सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 49)

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गंगा संरक्षण

सिर्फ 10,000 समर्पित लोग चाहिए : डॉ. विन्देश्वर पाठक

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खेल

अभिमत

सबसे बुजर्गु महिला क्रिकेटर की योग साधना

स्वच्छ पर्यावरण की विरासत बचाने की चिंता

डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

बदलते भारत का साप्ताहिक

वर्ष-2 | अंक-49 |19 - 25 नवंबर 2018 मूल्य ` 10/-

वर्जनाओं को तोड़

विधवाओं-अस्शपृ ्यों ने मनाया

छठ

पवित्रता और सादगी का पर्याय रहे लोकपर्व छठ को सुलभ परिवार सामाजिक समरसता बढ़ाने के अवसर के रूप में वर्षों से मना रहा है। इस अवसर पर वृंदावन की विधवा माताओं से लेकर टोंक-अलवर की पुनर्वासित महिला स्कैवेंजर्स तक सूर्य की अाराधना करती हैं


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छठ पूजा के पवित्र अवसर पर सूर्य को अर्घ्य देतीं अमोला पाठक और डॉ.विन्देश्वर पाठक

विभिन्न तरह की सामाजिक वर्जनाओं और प्रताड़नाओं का शिकार रहीं महिलाएं अगर छठ जैसे लोकपर्व की आस्था के साथ जुड़ रही हैं, तो सफलता के इस प्रेरक सुलेख के जरिए देश में निस्संदेह सामाजिक क्रांति का एक नया सर्ग रचा जा रहा है

आवरण कथा

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एसएसबी ब्यूरो

माज और परंपरा का साझा भारतीय संस्कृति की खासियत रही है। इस खासियत ने जहां हमें एक तरफ आस्थावान बनाया है, वहीं प्रकृति के साथ साहचर्य का पाठ भी पढ़ाया है। स्वच्छता की शपथ के साथ पांच दशक पूर्व शुरू हुई सुलभ क्रांति आज देश में सामाजिक बदलाव के सबसे बड़े आंदोलन का नाम है। इस आंदोलन के जरिए एक तरफ जहां सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा को मिटाने के लिए गंभीर प्रयास हो रहे हैं, वहीं सुप्रीम कोर्ट के कहने पर वृंदावन की विधवा माताओं के असहाय जीवन में उल्लास और उत्सव के फूल खिलाए जा रहे हैं। छठ भारत का महानतम लोकपर्व है। सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक ने छठ को उन महिलाओं को समाज की मुख्यधारा के साथ आस्थापूर्ण तरीके से जोड़ने के अवसर के तौर पर देखा, जिन्हें विभिन्न वजहों से समाज की मुख्यधारा में स्थान नहीं दिया जा रहा था। इन महिलाओं में खासतौर पर अलवरटोंक की वे पुनर्वासित स्कैवेंजर्स शामिल हैं, जिन्हें मंदिरों की देहरी लांघने से लेकर छठ जैसे महान लोकपर्व को मनाने के लिए सवर्ण सामाजिकता की वर्जनाओं से जूझना पड़ता है। इसी तरह सामाजिक रूढ़ि के कारण वृंदावन में वैधव्य का जीवन जी रही महिलाएं विभिन्न पर्व-त्योहारों से आमतौर पर

दूर रहती हैं। इसके पीछे सामाजिक रूढ़ि के साथ उनका निस्सहाय जीवन भी एक बड़ा कारण है। सुलभ सामाजिक आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि है कि आज ये महिलाएं, जहां एक तरफ फाग के रंग से उल्लासपूर्वक सराबोर होती हैं, वहीं दीपावली के दीए भी श्रद्धा के साथ जलाती हैं। इसी कड़ी में लोकपर्व छठ भी है, जो भारतीय लोकजीवन का महापर्व है। ये महिलाएं वर्षों से छठ महापर्व मनाते हुए भगवान सूर्य की आराधना समाज के बाकी लोगों के साथ समरस भाव से कर रही हैं। सुलभ इसके लिए खासतौर पर अपने परिसर में विशेष आयोजन करता है। इस मौके पर डॉ. विन्देश्वर पाठक और अमोला पाठक सहित समस्त सुलभ परिवार उपस्थित रहता है। इस वर्ष भी सुलभ प्रणेता की प्रेरणा से यह लोकपर्व एक बड़े सामाजिक बदलाव का प्रेरक अभियान बना।

सामाजिक क्रांति का सुलभ सर्ग

देश में सामाजिक क्रांति के इतिहास में यह नया सर्ग है, जब परंपरा और आस्था के साथ सामाजिक बदलाव के सूत्र न सिर्फ विकसित किए जा रहे हैं, बल्कि वे कारगर भी हो रहे हैं। सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने स्वच्छता को लेकर अपने मिशन को जारी रखते हुए सामाजिक स्वच्छता और समरसता का एक नया अभिक्रम शुरू कर देश-समाज के आगे

खास बातें लोकपर्व एक बड़े सामाजिक बदलाव का प्रेरक अभियान बना विधवा माताओं और पूर्व स्कैवज ें र्स ने मनाया छठ स्वच्छता के आगे सामाजिक समरसता का पाठ सिखा रहा सुलभ नई मिसाल रखी है। विभिन्न तरह की सामाजिक वर्जनाओं और प्रताड़नाओं का शिकार रही महिलाएं अगर छठ जैसे लोकपर्व की आस्था के साथ जुड़ रही हैं, तो सफलता के इस प्रेरक सुलेख के जरिए देश में निस्संदेह सामाजिक क्रांति का एक नया सर्ग रचा जा रहा है।

भारतीय चित्त और मानस

बात करें छठ की तो यह लोकपर्व एक साथ पवित्रता, सादगी और सामाजिक समरसता का संदेश देता है। इसके अलावा यह लोकपर्व जल के संरक्षण और


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कई नाम

आवरण कथा

परंपरा और विधान

छठ पर्व सूर्य देव की आराधना के लिए मनाया जाता है। यह पर्व वर्ष में दो बार, चैत्र शुक्ल षष्ठी और कार्तिक शुक्ल षष्ठी तिथियों को मनाया जाता है। इनमें से कार्तिक में की जाने वाली छठ पूजा का विशेष महत्व माना जाता है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व को छठ पूजा, डाला छठ, छठी माई, छठ, छठ माई पूजा, सूर्य षष्ठी पूजा आदि कई नामों से बुलाया जाता है।

क्यों होती है छठ पूजा

शास्त्रों के अनुसार छठ पूजा और उपवास मुख्य रूप से सूर्य देव की आराधना से उनकी कृपा पाने के लिए होता है। ऐसी मान्यता है कि सूर्य देव की कृपा हो जाए तो सेहत अच्छी रहती है और धनधान्य के भंडार भरे रहते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि छठ माई की कृपा से संतान प्राप्त होती। यह व्रत सूर्य के समान तेजस्वी और ओजस्वी संतान के लिए भी रखा जाता है।

वृंदावन की विधवा माताओं और अलवर-टोंक की पुनर्वासित स्कैवेंजर्स के साथ डॉ. पाठक

स्वच्छता के प्रश्नों को सांस्कृतिक नजरिए से देखने की समझ देता है। छठ कहीं न कहीं भारतीय लोक संस्कृति की उस विशेषता को भी रेखांकित करता है, जिस कारण भारतीय डायस्पोरा की शिनाख्त में उसके लोक संस्कार और बोली सबसे ऊपर है। भारतीय संस्कृति में परंपरा की पैरोकारी आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर वासुदेवशरण अग्रवाल तक तमाम साहित्य-संस्कृति के मर्मज्ञों ने की है। समाज और परंपरा के साझे को समझे बिना भारतीय चित्त और मानस को समझना मुश्किल है।

जल संरक्षण का संदेश

आज जब पानी की स्वच्छता के साथ उसके संरक्षण का सवाल इतना बड़ा हो गया है कि इसे अगले विश्वयुद्ध तक की वजह बताया जा रहा है, तो यह देखना काफी दिलचस्प है कि भारतीय

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षष्ठी की कथा

छठ माता को सूर्य देव की बहन माना जाता है। वहीं छठ व्रत की एक कथा के अनुसार छठ देवी को ईश्वर की पुत्री देवसेना माना गया है। देवसेना के बारे में बताते हुए कर्इ स्थान पर उन्हीं के हवाले से कहा गया कि वह प्रकृति की मूल प्रवृति के छठवें अंश से उत्पन्न हुई हैं और यही कारण है कि वे षष्ठी कहलाईं। कार्तिक शुक्ल षष्ठी को उनकी आराधना करने वालों को विधि विधान से पूजा करने पर संतान प्राप्ति होती है।

प्रभु राम से भी संबंध

पौराणिक कथाओं की मानें तो ऐसा कहा जाता है कि रामायण काल में भगवान श्री राम ने अयोध्या वापस आने के बाद सीता जी के साथ कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्योपासना की थी। इसी तरह महाभारत काल में कुंती द्वारा विवाह से पूर्व सूर्योपासना करके पुत्र प्राप्ति करने से भी इस दिन को जोड़ा जाता है। कहते हैं कि कर्ण का जन्म इसी प्रकार हुआ था।

छठ पूजन के अवसर पर सुलभ परिवार के सदस्यों के साथ डॉ. पाठक, अमोला पाठक और ऊषा शर्मा

छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी तरह का पौराणिक कर्मकांड सांस्कृतिक परंपरा में इसके समाधान के कई तत्व हैं। जल संरक्षण को लेकर छठ पर्व एक ऐसे ही सांस्कृतिक समाधान का नाम है। अच्छी बात है कि भारतीय डायस्पोरा के अखिल विस्तार के साथ यह पर्व देश-दुनिया के तमाम हिस्सों को भारतीय जल चिंतन के सांस्कृतिक पक्ष से अवगत करा रहा है।

इस सांस्कृतिक विरासत के साथ जिस तरह सुलभ ने सामाजिक परिवर्तन का एक नया अध्याय जोड़ा है, उससे इसकी महत्ता और बढ़ गई है। दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक

आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिहाज से खास है। एक तरफ सालभर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ वासुदेवशरण अग्रवाल ने इसी मेल को 'लोकरस’ और 'लोकानंद’ कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से भरता है और न ही किसी बड़े ब्रांड या प्रोडक्ट के सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक उल्लास से भरता है।

विदेशों में भी छठ की धूम

पिछले कुछ दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने


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आवरण कथा

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वृंदावन की विधवा माताओं और अलवर-टोंक की पुनर्वासित स्कैवेंजर्स के साथ डॉ. पाठक

वृंदावन की विधवा माता को पवित्र बद्धी पहनातीं अमोला पाठक

की होड़ के बीच इस लोकरंग की एक वैश्विक छटा भी उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरीशस, त्रिनिदाद, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अर्घ्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है। बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला रची है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल स्रोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में और मुखर हुई है। कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों

ऊषा शर्मा को पवित्र बद्धी पहनातीं अमोला पाठक

तक पहुंचना सबसे आसान है। करीब दो दशक पहले कई देशों के संस्कृतिप्रेमी युवाओं ने 'बेस्ट फॉर नेक्स्ट’ नाम से अपने एक अभिनव सांस्कृतिक अभियान के तहत बिहार में

गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ व्रत पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही

भारतीय डायस्पोरा के अखिल विस्तार के साथ यह पर्व देश-दुनिया के तमाम हिस्सों को भारतीय जल चिंतन के सांस्कृतिक पक्ष से अवगत करा रहा है। इस सांस्कृतिक विरासत के साथ जिस तरह सुलभ ने सामाजिक परिवर्तन का एक नया अध्याय जोड़ा है, उससे इसकी महत्ता और बढ़ गई है

थी, जिससे नदी का जल प्रदूषित हो।

नदी और आस्था

लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उनके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। कविताई के अंदाज में कहें तो छठ पर्व आज परंपरा या सांस्कृतिक पर्व से ज्यादा सामयिक सरोकारों से जुड़े जरूरी सबक याद कराने का अवसर है। एक ऐसा अवसर जिसमें पानी के साथ मनमानी पर रोक, प्रकृति के साथ साहचर्य के साथ जीवन जीने का पथ और शपथ दोनों शामिल हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषण मुक्त रखने की लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाले अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों


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आवरण कथा

चार दिनों तक चलती है छठ पूजा पहला दिन : नहाय-खाय दूसरा दिन : खरना तीसरा दिन : संध्या अर्घ्य चौथा दिन : सूर्योदय/ऊषा अर्घ्य और पारण पहला दिन नहाय खाय

दूसरा दिन खरना यह कार्तिक शुक्ल पंचमी को होता है और इसमें पूरे दिन व्रत रख कर शाम को भोजन ग्रहण करते हैं। इसे खरना कहा जाता है। इस दिन निर्जल उपवास किया जाता है। शाम को गुड़ से बनी चावल की खीर बनार्इ जाती है और नमक व चीनी दोनों का प्रयोग वर्जित होता है। इसी दिन चावल का पिठ्ठा व घी लगी रोटी का भी प्रसाद बनता है।

चौथा दिन पारण

छठ पूजा के चौथे और अंतिम दिन यानी सप्तमी को सुबह सूर्योदय के समय भी सूर्यास्त वाली उपासना की विधि दोहरार्इ जाती है। इसके बाद सूर्य को अर्घ्य देकर छठ पूजा का पारण किया जाता है। इसके बाद विधिवत पूजा कर प्रसाद बांटा जाता है।

पुनर्वासित स्कैंवेंजर को सिंदूर लगातीं अमोला पाठक

छठ पूजा का मुख्य त्योहार कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है, लेकिन चतुर्थी को नहाय खाय के साथ इसका प्रारंभ हो जाता है। इस दिन प्रात:काल स्नान करके नए वस्त्र पहनते हैं और शाकाहारी भोजन करते हैं। घर में जो व्यक्ति व्रत करता है परिवार के बाकी सदस्य उसके खाना खाने के बाद ही भोजन करते हैं।

तीसरे दिन छठ पूजा

इस दिन मुख्य छठ पूजा होती है। इसमें विशेष प्रसाद बनाया जाता है, जिसमें ठेकुआ का खास महत्व होता है, जिसे टिकरी भी कहा जाता है। चावल के लड्डू भी बनते हैं। इसके बाद प्रसाद व फल को बांस की टोकरी में सजाया जाता है। इस टोकरी की पूजा कर व्रत करने वाले सूर्य को अर्घ्य देने के लिए तालाब और नदी के तट पर जाते हैं, जहां स्नान करके अस्त होते सूर्य की आराधना की जाती है।

वृंदावन की विधवा माता को छठ का प्रसाद देतीं अमोला पाठक

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सादगी और आस्था का कठोर अनुशासन

 इस पर्व में पूरे चार दिन शुद्ध और स्वच्छ कपड़े पहने जाते हैं। इस बात का ध्यान रखा जाता है कि कपड़ों का रंग काला न हो साथ ही कपड़ों में सिलाई ना होने का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। महिलाएं जहां साड़ी धारण करती हैं, वहीं पुरुष धोती धारण करते हैं।

 त्योहार के पूरे चार दिन व्रत करने वाले को जमीन पर स्वच्छ बिस्तर पर सोना होता है। इस दौरान वे कंबल या चटाई पर सोना चाहते हैं, ये उन पर निर्भर करता है।  कार्तिक के पूरे महीने घर के सदस्यों के लिए मांसाहारी भोजन सेवन करना वर्जित माना जाता है।  इन पूरे 4 से 5 दिनों तक व्रतियों को किसी भी अपशब्द या बुरी भाषा का प्रयोग नहीं करना है। उन्हें बाहरी तौर पर और आंतरिक तौर से भी शुद्ध रहना होता है।

 इस पर्व में बांस के सूप का बेहद महत्व है। पूजा के लिए जो ठेकुआ बनाया जाता है उसे घर पर ही आटे को तैयार करके बनाया जाता है। यह गुड़ और आटे से बना होता है। सूर्य को दूध का अर्घ्य देतीं अमोला पाठक

 अर्घ्य देते समय आमतौर पर गन्ने का होना अनिवार्य माना जाता है। पूजा की समाप्ति के बाद अपनी इच्छाशक्ति से ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है।

के सामर्थ्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं। पर सबक की पुरानी लीक छोड़कर बार-बार गलती और फिर नए सिरे से सीखने की दबावी पहल ही आज हमारे शिक्षित और जागरूक होने की शर्त हो गई है। एक ऐसा शर्तनामा जिसने मानवीय जीवन के हिस्से निखार कम बिगाड़ के रास्ते को ज्यादा सुदीर्घ और चौड़ा किया है। बावजूद इसके गनीमत ही है कि लोक और माटी से जुड़े होने की ललक अब भी ढेर नहीं हुई है।

ट्रेनों में भीड़

छठ से पहले दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती है कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग

छठ पूजा के अवसर पर वृंदावन की विधवा माताएं, अलवर-टोंक की पुनर्वासित स्कैवेंजर्स एवं सुलभ परिवार के सदस्य

कहते हैं, अब तो छठ तक ऐसा ही चलेगा, भैया लोगों का पर्व जो शुरू हो गया है। छठ की बढ़ी लोकप्रियता का आलम यह है कि जिस महाराष्ट्र में बिहार-यूपी के लोगों को कई बार कई तरह का विरोध झेलना पड़ता है, आज दहीहांडी और गणेशोत्सव की तरह छठ को भी वहां एक बड़ी सांस्कृतिक स्वीकृति मिल रही है। यह देश में सामाजिक-सांस्कृतिक साझेपन के एक ऐसे

लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उनके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं

डॉ. पाठक को छठ का प्रसाद देतीं अमोला पाठक


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सात समंदर पार पहुंची छठ की छटा

भारत से लोग रोटी कमाने दुनिया में जहां भी गए, वहां उन्होंने अपनी परंपरा और आस्था को नया विस्तार दिया। छठ आज अगर दुनिया के कई देशों में मनाया जाने वाला लोकपर्व है तो इसके पीछे भारतीय परंपरा और संस्कृति से जुड़े लोगों की मजबूत आस्था बड़ा कारण है

ठ की छटा अब सिंगापुर से लेकर बहरीन और कैलिफोर्निया तक दिखने लगी है। बिहार-झारखंड के लोग जो आजीविका के सिलसिले में सात समंदर पार विदेश में हैं, वे भी हर साल अपनी माटी के लोकपर्व को याद करते हैं। कहा भी गया है कि अपनी जड़, सभ्यता व संस्कारों को कभी दरकिनार नहीं करना चाहिए। यही कारण है बिहार-झारखंड व पूर्वी उत्तर प्रदेश के साथ-साथ इस पर्व का स्वाभाविक फैलाव-विस्तार अन्य जगहों पर काफी तेजी से हुआ है। इन प्रदेशों के विदेश में रहनेवाले लोग इस मौके पर आस्था में लीन रहते हैं। पटना जिले के फतुहा के अवधेश प्रसाद पिछले 19 वर्षों से सिंगापुर में रहते हैं। अवधेश

यहां शिपिंग मैनेजर हैं। लगातार वहां रहने के कारण उन्हें वहां की नागरिकता भी मिल गई है। व्यस्तता के कारण वे इस मौके पर घर नहीं आ पाते हैं, लेकिन सिंगापुर में ही उत्सव व विधिविधान के साथ इस पर्व को मनाते हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि यहां बिहार-झारखंड के लोगों की एक सोसाइटी 'बिजहार' (बिहार-झारखंड) है, जो इस मौके पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती सिलसिले को आगे बढ़ाने वाली स्थिति है, जिसमें एक तरफ सिंदूरी परंपरा है तो, वहीं दूसरी तरफ प्रकृति से जुड़ने का तार्किक तकाजा।

स्वच्छता की राष्ट्रीय चेतना

वैसे भी जब सार्वजनिक जीवन में शुचिता और स्वच्छता जैसे मुद्दे राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बनें और यह ललक दिल्ली के लाल किले से पूरे देश में पहुंचे तो इससे वाकई एक बड़ी उम्मीद बंधती है। इस उम्मीद की ही देन है कि आजादी के बाद यह देश पहली बार ऐसा अनुभव कर रहा है जब नदियों खासतौर पर गंगा की स्वच्छता और सफाई जैसे मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे का हिस्सा बने

है। अवधेश इस सोसाइटी के मुख्य सलाहकार हैं। सोसाइटी का नाम 'बिजहार' रखने के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, मूल रूप से बिहार-झारखंड से आनेवाले लोग इसमें हैं, इसीलिए इसका नाम बिहार और झारखंड को मिलाकर 'बिजहार' रखा गया है। 350 सदस्यों वाली इस सोसाइटी के लोग छठ के मौके पर सिंगापुर के ईस्ट कोस्ट पार्क के पास जुटते हैं और इस पर्व को मनाते हैं। पटना के रहनेवाले सिद्धार्थ सिंगापुर में क्यूइस्ट ग्लोबल कंपनी में सेल्स मैनेजर हैं। छुट्टी नहीं मिलने के कारण वे इस बार छठ के मौके पर घर नहीं आ रहे हैं। लेकिन, सिंगापुर में छठ की तैयारी से सिद्धार्थ काफी खुश हैं। वे कहते हैं, ‘सोसाइटी के लोगों के उत्साह से घर की कमी नहीं खल

रह रही है।’ 'बिजहार' के अध्यक्ष ध्यानचंद झा देवघर के हैं। छठ को लेकर वे काफी उत्साहित हैं। वे कहते हैं, ‘सोसाइटी के सक्रिय सदस्यों के कारण हर साल यह पर्व यादगार होता है। सिंगापुर की पत्रिकाओं में भी इस पर्व के बारे में प्रकाशित कराया जाता है।’ ध्यानचंद्र झा की पत्नी ममता झा खासकर इस मौके पर काफी सक्रिय रहती हैं। वे कहती

हैं, ‘चाहे हम कहीं भी रहें इस लोकपर्व को नहीं छोड़ सकते हैं।’ पटना के साकेत समीर, ब्रजेश करजीह व रामगढ़ के प्रकाश हेतसारिया सिंगापुर में 'बिजहार' के सक्रिय सदस्यों में से हैं। इस पर्व की तैयारी में इनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण रहती है। और अंत में, सोसाइटी के लोगों से जुड़े केरल के मिस्टर पिल्लई भी इस पर्व पर कहते हैं- छठी मइया की जय। छठ पूजा जिस आस्था के साथ अपने यहां मनाई जा रही है, विदेश में रह रहे परिवार भी छठ उसी आस्था के साथ मनाते हैं। अमेरिका के वर्जीनिया में रह रहे राजीव झा समेत अन्य लोगों का परिवार उन्हीं में से एक है। राजीव मूल रूप से मुंगेर जिला के रहने वाले हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा भागलपुर के चंपानगर स्थित ननिहाल में हुई है। राजीव वर्जीनिया में मनाई जाने वाली छठ पूजा को लेकर काफी उत्साह से बताते हैं। राजीव बताते हैं कि पहले वे लोग अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर छठ के मौके पर घर आते थे। अब ऐसा संभव नहीं हो पाता। इस कारण परंपरा को जीवंत रखने के लिए

जब सार्वजनिक जीवन में शुचिता और स्वच्छता जैसे मुद्दे राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बनें और यह ललक दिल्ली के लाल किले से पूरे देश में पहुंचे तो इससे वाकई एक बड़ी उम्मीद बंधती है हैं और वह भी सरकारी समझ-बूझ के कारण। यहां यह समझना भी जरूरी है कि विकास के नए दौर में 'विकसित हठ’ और 'पारंपरिक छठ’ की आपसदारी अगर किसी स्तर पर एक साथ टिकी है तो यह किसी गनीमत से कम नहीं। यह ग्लोबल दौर में सब कुछ गोल हो जाने के

खतरे से हमें उबारता भी है और अपने जुड़ाव की पुरानी जमीन के अब तक पुख्ता होने के सबूत भी देता है।

उगते के साथ डूबते सूर्य की आराधना

याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला

वे लोग 2009 से पूरी आस्था के साथ वर्जीनिया में ही छठ मना रहे हैं। यहां रहने वाले बिहारी मूल के सैकड़ों परिवार एक साथ छठ मनाते हैं। वर्जीनिया और आसपास के इलाकों में परिवार छठ पूजा करने के लिए लोग एक स्थान पर जुटते हैं। राजीव बताते हैं कि खरना पर विशेष प्रसाद की तैयारी होती है। यह प्रसाद पूरी आस्था के साथ तैयार होता है। राजीव झा कैपजेमिनी में प्रोजेक्ट मैनेजर हैं। भागलपुर के मारवाड़ी कॉलेज से शिक्षा हासिल करने के बाद राजीव बेहतर करियर की तलाश में अमेरिका चले गए। इनकी पत्नी तृप्ति राजीव झा हॉस्टन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। वहीं विनय आनंद दरभंगा के रहने वाले हैं। वह एक पेट्रोलियम कंपनी में सीनियर डायरेक्टर हैं। वह भी कई वर्षों से लोक आस्था के इस महापर्व में शामिल होते हैं। उन्होंने कहा कि जब भारतीय मूल के परिवार के साथ छठ के लिए एक जगह इकट्ठा होते हैं तो घर की कमी पूरी तो नहीं होती, लेकिन एक अलग अहसास होता है। इस काम में उनकी पत्नी प्रीति झा भी साथ देती हैं। अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी तरह का पौराणिक कर्मकांड। प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास के खिलाफ यह पर्व भारतीय लोकसमाज की तरफ से एक बड़ा हस्तक्षेप भी है, जिसका कारगर होना सबके हित में है।


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गंगा संरक्षण

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सिर्फ 10,000 समर्पित लोग चाहिए, गंगा बचाओ अभियान सफल हो जाएगा: डॉ. विन्देश्वर पाठक यह न केवल स्वच्छता सुनिश्चित करेगा बल्कि लोगों को रोजगार भी प्रदान करेगा और प्रक्रिया को पारदर्शी भी बनाएगा। यह एक 'सुलभ समाधान’ है

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लभ स्वच्छता और सामाजिक सुधार आंदोलन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक के पास एक ऐसा क्रांतिकारी विचार है, जिससे गंगा को पहले से भी बेहतर और निर्मल बनाने के साथ उसे जीवंतता प्रदान की जा सकती है। गंगा आगे बढ़ती है, गंगा कल-कल बहती है। गंगा सबको भगवान के चरणों तक ले जाती है। गंगा जीवन रेखा है। वह गंगा है। गंगा बचाइए, वह हमें बचाएगी। गंगा का महत्व और भारतीय सभ्यता के विकास का पालन-पोषण और उसकी सहायता गंगा ने कैसे की है, यह कोई छिपी कहानी नहीं है। इसीलिए कई विचारों, अवधारणाओं और परियोजनाओं को वर्षों से इस पवित्र नदी को स्वच्छ करने और इसके सौंदर्य तथा इसकी निर्मलता को प्रदूषण से बचाने के लिए लागू किया जा रहा है। 1905 से 2018 तक हमने कई महत्वाकांक्षी प्रयास देखे हैं, जैसे 1905 में गंगा महासभा की शुरुआत, 1985 में गंगा कार्ययोजना का शुभारंभ, 2009 में नेशनल रीवर गंगा बेसिन अथॉरिटी (एनआरजीबीए) की स्थापना, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई उद्योगों को बंद करना, 2014 में एकीकृत गंगा विकास परियोजना 'नमामि गंगे' की शुरुआत, 2016 में स्वच्छ गंगा के लिए राष्ट्रीय मिशन की स्थापना आदि। प्रयास बहुत सारे हुए हैं, लेकिन स्थिति अभी भी कठिन बनी हुई है और एक परिदृश्य बदलने वाली योजना की अभी भी प्रतीक्षा की जा रही है। एक ऐसा विचार जो लागू करने में आसान हो और बहुत असरदार हो, साथ ही परिदृश्य को हमेशा के लिए बदल दे। सुलभ स्वच्छता और सामाजिक सुधार आंदोलन के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक, नवाचारों के व्यक्तित्व हैं उदाहरण के लिए दो गड्ढे वाले शौचालयों के बारे में उनका विचार ही देख लें, जो न केवल खुले में शौच से मुक्ति में सहायक है, बल्कि हाथों से मैला ढोने की कुप्रथा को भी खत्म करता है। एक ऐसा ही अभिनव विचार डॉ. पाठक के पास है, जो स्वच्छ बहती हुई गंगा को प्राप्त करने के लिए मंत्र की तरह है। यह पवित्र नदी को फिर से जीवंत कर सकता है और इसे सदियों पहले वाली शुद्ध पवित्र नदी में फिर से बहाल कर सकता है।

डॉ. पाठक का विचार: गंगा को 10,000 जिम्मेदार, उत्तरदायी लोगों/स्वयंसेवकों को समर्पित करें और यह जल्द ही 100 फीसदी स्वच्छ हो जाएगी और इसी तरह बनी रहेगी। कैसे? डॉ. पाठक के खुद के शब्दों में पढ़िए:

1 एक 'सुलभ' समाधान

‘हिंदी में एक लोकप्रिय कहावत है, जिसके शब्द हैं कि यदि कोई व्यक्ति रोजाना अपने खेत और मवेशियों की देखभाल नहीं करता है, तो वह दोनों को खो देगा। इसी तरह गंगा को साफ रखने के लिए लोगों को खुद ही इससे जुड़ना

होगा। क्षेत्रों को निकटता के आधार पर आवंटित किया जाना चाहिए और प्रत्येक व्यक्ति को अपने विशेष क्षेत्रों के लिए उत्तरदायी होना चाहिए। गंगा की लंबाई 2525 किमी है और गंगोत्री की शुरुआत से ही जितने लोगों की जरूरत होगी वह कुछ इस तरह है प्रति व्यक्ति आधा किलोमीटर यानी नदी के एक किनारे पर केवल 5000 लोगों की जरूरत होगी, कुल 10,000 लोग चाहिए होंगे और गंगा साफ हो जाएगी। ऐसे लोगों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए, जिन्हें या तो दंडित किया जा सकता है या सम्मानित किया जा सकता है। यह उनकी जिम्मेदारी होगी कि अगर उनके क्षेत्र में कोई कारखाना या शराब फैक्ट्री है, तो यह सुनिश्चित करें कि नदी में कोई अपशिष्ट नहीं फेंका जाना चाहिए। यह बहुत ही साधारण-सी अनिवार्य बात होनी चाहिए। यह न केवल स्वच्छता सुनिश्चित करेगा बल्कि इन लोगों को रोजगार भी प्रदान करेगा और प्रक्रिया को पारदर्शी भी बनाएगा। यह एक 'सुलभ' समाधान है।’

2 मुख्यधारा को उसके हिसाब से बहने दें

‘मृत शव को जला दिया जाता है और फिर उसकी राख को गंगा में विसर्जित किया जाता है। हमने देखा है कि गंगा की मुख्यधारा प्रदूषित नहीं है। इसकी गुणवत्ता या विशेषता है कि यह प्रदूषित नहीं हो पाती है। ऐसा इसीलिए है क्योंकि इसकी मुख्यधारा प्रदूषण का ख्याल रखने में सक्षम है। इस तरह की व्यवस्था की जानी चाहिए कि किसी ऐसी जगह पर राख को विसर्जित किया जाए, जो मुख्यधारा से 200 मीटर दूर हो। जब 200 मीटर के बाद राख मुख्यधारा तक पहुंचेगी, तब उसका मुख्यधारा के द्वारा खुद ख्याल रखा जाएगा। अन्यथा अभी क्या हो रहा है कि सभी विसर्जित पदार्थ इन नदियों के किनारे ही जमा रहते हैं।’

3 दैनिक और तत्काल एक्शन

‘बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री दरोगा प्रसाद राय ने कहा था कि सरकार या संगठन द्वारा सामाजिक कार्य अकेले ही नहीं किया जा सकता है। यदि दोनों हाथ मिलाते हैं, तभी केवल मिशन पूरा किया जा सकता है। यह सच है। अगर सब एक साथ आते हैं, तो यह किया जा सकता है। हम सब पवित्र गंगा की प्रार्थना करते हैं। हमें ऐसा करने के लिए कोई नहीं कहता है, हम इसे खुद ही करते हैं। इसी प्रकार गंगा को साफ रखने के लिए जो कुछ भी कोई स्वयं कर सकता है, उसे अपना योगदान देना चाहिए। एक क्षेत्र चुनें और इसकी सफाई की जांच के लिए रोजाना वहां जाएं। इसे साफ रखने के लिए अपने परिवार, दोस्तों, पड़ोसियों को जोड़ें। यदि फंड की आवश्यकता है, तो आप दान के लिए पर्यटकों और तीर्थयात्रियों से पूछ सकते हैं। आप वित्त-पोषण के लिए सरकार से भी संपर्क


19 - 25 नवंबर 2018

गंगा संरक्षण

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अस्सी घाट पर सुलभ द्वारा किए गए स्वच्छता कार्य के बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बताते हुए डाॅ. विन्देश्वर पाठक

कर सकते हैं। लेकिन आपको रोजाना क्षेत्र की देखभाल करनी होगी। दुनियाभर में जब शवों या कंकालों को नदियों में फेंक दिया जाता है, तो उन्हें तत्काल बाहर निकाला जाना चाहिए। हम (सुलभ) ने एक घाट साफ किया है - अस्सी घाट, जिसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वयं साफ किया और बाद में सुलभ ने इसे आगे बढ़ाया। आज, हम इसकी देखभाल करते हैं। अगर अस्सी घाट के चारों ओर कोई गंदगी होती है या नदी में कुछ फेंक दिया जाता है, तो हम तुरंत इसे हटा देते हैं। हमारे लोग नौकाओं पर बैठते हैं और जब भी कोई फूल, फल या कुछ और फेंकता है, तो हम उन्हें तुरंत नदी से बाहर निकाल देते हैं। जब तक गंगा की लगातार हर वक्त देखभाल नहीं की जाएगी, तब तक कुछ भी संतोषजनक नहीं होगा।’

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परंपराओं को न बदलें, आदतों को बदलें

‘हम लोगों को दीया या फूलों के साथ पवित्र गंगा की प्रार्थना करने से नहीं रोक सकते हैं, लेकिन हम कम से कम पूजा होने के तुरंत बाद इसे नदी से बाहर निकालने और अलग किनारे पर रखने के लिए आग्रह तो कर ही सकते हैं। बाद में देखभाल करने वाला उसे वहां से हटा सकता है। सुलभ व्यावहारिक और पारस्परिक समाधान देने में विश्वास करता है - मानव व्यवहार क्या है और हम इसे पारस्परिक रूप से कैसे बदल सकते हैं, उन्हें कैसे समझा सकते हैं। ऐसे समाधान लंबे समय तक काम करेंगे। आजकल फूल अच्छे खाद के रूप में या होली रंग निकालने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं।

जो लोग फूलों से निष्कर्षण करते हैं, वे इन फूलों को नदी के किनारों से एकत्र कर सकते हैं और अपने मनमाफिक पुन: उपयोग में ला सकते हैं।’

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उपचार उतना ही महत्वपूर्ण है जितना संरक्षण

‘अपशिष्ट जल का उपचार (ट्रीटमेंट) बहुत जरूरी है। आज 732 शहर हैं, जिनके सीवेज का पानी सीधे नदियों में चला जाता है। क्लास -1 शहर लगभग 500 हैं, क्लास -2 शहर 232 हैं। क्लास -1 शहरों में उपचार का कवरेज औसत है लगभग 32 प्रतिशत। द्वितीय श्रेणी के शहरों में उपचार केवल 8 फीसदी है। दिल्ली में उपचार 69 प्रतिशत है। जबकि शेष जल नदियों में चला जाता है। गंगा भी एक ऐसी ही नदी है। गंगा की सफाई के लिए यह महत्वपूर्ण है कि सीवेज के पानी और चमड़े के कारखाने व शराब फैक्ट्री से निकले अपशिष्ट जल का 100 फीसदी उपचार और प्रशोधन किया जाए। सभी शुरुआती सभ्यताएं नदियों के तट पर बस गईं, क्योंकि पानी पीने और व्यापार व वाणिज्य के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता थी और इस्तेमाल किए गए पानी का चाहे शौचालय का हो या रसोई का या अन्य कहीं का, उन नदियों में ही निपटान भी कर दिया जाता था। इससे पहले जनसंख्या कम थी और इसीलिए शौचालयों का उपयोग भी सीमित था। लेकिन अब क्या हुआ है कि एक शहर में ही लाखों और करोड़ों लोग रह रहे हैं। आज सुलभ मानव उत्सर्जन का पुन: उपयोग में लाकर इससे बायोगैस पैदा करता है। इससे लैंप जलता है, भोजन बनता है, बिजली के उत्पादन सहित अन्य कई काम करता है और जिस पानी को हम अपने संयंत्र के माध्यम से साफ करते हैं वह

बहुत ही साफ है। इसके लिए एक तकनीकी शब्द है - बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) प्रति लीटर प्रति मिलीग्राम – हमारे साफ जल में 10 बीओडी है, जो बहुत साफ पानी में होता है। इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम है और खेती जैसे विभिन्न गतिविधियों के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है, जहां यह खाद के रूप में कार्य करेगा, या नदियों में भी छोड़ा जा सकता है। इस तरह नदी भी स्वच्छ और प्रदूषण से मुक्त रह सकती है। इस तरह के उपचार संयंत्र जो कि यहां सुलभ ग्राम में हैं, इन उपचार संयंत्रों को इस तरह से लगाया और उपयोग में लाया जाना चाहिए कि सीवेज का पानी नदी में प्रवेश करने से पहले ही हाथोहाथ साफ हो जाए। तब पानी नदियों में छोड़ा जा सकता है और उससे कोई प्रदूषण भी नहीं होगा।’

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शौचालय कभी मत भूलना! ‘जैसा कि आप देख सकते हैं, प्रदूषण से पर्यावरण को बचाने के संदर्भ में घरों और सार्वजनिक स्थानों पर बनाए गए शौचालय आज भारत में जितनी भी स्वच्छता दिखती है, उसके पीछे एक सबसे बड़ा

कारण हैं। आप खुद अपने लिए यह कल्पना कर सकते हैं कि अगर 50 साल पहले की स्थिति आज भी बनी रही होती, तो वर्तमान परिदृश्य क्या होता? अगर सुलभ शौचालय का आविष्कार नहीं हुआ होता, तो न ही खुले में शौच से मुक्ति मिलती और न ही हाथों से मैला ढोने (मैनुअल स्केवेंजिंग) की कुप्रथा समाप्त हो सकती थी। उत्तराखंड सरकार और सुलभ के संयुक्त प्रयासों के माध्यम से उत्तराखंड में विशेष रूप से गंगोत्री में शौचालय बनाए गए। उत्तराखंड सरकार चाहती थी कि सुलभ शौचालय गंगोत्री में बनाए जाएं, ताकि तीर्थयात्रियों को इधर-उधर घूमकर खुले में शौच के लिए न जाना पड़े, क्योंकि इससे इलाके में प्रदूषण होता है और गंगा जल भी दूषित होता है। गंगा के किनारे या उसके आस - पास बने सभी घर या उसके जलग्रह क्षेत्रों वाले घरों में शौचालय होना चाहिए, ताकि वहां कोई भी खुले में शौच के लिए न जाए और पवित्र नदी में मानव मल न जमा हो। इसके अलावा, सिर्फ शौचालय का निर्माण ही पर्याप्त नहीं है, उसकी देख-रेख भी बहुत जरूरी है। यह साफ होने चाहिए और लोगों को इसके उपयोग के बारे में जानकारी देकर जागरूक किया जाना चाहिए।’


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अास्था

19 - 25 नवंबर 2018

सिर्फ एक रात में बना यह सूर्य मंदिर छठ पर लगती है श्रद्धालुओं की भीड़ देव सूर्य मंदिर देश की धरोहर एवं अनूठी विरासत है। हर वर्ष छठ पर्व पर यहां लाखों श्रद्धालु छठ करने झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों से आते हैं

एसएसबी ब्यूरो

पने कई सूर्य मंदिरों के बारे में सुना और देखा होगा, लेकिन बिहार के औरंगाबाद जिले के देव स्थित प्राचीन सूर्य मंदिर अनोखा है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने एक रात में किया था। यह देश का एकमात्र ऐसा सूर्य मंदिर है, जिसका दरवाजा पश्चिम की ओर है। इस मंदिर के निर्माण का स्पष्ट कोई प्रमाण तो नहीं मिलता है, मगर कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण डेढ़ लाख वर्ष पूर्व किया गया था। छठ पर्व के मौके पर यहां लाखों लोग भगवान भास्कर की अाराधना के लिए जुटते हैं।

भव्य और कलात्मक सूर्य मंदिर

त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी विशिष्ट कलात्मक भव्यता के साथ-साथ अपने इतिहास के लिए भी विख्यात है। औरंगाबाद से 18 किलोमीटर दूर देव स्थित सूर्य मंदिर करीब सौ फीट ऊंचा है।

मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण त्रेता युग में स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने किया था। काले और भूरे पत्थरों की नायाब शिल्पकारी से बना डेढ़ लाख वर्ष पुराना यह सूर्य मंदिर ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से मिलता-जुलता है। मंदिर के निर्माणकाल के संबंध में मंदिर के बाहर लगे एक शिलालेख पर ब्राह्मी लिपि में लिखित और संस्कृत में अनूदित एक श्लोक के मुताबिक, इस मंदिर का निर्माण 12 लाख 16 हजार वर्ष त्रेता युग के बीत जाने के बाद इला-पुत्र पुरुरवा ऐल ने आरंभ करवाया। शिलालेख से पता चलता है कि इस पौराणिक मंदिर के निर्माण काल को एक लाख पचास हजार वर्ष पूरे हो गए हैं।

है। करीब एक सौ फीट ऊंचा यह सूर्य मंदिर स्थापत्य और वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। बिना सीमेंट या चूना-गारा का प्रयोग किए आयताकार, वर्गाकार, आर्वाकार, गोलाकार, त्रिभुजाकार आदि कई रूपों और आकारों में काटे गए पत्थरों को जोड़कर बनाया गया यह मंदिर अत्यंत आकर्षक एवं विस्मयकारी है। देव सूर्य मंदिर देश की धरोहर एवं अनूठी विरासत है। हर वर्ष छठ पर्व पर यहां लाखों श्रद्धालु छठ करने झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों से आते हैं। कहा जाता है कि जो भक्त मन से इस मंदिर में भगवान सूर्य की पूजा करते हैं, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

सौ फीट ऊंचा मंदिर

जनश्रुतियों में भी उल्लेख

देव मंदिर में सात रथों से सूर्य की उत्कीर्ण प्रस्तर मूर्तियां अपने तीनों रूपों उदयाचल (सुबह) सूर्य, मध्याचल (दोपहर) सूर्य और अस्ताचल (अस्त) सूर्य के रूप में विद्यमान हैं। पूरे देश में यही एकमात्र सूर्य मंदिर है जो पूर्वाभिमुख न होकर पश्चिमाभिमुख

जनश्रुतियों के मुताबिक, राजा ऐल एक बार देव इलाके के जंगल में शिकार खेलने गए थे। शिकार खेलने के समय उन्हें प्यास लगी। उन्होंने अपने आदेशपाल को लोटा भर पानी लाने को कहा। आदेशपाल पानी की तलाश करता हुआ एक पानी

त्रेतायुगीन पश्चिमाभिमुख सूर्य मंदिर अपनी विशिष्ट कलात्मक भव्यता के साथ-साथ अपने इतिहास के लिए भी विख्यात है। औरंगाबाद से 18 किलोमीटर दूर देव स्थित सूर्य मंदिर करीब सौ फीट ऊंचा है। मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण त्रेता युग में स्वयं भगवान विश्वकर्मा ने किया था

भरे गड्ढे के पास पहुंचा। वहां से उसने एक लोटा पानी लेकर राजा को दिया। राजा के हाथ में जहांजहां पानी का स्पर्श हुआ, वहां का कुष्ठ रोग ठीक हो गया। राजा ने बाद में उस गड्ढे में स्नान किया और उनका कुष्ठ रोग ठीक हो गया। उसके बाद उसी रात जब राजा रात में सोए हुए थे तो सपना आया कि जिस गड्ढे में उन्होंने स्नान किया था, उस गड्ढे में तीन मूर्तियां हैं। राजा ने फिर उन मूर्तियों को एक मंदिर बनाकर स्थापित किया।

लाखों श्रद्धालु आते हैं

कार्तिक एवं चैत महीने में छठ करने कई राज्यों से लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। यहां मंदिर के समीप स्थित सूर्यकुंड तालाब का विशेष महत्व है। इस सूर्यकुंड में स्नान कर व्रती सूर्यदेव की आराधना करते हैं। मंदिर के मुख्य पुजारी सच्चिदानंद पाठक बताते हैं कि प्रत्येक दिन सुबह चार बजे भगवान को घंटी बजाकर जगाया जाता है। उसके बाद पुजारी भगवान को नहलाते हैं, ललाट पर चंदन लगाते हैं, नया वस्त्र पहनाते हैं। यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। भगवान को आदित्य हृदय स्त्रोत का पाठ सुनाया जाता है। वैसे तो सालभर देश के विभिन्न जगहों से लोग इस मंदिर में आते हैं और मनौतियां मांगते हैं, लेकिन छठ के मौके पर यहां खूब भीड़ जुटती है। मनौती पूरी होने पर यहां लोग सूर्यदेव को अर्घ्य देने आते हैं।


19 - 25 नवंबर 2018

सोलर सिस्टम के करीब पहुंचे एलियंस

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक मान रहे हैं कि शायद दो तारों के बीच की जगह में किसी कृत्रिम प्रकाश की मौजूदगी है या फिर जीवन के कुछ संकेत भी वहां पर हों

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र्वर्ड यूनिवर्सिटी के ऐस्ट्रोफिजिक्स सेंटर ने एलियंस और सोलर सिस्टम को लेकर एक बड़ा खुलासा किया है। स्टडी के अनुसार, एलियंस ने एक तरह से सोलर सिस्टम पर दस्तक दी है और इस संकेत में बड़े वैज्ञानिक रहस्य छुपे हुए हैं। एलियंस के सोलर सिस्टम के बहुत नजदीक पहुंचने के बाद ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि शायद दो तारों के बीच के जगह में कृत्रिम प्रकाश की मौजूदगी है या फिर वहां जीवन से जुड़े कुछ संकेत हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि चट्टान जिसका नाम ओयुमुमुआ है, जिसका अर्थ आगमन के बाद का पहला संदेश होता है। हवा में दिखने के बाद सूर्य के स्टार सिस्टम में प्रवेश के साथ कुछ दूसरे संकेत मिले। ये संकेत कृत्रिम तरीके से उत्पन्न हुए प्रकाश सेल की तरफ इशारा करते हैं। सूर्य की रेडिऐशन की तरफ इन किरणों का झुकाव देखा गया। सिगार के आकार का यह छोटा तारा 400 मीटर लंबा और 40 मीटर चौड़ा जैसा नजर आया। 112,000 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से बढ़ रहे इस ग्रह की गति को देखकर ऐसा लग रहा है कि वरुण ग्रह को लगभग 4 साल पहले ही पार कर चुका है। हालांकि, अभी तक इसकी अधिकतम गति 313,600 किमी प्रति घंटे रेकॉर्ड की गई है, जब सितंबर में इसने सूर्य को पार किया था। (एजेंसी)

नासा को चाहिए विशेष रोबोट के लिए डिजाइन

नासा कृत्रिम बुद्धिमत्ता वाले विशेष प्रकार के रोबोट का डिजाइन तैयार करने के लिए आम लोगों और वैज्ञानिक समुदाय के सामने चुनौती पेश करने की योजना बना रहा है

अं

तरिक्ष केंद्र ह्यूस्टन के सीईओ विलियम हैरिस ने कहा कि नासा कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) वाले विशेष प्रकार के रोबोट का डिजाइन तैयार करने के लिए आम लोगों और वैज्ञानिक समुदाय के सामने चुनौती पेश करने की योजना बना रही है। यह रोबोट चंद्रमा की सतह के बारे में जानकारी जुटा सकेगा। अमेरिकी ‘नासा जॉनसन स्पेस सेंटर’ से संबद्ध अंतरिक्ष केंद्र ह्यूस्टन नियमित रूप से आम लोगों से संपर्क के लिए कार्यक्रम चलाता है ताकि विभिन्न आयु वर्ग और अलग

पृष्ठभूमि वाले लोगों को वैज्ञानिक अनुसंधान से जोड़ा जा सके।

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विज्ञान

केपलर स्पेस टेलिस्कोप हुआ रिटायर

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का ग्रहों की खोज करने वाला केपलर स्पेस टेलिस्कोप 9 साल की सेवा के बाद रिटायर होने वाला है

मेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का ग्रहों की खोज करने वाला केपलर स्पेस टेलिस्कोप मिशन समाप्त हो गया है। यह दूरबीन 9 साल की सेवा के बाद रिटायर होने वाला है। वैज्ञानिकों ने बताया है कि 2,600 ग्रहों की खोज में मदद करने वाले केपलर दूरबीन का ईंधन खत्म हो गया है, इसीलिए उसे रिटायर किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि 2009 में स्थापित इस दूरबीन ने अरबों छुपे हुए ग्रहों से हमें अवगत कराया और ब्रह्मांड की हमारी समझ को बेहतर बनाया। नासा की ओर से जारी बयान के अनुसार, केपलर ने दिखाया कि रात में आकाश में दिखने वाले 20 से 50 प्रतिशत तारों के सौरमंडल में पृथ्वी के आकार के ग्रह हैं और वे अपने तारों के रहने योग्य क्षेत्र के भीतर स्थित हैं। इसका मतलब है कि वे अपने तारों से इतनी दूरी पर स्थित हैं, जहां इन ग्रहों पर जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण पानी के होने की संभावना है। इन कार्यक्रमों में छात्रों और वैज्ञानिकों को उन समस्याओं के हल के लिए अभिनव समाधान पेश करने को प्रोत्साहित किया जाता है, जिसका सामना अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी अंतरिक्ष मिशनों के दौरान करती है। हैरिस ने एक साक्षात्कार में कहा कि अगली चुनौती चंद्रमा के संबंध में है और इसकी घोषणा अगले साल की जाएगी।

नासा के एस्ट्रोफिजिक्स विभाग के निदेशक पॉल हर्ट्ज का कहना है कि केपलर का जाना कोई अनपेक्षित नहीं था। केपलर का ईंधन खत्म होने के संकेत करीब दो सप्ताह पहले ही मिले थे। उसका ईंधन पूरी तरह से खत्म होने से पहले ही वैज्ञानिक उसके पास मौजूद सारा डेटा एकत्र करने में सफल रहे। नासा का कहना है कि फिलहाल केपलर धरती से दूर सुरक्षित कक्षा में है। नासा केपलर के ट्विटर हैंडल से इसके बारे में डीटेल देते हुए ट्वीट भी किया गया। इसके मुताबिक यह टेलिस्कोप 9 वर्ष 6 महीना स्पेस में रहा। 5,30,506 तारों का अवलोकन किया। इसमें से 2,663 ग्रहों की पुष्टि की गई। (एजेंसी) उन्होंने कहा कि चुनौती एक कृत्रिम बुद्धिमत्ता से युक्त ‘सेल्फ-एसेम्बलिंग’ रोबोट या रोवर विकसित करने की है जो चंद्रमा की सतह के बारे में जानकारी लेकर फैसले कर सके। उन्होंने कहा कि वास्तविकता यह है कि हमने 1960 के दशक में मनुष्य को चंद्रमा पर भेजा तो उसका वहां जाकर सुरक्षित रूप से वापस आना एक बड़ी उपलब्धि थी। लेकिन हमने उन मिशनों के दौरान बहुत वैज्ञानिक प्रयोग नहीं किए। हैरिस ने कहा कि उस समय अधिकतर अंतरिक्ष यात्री परीक्षण पायलट थे। चंद्रमा की यात्रा करने वाले पहले और एकमात्र वैज्ञानिक हैरिसन श्मिट थे जो भूवैज्ञानिक थे। वह अपोलो 17 मिशन के एकमात्र जीवित सदस्य हैं। अब नासा जिन अंतरिक्ष यात्रियों का चयन करता है, वे वैज्ञानिक होते हैं। मनुष्य को चंद्रमा की सतह पर वापस भेजने के लिए योजनाओं पर काम चल रहा है और अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ऐसी प्रौद्योगिकियों पर काम कर रही है जिनसे चंद्रमा पर वैज्ञानिक प्रयोग करने में अंतरिक्ष यात्रियों को मदद मिल सके। (एजेंसी)


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गुड न्यूज

19 - 25 नवंबर 2018

'सुपर 30' के छात्रों को जापान में पढ़ने का न्योता टोक्यो विश्वविद्यालय के इंडिया ऑपरेशन हेड हिरोशी योशिनो 'सुपर 30' के छात्रों को जापान में पढ़ने का निमंत्रण देने पटना पहुंचे

30' के दो छात्रों के जापान के टोक्यो 'सुपरविश्वविद्यालय में शानदार प्रदर्शन को

देखते हुए विश्वविद्यालय प्रशासन ने 'सुपर 30' के ऊर्जावान छात्रों को वहां ले जाने की योजना बनाई है। इसी सिलसिले में टोक्यो विश्वविद्यालय के इंडिया ऑपरेशन हेड हिरोशी योशिनो पटना पहुंचे और 'सुपर 30' के संस्थापक आनंद

कुमार व उनके छात्रों से बातचीत की। टोक्यो विश्वविद्यालय ने 'सुपर 30' के छात्रों से प्रभावित होकर दो छात्र अभिषेक गुप्ता और कुणाल कुमार को पूरे स्कॉलरशिप के साथ पढ़ने के लिए दो साल पहले आमंत्रित किया था। अब दोनों छात्रों के बेहतरीन प्रदर्शन को देखते हुए और छात्रों को वहां ले जाने की योजना बनाई है।

हिरोशी योशिनो ने कहा, ‘आज जापान में युवाओं की कमी हो रही है, जबकि भारत बतौर युवाओं का देश जाना जाता है। जापान चाहता है कि भारतीय युवाओं को वहां के विश्वविद्यालय में पढ़ने का मौका दिया जाए, जिससे उनकी ऊर्जा और जापान की तकनीक का उपयोग कर दुनिया को और भी बेहतर बनाया जा सके।’ उन्होंने कहा कि पहले जापान बाहरी छात्रों को तैयार करने में विशेष रुचि नहीं लेता था, क्योंकि वहां की भाषा यहां के छात्रों के लिए बाधा थी। वर्तमान समय में बाहर के विद्यार्थियों के लिए अंग्रेजी में स्नातक और स्नातकोत्तर कोर्स की सुविधा शुरू की गई है। योशिनो ने आनंद कुमार के प्रयास की प्रशंसा करते हुए कहा कि चाहे जापान का सबसे मशहूर टीवी चैनल एनएचके हो या फिर चर्चित अखबार योमूरी, 'सुपर 30' की चर्चा जापान में अकसर होते रहती है। उन्होंने कहा कि जापान की सबसे चर्चित सिने तारिका नोरिका फुजिवारा 'सुपर 30' को देखने पटना भी आ चुकी हैं। (आईएएनएस)

104 भारतीय महिला स्टेम विद्वान हुईं सम्मानित ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने ब्रिटिश काउंसिल द्वारा स्कॉलरशिप के लिए चुनी गईं 104 भारतीय स्टेम विद्वानों को सम्मानित किया

त्री थेरेसा मे ने ब्रिटेन में ब्रिटेविज्ञान कीन, प्रधानमं प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और

गणित (स्टेम) विषयों में परास्तानक की पढ़ाई कर रहीं 104 भारतीय महिलाओं को अपने निवास पर सम्मानित किया और साथ ही साथ ब्रिटिश काउंसिल की ओर से उन्हें स्कॉलरशिप भी दी। सांस्कृतिक संबंधों और शैक्षिक अवसरों के लिए ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय संगठन- ब्रिटिश काउंसिल ने अपनी 70वीं वर्षगांठ पर अपने वार्षिक छात्रवृत्ति कार्यक्रम के दूसरे संस्करण पर इन 104 भारतीय स्टेम विद्धानों को स्कॉलरशिप के लिए चुना है। प्रधानमंत्री के निवास पर आयोजित सम्मान समारोह के दौरान भारतीय महिला स्टेम विद्वानों ने इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड के 43 विश्वविद्यालयों के

अधिकारियों से भी मुलाकात की, जहां वे स्टेम शिक्षा में अपनी मास्टर डिग्री पूर्ण कर रही हैं। भारत की जिन 104 स्टेम विद्वानों को ब्रिटिश काउंसिल छात्रवृत्ति योजना के दूसरे संस्करण के तहत चुना गया है, उनमें से 50 फीसदी से अधिक टियर-2 और टियर-3 के भारतीय शहरों से आती हैं। यह बात देश भर में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, कौशल और योग्यता तक पहुंच में सुधार तथा भारत और वैश्विक स्तर पर भारतीय महिलाओं के सफल होने के अवसर प्रदान करने के लिए ब्रिटिश काउंसिल की प्रतिबद्धता को रेखांकित करता है। अपनी छात्रवृति योजना के दूसरे संस्करण में ब्रिटिश काउंसिल और ब्रिटेन में स्थित दुनिया के कुछ बेहतरीन विश्वविद्यालय 70 भारतीय महिलाओं को शैक्षणिक वर्ष 2019-20

के लिए ब्रिटेन में स्टेम में मास्टर कार्यक्रम का अध्ययन करने के लिए 1 करोड़ पाउंड की पूर्ण शिक्षण छात्रवृत्ति को वित्तपोषित करेंगे। महिला विद्वानों के लिए ब्रिटिश काउंसिल का यह निवेश भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के महिलाओं के नेतृत्व वाले विकास के उपाय और संकल्प तथा स्वयं ब्रिटिश काउंसिल के महिलाओं और लड़कियों पर विशेष ध्यान तथा संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य-5 का समर्थन करता है। भारत में ब्रिटिश काउंसिल के निदेशक एलेन गैमल ने कहा, 'हमारे विद्वानों के लिए प्रधानमंत्री से उनके घर 10-डाउनिंग स्ट्रीट में मुलाकात करना एक अविस्मरणीय दिन है। विद्वानों की मुलाकात ब्रिटेन और भारत के बीच शैक्षणिक संबंधों के विशेष महत्व का एक अनुस्मारक है, जिसके चलते ब्रिटेन ने पिछले साल भारत से 18,000 छात्रों का स्वागत किया था। 2018 की ब्रिटिश काउंसिल 70वीं वर्षगांठ की 104 विद्वान महिला ब्रिटेन और भारत के बीच भविष्य के संबंधों की राजदूत हैं। गैमल ने कहा कि मुझे खुशी है कि हम 2019 में 70 और महिलाओं के लिए ब्रिटिश काउंसिल की 70वीं वर्षगांठ पर छात्रवृत्तियां देने के लिए 1 करोड़ पाउंड के निवेश की घोषणा कर रहे हैं।' (आईएएनएस)

बंधुआ मजदूर बना जमीन का मालिक

तमिलनाडु के पी. राजू ने जिंदगी का सफर बंधआ ु मजदूर के रूप में शुरू किया, लेकिन उसके जज्बे ने आज उन्हें जमीन का मालिक बना दिया

पी.

राजू के चेहरे पर खिली चमक उनकी खुशहाली की कहानी बता जाती है। राजू कभी बुंदेलखंड में बंधुआ मजदूर हुआ करते थे, लेकिन आज पैरंबलोर में साढ़े चार एकड़ जमीन के मालिक हैं। राजू की कहानी बड़ी दिलचस्प है। वह जब तीन साल के थे, तब उनके पिता पी. पालनीस्वामी वर्ष 1961 में उन्हें अपने साथ काम पर बुंदेलखंड ले गए। बालक राजू झांसी के आसपास के इलाके में जवान हुआ, उसने वहां पत्थर काटने का काम किया। राजू के जीवन के 27 साल वहीं बीते, मगर विवाह तामिलनाडु में ही किया। राजू बताते हैं कि उनके जीवन में बड़ा बदलाव लाने वाला दिन 28 सितंबर 1988 था, जब वह ठेकेदारों के चंगुल से पूरी तरह मुक्त हुए। पी.वी. राजगोपाल का वहां पहुंचना हुआ, राजगोपाल उन दिनों सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बंधुआ मुक्ति अभियान के आयुक्त नियुक्त किए गए थे। बुंदेलखंड के अनुभवों को साझा करते हुए राजू कहते हैं कि वहां पत्थर काटने का काम तामिलनाडु के मजदूर ही किया करते हैं, क्योंकि तामिलनाडु के मजदूरों में पत्थर काटने का हुनर है और वे मेहनती भी ज्यादा हैं। राजू स्वयं एक दिन में 100 पत्थर तक काट लिया करते थे। राजू वहां के ठेकेदारों की कार्यशैली से अब भी नाराज हैं, भले ही उन्हें वहां से लौटे तीन दशक बीत गए हों। वह बताते हैं कि ठेकेदार 1000 रुपए पेशगी के तौर पर देकर अपने जाल में फंसा लेते हैं और उसके बाद मजदूरी की रकम में से पेशगी की किस्त के तौर पर काटते हैं, जब भी काम छोड़ने की बात करो, धमकाते हैं। राजू बताते हैं कि जो भी मजदूर काम छोड़कर दूसरे स्थान पर जाने की बात जैसे ही करता है, ठेकेदार धौंस जमाता है। पहले तो पेशगी में दी गई रकम को दोगुनी से ज्यादा बताकर वापस मांगता है। मजदूर के पास उतनी रकम होती नहीं, उसके बाद भी मजदूर जाने की जिद करता है तो उससे मारपीट तक की जाती है। बुंदेलखंड में पत्थर के कारोबार में सक्रिय कई ठेकेदारों और दबंगों के नाम अब भी राजू को याद हैं। वह कहते हैं कि पी.वी. राजगोपाल ने झांसी जिले के कस्बे मोंठ के पास स्थित दासना व अन्य गांव से एक दिन में ढाई सौ से ज्यादा परिवारों को मुक्त कराया था। प्रशासन के सहयोग के चलते मजदूरों के गिरवी रखे गहने भी सूदखोर ने लौटा दिए थे। राजू इस समय साढ़े चार एकड़ जमीन के मालिक हैं। उनके तीन बेटे और एक बेटी है। बेटी की शादी हो चुकी है। राजू अब पूरी तरह निश्चिंत हैं। उनका कहना है कि कभी भी दिहाड़ी के लिए परेशान न होकर स्थाई आमदनी का जरिया खोजना चाहिए। (आईएएनएस)


19 - 25 नवंबर 2018

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गुड न्यूज

टीच फॉर इंडिया

सामाजिक समाधान के छोटे नायक टूटी सड़क,कचरा,स्ट्रीट लाइट की कमी जैसी समस्याओं का समाधान कर पाना बच्चों का खेल नहीं है, लेकिन दिल्ली में कई बच्चे ऐसे भी हैं जिनका हौसला बड़ा और समाधानकारक है

जि

निवेदिता सिंह

स उम्र में बच्चे आमतौर पर खेलने में लगे रहते हैं, उस उम्र में उत्तरी दिल्ली के शिवविहार के जतिन, विकास और रितेश इलाके में कचरे की समस्या का समाधान तलाशने में जुटे थे। उसी समय नांगलोई स्थित निलोथी के आत्रे ने असुरक्षित सड़क की समस्या का समाधान करने की दिशा में पहल की, क्योंकि टूटी सड़क पर उनकी चाची हादसे की शिकार हो गई थीं। नागरिक बदलाव के इन नायकों की शक्ति का स्रोत निकिता दीदी थीं। दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य में स्नातक द्वारका की निकिता शर्मा बच्चों को भावी नायक के रूप में तैयार कर महत्वपूर्ण बदलाव लाना चाहती थीं। अपनी इसी आकांक्षा को लेकर उन्होंने 2017 में 'टीच फॉर इंडिया' पहल की शुरुआत की। सेना में अधिकारी बनने की तमन्ना रखने वाले विकास ने कहा, ‘हमारे समुदाय में समस्याएं थीं और हम उनका समाधान करना चाहते थे, लेकिन हम नहीं जानते थे कि समाधान कैसे किया जाए। निकिता दीदी ने हमारा मार्गदर्शन किया। उन्होंने हमें अपने समुदाय की दशा सुधारने में मदद की।’ निकिता शर्मा ने विकासपुरी स्थित सर्वोदय बाल विद्यालय में सातवीं कक्षा के सभी विद्यार्थियों

जतिन और रितेश की कचरा निपटान परियोजना, प्रिंस की आवारा कुत्तों से जुड़ी योजना और भवेश की सड़क सफाई की योजना इनके कुछ सफल प्रयास हैं को उनके अधिकारों और दायित्वों के बारे में बताया और उन्हें स्थानीय प्राधिकरणों के सहयोग से बदलाव लाने को प्रेरित किया। निकिता शर्मा ने कहा, ‘मैं छात्रों को समस्याओं का समधानकर्ता और सामाजिक बदलाव का नायक बनाना चाहती थी। मैंने समुदाय की भागीदारी की परियोजना शुरू की। मैंने निम्न आय वर्ग के लोगों की समस्याओं को देखकर उनमें बदलाव लाने की ठानी।’ उन्होंने कहा, ‘विद्यार्थी इस बात से हैरान थे, लेकिन इसे अंजाम देने को लेकर वे रोमांचित भी थे, क्योंकि यह उनके लिए अनोखा कार्य था। वे सरकार के पदानुक्रम के बारे में पढ़ चुके थे, लेकिन सरकारी अधिकारियों से संपर्क करने का उनको असली अनुभव नहीं था। मैं चाहती थी कि वे न सिर्फ पढ़ाई करें, बल्कि सरकार को समझें और यह जानें कि बतौर नागरिक हमें सरकार के साथ समन्वय बनाकर बदलाव लाने का अधिकार है।’ उनके प्रयासों से बच्चे न सिर्फ प्रेरित हुए, बल्कि वह बदलावकर्ता बनने में भी समर्थ हुए। जतिन और रितेश की कचरा निपटान परियोजना, प्रिंस की आवारा कुत्तों से जुड़ी योजना और भवेश

की सड़क सफाई की योजना इनके कुछ सफल प्रयास हैं। निकिता ने कहा, ‘उन्होंने (जतिन और रितेश) अस्वास्थ्यकर दशाओं को लेकर दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) से संपर्क किया और तीन महीने तक उससे संपर्क करते रहे जिसके बाद एमसीडी ने उनकी समस्याओं को संज्ञान में लेकर उनका समाधान किया।’ प्रिंस ने भी शिव विहार में अवारा कुत्तों को लेकर हो रही परेशानी दूर करने के लिए काम किया। निकिता कहती हैं कि अवारा कुत्तों के उपद्रव के कारण वहां के समुदाय के साथ खराब बर्ताव किया जा रहा था। उसने संबद्ध प्राधिकारियों से संपर्क किया और कुत्तों को सुरक्षा पुनर्वासन केंद्र तक पहुंचाने तक उनसे लगातार संपर्क करता रहा।’ हालांकि यह यात्रा सुगम नहीं थी। उन्होंने कहा, ‘जटिल समस्याओं और मसलों का समाधान करने के लिए अक्सर ज्यादा समय देना पड़ता है। बदहाल सड़क की समस्या का समाधान करने में करीब चार महीने लग गए। उस वक्त छात्रों की उम्मीदें टूटने लगी थीं। मैंने उनको विश्वास दिलाया कि मैं उनकी मदद के लिए खड़ी हूं।’ उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा, मैंने एक सत्र में

उनको अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में बताया। मैंने उनको बताया कि समस्याओं का समाधान करने के लिए कदम उठाना उनका कर्तव्य है। हम हमेशा अधिकारों के लिए लड़ते हैं, लेकिन कर्तव्यों को याद नहीं रखते।’ उन्होंने बताया कि बदलाव लाने के लिए छात्रों को भाषण देना आसान है, लेकिन उनको परिवर्तन लाने की जिम्मेदारी उठाने के लिए प्रेरित करना थोड़ा कठिन है। हालांकि इन छात्रों की कामयाबी से उन्हें दूसरे छात्रों को भी प्रेरित करने में मदद मिलती है। उन्होंने बताया, ‘मैंने ग्रीष्मावकाश से पहले परियोजना शुरू की। मैंने गृहकार्य के साथ परियोजना को समाकलित किया ताकि छात्र इस कार्य में लगे रहें। मैंने यह सुनिश्चित किया कि माता-पिता को भी इसकी जानकारी होनी चाहिए ताकि वे भी अपने बच्चों को अपने समुदाय की समस्याओं का समाधान करने के लिए उत्साहित करें।’ निकिता शर्मा ने बताया, ‘सड़क की मरम्मत करवाने की आत्रे की कहानी से अन्य छात्र भी जटिल समस्याओं का समाधान करने की दिशा में पहल करने को प्रेरित हुए हैं। उसने अप्रैल के मध्य में अपनी योजना पर काम करना शुरू किया। वह चार महीने तक इस कार्य को अंजाम दिलाने में लगा रहा। जब उसकी समस्या का समाधान हो गया तो इससे प्रभावित होकर अन्य छात्र भी खुद इस दिशा में पहल करने लगे और अपने सहपाठियों के प्रयासों से वे काफी गौरवान्वित हैं।’ उन्होंने बताया कि शिव विहार में आदित्य और तनुज ने स्ट्रीटलाइट मरम्मत करवाने की योजना बनाई, तो ध्रुव कचरा निपटान के कार्य में जुटा हुआ है। आत्रे और विकास ने अपना अनुभव बताते हुए कहा कि बच्चों का टेलीफोन प्राप्त कर एमसीडी के लोग हैरान थे। उन्होंने बताया, ‘हमने अपनी समस्याओं को लेकर एमसीडी को फोन किया। वे चकित थे कि बच्चे उनको कॉल कर रहे थे, लेकिन उनका रुख काफी सहायक व उत्साहवर्धक था। उन्होंने हमसे पता और समस्या के बारे में पूछा और हमें शिकायत संख्या दी। हमने एक से चार महीने तक उनसे संपर्क किया। हमने संबंधित प्राधिकारियों से फोन पर संपर्क किया और समस्याओं का समाधान होने का इंतजार किया क्योंकि कुछ समस्याएं गंभीर थीं।’ बच्चों और एमसीडी की सकारात्मक प्रतिक्रिया से जनता और व्यवस्था के बीच विश्वास कायम हुआ है। विकास ने कहा, ‘हम अपने समुदाय की अन्य समस्याओं का समाधान करने के साथ-साथ अन्य लोगों को भी बदलाव लाने के लिए प्रेरित करेंगे। हम स्थाई समाधान चाहते हैं और यह कार्य समुदायों में जागरूकता पैदा करने से ही हो सकता है।’


14 17 गांधी जी का जीवन विलायत में कई स्तरों पर बदला। वे संस्कार से संसार तक को लेकर नई समझदारी से लैस हुए। इस समझदारी में खानपान से लेकर बात-विचार तक की समझ शामिल थी। पर जिस मकसद से वे विलायत गए थे, वह तो था बैरिस्टर बनना। लेकिन बैरिस्टर बनने के बाद भी वकालत करना उन्हें आसान नहीं लगा। दादा भाई नौरोजी ने कैसे उनकी इस मुश्किल को आसान किया, यह काफी दिलचस्प और प्रेरक प्रसंग है

पुस्तक अंश

19 - 25 नवंबर 2018

बैरिस्टर बनने के बाद की चुनौतियां भी कुछ कम नहीं

प्रथम भाग

24. बैरिस्टर तो बने, लेकिन आगे क्या?

शराब पीने के पीछे इतना पैसा बर्बाद करने की हिम्मत लोग कैसे करते हैं। बाद में समझना सीखा! इन दावतों में मैं शुरू के दिनों में कुछ भी न खाता था, क्योंकि मेरे काम की चीजों में वहां सिर्फ रोटी, उबले आलू और गोभी होती थी। शुरू में तो ये रुचे नहीं, इसे खाए नहीं। बाद में जब उनमें स्वाद अनुभव किया तो तो दूसरी चीजें भी प्राप्त करने की शक्ति मुझमें आ गई। विद्यार्थियों के लिए एक प्रकार के भोजन की और ‘बेंचरों’ (विद्या मंदिर के बड़ों) के लिए अलग से अमीरी भोजन की व्यवस्था रहती थी। मेरे साथ एक पारसी विद्यार्थी थे। वे भी अन्नाहारी बन गए थे। हम दोनों ने अन्नाहार के प्रचार के लिए ‘बेंचरों’ के भोजन में से अन्नाहारी के खाने लायक चीजों की मांग की। इससे हमें ‘बेंचरों’ की मेज पर से फल वगैरह और दूसरी सागसब्जियां मिलने लगीं। शराब तो मेरे काम की नहीं थी। चार आदमियों के बीच दो बोतलें मिलती थीं। इसीलिए अनेक चौकड़ियों में मेरी मांग रहती थी। मैं पीता नहीं था, इसीलिए बाकी तीन को दो बोतल जो ‘उड़ाने’ को मिल जाती थी! इसके अलावा, इन सत्रों में ‘महारात्रि’ (ग्रैंड नाइट) होती थी। उस दिन ‘पोर्ट’ और ‘शेरी’ के अलावा ‘शैंपेन’ शराब भी मिलती थी। ‘शैंपेन’ की लज्जत कुछ और ही मानी जाती है। इसीलिए इस ‘महारात्रि’ के दिन मेरी कीमत बढ़ जाती थी और उस रात हाजिर रहने का न्योता भी मुझे मिलता। इस खान-पान से बैरिस्टरी में क्या वृद्धि हो सकती है, इसे मैं न तब समझ सका और न बाद में। एक समय ऐसा अवश्य था कि जब इन भोजों में थोड़े ही विद्यार्थी सम्मिलित होते थे और उनके तथा ‘बेंचरों’ के बीच वार्तालाप होता और भाषण भी होते थे। इससे उन्हें व्यवहार -ज्ञान प्राप्त हो सकता था। वे अच्छी हो चाहे बुरी, पर एक प्रकार की सभ्यता सीखते थे और भाषण करने की शक्ति बढ़ाते थे। मेरे समय में तो यह सब असंभव ही था। बेंचर तो दूर, एक तरफ अस्पृश्य बनकर बैठे रहते थे। इस पुरानी प्रथा का बाद में कोई मतलब नहीं रह गया। फिर भी प्राचीनता के प्रेमी इंग्लैंड में वह बनी रही। कानून की पढ़ाई सरल थी। बैरिस्टर मजाक में ‘डिनर’ (भोज) के बैरिस्टर

मैं जिस काम के लिए (बैरिस्टर बनने) विलायत गया था, उसका मैंने क्या किया, इसकी चर्चा मैंने अब तक छोड़ रखी थी। अब उसके बारे में कुछ लिखने का समय आ गया है। बैरिस्टर बनने के लिए दो बातों की जरूरत थी। एक थी ‘टर्म पूरी करना’ अर्थात् सत्र में उपस्थित रहना। वर्ष में चार सत्र होते थे। ऐसे बारह सत्रों में हाजिर रहना था। दूसरी चीज थी, कानून की परीक्षा देना। सत्रों में उपस्थिति का मतलब था, ‘दावतें खाना’; यानी हर एक सत्र में लगभग चौबीस दावतें होती थीं, उनमें से छह में सम्मिलित होना। दावतों में भोजन करना ही चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं था, परंतु निश्चित समय पर उपस्थित रहकर भोज की समाप्ति तक वहां बैठे रहना जरूरी था। आम तौर पर तो सब खाते-पीते ही थे। खाने में अच्छी-अच्छी चीजें होती थीं और पीने के लिए बढ़िया मानी जानेवाली शराब। अलबत्ता, उसके दाम चुकाने होते थे। यह रकम ढाई से साढ़े तीन शिलिंग होती थी; अर्थात् दो-तीन रुपए का खर्च हुआ। वहां यह कीमत बहुत कम मानी जाती थी, क्योंकि बाहर के होटल में ऐसा भोजन करने वालों को लगभग इतने पैसे तो शराब के ही लग जाते थे। खाने की अपेक्षा शराब कानून की पढ़ाई सरल थी। बैरिस्टर मजाक में ‘डिनर’ (भोज) के बैरिस्टर ही पीनेवाले को खर्च अधिक होता है। हिंदुस्तान में हम कहलाते थे। सब जानते थे कि परीक्षा का मूल्य नहीं के बराबर है। मेरे समय में को (यदि हम ‘सभ्य’ न हुए तो) इस पर आश्चर्य हो सकता है। मुझे तो विलायत जाने पर यह सब जानकर दो परीक्षाएं होती थीं, रोमन लॉ और इंग्लैंड के कानून की। दो भागों में दी जाने वाली इस परीक्षा की पुस्तकें निर्धारित थीं। पर उन्हें शायद ही कोई पढ़ता था बहुत आघात पहुंचा था। मेरी समझ में नहीं आता था कि


19 - 25 नवंबर 2018

ही कहलाते थे। सब जानते थे कि परीक्षा का मूल्य नहीं के बराबर हैं। मेरे समय में दो परीक्षाएं होती थीं, रोमन लॉ और इंग्लैंड के कानून की। दो भागों में दी जाने वाली इस परीक्षा की पुस्तकें निर्धारित थीं। पर उन्हें शायद ही कोई पढ़ता था। रोमन लॉ पर लिखे संक्षिप्त नोट मिलते थे। उन्हें 15 दिन में पढ़कर पास होने वालों को मैंने देखा था। यही चीज इंग्लैंड के कानून के बारे में भी थी। उस पर लिखे नोटों को दो-तीन महीनों में पढ़कर तैयार होने वाले विद्यार्थी भी मैंने देखे थे। परीक्षा के प्रश्न सरल, परीक्षक उदार। रोमन लॉ में 95 से 99 प्रतिशत तक लोग उत्तीर्ण होते थे और अंतिम परीक्षा में 75 प्रतिशत या उससे भी अधिक। इस कारण अनुत्तीर्ण होने का डर बहुत कम रहता था। फिर परीक्षा वर्ष में एक बार नहीं चार बार होती थी। ऐसी सुविधा वाली परीक्षा किसी के लिए बोझ रूप हो ही नहीं सकती थी। पर मैंने उसे बोझ बना लिया। मुझे लगा कि मूल पुस्तकें पढ़ ही लेनी चाहिए। न पढ़ने में मुझे धोखेबाजी लगी। इसीलिए मैंने मूल पुस्तकें खरीदने पर काफी खर्च किया। मैंने रोमन लॉ को लैटिन में पढ़ डालने का निश्चय किया। विलायत की मैट्रिक्युलेशन की परीक्षा में मैंने लैटिन सीखी थी, यह पढ़ाई व्यर्थ नहीं गई। दक्षिण अफ्रीका में रोमन-डच लॉ (कानून) प्रमाणभूत माना जाता है। उसे समझने में जस्टिनियन का अध्ययन मेरे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। इंग्लैंड के कानून का अध्ययन मैं नौ महीनों में काफी मेहनत के बाद समाप्त कर सका, क्योंकि ब्रुम के ‘कॉमन लॉ’ नामक बड़े, परंतु दिलचस्प ग्रंथ का अध्ययन करने में ही काफी समय लग गया। स्नेल की ‘इक्विटी’ को रसपूर्वक पढ़ा, पर उसे समझने में मेरा दम निकल गया। व्हाइट और ट्यूडर के प्रमुख मुकदमों में से जो पढ़ने योग्य थे, उन्हें पढ़ने में मुझे मजा आया और ज्ञान प्राप्त हुआ। विलियम्स और एडवर्डज की स्थावर संपत्ति विषयक पुस्तक मैं रसपूर्वक पढ़ सका था। विलियम्स की पुस्तक तो मुझे उपन्यास सी लगी। उसे पढ़ते समय जी जरा भी नहीं ऊबा। कानून की पुस्तकों में इतनी रुचि के साथ हिंदुस्तान आने के बाद मैंने मेइन का ‘हिंदू लॉ’ पढ़ा था। पर हिंदुस्तान के कानून की बात यहां नहीं करूंगा। परीक्षाएं पास करके मैं 10 जून 1891 के दिन बैरिस्टर कहलाया। 11 जून को ढाई शिलिंग देकर इंग्लैड के हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज कराया और 12 जून को हिंदुस्तान के लिए रवाना हुआ। पर मेरी निराशा और मेरे भय की कोई सीमा न थी। मैंने अनुभव किया कि कानून तो मैं निश्चय ही पढ़ चुका हूं, पर ऐसी कोई भी चीज मैंने सीखी नहीं है जिससे मैं वकालत कर सकूं। मेरी इस व्यथा के वर्णन के लिए स्वतंत्र प्रकरण आवश्यक है।

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11 जून को ढाई शिलिंग देकर इंग्लैड के हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज कराया और 12 जून को हिंदुस्तान के लिए रवाना हुआ। पर मेरी निराशा और मेरे भय की कोई सीमा न थी। मैंने अनुभव किया कि कानून तो मैं निश्चय ही पढ़ चुका हूं, पर ऐसी कोई भी चीज मैंने सीखी नहीं हैं जिससे मैं वकालत कर सकूं

25. मेरी परेशानी पीछे

बैरिस्टर कहलाना आसान मालूम हुआ, पर बैरिस्टरी करना मुश्किल लगा। कानून पढ़े, पर वकालत करना न सीखा। कानून में मैंने कई धर्मसिद्धांत पढ़े, जो अच्छे लगे। पर यह समझ में न आया कि इस पेशे में उनका उपयोग कैसे किया जा सकेगा। ‘अपनी संपत्ति का उपयोग तुम इस तरह करो कि जिससे दूसरे की संपत्ति को हानि न पहुंचे’- यह एक धर्म-वचन है। पर मैं यह न समझ सका कि मुवक्किल के मामले में इसका उपयोग कैसे किया जा सकता था। जिन मुकदमों में इस सिद्धांत का उपयोग हुआ था, उन्हें मैं पढ़ गया। पर उससे मुझे इस सिद्धांत का उपयोग करने की युक्ति मालूम न हुई। इसके अलावा पढ़े हुए कानूनों में हिंदुस्तान के कानून का तो नाम तक न था। मैं यह जान ही न पाया कि हिंदू शास्त्र और इस्लामी कानून कैसे हैं। न मैंने अर्जी-दावा तैयार करना सीखा। मैं बहुत परेशान हुआ। फिरोजशाह मेहता का नाम मैंने सुना था। वे अदालतों में सिंह की तरह गर्जना करते थे। विलायत में उन्होंने यह कला कैसे सीखी होगी? उनके जितनी होशियारी तो इस जीवन में आ नहीं सकती। पर एक वकील के नाते आजीविका प्राप्त करने की शक्ति पाने के विषय में भी मेरे मन में बड़ी शंका उत्पन्न हो गई। यह उलझन उसी समय से चल रही थी, जब मैं कानून का अध्ययन करने लगा था। मैंने अपनी

कठिनाइयां एक-दो मित्रों के सामने रखी। उन्होंने सुझाया कि मैं नौरोजी की सलाह लूं। यह तो मैं पहले ही लिख चुका हूं कि दादा भाई के नाम एक पत्र मेरे पास था। उस पत्र का उपयोग मैंने देर से किया। ऐसे महान पुरुष से मिलने जाने का मुझे क्या अधिकार था? कहीं उनका भाषण होता, तो मैं सुनने जाता और एक कोने में बैठकर आंख और कान को तृप्त करके लौट आता। विद्यार्थियों से संपर्क रखने के लिए उन्होंने एक मंडली की भी स्थापना की थी। मैं उसमें जाता रहता था। विद्यार्थियों के प्रति दादाभाई की चिंता देखकर और उनके प्रति विद्यार्थियों का आदर देखकर मुझे आनंद होता था। आखिर मैंने उन्हें अपने पास का सिफारिशी पत्र देने की हिम्मत की। मैं उनसे मिला। उन्होंने मुझसे कहा, ‘तुम मुझसे मिलना चाहो और कोई सलाह लेना चाहो तो जरूर मिलना।’ पर मैंने उन्हें कभी कोई कष्ट नहीं दिया। किसी भारी कठिनाई के सिवा उनका समय लेना मुझे पाप जान पड़ा। इसीलिए उक्त मित्र की सलाह मान कर दादाभाई के सम्मुख अपनी कठिनाइयां रखने की मेरी हिम्मत न पड़ी। उन्हीं मित्र ने या किसी और ने मुझे सुझाया कि मैं मिस्टर फ्रेडरिक पिंकट से मिलूं। मिस्टर पिंकट कंजर्वेटिव (अनुदार) दल के थे। पर हिंदुस्तानियों के प्रति उनका प्रेम निर्मल और निःस्वार्थ था। कई विद्यार्थी उनसे सलाह लेते थे। अतएव उन्हें पत्र लिखकर मैंने मिलने का समय मांगा। उन्होंने समय दिया। मैं उनसे मिला। इस मुलाकात को मैं कभी भूल नहीं सका। वे मुझसे मित्र की तरह मिले। मेरी निराशा को तो उन्होंने हंसकर ही उड़ा दिया। ‘क्या तुम मानते हो कि सबके लिए फिरोजशाह मेहता बनना जरूरी है? फिरोजशाह मेहता या बदरुद्दीन तैयबजी तो एक-दो ही होते हैं। तुम निश्चय समझो कि साधारण वकील बनने के लिए बहुत अधिक होशियारी की जरूरत नहीं होती। साधारण प्रामाणिकता और लगन से मनुष्य वकालत का पेशा आराम से चला सकता है। सब मुकदमे उलझनों वाले नहीं होते। अच्छा, तो यह बताओ कि तुम्हारा साधारण वाचन क्या है?’ जब मैंने अपनी पढ़ी हुई पुस्तकों की बात की तो मैंने देखा कि वे थोड़े निराश हुए। पर यह निराशा क्षणिक थी। तुरंत ही उनके चेहरे पर हंसी छा गई और वे बोले, ‘अब मैं तुम्हारी मुश्किल को समझ गया हूं। साधारण विषयों की तुम्हारी

पढ़ाई बहुत कम है। तुम्हें दुनिया का ज्ञान नहीं है। इसके बिना वकील का काम नहीं चल सकता। तुमने तो हिंदुस्तान का इतिहास भी नहीं पढ़ा है। वकील को मनुष्य के स्वभाव का ज्ञान होना चाहिए। उसे चेहरा देखकर मनुष्य को परखना आना चाहिए। साथ ही हर एक हिंदुस्तानी को हिंदुस्तान के इतिहास का भी ज्ञान होना चाहिए। वकालत के साथ इसका कोई संबंध नहीं है, पर तुम्हें इसकी जानकारी होनी चाहिए। मैं देख रहा हूं कि तुमने मेलेसन की 1857 के गदर की किताब भी नहीं पढ़ी है। उसे तो तुम फौरन पढ़ डालो और जिन दो पुस्तकों के नाम देता हूं, उन्हें मनुष्य की परख के खयाल से पढ़ जाना।’ यों कहकर उन्होंने लेवेटर और शेमलपेनिक की मुख-सामुद्रिक विद्या (फीजियोग्नॉमी) विषयक पुस्तकों के नाम लिख दिए। मैंने उन वयोवृद्ध मित्र का बहुत आभार माना। उनकी उपस्थिति में तो मेरा भय क्षण भर के लिए दूर हो गया। पर बाहर निलकने के बाद तुरंत ही मेरी घबराहट फिर शुरू हो गई। चेहरा देखकर आदमी को परखने की बात को रटता हुआ और उन दो पुस्तकों का विचार करता हुआ मैं घर पहुंचा। दूसरे दिन लेवेटर की पुस्तक खरीदी। शेमलपेनिक की पुस्तक उस दुकान पर नहीं मिली। लेवेटर की पुस्तक पढ़ी, पर वह तो स्नेल से भी अधिक कठिन जान पड़ी। रस भी नहीं के बराबर ही मिला। शेक्सपियर के चेहरे का अध्ययन किया। पर लंदन की सड़कों पर चलनेवाले शेक्सपियरों को पहचानने की कोई शक्ति तो मिली ही नहीं। लेवेटर की पुस्तक से मुझे कोई ज्ञान नहीं मिला। मिस्टर पिंकट की सलाह का सीधा लाभ कम ही मिला, पर उनके स्नेह का बड़ा लाभ मिला। उनके हंसमुख और उदार चेहरे की याद बनी रही। मैंने उनके इन वचनों पर श्रद्धा रखी कि वकालत करने के लिए फिरोजशाह मेहता की होशियारी और याददाश्त वगैरह की जरूरत नहीं है, प्रामाणिकता और लगन से काम चल सकेगा। इन दो गुणों की पूंजी तो मेरे पास काफी मात्रा में थी। इसीलिए दिल में कुछ आशा जागी। के और मेलेसन की पुस्तक विलायत में पढ़ नहीं पाया। पर मौका मिलते ही उसे पढ़ डालने का निश्चय किया। यह इच्छा दक्षिण अफ्रीका में पूरी हुई। इस प्रकार निराशा में तनिक सी आशा का पुट लेकर मैं कांपते पैरों ‘आसाम’ जहाज से बंबई के बंदरगाह पर उतरा। उस समय बंदरगाह में समुद्र क्षुब्ध था, इस कारण लांच (बड़ी नाव) में बैठकर किनारे पर आना पड़ा। (अगले अंक में जारी)


16 खुला मंच

19 - 25 नवंबर 2018

याद रखिए, सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और गलत के साथ समझौता करना है

अभिमत

केंद्र सरकार अब कर्मचारियों पर मेहरबानी दिखाने जा रही है। जल्द ही सरकार ग्रेच्युटी यंबंधी नियमों में बदलाव करने जा रही है, जिसका लाभ सीधे कर्मचारियों को मिलेगा

के जीवन में देशखुशकेहालीकरोड़ोंलाने केकामगारों लिए सरकार ने कई

नीतिगत फैसले किए हैं। इन फैसलों से कामगारों की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा मजबूत हुई और देश के संगठित और असंगठित क्षेत्र के कामगारों के अधिकार भी सुनिश्चित किए गए। इतना ही नहीं सरकार ने कामगारों को उपक्रमों से अधिकार दिलवाने के लिए कानूनी उलझनों को खत्म कर दिया। कामगारों के स्वास्थ्य, पेंशन, भत्ते, सुरक्षा आदि से संबंधित अधिकारों को सुनिश्चित कराना अब पहले से ज्यादा सरल हो चुका है। इनके बाद अब बारी कर्मचारियों की है। देश में बड़ी संख्या में निजी क्षेत्र में लोग नौकरी करते हैं और अक्सर देखा गया है कि जल्दी-जल्दी नौकरी बदलने पर उनकी ग्रेच्युटी नहीं मिल पाती है। दरअसल ग्रेच्युटी के लिए कम से कम पांच वर्ष की नौकरी अनिवार्य है। निजी क्षेत्र के करोड़ों कर्मचारियों की इसी परेशानी को दूर करने के लिए सरकार अब प्राइवेट सेक्टर में नौकरी करने वालों के लिए ग्रेच्युटी संबंधित नियम को बदलने का फैसला किया है। इससे प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले करोड़ों कर्मचारियों को लाखों रुपए का फायदा होगा। मोदी सरकार प्राइवेट सेक्टर में ग्रेच्युटी के लिए न्यूनतम सेवा की अवधि घटा कर तीन वर्ष करने की तैयारी कर रही है। अर्थात अगर किसी कर्मचारी ने किसी कंपनी में 3 साल तक नौकरी कर ली है तो उसे ग्रेच्युटी मिलेगी। श्रम मंत्रालय ग्रेच्युटी की गणना करने के तरीकों में भी बदलाव करने पर विचार कर रही है। इसके तहत ग्रेच्युटी की गणना 30 दिन की सैलरी पर की जा सकती है। वर्तमान समय में प्राइवेट सेक्टर में कर्मचारी की 15 दिन की सैलरी पर ग्रेच्युटी की गणना की जाती है। सरकार के इस फैसले से देश के कर्मचारियों को बड़ा लाभ मिलना तय है। समाज के कमजोर तबकों के विकास में जुटी सरकार के इस कदम से प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले कर्मचारियों के आर्थिक हितों की रक्षा पहले की अपेक्ष ज्यादा बेहतर तरीके से हो पाएगी।

टॉवर फोनः +91-120-2970819

(उत्तर प्रदेश)

पूर्व पर्यावरण मंत्री

इंदिरा गांधी

स्वच्छ पर्यावरण की विरासत बचाने की चिंता

- सुभाष चंद्र बोस

कर्मचारियों और कामगारों के साथ सरकार

जयराम रमेश

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का पर्यावरण के हर पक्ष से प्रेम वंशानुगत विरासत ही नहीं, उनकी अपनी प्रकृति का अटूट अंग था, जिसका उन्होंने चिरस्थाई अनुराग की तरह लालन किया

मैं

यह लेख इंदिरा गांधी का मूल्यांकन या उनका आकलन करने की चाहत में नहीं लिख रहा। यह कोशिश उस व्यक्तित्व की नई तस्वीर को लोक के समक्ष रखने की है, जिन पर लिखा बहुतों ने पर उसे समझने की कोशिश शायद ही किसी ने की। एक नेत्री जिसे किसी ने उसके जटिल व विरोधाभासी व्यक्तित्व के लिए जाना तो किसी की निगाह में एक बेहद करिश्माई और सम्मोहक व्यक्तित्व के रूप में समाईं। कौन थीं इंदिरा? क्या थे उनके महत्वपूर्ण कार्य? यह लेख एक यात्रा है उनके इन आयामों के खोज की और उन पर प्रकाश डालने की जिसने उनके जीवन व कार्यों के मूल्यांकन करनेवालों का ध्यान कभी आकृष्ट नहीं किया। इंदिरा गांधी की संस्थागत शैक्षिक यात्रा अत्यधिक सर्पिल-पथ पर चली थी। उन्होंने विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण अवश्य की लेकिन परिस्थितिवश औपचारिक शैक्षिक उपाधि से वंचित रहीं। व्यावहारिक अनुभवों ने उन्हें जीवन के विश्वविद्यालय द्वारा सर्वोच्च सम्मान के साथ प्रतिष्ठित किया। इंदिरा गांधी असल में कौन थीं? इतिहासकार हमेशा इस प्रश्न के उत्तर की खोज में मानसिक मल्लयुद्ध करते रहे और संभवतः भविष्य में भी करते रहेंगे! प्रभावशाली उपलब्धियों से मुग्ध उनके विश्वव्यापी गुणग्राही थे। भारी संख्या में उनके ऐसे आलोचक भी थे जो उनके गलत निर्णय या त्रुटिपूर्ण कार्यों से आगे देखने में असमर्थ थे। कई उनकी स्वयं की गलतियां थीं, तो कई उन पर थोपी गईं थीं। यह निर्विवादित सत्य है कि उनके व्यक्तित्व में एक तीक्ष्ण विरोधाभास था। लेकिन पर्यावरण के प्रति उनकी वचनबद्धता समस्त संदेह से परे थी, यह सत्य इस कालखंड के लिखित दस्तावेज से प्रमाणित होती है। उनके उथल-पुथल भरे संपूर्ण राजनीतिक व व्यक्तिगत जीवन में पर्यावरण के प्रति उनके व्यक्तिगत प्रेम ने हमेशा उन्हें प्रेरित एवं उद्दीप्त किया है। उनका पर्यावरण के हर पक्ष से प्रेम वंशानुगत विरासत ही नहीं, उनकी अपनी प्रकृति का अटूट अंग था, जिसका उन्होंने चिरस्थाई अनुराग की तरह लालन किया। उनके आलोचक यह कह सकते हैं, ‘इंदिरा की पर्यावरण चिंता और उसके प्रति सहानुभूति से क्या फर्क पड़ेगा?’ ऐसी प्रतिक्रियाएं अभद्रता की सूचक हैं। उनके सत्ता काल में पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनका सदा जाग्रत अनुराग व्यक्तिगत

कह कर अप्रासंगिक करार नहीं दिया जा सकता। उनका यह अनुराग भारतीय नागरिकों के लिए आह्वान बन गया था, जिसने यह परिभाषित कर दिया था कि वह कौन हैं और मुल्क के प्रधानमंत्री के रूप में वह कौन- सी दिशा तय कर रहीं थीं। अत: उनके कार्यों के मूल्यांकन करते वक्त पर्यावरण संरक्षण के प्रखर समर्थक के रूप उन्होंने क्या हासिल किया, इसका आकलन अत्यावश्यक है। एक राष्ट्राध्यक्ष के रूप में अपने संपूर्ण कार्यकाल में वह लगातार संकटों से जूझती रहीं और हर परिस्थिति में पर्यावरण संरक्षण के प्रति वचनबद्ध अनुराग के माध्यम से इंदिरा गांधी ने अपना यथार्थ रूप पेश किया। आजाद हिंदुस्तान के इतिहास के सर्वाधिक मुश्किल काल खंड में राष्ट्राध्यक्ष के रूप में सरकारी कामकाज के बावजूद पर्यावरण संबंधी मसलों पर पूरा ध्यान देते रहना उन्हें और आकर्षक व मोहक बनाता है। जैसे-जैसे राजनीतिक दबाव उन पर बढ़ते रहे, इंदिरा प्रकृति के और नजदीक जाती रहीं। शायद वह राजनीति को अपने जीवन में क्षणिक और प्रकृति को अटल, महत्वपूर्ण व नित्य मानती रहीं। यह सुप्रसिद्ध है कि वह अक्सर अपने मिलने वालों के साथ अथवा बैठकों में उदासीन व अनमनी दिखती थीं, अपनी फाइलें पढ़तीं या अपने प्रिय शगल तस्वीर बनाने में लिप्त रहती थीं। पर पर्यावरणविदों से मिलते वक्त अथवा वन्यजीवों, जंगलों या पर्यावरण संरक्षण की बैठकों में निस्संदेह ऐसा नहीं

समृद्ध प्राकृतिक विरासत को मुल्क की विविधतापूर्ण सांस्कृतिक परंपरा के संरक्षण और आर्क थि गतिशीलता के मूल आधार के रूप में देखा


19 - 25 नवंबर 2018 था। ऐसे मौकों पर वह पूरे मनोयोग, एकाग्रचित्त, संलिप्त तथा स्थिति का प्रभार लिए रहती थीं। वर्तमान परिदृश्य में जलवायु परिवर्तन एवं दीर्घकालिक विकास के मुद्दों पर आज के अधिकतर राष्ट्राध्यक्ष अथवा सरकारें अपने चिकनी चुपड़ी भाषण पटुता में व्यस्त दिखते हैं, परंतु आज से चार दशक पहले इंदिरा गांधी उन चुनिंदा राजनीतिक व्यक्तित्वों में थीं जिन्होंने पर्यावरण विषयक मसलों को गंभीरता से लिया और दैनंदिन शासन प्रणाली में स्थान दिया। स्मरणार्थ याद दिलाना उचित होगा कि जून 1972 को स्टॉकहोम में आयोजित प्रथम संयुक्त राष्ट्र के मानवीय पर्यावरण सम्मेलन में आयोजक राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष के अलावा वह एकमात्र राष्ट्राध्यक्ष थीं, जिन्होंने अपनी बात रखी थी। इसी प्रकार, वह उन पांच राष्ट्राध्यक्षों में थीं, जिन्होंने अगस्त 1976 में नैरोबी में आयोजित प्रथम नवीन एवं अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन को संबोधित किया था। 1992 में विख्यात रियो अर्थ समिट कॉन्फ्रेंस से इसकी तुलना कीजिए, जहां सौ से अधिक राष्ट्राध्यक्ष मौजूद थे। इंदिरा गांधी पर्यावरण संबंधित मसलों पर मात्र भारत में ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में भी अग्रणी रहीं। अक्सर इंदिरा गांधी को एक सख्त नेतृत्व के रूप में पेश किया जाता है। प्रकृति में उनके जीवन ने इंदिरा गांधी पर्यावरण संबधि ं त अक्सर यह साबित किया था कि मसलों पर मात्र भारत में ही हर अधिकार रहने पर भी उनका कहा नहीं हुआ। असंदिग्ध रूप से नहीं, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में ऐसा कई बार हुआ कि उन्होंने भी अग्रणी रहीं किसी विशेष कार्य को करने के लिए दृढ़तापूर्वक कहा हो। लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में उनका जीवन सुझावों और अनुनयों की एक लंबी यात्रा थी। यह पद्धति दो तथ्यों से निर्देशित थी। प्रथमत: भारतीय परिदृश्य में जीवनयापन के स्तर को सुधारना व आर्थिक विकास के माध्यम से जीवन शैली की गुणवत्ता को बेहतर बनाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है। दूसरा पर्यावरण का संरक्षण व वातावरण की सुरक्षा संबंधित अधिकांश निर्णय जो वह लेना चाहती थीं, राज्य सरकारों की मूल जिम्मेदारी है। अगर उनमें तथाकथित सख्ती का रवैया मौजूद होता तो एक पर्यावरणविद के रूप में उन्होंने जो कुछ हासिल किया, उससे कहीं अधिक कर चुकी होतीं। उसी प्रकार, इंदिरा गांधी का जीवन हमें उनके द्वारा लिए गए निर्णयों के कारण हुए उनके मानसिक संताप की याद भी दिलाता है। उदाहरणार्थ, साइलेंट वैली को हाइडेल प्रोजेक्ट से बचाना आवश्यक था, यह उन्हें मालूम था पर इस मुद्दे पर तीन साल चली चर्चा के उपरांत ही उन्होंने अंतिम निर्णय लिया था। कई मौकों पर अपने पर्यावरणीय दृढ़ निश्चय के विरुद्ध कोई विशेष निर्णय, वृहत्तर आर्थिक व राजनीतिक लाभ के निमित्त लेने के लिए खुद को मनाया भी। कभी ऐसा भी हुआ कि निर्णय लेने से पूर्व उन्होंने अपने विश्वस्त व विख्यात पर्यावरणविद सलीम अली, पीटर स्कॉट और पीटर जैक्सन जैसे व्यक्तियों से राय-मशविरा किया हो। उनका नजरिया हर नई परिस्थिति से सामना होते हुए विकसित हुआ। वक्त के साथ उन्हें यह विश्वास होने लगा कि स्थानीय समुदायों की सहभागिता के बिना न वन्यजीवों का और न ही जंगलों का दीर्घकालिक संरक्षण संभव है, जबकि शुरुआती दौर में उनकी सोच शुद्धतावादी थी। इसमें संदेह नहीं कि उनका व्यक्तित्व तिलिस्मों से घिरा था, पर मौलिक इंदिरा गांधी संपूर्ण प्रतिबद्धता के साथ एक संरक्षण-कार्यकर्ता थीं, जिन्होंने समृद्ध प्राकृतिक विरासत को मुल्क की विविधतापूर्ण सांस्कृतिक परंपरा के संरक्षण और आर्थिक गतिशीलता के मूल आधार के रूप में देखा। वास्तविकता यही थी कि उनके लिए संरक्षण के अभाव में विकास अल्पकालिक व क्षणभंगुर था, अविकसित संरक्षण अग्राह्य था। उनके लिए संरक्षण, जैविक विविधता के प्रति सम्मान एवं पर्यावरणीय संतुलन का प्रयोजन इत्यादि हमारे सांस्कृतिक चरित्र से ही उत्पन्न हुआ है। वह प्राय: हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों की मूल शिक्षा ‘प्रकृति के प्रति आदरभाव व उसके सामंजस्य में जिओ’ का संदर्भ देती रहीं। उनकी पर्यावरणीय विरासत किसी विशेषज्ञ अथवा चेतावनी के रूप में नहीं दिखती। यह विरासत हमेशा के लिए एक निरंतर गुंजन है। (जयराम रमेश की 2017 में प्रकाशित पुस्तक ‘इंदिरा गांधी : ए लाइफ इन नेचर’ का संपादित अंश )

ल​ीक से परे

खुला मंच

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अपने दौर की बड़ी पर्यावरणविद

एमएस स्वामीनाथन के 1983 में दिए उस वक्तव्य से कोई भी शायद ही असहमत होगा जिसमें उन्होंने कहा कि इंदिरा जी ‘हमारे जमाने की सबसे बड़ी पर्यावरणविद थीं’ डेरेल डीमोंटे प्रख्यात पर्यावरण पत्रकार

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70 के दशक की एक घटना का हवाला देना चाहूंगा जिससे मैं भी जुड़ा था। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बैंक मैनेजमेंट, बंबई (वर्तमान में मुंबई) ने 6 करोड़ रुपए की लागत से बांद्रा उपनगर के कार्टर रोड पर पथरीली समुद्र तट पर बैंकर्स ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट स्थापित करने का निर्णय लिया। जमीन की जांच के लिए खुदाई शुरू हो चुकी थी। भवन का ढांचा ऊपर उठे हुए चबूतरे पर बनना तय हुआ, जिसमें सामुद्रिक ज्वार-भाटा के स्वच्छंद आवागमन के लिए फाटक लगाया जाना था। प्रशिक्षणार्थियों के लिए षटकोणीय छात्रावास बनाने की परियोजना बनी, ताकि समुद्र के प्राकृतिक सौंदर्य को आसानी से देख सकें। शहर के मानद शेरिफ महबूब नसरुल्लाह व ‘ब्लिट्ज’ अखबार के शक्तिशाली संपादक रूसी करंजिया के नेतृत्व में स्थानीय निवासियों ने इसके विरोध में ऐतिहासिक बैठक की। उसी घटनाक्रम में ‘बिजनेस इंडिया’ के संपादक अशोक अडवानी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नजदीकी सहकर्मी उषा भगत से संपर्क किया। उन्होंने प्रधानमंत्री को इस घटना की सूचना दी और प्रधानमंत्री ने तुरंत सख्त आदेश जारी कर दिया। परियोजना को पुणे स्थानांतरित कर दिया गया। पर्यवेक्षकों के मुताबिक, शहर के पर्यावरणविदों की यह पहली विजय थी। यह घटना उनके निर्णय लेने की उसी शैली की तरफ इंगित करता है, जिस पर जयराम रमेश ने अपनी पुस्तक ‘इंदिरा गांधी : ए लाइफ इन नेचर’ में प्रकाश डाला है। वह अत्यंत शालीन, भद्र व व्यक्तिगत संबंधों की कद्रदान, देशी-विदेशी प्रभावशाली व्यक्तियों तथा संस्थाओं के साथ नियमित पत्राचार के माध्यम से संपर्क बनाए रखती थीं। ऐसा भी देखा गया कि दबाव में कभी घुटने भी नहीं टेके, विशेषकर विदेशी संस्थाओं के सामने।

उनकी शासकीय विश्वसनीयता पर कुछ लोग यह तर्क भी दे सकते हैं कि जन आंदोलनों से अप्रभावित उनके अधिकांश निर्णय अमूमन सही होते थे, जबकि वही पर्यावरणीय सक्रियतावाद की वास्तविक आत्मा हैं। यह उनके चरित्र के द्योतक थे। इस प्रवृत्ति की व्याख्या करते दो विचारणीय विषय हैं। पहला था ‘नेचर’ पत्रिका के लिए अनिल अग्रवाल को ‘चिपको आंदोलन’ पर 1980 में दिए गए एक साक्षात्कार के दौरान उनकी टिप्पणी। जब 1973 में आरंभ हुए लोकप्रिय चिपको आंदोलन के शुरू होने के पूरे

के रेखांकित इलाकों से ग्रामीण नागरिकों को स्थानांतरित किया गया था। यह कदम उनके सशक्त नेतृत्व का प्रकाश था। उनका नीदरलैंड के राजकुमार बर्नहार्ड से तादात्म्य रहा जो डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के सहसंस्थापक भी थे और जिन्हें वन्यजीवन के संरक्षण की चिंता थी। जैसा क‌ि जयराम रमेश याद दिला रहे हैं, 1972 में स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्र द्वारा आयोजित प्रथम पर्यावरण सम्मलेन में थोड़े अलग ढंग से उनके द्वारा कहे गए वाक्य ‘गरीबी प्रदूषण की सबसे निकृष्ट अवस्था है’ के कारण इंदिरा को विश्वव्यापी सम्मान मिला। यह वाक्य

पर्यावरण पर पड़ने वाले परिणामों की चिंता किए बगैर पर्यावरण संबध ं ी कानून की धज्जियां उड़ाने और बिना सोचे विशाल परियोजनाओं का बुनियादी ढांचा बनाने में व्यस्त वर्तमान शासकों की तुलना में इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व उत्कृष्ट था 7 साल बाद उनसे इस पर जब राय पूछी गई तो उन्होंने स्पष्ट कहा था, ‘ईमानदारी से मुझे नहीं पता कि इस आंदोलन का उद्देश्य क्या है। अगर पेड़ों को न काटने देना इनका उद्देश्य है तो मैं इनके साथ हूं।’ चिपको के संबंध में उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया आंदोलन के नेता सुंदरलाल बहुगुणा, एक अंशकालिक पत्रकार जो देश-विदेश के लोगों का ध्यान आंदोलन के प्रति आकर्षित कर रहे थे, के बहिष्कार से जुड़ा था। रामचंद्र गुहा ने 1989 में प्रकाशित अपनी किताब ‘द यूनीक वुड्स’ में कहा, ‘इंदिरा गांधी और उनके सहयोगी इस बात से अनभिज्ञ थे कि चिपको आंदोलन संसाधनों के उपनिवेशीय उपयोग के विरुद्ध कृषक प्रतिरोध आंदोलन की ही कड़ी थी।’ इंदिरा गांधी ने 1972 में डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के प्रतिनिधि से मिलने के एक दिन बाद ही डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के सहयोग से ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ शुरू करने का निर्णय लिया था जो बेहद कामयाब हुआ था। परियोजना के शुरुआती दौर और संभवत: आपातकाल के दौरान अभयारण

आज भी, सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि विकासशील देश में पर्यावरण संरक्षण से पहले अपने नागरिकों के जीवन स्तर को बेहतर बनाने की कोशिश को न्यायसंगत और उचित प्रमाणित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। आईयूसीएन के तत्कालीन अध्यक्ष एमएस स्वामीनाथन के 1983 में दिए उस वक्तव्य से कोई भी शायद ही असहमत होगा जिसमें उन्होंने कहा कि इंदिरा जी ‘हमारे जमाने की सबसे बड़ी पर्यावरणविद थीं।’ वास्तविकता में इतिहास में वह इस विशेषण की अधिकारी के रूप भले न जानी जाएं। पर यह सत्य है कि वह अपने जमाने के किसी भी व्यक्ति से बड़ी राजनीतिक नेता थीं जो किसी भी कीमत पर आर्थिक विकास के उन्माद के खिलाफ गईं। पर्यावरण पर पड़ने वाले परिणामों की चिंता किए बगैर पर्यावरण संबंधी कानून की धज्जियां उड़ाने और बिना सोचे विशाल परियोजनाओं का बुनियादी ढांचा बनाने में व्यस्त वर्तमान शासकों की तुलना में इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व उत्कृष्ट था।


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फोटो फीचर

19 - 25 नवंबर 2018

समरसता की छटा और लोकपर्व छठ

सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक की प्रेरणा से लोकपर्व छठ से जुड़ी सादगी और श्रद्धा के संदेश के साथ सामाजिक बदलाव की नई प्रेरणा भी जुड़ गई है। डॉ. पाठक, अमोला पाठक और समस्त सुलभ परिवार अलवर-टोंक की पुनर्वासित महिला स्कैवेंजर्स व वृंदावन की विधवा माताओं के साथ वर्षों से छठ मना रहा है। वे महिलाएं जो कभी समाज में प्रताड़ना का दंश झेल रही थीं, आज भारत के एक बड़े लोकानुष्ठान को सबके साथ श्रद्धा के साथ मना रही हैं फोटो : मांेटू व जयराम


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गुड न्यूज

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मातृत्व अवकाश का पैसा सरकार करेगी वापस

मातृत्व अवकाश पर जाने वाली महिलाओं के लिए सरकार ने एक बड़ी पहल की है। सरकार महिलाओं को मिलने वाले मातृत्व अवकाश के 7 हफ्ते का वेतन कंपनियों को वापस देगी

हिला कर्मचारियों को ध्यान में रखकर सरकार अब महिलाओं को मिलने वाले मातृत्व अवकाश के 7 हफ्ते का वेतन कंपनियों को लौटाएगी। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कहा कि 15 हजार रुपए से अधिक मासिक वेतन पाने वाली महिलाओं को मिलने वाले मातृत्व अवकाश के 7 हफ्ते का वेतन सरकार नियोक्ता कंपनी को वापस करेगी। सरकार की तरफ से यह घोषणा उस वक्त की गई है जब ऐसी शिकायतें आ रही थीं कि मातृत्व अवकाश की मियाद 12 हफ्ते से बढ़ाकर 26 हफ्ते किए जाने के बाद से तमाम कंपनियां गर्भवती महिलाओं को नौकरी देने में इच्छुक नहीं दिख रही हैं। ऐसी भी शिकायतें आ रही थी कि कुछ कंपनियां तो गर्भवती महिलाओं को नौकरी से भी निकाल रही हैं। सरकारी और निजी दोनों ही क्षेत्र में काम करने वाली महिलाएं सरकार की इस घोषणा के दायरे में आएंगी। महिला एवं बाल विकास विभाग के सचिव राकेश श्रीवास्तव ने कहा कि यह फैसला किया गया है कि श्रम कल्याण उपकर के पड़े धन का उपयोग नियोक्ताओं को देने में किया जाएगा। श्रीवास्तव ने कहा कि राज्य सरकारों के पास पड़े श्रमिक कल्याण उपकर के पैसे का उपयोग

बहुत कम हो रहा है। श्रम मंत्रालय से बातचीत के बाद यह निर्णय लिया गया है कि 26 हफ्तों में से 7 हफ्ते के वेतन की राशि नियोक्ताओं को दी जाएगी। श्रीवास्तव ने कहा कि 15 हजार रुपए मासिक से अधिक वेतन पाने वाली महिलाओं के अवकाश के लिए सरकार की ओर से भुगतान किया जाएगा। आपको बता दें इसी वर्ष सरकार ने मातृत्व अवकाश को 12 हफ्ते से बढ़ाकर 26 हफ्ते कर दिया था। श्रीवास्तव ने कहा कि इस बदलाव के बाद ऐसी कई शिकायतें आईं कि मातृत्व अवकाश की मियाद बढ़ने की वजह से कई कंपनियों से महिलाओं को नौकरी से निकाला जा रहा है। पिछले दिनों यह भी रिपोर्ट आई थी कि मातृत्व अवकाश को 12 हफ्तों से बढ़ाकर 26 हफ्ते किए जाने पर कंपनियां महिलाओं को नौकरी देने से कतरा रही हैं। (एजेंसी)

जीसेट-29 सफलतापूर्वक लॉन्च

इसरो का जीसेट एक हाईथ्रोपुट कम्युनिकेशन सेटेलाइट है। यह डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के तहत जम्मू और कश्मीर के साथ उत्तर-पूर्वी राज्यों को बेहतर संचार सेवा मुहैया कराएगा

सरो ने जीएसएलवी माक-3 रॉकेट की मदद से जीसेट-29 सेटेलाइट का सफलतापूर्वक प्रक्षेपण किया। यह प्रक्षेपण श्रीहरिकोटा के सतीश धवन स्पेस सेंटर से किया गया। यह सेटेलाइट भू स्थिर कक्षा में स्थापित किया जाएगा। इस वर्ष यह इसरो का पांचवां लॉन्च है। इस रॉकेट में दुनिया के दूसरे सबसे बड़े बूस्टर एस-200 का इस्तेमाल किया गया। 3423 किलोग्राम वजन का यह सेटेलाइट भारत की जमीन से लॉन्च किया गया अब तक का सबसे भारी सेटेलाइट है। यह एक हाईथ्रोपुट कम्युनिकेशन सेटेलाइट है। इसमें लगे ऑपरेशनल पेलोड्स डिजिटल इंडिया कार्यक्रम के तहत जम्मू और कश्मीर के साथ उत्तर-पूर्वी राज्यों को बेहतर सेवा मुहैया कराएंगे। इससे इन क्षेत्रों में हाईस्पीड इंटरनेट में काफी मदद मिलेगी। जीसेट-29 नई स्पेस तकनीक को टेस्ट करने में एक प्लेटफॉर्म की तरह काम करेगा। इसरो चीफ ने बताया कि ऑपरेशनल पेलोड्स के अलावा यह सेटेलाइट तीन प्रदर्शन प्रौद्योगिकियों, क्यू ऐंड वी बैंड्स, ऑप्टिकल कम्युनिकेशन और एक हाई रेजॉल्यूशन कैमरा भी अपने साथ ले गया है। भविष्य के स्पेस मिशन के लिए पहली बार इन तकनीकों का

परीक्षण किया गया। इसरो के अनुसार, जीएसएलवीएमके III रॉकेट की दूसरी उड़ान है, जो लॉन्च होने के बाद 10 साल तक काम करेगा। लॉन्च होने के बाद पृथ्वी से 36,000 किमी दूर जियो स्टेशनरी ऑर्बिट (जीएसओ) में स्थापित किया गया है। यह भारत के दूरदराज के क्षेत्रों में हाई स्पीड डेटा को ट्रांसफर करने में मदद करेगा। जीसेट-29 को लॉन्च करने के लिए जीएसएलवीएमके2 रॉकेट का इस्तेमाल किया गया है। इसे भारत का सबसे वजनी रॉकेट माना जाता है, जिसका वजन 640 टन है। इस रॉकेट की सबसे खास बात यह है कि यह पूरी तरह भारत में बना है। इस पूरे प्रोजेक्ट में 15 साल लगे हैं। इस रॉकेट की ऊंचाई 13 मंजिल की बिल्डिंग के बराबर है और यह चार टन तक के उपग्रह लॉन्च कर सकता है। अपनी पहली उड़ान में इस रॉकेट ने 3423 किलोग्राम के सेटेलाइट को उसकी कक्षा में पहुंचाया था। इस रॉकेट में स्वदेशी तकनीक से तैयार हुआ नया क्रायोजेनिक इंजन लगा है, जिसमें लिक्विड ऑक्सीजन और हाइड्रोजन का ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होता है। (एजेंसी)

स्कूली बच्चे बने विदर्भ के 400 लोगों का सहारा मुंबई के बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल के बच्चों ने क्राउडफंडिंग के जरिए 43 लाख रुपए जुटाए हैं जिनसे विदर्भ क्षेत्र के दूर-दराज इलाकों के लोगों तक आर्टिफिशल लिंब पहुंचाए जाएंगे

बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल के मुबईबच्चों ं केने प्रतिष्ठित एक मिसाल कायम की है। यहां के

बच्चे पैसे जमा कर विदर्भ क्षेत्र के दूरदराज इलाकों के लोगों तक आर्टिफिशल लिंब (कृत्तिम अंग) पहुंचाएंगे। 9वीं से लेकर 12वीं क्लास तक के करीब 165 बच्चों ने अभी तक 43 लाख से ज्यादा रुपए क्राउडफंडिंग के जरिए इकट्ठा कर लिए हैं। ये रुपए देशभर के 165 शहरों के करीब 1500 लोगों ने दिए हैं। इन रुपयों से न सिर्फ उन्हें सहारा, बल्कि एक नई जिंदगी मिलने की उम्मीद है। हर बच्चे ने अपने लिए कम से कम 20,000 रुपए जुटाने का लक्ष्य रखा था। अभी तक करीब 100 बच्चे अपना टार्गेट पूरा कर चुके

हैं और कई इससे भी आगे निकल गए हैं। यहां तक कि चार बच्चों ने 10 दिन में 1 लाख से ज्यादा रुपए जमा कर लिये हैं। हर प्रॉस्थटिक लिंब की कीमत करीब 10000 रुपए होती है। बच्चों की कोशिश से 400 से ज्यादा लोगों की जिंदगियां संवर सकती हैं। बच्चों को उम्मीद है कि अभियान खत्म होने से पहले तक 50 लाख रुपए जमा हो जाएंगे। 9वीं क्लास में पढ़ने वाले अंश पटेल बताते हैं कि उन्होंने अपने पैरंट्स के कॉन्टैक्ट्स से बात की। पहले उन्हें डर था कि पता नहीं कोई उनकी बात सुनेगा भी या नहीं, लेकिन एक बार उन्होंने बात करनी शुरू की तो उन्हें सकारात्मक जवाब मिलने लगे। 11वीं की दिया 1.43 लाख

रुपए जुटा चुकी हैं। वह कहती हैं कि इसमें उनके पापा ने बड़ी मदद की। 11वीं की ही साची ने भी 1.28 लाख रुपए इकट्ठा कर लिया है। वह बताती हैं कि करीब 80 प्रतिशत राशि उन्हें ऐसे लोगों से मिली है जिन्हें वह जानती तक नहीं थीं। 'फ्यूलअड्रीम' नाम की जिस क्राउडफंडिंग साइट के जरिए पैसे जमा किए गए उसके फाउंडर रंगनाथ बताते हैं कि क्राउडफंडिंग से कहानी बेहतर बनाई जा सकती है और सोशल मीडिया से इसका असर बेहतर होता है। 1.34 लाख रुपए जमा करने वाली मरयम बताती हैं कि उन्होंने यह काम इसलिए किया क्योंकि इससे उन्हें खुशी मिलती है। (एजेंसी)


19 - 25 नवंबर 2018

हृदय रोगियों के लिए फायदेमंद है योग

योगा-केयर हृदय रोगियों के रिहैब्लेटेशन का एक सुरक्षित और कम खर्चीला विकल्प हो सकता है। इसमें प्रशिक्षक को छोड़कर अन्य किसी तरह की जरूरत भी पड़ती नहीं है

यो

ग हृदय रोगियों को दोबारा सामान्य जीवन जीने में मदद कर सकता है। लंबे समय तक किए गए क्लीनिकल ट्रायल के बाद भारतीय शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं। इस ट्रायल के दौरान हृदय रोग से ग्रस्त मरीज में योग आधारित पुनर्वास (योगा-केयर) की तुलना देखभाल की उन्नत मानक प्रक्रियाओं से की गई है। हृदय रोगों से ग्रस्त मरीज में योगा-केयर के प्रभाव का आकलन करने के लिए देशभर के 24 स्थान पर यह अध्ययन किया गया है। लगातार 48 सत्र तक चले इस अध्ययन में अस्पताल में दाखिल या डिस्चार्ज हो चुके चार हजार हृदय रोगियों को शामिल किया गया। ट्रायल के दौरान तीन महीने तक अस्पताल और मरीज के घर पर योग-केयर से जुड़े प्रशिक्षण

सत्र आयोजित किए गए थे। दस या उससे अधिक योगा-केयर प्रशिक्षण सत्रों में उपस्थित रहने वाले मरीज के स्वास्थ्य में अन्य मरीज की अपेक्षा अधिक सुधार देखा गया। अध्ययन के दौरान मरीज के अस्पताल में दाखिल होने की दर और मृत्यु दर में कमी इसके प्रभावों के रूप में देखा गया है। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डोरिजराज पराकरन के अनुसार, ‘योगा-केयर हृदय रोगियों के रिहैब्लेटेशन का एक सुरक्षित और कम खर्चीला विकल्प हो सकता है। इसमें प्रशिक्षक को छोड़कर अन्य किसी तरह की जरूरत भी नहीं पड़ती है।’ योगा-केयर योग आधारित थेरेपी है। यह हृदय

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स्वास्थ्य

रोग विशेषज्ञों और अनुभवी योग प्रशिक्षक की मदद से हृदय रोगियों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया गया है। इसमें ध्यान, श्वास अभ्यास, हृदय अनुकूल चुनिंदा योगासन और जीवन शैली से संबंधित सलाह शामिल हैं। इस अध्ययन में सामान्य जीवनशैली अपनाए जाने की सलाह दी गई। यह अध्ययन पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। इससे संबंधित शोध पत्र शिकागो में आयोजित अमेरिकी हार्ट एसोसिएशन के साइंटिफिक सेशन में पेश किया गया। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि सहायक योगा-केयर की मदद से रोगी फिर से वह सब कुछ कर सकते हैं, जो हार्टअटैक से पूर्व करने में वे सक्षम थे। यह अध्ययन भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद द्वारा किए गए अनुदान पर आधारित है। भारत में हृदय रोगियों की संख्या वर्ष 1990 में एक करोड़ थी। वर्ष 2016 के आंकड़े के मुताबिक यह संख्या बढ़कर 2.4 करोड़ हो गई। लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन से जुड़े इस अध्ययन के एक अन्य शोधकर्ता प्रोफेसर प्रोफेसर किनरा के मुताबिक, ‘हृदय संबंधी रोगों से संबंधित चिकित्सा देखभाल में सुधार के कारण हार्टअटैक के मरीज़ को समय पर इलाज मिल जाए तो उसकी जान बच सकती है।’ (इंडिया साइंस वायर)

मंगल पर होगा इंसान

नासा का दावा है कि आने वाले 25 वर्षों में इंसान को मंगल ग्रह पर बसाया जा सकता है

मेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का मानना है कि वह आने वाले 25 वर्षांे में इंसान को मंगल ग्रह पर बसा सकता है। अभी तक मंगल पर इंसान के रहने की सबसे बड़ी चुनौती वहां का वातावरण है। नासा के पूर्व एस्ट्रोनॉट टॉम जोन्स ने बताया कि इस समस्या का हल निकालने के लिए अभी तक जो बजट नासा के पास है या इससे थोड़े बढ़े हुए बजट के साथ भी मंगल ग्रह पर बसने के लिए 25 साल लग जाएंगे। अभी तक की रॉकेट टेक्नोलॉजी के अनुसार मंगल तक पहुंचने में करीब नौ महीने लग जाते हैं। इतने लंबे समय तक जीरो ग्रैविटी के रहने की वजह से आंखों की रोशनी जा सकती है। इसके अलावा जीरो ग्रैविटी की वजह से हड्डियों की कैल्शियम घुलनी शुरू जाती है जिससे हड्डियां कमजोर हो जाती हैं। मंगल ग्रह का ग्रैविटेशन धरती की तुलना में एक तिहाई है। वैज्ञानिक इस समस्या से निपटने का रास्ता खोज रहे हैं। इसका एक तरीका ये है कि मंगल तक पहुंचने के समय को कम किया जाए। इसके अलावा एक्सपर्ट्स यह भी खोज रहे हैं कि कैसे कॉस्मिक रेडिएशन और सौर लपटों से बचा जा सके। (एजेंसी)

सदाबहार की झाड़ी कैंसर निदान का नया एजेंट आईआईटी-रुड़की के शोधकर्ताओं ने सदाबहार की पत्तियों में कैंसर के इलाज में सहायक तत्व खोजे हैं

इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी-रुड़की में इंडियन शोधकर्ताओं की एक टीम ने फ्लोरोसेंट कार्बन

नैनो-डॉट्स का एक सेट विकसित किया है जो कैंसर के लिए नैदानिक-सह-चिकित्सीय एजेंट के रूप में कार्य करता है। नैनो कार्बन सामग्री गुलाबी पेरीविंकल संयंत्र

(सदाबहर) की पत्तियों से निकाली गई है। इस पौधे की जड़ें और शूटिंग - कैथारनस रोजस आयुर्वेद में कई बीमारियों के इलाज के लिए उपयोग की जाती है। मधुमेह, मलेरिया और होडकिन के लिम्फोमा के इलाज के लिए पारंपरिक चीनी दवाओं में इसका उपयोग किया जाता है। आईआईटी-रुड़की के शोधकर्ताओं ने हाइड्रोथर्मल नामक प्रक्रिया में पत्तियों को गर्म करके कार्बन नैनो-बिंदुओं को संश्लेषित किया। इन नैनो-बिंदुओं को मजबूत फ्लोरोसेंस प्रदर्शित करने

के लिए पाया गया था, जो उन्हें निदान में उपयोग के लिए संभावित रूप से उपयुक्त बनाता है और कैंसर में मध्यस्थता करता है। माउस के भ्रूण फाइब्रोब्लास्ट कोशिकाओं में नैनो-बिंदुओं का परीक्षण किया गया था। कुछ घंटों के लिए कार्बन नैनो-डॉट निलंबन की उपस्थिति में उगाए जाने पर इन कोशिकाओं ने फ्लोरोसेंस दिखाया। यह दर्शाता है कि कार्बन बिंदु कोशिकाओं में प्रवेश कर चुका था। नैनो-बिंदुओं ने तब कोशिका नाभिक में सूक्ष्म-गठन को बाधित कर दिया। माइक्रोट्यूब्यूल सेल विभाजन के पहलुओं और उनकी अवरोध कोशिकाओं के दोहराव को रोकती है और इस प्रकार उनके प्रसार को कम करती है।

इंस्टीट्यूट के नैनो टेक्नोलॉजी के सहायक प्रोफेसर डॉ. पी. गोपीनाथ ने कहा, ‘इन नैनोसामग्रियों के साथ हम कैंसर की कोशिकाओं की पहचान कर सकते हैं और उन्हें एक इमेजिंग सिस्टम द्वारा ट्रैक कर सकते हैं, क्योंकि कोशिकाओं को खुद को सटीक तरीके से खत्म किया जा रहा है।’ टीम अब आगे के मूल्यांकन के लिए पशु अध्ययन की योजना बना रही है। शोध कार्य विज्ञान और इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (एसईआरबी) और जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) द्वारा समर्थित था। निष्कर्षों पर एक रिपोर्ट हाल ही में जर्नल कोलोइड्स और सर्फसेस बी: बायोइंटरफेस में प्रकाशित हुई थी। (इंडिया साइंस वायर)


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स्वच्छता

19 - 25 नवंबर 2018

स्वीडन

स्वच्छता का मॉडल देश

स्वीडन आर्क थि तौर पर तो काफी संपन्न है, लेकिन स्वच्छता की दृष्टि से भी वह दुनिया का आदर्श देश बन गया है एसएसबी ब्यूरो

क देश अगर स्वच्छता के हर तरह के मानकों पर खुद को तकरीबन सौ फीसद खरा उतार पाने में कामयाब हो तो उस देश की व्यवस्थागत खूबियों के साथ वहां के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को लेकर दिलचस्पी स्वाभाविक है। स्वीडन एक ऐसा ही देश है, जो आर्थिक तौर पर काफी संपन्न होने के साथ

खास बातें स्वच्छता के सभी मानकों पर तकरीबन सौ फीसद खरा उतरने वाला देश 99 फीसद से ऊपर आबादी तक उन्नत स्वच्छता सेवाओं की पहुंच पूरी आबादी तक स्वच्छ जलापूर्ति करने में मिली बड़ी कामयाबी

स्वच्छता की दृष्टि से दुनिया का आदर्श देश बन गया है।

बल्कि उनकी जीवनशैली काफी अनुशासित और जिम्मेवार है।

बात अकेले स्वच्छता की करें तो पूरे स्वीडन में 99 फीसद से ऊपर आबादी तक उन्नत और सुरक्षित स्वच्छता सेवाओं की पहुंच है। वहां बमुश्किल एक फीसद आबादी ऐसी है, जो असुरक्षित स्वच्छता सुविधाओं का अब भी प्रयोग कर रही है। गौरतलब है कि स्वीडन में स्वच्छता को लेकर यह स्वावलंबी स्थिति इसीलिए भी आई है क्योंकि स्वच्छता और जलापूर्ति का सीधा संबंध है और जल प्रबंधन के नजरिए से यह देश काफी आगे है।

31 मार्च 2018 तक स्वीडन की कुल आबादी 10,142,686 थी। वहां 85 फीसदी आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है। राजधानी स्टॉकहोम की जनसंख्या 950,000 है (शहरी क्षेत्र में 1.5 मिलियन और महानगरीय क्षेत्र में 2.3 मिलियन)। दूसरे और तीसरे सबसे बड़े शहर गोथनबर्ग और मालमो हैं। नॉरलैंड, जो लगभग 60 प्रतिशत स्वीडिश क्षेत्र को कवर करता है, में बहुत कम जनसंख्या घनत्व है (5 लोग प्रति वर्ग किलोमीटर के नीचे)। पहाड़ और दूरस्थ तटीय क्षेत्र अधिकांशतः गैर आबादी वाले हैं। 1820 से 1930 के बीच लगभग 1.3 मिलियन स्वीडिश यानी देश की आबादी का एक तिहाई उत्तरी अमेरिका में जा कर बस गए, जिनमें से अधिकांश अमेरिका में बसे। 2006 के अमेरिकी जनगणना ब्यूरो के अनुमान के अनुसार

स्वच्छता में अव्वल

सबको शुद्ध जल

स्वीडन दुनिया के उन चंद देशों में शामिल है जहां जल प्रबंधन इतना कारगर है कि वहां की पूरी आबादी तक न सिर्फ पानी की पहुंच है, बल्कि वहां का हर आदमी स्वच्छ जल इस्तेमाल कर रहा है। जल और स्वच्छता को लेकर स्वीडन की सफलता या उसके स्वावलंबन के पीछे एक बड़ी वजह वहां के लोगों की आदतें और उनके स्वच्छ संस्कार हैं। पूरी दुनिया में स्वीडिश लोगों के लिए यह माना जाता है कि वे न सिर्फ सफाई पसंद हैं,

शहरों में सिमटा देश

4.4 मिलियन से अधिक स्वीडिश-अमेरिकी हैं। कनाडा में स्वीडिश लोगों का समुदाय 330,000 से अधिक है। स्वीडन को लेकर जातीयता का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है। लेकिन स्वीडन के सांख्यिकी विभाग के अनुसार, 2017 में स्वीडन में लगभग 3,193,089 (31.5 फीसदी) निवासी विदेशी पृष्ठभूमि के थे, जिसमें या तो वे खुद विदेश में पैदा हुए थे या उनके माता-पिता में से कम से कम एक विदेश में पैदा हुए हैं। स्वीडन आकर बसे लोगों में सीरिया (1.70%), फिनलैंड (1.4 9%), इराक (1.39%), पोलैंड (0.90%), ईरान (0.73%) और सोमालिया (0.66%) आदि देशों के प्रमुख हैं।

कचरा मुक्त देश

स्वीडन में स्वच्छता का आलम यह है कि पूरे यूरोप में पर्यावरण के प्रति सबसे जागरूक कहा जाने वाला यह देश अब इस कदर कचरा मुक्त हो गया

पूरी दुनिया में स्वीडिश लोगों के लिए यह माना जाता है कि वे न सिर्फ सफाई पसंद हैं, बल्कि उनकी जीवनशैली भी काफी अनुशासित और जिम्मेवार है


19 - 25 नवंबर 2018

महान लेखकोंकलाकारों का देश

सातवां सबसे अमीर देश

स्वीडन की निर्यात उन्मुख मिश्रित अर्थव्यवस्था इतनी कारगर है कि यहां सामान्य लोगों का जीवन स्तर भी खासा ऊंचा है

घरेलू उत्पाद के मामले में प्र तिस्वीडनव्यक्तिदुनिसकल या का सातवां सबसे अमीर देश है

स्वीडन को कुल सात बार साहित्य में नोबेल पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है

और यहां सामान्य लोग भी उच्च जीवन स्तर जीते हैं। स्वीडन की एक निर्यात उन्मुख मिश्रित अर्थव्यवस्था है। प्राप्त संसाधन में लकड़ी, जल विद्युत और लौह अयस्क प्रमुख हैं। स्वीडन का इंजीनियरिंग क्षेत्र में उत्पादन और निर्यात का 50 फीसदी हिस्सा है, जबकि दूरसंचार, मोटर वाहन उद्योग और दवा उद्योग भी महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। स्वीडन दुनिया का नौवां सबसे बड़ा हथियार निर्यातक देश है। स्वीडन में हुए जनमत संग्रह में यूरो को खारिज कर देने के बाद स्वीडन ने अपनी मुद्रा स्वीडिश क्रोना (एसईके) का चलन जारी रखा है। 1668 में स्थापित स्वीडिश रिक्स्बैंक और इस प्रकार दुनिया का सबसे पुराना केंद्रीय बैंक-वर्तमान में 2 प्रतिशत की मुद्रास्फीति लक्ष्य के साथ मूल्य स्थिरता पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। ओईसीडी द्वारा 2007 के स्वीडन के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक स्वीडन में औसत मुद्रास्फीति 1990 के दशक के मध्य से यूरोपीय देशों में सबसे कम रही है, जो मुख्य रूप से वैश्वीकरण के विनियमन और त्वरित उपयोग के कारण है। इसका जर्मनी, अमेरिका, नॉर्वे, यूनाइटेड किंगडम, डेनमार्क और फिनलैंड के साथ सबसे बड़ा व्यापार प्रवाह है।

स्वीडनलेखकमें कईहुएविश्वविख्यात है, जिनमें

रीसाइक्लिंग की नई समस्या

अकेले स्वीडन को लें तो वह आज एक ऐसा देश है, जिसकी रिसाइक्लिंग संयंत्रों पर निर्भरता बढ़ते देखकर अब उसे सबसे बड़ी चिंता अधिक मात्रा में कचरा हासिल कर उसे संयंत्र तक पहुंचाने की है। यह एक नई तरह की स्थिति है, जिसमें स्वच्छता को लेकर शुरू की गई व्यवस्था इतनी कारगर है कि अब वह व्यवस्था या तो गैरजरूरी दिख रही है या फिर उसे कायम रखने के लिए अलग से प्रयास करने पड़ रहे हैं।

स्वीडन में इस तरीके के करीब 78 संयंत्र कार्यरत हैं। जिन-जिन शहरों के ये संयंत्र बिजली बना रहे हैं उन नगरपालिकाओं में इस बात पर झगड़ा मचा हुआ है कि वे अपने शहर का कूड़ा दूसरे शहर को क्यों दें, क्योंकि राष्ट्रव्यापी जागरूकता के चलते इन शहरों के पास इतना कूड़ा पैदा ही नहीं हो रहा कि वे अपनी जरूरत की पूरी बिजली पैदाकर कूड़े को दूसरों को दें। इस समय वे सभी कचरा पाने के लिए इंग्लैंड की ओर कातर निगाहों से देख रहे हैं। दूर-दराज के देशों से कचरा मंगवाना काफी खर्चीला और आव्यावहारिक है। यूरोप के देशों में जमीन में कचरा गाड़ने पर रोक है और भारी जुर्माना भी है, इसीलिए कई देश इन कचरों को स्वीडन जैसे देशों को कचरा देना ज्यादा बेहतर समझते हैं। लेकिन आज नहीं तो कल उनकी भी हालत स्वीडन जैसी ही होनी है। यूरोप के कई देश केवल कचरे से बिजली ही नहीं बना रहे, बल्कि कचरे के साथ ही साथ इस रिसाइकलिंग की प्रक्रिया से पैदा होनेवाली ऊष्मा को भी इकट्ठा कर लेते हैं, जिससे इसका उपयोग बेहद ठंड से निपटने में किया जाए। इस प्रकार कचरा की हर तरह से उपयोगिता अर्जित की जा रही है।

जागरूक नगरपालिकाएं

वर्तमान हालात और भविष्य को देखते हुए ही स्वीडन की नगरपालिकाएं रिहायशी इलाकों से ऑटोमेटिक वैक्यूम सिस्टम से कचरा संग्रह तकनीक, संग्रहीत कचरे को तुरंत संयंत्र पहुंचाने

पेयजल और स्वच्छता स्वच्छ या शोधित शहरी : 100% आबादी ग्रामीण : 100% आबादी

स्वच्छ व उन्नत शहरी : 99.3% आबादी

कुल : 100% आबादी

ग्रामीण : 99.6% आबादी कुल : 99.3% आबादी

(2015 तक अनुमानित)

(2015 तक अनुमानित)

अस्वच्छ या अशोधित

शहरी : 0% आबादी ग्रामीण : 0% आबादी कुल : 0% आबादी

के परिहन की पूरी व्यवस्था और नागरिकों को दुर्गंध से बचाने के लिए जमीन के भीतर कचरे को संग्रहीत करने के कंटेनर सिस्टम में काफी निवेश कर रही हैं। इस समय उस देश की आधी बिजली की आपूर्ति इन्हीं तरीकों से की जा रही है। यहां का रीसाइकलिंग सिस्टम इतना अत्याधुनिक है कि जमा किए गए घरेलू कचरे का सिर्फ एक प्रतिशत ही जमीन में गाड़ने लायक बचता है। इस बेहतर स्थिति का सबसे बड़ा कारण हैस्वीडिश लोगों के अंदर प्रकृति और पर्यावरण

अस्वच्छ या पारंपरिक

शहरी : 0.7% आबादी ग्रामीण : 0.4% आबादी कुल : 0.7% आबादी

स्वच्छता सुविधाएं

है कि उसे अब अपने रिसाइक्लिंग संयंत्रों को चलाते रखने के लिए आसपास के देशों से कचरा आयात करना पड़ रहा है। वैसे स्वच्छता को लेकर यह जागरूकता यूरोप के अन्य देशों में भी कमोबेश है। जर्मनी, नॉर्वे, बेल्जियम और नीदरलैंड जैसे देशों में भी कूड़े से बिजली बनाने के 420 से ज्यादा प्लांट न सिर्फ शुरू हुए बल्कि पर्याप्त मात्रा में बिजली सप्लाई भी करने लगे हैं।

और अभिनेता ग्रेटा गार्बो और इंग्रिड बर्गमैन सिनेमा दुनिया में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध बन गए थे। हाल ही में लुकास मूडिसन, लास हॉलस्ट्रॉम और रूबेन ओस्टलंड की फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली है।

पेयजल स्रोत

ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग, एस्ट्रिड लिंडग्रेन और नोबेल पुरस्कार विजेता सेल्मा लागेर्लाफ और हैरी मार्टिंसन आदि शामिल हैं। स्वीडन को कुल सात बार साहित्य में नोबेल पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। देश के सबसे प्रसिद्ध कलाकारों में चित्रकार कार्ल लार्सन और एंडर्स जोर्न और मूर्तिकार टोबीस सर्गल और कार्ल मिलस हैं। स्वीडिश 20वीं सदी की संस्कृति सिनेमा के प्रारंभिक दिनों में मॉरिट्स स्टिलर और विक्टर सोजोस्ट्रॉम के साथ अग्रणी रही है। 1920 के दशक में फिल्म निर्माता इंगमार बर्गमैन

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स्वच्छता

स्रोत : सीआईए वर्ल्ड फैक्टबुक (जनवरी, 2018)

को लेकर व्याप्त जागरूकता। नागरिकों को यह अहसास करवाने पर पूरा जोर दिया गया कि वे कचरा न फेंकें जिससे उनका पुन: प्रयोग कर नागरिकों को ही फायदा पहुंचाया जा सके। वे जब एक बार आम आदमी के गले में यह बात उतारने में सफल रहे तब तो कंपनियों और उद्योगों पर यह लागू करना बेहद आसान था। स्वीडन उन देशों में है, जिसने 1991 में ही जीवाश्म ईंधन पर भारी टैक्स और पेनल्टी लगाकर जनता को हतोत्साहित किया और आज परिणाम सामने हैं।


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व्यक्तित्व

19 - 25 नवंबर 2018

एजरा पाउंड

कविता का नया तर्क और विमर्श

अंग्रेजी साहित्य परंपरा और इतिहास में एजरा एक नए वैचारिक उभार के कवि थे। उनकी इसी खासियत ने आज भी साहित्य प्रेमियों के साथ आलोचकों की दुनिया में उनकी प्रासंगिकता को बहाल रखा है प्रेम प्रकाश

त्तर आधुनिकता का विचार और इससे जुड़ी शब्दावली तो 20वीं सदी के आखिरी दशक में प्रचलन में आई। इसी दौर में उत्तर आधुनिक विमर्श ने भी वैश्विक जोर पकड़ा। पर इससे पहले जिन साहित्यकारों की आलोचना और उनके विचारों को लेकर आधुनिकता से आगे की शब्दावली इस्तेमाल की गई, उनमें प्रसिद्ध कवि एजरा पाउंड का नाम अहम है। एजरा पाउंड प्रवासी अमेरिकी कवि और आलोचक थे। उनके विचार और साहित्य को लेकर जहां एक तरफ काफी विवाद उभरा, वहीं उन्होंने दुनिया के सामने ऐसे क्रांतिकारी विचार रखे, जिन्हें अति आधुनिक माना गया। अंग्रेजी साहित्य परंपरा और इतिहास में एजरा एक नए वैचारिक उभार के कवि थे। उनकी इसी खासियत ने आज भी साहित्य प्रेमियों के साथ आलोचकों की दुनिया में उनकी प्रासंगिकता को बहाल रखा है।

नितांत नूतन लेखन

एजरा एक ऐसे लेखन से दुनिया को परिचित करा रहे थे, जो नितांत नूतन था। उनकी प्रयोगधर्मिता ने साहित्य को लेकर एक नई समझ की दरकार दुनिया के सामने रखी। इस दरकार पर खरा उतरने

का जोखिम तब जितना कठिन था, आज भी उससे कम नहीं। दिलचस्प यह कि अब जबकि एजरा को लेकर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, खासकर उनकी कविताओं को समझने के लिए कई आलोचकीय सूत्र विकसित हो चुके हैं, तो भी एजरा का साहित्य खुद को नितांत नई दृष्टि के साथ देखे-पढ़े जाने की चुनौती पेश करता है।

‘इमेजिज्म’ की स्थापना

एजरा अपने लेखन और विचारों के साथ हमें 20वीं सदी की पूरी यात्रा कराते हैं। उनका कुछ साहित्य 20वीं के पूर्वार्ध में सामने आया जबकि बाकी का साहित्य उन्होंने इस सदी के उत्तर काल में लिखा। उनकी एक बड़ी खासियत यह भी रही कि उन्होंने साहित्य के एकांत को तोड़ा और उसके लेखन से लेकर विचार तक को अपने दौर की सबसे प्रबुद्ध कार्रवाई का दर्जा दिया। उनके साहित्यिक अवदान में उनका लेखन तो शामिल है ही, पर इसके अलावा वे उस समूह की स्थापना के लिए भी चर्चा में रहे, जिसे उन्होंने साहित्य लेखन और उसके आस्वादन

के सर्वथा नए अनुभव के लिए बनाया था। इस समूह का नाम था- इमेजिज्म (छविवाद)। इमेजिज्म की स्थापना उन्होंने 1913 में की थी।

विरोधाभासों का कवि

कुछ आलोचक एजरा को विरोधाभासों का कवि मानते हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह रहा इमेजिज्म की स्थापना और इससे जुड़े उद्देश्यों से खुद एजरा का अलग होना। एजरा इमेजिज्म की स्थापना के साथ 20वीं सदी में जिस अत्याधुनिक कविता के आंदोलन को आगे बढ़ा रहे थे, उसमें क्लासिकल चीनी और जापानी कविताओं को अहम स्थान दिया गया था। यह आंदोलन कविता को बिंब और रूपक से बाहर संवेदना की हूबहू प्रस्तुति पर जोर देता था। यही नहीं विस्तृत और अनावश्यक विस्तार की जगह कविता में शब्दों की फिजूलखर्ची का भी यह आंदोलन प्रखर विरोध करता था।

लंबी कविता ‘द कैनटॉस’

दिलचस्प है कि खुद एजरा की ख्याति के पीछे

एजरा अपने लेखन और विचारों के साथ हमें 20वीं सदी की पूरी यात्रा कराते हैं। उनका कुछ साहित्य 20वीं के पूर्वार्ध में सामने आया, जबकि बाकी का साहित्य उन्होंने इस सदी के उत्तर काल में लिखा

खास बातें कुछ आलोचक एजरा को विरोधाभासों का कवि मानते हैं एजरा का साहित्य दोनों विश्व युद्ध का साक्षी रहा है 1913 में ‘इमेजिज्म’ नामक एक साहित्यिक समूह की स्थापना उनकी एक लंबी कविता ‘द कैनटॉस’ भी है। मशहूर अंग्रेजी आलोचक रिबेका बेस्ले बताती हैं कि यह कविता उन्होंने 1915 में लिखनी शुरू की थी। पर 1972 तक वे इसे अंतिम तौर पर पूरा नहीं कर पाए। गौरतलब है कि 1972 में उनका देहांत हो गया था। इस दौरान इसके कई अपूर्ण पाठ चर्चा में रहे। यह बिल्कुल उसी तरह की स्थिति है जैसी हिंदी के सर्वाधिक आधुनिक और विचारप्रवण ठहराए गए कवि मुक्तिबोध की लंबी कविता ‘अंधेरे में’ को लेकर रही। ‘अंधेरे में’ कविता पहली बार हैदराबाद


19 - 25 नवंबर 2018

कविता का गणित

कविता

मित्र से विदा लेते हुए

-एजरा पाउंड नगर प्राचीरों के उत्तर में नीले पहाड़ सफेद नदी उनमें मंडराती हुई यहां हमें विदा लेनी है और मुरझाई घास से होकर हजार मील जाना है। तैरते हुए चौड़े बादल की तरह मन, सूर्यास्त जैसे पुराने मित्रों का बिछड़ना जो दूर से अपने हाथ जोड़े नमन करते हैं। हमारी विदाई के समय हमारे घोड़े एक-दूसरे से हिनहिनाते हैं। (अंग्रेजी से अनुवाद : नीलाभ) से निकलने वाली पत्रिका ‘कल्पना’ में छपी थी। पर इसके बाद भी वे इस कविता को लगातार संशोधितसंपादित करते रहे। आलम यह रहा कि उनका इसी कविता के नाम पर जो काव्य संग्रह उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ, उसको लेकर भी यह विवाद बना ही रहा कि यह कवि द्वारा लिखित कविता का एक और पाठ है या अंतिम।

आधुनिक महाकाव्य का दर्जा

बात अकेले एजरा की लंबी कविता ‘द कैनटॉस’ की करें तो जो सबसे विस्तृत पाठ इसका दुनिया के सामने आया उनमें 120 खंड हैं। कविता के इस विस्तार के कारण कई लोग इसे एक आधुनिक महाकाव्य का भी दर्जा देते हैं। रिबेका कहती हैं कि ‘द कैनटॉस’ अत्याधुनिक मानवीय विमर्श की कविता के साथ उस ऊहापोह की भी कविता है, जो एजरा अपने भीतर मानवीय संवेदना की नियति का अंतिम भाष्य लिखते-समझते हुए महसूस कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में ‘द कैनटॉस’ आधुनिक मनुष्य के विकास बनाम उसके विरोधाभासों के विकास की कविता है। इस कविता में एजरा ने यांत्रिकता और विकास के संजाल के बीच बुद्धि और संवेदना की सुरक्षा का सवाल उठाया है।

दिग्गज साहित्यकारों के समकालीन

बहरहाल ‘द कैनटॉस’ के साथ कई और कृतियां

: एजरा वेस्टन लुमिस पाउंड

मृत्यु

: 1 नवंबर 1972

जन्म

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कविता एक तरह से प्ररे क गणित है, जो अमूर्त आंकड़ों, त्रिकोणों, वर्गों के लिए नहीं, बल्कि मानवीय भावनाओं के लिए समीकरण देती है

भी हैं, जिनके कारण एजरा पाउंड आज भी न सिर्फ अंग्रेजी बल्कि विश्व साहित्य के बड़े हस्ताक्षर बने हुए हैं। एजरा ने 20वीं सदी की शुरुआत में कई अमेरिकी साहित्यिक पत्रिकाओं का लंदन में संपादन किया था। साहित्य की दुनिया को उनका एक बड़ा अवदान यह भी है कि अपने कई समकालीन दिग्गज साहित्यकारों की कृतियों के संपादन के साथ उनकी कई अप्रकाशित रचनाओं से उन्होंने साहित्य प्रेमियों को परिचित कराया। इन साहित्यकारों में टीएस इलियट, जेम्स ज्वाइश, राबर्ट फ्रॉस्ट और अर्नेस्ट हेमिंग्वे शामिल हैं।

ब्रिटेन से मोहभंग

जब प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तो एजरा का ब्रिटिश संस्कृति और सोच को लेकर इतना बड़ा मोहभंग हुआ कि उन्होंने ब्रिटेन छोड़ने तक बड़ा फैसला कर लिया। उन्हें लगता था कि विश्व युद्ध के रूप में मानवता के आगे आई विभीषिका के पीछे सबसे बड़ी वजह वैश्विक पूंजीवाद का बढ़ा जोर है। ब्रिटेन छोड़कर वे 1924 में इटली पहुंचे। यहां वे तीस और चालीस के दशक तक न सिर्फ टिके बल्कि रचनात्मक और वैचारिक रूप से काफी सक्रिय भी रहे। यहां तानाशाह और फासिज्म के विचारों के चक्कर में वे पड़े। उन्हें लगा कि पूंजीवाद से निपटने के लिए अतिवादी होना समय की मांग है। इसी दौर में उन्होंने सर

एजरानामा

पूरा नाम

व्यक्तित्व

: 30 अक्टूबर 1885

ख्याति : प्रवासी अमेरिकी कवि और आलोचक के साथ प्रारंभिक आधुनिकतावादी कविता आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर।

साहित्यिक अवदान : कविता में उनका योगदान ‘इमेजिज्म’ के विकास के साथ शुरू हुआ। शास्त्रीय चीनी और जापानी कविता के साथ यह समूह शुरू हुआ और इसका रचनात्मक आंदोलन कविता स्पष्टता, सटीकता और भाषा की किफायती अर्थव्यवस्था पर जोर देता है।

मैं

अपनी पूरी जिंदगी यही समझता रहा कि मैं कुछ जानता हूं, लेकिन एक अजीब दिन आया, जब मुझे पता चला कि मैं कुछ नहीं जानता हूं और इसलिए शब्दों का अर्थ शून्य हो गया। मैं अंतिम अनिश्चितता पर बहुत देर से पहुंचा। कविता एक तरह से प्रेरक गणित है, जो अमूर्त आंकड़ों, त्रिकोणों, वर्गों के लिए नहीं, बल्कि मानवीय भावनाओं के लिए समीकरण देती है। अगर किसी का मन विज्ञान के बजाय जादू में ज्यादा रमता है, तो वह मंत्र के रूप में इन समीकरणों की बात करना पसंद करेगा। यह ज्यादा ही दुर्बोध और रहस्यमय जान पड़ता है। लेकिन साहित्य शून्य में नहीं रहता है। अपनी योग्यता के अनुसार लेखकों का एक निश्चित सामाजिक कार्य होता है। कविता बेहद जटिल कला है। यह एकपक्षीय और पारंपरिक प्रतीकों के जरिए शुद्ध ध्वनि

की कला है। कविता एक ऐसी भाषा है, जो अपनी अनिवार्यता को कम करती है। क्लासिक साहित्य इसीलिए क्लासिक नहीं होता कि यह कुछ संरचनात्मक नियमों के अनुकूल या कुछ परिभाषाओं में फिट बैठता है, बल्कि यह एक निश्चित, शाश्वत और अदम्य ताजगी के कारण क्लासिक होता है। जिन कवियों की संगीत में दिलचस्पी नहीं होती, वे बहुत खराब कवि होते हैं। अगर किसी राष्ट्र में साहित्य का मूल्य घट जाता है, तो वह राष्ट्र पतन की ओर अग्रसर होता है। अगर कोई व्यक्ति अपने विचारों के लिए खतरे उठाना नहीं चाहता है, तो या तो उसके विचार अच्छे नहीं हैं या वह स्वयं अच्छा नहीं है। एक सभ्य व्यक्ति गंभीर सवालों के गंभीर जवाब देता है। सभ्यता अपने आप में समझदार मूल्यों का एक संतुलन है।

साहित्य की दुनिया को एजरा का एक बड़ा अवदान यह है कि कई समकालीन दिग्गज साहित्यकारों की कृतियों के संपादन के साथ उनकी कई अप्रकाशित रचनाओं से उन्होंने विश्व को परिचित कराया। इन साहित्यकारों में टी.एस. इलियट, जेम्स ज्वाइश, राबर्ट फ्रॉस्ट और अर्नेस्ट हेमिंग्वे शामिल हैं ओस्वाल्ड मोस्ली के साहित्य के प्रकशन का कार्य किया।

विचलन से निधन तक

कुछ आलोचकों की नजर में पहले से दूसरे विश्वयुद्ध के दौर में एजरा ने जिस तरह का जीवन जिया और कार्य किया, वह उनकी रचनात्मक श्रेष्ठता की जगह विचलन की मनोदशा को दर्शाता है। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान तो उन्हें इटली की हुकूमत बजाप्ता इस तरह के रेडियो टेलीकास्ट के लिए पैसे दे रही थी,

जिसमें वे अमेरिका की जोरदार निंदा करते थे। 1945 में उन्हें अमेरिकी फौज ने राजद्रोह के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया। कैद करके अमेरिका ले जाने के बाद उन्हें कई तरह की सैन्य यातनाएं दी गईं, जिससे वे मानसिक रूप से तकरीबन विक्षिप्त हो गए। जीवन के आखिरी 12 वर्षों तक वाशिंगटन के एक अस्पताल में उनका मनोरोग का इलाज चलता रहा। गौरतलब है कि उनकी ख्याति का एक बड़ा आधार उनकी लंबी कविता ‘द कैनटॉस’ गिरफ्तारी और सैन्य यातना के दिनों की ही देन है।


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पुस्तक अंश

19 - 25 नवंबर 2018

जी-20 शिखर सम्मलन े - तुर्की

प्र

तुर्की के एंटाल्या में 16 नवंबर 2015 को स्पेन के प्रधानमंत्री मारिआनो रेजॉय के साथ द्विपक्षीय बातचीत करते प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

धानमंत्री नरेन्द्र मोदी 15 और 16 नवंबर 2015 को तुर्की के अंताल्या में जी-20 शिखर सम्मलेन में शामिल हुए। दो दिनों के इस सम्मलेन में पेरिस आतंकी हमला छाया रहा जिसमें करीब 129 लोग मारे गए और 352 से ज्यादा घायल हुए थे।

प्रधानमंत्री का दौरा एंटाल्या में जी-20 शिखर सम्मलेन पर केंद्रित रहा। इस दौरान मोदी ने कहा कि आतंकवाद प्रमुख वैश्विक चुनौती है और इस समस्या से निपटने के लिए वैश्विक कार्रवाई की जानी

जी-20 नेताओं के रात्रिभोज के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संबोधन में आतंकवाद को एक प्रमुख वैश्विक चुनौती बताया। उन्होंने कहा कि यह युद्धग्रस्त क्षेत्रों से दूरदराज शहरों की सड़कों तक फैल गया और इसकी घातक कीमत चुकानी पड़ रही है।

चाहिए। दो दिवसीय सम्मलेन में पेरिस आतंकी हमला छाया रहा जिसमें 129 लोग मारे गए और 352 घायल हुए थे। भारतीय प्रधानमंत्री ने ब्रिक्स नेताओं के साथ मुलाकात की और आतंकवादियों की फंडिंग,

एंटाल्या में 15 नवंबर 2015 को जी-20 शिखर सम्मलेन में शामिल विश्व के नेताओं का ग्रुप फोटो

पाकिस्तान का नाम लिए बिना प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि कई देश सरकारी नीति के औजार के तौर पर आतंकवाद का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होंने आतंकवाद के बदलते स्वरूप जैसे- वैश्विक संपर्क, फ्रेंचाइज संबंध, आसपास के परिवेश में जन्मे आतंकवाद

सप्लाई एवं संचार चैनलों को खत्म करने के लिए प्रभावी कदम उठाने का आह्वान किया। उन्होंने आतंकी संगठनों द्वारा साइबर नेटवर्कों के इस्तेमाल को रोकने के लिए वैश्विक सहयोग पर भी जोर दिया।

और रिक्रूटमेंट व प्रोपगंडा के लिए साइबर स्पेस के इस्तेमाल का उल्लेख किया। उन्होंने चेतावनी दी कि इससे बहुलवादी और खुले समाजों के लिए नए स्तर का खतरा उत्पन्न हो गया है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि सुरक्षा का मौजूदा ग्लोबल फ्रेमवर्क एक अन्य युग और दूसरे प्रकार की चुनौतियों के लिए है। उन्होंने कहा कि आतंकवाद से निपटने के लिए जो साधन हमारे पास हैं उनके बजाय हमें इसके लिए शीघ्र व्यापक वैश्विक रणनीति बनाने की जरूरत है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि आतंकवाद को समर्थन और प्रश्रय देने वालों को अलगथलग करना अति आवश्यक है। साथ ही हमें मानवता के मूल्यों को साझा करने वालों के साथ खड़ा होना होगा। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कानूनी ढांचे को सीमित करने की मांग की और बिना किसी विलंब के कंप्रेहेंसिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज्म को अपनाने को कहा। प्रधानमंत्री ने वैश्विक व्यापार में मंदी को चिंता का बड़ा कारण बताया। उन्होंने वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर बढ़ाने और पारदर्शी, समान, गैर-भेदभावकारी तथा नियम आधारित वैश्विक व्यापार व्यवस्था बनाने की मांग की। उन्होंने कहा कि दोहा डेवलपमेंट राउंड के लक्ष्यों को हासिल करने और बाली पैकेज की सभी बातों को पूरी तरह लागू करने के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि वैश्विक रोजगार का विस्तार करने और श्रम गतिशीलता व स्किल पोर्टेबिलिटी बढ़ाने के लिए ग्लोबल वैल्यू चेन में छोटे एवं मध्यम उद्यमों को शामिल करने की जरूरत को ध्यान में रखा जाना चाहिए।


19 - 25 नवंबर 2018

पुस्तक अंश

मलेशिया और सिंगापुर

भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के दूसरे सबसे बड़े स्रोत के रूप में उभरा है सिंगापुर; भारत से सिंगापुर में होनेवाला एफडीआई भी बढ़ा है। भारत अपनी लुक एंड एक्ट ईस्ट पॉलिसी लागू करने में सिंगापुर को एक महत्वपूर्ण सहयोगी मानता है। -प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी

प्रधानमंत्री मोदी ने 24 नवंबर, 2015 को सिंगापुर के आंग मो किओ में इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्निकल एजुकेशन (आईटीई) का दौरा किया मलेशिया के पुत्रजया में 23 नवंबर 2015 को तोरण द्वार उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब रजाक

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सिंगापुर के शांगरी-ला होटल में 23 नवंबर 2015 को 37वें सिंगापुर लेक्चर को संबोधित करते प्रधानमंत्री मोदी

धानमंत्री मोदी ने 21 नवंबर से 25 नवंबर 2015 के बीच मलेशिया और सिंगापुर की यात्रा की। मलेशिया में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों मोहम्मद नजीब तुन अब्दुल रजाक और नरेन्द्र मोदी मलेशिया-भारत रणनीतिक साझेदारी को पूरी ऊंचाई पर ले जाने पर सहमत हुए। दोनों नेताओं ने विकास, आर्थिक उन्नति और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में स्थिरता के लिए मलेशिया और भारत

कुआलालंपुर (मलेशिया) में 23 नवंबर 2015 को तोरण द्वार उद्घाटन के दौरान पीएम मोदी के साथ मलेशियाई पीएम नजीब रजाक

द्वारा किए गए योगदान को स्वीकार किया। इसके अलावा दोनों नेताओं की मौजूदगी में दोनों देशों के बीच 2015-2020 के लिए सांस्कृतिक आदान-प्रदान कार्यक्रम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। दोनों देश मानव संसाधन, स्वास्थ्य, विज्ञान एवं तकनीक और लोक प्रशासन जैसे क्षेत्रों में आपसी सहयोग से काम करने पर भी सहमत हुए। 23 से 25 नवंबर के बीच प्रधानमंत्री के तौर पर सिंगापुर की अपनी दूसरी यात्रा को मोदी ने बेहद महत्वपूर्ण बताया। इस दौरे में नेताओं एवं संभावित निवेशकों के साथ बैठक और प्रवासी भारतीयों को संबोधन शामिल था। प्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हुए मोदी ने उनसे भारत की विकास यात्रा का हिस्सा बनने को कहा। इस यात्रा के दौरान भारत और सिंगापुर के बीच द्विपक्षीय संबंध रणनीतिक साझेदारी के स्तर पर पहुंच गए।

मलेशिया में भारतीय समुदाय द्वारा स्वागत समारोह को संबोधन

भारत-मलेशिया के बीच 23 नवंबर, 2015 को पुत्रजया (मलेशिया) में द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर के दौरान मौजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मलेशिया के प्रधानमंत्री नजीब रजाक

भारत अपने क्षेत्र तक सीमित नहीं है। भारत दुनिया के हर हिस्से में रहने वाले प्रत्येक भारतीय में भी है। मलयभारतीय भारत में होने वाले वार्षिक प्रवासी भारतीय दिवस में सबसे बड़ी संख्या में होते हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम का गौरव कुछ हद तक मलयभारतीयों के संघर्ष और बलिदान के द्वारा लिखा गया है।

मोदी के कारण नहीं, बल्कि आपके कारण आज पूरी दुनिया भारत को भरोसे और सम्मान के साथ देखती है।

भारत सिंगापुर से बहुत कुछ सीख सकता है जिसमें से एक स्वच्छता है। मैं यहां मौजूद सभी लोगों को तहेदिल

से धन्यवाद देता हूं जिन्होंने पूरी दुनिया में भारत का नाम ऊंचा किया। मोदी के कारण नहीं, बल्कि

सिंगापुर और भारत के बीच औपचारिक संबंध के 50 वर्ष पूरे होने के अवसर पर पीएम मोदी का दौरा हुआ। 1965 में सिंगापुर को आजादी मिलने के बाद भारत उसे मान्यता देने वाला दूसरा देश था। इस दौरे में भारत-सिंगापुर रणनीतिक साझेदारी उल्लेखनीय रही जिससे दोनों देशों के बीच संबंधों को ऊंचाई मिलेगी। इससे रक्षा संबंध, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सहयोग, कौशल विकास और क्षमता निर्माण समेत विभिन्न क्षेत्रों में दोनों देशों के संबंध गहरे होंगे।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम का गौरव कुछ हद तक मलय-भारतीयों के संघर्ष और बलिदान के द्वारा लिखा गया है। (22 नवंबर, 2015)

सिंगापुर में भारतीय समुदाय को संबोधन

(24 नवंबर, 2015)

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आपके कारण आज पूरी दुनिया भारत को भरोसे और सम्मान के साथ देखती है।

कुआलालंपुर में 21 नवंबर, 2015 को आसियान प्लस भारत बैठक के दौरान एक दूसरे का हाथ थामे आसियान नेताओं के साथ पीएम मोदी

यह स्पष्ट है कि आर्थिक सुधार जरूरी है। हमने खुद से सवाल किया- सुधार किसलिए? सुधार का उद्देश्य क्या है? क्या यह केवल मापी गई जीडीपी वृद्धि की दर को बढ़ाने के लिए है? या क्या यह समाज में बदलाव लाने के लिए है? मेरा जवाब साफ है : हमें बदलाव के लिए सुधार करना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मलेशिया में आसियान बिजनेस एंड इन्वेस्टमेंट समिट


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खेल

19 - 25 नवंबर 2018

एलीन ऐश

सबसे बुजुर्ग महिला क्रिकेटर की योग साधना

क्या 107 वर्ष की एलीन को भी कभी खुद के वृद्ध हो जाने का अहसास हुआ होगा! हुआ जरूर होगा लेकिन अपने संयमित जीवन, कड़ी मेहनत और प्रबल इच्छाशक्ति के कारण वह आज पूरी दुनिया के लिए मिसाल बनी हुई हैं

खास बातें एलीन ने हाल ही में अपना 107वां जन्मदिन मनाया है एलीन ने 12 साल के लंबे करियर में सात टेस्ट खेले इंग्लैंड की क्रिकेट खिलाड़ी हीथर नाइट्स बड़ी प्रशंसक हैं एलीन की सकती है। कुछ ऐसी ही सीख दे रही हैं दुनिया की सबसे बुजुर्ग टेस्ट क्रिकेटर एलीन ऐश। एलीन ने हाल ही में अपना 107वां जन्मदिन मनाया है। वर्ष 1937 में इंग्लैंड महिला टीम के लिए डेब्यू करने वाली एलीन का जन्म 1911 में हुआ था। एलीन ने 12 साल के लंबे करियर में सात टेस्ट खेले। इस दौरान उन्होंने औसतन 10 विकेट लिए। उन्होंने अपना पहला मैच ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेला था। एलीन ने क्रिकेट के साथ ही योग को भी अपना लिया। वह तीस साल से भी

एलीन को 107 साल पूरे करने पर शुभकामनाएं देते हुए आईसीसी ने ट्विटर पर पिछले वर्ष इंग्लैंड की खिलाड़ी हीथर नाइट्स के साथ एलीन की मुलाकात का वीडियो शेयर किया एसएसबी ब्यूरो

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केट खेलने की लगन आपको आजीवन खेल के मैदान पर तो सक्रिय नहीं रख सकती, पर इस खेल से जुड़ी स्वस्थ रहने की प्रेरणा आजीवन बनी रह

ज्यादा समय से योग कर रही हैं। योग करते हुए उनके एक वीडियो को आईसीसी ने ट्विटर पर शेयर किया था, जिसमें एलीन के साथ इंग्लैंड महिला टीम की कप्तान हीथर नाइट्स को भी देखा जा चुका है। गेंदबाज रहीं एलीन को दूसरे विश्व युद्ध के कारण पहले तीन टेस्ट खेलने के बाद अगला मैच खेलने के लिए 12 साल का लंबा इंतजार करना पड़ा। उनको 1949 में चौथा टेस्ट खेलने


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खेल

एक नहीं कई मिसाल

भारत से लेकर दुनियाभर में बुजुर्ग महिलाएं सेहत और चुस्ती-फुर्ती के मामले में मिसाल कायम कर रही हैं

ह कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) की सक्रिय बुजुर्ग 87 साल की कौशल्या देवी हों या इसी माह सिरसा (हरियाणा) में आयोजित ‘रन फॉर यूनिटी’ मैराथन में दौड़ लगाने वाले बुजुर्ग लाल चंद गोदारा अथवा इसी साल अप्रैल में 117 साल की उम्र में दुनिया से विदा होने वाली दक्षिणी जापान की वृद्धा नबी ताजीमा, सबकी सेहत का राज मजबूत इच्छाशक्ति ही नहीं, जीवन की कठिन साधना भी है। आंध्र प्रदेश की 106 साल की बुजुर्ग महिला मस्तनम्मा तो यूट्यूब पर वीडियो अपलोड कर दुनियाभर में फेमस हो गई हैं। अमेरिकी ‘गेरोनोलॉजी रिसर्च ग्रुप’ का कहना है कि अब जापान की ही एक अन्य महिला शियो योशिदा विश्व की सबसे बुजुर्ग इंसान हैं, जो 116 का मौका मिला। उसके बाद उन्होंने फिर चार मैच खेले। एश 2011 में 100 साल तक जीवित रहने वाली पहली महिला टेस्ट क्रिकेटर बन गई थीं। एमसीसी ने उस खास मौके पर उन्हें आजीवन सदस्यता से सम्मानित किया था। अफ्रीका के जॉन वॉटकिंग 95 की उम्र में सबसे उम्रदराज जीवित पुरुष टेस्ट क्रिकेटर हैं। दो साल पहले एलीन को लॉर्ड्स की बालकनी में घंटी बजाने के लिए आमंत्रित किया गया था। आईसीसी ने इस साल अक्टूबर में एलीन को 107 साल पूरे करने पर अनोखे अंदाज में शुभकामनाएं दीं। आईसीसी ने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर पिछले साल इंग्लैंड की खिलाड़ी हीथर नाइट्स के साथ एलीन की मुलाकात का वीडियो शेयर किया। नाइट्स ने एलीन से मुलाकात के बारे में कहा था कि वह उन सबसे बेहतरीन महिलाओं में से एक हैं, जिनसे वह अपने जीवन में मिली हैं। नाइट्स ने ये भी बताया कि वह ये देखकर हैरान हैं कि एलीन आज भी हर हफ्ते योग करती हैं। ‘साइंस ऑफ एजिंग’ के राइटर एवं स्पेन के नेशनल सेंटर फॉर ऑन्कोलॉजिकल

वर्ष की हो चुकी हैं। जमैका की 117 वर्षीय जवायलेट ब्राउन ने अपनी जिंदगी का ज्यादातर समय अपने घर के पास गन्ना काटते हुए बिताया। वह नियमित चर्च जातीं। उन्होंने कहा था कि वह अचंभित हैं लेकिन इतने लंबे समय तक जीने के लिए आभारी हैं। मुझे सक्रिय तरीके से लंबा जीवन स्वीकार करना है। 107 वर्षीय क्रिकेटर एलीन एश की तरह कोयंबटूर की 98 वर्षीय नन्नामल भी रोजाना योग करती ही नहीं, लोगों को सिखाती भी हैं। उन्हें भारत की सबसे बुजुर्ग योगगुरु के रूप में जाना जाता है। वह एकदम आसानी से बीस से अधिक तरह के कठिन योगासन कर लेती हैं। योग की शिक्षा उनको अपने चिकित्सक पिता से मिली थी।

नन्नामल का शरीर आज भी छोटे बच्चों की तरह लचीला है । वह रोजाना सु ब ह उठकर आधा लीटर पानी पीती हैं और बच्चों को योग सिखाने निकल जाती हैं नन्नामल का शरीर आज भी छोटे बच्चों की तरह लचीला है। वह रोजाना सुबह उठकर आधा लीटर पानी पीती हैं और बच्चों को योग सिखाने निकल जाती हैं। वह अपने खान-पान में विशेष सावधानियां बरतती हैं। हमेशा सादा भोजन करती हैं। रात का खाना शाम सात बजे तक खाकर जल्दी सो जाती हैं। वह फल और शहद का सेवन करना कभी नहीं भूलती हैं। वह योग प्रशिक्षक होने के साथ ही नेचरोपैथी की भी समर्थक हैं।

गेंदबाज रहीं एलीन को दूसरे विश्व युद्ध के कारण पहले तीन टेस्ट खेलने के बाद अगला मैच खेलने के लिए 12 साल का लंबा इंतजार करना पड़ा इन्वेस्टिगेशन्स के डॉक्टर मैन्युअल सेरानो कहते हैं- ‘मुझे जैविक तौर पर तो ऐसी किसी भी चीज के बारे में नहीं पता, जो ढलती उम्र के साथ बेहतर हुई हो।’ उनकी किताब में शोधकर्ताओं ने शरीर के भीतर होने वाली उन मुख्य प्रक्रियाओं का उल्लेख किया है, जो उम्र बढ़ने के साथ होती हैं। ये वो प्रक्रियाएं हैं, जो निश्चित रूप से होती ही हैं। वह हर इंसान में कम या ज्यादा नजर आ सकती है और इसका सारा श्रेय किसी की लाइफस्टाइल और आनुवांशिकी को जाता है लेकिन वह व्यक्ति में सतत रूप से होती रहती हैं। इसके नौ लक्षण इंसानों को भी अपना अहसास दिलाते रहते हैं कि वे बूढ़े होने लगे हैं। सवाल

उनका मानना है कि प्रकृति के नजदीक रहने से आदमी स्वस्थ रहता है और उसमें भरपूर एनर्जी बनी रहती है। जो भी उनसे मिलने आता है, उसको प्राकृतिक औषधियों के फ़ायदे बताना नहीं भूलती हैं। इस समय पूरी दुनिया में उनके लगभग 600 छात्र हैं। पहले वह सिर्फ अपने घर वालों को योग सिखाती थीं। एक प्रतियोगिता में भाग लेने के बाद जब उनको प्रसिद्धि मिली तो बाहर के लोग भी उनसे योग का प्रशिक्षण लेने आने लगे। उठता है कि क्या 98 वर्षीय नन्नामल और 107 वर्ष की एलीन को भी कभी खुद के वृद्ध हो जाने का एहसास हुआ होगा! हुआ जरूर होगा, लेकिन अपने संयमित जीवन, कड़ी मेहनत और प्रबल इच्छाशक्ति के कारण वह आज पूरी दुनिया के लिए मिसाल बनी हुई हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि हमारा डीएनए एक तरह का जेनेटिक कोड होता है, जो कोशिकाओं के बीच संचरित होता है। उम्र बढ़ने से इन जेनेटिक कोड के संचरण में गड़बड़ी होनी शुरू हो जाती है। धीरे-धीरे यह कोशिकाओं में जमा होना शुरू हो जाती हैं। इस प्रक्रिया को आनुवांशिक अस्थिरता के रूप में जाना जाता है और यह विशेष रूप से तब प्रासंगिक होता है, जब डीएनए स्टेम कोशिकाओं को प्रभावित करता है। हम जैसे-जैसे उम्रदराज होते जाते हैं, शरीर की कैप रूपी संरचना हटने लगती है और क्रोमोसोम की सुरक्षा ढीली पड़ने लगती है, तरहतरह की बीमारियांे का खतरा बढ़ जाता है। इतनी लंबी उम्र में युवाओं की तरह सक्रिय नन्नामल और एलीन के बारे में चिकित्सकों का मानना है कि वह अपनी जिंदगी खुलकर जी रही हैं।


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सुलभ संसार

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सुलभ अतिथि

विदेश से आए कुछ लोगों ने सुलभ परिसर का दौरा किया। उन्होंने सुलभ ग्राम की विभिन्न गतिविधियों को देखा जिनमें टॉयलेट म्यूजियम, सुलभ प्रौद्योगिकी आधारित ‘टू पिट पोर फ्लश टॉयलेट’, सार्वजनिक शौचालय पर आधारित बायोगैस संयंत्र इत्यादि शामिल हैं।

उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के सदस्य रूपेंद्र कुमार तिवारी और कुछ अन्य आगंतुकों ने सुलभ परिसर का दौरा किया।

कुछ आगंतुक सुलभ परिसर आए और सुलभ इंटरनेशनल म्यूजियम ऑफ टॉयलेट्स में प्रदर्शित विभिन्न कलाकृतियों को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। ये आगंतुक फ्रेंच सम्राट लुईस XIV के ‘सिंहासन की तरह चैंबर पॉट’ की बहुत सराहना करते दिखे।

मित्रता

भावना

क बहुत बड़ा सरोवर था। उसके तट पर मोर रहता था और वहीं पास एक मोरनी भी रहती थी। एक दिन मोर ने मोरनी से प्रस्ताव रखा, ‘हम- तुम विवाह कर लें, तो कैसा अच्छा रहे?’ मोरनी ने पूछा, ‘तुम्हारे मित्र कितने हैं?’ मोर ने कहा, ‘उसका कोई मित्र नहीं है।’ तो मोरनी ने विवाह से इनकार कर दिया। मोर सोचने लगा सुखपूर्वक रहने के लिए मित्र बनाना भी आवश्यक है। उसने एक शेर से, एक कछुए से और शेर के लिए शिकार का पता लगाने वाली टिटहरी से दोस्ती कर ली। जब उसने यह समाचार मोरनी को सुनाया, तो वह तुरंत विवाह के लिए तैयार हो गई। दोनों ने पेड़ पर घोंसला बनाया और उसमें अंडे दिए। उस पेड़ पर और भी कई पक्षी रहते थे। एकदिन जंगल में कुछ शिकारी आए। दिन भर कहीं शिकार न मिला तो वे उसी पेड़ की छाया में ठहर गए और सोचने लगे, पेड़ पर चढ़कर अंडों और बच्चों से भूख

दीपक, गौरव एवं विशाल शर्मा अपने परिवार सहित और कुछ अन्य आगंतुक सुलभ परिसर में आए और सुलभ इंटरनेशनल म्यूजियम ऑफ टॉयलेट्स में विभिन्न कलाकृतियों को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। आगंतुकों ने पीईटीटी में भी गहरी रुचि दिखाई, पीईटीटी दक्षिण कोरिया का पोर्टेबल इको-फ्रेंडली टेंट टॉयलेट है।

बुझाई जाए। मोर दंपति को भारी चिंता हुई, मोर मित्रों के पास सहायता के लिए दौड़ा। बस फिर क्या था, टिटहरी ने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू किया। शेर समझ गया, कोई शिकार है। वह उसी पेड़ के नीचे जा पहुंचा जहां शिकारी बैठे थे। इतने में कछुआ भी पानी से निकलकर बाहर आ गया। शेर से डरकर भागते हुए शिकारियों ने कछुए को ले चलने की बात सोची। जैसे ही हाथ बढ़ाया

कछुआ पानी में खिसक गया। शिकारियों के पैर दलदल में फंस गए। इतने में शेर आ पहुंचा और उन्हें ठिकाने लगा दिया। मोरनी ने कहा, ‘मैंने विवाह से पूर्व मित्रों की संख्या पूछी थी, सो बात काम की निकली न। यदि मित्र न होते, तो आज हम सबकी खैर न थी।’ मित्रता सभी रिश्तों में अनोखा और आदर्श रिश्ता होता है और मित्र किसी भी व्यक्ति की अनमोल पूंजी होते हैं।

मां-बाप को भूलना नहीं रेणु

भूलो सभी को मगर, मां-बाप को भूलना नहीं। उपकार जिनके अनगिनत हैं इस बात को भूलना नहीं पत्थर पूजे कई तुम्हारे जन्म के खातिर पत्थर बन मां-बाप का, दिल कभी कुचलना नहीं।। मुख का निवाला देकर जिन्होंने तुम्हें बड़ा किया। अमृत पिलाया तुमको, जहर उनके लिए उगलना नहीं।। कितने लड़ाए लाड, सब अरमान भी पूरे किए। पूरे करो अरमान उनके, बात यह भूलना नहीं।। लाखों कमाते हो भले, मां-बाप से ज्यादा नहीं। सेवा बिना सब राख है, घमंड में कभी फूलना नहीं।। संतान से सेवा चाहो, संतान बन सेवा करो। जैसी करनी वैसी भरनी, न्याय यह भूलना नहीं।। सोकर स्वयं गीले में, सुलाया तुम्हें सूखी जगह। मां की अमीमय आंखों को, भूलकर कभी भिगोना नहीं।। जिसने बिछाए फूल थे, हर दम तुम्हारी राहों में। उस राहबर की राह के, कंकड़ कभी बनना नहीं।। धन तो मिल जाएगा, मगर मां-बाप क्या मिल पाएंगे ? पल-पल पावन उन चरण की, चाह कभी भूलना नहीं।।


19 - 25 नवंबर 2018

आओ हंसें

जीवन मंत्र

सु

दादी की मौत

संता की दादी मर गई! एक आदमी बोला : दादी मुझे भी साथ ले जाते! दो चार और बोले : दादी हमें भी साथ ले जाते! संता : चुप हो जाओ, हमारी दादी क्या टाटा सुमो करके गई हैं?

नान और जान

पप्पू एक पार्टी में गया और वहां उसने आठ बटर नान खा लिए। कुछ देर बाद टॉयलेट में वह पेट पकड़ के रो रहा था और भगवान से रिक्वेस्ट कर रहा था... ‘हे भगवान या तो जान निकाल दे या नान निकाल दे!’

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इंद्रधनुष

डोकू -49

जो व्यक्ति अपनी सोच नहीं बदल सकता वह दुनिया में कुछ भी नहीं बदल सकता

रंग भरो

महत्वपूर्ण तिथियां

• 19 नवंबर विश्व शौचालय दिवस, इंदिरा गांधी जयंती, विश्व नागरिक दिवस • 20 नवंबर अफ्रीका औद्योगीकरण दिवस, सार्वभौमिक बाल दिवस, बाल अधिकार दिवस • 21 नवंबर दर्शनशास्त्र दिवस (यूनेस्को) • 22 नवंबर झलकारी जयंती • 24 नवंबर गुरु तेग बहादुर का शहीदी दिवस • 25 नवंबर महिलाओं के विरुद्ध हिंसा उन्मूलन अंतरराष्ट्रीय दिवस, विश्व मांसाहार निषेध दिवस

बाएं से दाएं

1. प्रकृति (3) 3. कपड़े से छाना हुआ (5) 6. सुंदरता (3) 7. खोलना, अनावृत करना (5) 8. परदे के पीछे (3) 9. लाल चींटा (2) 10. विभाग (4) 13. गहरा लाल (4) 15. अभियोग (2) 16. चँवर, चावल (3) 17. नया आया हुआ, अजनबी (5) 19. बलशाली, स्वस्थ (3) 20. लाल नारंगी फूलों वाले एक पेड़ (5) 21. आसानी से प्राप्य (3)

सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देखें।

सुडोकू-48 का हल विजेता का नाम शैलजा फरीदाबाद, हरियाणा

वर्ग पहेली-48 का हल

ऊपर से नीचे

2. स्वप्न (3) 3. दयामय (3) 4. ठिकाना (2) 5. लक्ष्य के लिये अति चिंतित (3,2) 6. घोड़े की पीठ पर कसी गई जीन (4) 7. जिसका कोई नाम न हो (3) 8. ईश्वरीय कृपा, ईश्वर प्रदत्त वैभव (3) 11. हवादार घर, एक प्रसिद्ध महल (5) 12. गुण की पहचान, इज्जत (3) 13. देशी रियासत, राजशाही (4) 14. रसदार, शौकीन (3) 17. शहर (3) 18. ऊँची ध्वनि वाला (3) 19. परत, तल, पेंदा (2)

कार्टून ः धीर

वर्ग पहेली - 49


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न्यूजमेकर

अनाम हीरो

19 - 25 नवंबर 2018

एसवी राव

एक रुपए में संगीत सिखाते हैं गिटार राव

इंजीनियरिंग की लगी-लगाई नौकरी छोड़कर स्वयं संगीत की शिक्षा लेने के बाद लोगों को सिर्फ एक-एक रुपया में संगीत सिखाने लगे हैं

आं

ध्र प्रदेश के सिविल इंजीनियर एसवी राव के सिर पर 55 साल की उम्र में ऐसा जुनून सवार हुआ कि इंजीनियरिंग की लगी-लगाई नौकरी छोड़कर स्वयं संगीत की शिक्षा लेने के बाद लोगों को सिर्फ एक-एक रुपया में संगीत सिखाने लग गए। गिटार, बांसुरी की टीचिंग

करते-करते अब तो उनका नाम ही ‘गिटार राव’ पड़ गया है। दरअसल, सिर्फ एक रुपया में गिटार-बांसरु ी बजाना सिखाने वाले राव संगीत सिखाने की भारतीय परंपरा का नया रूप लेकर आए हैं। संगीत सिखातेसिखाते आंध्र के सिविल इंजीनियर राव लगी-लगाई नौकरी छोड़कर इतने मशहूर हो चले हैं कि अब

गरिमा अरोड़ा

स्वाद की गरिमा

शे

मिशलिन स्टार हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला बन गई हैं गरिमा अरोड़ा

फ गरिमा अरोड़ा के बैंकॉक स्थित रेस्तरां जीएए को मिशलिन स्टार अवॉर्ड मिला है। इसके साथ ही गरिमा मिशलिन स्टार हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला बन गई हैं। बैंकॉक स्थित गरिमा का रेस्तरां जीएए सिर्फ डेढ़ साल पुराना है और मिशलिन की तरफ से यह सम्मान पाना उनके लिए किसी सपने के सच होने जैसा है। बैंकॉक में अपना रेस्तरां खोलने से पहले गरिमा मशहूर शेफ गगन आनंद के रेस्तरां गगन में एक साल काम

लोग उन्हें ‘गिटार राव’ कहकर पुकारते हैं। वह सिर्फ सिखाते ही नहीं, सीखने वालों को गिटार और बांसरु ियां भी देते हैं। वह सिखाते ही नहीं, प्रशिक्षुओं को तोहफे में एक बांसरु ी भी देते हैं। वर्ष 2009 में नौकरी छोड़ने पर उन्हें जो पीएफ के दो लाख रुपए मिले, उस राशि से उन्होंने संगीत प्रेमियों को देने के लिए सौ गिटार खरीद लिए थे। अब दिल्ली स्थित आंध्र भवन उनका ठिकाना बन गया है। उनका जन्म आंध्र प्रदेश में हुआ था। पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्होंने कई वर्ष तक एक प्राइवेट कंपनी में सिविल इंजीनियर की नौकरी की। उन्हीं दिनों वह घरल े ू झमेले में कर्जदार हो गए। कर्ज उनके लिए बोझ बन गया तो नौकरी के साथसाथ घर भी छोड़कर तिरुपति चले गए। तिरुपति की संगीत अकादमी में उन्होंने गिटार-बांसरु ी आदि

न्यूजमेकर

कर चुकी हैं। गगन का रेस्तरां पिछले 7 सालों से एशिया के 50 बेस्ट रेस्तरां की लिस्ट में पहले नंबर पर काबिज है। गरिमा बताती हैं कि उनके पिता बहुत ज्यादा यात्रा करते थे और घर लौटकर उन लोगों के लिए तरह-तरह की डिशेज बनाया करते थे, तभी से उन्हें खाने से प्यार हो गया। गरिमा से पहले जिन 7 भारतीय शेफ्स को मिशलिन स्टार मिल चुका है, वे हैंविनीत भाटिया, अल्फ्रेड प्रसाद, अतुल कोचर, करुणेश खन्ना, श्रीराम अयलुर, विकास खन्ना और मंजूनाथ मुरल।

स्टा

बजाने का प्रशिक्षण लिया। इससे उनका तनाव कम होने लगा। उसके बाद घर वापस आए इस संकल्प के साथ कि अब वह सिर्फ एक रुपया लेकर लोगों को संगीत सिखाने के अलावा और कोई काम नहीं करेंग।े घर-गृहस्थी व्यवस्थित करने के बाद वह एक बार फिर घर से निकल पड़े लोगों को संगीत सिखाने के लिए। वे 2012 में दिल्ली आ गए। आंध्र भवन की लॉबी में रहते हैं। वहीं रात में सो जाते हैं, वहीं का बाथरुम इस्तेमाल करते हैं। बाकी समय आंध्र भवन से विजय चौक तक लोगों को गिटार-बांसुरी सिखाते और बांटते रहते हैं। इसका भी उन्होंने एक टाइम टेबल बना रखा है। सुबह सात से नौ बजे तक आंध्र भवन पर, दोपहर दो से छह बजे तक विजय चौक पर और शाम में छह से नौ बजे तक इंडिया गेट के पास लोगों को संगीत सिखाते हैं।

बजरंग पूनिया

पहलवान नंबर वन

यूडब्ल्यूडब्ल्यू की सूची में 96 अंक के साथ बजरंग शीर्ष स्थान पर

र भारतीय पहलवान बजरंग पूनिया ने 65 किग्रा वर्ग में शीर्ष विश्व रैंकिंग हासिल की है। मौजूदा सत्र में पांच पदक जीतने वाले 24 साल के बजरंग यूडब्ल्यूडब्ल्यू की सूची में 96 अंक के साथ रैंकिंग तालिका में शीर्ष पर हैं। इस वर्ष उन्होंने राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के अलावा विश्व चैंपियनशिप में रजत पदक हासिल किया था। बजरंग के लिए यह सत्र शानदार रहा और वह बुडापेस्ट विश्व च ैं पि य न शि प में वरीयता पाने वाले ए क म ा त्र भारतीय पहलवान रहे थे।

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 49

बजरंग ने कहा, ‘हर एथलीट अपने करियर में दुनिया का नंबर एक बनने का सपना संजोता है। अगर मैं विश्व चैंपियनशिप के स्वर्ण पदक के साथ नंबर एक बनता तो यह बेहतर होता।’ उन्होंने आगे कहा, ‘लेकिन मैं कड़ी मेहनत कर रहा हूं और अगले साल विश्व चैंपियनशिप के स्वर्ण पदक के साथ दुनिया की नंबर एक रैंकिंग बरकरार रखने की कोशिश करूंगा।’ गौरतलब है कि बजरंग देश के एकमात्र पुरुष पहलवान हैं, जिन्हें रैंकिंग में शीर्ष 10 में जगह मिली है, जबकि भारत की पांच महिला पहलवान अपनेअपने वर्ग में शीर्ष 10 में जगह बनाने में सफल रही हैं।


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