विशेष
बना मन तो बढ़ा वन
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व्यक्तित्व पुस्तक अंश
‘प्रजा का युवाओं और सच्चा पुत्र’ रोजगार के लिए योजनाएं
डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
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भारत की पहली रिकॉर्डिंग सुपरस्टार
sulabhswachhbharat.com आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
वर्ष-2 | अंक-29 | 02 - 08 जुलाई 2018
‘परिवर्तन और आंदोलन का दूसरा नाम है सुलभ’ गुजरात विश्वविद्यालय में 25-27 जून तक ‘स्वच्छता का समाजशास्त्र’ विषय पर त्रि-दिवसीय परिसंवाद का आयोजन किया गया। इस परिसंवाद में गुजरात के राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली, सुलभ संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक सहित कई शिक्षाविद और समाजशास्त्री शामिल हुए
गुजरात के राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली और सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक दीप प्रज्वलित कर तीन दिवसीय परिसंवाद का शुभांरभ करते हुए
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आवरण कथा
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गुजरात के राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली को पुष्प गुच्छ देकर स्वागत करते डॉ. पाठक और अमोला पाठक
गु
अयोध्या प्रसाद सिंह
जरात विश्वविद्यालय के प्रांगण में प्रवेश करते हुए मुख्य द्वार पर ही बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है- ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ जिसका अर्थ है, कर्मों में कुशलता ही योग है। कुछ ऐसा ही संदेश विश्वविद्यालय परिसर में आयोजित तीन दिवसीय परिसंवाद में दिया गया और स्वच्छता संबंधी कर्मयोग से बेहतर समाज और भविष्य की नींव रखी गई। सुलभ इंटरनेशनल सेंटर फॉर एक्शन सोशियोलॉजी ने ‘स्वच्छता का समाजशास्त्र’ विषय पर तीन दिवसीय परिसंवाद का आयोजन 25 से 27 जून तक गुजरात विश्वविद्यालय में आयोजित किया। इस अवसर पर गुजरात के राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली ने देश के समाजशास्त्रियों से स्वच्छता और उसके विभिन्न रूपों पर अधिक शोध किए जाने की अपील की। कोहली ने डॉ. पाठक को सबसे
खास बातें
गुजरात और भावनगर विवि. को सैनिटश े न चेयर के लिए 35-35 लाख युवा समाजशास्त्रियों ने 50 से अधिक शोध पत्र प्रस्तुत किए प्रधानमंत्री मोदी ने भी परिसंवाद के लिए भेजा अपना विशेष संदेश
बड़ा समाजशास्त्री बताते हुए, उनके व्यावहारिक समाजशास्त्र को समस्याओं का हल बताया। इस मौके पर स्वच्छता के अग्रदूत डॉ. पाठक ने गुजरात विश्वविद्यालय और भावनगर विश्वविद्यालय, दोनों को सैनिटेशन चेयर के लिए 35-35 लाख रुपए का अनुदान देने की घोषणा की। डॉ. पाठक ने गांधी के तीन बंदरों में चौथे को जोड़ते हुए कहा कि बुरा मत करो, समस्याएं न गिनाओ, सिर्फ अच्छे कार्य की तरफ ध्यान दो और समस्याओं का हल प्रस्तुत करो, जो सुलभ कर रहा है। त्रि-दिवसीय परिसंवाद में 50 से अधिक शोध पत्र प्रतिष्ठित और युवा समाजशास्त्रियों द्वारा पढ़े गए। इस अहम मौके पर सुलभ ने ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर विनोद कुमार चौधरी को सैनिटेशन मेडल से नवाजा।
पहला दिन
सत्र-1
उद्घाटन समारोह
गुजरात विश्वविद्यालय के सीनेट हाल में आयोजित सेमीनार के उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि गुजरात के राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली थे। ‘स्वच्छता का समाजशास्त्र’ विषय पर आयोजित परिसंवाद का शुभारंभ मुख्य अतिथि और सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक व स्वच्छता के अग्रदूत डॉ. विन्देश्वर पाठक ने दीप प्रज्वलित कर किया। इस अवसर पर गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. हिमांशु पंड्या, महाराजा कृष्णकुमारसिंह जी भावनगर विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. शैलेश झाला और परिसंवाद के संयोजक व सामलदास
डॉ. पाठक भाषणों में यकीन नहीं करते, बल्कि व्यावहारिक रूप से प्रेरणा देते हैं, इसीलिए स्वच्छता के समाजशास्त्र को उनसे बेहतर कोई नहीं समझा सकता -ओम प्रकाश कोहली, राज्यपाल, गुजरात आर्ट कॉलेज के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष डॉ. अनिल वाघेला उपस्थित थे। परिसंवाद का आयोजन सुलभ इंटरनेशनल सेंटर फॉर एक्शन सोशियोलॉजी ने महाराजा कृष्णकुमारसिंह जी, भावनगर विश्वविद्यालय, गुजरात विश्वविद्यालय और सामलदास आर्ट्स कॉलेज, भावनगर के साथ मिलकर सम्मिलित रूप से किया। इस अवसर पर गुजरात के राज्यपाल को डॉ. पाठक ने प्रधानमंत्री मोदी की बायोग्राफी ‘द मेकिंग ऑफ लीजेंड’ और कॉफी टेबल बुक ‘फुलफिलिंग बापू’ज ड्रीम्स: प्राइम मिनिस्टर मोदी’ज ट्रिब्यूट टू गांधी जी’ भेंट की।
दो विश्वविद्यालयों में सैनिटेशन चेयर की स्थापना
परिसंवाद के पहले दिन ‘स्वच्छता का समाजशास्त्र’ विषय पर बेहतर शोध और अनुसंधान के लिए सुलभ सैनिटेशन चेयर की स्थापना के लिए डॉ. पाठक ने गुजरात विश्वविद्यालय और भावनगर विश्वविद्यालय, दोनों को 35-35 लाख रुपए का अनुदान देने की घोषणा की। डॉ. पाठक ने उम्मीद जताई कि सैनिटेशन चेयर की स्थापना से ‘स्वच्छता का समाजशास्त्र’ विषय पर छात्रों के शोध और अनुसंधान से समाज का बेहतर विकास हो सकेगा
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आवरण कथा
गुजरात के राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली को पीएम मोदी की बायोग्राफी भेंट करते डॉ. पाठक
सुलभ तकनीक और सुलभ साहित्य का अवलोकन करते हुए गुजरात के राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली
भावनगर विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. शैलेश झाला को स्मृति चिन्ह भेंट करते डॉ. पाठक
गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. हिमांशु पंड्या को स्मृति चिन्ह भेंट करते डॉ. पाठक
और समस्याओं का व्यावहारिक हल मिलेगा। वहीं गुजरात और भावनगर विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने डॉ. पाठक को धन्यवाद देते हुए सैनिटेशन चेयर के लिए उनका आभार जताया और कहा कि जल्द ही ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ विषय की पढ़ाई शुरू हो जाएगी।
सबसे बड़े समाजशास्त्री हैं डॉ. पाठक
गुजरात के राज्यपाल ओम प्रकाश कोहली ने इस अवसर पर अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि डॉ. विन्देश्वर पाठक एक ऐसे व्यक्ति हैं जो प्रेरक भाषणों में नहीं, बल्कि प्रेरक कृतित्व में भरोसा रखते हैं। उन्होंने एक वैश्विक आंदोलन खड़ा कर अनगिनत लोगों को प्रेरणा दी और साथ ही उनकी जिंदगी में भी बदलाव लाए हैं। उन्होंने कहा कि डॉ. पाठक ने स्वच्छता को आंदोलन का रूप दिया है। वे सिर्फ भाषणों में यकीन नहीं करते, बल्कि व्यावहारिक रूप से प्रेरणा देते हैं, इसीलिए स्वच्छता के समाजशास्त्र को उनसे बेहतर कोई नहीं समझा सकता। डॉ. पाठक के रूप में हमें एक व्यावहारिक समाजशास्त्री मिला है, अगर वे समाजशास्त्र के प्रोफेसर होते तो सिर्फ भाषणों से प्रेरणा देते और
पीएम मोदी का संदेश
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस परिसंवाद के लिए पत्र के माध्यम से अपना संदेश दिया। जिसमें उन्होंने अथर्ववेद में कहे गए श्लोक की चर्चा करते पढ़ाते, लेकिन अब वे अपने कर्मों से समाजशास्त्र के छात्रों को पढ़ा रहे हैं और प्रेरणा दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि स्वच्छता हमारे धर्म के लक्षणों में शामिल है, स्वच्छता का आचरण ही वास्तविक धर्माचरण है, परंतु लोगों ने छुआछूत को धर्म मान लिया, जबकि धर्म तो शुचिता होनी चाहिए। स्वच्छता ही अस्पृश्यता को दूर कर सकती है। उन्होंने परिसंवाद में उपस्थित कुलपतियों और गुजरात के सभी विश्वविद्यालयों से अनुरोध किया कि 2 अक्टूबर, 2019 को महात्मा गांधी की 150 वीं जन्मशती को कैसे समाज को बड़ा संदेश देते हुए
करते हुए कहा कि स्वच्छता से बढ़कर पवित्र कर्म कुछ भी नहीं है। ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ विषय पर आयोजित सगोष्ठी के लिए सबको बधाई।
मनाया जा सकता है, सब मिलकर इस पर विचार करें। उन्होंने बताया कि देश के 12 विश्वविद्यालयों में 'स्वच्छता का समाजशास्त्र' विषय पढ़ाया जा रहा है। उन्होंने उम्मीद जताई कि जल्द ही गुजरात विश्वविद्यालय और महाराजा कृष्णकुमार सिंहजी भावनगर विश्वविद्यालय में भी इस विषय की पढ़ाई शुरू हो जाएगी।
सुलभ नाम नहीं, सामाजिक परिवर्तन का आंदोलन है डी. एस. कोठारी की अध्यक्षता में 1964 में बने
कोठारी आयोग का हवाला देते हुए राज्यपाल ने शिक्षा को सामाजिक बदलाव की सबसे बड़ी कुंजी बताते हुए कहा कि ‘स्वच्छता का समाजशास्त्र’ सामाजिक बदलाव का सबसे बड़ा वाहक बनेगा। उन्होंने स्वच्छता के जरिए समाज के परिवर्तन में भागीदार बनने के लिए लोगों का आह्वान किया। साथ ही कोहली ने समाजशास्त्रियों से पर्यावरण की स्वच्छता पर विचार करने के लिए भी आग्रह किया। उन्होंने कहा कि सुलभ हमारे समाज में परिवर्तन और आंदोलन का दूसरा नाम है। कोहली ने बताया कि हाल ही में राज्यपालों की एक बैठक में कंपनियों की तरह ही विश्वविद्यालयों की भी सामाजिक जिम्मेदारी तय करने की सिफारिश उन्होंने रखी है।
हमने समस्या का हल दिया है
इस मौके पर सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने खुशी जताते हुए कहा कि पांच दशक की मेहनत रंग लाई है। समाजशास्त्र का असली मतलब तभी है, जब हम समाज की समस्याओं का व्यावहारिक रूप से हल बता सकें। अगर उन्होंने सुलभ शौचालय का आविष्कार न किया होता तो देश मैला ढोने की प्रथा से कभी भी
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आवरण कथा
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मुक्त नहीं होता। समाज की कुरीतियों को चुनौती देते हुए उन्होंने कहा कि किसने सोचा था कि हिंदुस्तानी समाज में विधवाएं रंगों की होली खेलेंगी और शांति से जीवन जी सकेंगी, लेकिन सुलभ ने उनके हिस्से का भी ये अधिकार दिलवाया और उनकी जिंदगियों में खुशियों के रंग भरे। सुलभ प्रणेता ने बताया कि स्वच्छता के दोनों मसीहा गुजरात की धरती से ही हुए हैं। एक महात्मा गांधी, जिन्होंने स्वच्छता का दर्शन दिया और दूसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने स्वच्छता को गले लगाया। उन्होंने सभी समाजशास्त्रियों से आग्रह करते हुए कहा कि वे समाज की समस्याओं को हल करने के लिए व्यावहारिक फार्मूला सुझाए। उन्होंने बताया कि हमने सुलभ के माध्यम से ऐसे व्यावहारिक हल दिए हैं, जिनकी वजह से समस्याएं खत्म हुई हैं। हमने घरों में सस्ते शौचालय बनाएं तो सार्वजनिक जगहों पर भी सुलभ शौचालयों का निर्माण किया, जो जनता के पैसों से ही चलते हैं और उन्हीं से उनका रख-रखाव होता है।
कैसे शुरू हुई प्रेरणादायक सुलभ यात्रा
डॉ. पाठक ने इस अवसर पर अपनी प्रेरणादायक सुलभ यात्रा का उल्लेख करते हुए बताया कि वह सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कार्य करते थे और किस तरह उन्होंने सुलभ आंदोलन की शुरुआत की और 1985 में पहली बार बिहार की राजधानी पटना में स्वच्छता के समाजशास्त्र विषय पर परिसंवाद करवाया। सुलभ इंटरनेशनल स्वच्छता के क्षेत्र में पिछले पांच दशकों से काम कर रही है। उन्होंने कहा कि मैंने सुलभ की स्थापना 1970 में की, जिसे अब एक गैर-लाभकारी स्वैच्छिक सामाजिक सेवा संगठन के रूप में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के नाम से जाना जाता है। तब से लगातार यह संस्था ऐसे सामाजिक मुद्दों पर काम कर रही है, जिन पर समाज में बात भी नहीं की जाती थी। उन्होंने अपनी सुलभ यात्रा की शुरुआत पर प्रकाश डालते हुए कहा, ‘पटना के, गांधी संग्रहालय
भवन में बिहार गांधी जन्म शताब्दी उत्सव समिति का एक कार्यालय था। इस समिति का गठन 1969 में महात्मा गांधी के जन्म शताब्दी वर्ष के उत्सव की तैयारी करने के लिए किया किया गया था। यहीं पर मैं सामाजिक कार्यकर्ता के तोर पर काम करता था। यहां मुझे शुष्क शौचालयों को साफ कर मानव मल सिर पर ढोने वाले स्कैवेंजर्स की प्रतिष्ठा और मानवाधिकारों की बहाली के लिए काम करने को कहा गया। तब, मैंने पहली बार समाज के इस तबके की दुर्दशा देखी। यहीं पर काम करते हुए मैं स्कैवेंजरों की कॉलोनी में गया और तीन महीने के लिए वहां रहा। इस दौरान मुझे उनके जन्म, संस्कृति, मूल्यों, नैतिकता आदि के बारे में पता चला। मैं उनके साथ रहता था, बातचीत करता था और उन्हें शाम को पढ़ाया करता था। तभी मैं बेहतर तरीके से उनके दुख-दर्द को समझ सका।’
परिसंवाद की विशेष बातें डॉ. पाठक के महान कार्यों को देखते हुए परिसंवाद में उन्हें भारत रत्न और नोबल पुरस्कार से सम्मानित करने की हुई मांग सुलभ सैनिटेशन मेडल से ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के प्रोफेसर विनोद कुमार चौधरी को नवाजा गया पूरे भारत में छुआछूत दूर करने के लिए 'कास्ट बाय च्वाइस' नाम से सुलभ आंदोलन
स्वच्छता के दोनों मसीहा गुजरात की धरती से ही हुए हैं। एक महात्मा गांधी, जिन्होंने स्वच्छता का दर्शन दिया और दूसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिन्होंने स्वच्छता को गले लगाया -डॉ. पाठक सुलभ मूवमेंट - 'कास्ट बाय च्वाइस'
डॉ. पाठक ने सामाजिक सरंचना में सुधार लाने के लिए आरंभ किए गए अपने आंदोलन 'कास्ट बाय च्वाइस' का जिक्र करते हुए बताया कि कोई भी सुविधानुसार अपनी जाति बदल सकता है और छुआछूत जैसी बीमारी से मुक्ति पा सकता है। उन्होंने अपने इस आंदोलन की सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण देते हुए उन्होंने राजस्थान और अलवर से आईं पूर्व स्कैवेंजर्स की ओर इशारा करते हुए बताया कि इन सबकी जिंदगी अब बदल चुकी है। ये सब अब समाज की मुख्यधारा में शामिल होकर ऊंची जाति वालों के संग घुलमिलकर रहते हैं और बेहतर सामाजिक जीवन जी रहे हैं।
चे ग्वेरा और गांधी दर्शन
क्यूबा की क्रांति के महनायक और महान साम्यवादी नेता चे ग्वेरा की 1959 में भारत यात्रा का जिक्र करते हुए डॉ. पाठक ने कहा कि चे ग्वेरा जब भारत आए तो अपने सिद्धांतों को लेकर आए थे, जिसमें गरीबों और समाज के दबे-कुचले लोगों को हिंसा का सहारा लेकर परिवर्तन लाने का नियम था, लेकिन भारत और गांधी की पावन भूमि ने उन्हें बदल दिया और चे ग्वेरा ने गांधी के अहिंसा के रास्ते को ही बेहतर बताया। उन्होंने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं की जड़ें कितनी मजबूत थीं, इसकी चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि 1934 में भुवनेश्वर में गांधी जी ने अपने एक चर्चित भाषण में कहा था, ‘भारतीय अंग्रेजों की गोली खा सकते हैं, लेकिन दलितों के साथ खाना नहीं खा सकते।’ उन्होंने बताया कि हमने ऐसे समाज को बदलने के लिए दशकों मेहनत की
है और अभी भी लगातार उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। हमने इन समस्याओं को व्यावहारिक रूप से हल करने के लिए काम करते हुए ट्रेनिंग सेंटर खोले जहां मैला ढोने वाले, यह घृणित कार्य छोड़कर ट्रेनिंग ले सकें और रोजगार पा सकें। डॉ. पाठक ने इस बदलाव को अपनी बोलती हुई किताबें बताया, जिन्हें पढ़कर हर कोई बहुत कुछ सीख सकता है। उन्होंने अपने उद्घाटन भाषण के अंत में अपने एक चर्चित गीत के बोल ‘आओ हम सब मिलजुल के सुलभ सुखद संसार बनाएं’ से लोगों को संदेश भी दिया।
स्वच्छता के नायकों के यहां स्वच्छता की पढ़ाई
महाराजा कृष्णकुमार सिंहजी भावनगर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. शैलेश झाला ने अपने स्वागत भाषण में सबका अभिनंदन किया। उन्होंने कहा कि डॉ. पाठक चाहते थे कि स्वच्छता को लेकर कोई राष्ट्रीय स्तर का परिसंवाद हो। स्वच्छता की मुहिम के वर्तमान स्वरुप में पाठक जी का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने स्वच्छता के साथ-साथ पिछड़ों को समाज की मुख्यधारा में लाने का काम किया है। उन्होंने कहा कि स्वच्छता के दो महापुरुष जो कि गुजरात से हैं, उन्होंने जहां से शिक्षा ली अब वहां स्वच्छता विषय के रूप में पढ़ाया जाएगा। महात्मा गांधी, जिन्होंने भावनगर विश्वविद्यालय के सामलदास कॉलेज से पढ़ाई की और नरेंद्र मोदी, जिन्होंने गुजरात विश्वविद्यालय में पढ़ाई की, अब इन दोनों विश्वविद्यालयों में ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ विषय पर अध्यापन कार्य शुरू होगा।
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आवरण कथा
परिसंवाद को संबोधित करते अब्दुल लतीफ खान
परिसंवाद को संबोधित करतीं उषा चौमड़
मैंने एक ही जीवन में दो जीवन जिए हैं। पहले कोई उनकी परछाई के नजदीक भी नहीं आता था, लेकिन अब सभी उनके साथ बैठकर खाना खाते हैं - उषा चौमड़
डॉ. पाठक का दशकों का संघर्ष
गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. हिमांशु पंड्या ने इस मौके पर कहा कि हमारे राज्यपाल जब कुछ कहते हैं तो वह हम सब के लिए एक सीख होती है। डॉ. पाठक हमारे समाज की बीमारी दूर कर रहे हैं। समाज के हाशिए पर रह रहे व्यक्ति को मुख्यधारा में लाने के लिए डॉ. पाठक दशकों से संघर्ष कर रहे हैं। परिसंवाद के संयोजक व सामलदास आर्ट कॉलेज के समाजशास्त्र विभाग के प्रमुख डॉ. अनिल वाघेला ने परिसंवाद में उपस्थित सभी सदस्यों का तहेदिल से आभार जताया और शोध पत्रों के लिए बधाई दी। उद्घाटन समारोह में विश्वविद्यालय की छात्रा लतिका सिन्हा ने वंदना गाकर लोगों का मन मोह लिया। साथ ही इस समारोह में गुजरात विश्वविद्यालय के थीम सांग 'वंदन, अभिनंदन' का गायन भी प्रस्तुत किया गया। परिसंवाद के उद्घाटन समारोह में उपस्थित सभी अतिथियों को पुष्पगुच्छ, शाल और स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया।
पहला दिन
सत्र- 2
पूर्व स्कैवेंजर्स ने दुनिया को सुनाई अपनी आवाज त्रिदिवसीय परिसंवाद के पहले दिन के दूसरे सत्र में पूरे देश से आईं महिला स्कैवेंजर्स और शौचालयों के
अभाव में घृणित जिंदगी जीने वाली महिलाओं ने जब अपनी कहानी सुनाई तो सभागार में उपस्थित देशभर के समाजशास्त्री और छात्र द्रवित हो गए। एक ही जिंदगी में दो जिंदगियां जीने वाली इन महिलाओं ने अपने साहस और जीवटता की कहानी सुनाई। एक जिंदगी जो उन्होंने पहले मैला ढोते हुए जी और दूसरी मैला ढोना छोड़कर, आत्मसमान के साथ आत्मनिर्भर जिंदगी। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश से आईं इन पूर्व महिला स्कैवेंजर्स की जिंदगी सुलभ संस्था की वजह से बदली और सुलभ के ट्रेनिंग सेंटर में काम करके ये महिलाएं बेहतर तरीके से जीवनयापन कर रही हैं।
उषा चौमड़, अलवर
राजस्थान के अलवर जिले की रहने वाली उषा चौमड़ ने अपनी कहानी बताते हुए कहा कि 15 साल पहले वह मैला ढोया करती थीं,लेकिन 2003 में सुलभ अंतरराष्ट्रीय सामाजिक सेवा संगठन ने उन्हें मैला ढोने की अमानवीय प्रथा से मुक्ति दिलाई। आज वो इसी संगठन में अध्यक्ष हैं और देश-विदेश के कई बड़े मंचों से लोगों को संबोधित कर चुकी हैं। अब वे कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों से छूआछूत और महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों को उठा रही हैं। वह कहती हैं कि उन्होंने एक ही जीवन में दो जीवन जिए हैं। पहले कोई उनकी परछाईं के नजदीक भी
नहीं आता था, लेकिन अब सभी उनके साथ बैठकर खाना खाते हैं।
गया है। उन्होंने कहा कि पाठक जी ने उन्हें आवाज दे दी है, साथ ही आगे के लिए रास्ता भी दिखाया है।
अब्दुल लतीफ खान, जम्मू
शकुंतला, हरियाणा
जम्मू से गंगा-जमुनी तहजीब की खुशबू लेकर आए अब्दुल खान ने अपने प्रभावशाली संबोधन में डॉ. पाठक को गांधी का दूसरा रूप बताते हुए कहा कि पाठक जी की वजह से दुनिया भारत का खूबसूरत चेहरा देख रही है। उन्होंने परिसंवाद का समर्थन करते हुए कहा कि ऐसे मेले होते रहने चाहिए, क्योंकि इन्हीं से लोगों को बेहतर भविष्य की सीख मिलती है। उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान का मुकम्मल जहां पाठक जी जैसे लोगों से पूरा हो रहा है।
पूजा शर्मा, टोंक
राजस्थान के टोंक से आईं पूजा शर्मा ने बताया कि वह मां के साथ मैला ढोने जाती थीं। मैला ढोने की वजह से कोई भी उनके साथ बैठना नहीं चाहता था और स्कूल की कक्षा में उन्हें सबसे पीछे बैठना पड़ता था। उन्होंने कहा कि एक बार उनके एक शिक्षक ने कन्याभोज दिया, लेकिन साथ के बच्चों ने उसका बहिष्कार कर दिया और उसे कन्याभोज में शामिल नहीं किया गया। लेकिन साल 2008 में सुलभ की टीम टोंक पहुंची और उसने भी सुलभ संस्था के सेंटर को ज्वाइन किया, फिर उसका जीवन पूरी तरह से बदल गया। अब वह बेहतर जिंदगी जी रही है और समाज में सभी लोग उसे इज्जत देते हैं। सुलभ के ‘कास्ट बाई च्वाइस’ आंदोलन से उन्होंने अपनी जाति भी बदल ली और समाज की मुख्यधारा में शामिल हो गईं।
परमजीत कौर, लुधियाना
लुधियाना से आई परमजीत की कहानी वैसे तो बहुत साधारण है, लेकिन घर में शौचालय न होने की वजह से वह बदतर जिंदगी जी रही थीं। उन्होंने कहा कि सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक की वजह से उनकी आधी-अधूरी जिंदगी पूरी हो गई है, अब उनके घर में शौचालय है और वह बीमारियों से दूर हैं। गरीबी ने उनके भूत को भले ही खराब कर दिया हो लेकिन डॉ. पाठक की वजह से उनका भविष्य अब सुरक्षित हो
हरियाणा के मेवात जिले में स्थित मरोरा गांव की शकुंतला ने कहा कि डॉ. पाठक में उन्हें भगवान नजर आता हैं, क्योंकि उन्होंने भी एक मसीहा की तरह उनके गांव के लोगों की जिंदगी बदली है। मरोरा गांव को गोद लेकर पाठक जी ने सैकड़ों शौचालय बनवाए और लोगों को ट्रेनिंग देकर आत्मनिर्भर भी बनाया है।
लक्ष्मी शर्मा, अलवर
राजस्थान के अलवर से आईं लक्ष्मी शर्मा 2003 से पहले मैला ढोने का अमानवीय कार्य करती थीं। उन्होंने अपनी रुला देने वाली कहानी बताते हुए कहा कि कपड़ा सिलवाने के लिए जब वह जाती थीं तो दर्जी तक उनकी माप नहीं लेता था और दूर से ही पानी में कपड़ा भिगोकर माप लेने की कोशिश करते थे। लेकिन 2003 में सुलभ संस्था के लोग अलवर पहुंचे और उन्हें इस घृणित काम से मुक्ति मिली। आज वह मैला ढोना छोड़कर कलम पकड़ चुकी हैं और कविताएं लिखती हैं। उन्होंने अपनी लिखी कविता ‘पतन से उत्थान तक’ का पाठ भी किया।
रुकैया बानो, जम्मू
जम्मू की रहने वाली रुकैया बानो ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि देश के पूर्व मुख्य न्यायधीश तीरथ सिंह ठाकुर ने डॉ. पाठक से जम्मू में काम करने के लिए कहा और आमंत्रित किया। उसके बाद पाठक जी ने पूरे जम्मू में खुशबू बिखेर दी। सुलभ के ट्रेनिंग सेंटर खोले गए, शौचालय बनवाए और लोगों को नया जीवन मिला।
गायत्री शर्मा, अलवर
इस मौके पर पूर्व स्कैवेंजर्स के साथ-साथ ऊंची जाति के लोग भी उपस्थित थे। इनमें से ही एक गायत्री शर्मा ने बताया कि वह ऊंची जाति से ताल्लुक जरूर रखती हैं लेकिन वह भेद-भाव के खिलाफ हैं। उन्होंने कहा कि पाठक जी से जुड़कर उनका भी जीवन बदला
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है। दक्षिण अफ्रीका के महान नेता नेल्सन मंडेला की तरह ही पाठक जी ने भी देश में बदलाव के लिए अथक प्रयास किए हैं और गांधी जी के सपनों को पूरा कर रहे हैं। साथ ही उन्होंने आग्रह किया कि हमें समाज के हो रहे नैतिक पतन को रोकना होगा।
प्रदीप आर्या, अलवर
राजस्थान के अलवर से आए प्रदीप आर्या ने कहा कि भारत की कई विफलताओं के पीछे मैला ढोने की प्रथा बड़ी भूमिका रोल निभाती रही है। लेकिन डॉ. पाठक के कार्यों ने भारत को बचा लिया। उन्होंने कहा कि पाठक जी से ही सीखकर उन्होंने छुआछूत को पीछे छोड़ते हुए अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों के लिए भोज आयोजित किया और साथ में खाना खाया। उन्होंने कहा कि मानव संसाधन मंत्रालय को डॉ. पाठक को उनके काम के लिए डिग्री देनी चाहिए।
छवि शर्मा, गुवाहाटी
वृंदावन में सुलभ के सहयोग से चल रहे विधवा आश्रम में रह रहीं गुवाहाटी की छवि शर्मा ने बताया कि डॉ. पाठक की वजह से वैधव्य के जीवन में भी रंग भर रहे हैं। हमें मुफ्त दवाईयां और खाना मिलता है। साथ ही पैसे भी दिए जाते हैं। अगर सच में कहीं भगवान है तो मैं उन्हें डॉ. पाठक में ही देखती हूं।
सत्र- 3
परिसंवाद के पहले दिन के तीसरे सत्र से ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ विषय से जुड़े शोध पत्र पढ़ने का दौर शुरू हुआ। भारत भर से आए कई प्रतिष्ठित और युवा समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने शोध पत्र पढ़े और स्वच्छता व उसके विभिन्न पहलुओं पर सारगर्भित चर्चा की। इस अवसर पर कई बड़े समाजशास्त्रियों ने अपने भाषण में स्वच्छता को लेकर सुलभ तकनीक का जिक्र किया, साथ ही
आवरण कथा
02 - 08 जुलाई 2018
परिसंवाद को संबोधित करते अलवर के प्रदीप आर्या
परिसंवाद में शाेध पत्र प्रस्तुत करते डॉ. वाई. रविंद्र नाथ राव
‘सोशियोलॉजी ऑफ सैनिटेशन’ यानी ‘स्वच्छता का समाजशास्त्र’ विषय के उपयोग को भी बताया।
गरीबी ने भूत को भले ही खराब कर दिया हो लेकिन डॉ. पाठक की वजह से उनका भविष्य अब सुरक्षित हो गया है। उन्होंने कहा कि पाठक जी ने उन्हें आवाज दे दी है, साथ ही आगे के लिए रास्ता भी दिखाया है - परमजीत कौर
स्वच्छता पर शोध बहुत जरुरी: डॉ. पाठक
‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ और उससे जुड़े शोध पत्रों का महत्व बताते हुए डॉ. पाठक ने कहा कि अब मुझे उम्मीद है कि आने वाले वक्त में भारत के युवा ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ के दर्शन को समझकर देश को बेहतर दिशा में ले जाएंगे। उन्होंने कहा कि हमने समस्याएं नहीं गिनाई, बल्कि सुलभ के रूप में उनका हल दिया है। उन्होंने समाजशास्त्र के विभिन्न स्वरूपों पर बात करते हुए ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ को इसका अभिन्न अंग बताया। उन्होंने समाजशास्त्रियों से आग्रह किया कि वे ऐसे हल सुझाएं जिससे समाज की कुरीतियों का अंत हो सके और समाज में हाशिए पर रह रहा व्यक्ति मुख्य धारा में आ जाए।
प्रमुख शोधपत्र डॉ. वाई. रवींद्र नाथ राव
(अकेडमिक इनरवेसन एंड सुलभ सैनिटेशन) डॉ. वाई. रवींद्र नाथ राव ने अपने शोध पत्र में सैनिटेशन को वैश्विक समस्या बताते हुए कहा कि पूरी दुनिया में अधिकतर समस्याओं की जड़ें स्वच्छता से ही जुड़ी हुई हैं। उन्होंने सुलभ के विभिन्न कार्यों के बारे में बताते हुए कहा कि सुलभ महात्मा गांधी के सपने को पूरा कर रहा है और इसके सभी कार्य मानवीय समस्याओं को हल कर रहे हैं। मैला ढोने की प्रथा से मुक्ति दिलाने में सुलभ का सबसे बड़ा योगदान है। सुलभ सिर्फ सस्ते शौचालय के आविष्कार और उन्हें बनाने तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह अब स्वच्छता के हर पहलू का आंदोलन बन चुका है। सुलभ की उपस्थिति सिर्फ अपने देश में ही नहीं, बल्कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल सहित कई देशों में है। सुलभ असली
एक्शन सोशियोलॉजी के तहत समाज में बदलाव का पर्यायवाची बना है।
डॉक्टर जनक पी. जोशी
(सैनिटेशन एंड लिटरेचर) शोधकर्ता डॉ. जनक पी. जोशी ने ‘स्वच्छता और साहित्य’ नाम से अपने शोध पत्र में हिंदी साहित्य में स्वच्छता के लंबे इतिहास को बताया। उन्होंने इतिहास पर प्रकाश डालते हुए कहा कि चंदबरदाई की रचना ‘पृथ्वीराज रासो’ का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि इस महान रचना में भी स्वच्छता की बात कही गई है। कबीर ने भी अपने दर्शन में स्वच्छता के महत्व को बताया है, तो तुलसीदास ने भी अपनी रचनाओं में स्वच्छता के सार को समझाया है। वहीं महान कवि सूरदास ने भी बाल लीलाओं से लेकर स्वच्छता तक का दर्शन अपनी रचनाओं में दिया है। जोशी ने कहा कि ‘अंधेर नगरी’ नामक चर्चित रचना में भी स्वच्छता का जीवंत उदहारण दिया गया है। जयशंकर प्रसाद के उपन्यास इरावती में भी स्वच्छता की बातें कही गईं हैं। हिंदी साहित्य के महान उपन्यासकार प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं ‘कलम का सिपाही’ और ‘गोदान’ में स्वच्छता का जिक्र कई पात्रों से करवाया है। उन्होंने कहा कि इससे साफ पता चलता है कि साहित्य और स्वच्छता एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। पहले दिन के कार्यक्रम के अंत में गुजरात और भावनगर विश्वविद्यालयों के छात्रों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए, जिसमें गायन और नाटक शामिल था।
दूसरा दिन
सत्र- 1
परिसंवाद के दूसरे दिन भी समाजशास्त्रियों ने शोध पत्रों को पढ़ा। सभी ने एकसुर में सुर मिलाते हुए गुजरात को होम ऑफ सोशियोलॉजी बताया। समाजशास्त्रियों ने डॉ. पाठक की तारीफ करते हुए उन्हें ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ जैसे अतिमहत्वपूर्ण विषय पर परिसंवाद के लिए धन्यवाद दिया। सभी ने इस बात जोर दिया स्वच्छता के क्षेत्र में और अधिक शोध किए जाने की जरुरत है।
प्रमुख शोधपत्र डॉ. भावना प्रेमचंद
(मुंबई के लिए एक समस्या: झोपड़ियों में पानी और स्वच्छता) अपना शोध पत्र प्रस्तुत करते हुए भावना प्रेमचंद ने कहा कि जल और स्वच्छता जीवन के पूरक हैं। भोजन के बिना हम जिंदा रह सकते हैं, लेकिन स्वच्छ पानी के बिना हमारा गुजारा नहीं चलेगा। उन्होंने अपने शोध पत्र में बताया कि बरसात के पानी को न बचा पाना हमारे लिए बड़ी समस्या है। मुंबई की धारावी स्लम में भी पानी बड़ी समस्या बन चुका है और राजनीति के भंवर में यह समस्या फंसती जा रही है। कई लोगों का उदहारण देते हुए उन्होंने कहा कि लोगों के पास पानी और बिजली जैसी सुविधाएं नहीं पहुंची हैं।
02 - 08 जुलाई 2018
परिसंवाद में शाेध पत्र प्रस्तुत करतीं प्रो. नेहा
डॉ. पाठक ने प्रो. नेहा के शोध पत्र और उनकी चौथे बंदर की कल्पना को खूबसूरत बताया और कहा कि मैं और मेरा सुलभ गांधी के इस चौथे बंदर को फॉलो करते हैं- डॉ. पाठक डॉ. विपुल सी रमानी
(स्वच्छता और महात्मा गांधी) डॉ. विपुल सी रमानी ने अपने शोध पत्र ‘स्वच्छता और महात्मा गांधी’ को पढ़ते कहा कि गांधी ने कहा था कि स्वच्छता स्वतंत्रता से ज्यादा महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि यदि गांधी के स्वच्छता दर्शन को पूरा करना है तो हमें मूल समस्या पर ध्यान देना होगा। हम कूड़े-कचरे का इस्तेमाल कैसे करें, इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा। साथ ही हम सबको स्वच्छता अपने व्यवहार में लानी होगी तभी इसका असली मतलब समझ आएगा।
प्रो. नेहा एम. दहरैया
(रुरल कल्चर एंड सैनिटेशन इन इंडिया) प्रो. नेहा एम. दहरैया ने अपने शोध पत्र ‘रूरल कल्चर एंड सैनिटेशन इन इंडिया’ को पढ़ते हुए कहा कि वैचारिक स्वच्छता हमारी संस्कृति का हिस्सा है, लेकिन वैचारिक अस्वच्छता का सबसे बड़ा उदहारण अस्पृश्यता है। मैला ढोने वाले और मरे हुए जानवरों की खाल निकालने वालों से घृणा गांव और शहरों, हर जगह की जाती है। इसीलिए स्वच्छता का समाजशास्त्र हर जगह पढ़ाया जाना चाहिए। प्रो. नेहा ने गांधी के तीन बंदरों में एक बंदर और जोड़ते हुए कहा कि चौथा बंदर, बुरा मत करो भी होना चाहिए। इस विचार से सभी बहुत प्रभावित हुए और डॉ. पाठक ने सुलभ को चौथा बंदर बताते हुए कहा कि हम सिर्फ बेहतर करते हैं।
07
आवरण कथा
परिसंवाद में दूसरे दिन समाजशास्त्रियों को संबोधित करते डॉ. पाठक ओडिशा में सुलभ स्कूल ने लड़के और लड़कियों के अलग-अलग टॉयलेट्स की सुविधा देनी शुरू कर दी है। उन्होंने कहा कि राज्य स्वच्छता और साफ पानी पर उतना नहीं खर्च कर पा रहा है, जितना होना चाहिए।
डॉ. जयश्री सोरथिया
डॉ. अनिल कुमार सिंह झा
डॉ. अमरेंद्र महापात्रा
चौथे बंदर की परिकल्पना खूबसूरत
(सेनेटरी फैसिलिटी एंड सोशल चेंजेज इन स्लम एरिया) डॉ. जयश्री सोरथिया ने अपने शोध पत्र ‘सेनेटरी फैसिलिटी एंड सोशल चेंजेस इन स्लम एरिया’ को पढ़ते हुए कहा कि गंदी बस्ती की समस्याओं से कई बड़ी समस्याएं उपजती हैं। गंदी बस्ती में निम्न आय वर्ग वाले लोग रहते हैं जहां पानी, साफ हवा, स्वास्थ्य सबकी किल्लत होती है। गांधी ने कहा था कि गंदी आदतों से मक्खियों के लिए जमीन तैयार होती है। इसीलिए हमें इसे बदलने के लिए शौचालयों की समस्या को दूर करना होगा। साथ ही लोगों को सोच भी बदलनी होगी। शौचालयों को जीवनशैली का हिस्सा बनाना होगा। (सैनिटेशन एंड पब्लिक हेल्थ: विद स्पेशल रिफरेंस टू ओडिशा) परिसंवाद में डॉ. अमरेंद्र महापात्रा ने अपने शोध पत्र ‘सैनिटेशन एंड पब्लिक हेल्थ: विथ स्पेशल रिफरेंस टू ओडिशा’ में एक विशेष बात बताते कहा कि ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकतर लोग बाहर शौच के लिए नंगे पैर जाते हैं और पहले से ही शौच की वजह से गंदी मिट्टी में बैठे बैक्टीरिया उनके नाखूनों से उनकी त्वचा में चले जाते हैं, जिससे वे कई बीमारियों का शिकार हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि ओडिशा ने 2022 तक खुले में शौच से मुक्त का लक्ष्य रखा है। वहीं यूनिसेफ की सहायता से
(इन परसूट ऑफ जस्टिस, वीमेन एंड सैनिटेशन इन इंडिया) डॉ. अनिल कुमार सिंह झा ने अपने शोध पत्र ‘इन परसूट ऑफ जस्टिस, वीमेन एंड सैनिटेशन इन इंडिया’ का हवाला देते हुए बताया कि सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अछूत मानी जाने वाली औरतों के खिलाफ रेप जैसे अपराध अधिक होते हैं। उन्हें खुले में शौच जाना होता है जहां उनके साथ अपराध बढ़ जाता है। उन्होंने बताया कि दूर-दराज के क्षेत्रों से पानी लाने जैसे कामों में लगभग 80 फीसदी महिलाएं लगी हुई हैं, वहीं मात्र 16 फीसदी आदमी इस काम में लगे हुए हैं। जबकि पिछले 10 सालों में कोई खास बदलाव नहीं आया है।
स्वच्छता के अग्रदूत और सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने सभी शोध पत्रों की तारीफ की और आने वाले वक्त में इन्हें बेहतर समाज के लिए सीढ़ी बताया। उन्होंने प्रो. नेहा के शोध पत्र की सराहना करते हुए कहा कि चौथे बंदर की कल्पना सच में खूबसूरत है और किसी को भी कुछ भी बुरा नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा कि मैं और मेरा सुलभ गांधी के इस चौथे बंदर को फॉलो करते हैं। उन्होंने कहा कि समाज में स्वच्छता को लेकर पहले की अपेक्षा निश्चित रूप से जागरुकता आई है। उन्होंने कहा सुलभ ने अविष्कार किए हैं, अब इसका उपयोग करना आम जनता और सरकार का काम है। लोगों
को स्वच्छता के लिए खुद आगे आना होगा। उन्होंने कहा कि हमें शौचालय के स्वरूप को बेहतर करना होगा। शौचालय के व्यावहारिक रूप पर ध्यान देना होगा। गांधी ने कहा था कि ऐसा घर बनाओ जिसमें लगने वाला सामान 5 मील के अंदर मिल जाए। इसीलिए हमें हर जगह की उपयोगिता और उसका स्वरुप समझना होगा। हम सरकार पर बिना भार डाले जनता के सहयोग से 9000 सार्वजनिक शौचालय चला रहे हैं। हमने सिर्फ 500 रुपए के अपना सफर शुरू किया था और आज सुलभ में 60 हजार से अधिक लोग काम करते हैं। डॉ. पाठक ने युवा समाजशास्त्रियों से बेहतर शोध और अनुसंधान के जरिए समाज में बदलाव के साथ लोगों को रोजगार देने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि आप ईमानदारी से दुनिया बदल सकते हैं। आज सुलभ लोगों को साफ पानी सिर्फ 50 पैसे प्रति लीटर में मुहैया करा रहा है। हमने दुनिया का सबसे बड़ा शौचालय महाराष्ट्र में बनाया है जिसका प्रतिदिन 4 लाख से अधिक लोग उपयोग कर सकेंगे।
सत्र- 2
प्रमुख शोध पत्र कृति मिश्र
(सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स एंड सैनिटेशन) कृति मिश्र ने अपने शोध पत्र ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स एंड सैनिटेशन’ में बताया कि स्वच्छता की मुख्य समस्या उनके साथ है जो स्वच्छता को अपनाने की इच्छा ही नहीं रखते। यदि स्वैच्छिक रूप से स्वच्छता को अपनाया जाए तो बहुत हद तक यह समस्या हल हो सकती है। हमें लोगों को शिक्षित करना होगा और साथ ही आधुनिक समस्याओं जैसे ई-वेस्ट पर ध्यान देना होगा।
08
आवरण कथा
02 - 08 जुलाई 2018
सभागार का विहंगम दृश्य
चंिद्रका रावल
(सैनिटेशन एंड कल्चर) शोध पत्र ‘सैनिटेशन एंड कल्चर’ में चंद्रिका रावल ने बताया कि स्वच्छता के विचार में सांस्कृतिक अंतर बहुत बड़ा रोल निभाता है। जिसमें ड्रेसिंग से लेकर सांस्कृतिक मूल्य तक प्रमुख हैं। उन्होंने बताया कि ऊंची जातियों के लोगों में अपनी श्रेष्ठता को लेकर एक प्रकार का घमंड होता है और वे निचली जाति के लोगों से घृणा रखते हैं। उन्होंने बताया कि अस्पृश्यता सिर्फ सामाजिक सिस्टम से संबंधित नहीं है, बल्कि यह आर्थिक स्थिति पर भी निर्भर करती है।
तीसरा दिन
त्रि-दिवसीय परिसंवाद का सारगर्भित समापन
परिसंवाद के तीसरे दिन और समापन समारोह के मौके पर देश के कई बड़े समाजशास्त्री उपस्थित रहे। इनमें डॉ. एम. एच. मखवाना, हरीश दोशी, डॉ. नीलेश बरोत, डॉ. राधेश्याम त्रिपाठी, डॉ. रिचर्ड पायस प्रमुख हैं। समाजशास्त्रियों ने परिसंवाद में दो दिन में प्रस्तुत सभी शोध पत्रों की तहे-दिल से
सराहना की और उम्मीद जताई कि इन शोध पत्रों से स्वच्छता के क्षेत्र में बड़ी कामयाबी मिलेगी। सुलभ द्वारा स्वच्छता के क्षेत्र में व्यावहारिक समाजशास्त्र को लेकर किए जा रहे कार्य को भी बेहतर भविष्य की नींव माना गया। एक्शन सोशियोलॉजी को लेकर सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक के योगदान की खूब तारीफ हुई और उन्हें स्वच्छता के समाजशास्त्र का पितामह कहा गया।
नई पीढ़ी सौभाग्यशाली
प्रतिष्ठित समाजशास्त्री डॉ. हरीश दोशी ने इस मौके पर कहा कि स्वच्छता का समाजशास्त्र सिर्फ छात्रों तक सीमित नहीं है। यह एक ऐसा विषय है जो हर इंसान तक पहुंचना चाहिए। उन्होंने कहा कि स्वच्छता के लिए सेल्फ मूवमेंट की शुरुआत करनी होगी। नई पीढ़ी बहुत सौभाग्यशाली है कि उसे सुलभ आंदोलन के बारे में पढ़ने को मिलेगा। यह एक ऐसा संगठित आंदोलन रहा हैं जिसने बदलाव की दुनिया तैयार की है। उन्होंने सुझाव देते हुए कहा कि ‘भारतीय संविधान और स्वच्छता’ को ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ में शामिल करना चाहिए। उन्होंने डॉ. पाठक और सुलभ को इस परिसंवाद और इसके विचार के लिए बधाई दी।
प्रो.विनोद कुमार चौधरी को सैनिटेशन मेडल
इ
स अवसर पर ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के समाजशास्त्र विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर विनोद कुमार चौधरी,
जिन्हें सैनिटेशन मेडल से नवाजा गया, ने कहा कि अपने सम्मान से वह भावविभोर हैं और उन्हें उम्मीद है कि ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ विषय के शोध और अनुसंधान की दिशा में यह परिसंवाद बड़ा कदम साबित होगा। उन्होंने डॉ. पाठक को स्वच्छता और इसके विभिन्न पहलुओं के लिए मसीहा बताते हुए कहा कि पाठक जी ने दरभंगा को कई बार अनुदान दिया है, ताकि स्वच्छता और इसके दर्शन को समझा जा सके और काम किया जा सके। उनका दरभंगा से खास लगाव है और उनके सहयोग से बिहार बदलेगा।
सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत करते छात्र
अब मुझे उम्मीद है कि आने वाले वक्त में भारत के युवा ‘स्वच्छता के समाजशास्त्र’ के दर्शन को समझकर देश को बेहतर दिशा में ले जाएंगे – डॉ. पाठक ‘सुविधा’ ऑक्सो-बायोडिग्रेडेबल सेनेटरी पैड्स
समापन समारोह के अवसर पर प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना को लेकर एक प्रेजेंटेशन प्रस्तुत किया गया, जिसमें सरकार द्वारा महिलाओं के लिए सस्ते सेनेटरी नैपकिन के बारे में बताया गया। ये ऑक्सोक-बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकीन ‘सुविधा’ के नाम देश भर के 3200 जन-औषधि केंद्रों पर 2.50 रुपए प्रति पैड उपलब्ध हैं। प्रेजेंटेशन में बताया गया कि प्लास्टिक के प्रति यह धारणा है कि यह खत्म नहीं होती, लेकिन ऑक्सो -बायोडिग्रेडेबल तकनीक से प्लास्टिक को खत्म किया जा सकता है, इसीलिए सुविधा नैपकिन पैड ज्यादा बेहतर हैं। प्रेजेंटेशन में कहा गया कि हर साल 15, 342 टन प्लास्टिक कचरा इकट्ठा होता है, जिसे खत्म करना एक बड़ी समस्या है, लेकिन ऑक्सोक-बायोडिग्रेडेबल तकनीक से ये समस्या हल हो सकती है।
स्वच्छता विश्वविद्यालय की हो स्थापना
मंगलोर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और देश के बड़े समाजशास्त्री डॉ. रिचर्ड पायस ने इस अवसर पर भारत में स्वच्छता को लेकर 4 पड़ावों की बात कही। उन्होंने पहले दौर में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा सभ्यता की स्वच्छता संस्कृति का जिक्र किया, दूसरे में महात्मा गांधी के स्वच्छता मिशन के बारे में बताया, जबकि तीसरे पड़ाव पर डॉ. विन्देश्वर पाठक और उनके सुलभ आंदोलन को शामिल किया है, वहीं चौथा पड़ाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वच्छ भारत मिशन है। उन्होंने सुलभ संस्था और गुजरात विश्वविद्यालय को सुझाव देते हुए कहा कि ‘स्वच्छता विश्वविद्यालय’ की स्थापना होनी चाहिए। उन्होंने मांग करते हुए कहा कि डॉ. पाठक को
उनके कार्यों के लिए भारत रत्न और नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि गांधी जी चाहते थे उनके अनुयायी उनके सभी सिद्धांतों को मूल रूप में अपना लें, लेकिन पाठक जी उससे अलग बेहतर सिद्धांतों को अपने हिसाब से अपनाने की बात करते हैं। उन्होंने कहा कि डॉ. पाठक जाति व्यवस्था को नहीं मानते जबकि गांधी जी वर्ण व्यवस्था को मानते थे। इसीलिए दोनों के सिद्धांतों में मूल रूप से कई अंतर हैं, लेकिन दोनों ही स्वच्छता को प्रथम धर्म मानते थे।
परिसंवाद बेहद सफल: डॉ. पाठक
डॉ. पाठक ने परिसंवाद के समापन अवसर पर पूरे देश से आए लोगों को धन्यवाद कहा और अभी से इसकी सफलता का उदघोष किया। उन्होंने कहा इतने सारगर्भित और व्यावहारिक शोध पत्रों से पता चलता है कि परिसंवाद बहुत ही सफल रहा है। जो दर्शन लेकर हम यहां आए थे, वह पूरा हुआ, लेकिन अभी लंबा सफर तय करना है। उन्होंने कहा कि सुलभ की सफलता का राज उसकी तकनीक और आर्थिक मॉडल में छुपा है। हम किसी से भी अनुदान नहीं लेते, लेकिन लोगों की सेवा करते हैं। इस अवसर पर भावनगर विश्वविद्यालय के कुलपति शैलेश झाला ने कहा कि तीन दिनों का कार्यक्रम बेहद सफल रहा है और परिसंवाद का उद्देश्य पूरा हुआ। बेहद मूल्यवान 50 से अधिक शोध पत्रों ने इस परिसंवाद में चार चांद लगा दिए। वहीं गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति हिमांशु पंड्या ने कहा कि इस परिसंवाद में प्रस्तुत शोध पत्र गुजरात विश्वविद्यालय के जनरल में छपेंगे। साथ ही उन्होंने विश्वविद्यालय को मिले सुलभ चेयर के लिए सुलभ को धन्यवाद दिया और सुलभ को अगले परिसंवाद के लिए आमंत्रित किया।
02 - 08 जुलाई 2018
09
जेंडर
त्रिलोका
वृंदावन में मिला जीवन का नया उद्देश्य जीवन का त्रिलोका के लिए एक अलग अर्थ था लेकिन वृंदावन ने इसे बदल दिया
खास बातें
क
स्वस्तिका त्रिपाठी
रीब डेढ़ साल पहले त्रिलोका पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले से वृंदावन आई थीं। वैधव्य जीवन के अभिशाप के 16 साल बाद उसका जीवन बदला और उसने तमाम रूढ़िवादी परंपराओं और कुरीतियों को पीछे छोड़ते हुए जीवन के नए लक्ष्य निर्धरित किए। त्रिलोका सिर्फ 12 साल की थी जब उसका विवाह एक 25 साल के व्यक्ति से कर दिया गया था। इस जोड़ी के बीच उम्र का अंतर आज भले ही बहुत बड़ा लगता हो, लेकिन उन दिनों इसे सामान्य माना जाता था और ऐसे ही विवाह होते थे। वह इतनी कम उम्र में शादी करने वाली समाज की कोई पहली लड़की नहीं थीं और न ही उसका पति अपने से आधी उम्र की लड़की से शादी करने वाला कोई पहला व्यक्ति था। सामाजिक रूप से यह सब बहुत सामान्य था। त्रिलोका ने शादी के बाद दो बच्चों को जन्म दिया - एक लड़का और एक लड़की। उसका परिवार पूरा हो गया था। उसके समाज के हिसाब से सबसे अच्छी बात यह थी कि उसके दोनों बच्चों का ठीक से पालन-पोषण हुआ और फिर आखिरकार उनकी शादी हो गई। उसकी और उसके पति की सभी जिम्मेदारियां पूरी हो गईं थीं। त्रिलोका को जीवन में इससे अधिक कोई और आकांक्षा भी नहीं थी। एक दिन अचानक त्रिलोका के पति को एक कुत्ते के काटने का दंश झेलना पड़ा। त्रिलोका सुबकते हुए कहती हैं, ‘हमारा जीवन सामान्य चल
रहा था। लेकिन एक दिन एक कुत्ते ने मेरे पति पर हमला किया और चीजें अप्रत्याशित रूप से बदल गईं। हमें वास्तव में पता ही नहीं था कि क्या करना है। हमने उनका इलाज कराने की कोशिश की, उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की। लेकिन हम असफल रहे। और फिर मुझे मालुम था कि वह मेरी जिंदगी में वैधव्य छोड़कर हमेशा के लिए जा रहा है।’ पति के अप्रत्याशित निधन के बाद त्रिलोका का पूरा जीवन ही बदल गया। उसने एक विधवा के जीवन की शुरुआत की। सफेद कपड़े, सादा भोजन, कोई त्योहार और उत्सव नहीं, जिंदगी सफेद सन्नाटे की चादर में लिपट गई। लगभग सोलह साल तक यही उसका नियमित जीवन बन गया और उसकी जिंदगी की नैया दुख के मझधार में हिचकोले खाती हुई फंसी रही। फिर एक शुभ दिन त्रिलोका की 'बुआ' वृंदावन जा रही थीं। उसने उस पवित्र भूमि के बारे में पहले सुन रखा था, जहां भगवान कृष्ण और राधा रानी एक वक्त पर रहते थे। यह बात, वृंदावन को लेकर उसमें रुचि जगाती थी। उसकी बुआ ने उसे साथ चलने के लिए पूछा। त्रिलोका जो इस अपने इस जीवन से बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी, बुआ के साथ चलने को राजी हो गई। त्रिलोका कहती हैं, ‘जब मैं उस दिन जाने के लिए तैयार हो रही थी, मुझे बिल्कुल भी नहीं पता था कि मैं अपने भविष्य के घर के लिए तैयार हो रही हूं। मैं अपनी
बुआ के साथ वृंदावन गई। बुआ ने कहा था कि मेरे साथ चलो, तुम्हे वह जगह पसंद आएगी। मुझे उनके शब्दों पर कोई संदेह नहीं थी, लेकिन मैंने यह नहीं सोचा था कि मैं इसे इतना पसंद करूंगी कि वहीं रहने का फैसला कर लूंगी।’ वृंदावन की आभा, वहां का वातावरण, उसका आध्यात्मिक अनुभव, वहां के लोग, भजनों की गूंज - सबकुछ ने उसे इतना आकर्षित किया कि उसने वहीं रहने का फैसला कर लिया। शुरुआती दिनों में, वह गोपीनाथ मंदिर में ठहरीं और दूसरों के साथ भजन गाती रहीं। फिर कुछ वक्त बाद, वह तुलसीवन आश्रम चली गईं, जहां उनकी तरह ही कई और वैधव्य भरा जीवन व्यतीत करने वाली महिलाएं रहती हैं। त्रिलोका के लिए अब जीवन के मायने बदल गए थे, अब जीवन एक नया उद्देश्य लेकर आया था। राधा रानी और भगवान कृष्ण की भक्ति में वह पूरी तरह डूब चुकी हैं। वह दिन में दो बार उनके भजन गाती है और शेष समय रोजाना का काम करते हुए उनके नामों का सुमिरन करने में व्यतीत करती हैं। बच्चे वापस लौटने के लिए पूछते हैं या नहीं, इस सवाल पर त्रिलोका कहती हैं, ‘मैं साल में एक बार अपने परिवार के पास उनसे मिलने जाती हूं। मेरे बेटे और बेटी, यहां हर छह महीने में एक बार मुझसे मिलने आते हैं। वे मुझसे पुरुलिया वापस
मेरी आत्मा अब वृंदावन की सड़कों के साथ चलती है और भगवान कृष्ण और राधा रानी के भजनों में लगी हुई है
पति की मृत्यु ने त्रिलोका का जीवन ही बदल दिया त्रिलोका को उनकी बुआ वृंदावन लेकर आई थी वृंदावन ने उसे उसका सर्वश्रेष्ठ जीवन दिया लौटने के लिए भी कहते हैं। लेकिन मेरी आत्मा अब वृंदावन की सड़कों और भगवान कृष्ण और राधा रानी के भजनों में लगी हुई है। मैं यहां खुश हूं, इसीलिए मैं अब कहीं नहीं जाऊंगी।’ त्रिलोका ने अपनी जिंदगी में कई जीवन जिए। एक वह जीवन जो समाज ने उसे बचपन में मिला, दूसरा वह जीवन जो उसने वैधव्य भरी जिंदगी के साथ बिताया और अंत में शांति और संतुष्टि से भरा जीवन का वह रूप जो वृंदावन ने उसे उपहार में दिया। वृंदावन का जीवन, उसके पिछले दो जीवन से बहुत बेहतर है। इस जीवन ने बहुत सी रूढ़िवादी प्रथाओं को तोड़ते हुए, उसके जीवन में फिर से रंग भरे और नई मंजिल दिखाई। त्रिलोका अब अपनी जिंदगी से पूरी तरह संतुष्ट है। वह कहती हैं कि 'लाल बाबा' (डॉ. विन्देश्वर पाठक) ने उनकी जिंदगी का अर्थ बदल दिया है और अब वह ऐसी जिंदगी जी रही हैं, जिसकी कभी उम्मीद नहीं की थी। वह खुश है कि यह जीवन अप्रत्याशित रूप से उनके दरवाजे पर आया और उसने इसे अपना लिया।
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विशेष
02 - 08 जुलाई 2018
वन महोत्सव सप्ताह (1-7 जुलाई) पर विशेष
बना मन तो बढ़ा वन
खास बातें वन क्षेत्रों में वृद्धि के लिए संयक्त ु राष्ट्र ने की भारत की तारीफ सबसे उत्साहजनक संकेत देश में घने वनों का बढ़ना है पीएम मोदी की नजर में जन-धन, वन-धन और गोबर-धन अहम गोबर-धन, इन तीन चीजों से हम ग्रामीण जीवन में एक बहुत बड़ा बदलाव ला सकते हैं।’
वन स्थिति रिपोर्ट-2017
कुछ माह पूर्व केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने देश में वनाच्छादित क्षेत्रों में हो रही वृद्धि के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि पिछले एक दशक में दुनिया भर में जहां वन क्षेत्र घट रहे हैं, वहीं भारत में इनमें लगातार बढोत्तरी हो रही है। उन्होंने ‘भारत वन स्थिति रिपोर्ट2017’ जारी करते हुए कहा कि वन क्षेत्र के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष 10 देशों में है। ऐसा तब है जबकि बाकी 9 देशों में जनसंख्या घनत्व-150 व्यक्ति/वर्ग किलोमीटर है और भारत में यह 382 व्यक्ति/वर्ग किलोमीटर है। भारत के भू-भाग का 24.4 प्रतिशत हिस्सा वनों और पेड़ों से घिरा है, हालांकि यह विश्व के कुल भूभाग का केवल 2.4 प्रतिशत हिस्सा है और इन पर 17 प्रतिशत मनुष्यों की आबादी और मवेशियों की 18 प्रतिशत संख्या की जरूरतों को पूरा करने का दबाव है।
संयुक्त राष्ट्र की सराहना
वन क्षेत्र के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष 10 देशों में है। भारत के भू-भाग का 24.4 प्रतिशत हिस्सा वनों और पेड़ों से घिरा है, हालांकि यह विश्व के कुल भूभाग का केवल 2.4 प्रतिशत हिस्सा है
बी
एसएसबी ब्यूरो
ते दो-तीन दशकों में जिस रफ्तार से वन क्षेत्र औद्योगीकरण और शहरीकरण की भेंट चढ़ते जा रहे थे, उससे भारत उन देशों की कतार में आकर खड़ा हो गया था, जिसने अपने हरित संसाधन का न सिर्फ सर्वाधिक दोहन किया, बल्कि भविष्य के लिए उसे बर्बाद भी किया। पर कहते हैं कि नीति और नीयत अगर नेक हो तो फिर इसके नतीजे भी बेहतर ही मिलते हैं। भारत में
यह बात तब देखने को मिली जब स्वच्छता और प्रदूषण मुक्ति को लेकर सरकार की पहल का सकारात्मक असर दिखना शुरू हो गया।
पीएम की दूरदृष्टि
बात अकेले वन संरक्षण की करें तो हालात में काफी सुधार आए हैं। इस सफलता के पीछे सबसे ज्यादा हाथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है, जो विकास और भारतीय जीवन परंपरा के बीच लगातार एक संतुलन पर जोर देते रहे हैं। वैसे भी विकास की मार अगर
प्राकृतिक संसाधनों पर सीधे पड़ने लगे तो फिर हम उसे सही मायनों में विकास कह भी नहीं सकते हैं। इसी वर्ष पंचायती राज दिवस के अवसर पर मध्य प्रदेश के मंडला में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वराज अभियान का शुभारंभ करते हुए पीएम मोदी ने सशक्त पंचायत-सशक्त भारत के नारे को बुलंद करते हुए कहा कि महात्मा गांधी की ग्राम स्वराज की संकल्पना का स्मरण करते हुए कहा, ‘जन-धन, वन धन और
यह वाकई बड़ी बात है कि वनों पर मानवीय आबादी और मवेशियों की संख्या के बढ़ते दबाव के बावजूद भारत अपनी वन संपदा को संरक्षित करने और उसे बढ़ाने में सफल रहा है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत को दुनिया के उन 10 देशों में 8 वां स्थापन दिया गया है, जहां वार्षिक स्तर पर वन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा वृद्धि दर्ज हुई है।
आंध्र प्रदेश में वन क्षेत्र में 2141 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई, जबकि कर्नाटक 1101 किलोमीटर और केरल 1043 वर्ग किलोमीटर वृद्धि के साथ दूसरे व तीसरे स्थान पर रहा
02 - 08 जुलाई 2018
11
विशेष
जंगलों की असली तस्वीर
भा
जनसंख्या दबाव के चलते देश में जहां घने वन लगातार सिकुड़ रहे हैं, वहीं खुले वनों का विस्तार हो रहा है, पर यह वन संपदा की सुरक्षा की गारंटी नहीं है
रतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 1999 के बाद की तमाम रिपोर्टों पर गौर करें तो उनमें वनावरण में निरंतर वृद्धि नजर आती है। 1999 की वन स्थिति रिपोर्ट में जहां वनावरण 19.39 प्रतिशत दिखाया गया था, वहीं 2015 की रिपोर्ट में वनावरण बढ़ कर 21.34 प्रतिशत हो गया, जिसमें 2.61 प्रतिशत घनघोर वन और 9.59 घने वनों के साथ ही 9.14 प्रतिशत खुले वन बताए गए हैं। विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 1972 से 1978 के बीच भारत में वनावरण 17.19 प्रतिशत था। इस प्रकार हर दो साल बाद आने वाली इन रिपोर्टों में वनावरण में निरंतर वृद्धि तो नजर आती है मगर जब इन रिपोर्टों को गौर से देखा जाता है तो इनमें जंगलों की असली तस्वीर नजर आती है। अगर 1999 की रिपोर्ट में देश में सघन वन 11.48 प्रतिशत दिखाए गए हैं, जबकि 2015 तक पहुंचते-पहुंचते ऐसे घनघोर जंगल सिकुड़ कर 2.61 प्रतिशत ही रह गए। विभाग के पैमाने के अनुसार सघन वन वे होते हैं, जिनमें सत्तर प्रतिशत से अधिक वृक्षछत्र या कैनोपी होती है। चालीस से लेकर सत्तर प्रतिशत तक वृक्षछत्र वाले वन मामूली घने वनों में और दस से लेकर चालीस प्रतिशत तक छत्र वाले वन खुले या छितरे वनों की श्रेणी में आते हैं। दरअसल, यही घनघोर जंगल वन्यजीवन के असली आश्रयदाता हैं। इन घने वृक्षछत्रों के नीचे ही एक भरा-पूरा वन्यजीव संसार फलता-फूलता है। उत्तराखंड जैसे राज्यों में बढ़ते मानव-वन्यजीव संघर्ष और इन संघर्षों में होने वाली मौतों में वृद्धि का असली कारण भी इन सघन वनों में निरंतर ह्रास होना ही है। घनघोर या सघन वनों के बारे में भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्टों को अगर ध्यान से देखें तो 1999 की रिपोर्ट में जहां इस तरह के वन 11.48 प्रतिशत बताए गए हैं, वहीं इनका आकार 2001 में 12.68 फीसद, 2003 में 1.23 फीसद 2009 में 2.54 फीसद और 2011 की वन स्थिति रिपोर्ट में 2.54 फीसद बताया गया है। 1999 से लेकर 2015 तक सघन वनों में भारी गिरावट साफ नजर आ रही है। इससे भी चिंता का विषय यह है कि उत्तराखंड और मिजोरम जैसे राज्यों में न केवल सघन वन बल्कि संपूर्ण वनावरण घट
घने वनों का बढ़ना
भारत वन स्थिति रिपोर्ट का हवाला देते हुए डॉ. हर्षवर्धन कहते हैं कि ताजा आकलन यह दिखाता है कि देश में वन और वृक्षावरण की स्थिति में 2015 की तुलना में 8021 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। इसमें 6,778 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि वन क्षेत्रों में हुई है, जबकि वृक्षावरण क्षेत्र में 1243 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। देश के
रहा है। यह सरकारी रिपोर्ट बताती है कि 2013 से लेकर 2015 के बीच मिजोरम में 306 वर्ग किलोमीटर, उत्तराखंड में 268 वर्ग किलोमीटर, तेलंगाना में 168 वर्ग किलोमीटर, नगालैंड में 78 वर्ग किलोमीटर और अरुणाचल में 73 वर्ग किलोमीटर वनावरण घट गया। कुल मिलाकर वन स्थिति रिपोर्ट में देश के 16 राज्यों में वनावरण में गिरावट का झुकाव बताया गया है। इन राज्यों में दो साल के अंदर ही 1180 वर्ग किलोमीटर वनावरण गायब हो गया है। वनावरण घटने वाले राज्यों में अरुणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, पंजाब, सिक्किम, तेलंगाना, त्रिपुरा, उत्तराखंड और दादर नागर हवेली शामिल हैं। इनके अलावा ऐसे भी राज्य हैं जहां कुल मिलाकर वनावरण तो बढ़ा है मगर सघन या घनघोर जंगल घट गए हैं। ऐसे राज्यों में जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश भी शामिल हैं। कह सकते हैं केवल दो साल के अंदर देश के देश के अस्सी जिलों में वनावरण घट गया। आलम यह है कि जनसंख्या दबाव के चलते देश में जहां घने वन लगातार सिकुड़ रहे हैं, वहीं खुले वनों का विस्तार हो रहा है, पर यह वन कुल भौगोलिक क्षेत्र में वनों और वृक्षावरण क्षेत्र का हिस्सा 24.39 प्रतिशत है। इसमें सबसे उत्साहजनक संकेत घने वनों का बढ़ना है। घने वन क्षेत्र वायुमंडल से सर्वाधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड सोखने का काम करते हैं। घने वनों का क्षेत्र बढ़ने से खुले वनों का क्षेत्र भी बढ़ा है। वैसे ये आंकड़े बीते कई वर्षों और दशकों की चिंता और ट्रेंड के चूंकि पूरी तरह उलट हैं, इसीलिए इन पर संशय और सवाल भी
का विनाश हो रहा है। 2013 से लेकर 2015 तक की दो साल की अवधि में ही उत्तर पूर्व के आठ राज्यों में 628 वर्ग किलोमीटर वनावरण गायब हो गया है। उत्तर पूर्व में सैकड़ों की संख्या में जनजातियां और उनकी उपजातियां निवास करती हैं, जिनका जीवन पूरी तरह वनों पर ही निर्भर होता है। इसीलिए वनों को बचाना इस दुर्लभ होती जा रही जनजातीय सांस्कृतिक विविधता और विलक्षण धरोहर को बचाने के लिए भी जरूरी है। इसी तरह पहाड़ी जिलों में भी वनावरण घटने की प्रवृत्ति निरंतर जारी है। 1988 की वन नीति के अनुसार पर्यावरण के सही संतुलन के लिए मैदानी क्षेत्रों में कुल भूभाग का एक तिहाई यानी कि तैंतीस प्रतिशत 1999 से लेकर 2015 तक सघन और पहाड़ी क्षेत्रों में वनों में भारी गिरावट साफ नजर आ रही है। दो तिहाई भूभाग वनाच्छादित होना इससे भी चिंता का विषय यह है कि उत्तराखंड चाहिए, लेकिन और मिजोरम जैसे राज्यों में न केवल सघन देश में 11 राज्य वन बल्कि संपूर्ण वनावरण घट रहा है ऐसे हैं, जहां का वनावरण निर्धारित मानकों से संपदा की सुरक्षा क ा फ ी कम है। आश्चर्य की की गारंटी नहीं है। इसका मतलब बात तो यह है कि जैविक विविधता के लिहाज कहीं न कहीं यह है कि जिन राज्यों से गरीब राज्य विकास के मामले में सबसे समृद्ध में कुल वनावरण नहीं घटा मगर हैं। इनमें गुजरात भी शामिल है जिसका वनावरण सघन वन घट गए हैं तो वहां वनों के महज चौदह प्रतिशत रह गया है। इसी तरह विनाश की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। राजस्थान और उत्तर प्रदेश का वनावरण 16 फीसद वन सर्वेक्षण के लिए उपग्रहों के जरिए और महाराष्ट्र का इक्कीस प्रतिशत ही रह गया है। धरती के चित्र लेता है जिसमें लैंटाना वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआई) की की तेजी से फैल रही झाड़ियां भी ग्रीन कवर के एक रिपोर्ट के अनुसार 1951 से लेकर 2007 रूप में शामिल हो जाती है। जाहिर है इससे वनों के तक देश में कुल तीन करोड़ 98 लाख हेक्टेयर में फैलाव को लेकर भ्रांति पैदा होती है। वृक्षारापेण हुआ। अगर सचमुच इतना वृक्षारोपण जैव विविधता और हिमालय हुआ होता तो आज भारत में प्रतिव्यक्ति वनावरण भारत दुनिया के 17 मेगा बायोडाइवर्सिटी में इतनी कमी नहीं होती। विश्व में प्रति व्यक्ति यानी वृहद जैव विविधता वाले राष्ट्रों में से एक वनक्षेत्र उपलब्धता 0.64 हेक्टेयर है, जबकि भारत गिना गया है। भारत में भी जैव विविधता के चार में प्रतिव्यक्ति वनक्षेत्र उपलब्धता मात्र 0.08 ही है। हॉटस्पॉट हैं, जिनमें पूर्वी हिमालय एक है। इस पूर्वी संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन की एक हिमालय में उत्तर पूर्व के राज्य शामिल हैं, जहां रिपोर्ट (1990) के अनुसार भारत में वृक्षारोपण की झूम खेती या ‘शिफ्टिंग कल्टीवेशन’ और विकास सफलता बहुत कम है। यहां रोपे गए पौधों में से की दूसरी जरूरतों के लिए बड़े पैमाने पर वनों औसतन 65 प्रतिशत ही जीवित रह पाते हैं। खड़े होते हैं। पर इन तमाम आशंकाओं को दूर करते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्री ने देश को यह कहकर आश्वस्त किया है कि ‘भारत वन स्थिति रिपोर्ट2017’ तैयार करने में वैज्ञानिक पद्धति का इस्तेमाल किया गया है। यही नहीं, उन्होंने वन रिपोर्ट तैयार करने को एक बड़ा काम बताते हुए बताया कि वर्ष 2019 में जारी की जाने वाली अगली रिपोर्ट के लिए काम अभी से शुरू कर दिया गया है।
आंध्र का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ
राज्यों में वनों की स्थिति की बात करें तो कि इस मामले में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा। आंध्र प्रदेश में वन क्षेत्र में 2141 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई, जबकि कर्नाटक 1101 किलोमीटर और केरल 1043 वर्ग किलोमीटर वृद्धि के साथ दूसरे व तीसरे स्थान पर रहा। क्षेत्र के हिसाब से मध्य प्रदेश के पास 77414
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विशेष
02 - 08 जुलाई 2018
अब नहीं तो कब चेतेंगे
सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरनमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 18 पेड़ काटे जाते हैं तो एक पेड़ लगाया जाता है
दु
निया के 7 अरब लोगों को प्राणवायु (ऑक्सीजन) प्रदान करने वाले जंगल खुद अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। विशेषज्ञों की राय है कि यदि जल्द ही इन्हें बचाने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं विकराल रूप ले लेंगी। एक व्यक्ति को जिंदा रहने के लिए उसके आसपास 16 बड़े पेड़ों की जरूरत होती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि जमीन के एक तिहाई
हिस्से पर वन होना चाहिए। सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरनमेंट (सीएसई) की एक रिपोर्ट के हवाले से बताया गया है कि देश में 18 पेड़ काटे जाते हैं तो एक पेड़ लगाया जाता है। पर्यावरण संरक्षण भारतीय संस्कृति की सनातन परंपरा है। पौधों का रोपण और देखभाल एक सामुदायिक, आध्यात्मिक गतिविधि है। हर नागरिक का धर्म है कि वह वनों की रक्षा और वानिकी का विकास करे। विश्व वानिकी दिवस
कोशिश करें। पेड़-पौधे रहेंगे तो हमारा वजूद रहेगा। उनके नष्ट होते ही मानव सभ्यता का भी पतन हो जाएगा। आज पृथ्वी पर लगभग 11 प्रतिशत वन संरक्षित हैं, जो विश्व पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही कम है। स्वस्थ्य पर्यावरण हेतु पर पृथ्वी पर लगभग एक तिहाई वनों का होना अति आवश्यक है लेकिन मानवीय विकास की अंधी होड़, जनसंख्या विस्फोट एवं औद्योगिक वृद्धि के कारण मानवीय आवश्यकताओं व गलत वन नीतियों के कारण वनों के क्षेत्रफल में लगातार कमी आ रही है जो एक विश्व स्तरीय समस्या बन चुकी है। पृथ्वी से मानव ने आज तक सब कुछ लिया ही है दिया कुछ भी नहीं है। यदि हम समय रहते नहीं सजग हुए तो पृथ्वी पर पर्यावरणीय संकट और भी गहरा हो सकता है। पेड़ आज पृथ्वी पर संस्कृति के वाहक हैं, प्रकृति की सुरक्षा से ही लगभग 11 प्रतिशत वन संरक्षित संस्कृति की सुरक्षा हो हैं , जो विश्व पर्यावरण की दृष्टि से वन तथा प्रकृति सकती है। हमें बेकार बहुत ही कम है के प्रति हमारे पड़ी भूमि पर वृक्ष कर्त्तव्य का लगाने चाहिए। सड़क, बोध कराता है। वन रेलमार्ग और नदियों के संसाधनों के बेहतर प्रबंधन और संवर्धन किनारे वृक्ष लगाने चाहिए। शहरों और गांवों से हम भावी पीढ़ी का जीवन सुरक्षित रख में भी पर्याप्त मात्रा में पेड़-पौधे लगाने चाहिए। सकेंगे। सरकार को भी वनों की अवैध कटाई पर रोक हमें अगर जिंदा रहना है तो प्रकृति से लगानी चाहिए। वृक्षों का अर्थ है जल, जल का प्रेम करें और उसे बचाने की हर संभव अर्थ है रोटी और रोटी ही जीवन है।
वर्ग किलोमीटर का सबसे बड़ा वन क्षेत्र है, जबकि 66964 वर्ग किलोमीटर के साथ अरुणाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ क्रमश: दूसरे व तीसरे स्थान पर है। कुल भू-भाग की तुलना में प्रतिशत के हिसाब से लक्षद्वीप के पास 90.33 प्रतिशत का सबसे बड़ा वनाच्छादित क्षेत्र है। इसके बाद 86.27 प्रतिशत तथा 81.73 प्रतिशत वन क्षेत्र के साथ मिजोरम और अंडमान निकोबार द्वीप समूह क्रमश: दूसरे व तीसरे स्थान पर है।
केंद्र शासित प्रदेशों की स्थिति
रिपोर्ट के ताजा आकलन के अनुसार देश के 15 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का 33 प्रतिशत भूभाग वनों से घिरा है। इनमें से 7 राज्यों और संघ शासित प्रदेशों जैसे मिजोरम, लक्षद्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, नगालैंड, मेघालय और मणिपुर का 75 प्रतिशत से अधिक भूभाग वनाच्छादित है, जबकि त्रिपुरा, गोवा, सिक्किम, केरल, उत्तराखंड, दादर नागर हवेली, छत्तीसगढ़ और असम का 33 से 75 प्रतिशत के बीच का भूभाग वनों से घिरा है। देश का 40 प्रतिशत वनाच्छादित क्षेत्र 10 हजार वर्ग किलोमीटर या इससे अधिक के 9 बड़े क्षेत्रों के रूप में मौजूद है। भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2017 के अनुसार
क्षेत्र में 17.3 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। बांस के उत्पादन में वर्ष 2011 के आकलन की तुलना में 1.9 करोड़ टन की वृद्धि दर्ज हुई है। सरकार ने वन क्षेत्र के बाहर उगाई जाने वाली बांस को वृक्षों की श्रेणी से हटाने के लिए हाल ही में संसद में एक विधेयक पारित किया है। इससे लोग निजी भूमि पर बांस उगा सकेंगे, जिससे किसानों की आजीविका बढ़ाने में मदद मिलेगी। इससे देश में हरे-भरे क्षेत्रों का दायरा भी बढ़ेगा और कार्बन सिंक बढ़ाने में भी मदद मिलेगी। देश में कच्छ वनस्पति का क्षेत्र 4921 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें वर्ष 2015 के आकलन की तुलना में कुल 181 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है। कच्छ वनस्पति वाले सभी 12 राज्यों में कच्छ वनस्पति क्षेत्र में पिछले आकलन की तुलना में सकारात्मक बदलाव देखा गया है। कच्छ वनस्पति जैव विविधता में समृद्ध होती है जो कई तरह की पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं को पूरा करती है।
के अंदर है, जबकि 160.3997 करोड़ घन मीटर क्षेत्र वनों के बाहर है। पिछले आकलन की तुलना में बाह्य एवं वृक्षावरण क्षेत्र में 5.399 करोड़ घन मीटर की वृद्धि हुई है, जिसमें 2.333 करोड़ घन मीटर की वृद्धि वन क्षेत्र के अंदर तथा 3.0657 करोड़ घन मीटर की वृद्धि वन क्षेत्र के बाहर हुई है। इस हिसाब से यह वृद्धि पिछले आकलन की तुलना में 3 करोड़ 80 लाख घन मीटर रही।
वृक्षावरण क्षेत्र में बड़ी वृद्धि
बांस से बढ़ी आस
रिपोर्ट के अनुसार देश में वाह्य वन एवं वृक्षावरण का कुल क्षेत्र 582.377 करोड़ घन मीटर अनुमानित है, जिसमें से 421.838 करोड़ घन मीटर क्षेत्र वनों
रिपोर्ट में देश का कुल बांस वाला क्षेत्र 1.569 करोड़ हेक्टेयर आकलित किया गया है। वर्ष 2011 के आकलन की तुलना में देश में कुल बांस वाले
रिपोर्ट की वैज्ञानिकता
यह रिपोर्ट भारत सरकार की डिजिटल इंडिया की संकल्पना पर आधारित है, इसमें वन एवं वन संसाधनों के आकलन के लिए भारतीय दूर संवेदी उपग्रह रिसोर्स सेट-2 से प्राप्त आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। रिपोर्ट में सटीकता लाने के लिए आंकड़ों की जांच के लिए वैज्ञानिक पद्धति अपनाई गई है। जल संरक्षण के मामले में वनों के महत्व को ध्यान में रखते हुए रिपोर्ट में वनों में स्थित जल स्रोतों का 2005 से 2015 के बीच की अवधि के आधार पर आकलन किया गया है, जिससे पता चला है कि ऐसे जल स्रोतों में आकलन अवधि के दौरान 2647 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज हुई है।
02 - 08 जुलाई 2018
पर्यावरण बचाने के लिए 'क्रॉकरी बैंक'
गुरुग्राम की समीरा सतीजा ने प्लास्टिक कचरे से शहर को बचाने के लिए क्रॉकरी बैंक खोला है, जहां लोगों में मुफ्त बर्तन दिए जाते हैं
गु
रुग्राम को पर्यावरण के अनुकूल बनाने में महिलाएं भी पीछे नहीं। एक दिन शहर की एक महिला गर्मियों में लगने वाली मीठे पानी की छबील में पानी पीने लगी तो उसे लगा कि इस तरह के सोशल काम से लोग धर्म कमा रहे हैं या पर्यावरण को प्रदूषित कर अपने लिए ही नुकसान पैदा कर रहे हैं। बस तभी उसने ठान ली कि वह अब कुछ ऐसा करेगी, जिससे लोग धर्म के साथ ही शहर को स्वच्छ भी रख पाएं। महिला ने स्टील के बर्तनों का एक क्रॉकरी बैंक खोल डाला। अब वह मुफ्त में लोगों को बर्तन देती हैं, साथ ही वह इस मुहिम से
दूसरे लोगों को भी जोड़ रही हैं।‘ पर्यावरण बचाओ मुहीम और अन्य पर्यावरण और सामाजिक ग्रुप से जुड़ीं समीरा सतीजा गुरुग्राम के सेक्टर-14 में रहती हैं। समीरा ने बताया कि जब उन्होंने डिस्पोजेबल गिलास और प्लेट बनाने वाली एक कंपनी के जानकार से बातचीत की तो उन्हें पता चला कि 3 गिलास बनाने में एक गिलास पानी खर्च हो जाता है। यानी पहले तो गिलास बनाने के लिए पानी खर्च किया जाए, फिर उसी गिलास में पानी पिलाकर पर्यावरण में प्लास्टिक वेस्ट को फेंक दिया जाए। इसे समझने के बाद समीरा ने फ्री
सेहत के लिए अधिक सुरक्षित सीएनजी
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विविध
क्रॉकरी बैंक शुरू कराने का आइडिया निकाला। यहां 100 गिलास और 100 प्लेट से शुरू किए इस क्रॉकरी बैंक में लोग अपनी इच्छा से स्टील के बर्तन देकर जा रहे हैं। 4 दिन पहले ही यह बैंक खोला गया है। इस बैंक में अब 200 गिलास और 150 प्लेटें हैं। समीरा का कहना है कि जल्द ही वे आरडब्लूए और पार्षदों के साथ मिलकर हर सेक्टर में एक ऐसा बैंक बनाना चाहते हैं। समीरा बताती हैं कि इस आइडिया में उनकी एक फ्रेंड डॉ. आरुषि भी मदद कर रही हैं। फिलहाल उन्होंने एक फेसबुक पेज (क्रॉकरी बैंक फॉर एवरीवन) शुरू किया है, जिसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ा जा रहा है। इसके अलावा, प्लास्टिक वेस्ट से होने वाले नुकसान और उसके विकल्प के बारे में भी जानकारी दी जा रही है। इतना ही नहीं इसके साथ ही वॉट्सऐप ग्रुप की सहायता भी ली जा रही है। मीठे पानी की छबील, भंडारा या अन्य किसी भी सामाजिक काम के लिए फ्री स्टील बर्तन लेने के लिए फेसबुक पेज पर जाकर अपने कार्यक्रम की डेट, लोकेशन के साथ अपना संपर्क नंबर लिख दें। इसके बाद आपके पास फोन आएगा। आपको अपने एरिया के पार्षद या आरडब्लूए के किसी पदाधिकारी से लिखवाना होगा कि आपको किस काम के लिए और कितने दिन के लिए क्रॉकरी चाहिए। इसके साथ ही आप अपनी कोई भी दो आईडी की फोटोकॉपी देकर क्रॉकरी प्राप्त कर सकते हैं। (एजेंसी)
सबसे हल्की सैटल े ाइट मात्र 15 हजार में चेन्नै के छात्रों ने दुनिया की सबसे कम वजन वाली सैटेलाइट तैयार की है
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मिलनाडु की राजधानी चेन्नै स्थित हिंदुस्तान इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी एंड साइंस में ऐरोस्पेस विभाग के छात्रों ने दुनिया की सबसे हल्की सैटेलाइट तैयार की है। इसका वजन मात्र 33.39 ग्राम है। इस सैटलाइट का नाम जयहिंद 1एस है जिसकी लागत महज 15 हजार रुपए है। 3 डी प्रिंटेड पीएलए नायलॉन से बनी इस सैटेलाइट को तीन एक्सपेरिमेंट्स के लिए तैयार किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य माइक्रोग्रैविटी में नायलॉन की कार्यशीलता की जांच करना है। इसके साथ ही मौसम की जानकारी जैसे मूसलाधार बारिश और रॉकेट के प्रक्षेप पथ को समझने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाएगा। सैटेलाइट के जरिए तापमान, दबाव, घनत्व, यूवी किरणों की तीव्रता के बारे में जानकारी मिल सकती है। छात्रों ने बताया कि सैटेलाइट 15 से 20 घंटों तक काम करेगी। यह वातावरण में 65 से 70 किमी तक यात्रा कर सकती है। इंस्टिट्यूट में यह सैटेलाइट एक प्रतियोगिता के तहत बनाई गई है। (एजेंसी)
भारतीय शोधकर्ताओं के एक ताजा अध्ययन में सीएनजी को डीजल और पेट्रोल की तुलना में अधिक स्वच्छ एवं सुरक्षित ईंधन बताया गया है
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दूषण नियंत्रण के लिए वाहनों में कंप्रेस्ड नेचुरल गैस (सीएनजी) के बढ़ते उपयोग के साथ-साथ इससे जुड़े दुष्प्रभावों को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। अब भारतीय शोधकर्ताओं के एक ताजा अध्ययन में सीएनजी को डीजल और पेट्रोल की तुलना में अधिक स्वच्छ एवं सुरक्षित ईंधन बताया गया है। सीएनजी, डीजल एवं पेट्रोल जैसे ईंधनों के उपयोग से वाहनों से होने वाले उत्सर्जन के विभिन्न रूपों की अनुरूपता का परीक्षण करने के बाद भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), कानपुर की इंजन रिसर्च लेबोरेटरी के शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। अध्ययन के दौरान अलग-अलग तरह के ईंधनों के उपयोग से होने वाले उत्सर्जन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का पता लगाने के लिए विभिन्न इंजनों से उत्सर्जित होने वाले सूक्ष्म कणों का परीक्षण मानव कोशिकाओं पर किया गया है।
अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता प्रोफेसर अविनाश अग्रवाल कहते हैं कि सीएनजी इंजन से निकलने वाले कणों का लोवर सरफेस एरिया डीजल एवं पेट्रोल इंजन से निकलने वाले कणों की अपेक्षा कम होता है, जिसके कारण विषाक्तता कम होती है। इसके साथ ही सीएनजी इंजन से निकलने वाले कण अन्य ईंधनों की तुलना में कम पीएच अवशोषण करते हैं। सीएनजी इंजन की तुलना में डीजल इंजन से 30-50 गुना सूक्ष्म कणों का उत्सर्जन होता है, जो मनुष्य के फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है। इस अध्ययन में जिन वाहन इंजनों को शामिल किया गया है, उनका उपयोग दिल्ली की सड़कों पर चलने वाले वाहनों में काफी समय से किया जा रहा है। इनमें बीएस-2, बीएस-3 और बीएस-4 जैसे विभिन्न इंजन शामिल हैं, जिनमें अलग-अलग ईंधनों पेट्रोल, डीजल एवं सीएनजी का उपयोग किया जाता
है। शोधकर्ताओं ने इन इंजनों का परीक्षण किया है और इनसे उत्सर्जित होने वाले कणों को एकत्रित करके उनका भौतिक, रासायनिक एवं जैविक विषाक्तता का विश्लेषण किया है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, डीजल एवं पेट्रोल इंजन से निकलने वाले कणों से मनुष्य के डीएनए में परिवर्तन की संभावना रहती है, जबकि सीएनजी इंजन से निकलने वाले कणों से यह खतरा कम हो जाता है। इस अध्ययन के नतीजे सीएनजी के उपयोग
के संबंध में नीति निर्धारण में मददगार हो सकते हैं। वाहनों से निकलने वाले सूक्ष्म कणों पर तो काफी शोध हुए हुए हैं, पर इन कणों के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बीच संबंध के बारे में अभी अधिक जानकारी नहीं है। इस लिहाज से यह अध्ययन महत्वपूर्ण हो सकता है। दिल्ली जैसे शहरों में जहां वाहनों में सीएनजी का उपयोग हो रहा है, वहां सूक्ष्म कणों के घनत्व में बढ़ोत्तरी खतरनाक हो सकती है। (इंडिया साइंस वायर)
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व्यक्तित्व
02 - 08 जुलाई 2018
मैक्सिम गोर्की
‘प्रजा का सच्चा पुत्र’
मैक्सिम गोर्की का रूसी साहित्य में वही स्थान है, जो भारतीय कथा साहित्य में प्रेमचंद का। गोर्की ने अपनी रचनाओं के माध्यम से तत्कालीन रूसी समाज में परिवर्तन के स्वर को तो जगाया ही, साहित्य लेखन के उद्देश्य को लेकर होने वाली बहस को भी नई दिशा दी रूस के कई हिस्सों में घूमते रहे। इस दौरान उन्हें समाज को और करीब से देखने का मौका मिला और वह कई प्रकार के लोगों के संपर्क में आए। इस तरह गोर्की बचपन से ही एक मजदूर के रूप में पले-बढ़े और घर में काम से लेकर बेकरी के कारखानों, जहाजों और खेतों तक कई काम करते उनका बचपन मेहनत और संघर्ष करते हुए बीता।
जारशाही का यथार्थ चित्रण
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एसएसबी ब्यूरो
क लेखक का कद सिर्फ उसके लेखन की लोकप्रियता से तय नहीं होता, बल्कि समय प्रवाह के बीच वह विचार और मानवता के बीच जिस सेतु का निर्माण करता है, वह उसके लेखन और चिंतन की सशक्तता और ऐतिहासिकता की सबसे बड़ी कसौटी है। इस दृष्टि से मौक्सिम गोर्की दुनिया के उन कुछ गिने-चुने साहित्यकारों में शामिल हैं, जिन्होंने साहित्य को रचना के साथ हस्तक्षेप और कल्पना के साथ वैचारिक चिंतन की मिसाल बनाया। गोर्की को ‘समाजवादी यथार्थवाद’ के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। लियो टॉल्सटाय ने उन्हें ‘प्रजा का सच्चा पुत्र’ कहकर संबोधित किया है।
बदलाव का साहित्य
रूस में जारशाही के दौरान 1907 में हुई असफल क्रांति से लेकर 1917 में हुई अक्टूबर समाजवादी क्रांति और उसके बाद के समाजवादी निर्माण तक के लंबे दौर में मैक्सिम गोर्की ने अपनी कहानियों,
नाटकों, लेखों और उपन्यासों के माध्यम से हर कदम पर जनता को अपनी परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा दी। वह अपने समय में दबीकुचली जनता के आत्मिक जीवन के भावों की आवाज बनकर उभरे। बीसवीं शताब्दी के आरंभ से लेकर अक्टूबर क्रांति के बाद लगभग 40 वर्षों के
खास बातें समाज के दबे-कुचले वर्गों से बचपन से ही गोर्की का रहा जीवंत संपर्क जारशाही के दौरान रूसी जीवन का यथार्थवादी चित्रण गोर्की का संबंध टॉल्सटॉय और चेखव जैसे साहित्यकारों से भी रहा
आने वाले समय में बचपन के ये अनुभव ही उनके साहित्यिक रचनाओं का आधार बने और वह जनता के मुक्ति संघर्ष का हिस्सा बनकर उभरे। अपने पूरे साहित्यिक सृजन में गोर्की ने रूसी जीवन की कड़वी सच्चाई का यथार्थवादी चित्रण किसी व्यक्ति के दृष्टिकोण से नहीं किया है, बल्कि वह उन परिस्थितियों को बदलने के लिए एक प्रेरणा स्रोत की तरह पाठक के सामने प्रकट होते हैं। गोर्की के शब्दों में, ‘सत्य दया से अधिक महत्व रखता है और आज मैं अपनी नहीं, वरन दम घोंटनेवाले उस भयंकर वातावरण की कहानी लिखने बैठा हूं, जिसमें साधारण रूसी जनता रहा करती थी और आज भी रहती है।’ बचपन में समय-समय पर गोर्की का परिचय उस सत्य दया से अधिक महत्व समय के रूस में जारशाही रखता है और आज मैं अपनी निरंकुशता एवं दमन नहीं, वरन दम घोंटनेवाले उत्पीड़न के विरुद्ध उस भयंकर वातावरण की संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों से होता कहानी लिखने बैठा हूं, दौरान गोर्की अपनी रहा, जिनके जीवन का जिसमें साधारण रूसी जनता कलम से रूसी उनके ऊपर गहरा प्रभाव रहा करती थी और आज भी साहित्य और जनता पड़ा, ‘उन अनगिनत लोगों में बदलाव के लिए रहती है – मैक्सिम गोर्की में से पहले व्यक्ति से मेरी एक नई ऊर्जा का संचार मित्रता का अंत हुआ, जो देश करते रहे। साथ ही उनका सारा के सर्वश्रेष्ठ सपूत होते हुए भी अपने सृजन भी जनता के जीवन और संघर्षों से ही वतन में अजनबी से हैं...।’ इन लोगों के करीब से जुड़ा रहा। संपर्क ने गोर्की को किताबों से परिचित कराया। गोर्की की जीवन परिस्थितियों ने उन्हें किसी स्कूल मेहनत और संघर्ष का जीवन या विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने का कोई समाज के दबे-कुचले वर्गों से बचपन से ही जीवंत अवसर नहीं दिया, लेकिन उन्होंने स्वाध्याय और संपर्क में रहने वाले गोर्की के लेखन को उनके जनता से जुड़े रहकर प्राप्त अनुभव को अपनी जीवन और उस समय के रूसी समाज के परिप्रेक्ष्य शिक्षा का केंद्र बनाया। गोर्की के शब्दों में, ‘मैं में रखकर देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि उनके अपनी उपमा मधुमक्खी के छत्ते से दे सकता हूं, साहित्यिक सृजन का स्रोत क्या था। गोर्की के माता- जिसमें देश के अगणित साधारण प्राणियों ने अपने पिता बचपन में ही नहीं रहे। उनका बचपन अपनी ज्ञान और दर्शन का मधु लाकर संचित किया है। नानी के यहां बीता जहां उन्हें एक रूसी मध्यम सबों की बहुमूल्य देन से मेरे चरित्र का विकास वर्गीय पारिवारिक माहौल मिला। नानी की मृत्यु हुआ। अक्सर देने वाले ने गंदा और कड़वा मधु के बाद संपत्ति को लेकर परिवार में लड़ाई-झगड़े दिया, फिर भी था तो वह ज्ञान-मधु ही।’ होने लगे, जिसके बाद गोर्की ने 13 वर्ष की उम्र में गोर्की अपने बचपन में ही जारशाही काल में घर छोड़ दिया और कई जगह काम बदलते हुए रूसी जनता की गरीबी और उत्पीड़न को देख चुके
02 - 08 जुलाई 2018
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व्यक्तित्व
स्वाधीनता का रूसी उपासक
गोर्की की कहानियां और उपन्यास दर्देदिल के नक्श होते थे। उन्होंने अपने लेखन से स्वेच्छाचार का तो विरोध किया ही, इसके लिए लोगों को जागरूक भी किया
इ
गणेश शंकर विद्यार्थी
स देश के सुशिक्षित लोगों में भी बहुत ही कम ऐसे हैं जिन्हें पता है कि गोर्की किस ढंग का आदमी था? एक गरीब घराने में पैदा हुआ। लड़कपन ही में उनके माता-पिता जाते रहे। नाना के घर परविश पाई, परंतु अभागे का ठिकाना वहां भी न लगा। नाना का काम गिर
गया, और नाती को पेट पालने के लिए घर छोड़ बाहर का रास्ता देखना पड़ा। कभी चमार की दुकान का उम्मेदवार बना, तो कभी अस्तबलों में घोड़ों की सेवा करता फिरा एक दिन तो नौबत यहां तक पहुंची कि सेब बेचते-बेचते जब थक गया और तो भी पेट भरने के लायक पैसे न मिले, तो आत्महत्या के लिए तैयार हो गया, परंतु आगे उसे चलकर प्रसिद्ध उपन्यास लिखना और नाम कमाना था, इसीलिए मरते हुए भी न मरा। 15-16 वर्ष का हो गया, उस समय तक उन्होंने कुछ पढ़ा ही नहीं। पढ़ता भी कैसे, पढ़ने से तो उसे चिढ़ थी। उन्होंने स्वयं एक बार कहा था कि किताबें और छापे की अन्य चीजें मुझे कांटेसी खाती थीं, मैं जहाज पर सवार हुआ तो छपा
थे और इस सच्चाई से अवगत हो चुके थे कि किस तरह उस समाज में एक बड़े हिस्से को दबे-कुचले तबकों के रूप में रहने और जानवरों की तरह जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर किया गया था, ‘मैं उनके बीच अपने आप को जलते अंगारों में डाल दिए गए जलते लोहे के टुकड़े की तरह महसूस करता था– हर रोज मुझे अनेक तीखे अनुभव प्राप्त होते। मानव अपनी संपूर्ण नग्नता के साथ सामने आता था– स्वार्थ और लोभ का पुतला बनकर।’
परिस्थितियों को बदल डालने के लिए संघर्ष करने, एक क्रांतिकारी इच्छाशक्ति पैदा करने और सर्वहारा वर्ग चेतना को विकसित करने की प्रेरणा देती हैं। गोर्की का साहित्य हमारे मन में वर्तमान समाज में जनता की बदहाल परिस्थितियों के प्रति नफरत ही नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करने और उन्हें बदलने की इच्छा भी पैदा करता है।
बड़े लेखकों से परिचय
‘मां’ उपन्यास
अपने साहित्यिक जीवन के आरंभ में ही गोर्की का परिचय टॉल्सटॉय और चेखव जैसे रूस के महान यथार्थवादी लेखकों से हुआ। गोर्की शुरुआती दिनों से ही क्रांतिकारी आंदोलनों से जुड़े रहे। बाद में कम्युनिस्ट पार्टी बोल्शेविक में शामिल होकर जनता के संघर्षों में काफी करीब से जुड़ गए और इसी दौरान उन्होंने पार्टी में शामिल मजदूरों और क्रांतिकारियों के जीवन और संघर्ष पर आधारित अपना विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘मां’ (1906) लिखा जिसके बारे में लेनिन ने कहा था कि इसे पढ़कर उन सभी मजदूरों को क्रांति के उद्देश्यों को समझने में मदद मिलेगी, जो स्वतःस्फूर्त ढंग से आंदोलन में शामिल हो गए हैं।
संघर्ष की प्रेरणा का साहित्य
आज भी, जबकि पूरी दुनिया के मजदूर आंदोलन ठहराव के शिकार हैं और प्रगति पर प्रतिरोध की स्थिति हावी है, ऐसे में गोर्की के उपन्यास और कहानियां पूरी दुनिया की जनता के संघर्षों के लिए अत्यंत प्रासंगिक हैं। आज भी उनकी रचनाएं पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता को एक समतावादी समाज के निर्माण के लिए उठ खड़े होने और
गोर्की अपने उपन्यास ‘मां’ में एक मजदूर के शब्दों में विचार प्रकट करते हुए कहते हैं, ‘क्या हम सिर्फ यह सोचते हैं कि हमारा पेट भरा रहे? बिल्कुल नहीं... हमें उन लोगों को जो हमारी गर्दन पर सवार हैं और हमारी आंखों पर पट्टियां बांधे हुए हैं यह जता देना चाहिए कि हम सब कुछ देखते हैं। हम न तो बेवकूफ हैं और न जानवर कि पेट भरने के अलावा और किसी बात की हमें चिंता ही न हो। हम इंसानों का सा जीवन बिताना चाहते हैं! हमें यह साबित कर देना चाहिए कि उन्होंने हमारे ऊपर खून-पसीना एक करने का जो जीवन थोप रखा है, वह हमें बुद्धि में उनसे बढ़कर होने से रोक नहीं सकता!’ गोर्की ने रूस की दलित उत्पीड़ित जनता का जीवन जितने करीब से देखा था, उतने ही स्पष्ट रूप से उसको अपने साहित्य में चित्रित किया और व्यापक जनसमुदाय को शिक्षित करने में एक अत्यंत ऐतिहासिक भूमिका निभाई। अपनी आत्मकथा में गोर्की ने लिखा है, ‘दुनिया में अन्य कोई चीज आदमी को इतने भयानक रूप से पंगु नहीं बनाती, जितना कि सहना और परिस्थितियों की बाध्यता स्वीकार कर उनके सामने सिर झुकाना।’
हुआ पासपोर्ट तक मेरी आंखों में खटकता था, परंतु जहाज पर नौकरी करते ही, उनकी आंखों का यह शूल दूर हो गया। जहाज का एक बावर्ची उनका गुरु बना और उन्होंने पकड़-धकड़ कर लड़के गोर्की का अक्षरों के साथ परिचय करा ही दिया। अब तो गाड़ी चल निकली और कुछ ही दिनों में वह डाकगाड़ी बन गई। फिर तो उन्होंने जहां-जहां नौकरी की -वह एक जगह कहीं जमा ही नहीं- वहां-वहां उसे गुरु मिलते रहे। अंत में एक लेखक उन्हें ऐसा मिला, जैसा बांग्ला साहित्य के धुरंधर लेखक रमेशचंद्र दत्त को बंकिमचंद्र चटर्जी के रूप में मिल गया था। उन्होंने कहा, ‘गोर्की, तुम लिखो।’ बस, गोर्की लिखने लगे और कुछ ही दिनों में उनकी पूछ हो गई। और, अंत में, तो वह इतना बढ़ी कि रूस के घर-घर में उनका नाम हो गया और यूरोप-भर में
उनके उपन्यास फैल गए और उनके अनुवाद हो गए। गोर्की की सारी उम्र कष्टों में कटी। दरिद्रता से छुट्टी मिली, तो हृदय की वीणा के खुले स्वरों के कारण रूस के स्वेच्छाचारी शासकों ने उन पर कृपादृष्टि फेंकी। उनकी कहानियां और उपन्यास दर्देदिल के नक्श होते थे और उन सबसे देश के उद्धार और स्वेच्छाचार के मूलोच्छेदन का संदेश मिलता था।
(गोर्की को श्रद्धांजलि अर्पित करने का श्रेय विद्यार्थी जी को उनके जीवनकाल में ही मिल गया था। अगस्त 1919 के अंतिम दिनों में अफवाह उड़ी कि रूस के बोल्शेविकों ने गोर्की की हत्या कर दी। उसकी विश्वंसनीयता पर यद्यपि विद्यार्थीजी को शक था, तथापि 1 सितंबर, 1919 के साप्ताहिक 'प्रताप' में उन्होंने गोर्की के प्रति अपनी यह हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की। यहां उस मूल आलेख का संपादित अंश प्रस्तुत है)
गोर्कीनामा
मूल नाम : अलेक्सी मैक्सिमोविच पेश्कोव जन्म : 16 मार्च 1868, निज्हना नोवगोरोद, गोर्की (सोवियत रूस) उपन्यास : मेरा बचपन, लोगों के बीच, मेरे विश्वविद्यालय, अर्तमोनोव के कारखाने, मां, द लाइफ ऑफ क्लीम सामगिन नाटक : येगोर बुलिचेव और दोस्तिगायेव आदि निधन : 18 जून, 1936
साहित्य बना औजार
गोर्की ने अपनी कहानियों, नाटकों, उपन्यासों और लेखों के माध्यम से समाज को सिर्फ चित्रित ही नहीं किया, बल्कि उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया, ‘क्या यह जरूरी है कि इस हद तक घिनौनी बातों का वर्णन किया जाए? हां, यह जरूरी है! यह इसीलिए जरूरी है श्रीमान कि आप धोखे में न रहें, कहीं यह न समझने लगें कि इस तरह की बातें केवल बीते जमाने में हुआ करती थीं! आज भी आप मनगढ़ंत और काल्पनिक भयानकताओं में रस लेते हैं, सुंदर ढंग से लिखी भयानक कहानियां और किस्से पढ़ने में आपको आनंद आता है। रोंगटे खड़े कर देने वाली कल्पनाओं से आपके हृदय को सनसनाने और गुनगुनाने से आप जरा भी परहेज नहीं करते। लेकिन मैं सच्ची भयानकताओं से परिचित हूं और यह मेरा अवंचनीय अधिकार है कि उनका वर्णन करके आपके हृदयों को कुरेदूं, उनमें चुभन पैदा करूं, ताकि आपको ठीक-ठीक पता चल जाए कि किस दुनिया में और किस तरह का जीवन आप बिताते हैं।’ गोर्की मनुष्यों के स्वभाव के लिए परिस्थितियों को जिम्मेदार मानते थे और इसीलिए वह जीवन की भौतिक परिस्थितियों को बदलने पर जोर देते थे, ‘रूसी अपनी गरीबी और नीरसता के कारण
ऐसा करते हैं। व्यथा और रंज उनके मनबहलाव के साधन हैं... जब जीवन की धारा एकरस बहती है तो विपत्ति भी मन बहलाने का साधन बन जाती है। घर में आग लग जाना भी नवीनता का रस प्रदान करता है।’
मजदूरों की प्रेरणा
गोर्की का पूरा जीवन और उनका साहित्यिक कार्य पूरी दुनिया के मजदूरों के लिए एक प्रेरणास्रोत है और अन्याय के विरुद्ध कदम-कदम पर हमें संघर्ष करने के लिए प्रोत्साहित करता है। उनका मानना था, ‘पूंजीवादी समाज में कुल मिलाकर मनुष्य अपने अद्भुत सामर्थ्य को निरर्थक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए बर्बाद करता है।’ अंत में गोर्की के ही शब्दों में, ‘हमारे इस संसार में जो कुछ अति सुंदर है, उनका निर्माण मानव श्रम, और उसके कुशल हाथों ने किया है। हमारे सभी भाव और विचार श्रम की प्रक्रिया में उत्पन्न होते हैं और यह ऐसी बात है, जिसकी कला, विज्ञान तथा प्रविधि का इतिहास पुष्टि करता है। विचार तथ्य के पीछे चलता है। मैं मानव को इसीलिए प्रणाम करता हूं कि इस संसार में कोई ऐसी चीज नहीं दिखाई देती, जो उसके विवेक, उसकी कल्पनाशक्ति, उसके अनुमान का साकार रूप न हो।’
16 खुला मंच
02 - 08 जुलाई 2018
कर्म, ज्ञान और भक्ति - ये तीनों जहां मिलते हैं, वहीं सर्वश्रेष्ठ पुरूषार्थ जन्म लेता है
अभिमत
प्रति मिनट 44 भारतीय अत्यंत गरीबी की रेखा से बाहर आ रहे हैं और अनुमान है कि 2030 तक देश से अत्यंत गरीबी का पूरी तरह खात्मा हो जाएगा
स्व
च्छता से स्वास्थ्य बेहतर होता और स्वास्थ्य से समृद्धि आती है। अब इस बात के प्रमाण भी मिलने लगे हैं। यह एक सुखद खबर है देश में गरीबी का खात्मा तेज गति से हो रहा है। आकलन के मुताबिक प्रति मिनट 44 भारतीय अत्यंत गरीबी की रेखा से बाहर आ रहे हैं। अगर मौजूदा गति बरकरार रही तो भारत इसी वर्ष इस लिस्ट में एक पायदान और फिसलकर तीसरे नंबर पर आ जाएगा और कॉन्गो उसकी जगह दूसरा पायदान हासिल कर लेगा। ब्रुकिंग्स के एक ब्लॉग में प्रकाशित हालिया अध्ययन की एक रिपोर्ट के मुताबिक अत्यंत गरीबी के दायरे में वह आबादी आती है जिसके पास जीवनयापन के लिए रोजाना करीब 125 रुपए भी नहीं होते। स्टडी कहती है कि 2022 तक 3 प्रतिशत से भी कम भारतीय गरीब रह जाएंगे, जबकि 2030 तक देश से अत्यंत गरीबी का पूरी तरह खात्मा हो जाएगा। ब्रुकिंग्स के 'फ्यूचर डिवेलपमेंट' ब्लॉग में प्रकाशित यह स्टडी कहती है, 'मई 2018 के आखिर में हमारी ट्रैजक्टरीज से पता चला कि भारत के 7 करोड़ 30 लाख अत्यंत गरीब आबादी के मुकाबले नाइजीरिया में 8 करोड़ 70 लाख अत्यंत गरीब लोग हैं। नाइजीरिया में जहां हर मिनट 6 लोग भीषण गरीबी की चपेट में जा रहे हैं, वहीं भारत में इनकी संख्या लगातार घट रही है। अर्थशास्त्रियों ने कहा कि अध्ययन के नतीजे इस दलील का समर्थन करते हैं कि तेज आर्थिक वृद्धि ने भीषण गरीबी पर करारा प्रहार करने में मदद की है। 2030 तक भारत अत्यंत गरीबी को पूरी तरह खत्म कर सकेगा, यह अनुमान गरीबी हटाने के देश के पिछले 10 साल के रेकॉर्ड और सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों को हासिल करने की इसकी क्षमता के मद्देनजर सही जान पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रायोजित टिकाऊ विकास लक्ष्यों का मकसद 2030 तक दुनियाभर से गरीबी हटाना है। देश दर देश गरीबी के मानक अनुमानों में दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया और प्रशांत क्षेत्र के देशों में तेजी से गरीबी घटने के सबूत सामने आ रहे हैं। अध्ययन के मुताबिक, इसकी मुख्य वजह भारत, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, फिलिपींस, चीन और पाकिस्तान में प्रति व्यक्ति आय में तेज वृद्धि है। इसमें कहा गया है कि पिछले दशक में वैश्विक स्तर पर बढ़ी आमदनी की वजह से दुनियाभर में गरीबी दरों में गिरावट आई है, जबकि भारत और चीन ने गरीबी की जंजीर तोड़कर बाहर निकलने वाले लोगों की कुल संख्या के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
टॉवर फोनः +91-120-2970819
(उत्तर प्रदेश)
लेखिका युवा पत्रकार हैं और देश-समाज से जुड़े मुद्दों पर प्रखरता से अपने विचार रखती हैं
6 जुलाई श्यामा प्रसाद मुखर्जी जयंती
वैकल्पिक राजनीति का प्रथम सूत्रधार
– महर्षि अरविंद
दूर हो रही है गरीबी
रचना मिश्रा
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने सिर्फ विकल्प की राजनीति की नींव ही नहीं रखी, बल्कि विपक्ष को एक साथ जोड़ने की कला भी पहली बार राजनीतिक दलों को सिखाई
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ग्रेस की राजनीति के बरक्स जिस राजनीति के दम पर भारतीय जनता पार्टी देश की सत्ता पर काबिज है, उस वैकल्पिक राजनीति की नींव आजादी के तुरंत बाद ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ही रखी थी। आजाद भारत में राष्ट्र के नवनिर्माण का सवाल सबके सामने था। नवनिर्माण के नेहरू मॉडल को देश को स्वीकार करना पड़ा, लेकिन डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस बात के पक्ष में नहीं थे कि नवनिर्माण के नाम पर देश आंखें मूंद कर पश्चिम का अनुकरण करे। उनका स्पष्ट मत था कि आधुनिक भारत की नींव देश की सांस्कृतिक विरासत और परंपराओं के उपर रखी जाए ताकि आनेवाली पीढ़ियों को देश के गौरवशाली अतीत से अवगत कराया जा सके। नेहरू मॉडल और डॉ. मुखर्जी के बीच की यह वैचारिक दूरी ही वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत बन गई। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की इसी सोच से देश की राजनीति में भारतीय जनसंघ का उदय हुआ। 1951 में गठित भारतीय जनसंघ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रबल पक्षधर बनी। देश के विभाजन का दंश, कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा और हैदराबाद पर भारत सरकार की लगातार ढीली पड़ती पकड़ ने डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और उनसे सहमति रखने वाले लोगों को लगातार परेशान करने लगी। डॉ. मुखर्जी के समक्ष दो ही रास्ते थे। एक रास्ता पंडित नेहरू का था और दूसरा अपना रास्ता खुद चुनने और उस पर चलने का था। डॉ. मुखर्जी ने दूसरा रास्ता चुना। यह रास्ता बेहद कठिन था, संघर्षपूर्ण था, लेकिन यह रास्ता वैकल्पिक राजनीति का था। आज उसी रास्ते पर चल कर भारतीय जनता पार्टी देश ही नहीं, बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनी। डॉ. मुखर्जी और गोपीनाथ बारदोलोई जैसे नेताओं की वजह से ही न सिर्फ असम को पाकिस्तान में शामिल होने से
बचाया, बल्कि पश्चिम बंगाल को भी पाकिस्तान में शामिल करवाने की साजिशों को नाकामयाब किया। डॉ. मुखर्जी को भारत विभाजन के षड्यंत्र का पूर्वानुमान था। उन्हें भारत के विभाजन की भनक 1940 में ही लग गई थी। तब उन्होंने इसका जिक्र महात्मा गांधी से भी किया। उन्होंने लेडी मिंटों की गुप्त डायरी में दर्ज भारत विभाजन की पटकथा के दुष्परिणाम को गांधी जी को विस्तार से समझाया था, जिसका असर 1942 में इलाहाबद में संपन्न हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी की बैठक में दिखा। इस बैठक में भारत का विभाजन किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं करने की बात कही गई, लेकिन इलाहाबाद में जो तय हुआ हकीकत में वैसा हुआ नहीं। कांग्रेस बाद में देश के विभाजन के लिए तैयार हो गई। डॉ. मुखर्जी उन दिनों नेहरू के मंत्रिमंडल में उद्योग मंत्री थे। महात्मा गांधी के आग्रह पर सत्ता हस्तांतरण के समय कांग्रेसी सरकार न बनाकर दिल्ली में राष्ट्रीय सरकार का गठन किया गया था। राष्ट्रीय सरकार की वजह से ही डॉ. मुखर्जी मंत्री बने थे। मुखर्जी ने पंडित नेहरु से आग्रह किया कि भारत सरकार पाकिस्तान से बंगाली हिंदुओं का नरसंहार और जबरन धर्म परिवर्तन बंद करने के लिए कहें। यदि पाकिस्तान बंगाली हिंदुओं को अपने यहां से खदेड़ना बंद नहीं करता तो पूर्वी बंगाल से निष्कासित लोगों की संख्या के अनुपात से वहां की जमीन पुनः भारत में शामिल की जाए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। नेहरु लियाकत पैक्ट से डॉ. मुखर्जी
सन् 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीत कर आए। भारतीय जनसंघ उस समय देश में सबसे बड़ा विपक्षी दल था
02 - 08 जुलाई 2018 की चिंताएं दूर नहीं हुईं, तो आखिरकार डॉ. मुखर्जी ने मंत्रि परिषद से त्यागपत्र दे दिया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के साथ दिल्ली समझौते के मुद्दे पर मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने वाले मुखर्जी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक गुरु गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में ‘भारतीय जनसंघ' की नींव रखी और इसके पहले अध्यक्ष बने। सन 1952 के चुनावों में भारतीय जनसंघ ने संसद की तीन सीटों पर विजय प्राप्त की, जिनमें से एक सीट पर डॉ. मुखर्जी जीत कर आए।भारतीय जनसंघ उस समय देश में सबसे बड़ा विपक्षी दल था। डॉ. मुखर्जी की इच्छा जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाये रखने की थी। दूसरी ओर पंडित नेहरु ने उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झंडा और अलग संविधान को स्वीकार कर लिया था, तब कश्मीर का मुख्यमंत्री वजीरेआजम यानी प्रधानमंत्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ. मुखर्जी ने धारा370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊंगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूंगा। उनका साफ तौर पर कहना था कि एक देश में दो विधान नहीं चलेगा। कांग्रेस की कश्मीर और पाकिस्तान नीति एक बड़ी वजह रही जिसने डॉ. मुखर्जी को वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत करने को विवश किया। आजदी से अब तक कश्मीर और पाकिस्तान की उस नीति की वजह से देश को कितनी बड़ी कीमत अब तक चुकानी पड़ी है, इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। आजादी के बाद पाकिस्तान के हाथों कश्मीर का बड़ा हिस्सा गंवाने के बाद भी मौजूदा सरकार ने कोई सबक सीखना जरूरी नहीं समझा। लेकिन डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की दूरदर्शिता का ही परिणाम था कि राष्ट्रवाद का जो बिरावा उन्होंने रोपा था, आज वह एक विशाल छतनार वृक्ष बन चुका है। देश की सियासत की नब्ज पर डॉ. मुखर्जी की पकड़ कितनी मजबूत थी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान आजाद तो हुआ लेकिन उसकी आजादी दो टुकड़ों में बंटी हुई आजादी थी। इसका नतीजा 1971 में दिखा, जब पूर्वी पाकिस्तान की जगह दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश का उदय हुआ। मतलब कि पाकिस्तान के विभाजन की नींव आजादी के वक्त ही डाल दी गई थी, जिसका पता पाकिस्तान को 1971 में लगा। पाकिस्तान के साथ शह और मात के इस सियासी खेल में अब पाकिस्तान को जो मात मिली है, उसमें डॉ. मुखर्जी के योगदान को कम करके आंका नहीं जा सकता। संसद के अंदर गठबंधन कायम कर सरकार पर दवाब डालने की सियासी पहल भी डॉ. मुखर्जी ने ही की थी। तीन सदस्यों वाली पार्टी के नेता के तौर पर मुखर्जी ने अपनी सूझबूझ से तीस से ज्यादा सांसदों का गुट तैयार किया था। सिर्फ विकल्प की राजनीति की नींव ही नहीं रखी, डॉ. मुखर्जी ने विपक्ष को एक साथ जोड़ने की कला भी पहली बार राजनीतिक दलों को सिखाई।
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खुला मंच
श्री माता अमृतानंदमयी देवी
लीक से परे
प्रसिद्ध आध्यात्मिक गुरु
अशक्त नहीं महिलाएं
औरतें कमजोर नहीं हैं। उनकी स्वाभाविक करुणा और सहानुभूति की गलत व्याख्या की जाती है
ह
म काफी समय से यह सुनते है। अगर औरतें अपने भीतर की आ रहे हैं कि महिलाएं कमजोर ताकत को समेट लें तो वो एक पुरुष होती हैं। इसके बावजूद हर युग में से भी ज्यादा है। पुरुष समाज को साहसी महिलाओं का अस्तित्व रहा ईमानदारी से उनकी इस अव्यक्त है, जो क्रांति की शुरुआत करने के शक्ति को समझने में और महसूस लिए पुरुष समाज द्वारा बनाए गए करने में मदद करनी चाहिए। अगर पिंजरों को तोड़कर बाहर आई हैं। हम अपनी आंतरिक शक्ति को अपने भारत में ही कई साहसी महिलाएं पक्ष में कर लें तो यह संसार स्वर्ग रह चुकी हैं, जैसे रानी पद्मावती, बन सकता है। युद्ध, संघर्ष और मीराबाई और झांसी की रानी। इनमें आतंकवाद समाप्त हो जाएगा। यह से कोई भी महिला कमजोर नहीं कहने की आवश्यकता नहीं है कि थी। ये सभी वीरता, शौर्य और प्यार और करुणा जीवन का एक अगर औरतें एकजुट हों जाएं तो एक साथ मिलकर वो कई पवित्रता की अवतार थीं। इनके अंग बन जाएगा। आश्चर्यजनक बदलाव इस समाज में ला सकती हैं लेकिन पुरुषों अभिन्न समान ही कई नारियों का अस्तित्व एक बार एक अफ्रीकी देश में को भी उन्हें एक साथ लाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा दूसरे देशों में भी रहा है। उदाहरण युद्ध हुआ। इस युद्ध में अनगिनत के तौर पर फ्लोरेंस नाईटिंगल, पुरुष मारे गए। औरतों की आबादी जॉन ऑफ आर्क और हेरिएट टबमेन का नाम लिया जानवरों से परिवार को बचाने की जिम्मेदारी उनकी 70 प्रतिशत की हो गई, लेकिन इस नुकसान से जा सकता है। होती थी। महिलाएं मुख्य रूप से घर पर रहकर बच्चों उन्होंने अपनी हिम्मत नहीं खोई। वो मिलकर एक वास्तव में पुरुष को खुद को न तो रक्षक और की देखभाल और घर के काम-काज करती थीं। हो गईं। व्यक्तिगत स्तर पर और समूह में उन्होंने न ही सजा देने वाली की स्थिति में रखना चाहिए। पुरुष घर पर भोजन और पहनने के लिए जानवर छोटा-छोटा व्यापार करना शुरू कर दिया। उन्होंने उनका साथ औरतों के प्रति तत्परता और ग्रहणशीलता की खाल लाते थे। इस अनुसार उन्होंने खुद ही यह अपने बच्चों और अनाथ बच्चों दोनों का पालन-पोषण का होना चाहिए, जिससे महिलाओं को समाज की विचारधारा विकसित कर ली कि जीविका के लिए करना शुरू कर दिया। जल्द ही उन्होंने खुद की मुख्यधारा में अगुआ की भूमिका मिल सके। कई लोग औरतें उनपर निर्भर हैं और वे मालिक और औरतें स्थिति को सशक्त और बेहतर पाया। यह प्रमाणित पूछते हैं, ‘इस बात के लिए पुरुषों में अहंकार कैसे नौकर हैं। इस तरह से औरतों ने भी पुरुषों को अपने करता है कि महिलाएं विनाश को पलट सकती हैं आया?’ वेदांत के अनुसार इसका मुख्य कारण माया रक्षक की तरह देखना शुरु कर दिया। शायद इसी और गंभीरता के साथ विचार कर एक शक्ति बन है लेकिन केवल आधारभूत स्तर पर। इसका कोई तरह इस अहंकार का विकास हुआ होगा। सकती है। दूसरा स्रोत भी हो सकता है। प्राचीन समय में मानव औरतें कमजोर नहीं हैं और उन्हें कमजोर मानना अगर औरतें एकजुट हों जाएं तो एक साथ जाति जंगलों में, गुफाओं में या पेड़ पर घर बनाकर भी नहीं चाहिए। लेकिन उनकी स्वाभाविक करुणा मिलकर वो कई आश्चर्यजनक बदलाव इस समाज रहते थे। चूंकि पुरुष शारीरिक रूप से महिलाओं से और सहानुभूति की अक्सर गलत तरीके से व्याख्या में ला सकती हैं। लेकिन पुरुषों को भी उन्हें एक अधिक बलवान थे, इसीलिए शिकार और जंगली की जाती है और इसे उनकी कमजोरी समझा जाता साथ लाने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। समाज को बचाने के लिए औरतों और पुरुषों को अपना हाथ मिलाना होगा। केवल तभी आने वाली पीढ़ी एक बड़ी आपदा से बच पाएगी। 0/2241/2017-19
डाक पंजी्यन नंबर-DL(W)1
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व्यक्तितव
सुलभ
सुलभ प्रणेता के ललए सेवा ही धर्ष
अक्षर प्रेर का संसार
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26 कही-अनकही
पुसतक अंश
किसानों िे किए िल्ाणिारी ्ोजनाएं
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बॉलीवुड की ग्ेटा गाबबो
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जून - 01 जुलाई 2018
बाें की दुलन्या
लरर भी अाबाद है लकता 97
/2016/715 आरएनआई नंबर-DELHIN
वर्ष-2 | अंक-28 | 25
है, बक््क इसके प्रलत पाठकों की दुलन्या न लसर्फ आबाद सुख पर हरेशा भारी के दौर रें भी छपे हुए शबदों इंटरनेट के जादुई प्रसार ऑरलाइन होकर पढ़ने के है। वैसे भी ऑनलाइन और पढ़ना का रुझान बढ़ता जा रहा को अपने हाथ रें लेकर पड़ेगा अपनी लप्र्य पुसतक
कि
एसएसबी ब्यूरो
अंगकु लयों सी ने पहली बार किट्ी पर बार। से िुछ रेखाएं खींची होंगी पहली तो किसी पहली बार किसी ने रेत पर होंगे। वक्त िे सा्थ ने पत्थरों पर िुछ कनशान बनाए धवकन िे कलए ऐसे एि हर होगी। बनी रोशनाई रेत, पत्थर और ही संिेत गढे गए होंगे। किट्ी, ति िा सिर िागज किर भोजपत्ों से होते हुए जाने कितने हजार वष्ष तय िरने िें भाषा िो न होगा। सयाही, िलि िा सिर तय िरना पडा राना ररशता जब पहली और िागज िा सबसे पु होगा, तब शब्दों िी बार किताब िी शक्ल िें ढला से भर उठी होगी। आज ्दुकनया न जाने किस रोिांच बस चुिी है, लेकिन किताबों िी पूरी एि ्दुकनया सिझने वाले लगातार उसे , वाले जाने िें नया क ्दु उस िी यही चाहत होती िि होते जा रहे हैं। हर किताब
खास बातें
द पुसतकों इंटरनेट के प्रसार के बावजू रहा है के प्रकाशन का बाजार बढ़ देने के पुरानी लकताबों को संरक्षण ललए हो रही है नई पहल अपील लक पीएर रोदी की लोगों से बुक’ दें तोहरे रें ‘बुके की बजाए
संग्रहणीय अंक ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का नया अंक न सिर्फ संग्रहणीय है, बल्कि प्रेरक भी है। प्रेरक इन अर्थों में कि इस अंक में सुलभ प्रणेता को जापान में मिले निक्की एशिया पुरस्कार की खबर को पूरे विस्तार से प्रकाशित किया गया है, जिसे पढ़ने के बाद देश का हर व्यक्ति खुद को गौरवान्वित महसूस करेगा और प्रेरणा भी ग्रहण करेगा। डॉ. पाठक ने जिन विषम परिस्थितियों में काम किया, वह ऐतिहासिक है। आजाद भारत में समाज के लिए इतना बड़ा काम किसी दूसरे ने किया किया। देश ही क्या पूरी दुनिया में पिछले पचास वर्षों में ऐसा काम नहीं हुआ जिसमें पूरे समाज को बदल देने की क्षमता हो। योग पर प्रकाशित सामग्री बेहद अच्छी लगी। सुमित गंगवार, बरेली , उत्तर प्रदेश
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फोटो फीचर
02 - 08 जुलाई 2018
सेवा को सम्मान
स्वच्छता के क्षेत्र में कार्य करने की जो लीक कभी महात्मा गांधी ने शुरू की थी, उसे सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक ने बीते पांच दशकों में एक वैश्विक सीख के रूप में बदल दिया है। उनके इस अथक सेवा कार्य को देखते हुए उन्हें जापान में प्रतिष्ठित निक्की एशिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। डॉ. पाठक ने इस पुरस्कार को समाज के सबसे गरीब तबके के लोगों को समर्पित किया है
वर्ष 2018 के निक्की एशिया पुरस्कार विजेता गुएन थान लिम, माजो और डॉ. विन्देश्वर पाठक (बाएं से दाएं)
जापान में भारत के राजदूत सुजन आर. चिनॉय को पुस्तक भेंट करते डॉ. पाठक
निक्की एशिया पुरस्कार वितरण के दौरान स्वच्छता के सुलभ मॉडल का प्रदर्शन
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सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक की कृति और यश पहले से वैश्विक स्तर पर समादृत रहे हैं। इस नए पुरस्कार ने जहां डॉ. पाठक के यश और सम्मान का फलक और व्यापक बना दिया है, वहीं इससे उनके कृत्य को मिली वैश्विक स्वीकृति को एक और प्रतिष्ठित अनुमोदन मिला है। निक्की एशिया पुरस्कार से पूर्व डॉ. पाठक को भारत सरकार द्वारा 1991 में पद्मभूषण के अलावा कई विशिष्ट राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है
फोटो फीचर
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पुरस्कार प्राप्ति के बाद आत्मीय जनों के साथ डॉ. पाठक और उनकी पत्नी अमोला पाठक
पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान सुलभ परिवार के साथ डॉ. पाठक
निक्की इंडस्ट्रीज के प्रेसिडेंट नाअोताशी ओकदा के हाथों पुरस्कार ग्रहण करते डॉ. पाठक
सुलभ प्रणेता का संबोधन
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सुलभ
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रीवा कक्कड़
‘डॉग इज माइ लाइफ’
रीवा का कुत्तों से लगाव बचपन से ही है। उनके पास खरीदकर पाले गए कुत्ते तो हैं ही, लेकिन उससे कहीं अधिक संख्या उन कुत्तों की है जो संतनगर इलाके में रहते हैं
री
संजय त्रिपाठी
वा कक्कड़ सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन में हमारी सहकर्मी हैं। फेसबुक पर भी हम एक-दूसरे से परिचित हैं। फेसबुक पर रीवा का स्टेटस यह बताता है कि रीवा पेट लवर्स हैं। खासकर कुत्तों से उन्हें बेहद लगाव है। आत्मीयता के स्तर तक। उनकी शायद ही कोई तस्वीर डॉग के बिना हो। उनके मोबाइल के फोटो गैलरी में एक फोल्डर ‘माइ लाइफ’ के नाम से है, जिसमें रीवा और उनकी गली के कुत्तों के अलावा और कोई नहीं है। इस फोल्डर में करीब एक हजार फोटो हैं, जिसे रीवा चाह कर भी डिलीट नहीं कर पातीं। दिल्ली के तिलक नगर बस स्टैंड से संतगढ़ तक जहां रीवा रहती हैं, वहां की गलियों और सड़कों तक के सभी कुत्ते शाम 7 बजे से मानो रीवा का इंतजार करते हैं और रीवा को देखते ही उनकी दुमें हिलने लगती हैं। बस स्टैंड से अपने घर की ओर रीवा आगे-आगे और पीछे-पीछे कुत्ते। एक अजीब सा नजारा। यूं तो रीवा ने अपने घर में सात महीने के रिक्की को पाल रखा है, लेकिन उनके घर से दरवाजे संतनगर के सभी कुत्तों के लिए खुले रहते हैं। भूख लगी हो तो, चोट लगी हो तो, ठंड लग रही हो तो, प्यास लगी हो यहां के कुत्तों को रीवा की
ही याद आती है। रीवा को बचपन से ही कुत्तों से लगाव है और वो भी स्ट्रीट डॉग से। रीवा के पास ‘एनिमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया’ का कार्ड भी है जिसके तहत स्ट्रीट डॉग पर हो रहे अत्याचार को वह रोक सकती हैं। रीवा का कुत्तों से यह लगाव बचपन से ही है। उनके पास खरीदकर पाले गए कुत्ते तो हैं ही, लेकिन उससे कहीं अधिक संख्या उन कुत्तों की है जो संतनगर इलाके में रहते हैं। सड़क दुर्घटना में घायल और बीमार कुत्तों को हॉस्पिटल ले जाने का
खास बातें सुलभ में कार्यरत रीवा कक्कड़ को स्ट्रीट डॉग से बेहिसाब लगाव है कुत्तों की सेहत से लेकर उनके भोजन तक का करती हैं इंतजाम कुत्तों से प्रेम के कारण दो बार टूट चुका है रीवा का रिश्ता
काम रीवा का ही है। संतनगर का शायद ही कोई कुत्ता होगा जिसे रैबीज का टीका रीवा ने न लगवाया हो। भले ही इसके लिए उन्हें साल में कई बार जानवरों के अस्पताल में जाकर डॉक्टरों से गुहार लगानी पड़ती हो। हाल ही में रीवा ने पच्चीस हजार में 50 डॉग कॉलर बैंड खरीदकर संत नगर के कुत्तों को पहनाया, ताकि रात में गाड़ी की लाईट में वे दिख जाएं और कोई दुर्घटना न हो। मैंने पूछा स्ट्रीट डॉग से परेशानी भी तो होती है। बच्चों को काट लेना कार और मोटरसाइकिल के पीछे भौंकते हुए दौड़ना यह तो आम बात है। नहीं, ऐसा नहीं है। कुत्ते उन्हें ही देखकर भौंकते हैं जिनकी प्रवृति चोर की होती है या फिर उन्हें काटते या भौंकते हैं, जो उन्हें छेड़ते हैं। कार या मोटरसाइकिल के पीछे दौड़ने वाले कुत्तों के बारे में रीवा एक रोचक बात बताती हैं। ‘कुत्तों का अपना इलाका होता है। दूसरे इलाके के कुत्ते अगर किसी और इलाके में चले जाते हैं तो वे उसे उसकी गंध से पहचान लेते हैं। वह गंध कुत्तों के पेशाब की होती है। जरूर किसी कुत्ते ने उस कार या मोटरसाइकिल पर पेशाब किया होगा। जिसकी गंध से कुत्ते यह समझ जाते हैं कि किसी दूसरे इलाके का कुत्ता उनके इलाके में आया है और वे गंध के पीछे भागते हैं।’ कुत्तों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार से रीवा बेहद
आहत हैं। ‘जानबूझकर रात में कुत्तों पर गाड़ी चढ़ा देना, उन्हें पत्थर मारना, यह सब देखती हूं तो खुद को इंसान कहते हुए शर्म आती है। कुत्ते से अधिक वफादार कोई हो ही नहीं सकता। खाने के लिए वे हम पर आश्रित हैं। घास पात तो वे खा नहीं सकते। जंगली कुत्तों को छोड़ दें तो हमारे आसपास जो कुत्ते रहते हैं वे किसी का शिकार नहीं करते। मांस भी उन्हें हमसे ही मिलता है। कुत्ते प्यार के भूखे होते हैं। आप थोड़ा सा भी प्यार करके देख लो कुत्ता आपके पीछे-पीछे ही रहेगा। मुझे बहुत बुरा लगता है जब लोग कुछ खा रहे होते हैं और पास में खड़ा कुत्ता ललचाई नजरों से उसे देख रहा होता है।’ रीवा के पंद्रह हजार रुपए सिर्फ और सिर्फ गली के कुत्तों पर खर्च होते हैं। उनके लिए रोज करीब दो किलो दूध, चिकन, अंडा और बिस्कुट। शाम 6 बजे से रात 9 और 10 बजे तक ढूंढ़-ढूंढकर कुत्तों को खिलाती हैं। दर्जनों कुत्तों का इलाज रीवा अस्पताल ले जाकर करा चुकी हैं। रीवा बताती हैं, ‘एक बार, एक बीमार कुत्ता जिसके बाल उड़ गए थे और पूरे शरीर पर जख्म था लोग उसे पत्थर मारकर अपने से दूर भगा रहे थे। मैं किसी काम से बैटरी रिक्शा से जा रही थी कि मेरी नजर उस पर पड़ी। मैंने रिक्शा रुकवाया कुत्ते को गोद में उठाया और रिक्शे वाले से कहा कि इसे अस्पताल लेकर चलना है। रिक्शे पर जो दूसरे लोग बैठे थे उन्होंने कहा कि दूसरा रिक्शा
02 - 08 जुलाई 2018
सुलभ
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रीवा राखी के दिन दर्जनों राखियां खरीदती हैं और सुबह ही थाल सजाकर निकल पड़ती हैं कुत्तों को राखी बांधने। साथ में होते हैं दूध और बिस्किट के पैकेट खिलाती हैं ले लो तो मैंने कहा आप लोगों को बुरा लग रहा है तो आप उतर जाएं, मैं सबका किराया दे दूंगी। फिर उसे लेकर अस्पताल पहुंची। उसकी मरहम पट्टी करवाई, उसकी दवा ली और वापस घर लेकर आई। मां से भी बहस हो गई। मैंने भी साफ कह दिया कि जब तक यह ठीक नहीं होगा यही रहेगा। मां मेरे स्वभाव से परिचित थीं और चुप हो गई। तीन दिन तक लगातार उसे हॉस्पिटल लेकर जाती रही, लेकिन वह जिंदा नहीं रह पाया। अपने ही हाथों से मैंने उसे दफन किया।’ घर से ऑफिस आते वक्त भी अगर कोई बीमार या घायल कुत्ता दिखा नहीं कि रीवा सबसे पहले उसे देखती है। ऑफिस में देर हो जाए तो कोई बात नहीं। साल में जितने भी पर्व त्योहार हो बिना कुत्तों के वो नहीं मनाती। खासकर राखी। उस दिन दर्जनों
राखियां खरीदती हैं और सुबह ही थाल सजाकर निकल पड़ती हैं कुत्तों को राखी बांधने। साथ में होता है दूध और बिस्किट के पैकेट। राखी बांधती हैं, तिलक लगाती हैं और फिर दूध के साथ बिस्कुट खिलाती हैं। ‘मैं इन्हें मिठाई कभी नहीं खिलाती। मीठा इनके लिए जहर की तरह होता है। सभी को राखी बांधने के बाद घर लौटकर अपने भाई जगदीश को राखी बांधती हूं।’ अभी हाल में रीवा अपने पालतू कुत्ते रिक्की और गली के दो चार कुत्तों को स्वीमिंग कराने छतरपुर ले गई थीं। ‘कुत्तों से अधिक वफादार आपके सगे-संबंधी भी नहीं होते। वे सिर्फ और सिर्फ प्यार के भूखे हैं। स्पेस में सबसे पहले आदमी नहीं लाइका नाम के डॉग को भेजा गया जो जिंदा नहीं लौटा।’ रीवा बाताती हैं, ‘गर्मी का महीना कुत्तों के
लिए बहुत कष्टदायक होता है। गर्मी से राहत मिले इसीलिए जीभ को बाहर निकालकर रखते है। उन्हें प्यास भी बहुत लगती है और जब देखती हूं कि प्यास बुझाने के लिए वे नाली या गटर का पानी पी रहे हैं तो बहुत दुख होता है। सोचती हूं लोग कबूतर के लिए या अन्य पक्षियों के लिए पानी तो रखते हैं, लेकिन कुत्तों के लिए क्यों नहीं। कुत्तों की स्वभाविक मौत भी बहुत कष्टकारी होती है। इसीलिए उन्हें पी.टी.एस. (पुट टू स्लीप) का इंजेक्शन लगाकर मार भी दिया जाता है। दुख तो होता है, लेकिन
मैं इसके पक्ष में हूं। उन्हें इस तरह मरते नहीं देख सकती। एक बात और बता दूं आपको, डॉग इज माइ लाइफ। मेरी शादी की बात घर में जब भी चलती है और लड़के वाले जब मुझे देखने आते हैं और उन्हें जब पता चलता है कि मेरी जिंदगी में कुत्तों के लिए कितनी जगह है तो वे सोच में पड़ जाते हैं। दो बार तो रिश्ता बस इसी बात पर टूट गया। कुत्तों के बारे में जानकरी रखने के मामले में रीवा इंसाक्लोपीडिया हैं। कुछ पूछना हो तो आप रीवा से मिल सकते हैं।
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संगीत
02 - 08 जुलाई 2018
लोक संगीत का बिगड़ता सुर
अर्चना शर्मा
मंगनियार और लंगा कलाकारों की कला दुनियाभर में मशहूर हो चुकी है मगर घर में ही इन्हें अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है
मुसलमान हैं मगर हिंदू लोकगाथाओं में चर्चित भगवान कृष्ण के भजन गाते हैं। इन्होंने हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के रीति-रिवाजों और जीवन-पद्धतियों के मिश्रण से बनी समेकित संस्कृति को अपना ली है। इसीलिए इनमें से कइयों के नाम-मसलन, शंकर खान और कृष्ण खान भी दोनों धर्मों के बीच समन्वय का परिचायक है। ये मंगनियार हैं जो पश्चिमी राजस्थान से आते हैं। इनके पंथनिरपेक्ष संगीत के भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में कद्रदान हैं। इनके संगीत के तराने दुनियाभर में सुने जाते हैं। मगर अपने ही देश में आज इन्हें अपनी विरासत को संजोने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। शानदार पगड़ी बांधे लोक संगीत गायक मंजूर खान कहते हैं कि राजपूत काल में उनकी कला पल्लवित व पुष्पित हुई। उन्होंने कहा कि राजपूत राजाओं ने हमारी कला को संरक्षण दिया और हम वर्षो से अपने आश्रयदाताओं के लिए ही गाते रहे हैं। उन्होंने कहा कि पर्सिया और पंजाब से निकली राग लहरियों को ग्रहण कर हमारे पूर्वजों ने सदियों तक इसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया। कालक्रम में हमारे संगीत के तराने सरहदों को पार कर दुनियाभर में गूंजने लगे और हर जगह इसके कद्रदान हैं। पश्चिमी राजस्थान की धरती सही मायने में भारत की बहुलतावादी संस्कृति का परिचय देती है, जहां गंगा जमुनी तहजीब देखने को मिलती है। यहां निवास करने वाले मुसलमानों की जीवन पद्धति और वेशभूषा हिंदुओं जैसी है, क्योंकि सदियों से दोनों समुदायों के आचार-विचार में घालमेल का एक लंबा दौर रहा है। मंगनियारों का संगीत हिंदुस्तानी और सूफी संगीत परंपरा का मिश्रण है। मुस्लिम और हिंदू परिवार यहां कई पीढ़ियों से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। मंगनियार अपने आश्रयदाता यानी यजमानों के लिए गीत रचते व गाते हैं। मंगनियारों की कहानी लंगा का जिक्र किए बिना अधूरी है। लंगा बाड़मेर के कवि, गायक और संगीतज्ञ हैं और संगीत में मंगनियार से इसका रिश्ता चचेरे भाई-बहन जैसा है। मगर इनके संरक्षक मुसलमान रहे हैं। ये भी अपने आश्रयदाता के घर बच्चों के जन्म के मौके पर और शादी समारोहों में गाते हैं। मंगनियारों के आश्रयदाता भाटी और राठौड़ वंश
के राजपूत रहे हैं, जबकि लंगा के संरक्षक सिंधी मुसलमान। मंगनियार हिंदुओं के देवता भगवान कृष्ण के भजन गाकर उनकी कृपा की याचना करते हैं तो लंगा सूफी संगीत गाते हैं। अब इनके संरक्षक राजपूत राजा-रजवाड़े नहीं रहे इसीलिए इन्हें अपनी आजीविका चलाने और अपनी कला को संजोए रखने में मशक्कत करनी पड़ रही है। इनकी कला दुनियाभर में मशहूर हो चुकी है मगर घर में ही इन्हें उसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। आस्ट्रेलिया, यूके, स्वीडन, नार्वे, जर्मनी और रूस में अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके भुंगर खान मंगनियार को दुख है कि इस सदियों पुरानी कला को आगे बढ़ाने में उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही है। खान ने कहा कि मेरे साथी असिन लंगा जैसे कुछ कलाकार ही नई प्रतिभा को तराशकर इस संगीत को आगे बढ़ा रहे हैं। हमें उचित ढंग के स्कूल और संगीत के शिक्षकों की जरूरत है जो नई पीढ़ी के कलाकार पैदा कर सकें। मगर यह दूर का सपना प्रतीत हो रहा है। असिन लंगा ने भी अपना दर्द बयां किया। उन्होंने कहा कि मैं एक छोटा सा स्कूल चलाता हूं जिसमें 15 बच्चे पढ़ते हें। वर्ष 2011 में हमें दिल्ली अकादमी से एक बाल कलाकार के लिए 2,500
सरवर और सरताज खान ने आमिर खान की फिल्म 'दंगल' में 'बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है' गाने में अपनी आवाज दी। इससे पहले 2014 में फिल्म 'पीके' में स्वरूप खान मंगनियार ने 'ठरकी चोकरो' गाना गाकर लाखों लोगों का दिल जीत लिया
खास बातें मंगनियार के पंथनिरपेक्ष संगीत की पूरी दुनिया में कद्र है मंगनियार कृष्ण का भजन गाते हैं, तो लंगा सूफी संगीत राजस्थान के ये कलाकार देश की बहुलतावादी संस्कृति के प्रतीक हैं रुपए और एक शिक्षक के लिए 7,500 रुपए की सहायता राशि मिली जोकि मेरे पिता के नाम पर मिली थी। पिताजी अब नहीं रहे, मगर मुझे बच्चों को संगीत सिखाने का काम उनसे विरासत में मिला है। अक्सर मुझे वित्तीय संकट के दौर से गुजरना पड़ता है। मंजूर खान भी बाड़मेर में एक स्कूल चलाते हैं, जिसमें 40 बच्चे पढ़ते हैं। उन्हें मुंबई की एक निजी कंपनी जेएसडब्ल्यू से आर्थिक मदद मिलती है। मंजूर ने कहा कि हमें निजी कंपनी से आर्थिक मदद मिल रही है मगर सरकार की ओर से कुछ भी मदद नहीं मिल रही है। आरंभ में इनकी कला पश्चिमी राजस्थान तक ही सीमित थी मगर अब इसकी धमक बॉलीवुड में भी सुनाई देने लगी है। हाल ही में दो बाल कलाकारों ने बॉलीवुड में अपना जलवा दिखाया है।
सरवर खान (12) और सरताज खान (11) ने चर्चित अभिनेता आमिर खान की फिल्म 'दंगल' में 'बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है' गाने में अपनी आवाज दी। इससे पहले 2014 में फिल्म पीके में स्वरूप खान मंगनियार ने 'ठरकी चोकरो' गाना गाकर लाखों लोगों का दिल जीत लिया। हालांकि इनके संगीत को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का श्रेय कोमल कोठारी को जाता है। पद्मश्री और पद्म विभूषण अलंकरण से विभूषित कोमल कोठारी ने सबसे पहले इनके संगीत को एक रेडियो कार्यक्रम के लिए रिकार्ड किया था। जोधपुर के रहने वाले कोठारी भारतीय लोकगाथा के अध्येता और संगीत के वैज्ञानिक थे। वर्ष 1960 में उन्हें अंतार खान मंगनियार सड़क पर मिला था। वह उसको अपने दफ्तर ले गए और उसकी आवाज को रिकार्ड करने की तैयारी करने लगे कि इतने में वह भाग गया। उन्होंने खदेड़कर उसे पकड़ा तो उसने कहा कि उसे डर है कि मशीन के सामने गाने पर वह उसकी आवाज को निगल जाएगी। इसके बाद कोठारी ने जैसलमेर के कई दौरे किए और मंगनियारों से रोजी-रोटी कमाने का नया जरिया बनाने की बात की। वह 1967 में लंगा मंडल को साथ लेकर स्वीडन गए जहां कलाकारों ने देश के बाहर अपनी पहली प्रस्तुति दी। इसके शीघ्र बाद भारतीय सांस्कृतिक अनुसंधान परिषद (आईसीसीआर) ने इसे संज्ञान में लिया। अस्सी के दशक के मध्य तक मंगनियारों और लंगाओं ने दुनियाभर में भारतीय समारोहों के दौरान अपनी कई प्रस्तुतियां दीं और विदेशों में इनकी कला मशहूर हो गई।
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जल प्रबंधन
सांची की जल संपदा को मिलेगा जीवन
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सांची की विस्मृत जल संचयन परंपरा को फिर से नया जीवन देने की भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की मुहिम
ध्य प्रदेश के सांची नगर में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधिकारियों ने सांची की पहाड़ी पर वर्षा के पानी को संचित करने की प्राचीन तकनीक को फिर से शुरू करने की कोशिश की है। यह एक विस्मृत प्राचीन परंपरा को फिर से जन्म दे सकती है। सांची भोपाल से 45 किमी उत्तर-पूर्व में स्थित है। इसकी 91 मीटर लंबी पहाड़ी पर 50 ऐतिहासिक स्मारक हैं। इस धार्मिक नगर को मौर्य सम्राट अशोक ने तीसरी सदी ईसा पूर्व में बसाया था। ऐसा माना जाता है कि गौतम बुद्ध और उनके निकटतम शिष्यों सारीपुतासा और महा मोगलनासा के अवशेष यहीं है। एक पत्थर की बनी शवपेटिका पर खुदे अभिलेख दस बौद्ध शिक्षकों को श्रद्धांजलि देते हैं और चार उत्कृष्ट नक्काशी वाले द्वार बौद्धिक जातकों को प्रदर्शित करते हैं, जो बुद्ध के जीवन को दर्शाते हैं। सन 1992 में यूनेस्को ने सांची को विश्व विरासत स्थल घोषित किया, क्योंकि वह बौद्ध धर्म के लिए विशेष महत्व रखती है। सांची की पहाड़ी एक और चीज के लिए भी महत्व रखती है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल के निदेशक और इतिहासकार कल्याण चक्रवर्ती कहते हैं कि यह पूरी पहाड़ी जल ब्रह्मांड को उजागर करती है। सांची के पर्यावरण का जल से गहरा संबंध है। जातकों की शिल्प कला हरे-भरे पेड़-पौधों, फलों, पक्षियों और ऊंचे वृक्षों को बखूबी दर्शाती है। एक उल्टा वृक्ष भगवान बुद्ध के शरीर का प्रतीक है। ईसा से तीन सदी पूर्व बनाए गए तीन प्राचीन जलाशय सांची की पहाड़ी पर हैं। एक जलाशय पहाड़ी के ठीक ऊपर बना हुआ है और बाकी दो पहाड़ी की ढलान पर हैं- करीब आधा किमी की दूरी पर। तब पहाड़ी की ढलान एक प्राकृतिक आगोर का काम करती थी। वर्षाजल द्वारा बने मार्ग और नालियां पानी जमा करती थीं जो एक जलाशय से दूसरे में चला जाता था। पहाड़ी के पश्चिमी भाग बौद्ध विहारों से भरे थे। विहार वासी इस जमा किए हुए पानी को घरेलू कामों के लिए इस्तेमाल करते थे। सामान्य जनता पहाड़ी के पूर्वी भाग में रहती थी। पहाड़ी से दो किमी दूर बेतवा नदी बहती थी, जो भोपाल के तालाबों से मिल जाती थी। यह नदी, तीन जलाशय और एक घना जंगल मिलकर एक प्राचीन और स्वतंत्र जल-प्रणाली का काम करते थे। इससे 2 किमी नीचे एक पुराने बैराज के अवशेष मिले हैं। अब उलझन यह है कि क्या इस बैराज को फिर से खड़ा करने से इलाके में भूजल का स्तर सुधर सकता है। आज सांची पहाड़ी पर विश्व प्रसिद्ध स्मारक तो हैं, पर पेड़-पौधे गायब हो गए हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के भोपाल क्षेत्र के प्रमुख पुरातत्ववेत्ता आरसी अग्रवाल ने इस ऐतिहासिक विरासत को बचाने के लिए अधिक वृक्ष रोपने की जरूरत को
खास बातें यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल है सांची सांची की पहाड़ियों पर बने तीन जलाशयों में हाेता था जल संचय यूनेस्को और जापान की मदद से एएसआई करवा रहा है पुनर्निर्माण समझा, लेकिन पानी की कमी एक बाधा सिद्ध हुई। अग्रवाल कहते हैं कि हमने जलाशयों की फिर से मरम्मत करवाई, जिससे प्राचीन जल संचय पद्धति को फिर से शुरू किया जा सके। पुरातत्ववेत्ता होने के चलते हमें इस तकनीक का पता था। पुरातत्व सर्वेक्षण ने यूनेस्को से संपर्क किया। उसके तुरंत बाद ही जापानी सरकार ने जनवरी, 1994 में डेढ़ करोड़ रुपए की रकम देने की घोषणा की। अग्रवाल कहते हैं कि हम ईसा से दो सदी पूर्व के पर्यावरण को फिर से खड़ा करना चाहते हैं। हमने उस समय वाले वृक्ष, जैसे गिरनी, नीम और पीपल को लगाने का फैसला किया है। इसके साथ ही हम जलाशयों में कमल के फूल को भी उसका उचित स्थान देना चाहते हैं। जलाशय के पुनर्निर्माण में करीब पांच लाख रुपए खर्च किए जा चुके हैं। ये जलाशय चट्टानों को प्रोत्खनित करके बने थे। पुनर्निर्माण का काम करीब छह महीने पहले प्रारंभ हुआ था। इन जलाशयों का ज्यामितीय सर्वेक्षण भारतीय दूरसंवेदी संस्थान, देहरादून ने किया था। इन जलाशयों का मापन गाद की परत के साथ किया गया था। पहला जलाशय 32 मीटर लंबा और 13 मीटर चौड़ा है। गाद की परत की ऊंचाई 2.8 भी आंकी गई है। दूसरा जलाशय 27 मीटर लंबा और 24 मीटर चौड़ा है और गाद की परत करीब 3.15 मीटर ऊंची है। पुरातत्व वैज्ञानिकों ने चट्टानों में दरारों का पता कर उसे भरवा दिया है, जिससे वर्षा के पानी को अच्छी तरह जमा किया जा सके। सभी आगोर क्षेत्रों को ईंटों और गारा तथा चूना पत्थर से पुनः बनाया गया है। एक विशेष प्रकार का नाला भी जलाशयों के पास बनाया गया है, जो पानी के साथ बहकर आने वाले मिट्टी को रोकने का भी काम करेगा। एक और नाला भी तैयार किया गया है जो
जरूरत से अधिक पानी को पहाड़ी के आस-पास के जंगलों में पहुंचा देने में सहायक होगा। गाद को हटा दिया गया है। वर्षा के पुराने नलों की पहचान भी कर ली गई है और उन्हें जलाशयों की तरफ घुमा दिया गया है। अग्रवाल का मानना है कि एक बार सभी जलाशयों की मरम्मत हो जाए तो करीब 22.7 लाख लीटर पानी को जमा किया जा सकता है। यह सांची की पहाड़ियों को हरा-भरा करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। हालांकि आरसी अग्रवाल ने प्रशंसा योग्य प्रयास किया है, पर उनकी कोशिश दिन-प्रतिदिन नई उलझनों में फंसती जा रही है। तीसरा जलाशय, जो कनक सागर के नाम से जाना जाता है, एक गांव के समीप है। इस जलाशय की मरम्मत का काम मध्य प्रदेश सरकार के पर्यावरण संरक्षण एवं समन्वय संगठन को दिया गया है। अग्रवाल चाहते हैं कि ऐतिहासिक स्मारकों और गांव के बीच वनभूमि एक प्रतिरोधक के तौर पर तैयार की जाए। पर बची हुई हरी-भरी जमीन पर चराई के अधिकार को लेकर तनाव की अफवाह भी फैल रही है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के लोग इस बात से काफी परेशान हैं। इन मुद्दों पर बारीकी से जांच पहले नहीं की गई थी, जिससे स्थिति और भी जटिल हो गई है। एक तरफ अधिकारी बताते हैं कि स्थानीय लोगों के लिए प्रवेश शुल्क 50 पैसा ही रहेगा, दूसरी तरफ वे एक पहाड़ी के चारों तरफ महंगा बाड़ा बनाने की भी बात करते हैं जिससे स्थानीय लोगों को अंदर आने से रोका जा सके। अब अधिकारी स्थानीय लोगों को भी साथ लेने की कोशिश कर रहे हैं। इस साल वर्ल्ड हेरिटेज-डे पर स्कूल के छात्रों को बुलाया गया था। अग्रवाल मानते हैं कि सरकार अकेले सब कुछ नहीं कर सकती है। पर वह इस बात से इनकार
सांची के पर्यावरण का जल से गहरा संबंध है। जातकों की शिल्प कला हरेभरे पेड़-पौधों, फलों, पक्षियों और ऊंचे वृक्षों को बखूबी दर्शाती है। एक उल्टा वृक्ष भगवान बुद्ध के शरीर का प्रतीक है
करते हैं कि संसाधनों का बंटवारा होना चाहिए। उनका दावा है कि सांची विकास प्राधिकरण हर पर्यटक से प्रवेश शुल्क लेता है, पर इसके विकास के लिए कोई काम नहीं कर रहा है। पर्यावरण संरक्षण संगठन के एक अधिकारी मानते हैं कि असल में इन जलाशयों का उपयोग करने वालों को संतुष्ट करना चाहिए। पानी का उपयोग करने वालों की सूची में वे पेड़ों, चिड़ियों और स्थानीय लोगों को सम्मिलित करते हैं। चक्रवर्ती कहते हैं कि प्राचीनकाल में अग्रहन श्रेणी काश्तकार और कुम्हार लोग इन जलाशयों और स्मारकों की देखभाल करते थे। यह समूह अब बचा ही नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह एक वर्ग को तैयार करे जो इस काम को देख सके। पर क्या पुरातत्व सर्वेक्षण इस प्राचीन जल संरक्षण पद्धति को फिर से जीवित कर सकता है? खुद उसके अधिकारी ही इस पर अविश्वास प्रकट करते हैं। चक्रवर्ती के अनुसार, प्राचीन तकनीकों को फिर शुरू करने में आधुनिक अभियंताओं को काफी मेहनत करनी पड़ेगी। प्राचीनकाल में अभियंता तकनीकों को स्थानीय पर्यावरण के अनुसार तैयार करते थे, जो बदल चुकी है। पहले भोपाल के जलाशय बेतवा नदी से जुड़े थे। शहर का हर घर आंगन वाला और आंगन में कुआं होता था। इन कुओं और जलाशयों में आदान-प्रदान वाली स्थिति थी। अब शहर के जलाशय लगभग खत्म से हो गए हैं। भोपाल शहर में अब गर्मी के दिनों में सिर्फ आधे घंटे के लिए ही पानी आता है। चक्रवर्ती बताते हैं कि सांची एक ऐतिहासिक भू-दृश्य का एक हिस्सा है। ये 27 पहाड़ियां एक पूरी श्रृंखला का एक हिस्सा हैं, जिनके अंदर 700 गुफाएं हैं जिनमें रंग-बिरंगी तस्वीरें बनी हैं। यहां कई ऐतिहासिक स्थल हैं। ये एक समान जीवन चक्र का हिस्सा है। आज जापानी सहायता से ज्यादा जरूरी भूविज्ञान की स्वदेशी कार्य निपुणता है, जिससे पानी को सही तरीके से जमा किया जाए और पुराने स्रोतों की खोज की जाए।
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स्वच्छता
02 - 08 जुलाई 2018
दक्षिण सूडान
दुनिया के सबसे नए देश में स्वच्छता!
दक्षिण सूडान में 93 प्रतिशत से ज्यादा लोग उन्नत शौचालायाें का इस्तेमाल नही करते, महज 2.1 मिलियन लोगों की ही शौचालयों तक पहुंच है। अब वहां सरकार सामुदायिक शौचालय को प्राथमिकता दे रही है
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एसएसबी ब्यूरो
ख के लिए संघर्ष के बीच सामाजिकराजनीतिक अस्थिरता किसी देश को स्वच्छता और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों में कितना पीछे छोड़ देती है, इसकी मिसाल है पूर्वी अफ्रीकी देश दक्षिण सूडान। चार वर्ष पहले वहां गरीबी और भूख की समस्या संयुक्त राष्ट्र तक को तत्काल आकस्मिक पहल करने के बाध्य कर दिया था। हालांकि बीते चार वर्षों में वहां स्थिति ज्यादा बदली नहीं है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद मानता है कि पूरे विश्व में सबसे अधिक भोजन की किल्लत दक्षिणी सूडान में है। परिषद इस बात की चेतावनी दे चुका है कि अगर सरकार और विद्रोहियों के बीच लड़ाई जारी रही तो दक्षिणी सूडान में बड़े पैमाने पर भुखमरी
खास बातें
पूरे विश्व में सबसे अधिक भोजन की किल्लत दक्षिणी सूडान में है 2011 में अस्तित्व में आया दक्षिण सूडान विश्व का नवीनतम देश है स्वच्छता की कमी के कारण होने वाली मौतों का आंकड़ा चिंताजनक
फैल सकती है। विश्व खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम का कहना है कि अगर तुरंत उपाय नहीं किए गए तो वहां पचास हजार बच्चे कुपोषण से मर सकते हैं। भूख से बेहाल इस देश में स्वच्छता और स्वास्थ्य की स्थिति कितनी बेहतर होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। विडंबना इस बात की भी है कि यह त्रासदी उस देश की है, जो दुनिया का सर्वाधिक युवा देश माना जाता है।
एक-तिहाई आबादी भूखी
दक्षिणी सूडान की एक तिहाई जनसंख्या भूख के खतरनाक स्तर का सामना कर रही है। संयुक्त राष्ट्र के चिल्ड्रंस इमरजेंसी फंड के कार्यकारी निदेशक एंथनी लेक का कहना है कि दक्षिणी सूडान मंे हालात तेजी से बिगड़ रहे हैं और इसके लिए समय रहते अहम कदम उठाने होंगे। लेक के शब्दों में, ‘यह समस्या कुपोषण की प्रलय बनती जा रही है। कितने ही बच्चों के लिए यह पोषण की आपदा है। हमें इस पर काम करने की जरूरत है।’
विश्व का 194वां देश
दक्षिण सूडान विश्व का नवीनतम देश है जो सूडान से वर्ष 2011 में अलग होकर स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर अस्तित्व में आया था। यह अफ्रीकी महाद्वीप के केंद्र में स्थित है और इसकी सीमा छह देशों से लगी है। यह प्राकृतिक तेल के लिहाज से संपन्न देश है। पिछले कुछ सालों से यहां गृह युद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। दक्षिण सूडान को संयुक्त राष्ट्र ने दुनिया के 193वें राष्ट्र का दर्जा दिया है। इससे पूर्व 2002 में पहले ईस्ट तिमोर 192वां देश बना था। अफ्रीका के सबसे बड़े देश सूडान का विभाजन
लंबी हिंसा का नतीजा है। उत्तर की मुस्लिम बहुल हैजा से 172 मौत दक्षिण सूडान की 14 काउंटियों में पिछले आबादी और दक्षिण की ईसाई बहुल आबादी साल जून में हैजा फैलने के बाद के बीच कई दशकों से चले आ रहे से लगभग 172 लोगों की संघर्ष में 20 लाख लोगों की मौत शौचालयों मौत हो चुकी है। संयुक्त हुई। संयुक्त राष्ट्र के दखल के बाद 2005 में हिंसा को खत्म की कमी के कारण स्वच्छता राष्ट्र मानवीय समन्वयन करने के लिए एक शांति का जो अभाव दक्षिण सूडान में कार्यालय (ओसीएचए) ने प्रस्ताव आया, जिसमें दो लगातार बना हुआ है, उसका एक कहा कि 18 जून, 2016 को प्रारंभिक मामलों के राष्ट्रों का जिक्र किया गया। नतीजा वहां कोलेरा का सामने आने के बाद इस शांति संधि में दक्षिण सूडान महामारी का रूप साल अप्रैल तक हैजा के को नया देश बनाने की बात 14,62,22 मामले सामने आए कही गई। सूडानीज पीपल्स लेना भी है हैं। ओसीएचए ने जुबा में अपनी लिबरेशन मूवमेंट और सूडान प्रारंभिक रपट में कहा, शुष्क मौसम सरकार के बीच हुए इस समझौते में के दौरान पूरे देश के कई अन्य स्थानों से भी नए जनमत संग्रह कराने पर रजामंदी हुई। जनवरी 2011 में दक्षिण सूडान में जनमत संग्रह मामलों की सूचना मिल रही है। संयुक्त राष्ट्र के हुआ। वहां के लोगों ने बहुमत से अलग देश बनाने अनुसार, आने वाले बरसात के मौसम में मौजूदा के पक्ष में वोट दिया। विडंबना यह है कि दो देशों संकट, संक्रमण के प्रसार, साफ पानी और स्वच्छता में बंट चुके सूडान के लोगों की मुश्किलें अब भी की कमी के कारण प्रकोप बढ़ने की आशंका है। कम नहीं हुई हैं। दक्षिण सूडान में खनिज तेल के भंडार हैं। इन्हें लेकर उत्तर और दक्षिण सूडान के स्वच्छता और शौचालय बीच तकरार हो रही है। हालत नियंत्रण में करने के विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ और यूस एड ने साझे तौर पर स्वच्छता की वैश्विक स्थिति को लेकर लिए संयुक्त राष्ट्र ने वहां शांति सेना तैनात की है।
स्वच्छता का सच
समुचित स्वच्छता सुविधाओं का उपयोग (2010) प्राथमिक विद्यालयों में सुरक्षित जल की उपलब्धता प्राथमिक विद्यालयों में स्वच्छ शौचालयों की उलब्धता
13 फीसदी 45 फीसदी 17 फीसदी
स्रोत : सूडान हाउसहोल्ड हेल्थ सर्वे (2010)
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स्वच्छता
प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध पर विचार
पर्यावरण प्रदूषण की बिगड़ती दशा और इससे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या में तेज वृद्धि के बाद पूर्वी अफ्रीकी देशों में खासतौर पर प्लास्टिक के खिलाफ काफी जागरुकता आई है
एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट जारी किया है। इसके मुताबिक महामारी का रूप लेना भी है। आलम यह है कि घरों में स्वच्छता के मामले में सबसे बुरी स्थिति ऑक्सफेम इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे नए देश दक्षिण सूडान की है। इसके महज 2015 से 2017 के बीच वहां 1675 मामले बाद नाइजर, टोगो और मेडागास्कर का स्थान है। सामने आए, जिसमें 46 लोगों की मौत हो गई। इन अकेले शौचालयों की सुलभता और उनके उपयोग तमाम मामलों में 18 फीसदी संख्या पांच वर्ष से कम की बात करें तो दक्षिणी सूडान उन देशों की सूची में उम्र के बच्चों की थी। सबसे ऊपर है, जहां शौच के लिए स्वच्छ शौचालय पानी की भारी किल्लत का उपयोग सबसे कम होता है। वाटर एड की एक रिपोर्ट में तो यहां तक कहा दक्षिण सूडान में कुछ स्वास्थ्य संकेतकों की स्थिति गया है कि दक्षिण सूडान में 93 फीसदी से ऊपर दुनिया में सबसे खराब हैं। पांच साल की आयु आबादी ऐसे लोगों की है, जो उन्नत शौचालयों का के नीचे शिशु मृत्यु दर प्रति 1,000 में 135.3 है, इस्तेमाल नहीं करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और जबकि मातृ मृत्यु दर प्रति 100,000 जीवित जन्मों यूनिसेफ की एक साझा रिपोर्ट के मुताबिक वहां में 2,053.9 है, जो कि विश्व में सबसे अधिक है। दक्षिण सूडान में एचआईवी/एड्स की शौचालयों के निर्माण की दर भी काफी नीचे महामारी पर जानकारी ठीक तरह से है। 1990 से अगले डेढ़ दशक में उपलब्ध नहीं है, लेकिन माना मात्र 2.1 मिलियन लोग ही ऐसे घरों में जाता है कि लगभग 3.1 हैं, जिन्हें स्वच्छ और सुरक्षित स्वच्छता के मामले में फीसदी लोग वहां इससे शौचालय की सुविधा मिल सबसे बु र ी स्थिति दु नि या के संक्रमित हैं। सकी है। सरकार की दक्षिणी सूडान को योजनागत पहल के तौर सबसे नए देश दक्षिण सूडान पानी की आपूर्ति के लिए पर अब वहां सामुदायिक की है। इसके बाद नाइजर, कई चुनौतियों का सामना शौचालयों के निर्माण को टोगो और मेडागास्कर करना पड़ रहा है। अनुमान प्राथमिकता दी जा रही है, का स्थान है लगाया जाता है कि दक्षिण ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग सूडान की जनसंख्या के महज 50 शौचालय का इस्तेमाल कर सकें। से 60 फीसदी हिस्से को ही चापाकल, शौचालयों की कमी के कारण स्वच्छता का जो अभाव दक्षिण सूडान में लगातार संरक्षित कुएं एवं पाइपलाइन सप्लाई (सीमित शहरी बना हुआ है, इसका एक नतीजा वहां हैजा का भागों में) के रूप में बेहतर पानी का स्रोत उपलब्ध
जल-स्वच्छता की चुनौतियां सुविधाओं की कमी अपरिष्कृत सुविधाएं सीमित सुविधाएं बुनियादी सुविधाएं सुविधाओं का अभाव
61 फीसदी 20 फीसदी 09 फीसदी 10 फीसदी 61 फीसदी
विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ (2017)
लिं
कन जनरल रिपोर्ट ने यह खुलासा किया है कि जल, हवाई और पर्यावरण प्रदूषण की वजह से होने वाली मौतों की संख्या दुनिया भर के युद्ध, भोजन की कमी और गंदे पानी के नुकसान से कहीं अधिक है। 2015 में पर्यावरण प्रदूषण के कारण दुनिया भर में 90 मिलियन लोग मारे गए थे। भौगोलिक विस्तार और बड़ी जनसंख्या के कारण घातक प्रदूषण की सूची में भारत पहला देश जरूर है है, जहां 2015 में दूषित वातावरण के कारण 25 लाख लोगों की मौत हो गई। भारतीय एयरोस्पेस में जहरीले पदार्थों से हर चौथा नागरिक किसी न किसी रूप में प्रभावित है। इसी तरह पर्यावरण प्रदूषण के कारण चीन में 2015 में 18 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो गई है। पर इन दो बड़े देशों को छोड़ अगर छोटे देशों की बात करें तो पर्यावरण प्रदूषण की मार जिन देशों के नागरिकों को सर्वाधिक झेलनी पड़ रही है, उनमें बांग्लादेश, उत्तर कोरिया, दक्षिण सूडान और हैती शामिल हैं। अच्छी बात यह है कि पर्यावरण प्रदूषण की बिगड़ती दशा और इससे प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या में तेज वृद्धि के बाद है। देश में श्वेत नील के बहने के बावजूद सूखे मौसम में ऐसे क्षेत्रों में पानी दुर्लभ है, जो कि नदी किनारे स्थित न हों। दक्षिण सूडान में लगभग आधी आबादी को 1 किलोमीटर के भीतर किसी संरक्षित कुएं, पाइपलाइन या चापाकल के रूप में बेहतर पानी के स्रोत उपलब्ध नहीं है। कुछ मौजूदा पाइपलाइन आधारित पानी आपूर्ति प्रणालियों का अक्सर अच्छी तरह से रख-रखाव नहीं किया जाता है और उनके द्वारा सप्लाई किया गया पानी पीने के लिए अक्सर
खासतौर पर पूर्वी अफ्रीकी देशों में एक नई तरह की जागरुकता देखी जा रही है। यह जागरुकता इसीलिए भी कारगर मानी जा रही है क्योंकि इसमें अकेले सरकार नहीं, बल्कि सामाजिक हिस्सेदारी भी अपेक्षित रूप से शामिल है। नतीजतन दक्षिण सूडान के अलावा युगांडा, तंजानिया और बुरुंडी जैसे देश एक बार उपयोग होने वाले प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध पर विचार कर रहे हैं और वहां इसके लिए जरूरी कानूनी प्रावधानों को तय करने को लेकर कोशिशें तेज हुई हैं। इस नई जागरुकता का महत्व इसीलिए भी क्योंकि इससे पूर्वी अफ्रीका में प्लास्टिक को लेकर क्षेत्रीय प्रतिबंध भविष्य में एक हकीकत बन सकता है, खासकर जब दुनिया भर में ज्यादा से ज्यादा देश प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के तरीके तलाश रहे हैं। गौरतलब है कि इस क्षेत्र में 2008 में प्लास्टिक बैग पर प्रतिबंध लगाने वाला रवांडा पहला देश था। 29 अगस्त 2017 को केन्या ने एक बार उपयोग होने वाले प्लास्टिक बैग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। आज वहां कई हिस्सों से प्लास्टिक बैग तकरीबन गायब हो चुके हैं। मौजूदा स्थिति में प्लास्टिक प्रदूषण का सबसे ज्यादा संकट यूगांडा और दक्षिण सूडान में है। लेकिन जिस तरह इन दोनों देशों में इस संकट को लेकर चिंता जताई जा रही है, उससे भविष्य में बड़े परिवर्तन के आसार हैं।
सुरक्षित नहीं होता। घर लौट रही विस्थापित आबादी बुनियादी सुविधाओं पर भारी दबाव डाल रही है और इस विभाग के प्रभारी सरकारी संस्थान भी कमजोर हैं। कई सरकारी एवं गैर सरकारी संगठनों की ओर से पानी की आपूर्ति में सुधार के लिए पर्याप्त बाहरी दान राशि उपलब्ध है। वाटर इज बेसिक, ओबक्की फाउंडेशन एवं उत्तरी अमेरिका से ब्रिजटन-लेक रीजन रोटरी क्लब जैसे कई गैर सरकारी संगठन दक्षिणी सूडान में पानी की आपूर्ति सुधारने में मदद कर रहे हैं।’
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पुस्तक अंश
02 - 08 जुलाई 2018
युवाओं और रोजगार के लिए योजनाएं स्टार्ट अप इंडिया
सरकार का यह प्रमुख कार्यक्रम छह श्रम कानूनों और तीन पर्यावरण कानूनों के साथ- साथ तीन साल तक आयकर से आजादी, बौद्धिक संपदा अधिकारों के लिए नि:शुल्क परामर्श और पेटेंट के लिए प्राप्त आवेदन के त्वरित निपटान जैसे प्रावधानों के जरिए नए उद्यमियों पर नियमों के बोझ को कम करके नव उद्यमों को प्रोत्साहित करेगा। सिडबी द्वारा 10,000 करोड़ रुपए की एक निधि इसके संचालन के लिए नियत कर दी गई है।
प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना
यह योजना बेरोजगार युवाओं में कौशल विकसित करने के लिए तैयार की गई है, ताकि वे रोजगार प्राप्त कर सकें और उनका जीवन बेहतर हो सके, इस योजना का लक्ष्य 4 वर्षों में एक करोड़ युवाओं के विकास का है। 23 जुलाई 2016 तक
1 लाख 97 हजार युवाओं का प्रशिक्षण पूरा हो चुका है। कौशल विकास का अर्थ है बेहतर भारत का निर्माण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
दीन दयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल योजना
यह योजना 15 से 35 वर्ष की उम्र के दायरे में आने वाले ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए डिजाइन की गई है ताकि इस तरह के 75 प्रतिशत प्रशिक्षित युवाओं की नौकरी सुनिश्चित हो सके। नौकरी के साथ रोजगार के लिए इस योजना का मुख्य फोकस सामाजिक रूप से वंचित वर्ग पर है। 3 महीने के प्रशिक्षण को पूरा करने के बाद, न्यूनतम मासिक वेतन राज्य सरकार द्वारा तय किए गए 8000 रूपए या न्यूनतम वेतन, जो भी
अधिक होगा, दिया जाएगा। 1100 प्रशिक्षण केंद्रों में 724 प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं, जहां 3.56 लाख युवाओं को प्रशिक्षित किया गया है और 1.88 लाख से अधिक युवाओं को रोजगार मिला है।
स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया। आइए प्रयास करें कि देश का हर हिस्सा रचनात्मकता और नवाचार से परिपूर्ण हो और भारत संसार का स्टार्ट अप कैपिटल बन जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
मुद्रा योजना
इस योजना के माध्यम से लघु उद्यमियों को छोटे व्यवसाय के लिए बिना गारंटर या गवाह के तीन श्रेणियों यथा-शिशु श्रेणी में 50,000, किशोरी श्रेणी में 50,000 से 5 लाख और युवा श्रेणी में 5 लाख से 10 लाख रूपए तक का कर्ज दिया जा रहा है। 3 करोड़ 48 लाख से अधिक उद्यमियों को 1,37,44 9 करोड़ रुपए मंजूर किए गए हैं।
हिंदुस्तान के युवाओं में अपनी किस्मत बदलने की क्षमता है। बस मौका मिलना चाहिए।
मुद्रा योजना युवाओं की उड़ान में पंख जोड़ती है। अवसर प्रदान करके उन्हें आत्मनिर्भर बनाती है, ताकि वे अपने भविष्य को अपने आप लिखने में सक्षम हों और एक मजबूत और समृद्ध भारत का सपना पूरा हो जाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
उड़ान
यह योजना जम्मू-कश्मीर के युवाओं को रोजगार के लिए प्रशिक्षण प्रदान करती है ताकि सभी शहरों में रोजगार के अवसर प्रदान करके उन्हें देश की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके। 23,000 से अधिक उम्मीदवारों का चयन किया गया है और 20,000 से अधिक ने प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लिया है। जम्मू-कश्मीर के सभी जिलों में ऐसे 100 बड़े कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। भारत की 60 प्रतिशत आबादी युवा है, 35 साल से कम उम्र की है। कौशल विकास के माध्यम से देश का हर युवा अपने सपनों को पूरा करने में सक्षम होगा, जो देश की प्रगति सुनिश्चित करेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
02 - 08 जुलाई 2018
पुलिस में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण
राजग सरकार द्वारा लिए गए इस गत्यात्मक निर्णय का उद्देश्य है- महिला सशक्तीकरण। इस तरह का आरक्षण सभी पुलिस बलों में कॉन्स्टेबल से सब इंस्पेक्टर के पद तक होगा। इस कदम से पुलिस बल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा और पुलिस तक पहुंचने के लिए महिलाओं में आत्मविश्वास भी जगाएगा। इस आरक्षण कार्यक्रम को
लागू करने के लिए सभी राज्य सरकारों को एक एडवाइजरी भेजी गई है।
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पुस्तक अंश
महिलाओं के लिए कल्याणकारी योजनाएं
मातृ शक्ति का सम्मान हमारा सिद्धांत है। हमारे विकास के लिए, महिला सशक्तीकरण महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
अटल इनोवेशन मिशन
यह मंच शिक्षकों, उद्यमियों और शोधकर्ताओं को एक साथ लाता है ताकि देश में नवाचार का वातावरण विकसित किया जा सके। इस योजना के तहत स्कूलों में 20 लाख रुपए की प्रारंभिक सहायता के साथ 500 छोटी प्रयोगशालाएं 5 वर्षों के भीतर स्थापित की जाएंगी। वर्ष 2016-17 में कुल 10 करोड़ रूपए की लागत से 100 अटल इनक्यूबेशन सेंटर
बनाने का भी लक्ष्य रखा गया है। "नई खोज का उद्देश्य" - हम अटल इनोवेशन मिशन के माध्यम से नवाचार को बढ़ावा देना चाहते हैं। यह मिशन नवाचार, उद्यमिता और स्टार्ट अप को बढ़ावा देने के लिए हमारी प्रतिबद्धता दिखाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
महिला-ई-हाट
महिलाओं के पास तरह तरह के सामान बनाने का कौशल पारंपरिक है, लेकिन उन्हें अपने इन उत्पादों की बिक्री के लिए कोई मंच नहीं मिलता है। इस दूरी को पाटने के लिए, एक अनूठा ऑनलाइन विपणन मंच, "महिला ई-हाट" स्थापित किया गया है। यह योजना महिलाओं को अपने उत्पादों को बाजार में ले जाने के लिए वरदान साबित होगी। एक लाख पच्चीस हजार महिलाएं और 10 हजार स्व-सहायता समूह इस योजना का लाभ उठा रहे हैं।
महिलाओं में उद्यमिता का विकास आत्म निर्भरता की दिशा में एक सही कदम है। इस कौशल के माध्यम से महिला शक्ति आगे बढेगी। एक साथ आएं और भारत के विकास की इस भावना को और शिद्दत से महसूस करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
सुकन्या समृद्धि योजना
कन्या शिशु के विकास हेतु माता-पिता या अभिभावक उसके नाम से एक खाता खोल सकते हैं, जो उसके 10 वर्ष के होने तक जमाराशि पर अधिकतम ब्याज दर देगा। न्यूनतम निवेश राशि हजार रुपए और अधिकतम डेढ़ लाख रुपए है। खाता खोलने के बाद 15 वर्षों तक इसमें धनराशि जमा
रखी जा सकती है, यह कर मुक्त होगी। अब तक 96 लाख से अधिक खाते खोले गए हैं जिनमें कुल 7817 करोड़ रुपए जमा किए गए हैं। केवल महिलाओं का विकास संपूर्ण विकास नहीं है। आज, हमें महिला विकास से आगे बढ़ कर महिला नीत विकास की ओर बढ़ना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (शेष अगले अंक में)
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खेल
02 - 08 जुलाई 2018
साहू मेवालाल
‘तुम्हें यह देश कभी नहीं भूलगे ा’
1951 के एशियन गेम्स में ईरान के खिलाफ विजयी गोल दागकर मेवालाल ने भारत को गोल्ड मेडल दिलाया था। तब पंडित नेहरु ने कहा था कि देश अपने इस महान खिलाड़ी को कभी नहीं भूल पाएगा
बा
एसएसबी ब्यूरो
इचुंग भूटिया जैसे कुछ प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के कारण फुटबॉल को लेकर देश में नए सिरे से दिलचस्पी जरूर पैदा हुई है, पर यह कम ही लोगों को पता होगा कि इस खेल में भी भारतीय इतिहास रोमांच और सफलता का रहा है। यह अलग बात है कि क्रिकेट की बढ़ी लोकप्रियता के कारण फुटबॉल जैसे खेल में मिली स्वर्णिम सफलता का इतिहास आज ज्यादातर लोगों को नहीं पता है। यही कारण है कि अगर किसी खेल प्रेमी से आप पूछें कि 1951 के एशियन गेम्स में ईरान के खिलाफ विजयी गोल दागकर किस खिलाड़ी ने भारत को गोल्ड मेडल दिलाया था तो शायद जबाव में निराशा ही हाथ लगे। दरअसल, यह न सिर्फ भारतीय फुटबॉल के इतिहास का बल्कि खेलों के इतिहास का भी एक स्वर्णिम क्षण था और इस क्षण ने ही रातोरात फुटबॉलर मेवालाल का देशभर के खेल प्रेमियों की आंखों का तारा बना दिया था। एशियन गेम्स में ईरान के खिलाफ मेवालाल के विजयी गोल से खुश होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा था, ‘तुम्हें यह देश कभी नहीं भूलेगा।’ दुर्भाग्य देखिए कि आज मेवालाल को देश तो क्या याद करेगा, वह बिहार भी भूल गया है, जहां इस प्रतिभाशाली खिलाड़ी का जन्म हुआ था। मेवालाल का जन्म बिहार के नवादा जिले के हिसुआ ब्लॉक के दौलतपुर गांव में हुआ था।
32 हैट्रिक का रिकॉर्ड
मेवालाल फुटबॉल के बड़े खिलाड़ी थे। उनका पूरा नाम साहू मेवालाल था। लंदन (1948) और हेलसिंकी (1952) ओलंपिक में वे भारतीय फुटबॉल टीम का हिस्सा रहे। प्रथम श्रेणी के मैच में इस खिलाड़ी ने मोहन बगान के खिलाफ हैट्रिक लगाकर सबको चकित कर दिया था। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में उनके नाम 1032 गोल हैं। स्थानीय टूर्नामेंट में उनके 32 हैट्रिक का रिकॉर्ड आज तक बना हुआ है।
ऐसे हुई मेवालाल की तलाश
यह कहानी भी दिलचस्प है। नवादा में मेवालाल के बारे में कोई पक्की जानकारी नहीं थी। पर वहां के चितरघट्टी पंचायत के मुखिया रहे अभय कुमार
को उनके कर्नल भाई निर्भय ने जानकारी दी कि मेवालाल नवादा जिले के रहने वाले थे। अभय कुमार के साथ दौलतपुर प्राथमिक स्कूल की शिक्षिका पुष्पा कुमारी, राजेश मंझवेकर और नृपेंद्र कुमार ने मेवालाल के बारे में सूचना जुटानी शुरू की। इस क्रम में वे मेवालाल के पुत्र कृष्णा लाल, दामाद कृष्ण कुमार राम और बेटी मीरा लाल की तलाश करने में कामयाब रहे। कृष्णा लाल कोलकाता में रहते हैं, तो कृष्ण कुमार राम कोडरमा में। इसके बाद इतिहास में दफन हो चुके इस नायक को सतह पर लाने का काम शुरू हुआ।
पिता चले गए थे कोलकाता
मेवालाल का जन्म एक जुलाई 1926 को हुआ था। उनके पिता महादेव डोम अपनी पत्नी और बच्चे को लेकर कोलकाता चले गए। वहां के फोर्ट विलियम में बगान की देखरेख करने का जिम्मा उन्हें मिल गया। यह 1942-45 के आसपास की बात है। वहां के हेस्टिंग्स ग्राउंड में अंग्रेजी सेना के अफसर फुटबॉल खेला करते थे। किशोर होने पर मेवालाल भी अपने पिता के साथ हेस्टिंग्स जाने लगे। एक दिन संयोग ऐसा रहा कि ग्राउंड के बाहर गई गेंद पर मेवालाल ने अपना पैर जमाया। सधे हुए किक ने ग्राउंड पर मौजूद अंग्रेज अफसरों को चौंका दिया। उन्होंने उस किशोर को बॉल ब्वॉय की जिम्मेदारी दे दी।
बाइसिकल शॉट
दोनों पैर से फुटबॉल पर समान नियंत्रण मेवालाल का कौशल असाधारण था। 1945 में वह फर्स्ट
खास बातें मेवालाल का जन्म बिहार के नवादा जिले में हुआ था स्थानीय टूर्नामेंट में 32 हैट्रिक का उनका रिकॉर्ड आज भी कायम 1951 के एशियन गेम्स के सभी मैच में गोल दागे
प्रथम श्रेणी के मैच में मेवालाल ने मोहन बगान के खिलाफ हैट्रिक लगाकर सबको चकित कर दिया था। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में उनके नाम 1032 गोल हैं डिविजन क्लब आर्यन्स से जुड़े और मोहन बगान जैसी सशक्त टीम के खिलाफ हैट्रिक लगाई। क्लब कॅरियर के दौरान उन्होंने 150 गोल दागे, जबकि संतोष ट्रॉफी में बंगाल की ओर से 39 गोल किए। कलकत्ता फुटबॉल लीग में चार मौकों पर वह सर्वाधिक गोल करने वाले खिलाड़ी थे। प्रतिष्ठित बीएनआर क्लब से भी वह संबद्ध रहे। अपने फुटबॉल कॅरियर के दौरान वह कई यूरोपीय देशों में गए। 1951 के एशियन गेम्स के सभी मैच में उन्होंने गोल दागे थे। फाइनल में तो उनके गोल से ही भारत को गोल्ड मेडल मिला था। हवा में उछलते हुए शॉट लगाने में उन्हें महारत हासिल थी। उसे बाइसिकल शॉट कहा जाता है। यह शॉट आज भी फुटबॉलरों के बीच लोकप्रिय है पर लोग इसके जनक को भूल गए हैं।
स्कूल को दी थी जमीन
मेवालाल की जड़ों के बारे में पता लगाया जाने लगा, तो जानकारी मिली की 70 के दशक में ही उन्होंने दौलतपुर गांव की अपनी पैतृक 81 डिस्मिल जमीन स्कूल के लिए दे दी थी। उनकी ही जमीन पर प्राथमिक स्कूल चल रहा है। शिक्षिका पुष्पा कुमारी और पूर्व मुखिया अभय कुमार कहते हैं, ‘उनके बारे में जब हम जानकारी जुटा रहे थे, तो पता चला
कि कई बार वे अपने गांव आए। 2008 के दिसंबर में मेवालाल के निधन के बाद उनकी याद में एक कार्यक्रम दौलतपुर में किया गया। अब हर साल यह कार्यक्रम हो रहा है।’
मेवालाल के बेटे हैं कृष्णा
मेवालाल के सुपुत्र कृष्णालाल कोलकाता में दक्षिणपूर्व रेलवे में नौकरी करते हैं। बातचीत के क्रम में वह बताते हैं, ‘इतने बड़े खिलाड़ी को सम्मान मिलना बाकी है। बिहार उन्हें पश्चिम बंगाल का मानता है और पश्चिम बंगाल उन्हें बिहार का कहता है। कायदे से वे दोनों राज्यों के थे।’ वे आगे कहते हैं कि 24 फरवरी 2010 को हेस्टिंग्स में एक पार्क का नाम ‘मेवालाल उद्यान’ रखा गया। उनकी इच्छा है कि वहां उनकी प्रतिमा लगे। मेवालाल के बारे में एक दिलचस्प जानकारी यह भी है कि वे महादलित थे। हालांकि उनकी जाति के बारे में सवाल पर अभय कुमार और पुष्पा कुमारी दूसरा ही जवाब देते हैं और यह शायद इसीलिए कि उनके मन में इस महान भारतीय फुटबॉलर के प्रति गहरा सम्मान है। वे कहते हैं, ‘उनकी पहचान जाति से नहीं है। वे महान खिलाड़ी थे।’ 27 दिसंबर, 2008 को 82 वर्ष की उम्र में मेवालाल का लंबी बीमारी के कारण कोलकाता में निधन हो गया।
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कही-अनकही
गौहर जान
‘भारत की पहली रिकॉर्डिंग सुपरस्टार’ गौहर जान भारत की पहली गायिका थीं, जिन्होंने अपने गाए गानों की रिकॉर्डिंग कराई। यही वजह है कि उन्हें ‘भारत की पहली रिकॉर्डिंग सुपरस्टार’ का दर्जा मिला
भा
रत की पहली रिकॉर्डिंग सुपरस्टार गौहर जान के 145वें जन्म दिवस के मौके पर गूगल ने डूडल बनाकर उन्हें विशेष रूप से याद किया। गौहर भारत की उन महान हस्तियों में से एक थीं, जिन्होंने न सिर्फ भारतीय संगीत को नई बुलंदियों पर पहुंचाया बल्कि दुनियाभर में देश का सिर भी गर्व से ऊंचा किया। 26 जून 1893 को जन्मीं भारतीय सिनेमा की मशहूर गायिका का असली नाम एंजलिना योवर्ड था। वह भारत की पहली गायिका थीं, जिन्होंने अपने गाए गीतों की रिकॉर्डिंग कराई। यही वजह है कि उन्हें ‘भारत की पहली रिकॉर्डिंग सुपरस्टार’ का दर्जा मिला है।
बचपन में उत्पीड़न
भारतीय शास्त्रीय संगीत को शिखर पर पहुंचाने वाली गौहर की जिंदगी के पन्ने खोलते हुए यह अहसास होता है कि उनके लिए जिंदगी में कामयाबी का मुकाम हासिल करना इतना आसान नहीं था। गौहर महज 13 साल की उम्र में यौन उत्पीड़न का शिकार हुई थीं। इस सदमे से उबरना उनके लिए आसान नहीं था, पर संघर्ष और लगन के साथ संगीत की दुनिया में अपना सिक्का जमाने में वह कामयाब हुईं। गौहर की कहानी 1900 के शुरुआती दशक में महिलाओं के शोषण, धोखाधड़ी और संघर्ष की कहानी है। गौहर की कहानी को विक्रम संपत ने सालों की रिसर्च के बाद ‘माई नेम इज गौहर जान’ किताब के जरिए सबके सामने रखा। उन्होंने 20 भाषाओं में ठुमरी से लेकर भजन तक गाए हैं। उन्होंने करीब 600 गीत रिकॉर्ड किए थे। यही नहीं, गौहर जान दक्षिण एशिया की पहली गायिका थीं जिनके गाने ग्रामाफोन कंपनी ने रिकॉर्ड किए। 1902 से 1920 के बीच ‘द ग्रामोफोन कंपनी
खास बातें गौहर जान का असली नाम एंजेलिना योवर्ड था 26 जून 1893 को उनका जन्म आजमगढ़ में हुआ था गायन और नृत्य की शुरुआती तालीम गौहर को मां से मिली
ऑफ इंडिया’ ने गौहर के हिन्दुस्तानी, बांग्ला, गुजराती, मराठी, तमिल, अरबी, फारसी, पश्तो, अंग्रेजी और फ्रेंच गीतों के छह सौ डिस्क निकाले थे। उनका दबदबा ऐसा था कि रियासतों और संगीत सभाओं में उन्हें बुलाना प्रतिष्ठा की बात हुआ करता थी।
असली नाम एंजेलिना
गौहर जान का असली नाम एंजेलिना योवर्ड था। उनका जन्म आजमगढ़ में हुआ था। उनके पिता इंजीनियर थे तो मां विक्टोरिया संगीत और नृत्य में प्रशिक्षित थीं और यहीं से गौहर जान यानी एंजेलिना को डांस और संगीत का चस्का लगा। 1879 में एंजेलिना की मां की शादी टूट गई, जिसके बाद वह बनारस आ गईं। गौहर की मां विक्टोरिया जन्म से भारतीय थीं। अपने पति से तलाक होने के बाद विक्टोरिया अपनी 8 साल की बच्ची एंजेलिना को लेकर बनारस चली गई थीं, जहां उन्होंने इस्लाम धर्म अपना लिया और नाम रखा...’खुर्शीद’। मां के साथ साथ गौहर का भी धर्म बदला गया और वो एंजेलिना से गौहर बन गईं। एंजेलिना से गौहर बनने वालीं इस कलाकार का अधिकतर काम कृष्ण भक्ति पर है।
भारत में पहली रिकॉर्डिंग
वह दक्षिण एशिया की पहली ऐसी सिंगर थीं, जिनके न सिर्फ गाने ग्रामोफोन कंपनी ने रिकॉर्ड किए, बल्कि गाने के लिए उन्हें करीब 3000 रुपए दिए गए। यह उस जमाने में बहुत बड़ी रकम थी और और इससे पहले भारतीय उपमहाद्वीप के किसी गायक ने प्रोफेशनली अपने गानों के लिए इतनी बड़ी फीस नहीं वसूली थी। भारतीय संगीत की दुनिया के लिए यह एक तारीखी घटना थी। 1902 में ग्रामोफोन कंपनी के भारत में पहले एजेंट फ्रेड्रिक विलियम ने गौहर को पहली भारतीय आर्टिस्ट के तौर पर चुना था, जो म्यूजिक को रिकॉर्ड करे। 11 नवंबर 1902 को कोलकाता के होटल के एक कमरे को गौहर जान के लिए स्टूडियो में बदला गया था। ये भारत में पहली रिकॉर्डिंग थी। गौहर ने अपनी पहली परफॉर्मेंस 1887 में दरभंगा के रॉयल कोर्ट में दी थी। गौहर जान अपने टैलेंट के कारण काफी मशहूर हो गईं थीं और खूब शानो-शौकत से रहती थीं। अपनी हर रिकॉर्डिंग के लिए वह नए कपड़े और जेवर पहनकर पहुंचती थीं।
‘डांसिग गर्ल’ का टाइटल
कोलकाता में 1896 में गौहर का एक बड़ा शो आयोजित हुआ था, जिसके बाद उन्हें ‘पहली
कोलकाता में 1896 में गौहर का एक बड़ा शो आयोजित हुआ, जिसके बाद उन्हें ‘पहली डांसिग गर्ल’ का टाइटल मिला। गौहर की लोकप्रियता इतनी थी कि उस दौर में उनकी तस्वीर माचिस और पोस्ट कार्ड पर भी छपती थी डांसिग गर्ल’ का टाइटल मिला था। गौहर अपने समय की बहुत फेमस आर्टिस्ट थीं, उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि उस दौर में उनकी फोटो माचिस और पोस्ट कार्ड पर भी छपती थी।
मां का योगदान
गौहर की कामयाबी और शोहरत में उनकी मां का बहुत योगदान था। उन्होंने अपनी मां से ही नृत्य और गायन का हुनर सीखा था। वैसे गौहर ने इसके अलावा रामपुर के उस्ताद वजीर खान और कलकत्ता के प्यारे साहिब से भी गायन की तालीम हासिल की थी। गौहर चूंकि बचपन से ही प्रतिभाशाली थीं, इसीलिए जल्द ही वह ध्रुपद, खयाल, ठुमरी और बांग्ला कीर्तन गाने में पारंगत हो गईं।
एक सौ एक गिन्नियां
19वीं शताब्दी में गौहर जान सबसे महंगी गायिकाओं में शामिल थीं। ऐसा कहा जाता है कि वह सोने की एक सौ एक गिन्नियां लेने के बाद
ही किसी महफिल में जाती थीं और वहां गाती थीं। शुरुआती दिनों में गौहर बेहद अमीर महिला थीं। उनके पहनावे और जेवरात उस वक्त की रानियों तक को मात देते थे। अपनी कमाई का काफी हिस्सा उन्होंने कलकत्ता में निवेश किया, जहां उनकी कई कोठियां थीं। गौहर जान को जब कोई नवाब अपने यहां महफिल सजाने के लिए बुलावा भेजते तो उन्हें लाने के लिए पूरा का पूरा काफिला भेज दिया करते थे, क्योंकि वह बड़े तामझाम के साथ सफर करती थीं। वो अपने गायन और रिकॉर्डिंग उद्योग के शुरुआती दिनों में ही करोड़पति बन गईं।
आखिरी दिनों में अकेली
पेशेवर गायकी के क्षेत्र में गौहर का जलवा 1902 से 1920 तक छाया रहा। डेढ़ दशक से ज्यादा लंबे अपने सुरीले सफरनामे में उन्होंने 600 से ज्यादा गाने गाए। आखिरी दिनों में वो बेहद अकेली हो गई थीं और गुमनामी की हालत में 17 जनवरी 1930 को उनकी मौत हुई।
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सािहत्य कविता
झूठ न बोलो, झूठ न सीखो, काजल
झूठ न बोलो, झूठ न सीखो, यह मानव को भटकाता है, खोता है विश्वास औरों का, जीवन भर ये दुख देता है। जो भी बोलो सच-सच बोलो, सच का साथ कभी मत छोड़ो, थोड़ा बोलो, मीठा बोलो, मानवता से नाता जोड़ो। जो मानव ऐसा करता है, जीवन में आगे बढ़ता है, झूठा मानव ठोकर खाता है, सबकी नफरत भी पाता है। सच प्रकाश है झूठ अंधेरा, जीवन का ये मूल मंत्र है, जिसने भी इसको छोड़ा, आजीवन रहता परतंत्र है।
02 - 08 जुलाई 2018
कर्मज्ञान
म
मधु
हाभारत में कर्ण ने श्री कृष्ण से पूछा, मेरी मां ने मुझे जन्म लेते ही ही त्याग दिया, क्या ये मेरा अपराध था कि मेरा जन्म एक अवैध बच्चे के रूप में हुआ, द्रोणाचार्य ने मुझे शिक्षा देने से मना कर दिया, क्योंकि वो मुझे क्षत्रीय नहीं मानते थे, क्या ये मेरा कसूर था, द्रौपदी के स्वयंवर में मुझे अपमानित किया गया, क्योंकि मुझे किसी राजघराने का कुलीन व्यक्ति नहीं समझा गया... श्री कृष्ण मंद मंद मुस्कुराते हुए बोलेकर्ण, मेरा जन्म जेल में हुआ था। मेरे पैदा होने से पहले मेरी मृत्यु मेरा इंतजार कर रही थी। जिस रात मेरा जन्म हुआ ... उसी रात मुझे मेरे माता-पिता से अलग होना पड़ा... मैंने गायों को चराया और गोबर उठाया। जब मैं चल भी नही पाता था.. तो मेरे ऊपर प्राणघातक हमले हुए।
कोई सेना नहीं, कोई शिक्षा नहीं, कोई गुरुकुल नहीं, कोई महल नहीं, मेरे मामा ने मुझे अपना सबसे बड़ा शत्रु समझा। बड़े होने पर मुझे ऋषि सांदीपनि
कविता
झूठ का महल
ए
मेरे सपने प्रियंका
पंछी की तरह उड़ जाऊं मैं लोगों से कुछ अलग कर दिखाऊं मैं आसान जिंदगी तो सब जीते हैं कांटों की राह पर चलकर फूल बनकर खिल जाऊं मैं
ज्वाला
क राजा के दरबार में एक कारीगर सालों से काम करता था। उसने राजा के लिए कई बेशकीमती महलों का निर्माण किया और बहुत सारा धन अर्जित कर लिया। एक दिन उसके मन में विचार आया कि अब मैंने इतना धन इकट्ठा कर लिया है कि अब मैं अपनी बाकि बची हुई जिंदगी आराम से गुजार सकता ह।ूं क्यों ना अब में राजा के लिए कारीगरी का काम छोड़ कर अपनी बाकी जिंदगी एशो-आराम से जिऊं! यही सब सोच कर वह राजा के महल में पहुंचा और उसने राजा से अपने मन की बात कही। राजा ने कारीगर की पूरी बात बड़े ध्यान से सुनी और कारीगर से कहा कि तुमने हमारे लिए कई बेशकीमती महलों का निर्माण किया है...हमारे राज्य में तुम जैसे कुशल कारीगरों की बहुत आवश्यकता है। लेकिन जैसा की तुमने बताया कि अब तुम यह काम नहीं करना चाहते, हम तुम्हें स-सम्मान जाने की इजाजत देते हैं, लेकिन हमारी बड़ी दिली तमन्ना थी, कि हम रानी के लिए एक सुदं र महल का निर्माण करवाए।ं अगर तुम हमारे लिए उस महल का
निर्माण कर सको तो हमें बड़ी खुशी होगी। कारीगर ने सोचा, मैंने अपनी पूरी जिंदगी राजा की सेवा की है, अगर में इस महल का निर्माण नहीं करूंगा तो राजा मुझसे नाराज हो जाएगा। इसीलिए कारीगर ने महल बनाने के लिए हां कर दी और महल के निर्माण में जुट गया। काम करते-करते अचानक उसके मन में विचार आया की क्यों ना जल्दी से इस महल का निर्माण करके में विदेश यात्रा पर निकल जाऊं। बस फिर क्या था, कारीगर ने जल्दी काम खतम करने के चक्कर में भुसभुसी दीवारें खड़ी कर दी। दीवारों पर ऊपर से सीमेंट की परत चढ़ती गई, मगर अंदर से खोखली। ऊपर से सोने जैसी चमक-दमक वाला महल जब बन कर तैयार हुआ कारीगर फटाफट राजा की सेवा में उपस्थित हुआ और बोला,
के आश्रम में जाने का अवसर मिला। मुझे बहुत से विवाह राजनीतिक कारणों से या उन स्त्रियों से करने पड़े ...जिन्हें मैंने राक्षसों से छुड़ाया था! जरासंध के प्रकोप के कारण मुझे अपने परिवार को यमुना से ले जाकर सुदूर प्रांत में समुद्र के किनारे बसाना पड़ा। हे कर्ण, किसी का भी जीवन चुनौतिओं से रहित नहीं है। सबके जीवन मे सब कुछ ठीक नहीं होता । सत्य क्या है और उचित क्या है? ये हम अपनी आत्मा की आवाज से स्वयं निर्धारित करते हैं! इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितनी बार हमारे साथ अन्याय होता है, इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितनी बार हमारा अपमान होता है, इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि कितनी बार हमारे अधिकारों का हनन होता है। फर्क तो सिर्फ इस बात से पड़ता है कि हम उन सबका सामना किस प्रकार कर्मज्ञान के साथ करते हैं। कर्मज्ञान है तो जिंदगी हर पल मौज है, वरना समस्या तो सभी के साथ रोज है।
महाराज, महल तैयार है। अगले दिन राजा महल का निरीक्षण करने आया। महल वास्तव में बहुत ही आकर्षक और सुदं र दिखाई दे रहा था। राजा ने कारीगर की बहुत प्रशंसा की और बोला, मैं तुम्हारे काम से बहुत प्रसन्न हूं...और सोच रहा हूं क्यों ना यह महल तुम्हें ही पुरुस्कार में दे दू।ं इतना कह कर राजा ने वह महल उस कारीगर को पुरुस्कार में दे दिया और वहां से चला गया। राजा के जाने के बाद, कारीगर अपने किए पर बहुत पछताया और मुहं छिपा कर रोने लगा। कहानी का तर्क यही है, कि जो दूसरों के लिए गड्ढ़ा खोदता है सबसे पहले वही उस गड्ढ़ा में गिर जाता है। जो झूठ फरेब का महल खड़ा करता है, उसी के हिस्से में वह पड़ता है।
खुद को कुछ ऐसा बनाऊं मैं कि बड़ी भीड़ में सबसे आगे निकल जाऊं मैं दुनिया के किसी भी कोने में जाऊं अपनी सूरत से नहीं, हुनर से पहचानी जाऊं मैं सबको अपना एक रंग दिखाऊं मैं कि दुनिया की आंखों में बस जाऊं मैं हर परीक्षा को पार कर लूं एक दिन आसमान को छू जाऊं मैं
आओ हंसें
झूठी तारीफ पति : तुम बहुत प्यारी हो। पत्नी : थैंक्स डियर। पति : तुम बिल्कुल राजकुमारी जैसी हो। पत्नी (खुशी के मारे) : तुम क्यों कर रहे हो जी! पति : बस फ्री था, तो सोचा थोड़ा मजाक ही कर लेते हैं। एग्जाम टाइम
लड़की : तुम मेरे लिए कुछ भी नहीं करते लड़का : तेरे लिए तो मैं उस ऊपरवाले से भी लड़ लेता, पर सोचता हूं कि अभी एग्जाम वाला टाइम है तो कोई पंगा नहीं लेने का।
सु
जीवन मंत्र जो लोग मन को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए मन शत्रु के समान कार्य करता है
डोकू -29
रंग भरो सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी विजेता को 500 रुपए का नगद पुरस्कार दिया जाएगा। सुडोकू के हल के लिए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें
महत्वपूर्ण तिथियां
• 2 जुलाई अंतरराष्ट्रीय खेल पत्रकार दिवस • 3 जुलाई तेरापंथ स्थापना दिवस (जैन), बौद्धों का धर्मचक्र-प्रवर्तन दिवस (सारनाथ) • जुलाई का पहला शनिवार अंतरराष्ट्रीय सहकारिता दिवस • 4 जुलाई स्वामी विवेकानंद स्मृति दिवस • 6 जुलाई श्यामा प्रसाद मुखर्जी जयंती
बाएं से दाएं
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इंद्रधनुष
02 - 08 जुलाई 2018
1. विकास, उन्नयन (3) 3. व्यवधान (3) 6. अंतःपुर (3) 8. पूरी की तरह, एक तला हुआ व्यंजन (3) 10. गरीब (4) 11. फटकार, दुत्कार (3) 12. अगर (4) 15. कमल (3) 17. रघुकुल के श्रेष्ठ (3) 18. लालिमा (2) 20. निज (3) 21. पराई स्त्री, एक नायिका भेद (4) 23. दायाँ (3) 24. अन्न (3) 25. बोझ उठाने का काम, कुलीगिरी (3) 26. शव का वस्त्र (3)
सुडोकू-28 का हल
वर्ग पहेली-28 का हल
ऊपर से नीचे
1. राजनीति की प्रजातांत्रिक सिद्धांत (6) 2. जहाँ तीन रास्ते मिलते हैं (3) 3. दुष्ट, निर्लज्ज (2) 4. लकड़ी काटकर बेचने वाला (5) 5. तात्कालिक (2) 7. गोला (3) 9. सेना का निगरानी ठिकाना (2) 13. ऋण चुकाने में असमर्थता (3) 14. गुजर बसर (3,3) 16. ईश्वर, विश्व को आश्रय देने वाला (5) 19. लेप करना (3) 20. सर्प (2) 22. धोबी (3) 23. दला हुआ अन्न (2) 24. सखी, पैगम्बर (2)
कार्टून ः धीर
वर्ग पहेली - 29
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न्यूजमेकर
02 - 08 जुलाई 2018
अनाम हीरो
मनोज कुमार सैनी
देसी सुपरमैन
जान पर खेलकर अब तक सात लोगों को खुदकुशी करने से बचा चुके फल विक्रेता मनोज को लोग आजकल ‘देसी सुपरमैन’ कहकर बुलाते हैं
हॉ
लीवुड फिल्मों से लेकर कॉमिक्स की दुनिया तक सुपरमैन को सबसे शक्तिशाली माना जाता है। वह आखिरी वक्त पर आकर लोगों की जान बचा लेता है। सभी उसे मसीहा मानते हैं। सुपरमैन के पास वो सभी शक्तियां हैं, जो किसी के पास नहीं। भारत में भी एक शख्स ऐसा है, जिसे लोग सुपरमैन मानते हैं। इस देसी सुपरमैन की कहानी भी कॉमिक्स और फिल्मों के सुपरमैन से मिलती-जुलती है। लेकिन इनके पास कोई सुपर पॉवर नहीं है और न ही कोई फैंसी सूट। ये है उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में रहने वाला मनोज कुमार
सैनी, जिसे लोग सुपरहीरो मान रहे हैं। मनोज कुमार सैनी फलों की दुकान लगाते हैं, पर अब उनकी पहचान देसी सुपरमैन के रूप में ज्यादा है। मनोज मुजफ्फरनगर के भोपा एरिया के गंगा नहर के पास फलों की दुकान लगाते हैं। यह जगह सुसाइड प्वॉइंट के नाम से भी जाना जाता है। यहां कई लोगों ने सुसाइड किया है। पिछले 1 वर्ष में मनोज कुमार सैनी ने 7 लोगों की जान बचाई है। बातचीत के क्रम में मनोज बताते हैं, ‘पहली बार मैंने जब देखा कि एक लड़का नहर में कूदकर सुसाइड करने की कोशिश कर रहा है तो मैं घबरा गया। कुछ मिनट तक तो मैं देखता रहा। मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। फिर मैंने ठान लिया कि मैं इस शख्स की जान बचाकर रहूंगा। जैसे ही वो कूदा तो मैं पीछे से नहर में कूद गया और उसकी जान बचाई।’ यह सुसाइड प्वॉइंट मुजफ्फरनगर से 16 किलोमीटर दूर है। हाल में मनोज ने सांतवीं जिंदगी बचाई है, जिसके बाद पुलिस स्टेशन बुलाकर उनकी बहादुरी के लिए हजार रुपए देकर उन्हें सम्मानित किया गया। बहादुरी के चर्चे और देसी सुपरमैन के तौर पर छाई लोकप्रियता को लेकर मनोज खुशी तो जताते हैं, पर साथ में यह भी कहते हैं कि ऐसा वह किसी लालच में नहीं करते हैं। उनके ही शब्दों में, ‘मुझे इतना पता है कि मैं किसी को अपनी आंखों के सामने मरता नहीं देख सकता। बस।’
चार भारतीय दिव्यांग
ए
चार दिव्यांगों ने पार किया इंग्लिश चैनल
अटल इरादे और हौसले से भरे चार दिव्यांग भारतीयों ने 36 किमी लंबा इंग्लिश चैनल 12 घंटे 26 मिनट में पार करने का रिकॉर्ड बनाया
क बार मंजिल तय करने का निश्च्य कर लिया तब फिर किसी तरह की बाधा राह में रोड़ा नहीं बन सकती। इस बात को साबित किया है भारत के विभिन्न राज्यों के चार दिव्यांगों ने। इन चारों ने इंग्लिाश चैनल को पार करने का निर्णय लिया और 36 किलोमीटर लंबा इंग्लिश चैनल 12 घंटे 26 मिनट में पार करने का रिकॉर्ड बनाया। कई महीनों से ट्रेनिंग ले रहे इन चार तैराकों की टीम में मध्य प्रदेश के सत्येंद्र सिंह लोहिया, राजस्थान के जगदीशचंद्र तैली, महाराष्ट्र के चेतन राउत और बंगाल के रिमो शाह शामिल हैं। इंग्लिश चैनल पार करने वाली इस पहली एशियाई टीम में शामिल चारों तैराकों के लिए यह रिकॉर्ड कायम करना आसान नहीं था। किसी के पास पैसों की दिक्कत आई, किसी को तानों का सामना करना पड़ा तो किसी ने झील में तैरकर अथाह समुद्र से टकराने का हौसला जुटाया। ग्वालियर निवासी 31 वर्षीय सत्येंद्र को दिव्यांग होने की वजह से बचपन से ही ताने दिए जाते थे। इसके बावजूद उन्होंने खुद को कमजोर नहीं होने दिया और गांव की बैसली नदी में तैराकी की शुरुआत की। उन्होंने बताया, ‘अप्रैल 2017 में भोपाल में मध्य प्रदेश के खेल विभाग के अधिकारियों से मैंने इंग्लिश चैनल पार करने की
इच्छा जाहिर की थी। अधिकारियों ने हंसी उड़ाते हुए भोपाल का बड़ा तालाब तैरकर पार करने का चैलेंज दिया था। दोनों पैरों से 75 फीसद दिव्यांग सत्येंद्र ऐसे पहले भारतीय हैं, जिन्होंने 75 फीसदी दिव्यांगता के बावजूद भी अरब सागर में 36 किलोमीटर तक तैराकी की है। इसी तरह, जगदीश चंद्र तैली ने राजसमंद झील से तैराकी का सफर शुरू किया था। जगदीश बाएं पैर से 55 प्रतिशत दिव्यांग हैं। चेतन राउत दाएं पैर से 50 प्रतिशत तक दिव्यांग हैं। चेतन के पिता स्कूल में चपरासी हैं। जाहिर है उनके लिए भी इतनी बड़ी कामयाबी तक पहुंचने का सफर आसान नहीं था।
सृष्टि जैन और अंकित क्वात्रा
ी क े न ा मिट ख ू भ अनूठी पहल सृष्टि जैन और अंकित क्वात्रा द्वारा शुरू की गई संस्था ‘फीडिंग इंडिया’, रोजाना दावतों में बर्बाद हो रहे खाने को इकट्ठा कर हजारों भूखे लोगों की भूख मिटाती है
ह
मारे देश में हर रोज न जाने कितना खाना बर्बाद होता है। होटलों, रेस्टोरेंट, शादी-पार्टी यहां तक कि घरों में बचा हुआ खाना फेंक दिया जाता है। वहीं इसी देश का एक दूसरा चेहरा यह भी है कि न जाने कितने ऐसे लोग हैं, जो हर रोज भूखे सोते हैं। दिल्ली में ऐसा ही एक एनजीओ है जिसका नाम है- फीडिंग इंडिया। इसका काम है रोजाना भूखों का पेट भरना। सृष्टि जैन और अंकित क्वात्रा फीडिंग इंडिया के संस्थापक हैं। फीडिंग इंडिया की शुरुआत 2014 में हुई थी। सृष्टि बताती हैं, ‘मैं और मेरे सहयोगी अंकित एक शादी समारोह में गए थे। वहां हमने देखा कि बहुत सा खाना बर्बाद हो रहा है। उन दिनों हम लोग एक कंपनी में काम करते थे। इतना खाना बर्बाद होता हुआ देखकर हम दोनों ने कई संस्थाओं से संपर्क किया। पर इस बारे में कुछ करने से सबने मना कर दिया। उसके बाद हम दोनों ने अपनी कॉरपोरेट जॉब छोड़ दी और फीडिंग इंडिया की शुरुआत की।’ इस अनूठी संस्था के आज 65 शहरों में 8500 वालेंटियर हैं। खाना लाने और ले जाने में वालेंटियर की परेशानी को देखते हुए एक ई-व्हीकल की शुरूआत की गई है। विश्व भुखमरी दिवस पर लॉन्च हुए ‘दिल्ली की जान’ नाम के इस वैन की खासियत है कि यह इलेक्ट्रिक वैन है इसमें 9,000 लीटर का फ्रिज वाला स्टोरेज बॉक्स है। इस वजह से अब खाना लाने में काफी आसानी रहती है। ये वैन चौबिस घंटे और सातों दिन काम करती है। फीडिंग इंडिया के को-फाउंडर अंकित क्वात्रा को उनके काम के लिए 2017 में यंग लीडर्स अवॉर्ड मिल चुका है।
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 29