मचान
अंक १०
मई २०२२
प्रिय पाठक, गर्मी उफान पर है। हर दिन नया रिकॉर्ड टूटने की खबरें आती हैं। सोचती हूं इन सब रिकॉर्ड्स की ख़बर कौन रखता होगा। कितना उबाऊ काम है (ज़रूर मुझ जैसा कोई बेरोजगार मान गया होगा ये काम करने को)। गर्मियां बड़ी अजीब होती हैं। मौसम आते ही ये हर बातचीत का हिस्सा हो जाती हैं। जैसे कि आम हर खाने में डलने लग जाता है, वैसे ही "हाय! कितनी गर्मी पड़ रही है", ये कहना आम हो जाता है। दिन में दो-चार बार गर्मी को कोसे बिना दिल नहीं मानता। ये मन उचटने वाला मौसम है। हर दिन एक जैसा लगने लगा है। दिन जितने गर्म, रात उतनी रूखी। इसी बीच उजड़ चुके पेड़ो पर पत्तों के आने का सिलसिला जारी हो गया है। पर उन पत्तों से छांव की सरंचना होने में अभी वक्त है। तब तक इस तपिश से बचने के लिए मचान की छाया में आ जाइए। दो पल आराम फरमाइए, दिल और दिमाग को ठंडा करिए, थोड़ी ताकत जुटाइए ताकि फिर वही उबाऊ दिनचर्या में लौटा जा सके । इसे रेगिस्तान में पानी के स्रोत की तरह ही समझें। मचान आज अपने दसवें अंक तक पहुंच गई है। ये राहत आप तक पहुंचने में हमारी मचान मंडली के साथ-साथ हमारे सभी सहयोगियों का भी उतना ही हाथ है। ये सफर परिश्रम और विश्वास के बिना मुमकिन नहीं था। हमारी इस कड़ी में
संपादकीय संपादकीय संपादकीय आप पढ़ेंगे चुनिंदा मगर बेहतरीन कहानी एवं कविताएं जिन्हें साझा किया है अशोक गुजराती, चर्चित, श्रेया सिंह, अकांक्षा, आर्यंत त्रिपाठी, विश्वजीत गुडधे, प्रकृ ति करगेती, शिवम तोमर, शीत और सत्यम तिवारी ने। मचान की ओर से प्रियांशी, उलफत और मधुरिमा ने इस बार कु छ नया करने की कोशिश की है। खिजां ने इस अंक फिर वापसी की है। हमेशा की तरह इस बार भी हमारी कला निर्देशक रही हैं मधुरिमा जिनके कौशल को देखकर आंखों में भी ठंडक आ जाए। हमारे सभी सहयोगियों का एक बार फिर से धन्यवाद। पिछले और इस अंक के बीच कु छ बेहद महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। विनोद कु मार शुक्ल जी के साथ हुए अन्याय ने हिंदी साहित्य की दुनिया को झकझोर दिया। साथ ही साहित्य की इस छोटी सी दुनिया से जुड़े रहने वाले लोगों को एक मौका भी दिया अपने खुद के गिरेबान में झांक कर देखने का। मचान ने बड़े ही विस्तार से इस मामले में अपना पक्ष रखा है जो हमारे इंस्टाग्राम चैनल पर मौजूद है।
इसी से साथ अप्रैल में बी. आर. अम्बेडकर जी का जन्मदिन भी आता है जिस कारण अप्रैल को दलित हिस्ट्री मंथ के रूप में भी मनाया जाता है। इस समय का उपयोग दलित साहित्य से रूबरू होने में लगाएं। अप्रैल इसलिए भी खास है क्योंकि ये राष्ट्रीय काव्य लेखन माह के रूप में मनाया जा रहा है। यही वजह है की इस बार आपको कविताओं का संग्रह अंक में ज़्यादा दिखेगा। मचान मंडली भी अंक दर अंक ज़्यादा से ज़्यादा जानने का प्रयास कर रही है और जागरूक रहने को अग्रसर है। आशा करती हूं की अगली बार जब आपसे मुलाकात हो तो आसमान में तीखे सूरज को काले बादलों ने ढक लिया हो। अब चलती हूं। इस बार के लिए इतना ही। बाकी बातें किसी और अंक में। श्वेतिका
इंडेक्स दुष्काल
06
चोर लड़के
14
हाथ
15
मनु जी - रिपोर्टर ओफ़ स्माल थिंग्स
16
नींद
20
दिनचर्या
21
कछु एं
23
हम दोनों एक दूसरे का पहला प्यार हैं
25
हसदेव बचेगा तो देश बचेगा
28
भेड़िए
30
मर्ज़
31
साहस
32
गाय और अम्मा
34
परछाई की पूंछ
36
उँगलियों के निशान
39
चकित हैं हम
40
मैं कोसों दूर, एक वही स्पर्श जीता हूँ
41
खिजां खाला के रसोड़े में आज कौन है?
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जय भीम
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अशोक गुजराती
दुष्काल शेवंती के पास अब चार घर हो गये थे। उसके काम के सुथरेपन तथा व्यवहार की सौम्यता से उसे यह प्राप्ति हुई थी। उसकी झोंपड़ी से रचना कालोनी बहुत दूर नहीं थी। वह सुबह नौ से बारह और दोपहर तीन से छह के मध्य यह सब निपटा देती थी। रचना कालोनी जाते-आते उसकी राह में पड़ता था माहरुख़ का ईंटों का छोटा-सा घर। अमूमन वह शेवंती के तयशुदा वक़्त पर बाहर ही खड़ा प्रतीक्षा में मिलता। शेवंती रुक जाती। इधर-उघर की दो-पांच बातें हो जातीं। एक रोज़ माहरुख़ ने कहा, ‘किसी दिन हमको अपने यहां बुलाकर चाय नहीं पिलाओगी?’ शेवंती मानो चाहती ही थी कि ऐसा कोई प्रस्ताव आये। बनते हुए बोली, ‘मैं क्यों बुलाऊं ? क्या तुम्हारा हक़ नहीं है कि बिन बुलाये आओ और चाय के लिए कहो?’ ‘मैं महज़ इसलिए ख़ुद होकर नहीं आया कि यह कहीं पड़ोसियों की नज़र में न आ जाये। तुम अव्वल ही परेशान हो, यह रुसवाई तुम्हें और ज़्यादा परेशान कर देगी।’ माहरुख़ ने फ़िक्र दर्शायी। ‘ऐसा करो। दोपहर को साढ़े बारह से ढाई के बीच आ जाना। तब मैं घर पर ही रहती हूं। उस घड़ी हर तरफ़ सुनसान होता है। तेज़ धूप के कारण कोई बाहर नहीं आता।’ शेवंती ने हल सुझाया। ‘ठीक है।
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आज मैं कहीं जा रहा हूं। कल एक बजे पक्का आऊं गा।’ माहरुख़ ने वादा किया। अगले दिन जब माहरुख़ शेवंती की झुग्गी के सामने पहुंचा, उसने देखा कि किवाड़ मात्र उढ़का हुआ है। उसने धीमेसे दस्तक दी। भीतर से ज़रा भारी-सी आवाज़ आयी- ‘पट ठेलकर आ जाओ, माहरुख़ दरवाज़ा खुला ही है।’ माहरुख़ को हल्का-सा ताज्जुब हुआ। बगै़र देखे शेवंती ने उसे पहचान लिया है। इसका मतलब है, वह उसीका इन्तज़ार कर रही थी। उसने आहिस्ता से पल्ले को ढके ला। चारपाई पर शेवंती कम्बल ओढक़र लेटी हुई थी। उसने चिन्तित हो पूछा, ‘क्या हुआ? तबीयत ख़राब है क्या?’ अपने पीछे दरवाज़े को पुनः भेड़ते हुए वह शेवंती के निकट चला गया। शेवंती कराहते हुए बोली, ‘कु छ विशेष नहीं। बुख़ार आ गया था। उससे पूरा बदन टू ट रहा था। मैंने सवेरे लक्ष्मी से बुख़ार की दवाई मंगाकर ले ली थी।’ माहरुख़ ने कु छ हिचकते हुए कम्बल से बाहर निकली उसकी कलाई थाम ली‘थोड़ा गर्म लग रहा है। शायद उतार पर है।’ खोली में बैठने के लिए खटिया के सिवा कोई और साधन नहीं था। शेवंती किनारे सरक गयी- ‘बैठो मैंने आज छु ट्टी कर ली। अब ठीक लग रहा है।’ माहरुख़ बैठ
गया। किसी पराई युवती के शरीर से इतना सटकर बैठने का उसका पहला अवसर था उसने अपनी काया में स्पंदन का अनुभव किया। पता नहीं किस धुन में उसने शेवंती की कलाई वैसे ही पकड़ी हुई थी। किसी का तापमान हम कलाई से शुरू में जांचते हैं, अनायास ही हमारा हाथ उसके पश्चात मरीज़ के कपाल को छू कर पुष्टि कर लेना चाहता है कि क्या वह भी तप रहा है। बिना कोई विचार किये, माहरुख़ ने भी स्वयं-स्फू र्त यही क्रिया अपनायी। ज्यों ही उसने शेवंती की पेशानी पर अपनी उंगलियों से स्पर्श किया, शेवंती ने भी अनजाने उसकी हथेली पर अपनी हथेली रख दी। क्या यह सारा यूं ही यांत्रिक रूप से हो जाता है? निश्चित ही हमारा अवचेतन हमें अज्ञान रख इसके लिए प्रवृत्त करता है। और मस्तिष्क तक यह संदेश जाता कै से है?... प्यार के अलावा यह ख़ुराफ़ात और कौन करेगा भला? माहरुख़ ने अपनी हथेली पलटायी और हौले-से शेवंती की दबा दी- ‘मैं तुम्हारे लिए चाय बनाता हूं। पीकर तुम्हें बेहतर लगेगा।’ वह शेवंती का हाथ छोड़कर उठ खड़ा हुआ। शायद नातजुर्बे कार का डर वजह रहा हो। यह आशंका भी हो सकती है कि अचानक कोई किवाड़ उघाड़कर अंदर न झांक ले... उनका परस्पर ऐसा कु छ आपत्तिजनक न भी चल रहा हो, देखने वाला अर्थ का अनर्थ सोच ही लेगा। शेवंती ने उसे मना किया‘नहीं, नहीं... तुम क्यों बनाओगे... मेरे में अब ताक़त-सी आ गयी है।’ वह कम्बल फें ककर उठी तो एकदम माहरुख़ के
बग़लगीर हो गयी। ‘क्या मुझसे मिलकर?’ माहरुख़ कहना कु छ चाहता था और उसके मुंह से अप्रत्याशित वही निकल गया, जो प्रेमातुर द्वारा कहा जाना चाहिए। ‘हां। तुम्हारे आने से मेरे में एकाएक फु रती आ गयी।’ बोल तो दिया फिर उसका मतलब समझकर वह शर्मा भी गयी। शेवंती के इस कथन ने माहरुख़ का उत्साह अवश्य बढ़ा दिया- ‘सच?’ शेवंती के इकरार में गर्द न हिलाकर मुस्कराते ही माहरुख़ ने आगे बढ़कर उसे आलिंगन में ले लिया- ‘शेवंती...’ तभी दरवाज़े के नज़दीक किसी के पदचाप की आहट मिली और दोनों एकदूसरे से अलग हो गये और दरवाज़े को पूरा खोल दिया चाय पीकर माहरुख़ बाहर आया। सामने नीम के पेड़ के नीचे रामलाल खड़े थे। माहरुख़ जानता था कि रामलाल चाचा शेवंती के मरहूम बाप महादेव के पड़ोसी ही नहीं, नज़दीकी भी थे। उसे यह भी पता था कि उसके अब्बा रहीम से भी रामलाल चाचा की दांत-कांटी दोस्ती है। लोग-बाग यहां तक कहते हैं कि ‘यह राम-रहीम की जोड़ी है’। वह अपने निवास की तरफ़ जाने को हुआ। रामलाल चाचा ने उसे पुकारा‘माहू, ज़रा इधर आना।’ माहरुख़ घबरा गया। उसने अंदाज़ा लगा लिया कि जो पदचाप उन्हें सावधान कर गयी थी, वह रामलाल चाचा की ही थी। वह जान गया कि चाचा को उस पर शक हो गया है। हिम्मत कर वह उनके क़रीब गया‘स..सलाम चाचा। कै से हैं आप?’
‘मेरे को क्या हुआ है... मैं तन्दुरुस्त हूं बेटा।’ चाचा शीघ्र ही असली मुद्दे पर आ गये- ‘कै सी है शेवंता की तबीयत? काफ़ी देर बैठा तू…’ ‘जी।’ माहरुख़ पकड़े गये चोर की-सी हालत से गुज़र रहा था। ‘उसका बुख़ार उतर गया है। मुझे किसीने बताया तो देखने चला आया...’ ‘हो गया देखना-मिलना? चाचा के व्यंग्यात्मक सवाल ने माहरुख़ को सरापा सिहरन से भर दिया। ‘मेरा ख़्याल है, वह भी तेरे को पसन्द करती है। क्या मैं रहीम मियां से बात करूं ?’ उनका प्रश्न इस परीक्षा हेतु था कि यदि यह शुद्ध यौनिक मामला है तो ‘मैं तरेे अब्बा से शिकायत करूं गा’। गर यह जीवन-भर साथ निभाने के कौल की पृष्ठभूमि है, तब ‘तेरे अब्बा को इसके लिए राज़ी करने की कोशिश करूं गा’। ‘जी।’ माहरुख़ के हामी भरने से चाचा समझ गये कि यह रूहानी क़िस्सा है। रहीम! रहीम भाई! माहरुख़ के वालिद। उनको कौन नहीं जानता था... उनकी कीर्ति दो कारणों से थी पहला यह कि वे पीके वी (पंजाबराव कृ षि विद्यापीठ) में हाेस्टल की मेस चलाते थे। विद्यापीठ के चार छात्रावास थे। सबसे बड़े छात्रावास की मसे में दो तरह के भोजन की व्यवस्था थी - मांसाहारी और शाकाहारी दोनों। मांसाहारी मेस का ठेका कई सालों से रहीम भाई को ही मिलता रहा था। उनका सामिष खाना अति स्वादिष्ट होता था। इतना मशहूर कि माहाना ‘फ़ीस्ट’ का स्वाद चखने बाहर के अनेक विद्यार्थी ही नहीं, अन्य नौकरी - पेशा एवं व्यवसायी
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भी गेस्ट बनकर उनको सम्मान दतेे। दूसरा कारण, हठधर्मी समाज के वास्ते एक अपवाद था, एक मिसाल थी। उस झुग्गी बस्ती के अंत में उनका मकान था। उसको लगकर सड़क के बाईं ओर ख़ाली मैदान था। वहां हर वर्ष विशाल मंडप डालकर गणपति की स्थापना होती थी। दस दिनों का यह गणेशोत्सव महाराष्ट्र में बरसों पहले ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ सांस्कृ तिक कायर्क्र म आयोजित करने के उद्देश्य से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने प्रारंभ किया था। एक अरसे से उस झोंपड़पट्टी द्वारा यह आयोजन सफलतापूर्वक किया जा रहा था। और स्थापना समिति के अध्यक्ष थे, बल्कि अभी भी हैं- शेख़ रहीम। कह सकते हैं, वे ही सर्वेसर्वा हैं। शुरुआत उन्होंने ही की थी। वे मज़रूह का यह शे’र हमेशा कहते- ‘मैं अके ला ही चला था जानिबे-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया’। मुस्लिम हाेकर उनका हिन्दुओं के आराध्य गणेश भगवान के प्रति यह समर्पण चारों ओर विख्यात था। रामलाल ने रहीम को बताया कि माहरुख़ और शेवंता के मध्य प्रगाढ़ता हद पार कर रही है। उसका फ़ौरी तौर पर इलाज ज़रूरी है। रहीम ने थोड़ी देर सोचा। फिर गंभीरता से बोले, ‘अगर हम उनकी शादी कर दें...’ उन्होंने तनिक विराम के पश्चात पूछा, ‘तुम्हारे हिन्दू भाइयों को कोई एतराज़ तो नहीं होगा?’ ‘वह बेचारी दुख की मारी अनाथ है। उसके कष्ट समाप्त हो जायेंगे।’ रहीम के
सुझाव का उत्तर देने के बाद रामलाल उनके प्रश्न की ओर मुड़े- ‘अपने मोहल्ले में सबको मालूम है कि आप गजानन के आराधक हैं। कोई भी विरोध नहीं करेगा। यहां कोई राजनीति नहीं होती, आपसे छिपा नहीं है।’ ‘ऐसा हो जाये तब गणेश जी की पूजाअर्चना का कार्य भविष्य में वही करेगी। हम उसका धर्म -वर्म क़तई नहीं बदलंगे।’ रहीम इस नये रिश्ते को लेकर प्रसन्न थे। ‘गरमी का मौसम ख़त्म होने को है। अगस्त में गणेशोत्सव है, उससे पहले हम यह विवाह कर सकते हैं।’ रामलाल थोड़ा रुके । ‘मेरा विचार है, मैं अपने हिन्दू बंधुओं से इस बाबत सलाह-मशविरा कर लेता हूं।’ ‘बेशक कर लो। बाद में कोई झंझट न हो।’ रहीम ने सहमति व्यक्त की। ‘हां, मेरी छोटी-सी शर्त है- शादी बिना किसी हो-हल्ले, बैंड-बाजे के सादा तरीक़े से होगी। दोनों एक-दूसरे को माला पहना देंगे। सिर्फ़ हमारी झुग्गी कालोनी के रहवासियों को दावत का न्योता देंगे।’ ‘वैसे भी कन्या ग़रीब और यतीम है। वह क्या देगी, सिवा ख़ुद के ?...’ रामलाल ने एक प्रकार से अपनी स्वीकृ ति दे दी। रामलाल के ध्यान में आया कि पर्दे की आड़ में माहरुख़ इधर ही कान लगाये हुए है। उन्होंने उसे आवाज़ दी- ‘इधर आओ माहू।’ वह आकर नज़रें झुकाये चुप खड़ा रहा। रामलाल ने सवाल किया- ‘क्या यह रिश्ता तेरे को मंज़ूर है?’ माहरुख़ ख़ामोश। ‘मर्द होकर शर्माते हो? जाओ, यह ख़ुश ख़बर शेवंता को दे आओ!’
सभ्य, सुसंस्कृ त, शिक्षित समाज में ऐसा हो तो हड़बोंग मच जाता है। जैसा अनुअंजल के साथ हुआ था। ये निर्धन, अनपढ़ उनसे ज़्यादा समझदार हैं जो धर्म को लेकर कोई द्वेष नहीं पालते। ये सरलमना जात-पांत से प्रेम को ऊं चा दर्ज़ा देते हैं। बहरहाल, ये वे भी बन जाते हैं, जो दंगा-फ़साद करते हैं, उन्हीं लोगों के बहकावे में आकर। गांवों में पंचायत होती है। खाप के निर्णयों का विरोध कमोबेश होता रहा है। पुलिस महकमा भी कार्रवाई करने लगा है। सरपंच और पंचों के फ़ै सले अधिकतर स्त्री-पुरुष प्रेम को मान्यता नहीं देते। शहरों की बहिष्कृ त अथवा अनधिकृ त बस्तियों में अक्सर ऐसा नहीं होता। सुनने में आता है कि इसकी औरत उसके घर जाकर बैठ गयी। इसे ज्यादा तवज्जो नहीं दी जाती। कभी-कभी मार-पीट या हिंसा देखने में आती है। नये आदमी से मुआवज़ा लेकर भी निपटा दिया जाता है। इस प्रकार का रवैया चन्देक पंचायतें भी अपनाती हैं। तथापि यह बिरला ही होता है कि यह पति/पत्नी बदलने की प्रक्रिया हिन्दू-मुस्लिम के बीच हो। शेवंता और माहरुख़ के सम्बन्ध को उनके झुग्गीवासियों ने स्वीकार कर लिया। रहीम भाई की हिन्दू देवता के प्रति आस्था की महती भूमिका रही। यह इसलिए भी सरल रहा कि रामलाल ने सबको विश्वास में लेकर उनके मत को महत्व दिया। यदि रामलाल की मध्यस्थता के बिना हो जाता, संभवतः तब भी वहां के आवासी के वल आपसी बातचीत में ख़िलाफ़त दर्शाने के सिवा
कु छ न करते। इसका सबसे बड़ा कारक है, इन विपन्नों के जीवन की दो जून की रोटी हेतु व्यस्तता। दिन भर की मेहनत के बाद उनको इस प्रकार के मुद्दों में उलझने के लिए न समय मदद करता है, न उनका मस्तिष्क। ये तो भरे पेट के चोचले हैं। किं वा पेट भरने के वास्ते किया गया उपक्रम। प्रसिद्धि की भूख और गंदी राजनीति उनकी कट्टरता में आग लगाने का कार्य करती है। माहरुख़ और शेवंती के विवाह में कोई विघ्न नहीं आया। सारे निवासियों ने रहीम भाई के नियत्रं ण में पकाये गये सुस्वादु भोजन से तृप्त होकर वर-वधू को मंगल-कामनाएं दीं। माहरुख़ ने झोंपड़पट्टी से बाहर के मात्र अपने छोटे चाचा के तथा अंजल के परिवार को निमंत्रित किया था। अंजल एवं अनुभूति आये और दूल्हा-दुल्हन को आशीर्वाद दिया।
सूरज वैसे ही निकला, ज्यों हमेशा उदित होता है लेकिन पूरी झोंपड़पट्टी में सुनसान छाया हुआ था। धीरे-धीरे लोग बाहर आये परन्तु उनके चेहरों पर चिन्ता की लकीरें थीं। बहुधा इतवार या कोई छु ट्टी का दिन छोड़कर झोंपड़पट्टी की दिनचर्या का आगाज़ तड़के ही हो जाता है। उन्हें जाना होता है अपने-अपने काम पर ताकि उस रोज़ का मेहनताना प्राप्त
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हो सके । जी हां, यहां ज़्यादातर दिहाड़ी मज़दरू ही बसते थे। उनकी औरतें भी उन के संग ही मज़दूरी के लिए चल देती थीं अथवा उनसे अलग निकट की कालोनियों में, जहां वे झाड़ू-पोंछा आदि करती थीं। रह जाते थे सिर्फ़ बूढ़े तथा बच्चे। बूढ़े हल्काफु ल्का काम कर लेते। कतिपय बच्चे स्कू ल चले जाते। बहरहाल, प्रत्येक उषा की किरणें उनके आंगन में यही विकलता ओढ़े उतरती थीं कि, आज कमाओ: कल खाओ। पुरुषों में कोई इमारतों के निर्माण-कार्य में मज़दूर था; कोई किसी दुकान पर नौकर; कोई अख़बार बांटता; कोई किसी रईस के यहां टहलुआ था; कोई अपनी ठेली लेकर सब्ज़ी बेचने निकलता - ऐसे ही छोटे-मोटे कमाई के ज़रिये थे उनके । इन सब की ख़ातिर उन्हें सवेरे-सवेरे ही सक्रिय हो जाना होता। फिर आज क्यों यह सुस्ती का माहौल बना हुआ है? कारण छोटा-सा था, जो बहुतांश के लिए विशाल रूप ग्रहण कर गया था। फिर रोज़ीना मेहनतकशों का उल्लेख ही क्या... परसों रात पुराने नोटों के चलन पर पाबन्दी की घोषणा हो गयी थी। इन मेहनत की रोटी खाने वालों पर क़हर टू ट पड़ा था। इसी वजह से उस झुग्गी बस्ती में थोड़ी देर बाद चार-चार, पांच-पांच जने इकट्ठा होकर चर्चा में खोये हुए थे कल वे अपने-अपने ठिये पर हमेशा के नियमानुसार गये थे। ठेके दारों-मालिकों ने अग्रिम सूचना दे दी थी कि काम करना हो तो करो, शाम को पुराने नोटों में रोज़ी मिलेगी... उन्हीं नोटो में, जो मूल्यहीन हो
गये थे, काग़ज़ के टु कड़ों के बराबर। दुकानदार भी परेशान थे कि पहले माल का भुगतान करेंगे, तब नया मिलेगा। वे उन रद्दी हो गये नोटों के बदले ग्राहक को कोई वस्तु बेचे भी कै से... उस घड़ी तक ऑन लाइन पेमेंट की न किसीको आदत थी, न ही अधिक जानकारी। ठेली वाले मण्डी में सब्ज़ी खरीदने गये, वहां भी यही हाल था... जिनको साप्ताहिक या मासिक वेतन-जैसा मिलता था, वे ज़रूर काम पर गये। हालांकि वहां उनको भी सचेत कर दिया गया कि हफ़्ते या महीने के अंत में उन्हें पुराने नोट ही मिलेंगे। सब जानते थे, यह विध्वंसकारी प्रक्रिया इतनी जल्द समाप्त होने वाली नहीं। इस नयी व्यवस्था ने कइयों को घर बैठा दिया। जिनके पास बचत की शक्ल में थोड़ा-बहुत था भी तो वही पुरानी मुद्रा, जिसे बदलना कष्टकारी उद्यम था। उसकी बाज़ार में क़ीमत शून्य थी। एकमात्र रास्ता जो शेष था, वह बैंक की चौखट तक ही जाता था। जिसने कभी बैंक का मुंह न देखा हो, उदाहरण के लिए इसी झोंपड़पट्टी के लोग, उनके वश में भी यही एक चारा बचा था। बैंकों के बाहर का दृश्य कल्पनातीत था। इतनी भीड़, जिसके रूबरू मधुमक्खी का छत्ता भी शरमा जाये। बैंक खुलते थे दसग्यारह के बीच लेि कन लोगबाग भोर में पांच बजे से पंक्ति-बद्ध हो जाते थे अपनी बारी आने तक कोई ज़मीन से टिका अर्ध-निद्रा में भी भ्रमण कर आता। कोई कभी इस टांग पर तन का बोझ डालता, कभी उस पर। बेचैन सभी थे। झुग्गी बस्ती का देवराव लगभग आठ
बजे क़रीब के बैंक पहुंचा। लम्बी-सी क़तार पर दृष्टि पड़ते ही उसके होश फ़ाख़्ता हो गये। बैंक के शटर को आधा गिराकर लोहे का सरकने वाला गेट एक आदमी जा पाये, इतना ही खुला था। गेट से चिपक कर एक तरफ़ बैंक का गार्ड खड़ा था। दूसरी ओर पुलिस वाला। देवराव को गिनती आती थी। उसने गिना। उसका छियालिसवां नंबर था। मरता क्या न करता। उसकी जेब में ख़ुद के हज़ार और पड़ोसी के दो हज़ार रुपए थे। पड़ोसी वृद्ध था इसलिए यह ज़िम्मेवारी उसने स्वखुशी से स्वीकारी थी। उसके हज़ार उसकी पत्नी द्वारा कु समय के लिए थोड़े-थोड़े कर बचाये रुपए थे, जो इस कु समय में प्रश्न-चिह्न का आकार ले चुके थे। यहां आकर देवराव को अहसास हुआ कि, कितनी कठिन है डगर पनघट की। वह वहीं सड़क पर पालथी मार कर बैठ गया। घर से चलते वक़्त उसने पत्नी के ज़ोर देने पर रात की बासी रोटी चाय में डु बोकर खा ली थी। पानी साथ में नहीं लाया था। उसे कहां मालमू था कि पहाड़ चढ़ने से भी दुष्कर होगा यह नोट बदलने का कार्य... धूप न के वल बढ़ती जा रही थी, पर्याप्त चुभन लिये भी थी। मराठी में जिसे ‘चटका’ (जलन की तीव्र अनुभूति) कहते हैं, देवराव महसूस कर रहा था। उसे शिद्दत से प्यास लग आयी थी। अरे यह क्या! पानी के पाउच बेचने वाला भी अवतरित हो गया... उसने दो रुपए देकर एक ख़रीदा और अपनी तृष्णा बुझायी। आसपास खड़े चन्द बड़बोलों की इस
दुर्दशा पर की गयी टिप्पणियां सुनतेसुनते दोपहर का एक बज चुका था। अब सुखदवे के पेट में चूहे उछलने लगे। ऐसा नहीं कि वहां खाने को कु छ नहीं मिल रहा था। था न, बिस्किट का छोटा पैके ट बीस रुपए का, विभिन्न नमकीन के लघुत्तम पैके ट पचीस रुपए। हमारे देशवासियों का इस तरह की विकट परिस्थितियों में कई गुना मुनाफ़ा कमाने का जो कौशल है, उसका कोई सानी नहीं है। एक सज्जन अपने बेटे को यूएस के विसा के लिए मंबुई ले गये थे। वहां भी रात से लाइन लग जाती थी। एक तात्कालिक कम चौड़ा लेकिन ज़्यादा लम्बा शेड था, जिसमें हर पंक्ति में बड़ी कठिनाई से मात्र दो-दो प्लास्टिक की कु र्सियां आ पाती थीं। वे सुबह पांच बजे वहां पहुंचे। थोड़ी देर में बारिश शुरू हो गयी। शेड में भी फु हारों ने घुसने में कोई कोताही नहीं बरती। वह मुंबई था, जहां न जाने कब बरसात प्रारंभ हो जाये, कब धुआंधार हो अनवरत जारी रहे या रुक भी जाये। देखते क्या है कि एक व्यक्ति आठ-दस छाते लटकाये बढ़े दाम पर बेचने को अचानक प्रकट हो गया था... देवराव ने संयम रखा। खाने की कोई वस्तु नहीं ली। वैसे भी परिश्रमी जीवों को इसका अभ्यास होता है। उसका ध्यान अपनी क़तार पर गया। वह ख़ुश हुआ कि अब उसके आगे फ़क़त चौदह ग़रज़मन्द हैं उसका हौसला बढ़ा। ऐसे में यदि कोई किसी कारण पंक्ति छोड़कर चला जाता है तो अपार प्रसन्नता होती है। फ़िलहाल
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इस तरह का कोई अजूबा संभव नहीं दीख रहा था। तभी उससे चार नंबर पहले खड़ा बुजुर्ग एकाएक लड़खड़ाया और धड़ाम से नीचे गिर गया। हल्ला मच गया। इधर-उधर से लोग दौड़ पड़े। अधिकांश अपने क्रम को महफ़ू ज़ रखने की नीयत से टस से मस नहीं हुए। किसीने पुलिस वाले को पुकारा। वह टाल न सका। सड़क थी, उस पर रवानी थी, भीड़ जुटने में विलंब न हुआ। एक औरत ने अपनी पानी की बोतल से उस वृद्ध के चहे रे पर छींटे मारे। एक युवक ने उसे पकड़कर बैठाने का प्रयत्न किया। उसका बोझिल शरीर फिसलफिसल जा रहा था, ज्यों उसमें जान ही न हो। युवक ने अंततः उसे अपने घुटनों का सहारा दके र उठंगाया। उसकी आंखें बंद ही थीं, गरदन एक तरफ़ लटकी हुई। युवक ने उसकी धड़कन तथा श्वास की जांच की- ‘यह तो गया!’ अब पुलिस वाला होश में आया। उसने तमाशबीनों को पीछे हटाकर घेरा बड़ा बनाया। कं ट्रोल रूम को फ़ोन कर सूचना दी। एम्ब्युलंसे के लिए भी। फिर दो युवाओं को उस बूढ़े को उठाकर छाया में बैंक के चबूतरे पर लिटाने का निर्देश दिया। इस बीच बैंक वालों ने पांच प्रतीक्षारतों को निपटा दिया था। देवराव की तीक्ष्ण दृष्टि गेट पर ही लगी हुई थी। दुर्घटना की ख़बर निश्चित ही बैंक के भीतर प्रविष्ट हो चुकी थी लेकिन बैंक का कोई अधिकारी उस बेचारे को देखने नहीं आया। उनका क्या दोष, व्यस्तता रही होगी। शासकीय
कार्य था। अपना समय लेकर पुलिस की जीप और एम्ब्युलेंस आयी। क्षतिग्रस्त को एम्ब्युलेंस के हवाले किया जिस युवक ने उसे बैठाने की कोशिश की थी, वह बोलता रह गया- ‘वह मर चुका है। मैंने उसकी नाड़ी और नाक के सामने हाथ रखकर सांस की पड़ताल की थी। दोनों बन्द थे।’ उसकी किसीने नहीं सुनी। दोनों गाड़ियां साथ ही रवाना हुईं। यह सारी कारवाई होते-होते दवे राव के आगे वाले का नंबर लग गया। दवे राव का रोमांच यकायक बढ़ गया कि जल्द ही उसे मोर्चा सम्भालना है। मालूम नहीं बैंक के कर्म चारी कै से पेश आएं। ग़रीबों को झिड़कने, डांटने की उनकी आदत होती है। उसने स्वयं को धीरज दिया कि दयनीयता से सही, वह इस मुश्किल से दो-चार हो लेगा। उससे पहले गया बाहर आने को था। देवराव हड़बड़ी में घुसने को हुआ। उसे रुकना पड़ा। गार्ड ने अपना हाथ लम्बा कर उसके एवं गटे के मध्य फै ला दिया था- ‘बस। अब कल आना। बैंक में नये नोट ख़त्म हो गये हैं।’ पता नहीं नोट नहीं थे अथवा बैंक-कर्मियों की थकान का संज्ञान लेकर मैनेजर ने बहाना गढ़ लिया था। वैसे घड़ी के कांटे उनके पक्ष में थे। घर के बुद्धू घर को लौटे। देवराव थकाहारा अपनी झोंपड़ी की ओर जा रहा था कि उसे सखाराम दिखाई दिया। वह बहुत आनंदित लग रहा था। अपनी सामान्य चाल के बजाय मटकते हुए चला आ रहा था उसके होंठों पर मुस्कान थी। देवराव ने कौतुहल से पूछा, ‘अपने नोट बदल लिये शायद... तभी इतने जोश में हो।’
‘पाप... कै सा पाप?’ सखाराम ढीठता से अपनी रौ में बोलता गया - ‘मालिक ने और चार बंदों को अलग-अलग बैंकों में इसी काम पर लगाया हुआ है। आगे भी यह चलता रहेगा। पाप-पुण्य हम कु छ नहीं जानते। जब सारे पाप की कमाई खा रहे हैं तो हम ग़रीबों ने क्या बिगाड़ा है, ऐं!’ रामलाल काका और देवराव उससे बहस करना निरर्थक मान वहां से चलते बने। वैसे भी देवराव दिन भर की थकावट से बेज़ार घर जाने की उतावली में था। कल उसे बैंक के सामने फिर हाज़िरी लगानी है, वह भी पौ फटने से पूर्व चार बजे।
*'दुष्काल' प्रलेक प्रकाशन से शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास शहतीर का अंश है।
चर्चि त
चोर लड़के वो लड़के जो घर से निकलते ही माँ-बाबा की खुशी चुरा लाते हैं, वो लड़के जो लहलाते खेतों की हरयालीगमले में छिपे फू लों की सुंगध चुरा लाते हैं, वो लड़के जो तालाबों की मिट्टी, रौशनदानों से छनकर आती धूप और पेड़ से गिरते चिड़िया का पंख तक चुरा लाते हैं सीढ़ियों की ऊँ चाई को नापते हुए ही, वही लड़के जर्जर होते आत्मविश्वास के बीच इमारतों के बीच दब चुकी सड़कों, खुद को अके ला, ठगा हुआ, असहाय उलझ चुके बिजली के तारों और निरुपाय पाने के ख्याल भर से ही--और लादी गई जिम्मेदारियों की-चुरा लाते है अंजुली भर पानी और निकल पड़ते हैं मुर्दा पड़ चुके सपनों को छींटे मारते हुए जिंदा रखने की राह पर वो लड़के जो चाँद-तारे सब चुराकर ला सकते थे खुद तारा बन जाते हैं सबके बीच ही--बहुत अके ले से ही!
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मैंने जितना हाथों को देखा, उतना चेहरा नहीं देख पाई; जब उसने अपनी उँगलियाँ मेरी उँगलियों में उलझाईं, मुझे मेरा चेहरा नहीं दिखा; बस ये महसूस हुआ कि वो उगते हुए सूरज सा है; उसका ताप महसूस हुआ मगर इतना नहीं की मैं जल जाऊँ । चेहरा महसूस करने के बाद मैंने अपने हाथों को देखा, उस छु अन से हल्का कं पकपाते हुए, मगर इतने बल से उसकी हथेली पकड़े हुए की फिर जाने ना पाए।
हाथ: श्रेया सिंह
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श्रेया सिंह
हाथ मैंने सुबह उठ कर उबासी ली हाथ ने मेरे मुँह को अपनी गर्त में लिया, मैंने एक बार फिर चेहरे को महसूस किया, मगर देख नहीं पाई। वसंत के आगमन पर मैं बाहें फै लाए दौड़ी, एक श्वेत पुष्प चुन कर कान पर रख लिया, अपने प्रेमी की याद में एक आँसू भी बहाया मगर फ़ौरन हाथों ने वो आँसू पोंछ दिया। मुझे जितने अच्छे से मेरे हाथ मालूम है उतना मैं चेहरे को नहीं जानती; मैंने लोगों के चेहरों को झूठ बोलते देखा, हाथ सच पर डटे रहे। मैंने हाथों का ढीलापन, या खिंची हुई नसें पढ़ना सीखा, चेहरा पढ़ना नहीं सीख पाई।
आकांक्षा
मनु जी - रिपोर्टर ओफ़ स्माल थिं ग्स
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कहानी है मनु जी की, जो पत्रकारिता में अपना नाम कमाना चाहते है। उनके सपने और सपनों के सच होने के बीच में दो चीजें है : एक मनु जी की स्टोरीज जो खटमल को खून चढ़े तो किस ब्लड ग्रुप का — जैसे ऊल-जलूल टॉपिक्स के इर्द-गिर्द घुमती रहती है और दूसरा उनका सम्पादक उर्फ़
उनके जीजी का सुहाग, जो उन्हें सप्लीमेंट में आये अंग्रेजी सीखाने वाले पम्पलेट की तरह ट्रीट करता है। मनु जी का एक ही सपना है: फ्रं ट पेज पे छपना। मनु जी के जानने वालों का कहना है उनकी खबर फ्रं ट पेज पे आये न आये मनु जी ज़रूर आयेंगे।
प्रेज़ेंटिं ग : मनु जी – रिपोर्टर ऑफ़ स्माल थिंग्स अर्नेस्ट हेमिंग्वे जो बड़े लेखक थे, कहते थे, जब लेखक लिखने बैठता है तो वो लिखता नही है, "ही ब्लीड्स" वो खैर बड़े लोग थे। मनु रस्तोगी जब लिखने बैठते हैं, उन्हें छोटी बातें सूझती हैं, ऐसी बातें जो कोई न करे तो भी दुनिया अपने ढर्रे पे चलती रहेगी। बहुत ही निम्न श्रेणी के लेखक है मनु जी, ऐसा वो खुद मानते है और गर्व से कहते भी है, “छोटा ही तो बड़ा होता है।" पिछला लेख जो उन्होंने लिखा था वो था, ‘चिंटू पे फ़ें क के मारी गयी चप्पल से, चींटियों की पूरी पंक्ति के असमय निधन पे रोष।' उस लेख पे उनके सम्पादक ने उनके खींच के दो चप्पल और जड़े। मनु जी ने उन चप्पलों को लौक के पकड़ा था। मनु जी डेडलाइन की लक्ष्मण रेखा को क्रॉस करने से डरते नहीं है, लेकिन सम्पादक की नाजायज़ मांगों जैसे रिच कं टेंट, सब्जेक्ट्स दैट मैटर, रियल स्टोरीज, पोलटिकल टोन आदि को अपने लेखों में शामिल करने से उन्हें सख्त
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आपत्ति है। इसीलिए वो लक्ष्मण रेखा/डेडलाइन के बाहर ही टहलते रहते हैं। हर सुबह जनरल मीटिंग के दौरान सम्पादक उन्हें करंट-अफे यर्स के ताने सुनाता है, और गेट रियल जैसे तंजो से उनका स्वागत करता है। लेकिन मनु जी को लगता है अगर सब सीरियस इश्यूज के बारे में लिखने लगे तो, गुप्ता जी के छत की सीलन, सोनू – बछरे का तबेले में पहला दिन, सूरज की पहली किरण किसने देखी आज, पेपर वाले की साइकिल की चैन अटकने से मिश्र जी के सुबह का प्रेशर कै से हुआ साढ़े 3 सेकं ड डिलेड..जैसे जरूरी विषयों के बारे में कौन लिखेगा? जो स्टोरीज नौसिखिये अपने पहले महीने में भी लिखने से कन्नी काटते है, मनु जी उनके देवता हैं। सम्पादक ने उनके लेख फोर्थ पेज से अब सप्लीमेंट के कोने में ढके ल दिए हैं। वो भी मनु जी की दीदी के बार- बार खाना न बनाने की धमकी के बाद। मनु जी सम्पादक महोदय के साले है और
शुरूआती दिनों से ही दीदी के घर टिके हुए हैं।
मनु जी के घर पर एक आम सुबह:मनु जी:- जीजा जी मछली के जाल को ह्यूमेन बनाने की अपील वाला जो हमने लेख लिखा था, वो आपने कहा था, सप्लीमेंट में आएगा। आज तो सप्लीमेंट निकला है ही नहीं अखबार में? संपादक/जीजा जी:- वो प्रिंटिंग एरर आ गया था कु छ। मनु जी:- तो पूरा सप्लीमेंट ही नहीं निकाले? इतना रिसर्च, भानु गुप्ता तो भिड़ा हुआ था कल्चर कॉलम लिखने में, कोई अंग्रेजी किताब गूगल ट्रांसलेट करके रिव्यु कर रहा था, ऊ सब गया पानी में? सम्पादक/जीजा जी:- अरे तुम मुफ्त की रोटियां तोड़ो, और ये बताओ आज कोन सी गोबर घंटाल स्टोरी सोची है तुमने? दीदी:- देखिये आप होंगे एडिटर अपने ऑफिस में, इसको मिलेगा एक दिन राष्ट्रपति से पुरस्कार देख लीजियेगा। मन्नु, कल जो मैने तुम्हे सब्जी काटते वक़्त लीड दी थी, उसपे क्युँ नही लिखते कु छ तुम? मनु:- दीदी, लीड तो तुमने काफी सही दी थी। कोक्रोच का टेरिटरी निर्धारन और उसके नियम। जीजा जी आप का क्या कहना हैं? सम्पादक/जीजा जी:- तुम आज घर पर ही रुक कर रिसर्च क्यॊं नहीं करते। बात तॊ सच है, मनु को सारे आइडियाज़ दीदी के किचन सॆ ही तो आऎ थे। लेकिन लिखने का इन्सपिरेशन उन्हें जीजा जी की दुल्लत्ती के बिना कहाँ आता था। तो सारा रिसर्च मटेरियल जुटा के मनु आफिस पहुँचे। वहाँ पहुंचे तो देखा भानु गुप्ता अपने लेख की छपने की खुशी में, नयी इंटर्न रोज़ा के आस पास कू द रहा है।
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बात तॊ सच है, मनु को सारे आइडियाज़ दीदी के किचन सॆ ही तो आऎ थे। लेकिन लिखने का इन्सपिरेशन उन्हें जीजा जी की दुल्लत्ती के बिना कहाँ आता था। तो सारा रिसर्च मटेरियल जुटा के मनु आफिस पहुँचे। वहाँ पहुंचे तो देखा भानु गुप्ता अपने लेख की छपने की खुशी में, नयी इंटर्न रोज़ा के आस पास कू द रहा है।
मनु ने तुरंत अखबार को टटोला, और मिल गया उसे जीजा जी का पीठ में घोंपा हुआ खंजर। सारे लेख छपे हैं कलचर सेक्शन में, मनु का छोड़ कर। मनु के साथ जीजा जी ने ये पहली बार नहीं किया था, लेकिन पता नही क्यों आज गाँव के चंपट चाचा की बात याद आ गयी, “इतना भी कु त्ता को लात नहीं मारना चाहिए की उसका इमान ही जाग जाए।” मनु रस्तोगी का इमान क्या जागेगा? जीजा जी कभी मनु को मेन अखबार मे एंटरी देंगें? क्या दीदी देगी मनु को जीजा का हृदय परिवर्तन करने वाली लीड?
जानने के लिए स्टे ट्यून्ड...
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आर्यन्त त्रिपाठी
नींद
प्रेम से पुकारी हुई मृत्यु, नैन से नींद खींच ले जाती है, बाँधे हुए किसी सपने के मोह से, जिसपे तन जाती हैं आँखों की पुतलियाँ, नित रात एक नींद की सिसकी लेना, ऐसे सावधान होकर, कि कहीं किसी विचार में गिर, खुल ना जाएँ थकीं आँखें, भर ना जाए आत्मग्लानि से मन, फागुन के माह में, ठिठु रने न लगे देह, मृत्यु जन्म देती है एक आस, कि किसी एक अंत समय में, निर्भीक होकर सोएगीं मेरी आँखे, भयमुक्त, बिन किसी थकान के , कि नहीं जगना पड़ेगा इन्हें अब वापस, ये ले सकतीं हैं अब अनंत नींद, विचर सकती हैं पूरा सौरमंडल, नाप सकती हैं सारी दूरी, जोड़-घटा सकती हैंस्वर्ग से नरक तक का अंतर,
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स्वप्न ना आना दु:ख का प्रतीक है, टु कड़ों में बटी हुई पीड़ा का, शरीर प्रेम नहीं माँगता, माँगता है क्षणभर की पीड़ामुक्त नींद, नींद जिसके बीच मैं टटोल सकूँ कि जीवन कहीं मात्र स्वप्न तकभर तो नहीं, कविता मृत्यु की लोरी है, जिसके पलने में मैं हाथ चलाता हूँ, रूके हुए पलने का, जो कभी नहीं डोलता, (पलने का ना डोलना अर्थात नींद का ना होना) मैं रोज़ जीवन से माँगता हूँ एक ऐसी राग, जो सुला दे मुझे, कभी ना खत्म होने वाली नींद में।
प्रकृ ति करगेती
मैंने कल ही कहीं पढ़ा कि नींद, विज्ञापनों से भरी हुई किस्तों में मिली हुई मौत है वो मौत जो रोज़ मुझको इंसान समझकर उठाती है लेकिन उठने के बाद अगले दो घंटे एक मैले बर्तन सा दिनचर्या में डु बाती है रगड़ रगड़कर माँझती है कमरे कमरे घुमाती है दाँत साफ़ होने तक पेट साफ़ होने तक चमड़ी साफ़ होने तक कपड़े साफ़ होने तक और अब, मेरा कल अतीत-नालियों की धमनियों में शहर भर बहने लगा है और अब, अपने घर में ताज़गी और पवित्रता में लिपटी मैं सबको स्वीकार्य हूँ
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दिनचर्या
और अब बचपन की एक तस्वीर याद आयी है जब माँ नहला रही है मुझे ग़ुलाबी-बैगनी साड़ी पहने तस्वीर खींचने वाले को देखकर मुस्कु रा रही है मैं तौलिये में लिपटे हुए ठिठु र रही हूँ लेकिन मन में ख़ुशी है कि इसके बाद खेलने जाना है गन्दगी में फिर से लिपटना है वैसे, उस ज़माने के विज्ञापनों में दाग अच्छे नहीं हैं इसलिए डाँट भी पड़ती है फिर भी अगली बार की धुलाई से ठीक पहले तक भी हम खूब खेलते हैं
इन बातों को याद करते हुए मैं आईने के सामने खड़ी हूँ तैयार हो रही हूँ कि तभी फ़ोन बजता है मैं औपचारिकता का इत्र छिड़कते हुए फ़ोन उठाती हूँ फिलहाल मोर्चा सँभालने मेरी सिर्फ़ आवाज़ तैनात है मेरी आवाज़ में मुस्कान है चेहरे पर नहीं फ़ोन की दूसरी तरफ़ के इंसान के वेतन की पूँछ बने अनेक शून्य उसकी आवाज़ की शून्यता से मेल खाते हैं ये वैराग्य की शून्यता नहीं ये पूँजीवाद की शून्यता है और मैं भी कोई संत नहीं इस शून्यता की मुझे भी दरकार है जीभ मेरी भी लपलपाती है गद्दी पर बैठकर मुझे भी किसी का राहनुमा बनना है लेकिन फिलहाल, मुझे बस इतनी मुहलत मिली है कि अब मैं अपनी रीढ़ को दाव पर लगाऊँ और अपने दिन को धीरे-धीरे कमाऊँ
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इसलिए अब मैं अपनी कु र्सी पर बैठी हूँ और झुकती जा रही हूँ मेरी गर्दन के पीछे से चमड़ी को धके लता एक नन्हा सा पहाड़ उभरा है जो मेरी बचपन की बनाई लैंडस्के प पेंटिंग से बिल्कु ल मेल नहीं खाता वहाँ से कोई सूरज नहीं उगता कोई नदी नहीं निकलती बल्कि उसके ऊपर रीढ़ की एक बीमारी के काले बादल छाने लगे हैं
विश्वजीत गुडधे
कछु एं
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खबर आई की काशी से बहते-बहते चले आए है कु छ बेजान कछु एं सूबा-ए-मगध की ओर करते साँसों की डोर गंगा में प्रवाहित। तभी एक और खबर चल पड़ी इसके ठीक विपरीत। दोनों तरफ से चलता रहा खबरों का पुरज़ोर खंडन होता रहा बखान की किसकी कमीज़ है कितनी दागदार कितने शफ़ीक़ हैं दोनों के ताजदार पर सामने न आया कोई दावेदार क्योंकि वह कछु एं न तो थे कोई स्वर्णमयी हंस जिन्हे गढ़कर बन सके किसी शासक का राज-मुकु ट, और न ही कोई जमीन का टु कड़ा जिसे पाने की सनक में भिड जाए दो देशों की सेनाएँ।
वह तो थे के वल मामूली कछु एं जिन्हें पहली साँस के साथ ही सिखाया गया रेंगना ताकि रेंगते-रेंगते गल जाए सारी उनकी हड्डियाँ और मृत्योपरांत भी मयस्सर हो न पाए चंद लकड़ियाँ मगर निर्माणाधीन रहे बादशाह के रथ का पहिया। मैं भी रोज की तरह रेंग रहा हूँ पढ़ते हुए अपना अखबार आज की सुर्खियाँ कहती है "अंत्येष्टि का अधिकार आर्टिकल इक्कीस.. आर्टिकल पच्चीस.."
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शीत
कविता
हम दोनों एक दूसरे का पहला प्यार हैं। 25
हम दो अलग रेलगाड़ियों में सवार हैं, हम दोनों एक दूसरे का पहला प्यार हैं.. एक ही दिशा से आती हुईं.. तेज़ धड़कनों के संग में हैं चलती हुईं, हम दोनों के कान एक दूसरे की आवाज़ से ज़्यादा, गाड़ी के प्लेटफॉर्म तक आने की गढ़गढ़ाहट को सुनने को बेचैन हैं, सफर में इंतज़ार ही सही, पर दोनों सब्र निभाने को तैयार हैं, हम दोनों एक दूसरे का पहला प्यार हैं। उतर के झांकना, इधर चलना, उधर पलटना.. जिसे देखा है, उसे है फिर से देखना, आंखें मानो छू ना चाहती हों उस पुल की भीड़ में छु पी हुई गुलाबी शर्ट को, पलट के देखना है, पीछे से आएंगे शायद, हाथ दोनों उनकी बाहों में पड़ने को बेकरार हैं, हम दोनों एक दूसरे का पहला प्यार हैं। कहां हो?.. पुल से उतर रहा हूं.. एस-6 की तरफ़ खड़ा हूं, तुम भी अब इधर ही आओ, फिर एक स्थंब के पीछे से, कोई झलका है जैसे, अपना हो, प्लेटफार्म नंबर सात पर जैसे, जज़्बातों का मेला है, मेरे कु र्ते के पीले फू ल अब, उनसे लिपटने की कगार में हैं, हम दोनों अब सिर्फ एक दूसरे के प्यार में हैं। बैग मुझे दो - नहीं, ज़्यादा भारी नहीं है.. बहुत ज़िद्दी हो! साथ में चलते हैं, मुड़कर मुस्कु रा देते हैं, चमक सारी आसमान की, उस पुल पर उतार कर, मानो चंद्र और चांदनी हो गए हैं दोनों, और चकोर दोनों के मन में है.. प्रेम भावनएं मन की उनके , अब एक आकार में बरकरार हैं देखो, वो दोनों...जो हैं न? वो एक दूसरे का पहला प्यार हैं।
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A couple hundred languages, infinite letters, yet, some emotions are left unsaid.
The Blanks & Blues is a coming-of-age story. But it's not just a story for youngsters. Noor, the only child of her parents, experiences lifechanging events during her childhood. Circumstances beyond her control. Searching for answers, she finds her catharsis in storytelling in verse. Looking for answers to her devastated life, she eventually finds the courage that would help her define her destiny. The story moves between Nainital and Delhi, and eventually to Canada, in an interesting non-linear narrative. The novel explores gender dynamics, orthodoxy, homophobia, plagiarism and other contemporary subjects viewed and understood from a young female character's perspective E-book is live on Amazon globally, paperback would be launched soon.
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फोटो साभार: Tribal Army (Twitter)
संघर्ष
हसदे व बचे गा तो दे श बचे गा
आज हसदेव अरण्य के दो लाख वृक्षों को काटा जा रहा है। अगर आज आवाज़ नहीं उठाओगे, तो बाद में #SaveClimate #PlantMoreTrees के हैशटैग इस्तेमाल करते नज़ र आना आपके लिए शोभनीय नहीं होगा।
बोलोगे तो भारत के सबसे बड़े अविभाजित अरण्य को बचाने की आशा होगी।
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फोटो साभार: विजय रामामूर्थी
सत्यम तिवारी
भेड़िया
मैं भेड़िए की उस कहानी का नायक हूँ जिसमें भेड़िए के आने पर कोई नहीं आता और भेड़िया जब गपागप लील रहा होता है मेरी नन्ही-नन्ही ज़िंदगियाँ असहाय होकर मैं उसकी तरफ़ देखता हूँ भेड़िए के आने पर लोग नहीं आते वे दरअसल, कभी नहीं आते इन दिनों या तो भीड़ आती है या कोई भी नहीं
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चर्चि त
मर्ज़
कभी अगर छपी दुनिया की सबसे भयानक उक्ति, तो पढ़कर ही चेहरा फ़क पड़ जायेगा, सुनने वाले के कान जवाब दे उठेंगे आँखों से, और लिखने वाले के लिए लगने लगेगा भारी स्याही से भरा वो पन्ना, गढ़ेगा जब कोई औरत के कहे वो शब्द"कलेस न होय घर में बस बाकि तौ मोय कोई मर्ज़ थरू है!"
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प्रकृ ति करगेती
साहस
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साहस होता है क्या अंदर? हर दिन जीते रहने की इच्छा कै से पैदा की जाती है? भीतर एक मरोड़ महसूस होता है जैसे ज़िन्दगी भीगे कपड़े सा निचोड़ रही हो मैं सूखने के लिए बिलकु ल तैयार नहीं हूँ और अपने शरीर की दिनचर्या का कपड़ा बनने तो बिलकु ल भी नहीं मैं बाल्टी में भिगोये कपड़े जैसा बस पड़े रहना चाहती हूँ चाहती हूँ कि मुझे मेरा शरीर भूल जाए कोई ऐसा रसायन मुझपर गिर जाए कि मेरा रेशा-रेशा गल जाए बाल्टी भी भूल जाए कि मुझे उसमें कभी रखा गया था और मेरा शरीर भी शरीर को ये मुहलत मिल जाए कि उसकी चमड़ी को ही कपड़ा समझा जाए उसकी नग्नता पर अश्लीलता के दाग न लगें पहनने के नाम पर वो बस एक टैटू पहने जिसपर गुदा हुआ हो कि “मैं आत्मा कपड़ों की बाल्टी में भूल आई वो गलकर अब लेते हैं रात को अंगड़ाई”
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मुझे पता है कि ये झूठ है मेरी आत्मा का साहस रात के कोनों में नहीं दिन के गलियारों में नहीं बल्कि वो तो गलकर किसी ऐसे समय में रहता है जिसकी कल्पना मात्र से तुम्हारा-मेरा रचा हुआ संसार विस्फोट का शिकार हो सकता है क्योंकी समय के उस आयाम में घड़ी की टिक-टिक साथ लिए तैनात हैं ढेरों सुसाइड बॉम्बर वो ही कपड़ों को गलाकर अगवा कर लाये थे उस आयाम और अब उन्हीं की निगरानी में समय गुज़ारते हुए वो किसी मंत्र की तरह दुहराते रहते हैं कि ज़िन्दगी भर सांस लेते रहना कितना बोझिल, थकाऊ, और मुश्किल काम है हाँ, ज़िन्दगी भर सांस लेते रहना कितना बोझिल, थकाऊ, और मुश्किल काम है
शिवम तोमर
गाय और अम्मा जिस गाय को अम्मा खिलाती रहीं रोटियाँ और उसका माथा छू कर माँगती रहीं स्वर्ग में जगह अब घर के सामने आ कर रंभियाती रहती है अम्मा ने तो खटिया पकड़ ली है अब गाय को ऊपर से ही डाल देती हैं रोटी बहुएँ रोटी तीसरे माले से फें की जाती है फट्ट की आवाज़ से सड़क पर गिरती है गैया ऊपर देखती है तो कोई नही दिखता गैया को लगता है अम्मा स्वर्ग को चली गयीं और अम्मा ही फें क रही हैं रोटियाँ स्वर्ग से पहले अम्मा जो रोटियाँ देती रहीं एकदम सूखी मुँह में धरते ही चटर-चटर होतीं यह रोटी तो एकदम मुलायम लेकिन बस एक ही अम्मा चार रोटियाँ देती थीं
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एक रोटी फें क दिए जाने पर भी गाय उसे खाना शुरू नहीं करती वह ऊपर देखती रहती है दूसरी तीसरी और चौथी रोटी की बाट जोहती गाय को लगता है स्वर्ग में अम्मा के दाँत और पाचन दोनों सही हो गया है अम्मा उसके हिस्से की रोटियाँ भी खा ले रहीं हैं ख़ैर रोटी भी तो कितनी मुलायम है नियत बिगड़ गयी होगी बुढ़िया की ऊपर देखते-देखते जब गाय की गर्दन दुखने लगती है तो वह नीचे पड़ी मुलायम रोटी बेमन से चबाने लगती है भूखी गाय को रोटी की गुणवत्ता से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है भूखी गाय को तो कम से कम चार रोटियाँ चाहिये चाहे स्वर्ग से गिरें चाहे तीसरे माले से
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प्रियांशी सिंह
परछाई की पूँछ नए मकान में वह मेरी पहली दोपहर थी। बाहर गलियों में गरम हवा की तीखी लहरें उमड़ने लगी थीं, और मेरे माथे पे पसीने की बूँदें। ड्राइंग रूम के मोज़ैक जड़े फर्श पर पीली धुप की नदियाँ रेंग रही थीं। मैं धम्म से जाकर सोफे पर बैठ गया। मकान पिछले सात महीनों से खाली ही पड़ा था, और हर खाली मकान की तरह ज़रा उधड़ा, धूल से सनी हालत में मेरे नसीब लगा था। अलमारी के दरवाज़े जैसे दर्द से सिसियाते हुए खुलते थे, और दराज़ें अपने कील-कं काल से उखड़ी जा रही थीं। रसोईं के नलके से टपकती बूँदें रूकती ही नहीं थीं।
बहुत सारे काम थे करने को - सामान खोलना था, मिस्त्री और प्लम्बर को बुलाना था, लेकिन एकांत के सुकू न ने मेरा ध्यान इन छोटी-मोटी चिंताओं से दूर खींच लिया और सोफे पे पसरे हुए न जाने कब मेरी आँख लग गई। जब नींद खुली तो बाहर अँधेरा हो चुका था। पता नहीं मैं कितने घंटों तक सोता रह गया! आँखें आधी बंद ही थीं कि ध्यान अचानक मेज़ पर रखे छोटे से पौधे पर गया जो मैंने उस ही सुबह खरीद के लाया था। पौधा जिस नीले रंग के चिकने गमले में लगा हुआ था, वह मेज़ के कोने कि तरफ धीरे-धीरे खिसकता जा रहा था!
एक क्षण के लिए मन में ख़याल आया कि कहीं ये सपना तो नहीं? आखें मली, खुद को चिन्गोटी काटी, आखिर में मानना पड़ा कि मैं सच-मुच होश में था, और वह पौधा न जाने किस जादू-टोने के वश में आकर यूं ही खिसकता चला जा रहा था। इससे पहले कि मैं समझ पाता क्या हो रहा है, गमला पौधे सहित कड़ाक से ज़मीन पर जा गिरा। बहुत देर तक तो मैं उसे देखता ही रह गया, फिर सोचा, गमला ही तो है, और खुद को आश्वासन देते हुए उठ खड़ा हुआ। अंगड़ाई ली और बगल में रखे लम्बे, पुराने लैंप की बत्ती जला दी। तभी, नज़र के कोने में दीवार पर एक परछाई उगती महसूस हुई, जैसे कोई मोटी सी रस्सी। जैसे किसी बिल्ली की पूँछ। जब तक दीवार कि ओर मूँह मोड़ता, तब तक वह गायब हो चुकी थी। अगली दोपहर मैं अपना सामान ज़रा सरिया कर फिर से उसी जगह आ बैठा जहां वह गमला ख़ुदकु शी का शिकार हुआ था। घर में एक अजीब किस्म की शांति छाई हुई थी, ऐसा लगता था मानो पूरा भ्रह्मांड गर्मी की नमी और झुलसन से तंग आकर झपकी ले रहा हो। मुझे अभी भी शक था कि लैंप की रौशनी में कल मैंने जो देखा था, वह बिल्ली की पूँछ ही थी। लेकिन पूँछ थी तो बिल्ली भी होनी चाहिए, हो सकता है घुस आई हो कहीं से और घर के किसी कोने में जा दुबकी हो। हो सकता है अभी भी घर में ही हो।
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इसी सोच में खोया मैं रसोईं में गया और एक तश्तरी में दूध भर ले आया। उसे वहीँ लैंप के बगल में रख दिया। अपनी नादानी पर ज़रा हँसी भी आई लेकिन आँखोंदेखी पर विश्वास कै से न करता? और फिर क्या पता, सच-मुच की बिल्ली हुई तो उसे पाल भी लूं? मैंने कभी कोई जानवर नहीं पाला था और जिस तरह का मेरा स्वभाव था, यह करना मेरे लिए आसान भी न होता। यह सब ख़याल अंत में ख़याली पुलाव ही बन कर रह गए, क्योंकि रात तक दूध की तश्तरी वैसी की वैसी पड़ी रही और ख़राब होने के डर से मैंने उसे वहां से हटा दिया। उस दिन के बाद मैं काम पर जाने लगा। दिन छोटे और रातें लम्बी लगने लगीं। मैं हर शाम पसीने से भीगा घर आता और खुद के लिए झटपट डिनर बनाता। रात भर बेचैन फिरता रहता। जिस एकांत में मैं पिछले कु छ दिनों तक ख़ुशी-ख़ुशी गोते लगा रहा था, वह अब अके लापन बन कर मुझे डु बाने पर तुल गई थी। एक रात सपने में मुझे किसी बच्चे के रोने जैसी आवाज़ आने लगी। वैसे ही नींद कच्ची आती थी, और ऊपर से ये शोर। जानता नहीं था कि आवाज़ कहाँ से आ रही थी, लेकिन गुस्सा बहुत तेज़ आया। सपना टू टा, नींद भी टू टी, लेकिन आवाज़ बंद नहीं हुई। सर को तकिये में ढके ला और मन ही मन गालियां बुदबुदा डालीं। फिर, पता नहीं कब और कै से नींद ने दोबारा मुझे अपनी चपेट में ले लिया।
नए घर में पहला हफ़्ता ख़तम होने को आया। छु ट्टी का दिन था, और कई दिनों बाद मैं दोपहर तक सोता रहा। उस एक रात के बाद हर रात बच्चे के रुं दन का शोर मुझे सताता रहा था। अपने काम और अके लेपन के रंज में मगन, मैनें जानने कि कोशिश भी नहीं करी थी की उस शोर का स्त्रोत क्या है। मुझे नहीं पता था की इस पहेली का हल जल्द ही ख़ुद-ब-ख़ुद मेरे सामने आ खड़ा होगा। समय तो काफी हो चुका था लेकिन फिर भी मैंने अपने लिए एक प्याली चाय बनाई और अखबार के पन्ने पलटते हुए उसे पीने बैठ गया। वही रोज़मर्रा की खबरें थीं - अर्थव्यवस्था में उतार-चढाव, सरकार के नए-नए करतब, 'गुमशुदा की तलाश' के इश्तेहार। "इनमें से कोई गुमशुदा क्या कभी घर वापस लौटा होगा," मैंने मनही-मन सोचा और चाय की प्याली मेज़ पर रख दी। शीशे की मेज़ थी, उस पर प्याली ज़रा खनकी। गुमशुदा लोगों और उनके इंतज़ार में व्याकु ल होते दोस्त और परिवार वालों के ख्याल में खोए मेरी आँखें अचानक खिड़की की ओर दौड़ गई। खिड़की के नीचे एक मरा हुआ कबूतर पड़ा था। मरा नहीं, मारा हुआ। जैसे किसी बिल्ली के पंजों ने उसे रौंध दिया हो और फिर ले आया हो मेरे पास भेंट के रूप में।
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मैं उठ खड़ा हुआ और खिड़की के पास जा पहुंचा। दोपहर के तीन बज रहे थे और खिड़की में से गहरी सुनहरी धूप की एक किरण मेरी आँखों में पड़ रही थी। मैनें मुँह फे र लिया। सामने की दीवार पर फिर एक परछाईं उठने लगी। कहीं फिर से मेरा वहम तो नहीं ? नहीं। पहले बिल्ली की लम्बी मूछें, उठी सी नाक, और गोल मुँह। फिर उसका शरीर - मोटा, गुदगुदा पर लचीला। आखिर में वह पूँछ, सीधी, लकीर सी। वही पूँछ। परछाईं गायब हो गई। और फिर वह अदृश्य बिल्ली मेरे पैरों से आ लिपटी, जैसे मुझसे दोस्ती करना चाहती हो। उसकी खाल बादलों सी हल्की महसूस होती थी। जिस आकस्मिकता के साथ वो प्रकट हुई थी, उसी तरह वह गायब भी हो गई। और मैं, और दोपहर सा शाँत ये घर, वैसे के वैसे खड़े रह गए।
शिवम तोमर
उं गलियों के निशान उँगलियों के निशान छू ट गये दरवाज़ों की घंटियों पर व्याकु लता बन कर लिफ़्ट के बटनों पर थकावट बन कर घिस गये जब एटीएम से निकले नोटों को गिना मैंने दो-दो बार और जब उँगलियों ने रेस्त्रां के मेन्युकार्ड में छू कर देखे दाम हाथ से छू ट कर घुस गए अर्थी के बाँस में फांस बन कर और हो गये विलीन पिता के साथ पिस गये दो हथेलियों के बीच जब ऊँ ची सुनने वाले भगवान से दिन-ब-दिन की मैंने हाथ जोड़ कर प्रार्थना जीवन का अर्थ जानने हेतु
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माँ के लिए जब सूई में डाला धागा तो कु छ हो गये धागे के साथ सूई के उस पार घुल गये ख़ुद के आँसुओं को पोछने पर आंसुओ में झड़ गये बालों में हाथ फिराने पर बालों के साथ किसी दिन एक ज़रूरी दस्तावेज पर मेरे दस्तख़त बन कर कलम की नोक से बह जायेंगे मेरी उँगलियों के बचे-कु चे निशान।
सत्यम तिवारी
चकित हैं हम
चकित हैं हम हमारे दुःख में कितनों का दुःख है कि कोई सांत्वना असर नहीं करती अच्छा होता यदि लोहे के लोग होते लोहे की खिड़कियाँ होती खुलने से टू टते नहीं न बन्द होने से टू टतीं
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विजय बागची
मैं कोसों दूर, एक वही स्पर्श जीता हूँ स्पन्दन तेज़ हो तो यही होता है कि, आप थक चुके हैं, अब रुक जाएँ, परन्तु स्पन्दन, स्नेह की पुकार भी है; वह जागृति लाती है, नवीन चेतना व तेजस भरती है, वह हिया को संदेश भेजती है, कि वह आ गई, वह शरीर के प्रत्येक अंग को सूचित करती है, कि उठो, तुम्हारी प्रतीक्षा हुई समाप्त; हाथों उठो, सब कु छ व्यवस्थित करना शुरू करो, पगों जगो, कि तुम्हारी यात्रा अब हुई प्रारम्भ, ऐ सदय कं ठ! चलो न तुम भी, अपनी मधुर तानें साफ कर डालो, और मन, मस्तिष्क से कहना, कि उनकी भी तपस्या अब हुई सम्पन्न; आह कितना मनोरम! होता है उन शब्दों का स्पर्श, वे मात्र शब्द नहीं, जीवन होते हैं, जिससे एक नहीं, कई जीवन जीए जा सकते हैं; तुमने तो कभी, बस, इतना ही कहा था, कि 'तुम्हारी हाथों में मेरे हाथ हैं' मैं कोसों दूर वही स्पर्श ले बैठा, मैं कोसों दूर, एक वही स्पर्श जीता हूँ।
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खिजां खाला के रसोड़े में आज कौन है? मधुरिमा माईती
वैसे तो अपनी खिजां खाला के हाथों में जादू है और उनके बनाए और लिखे हुए सब पकवान लाजवाब होते हैं, लेकिन आलस और गर्मी के चलते खिजां ने इस दफा अपनी जिम्मेदारी एक सहेली को सौंप दी। इस हीट वेव में रसोड़े में जाना खिजां खाला को बिलकु ल बर्दाश्त नहीं और बड़प्पन का फायदा उठाते हुए गर्मियों में सिर्फ कु ल्फी (और पिछले किसी अंक में प्रकाशित विधि, माचा मिल्कशेक) और कू लर के मज़े लूटना चाहती हैं। वैसे तो इस गर्मी में में रसोई में जाकर कु छ बनाना खिजां की सहेलियों को भी पसंद नहीं है, पर जीने के लिए खाना तो पड़ेगा ही और हर जरूरत और जिम्मेदारी में आनंद न लें तो जीना दूभर हो जाता है। इस बार की रेसिपी उन लोगों के लिए है जिन्हें कम समय में पौष्टिक, स्वादिष्ट और पेट भर खाना मिल जाए, तो उनका दिन बन जाता है। तस्वीरों से साफ जाहिर है कि आपको सीधे-सादे टोस्ट को बढ़ा-चढ़ाकर बनाने की विधियां बताई जाएँगी। भई, टोस्ट से भी सरल-सहज और अच्छी रेसिपी अगर आपको पता हो तो हमें हमारे ईमेल (machaan.se.guftagoo@gmail.com) करें। छापने की कोशिश करें न करें बनाने की जरूर करेंगे।
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फोटो साभार: मधुरिमा माईती
आलू टोस्ट सामग्री (विधि १ टोस्ट के लिए है, बाकी गणित आप भिड़ाएं) भूख अनुसार ब्रेड (आप ब्रेड के बाहरी हिस्से काट कर खाने वालों में से हैं तो उन्हें फें कना मत, जमा कर लें। जब ढेर सारा जमा हो जाए तो ब्रेड उपमा बना कर खा लें या पास्ता पर डालने या तलने के लिए ब्रेड क्रं ब्स बना लें) एक मुट्ठी के विस्तार का उबला आलू (कू कर में पानी के साथ एक सीटी मरवाएं, ठंडा होने पर छील लें) बारीक कटी या पीसी हुई १ लहसून की कली (कं जूसी न करें, २ तो डाल ही दें) १ चम्मच मक्खन या घी चुटकी भर पीसी हुई काली मिर्च १ चम्मच बारीक कटा हरा धनिया (पत्ती भी, डंडी भी) स्वादानुसार नमक चेरी टमाटर – सजावट के लिए विधि ब्रेड को दोनों तरफ से तवे पर या टोस्टर में कु रकु री होने तक सेकें । उबले आलू का भरता बनाएं और उसमें धनिया, काली मिर्च, लहसुन, नमक, और मक्खन या घी डालकर एक मिश्रण बनाएं। इस मिश्रण को प्यार से और इच्छानुसार टोस्ट पर फै लाएं, खाएं और थोड़ा और बनाएं।
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फोटो साभार: मधुरिमा माईती
पालक टोस्ट सामग्री – (विधि एक बार फिर १ टोस्ट के लिए ही है, बाकी गणित आप भिड़ाएं) १ ब्रेड १०० ग्राम ताज़ा पालक (बारीक कटी या पीसी हुई) १ चम्मक लहसुन-अदरक का पेस्ट १ चम्मच तेल या घी १ छोटे टमाटर का पेस्ट बारीक कटा हुआ आधा या १ छोटा प्याज स्वादानुसार नमक विधि ब्रेड को सेकें , टोस्ट बिलकु ल क्रिस्पी-कु रकु रा होना चाहिए। एक कढ़ाई में तेल गरम करें, लहसुन-अदरक के पेस्ट को डाल हल्का भुनें, फिर प्याज और पिसे हुए टमाटर को डालें। मसला चलते रहें, जब तेल छोड़ने लगे तब पालक डालें और तब तक भुनें जब तक पानी बिलकु ल सूख न जाए। नमक डालें। टोस्ट किए गए ब्रेड पर फै लाएं और एन्जॉय!
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आभार सूची
सम्पादन मंडली
उलफ़त राणा श्वेतिका प्रियांशी सिंह
कला निर्देशन
मधुरिमा माईती
आवरण
उलफ़त राणा
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