सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 37)

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स्वच्छता

गरीबी और अस्वच्छता से साझा संघर्ष

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व्यक्तित्व

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नोबेल महिला वैज्ञानिक का संघर्ष

न्यूजमेकर

त्रासदी पर भारी तारणहार

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

बदलते भारत का साप्ताहिक

वर्ष-2 | अंक-37 |27अगस्त - 02सितंबर 2018

सुलभ के आकर्षण में बंधे इंद्रेश

राष्ट्रीय स्वयंसेवक के अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य इंद्रेश कुमार पिछले दिनों सुलभ ग्राम पधारे और सुलभ के निर्मल और पवित्र रंग में कुछ ऐसे रंग गए कि घड़ी की सुईयां थम-सी गईं। उनकी आत्मीयता से सुलभ ग्राम अभिभूत हुआ और सुलभ प्रेम में वे डूबे हुए दिखे


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रा

सुलभ

संजय त्रिपाठी

ष्ट्रीय स्वयंसेवक के अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य इंद्रेश कुमार जब सुलभ प्रांगण में आए तो सुलभ का हृदय खुल गया। स्वयं सुलभ संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। सुलभ परंपरा के अभिवादन और स्वागत को इंद्रेश जी ने भी हृदय से लगाया। सुलभ प्रांगण में उनके स्वागत के

खास बातें

सुलभ संसार का केंद्र है और पाठक जी उसके इंद्र – इंद्रेश जी ईश्वर ने संसार को बनाया मैंने एक छोटा-सा सुलभ संसार- डॉ. पाठक जो भी सुलभ से जुड़ा है उसके लिए स्वर्ग का मार्ग खुला है- इंद्रेश जी

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लिए मौजूद थीं अलवर-टोंक की पूर्व स्कैवेंजर और आज की ब्राह्मणिगण, वृंदावन और बनारस की विधवा माताएं और उनके साथ थीं हिरमथला की महिलाएं, जहां सुलभ ने हर घर में शौचालय बनाया है और पश्चिम बंगाल के लोग जहां आर्सेनिक रोग से पीड़ित लोगों के लिए सुलभ ने शुद्ध पेयजल का प्रबंध किया है, सभी ने इंद्रेश जी को अपना परिचय भी दिया और पुष्पगुच्छ से उनका स्वागत किया। बतौर एक गाईड के रूप में सुलभ की समस्त गतिविधियों का परिचय स्वयं डॉक्टर पाठक ही दे रहे थे। इंद्रेश जी की उत्सुकता और प्रश्नों का उत्तर स्वयं डॉक्टर पाठक ही दे रहे थे। सुलभ के आविष्कारों, खासकर टू-पिट पोरफ्लश टॉयलेट, बायोगैस, सुलभ पब्लिक स्कूल और इसके बाद म्यूजियम को लेकर उनका आकर्षण कुछ ऐसा था कि करीब 5 घंटे उन्होंने सुलभ प्रांगण में बिताए। यह पहला मौका नहीं था, जब कोई अतिथि स्वागत-सत्कार के बाद सुलभ प्रांगण से जल्द ही निकल गए। सुलभ प्रांगण का आकर्षण ही कुछ ऐसा है कि लोग ठहर जाते हैं। सुलभ की तकनीकों और कार्यों की जानकारी लेते हुए इंद्रेश जी जब सुलभ-सभागार में आए तब तक सभागार भर चुका था, उनको देखने और सुनने के लिए। जोरदार तालियों से एक बार

पुनः उनका स्वागत हुआ। मंच पर सुलभ परंपरा के अनुसार उनका स्वागत हुआ। सभागार में इंद्रेश जी और दिल्ली विश्वविद्यालय के सहायक प्रो. सूर्य प्रकाश पांडे का सुलभ की प्रेसिडेंट और पूर्व स्कैवेंजर उषा शर्मा ने शॉल और माला से स्वागत किया। इंद्रेश कुमार का प्रशस्ति-

पत्र सुलभ पब्लिक स्कूल की 9वीं कक्षा की छात्रा मेघा कुमारी ने पढ़कर सुनाया। अपने स्वागत भाषण में सुलभ संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने चिंतक, दार्शनिक और संघ के प्रचारक इंद्रेश जी के लिए कहा कि वैसे तो आपने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है, लेकिन आपने देश के


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लिए जो योगदान दिया है वह सोशल इंजीनियरिंग का है। समाज का जो ताना-बाना है, वह कैसे अच्छेसे-अच्छा बने, कैसे भारत की अस्मिता सुरक्षित रह सके, लोगों के बीच यह संदेश पहुंचाने का काम किया है। सुलभ परिवार आज गद्गद है, आपको अपने प्रांगण में देखकर। भगवान ने इस संसार को बनाया है और मैंने भी अपना एक छोटा-सा सुलभ संसार बनाया। और इस सुलभ संसार का उद्देश्य है, समाज में जो समस्याएं हैं, उनका समाधान ढूंढना। संसार प्रेम से ही बसता है, घृणा से वह उजड़ जाएगा। आपने भी देश को प्रेम का पाठ पढ़ाया है। मैंने तकनीक की पढ़ाई नहीं की, लेकिन तकनीकों का आविष्कार किया है, जिसे आपने यहां देखा और समझा। सुलभ तकनीक का जो आविष्कार मैंने किया है, वह अगर नहीं होता तो आज भी ​िसर पर मैला ढोने की प्रथा हमारे सामने होती, क्योंकि सीवर और ड्रैनेज सिस्टम इसका समाधान नहीं बन सकता। गांधी जी का मानना था कि जो ​िसर पर मैला ढोने का काम करते हैं, उन्हें इस काम से मुक्त कर समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जाए। सुलभ ने यह काम तो किया ही, साथ ही साथ हमने एक और सिद्धांत अपनाया कि अगर हम धर्म का परिवर्तन कर सकते हैं तो जाति परिवर्तन क्यों नहीं? जाति चुनने का अधिकार हम उन्हें क्यों नहीं दे सकते?

इन महिलाओं ने जो आज आपके सामने पीली साड़ी में खड़ी हैं, अपनी जाति ब्राह्मण के रूप में चुनी। यह प्रयोग अलवर और टोंक ही नहीं, पूरे देश में हो सकता है, अगर आप सभी का सहयोग मिला तो। देश में ​िसर पर मैला ढोने की प्रवृत्ति तो समाप्त हो चुकी है, लेकिन जो सामाजिक मान्यता उन्हें मिलनी चाहिए, वह अभी बाकी है। मैं जब 25 साल का था, तब यह कार्य शुरू किया। आज 75 वर्ष का हूं। पूरे 50 साल लग गए, उषा -जैसी हजारों महिलाओं को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में। आपके सामने वे माताएं भी हैं जाे वृंदावन और बनारस के विधवा आश्रमों में अपनी बदहाल जिंदगी गुजार रही थीं। हमने उन्हें भी वो जिंदगी देने की कोशिश की, जो इनका अधिकार था। आज ये सभी होली खेलती हैं, दीपावली मनाती हैं। सुलभ सभागार को संबोधित करने के पूर्व इंद्रेश जी ने उषा शर्मा को शॉल और माला से सम्मानित किया और कहा, ‘मैंने आप सभी को एक ईश्वर और एक रक्त, एक रिश्ते में याद किया, रिश्तेदारी में नहीं किया है। मां-बेटा, भाई-बहन कौन होंगे, यह ईश्वर तय करता है। चाचा, ताऊ, मामा और मौसा कौन होंगे, यह मनुष्य तय करता है, इसीलिए मैंने उसी ईश्वरीय रिश्ते में आपको स्मरण किया

सुलभ

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जो माफी मांगना जानता है और जो माफ करना जानता है वो दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी होता है। माफी मांगना ही मनुष्य का श्रेष्ठ गुण है। किसी को माफ दुनिया में कोई कर सकता है तो वो ईश्वर है है। सुलभ के बारे में वर्षों से सुना था, बीच-बीच में पाठक जी से मिलना भी होता रहा। आज सुलभ संसार का केंद्र है। पाठक जी उसके इंद्र हैं और आप सब देवी-देवता हैं। आप सबका मैं अभिनंदन करता हूं, स्वागत करता हूं। मुझसे किसी ने पूछा था कि ताकतवर आदमी का लक्षण बताओ। मैंने पहली बात कही थी कि जो माफी मांगना जानता है और जो माफ करना जानता है वो दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी होता है। माफी मांगना ही मनुष्य का श्रेष्ठ गुण है। किसी को माफ दुनिया में कोई कर सकता है तो वो ईश्वर है। इसीलिए माफ करना और माफी मांगना एक ईश्वरीय गुण है। जिसके पास मानवीय एवं ईश्वरीय दोनों गुण हो जाएं, वह व्यक्ति अद्वितीय हो जाता है। जो व्यक्ति सदा प्रसन्न रहे और दूसरों को प्रसन्नता दे, दुनिया में उसको कोई असफल नहीं कर सकता, कोई

जल्दी से मिटा नहीं सकता। वो बहुत ताकतवर होता है। इसीलिए प्रसन्न रहो और प्रसन्नता बांटो। डॉ. विन्देश्वर पाठक यही जिंदगी जी रहे हैं। इसीलिए वे अभिनंदनीय हैं। इसी जिंदगी को जीने में मजा है और यही असलियत है। कंजूस आदमी बड़ा खराब होता है। इसीलिए प्रसन्नता बांटने में कंजूस नहीं बनो, प्रसन्नता बांटने में दिलदार बनो। हम ईश्वर की प्रार्थना करते हैं। अपने लिए मांगो तो स्वार्थ है। नरक मिलता है। जल्दी से भगवान देता भी नहीं है। और दूसरों के लिए मांगों तो निस्स्वार्थ है, थोड़ा स्वर्ग का रास्ता खुलता है, भगवान जरा जल्दी देता है। अपने लिए नहीं सिर्फ दूसरों के लिए मांगो तो मोक्ष का रास्ता खुलता है। भगवान जल्दी से तथास्तु कह देता है। मान लो, आपने भगवान से मांगा कि मुझे अपनी जिंदगी में दस कैंसर पेशेंट का उपचार करने के लिए, पचास बेटियों का विवाह करने के


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सुलभ

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इंद्रेशनामा जन्म: 18 फरवरी, 1949 (समाना, पंजाब) इनके जन्म के लगभग पंद्रह दिन पश्चात उनका परिवार कैथल, हरियाणा में स्थानांतरित हो गया था ।

राम के साथ कोई पद्मश्री, भारतरत्न या विश्वरत्न लगा है? हनुमान जी के साथ लगा है? विवेकादानंद, दयानंद के साथ लगा है? क्योंकि ये लोग काम से पहचाने जाते थे अलंकारों से नहीं लिए और सौ बच्चों को पढ़ाकर जिंदगी रोशन करने के लिए ताकत दें तो भगवान जल्दी तथास्तु कहता है। ऐसा करने से हम गरीब भी नहीं रहेंगे, अनपढ़ भी नहीं रहेंगे, पिछड़े भी नहीं रहेंगे और अपमानित भी नहीं रहेंगे। मैंने इसको जी कर देखा है, इसीलिए मुझे लगता है कि ये सत्य है। इसीलिए जब भी मांगो तो जनकल्याण के लिए मांगो, तो आपकी गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और बीमारी सब अपने आप दूर हो जाएगी। एक अमीर ने अपनी अपनी जेब से दो करोड़ रुपए किसी को दिया और उसको कहा कि दिल्ली जाओ, मुंबई जाओ, अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, चीन जर्मनी, जापान, फ्रांस जाओ और वहां से इस दो करोड़ रुपए में दो ग्राम पुण्य खरीद कर ले आओ। मुझे बताओ दुनिया में दो करोड़ क्या पांच करोड़ में कहीं दो ग्राम पुण्य मिलेगा? नहीं मिलेगा। परंतु जो गरीब है, दुःखी है, पीड़ित है, कमजोर है, असहाय है उनको प्यार करो, उनका सम्मान करो और कुछ मूल्यवान चीजें भी उनको दीजिए लेकिन नफरत से नहीं, एहसान से नहीं, प्यार से दीजिए

और सम्मान से दीजिए। तो एक ग्राम, दो ग्राम नहीं दस-बीस ग्राम पुण्य मिल जाएगा। अमीर पुण्य नहीं कमा सकता। पर गरीब को प्यार करें तो पक्का पुण्य मिल सकता है। जब आप गरीबों के बनते हैं तो समाज में आपको सम्मान मिलता है। अमीर से गरीब बहुत ताकतवर है। वो अमीर आदमी को बड़े आराम से पुण्य भी दिलवाता है, और समाज में सम्मान भी दिलवाता है इसीलिए कहते हैं, कि ‘जो गरीब का है और गरीब का बनता है उसे जिंदगी में सम्मान और सुख मिलता है। अगले जन्म में यमराज उसको कहते हैं कि तेरे लिए स्वर्ग में जगह है। इसीलिए प्रभु ने अपनी लीला से इसे समझाया है। बावन सौ साल पहले एक जगतपति थे। सारे लोग उनको मिलने आते थे। खरबपति लोग भी उनको मिलने आते थे। बड़े-बड़े विद्वान लोग भी मिलने आते थे। बड़े-बड़े अफसर लोग भी मिलने आते थे। एक दिन उस जगतपति को लगा, सारी दुनिया मुझसे मिलने आती है, कहीं लोगों को ये न लगे कि जगतपति अहंकारी हो गया। मुझे भी किसी से

संप्रति:

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य और राष्ट्रीय मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नामक राष्ट्रवादी संगठन के मार्गदर्शक हैं।

शिक्षा:

यांत्रिक अभियांत्रिकी की पढ़ाई पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज, चंडीगढ़ से

संगठन और संघर्ष : - अभियांत्रिकी की शिक्षा पूर्ण होने के बाद 16 जुलाई 1970 को दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक प्रचारक। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से मुसलमानों को जोड़ने के लिए इंद्रेश कुमार ने 24 दिसंबर 2002 को मुस्लिम राष्ट्रीय मंच नाम का संगठन बनाया। - जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद से विस्थाति कश्मीरियों के पुनर्वास, ग्राम सुरक्षा समितियों का गठन। इसके अलावा पूर्व सैनिकों के लिए संगठन, हिमालय परिवार की स्थापना, समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा मंच, भारत- तिब्बत सहयोग मंच, राष्ट्रीय कवि संगम आदि का सांगठनिक शुभारंभ। अमरनाथ यात्रियों के लिए सरकार से भूमि दिलाने वाले आंदोलन का नेतृत्व। - आपातकाल में भूमिगत आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाई। मिलने चलना चाहिए और उन्होंने एक बड़ा अजीब फैसला लिया। किसी ऊंची जाति वाले या पिछड़ी जाति वाले नहीं, अमीर को नहीं, ताकतवर को नहीं, बड़े धनवान को नहीं, वो जो धरती पर सबसे अंत में खड़ा था, शरीर से दिव्यांग था, तन ढंकने के लिए उसके पास कपड़ा नहीं था, सिर छुपाने के लिए छत नहीं थी, भूख मिटाने के लिए रोटी नहीं थी, उससे मिलने चले गए। लोग उस जगतपति को कृष्ण कहते हैं। जिसको वो मिलने गए थे, उसे सुदामा

कहते हैं। कृष्ण सुदामा से मिले, इसीलिए भगवान कहलाए। अगर कृष्ण किसी सम्राट को मिलने चले जाते, किसी बड़े धनपति को मिलने चले जाते तो कृष्ण भगवान नहीं हो सकते थे। जो गरीब है, दुःखी है, पीड़ित है, कमजोर है, असहाय है, उसको नफरत नहीं करो, प्यार करो। उसको धिक्कारो नहीं, गले लगाओ। बड़ा मजेदार होता है। निष्पक्ष होकर काम करेंगे तो उपाधि की जरूरत नहीं है। राम के साथ कोई पद‍‍्मश्री, भारतरत्न या


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विश्वरत्न लगा है? हनुमान जी के साथ लगा है? विवेकानंद, दयानंद के साथ लगा है? क्योंकि ये लोग काम से पहचाने जाते थे अलंकारों से नहीं। अलंकार से वो पहचाना जाता है जिसको ये भय लगता है कि मेरे काम से मेरी पहचान होगी की नहीं। जब काम से पहचान बनती है तो अलंकार पीछे-पीछे घूमता है। अपने काम से अपना कद इतना बड़ा करें, अपने प्यार से अपने मन को इतना सुंदर बना लीजिए कि लोग आपके पीछे-पीछे चलें। सुलभ संसार ने यही काम किया है। मैं आज यहां कहता हूं कि जो भी सुलभ संसार से जुड़ा है उसके लिए स्वर्ग का मार्ग खुला है। अपने वक्तव्य में प्रो. सतेंद्र त्रिपाठी ने कहा, ‘ये बहुत बड़ा सौभाग्य है कि हम लोगों के बीच में इंद्रेश जी पधारे और यहां आकर सुलभ की कार्यशैली और उनके कार्य करने के तरीके को देखा और देखने के

बाद अपना आशीर्वाद दिया। डॉ. विन्देश्वर पाठक जी का बहुत ही महत्त्वपूर्ण कथन है,‘भारतवर्ष की परंपरा दो व्यक्तियों के बीच बनती है और दोनों व्यक्तियों के बीच स्वीकृति बनती है तथा समाज का रूपांतरण होता है। भारत में देखें तो तीन परंपराएं रहीं है,एक परंपरा श्रुति की है, दूसरी परंपरा स्मृति की है और तीसरी परंपरा अनुभव की है। श्रुति की परंपरा मौखिक है। जब कोई चीज लिखी नहीं जाती थी, जब हम आश्रम में जाते थे, पढ़ते थे, गुरु के चरणों के सामने बैठते थे और समाज का रूपांतरण करते थे। जो आज डॉ. विन्देश्वर पाठक जी ने दिया है, वो उस समय की परंपरा रही है। दूसरी परंपरा स्मृति की आ जाती है तो मौखिक परंपरा टूट जाती है। इसमें चीजें हमें लिखी हुई मिल जाती हैं। उनके पढ़ने के बाद भी समाज का रूपांतरण चलता है। चीजें आती हैं और गुण नहीं मिले। फिर भी समाज का

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रूपांतरण होता है। एक और परंपरा है जो भारत में बहुत महत्त्वपूर्ण है। वो है अनुभव की। कोई आदमी पढ़ा-लिखा नहीं है, कोई गुरु नहीं है। लेकिन उसने समाज का रूपांतरण किया है।

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समाज की इस रूपरेखा को तैयार करने में डॉ. पाठक का योगदान ही हमारे लिए गर्व का विषय है। प्रो. त्रिपाठी के इन शब्दों के बाद और राष्ट्रगान के साथ इंद्रेश जी ने सुलभ से विदा ली।


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आयोजन

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संयुक्त राष्ट्र महासभा की नई अध्यक्ष के साथ डॉ. पाठक ने दिल्ली हाट का दौरा किया डॉ. पाठक ने मारिया फर्नांडा एस्पिनोसा गारिस को उनकी अगली भारत यात्रा में सुलभ ग्राम आने के लिए आमंत्रित किया

सं

एसएसबी ब्यूरो

युक्त राष्ट्र महासभा की नव-निर्वाचित अध्यक्षा मारिया फर्नांडा एस्पिनोसा गारिस भारत के दौरे पर हैं। उन्होंने 11 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। उन्होंने कहा कि नई दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी के साथ एक सफल बैठक की, जहां दोनों संयुक्त राष्ट्र की दक्षता में सुधार करने पर सहमत हुए। वहीं भारत सरकार के विदेश मंत्रालय ने राजधानी दिल्ली के आईएनए स्थित दिल्ली हाट में अध्यक्षा गारिस के सम्मान में एक स्वागत बैठक आयोजित की। गारिस ने इस बैठक में, भारत में काम कर रहे विभिन्न गैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों से मुलाकात की। गारिस ने यहां एनजीओ के लोगों से बातचीत की और भारतीय समाज के कल्याण के लिए, वे अपने संबंधित क्षेत्रों में क्या कर रहे हैं, इस बारे में जानकारी प्राप्त की। इस अवसर पर, सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने 73 वें संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) के अध्यक्ष पद पर निर्वाचित होने के लिए मारिया फर्नांडा को बधाई दी और उन्हें शॉल और माला के साथ सम्मानित किया। यूएनजीए की अध्यक्षा के साथ बातचीत के दौरान, डॉ. पाठक ने साल 1968 में शुरू हुए सुलभ आंदोलन की पर्यावरण स्वच्छता, सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता और सामाजिक आंदोलन के क्षेत्रों में मुख्य गतिविधियों पर चर्चा की। उन्होंने यह भी बताया कि वह गांधी के अहिंसा

के आदर्शों का पालन करके समाज को बदलने के लिए कैसे आगे बढ़ें, जिससे अस्पृश्यों के जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आया। साथ ही अस्पृश्यों को ब्राह्मणों और ऊपरी जातियों के संस्कार और अनुष्ठान करने में सहायता की, उन्हें मंदिरों में जाने में और ब्राह्मण परिवारों के साथ भोजन करने में भी मदद की, यह सब इस देश में पहले कभी नहीं हुआ था। डॉ. पाठक ने आगे विस्तार से बताया कि उन्होंने अस्पृश्यों की गरिमा को कैसे सशक्त बनाया और उनके अधिकारों को बहाल करवाया। उन्होंने बताया कि अलवर और टोंक (राजस्थान के कस्बे) में उनके प्रयासों से लोगों की मानसिकता और रवैए में बड़ा बदलाव आया है। अब इन कस्बों में अस्पृश्यता का कोई संकेत नहीं है। अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों ने समाज में खुद के लिए सम्मानित स्थान बनाने में सक्षम हो रहे हैं और वही लोग जिन्होंने पहले उन्हें 'अस्पृश्य' माना था, अब उनके साथ सामाजिक रूप से घुल-मिल रहे हैं और उनके

साथ खाना भी खा रहे हैं। अब, सभी अस्पृश्य लगभग ब्राह्मण बन गए हैं और समाज ने इस बदलाव को स्वीकार कर लिया है। उनका घृणित अतीत अब एक भूला हुआ अध्याय बन चुका है। डॉ. पाठक ने अध्यक्षा को बताया कि महात्मा गांधी को भी इस बात का आभास नहीं था कि अस्पृश्यों के लिए एक दिन भारत में 'ब्राह्मण' की स्थिति प्राप्त करना संभव होगा। डॉ. पाठक ने मारिया फर्नांडा एस्पिनोसा गारिस को उनकी अगली भारत यात्रा में सुलभ ग्राम आने के लिए आमंत्रित किया। डॉ. पाठक ने कहा कि वह व्यक्तिगत रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका उनसे मिलने आएंगे। साथ ही उन्होंने नव-निर्वाचित अध्यक्षा गारिस को सुलभ और इसके प्रमुख कार्य और भारत में स्वच्छता परिदृश्य को बदलने में इसके उत्कृष्ट योगदान के बारे में बतलाया। डॉ. पाठक ने इस मौके पर इक्वाडोर के राजदूत हेक्टर क्यूवा जैकोम से भी मुलाकात की

और उनके साथ बातचीत की। उन्होंने यूएनजीए अध्यक्षा को कॉफी-टेबल किताब “नरेंद्र दामोदर दास मोदी द मेकिंग ऑफ ए लीजेंड” भेंट की। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह बायोग्राफी, उनके जीवन, संघर्ष और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के शीर्ष पद पर पहुंचने के बारे में है, इसे स्वयं डॉ. पाठक ने लिखा है। साथ ही, उन्होंने अध्यक्षा को महात्मा की फोटोबायोग्राफी, ‘महात्मा गांधी’ज लाइफ इन कलर’ पुस्तक भी भेंट की, जिसमें गांधी की लगभग 1,300 रंगीन तस्वीरें हैं। इस पुस्तक का उद्देश्य महात्मा गांधी के जीवन और कार्यों को लोकप्रिय और प्रसारित करके, अहिंसा की सीख और नैतिकता फैलाना है। बाद में, डॉ. पाठक ने यूएनजीए की अध्यक्षा के साथ दिल्ली हाट के विभिन्न स्टालों का दौरा किया, जो भारत के विभिन्न राज्यों की हस्तशिल्प और स्थानीय संस्कृति को दिखाते हैं। उन्होंने कारीगरों द्वारा बनाए गए हस्तशिल्प और अन्य सामानों में गहरी दिलचस्पी भी दिखाई।


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देवी

स्वस्तिका ​त्रिपाठी

ना, मैं वापस क्यों जाना चाहूंगी, जब सबकुछ यहां अच्छा चल रहा है, जब मैं यहां खुश हूं..... ’ हां, वह सच में बहुत खुश है। यह साफ देखा जा सकता है, वह जिस तरह उत्साह से बातें करती है, उनकी आंखों में जिस तरह की चमक दिखती है, जिस तरह वह वृंदावन की माटी में खुशियों की बात करती है, जिस तरह वह टूटी-फूटी हिंदी में बात करने की कोशिश करती है, इन सबसे पता चलता है कि वह बहुत खुश है। वृंदावन में देवी को लगभग एक दशक हो चुका है। वह पश्चिमी बंगाल के नादिया जिले के रानाघाट की रहने वाली हैं। उनकी कहानी, अन्य विधवा माताओं से कुछ खास अलग नहीं है। लेकिन, उनकी जीवन के प्रति आशावादी सोच जरूर बाकी सबसे अलग है। देवी सिर्फ 7 साल की थी, जब उनकी शादी एक 10 साल के लड़के से कर दी गई। जब कोई इस बात को सुनकर आश्चर्य से उनकी ओर देखता है, तो देवी हंस देती हैं जैसे यह उस वक्त के लिए बहुत साधारण बात हो। समय के साथ जीवन आगे बढ़ा, बालपन से गृहस्थ जीवन में प्रवेश हुआ और देवी ने एक लड़की

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जेंडर

खुशियों से भागने का क्या मतलब... देवी की कहानी अन्य विधवा माताओं से कुछ खास अलग नहीं है। लेकिन, उनकी जीवन के प्रति आशावादी सोच जरूर बाकी सबसे अलग है

को जन्म दिया। उसका पति दिन भर खेतों में काम करता था, और वह घर पर अन्य काम के साथ बच्ची की देखभाल करती थी। उसका परिवार छोटा था, इसीलिए पैसों की भी कोई समस्या नहीं थी। वह अपनी जिंदगी में खुश थी। जब लड़की बड़ी हो गई, तो उन्होंने उसके लिए वर तलाशना शुरू कर दिया। उस वक्त समाज में शादियां जल्दी होती हो जाती थीं, देवी की खुद की शादी बहुत कम उम्र में हो गई थी, इसीलिए समाज का भी दबाव था कि जल्द ही वह अपनी बेटी के लिए एक अच्छा सुयोग्य वर ढूंढे।

हम यहां खुश हैं और सबको दूसरों को भी वहीं रहना चाहिए जहां उसे खुशियां मिले। और इस तरह, खुशियों से मुंह नही मोड़ना है

फिर देवी ने अपनी क्षमता के अनुसार धूमधाम से अपनी बेटी की शादी कर दी। अब देवी को सिर्फ अपने पति का सहारा था। उसका पहले से ही छोटा परिवार अब और छोटा हो चुका था। लेकिन फिर भी एक-दूसरे के प्यार सहारे वो खुश थे। लेकिन समय के साथ, देवी के पति को सांस की बीमारी ने जकड़ लिया। लगातार उसके पति की पति हालत, इस बीमारी की वजह से खराब होती गई और एक दिन आखिरकार काल ने उसके पति को छीन लिया। सांस की बीमारी ने सांसों का चलना रोक दिया और देवी अपनी जिंदगी में अकेली रह गई। अब देवी की जिंदगी में वैधव्य का सफेद रंग घर कर चुका था। उसका जीवन सिर्फ एक रंग का ही नहीं, बल्कि नीरस भी हो चुका था। वह अपने पति के गुजर जाने से दुखी थी, लेकिन फिर भी उसे जीवन से कोई शिकायत नहीं थी। देवी कहती हैं, ‘जो होना है, वो तो होगा ही, उसे आप रोक नहीं सकते। आपका इस पर कोई वश नहीं है। इसीलिए जीवन से शिकायत करने का कोई मतलब नहीं है।’ वक्त गुजरा, देवी अपनी अकेली जिंदगी में किसी तरह आगे बढ़ी। फिर एक दिन, उसके कुछ पड़ोसी वृंदावन जा रहे थे और उन्होंने देवी से साथ चले को कहा। देवी ने पहले से ही वृंदावन के बारे में सुन रखा था। उसे पता था कि वैधव्य का जीवन जीने वाली बहुत-सी महिलाएं शांति की तलाश में राधा-रानी की भूमि वृंदावन आती हैं। इसीलिए देवी भी वृंदावन आने के लिए तुरंत तैयार हो गईं। वृंदावन पहुंचकर देवी को कुछ अनोखा और अप्रतिम प्रतीत हुआ। जैसे वहां की माटी में ही कुछ खास हो। देवी कहती हैं, ‘जो कुछ मैंने वृंदावन के बारे में सुना था, सब मुझे वहां पहुंचकर महसूस हुआ। वहां का पवित्र वातावरण मेरे लिए जीवन बदलने वाला था। सब वहां भगवान कृष्ण की भक्ति में डूबे थे। मुझे भी लगा कि मैं यहां शांति पा सकती हूं। मैं कई दिनों तक वृंदावन की सड़कों पर घूमी।

खास बातें देवी की शादी 7 साल की उम्र में 10 साल के लड़के से हुई वैधव्य ने अपने आगोश में उसे समेटा, तो उसने उसे स्वीकार किया आशावादी देवी मानती हैं कि जहां खुशियां दिखें वहीं रहना चाहिए धीरे-धीरे मैं भी कान्हा की भक्ति में डूबने लगी और मेरे तन-मन में शांति और स्थायित्व का भाव उभरने लगा। इसीलिए जब यात्रा के बाद मेरे साथी वापस जाने लगे, तो मैंने वापस जाने से मना कर दिया। मैंने फैसला किया कि मैं अब वृंदावन में ही रहूंगी।’ लगभग 10 साल पहले देवी वृंदावन आई थीं और यहीं की होकर रह गईं। देवी को लगता है कि यह जैसे 10 साल की नहीं, बल्कि कल की ही तो बात हो। वह कई वर्षों से सुलभ इंटरनेशनल द्वारा सहायता प्राप्त ‘मां शारदा महिला आश्रम’ में रहती हैं। देवी बताती हैं कि लाल बाबा (डॉ. विन्देश्वर पाठक) हम सबका अपनी मां, बहनों और बेटियों की तरह खयाल रखते हैं। एक आशावादी और खुशमिजाज व्यक्तित्व के रूप में देवी भजन गाती हैं, अपने साथियों से खूब बातें करती हैं, टीवी देखती हैं और चारों तरफ खुशियां बिखेरती हैं। देवी साल में एक बार अपनी बेटी से भी मिलने जाती हैं। लेकिन वह वापस फिर वृंदावन लौट आती हैं, क्योंकि उसका मन अब वृंदावन में ही बसता है। वह कान्हा की दासी ही बने रहना चाहती हैं। चेहरे पर एक खूबसूरत मुस्कान बिखेरते हुए देवी कहती हैं, ‘हर किसी को वहीं रहना चाहिए जहां उसे खुशी मिलती हो, खुशियों से भागने का कोई मतलब नहीं है। मैं यहां खुश हूं और कान्हा की माटी में ही अंतिम सांस लेना चाहती हूं।’


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राज्यनामा

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ग्राउंड रिपोर्ट

फ्री मेडिसिन स्कीम

मध्य प्रदेश में एक डॉक्टर की सक्सेस स्टोरी

मध्य प्रदेश में फ्री मेडिसिन स्कीम का नाम आज स्वास्थ्य क्षेत्र में चलाई जाने वाली योजनाओं में सबसे पहले लिया जाता है, राज्य के साथ केंद्र सरकार के लिए भी इस योजना का सफल क्रियान्वयन एक सक्सेस मॉडल की तरह है। इस योजना की सफलता के पीछे जिसका सबसे बड़ा योगदान है वे हैं -डॉ. संजय गोयल

भा

रिंचेन नोरबू वांगचुक

रत में स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता और स्वास्थ्य सेवाओं में प्रसार का कार्य बीते कुछ दशकों में काफी तेजी के साथ हुआ है। पर देश में आज भी कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां स्वास्थ्य सुविधाओं का काफी अभाव है। अच्छी बात यह है कि अब इस कार्य को करने के लिए कई संस्थाएं और लोग भी सामने आ रहे हैं। इससे कई इलाकों में सरकारी चुनौती को दूर करने

खास बातें अमेरिकी संस्था ‘एफएचआई-360’ ने योजना की जमीनी पड़ताल की है ‘एफएचआई-360’ ने अपनी रिपोर्ट में इस योजना को सफल बनाया है डॉ. गोयल 2003 बैच के मध्य प्रदेश कैडर के आईएएस अफसर हैं

में मदद मिल रही है, वहीं समाज के सामने सेवा का एक उच्च आदर्श सामने आ रहा है। पंजाब के भटिंडा में जन्मे व पले-बढ़े डॉ. संजय गोयल (बाल रोग विशेषज्ञ) ने कभी भी प्रशासनिक अधिकारी बनने के बारे में नहीं सोचा था। लेकिन जब उन्हें लगा कि समाज में स्वास्थ्य परिणामों में सुधार लाने के लिए एक कुशल प्रशासन की बहुत जरूरत है, तो उन्होंने सिविल सर्विस के बारे में सोचा। बातचीत के क्रम में डॉ. गोयल ने बताया कि कैसे पंजाब के गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में काम करने के बाद उन्हें स्वास्थ्य, बीमारी और गरीबी के दुष्चक्र और किसी भी राज्य के भविष्य के विकास पर इसके प्रभाव के बारे में पता चला।

डॉ. गोयल की कई उपलब्धियां

2003 में मध्य प्रदेश कैडर में डॉ. गोयल एक आईएएस अफसर के तौर पर भर्ती हुए। उनके नाम पर अनेकों उपलब्धियां दर्ज हैं। उन्होंने अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए भरपूर मेहनत की। सीहोर जिले में ग्रामीण स्तर पर आरोग्य स्वास्थ्य केंद्रों के निर्माण में उत्कृष्ट कार्य के लिए उन्हें मुख्यमंत्री उत्कृष्टता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें ग्वालियर जिले को जिला मजिस्ट्रेट के रूप में सिर्फ नौ महीने के दौरान खुले शौच मुक्त (ओडीएफ) क्षेत्र में बदलने का गौरव भी प्राप्त है।

अगर निर्धारित दवा स्टॉक से बाहर है या उपलब्ध नहीं है, तो डॉक्टर की सलाह पर अगली वैकल्पिक दवा निर्धारित की जाती है। डॉक्टरों के परामर्श के अनुसार मरीजों को मुफ्त दवाएं मुहैया कराई जा रही हैं इसके अलावा केंद्र की ‘बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ’ योजना के तहत अभिनव अभियान आयोजित करने के लिए उन्हें सराहना मिली। आज वे राज्य संचालित वितरण और खुदरा आपूर्ति फर्म के प्रबंध निदेशक हैं। डॉ. संजय गोयल की सबसे बड़ी उपलब्धियों में 17 नवंबर, 2012 को राज्य सरकार के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के निदेशक के रूप में शुरू की गई मध्य-प्रदेश सरकार की ‘फ्री मेडिसिन स्कीम’ एक सफल योजना है। मध्य-प्रदेश सरकार ने इस योजना को सभी क्षेत्रों के मरीजों को बुनियादी आवश्यक दवाएं नियमित रूप से उपलब्ध कराने के लिए शुरू किया है। इस योजना के तहत, सभी सरकारी अस्पतालों में जेनेरिक दवाएं निःशुल्क वितरित की जाती हैं। जिला अस्पतालों से उप-स्वास्थ्य केंद्रों तक नि:शुल्क निदान सुविधा (ईसीजी, सोनोग्राफी, इकोकार्डियोग्राफी और एक्सरे परीक्षण) के प्रावधानों के साथ गरीब नागरिक बिना किसी भुगतान के इलाज करवा सकते हैं। अगर निर्धारित दवा स्टॉक से बाहर है या उपलब्ध नहीं है, तो डॉक्टर की सलाह पर अगली वैकल्पिक दवा निर्धारित की जाती है। डॉक्टरों के परामर्श के

अनुसार मरीजों को मुफ्त दवाएं मुहैया कराई जा रही हैं।

‘एफएचआई-360’ की रिपोर्ट

केंद्र सरकार के तहत राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के साथ मिलकर, राज्य सरकार ने इस योजना को कार्यान्वित करने के तरीकों पर एक विस्तृत कार्य योजना बनाई। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर काम कर रहे अमेरिका की एक स्वयंसेवी संस्था ‘एफएचआई-360’ द्वारा तैयार एक रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य सरकार ने कुछ कदम उठाए हैं• आम जन की सुविधाओं के लिए दवाओं की आसान और निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए कई पहल की गईं। जरूरी दवाइयों की लिस्ट में संशोधन किए गए, प्रोक्योरमेंट के लिए सलाहकार नियुक्त किए और डब्ल्यूएचओ जीएमपी (विश्व स्वास्थ्य संगठन अच्छा विनिर्माण अभ्यास) पसर्टिफिकेशन भी शुरू किया गया। समय-समय पर दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए जिला अधिकारियों को निर्देश भेजे गए। • राज्य औषधि प्रबंधन सूचना प्रणाली


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018 (एसडीएमआईएस), एक सूची प्रबंधन सॉफ्टवेयर द्वारा जिला भंडार में दवा भंडार संतुलन की नियमित निगरानी रखी जाती है। साथ ही सभी जिलों में स्कीम के लिए एक विस्तृत कार्य योजना भेजी गई है। हर दिन के दवाओं के लेनदेन के सभी रिकॉर्ड कंप्यूटर में रखे जाते हैं ताकि मूल्यांकन आसान हो। एसडीएमआईएस का उपयोग करके दवा उपलब्धता, ऑर्डर प्लेसमेंट, आपूर्ति प्राप्त आदि की निगरानी हर रोज की जाती है। • लोगों का दवाओं की गुणवत्ता के प्रति आश्वासन बढ़ाने के लिए डब्ल्यूएचओ-जीएमपी द्वारा प्रमाणित दवाइयों को अप्रैल 2013 से दवाओं के टेंडर में शामिल किया गया है। दवाओं और अन्य सर्जिकल वस्तुओं को एनएबीएल (परीक्षण और अंशांकन के लिए राष्ट्रीय मान्यता बोर्ड प्रयोगशालाओं) मान्यता प्राप्त लैब्स में जांच के लिए भेजा जाता है। हालांकि, प्रशासन के सामने सबसे बड़ी चुनौती राज्य के 51 जिलों में दवाओं की खरीद और आपूर्ति श्रृंखला प्रबंधन की निगरानी करना था। • ऐसे में एसडीएमआईएस काम में आया। इससे मांग का पूर्वानुमान लगाया गया, साथ ही हर एक आइटम का रेट कॉन्ट्रैक्ट रखा जाता। इसके अलावा यह ऑर्डर प्लेसमेंट, आपूर्तिकर्ता मॉड्यूल, भुगतान विवरण और स्टॉक विवरण जैसे मुद्दों का ख्याल रखता है। इसके अलावा ‘एफएचआई-360’ रिपोर्ट के मुताबिक, यह प्रणाली ‘अनुमान की मांग के साथसाथ दवा आपूर्ति की स्थिति, कितनी और किस तरह से खपत हो रही है, विक्रेता का प्रदर्शन, भुगतान दक्षता, पूरे खर्च को ट्रैक करना, दवा खत्म होने पर प्रबंधन करना और सूची प्रबंधन की निगरानी करने में भी मदद करती है।’ • गुणवत्ता नियंत्रण के विषय पर, एसडीएमआईएस विक्रेता के प्रदर्शन की जांच करने के लिए डेटा प्रदान करता है, जिसे राज्य खरीद के समय आपूर्तिकर्ताओं के चयन से संबंधित निर्णय लेने के लिए उपयोग कर सकता है। गौरतलब है कि डॉ. गोयल की निगरानी में ही प्रशासन ने ये सारे कुछ कदम उठाए। ‘एफएचआई-360’ द्वारा प्रकाशित आंकड़ो के अनुसार इस योजना का जमीनी प्रभाव काफी कारगर था। जिला और नागरिक अस्पतालों में उपलब्ध दवाओं की संख्या और प्रकारों में बढ़ोत्तरी के अलावा, ब्लॉक स्तर, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और उप-स्वास्थ्य केंद्रों पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में भी मरीजों की संख्या बढ़ने लगी। यह व्यापक रूप से आबादी की बढ़ती मांग और उन तक पहुंच में होने वाली बढ़ोत्तरी का संकेत है।

ओपीडी मरीजों की संख्या बढ़ी

इस रिपोर्ट में कहा गया है, ‘सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में ओपीडी मरीजों की संख्या और आईपीडी प्रवेश क्रमशः 2012 से 2014 तक 85.4% और 33.4% की औसत से बढ़ा। राज्यव्यापी अनुमान से पता चलता है कि 2014 में ओपीडी में संख्या 2.8 करोड़ से बढ़कर 2014 में 5.1 करोड़ हो गई। ओपीडी में मरीजों की संख्या में अधिकतम परिवर्तन 2012 और 2013 के बीच

राज्यनामा

अद्वितीय अनुभव का संतोष

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स्वास्थ्य के क्षेत्र में गरीब लोगों की मदद की एक राज्यव्यापी योजना को सक्सेस मॉडल में बदलने वाले डॉ. संजय गोयल को अपने किए प्रयासों पर खुशी और फख्र है

स्वा

स्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के निदेशक के रूप में डॉ. गोयल का कार्यकाल साल 2014 में खत्म हुआ था। लेकिन जब भी वे पीछे मुड़कर देखते हैं तो उन्हें खुशी होती है कि वे समाज के लिए कुछ करने में कामयाब रहे। उनका कहना है, ‘ऐसे कठिन कार्यों को पूरा करने के बाद आपको जो संतुष्टि

मिलती है, जिसका लाखों लोगों के जीवन पर वास्तविक असर पड़ता है, वह बहुत ही अद्वितीय और बेमिसाल है।’ मध्य प्रदेश में फ्री मेडिसिन स्कीम की सक्सेस स्टोरी लिखने वाले डॉ. गोयल बताते हैं कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्य करने की प्रेरणा उन्हें अपने राज्य पंजाब में कुछ स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को लेकर प्रत्यक्ष अनुभवों के बाद हुई। वे कहते हैं, ‘पंजाब के एक छोटे से गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में एक चिकित्सा अधिकारी के रूप में काम करते हुए मैंने स्वास्थ्य देखभाल, स्वच्छता, शिक्षा (विशेष रूप से वंचित वर्गों की लड़कियों के लिए) और दवाओं की कमी जैसे बुनियादी सुविधाओं की कमी देखी। मुझे एहसास हुआ कि किसी भी समाज की स्वास्थ्य स्थिति न सिर्फ डॉक्टरों की उपलब्धता पर निर्भर है, बल्कि इसके लिए देश के प्रशासन

‘एफएचआई-360’ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में ओपीडी मरीजों की संख्या और आईपीडी प्रवेश क्रमशः 2012 से 2014 तक 85.4% और 33.4% की औसत से बढ़ा 47.4% और 2013 और 2014 के बीच 48.9% पर पीएचसी में देखा गया है; इसके बाद सीएसी 2012 और 2013 के बीच 31.1% और 2013 और 2014 के बीच 42.5% दिखा।’ इस योजना के लागू होने के बाद ग्रामीण स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में ओपीडी मरीजों की संख्या में बढ़ोत्तरी अत्यधिक देखने को मिली। इस बीच, अध्ययन के लिए अव्यवस्थित रूप से चयनित 687 रोगियों का साक्षात्कार किया गया, जिसमें 65% का मानना था कि दवाएं प्रभावी और अच्छी गुणवत्ता वाली थीं, जबकि 78% मानते थे कि इस योजना ने उन्हें स्वास्थ्य सुविधा लेने के लिए प्रेरित किया है। स्थानीय सहायक नर्स मिडवाइव (एएनएम) और मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) मुख्य रूप से इस योजना के बारे में जानकारी प्रसारित करने के लिए जिम्मेदार थे।

योजना को लेकर जागरुकता

रिपोर्ट कहती है कि 687 मरीजों के साक्षात्कार में से औसतन 44% जानते थे कि यह योजना सभी को मुफ्त दवाएं प्रदान करती है, 549 मरीजों को उनके लिए निर्धारित दवाएं मिली हैं, जिनमें से बहुमत (94% औसतन सुविधाएं) को बाहर से दवाएं खरीदने की जरूरत नहीं पड़ी और बहुमत (92% औसतन) को मुफ्त दवाएं मिली। रिपोर्ट के मुताबिक कुल मिलाकर, 52.5% उत्तरदाताओं ने सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में दवाओं और

विभाग में हर एक क्षेत्र के विशेषज्ञों का उच्च पदों पर होना भी जरूरी है।’ पंजाब के एक गांव में मेडिकल अफसर के तौर पर जब वे काम कर रहे थे, तब उनके साथ हुई एक घटना ने उनके जीवन को एक नया मोड़ दे दिया। डॉ. गोयल के ही शब्दों में, ‘एक गरीब लड़की अपने पिता के साथ बार-बार मेरे पास आती थी। उसके पिता एक बंधुआ मजदूर थे, जिन्हें उनकी कमाई के रूप में पैसे नहीं मिलते। लगभग सात साल की होने के बावजूद, उसका सरकारी स्कूल में दाखिला नहीं हुआ, क्योंकि उसके पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं था, जिसके लिए उसके पिता को सबसे पास के तहसीलमुख्यालय तक जाने तक के पैसे नहीं थे। तब मुझे महसूस हुआ कि आम लोगों की जिंदगी में बदलाव लाने के लिए प्रशासनिक तंत्र का हिस्सा होना कितना जरूरी है।’

नैदानिक सेवाओं की उपलब्धता में बदलाव के बारे में सकारात्मक धारणा व्यक्त की थी। हालांकि, इस योजना का सबसे मजेदार पहलू यह है कि कैसे नागरिक अब जिला अस्पताल जाने से पहले स्थानीय पीएचसी जाकर चेक-अप करवाते हैं। डिंडोरी के पहाड़ी क्षेत्र में एक मेडिकल अधिकारी ने एफएचआई 360 सर्वेक्षकों से कहा, ‘इस योजना के लॉन्च होने के बाद से, समुदाय के सदस्य पहले निकटतम पीएचसी से संपर्क करते हैं और उसके बाद, यदि आवश्यक हो, तो जिला अस्पताल जाते हैं।’

संख्या कम होने के कारण ड्रग वितरण काउंटर में विशेष रूप से एक समस्या है। राज्य की राजधानी में एक डॉक्टर के मुताबिक, ‘इस योजना के लॉन्च होने के बाद ओपीडी और आईपीडी में लगभग 50% की वृद्धि हुई है और ड्रग डिस्ट्रीब्यूशन काउंटर में कतार का प्रबंधन सीमित कर्मचारियों के चलते एक बड़ी समस्या बन गया है। कभी-कभी तो मार पीट हो जाती है।’ डॉक्टरों के अनुसार, न्यूनतम दवा सूची पर एक चिंता यह भी कि यह उनकी वास्तविक आवश्यकताओं को नहीं दर्शाता है। कई स्टोर मालिकों ने भी इस भावना को साझा किया। एक डॉक्टर ने कहा, ‘सूची में से लगभग 50 दवाएं वास्तव में अक्सर उपयोग की जाती हैं। ऐसे में बाकी दवाएं रखे-रखे ही एक्सपायरी डेट पर आ जाती है, जिस कारण इन्हें इलाज के लिए प्रयोग में नहीं लाया जा सकता।’

कुछ चुनौतियां अब भी

समस्या के बावजूद सफलता

एफएचआई 360 की रिपोर्ट के मुताबिक, इन उत्साही आंकड़ो के बावजूद कुछ वास्तविक चुनौतियां हैं। सबसे पहले तो वो डॉक्टर जो राज्य की आवश्यक दवा सूची में से निर्धारित दवाएं नहीं लिखते हैं। ऐसे में दवाओं की भरपूर आपूर्ति है, लेकिन फिर भी स्थानीय स्तर पर इन दवाओं की मांग नहीं होती। इसके अलावा हेल्थ वर्करों की भी कमी है, जिससे की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। इस बीच, एक स्टोर कार्यकर्ता ने कहा, ‘कई पीएचसी फार्मासिस्ट द्वारा संचालित होते हैं, जो न्यूनतम दवा सूची में दवाओं के उपयोग को नहीं जानते हैं। इसीलिए, वे उसमें से दवाएं निर्धारित नहीं करते हैं।’ मरीजों की संख्या बढ़ने से और कर्मचारियों की

हालांकि, यह योजना इन सभी चुनौतियों के अलावा राज्य में स्वास्थ्य विभाग की स्थिति बहुत हद तक सुधरने में कामयाब रही है। पेरासिटामोल से लेकर अब कैंसर की दवाओं तक नागरिकों को अत्यधिक खर्च नहीं करना पड़ता है। डॉ. गोयल कहते हैं, ‘चुनौतियां बनी रहती हैं, लेकिन कम से कम हम बुनियादी ढांचे को बनाए रखने में अभी तक सफल रहे हैं।’ बेशक, यह कोई वन मैन शो नहीं था। हजारों डॉक्टरों, सरकारी अधिकारियों, सामुदायिक नेताओं और स्वयंसेवकों के अलावा, वह तत्कालीन स्वास्थ्य आयुक्त पंकज अग्रवाल और प्रधान सचिव प्रवीर कृष्ण को भी इस मुफ्त दवा योजना के कार्यान्वन में मार्गदर्शन के लिए श्रेय देते हैं।


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स्वच्छता

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

माली

गरीबी और अस्वच्छता से साझा संघर्ष

ली अफ्रीका में पूरी तरह थल से घिरा हुआ एक देश है। माली की एक पहचान यह भी है कि विश्व के सबसे अधिक गरीब परिवारों वाले इस देश में स्वच्छता का ग्राफ असंतोषजनक है। उन्नत शौचालयों और शुद्ध पेयजल की उपलब्धता के मामले में माली की स्थिति अच्छी नहीं है। स्वच्छता और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से अलग माली की एक सांस्कृतिक पहचान भी है। यहां की पारंपरिक लोककला और संगीत की काफी चर्चा होती है। यहां आज भी कई कमाल के संगीतकार भी रहते हैं।

इतिहास, संविधान और सत्ता

कभी ट्रांस-सहारा व्यापार पर नियंत्रण रखने वाले तीन साम्राज्यों घाना, माली (जिससे माली नाम लिया गया है) और सोनघाई साम्राज्य का एक हिस्सा था। 1800 के अंत में यह फ्रांसीसी नियंत्रण में आ गया और फ्रांसीसी सूडान का एक हिस्सा

खास बातें माली अफ्रीका का आठवां सबसे बड़ा देश है

प्राकृतिक रूप से माली में जल स्रोतों का काफी अभाव है

निर्धनतम देशों में शुमार

माली अफ्रीका का आठवां सबसे बड़ा देश है। इसका क्षेत्र 12,40,000 वर्ग किलोमीटर दूरी में फैला हुआ है। इसकी जनसंख्या करीब एक करोड़ अस्सी लाख है। इसकी राजधानी बमेको है। माली की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से खेती और मछली पालन पर आश्रित है। यहां प्राकृतिक संसाधनों में सोना प्रचुर मात्रा में है। अफ्रीकी महाद्वीप में यह तीसरा सबसे अधिक स्वर्ण बनाने वाला देश है। इसके अलावा यहां यूरेनियम और नमक भी मिलता है। लेकिन फिर भी लगभग आधे से अधिक नागरिक 1.25 डॉलर प्रतिदिन से भी कम कमा पाते हैं। यही वजह है कि माली दुनिया के सबसे निर्धनतम देशों में शुमार किया जाता है।

है। सूखा पड़ना एक आम बात है। मई के अंत से या जून के शुरूआत में वर्षा शुरू हो जाती है, जो अक्टूबर के अंत या नवंबर से शुरुआत तक रहता है। इस समय के दौरान निगेर नदी में बाढ़ आना भी एक सामान्य सी बात है। वर्षा ऋतु के जाने के बाद नवंबर के शुरू से ही ठंड भी शुरू हो जाता है और फरवरी के शुरुआत तक रहता है। फरवरी के मध्य से लेकर वर्षा की शुरुआत तक का मौसम गर्मी वाला होता है। दिन का तापमान मार्च और अप्रैल में उच्चतम संख्या को पार कर लेता है। यह वर्ष का सबसे गर्म समय होता है।

जल संकट

दिलचस्प है कि पानी की इस तरह की किल्लत को देखते हुए जलापूर्ति को लेकर माली में जिस तरह की भयावह स्थिति की कल्पना की जा सकती है, यह देश उससे उबरने के लिए कई स्तरों पर प्रयास कर रहा है, जिसके कुछ अपेक्षित परिणाम भी देखने

वीजा प्रबंध और छूट

माली की यात्रा करने के लिए कुछ देशों के नागरिकों के लिए वीजा की आवश्यकता नहीं है। इन देशों में अल्जेरिया, एंडोरा, बेनिन, बुर्किना, फासो, केमरून, केप, चाड, कोटे, गांबिया, घाना, गुइना, लिबेरिया, मोनाको, मोरोक्को, निगेर, निगेरिया, सेनेगल, सिएरा लोन, टोगो और ट्यूनीशिया हैं। अन्य सभी देशों के नागरिकों के लिए माली में आने से पहले वीजा लेना अनिवार्य है।

पेयजल और स्वच्छता

अफ्रीकी फ्रैंक

माली की मुद्रा पश्चिमी अफ्रीकी फ्रैंक है। इस मुद्रा का उपयोग अन्य सात पश्चिमी अफ्रीकी देश भी करते हैं। इसे आप मध्य अफ्रीकी फ्रैंक के साथ बदल भी सकते हैं। मध्य अफ्रीकी फ्रैंक का उपयोग 6 देशों द्वारा होता है और इन दोनों मुद्रा का एक निश्चित दर भी तय किया गया है।

स्वच्छ या शोधित शहरी : 96.5% आबादी ग्रामीण : 64.1% आबादी

प्रकृति और भूगोल

आठ क्षेत्रों में बंटे माली की उत्तरी सीमा सहारा के मध्य तक जाती है, वहीं देश की दक्षिणी क्षेत्र, जहां अधिकांश आबादी निवास करती है और यहां की विशेषता नाइजर और सेनेगल नदी है। माली उष्णकटिबंधीय जलवायु क्षेत्र के तहत आता है। देश के अधिकांश भाग में बहुत कम वर्षा होती

को मिल रहे हैं। खासतौर पर शहरी इलाकों में शुद्ध जलापूर्ति के मामले में हाल के दशक में काफी सुधार आया है। पर इसका मतलब यह कतई नहीं कि माली जल-संकट से मुक्त हो चुका है। इसमें जो बात सबसे गौरतलब है कि वहां जो पानी उपलब्ध भी है, उसमें भारी मात्रा में क्लोरीन होता है। इस समस्या से लोगों को निजात दिलाने के लिए यहां कई स्थानीय कंपनियों के सस्ते बोतल मिलते हैं, हालांकि उसे केवल विदेशी या अमीर लोग ही पीते हैं। पानी की गुणवत्ता को लेकर माली की स्थिति इतनी गंभीर है कि यहां घूमने आने वाले पर्यटकों को पानी के सुरक्षित इस्तेमाल के लिए अलग से एडवायजरी जारी की जाती है।

स्वच्छ व उन्नत शहरी : 37.5% आबादी

कुल : 77% आबादी

ग्रामीण : 16.1% आबादी कुल : 24.7% आबादी

(2015 तक अनुमानित)

(2015 तक अनुमानित)

अस्वच्छ या अशोधित

शहरी : 3.5% आबादी ग्रामीण : 35.9% आबादी कुल : 23% आबादी

अस्वच्छ या पारंपरिक

शहरी : 62.5% आबादी ग्रामीण : 83.9% आबादी कुल : 75.3% आबादी

स्वच्छता सुविधाएं

स्वच्छता की उन्नत सुविधा महज एक चौथाई आबादी को ही प्राप्त है

बन गया। 1960 में माली संघ स्वतंत्र राष्ट्र माली बन गया। एक दलीय शासन के लंबे दौर के बाद 1991 में हुए तख्तापलट के बाद गणतंत्र और बहुदलीय राज्य के रूप में नए संविधान और सत्ता का गठन किया गया।

पेयजल स्रोत

मा

एसएसबी ब्यूरो

अफ्रीकी मुल्क माली की गिनती दुनिया के सबसे गरीब देशों में होती है। हालिया दशक में यहां स्वच्छ जलापूर्ति को लेकर काफी उल्लेखनीय कार्य हुए हैं, पर स्वच्छता के मामले यह अब भी एक पिछड़ा देश है

स्रोत : सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक (जनवरी, 2018)


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

ब्रह्मांड में सोच से ज्यादा रहने लायक ग्रह

विविध

उपवास है डायबिटीज की अचूक दवा

पेनसिल्वानिया स्टेट यूनिवर्सिटी के भूवैज्ञानिकों ने रहने लायक ग्रहों या अन्य ग्रहों पर जीवन की तलाश के वक्त वायुमंडलीय में कार्बन डायऑक्साइड के तत्वों को परखा

ब तक जितने ग्रहों को रहने लायक समझा गया था ब्रह्मांड में उससे कहीं ज्यादा ऐसे ग्रह हैं जिनपर जीवन संभव है। एक नए अध्ययन में ऐसा दावा किया गया है। अमेरिका के पेनसिल्वानिया स्टेट यूनिवर्सिटी के भूवैज्ञानिकों ने सुझाया है कि जीवन की माकूल स्थितियों के लिए लंबे समय तक जरूरी मानी गईं टेक्टॉनिक प्लेटें असल में आवश्यक नहीं हैं। रहने लायक ग्रहों या अन्य ग्रहों पर जीवन की तलाश के वक्त वैज्ञानिकों ने वायुमंडलीय में

कार्बन डायऑक्साइड के तत्वों को परखा। धरती पर वायुमंडलीय कार्बन डायऑक्साइड ग्रीनहाउस प्रभाव के माध्यम से सतह के ताप को बढ़ाता है। यूनिवर्सिटी में भूविज्ञान के सहायक प्राध्यापक ब्रैडफोर्ड फोली ने कहा, 'ज्वालामुखीय घटनाएं वायुमंडल में गैस स्रावित करती हैं और फिर चट्टानों की टूट-फूट के जरिए वायुमंडल से कार्बन डायऑक्साइड खींची जाती है और जो बाद में अलगअलग सतही चट्टानों और तलछट तक पहुंचती है।' फोली ने बताया, 'इन दोनों प्रक्रियाओं के संतुलन से वायुमंडल में कार्बन डायआक्साइड एक निश्चित स्तर पर रहता है जो मौसम को संयमित रखने और जीवन के अनुकूल बनाने के लिए जरूरी है।' अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि जिन ग्रहों में टेक्टॉनिक प्लेटें नहीं हैं वहां भी लंबे अरसे तक जीवन संभव है। यह अध्ययन एस्ट्रोबायॉलजी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। (एजेंसी)

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आस्ट्रेलिया के विशेषज्ञों ने दावा किया है कि कैलोरी नियंत्रण के लिए डाइट को नियंत्रित करने की जगह सप्ताह में दो दिन का उपवास रखना ज्यादा कारगर है

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यबिटीज के शिकार लोगों के लिए ब्लड शुगर और वजन को नियंत्रित रखना बेहद जरूरी होता है। इसके लिए डॉक्टर उन्हें संतुलित खानपान या डायटिंग की सलाह देते हैं। मगर ऑस्ट्रेलिया स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ साउथ ऑस्ट्रेलिया के विशेषज्ञों ने दावा किया है कि कैलोरी

नियंत्रित करने वाली डाइट की जगह डायबिटीज को अन्य तरीके से भी नियंत्रित किया जा सकता है। उन्होंने हफ्ते में दो दिन उपवास रखने और पांच दिन सामान्य खानपान रखने का सुझाव दिया है। शोध में उन्होंने दावा किया है कि इस तरह से भी हफ्ते में उनकी कैलोरी की खपत 600 कैलोरी ही रहेगी। दुनिया में पहली बार हुए अपनी तरह के इस शोध में विशेषज्ञों ने दावा कि टाइप 2 डायबिटीज को नियंत्रित करने के लिए वजन बहुत बड़ा कारण है। मोटापा टाइप 2 डायबिटीज होने का बहुत बड़ा कारण है। डायबिटीज नियंत्रित करने के लिए कैलोरी आधारित डायट लेना आम बात है। मगर लीवर में फैट की मौजूदगी से ब्लड शुगर को काबू करना मुश्किल हो जाता है। इससे शरीर इंसुलिन के खिलाफ प्रतिरोध करने लगता है। पूरे हफ्ते नियंत्रित डाइट लेना मुश्किल होता है खासतौर से उन लोगों के लिए जो एक तरह के खानपान पर नहीं टिक पाते हैं। इनकी स्थिति और खराब होने का खतरा होता है। इसीलिए हफ्ते में दो दिन उपवास करना भी बेहतर विकल्प हो सकता है। डायबिटीज के मरीज ऐसे भी अपनी हफ्तेभर की कैलोरी नियंत्रित कर सकते हैं। इसमें लगातार दो दिन उपवास नहीं रखना है, बल्कि अपनी सुविधा से कर सकते हैं। टाइप 2 डायबिटीज के मरीजों को पौष्टिक खाना खाने की सलाह दी जाती है, ताकि उनका ब्लड शुगर का स्तर सामान्य रखा जा सके। (एजेंसी)

दशकों बाद मिली मलेरिया की असरदार दवा

साठ वर्षों की कोशिश के बाद वैज्ञानिकों को 'प्लाजमोडियम विवॉक्स' नामक मलेरिया के इलाज के लिए एक खास दवा बनाने में सफलता मिली है। अमरीका में हाल ही में इसे मंजूरी दी गई है

लेरिया के ठीक होने के बाद भी इसका अंश लीवर में कहीं रह जाता है, जिसकी वजह से इसके बार-बार होने का खतरा रहता है। इस तरह मलेरिया से हर साल विश्व में पीड़ित होने वालों की संख्या 85 लाख है। 'प्लाजमोडियम विवॉक्स' नाम के इस मलेरिया के इलाज के लिए एक खास दवा को हाल ही में अमरीका में मंजूरी दी गई है। पिछले साठ सालों की कोशिशों के बाद वैज्ञानिकों को यह कामयाबी मिली है। इस दवा का नाम टैफेनोक्वाइन है। दुनियाभर के रेगुलेटर अब इस दवा की जांच कर रहे हैं, ताकि अपने यहां मलेरिया-प्रभावितों को इस दवा का फायदा पहुंचा सकें। प्लाजमोडियम विवॉक्स मलेरिया उप-सहारा अफ्रीका के बाहर होने वाला सबसे आम मलेरिया है। यह इसीलिए खतरनाक होता है, क्योंकि ठीक हो जाने के बाद भी इसके दूसरी और तीसरी

बार होने का खतरा होता है। इस तरह के मलेरिया का सबसे ज्यादा खतरा बच्चों को होता है। बारबार होने वाली वाली इस बीमारी की वजह से बच्चे कमजोर होते जाते हैं। संक्रमित लोग इसे और फैलाने का ज़रिया भी बन सकते हैं, क्योंकि जब कोई मच्छर उन्हें काटने के बाद किसी दूसरे को काटता है तो वो दूसरा व्यक्ति भी उस संक्रमण से प्रभावित हो सकता है। यही वजह है कि मलेरिया से जंग आसान नहीं है। लेकिन अब अमरीका के खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने इस तरह के मलेरिया को हराने में सक्षम टैफेनोक्वाइन दवा को मंजूरी दे दी है। ये दवा लीवर में छिपे प ्ला ज म ो डि य म विवॉक्स के अंश को खत्म कर देती है और फिर यह बीमारी बार-बार लोगों को नहीं हो सकती। तुरंत फायदे के लिए इसे दूसरी दवाइयों के

साथ भी लिया जा सकता है। प्लाजमोडियम विवॉक्स मलेरिया के इलाज के लिए पहले से प्राइमाकीन नाम की दवा मौजूद है, लेकिन टैफेनोक्वाइन की एक खुराक से ही बीमारी से निजात पाई जा सकती है, जबकि प्राइमाकीन की दवा 14 दिनों तक लगातार लेनी पड़ती है। प्राइमाकीन लेने के कुछ दिन बाद ही लोग अच्छा महसूस करने लगते हैं और दवा का कोर्स पूरा नहीं करते। इस वजह से मलेरिया दोबारा होने का ख़तरा रहता है। एफडीए का कहना है कि दवा असरदार है और अमरीका के लोगों को दी जा सकती है। संस्था ने इस दवा से होने वाले साइड-इफेक्ट के बारे में भी चेताया है। उदाहरण के लिए जो लोग एंज़ाइम की समस्या से जूझ रहे हैं, उन्हें इस दवा से खून की कमी हो सकती है. इसीलिए ऐसे लोगों को ये दवा नहीं लेनी चाहिए। मनोवैज्ञानिक बीमारियों से पीड़ित लोगों पर भी इस दवा का बुरा असर हो सकता है।

ऑ क ्स फ ो र्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिक प्राइस ने कहा कि टैफेनोक्वाइन की एक ही खुराक में बीमारी से निजात मिल जाना एक बड़ी उपलब्धि होगी। मलेरिया के इलाज में पिछले 60 सालों में ऐसी कामयाबी हमें नहीं मिली है। वहीं इस दवा का निर्माण करने वाली कंपनी के अधिकारी डॉक्टर हॉल बैरन का कहना है कि प्लाजमोडियम विवॉक्स मलेरिया की गंभीर बीमारी से ग्रस्त लोगों के लिए यह दवा वरदान जैसी है। पिछले साठ सालों में ये अपनी तरह की पहली ऐसी दवा है। इस तरह के मलेरिया को जड़ से मिटाने के लिए ये दवा अहम भूमिका अदा कर सकती है। (एजेंसी)


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पुस्तक अंश

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे

7 मोहनदास करमचंद गांधी के महात्मा होने की कहानी भले दक्षिण अफ्रीका से शुरू होती है, पर इसके बीज कहीं न कहीं उनके शुरुआती दिनों में ही पड़ गए थे। वे एक तरफ कई तरह के व्यसन से घिर रहे थे, तो वहीं उन्हें अपनी इस कमजोरी को लेकर काफी आत्मक्षोभ भी था। पिता की मृत्यु ने उनके जीवन पर सबसे ज्यादा असर डाला। ऐसा इसीलिए भी कि वे अपनी तमाम बुराइयों के बीच पिता की सेवा और सम्मान करते थे

प्रथम भाग

8. चोरी और प्रायश्चित

मांसाहार के समय के और उससे पहले के कुछ दोषों का वर्णन अभी रह गया है। ये दोष विवाह से पहले के अथवा उसके तुरंत बाद के हैं। अपने एक रिश्तेदार के

साथ मुझे बीड़ी पीने को शौक लगा। हमारे पास पैसे नहीं थे। हम दोनों में से किसी का यह खयाल तो नहीं था कि बीड़ी पीने में कोई फायदा है, अथवा गंध में आनंद है। पर हमें लगा सिर्फ धुआं उड़ाने में ही कुछ मजा है। मेरे काकाजी को बीड़ी पीने की आदत थी। उन्हें और दूसरों को धुआं उड़ाते देखकर हमें भी बीड़ी फूंकने की इच्छा हुई। गांठ में पैसे तो थे नहीं, इसीलिए काकाजी पीने के बाद बीड़ी के जो ठूंठ फेंक देते, हमने उन्हें चुराना शुरू किया। पर बीड़ी के ये ठूंठ हर समय मिल नहीं सकते थे और उनमें से बहुत धुआं भी नहीं निकलता था। इसीलिए नौकर की जेब में पड़े दो-चार पैसों में से हमने एकाध पैसा चुराने की आदत डाली और हम बीड़ी खरीदने लगे। पर सवाल यह पैदा हुआ कि उसे संभाल कर रखें कहां। हम जानते थे कि बड़ों के देखते तो बीड़ी पी ही नहीं सकते। जैसे-तैसे दो-चार पैसे चुराकर कुछ हफ्ते काम चलाया। इसी बीच, सुना एक प्रकार का पौधा होता है, जिसके डंठल बीड़ी की तरह जलते हैं और फूंके जा सकते हैं। हमने उन्हें प्राप्त किया और फूंकने लगे। पर हमें संतोष नहीं हुआ। अपनी पराधीनता हमें अखरने लगी। हमें दुख इस बात का था कि बड़ों की आज्ञा के बिना हम कुछ भी नहीं कर सकते थे। हम उब गए और हमने आत्महत्या करने का निश्चय कर किया। पर आत्महत्या कैसे करें? जहर कौन दें? हमने सुना कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु होती है। हम जंगल में जाकर बीज ले आए। शाम का समय तय किया। केदारनाथजी के मंदिर की दीपमाला में घी चढ़ाया, दर्शन किए और एकांत खोज लिया। पर जहर खाने की हिम्मत न हुई। अगर तुरंत ही मृत्यु न हुई तो क्या होगा? मरने से लाभ क्या? क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए? फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक खाने की हिम्मत ही न पड़ी। दोनों मौत से डरे और यह निश्चय किया कि रामजी के मंदिर जाकर दर्शन करके शांत हो जाएं और आत्महत्या की बात भूल जाएं। मेरी समझ में आया कि आत्महत्या का विचार करना सरल है, आत्महत्या करना सरल नहीं। इसीलिए कोई आत्महत्या करने का

बीड़ी के दोष के समय मेरी उम्र बारह तेरह साल की रही होगी, शायद इससे कम भी हो। दूसरी चोरी के समय मेरी उम्र पंद्रह साल की रही होगी। यह चोरी मेरे मांसाहारी भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

धमकी देता है, तो मुझ पर उसका बहुत कम असर होता है अथवा यह कहना ठीक होगा कि कोई असर होता ही नहीं। आत्महत्या के इस विचार का परिणाम यह हुआ कि हम दोनों जूठी बीड़ी चुराकर पीने की और नौकर के पैसे चुराकर बीड़ी खरीदने और फूंकने की आदत भूल गए। फिर कभी बड़ेपन में पीने की कभी इच्छा नहीं हुई। मैंने हमेशा यह माना है कि यह आदत जंगली, गंदी और हानिकारक है। दुनिया में बीड़ी का इतना जबरदस्त शौक क्यों है, इसे मैं कभी समझ नहीं सका हूं। रेलगाड़ी के जिस डिब्बे में बहुत बीड़ी पी जाती है, वहां बैठना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है और धुंए से मेरा दम घुटने लगता है। बीड़ी के ठूंठ चुराने और इसी सिलसिले में नौकर के पैसे चुराने के दोष की तुलना में मुझसे चोरी का दूसरा जो दोष हुआ, उसे मैं अधिक गंभीर मानता हूं। बीड़ी के दोष के समय मेरी उम्र बारह तेरह साल की रही होगी, शायद इससे कम भी हो। दूसरी चोरी के समय मेरी उम्र पंद्रह साल की रही होगी। यह चोरी मेरे मांसाहारी भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी। उन पर मामूलीसा, लगभग पच्चीस रुपए का कर्ज हो गया था। उसकी अदायगी के बारे हम दोनो भाई सोच रहे थे। मेरे भाई के हाथ में सोने का ठोस कड़ा था। उसमें से एक तोला सोना काट लेना मुश्किल न था। कड़ा कटा। कर्ज अदा हुआ। पर मेरे लिए यह बात असह्य हो गई। मैंने निश्चय किया कि आगे कभी चोरी करूंगा ही नहीं। मुझे लगा कि पिताजी के सम्मुख अपना दोष स्वीकार भी कर लेना चाहिए। पर जीभ न खुली। पिताजी स्वयं मुझे पीटेंगे, इसका डर तो था ही नहीं। मुझे याद नहीं पड़ता कभी हममें से किसी भाई को पीटा हो। पर खुद दुखी होंगे, शायद सिर फोड़ लें। मैंने सोचा कि यह जोखिम उठाकर भी दोष कबूल कर लेना चाहिए, उसके बिना शुद्धि नहीं होगी। आखिर मैंने तय किया कि चिट्ठी लिखकर दोष स्वीकार किया जाए और क्षमा मांग ली जाए। मैंने चिट्ठी लिखकर हाथोंहाथ दी। चिट्ठी में सारा दोष स्वीकार किया और सजा चाही। आग्रहपूर्वक विनती की कि वे अपने को दुख में न डालें और भविष्य में फिर ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की। मैंने कांपते हाथों चिट्ठी पिताजी के हाथ में दी। मैं उनके तख्त के सामने बैठ गया। उन दिनों वे भगंदर की बीमारी से पीड़ित थे, इस कारण बिस्तर पर ही पड़े रहते थे। खटिया के बदले लकड़ी का तख्त काम में लाते थे। उन्होंने चिट्ठी पढ़ी। आंखों से मोती की बूंदें टपकीं। चिट्ठी भींग गई। उन्होंने क्षण भर के लिए आंखें मूंदीं, चिट्ठी फाड़ डाली और स्वयं पढ़ने के लिए उठ बैठे थे, सो वापस लेट गए। मैं भी रोया। पिताजी का दुख समझ सका। अगर मैं चित्रकार होता, तो वह चित्र आज भी संपूर्णता से खींच सकता। आज भी वह मेरी आंखों के सामने इतना स्पष्ट है। मोती की बूंदों के

उस प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला। मैं शुद्ध बना। इस प्रेम को तो अनुभवी ही जान सकता है।

रामबाण वाग्यां रे होय ते जाणे।

(राम की भक्ति का बाण जिसे लगा हो, वही जान सकता है।) मेरे लिए यह अहिंसा का पदार्थपाठ था। उस समय तो मैंने इसमें पिता के प्रेम के सिवा और कुछ नहीं देखा, पर आज मैं इसे शुद्ध अहिंसा के नाम से पहचान सकता हूं। ऐसी अहिंसा के व्यापक रूप धारण कर लेने पर उसके स्पर्श से कौन बच सकता है? ऐसी व्यापक अहिंसा की शक्ति की थाह लेना असंभव है। इस प्रकार की शांत क्षमा पिताजी के स्वभाव के विरुद्ध थी। मैंने सोचा था कि वे क्रोध करेंगे, कटु वचन कहेंगे, शायद अपना सिर पीट लेंगे। पर उन्होंने इतनी अपार शांति जो धारण की, मेरे विचार में उसका कारण अपराध की सरल स्वीकृति थी। जो मनुष्य अधिकारी के सम्मुख स्वेच्छा से और निष्कपट भाव से अपना अपराध स्वीकार कर लेता है और फिर कभी वैसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह शुद्धतम प्रायश्चित करता है। मैं जानता हूं कि मेरी इस स्वीकृति से पिताजी मेरे विषय में निर्भय बने और उनका महान प्रेम और भी बढ़ गया।

9. पिताजी की मृत्यु और मेरी दोहरी शर्म

उस समय मैं सोलह वर्ष का था। हम ऊपर देख चुके हैं कि पिताजी भगंदर की बीमारी के कारण बिलकुल शय्यावश थे। उनकी सेवा में अधिकतर माताजी, घर का एक पुराना नौकर और मैं रहते थे। मेरे जिम्मे ‘नर्स’ का काम था। उनके घाव धोना, उसमें दवा डालना, मरहम लगाने के समय मरहम लगाना, उन्हें दवा पिलाना और जब घर पर दवा तैयार करनी हो तो तैयार करना, यह मेरा खास काम था। रात हमेशा उनके पैर दबाना और इजाजत देने पर सोना, यह मेरा नियम था। मुझे यह सेवा बहुत प्रिय थी। मुझे स्मरण नहीं है कि मैं इसमें किसी भी दिन चूका होऊं। ये दिन हाईस्कूल के तो थे ही। इसलिए खाने-पीने के बाद का मेरा समय स्कूल में या पिताजी की सेवा में ही बीतता था। जिस दिन उनकी आज्ञा मिलती और उनकी तबीयत ठीक रहती, उस दिन शाम को टहलने जाता था। इसी साल पत्नी गर्भवती हुई। मैं आज देख सकता हूं कि इसमें दोहरी शर्म थी। पहली शर्म तो इस बात की कि विद्याध्ययन का समय होते हुए भी मैं संयम से न रह सका और दूसरी यह कि यद्यपि स्कूल की पढ़ाई को मैं अपना धर्म समझता था, और उससे भी अधिक माता-पिता की भक्ति को धर्म समझता था। सो भी इस हद तक कि बचपन से ही श्रवण को मैंने अपना आदर्श माना था। फिर भी विषय-वासना मुझ पर सवारी कर सकी थी। मतलब यह कि यद्यपि रोज रात को मैं पिताजी के पैर तो दबाता था, लेकिन मेरा मन

पुस्तक अंश

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शयन-कक्ष की ओर भटकता रहता और सो दौड़कर पिताजी के कमरे में पहुंचा। भी ऐसे समय जब स्त्री का संग धर्मशास्त्र के बात समझ में आई कि अगर मैं अनुसार त्याज्य था। जब मुझे सेवा के काम से विषयांध न होता तो इस अंतिम घड़ी छुट्टी मिलती, तो मैं खुश होता और पिताजी में यह वियोग मुझे नसीब न होता के पैर छूकर सीधा शयन-कक्ष में पहुंच जाता। पिताजी की बीमारी बढ़ती जाती थी। वैद्यों और मैं अंत समय तक पिताजी के पैर ने अपने लेप आजमाए, हकीमों ने मरहम- दबाता रहता। अब तो मुझे चाचाजी पट्टियां आजमाई, साधारण हज्जाम वगैरह के मुंह से सुनना पड़ा- ‘बापू हमें की घरेलू दवाएं भी की; अंग्रेज डाक्टर ने छोड़कर चले गए!’ भी अपनी अक्ल आजमा कर देखी। अंग्रेज डाक्टर ने सुझाया कि शल्य-क्रिया ही रोग का एकमात्र उपाय है। परिवार के एक मित्र वैद्य बीच में पड़े और उन्होंने पिताजी की उत्तरावस्था में जगाया। पांच-सात मिनट ही बीते होंगे, इतने में ऐसी शल्य-क्रिया को नापसंद किया। तरह-तरह जिस नौकर की मैं ऊपर चर्चा कर चुका हूं, उसने दवाओं की जो बोतलें खरीदी थीं, वे व्यर्थ गईं आकर किवाड़ खटखटाया। मुझे धक्का सा लगा। और शल्य-क्रिया नहीं हुई। वैद्यराज प्रवीण और मैं चौका। नौकर ने कहा- ‘उठो, बापू बहुत प्रसिद्ध थे। मेरा खयाल है कि अगर वे शल्य- बीमार हैं।’ मैं जानता था वे बहुत बीमार तो थे क्रिया होने देते, तो घाव भरने में दिक्कत न ही, इसीलिए यहां ‘बहुत बीमार’ का विशेष अर्थ होती। शल्य-क्रिया उस समय के बंबई के प्रसिद्ध समझ गया। एकदम बिस्तर से कूद गया। सर्जन के द्वारा होनी थी। पर अंतकाल समीप था, ‘कह तो सही, बात क्या है?’ इसीलिए उचित उपाय कैसे हो पाता? पिताजी ‘बापू गुजर गए!’ शल्य-क्रिया कराए बिना ही बंबई से वापस आए। मेरा पछताना किस काम आता? मैं बहुत साथ में इस निमित्त से खरीदा हुआ सामान भी लेते शरमाया। बहुत दुखी हुआ। दौड़कर पिताजी के आए। वे अधिक जीने की आशा छोड़ चुके थे। कमरे में पहुंचा। बात समझ में आई कि अगर कमजोरी बढ़ती गई और ऐसी स्थिति आ पहुंची मैं विषयांध न होता तो इस अंतिम घड़ी में यह कि प्रत्येक क्रिया बिस्तर पर ही करना जरूरी हो वियोग मुझे नसीब न होता और मैं अंत समय तक गया। लेकिन उन्होंने आखिरी घड़ी तक इसका पिताजी के पैर दबाता रहता। अब तो मुझे चाचाजी विरोध ही किया और परिश्रम सहने का आग्रह के मुंह से सुनना पड़ा- ‘बापू हमें छोड़कर चले रखा। वैष्णव धर्म का यह कठोर शासन है। बाह्य गए!’ अपने बड़े भाई के परम भक्त चाचाजी शुद्धि अत्यंत आवश्यक है। पर पाश्चत्य वैद्यक- अंतिम सेवा का गौरव पा गए। पिताजी को अपने शास्त्र ने हमें सिखाया कि मल-मूत्र-विसर्जन की अवसान का अंदाजा हो चुका था। उन्होंने इशारा और स्नानादि की सह क्रियाएं बिस्तर पर लेटे-लेटे करके लिखने का सामान मंगाया और कागज संपूर्ण स्वच्छता के साथ की जा सकती हैं और में लिखा- ‘तैयारी करो।’ इतना लिखकर उन्होंने रोगी को कष्ट उठाने की जरूरत नहीं पड़ती; जब हाथ पर बंधा तावीज तोड़कर फेंक दिया, सोने देखो तब उसका बिछौना स्वच्छ ही रहता है। इस की कंठी भी तोड़कर फेंक दी और एक क्षण में तरह साधी गई स्वच्छता को मैं तो वैष्णव धर्म का आत्मा उड़ गई। ही नाम दूंगा। पर उस समय स्नानादि के लिए पिछले अध्याय में मैंने अपनी जिस शर्म का बिछौना छोड़ने का पिताजी का आग्रह देखकर जिक्र किया है, वह यही शर्म है- सेवा के समय मैं अश्चर्यचकित ही होता था और मन में उनकी भी विषय की इच्छा! इस काले दाग को आज स्तुति किया करता था। तक नहीं मिटा सका। और मैंने हमेशा माना है अवसान की घोर रात्रि समीप आई। उन कि यद्यपि माता-पिता के प्रति मेरे मन में अपार दिनों मेरे चाचाजी राजकोट में थे। मेरा कुछ ऐसा भक्ति थी, उसके लिए सब कुछ छोड़ सकता खयाल है कि पिताजी की बढ़ती हुई बीमारी के था, तथापि सेवा के समय भी मेरा मन विषय को समाचार पाकर ही वे आए थे। दोनों भाइयों के छोड़ नहीं सकता था। यह सेवा में रही हुई अक्षम्य बीच अटूट प्रेम था। चाचाजी दिन भर पिताजी त्रुटि थी। इसी से मैंने अपने को एकपत्नी-व्रत का के बिस्तर के पास ही बैठे रहते और हम सबको पालन करनेवाला मानते हुए भी विषयांध माना है। सोने की इजाजत देकर खुद पिताजी के बिस्तर इससे मुक्त होने में मुझे बहुत समय लगा और के पास सोते। किसी को खयाल नहीं था कि मुक्त होने से पहले कई धर्म-संकट सहने पड़े। यह रात आखिरी सिद्ध होगी। वैसे डर तो बराबर अपनी इस दोहरी शर्म की चर्चा समाप्त करने बना ही रहता था। रात के साढ़े दस या ग्यारह से पहले मैं यह भी कह दूं कि पत्नी के जो बालक बजे होंगे। मैं पैर दबा रहा था। चाचाजी ने मुझसे जन्मा वह दो-चार दिन जीकर चला गया। कोई कहा- ‘जा, अब मैं बैठूंगा।’ मैं खुश हुआ और दूसरा परिणाम हो भी क्या सकता था? जिन मांसीधा शयन-कक्ष में पहुंचा। पत्नी तो बेचारी बापों को अथवा जिन बाल-दंपति को चेतना हो, गहरी नींद में थी। पर मैं सोने कैसे देता? मैंने उसे वे इस दृष्टांत से चेतें। (अगले अंक में जारी)


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विज्ञान

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

उत्पादन बढ़ाने के लिए गेहूं की जीन मैपिंग

वैज्ञानिक अब जीन मैपिंग के सहारे गेहूं की ऐसी फसल उगाना चाहते हैं, जो सूखा और बेमौसम बरसात को झेलने में सक्षम हो

मौ

सम में बदलाव के कारण फसलें अक्सर बर्बाद हो जाती हैं। कहीं भयानक सूखा तो कहीं बिन मौसम बरसात फसलों को नष्ट कर देती है। लेकिन अब गेहूं की एक ऐसी नस्ल उपजाने पर काम हो रहा है जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित न हो। जो गर्म हवाओं को सह सके और जिसे कम पानी की जरूरत हो। शोधकर्ताओं का कहना है कि ये जीन मैपिंग ऐसी नस्ल के विकास को बढ़ावा देगी जो जलवायु परिवर्तन के कारण चलने वाली गर्म हवाओं से फसल को बचा सकती है। यह शोध जर्नल साइंस में प्रकाशित हुआ है। प्रोजेक्ट लीडर प्रोफेसर क्रिस्टोबल यूवेयूई गेहूं के इस जीन को एक गेम चेंजर की तरह मानते हैं। उन्होंने कहा, 'हमें जलवायु परिवर्तन और बढ़ती हुई मांग को देखते हुए गेहूं के टिकाऊ उत्पादन के तरीके खोजने की जरूरत है।'वे कहते हैं कि इसका हम कई सालों से इंतजार कर रहे हैं। इसे लेकर सभी में उत्सुकता है, क्योंकि पहली बार वैज्ञानिक अधिक लक्षित तरीके से गेहूं की पैदावार पाने में सक्षम होंगे ताकि भविष्य में दुनिया को पर्याप्त भोजन मुहैया कराया जा सके।' संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संस्थान (एफएओ) का अनुमान है कि साल 2050 तक पूरी जनसंख्या का पेट भरने के लिए गेहूं के उत्पादन में 60 प्रतिशत बढ़ोत्तरी की जरूरत है। मैक्सिको शहर के पास स्थित इंटरनेशनल मेज एंड व्हीट इंप्रूवमेंट सेंटर (सीआईएमएमवाईटी) गेहूं की नई नस्लों को विकसित करने और दुनिया के कुछ गरीब देशों में किसानों के लिए उत्पादन बढ़ाने का काम करता है। सेंटर के प्रमुख डॉ. रवि सिंह कहते हैं, 'सीआईएमएमवाईटी पारंपरिक क्रॉस ब्रीडिंग के जरिए लंबे समय से गेहूं की ऐसी नस्लों पर काम कर रहा है जो बीमारियों से बच सकें, लेकिन भविष्य में जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए ऐसी फसलों की जरूरत है जो गर्म मौसम को सहन कर सकें और जिन्हें कम पानी की जरूरत हो। ऐसी नस्लों का विकास करना संस्थान की

प्राथमिकता बन गया है।' वो कहते हैं, 'गेहूं की फसल के लिए पहले कुछ महीने बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन इस समय पर अगर रात का तापमान एक डिग्री भी बढ़ जाता है तो फसल में 8 प्रतिशत का नुकसान हो सकता है। इसीलिए उन्हें मौसम के अचानक बदलाव से बचाना हमारे ब्रीडिंग प्रोग्राम का अहम हिस्सा है।' वैज्ञानिक हर साल पारंपरिक क्रॉस ब्रीडिंग के जरिए गेहूं की नई नस्लें विकसित करते हैं। ये तरीका फायदेमंद तो होता है, लेकिन इसमें मेहनत और पैसा बहुत लगता है। एक तरह से यह बहुत अनिश्चित होता है। जैसे कि नतीजे आने के बाद ही पता चल पाता है कि जिन नस्लों की क्रॉस ब्रीडिंग की गई है, उनके वही जीन आपस में मिले हैं जिनकी उम्मीद थी। वरना आपकी मेहनत बर्बाद हो जाती है। एक नई नस्ल को विकसित करने और खेतों तक पहुंचाने में 10 से 15 साल तक का समय लग सकता है। शोधकर्ताओं ने अब एक लाख से ज्यादा जीन और गेहूं के डीएनए में उनकी जगह का पता लगा लिया है। इस तरह जब ये पता चल जाएगा कि सभी जीन कहां पर है, तो शोधकर्ता यह जान पाएंगे कि जीन सूखे का प्रतिरोध, पोषक तत्व बढ़ाना और अधिक उपज जैसी विशेषताओं को नियंत्रित करने के लिए कैसे एक साथ काम करते हैं। फिर जीन एडिटिंग तकनीक के जरिए वैज्ञानिक गेहूं की किसी नस्ल में ऐसी विशेषताएं जोड़ सकते हैं जो उन्हें जल्दी और सटीक रूप से चाहिए। उत्पादन बढ़ाने के लिए जीन एडिटिंग की आलोचना करने वाले कहते हैं कि दुनिया में पर्याप्त खाना है। बस समस्या है तो उसे जरूरतमंदों के अनुसार वितरण करने की। सीआईएमएमवाईटी के ग्लोबल व्हीट प्रोग्राम के निदेशक डॉ. हेंस ब्रोन भी इससे सहमति जताते हैं। हालांकि वो मानते हैं कि जीन एडिटिंग की बजाए राजनीतिक समाधान ज्यादा मुश्किल है। वहीं अभियान समूह जीनवॉच यूके की डॉ. हेलीन वॉलिस

खास बातें 2050 तक जनसंख्या के लिए 60 प्रतिशत ज्यादा गेहूं की जरूरत वैज्ञानिक लक्षित तरीके से गेहूं की पैदावार पाने में सक्षम होंगे यूवेयूई गेहूं का जीन एक गेम चेंजर की तरह है

कहती हैं कि शोधकर्ताओं को बहुत बड़े वादे करने से बचना चाहिए। जीन एडिटिंग से असल में क्या फायदा होगा, वो गेहूं की जटिलता और उन पर मौसम के प्रभाव पर निर्भर करता है। वह कहती हैं, 'इसके कुछ नुकसान भी हो सकते हैं। जैसे पोषण में बदलाव करने से कई बार कीट अधिक आकर्षित होते हैं या ये खाने वालों को भी नुकसान पहुंचा सकता है। इस मामले में सख्त नियम, ट्रेस करने की क्षमता और लेबलिंग वातावरण, स्वास्थ्य और उपभोक्ता हितों की रक्षा करने के लिए जरूरी है।' गेहूं के लिए जीन मैप बनाने में 20 देशों के 200 से ज्यादा वैज्ञानिक और 73 शोध संस्थानों ने मिलकर काम किया। उनके पास डीएनए के 16 अरब अलग केमिकल बिल्डिंग ब्लॉक्स हैं जो इंसानी जीन के समूहों से पांच गुना बड़े हैं। इसके अलावा गेहूं में तीन अलग तरह के जीन के उप समूह होते हैं। तीनों उप समूहों में अंतर करना और उन्हें सही क्रम में एक साथ रखना वैज्ञानिकों के लिए मुश्किल हो जाता है। (एजेंसी)


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

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गुड न्यूज

कश्मीर में नफरत बीच सद्भाव की उम्मीद

हिंसा और नफरत के माहौल के बावजूद कश्मीर घाटी में ऐसे लोग भी हैं जिनके लिए धर्म से ज्यादा इंसानियत जरूरी है

खास बातें

प्र

शेख कयूम

धानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त राजनाथ (72) उत्तर कश्मीर स्थित मणिगाम में पैदा हुए और वह तब से अपने पैतृक गांव में ही रहते हैं। अल्पसंख्यक कश्मीरी पंडित समुदाय के उनके परिवार के अधिकांश सदस्य 1990 के दशक में घाटी में मचे उत्पात के कारण गांव से पलायन कर गए, लेकिन राजनाथ अपनी पत्नी और बेटी के साथ अपनी जन्मभूमि पर ही टिके रहे। राजनाथ हिंदू हैं और उनको अपने पड़ोसी मुसलमानों की सद्भावना पर काफी भरोसा है। इनमें नई पीढ़ी के ज्यादातर लोग उनके विद्यार्थी हैं। यही कारण है कि स्थानीय मुसलमानों ने राजनाथ की बेटी को निजी स्कूल में अध्यापिका की नौकरी हासिल करने में उनकी मदद की। इलाके के मुसलमान न सिर्फ राजनाथ के, बल्कि वहां घाटी में मुस्लिम समुदाय के बीच निवास करने वाले 3,000 कश्मीरी पंडितों के भी मददगार रहे हैं। उनकी मैत्री इस रिवायत को नकारती है कि पंडितों का घाटी से पलायन मुस्लिम बहुल इलाके में उनके ऊपर हुए अत्याचार के कारण हुआ। अभी दो महीने ही हुए हैं जब इलाके में एक बुजुर्ग पंडित का देहावसान होने पर स्थानीय मुसलमान उनका अंतिम संस्कार करने के लिए उनकी अर्थी उठाकर शमसान घाट गए थे। मुस्लिम समुदाय के लोगों ने पूरी तरह हिंदू रीति के अनुसार दिवंगत आत्मा का अंतिम संस्कार करवाया। यही

नहीं, पड़ोस की महिलाओं ने न सिर्फ शोक संतप्त परिवार को सांत्वना दी, बल्कि उनके खुद के बीच भी शोक का माहौल बना हुआ था। उन्हें ऐसा लग रहा था कि उनका कोई अपना गुजर गया है। पड़ोस के मुसलमानों ने सारी व्यवस्था की। यहां तक कि किसी पंडित को रसोई तैयार करने तक में हाथ बंटाने का मौका नहीं दिया और सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। राजनाथ अपने उन साथी पंडितों के लिए दुखी हैं, जो 1990 के दशक में अपना घर और जमीन जायदाद छोड़ कर पलायन कर गए। उन्हें सरकार के प्रति भी शिकायतें हैं। उनकी बेटी एक निजी स्कूल में अध्यापिका हैं और उनका वेतन परिवार के गुजारे के लिए बहुत कम है। उनकी चार साल की एक नातिन भी है और दामाद पुलिस के दूरसंचार संभाग में वायरलेस ऑपरेटर हैं। गमगीन आंखों से पिता ने कहा, "मेरे दामाद अब मेरी बेटी पर घाटी से बाहर नौकरी तलाशने का दबाव दे रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो मैं और मेरी पत्नी अकेले हो जाएंगे।" राजनाथ ने कहा, "पलायन करने वाले पंडितों को घाटी में वापस आने के लिए सरकार उनको राहत पैकेज और नौकरियों की पेशकश कर रही है, लेकिन हमारे समुदाय के जो लोग यहां निवास कर रहे हैं, उनकी उपेक्षा की जा रही है।"उनकी बेटी समाज शास्त्र में मास्टर की डिग्री ले चुकी है और वह पांच साल से सरकारी नौकरियों के लिए दर दर भटक रही है। दुर्भाग्य से कश्मीर में पिछले तीन

दशक से हिंसा और नफरत की नकारात्मक कहानी के बीच वहां घाटी में विभिन्न समुदाय के बीच पारंपरिक मैत्री और भाईचारे की पहचान विलुप्त-सी हो गई है। बांदीपोरा जिले के सुमबल इलाके में एक पुराने मंदिर को पिछले साल स्थानीय मुसलमानों ने साफ-सुथरा कर पंडितों के तीर्थस्थान के रूप में विकसित किया। उत्तर कश्मीर के गांदरबल जिले के तुलामुल्ला गांव में माता खीर भवानी मंदिर में हर साल सालाना महोत्सव के दौरान हजारों पंडित तीर्थयात्री आते हैं। यह महोत्सव वसंत ऋतु के अंत में मनाया जाता है। पलायन के बावजूद तुलामुल्ला के माता मंदिर में प्रार्थना के लिए हजारों पंडित आते हैं और मिट्टी का बर्तन लेकर मुसलमानों द्वारा यहां तीर्थयात्रियों का स्वागत करने की सदियों पुरानी परंपरा पर घाटी में बह रहे हिंसा के बयार का कोई असर नहीं पड़ा है। हिमालय के अंचल में कश्मीर की हरमुख चोटी की तलहटी में स्थित गंगाबल झील इलाके के पंडितों के लिए अस्थि विसर्जन का पवित्र स्थान है। कुछ साल तक यहां अस्थि विसर्जन के लिए कोई नहीं आता था, मगर पिछले चार साल से पंडित समुदाय के लोग अपनी परंपरा को दोबारा शुरू करते हुए यहां आने लगे हैं। स्थानीय मुसलमान अतीत काल से ही यहां पंडित परिवारों के लिए गाइड और बोझा ढोने का काम करते रहे हैं। वे आज भी झील आने वाले पंडित श्रद्धालुओं की सेवा कर अपने इस कर्तव्य का

राजनाथ मणिगाम में बिना किसी भेदभाव के रहते हैं स्थानीय मुसलमानों ने उनकी बेटी को स्कूल में शिक्षिका बनवाया उत्तरी कश्मीर में तीन हजार पंडित परिवारों के मददगार हैं मुलसमान पालन कर रहे हैं। बैंककर्मी अशोक कौल (56) ने कहा, "मैं बचपन से ही अपने माता-पिता के साथ खीर भवानी मंदिर जाता रहा हूं और मैंने कभी अपने परिवार के प्रति स्थानीय मुसलमानों में सौहार्द्र की भावना और प्यार में कभी कोई अंतर नहीं पाया।" उन्होंने कहा, "मेरे परिवार के जम्मू जाकर बस जाने के बाद मैं 1990 से मंदिर आ रहा हूं। जब भी मैं यहां आता हूं, स्थानीय मुसलमानों में वही प्यार और उत्साह पाता हूं।" गुमराह आतंकियों द्वारा किए जा रहे हमले की खबरें अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियां बन जाती हैं, लेकिन वहां मुसलमानों और पंडितों के बीच भाईचारे और सद्भाव की कश्मीर की असली तस्वीर बहुत कम दिखती है। सनसनी की तलाश में रहने वाले आज के मीडिया के लिए अच्छी खबरें खबर नहीं होती हैं।


16 खुला मंच

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

सफलता की कहानियां मत पढ़ो, उससे आपको केवल एक संदेश मिलेगा। असफलता की कहानियां पढ़ो, उससे आपको सफल होने के आइडियाज मिलेंगे – ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

44 लाख महिलाओं को अटल पेंशन

अब तक 43,87,993 महिलाएं अटल पेंशन योजना से जुड़ चुकी हैं, जो कुल संख्या का लगभग 40 फीसदी है

संगठित क्षेत्र के कामगारों को सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने के लिहाज से अटल पेंशन योजना (एपीवाई) न सिर्फ एक महत्वाकांक्षी, बल्कि एक कारगर योजना भी है। खासतौर पर इससे महिलाओं के जीवन में अनि​श्चितता दूर करने में बड़ी मदद मिली है। इस योजना की शुरुआत 9 मई, 2015 को हुई थी। योजना के तीन साल पूरे होने पर 6 अगस्त, 2018 तक इस योजना से जुड़ने वाले सदस्यों की संख्या 1,09,66,981 हो गई है। इसमें 43,87,993 महिलाएं अटल पेंशन योजना से जुड़ीं, जो कुल संख्या का लगभग 40 फीसदी है। सरकार ने इसकी जानकारी खुद संसद में दी है। गारंटीड पेंशन वाली इस पेंशन योजना में असंगठित क्षेत्र के उन कामगारों पर फोकस किया जाता है, जिनकी हिस्‍सेदारी कुल श्रम बल में 85 प्रतिशत से भी अधिक है। अटल पेंशन योजना के तहत 60 साल की उम्र पूरी होने पर प्रति माह 1000, 2000, 3000, 4000 या 5000 रुपए की गारंटीड न्यूनतम पेंशन मिलेगी, जो सदस्यों द्वारा किए जाने वाले अंशदान पर निर्भर करेगी। संबंधित सदस्य की पत्नी/पति भी पेंशन पाने का हकदार है और नामित व्यक्ति को संचित पेंशन राशि दी जाएगी। अच्छी बात यह है कि केंद्र सरकार इस योजना के तहत निर्धारित अधिकतम पेंशन की राशि 5000 रुपए से बढ़ाकर 10 हजार रुपए करने पर विचार कर रही है। अगर इस पेंशन योजना से बीते तीन वर्षों में तकरीबन 44 लाख महिलाओं ने अपने जीवन के उत्तरार्ध के लिए आर्थिक सहारा सुनिश्चित कर लिया है तो यह इस योजना की सफलता तो है ही, यह देश में महिला सशक्तीकरण के लिहाज से भी एक बड़ी पहल है।

टॉवर फोनः +91-120-2970819

(उत्तर प्रदेश)

अभिमत

इंद्रेश कुमार

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारिणी सदस्य और राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के मार्गदर्शक

समरसता-समाज की संजीवनी

प्रभु रामजी ने 14 वर्ष के वनवासी जीवन में समरस जीवन के निर्माण का विलक्षण कार्य किया और वह रावणरूपी वैश्विक आतंकवाद, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, असहिष्णुता, अलगाववाद को नष्ट कर एक विकसित, सुरक्षित, खुशहाल राज्य की स्थापना कर सके, जिसे विश्व ‘रामराज्य’ कहता है

त्य कहा है-'United we stand, Divided we fall'', अर्थात एकता में शक्ति है, विभाजन में विनाश है। इसीलिए समरस समाज ही राष्ट्र की संजीवनी है। समरस समाज का अर्थ है, जहां छुआछूत नहीं, नफरत, तनाव व हिंसा नहीं, धर्मांतरण नहीं, भ्रष्टाचार व अपराध भी नहीं, बल्कि प्यार है, भाईचारा है, सेवा है, त्याग है, विकास है, ईमानदारी है। एकरूपता नहीं, आत्मीयतापूर्ण एकता ही एकात्मता है। समानता नहीं, ममतामयी समता ही समरसता है। यह एकात्मता एवं समरसता सर्वशक्तिमान का मातृरूप है।

चिंतन के मूल में व्यक्ति नहीं, परिवारभाव समन्वय को जन्म देता है

समाज का स्वाभाविक अर्थ है कि उसकी कुछ व्यवस्थाएं हैं और रहेंगी। इसीलिए वर्ण व्यवस्था बनी, जो कर्मणा थी, धीरेधीरे वह जन्मना हो गई। वाल्मीकि, व्यास, विदुर, रविदास आदि संत विद्वान व ऋषियों की श्रेणी में खड़े इसी सत्य का साक्षात्कार हैं। इस जन्मना कारण से जाति, उपजाति, बिरादरी आदि इस समाजतंत्र का प्रचलन प्रारंभ हुआ। भारतीय संस्कृति में समाज की मौलिक इकाई नागरिक न होकर परिवार है। ‘परिवार’ का अर्थ है, जहां जन्मे बालक से लेकर वृद्ध तक (महिला, पुरुष) के संरक्षण एवं संवर्धन की संपूर्ण व्यवस्था है। "It is an automatic Life Insurance System of a Man.'! भारत में जीवन-बीमा निगम की आवश्यकता नहीं रही, जबकि पश्चिमी वर्तमान नई संभवताओं की यह पक्की आवश्यकता है, क्योंकि वहां इकाई परिवार नहीं, व्यक्ति है। यह भी ठीक है कि आज हमारे समाज में भी इसकी आवश्यकता है, क्योंकि वहां इकाई परिवार नहीं, व्यक्ति है। यह भी ठीक है कि आज हमारे समाज में भी इसकी आवश्यकता पड़ गई है। कारण स्पष्ट है-लंबी विदेशी गुलामी में जकड़ा समाज, जीवन और उसकी टूटती परिवार

इकाई। दूसरी बात, व्यक्ति इकाई होने के कारण पश्चिमी सभ्यताएं कट्टरवादी बनती गई, वहां समन्वयवादी समभाव विकसित ही नहीं हुआ। भौतिक एवं छोटे स्तर पर व्यक्ति प्रभावी, तो समूह अर्थात समाज के स्तर पर मजहब प्रभावी है। इसीलिए एक ही मजहब दूसरा कोई नहीं, का व्यवहार व चिंतन प्रबल होता दिख रहा है। भारत में परिवार अवधारणा में ‘पंथ अनेक गंतव्य एक’, इस कारण समाज में अनेक पूजा-पद्धतियां, जातियां आदि दिखाई देती हैं। धीरे-धीरे समाज की वर्ण-व्यवस्था में मानवीय दोष उभरा, छोटे-बड़े, ऊंचनीच, छुआछूत का और इसी में से आपसी नफरत व हिंसा ने जन्म लिया। केवल इतना ही नहीं, कहीं-कहीं पूजा-पद्धतियों का अभिनिवेश जागा, जिसके कारण पांथिक टकराव उभरने लगा। प्रांत-भाषा के नाम पर भी आपसी विवाद बढ़ने लगे, जिसके कारण भारतीय समाज में अनेक कुरीतियों ने जन्म लिया और वे सभी आज हमारे समाज को घुन की तरह खा रही हैं। परंतु एक बात ध्यान में रखने की है कि ये (ऊपर वर्णित) दोष हिदुत्व (चिंतन, दर्शन) के नहीं हैं, बल्कि हिंदू में आए दोष हैं।

‘ताकतवर जिएगा’ से शोषण, ‘जियो मगर दूसरों के लिए’ से समरसता पैदा होती है धीरे-धीरे जब समरस समाज का ढांचा बिखरने लगा, इसका

रामजी ने शबरी के जठू े फल खा लिए, लक्ष्मण ने फेंक दिए। राम समरसता के प्रतीक बने, लक्ष्मण रूढ़ियों में फंस गए। इतिहास और समय ने तुरतं फैसला कर दिया। कहते हैं, इतिहास और समय किसी के गुलाम नहीं हैं। इसीलिए मंत्र बन गया ‘श्री राम जय राम जय जय राम’


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018 ताना-बाना टूटने लगा, तो मनुष्य की महानता में एक और गिरावट आई और वह थी कि ‘जियो मगर दूसरों के लिए’ सिद्धांत का व्यवहार में से लोप हो गया और वह भाव जब कम हुआ तो ‘जिओ और जीने दो’ से भी भटकते-भटकते मानव सभ्यताएं पहुंच गई ‘ताकतवर जिएगा’ अर्थात "Survival of the Fittest" । इस कारण जन, पद, शरीर, धन व शस्त्र की ताकत जिसके पास होगी, वही राज करेगा, उसी का सम्मान होगा। इसका परिणाम निकला कि ईमानदारी, सेवा, त्याग भी एक व्यापार बन गया और समाज में घूसखोरी, मिलावट, हिंसा, अपराध बढ़ने लगे। प्रत्येक स्तर पर दुनिया इस होड़ में लग गई कि स्वयं को कैसे अधिक ताकतवर व प्रतिष्ठित किया जाए। प्रत्येक समाज भी धीरे-धीरे इसी रंग में रंगा जाने लगा। गुणों से तथा स्वभाव से बड़ा यह भाव गौण हो गया। ताकत (शरीर व शस्त्र) से धन, पद, शिक्षा व आयु से बड़ा यही प्रधान हो गया। इसके लिए एकदूसरे को गिराने व पछाड़ने की प्रतिस्पर्धा समाज के व्यवहार में पैदा हो गई। उसका परिणाम है बढ़ती अराजकता। भारत ‘जियो मगर दूसरों के लिए’ के सिद्धांत पर विश्वगुरु की उपाधि से नवाजा गया, जबकि अमेरिका, अरब देश ‘ताकतवर जिएगा’ के सिद्धांत पर आज अड़े हैं। विदेशी ताकतों ने इसका लाभ उठाया। साम्राज्यवादियों ने भारत में तरह-तरह से घुसपैठ कर आक्रमण शुरू कर दिए। आस्थाएं हिल चुकी थीं, एकता बिखर गई थी, इसका परिणाम निकला कि हमें एक गुलामी से संघर्ष की यात्रा से गुजरना पड़ रहा है। आज भी हम स्वतंत्रता के कई दशक पश्चात उसी संघर्ष के दौर से गुजर रहे हैं। विद्वान एवं लेखक पूर्व सरसंघचालक कु.सी. सुदर्शन कहते हैं कि हमें स्वतंत्रता मिली है, परंतु स्वावलंबन, समरसता, स्वदेश यानी सुराज अभी शेष है।

समाज की ताकत व खुशहाली का मापदंड कमजोर व पिछड़े के ममतापूर्ण विकास में

इस वर्तमान के नाना रूप धारण किए राक्षस को अगर मारना है, तो हमें समरस समाज जीवन को खड़ा करना होगा। सच कहा है कि Strength of the chain lies in the weakest Link of the chain, एक सशक्त श्रृंखला है, मजबूत है, एकजुट हैं, परंतु अगर उसकी एक कड़ी भी कमजोर है, तो जंजीर के उपयोग करते समय वह वहां से टूट सकती है। अक्लमंद दुश्मन भी कमजोर कड़ी पर प्रहार कर अपना मार्ग साफ कर लेता है। दुष्टताएं (अपराध, भष्ट्राचार, बीमारी आदि) भी व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के इन्हीं मर्मस्थलों पर आक्रमण कर सशक्त व्यक्ति समाज व राष्ट्र को असहाय बना देती हैं। इसीलिए स्वदेशभाव से ओत-प्रोत, स्वावलंबी एवं समरस समाज ही विश्व में व्यक्ति / परिवार की खुशहाली, समाज / राष्ट्र की मजबूती एवं विकास तथा मानवता के लिए शांति, भाईचारे का संदेश हो सकता है। जब समाज समरस होगा, तो वह स्वदेशभाव से ओत-प्रोत होगा, जब समाज स्वदेशभाव से भरपूर होगा, तभी वह स्वावलंबी बनेगा। इसीलिए चौतरफा प्रयास करने होंगे।

कोसने से नहीं, करने से ही समरसता संभव

आज हमारे भारतीय समाज को मजहबवाद, जातिवाद, भाषा-प्रांतवाद डंस रहा है। इसीलिए आवश्यकता है इन वादों पर प्रहार कर इनको ध्वस्त करने की। इसके लिए पद्धति है कि आम समाज को इन खतरों के प्रति जागृत किया जाए। यह तो आवश्यक है ही, परंतु इतने से काम नहीं चलेगा। कहा जाता है कि It is better to lit a lamp than to curse the darkness अर्थात बुराइयों को, अंधेरे को कोसते रहने से अच्छा है कि

कह उठे ‘राम-राम’। आज तक किसी ने मिलने पर ‘लक्ष्मण-लक्ष्मण’ नहीं कहा और न ही मंत्र बना ‘श्री लक्ष्मण जय लक्ष्मण जय-जय लक्ष्मण।’ राम मंत्र बन भगवान बन गए, लक्ष्मण महापुरुषों, देवताओं की श्रेणी में खड़े कर दिए गए। परंतु एक विचित्र विडंबना वर्तमान समाज में दिखाई देती है। वह जपता राम को है, परंतु करता मानता लक्ष्मण की है। ‘रामजी’ से सरेआम, दिनदहाड़े बेईमानी, धोखा नहीं चलेगा। आज आवश्यकता है राम को जपो और राम का किया ही करो। इस समग्र समाज में समरसता की क्रांति हेतु प्रत्येक नेतृत्वकर्ता को

जब समाज समरस होगा, तो वह स्वदेशभाव से ओत-प्रोत होगा, जब समाज स्वदेशभाव से भरपरू होगा, तभी वह स्वावलंबी बनेगा। इसीलिए चौतरफा प्रयास करने होंगे आप अच्छाई का, उजाले का एक छोटा उदाहरण प्रस्तुत करें, जिससे बुराई, अंधेरा भाग खड़ा होगा। अपने देश में पिछले सैकड़ों वर्षों में समरसता निर्माण हेतु संतों, विद्वानों, धर्माचार्यों, समाजसेवियों ने नानाविध प्रयोग व प्रयत्न किए हैं, जिसमें स्वामी दयानंद, विवेकानंद, गुरु नानकदेव से गुरु गोबिंद सिंह तक, महात्मा गांधी, सावरकर, डॉ. हेडगेवार, कूका रामसिंह (नामधारी), बाबा साहब आंबेडकर, महात्मा फुले, अमृतानंदमयी मां, राधास्वामी, निरंकारी, गायत्री परिवार, स्वामीनारायण, हरे कृष्णा, रामकृष्ण मिशन, सेवाश्रम संघ एवं अनेक कथावाचक आदि के प्रयत्नों ने समाज को तोड़ने वाली राक्षसी प्रवृत्तियों व प्रयत्नों पर भरपूर आक्रमण करते हुए नाम,नारे व व कार्यक्रम देकर समरसता का संरक्षण व संवर्धन करने का काम किया है। हर लघु प्रयत्न को सराहना होगा। आज का लघु कल का विराट है। आज का बूंद-बूंद, कल का महासमुद्र है।

राम ः रूढ़ियों को तोड़ने का संदेश

समरस समाज रचना व जीवन का विचार करना है तो उसके लिए ‘राम’ का जीवन सबसे उत्कृष्ट है। राम, लक्ष्मण और सीता ने चौदह वर्ष के वनवास में सरयू पार करते समय ‘केवट’ को गले लगाकर भक्त व भाई बनाया। सीता अपहरण के पश्चात उनको खोजते समय ‘जटायु गिद्ध’ का संस्कार कर उसे पिता रूप बनाया और स्वयं पुत्र रूप बने। ऊंची जाति, विद्वान, ऋषि, सेनापति, मंत्री, धनपतियों को छोड़ तथाकथित एक गरीब, अनपढ़ व छोटी जाति की महिला ‘भीलनी(शबरी)’ की कुटिया में गए। इन सभी वर्णों व वर्गों के समूह में से कुछ ने सोचा ‘प्रभु’ से Protest करेंगे। प्रभु के आतिथ्य में जुटी ‘भीलनी’ के सामने यक्ष प्रश्न था कि ‘प्रभु’ को जहरीला व बेस्वाद न दिया जाए। फलों अर्थात खाद्यान्न को स्वयं चखा, ताकि कष्ट भक्तिन को हो, सेवक को हो, न कि प्रभु को। प्रभु ने लीला रची, रामजी ने फल खा लिए, लक्ष्मण ने फेंक दिए। राम समरसता के प्रतीक बने, लक्ष्मण रूढ़ियों में फंस गए। इतिहास और समय ने तुरंत फैसला कर दिया। कहते हैं, इतिहास और समय किसी के गुलाम नहीं हैं। इसीलिए मंत्र बन गया ‘श्री राम जय राम जय जय राम’। दो लोग कहीं भी मिले, अभिवादन में

स्वयं का उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। इसीलिए मेरा, आपका घर, परिवार व उसकी रसोई व ड्राइंगरूम ऐसा होगा, जिसमें उन्हीं बरतनों में और उन्हीं कमरों में सोफासेट पर सभी एक साथ बैठते हैं, खाते हैं। ग्रंथों में ‘प्रभु’ ने किसी से नफरत करना नहीं सिखाया है।

संघ सामाजिक व्यवस्था में समरता की क्रांति है

आज समाज में इस दृष्टि से अनेक संस्थागत आंदोलन कार्यरत हैं। इसी में बिना नाम व नारे के एक आंदोलन को 1925 में नागपुर में, विजयादशमी के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जन्म दिया। इस आंदोलन का गहराई से अध्ययन किया है। इस आंदोलन को एक नया नाम दिया गया "Ready for selfless service', परंतु अब एक और नया नाम दिया जा सकता है "Revolution in social system" अर्थात सामाजिक समरसता की क्रांति या सामाजिक व्यवस्था में क्रांति। आज इसके 40 से 50 लाख तक स्वयंसेवक हैं, और 8 करोड़ के लगभग छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे-अनपढ़, ग्रामीण-शहरी, मजदूर-व्यापारी, कर्मचारी-अफसर, विद्यार्थी, विद्वान,महिला-पुरुष इस आंदोलन से, विचार से, क्रांति से जुड़ चुके हैं। इसमें भारत के सभी मजहब (बौद्ध, जैन, आर्यसमाजी, सिख, वैदिक, सनातनी, रैदासी, अंबेडकरवादी, द्वैत, अद्वैतवादी, प्रकृतिपूजक, भगवान को न मानने वाले आदिआदि) आते हैं। यह आंदोलन भारत के सभी प्रांतों व भाषा-बोलियों का संगम है। इस प्रवाह में सभी जातियों, उपजातियों अर्थात पिछड़ों को एक साथ खड़े देखा जा सकता है। जब संघ के स्वयंसेवक सड़क पर निकलते हैं, तो कोई यह नहीं कहता कि ये इस पूजा-पद्धति अथवा पंथ के हैं। न ही कोई यह कहता है कि ये किसी भाषा, प्रांत के, राजस्थानी, बंगाली, असमिया, कन्नड़, पंजाबी, डोगरे हैं। न ही किसी एक विशेष जाति-उपजाति अर्थात ब्राह्मण, बनिए, राजपूत, खत्री, भंगी, जाटव हैं। सभी कहते हैं कि ये शाखा वाले हैं, संघी हैं, स्वयंसेवक हैं। संघ ने बिना नारा, बिना नाम चुपचाप सतत साधना (प्रयत्नों) से मजहबवाद, जातिवाद, भाषा-प्रांतवाद पर विजय प्राप्त कर दिखाई है। संघ

खुला मंच

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के तृतीय सरसंघचालक प्रसिद्ध समाज संगठक एवं समाजसेवी श्री बालासाहब देवरस ने तो छुआछूत पर आघात करते हुए कहा, ‘अगर छुआछूत पाप नहीं तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं।’ आज आवश्यकता है इस क्रांति को, परिवर्तन को, संघ स्थान से निकालकर जन-जन में, घर-घर में ले जाया जाए। कार्य कठिन नहीं है, केवल एक बार मानसिकता बनाने की आवश्कयता है।

राजनीति से ऊपर उठने पर ही समरसता संभव

आज एक नए प्रकार के अलगाव ने, हिंसा ने भी स्वतंत्र भारत में जन्म लिया है और जोर पकड़ा है, जिसका स्वरूप राजनीतिक है। आज राजनीतिक दल व नेता मजहबवाद, जातिवाद, भाषा-प्रांतवाद को भड़काकर अपने-अपने दल की राजनीति करते दिखाई दे रहे हैं। राजनीतिक असहिष्णुता बढ़ी है। वोट बैंक की राजनीति ने समाज को घेर लिया है। सत्य कहा है ‘राजनीति तोड़ती है, धर्म जोड़ता है’। धर्म का अर्थ हैमानवतावाद अर्थात सर्पपंथ समभाव, सर्वजाति समभाव, सर्व प्रांत-भाषा समभाव का प्रगटीकरण। भारतीय सांस्कृतिक जीवनमूल्य ही इस धर्म की परिभाषा को प्रकट करते हैं, क्योंकि हिंदुत्व भारत के संदर्भ में भारतीयत्व है, विश्व के संदर्भ में यह मानवीय है। हिंदुत्व का प्रथम संदेश है ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ किंतु आगे की यात्रा मंर वह उचारता है-‘प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो, एकं सत्यं विप्रानां बहुधा वदंति, सर्वे भवन्तु सुखिन ः, ईमानदारी ही जीवन है, जियो मगर दूसरों के लिए, वीर भोग्या वसुंधरा, कृष्णवन्तो विश्व आर्यम् (विश्व को श्रेष्ठ करना)।’ यह कोई पूजापद्धति नहीं है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे स्पष्ट किया है। जो इसे पूजा-पद्धति मानकर, चिंतन कर प्रतिक्रिया करते हैं, उनसे निवेदन है कि वे अपने दुराग्रहों को त्यागकर सत्य के धरातल पर खड़े हों, चिंतन करें। इसीलिए राजनीतिक,आर्थिक एवं बौद्धिक भ्रष्टाचार के प्रदूषण से भी सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों की रक्षा करने हेतु जुटने का संकल्प लेकर समरस समाज जीवन की रचना करनी होगी। सामाजिक प्रयत्नों के साथ-साथ लोकतांत्रिक प्रणाली को मजहबी, जातीय, भाषायी, प्रांतीय वादों से बचाना होगा। इसके लिए राजनीतिक स्तर पर कानून को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यकवाद से मुक्त कर, समान नागरिक आचार-संहिता को लाना होगा, जिसमें कमजोर, गरीब, पिछड़े, निरक्षर के संरक्षण व संवर्धन की पूर्ण गारंटी हो।

राम राज्य की धरोहर समरसता

प्रभु रामजी ने 14 वर्ष के वनवासी जीवन में समरस जीवन के निर्माण का विलक्षण कार्य किया और वह रावणरूपी वैश्विक आतंकवाद, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, असहिष्णुता, अलगाववाद को नष्ट कर एक विकसित, सुरक्षित, खुशहाल राज्य की स्थापना कर सके, जिसे विश्व ‘रामराज्य’ कहता है। ‘रामराज्य’ समरस समाज जीवन के मार्ग से चलकर मिली मंजिल है। समरस समाज ही आज के आतंकवाद, भ्रष्टाचार, प्रदूषण, विदेशीयत से सुरक्षा की संजीवनी है।


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27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

केरल के देवदूत

जल प्रलय। बेरहम बादल इतना बरसे कि नदियां अपनी सीमाएं तोड़ कर लहरा गईं। देवताओं के घर में प्रलय की ऐसी लीला पीढ़ियों तक देखी नहीं गई। लेकिन आफत और बर्बादी के बीच ऐसे देवदूत भी आए जो विनाशकारी नदियों के मुंह से जिंदगी की मुस्कान निकाल लाए। सेना और एनडीआरएफ की टीमों के साथ केरल के मछुआरे हर कहीं इस आपदा से लोहा लेते दिखे। कोई आसमान से उतरा और एक गर्भवती महिला को बचा ले गया। पानी में फंसे दो साल के बच्चे को बचाने से लेकर वृद्ध महिला के लिए सीढ़ी बन जाने के जज्बे की वजह से केरल ही नहीं पूरे देश के चेहरे पर मुस्कान कायम है


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विज्ञान

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

सौर मंडल के बाहर ग्रहों के समूह की पहचान

कभी चांद पर रहते थे एलियन! वैज्ञानिकों का दावा है कि चांद पर करीब चार अरब साल पहले जीवन जीने योग्य माहौल था

क्या

चांद पर कभी एलियनों का बसेरा हुआ करता था? वैज्ञानिकों के हालिया दावे को मानें तो ऐसा ही लगता है। उनका कहना है कि संभवतः उल्का पिंडों के ब्लास्ट के कारण एलियनों के रहने के अनुकूल वातावरण पैदा हुआ। जब यह हुआ, तब का वातावरण संभवतः आज की तुलना ज्यादा रहने योग्य रहा होगा।

ग्रहों पर शोध करने वाले दो वरिष्ठ वैज्ञानिकों के मुताबिक, संभवतः चांद पर चार अरब साल पहले जीवन जीने योग्य माहौल था। शोधकर्ताओं का दावा है कि यह स्थिति संभवतः 3.5 अरब साल पहले ज्वालामुखी विस्फोट के कारण भी पैदा हुई होगी। उस वक्त चांद से बड़ी मात्रा में गर्म गैस रिस रही थी। जिस गैस के कारण सतह पर पानी तैयार हुआ। वॉशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के एस्ट्रोबायॉलजिस्ट डिर्क शुल्ज-माकुच ने कहा, 'अगर शुरुआती समय में चांद पर लंबे समय के लिए पानी और विशिष्ट वातावरणा था, तो हमें लगता है कि चांद की सतह पर अस्थायी रूप से जीवन जीने योग्य माहौल था।' शुल्ज ने यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के ग्रह विज्ञान और एस्ट्रोबायोलोजी के प्रोफेसर इयान क्राफॉर्ड के साथ मिलकर यह पेपर तैयार किया है। माना जाता है कि चांद की सतह मैग्नेटिक फील्ड से कवर थी जिसने घातक गर्म हवा से किसी भी प्रकार के जीव की रक्षा की होगी। (एजेंसी)

कैंब्रिज विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पाया कि पृथ्वी जैसे एक चट्टानी ग्रह की सतह पर जीवन के विकास की संभावनाएं हैं

वै

ज्ञानिकों ने हमा सौर मंडल के बाहर ग्रहों के एक ऐसे समूह की पहचान की है जहां वही रासायनिक स्थितियां हैं जो शायद पृथ्वी पर जीवन का कारण बनी होंगी। ब्रिटेन में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने पाया कि पृथ्वी जैसे एक चट्टानी ग्रह की सतह पर जीवन के

सूरज को छूने चला नासा का अंतरिक्षयान

नासा ने सूरज मिशन पर 'पार्कर सोलर प्रोब' रवाना किया है। यह सूरज से 40 लाख मील की दरू ी से गुजरेगा

मेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने सूरज पर अपना पहला मिशन 'पार्कर सोलर प्रोब' रवाना कर दिया है। एक गाड़ी के आकार का यह अंतरक्षियान सूरज की सतह के सबसे करीब 40 लाख मील की दूरी से गुजरेगा। इससे पहले किसी भी अंतरिक्षयान ने इतना ताप और इतनी रोशनी का सामना नहीं किया है। इस मिशन का उद्देश्य यह जानना है कि किस तरह ऊर्जा और गर्मी सूरज के चारों ओर घेरा बनाकर रखती है।

इससे पहले पार्कर सोलर प्रोब को लॉन्च करना था, लेकिन तकनीकी खामी की वजह से लॉन्चिंग को टाल दिया था। केप केनेवरल स्थित प्रक्षेपण स्थल से डेल्टा-4 रॉकेट के जरिए इस यान को अंतरिक्ष रवाना किया गया। यह यान अगले 7 सालों में सूरज के 7 चक्कर लगाएगा। धरती और सूरज के बीच औसत दूरी 9 करोड़ 30 लाख मील है। यह मिशन सूरज के वायुमंडल जिसे कोरोना कहते हैं, का विस्तृत अध्ययन करेगा। इस स्पेसक्राफ्ट को भेजने का उद्देश्य सूर्य के नजदीक के वातावरण, उसके स्वभाव और कार्यप्रणाली को समझना है। यह मिशन 7 साल तक सूरज के वातावरण को जानने की कोशिश करेगा। इस प्रॉजेक्ट पर नासा ने 103 अरब रुपए खर्च किए हैं। यह यान 9 फीट 10 इंच लंबा है और इसका वजन 612 किलोग्राम है। इस यान को बेहद शक्तिशाली हीट शील्ड से सुरक्षित किया गया है ताकि यह सूरज के

पास ताप को झेल सके और धरती की तुलना में 500 गुना ज्यादा रेडिएशन झेल सके। यह कार्बन शील्ड 11.43 सेंटी मीटर मोटी है। इस मिशन का नाम अमेरिकी सौर खगोलशास्त्री यूजीन नेवमैन पार्कर के नाम पर रखा गया है। पार्कर ने ही 1958 में पहली बार अनुमान लगाया था कि सौर हवाएं होती हैं। यह मिशन जब सूरज के सबसे करीब से गुजरेगा तो वहां का तापमान 2500 डिग्री सेल्सियस तक होगा। नासा के मुताबिक, अगर सबकुछ ठीक रहा तो यान के अंदर का तापमान 85 डिग्री सेल्सियस तक रहेगा। यह यान सूरज के वायुमंडल कोरोना से 24 बार गुजरेगा। इस यान के साथ करीब 11 लाख लोगों के नाम भी सूरज तक पहुंचेंगे। इसी साल मार्च में नासा ने अपने ऐतिहासिक मिशन का हिस्सा बनने के लिए लोगों से नाम मंगाए थे। नासा ने बताया था कि मई तक करीब 11 लाख 37 हजार 202 नाम उन्हें मिले थे, जिन्हे मेमरी कार्ड के जरिए यान के साथ भेजा गया है। इससे पहले हेलियोस 2 यान सूरज के सबसे नजदीक से गुजरा था। साल 1976 में यह यान सूरज के करीब 4 करोड़ 30 किलोमीटर पास तक गया था। (एजेंसी)

विकास की संभावनाएं हैं और इनका संबंध ग्रह के होस्ट स्टार से है। साइंस अडवांस जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन में दावा किया गया है कि पृथ्वी पर पहले पहल हुए जीवन के विकास की स्थिति की ही तरह तारों ने पराबैंगनीकिरणों (यूवी) के प्रकाश को उसी तरह इन ग्रहों पर भी छोड़ा जिससे इन ग्रहों में भी जीवन की शुरुआत हो सकती है। पृथ्वी पर यूवी प्रकाश से रासायनिक प्रतिक्रियाएं होती हैं और इससे जीवन का निर्माण होता है। शोधकर्ताओं ने ऐसे कई ग्रहों की पहचान की है जहां उनके होस्ट स्टार से यूवी प्रकाश इन रासायनिक प्रतिक्रियाओं को होने की अनुमति देने के लिए पर्याप्त है और यह रहने योग्य सीमा के भीतर स्थित है जहां ग्रह की सतह पर तरल पानी भी मौजूद हो सकता है। (एजेंसी)

चंद्रमा पर है पानी

वैज्ञानिकों ने चंद्रमा के अंधेरे और ठंडे हिस्सों में जमा हुआ पानी मिलने का दावा किया है। यह दावा चंद्रयान-1 से प्राप्त जानकारी के आधार पर किया गया है

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सा ने आज कहा कि वैज्ञानिकों ने चंद्रमा के ध्रुवीय क्षेत्रों के अंधेरे और ठंडे हिस्सों में जमा हुआ पानी मिलने का दावा किया है। यह दावा चंद्रयान-1 से प्राप्त जानकारी के आधार पर किया गया है। चंद्रयान-1 का प्रक्षेपण भारत ने 10 वर्ष पहले किया था। सतह पर कुछ मिलीमीटर तक बर्फ मिलने से यह संभावना बनती है कि उस पानी का इस्तेमाल भविष्य की चंद्र यात्राओं में संसाधन के रूप में किया जा सकता है। जर्नल पीएनएएस में प्रकाशित शोध के मुताबिक यह बर्फ कुछ-कुछ दूरी पर है और संभवत: बहुत पुरानी है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए नासा के मून मिनरलोजी मैप्पर (एम3) इंस्ट्रूमेंट का इस्तेमाल किया है ताकि पानी के चंद्रमा की सतह पर होने के पुख्ता तौर पर संकेत मिल पाए। साल 2008 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) की तरफ से छोड़े गए चंद्रयान-1 वायुयान पर एम3 को लगाया गया था, ताकि चंद्रमा पर पानी के संकेत की पुष्टि मिल पाए। (एजेंसी)


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

पर्यटकों को लुभाएंगे बुंदेलखंड के तालाब

बेटियों ने खोद डाला कुआं

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देलखंड की पहचान देश और दुनिया में सूखा, पलायन और बेरोजगारी की है, मगर यहां रमणीक पर्यटन स्थल भी कम नहीं हैं। झांसी और उसके आसपास के तालाबों तथा बांधों के जरिए पर्यटकों को लुभाने की पहल उत्तर प्रदेश पर्यटन विकास निगम ने की है। इसके लिए एक टूर पैकेज तैयार किया गया है। बुंदेलखंड भले ही सूखे के लिए बदनाम हो, मगर यह भी उतना ही सच है कि इस इलाके में जितने तालाब और बांध हैं, उतने शायद ही देश के किसी दूसरे हिस्से में हों। ललितपुर इकलौता ऐसा जिला है, जहां सात बांध हैं। मानसून के मौसम में तालाब और बांधों का नजारा ही निराला होता है, क्योंकि हिलेारें मारता पानी और लहरें सम्मोहित कर लेती हैं। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के पर्यटन विकास निगम के झांसी स्थित वीरांगना होटल के प्रबंधन ने एक टूर पैकेज तैयार किया है। टूर पैकेज के तहत महज 375 रुपए खर्च करने पर एक पर्यटक न केवल कई तालाबों और बांधों का नजारा देख सकेगा, बल्कि नौकायन (बोटिंग) का भी मजा ले पाएगा। वीरांगना होटल के प्रबंधक मुकुल गुप्ता ने बताया कि झांसी और ललितपुर जिले के सुकवां-ढुकवां, माताटीला बांध और तालबेहट स्थित मानसरोवर तालाब का चयन किया गया है। यहा पर्यटकों को एक वातानुकूलित मिनी बस से ले जाया जाएगा। इस दौरान मिनरल पानी, पर्यटन से संबंधित साहित्य, टोल टैक्स, बोटिंग, जीएसटी आदि पैकेज में शामिल है। तालबेहट के सरोवर में नौकायन के बेहतर इंतजाम हैं, जहां लोग सुरक्षित तरीके से नौकायन का आनंद ले सकेंगे। गुप्ता बताते हैं कि बुंदेलखंड में कई ऐसे स्थान हैं, जहां पर्यटकों को ले जाया जा सकता है। जो एक बार वहां हो आएगा उसका न केवल दोबारा जाने का मन करेगा, बल्कि वह अपने परिचितों को भी वहां भेजेगा। जो पैकेज तैयार किया गया है, उसमें लगभग सात से आठ घंटे का समय लगेगा, यात्रा

लगभग डेढ़ सौ किलो मीटर की होगी। इस पैकेज में भोजन शामिल नहीं है, पर्यटक अपनी सुविधा के अनुसार घर से भोजन ले जा सकता है या मांग पर उसे उपलब्ध कराया जाएगा। वर्तमान में जो टूर पैकेज बनाया गया है, उसके चलते पर्यटकों को बेतवा नदी पर बने बांध तो देखने को मिलेंगे ही, साथ में बेतवा नदी का बहाव भी उन्हें रोमांचित कर देगा। कई बांधों और तालाबों का जलस्तर काफी बढ़ गया है, वहीं नदी का जलस्तर भी बढ़ा हुआ है। इस पैकेज के तहत यात्रा करने वालों को तालबेहट के सरोवर में बोटिंग का आनंद दिलाया जाएगा। नगर पंचायत की अध्यक्ष मुक्ता सोनी का कहना है, "पर्यटकों को लुभाने की यह कोशिश क्षेत्र के लिए एक नई उम्मीद जगाने वाली होगी। तालबेहट के सरोवर पर बोट क्लब है। वहां मोटर बोट, पैडिल बोट, नौका आदि उपलब्ध हैं। इसके साथ ही सुरक्षा की दृष्टि से लाइव जैकेट के साथ गोताखोर भी मौके पर मौजूद रहते हैं। प्रशिक्षित लोगों का अमला सरोवर पर तैनात रहता है।" बुंदेलखंड वह इलाका है, जो उत्तर प्रदेश के सात और मध्य प्रदेश के छह जिलों को मिलाकर बनता है। इस क्षेत्र में ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों के साथ धार्मिक स्थलों की भरमार है। इन स्थलों पर पर्यटकों को भ्रमण कराया जा सकता है, मगर दोनों राज्यों के पर्यटन विकास निगम से नाता रखने वालों ने कभी भी इस महत्व को नहीं पहचाना। इस इलाके में पर्यटन एक उद्योग के तौर विकसित हो सकता है। यहां के चित्रकूट में भगवान राम ने वनवास काटा था, राम का प्रमुख मंदिर ओरछा में है, आल्हा-ऊदल की नगरी महोबा के किस्से कहीं भी सुनने को मिल जाएंगे। दुनिया में पाषाण कला के लिए विशिष्ट तौर पर पहचाना जाने वाला खजुराहो भी इसी इलाके में है। रानी लक्ष्मीबाई का किला और पन्ना में जुगल किशोर का मंदिर है। उसके बावजूद यह इलाका उपेक्षाओं का शिकार है। अब पहली पहल झांसी से हुई है, उम्मीद की जाना चाहिए कि यह सफल होगी और आगे बढ़ेगी।

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पिता की परेशानी को खत्म करने के लिए मध्यप्रदेश के खरगोन की दो बहनों ने कुआं खोद डाला

झांसी और उसके आसपास के तालाबों तथा बांधों के जरिए पर्यटकों को लुभाने की पहल उत्तर प्रदेश पर्यटन विकास निगम ने की है

संदीप पौराणिक

गुड न्यूज

ध्य प्रदेश के खरगोन जिले में दो बेटियों ने अपनी पिता की हताशा को देख साहसी फैसला लेते हुए कुआं खोद डाला। कड़ी धूप के बीच गर्मी के चार महीनों में बेटियों ने खून-पसीना एक करते हुए जब कुआं खोदकर तैयार कर दिया, जिसे देख पिता की आंखें नम हो गईं। यह वाकया है मध्य प्रदेश के खरगोन जिले के भीकनगांव का, जहां ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर चुकी ज्योति और कविता नामक दो बहनों ने अपने इंजीनियर भाई के साथ मिलकर कुआं खोदकर तैयार कर दिया। प्रशासन इस कुएं को 10 फीट खोदने के बाद भूल गया था और बार-बार सुनवाई करने पर कोई सुध नहीं ले रहा था। तब मैदान में उतरी बेटियों ने 4 महीने में 28 फीट का कुआं खोदकर

तैयार कर दिया। दोनों बेटियों ने बताया, 'हमने अप्रैल में खुद ही इस काम को पूरा करने का फैसला किया, जब पारा 40 डिग्री के पार जा रहा था। अब हमारे पिता और चाचा को सिंचाई की परेशानी नहीं होगी और वे अगले साल की गर्मियों के लिए तैयार रहेंगे।' बेटियों के पिता बाबू भास्कर ने कहा, 'मैंने अपनी जिंदगी की सारी कमाई बेटियों की पढ़ाई पर ही खर्च कर दी। अब मुझे समझ नहीं आ रहा है कि इस मेहनत के लिए उन्हें शाबासी दूं या फिर अपने पर पछतावा करूं कि मैंने उन्हें मजदूर में बदल दिया। बेटियों ने भरी दोपहरी में अपनी कमर में रस्सी बांध कर कुएं से पत्थरों को खींच कर निकाला। यह मेरे लिए बहुत ही भावुक क्षण है।' (एजेंसी)

पीड़ित ने मेडिकल कॉलेज बनाने के लिए दी जमीन कैंसर पीड़ित पश्चिम बंगाल के हुगली निवासी ने मेडिकल कॉलेज बनाने के लिए करोड़ों की जमीन दान में दी

श्चिम बंगाल के हुगली निवासी अचिंत्य कुंडु कैंसर से पीड़ित हैं, लेकिन यह बीमारी उनकी इंसानियत और परोपकार की राह में आड़े नहीं आई। राज्य सरकार द्वारा बनाए जा रहे एक मेडिकल और नर्सिंग कॉलेज के निर्माण के लिए अंचित्य ने अपनी पांच बीघे की जमीन दान कर दी है। इस जमीन की कीमत लगभग पांच करोड़ रुपए आंकी गई है। अंचित्य के इस फैसले को जमकर सराहना मिल रही स्थानीय निकाय के मुखिया स्वपन नंदी कहते हैं, 'हमें इतनी बड़ी जमीन मिल गई है, इससे हम गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं।'

रविवार को स्वपन के साथ-साथ अन्य पार्षदों ने इस जगह का दौरा भी किया। बताया गया कि आरामबाग के कालीपुर वॉर्ड संख्या 12 में रहने वाले अचिंत्य एक राइस मिल के मालिक हैं। उनके पिता हरिमोहन कुंडु भी सामाजिक कार्यकर्ता रहे हैं। अंचित्य का बेटा आर्यनदीप मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है। स्थानीय लोगों के मुताबिक, कुंडु परिवार हमेशा से अपनी दानधर्मिता के लिए जाना जाता रहा है, इससे पहले इन लोगों ने कब्रिस्तान के लिए भी जमीन दान की थी। इसके अलावा कुछ मंदिरों और कालीपुर स्वामीजी हाईस्कूल में लाइब्रेरी भी बनाई है। गले और मुंह के कैंसर से पीड़ित, 'मैंने सुना कि सरकार आरामबाग में एक मेडिकल कॉलेज बनाना चाह रही है, लेकिन जमीन को लेकर मामला फंसा हुआ है। जब मैंने अपनी मां से बात की थी तो उन्होंने जमीन दान करने को कहा। मैंने सरकार से संपर्क किया। मुझे उम्मीद है कि मेडिकल कॉलेज बन जाने से गरीबों की मदद हो जाएगी।' (एजेंसी)


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संरक्षण

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

शहीदों की विरासत बचाने में जुटे युवा महाराष्ट्र में पुणे के दो युवा संगठन आसपास के गांवों में सभी शहीद स्मारकों को फिर से सहेज रहे हैं

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निशा डागर

रतीय स्वाधीनता संग्राम हमारे आधुनिक इतिहास का सबसे सुनहरा पन्ना है। इस आंदोलन में स्वाधीनता के लिए भारत के वीर सपूतों ने जिस तरह की यातनाएं सहीं और अपने प्राणों की आहुति दी, वह आज भी हम सबके लिए एक बड़ी प्रेरणा है। लिहाजा, शहीदों की विरासत को संभालकर रखना बहुत जरूरी है। महाराष्ट्र में पुणे के दो युवा संगठन, ‘स्वराज्यचे शिलेदार’ और ‘रायगड़ परिवार’ आसपास के गांवों में सभी शहीद स्मारकों को फिर से सहेज रहे हैं। समय-समय पर शहीदों की याद में बनवाए गए ये स्मृति स्मारक या फिर स्मृति-शिला आज या तो अच्छी स्थिति में नहीं हैं या फिर लोग उन्हें भूलते जा रहे हैं। न तो सरकार

खास बातें

पुणे के आसपास के युवाओं ने यह कार्य स्वयं प्रेरणा से शुरू किया युवा संगठनों के नाम - ‘स्वराज्यचे शिलेदार’ और ‘रायगड़ परिवार’ इन संगठनों में 20 से ज्यादा युवा सक्रिय योगदान कर रहे हैं

ही इन पर ध्यान दे रही है और न ही नागरिक। ऐसे में ये 20 युवा आगे बढ़कर इतिहास के इन स्मृति-चिह्नों को बचाने के प्रयास में जुटे हैं। साथ ही वे अधिकारी व स्थानीय लोगों को भी इस बारे में जागरूक कर रहे हैं। इसी वर्ष जुलाई में मुलशी में ये युवा घूमने के लिए गए। जहां उन्हें ये स्मारक काफी खराब हालत में मिले। इन स्मारकों को साफ करने पर पता चला कि ऐतिहासिक रूप से ये हमारी विरासत का हिस्सा हैं। इसीलिए इन युवाओं ने मावल, मुलशी और हवेली के आस-पास के गांवों में इन्हें संरक्षित करने का अभियान चलाया। एम.कॉम के छात्र मंगेश नवघाने ने बताया, ‘हम मुलशी घूमने गए थे। इसी क्रम में हम पाउड के पास वलेन गांव में एक मंदिर गए थे। यहां, हमने खेतों, वन क्षेत्रों आदि पर और सड़क के किनारे पर कई स्मृति-शिला बिखरे हुए देखे। स्थानीय लोगों को उनके बारे में बहुत नहीं पता था, जबकि ये पत्थर पर उन गांवों की विरासत का प्रतीक था। फिर हमने ऑनलाइन खोज-बीन की और हमें इनका महत्व पता चला। हम जानते थे कि अब हमें कुछ करना है।’ आज ये युवा हर वीकेंड पर ऐसे स्मारकों को खोजने की कोशिश करते हैं जो बहुत ही दयनीय स्थिति में या तो इधर-उधर पड़े हुए हैं या फिर जमीन में दब गए हैं। इन स्मारकों को किसी जमाने में इन अनजाने सैनिकों और शहीदों के घरवाले या फिर गांववालों ने उनकी याद में बनवाया था। इनमें से अधिकांश को यादव और शिलाहारा राजवंशों के शासन के दौरान 5 वीं और 13 वीं शताब्दी के बीच बनवाया गया

अब तक सिर्फ मुलशी के पास ही इन युवाओं ने ऐसी 70 स्मृति-शिलाओं को को ढूंढ निकाला है। इन स्मृति-शिलाओं को ढूंढकर ये इन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देते हैं है। कई स्मारक नक्काशीदार हैं, जिन पर शहीदों की जीवन घटनाओं को दर्शाया गया है। ये पत्थर आज हमारे लिए इतिहास के कई अनसुने पहलुओं के दरवाजे खोल सकते हैं। लेकिन आज इनकी यह स्थिति अच्छी नहीं है। किसी जमाने में इनका उपयोग कपड़े धोने के पत्थर या फिर गांवों और घरों की सीमा चिह्नित करने के लिए होता था। इन स्मारकों पर सिंदूर से टीका लगाने के निशान भी मिले हैं। अब तक सिर्फ मुलशी के पास ही इन युवाओं ने ऐसी 70 स्मृति-शिलाओं को को ढूंढ निकाला है। इन स्मृति-शिलाओं को ढूंढकर ये इन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देते हैं। फिलहाल, बिना किसी भी अधिकारी की मदद से वे इन स्मृति-शिलाओं का रख-रखाव स्वयं कर रहे हैं। एक अन्य स्वयंसेवक वैभव सलुंखे ने कहा, ‘इन स्मारकों की स्थिति दयनीय है, और सरकार इन्हें बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं कर रही है। अब हम अपने वीकेंड ऐसे स्मृति-शिलाओं ढूंढने और उन्हें सुरक्षित स्थानों पर स्थानांतरित करने के लिए खर्च कर रहे हैं।’ इंटीरियर डिजाइनर अनिल काडु ने बताया कि इनमें से कई पत्थरों पर नक्काशी में सूर्य, चंद्रमा, अमृत का एक बर्तन, या यहां तक कि एक युद्ध दृश्य जैसे प्रतीक थे। और प्रत्येक पत्थर पर एक

अलग दृश्य है। इंडोलॉजिस्ट सैली पलांडे दतार ने स्मृति-शिलाओं के महत्वपूर्ण संरक्षण के बारे में बात करते हुए कहा कि ये 5 वीं और 13 वीं शताब्दी के बीच हुई घटनाओं का सबूत हैं। पांडुलिपियों की अनुपलब्धता के कारण प्राचीन काल का इतिहास काफी हद तक लापता है। ये हमारे समृद्ध इतिहास में कुछ बिंदुओं को जोड़ने में हमारी मदद कर सकते हैं। इन स्मृति-शिलाओं की रक्षा के लिए सरकारी कदमों की कमी के बारे में बात करते हुए, राज्य पुरातत्व और संग्रहालय विभाग के सहायक निदेशक विलास वाहने ने कहा कि उनकी रक्षा या संरक्षण करने की कोई नीति नहीं है। उन्होंने कहा, ‘युवाओं द्वारा इस तरह के प्रयास सराहनीय हैं, क्योंकि यह सार्वजनिक भागीदारी को संकेत देता है। हम ग्रामीणों के बीच इन पत्थरों की रक्षा के लिए जागरुकता पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि वास्तव में ये इतिहास की विरासत है। हमने इन छोड़े गए वीरगलों को आस-पास के मंदिरों जैसे सुरक्षित स्थानों पर लाने के लिए एक अभियान चलाया है।’ उन्होंने आगे बताया कि अकेले राज्य में वीरगलों की संख्या 45,000 से अधिक है, लेकिन विभाग सीमाओं के कारण प्रत्येक पत्थर को संरक्षित नहीं किया जा सकता है। जाहिर है कि ऐसे में ये युवा एक महान काम कर रहे हैं।


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

जहां पर शंकराचार्य ने मानी थी हार

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विरासत

मिथिला की यह अद्भुत विशेषता है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व यह व्यवस्था थी कि हर कुछ तर्क की कसौटी पर कसने के बाद ही उसे स्वीकार किया जाता था

सांस्कृतिक शब्द कोश का प्रकाशन देश में पहली बार सांस्कृतिक विरासतों और कल के विभिन्न प्रारूपों में प्रयुक्त होने वाले शब्दों का कोश प्रकाशित हुआ है

सां

मि

थिला सदियों से दर्शन का केंद्र रहा है। यहां का इतिहास काफी गौरवमयी रहा है। इसीलिए देश-विदेश के लोग यहां की सांस्कृतिक विरासत को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में आज वाद-विवाद को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। कानून बनाने के लिए आज पूरी दुनिया में सांसद, विधायक आपस में सदन में वाद-विवाद करते हैं और उससे जो निचोड़ निकलता है, उसे कानून का शक्ल देते हैं। इसी आधार पर आगे देश में शासन-प्रशासन चलता है और न्यायमूर्ति न्याय करते हैं। मिथिला की यह अद्भुत विशेषता है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व यह व्यवस्था कायम थी। हर कुछ तर्क की कसौटी पर कसने के बाद ही उसे स्वीकार किया जाता था। मिथिला के प्रकांड पंडित मंडन मिश्र व उनकी पत्नी भारती की ख्याति इसीलिए पूरी दुनिया में है। आज जिस समतामूलक समाज की स्थापना व 'सबको न्याय सबको सम्मान' की बात हो रही है, मिथिला में आज से हजारों वर्ष पूर्व कायम थी। जहां तक शिक्षा की बात है, तो वहां उस समय भी स्त्री-पुरुषों के साथ ही समाज के निचले स्तर के लोगों के साथ भी किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता था। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमें यहां देखने के लिए मिलता है। कहा जाता है कि जब पंडित मंडन मिश्र का घर जानने के लिए शंकराचार्य के शिष्य ने वहां कुएं में पानी भरने वाली महिला से बात की तो उसने उत्तर संस्कृत में दिया। यह साबित करता है कि यहां के निचले समाज की महिलाएं भी पढ़ी-लिखी थीं।

कहा जाता है कि शंकराचार्य सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए केरल से देश भ्रमण पर निकले थे। इस दौरान उन्होंने देश के चारों कोने पर चार मठों की स्थापना की। साथ ही अपने अद्वैतवाद का प्रचार-प्रसार भी किया। इस दौरान जब उन्हें किसी स्थानीय विद्वान के बारे में पता चलता था तो वे उनसे शास्त्रार्थ किया करते थे और जीतने पर उनसे अपना क्षत्रप स्वीकार करवाते थे। मिथिला के प्रकांड पंडित मंडन मिश्र की ख्याति के बारे में शंकराचार्य को जानकारी थी। वे जब मिथिला पहुंचे तो पंडित मंडन मिश्र से मिलने की इच्छा जताई। शंकराचार्य के शिष्य खोजते-खोजते मंडन मिश्र के गांव माहिष्मती जो आज महिषी है, पहुंचे। महिषी बिहार के सहरसा जिले में है। इस गांव में पहुंचने पर शंकराचार्य के शिष्यों ने देखा कि दो महिलाएं कुएं से पानी भर रही हैं और आपस में संस्कृत में वार्तालाप कर रही हैं। एक शिष्य ने पानी भरने वाली महिला से पूछा कि बताएं पंडित मंडन मिश्र का घर कौन सा है? इस पर एक महिला ने उत्तर देते हुए कहा कि आप इसी रास्ते से आगे जाएं और जिस घर के द्वार पर पिंजरे में बंद दो तोता आपस में संस्कृत में शास्त्रार्थ कर रहे हों, समझिए वही घर पंडित मंडन मिश्र का है। पानी भरने वाली उस महिला ने संस्कृत के श्लोक में उनको जवाब दिया : (स्वत: प्रमाणं पुरुत: प्रमाणं शुकांगना: यत्र गिरोगिरन्ति, शिष्योपशिष्यैगियमानं तमुपैहि मंडन मिश्र धामं।) शंकराचार्य के घर पहुंचने पर पंडित मंडन मिश्र व उनकी विदुषी पत्नी भारती ने मिथिला की परंपरा

के अनुसार शंकराचार्य का भव्य स्वागत किया। शंकराचार्य के आगमन की खबर सुनकर आसपड़ोस के पंडित भी आ पहुंचे। सेवा-सत्कार के बाद शास्त्रार्थ होना था। दोनों के बीच निर्णायक की तलाश होने लगी। उपस्थित पंडितों ने कहा कि आप दोनों के शास्त्रार्थ में हार-जीत का निर्णय करने के लिए विदुषी भारती सबसे उपयुक्त होंगी। दोनों के बीच कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला। अंत में भारती ने शंकराचार्य को विजयी घोषित कर दिया। मगर उन्होंने शंकराचार्य के समक्ष एक शर्त रख दी। कहा, ‘पंडित मंडन मिश्र विवाहित हैं और मैं उनकी अर्धांगिनी हूं। अभी आप आधे शास्त्रार्थ को ही जीते हैं, अभी मेरे साथ आपको शास्त्रार्थ करना होगा।’ कहा जाता है कि शंकराचार्य ने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली और दोनों के बीच शास्त्रार्थ हुआ। शंकराचार्य शास्त्रार्थ जीत रहे थे, पर भारती ने जो अंतिम प्रश्न किया, वह उन पर भारी पड़ गया। उनका अंतिम प्रश्न गृहस्थ जीवन में स्त्री-पुरुष के संबंध के व्यावहारिक ज्ञान से जुड़ा था। संन्यासी शंकराचार्य को गृहस्थ जीवन के व्यावहारिक पक्ष का ज्ञान नहीं था। शंकराचार्य ने अपनी हार स्वीकार कर ली और सभा मंडप ने विदुषी भारती को विजय घोषित कर दिया। इससे साबित होता है कि मिथिला में महिलाएं जीवन के हर क्षेत्र में बराबर की भागीदारी निभाती थीं। घर-परिवार की जिम्मेदारी निभाते हुए ज्ञान अर्जित कर शास्त्रार्थ भी करती थीं और समाज में कोई लिंगभेद नहीं था। पति-पत्नी के बीच एक-दूसरे के पूरक का संबंध होता था। (आईएएनएस)

स्कृतिक विरासत के 17 विषयों के लगभग 12 हजार 500 शब्दों का संकलन कर फाइन आर्ट का शब्दकोश नोएडा में तैयार किया गया है। इस शब्द कोश को नोएडा के कला इतिहासकार रूप नारायण बाथम ने सात साल में तैयार किया है। देश में पहली बार ऐसा हुआ है, जब सांस्कृतिक विरासतों से जुड़े इतने सारे विषयों को एक साथ जोड़कर उनमें इस्तेमाल होने वाले शब्दों का एक जगह प्रकाशन हुआ है। पेशे से चित्रकार रूप नारायण बाथम ने नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट में अध्यापन कार्य किया है। उन्होंने बताया कि इस शब्द कोश में चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला, नृत्य कला, संगीत कला, नाट्य कला, फोटोग्राफी, फिल्म और टीवी, फैशन, शिल्प कला, छापा कला, आलेखन, पुरातत्व, संग्रहालय विज्ञान, अभिलेख, समीक्षा और सौंदर्यशास्त्र से जुड़े शब्दों को संकलित किया गया है। इसे तैयार करने में अलगअलग क्षेत्र के विशेषज्ञों की मदद ली गई थी। बाथम ने बताया कि इसे तैयार करने का आइडिया वर्ष 1988 में आया था। तब देश में पारिभाषिक कला कोश के प्रकाशन समय आया था। तब केंद्रीय शिक्षा मंत्री के सचिव सुशील जोशी ने इसके विस्तार का सुझाव दिया था। तब नाटक, संगीत आदि के विशेषज्ञों को साथ लेकर इसे पूरा किया गया। सौंदर्यशास्त्र जैसे विषय पर कभी भी इतने विस्तार से शब्दों की जानकारी कहीं नहीं मिलेगी जितनी इसमें सामने आएगी। रूप नारायण बाथम का कहना है कि हालांकि ये सभी विषय अलग-अलग विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जा रहे हैं मगर इस समय देश में किसी भी भाषा का यह पहला ललित कलाओं का एक समग्र कोश है। (एजेंसी)


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व्यक्तित्व

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

मैडम क्यूरी

नोबेल महिला वैज्ञानिक का संघर्ष अपने बूते शुरू किया। उन्होंने फ्रांस में अपनी बड़ी बहन शिक्षा का भार भी अपने ही ऊपर उठा लिया। पेरिस में मानिया की बड़ी बहन चिकित्सा शास्त्र का अध्ययन कर रही थी। नौकरी के दौरान मानिया को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जिस धनी व्यक्ति के घर में वह बच्चों की देखभाल का काम किया करती थीं, उसका पुत्र मानिया की ओर आकर्षित हो गया। वह उसके साथ वैवाहिक सूत्र में बधना चाहता था पर मानिया के मन में उच्च शिक्षा प्राप्त करने की ललक थी। इसीलिए मानिया ने उसके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया, जिसकी वजह से उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। इसके बाद वह एक दूसरे घर में काम करने लगीं।

मानिया बन गई मेरी

मे

एसएसबी ब्यूरो

री क्यूरी पोलिश मूल की एक विश्व विख्यात वैज्ञानिक हैं। उन्होंने बहुत कठिन हालात से गुजरकर अपना यह मुकाम हासिल किया है। रेडियोधर्मी तत्वों की खोज में उनका अमूल्य योगदान रहा है। मेरी ने अपना सारा जीवन इन खतरनाक तत्वों पर अनुसंधान करने में बिताया। दुर्भाग्य से इन्हीं तत्वों से निकली किरणों ने उनकी जान भी ली। अपनी अनुसंधान सामग्री से विकिरण निकलने के कारण उन्हें अप्लास्टिक एनीमिया हो गया और उनकी मौत हो गई। तब दुनिया रेडिएशन के खतरे से हम अनजान थी।

खास बातें

रेडियोधर्मी तत्वों की खोज में मैडम क्यूरी का अमूल्य योगदान है मैडम क्यूरी का जीवन बचपन से ही काफी संघर्षमय रहा लैंगिक विषमता के कारण उन्हें कई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ा

अभावग्रस्त बचपन

मेरी क्यूरी का जन्म 7 नवंबर, 1867 में पोलैंड के वारसा शहर में हुआ था। उनके बचपन का नाम मानिया स्कलोडोव्स्का था। वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। पिता वारसा में हाई स्कूल में गणित व भौतिकशास्त्र के अध्यापक थे और माता महिला विद्यालय की प्रिंसिपल थीं। वह जब महज दस वर्ष की थीं तो उनकी माता का टायफॉयड से आकस्मिक निधन हो गया। इस कारण उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। विपत्ति अकेली नहीं आती। अभी मानिया 11 वर्ष की ही थीं कि उनकी मां का देहांत हो गया। अचानक पूरे परिवार पर दुख के बादल छा गए।

पोलैंड पर रूस का आधिपत्य

उन दिनों पोलैंड पर रूस का आधिपत्य था। अपने आधिपत्य वाली सरकार के खिलाफ मानिया के पिता ने स्वाधीनता के लिए मुखरता से आवाज उठाई। नतीजतन पिता को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा और परिवार आर्थिक कठिनाइयों से घिर गया। पिता ने अपना स्वयं का स्कूल खोल लिया। इस तरह परिवार की जीविका किसी तरह चलने लगी।

पढ़ाई में स्वर्ण पदक

मानिया बहुत कुशाग्र बुद्धि की थीं। 16 वर्ष की आयु में उन्होंने सेकेंडरी परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त कर सबको आश्चर्यचकित कर दिया। इस सफलता के

लिए उन्हें स्वर्ण पदक भी मिला। पर परिवार की खराब आर्थिक स्थिति ने आगे की पढ़ाई में बाधा खड़ी कर दी। आगे की शिक्षा के विषय में परिवार में गहन चिंतन-मनन हुआ। मानिया ने अर्थोपार्जन करने का निर्णय लिया।

अभाव और संघर्ष

घर की स्थिति को देखते हुए मानिया ने काम करने का निर्णय लिया तथा उन्होंने अपना जीवनयापन

24 वर्ष की उम्र तक मानिया पोलैंड में ही रहीं। यहीं उन्होंने प्रथम श्रेणी से विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई पूरी की। पर इसके आगे अध्ययन की चुनौती बड़ी थी। उस समय वारसा विश्वविद्यालय में महिलाओं का प्रवेश वर्जित था। लिहाजा आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने पेरिस के सोरबोन विश्वविद्यालय जाने का निश्चय किया। पर आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण यह उनकी पहुंच से बाहर था, इसीलिए उन्होंने और उनकी बहन ने निर्णय लिया कि उनकी बहन पेरिस में रहकर डॉक्टरी की पढ़ाई करेगी और मेरी यहीं घरेलू शिक्षिका का काम करेंगी, जब बहन डॉक्टर बन जाएगी, तो वह मेरी को भी पेरिस बुला लेगी। मेरी ने 4 वर्षों तक घरेलू अध्यापिका का काम


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018 जारी रखा। इस बीच, उन्हें एक परिवार में पढ़ाते हुए उसी परिवार के एक नवयुवक से प्रेम हो गया। पर इस प्रेम प्रसंग का अंत भी दुखद हा रहा।

पेरिस से बहन का बुलावा

अंततः पेरिस से बहन का बुलावा आ गया और मेरी सब कुछ भूल कर एक नए भविष्य को ओर चल दी। नवंबर, 1891 में वह हजारों मील की रेल यात्रा करके पेरिस पहुंच गईं। वैसे तो मेरी काफी खुले विचारों वाली युवती थी, गर्मी की छुट्टियों में वह खूब आनंद मनाती, नृत्य करतीं। पर बहन के परिवार के साथ रहने से अध्ययन प्रभावित होना उन्हें नागवार गुजरने लगा। उन्होंने इससे बचने के लिए अलग कमरा लेना ठीक समझा। समस्या यह थी की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण अच्छा और सुविधाजनक कमरा मिलना नामुमकिन था। इसीलिए मेरी ने छठी मंजिल पर एक कमरा किराए पर ले लिया, जो गर्मी में गर्म और सर्दी में बहुत ठंढा हो जाता था। अपनी आत्मकथा में मेरी ने लिखा, ‘यह मेरे जीवन का सबसे कष्टप्रद भाग था, फिर भी मुझे इसमें सच्चा आकर्षण लगता है। इससे मुझ में स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की बहुमूल्य भावनाएं पैदा हुईं। एक अनजानी लड़की पेरिस जैसे बड़े शहर में गुम- सी हो गई थी, किंतु अकेलेपन में भी मेरे मन में शांति और संतुष्टि जैसी भावनाएं थीं।’

पियरे क्यूरी से मुलाकात

पेरिस में ही उनकी मुलाकात पियरे क्यूरी से हुई। पियरे क्यूरी वैज्ञानिक कार्य के प्रति पूर्णतया समर्पित वैज्ञानिक थे। वे विवाह की संभावनाओं को लगातार झुठलाते जा रहे थे क्योंकि उनका मानना था जीवन को जीने के लिए स्त्रियां पुरुषों से अधिक प्यार करती हैं, परंतु एक प्रतिभाशाली स्त्री का मिलना दुर्लभ है। पियरे को मेरी में यह दुर्लभता दिखाई दी। इसके बाद क्यूरी दंपति ने एक गोदामनुमा कमरे को प्रयोगशाला का रूप देकर शोध कार्य आरंभ किया। उन्होंने देखा कि शुद्ध यूरेनियम की जगह यूरेनियम खनिज में अधिक सक्रियता होती है और इससे यह प्रमाणित होता है की मिश्रित यूरेनियम में कोई अज्ञात सक्रिय तत्व है और तत्काल शोध कार्य उस अज्ञात तत्व की तरफ मुड़ गया। अंततः शोधकार्य सफल हुआ और एक नए तत्व की खोज हुई, जिसका नाम उन्होंने अपने देश के नाम पर पोलोनियम रख दिया। दूसरी तरफ उनके सहयोगी ने रेडियम की खोज का दावा किया। इन दावों को मान्यता तब मिलती, जब वे इन तत्वों को शुद्ध रूप में प्राप्त करके इनकी भौतिक और रासायनिक गुणों की व्याख्या करते। यह एक कठिन कार्य था, खासकर तब जबकि उनके पास न तो प्रयोगशाला थी, न ही उपकरण और न ही कच्चे खनिज की पर्याप्त मात्रा। उस पर भी गोदामनुमा प्रयोगशाला में न गैस निकासी की व्यवस्था थी और न सामान्य किस्म के उपकरण ही उपलब्ध थे। वहां का वातावरण दूषित और अस्वास्थ्यकर था। मेरी क्यूरी ने इस कठिन समय के बारे में लिखा, ‘इस कष्टप्रद पुराने गोदाम में हमने अपने जीवन के सर्वोत्तम वर्ष, अपने कार्य को समर्पित करते हुए

मेरीनामा

जन्म : 07 नवंबर, 1867 मृत्यु : 04 जुलाई, 1934 पूरा नाम : मेरी स्क्लाडोवका क्यूरी प्रसिद्धि : • विख्यात भौतिकविद और रसायनशास्त्री • रेडियम की खोज का श्रेय • विज्ञान की दो शाखाओं (भौतिकी एवं रसायन विज्ञान में अलग-अलग नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होने वाली वह पहली वैज्ञानिक • दोनों बेटियों को भी मिला नोबेल पुरस्कार बिताए। कभी-कभी मुझे मेरी लंबाई जितनी बड़ी लोहे के छड़ से उबलते हुए पदार्थ को मिलाने में पूरा-पूरा दिन व्यतीत करना पड़ता था। मैं शाम तक थकान से टूट जाती थी। इसके विपरीत काम तब बहुत सूक्ष्म और गंभीर हो जाता जब रेडियम के क्रिस्टलीकरण पर ध्यान केंद्रित करना पड़ता था। मैं तब बहुत ही क्षुब्ध हो जाती थी, जब दूषित धुंए और धुल से इतनी मेहनत से प्राप्त किए उत्पाद को नहीं बचा पाती थी। इसके बावजूद मैं शोध के उस अबाधित और शांत माहौल में मिले हर्ष को कभी अभिव्यक्त नहीं कर पाऊंगी।’

शोध का जुनून

पियरे दंपति ने शोध कार्य में खुद को इस कदर डुबो दिया कि उनका सामाजिक जीवन लगभग खत्म हो गया। 1903 में मेरी को पीएच.डी. की उपाधि मिली। इसी दौरान पियरे ने रॉयल सोसाइटी के समक्ष अपने द्वारा किए गए शोध पर एक व्याख्यान दिया, जो बहुत प्रशंसित हुआ। कुछ समय बाद ही क्यूरी दंपती को महत्वपूर्ण खोज के लिए हंफ्री डेवी अवार्ड दिया गया। 1903 में ही क्यूरी दंपती को बेकुरल के साथ भौतिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल मिलने के बाद न सिर्फ इनकी आर्थिक स्थिति में सुधर आया वरन काफी लोकप्रियता भी मिली।

पियरे की मौत

रेडियो सक्रिय पदार्थों से मुक्त हुईं किरणें बहुत तीक्ष्ण होती हैं। इनसे जीवित कोशिकाएं नष्ट होने का खतरा होता है। कई बार शरीर पर जलने के घाव बन जाते हैं। अधिक समय तक रेडियो सक्रिय पदार्थों के बीच रहने के कारण मेरी को रक्त अल्पता और थकान का अनुभव होने लगा और पियरे को भयावह दर्द के दौरे पड़ने लगे। इन विकिरण जनित बीमारियों के चरम तक पहुचने के पूर्व ही एक दुर्घटना में पियरे का निधन हो गया। तब वे महज 47 साल के थे। इस दुर्घटना के बाद मेरी टूट गईं। वह शांति

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व्यक्तित्व

दूसरा नोबेल और लैंगिक प्रताड़ना इ

स बीच 1911 में उन्हें दोबारा नोबेल मिला रसायन शास्त्र में उनके योगदान के लिए। नोबेल पुरस्कार समिति के एक अधिकारी स्वानाते अर्रहेनियास ने सुझाव दिया कि पुरस्कार को लैगोविन के तलाक के फैसले और मेरी की साफ छवि स्थापित हो जाने तक स्थगित कर दिया जाना चाहिए। मेरी ने इसका विरोध किया उन्होंने एक सदस्य को लिखा, ‘यह पुरस्कार मुझे रसायनशास्त्र में मेरे योगदान के लिए दिया जा रहा है, मेरे निजी जीवन से इसका कोई संबंध नहीं है। अतः इसे मेरे निजी जीवन के अपयश से यह प्रभावित नहीं किया जाना चाहिए।’ अंततः मेरी के हक में फैसला

हुआ और दिसंबर 1911 में मेरी ने स्टॉकहोम जाकर यह पुरस्कार ग्रहण किया। मेरी के बहाने लैंगिक समता के लिए दुनियाभर में चल रहे संघर्ष की यह बड़ी जीत थी।

मेरी क्यूरी की दोनों बेटियों को भी नोबेल पुरस्कार मिला। बड़ी बेटी आइरीन को 1935 में रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ तो छोटी बेटी ईव को 1964 में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिला चाहती थीं, पर मिला कोलाहल। उन्हें पियरे के स्थान पर सोरबोन में प्राध्यापक नियुक्त किया गया। यह पद पहली बार किसी महिला को दिया गया था। मेरी ने वहां से कार्य आरंभ किया, जहां से पियरे ने छोड़ा था। मेरी टूट चुकी थी। उनकी जिंदगी के अंधकार का असर उनकी पोशाक के काले रंग के रूप में सबके सामने आने लगा था।

लैगोविन का विवादास्पद साथ

पतझड़ बिता फिर बसंत आया... और 1910 के वसंत ने मेरी को एक नए प्रेम प्रसंग में डुबो दिया। पॉल लैगोविन, जो लंबे समय तक उनके मित्र रह चुके थे, अब सिर्फ मित्र न रहा। मेरी और लैगोविन ने सोरबोन के पास ही एक मकान किराए पर ले लिया। लैगोविन विवाहित थे और उनके चार बच्चे भी थे। उनकी पत्नी ने इस संबंध का विरोध किया और हर तरफ इसकी आलोचना होने लगी। कई अवसरों पर मेरी को अज्ञात जगहों पर रहना पड़ा। इस अपमानजनक अभियान को प्रेस और तथाकथित बुद्धिजीवियों का पूरा संरक्षण मिला, क्योंकि वे विज्ञान अकादमी के एक चुनाव में प्रत्याशी थीं और वे लोग नहीं चाहते थे की मेरी जीतें। पूरी जिंदगी में मेरी को ईर्ष्या जनित भेदभाव का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह एक स्त्री थीं। अकादमी के चुनाव में उनके प्रतिद्वंदी ने मात्र दो मतों से उनसे विजय हासिल की।

दोनों बेटियों को भी नोबेल

यद्यपि मेरी का स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा था। फिर भी मेरी ने द्वितीय विश्वयुद्ध में बेटी आइरीन के साथ चलंत एक्स-रे इकाई का गठन किया और और

चिकित्सीय कार्यों में अपनी खोज की उपयोगिता दिखाई। उनके निजी प्रयासों से चलित इकाइयों की संख्या 20 और स्थाई की 200 पहुंच गई। दिलचस्प है कि उनकी दोनों बेटियों को भी नोबेल पुरस्कार मिला। बड़ी बेटी आइरीन को 1935 में रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ तो छोटी बेटी ईव को 1964 में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिला।

शोध के लिए अभियान

युद्ध के बाद मेरी ने शोध संस्था के अधूरे कार्य को पूरा किया। यह संस्था पियरे को समर्पित थी। 1915 आते-आते यह संस्था विश्विख्यात शोध केंद्र बन गई। इसके लिए मेरी खुद ही शोधकर्ताओं का चयन करती थीं। मेरी को यात्राओं से नफरत थी। बावजूद इसके उन्होंने संस्था के प्रचार के लिए देश-विदेश की यात्राएं कीं। इस कार्य के लिए उन्हें अमेरीकी महिला पत्रकार मेरी मिलोनी का बहुत सहयोग प्राप्त हुआ। मेरी को अमेरिका तक लाने के लिए मिलोनी ने उसे व्हाइट हाउस में समारोह के दौरान राष्ट्रपति द्वारा दिए जाने वाले एक ग्राम रेडियम -जिसकी कीमत हजारों रुपए थी- का प्रलोभन दिया। मेरी ने संस्था के भविष्य को देखते हुए अमेरिका जाने का फैसला किया। उन्होंने राष्ट्रपति से एक ग्राम रेडियम का उपहार ग्रहण किया। शोध और संघर्ष से जूझती मेरी फिर एक बार गंभीर अस्वस्थता की शिकार हईं। आखिरकार मौत से जूझते हुए उनकी मृत्यु 1934 में हुई और उन्हें पियरे क्यूररी की बगल में दफनाया गया।


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पुस्तक अंश

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द यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन में भारतीय समुदाय को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संबोधित किया। यहां प्रस्तुत है इस प्रेरक भाषण का संपादित अंश(28 सितंबर, 2014)

28 सितंबर, 2014: न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डन में सामुदायिक स्वागत के दौरान समर्थकों से बात करते हुए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी

ह मेरे लिए बड़े ही सैभाग्य की बात है कि मैं अपने भारतीय भाइयों और बहनों, जो भारत से हजारों किलोमीटर दूर रह रहे हैं और अपनी मातृभूमि के लिए सम्मान बनाए रखा है, से नवरात्रि, शक्ति उपासना और शुद्धि करण की पवित्र अवधि के दौरान मिल रहा हूं। आपने अपने सामाजिक और व्यावसायिक व्यवहार के आधार पर अमेरिका में बहुत सम्मान कमाया है। आपके योगदान के कारण भारत की दुनिया भर में एक पहचान है। आप सभी ने भारत के संसदीय चुनाव के नतीजों का जश्न मनाया, जिसके लिए मैं आपका

आभारी हूं। भारत ने 30 सालों के बाद स्पष्ट बहुमत दिया है। राय बनाने वालों की सभी भविष्यवाणियां गलत साबित हुई हैं। भारतीय गांवों के गरीब, अशिक्षित लोगों ने नीति निर्माताओं के लिए एक राय बनाई। चुनावी जीत, एक बड़ी जिम्मेदारी भी लेकर आती है। मैंने यह जिम्मेदारी ली है। अब तक मैंने 15 मिनट की भी छुट्टी नहीं ली है। मैं आपको आश्वासन देता हूं कि मेरी सरकार ऐसा कुछ भी नहीं करेगी, जो आपके उस भरोसे को तोड़ दे, जो आपने मुझमें दिखाया है। देश परिवर्तन की तलाश में है, गरीब भी वैश्विक सफलताओं की कहानी बनना चाहते हैं।

मुझे पता है कि यहां बैठे आप सभी भारत में नई सरकार से बहुत उम्मीदें रखते हैं। यह सरकार उन आशाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, हर संभव प्रयास करेगी। भारत आज दुनिया की सबसे युवा आबादी के साथ सबसे पुरानी सभ्यता है। यह एक बेहद सकर्मक संयोग है। भ्रम का कोई कारण ही नहीं है। मैं आपको आश्वासन देता हूं कि देश बहुत तेजी से आगे बढ़ेगा। आगे बढ़ने के लिए, हमें अपनी शक्तियों को संगठित करना होगा। ये ताकत 1.25 अरब लोगों की है, जो भगवान की आवाज स्वरूप है तथा युवा आबादी और मांग के कारण जनसांख्यिकीय लाभांश बन सकते हैं। दुनिया भारत की ओर देख रही है, क्योंकि यह एक बड़ा बाजार है। महात्मा गांधी ने आजादी की लड़ाई को सामान्य लोगों के आंदोलन में बदल दिया। हर भारतीय को लगा कि वह अपने देश की आजादी के लिए लड़ रहा था। यह महात्मा गांधी का योगदान था। अब हमें विकास को लोगों का आंदोलन बनाना है। सभी को देश में उसके योगदान पर गर्व होना चाहिए। एक शिक्षक या घर संभालने वाले को यह महसूस होना चाहिए कि वह प्रधानमंत्री से अधिक योगदान देश को दे रहा है। साल 2020 तक कार्यबल की भारी मांग होने जा रही है। भारत को कार्यबल प्रदान करने की स्थिति में होना चाहिए। आज नर्स, शिक्षकों इत्यादि की वैश्विक मांग है, जो भारत प्रदान कर सकता है। भारत प्रतिभाओं से भरा है, जिसका उपयोग किया जाना चाहिए। एक ऑटोरिक्शा भी एक किलोमीटर के लिए दस रुपए लेता है। लेकिन भारत ने सात रुपए प्रति किलोमीटर की लागत से उपग्रह भेजा है। यह हमारी सरलता और प्रतिभा को दिखाता है। मंगल ग्रह के लिए हमारा मिशन एक हॉलीवुड फिल्म के बजट से भी कम लागत का है। भारत कौशल विकास को अपनी ताकत बनाएगा। हमारी सरकार ने कौशल विकास के लिए एक अलग मंत्रालय बनाया है। हम इस उद्यम में शामिल होने के लिए अन्य देशों को आमंत्रित करने जा रहे हैं। हम देश में नौकरी पैदा करने वाला उद्यम और अपार कार्यबल

पैदा करना चाहते हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि राष्ट्रीय संसाधन सभी नागरिकों की पहुंच में है, मेरी सरकार ने ‘प्रधानमंत्री जन-धन योजना’ शुरू की। इसकी शुरुआत के कुछ हफ्तों में ही बहुत बेहतर प्रतिक्रिया मिली और जमा राशि 1500 करोड़ रुपए हो गई। हमें लोगों को इस सुविधा का लाभ उठाने के लिए प्रेरित करने की जरूरत है। मैं आपको कम लागत वाले उत्पादन की सुविधा का लाभ उठाने के लिए, अपनी सरकार द्वारा लॉन्च ‘मेक इन इंडिया’ पहल में शामिल होने के लिए आमंत्रित करता हूं। सभी सुविधाएं ऑनलाइन दी जाएंगी और आप इनको अपने मोबाइल फोन पर प्राप्त कर सकते हैं। मैं यहां मौजूद सभी लोगों से हमारी वेबसाइट www.mygov.in पर जाने के लिए अनुरोध करूंगा और चाहूंगा कि मुझे सुझाव भेजें। यदि आप ऐसा करना चाहते हैं और राष्ट्र निर्माण के लिए योगदान देना चाहते हैं तो राष्ट्रीय प्रयास में शामिल होने में सहायता के लिए ही यह सुविधा बनाई गई है। जब हम अच्छे शासन को देखते हैं, तो हम आसान शासन, प्रभावी शासन और उस शासन को देखते हैं, जो लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करता है। मैंने भारत में एक स्वच्छता अभियान शुरू किया है, जिसकी आप सभी ने सराहना की है। भारत में लोगों के मन में पवित्र गंगा के लिए अगाध श्रद्धा और सम्मान है। मैंने पवित्र नदी को साफ करने के लिए बागडोर संभाली है। भले ही दूसरे लोगों ने हजारों करोड़ों रुपए खर्च करके कोशिश की और असफल रहे, लेकिन मैं इस चुनौती से पीछे नहीं हटूंगा। गांधीजी के दिल के करीब दो चीजें थीं स्वतंत्रता और स्वच्छता। उन्होंने देश को आजादी दिलाई। अब उनकी 150 जयंती पर


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पुस्तक अंश

संयक्त ु राष्ट्र में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी (हिंदी में दिया गया उनका संबोधन)

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन के मुख्य अंश

भा

27 सितंबर, 2014: न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के 69 वें सत्र के दौरान बोलते हुए भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी

हम उन्हें एक स्वच्छ और साफ भारत देंगे। वर्ष 2022 में जब हम आजादी के 75 साल मना रहे होंगे, तो यह मेरा सपना है कि देश में कोई भी परिवार बेघर नहीं होना चाहिए। मैं इन छोटी-छोटी चीजों की बात कर रहा हूं, लेकिन ये छोटी चीजें ही देश की किस्मत को बदल देंगी। मैं आपको बताना चाहता हूं कि पीआईओ धारकों को आजीवन वीजा मिलेगा। साथ ही, जो लंबे समय के भारत में रहते हैं, उन्हें पुलिस स्टेशन को रिपोर्ट नहीं करना पड़ेगा। अस्पष्टताओं को दूर करने के लिए पीआईओ और ओसीआई योजनाओं का सम्मिलन किया जाएगा। भारत यात्रा पर आने वाले अमेरिकी नागरिकों को दीर्घकालिक वीजा प्रदान किया जाएगा, साथ ही उन्हें ‘इलेक्ट्रॉनिक यात्रा अनुमोदन’ और आगमन पर वीजा (वीजा ऑन एराईवल) जैसी सुविधाएं भी दी जाएंगी। हम सभी अपने देश की सेवा करने के लिए एक साथ आगे आएंगे और वो सब करेंगे, जो भी हम अपने देशवासियों के लिए कर सकते हैं। इस विचार के साथ, मैं एक बार फिर से धन्यवाद देता हूं!

रत के प्रधानमंत्री के रूप में पहली बार यूएनजीए को संबोधित करना वास्तव में एक बड़ा सम्मान है। मैं यहां भारत के लोगों की उम्मीदों और अपेक्षाओं के बारे में पूरी जागरुकता के साथ खड़ा हूं। मैं 1.25 अरब लोगों की दुनिया की अपेक्षाओं का भी ध्यान रखता हूं। भारत एक ऐसा देश है, जो मानवता के छठे हिस्से का निर्माण करता है। देश उस पैमाने पर आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन से गुजर रहा है, जो इतिहास में शायद ही कभी देखा गया हो। भारत का प्राचीन ज्ञान की दुनिया को एक परिवार के रूप में देखता है। यह सह-अस्तित्व और सहयोग, खुलेपन और विविधता की परंपरा में परिलक्षित होता है। यही कारण है कि भारत न सिर्फ अपने लिए, बल्कि दुनिया भर में न्याय, गरिमा, अवसर और समृद्धि के लिए भी बोलता है। यह विचार भारत की उस परंपरा के कारण भी है, जिसमें देश का बहुपक्षवाद में अविश्वसनीय विश्वास है। आज जब मैं यहां खड़ा हूं, मैं इस महान सभा से की जाने वाली उम्मीदों के बारे में भी जागरूक हूं। आज इस इमारत में 193 संप्रभु देशों के

झंडे फहराए जाते हैं। स्वाधीनता प्राप्त करने के साथ प्रत्येक देश ने एक ही विश्वास और आशा के साथ, यहां जगह मांगी है। आज दक्षिण एशिया (अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान) सहित पूरी दुनिया में लोकतंत्र को लेकर ललक बढ़ी है। मेरी सरकार ने अपने पड़ोसियों के साथ दोस्ती और सहयोग को आगे बढ़ाने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। इसमें पाकिस्तान भी शामिल है। मैं पाकिस्तान के साथ शांतिपूर्ण माहौल में, आतंकवाद की छाया के बिना दोस्ती और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए गंभीर द्विपक्षीय वार्ता में शामिल होने के लिए तैयार हूं। हालांकि, इसके लिए पाकिस्तान को भी उपयुक्त वातावरण बनाने के साथ अपनी जिम्मेदारी गंभीरता से देखनी होगी। भारत विकासशील दुनिया का हिस्सा है, लेकिन हम उन देशों के साथ अपने सामान्य संसाधनों को साझा करने के लिए तैयार है, जिन्हें इस सहायता की आवश्यकता है, हम जितना कर सकते हैं उतना करेंगे। आतंकवाद एक नया आकार और नाम ले रहा है। कोई भी देश, चाहे बड़ा हो या छोटा, उत्तर में हो या दक्षिण में, पूर्व में हो या पश्चिम में, इसके खतरे से मुक्त नहीं है। आज भी कुछ देश आतंकवादी शरण स्थल को अपने क्षेत्र में अनुमति देते हैं या आतंकवाद का उपयोग अपनी नीति के साधन के रूप में करते हैं। आज यहां तक कि समुद्र, अंतरिक्ष और साइबर दुनिया, समृद्धि के नए साधन बन गए हैं, लेकिन वे संघर्ष की भी नई दुनिया बन सकते हैं। हमें सुरक्षा परिषद समेत संयुक्त राष्ट्र में सुधार करना होगा और इसे अधिक लोकतांत्रिक और सहभागिता वाला बनाना होगा। हमें अपने मतभेदों को दूर करना चाहिए और आतंकवाद और अतिवाद से लड़ने के

लिए एक समेकित अंतरराष्ट्रीय प्रयास करना चाहिए। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बाहरी अंतरिक्ष और साइबर स्पेस में शांति, स्थिरता और व्यवस्था होगी। हमें यह सुनिश्चित करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए कि सभी देश अंतरराष्ट्रीय नियमों और मानदंडों का पालन करें। हमें संयुक्त राष्ट्र शांति कार्य के महान कार्य को गतिशील बनाना चाहिए, हमें निर्णय लेने की प्रक्रिया में सेना से योगदान करने वाले देशों को शामिल करना चाहिए। आइए, सार्वभौमिक वैश्विक निरस्त्रीकरण और अप्रसार को आगे बढ़ाने के हमारे प्रयासों को दोगुना करते हुए जारी रखें। हमें एक स्थिर और समावेशी वैश्विक विकास का अनुसरण करना होगा। वे देश, जो वैश्विक आर्थिक तूफान से बचने में मुश्किल से सक्षम हैं, वहां अरबों लोग गरीबी और तंगी में जी रहे हैं। इससे पहले बदलाव के लिए ऐसा समय कभी नहीं आया, जब इसे बदलने के लिए अब से ज्यादा अनुकूल संभावना रही हो। प्रौद्योगिकी ने चीजों को संभव बना दिया है। प्रत्येक देश को निश्चित रूप से अपने राष्ट्रीय उपाय करने चाहिए, प्रत्येक सरकार को विकास और विकास का समर्थन करने के लिए अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। 2015 के बाद के विकास एजेंडा के मूल में गरीबी उन्मूलन रहना चाहिए और हमारा पूरा ध्यान इस पर होना चाहिए। भारत में हमारे लिए प्रकृति का सम्मान हमारी आध्यात्मिकता का एक अभिन्न हिस्सा है। हम प्रकृति के उपहार को पवित्र मानते हैं। योग हमारी प्राचीन परंपरा का एक अमूल्य उपहार है। योग मन और शरीर की एकता का प्रतीक है। साथ ही यह हमारे विचार और क्रिया, आवश्यकता और पूर्ति, मनुष्य और प्रकृति के बीच सद्भाव, स्वास्थ्य और कल्याण के लिए भी एक समग्र और संतुलित दृष्टिकोण है। (जारी अगले अंक में)


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खेल

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

पहले संविधान फिर एशियाड

पहले एशियाई खेल का आयोजन 1951 में भारत में हुआ था। 1982 में देश को फिर से इसके आयोजन का श्रेय मिला। 18 वें एशियाई खेल का आयोजन इंडोनेशिया में हुआ है। वहां यह 18 अगस्त से 2 सितंबर 2018 तक चलेगा

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एसएसबी ब्यूरो

धीनता प्राप्ति के बाद भारत के लिए दो चुनौतियां सबसे बड़ी थी। पहली चुनौती थी संविधान का निर्माण और दूसरी चुनौती थी कि इस दौरान कुछ ऐसा हो कि स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत की छवि और क्षमता को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति हुआ। संयोग से चुनौतियों के इन दोनों ही मोर्चों पर भारत एक साथ खड़ा हुआ। 1950 में देश को जहां अपना संविधान मिला, वहीं अगले ही वर्ष एशियाई खेलों के आगाज के साथ भारत ने एशिया सहित पूरी दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा। पहले एशियाई खेलों का आयोजन दिल्ली में किया गया था।

हर चार वर्ष पर आयोजन

एशियाई खेलों को एशियाड के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रत्येक चार वर्ष बाद आयोजित होने वाली बहु-खेल प्रतियोगिता है, जिसमें केवल एशिया के विभिन्न देशों के खिलाड़ी भाग लेते हैं। 1982 में भारत ने फिर से इन खेलों की मेजबानी की। 18 वां एशियाई खेल इडोनेशिया में आयोजित हुआ है।

एशियाड-2018

इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता के जीकेजी स्टेडियम में एशियाड-2018 की शुरुआत रंगारंग उद्घाटन समारोह के साथ हुई। 18वें एशियाई खेलों की आधिकारिक शुरुआत की घोषणा इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो ने की। इंडोनेशियाई राष्ट्रपति के साथ ओलंपिक काउंसिल ऑफ एशिया (ओसीए) के अध्यक्ष अहमद अल-फहाद अल-अहमद अल-सबाह भी मौजूद थे। उद्घाटन

समारोह की शुरुआत का रंग इंडोनेशियाई राष्ट्रपति जोको विडोडो ने जमाया। वह बाइक चलाकर उद्घाटन समारोह के मंच पर पहुंचे। उनके साथ ओलिंपिक काउंसिल ऑफ एशिया (ओसीए) के अध्यक्ष अहमद अल-फहाद अल-अहमद अलसबाह भी मौजूद थे। इससे पहले जोको विदोदो बाइक चलाते हुए शहर की सड़कों से गुजरे और उद्घाटन समारोह में पहुंचे।

बाइक पर आए राष्ट्रपति

एशियाई खेलों के इतिहास में यह पहला मौका था जब मेजबान देश को राष्ट्रपति मोटर साइकिल से स्टेडियम पहुंचा हो। कार्यक्रम की शुरुआत 1,500 कलाकारों ने अपने एकसाथ पारंपरिक नृत्य प्रस्तुत कर की। चूंकि इंडोनेशिया 1962 में भी एशियाई खेलों की मेजबानी कर चुका है, इसीलिए उसने पुरानी यादों को भी ताजा किया। इसके बाद फ्लैग

खास बातें

भारत दो बार कर चुका है एशियाड का आयोजन 18वें एशियाई खेलों में इंडोनेशियाई राष्ट्रपति बाइक से पहुंचे इस बार एशियाई खेलों में भारतीय दल की अगुवाई

होस्टिंग सेरेमनी हुई। समारोह के दौरान करीब 4,000 कलाकारों, लोक नर्तकों, गायकों और डांसरों ने स्टेडियम में मौजूद 72,000 से ज्यादा दर्शकों की मौजूदगी में इंडोनेशियाई संस्कृति से दुनिया को रूबरू कराया।

यह 18वें एशियाई खेलों का आधिकारिक थीम सांग भी है। फिर इंडोनेशिया का राष्ट्रगान गाया गया। राष्ट्रीय गीत को इंडोनेशिया के गायक-लेखक तुलुस ने अपने स्वर दिए। फिर खेल शुरू होने की घोषणा हुई।

भारतीय दल की अगुआई

कोरिया एक झंडे के नीचे

एशियाई खेलों में हिस्सा ले रहे 45 देशों में सबसे पहले मार्च पास्ट करने का मौका अफगानिस्तान को मिला। इसके बाद बहरीन, बांग्लादेश, भूटान, ब्रूनो दारुसलाम, कंबोडिया, चीन, हांगकांग के खिलाड़ी आए। चीन और हांगकांग के बाद भारत नौवें नंबर पर आया। यह सिर्फ अंग्रेजी वर्णमाला के आधार पर हुआ। भारतीय दल की अगुआई जेवलिन थ्रोअर नीरज चोपड़ा ने की। भारतीय दल में सबसे ज्यादा उत्सुकता हिमा दास के चेहरे पर दिखी, जो मार्च पास्टके दौरान स्टेडियम में जमकर झूमती दिखीं। भारतीय दल के बाद ईरान और इराक के खिलाड़ियों ने मार्च पास्ट किया। उसके बाद अन्य देशों के एथलीट्स आए। सबसे अंत में मेजबान इंडोनेशिया के खिलाड़ी आए। उनके पीछे इस एशियाई खेलों के शुभंकर काका, भिन-भिन और अतुंग आए। नीरज ने कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मेडल जीता था। भारतीय दल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और सचिन तेंदुलकर ने ट्वीट कर बधाई दी है।

विवा वालेन का चाया जादू

इस मौके पर इंडोनेशिया की गायिका विवा वालेन ने अपना सबसे प्रसिद्ध गीत मेरियाह बिनतांग गाया।

उद्घाटन समारोह में 16वें नंबर पर कोरिया (उत्तर और दक्षिण कोरिया) के खिलाड़ी आए। सात एशियाई खेल के बाद यह पहला मौका है, जब उत्तर और दक्षिण कोरिया एक झंडे (कोरिया यूनिफाइड) के तले आए। गोल्डकोस्ट कॉमनवेल्थ गेम्स में भी दोनों देशों ने कोरिया यूनिफाइड के बैनर तले ही भाग लिया था।

खेल भावना की कसम

खेल शुरू होने के ऐलान के बाद ओलंपिक खेलों में देश के लिए पदक जीत चुके इंडोनेशिया के पूर्व एथलीट ओसीए का झंडा लेकर स्टेज पर पहुंचे और फ्लैग होस्टिंग ट्रूप (ध्वजारोहण) परंपरा पूरी की। इसके बाद एथलीट्स ने एशियाड में खेल भावना बनाए रखने की शपथ ली। इंडोनेशिया के कलाकारों ने अपने देश की सांस्कृतिक झलक पेश की। गायिका रैसा एंड्रियाना ने मनमोहक गीत की प्रस्तुति दी, जिसमें दर्शक खोए दिखे।

10 नए खेल

इस बार एशियाई खेलों में 45 देशों के करीब 10,000 खिलाड़ी भाग रहे हैं। इनमें भारत के 571 एथलीट्स 36 खेलों में अपनी चुनौती पेश करने पहुंचे हैं। इस बार एशियाई खेल में 10 नए खेल भी शामिल किए गए।


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

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कही-अनकही

साहिर लुधियानवी

अदबी और फिल्मी शायरी का साहिर

सा

साहिर लुधियानवी की गिनती जहां उर्दू के तरक्की पसंद शायरों में सबसे ऊपर होती है, वहीं उनके लिखे फिल्मी गीतों ने भी कामयाबी की तारीख लिखी

एसएसबी ब्यूरो

हिर लुधियानवी, वह जादूगर जो शब्दों को इस तरह से लिखता था, पिरोता था कि वह सीधे दिल में उतर जाते थे। साहिर फिल्म इंडस्ट्री से करीब तीन दशक तक जुड़े रहे। इस दौरान उन्होंने सैकड़ों मशहूर गीत लिखे, जो आज भी लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं। आपके कुछ गाने तो इस कदर मशहूर हुए कि उन्हें आज भी गया और गुनगुनाया जाता है। वैसे भी पुराने गीतों की बात ही कुछ और है। साहिर का जन्म मुस्लिम गुज्जर परिवार में आठ मार्च, 1921 को लुधियाना, पंजाब में हुआ| उनका बचपन का नाम अब्दुल हई था। 1934 में जब वे महज 13 वर्ष के थे तब पिता ने दूसरी शादी कर ली। तब उनका मां ने एक बड़ा कदम उठाकर अपने पति को छोड़ने का फैसला किया साहिर अपनी मां के साथ रहे। बचपन में एक बार एक मौलवी ने कहा कि यह बच्चा बहुत होशियार और अच्छा इंसान बनेगा। यह सुनकर मां के मन में सपने जन्म लेने लगे कि वह अपने बेटे को सिविल सर्जन या जज बनाएगी। जाहिर है अब्दुल का जन्म जज या सिविल सर्जन बनने के लिए नहीं हुआ था। किस्मत ने तो कुछ और ही लिखा था। बचपन से ही वो शेरो-शायरी किया करते थे और उनका शौक दशहरे पर लगने वाले मेलों में नाटक देखना था। साहिर अपनी मां को बहुत मानते थे और तहे दिल से उनकी इज्जत करते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि मां को कोई दुख न हो। उस समय के मशहूर शायर मास्टर रहमत की सभी शायरी उस दौरान उन्हें पूरी याद थी। बचपन से ही उन्हें किताबें पढ़ने और सुनने का बहुत शौक था और यादाश्त का आलम यह था कि किसी भी किताब को एक बार सुन लेने या पढ़ लेने पर उन्हें वो याद रहती थी। बड़े होकर साहिर खुद ही शायरी लिखने लगे। शायरी के क्षेत्र में साहिर खालसा स्कूल के शिक्षक फैयाज हिरयानवी को अपना उस्ताद मानते थे। साहिर की शिक्षा लुधियाना के खालसा हाई स्कूल में हुई। 1939 में जब वे गवर्नमेंट कॉलेज के विद्यार्थी थे अमृता प्रीतम से उनका प्रेम हुआ जो कि असफल रहा। कॉलेज के दिनों में वे अपने शेर और शायरी के लिए प्रख्यात हो गए थे और अमृता इनकी प्रशंसक थीं। अमृता के परिवार वालों को आपत्ति थी क्योंकि साहिर मुस्लिम थे। बाद में अमृता के पिता के कहने पर उन्हें कॉलेज से निकाल दिया गया। जीविका चलाने के लि

खास बातें साहिर का बचपन का नाम अब्दुल हई था 1951 में आई फिल्म ‘नौजवान’ से प्रसिद्धि मिली तीन दशकों तक फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े रहे

मजबूरी में शायरी की। बावजूद इस मजबूरी के एक बड़े तरक्की पसंद शायर के तौर पर उन्होंने अपनी पहचान बनाए रखी। इस लिहाज से उनके फिल्मी सफर के समानांतर उनके अदबी सफरनामे पर भी गौर करना होगा। 24 की उम्र में साहिर लुधियानवी की किताब ‘तल्खियां’ बाजार में आ चुकी थी और तकरीबन उन्होंने शोहरत की बुलंदियां हासिल कर ली थीं। वे उर्दू अखबार ‘अदबे-लतीफ’, ‘शाहकार’ और ‘सवेरा’ के भी मुदीर (संपादक) बन चुके थे। साहिर पर भी फैज और मजाज का खासा प्रभाव पड़ा। दिलचस्प है कि फैज की ‘मुझसे पहले सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग’, या, ‘बोल के लब आजाद हैं तेरे’ की तर्ज पर उन्होंने कई कलाम लिखे। साहिर को जो लोग उनके मशहूर

उन्होंने तरह-तरह की छोटी-मोटी नौकरियां कीं। 1948 में फिल्म ‘आजादी की राह पर’ के साथ उन्होंने अपना फिल्मी सफर पूरा किया। वैसे यह फिल्म असफल रही। उन्हें 1951 में आई फिल्म ‘नौजवान’ के गीत ‘ठंडी हवाएं लहरा के आए...’ से प्रसिद्धि मिली। इस फिल्म के संगीतकार एसडी बर्मन थे। गुरुदत्त के निर्देशन की पहली फिल्म ‘बाजी’ ने उन्हें काफी प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ‘हमराज’, ‘वक्त’, ‘धूल का फूल’, ‘दाग’, ‘बहू बेगम’, ‘आदमी और इंसान’, ‘धुंध’ रेडियो और ‘प्यासा’ सहित अनेक फिल्मों में यादगार गीत सीलोन लिखे। निराशा, दर्द, कुंठा पर बजते और विसंगतियों के बीच प्रेम, समर्पण, रुमानियत से गानों में भरी शायरी करने वाले साहिर पहले सिर्फ लुधियानवी के लिखे नग्में गायक और दिल को छू जाते हैं। कैफी आजमी ने संगीतकार का ही कभी साहिर की शायरी के नाम लिया जाता था। रोमांटिक मिजाज पर तंज साहिर के आने के बाद गीतकार कसते हुए कहा था कि उनके दिल में तो परचम है पर का भी नाम बोला जाने लगा। कलम कागज पर मोहब्बत उनके असर ने गीतकारों के नगमे उकेरती है। साहिर की शायरी को लेकर यह को भी म्यूजिक कंपनी विरोधाभास इसीलिए सामने से रॉयल्टी में हक आता है क्योंकि उन्होंने दिलवाया फिल्मों के लिए पेशेवर

फिल्मी नगमों के कारण जानते हैं, उन्हें यह भी जानकारी होनी चाहिए कि उन्हें फिल्म संगीत के साथ उसके निर्माण के बारे में भी काफी जानकारी थी। राज कपूर की एक फिल्म ‘फिर सुबह होगी’ दोस्तोव्स्की के ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ पर आधिरित थी। इस फिल्म में साहिर की जिद पर फिल्म के संगीतकार के तौर पर शंकरजयकिशन की जगह खय्याम को लिया गया। इसके लिए उन्होंने तर्क यह दिया कि शंकरजयकिशन समाजवाद को ठीक से नहीं समझते। साफ है कि फिल्मों के लिए लिखने वाले इस महान शायर ने यहां भी विचार और कला की गुणवत्ता का भरसक खयाल रखा। बकौल यश चोपड़ा, ‘साहिर के गीतों से किसी फिल्म का मेयार ऊंचा हो जाता है।’ ‘कभी-कभी’ के लिए यश चोपड़ा लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को लेना चाहते थे पर यहां भी साहिर की ही चली और खय्याम ने मौसिकी दी।’ रेडियो सीलोन पर बजते गानों में पहले सिर्फ गायक और संगीतकार का ही नाम लिया जाता था। साहिर के आने के बाद गीतकार का भी नाम बोला जाने लगा। उनके असर ने गीतकारों को भी म्यूजिक कंपनी से रॉयल्टी में हक दिलवाया। कुछ एक गीतों को अगर छोड़ दें तो पहले वो गीत लिखते थे फिर उसकी मौसिकी तय होती थी और ये साहिर का ही उरूज था कि बतौर मेहनताना वे संगीतकार से एक रुपया ज्यादा फीस लेते थे।


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सुलभ संसार

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

सुलभ ग्राम पधारे सरे यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड के सिनियर लेक्चरर डॉ. देवेंद्र सरोज, डॉ. हेना सिमको-रीड (चीफ एग्जक्यूटिव ऑफिसर, एनवीएच ग्लोबल लिमिटेड, इंग्लैंड ) ने जब सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक से टू पिट पोर फ्लश के रूप में विख्यात शौचालय निर्माण की सुलभ तकनीक के बारे में जाना, तो वे इसकी खूबियों को सुनकर दंग रह गए

सुब्रह्मण्य भट्ट (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ सदस्य, चिंतक और मैत्रेयी गुरुकुल, मंगलोर, कर्नाटक), गोपाल आर्य (सचिव, केंद्रीय कार्यालय, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ), निधि आहूजा (कोषाध्यक्ष, सेवा भारती, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) और सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक

नेहरू युवा केंद्र, नई दिल्ली से आए 80 छात्रों के समूह ने सुलभ के टू पिट पोर फ्लश शौचालय तकनीक से तैयार होने वाले खाद बनने की प्रक्रिया के बारे में जानने में काफी दिलचस्पी ली

दू

जल्दबाजी से बचें मंजू

सरों को सही-गलत साबित करने में जल्दबाजी न करें। ट्रेन में एक पिता-पुत्र सफर कर रहे थे। 24 वर्षीय पुत्र खिड़की से बाहर देख रहा था, अचानक वो चिल्लाया –पापा देखो पेड़ पीछे की ओर भाग रहे हैं ! पिता कुछ बोला नहीं, बस सुनकर मुस्कुरा दिया। यह देखकर साथ में बैठे एक युवा दंपति को अजीब लगा और उस लड़के के बचकाने

व्यवहार पर दया भी आई। तब तक वो लड़का फिर से बोला – पापा देखो बादल हमारे साथ दौड़ रहे हैं ! युवा दंपति से रहा नहीं गया और वो उसके पिता से बोल पड़े – आप अपने लड़के को किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते ? लड़के का पिता मुस्कुराया और बोला – हमने दिखाया था और हम अभी सीधे हॉस्पिटल से ही आ रहे हैं। मेरा लड़का जन्म से अंधा था और आज वो यह दुनिया पहली बार देख रहा है।


27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

आओ हंसें

सबसे बड़ी कुर्बानी मोनू : सबसे बड़ी कुर्बानी क्या है। सोनू: आज सबसे बड़ी कुर्बानी वह होती है, जब हम अपना फोन चार्जिंग से निकाल कर किसी और का फोन लगा दें! पंडित जी की सलाह पप्पू: पंडित जी, मेरी शादी नहीं हो रही है। कोई उपाय बताओ। पंडित: बड़ों से ‘सदा सुखी रहो’ के आशीर्वाद लेना बंद करो। दूसरे कलर की गोली संता: अगर मेडिकल स्टोर पर लड़कियों का बस चलता, तो क्या होता? बंता: वो सिर दर्द की गोली मांगते हुए भी पूछ लेंगी कि भैया.. इसमें कोई और कलर दिखाना।

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इंद्रधनुष

जीवन मंत्र

सु

सत्य बोलने के लिए कभी कोई तैयारी नहीं करनी पड़ती सच्ची बात हमेशा दिल से निकलती है

डोकू -37

रंग भरो

महत्वपूर्ण तिथियां

सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें

• 29 अगस्त राष्ट्रीय खेल दिवस (ध्यानचंद जन्म दिवस) तेलुगू भाषा दिवस • 30 अगस्त लघु उद्योग दिवस • 1-7 सितंबर पोषण सप्ताह • 2 सितंबर नारियल दिवस

बाएं से दाएं

1. राजाओं का राजा (5) 3. चतुर, शातिर (3) 5. बगुला (2) 6. मोहताज (4,2) 8. पाखंडी (2) 9. कदम्ब (2) 10. नारंगी का पेड़ (3) 11. अनार (3) 12. घोड़ी (3) 13. लंबाई (2) 15. गिनने योग्य (2) 16. कृतघ्न (3,3) 18. एक अनुसूचित जाति (2) 19. इज्जत (3) 20. आकाश में तारों का एक विशेष मार्ग (3,2)

सुडोकू-36 का हल विजेता का नाम करिश्मा मिश्रा पटना, बिहार

वर्ग पहेली-36 का हल

ऊपर से नीचे

1. रास्ते की लूट (4) 2. भर्त्सना (3) 3. कुम्हार का पहिया (2) 4. सिरपेंच, मुकुट (3) 5. बुरा नाम (4) 7. सुंदर सलोनापन (2,3) 8. काम निकालने के लिये छल-कपट (2,3) 11. जंगल की आग (4) 14. लंबी टाँग वाला (4) 15. टोंटीदार लोटा (3) 17. निराश (3) 18. कायर (2)

कार्टून ः धीर

वर्ग पहेली - 37


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न्यूजमेकर

27 अगस्त - 02 सितंबर 2018

न्यूजमेकर

त्रासदी पर भारी तारणहार

केरल में भारी बाढ़ की भयावह त्रासदी के बीच सरकार और सेना से लेकर सोशल मीडिया पर मदद के लिए जिस तरह से हाथ आगे बढ़े हैं, वह एक मिसाल है

केरल डोनेशन चैलेंज

तमिल अभिनेता सिद्धार्थ जो कि चेन्नई बाढ़ और अन्य आपदाओं के समय भी हमेशा मदद के लिए आगे रहे, वे केरल की बाढ़ त्रासदी में भी मदद के लिए आगे आए हैं। 17 अगस्त को उन्होंने ट्विटर पर लोगों से आगे बढ़कर केरल की मदद करने की अपील की और #केरल डोनेशन चैलेंज लेने के लिए कहा। ट्वीट के साथ उन्होंने एक भावनात्मक संदेश भी दिया कि कैसे अभी दान किया हुआ एक-एक रुपया फिर से केरल के निर्माण में सहायक होगा।

नावों को हर तरह के बहाव में ले जा सकते हैं।

कुत्ते ने बचाई मालिक की जान

उनका दिल बहुत लोगों से बड़ा है। उन्होंने अपने माता-पिता को भी बिना जरूरत का कोई सामान खरीदने की बजाए लोगों की मदद करने की बात कही।

प्रेरक वीडियो

हर्रों और दीया

यकीनन बहुत से लोगों ने एक रेस्क्यू अफसर कन्हैया कुमार को एक बच्चे को गोद में उठाकर पुल पर से भागकर बचाने वाली वीडियो तो देखी ही होगी। इस पूरी घटना को वीडियो में कैद कर लिया गया था और इनके पुल पार करने के चंद सेकेंड बाद ही पुल ढह गया था। कन्हैया का यह हौसला केरल के बाढ़ पीड़ितों की मदद कर रहे लोगों को तो हौसला दे ही रहा है, इससे वहां सहायता के लिए आगे आने की लोगों को प्रेरणा भी मिल रही है।

कोच्चि निवासी दो बच्चे हर्रों और दीया ने दयालुता का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है। आपको दयालु होने के लिए किसी विशेष उम्र की जरूरत नहीं होती, यह इन बच्चों ने साबित किया। ये दोनों बच्चे अपने लिए एक स्टडी टेबल के लिए पिग्गी बैंक में पैसे इकट्ठा कर रहे थे। लेकिन इन स्थिति में इन्होंने इन पैसों को मुख्यमंत्री आपदा राहत कोष में जमा कराने का फैसला किया है। हालांकि, केवल 2,210 रूपए ही हैं उनके पिग्गी बैंक में पर

मदद की नाव

मछुआरों के लिए समुद्र उनकी आजीविका और दैनिक रोटी का स्रोत है। इसीलिए उन सभी का बचाव अभियान में शामिल होना आश्चर्य की बात नहीं है। कोल्लम, आलप्पुझा, एर्नाकुलम और तिरुवनंतपुरम की पानी से भरी सड़कों और गलियों में लगभग 100 मछुआरे अपनी नाव लेकर आए। इनकी नाव की डिजाइन के चलते इनका बचाव कार्यों में शामिल होना महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे इन

कहते हैं न सिर्फ मनुष्यों में बल्कि संपूर्ण प्राणी जगत में एक जैसी संवेदना व्यप्त है। रॉकी, कहने को तो यह एक कुत्ते का नाम है। पर उसने न सिर्फ खुद को बचाया बल्कि पी. मोहनान और उनके परिवार को भी बचाया। इड्डुकी जिले के कंजिकुझी गांव में, मोहनन और उनका परिवार अपने घर में सो रहे थे, जब बाढ़ में फंसने से पहले उन्हें अपने कुत्ते की आवाज ने उठाया। रॉकी की वजह से ही वे समय रहते घर से निकल पाए क्योंकि चंद पलों में ही उनका घर भूस्सखलन में नष्ट हो गया।

गर्भवती महिला की मदद

केरल में अलुवा के पास चेंगमांद में एक गर्भवती महिला सजिता जाबिल अपने घर की छत पर फंसी हुई थी। ऐसे में नौसेना के जवान हेलीकॉप्टर में एक डॉक्टर के साथ उनके बचाव के लिए पहुंचे। उन्हें समय रहते हेलीकॉप्टर से कोच्चि पहुंचाया गया। कोच्चि के एक अस्पताल में सजिता ने एक बेटे को जन्म दिया है। इस ऑपरेशन को सफलतापूर्वक पूरा किया नेवल कमांडर विजय वर्मा ने, जो कि उस हेलीकॉप्टर के पायलट थे। अनोखे अंदाज में धन्यवाद देने के लिए उस घर की छत पर एक ‘थैंक यू’ नोट पेंट किया गया।

हाथी की जान बचाई

केरल के लोगों में दयालुता की कोई कमी नहीं है। नदी के बीच में एक चट्टान पर एक फंसे हुए जंगली हाथी को देख कुछ स्थानीय लोग

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 37

आश्चर्यचकित हुए। यह जानवर संभवतः एक अलग स्थान से बह कर वहां पहुंच गया था। हाथी किसी भी तरह चट्टान पर चढ़ने में कामयाब रहा था, लेकिन बाहर निकलने में असमर्थ था क्योंकि सभी तरफ पानी था। स्थानीय लोगों ने अधिकारियों को सतर्क किया और 4 घंटे के अथक प्रयास के बाद हाथी को बचा लिया गया।

आईएएस अधिकारी बने मिसाल

आईएस अधिकारी जी. राजमाणिक्यम और एनएसके उमेश ने व्यक्तिगत रूप से बाढ़ प्रभावित जिलों में राहत कार्यों की देखरेख की है। केवल बैठे रहने या फिर आदेश देने की बजाए ये दोनों अन्य कर्मचारियों के साथ कलेक्ट्रेट में वाहनों से चावलों के बोरे उतारते नजर आए। कुछ नागरिकों के मुताबिक ये दोनों अफसर बिना ब्रेक लिए काम कर रहे हैं।

डॉक्टर दंपति की निस्वार्थ सेवा

डॉ. नसीमा और उनके पति डॉ. नजीब ने बिना किसी स्वार्थ के लोगों की मुफ्त में सेवा करने का फैसला किया। तीन दिनों तक खाने व पीने के लिए पानी के बिना भी वे लगातार लोगों का इलाज व देख-रेख करते रहे। यहां तक कि वे बारी-बारी से केवल 3 घंटे के लिए सोए। इस राहत-शिविर में सैकड़ों लोग रह रहे हैं, जिन्होंने इस भयानक आपदा में अपना सब कुछ खो दिया।

सोशल मीडिया

केरल बाढ़ पीड़ितों की मदद करने के लिए आज जो भी आगे आ रहा है वह हर एक इंसान हीरो है। बहुत से लोग एक तरफ जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं तो अनेक दूर बैठकर भी मदद पहुंचा रहे हैं। सोशल मीडिया अकाउंट लोगों की मदद की पोस्ट से भरे पड़े हैं।


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