पर मिलेगा। सभी 30 प्रतिभागियों के वीडियो पब्लिक वोट के लिए फेसबुक पर शेयर किए गए हैं। कैंसर, अल्जाइमर या पार्किंसन जैसी बीमारियों से लड़ने के लिए सिर्फ मेडिकल ट्रीटमेंट की जरूरत नहीं होती। व्रत या भूखे रहने और सेल्फ-क्लीनिंग सिस्टम के पीछे काम करने वाला मैकेनिज्म ऑटोफजी न केवल आपको स्वस्थ रखने में मदद करता है, बल्कि इस तरह की गंभीर न्यूरोलॉजिकल और बायोलॉजिकल बीमारियों से दूर रखने में भी मदद करता है। 15 वर्षीय समय नेशनल पब्लिक स्कूल, कोरमंगला, बेंगलुरु के छात्र हैं। इस विषय पर एक सरल- सा वीडियो बनाकर समय ने 'ब्रेकथ्रू जूनियर चैलेंज' में टॉप-30 में जगह बनाई है। इस प्रतियोगिता को फेसबुक, गूगल और खान एकेडमी ने स्पांसर किया है।
प्र
असमा जहांगीर
मानवाधिकार की असमा
पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता को मरणोपरांत संयक्त ु राष्ट्र मानवाधिकार पुरस्कार प्रदान किया गया
सिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता असमा जहांगीर का पिछले वर्ष दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था। उन्हें इस वर्ष दिसंबर में संयुक्त राष्ट्र का मानवाधिकार पुरस्कार दिया जाएगा। संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष मारिया फर्नैंडा एस्पिनोसा गार्सेस ने हाल में इसकी घोषणा की। यह प्रतिष्ठित पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है, जिन्होंने मानवाधिकार के क्षेत्र में बेहतरीन काम किया है। इसे पाने वालों में मार्टिन लूथ किंग, नेल्सन मंडेला और जिमी कार्टर जैसी हस्तियां शामिल हैं। असमा पाकिस्तान के उन चुनिंदा सामाजिक कार्यकर्ताओं में शुमार होती थीं जो सत्ता-संस्थानों के अन्याय के खिलाफ खुलकर बोलते थे, खास तौर पर सैन्य तानाशाही की तो वे मुखर विरोधी
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 48
थीं। बहुत- सी लड़ाइयां वे अदालतों में ले गईं जो अब कानूनी इतिहास का हिस्सा बन चुकी हैं। मसलन 1972 का जिलानी बनाम पंजाब सरकार मामला। तब पाकिस्तान में याह्या खान के नेतृत्व में सैन्य शासन लागू था। सरकार ने असमा के पिता को कैद कर लिया था। इसे उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी और अदालत ने सैन्य शासन को ‘अवैधानिक’ घोषित कर दिया था। असमा जहांगीर जनरल जिया-उलहक के सैन्य शासन के खिलाफ भी लड़ीं। उस वक्त उनका घर ऐसे लोगों का बड़ा जमावड़ा बन चुका था, जिनके खिलाफ सरकार ने तमाम मुकदमे खोल दिए थे। इस संघर्ष में उन्हें जेल तक जाना पड़ा। पिछले वर्ष 11 फरवरी को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया था।