किवता लता का
सं ह
रचियता व.पं.शेषनाथ शमा ’शील’ थम सं करण जून 2006 सवािधकार शरद चं शमा मू य - 70 .00 - मु क राजहंस ि टस यू िसिवक से टर िभलाई दूरभाष-0788-2225421
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अनु मिणका ------------1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19.
जड़ का अिधकार पिहचान यार के देश म पीर पीकर मु करा कृ ित का यार तीन तारे फू लबाली मीन भंग शारदीय रजनी रात अंधेरी बहेिलये का बंदी भ उपहार ाण दीप मंथर दना त िवजन का सुमन आनंद अमा का अंधेरा शरद पू णमा पथ का सून
20. 21. 22. 23. 24. 25. 26. 27. 28. 29. 30. 31. 32. 33. 34. 35. 36. 37.
िनषेध आिखरी गीत अधूरा गीत प थर के भगवान बोल दो घन िमल र पात प बापू के िच वाले नोट ब दी वीर सांप नह भाई है भाषण तीन डाकू अिधकार बे दश अंितम करण थम ल ा मातृ मृित
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अनुरोध -------व. पि डत शेषनाथ शमा ‘शील’ के अ कािशत का भ डार से कु छ मोती चुनने क सोची थी. . . . साद भंग आ, मु ा चयन सहज नह ह कसी चुनू - कसे छोडू ं ? शील जी क िविवध भावधारा और ब रं गी क पना और अनुभूिम को संजोने के साथ-साथ यथसा य छायावादी रचना के संग ही गितवादी रचना को भी संकिलत करने का यास क ँ । मेरा यह यास कतना साथक है इसकर उ र सुिध पाठक से पूिछये, इतना अव य क ग ं ी क संकलन म कोई ु ट रह गई हो तो व. शील जी के साथ ही आप सबसे भी मा मांगती ।ँ भूिमका िलखने का गु तर काय डॉ. पाले र शमा जी ने वीकार कर मुझे कृ ताथ है, वे ण य है। शुभम् सरला शमा सात बी. एन. पी. ए. से टर-9, िभलाई
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किव -कथा -----------समाज और सािह य अथवा सािह य और समाज ये समानांतर रे खाय ह िजन पर किव का क ायान सतत गितशील रहता है। अपने हजार साल के इितहास म हमारी स यता, पर परा, राित- रवाज और सं कृ ित के अ या य त व चाहे िजतने बदले ह ले कन मनु य आज भी अपने मूल प म वह ह। उसक वृि य ई या- ष े , घृणा- ेम, ोध-अहंकार सब य के य ह, बा आवरण उसक मूल भूत चेतना को आ छ नह कर सकता अतः कबीर, तुलसी से लेकर पंत, साद, िनराला अ ेय, मुि बोध जैसे किव कसी न कसी प म जीिवत रहगे, उनक ासंिगकता भी िव मान ह और रहेगी। ासंिगकता क इसी ख ृं ला क कड़ी ह व. शेषनाथ शमा ‘शील’। इनक रचना का संबंध भी मनु य के मूल अि त व से है, उसक चेतना से है, अि त व क र ा से है, संघष से है, िजजीिवषा से है तो दूसरी ओर आ या म का वर भी मुख रत है, भारतीय दषन का अनंद फु टत है। िह दी सािह य के ि वेदी कालीन सािह यकार के प म इनक गणना क जाती है। जा व य देव थम क ऐितहािसक नगरी जांजगीर अिवभािजत म य देश, आज के छ ीसगढ़ म शील जी का ज म 14 जनवरी 1914 को आ था पौषशु ल ादशी ितिथ थी। इनके िपता धम ाण सािह यकार एवं िव ान व. कुं जिबहारी लाल दुबे थे माता का नाम व. पावती दुबे था। तेरह वष क उ म शीलजी मातृिवहीन हो गये, कोमल मन पर थम आघात था, किवता का ज म तभी आ। िपता आ या म पथ के पिथक तो थे ही मशः गृह थी के ित उदासीन होते चले गये, प रणाम व प शीलजी को शालेय िश ा िह दी सातवी तक ही ा हो सक और वे उदर भरण क िच ता म डू ब गये व. भा करराव मेढ़ेकर वक ल के यह मुंशी बन गये, यही उनक आजीिवका का साधन था। सन् 1966 म ने योित मंद पड़ने लगी, सरोजनी नायडू ने िच क सालय आगरा म दो महीने तक भरती रहे पर िविध का िवधान अमोध होता है, शेष जीवन अंधेरे से जूझते बीता, वे दृि हीन हो गये।
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सािह य साधना म ाघात उ प आ, साधक अंतमुखी हो गया। यह काल शील जी के िलये बड़ा ही पीड़ादायक था य क िह दी, अं ेजी, उदू, बंगला, सं कृ त एवं मराठी सािह य का अ येता अ ययन से वंिचत हो गया। उनक दशा मिणहीन फिणधर सी हो गई थी। वे सन् 1935 के का कलाधर के सहयोगी स पादक रहे, शील जी क रचनाय त कालीन प पि का म अनवरत् कािशत होती रही थी। नवंबर 1935 के ‘संगीत’ पि का म कािशत ‘‘हौ एक बात नई सुिन आई’’ क परिलिप राग-देश पर आधा रत थी, जो हम मरण दलाती है क वे किव के साथ ही संगीतकार भी थे। बांसुरी बजाने म वे िस ह त थे, एक साथ दो बांसुरी बजाने म वे वीण थे, तो हारमोिनयम पर ‘‘ब ये बदराउबरसन आये’’ गाकर ोता क मं मु ध कर देते थे। सुरीले क ठ से िनकला आ मिनवेदन ‘‘ भु मेरे अवगुन िचत न धरो’’। अथवा ‘‘मोरे लाज तु हारे ही हाथ रे सांवरे िगरधारी।’’ हो अथवा संत तुकाराम का अभंग ‘‘आलो, आलो गुनतू माया - गुनतू माया. . . ।’’ संगीत समारोह का ंगार करते थे। रिव संगीत म शील जी के ाण बसते थे तो साद क ‘‘बीती िवभावरी जाग री. . . . ।’’ और िनराला के ‘‘बांधो न नांव इस ठांव बंध,ु पूछेगा सारा गांव बंध।ु ’’ का गायन शील जी क पहचान बन गया था। योितष का ान उ ह ि था पर भिव य कथन करके अथ पाजन उनक िच के अनुकूल नह था। िवशेष कर कु डली बना कर जातक क सम या का समाधान वे िनःशु क ही करते रहे। शीलजी क ारं िभक किवताये छायावादी ह। िजनम साद एवं िनराला का भाव प ह गेय किवताय ह िजनक भाषा शु सं कृ ितमयी कोमल का त है बंगला क िमठास ने किवता क और भी रसमयी बना दया है। रसानुभूित, रह यानुभूित से िमलकर अ त ै साधना का माग श त करती है। ‘‘शरद क िवभावरी’’ इसका उदाहरण है। शील जी त ै को जागृत रखना चाहते ह ‘‘जहां न चं सूय हो, पर तु म न पल सक।’’
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साधना का पथ अंधकार पूण न हो अतः किव अपनी ाण व तका जलाये रखना चाहता है ता क दूसर को काश िमले, सुख िमले, अंधेरे से मुि िमले। ‘‘म जलूं जला क ँ , तुम सुखी रहो लो संभाल कर रखो, वसन के क तले। ाण ! यह जले, दीप यह जले।’’ किव ने जड़ से दुलार पाया है, िजसने चेतन क िनममता पर लेप लगा दया है। ‘‘चेतन जग ने कब ऐसा मीठा वहार कया है, जड़ कृ ित इसी से ि य है िनज सुख का भाग दया है।’’ मनु य के जीवन का अभाव, दुख, िवषमता, हसा, अस य आ द शील जी के किव मानस को ु ध करता है पर अंमा का अंधेरा घना है दीप ने भी लजाकर साथ छोड़ दया है। िख होकर वे िलखते ह ‘‘कई आ थाय बनी और िबगड़ी िवचारक नई पोिथयां सी रहा है। िवषता अभावा द से त मानव सुधा चाहता था, गरल पी रहा है। दुखी ँ क मेरा अनुभूिमय जागती ह िववश ँ क मेरा मनुज जी रहा ह। गलत राह कोई नह धर सकूं गा क जीना मना है, मरण भी मना है। अभी भी अमां का अंधेरा घना है। गितवाद क पदचाप सुनाई पड़ने लगी थी यह प रवतन उनके सािह य म उनक रचना म िजस तरह आ ह वह ‘िमल’ नामक किवता म प प से प रलि त होती है ‘‘दुखी जन क ह ी से भूखे िमक के शोिणत से पैस का इितहास िलखा है िमल क ऊँची दीवार पर. . . । िमल सजीव मृत मजदूरो क एक धधकती ई िचता है। िथत शरीर िथत मन लेकर िमल मािलक क ठोकर खाता 6
जग क कटु ताड़ना सहकर जीता है मजदूर अभागा। युग क पुकार ने शील जी को भी िवचिलत कया हसा, अपहरण र पात राजनीित क बेढंगी चाल, पूंजीपितय का बढ़ता जाल, वोट क राजनीित क िशकार भोली ामीण जनता, आिखर भगवान् है कह ? मं दर म तो प थर क मू त है जो बोल नह सकती, किव ने उसी से कया ? ‘‘ओ प थर के भगवान बोल। यह िछप कर हसा कपट पाश कमजोरो का होता िवनाश य तेरे जग का कर नाश ितकार-हीन भगवान बोल’’ आ ोश का मुखर वर मंद नह आ ‘‘तीन डाकू ’’ शीषक किवता समाज के तथा किथत ठे कदारो, नेता, पंिडत और गु डे को समाज धम िचि त करता है िजनके हाथ जनता का सव व छीना जा रहा है, मजे क बात ये है क वही ‘गु डा’ दय प रवतन का दृ य दखाता है चमचे क ह या कर देता है। ‘‘मुझे भले ही होवे फांसी अब जनता सुख से सोवेगी।’’ पड़ोसी देश का बार-बार आ मण शील जी को नागवार गुजरता है, अ हसा और माशीलता को ललकारते ह इ न श द म ‘‘भाई था यह कभी िह से म रा य दया, कोष दया सेना दी, आज वही सांप है। लहराता लपक रहा पैरो क ओर।’’ शील जी का उ र जीवन अथाभाव म बीता, शरीर जजर हो चला था अंततोग वा 7 अ टू बर 1997 कोशारदीय नवराि क ष ी ितिथ थी पं. शेषनाथ शमा ‘शील’ का देहावसान हो गया। सादी चादर को रं ग िमल गया, जड़ को अिधकार भी िमल गया। शील जी क अ कािशत रचनाये इस संकलन म सं िहत क गई है जो उनके सािह य भंडार का एक अंश मा है। 7
शेष किव क लेखनी से ‘‘जीवन पर भाषण ब त सुने पर मरण पर न बोला कोई मुकुिलत सुमन को यार िमला कब झरने पर रोया कोई ?’’ कु छ मौन के उ र ह िजनको अब तक न िमली भाषा, मीठी कड़वी कु छ याद ह किवताय कसक भरी सोई। िबलासपुर के व र सािह यकार याम लाल चतुवदी ने शील जी को किवगु कहा है। 12 फरवरी 1996 म कोरबा म आयोिजत एक समारोह म इ ह ने शील जी के सािहि यक अवदान को यान म रखकर उ ह मानद डी. िलट दान करने क गुजा रश क थी। 26 िसतंबंर 1997 के ‘‘सा य समी क’’ म पुनः त कालीन कु लपित डा. आर. के . सह को मानद डी. िलट. क घोषणा क याद दलाई गई थी अंचल के िस सािह यकार डा. िवमल पाठक ने कहा था पं. शेषनाथ शमा ‘शील’ का स मान अंचल का स मान होगा अतः शी ितशी उनके स मान का आयोजन कया जाना चािहये। खेद है क अब तक वह तथाकिथत घोषणा साकार नह हो पाई ह। सािह य ही कालजयी नह होता, सािह यकार भी कालजयी होता है। आज शील जी हमारे बीच दैिहक प से उपि थत नह है पर उनक यशोकाया तो िचरं जीवी है अमर है। इ यम् िव ानगर, ये शु ल ष ी, िव. संवत 2063 डॉ. पाले र साद शमा अ य , छ ीसगढ़ िह दी सािह य प रषद, िबलासपुर दूरभाष-07752-223024
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अपण गंध मधुर रस प समि वत फू ल धूल है, शूल ब त आचूल डाल है और भूल है। सही, क तु िवभु का पाियत िवमल हास है, इसम िनज गुण-दोष बताना बड़ी भूल है। ‘शेषनाथ शमा शील’ व दना म द-शत-दल पर करो बास। कर धृत िसत-सरिसज िवमल वास, पद नुपुर न- रन अमल हास, वर दे ! दे भाषा भ भाव। कर दे जड़ता तम तोम नाश। टू टे संसृित का मोह पाश। जड़ का अिधकार अंतर के गीत ब त उतरे , उतरगे,, पर उनको जीवन ाण तु ह देते हो। अपने आंगन म घनीभूत पीड़ा म, जीने मरने क इहलौ कक ड़ा म, उठने का म जब भी उपहा य आ है, तब जीवन को गित, सदय ! तु ह देते हो। फर उसम नूतन ाण तु ह देते हो। असहाय-हीन जब भी िनज को पाता ँ , जब कभी मरण से, दुःख से, दुःख पाता ँ , तब उसम अपनी अमृत-मयी स ा का, ह -मुसका कर आभास तु ह देते हो। फर बहते को आधार तु ह देते हो। तुमसे िवयु बन जब भी िनज को पाया, देखा-जैसे है ाण-हीन यह काया। दुःख ही तप है, तपिहत मानव जीवन है, 9
जीवन को िनज म िवलय तु ह देते हो, सादी चादर को रं ग तु ह देते हो। वह आ म ाि -वह मुि मुझे मत देना, ि य का बंधन, ि य है-वह ही है लेना। इस बंधन म आंसू ने गीत िलखे ह, इनको किवता का मान तु ह देते हो, लघु को महान् स मान तु ह देते हो। आह कागज भर भरता ँ , भरने दो, मत पोछ , आंसू झरते ह झरने दो। मेरे आकु ल वर ने रोना ही जाना, दृग-जाल को मु ा प तु ह देते हो, म के ऊर को सर धार तु ह देते हो। तुम मुसकाते हो तभी फू ल िखलता है, तुम छू देते हो तभी अिनल िहलता है। उ मन वीणा लेकर बैठा रहता ँ , आकु ल तार को छेड़ तु ह देते हो, इस पीड़ा म अनुराग तु ह देते हो। भीतर बाहर सुख दुःख म इससे खेलो, फर से मुसका दो और िखलौना ले लो। माटी का है पर यार तु ह करता है, जड़ को भी यह अिधकार तु ह देते हो, फर उसम चेतन ाण तु ह देते हो। पिहचान जान तु ह ि य लूंगा। तुम उषा के अ ण करण के रथ पर चढ़कर आना, या सरसी के फे िनल-उर पर वण-तरी म गाना। हे अ प ! तव प िवक रत होगा, जग म शतधा कसी प से गीत के िमस मन क सब कह लूंगा
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जान तु ह ि य लूंगा। -तपन से झरे अनल या पागल पावस गाये, वृ त- युत िशऊली-वलय पर िशिशर ात रो जाये। कु सुम कािमनी के सुरिभत मंद ि मत के ऋतुपित हो। कब तक कर से च िछपेगा ? खोज तु ह ि य लूंगा पहचान तु ह ि य लूंगा। अलस ात का खग-कु ल कलरव अ ण- करण मतवाली सं या ण स रता जल चंचल िवरह िनशा हो काली सब म देखे प तु हारे ओ सपन क रानी िचर प रिचत से हाय ! अप रिचत कब तक और र ग ं ा जान तु ह ि य लूंगा। यार के देश म. म. . . वह छंद है, वही मधुर वर, मादक वही िहलोर है सुन पुकार, म चला रात भर, होने आई भोर है। क तु ाण ! म ठगा गया या यही ीत क रीत है बुला िलया, फर कह िछप गये यह भी कोई नीित है। गंध, प, रस, हास, तु हारा अभी शेष है फू ल म यह कह हो खोज रहा ँ िनमम पद-छिव धूल म। सुरिभत सांस तु हारी रह रह पुल कत करती देह को अ फु ट ममर चरण चाप सुन मोह हो रहा मोह को। नील गगन िसत-घन छाया तल ी हत रािश उडू जाल म कहां िमलेगा ? कोई कह दे, अ ण उदय िग र भाल म। क ण नयन-युग तृिषत अतल उर,उर क ांरी कामना, मचल रहे ह सभी हाय रे ! पड़ा लाज से सामना।
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सदानंदमय उसको माना, ह त ! यही तो भूल क झरे ओस बन कसके आंस-ू पंखु रय पर फू ल क । वह ही, वन के ममर वर म, रोता बारं बार है। सपना जह टूट जाता है, इस असार संसार म आ द अंत समवेत जह है, वही देश है यार का। वह कह सूने म साथी, कसी पेड़ क छांह म एक बार िसर रखकर रो लूँ , सदय ! तु हारी बांह म। पीर पीकर मुसकु रा अंतर कहता है, एक गीत किव गा दे जी के घाव पर, शीतल-लेप लगा दे। िवरिहन के आंगन म सावन मत छाये छि दत होकर वह उतर कलम से आये। संयोगी गाये और िवयोगी गाये म म भी तेरा गीत सुधा बरसाये। उठ ! वण और अपवग धरापर ला दे अंतर कहता है एक गीत किव गा दे। दन भर िपस कर भी रहा रात भर सूखा तेरे गीत से बल पाये वह भूखा। वेदना, घृणा, अपमान-मा संबल है दुख से िवरि य ? दुःख म अनुपम बल है। आंसू से िवगिलत क चोट सहला दे, अंतर कहता है एक गीत किव गा दे। रोकर िव ोही दय नह गलता है आंसू से भीगा ाण अिधक जलता है। मत भड़के उर क आग, बांध बाह से मत धूमावृत जग हो, पगली आह से। अग-जग क पीकर पीर तिनक मुसका दे अंतर कहता है एक गीत किव गा दे। 16-6-75 को आकाशवाणी रायपुर से सारण कृ ित का यार
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अंतर का धीरे -धीरे तम दृ य जगत पर छाया। म बड़ी दूर का राही थक गई फू ल सी काया। हर सांस कान म कहती िनिश है िवराम क बेला। चलना, सूरज उगने पर तुमने कतना दुःख झेला। फर कहा रात ने, आ जा म तुझे गोद म भर लूँ । अंचल पंखा करता है सो-जा क यार फर कर लूँ । चुपचाप बता-अंतर क है चोट कह सहला दूँ । कु छ गाकर धीरे धीरे म तेरा मन बहला दूँ । चेतन जग ने कब ऐसा मीठा वहार कया है। जड़ कृ ित इसी से ि य है िनज सुख का भाग दया है। चेतन है वतः अचेतन जड़ को पद-रज िमलता है। ऋिष-नारी पाषाणी क फर पुल कत देह-लता है। तीन तारे ओ गगन नील के सुमन तीन। तुम अिसत अलक जल बीिच-बीच पुि पत िसत-कण-सम थे अक च। अपद थ पड़े हो यथा नीच वह य लेती फर नह बीन। अिसतािभसा रका तु ह छोड़ जैसे सब नाता नेह तोड़।
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तुमसे कर शोिभत गगन ोड़ या बना गई वह िख दीन। वेदना अिमत कर पार आह ! कसक वर स रता का वाह आया म बहता, थी न चाह। या आ राग ? या ई बीन। म भूिम बीच आ पड़ी धार िजसका न दीखता कह पार। तब से यह जीवन आ भार जब वह िसकता म ई लीन। उ िहन म मन शरीर दन म, िनिश म जैसे करीर। क टक-शैया पर हो अधीर मेरा प रचय - - म तृिषत मीन। ओ सु द ! न िहम जल कण- असार वे थे िजनसे थी बनी धार। अवनी पर कर दुःख-राि पार किव आंसू बरसे, ओस न थी। उस वासक स ा का अमोल उपर बुलाक का रहा डोल। मोती-नीचे दो दशन लाल तारे य कहते ? इ ह दीन। िचर अिभलिषता ऊपर नभ पर म पंख हीन हा रल भू पर। इतनी दूरी-इतना अंतर यह रीित िमलान क सुनी थी न। ओ गगन नील के सुमन तीन. . . . . फू ल वाली म फू ल बेचने आई ँ , तुम लोगी मोल ? लोगी मोल. . . । अलिसत भात के रिव ने, िछपकर कुं ज म देखी ल ा से िसमटी िसकु ड़ी, अवगु ठन वाली किलय
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मर का कु छ कह जाना, कािलका के िसर का झुकना म देख रही थी िछपी ई, अपलक नयन को खोल। कोई लोगी मोल. . . . । उ सग कया किलका ने रिव पर, िनज जीवन, तन-मन ठु करा कर रिव ने झुलसा, उसके जीवन का कण-कण। यह ीित कये का ितफल, म देख रही थी अिवचल कु छ सोच रही थी, दुःख से भरे , इस जीवन का या मोल ? कोई लोगी मोल. . . . । गाल पर मोती जैस,े कु छ ढु लक पड़े य कै से ? इन बूँद का या होगा, कोई स ता य देगा ? आंसू का मोल न लूंगी, ले लो यूँ ही दे दूँ गी लो जाती ँ , अब सांझ ई, चल भर लो अनमोल कोई लोगी मोल. . . . । मौन भंग जीवन भर जीना ही होगा यह भार वहन करना होगा। िजसके इं िगत पर पवन सोम रिव आ द यं चािलत समान, युग-युग से अवनी के तट पर चल रहे खो दया मोह मान। मेरे किव को गाना होगा। जीवन भर. . . . किव का अथ है पीड़ा सरगम बढ़ता जाता मृद ु म य तार। िजसम अवरोह नह होता झंकृत कर देता तार-तार। पीड़ा को वर, वर को जीवन जीवन गित-मय करना होगा। जीवन भर. . . कु छ दन थे किव के गीत मौन जग ने समझा किव आ सु । फर लगी ठे स, वह चले गीत वह गट आ जो था क गु । आकु ल ाण से उठे गीत
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उन गीत को िलखना होगा आंसू से भीगे गीत को कोमल-तर वर देना होगा। जीवन भर जीना ही होगा. . . . . शारदीय रजनी शरद क िवभावरी न बीत जाय बावरी पाल खोल दे अरी ! क बह चले उधर तरी। जह न चं सूय हो, पर तु तम न पल सके क त ै जागता रहे, पर तु म न छल सके । और छांह ािहणी वसुध ं रा, वयं वरा िचर सुहािगनी अभु ही रहे यह धरी। पाल खोल दे अरी. . . . जह िवराम हीन गित, न ाि त दे, न ी हरे जह सुि भी महान् को, न तु छ सा करे । हो िमलन अबाध औ, िवरह न सांस ले सके राग क िवराग क , जले न आग नागरी। पाल खोल दे अरी. . . . सुन सुन कर, तव पुकार ाण खचे दु नवार जीचन क आरती, पर तु बुझी बार बार। आज तुम िमली, समीर-धीर म दर रै न है शुभ घड़ी याण क न बीत जाय हाय री। पाल खोल दे अरी. . . . हर पुकार म तेरे अंतर का यार िमला नवो मेष, नवगित-यित, नव वर संचार िमला। अग जग म खोजते तु ह ही तो फरते थे अ ुिसकत आकु ल आवाहन के गीत री। पाल खोल दे अरी. . . . वीणा लो, तुम वर दो, जी भर कर गाने दो छोड़ो पतवार, मु तरणी, बह जाने दो। सागर क गोद और अंबर क छाह म हे िचरसंिगनी ! जागे युग युग क चाह री। पाल खोल दे अरी. . . .
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रात अंधरे ी बीत गया दन कसी तरह, यह रात नह कटती है। मेरे नभ क अिसत बद रया हाय नह हटती है। रोकर-मन कहता है, उसका सकल कलुष धुल जाये ऐसे म वधान त ै का आओ. . तो धुल जाये। तम-असीम म मेरी छोटी यह सीमा घुल जाये। दुख दु दन क चढ़ी बद रया हाय ! नह छटती है। बीत गया दन कसी तरह, शेष नह है ि धा, जाल, भय अंतर आ दक कोई, देख न पाया कोई। ज म ज म क आज जगी है भु -वासना सोई जो ितफल वधन-शीला है अरे नह घटती है। ु बदु से खुद ही आकर महा सधु िमलता है। जग से अग, फर अ प ाण से महा ाण िमलता है। िवरहा कु ल मन, िमलन तृिषत तन तुम म लय होता है। कट जात है जीवन ले कन, मृ यु नह कटती है। बीत गया दन कसी तरह पर रात नह कटती है।
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बहेिलये का बंदी अब मत मुझे बुलाना साथी अब मत मुझे बुलाना। यह मादक वर आवाहन का ाकु ल कर देता है। पंख बंधे ह, और मन मेरा टू क-टू क होता है। कै से हो उड़ जाना साथी, अब तम मुझे बुलाना। िमलना कै सा ? अब तो नभ म गीत िमलगे अपने एकाक िव न रजनी म तुम बन आना सपने। खोने म है पाना साथी ! अब मत मुझे बुलाना. . . य कर खले कसी को अपना िमलना, आना-जाना। दूर ि ितज के पार नीड़ म च च िमलना, गाना तुम इस ओर न आना साथी ! अब मत मुझे बुलाना. . . पर क खुिशय पर िनभर है सब कु छ तेरा-मेरा दूर बसेरा तेरा। आंसू म सुख पाना साथी ! अब मत मुझे बुलाना. . . भ उपहार मेरी वीण का तार तार पर चढ़ा उसी दम टू ट गया। अब आह बीन क गूंज रही
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अग-जग जल जाना चाह रहा। इसीिलये आंसु से साथी ! म ँ उपवन को स च रहा। जो गीत कसी दन गाये थे वे इस वसंत म ये फू ल हंसकर,चुनकर इनको ले लो जो िनः ास म रहे झूल। तब जो पीड़ थी भार यार वह ई क दम ही टू ट गया. . . . रहने क साथी चाह नह जीने क कोई राह नह । मै। दूर इसी से रहता ँ मत मुंह से िनकले आह कह । जब तक जीना तब तक सीना इन फटे चीथड़ म रहना। जो सुनकर के वल हंसते ह अपनी उनसे कु छ य कहना साथी ! दुःख-सुख क आह आंच पर चढ़ा क घट ही फू ट गया। मेरी वीणा का तार, तार पर चढ़ा उसी दम टू ट गया. . . स मान बड़ा किव ने पाया वागत म जन सागर उमड़ा जब गीत उठे सब झूम उठे । फर नयन म सावन उमड़ा। वह अमल कमल कोमल आनन थी जो क वतः कु सुिमत कानन पिहनाने आई, िवमल माल तज सौध सदन, िनज सहासन वह हार 19
ीित उपहार कं ठ पर पड़ा उसी ण टू ट गया। मेरी वीणा का तार तार पर चढ़ा उसी दम टू ट गया. . . . ाणदीप दीप यह जले ाण यह जले। ेह-योग से जले ाणव तका व के तले तले, यह दया जले। मने लेट पर जो नया गीत िलख िलया और कु छ क ं इसे या घृणा क ।ं कु छ समझ सका नह आह या कया ? हंस के पढ़ा, आह क औ िमटा दया। य िशकायत क ँ जी भले जले ाण यह जले. . . . पास थे तो या आ ? पा नह सका साध थी िछपा के मुंह, िजस दुकूल म रो िलया क ँ , उसे छू नह सका। ठ से लगे रहे, पी नह सका। व हो गया समा और तुम चले, ाण ! तुम चले, यह दया जले। चैन ली, दय िलया, या बचा कहो ? गहन तम बढ़ा सखे ! ई दूर है। म जलूंजला क ँ , तुम सुखी रहो लो इसे रखो संभाल, वसन के तले
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व के तले तले, यह दया जले ाण यह जले, दीप यह जले. . . . मंथर दना त धीरे धीरे दन ढलता है। धीरे धीरे दन ढलता है नीला ण-क ण-गगन ऊपर मै। तृण संकुल-आकु ल भू पर। दश- दिश म गहन उदासी है अवसा दत अंतर जलता है धीरे धीरे दन ढलता है। जैसे अंतर का त व ोम बाहर बन आया तमः तोम। आकि मक अंतर बिहः सा य, यक या दीपक सा जलता है ? दन धीरे धीरे ढलता है। द शतदल पर धृत अ ण वास सोता है कसका मौन हास। कस रािश का है, कर-िनकर-लास दश- दिश का तम जो ढलता है। दन धीरे धीरे ढलता है। सूने मं दर सा ायभ अब कहां गया जग ितिमरम ? यह कै सा है अ ुत िविनमय ? किव को कोई फर छलता है, दन धीरे धीरे ढलता है. . . . । िवजन का सुमन िवजन का सुमन ँ , पुिलन पर िखला ँ क जनजाित क यह हवा मत सताये। क अहसान मुझ पर मनुज का नह है पिथक क थकन कतु भरसक ह ं गा। धरा उवरा के दय ने दुलारा 21
कृ ित ने संवारा, िखला कल झ ं गा। पंख रयां रसा के चरण पर झरगी कु ित को मधुर गंध का दान दूग ं ा। मधुप के िलये मु रस कोष मेरा क िततली समुद बैठकर पश पाये। हवा मत सताये. . . . िवषम-पाप-िवष से भरी है गरम है, बड़ी ढीठ है, शोख है, बेहया है। क मकरं द सारा िबखर जायेगा, ह कसी के िलये जो संजोया गया है। णय क कहानी ब त है पुरानी णय क तु अब भी नया का नया है। कभी तार िजसका उतरता नह है चढ़े साज को हाय ! मत छेड़ जाये हवा मत सताये. . . . असह ताप है या क वषा खर है, कभी शीत से तन गला जा रहा है। कभी आंिधयां छेड़ती, मोड़ती है, इसी भांित जीवन, चला जा रहा है। सुखी ँ क लघु म अलघु है कािशत, महत का पुलक, पश तन पा रहा है। वही प-रस-गंध िवकिसत आ है मधुर हास उसका कह खो न जाये हवा मत सताये. . . . आनंद आज भोर गुमसुम है और मन उदास है। सोती कलकारी है, सोती है लो रयां, पनघट-पथ सोता है, सोती ह गो रय । सोते चौपाल म सो रही कहािनयां जागी अनुभूिम और क पना कु मा रयां। उपवासे अ तर क असमय यह यास है। और मन उदास है. . . .
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देखा आकाश दीप नभ म है झूलता। कतना तम हरता है, फर भी है फू लता। देव दशनाथ चला, बंद क तु ार है, देव-दीप ने कहा क जलना ही सार है। जलता जीवन जागे थ अ य आस है। और मन उदास है. . . . ल यहीन एक दीप, पला कसी यार म, बहता आया समीप, स रता क धार म। वह असीम सु सधु, यह िवराट है अमा, लघु दीप कर रहा, अनंत क प र मा। अथहीन, मितिवहीन, दीप का यास है। और मन उदास है. . . . घर जला तमाशबीन गीत मांगते रहे गीत से न कु छ िमला अभाव नाचते रहे। भूख िबलिबला रही, िससक रहा दुलार है अथ के अभाव म, अपूण आज यार है। बंद मंद हास, बंद लोल ू िवलास है और मन उदास है. . . . गीत से कभी गुलाब क कली नह िखली दीप के यास को सराहना नह िमली। या आ ? पर तु दीप जलते ह आज भी गाये जा गीतकार ! मत िनराश हो कभी। भूल मत क तेरा आनंद ब त पास है और मन उदास है। आज भोर गुमसुम है और मन उदास है। आकाशवाणी रायपुर से सा रत जून 1969 म। अमा का अंधरे ा अभी भी अमा का अंधेरा घना ◌ाहै उषा क करण का िवहंसना मना है। िससकता भटकता पवन रात भर था मगर कसिलये-हाय ! यह कौन जाने ?
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ब त रो चुका पर गगन के दन का कह अंत होगा इसे कौन जाने ? बहे पर कहे मत, भरे पर झरे मत वही वेदना है अपर है बहाने। उपि थित था क खर धार म है िलये जा रही कू ल पाना मना है अंधेरा घना है. . . . कभी चीखना उ लु का भयंकर कभी मंघ गजन, कभी ान का वर कभी भूख से अध िन त सुवन का िससकना नह सह सका रो रहा घर। नह न द आई तभी गीत जागा मगर दीप ने साथ छोड़ा लजाकर। बहल जाये मन गीत से, पर कसी ने कहा इस तरह भी बहलना मना है अंधेरा घना है. . . . कई आ थाय, बनी और बदली िवचारक नयी पोिथयां सी रहा है। िवषमता अभावा द से त मानव सुधा चाहता था, गरल पी रहा है। दुखी ँ क अनुभूितयां जागती ह िववश ँ क मेरा मनुज जी रहा है गलत राह कोई नह धर सकूं गा क जीना मना है मरण भी मना है। अंधेरा घना है. . . . शरद पूिणमा भारत पा क तान यु
क िवभीिषका म पित को भेज चुक
ोिषत पित का क मम कथा
पूनम ितिथ शरद मास। पि म से आ रही, कसी क यह सद सांस बावली उतावली सी खोज रही है कसको, कोई संदश े तथा कारण िवशेष है।
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असमय जो छेड़ा है चंदा से ई भूल और यात् कह पास पा रजात रहा झूल। जुही क , चमेली क , आती है म दर गंध तभी हाय ! धीरज का छू ट रहा छ द बंद। य क आज ितिथ पूनम मधुर म दर शरद मास। वे िपछले र य हास मृित के शत-शतावत मंिथत उर अंतर है राधे ! तुम हो कह ? कहती येक सांस आओ फर रच रास। ितिथ पूनम शरद मास। यही भाव बाधा है दूर कह राधा है। बोलो कब ई िभ भारतीय नारी है पराशि अवि छ । चेतना तु हारी है, ेरण तु हारी है आ हा दनी है कभी, और कभी वीरता, योगी क िसि तथा भोगी क है समृि रागी क रित तथा िवरागी क िवरित है। अतः साथ है सतत् करके इस स य का अित म, दुख पाते हो, मृित क प रिध से तुम मेरे अि त व को यूं ही िनवािसत य करते हो मेरे याम ! भूलो मत अमृत पु , महा ाण, पूणकाम ! मेरे गव ! अंबर क नीिलमा समान सदा मने ढांप रखा है, तव तन-मन सीमा को मेरा सदूर और मेरी ये चूिड़या भारतीय नारी के बल का तीक है। मै। वारी, माता का दूध मत लजाना ाण ! 25
अपने दृग जल से म आज पु य पव पर कलुष तु हारे अ यंतर का धो रही। इस राधा के याम को णाम। जीत कर आओ तब अपनी येक सांस होगी फर, र य रास ितिथ पूनम शरद मास। पथ का सून तुम बढ़ो, बढ़े चलो. . . दप दी भ भाल झुक न जाय मौिल माल। ल य तुंग ृंग पर चढ़े चलो, बढ़े चलो देश को समाज को संवारते चलो. . . . दल बने क बल बंटा क एक सू ता गई सुख, नह िमला िमली पर तु ित ता नई। इस वरा य को सखे ! सुधारते चलो. . . . कल वतं ता िमली, क िशिथलता समा गई याग वीर आय क अकाम साधना ◌ागई कमवीर ! कम िनज िनबाहते चलो. . . . सव ािसनी द र ता अभाव तता िह धिनक क अतीव लोभ पूण तता तुम दयालु हो, इधर िनहारते चलो. . . . रो रही है ौपदी िससक रही है पि नी हाट बाट म अनेक लुट रही है कािमनी
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तुम इ ह उबारते, दुलारते चलो. . . . बाजुय िशिथल ई क ह त धम सो गया ? या क आय महा ाण ाणहीन हो गया देश को करो बु ाण बांटते चलो. . . . ँ झरा आ सून वीर क ठ हार से राह म पड़ा आ पुकार रहा यार से शीश पर धरो चरण गत थः कये चलो तुम बढ़ो बढ़े चलो. . . . ल य तुंग ृंग पर चढ़े चलो, बढ़े चलो. . . . िनषेध कु छ मन क बात कहने दो ! सुरधनु पर चढ़कर अनायास जो नभ पथ म करती िवलास जो है अना द क सि आ द जो है अ प का म द हास। वह प तु हारा रहने दो. . . जो नभ को कहता है न र जो बांध रहा है घर ऊपर उसको यह प भले ि य हो भोले किव का सब कु छ भू-पर उसको जग-जीवी रहने दो। िझलिमल तार क लेट म तुम क ह िखलाया करती हो। या भूख वहां भी लगती है या भ रत को ही भरती हो। यह नीित तु हारी रहने दो. . .
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नीली उडु खिचत चद रया के घूँघट से वो तेरा िवलास, फर सुरिभत उपवन म दीखा तेरा मुकुलां कत म द हास। अब िछपना छलना रहने दो. . . ह बंद कये ह नयन य क सपन म भीतर आती हो ाण क वीणा पर रानी मोहक संगीत सुनाती हो। यह वर गंगा ही बहने दो. . . घर बंद कया, िलखने बैठा कब चुचपके से आ जाती हो म मन क कब कह पाता ँ ? यह रीित तु हारी रहने दो कु छ मन क बात कहने दो. . . आिखरी गीत चलूंगा, ठहर जा अभी ही चलूंगा मगर आिखरी बार, बल भर जलूंगा, तभी तो चलूग ं ा। कसी के िलये िज दगी शाम है तो, कसी को उदिध से उठी एक लहर है कसी को फसाना कसी को वपन है। कसी को सुधा है, कसी को गरल है कह पर नये फू ल इतरा रहे ह। कसी को बुबह का तराना कसी को, सरे -शाम क एक भूली बहर है। फलसफ थक घास पर सो रही है जगाऊ◌ॅ◌ं, दुला ँ तभी तो चलूंगा. . . . ठहर जा चलूंगा. . . बड़े शोख ह ढ़ीठ कांटे चमन के ये उलझा तो दामन छु ड़ाती फरे गी कसी मखमली पांव पर चुभ गये तो, वो सी-सी करे गी, के गी झुकेगी। हटा जो सका, चंद कांटे चमन के
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तो प रयां खुशी से चहकती फरगी पुराने गगन म, चमन म, हवा म अदा से नई रािगनी छा सके गी उठाना उधर बीन मेरी पड़ी है जरा आिखरी गीत गाकर चलूंगा. . . ठहर जा चलूंगा. . . अधूरा गीत साथी आंसू मत बहने दो गीत अधूरा ही रहने दो। घन का गहन-गीत गु गजन आज कि पत जग का कण कण। धूल उड़ाता उठा भंजन ऐसे म िलखना रहने दो। नभ से झरे अ ु के कु छ कण जग क था, यह का दन। य लेते ह छीन गगन घन अरे ! हमारा दुःख रहने दो. . . यही नाम तो है अपना धन नभ वाल का मत तरसे मन। जो कि अस य है चतन उसम ही किव को रहने दो. . . िनिखल िवन रता के अंदर प अिचर म है िचर सु दरं । छू त उसे क पना के कर किव को इस रस म बहने दो. . . . कलाकार वा तव जीवन से िभ हो गया है जन-गन से। सच होगा पर उसके मन से िन सृत सुधाधार बहने दो. . . जो अपूण जग म आया है, वह अपूण है, दुख पाता है। पूण, पूण म िमल जाता है मुझे अधूरा ही रहने दो. . .
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कसी पूण म कह यास है हर अपूण म िछपी आश है। कला साधना है, यास है किव को तप म रत रहने दो. . . गीत अधूरा ही रहने दो साथी आंसू मत बहने दो. . . प थर के भगवान बोल यह गोपन हसा कपट पाश कमजोर का होता िवनाश। तेरे जग का य कर नाश ितकार-हीन बलवान ! बोल. . . ये धरणी वंसक भयद दान जो महा लय है मू तमान। जीिवत जग को करते मशान तेरे िसर पर भी रहे डोल. . . है अि थर जग, सागर का जल स रता, समीर, रिव शिश भी चल। तू ही य बैठी है िन ल ? िनि य समािध कर भंग बोल। लगता तो है नर के समान नर सदृश नयन, भुख, आंख, कान। अब दे िनज नरता का माण तेरी जड़ता का िपटा ढ़ोल. . . । य चेतन से जड़ ये आप ? फर कस वृ दा ने दया शाप। िन य ही होगा महापाप कु छ तो अपना इितहास बोल. . . । युग-युग म िजसके कई दूत गा गये दया के गीत पूत। वह दयाहीन पाषाण भूत तू ही है या है अपर बोल. . . ? ओ प थर के भगवान बोल. . . ।
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दो घन नील नभ के कोण म य आ गये घन। िमलन आतुर, ाण कातर मंद कि पत कर-चरण-उर। पश पुल कत लाज िवजिड़त क ट कत तन ! आ गये धन। पूव प रिचत िचर अप रिचत कौन जाने ? ीित संिचत दे दया कु छ ले िलया कु छ या क वैसे ही गया उनका मधुर ण। िमल गये धन। अपर ही ण तिड़त घषण िगर गये कु छ अ ु के कण, सा य बेला म अके ला गा रहा ँ गीत गीला ाण उ मन ! आ गये धन। मधुर आशा कटु िनराशा च छू ने क दुराशा देखता ँ सोचता ँ फं स गया है य िवतृ णा पाश म मन। छा गये धन। तृिषत यौवन ुिधत जीवन जल गया प लिवत उपवन
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दय खे दत मन बेिधत त सांस के अरे इितहास मत बन। आ गये घन। थम बादल य दया चल ? अपर का तन य गया गल ? एक िनः वन एक तन-मन या क उनका यही शा त िमलन ण ? िमल गये धन। नील नभ के कोण से दो आ गये धन। िमल दुखी मन क ह ी से भूखे िमक के शोिणत से, पैस का इितहास िलखा है िमल क ऊ◌ॅ◌ंची दीवार पर। वह मजदूर फटी िच दी से कै से अपनी लाज िछपाये ? तुम हंस लो, ह घृणा करो वह जीिवत ही मरकर जीता है। खुद भूखा भोजन देता है, नंगा है कपड़े देता है। आशुतोष -शंकर सा जग को, दुख सहकर भी सुख देता है। पर उन आंख क किवता म या है ? कसने कह कह पढ़ा कब ? िथत-मौन पीड़ा देखी कब ? र हीन ह ी का ढांचा कसी तरह कु छ चल लेता है। फर भी उसको यारह घ टे िमल म सब सहना पड़ता है।
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रिव- करण से वाला झरती लाल तवे सी जलती धरती िमल, सजीव-मृत मजदूर क एक धधकती ई िचता है। िथत शरीर िथत मन लेकर िमल मािलक क ठोकर खाता जग क कटु ताड़ना सहकर जीता है मजदूर अभागा। ओ ! खस क ट ी के अ दर रहकर सुख से सोने वाल । भला कभी तुमने पूछा है। य रे ! तू य रोता है ? जीण शीण तन से दधीिच क के वल कु छ ह ी थी बाक वह भी तुम पूंजी पितय ने ले ली, वीय अमरता साधी। मार रहे हो, कहते हो, गा छीन रहे हो कहते हो खा। या खाये या गाये काई या मन को समझाये कोई ? िमल सजीव मृत मजदूर क एक धधकती ई िचता है शोषण का इितहास िलखा है िजसक नंगी दीवार पर. . . । ‘‘पूरी रं गत के साथ’’ का संकलन म संकिलत र
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व -िवलासी किव ँ तु हारे कसी उपयोग का नह । चूह क नाजायज हरकत आंख नह लगने देती। रात म कु छ चूहे लड़ने लगे
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गोरी-सी िब ली ने आकर कहा ‘‘िछः तुम भी लड़ते हो ?’’ गांधी के उन लकड़ी क खटमल से भरी टू टी सी कु स के िलये लड़ते ह। ठाकु र के बंग का अंग अंगिसहर रहा गौतम के गेह म रि म वसंत है। सूर और तुलसी का िधर सना आंगन है िजन मुिन के ांगण म फू ल िखले खून के । िब ली ने रात भर शांित क सुर ा क ा आ, वह डकारती ई चली गई। जागो ! तुम देखो घर का सब काम काज। व िवलासी किव ँ नह कसी काम का। सपने ही देखूंगा िन य-िन य तुम सबके सुख के , सुहाग के । प मेरे ि य बंधु ! नमन मन से, तन से असीस प िमला। ीित भरा ताना है तुम तथैव िम का बार-बार ‘‘हंसने का नाम नह रोना ही जाना है’’। होगा सच कारण कु छ, सोच रहा मन ही मन।
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कु छ दन, तुम पर सारे जग पर हसता था म सोचता रहा क सब कु छ ु तथा तु छ है। फर कु छ दन हंसता रहा इस मन के हाल पर बेढ़ेगी चाल पर जो जहां तहां, िलये िलये फरता था मुझको। या क ँ ? क आती नह हंसी कसी बात पर हंसने के मूल म नवीनता, िविच ता जो होती है अंतर को नह गुदगुदाती है। अब तो कह , कोई कु छ दखता नह नया। म ही नवीनता है स य तो पुराना है। म म अस यता म भूला य द मन है तो, लगता ह सुख िमला क तु सब िम या है। चाहो तो एक ण झूठ पर हंसा लो मुझे क तु यह भी अिभनय ही होगा िववश ँ बंध।ु स य म जो िचरता, नवीनता है, िशवता है, 35
उसका आनंद कभी देग, ी कृ णचं । तुमसे कु छ पिहले य द, मने यह धन पाया मन के मीत हो तुम कह िलये भटकूं गा ? रख लेना, तुम ही। दोन फर हंस लेग कह दुखः दै य, ांित ? उस दन के िलये सखा ! िजयो, ऊँ शांितः शांितः शांितः बापू के िच वाले नोट मधुर-मधुर मुसकाकर अंजिल फै ला देते जादू चल जाता था पल भर म। नाना रं ग, प के िस से भर जाती अंजिल मूरत अप रिचत, अनजानी िलिप िस क । दस आ ? पर तु तुम दस पैसे देते थे पेट भर जाता था। तु हारे कर का वह सुख पश है, कह ? राज िभ ।ु तुमने अल य सब सुलभ हम कर दये तुमसे अपल ध ये हमको तु हारे राम।
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रघुपित राघव राजा राम। तुम थे, सब अपने थे। तुम गये क आख फरा ली सबने। लाख के कोष पर सुना, क तुम बैठ गये सोचा क िच ताय अपनी िमट जायगी तम पू रत क म व क ितजो रयां उपर से डबल लाभ यह भी कोई रहना है ? हमसे िमले िबना, कै से रह पाते हो ? हाय ! या क नजर, तु हारी भी फर गई। सवथा सुलभ थे िच सौ सौ म िमलते ह। खादी पहन कर सेठ साहब से िमलता है। चुपके से धीरे से चोरी से ग यॉ टेबल-तल आती ह मुंह से लगाकर थूक नोट िगने जाते ह। फर कु छ फु स-फु स फर दानवकृ त अ हास सुकुमार याय को र द-र द देता है। ऐसे म बापू तुम कै से कल पाते हो ? उनम से एक िच भेज देना हमको भी पूजन कया कर अ य नह कामना. . . । ब दी वीर
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‘‘गु देव रवी नाथ ठाकु र ब दीवीर क छाया है’’ जागा पंजाब देश बांध कर कृ पाण के श गु के अिभम ण से जाग उठे िसख सपूत भूल भिव य, भूत िग र-वन म जन मन म गूंजा ‘‘गु क जय’’ कै सा भय ? स ोि थत जाित ने नवरिव क ओर लखा दृि िन नमेष बांध िलये के श। ‘‘जयगु दा खालसा जय गु दी फतह’’ रणो लास से म अनी चली कह। मोह मु , भय िवभु अंतर अनुरिणत आ। पंच आब गूंज उठा ‘‘गु दी फतह।’’ द ली-पित का िनवास लेता था क ण ास कस भय से ? बार-बार कांप कांप कर आ िनराश कस लयंकर के िवशेष नयन से विह ल-िवष-िवषम आ है िन सृत ? रो गई िनशा िनिवड़ हरम का राग-रं ग कस भय से आ भंग ? बादशाहजादो क कह गई भूख यास ? ‘‘लाल धरा ि ितज लाल, ाची का कु ड लाल त लता द लाल-लाल नाच उठा महाकाल। काजी ने बंदा क गोदी म दया डाल बंदा का पाशब एकमेव मृदल ु बाल। ओर कहा’’ हो न जाय ले छ इसे मार डाल। बनता तू स त है आज य अ त है।’’ ब दा या बैरागी तो भी ममता जागी।
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ू ट पड़ चाहा तब अंतर का वार उर म िछपाया, फर चूम िलया कया यार। दि णकर िशशु के िसर पर रखकर बंदा ने कहा ‘‘पु थ मोह’’ थ यार मृ यु स य दु वनार हे कु मार। कै सा भय ? गु क जय। वामपािण वाम व म जिड़त आ कु मार दि ण कर म क धी ु रका फर खर धार। आ मदान- ज य गव एवं उ लास से नव मुख पर खेल गई अ ण करण एक बार बाल वर िन वकार विनत आ तीन बार। ‘‘अलख पु ख िनरं कार’’ और सभा क चीर महाशू य म िनभय िवलय आ ‘‘गु क जय।’’ स है सभा िवशाल दशक हो गये मौन, मुंदे नैन झुके भाल नाच उठा महाकाल। त शालाका से विधक ने दया मान ब दा के तन को, पर वह तोथा महा ाण आह ! न क ◌ी अिडग रहा अ तु य व तान बंधी रही देह क तु आ मा को िमला ाण। दशक हो गये मौन, नाच उठा महाकाल। पूणा ित िमली और मु ड-माल जटाजाल बोर उठा महाकाल ‘‘जय गु सत ी अकाल’’ अग त 1965 रा धम म कािशत वह देगा संदह े म ाण उलझ कर
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कतना दुख पाता है। समझाता ँ , क तु घूम कर वह वह जाता है। ये अभाव, दा र य दै य दैिहक दुख-सुख सब म ह। जो पाया िगन उ ह अरे । या तु छ और या कम है ? छोटा पा साथ लाया जो कम म भर जाता है। और मांग मत, कह धरे गा थ छलक जाता है। यह भी उसने छीन िलया तो दे-या-मत दे, चुप रह। अ य कौन, या ले सकता है। िजस-ितस से दुख मत कह। अिभनय सब से करा रहा जो साज- वांग सब देगा। सांप नही - भाई है काटा है सांप ने, फर उसे मा करो य क यह पर परा पुरानी है। सांप तो िववेक शू य, ु क ट मा है दंशन का अपना वभाव नह छोड़ेगा। क तु तुम मनु य हो, वह भी भारतीय अपने आदश पर मरा करो, िमटा करो, जो हो प रवार का पृ वीराज ने था गोरी को मा कया। एक नह , बीस बार। भूल थी िशवाजी क मै ी के आिलगंन पाश म बंध,े बंधे अफजल क ु रका से क तु वह मरा नह ऐसा तुम मत करो
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फर उसे मा करो। भाई था यह कभी िह से म रा य दया, कोष दया सेना दी आज वह सांप है बंधु है क सांप है ? लहराता लपक रहा पैर क ओर है फन रखकर पैर पर मादान मांगेगा ? क पुनबार काटेगा ? चाहे, िवष चढ़ जाये कसी ताशकं द के नये िच क सालय म आन-मान बेच लेना सांप नह भाई है। फर उसे मा करो। भाषण जीवन पर भाषण ब त सुने पर मरण पर न बोला कोई। मुकुिलत सुमन को यार िमला कब मरने पर रोया कोई। वह नूरजहां, यह ताजमहल िविध क रचना क ग रमाय दोन का अपना युग बीता दोन ही धरती पर सोई। स दयां बीती इनक मजार पर ित दन मेला भरता है। कब उसक िमटती सी मजार पर फू ल चढ़ाता है कोई। इसक तुरबत पर इ फू ल और शमा सुगंिधत जलती है। पर उस अभािगनी के करीब दो आंसू भी कोई रोया ?
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ित दन कतनी ही नूर, ताज लुट जाती ह, िमट जाती ह फु टपाथ पर ारी साध उठती ह, मत कु चले कोई ? तुम भीतर या हो खोज रहे बैठो म वयं बताता ँ । अनकहे कु छ मचल रहे अिभलाषाय सोई सोई। कु छ मौन, के उ र ह िजनको अब तक न िमली भाषा मीठी कड़वी कु छ याद ह किवताय कसक भरी सोई। बस ये ही स े साथी ह संबल व प किव जीवन के बस इतना ही ले जाने के य इ ह छीनता है कोई ? तीन डाकू 1. ितलक छाप माला मु ा है चादर भी है राम नाम क मेरी दुकार ब त चलती है। पाप मुि क , वग गमन क लाइसस, परिमट देता ँ । लोग मुझे पि डत कहते ह इसीिलये, िछपकर पीता ँ । 2. बंगला, बाग, कार, ब ढ़या कु छ कमी नह थी लड़ते नह चुनाव लड़ाने म वे पटु थे। खादी का प रधान भ टोपी नौका सी
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घर म काम नह था फर भी बड़े त थे नई िनयुि , पदोि त आ द करा देने म िस ह त थे। नेता थे, पर लोग उ ह च मच कहते थे माल उड़ाना, खाना पीना सब िछपकर करते थे। 3. मेरा अपर िम दादा है, वैसे ब त सरल सादा है। खुले आम खाता पीता है। जीवन से लड़कर जीता है। कम ह। ऐसे लोग क जो उससे डरते है। दीन-दुखी उससे डरते है दीन-दुखी उसक तरफ दम भरते ह। िलया एक से दस म बांटा नीित यही उसके जीवन क । बड़ा गरम ह, जरा नरम है बड़ा चु त है, जरा सु त है। बहस अगर करने बैठा तो लगता है, यही दु त है। हम तीन के सन-शील म थी िविभ ता एक घाट पानी पीते थे बस इतनी सी थी अिभ ता। इस कार हम तीन म थी बड़ी िम ता। एक रात जब गांव सो गया आिहसते उसने द तक दी। खुलते ही दरवाजा 43
जैसे िछपना हो भीतर घुस आया। उसने वयं लगाई सांकल बोला ‘‘पंिडत भूख लगी है।’’ है कु छ घर म देखो भाई ज दी करना। उसे देखकर कांप गया म भय से िवकल पर उपाय कु छ अ य नह था। बचे खुच,े कु छ खे फु के चटनी, पानी रखा सामने। लाकर मने जड़ मशीनवत्। इसे बैठकर खांउ। इतना समय नह है पुिड़या एक बना दो या अखबार नह है ? खाते खाते ही भगना है। ‘‘मने मार दया च मच को अब झुठला न सके गा सच को मुझे भले ही होवे फांसी या मेरी मृित म रोवेगी।’’ चला गया वह पुिड़या लेकर। भीतर से रोता ँ जैसे फु लक को िमस सब कु छ देकर बदल गया ँ , सोच रहा ँ सचमुच हम तीन डाकू थे। अिधकार पल भर िखल कर मुरझाना है बस इतना अिधकार हम दो। एक पाव म दरा को कारण ास हमारा, हास हमारा
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छीन रहे हो ओ बेदद ! यह कै सा है यार तु हारा। स तित होकर ज म िलया है या कोई अपराध कया है ? जग म कु छ सुगंध फै ला द बस इतना अिधकार हम दो जीने का अिधकार हम दो। हमसे से कोई गांधी है, कोई नेह है, सुभाष है रानी दुगा, ल मी बाई क हमम सो रही आश है। स दय के इस वग-देश को हाय ! नक य बना रहे हो ? हंसकर जग के आंसू प छे थोड़ा सा आधार हम दो। जीने का आधार हम दो बस इतना अिधकार हम दो। बं दशे घन गरजता रहा, मन तरसता रहा और भाद बरसता रहा राम भर। अ क छ पर के नयन से टपकाक कये मेरा हमदद रोता रहा रात भर। दद ने नयन क रोशनी छीन ली फू ल बनकर नुमाया आ सब सही। कौन था जो संजोता सजाता इ ह फू ल िखल िखल के झरते रहे रात भर। इ क म दद होता है सबको मगर प पर क ट सा कोई जलता नह । हाय ! उठ बेरहम यूं जला मत मुझ,े दीप िसर धुन के रोता रहा रात भर। गाहे तरहाईयां, गाहे परछाईयां
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सांस पहरे पर है, िज दगी जेल है। याद धुनता रहा, गीत बुनता रहा आितशे,गम म भुनता रहा रात भर। अंितम करण आज इन अनुभूितय क बाढ़ सी य आ रही है ? योित क अंितम करण भी हाय रे ! जब जा रही है। उधर तम मआ रहा है-झूलता मेरा भिव यत् या क मेरी ही िनराशा अिखल जग म छा रही है ? योित क अंितम करण जब जा रही है। इधर तन क शि य , होने लगी मशः ितरोिहत ाण िविनयोिजत आ है, िचर महािन मण के िहत। नयन जब मुंदने लगे है, छु ट सब साथी रहे ह सा त-संपादनकरो तुम आ मय सखे ! पुरोिहत ! योित क अंितम करण जब जा रही है। पाप अपनी ही घृणा से, लाज से खुद गल रहा है। ताप िनज उताप के आिध य से ही जल रहा है। गीत म छि दत रहे साध से िनःसीम मचला, मुि तज कर िविवध प म अ प िबखर रहा है। योित क अंितम करण जब जा रही है। अलस यौवन भार कातर, मंदकि पत कं ट कत तन भुजभ रत उर म िछपाकर, मत करो यो म दर चु बन। युग युग क सु वांरी वासना को न छेड़ा। दुःख जजर दय या सहला रहे हो णय के धन ? योित क अंितम करण जब जा रही है। व पर पीिड़त मधुर पश अनुभव कर रहा ँ
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धड़कन के ताल म िनः ास के वर सुन रहा ँ । आज तक तो ओ िनठु र ! ऐसा कभी होता नह था िनिवड़तम उपलि ध है यह या खुदी म खो रहा ँ । योित क अंितम करण जब जा रही है। ाण पर िसहरन, पुलक तन म नया उ माद मन म, एक म ती छा रही है। िचर िपपासाकु ल नयन म छा गया अनव तम, दखता नह अनुमान है यह, मधुर म दर माद छाया जगत के ित कण-िवककण म। य ित क अंितम करण जब जा रही है। बैठ लो कु छ देर, ज म ज म का थका िव ाम कर लूं। ओढ़ ल तम क चद रया यारकर लू,ं यार पा लूं। पुलकिमस तन क िशरा के , गये ह टूट बंधन चरण का दे दो सहारा आज उस पर शीष धर लू।ं योित क अंितम करण भी हाय रे ! जब जा रही है। आज इन अनुभूितय क बाढ़ सी यो आ रही है। थम ल ा जब नयन िमले, मन िमले, मूक थी भाषा जागी युग-युग क सु कु मारी आशा। पल म आलापन सुना, िनवेदन अपना, उर ने उर से कर दया,
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हो यथा सपना। ि य ! या कोई भी इसको समझ न पाया शिश को घूंघट म, िछपना कै से आया। ीड़ा का िचकना हास कमल पर छाया यह थी त वी पर थम अजानी माया। मातृ मृित अिसत पावस क भीगी रात, शरद क िसमटी िसकु ड़ी रै न, ी म क उबल रही यािमनी, एक सी सभी तु हारे िबना, ओ मा ! तुमारे गीत मनोहर, तान मोहक, वर का मृद ु कोमल-तर क पन, िसहर रहे मन- ाण िनिश- दवस हाय ! मरण कर। तरस रहे नयन से मोती ढ़ल पड़ते ह और भूिम पर िगरकर मान खो जाते ह। ये मोती असहाय ढ़ले िगरे िन पाय, दीन से हाय ! कभी था इनका भारी मोल इ ह अंचल से प छ कर म ! तुम कहती थ सुनो राजा बेटा ! अब हाय ! सुनाये कौन ? तु हारे िबना, ओ मां !
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प रचय व. पं. शेषनाथ शमा ‘शील’ िपता - व. कु जिबहारी लाल दुबे माता - व. पावती दुबे ज म - पौष शु ल ादशी संवत् 1968,;14 जनवरी 1914 जांजगीर, छ ीसगढ़ िश ा - वा याय ारा, सं कृ त, बंगला, अं ेजी, उदू, मराठी एवं िह दीसािह य का अ ययन। संगीत व योितष का ान काशन - ‘सुकिव’ कानपुर से कािशत पि का म 1926 म थम किवता कािशत। ‘का कलाधर’ रा धम, अ दूत, संगीत, सुधा, िवशालभारत आ द प पि का म काशन। आकाशवाणी से रायपुर से सारण:कृ ितय - 1/ किवता लता : कािशत 2/ रवी दशन : कािशत 3/ व रता : संगीत वरिलिप 4/ िचि तता : िनबंध वरिलिप 5/ बनमाला : छ ीसगढ़ी रचनाय अ कािशत
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