Sahitya ka Dhvani Tatva urf Sahityik Big Bang साहित्य का ध्वनितत्त्व उर्फ़ साहित्यिक बिग बैंग-कमलानाथ

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शब्दप्रवाह और व्यंग्यात्मक सम्प्प्रेषणीयता का रोचक समन्वय व्यंग्य संग्रह –“साहहत्य का ध्वहन तत्व उफ़फ़ साहहहत्यक हबग बैंग” लेखक: कमलानाथ प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली, नई ददल्ली-110030, पेज 148, मूल्य रु.300, प्रथम संस्करण 2015, ISBN978-81-7408-768-3. काफ़ी असे के बाद हाल ही में एक नया व्यंग्य संग्रह पढ़ने को हमला है, हजसने व्यंग्य की बारीदकयों को न के वल सुन्दर शब्दहवन्यास द्वारा, बहल्क चुहनन्दा ‘हवषयों’ में समेटे हुए मनोरं जन को पूरे बहाव के साथ उके रा है। प्रथमदृष्ट्या एक दूसरा सुखद अनुभव संग्रह में आम उदूफ़ के अहधकांश शब्दों को नुक्तों के साथ देख कर भी हुआ। संग्रह में लेखक ने सबसे पहले तो यह प्रश्न पूछते हुए ही चुटकी ले ली दक ऐसी पुस्तकों में ‘भूहमका’, ‘दो शब्द’ वगैरह क्यों हलखे या हलखाए जाते हैं। अपनी इस पुस्तक में भूहमका ‘के हवरुद्ध’ उन्होंने कई कारण बताये हैं जो ददलचस्प हैं और अंत में पाठकों को ही भूहमका लेखक की बजाय बेहतर समीक्षक बताते हुए उन्हें यह संग्रह समर्पपत दकया है। सभी व्यंग्य इस संग्रह में हजस सहजता से बहते हैं, उससे हहदी के सामर्थयफ़ की तो पुहि होती ही है, पाठक को यह कहीं नहीं लगता दक उसमें कही बात को दकसी दूसरी तरह भी कहा जा सकता था।व्यंग्यों को कहने की शैली और मनोरं जक प्रस्तुतीकरण से पाठक की रुहच लगातार बनी रहती है। व्यंग्य में प्रयुक्त साहहहत्यक शब्दों का प्रयोग कहीं भी भारीपन नहीं लाता, बहल्क आम भाषा के उदूफ़ शब्दों (जो नुक्ते नहीं लगे होने पर हहदी के मान हलए जाने चाहहएं) के साथ हमल कर सहज गहतशीलता देने का काम करता है जो कमलानाथ के लेखन की हवशेषता कही जा सकती है। कमलानाथ (जन्म 1946) एक वररष्ठ लेखक हैं और एक लब्धप्रहतष्ठ इंजीहनयर की कलम से ऐसी सुखद अहसास देने वाली सामग्री हनहित ही प्रशंसनीय तो है ही।इस संग्रह में बीस व्यंग्य संकहलत हैं, जो ‘बाबाओं’ के नाम पर आजकल के ढोंगी सफ़े दपोशों के करतबों को उखाड़ते हैं, दफ़्तरों में ददखाई देने वाली अकमफ़ण्यता पर प्रहार करते हैं, बुहद्धजीहवयों के सम्प्मेलनों में होने वाले ्ानपूणफ़ बहस-मुबाहसों को मनोरं जन की ऊंचाइयों तक पहुंचा देते हैं, देशी हवदेशी कहवयों के गुणों और कायफ़कलापों का ‘बखान’ और उनकी हवहशि ‘श्रेहणयों’ का ‘ददग्दशफ़न’ कराते हैं, राई का पहाड़ बना देने वाले समाचारों की हखचाई करते हैं और आम हिंदगी में होने वाली साधारण सी घटनाओं को भी बेहद ददलचस्प तरीके से पेश करते हैं। संग्रह के तीन व्यंग्यों का खासतौर से हिंक्र करना िंरूरी है। आजकल तथाकहथत ‘बाबाओं’ की संख्या में हजस तरह नाटकीय वृहद्ध हुई है और दकस्म दकस्म के ‘बाबाओं’ का अचानक ही प्रादुभाफ़व हुआ है, उस पर मनोरं जक ढंग से प्रहार करता हुआ एक व्यंग्य “बाबा तेरे रूप अनेक” इन ढोंहगयों की अद्भुत सम्प्मोहक शहक्त का वणफ़न करता है। व्यंग्य में ऐसे बाबाओं का हिंक्र व्यंग्यकार द्वारा कहथत ‘ढपोल पंथ’ नामक‘मूल पंथ’ की पांच शाखाओं या पंथों के अंतगफ़त दकया गया है – समागम पंथ, भोग पंथ, गपोल पंथ, खगोल पंथ और


आसन पंथ। ये लोग दकस तरह अपनी लफ़्फ़ािंी और फ़रे ब से भोलेभाले लोगों को फा​ाँस कर अपनी जेबें भरते हैं, उसका रोचक हवाला इस व्यंग्य में ददया गया है। दूसरा व्यंग्य ‘हहदी साहहत्य का रे वड़ी युग’ ऐसे लेखकों, संस्थाओं आदद पर बड़े मनोरंजक अंदािं में कटाक्ष करता है हजसमें नए लेखक जल्दी से जल्दी कोई न कोई पुरस्काररूपी ‘रे वड़ी’ बटोर कर ‘प्रहतहष्ठत’ बन जाने की जुगत में लग जाते हैं और कई संस्थाएं भी सम्प्मान, पुरस्कार आदद ‘प्रदान’ करने में अंधे की तरह ‘अपने अपनों’ को रे वड़ी बांटने जैसा काम करती हैं या प्रायोहजत पुरस्कारों का ‘आयोजन’ करती हैं। व्यंग्य में कहा गया है दक सन 2000 के बाद इस तरह का माहौल ज़्यादा देखने को हमला है और लेखक ने इस युग को हहदी साहहत्य का ‘रे वड़ी’ युग ‘हनधाफ़ररत’ दकया है। संग्रह के शीषफ़क ‘साहहत्य का ध्वहन तत्व उफ़फ़ साहहहत्यक हबग बैंग’ के व्यंग्य में लेखक और उनके उदूफ़ के हवद्वान हमत्र का सामना एक ऐसे साहहत्यकार से होता है जो दकसी अनजाने हवषय पर भी मोटे और भारी शब्दों का हवस्फोट करके ही अपने आप को ‘हचन्तक’ और ‘हवद्वान’ होना समझता है और लोगों पर वैसा ही भ्रम डाल देता है। हाला​ाँदक हबग बैंग की तरह ये शब्द धमाका तो बहुत करते हैं और दकसी भी आम श्रोता या पाठक को प्रभाहवत कर सकते हैं, पर वास्तव में हवषयवस्तु के सन्दभफ़ में उनका कोई अथफ़ नहीं होता या कु छ भी हो सकता है। उदाहरण के हलए ‘साहहत्य चचाफ़’ के दौरान ‘साहहत्यकार’ महोदय कहते हैं- “ …प्रत्यहभ्ादशफ़नका प्रमाण प्रमेयात्मक हो सकता है, दकन्तु हत्रवृत्करणवाद का वैहशष्ट्य और हवकीणफ़न का तुरीयातीत स्वरूप अहवनाभाव का सम्प्बन्ध नहीं बताता…..क्या युगचेतना, कालतत्व में पररच्छेदकपररहच्छन्न भाव का सं्ान नहीं कराती? हव्ानघनसत्तामय भग्न हवश्व की द्रव्यभूता महाशहक्त क्या आक्रामकता की संप्रेषणीय महत्ता का हबम्प्ब नहीं है? प्रवृहत्त हनहमत्तोपपादकत्व क्या समग्र अथफ़भूता मयाफ़दा में समाहहत नहीं है? ..यही परमवैहवध्य अहभव्यहक्त का हचद् रूप होकर भी क्या हववतफ़वाद की हवमशफ़ प्रदक्रया नहीं है?” अंत में उदूद फ़ ां हमत्र उस साहहत्यकार को उदूफ़ में उसी की घुटी इस तरह हपला देते हैं–“दफ़िंाओं का दीदार, रूबाइयों की ख़ुशबू के माहनन्द है, दफर दफ़शारे िंओफ़ में गुलखन की नुमूद क्यूं? यह दुहनया बािंीचा-एअत्फ़ाल नहीं है मगर दफर भी शब-ओ-रोिं िंओमे-जुनूं सिंा-ए-कमाले सुखन क्यूं है? ...बेहनयािंी खजालत का सबब बन जाती है हजसे कोई बेहरम ही खामा खूाँचका​ाँ होकर समझ सकता है।” यह ऐसे ही तथाकहथत ‘साहहत्यकारों’ और ‘हवद्वानों’ पर दकया गया कटाक्ष है, जो न के वल मिंेदार है बहल्क गुदगुदाने वाला रोमांच भी भर देता है। इसमें संस्कृ तहनष्ठ हहदी और उदूफ़ के गंभीर और फटाके दार शब्दों का चयन व्यंग्यकार की हवशाल शब्दावली और अनुभव को दशाफ़ता है। अयन प्रकाशन, महरौली, नई ददल्ली द्वारा प्रकाहशत इस व्यंग्य संग्रह का लेआउट काफ़ी आकषफ़क है। सबसे अच्छी बात यह है दक ज़्यादातर दकताबों में जगह जगह ददखाई दे जाने वाली वतफ़नी की अशुहद्धया​ाँ इस पुस्तक में नगण्य हैं। आम छोटे छोटे व्यंग्यों की तुलना में इस संग्रह के कु छ व्यंग्य िंरा लंबे लग सकते हैं, पर ये बोहझल नहीं होते, हवषय को सम्प्पूणफ़ता के साथ ‘उभारते’ हैं, मनोरं जक घटनाक्रम से गुंथे हुए हैं और सभी व्यंग्य भाषा शैली के रोचक प्रवाह में पाठक को बहा ले जाने में सक्षम हैं।148 पेज की इस दकताब का मूल्य रु. 300 है। कु ल हमला कर रुहचशील पाठकों के हलए हनहित ही यह व्यंग्य संग्रह पढ़ने योग्य है। तािंगी देने वाले इस प्रयास के हलए लेखक बधाई के पात्र हैं।


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