सुलभ स्वच्छ भारत - वर्ष-2 - (अंक 28)

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व्यक्तित्व

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अक्षर प्रेम का संसार

सुलभ

सुलभ प्रणेता के लिए सेवा ही धर्म

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डाक पंजीयन नंबर-DL(W)10/2241/2017-19

पुस्तक अंश

26 कही-अनकही

किसानों के लिए कल्याणकारी योजनाएं

29

बॉलीवुड की ग्रेटा गार्बो

sulabhswachhbharat.com

वर्ष-2 | अंक-28 | 25 जून - 01 जुलाई 2018

फिर भी अाबाद है किताबाें की दुनिया

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597

इंटरनेट के जादुई प्रसार के दौर में भी छपे हुए शब्दों की दुनिया न सिर्फ आबाद है, बल्कि इसके प्रति पाठकों का रुझान बढ़ता जा रहा है। वैसे भी ऑनलाइन और ऑफलाइन होकर पढ़ने के सुख पर हमेशा भारी पड़ेगा अपनी प्रिय पुस्तक को अपने हाथ में लेकर पढ़ना

कि

एसएसबी ब्यूरो

सी ने पहली बार मिट्टी पर अंगुलियों से कुछ रेखाएं खींची होंगी पहली बार। पहली बार किसी ने रेत पर तो किसी ने पत्थरों पर कुछ निशान बनाए होंगे। वक्त के साथ रोशनाई बनी होगी। हर एक ध्वनि के लिए ऐसे ही संकेत गढ़े गए होंगे। मिट्टी, रेत, पत्थर और फिर भोजपत्रों से होते हुए कागज तक का सफर तय करने में भाषा को न जाने कितने हजार वर्ष का सफर तय करना पड़ा होगा। स्याही, कलम और कागज का सबसे पुराना रिश्ता जब पहली बार किताब की शक्ल में ढला होगा, तब शब्दों की दुनिया न जाने किस रोमांच से भर उठी होगी। आज किताबों की पूरी एक दुनिया बस चुकी है, लेकिन उस दुनिया में जाने वाले, उसे समझने वाले लगातार कम होते जा रहे हैं। हर किताब की यही चाहत होती

खास बातें इंटरनेट के प्रसार के बावजूद पुस्तकों के प्रकाशन का बाजार बढ़ रहा है पुरानी किताबों को संरक्षण देने के लिए हो रही है नई पहल पीएम मोदी की लोगों से अपील कि तोहफे में ‘बुके की बजाए बुक’ दें


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आवरण कथा

25 जून - 01 जुलाई 2018

सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक द्वारा रचित पुस्तकें

इन्वॉयरन्मेंटल सैनिटेशन एंड इराडिकेशन ऑफ स्कैवेंजिंग इन इंडिया गांधी सैनिटेशन एंड अनटचे​िबलिटी सर्फडम टू फ्रीडम

अनटचे​िबलिटी... नो मोर रोड टू फ्रीडम

सुलभ शौचालय- ए सिंपल आइडिया दैट वर्क्ड

सुलभ शौचालय- ए स्टडी ऑफ डायरेक्टेड चेंज एक्शन सोशियोलॉजी एंड डेवलपमेंट

कंटीन्यूटी... एंड चेंज इन इंडियन सोसाइटी है कि उसे कोई पढ़े। अनपढ़ी किताबों का दुख इस जमाने में भला कौन महसूस करता है। इन्हीं कई जरूरी सवालों का सामना करती निर्देशक कमलेश के. मिश्र की लघु फिल्म ‘किताब’ का प्रीमियर हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित किया गया। प्रीमियर से पहले ‘इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के बढ़ते प्रभाव में किताबों का अस्तित्व’ विषय पर एक परिचर्चा भी आयोजित की गई।

अक्षर आनंद

इस परिचर्चा में भाग लेते हुए सुलभ प्रणेता डॉ. पाठक ने भी भाग लिया। बहुत कम लोगों को यह पता है कि सुलभ मैजिक ऑयलेट के आविष्कार की प्रेरणा डॉ. पाठक को एक किताब से ही मिली थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1958 में ‘एक्सक्रिटा डिस्पोजल फॉर रुरल एरियाज एंड स्माल कम्यूनिटीज’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की थी। इस पुस्तक को लिखा था एडमंड जी. वागनर ने। इस पुस्तक के महत्व को इस रूप में समझा जा सकता है कि इसे पढ़ने के बाद ही डॉ. विन्देश्वर पाठक के मन में टू-पिट टॉयलेट के आविष्कार का प्रेरक विचार आया था। परिचर्चा में डॉ. पाठक ने कहा कि किताबों के अस्तित्व पर उठ रहे सवालों को मैं वाजिब नहीं मानता। क्योंकि किताबें किसी भी दौर में अप्रचलित नहीं हो सकतीं। आज के युग में गैजेट्स भले ही किताबों से लैस होकर आ रहे हों, लेकिन जो आनंद और सुख किताबें पढ़ने और सीखने में है, वो गैजेट्स में नहीं। उन्होंने कहा कि गैजेट्स को बिजली से लेकर इंटरनेट तक कई सहारों की जरूरत पड़ती है, लेकिन किताबों को किसी सहारे की जरूरत नहीं होती। इस तरह किताबें सहारा लेती नहीं, सहारा देती हैं। डॉ. पाठक ने आगे कहा कि किताब पढ़ते हुए आप किताब की विषय वस्तु में डूब जाते हैं और उसके पात्रों से खुद को जोड़ लेते हैं, यह तन्मयता गैजेट्स पर कुछ भी पढ़ते

हुए कभी नहीं आ सकती। डॉ. पाठक खुद करीब 32 से ज्यादा किताबें लिख चुके हैं। इस वक्त वह अपनी आत्मकथा लिख रहे हैं।

किताबों का वस्तुगत संसार

डॉ. पाठक की ही तर्ज पर हिंदी के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल कहते हैं कि छपे हुए शब्दों के प्रति आग्रह का बचा होना, मानवीय चेतना और विवेक की अस्मिता का बचा होना है। इसीलिए एक ऐसे दौर में जब सब कुछ डिजिटल होता जा रहा है, अध्ययन से लेकर दफ्तरी कामकाज तक माउस बटन के इशारे पर हो रहे हैं, किताबों की दुनिया भी बदल रही है। पर दिलचस्प है कि इस बदलाव में किताबों को पढ़ने की दिलचस्पी के बस तरीके बदल रहे हैं, किताबों का वस्तुगत संसार आज भी निर्विकल्प है। किताबों के पन्ने बेशक पीले पड़ जाएं। उसके धागे बेशक कमजोर हो जाएं। बाइंडिंग बेशक टूटने लगें लेकिन किताबें हमेशा ही ताजातरीन होती हैं। पुरानी किताबों की खुशबू हमें रोमांच से भरने के लिए काफी हुआ करती हैं। किताबें और किताबों की दुनिया पर नजर डालें तो किताबों की दुनिया गुलजार नजर आती हैं। न तो किताबों के रचनाकारों ने लिखना बंद किया और न उसे छापने वाले ही पीछे हटे। लाख तकनीक छपाई और लिखाई की दुनिया में आ चुकी हैं। इस पर भी बहसें हुईं कि तकनीक, पामटॉप, गेगाबाईट्स और किंडल पर जब किताबें आ जाएंगी तब छपी हुई किताबें इतिहास का हिस्सा हो जाएंगी। लेकिन जानकार मानते हैं कि आज भी लाखों की संख्या में किताबें लिखी, छापी और पढ़ी जा रही हैं।

नई किताबों की बाढ़

हर साल नई दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेला इसका गवाह है कि दुनिया भर में न सिर्फ किताबें लिखी और छापी जा रही हैं, बल्कि लेखक

सैनिटेशन एंड स्कैवेंजिंग इन इंडिया : अचीवमेंट्स एंड चैलेंज्स सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया एंड विडोज ऑफ वृंदावन

कंस्टीट्यूशनल सेफगार्ड्स फॉर वीकर सेक्शन्स एंड मायनरोटीज इन इंडिया (बी.एन. श्रीवास्तव के साथ सहलेखन)

नरेंद्र दामोदरदास मोदीद मेकिंग ऑफ ए लीजेंड

ह पुस्तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन पर लिखी गई अनेक पुस्तकों से बिल्कुल अलग हट कर है। डॉ. विन्देश्वर पाठक ने इस पुस्तक में उनके जीवन के तमाम पक्षों को संवेदनशील तरीके से व्यक्त किया है। इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन और कार्यों के बारे में काफी विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई गई है। पुस्तक का मुख्य उद्देश्य, अपने जीते जी ही किंवदंती बन चुके एक व्यक्ति के जीवन की व्यापक और विश्वसनीय गाथा को प्रस्तुत करना है। इस तरह यह जीवनी नरेंद्र मोदी के आरंभिक दिनों से लेकर उनके वर्तमान समय तक का एक प्रेरणादायक और सम्मोहक वर्णन प्रस्तुत करती है, जिसमें उनकी जिंदगी का वह सफरनाना है, गुजरात में उनके राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्पित स्वयंसेवक बनने से शुरू

होता है। यह सफरनामा कई प्रेरक जीवन प्रसंगों से समृद्ध है। यह पुस्तक इस बात को गहराई से रेखांकित करती है कि नरेंद्र मोदी एक ऐसे चमत्कारी वैश्विक नेता हैं, जो अपनी दूरदृष्टि और समझ से राष्ट्र निर्माण व मानवता का इतिहास पुनः लिख रहे हैं। उनका ऐसे दिव्य और ऊर्जावान नायक के रूप में प्रकट होना वाकई एक बड़ी परिघटना है। इस पुस्तक की विषय सामग्री और इसके प्रकाशन की गुणवत्ता में साज-सज्जा पर तो विशेष ध्यान दिया ही गया है। साथ ही नरेंद्र मोदी के जीवन चरण और विकास, खासतौर पर प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके द्वारा शुरू की गई विभिन्न योजनाएं और वैश्विक नेताओं से उनकी भेंट आदि के बारे में जानकारियों को एक चित्रमय झांकी के रूप में पुस्तक में प्रस्तुत किया गया है।


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आवरण कथा

कल कैसे पढ़ेंगे हम!

इंटरनेट किताबों को भले ही एक कोने में समेट दे, मगर विचारों को फैलने के लिए भरपूर आकाश मुहैया कराएगा

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प्रसून जोशी

छले दिनों जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल गया था। लौटते वक्त ‘रंग दे बसंती’ के लिए लिखा अपना ही गाना याद आ रहा था– चेहरे की किताबें हैं, हम वो पढ़ने आते हैं, ये सूरत तेरी मेरी मोबाइल लाइब्रेरी। जयपुर में कई दिन चर्चा हुई कि अब ई-बुक्स, किंडल और ऐसे ही दूसरे उपकरण आने के बाद कागजों पर छपी किताबों का, पन्नों पर बिखरी शब्दों की दुनिया का युग बीतने को है। तो क्या फिर मुझे कोई गाना लिखते वक्त कंप्यूटर से जुड़े विशेषण इस्तेमाल करने होंगे? कुछ ऐसा लिखना होगा कि तुम्हारा चेहरा पीसी स्क्रीन की तरह है, जब तुम पलक झपकाती हो, तो लगता है कि क्लिक हुआ है और शायद जिंदगी का एक और सफा, एक वेब पेज खुल गया है। मैं कंप्यूटर और इंटरनेट की तरफ भागती दुनिया पर व्यंग्य कतई नहीं कर रहा, मगर इंटरनेट के युग में किताबों के भविष्य पर बात करने से पहले कुछ और मुद्दों पर भी चर्चा होनी चाहिए। फिलहाल यह सवाल कुछ बेमानी सा लगता है। देश में तो अभी सभी लोग साक्षर ही नहीं हैं। किंडल युग तो छोड़िए, उन्होंने पुस्तकों का युग भी ठीक से नहीं देखा। जब हम ये सवाल उठाते हैं कि ई-बुक्स आने के बाद क्या होगा किताबों के पाठकों का, तो याद रखना चाहिए कि अभी एक बड़ा तबका किताबों के बिना जी रहा है। मैं इस सवाल को खारिज नहीं कर रहा, मगर उससे पहले इस पहलू का जिक्र जरूरी लगा। बहरहाल, मुद्दे पर लौटते हैं। इंटरनेट के आने से क्या फर्क पड़ेगा? सुबह-सवेरे खबरों के लिए अखबार पढ़ते थे। वह जरूरत टीवी की वजह से कुछ कम हो गई है, जब जो होता है, हमें और प्रकाशक उत्साह के साथ लिखित और मुद्रित किताबों को लेकर पाठकों के सामने आ भी रहे हैं। यही कारण है कि आज की तारीख में हजारों-लाखों की संख्या में किताबें बाजार में आ रही हैं और पाठक उन्हें चाव से पढ़ रहे हैं। एक सवाल जरूर यहां उठ सकता है कि किस प्रकार की किताबें आज ज्यादा पढ़ी और लिखी जा रही हैं। यदि आधुनिक किताबों की दुनिया पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि कविता, कहानी, उपन्यास, मिथकीय घटनाओं पर आधारित चरित्र प्रधान किताबों की बाढ़ सी आ गई है। यही वजह है कि अमीश त्रिवेदी, देवदत्त पटनायक जैसे नव लेखक हिंदी में भी अपने पाठक वर्ग खड़े करने में सफल हुए हैं।

बदल रहा किताबों का फार्म

किताबों के कंटेंट और लेखक की ओर से कंटेंट के साथ बर्ताव काफी हद तक तय करता है

खबर मिल जाती है। एसएमएस अलर्ट के जरिए लोगों को समाचार मिलते रहते हैं। रही विचारों की बात, तो उसके लिए इंटरनेट यूज करने वाले कंप्यूटर के जरिए ही अपनी समझ में इजाफा करना पसंद करते हैं। आने वाले दिनों में इंटरनेट के प्रसार के साथ ही ई-बुक्स भी सस्ती हो जाएंगी। एक पैड के साइज के उपकरण में अगर हजारों किताबें समा सकती हैं, आप हजारों किताबों को साथ लिए घूम सकते हैं, तो यह तो अच्छा ही हुआ न। मगर इस सोच के उलट दूसरे छोर पर मेरी पीढ़ी खड़ी है, जो किताबों के साथ बेसाख्ता रोमांस में डूबी है। छपे हुए पन्ने की खुशबू, ताजा स्याही, पन्नों की फड़फड़ाहट, सुबह अखबार उठाना, मोड़कर सिरहाने सो जाना, इन भावनात्मक एहसासों की वजह से ई-बुक या ऐसी ही दूसरी कल्पनाएं हमें कष्टप्रद लगने लगती हैं। हालांकि हमारे देश में यह सब होने में वक्त लगेगा, मगर एक सच यह भी है कि यह होना ही है। तकनीक हमें उस मुहाने पर ले ही जाएगी। सवाल इस बात का नहीं है कि लोग किस तरह से पढ़ेंगे, सवाल यह है कि लोग क्या पढ़ेंगे और लोग क्या लिखेंगे? क्या माइकल मैख्लूहन की बात कि ‘मीडियम इज द मेसेज’ सही साबित होगी? क्या टीवी पर उत्तेजना का स्वर ही हावी रहेगा? टीवी ने खबरों और जानकारी का तरीका, उसे पेश करने का फॉर्म बदल दिया है। मगर इंटरनेट लिखने के मामले में एक और भी अलग ग्रामर बनाएगा और बना भी रहा है। यह टीवी की सनसनी से कुछ अलहदा होगा। नई राइटिंग कैसी होगी, इसकी झलक ब्लॉग्स पर मिल जाएगी। इन ब्लॉग्स में अलग किस्म का व्याकरण नजर आ रहा है। काफी गलतियां भी हो रही हैं, मगर जो आज गलतियां लग रही हैं, वह कल मुकम्मल

देश में तो अभी सभी लोग साक्षर ही नहीं हैं। किंडल युग तो छोड़िए, उन्होंने पुस्तकों का युग भी ठीक से नहीं देखा भाषा भी बन सकती हैं। दरअसल भाषा, व्याकरण और विचारों का एक अभिनव लोकतंत्र ब्लॉग के जरिए, इंटरनेट के जरिए बन रहा है, बढ़ रहा है। अब किसी को औरों से अपनी बात कहने के लिए माध्यम खोजने में मगजमारी करने, संपादक या प्रकाशक की देहरी रगड़ने की जरूरत नहीं। ऐसा समाज बनेगा, जहां लेखक और पाठक के बीच की दूरी खत्म होगी। कई पाठक लेखक हो जाएंगे और कई लेखक पाठक। इंटरनेट लेखन में बहुत संभावनाएं हैं। इससे भाषा पर भी काफी असर पड़ेगा। लखनऊ वाला पटना की भाषा नहीं

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 1958 में प्रका​िशत एडमंड जी. वागनर की पुस्तक ‘एक्स​िक्रटा डिस्पोजल फॉर रुरल एरियाज एंड स्माल कम्यूनिटीज’ को पढ़ने के बाद ही डॉ. विन्देश्वर पाठक के मन में टू-पिट टॉयलेट के आविष्कार का प्रेरक विचार आया कि किताबों की आयु क्या होगी? कितनी होगी और यह किताब क्या कालजयी हो पाएगी, क्योंकि आज भी हम उन किताबों को भूल नहीं सके हैं, जिन्हें पढ़कर हमारी सामा​िजक और सांस्कृतिक समझ बनती है। जिन किताबों को पढ़कर हमें समाज के विकास और सामाजिक आर्थिक, सांस्कृतिक गति का पता चलता है उन किताबों की तलाश आज भी की जाती है। धीरे-धीरे किताबों के फार्म बदल रहे हैं। लिखने वाले भी आधुनिक तकनीक के मार्फत किताबें लिख और छपवा रहे हैं।

किताबों का संरक्षण

किताबें हमेशा ही हमारी संस्कृति और इतिहास का अभिन्न हिस्सा रही हैं। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्तर पर किताबों को सुरक्षित और संरक्षित करने के अभियान चलाए गए। देशभर में छपने वाली किताबों की कोलकाता के राष्ट्रीय पुस्तकालय में कॉपी रखी जाती है। दिल्ली में नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया रेयर बुक्स को संरक्षित करने की योजना पर काम कर रहा है। न केवल किताबों को, बल्कि पुरानी पांडुलिपियों को कैसे बचाया जा सके, इस पर कई संस्थाएं

समझता और अवधी वाला भोजपुरी नहीं। मगर ब्लॉगिंग की वजह से सब चीजें मिलने लगेंगी। इससे हिंदी के लिए ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार होगा, जो नई भाषा को जन्म देगा। परंपरावादियों को लगेगा कि खिलवाड़ हो रहा है। मगर इस मीडियम में वे भी अपनी बात संवरी हुई भाषा में कह सकते हैं। इंटरनेट के इस लोकतंत्र की यही खूबी लाजवाब है, विरोध करना है तो भी लिखो, समर्थन करना है तो भी लिखो। इंटरनेट किताबों को भले ही एक कोने में समेट दे, मगर विचारों को फैलने के लिए भरपूर आकाश मुहैया कराएगा। काम कर रही हैं। हमें किताबों को बचाना ही होगा। किताबों का बचा रहना ज्ञान की रचनात्मक दुनिया का बचा रहना है, उससे जुड़ी परंपरा का बचा रहना है। खुदा बख्श ऑरिएंटल लाइब्रेरी, पटना का महत्व बेहद महत्वपूर्ण है। इस लाइब्रेरी में ऐसी ऐसी पांडुलिपियां उपलब्ध हैं कि जो आज की तारीख में विश्व में कहीं भी नहीं हैं। साथ ही देश के विभिन्न राज्यों में महलों, किलों, राजदरबारों में भी किताबों को संग्रहित करने की परंपरा रही है। यह इस बात की ओर इशारा है कि हमारा लगाव किताबों से आज का नहीं है। हमने जब से लिखना शुरू किया हमने विभिन्न माध्यमों में अपनी समझ, ज्ञान, अनुभवों को लिखकर संरक्षित करना शुरू किया।

भोजपत्र से सेटेलाइट तक

भारत की बात करें तो भोजपत्रों, ताड़पत्रों, मिट्टी की पट्टियों, जिसे क्ले टैबलेट्स के नाम से जानते


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आवरण कथा

25 जून - 01 जुलाई 2018

पल्प फिक्शन को लेकर बदलता नजरिया

बीते कुछ वर्षों में हिंदी में लोकप्रिय साहित्य की एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, जो न सिर्फ भाषा की ताजगी लिए है, बल्कि प्रयोगात्मक है और शैली में नए प्रयोग करने से डरती नहीं

अं

रवींद्र त्रिपाठी

ग्रेजी में जिसे पल्प फिक्शन कहा जाता है उसे हिंदी में घासलेटी या लुगदी साहित्य कहा जाता है। हालांकि पल्प फिक्शन भी सम्मानजनक नाम नहीं था लेकिन इस श्रेणी के तहत निकली पुस्तकें पश्चिमी समाज में एक वैधता प्राप्त कर चुकी हैं। इसी कारण अब उन्हें ‘बेस्टसेलर’ भी कहा जाता है। दुर्भाग्य से हिंदी में ऐसा नहीं रहा और हमारे यहां इस तरह के साहित्य को हेय दृष्टिकोण से देखा जाता रहा है। मीडिया उसकी तरफ ध्यान नहीं देता, अखबारों और पत्रिकाओं में ऐसी पुस्तकों या लेखकों पर चर्चा नहीं होती। ऐसा नहीं है कि हिंदी में इस तरह के लोकप्रिय साहित्य को वैधता नहीं थी। देवकीनंदन खत्री या गोपाल राम गहमरी को कौन भूल सकता है? पर धीरे-धीरे हिंदी अध्यापक केंद्रित अकादमिक जगत ने, जिसे अखबारों और पत्रिकाओं का भी सहयोग मिला, लेखन में एक नई वर्ण व्यवस्था कायम कर दी। इस तरह कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, रानू, कर्नल रंजीत, इब्ने सफी, ओम प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक या वेदप्रकाश शर्मा जैसे लेखक 'ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ की

हैं, आदि पर लिखना शुरू किया। इतना ही नहीं अशोक स्तंभ पर ‘धम्म’ हम लिखित रूप में देख सकते हैं। वहीं दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर लोग पेपाइरस आदि पर लिख रहे थे। लिखने के बाद कुछ पत्रों को जमीन में दबा दिया जाता था। आज की तारीखी हकीकत है कि हमारे पास ऐसी ऐसी मशीनें आ चुकी हैं जो एक घंटे तो लाखों पन्नों को छाप सकने में समर्थ हैं। यदि अखबारों की दुनिया देखें तो एक घंटे में लाखों प्रतियां छप जाती हैं। ‘द हिंदू’ तो सेटेलाइट के जरिए अखबारों का प्रकाशन अस्सी के दशक में शुरू कर चुका था। उसी तर्ज पर अब पलक झपकते ही किताबों का प्रकाशन भी हो रहा है।

प्रकाशन के कई माध्यम

आज जो लेखक हैं उसके पास छपने और छपवाने के कई माध्यम हैं, बिना पैसे खर्च किए लाखों लाख पाठकों तक पहुंचने का माध्यम उनके हाथ में है। लेकिन फिर क्या वजह है कि लेखक किसी प्रतिष्ठित प्रकाशक के यहां छपना चाहता है। यह एक विचारणीय प्रश्न है। ऐसा इसीलिए क्योंकि आज भी कुछ प्रकाशन संस्थानों में संपादकीय टीम पांडुलिपि को पढ़ने, समीक्षा करने में जरा

श्रेणी में डाल दिए गए। इनके लाखों पाठक रहे और आज भी हैं पर वे पाठक भी आत्मचेतना के स्तर पर साहित्य के पाठकों से अपने को हीनतर समझते हैं। मिसाल के लिए सुरेंद्र मोहन पाठक के विमल शृंखला के उपन्यासों में भारतीय अपराध जगत की व्यापक झलक मिलती है। इसी तरह की रचना है मारियो पूजो की 'गॉडफादर’ (हालांकि उसका कैनवास ज्यादा बड़ा है) जो बेहद चर्चित हुई और उस पर फिल्में बनीं। वह अमेरिकी संस्कृति के एक दौर को समझने का माध्यम भी है। मगर समानांतर सच यह भी है कि अगर किसी ने सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यासों को

हाल में एक बड़े प्रकाशक ने सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास को छापा है, लगभग उतनी ही गंभीरता से जितना कि किसी साहित्यिक कृति को छापा जाता है। एक अन्य बड़े प्रकाशक ने लोकप्रिय साहित्य की शृंखला भी शुरू की है भी लापरवाही नहीं बरततीं। ऐसे में किताबों की गुणवत्ता बनी रहती है। वरना आज की तारीख में पांच-दस हजार से लेकर बीस-तीस हजार में सौ-दो सौ कापियां छापने वाले प्रकाशक भी बाजार में हैं और उनके यहां नए लेखकों की भीड़ लगी होती है।

महत्व बरकरार

किताबें अगर बूढ़ी होतीं, किताबें अगर नहीं पढ़ी जातीं तो लिखने और छापने वाला कब का इतिहास बन चुका होता। किताबें सच्चे मायने में कभी वृद्ध नहीं होतीं। ये हमेशा ही नवा-नवा और युवा होती हैं। जिल्द पुराने पड़ जाने, पीले पन्नों से किताबों की उम्र नहीं लगाई जा सकती, बल्कि कौन सी किताब पढ़ी जा सकती है इससे उस किताब की उपयोगिता और प्रासंगिकता की पहचान होती है। आपाधापी के इस दौर में पढ़ने की संस्कृति और पुस्तकों पर छाए संकट की चर्चा होती रहती है। पर यह सुखद है कि इंटरनेट के इस युग में भी किताबों का महत्व बरकरार है। हालांकि इंटरनेट आगमन के शुरुआती दौर में यह चिंता जताई गई थी कि सूचना का यह अत्याधुनिक माध्यम किताबों के लिए नुकसानदेह साबित होगा। लेकिन इंटरनेट का उपयोग बढ़ने के साथ-साथ किताबों की उपयोगिता

लेकर मौजूदा भारतीय समाज में फैलते अपराध के तानेबाने को समझने की कोशिश की तो उसे हिंदी समाज में और भारतीय समाज में भी संजीदा नहीं समझा जाएगा। स्वीडन के एक लेखक थे स्टीग लार्सन। उन्होंने मिलेनियम श्रृंखला के तहत 'गर्ल विथ द ड्रैगन टैटू’ और दो अन्य उपन्यास लिखे। इस श्रृंखला के उपन्यासों ने वर्तमान स्वीडिश समाज के अंतरविरोधों को उजागर किया। इस श्रृंखला के उपन्यासों पर फिल्में बन चुकी हैं। इसी तरह स्वीडन की एक लेखक जोड़ी हैमाज स्जोवाल और पेर वाहलू। पति-पत्नी की इस जोड़ी ने पुलिस केंद्रित जो उपन्यास लिखे उन्होंने स्वीडन के बेहतर कल्याण राज्य होने के मिथक को धवस्त कर दिया। नार्वेजियन लेखन जो नेस्बों की आजकल काफी धूम है और उसी तरह जापानी लेखक कीगो हीगाशीनो की भी। हिंदी में जो लोकप्रिय कहे जाने वाले उपन्यासों के प्रकाशक हैं, वे खुद भी इस विधा को गंभीरता से नहीं लेते। हालांकि यह दृष्टि अब धीरे-धीरे बदल रही है। इसका कुछ श्रेय अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को भी दिया जा सकता है। अमीश त्रिपाठी और चेतन भगत के उपन्यास

न सिर्फ अंग्रेजी में बहुत मशहूर हुए, बल्कि उनके हिंदी अनुवाद भी खूब बिके। हिंदी के लोकप्रिय साहित्य की कड़ी में रवीश कुमार की 'इश्क में शहर होना', शशिकांत की 'नॉन रेजिडेंट बिहारी' और सुरेंद्रमोहन पाठक की 'क्रिस्टल लॉज' प्रमुख हैं। इस बीच एक बड़े प्रकाशक ने सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास को छापा है, लगभग उतनी ही गंभीरता से जितना कि किसी साहित्यिक कृति को छापा जाता है। एक अन्य बड़े प्रकाशक ने लोकप्रिय साहित्य की श्रृंखला भी शुरू की है। इन श्रृंखलाओं में छपने वाले उपन्यास पल्प फिक्शन तो नहीं कहे जा सकते, लोकप्रिय जरूर कहे जा सकते हैं और उनमें बदलते परिवेश, निजी दुविधा, अकेलापन बहुत ईमानदारी से अंकित हुआ है। भाषा में चटखपन है तो कहीं-कहीं शहरीपन भी। अंग्रेजी के शब्दों से परहेज नहीं किया गया। ठीक वैसे ही लिखे गए हैं जैसे बोले जाते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि बीते कुछ वर्षों में हिंदी में लोकप्रिय साहित्य की एक नई प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, जो न सिर्फ भाषा की ताजगी लिए है बल्कि प्रयोगात्मक है और शैली में नए प्रयोग करने से डरती नहीं।

विदेशों में इंटरनेट और डिजिटल लाइब्रेरी का अधिक उपयोग हो रहा है, इसके बावजूद वहां किताबों की लोकप्रियता बरकरार है भी बढ़ती गई। आज जबकि डिजिटल लाइब्रेरी की अवधारणा जन्म ले चुकी है, तो ऐसे में पुन: किताबों का अस्तित्व खतरे में बताया जा रहा है। लेकिन सवाल है कि विदेशों में जहां डिजिटल लाइब्रेरी की अवधारणा हमारे देश से अधिक परिपक्व हो चुकी है, क्या किसी संकट की आहट सुनी गई है? विदेशों में इंटरनेट और डिजिटल लाइब्रेरी का अधिक उपयोग हो रहा है, इसके बावजूद वहां किताबों की लोकप्रियता बरकरार है।

विकल्प नहीं इंटरनेट

किताबों को मनुष्य का सबसे अच्छा मित्र कहा जाता है। इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर यदि किताबों को मनुष्य का हमसफर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। बचपन से लेकर आखिरी समय तक किताबों के किसी न किसी स्वरूप से पढ़े-लिखे समाज का रिश्ता कायम रहता है। किताबें एक हमसफर की तरह ही हमसे रिश्ता निभाती हैं।

लेकिन सवाल यह है कि क्या हम किताबों से यह रिश्ता निभा पाते हैं? सूचना विस्फोट के इस दौर में भी हमारे यहां व्यक्तिगत पुस्तकालय या होम लाइब्रेरी की अवधारणा जन्म नहीं ले सकी है। लेकिन किताबों से इतनी बेरुखी के बाद भी किताबें हमारा पीछा नहीं छोड़ रही हैं और किसी न किसी रूप में हमारे जीवन में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना रही हैं। दरअसल, इस दौर में इंटरनेट ज्ञान प्राप्त करने का एक आवश्यक माध्यम जरूर है, लेकिन यह कभी भी किताबों का विकल्प नहीं हो सकता। लाख दावों के बावजूद भारत में इंटरनेट अभी आम आदमी की पहुंच से बाहर है।

पढ़ने का सुख

किताब पढ़ने का अपना अलग सुख है। किताबों को बना किसी झंझट के कहीं भी ले जाया जा सकता है। एक कहानी या उपन्यास को किताब से पढ़ने का जो सुख है वह इंटरनेट से पढ़ने पर कभी प्राप्त


25 जून - 01 जुलाई 2018

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नहीं हो सकता। किताबें स्वयं हमसे एक तादात्म्य स्थापित कर लेती हैं। यह तादात्म्य कब एक प्रगाढ़ रिश्ते में बदल जाता है, हमें पता ही नहीं चलता। दरअसल, हम किताबों पर संकट की बात एक संकुचित दायरे में रह कर करते हैं। सामान्यत: जब भी किताबों पर संकट का जिक्र होता है तो हमारी बहस के केंद्र में मुख्यत: साहित्यिक किताबें ही होती हैं। पर हमें गैर-साहित्यिक किताबों पर भी ध्यान देना होगा। किताबों का संसार साहित्य तक सीमित नहीं है। वैसे भी जहां तक साहित्यिक पुस्तकों पर संकट की बात है, तो यह पूरी तरह से सच नहीं है। यह सही है कि अब साहित्यिक पुस्तकों की कम प्रतियां छपती हैं, लेकिन इस दौर में साहित्यिक पुस्तक छापने वाले प्रकाशकों की संख्या बढ़ी है और इस तरह साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन में भी वृद्धि हुई है। इस दौर में लेखक अपना धन लगाकर किताब छपवा रहा है। छोटे-छोटे शहरों और कस्बों से भी साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं। ऐसे में साहित्यिक पुस्तकों पर संकट की बात समझ में नहीं आती।

नमो की पहल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत वर्ष एक समारोह के दौरान लोगों से तोहफे में ‘बुके की बजाए बुक’ देने की अपनी अपील पर खुद अमल करना शुरू कर दिया है। इसके तहत अब वे जिस किसी भी राज्य के दौरे पर जाएंगे वहां अपने स्वागत में कीमती फूलों के गुलदस्ते या अन्य तोहफे लेने से परहेज करेंगे। इस बाबत केंद्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों से प्रधानमंत्री की इस इच्छा के अनुरूप ही उनका स्वागत करने हेतु अनुरोध किया है। इसके लिए गृह मंत्रालय द्वारा सभी राज्य सरकारों के मुख्य सचिव और संघ शासित क्षेत्र के प्रशासकों को भेजे पत्र में प्रधानमंत्री के स्वागत में उनके अनुरोध का पालन सुनिश्चित करने को कहा गया है। गृह मंत्रालय द्वारा भेजे पत्र में कहा गया है- ‘भारत के अंदर किसी भी राज्य के दौरे पर प्रधानमंत्री के स्वागत में संबद्ध राज्य सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा उन्हें गुलदस्ता (बुके) भेंट स्वरूप न दिए जाएं। सर्वश्रेष्ठ तो यह होगा कि उन्हें पुष्पगुच्छ के बजाए महज एक फूल दिया जाए।’ इतना ही नहीं मंत्रालय ने राज्य सरकारों से यह भी कहा है कि स्वागत के दौरान पीएम को फूल के साथ खादी का एक रुमाल या कोई एक पुस्तक भी अगर भेंट स्वरूप दी जाती है तो इसमें कोई हर्ज नहीं होगा।

आवरण कथा

नए दौर में बनें स्मार्ट रीडर

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ताबें पढ़ने का शौक तो हममें से कई लोगों को होता है, लेकिन व्यस्तता के चलते किताबें पढ़ने के लिए अलग से समय निकाल पाना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं हो पाता। आज ऐसी कई वेबसाइट्स व एेप्स हैं, जो लोगों को फ्री में ई-बुक्स पढ़ने की सुविधा देती हैं। इनकी मदद से स्मार्ट रीडर बन कर आप कहीं भी और कभी भी अपनी पसंद की किताब पढ़ सकते हैं। आइए डालते हैं एक नजर इन वेबसाइट्स व एेप्स पर...

बेन डॉट कॉम

यदि आप साइंस फिक्शन और फैंटेसी किताबें पढ़ने के शौकीन हैं, तो बेन डॉट कॉम आपके लिए बेहतरीन वेबसाइट है। इस पर आप अपनी पसंदीदा किताबों को फ्री में डाउनलोड कर सकते हैं। यह एक अमेरिकन पब्लिशर है, जिसकी खासियत कम कीमतवाली किताबें हैं। साथ ही लेखक के रूप में पहचान बनाने की शुरुआत करनेवाले राइटर्स की किताबें भी इस वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। किताबों को आप बेन साइट के फ्री सेक्शन में जाकर पढ़ सकते हैं.

ओपन लाइब्रेरी

यह वेबसाइट पब्लिक डोमेन किताबों का फ्री ऑनलाइन रिसोर्स है। दुनिया भर के क्लासिकल लिटरेचर को आप यहां सिर्फ एक क्लिक करके आसानी से पढ़ सकते हैं। इस साइट की खासियत यह है कि यहां आपको 10 लाख से अधिक फ्री इ-बुक्स के टाइटल्स मिल जाएंगे। इतना ही नहीं, जो किताबें फ्री नहीं हैं, अगर आप उन्हें पढ़ना चाहते हैं, तो खरीदने की बजाय उन्हें किराए पर लेकर पढ़ सकते हैं। ओपन लाइब्रेरी में आप किताबों को विषय, लेखक और लिस्ट्स के अनुसार सर्च कर सकते हैं।

फीडबुक्स डॉट कॉम

फीडबुक्स ऑनलाइन किताबें पढ़ने का शौक रखनेवालों के लिए एक बेहतरीन वेबसाइट है। इस वेबसाइट को स्मार्टफोन, मोबाइल और टैबलेट पर आसानी से एक्सेस किया जा सकता है। ई-बुक्स पढ़ने के साथ-साथ यह वेबसाइट

आपको किताबें खरीदने की सुविधा भी देती है। वेबसाइट पर दो फ्री सेक्शंस दिए गए हैं, जहां आप अपनी पसंद की किताबें फ्री में पढ़ सकते हैं। फीडबुक्स डॉट कॉम पर किसी किताब को सर्च करना काफी आसान है। आप इस वेबसाइट पर हिस्टोरिकल, बायोग्राफी, ऑटो-बायोग्राफी, एक्शन, एडवेंचर, मिस्ट्री एंड डिटेक्टिव आदि से संबंधित किताबें पढ़ सकते हैं।

बार्टलेबी

गुडरीड्स

यह किताब प्रेमियों के लिए बेहतरीन ऐप्प है। इस ऐप्प के जरिए आप अपनी लाइब्रेरी तैयार करके उसे स्टोर कर सकते हैं। पढ़ी हुई किताबों की लिस्ट बना सकते हैं और उन किताबों की भी लिस्ट तैयार कर सकते हैं, जिन्हें आप पढ़ना चाहते हैं। रेटिंग प्वांइट की सुविधा के चलते आप किताबों को अपनी पसंद के अनुसार रेट भी कर सकते हैं।

यह छात्रों के लिए बेहतरीन ऑनलाइन रिसोर्स है। यहां आप क्लासिक्स से लेकर लिटरेचर तक पढ़ सकते हैं। इतना ही नहीं, नॉन-फिक्शन बुक्स का बड़ा कलेक्शन भी है, जिसमें पॉलिटिकल और सोशल हिस्ट्री से रिलेटेड किताबें पढ़ सकते हैं। बार्टलेबी पर फिक्शन और नॉन-फिक्शन किताबें पढ़ी जा सकती हैं। किताबों के कुछ हिस्से पीडीएफ में भी उपलब्ध हैं, जिन्हें आप डाउनलोड कर किसी भी डिवाइस में ट्रांसफर कर सकते हैं।

इस ऐप्प का प्रयोग करना काफी रोचक है। इसके जरिए आप अपनी बुकशेल्फ का फोटो लेकर अपलोड करें, यह ऐप्प अपने आप आपकी किताबों का आपके लिए एक केटलॉग तैयार कर देगा। यदि आपके पास किसी किताब का प्रिंट एडिशन है तो आपको शेल्फी ऐप्प आपको उस किताब का ऑडियो या ई-बुक वर्जन डिस्काउंट में या फिर मुफ्त में उपलब्ध करा देगा।

प्रोजेक्ट गुटनबर्ग

किंडल

किताबें पढ़ने का शौक रखनेवाले कई लोग गुटनबर्ग से परिचित होंगे। यह दुनिया की सबसे पुरानी डिजिटल लाइब्रेरी में से एक है, जिस पर करीब 48,000 हजार से अधिक ई-बुक्स उपलब्ध हैं। इस वेबसाइट पर किताबें कई फॉर्मेट्स में उपलब्ध हैं। यहां आप प्लेन टेक्स्ट से लेकर किंडल फ्रेंडली फॉर्मेट तक में किताबें पढ़ सकते हैं। अगर आप ऑनलाइन एचटीएमएल फॉर्मेट में किताब पढ़ना चाहते हैं, तो इसकी सुविधा भी है।

शेल्फी

किंडल में 1.5 मिलियन किताबें हैं। इनमें से तीन लाख किताबें तो सिर्फ किंडल के पास ही हैं। किंडल में आप अपने पसंदीदा अखबार और पत्रिकाएं भी पढ़ सकते हैं। आप इसमें किताब को स्कैन कर सकते हैं ताकि आप अपनी जरूरत और पसंद का अध्याय तुरंत ढूंढ पाएं। यदि आप किसी किताब को खरीदने से पहले देखना चाहते हैं, तो यह ऐप्प इस काम में भी आपकी मदद करता है। दरअसल, केरल में पिछले वर्ष 19 जून को मोदी ने ‘पी.एन. पनिक्कर नेशनल रीडिंग डे’ के आयोजन की शुरुआत करते हुए लोगों से भेंट स्वरूप बुके की बजाय बुक देने का नया शिष्टाचार शुरू करने की अपील की थी। कोच्चि में हर साल एक महीने तक चलने वाले इस आयोजन में उन्होंने कहा था कि पढ़ने से बेहतर कोई दूसरा आनंददायक काम नहीं है और पढ़ने से मिले ज्ञान से बढ़कर दूसरी कोई शक्ति नहीं है। प्रधानमंत्री की अपील के बावजूद उन्हें गुलदस्ता देने की परिपाटी बंद नहीं होने के बाद गृह मंत्रालय ने राज्यों को इस बारे में


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आवरण कथा

25 जून - 01 जुलाई 2018

हिंदी के इन 12 किताबों को नहीं पढ़ा, तो क्या पढ़ा!

1. गुनाहों के देवता

4. अंधा युग

यह हिंदी के सबसे अधिक लोकप्रिय उपन्यासों में से एक है। इसके सौ से ज्यादा संस्करण छप चुके हैं। उपन्यास का आधार एक अव्यक्त प्रेमकथा है। यह एक युवक की कहानी है, जिसे अपने शिक्षक की बेटी से प्रेम हो जाता है। यह उपन्यास प्रेम को एक नई परिभाषा देता है।

इस हिंदी उपन्यास में लेखक ने युद्ध की भयावहता और उसका आम जीवन पर पड़ने वाले असर के बारे में लिखा गया है। लेखक ने महाभारत का संदर्भ लेकर आज के आधुनिक जीवन की बात की है। इसमें काव्य और नाट्य दोनों विधाओं का मिश्रण है।

- धर्मवीर भारती

2. मैला आंचल - फणीश्वरनाथ रेणु

-धर्मवीर भारती

5. नदी के द्वीप

- सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’

ग्रामीण अंचल को दर्शाने वाला यह हिंदी का बेहतरीन उपन्यास है। इसकी पृष्ठभूमि में उत्तर-पूर्वी बिहार का ग्रामीण इलाका है, जिसमें एक युवा डॉक्टर आकर रहता है और ग्रामीणों के लिए काम करता है। इस दौरान उसका सामना ग्रामीण जीवन के पिछड़ेपन, दुख, कष्ट, अभाव, अज्ञान और अंधविश्वास से होता है।

यह जीवन के द्वंद्वों में फंसे चार किरदारों की कहानी है। ओशो ने 160 ऐसी जरूर पढ़ी जाने वाली किताबों का चयन किया था, जिन्होंने उन पर सबसे ज्यादा असर डाला। ओशो ने इनमें हिंदी की सिर्फ एकमात्र किताब शामिल की और वह थी अज्ञेय की ‘नदी के द्वीप’।

3. गबन

6. तमस

यह कालजयी उपन्यास माना जाता है। यह भारतीय मध्य वर्ग की उस मनोदशा का चित्रण करता है, जिसमें आमजन लालसा और लालच के कुचक्र में फंसे रहते हैं। इसका केंद्रीय पात्र जालपा है, जिसके बचपन से लेकर जवानी तक की कहानी लेखक ने रोचक ढंग से कही है।

भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की व्यथा पर लिखा गया यह बेहतरीन उपन्यास है। इसमें राजनीतिक हालात की बजाय उन आम लोगों की कहानी कही गई है, जो बंटवारे के कारण हर तरह से बर्बाद हुए। इस उपन्यास पर सीरियल और फिल्म भी बनाई जा चुकी है।

- प्रेमचंद

निर्देश जारी किया। मंत्रालय ने राज्य सरकारों के सभी सक्षम प्राधिकारियों से प्रधानमंत्री के स्वागत संबंधी इस निर्देश का पालन सुनिश्चित करने का अनुरोध किया गया है।

ई-किताबों का बढ़ा जोर

एक ऐसे दौर में जब सब चीजें प्रौद्योगिकी से संचालित हो रही हैं तो इंसान की सबसे अच्छी दोस्त मानी जाने वाली किताबें भी इससे कैसे दूर रह सकती हैं। तकनीक का बढ़ता प्रयोग मौजूदा युग में किताबों को देखने और तलाशने के तरीकों में बेहद आश्चर्यजनक परिवर्तन लाने में सफल रहा है। पारंपरिक तरीके से कागज पर छपने वाली पुस्तकों का स्थान ई-किताबें ले रही हैं। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2017 में अमेरिका में ई-किताबों के पाठकों की संख्या छपी हुई किताबों के पाठकों से ज्यादा हो चुकी है। अगर बदलाव का यह दौर इसी तरह जारी रहा तो एक आकलन यह भी है कि वर्ष 2025 तक समूचे विश्व में ई-किताबें छपी हुई पारंपरिक किताबों को पीछे छोड़ देंगी। पर इससे

- भीष्म साहनी

7. कितने पाकिस्तान

10. और अंत में प्रार्थना - उदय प्रकाश

- कमलेश्वर

‘कितने पाकिस्तान’ एक प्रयोगवादी हिंदी उपन्यास माना जाता है। इसमें अपने समय पर असर डालने वाली कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का लेखक ने अलग तरह से जिक्र किया है। इसका केंद्रीय पात्र अदीब है, जो साहित्यकार है।

यह उपन्यास एक ऐसे शख्स की कहानी है, जो किसी भी तरह की विषम परिस्थितियों में अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करना चाहता। आखिर में वह इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकाता है। इस उपन्यास का मंचन भी हुआ है।

8. वैशाली की नगरवधू

11. आधा गांव

यह क्लासिक उपन्यास माना जाता है, जिसमें वैशाली की एक नगरवधू आम्रपाली की मार्मिक कहानी है। इस उपन्यास का जिक्र किए बिना हिंदी की बात अधूरी है। यदि आप हिंदी की समृद्धता को समझना चाहते हैं, तो यह उपन्यास आपके लिए है।

इसे हिंदी का बेहद सशक्त उपन्यास माना जाता है। इसमें उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के पास स्थिहत गंगौली गांव की कहानी बताई गई है। इसमें पाकिस्तान बनने से पहले मुसलमानों की मनोदशा और हिंदुओं से उनके रिश्तों का मार्मिक वर्णन किया गया है।

- आचार्य चतुरसेन

9. मुझे चांद चाहिए - सुरेंद्र वर्मा

यह भी हिंदी के बेहद चर्चित और लोकप्रिय उपन्यासों में शामिल है। यह मध्य वर्गीय पुरातनपंथी परिवार में जन्मी लड़की वर्षा के संघर्ष की कहानी है। वह अपने कला संसार को पाने के लिए जीवन की तमाम विषमताओं का सामना करती है। उसकी राह में जीवन के कई संघर्ष रोड़े बनकर आते हैं।

- राही मासूम रजा

12. कसप

- मनोहर श्याम जोशी

समीक्षकों ने इस हिंदी उपन्यास को प्रेमाख्यानों में 'नदी के द्वीप' के बाद सबसे बड़ी उपलब्धि बताया है। इस उपन्यास की खासियत है कि इसमें कुमाऊंनी भाषा का प्रयोग किया गया है। यह उपन्यास एक मध्य वर्गीय परिवार की कहानी है। इसमें इस वर्ग टीसें और दुख-दर्द को बयां किया गया है।

यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि किताबों के प्रकाशन का परंपरागत दौर सिमट जाएगा। जे.के. रॉलिंग से लेकर अमीश त्रिपाठी को इंटरनेट ने नहीं बल्कि उनकी किताबों की बिक्री ने बेस्टसेलर राइटर बनाया है।

अमेजन का आगमन

एक ऑनलाइन बुकस्टोर के रूप में व्यापार की दुनिया में कदम रखने वाला ‘अमेजन’ ने सबसे पहले किताबों के वितरण की दुनिया में तकनीक के इस्तेमाल को शुरू किया। अमेजन ने लोगों के किताबों को पढ़ने के पारंपरिक तरीके को तेजी से बदला और इसे डिजिटल स्वरूप देते हुए दुनिया के सामने पहला ई-बुक रीडर ‘किंडल’ लेकर आए, जिसने किताबों की दुनिया को ई-पुस्तकों की दिशा में मोड़ने में बेहद कामयाबी दिलवाई। एक ओर जहां पाठक अपनी पसंद की किताबों के ऑनलाइन उपलब्ध होने को बेहद सकारात्मक रूप से ले रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ प्रकाशक

इस क्षेत्र पर आने वाले समय में अमेजन सहित दूसरे ऑनलाइन किताब बेचने वालों के एकाधिकार होने की संभावना को खारिज नहीं कर रहे हैं। लेखकों द्वारा किताबों की दुकानों और पढ़ने के सत्रों का आयोजन कर पाठकों तक किताबों को पहुंचाने के पारंपरिक तरीकों में भी अब तकनीक के बढ़ते

हुए प्रयोग के चलते आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिल रहा है। इसके अलावा विशेषकर छोटे प्रकाशन तकनीक के बढ़ते हुए चलन के चलते सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं क्योंकि तकनीकी क्षमताओं को विकसित करने के उनके संसाधन बेहद सीमित होते हैं।


25 जून - 01 जुलाई 2018

आवरण कथा

दुनिया की 10 सबसे महंगी किताबें

1. कोडेक्स लीसेस्टर लेखक – लियोनार्दो दा विंची देश – फ्लोरेंस, इटली भाषा – इतालवी मूल्य – 30.80 मिलियन डॉलर

2. मैग्ना कार्टा (एक्संपलर)

लेखक – जॉन (किंग ऑफ इंग्लैंड) और स्टीफन लैग्टन देश – ब्रिटिश पुस्तकालय तथा लिंकन और सेलिसबरी कैथेड्रल भाषा – लैटिन मूल्य – 21.3 मिलियन डॉलर

3. सेंट कथबर्ट गोस्पेल

लेखक – अज्ञात देश – इंग्लैंड भाषा – लैटिन मूल्य – 14.3 मिलियन अमेरिकी डॉलर

4. वेय साल्म पुस्तक

लेखक – अज्ञात देश – ब्रिटेन नियंत्रित उत्तरी अमेरिका भाषा – अंग्रेजी मूल्य – 14.2 मिलियन अमेरिकी डॉलर

जर्मनी का प्रयोग

जर्मनी में बच्चों की किताबों के एक प्रमुख प्रकाशक अपनी पुस्तकों को बेचने के लिए नए तरीकों को खोजने में लगे हुए थे। रॉल्फ मोलर जर्मनी में 30 वर्षों से भी अधिक समय से प्रकाशन के काम में लगे हुए है और उन्होंने इस क्षेत्र में कई अद्वितीय काम किए हैं। उन्होंने अपनी पत्नी आइरिश के साथ मिलकर एक प्रकाशन और सॉफ्टवेयर कंपनी सिस्थेमा शुरू की और जर्मनी के पहले ऐसे प्रकाशन बन गए, जो जर्मन भाषा बोलने वाले देशों में किताबों की दुकानों से अपने सस्ते सॉफ्टवेयर बेचने लगे। इसके बाद उन्होंने अपनी पत्नी के ही साथ एक और प्रकाशन कंपनी टेर्जियो वरलैग म्युंचैन की नींव डाली, जिसने आगे चलकर सफलता से झंडे गाड़ दिए। इनके द्वारा प्रकाशित की गई एक संगीतमय किताब को बाद में संगीत में बदल दिया गया जो बाद में 600 से अधिक प्रदर्शन कर बेहद सफल साबित रही। इसके अलावा में जर्मनी में सीडी-रोम उतारने वाले प्रारंभिक प्रकाशकों में भी रहे। 1990 के दशक में इंटरनेट के बढ़ते हुए प्रचलन के साथ ही टेर्जियो का सफलता का सफर भी थमने सा लगा। सीडी जल्द ही अप्रासंगिक होती गईं, क्योंकि अधिकतर सामग्री लोगों के लिए ऑनलाइन उपलब्ध थी और वह भी अधिकतर बिल्कुल मुफ्त।

5. रोथ्सचाइल्ड प्रेयरबुक

लेखक – अज्ञात देश – विएना (आस्ट्रिया) भाषा – जर्मन मूल्य – 13.4 मिलियन अमेरिकी डॉलर

6. गॉस्पेल ऑफ हेनरी द लायन

लेखक – ऑर्डर ऑफ सेंट बेनेडिक्ट देश – जर्मनी भाषा – लैटिन मूल्य – 11.7 मिलियन अमेरिकी डॉलर

7. द बर्डस ऑफ अमेरिका लेखक – जॉन जेम्स ओडोबन देश – यूनाइटेड किंगडम भाषा – अंग्रेजी मूल्य – 11.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर

8. द कैंटरबरी टेल्स लेखक – जैफरे चाउसर देश – इंग्लैंड भाषा – मध्यकालीन अंग्रेजी

बुक2लुक दुनियाभर के ‘स्पेनिश भाषी मुल्कों, अंग्रेजी-भाषी मुल्कों और जर्मन-भाषी मुल्कों’ के पाठकों और प्रकाशकों के लिए उपलब्ध है। फिलहाल बुक2लुक पर 60 हजार से अधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं वर्ष 2009 आते-आते अमेजन के बढ़ने के साथ ही टेर्जियो को अपने अस्तित्व के लिए खतरा और अधिक बढ़ता हुआ लगने लगा तब मोलर को समझ में आया कि अब वक्त बदल चुका है। मोलर ने मुंबई की कंपनी विट्स इंटरेक्टिव के सीईओ हितेश जैन के साथ हाथ मिलाने का फैसला किया। टोर्जियो और विट्स ने 25 हजार यूरो के प्रारंभिक निवेश के साथ ही एक संयुक्त उद्यम शुरू किया। इन लोगों ने पुस्तकों की खोज के व्यापक काम के लिए एक एक प्रणाली विकसित करने की दिशा में काम करना शुरू किया और उसे नाम दिया बुक2लुक डॉट कॉम। इस टीम ने बिबलेट के नाम से एक विजेट तैयार किया जिसकी मदद से प्रकाशक दुनियाभर में फैले अपने भावी पाठकों तक ऑनलाइन पहुंचने में कामयाब रहे। मोलर के अनुसार बुक2लुक दुनियाभर के ‘स्पेनिश भाषी मुल्कों, अंग्रेजी-भाषी मुल्कों और जर्मन-भाषी मुल्कों’ के पाठकों और प्रकाशकों के लिए उपलब्ध है। फिलहाल बुक2लुक

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पर 60 हजार से अधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं। जर्मनी में इस वेबसाइट की अपार सफलता के बाद उन्होंने इसे अमेरिका, ब्रिटेन और स्पेन के प्रकाशकों के लिए भी अपने दरवाजे खोले। बिबलेट सिर्फ प्रकाशकों और स्व-प्रकाशकों के बीच ही लोकप्रिय नहीं है, बल्कि लेखक, पुस्तक विक्रेता, किताबों की दुकानों के मालिक और ब्लॉगर भी इसका खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं।

मिनटों में बिबलेट संस्करण

एक प्रकाशक को अपनी पुस्तक की पीडीएफ फाइल उसके बिब्लियो विवरण (शीर्षक, लेखक, प्रकाशक, आईएसबीएन, इत्यादि) के साथ बुक2लुक के पास जमा करवाना होता है। अधिकतर मामलों में प्रकाशक पीडीएफ के रूप में पूरी किताब इनके साथ साझा न करते हुए उसके कुछ अंश ही साझा करते हैं। मोलर का मानना है कि प्रकाशकों को पुस्तक का पूरा विवरण साझा करना चाहिए। एक बार पीडीएफ जमा करने के बाद 45 मिनटों

मूल्य – 7.5 मिलियन अमेरिकी डॉलर

9. विलियम शेक्सपीयर्स, कामेडीस, हिस्ट्रीज एंड ट्रेजडी लेखक – विलियम शेक्सपीयर्स देश – इंग्लैंड भाषा – प्रारंभिक आधुनिक अंग्रेजी मूल्य – 6.1 मिलियन अमेरिकी डॉलर

10. गुटेनबर्ग बाइबल

लेखक – पीयरे जोसेफ रिडाउट देश – जर्मनी भाषा – लैटिन मूल्य – 4.9 मिलियन अमेरिकी डॉलर के भीतर ही पुस्तक का बिबलेट संस्करण तैयार कर दिया जाता है। बिबलेट को तैयार करने के लिए प्रकाशक को एक निधार्रित शुल्क का भुगतान करना होता है और उसके बाद यह बिबलेट हमेशा के लिए बुक2लुक की वेबसाइट पर प्रकाशित हो जाती है। बुक2लुक पर यह बिबलेट पाठक को एक पन्ने पलटने वाली किताब के रूप में उपलब्ध होती है। इस किताब का एक चित्र, जिस पर क्लिक करके इस बिबलेट को पढ़ने के लिए खोला जा सकता है, को फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन जैसे सोशल मीडिया पर भी एक संस्तुति के साथ साझा किया जा सकता है। इस संस्तुति को पाठक एक निजी संदेश के साथ अपने दोस्तों को ई-मेल के द्वारा भी भेज सकते हैं। मोलर कहते हैं कि बुक2लुक पर मिलने वाली सुविधाएं और विकल्प अपने आप में अनोखे हैं और दूसरी कई वेबसाइटें बुक2लुक पर उपलब्ध सुविधाओं के कुछ हिस्सों को ही उपभोक्ताओं तक पहुंचा रही है। वे मानते हैं कि पाठ्य सामग्री को प्रकाशकों से साथ साझा करके वे बिक्री को बढ़ाने में सहयोग ही कर रहे हैं। मोलर की सफलता साबित करती है कि सटीक दृष्टिकोण और एक अच्छे तकनीकी साथी की मदद से अद्वितीय प्रकाशन उत्पादों और सेवाओं का निर्माण करते हुए आने वाले इंटरनेट के युग का सामना करने के लिए तैयार हुआ जा सकता है।


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व्यक्तित्व

25 जून - 01 जुलाई 2018

खलील जिब्रान

अक्षर प्रेम का संसार

जीवन के अनुभव जब पारदर्शी रूप से शब्दों में दर्ज होते हैं तो वे साधारण साहित्य से आगे सार्वकालिक विचार बन जाते हैं। खलील जिब्रान के बोध वाक्यों और उनके लघु कथा सरीखे अनुभवों को पढ़ना जीवन, प्रेम और सौंदर्य की सबसे गहरी अनुभूतियों से गुजरने जैसा है

कविता

लील जिब्रान को पढ़ना कुछ ऐसा है, जैसे अपनी ही आत्मा से दो-चार होना। आप अपनी हर उलझन का हल उनकी सूक्तियों में ढूंढ़ सकते हैं। इस लिहाज से खलील जिब्रान को पढ़ना किसी अच्छे डॉक्टर से मिलने जैसा भी है। खलील का लेखन जीवन को समझने की कुंजी की तरह है। खलील इसीलिए हर देश और हर भाषा के इतने अपने हुए। हर इंसान को उनकी बात अपनी बात लगी। चाहे उनकी लघुकथाएं हों या सूक्तियां, प्रेम और दोस्ती सहित जिंदगी के तमाम अनुभवों की वे कम से कम शब्दों में कुछ इस तरह व्याख्या करते हैं कि वह बहुत सहजता से सबके दिलों में उतर जाए।

के रूप में उनकी जिंदगी में आई तीन और स्त्रियां भी उनका आधार स्तंभ रहीं- कवियत्री जोसफीन, शिक्षिका एलिजाबेथ मैरी और प्रबुद्ध अरबी लेखिका और आलोचक मे जैदा।

अनुभवों का निचोड़

जीवन और उसके दर्शन को अपनी लघु- कथाओं में पिरोने वाले इस लेखक का जीवन कितना मुश्किल रहा होगा, यह उनके अनुभवों के निचोड़ से भी समझा जा सकता है। खलील जिब्रान का कहना था, ‘मेरी

इनमें उनके व्यक्तित्व के अलग-अलग रंग दमकते रहे। एक लिहाज से ये सभी उसी विशालता को किसी भी तरह व्यक्त कर पाने की कोशिश का एक छोटा सा टुकड़ा भर थे, जिसमें वे खुद को कभी भी कामयाब नहीं समझ पाए। कई तकलीफें थीं उनकी जिंदगी में। 10 साल की छोटी सी उम्र में एक बड़े पत्थर से गिरने के कारण बाएं कंधे का बार–बार परेशान करनेवाला असहनीय दर्द। 39 की उम्र तक आते आते दिल की बीमारी फिर जिगर का कैंसर और इस सबसे आगे मानसिक अस्पताल में होनेवाला उनका इलाज।

‘प्यार के बिना जीवन उस वृक्ष की तरह है, जिस पर फल नहीं लगते’ या फिर ‘आपका दोस्त आपकी जरूरतों का जवाब है’ जैसी खलील की न जाने कितनी पंक्तियां हैं, जो कई पीढ़ियों के लिए बोध वाक्य बन गईं

प्रेम का बोध वाक्य

प्रेम और दोस्ती पर तो उन्होंने इतना कुछ और कुछ इस तरह लिखा कि उसे जितना भी पढ़ो वह कम ही जान पड़ता है। ‘प्यार के बिना जीवन उस वृक्ष की तरह है, जिस पर फल नहीं लगते’ या फिर ‘आपका दोस्त आपकी जरूरतों का जवाब है’ जैसी उनकी न जाने कितनी पंक्तियां हैं, जो कई पीढ़ियों के लिए बोध वाक्य बन गईं। इन दो बहुत प्यारे रिश्तों को खलील जिब्रान ने बड़ी सहजता और गरिमा से परिभाषित किया तो शायद इसीलिए कि ये दोनों रिश्ते हमेशा उनके भी जीवन का आधार रहे। खलील जिब्रान अगर खलील जिब्रान बन पाए तो इसमें इनकी कम बड़ी भूमिका नहीं थी, खासकर उनके जीवन में आई कुछ स्त्रियों की। इनमें उनकी मां और दो बहनें भी थीं। इसके अलावा मित्र और प्रेमिका

कई महिलाओं का सहयोग

खास बातें

खलील एक अच्छे लेखक के साथ उच्च कोटि के चित्रकार भी थे खलील को जीवन में संबंधों को लेकर हमेशा निराशा ही हाथ लगी खलील के लिखे कई वाक्य लोगों को सूक्तियों के रूप में याद हैं

से उन्होंने अपने इस दर्द को कुछ इस तरह बयान किया था, ‘मैं एक ऐसा ज्वालामुखी हूं, जिसका मुंह हमेशा बंद रहता है ।’ दरअसल इतनी प्रसिद्धि और कई प्रसिद्ध किताबों- ‘द मैडमैन’, ‘द फोररनर, ‘द प्रॉफेट’ और ‘सैंड एंड फोम’ के आने के बावजूद उनकी विकलता कभी कम नहीं होती थी। जेब में रखी जा सकने और एक बैठक में पढ़ी जा सकने वाली इन किताबों की योजना को पूरा कर लेने पर भी खलील का सबसे बड़ा सपना था- ईसा मसीह की जिंदगी पर एक ऐसी किताब लिखना, जैसी अब तक किसी ने भी नहीं लिखी हो। यह सपना कभी पूरा न हो सका।

सबसे बड़ी पीड़ा शारीरिक नहीं आंतरिक है। मेरे अंदर कुछ विशाल है, मैंने इसे हमेशा महसूस किया है। पर मैं इसे व्यक्त नहीं कर पाता। मेरे अंदर एक विशाल ‘मैं’ है, जो अंदर बैठे-बैठे मेरे लघु रूपों को तमाम चीजें करते हुए देखता रहता है।’

जीवन में कई पड़ाव

चित्रकार, मॉडल, कवि, लेखक और संपादक तक खलील जिब्रान की जिंदगी के बहुत सारे पड़ाव रहे।

खु द को व्यक्त करने की बेचैनी

पर इस सबसे भी आगे कहीं उनकी वह बेचैनी थी, जिसमें उन्हें यह लगता रहा था कि वे खुद को व्यक्त नहीं कर पा रहे। अपनी क्षमताओं को जानते और उन पर भरोसा रखते हुए भी उसे एक आकार न दे पाने की कशमकश और बेचैनी ज्यादा तकलीफदेह थी खलील जिब्रान के लिए। यह उनकी दृष्टि में उनकी विफलता थी और उनकी मानसिक विकलता का भी एक बहुत बड़ा कारण भी। अपनी तीसरी और अंतिम प्रेमिका जैदा

कहावत है कि हर सफल और प्रसिद्ध व्यक्ति के पीछे किसी औरत का हाथ होता है। वह नींव की ईंट बनकर गड़ी होती है, उस प्रसिद्धि की इमारत के नीचे। तभी जाकर कहीं कोई व्यक्ति उस तरह सफल होता है। खलील जिब्रान के संदर्भ में भी यह उक्ति बिलकुल सच जान पड़ती है। बल्कि यह कहें तो और सही होगा कि खलील जिब्रान के खलील जिब्रान होने में एक नहीं उन कई औरतों का बड़ा योगदान रहा है, जो वक्त- वक्त पर उनकी जिंदगी का हिस्सा हुईं। सबसे दिलचस्प बात यह कि इनके संबंधों का मुख्य आधार इनके बीच का पत्र-व्यवहार रहा।

जोसेफीन और मैरी

जोसेफीन और मैरी उनसे उम्र में बहुत बड़ी थीं। उनके विवाह के प्रस्ताव को इन दोनों के द्वारा ठुकराये जाने का यह भी एक बहुत बड़ा कारण था। खलील जिब्रान जिंदगी भर कुंआरे ही रहे। जोसेफीन का उनकी जिंदगी में तब आना हुआ था, जब वे मात्र चित्रकार थे। उनकी मां और बहनों को


25 जून - 01 जुलाई 2018

‘नौजवान पैगंबर’

लेबनान जाने से पहले खलील की मुलाकात जोसेफीन से हो चुकी थी। जाने के पहले उन्होंने जोसेफीन की एक तस्वीर बनाई थी और उसे जोसेफीन के पास भिजवा दिया था। उनके लेबनान आने के तीन महीने बाद उन्हें जोसेफीन का पहला पत्र मिला। नौ साल तक चलते इस पत्र-व्यवहार ने खलील को पिता के बुरे व्यवहार को सहने और शिक्षा में अपनी रुचि बनाए रखने का साहस दिया। आनंद, पीड़ा, निराशा और दुख यानी प्रेम के सभी रंग इस एक रिश्ते में जिब्रान को हासिल हुए। जोसेफीन के लिए अगर वे उसके ‘नौजवान पैगंबर’ और जीनियस दोस्त थे तो खलील जिब्रान

के लिए वे उनकी प्रेरणा और मार्गदर्शक। उनके पुस्तक ‘दी प्रॉफेट’ के शीर्षक का श्रेय जोसेफीन को ही जाता है, क्योंकि ये शब्द उनकी एक लंबी कविता से लिए गए थे और उन्हें ही इसे समर्पित भी किया गया था।

विवाह से इनकार के बावजूद

विवाह से इनकार करने के बाबजूद जोसेफीन उनकी तरक्की की राह को हरदम संवारती रहीं। वह जोसेफीन द्वारा ही लगवाई हुई उनके चित्रों की प्रदर्शनी थी, जिसमें उनकी मुलाकात एलिजाबेथ मैरी से हुई। मैरी वहां एक शिक्षिका या फिर जज के रूप में जोसेफीन के आमंत्रण पर पहुंची थीं। खलील के चित्रों से वे इतनी प्रभावित हुईं कि उनकी जिंदगी में उन्होंने जोसेफीन की जगह ले ली। दो वर्षों के लिए उन्हें चित्रकला सीखने इटली भेजना हो या फिर उनकी किताबों या फिर प्रदर्शनी की रूपरेखा, मैरी की जिंदगी का मूल मकसद अब हर तरह से उनकी प्रगति और उनका सम्मान था। यहां तक की शादी का प्रस्ताव नहीं स्वीकारने और एक अन्य लेखिका के खलील जिंदगी में आ जाने के बावजूद मैरी प्रेयसी के पद से जरूर विस्थापित हुई हों, उनकी जिंदगी से जोसेफीन की तरह नहीं निकाली जा सकीं। इसका प्रमाण जिब्रान की मृत्यु के बाद उनके स्टूडियो और उनके महत्वपूर्ण सामानों का मैरी के नाम किया जाना है।

मैरी और खलील

मैरी के साथ संबंध के असफल होने का एक

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तब यह लगने लगा था कि उनकी कला में सिर्फ पश्चिमी मानकों का ही समावेश न हो। वे अपनी परंपरा और विरासत से भी जुड़ें जिसके तार उनकी जन्मभूमि लेबनान से जुड़ते थे। मुश्किल यह थी कि तब तक उनकी मां उनके अन्य भाई- बहनों के साथ उन्हें अमेरिका लेकर आ चुकी थी। पिता को खलील के कलाकार होने से चिढ़ थी। मां ही थी, जो किसी तरह छोटे-मोटे काम करके भी उनकी शिक्षा और उनके भीतर के कलाकार, दोनों को प्रोत्साहित करती रहती। उनके गैर जिम्मेदार पिता शराब के नशे के आदी थे। गबन के आरोप में जेल भी जा चुके थे। खलील अरबी बोल भर सकते थे। विधिवत शिक्षा न पाने के कारण उन्हें अरबी भाषा पढ़ना-लिखना तक नहीं आता था। मां ने उनके भविष्य के लिए एक बार फिर खलील को उनके पिता के पास लेबनान भेजना तय किया।

विंग्स ऑफ थॉट

पिता को खलील के कलाकार होने से चिढ थी। मां ही थी, जो किसी तरह छोटे-मोटे काम करके भी उनकी शिक्षा और उनके भीतर के कलाकार, दोनों को प्रोत्साहित करती रहती

1. प्रेम और संदेह में कभी बात-चीत नहीं रही है। 2. आत्मा जो चाहती है, वह पा लेती है। 3. यदि अतिथि नहीं होते तो सब घर कब्र बन जाते। 4. इच्छा आधा जीवन है और उदासीनता आधी मौत। 5. आपका दोस्त आपकी जरूरतों का जवाब है। 6. आस्था एक अंतरंग ज्ञान है, प्रमाण से परे। 7. सत्य को जानना चाहिए पर उसको कहना कभी-कभी चाहिए। 8. मित्रता सदा एक मधुर उत्तरदायित्व है, न कि स्वार्थपूर्ति का अवसर। 9. अपने सुख-दुख अनुभव करने से बहुत पहले हम स्वयं उन्हें चुनते हैं। 10. बीता हुआ कल आज की स्मृति है और आने वाला कल आज का स्वप्न है।

द मैडमैन

जन्म : 6 जनवरी, 1883 (बथरी, लेबनान ) मृत्यु : 10 जनवरी, 1931 (न्यूयॉर्क, अमेरिका) पूरा नाम : खलील जिब्रान का पूरा अरबी नाम गिबरान खलील जिब्रान था। अंग्रेजी में वह अपना नाम खलील ज्व्रान लिखते थे। ख्याति: एक लेबनानी-अमेरिकी कलाकार, कवि तथा न्यूयॉर्क पेन लीग के लेखक। उन्हें अपने चिंतन के कारण समकालीन पादरियों और अधिकारी वर्ग का कोपभाजन होना पड़ा और जाति से बहिष्कृत करके देश निकाला तक दे दिया गया था। बावजूद इसके अपने लेखन और विचार सूत्रों के कारण वे बीती एक सदी से सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखकों में शुमार हैं। उनके जीवन की कठिनाइयों की छाप उनकी कृतियों में साफ दिखती है। आधुनिक अरबी साहित्य में उन्हें प्रेम का संदेशवाहक माना जाता है। अंग्रेजी में अनूदित उनकी कृतियां वर्ल्ड क्लासिक्स का दर्जा रखती हैं। उनमें अद्भुत कल्पना शक्ति थी। वे अपने विचारों के कारण कविवर रवींद्रनाथ टैगोर के समकक्ष ही स्थापित होते थे। उनकी रचनाएं 22 से अधिक भाषाओं में देश-विदेश में तथा हिंदी, गुजराती, मराठी, उर्दू में अनुवादित हो चुकी हैं। इनमें उर्दू तथा मराठी में सबसे अधिक अनुवाद प्राप्त होते हैं। प्रसिद्ध चित्रकार : खलील की ख्याति सिर्फ उनके लिखे शब्दों के कारण ही नहीं, बल्कि उनके बनाए चित्रों के कारण भी हुई। उनके चित्रों की प्रदर्शनी भी कई देशों में लगाई गई, जिसकी हर जगह मुक्तकंठ से प्रशंसा हुई। देशभक्ति : ईसा के अनुयायी होकर भी खलील पादरियों और अंधविश्वास के कट्टर विरोधी रहे। देश से निष्कासन के बाद भी अपनी देशभक्ति के कारण अपने देश हेतु सतत लिखते रहे।

10 प्रसिद्ध सूक्तियां

जीसस द सन ऑफ मैन द प्रोफ ेट प्लेजर एंड ब्यूटी द ब्रोकेन वि ंग्स

सफरनामा

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व्यक्तित्व

प्रमुख पुस्तकें : कारण उम्र के 10 वर्ष के अंतराल के अलावा यह भी रहा कि खलील को हमेशा यह लगता रहा कि वे अपनी हर जरूरत (खासकर आर्थिक) के लिए मैरी पर आश्रित हैं। हालांकि मैरी ऐसा नहीं समझती थीं और वे हर जरूरतमंद की मदद को तत्पर रहतीं, पर जिब्रान को यह लगता रहा कि उनके संबंधों पर इस बात का प्रभाव पड़ सकता है। अपनी वसीयत में उन्होंने अपनी सारी महत्वपूर्ण चीजें मैरी के नाम कर दीं। यह भाव शायद कर्ज मुक्ति का भी रहा हो। हालांकि मैरी तब तक जिंदगी में आगे निकल चुकी थीं। वे बाकायदा शादी-शुदा थीं। वसीयत में मिले अपने पत्रों को एक बार उन्होंने नष्ट कर देना चाहा। लेकिन फिर उन्हें ऐतिहासिक महत्व का जानकर पुरातत्व विभाग को सौंप दिया। मैरी के साथ जिब्रान के रिश्ते में सबसे बड़ी यह भी दिक्कत रही कि अपने जी जान से उनको संवारने में लगे होने के बाबजूद जिब्रान उन्हें एक लेखक के बतौर नहीं देख पाते थे। हालांकि केवल खलील की किताबों को पढ़ने, समझने और सुधारने की खातिर मैरी ने अरबी भाषा सीखी थी। इस साहित्यिक शून्यता को ‘मे जैदा’ ने उनकी जिंदगी में आगमन से पूरा किया। वे प्रबुद्ध लेखिका और महिलाओं के अधिकार की प्रबल समर्थक थीं।

यह संबंध भी पत्राचार से ही शुरू हुआ था। मैरी के बदले में अब जैदा ने उनकी रचनाओं के संपादन, संयोजन और सलाहकार का दायित्व संभाल लिया था। यह रिश्ता शायद बराबरी का था। यहां खलील को कोई घुटन नहीं महसूस हो रही थी।

मे जैदा का जीवन

खलील पर लिखे मैरी के लेखों ने अगर खलील को अरब के साहित्य समाज में उनका वर्तमान दर्जा दिलाया तो मे जैदा का कद भी एक आलोचक के रूप में कद्दावर इन्हीं कारणों से हो सका। मे के साथ विवाह प्रस्ताव को स्वीकारने-अस्वीकारने की स्थिति आने से पहले ही खलील जिब्रान 10 अप्रैल 1931 को कैंसर के कारण दम तोड़ चुके थे। खलील की ही तरह आजीवन अविवाहित रहीं मे जैदा ने अपना अंतिम वक्त एक मानसिक चिकित्सालय में गुजारा। इस यंत्रणा से वे बमुश्किल आजाद हो सकीं। कह सकते हैं कि प्रेम पर सबसे बेहतर लिखनेवाले खलील जिब्रान की जिंदगी में एक भी मुकम्मल प्रेम कहानी नहीं थी। वे जिंदगी भर जिस प्यास के पीछे भागते रहे, वह सामने होकर भी उनके लिए मृग मरीचिका बनी रही।


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सुलभ

25 जून - 01 जुलाई 2018

निक्की एशिया पुरस्कार मिलने बाद डॉ. विन्देश्वर पाठक के सम्मान में आयोजित समारोह में उन्हें बधाई देने वालों का तांता लगा रहा। यहां प्रस्तुत है इसी समारोह में व्यक्त किए गए कुछ आत्मीय और प्रेरक संबोधनों के संपादित अंश

सुलभ प्रणेता के लिए सेवा ही धर्म

‘डॉ. पाठक के रूप में भारत को ईश्वर से एक अनुपम भेंट तो मिला ही है, इसके साथ ही वे पूरी दुनिया के लिए और खासकर पददलित और समाज से बहिष्कृत लोगों के लिए भी बेशकीमती ईश्वरीय उपहार हैं’

मैं

प्रो. अवधेश शर्मा

अपनी संस्था सुलभ के संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक को टोक्यो में ‘निक्की एशिया पुरस्कार’ दिए जाने पर बधाई देता हूं। यह पुरस्कार प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों में से एक है। न सिर्फ मैं बल्कि मेरे साथ आप भी इस बात से पूरी तरह अवगत हैं कि इस पुरस्कार के लिए डॉ. पाठक से योग्य कोई और व्यक्ति हो ही नहीं सकता था। उनमें कई ऐसी विलक्षणताएं हैं, जिससे प्रेरित होकर मेरी इच्छा होती है कि मैं पूरी दुनिया के आगे यह कहूं, ‘देखो, कितना अद्भुत व्यक्ति न सिर्फ इस दुनिया में न सिर्फ जीवित है, बल्कि वह हमारे बीच है। हम वाकई काफी सौभाग्यशाली हैं।’ डॉ. विन्देश्वर पाठक के रूप में भारत को ईश्वर से एक अनुपम भेंट तो मिला ही है, इसके साथ ही वे पूरी दुनिया के लिए और खासकर पददलित और समाज से बहिष्कृत लोगों के लिए भी बेशकीमती ईश्वरीय उपहार हैं। वे काफी दिव्य व्यक्तित्व के स्वामी हैं। उनका हृदय इतना संवेदनशील है कि वह कभी लोगों को दुखी नहीं देख सकते हैं। समाज सेवा उनके लिए एक स्वाभाविक कर्म है। स्वच्छता और पर्यावरण को लेकर समझ और प्रतिबद्धता भी उनके अंदर किताबों को पढ़ने या किसी औपचारिक शिक्षण-प्रशिक्षण से नहीं आई है। उन्होंने इन दोनों ही क्षेत्रों में गहरी दिलचस्पी ली और सामान्य बुद्धि से टू-पिट इकोलॉजिकल कंपोस्ट टॉयलेट, सामुदायिक टॉयलेट का भुगतान करो और इस्तेमाल करो मॉडल, सुलभ सार्वजनिक शौचालय से बॉयोगैस का निर्माण और जलशोधन प्लांट बनाने में बड़ी सफलता प्राप्त की। यह सब वे इसीलिए कर पाए क्योंकि जैसा कि गांधीजी ने कहा है कि अच्छे विचारों को सोचना एक बात है पर उन पर अमल दूसरी बात है। एक वैज्ञानिक और एक समाज वैज्ञानिक, एक नेता और एक मानवतावादी, एक दार्शनिक और एक क्रांतिकारी, एक कवि और एक लेखक, एक संगीतकार और एक गायक, एक मानवाधिकार कार्यकर्ता और अस्पृश्यों और विधवाओं के मसीहा... और इन सबसे ऊपर एक संपूर्ण मनुष्य के रूप में डॉ. पाठक एक ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनके अंतस में ज्ञान की कई धाराएं एक साथ प्रवाहित होती हैं। उन्हें सौ से ज्यादा पुरस्कार और सम्मान दुनिया की तमाम बड़ी संस्थाओं और देशों की तरफ से मिल चुका है। उन्हें ये सारे सम्मान और पुरस्कार स्वास्थ्य-सफाई और स्वच्छता के साथ सामुदायिक विकास के लिए किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के लिए

दिए गए हैं। वे दर्जनों राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के मनोनीत सदस्य भी हैं। अगर उनकी यश और प्रसिद्धि को कम शब्दों में कहना हो तो कहेंगे कि वे ‘एक्शन सोशियोलॉजिस्ट’ हैं। वे स्वच्छता-समाजशास्त्र के जनक भी हैं, यह विषय आज भारत के एक दर्जन से ज्यादा विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जा रहा है। सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस आर्गेनाइजेशन की स्थापना डॉ. पाठक ने 1970 में की और यह आज विश्व की सबसे बड़ी गैरसरकारी संस्था है। इसमें 60 हजार सदस्य अपनी सेवाएं देते हैं। इस तरह देखें तो डॉ. पाठक 60 हजार परिवारों की मदद कर रहे हैं। इसके अलावा वृंदावन व वाराणसी में विधवा माताओं और देश के कई हिस्सों में बच्चों और महिलाओं की देखभाल और उन्हें सशक्त बनाने में भूमिका निभा रहे हैं। डॉ. पाठक को लेकर इस तरह के तमाम तथ्यों से आप लोग पहले से भी परिचित हैं। मेरी कोशिश सिर्फ यह है कि उनके कार्य और उनके व्यक्तित्व

के विभिन्न आयामों को सम्मिलित रूप से आपके सामने रखूं। वे जितने विशाल व्यक्तित्व के मालिक हैं, उसके बारे में सोचते हुए शेक्सपियर द्वारा अपने एक नायक में कही हुई एक बात याद आती है‘कुछ लोग महान जन्म लेते हैं, कुछ लोग महानता हासिल करते हैं, पर कुछ लोगों की महानता इन सबसे भी आगे निकल जाती है।’ डॉ. पाठक के व्यक्तित्व में जो महानता है, उन्हें जो सुयश प्राप्त है, वह सब उन्होंने खुद से और अपने जीवट कर्मों से हासिल किया है। उनका जन्म न तो मुंह में चांदी का चम्मच लिए हुआ और न ही उनके जीवन में कोई गॉडफादर रहा, जो उन्हें इस ऊंचाई तक ले जाते, जहां आज वे खड़े हैं। उन्होंने खुद से अपने जीवन को शिक्षा, स्वच्छता और समाज सेवा के जरिए अभाव और उपेक्षा से बाहर निकाला। आज स्थिति यह है कि वे विश्व की सबसे बड़ी लोक-हितैषी संस्था के जनक हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि एक बालक जिसका जन्म बिहार के पिछड़े क्षेत्र में हुआ,

जिसने स्कैवेंजिंग जैसी अमानवीयता को देखा और महसूस किया, वह कैसे आगे इस दिशा में आगे बढ़ते हुए इस मुकाम पर है कि उनके कार्यों और सेवाओं की हर तरफ सराहना हो रही है, उन्हें बड़े से बड़े पुरस्कार और सम्मान दिए जा रहे हैं। उनके जीवन और यशस्वी कर्मों को देखकर गीता के इस श्लोक का सहज ही स्मरण होता है, जो उन पर पूरी तरह चरितार्थ होता है-‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ आप सोचें कि डॉ. पाठक ने अपने आरंभिक दिनों में किस तरह का संघर्ष किया। जब उनके पास पैसे नहीं थे, कोई सहयोग नहीं था, कोई ठौर नहीं था और इन सबसे ज्यादा लोगों से उपहासात्मक बातें सुनने को मिलती थीं। ऐसे में एक युवक ने कितने संयम, सकारात्मकता और दृढ़ विश्वास का परिचय दिया होगा, यह सोचकर भी हैरत होती है। डॉ. पाठक ने जब स्थितप्रज्ञ को लेकर श्री कृष्ण से प्रश्न पूछा होगा तब उसने डॉ. पाठक को नहीं देखा था‘स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव। स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥’ पर जब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के प्रश्न का उत्तर दिया तब शायद उन्होंने डॉ. पाठक जैसे व्यक्तित्व की कल्पना की होगी। चूंकि केशव भूत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ देख सकते थे, इसीलिए उनके लिए ऐसा करना संभव था। उन्होंने अर्जुन को उनके प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा‘दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।’ गोस्वामी तुलसीदास ने इसी बात को अन्य शब्दों में व्यक्त किया है‘निंदा अस्तुति उभय सम...’ क्या आपने डॉ. पाठक के व्यवहार में पुरस्कार प्राप्त करने से पहले और बाद कोई परिवर्तन देख रहे हैं। अगर ऐसा नहीं है तो इसीलिए, क्योंकि उनके लिए सेवा ही धर्म है। विशाल हृदय और व्यक्तित्व के इसी महान गुण के लिए गोस्वामी जी ने कहा है‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई।’ वे दिन-रात मानवता की सेवा में निस्वार्थ भाव से जुटे हैं। गांधी जी ने कहा भी है कि मनुष्य के जीवन में एक भी पल ऐसा नहीं होना चाहिए जब हम सेवाकर्म न कर रहे हों। मैं उनके लिए ढेर सारी शुभकामनाएं व्यक्त करता हूं कि उन्हें भारत रत्न और नोबल पुरस्कार भी मिले, क्योंकि वे इसे पाने के सर्वाधिक योग्य अधिकारी हैं।


25 जून - 01 जुलाई 2018

गांधी जी का सुलभ-स्वरूप

डॉ. पाठक को भारत रत्न और नोबेल पुरस्कार भी मिले

पुरस्कार प्राप्त करते हुए डॉ. पाठक ने कहा कि यह सम्मान विश्व और विशेष रूप से एशिया में समाज की सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में एक और मील का पत्थर होगा

अर्जुन प्रसाद सिंह

क गरिमामय और भव्य समारोह में निक्की इंक ने पद्म भूषण डॉ. विन्देश्वर पाठक को कल्चर एंड कम्यूनिटी श्रेणी में 23 वें ‘निक्की एशिया पुरस्कार 2018’ से सम्मानित किया है। यह पुरस्कार स्वच्छता के क्षेत्र में सतत विकास के लिए उनके योगदान और एशिया के बेहतर भविष्य निर्माण में उनकी उपलब्धियों के लिए दिया गया। निक्की एशिया पुरस्कार, डॉ. पाठक को एक ऐसे समाज सुधारक रूप में दिया गया, जिसने देश की दो बड़ी चुनौतियों, खराब साफसफाई व्यवस्था और भेदभाव का मुकाबला किया एवं उसका समाधान सुझाया। डॉ. पाठक के साथ दो अन्य लोगों को भी इस पुरस्कार से नवाजा गया, जिनमें चीन के पर्यावरणविद् मा जुन और वियतनाम के प्रोफेसर न्ग्यें थान लीम शामिल हैं। 13 जून, 2018 की शाम टोक्यो के इंपीरियल होटल में आयोजित हुए इस समारोह में कई प्रतिष्ठित व्यक्ति और हस्तियां उपस्थित थीं। जापान के सबसे बड़े मीडिया घरानों में से एक, निक्की इंक ने इस पुरस्कार की स्थापना साल 1996 में जापानी भाषा के अपने अखबार की 120 वीं सालगिरह पर की थी। तभी से, निक्की इंडस्ट्री द्वारा यह पुरस्कार एशिया में उल्लेखनीय विकास के लिए तीन क्षेत्रों में दिया जाता है – साइंस एंड टेक्नोलॉजी, रीजनल एंड इकोनॉमिक ग्रोथ और कल्चर एंड कम्यूनिटी। इसका उद्देश्य उन लोगों और संस्थाओं को सामने लाना है, जिन्होंने एशिया के विकास और समृद्धि में योगदान दिया हैं। पुरस्कार समारोह का समापन जापान में भारत के राजदूत सुजान आर. चिनॉय के संबोधन के साथ हुआ। समारोह में पुरस्कार प्राप्त करते हुए डॉ. पाठक ने कहा कि यह सम्मान विश्व और विशेष रूप से एशिया में समाज की सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता में एक और मील का पत्थर होगा। यद्दपि दुनिया भर में, बेशुमार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से डॉ. पाठक

को सम्मानित किया जा चुका है, फिर भी मैं उम्मीद करता हूं कि उन्हें प्रतिष्ठित भारत रत्न और नोबेल पुरस्कार भी मिले। अंत में, मैं ह्रदय से, डॉ. पाठक को यह प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त करने पर बधाई देता हूं और उन श्रोताओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूं, जिन्होंने मुझे धैर्यपूर्वक सुना है। (इनपुट एजेंसी)

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सुलभ

सुलभवाद के प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक जी ने सामाजिक परिवर्तन की एक नई विधा हमारे सामने प्रस्तुत की है, जिसे हम ‘सुलभवाद’ के रूप में जानते हैं डॉ. अनिल दत्त मिश्र ‘दुनिया में वही शख्स है ताजीम के काबिल, जिस शख्स ने हालात का रुख मोड़ दिया हो।’

ये

पंक्तियां डॉ. विन्देश्वर पाठक के जीवन पर सही चरितार्थ होती हैं। बचपन से लेकर आज तक उनका जीवन संघर्षमय रहा। उन्होंने उसूलों से कभी समझौता नहीं किया और सदैव अपने पथ पर अग्रसर रहे। संघर्ष के बाद वे एक के बाद एक ऊंचाई के शिखर पर पहुंचते गए। भारत-सरकार ने उन्हें ‘पद्मभूषण’से सम्मानित किया। आज उनके कार्यों को न केवल भारतवर्ष में, बल्कि संपूर्ण विश्व में पहचान मिली और उनके द्वारा किए गए कार्यों के लिए उन्हें जापान में ‘निक्की एशिया पुरस्कार-2018’ प्राप्त हुआ। विश्व के द्वितीय सबसे बड़े आर्थिक देश जापान के प्रधानमंत्री से उनकी आत्मिक भेंट हुई और उनके साथ दुनिया-भर के बड़े-बड़े लोगों के संग रात्रि-भोज किया। यह अपने-आप में एक बड़ी बात है। 21 वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रहने के बाद जब 1915 में महात्मा गांधी भारत आए तो उनका अभिनंदन गोपालकृष्ण गोखले ने किया था। मोहनदास करमचंद गांधी को सर्वप्रथम

‘महात्मा’की उपाधि ‘नोबेल पुरस्कार’ विजेता रवींद्रनाथ टैगोर ने दी थी। आज हमें डॉ. विन्देश्वर पाठक जी को पहली बार ‘सुलभ गांधी’ कहने मंे अति हर्ष हो रहा है। वास्तव में सुलभवाद के प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक जी ने सामाजिक परिवर्तन की एक नई विधा हमारे सामने प्रस्तुत की है, जिसे हम ‘सुलभवाद’ के रूप में जानते हैं। जो व्यक्ति-परिवर्तन के द्वारा समाज और राष्ट्र के परिवर्तन की बात करता है। डॉ. पाठक जी के जीवन को संक्षिप्त में कुछ शब्दों में परिभाषित करने का प्रयास करता हूं‘उनका जीवन अज्ञात गंतव्य के लिए अज्ञात यात्रा है।’ डॉ. पाठक जी एक रचनात्मक व्यक्ति हैं, जिन्होंने स्वयं के लिए सम सामयिक इतिहास का निर्माण किया, जिसे आज संपूर्ण विश्व मानने के लिए कटिबद्ध है। डॉ. पाठक जी के पास न तो ‘राज्य-सत्ता’ थी, न ही ‘अर्थ-सत्ता’ थी और न ही ‘धर्म-सत्ता’। उसके बावजूद इन्होंने वो कर दिया, जिसे किसी ने नहीं किया। गांधी के बाद अछूतों के लिए इतना बड़ा कार्य किसी ने नहीं किया। प्रतिभा के धनी डॉ. पाठक जी हमेशा अलग ढंग से सोचते हैं। इनकी सोच मौलिक एवं अलग ढंग की होती है। यह इनके कार्यों में परिलक्षित होता है। ‘सुलभवाद, अलवर में किए गए प्रयोग, वृंदावन में महिलाओं के लिए किए गए कार्य तथा पश्चिम बंगाल में किए गए पानी पर कार्य उनके दर्शन और दूरदर्शिता को प्रदर्शित करती है। इनकी कही हुई एक-एक बात बहुत सरल होती है, परंतु गंभीर और दूरगामी होती है। किसी शायर ने ठीक ही कहा है ‘बात निकली है तो दूर तलक जाएगी।’ डॉ. पाठक जी कहते हैं, हम अपनी प्रकृति की अखंड धारा को पहचानें। यही ‘सुलभवाद है। कार्य कठिन है, किंतु करना ही होगा, ऐसी आज हम प्रतिज्ञा लें। यहां बशीर बद्र की ये पक्तियां बहुत ही उपयुक्त हैं, ‘उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए।’ आज से सौ-दो सौ वर्ष बाद जब भी इतिहास लिखा जाएगा, डॉ. विन्देश्वर पाठक जी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा तथा उन पर पूरे विश्व में शोध किए जाएंगे। मैं अपनी बात महात्मा गांधी जी की इन पंक्तियों से समाप्त करता हूं- ‘ आपका पथ अंधकारमय हो सकता है। पर आपको आपनी आत्मा के लिए निश्चित परिधि पर आगे बढ़ना चाहिए।’


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गुड न्यूज

25 जून - 01 जुलाई 2018

रोहतांग सुरंग परिवहन के लिए 2020 में खुलेगा

समुद्र तल से 3000 मीटर ऊपर चल रही इस परियोजना के पूरे होने के बाद चारो तरफ से घिरी लाहौल घाटी तक हर मौसम में जाया जा सकेगा

दु

निया की सबसे कठिन परिवहन परियोजनाओं में से एक रोहतांग सुरंग का निर्माण कार्य 2020 तक पूरा हो सकता है। समुद्र तल से 3000 मीटर ऊपर चल रही परियोजना के पूरे होने के बाद चारों तरफ से जमीन से घिरी लाहौल घाटी तक यहां से

हर मौसम में जाया जा सकेगा। अपने तरह की सबसे महंगी और महत्वाकांक्षी परियोजना के तहत घोड़े के खुर के आकार की 8.8 किलोमीटर लंबी रोहतांग सुरंग पिछले साल अक्टूबर में बन चुकी है। सुरंग का 3978 मीटर

हिस्सा हिमालय के रोहतांग दर्रे से होकर गुजरता है। इस सुरंग पर अब सिविल इंजीनियरिंग का काम चल रहा है। हालांकि, 2012 में सुरंग के लिए खुदाई करने के दौरान निकली छोटी नदी का जोरदार प्रवाह परेशानी पैदा कर रहा है। सुरंग परियोजना में कार्यरत एक इंजीनियर ने बताया कि वर्तमान में काम की रफ्तार देखते हुए इसके सिविल इंजीनियरिंग के काम के दिसंबर 2019 तक पूरे होने की प्रबल संभावना है। उन्होंने कहा कि इसके साथ ही विद्युत और वायु संचार का काम भी चल रहा है। उन्होंने कहा कि सभी संभावनाओं को देखते हुए, सुरंग 2020 में मई-जून तक बनकर तैयार हो जाएगी। यह सुरंग रक्षा मंत्रालय के संगठन 'सीमा सड़क संगठन' (बीआरओ) द्वारा 'स्ट्राबैग एजी' के संयुक्त उपक्रम 'एफ्कॉन्स' के साथ मिलकर तैयार की जा रही है। परियोजना की लागत राशि 1,495 करोड़ रुपए है। आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि सुरंग के निर्माण की पिछली समय सीमा फरवरी 2015, यहां की कठोर भौगोलिक परिस्थितियों के कारण निकल चुकी है। यहां अति कठोर मौसम होने के अलावा सुरंग के दक्षिणी द्वार पर काम सिर्फ छह महीने होता है।

इंजीनियर ने स्वीकार किया कि सुरंग निर्माण की दूसरी समयसीमा 2019 भी सुरंग का निर्माण हुए बिना निकल जाएगी। 20 भूस्खलन और हिमस्खलन से निपटने के बाद सुरंग के दोनों द्वार बनाए जा सके हैं। यह सुरंग समुद्र तल से 3000 मीटर की ऊंचाई पर बर्फ से ढंके रोहतांग दर्रे में स्थित है। रोहतांग का 70 फीसदी भाग गर्मियों में भी बर्फ से ढंका रहता है। लेकिन पांच साल की देरी होने के कारण परियोजना में 2,000-2,500 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार पड़ेगा। इंजीनियरों के लिए हिमनदों से भरी सेरी नदी को वश में करना भी एक चुनौती है। एक अन्य इंजीनियर ने कहा कि इससे पहले हम 562 मीटर के क्षेत्र में सेरी नदी का सामना कर रहे थे। अब हम इसका प्रभाव मात्र 30 मीटर के दायरे में रखने में कामयाब हो सके हैं। बहुत जल्द हम इसे और सुरंग के अंदर रिसाव पर पूरी तरह काबू पा लेंगे। पीर पंजाल क्षेत्र में स्थित रोहतांग दर्रा राजमार्ग सुरंग में दोतरफा यातायात के लिए पर्याप्त जगह है। इसे इस तरह से बनाया गया है कि इसके अंदर 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से वाहन चलाया जा सकेगा। (आईएएनएस)

रोजाना 1 लाख लोग खाते हैं लंगर

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दिल्ली के दस ऐतिहासिक गुरुद्वारों में प्रतिदिन करीब एक लाख लोग छकते हैं लंगर

ल्ली के 10 ऐतिहासिक गुरुद्वारों में रोजाना लगभग एक लाख लोग लंगर प्रसाद ग्रहण करते हैं। इसमें चपाती, दाल, सब्जी, खीर, सलाद आदि पूर्ण डाइट शामिल होती है। जबकि गुरुपर्व होली, दीपावली तथा सप्ताह के अंतिम दिनों में इनकी संख्या बढ़कर लगभग पांच लाख तक पहुंच जाती है। इन गुरुद्वारों के लंगर स्वच्छता, गुणवत्ता, पौष्टिकता और शुद्धता के मामले में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संगठन फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड आथॉरिटी आफ इंडिया के सख्त मापदंडों पर खरे उतरे हैं। इन गुरुद्वारों में विभिन्न साधनों के उपयोग से आम जनमानस को प्रदान किए जाने वाले लंगर प्रसाद को ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक और पौष्टिक बनाया गया है ताकि समाज के श्रमिक वर्ग को सेहतमंद बनाया जा सके, जोकि अपने आहार के लिए मुख्यत: गुरुद्वारों के लंगर पर निर्भर रहते है। नई दिल्ली के बंगला साहिब गुरुद्वारे में

देश के विभिन्न हिस्सों से अपनी शिकायतों, मांगों को लेकर आने वाले आंदोलनकारियों, धरना-प्रदर्शनकारियों को नियमित रूप से 'घर का खाना' मुहैया कराया जाता है। यहां जाति, धर्म, क्षेत्र एवं राजनीतिक भेदभाव के बिना लंगर प्रदान किया जाता है। गुरुद्वारों में लंगर की गुणवत्ता, स्वच्छता, पौष्टिकता आदि सुधारने के लिए प्रबंधक समीतियों का गठन किया गया है। इसके अंतर्गत देशी घी, खाद्य तेल आदि को प्रयोग से पहले सरकारी प्रयोगशाला में जांच परखा जाता है, जबकि सब्जियों की ताजगी तथा पौष्टिकता को सुनिश्चित करने के लिए सीधे आजादपुर मंडी से खरीदा जाता है। दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मंजीत सिंह जीके ने बताया कि सभी लंगर रसोइयों को पीला एप्रॉन, दस्ताने और पगड़ी पहनना अनिवार्य किया गया है ताकि सभी प्रकार के संदूषणों को रोका जा सके। उन्होंने कहा कि लंगर रसोइये का शारीरिक, मानसिक

रूप से दृढ़ होना अनिवार्य है और किसी भी संक्रमण रोगी को लंगर बनाने की कतई अनुमति प्रदान नहीं की जाती। उन्होंने बताया कि प्रत्येक लंगर परिसर पूरी तरह वायु प्रवाहक है और रसोई परिसर की संगमरमर टाइलों को दिन में बार-बार धोया जाता है। मंजीत सिंह जीके ने बताया कि लंगर में चपाती बनाने के लिए आधुनिक मशीन लगाई गई है। उन्होंने कहा कि बचे हुए भोजन, फलों आदि को बड़ी ट्रालियों में ढक कर रखा जाता है। उन्होंने कहा कि स्थानीय निकायों से नजदीकी समन्वय स्थापित करके सभी प्रकार के रोगों

की रोकथाम और बचाव के समयबद्ध तरीके से उचित प्रबंध किए जाते हैं। लंगर श्रद्धालुओं को स्वच्छ पेयजल प्रदान करने के लिए गुरुद्वारा परिसर में आर.ओ. लगाए गए हैं। उन्होंने कहा कि प्रबंधक समिति ने लंगर रसोइयों को खाना बनाने की नवीनतम तकनीक, उपकरणों तथा परंपराओं के प्रति कार्य कुशल बनाने के उद्देश्य से प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए एक गैर सरकारी संगठन का सहयोग लिया है। गुरुद्वारा के लंगर की गुणवत्ता, महक, स्वाद तथा पौष्टिकता में पिछले कुछ समय से महत्वपूर्ण सुधार दर्ज किया गया है। (आईएएनएस)


25 जून - 01 जुलाई 2018

स्वास्थ्य

कैंसर रोगियों के लिए पंचगव्य उपचार

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कैंसर की शुरुआती दशा में अगर मरीज का पंचगव्य उपचार किया जाए तो कई मामलों में कैंसर को निश्चित तौर पर जड़ से समाप्त किया जा सकता है

कैंसर जिम्मेदार जीन का पता चला चीन के वैज्ञानिकों ने एक ऐसे जीन का पता लगाया है जिससे प्रोस्टेट कैंसर के इलाज में मदद मिलेगी

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अतुल सिंघल

सर को दुनिया की सबसे लाइलाज बीमारी माना जाता है। इस भयानक बीमारी का पता जब मरीज को चलता है तब बहुत देर हो चुकी होती है। ज्यादातर कैंसर रोगियों का इलाज महंगा और बहुत कष्टदायक होता है। भारत में कैंसर के रोगियों को राहत देने और सस्ते इलाज के लिए लगातार नए-नए शोध हो रहे हैं और देशभर में कैंसर के इलाज के अस्पताल खुल रहे हैं। लेकिन हिंदुस्तान की प्राचीन इलाज पद्धति पंचगव्य और आयुर्वेदिक दवाओं से भी कैंसर रोगियों का सफल इलाज किया जा सकता है, इस बात की जानकारी बहुत कम लोगों को है। देश में कई पंचगव्य संस्थानों द्वारा कैंसर रोगियों पर शोध किया जा रहा है और इलाज के लिए नई नई दवाओं की खोज भी की जा रही है। दरअसल आयुर्वेद में पंचगव्य पद्धति को बहुत महत्व दिया गया है। पंचगव्य देशी गाय के गोबर, गोमूत्र, घी, दूध एवं दही के मिश्रण से बनी दवाई होती है। इस मिश्रण में आयुर्वेद की अन्य औषधियों को शामिल कर कैंसर रोगियों को दिया जाता है। पंचगव्य के मिश्रण से बने अर्क और लेप से मरीजों को फायदा हो रहा है, जो रेडिएशन का काम करता है। इस पर शोध करने वाले वैद्य बताते हैं कि कैंसर की शुरूआती दशा में अगर मरीज उनके पास आ जाते हैं तो कई मामलों में निश्चित तौर पर कैंसर को जड़ से समाप्त किया

जा सकता है। दिल्ली के पंजाबी बाग (शिवाजी पॉर्क) इलाके में पंचगव्य पद्धति से कैंसर के सैकड़ों मरीजों का इलाज किया जा चुका है। इस अस्पताल की खास बात यह है कि संस्था की अपनी गोशाला में पंचगव्य तैयार किया जाता है। इस चिकित्सालय में देश के दूर-दराज के इलाकों से लेकर विदेश तक से मरीज इलाज कराने आ रहे हैं। श्री गऊ सेवा ट्रस्ट द्वारा संचालित इस चिकित्सालय की सराहना आईआईटी के वैज्ञानिक और अखिल भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा संस्थान (एम्स) के डॉक्टर भी कर चुके हैं। चिकित्सालय में इलाज के लिए आने वाले मरीजों को एक अनुशासित परिवेश में रखा जाता है। जहां पूरी दिनचर्या पंचगव्य चिकित्सा प्रणाली के अनुसार चलती है। मरीजों और उनके सहायकों को खाना-नाश्ता इत्यादि भी चिकित्सालय में ही दिया जाता है। जिसे वैद्य जी की देखरेख में तैयार किया जाता है। मरीजों के खानपान को लेकर यहां विशेष सतर्कता बरती जाती है। चिकित्सालय के प्रमुख वैद्य भरत देव मुरारी बताते हैं कि दो साल पहले हरियाणा के हिसार जिले से एक महिला कैंसर का इलाज कराने यहां आई थी। दरअसल वह महिला अनुवांशिक कैंसर की बीमारी से पीड़ित थी। महिला की मां और नानी को भी कैंसर था। शादी के बाद जब महिला गर्भवती नहीं हो पाई तो उसकी उच्चस्तरीय जांच से कैंसर के शुरूआती लक्षणों का पता चला। प्रचलित अंग्रेजी

पंचगव्य देशी गाय के गोबर, गोमूत्र, घी, दूध एवं दही के मिश्रण से बनी दवाई होती है। इस मिश्रण में आयुर्वेद की अन्य औषधियों को शामिल कर कैंसर रोगियों को दिया जाता है

नी वैज्ञानिकों ने प्रोस्टेट कैंसर के लिए जिम्मेदार एक जीन की पहचान की है, जिससे इस बीमारी का पता लगाने और उसका इलाज करने में नए तरीके का इस्तेमाल किया जा सकेगा। एक समाचार एजेंसी ने खबर दी है कि सुजहोउ इंस्टीटयूट ऑफ बायोमेडिकल इंजीनियरिंग एंड टेक्नॉलोजी के वैज्ञानिकों ने 'पीसीएसईएटी' नाम के एक नए बायोमार्कर की खोज की है। शोध में सामने आया कि प्रोस्टेट कैंसर के मरीजों में पीसीएसईएटी अधिक मात्रा में है जिससे संकेत मिला कि पीसीएसईएटी संभावित चिकित्सीय लक्ष्य हो सकता है। यह शोध मई में, 'बायोकेमिकल एंड बायोफिजिकल रिसर्च कम्यूनिकेशंस' में प्रकाशित हुआ है। शोध के आधार पर वे प्रोस्टेट कैंसर का जल्दी पता लगा सकते हैं। इसके इलाज की लागत में कमी आ सकती है। (एजेंसी) चिकित्सा प्रणाली में उक्त महिला का इलाज बेहद खर्चीला था। लेकिन इलाज के लिए जब वह महिला गोधाम पंचगव्य आयुर्वेदिक कैंसर अस्पताल पहुंची तो यहां महिला का सफल इलाज किया गया। वह मां बनी और पंचगव्य ने कैंसर को जड़ से खत्म कर दिया। वैद्य भरत मुरारी कहते हैं कि हमारा प्रयास यह है कि अब उसकी यह वंशानुगत बीमारी भी यहीं रुक जाए। देशभर में अब पंचगव्य पर लोगों का भरोसा बन रहा है, वे कहते हैं कि अनुवांशिक तौर पर कैंसर को खत्म करने के लिए भी पंचगव्य सटीक साबित हो रहा है। पंचगव्य के विशेषज्ञों का कहना हैं कि देसी गाय के गोबर का लेप कैंसर रोगियों के लिए बहुत अच्छा रेडिएशन साबित होता है, जबकि गौमूत्र कीमोथेरेपी का हानि रहित विकल्प है। कीमोथेरेपी कैंसर रोगियों के लिए बेहद कष्टदायक होती है। ऐसे में देसी गाय के उत्पाद से बना पंचगव्य कैंसर रोगियों के लिए नया जीवन लेकर आ रहा है। भारत सरकार के आयुष मंत्रालय द्वारा भी पंचगव्य के इलाज को मान्यता दी गई है। देशभर में अब इस पद्धति पर नए-नए शोध हो रहे हैं। ताकि कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी से भारत को मुक्त किया जा सके। प्राचीन भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में गाय को बेहद अनमोल बताया गया है। गाय के दूध, दही, घी, मख्खन, गोबर और गोमूत्र को आयुर्वेद में अमृत की संज्ञा दी गई है। पंचगव्य का अर्क बनाने के लिए इसमें तुलसी, आवंला, गिलोय, हल्दी,हरसिंगार, सहजन, बथुआ और चौलाई जैसी जड़ी बूटियों का मिश्रण पंचगव्य के अर्क में मिलाया जाता है। देश में पंचगव्य

पर निरंतर शोध हा रहे हैं। गुजरात के वलसाड में पंचगव्य पर रिसर्च करने वाली एक आधुनिक प्रयोगशाला वलसाड के चिकित्सालय में काम कर रही हैं। दरअसल देश में ज्यादातर लोगों की जीवनशैली बेहद खराब होती जा रही है। खानपान, रहन-सहन, तनाव, प्रदूषण, हानिकारक कीटनाशक, मिलावटी खाद्य पदार्थ और दैनिक प्रयोग में इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री से कैंसर जैसा भयानक रोग भारत में पैर पसार रहा है। हालांकि स्वास्थ्य मंत्रालय कैंसर के प्रति देशभर में जागरुकता अभियान चला रहा है मगर यह कैंसर जैसे रोग से लड़ने के लिए पर्याप्त कदम नहीं है। दूसरी तरफ कैंसर जैसी बीमारी के इलाज के लिए निजी और सरकारी अस्पताल भी काम कर रहे है। मगर कैंसर का एलोपैथिक इलाज काफी लंबा, खर्चीला और कष्टदायक है। ऐसे में पंचगव्य कैंसर रोगियों के लिए एक वरदान की तरह सामने आ रहा है। अच्छी बात यह हैं कि पंचगव्य से इलाज को लेकर देशभर में लोगों की धारणा बदल रही है। संचालक संस्था श्री गऊ सेवा ट्रस्ट के प्रधान शंकर दास बंसल बताते हैं कि पंचगव्य से बनी दवाईयों को एलोपैथिक वैज्ञानिकों ने जब अपनी कसौटी पर कसा तो काफी कारगर पाया। पंचगव्य को लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार भी आगे आ रही है। लेकिन इस दिशा में अभी काफी काम किया जाना बाकी है। (लेखक गोधाम पंचगव्य आयुर्वेदिक चिकित्सालय के मुख्य सलाहकार हैं एवं असम के राज्यपाल के मीडिया सलाहकार हैं )


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गुड न्यूज

25 जून - 01 जुलाई 2018

साफ पानी का सपना

भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है, जिसने लोगों तक पानी पहुंचाने में काफी सुधार किया है

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र लाभकारी अंतरराष्ट्रीय संगठन वाटर ऐड के अनुसार, भारत उन देशों की सूची में पहले स्थान पर है जहां लोगों के घरों के पास साफ पानी की व्यवस्था सबसे कम है। इथियोपिया और नाइजीरिया ने हमसे बेहतर प्रदर्शन किया है। यह हालात तब हैं जब भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है, जिसने लोगों तक पानी पहुंचाने में काफी सुधार किया है। भारत भूमिगत जल-स्तर के नीचे जाने, सूखे, कृषि और उद्योग की ओर से पानी की मांग, प्रदूषण और गलत जल प्रबंधन जैसी चुनौतियों का सामना कर रहा है। यह चुनौती जलवायु परिवर्तन के कारण और बढ़ेगी। नवंबर 2017 को भारत सरकार ने अपने ग्रामीण जल कार्यक्रम को संशोधित किया था, ताकि 90 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों तक 2022 तक पाइपलाइन के जरिए पानी पहुंचाया जा सके। लेकिन अगर पिछले अनुभव पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि यह लक्ष्य हासिल करना बेहद मुश्किल है। भारत में करीब 47.4 मिलियन ग्रामीण

आबादी साफ पानी से वंचित है। कुछ समय पहले तक भूमिगत जल में मिलने वाले प्रदूषक मसलन, फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन, हेवी मेटल, खारापन और नाइट्रेट स्वास्थ्य को चुनौती पेश कर रहे थे। लेकिन अब खतरा और बढ़ गया है, क्योंकि भूमिगत जल में 10 ऐसे नये प्रदूषक मिले हैं जो स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करते हैं। इन प्रदूषकों में मैगनीज, कॉपर, एल्युमिनियम, मरकरी, यूरेनियम, लेड, कैडमियम, क्रोमियम, सिलेनियम और जिंक शामिल हैं। ज्यादातर प्रदूषक पंजाब के भूमिगत जल में मौजूद हैं। ग्रामीण रिहाइश जो प्रदूषकों से सबसे अधिक प्रभावित है, उनमें असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल शामिल हैं। राजस्थान की 19,657 रिहाइश में प्रदूषक पाए गए हैं। पश्चिम बंगाल की 17,650, असम की 11,019, पंजाब की 3,526 रिहाइश में फ्लोराइड, आर्सेनिक, आयरन, खारापन, नाइट्रेट और हेवी मेटल्स मिले हैं। भारत में 70,776 ग्रामीण रिहाइश यानी करीब 47.4 मिलियन आबादी दूषित भूमिगत जल पर निर्भर है। एक चिंता की बात यह भी है कि देश में 10 नए प्रदूषक मिले हैं जो भूमिगत जल की गुणवत्ता को और खराब करेंगे। सरकार ने 90 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों तक पाइप के जरिए 2022 तक पानी पहुंचाने का लक्ष्य तय किया है, लेकिन इसे प्राप्त करना बेहद मुश्किल है। (एजेंसी)

स्कूल बचाने के लिए छात्रों को दिया इनाम स्कूल में अधिक बच्चे पढ़ने आएं इसके लिए कर्नाटक के एक प्रिंसिपल ने हर छात्र को एक हजार का बांड अपनी तरफ से दिया

पने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने के लिए माता पिता भारी-भरकम फीस अदा करते हैं। लेकिन कर्नाटक में मामला इससे उलट है। यहां एक स्कूल को बंद होने से बचाने के लिए प्रिंसिपल ने अनूठी मिसाल कायम की है। मामला उडुपी जिले के एक गांव के सरकारी प्राइमरी स्कूल का है, जहां प्रिंसिपल ने बहुत कम नामांकन के बाद स्कूल को बंद होने से बचाने के लिए प्रवेश लेने वाले हर छात्र को 1 हजार रुपए का बांड दिया। स्कूल के हेडमास्टर सुरेश शेट्टी ने यह पहल की है, जिन्होंने खुद की आय से छात्रों को एक हजार रुपए का बांड दिया। उडुपी कस्बे से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर स्थित कोंजड़ी कस्बे में यह स्कूल स्थित है। स्कूल के प्रिंसिपल सुरेश शेट्टी ने कहा, 'तीन साल पहले जब मैंने स्कूल का प्रभार संभाला था, तो कुनबी समुदाय के काफी बच्चे पढ़ते थे। उस वक्त केवल 13 बच्चे थे और यह संख्या

हर साल घट रही थी।' स्कूल में छात्रों की लगातार घटती तादाद से शेट्टी चिंतित थे। उन्हें लग रहा था कि यही हालात रहे, तो आने वाले दिनों में स्कूल पर ताला पड़ जाएगा। उन्होंने बताया, 'छात्रों को स्कूल में रोकने के लिए मैंने नामांकन कराने वाले हर छात्र (पिछले ऐकडेमिक सत्र) के लिए अपनी ओर से 1000 रुपए का बांड शुरू किया। अब मेरे स्कूल में छात्रों की तादाद बढ़कर 28 पहुंच चुकी है।' इस सरकारी स्कूल में पहली से लेकर पांचवीं क्लास तक की पढ़ाई होती हैं। सुरेश शेट्टी कहते हैं, '1959 में यह स्कूल शुरू हुआ था। इस इलाके में यह इकलौता शैक्षणिक संस्थान है। शिक्षक नियमित रूप से पढ़ाई नहीं कराते थे, इसी वजह से बच्चे कक्षा में कम आ रहे थे। मैंने यह सुनिश्चित किया कि रोजाना कम से कम दो शिक्षक स्कूल आएंगे। इससे बच्चों के घरवालों का भी हमारे प्रति भरोसा बढ़ा।' (एजेंसी)

कहीं आपके कान में भी कोई छेद तो नहीं अगर आपके कान में भी छेद या छेदनुमा निशान है तो परेशान न हों, लेकिन अगर आपको किसी तरह का शक है तो डॉक्टर से परामर्श लें

क्या

आपने कभी गौर से अपना कान देखा है, हो सकता है कि इसमें छेद हो। यह छेद इतना छोटा होता है कि संभव है कि आपका ध्यान कभी इस पर नहीं गया हो। अगर आपको विश्वास नहीं है तो किसी और से अपने कान दिखाएं। आप पाएंगे कि शायद आपके कान के ऊपरी हिस्से में एक छोटा सा छेद नुमा निशान हो। इसे ‘प्रीऑरीकुलर साइनस’ कहते हैं। अधिकतर लोगों में यह छेद धीरे-धीरे गायब हो जाता है। हालांकि कुछ नस्लों में यह दस फीसदी लोगों के कानों में रह जाता है। यह छेद जन्मजात होता है, जो कान के बाहरी हिस्से में दिखाई देता है। कुछ अध्ययन के मुताबिक ये बाएं कान के मुकाबले दाएं कान में अधिक पाए जाते हैं। दरअसल मां के पेट में जब भ्रूण का विकास सही तरीके से

नहीं होता है तो यह छेद रह जाता है। जीव वैज्ञानिक नील शुबिन ने बताया कि वास्तव में ये छेद मछली के गलफड़े का अवशेष हो सकते हैं। अमरीका की नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के मुताबिक यह भी संभव है कि यह छेद त्वचा और मांस के ठीक से ना जुड़ने के कारण हो। यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो में जेनेटिक्स एंड एनाटॉमी विभाग के प्रोफेसर विंसेट जे लिंच कहते हैं कि ये भी हो सकता है कि कान के उस हिस्से की संरचना मानव विकास के साथ बदली हो। अधिकतर मामलों यह प्रक्रिया सामान्य होती है, लेकिन कभी कभार भ्रूण में इसका सही विकास नहीं हो पाता है। दक्षिण कोरिया के यूनिवर्सिटी ऑफ योनसेई में हुए एक अध्ययन के मुताबिक अमरीका के 9 फीसदी लोगों के कानों में यह छेद होते हैं।

वहीं एशिया और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में ये दस फीसदी लोगों के कानों में होता है। अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि यह छेद पश्चिमी देशों के मुकाबले एशियाई लोगों में ज्यादा होते हैं। अमरीका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के मुताबिक इस छेद से लोगों को कोई खतरा नहीं है,

जब तक कि यह संक्रमित न हो। उस स्थिति में इसका इलाज किया जाना जरूरी है और इसे सर्जरी से निकाला भी जा सकता है। अगर आपके कान में भी यह छेद है तो परेशान न हों, लेकिन अगर आपको किसी तरह का शक है तो डॉक्टर से परामर्श लें। (एजेंसी)


25 जून - 01 जुलाई 2018

दिल्ली में मिली मुगलकालीन वॉल पेंटिंग्स

हुमायूं के मकबरे के पास स्थित सब्ज बुर्ज की छत पर छिपी हुई पेंटिंग्स मिली है

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ल्ली के मशहूर ऐतिहासिक स्मारक हुमायूं के मकबरे के पास स्थित सब्ज बुर्ज में संरक्षणकर्ताओं ने एक अनोखे खजाने की खोज की है। 16वीं शताब्दी के इस बुर्ज की छत पर संरक्षणकर्ताओं ने छिपी हुई पेंटिंग्स की खोज की है, ये नीले, पीले, लाल और सफेद रंग की हैं। यहां तक कई पेंटिंग्स तो सोने की हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तहत काम करने वाले

आगा खान ट्रस्ट के संरक्षणकर्ताओं ने कहा कि यह पहला मौका है, जब दिल्ली स्थित किसी स्मारक में 16वीं शताब्दी की वॉल पेंटिंग्स मिली हैं। सब्ज बुर्ज या ग्रीन टावर कही जाने वाली यह इमारत मुगलकाल में बने शुरुआती स्मारकों में से एक है। बेहतरीन प्लास्टरवर्क, सिरेमिक टाइल्स और शानदार पत्थरों की नक्काशी वाली यह इमारत स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है। पिछले नवंबर में इस बुर्ज के संरक्षण का काम शुरू हुआ था। एक अधिकारी ने कहा, '20वीं सदी की सीमेंट और लाइम वॉश लेयर को हटाने के बाद 16वीं शताब्दी की पेंटिंग्स मिली है। यह पेटिंग्स बुर्ज की छत पर मिली हैं। यह पूरी तरह से अभी अपने असली रंग में हैं। ये नीले, पीले, लाल, सफेद और गोल्ड रंग के हैं, जो पूरी तरह से सुरक्षित हैं।' (एजेंसी)

आम की प्रजातियों के लिए खास डाटाबेस

गुड न्यूज

गरीबों को बांटी गईं किताबें और दवाइयां

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लखनऊ में आयोजित अनोखे भंडारे में गरीब बच्चों को कॉपी, किताबें, पेन, पेंसिल के अलावा बीमारों को उनकी जरूरत के मुताबिक दवाइयां दी गई

त्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक अनोखे भंडारे का आयोजन किया किया। इस भंडारे में पूड़ी-सब्जी, छोला-चावल या शरबत जैसी खाने पीने की चीजें नहीं, बल्कि गरीब बच्चों को स्टेशनरी और जरूरतमंदों को दवाइयां बांटी गईं। लखनऊ के अलीगंज स्थित मामा चौराहे के पास हुए इस अनोखे भंडारे में गरीब बच्चों को कॉपी, किताबें, पेन, पेंसिल के अलावा बीमारों को उनकी जरूरत के मुताबिक दवाइयां बांटी गईं। कार्यक्रम के आयोजक प्रशांत मिश्रा के मुताबिक इस तरह के

भंडारे को करने का उद्देश्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ आम लोगों में बीमार गरीबों के प्रति सहानुभूति पैदा करना था। प्रशांत ने कहा, 'ज्येष्ठ माह के मंगलवार को जगह-जगह भंडारे होते हैं, जिनमें खाने-पीने की अलग-अलग तरह की चीजें दी जाती हैं, लेकिन हमने सोचा कि कुछ ऐसा करें जिससे जरूरतमंदों को फायदा भी हो और वे इसे याद रख सकें। इसीलिए हमने इस तरह का भंडारा कराया।' भंडारे में शामिल होने आए पीसीएस एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष बाबा हरिदेव सिंह ने कहा कि यह अनोखा भंडारा समाज को एक नई तरह की प्रेरणा देगा। उन्होंने कहा, 'किसी भूखे को अगर आप खाना खिलाते हैं या ज्येष्ठ की गर्मी में किसी प्यासे को पानी पिलाते हैं तो निश्चित ही भगवान आप पर प्रसन्न होंगे, लेकिन अगर आप किसी जरूरतमंद को दवाइयां देते हैं या किसी गरीब बच्चे को किताबें देकर उसका भविष्य संवारते हैं तो इससे बड़ा पुण्य का कोई काम नहीं हो सकता।' (एजेंसी)

प्रजातियों की पहचान आसानी से की जा सके। परिष्कृत डाटाबेस के निर्माण के लिए आम की विविध किस्मों का चयन बेहद सतर्कतापूर्वक किया गया है, जिसकी कमी अन्य संग्रहों में आमतौर पर महसूस की जाती है। ऑनलाइन सूचीबद्ध किए गई 40 किस्मों को सावधानीपूर्वक उन 160 प्रजातियों के संग्रह से चुना गया है, जिनका संरक्षण एवं विकास केरल कृषि विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 1992 से जीन सेंचुरी के अंतर्गत किया जा रहा है। इनमें 40 अत्यंत विशिष्ट किस्मों को इस डाटाबेस में शामिल किया गया है। इन प्रजातियों को फलों के रंग, फल

के आकार, फूल के प्रकार, पेड़ के आकार, पत्ते के प्रकार जैसे लक्षणों को केंद्र में रखकर चुना गया है। मैथ्यू कहते हैं कि जीन सेंचुरी एक संग्रह है, जिसमें पौधों की सभी प्रजातियां शामिल रहती हैं, भले ही वे व्यावसायिक रूप से अनुकूल न हों। फसल प्रजनन के लिए इस तरह के संग्रह अत्यधिक मूल्यवान हो सकते हैं। कुछ पौधे मीठे फलों का उत्पादन नहीं करते हैं, लेकिन वे कीटों या तापमान के खिलाफ प्रतिरोधी हो सकते हैं। इसीलिए प्रजनन के लिहाज से वे बहुत मूल्यवान हो सकते हैं। (एजेंसी)

त्रिसूर स्थित केरल कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने अब एक नया डाटाबेस तैयार किया है, जो आम प्रजनकों के लिए विशेष रूप से मददगार हो सकता है

स डाटाबेस में आम की 40 प्रजातियों को उनकी उनकी विशेषताओं के आधार पर सूचीबद्ध किया गया है। " भारत में आम की लगभग 30 व्यावसायिक किस्में प्रचलित हैं, जबकि यहां हजारों विभिन्न प्रकार के आम के पौधों को उगाया जाता है और देशभर में उनका प्रसार किया जाता है। कई बार पारखी लोगों के लिए भी आम की प्रजातियों की पहचान करना कठिन होता है। आम की इतनी बड़ी जैव विविधता के बावजूद, देश में ऐसा कोई संग्रह नहीं है, जहां इस संपन्न विरासत का लेखा-जोखा रखा जा सके। त्रिसूर स्थित केरल कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने अब एक नया डाटाबेस तैयार किया है, जो आम प्रजनकों के लिए विशेष रूप से मददगार हो सकता है। इस डाटाबेस में आम की 40 प्रजातियों को उनकी उनकी विशेषताओं के आधार पर सूचीबद्ध किया गया है। इस परियोजना से जुड़े शोधकर्ताओं के अनुसार, जहां तक दक्षिण भारतीय आम की किस्मों का संबंध है तो यह एक संपूर्ण डाटाबेस है। हालांकि, देश के अन्य हिस्सों में आम की किस्मों की बात करें तो इस संग्रह में और भी प्रजातियां शामिल की जा सकती हैं। इससे संबंधित अध्ययन रिपोर्ट शोध पत्रिका

करंट साइंस में प्रकाशित की गई है। फिलहाल किसी भी उपलब्ध डाटाबेस में इंटरनेशनल बोर्ड ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज (आईबीपीजीआर) के मानकों के अनुरूप आम के जर्मप्लाज्म के बारें में विस्तार से जानकारी नहीं दी गई है। फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन के सामान्य बागवानी डाटाबेस में भी केवल अल्फांसो का ही उल्लेख किया गया है। जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से विकसित किए गए आम के इस डाटाबेस में भी सीमित आंकड़े हैं। इस अध्ययन से जुड़े केरल कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक दीपू मैथ्यू ने बताया कि फिलहाल हमारा ध्यान फल के गुणों पर केंद्रित है क्योंकि फल के स्वाद को पैमाने पर मापा नहीं जा सकता है। फूलों, बीज, पत्तियों और पुष्पन के समय समेत विभिन्न भौतिक गुणों के आधार पर आम की किस्मों को इस डाटाबेस में सूचीबद्ध किया गया है। यह जानकारी प्लांट ब्रीडर्स और किसानों के लिए काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। इस डाटाबेस के ड्रॉपडाउन मेन्यू में आम की किसी प्रजाति का चयन करने पर उसके 20 से अधिक गुणों के बारे में जानकारी मिल सकती है। एक अन्य अनुभाग में फूल, पत्तियों और फल की तस्वीरों को संग्रहित किया गया है ताकि आम की


16 खुला मंच

25 जून - 01 जुलाई 2018

लोगों के लिए उदाहरण स्थापित करना, दूसरों को प्रभावित करने का एक मात्र साधन है

– अल्बर्ट आइंस्टीन

मोदी की योग दृष्टि

प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सहज लेकिन विशिष्ट शैली में योग के प्रति पुरानी धारणा को समाप्त कर दुनिया को इसे अपनाने के रास्ते पर ला दिया है

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ग दिवस पर प्रधानमंत्री मोदी इस बार देहरादून के आयोजन में योग किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि दुनिया के कोने-कोने तक आज योग ही योग है। विश्व का हर नागरिक योग को अपना समझने लगा है। योग प्रधानमंत्री मोदी की दिनचर्या का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। उन्होंने स्वयं कई मौकों पर ये बताया है कि कैसे योग ने कुछ विशेष स्थितियों में उन्हें सहज रखने में मदद की है। दरअसल प्रधानमंत्री योग को लेकर अपनी बातों और विचारों को इतनी सरलता से लोगों के सामने रखते हैं जिससे कोई भी सहजता से योग अपनाने को प्रेरित हो सकता है। योग पर प्रधानमंत्री मोदी के जो विचार होते हैं उनमें उनके खुद के अनुभव का भी एक गहरा रंग होता है। जब वे किसी योगासन या ध्यान मुद्रा के बारे में बताते हैं तो कोई भी व्यक्ति आसानी से समझकर उसे आजमा सकता है। दरअसल प्रधानमंत्री मोदी की योग में शुरू से रुचि रही है और अपने जीवन में इसके सकारात्मक प्रभाव का उनका अपना वृहत अनुभव रहा है। वह बड़े ही सहज रूप से बता जाते हैं कि प्राणायाम चंद पलों में कैसे किसी को स्फूर्ति से भर सकता है। ‘ योग को अपनाने के लिए दुनिया सीधे आगे बढ़ी है तो इसमें प्रधानमंत्री मोदी का सहज-सरल शैली में किया गया संवाद भी बहुत कारगर रहा है। 21 जून 2016 को दूसरे अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर चंडीगढ़ में बड़े ही सरल अंदाज में उन्होंने कहा, ‘योग को अमीर-गरीब का भेद नहीं है। विद्वान-अनपढ़ का भेद नहीं है। गरीब से गरीब व्यक्ति भी, अमीर से अमीर व्यक्ति भी योग आसानी से कर सकता है। किसी चीज की जरूरत नहीं है। एक हाथ फैलाने के लिए कहीं जगह मिल जाए, वो अपना योग कर सकता है।‘ इस वर्ष 16 फरवरी देश भर के विद्यार्थियों के साथ परीक्षा पर चर्चा के दौरान उन्होंने विद्यार्थियों को उसी आसन को करने की सलाह दी जो उन्हें अच्छा लगता है, कंफर्ट देता है। जाहिर है, यह प्रधानमंत्री मोदी की अपनी एक सहज लेकिन विशिष्ट शैली है जिसने योग के प्रति एक चली आ रही पुरानी धारणा को समाप्त कर दुनिया को इसे अपनाने के रास्ते पर ला दिया है।

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अभिमत

बलराज साहनी

प्रख्यात फिल्म अभिनेता

देश, भाषा और संस्कृति

यूरोपीय संस्कृति की नकल में पतलून के साथ कुर्ता पहनना सिर्फ फैशन ही नहीं बना, बल्कि कुर्ते का नाम ‘गुरुशर्ट’ हो गया है। अमेरिकियों द्वारा रविशंकर को सम्मान मिलते ही सितार ‘स्टार’ ही बन गया

म खुशी से वही शिक्षण-प्रणाली ढो रहे हैं, जो मैकाले ने क्लर्क और मानसिक गुलामों को बनाने के लिए बनाई थी। यहां मैं एक और छोटी बात बताना चाहूंगा। अगर आज से दस साल पहले आप दिल्ली के किसी फैशनेबल विद्यार्थी को पतलून के साथ कुर्ता पहनने के लिए कहते तो वह आप पर हंस देता। पर आज यूरोपीय संस्कृति की नकल में पतलून के साथ कुर्ता पहनना सिर्फ फैशन ही नहीं बना, बल्कि कुर्ते का नाम ‘गुरुशर्ट’ हो गया है। अमेरिकियों द्वारा रविशंकर को सम्मान मिलते ही सितार ‘स्टार’ ही बन गया। क्या आप कॉलेज के किसी विद्यार्थी से सिर के बाल और दाढ़ी-मूंछें मुंडवाने के लिए कह सकते हैं, जबकि फैशन इसे बढ़ाने का है? पर अगर कल योग के प्रभाव में आकर यूरोप के विद्यार्थी ऐसा करने लगें तो मैं दावे से कह सकता हूं कि अगले ही दिन कनाट प्लेस पर आपको गंजे सिर ही दिखेंगे। ...तो क्या योग को इसकी जन्मभूमि में प्रचलित होने के लिए यूरोप से ही सर्टिफिकेट लेना होगा! मैं एक और उदहारण देता हूं, मैं हिंदी फिल्मों में काम करता हूं और सभी जानते हैं कि इन फिल्मों के गीत और संवाद ज्यादातर उर्दू में लिखे जाते हैं। मशहूर उर्दू लेखक और कवि- कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, केए अब्बास, गुलशन नंदा, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी जैसे नाम इस काम से जुड़े रहे हैं। ...तो जब उर्दू में लिखी हुई फिल्म को हिंदी फिल्म कहते हैं तो यह माना जा सकता है कि हिंदी और उर्दू एक ही हैं। पर नहीं! क्योंकि हमारे ब्रिटिश मालिकों ने अपने समय पर इन्हें दो अलग भाषाएं कहा था। क्या आपने कभी संसार के किसी और देश के बारे में भी ये सुना है कि वहां लोग बोलते एक भाषा हैं, पर लिखते समय वह दो भाषाएं कहलाएं? कोई भी भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है। मेरी मातृभाषा पंजाबी के लिए दो लिपियां कबूल की गई हैं। हिंदुस्तान में गुरुमुखी और पाकिस्तान में फारसी। दो लिपियों में लिखी जाने पर भी वह भाषा तो एक ही रहती है पंजाबी। फिर दो लिपियों में लिखी जाने के कारण हिंदी और उर्दू अलग-अलग भाषाएं कैसे हो गईं? रेडियो पाकिस्तान अरबी और फारसी के शब्द घुसेड़घुसेड़कर इस भाषा की खूबसूरती का सत्यानाश कर रहा है,

वहीं ऑल इंडिया रेडियो उर्दू के साथ संस्कृत के शब्दकोश को मिला देता है। दोनों इन दोनों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ते हुए एक तरह से अपने मालिक की ही इच्छा की पूर्ति कर रहे हैं, वो है ‘अविभाज्य’ को अलग करना। इससे ज्यादा बेतुका और क्या होगा? अगर ब्रितानियों ने कभी सफेद को काला कह दिया होता तो क्या हम हमेशा सफेद को काला ही कहते? इस बात पर मेरे दोस्त जानी वॉकर एक दिन कहने लगे, ‘रेडियो पर अनाउंसर को यह नहीं कहना चाहिए कि अब हिंदी में समाचार सुनिए, बल्कि यह कहना चाहिए कि अब समाचार में हिंदी सुनिए।’ मैंने इस हास्यास्पद स्थिति के बारे में हिंदी-उर्दू के कई प्रगतिवादी और परंपरागत लेखकों से भी बात की है। उन्हें इस बात के लिए मनाया है कि इस मुद्दे पर नई सोच की जरूरत है। यहां मैं आपको अपना एक अनुमान बताने से नहीं रोक पा रहा हूं, हो सकता है कि ये गलत हो पर यह है! यह सही भी हो सकता है। कौन जाने! पंडित जवाहरलाल नेहरु ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि देश की आजादी की लड़ाई, जिसका नेतृत्व इंडियन नेशनल कांग्रेस कर रही थी, में शुरू से ही संपन्न और पूंजीपति वर्ग का वर्चस्व रहा है। सो यह स्वाभाविक ही था कि आजादी के बाद इसी वर्ग का शासन और समाज पर वर्चस्व होता। आज कोई भी इस बात से इनकार नहीं करेगा कि पूंजीपति वर्ग दिन-प्रतिदिन और ज्यादा धनवान और शक्तिशाली हुआ है, वहीं मजदूर-किसान वर्ग और ज्यादा लाचार और परेशान। पंडित नेहरु इस स्थिति को बदलना चाहते थे, पर बदल नहीं सके। मैं समझता हूं कि यह बात तो सभी मानेंगे कि अंग्रेजों की पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने

1930 में जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैंड गए थे, तो उन्होंने इंग्लैंड के पत्रकारों को संबोधित करके कहा था, ‘हिंदुस्तान के लोग ब्रिटिश सरकार की बंदूकों और मशीनगनों को उसी तरह देखते हैं, जिस तरह दीवाली के दिन उनके बच्चे पटाखों को देखते हैं’


25 जून - 01 जुलाई 2018 कदम मजबूत करने के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया था, जिसमें उन्हें खासी सफलता भी मिली। मैं पूछता हूं कि आज हमारे देश के शासक किस भाषा को अपने प्रतिनिधित्व को मजबूत करने लायक समझते हैं? राष्ट्रभाषा हिंदी? यहां मेरा अनुमान यह कहता है कि उनके उद्देश्यों की पूर्ति सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी ही कर सकती है। पर चूंकि उन्हें अपनी देशभक्ति का दिखावा भी करना है इसीलिए वो राष्ट्रभाषा हिंदी की रट लगाए रहते हैं, जिससे जनता का ध्यान भटका रहे। पूंजीपति भले ही हजारों भगवान में विश्वास करें पर वो पूजता सिर्फ एक को ही है- मुनाफे का भगवान। उस दृष्टिकोण से उसके लिए आज भी अंग्रेजी ही फायदेमंद है। औद्योगिकीकरण और तकनीकी विकास के इस दौर में अंग्रेजी ही फायदेमंद है। शासक वर्ग के लिए तो अंग्रेजी गॉड-गिफ्ट ही है। आप सोच रहे होंगे कि वह कैसे? आसान सा कारण है- अंग्रेजी भारत के आम मेहनतकश लोगों के लिए एक मुश्किल भाषा है। पहले के समय में फारसी और संस्कृत इन मेहनतकशों की पहुंच से दूर थी, इसीलिए शासक वर्ग ने उन्हें राजभाषा का दर्जा दिया था, जिससे वे जनसाधारण में असभ्य, अशिक्षित होने की हीनता व आत्मग्लानि की भावनाएं पैदा करता था और वो खुद को कभी शासन के योग्य ही न बना पाए। आज यही रोल अंग्रेजी भाषा अदा कर रही है। सबको पता है कि संस्कृत शब्दों के बोझ तले दबी नकली और बेजान भाषा अंग्रेजी के मुकाबले में खड़ी होने का सामर्थ्य अपने अंदर कभी भी पैदा नहीं कर सकेगी। आज के युग के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों से रिक्त होने के कारण वह हमेशा कमजोर भाषा बनी रहेगी। हम फिल्मी कलाकारों को उनके प्रशंसकों की ओर से रोज पत्र आते हैं। ऐसे पत्र मुझे पिछले बीस साल से आ रहे हैं। यह पत्र आमतौर पर कॉलेज के विद्यार्थियों और पढ़े-लिखे नौजवानों की ओर से आते हैं। इनके आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारी शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। शायद इसीलिए, मैंने सुना है कि दाखिला देते समय कॉलेज में पब्लिक स्कूलों से पढ़कर आने वाले विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है। पब्लिक स्कूल मतलब वो स्कूल जहां पर बड़े घरों के बच्चे पढ़ते हैं। 1930 में जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैंड गए थे, तो उन्होंने इंग्लैंड के पत्रकारों को संबोधित करके कहा था, ‘हिंदुस्तान के लोग ब्रिटिश सरकार की बंदूकों और मशीनगनों को उसी तरह देखते हैं, जिस तरह दीवाली के दिन उनके बच्चे पटाखों को देखते हैं।’ यह दावा वे क्यों कर सके? इसीलिए कि उन्होंने हिंदुस्तानियों के दिलों में से अंग्रेज शासकों का डर निकाल दिया था। आज अगर हम सचमुच चाहते हैं कि हमारे देश में समाजवाद आए, तो जनसाधारण को पैसे और रुतबे की छाया से आजाद कराने की जरूरत है। पर इस समय असलियत क्या है? हर तरफ पैसे और रुतबे का बोलबाला है। शायद हमें आज एक मसीहा की जरूरत है जो हमें इस गुलामी से निकाल कर एक आजाद सोच और नए मूल्यों का निर्माण करने का साहस दे।

खुला मंच

ओशो

ल​ीक से परे

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महान दार्शनिक और विचारक

साधना में गैरिक वस्त्रों का प्रयोजन

गैरिक वस्त्रों का मूल्य इतना ही है कि तुमने एक घोषणा की कि तुम पागल होने को तैयार हो तो फिर आगे और यात्रा हो सकती है। यहीं तुम डर गए तो आगे क्या यात्रा होगी

अं

तरतम में उतरना हो तो थोड़ा पागल होना जरूरी है। ये पागल होने के रास्ते हैं, और कुछ भी नहीं। ये तुम्हारी होशियारी को तोड़ने के रास्ते हैं, और कुछ भी नहीं। ये तुम्हारी समझदारी को पोंछने के रास्ते हैं, और कुछ भी नहीं। गैरिक वस्त्रों का अपने आप में कोई मूल्य नहीं है। कोई गैरिक वस्त्रों से तुम मोक्ष को न पा जाओगे। गैरिक वस्त्रों का मूल्य इतना ही है कि तुमने एक घोषणा की कि तुम पागल होने को तैयार हो। तो फिर आगे और यात्रा हो सकती है। यहीं तुम डर गए तो आगे क्या यात्रा होगी? आज तुम्हें गैरिक वस्त्र पहना दिए, कल एकतारा भी पकड़ा देंगे। उंगली हाथ में आ गई तो पहुंचा भी पकड़ लेंगे। यह तो पहचान के लिए है कि आदमी हिम्मतवर है या नहीं। हिम्मतवर है तो धीरे-धीरे और भी हिम्मत बढ़ा देंगे। आशा तो यही है कि कभी तुम सड़कों पर मीरा और चैतन्य की तरह नाच सको। आदमी ने हिम्मत ही खो दी है। भीड़ के पीछे कब तक चलोगे? ये गैरिक वस्त्र तुम्हें भीड़ से अलग करने का उपाय है, तुम्हें व्यक्तित्व देने की व्यवस्था है, ताकि तुम भीड़ से भयभीत होना छोड़ दो, ताकि तुम अपना स्वर उठा सको, अपने पैर उठा सको, पगडंडी को चुन सको। राजमार्गों से कोई कभी परमात्मा तक न पहुंचा है, न पहुंचेगा। हम धीर-धीरे इतने आदी हो गए हैं भीड़ के पीछे चलने के कि जरा सा भी भीड़ से अलग होने में डर लगता है। न तो माला का कोई मूल्य है, न गैरिक वस्त्रों का कोई मूल्य है। मूल्य किसी और कारण से है। अगर यह सारा मुल्क ही गैरिक वस्त्र पहनता हो तो मैं तुम्हें गैरिक वस्त्र न पहनाऊंगा, तो मैं कुछ

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डाक ्ंजीयन नंबर-DL(W)1

08 वयक्तितव

हवशरेर

प्रेम और अहिंसा को समह्​्षत शब्द और जीवन

योग हुआ ग्ोब्

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सवच्छता

28

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ब्ाजी् के चैंह्यन बननरे के आसार : सववे

स्वच्छता के क्षेत्र में युगांडा के बढ़तषे कदम

harat.com

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वर्ष-2 | अंक-27 | 18

सु्भ प्णरेता को हनकककी

आरएनआई नंबर-DELHIN

/2016/71597

- 24 जून 2018

्ुरसकार

प्मुख जा्ानी मीहडया िाउस का प्हतक्ठित हनकककी एहशया ्ुरसकार संसककृहत और समु्दाय के क्रेत्र में आधी स्दी सरे काय्ष कर रिे भारतीय सामाहजक सुधारक डॉ. हवन्दरेश्वर ्ाठक को ह्दया गया िै। यि ्ुरसकार मानवाहधकार और सवास्थय सुधार के क्रेत्ररों में अहभनव शौचा्य हनमा्षण के जररए हकए गए उनके अथक काययों को हम्ी बडी मानयता ककी तरि िै। डॉ. ्ाठक नरे इस ्ुरसकार को समाज के सबसरे गरीब तबके के ्ोगरों को समह्​्षत हकया िै

और चुन लूंगा... काले वस्त्र, नीले वस्त्र। अगर यह सारा मुल्क ही माला पहनता हो तो मैं तुम्हें माला न पहनाऊंगा । थोड़ा सोचो, जिन लोगों ने हिम्मत की होगी महावीर के साथ जाने की और नग्न खड़े हुए होंगे, जरा उनके साहस की खबर करो। जरा विचारो। उस साहस में ही सत्य ने उनके द्वार पर आकर दस्तक दे दी होगी। बुद्ध ने राजपुत्रों को, संपत्तिशालियों को भिखारी बना दिया, भिक्षापात्र हाथ में दे दिए। जिनके पास कोई कमी न थी, उन्हें भिखारी बनाने का क्या प्रयोजन रहा होगा? अगर भिखारी होने से परमात्मा मिलता है तो भिखमंगों को कभी का मिल गया होता। नहीं, भिखारी होने का सवाल न था..उन्हें उतार कर लाना था वहां, जहां वे निपट पागल सिद्ध हो जाएं। उन्हें तर्क की दुनिया से बाहर खींच लाना था। उन्हें हिसाब-किताब की दुनिया के बाहर खींच लाना था। जो साहसी थे, उन्होंने चुनौती स्वीकार कर ली। जो कायर थे, उन्होंने अपने भीतर तर्क खोज लिए। उन्होंने कहा, क्या होगा सिर घुटाने से? क्या होगा

संग्रहणीय अंक ‘सुलभ स्वच्छ भारत’ का नया अंक न सिर्फ संग्रहणीय है, बल्कि प्रेरक भी है। प्रेरक इन अर्थों में कि इस अंक में सुलभ प्रणेता को जापान में मिले निक्की एशिया पुरस्कार की खबर को पूरे विस्तार से प्रकाशित किया गया है, जिसे पढ़ने के बाद देश का हर व्य​क्ति खुद को गौरवान्वित महसूस करेगा और प्रेरणा भी ग्रहण करेगा। डॉ. पाठक ने जिन विषम परिस्थितियों में काम किया, वह ऐतिहासिक है। आजाद भारत में समाज के लिए इतना बड़ा काम किसी दूसरे ने किया किया। देश ही क्या पूरी दुनिया में पिछले पचास वर्षों में ऐसा काम नहीं हुआ जिसमें पूरे समाज को बदल देने की क्षमता हो। योग पर प्रकाशित सामग्री बेहद अच्छी लगी। सुमित गंगवार, बरेली , उत्तर प्रदेश

नग्न होने से? क्या होगा गैरिक वस्त्र पहनने से? यह असली सवाल नहीं है। असली सवाल यह है, तुममें हिम्मत है? पूछो यह बात कि क्या होगा हिम्मत से। हिम्मत से सब कुछ होता है। साहस के अतिरिक्त और कोई उपाय आदमी के पास नहीं है। दुस्साहस चाहिए! लोग हंसेंगे। लोग मखौल उड़ाएंगे और तुम निश्चिंत अपने मार्ग पर चलते जाना। तुम उनकी हंसी की फिक्र न करना। तुम उनकी हंसी से डांवाडोल न होना। तुम उनकी हंसी से व्यथित मत होना। और तुम पाओगे, उनकी हंसी भी सहारा हो गई और उनकी हंसी ने भी तुम्हारे ध्यान को व्यवस्थित किया और उनकी हंसी ने भी तुम्हारे भीतर से क्रोध को विसर्जित किया और उनकी हंसी ने भी तुम्हारे जीवन में करुणा लाई। समाज के दायरे से मुक्त करने की व्यवस्था है। जिसको मुक्त होना हो और जिसे थोड़ी हिम्मत हो अपने भीतर, भरोसा हो थोड़ा अपने पर, अगर तुम बिल्कुल ही बिक नहीं गए हो समाज के हाथों और अगर तुमने अपनी सारी आत्मा गिरवी नहीं रख दी है, तो चुनौती स्वीकार करने जैसी है। सत्य कमजोरों के लिए नहीं है, साहसियों के लिए है।

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25 जून - 01 जुलाई 2018

अक्षर उत्सव

इंटरनेट के दौर में किताबों ने उसी तरह अपनी लोकप्रियता और प्रासंगिकता को बनाए रखी है, जैसे इससे पहले टेलीविजन के बढ़े जोर के बीच रेडियो ने अपने वजूद का एडवांस वर्जन लाकर कर दिखाया। किताबों को लेकर इंसानी चाहत अगर आज भी बरकरार है तो यह इस बात को भी कहीं न कहीं रेखांकित करती है कि रचनात्मकता को लेकर रागात्मक लगाव आज भी हमारी वृति के केंद्र में है। भौतिकवादी आग्रह और उपभोग के दौर में इस लगाव की सलामती बड़ी बात है

चीन

जापान

न्यू यॉर्क


25 जून - 01 जुलाई 2018

फोटो फीचर

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मोती लाल यूके बुक्स ऑफ इंडिया भारत शुरू से मेलाे और उत्सवों का देश रहा है। आज इस उत्सवी संस्कृति में किताबें भी शामिल हैं। दिल्ली से लेकर पटना और कोलकाता तक न जाने कितने बड़े पुस्तक मेले हर साल न सिर्फ लगते हैं, बल्कि हर साल ये किताबों की बिक्री का पुराना रिकॉर्ड तोड़ नया कीर्तिमान रच जाते हैं। आज किताबों की इस दुनिया में न सिर्फ अपार विविधता है, बल्कि इसकी छपाई और साज-सज्जा भी काफी आधुनिक हुई है

एम्सटर्डम

रूस

अर्जे​ंिटना


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विशेष

25 जून - 01 जुलाई 2018

काव्योत्सव में बही गीतों की गंगा पटना में बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा आयोजित साहित्य सम्मेलन में सुरेश नीरव 'साहित्य-साधना शिखर सम्मान' से विभूषित किए गए

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एसएसबी ब्यूरो

हार हिंदी साहित्य सम्मेलन के लिए अत्यंत गौरव का दिवस रहा, जब देश के अत्यंत लोकप्रिय कवि और गीत के शलाका पुरुष पं. बुद्धिनाथ मिश्र दशकों बाद सम्मेलन परिसर में पधारे तथा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी को महिमामंडित करने वाले, छंद-विधा के अत्यंत महत्वपूर्ण और लोकप्रिय कवि पं. सुरेश नीरव को सम्मानित किया, जिनके 69वें जन्म-दिवस पर, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में यादगार कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया था। 'पं सुरेश नीरव काव्योत्सव' नाम से आयोजित इस राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन में, सुरेश नीरव समेत राष्ट्रीय मंचों पर अपने-काव्य-पाठ से श्रोताओं के दिल जीतने वाले अनेक कवियों ने साहित्य-सम्मेलन में कविता की गंगा बहाई, जिसमें देर रात तक सुधी श्रोता आनंद की डुबकी लगाते रहे। इस अवसर पर सुरेश नीरव को सम्मेलन की ओर से 'साहित्य-साधना शिखर सम्मान' से विभूषित किया गया। मुरादाबाद से आईं चर्चित कवयित्री डॉ. मधु चतुर्वेदी, दिल्ली से पधारे डॉ. भुवनेश सिंघल, मसूरी से पधारे जय प्रकाश पाण्डेय, दूरदर्शन, पटना के केंद्र निदेशक पुरुषोत्तम नारायण सिंह तथा गुरुग्राम, हरियाणा से आए कवि डॉ. अशोक कुमार ज्योति को 'साहित्य-साधना सम्मान' से अलंकृत किया गया। काव्योत्सव के आरंभ में पं. सुरेश नीरव के व्यक्तित्व और काव्य-कृतित्व पर निर्मित एक वृतचित्र का प्रदर्शन किया गया। इसके पश्चात सम्मेलन के अध्यक्ष डॉ. अनिल सुलभ तथा समारोह के उद्घाटनकर्ता डॉ. सीपी ठाकुर के साथ सभी अतिथि कवियों को क्रमश: पुष्प-हार,वंदन-वस्त्र और प्रशस्ति-पत्र देकर सम्मानित किया। पंडित सुरेश

नीरव के जन्म-दिन के अवसर पर सुलभ-संस्थापक डॉ. विन्देश्वर पाठक के शुभकामना संदेश का पाठ डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने किया। उन्होंने सुलभ साहित्य अकादमी की ओर से पंडित नीरव को स्वस्ति सत्कार अभिनंदन पत्र, शाल और चंदन की माला प्रदान कर सम्मानित किया। कवि सम्मेलन का आरंभ वरिष्ठ कवयित्री डॉ. सुभद्रा वीरेंद्र ने वाणी-वंदना से किया। गीत-पुरुष डॉ. वीरेंद्र मिश्र ने अपनी अत्यंत लोकप्रिय रचना को स्वर देते हुए कहा, "तुम इतने समीप आओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था/ तुम सांसों में बस जाओगे, मैंने कभी नहीं सोचा था"। सुरेश नीरव ने अपने काव्य-पाठ का आरंभ इन पंक्तियों से किया कि, “कितने जंगल कत्ल होंगे, एक सड़क के वास्ते/ एक उखड़े पेड़ ने बहुत रुलाया है मुझे/ आग से तो मैं घिरा हूं, जल रहा कोई और है/ मंजिलें मुझको मिली पर चल रहा कोई और है।” श्रोताओं ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ कवि का स्वागत और उत्साह-वर्द्धन किया। इसके बाद तो विभिन्न फूलों की लड़ियों की भांति गीत झरते रहे। "श्लोक अधर, मंत्र सी आंखें,देवालय सा तन/रामायण-सा रूप तुम्हारा, सांसे वृंदावन" , “पोटैशियम दिन हुए/ रात सोडियम/देखो फिर भी गीत लिखते हैं हम।” संभवतः यह पहला अवसर था जब नगर के सुधी-श्रोता सुरेश नीरव को सुन रहे थे। उनकी अद्भुत काव्य-कल्पनाओं से भरी कवितासुंदरी ने सबका दिल चुरा लिया। इनके बाद विदुषी कवयित्री डॉ. मधु चतुर्वेदी ने गीतों को स्वर दिए, “ न खुद को जीत पाए जो, सिकंदर हो नहीं सकता / बिना अभ्यास के कोई धुरंधर हो नहीं सकता/ जरा सी बाढ़ आते ही लगे जो तोड़ने सीमा/वह कोई नाला है उथला, समंदर हो

नही सकता।" दिल्ली के कवि डॉ. भुवनेश सिंघल ने कहा, “शहीदों की कतारों में मैं अपना नाम लिख दूंगा/ करुंगा काम कुछ ऐसा अलग अंजाम लिख दूंगा/ भले ही डोर सांसों की काटे काट जाए गम कैसा? मगर आकाश के हृदय पर हिंदुस्तान लिख दूंगा"। मसूरी की गुलाबी-गंध लेकर आए कवि जय प्रकाश पाण्डेय ने कहा, “फूलों का संसार भी उतना ही बेरहम होता है, जीवन के दो पहलू की तरह/ कभी बुलंदिया, कभी अतल गहराइयां/ पर बुलंदी में महका गए सारा जहां” । गुरुग्राम से आए कवि डॉ. अशोक कुमार ज्योति ने अपनी कविता में एक गरीब मां के बेटे की ललक को इन पंक्तियों में प्रकट किया, "तुम जिस तरह अग्नि में तप कर सिद्ध करती हो, मकई की बाली को, बनाती हो औरों के खाने लायक/ मैं भी विद्या की अग्नि में तपकर सिद्ध होना चाहता हूं/ मां! मैं पढ़ना चाहता हूं।" अतिथि कवियों के सामने स्थानीय कवियों ने भी अपनी काव्य-प्रतिभा का शानदार परिचय दिया। उनमें से अनेकों ने सिद्ध कर दिया कि काव्य-प्रतिभा में वे उनसे किसी तरह कम नहीं हैं। समारोह के मुख्य अतिथि और बिहार हिंदी प्रगति समिति के अध्यक्ष सत्य नारायण ने अपनी बहुचर्चित कविता 'साधो! यह अजीब संकट है' का पाठ करते हुए कहा, “अस्सी के तट, सहमे सिकुड़े तुलसीदास पड़े है/ बीच बजारे विना लुकाटी दास कबीर खड़े हैं/ मीरा का इकतारा चुप है/ सब कुछ उलट-पलट है/साधो! यह अजीब संकट है।" समारोह में विशिष्ठ अतिथि के रूप में उपस्थित दूरदर्शन,पटना के केंद्र निदेशक पुरुषोत्तम नारायण सिंह ने अपनी लोकप्रिय कविता "कांटों की गिरफ्त में” का पाठ लिया। हिंदी गजल के बहु- प्रतिष्ठित कवि मृत्युंजय मिश्र

'करुणेश' ने कहा कि, “चला धूप में,जला नहीं,मिला मुझे मेघों का साया/ राम गए जब वन,बादल ने की होगी ऐसी ही छाया/ कुदरत की रहमत क्या कहिए रखती कितना खयाल भलों का/ हमने गजल कही जब, ऐसा खयाल हमारे मन में आया।” वरिष्ठ कवयित्री डॉ. सुभद्रा वीरेंद्र ने "हम तो झरबेर हैं, झर जाएंगे/ सारी खुशियां तेरे नाम कर जाएंगे" सुनाकर श्रोताओं को भाव-विभोर कर दिया। कवि आरपी घायल ने कहा- “सुबह भी बदली हुई है, शाम भी बदली हुई/ प्यार की खुशबू हमारे दरमियां बाकी रहे”। चर्चित कवयित्री आराधना प्रसाद ने नसीहत दी, “मंजिल की आरजू है तो बढ़िए जुनून से/ राहों में फूल,कांटे कि पत्थर न देखिए”। वरिष्ठ कवयित्री डॉ. शांति जैन ने कहा, "दुनिया के जितने रंग थे बदरंग हो गए/दिल रफ्ता- रफ्ता आदमी के तंग हो गए।" वरिष्ठ कवि ओम प्रकाश पाण्डेय 'प्रकाश', सुनील कुमार दूबे, डॉ. मेहता नगेंद्र सिंह, वरिष्ठ शायर रमेश कंवल, नाशाद औरंगाबादी ने भी अपने गीत-गजल से श्रोताओं के दिलो-दिमाग पर गहरी छाप छोड़ी। मंच का संचालन सम्मेलन के उपाध्यक्ष डॉ. शंकर प्रसाद ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन कवि योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने किया। इस अवसर पर, सम्मेलन के विगत अधिवेशन की सफलता में महत्वपूर्ण योगदान देनेवाले,नृपेंद्र नाथ गुप्त, डॉ. कुमार अरुणोदय, डॉ. लक्ष्मी सिंह, डॉ. भगवती प्रसाद द्विवेदी, डॉ. वासकीनाथ झा, डॉ. कुमार अनुपम, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, डॉ. सरोज तिवारी, डॉ. शालिनी पाण्डेय, ओम प्रकाश झुनझुनवाला, संजीव कर्ण, तथा ओम प्रकाश वर्मा को 'साहित्य सम्मेलन विशिष्ट सेवा सम्मान' से सम्मानित किया गया।


25 जून - 01 जुलाई 2018

जेंडर

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पुष्पा दासी

संतुष्टि की मुस्कान

पुष्पा दासी को अहसास ही नहीं था कि उसे जिस शांति की तलाश थी, वह वृंदावन में मिलेगी

स्वस्तिका त्रिपाठी

श्चिम बंगाल के जिले पश्चिम मेदिनीपुर की रहने वाली पुष्पा दासी, 4 साल पहले हमेशा के लिए वृंदावन आ गई। ऐसा नहीं था कि उन्हें अपने बेटे या उसकी पत्नी से कोई शिकायत थी। हां, कुछ मतभेद जरूर थे, जैसे कि हर घर में होते हैं, लेकिन वे इतने भी बड़े नहीं थे कि कोई बड़ा और कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर हो जाए। पुष्पा दासी को घर छोड़ने के लिए किस चीज ने मजबूर किया, यह उन्हें तब तक नहीं पता चला जबतक उन्होंने घर छोड़ नहीं दिया। पुष्पा दासी तब 11 साल की छोटी लड़की थी, जब उनकी शादी 22 साल के लड़के से हुई। उसका परिवार बहुत गरीब था। उसका पति एक भिखारी था। इसीलिए आर्थिक स्थिति हमेशा खराब रही। ऊपर से, समय के साथ उसने चार बेटियों और दो बेटों को जन्म दिया, जिनमें से एक लड़का बहुत ही कम उम्र में मृत्यु का ग्रास बन गया। 7 लोगों के परिवार का गुजारा, भीख मांग कर करना बहुत मुश्किल था।

खास बातें गरीब परिवार में जन्म और छोटी उम्र में शादी का गम पुष्पा का पति भिखारी था। कैंसर के हुई उसकी मौत बच्चों को पाला, लेकिन मन की शांति की तलाश जारी रही

हालांकि, उसका पति लगातार कोशिश कर रहा था। साथ ही पुष्पा भी। समझौते की जिंदगी उनकी रोज की दिनचर्या बन गई थी। उनकी स्थिति खराब थी, लेकिन वे दिल से अमीर थे और उनके परिवार ने भी बड़े दिल के साथ जीना सीख लिया था। मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ,वे छोटी-छोटी चीजों को संभाल रहे थे। लेकिन, पुष्पा और उसके परिवार के मुश्किल दिन सिर्फ यहीं तक नहीं थे, जिंदगी को अभी उन्हें और भी बहुत कुछ दिखाना था। और इस बार परेशानी घातक कैंसर के रूप में आई, जिसने पुष्पा के पति को हमेशा के लिए जकड़ लिया। गरीब परिवार,यह जानकर दहल गया था। परिवार का मुखिया, आय का एकमात्र स्रोत और परिवार का स्तंभ, जिंदगी छीन लेने वाली बीमारी से पीड़ित था। और फिर अंत में, वही हुआ जो भाग्य बनकर आया था। पुष्पा के पति की मृत्यु हो गई, वह विधवा हो गई और उसके बच्चों के सिर से पिता का साया उठ गया। उस दर्दनाक दौर को याद करते हुए पुष्पा कहती हैं कि कैंसर ने मेरे पति को मार डाला। हम क्या कर सकते थे? हम गरीब थे। एक गरीब ऐसी बड़ी बीमारियों से नहीं लड़ सकता है। हम जानते थे कि वह जल्द ही या कुछ वक्त बाद मर जाएंगे। और यही हुआ। हमारे गरीब परिवार की जो हिम्मत और ताकत था, वही हमें छोड़ के चला गया। मैं टूट गई थी। लेकिन कहते हैं कि जहां चाह, वहां राह। पुष्पा का परिवार भले ही गरीब रहा हो या अब पहले से भी अधिक मुफलिसी में जी रहा हो,लेकिन पुष्पा ने यह सुनिश्चित कर लिया था कि वह अपने पांच

मैं बचपन से ही गरीब थी, गरीबी भरी जिंदगी की अभ्यस्त थी, लेकिन मुझे लगता है कि मेरा अंतर्मन बेचैन था। मैं शांति की तलाश में थी बच्चों को कम से कम, बेहतर भविष्य जरूर देगी। वह जो कुछ भी कमाती थी, उसे अपने बच्चों पर खर्च कर देती थी। साथ ही, उसने सुनिश्चित किया कि बच्चों को खाना मिले और उनकी अच्छे से देखभाल हो। कठिनाईयों भरे दिनों और संघर्षों में जीवन बिताते हुए, पुष्पा किसी तरह अपनी बेटियों की शादी और उसके बाद बेटों की शादी करने में कामयाब रही। पुष्पा कहती हैं कि मेरी बेटियों की शादी बहुत सादे-समारोह जैसी थी। हम गरीब हैं। इसीलिए ऐसा ही होना चाहिए था। लेकिन अगर मेरे पति जिंदा होते, तो यह बेहतर तरीके से हो सकती थी। लेकिन अब यह मायने नहीं रखता है। क्योंकि उनकी शादी हो चुकी है। पुष्पा ने बाद के दिन अपने बेटे और बहू के साथ रहते हुए बिताए। पुष्पा और उसके बेटे और बहू के बीच कभी कोई मनमुटाव नहीं रहा, लेकिन फिर भी पुष्पा बेचैन रहती थी। एक दिन वह अपनी एक बेटी के पास गई, जो विवाह के बाद मथुरा में रह रही थी। उसने सोचा कि शायद जगह बदलने से उसके अधीर मन को कुछ शांति मिलेगी। पुष्पा कहती हैं कि मेरी बेटी मुझे वृंदावन ले गई। पवित्र शहर की आभा ने मुझे

आकर्षित किया। मुझे अपने मन में एक अनपेक्षित हल्कापन और दिल में खुशी महसूस हुई। मुझे अचानक से लगा कि यह वही है,जिसकी मैं इतने दिनों से चाह में थी। शायद मैं यहीं से संबंध रखती हूं। इसीलिए, पुष्पा ने वहीं रहने का फैसला किया। लगातार उसके अनुरोध पर उसकी बेटी पुष्पा को विधवा-आश्रम ले गई। तब से वह पूर्ण संतुष्टि के साथ एक ऐसे आश्रम में रहती हैं जहां उन्हें सुलभ की तरफ से तमाम तरह की सुविधाएं और सहयोग मुहैया कराया जाता है। पुष्पा बताती हैं कि मैं जन्म से ही गरीब थी। मैं गरीब जीवनशैली की आदी थी। इस बात ने मुझे कभी परेशान नहीं किया। लेकिन मुझे लगता है कि मेरे अंदर हमेशा एक बेचैनी सी रही। मेरा मन शांति की तलाश में था। और जब मैं वृंदावन आई, तो आखिरकार मुझे वह शांति मिली। मुझे अब संघर्ष नहीं करना है। रहने के लिए एक शांत जगह है,अच्छे लोगों के साथ भजन गाना है,भूख को संतुष्ट करने के लिए उचित भोजन की व्यवस्था भी है। ‘लाल बाबा’ (डॉ. विन्देश्वर पाठक) सबका पूरा ख्याल रखते हैं। कोई और कठिनाइ नहीं, कोई और चिंता नहीं...।


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विशेष

25 जून - 01 जुलाई 2018

अंतरराष्ट्रीय नशा मुक्ति दिवस (26 जून) पर विशेष

नशा मुक्ति का मॉडल देश

कु

आइसलैंड में शराबबंदी जैसा कोई कानून लागू नहीं है, बावजूद इसके यहां के युवा सिगरेट और शराब का सेवन काफी कम करते हैं एसएसबी ब्यूरो

छ महीने जब यह खबर आई कि उच्च रैंकिंग प्राप्त इंजीनियरिंग संस्थान आईआईटी, कानपुर भी ड्रग कारोबारियों के चंगुल में फंस गया है। कैंपस में खुलेआम नशीले पदार्थो का कारोबार हो रहा है। आआईटी प्रबंधन ने एक दर्जन छात्र-छात्राओं को चिन्हित किया है, जो इन मादक पदार्थो को नियमित रूप से खरीद रहे हैं। गौरतलब है कि आईआईटी, कानपुर कभी देश के इंजीनियरिंग संस्थानों में नंवर वन था, आज भी इसकी गिनती देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थानों में होती है। यहां के छात्र अपने दमखम पर विशुद्ध देशी तकनीक से विश्व का सबसे छोटा उपग्रह 'जुगनू' बना चुके हैं, लेकिन शायद अब आईआईटी, कानपुर को किसी की बुरी नजर लग चुकी है। ऐसे में यहां नशे का एक रैकेट के रूप में प्रवेश करना वाकई चिंता पैदा करता है। वैसे नशे के बढ़ते प्रकोप का शिकार आज पूरा देश ही है, खासतौर पर युवा पीढ़ी जिस तरह नशे की तरफ आकर्षित हो रहे हैं, वह वाकई चिंता पैदा करने वाली स्थिति है। आज भारत में स्थिति यह है कि जिस पंजाब प्रांत को कभी हरित क्रांति के लिए याद किया जाता था, आज उसका जिक्र नशे के लिए होता है। आलम यह है कि नशा आज पंजाब के लिए सबसे बड़ा सामाजिक-राजनीतिक मुद्दा है। पंजाब में चल रहे ड्रग रैकेट्स के तार किस तरह विदेशों से जुड़ते हैं, इसको लेकर एम्स ने एक अध्ययन किया है। इस अध्ययन में पाया गया है कि पाकिस्तान के साथ लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा से जुड़े पंजाब में सालाना 7,500 करोड़ रुपए की नशीली दवाओं का सेवन किया जाता है। इन नशीले पदार्थों में से लगभग 6,500 करोड़ रुपए का हिस्सा खतरनाक ड्रग्स हेरोइन के खाते में जाता है।

आइसलैंड का सबक

यहां हम नशे को लेकर बात जरूर भारत की कर रहे हैं, पर नशे की बढ़ती लत को लेकर चिंता की वजहें पूरी दुनिया में देखी जा रही है। ऐसे में अगर कोई यह कहे कि दुनिया में एक ऐसा देश भी है जहां के युवाओं में शराब पीने का फैशन नहीं है और वहां आपको सिगरेट या तंबाकू पीने वाले युवा बमुश्किल से मिलें, तो शायद ही यकीन होगा। यह देश है आइसलैंड। यहां शराबबंदी जैसा कोई कानून भी लागू नहीं है, बावजूद सिगरेट और शराब के कम सेवन के कारण यह एक ऐसा देश जरूर है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। यूनिसेफ के आंकड़ो के मुताबिक आइसलैंड में 14 से 16 साल के केवल पांच फीसदी युवाओं ने बीते महीने शराब का सेवन किया है। जबकि केवल

पिता से संपर्क करके उन्हें अपने बच्चों पर ध्यान देने को कहा, उनके साथ वक्त बिताने को कहा। बातचीत के क्रम में वे बताते हैं कि केवल कार्रवाई करने से ये बदलाव नहीं हो पाता। सिगफ्यूसन कहते हैं, ‘नशा करने के लिए केवल बच्चे ही जिम्मेदार नहीं थे, बल्कि वयस्क होने के नाते हमारे भी जिम्मेदारी बनती है। हमें उन्हें ऐसा वातावरण मुहैया करना था, जिससे उनमें पॉजीटिव सोच आए और वे नशा करने से बचें।’ सेंटर फॉर रिसर्च एंड सोशल एनालिसिस ने अपने अध्ययन में पाया कि माता-पिता के साथ समय बिताने और खेलकूद जैसी गतिविधियों में शामिल होने के बाद टीनएजर्स में शराब और सिगरेट का नशा करने की प्रवृति कम हुई। इसके बाद स्कूली स्तर पर बच्चों में खेल कूद, संगीत, थिएटर और डांस एक्टिविटी से जोड़ने के लिए सरकार ने अपना बजट बढ़ाया। इस तरह वहां नशे के खिलाफ चला अभियान वांछित नतीजे हासिल करना लगा।

एक और बड़ा कदम तीन फीसदी युवा रोजाना के हिसाब से किसी रूप में तंबाकू का सेवन करते हैं। सर्वे के लिए आंकड़े जुटाते हुए जब वहां लोगों से एक सवाल पूछा गया तो पता चला कि एक माह के भीतर केवल सात फीसदी लोगों ने एक बार हशीश का इस्तेमाल किया है। दिलचस्प है कि आइसलैंड एक यूरोपीय देश है। ऐसे में ये आंकड़े इसीलिए बहुत कम हैं, क्योंकि यूरोपीय देशों में में 14 से 16 साल की उम्र में 47 फीसदी युवा शराब और 13 फीसदी युवा तंबाकू का सेवन करते हैं। वैसे आपको यह जानकर और अचरज होगा कि महज 20 साल पहले आइसलैंड यूरोप का वैसा देश था, जहां शराब और तंबाकू का इस्तेमाल सबसे अधिक होता था।

खास बातें

यूरोपीय देशों में 14-16 वर्ष की उम्र में 47 फीसदी युवा शराब पीते हैं आइसलैंड में शराब सेवन का यह आंकड़ा महज पांच फीसदी है ‘यूथ इन आइसलैंड’ की सफलता के बाद ‘यूथ इन यूरोप’ अभियान

कैसे बदली तस्वीर

ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि किस तरह तीन लाख की आबादी वाले इस देश ने अपने किशोरों-युवाओं को बुरी आदत से बचाया है। दरअसल, 1998 में आइसलैंड में ‘यूथ इन आइसलैंड’ नाम से एक अभियान शुरू किया गया था, जिसका उद्देश्य युवाओं में शराब और सिगरेट की लत को दूर करना मुख्य उद्देश्य बनाया गया था। इस अभियान में युवाओं की शराब सिगरेट की लत के बारे में लगातार अध्ययन किया गया। ‘यूथ इन आइसलैंड’ कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने वाले सेंटर फॉर रिसर्च एंड सोशल एनालिसिस के निदेशक जॉन सिगफ्यूसन के मुताबिक युवाओं की आदतों और उसके रुझान को समझने के लिए हर दो वर्ष के अंतराल पर उनका सर्वे किया गया। यह सर्वे देश के हर स्कूल में किया गया। इसके जरिए उनमें शराब और सिगरेट की लत के अलावा उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि जानने और भावनात्मक समस्याओं को समझने की कोशिश की गई। इसके जरिए देश के हर इलाके और हर स्कूल के टीनएजर युवाओं के बारे में जानकारी जुटाई गई। फिर इस जानकारी के आधार पर सामुदायिक पहल और नगर निगम के जरिए शराब और तंबाकू के सेवन के खतरे के बारे में इन्हें बताने की मुहिम चलाई गई।

बदलाव के चरण

जॉन सिगफ्यूसन के मुताबिक यह बदलाव कोई रातोरात नहीं हुआ। हमने प्रभावित बच्चों के माता-

2002 में सरकार ने एक और बड़ा कदम उठाते हुए 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों का रात के आठ बजे के बाद सड़कों पर अकेले बाहर निकलने पर रोक लगा दी। सरकार ने 13 से 16 वर्ष की उम्र वालों के लिए रात के 10 बजे के बाद बाहर निकलने पर भी पाबंदी लगाई है, हालांकि आपात स्थिति में बच्चे भी अकेले कहीं भी आ-जा सकते हैं।

‘यूथ इन यूरोप’

आइसलैंड में नशामुक्ति का यह कार्यक्रम इतना कामयाब था कि 2006 में इसकी तर्ज पर ‘यूथ इन यूरोप’ कार्यक्रम शुरू किया गया। इसकी कमान भी जॉन सिगफ्यूसन को सौंपी गई। अब तक इस यूरोपीय प्रोजेक्ट में 30 से ज़्यादा देश शामिल हो चुके हैं। सिगफ्यूसन कहते हैं, ‘हम पूरे देश में काम नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसे कार्यक्रमों को सरकार की मदद मिले यह जरूरी नहीं, इसीलिए हम नगर पालिकाओं के साथ मिलकर काम कर रहे हैं।’ इस प्रोजेक्ट में स्पेन के इकलौते नगर पालिका के तौर पर टारागोना सिटी काउंसिल शामिल है। इस काउंसिल के एडिक्शन प्रीवेंशन सर्विस के निदेशक पैट्रिका रोस कहते हैं, ‘हमलोग आइसलैंड के मॉडल को अपना रहे हैं, क्योंकि ये सामुदायिक भागीदारी वाला कामयाब प्रयोग है। हम ये भी जानते हैं कि खेल कूद में दिलचस्पी युवाओं को नशे से दूर करती है।’ वैसे जॉन सिगफ्यूसन इस पूरी चर्चा के बीच यह कहना नहीं भूलते कि अलग-अलग जगहों की स्थानीय संस्कृति और पहलू दूसरे होते हैं। इसीलिए जरूरी नहीं कि जो तरीका आइसलैंड में कामयाब हुआ हो वो दूसरी जगह भी कामयाब हो।


25 जून - 01 जुलाई 2018

फसल को कीड़ों से बचाएगा यह पौधा

वैज्ञानिक एक ऐसा पौधा विकसित कर रहे हैं जो फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों का अपने पास बुला का खत्म कर देंगे

धरती से दूर जा रहा है चांद

एक अध्ययन का दावा है कि चंद्रमा के धरती से दूर जाने की वजह से दिन लंबे होते जा रहे हैं

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द्रमा के पृथ्वी से दूर जाने के कारण हमारे ग्रह पर दिन लंबे होते जा रहे हैं। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि 1.4 अरब साल पहले धरती पर एक दिन महज 18 घंटे का होता था। पत्रिका प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित यह अध्ययन चंद्रमा से हमारे ग्रह के रिश्ते के गहरे इतिहास को पुन: स्थापित करता है। इसमें पाया गया कि 1.4 अरब साल पहले चंद्रमा पृथ्वी के ज्यादा करीब था और उसने पृथ्वी के अपनी धुरी के चारों ओर घूमने के तरीके को बदला। अमेरिका में विस्कॉन्सिन - मैडिसन विश्वविद्यालय के प्रफेसर स्टीफन मेयर्स ने कहा कि जैसे-जैसे चंद्रमा दूर जा रहा है तो धरती एक स्पिनिंग फिगर स्केटर की तरह व्यवहार कर रही है जो अपनी बाहें फैलाने के दौरान अपनी गति कम कर लेता है। ब्रह्मांड में पृथ्वी की गति अन्य ग्रहों से प्रभावित होती है जो उस पर बल डालते हैं जैसे कि अन्य ग्रह और चंद्रमा। वैज्ञानिकों ने लाखों साल की अवधि में पृथ्वी की इस गति का अवलोकन किया और इससे वह पृथ्वी तथा चंद्रमा के बीच की दूरी और दिन के घंटों का पता लगा पाए। (एजेंसी)

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रा सोचिए कि कोई पौधा हानिकारक कीड़ों में यौन आकर्षण पैदा कर उन्हें अपनी तरफ खींचे और फिर उन्हें मार डाले। सुनने में भले ही यह बड़ी अजीब सी बात लगे लेकिन स्पेन के वैज्ञानिकों ने यह साबित कर दिया है कि वे पौधों में अनुवांशिक बदलाव कर उससे फेरोमोंस नामक रसायन पैदा कर सकते हैं। फेरोमोंस वह पदार्थ है जो मादा कीड़ो को आकर्षित करने के लिए निकालती है। इस नए अविष्कार का मकसद उन पौधों को कीड़ों से बचाना है जिनकी बाजार में बहुत अधिक कीमत होती है। हालांकि पौधों को बचाने के लिए फेरोमोंस का इस्तेमाल पहले से हो रहा है, लेकिन इसे बहुत अधिक लागत पर प्रयोगशाला में तैयार किया जाता है। अब एक प्रोजेक्ट के तहत पौधों को इस तरीके से विकसित किया जाएगा कि वे फेरोमोंस बनाने में सक्षम हो सकें। इस प्रोजेक्ट का नाम ससफायर रखा गया है। इस योजना के एक सदस्य और वेलेंसिया में पॉलीटेक्निक यूनिवर्सिटी में शोधार्थी विसेंट नवारो ने कहा कि सोचिए कि कोई पौधा इस काबिल हो जाए कि वह कीड़ों को अपनी तरफ आकर्षित करे और जब कीड़ा उन पर बैठे तो वह मर जाए,

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विविध

फसल को बचाने के लिए यह बेहद कारगर तरीका हो सकता है। जब अधिक मात्रा में फेरोमोंस पैदा होता है तो इससे नर कीड़े परेशान हो जाते हैं और वो मादा कीड़ों को खोज नहीं पाते, यही वजह है कि इन कीड़ों के प्रजनन में भी कमी आती है। नवारो बताते हैं कि यह तकनीक तो पहले से इस्तेमाल की जा रही है, लेकिन इसमें बहुत अधिक खर्च आता है। वो बताते हैं कि इसकी कीमत कई बार 23 हजार डॉलर से 35 हजार डॉलर और कभी-कभी तो 117 हजार डॉलर प्रतिकिलो तक पहुंच जाती है। सफायर प्रोजेक्ट में स्पेन, जर्मनी, स्लोवेनिया और ब्रिटेन के वैज्ञानिक साथ काम कर रहे हैं।जब कीड़े पौधों की तरफ आकर्षित होते हैं और उन पर बैठते हैं तो कीटनाशकों के जरिए उन पर नियंत्रण किया जाता है। ससफायर प्रोजेक्ट के जरिए कीड़ों को फसल से दूर ले जाया जाएगा और फिर उन्हें बाहर ही खत्म भी कर दिया जाएगा। इस तरह किसी फसल में कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा, इसकी जगह जिस जगह फसल लगाई गई है उसके बाहर ऐसे पौधे लगाए जाएंगे जो कीड़ों को अपनी तरफ आकर्षित करें और उन पर बैठकर मर जाएं। इस बारे में नवारो बताते हैं कि हमने 'निकोटिआना बेंथामिआना' प्रकार के पौधे के जरिए फेरोमोंस बनाने में सफलता पाई है। फिलहाल ससफायर प्रोजेक्ट की समयसीमा तीन साल तय की गई है। उसके बाद इस बात का आकलन किया जाएगा कि अलग-अलग कंपनियां इस प्रोजेक्ट में कितनी दिलचस्पी दिखाती हैं। नवारो के अनुसार बहुत सी कंपनियों ने इस प्रोजेक्ट में अपनी इच्छा जताई है, लेकिन फिलहाल इसे पूरा होने में पांच साल तो लग ही जाएंगे।वे मानते हैं कि यह पौधा कीटनाशकों की दुनिया में एक बड़ा बदलाव लेकर आएंगे। (एजेंसी)

झुर्रियां बताएंगी आप कितने ईमानदार हैं

कनाडा के शोधकर्ताओं का दावा है कि जिन लोगों की आंखों के आसपास झुर्रियां पड़ती हैं उन्हें लोग अधिक ईमानदार समझते हैं उम्र की निशानी होती यूहैंतों , लेझुरक्रियांिन बढ़ती हाल ही में हुए एक अध्ययन

में खुलासा हुआ है कि हंसने के दौरान जिन लोगों की आंखों के आसपास झुर्रियां पड़ती हैं उन्हें लोग अधिक ईमानदार समझते हैं। कनाडा की वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया कि हमारा मस्तिष्क इस प्रकार का होता है कि वह आंखों के आस पास झुर्रियों को बेहद प्रचंड और बेहद ईमानदार भाव के तौर पर लेता है। आंखों के पास झुर्रियों को ड्यूकेन मार्कर कहते हैं और तमाम तरह की भावनाओं को व्यक्त करने पर यह उभर कर सामने आते हैं मसलन मुस्कुराने, दर्द और दुख के दौरान। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के लिए प्रतिभागियों को कुछ फोटोग्राफ विजुअल रायवलरी तरीके से दिखाए। इनमें से कुछ में ड्यूकेन मार्कर थे और कुछ में नहीं। शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि हमारा मस्तिष्क किस भाव को ज्यादा अहम समझता है। शोधकर्ता जूलिओ मार्टिनेज ट्रुजिलो ने बताया कि ड्यूकेन मार्कर वाली अभिव्यक्ति ज्यादा प्रभावशाली पाई गई। इसीलिए भाव जितने प्रबल होंगे आपका मस्तिष्क लंबे समय तक उसे याद रखता है और ड्यूकेन मार्कर वाले चेहरे को मस्तिष्क ज्यादा ईमानदार मानता है। (एजेंसी)

साहित्य अकादमी बाल और युवा पुरस्कारों की घोषणा

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ. चंद्रशेखर कंबार ने इस वर्ष के लिए बाल और युवा पुरस्कार विजेताओं के नाम घोषित किए

हित्य अकादमी ने इस वर्ष के लिए बाल साहित्यकार और युवा साहित्यकार पुरस्कारों की घोषणा कर दी है। ये दोनों पुरस्कार विभिन्न भारतीय भाषाओं में दिए जाते हैं। बाल पुरस्कार 14 नवंबर को बाल दिवस के अवसर पर दिए जाएंगे। साहित्य अकादमी की तरफ से अब तक युवा पुरस्कारों को दिए जाने की तिथि की

घोषणा नहीं की गई है। पुरस्कारों की घोषणा अलगअलग भाषाओं के लिए बनी निर्णायक समितियों की अनुशंसा पर अकादमी के अध्यक्ष डॉ. चंद्रशेखर कंबार ने की है। साहित्य अकादमी बाल पुरस्कार इस वर्ष 23 भारतीय भाषाओं में दिए जाएंगे। हिंदी में वरिष्ठ साहित्यकार दिविक रमेश को उनकी पुस्तक ‘मेरे

मन की बाल कहानियां’ के लिए यह पुरस्कार दिया जाएगा। अंग्रेजी में यह पुरस्कार ‘सन ऑफ थंडर क्लाउड’ के लिए ईस्टेरिन किरे को दिया जाएगा। साहित्य अकादमी युवा पुरस्कारों की घोषणा 21 भाषाओं में की गई है। इस वर्ष हिंदी के लिए यह पुरस्कार आस्तिक वाजपेयी को दिया जाएगा जबकि अंग्रेजी में इस पुरस्कार के लिए इस बार

कोई पुस्तक उपयुक्त नहीं पाई गई। जिन पुस्तकों को इस वर्ष युवा पुरस्कार दिए जाने हैं, उनमें दस पुस्तकें कविताओं की, सात लघु कथाओं की, तीन उपन्यास और एक नाट्य विधा की हैं। दोनों ही श्रेणियों में पुरस्कार विजेताओं को 50-50 हजार रुपए और एक उत्कीर्ण ताम्र फलक दिए जाएंगे। (एजेंसी)


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स्वच्छता

25 जून - 01 जुलाई 2018

घाना

अस्वच्छता से जूझने की चुनौती

घाना में बमुश्किल 15 फीसदी लोग ही ऐसे हैं, जो स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिहाज से सुरक्षित टॉयलेट का इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में घाना सरकार के लिए पूरे देश को खुले में शौच की समस्या से मुक्त करने के अभियान को सफल बनाना बड़ी चुनौती साबित होगी यूनिसेफ की मेन्स्ट्रुअल हाइजीन एंबेसेडर शमीमा मुस्लिम अलहसन ने बातचीत में कहा कि ऑफिन नदी के पुल को लेकर जारी किए गए नए निर्देश शिक्षा के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। मध्य क्षेत्रीय मंत्री क्वामेना डंकन ने अशांती क्षेत्र के स्थानीय मंत्री से बात करके इसका हल निकालने के संकेत दिए हैं। ऑफिन नदी अशांती और मध्य क्षेत्र के बीच सीमा का काम करती है।

घाना जैसे और देश भी

घाना में धर्म और संस्कृति के नाम पर महिलाओं को जिस तरह शिक्षा से दूर रखा जाता है और उन्हें जिस तरह की असुरक्षित स्थितियों में रहना पड़ता है, वैसी स्थिति कई और देशों में भी है। खासतौर पर दुनिया के कई देशों में प्रचलित संस्कृतियों में आज भी महिलाओं के पीरियड्स को लेकर वर्जनाएं हैं। मेडागास्कर में कुछ महिलाओं को पीरियड्स के दिनों में नहाने से मना किया जाता है और नेपाल के

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घाना को स्वच्छ और सतत ऊर्जा का दोहन करने की कोशिश के तहत असैन्य परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत का सहयोग मिल रहा है एसएसबी ब्यूरो

ना गणराज्य, पश्चिम अफ्रीका में स्थित एक छोटा से देश है। ‘घाना’ का अर्थ होता है- ‘लड़ाकू राजा’। 15वीं शताब्दी में घाना पुर्तगालियों के संपर्क में आया। इस तौर में घाना का कई देशों के साथ व्यापार संबंध बढ़ा। इसी दौरान ब्रिटेन ने गोल्ड कोस्ट के नाम से राजशाही उपनिवेश की स्थापना की। गोल्ड कोस्ट 6 मार्च 1957 में यूनाइटेड किंगडम से स्वतंत्रता हासिल करने वाला पहला उपसहारा अफ्रीकी राष्ट्र बना, तभी इसका नाम ‘घाना’ रखा गया। घाना 56 भाषाओं का देश है। 1962 से यहां अंग्रेजी और फ्रांसीसी के अतिरिक्त अकुआपेम ट्वी, आसांटे-ट्वी, दगबानी, दांगबे, इवे, फांटी, गा, कासेम और एंजीमा नामक नौ भाषाएं सरकार द्वारा मान्य हैं। यहां के लोग प्राय: आध्यात्मिक और आस्तिक हैं। यहां ईसाइयों की संख्या 6,50,000 है, जिनमें रोमन कैथोलिक, मेथोडिस्ट और प्रेस्बाइटेरियन शामिल हैं।

अतीत और स्वाधीनता

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1946 से घाना में तीव्र राजनीतिक चेतना का आविर्भाव हुआ। 1949

में संवैधानिक संशोधन के निमित्त अखिल अफ्रीका स्तर की समिति गठित हुई। 1951 के निर्वाचन में देशी जनता ने सरकार बनाने में बहुमत प्राप्त किया। 1954 में संविधान में कुछ सुधार हुए, जिनके अनुसार 'गोल्ड कोस्ट' स्वायत्त शासन की इकाई बन गया। 6 मार्च, 1957 को अंग्रेजों ने सारे देश को स्वतंत्र कर दिया। स्वतंत्रता के बाद इसका नाम घाना पड़ा। उसी वर्ष इसने ब्रिटिश राष्ट्रमंडल की सदस्यता ग्रहण की। 1 जुलाई, 1960 को घाना गणराज्य घोषित हुआ।

खास बातें

घाना उन 10 देशों में ​है जहां सबसे ज्यादा लोग खुले में शौच करते हैं खुले में शौच के कारण प्रतिवर्ष 79 मिलियन डॉलर का नुकसान घाना को स्वच्छ देश बनाने में मीडिया का बड़ा रोल- यूनिसेफ

माहवारी और शिक्षा

घाना आज भी न सिर्फ विकास की वैश्विक मुख्यधारा से दूर है, बल्कि यह कई आधुनिक मूल्यों से भी दूर है। कुछ समय पूर्व एक चौंकाने वाले फैसले में स्कूली छात्राओं पर पीरियड्स के दिनों में एक नदी पार करने पर पाबंदी लगा दी गई है। यह पुल ऑफिन नदी पर बना है, जिसे लेकर वहां धार्मिक मान्यताएं हैं। इस आपत्तिजनक फैसले को लेकर बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं में खासी नाराजगी है। खास तौर से छात्राओं को यह प्रतिबंध नागवार गुजरा है, क्योंकि उन्हें नदी पार करके ही स्कूल जाना पड़ता है। अगर यह निर्णय वापस नहीं लिया गया तो घाना के अपर डेन्कायरा ईस्ट जिले के मध्य क्षेत्र में कुछ छात्राओं को पीरियड्स के दिनों में स्कूल से वंचित रहना पड़ सकता है। गौरतलब है कि घाना एक ऐसा देश है, जो पहले ही पीरियड्स के दिनों में छात्राओं के स्कूली पढ़ाई में शामिल होने को लेकर संघर्ष कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनेस्को के अनुमान के मुताबिक, इस क्षेत्र में औसतन दस में से एक छात्रा पीरियड्स की वजह से स्कूल नहीं जा पाती। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, घाना की 1.15 करोड़ महिलाएं साफ-सफाई के प्रबंधन की सुविधाओं से वंचित हैं।

कुछ हिस्सों में आज भी महिलाओं को बाकी परिवार से अलग झोपड़ियों में सोने पर मजबूर किया जाता है। भारत के भी कुछ सुदूर इलाकों में परिवार औऱ समाज में पीरियड्स को लेकर वर्जनाएं आम हैं।

स्वच्छ ऊर्जा में भारत की मदद

घाना को स्वच्छ और सतत ऊर्जा का दोहन करने की कोशिश के तहत असैन्य परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत का सहयोग मिल रहा है। 2016 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और घाना के राष्ट्रपति जॉन द्रामनी महामा के बीच हुई वार्ता के दौरान इस मुद्दे पर विचार विमर्श किया गया। महामा ने असैन्य परमाणु ऊर्जा के अलावा आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में भी भारत से सहयोग की इच्छा जताई।विदेश मंत्रालय के सचिव (आर्थिक मामले) अमर सिन्हा ने बातचीत का ब्योरा देते हुये कहा कि घाना ने खासतौर पर असैन्य परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भारत से सहयोग का जिक्र किया क्योंकि भारत परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अग्रणी है, इसीलिए वे भारत के साथ असैन्य परमाणु सहयोग चाहते हैं। घाना सीओपी 21 (पेरिस जलवायु समझौता) के हस्ताक्षरकर्ता है और स्वच्छ ऊर्जा पर आगे बढ़ना चाहते हैं। दोनों देशों ने खनन, ऊर्जा, शिक्षा, कृषि सहित बहुत से अन्य क्षेत्रों में परस्पर सहयोग किए जाने पर सहमति व्यक्त की है।


25 जून - 01 जुलाई 2018

स्वच्छता के सुलभ मार्ग पर घाना

अस्वच्छता से जूझ रही 85 फीसदी आबादी

सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक कई वर्ष पहले ही घाना सहित 15 अफ्रीकी देशों में सुलभ तकनीक के शौचालय बनाने की पहल कर चुके हैं

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लभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक द्वारा आविष्कार किया गया ‘टू पिट पोर फ्लश’ तकनीक वाला टॉयलेट मॉडल, पूरी दुनिया में किफायत और इस्तेमाल में आसान होने के कारण सराहा जाता है। अपने इन्हीं गुणों के कारण सुलभ शौचालय के नाम से लोकप्रिय इस टॉयलेट तकनीक को घाना सहित चीन, बांग्लादेश, वियतनाम, दक्षिण अफ्रीका, भूटान, नेपाल और अफगानिस्तान आदि देशों ने अपनाया है। इस बारे में खुद डॉ. पाठक कहते हैं, ‘हमारी तकनीक की मदद से धरती पर रहने वाले 2.3 अरब ऐसे लोगों की समस्या दूर हो सकती हैं, जिनके पास सुरक्षित और स्वच्छ शौचालय की सुविधा नहीं है। इनमें से ज्यादातर लोग अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में रहते हैं।’ गौरतलब है कि सुलभ टॉयलेट तकनीक को जहां बीबीसी ने दुनिया के पांच विशिष्ट आविष्कारों में शुमार किया है, वहीं इसे यूनिसेफ और यूएन-हैबिटेट ने इसके इस्तेमाल

को प्रस्तावित किया है। कुछ वर्ष पूर्व जब घाना के स्थानीय निकाय तथा ग्रामीण विकास विभाग के तत्कालीन मंत्री सैमुएल ओफोसू अमपोफो दिल्ली स्थित सुलभ ग्राम में पहुंचे, तो वे यहां सुलभ संस्था द्वारा किए गए कार्यों से काफी प्रभावित हुए थे। इस मौके पर खासतौर पर जब वे स्वास्थ्य और स्वच्छता के क्षेत्र में सुलभ के ईको और जेंडर फ्रेंडली तकनीक से अवगत हुए, तो वे अभिभूत रह गए। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सुलभ प्रणेता डॉ. विन्देश्वर पाठक कई वर्ष पहले ही घाना सहित 15 अफ्रीकी देशों में सुलभ तकनीक के शौचालय बनाने की पहल कर चुके हैं। इस लिहाज से देखें तो आज अगर घाना की सरकार और वहां का समाज स्वच्छता तरफ तेज कदमों के साथ बढ़ने का अटल इरादा दिखा रहा है तो इसमें सुलभ संस्था और डॉ. पाठक की भी बड़ी भूमिका है।

घाना स्वच्छता के क्षेत्र में न सिर्फ काफी पिछड़ा है, बल्कि वहां के ज्यादातर लोगों पर अस्वच्छ परिवेश और स्वच्छता की कमी की दोहरी मार पड़ रही है

संबर, 2017 में आई ‘वाटर एड’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक घाना दुनिया के उन 10 देशों में शामिल हैं, जहां सबसे ज्यादा लोग या तो खुले में शौच जाते हैं या फिर असुरक्षित-अस्वच्छ शौचालय का इस्तेमाल करते हैं। घाना में इस तरह की समस्या से जूझ रहे लोगों की आबादी 85.7 फीसदी है। जाहिर है कि घाना स्वच्छता के क्षेत्र में न सिर्फ काफी पिछड़ा है, बल्कि वहां के ज्यादातर लोगों पर अस्वच्छ परिवेश और स्वच्छता की कमी की दोहरी मार पड़ रही है। संख्या में बात करें तो करीब 23 मिलियन घानावासी इस दौहरी चुनौती को झेलने को अभिशप्त हैं। दुनिया भर में शौचालयों के इस्तेमाल और उनकी स्थिति को लेकर ‘आउट ऑफ ऑर्डर’ शीर्षक से आई इस रिपोर्ट में इस बात को भी रेखांकित किया गया है कि शौचालयों का अभाव और दुर्दशा का शिकार सबसे ज्यादा बच्चों और महिलाओं को होना पड़ रहा है।

बड़ा आर्थिक नुकसान

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक खुले में शौच की समस्या के कारण घाना को हर वर्ष करीब 79 मिलियन डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है। यूनिसेफ का यह अध्ययन उन 34

नायाब कदम

घाना प्रशासन ने सभी मस्जिदों और गिरिजाघरों को हाल में यह आदेश दिया है कि प्रार्थना के लिए लोगों को बुलाने के लिए लाउडस्पीकर का इस्तेमाल बंद करें। प्रशासन ने लाउडस्पीकर के बंद करने के आदेश के साथ कहा कि लोगों को अजान के लिए सोशल नेटवर्किंग ऐप्लिकेशन वॉट्सऐप या मैसेज का इस्तेमाल किया जाए। इस नियम के पीछे प्रमुख उद्देश्य शहरी इलाकों में बढ़ रहे ध्वनि प्रदूषण को कम बताया गया है। घाना के पर्यावरण मंत्री क्वाबेना फ्रिमपॉन्ग बोटेंग ने कहा, ‘इमाम लोगों को वॉट्सऐप मेसेज भेजकर नमाज के समय के बारे में बता सकते हैं। इससे ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण पाने में मदद मिलेगी। यह आलोचनात्मक और विवादात्मक हो सकता है, लेकिन इसके बारे में सोचा जा सकता है।’

दरअसल, आजकल ध्वनि प्रदूषण फैलना आम बात है, लाउडस्पीकर, गाड़ियों के शोर और डीजे की ध्वनि से प्रदूषण होता है, जिस वजह से लोगों को इस प्रदूषण से बचने के लिए जागरूक किया

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स्वच्छता

जाता है। लेकिन घाना प्रशासन ने इससे निपटने के लिए एक जिस तरह की तरकीब निकाली है, वह वाकई नायाब है। घाना प्रशासन ने अपने नए फैसले के तहत

देशों को केंद्र में रखकर किया गया है, जहां आज भी 15 फीसदी से ज्यादा लोग खुले में शौच जाते हैं। इस लिहाज से देखें तो घाना की स्थिति न सिर्फ काफी खराब है, बल्कि इस समस्या से निपटना घाना सरकार और निकाय प्रशासन के लिए एक बड़ी समस्या है। हालांकि इस रिपोर्ट में घाना सरकार द्वारा देश में खुले में शौच की प्रथा को दूर करने के लिए शुरू किए गए अभियान की सराहना की गई।

यूनिसेफ की सलाह

रिपोर्ट जारी करते हुए यूनिसेफ के कम्युनिकेशन कंस्लटेंट एनुअल अदाई ने कहा कि अगर घना का स्थानीय मीडिया इस दिशा में जागरुक भूमिका निभाए तो समस्या को दूर करने में ज्यादा मदद मिलेगी। अदाई की सलाह इसलिए भी सराहनीय है, क्योंकि इससे पहले मीडिया के सहयोग से अवैध खनन की समस्या के खिलाफ सफल अभियान चलाया जा चुका है। जो आदेश दिया है, उसके मुताबिक, ‘अब मस्जिदों में प्रार्थना के लिए लोगों को बुलाना बंद किया जाएगा, अजान के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स व्हाट‍्सऐप्प का इस्तेमाल किया जा सकता है और अब व्हाट‍्सऐप्प के जरिए ही अजान होगी। प्रशासन का कहना है कि उसका नया कदम ध्वनि प्रदूषण को निश्चित रूप से कम करेगा। घाना प्रशासन ने कहा है- ‘आम तौर पर चर्च में बजने वाली घंटियां और मस्जिद में होने वाली अजान ध्वनि प्रदूषण को बढ़ावा देती हैं, जिस वजह से मस्जिदों और चर्च के पास रहने वाले लोगों को परेशानियां होती है।’ घाना के पर्यावरण मंत्री क्वाबेना फ्रिमपॉन्ग बोटेंग ने इस कदम का बचाव किया है और कहा है कि ‘हां, यह कदम विवाद जरुर पैदा करेगा लेकिन यह ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण ला सकता है।’


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पुस्तक अंश

25 जून - 01 जुलाई 2018

किसानों के लिए कल्याणकारी योजनाएं नीम कोटेड यूरिया

जब यूरिया पर नीम का लेप चढ़ा होता है तो यह मिट्टी में धीरे-धीरे घुलता है और फसल को ज्यादा मात्रा में नाइट्रोजन मिलता है। इसके साथ होने से उर्वरक की क्षमता में 10 से 15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है और यूरिया की आवश्यकता कम हो गई है। नवंबर 2015 से, देश में उपलब्ध यूरिया (उत्पादित और आयातित) नीम कोटेड है।

किसान चैनल

डीडी किसान किसानों को समर्पित देश का पहला टीवी चैनल है। यह चैनल कृषकों को नई तकनीक की सही और सीधी जानकारी देता है। चैनल 26 मई 2015 को लॉन्च किया गया।

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना मोदी सरकार ने, "हर खेत को पानी और पानी की हर बूंद से ज्यादा से ज्यादा फसल" के लक्ष्य को पूरा करने के लिए खेती योग्य भूमि की सिंचाई करने के लिए सभी स्रोतों से पानी उपलब्ध कराने की योजना बनाई है। परियोजना के लिए 50 हजार करोड़ रूपए का प्रावधान है।

किसानों के लिए यह सुनहरा अवसर है, क्योंकि यह चैनल नए शोध और तकनीकी जानकारी को प्रयोगशाला से खेत तक पहुंचाने में मदद करेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

शीत गृह श्रृंखला परियोजना शीत श्रृंखला वह पुल है जो दूरस्थ क्षेत्रों के खेतों को शहरों और वहां रहने वाले लोगों के साथ जोड़ता है। यह श्रृंखला ताजा सब्जियों और फलों के घरेलू और अंतरराष्ट्रीय बाजार को बढ़ावा देगी; नाबार्ड फंड से ऋण की आसान उपलब्धता और सेवा कर में रियायत सुनिश्चित है।

पानी और जमीन, खेती के लिए दोनों बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए।

अगर गोदाम नहीं है या फिर शीत गृह और किसानों को उपलब्ध बुनियादी ढांचा का अभाव है तो किसान कितना भी श्रम करे वह समृद्ध नहीं होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

इससे पहले किसानों के काम का यूरिया रासायनिक कारखानों में इस्तेमाल कर लिया जाता था। नीम कोटिंग के बाद, यूरिया खेती के अलावा और किसी उपयोग का नहीं है। नीम कोटिंग के कारण, अधिक उपज के लिए कम यूरिया की जरूरत होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

पर्याप्त यूरिया की उपलब्धता वर्ष 2015-16 में 245 लाख मीट्रिक टन के रिकॉर्ड यूरिया उत्पादन सुनिश्चित करने से किसानों के लिए आसानी से यूरिया उपलब्ध कराया जा सका है। हर साल उत्पादन बढ़ाने का प्रस्ताव है।

प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना यह योजना कृषि और किसान कल्याण तथा प्रशिक्षण के जरिए गांवों के युवाओं और उद्यमियों में कौशल विकास को प्रोत्साहित करने के लिए है। जैविक खेती, सिरीकल्चर, मधुमक्खी पालन, ट्रैक्टर ड्राइविंग, सिंचाई, ग्रीन हाउस, बीज/शीत भंडारण और पशु स्वास्थ्य जैसे अनेक क्षेत्रों में प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

एक समय था जब उर्वरकों की उपलब्धता एक बहुत बड़ी समस्या थी। हमने इस कमी को पूरी तरह से दूर कर दिया है।

कौशल विकास योजना का उद्देश्य गरीबों में आत्म सम्मान का भाव पैदा करना है। हमें कौशल विकास के साथ गुणवत्ता सुधार पर जोर देना होगा। हमें उद्यमिता पर भी बल देना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी


25 जून - 01 जुलाई 2018

दालों और तिलहन के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि

किसानों के कल्याण के लिए, सरकार ने दालों और तिलहन के न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी की है।

फसल 2016-17 न्यूनतम समर्थन मूल्य रु. / क्विंटल (बोनस के साथ)। अरहर: रु. 5050 मूंग: रु. 5225 उरद: रु. 5000 मूंगफली: रु. 4220 सोयाबीन: रु. 2775 सूरजमुखी: रु. 3950

राष्ट्रीय कृषि बाजार

सभी कृषि उत्पादों के लिए एक एकीकृत पोर्टल जिसमें किसान खरीदार व्यापारियों को अपने उत्पादों को ऑनलाइन दिखा सकते हैं और व्यापारी उन्हें बता सकते हैं कि उनकी कीमत उनकी निगाह में है। यह खरीदारों के बीच होड़ में वृद्धि करेगा और इससे किसानों को उनकी उपज की उचित कीमत मिल जाएगी। मार्च 2018 तक देश के सभी 585 कृषि बाजार एक-दूसरे से जुड़े होंगे। नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट (ई-एनएएम) न केवल किसानों को लाभान्वित करेगा, बल्कि इसके साथ जुड़े सभी व्यक्तियों और उपभोक्ताओं को भी इसका लाभ मिलेगा। यह कृषि क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मोड़ है। इसके माध्यम से किसान अपने उत्पादों के लिए मिलने वाली सबसे अच्छी कीमत जान सकेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

काला तिल: रु. 3825 तिल: रु. 5000

मैंने देश के किसानों से आह्वान किया है कि आपको परंपरागत खेती के साथ कुछ खेतों में दालों और तिलहनी फसलों की खेती भी करनी चाहिए, क्योंकि इससे उन्हें फायदा होगा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

पूर्वोत्तर राज्यों में कृषि के लिए प्रेरणा इस योजना के तहत उत्तर-पूर्व राज्यों की उपज के ब्रांडिंग की परिकल्पना की गई है। इसके लिए 2015-16 से 2017-18 के लिए लक्षित बजट 400 करोड़ रुपए है। 2015-16 में, इस योजना के तहत आठ उत्तर-पूर्व राज्यों को 112.11 करोड़ आवंटित किए गए थे। भारत का उत्तर पूर्व भाग हमारी अष्टलक्ष्मी है, मुझे वहां पर कृषि की अत्याधिक संभावनाएं दिखाई देती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

पुस्तक अंश

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना

मृदा स्वास्थ्य के जरिए मिट्टी की उत्पादन क्षमता का आसानी से परीक्षण किया जा सकता है और उपज बढ़ाने के लिए आवश्यक सुधारों की जानकारी उपलब्ध कराई जा सकती है। किसी खास मिट्टी के लिए सबसे अच्छी फसल की पहचान भी इससे हो जाएगी। मुफ्त बनने वाले मृदा स्वास्थ्य कार्ड को हर तीन साल में नवीनीकृत किया जा सकता है। इसे 2018 तक सभी किसानों को उपलब्ध कराने का लक्ष्य है। 2 करोड़ 50 लाख कार्ड जारी किए जा चुके हैं। मिट्टी के स्वास्थ्य पर जोर देने से उपज में बढ़ोत्तरी होगी, कृषि क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा और किसान समृद्ध हो जाएंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

फसल बीमा योजना

पहली बार सरकार एक ऐसी फसल बीमा योजना के साथ आई है जिसमें प्रीमियम कम होता जाता है और किसानों को देय राशि बढ़ती जाती है। इसमें बुवाई से पहले और कटाई के बाद होने वाले नुकसान के लिए भी मुआवजे का प्रावधान है। किसान खरीफ के लिए 2 प्रतिशत और रबी फसलों के लिए 1.5 प्रतिशत का भुगतान करेंगे और बाकी राशि सरकार द्वारा दी जाएगी। ऊपरी सीमा समाप्त कर दी गई है। अब, किसान बिना किसी कटौती के पूरी राशि प्राप्त कर सकते हैं। यह मेरा विश्वास है कि किसानों के कल्याण से प्रेरित प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों के जीवन में एक बड़ा बदलाव लाएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

एग्रीकल्चर मोबाइल ऐप्स

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ये ऐप्स खेती से संबंधित जानकारियों को किसानों तक पहुंचाना बेहद आसान बना देंगे। पूसा कृषि' मोबाइल ऐप्प के माध्यम से, किसानों के लिए बेहतर किस्मों और नई प्रौद्योगिकियों के बारे में जानकारी उपलब्ध है। 'कृषि बाजार' ऐप्प फसलों की कीमत के बारे में जानकारी देता है तो 'फसल बीमा' ऐप्प फसल बीमा के बारे में। 'किसान सुविधा' मोबाइल ऐप्प 19 मार्च 2016 को प्रधानमंत्री द्वारा लॉन्च किया गया था, यह किसानों को मौसम, उपज की कीमत, बीज, उर्वरक, कीटनाशकों आदि के बारे में जानकारी देता है। हजारों किसानों ने इन ऐप्स को डाउनलोड किया है। मैं ऐसे डिजिटल भारत का सपना देख रहा हूं जिसमें हमारे किसानों को देश के बाजारों की कीमतों का ज्ञान हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

राष्ट्रीय गोकुल मिशन

मिशन का उद्देश्य स्वदेशी नस्ल के जानवरों को विकसित करना है। मिशन की विशेषताओं में पशुओं के स्वदेशी नस्लों की सुरक्षा और उनके आनुवांशिक विकास तथा दूध उत्पादन में वृद्धि शामिल है। डेढ सालों के भीतर, 27 राज्यों के 29 क्षेत्रों ने 155 मिलियन टन दूध पैदा किया है और पशु चिकित्सा की पढ़ाई वाले डिग्री कॉलेजों की संख्या 36 से बढ़ कर 46 हो गई है। (शेष अगले अंक में)


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खेल

25 जून - 01 जुलाई 2018

इरापल्ली प्रसन्ना

प्रसन्ना का चकमा देने वाला ‘डिप’

विश्व क्रिकेट में आज भी अगर भारतीय स्पिनरों की साख है तो उसके प्रसन्ना, बेदी और चंद्रशेखर की तिकड़ी का बड़ा हाथ है। इन तीन महान स्पिनरों में प्रसन्ना ने 50 से कम टेस्ट मैच खेलकर 189 विकेट लिए थे

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एसएसबी ब्यूरो

सन्ना, बेदी और चंद्रशेखर, भारतीय स्पिनरों की इस तिकड़ी ने एक दौर में दुनियाभर के बल्लेबाजों को परेशान कर रखा था। यह वह दौर था, जब इन स्पिनरों के एक बॉल को बल्लेबाज सीमा रेखा के पार भेजता था, तो अगले बॉल पर चकमा खाकर वह खुद पवेलियन पहुंच जाता था। इनमें खासतौर पर प्रसन्ना के बारे में तो मशहूर ही था कि वे रन देकर विकेट खरीदते हैं। 1975 का मद्रास टेस्ट। वेस्ट इंडीज की दूसरी पारी चल रही थी। क्लाइव लॉयड क्रीज पर थे। प्रसन्ना ने गेंद फ्लाइट की और उसे थोड़ा रोक सा लिया। लॉयड ने उछल कर उस पर लॉफ्टेड शॉट मारना चाहा। वो इतना आगे आ गए कि प्रसन्ना उनसे हाथ मिला सकते थे। बाकी का काम फारूख इंजीनियर ने किया। फिर स्कोरबोर्ड पर दर्ज हुआ- क्लाइव लॉयड स्टंप इंजीनियर, बोल्ड प्रसन्ना। इसके तीन वर्ष पहले मद्रास में ही प्रसन्ना ने माइक डेनेस को आगे आने पर मजबूर किया। उन्होंने अपना शॉट पूरा किया। गेंद उसके बाद गिरी। वो हवा में बीट हुए। गेंद बैट पैड लेती हुई फॉर्वर्ड शॉर्ट लेग पर खड़े एकनाथ सोल्कर के हाथों में चिपक गई। प्रसन्ना के ‘डिप’ ने उन्हें चकमा दिया, जबकि माइक उस समय दुनिया में स्पिन के खिलाफ सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक थे। प्रसन्ना ने अपना पहला टेस्ट 1961 में इंग्लैंड के खिलाफ खेला था। उसके बाद वे 1962 में वेस्ट इंडीज गए थे। लेकिन इसके बाद उन्होंने चार साल तक क्रिकेट नहीं खेली,

खास बातें

प्रसन्ना ने पहला टेस्ट 1961 में इंग्लैंड के खिलाफ खेला उन्होंने 49 टेस्ट मैचों में 189 विकेट लिए थे वे विकेट निकालने के लिए गेंद की ऊंचाई ज्यादा रखते थे

क्योंकि उन्होंने अपने पिता से वादा किया था कि वो तब तक क्रिकेट नहीं खेलेंगे, जब तक वो अपनी इंजीनयरिंग की डिग्री नहीं हासिल कर लेते। प्रसन्ना कहते हैं, ‘मेरे पिता को मेरे खेलने से इसीलिए डर हुआ क्योंकि उस समय क्रिकेट में बहुत कम पैसे मिलते थे। उन्हें लगा कि अगर मैं क्रिकेट में अपना करियर नहीं बना पाया तो सड़क पर आ जाऊंगा। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं इंजीनियरिंग की डिग्री लेने का बाद ही दोबारा क्रिकेट खेलना शुरू करूंगा।’ आजकल एक साल बाद भी टेस्ट क्रिकेट में वापसी बहुत मुश्किल होती है। प्रसन्ना ने चार साल बाद टेस्ट क्रिकेट में वापसी की और वह भी क्या शान से! वेस्ट इंडीज और इंग्लैंड के खिलाफ अच्छा प्रदर्शन करने के बाद वे आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड गए, जहां उन्होंने आठ टेस्ट मैचों में 49 विकेट लिए। प्रसन्ना मानते थे कि टाइगर पटौदी उनके सबसे अच्छे कप्तान थे। उनके जाने के बाद वाडेकर उनके कप्तान बने। वरिष्ठ खेल पत्रकार विजय लोकपल्ली कहते हैं, ‘प्रसन्ना की आत्मकथा में एक अध्याय है- ‘पैट गोज एंड आई एम वरीड’। उन्हें शुरू से ही अंदेशा था कि वाडेकर उनका साथ देंगे कि नहीं, क्योंकि वाडेकर का शुरू से ही झुकाव वेंकट राघवन की तरफ था। वो चाहते नहीं थे कि कोई मैच हारें।’ प्रसन्ना बहुत दिलेर गेंदबाज थे। वो फ्लाइट करते थे। बेशक उस पर छक्का पड़ जाए। बल्लेबाज के लिए वो ताली भी बजाते थे, लोकिन हो सकता है कि अगली गेंद में वो उनको आउट भी कर दें। पटौदी की खासियत ये थी कि वो गेंदबाजों को जो फील्ड चाहिए, वही दिया करते थे। 1971 के इंग्लैंड दौरे में वाडेकर ने प्रसन्ना पर वेंकट राघवन को तरजीह दी। हांलाकि उस समय प्रसन्ना दुनिया के सबसे अच्छे ऑफ स्पिनर थे। वाडेकर कहते हैं, ‘वेंकट राघवन ने पहले दस काउंटी मैचों में बहुत बढ़िया गेंदबाजी की। उनकी फील्डिंग भी बहुत अच्छी थी और वो बैंटिंग भी बेहतर कर लेते थे।’ वे आगे कहते हैं, ‘प्रसन्ना वैसे तो अच्छे गेंदबाज थे, लेकिन 1971 के दौरे में अभ्यास मैचों में उनकी गेंदबाजी अच्छी नहीं हो रही थी, इसीलिए मैंने सोचा कि वेंकट को ज्यादा मौका देना चाहिए।’ इसके बावजूद अजित वाडेकर स्वीकार करते हैं कि उन्होंने प्रसन्ना से अच्छा ऑफ स्पिनर अपनी जिंदगी में नहीं देखा। 1967 के आस्ट्रेलिया दैरे में उन्होंने बकायदा

आजकल एक साल बाद भी टेस्ट क्रिकेट में वापसी बहुत मुश्किल होती है। प्रसन्ना ने चार साल बाद टेस्ट क्रिकेट में वापसी की और वह भी शान से आजकल एक साल बाद भी टेस्ट क्रिकेट में वापसी बहुत मुश्किल होती है। प्रसन्ना ने चार साल बाद टेस्ट क्रिकेट में वापसी की और वह भी शान से योजना बनाकर उस समय दुनिया में स्पिन के सबसे अच्छे खिलाड़ी और बाद में ऑस्ट्रेलिया के कप्तान बने इयन चैपल को चंदू बोर्डे के हाथों कैच कराया था। चैपल अपनी आत्मकथा 'चैपेली' में लिखते हैं, ‘एक बार प्रसन्ना ने मुझे आउट किया। शाम को मैंने उनसे कहा जब तुम गेंद फेंक रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि तुमने उससे एक डोर बांध रखी है। जैसे ही गेंद तुम्हारे हाथ से निकलती थी, मैं सोचता था कि मैं इसे मैदान से बाहर मारने वाला हूं। मैं उस गेंद की पिच तक पहुंचने की कोशिश करता था, लेकिन तभी तुम उसकी डोर खींच लेते थे और गेंद पहले गिर जाती थी।’ वाडेकर याद करते हैं कि 1967 के इंग्लैंड दौरे में बंगलुरु के एक खिलाड़ी सुब्रमण्यम भी थे जो तरह तरह की शरारतें करने के लिए मशहूर थे। उन्होंने देखा कि प्रसन्ना की एक लड़की के साथ कुछ ज्यादा ही दोस्ती हो रही है। उन्होंने एक लड़की बनकर प्रसन्ना को एक खत लिखा कि वो उनकी बॉलिंग से बहुत प्रभावित है। खत में लिखा कि ‘क्या तुम लॉर्ड्स मैच के दौरान मुझसे मिलने लंदन में मारबेल आर्च के पास आ सकते हो?’ उस दिन इंग्लैंड की महारानी ने दोनों टीमों को रात के खाने पर बुलाया था। प्रसन्ना ने जब अपनी समस्या पटौदी को बताई तो उन्होंने सलाह दी कि तुम मेज के कोने पर बैठना और जब भाषण शुरू हो जाए तो वहां से चुपके से निकल जाना। दो घंटे बाद जब डिनर खत्म हो गया सुब्रमण्यम ने कहा कि मार्बल

आर्च होते हुए अपने होटल चलते हैं। जब वो वहां पहुंचे तो देखा कि प्रसन्ना वहीं खड़े हैं। जबरदस्त बारिश हो रही है और प्रसन्ना अभी तक उस लड़की की राह देख रहे हैं। भारत के मशहूर स्पिन चौकड़ी के सदस्य चंद्रशेखर कहते हैं कि प्रसन्ना, बेदी और वेंकट एक-एक विकेट लेने के लिए बकायदा योजना बनाते थे। प्रसन्ना तो रन देकर विकेट खरीदने में यकीन रखते थे। उन्होंने 49 टेस्ट मैचों में 189 विकेट लिए। सुनील गावसकर ने अपनी किताब ‘आइडल्स’ में प्रसन्ना का दिलचस्प चित्रण खींचा है, ‘प्रसन्ना की खासियत थी, बल्लेबाज को चकमा देने के बाद मुस्कराते हुए अपने बॉलिंग रन अप की तरफ जाना। उनकी ये मुस्कान बल्लेबाज के लिए सबसे ज्यादा खीज का सबब होती थी। वो बल्लेबाज को बीट करने के बाद उछलते थे और आश्चर्य से अपना हाथ ऊपर ले जाते थे, मानो पूछ रहे हों कि तुम बच कैसे गए?’ 1996 के विश्व कप के दौरान जब शेन वार्न नेट्स में गेंदबाजी कर रहे थे तो एक बुजुर्ग शख्स उनके पास आकर बोला, ‘वेल डन सन, तुम्हारे पास बहुत प्रतिभा है। मैं उम्मीद करता हूं कि तुम इसी तरह अच्छी गेंदबाजी करते रहोगे।’ वार्न उस शख्स को पहचान नहीं पाए। बगल में खड़े इयन चैपल ने उस बुजुर्ग शख्स का परिचय कराया, ‘शेन तुम इरापल्ली प्रसन्ना से बात कर रहे हो, मेरी पीढ़ी के महानतम ऑफ स्पिनर!’


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कही-अनकही

सुचित्रा सेन

बॉलीवुड की ग्रेटा गार्बो

पहले बांग्ला और फिर हिंदी फिल्मों में सुचित्रा सेन बेहतरीन अभिनय ने उन्हें अपने दौर का सिरमौर अभिनेत्री बना दिया था। बांग्ला फिल्मों के पहले सुपर स्टार उत्तम कुमार के साथ उनकी रोमांटिक जोड़ी लगभग दो दशक तक चली समर्थ

पने जमाने की मशहूर अभिनेत्री सुचित्रा सेन को याद करते हुए जीतेजी लीजेंड बन गए देवानंद की फिल्म ‘गाइड’ का एक डायलॉग याद आता है। इस फिल्म में देवानंद अपने अंदाज में कहते हैं, ‘ये जिंदगी भी एक नशा है दोस्त, जब चढ़ता है तो पूछो न क्या आलम होता है।’ उनका यह डायलॉग सिल्वर स्क्रीन की जिंदगी पर भी बिल्कुल फिट बैठता है। यहां जब एक्टर-एक्ट्रेस की शोहरत का खुमार चढ़ता है तो सातवें आसमान पर होता है, लेकिन जब उतरता है तो उन्हें लोगों की निगाहों से इतनी दूर ले जाता है कि वो खुद को भी पहचानने से इनकार कर देते हैं। कुछ साल पहले जब अपने जमाने की मशहूर एक्ट्रेस सुचित्रा सेन के अस्पताल में भर्ती होने की खबर आई तो एक बार फिर फिल्मी दुनिया की इस हकीकत का सामना हुआ। आज की पीढ़ी भले ही उन्हें राइमा या रिया सेन की नानी के तौर पर जाने लेकिन वह भी क्या जमाना था, जब सुचित्रा सेन एक सनसनी थीं। पहले बांग्ला और फिर हिंदी फिल्मों में उनके बेहतरीन अभिनय ने उन्हें अपने दौर की सि र म ौ र अ भि ने त् री बना दिया था।

उत्तम के साथ जोड़ी

बांग्ला फिल्मों के पहले सुपर स्टार उत्तम कुमार के साथ उनकी रोमांटिक जोड़ी लगभग दो दशक तक चली। सिल्वर स्क्रीन पर कोई रोमांटिक जोड़ी शायद ही इतनी लंबी चली हो। 1952 में फिल्म ‘शेष कोथाय’ से अपना फिल्मी सफर करने वाली सुचित्रा पहली भारतीय अभिनेत्री थीं, जिन्हें अपने अभिनय के लिए किसी इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में अवार्ड से नवाजा गया था।

‘देवदास’ की पारो

तीन दशक के अपने लंबे कैरियर में उन्होंने लगभग 52 बांग्ला और सात हिंदी फिल्मों में एक्टिंग की। हिंदी फिल्मों में विमल राय की ‘देवदास’ की पारो को सुचित्रा ही जीवंत कर सकती थीं। बाद में गुलजार की ‘आंधी’ में भी उन्होंने उतना ही जीवंत अभिनय किया था। इस फिल्म को इंदिरा गांधी के निजी जीवन पर बनी फिल्म माना गया। बांग्ला फिल्मों में ‘सात पाके बांधा’, ‘अग्निपरीक्षा’,

‘सप्तपदी’, ‘दीप जोले जाए’ जैसी फिल्में देने वाली सुचित्रा को अब अभिनय की दुनिया में अब कुछ साबित नहीं करना था।

‘प्रणय पाश’ ने बदला जीवन

सत्तर के दशक के आखिर में आई उनकी बांगला फिल्म ‘प्रणय पाश’ फ्लॉप क्या हुई, उन्होंने अपने लाखों फैन की नजरों से दूर एकांत जीवन अपना लिया। अपने कैरियर के चरम पर सब कुछ छोड़ कर सुचित्रा ने जो एकांत अपनाया था उसकी भी एक इंतिहा थी। उन्होंने बिल्कुल सादा जीवन अपना लिया था। बेहद कम खाना, संकरे बिस्तर में कड़े गद्दे पर सोना और सूती की साड़ी पहनना। धार्मिक संगीत सुनना और धार्मिक ग्रंथों का पाठ करना। उन्होंने अपनी दुनिया एक फ्लैट के अंदर समेट ली थी। बाहर के लोगों से बिल्कुल कटा हुआ जीवन। बेटी मुनमुन सेन का परिवार अगले अपार्टमेंट में रहता था। बेटी, दामाद और नातिनों (राइमा और रिया) को भी उनसे मिलने के लिए इजाजत लेनी पड़ती थी। कहते हैं कि उन्होंने रामकृष्ण मिशन के भरत महाराज के संपर्क में आकर आध्यात्मिक जीवन अपना लिया।

गार्बो की राह पर

सुचित्रा को 1978 के बाद सिर्फ एक बार घर से निकल कर सार्वजनिक जगह पर देखा गया, जब वह भरत महाराज की मृत्यु पर नंगे पांव चल कर बेलूर मठ पहुंची थीं। उनके नजदीकी सहयोगी और उन पर किताब लिख चुके गोपाल कृष्ण राय का

सत्तर के दशक के आखिर में आई उनकी बांग्ला फिल्म ‘प्रणय पाश’ फ्लॉप क्या हुई, सुचित्रा ने अपने लाखों फैन की नजरों से दूर एकांत जीवन अपना लिया कहना है कि सुचित्रा चाहती थीं कि दुनिया उन्हें उसी तरह याद रखे, जैसा वह खुद को फिल्मों में दिखाती थीं और इसमें वह सफल रही थीं। ठीक हॉलीवुड की ग्रेटा गार्बो की तरह। गार्बो ने भी इसी तरह चमक-दमक के बीच फिल्मी ग्लैमर को अलविदा कह दिया था। सुचित्रा की नातिन राइमा सेन कहती हैं कि उनकी नानी कभी-कभार घर से निकलती थीं, लेकिन पूरी तरह छिप कर। उनका तीन चौथाई चेहरा ढका होता होता था। आंखों पर काला चश्मा होता था। फिर भी लोग उन्हें पहचान लेते थे।

नियति का एकांत

यह कहना बड़ा मुश्किल है कि सुचित्रा को कौन सी चीज सक्रिय फिल्म जीवन से दूर ले गई, लेकिन इतना तय था कि उनकी निजी जिंदगी की उथलपुथल में इसका अहम रोल था। उनके पति बुरी तरह

शराब और जुआ के आदी हो चुके थे। सुचित्रा से उनकी दूरी बन गई थी। वैसे सुचित्रा ने खुद को जिस तरह एकांत में ढाल लिया, वैसे उदाहरण उनके बाद भी दिखे। बॉलीवुड की कई अभिनेत्रियों ने अपन ग्लैमर का नशा उतरते देखा और खुद को समेट लिया था। नलिनी जयवंत, प्रिया राजवंश, परवीन बॉबी, मीना कुमारी से लेकर साधना ने भी ऐसी ही जिंदगी अपना ली थी। यह वह दौर था, जब इन अभिनेत्रियों की कोई समांतर जिंदगी नहीं थी। इनका जिक्र सिर्फ गॉसिप पत्रिकाओं में होता था। नरगिस दत्त जैसी इक्कादुक्का अभिनेत्रियां ही कुछ हद तक सार्वजनिक जीवन में सक्रिय दिखीं। टीवी पर अभिनय की दूसरी पारी के मौके नहीं थे, न ही इन अभिनेत्रियों में सार्वजनिक जीवन के प्रति इतना रुझान दिखता था। वे अपने आसपास रचे गए आभामंडल की शिकार होकर रह गईं। बॉलीवुड पुरुषों की दुनिया रही है और ज्यादातर अभिनेत्रियां इस वर्चस्व को तोड़ नहीं पाईं। कोई किसी अभिनेता की प्रेमिका बन कर छली गई तो किसी ने अपनी तमाम हसरतों को गला घोंट कर किसी डायरेक्टर का दामन लिया था। वैसे अभिनेताओं और निर्देशकों का साथ पकड़ा जिनकी कई शादियां हो चुकी थीं और जो कई बार परिवार उजाड़ चुके थे। इन अभिनेत्रियों के बाद की पीढ़ी ने अपनी जिंदगी को कहीं ज्यादा सधे अंदाज में जीया। जया बच्चन, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, पद्मिनी कोल्हापुरी, टीना मुनीम और पूनम ढिल्लो जैसी अभिनेत्रियों ने अपनी दूसरी पारी को संतुलित बनाए रखा। उन्होंने वक्त से तालमेल बिठाते हुए फिल्मों और टीवी में अभिनय किया। विज्ञापन किए। परिवार बसाया। राजनीति में सक्रिय रहीं और सार्वजनिक जीवन के दूसरे मंचों पर खुद को व्यस्त रखा। उन्होंने ग्लैमर की दुनिया की हकीकत को अच्छी तरह समझा।

याद रहेंगी सुचित्रा

मनोविश्लेषकों का मानना है कि सुचित्रा सेन जैसी कहानी ग्लैमर की दुनिया में आम है। फिल्म अभिनेता या अभिनेत्रियां अपने अच्छे दिनों की छवि का टूटना बर्दाश्त नहीं कर पाते। वह अपने इर्द-गिर्द ऐसी आभासी दुनिया बना लेते हैं, जिनसे निकलना हर किसी के बूते में नहीं होता। यह आत्ममुग्धता स्थिति ही उन्हें सुचित्रा जैसे हालात की ओर धकेलती हैं। सुचित्रा का अकेलापन उन्हें मौत के किनारे तक ले गया। पर वे भले आज नहीं हैं और उनकी जिंदगी का उत्तरार्ध भले शोक से धुला हो, पर अपने लाखों चाहने वालों के बीच सुचित्रा का संजीदा अभिनय और उनके चेहरे पर खेलतीं भावपूर्ण छवियां आज भी पहले की तरह बरकरार हैं, तरोताजा हैं।


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सा​िहत्य कविता

निराश न होना अंशुमन दुबे

एक चमकती किरण कई पुष्प खिला सकती है, क्षणभर की हिम्मत जीत का एहसास दिला सकती है। वे लोग जो असफलता से निराश हो अंधकार में जी रहे हैं एक छोटी सी मुस्कान कितने ही दीप जला सकती है। इस दुनिया में कष्ट से कोई नहीं अछूता है, किसी न किसी दुख से भरी गागर है। हंसकर सहो तो कड़वी बूंदों के कुछ घूंट हैं, रोकर सहो तो दुखों का विशाल सागर है। जब असफलता की चोट लगे गहरी, तो सारा साहस बटोरकर, मुस्कुराहट ला सकते हो। हारे हुए मन को जीने का साहस दिलाकर, जीन की एक वजह से मिला सकते हो।

25 जून - 01 जुलाई 2018

अवसर की पहचान

क बार एक ग्राहक चित्रों की दुकान पर गया। उसने वहां पर अजीब से चित्र देखे। पहले चित्र मे चेहरा पूरी तरह बालों से ढंका हुआ था और पैरों मे पंख थे। एक दूसरे चित्र मे सिर पीछे से गंजा था। ग्राहक ने पूछा, यह चित्र किसका है? दुकानदार ने कहा, अवसर का। ग्राहक ने पूछा, इसका चेहरा बालों से ढंका क्यों है? दुकानदार ने कहा -क्योंकि अक्सर जब अवसर आता है तो मनुष्य उसे पहचानता नहीं है। ग्राहक ने पूछा, और इसके पैरों मे पंख क्यों है? दुकानदार ने कहा, वह इसीलिये कि यह तुरंत वापस भाग जाता है। यदि इसका उपयोग न हो तो यह तुरंत उड़ जाता है। ग्राहक ने पूछा, और यह दूसरे चित्र मे पीछे से गंजा सिर किसका है? दुकानदार ने कहा, यह भी अवसर का है। यदि अवसर को सामने से ही बालों से पकड़ लेंगे तो वह आपका है। अगर आपने उसे थोड़ी देरी से पकड़ने की कोशिश की तो पीछे का गंजा सिर हाथ आएगा

और वो फिसलकर निकल जाएगा। वह ग्राहक इन चित्रों का रहस्य जानकर हैरान था, पर अब वह बात समझ चुका था। आपने कई बार दूसरों को ये कहते हुए सुना होगा या खुद भी कहा होगा कि हमें अवसर ही नहीं मिला, लेकिन ये अपनी जिम्मेदारी से भागने और अपनी गलती को छुपाने का बस एक बहाना है।

समय का सदुपयोग पूजा सोनी

समय अमूल्य चीज है। दुनिया में अधिकतर लोग तो इनका मूल्य जीवन भर जान ही नहीं पाते और पूरा जीवन बस इधर उधर भटकने में निकाल देते हैं। समय एक ऐसी चीज है जो कभी किसी के लिए नहीं रूकता वो बस चलता जाता है। जो लोग इसका सही उपयोग करते हैं वो जिंदगी में कुछ कर जाते है और बाकी लोगों को सिर्फ पछताना पड़ता है एक उदाहरण के लिए, सोचो अगर आपका किसी बैंक में कोई अकाउंट है और रोज सुबह उसमें कोई 86,400 रुपये जमा करा देता है। आप उन रुपयों को इस्तेमाल नहीं करोगे तो वो शाम तक आपके अकाउंट से वापस निकाल लिए जाएंग।े आप क्या करोगे? सीधी सी बात है कि हर कोई एक-एक पैसा बैंक से निकाल लेगा। हमारी रियल फंड में भी एक ऐसा बैंक है उसका नाम समय है। रोज सुबह हमारे अकांडट में 86,400 सेकडें जमा हो जाते हैं और हर शाम को हमारे उन बचे हुए सेकडें को समय वापस ले लेता हैए जिन्हें हमने किसी बहुत अच्छे काम के लिए इस्तेमाल नहीं किया। अगली सुबह फिर से यही प्रक्रिया चलती है। हमारा वो समय जिसे हम ठीक से इस्तेमाल नहीं कर पाए तो छीन लिया जाता है। तो फैसला अब आपके हाथ में है कि आप कैसे अपने 86400 सेकडें इस्तेमाल करते हो या फिर इन्हें गंवाना चाहते हो। समय की कीमत का अहसास व्यक्ति को उस समय होता है जब वह बीत जाता है ये समय आपके जीवन का वो फल है जो कभी वापस नहीं आएगा।

भगवान ने हमें ढेरो अवसरों के बीच जन्म दिया है। अवसर हमेशा हमारे सामने से आते जाते रहते हैं, पर हम उसे पहचान नहीं पाते या पहचानने मे देर कर देते हैं और कई बार हम सिर्फ इसीलिए चूक जाते हैं, क्योंकि हम बड़े अवसर के ताक में रहते हैं। पर अवसर बड़ा या छोटा नहीं होता है । हमें हर अवसर का भरपूर उपयोग करना चाहिए।

कविता

कुछ दिन पहले

कुछ दिन पहले इस किताब में महक रहे थे वरक नए। जिल्दसाज तुम बतलाओ। वे सफे सुनहरे किधर गए। जहां इत्र की महक रवां थी। जलने की बू आती है। दहशत वाले बादल कैसे। आसमान में पसर गए। बूढ़ा होकर इंकलाब क्यों, लगा चापलूसी करने। कलमों को चाकू होना था। क्यों चम्मच में बदल गए। बंधे रहेंगे सब किताब में। मजबूती के धागे से। एक तमन्ना रखने वाले। वरक-वरक क्यों बिखर गए। जिल्दों से नाजुक बरकों को। क्या तहरीर बचाएगी। क्या मजनून बदलने होंगे। गढ़ने होंगे लफ्ज नए।


आओ हंसें

अच्छा लगता है

सास : मेरी बेटी आपसे नाराज है और वह अब कभी वापस नहीं जाएगी। फिर बार-बार फोन क्यों करते हैं? दामाद : सुनकर अच्छा लगता है। मंडप में रस्म सोनू : दूल्हा मंडप में दुल्हन का हाथ क्यों पकड़ता है? चाचा : बेटा यह एक रस्म है। कुश्ती से पहले पहलवान भी अखाड़े में हाथ मिलाते हैं।

महत्वपूर्ण तिथियां • 26 जून

जीवन मंत्र

सु

सुविचार अच्छी किताबें और अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते हैं उन्हें पढ़ना पड़ता है

डोकू -28

रंग भरो

अंतरराष्ट्रीय नशा मुक्ति दिवस, अंतरराष्ट्रीदय देह व्यापार विरोधी दिवस, अत्याचार के पीड़ितों के समर्थन में संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय दिवस

सुडोकू का हल इस मेल आईडी पर भेजेंssbweekly@gmail.com या 9868807712 पर व्हॉट्सएप करें। एक लकी व‌िजते ा को 500 रुपए का नगद पुरस्कार द‌िया जाएगा। सुडोकू के हल के ल‌िए सुलभ स्वच्छ भारत का अगला अंक देख।ें

• 29 जून

सांख्यिकी दिवस (प्रो. प्रशांत चंद्र जन्म दिवस) • 1 जुलाई

चिकित्सक दिवस (डॉ. बिधान चन्द्र राय का जन्म दिवस) अंतरराष्ट्रीय चुटकुला दिवस, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन स्मृति दिवस • 23 जून अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ का स्थापना दिवस, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी स्मृति दिवस, अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस • 1 - 7 जुलाई वन महोत्सव सप्ताह

बाएं से दाएं

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इंद्रधनुष

25 जून - 01 जुलाई 2018

1. गले के लिये लाभप्रद एक आयुर्वेदिक जड़ी (3) 3. मजदूर (3) 6.सौगंध (3) 8. बराबर, एक सा (3) 10. दंड संहिता (4) 11. भेंट, मुकाबला (3) 12. तपस्या (4) 15. मेल, मिलन (3) 17. साँप का दुश्मन, गरुण (3) 18. सफेद (2) 20. मुख्य पुरोहित, प्रकांड पंडित, धर्मगुरु (3) 21. सबसे बड़ी माँ, दुर्गा (4) 23. राजीव (3) 24. सूर्य (3) 25. एक विषैला सर्प (3) 26. बलिष्ठ (3)

सुडोकू-27 का हल

वर्ग पहेली-27 का हल

ऊपर से नीचे

1. एक प्रकार की पीली मिट्टी (6) 2. मिट्टी के बर्तन का टूटा टुकड़ा (3) 3. मेहनत (2) 4. छटपटाना (5) 5. पत्ता, बीड़ा (2) 7. लगातार, निरंतर (3) 9. मान लिया गया (2) 13. फरसा (3) 14. एक प्रकार का समुद्री जीव (6) 16. बस आदि वाहन का संचालक (5) 19. भँवरा (3) 20. सामान्य, एक फल (2) 22. तीव्र इच्छा (3) 23. केकड़ा (2) 24. डोरा (2)

कार्टून ः धीर

वर्ग पहेली - 28


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न्यूजमेकर

25 जून - 01 जुलाई 2018

अनाम हीरो

एचिलेस

सच निकली बिल्ली की भविष्यवाणी

फीफा वर्ल्ड कप के मैचों को लेकर एचिलेस बिल्ली की भविष्यवाणी उसी तरह सच साबित हो रही है, जैसे पहले ऑक्टोपस पॉल की हुई थी

जि

स तरह पिछले फीफा वर्ल्ड कप में ऑक्टोपस पॉल ने जीत की भविष्यवाणियां की थी ठीक वैसे ही इस बार फीफा वर्ल्ड कप में एचिलेस नाम की बिल्ली भविष्यवाणी कर रही है। इस साल पहले मैच में बिल्ली की भविष्यवाणी बिलकुल सही हुई। फीफा वर्ल्ड कप 2018 में पहला मैच रूस और सऊदी अरब के बीच खेला गया, जिसमें रूस ने अरब को 5-0 से हरा दिया। दोनों ही टीमें इस साल की सबसे कमजोर टीम मानी जा रही हैं। वैसे पिछले दो सालों में रूस का प्रदर्शन काफी खराब रहा है। 2016 से अब तक रूस ने 19 मैच खेले, लेकिन उसे सिर्फ 6 जीत

सुदीक्षा

यू

में ही जीत मिली। वर्ल्ड रैंकिंग में रूस 70वें नंबर पर है तो वहीं सउदी अरब 67वें नंबर पर है। ओल्ड इंपेरियल सारिस्ट कैपिटल के प्रेस सेंटर में दो कटोरियां रखी गई थीं, जिसमें बिल्ली को एक कटोरी को चुनना था। बिल्ली ने एक कटोरी चुनी जिसमें से रूस की पर्ची थी और रूस को पहले मैच में धमाकेदार जीत मिली। इसके बाद बिल्ली को टीम की जर्सी पहनाई गई। बिल्ली की मालकिन एना कासाटकिना ने कहा- ‘एचिलेस को लोगों के बीच में रहने का शौक है और वो घबराती नहीं है।’

अभाव की हार

चाय की दुकान चलाने वाले जितेंद्र भाटी की बेटी सुदीक्षा को अमेरिका के प्रतिष्ठित बॉबसन कॉलेज में पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप मिली

पी में दादरी के आमका रोड पर चाय बेचने वाले की बेटी अब अमेरिका में पढ़ाई करेगी। जी हां, चाय की दुकान चलाने वाले जितेंद्र भाटी की बेटी को सुदीक्षा को अमेरिका के प्रतिष्ठित बॉबसन कॉलेज में पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप मिली है। हाल ही में 12वीं में 98 फीसदी लाकर जिले में टॉप करने वाली सुदीक्षा ने इस मुकाम के लिए बहुत मेहनत की है। परिवार की आर्थिक स्थिति और सामाजिक रूढ़ियों को तोड़कर सुदीक्षा ने न सिर्फ अपनी पढ़ाई जारी रखी, बल्कि अब अमेरिका में पढ़ने का अपना सपना भी पूरा करने जा रही हैं। बता दे कि अमेरिका की बॉबसन कॉलेज ने सुदीक्षा को 4 साल के कोर्स के लिए 3.8 करोड़ की स्कॉलरशिप दी है। सुदीक्षा ने बताया

कि पढ़ाई करने के लिए घर पर उतने पैसे नहीं थे। 2011 में शिव नाडर द्वारा संचालित विद्या ज्ञान लीडरशिप अकेडमी स्कूल में दाखिला मिल गया और इसके बाद पढ़ाई जारी रखना आसान हो गया। इस स्कूल में बड़ी संख्या में वंचित समुदाय से आने वाले बच्चे पढ़ते हैं और उन्हें भी वहां यह मौका मिला। शुरुआत में उनके परिवार और रिश्तेदारों को आपत्ति थी, लेकिन माता-पिता ने पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया। दादरी विधायक ने सुदीक्षा का उत्साहवर्धन करते हुए कहा, ‘आप जैसी बेटियां समाज तथा देश के लिए गौरव हैं, समाज को अपनी होनहार बेटियों से सीख लेनी चाहिए, जो देश का नाम विश्व पटल पर रोशन कर रही हैं।’

दिव्या रावत

मशरुम गर्ल

उत्तराखंड में करोड़ों रुपए की कंपनी खड़ी करने वाली दिव्या को लोग मशरूम गर्ल कहकर बुलाते हैं

हिला किसान की बात करने पर लोगों के जेहन में अभी तक सिर्फ महिला मजदूरों की तस्वीर आती थी, लेकिन कुछ महिलाएं सफल किसान बनकर इस भ्रम को तोड़ रही हैं। उत्तराखंड की दिव्या रावत मशरूम की खेती से सालाना एक करोड़ से ज्यादा की कमाई करती हैं, उनकी बदौलत पहाड़ों की हजारों महिलाओं को रोजागार भी मिला है। दिव्या के सराहनीय प्रयासों के लिए पिछले वर्ष राष्ट्रपति ने इन्हें नारी शक्ति अवार्ड से सम्मानित किया था। दिव्या ने अपनी मेहनत और लगन से असंभव काम को संभव कर दिखाया। पांच वर्ष की इनकी मेहनत से पलायन करने वाले लोगों की संख्या यहां कम हो रही है। दिव्या कई राज्यों के रिसर्च सेंटर से सीखकर मशरुम की खेती यहां की हजारों महिलाओं को सिखा रही हैं। उत्तराखंड के चमोली जिले से 25 किलोमीटर दूर कोट कंडारा गांव की रहने वाली दिव्या रावत दिल्ली में रहकर पढ़ाई कर रही थी, लेकिन पहाड़ों से पलायन उन्हें परेशान कर रहा था, इसीलिए 2013 में वापस उत्तराखंड लौटीं और यहां मशरूम उत्पादन शुरू किया। दिव्या बताती हैं, ‘मैंने उत्तराखंड के ज्यादातर घरों में ताला लगा देखा। चारपांच हजार रुपए के लिए यहां के लोग घरों को खाली कर पलायन कर रहे थे, जिसकी मुख्य वजह रोजगार न होना था। मैंने ठान लिया था कुछ ऐसा प्रयास जरुर करूंगी जिससे लोगों को पहाड़ों में रोजगार मिल सके।’ सोशल वर्क से मास्टर डिग्री करने के बाद दिव्या रावत ने दिल्ली के एक संस्था में कुछ दिन काम भी किया, लेकिन दिल्ली उन्हें रास नहीं आई। रावत ने कदम आगे बढ़ाए तो मेहनत का किस्मत ने भी साथ दिया। वो बताती हैं, ‘वर्ष 2013 में तीन लाख का मुनाफा हुआ, जो लगातार कई गुना बढ़ा है। किसी भी साधारण परिवार का व्यक्ति इस व्यवसाय की शुरुआत कर सकता हैं। अभी तक 50 से ज्यादा यूनिट लग चुकी हैं, जिसमें महिलाएं और युवा ज्यादा हैं जो इस व्यवसाय को कर रहे हैं।’

आरएनआई नंबर-DELHIN/2016/71597; संयुक्त पुलिस कमिश्नर (लाइसेंसिंग) दिल्ली नं.-एफ. 2 (एस- 45) प्रेस/ 2016 वर्ष 2, अंक - 28


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