व्यक्तित्व 20
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अमेरिका का गांधी
इतिहास पुस्तक अंश
बहादुरी और दृढ़ता का अमर ‘प्रताप’
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स्वच्छ भारत
कही-अनकही
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दुर्गा खोटे ने खोली राह
sulabhswachhbharat.com आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
प
रचना मिश्रा
सीने और उमस से तर-बतर कर देने वाले मौसम को भला कौन पसंद करेगा। पर हर वर्ष अगर किसी एक वजह से गर्मी के मौसम का इंतजार सबसे ज्यादा होता है, तो वह है आम। आम का नाम लेते ही किसके मुंह में पानी नहीं आता होगा। अपने लाजवाब स्वाद की वजह से ही आम को फलों का राजा कहा जाता है। दिलचस्प है कि जिस तरह आम को फलों का राजा कहा जाता है, उसी तरह दशहरी आम को आमों का राजा माना जाता है। आम की इस हैसियत को सही साबित करने के लिए किसी ने माकूल ही लिखा है, ‘फिरदौस में गंदुम के एवज में आम जो खाते, आदम कभी जन्नत से निकाले नहीं जाते'। भारत सहित दुनिया भर में आम के स्वाद का जादू क्यों सिर चढ़ कर बोलता है, इसका जवाब कुछ आंकड़ो से खुद मिल जाता है। दुनिया भर में आम का जो उत्पादन होता है, उसमें 54 प्रतिशत आम की किस्में भारत से जुड़ी हैं। इतना ही नहीं पूरे विश्व का 63 प्रतिशत आम भारत में पैदा होता है। भारत में सिर्फ मरूस्थल और समुद्र तल से 1000 मीटर की ऊंचार्इ वाले इलाकों को छोड़कर पूरे देश में आम की पैदावार होती है। विश्व में आम की 1365 से भी ज्यादा किस्में पार्इ जाती हैं, जिसमें
वर्ष-2 | अंक-24 | 28 मई - 03 जून 2018
आम का खास सफर
आम को फलों का राजा कहा जाता है, तो दशहरी को आमों का राजा। आम की इस हैसियत को सही साबित करने के लिए किसी ने माकूल ही लिखा है कि ‘फिरदौस में गंदुम के एवज में आम जो खाते, आदम कभी जन्नत से निकाले नहीं जाते’
खास बातें
दुनिया में मौजूद आम की किस्मों में 54 प्रतिशत आम भारतीय हैं भारत में 1.23 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर आम की खेती होती है पूरे विश्व का 63 प्रतिशत आम भारत में पैदा होता है
डॉ. विन्देश्वर पाठक और अमोला पाठक पटना में अपने आम के बगीचे में।
से लगभग 1000 किस्में भारत में ही पार्इ जाती हैं। भारत में कम से कम 1.23 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर आम की खेती होती है। आम की जन्मभूमि मूलतः पूर्वी भारत में असम, बांग्लादेश व म्यांमार मानी जाती है। भारत से ही
आम पूरी दुनिया में फैला। चौथी-पांचवी सदी में बौद्ध धर्म प्रचारकों के साथ आम मलेशिया और पूर्वी एशिया के देशों तक पहुंचा। पारसी लोग 10वीं सदी में इसे पूर्वी अफ्रीका ले गए। पुर्तगाली 16वीं सदी में इसे ब्राजील ले गए। वहीं से यह वेस्टइंडीज
और मैक्सिको पहुंचा। अमेरिका में यह 1861 में पहली बार उगाया गया।
आम का इतिहास
लगभग 4000 साल से ज्यादा की ऐतिहासिक
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आवरण कथा
28 मई - 03 जून 2018
डॉ. विन्देश्वर पाठक (दाएं) और अमोला पाठक नए फले आम के गुच्छे के साथ
विरासत को अपने बागों में समेटे आम भारतीय उपमहाद्वीप का प्रमुख फल है। यह भारतीय संस्कृति व धर्म का भी एक अभिन्न अंग है। अपने विशिष्ट गुणों के कारण ही इसे फलों का राजा कहा जाता है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक हर समय आम का महत्व रहा है। चरक संहिता में आम के पेड़ एवं फल का चिकित्सकीय रूप में भी वर्णन मिलता है। प्रसिद्ध सूफी संत एवं शायर अमीर खुसरो ने भी आम के महत्व को अपने साहित्य में उकेरा है। ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में कालिदास ने वसंत ऋतु में आम्र कुंजों का वर्णन अत्यंत श्रृंगारिक रूप से किया हैं। बौद्ध स्तूपों और प्राचीन मूर्तियों में भी आम को दर्शाया तथा परिभाषित किया गया है। मुगल बादशाह अकबर ने बिहार के दरभंगा के पास आम के एक लाख पेड़ लगाए थे, जिसे लक्खी बाग के नाम से आज भी जाना जाता है। रामायण-महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों में आम का उल्लेख मिलता है। इस बात का भी जिक्र मिलता है कि 327 ईसा पूर्व में सिकंदर के सैनिकों ने सिंधु घाटी में आम के पेड़ देखे थे। ह्वेनसांग ने भी आम का जिक्र किया है और इब्न बतूता के विवरणों में तो कच्चे आम का अचार बनाने और पके आम को चूसकर अथवा काट कर खाने का भी उल्लेख मिलता है। मुगल बादशाहों को भी आम बहुत प्रिय था। मुगलवंश के संस्थापक जलालुद्दीन बाबर को भी आम पसंद थे। ‘बाबरनामा’ में जिक्र है कि ‘आम अच्छे हों तो बहुत ही बढ़िया होते हैं पर बहुत खाओ तो थोड़े से ही बढ़िया वाले मिलेंगे। अक्सर लोग कच्ची केरियां तोड़ लेते हैं और पाल डाल कर पकाते हैं। गदरी केरियों का कातीक (मुरब्बा) लाजवाब बनता है। शीरे में भी अच्छा रहता है। कुल
आम के स्वाद पर तो काफी बातें हो चुकी हैं, पर फलों के इस राजा की एक बड़ी खासियत यह भी है कि यह स्वाद के साथ सेहत के लिहाज से भी लाजवाब फल है
मिलाकर यहां का सबसे बढ़िया फल यही है।’ भारत आज भी आम की पैदावार के मामले में दुनिया का सरताज है। पूरी दुनिया में हर साल लगभग साढ़े तीन करोड़ टन आम पैदा होता है। इसमें से करीब डेढ़ करोड़ टन अकेले भारत में होता है। भारत के बाद क्रमशः चीन, मैक्सिको, थाइलैंड और पाकिस्तान का स्थान आता है। यूरोप में स्पेन में सबसे अधिक आम होता है और वहां का आम अपनी खास तीखी महक के कारण अलग से पहचाना जाता है। अफ्रीकी देशों के आम के रंग बेहद आकर्षक होते हैं।
‘आम के आम गुठलियों के दाम’
आम को फलों का राजा यों ही नहीं कहा जाता। ‘आम के आम गुठलियों के दाम’ की तर्ज पर इसकी हर एक चीज काम में आ जाती है। इसकी पत्तियां शुभ अवसरों पर वंदनवार बनाने में काम आती हैं तो इसकी सूखी लकड़ियां फर्नीचर के अलावा हवनयज्ञ आदि में काम आती हैं। आम की घनी छांव की तो बात ही कुछ और है। कच्चे आम अमचूर, अचार और गर्मियों में लू से बचने के लिए पना (एक विशेष नमकीन पेय) बनाने में काम आते हैं तो पका फल खाने के अलावा मैंगो शेक, मैंगो ड्रिंक्स, आम पापड़, स्कवैश, जैम, जैली मुरब्बा और आम की खीर जैसे व्यंजन बनाने में। आम में विटामिन ए, बी, सी के अलावा कैिल्शयम, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस, पोटेशियम, जिंक और आयरन जैसे खनिज तत्व भी खासी मात्रा में पाए जाते हैं और अनेक आयुर्वेदिक तथा यूनानी दवाओं में भी इसका उपयोग होता है।
आम को लेकर शायराना जिक्र
गालिब से लेकर मलिहाबाद में जन्मे क्रांतिकारी शायर जोश मलिहाबादी और आज के शायर गुलजार तक आम के इश्क में कुछ न कुछ लिख चुके हैं। जोश मलिहाबादी ने हिंदुस्तान छोड़ते समय जो लिखा वह न जाने कितनी बार किस-किस ने दोहराया है‘आम के बागों में जब बरसात होगी पुरखरोश मेरी फुरकत में लहू रोएगी चश्मे मय फरामोश रस की बूदें
जब उड़ा देंगी गुलिस्तानों के होश कुंज-ए-रंगी में पुकारेंगी हवाएं ‘जोश जोश’ सुन के मेरा नाम मौसम गमजदा हो जाएगा एक महशर सा महफिल में गुलिस्तांए बयां हो जाएगाए मलिहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा।’ गुलजार ने तो एक कविता में आम के दरख्त के बहाने जिंदगी का पूरा फलसफा ही कह डाला है‘मोड़ पर देखा है वो बूढ़ा इक आम का पेड़ कभी मेरा वाकिफ है बहुत सालों से मैं जानता हूं।’ आम के बागों की सेहत दुरुस्त रखने के लिए बूढ़े पेड़ों का विछोह भी जरूरी है। आम के विश्वकोश माने जाने वाले कलीमुल्लाह मानते है कि आज आम की सबसे बड़ी बीमारी, सबसे बड़ी समस्या इनका घनाव है। उनके ही शब्दों में, ‘बागों में आम के पेडों के बीच दूरी बढ़ा दी जाए, बीच के पेड़ काट दिए जाएं तो हर पेड़ का दायरा फैलेगा और पेड़ चौड़ाई में जितना फैलेगा उतना ही उसमें ज्यादा जान होगी, उतनी ही ज्यादा पैदावार होगी।
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म की कई और किस्मों के नामकरण के भी अलग-अलग किस्से हैं। इसकी जिस जायकेदार नस्ल को ‘लंगड़ा’ कहा जाता है, वह बनारस के एक लंगड़े फकीर के घर के पिछवाड़े में सबसे पहले उगी थी। आम की इस नस्ल का स्वाद सबसे
इसीलिए कटाई और छंटाई जरूरी है।’ कभी मलिहाबाद के आम के बागों में आम की दावतें हुआ करती थीं, शेरो-शायरी की महफिलें सजा करती थी, डालों पे झूले पड़ते थे, परिंदे चहका करते थे और जिंदगी में सचमुच बहार आ जाती थी। बदलते जमाने की रफ्तार में बाग तो बरकरार हैं मगर बहार नदारद हो गई है। फिर भी जिस किसी को आम की प्यास बुझाने का कोई उपाय ढूंढ़ना हो और आम की असली लज्जत का मजा लेना हो, उसे आम के दिनों में मलिहाबाद का एक चक्कर जरूर लगाना चाहिए। जिस तरह मलिहाबाद के इलाके में बागों को काट कर प्लॉटिंग होने लगी है उसके चलते हो सकता है कि कुछ सालों में मलिहाबाद में बहार के बाद आम के पेड़ भी देखने को न मिल पाएं।
‘खुशबूदार खुशनाम हजूर लीजिए आम’
एक जमाने तक आम के चाहने वाले इस मौसम में अवध जरूर जाते और देसी आम को लोग छक कर खाते थे। कुछ लोग अब भी ऐसा करते हैं। यह छोटा होता था पर इसे खाने से कोई नुकसान नहीं
ऐसे पड़ा आम की एक किस्म का नाम ‘लंगड़ा’ अलग था और फकीर के पास आने वालों के जरिए इसकी शोहरत दूर-दूर तक पहुंच गई। इसी तरह बिहार में भागलपुर के एक गांव में फजली नाम की एक औरत के घर पैदा हुए एक और खास आम का नाम ‘फजली’ पड़ गया।
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अमोला पाठक का बारहमासा आम
आवरण कथा
आ
आम की पैदावार में भारत नंबर वन
म की किस्मों में तो भारत सिरमौर है ही, पैदावार के लिहाज से भी वह सबसे अव्वल देश है। भारत के बाद चीन का स्थान आता है, वहीं पाकिस्तान छठे नंबर पर है।
1. भारत
स
र्दी से ठिठुरी धरती जब पर जब सूरज की तुर्श किरणें पड़ती है, तो वसंत के आने की सूचना सबको मिलती है। लेकिन इस पर तब तक भरोसा नहीं होता, जब तक आम की डालियां रसभरी मंजरियों से न लद जाएं। वसंत आम्र मंजरियों के रथ पर सवार होकर ही आता है, एक नए उल्लास की तरह, खट्टे मीठे रस से सराबोर। सूरज की किरणें जैसे-जैसे तपती हैं, ठीक वैसे ही आम की डालियां झुकती जाती हैं। हवाओं में आम की तुर्श महक फैल जाती है। आम तौर पर मंजरियों के आम बनने और पकने का यही मौसम है, लेकिन सुलभ संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक की जीवन संगिनी अमोला पाठक की सोच कुछ अलग थी।
आम की चाहत ने उन्हें यह सोचने का मौका दिया कि क्या आम के लिए वसंत से ज्येष्ठ तक का इंतजार करना जरूरी है? क्या इसे हर मौसम में नहीं पाया जा सकता? अमोला पाठक ने पटना में आम का एक बिरवा लगाया, जैविक खाद और पानी से पले बढ़े पेड़ में सालों भर फल लगने लगे। अपी तरह के इस खास आम के पेड़ पर एक साथ ही मंजरियां भी लगती हैं और फल भी पकता है। हर मौसम में आम का स्वाद लेना हर किसी के लिए आज भी मुश्किल है, लेकिन अमोला पाठक की मेहनत की वजह से उनकी बगिया में सालों भर आम की डालियां फलों और मंजरियों से लदी रहती हैं।
गालिब से लेकर मलिहाबाद में जन्मे क्रांतिकारी शायर जोश मलिहाबादी और आज के शायर गुलजार तक आम के इश्क में कुछ न कुछ लिख चुके हैं होता था। इसीलिए इसकी दावतें खूब मशहूर थी। सिंदूरी रंगवाला ‘सिंदूरी’ आम और सीप सी गुठली वाला ‘सीपिया’ आम खासा पसंद किया जाता रहा है। बीज से लगने वाला आम ‘तुकमी’ आसानी से हजम हो जाता था और खासी ताकत देने वाला होता था। लखनवी ‘सफेदा’ के तो कहने ही क्या यह चटपट जुबान पर चढ़ता था और फटाफट पच जाता था। लखनऊ रेजिडेंसी और कोठी फरहत बख्श में अंग्रेजों का स्वागत आम की दावत से होता था। काकोरी के पास दशहरी गांव में दशहरी का पुरखा पेड़ है। उस गांव के वंशज आज भी कचहरी और गुइन रोड के बीच बने दशहरी हाउस में रहते हैं। लखनऊ में आम बेचने वाले भी शायराना अंदाज में पहले आम बेचते थे। मसलन फेरीवाले कहते थे- ‘खुशबूदार खुशनाम हजूर लीजिए आम।’
आम के उत्पादन के मामले में भारत दु निय ा का सरताज है। भारत में आम का कुल विश्व उत्पादन का लगभग 62 प्रतिशत उत्पादन होता है। यहां हर साल करीब 1.87 करोड़ लाख टन आम की पैदावार होती है। कम से कम 50 देशों को 5276.1 करोड़ टन आम भारत से निर्यात किया जाता है।
2. चीन
दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी वाला देश चीन आमों के उत्पादन में दूसरे पायदान पर है। चीन हर साल 47 लाख टन आम पैदा करता है।
3. थाईलैंड
आम के बड़े उत्पादकों में दक्षिण-पूर्व एशियाई देश थाईलैंड का नंबर तीसरा है और वहां सालाना 34 लाख टन आम होता है।
4. मैक्सिको
मध्य अमेरिकी देश मैक्सिको में हर साल लगभग 22 लाख टन आम पैदा होता है। कई देशों में वह आम निर्यात करता है।
काल से देवानाम प्रियम आम लोगों के जीवन का अहम अंग बना हुआ है। पूजा अनुष्ठान में आम के पत्ते और हवन में लकड़ियों का इस्तेमाल आज तक किया जा रहा है। अवध की चिकनकारी में कैरी यहां की सिग्नेचर डिजाइन है। आम को लेकर कई मशहूर किस्से भी है। चौदहवीं शताब्दी के शासक तैमूरलंग के दरबार में लंगड़ा आम प्रतिबंधित था। इसके चलते यह कहावत खासी मशहूर हुई कि ‘तैमूर ने कस्दन कभी लंगड़ा न मंगाया, लंगड़े के सामने कभी लंगड़ा नहीं आया।’ गांव में आज भी यह कहावत कही जाती है कि ‘दाल अरहर की, खटाई आम की, तोले भर घी, रसोई राम की।’ दरअसल, अचार और खटाई के लिए देसी आम का कोई जवाब नहीं है। वैदिक
700 तरह के आम
आम का फल कतई आम फल नहीं है। इस खास फल के सात सौ से अधिक फ्लेवर तैयार किए जा चुके हैं। यह अप्रैल से बाजार में आ जाता है और
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5. इंडोनेशिया
दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाला देश इंडोनेशिया भी अग्रणी आम उत्पादक देशों में शामिल हैं। वहां हर साल 21 लाख टन आम होते हैं।
6. पाकिस्तान
आम की पैदावार के मामले में दुनिया भर में पाकिस्तान का छठा नंबर है। वहां हर साल 15 लाख टन आम होता है, जिसमें कई तरह के आम होते हैं।
7. ब्राजील
यहां हर साल 14.5 लाख टन से ज्यादा आम पैदा होता है। अमेरिका और यूरोप के कई देशों में ब्राजील से आम मंगाए जाते हैं।
8. मिस्र
अफ्रीकी महाद्वीप में मिस्र आम का उत्पादन करने वाला सबसे अहम देश है। वहां हर साल 12.5 लाख टन आम पैदा होते हैं।
9. बांग्लादेश
बांग्लादेश को आम का उत्पादन करने वाले अहम देशों में नौवें पायदान पर गिना जाता है। बांग्लादेश हर साल साढ़े 11.5 लाख टन से ज्यादा आम पैदा करता है।
बरसात के बाद अगस्त तक बाजार में छाया रहता है। इस बार बाजार में आम की अच्छी आवक है। आम विक्रेता पीलू सोनकर ने बताया कि ‘तोता परी’ महाराष्ट्र से अप्रैल में आना शुरू हो जाता है। लेकिन लोगों को तो हर दिल अजीज ‘दशहरी’ का इंतजार रहता है। मलिहाबाद से इसके साथ ही बनारसी ‘लंगड़ा’ और ‘गुलाबखस’ आता है। डॉक्टरों के अनुसार डाल का पका आम ही खाना फायदेमंद है। दरअसल, गैस वेल्डिंग में इस्तेमाल की जाने वाले रंगहीन केमिकल कैल्शियम कार्बाइड से आम दो से तीन दिन में पकाए जाते हैं। डॉक्टरों के अनुसार ऐसे पके आम खाने से अमूमन उल्टी दस्त और सीने में जलन होने लगती है। बेहतर हो कि आम को कम से कम दो घंटे पानी में रखकर खाया जाए।
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आवरण कथा
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मैंगो मैन हाजी कलीमुल्लाह
उत्तर प्रदेश में मलिहाबाद के रहने वाले कलीमुल्लाह 78 आम की विभिन्न प्रकार की नस्लें और उन्हें नए-नए नाम देने के लिए पूरी दुनिया में मशहूर थे गुलामी से आजाद करवाया था। हमसे बड़ी गलती हो गई।’
आंध्र प्रदेश के ‘मैंगो मैन’
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क पेड़ में लगभग तीन सौ अलग-अलग नस्लों के आमों की खोज करने वाले ‘मैंगो मैन’ के नाम से मशहूर हाजी कलीमुल्लाह खान के बिना आम के बारे में कायदे से बात नहीं की जा सकती। उत्तर प्रदेश में मलिहाबाद के रहने वाले कलीमुल्लाह 78 आम की विभिन्न प्रकार की नस्लें और उन्हें नए-नए नाम देने के लिए पूरी दुनिया में मशहूर थे। साथ ही तीन सौ से अधिक आम की नस्लों को एक ही पेड़ में पैदा करने के लिए उनका नाम ‘लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में भी आया है। बागवानी में विशेष योगदान देने वाले कलीमुल्लाह को वर्ष 2008 में भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से नवाजा था। कलीमुल्लाह ने विभिन्न प्रकार के आम की फसल इजाद की थी, जिनके नाम उन्होंने मशहूर नेता, अभिनेता और
खिलाड़ियों के नाम पर रखे। इनमें से अत्यधिक प्रचलित होने वाले नमो आम, योगी आम, अखिलेश यादव आम, सोनिया गांधी आम और ऐश्वर्या राय समेत अन्य प्रमुख हस्तियों के नाम के आम हैं। दिलचस्प है कि कलीमुल्लाह ने खुद से विकसित आम की कुछ किस्मों के नाम अपने परिवार के लोगों के नाम पर भी रखे थे। तारीफ यह भी कि वे आम की हर एक किस्म को अच्छे से और उनके नाम से पहचानते थे। अपने इस अजूबे के साथ साथ क्रिकेट के भी बड़े प्रेमी रहे और अपने नए किस्म के आम का नाम खासतौर पर सचिन तेंदुलकर रखा! उनके बाग में एक आम का नाम अनारकली है जिसमे संतरे की तरह दो परत होती हैं। उनके लगाए इस बाग में देशी-विदेशी हजारों लोग हर साल घूमने आते
80 के दशक में सऊदी अरब के एक शेख ने उन्हें वजन के बराबर सोना देने के एवज में वहीं रहकर आम के बागान लगाने का ऑफर दिया था, लेकिन कलीमुल्लाह ने अपनी मिट्टी की मोहब्बत में उसे ठुकरा दिया स्वाद के साथ सेहत भी
आम के स्वाद पर तो काफी बातें बहुत हो चुकी हैं, पर फलों के इस राजा की एक बड़ी खासियत यह भी है कि यह स्वाद के साथ सेहत के लिहाज से भी लाजवाब फल है। कच्चे आम की तासीर जहां ठंडी होती है तो वहीं पका आम अपनी गर्म तासीर के लिए जाना जाता है। आम से खूब ऊर्जा मिलती है। केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान, रहमानखेड़ा के प्रधान वैज्ञानिक सुशील कुमार शुक्ला के अनुसार आम में कार्बोहाइड्रेट खूब पाया जाता है। इसीलिए
है। कलीमुल्लाह पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन वे दुनिया को कुछ अलग और स्वादिष्ट देना चाहते थे, जिसमें उन्हें कामयाबी भी तो मिली ही, खूब शोहरत भी हासिल हुई। 80 के दशक में सऊदी अरब के एक शेख ने उन्हें वजन के बराबर सोना देने के एवज में वहीं रहकर आम के बागान लगाने का ऑफर दिया था, लेकिन कलीमुल्लाह ने अपनी मिट्टी की मोहब्बत में उसे ठुकरा दिया। कलीमुल्लाह 1957 में आम की बागवानी से जुड़े। ताउम्र आम ही उनका दीन, दीवानगी, इबादत, सपना, जुनून और वह हर कुछ रहा जो किसी आदमी की शिनाख्त के साथ उसकी कामयाबियों को गढ़ती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के नामों पर आम की नस्लें तैयार कर चुके कलीमुल्लाह को इस बात का अफसोस रहा कि वे क महात्मा गांधी के नाम से आम की कोई नस्ल नहीं बना पाए। उनके ही शब्दों में, ‘हमें सबसे पहले महात्मा गांधी के नाम से एक नए आम का नाम रखना था। गांधी जी ने हमको
विश्व में आम की 1365 से भी ज्यादा किस्में पार्इ जाती हैं, जिसमें से लगभग 1000 किस्में भारत में ही पार्इ जाती हैं जहां एक ओर इसके संतुलित और नियमित सेवन से दुबला इंसान भी तंदरुस्त दिखने लगता है, वहीं दूसरी ओर आम को बहुत अधिक खाने से तंदरुस्त व्यक्ति बेडौल हो सकता है। उनके अनुसार काट कर खाने वाले आम व्यिक्त को मोटा करते हैं वहीं
चूसने वाले आम पेट के लिए भी फायदेमंद होते हैं। जिन्हें शुगर की बीमारी हो वह गूदे वाले मीठे आमों के सेवन से बचें। आम खाने से आखों की क्षमता भी बेहतर होती है। गर्मी के चलते आमरस मुंह का स्वाद ठीक रखता है। आम के लिए यह भी कहा
कलीमुल्लाह खान की तरह का कारनामा हैदराबाद के एक किसान ने भी किया है। आंध्र प्रदेश में कृष्णा जिले के वदलामानु गांव के 24 वर्षीय किसान कुप्पाला राम गोपाला कृष्णा ने एक ही पेड़ में 18 किस्म के आम की पैदावार का कीर्तिमान रचा है। कृष्णा की उपलब्धि न केवल स्थानीय किसानों को आकर्षित किया, बल्कि उसने सरकारी अधिकारियों का भी ध्यान खींचा है। इस खबर से प्रभावित होकर कृष्णा जिले के कलेक्टर बी लक्ष्मीकांतम ने कृष्णा के आम के खेत का दौरा किया। इसके साथ ही उन्होंने युवा किसान को अपने प्रयोग के लिए सुविधाएं भी मुहैया कराई। राज्य बागवानी अधिकारियों ने भी इस बात की पुष्टि की है कि एक पेड़ पर 18 किस्मों के आम की फसल बड़ी उपलब्धि है। सामान्य तौर पर दो से तीन तरह के आम ही एक पेड़ पर उगते हैं। वर्ष 2015 के अंत में कृष्णा के आम के खेत में अच्छी उपज नहीं हो रही थी। लोगों ने उसे सलाह दी कि सभी आम के पेड़ों को उसे काट देना चाहिए। मगर, उसके दिमाग में कुछ और योजना चल रही थी। कृष्णा ने ग्राफ्टिंग की तकनीक के बारे में पढ़ा। यह एक बागवानी तकनीक है, जिसमें विभिन्न पौधों के ऊतकों को ऐसे जोड़ा जाता है कि वे साथ में बढ़ें। इस तकनीक ने उसे इतना प्रेरित किया कि उसने अपने खेत में आमों के एक ही पेड़ में विभिन्न किस्मों के आम को लगाने का फैसला किया। कृष्णा कहते हैं, ‘जब यह बात मैंने अपने दोस्तों को बताई, तो वे मुझ पर हंस रहे थे। मगर आज मेरी फसल को देखने के लिए दूसरे गांवों से भी किसान आ रहे हैं। मुझे इस बात की खुशी है। आंध्र प्रदेश के ‘मैंगो मैन’ के नाम से मशहूर हो चुके कृष्णा ने कहा कि अब मुझे आसपास के गांवों के किसान इस तकनीक के बारे में सीखने के लिए बुला रहे हैं। जाता है कि यह एंटी एजिंग है। यह अनीमिया जैसे रोगों में टॉनिक का काम करता है। ‘दशहरी’ स्वाद मे अधिक मीठा होता है, वहीं इसके अधिक खाने से यह अपच भी करता है। इसे अधिक वजन वाले और मधुमेह के मरीज खाने से बचे तो बेहतर रहेगा। ऊर्जा बढ़ाने और मोटे होने के लिए इसका सेवन किया जा सकता है। बनारसी ‘लगड़ा’ आम की खासियत है कि इसमें रेशे होते हैं, इसीलिए इसका सेवन दशहरी की तुलना में लाभकारी होता है।
28 मई - 03 जून 2018
किस्से मलिहाबादी दशहरी के
मलिहाबाद के दशहरी आम को लेकर कई किस्से मशहूर हैं। यही नहीं, इस पूरे इलाके की अर्थव्यवस्था, शादी-ब्याह, उत्सव, खरीदारी और तमाम खुशियां, सब कुछ दशहरी की फसल के अच्छे-बुरे होने से जुड़ी हैं
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खनऊ के आसपास की मिट्टी और आबोहवा आम के लिए खास है। उत्तर भारत का सबसे प्रसिद्ध ‘दशहरी’ आम काकोरी के पास दशहरी गांव से ही सारी दुनिया में मशहूर हुआ था। इस गांव में ‘दशहरी’ आम का सबसे पुराना, पहला पेड़ अब भी फल दे रहा है। इस पेड़ पर कभी अवध में नवाबों के खानदान का मालिकाना हक था। तब फलों के मौसम में इस पेड़ पर जाल डाल दिया जाता था। पेड़ से फल कोई चुरा न ले इसके लिए उस पर पहरा बैठा दिया जाता था। उन दिनों अगर दशहरी आम किसी को तोहफे में भेजा भी जाता था तो उसमें छेद कर दिया जाता था ताकि कोई और उसके बीज से नया पेड़ न बना ले। मलिहाबाद के एक पठान जमींदार ईसा
‘गुलाबखस’ नाम वाले आम में गूदा अधिक नहीं होता है, इसीलिए यह स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है। लखनऊ सफेदा अधिक मीठा और आसानी से पचने वाला होता है। ‘दशहरी’ के बाजार से विदा होने के बाद ‘चौसा’ की बारी आती है। यह खासा मीठा होता है। ऐसे मीठे आम को अधिक खाने से आयुर्वेद के अनुसार खून की बीमारियां हो सकती है। इसीलिए बेहतर हो कि आम खाने के साथ नीम का भी सेवन किया जाए। ‘जौहरी सफेदा’ में गूदा कम होता है इसीलिए इसका सेवन अधिक किया जा सकता है। दक्षिण भारत के ‘नीलम’ आम की प्रजाति
खान ने लगभग डेढ़ सौ साल पहले नवाबों के एक पासी गुडै़ते (बाग में गुड़ाई और कटाईछटाई करने वाला) की मदद से इसका एक पेड़ हासिल किया और फिर दशहरी गांव से फैलकर इस आम ने सारी दुनिया में अपना सिक्का जमा दिया। आज भी मलिहाबाद के गांवों में बड़ेबूढ़ों की जुबान से दशहरी को लेकर तरह-तरह के किस्से सुनने को मिल जाते हैं। मलिहाबाद के आसपास के इलाके के लिए तो दशहरी आम ऊपर वाले की सबसे बड़ी नियामत है। इस पूरे इलाके की अर्थव्यवस्था, शादी-ब्याह, उत्सव, खरीदादारी और तमाम खुशियां, सब कुछ दशहरी की फसल के अच्छे- बुरे होने से जुड़ी हैं। मलिहाबाद के इलाके में ही आम की एक और लाजवाब नस्ल ‘चौसा’ विकसित हुई। संडीला के पास एक गांव है चौसा। वहां एक बार एक जिलेदार ने अपने दौरे के दौरान गांव के एक पेड़ का आम खाया। खास स्वाद और खुशबू के कारण उसे यह आम बहुत पसंद आया। उसने गांव वालों से उसका एक पेड़ हासिल कर लिया और बाद में नवाब संडीला को इसकी खबर दी। फिर नवाब संडीला के जरिए चौसा की नस्ल कई जगह फैल गई। ‘आम्रपाली’ लोगों को खासा पसंद आ रहा है। इसमें रेशा नहीं होता है। ‘दशहरी’ के शौकीन इसे बड़े ही चाव से खाते हैं। दक्षिण भारतीय ‘तोता परी’ मैंगोशेक और पल्प के रूप में खूब प्रयोग हो रहा है। रत्नागिरी क्षेत्र में होने वाला ‘अल्फांसो’ विदेशियों को इसीलिए सबसे पसंद आ रहा है क्यों कि इसमें हल्की मिठास होती है।
आम के खास फायदे
आम में उपस्थित शक्कर को पचाने के लिए जीवनी शक्ति का अपव्यय नहीं करना पड़ता है। वह स्वयं पच जाता है। आम में सभी फलों से अधिक केरोटीन होता है, जिससे शरीर में विटामिन ए बनता है। यह नेत्र-ज्योति तथा शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिय वरदान है। प्रतिदिन कम से कम 100 ग्राम आम के प्रयोग से नेत्रों की ज्योति बढ़ती है। इसमें मौजूद पोटेशियम और मैग्नेशियम से ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहता है। आम बुढ़ापे को रोकता
आवरण कथा
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इस बार आम का ज्यादा दाम
मौसम की मार के कारण आम आदमी को इस बार आम खरीदने के लिए करीब 40 फीसदी तक ज्यादा पैसे चुकाने होंगे
इ
स वर्ष मई में उत्तर भारत समेत कई इलाकों में तेज आंधी और तूफान ने जीवन अस्त व्यस्त ही नहीं किया, बल्कि बड़ी मात्रा में फसलों को चौपट कर दिया है। इसीलिए इस साल आपको आम खरीदने के लिए 40 फीसदी अधिक दाम चुकाने होंगे। मौसम की बेरुखी का सबसे ज्यादा नुकसान आम पैदा करने वालों को हुआ है। माना जा रहा है कि मई-जून की सप्लाई में सबसे बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले उत्तर प्रदेश में करीब आधी फसल बर्बाद हो गई है। लिहाजा आम आदमी को इस बार आम खरीदने के लिए करीब 40 फीसदी तक ज्यादा पैसे चुकाने होंगे। मौसम की मार के कारण मौजूदा वित्त वर्ष में 50,000 टन से ज्यादा निर्यात की उम्मीदों पर भी पानी फिरता नजर आ रहा है। मैंगो ग्रोअर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के प्रेसीडेंट इंसराम अली ने बताया कि वैसे तो पूरे देश में 30-40 प्रतिशत फसल खराब हुई है, लेकिन यूपी के करीब 15 आम उत्पादन वाले क्षेत्रों में सबसे ज्यादा झटका लगा है। देश की सबसे बड़ी फल-सब्जी मंडी दिल्ली के आजादपुर में फिलहाल गुजरात, आंध्र प्रदेश और केरल से आम आ रहे हैं। कच्चे आम की सप्लाई अचानक बढ़ने से भी फसल खराब होने के संकेत मिलते हैं। आम के व्यापारी और निर्यातक मोहन आहूजा ने बताया कि अभी होलसेल कीमतों में बहुत तेजी नहीं है, लेकिन जो ट्रेंड दिखाई दे रहा है, उससे ग्राहकों को इस साल पका आम 25-30 प्रतिशत महंगा मिलेगा क्योंकि यूपी से दशहरी की सप्लाई तंग है और मस्तिष्क को बेहतर तरीके से कार्य करने में मदद करता है। आम का रस 200 ग्राम, अदरक का रस 10 ग्राम और दूध 250 ग्राम मिलाकर पीने से
रह सकती है। आहूजा ने बताया कि अमेरिका, यूरोप, ईरान और कई अन्य देशों में भारतीय आम की मांग बढ़ी है। वर्ष 2017-18 में रिकॉर्ड 53,000 टन आम का निर्यात हुआ था और इसमें 5-10 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन अब आंकड़ा 50,000 टन को भी छूता नहीं दिख रहा है।
दिल्ली मैंगो मर्चेंट एसोसिएशन के विजय दुआ ने बताया कि अगर आंधी का दौर जारी रहा तो सप्लाई पर बुरा असर पड़ सकता है। एसोसिएशन के मुताबिक देश भर में 30-40 फीसदी तक फसल खराब हो चुकी है
दिल्ली मैंगो मर्चेंट एसोसिएशन के विजय दुआ ने बताया कि अगर आंधी का दौर जारी रहा तो सप्लाई पर बुरा असर पड़ सकता है। एसोसिएशन के मुताबिक देश भर में 30-40 फीसदी तक फसल खराब हो चुकी है। सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश में हुआ है। वहां आम के पेड़ों पर 100 फीसदी बौर (आम से पहले लगने वाला फूल) लगे थे और करीब 50 लाख टन आम उत्पादन की उम्मीद थी। लेकिन शुरू में तापमान में भारी उतार-चढ़ाव और अब पीक सप्लाई से ऐन पहले भारी आंधी से 25-30 लाख टन फसल ही बची रह गई है। शारीरिक व मानसिक निर्बलता नष्ट होती है। आम के रस को दूध में मिलाने से इसके गुणों में और वृध्दि हो जाती है।
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व्यक्तित्व
28 मई - 03 जून 2018
मार्टिन लूथर किंग (जूनियर)
अमेरिका का गांधी
गांधी जी की तरह सोचने और उनकी तरह ही अन्याय और असमानता के खिलाफ अहिंसक संघर्ष के कारण मार्टिन लूथर किंग को अमेरिका का गांधी भी कहा जाता है
मा
सुमित श्रीवास्तव
र्टिन लूथर किंग (जूनियर) वह नाम है, जिसे एक समय में अमेरिका का हर नागरिक तो जानता ही था, साथ ही उनकी ख्याति विश्व के प्रत्येक कोने तक भी पहुंची। रंगभेद के खिलाफ मार्टिन ने जिस तरह से लड़ाई लड़ी, वह आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है। अमेरिका में अफ्रीकी-अमेरिकन लोगों को समानता का अधिकार दिलाने का श्रेय मार्टिन लूथर किंग को ही जाता है। एक समय था जब अमेरिका में हर तरफ श्वेत लोगों की मनमानी चलती थी। अश्वेत लोगों को अपना गुलाम समझा जाता था। उस समय मार्टिन उन सब के लिए एक आवाज बनकर सामने आए थे। खास बात तो यह है कि अपने इस मिशन को मार्टिन ने बिना किसी हिंसा के सफल बनाया था।
बचपन में ही रंगभेद से सामना
मार्टिन के समय में अश्वेत लोगों का बहुत बुरा हाल था। हालांकि बदलते वक्त के साथ उन्हें गुलामों की तरह रखना तो बंद कर दिया गया था, लेकिन समाज
खास बातें 14 वर्ष की उम्र में रंगभेद की एक घटना ने बदल दी जीवन की सोच अफ्रीकी-अमेरिकन लोगों को समानता का हक दिलाने का श्रेय गांधी जी की अहिंसक नीति और संघर्ष से मार्टिन ने ली प्रेरणा
में अभी भी उन्हें अलग समझा जाता था। अश्वेत और श्वेतो में हर चीज बंटी हुई थी। चर्च तक में यह भेदभाव दिखाई देता था। श्वेत लोगों के लिए अलग अच्छे चर्च हुआ करते थे और अश्वेतो के लिए समाज से दूर अलग चर्च हुआ करते थे। मार्टिन लूथर किंग की छोटी आंखों ने इन तस्वीरों को बचपन से ही देखा था। यूं तो मार्टिन एक अच्छे परिवार में जन्मे थे, इसीलिए वह आर्थिक रूप से समृद्ध थे। बावजूद इसके समाज ने उन्हें हर पथ पर याद दिलाया कि वह समाज से अलग हैं। किसी भी आम बच्चे की तरह वह भी अपने पड़ोसी बच्चों के साथ खेलने जाया करते थे। मार्टिन के दोस्त श्वेत बच्चे थे। एक दिन वह सब मार्टिन के पास आए और कहा कि वह कल से उनके साथ नहीं खेलेंगे। जब मार्टिन ने उनसे पूछा कि क्यों? तो उन्होंने बताया कि वह मार्टिन से अलग स्कूल में जा रहे हैं, जहां सिर्फ श्वेत बच्चे ही जा सकते थे। इस बात ने मार्टिन को अंदर तक झकझोर कर रख दिया।
एक घटना ने बदला जीवन
जैसे-जैसे मार्टिन बड़े हुए, रंगभेद की यह तस्वीर और गहरी होती गई। जीवन में चल रही छोटी-छोटी गतिविधियों ने मार्टिन के जीवन जीने की सोच को बदलना शुरु कर दिया था। इसी बीच मार्टिन जब 14 साल के हुए तो उन्हें एक प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का मौका मिला। उनको इस प्रतियोगिता के दौरान बोलने का मौका मिला, तो उन्होंने समानता के अधिकार पर जबरदस्त स्पीच दी थी। इसके लिए उन्हें प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस प्रतियोगिता के बाद वह बस से वापस अपने घर लौट रहे थे। वह जीतने की खुशी में मग्न थे, तभी उनका सामना सच्चाई से हो गया। अचानक बस रुकी और एक मुसाफिर बस में चढ़ा। बस पूरी तरह भरी हुई थी। कोई भी सीट खाली नहीं थी। कहते हैं कि वह श्वेत व्यक्ति मार्टिन के पास आया। उसने मार्टिन से सीट खाली करने के लिए
जन्म : 15 जनवरी 1929, अटलांटा, जॉर्जिया, अमेरिका मृत्यु : 4 अप्रैल 1968, मेंफिस, टेनेसी, अमेरिका शिक्षा : पीएच.डी. (व्यवस्थित धर्मशास्त्र), बोस्टन यूनिवर्सिटी (1955) पुस्तकें : 'स्ट्राइड टुवर्ड फ्रीडम' (1958) तथा 'व्हाय वी कैन नॉट वेट' (1964) प्रमुख आंदोलन : मोंटगोमरी बस बॉयकोट (1955), बर्मिंघम अभियान (1963), वाशिंगटन मार्च (1963) सम्मान : विश्व शांति के लिए नोबेल शांति पुरस्कार (1964) कहा। मार्टिन अपनी सीट से नहीं उठे, क्योंकि वहां पर बैठना उनका हक था। वह श्वेत कोशिश करता रहा, लेकिन मार्टिन सीट से नहीं हटे। अंत में जब बात से कुछ नहीं हुआ, तो उसने मार्टिन को शारीरिक बल से हटाने की कोशिश शुरू कर दी। मार्टिन भी पीछे नहीं हटे। अंत में श्वेत को कदम पीछे करने पड़े। इस घटना ने बस में सवार कई अश्वेत लोगों को प्रेरित किया। बाद में मार्टिन ने महसूस किया कि इस समस्या की जड़ें बहुत गहरी हैं। कहते हैं कि यही वह मोड़ था, जहां से उन्होंने तय किया कि वह इसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करेंगे।
समान अधिकार के लिए आंदोलन
श्वेतो के खिलाफ मार्टिन खड़े होने लगे थे। वह अब उन सभी लोगों की आवाज बन चुके थे, जो खुद के लिए नहीं बोल सकते थे। उनकी मांग थी कि अमेरिका में सबके लिए एक समान अधिकार हो। फिर चाहे वह अफ्रीकी हो या अमेरिकी सब को एक ही नजर से देखा जाए। अपने बस में हुए हादसे को मार्टिन भूल नहीं पाए थे। बस वह अब इस कोशिश
में थे कि ऐसे हादसे आगे न हो। इसके लिए उन्होंने जल्द ही आंदोलन छेड़ दिया था। इस आंदोलन की एक अन्य बड़ी वजह थी। आंदोलन से थोड़े ही दिन पहले एक अफ्रीकी महिला को पुलिस ने सिर्फ इसीलिए कैद कर लिया था, क्योंकि उसने अपनी सीट एक अमेरिकी को देने से इंकार कर दिया था। इसके बाद तो सभी अफ्रीकियों ने ठान लिया कि वह अमेरिकी बसों में सफर नहीं करेंगे। लगभग एक साल से भी ज्यादा उनका यह आंदोलन चला था। अंत में यह आंदोलन सफल रहा और सरकार तक मार्टिन की बात पहुंची। उस दिन के बाद से अफ्रीकी अमेरिकन के लिए मार्टिन ही सब कुछ बन गए थे। बावजूद इसके उन्होंने बिना हिंसा किए आंदोलनों को पूरा करने की जिम्मेदारी उठाई। उन्होंने एक के बाद एक कई आंदोलनों द्वारा आवाज उठाई और सरकार तक उन्हें पहुंचाया। सरकार को मार्टिन की मांगें माननी पड़ी।
अफ्रीकी लोगों के लिए भगवान
अपने आंदोलन के लिए एक तरफ तो मार्टिन अफ्रीकी लोगों के लिए भगवान बन गए थे, वहीं
रंगभेद के खिलाफ मार्टिन ने जिस तरह से अपनी लड़ी, वह आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है। अमेरिका में अफ्रीकी-अमेरिकन लोगों को समानता का अधिकार दिलाने का श्रेय मार्टिन लूथर किंग को ही जाता है
28 मई - 03 जून 2018 दूसरी तरफ रंगभेद करने वालों के लिए वह एक दुश्मन बनकर सामने आ गए थे। उन्होंने मार्टिन को रोकने की बहुत कोशिशें की, लेकिन उन्होंने अपना रास्ता नहीं थोड़ा और अफ्रीकी लोगों को अपना हक दिलवा की ही दम लिया था।
महात्मा गांधी का प्रभाव
कहते हैं कि अपनी इस लड़ाई में मार्टिन ने कभी भी हिंसा का सहारा, इसीलिए नहीं लिया था क्योंकि वह महात्मा गांधी की अहिंसक सोच से काफी प्रभावित हुए थे। उन्होंने उनके बारे में पढ़ा था कि आखिर कैसे सामाजिक बदलाव के लिए गांधी जी ने लोगों की मन की शक्ति का प्रयोग किया न की उनकी शारीरिक शक्ति का। महात्मा गांधी के तरीकों की वजह से ही मार्टिन ने भी अपने आंदोलनों को सही रूप में पूरा किया था। गांधी जी से मार्टिन कभी मिल तो नहीं पाए, पर उन्हें और भी करीब से जानने के लिए वह भारत जरूर आए थे। उन्होंने यहां कई सारी बातें सीखीं, जो उन्होंने आगे कई सारे कामों के लिए इस्तेमाल की थी। अपने इंडिया के टूर पर उन्होंने जवाहरलाल नेहरू और कई अन्य नेताओं से मुलाकात भी की थी। यहां से जाते हुए वह कई काम की बातें भी अपने साथ ले गए थे।
व्यक्तित्व
मार्टिन और महात्मा
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अच्छे वक्ता और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक मार्टिन लूथर किंग ने बार-बार दोहराया कि महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को वह आंखें खोल देने वाली अवधारणा मानते हैं। दोनों के जीवन और संघर्ष से लेकर मृत्यु तक में कई साम्य भी रहे
दुखद अंत
मार्टिन अपने आंदोलनों का आधार और प्रसार लगातार बढ़ाते जा रहे थे। हजारों लोग उनकी इस मुहिम में उनके साथ जुड़ने लगे थे। उन्होंने वियतनाम युद्ध पर बेवजह पैसा लगाने, अफ्रीकी लोगों को अमेरिकी से कम वेतन मिलने, जैसे कई सारे मुद्दों को मजबूती से उठाया। वह अमेरिका को जोड़ने की कोशिश कर रहे थे। मार्टिन के इन क्रांतिकारी िवचारों के कारण अनेक दुश्मन भी बन गए। हर पल उनकी जान पर खतरा बना रहता था, लेकिन उन्होंने कभी भी पीछे हटने के बारे में नहीं सोचा। 1968 का वह दिन अमेरिका में काली रात बनकर आया था। मार्टिन एक होटल में ठहरे हुए थे। मार्टिन वहां पर मजदूरों की हड़ताल के मसले को सुलझाने के लिए गए थे। वह होटल की बालकनी में खड़े थे, तभी अचानक एक गोली आकर उन्हें लगी। पल भर में ही मार्टिन ने दम तोड़ दिया था। उसके बाद पूरे अमेरिका में मायूसी का मंजर छा गया था। मार्टिन को अपने कामों के बदले गोली मिली थी। उस दिन को अमेरिका के इतिहास का एक सबसे दुखद दिन माना जाता है। कहते हैं कि मरते दम तक मार्टिन सिर्फ पीड़ित लोगों के बारे में सोच रहे थे।
संघर्ष की प्रेरणा
देश में एकता लाने के लिए वह जेल तक गए थे। उन्हें उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए नोबेल पुरस्कार से भी नवाजा गया था। गांधी जी की तरह सोचने और उनकी तरह ही अन्याय और असमानता के खिलाफ अहिंसक संघर्ष के कारण उन्हें अमेरिका का गांधी भी कहा जाता है। आज भी वह लोगों के बीच मानवाधिकार की हिमायत और असमानता के खिलाफ अथक संघर्ष की प्रेरणा बनकर जिंदा हैं।
‘मे
रा एक सपना है कि एक दिन यह देश खड़ा होगा और अपने सिद्धांत के सच्चे मायनों को जाएगा। मेरा एक सपना है कि मेरे चार बच्चे एक दिन ऐसे देश में रहेंगे जहां उनके बारे में कोई फैसला उनकी त्वचा के रंग के आधार पर नहीं, बल्कि उनके चरित्र के आधार पर होगा। आज मैं यह स्वप्न देखता हूं।’ अमेरिकी मानवाधिकार कार्यकर्ता और इतिहास के सबसे अच्छे वक्ताओं में शामिल मार्टिन लूथर किंग की यह पंक्तियां पूरी दुनिया में हजारों बार दोहराई जा चुकी हैं। इसके बावजूद इन पंक्तियों की ताकत कम नहीं हुई है। यह पंक्तियां आज भी जनमानस के मन में आग भर सकती हैं। जिस अमेरिका का ख्वाब मार्टिन लूथर किंग ने देखा, उसमें श्वेत और अश्वेत दोनों को बराबर मौके मिलने चाहिए, उस अमेरिका में अन्याय के लिए कोई जगह नहीं होगी, वह अमेरिका पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श होगा और यह ख्वाब देखने की प्रेरणा मार्टिन को गांधी से मिली। करिश्माई व्यक्तित्व वाले मार्टिन लूथर किंग ने अपना मशहूर भाषण 34 साल की उम्र में दिया। उससे कुछ साल पहले ही वह भारत की यात्रा कर चुके थे। 1959 में अपनी इस भारत यात्रा को उन्होंने तीर्थयात्रा सरीखी बताया था। उन्होंने बारबार कहा कि महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत को वह आंखें खोल देने वाली अवधारणा मानते हैं। मार्टिन के मार्गदर्शक हॉवर्ड ट्रूमैन के महात्मा गांधी
मार्टिन लूथर किंग ने अपना मशहूर भाषण 34 साल की उम्र में दिया। उससे कुछ साल पहले ही वह भारत की यात्रा कर चुके थे। 1959 में अपनी इस भारत यात्रा को उन्होंने तीर्थयात्रा सरीखा बताया था से नजदीकी संबंध थे। ट्रूमैन ने गांधी को अमेरिका आने का न्योता भी दिया था। गांधी पर कई किताबें लिखने वाले अमेरिका के प्रोफेसर माइकल नागलर बताते हैं, ‘1930 के दशक में ट्रूमैन ने जब गांधी से अमेरिका आने को कहा तो गांधी जी ने जवाब दिया - अगर मैं यहां रहता हूं तो मैं कुछ ऐसा करके दिखा सकता हूं जिससे दूसरे भी सीख सकेंगे और इसकी पूरी संभावना है कि अमेरिका के अश्वेत मेरे अहिंसा के रास्ते को अपनाने वाला अगला समुदाय बनें।’ अच्छे वक्ता और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक मार्टिन किसी को भी आकर्षित कर सकते थे। अश्वेत युवकों और महिलाओं के लिए तो वह जल्दी ही एक प्रतीक और बेहतर भविष्य की उम्मीद बन गए। नागलर इस बात पर अफसोस जताते हैं कि मार्टिन को अपने संघर्ष के लिए उतना वक्त नहीं मिला जितना गांधी को मिला। वे कहते हैं, ‘गांधी को उतनी जल्दी कत्ल नहीं किया गया, जितना जल्दी पश्चिम में मार्टिन लूथर किंग को कर दिया गया। इसीलिए कहा जा सकता है कि गांधी को पूरा एक जीवन मिला। जीवन के हर क्षेत्र में अहिंसा पर प्रयोग करने के लिए 50 साल मिले। इसीलिए वह
हर तरह से विशाल हैं।’ 1958 में मार्टिन पर हमला हुआ, वह बच गए, लेकिन इसका असर उनके समर्थकों पर हुआ। उनका मार्टिन में विश्वास और गहरा हो गया। इसके बाद मार्टिन मीडिया के भी चहेते हो गए। गांधी की तरह मार्टिन ने भी अपने विश्वास और सहानुभूति, सत्य और दूसरों के लिए जीने के अपने नियमों से ही ताकत जुटाई। कई बार जब उन्हें जेल जाना पड़ा तब ईश्वर में उनके विश्वास से उनको ताकत मिली। 1963 में उन्होंने वॉशिंगटन के अपने मार्च को अंजाम दिया, जो लिंकन मेमोरियल में भाषण के साथ पूरा हुआ। मार्टिन ने फिर महात्मा गांधी को मिसाल माना। 1964 में सिर्फ 35 साल की उम्र में मार्टिन को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया। यह पुरस्कार पाने वाले वह इतिहास के सबसे कम उम्र के इंसान बन गए। सिर्फ चार साल बाद 1968 में मार्टिन की हत्या कर दी गई, ठीक गांधी की तरह। दो नेता, जिन्होंने अपना पूरा जीवन अहिंसक संघर्ष में लगा दिया, हिंसा से खत्म कर दिए गए।
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स्वास्थ्य
28 मई - 03 जून 2018
विश्व ध्रूमपान निषेध दिवस (31 मई) पर विशेष
धुएं की खतरनाक लत
भारत में 4,29,500 से ज्यादा लड़के और 1,95,000 से ज्यादा लड़कियां हर दिन धूम्रपान करते हैं। नशे की यह लत सेहत के खिलाफ किसी जानलेवा खिलवाड़ से कम नहीं है
खास बातें तंबाकू के सेवन से देश में हर हफ्ते 17,887 जानें जाती हैं भारत में धूम्रपान की आर्थिक लागत 18,18,691 मिलियन रुपए है 2016 में भारत में 82.12 अरब सिगरेट का उत्पादन हुआ चुकी है। इसका मकसद तंबाकू नियंत्रण कानून के प्रभावी क्रियान्वयन और तंबाकू के हानिकारक प्रभावों के बारे में लोगों तक जागरुकता फैलाना है। इसके लिए 11वीं योजना में कुल वित्तीय परिव्यय 182 करोड़ रुपए रखा गया। इस कार्यक्रम में संपूर्ण देश शामिल है, जबकि शुरुआती चरण में 21 राज्यों के 42 जिलों पर ध्यान केंद्रित किए गए हैं।
भा
महिलाओं में तंबाकू सेवन की प्रवृत्ति
रचना मिश्रा
रत में 6.25 लाख से ज्यादा बच्चे रोजाना धूम्रपान करते हैं जो जन स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चेतावनी है। एक वैश्विक अध्ययन में यह जानकारी सामने आई है। 'ग्लोबल टोबैको एटलस' के मुताबिक तंबाकू के सेवन से देश में हर हफ्ते 17,887 जानें जाती हैं। हालांकि ये आंकड़े मध्यम मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) वाले देशों में होने वाली औसत मौतों से कम है। ‘अमेरिकन कैंसर सोसायटी और वाइटल स्ट्रैटजीज’ द्वारा तैयार रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत में धूम्रपान की आर्थिक लागत 18,18,691 मिलियन रुपए है। इसमें स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी प्रत्यक्ष लागत और असामयिक मौत व अस्वस्थता के कारण उत्पादकता नष्ट होने से जुड़ी अप्रत्यक्ष लागत शामिल है। रिपोर्ट में कहा गया कि हालांकि मध्य मानव विकास सूचकांक वाले देशों के मुकाबले भारत में कम बच्चे सिगरेट पीते हैं। अपने देश में 4,29,500 से ज्यादा लड़के और 1,95,000 से ज्यादा लड़कियां हर दिन धूम्रपान करती हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016 में भारत
में 82.12 अरब सिगरेट का उत्पादन हुआ। इसमें बताया गया कि विश्व की छह प्रमुख तंबाकू कंपनियों का संयुक्त राजस्व 346 अरब डॉलर से ज्यादा था, जो भारत की कुल राष्ट्रीय आय के 15 प्रतिशत हिस्से के बराबर है। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘यह उद्योग एक ताकतवर बल है जिसे छोटे राष्ट्रराज्यों की कार्रवाई का डर नहीं होता, क्योंकि उनके पास अत्यधिक संसाधन और वैश्विक बाजार की ताकत है। बड़ी अर्थव्यवस्थाओं और राष्ट्रों के पास मौका है कि वह छोटे सहयोगियों की इस खतरे से निपटने में मदद करें।’
डब्ल्यूएचओ की पहल
ध्रूमपान के बढ़े खतरों को देखते हुए विश्व धूम्रपान निषेध दिवस प्रत्येक वर्ष 31 मई को मनाया जाता है। तंबाकू से होने वाले नुकसान को देखते हुए
1987 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सदस्य देशों ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके द्वारा 7 अप्रैल, 1988 से इस दिवस को मनाने का फैसला किया गया। इसके बाद हर 31 मई को तंबाकू निषेध दिवस मनाने का फैसला किया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्य देशों ने 31 मई का दिन निर्धारित करके धूम्रपान के सेवन से होने वाली हानियों और खतरों से विश्व जनमत को अवगत कराके इसके उत्पाद एवं सेवन को कम करने की दिशा में आधारभूत कार्यवाही करने का प्रयास किया है। इसी दिशा में प्रतिवर्ष प्रतीकात्मक रूप में एक नारा निर्धारित किया जाता है।
राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम
भारत में आर्थिक मामलों की संसदीय समिति पहले ही राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम को मंजूरी दे
भारत में आर्थिक मामलों की संसदीय समिति पहले ही राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम को मंजूरी दे चुकी है। इसका मकसद तंबाकू नियंत्रण कानून के प्रभावी क्रियान्वयन और तंबाकू के हानिकारक प्रभावों के बारे में लोगों तक जागरुकता फैलाना है
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक तंबाकू से संबंधित बीमारियों की वजह से हर साल करीब 5 मिलियन लोगों की मौत हो रही है, जिनमें लगभग 1.5 मिलियन महिलाएं शामिल हैं। दुनियाभर में 80 फीसदी पुरुष तंबाकू का सेवन करते हैं, लेकिन कुछ देशों की महिलाओं में तंबाकू सेवन की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। दुनियाभर के धूम्रपान करने वालों का करीब 10 फीसदी भारत में हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में करीब 25 करोड़ लोग गुटखा, बीड़ी, सिगरेट, हुक्का आदि के जरिए तंबाकू का सेवन करते हैं।
5.5 खरब सिगरेट
दुनिया के 125 देशों में तंबाकू का उत्पादन होता है। दुनियाभर में हर साल 5.5 खरब सिगरेट का उत्पादन होता है और एक अरब से ज्यादा लोग इसका सेवन करते हैं। भारत में 10 अरब सिगरेट का उत्पादन होता है। भारत में 72 करोड़ 50 लाख किलो तंबाकू की पैदावार होती है। भारत तंबाकू निर्यात के मामले में ब्राजील, चीन, अमरीका, मलावी और इटली के बाद छठे स्थान पर है। विकासशील देशों में हर साल 8 हजार बच्चों की मौत अभिभावकों द्वारा किए जाने वाले धूम्रपान के कारण होती है। दुनिया के किसी अन्य देश के मुकाबले भारत में तंबाकू से होने वाली बीमारियों
28 मई - 03 जून 2018 से मरने वाले लोगों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है। तंबाकू पर आयोजित विश्व सम्मेलन और अन्य अनुमानों के मुताबिक भारत में तंबाकू सेवन करने वालों की तादाद करीब साढ़े 29 करोड़ तक हो सकती है। देश के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि शहरी क्षेत्र में केवल 0.5 फीसदी महिलाएं धूम्रपान करती हैं, जबकि ग्रामीण क्षेत्र में यह संख्या 2 फीसदी है। आंकड़ो की मानें तो पूरे भारत में 10 फीसदी महिलाएं विभिन्न रूपों में तंबाकू का सेवन कर रही हैं। शहरी क्षेत्रों की 6 फीसदी महिलाएं और ग्रामीण इलाकों की 12 फीसदी महिलाएं तंबाकू का सेवन करती हैं। अगर पुरुषों की बात की जाए तो भारत में हर तीसरा पुरुष तंबाकू का सेवन करता है। डब्लूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक कई देशों में तंबाकू सेवन के मामले में लड़कियों की तादाद में काफी इजाफा हुआ है। हालांकि तंबाकू सेवन के मामले में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 20 फीसदी ही है। महिलाओं और लड़कियों में तंबाकू के प्रति बढ़ रहे रुझान से गंभीर समस्या पैदा हो सकती है।
महिलाओं के लिए भ्रामक विज्ञापन
डब्लूएचओ में गैर-संचारी रोग की सहायक महानिदेशक डॉ. आला अलवन का कहना है कि तंबाकू विज्ञापन महिलाओं और लड़कियों को ही ध्यान में रखकर बनाए जा रहे हैं। इन नए विज्ञापनों में खूबसूरती और तंबाकू को मिला कर दिखाया जाता है, ताकि महिलाओं को गुमराह कर उन्हें उत्पाद इस्तेमाल करने के लिए उकसाया जा सके। बुल्गारिया, चिली, कोलंबिया, चेक गणराज्य, मेक्सिको और न्यूजीलैंड सहित दुनिया के करीब 151 देशों में किए गए सर्वे के मुताबिक लड़कियों में तंबाकू सेवन की प्रवृत्ति लड़कों के मुकाबले ज्यादा बढ़ रही है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक तंबाकू या सिगरेट का सेवन करने वालों को मुंह का कैंसर की होने की आशंका 50 गुना ज्यादा होती है। तंबाकू में 25 ऐसे तत्व होते हैं जो कैंसर का कारण बन सकते हैं। तंबाकू के एक पैकेट में 60 सिगरेट के बराबर निकोटिन होता है। एक अध्ययन के अनुसार 91 प्रतिशत मुंह के कैंसर तंबाकू से ही होते हैं। हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल और डॉ. बीसी राय का कहना है कि एक दिन में 20 सिगरेट पीने से महिलाओं में हार्ट अटैक का खतरा 6 गुना बढ़ जाता है। एक दिन में 20 सिगरेट पीने से पुरुषों में हृदयाघात का खतरा 3 गुना बढ़ जाता है। पहली बार हृदयाघात के लिए धूम्रपान 36 फीसदी मामलों में जिम्मेदार होता है। ऐसे हृदय रोगी जो लगातार धूम्रपान करते रहते हैं उनमें दूसरे हृदयाघात का खतरा ज्यादा रहता है साथ ही अकस्मात मौत का खतरा भी बढ़ जाता है। बाई पास सर्जरी के बाद लगातार धूम्रपान करते रहने से मृत्यु, हृदय संबंधी बीमारी से मौत या फिर से बाईपास का खतरा ज़्यादा होता है। एंजियोप्लास्टी के बाद लगातार धूम्रपान करने से मौत और हृदयाघात का खतरा बढ़ जाता है। जिन मरीजों में हार्ट फंक्शनिंग 35 फीसदी से कम हो, उनमें धूम्रपान से मौत का खतरा ज्यादा होता है।
विश्व तंबाकू निषेध दिवस के थीम
1987 : प्रथम धूम्रपान रहित ओलंपिक (1988 ओलंपिक शीत ऋतु- कैलगैरी) 1988 : तंबाकू या स्वास्थ्य: स्वास्थ्य को चुनें 1989 : तंबाकू और महिलाएं: महिला धूम्रपान का जोखिम 1990 : बचपन और युवा बिना तंबाकू के: बिना तंबाकू के बड़ा होना 1991 : सार्वजनिक स्थल और परिवहन: तंबाकू मुक्त बेहतर होता है 1992 : तंबाकू मुक्त कार्यस्थल: सुरक्षित और स्वास्थ्यकर 1993 : स्वास्थ्य सेवा: एक तंबाकू मुक्त विश्व के लिए हमारी खिड़की 1994 : मीडिया और तंबाकू: संदेश को सभी ओर भेजो 1995 : आपकी सोच से ज्यादा होती है तंबाकू की कीमत 1997 : तंबाकू मुक्त विश्व के लिए एकजुट हों 1998 : तंबाकू के बिना बड़ा होना 1999 : तंबाकू के डिब्बे को पीछे छोड़ो 2000 : तंबाकू मारता है, बेवकूफ मत बनो 2001 : दूसरों से प्राप्त धुंआ मारता है 2002 : तंबाकू मुक्त खेल 2003 : तंबाकू मुक्त फिल्म, तंबाकू मुक्त फैशन 2004 : तंबाकू और गरीबी, एक पापमय वृत 2005 : तंबाकू के खिलाफ स्वास्थ्य पेशेवर 2006 : तंबाकू : किसी भी रूप या वेश में मौत 2007 : अंदर से तंबाकू मुक्त 2008 : तंबाकू मुक्त युवा 2009 : तंबाकू : स्वास्थ्य चेतावनी 2010 : लिंग और तंबाकू (महिला स्वास्थ्य की चिंता) 2011 : तंबाकू नियंत्रण (डबल्यूएचओ का सम्मेलन) 2012 : तंबाकू उद्योग पर हस्तक्षेप 2013 : तंबाकू के विज्ञापन, प्रोत्साहन और प्रायोजन पर बैन 2014 : तंबाकू पर कर बढ़ाओ 2015 : तंबाकू उत्पादों के अवैध व्यापार को रोकना 2016 : तंबाकू उत्पादों की प्लेन पैकिंग 2017 : तंबाकू : विकास के लिए खतरा 2018 : तंबाकू से हृदयाघात जो लोग लगातार धूम्रपान करते रहते हैं, उनमें हो सकता है कि रक्त दाब (ब्लड प्रेशर) की दवाएं असर न करें। विश्व स्वास्थ्य संगठन की घोषणा के आधार पर इस समय समूचे विश्व में प्रतिवर्ष 50 लाख से अधिक व्यक्ति धूम्रपान के सेवन के कारण अपनी जान से हाथ धो रहे हैं। यदि इस समस्या को नियंत्रित करने की दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं
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स्वास्थ्य
उठाया गया तो वर्ष 2030 में धूम्रपान के सेवन से मरने वाले व्यक्तियों की संख्या प्रतिवर्ष 80 लाख से अधिक हो जाएगी। धूम्रपान, इसका सेवन करने वालों में से आधे व्यक्तियों की मृत्यु का कारण बन रहा है और औसतन इससे उनकी 15 वर्ष आयु कम हो रही है। हर प्रकार का धूम्रपान- 90 प्रतिशत से अधिक फेफड़े के कैंसर, ब्रैन हैमरेज और पक्षाघात का महत्वपूर्ण कारण है। आज विश्व
बुल्गारिया, चिली, कोलंबिया, चेक गणराज्य, मेक्सिको और न्यूजीलैंड सहित दुनिया के करीब 151 देशों में किए गए सर्वे के मुताबिक लड़कियों में तंबाकू सेवन की प्रवृत्ति लड़कों के मुकाबले ज्यादा बढ़ रही है के मशीनी जीवन में कैंसर, मृत्यु का दूसरा कारण है और सिगरेट इस बीमारी में ग्रस्त होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण है।
सिगरेट और कैंसर
अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि फेफड़े के कैंसर से ग्रस्त होने और सिगरेट का सेवन करने वाले पुरुषों में मृत्यु की आशंका सिगरेट का सेवन न करने वाले पुरुषों से 23 गुना अधिक है जबकि इस कैंसर से ग्रस्त होने की आशंका सिगरेट का सेवन करने वाली महिलाओं में सिगरेट का प्रयोग न करने वाली महिलाओं से 13 गुना अधिक है। सिगरेटमुंह, मेरुदंड, कंठ और मूत्राशय के कैंसर में सीधे रूप से प्रभावी हो सकता है। सिगरेट में मौजूद कैंसर जनक पदार्थ शरीर की कोशिकाओं पर ऐसा प्रभाव डालते हैं जिससे उसका उचित विकास नहीं हो पाता और शरीर की कोशिकाओं के विकास में विघ्न उत्पन्न होता है। इस प्रकार सिगरेट शरीर की कोशिकाओं के नष्ट होने और उनके कैंसर युक्त होने का कारण बनता है। शोध इस बात के सूचक हैं कि जो व्यक्ति सिगरेट का सेवन करते हैं उनमें मूत्राशय के कैंसर से ग्रस्त होने की संभावना उन लोगों से चार गुना अधिक होती है जिन्होंने अपने जीवन में एक बार भी सिगरेट को हाथ नहीं लगाया है। लंबे समय तक सिगरेट सेवन के दूसरे दुष्परिणाम- मुंह, गर्भाशय, गुर्दे और पाचक ग्रंथि के कैंसर हैं। विभिन्न शोधों से जो परिणाम सामने आए हैं वे इस बात की पुष्टि करते हैं कि धूम्रपान, रक्त संचार की व्यवस्था पर हानिकारक प्रभाव डालता है। धूम्रपान का सेवन और न चाहते हुए भी उसके धुएं का सामना, हृदय और मस्तिष्क की बीमारियों का महत्वपूर्ण कारण है।
कम धूम्रपान भी खतरनाक
इन अध्ययनों में पेश किए गए आंकड़े इस बात के सूचक हैं कि कम से कम सिगरेट का प्रयोग भी जैसे एक दिन में पांच सिगरेट या कभी कभी सिगरेट का सेवन अथवा धूम्रपान के धुएं से सीधे रूप से सामना न होना भी हृदय की बीमारियों से ग्रस्त होने के लिए पर्याप्त है। धूम्रपान के धुएं में मौजूद पदार्थ जैसे आक्सीडेशन करने वाले, निको िटन, कार्बन मोनो आक्साइड जैसे पदार्थ हृदय, ग्रंथियों और धमनियों से संबंधित रोगों के कारण हैं। धूम्रपान का सेवन इस बात का कारण बनता है कि शरीर पर इंसुलिन का प्रभाव नहीं होता है और इस चीज से ग्रंथियों एवं गुर्दे को क्षति पहुंच सकती है।
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स्वच्छता
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स्वच्छता से परहेज का ब्रिटिश अतीत खासतौर पर मध्य युग में स्वच्छता की बात करें तो ब्रिटिश परंपराएं हमें हैरान करती हैं। दरअसल स्वच्छता इंग्लैंड या ब्रिटेन के लिए नितांत आधुनिक संदर्भ है
खास बातें मध्ययुगीन ब्रिटेन में शरीर को धोने को लेकर गंभीर परहेज था स्नान या धोने की परंपरा रूस से इंग्लैंड में आई सम्राट लुई ने जीवन में सिर्फ तीन बार खुद को धोया था
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संजय सिंह
ग्लैंड महज यूरोप का एक देश भर नहीं है, बल्कि चर्चों के वर्चस्व के दौर से लेकर साम्राज्यवादी दौर तक इंग्लैंड का इतिहास एक तरह से यूरोप का इतिहास रहा है। समाज और संस्कृति पर भी इंग्लैंड या ब्रिटेन की छाया ही पूरे यूरोप पर बड़ी होकर पड़ी है। वैसे यह भी एक विडंबना ही है कि ब्रिटेन सहित जिस यूरोप को दुनिया में आधुनिकता के इतिहास का सूत्रपात करने वाला माना जाता है, वहां स्वच्छता को लेकर कम से कम ऐसी तरक्की या आधुनिकता काफी देर से देखने को मिलती है। खासतौर पर मध्य युग में स्वच्छता की बात करें तो ब्रिटिश परंपराएं हमें हैरान करती हैं। दिलचस्प है कि उसी दौर में एक तरफ जहां रूस में स्नान को उच्च सम्मान के साथ देखा जाता था, वहीं दुसरी तरफ ब्रिटेन में स्थिति बिल्कुल विपरीत थी। मध्ययुगीन ब्रिटिश इतिहास में शरीर को किसी रूप में धोने को बहुत संदेह के साथ देखा जाता था। दरअसल, रोमन सभ्यता के पतन के बाद लंबे समय तक यूरोप में शौचालयों की व्यवस्था का अभाव रहा। स्थिति इतनी विकट थी कि ग्यारहवीं शताब्दी तक लोग सड़कों पर मल फेंक दिया करते थे। कई स्थानों पर घरों में मल करने के बाद उसे खिड़की से बाहर फेंक दिया जाता था, जिससे आनेजाने वालों को काफी असुविधा का सामना करना पड़ता था। इस काल में लोग कहीं भी मूत्रत्याग कर देते थे। सड़कों के किनारे से लेकर बेडरूम तक में। यूरोप में छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक का काल अंधकार का काल था, जिसमें सर्वत्र अज्ञान और अंधविश्वास का बोलबाला था। इस
स्वच्छता को लेकर ब्रिटिश रूढ़ता को इस तरह भी समझा जा सकता है कि वहां राजमहलों से लेकर चर्च तक स्वच्छता के प्रति लंबे समय तक उदासीनता पसरी रही पूरे कालखंड में मनुष्य के मल के निस्तारण की कोई उपयुक्त व्यवस्था पूरे इंग्लैंड क्या यूरोप में कहीं नहीं थी।
राजमहलों में स्वच्छता नदारद
स्वच्छता प्रसंग में इंग्लैंड के इतिहास में सबसे दिलचस्प तथ्य वहां के राजमहलों को लेकर मिलते हैं। कैथरीन (27 अक्टूबर 1401 – 3 जनवरी 1437) 1420 से 1422 तक इंग्लैंड की रानी थी। वह फ्रांस के चार्ल्स-VI की पुत्री तथा इंग्लैंड के हेनरी पंचम की पत्नी थी। उसकी बड़ी बहन इसाबेला 1396 से 1399 तक इंग्लैंड की महारानी रही। जो ऐतिहासिक साक्ष्य मिलते हैं उसमें इसाबेला को अपने जीवन में केवल दो बार खुद को धोने पर गर्व था- बपतिस्मा में और शादी से पहले।
इसी तरह सम्राट लुई के बारे में बताया जाता है कि उन्होंने जीवन में सिर्फ तीन बार खुद को धोया था। यह भी कि ऐसा उन्होंने चिकित्सकीय प्रयोजनों के कारण किया था।
13वीं सदी में आंतरिक वस्त्र
इंग्लैंड के इतिहास में पहली बार 13 वीं सदी में आधुनिक आंतरिक वस्त्र के इस्तेमाल का पता चलता है। इसके इस्तेमाल ने इस चेतना को और मजबूत किया कि वहां धोने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। कपड़े महंगे थे और धोने के लिहाज से तो और भी महंगे साबित हो रहे थे। अंडरवियर धोने के लिए बहुत आसान था। यह शरीर की गंदगी से बाकी पोशाक को संरक्षित करता था। तुलनात्मक तौर पर देखें तो उस समय रोम में इससे काफी अच्छी स्थिति थी। रोम में 14वीं शताब्दी में 144 सार्वजनिक शौचालय थे। ‘पैसा गंध नहीं है!’ यह एक तारीखी वक्तव्य है। ये शब्द सम्राट वेस्पासियन के हैं। उन्होंने यह तब बोला, जब उनके बेटे टिटस ने शौचालयों पर टैक्स लागू करने के लिए
उन्हें अपमानित किया था। वेस्पासियन के साथ उस दौर के लोग इसे स्वच्छता को प्रोत्साहन देने के खिलाफ उठाए गए कदम के तौर पर देख रहे थे। देखते-देखते इंग्लैंड और फिर पूरे यूरोप तक रूसी स्नान की परंपरा पहुंच ही गई। रूस में यह परंपरा विदेशियों द्वारा लाई गई थी, जो लंबे समय से रूस में रहते थे और साप्ताहिक वाशिंग की गरिमा का गुनगान किया करते थे। वैसे यह सब रातोरात नहीं हुआ। स्नान के साथ स्वच्छता को लेकर इंग्लैंड की परंपरा को बदलने में वक्त लगा। वहां लोग अपनी परंपरा और मान्यता से एकबारगी कटने को तैयार नहीं थे। उन्हें वक्त के साथ यह बात समझ आई कि वे जिस तरह की अस्वच्छ जीवनशैली अपना रहे हैं, वह उन्हें जहां एक तरफ प्लेग जैसी बीमारियों की चपेट में ला रहा है, वहीं वे इस कारण विश्व सभ्यता और संस्कृति के लिहाज काफी पिछड़े माने जा रहे हैं। बहरहाल, काफी अंतराल और भटकावों के बाद इंग्लैंड तक स्वच्छता की संस्कृति पहुंची। अलबत्ता आज वहां भले शौच से लेकर स्नान तक एक जीवन पद्धति विकसित हो गई है और लोग इससे जुड़े वैज्ञानिक पहलुओं को भी समझने लगे हैं। पर यहां तक पहुंचने की यूरोप की यात्रा खासी दिलचस्प रही है। आलम यह रहा है कि सौ साल पहले तक बाथरूम और स्नान की समुचित व्यवस्था को लक्जरी के तौर पर देखा जाता था। जो तथ्य मिलते हैं उसमें 19वीं सदी तक इंग्लैंड के लोगों में धोने के खिलाफ एक हठ कहीं न कहीं विद्यमान रहा है। इस दौरान उनकी कोशिश धोने के बिना ही काम चलाने की दिखाई पड़ती है।
स्वच्छता को लेकर उदासीनता
स्वच्छता को लेकर ब्रिटिश रूढ़ता को इस तरह भी समझा जा सकता है कि वहां राजमहलों से लेकर चर्च तक स्वच्छता के प्रति लंबे समय तक उदासीनता पसरी रही। इस उदासीनता को ही लोगों ने वहां लंबे समय तक जीवन जीने का तरीका बनाए
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स्वच्छता
नाविकों ने सिखाई स्वच्छता
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अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी तक आते-आते इंग्लैंड में घरों में तो नहीं बल्कि गांवों में सार्वजानिक शौचालय और स्नानगृह बनने लगे बसाए। इनमें से कई अभी भी बहुत प्रसिद्ध हैं। सर टाइटस साल्ट ने सॉल्टेयर नामक गांव बसाया था। इनकी ऊन बनाने की फैक्ट्री थी। विलियम हेस्केथ लीवर साबुन बनाते थे। उन्होंने पोर्ट सनलाइट गांव बसाया। लीवर ब्रदर और सनलाइट साबुन को कौन नहीं जानता। विश्व में सबकी पसंद कैडबरी चॉकलेट बनाने वाले जॉर्ज कैडबरी ने बौर्नविल नामक जगह बसाई। हम सब लहवीं शताब्दी के बाद नाविक बोर्नविटा दूध में डालकर पीना पसंद करते हैं। यात्राओं ने इंग्लैंड की आर्थिक स्थिति यह और इन जैसे अनेक गांव यूरोप में फैक्ट्रियों को बदलना शुरू कर दिया था। बदलाव के की देन हैं। ये चरण और उनके नतीजे अठारहवीं और शहरों को छोड़ ब्रिटिश गांवों को भी देखें उन्नीसवीं शताब्दी तक तो आज वहां स्वच्छता आते-आते क्रांतिकारी शहरों को छोड़ ब्रिटिश गांवों और सुंदरता का अनूठा साबित होने लगे। चर्च ल दिखता है। सभी को भी देखें तो आज वहां मेअपने बनाने का रिवाज कमजोर घर को सजाकर स्वच्छता और सु द ं रता का पड़ने लगा। इसका स्थान रखते हैं। घर के बाहर बड़े-बड़े सुंदर घरों ने अनूठा मेल दिखता है। सभी तक झाड़ू देते हैं। घास लेना शुरू किया। सड़कें अपने घर को सजाकर रखते हैं काटते हैं। इंग्लैंड में बनने लगीं। नालों और पानी बहुत बरसता है, शौचालयों की व्यवस्था की व्यवस्था भी इसलिए झाड़ियां बहुत होती हैं। लोग उनको सामूहिकता के आधार पर शुरू हुई। घरों में तो साफ करते हैं। हर गांव का अपना स्टेशन, नहीं पर गांवों में सार्वजानिक शौचालय और अपना अस्पताल, अपना प्रसूति क्लीनिक है। स्नानगृह बनने लगे। गांव-गांव में आधुनिक शौचालय हैं और उसके इस तरह यूरोप मॉडल विलेज की कल्पना लिए उन्नत सीवरेज व्यवस्था। गांवों से मैला साकार होने लगी। धनिकों ने बड़े से बड़े नदियों में नहीं जाता, बल्कि इनका परिशोधन डिजाइनर बुलवाए और सुंदर से सुंदर गांव किया जाता है।
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रखा। वैसे आज भी यह बात कही जाती है कि राजशाही और धार्मिक परंपराओं को आदर देने के नाम पर ब्रिटिश समाज बहुत आस्थावान है। लिहाजा इस आदर को चुनौती देने वाली किसी तरह की पहल का वहां के जीवन में स्थान बना पाना, किसी बड़े बदलाव या क्रांतिकारी घटना से कम नहीं रहा।
‘न्यू टाइम्स’ अखबार
इस बारे में कुछ दिलचस्प तथ्य और भी हैं। मसलन, नियमित रूप से धुलाई से इंकार को लेकर यूरोप में ‘न्यू टाइम्स’ अखबार ने लंबा अभियान चलाया। इसे वहां प्रोटेस्टेंटिज्म को मजबूत करने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है। इस कोशिश में प्रचार और दलीलों का स्तर इतना गिरा कि स्नान को शर्मनाक घटना तक बताने से लोग नहीं चूके।
गायब हो गया साबुन
इंग्लैंड में स्वच्छता के इतिहास और संस्कृति को लेकर इसी तरह का एक रोचक तथ्य यह भी है कि मध्य युग में साबुन रखने की व्यवस्था के साथ स्नानघर हर ब्रिटिश शहर में थे। पर लगभग 1500 ई. तक आते-आते से वे धीरे-धीरे गायब होते गए। विडंबना है कि प्लेग की महामारी वहां लोगों को धोने से इंकार करने की बड़ी वजह बनी। यह एक ऐसा अंधविश्वास था जो आधुनिक दौर में भी यूरोप
इंग्लैंड के इतिहास में पहली बार 13 वीं सदी में आधुनिक आंतरिक वस्त्र के इस्तेमाल का पता चलता है। इसके इस्तेमाल ने इस चेतना को और मजबूत किया कि वहां धोने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है का पीछा कर रहा था। 1526 में रॉटरडैम के इरास्मस ने लिखा है, ‘पच्चीस साल पहले ब्रैबंट में सार्वजनिक स्नान के रूप में कुछ भी इतना लोकप्रिय नहीं था। आज वे नहीं हैं। प्लेग ने हमें बिना इसके जीना सिखाया है।’
स्नान से परहेज
17 वीं शताब्दी तक स्नान को वहां एक चिकित्यकीय प्रक्रिया के तौर पर मान्यता मिलनी शुरू हुई। वहां ऐसा लोग सिर्फ डॉक्टरों के निर्देशों के अनुसार किया करते थे। हालांकि सम्राट लुई- 14वें स्नान से तब भी काफी डरे हुए थे। उन्हें लगता था कि डॉक्टर के आदेश से अगर उन्होंने एक बार भी ऐसा किया तो फिर उन्हें यह जीवन के अंत तक करना पड़ेगा। 18वीं सदी तक आते-आते इंग्लैंड के लोग यदि आवश्यक हो तो अपने हाथ-मुंह धोने लगे थे। पर तब भी इसे लेकर एक हिचक तो बनी हुई थी।
इस हिचक और अंधविश्वास का आलम यह था कि कई लोग इस तरह खुद को धोने से भागते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे सूजन हो सकती है और उनकी दृष्टि कम हो जाएगी या पूरी तरह खो जाएगी। आज ब्रिटेन में बाथरूम शेल्फ विभिन्न शॉवर जेल और शरीर का देखभाल करने वाले उत्पादों से भरे होते हैं। पर यह यकीन करना कि बिना धोए और स्नान किए भी यूरोप ने प्रेम और सौंदर्य के नए मानदंडों को जिया है। यह मजाक नहीं, बल्कि संवेदनशील तथ्य है, जो यूरोप को लेकर हमारी जानकारी को और बढ़ाता है। आज ब्रिटेन को लेकर बनी रंगीन ऐतिहासिक फिल्में हमें सुंदर दृश्यों और नायक-नायिकाओं के साथ मोहित करती हैं। ऐसा लगता है कि उनके मखमल और रेशमी लिबास और ठाठ की दुनिया सुगंध से भरी है, स्वर्ग जैसी है। पर उस दौर की मान्यताओं और जीवनशैली की हकीकत जानने के बाद इस पर यकीन करना खासा मुश्किल हो जाता है। स्वच्छ और सुंदर दांत ब्रिटिश इतिहास में भयावहता के प्रतीक रहे हैं। इस तरह के प्रतीकों और बोधों से बाहर निकलने में ब्रिटिश समाज ने एक लंबी और दिलचस्प यात्रा तय की है, जिसका हर चरण, हर पड़ाव हमें चौंकाता है। इसी से जुड़ा एक महत्वपूर्ण संदर्भ है- ‘कोर्टस्सी गाइड’। इसे 1782 में प्रकाशित किया गया था। इसके जरिए पानी से धोने पर प्रतिबंध लगाया गया था। धोने को जहां त्वचा की देखभाल के लिहाज से गलत बताया गया, वहीं मौसमी अनुकूलता के भी विपरीत बताया गया। इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि जीवन और समाज के बीच तमाम तरह के तकनीकी और आधुनिक बदलावों के बावजूद इस तरह के दिशानिर्देश और मान्यताओं से यूरोप को 19वीं सदी तक संघर्ष करना पड़ा है। 19वीं सदी के मध्य तक शरीर के अंतरंग
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स्वच्छता
भागों की धुलाई को लेकर एक तरह का निषेध व्याप्त था। खासतौर पर महिलाओं के लिए इस तरह के सामाजिक निषेध से जुड़ी मान्यता में यह तक मान्यता शामिल थी कि इससे महिलाएं बांझपन का शिकार हो सकती हैं। इस तरह की कुछ और मान्यताओं के कारण यूरोप में महिलाओं को लंबे समय तक मासिक धर्म के दौरान अस्वच्छ और घातक तरीकों को अपनाते रहना पड़ा है।
चर्च की मनमानी
मध्यकालीन ब्रिटेन में चर्च की दखलंदाजी काफी थी। वह तब धार्मिक और नैतिक ही नहीं शरीर से जुड़ी परंपराओं को भी तय कर रहे थे। चर्च की लोक स्वीकृति इतनी व्यापक और मजबूत थी कि उसके खिलाफ जाने का साहस न राजमहलों के भीतर दिखता था और न जनसाधारण में। बात टॉयलेट पेपर के इस्तेमाल की करें तो यूरोप में सदियों तक चर्च ने शौचालय के बाद सफाई को लेकर अपना रूढ़ नजरिया बनाए रखा। टॉयलेट पेपर की जगह जो चीज लोग इस्तेमाल करते थे, वे पत्तियां और काई जैसी चीजें थीं। स्वच्छता के प्रति जो सभ्य और संपन्न लोग थोड़े जागरूक भी थे, उन्होंने इसके लिए कपड़े तैयार करवा रखे थे। 1880 में पहला टॉयलेट पेपर इंग्लैंड में दिखाई दिया।
स्वच्छता की 19वीं सदी
स्वच्छता को लेकर यूरोपीय रूढ़ियों के बीच दुनियभार में शरीर और स्वास्थ्य को लेकर कई नए तथ्य भी सामने आ रहे थे। ये तथ्य और सूचनाएं निश्चित रूप से ब्रिटेन तक भी पहुंच रही थी। इस वैज्ञानिक क्रांति तक को ब्रिटिश समाज को सामूहिक तौर पर बदलने में तो काफी लगा। पर व्यक्तिगत सुरक्षा की बात करें तो इस दिशा में सफलता का सिलसिला शुरू 19वीं सदी के
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• सोप यानी साबुन का जिक्र विलियम शेक्सपीयर ने कहीं नहीं किया है, लेकिन किंग जेम्स बाइबिल ने इसका इस्तेमाल दो बार किया है। • 2002 में ब्रिटेन में साबुन के चलते हुई दुर्घटनाओं की वजह से 595 लोग अस्पताल में पहुंचे। • इंग्लैंड ने 1712 में साबुन पर टैक्स थोप दिया, जो 1835 में हटा। • 2004 में जब आंधी आई तो लंदन का ट्रीटमेंट प्लांट बैठ गया और लंदन ने एक बार फिर सारा मल टेम्स नदी में प्रवाहित कर दिया। • इंग्लैंड सहित यूरोप के 540 शहरों में से सिर्फ 79 के पास आधुनिक ट्रीटमेंट प्लांट हैं। 168 यूरोपियन शहरों के पास कोई ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। • आधुनिक विकास का प्रतीक लंदन भी 1997 तक मल को सीधे समुद्र में प्रवाहित किया करता था।
इंग्लैंड में ट्रूथब्रश 1770 में आया। इसका आविष्कार विलियम एडिसन ने किया था। लेकिन बड़े पैमाने पर इसके उत्पादन के लिए 19वीं सदी तक इंतजार करना पड़ा। इसी समय दंतमंजन का भी आविष्कार हुआ मध्य तक ही शुरू हो पाया। आज के आधुनिक ब्रिटेन के वैज्ञानिक अनुसंधान और साक्ष्य के बावजूद यह समझने में काफी भीतरी जद्दोजहद से गुजरना पड़ा कि संक्रामक बीमारियों और संक्रमण फैलाने वाले जीवाणुओं से बचाव के लिए शरीर को धोना और साफ रखना जरूरी है। साफ है कि मध्यकालीन अंधकार और आधुनिक प्रकाश के बीच जिस तरह रूस सहित बाकी दुनिया ने
शेक्सपीयर और स्वच्छता
यात्रा एक स्वाभाविक गति के साथ पूरी की, यूरोप उसमें काफी पीछे रहा। मध्ययुगीन यूरोप का यह वही दौर था जब सामान्य से विशिष्ट लोग तक इस बात पर फख्र कर रहे थे कि उन्होंने जीवन में महज एक या दो बार अपने शरीर को धोया है। इंग्लैंड में ट्रूथब्रश 1770 में आया। इसका आविष्कार विलियम एडिसन ने किया था। लेकिन बड़े पैमाने पर इसके उत्पादन के लिए 19वीं सदी
तक इंतजार करना पड़ा। इसी समय दंतमंजन का भी आविष्कार हुआ। डिओडेरेंट 1880 के दशक में ब्रिटेन में आया। वैसे नौवीं सदी में ही इसकी दरकार वहां लोग महसूस कर चुके थे। पर इसके निदान तक पहुंचने में लंबा वक्त लग गया। पूरी दुनिया में प्राचीन काल में लोग समझ गए थे कि अगर आपके शरीर के दबे-छिपे हिस्से से दुर्गंध आती है तो इसका तरीका महज वहां से बाल हटाना नहीं, बल्कि शरीर के उस हिस्से को धोना भी है। पर यह सब जीवन अभ्यास में आने में यूरोप में वक्त लगा। स्थिति यह रही कि 1920 के दशक तक खासतौर पर महिलाओं के शरीर पर बाल से किसी को परेशानी नहीं थी, खुद महिलाओं को भी नहीं।
के पेड़ के पास खुले कंटेनर में बनी टोडी शराब या ताड़ी पीने से बचें। बीमारी से पीड़ित किसी भी व्यक्ति से संपर्क न करें। यदि मिलना ही पड़े तो बाद में साबुन से अपने हाथों को अच्छी तरह से धो लें। डॉ. अग्रवाल ने कहा कि आमतौर पर शौचालय में इस्तेमाल होने वाली चीजें, जैसे बाल्टी और मग को खास तौर पर साफ रखें। निपाह बुखार से मरने वाले किसी भी व्यक्ति के मृत शरीर को ले जाते समय चेहरे को ढंकना महत्वपूर्ण है। मृत व्यक्ति को गले लगाने से बचें और उसके अंतिम संस्कार से
पहले शरीर को स्नान कराते समय सावधानी बरतें। उन्होंने कहा कि जब इंसानों में इसका संक्रमण होता है, तो इसमें एसिम्प्टोमैटिक इन्फेक्शन से लेकर तीव्र रेस्पिरेटरी सिंड्रोम और घातक एन्सेफलाइटिस तक का क्लिनिकल प्रजेंटेशन सामने आता है। एनआईवी की पहचान पहली बार 1998 में मलेशिया के कैम्पंग सुंगई निपाह में एक बीमारी फैलने के दौरान हुई थी। यह चमगादड़ों से फैलता है और इससे जानवर और इंसान दोनों ही प्रभावित होते हैं। (आईएएनएस)
ऐसे बचें निपाह वायरस से
कोई टीका या दवा न होने के कारण निपाह वायरस के संक्रमण से सतर्कता और स्वच्छता के सहारे ही बचा जा सकता है
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रल में फैले निपाह वायरस (एनआईवी) ने लोगों के बीच डर का माहौल बना दिया है। राज्य सरकार भले ही हालात पर काबू पाने का बखान कर रही है, लेकिन सवाल खुद को इस संक्रमण से बचाने का है। हार्ट केयर फाउंडनेशन (एचसीएफआई) के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल ने निपाह वायरस के प्रकोप के बारे में कहा कि इस बीमारी के फैलने के साथ ही हमें एक और लड़ाई के लिए तैयार रहना है। यह एक प्रकार के चमगादड़ से फैलती है। संक्रमित जीवों के साथ सीधे संपर्क से बचने के अलावा, जमीन पर गिरे फलों का उपभोग करने से बचना जरूरी है। यह स्थिति इसीलिए भी मुश्किल हो जाती है, क्योंकि इस बीमारी के लिए अभी कोई टीका या दवा बाजार में उपलब्ध नहीं है। उन्होंने कहा कि इसके इलाज का एकमात्र
तरीका कुछ सहायक दवाइयां और पैलिएटिव केयर है। वायरस की इनक्यूबेशन अवधि 5 से 14 दिनों तक होती है, जिसके बाद इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं। सामान्य लक्षणों में बुखार, सिर दर्द, बेहोशी और मितली शामिल होती है। कुछ मामलों में, व्यक्ति को गले में कुछ फंसने का अनुभव, पेट दर्द, उल्टी, थकान और निगाह का धुंधलापन महसूस हो सकता है। डॉ. अग्रवाल ने बताया कि लक्षण शुरू होने के दो दिन बाद पीड़ित के कोमा में जाने की आंशका बढ़ जाती है। वहीं इंसेफेलाइटिस के संक्रमण की भी कभी खतरा रहता है, जो मस्तिष्क को प्रभावित करता है। वायरस से बचाव के लक्षणों पर उन्होंने कहा कि सुनिश्चित करें कि आप जो खाना खा रहे हैं वह किसी चमगादड़ या उसके मल से दूषित नहीं हुआ हो। चमगादड़ के कुतरे हुए फल न खाए। पाम
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स्वास्थ्य
हृदय प्रत्यारोपण भारत में 10 गुना बढ़ा
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एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हृदयदान प्रत्यारोपण के बीच बेहतर समन्वय के कारण भारत में पिछले दो सालों में लगभग 300 हृदय प्रत्यारोपण हुए हैं
व
र्ष 2016 के बाद से भारत में हृदय प्रत्यारोपण के मामलों में दसगुनी वृद्धि हुई है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हृदयदान व प्रत्यारोपण के बीच बेहतर समन्वय के कारण ऐसी स्थिति बन पाई है। भारत में पिछले दो सालों में लगभग 300 हृदय प्रत्यारोपण हुए हैं। हृदय प्रत्यारोपण सर्जरी एक बेहद संवेदनशील प्रक्रिया है, जिसके दौरान क्षतिग्रस्त मांसपेशियों,
धमनी या वाल्व वाले हृदय की जगह पर पूरी तरह से सक्रिय और स्वस्थ हृदय प्रत्यारोपित किया जाता है। हार्ट केअर फाउंडेशन ऑफ इंडिया (एचसीएफआई) के अध्यक्ष डॉ. केके अग्रवाल ने कहा कि 'ब्रेन डेड' घोषित हो चुके किसी व्यक्ति के शरीर से निकाले गए अधिकांश अंग कई घंटे तक सुरक्षित रखे जा सकते हैं, जब
तक कि उन्हें किसी अन्य व्यक्ति के शरीर में प्रत्यारोपित न कर दिया जाए। उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति के शरीर से एक बार निकाला गया रक्त लंबे समय तक स्टोर किया जाता है और जरूरत पड़ने पर दूसरों को दिया जाता है। डांसर क्लेयर सिल्विया की कहानी सेलुलर मैमोरी की बात को स्थापित करती है कि स्मृति और चेतना कोशिकाओं में जीवित रह सकती है और अन्य व्यक्तियों तक स्थानांतरित हो सकती है। डॉ. अग्रवाल ने कहा कि सिल्विया के शरीर में हृदय व फेफड़ों के प्रत्यारोपण के बाद उसमें डोनर के गुण विकसित होने लगे (पुरुष से महिला तक यौन वरीयताओं में परिवर्तन, लाल रंग की जगह हरे और नीले रंग की पसंद, चिकन और बियर का स्वाद विकसित होना)। हालांकि, ऐसा हर किसी में नहीं हो सकता। उन्होंने बताया कि अंगों को ठीक करने की प्रक्रिया को हार्वेस्टिंग कहा जाता है। यह अंग प्राप्तकर्ता में ट्रांसप्लांट किया जाता है, जिसे उस अंग
की आवश्यकता होती है। आईजेसीपी के ग्रुप एडिटर डॉ. अग्रवाल ने आगे कहा कि आंकड़े बताते हैं कि हृदय प्रत्यारोपण की संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन इसके बारे में और जागरूकता बरतने की आवश्यकता है। लोगों को इस तथ्य के बारे में संवेदनशील होना चाहिए कि वे अंगदान के माध्यम से मृत्यु के बाद भी जीवित रह सकते हैं। अंगदान के बारे में मिथकों और गलतफहमी को दूर करने और संदेश को फैलाने की भी जरूरत है। एचसीएफआई के अनुसार, उच्च आयु अंगदान में बाधक नहीं है। यहां तक कि 80 वर्ष की आयु से ऊपर के लोग भी अंग और ऊत्तक दाता बन सकते हैं। दान के लिए स्वास्थ्य सही होना भी कोई आवश्यक नहीं है। यहां तक कि जो धूम्रपान करते हैं, शराब पीते हैं या स्वस्थ आहार नहीं लेते हैं, वे भी अंगदान कर सकते हैं। अंग और ऊत्तक दान शरीर को किसी भी तरह से 'डिफिगर' नहीं करते हैं। (आईएएनएस)
आईआईटी-कानपुर ने तैयार की डेंगू जांच किट
प्रेग्नेंसी टेस्ट कार्ड जैसी डेंगू जांच किट जल्द ही बाजार में आने को तैयार है। इस किट से घर बैठे ही आसानी से डेंगू की जांच की जा सकेगी
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त्तर प्रदेश स्थित कानपुर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी-कानपुर) ने डेंगू परीक्षण को लेकर एक ऐसी जांच किट तैयार की है, जो बिल्कुल प्रेंग्नेंसी टेस्ट कार्ड जैसा है। इस किट के माध्यम से शुरुआती तीन दिनों के भीतर ही घर बैठे डेंगू की पुष्टि की जा सकती है। चिकित्सकों की मानें तो अगले एक साल के भीतर यह बाजार में उपलब्ध होगी और इसकी कीमत 100 रुपए के आसपास होने का अनुमान है। चिकित्सकों ने दावा किया कि कोई भी व्यक्ति घर बैठे इस बात का पता लगा सकेगा कि उसके रक्त में डेंगू के वायरस मौजूद हैं या नहीं। इससे सही समय पर डेंगू के वायरस का पता लगाया जा सकेगा और मरीजों को होने वाली मौत को रोकने में सफलता मिलेगी। इस टेस्ट किट को आईआईटी-कानपुर और लखनऊ स्थित हृदय रोग संस्थान ने मिलकर तैयार
की है, जो अपने घर पर ही सिर्फ एक बूंद रक्त से अधिकतम 10 मिनट के भीतर ही डेंगू की पुष्टि कर देगी। आईआईटी-कानपुर के प्रोफेसर शांतनु भट्टाचार्य के मुताबिक, प्रेग्नेंसी टेस्ट कार्ड जैसी इस जांच किट से शुरुआती तीन दिनों में ही डेंगू होने का पता लगाया जा सकेगा। हृदय रोग संस्थान के निदेशक विनय कृष्ण ने कहा, 'किसी भी मरीज के शरीर में डेंगू वायरस होने
पर शुरुआती तीन दिनों तक इसके खास लक्षण नहीं उभरते, बल्कि अगले तीन दिनों के भीतर अचानक प्लाज्मा लीकेज के कारण प्लेटलेट काउंट तेजी से घटना शुरू हो जाता है। जांच रिपोर्ट लैब में भेजने के बाद रिपोर्ट के इंतजार में लगभग एक सप्ताह निकल जाता है।' उन्होंने बताया कि इस संशय के कारण अस्पतालों में भर्ती मरीजों के इलाज में काफी गलती होने की आशंका भी बनी रहती है। विनय कृष्ण के मुताबिक, इससे निपटने के लिए पिछले एक वर्ष की मेहनत के बाद आईआईटीकानपुर में पेपर माइक्रोफ्लूइडिक तकनीक से एक टेस्ट कार्ड तैयार किया गया है। संस्थान में सीरम के साथ एनएस-1 प्रोटीन के साथ नमूने बनाकर
टेस्ट किए गए। यह प्रयोग पूरी तरह से सफल रहे। अभी इसका क्लीनिकल ट्रायल शुरू होगा। इसके बाद अगले एक साल के भीतर यह कार्ड बाजार में उपलब्ध होगा। प्रोफेसर शांतनु के मुताबिक, नैनो तकनीक पर आधारित इस कार्ड में ग्रैफन ऑक्साइड की पतली परतों के बीच सोने के बेहद मामूली कण बिखरे हैं। इस कारण यह तकनीक सही नतीजे देने में कामयाब होगी। उन्होंने बताया कि डेंगू होने पर एक लाल रेखा के जरिए इसे साधारण आंखों से पहचाना जा सकेगा। इसे अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ फिजिक्स में भी प्रकाशित किया जा चुका है। (आईएएनएस)
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शिक्षा
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कूड़ा बीनने वाले बच्चाें की फ्रिक गोरखपुर के युवाओं ने पढ़ाने और पालने की जिम्मेवारी उठाई तो कई कूड़ा बीनने वाले बच्चों के जीवन की तस्वीर बदल गई
खास बातें आजाद पांण्डेय ने 2008 से बच्चों को पढ़ाना शुरू किया बच्चों के भोजन के लिए व्यापारियों के सामने फैलाते हैं झोली अब तक करीब आठ सौ भटके बच्चों को पहुंचा चुके हैं अपने घर बता पता है कि वह कई साल पहले गौरीबाजार से भागकर ट्रेन से गोरखपुर आ गया। उसका काम कूड़ा बीनना है, घर रेलवे स्टेशन और आस-पास का कोई फुटपाथ होता है। दीपक सब कुछ भूल जाता है पर क्लास आना नहीं भूलता।
अली के बड़े सपने
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ड़े के ढेर के बीच बच्चों को गंदगी उठाते देख लोग मुंह फेर लेते हैं, लेकिन यूपी के गोरखपुर में कुछ पढ़े-लिखे युवा इन बच्चों की जिंदगी बदल रहे हैं। आजाद और उनकी टीम गोरखपुर रेलवे स्टेशन व आसपास कूड़ा बीनने वाले बच्चों का जीवन संवार रही है। ये वे बच्चे हैं जो घर का रास्ता भूल चुके हैं। कुछ को याद भी नहीं कि उनके माता-पिता कौन हैं।
बेहतर इंसान बनाने का प्रयास
समाजशास्त्र में एमए कर चुके आजाद पांण्डेय ने 2008 में रेलवे स्टेशन के पास ऐसे बच्चों को फुटपाथ पर पढ़ाना शुरू किया था। प्रियेश मालवीय, डॉ. कुसुम प्रिया, अनुराधा सिंह, जितेंद्र प्रजापति के साथ-साथ दोस्तों की टीम ‘स्माइल रोटी बैंक’ के जरिए कई बच्चों को रोटी और अपनेपन का लालच देकर बेहतर इंसान बनाने का सफल प्रयास कर रहे हैं। टीम उन्हें हर रोज पढ़ाती है। साथ ही क्लास के बाद उन्हें खाना भी दिया जाता है। यह मुहिम इतनी कारगर साबित हो रही है कि आज उनके पास आने वाले 63 बच्चों में से करीब 15 बच्चे प्राथमिक विद्यालयों में जाने के
लिए तैयार हो गए। उनकी मुहिम से अब स्टेशन व आसपास के बच्चे खुद ही जुड़ने लगे हैं।
फंड नहीं, खुद फैलाते हैं झोली
आजाद बताते हैं कि उनके पास किसी तरह
का कोई फंड नहीं है। बच्चे उनके पास खाने की अच्छी चीजों के लालच में आते हैं। इससे वह उनको कुछ घंटे पढ़ा कर सही रास्ते पर लाने की कोशिश कर रहे हैं। फंड के लिए शहर के कई बड़े व्यापारियों को आगे झोली फैलाते हैं। इनसे पैसे नहीं, बल्कि बच्चों के इस्तेमाल की चीजें जैसे खाने और पढ़ने का सामान दान में लिया जाता है।
क्लास आना नहीं भूलता दीपक
आजाद और उनकी टीम को काफी मेहनत के बाद एनईआर जीएम कार्यालय के पास एक जगह मिली है, जिसमें वह बच्चों को पढ़ाते हैं। इन्हीं बच्चों में करीब 12 वर्ष का दीपक है। जो इतना ही
आजाद पांण्डेय ने 2006 में एक बच्चे को ट्रेन से गिरने वाली खाने-पीने की चीजों को खाते देखा था। वजह जानने पर पता चला कि उस बच्चे के पास न घर है, न बेहतर जिंदगी जीने का कोई जरिया। तभी आजाद ने ऐसे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, ताकि वह अपना भविष्य बेहतर बना सकें
अली ने कभी पढ़ाई और स्कूल के बारे में सोचा भी नहीं था। जब से होश संभाला उसने काम करना शुरू कर दिया। इसी बीच अली, आजाद और उनकी टीम से जुड़ा। यहां से प्रभावित होकर उसने स्कूल में एडमिशन लिया। अब काम के साथ गिटार भी सीख रहा है। अली कहता है कि वह एक बड़ा सिंगर बनना चाहता है।
ऐसे हुई थी शुरुआत
आजाद ने गोरखपुर से दिल्ली जाते वक्त 2006 में एक बच्चे को ट्रेन से गिरने वाली खाने-पीने की चीजों को खाते देखा था। वजह जानने पर पता चला कि उस बच्चे के पास न घर है, न बेहतर जिंदगी जीने का कोई जरिया। तभी आजाद ने ऐसे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, ताकि वह अपना भविष्य बेहतर बना सकें। वर्ष 2016 में कुछ बाधाओं के कारण उन्होंने अपनी टीम को जोड़ते हुए अपने सपने को ‘स्माइल रोटी बैंक’ एनजीओ के नाम से रजिस्टर्ड कराया।
800 से ज्यादा बच्चे पहुंचे घर
आजाद बताते है कि 2006 से अब तक वह और उनकी टीम 800 से ज्यादा बच्चों को उनके घर तक पहुंचा चुकी है। उनके अभियान के दौरान कई ऐसे बच्चे भी उन्हें मिले जो गलती से भटक गए या कुछ समय बाद घर जाने का एहसास हुआ। ऐसे बच्चों के घर का पता तलाश उनके परिवार से मिलाया। (एजंेसी)
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प्रेरक
...साधु न भूखा जाए
दाने-दाने पर लिखा होता है खाने वाले का नाम, इस मुहावरे को हकीकत में बदल रहे हैं हैदराबाद के सैयद उस्मान अजहर मकसुसी, जिनका बचपन फाकाकशी में बीता, अब चाहते हैं कि दुनिया में कोई भूखा न रहे
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मोहम्मद शफीक
ईओवर के नीचे थालियां लेकर चटाई पर बैठे बेघरों, भिखारियों, कचरा बीनने वालों और मजदूरों को रोज दोपहर किसी के आने का इंतजार रहता है। जैसे ही दोपहर का 12.30 बजता है एक दुबला-पतला आदमी वहां आता है और सबकी थाली में गरमगरम चावल और दाल डालना शुरू कर देता है। हैदराबाद के दबीरपुरा फ्लाईओरवर के पास यह नजारा 2012 से रोज देखा जा रहा है। ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरता है जब शहर के इस फ्लाईओवर के नीचे खड़ी इस भीड़ को दोपहर का खाना नहीं मिलता हो और यह आदमी उन्हें भोजन नहीं परोसता हो। यह आदमी कोई और नहीं बल्कि सैयद उस्मान अजहर मकसुसी हैं, जिन्होंने पिछले छह साल से भूखों और जरूरतमंदों की भूख मिटाना अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया है। इनका एक नारा है कि भूखों का कोई मजहब नहीं होता है। चार साल की उम्र में ही सिर से पिता का साया उठ जाने के बाद खुद भूखे रहने की पीड़ा झेल चुके अजहर भूखों का दर्द समझते हैं। इसीलिए वह उनके कष्टों को दूर करने के लिए हरसंभव कोशिश करते हैं। इसी फ्लाईओवर के नीचे छह साल पहले एक दिन उन्हें एक बेघर औरत मिली, जिनसे भूखों को खाना खिलाने का काम शुरू करने की प्रेरणा मिली। 36 साल के अजहर ने उस वाकये को याद करते हुए कहा, 'लक्ष्मी भूख से छटपटा रही थी। वह बिलख-बिलख कर रो रही थी। मैंने उसे खाना खिलाया और तभी फैसला किया कि मेरे पास जो सीमित संसाधन है उससे मैं हरसंभव भूखों की भूख मिटाऊंगा।' शुरुआत में उनकी पत्नी घर में ही खाना पकाती थी और वह फ्लाईओवर के पास खाना
खास बातें
हर दिन भूखों को खाना खिलाते हैं अजहर सनी वेलफेयर फाउंडेशन नाम की संस्था चलाते हैं मकसुसी अमिताभ बच्चन और सलमान खान कर चुके हैं तारीफ
लाकर भूखे लोगों को खिलाते थे। बाद में उन्होंने वहीं खाना तैयार करना शुरू कर दिया। इससे किराए की बचत हुई। अजहर ने कहा, 'शुरुआत में 30-35 लोग यहां होते थे मगर आज 150 से ज्यादा हैं, जिन्हें मैं रोज खाना खिलाता हूं। अजहर की एक संस्था है जो अब इस काम का संचालन करती है। संस्था का नाम है 'सनी वेलफेयर फाउंडेशन'। संस्था ने खाना पकाने के लिए दो रसोइयों को रखा है।' तीन साल पहले उन्होंने यहां के अलावा सिकंदराबाद स्थित गांधी अस्पताल में भी भूखों को खाना खिलाने का काम शुरू कर दिया था। फाउंडेशन के वैन में रोज 150200 लोगों का खाना यहां से जाता है। फाउंडेशन कुछ एनजीओ के साथ मिलकर बेंगलुरु, गुवाहाटी, रायचूर और तांदुर शहर में रोजाना आहार कार्यक्रम का संचालन करती है। अजहर को खुशी है कि जो काम उन्होंने अकेले शुरू किया था, आज उसके साथ कारवां सज गया है और अनेक लोग व संगठन उनके काम से प्रेरित हुए हैं। अजहर कहते हैं, 'आज आप देख सकते हैं कि शहर में विभिन्न जगहों पर अनेक लोग मुफ्त में खाना बांटते हैं। अजहर को इससे अपनी कामयाबी का अहसास होता है। हालांकि उनका मानना है कि सपना तभी साकार होगा जब इस देश से और दुनिया से भूख मिट जाएगी। भूख नाम की कोई चीज नहीं होनी चाहिए।' दबीरपुरा फ्लाईओवर के पास उनकी प्लास्टर ऑफ पेरिस की दुकान है जहां वह हर दिन
अजहर की संस्था सनी वेलफेयर फाउंडश े न के वैन में रोज 150-200 लोगों का खाना जाता है। फाउंडश े न कुछ एनजीओ के साथ मिलकर बेंगलुरु, गुवाहाटी, रायचूर और तांदरु शहर में रोजाना आहार कार्यक्रम का संचालन करती है सुबह और शाम कुछ घंटे बिताते हैं। उन्होंने कहा, 'बाकी समय मैं दोनों जगहों पर भोजन की व्यवस्था में लगा रहता हूं। अजहर को इस काम में उनके भाई और परिवार के अन्य सदस्यों के अलावा कुछ कार्यकर्ता सप्ताहांत में उनका हाथ बंटाते हैं।' अजहर अपनी दुकान में बैठे थे तभी एक दानदाता तीन बोरी चावल लेकर एक दोपहिया वाहन से उतरे। अजहर ने खुद वाहन से बोरियां उतारीं। पिछले महीने उनको बॉलीवुड अभिनेता सलमान ने अपने कार्यक्रम 'बीइंग ह्यूमन' में हिस्सा लेने के लिए मुंबई बुलाया था। उनका चयन देशभर के छह ऐसे लोगों में किया गया था, जो वास्तविक जीवन में नायक हैं। अजहर ने सलमान के साथ बातचीत की और उनके साथ फोटो भी खिंचवाई। इससे पहले सामाजिक कार्यकर्ता अजहर 'आज की रात है जिंदगी' में शामिल हुए थे, जिसकी मेजबानी मेगास्टार अमिताभ बच्चन कर रहे थे। विभिन्न संगठनों ने भी उनको सम्मानित किया है। हालांकि अजहर आज भी जमीन से जुड़े हैं और कहते हैं, 'मुझे कोई दफ्तर या कर्मचारी की जरूरत नहीं है। मेरी जीवन पद्धति में कोई बदलाव नहीं आया
है।'अजहर किसी से पैसे नहीं मांगते हैं। उन्होंने कहा, 'जो लोग चावल और दाल लेकर आते हैं उनका दान मैं स्वीकार कर लेता हूं। मैं किसी से नकद में पैसे नहीं लेता बशर्ते कि दानदाता चावल या दाल देने की स्थिति में न हो।'अजहर के पिता ऑटो चलाते थे। उन्होंने कहा, 'जब मैं महज चार साल का था तभी मेरे पिता चल बसे। चार भाई-बहनों में मैं तीसरे नंबर पर हूं।' उन्होंने पांचवी कक्षा में ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी और मजदूरी करने लगे थे। अजहर ने कहा, 'हम अपने दादा के घर रहते थे। उनको बड़े परिवार की जिम्मेदारी संभालनी पड़ती थी। हमें दिन में एक बार खाना मिलता था। कभी-कभी वह भी नहीं मिलता था। लेकिन परिस्थितियां जो भी हों हमें अल्लाह का शुक्रगुजार बने रहना चाहिए।' अजहर को सबसे बड़ी प्रेरणा उनकी मां से मिली। वह मानता है कि अल्लाह ही गरीबों के लिए उनके मार्फत भोजन की व्यवस्था करता है। अजहर ने कहा, ' मैं यह नहीं देखता कि कौन खाने को आ रहा है। मैं बस यही जानता हूं कि सभी भूखे हैं। यही उनका ठिकाना है। दाने दाने पे लिखा है खाने वाले का नाम। '
16 खुला मंच
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मैंने प्यार के साथ जुड़ने का निर्णय किया है। नफरत का भार बहुत ज्यादा होता है, जिसे उठाया नहीं जा सकता
अभिमत
भारतीय अर्थव्यवस्था 2025 तक दोगुनी होकर 5,000 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगी और 2030 तक भारत की अनुमानित जीडीपी 10,133 अरब डॉलर की होगी
स्व
च्छता के सूत्र से विकास का तानाबाना कैसे बुना जाता है, इसे देश की बढ़ती आर्थिक ताकत को देख कर समझा जा सकता है। स्वच्छता के पथ पर जैसे जैसे देश आगे बढ़ता जा रहा है, ठीक वैसी ही देश की आर्थिक सबलता भी बढ़ी है। शुचिता और सुशासन की वजह से प्रत्यक्ष कर संग्रह में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। इस वर्ष प्रत्यक्ष कर संग्रह दस लाख करोड़ से अधिक का हुआ है, जो पिछले सात वर्षों में सबसे ज्यादा है। यही वजह है कि आज देश दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था है। अनुमान है कि विकास की यही गति बनी रही तो 2025 तक देश की अर्थव्यवस्था दोगुनी हो जाएगी। अमेरिका, चीन, जापान, जर्मनी और भारत, ये वर्तमान में विश्व की पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं। डॉलर के टर्म में बिजनेस को देखें तो भारत अब पांचवें पायदान पर है। स्टार्ट अप, एमएसएमई तथा बुनियादी ढांचा निवेश पर ध्यान दिए जाने से अर्थव्यवस्था की रफ्तार तेज हो गई है। वित्त मंत्रालय के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था 2025 तक दोगुनी होकर 5,000 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगी। इसके साथ ही इस बात का भी इत्मिनान है कि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा तय मुद्रास्फीति के लक्ष्य को लेकर भी कोई खतरा नहीं है। दरअसल देश सात से आठ प्रतिशत की वृद्धि दर हासिल करने की ओर अग्रसर है। 2032 तक दुनिया की पांच बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में तीन देश एशिया के होंगे। वर्ल्ड इकोनॉमिक लीग टेबल की रिपोर्ट के अनुसार 15 वर्षों में दुनिया की 5 सबसे बड़ी इकोनॉमी में 3 एशियाई देश चीन, भारत और जापान होंगे। सेंटर फॉर इकोनॉमिक्स बिजनेस एंड रिसच्र यानी सीईबीआर की रिपोर्ट के अनुसार 2029 में ही भारत तीसरे पायदान पर पहुंच जाएगा। सीईबीआर के अनुसार 2030 में भारत की अनुमानित जीडीपी 10,133 अरब डॉलर की होगी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार आने वाले वर्षों में भारत वैश्विक अर्थव्यवस्थाअों के विकास का मुख्य इंजन होगा।
टॉवर फोनः +91-120-2970819
(उत्तर प्रदेश)
लेखिका युवा पत्रकार हैं और देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखती हैं
अंतरराष्ट्रीय बाल रक्षा दिवस (1 जून) पर विशेष
असुरक्षित बचपन का दौर
- मार्टिन लूथर किंग
बढ़ती आर्थिक ताकत
प्रियंका तिवारी
हम एक ऐसे दौर में हैं, जहां खासतौर बचपन न सिर्फ असुरक्षित है, बल्कि बच्चों के साथ क्रूर सलूक भी हो रहा है। न्याय और व्यवस्था से आगे यह समस्या कहीं न कहीं सामाजिक जागरुकती का है
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मारे बच्चे जो झेल रहे हैं, वह कोई मामूली अपराध नहीं है। यह एक नैतिक महामारी है, जिससे हमारे देश के साथ ही पूरी दुनिया भी परेशान है। हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते। हमें अपनी चुप्पी तोड़नी होगी। हमें अपनी आवाज उठानी होगी और एक राष्ट्र के रूप में एकजुट होना होगा।’ नोबेल पुरस्कार प्राप्त बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी की ये बातें इसीलिए अहम हैं क्योंकि तरक्की के तमाम दावों के बीच बच्चों की फिक्र, उनकी सुरक्षा का सवाल कहीं पीछे छूट गया है। दुर्भाग्य से यह स्थिति भारत में तो है ही, साथ ही यह स्थिति विकसित ठहराए जाने वाले दुनिया के कई छोटे-बड़े मुल्कों में भी है। भारत में बच्चों के सामने तस्करी, यौन हिंसा और बाल विवाह से लेकर बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच की कमी जैसी कई चुनौतियां हैं। कुछ माह पहले सुप्रीम कोर्ट ने बच्चों की तस्करी रोकने और देश भर में अनाथलायों के प्रबंधन को लेकर सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी किया है। कोर्ट ने राज्यों से कहा है कि वो अपने यहां मौजूद अनाथलायों के प्रबंधन को लेकर दो हफ्ते के अंदर विस्तृत रिपोर्ट दाखिल करे। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा, ‘देश का भविष्य, उस देश के बच्चों के चरित्र और उनके भविष्य पर निभर्र करता है और बच्चों के भविष्य को सुरक्षित रखना सरकार की जिम्मेदारी है। बच्चों को बेचा जाए, इससे शर्मनाक कुछ और नहीं हो सकता और इस पूरे मामले को ठीक से देखने की जरुरत है।’ भारत में वर्ष 2016 के दौरान तकरीबन 20 हजार महिलाएं और बच्चे मानव तस्करी का शिकार हुए। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने सदन में बताया कि 2016 में तस्करी के 19,223 मामले दर्ज किए गए जो साल 2015 में 15,448 थे। सरकारी आंकड़ो के मुताबिक ये मामले साल 2015 की तुलना में 25 फीसदी बढ़े हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने संसद में दी जानकारी में कहा कि 2016 में महिलाओं और बच्चों की तस्करी के 19,223 मामले दर्ज किए गए, जो कि साल 2015 में 15,448 थे। सबसे अधिक मामले देश के पूर्वी राज्य पश्चिम बंगाल में दर्ज किए गए। दरअसल, दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत मानव तस्करी का एक बड़ा केंद्र बनता जा रहा है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बाई इलाकों से हर साल हजारों गरीब महिलाओं और
बच्चों को अच्छी जिंदगी का झांसा देकर शहरों में लाया जाता है और यहां इनकी खरीद-फरोख्त की जाती है। इनमें से कुछ घरों में छोटे मोटे काम करने लग जाते हैं तो कुछ को उद्योगधंधों में धकेल दिया जाता है। कई महिलाओं को जबरन देह कारोबार में भी लगा दिया जाता है। कई बार तो इनसे बंधुआ मजदूरों की तरह काम करवाया जाता है और ऐसे काम का पूरा मेहनताना भी इन्हें नहीं मिलता। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के डाटा के मुताबिक साल 2016 में महिलाओं और बच्चों की तस्करी के मामले लगभग बराबर ही रहे। आंकड़ो के मुताबिक पिछले साल करीब 9,104 बच्चों की तस्करी की गई जो पिछले साल के मुकाबले 27 फीसदी अधिक है, वहीं तकरीबन 10,119 महिलाओं की तस्करी की गई जो साल 2015 के मुकाबले 22 फीसदी अधिक है। पश्चिम बंगाल की सीमा बांग्लादेश और नेपाल को छूती है। इन दोनों देशों से भी राज्य में तस्करी की जाती है। बच्चों की तस्करी के मामले में पश्चिम बंगाल के बाद राजस्थान तो महिलाओं की तस्करी में महाराष्ट्र का स्थान आता है। ‘न्यूयार्क टाइम्स’ ने भारत में, खासकर झारखंड में मानव तस्करी की बढ़ती समस्या पर रिपोर्ट दी है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि छोटी उम्र की लड़कियों को नेपाल से तस्करी कर भारत लाया जाता है। टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित एक अन्य लेख के अनुसार मानव तस्करी के मामले में कर्नाटक भारत में तीसरे नंबर पर आता है। अन्य दक्षिण भारतीय राज्य भी मानव तस्करी के सक्रिय स्थान हैं। चार दक्षिण भारतीय राज्यों में से प्रत्येक में हर साल ऐसे 300 मामले रिपोर्ट होते हैं, जबकि पश्चिम बंगाल और बिहार में हर साल औसतन ऐसे
संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार ‘किसी व्यक्ति को डराकर, बल प्रयोग कर या दोषपूर्ण तरीके से भर्ती, परिवहन या शरण में रखने की गतिविधि तस्करी की श्रेणी में आती है’
28 मई - 03 जून 2018 100 मामले दर्ज होते हैं। आंकड़ो के अनुसार मानव तस्करी के आधे से ज्यादा मामले इन्हीं राज्यों से हैं। नशीली दवाओं और अपराध पर संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के द्वारा मानव तस्करी पर जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि 2012 में तमिलनाडु में मानव तस्करी के 528 मामले थे। यह वास्तव में एक बड़ा आंकड़ा है और पश्चिम बंगाल, जहां यह आंकड़ा 549 था, को छोड़कर किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे अधिक है। गृह मंत्रालय के आंकड़ो के अनुसार चार सालों में कर्नाटक में मानव तस्करी के 1379 मामले रिपोर्ट हुए, तमिलनाडु में 2244 जबकि आंध्र प्रदेश में मानव तस्करी के 2157 मामले थे। हाल ही में बेंगलुरु में 300 बंधुआ मजदूरों को छुड़ाया गया। कुछ अध्ययनों के मुताबिक दिल्ली घरेलू कामकाज, जबरन शादी और छोटी लड़कियों के अवैध व्यापार का हॉट स्पॉट है। बच्चे, खासतौर पर छोटी लड़कियां और युवा महिलाएं जो कि ज्यादातर उत्तरपूर्वी राज्य से होती हैं, उन्हें उनके घरों से लाकर दूरदराज के राज्यों में यौन शोषण और बंधुआ मजदूरी के लिए बेचा जाता है। एजेंट इनके माता पिता को पढ़ाई, बेहतर जिंदगी और पैसों का लालच देकर लाते हैं। एजेंट इन्हें स्कूल भेजने के बजाए ईंट के भट्टों पर, कारपेंटर, घरेलू नौकर या भीख मांगने का काम करने के लिए बेच देते हैं। जबकि लड़कियों को यौन शोषण के लिए बेच दिया जाता है। यहां तक कि इन लड़कियों को उन क्षेत्रों में शादी के लिए मजबूर किया जाता है जहां लड़कियों का लिंग अनुपात लड़कों के मुकाबले बहुत कम है। आदिवासी क्षेत्रों के बच्चों पर मानव तस्करी का खतरा सबसे ज्यादा है। हाल ही में ऐसे कई मामले देखे गए जहां ज्यादातर बच्चे मणिपुर के तामेंगलांग जिले में कुकी जनजाति से थे। इसका कारण आदिवासियों का संघर्ष था जिससे मानव तस्करी को फलने फूलने का मौका मिला। 1992 से 1997 के बीच उत्तरपूर्वी क्षेत्र में कुकी और नागा जनजाति के बीच हुए संघर्ष से कई बच्चे बेघर हो गए। इन बच्चों को एजेंट देश के अन्य हिस्सों में ले गए। संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार ‘किसी व्यक्ति को डराकर, बलप्रयोग कर या दोषपूर्ण तरीके से भर्ती, परिवहन या शरण में रखने की गतिविधि तस्करी की श्रेणी में आती है।’ दुनिया भर में 80 प्रतिशत से ज्यादा मानव तस्करी यौन शोषण के लिए की जाती है, और बाकी बंधुआ मजदूरी के लिए। भारत को एशिया में मानव तस्करी का गढ़ माना जाता है। सरकार के आंकड़ो के अनुसार हमारे देश में हर 8 मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है। इसके अलावा यह माना जाता है कि कुल मामलों में से केवल 30 प्रतिशत मामले ही रिपोर्ट किए गए और वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है। जाहिर है कि हम एक ऐसे दौर में हैं, जहां खासतौर बचपन न सिर्फ असुरक्षित है, बल्कि बच्चों के साथ क्रूर सलूक भी हो रहे हैं। न्याय और व्यवस्था से आगे यह समस्या कहीं न कहीं सामाजिक जागरूकता का है। हम अपने व्यवहार और परिवेश को लेकर जब तक इस तरह सतर्क नहीं होंगे कि किसी भी कीमत पर बाल अधिकारों का हनन न हो, तभी यह स्थिति बदलेगी।
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खुला मंच
श्री श्री रवि शंकर
लीक से परे
प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु
ध्यान और मुस्कान
सेवा योग्यता लाता है, योग्यता आपको ध्यान की गहराई में जाने की अनुमति देता है और ध्यान आपकी मुस्कान वापस लाता है
वो
लोग जो जिम्मेदारी लेते हैं, वो अक्सर प्रार्थना नहीं करते और जो प्रार्थना करते हैं वो जिम्मेदारी नहीं लेते। अध्यात्म एक ही समय में दोनों को एक साथ लाता है। सेवा, सर्विस और अाध्यात्मिक अभ्यास एक दूसरे से जुड़ता हुआ आगे बढ़ता है। आप अध्यात्म की गहराई में जितना जाते हैं, आप उतना ही अधिक इससे मिलने वाले आनंद को अपने चारों ओर के लोगों से साझा करते हैं। अगर आप दूसरों की सेवा करते हैं तो आप अपने आप योग्यता हासिल कर लेते हैं। कई लोग दूसरों की सेवा करते हैं, क्योंकि यह उनके लिए बहुत सारा लाभ लाता है। अगर लोग खुश होते हैं तो प्राय: लोग महसूस करते हैं कि उन्होंने अतीत में अवश्य कोई सेवा की होगी। अगर आप खुश नहीं हैं तो सेवा करें। इससे आपकी आत्मा का उत्थान होगा और यह आपको खुशी देगा। जितना अधिक आप देते हैं, उतने ही अधिक शक्ति और विपुलता से आपको सम्मानित किया जाएगा। जब हम जीवन में सेवा को सबसे अधिक प्राथमिकता देते हैं तो यह डर को खत्म कर देता है और हमारे ध्यान को केंद्रित करता है। यह कर्म को मकसद प्रदान करता है और लंबे समय तक के लिए आनंद बनाए रखता है। जब हम सेवा करते हैं तो यह हमारे प्राकृतिक स्वभाव और मानव मूल्यों को हममें सहज रूप से लाता है और एक ऐसे समाज के निर्माण में मदद करता है जो डर और निराशा से मुक्त हो।
युवा लोगों के लिए अध्यात्म साझा करने की गुणवत्ता को सामने लाना और आत्मविश्वास को बढ़ाने के बारे में है। अगर आप में दूसरों की मदद और सेवा करने की चाहत है तो खुद के बारे में परेशान ना हों। परमात्मा आपका खयाल रखेंगे। धन के बारे में भी सोच कर परेशान न हों। अगर आप प्यार और कृतज्ञता से परिपूर्ण हैं तो वहां डर के लिए कोई जगह नहीं है। सेवा अवसाद की सबसे बड़ी और सबसे प्रभावी दवा है। जिस दिन आप आशाहीन और कमतर महसूस करते हैं तो उस दिन अपने कमरे से बाहर निकलें और लोगों से पूछें, ‘मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं?’ वह सेवा जो आप करेंगे, वह आपके अंदर एक क्रांति लाएगा। यह तब होता है जब आप पूछते हैं ‘मैं क्यूं?’ या ‘मेरे बारे में क्या?’ जिससे आप उदास हो जाते हैं। इसके बजाय कुछ सांस से संबंधित अभ्यास जैसे कि सुदर्शन
क्रिया करें और हर रोज कुछ मिनटों के लिए चुप्पी बनाए रखने का प्रयास करें। यह आपके शरीर और मन को ऊर्जा देगा और आपकी ताकत बढ़ाएगा। आनंद के दो प्रकार होते हैं। एक कुछ पाने की खुशी जैसे कि एक बच्चा। ‘अगर मैं कुछ पाता हूं तो मैं खुश हो जाऊंगा। अगर मुझे खिलौना मिलता है तो मैं खुश हो जाऊंगा।’ हमलोग प्राय: इस स्तर पर अटक जाते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि इससे आगे नहीं जा पाते। दूसरी प्रकार की खुशी कुछ देने में है। एक दादी अपने पोते पोतियों को मिठाइयां देकर खुश होती है। वह इस बात की परवाह नहीं करती कि उसे खुद के लिए क्या मिला है। कुछ देने की खुशी एक परिपक्व खुशी होती है। भगवान आपसे किसी भी चीज की उम्मीद नहीं करता है। जब आप कोई भी काम कोई लाभ नहीं, बल्कि केवल खुशी पाने के लिए करते हैं तो इसे ही सेवा कहते हैं। सेवा आपको उसी क्षण संतुष्टि दे देता है और यह काफी लंबे समय तक कायम भी रहता है। अपने भीतर भगवान को देखना ध्यान है और अपने आगे वाले में भगवान देखना सेवा है। लोग अक्सर इस बात से भयभीत रहते हैं कि अगर वो सेवा करते हैं तो दूसरे उनका शोषण करेंगें। बिना किसी निंदा के जागरूक और बुद्धिमान बनें। सेवा योग्यता लाता है, योग्यता आपको ध्यान की गहराई में जाने की अनुमति देता है और ध्यान आपकी मुस्कान वापस लाता है।
सदस्य बनें 05
सममान
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आयोजन
मविेर
हैं मकताबें कुछ कहना चाहती हैं! तुमहारे पास रहना चाहती
डॉ. पाठक को ममलेगा मनकककी एमिया पुरसकार
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जैव मवमवधता का मसमटता दायरा
कही-अनकही
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वकालत से तौबा ले आया मिलमों में
harat.com
sulabhswachhb
- 27 मई 2018 वर्ष-2 | अंक-23 | 21 आरएनआई नंबर-DELHIN
/2016/71597
ी (22 मई) पर मविेर
राजा राममोहन राय जयंत
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सत्ी जागरण के प्रथम प्रव
19 वीं सदी के प्रारंभ में और मवधवा मववाह के समथ्षन सती प्रथा के मवरोध में राजा एक राममोहन राय मजस तरह आगे वह , उभरे नायक बनकर रण चलकर भारतीय नवजाग गया बन दौर ा र पू का
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बेंविक जा राममोहन राय ने लार्ड विवलयम के अविकारों की मदद से मवहलाओं के न बनिाकर वलए संघर्ष वकया और कानू ि करार वदया, बल्क न केिल सती प्रथा को अिै जागरुकता भी फैलाई। इस मुद्े पर सामावजक की ल्थवत काफी इससे पहले भारत में विििाओं प्रयास के बाद राय के त्ासद थी। राजा राममोहन मानयता वमली। विििा वििाह को सामावजक आमतौर पर लोग भारतीय राष्टीय आंदोलन को एक शती में समेिकर देश की आजादी के पूि्ष की भी कमोबेश यही दृलटि देखते हैं। इवतहासकारों ने के सीवमत कालबोि से अपनाई है, पर इस तरह साथ प्रकि होने िाले भारतीय विंतन-दश्षन के हाथों से छूि हमारे वसरा पुरुराथ्ष का एक अहम बात जो समझने की जाता है। इसमें सबसे बडी संग्ाम से पहले भारत है, िह यह वक ्िािीनता का प्रकावशत दौर िावम्षक-सामावजक निजागरण देख िुका था।
नवजागरण के केंद्र में सत्ी बात यह रही निजागरण के साथ खास
भारतीय वलए हुई ऐवतहावसक वक इसका ्िरूप और इसके में सना था। इस पहल पूरी तरह अपनी मािी-पानी ्ककृवतक रूप श को सां पहल ने एक तरफ जहां दे परंपरा के नाम पर से सबल बनाया, िहीं इससे ीवतयों के वखलाफ बडी ढोई जा रही सामावजक कुर ने भारतीय राष्टीय जागृवत आई। आगे इसी सबलता ार की। आंदोलन की भी जमीन तैय
टीम को साधुवाद इस अखबार ने हमें काफी प्रभावित किया है। पहले हम समाचार पत्रों की हेडलाइन पढ़ कर छोड़ दिया करते थे, लेकिन जब से हमने ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ को पढ़ना शुरू किया है तब से मैं नियमित पाठक हूं। मैं हर सप्ताह इस अखबार के लिए बेसब्री से इंतजार करता हूं। हमे इस बार के अंक में प्रकाशित लेख ‘जैव विविधता का सिमटता दायरा’ ने काफी प्रभावित किया। इस लेख में लेखक ने जैव विविधता के बारे में गहराई से बताया है। हमें उम्मीद है कि सुलभ स्वच्छ भारत हमें ऐसे ही महत्वपूर्ण जानकारियों से रूबरू कराता रहेगा। हम पूरी टीम को इसके लिए साधुवाद देते हैं। अमरेंद्र त्रिपाठी बागपत, उप्र.
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28 मई - 03 जून 2018
प्यास का मौसम, पानी की तहरीर पानी की तहरीरें सिर्फ बादल और दरिया के बीच ही नहीं पढ़ी जातीं, बल्कि इसे हर वह शख्स पढ़ता है, जिसे प्यास लगती है। मौसम प्यास का है, तो पानी और ठंडा पानी हर किसी की सबसे बड़ी जरूरत है
28 मई - 03 जून 2018
एक छोटी सी चिड़िया से लेकर जंगल के राजा तक हर किसी के प्यास की तलाश पानी तक आकर पूरी हो जाती है। ठंडे पानी में किलोल सिर्फ बच्चे नहीं करते, ये जानवर भी करते हैं। अगर पानी नहीं मिले, तो गला तर करने के और भी दूसरे उपाय इंसान की तरह ये जानवर खोज लेते हैं
फोटो फीचर
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इतिहास
28 मई - 03 जून 2018
महाराणा प्रताप
बहादुरी और दृढ़ता का अमर ‘प्रताप’
महाराणा प्रताप अकबर के खिलाफ लड़े और सैन्य लिहाज से कमजोर होने के बाद भी सिर नहीं झुकाया। उनका ऐतिहासिक संघर्ष भारतीय पौरुष की यशगाथा है थे। सरदार और आम लोगों की इच्छा का सम्मान करते हुए प्रताप सिंह मेवाड़ का शासन संभालने के लिए तैयार हो गए। 1 मार्च, 1573 को वह सिंहासन पर बैठे।
हल्दी घाटी का युद्ध
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प्रियंका तिवारी
हाराणा प्रताप का नाम भारत के इतिहास में उनकी बहादुरी के कारण अमर है। वह अकेले राजपूत राजा थे, जिन्होंने मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। उनका जन्म 9 मई, 1540 को राजस्थान के कुंभलगढ़ किले में हुआ था। उनके पिता का नाम महाराणा उदय सिंह था और माता महारानी जयवंता
खास बातें
बचपन से ही महाराणा प्रताप बहादुर और दृढ़ निश्चयी थे उनकी वीरता और संघर्ष क्षमता के बादशाह अकबर भी कायल थे महाराणा के साथ उनके घोड़े चेतक की वीरता के कई किस्से मशहूर हैं
बाई थीं। अपने परिवार की वह सबसे बड़ी संतान थे। उनके बचपन का नाम कीका था। बचपन से ही महाराणा प्रताप बहादुर और दृढ़ निश्चयी थे। सामान्य शिक्षा से खेलकूद एवं हथियार बनाने की कला सीखने में उनकी रुचि अधिक थी। उनको धन-दौलत की नहीं, बल्कि मान-सम्मान की ज्यादा परवाह थी। उनके बारे में मुगल दरबार के कवि अब्दुर रहमान ने लिखा है, ‘इस दुनिया में सभी चीज खत्म होने वाली है। धन-दौलत खत्म हो जाएंगे, लेकिन महान इंसान के गुण हमेशा जिंदा रहेंगे। प्रताप ने धनदौलत को छोड़ दिया लेकिन अपना सिर कभी नहीं झुकाया। हिंद के सभी राजकुमारों में अकेले उन्होंने अपना सम्मान कायम रखा।’
राज्याभिषेक
महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह अपनी मृत्यु से पहले बेटे जगमल को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था जो उनकी सबसे छोटी पत्नी से थे। वह प्रताप सिंह से छोटे थे। जब पिता ने छोटे भाई को राजा बना दिया तो अपने छोटे भाई के लिए प्रताप सिंह मेवाड़ से निकल जाने को तैयार थे, लेकिन सरदारों के आग्रह पर रुक गए। मेवाड़ के सभी सरदार राजा उदय सिंह के फैसले से सहमत नहीं
फीट लंबे नाले को लांघ गया, जिसे मुगल फौज का कोई घुड़सवार पार न कर सका। प्रताप के साथ युद्ध में घायल चेतक को वीरगति मिली थी। आज भी चित्तौड़ की हल्दी घाटी में चेतक की समाधि बनी हुई है।
महाराणा प्रताप के समय दिल्ली पर मुगल शासक अकबर का राज था। अकबर के समय के राजपूत नरेशों में महाराणा प्रताप ही ऐसे थे, जिन्हें मुगल बादशाह की गुलामी पसंद नहीं थी। इसी बात पर उनकी आमेर के मानसिंह से भी अनबन हो गई थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि मानसिंह के भड़काने से अकबर ने खुद मानसिंह और सलीम (जहांगीर) की अध्यक्षता में मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भारी सेना भेजी। अकबर ने मेवाड़ को पूरी तरह से जीतने के लिए 18 जून, 1576 ई. में आमेर के राजा मानसिंह और आसफ खां के नेतृत्व में मुगल सेना को आक्रमण के लिए भेजा। दोनों सेनाओं के बीच गोगुडा के नजदीक अरावली पहाड़ी की हल्दी घाटी शाखा के बीच युद्ध हुआ। इस लड़ाई को हल्दी घाटी के युद्ध के नाम से जाना जाता है। हल्दी घाटी का युद्ध भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही महराणा हारे। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। मुगलों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति की कोई कमी नहीं थी। उन्होंने आखिरी समय तक अकबर से संधि की बात स्वीकार नहीं की और मान-सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करते हुए लड़ाइयां लड़ते रहे।
भाई का विरोध फिर प्रेम
भारतीय इतिहास में जितनी महाराणा प्रताप की बहादुरी की चर्चा हुई है, उतनी ही प्रशंसा उनके घोड़े चेतक को भी मिली। कहा जाता है कि चेतक कई फीट उंचे हाथी के मस्तक तक उछल सकता था। कुछ लोकगीतों के अलावा हिंदी कवि श्यामनारायण पांडेय की वीर रस कविता 'चेतक की वीरता' में उसकी बहादुरी की खूब तारीफ की गई है। हल्दी घाटी के युद्ध में चेतक, अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक की ऊंचाई तक बाज की तरह उछल गया था। फिर महाराणा प्रताप ने मानसिंह पर वार किया। जब मुगल सेना महाराणा के पीछे लगी थी, तब चेतक उन्हें अपनी पीठ पर लादकर 26
सारी जनता थी सेना
प्रताप और चेतक
हल्दी घाटी के बाद महाराणा जब बचकर कुछ दूर पहुंच गए उसी समय महाराणा को किसी ने पीछे से आवाज लगाई- ‘हो, नीला घोड़ा रा असवार।’ महाराणा पीछे मुड़े तो उनका भाई शक्ति सिंह आ रहा था। महाराणा के साथ शक्ति की बनती नहीं थी। बदला लेने के लिए वह अकबर की सेना में भर्ती हो गया था और जंग के मैदान में मुगल पक्ष की तरफ से लड़ रहा था। युद्ध के दौरान शक्ति सिंह ने देखा कि महाराणा का पीछा दो मुगल घुड़सवार कर रहे हैं, तो शक्ति का पुराना भाई-प्रेम जाग गया और उन्होंने राणा का पीछा कर रहे दोनों मुगलों को मार गिराया।
हल्दी घाटी का युद्ध भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्धनीति छापामार लड़ाई की रही थी। ऐसा माना जाता है कि इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही महराणा हारे राणा प्रताप का जन्म कुंभलगढ़ के किले में हुआ था। यह किला दुनिया की सबसे पुरानी पहाड़ियों की रेंज अरावली की एक पहाड़ी पर है। राणा का पालनपोषण भीलों की कूका जाति ने किया था। भील राणा से बहुत प्यार करते थे। वे ही राणा के आंख-कान थे। जब अकबर की सेना ने कुंभलगढ़ को घेर लिया तो भीलों ने जमकर लड़ाई की और तीन महीने तक अकबर की सेना को रोके रखा। एक दुर्घटना के चलते किले के पानी का स्रोत गंदा हो गया, जिसके बाद कुछ दिन के लिए महाराणा को किला छोड़ना पड़ा और अकबर की सेना का वहां कब्जा हो गया।
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इतिहास
ऐसे थे महाराणा
अपनाया, लेकिन महाराणा आखिर तक अविजित ही रहे।
विद्वानों का आदर
चेतक की वीरता श्यामनारायण पांडेय रण बीच चौकड़ी भर-भर कर चेतक बन गया निराला था राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा का पाला था जो तनिक हवा से बाग हिली लेकर सवार उड़ जाता था राणा की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड़ जाता था गिरता न कभी चेतक तन पर राणा प्रताप का कोड़ा था वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर वह आसमान का घोड़ा था था यहीं रहा अब यहां नहीं वह वहीं रहा था यहां नहीं थी जगह न कोई जहां नहीं किस अरिमस्तक पर कहां नहीं निर्भीक गया वह ढालों में सरपट दौड़ा करबालों में फंस गया शत्रु की चालों में बढ़ते नद-सा वह लहर गया फिर गया गया फिर ठहर गया विकराल वज्रमय बादल-सा अरि की सेना पर घहर गया भाला गिर गया गिरा निसंग हय टापों से खन गया अंग बैरी समाज रह गया दंग घोड़े का ऐसा देख रंग
कद
कहा जाता है कि महाराणा प्रताप 7 फीट 5 इंच लंबे थे। वह 110 किलोग्राम का कवच पहनते थे, कुछ जगह कवच का भार 208 किलो भी लिखा गया है। वह 25-25 किलो की 2 तलवारों के दम पर किसी भी दुश्मन से लड़ जाते थे। उनका कवच और तलवारें राजस्थान के उदयपुर में एक संग्रहालय में सुरक्षित रखे हैं।
परिवार
महाराणा के 11 पत्नियों से 17 बेटे और 5 बेटियां थीं। राव राम रख पंवार की बेटी अजबदे पुनवार उनकी पहली पत्नी थीं। महाराणा के बेटे और उत्तराधिकारी अमर सिंह अजबदे के ही पुत्र थे।
प्रथम स्वतंत्रता सेनानी
महाराणा को भारत का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी भी कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने कभी अकबर के सामने समर्पण नहीं किया। वह इकलौते ऐसे राजपूत योद्धा थे, जो अकबर को चुनौती देने का साहस रखते थे। हालांकि, एक बार उन्होंने समर्पण के विषय में सोचा जरूर था, लेकिन तब मशहूर पर अकबर की सेना ज्यादा दिन वहां टिक न सकी और फिर से कुंभलगढ़ पर महाराणा का अधिकार हो गया। इस बार तो महाराणा ने पड़ोस के और दो राज्य अकबर से छीन लिए।
घास की रोटियां
जब महाराणा प्रताप अकबर से हारकर जंगल-जंगल भटक रहे थे एक दिन पांच बार भोजन पकाया गया और हर बार भोजन को छोड़कर भागना पड़ा। एक बार प्रताप की पत्नी और उनकी पुत्रवधू ने घास के बीजों को पीसकर कुछ रोटियां बनाईं। उनमें से आधी रोटियां बच्चों को दे दी गईं और बची हुई आधी रोटियां दूसरे दिन के लिए रख दी गईं। इसी समय प्रताप को अपनी लड़की की चीख सुनाई दी। एक जंगली बिल्ली लड़की के हाथ से उसकी रोटी छीनकर भाग गई और भूख से व्याकुल लड़की के
महाराणा प्रताप कुशल प्रशासक होने के साथसाथ पंड़ितों और विद्वानों का आदर भी करते थे। उनकी प्रेरणा से ही मथुरा के चक्रपाणी मिश्र ने ‘विश्व वल्लभ’ नामक स्थापत्य तथा ‘मुहूर्त माला’ नामक ज्योतिष ग्रंथ की रचना की। चांवड में चावंड माता के मंदिर का निर्माण भी राणा प्रताप ने ही करवाया था। उनके दरबार में कई विख्यात चारण कवि भी थे, जिनमें कविवर माला राजपूत कवि पृथ्वीराज ने उन्हें ऐसा न करने के सांदू और दुरासा आड़ा ने उनकी प्रशंसा में उच्च लिए मना लिया। दिवेर का युद्ध: अकबर ने 1576 कोटि की काव्य रचना की। सादडी में जैन साधू में महाराणा प्रताप से युद्ध करने का फैसला किया। हेमरत्न सूरि ने ‘गोरा बादल-पद्मिनी चौपाई’ की मुगल सेना में 2 लाख सैनिक थे, जबकि राजपूत रचना भी प्रताप के समय ही की थी। केवल 22 हजार थे। इस युद्ध में महाराणा ने गुरिल्ला युद्ध की युक्ति अपनाई। 1582 में दिवेर वफादार भील के युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना ने मुगलों को मेवाड़ की जनजाति ‘भील’ कहलाती है। भीलों ने बुरी तरह पराजित करते हुए चित्तौड़ छोड़कर हमेशा महाराणा का समर्थन किया। उन्होंने अपने मेवाड़ की अधिकतर जमीन पर दोबारा कब्जा राजा के सम्मान के लिए अपनी जान की बाजी भी लगा दी थी। एक किवदंती है कि महाराणा कर लिया। प्रताप ने अपने वंशजों को वचन दिया था कि गुरिल्ला युद्ध जब तक वह चित्तौड़ वापस हासिल नहीं कर इस युद्ध की जानकारी यहां के राजाओं को पहले लेते, तब तक वह पुआल पर सोएंगे और पत्ते पर भी थी, लेकिन महाराणा प्रताप पहले ऐसे भारतीय खाएंगे। आखिर तक महाराणा को चित्तौड़ वापस राजा थे, जिन्होंने बहुत व्यवस्थित तरीके से इस नहीं मिला। उनके वचन का मान रखते हुए आज युक्ति का उपयोग किया और परिणामस्वरूप भी कई राजपूत अपने खाने की प्लेट के नीचे एक मुगलों को घुटने टेकने पर मजबूर भी कर दिया। पत्ता रखते हैं और बिस्तर के नीचे सूखी घास का महान योद्धा अकबर के सामने महाराणा पूरे तिनका रखते हैं। आत्मविश्वास से टिके रहे। एक ऐसा भी समय था, जब लगभग पूरा राजस्थान मुगल बादशाह मेवाड़ चित्रशैली अकबर के कब्जे में था, लेकिन महाराणा अपना महाराणा प्रताप ने चावंड को चित्रकला का केंद्र मेवाड़ बचाने के लिए अकबर से 12 साल तक बनाकर नई चित्र शैली ‘मेवाड़ शैली’ का प्रारंभ लड़ते रहे। अकबर ने उन्हें हराने का हर हथकंडा करवाया। आंसू टपक आए। यह देखकर राणा का दिल बैठ गया। अधीर होकर उन्होंने ऐसे राज्याधिकार को धिक्कारा, जिसकी वजह से जीवन में ऐसे करुण दृश्य देखने पड़े। इसके बाद अपनी कठिनाइयां दूर करने के लिए उन्होंने एक चिट्ठी के जरिए अकबर से मिलने की इच्छा जता दी।
अकबर की तारीफ
जब महाराणा प्रताप जंगलों में भटक रहे थे तो अकबर ने एक जासूस को महाराणा प्रताप की खोज खबर लेने को भेजा गुप्तचर ने आकर बताया कि महाराणा अपने परिवार और सेवकों के साथ बैठकर जो खाना खा रहे थे। उसमे जंगली फल, पत्तियां और जड़ें थीं। जासूस ने बताया कि बावजूद ऐसे भोजन के न तो कोई दुखी था और न ही उदास। यह सुनकर अकबर का हृदय भी पसीज गया और
महाराणा के लिए उसके ह्रदय में सम्मान पैदा हो गया।
हकीम की वफादारी
1576 में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच यह युद्ध हुआ। अकबर की सेना का नेतृत्व मानसिंह लीड कर रहे थे। बताते हैं कि मानसिंह के साथ 10 हजार घुड़सवार और हजारों पैदल सैनिक थे, लेकिन महाराणा प्रताप 3 हजार घुड़सवारों और मुट्ठी भर पैदल सैनिकों के साथ लड़ रहे थे। इस दौरान मानसिंह की सेना की तरफ से महाराणा पर वार किया जिसे, महाराणा के वफादार हकीम खान सूर ने अपने ऊपर ले लिया और उनकी जान बचा ली। उनके कई बहादुर साथी जैसे भामाशाह और झालामान भी इसी युद्ध में महाराणा के प्राण बचाते हुए शहीद हुए थे।
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जंेडर
28 मई - 03 जून 2018
महिलाओं के अनुकूल कृषि मशीनीकरण की नई पहल
महिलाओं की शारिरिक क्षमता के आधार पर पुराने प्रचलित कृषि उपकरणों को संशोधित करके कई नए उपकरण बनाए गए हैं, जो कृषि कार्य में संलग्न महिलाओं की शारीरिक क्षमता के अनुकूल हो
दे
शुभ्रता मिश्रा
श के कुल कृषि श्रमिकों की आबादी में करीब 37 प्रतिशत महिलाएं हैं। लेकिन, खेतीबाड़ी में उपयोग होने वाले ज्यादातर औजार, उपकरण और मशीनें पुरुषों के लिए ही बनाए जाते हैं जो अधिकतर उपकरण महिलाओं की कार्यक्षमता के अनुकूल नहीं होते हैं। वैज्ञानिकों द्वारा महिलाओं के अनुकूल उपकरण और औजार बनाए जाने की पहल से यह स्थिति बदल सकती है। विकास दर और बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश जैसे कारकों को ध्यान में रखकर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वर्ष 2020 तक कृषि में महिला श्रमिकों की भागीदारी बढ़कर 45 प्रतिशत हो सकती है, क्योंकि ज्यादातर पुरुष खेती के कामों को छोड़कर शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। ऐसे में भविष्य में महिलाएं ही कृषि में प्रमुख भूमिका निभाएंगी। शोध पत्रिका ‘करंट साइंस’ में प्रकाशित एक ताजा अध्ययन में महिला श्रमिकों की कार्यक्षमता के आधार पर तैयार किए गए आधुनिक कृषि औजारों और उपकरणों के बारे में विस्तार से जानकारी भी दी गई है, जिनका उपयोग महिलाएं सरलता और सहजता से कर सकती हैं। इस अध्ययन में महिलाओं के लिए बनाए जाने वाले इन कृषि उपकरणों का डिजाइन तैयार करने के लिए शरीर के 79 आयामों की पहचान की गई है। काम करते समय शरीर की विभिन्न प्रमुख मुद्राओं, जैसे- खड़े होकर, बैठकर, झुककर आदि
को दृष्टिगत रखते हुए कुल सोलह शक्ति मानकों का उपयोग कृषि मशीनरी डिजाइन करने में किया गया हैं। इनमें विशेष रूप से ध्यान रखा गया है कि उपकरण के उपयोग में उसे धक्का देना है या खींचना है और शरीर की मुद्रा विशेष में उपकरण के प्रयोग के समय हाथ की पकड़ और पैर की ताकत कितनी लग सकती है। इसके अलावा महिला श्रमिकों की ऊंचाई और वजन, कार्य करते समय अधिकतम ऑक्सीजन खपत दर, हृदय गति की दर, मांसपेशीय स्थैतिक क्षमता, हाथ की चौड़ाई, उंगलियों के व्यास, बैठकर काम करने की ऊंचाई और कमर की चौड़ाई जैसे आयामों को भी ध्यान में रखा गया है। इन आयामों और महिलाओं की शारिरिक क्षमता के आधार पर पुराने प्रचलित कृषि उपकरणों को संशोधित करके कई नए उपकरण बनाए गए हैं। इनमें बीज उपचार ड्रम, हस्त रिजर, उर्वरक ब्राडकास्टर, हस्तचालित बीज ड्रिल, नवीन डिबलर, रोटरी डिबलर, तीन पंक्तियों वाला चावल ट्रांसप्लांटर,चार पंक्तियों वाला धान ड्रम सीडर, व्हील हो, कोनोवीडर, संशोधित हंसिया, मूंगफली स्ट्रिपर, पैरों द्वारा संचालित धान थ्रेसर, धान विनोवर,ट्यूबलर मक्का शेलर, रोटरी मक्का शेलर, टांगने वाला ग्रेन क्लीनर, बैठकर प्रयोग करने वाला मूंगफली डिकोरटिकेटर, फल हार्वेस्टर, कपास स्टॉक पुलर और नारियल डीहस्कर प्रमुख हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार, भारतीय महिला कृषि श्रमिकों की औसत ऊंचाई आमतौर पर 151.5 सेंटीमीटर और औसत वजन 46.3 किलोग्राम
होता है। खेती के कामों में भार उठाने संबंधी काम बहुत होते हैं। वर्ष 2004 में अर्गोनॉमिक्स जर्नल में छपे एक शोध में आईआईटी-मुंबई के वैज्ञानिकों के एक अनुसंधान के अनुसार भारतीय वयस्क महिला श्रमिकों को 15 किलोग्राम (अपने भार का लगभग 40 प्रतिशत) से अधिक भार नहीं उठाना चाहिए। केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान, भोपाल से जुड़े प्रमुख अध्ययनकर्ता डॉ सीआर मेहता ने बताया कि पिछले कुछ वर्षों में महिला कृषि श्रमिकों की उच्च भागीदारी और कृषि प्रौद्योगिकियों के बदलते परिदृश्य में महिलाओं के अनुकूल औजारों, उपकरणों के साथ-साथ कार्यस्थलों के विकास पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। अब ऐसे उपकरण तैयार किए गए हैं, जिससे महिलाएं भी आधुनिक कृषि तकनीक का लाभ उठा सकें। डॉ. मेहता के अनुसार, इन उपकरणों के उचित और सुरक्षित संचालन हेतु महिला श्रमिकों को जागरूक और प्रशिक्षित करना,निर्माताओं तथा उद्यमियों को इन कृषि औजार बनाने के लिए प्रोत्साहित करना और उन्हें उपयोगकर्ताओं द्वारा खरीद के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में उपलब्ध कराया जाना जरूरी है। उपकरण खरीदने के लिए बैंकों तथा अन्य संगठनों से ऋण प्राप्त करने के लिए महिलाओं की सहायता भी आवश्यक है। केंद्रीय कृषि अभियांत्रिकी संस्थान,भोपाल के ही एक अन्य वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक डॉ. गीते के अनुसार श्रम उत्पादकता बढ़ाने और महिला श्रमिकों के कठोर परिश्रम को कम करने के लिए बेहतर
प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकार के विभाग, अनुसंधान और विकास संस्थान तथा गैरसरकारी संगठनों को आगे आना चाहिए। उन्हें कृषि महिलाओं को प्रौद्योगिकियों के प्रभावी हस्तांतरण के लिए महिला कर्मचारियों की भर्ती भी करनी चाहिए। राज्य कृषि विभागों को इस गतिविधि में मुख्य भूमिका निभानी होगी, क्योंकि उनके पास ग्रामीण स्तर पर कार्यकर्ता होते हैं। इस संबंध में मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के बड़नगर में कार्यरत ग्रामीण कृषि विस्तार अधिकारी उदय अग्निहोत्री ने बताया कि इस तरह के उपकरणों का प्रचलन तेजी से गांवों में बढ़ रहा है। हालांकि, पहले से पुराने औजारों का इस्तेमाल कर रही महिलाओं को आधुनिक उपकरणों से काम करने में शुरू में हिचकिचाहट होती है, पर धीरे-धीरे प्रशिक्षण के माध्यम से उन्हें इन औजारों का उपयोग आसान लगने लगता है। मध्य प्रदेश के सतना जिले के किसान लक्ष्मीनारायण मिश्र के अनुसार,परिवार में खेतों के बंटवारे के कारण जोतों का आकार छोटा हो रहा है। इस कारण व्यावहारिक और आर्थिक दृष्टिकोण से बड़े कृषि उपकरणों और मशीनरी का उपयोग लाभदायक साबित नहीं हो पाता। पुरुषों के अन्य व्यवसायों में संलग्न होने से भी गांवों में ज्यादातर महिलाएं ही खेती के काम करती हैं। महिला कृषकों के अनुकूल छोटे-छोटे कृषि उपकरण तैयार होना एक अच्छा कदम है, इससे उनको काम करने में आसानी होगी, उनकी भागीदारी बढ़ेगी और उनकी कार्यक्षमताओं का पूरा उपयोग हो सकेगा।
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जेंडर वत्सना घोष
अपने बच्चों ने दुत्कारा लाल बाबा ने अपनाया दुनिया में हर व्यक्ति को किसी न किसी का सहारा मिल ही जाता है, इसी सोच के सहारे घर छोड़ कर वृंदावन आई वत्सना के दिन तब फिरे जब उन्हें लाल बाबा (डॉ. विन्देश्वर पाठक) का सहारा मिला
बच्चों की बेरूखी
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प्रियंका तिवारी
क औरत तमाम दुखों और मुश्किलों को सहते हुए परिवार के लिए अपना पूरा जीवन कुर्बान कर देती है और वही परिवार और बच्चे जब उसकी इज्जत करना तो दूर उसकी तरफ देखना भी नहीं चाहें तो उस पर क्या बीतती होगी। यह उस औरत के सिवा कोई नहीं समझ ओर जान सकता जिसने ऐसा दुख झेला हो। ऐसी ही एक औरत है वत्सना घोष। अपने बच्चों की उपेक्षा से आहत वत्सना घर और समाज से बहुत दूर वृंदावन के शारदा आश्रम में रहती हैं। जिनका बेटा तब तक उनका अपना था, जब तक उसे मां के सहारे की जरूरत थी। जैसे ही वह बड़ा हुआ,उसकी शादी हुई, तब पूरा नजारा ही बदल गया। उसे हाथ पकड़ कर चलना सिखाने वाली, हाथों से निवाला खिलाने वाली मां अब मां नहीं रही, बोझ बन गई। वत्सना के साथ फिर शुरू हुआ बेटे और बहू की प्रताड़ना का सिलसिला। इन सबसे थक कर, हार कर वत्सना ठाकुर जी के पास वृंदावन चली आई।
60 साल के आदमी से हुआ विवाह
वत्सना घोष बताती हैं कि उनकी शादी 15 साल की उम्र में एक 60 साल के आदमी के साथ कर दी गई थी। शादी के बाद वत्सना को 2 बेटी और एक बेटा हुआ, लेकिन पति का
साथ ज्यादा समय तक नहीं रहा। बच्चे बहुत छोटे थे तभी पति की एक लंबी बीमारी में मृत्यु हो गई।
दर-दर की ठोकरें
कोलकाता के शांतिपुर इलाके की रहने वाली वत्सना के लिए पति की मौत के बाद बच्चों की परवरिश करना काफी मुश्किल रहा। उनके पति रिक्शा चला कर परिवार का भरण-पोषण किया करते थे, लेकिन उनकी मृत्यु से पूरा परिवार बिखर सा गया। कभी घर से बाहर ना निकलने वाली वत्सना को अब बच्चों की खातिर दर-दर भटकना पड़ा।
घरों में काम कर की बच्चों की परवरिश
गरीबी से परेशान वत्सना ने लोगों के घरों में काम करना शुरू किया। इससे मिलने वाले पैसों से उन्होंने अपने बच्चों की परवरिश की और उनकी शादी भी, लेकिन बच्चों की शादी के बाद उनके बदलते रवैये ने उन्हें एक बार फिर से दुखी कर दिया।
वत्सना कहती हैं कि मुझे इतना दुख अपने पति की मृत्यु पर भी नहीं हुआ था, जितना बच्चों की बेरुखी पर हुआ। हमने कभी नहीं सोचा था कि मेरे बच्चे मेरी तकलीफों को बड़े होते ही भूल जाएंगे। पहले बच्चों का पेट भरने के लिए वत्सना को भूखा रहना पड़ता था तो अब बच्चों की राह देखते-देखते भूखे रहना पड़ता था। बेटियां तो कभी अपने ससुराल से आई ही नहीं और ना ही कभी अपनी मां का हाल-चाल ही जानना चाहा। बच्चों के इस व्यवहार ने वत्सना को अंदर तक झकझोर दिया। कभी बच्चों के चेहरे को देख कर खुश रहने वाली वत्सना को अब सिर्फ उन्हें देखर दुख ही होता था।
बेटे-बहू से दुखी हो छोड़ा घर
वत्सना कहती हैं कि बेटे-बहू उनके खाने पीने का ध्यान नहीं रखते थे। वह इसी इंतजार में रहती की अब उन्हें खाने को कुछ दिया जाएगा, लेकिन पूरी रात बीत जाती उन्हें खाने को कुछ नहीं मिलता। इस तरह अपने ही घर में भूखे-प्यासे कई रात गुजारने के बाद वत्सना ने घर छोड़ने का फैसला किया और बिना किसी मंजिल के ही घर से निकल पड़ी। वत्सना को पता नहीं था वह कहां जाएंगी और क्या करेंगी, लेकिन इतना उन्हें विश्वास था कि पूरी दुनिया मतलबी नहीं हो सकती। उन्हें कहीं ना कहीं सहारा जरूर मिल जाएगा। इसी भरोसे के साथ वह अपने शहर से आगे चल पड़ी। रास्ते में उन्हें कुछ लोगों का समूह मिला, जो उत्तर प्रदेश के वृंदावन क्षेत्र में घूमने के लिए जा रहा था। उनकी बातें और भजन सुन कर वत्सना को काफी अच्छा लगा। वत्सना उस समूह के लोगों के साथ ही वृंदावन चली आई और यहीं पर भजन
पहले हम अपनी किस्मत पर रोया करते थे, लेकिन लाल बाबा ने हमें जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। आज हम होली-दीवाली और रक्षाबंधन जैसे त्योहार मनाते हैं
कीर्तन करने लगी। बाद में जब समूह के लोग जाने लगे तो उन्हें भी चलने को कहा तो वह बोलीं कि अब हम यहीं रहेंगे। वैसे भी जहां अपनी कद्र ना हो वहां जाकर क्या फायदा। तब से लेकर आज तक वह वृंदावन में राधारानी और ठाकुर जी की सेवा कर रही हैं।
राधा-रानी की शरण में मिली शांति
बत्सना कहती हैं कि अब उन्हें अपने देश जाने का मन नहीं करता है। राधा रानी की शरण में ही मुझे शांति मिलती है। शुरुआत में तो हमें पहनने, खाने और दवाई के लिए काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। वह कहती हैं कि प्रारंभ में हम मीराबाई मंदिर में भजन कीर्तन किया करते थे और वहीं सिढ़ियों पर सो जाया करते थे, लेकिन बरसात के समय में बहुत दिक्कत होती थी। वहां के पुजारी ने हमें राजू आश्रम में रहने के लिए भेजा, लेकिन वह काफी जर्जर हो चुका था। वत्सना कहती हैं कि आश्रम में कभी सफाई भी नहीं की जाती थी, जिसकी वजह से हमें कई तरह की बीमारियां हो जाती थी, लेकिन लाल बाबा (डॉ. विन्देश्वर पाठक) की कृपा से अब हम एक स्वच्छ वातावरण में रहते हैं। अब हमारे आश्रम में नियमित सफाई होती है। और दोनों समय हमें भोजन भी मिलता है।
डॉ. पाठक का जताया आभार
वत्सना अपनी सखी की ओर इशारा करके कहती हैं कि अब तो हमें अपनी सखियों के साथ भजन करने और हंसी-ठिठोली करने में ही समय निकल जाता है। पहले हम अपनी किस्मत पर रोया करते थे, लेकिन लाल बाबा ने हमें जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। आज हम होली-दीवाली और रक्षाबंधन जैसे त्योहार मनाते हैं। पहले कभी हम विधवा औरतों को इन सभी चीजों से दूर रखा जाता था, लेकिन आज हम अपना जीवन पूरे उल्लास के साथ जी रहे हैं। इसके लिए हम लाल बाबा के बहुत आभारी हैं।
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पुस्तक अंश
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स्वच्छ भारत
स्वच्छ भारत (क्लीन इंडिया) अभियान गंदी राजनीति से छुटकारा पाने या भ्रष्टाचार को दूर करने को लेकर नहीं है, यह उन बेहतर आदतों को अपनाने के बारे में है, जिसे हम बच्चों के रूप में तो सीखते हैं, लेकिन बड़े होने पर अनदेखा करने लगते हैं। यह स्वच्छता को लेकर नागरिकों में समझ पैदा करने और भारत को एक स्वच्छ और स्वस्थ देश बनाने के बारे में है
बात पर जोर दिया कि भारत की सफाई के काम को एक व्यक्ति द्वारा या अकेले सरकारी लोगों द्वारा नहीं किया जा सकता है, बल्कि इसे तो 125 करोड़ लोगों द्वारा किया जाना है। उन्होंने स्वच्छता के लिए प्रति वर्ष 100 घंटे लोगों को समर्पित करने के लिए प्रेरित किया और साथ ही शौचालय बनाने की जरूरत पर बल दिया।
स्वच्छ भारत मिशन के लिए मॉडल
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स्वच्छ भारत मिशन का लोगो तय करने के लिए एक सार्वजनिक प्रतियोगिता आयोजित की गई, जिसे महाराष्ट्र के अनंत और गुजरात की भाग्यश्री ने जीता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगो के बारे में समझाते हुए कहा कि वह
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी अनेपिक्षत दौरे के दौरान नई दिल्ली स्थित मंदिर मार्ग पुलिस स्टेशन में झाड़ू लगाते हुए
गातार अच्छी विकास दर और विकास सूचकांक के बावजूद अगर भारत को दुनिया के सबसे अस्वच्छ देशों में एक माना जाता है, तो यह एक विडंबना ही है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के मुताबिक देश में खुले में शौच जाने की प्रथा के साथ गांवों में रहन-सहन की स्थिति काफी अस्वच्छ है। शहरों में भी साफ-सुथरे शहरी इलाकों की गिनती काफी कम है और ये एकदूसरे से खासे दूर हैं, जबकि स्लम इलाकों की स्थिति तो गांवों से भी दयनीय है। जबकि खुले में शौच के साथ गांवों की स्थिति सार्वभौमिक मानदंड के साथ अस्पष्ट है। इस तरह के हालात में मलेरिया और कोलेरा जैसी बीमारियों के पनपने और बढ़ने के पूरे आसार रहते हैं। स्वच्छ भारत मिशन के मुख्य उद्देश्यों
में खुले में शौच की समस्या को खत्म करना, मैनुअल स्कैवेंजिंग का उन्मूलन, नगरपालिकाओं में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन का विकास, स्वस्थ और स्वच्छ परिवेश के लिए लोगों के व्यवहार में परिवर्तन और स्वच्छता, सार्वजनिक स्वास्थ्य को लेकर लोगों में जागरूकता पैदा करना शामिल है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा उद्धृत आंकड़ो के अनुसार, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने स्वच्छता और स्वच्छता की कमी के कारण भारत में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक 6500 रुपए के वित्तीय नुकसान का आकलन किया गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2 अक्टूबर, 2014 को औपचारिक रूप से ‘स्वच्छ भारत अभियान’ (स्वच्छ भारत अभियान) लॉन्च
किया। इस योजना का महत्व इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस अभियान को चलाने और उस पर निगरानी की जवाबदेही सरकार के सभी मंत्रालयों को दी गई है। स्वच्छता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के दिल के बहुत करीब थी। 2019 में महात्मा गांधी को उनकी 150 वीं जयंती के उपलक्ष्य पर श्रद्धांजलि देने के लिए एक स्वच्छ देश सामने रहे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वच्छता को लेकर यह बात सर्वोपरि है। यही कारण है कि उन्होंने इस पूरे अभियान को न सिर्फ गांधी जी की स्मृतियों को समर्पित किया है, बल्कि इस अभियान का आगाज भी उन्होंने उनकी जयंती पर ही किया। 2 अक्टूबर, 2014 को स्वच्छ भारत मिशन लॉन्च करते समय प्रधानमंत्री ने बार-बार इस
जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुझे स्वच्छ भारत अभियान के लिए राजदूतों में से एक होने के लिए कहा तो मैं बहुत उत्साहित थी। हालांकि मैं चाहती हूं कि मैं कुछ ऐसा करूं या बनूं जो हमेशा के लिए हो। प्रियंका चोपड़ा अभिनेत्री,
वर्सोवा, मुंबई में एक स्लम क्षेत्र को साफ करने और नए सिरे से पुनर्वासित करने के लिए की गई अपनी पहल के दौरान
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स्वच्छ भारत मिशन में हिस्सा लेते अमिताभ बच्चन
यह स्वच्छता को लेकर एक आंदोलन है। इस आंदोलन को सर्वाधिक बल कौन दे सकता है? निसंदेह भारत के बच्चे।
पुस्तक अंश
स्वच्छ भारत मिशन के प्रति अपना समर्थन प्रकट करते रितिक रोशन और सुभाष घई
इंडिया लोकप्रियता प्राप्त कर रहा है। पेयजल और स्वच्छता के लिए केंद्रीय मंत्रालय ने राज्यों के जिला कलेक्टरों को स्वच्छ भारत मिशन के महत्व में शामिल करने के लिए आमंत्रित किया। जिला कलेक्टरों को बताया गया कि यह अभियान न केवल बड़े पैमाने पर शौचालयों के निर्माण को लेकर है, बल्कि इसका मकसद स्वच्छता को लेकर सामाजिक के व्यवहार में अपेक्षित बदलाव भी है। मंत्रालय ने 180 भारतीय प्रशासनिक सेवा के परिवीक्षा अधिकारियों को भी इस अभियान के साथ जोड़ा और उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए निर्देश दिया गया कि वे अपने क्षेत्र के कम से कम दो गांवों को प्रशिक्षणावधि के दौरान खुले में शौच से मुक्त बनाएं।
इस दौरान मिशन को लेकर जहां सभी मंत्रालय अपनी रिपोर्ट तैयार कर रहे हैं, वहीं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) से अभियान की प्रगति की समीक्षा तीसरे पक्ष से कराने के लिए कहा गया है। नवनिर्मित शौचालयों की भौगोलिक दृष्टि से चित्रों को टैग करना अनिवार्य कर दिया गया है और वास्तविक शौचालयों की संख्या को सत्यापित करने के लिए उन्हें प्रासंगिक पोर्टल पर अपलोड किया जा रहा है। 2 अक्टूबर 2014 से 2 अक्टूबर 2015 के बीच छह मिलियन शौचालयों का निर्माण करने का वार्षिक लक्ष्य आसानी के साथ पूरा कर लिया गया। वर्तमान में केंद्र सरकार 9,000 रुपए का और राज्य सरकार 3,000 रुपए का
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री गांधी जी को उनके चश्मे से देखकर महसूस कर सकते हैं और यह सवाल भी कर सकते हैं कि क्या हमने भारत को स्वच्छ बनाया है या नहीं। इस अभियान का टैग-लाइन ‘एक कदम स्वच्छता की ओर’ है। प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा बनाई गई माईगोव डॉट इन ( MyGov.in) वेबसाइट पर अपलोड किया गया है। इसके अलावा, ‘स्वच्छ भारत’ को लेकर एक नई वेबसाइट बनाई गई है। फेसबुक और ट्विटर पर भी काम शुरू हो गया है और #माईक्लीन
स्वच्छ भारत मिशन को सफल बनाने में जुटे अिभनेता सलमान खान और नील नितीन मुकेश
25 माननीय प्रधानमंत्री ने स्वच्छ भारत मिशन के लिए मेरे नाम की चर्चा की। हम अब तक महाराष्ट्र में तीन गांवों को स्वच्छ बनाने के साथ वहां रंग-रोगन का कार्य कर चुके हैं। मैं अपनी इस पहल को आगे भी जारी रखूंगा। हालांकि स्वच्छ भारत मिशन हम में से किसी एक के कुछ करने से नहीं, बल्कि हम में से हरेक की भागीदारी से पूरा होगा। इसीलिए मैंने गणतंत्र दिवस के मौके पर इस अभियान से सामाजिक तौर पर जुड़ा। मैं स्वच्छ भारत के लिए हर माह अपने 100 प्रशंसकों को नामांकित करूंगा। कृपया स्वच्छ भारत अभियान को टिकाऊ बनाएं और अपने कार्यक्षेत्र या रिहायश के इलाके में इस अभियान को चलाएं और कार्य से पहले और कार्य के बाद की स्थिति के फोटो में अपलोड करें। मैं इनमें से पांच श्रेष्ठ पहलों के बारे में अपने फेसबुक पेज पर विशेष जिक्र करूंगा। फेसबुक पेज और साथ में हरेक के लिए पुरस्कार। क्या बोलते हो? शुरू करें? पहली सूची कल आएगी... सलमान खान अभिनेता योगदान एक शौचालय के निर्माण में करती हैं। 2014 में डब्ल्यूएचओ और यूनिसेफ के संयुक्त अध्ययन के मुताबिक पूरे देश को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) करने के लिए 100 मिलियन शौचालयों का निर्माण करना होगा। यह गणना इस लिहाज से जरूरतमंद 597 मिलियन लोगों के आधार पर की गई है। स्वच्छ भारत मिशन और स्वच्छ गंगा मिशन के तहत चल रहे कार्यक्रमों के लिए वित्तीय स्रोत बढ़ाने के लिए इन्हें को कॉरपोरेट-सोशल रिस्पांसिबलिटी (सीएसआर) के दायरे में रखा गया है, जिसमें इन दो योजनाओं में योगदान सामाजिक कल्याण व्यय के तहत माना जाएगा।
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पुस्तक अंश
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खुले में शौच के खिलाफ सुलभ की पहल
की आदत को खत्म करना है। अस्वच्छ शौचालयों को फ्लश शौचालयों में परिवर्तित करना और मैनुअल स्कैवेंजिग का उन्मूलन मिशन के उद्देश्य का अभिन्न अंग है। डॉ. पाठक ने अपनी संस्था सुलभ के साथ, जिसे इस क्षेत्र में कार्य करने में विशिष्ट अनुभव और शानदार ट्रैक रिकॉर्ड है; प्रधानमंत्री के स्वच्छता मिशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, जिससे स्वच्छता को लेकर एक राष्ट्रव्यापी उत्साह पैदा हुआ है। सुलभ ने हरियाणा के हिरमथला गांव की तरह कई गांवों को खुले में शौच से मुक्त करने के लिए गोद लिया है। सुलभ ने एक जगह नहीं, बल्कि कई जगहों पर सार्वजनिक और निजी शौचालयों का निर्माण किया है। मसलन, पंजाब में सुलभ ने 12,000 निजी
4 नवंबर, 2015 : स्वच्छ भारत अभियान के तहत को हरियाणा के िहरमथला गांव में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन द्वारा निर्मित सामुदायिक शौचालय इकाई
प्र
धानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी ने जोर देकर यह बात कही है कि अस्वच्छता से मुक्ति के बिना भारत एक महान राष्ट्र नहीं बन सकता है। उन्होंने स्वच्छ भारत अभियान का श्रीगणेश कर दिया है, जो 2019 तक भारत की सड़कों और बुनियादी ढांचे को साफ करने का
2 अक्टूबर, 2014 : मुंबई के वीजेटीआई कॉलेज के छात्रों द्वारा दादर में समुद्र के किनारे गंदगी की सफाई
स्वच्छ भारत मिशन गान
य
ह गान गीतकार प्रसून जोशी द्वारा रचित, शंकर-एहसान-लॉय द्वारा संगीतबद्ध और
राष्ट्रीय मिशन है। मिशन का केंद्रीय भाग शौचालयों का निर्माण है। प्रत्येक विद्यालय में तत्काल शौचालय बनाने के अलावा, अक्टूबर 2019 तक ग्रामीण भारत में 12 करोड़ शौचालय बनाने की योजना है। इसका उद्देश्य हर घर को शौचालय प्रदान करना है और इस प्रकार खुले में शौच
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में स्वच्छ भारत अभियान के तहत सड़कों की सफाई करते सफाईकर्मी
शंकर महादेवन द्वारा गाया गया। इसके लिए एक विडियो भी मुकेश भट्ट द्वारा बनाया गया है। इसे स्वच्छ भारत अभियान के शुभारंभ के
2 अक्टूबर, 2014 : कोलकाता रेलवे स्टेशन पर ट्रैक की सफाई करता कर्मचारी
शौचालय बनाए हैं। इसी तरह देश के विभिन्न प्रदेशों के स्कूलों में करीब 10,000 शौचालय बनाए गए हैं।
2 अक्टूबर, 2014 : मयूर विहार पुलिस स्टेशन में तैनात पुलिसकर्मी अपने परिसर की सफाई करते हुए।
एक वर्ष पूरा होने पर 2 अक्टूबर, 2015 को जारी किया गया। अभियान के साथ जुड़े सचिन तेंदुलकर ने भी इस गान में कुछ पंक्तियां पढ़ी हैं।
भारत को खुले में शौच से मुक्त कराने और स्वच्छ बनाने के लिए हमें अपनी तमाम क्षमताओं और संसाधनों के साथ प्रधानमंत्री के मिशन के साथ जुड़ना चाहिए। सभ्य बनने और सुसंस्कृत बनने के लिए देश को स्वच्छ बनाना होगा, तभी हम सभ्य और सुसंस्कृत राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा हो सकेंगे। - डॉ. विन्देश्वर पाठक
समाजशास्त्री और समाज सुधारक, सुलभ स्वच्छ आंदोलन के संस्थापक
स्वच्छ भारत कोष की स्थापना विशेष रूप से कॉरपोरेट्स और सामान्य जनों से स्कूलों में स्वच्छता सुविधाओं में सुधार के लिए धन इकट्ठा करने के लिए किया गया था। मिशन के लिए राशि जुटाने के लिए कर योग्य सेवाओं पर 0.5 प्रतिशत सेस लगाया गया है। स्वच्छ भारत मिशन शहरी विकास मंत्रालय और शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों के लिए पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है। पुस्तक अंश अगले अंक में...
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स्वास्थ्य
अफ्रीकी एवं एशियाई देशों के अलावा जर्मनी और ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्रियों ने भी आयुष्मान भारत के बारे में ज्यादा जानकारी देने का अनुरोध किया है
भारत ऐसे बनेगा आयुष्मान
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स्टेंट और जरूरी दवाइयों के दाम पर लगाम लगाने के बाद अब सरकार ने 1352 तरह की जांच और सर्जरी की दरें तय कर दी है
धानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देश के 10 करोड़ गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों को स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराने के लिए शुरू की गई महात्वाकांक्षी आयुष्मान भारत योजना को देश ही नहीं दुनियाभर में प्रशंसा मिल रही है। पिछले दिनों जेनेवा में शुरू हुई 71वें वर्ल्ड हेल्थ असेंबली में मोदी सरकार की आयुष्मान भारत योजना को सराहना मिल रही है। दूसरे देशों के स्वास्थ्य मंत्री जहां इस योजना को लेकर उत्साहित हैं, वहीं इसकी जानकारी भी मांग रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक टेडरस गैब्रियसस के मुताबिक भारत सरकार की इस योजना से सभी के लिए स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के डब्ल्यूएचओ के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी। जाहिर है कि मोदी सरकार की इस योजना से देश के 50 करोड़ लोगों को हेल्थ कवर मिलेगा। इस योजना के तहत दस करोड़ परिवारों को 5 लाख रुपए सालाना का चिकित्सा बीमा कवर दिया जाएगा। इतनी बड़ी संख्या में लोगों को चिकित्सा सेवा उपलब्ध कराने के लिए भारत में मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन आने वाला है। इसके लिए सरकार डेढ़ लाख हेल्थ और वेलनेस सेंटर तैयार करने में भी लगी है।
डब्ल्यूएचओ भी सीखेगा
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक भारत में यदि मोदी केयर योजना सफलता से लागू हो जाती है तो सभी को स्वास्थ्य सेवा देने के डब्ल्यूएचओ के लक्ष्य को
हासिल करने के लिए एक मॉडल स्थापित हो जाएगा और इससे पूरे विश्व में स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने में काफी मदद मिलेगी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मोदी सरकार की आयुष्मान भारत योजना में रुचि दिखाने वाले देशों में विकासशील या गरीब देश ही नहीं, बल्कि विकसित देश भी शामिल हैं। बताया जा रहा है कि अफ्रीकी एवं एशियाई देशों के अलावा जर्मनी और ब्रिटेन के स्वास्थ्य मंत्रियों ने भी आयुष्मान भारत के बारे में ज्यादा जानकारी देने का अनुरोध किया है।
सर्जरी और जांच की दरें तय
मोदी सरकार ने विश्व की सबसे बड़ी हेल्थ बीमा स्कीम आयुष्मान भारत योजना के तहत सर्जरी और मेडिकल जांच की दरें तय कर दी है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक आयुष्मान भारत स्कीम के तहत 1352 तरह की सर्जरी और जांच की कीमतें तय कर दी गई हैं। रिपोर्ट्स में नेशनल हेल्थ प्रोटेक्शन मिशन के सीईओ इंदूभूषण के हवाले से बताया गया है कि आयुष्मान भारत योजना के तहत घुटना प्रत्यारोपण के लिए 90 हजार रुपए का रेट तय किया गया है। स्टेंट के लिए 40 हजार रुपए दिए जाएंगे। अगर कोई बायपास सर्जरी करवाता है तो योजना के तहत 1.10 लाख रुपए मिलेंगे। वॉल्व बदलने पर 1.20 लाख रुपए, आर्थोस्कोपी सर्जरी के लिए 20 हजार, हिप रिप्लेसमेंट के लिए 90 हजार, संक्रमित घुटने की सर्जरी के लिए 25 हजार, सर्वाइकल सर्जरी के लिए 20 हजार और बच्चेदानी
हटाने के लिए 50 हजार रुपए तय किए गए हैं।
जुड़ेंगे निजी अस्पताल
यह भी बताया गया है कि निजी अस्पतालों को
इस स्कीम से जोड़ने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय 30 फीसदी तक इंसेंटिव भी देगा। आयुष्मान भारत योजना के तहत हर परिवार को एक साल में 5 लाख रुपए तक का हेल्थ इंश्योरेंस दिया जाएगा। इस स्कीम में मौजूदा राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना और सीनियर सीटिजन हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम का विलय कर दिया जाएगा। इस स्कीम में किसी व्यक्ति की उम्र और उसके परिवार में कितने सदस्य हैं इस पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई है। अगर किसी परिवार में ज्यादा सदस्य हैं तो वो भी इसके पात्र होंगे। इसके तहत पहले दिन से ही सभी मौजूदा बीमारियां भी कवर होंगी। मरीज को एक तय ट्रांसपोर्ट अलाउंस भी मिलेगा। इस स्कीम के तहत कैशलेस इलाज होगा। मतलब पैसा मरीज को नहीं सीधे हॉस्पिटल को मिलेगा। इसके लिए सरकारी और सरकार के तय किए प्राइवेट हॉस्पिटल में इलाज हो सकेगा। स्वास्थ्य और विकास एक दूसरे के पूरक हैं। 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र की बागडोर थामने वाली सरकार ने देश के लिए स्वस्थ नागरिकों के महत्व को बखूबी समझा। यही वजह है कि इस सरकार का जोर स्वास्थ्य के क्षेत्र में हमेशा उन कदमों और योजनाओं पर रहा है जो देश के एक-एक नागरिक के बेहतर स्वास्थ्य को सुनिश्चित कर सकें। (एजेंसी)
प्रमुख ऑपरेशनों की दर घुटना प्रत्यारोपण स्टेंट
बाईपास सर्जरी
वॉल्व रिप्लेसमेंट
ऑर्थोस्कोपी सर्जरी
(राशियां रुपए में)
90,000
40,000
1,10,000 1,20,000
20,000
हिप रिप्लेसमेंट
90,000
सर्वाइकल सर्जरी
20,000
संक्रमित घुटने की सर्जरी गर्भाशय हटाना
25,000
50,000
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खेल
28 मई - 03 जून 2018
फीफा विश्व कप
36 साल बाद विश्व कप में वापसी करेगा पेरू
करीब 36 साल बाद फीफा विश्व कप में वापसी करने वाली पेरू टीम के लिए यह मौका अच्छे प्रदर्शन की उम्मीदों और संघर्षो से भरा हुआ होगा
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मोनिका चौहान
रू ने पिछली बार 1982 में विश्व कप टूर्नामेंट में हिस्सा लिया था और इतने वर्षों के बाद एक बार फिर वह इस टूर्नामेंट के अनुभवों को फिर से जीने के लिए तैयार है। रूस में 14 जून से शुरू होने वाले विश्व कप के लिए पेरू को ग्रुप-सी में फ्रांस, डेनमार्क और आस्ट्रेलिया जैसी टीमों के साथ शामिल किया गया है। उसे इस साल भी विश्व कप में प्रवेश के लिए संघर्ष करना पड़ा है। कोनमेबोल में किसी तरह जद्दोजहद करते हुए पांचवां स्थान हासिल करने के बाद पेरू ने विश्व कप क्वालीफायर के प्लेऑफ में न्यूजीलैंड को हराकर मुख्य टूर्नामेंट में 36 साल बाद प्रवेश किया। यह पल पेरू के लिए जश्न का पल रहा। हालांकि, विश्व कप में उसके लिए मुश्किलें और चुनौतियां और भी बड़ी होंगी। ला-बेंक्विरोजा के नाम से लोकप्रिय इस टीम के लिए सबसे बड़ी मुश्किल है उसके कप्तान
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रुग्वे के पास दो विश्व कप खिताब हैं। उरुग्वे ने अपनी मेजबानी में 1930 में खेले गए पहले संस्करण में खिताब जीता था। इसके बाद यह देश 1950 ब्राजील में खेले गए विश्व कप में दूसरी बार विश्व विजेता बनने में सफल रहा था। तब से हालांकि उरुग्वे अपने तीसरे खिताब की कोशिशों में ही लगा है। तीन बार 1954, 1970 और 2010 में सेमीफाइनल में पहुंचा, लेकिन इससे आगे नहीं जा सका। यह उसका 13वां विश्व कप होगा। 14 जून से शुरू हो रहे विश्व कप में उरुग्वे की कोशिश बीते कई वर्षों से चले आ रहे अपने प्रयास में सफलता हासिल करने की होगी जिसका जिम्मा
और बेहतरीन खिलाड़ी पाउलो गुएरेरो का टीम में शामिल न होना। प्रतिबंधित दवा के सेवन के आरोप के कारण निलंबन का सामना कर रहे गुएरेरो को टीम में जगह नहीं मिली और ऐसे में एल्बर्ट रोड्रिगेज को टीम की कमान सौंपी गई है। टीम के पास उसका अहम खिलाड़ी गुएरेरो नहीं है, जिन्होंने राष्ट्रीय टीम के इतिहास में सबसे अधिक गोल किए हैं। इसके अलावा, कई समय तक विश्व कप से बाहर रही यह टीम अनुभव में कच्ची है। ऐसे में देखा जाए, तो पेरू को ग्रुप-स्तर पर ही अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा। ग्रुप स्तर पर अगर पेरू डेनमार्क और आस्ट्रेलिया को हरा देती है, तो वह दूसरे स्थान पर रहते हुए अंतिम-16 दौर में पहुंच जाएगी। इसके बाद कुछ भी मुमकिन है। फीफा विश्व कप में केवल पांच बार खेल चुकी पेरू के पास उसके अनुभवी कोच रिकाडरे गारेसा हैं। फरवरी, 2015 में गारेसा को पेरू फुटबाल टीम का कोच नियुक्त किया गया था और उन्हीं के मार्गदर्शन
में टीम ने कोपा अमेरिका के सेमीफाइनल तक का सफर तय किया था। साल 1986 में विश्व कप का खिताब जीतने वाली अर्जेंटीना टीम के सदस्य रहे गारेसा के मार्गदर्शन की बदौलत पेरू ने पिछले डेढ़ साल में मैच नहीं हारी है। पेरू को नवंबर, 2016 में ब्राजील के खिलाफ हार का सामना किया था। इसके बाद, से राष्ट्रीय टीम ने अपने 12 मैचों में जीत हासिल की है। गुएरेरो की अनुपस्थिति के कारण भले ही पेरू की विश्व कप की उम्मीदों को झटका लगा हो, लेकिन उसके पास गुएरेरो के सबसे अच्छे दोस्त और फारवर्ड जेफरसन फारफान है, जिन्होंने न्यूजीलैंड के खिलाफ खेले गए प्लेऑफ के मैच में
गोल दागकर टीम को विश्व कप में प्रवेश हासिल करने में अहम भूमिका निभाई थी। फारफान ने टीम के लिए खेले गए 81 मैचों में सबसे अधिक 24 गोल दागे हैं। इसके अलावा, एडिसन फ्लोरेस और क्रिस्टियन कुएवा भी टीम के लिए अहम खिलाड़ी हैं। पेरू के पास भले ही विश्व कप में अनुभव की कमी हो, लेकिन उसका डिफेंस किसी भी टीम के लिए खतरनाक हो सकता है। इसी के आधार पर वह आगे बढ़कर गोल दागने के अवसर भी हासिल कर लेती है। हालांकि, उसे अगर विश्व कप में अच्छा प्रदर्शन करना है, तो उसे कदम दर कदम आगे बढ़ना होगा।
तीसरा खिताब जीतना चाहेगा उरुग्वे
फीफा विश्व कप का पहला संस्करण अपने नाम करने वाली उरुग्वे 57 साल से अपने तीसरे विश्व कप खिताब की खोज में है और इस बार रूस में होने वाले विश्व कप के 21वें संस्करण में उसकी कोशिश इसी सूखे को खत्म करने की होगी
कई हद तक उसके स्टार खिलाड़ी और स्पेनिश क्लब बार्सिलोना के लिए खेलने वाले स्ट्राइकर लुइस सुआरेज और एडिनसन कावानी के जिम्मे है। टीम की आक्रमण पंक्ति की जिम्मेदारी इन्हीं दोनों के जिम्मे है। सुआरेज और कावानी की जोड़ी को कोई भी अपनी टीम में देखना चाहेगी। यह जोड़ी किसी भी टीम के लिए घातक हो सकती है। इन दोनों को अलावा 26 साल के मिडफील्डर मातियास वेसिनो पर भी सभी कि निगाहें होगी। उन्होंने इस साल इंटर मिलान से खेलते हुए शानदार प्रदर्शन किया है। वहीं डिफेंस में डिएगो गोडिन और जोस मारिया गिमेननेज
के रहने से टीम की रक्षापंक्ति मजबूत मानी जा रही है। यह दोनों स्पेन के क्लब एटलेटिको मेड्रिड में एक साथ खेलते हैं। इन्हीं खिलाड़ियों के दम पर टीम का दारोमदार है। वहीं कोच ऑस्कर तबरेज की टीम में कई युवा खिलाड़ी शामिल हैं। तबरेज युवा खिलाड़ियों को अहमियत देते देखे गए हैं। यह चौथी बार है जब तबरेज विश्व कप में उरुग्वे के कोच हैं। वह 1990, 2010, 2014 में टीम के कोच रह चुके हैं। 2010 में वह टीम को सेमीफाइनल तक ले जाने में सफल हुए थे। हालांकि 2014 में टीम अंतिम-16 से आगे नहीं जा सकी थी। टीम के लिए सुआरेज जितने लाभदायक हैं उसी तरह उनके रहने से टीम को एक खतरा हमेशा बना रहता है। सुआरेज का मैदान पर व्यवहार कई बार उन्हें प्रतिबंध दिलवा चुका है। वह खिलाड़ी को
काटने के लिए मशहूर हैं। ऐसे में पूरी टीम उम्मीद करेगी की सुआरेज इतने बड़े टूर्नामेंट में इस तरह की हरकत न करें। टीम की अगर कोई कमजोरी है तो वो है मिडफील्ड। यहां तबरेज को काम करने की जरूरत होगी। टीम अगर क्वार्टर फाइनल तक भी नहीं पहुंचती है तो यह उसकी विफलता होगी क्योंकि उसके ग्रुप में जो टीमें हैं उनमें उरुग्वे सबसे मजबूत है। उरुग्वे को ग्रुप-ए में रखा गया है जहां मेजबान रूस के अलावा जापान, मिस्र, साउदी अरब हैं। उरुग्वे को अपना पहला मैच 15 जून को मिस्र से खेलना है और दूसरा मैच 20 जून को साउदी अरब से होगा। ग्रुप दौर के आखिरी मैच में उसे मेजबान रूस से भिड़ना है जो उसे कड़ी टक्कर दे सकती है और संभवत: इसी मैच से यह पता चलेगा की पहलेदूसरे स्थान पर कौन सी टीमें रहेंगी।
28 मई - 03 जून 2018
दुर्गा खोटे ने खोली राह
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कही-अनकही
भारतीय सिनेमा जगत में दुर्गा खोटे को एक ऐसी अभिनेत्री के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने महिलाओं और युवतियों को फिल्म इंडस्ट्री में काम करने का मार्ग प्रशस्त किया
सि
एसएसबी ब्यूरो
नेमा न जाने कितने ही कलाकारों, निर्देशकों, लेखकों की कहानियां अपने अंदर समेटे हुए है। कई कहानियां अनकही और अनसुनी होती हैं। ऐसी ही एक कहानी है, अभिनेत्री दुर्गा खोटे की, जिन्होंने उस दौर में फिल्मों में काम करना शुरू किया जब प्रतिष्ठित परिवार की औरतें फिल्मों में काम नहीं करती थीं। दरअसल, भारतीय सिनेमा जगत में दुर्गा खोटे को एक ऐसी अभिनेत्री के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने महिलाओं और युवतियों को फिल्म इंडस्ट्री में काम करने का मार्ग प्रशस्त किया। दुर्गा खोटे जिस समय फिल्मों में आईं, उन दिनों फिल्मों में काम करने से पहले पुरुष ही स्त्री पात्र का भी अभिनय किया करते थे। दुर्गा खोटे ने फिल्मों में काम करने का फैसला किया और इसके बाद से ही सम्मानित परिवारों की लड़कियां और महिलाएं फिल्मों में काम करने लगीं।
पहला रोल दस मिनट का
14 जनवरी 1905 को मुंबई में जन्मी दुर्गा खोटे ने पैसे कमाने के लिए सबसे पहले ट्यूशन का सहारा लिया। फिर एक दिन उन्हें फिल्म ‘फरेबी जाल’ में काम करने का प्रस्ताव मिला। यह वह दौर था, जब बोलती फिल्मों की शुरुआत हुई। पैसे की मजबूरी के चलते दुर्गा ने रोल स्वीकार किया। फिल्म में दुर्गा का रोल महज दस मिनट का था, जिसके कारण उन्हें फिल्म की कहानी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। यह फिल्म रिलीज हुई तो दुर्गा को सामाजिक आलोचना का सामना करना पड़ा, जिसका कारण था फिल्म का बेहद खराब
खास बातें 14 जनवरी 1905 को मुंबई में हुआ दुर्गा खोटे का जन्म पहली फिल्म ‘फरेबी जाल’ में दुर्गा का रोल महज दस मिनट का था शुरुआत में फिल्मों में काम करने को लेकर हुई काफी आलोचना
कंटेंट। इसके चलते दुर्गा फिल्म इंडस्ट्री में अपने पहले कदम में ही लड़खड़ा गई और उन्होंने फिल्मों से अपने कदम वापस खींच लिए। इसके बाद उनके पास व्ही शांताराम एक फिल्म में अभिनय का प्रस्ताव लेकर सामने आए। पहले तो दुर्गा ने साफ इंकार कर दिया, लेकिन फिर शांताराम के समझाने पर उन्होंने खुद को दूसरा मौका दिया और प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिल्म के रिलीज से पहले दुर्गा बहुत ही घबराई हुई थी। उन्हें डर था कहीं पहली फिल्म की तरह उन्हें इसके लिए भी आलोचनाओं का सामना न करना पड़े। 1932 में आई इस मराठी फिल्म का नाम ‘अयोध्येचा राजा’ था। इस फिल्म में दुर्गा खोटे ने रानी तारामती की भूमिका निभाई। अयोध्येचा राजा मराठी में बनी पहली सवाक फिल्म थी। इस फिल्म की सफलता के बाद दुर्गा खोटे बतौर अभिनेत्री अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गईं। फिल्म रिलीज हुई तो खुद दुर्गा भी चौंक गईं। लोगों को उनकी फिल्म बहुत ज्यादा पसंद आई। हर किसी के मुंह से बस दुर्गा की तारीफ ही निकल रही थी। जो लोग शुरुआत में उनकी आलोचनाएं कर रहे थे, बाद में वही उनके लिए तारीफों के पुल बांधने लगे। रातोरात दुर्गा एक स्टार बन गईं।
पृथ्वीराज के साथ
इसके बाद प्रभात फिल्म कंपनी की ही वर्ष 1932 में प्रदर्शित फिल्म ‘माया मछिन्द्र’ ने दुर्गा खोटे ने एक बहादुर योद्धा की भूमिका निभाई। इसके लिए उन्होंने योद्धा के कपड़े पहने और हाथ में तलवार पकड़ी। वर्ष 1934 में कलकत्ता की ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी ने ‘सीता’ फिल्म का निर्माण किया, जिसमें दुर्गा खोटे के नायक पृथ्वीराज कपूर थे। देवकी कुमार बोस निर्देशित इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय ने उन्हें शीर्ष अभिनेत्रियों की कतार में खड़ा कर दिया। प्रभात फिल्म कंपनी की वर्ष 1936 में बनी फिल्म ‘अमर ज्योति’ से दुर्गा खोटे का काफी ख्याति मिली। दुर्गा खोटे के साथ फिल्मों में काम करना उनकी मजबूरी भी थी। दुर्गा खोटे जब महज 26 साल की थी तभी उनके पहले पति विश्वनाथ खोटे का असामयिक निधन हुआ। परिवार चलाने और बच्चों के परवरिश के लिए उन्होंने फिल्मों में काम करना जारी रखा। बाद में उन्होंने मोहम्मद राशिद नाम के व्यक्ति से दूसरा विवाह किया, लेकिन उनके साथ गृहस्थी ज्यादा दिन नहीं चल पाई । इस बीच, उनके छोटे बेटे हरिन का भी देहांत हो गया। दुर्गा खोटे ने 1937 में एक फिल्म ‘साथी’ का
दुर्गा खोटे ने मराठी भाषा में ‘मी दुर्गा खोटे’ नाम से अपनी आत्मकथा भी लिखी, जो काफी चर्चित रही निर्माण और निर्देशन भी किया। दुर्गा खोटे इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़ी रहीं। वह फिल्मों के साथ ही रंगमंच विशेषकर मराठी रंगमंच पर भी कई वर्षों तक सक्रिय रहीं। दुर्गा खोटे ने नायिका के बाद मां की भूमिकाएं भी कई फिल्मों में निभाईं।
‘मुगले आजम’ की जोधाबाई
के. आसिफ की 1960 में ‘मुगले आजम’ में रानी जोधाबाई के उनके किरदार को दर्शक आज तक नहीं भूल पाए हैं। इसके अलावा उन्होंने 1942 में विजय भट्ट की क्लासिक फिल्म ‘भरत मिलाप’ में कैकेयी की भूमिका निभाई थी। दुर्गा खोटे ने मुम्बई मराठी साहित्य संघ के लिए कई नाटकों में काम किया। शेक्सपीयर के मशहूर नाटक ‘मैकबेथ’ के वीवी शिरवाडकर द्वारा ‘राजमुकुट’ नाम से किए गए मराठी रूपांतरण में उन्होंने लेडी मैकबेथ का किरदार निभाया था। दुर्गा खोटे ने अपने पांच दशक से भी अधिक लंबे करियर में हिंदी और मराठी की लगभग दो सौ फिल्मों में काम किया। इसके अलावा उन्होंने अपनी कंपनी फैक्ट फिल्मस और फिर दुर्गा खोटे प्रोडक्शंस के बैनर तले तीस साल से अधिक समय तक कई लघु फिल्मों, विज्ञापन फिल्मों, वृत्तचित्रों और धारावाहिकों का निर्माण भी किया। छोटे पर्दे के लिए उनका बनाया गया सीरियल ‘वागले की दुनिया’ दर्शकों में काफी लोकप्रिय हुआ था।
निजी जीवन में संघर्ष
सिनेमा के पर्दे पर तो दुर्गा अपने दमदार अभिनय से चमकती रहीं, लेकिन उनका निजी जीवन उतार-
चढ़ाव से भरा रहा। दुर्गा को दो बेटे हुए- हरिन और बकुल। दुर्गा को काम के सिलसिले में अक्सर घर से दूर रहना पड़ता था, जिसके कारण दोनों बच्चों की परवरिश और फिल्मी करियर को संभालना उनके लिए एक चुनौती जैसा बन गया। सारी चुनौतियों के बावजूद वह आगे बढ़ती रहीं। दुर्गा को बड़ा झटका तब लगा, जब उनके पति विश्वनाथ खोटे की असमय मृत्यु हो गई। वहीं दूसरा झटका उन्हें तब लगा जब उनके पिता चल बसे। इस कारण उन पर अपने दोनों बच्चों के साथ ही अपनी मां और भाई कि जिम्मेदारी भी आ गई। जिंदगी की विपरीत परिस्थितियों के बाद भी दुर्गा ने हार नहीं मानी और लगातार काम करती रहीं। दुर्गा ने अपने फिल्मी करियर के चलते दुनिया भर में सफर किया। दुर्गा घूमने की शौकीन थीं, जिसके चलते वे कभी-कभार अकेले ही यात्राओं पर निकल जाया करती थीं। इस बीच दुर्गा के छोटे बेटे हरिन की मृत्यु हो गई, जिसे वे अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा दुख मानती थीं।
‘मी दुर्गा खोटे’
उन्होंने मराठी भाषा में ‘मी दुर्गा खोटे’ नाम से अपनी आत्मकथा भी लिखी, जो काफी चर्चित रही। बाद में ‘आई दुर्गा खोटे’ नाम से इसका अंग्रेजी अनुवाद भी आया। भारतीय सिनेमा में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें 1983 में सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वर्ष 1968 में दुर्गा खोटे को पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। अपने दमदार अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाली महान अभिनेत्री 22 सितंबर 1991 को इस दुनिया को अलविदा कह गईं।
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सािहत्य
28 मई - 03 जून 2018
कविता
हे स्वच्छता के महामानव
सोनम मिश्रा जहां के कण - कण में बसते हों बुद्ध के ही उपदेश, उस पावन जापानी धरती का है ये संदेश हे आर्यवर्त के वंशज मानवता के पुजारी, दलितों के तुम मसीहा विधवाओं के मुरारी, हे युग द्रष्टा विन्देश्वर हम हैं तेरे आभारी सुलभ शौचालय ही पहचान है तुम्हारी इसके बिना अधूरी जीवन गाथा है तुम्हारी। हे स्वच्छाग्रही महामानव तुम आओ मेरे देश, निक्की एशिया वालों का ये ही है संदेश।
ए
यह संसार क्या है
क दिन एक शिष्य ने गुरु से पूछा, 'गुरुदेव, आपकी दृष्टि में यह संसार क्या है? ' इस पर गुरु ने एक कथा सुनाई। 'एक नगर में एक शीशमहल था। महल की हरेक दीवार पर पूजा सैकड़ों शीशे जड़े हुए थे। एक दिन एक गुस्सैल कुत्ता महल में घुस गया। महल के भीतर उसे सैकड़ों कुत्ते दिखे, जो नाराज और दुखी लग रहे थे। उन्हें देखकर वह उन पर भौंकने लगा। उसे सैकड़ों कुत्ते अपने ऊपर भौंकते दिखने लगे। वह डरकर वहां से भाग गया। कुछ दूर जाकर उसने मन ही मन सोचा कि इससे बुरी कोई जगह नहीं हो सकती। कुछ दिनों बाद एक अन्य कुत्ता शीशमहल पहुंचा। वह खुशमिजाज और जिंदादिल था। महल में घुसते ही उसे वहां सैकड़ों कुत्ते दुम हिलाकर स्वागत करते दिखे।
उसका आत्मविश्वास बढ़ा और उसने खुश होकर सामने देखा तो उसे सैकड़ों कुत्ते खुशी जताते हुए नजर आए। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। जब वह महल माथुर से बाहर आया तो उसने महल को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ स्थान और वहां के अनुभव को अपने जीवन का सबसे बढ़िया अनुभव माना। वहां फिर से आने के संकल्प के साथ वह वहां से रवाना हुआ।' कथा समाप्त कर गुरु ने शिष्य से कहा, 'संसार भी ऐसा ही शीशमहल है जिसमें व्यक्ति अपने विचारों के अनुरूप ही प्रतिक्रिया पाता है। जो लोग संसार को आनंद का बाजार मानते हैं, वे यहां से हर प्रकार के सुख और आनंद के अनुभव लेकर जाते हैं। जो लोग इसे दुखों का कारागार समझते हैं उनकी झोली में दुख और कटुता के सिवाय कुछ नहीं बचता।'
उधर देख क्या लिखा है..यह आपकी अपनी संपत्ति है....। मैं अपनी ही संपत्ति तो ले जा रहा हूं। शब्दों की अपने अनुसार व्याख्या करने वाले
लड्डन की बातों का जवाब वह बूढ़ा नहीं दे सका। वह सिर्फ बैग को बड़ी असहाय दृष्टि से देखता रहा।
अपनी संपत्ति
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अखिलेश द्विवेदी 'अकेला'
खनऊ स्टेशन आने वाला था। लड्डन मियां ने रेल कोच के गेट के पास वॉशवेसिन के ऊपर लगा शीशा बड़े करीने से पेचकस की सहायता से खोलकर उतारा और गमछे में लपेटकर बड़े से बैग में रख लिया। पास खड़े एक मरियल से बुजुर्ग ने बड़ी क्षीण आवाज में कहायह सरकारी संपत्ति है। सार्वजनिक उपयोग के लिए है। इसे चुराना उचित नहीं। चुप बुड्ढे,एक ही चपेट में गेट से बाहर जा गिरेगा। तुझे कुछ पता भी है। क्या....? बूढ़ा कुछ कहना ही चाहता था कि भारी-भरकर शरीर के स्वामी लड्डन ने उसके कंधों पर हाथों का वजन पटकते हुए कहा-
कविता
यदि तुम चाहते हो पूजा सोनी
यदि तुम चाहते हो सहायता करना तो गरीबों और असहायों की सहायता करो। यदि तुम चाहते हो देखना तो देखो सुनहरे स्वप्न और क्या हो तुम? यदि तुम चाहते हो निभाना और कुछ रखना तो निभाओ अपने वादे और बनाए रखो शांति।। यदि तुम चाहते हो अनुशासन करना तो अनुसरण करो किसी प्रेरक अस्तित्व का यदि तुम चाहते हो अपना विस्तार करना तो करो अपनी जानकारी और योग्यता का यदि तुम चाहते हो लड़ना तो लड़ो अपने आप से और देश द्रोहियों से यदि तुम चाहते हो खत्म करना तो खत्म करो अपने घमंड और क्रोध को।।
28 मई - 03 जून 2018
आओ हंसें
मोबाइल का चक्कर
मां : जा किचन से छोटी प्लेट लेकर आ। बेटी : मम्मी, नहीं दिख रही, कहां रखी है? मां : गैस चालू करके मोबाईल में आग लगा... फिर अपने आप दिख जाएगी।
सु
जीवन मंत्र
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इंद्रधनुष
डोकू -24
चिंता इतनी करो कि काम हो जाए चिंता इतनी नहीं कि जिंदगी तमाम हो जाए
स्वर्ग में प्लॉट
साधु : बच्चा, तुझे स्वर्ग मिलेगा। लाओ... कुछ दक्षिणा दे जाओ। लड़का : ठीक है दक्षिणा में आपको मैंने दिल्ली दी। आज से दिल्ली आपकी हुई। साधु : दिल्ली क्या तुम्हारी है, जो मुझे दे रहे हो। लड़का : ...तो स्वर्ग क्या आपने खरीद रखा है, जो उधर के प्लाट यहां बांट रहो हो।
रंग भरो सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी विजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार दिया जाएगा। सुडोकू के हल के लिए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें
महत्वपूर्ण दिवस
• 28 मई वीर सावरकर जयंती • 30 मई गोवा राज्य का दर्जा दिवस • 31 मई विश्व धूम्रपान निषेध दिवस • 1 जून अंतरराष्ट्रीय बाल रक्षा दिवस, वास्तुकला दिवस, दादा भाई नौरोजी स्मृति दिवस
1. तृप्त संतोषी (3) 3. कष्ट देने वाला (5) 6. सेवक, जासूस (2) 7. अव्यवस्था, राजा का न होना (4) 8. मनमौजी (4) 9. प्रतिष्ठा इज्जत (2) 10. कमल (3) 12. आघात (2) 14. मदिरालय (4) 15. आलता (4) 16. मित्र, साथी (2) 17. पसंद करना, चुनना (5) 18. ओंकार (3)
ऊपर से नीचे
2. पाला गिरना (5) 3. हाथ (2) 4. जंगल की आग (4) 5. ब्रह्मा, कमल युक्त सरोवर (5) 6. झंझट हँसी मजाक (4) 9. बैकुंठ, स्वर्गलोक (5) 11. जनता की राय (4) 12. परिस्थिति, माहौल (5) 13. देश, नगर या संस्था को चलाने की व्यवस्था (4) 16. मछली (2)
वर्ग पहेली - 24 वर्ग पहेली-23 का हल
बाएं से दाएं
सुडोकू-23 का हल
कार्टून ः धीर
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न्यूजमेकर
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
28 मई - 03 जून 2018
अनाम हीरो
आशा भोंसले
अभिषेक राठौड़
आशा को बंग भूषण सम्मान
ा क ा त ्छ च ्व स अभिषेक
पश्चिम बंगाल सरकार का सर्वश्ष्ठ रे नागरिक सम्मान आशा भोंसले को
हा
ल में पश्चिम बंगाल सरकार के सर्वोच्च नागरिक सम्मान बंग विभूषण और बंग भूषण से 11 हस्तियों को सम्मानित किया गया। यह सम्मान वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने दिया। इन हस्तियों में सबसे बड़ा नाम प्रसिद्ध पार्श्वगायिका आशा भोंसले का है। दिलचस्प है कि एक लंबे दौर तक लता और आशा के गीत हिंदी के साथ बांग्ला फिल्मों के भी हिट होने की गारंटी माने जाते थे। कोलकाता के नजरुल मंच पर मुख्यमंत्री ने पार्श्वगायिका आशा भोंसले सहित अन्य हस्तियों को सम्मानित किया। आशा भोंसले को बंग विभूषण से सम्मानित किया गया। इस मौके पर ममता बनर्जी ने कहा कि सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने बांग्ला में अनेक गाने गाए हैं। राज्य सरकार उन्हें भी बंग विभूषण पुरस्कार देना चाह रही थी, लेकिन उनकी अस्वस्थता के कारण
गुरसोच कौर
न्यू
यॉर्क पुलिस डिपार्टमेंट में पहली बार एक पगड़ीधारी सिख महिला अफसर की नियुक्ति की गई है। गुरसोच कौर की नियुक्ति पुलिस डिपार्टमेंट में सहायक पुलिस अफसर (एपीओ) के रूप में हुई है। वह हाल में ही न्यूयॉर्क पुलिस अकादमी से ग्रेजुएट हुई हैं। गुरसोच कौर का उद्देश्य पुलिस डिपार्टमेंट से जुड़कर दूसरे लोगों को कानून व्यवस्था लागू करने के लिए प्रेरित करना है। इसके साथ ही वह चाहती हैं कि इसके जरिए लोगों के बीच सिख धर्म की समझ भी बढ़ सके। सिख ऑफिसर्स असोसिएशन ने ट्वीट करते हुए कहा कि हम पहली पगड़ी वाली महिला सिख सहायक पुलिस अफसर का
उन्हें कोलकाता नहीं लाया जा सका। वहीं बिरजू महाराज को भी बंग विभूषण सम्मान देने की घोषणा की गई। बिरजू महाराज भी कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हो सके इसीलिए सूचना और संस्कृति विभाग के अधिकारी उन्हें उनके घर जाकर सम्मानित करेंगे। इसके अलावा समारोह में मुख्यमंत्री ने बांग्ला अभिनेता प्रसेनजीत चट्टोपाध्याय, गिरिजाशंकर राय, फुटबॉलर सुब्रत भट्टाचार्य, पूर्व न्यायाधीश श्यामल सेन, साहित्यकार समरेश मजूमदार, अलचिकी भाषा के विद्वान सुहृद कुमार भौमिक और मोहम्मद हबीब को सर्वोच्च सम्मान बंग विभूषण से सम्मानित किया। वहीं कलाकार पार्थो घोष, संगीतज्ञ अरुंधति होम चौधरी और श्रीराधा बंधोपाध्याय को बंग भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
न्यूयॉर्क में सिख पगड़ी की शान
न्यूयॉर्क पुलिस में पहली बार एक पगड़ीधारी वाली सिख महिला अफसर नियुक्त
न्यू यॉर्क पुलिस डिपार्टमेंट में स्वागत करने में गर्व महसूस कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमें गुरसोच कौर पर गर्व है और वह सुरक्षित रहें। इसके साथ ही एक फेसबुक पोस्ट के जरिए भी उन्होंने गुरसोच कौर का हौसला बढ़ाते हुए लिखा कि उनकी सर्विस दूसरों के लिए प्रेरणा का काम करेगी। आवास एवं शहरी विकास राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) हरदीप सिंह पुरी ने भी गुरसोच को बढ़ाई देते हुए ट्वीट किया और कहा कि इससे अमेरिका में लोगों के बीच सिख धर्म की समझ बढ़ेगी। इसके साथ ही उन्होंने अपने ट्वीट में अमेरिकी एयरपोर्ट पर एक कनाडाई सिख मंत्री की पगड़ी उतरवाने का भी जिक्र किया।
पब्लिक फीड बैक पर नैनीताल कैंट को स्वच्छता का पुरस्कार दिलाने में सबसे बड़ा हाथ अभिषेक राठौड़ का है
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ष्ट्रीय स्वच्छता सर्वेक्षण में नैनीताल कैंट को जनता के फीड बैक पर सर्वश्रेष्ठ स्वच्छता का पुरस्कार मिलने से कैंट की जनता बेहद उत्साहित है। एक स्वर से सभी ने इसका श्रेय कैंट के बेहद ऊर्जावान, परिश्रमी और सतत नवीन प्रयोगों में लगे रहने वाले सीईओ अभिषेक राठौड़ को दिया है। कैंट क्षेत्र में बीते दो वर्षों में तमाम क्षेत्रों में बेहतरीन कार्य हुए हैं, जिनमें स्वच्छता और सौंदर्यीकरण प्रमुख है। यह सभी कार्य कैंट के नवनियुक्त सीईओ अभिषेक राठौड़ की पहल,परिकल्पना और लगन का ही परिणाम हैं। कैंट में इस अवधि में जगह-जगह मोबाइल टॉयलेट स्थापित किए गए। कई स्थानों पर पार्किंग विकसित की गईं, जिससे नगर में बड़े वाहनों की पार्किंग के अभाव की पूर्ति हुई। पार्किंग स्थलों में भी टॉयलेट बनाए गए। बंजर पड़े स्थलों का सौंदर्यीकरण कर पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बना दिया गया। सड़कों के किनारे स्ट्रीट लाइट और रंग रोगन करके सौंदर्यीकरण किया गया। इसके अतिरिक्त दो पार्क भी विकसित किए गए। राठौड़ ने अभिनव पहल करके यहां डांठ के पास एक आरओ प्लांट लगाया गया, जिससे जुड़े वाटर एटीएम से दो रुपए लीटर शुद्ध पेयजल उपलब्ध है। अभिषेक राठौड़ ने बताया कि स्वच्छता मिशन के तहत कैंट को गत वर्ष बीस लाख रुपए की राशि केंद्र से मिली थी। इसके अतिरिक्त कैंट ने अपने संसाधनों का भी सदुपयोग किया। इस बाबत उन्होंने बताया कि क्षेत्र की जनता ने उन्हें हर कार्य में भरपूर सहयोग दिया और लोग यहां जैविक और अजैविक कूड़े को अलग करके उसका निस्तारण कर रहे हैं। राठौड़ ने बताया कि कुछ समय पूर्व केंद्र से एक टीम आई थी, जिसने कैंट में 350 लोगों से स्वच्छता संबंधी विभिन्न सवालों पर आधारित सर्वे किया था। सर्वे में कैंट को शत प्रतिशत अंक मिले थे। उन्होंने स्वच्छता में बढ़-चढ़कर भाग लेने के लिए जनता का आभार जताया जिससे कैंट को यह सम्मान मिला।
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 24