मचान नौवां अं क
फरवरी २०२२
| वर्ष गां ठ अं क |
संपादकीय
मचान पत्रिका के बायो में भले ही लिखा हो ‘रचनात्मक की उड़ान भरने का एक अलहदा प्रयास’, एक साल पूरे होने से इतना समझ आ गया कि इस प्रयास में हमें सफलता जैसा ही कु छ मीठा चखने को मिला। इस पत्रिका की शुरुआत एक ऐसे मचान पर हुई थी जो एक हल्के ? से आं धी के झोंके से भी गिर सकता था, लेकिन हमें यह आशा नहीं थी की एक साल के अं दर कु छ ढाई हज़ार लोग हमारा सहयोग कर रहे होंगे। उन में से ४५० हमारे ईमेल सब्स्क्राइबर हैं। कु छ ५० लेखक, कवि, कलाकार और फोटोग्राफर हमारे साथ जुड़े और पत्रिका के प्रत्येक अं क में सहयोग देकर चार चाँ द लगाए। और हाँ , उन खूबसूरत चेहरों को कै से भूल सकते हैं जिनके बिना ‘कवर पेज’ बिना चीनी के रसगुल्ला लगता। वें अं क, यानी जिसे आप पढ़ रहे
हैं, को आपके इनबॉक्स तक १ दिसम्बर को पहुं चना था। कोशिश और नौवें अं क, यानी जिसे आप पढ़ रहे हैं, को आपके इनबॉक्स तक १ दिसम्बर को पहुं चना था। कोशिश और प्लैनिंग कई बार गलत दिशा ले लेती है और ऐसा ही कु छ हमारे साथ हुआ जब कोरोना घर पे दस्तक दे बैठा। लेकिन वो कहते हैं ना,– ‘देर आए दुरुस्त आए’। वैसे भी खुशी का मौका है, और इसी खुशी के पागलपन में सं पादकीय मं डली ने बड़े प्यार से सं पादकीय लिखने का भार अपने कला निर्देशक पर सौंप दिया। (कलम पकड़े कु छ अरसा हो गया है। अजीब लगता है क्योंकि कलम का भार उठाना शायद मेरे हाथों को अच्छा नहीं लगता। कला निर्देशन करती हूँ, शब्दों से खेलना प्रियांशी, उलफ़ त और श्वेतिका का काम है। तो जो लिखूँ गी एक्स्टसी में लिखूँ गी, पढ़ लेना और भूल जाना।)
ईमेल कर ये कृ पया बोलने से परहेज कीजिएगा कि इस बार के सं पादकीय में रस नहीं था। यहाँ नहीं होगा, लेकिन इस बार छपी अनगिनत कविताओं, कहानियों, गद्य, फोटो, एस्से में ज़ रूर मिलेगा।
२०२२ के पहले अं क का कवर हसीन मचान मं डली का चित्रण है लेकिन कार्टून के रूप में। इसे भी मधुरिमा – यानी इस सं पादकीय की लेखिका ने बनाया है। उलफ़ त की कलम से फिल्म 'टिक, टिक… बूम' और अमेरिकी म्यूजिकल थिएटर के इस बार के कॉनट्रीब्यूटर में आकाश लिए उतरा प्यार आपको फिल्म गुरबानी, वैशाली थापा, देवेश पथ देखने के लिए ज़ रूर प्रेरित करेगा। सारिया, अभय भदौरिया, अन्नू शर्मा, विशेष चं द्र नमन, नवनीत ‘अं शु’ भविष्य का ज़् यादा कु छ अता-पता कु मार, अनन्य चित्रांश, शिवम्, नहीं, लेकिन मचान पत्रिका ‘मुफ़् त’ अनं त शहरग, गौरव शुक्ला ‘अतुल’, थी और रहने का प्रयास करेगी, और सचिन राणा और मीरा हैं। क्योंकि हमेशा की तरह बेहतर करने का अं क विषय-बद्ध नहीं है, रचनाएं कोशिश करती रहेगी। साथ देते भिन्न हैं। सारी रचनाएँ इन्टेलिजन्ट, रहिएगा क्योंकि मचान अपनी एस्थेटिक और पढ़ ने में मजेदार हैं। ‘उड़ान’ को भरने के लिए अब तैयार खिजां खाला का कू ल कॉलम भी है। ख़ूब दिलचस्प और रंगीन है। प्रियांशी ने एक पुस्तक समीक्षा लिखी है जिसे पढ़ कर जेब थोड़ी हलकी करनी पड़ सकती है।
आभार सूची
सम्पादन मं डली उलफ़ त राणा श्वेतिका प्रियांश सिंह
कला निर्देशन/आवरण मधुरिमा माईती
All rights reserved. उलं घन करने पर कानूनी कारवाही की जाएगी।
रचनाएं
आमंत्रित हैं ।
आगामी अं क हम आपको मौका दे रहे हैं हुमसे जुडने का, मन पसं द किसी भी विषय पर लिखने का - फं तासी, राजनीति, प्रेम, इतिहास, लिंग, कला, सं गीत, खाना और जो भी जी चाहे। लेखन/कला की शैली कोई भी हो सकती है, जरूरत है तो बस भरसक रचनात्मकता की।
अपनी रचना को प्रकाशित करने के लिए निर्देश: - आप अधिकतम 2 लिखित रचनाएं भेज सकते हैं, प्रस्तावित लेख से जुड़े रचनात्मक चित्रण (तस्वीर/कार्टून) को भी 2 तक ही सीमित रखें। - फोटो स्टोरी/कॉमिक स्ट्रिप/अन्य ग्राफिक रचनाएं भी भेज सकते हैं। - अनुवादक भी अपना काम परतूत कर सकते हैं। - रचना के अं क में अपने बारे में कु छ पं क्तियाँ ज़ रूर लिखिएगा। - अपनी रचना को शीर्षक दें। - अपने इंस्टाग्राम/ट्विटर हैन्डल को भी भेजें। - सं पादक टिप्पणी और छपाई के लिए जमा करवाने हेतु अपनी रचना को गूगल ड्राइव में Word Document के रूप में अपलोड करें और लिंक हमारे साथ साझा करें। रचना भेजने की आखिरी तिथि 10 मार्च 2022 है।
क्रम सूची 08
गोडार्ड और एक जुगनू | नवनीत कु मार 'अं शु'
10
हाथ | आकाश गुरबानी
12
दिनचर्या | वैशाली थापा
14
अलमारी | मीरा
18
भूल जाने की आदत | आकाश गुरबानी
20
खुशनुमा लड़ की रोटी है ज़ार-ज़ार | देवेश पथ सारिया
23
घोंसला | अन्नू शर्मा
24
अमृतियों के पदचिन्हों पर | सचिन राणा
30
ग़ ज़ ल | अनं त शहरग
32
कविताओं के गणित में | विशेष चं द्र नमन
33
भीड़ | अनन्य चित्रांश
क्रम सूची 37
दूसरा आदमी | अभय भदौरिया
40
जड़ों से फु सफु साहट | शिवम्
42
पारदर्शिता | वैशाली थापा
44
वो या गया है शहरों तक | अनन्य चित्रांश
49
आसान नहीं एक स्त्री को समझ पाना | गौरव शुक्ला
51
'करक्क' (अनुवाद: मधुरिमा माईती)
55
'परियों के बीच' (पुस्तक समीक्षा: प्रियांशी सिंह)
58
टिक, टिक... बूम ओर एन ओड टू दि एं क्शियस आर्टिस्ट (फिल्म समीक्षा: उलफ़ त राणा)
69
खिजां खाला का कू ल कॉलम
71
Sunrise to Sunset (स्पॉटीफ़ाई प्लेलिस्ट)
नवनीत कु मार ‘अं शु’
गोडार्ड और एक जुगनू
शाम में मच्छरों के डर से खिड़ कियां बं द कर दिया करता हूं । आज एक जुगनू बं द हो गया है भीतर। अभी बत्ती बुझा कर ट्रफाउ की एक फिल्म देखने वाला था, पर अब इस भगजोग्नी की उड़ान देखने में रम गया हूं । पहले दो मिनट तक तो ये लगा की मस्तमौला होकर ये जुगनू उड़ रहा है, फिर इसकी व्याकु लता पहचान सका। कद छोटा होने से इसका आसमान छोटा हो गया है, ये सोचना कितना गलत था। पर मैंने खिड़ की नहीं खोली, कारण मच्छर के आने का डर था, या जुगनू की तड़ प को उड़ान समझ कर देखने का मेरा निजी स्वार्थ, ये मैं नहीं स्पष्ट करूं गा। खैर कु छ मिनट बाद मैंने फिल्म चला दी। अब
ट्रू फौ के जगह गोडार्ड देखने का मन था। "ले मेप्री" में जियोर्जिया मोल के चेहरे पे जुगनू जा बैठा। फ्रिज लैंग ने अभी कु छ पहले ही कहा था "ईश्वर की अनुपस्थिति ही इंसान के ईश्वर में आस्था को बनाए रखता है"। जुगनू जब स्क्रीन पे था तो वो जगमगा नहीं रहा था। "प्रकाश की अनुपस्थिति ही, जुगनू को प्रकाश देती है"। किसी कथन का इतना सटीक उदाहरण मैंने पहले नहीं पाया था। फिल्म खत्म होने को है, जुगनू फिर मुझे नहीं दिखा। सबटाइटल्स मिस होने के डर से मैंने ठीक से कभी ढूंढा भी नहीं। फिल्म में नायिका नायक को छोड़ चली गई है। नायक तरह - तरह के कारण ढूंढ़ ता है,
जिसके कारण नायिका ने उससे प्रेम करना छोड़ दिया हो। प्रेम करते वक़् त उसने कहा था कि प्रेम करने का कोई कारण नहीं होता। प्रेमियों की हीपौक्रिसी पे ये फिल्म हंसता है।
छोड़ दिया है, इस आशा में कि फिल्म की नायिका की तरह उसका कोई ऐक्सिडेंट ना हुआ हो।
फिल्म में यूलिस्स को उसका घर इथैक्का नजर आता है। मैं भी लाइट जला कर किताबों कि तरफ देख पर अब उसने ढूंढ़ ना बं द कर दिया रहा हूं । है। फिल्म खत्म होने को है। पी. एस.- सुबह मैंने जुगनू को मरा हुआ पाया। अं धेरे में मैं जुगनू को नहीं ढूँढ पा रहा हूं , रोशनी में वो बस एक कीड़ा होता है। मैंने भी अब उसे ढूंढ़ ना
फिल्म: ले मेप्री
आकाश गुरबानी
हाथ
मैं इन हाथों को देखता हूँ हाथों की इन लकीरों को देखो कै से मेरे हाथों पर भाग रही हैं बिल्कु ल मेरे मोहल्ले के बच्चों की तरह यहाँ वहाँ ना कोई फ़ि क्र ना कोई फ़ रियाद मन में कितनी हिकायतें लिए एक मासूम सी हिदायत लिए
ये लकीरें, मुझे मेरी ज़िं दगी का हिसाब देती हैं वो सारे दिनों का जिनके दायरे में अब भी मेरी घड़ी के कां टे घूमते हैं वो सारी रातों का जिनकी सुनसान गलियों में आज भी मेरा अक्स कहीं छिपा है उन बातों का जो कु छ कही, ज़् यादा अनसुनी रह गई उन हसरतों का जो कु छ पूरी, ज़् यादा अधूरी रह गई
फोटोग्राफ: प्रियंका झा | @mainmanmauji
इन हाथों ने कितनों को थमा है कितनों को छोड़ा कितनों की उड़ान भरी है कितनों का वज़ न उठाया इन हाथों ने हर सहर एक नई दुनिया का आगज़ किया है और हर रात एक नया अं त मगर अब इन्हें डर है कि इनके निशान कहीं नहीं दिखते
वैशाली थापा
दिनचर्या कोई मुझ से पूछता है मैं क्या कर रही हूँ? तब पूरा ठीक से बता नहीं पाती कि क्या कर रही हूँ? बर्तनों की उठा पटक में लगी हूँ अस्तित्व को मां ज रही हूँ धो रही हूँ और मेरे हाथ गीले है गीले हाथों से लिखा नहीं जाता कि क्या कर रही हूँ? बुहार रही हूँ शब्द झाड़ रही हूँ मात्राएं सजा रही हूँ स्वर, दीवारों पर और अब एक जगह थक कर बैठ गई हूँ अब भी सब कु छ अव्यवस्थित है
कि ख़ाक छान रही हूँ अखबारों की उनमें लोट-पोट हो रही हूँ हर ख़ बर के अनुकू ल हो चुकी हूँ ऐसी कोई ख़ बर नहीं जो लिपट जाए मेरी गर्दन से और फांसी बन जाए या उलझ जाए बालों में घुस जाए कानों में कनखजूरे की तरह धीरे-धीरे मेरा वजूद कु तर डाले ज़् यादा नहीं तो बां ध ही दे मेरे हाथ और मैं लिख ही ना सकूं कि मैं क्या कर रही हूँ?
यह बीसवीं सदी है जहां एक डाकिए की साइकिल को किसी ने चुरा लिया है वो पैदल ही चला जा रहा है चिट्ठी बां टने मैं झुं झला कर कहती हूँ मैं बैठी हूँ काम पर जा रही हूँ किसी हिसाब में लगी हूँ
मगर असल में मुझे कहना होता है मैं किताब घूर रही हूँ इंसानों की जगह स्मृतियों को दे रही मैं पिता के किस्से सुन रही हूँ हूँ उन्हें नहीं पसं द किसी को सोते से आश्चर्य कर रही हूँ किसी लम्बी बहस उठाना पर वो समझते है हर आदमी मजदूर है, या प्रतीक्षारत हूँ कि कोई पूछ ही ले थका हुआ है मुझ से पिता है हर आदमी मैं क्या कर रही हूँ? मैं फ़ि लहाल उनकी दुनिया में हूँ
मीरा
अलमारी चंदबाली झुमकों के बाद अगर कोई दूसरा किस्सा है जो माँ -बाबुजी के बीच माहौल तं ग कर दे तो वो है अलमारी का… और मुझसे पूछें तो मैं बाबुजी को ही इसका जिम्मेदार ठहराऊं गी। गलत ना समझे हमारे वालिदैन का रिश्ता असमान होने पर भी बहुत ही घना और प्रेममयी रहा है। पितृप्रधान समाज के अनुसार उन्हें आदर्शमयी कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। मेरे पिता जितने कड़ क, सामाजिक और प्रमुख प्रकृ ती के हैं, माँ का स्वभाव उतना ही सरल, सहज एवं शां त है। मैंने माँ के शब्दों में बाबुजी के खिलाफ नाराजगी सिर्फ एकाध बार ही देखी है और अक्सर ये द्वंद्व छिड़ ता है अलमारी पर।
यह बात शुरू होती है उनके गौने सेजब ब्याह के तीन साल बाद गौने करा कर माँ ससुराल में रहने आयीं, वो मायके से दाहेज में पलं ग, बक्सा, सोफा, बर्तन आदि सब कु छ तो लेकर आयीं थी पर उस समय अलमारी का चलन उतना नहीं था। बाद में जब नयी दुल्हनें गोदरेज अलमारी ले कर आने लगीं तब माँ को भी शौक हुआ एक अलमारी का। माँ का यह शौक़ काफ़ी हद तक ज़ रूरतों से भी प्रेरित था। दादाजी के बनाए पुराने घर में अलमारियों का अभाव तो न था पर घर सं भालने और व्यवस्थित रखने की जिम्मेदारी सिर्फ माँ के ही सिरे था, इसलिए बरसात और चूहों के उधम से भी माँ को अके ले ही लड़ ना होता था।
आगे चलकर घर में कु छ छोटीमोटी अलमारियां बनी पर माँ का गोदरेज गैरहाजिर रहा। फिर हमारी आर्थिक स्थिति भी काफी सुधर गई पर, वो अलमारी नहीं के नहीं आई। जब मैंने एक बार माँ से इसकी वजह का ज़ि क्र करा, उन्होंने बहुत ही मैटर-ऑफ़ -फै क्ट जवाब दिया, "तुम्हारे पिताजी को औरतों की दिक्कतें दिखाई नहीं देती हैं "।अब अगर बात मेरी जरूरतों की हो तब पिताजी बहुत ही रेगुलर और हाजिर रहे हैं। अगर मैंने उनसे आज कु छ सीधे मुँ ह से माँ ग लिया तब मुझे वो कल मिल जाना है। ऐसे में माँ की जरूरतों को इस तरह से और इतने वक्त से नज़ रअं दाज होते देख, मेरे सीने में बहुत ही टीस सी हुई।
में आ गयी। मेरा सामान भी एक बक्से से बढ़ कर एक कमरे भर हो गया। पुराना घर उम्रदराज हो गया और आज उसके नवीकरण का काम जोरों-शोरों पर है। चूं कि मैं अधिकांशतः बाहर ही रही हूँ, मेरा घर पर कभी कोई निजी कमरा नहीं रहा है। चं द यादगार और निजी चीज़े जो मैं घर पर रखती हूँ, मैंने इधर काफी बार उन्हें घर में बिखरा या रिप्लेसड पाया है। अब अगर अपनी प्रेमिका के बाद कोई मेरा दूसरा प्यार है तब वो है 'व्यस्थित अनुक्रम'।
तब इस बार जब माँ से मिली, मैंने उन्हें बोल दिया, "घर में कु छ बने या ना बने, मुझे एक अलमारी चाहिए ख़ैर बात आयी गयी सी हो गयी। जो सिर्फ मेरा हो"। माँ भी बोली, कई सावन बीत गए। मैं सातवीं 'ठीक बात' और उन्होंने पिताजी के कक्षा के लोकल छात्रावास से सामने मेरी बात दुहरा दी "मीरा को एम.ए. के यूनिवर्सिटी के छात्रावास नए घर में एक निजी अलमारी
चाहिए"। अब ध्यान रखें कि हमारे यहां अभी भी बेटियों का असली घर उनका ससुराल माना जाता है और ऑलटू ग़ेदर यह बहुत ही पितृसत्तात्मक समाज है। तो जाहिर सी बात है, माँ की बात सुन कर पिताजी कन्फ़ यूज हो गए, "भला मीरा हमारे घर में अलमारी क्यूँ खोजेगी?” मैं दूसरे कमरे में बैठी उनकी बात सुनकर एकदम से सकपका गई। अब मैं उन्हें कै से बताऊं की उनकी बेटी अव्वल दर्जे की क्वीय़ र है और सं भवत विवाह नहीं ही करेगी। मुझे क्या पता था कि एक अलमारी के चक्कर में मुझे अपनी दूसरी अलमारी से बाहर निकलना पड़ेगा? चित्र: मीरा | @hotgaypotato
मुझे नहीं पता माँ ने आगे क्या जवाब दिया क्योंकि मैं तो अपने पैर दबा कर वहां से खसक गई। पता चला एक अलमारी पाने के लिए मैं बाहर निकली और फिर सीधे घर से ही बाहर निकलना पड़ा। ना बाबा मुझे नहीं निकलना अभी अपनी अलमारी से। वैसे अच्छी खबर यह है कि अगले माघ में माँ की गोदरेज अलमारी आने वाली है। अब मैं सोच रही हूँ कि जब ब्याह के तीन दशक बाद माँ की अलमारी आ सकती है तो क्या पता एक दशक बाद मुझे भी अलमारी से निकल कर अपनी अलमारी मिल जाए।
आकाश गुरबानी
भूल जाने की आदत
मुझे अपनी चीजें भूल जाने की आदत है कभी किसी के घर जाता हूँ तो छोड़ देता हूँ वहाँ अपना कु छ सामान एक रुमाल, मेरी सोनाटा की घड़ी, वो पीले रंग की बॉटल याँ मेरा बसता अगली सुबह जब याद आता है तो मैं उनसे कु छ नहीं कहता मैं उन्हें याद नहीं दिलाता कु छ करता हूँ तो सिर्फ उनका इंतज़ार उन्हें मेरा नंबर पता है मेरे घर की खबर भी है मैं दिन भर बैठा रहता हूँ उस एक फोन कॉल के लिए शायद अभी मेरे दरवाज़े पर एक खटखटाहट होगी की भागता हुआ जाऊं गा और मिलूँ गा उनसे जो मुझसे मिलने आए हैं की आखिर कार कोई तो मेरे घर आया है
फोटोग्राफ: कृ ति रंजन | @bhatakta_rahgir
वो चाय का दूसरे कप जो हमेशा खाली रहते थे आज भर जाएगा एक कु र्सी जो महीनों से कोने में पड़ी रहती थी उसकी धूल साफ होगी आज आज बाहर आएगी वो चटाई जो कबसे दराज़ के अं दर ही रहा करती मुझे अपनी चीजें जान बुझ कर भुला देने की आदत है कभी किसी के घर जाता हूँ तो घं टों उनसे बातें करने लगता हूँ अपनी ज़ रा सी याद उनके घर में छोड़ देने की कोशिश करता हूँ एक बहाना छोड़ देता हूँ वहाँ की मेरी बातें लौटाने कोई तो मेरे घर आएगा मगर अक्सर लोगों को भी मेरी तरह भूल जाने की आदत है
देवेश पथ सारिया
ख़ुशनुमा लड़की रोती है ज़ार-ज़ार (कीर्ति के लिए)
यदि तुम उसके परिचय के घेरे में हो या उसकी तथाकथित मित्र 'बिलैया' के घेरे में तो तुम ज़ रूर जानते होगे व्हील चेयर पर बैठी उस ख़ुशनुमा लड़ की के बारे में जो दिन भर चुटकु लों में बतियाती है बिलैया की टां ग खींचे जाती है परिवार के बच्चों से लाड़ लड़ाती है इंटरनेट लिंक पर अनाम राय मं गवाती है किसी की मनुहार पर मीठा गीत गाती है कदाचित तुम उसे मान बैठोगे सबसे ख़ुश लड़ की पर सुख उपस्थित है के वल सतह पर तैरती बर्फ़ -सा नीचे गहराई में दफ़् न है लावा
वह बनना चाहती थी डॉक्टर और पार्श्वगायिका और शायद बन भी जाती वह बीमारों की तीमारदार होती या मं च की सुरीली आवाज़ तब तुम उसे मुफ़् त में न सुन पाते पर एक मुई दुर्घटना और पिघल गया सपनों का आइसबर्ग अब वह धं सी हुई है गाढ़े, तैलीय, चीकट दुख में
गीतों पर मिली ऑनलाइन तालियां उसकी अपूर्ण इच्छा पर मरहम हैं मज़ाक कोबरतती है वह अवसाद के विरुद्ध रक्षात्मक तकनीक के रूप में 'बिलैया' की मित्रता है उसका मानवता पर बचा हुआ विश्वास किसी के भी बच्चों में वह देखती है रूप अपने अजन्मे बच्चों का ज़ार-ज़ार रोती है वह जब देखती है क्रू र ज़ाहिलपना इस तथाकथित महान देश के लोगों का धिक्कारती है महज दिव्यां ग कहकर ज़ि म्मेदारी से हाथ धो लेने वाले नेताओं को जो सरकारी इमारतों तक में व्हीलचेयर से जाने लायक रास्ते नहीं बनवाते
गड़ जाती है शर्म से जब परिवार वालों को उसे उठाना पड़ ता है नित्य क्रिया के लिए ले जाना होता है टू टकर, वह रोती है फू ट-फू ट कर दुर्घटना से पहले का जीवन याद करती है आपके सामने जब प्रकट होती है वह दुनिया की सबसे ख़ुशमिजाज़ लड़ की के रूप में उसके गालों पर सूखे हुए आं सू होते हैं और अं गूठों के पीछे, गाल पोंछने से लगा नमक।
अन्नू शर्मा
घोंसला जगह-जगह घूमकर, इक ज़ मीन चुनती होगी ना क्या फिर वो भी भूमिपूजन कराती होगी जब वो घोंसला.. कितनी क़ि स्म के तिनके बटोरती होगी फिर उससे नीव भरती और दीवारें सजाती होगी जब वो घोंसला.. इक ऐसा घर बनाती होगी जहां गर्मी बारिश आं धी तूफान ना सताती हो, बस सुख और सुकू न की सांस आती होगी जब वो घोंसला..
इतने श्रम के बाद, जब वो सफल होती होगी अपना खुद का आलना देख क्या वो भी रोती होगी जब वो घोंसला.. लेकिन.. जब कोई राक्षस (इंसान), उस घोंसले की गन्दगी से, तं ग होकर उसे तोड़ देता है, तब क्या अपना टू टा आलना देख वो चिड़ि या भी रोती होगी..? अब क्या सोचती होगी चिड़ि या जब वो फिर से नया घोंसला बनाती होगी..?
PHOTO ESSAY
सचिन राणा
“स्मृतियों के पद्चिन्हों पर”
“स्मृतियों के पदचिन्हों पर” एक कविता, फोटोग्राफी, डिजिटल आर्ट, और फिल्म सीरीज है जो स्मृतियों और सपनों में बसे किरदारों के साथ बात करने की, उन्हें समझने की, और उनसे पीछा छु ड़ाने की एक कोशिश है। यह वार्तालाप कोरोना के पहले चरण के लॉकडाउन के साथ शुरू हुआ। एक बड़े शहर से भाग कर अपने छोटे से शहर के छोटे से मकान में वापस फँ सना, यह ‘फँ सना’ सिर्फ एक बाहरी घटना नहीं है, यहाँ पर ‘फँ सना’ अपने ही अतीत और मन के अन्दर उलझना भी है, इस उलझन को सुलझाना एक नाकाम कोशिश सा मालूम पड़ ता है। अपने शारीर को ख़ुद ही तोड़ देने के बाद कोई विकल्प हाथ न
लगने पर आख़ि री विकल्प सिर्फ वार्ता ही था। राजनैतिक भाषा में बोलें तो सं धि समझौता करने में ही भलाई थी। अकसर डरावने दृश्यों के बाद नींद टू टने पर दृश्यों को कागज़ पर लिख उन्हें वहीं छोड़ दिया करता। लॉकडाउन खुलने के बाद एक-एक कर उन पन्नों के किरदारों को ढूँढना, उनकी तस्वीरें खींचना और फिर उन सब को साथ मिलाकर एक अलग ही तस्वीर बनाना, या उन किरदारों को लेकर कविताएँ लिखना, या छोटी छोटी फिल्मों में उन्हें ढाल देना, इन सभी तरीकों से मैंने उन किरदारों और चित्रों से पीछा छु ड़ाने की कोशिश की है । मैं आज तक सफल नहीं हुआ।
CHAPTER 1 “INTRODUCTION” Statement 1: "Memories wrote a poem about mountains on autumn leaves"
CHAPTER 1 “INTRODUCTION” Statement 4: "Lost my way back, Where is my home?"
CHAPTER 2 Statement 2: “Finally Walking with them”
CHAPTER 2 Statement 3: “Finally Walking with them”
Chapter 2 Poem 1
बोला था तुम्हें कि अगर रात को 3 बजे नींद न आये तो कमरे से बाहर मत निकलना जो फु सफु साहट तुम्हें सुनाई दे रही थी जो घं टियों कि आवाज़ तुम्हें आ रही थी उसका पीछा मत करना तुम बाँ ज की परछाइयों में जो चेहरा छु पा था उसे खोजने की कोशिश मत करना मत करना पां डव नृत्य एक जं गल के बीच अगर तुम्हें ढोल-दमाऊ की थाप सुनाई दे लेकिन तुमने फिर भी किया आज भी 3 बजे सोने में फट क्यों जाती है तुम्हारी? बिस्तर पर लेट तो जाते हो पर गूं गी नदी का राग सोने नही देता तुम्हें क्यों एक चीख और उसके बाद
का सन्नाटा तुम्हारी चमड़ी के घाव और गहरे कर देता है जब वो फु सफु साहट चीख बन गयी थी उससे दिन तो क्यों डर कर पहाड़ के ऊपर चढ़े? और जब वो तुम्हें दिखाई दी तो तुम क्यों पत्थर फें कने लगे नीचे? जब वो चिपक गयी तुम्हारे दाहिने पैर से तो क्यों दे मारा पैर पत्थर पर? क्यों तरस गए पानी को जब अटक गयी गले में वो तुम बेचारे, बेबस, लाचार नदी से बकरी की घं टी जो तुमने उठाई थी वो घं टी नही थी खूँ टा था तुम पं खे को मत देखा करो सचिन
अनं त शहरग
ग़ज़ल जबीं, आँखें, कमर, रुख़् सार, बोसा ग़ ज़ ल का ले रहे अश'आर बोसा नहीं होगा किसी से ठीक अब ये मिरे ज़ ख़् मों को है दरकार बोसा बिरह की तल्ख़ में सालों तपा कर किया है मीठा सा तय्यार बोसा मुझे मालूम है उस की पसं द अब सो भिजवा देता हूँ हर बार बोसा शब-ए-क़ु र्बत किसी इक ज़ि द की ख़ातिर करे हैं लोग क्यों बेकार बोसा कभी होठों पे रख कर होंठ चुप कर मिले 'शहरग' को आख़ि र-कार बोसा
اننت 'شہرگ'
غزل جبیں ،آنکھیں ،کمر ،رخسار ،بوسہ غزل کا لے رہے اشعار بوسہ نہیں ہوگا کسی سے ٹھیک اب یے مدے زخموں کو ہے درگار بوشہ برہ کی تلخ میں سالوں تپا کر کیا ہے میٹھا سا تّیار بوسہ
شِب قربت کسی اک ضد کی خاطر کرے ہیں لوگ کیوں بیکار بوسہ کبھی ہونٹھوں پے رکھ کر ہونٹھ چپ کر ملے 'شہرگ' کو آخرکار بوسہ
उर्दू की नस्क़ लिपि में पिछले पृष्ठ पर दी गई ग़ज़ल
مجھے مالوم ہے اس کی پسند اب سو بھجوا دیتا ہوں ہر بار بوسہ
विशेष चं द्र नमन
फोटोग्राफ: अनुश्री | @hikhayat
कविताओं के गणित में
सुबह गणित की परीक्षा है, रात भर नींद नहीं आयी। गणित पढ़ ना छोड़ कविताएं लिखतापढ़ ता रहा। करीब ढाई बजे चाय पीने का मन हुआ। चाय बनाई पर जैसे ही मेज़ पर रखना चाहा, ग्लास हाथ से फिसल गई। डायरी पर पसरी हुई है चाय,
कविताओं से लिपटी हुई, रंग भर रही है। एक फिसलन ने एक कविता को फिसलने से बचा लिया। दोबारा शायद मन नहीं फिसलेगा आज। इंतज़ार करूँ गा चाय के डायरी के पन्ने पर सूखने तक का।
अनन्य चित्रांश
भीड़
मैं हां फ रहा था। भागते-भागते मेरी जान निकलने को आयी थी। कोई मेरी मोटरसाइकिल लेकर फरार था। और अब ये भीड़ मेरे पीछे ना जाने क्या सोच कर दौड़ रही थी। झपट्टा मारने को तैयार ये लोग शायद मुझे ही मोटरसाइकिल चोर मानकर मारने दौड़ रहे हों, शायद व्हाट् सएप्प पे किसी ने चला दिया हो कि फलाना चोर लाल टोपी, नीले रंग के बुशर्ट और हरी पतलून में घूमता है, पीछे भगवा टाइप रंग का बस्ता डाले घूम रहा है। और इंद्रधनुषी टाइप कोई भी दिखे, तो कू ट डालो। "शायद" इसलिए कि अब भैया ऐसे मेसेज हम तो डालते नहीं हैं, बल्कि देशहित में उसे डिलीट भी मार देते हैं, पर किसी का क्या पता? आज के समय में कु छ भी सम्भव है। वो क्या है न, कि आजकल व्हाट् सएप्प
पे अफवाह इतना फै लाया है हमारे देसी निकम्मे, कामचोर, बेरोज़ गार भीड़ ने कि लोग अपने ही पड़ोसी को फलाने-ढिमकाने के उकसावे में कू टने लगे हैं, कू टा भी ऐसा कि जान निकल जाए। जहां तक हमारे पहनावे का सवाल है, ये लाल टोपी तो हमें ऑफिस से मिली थी, प्राइज के रूप में, लेकिन ये प्राइज हमें काम करने के लिए था, या काम ना करने के एवज में, ये हमसे मत पूछिए, अब हमको क्या पता कौन क्या क्यों कर रहा, हम तो शिफ़् ट के समय सेे 8 घण्टे काम करते हैं, बस। भगवे रंग का बस्ता मत पूछो क्यों। सन्तरे का रंग मेरे दिल के इतने करीब है कि हम साल में 2 बार नागपुर लिया करते हैं। वो 'ज़ी अन्तराक्षरी' में अन्नू कपूर बोलते थे
फोटोग्राफ: साक्षी | @slothyblue
ना, "इस चीज़ के ऊपर नहीं बोलने का" बस वही। और वैसे भी डोनाल्ड ट्रं प को भी लोग 'ऑरेंज फ़े स' बोलते हैं। तो ये तो खैर ऑरेंज बैग ही है। जहाँ तक बात है, हरी पतलून का, अमां ये हरी पतलून तो हमने निकाली है चोर बाजार से। अरे मियाँ , वही चोर बाजार जहां हर दुकान का मालिक असली फ़े क का डीलर खुद को बताता है। अब तो ऐसे कु छ लोग जो असली फे क को गरियाते खुद को फ़े क ओरिजिनल का सेठ बताते थे, इन सब ने फर्ज़ि याना कर-कर के शोरूम खोल लिया है। समझ ही नहीं आता कि असली फ़े क वाले माल और फ़े क ओरिजिनल वाले में माल किसका लेने लायक है? हम को तो लगता है कि सारे ही हमारा फ़ि रक़ी
ले रहे हैं। अब सारे चोर बाज़ार के वो ठग जो चोर बाज़ार में अपनी खोली में दूकान सजाकर बैठते थे, अब चकाचक इमारतों में आधुनिक सुविधाओं से लैस दुकानें लगाकर बैठते हैं। इसीलिए पहले कि तुलना में बचना अब काफी मुश्किल हो गया है, इन ठगों से। पहले जिन्हें भले लोगों का इलाका माना जाता था, वहां इन ठगों ने अपनी दुकानें लगाकर अतिक्रमण कर लिया है। मेरे वर्जिश ना करने, और आलसी प्रवृति के कारण जल्द ही मैं ऐसी हालत में पहुं च गया था, कि अब एक कदम आगे नहीं बढ़ाया जा रहा था। मरता क्या ना करता, मैं ज़ मीन पर घुटनों के बल बैठ गया, हाथ से कभी कभी अपना सर छु पाते / बचाते, कभी कभी हाथ जोड़ ते। पसीने से लथपथ,
भयाक्रां त, करीब 30-35 युवाओं दो बन्दे आकर मुझे मारकर क्या की भीड़ जो मेरे तरफ भागी चली उखाड़ लेंगे। इनसे ज्यादा तो मैं ही आ रही थी। लात-घूं से चला लूँ गा। यही सब सोच रहा था, जब वो अचानक मेरे सामने पर ये क्या, मुझे नीचे बैठा देख, वे आकर खड़े हो गए। वहीँ ठिठक गये। कु छ अपने बाल सँ वारने लगे, कु छ पसीना पोंछने अचानक मेरे सामने झुक कर उन्होंने लगे, डियो लगाने लगे, तो कु छ वहीँ मेरे हाथ पकड़ लिए और सर झुका अपनी कमीज ठीक करने लग गए। कर गिड़ गिड़ाने लगे। जब मैंने उनसे अब भी वो कोई ख़ास सुं दर या सभ्य पूछा तो, बड़ी ही शॉकिंग खबर नहीं लग रहे थे। लेकिन ये दृश्य मेरे मिली। लिए थोड़े अचं भे और बहुत ज़् यादा राहत का कारण तो थी। इन्हें किसी ने व्हाट् सएप्प पे मेसेज भेजा था कि आज के दिन मेरे जैसे अब तक करीब 2-3 मिनट हो चुके हुलिया वाले और मेरे जैसे कपड़े थे, उनके ठिठके । मैं खाली सड़ क पहनने वाला एक बन्दा एक मॉल पर बैठा उन्हें करीब 50 मीटर की के पास आएगा, जो कि बड़ा दूरी से देख रहा हूँ, और वो भी थोड़े एग्जीक्यूटिव है एक कं पनी का। चिंतित होकर, मुझे निहार रहे थे और आज के दिन अगर इसका और खुद को सँ वार रहे थे। पीछा करो, और पकड़ लो तो उनमें से दो ने हिम्मत करके नौकरी पक्के से मिलेगी, और पाँ व बढ़ाया, और मेरे पास आने फॉरवर्ड नहीं करने पर अगले छह लगे। मैंने जल्दी से अपने दोनों महीने तक कोई दाना तक नहीं हाथ जोड़ लिए, ताकि अगर उनमें डालेगा। और ये मेसेज इन सब ने कोई गुस्सा हो, तो उसे शां त कर देखा थी, और आगे बढ़ाया भी था। सकूं । और वैसे भी इसीलिए, मुझे देखकर ये सब मेरे पीछे पड़ गये थे। और ये भी पता
कि इन्हीं में से एक ने भीड़ को डिलीट नहीं करता (फॉरवर्ड नहीं देखते ही मौके पे चौका मारा और करता लेकिन), बल्कि उन्हें पढता मेरी मोटरसाइकिल उड़ा ली। हूँ, और उसमें दिए हुलिए के उलट अपना रूप बना कर बाहर निकलता अब मैं उन्हें कै से बताऊँ कि ये मेसेज हूं । और ये भी सोचता हूँ कि कम से वाली बातें झूठ थीं। और वो मुझे कम वो मोटरसाइकिल चोर तो ऐसे जाने देते भी नहीं, उलटे कू ट समझदार निकला, जिसने उसे कर भेज देते, भीड़ की सामान्य चोर बाजार में उसे बेचकर प्रवृत्ति यही होती है, क्योंकि कु छ वक्त का खर्चा ही भीड़ (mob) फे स-लेस होती है। निकाल लिया, उन मासूम भीड़ इसी कारण से उनके कहने पर उस वालों की तुलना में, जो ईमानदारी से खाली सड़ क के किनारे पूरे 37 इंटरव्यू देकर नौकरी के मेल के लोगों का इंटरव्यू लेना पड़ा। उनसे तलाश में भूखे पेट सो रहे होंगे। कॉन्टैक्ट डिटेल्स लेकर सिलेक्शन होने पर रिजल्ट को मेल करने की और हाँ , कभी कभी पुरानी स्प्लेंडर बात कह कर ही मैं निकल पाया। चोरी होना भी अच्छा होता है, क्योंकि तभी तो आप नयी रॉयल अब मैं ऐसे व्हाट् सएप मेसेज एनफील्ड खरीद पाते हैं।
अभय भदौरिया
दूसरा आदमी दूसरा आदमी हमेशा दूसरा ही होता है वो पहले आदमी की कभी बराबरी नहीं कर सकता दूसरे आदमी की जिंदगी खुद की नहीं दूसरों की होती है, अपनी प्राथमिकताओं में भी वो दूसरा ही होता है
दूसरा आदमी कभी किसी की पहली स्मृति नहीं होता
फोटोग्राफ: नीलकं ठ पटेल | @storiesbynk
लोग उसे उसके दूसरे नाम से पुकारते हैं पुकारे जाने में भी दूसरा और बुलाए जाने में भी दूसरा उसका कोई फर्स्ट नेम नहीं होता
ना हीं बन पाता है, किसी का पहला प्रेम अपनी प्रेमिकाओं के लिए भी वो सदा दूसरा ही बना रहता है उसके हिस्से का प्रेम कोई दूसरा पाता है पहली ही बारी में दूसरे आदमी के हिस्से में आग नहीं होती होती है तो सिर्फ ‘राख’ पेड़ कट जाने के बाद बचा हुआ डंठल दूसरा आदमी है दूसरे आदमी के जीवन में गलतियों का स्थान हमेशा पहला होता है उसकी चिंताएं भी उसके हिस्से की नहीं होती दूसरे आदमी का दुख भी उसका सगा नहीं होता उसकी चिंताओं में सब होते हैं
उसके सिवा उसकी यात्राएं भी उसकी नहीं होती अपनी यात्राओं में भी वो किसी पहले की खोज में भटकता है दरबदर हर ‘दूसरे चौराहे’ पर
भाग्य वो क्रू र निर्देशक है जो उसकी कहानी में इंटरवल के बाद आया मात्र इतना बताने की यह कहानी उसकी नहीं पहले आदमी की है वो ना तो नायक है ना ही खलनायक पहले आदमी की कहानी का दूसरा पात्र है वो अपनी वास्तविकता से अलग कहीं भीतर के अं डर ग्राउं ड में छु पकर बैठा है दूसरा आदमी कि पहला आदमी आएगा उसका हाथ थाम कर उसे बाहर ले जाने
हम बनावटी दुनिया के बनावटी लोग आधे, पौने, सवा होकर भी कभी पहले नहीं बन पाए बन पाए तो के वल ‘दूसरे’ एक दूसरे के लिए।
शिवम्
जड़ों की फु सफु साहट एक बहुत पुराने पेड़ के नीचे बैठे थे दो अनजाने अनेकों सवाल उनके मन में उमड़ रहे थे पूछने से जिन्हें वह झिझक रहे थे उतने में एक के मुं ह से फू टामनुष्यता क्या है? दूजे ने उत्तर में सवाल दियाहम कब बनते हैं आदमी से इंसान? दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा सवाल ही सवाल थे, पूरे चेहरे पर सवाल और फिर उन्होंने देखा ऊपर उस पेड़ की टहनियों की ओर किसी लटकते हुए उत्तर की अपेक्षा में
जड़ें यह देख कर मुस्कु राई और फिर फु सफु साईकि जब किसी टहनी पर बैठी कोई गुनगुनाती हुई चिड़ि या तुम्हारे उसके बहुत अधिक निकट जाने पर आतं कित हो उड़ जाए तब यदि तुम्हे यह एहसास हो कि तुमने उसके जीवन में दख़ ल देकर अच्छा नहीं किया इसी एहसास का नाम है मनुष्यता और जब तुम सीख जाओगे गुनगुनाती चिड़ि या को उसकी जगह देना दूर से उसे सुनना, देखना बिना किसी दख़ ल के तब तुम बन जाओगे आदमी से इंसान।
वैशाली थापा
पारदर्शिता साड़ी के रंगों पर गहन चर्चा करती थी औरतें जानती हूँ यह तुम्हारे लिए उपहास की बात है बचपन की छु पन-छु पाई में कितने मर्तबा मैं छिप जाया करती थी उन बैठकों में जिनका विषय था शाम का साग और कु छ गिनती रोटियाँ जाने अनजाने छिप गई थी मैं भी धरती की उन तमाम व्यथाओ से जिन से छिप रही थी वे भी दुःख की स्मृति फ़ि र भी दबोच लेती थी उन्हें वे दुःख से छिप नहीं पाती तो "थारी-मारी" की आड़ में कु छ देर ओझल हो जाती
कु एँ में गिरी उस रहस्यमय मौत से पूछना चाहती थी मैं कु एँ में झां क कर "तुम कु एँ में क्यों गिरी?" क्योंकि औरतों की सभा भी इसके निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाई थी जबकि व्यक्तिगत तौर पर हर औरत को ज्ञात था वो कु एँ में क्यों गिरी? विशिप्त माँ की वो दो चं चल बच्चियां भी होती थी चर्चा का विषय जिनकी चपलता को विक्षिप्तता की आँखों से आं का जाता था और होता था वो आदमी विमर्श का बिंदु जो उन बच्चियों का तथाकथित, भगोड़ा बाप था और विक्षिप्त नहीं था
मोहल्ले की सबसे बईमान पड़ोसन ने खाए थे न जाने कितनों के घर फिर सभा में खुसुर-फु सुर होने लगी आए थे मां गने लोग-लुगाई अपना उधार फिर एक बार कर दिया इंकार उधार चुकाने से फू ट गया सब्र दे मारे गिन कर पां च चां टे मर्द ने औरत ने घूं घट को और नीचे खींच लिया औरतें साड़ ी के रंग के साथ अब उसकी पारदर्शिता पर भी चर्चा करने लगी।
अनन्य चित्रांश
वो आ गया है शहरों तक वो आ गया है शहरों तक, उन शहरों तक, जहां तुमने उसे आने से रोक दिया था, रास्ते बं द करके , पुल-पुलिए ढहा करके , जिसे तुमने खुद से अलग रखना चाहा था, ताकि वो तुम्हारे सामने आकर इस सम्पन्नता में अपना अधिकार ना मां ग सके , ताकि सारी तरक्की पर के वल एक तुम्हारा हक़ हो, और उसे कोई भागीदार ना बना सके जिसे तुमने आने से रोक दिया था, आने के सारे साधन उससे छीन कर, रास्ते बिगाड़ कर ताकि वो आकर तुम्हारे बनाये सिस्टम से, या तुम से, सवाल ना पूछे,
कोई तुम्हारे खुद के बनाये सलीकों जो तुम्हारा पोषण करते हैं, और दूर कहीं देहात में उसका शोषण करते हैं, उनपर नज़ र ना फिराए। वो आ गया है शहरों तक, उन शहरों तक, जहाँ तुमने उन्हें आने से रोक दिया था, तुम्हारी ज़ि न्दगी में उनसे लूटा अपना हिसाब मां गने, इसलिए तो अब माथे पे शिकन है तुम्हारे, क्योंकि तुम्हें अपने फरेब पता हैं, और ये भी पता है कि अब ये फरेब नहीं चलने वाले। वो आ गया है शहरों तक, उन शहरों तक, जहां से तुमने उसे दुत्कार कर, धिक्कार कर निकाल दिया था, सड़ कों पर मरने को छोड़ दिया था, दवा तो दूर पानी तक मुहैया नहीं कराया था। निकल आया है वो सुदूर देहात से, जहाँ उसकी मेहनत ज़ मीन पर सोना बोती है,
हरेक बूँद पसीने की, दाना-दाना फ़ सल पिरोती है उन शहरों तक, जिनकी भूख उसके औजार मिटाते हैं, और मिटाते खुद भी मिट जाते हैं। वो आ गया है शहरों तक, उन ही शहरों तक, भूखे प्यासे, धूप में झुलसते, खाली पैर, छाले सहलाते, अपनी बात तुम तक पहुं चाने, ताकि तुम अपनी भूल सुधार करो, और उसे उससे छीने अधिकार बाइज़्ज़ त लौटा सको, नहीं तो वो अगली बार शहर हक़ मां गने नहीं, छीनने आएगा। वो शहरों तक आ गया है इस बार तुम्हारे विधान से, तुम्हारा साथी बनने, अब निर्णय तुम्हें करना है कि सड़ क पर जाकर इनके पैर के घावों की पट्टी करोगे, या फिर घर पर बैठे, आँखें मलते, अपने धनबल के विशेषाधिकार से उन्हें भला-बुरा सुनाओगे,
क्योंकि याद रखना, तुम्हारा विशेषाधिकार इस बात पर ही निर्भर है कि वो कब तक इसे मानेंगे, और इन की वैधता उसके अपनी रोटी की पोटली में समेट लेने तक ही चलेगी। और ये बात भी तुमपर निर्भर है कि अपने बच्चों को इनका क्या परिचय दोगे इन्हें अपना साथी, दूर का रिश्तेदार या अन्नदाता बतलाओगे या फिर अराजक-असामाजिक तत्व बोलकर अनैतिक नैतिकता के पर्वत पर आसीन रहोगे, ध्यान रखना, कहीं तुम्हारे बच्चे पढ़ -लिख कर बड़े हो कर,
समझदार बनकर कहीं तुमसे ये सवाल ना पूछ लें कि, इनके पिछड़ेपन में तुम्हारे लालच का कितना हिस्सा था। वो आ गया है शहरों तक, तो वक्त है, हाथ बढ़ाओ, उन्हें आगे बुलाओ, हो सके तो खुद थोड़ा पीछे हो जाओ, जाओ, उन टू टे पुलियों को फिर से बनाओ, उसे अपना भागीदार बनाओ, नहीं तो अगले बार ये लौ रौशन करने नहीं, तुम्हें झुलसाने आएगी।
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मचान पत्रिका अपने सैकड़ों पाठकों के लिए "फ्री' है और मचान के विचार भी 'फ्री' हैं और रहेंगे। अगर आप अपने व्यवसाय का इश्तिहार मचान के पाठकों तक पहुँचाना चाहते हैं तो इस खाली पन्ने को खाली न रहने दें — आधे पृष्ट के लिए सिर्फ सौ रुपये पूरे पृष्ट के लिए सिर्फ दो सौ रुपये
गौरव शुक्ला
असान नहीं एक स्त्री को समझ पाना… चूल्हे की आँच से तपते चिमटे कि गरमाहट कभी अपने हाँ थों से महसूस करना, कभी चौखट की दीवारों से की गई बग़ावत के इतिहास को पढ़ ना, और बिस्तर के सिलवटों से समेट लेना एक स्त्री की आबरू को, और पढ़ लेना , उसके आं सुओं से ज़ि स्म को सींचने की गणित को.... उसके मन को टटोलना, तोड़ देना कुं ठित सोच के जेलों को,
और लगा देना समाज को ताला, बारिश हो जब इश्क़ कि आना तुम अपने जज़् बातों की छतरी लिए, अपने साथ, और शायद तब समझ पाओ एक स्त्री का स्त्री होना... खरोंचती नज़ रे उसकी ज़ि स्म को, थोड़ा और.... थोड़ा और... थोड़ा और....खरोंचने की चाहत, इससे कभी ऊपर उठना, तो देख पाओगे,
एक स्त्री के मन कि मोहब्बत से भरी मुस्कु राहट.... पूरे बदन को निहारते हो, मन के बजाय सीने में झाँ कते हो, कभी तो झाँ क लेना उसके मन में, उतर जाना उसकी साँसों में, बजाय उसके नज़ रों के ... फिर बोलना... धड़ कनों से, बजाय होंठो के , बहुत कु छ दिखेगा, इस ज़ि स्म से परे... एक स्त्री..... तब शायद हो, एक पुरुष का स्त्री को सोच पाना, और शायद सही मायने में एक स्त्री को स्त्री समझ पाना..
चित्र: विजय सोनी | @rekhak _art
अनुवाद
अनुवादक: मधुरिमा माईती
करक्क
निम्नलिखित अं श तमिल-दलित लेखिका बामा की आत्मकथा – ‘करक्क’ से अनुवादित किया गया है। बामा की लिखी पहली किताब की लेखन शैली और सं रचना कई जगह कमजोर लगेगी लेकिन लेखन के जरिए उन सभी भावनाओं को पाठक समझ पाएं गे जिनसे बामा के जीवन को अनुभव किया जा सके । बामा की
कथा, इस देश के जातिवादी समाज से लड़ ते अनगिनत दलितों की है। किताब वैसे बड़े झटपट से पढ़ लिया जा सकता है, लेकिन शिक्षा और समानता के लिए बामा के सं घर्ष और इरादे को समझने के लिए आपको उस आक्रोश की जरूरत पड़ेगी जिस आक्रोश के साथ बामा ने कलम उठाया।
कु छ बातों पर गौर कीजिए – यह अनुवाद ‘करक्क’ से लिया गया छोटा-सा एक अं श है, जिसे अं ग्रेजी अनुवाद की सहायता से यहां उतारा है । हमारी सलाह यही रहेगी कि आप अं ग्रेजी अनुवाद या बामा की मूलभाषा – तमिल में ‘करक्क’ को पढें। अनुवाद के माध्यम से यहां बामा के उत्तेजित सं सार से थोड़ी उत्तेजना उधार लेने की कोशिश है। … लेकिन फिर, मेरे माता-पिता चाहते थे कि मैं घर पर ही रहूँ क्योंकि मुझे कॉलेज जाने की और आगे की पढ़ाई करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। पढ़ाई करवाने के लिए घर पर पैसे भी नहीं थे। उनका कहना था कि अगर मैं ज्यादा पढ़ -लिख जाऊं गी तो मुझे शादी के लिए मेरे समुदाय से कोई नहीं मिलेगा। उनकी ख्वाहिश थी कि मैं शिक्षिका के तौर पर किसी स्कू ल में नौकरी करूँ । इसीलिए वो ‘टीचर ट्रेनिंग’ के लिए इधर-उधर से जानकारी इकट्ठा करने लगें। इसी दौरान जब छु ट्टियाँ चल रही थीं, मैं उस सिस्टर से मुलाकात करने
गई जो मुझे ग्यारहवीं में पढ़ाती थीं। मुझे खाली घर बैठा जान कर उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने मेरी हालात में सुधार लाने की ठानी और माँ से बात करने घर आ पहुं चीं। समझाया कि ऐसी लड़ की जिसे पढ़ ना पसं द हो उसे घर में खाली बिठा कर नहीं रखना चाहिए। जब माँ ने कहा कि माली हालत खराब है, तब सिस्टर ने उनके सोने के झुमके उतरवा कर गिरवी रखवाए और मुझे पैसे थमा कर कॉलेज तक छोड़ आईं। मैं कॉलेज पहुं ची – अके ले और सिर्फ अपने पहने हुए कपड़ों – और मन लगा कर पढ़ पाने के इस अवसर को न हाथ से न गवाने की दृढ़ ता के साथ। अके ले ही
उस पूरे हफ्ते मैं उन्हीं कपड़ों – स्कर्ट, जैके ट और दावनी – में घूमत रही। सहपाठी मुझे ऐसे घूरने लगे थे जैसे मैं कोई विचित्र प्राणी हूँ। उनके सवाल कहीं न कहीं मुझे अपमानित करते थे। 'क्या तुम्हारे पास सिर्फ यही है पहनने के लिए?' 'क्या तुम्हारे पास और कु छ नहीं है पहनने के लिए?' मैं कहती – “माँ मेरा सामान ला रही है”, फिर हॉस्टल जाकर फू ट फू ट कर रोने लगती। इसी दौरान पिताजी, जो भारतीय सेना में थे, मुझे चिट्ठी भेजकर धिक्कारने लगे – “जब सिस्टर की ही बात सुनकर कॉलेज चली गई, उनसे ही जाकर पैसे मां ग लेती। जाओ, उन्हीं के पास जाओ।” लेकिन मैं घर वापस नहीं जाना चाहती थी। अपमान और गाली सह कर भी डटी रही क्योंकि मुझे बस आगे बढ़ ना है, पढ़ाई करनी है। मेरे इसी मेहनत का फल पढ़ाई में नजर आने लगा। अच्छे अं क आने लगे। सिस्टर्स और शिक्षक मेरी सराहना करने लगे। मेरे सहपाठियों को भी मेरी योग्यता पर यकीन होने लगा। हफ्ते भर बाद माँ भी मेरे
कपड़े, मेरा बक्सा और बिस्तर ले आई। इसके बाद लोग मुझसे दोस्ती बढ़ाने लगे। उन सभी को बड़ी हैरानी होती थी जब हर बार मुझे परीक्षाओं में अव्वल स्थान मिलता था। कॉलेज की शिक्षिका कहती थी – 'देखो, देखो इसे। दाखिल देरी से हुआ तो क्या... मेहनत तो कर रही है।' फिर मैं भी कपड़ों, गहनों की परवाह किए बिना अपने तरीके से अपना काम करती रही। मेरे सहपाठियों में से कु छ पूछते, 'तुमने कान और गले में कु छ क्यों नहीं डाल रखा है?' तो कु छ कहते , 'तुम्हारे पास तो चप्पल भी नहीं हैं।' इन लोगों के शरीर सोने के छोटे-बड़े आभूषण और सुं दर कपड़ों से लदे रहते थे। लेकिन मैं ये चीज़ें कहाँ से लाती? कॉलेज की परीक्षा फीस भरने के लिए एक जो कान के टॉप्स थे, वो भी गिरवी रखनी पड़े, और कपड़े तो सिर्फ नाममात्र थे। घर पर साल में सिर्फ दो बार कपड़े खरीदने की प्रथा थी। एक क्रिसमस पर और फिर चिन्नामलाई उत्सव
के दौरान जब हम पहाड़ी गुफा में मदर मैरी के आगे माथा टेकते थे- इसके अलावा साल में कभी कु छ नहीं खरीदा जाता था। इन दो जोड़ी कपड़ों साल भर गुजारा करना होता था। मैं दीदी के पुराने कपड़े भी पहनने लगी और कॉलेज के अगले चार साल ऐसे ही काम चलाया। ‘कॉलेज डे’ को हर साल बड़े पैमाने पर मनाया जाता था। अं तिम वर्ष की छात्राओं के लिए एक पार्टी भी आयोजित की जाती थी। पार्टी बस एक बहाना था सिल्क की साड़ि यों और महंगे पोशाकों में सजने का। अब मैं अपनी बात करती हूँ – मेरे पास एक भी ढंग की साड़ी तक नहीं थी। मैं इधर उधर से मां गी हुई साड़ी पहनना नहीं चाहती थी। इस दिन मैं कहीं दूर जा भी नहीं सकती थी और न मुझे कहीं जाने की इजाजत मिलती। मुझे समझ नहीं आया क्या करूँ । सो आखिरकार मैंने तय किया कि मैं खुद को गुसलख़ाने में बं द कर लूँ गी। अपनी इस हालत पर मैं सिर्फ रोना चाहती थी। यह एहसास हो गया कि चं द पैसों की कमी भी किस हद तक शर्मिंदा कर सकती है।
मेरी एक दोस्त – जो नाइकर (ऊं चे जात के ) परिवार की थी – ने मुझसे कहा, “चिट्ठी लिखकर घर से एक सिल्क की साड़ी मँ गवा लो।” उसे नहीं पता होगा लेकिन मेरे घर में ऐसा कोई है ही नहीं जिसके पास एक भी सिल्क साड़ी हो। साड़ी खरीदने की बात भी नहीं करना चाहती थी क्योंकि गरीब घर में साड़ि यों पर पैसे फें कने का मौका नसीब नहीं होता था। मैं चुपचाप पार्टी खत्म होने तक गुसलख़ाने में छु पी रही…
पुस्तक समीक्षा प्रियांशी सिंह
"ऐसा नशा मुझे कभी नहीं चढ़ा था। वीरान में भटकते भूखेप्यासे कि तरह"
'परियों के बीच'
'परियों के बीच' रुथ वनीता के अं ग्रेजी उपन्यास 'मेमोरी ऑफ़ लाइट' का स्वरचित पुनर्लेखन है। इसे अनुवाद कहना बड़ा भारी सरलीकरण होगा। हिंदी और अं ग्रेजी में विरह और वासना की अभिव्यक्ति बहुत अलग ढंगों से होती है, और विरह-वासना इस उपन्यास के सदाबहार भाव हैं। इस उपन्यास की मुख्य पात्र चपला बाई और नफीस बाई (17वीं शताब्दी के ढलते दशकों की तवायफें ) हैं। अगर उपन्यास को श्रेणियों में बद्ध करने बैठें तो बहुत से शब्द दिमाग में आएं गे - 'प्रेम कथा', 'ऐतिहासिक कृ ति' (उपन्यास के कु छ पात्र पूर्वकालीन अवध के वास्तविक शायर, शासक और रईस हैं), 'क्वीयर रोमांस' इत्यादि। हिंदी में क्वीयर कथाओं की ख़ासा कमी होने के कारण जायज़ है कि उपन्यास की इस विशेषता
को ज़् यादा तवज्जो दिया जाए, लेकिन यह भी सच है कि लेखिका ने उपन्यास के सारे ही पहलुओं को इतनी बारीकी से तराशा है कि उनके काम को श्रेणियों के किसी एक कटघरे में डाल देना दुर्भाग्यपूर्ण होगा। कहानी का मुख़् य भाग अब ज़ रा बूढी हो चुकी नफीस बाई (जिन्हें एक शायर चाँ दनी नाम भी देते हैं) के द्वारा बयान किए गए 'फ्लैशबैक' का रूप लेते हैं। नफीस बाई अपनी जवानी के उन दो सालों को याद कर रही होती हैं जब चपला के सं ग उनके प्रेम-सम्बन्ध की ज्वाला, और अवधी दरबार कि शान-ओ-शौक़ त, दोनों ही अपनी चरम सीमा पर हुआ करते थे। स्मृतियों में स्मृतियाँ गुं थती रहती है, कभी उस समय के शायरों की ग़ ज़ लें - नज़् में पन्नों पर दौड़ ती हैं, तो कभी पूर्वकालीन पहनावों, सजावटों, बगीचों इत्यादि के सुन्दर विवरण आँखों के सामने प्रकट हो जाते हैं।
इस उपन्यास की भाषा श्रृं गार रस के प्राचीन मगर सर्व-भूत बक्सों को टटोल प्रेम की झीनी चादर, वस्ल और हिज्र के भारी लिहाफ, और भी न जाने क्या क्या, हमारे सामने लाकर धर देते हैं। इति और स्मृति की इस कहानी में कु छ त्रुटियां भी झलकती है। कहानी रईसों के जीवन के बारे में है, ये कहानी को पता है, लेकिन अपने श्रमिक ढां चे की इंसानियत से कहानी ज़ रा काम अवगत है। बावजूद इसके , एक काम है जो यह उपन्यास बड़ी खूबसूरती से कर दिखाता है। हिंदी भाषा में 'क्वीयर-ता' व्यक्त करना कई
बार बहुत जटिल काम हो जाता है। इस उपन्यास ने 'क्वीयर-ता' और क्वीयर पात्रों के लिए एक सुन्दर, नया नाम गढ़ डाला - परी-रुख़ और परीज़ाद। उपन्यास के हिंदी विवरण में कई जगह 'कोमल', 'नाज़ुक', आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसा मुमकिन है कि यह अनुवादिक सरलीकरण हो। इस उपन्यास का परीज़ाद प्रेम अपने लिए बिजली, कटार जैसे मेटाफर ढूंढ़ ता है, तो क्या इसे 'कोमल' करार देना उचित होगा? शायद उचित शब्द 'विरह' ही है - अनुवाद को छलता लेकिन हर प्रेम कथा के कोनों में बसा।
फिल्म समीक्षा उलफ़त राणा
टिक, टिक... बूम ओर एन ओड टू दि एंक्शियस आर्टिस्ट
मुझे फिल्म समीक्षा लिखना बड़ा ही मुश्किल काम मालूम होता है, जीवन में पहली और आखिरी बार पां चवी कक्षा में अं ग्रेज़ी के ग्रीष्मावकाश गृहकार्य के लिए 'टाइटैनिक' की समीक्षा लिखी थी वो भी चलचित्र देखे बगैर क्योंकि जब टीवी पर फिल्म लगी तब बिजली गुल। उस उम्र में ये रिव्यू और क्रिटिकल थिंकिंग वाली समझ नहीं थी मुझे, विकिपीडिया से फिल्म की कहानी टेप डाली थी, नंबर भी मिल गए थे — मास्टरनी जी ने कु छ सिखाया नहीं, हमने कु छ सीखा नहीं— तब से अब में अं तर ये आया कि खुद की पसं द-नापसं द समझना और जाहिर करना आ गया इसीलिए फिर से हाथ आजमाने जा रही हूँ। सच कहूँ तो ये रिव्यू कम और कलाकारों और रचनाकारों के नाम प्रेम पत्र ज्यादा है… बिल्कु ल इस फिल्म की तरह।
'टिक, टिक… बूम' अमेरीकी नाटककार, सं गीतकार और गीतकार जोनाथन लार्सन के इसी नाम वाले आत्मकथात्मक रॉक मोनोलॉग पर आधारित फिल्म है, २०२१ में रिलीज हुई है और नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है। 'हैमिलटन' और 'इन द हाईट् स' जैसे अभूतपूर्व म्यूजिकल नाटकों के रचनाकार लिन मैनुअल मिरां डा ने पहली बार फिल्म निर्देशन में अपना हाथ आजमाया और लार्सन का अभिनय करने वाले एं ड्रयू गारफ़ि ल्ड ('दी अमेज़ि ग स्पाइडरमैन', 'हैकसॉ रिज') ने पहली बार गाना गाया है। अगर आप पहले से ही लार्सन के
काम से वाकिफ़ हैं तो आप 'टिक, टिक… बूम' के गीतों में 'रेंट' के सं गीत की शुरुआत पाएं गे, बल्कि इसकी कहानी को उनके आने वाले काम की पहली पहली कड़ी मान कर चलिए; लार्सन के पुराने फै न्स स्क्रिप्टराइटर स्टीवन लेवेनसन (डियर इवान हैनसेन के लिए टोनी पुरुस्कार विजेता) की लेखनी से निकले एक-दो चुटकु लों पर कु छ ज्यादा ठहाके लगाएं गे। अगर अमेरिकी म्यूजिकल थिएटर में आपकी जानकारी मेरी ज्यादातर सहेलियों की तरह सिर्फ हाई स्कू ल म्यूजिकल और डिज़ नी तक सीमित है तो घबराने की कोई बात नहीं, फिल्म की रसानुभूति कम नहीं
होगी। किंतु मोटा-मोटी जानकारी हेतु मैं झटपट आपको पृष्ठभूमि का एक झलक दिखाने के लिए तैयार हूँ — जोनाथन लार्सन म्यूजिकल नाटक 'रेंट' (१९९६) अमेरिकी म्यूजिकल थिएटर (इसे आम बोलचाल में ब्राॅडवे भी कहते हैं। पर ये वही होगा जैसे हम दिल्ली वाले कहें कि मं डी हाऊस का नाटक है) के सबसे जाने-माने नाटकों में से एक है, लार्सन के छत्तीसवें जन्मदिन से दस दिन पहले– २५ जनवरी १९९६, जब इसका पहला शो होना था, उसी सुबह जोनाथन लार्सन का असमय देहां त हो गया। मृत्यु के पश्चात उन्हें 'रेंट' के लिए टोनी और पुलित्जर पुरस्कारों से नवाजा गया पर उससे पहले उनके नाटकों को निर्माता मिलना भी मुश्किल था। 'रेंट' जीवन और प्रेम के सं घर्ष में लगे युवाओं की कहानी है। यह नाटक नब्बे के दशक में यू.एस के सामाजिक मुद्दों जैसे बहुसं स्कृ तिवाद, व्यसनलिप्तता, एड् स, समलैंगिकता और होमोफोबिया को दर्शाता है। सं गीत रॉक एं ड रोल और एमटीवी पर आने वाली पॉप धुनों का मिश्रण है, जो कि उस समय के म्यूजिकल थिएटर
के लिए नई बात थी — जहाँ ज्यादातर सुनने वाले इन गीतों को जीनियस मानेंगे, लार्सन के मेंटर, दिग्गज सं गीतकार स्टीफन सोंडहाइम ('वेस्ट साइड स्टोरी', 'स्वीनी टॉड') साफ कहते हैं कि 'रेंट' एक "वर्क इन प्रोग्रेस" था, लार्सन के सं गीत और उनकी अपनी आवाज की तरह — कु छ चीजें अनोखी थी, कु छ गीत कमाल, पर काफी कु छ अधूरा। खैर, बात रेंट की नहीं हो रही और सोंडहाइम पर हम फिर लौट के आयेंगे, बात हो रही है 'टिक, टिक… बूम' की जो कि एक म्यूजिकल लिखने के बारे में लिखा गया म्यूजिकल है— और 'टिक, टिक… बूम' में जो नाटक लिखा जा रहा है वो 'रेंट' नहीं है, वो नाटक है 'सुपर्बिया' जो उन्होंने जवानी में शुरू किया था और अब तो उम्र हो चुकी है यानि तीसरा दशक लगने वाला है और एक कलाकार के लिए वो मौत से कम नहीं—घड़ी की सुई की टिक-टिक के सं वेग और नाद बढ़ ते ही जा रहे हैं, कौन जाने कब एक अनसुने बूम के साथ रुक ही जाए। इसी व्यग्रता को उन्होंने इस नाटक में उतारा है जिसका नाम पहले
'30/90' फिर 'बोहो डेज़ ' (दोनों ही म्यूजिकल के शुरुआती गाने हैं) हो कर 'टिक, टिक… बूम' पड़ा। मैंने शुरू में ही आपको बताया था कि 'टिक, टिक… बूम' एक आत्मकथात्मक रॉक मोनोलॉग है, तो आप का यह सवाल करना बनता है कि फिर इसे कई किरदारों से जीवंत चलचित्र में कै से तबदील किया गया? दरअसल लार्सन की आकस्मिक मौत के कु छ वर्ष बाद जब इस नाटक को फिर से 'ऑफ ब्रॉडवे' प्रदर्शित करने की मां ग हुई तो उनकी बहन जूली लार्सन ने आपत्ति जताई कि वे अपने भाई को एक किरदार बनते नहीं देख सकती। तब नाटककार डेविड ऑबर्न ने इसके गीतों को तीन किरदारों — जॉन, माईकल और सुसन— के बीच बां ट दिया, इनमें से माईकल और सुसन के किरदार अन्य किरदारों को भी निभाते हैं; अब ये तो हुई स्टेज की बात, कहानी को बड़े पर्दे पर उतारने के लिए निर्देशक लिन मैनुअल मिरां डा (जिन्होंने खुद भी इस नाटक के २०१४ के एक मं चन में जॉन की भूमिका निभाई है) ने लार्सन के जीवन और सं गीत पर काफी गहरा शोध
करने के बाद अनजान किरदारों को खोज कर जोनाथन का जीवन दर्शकों के सामने पेश किया है। फिल्म की कहानी सच्ची है, सिवाय उन अं शों के जो जोनाथन के दिमाग की उपज हैं— फिल्म की शुरुआत में भूमिका बां धते हुए सुसन, जोनाथन की प्रेमिका का किरदार आपको यह जानकारी देती है। स्टेज के लिन मैनुअल मिरां डा ने ब्रॉडवे की फं तासी और शान के प्रति अपना प्रेम एक-एक शॉट में बड़ी ही कु शलतापूर्वक उतारा है— आपको फिल्म में अनेकों ब्रॉडवे दिग्गजों के कै मियो मिलेंगे, जिन्हें निर्देशक साहब कै मियो नहीं मानते। क्योंकि ये लोग तो जोनाथन के जीवन के छोटे-बड़े भागीदार रहे हैं; फिल्म लगातार गीत और सं वाद के बीच, 'टिक, टिक… बूम' के पहले मं चन और जॉन के जीवन की घटनाओं और उसके मन की फं तासी के बीच कट होती रहेगी, उलझे हुए अं दाज में नहीं पर काफी कु छ उसी तरह जैसे लिन मैनुअल मिरां डा के नाटकों में किरदारों के गीतों के बोल परस्पर-लिप्त होते हैं; सौंदर्यशास्त्र की भाषा में कहूँ तो फिल्म में आपको लोकधर्मी और नाट्यधर्मी के बीच
अद्भुत सं तुलन मिलेगा। फिल्म क कहानी कु छ यूँ है (यहाँ आप शायद एक बात पर गौर फरमाएं गे— अभी तक जिस जोनाथन लार्सननाटककार, सं गीतकार, प्रेरणास्रोत को मैं आदरणीय सं बोधन के साथ लिख रही थी वो अब मेरे लिए जॉन हो जाएगा, सं घर्ष सभी कलाकारों को अं तरंग साथी बना डालता है)— स्टेज पर खड़ा अके ला जॉन अपने जीवन और अपने न्यूयॉर्क के सोहो के खं डहर फ्लैट के बारे में दर्शकों को बता रहा है, पीछे एक टिक-टिक की ध्वनि बज रही है जो फिल्म के विभिन्न क्षणों में तेज और धीरे होती रहेगी पर कभी बं द नहीं होगी, आज भी जब इस नाटक का मं चन होता है यह आवाज गूँ जती है, ये जोनाथन के दिलो-दिमाग पर हावी अवाज है, सं सार और जिंदगी की आवाज है, कोई टेक्निकल खराबी नहीं। जोनाथन लार्सन 'सुपर्बिया' पर आठ सालों से काम कर रहा है, कु छ जगह कहानी कमजोर पड़ी तो कु छ जगह किरदार पर सच तो यह है कि हर चीज पर तुरंत गीत लिख देने
वाला जॉन अभी तक एक बुनियादी घड़ी से गायब गीत को नहीं लिख पाया है, ग्रां ट के पैसे कब के खत्म हो गए हैं, अर्से पहले सं गीतमय नाटकों का भविष्य माने जाने वाले प्रतिभाशाली सं गीतकार का भविष्य सिर पर आ खड़ा है और कहीं जाता नहीं दिख रहा है। दुनिया के लिए नब्बे का दशक शुरू हो रहा है और जॉन के लिए तीस का, दो सालों से उसकी एजेंट ने उसे पूछा तक नहीं है और उसके घर का हर कोना ऐसी किताबों और कै सिटों में डूबा जा रहा है जो उसने खुद नहीं रची हैं। उसकी प्रेमिका सुसन चाहती है कि वो अपने जन्मदिन की पार्टी के दौरान 'हैप्पी बर्थडे' गाए, उसका बचपन का जिगरी दोस्त, माइकल जिसने अभिनय छोड़ कर विज्ञापन एजेंसी में स्थाई नौकरी ढूँढ ली है अब उनका सोहो वाला फ्लैट छोड़ कर एक आरामदेह पड़ोस में रहने जा रहा है। मूनडांस डाइनर में वेटर के रूप में नौकरी करते जॉन को समझ नहीं आ रहा है कि क्या उसने सही निर्णय लिया है? क्या उसे अपने नाटक और सं गीत पर मेहनत करते रहना चाहिए? क्या उसे भी माइकल
की बात मान कर उसी की तरह एक कॉर्पोरेट नौकरी खोज लेनी चाहिए? क्या उसे सुसन के साथ न्यूयॉर्क छोड़ कर उसकी नई नौकरी वाले छोटे शहर में बस जाना चाहिए? क्या उसे समझौता कर लेना चाहिए? डर या प्यार किस के सहारे वो अपनी राह चलेगा? जॉनी कान्ट डिसाइड… पर ये सब पढ़ कर ये न सोचिए कि भई पहले ही जीवन में ऐसी लाखों टेंशन हैं, हम फिल्म में भी यही क्यों देखें? क्योंकि 'टिक, टिक… बूम' की पहली पाँ च मिनटों में ही आप इसके मुख्य किरदार के साथ जुड़ जाएं गे— इसका पहला कारण होगा एं ड्रयू गारफ़ि ल्ड का करिश्माई अभिनय जो जॉन के तौर-तरीकों और चपल, हँसमुख और स्नेहशील शख्सियत को हूबहू आपकी नजरों के सामने जीवंत कर देगा; दूसरा होगा जोनाथन लार्सन का लिखा सं गीत, म्यूजिकल का पहला गाना है 30/90 जो आपके , मेरे और जोनाथन के कलात्मक, महत्वाकां क्षी और क्रां तिकारी जीवन की पीड़ाओं को आं नद, हास्य और आकर्षक धुन में
बां ध देगा, यकीन मानिए फिल्म देखने के कम से कम महीने भर तक आप इसी गाने को गुनगुनाते रहेंगे; तीसरा कारण होगा निर्देशक लिन मैनुअल मिरां डा की अपूर्व और तीव्र प्रतिभा जो रंगमं च से पर्दे के पीछे तक के बदलते माध्यमों में भी बरकरार है। जहाँ फिल्म के हर शॉट, हर कोरियोग्राफी, हर सीक्वेंस में मिरां डा का ब्रॉडवे प्रेम जाहिर है, वहीं उन्होंने इसकी अति नहीं की है— जहाँ लार्सन के म्यूजिकल में डेढ़ घं टे के तो गाने ही हैं, वहाँ गीत, सं वाद और जॉन की दिमागी दुनिया के बीच बहती लगभग दो घं टे की इस फिल्म की कहानी में प्रवाह बनाए रखने लिए कु छ गानों को छोटा किया गया है या उनका स्थान थोड़ा बदल दिया गया है (जैसे ग्रीन, ग्रीन ड्रैस; शुगर), हालां कि ये गीत आपको फिल्म की एलबम में पूरे मिलेंगे। यह बलिदान इसीलिए भी जरूरी था क्योंकि जोनाथन लार्सन प्रोजेक्ट और मिरां डा के शोध से सामने आए काँग्रेस लाइब्रेरी में रखे जोनाथन लार्सन पेपर्स में से पूर्वतः अप्रदर्शित कु छ गीत (और
जॉन की जिंदगी के किरदार) जैसे सुपर्बिया के गीत— कम टू योर सेंसइज़ , सेक्सटेट मोंटाज, एलसीडी रीड आउट आदि के लिए फिल्म में जगह बनानी थी, इन गानों के चुनिंदा हिस्सों को जब आप सुनेंगे तो लगेगा अरे, ये तो २०२० के दशक की सच्चाई है और सिर हिलाते हुए हैरानी जताएं गे कि क्यों नब्बे के दशक के किसी निर्माता को ये पसं द नहीं आए। मिरां डा ने अपने जॉन को ब्रॉडवे के रंगमं च की प्रतिभाओं का सं बल दिया है— जॉन पर आसक्त पर स्वयं सशक्त सुसन का किरदार निभाया है अलेक्जेंडरा शिप ने, रोबिन डे हीसस माइकल के रूप में दिल चुरा लेते हैं, अक्सर होता है कि एक समलैंगिक किरदार सिर्फ वही बन कर रह जाता है और उसकी खुद की कहानी और शख्सियत गुम जाती है, यहाँ ऐसा बिल्कु ल नहीं है और उनकी और एं ड्रयू की के मिस्ट्री तो क्या लाजवाब है, अगर आप भी मेरी तरह फिल्मों में दो मर्द दोस्तों के बीच एक तं दुरुस्त सं बं ध ढूंढते रह जाते हैं तो 'टिक, टिक… बूम' आपको
निराश नहीं करेगी, एं ड्रयू और रोबिन पर फिल्माया गीत नो मोर पूरी फिल्म में मेरा पसं दीदा नृत्य क्रम है। जॉन के गायक दोस्तों करैसा जॉनसन और रॉबर्ट के रूप में हैं वेनेसा हजेंस, जोशुआ हेनरी— ये दोनों ही किरदार 'टिक, टिक… बूम' के पहले मं चन के दौरान पार्श्व गायक थे और फिल्म के गीत भी इन दोनों की शक्तिशाली आवाजों पर टिके हैं। फिर आते हैं चमचमाती आँखों वाले सोंडहाइम के रूप में ब्रैडली व्हिटफोर्ड, पर फिल्म के अं त में जो वॉयस मैसेज है वो सोंडहाइम की खुद की आवाज में है (मिरां डा ने सफे द झूठ बोलकर सोंडहाइम को मनाया था और ये कहानी साक्षात्कारों में वे कहकहे लगाते हुए दोहराते हैं)। सं गीतकार से निर्देशक बने मिरां डा फिल्म में अपने दो सबसे ज्यादा प्रभावशाली प्रेरणास्रोतों को किरदार बनाते हैं, हर क्षण में उन्हें सहानुभूति दिखाते हुए भी उन्हें आराध्य कभी नहीं बनने देते हैं। फिल्म में कु छ चुटकु ले ऐसे हैं जिनपर आप खिलखिला कर हँसेंगे, कु छ
जगह जैसे जब जॉन सुपर्बिया की वर्क शॉप से एक दिन पहले गाना लिखने की कोशिश करते हुए उन्हीं दो शब्दों को बार-बार मिटाकर तब तक लिखता रहता है जब तक बिजली गुल नहीं हो जाती आप अपना माथा पीट कर हँसेंगे क्योंकि जीवन में कभी न कभी ये काम आप भी कर चुके हैं। मैं ऐसा बिल्कु ल नहीं कह रही कि पूरी फिल्म कॉमेडी है, फिल्म खत्म होने से बहुत पहले ही आप फू ट-फू टकर रोना भी शुरू कर देंगे (और शायद फिल्म पूरी होने के काफी देर बाद भी नहीं रुकें गे)— हर रस का अनुभव और अनुभूति करेंगे जैसे तीन दशक पहले सहृदय जॉन ने की थी। फिल्म के हर पल में पार्श्व में टिक-टिक की ध्वनि चलती रहेगी, कभी धीरे, कभी तेज, ये आवाज जॉन का पीछा नहीं छोड़ेगी— पर हाँ , जब भी सं गीत बजेगा, गीत लिखे जाएं गे ये टिक-टिक लगभग शां त हो जाएगी। टिक-टिक किसी भूखे दैत्य के समान है जो सिर्फ स्वर और ताल से थोड़ा-सा तृप्त होता है पर फिर-फिर लौट के आता है। फिल्म के अं त तक जॉन कु छ-कु छ समझने लगता है
कि ये सतत टिक-टिक सिर्फ लिखने से खत्म नहीं होगी, भागते रहने से पीछा नहीं छोड़ेगी, इससे मुक्ति पाने के लिए, कु छ बदलने के लिए पहले जॉन को अपनाना पड़ेगा— स्वयं को, अपनी खामियों को, सबं धों से ऊपर कला को रखने की आदत को, अपनी मौलिक श्रेष्ठता के भ्रम को, अपने अहंकार को, अपने डरों को और अपने सवालों को— और सिर्फ शब्दों से बात नहीं बनेगी, व्यावहारिक बदलाव लाने होंगे, यह सीख फिल्म के आखिरी गीत 'लाउडर दैन वर्ड्स' में साफ है। अब जब आप जोनाथन लार्सन की कहानी कु छ-कु छ जानते हैं तो आपको लगेगा किस अलौकिक शक्ति ने उसे अपने सीमित समय का बोध कराया था, शायद यह उस के विकल मन की अभिव्यं जना थी जो हर कलाकार की रूह में बसा होता है या शायद यह जोनाथन के मार्फ न सिंड्रोम का लक्षण था जिसका अगर समय रहते निदान हो जाता तो आज भी वो हमारे बीच सं गीत बना रहा होता। हर फिल्म किसी न किसी दर्शक को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं, कु छ
फिल्में खास सिनेमा प्रेमियों के लिए होती हैं, कु छ साहित्य प्रेमियों के लिए, 'टिक, टिक… बूम' म्यूजिकल थिएटर प्रेमियों के लिए तो है ही, पर उससे ज्यादा यह फिल्म कलाकारों के लिए है। फिल्म के बाद एक साक्षात्कार में एं ड्रयू गारफ़ि ल्ड ने कहा था कि उन्हें लगता है कि जोनाथन का साया उनके चिपक चुका है, पर यह एक अच्छे प्रकार की प्रेत बाधा है। मैं मानती हूँ कि यह साया हर उस भाग्यशाली दर्शक पर पड़ा है जिसने सही समय पर लार्सन के सं गीत का अनुभव किया है। लिन मैनुअल मिरां डा तब सत्रह वर्ष के थे जब उन्होंने पहली बार 'रेंट' देखा और रंगमं च की पढ़ाई करने की ठानी, स्नातक खत्म होने के समय उनका सामना 'टिक, टिक… बूम' से
हुआ और अपने जीवन के अगले कु छ वर्षों को मं च पर प्रदर्शित होते देख उनकी रगों में जो उद्वेग दौड़ा उसी का नतीजा था कि अट्ठाइस की उम्र में ही उन्होंने टोनी पुरस्कार भी जीत लिया। आज मैं भी उम्र के उस पड़ाव पर खड़ी हूँ जब जोनाथन ने अपना पहला मास्टरपीस शुरू किया था, मेरे मन में एक उत्कं ठा है, काफी समय से है पर 'टिक, टिक… बूम' ने इसे ढूँढ कर, धूल झाड़ -पोंछ कर सामने रख दिया है — यहाँ मैंने पां च महीनों से रो-धो मुश्किल से पां च असाइनमेंट के अलावा कु छ भी नहीं लिखा वहाँ जोनाथन आठ सालों से एक ही नाटक लिखे जा रहा है, और आज तक मैंने जो भी लिखा है वो वह नहीं है जो मैं सच में लिखना चाहती हूँ…
खिजां खाला का कू ल कॉलम
सर्दियों के आखिरी हफ्तों में जब ठं डी हवायें चरम पर होती हैं पर धूप विषादी मेघों को भगा चुकी होती है तब चटक रंगों का सेहतमं द खाना बहुत भाता है। ताजा फल, पास्ता प्रिमावेरा, बिबिमबाप, हुम्मस और सलाद इस मौसम में हमारे पसं दीदा व्यं जन हैं— चुकं दर और बैंगनी पत्तागोभी का इस्तेमाल इन आहारों को आम से खिजां ख़ास बनाता है। पेश है झाल मुरी से प्रेरित एक नए
सलाद की विधि और हमारी रसोई से कु छ रंगीले टिप्स एं ड ट्रिक्स। गुलाबी सलाद के लिए सामाग्री: (माप अपने अनुसार कम-ज्यादा कर सकते हैं) दो चुकं दर- पतले और लं बे कटे हुए एक गाजर- पतली और लं बी कटी हुई आधी बैंगनी पत्तागोभी- बारीक कटी हुई
आधा मध्यम आकार का प्याजबारीक कटा हुआ भुने चने- ⅛ कप भुनी मूं गफली- ⅛ कप मुरमुरे- ⅓ कप सुखी क्रै नबेरी या ताजा अनार के दाने - ⅛ कप ड्रेसिंग के लिए सामाग्री: स्वादानुसार - काला नमक, चाट मसाला, सूमैक या अमचूर और बारीक कटी हरी मिर्च दो बड़ी चम्मच इमली की चटनी एक चम्मच सरसों का तेल बारीक कटा हरा धनिया यकीन मानिये ये खट्टा मीठा ताजा सलाद आपका दिल और दिन खुश कर देगा। चुकं दर और बैंगनी पत्तागोभी के इस्तेमाल से आप अपनी रसोई में बनने वाली चीजों को थोड़ा और
रंगीन बनाएं -
▪️ कटी हुई बैंगनी पत्तागोभी को
कटोरे में डाल उपर से उबला पानी डाल कर ढक 15-20 मिनट के लिए छोड़ दें फिर छान कर पानी अलग करदें। इस बैंगनी पानी में चाहें तो आता गुं थे या इसमें अं कु रित अनाज को रंगीन करने के लिए छोड़ दें। ऐसे पकाई गई पत्तागोभी क्रिस्पिनेस बरकरार रखेगी और उपर से तिल का तेल, नमक और बारीक कटा हुआ लहसुन डाल कर रामन नूडल्स के साथ भी खा सकते हैं। रोस्टेड चुकं दर को हुम्मस में मिला कर रंगीन बनाएं या फिर इसके रस में आटा गुं थें। चुकं दर के रस को छान कर पका भी सकते हैं (रिडक्शन), इसे दो चम्मच घी और एक चम्मच देसी शहद में मिलाकर आपके कोमल होंठों के लिए लिप बाम तैयार है।
▪️
OOOO
Sunrise to Sunset
Sunrise to Sunset Machaan Patrika
05.55
24.30
fin.