समय सो गया है समय भी चलते चलते कुछ दे र, आकाश गंगा के िकनारे , िटिमिटिमाते तारों की रे त और चन्द्रमा के चण ू र्ण से बने अबीर की िबछी चादर पर, थक कर सो गया है . सूरज अपनी आग और लाली अपने मे समेटिे, समय के जागने की प्रतीक्षा मे परे शान है . चारों ओर बालू और रे त का जमावड़ा-
सफ़ेद, चमकता या िसफ र्ण स्याह. सूरज के िवरह मे बाकी सब रं ग बेरंग. गंगा से धल ु ी मुलायम शवेत रे त, अपने आप पर, नाज़ करती िवजय पताका फ हराती लहलहाती, पुरी संरचना को रे तमय करती जाती है , ऊँचे ऊँचे पहाड़ रे तगंगा मे िपघल, पैरों को चम ू ते गुदगुदाते है . धरती और ब्रह्माण्ड चमकते,स्पशर्ण िप्रय, मंद मंद, बहते रे त मे धीरे धीरे समाते जा रहे है . मोटिी और बड़ी होती रे त की गद्दी पर, समय औंधे मुंह, पैर फ़ैला, ऐसे सो गया है मानो, अब कभी न उठे गा