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संगोष्ठी
भारत में गांधीवादी होने का अर्थ
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स्वच्छता
व्यक्तित्व
अस्थिर पर स्वच्छता के लिए तत्पर राष्ट्र
प्रकृति और सौंदर्य का क्लासिक कवि डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597
बदलते भारत का साप्ताहिक
वर्ष-2 | अंक-44 |15 - 21 अक्टूबर 2018 मूल्य ` 10/-
कालाहांडी
विकास की चमकीली इबारत आज कालाहांडी गरीबी के लिए नहीं, बल्कि ऐसे विकास के लिए चर्चा में है, जिसे देख कर किसी का भी चेहरा खिल उठे। ‘कालाहांडी संवाद’ के जरिए ओडिशा सरकार ने विकास के क्षेत्र में इस क्त्रषे की सफलता को देखने-समझने का एक प्लेटफार्म सजाया
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का
आवरण कथा
रॉबिन केशव
लाहांडी का जिक्र आते ही एक खास तरह की तस्वीर मन में उभरती है। खास तौर पर दो साल पहले वायरल हुई एक तस्वीर के कारण कालाहांडी की तस्वीर को एक ऐसा फ्रेम दे दिया गया, जिसमें गरीबी, दरिद्रता और जिंदगी जीने के मुश्किल हालात
खास बातें
कालाहांडी की छवि को लेकर पूर्वाग्रह समाप्त करने की पहल धान उत्पादन में ओडिशा में सबसे समर्थ जिला बन गया है कालाहांडी ओडिशा सरकार की सर्व समावेशी नीति ने बदली कालाहांडी की तस्वीर
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से अलग कोई बात जेहन में आती ही नहीं। इसी तस्वीर के साथ चर्चा में आया दाना मांझी। वायरल हुई तस्वीर में मांझी अपनी पत्नी के शव को कंधे पर उठाए आगे बढ़ता जा रहा था। उसके पास इतने भी पैसे नहीं थे कि वह कफन तक का बंदोबस्त कर पाता। अस्पताल वालों ने भी एंबुलेंस देने से मना कर दिया था। ऐसे में मांझी ने पत्नी को कपड़े में लपेटकर 12 किलोमीटर दूर अपने गांव तक का रास्ता तय किया था। उसे इस सफर के दौरान रास्ते में कई रुकावटें आईं। कभी शव से कपड़ा अलग हो जाता तो कभी साथ चलती बेटी बिलख कर रोने लगती थी। इस पूरी घटना को टीवी रिपोर्टर अजीत सिंह ने कवर किया था। दरअसल, मांझी की पत्नी अमांग, भवानीपटना के एक अस्पताल में भर्ती थी। वहां उसकी मौत हो गई थी। मौत की इस तस्वीर को जिसने भी देखा, एक पल के लिए हैरान रह गया था। इस हैरानी ने कालाहांडी की विपन्नता को एक ऐसी अमानवीय छवि दे दी, जिसमें लगने लगा कि वाकई वहां की स्थिति ऐसी है जो किसी लिहाज से जीने लायक नहीं कही जा सकती। इसी के साथ मीडिया में चर्चा में आया ‘कालाहांडी सिंड्रोम’, जिसकी चर्चा करते हुए आमतौर पर विश्लेषकों ने माना कि यह कुछ और नहीं, बल्कि राज्य सरकार
ओडिशा सरकार ने ‘कालाहांडी संवाद’ का आयोजन कालाहांडी में विकास को लेकर तीन दिवसीय विकास सम्मेलन के रूप में किया। सम्मेलन में विचार विमर्श को ‘विकास योजनाओं में युवाओं की आवाज’ के मुद्दे पर खास तौर पर क्रेंदित रखा गया की लापरवाही है कि वह अपने नागरिकों की सही देखभाल नहीं कर पा रही। आरोप लगाया गया कि कई तरह के प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न ओडिशा में यह एक तरह से स्टेट फेल्योर का मसला है।
बदला-बदला भवानीपटना
‘मैंने वहां जाकर जो देखा वह उससे बिल्कुल अलग अनुभव था जो इससे पहले कालाहांडी को लेकर पढ़ा या सुन रखा था’, यह अनुभव है आईआईएम, अहमदाबाद के रिसर्च स्कॉलर श्रीकांत वाड का। श्रीकांत बताते हैं, ‘मैं अभी इस क्षेत्र के भीतरी इलाकों में नहीं गया हूं। पर अगर जिला मुख्यालय भवानीपटना में विकास दिख रहा है तो इसे अन्य
क्षेत्रों की स्थिति का एक संकेत तो माना ही जा सकता है।’ श्रीकांत ने उस बहस में भी हिस्सा लिया था, जो ओडिशा सरकार ने कालाहांडी में विकास पर जोर देने के लिए ‘कालाहांडी संवाद’ के नाम से आयोजित किया गया था। यह आयोजन कालाहांडी में विकास को लेकर तीन दिवसीय विकास सम्मेलन के रूप में आयोजित किया था। सम्मेलन में विचार विमर्श को ‘विकास योजनाओं में युवाओं की आवाज’ के मुद्दे पर खास तौर पर केंद्रित रखा गया था।
निर्धनता के पर्यटन पर प्रश्न
दशकों से कालाहांडी गरीबी, भुखमरी, पलायन
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आवरण कथा
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और मानव तस्करी का पर्याय रहा है। विकास के जानकारों और इससे जुड़ी एजेंसियां कालाहांडी का दौरा ‘निर्धनता का पर्यटन’ के तौर पर करती रही हैं और वे वहां की स्थिति पर अपना विश्लेषण और नया दृष्टिकोण देकर कालाहांडी को भूल जाते थे। इस तरह हर बार कालाहांडी ठगा जाता रहा, उससे संवेदना जताने वाले कभी उसके प्रति ईमानदार नहीं रहे। पर हालात ने अब पलटा खाया है। जो अब तक कालाहांडी के बारे में कहा जा रहा था, वो तथ्यगत रूप से गलत साबित हो रहे हैं।
धान उत्पादन में अव्वल
कालाहांडी आज ओडिशा का सबसे अधिक धान पैदा करने वाला जिला बन गया है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 के अनुसार 2000-01 में शिशु मृत्यु दर 91 थी। 2015-16 में यह दर घटकर 41 पर पहुंच गई है। शिशु मृत्यु दर में 50 फीसदी की यह गिरावट कालाहांडी में बदले हालात की गवाही देते हैं। हालात में ऐसा ही सुधार मातृ मृत्यु दर (एमएमआर) में भी देखा जा सकता है। 2000-01 में यह दर 222 थी, पर 2012-13 तक आते-आते इसमें 47 फीसदी की कमी देखी गई।
विकास की नई इबारत
हालांकि यह भी एक विडंबना ही रही है कि
कालाहांडी की चर्चा हाल के वर्षों में उसकी प्राकृतिक या सांस्कृतिक समृद्धि के रूप में ज्यादा नहीं हुई है। कहने की जरूरत नहीं कि इस दौरान जिन भी वजहों से कालाहांडी चर्चा में रहा, उनसे कालाहांडी की छवि काफी खराब हुई। यहां के जीवन और वास्तविकताओं को लेकर लोगों के मन में कई तरह के पूर्वाग्रह घर कर गए। ‘कालाहांडी संवाद’ में अपने संबोधन में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने कहा, ‘बीते कुछ वर्षों में कालाहांडी ने एक नई इबारत लिखी है। यह इबारत है विकास की, खुद को बदलने की। इसका पूरा श्रेय कालाहांडी की जनता को जाता है। अच्छी बात यह है कि यहां जो
कालाहांडी आज ओडिशा का सबसे अधिक धान पैदा करने वाला जिला बन गया है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 के अनुसार 2000-01 में शिशु मृत्यु दर 91 थी। 2015-16 में यह दर घटकर 41 पर पहुंच गई है। शिशु मृत्यु दर में 50 फीसदी की यह गिरावट कालाहांडी में बदले हालात की गवाही देते हैं बदलाव आया है, वह दिख भी रहा है। कालाहांडी आज ओडिशा के लिए अनाज का कटोरा है।’ पटनायक ने आगे कहा, ‘इस जिले में सिंचाई की सुविधा जहां 2000-01 में 1 लाख 15 हजार हेक्टेयर था, वहीं 2017-18 में यह आंकड़ा बढ़कर 1 लाख 32 हजार हेक्टेयर हो गया है। कालाहांडी में अधारभूत संरचना के स्तर पर भी काफी विकास किया गया है। यह सब यहां के लोगों के परिश्रम और दृढ़ निश्चय से संभव हो सका है।’
समावेशी विकास की नीति
इस मौके पर कालाहांडी में आए बदलाव का जिक्र करते हुए मुख्यमंत्री पटनायक ने कहा, ‘बीते दो दशकों में सामाजिक औऱ आधारभूत संरचना के स्तर पर कालाहांडी बड़े परिवर्तनों से गुजरा है। इस दौरान भवानीपटना में नया सरकारी मेडिकल
कॉलेज भी खुला है। यही नहीं, ओडिशा में औद्योगिक विकास की जो बयार बही है, कालाहांडी भी उससे अछूता नहीं है। समावेशी विकास की नीति पर हमारी सरकार का हमेशा ही जोर रहा है और कालाहांडी विकास के हमारे मॉडल का बेहतरीन नमूना है।’ उन्होंने कहा कि सही नीति का निर्माण और फिर उसके कारगर क्रियान्वयन ने कालाहांडी में बड़े परिवर्तन की नींव रखी है। हम इसी परिप्रेक्ष्य में ‘कालाहांडी संवाद’ का आयोजन कर रहे हैं, ताकि बड़े स्तर पर विकास को लेकर जो समझ है, वह कालाहांडी के उदाहरण से एक नए विमर्श का रूप ले। यह आयोजन एक मौका है यह दिखाने का विगत वर्षों में कालाहांडी में सरकार ने किस तरह विकास योजनाओं को कारगर तरीके से जमीन पर उतारा। साथ ही यह अवसर है बाहरी दुनिया के लोगों के लिए भी कि वह विकास की इस यात्रा का
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आवरण कथा
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समृद्ध अतीत और प्रकृति
कालाहांडी इतिहास और संस्कृति के लिहाज से काफी समृद्ध रहा है। उत्तेयी और तेल नदियों के संगम पर स्थित कालाहांडी में 12वीं सदी की उत्कृष्ट वास्तुकला की निशानी के रूप में कुछ बहुत प्राचीन मंदिर हैं
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डिशा का कालाहांडी जिला प्राचीन काल में दक्षिण कोसल राज का हिस्सा था। आजादी के बाद इसे ओडिशा में शामिल कर लिया गया। उत्तर दिशा से यह नवपाड़ा और बलांगीर, दक्षिण में छत्तीसगढ़ के रायगढ़ और पूर्व में बूध एवं रायगढ़ जिलों से घिरा हुआ है। पूर्वी सीमा पर स्थित भवानीपटना जिला मुख्यालय है। 8197 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैले इस जिले में जूनागढ़, करलापट, खरियर, अंपानी, बेलखंडी, योगीमठ और पातालगंगा आदि प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। कालाहांडी इतिहास और संस्कृति के लिहाज से काफी समृद्ध रहा है। उत्तेयी और तेल नदियों के संगम पर स्थित कालाहांडी में 12वीं सदी की उत्कृष्ट वास्तुकला की निशानी के रूप में कुछ बहुत प्राचीन मंदिर हैं। प्रपाती झरनों के साथ अनेक सुंदर पहाड़ियां इस जगह की सुंदरता को बढ़ाती हैं। पाषाण युग और लौह युग के कई पुरातात्विक अवशेष यहां पाए गए थे। ‘कालाहांडी उत्सव’ हर साल मनाया जाता है। यह उत्सव उत्तम कला,
साक्षी बनें और संभव हो तो वे इसे आगे बढ़ाने में अपना योगदान करें।
‘जू फ्रेश’ की सक्सेस स्टोरी
‘कालाहांडी संवाद’ के पीछे एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य यह भी है कि इससे विकास को लेकर होने वाले विमर्श का रूप बदले, उससे जुड़े सरोकार बदलें। अभी तक इस बारे में जो भी चर्चा होती है, वह महानगरों के विकास तक सिमटी होती है। इसीलिए
संस्कृति, संगीत और हस्तकला के लिए दुनियाभर में मशहूर है। कालाहांडी पर्यटन अपने दर्शकों के लिए दिलचस्प इतिहास और बहुत सुंदर प्राकृतिक सौंदर्य वाले विदेशी स्थान प्रस्तुत करता है। असुरगढ़ में मानव जीवन के 2000 साल पुराने निशान पाए गए हैं। गुड़ाहांडी पहाड़ी की गुफाओं के अंदर कुछ प्राचीन पेंटिंग हैं। राबनदढ़ एक सुंदर झरना है, जबकि मोहनगिरी में सुंदर प्रकृति के साथ एक प्राचीन शिव मंदिर है। यहां लाल बहादुर शास्त्री स्टेडियम भी स्थित है, जहां विभिन्न खेल और मेले आयोजित किए जाते हैं। आवागमन के लिहाज से कालाहांडी ओडिशा के सभी बड़े शहरों से जुड़ा है। केसिंगा रेलवे स्टेशन और भुवनेश्वर हवाईअड्डे से क्रमशः रेल और फ्लाइट लेकर आप आसानी से कालाहांडी पहुंच सकते हैं। कालाहांडी आने के लिए सबसे अच्छा समय मानसून का है। यहां के लोग कालाहांडिया बोली में बातचीत करते हैं, जो उड़िया का ही एक स्थानीय रूप है। जरूरी यह भी था कि इस संवाद का आगाज जोरदार तरीके से हो, ताकि यह अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में ज्यादा कारगर हो। इस लिहाज से माइंडट्री के सह-संस्थापक और ओडिशा उद्यमता विकास परिषद के अध्यक्ष सुब्रतो बागची का बीज वक्तव्य देने के लिए चुनाव सटीक था। वे खुद ओडिशा के रहने वाले हैं, इसीलिए वे इस बात को बेहतर तरीके से रख पाए कि उड़िया लोग किस तरह उद्यम और पुरुषार्थ से भरे होते हैं,
उज्ज्वल भविष्य की दस्तक
नीति आयोग की एक विशिष्ट योजना में उन जिलों पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा जो विकास की पिरामिड में किन्हीं कारणों से सबसे नीचे नजर आते हैं। कालाहांडी ऐसे जिलों में एक है और वह इस योजना में शामिल भी किया गया है
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ति आयोग ने देश के कुछ विशिष्ट जिलों के लिए अलग एक योजना शुरू की है। इस विशिष्ट और महत्वाकांक्षी योजना की शुरुआत इसी साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने की है। इसके तहत खासतौर पर उन जिलों पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा जो विकास के पिरामिड में किन्हीं कारणों से सबसे नीचे नजर आते हैं। कालाहांडी ऐसे जिलों में एक है और वह इस योजना में शामिल भी किया गया है। ‘कालाहांडी संवाद’ के जरिए यह बात खास तौर पर रेखांकित हुई कि ओडिशा का यह जिला
विकास के हर मानदंड पर खरा उतरने के योग्य है। जरूरत है तो सिर्फ इस बात की कि यहां के उद्यम, यहां की विशेषता और यहां की भौगोलिक-सांस्कृतिक स्थिति के साथ कोई भी विकास योजना यहां के लिए बनाई जाए। अगर कालाहांडी के पुरुषार्थ पर भरोसा करके इस क्षेत्र के विकास का कोई रोडमैप तैयार किया जाता है, तो यह क्षेत्र उसे कारगर और सफल बनाने के लिए कृत-संकल्पित है। उम्मीद है कालाहांडी के विकास का अगला चरण इसी संकल्प पर भरोसे के साथ पूरा होगा।
बीते कुछ वर्षों में कालाहांडी ने एक नई इबारत लिखी है। यह इबारत है विकास की, खुद को बदलने की। इसका पूरा श्रेय कालाहांडी की जनता को जाता है। अच्छी बात यह है कि यहां जो बदलाव आया है, वह दिख भी रहा है। कालाहांडी आज ओडिशा के लिए अनाज का कटोरा है – नवीन पटनायक, मुख्यमंत्री किस तरह ये देशज मूल्य और संस्कार विगत वर्षों में कालाहांडी में विकास की नई करवट के रूप में नजर आए हैं। उन्होंने खासतौर पर सदानंद सत्पथी और उनकी पत्नी अंबिका सत्पथी का जिक्र किया, जिन्होंने ‘जू फ्रेश’ के नाम से मांस और मुर्गीपालन का अपना स्टार्ट अप शुरू किया। अंबिका आतिथ्य क्षेत्र में वित्तीय विश्लेषक के
तौर पर काम करती थीं जबकि उनके पति रक्षा मंत्रालय में आठ वर्षों से कार्य कर रहे थे। पर जब अपनी मातृभूमि के लिए कुछ करने की बारी आई तो वे पीछे नहीं हटे। वे कालाहांडी आ गए और यहां उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया। उन्होंने जहां ग्रामीण उत्पादकों को नया बाजार मुहैया कराया, वहीं उपभोक्ताओं तक स्वच्छ और
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आवरण कथा
पूर्वाग्रहों का शिकार रहा कालाहांडी: सुजीत कुमार
जिस ‘कालाहांडी संवाद’ में विकास को लेकर नई समझ और नए शुरू हुए विमर्श की चर्चा इन दिनों काफी है, उसकी अध्यक्षता का दायित्व था ओडिशा के वरिष्ठ और अनुभवी प्रशासनिक अधिकारी सुजीत कुमार पर। कुमार की पैदाइश कालाहांडी की है, इसीलिए अपने क्षेत्र में लिखी विकास की नई कहानी को वे काफी बेहतर तरीके से जानते-समझते हैं
सु
जीत कुमार काफी व्यस्त इंसान हैं। जिस ‘कालाहांडी संवाद’ की आज हर तरफ चर्चा है, वह उनकी ही संकल्पना है। संवाद को लेकर उनकी मानसिक तैयारी इतनी पुख्ता थी कि वे इस महत्वपूर्ण आयोजन के पलपल की गतिविधि पर नजर रखे हुए थे। यही नहीं, आयोजन में शामिल होने आए अतिथियों के आने-जाने, ठहरने की व्यवस्था से लेकर कार्यक्रम में उनके बेहतर सहभाग के लिए वे काफी तल्लीनता से आखिरी मिनट तक लगे रहे।
मुख्यमंत्री ने सौंपा दायित्व
सुजीत कुमार चूंकि ‘कालाहांडी संवाद’ के अध्यक्ष भी थे, लिहाजा उन पर इस विशिष्ट आयोजन को लेकर जिम्मेदारी सर्वाधिक थी। कुमार फिलहाल अोडिशा स्टेट प्लानिंग बोर्ड में आफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी (ओएसडी) सह विशेष सचिव के पद पर कार्यरत हैं। उनकी इस भूमिका और अनुभव को देखते हुए ही ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने उन्हें ‘कालाहांडी संवाद’ की अध्यक्षता का उत्तरदायित्व सौंपा।
कालाहांडी में हुआ जन्म
बातचीत के क्रम में कुमार बताते हैं, ‘मैं कालाहांडी का हूं। बड़ा होने के दौरान मैं कालाहांडी के बारे में यही सुनता रहा कि यहां भारी दरिद्रता है और लोग भूख से मर जाते हैं। पर बीते 20 सालों में इस क्षेत्र में जो प्रगति हुई है, उससे बाकी दुनिया अनजान है। मसलन, नीति आयोग ने विकास की मुख्यधारा से कटे जिन विशिष्ट जिलों को चिन्हित किया है, उसमें कृषि उत्पादन के क्षेत्र में कालाहांडी अव्वल पायदान पर है। यही नहीं
ओडिशा में प्रति व्यक्ति के हिसाब से सर्वाधिक धान उत्पादित करने वाला जिला कालाहांडी है। दिलचस्प है कि यह उस क्षेत्र की बदली तस्वीर है, जिसके बारे में दो दशक पहले तक यह कहा जाता था कि यहां लोग भूख से मरते हैं। इस क्षेत्र की इस बदली औऱ चमकीली सच्चाई को दुनिया के सामने लाने की दरकार थी और ‘कालाहांडी संवाद’ का आयोजन इसी मकसद से किया गया।’ इसी क्रम में वे आगे कहते हैं, ‘दरअसल, कालाहांडी अब तक पूर्वाग्रहों का शिकार रहा है और हम इस क्षेत्र की इस छवि को संवाद के जरिए पूरी तरह बदलना चाहते हैं।’
विकास की अवधारणा पर सवाल
कुमार की पीड़ा समझी जा सकती है। कालाहांडी को बाहरी दुनिया से या तो अब तक लानत मिली है या फिर सहानुभूति, यहां की वास्तविक स्थिति और चुनौती पर बात करने और उसे समझने के लिए लोग तैयार नहीं हैं। कुमार इसके लिए विकास की प्रचलित समझ और अवधारणा पर सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं, ‘विकास को लेकर अपने देश में जो विमर्श है, वह काफी केंद्रीकृत है। यह एक बड़ी विडंबना है कि आप दिल्ली या भुवनेश्वर में बैठकर गरीबी, कृषि या ग्रामीण विकास की बात करें। मुझे यह काफी हास्यास्पद लगता है कि लोग दिल्ली में ताज मानसिंह होटल या इंडिया हैपिटेट सेंटर में बैठकर विकास के मुद्दों पर बड़े-बड़े व्याख्यान देते हैं। इस बात की देश में तत्काल और सख्त दरकार है कि विकास को लेकर चर्चा वहीं हो, जहां इसकी दरकार सबसे ज्यादा महसूस की जाती हो। आखिर गरीबी, भुखमरी, विकास, कला और विरासत को लेकर चर्चा करने के लिए कालाहांडी से बेहतर कौन सी जगह हो सकती है।’
इंद्रावती डैम से बदली कहानी
कुमार अपनी बात जिस भरोसे और तार्किकता के साथ रखते हैं, उसके पीछे कालाहांडी के बदलते यथार्थ को देखने का उनका अनुभव है। वे बताते हैं, ‘कालाहांडी में विकास की नई धारा इंद्रावती डैम के बदलने के साथ शुरू होती है। इसके साथ ही देखतेदेखते इस पूरे क्षेत्र में सिंचाई की स्थिति सुधरनी शुरू हो गई। दरअसल, बीते 20-25 सालों में
‘लोग दिल्ली में ताज मानसिंह होटल या इंडिया हैपिटेट सेंटर में बैठकर विकास के मुद्दों पर बड़े-बड़े व्याख्यान देते हैं। इस बात की देश में तत्काल और सख्त दरकार है कि विकास को लेकर चर्चा वहीं हो, जहां इसकी दरकार सबसे ज्यादा महसूस की जाती हो। आखिर गरीबी, भुखमरी, विकास, कला और विरासत को लेकर चर्चा करने के लिए कालाहांडी से बेहतर कौन सी जगह हो सकती है’ हर दौर की सरकारों ने विकास योजनाओं के जरिए कालाहांडी को समर्थ और संपन्न बनाने में बड़ी भूमिका निभाई।’
सड़कों का बिछा जाल
कालाहांडी की धरती पर विकास की नई इबारत कैसे लिखी जा रही है, इसकी चर्चा करते हुए कुमार कहते हैं कि सबसे जरूरी तो सड़कों से किसी भी क्षेत्र के हर इलाके का जुड़ना है। आखिरकार विकास को हम मार्ग नहीं देंगे तो वह सुदूर क्षेत्रों तक पहुंचेगा कैसे? अपनी बात को वे कालाहांडी के बदले हालात से जोड़ते हैं कि आज वहां सड़कों का जाल बिछा है और इस क्षेत्र के सुदूरवर्ती इलाकाें तक भी आप जिला मुख्यालय से आसानी से पहुंच सकते हैं।
विकास एक सतत प्रक्रिया
कुमार मानते हैं कि विकास एक सतत प्रक्रिया है और किसी क्षेत्र की तस्वीर एक दिन में नहीं बल्कि दशकों में किसी क्षेत्र में विकास का सच देखने को मिलता है। कालाहांडी को लेकर विकास की इस प्रक्रिया के बारे में वे कहते हैं कि आज कालाहांडी में शिशु से लेकर मातृ मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत के करीब है, जिसकी कुछ साल पहले तक कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। इस दौरान सरकार ने
ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति सुधारने के लिए काफी निवेश किया है। नतीजतन प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति और संख्या में सुधार आया है। आंगनबाड़ी और आशा कार्यक्रम से भी इस दिशा में काफी मदद मिली है।
पूर्वाग्रहों से आगे का सच
कुमार मानते हैं कि विकास कोई अकेले चलने वाली चीज नहीं है। न ही किसी क्षेत्र का विकास वहां के लोगों के सहभाग साथ प्रशासनिक या अन्य संबंधित जुड़ाव व सहयोग के बिना संभव है। कालाहांडी का विकास इस मान्यता को बल देता है कि लोग अपने अगर उद्यम पर भरोसा करें और इस भरोसे को अगर सरकार का योजनागत सहयोग मिले, तो स्थिति में बड़ा परिवर्तन आ सकता है। कुमार कालाहांडी के इसी परिवर्तन को विकास की नई समझ के साथ ‘कालाहांडी संवाद’ के जरिए बाहरी दुनिया के साथ साझा करना चाहते थे और वे अपनी इस उम्मीद को पूरा करने में उल्लेखनीय रूप से सफल भी रहे। आशा है कि ‘कालाहांडी संवाद’ के आयोजन से कालाहांडी को लेकर अब जब भी बात होगी तो विकास के इर्द-गिर्द होगी, न कि उन पूर्वाग्रहों के साथ जिन्हें कालाहांडी बहुत पीछे छोड़ चुका है।
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स्वस्थ अंडे और मांस की आपूर्ति सुनिश्चित की। महज दो सालों में इन दोनों ने सौ से ज्यादा लोगों को नौकरियां दीं। आज उनके व्यवसाय की गिनती एग्री-स्टार्टअप्स के क्षेत्र में टॉप 20 में होती है।
उद्यमी दीपक साहू का जिक्र
अपने संबोधन में बागची ने एक और उद्यमी दीपक साहू का जिक्र किया। साहू कालाहांडी के जूनागढ़ में मिठाई बनाने और कन्फेक्शनरी का कार्य करते हैं। साहू ने अपने व्यवसाय को अनूठे प्रयोगों के बूते न सिर्फ आगे बढ़ाया, बल्कि सामाजिक विकास की बेहतरीन नजीर भी पेश की। बागची ने क्षेत्र के विकास के लिए तीन ‘आई’ (आइडेंटिटी, इंडिविजुअल प्रोग्रेस और इंस्टीट्यूशनल प्रोग्रेस) का प्रेरक सूत्र दिया। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि
आवरण कथा
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ओडिशा के स्वास्थ्य व विधि मंत्री प्रताप जेना ने भरोसा जताया कि ‘कालाहांडी संवाद’ के जरिए दुनिया की विकास को लेकर समझ तो बदलेगी ही, नीति विशेषज्ञ भी इस बारे में नई अवधारणा के साथ बात करने को प्रेरित होंगे किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए उसकी अपनी पहचान (आइडेंटिटी) का बना रहना और सुदृढ़ होना बहुत जरूरी है। इसी तरह अगर क्षेत्र के हर नागरिक की निजी तरक्की (इंडिविजुअल प्रोग्रेस) सुनिश्चत नहीं होती तो फिर ऐसे विकास का आधार बहुत कमजोर होगा। इसी तरह विकास को ठोस और प्रशासनिक सशक्तता देने के लिए जरूरी है कि संस्थागत विकास (इंस्टीट्यूशनल प्रोग्रेस) पर जोर दिया जाए।
संवाद का मकसद
‘कालाहांडी संवाद’ के अध्यक्ष सुजीत कुमार ने स्वागत भाषण दिया। उन्होंने आयोजन से जुड़े इस मकसद को साफ किया कि उनकी कोशिश है कि एक ऐसा मंच तैयार हो, जिसके जरिए विकास से जुड़े कार्य और विमर्श में युवाओं की भूमिका बढ़े। उन्होंने संवाद के आयोजन के पीछे एक बड़ा मकसद यह भी बताया कि जमीनी स्तर पर विकास की परख हो और इसे स्थानीय लोगों
की नजर से देखा-समझा जाए, न कि ऊपरी या आयातित सोच से विकास का मूल्यांकन हो। इस अवसर पर ओडिशा के शहरी विकास और जल संसाधन मंत्री निरंजन पुजारी ने कहा कि इस संवाद का आयोजन कालाहांडी की महिमा और यश को रेखांकित करने के लिए किया गया है। कालाहांडी में जो कुछ हो रहा है, उससे लोग ज्यादा परिचित नहीं हैं। इस आयोजन के माध्यम से विकास का नया पर्याय बने कालाहांडी को लेकर लोगों का नजरिया बदलेगा।
संवाद से बदलेगी धारणा
ओडिशा के स्वास्थ्य व विधि मंत्री प्रताप जेना ने भरोसा जताया कि ‘कालाहांडी संवाद’ के जरिए दुनिया की विकास को लेकर समझ तो बदलेगी ही, नीति विशेषज्ञ भी इस बारे में नई अवधारणा के साथ बात करने को प्रेरित होंगे। अनुसूचित जाति-जनजाति, अल्पसंख्यक और
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आवरण कथा
कालाहांडी में बदलाव की बयार
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पिछले 25 वर्षों में बदली कालाहांडी की तस्वीर। आज इस क्षेत्र में अब 38 धान की मील हैं। कभी भूख से जूझने वाला क्षेत्र आज पड़ोसी राज्यों की भूख मिटा रहा है
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खमरी से दम तोड़ते लोग, रोटी के लिए गोद में हंसते-खेलते बच्चे बेचने को विवश माताएं और जीने के लिए जंगल में पेड़ों के पत्ते उबालकर खाने को मजबूर इलाका। ऐसी ही कुछ अमानवीय तथ्यों को लेकर कभी कालाहांडी की तस्वीर बाहरी दुनिया में गढ़ी जाती थी। पर आज कालाहांडी के पुरुषार्थ को विकास के एक नए सक्सेस मॉडल के तौर पर देखा जा रहा है। दरअसल, कालाहांडी किसी जगह का नाम नहीं है। यह एक इलाके की पहचान है, लेकिन बदनामी इतनी मिली कि भूख से मौतों का दूसरा नाम ही कालाहांडी हो गया। मौतों की यह कहानी जितनी दुखदाई है, उतनी ही सुखदाई है कालाहांडी के बदलाव की दास्तान। कभी बदनाम कालाहांडी आज पड़ोसी राज्यों की भूख मिटाने का दम रखता है। कहने-सुनने में यह बात अजीब लगे, लेकिन यह सच है कि किसानों ने यहां अपनी कमजोरी को ताकत बनाया। कभी बारिश के भरोसे पर टिके यहां के किसान हरित क्रांति का नया इतिहास लिखने को आमादा हैं। हिन्दुस्तान के सबसे गरीब-पिछड़े इलाकों में शुमार ‘कालाहांडी’ बदलाव की दस्तक दे रहा है। चावल उत्पादन में यह इलाका अपने राज्य में अव्वल हो गया है। आंकड़े बताते हैं हर साल यह इलाका उत्पादन के अपने ही रिकॉर्ड तोड़ रहा है। साथ ही केले ने इलाके के किसानों में नई उम्मीद जगा दी है। सालाना छह हजार करोड़ का कृषि उत्पादन हो रहा है।
परियोजनाओं का जाल
कृषि से तकदीर बदलने के कई उदाहरण देश में मौजूद हैं लेकिन कालाहांडी में जो हुआ और जो हो रहा है वह किसी चमत्कार से कम नहीं है। आज कालाहांडी में रेल-सड़क और सिंचाई परियोजनाओं
का जाल बिछा है। गांव-गांव में स्कूल खुले हैं जहां छात्रों के मुकाबले छात्राएं भी कम नजर नहीं आतीं। पिछले 25 वर्षों में सामाजिक-आर्थिक बदलाव का ऐसा दूसरा उदाहरण देश में कहीं और देखने को नहीं मिलता। कालाहांडी त्रासदी में पहले भुखमरी और अब हुए बदलाव के साक्षी वरिष्ठ पत्रकार उमाशंकर बताते हैं कि पहले भुखमरी और अब ‘हरित क्रांति’ का श्रेय लेने पर भले ही राजनीति हो रही हो पर बदलाव पर सब सहमत हैं। वे बताते हैं, ‘आज किसानों में प्रतिस्पर्धा का मान है, कृषि की नई तकनीक रही है। उन्नत बीजों की मांग बढ़ रही है। बदलाव की नई इबारत लिख रहे कालाहांडी क्षेत्र में विकसित हुई 38 चावल मिलंे हैं। जिनके गोदाम धान से भरे हैं।’ यह बदलाव वहां और तेज होने की उम्मीद है क्योंकि सरकार के साथ और निजी उद्यम के तौर पर भी अब वहां कृषि आधारित इकाइयां लग रही हैं। बाजार का साथ भी किसानों को मिलना शुरू हो गया है। चावल के अलावा इलाके में कपास, केले और सब्जियों का बड़ा उत्पादन होता है। यह कृषि उपज का एक नया लाभकारी क्षेत्र बनकर कालाहांडी में उभरा है। कालाहांडी में हाल ही में इजीनियरिंग और एग्रीकल्चर कॉलेज की घोषणा हुई है। वैसे किसानों की मांग है कि राज्य धान का कटोरा बन रहा है, तो क्यों नहीं कृषि विश्वविद्यालय खुले। संभव है कि इस बारे में भी जल्द ही कोई फैसला सरकार ले। सामाजिक कार्यकर्ता शेषदेव सिंह बेहरा ने बताया कि कालाहांडी का कलंक किसानों की जिद और प्रतिस्पर्धा में कूद पड़ने की वजह से धुला है। जब इलाका देशभर में बदनाम हुआ, तो आंध्र प्रदेश के किसानों ने कालाहांडी में दस्तक दी। महज 40 हजार रुपए एकड़ में जमीनें खरीद कर उन्होंने केले की फसल का प्रयोग किया, जो बेहद सफल हुआ। देखा-देखी स्थानीय किसानों ने भी अतिरिक्त फसल के रूप में केले की फसल लेने का काम हाथ में
लिया। आज कालाहांडी में 500 से अधिक आंध्र के किसान हैं, तो इससे दस गुना अधिक स्थानीय किसानों ने केले की खेती में अपना भविष्य देखना शुरू किया। बड़े बदलाव की तस्वीर यह है कि पिछले साल मछलीपालन के क्षेत्र में स्थानीय किसान लक्ष्मी पंडा को राष्ट्रीय कृषि पुरस्कार मिला। जिला कलेक्टर डॉ. पराग बताते हैं कि कृषि के कारण तो कालाहांडी में बदलाव की बयार बही है, लेकिन परिवहन और आधारभूत संरचना में विकास से भी क्षेत्र की स्थिति में काफी फर्क आया। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार से भी यह इलाका विकास की मुख्यधारा में आया। आज कृषि उत्पादन में कालाहांडी सर्वोच्च पायदान पर है, तो इसकी वजह किसानों की लाइफ लाइन इंद्रावती सिंचाई परियोजना है। करीब हजार करोड़ रुपए सालाना का कृषि उत्पादन हो रहा है। आज यहां रेल, सड़क, सिंचाई जैसी सारी सुविधाएं हैं। कृषि, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में बढ़ोतरी हुई है।
बदलाव की कहानी आंकड़ो की जुबानी शिक्षा :
(2011 की जनगणना के अनुसार) • 1860 में 4 प्राइमरी स्कूलों से हुई थी आधुनिक शिक्षा की शुरुआत • अब पूरे जिले में 2425 स्कूल • 1.18 लाख छात्र (61 हजार से ज्यादा लड़के और 57 हजार लड़कियां) • 24 कॉलेज (8 सरकारी और 16 गैर-सरकारी)
कृषि :
(जिला प्रशासन के आंकड़ो के अनुसार) • 1.75 लाख किसान • 3.67 लाख हेक्टेयर खेत • 36.87 फीसदी जमीन पर विभिन्न योजनाओं से सिंचाई • 63.13 फीसदी जमीन पर बारिश का सहारा • 46 छोटी सिंचाई योजनाएं चल रही हैं जिले में • 601 लिफ्ट इरीगेशन प्वाइंट्स, इनमें 372 सरकारी और 229 निजी
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आवरण कथा
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पिछड़ा कल्याण मंत्री रमेश मांझी ने कालाहांडी की इस खूबसूरती को बयां किया कि यहां एक तरफ विकास की आधुनिक मिसाल देखने को मिलती है, वहीं जनजातीय परंपरा और ज्ञान भी सुरक्षित हैं। पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायण के प्रेस सचिव रहे सत्यनारायण साहू ने इस बात की जानकारी दी कि कालाहांडी के बदले यथार्थ को लेकर ग्लोबल मीडिया में ललक देखी जा सकती है। इस कारण कालाहांडी की सक्सेस स्टोरी अब देश-विदेश तक पहुंच रही है।
विदेश तक प्रशस्ति
‘कालाहांडी संवाद’ को भारत में रवांडा के उच्चायोग का भी भरपूर सहयोग और समर्थन मिला। रवांडा के उच्चायुक्त अर्नेस्ट रवेमयूस्यो ने इस मौके पर कहा कि विकास एक सतत प्रक्रिया है और इससे कई पक्ष जुड़े होते हैं। उन्होंने विकास योजनाओं की सफलता के लिए कुछ बातों पर गौर करने की सलाह दी। उनकी नजर में इसके लिए सबसे जरूरी है कि इलाके
की भौगोलिक स्थिति, वहां रहने वाले लोगों की प्रकृति और आर्थिक स्थिति के बारे में आकलन किया जाए। फिर इन सबके अनुसार चुनौती और जरूरतों का मूल्यांकन करते हुए योजना को
आकार दिया जाए। विकास योजनाओं की सफलता के लिए अहम यह भी है कि इसके लिए स्थानीय सहमभाग सुनिश्चित किया जाए। आयातित विकास कभी भी कारगर या
स्थायी नहीं होता। कालाहांडी का विकास उसके पुरुषार्थ की देन है। अर्नेस्ट की तरह एक और ग्लोबल लीडर डॉ. मारकश विंके ने ‘कालाहांडी संवाद’ में लोगों को अपनी बातों से प्रभावित किया। जर्मनी से पधारे विंके ब्लूबिल्टीज के सहसंस्थापक और सीईओ हैं। विंके पहली बार 1999 में भारत आए थे। वे तब से भारत और जर्मनी के बीच उद्यमीय सहयोग सुदृढ़ करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। उन्हें भारत और जर्मनी की कार्य संस्कृति में कई समानताएं दिखलाई पड़ती हैं। वे भारतीयों की जुगाड़ प्रवृति की खास तौर पर सराहना करते हैं और कहते हैं यह प्रवृति आज कई स्टार्टअप्स की सफलता की बड़ी वजह है। इस मौके पर कालाहांडी की महिलाओं, यहां के युवाओं, कृषि के क्षेत्र में आजमाए गए कई सफल प्रयोगों और गांव के स्तर पर विकास के कई प्रेरक प्रयोगों के बारे में वक्ताओं ने चर्चा की। इन चर्चा के दौरान ही यह
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संगोष्ठी
भारत में गांधीवादी होने का अर्थ
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राष्ट्रीय अभिलेखागार में आधुनिक समाज में महात्मा गांधी की विचारधारा को दर्शाने के लिए दो दिवसीय संगोष्ठी आयोजित हुई
‘कालाहांडी संवाद’ की एक बड़ी विशेषता यह भी रही कि इसमें सिर्फ कालाहांडी को लेकर नहीं बल्कि कालाहांडी के सर्वसाधारण लोगों के साथ भी संवाद हुआ जानकारी भी मिली कि आज ‘द गार्डियन’ जैसा अखबार कालाहांडी पर अलग से फीचर प्रकाशित कर रहा है। इस अवसर पर कालाहांडी के नायकों को सम्मानित किया गया। चार सम्मानित होने वालों में लोक गायक सर्वेश्वर भोई, पर्वतारोही जोगव्यास भोई, कवि जयद्रथ जेना और शतरंज खिलाड़ी सौंदर्य प्रधान शामिल हैं। इन सब लोगों ने इस मौके पर सफलता तक पहुंचने के लिए किए गए अपने संघर्ष और अनुभवों के बारे में बताया।
परस्पर संवाद का मंच
‘कालाहांडी संवाद’ की एक बड़ी विशेषता यह भी रही कि इसमें सिर्फ कालाहांडी को लेकर नहीं बल्कि कालाहांडी के सर्वसाधारण लोगों के साथ भी संवाद हुआ। कालाहांडी जैसे क्षेत्र के लिए यह बड़ा अवसर था, जहां एक तरफ उनके जीवन, उनकी परंपराओं और उनके उद्यम को देखने-समझने के लिए दुनियाभर से लोग पधारे थे, वहीं वे भी देश और देश के बाहर के लोगों के साथ दुनियाभर में हो रहे अन्य कार्यों और विचारों के बारे में अवगत हुए। इस परस्पर विचार-विमर्श में एक तरफ विशेषज्ञों की टीम थी, तो वहीं दूसरी तरफ कालाहांडी के युवा, किसान और उद्यमी शामिल थे।
रा
ष्ट्रीय अभिलेखागार ने महात्मा गांधी के 150 वें जयंती वर्ष के आरंभ होने के अवसर पर 4 से 5 अक्टूबर, 2018 तक ‘गांधीवादी विचार और राजनीति: समकालीन समाज’ विषय पर दो दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया। केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा इस अवसर पर उपस्थित रहे। सुलभ स्वच्छता और सामाजिक सुधार आंदोलन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक ने इस अवसर पर शोध पत्र प्रस्तुत किया। डॉ. पाठक ने समारोह में उपस्थित प्रतिष्ठित विद्वानों को संक्षेप में बताया कि किस तरह उन्होंने गांधीवाद के अहिंसा के सिद्धांतों को परिवर्तन के साधन के रूप में वास्तविकता प्रदान की है। उन्होंने कहा, ‘महात्मा गांधी ने अपने पूरे जीवन में, कई अलग-अलग तरीकों के अहिंसक साधनों के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की वकालत की और इसी का मेरे जीवन और मेरे काम में सबसे अधिक प्रभाव रहा है। मैंने अपने जीवन के पांच दशकों को शांतिपूर्ण सामाजिक परिवर्तन के गांधीवादी सपने को वास्तविकता में बदलने के लिए समर्पित किया है।’ उन्होंने कहा कि गांधी एक आदर्श और अनुकरणीय व्यक्ति थे, जो सामाजिक, नैतिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और पारिस्थितिकीय मोर्चों पर एक साथ लड़ रहे थे। उन्होंने इन सभी संघर्षों का राजनीतिक शक्ति या सैन्य शक्ति की ताकत पर नहीं, बल्कि अनुकरणीय शुद्धता और नैतिक उद्देश्य की
गांधी न केवल राजनीतिक क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक क्षेत्र में भी प्रासंगिक हैं। वह एक विचार प्रक्रिया हैं जिसको डॉ. विन्देश्वर पाठक जैसे लोगों ने आधुनिक समाज में अपनाया और लागू किया है। वह आज भी उतने प्रासंगिक हैं जितने तब थे- डॉ. महेश शर्मा
दृढ़ता वाले जीवन के रूप में नेतृत्व किया। डॉ. पाठक ने लोगों से गांधीवादी विचारों और मूल्य पर चर्चा करने के अलावा उन्हें लागू करने का भी आग्रह किया। उन्होंने पूछा, ‘गांधी के सपनों को पूरा करने के लिए, उनके मूल्यों को वास्तविक में बदलने के लिए कितने लोगों ने कुछ किया है?’ उन्होंने कहा कि एक सच्चे गांधीवादी होने के लिए हमें सिर्फ बातें ही नहीं करनी चाहिए, बल्कि इसके बारे में कुछ करने की जरूरत है। हमें उनके मूल सिद्धांतों को उनके द्वितीयक सिद्धांतों से अलग करने की जरूरत है। उन्होंने गांधी के जीवन और शिक्षाओं से सीखने के बारे में अपने लंबे संघर्ष और उपलब्धियों को भी बताया। उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा कि बड़ी उपलब्धियां और सफलता लोगों के अन्तःकरण को झकझोरने और सामाजिक स्थिति बदलने के लिए जातिगत मानसिकता से ऊपर उठकर और पुनर्वासित अछूतों की गरिमा बहाल करने में है।
संगोष्ठी में डॉ. महेश शर्मा ने कहा, ‘गांधी के अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग अर्थ हैं। कुछ के लिए वह एक स्वतंत्रता सेनानी हैं, कुछ के लिए वह भारतीय मुद्रा का चेहरा हैं, कुछ के लिए वह स्वच्छता का प्रतीक हैं और इसी तरह औरों के लिए कुछ अलग। वह न केवल राजनीतिक क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक क्षेत्र में भी प्रासंगिक हैं। वह एक विचार प्रक्रिया हैं जिसको डॉ. विन्देश्वर पाठक जैसे लोगों ने आधुनिक समाज में अपनाया और लागू किया है। वह आज भी उतने प्रासंगिक हैं जितने तब थे।’ डॉ. शर्मा ने कहा, ‘मैं वर्षों से डॉ. पाठक को सुन रहा हूं। वह मेरे और कई अन्य लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहे हैं। दशकों से वह गांधीवादी दृष्टिकोणों को पूरा करने के लिए अथक रूप से काम कर रहे हैं। मैं उनको सलाम करता हूं।’ इस अवसर पर डॉ. विन्देश्वर पाठक ने एक सत्र ‘गांधी की विरासत: पर्यावरण और सतत विकास’ की अध्यक्षता भी की। राष्ट्रीय अभिलेखागार द्वारा आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी का उद्देश्य राष्ट्र और समाज के सामने उभरती चुनौतियों से निपटने के लिए महात्मा की यथार्थवादी विचारधारा को प्रस्तुत करना था। इस संगोष्ठी में पूरे देश से प्रसिद्ध विद्वानों को उनके विचारों और अनुभवों को साझा करने के लिए आमंत्रित किया गया था ताकि वे सार्थक विचार लोगों तक पहुंच सकें। जिससे कि मानव जाति के कल्याण और विकास के साथ आधुनिक भारत को आकार देने में मदद मिल सके।
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जेंडर
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महिला मूर्तिकारों ने बनाया अलग मुकाम
कु
विनीता दास
मारतुली की संकरी गलियों में सावधानी से चलते हुए कोई भी आसानी से उन कुछ महिला मूर्तिकारों का पता लगा सकता है, जिन्होंने पुरुषों के प्रभुत्व वाली दुनिया में अपने लिए एक अलग जगह बनाई है। कुमारतुली उत्तरी कोलकाता में पारंपरिक मूर्तिकला केंद्र और कुम्हारों की गली है। प्रसिद्ध महिला मूर्ति निर्माता चैना पाल ने अपने कार्य को दिखाने के लिए हाल ही में चीन का दौरा किया था। उनकी दो मूर्तियां एक चीनी संग्रहालय में भी प्रदर्शित की गई थीं। चैना पाल को अतीत में संशयी ग्राहकों का भी सामना करना पड़ा था। उनकी तरह माला पाल की भी यही कहानी है, जो अब अपनी छोटे आकार की मूर्तियों के लिए मशहूर हैं। आठ सहायकों के साथ बाघबाजार में अपना स्टूडियो चलाने वाली चैना ने कहा, ‘मैं बचपन में अपने पिता के स्टूडियो में जाना पसंद करती थी, लेकिन उन्होंने मुझे कभी प्रोत्साहित नहीं किया, क्योंकि उस वक्त महिलाएं कुमारतुली में कम ही देखी जाती थीं। बाद में, जब वह बीमार हुए तो मैंने ही वास्तव में उस अंतर को कम किया, क्योंकि मेरे बड़े भाई अपनी नौकरियों में व्यस्त थे। उनके गुजरने के बाद 14 साल की उम्र में मैंने स्टूडियो संभाला।’ अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा, ‘यह बहुत मुश्किल था, क्योंकि मूझे मूर्ति बनाने की पूरी प्रक्रिया नहीं पता थी, लेकिन कला के लिए मेरे प्रेम ने इसे जल्दी सीखने में मेरी मदद की।’ यहां उस छोटी लड़की के लिए और कोई रास्ता नहीं था, जो ग्राहकों का विश्वास जीतने में थोड़ा समय लगाती थी। चैना ने कुशलतापूर्वक अपनी कार्यशाला का
कोलकाता की महिला मूर्तिकारों ने पुरुषों के वर्चस्व वाली दुनिया में अपनी पैठ बनाई
प्रबंधन करने, खाना बनाने और अपनी 95 साल की मां की देखभाल करने के लिए 'दसभुजा' (दुर्गा) की उपाधि हासिल की है। 'अर्धनारीश्वर दुर्गा आइडल' के निर्माण पर अपनी कड़ी मेहनत के अनुभव को साझा करते हुए चैना ने कहा, ‘मैंने 2015 में समलैंगिक समुदाय के अनुरोध पर इसे बनाया था। कुछ लोगों को यह पसंद नहीं आया, लेकिन मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता। मुझे लगता है कि सभी के पास अपने भगवान की पूजा करने का अधिकार है। मैंने कभी नहीं सुना कि किसी ने ऐसी मूर्ति बनाई है।’ माला पाल ने 'लोग क्या कहेंगे' की तरफ ध्यान
न देकर रूढ़िवाद को तोड़ा और इस पेशे में वर्ष 1985 में आईं। हालांकि पिता के देहांत के बाद 15 साल की लड़की को उसके भाई गोबिंद पाल ने प्रोत्साहित किया। सुनहरे रंग की पॉलिश वाली मूर्ति की ओर इंगित करते हुए माला ने कहा, ‘मैं बड़ी आंखों वाली परंपरागत 'बंगलार मुख' और आधुनिक 'कला' पैटर्न के साथ दोनों प्रकार की अलग-अलग छोटी मूर्तियां बनाती हूं। यह यूरोप में लोकप्रिय होने के साथ-साथ मलेशिया, ऑस्ट्रेलिया व कनाडा और शिकागो में प्रसिद्ध है, जहां पूजा होती है।
बेहतर कार्य हालात का सपना देख रहीं माला ने कहा, ‘हालांकि मुझे मान्यता और पुरस्कार मिले हैं, लेकिन इसके अलावा मुझे राज्य सरकार की ओर से कोई अन्य सहायता नहीं मिली है। सरकारी कॉलेजों के अनुरोध पर मैं वहां वर्कशॉप लगाती हूं और थोड़े पैसे कमा लेती हूं। छात्र कभी-कभी यहां भी आते हैं, लेकिन उन्हें यहां बैठाने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है।’ सुंदर टेराकोटा आभूषण बनाने वाली महिला ने कहा, ‘इसके अलावा, उनके लिए शौचालय भी ठीक नहीं है। निश्चित रूप से एक बेहतर जगह की बेहद जरूरत है।’
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मिसाल
छोटी उम्र से गरीब बच्चों को पढ़ा रहे बाबर
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नौ साल की उम्र खेलने- कूदने की होती है, लेकिन मुर्शिदाबाद के बाबर अली ने खेलने की जगह गरीब बच्चों को पढ़ाना पसंद किया
बानुआरा बीबी और पिता मोहम्मद नसीरूद्दीन से काफी मदद मिली। मेरी मां आंगनवाड़ी कर्मचारी हैं और पिता जूट के कारोबारी। दोनों ने स्कूल में ही पढ़ाई छोड़ दी थी, लेकिन उन्होंने अपने पड़ोस को शिक्षित बनाने के लिए मेरा साथ दिया।’ उन्होंने बताया, ‘मैं जिन बच्चों को पढ़ाता हूं उनको अपने परिवार से बहुत कम मदद मिलती है। अपने परिवार और शिक्षकों की मदद से मैं स्कूल चलाता रहा हूं और बच्चों को पोशाक, किताबें और पढ़ने-लिखने की अन्य सामग्री मुहैया करवाता रहा हूं।’ बाबर के शिक्षकों के अलावा जिले के अधिकारियों, इलाके के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों व अन्य लोगों से दान में मिलने वाली रकम से बाबर का संस्थान चलता रहा है। अब यह संस्थान उनके घर के ही पास एक नए भवन
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मुर्शिदाबाद देश में बीड़ी का सबसे बड़ा उत्पादक है। बालक बाबर स्कूल से उपयोग के बाद बचे चॉक के टुकड़े वहां से लाता था और अपने पड़ोस के बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाता था
भावना अकेला
श्चिम बंगाल के एक छोटे से शहर में स्कूल जाते समय अपनी ही उम्र के बच्चों को कूड़ा-करकट बीनते देख नौ वर्षीय बाबर अली के मन में उनके लिए कुछ करने का विचार आया। बाबर इस बात से दुखी था कि उसके ये मित्र गरीबी के कारण स्कूल नहीं जाते थे और पढ़ाई से महरूम थे। इसीलिए उसने अपनी पढ़ाई का कुछ हिस्सा उनके साथ साझा करने का फैसला लिया। मतलब, बाबर अली ने खुद उन गरीब बच्चों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया। कोलकाता से 200 किलोमीटर दूर मुर्शिदाबाद जिले के बेलडांगा शहर के एक सरकारी स्कूल में पांचवीं कक्षा का छात्र बाबर अली ने अपने घर के पीछे के आंगन में गरीब बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। उस समय उनके बाल मन की एक ख्वाहिश थी कि भारत के हर बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले। गरीबों के लिए शिक्षा का अलख जगाने वाले इस खामोश समाज-सुधारक ने पिछले डेढ़ दशक में सैकड़ों गरीब बच्चों को अपने प्रयासों से शिक्षित किया है। बाबर अब 25 साल के हो चुके हैं। बाबर ने कहा, ‘मैं इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पाया कि मेरे मित्र कूड़ा-करकट चुनें और मैं स्कूल जाऊं। इसलिए मैंने उनको अपने घर के आंगन में खुले आसमान में अपने साथ बैठने को कहा, ताकि मैं उनको पढ़ना-लिखना सिखा सकूं।’ बाहर के घर का वह आंगन अब स्कूल बन चुका है। उस जगह पर अब आनंद शिक्षा निकेतन
चल रहा है। यह संस्थान 2002 में ही अस्तित्व में आया और बाबर इस स्कूल का प्रधानाध्यापक है। वह दुनिया का सबसे कम उम्र का प्रधानाध्यापक है। बाबर ने बताया, ‘मैंने आठ विद्यार्थियों को लेकर इस स्कूल की शुरुआत की, जिसमें पांच साल की मेरी छोटी बहन अमीना खातून भी शामिल थी। हम सब अमरूद के एक पेड़ के नीचे रोज दोपहर में पढ़ने बैठते थे, ताकि बच्चे सुबह में रैग पिकर या बीड़ी बनाने का काम भी कर सकें।’ करीब 80 लाख आबादी वाले मुर्शिदाबाद जिले में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले वयस्कों और बच्चों की आबादी काफी ज्यादा है, जो खेतों में काम करते हैं या बीड़ी बनाते हैं। मुर्शिदाबाद देश में बीड़ी का
सबसे बड़ा उत्पादक है। बालक बाबर स्कूल से उपयोग के बाद बचे चॉक के टुकड़े वहां से लाता था और अपने पड़ोस के बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाता था। वह उन्हें बांग्ला भाषा, विज्ञान, भूगोल के अलावा गणित की बुनियादी बातें भी सिखाता था। वह मुफ्त में इन बच्चों को पढ़ाता था और खुद भी स्कूल में पढ़ता था। बाबर ने कहा, ‘मेरे स्कूल के शिक्षकों ने सोचा कि मैं दीवार पर लिखने के लिए चॉक चुराकर ले जा रहा हूं। लेकिन उनको जब यह मालूम हुआ कि मैं अपने घर में अन्य बच्चों को पढ़ाता हूं तो वे मुझे हर सप्ताह चॉक का एक डिब्बा देने लगे।’ बाबर ने बताया, ‘मुझे इस काम में मेरी मां
में चला गया है और इसे पश्चिम बंगाल विद्यालय शिक्षा विभाग से निजी स्कूल के तौर पर मान्यता भी मिली है। बाबर ने कहा, ‘आनंद शिक्षा निकेतन में सर्वागीण शिक्षा पर जोर दिया जाता है क्योंकि मैं चाहता हूं कि विद्यार्थी भविष्य में चाहे जो भी पेशा अपनाएं मगर उनसे समाज में सकारात्मक प्रभाव पड़ना चाहिए।’ विगत 16 साल में (वर्ष 2002 से लेकर अब तक) बाबर ने 5,000 से ज्यादा बच्चों को कक्षा एक से लेकर आठ तक पढ़ाया है, उनमें से कुछ बतौर शिक्षक वहां काम करने लगे हैं। उनके स्कूल में 500 छात्र-छात्राएं हैं और दस अध्यापक व अध्यापिकाएं हैं। इसके अलावा स्कूल में एक गैर-शैक्षणिक कर्मचारी है। सह-शिक्षा में संचालित इस स्कूल में पहली से लेकर आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई होती है। बाबर ने कल्याणी विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एमए की डिग्री हासिल की है और वह इतिहास में एमए कर रहे हैं। वह जिले में महिला साक्षरता दर में बदलाव लाना चाहते हैं जो कि जिला प्रशासन के आंकड़ो के अनुसार, इस समय 55 फीसदी है। बाबर ने कहा, ‘अकेली सरकार व्यवस्था में परिवर्तन नहीं ला सकती है। देश में बच्चों के लिए गुणात्मक शिक्षा लाने के लिए हम सबको आगे आना होगा।’
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राज्यनामा
15 - 21 अक्टूबर 2018
जल संरक्षण कर पानीदार हुआ मोरी वाटर टैंक कहे जाने वाले उत्तराखंड में पानी को बचाने की मुिहम रंग ला रही है। लोग अपने-अपने स्तर पर जल संरक्षण के कार्य कर रहे हैं और उनके अनुकूल परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं
खास बातें
चिंवा ग्राम पंचायत ने जल संरक्षण के लिए कार्ययोजना बनाई पौध रोपण के साथ छोटी धाराओं को तालाब तक पहुंचाया मोरी ब्लॉक की सरांश ग्राम पंचायत ने जल संरक्षण की मिसाल पेश की
भू
नमिता
जल वैज्ञानिक डॉ. डीडी ओझा की किताब ‘जल संरक्षण’ में बताया गया है कि धरती का 70.87 प्रतिशत भाग पानी से घिरा हुआ है। बावजूद इसके पीने के पानी का जबरदस्त संकट है। आंकड़ो के अनुसार विश्व की जनसंख्या वर्ष 2050 में 903.6 करोड़ हो जाने की संभावना है। लेकिन 2050 में भी धरती पर पानी की उपलब्धता उतनी ही रहेगी, जितनी की आज है। इसीलिए पानी को बचाने के लिए उपयुक्त जतन तो करने ही चाहिए। वे अपनी किताब में बताते हैं कि भूजल और वर्षाजल को भविष्य के लिए संरक्षित करना जरूरी हो गया है। यहां इस किताब का जिक्र इसीलिए किया जा रहा है कि जो आंकड़े किताब में प्रस्तुत हैं उनसे जल संरक्षण के प्रति हो रहे प्रयास कितना मुकाबला कर पाते हैं कि नहीं, पर आने वाले समय में प्रेरणास्पद हो सकते हैं। इधर वाटर टैंक कहे जाने वाले उत्तराखंड में पानी को बचाने की मुहिम रंग ला रही है। लोग अपने-अपने स्तर पर जल संरक्षण के कार्य कर रहे हैं और उनके अनुकूल परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। उत्तराखंड के अंतर्गत सीमांत जनपद उत्तरकाशी की सरांश व चिंवा ग्राम पंचायतों में ग्रामीणों द्वारा छेड़ी गई जल संरक्षण की मुहिम ने देशभर को संदेश दिया है। भारत-चीन सीमा से लगे मोरी ब्लॉक की इन दोनों पंचायतों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों
पौड़ी जनपद के अंतर्गत कल्जीखाल विकासखंड की वन पंचायत डुंगरा में वन और जल संरक्षण के लिए ग्रामीणों ने कमर कस ली है। चाल-खाल और वनीकरण के जरिए पर्यावरण संरक्षण की दिशा में अहम कार्य ग्रामीणों की तरफ से किए जा रहे हैं राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है। मुख्यालय उत्तरकाशी से 225 किमी दूर मोरी ब्लॉक की चिंवा ग्राम पंचायत के प्राकृतिक जलस्रोतों में लगातार जलस्तर घट रहा था। इसके समाधान के लिए वर्ष 2017 में पंचायत ने कार्ययोजना बनाई और क्षेत्र में पौधरोपण शुरू कर दिया। इसके साथ-साथ पानी की छोटी-छोटी धाराओं को एकत्र कर तालाब तक पहुंचाया गया। चिंवा गांव के 63 वर्षीय मोहन सिंह ने बताया कि पहले उनके गांव के तीनों प्राकृतिक जलस्रोत सूखने के कगार पर आ चुके थे। अब ग्रामीणों के सामूहिक प्रयास से गांव के जलस्रोतों को रीचार्ज किया गया। गांव की पेयजल की आपूर्ति के साथ-साथ यह पानी अब बाग-बगीचों की सिंचाई और पशुओं के पीने के काम में आ रहा है। ग्राम पंचायत चिंवा के प्रधान सतीश चौहान बताते हैं कि जल संरक्षण के लिए ग्रामीणों ने बिना किसी सरकारी सहायता के अगस्त 2017 में 500 पौधों का गांव के आसपास रोपण किया। इन पौधों की देखभाल भी ग्रामीण ही कर रहे हैं। बताया कि गांव में जल संरक्षण के साथ स्वच्छता पर भी विशेष
ध्यान दिया जा रहा है। आज सभी परिवारों के पास शौचालय है। साथ ही कूड़ा निस्तारण के लिए भी ग्रामीणों को जागरूक किया गया है। चिंवा की तरह ही मोरी ब्लॉक की सरांश ग्राम पंचायत ने भी जल संरक्षण के क्षेत्र में मिसाल पेश की है। यह ग्राम पंचायत भी पिछले दस सालों से जल संकट से जूझ रही थी। इससे निपटने के लिए ग्रामीणों ने पहले जल संस्थान और जल निगम के चक्कर लगाए, लेकिन जब कोई बात नहीं बनी तो ग्रामीण पारंपरिक जलस्रोत को रीचार्ज करने में जुट गए। पहले-पहल ग्रामीणों ने मनरेगा के तहत छह लाख की धनराशि खर्च कर 1500 पौधों का रोपण किया। साथ ही छोटे-छोटे तालाब भी तैयार किए। गांव के 68 वर्षीय सूरत सिंह बताते हैं कि गांव के पास सेरी स्रोत से अब पानी की सप्लाई हो रही है। प्रधान कमलेश चौहान बताते हैं कि यहां-वहां बिखरे हुए पानी को एकत्र कर तालाब में डाला गया। यह पानी पशुओं के पीने के साथ बागवानी के भी काम आ रहा है। यानी सरांश और चिंवा ग्राम पंचायत ने वर्षाजल एकत्रीकरण के लिए चालखाल को पुनर्जीवित किया, साथ-साथ वृक्षारोपण
भी किया। इसके अलावा गांव के आस पास के जलागम को सुरक्षित भी किया। परिणामस्वरूप इस गांव में पानी की सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान होने लगा। पौड़ी जनपद के अंतर्गत कल्जीखाल विकासखंड की वन पंचायत डुंगरा में वन और जल संरक्षण के लिए ग्रामीणों ने कमर कस ली है। चाल-खाल और वनीकरण के जरिए पर्यावरण संरक्षण की दिशा में अहम कार्य ग्रामीणों की तरफ से किए जा रहे हैं। सिविल और सोयम वन प्रभाग के माइक्रो प्लान में ग्रामीण बराबर की सहभागिता निभा रहे हैं। दिलचस्प यह है कि उत्तराखंड वन संसाधन प्रबंधन परियोजना के तहत ग्रामीणों ने जल संरक्षण के कार्यों को सहभागिता के आधार पर क्रियान्वित किया है। इसके तहत क्षेत्र में चालखालों का निर्माण किया जा रहा है। साथ ही ग्रामीण पौधरोपण कार्यक्रम को भी सफलतापूर्वक निभा रहे हैं। सिविल एवं सोयम वन प्रभाग के प्रभागीय अधिकारी लक्ष्मण सिंह रावत ने बताया कि आने वाले दिनों में यह क्षेत्र जल संरक्षण के लिए नजीर के तौर पर पेश होगा। बता दें कि डुगरा के ग्रामीण पुरानी चाल-खाल को पुनर्जीवित करने के लिए सामूहिक प्रयास कर रहे हैं तो वहीं पर्यावरण सन्तुलन के लिए वृक्षारोपण व जलागम संरक्षण का कार्य संगठनात्मक रूप से क्रियान्वित कर रहे हैं। यही वजह है कि जो गांव पहले पानी की बूंद-बूंद के लिए मोहताज था वह आज जलापूर्ति के लिए उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुआ है। इसी तरह चौंदकोट क्षेत्र के संघर्षशील युवा भला कैसे खामोश रह सकते थे। सूखते जलस्रोतों के कारण गायब हो रही हरियाली और भविष्य के पेयजल संकट से चिंतित इन उत्साही युवाओं ने चौंदकोट क्षेत्र में पुरखों के बनाए चाल-खालों को पुनर्जीवन करने का संकल्प लिया। यह वही चौंदकोट क्षेत्र है जहां वर्ष 1951 में इस क्षेत्र के हजारों पुरुषार्थियों ने श्रमदान के बूते कुछ दिनों में
15 - 21 अक्टूबर 2018 ही 30-30 किमी के मोटर मार्गों का निर्माण कर डाला था। कुछ दशकों से चौंदकोट क्षेत्र में पानी की समस्या लगातार गहराती गई। नतीजा, क्षेत्र में हरियाली का गायब होना, गांवों से बेतहाशा पलायन का बढ़ना आदि-आदि। हालात से व्यथित क्षेत्र के युवाओं ने अपने पुरखों का अनुसरण करते हुए क्षेत्र में चाल-खालों को पुनर्जीवन देने का संकल्प लिया। बस एक वर्ष बाद जल संरक्षण के इस लोक विज्ञान के कारण जलधारों का पानी वापस लौटता दिखाई दिया। अब तो आसपास के लोग डुगरा गांव का अनुसरण करने लग गए हैं। डबरा चमनाऊं निवासी सुधीर सुंद्रियाल दिल्ली स्थित मल्टीनेशनल कंपनी में लाखों का पैकेज छोड़ गांव में जल संरक्षण के काम में लग गए। चार वर्ष की कड़ी मेहनत के बाद सुधीर ने गांव के जलस्रोतों का पानी लौटा दिया। वह मानते हैं कि जल संरक्षण की जो पुरातन पद्धति पूर्वजों ने ईजाद की हुई है उसे कम-से-कम सरकार अनिवार्य कर दे तो पहाड़ के गांव पानी की समस्या का सामना नहीं करेंगे। उन्होंने तो अपने गांव में वर्षाजल एकत्रीकरण के लिए चाल-खाल की परंपरा को अपनाया है। यही वजह है कि गांव में पेयजल से
लेकर सिंचाई के साधन तक उपलब्ध हो पा रहे हैं। बताया जाता है कि पूर्वजों द्वारा जंगलों में बनाई गई चाल-खाल इसीलिए नष्ट हुईं कि वन विभाग ग्रामीणों को वनों में कुछ करने से पहले कानून के डरावने डंडे का खौफ दिखाता था। जिस कारण जल संरक्षण की यह लोक परंपरा नेस्तनाबूद हुई और पहाड़ों के गांव में पानी का संकट बड़े पैमाने पर सामने आया। खैर! देर आए दुरुस्त आए वाली
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राज्यनामा
कहावत यहां वन विभाग पर चरितार्थ होती है। ज्ञात हो कि लंबे इंतजार के बाद ही सही आखिरकार वन महकमे को बारिश की बूंदों का मोल समझ आ ही गया। राज्य में हर साल बड़े पैमाने पर आग से तबाह हो रही वन संपदा को बचाने के लिए उसने वर्षाजल संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। बताया जाता है कि वन विभाग मानसून सीजन में ही वनों में जलाशय और
वंचित छात्रों को दान में पुस्तकें
जलकुंडों के जरिए लगभग 17 करोड़ लीटर पानी को एकत्रित करने का काम करने जा रहा है। जिस हेतु वे खाल-चाल, ट्रैंच व चेकडैम जैसे कार्यों को क्रियान्वित करने जा रहे हैं। वन विभाग का तर्क है कि जल संरक्षण के इस लोक ज्ञान के कारण एक तो पानी के रीचार्ज के काम होंगे, दूसरी तरफ वनों में लगने वाली आग पर काबू पाया जा सकता है। बता दें कि उत्तराखंड में साल भर में सामान्य तौर पर 1581 मिमी वर्षा होती है, जिसमें मानसून सीजन का योगदान 1229 मिमी का है। बारिश का यह पानी जाया न हो, इसे सहेजने के लिए वन महकमे ने जंगलों में तीन हजार जलाशय व जलकुंड तैयार करने आरंभ कर दिए हैं जिनकी क्षमता 16.75 करोड़ लीटर है। इसके साथ ही 12 हजार ट्रैंच, चेकडैम भी तैयार किए गए हैं। यही नहीं, वनों में वर्षाजल संरक्षण के लिए पारंपरिक तौर-तरीकों खाल-चाल पर भी फोकस किया जा रहा है। उत्तराखंड के प्रमुख मुख्य वन संरक्षक जयराज के मुताबिक, इस बार 20 लाख से अधिक खाल-चाल (तालाबनुमा छोटे-बड़े गड्ढे) बनाने पर ध्यान केंद्रित किया गया है। जलाशय, जलकुंड, ट्रैंच, खाल-चाल, चेकडैम के जरिए बड़े पैमाने पर वर्षाजल को वनों में रोकने की तैयारी है।
अलीबाबा ग्रुप ने भारत में वंचित तबके के छात्रों को 10 लाख पुस्तकें मुफ्त में दी ताकि उन्हें शिक्षा हासिल करने में मदद मिल सके
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लीबाबा ग्रुप ने 'मिशन मिलियन बुक्स' के तहत इस साल के अंत तक 10 लाख पुस्तकें दान करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। दान से एकत्रित पुस्तकें बिना किसी खर्च के शैक्षणिक संस्थानों को वितरित की जाती हैं। परियोजना के तहत बहुत कम समय में ही आठ लाख से अधिक पुस्तकें एकत्र की गई, जिसमें से करीब सात लाख पुस्तकें दान भी की जा चुकी हैं। अलीबाबा ग्रुप ने वर्ष 2016 में इस परियोजना को शुरू किया था, जिसका लक्ष्य पूरे भारत में वंचित तबके के स्कूली और कॉलेज के छात्रों को 10 लाख पुस्तकें दान करना था ताकि उन्हें शिक्षा हासिल करने में मदद मिल सके और इस देश के बच्चे और युवा सशक्त बनें। इस परियोजना से भारत में 2,000 से अधिक संस्थानों के करीब 25 लाख विद्यार्थी लाभान्वित
हुए हैं। मदर टेरेसा की स्मृति में संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित अंतरराष्ट्रीय परोपकार दिवस पर अलीबाबा समूह के धर्मार्थ कोष अलीबाबा फाउंडेशन ने यूसीवेब के साथ मिलकर 'फिलैनथ्रपी कांफ्रेंस' 2018 का आयोजन किया। यह चीन से बाहर पहली बार आयोजित किया गया। दिल्ली में 'लव एंड इनफिनिटी' की थीम पर आयोजित कार्यक्रम में शिक्षा, बाल संरक्षण और महिला सशक्तीकरण पर व्यापक जन जागरूकता एवं कार्रवाई की वकालत की गई। अलीबाबा ग्रुप का बाल शिक्षा में सुधार लाने का एक अन्य प्रयास 'यूसी शिक्षा' अभियान है। यूसी शिक्षा एक ऑनलाइन से ऑफलाइन पुस्तक दान कार्यक्रम है जिसमें दो महीने के भीतर 15 लाख यूजर ने भागीदारी की है और इससे 50,000 विद्यार्थी लाभान्वित हुए हैं। यूसी
ने इस परियोजना का दायरा बढ़ाने की योजना बनाई है जिससे जरूरतमंद अधिक बच्चों की व्यापक तरीके से मदद की जा सके। इसके साथ ही अलीबाबा ग्रुप की कंपनी यूसी ने 'हैशशेडसर्वर्सटूनो' नाम से ऑनलाइन महिला सशक्तीकरण अभियान शुरू किया है और बॉलीवुड अदाकारा कंगना रनौट को इसका सहयोगी बनाया है। इस अवसर पर अलीबाबा डिजिटल मीडिया एंड एंटरटेनमेंट ग्रुप की कंपनी यूसी के अध्यक्ष शुनयान झू ने कहा कि हम पहली बार फिलैनथ्रपी कॉन्फ्रेंस को चीन से बाहर यहां भारत लेकर आए
हैं। यह अलीबाबा के लिए भारत के महत्व को दर्शाता है। उन्होंने कहा, "यूसी ब्राउजर ने भारत में पहली बार यूसी वुमेन्स चैनल स्थापित किया है, जो जीवनशैली, फैशन और करियर के बारे में जानकारी उपलब्ध कराता है। यह महिलाओं को स्वयं के विकास और संभावनाओं का एहसास कराने पर ध्यान केंद्रित करता है।" उन्होंने कहा, "महिला उन्मुख इस चैनल ने अप्रैल में अपनी लांचिंग के समय से 75 लाख यूजर पर प्रभाव जमाया है। इसके जरिए यह बताया जाता है कि कैसे महिलाओं को स्वयं को सशक्त बनाना चाहिए।" (आईएएनएस)
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विलायत में सादगी और मितव्ययिता का प्रयोग
विलायत में मोहन का मन रमने में थोड़ा वक्त जरूर लगा। पर यहीं सादगी और मितव्ययिता का पाठ भी उन्होंने सीखा। उन्होंने खुद स्वीकार किया है कि जीवन में इस सीख को अमल में लाने का लाभ उन्हें आजीवन मिला
प्रथम भाग 16. बदलाव
कोई यह न माने कि नाच आदि के मेरे प्रयोग उस समय की मेरी स्वच्छंदता के सूचक हैं। पाठकों ने देखा होगा कि उनमें कुछ समझदारी थी। मोह के इस समय में भी मैं एक हद तक सावधान था। पाई-पाई का हिसाब रखता था। खर्च का अंदाज रखता था। मैंने हर महीने पंद्रह पौंड से अधिक खर्च न करने का निश्चय किया था। मोटर में आने-जाने का अथवा डाक का खर्च भी हमेशा
लिखता था। सोने से पहले हमेशा अपना रोकड़ा मिला लेता था। यह आदत अंत तक बनी रही। मैं जानता हूं कि इससे सार्वजनिक जीवन में मेरे हाथों लाखों रुपयों का जो उलट-फेर हुआ है, उसमें मैं उचित किफायतशारी से काम ले सका हूं। आगे मेरी देखरेख में जितने भी आंदोलन
चले, उनमें मैंने कभी कर्ज नहीं लिया, बल्कि हरेक में कुछ न कुछ बचत ही रही। यदि हरेक नवयुवक उसे मिलने वाले थोड़े रुपयों का भी हिसाब खबरदारी के साथ रखेगा, तो उसका लाभ है और वह भी उसी तरह अनुभव करेगा , जिस तरह भविष्य में मैंने और जनता ने किया। अपने रहन-सहन पर मेरा कुछ अंकुश था। इस कारण मैं देख सका कि मुझे कितना खर्च करना चाहिए। अब मैंने खर्च आधा कर डालने का निश्चय किया। हिसाब जांचने से पता चला कि गाड़ी-भाड़े का मेरा खर्च काफी होता था। फिर कुटुंब में रहने से हर हफ्ते कुछ खर्च तो होता ही था। किसी दिन कुटुंब के लोगों को बाहर भोजन के लिए ले जाने का शिष्टाचार बरतना जरूरी था। कभी उनके साथ दावत में जाना पड़ता तो गाड़ी-भाड़े का खर्च लग ही जाता था। कोई लड़की साथ हो तो उसका खर्च चुकाना जरूरी हो जाता था। जब बाहर जाता तो खाने के लिए घर न पहुंच पाता। वहां तो पैसे पहले से ही चुकाए रहते और बाहर खाने के पैसा और चुकाने पड़ते। मैंने देखा कि इस तरह के खर्चों से बचा जा सकता है। महज शर्म की वजह से होने वाले खर्चों से बचने की बात भी समझ में आई। अब तक मैं कुटुंबों में रहता था। उसके बदले अपना ही कमरा लेकर और यह भी तय किया कि काम के अनुसार और अनुभव प्राप्त करने के लिए अलग-अलग मुहल्लों में घर बदलता रहूंगा। घर मैंने ऐसी जगह पसंद किया कि जहां से काम की जगह पर आधे घंटे में पैदल पहुंचा जा सके और गाड़ी-भाड़ा बचे। इससे पहले जहां जाना होता, वहां की गाड़ी-भाड़ा हमेशा चुकाना पड़ता और घूमने के लिए अलग से समय निकालना पड़ता था। अब काम पर जाते हुए ही घूमने की व्यवस्था जम गई। इस कारण मैं रोज आठ-दस मील घूम लेता था। खासकर इस एक आदत के कारण मैं विलायत में शायद ही कभी बीमार पड़ा होऊंगा। मेरा शरीर काफी कस गया। कुटुंब में रहना छोड़कर मैंने दो कमरे किराए पर लिए। एक सोने के लिए और दूसरा बैठक के रूप में।
अपने रहन-सहन पर मेरा कुछ अंकश ु था। इस कारण मैं देख सका कि मुझे कितना खर्च करना चाहिए। अब मैंने खर्च आधा कर डालने का निश्चय किया। हिसाब जांचने से पता चला कि गाड़ी-भाड़े का मेरा खर्च काफी होता था
15 - 21 अक्टूबर 2018
यह बदलाव की दूसरी मंजिल कही जा सकती है। तीसरा बदलाव अभी होना शेष था। इस तरह आधा खर्च बचा। लेकिन समय का क्या हो? मैं जानता था कि बैरिस्टरी की परीक्षा के लिए बहुत पढ़ना जरूरी नहीं है, इसीलिए मुझे बेफिक्री थी। पर मेरी कच्ची अंग्रेजी मुझे दुख देती थी। लेली साहब के शब्द ‘तुम बीए हो जाओ, फिर आना’ मुझे चुभते थे। मैंने सोचा मुझे बैरिस्टर बनने के अलावा कुछ और भी पढ़ना चाहिए। ऑक्सफोर्ड-कैंब्रिज की पढ़ाई का पता लगाया। कई मित्रों से मिला। मैंने देखा कि वहां जाने से खर्च बहुत बढ़ जाएगा और पढ़ाई लंबी चलेगी। मैं तीन साल से अधिक रह नहीं सकता था। किसी मित्र ने कहा, ‘अगर तुम्हें कोई कठिन परीक्षा ही देनी हो, तो लंदन से मैट्रिक्युलेशन पास कर लो। उसमें मेहनत काफी करनी पड़ेगी और साधारण ज्ञान बढ़ेगा। खर्च बिल्कुल नहीं बढ़ेगा।’ मुझे यह सुझाव अच्छा लगा। पर परीक्षा के विषय देखकर मैं चौका। लैटिन और दूसरी एक भाषा अनिवार्य थी। लैटिन कैसे सीखी जाए? पर मित्र ने सुझाया, ‘वकील के लिए लैटिन बहुत उपयोगी है। लैटिन जाननेवाले को कानूनी किताबें समझना आसान हो जाता है और रोमन लॉ की परीक्षा में एक प्रश्नपत्र केवल लैटिन भाषा में ही होता है। इसके अलावा लैटिन जानने से अंग्रेजी भाषा पर प्रभुत्व बढ़ता है।’ इन सब दलीलों का मुझ पर असर हुआ। मैंने सोचा, मुश्किल हो चाहे न हो, पर लैटिन तो सीख ही लेनी हैं। फ्रेंच की शुरू की हुई पढ़ाई को पूरा करना है। इसलिए निश्चय किया कि दूसरी भाषा फ्रेंच हो। मैट्रिक्युलेशन का एक प्राईवेट वर्ग चलता था। हर छठे महीने परीक्षा होती थी। मेरे पास मुश्किल से पांच महीने का समय था। यह काम मेरे बूते के बाहर था। परिणाम यह हुआ कि सभ्य बनने की जगह मैं अत्यंत उद्यमी विद्यार्थी बन गया। एक-एक मिनट का उपयोग किया। पर मेरी बुद्धि या समरण-शक्ति ऐसी नहीं थी कि दूसरे विषयों के अतिरिक्त लैटिन और फ्रेंच की तैयारी कर सकूं। परीक्षा में बैठा। लैटिन मे फेल हुआ, पर हिम्मत नहीं हारा। लैटिन में रुचि हो गई थी। मैंने सोचा कि दूसरी बार परीक्षा में बैठने से फ्रेंच अधिक अच्छी हो जाएगी और विज्ञान में नया विषय ले लूंगा। प्रयोगों के अभाव में रसायनशास्त्र मुझे रुचता ही न था। यद्यपि अब देखता हूं कि उसमें खूब रस आना चाहिए था। देश में तो यह विषय सीखा ही था, इसीलिए लंदन की मैट्रिक के लिए भी पहली बार इसी को पसंद किया था। इस बार 'प्रकाश और ऊष्णता' का विषय लिया। यह विषय आसान माना जाता था। मुझे भी आसान लगा। पुनः परीक्षा देने की तैयारी के साथ ही रहनसहन में अधिक सादगी लाने का प्रयत्न शुरू किया। मैंने अनुभव किया कि अभी मेरे कुटुंब
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पुस्तक अंश
पैदा हुई। कौटुंबिक स्थिति के साथ मेरे रहनसहन का मेल बैठा। जीवन अधिक सारमय बना और मेरे आत्मानंद का पार न रहा।
17. खुराक के प्रयोग
जैसे-जैसे मैं जीवन की गहराई में उतरता गया, वैसे-वैसे मुझे बाहर और भीतर के आचरण में बदलाव करने की जरूरत मालूम होती गई। जिस गति से रहन-सहन और खर्च में बदलाव हुए, उसी गति से अथवा उससे भी अधिक वेग से मैंने खुराक में बदलाव करना शुरू किया की गरीबी के अनुरूप मेरा जीवन सादा नहीं बना है। भाई की तंगी और उनकी उदारता के विचारों ने मुझे व्याकुल बना दिया। जो लोग हर महीने 15 पौंड या 8 पौंड खर्च करते थे, उन्हें तो छात्रवृत्ति मिलती थी। मैं देखता था कि मुझसे भी अधिक सादगी से रहने वाले लोग हैं। मैं ऐसे गरीब विद्यार्थियों के संपर्क में ठीक-ठीक आया था। एक विद्यार्थी लंदन की गरीब बस्ती में हफ्ते के दो शिलिंग देकर एक कोठरी में रहता था और लोकार्ट की कोको की सस्ती दुकान में दो पेनी का कोको और रोटी खाकर गुजारा करता था। उससे स्पर्धा करने की तो मेरी शक्ति नहीं थी, पर अनुभव किया कि मैं एक कमरे में रह सकता हूं और आधी रसोई अपने हाथ से भी बना सकता हूं। इस प्रकार मैं हर महीने चार या पांच पौंड में अपना निर्वाह कर सकता हूं। सादा रहन-सहन पर पुस्तकें भी पढ़ चुका था।
दो कमरे छोड़ दिए और हफ्ते के आठ शिलिंग पर एक कमरा किराए पर लिया। एक अंगीठी खरीदी और सुबह का भोजन हाथ से बनाना शुरू किया। इसमें मुश्किल से बीस मिनट खर्च होते थे। ओटमील की लपसी बनाने और कोको के लिए पानी उबालने में कितना समय लगता? दोपहर का भोजन बाहर कर लेता और शाम को फिर कोको बनाकर रोटी के साथ खा लेता। इस तरह मैं एक से सवा शिलिंग के अंदर रोज के अपने भोजन की व्यवस्था करना सीख गया। यह मेरा अधिक से अधिक पढ़ाई का समय था। जीवन सादा बन जाने से समय अधिक बचा। दूसरी बार परीक्षा में बैठा और पास हुआ। पर पाठक यह न मानें कि सादगी से मेरा जीवन नीरस बना होगा। उलटे, इनके कारण मेरी आंतरिक और बाह्य स्थिति के बीच एकता
जैसे-जैसे मैं जीवन की गहराई में उतरता गया, वैसे-वैसे मुझे बाहर और भीतर के आचरण में बदलाव करने की जरूरत मालूम होती गई। जिस गति से रहन-सहन और खर्च में बदलाव हुए, उसी गति से अथवा उससे भी अधिक वेग से मैंने खुराक में बदलाव करना शुरू किया। मैंने देखा कि अन्नाहार विषयक अंग्रेजी की पुस्तकों में लेखकों ने बहुत सूक्ष्मता से विचार किया है। उन्होंने धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक और वैद्यक दृष्टि से अन्नाहार की छानबीन की थी। नैतिक दृष्टि से उन्होंने यह सोचा कि मनुष्य को पशु-पक्षियों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ है, वह उन्हें मारकर खाने के लिए नहीं, बल्कि उनकी रक्षा के लिए है अथवा जिस प्रकार मनुष्य एकदूसरे का उपयोग करते हैं, पर एक-दूसरे को खाते नहीं, उसी प्रकार पशु-पक्षी भी उपयोग के लिए हैं, खाने के लिए नहीं। उन्होंने देखा कि खाना भोग के लिए नहीं, बल्कि जीने के लिए ही हैं। इस कारण कइयों ने आहार में मांस का ही, बल्कि अंडों और दूध का भी त्याग सुझाया और किया। विज्ञान की दृष्टि से और मनुष्य की शरीर-रचना को देखकर कई लोग इस परिणाम पर पहुंचे कि मनुष्य को भोजन पकाने की आवश्यकता ही नहीं है, वह वनपाक (झाड़ पर कुदरती तौर पर पके हुए फल) फल ही खाने के लिए पैदा किया गया है। दूध उसे केवल माता का ही पीना चाहिए। दांत निकलने के बाद उसको चबा सकने योग्य खुराक ही लेनी चाहिए। वैद्यक दृष्टि से उन्होंने मिर्च-मसालों का त्याग सुझाया और व्यावहारिक अथवा आर्थिक दृष्टि से उन्होंने बताया कि कम-से-कम खर्चवाली खुराक अन्नाहार ही हो सकती है। मुझ पर इन चारों दृष्टियों का प्रभाव पड़ा और अन्नाहार देने वाले भोजन-गृह में मैं चारों दृष्टिवाले व्यक्तियों से मिलने लगा। विलायत में इनका एक मंडल था और एक साप्ताहिक भी निकलता था। मैं साप्ताहिक का ग्राहक बना और मंडल का सदस्य। कुछ ही समय में मुझे उसकी कमेटी में ले लिया गया। यहां मेरा परिचय ऐसे लोगों से हुआ, जो अन्नाहारियों में स्तंभ रूप माने जाते थे। मैं प्रयोगों में व्यस्त हो गया। घर से मिठाई-मसाले वगैरह जो मंगाए थे, सो लेने बंद कर दिए और मन ने दूसरा मोड़ पकड़ा। इस कारण मसालों का प्रेम कम पड़ गया और जो सब्जी रिचमंड में मसाले के अभाव में बेस्वाद मालूम होती थी, बह अब सिर्फ उबाली हुई स्वादिष्ट लगने लगी। ऐसे अनेक अनुभवों से मैंने सीखा कि स्वाद का सच्चा स्थान जीभ नहीं, मन है। (अगले अंक में जारी)
16 खुला मंच
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एक महान व्यक्ति, एक प्रख्यात व्यक्ति से एक ही बिंदु पर भिन्न हैं कि महान व्यक्ति समाज का सेवक बनने के लिए तत्पर रहता है
– डॉ. भीमराव आंबेडकर
स्वाधीनता संघर्ष की प्रेरणा
गोपालकृष्ण गांधी
अभिमत
महात्माओं की कुलपरंपरा नहीं होती
मैं अदना इंसान हूं। साधारण आदमी। गांधी नाम जरूर लगा है मेरे नाम के साथ। उनके बेटे का बेटा जो हुआ, लेकिन गांधियन नहीं हूं। मुझमें गांधीवाद कतई ना ढिंू ढएगा। वह आपको बाकी कई जगह मिल जाएगा। मुझमें नहीं
पीएम मोदी अकसर देशवासियों को स्वाधीनता के लिए दी गई शहादतों की याद दिलाते हैं और कहते हैं कि जिस आजादी को हमने इतनी कीमत देकर चुकाई है, उस आजाद देश को हर क्षेत्र में अग्रणी बनाना हम सबका कर्तव्य है
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पनिवेशिक दासता का दंश दुनिया के कई देशों ने झेला है, पर भारत ने खुद को इस दासता से मुक्त होने के लिए जो रास्ता अपनाया, वह एक मिसाल है। इस मिसाल में अहिंसक मूल्य के साथ देश के लिए सब कुछ न्योछावर करने की भावना शामिल है। जिस भारत छोड़ो आंदोलन को अंग्रेजों के खिलाफ सबसे निर्णायक आंदोलन के तौर पर देखा गया, उसके गत वर्ष 75 वर्ष पूरे हुए थे। इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहा था कि स्वाधीनता संघर्ष की यह प्रेरणा और उससे जुड़ी भावना आज भी देश के लोगों को निष्ठा और समर्पण की सीख देती हैं। यह प्रेरणा जहां एक तरफ स्वच्छता जैसे मुद्दे पर महात्मा गांधी की सीख की याद दिलाता है, वहीं यह देश को अशिक्षा और गरीबी से मुक्त करने की भी प्रेरणा देता है। इस वर्ष भी प्रधानमंत्री ने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लेने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की है। इस अवसर पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की लिखी एक कविता को ट्वीट के जरिए साझा किया है। इस कविता की शुरुआती पंक्तियां हैं- ‘सुनो प्रलय की अगवानी का स्वर उनवास पवन में।’ यह कविता 1946 में ‘अभ्युदय’ अखबार में छपी थी। यह समाचारपत्र मदन मोहन मालवीय से जुड़ा था। दिलचस्प है कि भारत आज उस दौर में है, जहां एक तरफ उसके आगे ‘न्यू इंडिया’ का विजन है, तो वहीं दूसरी तरफ इतिहास की वह प्रेरणा भी है, जिससे राष्ट्र के प्रति समर्पण और सेवा भाव की प्रेरणा मिलती है। पीएम मोदी अकसर देशवासियों को स्वाधीनता के लिए दी गई शहादतों की याद दिलाते हैं और कहते हैं कि जिस आजादी को हमने इतनी कीमत देकर चुकाई है, उस आजाद देश को हर क्षेत्र में अग्रणी बनाना हम सबका कर्तव्य है।
टॉवर फोनः +91-120-2970819
(उत्तर प्रदेश)
महात्मा गांधी के पौत्र, पूर्व राजनयिक और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल वर्तमान में अध्यापन कार्य
‘ब
ताइए, बताइए! कुछ तो बताइए गांधी जी के पारिवारिक प्रसंग! घरेलू घटनाएं! आप कितने भाग्यवान हैं जो उनके घर में, उन्हीं के परिवार में जन्मे हैं।’ ऐसा मुझे बार-बार कहा गया है, पूछा गया है। मैं उस जिज्ञासा को समझता हूं, उसका आदर करता हूं। और जब पूछने वाला बालक या बालिका हो तो वह प्रश्न, वह निवेदन और बल ले लेता है। उससे मुकरना कठिन हो जाता है। फिर यह तर्क भी जोड़ दिया जाता है-‘हमें उनको देखने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन आपको देख रहे हैं। बस, ऐसा लगता है..।’ यह बात जैसे ही शुरू होती है, मैं उसको वहीं का वहीं रोक देने की चेष्टा करता हूं-‘देखिए, मैं अदना इंसान हूं। साधारण आदमी। गांधी नाम जरूर लगा है मेरे नाम के साथ। उनके बेटे का बेटा जो हुआ, लेकिन गांधियन नहीं हूं। मुझमें गांधीवाद कतई ना ढूंढिएगा। वह
आपको बाकी कई जगह मिल जाएगा। मुझमें नहीं। हां, मैं गांधी का विद्यार्थी जरूर हूं। उनके जीवन से, उनके कथन से प्रभावित...।’ मुझसे कहा जाता है, ‘फिर भी सर, महात्मा जी की ही नस्ल!’ यहां एक और स्पष्टीकरण देता हूं। ‘देखिए, एक और बात! कस्तूरबा और मोहनदास की नस्ल की हम बात कर सकते हैं, लेकिन महात्मा जी की नस्ल की बात ठीक नहीं। अगर कोई गांधी जी को महात्मा मानता है तो फिर उसको यह भी समझ लेना चाहिए कि महात्माओं की कुलपरंपरा नहीं होती। अनुयायी-परंपरा हो सकती है, लेकिन कुल-परंपरा नहीं।’ महात्माओं के कुल के सदस्य उनके अनुयायी बनना चाहें तो बन सकते हैं, न बनना चाहें तो अपने में रह सकते हैं, लेकिन उनका महात्मा के साथ रिश्ता पूर्व- आश्रम का रिश्ता बन जाता है। पूर्व-आश्रम का रिश्ता ओछा नहीं होता। उसमें दिल की धड़कन वैसी की वैसी ही बनी रहती है, लेकिन उसका ‘पोखर’ एक बड़े ‘सागर’ से जुड़ जाता है। मिटता नहीं, पर जुड़ जाता है। ‘सर, हमें बस इस तरह की ही बातें बताएं। एक या दो.. बस!’ अच्छा तो फिर! ऐसा हुआ कि जब कस्तूरबा मेरे पिता (उनकी अंतिम संतान) को जन्म देने वाली थीं, तब वे दोनों (कस्तूरबा और मोहनदास) डरबन, दक्षिण अफ्रीका में थे। प्रसव का दिन आने वाला था। 1900 के मई की बात है। एक अंग्रेज डॉक्टर से बात हुई थी कि सही घड़ी पर उनको बुलाया जाएगा। और एक दाई से भी बात हो गई थी। किंतु घड़ी की अपनी घड़ी होती है। उनके अनुमान से काफी पहले आ गई। ना डॉक्टर आ सके, ना दाई। मोहनदास ऐसी परिस्थिति के लिए तैयार थे। मां ने सिखामन (मां के लिए उपदेश) नाम की एक गुजराती पुस्तिका मोहनदास पढ़ चुके थे। उसमें बारीकी से लिखा हुआ था कि प्रसव में क्या-क्या, कैसे-कैसे करना चाहिए। तीन पुत्रों को पहले जन्म दे चुकी थीं कस्तूरबा खुद, इसीलिए उनको भी प्रसव का अनुभव था। तो फिर, अपनी किताबी समझ का उपयोग करते हुए, ऐन मौके पर, जन्म की घड़ी पर, मोहनदास अपने चौथे पुत्र को अपने हाथों से गर्भगृह से दुनिया में ले आए। देवदास
प्रार्थना में सब आंखें मूदं कर ईश्वर का ध्यान करते या करने की कोशिश करते। बापूजी (ऐसा मैंने सनु ा है) मझ ु े भी आंखें बंद कर प्रार्थना में सम्मिलित होने को कहते थे और मैं ऐसा करता भी था। प्रार्थना के दरमियान बापूजी बीच-बीच में खदु अपनी आंखें खोलकर मेरी ओर देखते, यह चेक करने कि गोपू ने आंखें बंद की हैं या नहीं
15 - 21 अक्टूबर 2018 नाम रखा उस बालक का। ‘हमें यह किस्सा मालूम नहीं था, सर!’ हां, अपने में यह प्रसंग ही जानने लायक है। हमारे देश में मर्द लोग इस तरह का जिम्मा कम ही लेते हैं। पर वह मर्द (मोहनदास) अजीब-ओ-गरीब तो था ही। ‘और कोई इसी तरह की कहानी..!’ ‘कहानी नहीं, हकीकत!’ ‘सॉरी सर, हकीकत!’ तो फिर, वह देवदास भी बालक से युवा हुआ। और उस युवक का भी ब्याह हुआ। अब 1934 की बात है। मोहनदास अब ‘महात्मा’ के नाम से माने जाते थे, और कस्तूरबा, ‘बा’। देवदास की पत्नी, लक्ष्मी मां बनने वाली थीं। मोहनदास ने अपनी पुत्रवधू को पत्र लिखा। कुछ ऐसे शब्दों में, मेमोरी से बता रहा हूं-‘चिरंजीवी लक्ष्मी, गर्भावस्था में धीमी गति से ही चलना। झुकना ठीक नहीं। इजी चेयर पर बैठना ठीक होता है। फर्श पर अगर बैठना हो तो दीवार से सटकर बैठना। दूध पीना। ताजे फल खाना। अगर ऐसा करोगी तो तुम्हारे लिए भी अच्छा होगा और बच्चे के लिए भी। नारंगी और अंगूर गर्भावस्था में बहुत मदद करते हैं। पर याद रखना कि नारंगी के और अंगूर के बीज कतई पेट में न जा पावें।’ वह महात्मा में महात्मा थे इतिहास के लिए। ससुराल में ससुर थे पुत्रवधू के लिए। ‘सर कितने काम की हिदायत दी उन्होंने लक्ष्मी को!’ ‘अच्छा, तो बहुत हुआ घरेलू बातों का बतलाना-सुनना!’ अब इजाजत? ‘सर, सर नहीं! कुछ अपने बारे में। आपकी खुद की यादें!’ ‘मुझे उनकी एक भी याद नहीं। काश! मैं सिर्फ ढाई साल का था 1948 में, जब वे...।’ ‘औरों से तो सुनी होंगी आपने अपनी और अपने दादा की बातें!’ ‘हां...!’ ‘तो बताइए, प्लीज बताइए।’ बिड़ला हाउस, नई दिल्ली में उनकी प्रार्थना सभा हुआ करती थी। 1947-48 की बात है। मैं अपने पिता के साथ जाता था, ऐसा सुना है। तनाव का जमाना था। सांप्रदायिक आग भड़क रही थी। उसके बीच महात्मा जी अपनी प्रार्थना जारी रखते थे। फिर प्रवचन होता था। बड़ी तादाद में लोग- हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब आते थे। बिड़ला हाउस के मैदान में। मैं उनके कुछ पास बैठा दिया जाता था। बिल्कुल पास नहीं, कुछ पास। जिससे कि वे मुझे देख सकें। प्रार्थना में सब आंखें मूंदकर ईश्वर का ध्यान करते या करने की कोशिश करते। बापूजी (ऐसा मैंने सुना है) मुझे भी आंखें बंद कर प्रार्थना में सम्मिलित होने को कहते थे। और मैं ऐसा करता भी था। प्रार्थना के दरमियान बापूजी बीच-बीच में खुद अपनी आंखें खोलकर मेरी ओर देखते, यह चेक करने कि गोपू ने आंखें बंद की हैं या नहीं। और संतोष पाते। प्रवचन के पहले एकत्रित लोगों में चहचहाहट होती थी। स्वाभाविक है। तब बापूजी कहते-‘चुप! सब चुप! शांत हो जाइए, शांत।’ उनके यह शब्द और कहने की मुद्रा मुझे कंठस्थ हो गई थी। और सभा के बाद मैं उनके कमरे में उनके शब्द और उनकी अदा की नकल कर-कर उन्हें हंसाता। ऐसा मैंने सुना है। ‘बताओ, मैंने क्या कहा?’ ‘तूप! तूप! तब तांत हो दाइए...तांत!’ और वे हंसते ना संभलते। ऐसा मैंने सुना है। इससे आगे कुछ भी कहना, याद करना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है। गला बंध जाता है। आंखें भर जाती हैं।
संत विनोबा भावे
प्रसिद्ध आध्यात्मिक संत और भूदान आंदोलन के प्रणेता
सद्भाव की सीख
खुला मंच
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लीक से परे
दुनिया में कहीं भी गलत काम होने पर दुनिया के सब लोग दख ु ी होते हैं। गांधी जी का विचार दुनिया में फैल रहा है। भारत में भी फैल रहा है। बीज बोया गया है, धीरे-धीरे वह उग रहा है
गां
धी जी ने 1909 में ‘हिंद स्वराज’ नामक पुस्तक लिखी थी। वर्ष 1906 में कलकत्ता कांग्रेस में स्वराज का प्रस्ताव पारित हुआ था। उसके पहले हमारे लोग सरकार से प्रार्थना करते थे कि हमें फलां दुख है, उसका आप निवारण कीजिए, लेकिन कांग्रेस ने, दादाभाई नौरोजी ने जाहिर किया कि छुटपुट दुख का निवारण करने से कुछ नहीं होगा। हमारे दुख का अंत तब होगा जब स्वराज आएगा। उसके बाद 1908 में सरकार ने जोरदार दमन किया। उसमें लोकमान्य तिलक जैसे बहुत सारे लोग गिरफ्तार हुए। उस जमाने में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे। वहां से लौटते हुए उन्होंने ‘हिंद स्वराज’ पुस्तक लिखी। उसमें बताया गया है कि हिंद स्वराज का नमूना कैसा होगा? हम लोग जो स्वराज चाहते हैं उसका रूप क्या होगा? उस पुस्तक के अंत में उन्होंने लिखा कि इस प्रकार के स्वराज को पाने के लिए मेरा जीवन समर्पित होगा। इस संकल्प के भगवान साक्षी हैं। यह 1908-1909 की बात है। स्वराज 1947 में मिला। तो 48-49 साल वे लगातार काम करते रहे उसके बाद स्वराज मिला। स्वराज मिलने के बाद हिंदू-मुसलमान झगड़े वगैरह चले। तब महात्मा गांधी स्वराज के उत्सव का अनुभव करने के लिए दिल्ली नहीं गए। वे नोआखाली (पश्चिम बंगाल) वगैरह में घूमते रहे। बाद में जब दिल्ली गए तब वहां उनके खिलाफ बहुत
बड़ा आंदोलन चल रहा था। वे हिंदू-मुसलमानों को एक करना चाहते थे, लेकिन कुछ लोगों को यह मंजूर नहीं था। इसका मतलब यह है कि उन्होंने स्वराज की प्रतिज्ञा 1908 में की और पचास साल उसके पीछे लगे रहे। इस कोशिश में कई दफा देश पीछे हटा, कई बार निरूत्साह भी आया, लेकिन गांधी जी ने अपना प्रयत्न ढीला नहीं होने दिया। यह बहुत बड़ा, आदर्श उदाहरण हमारे सामने है। महात्मा गांधी की मृत्यु के कई वर्ष हो गए, लेकिन हमें लगता है कि आज महात्मा गांधी हमारे बीच हैं और हमसे पूछ रहे हैं कि बच्चों, तुम्हारे सबके लिए हमने चालीस-पचास साल
सारी दुनिया में आज अहिंसा के लिए चाह है। बड़े-बड़े शस्त्रधारी राष्ट्र भी सोच रहे हैं कि शस्त्र से काम नहीं बनेगा, इसीलिए प्रेम और शांति का तरीका सोचना चाहिए। इस प्रकार के विचार दुनियाभर में चल रहे हैं
तक मेहनत की और बहुत परिश्रम के अंत में स्वराज प्राप्त किया तो अब तुम कैसे हो? क्या सब मिलकर, प्रेम से रहते हो, तुम्हारा द्वेषझगड़ा मिट गया है ? जाति-भेद, ऊंच-नीच, भेद सब खत्म कर दिए हैं छूत-अछूत भेद मिटा दिए
हैं, भाषा और धर्म के झगड़े छोड़ दिए हैं और सबसे बड़ी बात यह कि तुम लोगों ने आलस्य छोड़ दिया है? मैंने सिखाया था कि बच्चा-बच्चा सूत काते, एक मनुष्य भी आलसी न रहे, सब काम में लग जाएं। क्या तुम ऐसा करते हो? एक-दूसरे को सहयोग करते हो? भगवान का नाम हमेशा लेते हो? हमने सबको प्रार्थना सिखाई थी, प्रार्थना के स्थान से ही हम परमात्मा के पास गए। तुम लोग भी भगवान का स्मरण करते हो? शराबखोरी आदि व्यसन छोड़ दिए? घर-घर में चरखा रखा होगा और सब सूत कातते होगे ? उस सूत का कपड़ा पहनते होगे ? अदालतों में कभी नहीं जाते होगे? यह सब काम हमने सबको सिखाया था। आपस में न्याय करो और एक-दूसरे की मुसीबतों का समाधान करो। बहनों को पूरी आजादी है कि उन्हें जेल में बंद कर रखा है? हमने कहा था कि बहनों को भाइयों के बराबर काम करना चाहिए। ऐसे कई सवाल वे हमसे पूछते हैं। इनका उत्तर हम क्या दें? वे भारत से बहुत आशा रखते थे। लोग उनको यूरोप, अमेरिका में बुलाते थे, जापान में बुलाते थे, तो वे कहते थे कि भारत में काम पूरा किए बिना मैं वहां कैसे जाऊं ? जो गुण मैं अपने देशवासियों को नहीं समझा सकूंगा, वह बाहर वालों को कैसे समझाऊंगा? इस तरह वे आपसे बहुत आशा रखते थे। गीता और रामायण के वे भक्त थे। निरंतर गीता का परायण करते थे और हमेशा राम-नाम लेते थे। आखिर में भी वे राम नाम लेते हुए ही गए। वे सबको समान प्यार करते थे। चाहे हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, उनके लिए कोई भेद नहीं था। सबको मानव की दृष्टि से देखते थे और आशा करते थे कि भारत सारी दुनिया को रास्ता दिखाएगा। सारी दुनिया में आज अहिंसा के लिए चाह है। बड़े-बड़े शस्त्रधारी राष्ट्र भी सोच रहे हैं कि शस्त्र से काम नहीं बनेगा इसीलिए प्रेम और शांति का तरीका सोचना चाहिए। इस प्रकार के विचार दुनियाभर में चल रहे हैं। इस प्रकार का जहां थोड़ा-सा काम भी होता है वहां समूची दुनिया के लोग उस काम को समझना चाहते हैं। अहिंसा या प्रेम का काम कहीं भी चलता हो तो कुल दुनिया के अच्छे लोगों की उसे जानने की इच्छा होती है। दुनिया में कहीं भी गलत काम होने पर दुनिया के सब लोग दुखी होते हैं। गांधी जी का विचार दुनिया में फैल रहा है। भारत में भी फैल रहा है। बीज बोया गया है, धीरे-धीरे वह उग रहा है।
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फोटो फीचर
15 - 21 अक्टूबर 2018
भारतीय वायुसेना दिवस - 8 अक्टूबर
शौर्य का आकाश
रक्षा के क्षेत्र में हमारी वायुसेना की क्षमता का लोहा पूरी दुनिया मानती है। भारतीय वायुसेना की सामरिक ताकत कितनी बढ़ी है, यह वायुसेना दिवस के अवसर पर खास तौर पर प्रदर्शित किया जाता है। यह देश के लिए अपनी आकाशीय सुरक्षा के प्रति एक तरह से आश्वस्त होने का अवसर होता है। एयर शो का रोमांच कितना ज्यादा होता है, यह तस्वीरों में देखा जा सकता है। वायुसेना के लिए यह अवसर इसीलिए भी खास होता है क्योंकि इस अवसर पर वायुसेना प्रमुख खुद मौजूद रहते हैं और विमानों के करतब के साथ वायुसैनिकों के उत्साहजनक प्रदर्शन को देखते हैं
फोटोः शिप्रा दास
15 - 21 अक्टूबर 2018
फोटो फीचर
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स्वच्छता
15 - 21 अक्टूबर 2018
निकारागुआ
अस्थिर पर स्वच्छता के लिए तत्पर राष्ट्र निकारागुआ जल और स्वच्छता के मामले में अपने समकक्ष कई देशों से काफी आगे है
कारागुआ आज दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहां राजनीतिक अस्थिरता और हिंसा के कारण काफी असामान्य स्थिति है। इस कारण इस देश में लोकतंत्र की नींव अभी उतनी गहरी नहीं हुई है। पर यह भी दिलचस्प है कि इस सबका वहां की स्वच्छता की स्थिति पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा है। सीईए वर्ल्ड फैक्टबुक के आंकड़े बताते हैं कि यह देश जल और स्वच्छता के मामले में अपने समकक्ष कई देशों से काफी आगे है।
जल एवं स्वच्छता
निकारागुआ की शहरी आबादी का 76 फीसदी से ज्यादा हिस्सा उन्नत और सुरक्षित स्वच्छता सेवाओं का लाभ उठा रहा है, तो वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या 55 फीसद से ज्यादा है। स्थिति को बहुत संतोषजनक अगर न कभी कहा जाए तो इसे बहुत विकट स्थिति भी नहीं कहा जा सकता। संयुक्त राष्ट्र के साथ अमेरिका जैसे देश तकनीकी और आर्थिक मदद से निकारागुआ में स्वच्छता की स्थिति बेहतर बनाने में जुटे हैं।
खास बातें 76 फीसदी शहरी आबादी स्वच्छता सेवाओं का लाभ उठा रही है
संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका स्वच्छता के क्षेत्र में निकारागुआ का मददगार
निकारागुआ मध्य अमेरीका के जनतंत्रों में से एक है। इसका झीलों सहित संपूर्ण अनुमानित क्षेत्रफल 57,143 वर्ग मील है। इस राज्य के उत्तर में हॉण्डुरास, पूर्व में कैरिबियन सागर, दक्षिण में कोस्टारिका तथा प्रशांत महासागर स्थित है। कैरिबियन तथा प्रशांत महासागरों की तटरेखाओं की लंबाई क्रमश: 336 तथा 219 मील है। यहां की राजधानी मानागुआ है। स्पेनिश भाषा देश की मुख्य भाषा है। भारतीय बोलियां भी कहीं-कहीं प्रचलित हैं। मसकीटिया तट पर अंग्रेजी का प्रयोग मिलता है। निकारागुआ में रोमन कैथोलिक धर्मावलंबियों की संख्या सर्वाधिक है। इसके बाद प्रोटेस्टैंटों का नंबर आता है।
तीन प्राकृतिक भाग
त्रिभुजाकार निकारागुआ तीन प्राकृतिक भागों में विभक्त है। पहला भाग हॉण्डुरास के उच्च प्रदेश का विस्तार है, जो सबसे बड़ा है। यह संपूर्ण प्रदेश पृथ्वी के वलन एवं भ्रंशन क्रिया से निर्मित है। इसका पश्चिमी भाग ज्वालामुखी पर्वत के उद्गारों से परिपूर्ण है। इसकी ऊंचाई 5,000 फुट तथा 7,000 फुट के मध्य है। पूर्व की ओर ढाल साधारण है। दूसरा भाग मसकीटिया नाम से प्रसिद्ध है, जो अपेक्षाकृत नीचा, चौड़ा तथा तटीय प्रदेश है। निकारागुआ का तटीय प्रदेश अटलांटिक सागर की तरफ अधिक चौड़ा है। कैरिबियन सागर की गर्म तथा भापभरी हवाओं द्वारा तटीय प्रदेश में अत्यधिक वर्षा तथा 20-30 मील दूर स्थित पृष्ठ भागों में वर्षा हल्की हो जाती है। पठारी प्रदेश की जलवायु नम तथा मिट्टी उपजाऊ है। तीसरा भाग यद्यपि क्षेत्रफल में सबसे न्यून है तथापि जनसंख्या की दृष्टि से यह प्रमुख है। इस निचले विभाग का संपूर्ण विस्तार उत्तर-पश्चिम में फौंसेका की खाड़ी तथा दक्षिणपूर्व में कोस्टारिका के मध्य में है। यहां की प्राकृतिक बनावट में मानागुआ तथा निकारागुआ नामक झीलों तथा सान
जुआन नदी घाटी का नाम विशेष उल्लेखनीय है। निकारागुआ झील समुद्रतल से 106 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यह 100 मील लंबी, 45 मील चौड़ी है। मानागुआ झील समुद्र तल से 127 फुट की ऊंचाई पर है। इसकी लंबाई 35 मील एवं चौड़ाई 16 मील है। यहां की कोई प्रसिद्ध नदी प्रशांत महासागर में नहीं गिरती और न ही किसी भी नदी में यातायात सुलभ है।
भूमध्यरेखीय वनस्पति
यहां की प्राकृतिक वनस्पति भूमध्यरेखीय तथा अर्ध भूमध्यरेखीय है। कैरिबियन तट पर जहां अधिक वर्षा होती है, वहां घने जंगल तथा कुछ ही मील दूर उत्तरी ऊष्ण प्रदेश में पतझड़ वाले वन एवं उच्च स्थानों में ओक तथा पाइन वृक्ष के वन पाए जाते हैं। उपर्युक्त दो झीलों के उत्तर-पूर्वी सीमा प्रदेशों में सूखे झाड़ीदार वन हैं। यहां तकरीबन 70 तरह के फलदार वृक्ष उगते हैं, जिनमें 55 या 60 प्रकार
के फल खेतों में उगाए जाते हैं। जीव-जंतुओं में जुगौर, िहरण, बंदर, तोते और मधुमक्खियां आदि प्रमुख हैं। प्रसिद्ध व्यापारिक लकड़ियों महोगनी, गुलाब लकड़ी, एबोनी, गोंद तथा रंग तैयार करने की लकड़ियां यहां पाई जाती हैं।
अमेरिका का व्यापारिक साथ
कैरिबियन सागरतट की तरफ सोने की दो खानें तथा प्रशांत तटीय भागों में कई खानें हैं। खनन कार्य की सबसे बड़ी कठिनाई राज्य का दुर्गम यातायात है। यहां का अधिकांश व्यापार अमेरिका तथा कनाडा की कंपनियों के हाथ में हैं। इसके अतिरिक्त तांबा, सीसा, लोहा, पारा, नमक, चूना, सल्फेट टिन आदि की भी बहुलता है। यहां की जनसंख्या 15,40,655 (1963) थी। संपूर्ण जनसंख्या का करीब 70 प्रतिशत कृषिकार्य में व्यस्त है। यहां की प्रमुख फसल कहवा है, जिसके उत्पादन तथा व्यापार पर द्वितीय महायुद्ध का बहुत बड़ा कुप्रभाव रहा। दूसरी प्रमुख फसल केला है। अन्य फसलों में गन्ना, कपास, नारियल, मक्का तिल आदि हैं।
पेयजल और स्वच्छता स्वच्छ या शोधित शहरी : 99.3% आबादी ग्रामीण : 69.4% आबादी
स्वच्छ व उन्नत शहरी : 76.5% आबादी
कुल : 87% आबादी
ग्रामीण : 55.7% आबादी कुल : 67.9% आबादी
(2015 तक अनुमानित)
(2015 तक अनुमानित)
अस्वच्छ या अशोधित
शहरी : 0.7% आबादी ग्रामीण : 30.6% आबादी कुल : 13% आबादी
अस्वच्छ या पारंपरिक
शहरी : 23.5% आबादी ग्रामीण : 44.3% आबादी कुल : 32.1% आबादी
स्वच्छता सुविधाएं
ग्रामीण क्षेत्रों में यह संख्या 55 फीसद से ज्यादा है
मध्य अमेरिका का लोकतंत्र
पेयजल स्रोत
नि
एसएसबी ब्यूरो
स्रोत : सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक (जनवरी, 2018)
15 - 21 अक्टूबर 2018
अंतरिक्ष का कचरा बटोरेगा आसमानी जाल
अगरतला में इंक्यूबेशन केंद्र खुला
अंतरिक्ष को कचरा मुक्त बनाने के लिए एक जाल पृथ्वी से 300 किलोमीटर से अधिक ऊंचाई पर लगाया गया है
इसरो ने त्रिपुरा की राजधानी अगरतला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में एक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी इंक्यूबेशन केंद्र खोला है
भा
रतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो ने त्रिपुरा की राजधानी अगरतला में एक अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी इंक्यूबेशन केंद्र खोला है। इसका उद्घाटन देश के प्रौद्योगिकी हब कर्नाटक के बेंगलुरु से रिमोट के जरिए किया गया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अध्यक्ष के. सिवन ने कहा कि अगरतला के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) में इसरो स्पेस टेक्नोलॉजी इंक्यूबेशन केंद्र खोला गया है, जो उद्योगों के साथ ही स्टार्टअप को एप्लिकेशन और उत्पादों के निर्माण में मदद
करेगा, जिसका प्रयोग भविष्य के अंतरिक्ष मिशनों में हो सकेगा। सिवन ने यह बातें इंडिया इलेक्ट्रॉनिक्स एंड सेमीकंडक्टर एसोसिएशन (आईईएसए) द्वारा आयोजित 'स्पेक्ट्रॉनिक्स 2018' सम्मेलन के पहले संस्करण में कहीं। आईईएसए इलेक्ट्रॉनिक्स डिजायन और विनिर्माण उद्योग की ट्रेड बॉडी है। 'स्पेक्ट्रॉनिक्स 2018' सम्मेलन का आयोजन भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माताओं के लिए अवसरों पर चर्चा के लिए किया गया। इंक्यूबेशन केंद्र का उद्घाटन सम्मेलन के भाग के रूप में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब द्वारा किया गया। अगले छह महीनों में इसरो ने पांच और इंक्यूबेशन केंद्रों की स्थापना पंजाब के जालंघर, ओडिशा के भुवनेश्वर, महाराष्ट्र के नागपुर, मध्य प्रदेश के इंदौर और तमिलनाडु के त्रिरुचिरापल्ली में करने की योजना बनाई है। (आईएएनएस)
आलसी है हमारा दिमाग
एक सेटेलाइट ने पृथ्वी की कक्षा में एक ब्रिटेजालन कालगाया है जो स्पेस के कचरे को इकट्ठा
करेगा। प्रयोग के तौर पर शुरू की गई यह कोशिश उन प्रयासों का हिस्सा है, जिसके जरिए अंतरिक्ष को कचरा मुक्त बनाने की योजना है। यह जाल पृथ्वी से 300 किलोमीटर से अधिक ऊंचाई पर लगाया गया है। यह समझा जाता है कि करीब साढ़े सात हजार टन कचरा पृथ्वी की कक्षा में तैर रहा है, जो उन उपग्रहों के लिए खतरा है, जिन्हें किसी खास मकसद से लॉन्च किया गया है। जाल के प्रयोग का सेटेलाइट के जरिए वीडियो भी बनाया गया है, जिसमें एक जूते के डिब्बे के आकार के स्पेस कचरे को यह फांसता हुआ दिख रहा है। सरे स्पेस सेंटर के निदेशक प्रोफेसर गुगलाइलमो अगलीती कहते हैं, "जैसी हमलोगों की उम्मीदें थी, यह वैसा ही
कनाडा में यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि व्यक्ति को उसका दिमाग आलसी बनाता है
य
दि आपको कोई भी काम करने में आलस आता है और आप अपने आलस से परेशान हैं तो यह समस्या आपके व्यवहार की बिल्कुल नहीं है, बल्कि यह आपके मस्तिष्क की है। एक नए शोध में पता चला है कि प्राकृतिक तौर पर हमारा मस्तिष्क आलसी होने के लिए ही बना है। दशकों से समाज लोगों को शारीरिक रूप से ज्यादा
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विज्ञान
सक्रिय बनने को प्रेरित करता रहा है, लेकिन आंकडे़ बताते हैं कि अच्छे इरादे होने के बावजूद हम कम सक्रिय हो रहे हैं। कनाडा में यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया के शोधकर्ताओं ने इसे समझने के लिए मस्तिष्क का अध्ययन किया। यूबीसी में शोधकर्ता मैथ्यू बोइसगोंटियर कहते हैं, 'मानव के अस्तित्व के लिए ऊर्जा का संग्रह जरूरी है क्योंकि यह हमें
भोजन और सुरक्षित स्थान की तलाश, साथी के लिए प्रतिस्पर्धा और शिकारियों से सुरक्षा के लिए अधिक दक्ष बनाता है।' 'न्यूरोसाइकोलॉजिया' पत्रिका में प्रकाशित स्टडी के वरिष्ठ लेखक बोइसगोंटियर ने बताया, 'शारीरिक निष्क्रियता से निपटने में सार्वजनिक नीतियों की असफलता मस्तिष्क की प्रकिया के कारण हो सकती है जो क्रमागत उन्नति में विकसित हुई है।' अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने युवा वयस्कों को चुना, उन्हें कंप्यूटर के सामने बैठाया और उनमें होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया। उन्हें छोटी-छोटी तस्वीरें दिखाई गईं, जिसमें शारीरिक सक्रियता और असक्रियता को दर्शाया गया था। बोइसगोंटियर ने कहा, 'हम
काम कर रहा है।" "आप साफतौर पर देख सकते हैं कि यह कैसे जाल में फंसा। हम लोग किए गए इस प्रयोग से खुश हैं।" यह महज एक प्रयोग था, जिसमें एक जूते के डिब्बे के आकार के कचरे को दूसरे सेटेलाइट से पृथ्वी की ओर गिराया गया था, जिसे बाद में जाल में फांसा गया। अगर वास्तव में ऐसा हो पाएगा तो कचरे को फांसने के बाद सेटेलाइट की मदद से जाल इसे पृथ्वी की कक्षा से बाहर कर देगा। पृथ्वी की कक्षा में तैर रहे कचरे को हटाने की बात होती रही है। कई प्रयोग भी इस पर चल रहे हैं पर दावा किया जा रहा है कि यह पहली दफा है जब इस तरह का सफल प्रयोग किया गया है। जल्द ही अब इस कोशिश के तहत दूसरे चरण का प्रयोग किया जाएगा, जिसमें एक कैमरा लगाया जाएगा जो स्पेस के वास्तविक कचरे को कैद कर सके, ताकि उन्हें हटाना आसान हो। यह उम्मीद की जा रही है कि नए साल की शुरुआत तक इससे और बेहतर तरीके से काम लिया जा सकेगा। पृथ्वी की कक्षा में लाखों टुकड़े तैर रहे हैं। ये टुकड़े पुराने और सेवा से बाहर हो चुके उपग्रहों के अंश और अंतरिक्ष यात्रियों के द्वारा गलती से छूटे कुछ उपकरण हैं। डर यह है कि अगर इन कचरों को हटाया नहीं गया तो यह काम में आ रहे उपग्रहों को क्षतिग्रस्त कर देगा। (एजेंसी) पूर्व के अध्ययनों से जानते थे कि लोग आलसी व्यवहार को दूर करने में तेजी दिखाते हैं और सक्रिय व्यवहार की तरफ बढ़ते हैं।' उन्होंने कहा, 'परिणाम से यह सामने आया कि मस्तिष्क ही आलसी व्यवहार की तरफ आकर्षित रहता है।' तो सवाल यह उठता है कि क्या मनुष्य के मस्तिष्क को फिर से प्रशिक्षित करने की जरूरत है। बोइसगोंटियर कहते हैं, 'कोई भी चीज जो कि स्वतः होता है उसे स्वीकारना मुश्किल होता है, अगर आप उसे चाहते हों तब भी, क्योंकि आपको पता नहीं होता कि वह हो रहा है। लेकिन यह जानना कि यह हो रहा है, महत्वपूर्ण पहला कदम है।' (एजेंसी)
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व्यक्तित्व
15 - 21 अक्टूबर 2018
विलियम वर्ड्सवर्थ
प्रकृति और सौंदर्य का क्लासिक कवि
अंग्रेजी कविता को प्रकृति और प्रेम की तरफ मोड़कर भाषा और शैली का सम्मोहक संसार रचने वाले विलियम वर्ड्सवर्थ आज भी अपनी कविताओं और काव्य लेखन को लेकर अपने मौलिक विचारों के लिए पढ़े और सराहे जाते हैं
वि
एसएसबी ब्यूरो
लियम शेक्सपीयर की ख्याति के कारण अंग्रेजी साहित्य में रहस्य और शोक का प्रभाव काफी बढ़ा। कई आलोचकों की यह भी राय है कि विश्व साहित्य में अगर ट्रेजडी की बात आएगी, तो बाजी अंग्रेजी साहित्य मार ले जाएगा और इसका बहुत बड़ा श्रेय शेक्सपीयर को जाएगा। पर इस छवि को जिन साहित्यकारों ने अपने श्रेष्ठ लेखन के बल पर बदला, उनमें विलियम वर्ड्सवर्थ का नाम प्रमुखता से लिया जाएगा। वर्ड्सवर्थ मूलत: कवि थे। उन्होंने अंग्रेजी साहित्य को रोमांस की वह उड़ान दी, जिसमें बिंब से लेकर भाषा तक को लेकर एक नया सम्मोहन था। यही कारण है कि आज भी उन्हें अंग्रेजी साहित्य में रोमांस का सबसे बड़ा कवि माना जाता है। वे रोमांस को एक क्लासिक ऊंचाई देने में सफल रहे। उनके परिदृश्य और दार्शनिक गीत दुनिया की काव्य विरासत को आज तक धन्य कर रहे हैं।
युगीन प्रभावों के बीच
वर्ड्सवर्थ के कार्यों को युगीन संदर्भ में देखा जाना चाहिए। 18 वीं शताब्दी में अंग्रेजी साहित्य में प्रमुख प्रवृत्ति क्लासिज्म थी। हालांकि सदी के अंत तक
खास बातें विलियम वर्ड्सवर्थ की बहन डोरोथी वर्ड्सवर्थ भी कवयित्री थीं वर्ड्सवर्थ को रोमांस को एक क्लासिक ऊंचाई देने का श्रेय जाता है आत्म-कथात्मक कविता ‘द प्रेल्यूड’ उनके निधन के बाद प्रकाशित हुई
भावुक और रोमांटिक गीतों में बदलाव की प्रवृति भी आई। कई मामलों में यह उस युग की प्रमुख प्रवृतियों द्वारा निर्धारित किया गया था, क्योंकि रूसो के कार्यों ने सामाजिक और राजनीतिक विचारों और साहित्य में सामान्य रूप से एक महान भूमिका निभाई थी। उनके द्वारा जीवन के उदात्त पथ की चर्चा के साथ मानवीय अनुभवों- भावनाओं और व्यक्तित्व के मनोविज्ञान के चित्रण ने उस समय के शिक्षित समाज पर पर बड़ा प्रभाव डाला था। इसके अलावा अंग्रेजी साहित्य में पहले से ही सोनेट, प्रकृति की छवियों और सूक्ष्म अनुभवों वाले गीत बनाने का अनुभव था। शेक्सपीयर, चौसर और मिल्टन लेखन कविता के क्षेत्र में उतरे लोगों को अलग से अधिक प्रभावित कर रहे थे। इन युगीन प्रभावों के साथ वर्ड्सवर्थ ने सैम्युअल टेलर कॉलरिज की सहायता से अंग्रजी सहित्य में गीतात्मक गाथागीत के साथ रोमांस के नए युग का सूत्रपात किया। वर्ड्सवर्थ की प्रसिद्ध रचना 'द प्रेल्यूड' है, जो कि एक अर्ध आत्मचरितात्मक काव्य माना जाता है। इसके साथ ही उन्होंने प्रकृति के सौंदर्य को भाषा देने का अनूठा प्रयोग किया, इस प्रयोग में सौंदर्य और प्रेम जिस तरह गले मिलते हैं, वह अद्भुत है।
परिवार और शिक्षा
जॉन वर्ड्सवर्थ और ऐन कूक्सन के पांंच बच्चों में से दूसरे विलियम वर्ड्सवर्थ का जन्म 7 अप्रैल 1770 को कौकर माउथ, कंबरलैंड, इंग्लैंड के उत्तर पश्चिम क्षेत्र में हुआ था। उनके पिता जेम्स लोथर, अर्ल ओफ लोन्स्डेल के कानूनी प्रतिनिधि थे और अपने संपर्क और योग्यता के बूते छोटे शहर में बड़ी हवेली में रईसी के साथ रहते थे। उनकी मृत्यु 1783 में हुई थी। वर्ड्सवर्थ के पिता अक्सर व्यापार के सिलसिले में घर से बाहर रहते थे, हालांकि वे बेटे को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे। वर्ड्सवर्थ को विशेष रूप से मिल्टन, शेक्सपीयर और स्पेंसर का साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित किया गया था। इसके अतिरिक्त उन्हें पिता के पुस्तकालय का उपयोग करने की भी पूरी छूट थी। वर्ड्सवर्थ के चार भाई-बहन थे। डोरोथी वर्ड्सवर्थ, जिसके वे सबसे ज्यादा करीब थे, वह
वर्ड्सवर्थ की प्रसिद्ध रचना 'द प्रेल्यूड' है, जो कि एक अर्ध आत्मचरितात्मक काव्य माना जाता है। इसके साथ ही उन्होंने प्रकृति के सौंदर्य को भाषा देने का अनूठा प्रयोग किया, इस प्रयोग में सौंदर्य और प्रेम जिस तरह गले मिलते हैं, वह अद्भुत है एक कवयित्री थीं। सबसे ज्येष्ठ रिचर्ड वकील थे और जहाज के कप्तान थे। क्रिस्टोफर कैंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में पढ़ाते थे। वर्ड्सवर्थ की मां की मृत्यु के बाद 1778 में उनके पिता ने उन्हें हॉक्शीड ग्रामर स्कूल, काशायर (अब कंब्रिया में) और डोरोथी को यॉर्कशायर में रिश्तेदारों के साथ रहने भेज दिया था। वह और वर्ड्सवर्थ नौ सालों तक एक दूसरे से नहीं मिल पाए थे।
साहित्य में दस्तक
वर्ड्सवर्थ नें साहित्य के क्षेत्र में अपनी शुरुआत 1787 में की जब एक यूरोपीय पत्रिका में उनकी कविता प्रकाशित हुई। उसी वर्ष वे सेंट जॉन्स कॉलेज, कैंब्रिज जाने लगे और 1791 में उन्हें बीए
की डिग्री प्राप्त हुई। पहले दो साल की गर्मियों की छुट्टियों के लिए वे हॉकशीड लौट आते थे और वहां की सुंदर प्रकृति के बीच अपनी छुट्टियां बिताते थे। 1790 में उन्होंने यूरोप की पैदल यात्रा की। फिर विस्तृत रूप से आल्प्स, फ्रांस, स्विट्जरलैंड और इटली के आसपास के इलाकों की यात्रा की। 18वीं शताब्दी के अंत में कवियों की शैली रूढ़ और निरूपयोगी हो गई थी। वर्ड्सवर्थ ने तो परंपरागत भाषा-शैली का और भी तीव्र विरोध किया। आधुनिक युग में जिस प्रकार टी.एस. इलियट और एजरा पाडंड ने बोलचाल की भाषा के प्रयोग का समर्थन किया, वैसे वर्ड्सवर्थ ने अपनी प्राकृतिक और स्वाभाविक भाषा शैली का समर्थन किया। वर्ड्सवर्थ काव्यगत युक्तियों, मानवीकरण, वक्रोक्ति
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व्यक्तित्व
वर्ड्सवर्थ की पसंदीदा झील की नीलामी
इंग्लैंड में एक खास झील है, जो वर्ड्सवर्थ को बेहद पसंद थी। जब इस झील के ईबे पर बिकने की खबर आई तो लोग चौंक गए 18वीं सदी के कवि विलियम वर्ड्सवर्थ की कविताएं दुनियाभर में आज भी मशहूर हैं। इंग्लैंड में एक खास झील है जो उन्हें बेहद पसंद थी और उनकी प्रेरणा का एक स्रोत बताई जाती है। कुछ वर्ष पहले जब इस झील के ईबे पर बिकने की खबर आई तो लोग चौंक गए। दरअसल, एस्थवेट वाटर झील का मालिकाना हक नाइजल वुडहाउस नाम के एक व्यक्ति के पास है। 280 एकड़ की यह झील और वहां बनी बाकी चीजें उन्होंने बेचने का इरादा कर लिया क्योंकि उनकी रिटायरमेंट की उम्र तथा पौराणिक दंत कथाओं, भावाभास आदि को काव्य के लिए उपयुक्त नहीं मानते थे।
शैली और भाषा का नया संसार
18वीं सदी में नव-अभिजात्यवादी युग में भाषा के निम्न और उच्च दो रूप प्रचलित थे। दैनिक जीवन की भाषा को निम्न कहा जाता था, दूसरी उच्च भाषा जो कृत्रिम, बोझिल और आडंबरपूर्ण हो गई थी वर्ड्सवर्थ ने इसका त्याग किया। स्वछंदतावादी कवि विलियम वर्ड्सवर्थ के काव्य रचना संबंधी विचार विशेष रूप से इनके ‘प्रिफेस टु लिरिकल
वर्ड्सवर्थनामा
जन्म: 7 अप्रैल 1770, कौकरमाउथ, कंबरलैंड, इंग्लैंड निधन: 23 अप्रैल 1850, कंबरलैंड, इंग्लैंड विधाएं: अंग्रेजी कविता और काव्य भाषा विमर्श मुख्य कृतियां: साईमन ली, वी आर सेवन, लाइंस रिटर्न इन अर्ली स्प्रिंग, लाइंस क्म्पोज्ड ए फ्यू माइल्स एबव टिंटर्न अवे, द सोलिटरी रीपर, लंदन 1802, वर्ल्ड इज टू मच विद अस, माई हार्ट लीप्स अप, डेफोडिल्स (आई वांडर्ड लोनली ऐज अ चाइल्ड), द प्रेल्यूड, गाइड टू द लेक्स
नजदीक आ रही थी। इसकी कीमत तीन लाख पाउंड बताई गई, जिसमें बोट हाउस, दुकान और एक अन्य इमारत शामिल है। इस झील का जिक्र वर्ड्सवर्थ की कविता में आता है। इसे बेचने के लिए ऑनलाइन विज्ञापन दिया गया। बैलेउस’ में प्राप्त होते हैं। वर्ड्सवर्थ के विचार नए और मौलिक तो थे ही, पूर्ववर्ती विचारों से भी अलग थे। जिन कुछ बातों पर उन्होंने खासतौर पर जोर दिया, वे हैं- अच्छी कविता जोरदार भावनाओं की सहज और स्वतः स्फूर्त उद्गार होती है। - कविता के लिए विषय भी महत्त्वपूर्ण। - काव्य में जनसामान्य में प्रचलित भाषा के प्रयोग पर बल। - अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हो पर यांत्रिक ढंग पर उनकी भरमार नहीं। - कवि की दृष्टि में मानव और प्रकृति तत्त्वतः एक दूसरे के लिए ही हैं और मानव मन, प्रकृति के सुंदर और रोचक गुणों का दर्पण है। इसी प्रकार कविता ज्ञान का सूक्ष्म तत्त्व और उसका प्राण-वायु है। ज्ञान का आरंभ और अंत कविता ही है। इस प्रकार वर्ड्सवर्थ के काव्य संबंधी विचार भावुकतापूर्ण होते हुए भी व्यावहारिक और तत्त्वपूर्ण हैं। अन्य काव्य तत्त्वों की भांति ही भाषा के विषय में भी वर्ड्सवर्थ ने कृत्रिमता एवं जटिलता की अपेक्षा भाषा के सारल्य तथा स्वाभाविकता से ओत-प्रोत रूप का ही समर्थन किया। यही कारण है कि उन्होंने गद्य भाषा का भी पक्षपात किया है।
भाषा में सरलता के हिमायती
वर्ड्सवर्थ भाषा में सरलता के पक्ष में तो वे किंतु उनका यह मत बिल्कुल नहीं था कि काव्य भाषा ग्राम्यता के दोष से दूषित और अटपटी हो। वर्ड्सवर्थ ने स्पष्ट किया कि जो कवि जन-सामान्य के लिए काव्य सर्जन में प्रवृत होता है, उसे कभी भी कृत्रिम एवं कल्पित भाषा की छूट नहीं दी जा सकती। वे यह भी मानते थे कि यद्यपि कवि विशुद्ध रूप से जन
आधुनिक युग में जिस प्रकार टीएस इलियट और एजरा पाडंड ने बोलचाल की भाषा के प्रयोग का समर्थन किया, वैसे वर्ड्सवर्थ ने अपनी प्राकृतिक और स्वाभाविक भाषा शैली का समर्थन किया भाषा में कविता नहीं कर सकता, फिर भी उसे काव्य भाषा का चयन जनभाषा से करके ही सदा उससे निकट का संबंध स्थापित रखना चाहिए। चुनाव करते समय काव्य के लिए आवश्यक परिमार्जन एवं परिवर्तन का अधिकार तो उसे रहता ही है। वर्ड्सवर्थ का मानना था कि ग्रामीण अपनी निम्न स्थिति के कारण सामाजिक गर्व से मुक्त होकर सरल स्वाभाविक अभिव्यक्ति करते हैं। उनकी वाणी में सच्चाई तथा भावों में सरलता होती है। गद्य-पद्य में या गद्य और छन्दोबद्ध रचना में कोई तात्विक भेद नहीं हो सकता। वर्ड्सवर्थ की भाषा संबंधी इस अतिवादी मान्यता का परंपरा तथा वास्तविकता के साथ स्पष्ट विरोध है। गद्य-पद्य का अंतर केवल छंद के कारण नहीं होता, अपितु वाक्य विन्यास, पद चयन आदि के कारण होता है। वे मानते थे कि प्राचीन कवियों ने वास्तविक घटनाओं से जन्म लेने भावों का आधार लेकर काव्य रचना की। चूंकि उनकी अनुभूति और भाव प्रबल थे, इसलिए सहज ही उनकी भाषा प्रभावी और अलंकृत हो गई। बाद के कवि यश की कामना से काव्य रचना करने लगे, जिससे भाषा में कृत्रिमता आ गई। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथ में जाकर भाषा जटिल, कृत्रिम और वागडिम्बयुक्त हो गई।
ऐसी भाषा को वर्ड्सवर्थ ने त्याज्य बताया।
राजकवि
वर्ड्सवर्थ को 1838 में डरहम विश्वविद्यालय से सम्मान स्वरूप सिविल लॉ की डिग्री प्राप्त हुई। इस साल ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से भी उन्हें वही सम्मान प्राप्त हुआ। 1842 में सरकार ने उन्हें अलग से सम्मानित किया। 1843 में वे रॉबर्ट सौदी की मृत्यु के बाद राजकवि बन गए। प्रारंभिक रूप से उन्होंने यह कहते हुए कि वे बहुत बूढ़े हैं, यह सम्मान लेने से इनकार कर दिया था। पर ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री रॉबर्ट पील के मनाने पर उन्होंने यह सम्मान स्वीकार कर लिया था।
‘द प्रेल्यूड’
विलियम वर्ड्सवर्थ कि मृत्यु 23 अप्रैल 1850 को गंभीर बीमारी से हुई। उनकी मृत्यु के कुछ महीने बाद, उनकी पत्नी मैरी ने उनके द्वारा लिखी गई आत्म-कथात्मक कविता ‘द प्रेल्यूड’ को प्रकाशित किया। 1850 में यह कविता शुरुआती तौर पर लोगों पर अपना प्रभाव छोड़ने में विफल रही। हालांकि अब यह कविता उनकी श्रेष्ठ रचनाओं में एक मानी जाती है।
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संस्था
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केयरवर्क्स फाउंडेशन
बच्चों के लिए बेहतर कल का निर्माण खास बातें
केयरवर्क्स फाउंडेशन बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए कर्यारत है स्वस्थ व शिक्षित श्रमिकों को आजीविका प्रदान कर रहा है ‘डब्लूएएसएच’ (वाश) के बिना कोई स्कूल बेहतर नहीं बन सकता
केयरवर्क्स फाउंडेशन समाज के कमजोर वर्ग के लिए एक शिक्षित, स्वस्थ और स्थायी भविष्य सुनिश्चित करने के लिए अथक काम कर रहा है
‘को
स्वास्तिका
ई भी संगठन अपने इकोसिस्टम के लिए बेहतर काम और बेहतर जीवन के बिना अस्तित्व में नहीं हो सकता है’ - इन शब्दों को अपने दिमाग में रखते हुए और इसी दृष्टि के साथ आगे बढ़ते हुए, केयरवर्क्स फाउंडेशन (सीडब्ल्यूएफ) हमेशा समाज के लिए सबसे बेहतर कार्य के साथ आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है। कुछ भी देना सिर्फ दान नहीं है। यह एक बड़ा अंतर पैदा करने जैसा है। शिक्षा और स्वास्थ्य उस अंतर को लाने का सबसे बेहतर तरीका है। विकास के इन दो स्तंभों पर ध्यान देकर, सीडब्ल्यूएफ का लक्ष्य एक स्वस्थ और शिक्षित कार्यबल का निर्माण करना है और इस प्रकार समाज में हाशिए पर रह रहे वर्गों के लिए एक स्थायी आजीविका प्रदान करता है। 43 सरकारी स्कूलों का समर्थन किया गया, 8188 बच्चों को लाभ हुआ, 1 9 5 स्कूल शौचालयों का नवीनीकरण, 257 शिक्षक शामिल हुए, 10976 शिक्षा किट वितरित की गईं, 497
मेधावी छात्रों को छात्रवृत्ति के माध्यम से सहायता मिली, 11792 लोगों को सक्रिय हेल्थकेयर सपोर्ट मिला, 11 कंप्यूटर प्रयोगशाला बनाई गईं – केअरवर्क्स की समर्पित टीम चुपचाप अपना काम कर रही है, जबकि इन संख्याओं के माध्यम से उसकी सफलता की कहानी सबके सामने है। महात्मा गांधी ने कहा था, ‘खुद को खोजने का सबसे अच्छा तरीका है कि दूसरों की सेवा में खुद को खो देना’ और केयरवर्क्स इसका पालन कर रहा है।
एक पहल
सीडब्ल्यूएफ एक गैर-सरकारी संगठन पहल और एक बेंगलुरू स्थित व्यापार सेवा समूह, क्वेस कॉर्प
केयरवर्क्स फाउंडेशन इस विश्वास से प्रेरित है कि समाज के विकास में तेजी लाने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य दो प्रमुख स्तंभ हैं
लिमिटेड की सीएसआर शाखा है, और जनवरी 2014 में परिवर्तन के मुख्य स्रोत के रूप में कार्य करने और बेहतर जीवन देने के उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई। यह इस विश्वास से प्रेरित है कि समाज के विकास में तेजी लाने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य दो प्रमुख स्तंभ हैं। स्थापना की शुरुआत से ही, सीडब्ल्यूएफ स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा पर केंद्रित है और इसका उद्देश्य स्वस्थ और शिक्षित कार्यबल का निर्माण करना है। इसके साथ ही, यह समाज के हाशिए पर रह रहे वर्गों के लिए एक स्थाई आजीविका प्रदान करने की कोशिश करता है।
360-डिग्री दृष्टिकोण
सीडब्ल्यूएफ का उद्देश्य प्रत्येक स्कूल की स्मस्याओं के लिए समग्र समाधान प्रदान करना है। इसके लिए फाउंडेशन पहले अध्ययन करती है और उनमें से प्रत्येक में कमियों और आवश्यकताओं की जांच करती है। उसके बाद स्कूलों में शौचालयों, बैठने की जगहों, किताबों के लिए अलमारी, दोपहर के भोजन के लिए बर्तन, कंप्यूटर प्रयोगशालाओं,
पुस्तकालयों और शिक्षकों जैसे बुनियादी ढांचे के साथ सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। सिर्फ इतना ही नहीं, सीडब्ल्यूएफ अन्य संस्थानों के साथ नेटवर्क बनाकर इन स्कूलों को शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद करने के लिए, उन्हें अपने संसाधनों का उपयोग करने के लिए भी प्रोत्साहित करता है। इन विद्यालयों में किए गए कार्यों और उसके प्रभाव को व्यक्तिगत रूप से, क्वेस कॉर्प के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक अजित आइजाक द्वारा जांचा जाता है। अजित समाज के लिए कुछ बेहतर करने और उसे कुछ वापस देने को लेकर बहुत समर्पित हैं। केयरवर्क फाउंडेशन की स्थापना में वह महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आइजक कहते हैं, ‘मैं स्कूलों में जाता हूं, शिक्षकों और बच्चों के साथ उनके मुद्दों को समझने के लिए समय बिताता हूं और देखता हूं कि क्या हमने कोई फर्क पैदा किया है। हम तीन चीजों के आधार पर प्रभाव को मापते हैं – उपस्थिति, अकादमिक प्रदर्शन और शिक्षण की गुणवत्ता।’
संयुक्त निधि में बहुत कुछ
सीडब्ल्यूएफ के 360 डिग्री दृष्टिकोण का मतलब है कि फाउंडेशन देखभाल करने के लिए अपनी संयुक्त निधि से हर समय तैयार रहता है। शिक्षा किट सुनिश्चित करने से लेकर बच्चों के लिए जीवन कौशल बढ़ाने और स्कूल में वृद्धि से लेकर उचित स्वच्छता तक - सीडब्ल्यूएफ ने इस सब को अपने अंतर्गत ले लिया है। आइजक कहते हैं, ‘इस तरह की पहल समुदायों को कुछ वापस देने की हमारी प्रतिबद्धता की पुष्टि करती है। समाज के विकास में तेजी लाने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य दो प्रमुख स्तंभ हैं और हमने समुदाय विकास को प्रोत्साहित करने के लिए इनके तहत कई छोटे तत्वों की पहचान भी की है। हमें कर्नाटक सरकार से बहुत ही उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली है और आगे बढ़ने हुए हमने कई और स्कूलों को सूचीबद्ध किया है।’
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संस्था अजित आइजाक
निस्वार्थ मदद करने वाले इंसान सीडब्ल्यूएफ की विभिन्न पहलें इस प्रकार हैं: स्कूल संवर्धन: यह प्रमुख पहल भौतिक विद्यालय बुनियादी ढांचे को इस तरह से बनाती है, जो बच्चों के बीच स्कूलों के आकर्षण को बढ़ा देता है, उन्हें नियमित रूप से कक्षाओं में भाग लेने और उन्हें सीखने के के लिए प्रोत्साहित करती है। सरकारी स्कूलों में आधारभूत विकास के लिए नवीनीकरण एक महत्वपूर्ण पहलू है। शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए सरकारी स्कूलों के साथ काम करना उद्देश्य है। सीडब्ल्यूएफ की मुख्य चिंता स्थाई विकास की प्राप्ति है जिसमें बच्चों, शिक्षकों और समुदाय सकारात्मक गतिविधियों के माध्यम से शामिल हों। जिससे उचित दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक कल्याण सुनिश्चित हो सके। छात्रवृत्ति: सीडब्ल्यूएफ छात्रवृत्ति भारत में मेधावी छात्रों को आर्थिक रूप से सहायता करती है, जिससे कि वे अपनी पसंद की स्ट्रीम और संस्थान में उच्च शिक्षा ले सकें। 2014 से छात्रवृत्ति ने लगभग 490 छात्रों को लाभान्वित किया है, इनमें लड़कियां प्रमुख अधिक लाभान्वित हुईं हैं। यह छात्रवृत्ति भारत के युवाओं के उनके संबंधित क्षेत्रों में सामर्थ्य को दिखाती है। शिक्षा किट: शिक्षा एक विलासिता नहीं है, यह एक आवश्यकता है। वित्तीय संसाधनों की अनुपलब्धता के परिणामस्वरूप, बहुत से परिवार अपने बच्चे की शिक्षा के लिए आवश्यक मूलभूत चीजें नहीं जुटा पाते हैं। केयरवर्क फाउंडेशन छात्रों और उनकी शिक्षा के बीच इस तरह की बाधाओं पर काबू पाने और उन्हें ज्ञान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अधिकार प्राप्त करने में मदद करने का प्रयास करता है। शिक्षा किट को अकादमिक वर्ष की शुरुआत में सालाना वितरित किया जाता है और इसमें स्कूल बैग, नोट बुक, स्टेशनरी, जूते इत्यादि शामिल होते हैं। यह बच्चों को सम्मान के साथ स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करता है और स्कूल में उनकी उपस्थिति बढ़ाता है। स्वास्थ्य शिविर: स्वास्थ्य जांच शिविर के माध्यम से सीडब्ल्यूएफ पहले उन बच्चों की पहचान करता
महात्मा गांधी ने कहा था, ‘खुद को खोजने का सबसे अच्छा तरीका है कि दूसरों की सेवा में खुद को खो देना।’ और केयरवर्क्स इसका पालन कर रहा है है जो या तो किसी भी टीका से बचने योग्य संक्रामक बीमारियों से पीड़ित हैं या उन्हें मूल टीका नहीं दिया गया है और फिर इन बच्चों का आगे का इलाज किया जाता है। सीडब्ल्यूएफ स्कूलों के बच्चों के बीच सामान्य स्वास्थ्य, सामान्य त्वचा की स्थिति, दंत और आंखों की जांच-पड़ताल करवाता है। वित्तीय वर्ष 2016-17 में, सीडब्ल्यूएफ स्वास्थ्य कार्यक्रमों में 2,000 बच्चे शामिल थे और प्रमुखता से उनके दांतों की समस्याओं का इलाज किया गया। जीवन कौशल: जीवन कौशल के बारे में बच्चों को शिक्षित करना उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना उन्हें किताबी ज्ञान देना। यह बच्चों के भीतर अनुकूल और सकारात्मक व्यवहार की क्षमताओं को विकसित करता है, जो व्यक्तियों को रोजमर्रा की जिंदगी की मांगों और चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटने में सक्षम बनाता है। वे मनोविज्ञान-सामाजिक कौशल का प्रतिनिधित्व करते हैं जो सम्मानित आचरण दिखाते हैं और स्वयं में चिंतनशील विचारों सहित जागरूकता समाहित करते हैं। इसके लिए, सीडब्ल्यूएफ क्षमता निर्माण कार्यक्रम के माध्यम से सरकारी स्कूलों में काम कर रहे शिक्षकों को प्रशिक्षित करता है, इस प्रकार स्कूलों के अंदर ही मानव संसाधन का निर्माण होता है। ये शिक्षक आगे इस ज्ञान को बच्चों को प्रदान करते हैं, जिससे कि उनके व्यक्तिगत जीवन, स्कूल, परिवार और सामाजिक क्षेत्रों में सकारात्मक परिवर्तन दिखाई देता है।
वॉश सबसे महत्वपूर्ण है
उचित जल, स्वच्छता और हाइजीन (वॉश) सुविधाओं तक पहुंच के बिना किसी भी बच्चे को 100 प्रतिशत शिक्षित नहीं किया जा सकता
कॉर्प के एमडी और चेयरमैन, अजित क्वेसआइजाक के द्वारा ही केअरवर्क्स के बीज
बोए गए। आइजाक एक बेहद संवेदनशील और पहली पीढ़ी के उद्यमी हैं, साथ ही वह एचआर के अपने पीजी कोर्स में स्वर्ण पदक विजेता रहे और लीड्स विश्वविद्यालय से ब्रिटिश चेवेनिंग विद्वान हैं। आइजाक याद करते हुए कहते हैं, ‘पहले, मैं लोगों की सहायता तभी करता था, जब वे मुझसे संपर्क करते थे। फिर धीरे-धीरे मुझे एहसास हुआ कि एक बेहतर व्यवस्था अगर हो, तो मुझ तक अधिकतर लोग पहुंच सकते हैं, इससे अधिक लोगों के जीवन में बदलाव आएगा और मेरे प्रयासों में सरकार भी शामिल हो सकेगी।’ और इस प्रकार, 2014 में केयरवर्क की शुरुआत हुई। अपने कर्मचारियों को शराब से है। खराब हाइजीन के साथ सुरक्षित जल और स्वच्छता सेवाओं के लिए अपर्याप्त पहुंच, हर दिन हजारों बच्चों को खत्म और बीमार कर रही है। यह हजारों लोगों को गरीबी और कम अवसरों की ओर धकेल रहा है। बच्चों (विशेष रूप से लड़कियों को) को शिक्षा का अधिकार नहीं मिल पाता है, क्योंकि उनके स्कूलों में निजी और बेहतर स्वच्छता सुविधाओं की कमी है। जल आपूर्ति और स्वच्छता के लिए डब्ल्यूएचओ/यूनिसेफ द्वारा संयुक्त निगरानी कार्यक्रम (जेएमपी) के अनुमानों के मुताबिक, दुनिया की 32 प्रतिशत आबादी (2.4 बिलियन लोग) की बेहतर स्वच्छता सुविधाओं तक पहुंच नहीं है और 663 मिलियन लोगो ने 2015 में अशोधित स्रोतों से पेयजल का उपयोग किया। इन भयानक आंकड़ो से अवगत और समाज के विकास के लिए (विशेष रूप से स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए) वॉश के अत्यधिक महत्व के प्रति जागरूक होकर, सीडब्ल्यूएफ ने अपने अपनाए हुए स्कूलों में पानी, स्वच्छता और हाइजीन पर विशेष ध्यान दिया है। पानी: सीडब्ल्यूएफ यह सुनिश्चित करता है कि हर स्कूल में शुद्ध पानी पहुंचे और बच्चों को पीने के लिए शुद्ध पानी ही दिया जाए।
मुक्ति में सहायता करने, उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्याओं को हल करते हुए, आइजाक लगातार कम आय वाले परिवारों की शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं में अपने अथक प्रयासों से मदद कर रहे हैं। परिचालन दक्षता और व्यावसायिक विकास पर उनके ध्यान के साथ संयुक्त मूल्य-संवर्धन और परिवर्तनीय सौदों की पहचान करने में आइजाक की विशेषज्ञता ने क्वेस कॉर्प को बेहतर काम करने और तेजी से आगे बढ़ने में मदद की है। उनके मार्गदर्शन में, फाउंडेशन ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में बेहतर काम करने में सफल रहा है और आज 8,000 से अधिक छात्रों को 40 से अधिक स्कूलों में मदद कर रहा है। आइजाक अब गरीब किसानों को शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और आवास सुविधाएं प्रदान करने की कोशिश कर रहे हैं। स्वच्छता: सीडब्ल्यूएफ द्वारा अपनाए गए प्रत्येक स्कूल में स्वच्छ शौचालय होते हैं, जो लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग हैं। इन्हें पहले पुनर्निर्मित किया गया, फिर फाउंडेशन द्वारा लगातार इनकी देख-रेख की जाती है। हाइजीन: हाथ धोना, सूक्ष्म जीवों के प्रसार को नियंत्रित करने और संक्रमण के विकास को रोकने के सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। सीडब्ल्यूएफ का यह प्रयास है कि 10-12 छात्रों के लिए एक ही समय में एक जगह हाथ धोने के लिए पर्याप्त सुविधा प्रदान कर दी जाए। हाथ धोने की जगह सरल और टिकाऊ है और इसमें पानी की कम खपत होती है। शिक्षकों और छात्रों दोनों को उचित तरीके से हाथ धोने की तकनीक बताई जाती है। फाउंडेशन का मानना है, ‘वॉश के बिना, स्थाई स्कूल वृद्धि कार्यक्रम असंभव है।’ सीडब्ल्यूएफ सक्रिय रूप से समुदाय में योगदान दे रहा है, साथ ही स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में लोगों के जीवन में सकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। ऐसा करके, सीडब्ल्यूएफ एक स्वस्थ और शिक्षित कार्यबल का निर्माण कर रहा है, साथ ही समाज के कमजोर वर्गों को लिए सतत आजीविका प्रदान कर रहा है।
26 गांधी के शौचालय से फ्लश टॉयलेट तक
स्वच्छता
15 - 21 अक्टूबर 2018
सुलभ की स्थापना का पचासवां वर्ष शुरु हो चुका है। इन वर्षों में टॉयलेट के क्षेत्र में कितने बदलाव आए, उसका स्वरूप तब से अब तक कितना और कैसे बदला अपने निजी अनुभवों के आधार पर बता रहे हैं संजय त्रिपाठी
अ
गले वर्ष गांधी जी के जन्म के 150 साल हो जाएंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2019 तक देश के सभी घरों में शौचालय बन जाने का लक्ष्य रखा है। आज देश के सभी स्कूलों में शौचालय बन गया है और घरों में बनाए जा रहे है। देश खुले में शौच से मुक्त होने जा रहा है, लेकिन एक समय वह भी था जब खुले में शौच को हम विवश थे। आइए 50 साल पहले की स्थिति से आपको रूबरू कराते हैं। सुलभ का स्थापना वर्ष और मेरे जन्म का वर्ष एक ही है। अगले दो साल में हम दोनों 50 के हो जाएंगे। मेरी नजर में व्यक्ति के अंदर चेतना शायद तब से जागृत हो जाती है जब वह खुद से खाने और शौच के लिए जाने लगता है। मैंने रसोई घर में जाकर खुद से खाना कब शुरू किया यह तो याद नहीं, लेकिन सुलभ में अपनी सेवा देते- देते और सुलभ संस्थापक को सुनते-सुनते वे दिन जरूर याद आ गए जब मैं स्वयं शौचालय जाने लगा था। वैसे मेरा जन्म तो आरा जिला के शाहपुर गांव में हुआ, लेकिन जन्म के कुछ महीने बाद ही मैं डुमरांव आ गया और यहीं मेरी चेतना जागृत हुई। बिहार के बक्सर जिले का डुमरांव। बिस्मिला खां को डुमरांव महाराज के दरबार में शहनाई बजाने वाले दिन भी इसी बहाने याद आ गए। डुमरांव टीचर ट्रेनिंग स्कूल में मेरे पिता स्व. विन्ध्यवासिनी दत्त त्रिपाठी शिक्षक थे। हम वहां शिक्षकों के बने क्वाटर में रहते थे। आंगन के एक कोने में शौचालय। मुझे याद है आंगन को पार कर चार सीढ़ी चढ़ कर हम उसमें जाते थे। पक्की ईटों से बना कच्चा शौचालय। बदबू से भरे उस शौचालय में लोहे की एक बाल्टी और एक लोटा। बैठने के लिए दो पायदान और गड्ढा जिसमें हमारा मल गिरता था। मुझे यह याद नहीं कि उनका नाम क्या था, हां एक महिला थी जो हमारे शौचालय का मैला साफ
करने आती थी। वह भी सप्ताह में तीन दिन। डालडा के टीन में मल लेकर उन्हें नहर के पास फेंकने जाते हुए भी देखा था। आज यह लेख लिखते हुए मुझे उनकी वो आवाज भी याद आ रही है, ‘ऐ मलकिनी कुछ खाए के मिली। ठीक से साफ कर दे ले बानी। आ तनी राख होखे त द। कोयला और कुनाई के चूल्हे पर खाना बनता था और राख एक परात में इसके लिए ही रखा जाता था। शौच साफ करने के बाद वो राख से गीले को सुखाती थी। वो कहां से आती थीं, मैं नहीं जानता। लेकिन हां वो अकसर दोपहर में ही आती थी। उनके लिए एल्युमिनियम की थाली आंगन में ही रखी रहती थी। मां उन्हें उसी थाली में खाना देती थी। मुझे याद आ रहा है कि जब मां उन्हें खाना देती थी या थाली धोने के लिए पानी देती तो वो अपनी साड़ी घुटने तक उठा लेती थी। शायद छुआछूत का उनका कोई अपना अलग ही तरीका हो। हां, मां ने उन्हें कभी बासी खाना नहीं दिया। पूरे कैंपस में शिक्षकों के क्वाटर को छोड़कर और कहीं भी शौचालय नहीं था। प्रशिक्षु शिक्षकों के हॉस्टल, कार्यालय और प्राथमिक विद्यालय में सिर्फ मूत्रालय थे। मूत्रालय क्या एक कोना होता था, जो सिर्फ बरसात के पानी में ही धुलता था। नहीं तो कभी-कभी सिर्फ चूना छिड़क दिया जाता था। कैंपस के पास ही दो नहरें बहती थीं। एक बड़ी नहर तो दूसरी छोटी नहर। डुमरांव महाराज द्वारा निर्मित एक तालाब भी कैंपस के पास ही था। प्रशिक्षु शिक्षक सुबह और शाम नहर किनारे लोटा लेकर जाते। स्कूल के बच्चे भी तालाब के किनारे बैठ जाते थे। घर के बदबूदार शौचालय में मुझे उल्टी होती
सुलभ का स्थापना वर्ष और मेरे जन्म का वर्ष एक ही है। अगले दो साल में हम दोनों 50 के हो जाएंगे। मेरी नजर में व्यक्ति के अंदर चेतना शायद तब से जागृत हो जाती है, जब वह खुद से खाने और शौच के लिए जाने लगता है थी। मैंने भी स्कूल के बच्चों के साथ कभी-कभी खुले में शौच करने की कोशिश की, लेकिन वह मुझसे हो ना सका। हां कभी-कभार सूअरों का झुंड आता था और शौचालय का मल खाकर उसे साफ कर देता था। कभी-कभी तो उनको भगाना पड़ता था जब कोई शौच के लिए बैठा हो और वे झुंड बनाकर घुस आते थे। डुमरांव से कभी-कभार गांव शाहपुर जाना होता था। गांव में भी वैसा ही शौचालय। वही चार सीढ़ी ऊपर वाला। वही पुरानी-सी लोहे की एक बाल्टी और एक लोटा। गांव का मेरा घर काफी बड़ा है। आंगन, जिसके चारों ओर कमरे और उसके कोने में दो शौचालय। एक महिलाओं के लिए, एक पुरुषों के लिए। बच्चे किसी में चले जाते थे। शौचालय के पीछे बाड़ी। इसी बाड़ी की तरफ शौचालय के मल की निकासी का रास्ता था। बड़का बाबूजी का परिवार तब गांव में ही रहता था। छठ या गर्मी की छुट्टियों में हमारा पूरा परिवार जुटता था। शौचालय साफ करने वाली जब आती तो पीछे की गली से आवाज देती, ‘मलकिनी केवाड़ी खोलीं।’ बड़की माई उसकी आवाज पहचानती थी और घर के किसी सदस्य को कहती, ‘खड़ी के दरवाजा खोल द मेहतरानी आइल बाड़ी।’ जब हम सभी जुड़ते तो बड़की माई उस महिला को स्पष्ट कहतीं, ‘ए मेहतरानी एको दिन नागा मत करिह पूरा
परिवार जुटल बा। आ होली कि दिन आ जइह पूआ पूरी लेबे।’ वह भी हां में सर हिला देती। गांव में मैला साफ करने वाली को रोज खाना नहीं मिलता था। महीने में कुछ अनाज दे दिया जाता था। उस समय मेरे गांव के चार-पांच घरों में ही शौचालय हुआ करते थे जिसकी सफाई का जिम्मा उसी का था। उसका परिवार कहां और किस अवस्था में रहता था यह नहीं जान पाया। सच कहूं तो तब उनकी नारकीय जिंदगी को लेकर कोई संवेदना नहीं थी। यह संवेदना आई है सुलभ से जुड़ने के बाद। जब मैं संस्था से जुड़कर ऐसी महिलाओं और उनके परिवार से मिला। मेरा परिवार बहुत बड़ा था। जब हम सभी जुटते थे तो पास में दो कोस पर हमारी बुआ रहती थीं शाहपुर थाना और पोस्ट के अंतर्गत ही आता है सोनवर्षा गांव। बुआ का घर हमारे घर से थोड़ा छोटा था लेकिन वही दलान, आंगन वही, खड़ी या बाड़ी, वही कुंआ, वही चापाकल। लेकिन वहां शौचालय नहीं था। बाड़ी में ही घर की महिलाएं जाती थीं। पुरुष भागड़,अपने वक्र आकार को छोड़कर नदी जब सीधी हो जाती है यानी भाग जाती है तो वहां भागड़ बन जाता है। एक झील की तरह निर्मित हो जाता है भागड़। हैंडपंप और कुंआ को छोड़कर पानी का सबसे बड़ा स्रोत यह भागड़ ही था। जहां गांव के लोग नित्य क्रियाकर्म से लेकर, कपड़ा धोने
15 - 21 अक्टूबर 2018 और गाय और बैल को पानी पिलाने तक का काम करते थे। हम सोनवर्षा अपनी बुआ के लिए खड़ी में बने शौचालय का प्रयोग करते थे। मेरी बुआ उसे ‘गांधी बाबा का शौचालय कहती थीं। होता यूं था कि दोतीन फीट का एक गड्ढा खोद दिया जाता था और उसमें मल त्याग किया जाता था। जब वह भर जाता तो मिट्टी और पुआल डालकर उसे ढंक दिया जाता था। बाड़ी या खड़ी का आहता होता था। लेकिन इतना खुला-खुला कि जो लोग शहर से यहां आते उन्हें मुश्किल होती। ऐसा ही एक मजेदार वाकया याद आ रहा है। मेरा परिवार देश के अन्य शहरों और विदेशों में रहते हुए भी संयुक्त था। फुफेरी बहन की शादी थी और हम सभी सोनवर्षा में जुटे थे। अमेरिका और कनाडा से मेरे दो चचेरे भाई भी उस शादी में आए थे। उन्हें नहीं पता था कि यहां शौचालय नहीं हैं। शौच के वक्त जब बुआ ने कहा, मेरे यहां तुम्हारे शहरों जैसा शौचालय नहीं है मेरे यहां तो ‘गांधी बाबा’ वाला शौचालय है और जब उसे दिखाया तो वे असमंजस में पड़ गए। दोनों वहां गए तो जरूर, लेकिन जल्द ही लौट पडे़। दो दिन तक ‘गांधी बाबा’ के शौचालय में आते-जाते रहे, लेकिन उन्हें शौच नहीं हो रहा था। तीसरे दिन हम भागड़ में नहाने गए। वे दोनों भाई भी। तभी उन दोनों में से एक भाई को शौच महसूस हुआ और उसने डुबकी लगाकर शौच कर दी। शौच करने और डुबकी लगाने के बाद जब वे पानी से बाहर निकले उनका पूरा शौच उनसे पहले पानी की सतह पर
स्वच्छता
शौच के वक्त जब बुआ ने कहा, मेरे यहां तुम्हारे शहरों जैसा शौचालय नहीं है मेरे यहां तो ‘गांधी बाबा’ वाला शौचालय है और जब उसे दिखाया तो वे असमंजस में पड़ गए था और उनके निकलते ही उनके सर पर। फिर तो उसी भागड़ में पाखाना और उल्टी दोनों ही किया। उनकी तबियत खराब हो गई और बिना शादी देखे वे पटना लौट गए। गांव डुमरांव के कच्चे शौचालय और ‘गांधी बाबा’ के शौचालय के बाद हमने तीसरा शौचालय बिहार के ही पटना जिला के विक्रम में देखा। बाबूजी
महिलाओं की आंखों में 'पानी' ने लाई चमक
का तबादला डुमरांव से विक्रम हो गया था। यहां के टीचर ट्रेनिंग स्कूल में हमें गेस्ट हाउस वाला र्क्वाटर मिला था और पूरे कैंपस में एक मात्र यही क्वाटर था जिसमें फ्लश वाला टॉयलेट था। टूटा हुआ फ्लश। मल बहाने के लिए वही बाल्टी, वही लोटा। लेकिन मैं बहुत खुश था क्योंकि यहां बदबू नहीं थी। मां ने उसे एसिड वगैरह से धोकर चमका दिया था। मुझे
27 उत्सुकता थी यह जानने की कि टॉयलेट का शौच जाता कहां है। फिर एक दिन अचानक टॉयलेट जाम हो गया। कितना भी पानी डाला जाता वह निकल नहीं रहा था। पूरा भर गया। दो तीन दिन तक यही स्थिति बनी रही। हमारे आने से पहले वह गेस्ट हाउस काफी दिनों से बंद पड़ा था और टॉयलेट का सिस्टम किसी को पता नहीं। सीवर सिस्टम तो था नहीं और हमें यह भी पता नहीं था कि इसका गड्ढा कहां है। फिर सामने आए रामजीवन जिनके बारे में इसी सप्ताहिक अखबार में मैंने लिखा था कि ‘रामजीवन हमारे लिए अछूत नहीं थे।’ रामजीवन सेंटर के अन्य घरों के कच्चे शौचालय की सफाई करते थे। उन्हें पता था कि शौचालय का गड्ढा कहां है। दो मजदूरों को एक जगह घास छीलने और मिट्टी हटाने का आदेश दिया। घास और मिट्टी हटी, सीमेंट का एक गोलाकार ढक्कन दिखाई दिया। उसे हटाते ही मल और पानी का भरा गड्ढा दिखाई दिया। अब उसे फेंकना था। दारू का पैसा मांगा गया और कंटेनर से उसे निकालकर दूर जाकर फेंका गया। पिफर खपच्ची मार कर उस शौच को निकाला गया जो शौचालय में जाम पड़ा था। इसके बाद हर छह महीने पर यह प्रक्रिया दुहराई जाने लगी। जब तक हम विक्रम से पटना नहीं आ गए। पटना के अंबेडकर रोड स्थित शांति विहार कॉलोनी में फ्लश तो मिला, लेकिन वही सैप्टिक टैंक और उसे साफ करने की वही प्रक्रिया। काश तब सुलभ के टू-पिट टॉयलेट की जानकारी हमें होती।
मध्य प्रदेश के गोपालपुरा गांव की महिलाओं के चेहरे पर चमक साफ नजर आती है। वे दुनिया की चिंताओं से बेफिक्र होकर अपने परिवार के जीवन को संवारने में लगी हैं
म
संदीप पौराणिक
ध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल जिले झाबुआ की बात होते ही कमजोर, दुर्बल, कम उम्र के बावजूद गोदी में बच्चा, दीन हीन, समाज की सताई नारी की तस्वीर उभरती है, मगर थांदला विकासखंड के गोपालपुरा की आदिवासी महिलाओं की आंखों में उमंग, उत्साह, खुशी की चमक को आसानी से पढ़ा जा सकता है। यह चमक उनकी आंखों में 'पानी' ने लाई है। वे महिलाएं अपने से लेकर नई पीढ़ी के जीवन में बदलाव के सपने संजोने लगी हैं। राजधानी से लगभग 375 और इंदौर से 200 किलोमीटर दूर बसे गोपालपुरा तक पहुंचने के लिए आपको हर तरह की सड़कों से होकर गुजरना पड़ेगा, मगर गांव तक सड़क है। गोपालपुरा गांव
में पहुंचकर महिलाओं के चेहरे पर चमक साफ नजर आती है, वे दुनिया की चिंताओं से बेफिक्र हैं, तो अपने परिवार के जीवन को संवारने में लगी हैं। गोपालपुरा में चेकडैम के बन जाने के बाद काफी दूर तक पानी की हिलोरें बरस मन केा लुभा देती है। वनीता बाई कहती हैं कि सुकेन नदी में हर साल बारिश का पानी आता था, मगर वह बह जाता था। उसे रोकने का कोई इंतजाम नहीं था। इसी का नतीजा था कि मई-जून के माह में उन्हें नदी के निचले हिस्से में गड्ढा कर पानी निकालना पड़ता था। इसमें हर रोज उनके तीन से चार घंटे खर्च हो जाया करते थे। वनीता बताती है कि चेकडैम बन जाने से अब उनके लिए पानी की कोई समस्या नहीं रही है, साथ ही पानी की तलाश में जो रोज तीन से चार घंटे खराब हो जाते थे, वे अब बचने लगे हैं, जिसका उपयोग वे अपने परिवार के साथ खेती में हाथ बटाने में
करने लगी हैं। साथ ही बच्चों की भी देखभाल आसान हो गई है। यह चेकडैम एनएम सद्गुरु वाटर एवं डेवलपमंट फाउंडेशन ने बनाया है। सद्गुरु फाउंडेशन की डिप्टी डायरेक्टर (उप-संचालक) सुनीता चौधरी ने बताया कि कोका कोला इंडिया फाउंडेशन के सहयोग से 23 नए चेकडैम का निर्माण किया गया है, वहीं छह का पुर्नरुद्धार किया गया है। इन 29 चेकडैम से कुल 15 गांव के लोगों को लाभ हुआ है। पानी की उपलब्धता के चलते लगभग 1900 महिलाओं और 3000 बच्चों की जिंदगी में बड़ा बदलाव आया है। चौधरी के अनुसार, इन 29 चेकडैम पर
लगभग चार करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। इससे इन गांव के लोगों की जिंदगी में बदलाव आने लगा है। एक तरफ जहां रबी और खरीफ की फसल पैदा होने लगी है, वहीं गर्मी के दिनों में पानी के संकट से दो-चार नहीं होना पड़ता। इसका सबसे ज्यादा लाभ महिलाओं और बच्चों की जीवनशैली पर पड़ा है। गोपालपुरा की महिलाएं बताती हैं कि पानी की उपलब्धता ने उन्हें रोजगार की तलाश में पलायन करने से रोका तो है ही, साथ में कई अन्य दिक्कतों से निजात दिलाई है। पानी ने उनकी जिंदगी में बड़ा बदलाव ला दिया है, जिसकी उन्हें उम्मीद ही नहीं थी।
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पुस्तक अंश
कनाडा
15 - 21 अक्टूबर 2018
कनाडा में भारतीय समुदाय को संबोधन
कनाडा में सभी प्राकृतिक संसाधन प्रदान करने की क्षमता है, जो भारत को उसके विकास के लिए आवश्यक है। हमारे देश में कई समस्याएं हैं, लेकिन इसका समाधान केवल विकास में है। (16 अप्रैल 2015)
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टोरंटो, कनाडा: रिको कोलिजीयम में प्रवासी भारतीयों की विशाल सभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
और 16 अप्रैल के दौरान अपनी कनाडा यात्रा में प्रधानमंत्री मोदी ने टोरंटो, वैंकूवर और ओटावा का दौरा किया। वे अपने कनाडाई समकक्ष स्टीफन हार्पर से मिले और टोरंटो के रिको कोलिजीयम में 8000 भारतीय-कनाडाई लोगों के समूह को संबोधित किया। दोनों पक्षों ने भारत को यूरेनियम की लंबी अवधि की आपूर्ति के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के तहत कैमेको कॉरपोरेशन भारत को अगले पांच वर्षों तक 3000 मीट्रिक टन यूरेनियम की आपूर्ति करेगा जिसकी अनुमानित कीमत 254 मिलियन अमेरिकी डॉलर है। साथ ही दोनों पक्ष ऊर्जा दक्षता, तेल और गैस विकास तथा अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमत हुए हैं। इसके आलावा कनाडा भारत में पांच स्वास्थ्य नवाचारों में 2.5 मिलियन कनाडाई डॉलर निवेश करने पर सहमत हो गया, एयर कनाडा ने जल्द ही टोरंटो और नई दिल्ली
के बीच उड़ानों की योजना की घोषणा की और दोनों देश आतंकवाद और चरमपंथ के खिलाफ लड़ाई में आपसी सहयोग को और मजबूत बनाने पर सहमत हुए। इसके अलावा, कृषि, मोटर वाहन, विमानन, निर्माण, स्वास्थ्य, हाइड्रोकार्बन और आईटी जैसे क्षेत्रों में भारत के राष्ट्रीय कौशल विकास परिषद और 13 कनाडाई कॉलेजों, संस्थानों और क्षेत्र कौशल परिषदों के बीच 13 समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए गए। भारत सरकार ने यह भी कहा कि कनाडाई लोगों को पर्यटन वीजा ऑनलाइन अप्लाई करने की अनुमति दी जाएगी, जो दस साल के लिए मान्य होगा। मोदी की कनाडा यात्रा ने 16 व्यापारिक समझौतों और घोषणाओं के माध्यम से 1.6 अरब कनाडाई डॉलर का कारोबार पैदा किया। दोनों देश द्विपक्षीय संबंधों को रणनीतिक साझेदारी में बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध थे।
मैं आम लोगों को भारत की ताकत मानता हूं। अगर हमारे पास भारत और कनाडा की संगठित शक्ति है, तो आप कल्पना कर सकते हैं कि हम वैश्विक स्तर पर एक बड़े पावर सेंटर के रूप में कैसे उभरेंगे। कनाडा में सभी प्राकृतिक संसाधन प्रदान करने की क्षमता है जो भारत के विकास के लिए आवश्यक है। हमारे देश में कई समस्याएं हैं, लेकिन इसका समाधान केवल विकास में है। तीन देशों की यात्रा राजनीतिक रूप से कहीं ज्यादा आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण थी, क्योंकि सरकार का एकमात्र एजेंडा ‘मेक इन इंडिया’ पहल के तहत भारतीय युवाओं के लिए रोजगार सृजित करने के लिए निवेश और प्रौद्योगिकी को आकर्षित करना था।
कनाडा की आर्थिक जीवन शक्ति को देखते हुए और माध्य वर्ग के पूर्ण विकास के लिए यदि हम वास्तव में भारत और कनाडा के बीच एक मजबूत
ओटावा में औपचारिक स्वागत के दौरान गार्ड ऑफ ऑनर स्वीकार करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
व्यापारिक संबंध स्थापित करें, तो कनाडाई व्यवसाय के लिए और अधिक अवसर उपलब्ध होंगे। गैरी कॉमरफोर्ड कनाडा-भारत बिजनेस काउंसिल के अध्यक्ष और सीईओ
भारतीय मूल के लोगों के लिए विशेष रूप से यह बहुत महत्वपूर्ण है। यह निश्चित रूप से कनाडा और भारत के बीच संबंध को बेहतर करेगा। मैं देख सकता हूं कि कनाडा और भारत के बीच जो कुछ होगा वह बहुत बड़ा रूपांतरण और परिवर्तन होगा। वाशिंगटन डीसी, यूएसए: परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन 2016 के दौरान कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडू के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
विनय शर्मा वैदिक हिंदू संस्कृति सोसाइटी के उपाध्यक्ष
चीन
15 - 21 अक्टूबर 2018
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पुस्तक अंश
आपने अपने गृह-नगर में मेरा स्वागत बहुत गर्मजोशी से किया था। अब मैं अपने गृह-नगर में आपका स्वागत करके बहुत खुश हूं। शी जिनपिंग, चीन के राष्ट्रपति बीजिंग शहर के बाहर चीनी नेताओं द्वारा विदेशी मेहमानों का स्वागत करना बहुत दुर्लभ है। स्टेट संचालित चीनी दैनिक अखबार शीआन में स्थित द सिंग शान मंदिर का दौरा करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
14 मई, 2015: शांक्सी प्रांत, शिआन में विश्व धरोहर स्थल में शामिल टेराकोटा आर्मी की मूर्तियों का भ्रमण करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
म
14 मई, 2015: शीआन के शांक्सी गेस्ट हाउस में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
ई, 2015 के दूसरे सप्ताह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तीन देशों चीन, मंगोलिया और दक्षिण कोरिया की छह दिवसीय यात्रा पर गए। यह यात्रा 14 मई से 1 9 मई के बीच थी। मोदी का पहला गंतव्य चीन था, जिसे भारत का सबसे बड़ा आर्थिक और क्षेत्रीय प्रतियोगी माना जाता था। सितंबर 2014 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा के जवाब में यह एक पारस्परिक यात्रा थी। यह यात्रा राष्ट्रपति के गृह नगर शीआन से हुई थी। यह अभूतपूर्व था क्योंकि चीन में आधिकारिक यात्रा पर आए किसी विदेशी मेहमान का स्वागत चीनी राष्ट्रपति द्वारा बीजिंग के बाहर पहली बार किया जा रहा था। राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री मोदी ने ‘बिग वाइल्ड गूज पैगोडा’ में द्विपक्षीय वार्ता की, साथ ही दोनों ने शीआन में आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में भी भाग लिया। बीजिंग में मोदी ने अपने चीनी समकक्ष ली केकियांग के साथ आमने-सामने और
प्रतिनिधिमंडल स्तरीय वार्ता की। दोनों देशों ने व्यापार, अनुसंधान और विकास, रक्षा, शिक्षा, भू-विज्ञान और बुनियादी ढांचे पर रिकॉर्ड 24 द्विपक्षीय समझौते किए। मोदी की यात्रा के दौरान, बीजिंग में भारतचीन फोरम की एक बैठक आयोजित की गई जहां राज्य-केंद्र समन्वय पर जोर दिया गया। मोदी ने फोरम को एक अद्वितीय और नवाचार कदम के रूप में बताया, जो दोनों देशों के बीच संबंधों को और मजबूत करेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने शंघाई में भारत-चीन बिजनेस फोरम को भी संबोधित किया और अलीबाबा के जैक मा सहित शीर्ष चीनी सीईओ के साथ बातचीत की। मोदी ने उनसे मेक इन इंडिया पहल के तहत भारत में निवेश करने का आग्रह किया। मोदी ने शंघाई में चीनी व्यापारिक घरानों और भारतीय फर्मों के बीच 22 अरब डॉलर के 25 व्यापारिक योजनाओं और समझौतों की शुरुआत की। ये समझौते अदानी समूह, भारती एयरटेल और वेल्सपुन सहित कई
मुझे इसको लेकर कोई संदेह नहीं है कि मोदी के सम्मान में शंघाई में आयोजित भारतीय सभा आने वाले कुछ समय तक चीन के भारतीय समुदाय के बीच याद की जाएगी। यह एक बड़ी घटना की तरह था। डॉ. शमीन प्रशांतम चीन की नॉर्टिंघम यूनिवर्सिटी बिजनेस स्कूल में अंतरराष्ट्रीय व्यापार और रणनीति में सहयोगी प्रोफेसर
अन्य व्यापारिक घरानों और चीन की कंपनियों के बीच हुए। साथ ही, मोदी ने शंघाई में भारतीय समुदाय के लोगों को भी संबोधित किया। 16 मई को मोदी ने चीन के कुछ शीर्ष विश्वविद्यालयों का दौरा किया, जिनमें बीजिंग का त्सिंगहुआ विश्वविद्यालय भी शामिल था। उन्होंने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री ली केकियांग का गर्मजोशी से स्वागत और शानदार अतिथि सत्कार करने के लिए धन्यवाद कहते हुए अपनी तीन दिवसीय चीन की यात्रा को समाप्त किया।
चीन में भारतीय समुदाय के लिए संबोधन
आज के ही दिन जब भारत के लोग सो रहे थे, आप संसदीय चुनाव के नतीजे के बारे में जानने के लिए जल्दी जाग चुके थे। (16 मई 2015)
आज 16 मई है। एक साल पहले, 16 मई 2014 को, भारत और चीन के बीच समय के अंतर ने आपको परेशान किया था। जब भारत के लोग सो रहे थे, आप संसदीय चुनाव के नतीजों के बारे में जानने के लिए जल्दी जाग चुके थे। आप परिणाम जानने के लिए उत्सुक थे। किसी भी लोकतंत्र में, आम लोग भगवान के अवतार होते हैं। लोगों के पास तीसरी आंख है, उनके पास बड़ा सामूहिक ज्ञान है और भारत के लोग ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ के लिए जाग चुके थे।
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सुलभ संसार
जेनेवा, स्विटजरलैंड से आए पुस्तक संपादक सुनूर वर्मा और सिंगापुर से आई लेखिका सुनंदा वर्मा ने सुलभग्राम के दौरे के दौरान सुबह की
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नियमित प्रार्थना में शामिल हुए। इस मौके पर सुलभ परंपरा के मुताबिक दोनों अतिथियों का शॉल ओढ़ाकर स्वागत किया गया।
‘गुड एंड ग्रीन’ के टिकाऊ विकास प्रकोष्ठ के प्रमुख विकास गोस्वामी, गोदरेज इंडस्ट्रीज लिमिटेड के उप प्रबंधक करण बावरी, नॉन
अच्छी सोच ए
हिम्मत
सुनीता मिश्रा
क राजा अपने मंत्री के साथ जंगल में शिकार पर निकले। जंगल की यात्रा के दौरान राजा की उंगली कट गई और रक्त बहने लगा। यह देख मंत्री ने राजा से कहा –चिंता न करें राजन ! भगवान जो करता है, अच्छे के लिए करता है। राजा पीड़ा से व्याकुल थे, ऐसे में मंत्री का कथन सुन क्रोध से तमतमा उठे। क्रोध में आकर राजा ने मंत्री को अपने कारावास में डाल देने की आज्ञा दी। राजा का आदेश का पालन करते हुए उनकें सिपाहियों ने तुरत ही मंत्री को पकड़कर कारावास में डाल दिया। इस तरफ राजा यात्रा आगे बढ़ने लगे, कुछ दूर ही चले थे कि नरभक्षियों के एक दल ने उन्हें पकड़ लिया। उनकी बलि देने की तैयारी होने लगी। तभी, उनकी कटी उंगली देख नरभक्षियों का पुजारी बोला – अरे ! इसका तो अंग भंग है, इसकी बलि स्वीकार नहीं की जा सकती। राजा को छोड़ दिया गया । जीवनदान मिला तो राजा को अपने प्रभुभक्त मंत्री
लीनर के सह-संपादक और सीईओ समीर तिवारी के साथ कई विशिष्ट अतिथियों ने सुलभ ग्राम का दौरा किया।
की याद आई और अपनी गलती का बोध हुआ। वे तुरत भाग कर अपने राज्य वापस लौटे और जिस कारावास में मंत्री को रखा था वहा जाकर मंत्री को प्रेमपूर्वक गले लगाया। सारी घटना सुनाई और पूछा कि मेरी उंगली कटी तो इससे भगवान ने मेरी जान बचाई, पर तुम्हें मैंने इतना अपमानित किया तो उसमें तुम्हारा क्या भला हुआ ? मंत्री मुस्करा और बोले –राजन ! यदि मैं भी आपके साथ होता तो अभी आपके स्थान पर, मेरी बलि चढ़ चुकी होती,
इसीलिए भगवान जो भी करते हैं, मनुष्य के भले के लिए ही करते हैं। कहीं बार हमारे जीवन में भी ऐसी घटनाएं घटती है, जो हमें उस वक्त अच्छी नहीं लगतीं, लेकिन वो आगें जाकर हमारे लिए अच्छा साबित होता है। इसीलिए अगर आपके जीवन में भी कुछ ऐसा घटे तो चिंता मत करिए नकारात्मक सोच को पनपने न दें और उस घटना के पीछे के सकारात्मक पहलुओं को देखें, फिर आप भी कहने लगेंगे जो होता है वो अच्छे के लिए ही होता है।
राहुल रेड जिंदगी की जंग जीत जाने की हिम्मत तो है रोजगार ना सही पर कमाने की हिम्मत तो है वक्त बेवक्त मिले फिर भी कोई गम नहीं सूखी रोटी ही सही खाने की हिम्मत तो है महलों में रहने की तेरी औकात नही पर तिनका-तिनका जोड़, घर बनाने की हिम्मत तो है डूब गयी पतवारें लेकिन हौसला अभी बाकि है कश्ती को साहिल तक पहुंचाने की हिम्मत तो है काट डालो जुबां चाहे शायर की आज तुम हकीकत को कलम से बताने की हिम्मत तो है
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आओ हंसें
बच्चे का जवाब
मास्टर जी ने एक बच्चे से सवाल किया‘क्यूं रे मांगीलाल, तू तीन दिन स्कूल क्यों नहीं आया?’ मांगीलाल- ‘मास्टर जी हमारी गाय ने बछड़ा दिया था।’ मास्टर जी, इस को कोई खास वजह नहीं मानते हुए गुस्साकर कहा- ‘इसमें क्या खास बात है?’ मांगीलाल- ‘खास बात नहीं है तो आप देकर दिखा दे ना।’
मच्छरदानी
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इंद्रधनुष
जीवन मंत्र
सु
डोकू -44
मनुष्य को हमेशा मौका नहीं ढूंढ़ना चाहिए, क्योकि जो आज है वही सबसे अच्छा मौका है
रंग भरो
एक मच्छर ने दूसरे मच्छर से कहा- ‘देख यार, कमाल हो रहा है। चूहेदानी में चूहा है, साबुदानी में साबुन है और मच्छरदानी में आदमी सो रहा है।’
महत्वपूर्ण तिथियां
• 14 अक्टूबर विश्व मानक दिवस अक्टूबर का दूसरा गुरुवार- विश्व दृष्टि दिवस • 16 अक्टूबर विश्व खाद्य दिवस • 17 अक्टूबर अंतरराष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस • 20 अक्टूबर अंतरराष्ट्रीय ऑस्टियोपोरोसिस दिवस • 21 अक्टूबर आजाद हिंद फौज स्थापना दिवस
बाएं से दाएं
1. चाटुकार (4) 4. स्वतः बिना प्रयत्न के (4) 6. सिक्के ढालने का स्थान (4) 7. ओखली (3) 8. अनेक लोग (4) 10. पर्ण (2) 11. शिरोभूषण (3) 12. व्यवधान (3) 13. निपुण (2) 14. रावण की पटरानी (4) 15. रश्मि (3) 16. इनकार करना (4) 18. पैर के नाखून से सिर के केश तक (4) 19. झगड़ा, हँसी-मजाक (4)
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सुडोकू-43 का हल विजेता का नाम कैलाश तिवारी हरियाणा
वर्ग पहेली-43 का हल
ऊपर से नीचे
1. धनुष (2) 2. झपटना, खींचना (5) 3. समस्त (3) 4. वैसे तो परन्तु (4) 5. सहिष्णुता (6) 9.पुराण का एक प्रसंग जिसमें समुद्र से विष और अमृत निकला था (9) 10. अप्रत्यक्ष, छिपा हुआ (3) 12. खतरेवाला (5) 13. गुफा द्वारा (4) 15.काँच का नुकीला भाग, छोटी बरछी (3) 17. आशा (2)
कार्टून ः धीर
वर्ग पहेली - 44
32
न्यूजमेकर
अनाम हीरो
रिफत मसूदी
अमन का बल्ला
जम्मू-कश्मीर में क्रिकेट बैट बनाने वाली अकेली महिला हैं रिफत मसूदी
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15 - 21 अक्टूबर 2018
श्मीर घाटी में हमेशा तनाव झेलने वाले इलाके नरवर में जब रिफत मसूदी नाम की महिला की चर्चा होती है तो कुछ देर के लिए ही सही पत्थरबाजी और सुरक्षाबलों से झड़पों के बीच बदलाव की उम्मीद जगती दिखती है। यह महिला अपनी हिम्मत के दम पर कई साल से घाटी की शक्ल बदलने में अपनी भूमिका निभा रही हैं। जम्मू-कश्मीर में क्रिकेट बैट बनाने वाली अकेली महिला रिफत का सपना है कि भारतीय क्रिकेट स्टार्स उनके बैट्स से चौके-छक्के उड़ाएं। फिलहाल, वह घाटी के युवाओं, खासकर
लड़कियों के लिए प्रेरणा बन चुकी हैं। रिफत की कहानी साल 1999 में शुरू हुई थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस से पाकिस्तान गए थे। रिफत बताती हैं, ‘शांति के लिए उनकी कोशिशों से कश्मीर में भी सामान्य माहौल बनना शुरू हुआ। देशभर में कश्मीरी
तबाबी देवी
जूडो की जीत
मणिपुर की तबाबी ने यूथ ओलंपिक में जूडो में जीता रजत पदक
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सामान के लिए लोगों की दिलचस्पी बननी शुरू हुई।’ रिफत के ससुर ने 1970 में बैट बनाने के लिए इकाई शुरू की थी, जिसमें वह कश्मीर की लकड़ी का इस्तेमाल करते थे। हालांकि 1990 में विद्रोह के साथ ही उनके कारोबार को नुकसान होने लगा। जालंधर के बैट निर्माताओं ने उनकी
जगह ले ली। तब 1999 में रिफत ने बिजनेस में दोबारा जान फूंकने का फैसला किया। वन विभाग में कार्यरत उनके पति शौकत ने इस दौरान उनका पूरा साथ दिया। वह भी साल 2010 में फुल टाइम फुटबॉल कोच बन गए और अब युवाओं को ट्रेनिंग देते हैं।
विकास जयानी न्यूजमेकर बना पयालट तो याद आए बुजुर्ग
गजान तबाबी देवी ने ओलंपिक स्तर पर भारत को जूडो में पहला पदक दिलाते हुए युवा खेलों में महिलाओं के 44 किलो वर्ग में रजत पदक जीता है। मणिपुर की एशियाई कैडेट चैंपियन तबाबी देवी को यूथ ओलंपिक के फाइनल में वेनेजुएला की मारिया जिमिनेज ने 11-0 से हराया। इससे पहले भारत ने जूडो में सीनियर या जूनियर किसी भी स्तर पर कभी ओलंपिक पदक नहीं जीता था। तबाबी ने सेमीफाइनल में क्रोएशिया की विक्टोरिया पुलिजिच को 10-0 से हराया था। उससे पहले उसने भूटान की यांगचेन वांगमो को 10-0 से मात दी थी। मौजूदा खेलों में उनका रजत भारत का दूसरा पदक है। इससे पहले निशानेबाज तुषार माने ने 10 मीटर एयर राइफल में दूसरा स्थान हासिल किया था। तैराकी में राष्ट्रीय चैंपियन श्रीहरि नटराज पुरुषों के 100 मीटर बैकस्ट्रोक के लिए क्वालिफाई नहीं कर सके. वह सेमीफाइनल में नौवें स्थान पर रहे।
पायलट बनने के बाद वादा निभाते हुए गांव के बज ु ुर्गों को कराई हवाई यात्रा
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दा करना बहुत आसान है, लेकिन उस वादे को निभा पाना उतना ही मुश्किल। वैसे दुनिया में आज भी वादों को पक्के लोग हैं। ऐसे ही एक शख्स का नाम है विकास जयानी। वे आदमपुर, िजला हिसार के सारंगपुर गांव के रहने वाले हैं। उन्होंने अपने बुजुर्गों की दिली ख्वाहिश को पायलट बनने के बाद पूरा किया। पायलट बनने के बाद जयानी जब अपने गांव वापस लौटे तो उन्होंने नई दिल्ली से अमृतसर के बीच अपने गांव के 70 साल से ऊपर के लोगों के लिए हवाई यात्रा का इंतजाम किया। बुजुर्गों ने स्वर्ण मंदिर, वाघा सीमा और जलियांवाला बाग का दौरा किया। इन यात्रियों में 90 साल की विमला, 80 साल के अमर सिंह, 78 साल के राममूर्ति और कंकारी शामिल थे। विकास के पिता महेंद्र जयानी एक बैंक में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। उन्होंने कहा कि यह यात्रा किसी तीर्थयात्रा से कम नहीं थी।
आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 44