1 may2014

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‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (1)


नजरुल आस्लाम

मनुष्य से घृणा करके

कौन लोग कु रान, वेद, बाआबल चूम रहे हैं बेतहाशा ककताबें और ग्रन्थ छीन लो जबरन ईनसे मनुष्य को मार कर ग्रन्थ पूज रहा ढोंगगयों का दल सुनो मूखों, मनुष्य ही लाया है ग्रन्थ ग्रन्थ नहीं लाया मनुष्य को |

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (2)


रू-ब-रू

शब्द व्यंजना एक सागहगययक पहल

संकलन

वषष – ०१, ऄंक -०१

संपादन बृजेश नीरज ऄरुन शमाष ‘ऄनन्त’

तकनीकी संपादक कौशल ईप्रेती

यािा – वृत्ांत

लेख

संपकष बृजेश नीरज (09838878270) ऄरुन शमाष 'ऄनन्त'

झरोखा

(09899797447) कौशल ईप्रेती (09873971062)

गवज्ञान – दशषन इमेल contact@shabdvyanjana.com editor@shabdvyanjana.com

‘शब्द व्यंजना’ पगिका में प्रकागशत समस्त

पुस्तक समीक्षा

रचनाएं रचनाकारों की पूवष ऄनुमगत से प्रकागशत की जाती हैं, पगिका में प्रकागशत रचनाओं के गवचार रचनाकारों के स्वयं ऄपने हैं. जरुरी नहीं कक संपादक मंडल आससे सहमत हों.

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (3)


आस ऄंक में जन्म गतगथ पर गवशेष शानी (पेज 6 – 8) सअदत हसन मंटो (पेज 9 – 10)

अलेख

झरोखा

मनोज कु मार श्रीवास्तव (पेज 11 – 15)

दीगक्षत दनकौरी (पेज 39) डॉ ऄगनल गमश्र (पेज 40) ऄगस्तयव ऄंकुर (पेज 40) बृजेश नीरज (पेज 41) कगव-"राज बुन्दॆली" (पेज 41)

रू-ब-रू वीनस के सरी (पेज 16 – 17) कल्पना रमानी (पेज 18 – 19) जगदीश पंकज (पेज 20 – 21) नरे श शांगडल्य (पेज 22 – 23) ऄरुन श्री (पेज 24 – 26) गिलोक ससह ठकु रे ला (पेज 27 – 28)

मनोज शुक्ल ‘मनुज’ (पेज 41) जगदीश पंकज (पेज 42) सुशीला पुरी (पेज 42) प्रदीप कु मार ससह कु शवाहा (पेज 42) ऄरुण कु मार गनगम (पेज 43) ऄरुन शमाष ‘ऄनन्त’ (पेज 44)

संकलन

गवन्दु बाबू (पेज 44)

शेखर जोशी (पेज 29 – 30) नागजम गहकमत (पेज 31 – 32)

गवज्ञान दशषन डॉ. शरकदन्दु मुकजी (पेज 45)

यािा – वृत्ांत बलराम ऄग्रवाल (पेज 33 – 34)

समकालीन कगवता की भूगमका गोपाल नारायण श्रीवास्तव (पेज 46 - 48)

लेख डॉ. ऄगनल गमश्र (ऄध्यायम) (पेज 35 – 36) डॉ. हेमन्त कु मार (अभासी दुगनया और सागहयय

पुस्तक – समीक्षा संध्या ससह (पेज 49 - 50)

(पेज 37 – 38)

राहुल देव - जलेबी – लघुकथा (पेज 38)

श्रद्ांजगल ऄलबेला खिी (पेज 52) संजय गमश्र ‘हबीब’ (पेज 52) ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (4)


कु छ ऄपनी बात ऄगर पूछा जाए कक अज के समय की सबसे बड़ी समस्या क्या है तो एक अम अदमी (हाला​ाँकक, यह शब्द भी ऄब राजनैगतक हो गया है लेककन यहा​ाँ आसका प्रयोग गैर-राजनैगतक सन्दभों में अम जन के गलए ही ककया जा रहा है) क्या जवाब देगा? शायद, एक अम अदमी के गलए अज भी सबसे बड़ी समस्या रोटी, कपड़ा, मकान ही है! एक लोकतागन्िक व्यवस्था के गलए यह िासदी और ऄसफलता का ही गवषय है कक अज़ादी के लगभग ६७ वषष गुजर जाने के बाद भी आस देश का अम नागररक मूलभूत सुगवधाओं के गलए संघषषरत है. यूाँ तो ककसी भी देश काल में अम अदमी के गलए जी लेने का संघषष सरल तो नहीं रहा होगा लेककन वतषमान दौर एक मायने में ऄगधक दुष्कर है कक अज संघषष संवेदना के स्तर तक पहुाँच गया है. बाज़ार जगनत संवेदन शून्यता ने जीवन को करठन बनाया है, गबकाउ बनाया है. भूमंडलीकरण के नवईदारवादी मुखौटे ने जहा​ाँ एक ओर प्रकृ गत और जीवन के दोहन की प्रवृगत्यों को मजबूत ककया है वही ाँ संस्कृ गतयों को नष्ट कर ऄपसंस्कृ गत के गलए स्पेस किएट ककया है. सामूगहकता नष्ट हो रही है. टु कड़ों में बंटा व्यगि बीच बाज़ार में खाली हाथ ठगा सा खड़ा है और बाज़ार ईसके आस खालीपन को भी ग्लैमराआज कर ईसकी कीमत लगाने को तैयार है. आस पूंजीवादी व्यवहार ने ऄपना गठजोड़ कदशाहीन और वैचाररक कदवागलएपन की राजनीगत से कर रखा है गजसकी वजह से देश के लोकतंि में से लोक और तंि दोनों गायब हो गए हैं. आस माहौल से पैदा हुइ कडु वाहट और खीझ का ऄसर समकालीन सृजन पर असानी से देखा जा सकता है. सागहयय में आस जकड़न से गनजात पाने की छटपटाहट स्पष्ट महसूस की जा सकती है. शब्द व्यंजना के आस प्रथम ऄंक में आस छटपटाहट के कु छ रूपों को स्थान देने का प्रयास ककया गया है. आस पगिका के माध्यम से हम समकालीन सागहगययक पररदृश्य को जानने-समझने का प्रयास करें गे. ऄपने आस प्रथम प्रयास को हमने बेहतर बनाने की भरपूर कोगशश की है. कु छ कगमया​ाँ हो सकती हैं, गजन्हें अपके मागषदशषन में हम अगे सुधारने का प्रयास करें गे. अपकी प्रगतकिया की प्रतीक्षा रहेगी.

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (5)


जन्म गतगथ पर गवशेष शानी १ ६ मई १ ९३३ को जगदऱपरु , मध्य प्रदे श में जन्मे शानी का बचपन बेहद अभावों में बीता, शायद इसीलऱए उनकी ऱेखनी में वह तीखापन मौजद ू था जजसने उनके लऱखे को सदा के लऱए अमर कर ददया.

जली हुइ रस्सी ऄपने बफष जैसे हाथों से वागहद ने गदषन से ईलझा हुअ मफलर गनकाला और साकफया की ओर फें क कदया। पलक-भर वागहद की ओर देखकर

और गल्ले का व्यापार शुरू कर कदया। ककस्मत ऄच्छी थी, ऄतः दो साल के

साकफया ने मफलर ईठाया और ईसे तह करती हुइ धीमे स्वर में बोली,

ऄंदर ही ईन्होंने हजारों रुपए कमाए और ऄपना पुराना माटी का कच्चा मकान तुड़वाकर पक्का और बड़ा मकान बनवाया। ईस दावत की चचाष वागहद गपछले कइ कदनों से सकफया से सुन रहा था। मुनीर साहब की पत्नी

'क्या मीलाद में गए थे?'

ने जो, ऄक्सर वागहद के यहा​ाँ दोपहर में अ जाया करती थी, दो हफ्ते पहले

वागहद ने बड़े ठं डे ढंग से स्वीकृ गतसूचक गसर गहलाया और पास की खूाँटी में कोट टा​ाँग गखड़की के पास अया। गखड़की के बाहर ऄाँधेरा था, के वल सन्नाटे की ठं डी सा​ाँय-सा​ाँय थी, गजसे लपेटे बफीली हवा बह रही थी। ककगचत गसहरकर वागहद ने गखड़की पर पल्ले लगा कदए और ऄपने बज ईठते दा​ाँतों को एक-दूसरे पर जमाते हुए बोला 'ककतनी सदी है! गजस्म बफष हुअ जा रहा है, चूल्हे में अग है क्या?' प्रश्न पर साकफया ने अश्चयष से वागहद की ओर देखा। बोली नहीं। चुपचाप खाट पर लेटे वागहद के पास अइ, बैठी और ईसके कं धे पर हाथ रखकर स्नेह-गसि स्वर में बोली, 'मेरा गबस्तर गमष है, वहा​ाँ सो जाओ।' वागहद ऄपनी जगह लेटा रहा, कु छ बोला नहीं। थोड़ी देर के बाद ईठकर पास ही पड़ी पोटली खींची, ईसकी गा​ाँठें खोली और कागज की पुगड़या रूमाल से ऄलग कर बोला, 'शीरनी है, लो खाओ।'

ही ऄपने यहा​ाँ होने वाली दावत की घोषणा कर दी थी। जब कभी सकफया से भेंट हुइ, थोड़ी आधर-ईधर की चचाष के पश्चात बात ग्यारहवीं शरीफ के महीने, मीलादों और दावतों पर पलट अइ और ईसने बातों ही बातों में कइ बार सुनाया कक ईनके यहा​ाँ की दावत में ककतने मन का पुलाव, ककतना जदाष और ककतने मन के बकरे कटने को हैं और आतने कदन पहले ही ईनके ररश्तेदार चावल-दाल चुनने-बीनने और दूसरे कामों के गलए अ गए हैं। आस जरूरत से ज्यादा आं तजाम करने के गलए ईन्होंने सफाइ दी कक मीलाद, तीजा और ककसी धार्ममक काम में चाहे लोग न अएाँ, पर खाने की दावत हो, तो एक बुलाओ, चार अएाँगे। जब मामूली दावतों का यह हाल होता है तो यह तो अम दावत है। सकफया को बुरा लगा हो, ऐसी बात नहीं, पर ईसने कभी कु छ नहीं कहा। वही दावत कल होने जा रही थी। बड़ी देर से छा गइ चुप्पी को सहसा तोड़कर बड़े गनराश स्वर में सकफया

'रहने दो,' साकफया बोली 'सुबह खा लूाँगी। क्या मीलाद में बहुत लोग थे?

बोली 'मुनीर साहब की बीवी के पा​ाँव तो जमीन पर ही नहीं पड़ते । आतनी

ककसके यहा​ाँ थी?'

ईम्र हो गइ कफर भी जेवरों से लदी पीली-ईजली दुल्हन बनी कफरती हैं।

'वकील साहब के यहा​ाँ। एक तो ग्यारहवें शरीफ की मीलादें और दूसरे आतनी सदी।' वागहद ने रजाइ गदषन तक खींच ली। ऄनायास भर ईठने वाली झुरझुरी से एक बार गसहर कर ऄपना गजस्म समेटा और एक कोने में हो रहा। बंद ककवाड़ों को धक्का मारकर ऄाँधेरे और शीत में रठठु रती हवा लौट गइ और ककवाड़ों की दराज में गसमटकर हवा दोशीजा की नटखट छु ऄन की तरह गमष रजाइ में भी वागहद को छू कर काँ पा गइ। पास वाले मकान से एक शोर ईठ रहा था, एक बड़ी मीठी चहल-पहल, गजसमें पुरुष-गियों के स्वर और हाँसी-मजाक के फव्वारे , देगों की ईठा-

भला बहू-बेरटयों के सामने बुकढ़यों का ससगार क्या ऄच्छा लगता है।' वागहद ने करवट बदली और एक लंबी सा​ाँस ले कर कहा 'गजसे खुदा ने आतना कदया है, वह क्यों न पहने? ऄपने-ऄपने नसीब हैं सकफया।' सकफया को संतोष नहीं हुअ। थोड़ी देर चुप रहकर बड़े भरे हुए स्वर में बोली 'एक ऄपने नसीब हैं, खुदा जाने तुम्हारे मुकदमे का फै सला माटी गमला कब होगा!' और सकफया के भीतर से बड़ी लंबी और गहरी सा​ाँस गनकली जो सीधे वागहद के कलेजे में ईतर गइ। वागहद एक ढीला-ढाला, माँझोले कद का अदमी था। गरीबी और ऄभाव से

ईसका पररचय बचपन से ही था। बड़ी अर्मथक करठनाआयों के बीच अठवीं की गशक्षा प्राप्त कर सका था। अठवीं के बाद ककसी तरह कोगशश कर-कराके ईसे फारे स्ट गडपाटषमेंट में फारे स्ट गाडष की नौकरी गमल गइ और अठ साल सकफया ने कहा 'मुनीर साहब के यहा​ाँ कल सुबह दावत है।' वागहद ने के भीतर ही वह गडप्टी रें जर तक पहुाँच गया। जंगल महकमे वालों को भला ककस चीज की कमी। चार साल के ऄंदर ही वागहद के नाम पोस्ट ऑकफस में सुन-भर गलया और अाँखें बंद कर लीं। डेढ़ हजार की रकम जमा हो गइ गजसमें से सात सौ ईसके ब्याह में खचष मुनीर साहब वागहद के घर के पास ही रहते थे। अज से कोइ छह साल हुए। पर सकफया का भाग्य शायद ऄच्छा नहीं था। पूरे दो साल भी सुख से पहले मुनीर साहब यहा​ाँ मुनीम थे, पर बाद में ईन्होंने नौकरी छोड़ दी नहीं रह पाइ थी कक वागहद को ररश्वत के अरोप में मुऄत्ल कर कदया गया।

पटक बगल्लयों और कफगीरों के टकराने और झनझनाने की अवाजों के साथ घुल-े गमले थे।

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (6)


वागहद ने बहुत हाथ-पा​ाँव मारे । पोस्ट ऑकफस से तीन सौ और गनकल गए। हेड क्लकष की कइ दावतें हुईं। रें ज अकफसर साहब (गजनके सर्ककल में वागहद अता था और गजन्होंने ररपोटष अगे बढ़ाइ थी) के यहा​ाँ ईसने कइ

जान का क्या होगा, जो वागहद के दुर्कदन में ही सकफया के भाग्य में अने को थी? प्राआवेट फं ड की जो भी थोड़ी बहुत रकम जमा थी और वापस गमलने

बार, गमठाइ, फलों की टोकररया​ाँ और शहर के भारी-भरकम अदगमयों से

को थी, ईसके जाने के बहुत पहले से रास्ते तैयार थे, ऄतः ईसका क्या

ढेर सारी गसफाररशें गभजवाईं और डी.एफ.ओ. साहब की बीवी के पास (हाला​ाँकक ईसके पहले एक बार भी वहा​ाँ जाने का ऄवसर नहीं अया था)

भरोसा? एक कदन गझझकती हुइ सकफया बोली 'एक बात कहूाँ?' पल भर के

सकफया को दो-तीन बार भेजा, पर कु छ नहीं हुअ। के स पुगलस को दे कदया गया और वागहद पर मुकदमा चलने लगा। पहले कु छ महीने तो वागहद को काफी सांयवनाएाँ गमलीं कक के स में कोइ दम नहीं, खाररज हो जाएगा। यहा​ाँ वाले ज्यादती और ऄन्याय करें पर उपर तो सबकी सचता रखने वाला है और वागहद के के स के साथ ऄके ले वागहद का नहीं दो और जनों का भाग्य जुड़ा है। ऄगर वागहद दोषी भी है, तो वे लोग तो गनदोष हैं आययाकद।

गलए वागहद डर सा गया, पता नहीं सकफया कौन-सी बात कहेगी? तुरंत जवाब देते नहीं बना। क्षण भर ईसकी तरफ देखता रहा कफर पास जाकर ऄपनी हथेगलयों में ईसका चेहरा ले बड़ी ईदास अाँखों से देखने लगा 'क्या कहती हो?' सकफया बोली 'प्राआवेट फं ड के पैसे गमलेंग,े तो घी ला दोगे? बहुत कदनों से ऄपने यहा​ाँ पुलाव नहीं बना।' वागहद के भीतर जैसे ककसी ने हाथ डालकर खाँगाल कदया हो। ऄपने को

जब एक साल का ऄसाष बीत जाने पर मुकदमा तय नहीं हुअ, पोस्ट

ककसी तरह पहले वह संयत कर धीरे से मुस्कराया, कफर जरा जोर से

अकफस से पूरे पैसे गनकल गए और सकफया के गजस्म पर एक भी जेवर न रहा तो वागहद की गहम्मत टू ट गइ और पहले जुम्मे के ऄलावा कभी भी मगस्जद की ओर रुख न करने वाला वागहद ऄब पा​ाँचों वि नवाज पढ़ने लगा।

बनाइ हुइ हाँसी हाँसता हुअ बोला 'बस?' सकफया संकोच से लाल होकर मुस्कराती हुइ वागहद के सीने में गछप गइ। वहा​ाँ से हटकर जब वागहद दूसरे कमरे में अ गया तो गनढाल सा खाट में पड़ गया। भीतर से ईफनती रुलाइ का अवेग पलकों पर, ओठों पर गबछल रहा था। मुाँह पोंछने के बहाने रुमाल से ईसने अाँखें पोंछीं और ऄपने लरज रहे ओंठ बा​ाँहों में भींच गलए। ईस बात को भी तीन माह हो गए थे। सकफया ने एक-दो बार ऄप्रययक्ष रूप से पूछने की कोगशश की और चुप रह गइ। ईस रकम की वागहद को अज भी प्रतीक्षा है। वागहद ने करवट बदली। मुनीर साहब के यहा​ाँ का शोर थम गया था और आक्की-दुक्की अवाजें अ रही थीं। सकफया थककर सो गइ थी।

लगभग दो साल के बाद फै सला हुअ और अशा के गवपरीत, ऄच्छे से ऄच्छा वकील लगाने के बावजूद, वागहद को साल भर की सजा हो गइ। वैसे तो ऄकस्मात टू ट पड़ने वाली मुसीबत पहाड़ से कम न थी पर ररश्तेदारों और दोस्तों ने हाइकोटष में ऄपील करने का ककसी-न-ककसी तरह प्रबंध कर कदया और पूरे डेढ़ बरस से वागहद हाइकोटष के फै सले का आं तजार कर रहा है, भले ईस प्रतीक्षा में एक जून के खाने के बाद दूसरे जून की सचता की हड़बड़ाहट, सकफया की गशकायतें, कदन-प्रगतकदन टू टता ईसका स्वास्​्य और ईस दुर्कदन में मा​ाँ बनने की एहगतयात, अवश्यक दवाइ व देखभाल की सारी समस्याएाँ शागमल थीं। मुनीर साहब के यहा​ाँ से देगों में भारी कफगीरों के फे रने-टकारने का स्वर गूाँजा, बड़े जोर से छनन-छन्न की अवाज हुइ और कफर घी में पड़े ढेर सारे मसालों की मीठी-सोंधी खुशबू फै ल गइ। घी ऄब वागहद के गलए ख्वाब है। जब तक लोऄर कोटष से फै सला नहीं हुअ था, ऑकफस से मुऄत्ली का एलाईं स गमल जाया करता था, ईसका ही सहारा कम न था। पर ऄब कहीं का कोइ असरा नहीं। ईन कड़वे कदनों को वागहद और सकफया गमलकर झेल भी लें, लेककन ईस मासूम

सदी की सुबह वागहद के गलए अठ से पहले नहीं होती। पर ईस कदन देर से सोने पर भी अाँख सुबह जल्दी खुल गइ। वैसे काम होने या न होने पर भी वह चाय अकद से गनपटकर नौ से पहले ही बाहर गनकल जाता है लेककन ईस कदन ईसकी चाय दस बजे हुइ। बाहर मुनीर साहब के यहा​ाँ भीड़ आकट्ठी हो रही थी साआककल और पा​ाँवों की रौंद से ईभड़-ईभड़कर धूल का बादल फै ल-गबखर रहा था और कदनों की तरह चाय देते हुए अज सकफया ने न तो राशन के समाप्त होने की बात कही और न पूछा कक अज वागहद कहा​ाँ से क्या प्रबंध करे गा। गपछली रात भी कु छ नही था। सुबह का बच रहा थोड़ा खाना वागहद और सकफया ने गमलकर खा गलया था। रात की मीलाद की शीरनी नाश्ते का काम दे गइ थी। वागहद ने पूछा 'क्यों, क्या मुनीर साहब के यहा​ाँ से कोइ अया था?' सकफया ने थोड़ा गझझकते हुए जवाब कदया 'नहीं, हज्जाम अया था, अम दावत की खबर दे गया है।' वागहद ने और कु छ नहीं पूछा और बाहर गनकल अया। मुनीर साहब के घर के सामने से लेकर दूसरे मोड़ तक लोगों का अना-जाना लगा था। रं गीन धारीदार तहमत लपेट,े सफे द और काली टोगपया​ाँ लगाए, गसर में रूमाल बा​ाँधे लोग, मुनीर साहब के घर की ओर बढ़ रहे थे। एकाएक सामने से ररजवी साहब कदखाइ कदए। वागहद ईनसे कतराना चाहता था पर जब सामने पड़ ही गए, तो बरबस मुस्कराकर अदाब करना ही पड़ा। ररजवी साहब के साथ नौ से लेकर तीन साल तक के चार बच्चे चल रहे थे, गजनके गसर पर अढ़ी-टेढ़ी, गंदी और तेल में चीकट मुड़ी-मुड़ाइ टोगपया​ाँ थी। ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (7)


ररजवी साहब ने मुस्कराकर पूछा 'क्यों भाइ, मुनीर साहब के यहा​ाँ से अए हो क्या?' वागहद ने गझझककर कहा 'जी नहीं।'

भीतर के कमरे से जहा​ाँ खाना चल रहा था, बतषनों की टकराहट के साथ पुलाव की महक सा​ाँसों के साथ वागहद के फें फड़ों में भर गइ। मुाँह भर अया,

घूाँट हलक के नीचे ईतारकर वागहद एक ओर खड़े दा​ाँत खोदते औक थूकते दो-तीन दाढ़ी वाले बुजुगों के पास जा खड़ा हुअ। दा​ाँत के ऄाँतरों में फाँ स गए वागहद से ररजवी साहब बोले 'तो कफर चलो न?' वागहद क्षण भर चुप रहा। कफर साँभलकर बोला 'अप चगलए, मैं ऄभी गोश्त के टु कड़ों को तीली से गनकाल फें कने की जी-तोड़ कोगशश करते हुए ईन लोगों ने के वल वही सवाल ककया, गजसका जवाब वागहद गपछले डेढ़ अया।' बरस से प्रायः हर गमलने वाले को कदया करता था कक ईसके के स का क्या ररजवी साहब अगे बढ़ गए। हुअ, ककस वकील को लगाया है, ककतनी परे शागनया​ाँ हो गइ और ऄपील के कोइ दो घंटों के बाद जब वागहद लौटा, तो मुनीद साहब के घर के सामने फै सले को ककतनी देर है? अकद। से भीड़ छाँ ट गइ थी, पर महकफल ऄभी भी चल रही थी। कोइ पूछे या न पूछे, स्वागत करे या न करे , लोग अते, सामने के नल पर हाथ धोते और बैठ जाते थे। एक ओर से कं धे पर कपड़े से ढका तश्त गलए, सचचोड़ी गइ हगियों के गगदष फै ले ढेर सारे कु त्ों को हाँकालती हमीदा की मा​ाँ गनकली। हमीदा की मा​ाँ गपछले पा​ाँच वषों से मुनीर साहब के यहा​ाँ नौकर थी। ऄक्सर तीज-ययौहारों के ऄवसर पर मुनीर साहब के यहा​ाँ से शीरनी लेकर हमीदा की मा​ाँ वागहद के यहा​ाँ अया करती थी। ईससे बात करने की न तो वागहद को ही कभी अवश्यकता पड़ी और न ऄवसर ही अया। कफर भी वागहद ने अज रोककर पूछा 'हमीदा की मा​ाँ, क्या गलए जा रही

वागहद ने सैकड़ों बार कही बात एक बार कफर ऄपने ऄनमने ढंग से दोहरा दी। तबी दरवाजे के पास मुनीर साहब कदखाइ कदए। आधर से ध्यान हटाकर वागहद ने मुनीर साहब के चेहरे की तरफ ऄपनी अाँखें जमा दी। पर लगातार कइ गमनटों तक मुनीर साहब के चेहरे की तरफ देखते रहने पर भी ईनका ध्यान वागहद की तरफ नहीं लौटा और वह ऄपने ककसी नौकर को गहदायतें देकर लौटने लगे, तो ऄपनी जगह से एकदम अगे अ, पुकारकर वागहद ने कहा, 'मुनीर साहब, अदाब ऄजष है।' मुनीर साहब जाते-जाते पल भर को रुके , अदाब गलया, वागहद की ओर देखकर मुस्कराए और तेजी से भीतर चले गए।

हो?' हमीदा की मा​ाँ ने पल्लू साँभालकर कहा 'खाना है भैया, गसटी साहब के यहा​ाँ पहुाँचाने जा रही हूाँ।' 'भला वह क्यों?' 'ऄब पता नहीं, गसटी साहब अम दावत में अना पसंद करें, न करें , सो बेगम साहबा गभजवा रही हैं।' और हमीदा की मा​ाँ अगे बढ़ने लगी, तभी एकाएक चौंककर, (जैसे कोइ

एक दम पीछे ऄपनी जगह से लौटने से पूवष वागहद ने सुना, पास के दाढ़ी

महयवपूणष और गवशेष बात छू टी जा रही हो) जरा अवाज उाँची करके ,

वाले सज्जन ईसका नाम लेकर पुकार रहे थे। लौटकर देखा तो ईन्होंने कहा

रोकने के ऄंदाज में वागहद ने पूछा, 'और कहा​ाँ-कहा​ाँ ले जाना है हागमद

'वागहद गमया​ाँ, पान लीगजए।'

की मा​ाँ?'

एक कम ईम्र का लड़का वागहद के अगे पान की तश्तरी बढ़ाए खड़ा था।

हागमद की मा​ाँ ने थोड़ा रुककर कहा 'पता नहीं भैया! कफर भी आतना जानती हूाँ, ऄभी मेरी जान को छु टकारा नहीं।' वागहद ओठों में ही मुस्कराया और मुनीर साहब के घर की ओर बढ़ा। सामने अाँगन में दो-तीन बड़ी-बड़ी दररया​ाँ ( जो संभवतः हर दावत में

क्षण भर रुककर वागहद ने ऄपने आदष-गगदष देखा, सामने खड़े लड़के पर एक गनगाह डाली, तश्तरी से एक पान ईठाकर मुाँह में रखा और लौट रहे लोगों के पीछे हो गलया। घर पहुाँचकर देखा, सकफया तककए में मुाँह डाले चुपचाप पड़ी थी।

पहुाँच-पहुाँच कर गंदी हो चली थीं) गबछी हुइ थीं, गजन पर साफ, नए

बावचीखाने की ओर गनगाह गइ, चूल्हा गलपा-पुता साफ था और धुल-े माँजे

कपड़े पहने कु छ बच्चे खेल रहे थे। पास के नल से क्षण-प्रगतक्षण बह रहे पानी से अाँगन के अधे गहस्से में कीचड़ फै ल चुका था। पास ही दो-तीन चारपाआया​ाँ डाल दी गइ थीं। चारपाआया​ाँ शायद ईन ईम्मीदवारों के बैठने के गलए जो देर से अने के कारण चल रही पा​ाँत समाप्त होने और दूसरी पा​ाँत के प्रारं भ होने की प्रतीक्षा करते हैं। ईन्ही लोगों में से क्या वागहद

बतषन चमक रहे थे। वागहद को देखकर सकफया ईठ बैठी और ऄपनी ओर घूरकर देख रहे वागहद की अाँखों में के वल गनगमष-भरे के गलए देखकर ठं डे स्वर में पूछा 'ककतने लोग थे दावत में?

भी है? वह बड़े फीके ढंग से मन-ही-मन हाँसा। रस्सी भले ही जल गइ हो,

वागहद के जले पर जैसे ककसी ने नमक गछड़क कदया हो। गतलगमलाकर तीखे

पर क्या ईसका बल आतनी जल्दी गनकल जाएगा।

स्वर में ईसने कहा, 'हमीदा की मा​ाँ की ऐसी की तैसी! मैं ऐसी दावतों में

थोड़ी देर वागहद वहीं खड़ा रहा। वहा​ाँ बैठने-गबठाने ऄथवा पूछने के गलए

नहीं जाता, यह जानकर भी तुम ऐसे सवाल करती हो? हमने क्या पुलाव

ककसी की अवश्यकता नहीं थी। लोग अते थे, जाते थे।

नहीं खाया? गजसने न देखा हो वह सालों के यहा​ाँ जाए!'

हागमद की मा​ाँ तो अइ नहीं?'

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (8)


सअदत हसन मंटो दुगनया के सवषश्रेष्ठ कहानीकारों में से एक थे ऄपनी . कहागनयों के दम पर ईन्होंने सागहयय में ऄपनी ऄनूठी जगह बना ली जहा​ाँ . एक और ईनकी कहागनयों में गवभाजन, दंगों और सांप्रदागयकता पर तीखे कटाक्ष देखने को गमलते हैं वही ाँ दूसरी ओर मानवीय संवेदना के सूि भी कथानक में गबखरे होते हैं.

प्रस्तुत है ईनकी पा​ाँच लघु कहागनया​ाँ घाटे का सौदा

बाँटवारा दो दोस्तों ने गमलकर दस-बीस लड़ककयों में से एक लड़की चुनी और बयालीस रुपए देकर ईसे खरीद गलया। रात गुजारकर एक दोस्त ने ईस लड़की से

पूछा-“तुम्हारा

नाम क्या है?” लड़की ने ऄपना नाम बताया तो वह गभन्ना गया-"हमसे तो कहा गया था कक तुम दूसरे मजहब की हो…" लड़की ने जवाब कदया- "ईसने झूठ बोला था।" यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा ऄपने दोस्त के पास गया और कहने लगा"ईस हरामजादे ने हमारे साथ धोखा ककया है…हमारे ही मजहब की लड़की थमा दी…चलो, वापस कर अएाँ…।"

करामात

एक अदमी ने ऄपने गलए लकड़ी का एक बड़ा संदक ू चुना। जब ईसे ईठाने लगा तो संदक ू ऄपनी जगह से एक आं च न गहला। एक शख्स ने, गजसे ऄपने मतलब की शायद कोइ चीज गमल ही नहीं रही थी, संदक ू ईठाने की कोगशश करनेवाले से कहा- "मैं तुम्हारी मदद करूाँ?" संदक ू ईठाने की कोगशश करनेवाला मदद लेने पर राजी हो गया। ईस शख्स ने गजसे ऄपने मतलब की कोइ चीज नहीं गमल

रही

थी,

ऄपने मजबूत हाथों से संदक ू को जुंगबश दी और संदक ू ईठाकर ऄपनी पीठ पर धर गलया। दूसरे ने सहारा कदया और दोनों बाहर गनकले। संदक ू बहुत बोगझल था। ईसके वजन के नीचे ईठानेवाले की पीठ चटख रही थी और टा​ाँगें दोहरी होती जा रही थीं; मगर आनाम की ईम्मीद ने ईस शारीररक

लूटा हुअ माल बरामद करने के गलए पुगलस ने छापे मारने शुरू ककए। लोग डर के मारे लूटा हुअ माल रात के ऄाँधेरे में बाहर फें कने लगे; कु छ ऐसे भी थे गजन्होंने

कष्ट के एहसास को अधा कर कदया था। संदक ू ईठानेवाले के मुकाबले में संदक ू को चुननेवाला बहुत कमजोर था। सारे रास्ते एक हाथ से संदक ू को गसफष सहारा देकर वह ईस पर ऄपना हक बनाए रखता रहा। जब दोनों सुरगक्षत जगह पर पहुाँच गए तो संदक ू को एक तरफ रखकर

ऄपना माल भी मौका पाकर ऄपने से ऄलहदा

सारी मेहनत करनेवाले ने कहा-"बोलो, आस संदक ू के माल में से मुझे

कर कदया, ताकक कानूनी गगरफ्त से बचे रहें।

ककतना गमलेगा?"

एक अदमी को बहुत कदक्कत पेश अइ। ईसके पास शक्कर की दो बोररया​ाँ थीं जो ईसने पंसारी की दुकान से लूटी थीं। एक तो वह जू-ाँ तूाँ रात के

संदक ू पर पहली नजर डालनेवाले ने जवाब कदया-"एक चौथाइ।"

ऄाँधेरे में पास वाले कु एाँ में फें क अया, लेककन

"यह तो बहुत कम है।" जब

दूसरी ईसमें डालने लगा तो खुद भी साथ चला गया। शोर सुनकर लोग आकट्ठे हो गए। कु एाँ में रगस्सया​ाँ डाली गईं। जवान नीचे ईतरे और ईस अदमी को बाहर गनकाल गलया गया; लेककन वह चंद घंटों के बाद मर गया। दूसरे कदन जब लोगों ने आस्तेमाल के गलए कु एाँ में से पानी गनकाला तो वह मीठा था। ईसी रात ईस अदमी की कब्र पर दीए जल रहे थे।

"कम गबल्कु ल नहीं, ज्यादा है…आसगलए कक सबसे पहले मैंने ही आस माल पर हाथ डाला था।" "ठीक है, लेककन यहा​ाँ तक आस कमरतोड़ बोझ को ईठाके लाया कौन है?" "ऄच्छा, अधे-अधे पर राजी होते हो?" "ठीक है…खोलो संदक ू ।" संदक ू खोला गया तो ईसमें से एक अदमी बाहर गनकला। ईसके हाथ में तलवार थी। ईसने दोनों गहस्सेदारों को चार गहस्सों में बा​ाँट कदया। ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (9)


हैवागनयत गमया​ाँ-बीवी बड़ी मुगश्कल से घर का थोड़ा-सा सामान बचाने में कामयाब हो गए।

साम्यवाद वह ऄपने घर का तमाम जरूरी सामान एक ट्रक में लादकर दूसरे शहर जा रहा था कक रास्ते में लोगों ने ईसे रोक गलया।

एक जवान लड़की थी, ईसका पता न चला। एक छोटी-सी बच्ची थी, ईसको मा​ाँ ने ऄपने सीने के साथ गचमटाए रखा। एक भूरी भैंस थी, ईसको बलवाइ हा​ाँककर ले गए। एक गाय थी, वह बच गइ; मगर ईसका बछड़ा न गमला।

एक ने ट्रक के माल-ऄसबाब पर लालच भरी नजर डालते हुए कहा"देखो यार, ककस मजे से आतना माल ऄके ला ईड़ाए चला जा रहा है!" गमया​ाँ-बीवी, ईनकी छोटी लड़की और गाय एक जगह छु पे हुए थे।

ऄसबाब के मागलक ने मुस्कराकर कहा- " जनाब, यह माल मेरा ऄपना

सख्त ऄाँधेरी रात थी। बच्ची ने डरकर रोना शुरू ककया तो खामोश माहौल में जैसे कोइ ढोल पीटने लगा।

है।" दो-तीन अदमी हाँस-े "हम सब जानते हैं।"

मा​ाँ ने डरकर बच्ची के मुाँह पर हाथ रख कदया कक दुश्मन सुन न ले। अवाज दब गइ। सावधानी के तौर पर बाप ने बच्ची के उपर गाढ़े की मोटी चादर डाल दी। थोड़ी दूर जाने के बाद दूर से ककसी बछड़े की अवाज अइ। गाय के कान खड़े हो गए। वह ईठी और पागलों की तरह दौड़ती हुइ

एक अदमी गचल्लाया- " लूट लो…यह ऄमीर अदमी है…ट्रक लेकर चोररया​ाँ करता है…!"

डकराने लगी। ईसको चुप कराने की बहुत कोगशश की गइ, मगर बेकार… शोर सुनकर दुश्मन करीब अने लगा। मशालों की रोशनी कदखाइ देने लगी। बीवी ने ऄपने गमया​ाँ से बड़े गुस्से के साथ कहा- "तुम क्यों आस हैवान को ऄपने साथ ले अए थे?" ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (10)


अलेख

मनोज कुमार श्रीवास्तव गवचारशील लेखक के तौर पर ख्यागत, गद्य एवं पद्य पर समान ऄगधकार, कगवता के संसार से ऄलग, ईनका गद्य गवचार जगत की गहराइयों में जाता है, ऄपनी परं परा से गनरं तर संवाद करता आनका लेखन अधुगनकता के प्रचगलत मुहावरों से भी जाता है.

प्रकागशत कृ गतया​ाँ : कगवता संग्रह – मेरी डायरी से, यादों के सन्दभष, पशुपगत, स्वरांककत और कु रान कगवतायेाँ, गशक्षा के सन्दभष और मूल्य, पंचशील वंदेमातरम्, यथाकाल और पहाड़ी कोरबा पर पुस्तकें प्रकागशत, सुन्दरकाण्ड के पुनपाषठ पर छह खण्ड प्रकागशत, दुगाष सप्तशती पर शगि प्रसंग पुस्तक प्रकागशत. सम्प्रगत : १९८७ संवगष से भारतीय प्रशासगनक सेवा ऄगधकारी संपकष : shrivastava_manoj@hotmail.com

प्रवासी गहन्दी सागहयय में जड़ें, परं परा एवं देशभगि क्या प्रवासी गहन्दी सागहयय पछतावे का सागहयय होकर ही जड़ों का या

प्रवासी सहदी लेखक एक तरह की दोहरी गजम्मेदारी ( dual

देशप्रेम का सागहयय हो सकता है? कक गजसके चररि पीछे मुड़कर देखने

accountability) में रहता है। वह कहीं भी यािी नहीं है। यािा ईसमें

की प्रकिया में ही मुगब्तला हैं? कक ईस सागहयय में बार-बार ऐसे चररि

कदखेगी भी तो वैसे, जैसे ईषाराजे सक्सेना के कथासंग्रह ‘प्रवास में’ की

अते हैं जो ऄलग ऄलग पररगस्थगतयों से पहुाँचते एक ही जगह हैं जहा​ाँ वे ऄपने ऄभी तक गजए हुए की ररव्यू कर रहे होते हैं? ऄपने जीवन के ऄभी तक चले अए संस्करण की ककसी न ककसी बहाने से समीक्षा। आस समीक्षा में कहीं साहस होता है तो कहीं संकोच। लेककन ऄगधकतर यह बहुत घटना-बहुल सागहयय नहीं है, यह मनोवैज्ञागनक प्रगतकियाओं का सागहयय है। कहीं पाले हुए भरम टू टते हैं तो कहीं कु छ नए भरम बनते हैं। कहीं गनराशा है तो कहीं गघन। भीतर ही भीतर आन कहागनयों और कगवताओं में एक प्रगतरोध सा पकता रहता है। प्रवासी होना एक लगातार

तरह-या आसी संग्रह की कहानी ‘यािा में’ की तरह। यािी होना तो दागययव-मुगि है। प्रवासी होना दागययव का दुगुना होना है। यािी को सुगवधा है कक वह ‘ऄज्ञात भूगम’ (terra incognita) के बारे में गलख सकता है। प्रवासी की मुगश्कल है कक वह यािी नहीं है, वासी है, हालांकक एक खास तरीके का वासी है गजसके चलते ‘प्र’ ईपसगष ऄपने तरह से साथषक होता है आसगलए प्रवासी लेखक की दृगष्ट पयषटक-गनगाह नहीं है। यािी की तरह प्रवासी भी सरहदें पार करता है, लेककन ईसके साथ-साथ वह ऄपने एन्क्लोजर भी तैयार करता चलता है। मैंने यािी-सागहयय भी पढ़ा है और प्रवासी-सागहयय भी। लेककन कम से कम गहन्दी की आन दोनों धाराओं को देखूाँ तो मुझे लगता है कक प्रवासी-सागहयय में कहीं भी ईतना अयम-अश्वगस्त (Self-assurance) का भाव नहीं है जो यािी-सागहयय में है। प्रवासी सागहयय का ऄंतर्द्षन्र्द् ट्रांसप्लांटेड का ऄंतर्द्षन्र्द् है। मुझे यह भी लगता है कक अयम-अश्वगस्त की आस कमी के कारण प्रवासी-सागहयय में ज्यादा मार्ममकता अ पाइ है, वह ज्यादा ऄन्तःस्पशी बन पाया है।

कायांतरण में, एक perpetual metamorphosis में रहना है। खासकर तब जब सागहययकार होने के नाते अपके संवेदन-तंतु कु छ ज्यादा ही जागृत हों। यह देखकर अश्चयष होता है कक गजन लोगों को गहन्दुस्तान का अम अदमी स्थागपत (Well settled) मानता है, ईनका सागहयय स्वयं में स्थैयष (stability) का सागहयय कतइ नहीं है।

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प्रवासी गहन्दी लेखकों की िासदी यह नहीं है कक वे गवदेशी धरती पर पैर रखकर गलख रहे हैं, िासदी यह है कक जब आतने बरसों बाद वे भारत भूगम पर पैर रखते हैं तो वहा​ाँ कु छ गवदेशी-सा हो गया है

मुझे ज्ञात हुअ कक हंस के सम्पादक राजेन्र यादव जी ने जागमया गमगलया गवश्वगवद्यालय के एक कायषिम में कह कदया कक “तेजेन्र भाइ को शायद बुरा लगे, ऄभी जो प्रवासी सागहयय के नाम पर परोसा जा रहा है, ईसका स्तर कु छ खास नहीं है। भारत में रचे जा रहे सागहयय के सामने प्रवासी सागहयय का कोइ कद ईभर कर नहीं अता।’’ मैं नहीं जानता कक राजेन्र यादव जी ने यह आम्प्रेशन कै से संगचत ककया। मैं तेजेन्र जी र्द्ारा दी गइ ईस प्रगतकिया से भी बहुत सहमत नहीं हूाँ कक ‘‘मैं

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प्रवासी सागहयय जैसे अरक्षण कोटे को मानता ही नहीं। मुझे तमाम अरगक्षत सागहयय से एलजी है। ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (11)


मैं सागहयय को मगहला लेखन, दगलत लेखन, सवणष लेखन, प्रगगतवादी

कभी घर नहीं लौटा। गनवाषगसत ही रहा। गनमषल का 10 साल का चेक-

लेखन अकद-अकद में बा​ाँटने के सख्त गखलाफ हूाँ। ऄब एक नया अरक्षण-

प्रवास गजन अाँखों से ईन्होंने देखा; कभी-कभी मेरा मन होता है, ईन्हीं

प्रवासी सागहयय। क्या है यह प्रवासी सागहयय।’’ मैं राजेन्र-तेजेन्र दोनों के

अाँखों से भगवान राम का 14 साल का प्रवास कहीं देखा जा सकता। वह भी एक गनवाषसन था।

तकों से अश्वस्त नहीं हो पाता। तेजेन्र जी जब आस तरह के वगों का गवरोध करते हैं तो वे शायद संवेदना के ईन गवगशष्ट कोणों में गनगहत सृजनायमकता की संभावनाओं को वैसे ही एप्रीगशएट नहीं कर पाते, जैसे

हमारी संस्कृ गत के ताने-बाने रचने वाले दोनों ग्रंथ: रामायण और

राजेंर जी प्रवासी लेखन की ईपलगब्धयों को नहीं कर पाते। यही गवनम्र ऄसहमगत मेरी डॉ. प्रभाकर श्रोगिय के ईस कथन से है जो ईन्होंने सागहयय

महाभारतः दोनों ही मगपसम को, गनवाषसन को थीम बनाकर चलते हैं।

ऄकादमी के सभागार में ऄमेररका के सहदी कथाकारों के संग्रह ‘कथांतर’

प्रवासी सागहययकार; और यह भी देगखए कक गोयनका जी के आतने

को लोकार्मपत करते हुए कहे कक ‘एक ऄच्छी रचना मुख्यतः मनुष्यता के

भारी-भरकम लेख में कृ ष्ण बलदेव वैद जैसा गवरोही प्रवासी सागहययकार भी गसरे से गायब है। वे ब्रांडीज़ गवश्वगवद्यालय और स्टेट

ककसी अयाम की ऄगभव्यगि होती है। ईसे वगों/खानों/गवमशों में बा​ाँटना

दोनों ही गनवाषसन के घाव से ईसी तरह रिरं गजत हैं जैसे हमारे बहुत से

ईगचत नहीं।‘ गहन्दी का कु छ सवषश्रेष्ठ जो है वह प्रवासी पररगस्थगतयों में ही

यूगनवर्मसटी अफ न्यूयाकष में आतने सालों से पढ़ा रहे थे। 40 के करीब

गलखा गया। क्या राजेंर जी को गनमषल वमाष की ‘चीड़ों पर चा​ाँदनी’, ‘हर

ककताबें गलख चुके थे- ईपन्यास, कहागनया​ाँ, नाटक, गनबंध, डायररयॉ।

बाररश में’, ‘धुंध से ईठी धुन’ और ‘वे कदन’ कृ गतयों की याद है? ईन्हें

‘एक नौकरानी की डायरी’, ‘हमारी बुकढ़या’, ‘मायालोक’, ‘काल

गलखते वि गनमषल वमाष प्राग में प्रवासी थे। गनमषल दस साल प्राग में रहे

कोलाज़’, ‘लापता’, ‘वह और मैं’, ‘ईसके बयान’, ‘बदचलन बीगबयों का

थे। नयी कहानी राजेंर यादव की गजतनी ऊणी है, ईससे कम ऊणी गनमषल

र्द्ीप’, ‘भूख अग है’, ‘बीच का दरवाजा’, ‘गुजरा हुअ जमाना’,

वमाष की नहीं है। गनमषल वमाष की ‘पररन्दे’, ‘जलती साड़ी’, ‘लंदन की रात’,

‘मोनागलसा की मुस्कान’, ‘गशकस्त की अवाज’ जैसी ऄद्भुत कृ गतयों से

‘गपछली गर्ममयों में’ ईनके प्रवासी भारतीय होने के वि की रचनाएाँ हैं।

भरपूर ईनका 50 साल का बहुत मौगलक, बहुत गनडर और गवरोही (defiant and insurrectionist) सागहयय ररश्तों की गनदषयता, सहसा, गपशुनता और टु च्चेपन को आतनी बारीकी से चीन्हता है। गवजय चौहान गजन्होंने ‘धमषक्षेिे कु रूक्षेि’े , ‘एक बुतगशक़न का जन्म’, ‘ऄफसर की बेटी’ जैसी ऄद्भुत कहागनया​ाँ दीं- ईन्हें गहन्दी में ककस तरह से कमतर माना जा सकता है? प्रवासी होने से ऄनुभूगतयों की ईद्दामता और गांभीयष में कोइ गगरावट नहीं होती। भागषक तैयारी पर भी कोइ ऄसर नहीं पड़ता। क्या टॉमस

संवेदनाओं की गजतनी बारीक पतष पर गनमषल जी ने काम ककया, वह सहदी को प्रवासी संवेद्यता की एक ऄद्भुत देन है। यकद फणीश्वरनाथ रे णु गहन्दुस्तान की जमी-रमी हुइ जड़ों के महान कृ गतकार थे तो गनमषल वमाष जड़ों से ईखड़ जाने के ईतने ही महान रचनाकार। प्रवासी पसषपेगक्टव का सहदी सागहयय में महयव कम करके राजेंर यादव यकद ऄपने स्मृगत-भ्रंश का पररचय देते हैं तो ईस पसषपेगक्टव को एक सामान्यीकरण में गुम करके तेजेन्र भी न्याय नहीं कर रहे। अगखरकार जड़ का जीवन में गजतना महयव है, ईससे कम महयव सेतु का नहीं है। यह अश्चयष नहीं कक प्रवासी रचनाओं के ऄगनल जोशी कृ त एक संग्रह का नाम ‘‘धरती एक पुल’’ ही है। प्रवासी सागहयय ने सहदी में मनोवैज्ञागनक और सांस्कृ गतक डबलनेस का जो ऄनुभव

मॉन स्वयं 1933 के बाद से 1955 तक स्वयं एक प्रवासी सागहययकार नहीं था? क्या बतोल्त ब्रेख्त, हेनररक मान, हमेन ब्रोच, एगमल लुडगवग, ब्रूनो फ्रैंक का सागहयय ईनके प्रवासी मानस का प्रगतसबब नहीं है और क्या ऐसा होने से ईसका सागहगययक मूल्य वैसे कमतर हो गया जैसे राजेन्र यादव कहते हैं? क्या ऄब्राहम काहन का प्रगसर्द् ईपन्यास ‘द राआज अफ डेगवड लेसवस्की’ एक प्रवासी की ही कथा नहीं है। और क्या वहा​ाँ भी नायक भौगतक रूप से ऄययन्त सफल होकर भी यह नहीं महसूस करता कक ईसकी सफलता की कीमत ईसकी अयमा का फोरफीचर है- वह अयमा जो घर की लोक-परपराओं में ईससे कहीं ज्यादा जड़ें जमा चुकी थी गजतना वह सोचता था। गमशेल गोल्ड का

कदया है, एक ही समय होमगसकनेस और एस्के प का-वह हमारी भाषा की

‘ज्यूस गवदाईट मनी’, लोर सेगल का ‘हर फस्टष ऄमेररकम’,

एक बड़ी रचनायमक पूंजी है। तेजेन्र शमाष की कहानी ‘पासपोटष का रं ग’’ के

अइ.बी.ससगर का ‘शैडोज ऑन द हडसन’, माररयो पूजो का ‘द फाचुषनेट

दो रं ग आसी डबलनेस के प्रगतगनगध हैं। फणीश्वरनाथ रे णु ‘लोके शन’ के

गपगल्ग्रम’, ओ.इ. रोल्वाग का ‘जाआं ट्स आन द ऄथष’, गवला कै थर की ‘माइ

रचनाकार थे, गनमषल वमाष ‘ररलोके शन’ के । मुझे अश्चयष है कक कमल

एंटोगनया’ जैसे ईपन्यास प्रवासी ऄनुभव के मास्टर पीस रहे हैं। आनमें

ककशोर गोयनका ‘‘गहन्दी का प्रवासी सागहयय’ आस शीषषक से गलखे ऄपने बहुत लम्बे गनबंध में गनमषल वमाष का कोइ गजि तक नहीं करते। हा​ाँ, यह ऄवश्य है कक गनमषल वमाष यूलीसस की तरह थे जो दुगनया भर में प्रवास कर लेने के बाद घर लौट अए थे। लेककन गोयनका जी पं. तोताराम का तो ईल्लेख करते हैं जो कफजी में 21 वषष रहकर लौट अए थे। अज के बहुत से प्रवासी सहदी सागहययकार ररनैसां युग के अदशष पैट्राकष की तरह हैं जो

रचनाकारों को ऄपनी भाषा के देशज प्रांतर से गनकलकर एक अंग्ल माहौल में जाना पड़ा ककतु ईससे रचना की गुणवत्ा दुष्प्रभागवत नहीं हुइ। आसगलए यकद अज कु छ प्रवासी रचनाएाँ भती की लगती हैं तो यह भी समझना होगा कक वे ईसी प्रकार प्रवासी सागहयय की प्रगतगनगध नहीं है जैसे गुलशन नंदा देशी सहदी सागहयय के प्रगतगनगध नहीं थे।

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (12)


जमषनी में एक शब्द था आलेंड गजसका मूलाथष थाः गवदेशी भूगम। बाद में ईसका ऄथष गबगड़ते-गबगड़ते तकलीफ ( misery) हो गया। बहुत-सा

में ककसी कहावत की तरह शेष रह गए लोक-गवश्वास पर गलखी आस कहानी का भी एक ऄपना ही वजूद है।

प्रवासी सागहयय आसी तकलीफ का सागहयय है। यह तकलीफ जरूरी नहीं कक गजस देश में प्रवासी रहता है, ईसके प्रगत अभार का ऄहसास न करने वाली तकलीफ हो। यह तकलीफ वैसी भी हो सकती है जैसी कनाडा के

प्रवासी सागहयय हमेशा ही प्रवास से मोह-बाधाग्रस्त (अब्सेस्ड) सागहयय नहीं है। कइ बार प्रवासी पररवेश वहा​ाँ संदभष तक के गलए भी ईपलब्ध

प्रवासी सहदी लेखक सुमन कु मार घइ की कहानी ‘लाश’ में है जहा​ाँ प्रवासी

नहीं है। ईदाहरण के गलए ईषा गप्रयंवदा की ‘वापसी’ या सौगमि

मा​ाँ-बाप ऄपने बच्चों पर ऐसी बंकदशें लगा देते हैं जो कक स्वयं ईन्होंने स्वदेश में नहीं झेली थीं। घर प्रवासी रचना में एक तरह की पररगचतता

सक्सेना की ‘लड़ैती’ जैसी कहागनया​ाँ भारत के ककसी भी गहस्से की

और सुरक्षा, एक तरह के शरण्य और स्मृगत, एक परं परा और सुगवधा, एक

तुलनायमक तकष के , एकदम स्वायत् रूप से भी मौजूद है। भारत की

लोकस और एक धुरी की तरह अता है। जैसा कक ऄबूधाबी के प्रवासी लेखक कृ ष्णगबहारी ऄपनी कहानी ‘आं तजार’ में कहते हैं- ‘तब दुगनया

स्मृगत या पुनरष चना प्रवासी सागहययकार के मन को एक तरह के नैरंतयष का अश्वासन ईस वि

ककतनी मीठी हुअ करती थी।’ या कल्पना ससह गचटगनस ऄपनी कगवता में

देती है, जब ईसके

गलखती हैं- ‘ईनकी स्मृगतयों में हैं……./ईनका घर/और घर के गपछवाड़े गखला ऄके ला फू ल/ईनकी स्मृगतयों में है और/ईनके संवाद, कहकहे और मीठी धूप’ या मार्मतन हररदन्त लछमन कहते हैं- ‘कइ देशों के मौसम का/स्वाद लेकर/पूरी पृ्वी के उपर/मेरी यािा की वापसी होती है। एक गचगड़या की तरह/वृक्ष की टहनी पर/संध्या बेला में।‘ प्रवासी सागहयय की ऄगधकतर रचनाएाँ कभी वतषमान और कभी गवगत के बीच आतनी जल्दी-जल्दी गशफ्ट करती हैं कक वे कइ बार कहानी से ज्यादा कहानीकार की ऄंतकष था बताती चलती हैं। एक ऐसे रचनाकार की जो रहता कहीं है और गजसे याद कहीं और का यथाथष अता रहता है। जैसे ईसके कदल के भीतर एक टेक्स्ट के ऄंदर एक दूसरा टेक्स्ट बन रहा है। कभी-कभी भीतर का या कहें कक के न्रीय टेक्स्ट बाहर के या पररगध के टेक्स्ट को काटता है। थोड़ा ईथला हुअ तो फहीम ऄख्तर की कहानी ‘कु त्े की मौत’ की तरह, गहरा हुअ तो कदव्या माथुर की ‘कफि’ जैसा। दरऄसल कदव्या जी की रचनाओं में मैंने शुद् पाश्चायय का गनरादर कहीं नहीं देखा। वहा​ाँ ‘खल’ वह है जो ऄपनी स्मृगत और संस्कार से ऄपभ्रष्ट हो गया है। जैसे ईषा राजे सक्सेना की कहानी ‘एलोरा’ का भारतीय गपता। गवदेशी चररि आनमें जबरन ही खलनायक नहीं बना कदए जाते। मसलन, ईषा राजे की ही ‘डैडी’ कहानी का फैं रक। वह ऄपने प्रगत पाठक के मन में सम्मान जगाता है। यही पररपक्वता शैल ऄग्रवाल की कहानी ‘दीये की लौ’ में कदखाइ पड़ती है, या ईषा राजे सक्सेना की कहानी ‘वाककग पाटषनर’ में। ईषा वमाष की कहानी ‘कारावास’ की सैली भी एक ऐसा ही चररि है गजसके प्रगत कृ तज्ञ हुअ जा सकता है। सांस्कृ गतक ऄपभ्रष्टों की बात दूसरी है। ईनके गलए

कहागनया​ाँ हो सकती हैं। भारत आन रचनाओं में कइ बार गबना ककसी

भीतर कु छ टू ट गया है। ये ईसके भीतर तब यौगगकता या ‘बांसडग’ पैदा करती हैं जब वह कु छ तोड़ अया है। यह तोड़ अने के बाद बहुत लंबा वि गुजरने का आं तजार भी नहीं है क्योंकक यह एक मनोवैज्ञागनक समय है। पूर्मणमा वमषन की कहानी ‘जड़ों से ईखड़े’ में भारत से अए हुए कु छ घंटे ही हुए हैं आसगलए नास्टगल्जया आन रचनाओं में एक तरह की सांस्कृ गतक वस्तु ( कल्चरल कमोगडटी) बनकर अता है। वैसे भी नास्टगल्जया का व्युयपगत्गत ऄथष ‘यर्ननग फॉर यस्टडे’ नहीं है, बगल्क घर वापसी की लालसा है। नास्टगल्जया शब्द गजन दो शब्दों से गमलकर बना है ईसमें दवेजवे का ऄथष है घर वापसी और nostos का ऄथष है तृष्णा। ऄतः यह शब्द समय से ईतना सम्बद् नहीं है, गजतना स्थान से। शायद आसीगलए प्रवासी सागहयय में भारत हमेशा एक ऐसे स्थान की तरह रहता है जो गजतना प्राप्त था, ईतना प्राप्य है। प्रवासी मानस ऄतीतजीवी नहीं है, भारतजीवी है। ऄतीत तक लौटना ऄसंभव है, लेककन भारत लौटना हमेशा मुमककन है। आसीगलए सुधा ओम ढींगरा ऄपने गीत में कहती हैं‘साजन/मोरे नैना भर भर अवे हैं/देस की याद में छलक छलक जावे हैं’। कृ ष्ण गबहारी की कहानी ‘आं तजार’ में भी एक वापसी है। यह बात जरूर

कहानी में। आसका मतलब यह नहीं कक प्रवासी रचनाकार कड़वाहट और कृ तज्ञता के बीच ही घूमता है। कदव्या माथुर को ही देखें। वे मजे लेने के

है कक भारत स्वयं प्रवासी के गलए एक गभन्न समय है। समय ईसके बचपन का। समय ईसके पुरखों का। भारत ईसके गलए ककसी स्थान तक पहुाँचना नहीं है। वह ईसके गलए एक टाआम मशीन में बैठना भी है और काल के प्रगत लेखक की सम्पूणष ऄसहायता के गखलाफ एक गवरोह भी है।

गलए भी कहानी गलख मारती हैं, जैसे ‘सौ सुनार की’ गजसमें मुहावरों-

समय के गखलाफ ऐसा ही एक प्रगतकार कदव्या ‘2050’ नामक कहानी में

कहावतों का जैसे एक बम्बाडषमेंट है, जैसे एक ऄनररकवरे बल स्वदेश को

करती

ककसी और तरीके से नहीं तो ऐसे ही पा गलया जाए। मुहावरों-कहावतों को दुहराकर एक गमससग लोक को ररट्रीव करने की कोगशश की जा रही है।

(interchangeable) बना देता है। भारत लेखक को कोइ भावुकता में भर देने वाला संदभष नहीं है। भारत ईसे एक ऐसी साम्यष देता लगता है

कु छ तो है जो बाकी सारी चीजों, साजो-सामान, लकदक और गवनोद के

गजससे ‘गबयान्ड ररकॉल’ माने जा रहे समय के सामने प्रवासी संवेदना

बीच ऄप्रगतदेय ( irredeemable) हो गया है। ईनकी ‘ईत्रजीगवता’

एक अयमगवश्वास के साथ खड़ी हो सकती है। कइ बार यह साम्यष

कदव्या माथुर की रचनाओं में एक ईगचत कड़वाहट भी है, जैसे ‘बचाव’

हैं।

भारत

समय

और

स्थान

को

ऄन्तःपररवतषनीय

नामक कहानी एक मरी हुइ चुगहया पर है गजसे पढ़कर मुझे ऄज्ञेय की

भारत के सद्गुणों पर ही मुनहगसर नहीं होती, भारत की खरागबयों से

‘धैय-ष धन गदहे’ पर गलखी कगवता याद हो अइ। प्रयोगवादी सौंदयषबोध की

भी पैदा होती है। कदव्या माथुर की बहुत ही प्यारी कहानी ‘ऄंगतम तीन

दृगष्ट से जैसे वह कगवता एक स्थान रखती है, ईसी तरह से प्रवासी के मन ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (13)


कदन’ पकढ़ए । ईसमें भारत के एक शहर पटना की गुंडागदी से टकराने की

गलए वह एक बहुत दूरवती से, बहुत कमजोर से कदखने वाले संबंध का

आच्छा मरने का आं तज़ार कर रही िी के रोम-रोम को आतना स्पगन्दत कर देती है कक ईसे लगता है कक आतनी गज़न्दा तो वह जीवन में पहले कभी नहीं रही। आसगलए आस नास्टागल्जअ को लांसगग ( तृष्णा) से कहीं ज्यादा गबलांसगग (सम्बर्द्ता) के रूप में देखना चागहए। भारत आस कारण ककसी

बहुत महीन तार भी जैसे ककसी बड़ी हद तक एक ऄनुशोध है। एक अम अदमी की अययगन्तक ऄसहायता की सम्पूणष स्थापना है वह। न के वल एक गवदेशी पररवेश की ऄसंवेदनशीलता के गवरूद् बगल्क शायद मृययु के देवता के समक्ष। गनयगत के समक्ष।

देशभगि के राजनीगतक ऄथष में नहीं, बगल्क ईपयुषि मनोवैज्ञागनक ऄथष में प्रवासी लेखक की रचनाओं में घरटत होता है। भारत की गभन्नता का यह ऄहसास लेखक की पृष्ठभूगम से नहीं होता, ईस मंच से-ईस प्लेटफामष से

मृययु तेजेन्र के यहा​ाँ एक तरह की ऄतार्कककता है। वह रीजन का ध्रुवान्त है। वहा​ाँ मृययु का मेटाकफ़गजक्स नहीं है। बस वह है वहा​ाँ। तकष के गवरूद्

होता है गजस पर वह खड़ा है। प्रवासी सागहययकार के हृदय में भारत के

खुद को संभव करती हुइ। एक प्वाआं ट की तरह नहीं, एक प्रकिया की

साथ कोइ ऄमर रोमांस चल रहा हो, यह जरूरी नहीं। वह ऄपने बताषव में

तरह। सखची हुइ। गिशंकु की तरह टॅंगी हुइ। बार-बार सामने अते हुए

भारत के साथ काफी न्यूट्रल भी हो सकता है। कफर भी, भारत एक

सवाल की तरह। एक संिमण (ट्रांजीशन) की तरह नहीं, एक संिामण

ऄगनवायष गक्षगतज है। जहा​ाँ से गसफष कु छ गुजरी हुइ छायाएाँ ही प्रवासी

(Infection) की तरह। व्यापती हुइ। मृययु, गजसका कोइ मापदण्ड नहीं

लेखन में नहीं फै ली हैं, बगल्क कु छ अलोक भी फू ट पड़ता है। यह भारत

है, िाआटेररया नहीं है। ‘कैं सर’ नाम वाली कहानी को देखें या ‘देह की

श्रद्ा के तौर पर ही संदर्मभत हो- प्रवासी लेखन में ऐसा एक गनयम की

कीमत’ को या ईसी ‘कढबरी टाआट’ को- तेजेन्र जैसे ककसी मृययु से

तरह नहीं हुअ। लेककन आस भारत में एक होम रीडरगशप है, गजसका

लगातार तकष ( argue) कर रहे हैं, लेककन मृययु जैसे ऄपने को

ऄवधान लेखन के मन से कभी नहीं ईतरता।

मॉरलाआज़ कर ही नहीं रही।

क्या प्रवासी सागहयय गहन्दी के ऄगभजन का, एलीट का सागहयय है? सहदी

ऄपने वास्तगवक जीवन में गज़न्दगी से आतना प्यार करने वाले तेजेन्र के

की लीज़र-क्लास का, गवश्रांगत-वगष का? गजसके गलए यह एक फु रसत का

यहा​ाँ मृययु के बारे में आतनी ऄन्तदृगष ष्टया​ाँ गमलेंगी, यह शुरू-शुरू में मैं

शगल है? क्योंकक ऄब यह सागहयय ऄपना वगष-चररि पररवर्मतत कर चुका

ईम्मीद ही नहीं करता था। ‘कैं सर’ में यकद वह एक तरह की

है। ऄब यह गगरगमरटयों का सागहयय नहीं है। ऄब ईपगनवेशवाद के चलते

बायोलागजकल फ्रीसजग है तो ‘देह की कीमत’ में वह ईतनी ही गनमषम है,

लोग भारत से बाहर नहीं जाते, ऄब वे वैश्वीकरण के चलते बाहर जाते हैं।

जैसे ‘कफ़न’ में प्रेमचन्द के यहा​ाँ। मृययु जब संवेदना नहीं, एक स्ट्रेटेजी बन

आसगलए ऄब ईन लोगों के सामने वह गस्थगत नहीं है जब झुंड के झुंड देश के बाहर मजदूरी के गलए ठे ल कदए जाते थे, ऄब तो व्यगिगत गनवाषचन के चलते प्रवास होता है। कफर भी, ऄचला शमाष की ‘मेहरचंद की दुअ’ शीषषक कहानी ऄब भी मजदूर वगष की कहानी है। यह एक कदलचस्प गवषय हो सकता है कक ऄपने औपगनवेशक देश में जाकर वहा​ाँ रहते हुए अधुगनक भारत से अए आस प्रवासी को कै सा लगता है। सययेन्र श्रीवास्तव ऄपनी

जाती है। जैसे ‘कफ़न’ में गरीबी के कारण पनपी संवेदनहीनता है, वैसे ‘देह की कीमत’ में अधुगनकता की दौर की संवेदनहीताएं है। घीसूमाधव की तुलना में ये ज्यादा िासद लगती हैं, क्योंकक आन्हें जगस्टफाइ करने के गलए ग़रीबी का लॉंगजक भी ऄनुपलब्ध है। जीवन को मृययु ही Violate नहीं करती, कइ बार जीवन भी मृययु को Violate करता है।

एक कगवता में कहते हैं-‘‘सर सवस्टन अप मेरी मॉ को जानते हैं। वह भी

और कफर ‘कैं सर’ तेजेन्र एक वूंडेड स्टोरीटेलर हैं। कैं सर पर ईनकी तीन

एक सात महीने के बच्चे का पेट फु लाए/मेरे गपता का अशीष लेकर/मसूरी के ईसी रास्ते पर लेट गइ थी। जहा​ाँ से फौगजयों के दस्तों को लौटना पडा

कहागनया​ाँ हैं-‘ऄपराधबोध का प्रेत’, ‘कैं सर’ और ‘रे त का घरौन्दा’। मुझे

था……/मैं ईसी मा​ाँ के पेट से जन्मा ईसका बेटा हूाँ। और मेरा नाम सययेन्र

की ‘कीमोगथरे पी’, एगियन ररच

आन कहागनयों को पढ़कर याद अइ हैं कु छ और कहागनयॉं- ऐमी ग्रनबगषर

है। और मैं अपसे यह कहने अया हूाँ कक मैं ऄब आं ग्लैड में अ गया हूाँ’’ यहा​ाँ

की ‘ऄ वुमैन डेड आन हर

औपगनवेगशक दुःस्वप्न नए भारत के आस गवश्व-नागररक से टकरा गया है।

फोटीज’, जेम्स की गडकी की ‘द कैं सर

यह गवश्व-नागररक भारतीय गसफष यू.के /यू.एस.ए. ही नहीं जाता। मध्यपूवष भी जाता है और वहा​ाँ वैश्वीकरण के दुःस्वप्नों से गभड़ता है। तेजेन्र शमाष की

मैच’

और

पैट्रेगशया

गोएगडक की ‘आन दा हागस्पटल’

की याद कदलाती है। आसगलए नहीं कक दोनों की पृष्ठभूगम पंजाबी है,

जैसी कहागनयॉं- जो सबकी सब कैं सर पर हैं। कैं सर की पृगष्ठभूगम आन कहागनयों में होने का एक

आसगलए भी नहीं कक दोनों में ककसी ‘वार’ या ‘युद्’ की पृष्ठभूगम है, बगल्क

अनुभगवक कारण हो सकता हैं,

‘कढ़बरी टाआट’ में आसे देगखए। ऄपनी करूणा में यह कहानी ‘ईसने कहा था’

आसगलए कक दोनों में स्मृगतयॉं हैं। गुाँगजत और प्रगतगुाँगजत होती हुईं। दोनों में फ्रस्ट्रेशन है। फ़क़ष है। एक में मृययु के उपर प्यार की गवजय है। एक में प्यार के उपर मृययु की गवजय है। एक में मूक कर देने वाला वाचाल प्यार है, दूसरे में मूक और स्तब्ध कर देने वाली मृययु है। सैगनक का बगलदान है एक में, नागररक की बगल है दूसरे में। दोनों में अगऺखरी वाक्य एक टीस की रे ख भीतर की ज़मीन पर खींच जाता है। कु वैत पर इराकी सेना का अिमण। प्रकटतः ऄसम्बद्। लेककन ऄवसाद के अघात से ग्रस्त अदमी के

लेककन एक बड़ा कारण यह है कक कैं सर के सामने मनुष्य की गनरूपायता। कैं सर एक ही साथ कं सनष भी हैं, कै थार्मसस भी। कहीं वो कॉगमक है तो कहीं वो कॉगस्टक। कौन कहता है कक गजन्दगी ‘फे यर’ है? बहुत से ऄन्याय हैं गजनका कोइ जबाव नहीं गमलता बगल्क जो हमसे मांगते हैं- गहरी सगहष्णुता। सहने के ऄलावा रास्ता क्या है? सैमुऄल जॉनसन ने कहीं कहा हैः ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (14)


“The prospect of death wonderfully concentrates the mind “ यहा​ाँ तेजेन्र की कहागनयों में भी एकाग्रता है, वह भी शायद मृययु के ईसी असन्न स्वभाव का पररणाम है, दीवार पर-सामने की दीवार पर-अने वाली गवडंबना की तस्वीरें झूल रहीं हैं और तेजेन्र ईसे गलखते ही चले जा

यकद वे ऐसा नहीं कर पा रहे हैं तो आसके पीछे ईनकी पृष्ठभूगम से अ रही रौशनी ही है। आस कारण वे हमेशा भारत के बहुल से सम्पृि महसूस करते हैं और कभी ऄल्पता-बोध से ग्रस्त नहीं होते। पूर्मणमा वमषन ने ऄपनी कहानी ‘यों ही चलते हुए’ में आसे यों गनष्पगत् दी है: ‘शायद हर भारतीय

ईस ऄनुभव को रीडीम कै से ककया जाए? एक कहानी गलखकर भी काम

का यही तरीका है- वे या तो ऄपने चौखाने पार नहीं करते या हजारों चौखाने पार करते हुए ऄपने चौखानों पर वापस लौट अते हैं। शायद आसीगलए दुगनया में कहीं भी रहें चौखानों की भीड़ में वे खोते नहीं। हर

नहीं बनता आसगलए बार-बार वे ऄलग-ऄलग तरह से ईसे गलखते हैं।

बार मेन रोड पर गमल जाते हैं………….गजन्दगी में भी।‘ वे सहदी में

बीमारी जैसे हमारे शरीर में नहीं, हमारे संबंधों में घर कर गइ है। तो

गलख रहे हैं, यही आस बात का सबूत है कक सांस्कृ गतक वैगभन्य से ऄभी

कैं सर संबंधों को व्याख्यागयत करता है। वह एक बीमारी की तरह नहीं

ईन्होंने संकोच नहीं ककया है। ईनका लेखन ईनके ऄगस्तयव की एक सहवती (साआमल्टेगनयस)

रहे हैं। ईनका वश चले तो समय को चूर-चूर कर दें, बस नहीं चलता। तो

ईभरता, एक मेटाफ़र की तरह नहीं ईभरता, एक अइने की तरह लगता है गजसमें हर चेहरे , हर संबंध की सच्चाइ सामने अ जाती है।

प्रवासी गहन्दी सागहयय का एक ऄध्ययन आस दृगष्ट से होना शेष है कक प्रवास के देश की तयसमय प्रचगलत सागहगययक शैगलयों और परं पराओं का ककतना प्रभाव गहन्दी की प्रवासी रचनाओं पर पड़ा। क्या वे कु छ ऐसे अयात हैं गजन्होंने गहन्दी को एक नइ समृगद् दी? यानी प्रवासी गहन्दी सागहययकार से हमारी ऄपेक्षा यह नहीं है कक वह प्रवास के देश में ऄपने भाषाइ सहधर्ममयों का एक ऄल्पसंख्यक समूह बना ले और ईन्हीं गोगष्ठयों में ग़ाकफल रहे बगल्क यह कक ऄपनी नेचुरलाआज्ड कं ट्री की सवषश्रेष्ठ और अधुगनक सृजन-प्रथाओं और मुहावरों को ऄपनी लेखन-प्रेरणाओं में, ऄपनी रचना-रीगत के फै गब्रक में स्थान दे। रचना-रीगत से मेरा ऄगभप्राय ऄगभव्यगि के नखरों से नहीं है बगल्क एक तरह के गवजन से है। ऄलबत्ा ऄल्पसंख्यक होने का जो एक ऄहसास है, ईसकी एक प्रामागणक ऄगभव्यगि जरूर प्रवासी लेखक ऄपने सागहयय में कर सकते हैं।

ईपलगब्ध है। जड़ से ईखड़ना एक ऄनुभव है- ऄपरूटटग। कृ ष्ण गबहारी की कहानी ‘जड़ों से कटने पर’ में कथाकार का गनष्कषष है कक ‘पहली बार ऄहसास हुअ कक ऄपने देश के ऄंदर अदमी की ऄपनी और जड़ों की जो ताकत होती है वह दूसरे देश में कोइ औकात नहीं रखती। लेककन ईसके साथ साथ एक ऄनुभव हवा में तैरने-फ्लोटटग- का भी है। ‘ ऄब आस फ्लोटटग को अप प्रेम जनमेजय की कहानी गक्षगतज पर ईड़ती स्कारलेट अयगबस के रूप में देखें जो गिगनदाद का राष्ट्रीय पक्षी है-कहानीकार के शब्दों में- नीले असमान में कहीं भी जाने को स्वतंि पंख पसारता। गौतम सचदेव की कहानी ‘अकाश की बेटी’ गजसमें ह्नील चेयर से बंधी िी कयथइ कबूतरी का आं तजार करते हुए अकाश की ओर देख रही है, भी शायद आसी र्द्ैत की कहानी है। प्रवासी लेखन के आस डबलस्प्रेड में ही ईसकी ऄगर्द्तीयता है। ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (15)


रू-ब-रू

वीनस के सरी

जन्म गतगथ १ माचष 1985 गशक्षा स्नातक संप्रगत पुस्तक व्यवसाय व प्रकाशन (ऄंजुमन प्रकाशन) प्रकाशन प्रगगतशील वसुधा, कथागबम्ब, ऄगभनव प्रयास, गभषनाल, ऄनंगतम, गुफ्तगू, गवश्व्गाथा अकद ऄनेक प्रगतगष्ठत पि-पगिकाओं में से से पर ग़ज़ल, गीत व दोहे का प्रकाशन हररगंधा, ग़ज़लकार, वचन अकद में ग़ज़ल पर शोधपरक लेख प्रकागशत गवधा ग़ज़ल, गीत छन्द कहानी अकद प्रसारण अकाशवाणी आलाहाबाद व स्थानीय टीवी चैनलों से रचनाओं का प्रसारण पुस्तक ऄरूज़ पर पुस्तक “ग़ज़ल की बाबत” प्रकाशनाधीन गवशेष ईप संपादक, िैमागसक 'गुफ़्तगू', आलाहाबाद (ऄप्रैल २०१२ से गसतम्बर २०१३ तक) सह संपादक नव्या अनलाआन साप्तागहक पगिका (जनवरी २०१३ से ऄगस्त २०१३ तक) पिाचार जनता पुस्तक भण्डार, 942, अयष कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, आलाहाबाद -211003 मो. - (0)945 300 4398 (0)923 540 7119

वीनस की गज़लें

ग़ज़ल१कदल से कदल के बीच जब नज़दीककया​ाँ अने लगीं फै सले को ‘खाप’ की कु छ पगगड़या​ाँ अने लगीं ककसको फु सषत है भला, वो ख़्वाब देखे चा​ाँद का ऄब सभी के ख़्वाब में जब रोरटया​ाँ अने लगीं अररया​ाँ खुश थीं कक बस दो –चार कदन की बात है सूखते पीपल पे कफर से पगत्या​ाँ अने लगीं ईम्र कफर गुज़रे गी शायद राम की वनवास में दागसयों के फे र में कफर रागनया​ाँ अने लगीं बीच दररया में न जाने सागनहा क्या हो गया सागहलों पर खुदकु शी को मछगलया​ाँ अने लगीं है हवस का दौर यह, आं सागनयत है शमषसार अज हैवानों की ज़द में बगच्चया​ाँ अने लगीं हमने सच को सच कहा था, और कफर ये भी हुअ बौखला कर कु छ लबों पर गागलया​ाँ अने लगीं शाहज़ादों को स्वयंवर जीतने की क्या गरज़ जब ऄाँधेरे मुंह महल में दागसया​ाँ अने लगीं

ग़ज़ल-२ ईलझनों में गुम हुअ कफरता है दर-दर अआना | झूठ को लेककन कदखा सकता है पैकर अआना | शाम तक खुद को सलामत पा के ऄब हैरान है, पयथरों के शहर में घूमा था कदन भर अआना | गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देगवया​ाँ, कौन पागल बा​ाँट अया है ये घर-घर अआना | अआनों ने खुदकु शी कर ली ये चचाष अम है, जब ये जाना था की बन बैठे हैं पयथर, अआना | मैंने पल भर झूठ-सच पर तगब्सरा क्या कर कदया, रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर अआना | ऄपना ऄपना हौसला है, ऄपने ऄपने फै सले, कोइ पयथर बन के खुश है कोइ बन कर अआना |

ईसने ऄपने ख़्वाब के ककस्से सुनाये थे हमें और हमारे ख़्वाब में भी गततगलया​ाँ अने लगीं

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (16)


ग़ज़ल-३ प्यास के मारों के संग ऐसा कोइ धोका न हो अपकी अाँखों के जो दयाष था वो सहरा न हो ईनकी कदलजोइ की खागतर वो गखलौना हूाँ गजसे तोड़ दे कोइ ऄगर तो कु छ ईन्हें परवा न हो अपका कदल है तो जैसा चागहए कीजै सुलूक परा ज़रा यह देगखए आसमें कोइ रहता न हो पयथरों की ज़ात पर मैं कर रहा हूाँ एतबार ऄब मेरे जैसा भी कोइ ऄक्ल का ऄाँधा न हो सज़दगी से खेलने वालों जरा यह कीगजए ढू कढए ऐसा कोइ जो अगखरश हारा न हो

ग़ज़ल-४ छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्या आल्म लेगा ये आम्तेहान भी क्या ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या कोइ ठहरे गा मेह्रबान भी क्या है मुकद्दर में कु छ ईड़ान भी क्या आस ज़मीं पर है असमान भी क्या मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है काट ली जायेगी ज़बान भी क्या धूप से लुट चुके मुसाकफ़र को लूट लेंगे ये सायबान भी क्या आस क़दर जीतने की बेचैनी दा​ाँव पर लग चुकी है जान भी क्या ऄब के दावा जो है मुहब्बत का झूठ ठहरे गा ये बयान भी क्या मेरी नज़रें तो पवषतों पर हैं मुझको ललचायेंगी ढलान भी क्या

ग़ज़ल-५. ये कै सी पहचान बनाए बैठे हैं गूंगे को सुल्तान बनाए बैठे हैं मैडम बोली थी घर का नक्शा खींचो बच्चे गहन्दुस्तान बनाए बैठे हैं अइनों पर क्या गुजरी, क्यों ये सब, पयथर को भगवान बनाए बैठे हैं धूप का चचाष कफर संसद में गूंजा है हम सब रौशनदान बनाए बैठे हैं जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत हम ककतना सामान बनाए बैठे हैं वो चाहें तो और करठन हो जाएाँ पर हम खुद को असान बनाए बैठे हैं अप को सोचें कदल को कफर गुलज़ार करें क्यों खुद को वीरान बनाए बैठे हैं

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (17)


कल्पना रामानी ६ जून १९५१ को ईज्जैन में जन्मी कल्पना रामानी ने हालांकक हाइ स्कू ल तक ही औपचाररक गशक्षा प्राप्त की परन्तु ईनके सागहयय प्रेम ने ईन्हें गनरं तर पढ़ते रहने को प्रेररत ककया। पाररवाररक ईत्रदागययवों तथा समस्याओं के बावजूद ईनका सागहयय-प्रेम बरकरार रहा । वे गीत, गजल, दोहे कु ण्डगलया अकद छं द-रचनाओं में गवशेष रुगच रखती हैं। ईनकी रचनाएाँ पिपगिकाओं और ऄंतजाषल पर प्रकागशत होती रहती हैं । वतषमान में वे वेब की सवाषगधक प्रगतगष्ठत पगिका ‘ऄगभव्यगि-ऄनुभूगत’के संपादक मण्डल की सदस्य हैं। प्रकागशत कृ गतया​ाँ- गीत संग्रह -‘हौसलों के पंख’ इमेल -kalpanasramani@gmail.com

नवगीत-१ कै से बीते काले कदन ज़रा पूगछए आन लोगों से, कै से बीते काले कदन। फु टपाथों की सदष सेज पर, िू र कु हासे वाले कदन। सूरज, जो आनका हमजोली, वो भी करता रहा रठठोली। तहखाने में भेज रगश्मया​ाँ, ले अता कु हरा भर, झोली। गमष वि तो मौज मनाते, आन्हें सौंपते छाले कदन। दूर जली जब अग देखते, नज़रों से ही ताप सेंकते बैरन रात न काटे कटती, गात हवा के तीर छे दते। आन ऄधनंगों ने गठरी बन, घुटनों बीच साँभाले कदन। धरा धुरी पर चलती रहती, धूप ईतरती चढ़ती रहती। हर मौसम के पररवतषन पर, कु दरत आनको छलती रहती।

ग़ज़ल-१ अज खबरों में जहा​ाँ जाती नज़र है। रि में डू बी हुइ, होती खबर है। कफर रहा है कदन ईजाले को गछपाकर, रात पूनम पर ऄमावस की मुहर है। ढू ाँढते हैं दीप लेकर लोग ईसको, भोर का तारा गछपा जाने ककधर है। डर रहे हैं रास्ते मंगज़ल कदखाते, मंगज़लों पर खौफ का कदखता कहर है। खो चुके हैं नद-नदी रफ्तार ऄपनी, सागहलों की ओट गछपती हर लहर है। साज़ हैं खामोश, चुप है रागगनी भी, गीत गुमसुम, मूक सुर, बेबस बहर है। हसरतों के फू ल चुनता मन का माली, नफरतों के शूल बुनती सेज पर है। अज मेरा देश क्यों भयभीत आतना, हर गली सुनसान, सहमा हर शहर है।

ख्वाबों में नवनीत आन्होंने, देख, छाछ पर पाले कदन।

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (18)


नवगीत-२ चलो नवगीत गाएाँ

ग़ज़ल-२ बल भी ईसके सामने गनबषल रहा है। घोर अाँधी में जो दीपक जल रहा है।

गर्कदशों के भूलकर गशकवे गगले,

कफर ईमंगों के चलो नवगीत गाएाँ। प्रकृ गत अती रोज़ नव शृंगार कर। रूप ऄनुपम, रं ग ईजले गोद भर।

डाल रगक्षत ढू ाँढते, हारा पखेरू, नीड़ का गनमाषण, कफर कफर टल रहा है। हाथ फै लाकर खड़ा दानी कु अाँ वो, शेष बूाँदें ऄब न गजसमें जल रहा है।

जो हमारे गहय छु पा है गचिकार,

देगखये आस बात पर कु छ गौर करके ,

भाव की ले तूगलका ईसको जगाएाँ।

अज से बेहतर हमारा कल रहा है।

झोगलया​ाँ भर

मन को गजसने अज तक शीतल रखा था,

ख़ुशबुएाँ लाती हवा।

सब्र का घन धीरे -धीरे गल रहा है।

मखमली जाजम गबछा जाती घटा। ख़्वागहशों के , बाग से चुनकर सुमन,

ख्वाब है जनतन्ि का ऄब तक ऄधूरा, अकद से जो आन दृगों में पल रहा है

शेष शूलों की चलो होली जलाएाँ। गनयय खबरें

ग़ज़ल-३

क्यों सुनें खूाँ से भरी। क्यों न ईनकी काट दें

सुनहरी भोर बागों में, गबछाती ओस की बूाँदें!

ईगती कड़ी।

नयन का नूर होती हैं, नवेली ओस की बूाँदें!

लेखनी ले हाथ में नव िांगत की,

चपल भाँवरों की कगलयों से, चुहल पर मुग्ध सी होतीं,

हर खबर को खुशनुमा गमलकर बनाएाँ। देख दुख, क्यों हों दुखी, संसार का। पृष्ठ कर दें बंद क्यों ना हार का। खोजकर राहें नवल गनस्तार की, जीत की ऄनुपम, नइ दुगनया बसाएाँ।

शब्द व्यंजना एक सागहगययक पहल

गमला सुर गुनगुनाती हैं, सलोनी ओस की बूाँदें! गचतेरा कौन है? जो रात, में जाजम गबछा जाता, न जाने रै न कब बुनती, ऄके ली ओस की बूाँदें! कररश्मा है खुदा का या, कक ऊतु रानी का ये जादू, घुमाकर जो छड़ी कोइ, गगराती ओस की बूाँदें! नवल सूरज की ककरणों में, गछपी होती हैं ये शायद, जो पुरवाइ पवन लाती, सुधा सी ओस की बूाँदें! टहलने चल पड़ें साथी, गनहारें रूप प्रातः का, न जाने कब गबखर जाएाँ, फरे बी ओस की बूाँदें!

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (19)


जगदीश पंकज पूरानाम

: जगदीश

प्रसाद जैन्ड

जन्म

:

स्थान

: गपलखुवा

गशक्षा

: बी

10 कदसम्बर 1952 , गजला-गागज़याबाद (ई.प्र .)

.एस सी .

गवगभन्नपि – पगिकाओं में गीत एवं कगवतायें प्रकागशत, एक नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन सम्प्रगत

: सेंट्रल बैंक ऑफ आंगडया में वररष्ठ प्रबन्धक के पद से सेवा गनवृत् एवं स्वतंिलेखन

संपकष

: सोमसदन

गागज़याबाद

,5/41 सेक्टर -2 ,राजेन्रनगर,सागहबाबाद -201005 .

मो :

08860446774

इमेल :

jpjend@yahoo.co.in

नवगीत-१

नवगीत-२

ऄपने को ही पाती गलखकर

क्या बोया, क्या काट रहे हैं

ऄपने को ही पाती गलखकर खुद ही बैठे बा​ाँच रहे हैं ऄपने-ऄपने रं गमंच पर कठपुतली से नाच रहे हैं सम्बोधन के शब्द स्वयं ही हमने ऄपने गलए गढ़े हैं अयममुग्धता में औरोंके पि ऄभी तक नहीं पढ़े हैं ऄपने ही सब प्रश्न-पि हैं ईत्र भी खुद जांच रहे हैं सकदयों से संतागपत भी तो कु छ ऄपने ही अस-पास हैं ईनके भी ऄपने ऄनुभव हैं वे भी कु छ तो अम-ख़ास हैं

क्या बोया, क्या काट रहे हैं ऄपनी क्यारी में हम हैं ककस ऄज्ञात भगवष्य की तैयारी में ककस पीढ़ी ने खाद-बीज ये कै से डाल कदए ऄंकुर भी अये तो भारी खर-पतवार गलए जैसी भी है फसल काटनी है लाचारी में भागम-भाग लगी है जैसे कोइ लूट मची संतों की करनी-कथनी भी शक से नहीं बची राह कदखाने वाले फें कें घी सचगारी में

ईनको गमले हागशए, ईनके गहस्से टू टे कांच रहे हैं माि अंकड़ों में ऄंककत है ऄपनी-ऄपनी रामकहानी गपसते रहे ईम्रभर ऄब तक पाने को कु छ दाना-पानी

ऄपने ही घर में चोरी करके क्यों रीझ रहे चेहरा दपषण में देखा कागलख से खीझ रहे जो गवकल्प हैं ईन्हें सभालें कल की बारी में

कु छ कमों के , कु छ जन्मों के बंधन झूठी-सांच रहे हैं . ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (20)


नवगीत-३

नवगीत-४

कफर सभी सामान्य होते जा रहे हैं

हताशा हाँस रही

कफर सभी सामान्य होते जा रहे हैं भूलकर ऄब हादसों को लोग

हताशा हाँस रही, गचपकी

मर रही संवेदना का शव-परीक्षण कर सकें तो जानकारी ही गमलेगी सोच के हम ककस धरातल पर खड़े हैं जान पायें चेतना कु छ तो गहलेगी चीख चौंकाती नहीं मुाँह फे र चलते देखकर ऄब बेबसों को लोग

गवकल्पों में कहा​ाँ खोजें कोइ ऄनुकूल-सी सीढ़ी

मुि बाजारीकरण की दौड़ में ऄब वेदना भी, सजस बनती जा रही है कौन प्रायोजक गमलेगा सांयवना को नग्नता टीअरपी जब पा रही है घाव पर मरहम लगाना भूलकर ऄब गघर रहे क्यों

ऄवश, गनरूपाय चेहरों पर.

व्यस्त ऄवसाद, गचन्ता में गघरी जब, अज की पीढ़ी महयवाकांक्षा अहत गववश, ऄनजान लहरों पर. गवमशों में नहीं कोइ कहीं मुद्दा कभी बनता गवरोधाभास में जीती गवफल, ऄसहाय-सी जनता ऄसहमत मूक गनवाषचन खड़ा है व्यथष पहरों पर…….

ढ़ाढसों में लोग…… ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (21)


नरे श शांगडल्य लेखकीय नाम : नरे श मूल नाम : नरे श चन्र शमाष जन्म गतगथ : 15 ऄगस्त 1958 गशक्षा : एम. ए. (गहन्दी)

शांगडल्य

प्रकागशत/प्रकाश्य कृ गतयां : टु कड़ा टु कड़ा ये सजदगी ददष जब हंसता है

– काव्य संग्रह (1995), सागहयय मंकदर, नइ कदल्ली

– दोहा – कगवता संग्रह (2000), साथषक प्रकाशन, नइ कदल्ली

मैं सकदयों की प्यास

– ग़ज़ल – संग्रह (2006), ककताब घर प्रकाशन, नइ कदल्ली

कु छ पानी कु छ अग

– दोहा – संग्रह (2008), डायमंड बुक्स, नइ कदल्ली

नाटय प्रस्तुगत में गीतों का साथषकता

– शोध कायष (प्रकाशाधीन)

पुरस्कार/सम्मान : गहन्दी ऄकादमी, कदल्ली की ओर से काव्य संग्रह ‘टु कड़ा टु कड़ा ये सजदगी’ के गलए ‘सागहगययक कृ गत सम्मान’ (

1996)

गहन्दी ऄकादमी, कदल्ली र्द्ारा ‘अज के दोहाकार’ श्रृंखला के ऄंतगषत सम्मागनत (1998) भारतीय गहन्दी पररषद्, कदल्ली की ओर से ‘भवानीप्रसाद गमश्र सम्मान’ (2001) वातायन, लन्दन, यू. के . की ओर से ‘वातायन कगवता सम्मान’ (2005) कगवता का ‘ऊतुराज परम्परा सम्मान’ (2010) नाटक : लगभग 20 नाटकों / मंचीय व ध्वगन

–प्रकाश प्रस्तुगतयों में 50 से ऄगधक नाट्य गीतों का लेखन व 500 से ऄगधक

नाट्य प्रस्तुगतयों में प्रमुख ऄगभनय ‘सांग एंड िामा गडगवजन’ के गलए समय समय पर पटकथा व गीत लेखन भारत सरकार के संस्कृ गत गवभाग की ओर से गथएटर में ‘सीगनयर फे लोगशप’ के ऄंतगषत लगभग 400 पृष्ठों में ‘नाटय प्रस्तुगत गीतों की साथषकता’ गवषय पर शोध कायष. सम्प्रगत : यूगनयन बैंक ऑफ़ आं गडया , नइ कदल्ली में कायषरत संपकष : ए-5, मनसाराम पाकष , सन्डे बाजार रोड, ईत्म नगर, नइ कदल्ली दूरभाष :

011-25334908 (गनवास) , 9868303565 मोबाइल

इ-मेल :

nareshhindi@yahoo.com

– 110059

कु छ दोहे एक कहो कै से हुइ, मेरी-ईसकी बात ।

कहना है तो कह मगर, कला कहन की जान ।

मैंने सब ऄर्मजत ककया, ईसे गमली खैरात ।1।

एक महाभारत रचे, कफसली हुइ जुबान ।6।

भीख न दी मैंने ईसे, लौट गया वो दीन ।

कगबरा की ककस्मत भली, कगवता की तकदीर ।

ईससे भी बढ़कर हुइ, खुद मेरी तौहीन ।2।

कगबरा कगवतामय हुअ, कगवता हुइ कबीर ।7।

ईनकी अंखों में पढ़ी, गवस्थापन की पीर ।

मुट्ठी में दुगनया मगर, ढू ंढ रहा मैं नींद ।

ईपन्यास से कम न था, ईन अंखों का नीर ।3।

खोइ गजसकी बींदणी, मैं हूं ऐसा बींद ।8।

ख्वाब न हों तो गजन्दगी, चलती-कफरती लाश ।

‘ससह गया तब गढ़ गमला’, हा ये कै सी जीत ।

पंख लगाकर ये हमें, देते हैं अकाश ।4।

तुम्हीं कहो आस जीत का, कै से गाउं गीत ।9।

महलों पर बाररश हुइ, चहके सुर-लय-साज ।

आस दुगनया से अपकी, नहीं पड़ेगी पूर ।

छप्पर मगर गरीब का, झेले रह-रह गाज ।5।

चलो चलें शांगडल्य जी, आस दुगनया से दूर ।10।

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (22)


ग़ज़ल- १

ग़ज़ल- ४

शोह्रत गमली है मुझको यूाँ रुसवाआयों के साथ चोटी पे हूाँ मैं चारों तरफ़ खाआयों के साथ

बात यूाँ ही न बनाए कोइ बात है गर तो बताए कोइ

मैं तागलयों के शोर में गुमसुम हूाँ, मौन हूाँ

जीना मुमककन तो नहीं, हा​ाँ, कफर भी

मैं भीड़ में गघरा हूाँ यूाँ तनहाआयों के साथ

आस तरह मर तो न जाएाँ कोइ

मुझको यही मलाल रहेगा तमाम ईम्र मैं भी वहा​ाँ खड़ा था तमाशाआयों के साथ

मान जाएाँगे कक हम मुरदा हैं हम-सा जी कर तो कदखाए कोइ

तारीककया​ाँ हैं लाख मेरे भाग में तो क्या तारीककयों में शाद हूाँ रानाआयों के साथ

झुनझुनों से यूाँ कहा​ाँ तक बहलें चुप हमें यूाँ न कराए कोइ

कोयल की कू ह-कू ह से गुलशन गसहर ईठा बौरा रहा हूाँ मैं भी आन ऄमराआयों के साथ

हम कहा​ाँ थे ये पता क्या करना हम कहा​ाँ हैं ये बताए कोइ

ग़ज़ल- २ शह्र में कल मुझे गततगलया​ाँ गमल गईं नकष के बीच भी मगस्तया​ाँ गमल गईं आक ऄजूबा हुअ कल मैं सहरा में था रे त पर तैरती मछगलया​ाँ गमल गईं गा​ाँव में कल जो गवधवाओं के मैं गया औरतें बेचती चूगड़या​ाँ गमल गईं कल ऄजब मूड में था मेरा अआना एक चेह्रे की सौ झलककया​ाँ गमल गईं ईसने इ-मेल से मुझसे पूछा कक क्या ईसकी खोइ हुइ गचरट्ठया​ाँ गमल गईं

ग़ज़ल- ३ मेरा बचपन मेरे चेहरे पे ऄब भी गखलगखलाता है मेरे सीने में आकतारा बजाता कोइ गाता है मेरी पथराइ-सी अाँखें ये ऄब भी भीग जाती हैं मेरी अाँखों की डबडब में समुन्दर कसमसाता है यक़ीनन है, यक़ीनन है कक मुझमें जानवर भी है मगर ऄब भी वो मेरे अदमी से हार जाता है फ़क़ीरों-सी मेरी अदत पे कोइ कु छ कहे लेककन जो रुचता है मेरे जी को मुझे तो वो ही भाता है बहुत बेचैगनयों में हूाँ मगर आतनी तसल्ली है कोइ तो है जो याद अकर मुझे ऄब भी सताता है

मागहए क्या-क्या न कहो कहती पीर पहाड़ों की जब होके नदी बहती ये अंख का पानी है कौन कहो आसका आस दुगनया में सानी है लागी वो लगन लागी चांद ईगा मुझमें जागी वो ऄगन जागी यों लाख गमला ईनसे कह न सका कदल की क्या खाक गमला ईनसे मुझको भी कबीरा कट ऄदना-सा पयथर हूं ले मुझको भी हीरा कर कदल है कक न माने है कर के ही गुज़रे है कदल में जो ठाने है ये चांद गपया-सा है देख सखी ये तो मेरे ही गहया-सा है जीने का हुनर सीखो ज़ह्र ये ऄमृत-सा पीने का हुनर सीखो ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (23)


ऄरुन श्री जन्मगतगथ :

29.09.1983

गपता : श्री माता : श्रीमती

ईमाशंकर लाल हीरावती

गशक्षा : बी

. कॉम. , गडप्लोमा आन कं प्यूटर एकाईं टटग

जन्म स्थान : कलानी

, रामगढ , कै मूर(गबहार )

वतषमान पता : मुगलसराय सम्प्रगत : गनजी

, चंदौली( ईत्र प्रदेश) क्षेि में लेखाकार(पेशा)

मोबाइल न :

09369926999

इ-मेल :

arunsri4ever@gmail.com

ऄंगतम योद्ा

हा​ाँ मैं गपघला दूाँगा ऄपने शि तुम्हारी पायल के गलए और धरती का सौभाग्य रहे तुम्हारे पा​ाँव शोभा बनेंगे ककसी अिमणकारी राजा के दरबार की फशष पर एक गवरोही कगव का खून गबखरा होगा! हा​ाँ मैं गलखूाँगा प्रेम कगवताएाँ ककन्तु ठहरो तगनक पहले गलख लूाँ एक मातमी गीत ऄपने ऄजन्मे बच्चे के गलए तुम्हारी गहचककयों की लय पर बहुत छोटी होती है गससकाररयों की ईम्र हा​ाँ मैं बुनूाँगा सपने तुम्हारे ऄन्तः विों के चटक रं ग धागों से पर आससे पहले कक ईस दीवार पर जहा​ाँ धुंध की तरह कदखते हैं तुम्हारे गबखराए बादल गजनमें से झांक रहा है एक दागदार चा​ाँद! वहीं दूसरी तस्वीर में ककसी राजसी हाथी के पैरों तले है दाशषगनक का सर!

सुनो िी! सुनो िी! पुरुष स्पशष की भाषा सुनो! और तुम देखोगी अयमा को देह बनते! तेज हुइ सा​ाँसों की लय पर गथरकती छागतया​ाँ प्रेम कहेंगी तुमसे संगीत और नृयय के संतुलन को! सामंजस्य जीवन कहलाता है! (ये तुम्हे स्वतः ज्ञात होगा) सम्मोहन टू टते है ऄक्सर बतषन फे कने की अवाजों से! अाँगन और छत के गलए अयागतत धूप पसार दी जाती है, शयनकक्ष की मेज पर! रं गीन मेजपोश अयममुग्धता का कारण हो सकते हैं, जब बुझ जाएगा तुम्हारी अाँखों का सूरज! (ऄगर डू बता तो कफर ईग भी सकता था) थोपी गइ धार्ममक स्मृगतया​ाँ गवस्मृत कर देतीं हैं प्रगतरोध की अकदम कला! आस घटना को अगस्तक होना कहा जाएगा! तो सुनो िी! पुरुष स्पशष की भाषा सुनो!

- मैं टांग दूाँ ऄपना कवच

बस, ह्रदय कज़षदार न हो

कह अओ मेरी मा​ाँ से कक वो कफ़न बुने मेरे छोटे भाआयों के गलए मैं तुम्हारे बनाए बादलों पर रहूाँगा

तुम्हारे कान गगरवी न रख कदए जाएाँ!

हा​ाँ मुझे प्रेम है तुमसे और तुम्हे मुदे पसंद हैं !

(होंठ ईम्र भर सूद चुकाते रहेंग)े दूब ताकतवर मानी गइ है, कु चलने वाले भारी भरकम पैरों से! बीच समुन्दर, ऄके ला जहाज, मस्तूल पर तुम! तुम्हारे पंख सजावट का सामान नहीं हैं! थोपी गइ स्मृगतया​ाँ नकार दी जानी चागहए! ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (24)


अवारा कगव ऄपनी अवारा कगवताओं में पहाड़ से ईतरती नदी में देखता हूाँ पहाड़ी लड़की का यौवन! हवाओं में सूंघता हूाँ ईसके अवारा होने की गंध! पयथरों को काट पगडण्डी बनाता हूाँ! लेककन सुस्ताते हुए जब भी सोचता हूाँ प्रेम तो देह गलखता हूाँ! जैसे खेत जोतता ककसान सोचता है फसल का पक जाना! और जब मैं ईतर अता हूाँ पूवषजों की कब्र पर फू ल चढाने कगवताओं को ईड़ा नदी तक ले जाती है अवारा हवा! अवारा नदी पहाड़ों की ओर बहने लगती है! रहस्य नहीं रह जाते पयथरों पर ईके रे मैथुनरत गचि! चा​ाँद की रोशनी में ककया गया प्रेम सूरज तक पहुाँचता है! चुगलखोर सूरज पसर जाता पहाड़ों के अाँगन में! जल-भुन गए गशखरों से गपघल जाती है बफष ! बाढ़ में डू ब कर मर जाती हैं पगडंगडया​ाँ! मैं तय नहीं कर पाता प्रेम और ऄगभशाप के बीच की दूरी! ककसी ऄाँधेरी गुफा में जा गभषपात करवा लेती है अवारा लड़की! अवारा लड़की को ढू ाँढते हुए मर जाता है प्रेम!

मैं ककतना झूठा था !! ककतनी सच्ची थी तुम, और मैं ककतना झूठा था!!! तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी! मैं चाहता कक बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संिमण से! तब रं गों का ऄथष न तुम जानती थी, न मैं! एक गमी की छु रियों में तुम्हारी अाँखों में ईतर गया मेरा सांवला रं ग! मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रं ग हो गइ थी! तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रं ग ऄपनी हथेली में भर लेती! मैं ऄपने सीने तक पहुाँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह ईठता कक ऄभी बच्ची हो! तुम तुनक कर कोइ स्टू ल खोजने लगती! तुम बड़ी होकर भी बच्ची ही रही, मैं कगव होने लगा! तुम्हारी थकी-थकी हाँसी मेरी बा​ाँहों में सोइ रहती रात भर! मैं तुम्हारे बालों में शब्द गपरोता, माथे पर कगवताएाँ गलखता!

ऄगभशाप खोंस लेता हूाँ मैं कस कर बा​ाँधी गइ पगड़ी में, और गलखने लगता हूाँ ऄपने ऄसफल प्रेम पर “प्रेम की सफल कगवताएाँ”! लेककन मैं जब भी गलखता हूाँ ईसके गलए प्रेम तो झूठ गलखता हूाँ! प्रेम नहीं ककया जाता प्रेगमका की सड़ी हुइ लाश से! ऄपगवि कदनों के रिस्राव से गतलक नहीं लगाता कोइ योद्ा! दुघषटना के छाती पर आगतहास गलखता हुअ युद्रत मैंईस अवारा लड़की को भूल जाउाँगा एक कदन, और वो कदन एक अवारा कगव का बुद् हो जाने की ओर पहला कदम होगा!

शब्द व्यंजना एक सागहगययक पहल प्रवेशांक – मइ २०१४

एक करवट में गबताइ गइ पगवि रातों को सुबह ईठते पूजाघर में छु पा अती तुम! मैं ईसे गबखेर देता ऄपनी डायरी के पन्नों पर! अरती गाते हुए भी तुम्हारे चेहरे पर पसरा रहता लाल रं ग दीवारें कह ईठतीं कक वो नहीं बदलेंगी ऄपना रं ग तुम्हारे रं ग से! मैं खूब जोर-जोर पढता ऄगभसार की कगवताएाँ! दीवारों का रं ग और काला हो रोशनदान तक पसर जाता! हमने तब जाना कक एक रं ग “ऄाँधेरा” भी होता है! रात भर तुम्हारी अाँखों से बहता रहता मेरा सांवलापन! तुम सुबह-सुबह काजल लगा लेती कक छु पा रहे रात का रं ग! मैं फाड देता ऄपनी डायरी का एक पन्ना! मेरा कदया गसन्दूर तुम चढ़ाती रही गा​ाँव के सत्ी चौरे पर! तुम्हारी दी हुइ कलम को तोड़ कर फें क कदया मैंन!े ईत्रपुगस्तकाओं पर ईसी कलम से पहला ऄक्षर टा​ाँकता था मैं! मैंने स्वीकार कर गलया ऄनुत्ीणष होने का भय! तुमने काजल लगाते हुए कहा कक मुझे याद करोगी तुम! मैंने कहा कक मैं कभी नहीं गलखूाँगा कगवताएाँ! ककतनी सच्ची थी तुम, और मैं ककतना झूठा था!!!

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (25)


ग़ज़ल-१ तय करना है

अह गलखो हुंकार गलखो कु बाषनी गलखना बंद करो ककस्सों में राजा रानी गलखना

चा​ाँद-गसतारे , बादल, सूरज

सूखे खेतों की ककस्मत में पानी गलखना ऄब गलखना तो पीलेपन को धानी गलखना

अाँख गमचौली खेल रहें हैं। धरती खुश है, झूम रही है। झूम रहा है प्रहरी कगव-मन। समय अ गया नए सृजन का। खून सनी सड़कों परका​ाँटे ईग अए हैं। जीवन भाग रहा है नंगे पा​ाँव – मगर बचना मुगश्कल है। सन्नाटों का गठबंधनऄब चीखों से है। हृदयों के श्रृंगाररक पल में छत पर चा​ाँद ईतर अता है। कगव के कन्धे पर सर रखकर मुस्काता है। नीम र्द्ार का गा ईठता है गीत प्यार के । कगवताएाँ नाखून बढाकर घूम रहीं हैं। नुचे हुए भावों के चेहरे नया मुखौटा ओढ़ चुके हैं। ऄिहास करती है नफरत प्यार भरी कु छ मुस्कानों पर। ऄलग-ऄलग से दो मंजर हैं, ककसको देखूाँ? जुदा-जुदा सी दो राहें हैं,

और भी हैं ररश्तेयारों तुम छोडो भी ऄब महबूबा के दर ऄपनी पेशानी गलखना मानवता ईन्वान भरा हो प्रेम कहन में ऄपना जीवन ऐसी एक कहानी गलखना जब भी तुम ऄपने लब पर मुस्कान गलखो तब मेरे माथे पर भी कु छ ताबानी गलखना जो कर दें दरबारी धार कलम की ऐसे शाही फरमानों पर नाफरमानी गलखना

ग़ज़ल-२ जाग ईठी सड़कें ईन्हें बस सच बयानी चागहए कह दो संसद से न कोइ लंतरानी चागहए देख तो ! मैं गबक गया ईसकी वफ़ा के नाम पर ऐ गतजारत ! ऄब तुझे नज़रें झुकानी चागहए मैं बना दूाँ ऄपनी पेशानी पे सजदे की लकीर तू बता तुझको कदलों पर हुक्मरानी चागहए ? धूप में जलना पड़े गाकफर सुबह से शाम तक गजद है बच्चों की ईन्हें कु छ जाफरानी चागहए प्यार है तो अ मेरे माथे पर ऄपना नाम गलख गजि जब मेरा हो तेरी बात अनी चागहए

क्या होगामेयार सफर का? तय करना है !

शब्द - व्यंजना एक सागहगययक पहल

कर खसारा मैं भरे बाज़ार से ईठने को हूाँ कह रहे हैं लोग थोड़ी बेइमानी चागहए मैं भी चुप हूाँ तू भी तन्हा सोच मत पयथर ईठा तु भी खुश मेरे लहू को भी रवानी चागहए

संपकष : contact@shabdvyanjana.com रचनाएाँ भेजें : editor@shabdvyanjana.com ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (26)


गिलोक ससह ठकु रे ला जन्म-गतगथ

:

01 -10 -1966

जन्म-स्थान

:

नगला गमगश्रया (हाथरस)

गपता

:

श्री खमानी ससह

माता

:

श्रीमती देवी

प्रकागशत कृ गतया​ाँ

:

नया सवेरा (बाल-सागहयय) काव्यगंधा (कु ण्डगलया संग्रह)

सम्पादन

:

अधुगनक सहदी लघुकथाएं कु ण्डगलया छं द के सात हस्ताक्षर कु ण्डगलया कानन राजस्थान सागहयय ऄकादमी र्द्ारा 'शंभू दयाल सक्सेना बाल सागहयय पुरस्कार' पंजाब कला, सागहयय ऄकादमी, जालंधर (पंजाब) र्द्ारा 'गवशेष ऄकादमी सम्मान' गविमगशला गहन्दी गवद्यापीठ गांधीनगर (गबहार) र्द्ारा 'गवद्या-वाचस्पगत'

सम्मान/पुरस्कार

सहदी सागहयय सम्मलेन, प्रयाग र्द्ारा 'वागग्वदाम्वर सम्मान' राष्ट्रभाषा स्वागभमान ट्रस्ट (भारत) गागज़याबाद (ई प्र) र्द्ारा 'बाल सागहयय भूषण ' गनराला सागहयय एवं संस्कृ गत संस्थान, बस्ती (ई प्र) र्द्ारा 'राष्ट्रीय सागहयय गौरव सम्मान ' गहन्दी भाषा सागहयय पररषद्, खगगड़या (गबहार) र्द्ारा 'स्वणष सम्मान'

गवगशष्टता

:

कु ण्डगलया छं द के ईन्नयन, गवकास और पुनस्थाषपना हेतु कृ तसंकल्प एवं समर्मपत

सम्प्रगत

:

ईत्र - पगश्चम रे लवे में आं जीगनयर

संपकष

:

बाँगला संख्या - 99, रे लवे गचककयसालय के सामने, अबू रोड- 307026 ( राजस्थान)

चल-वाताष

:

09460714267 / 07891857409

इ-मेल

:

trilokthakurela@gmail.com

गिलोक ससह ठकु रे ला की कु ण्डगलया​ाँ (१)

(२)

(३)

रत्नाकर सबके गलये, होता एक समान।

धीरे धीरे समय ही, भर देता है घाव।

बोता खुद ही अदमी, सुख या दुख के बीज।

बुगद्मान मोती चुन,े सीप चुने नादान।।

मंगजल पर जा पहुाँचती, डगमग होती नाव।।

मान और ऄपमान का, लटकाता ताबीज।।

सीप चुने नादान, ऄज्ञ मूाँगे पर मरता।

डगमग होती नाव, ऄन्ततः गमले ककनारा।

लटकाता ताबीज, बहुत कु छ ऄपने कर में।

गजसकी जैसी चाह, आकट्ठा वैसा करता।

मन की गमटती पीर, टू टती तम की कारा।

स्वगष नकष गनमाषण, स्वयं कर लेता घर में।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, सभी खुश आगच्छत पाकर।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, खुशी के बजें मजीरे ।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, न सब कु छ यूाँ ही होता।

हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर।।

धीरज रगखये मीत, गमले सब धीरे -धीरे ।।

बोता स्वयं बबूल, अम भी खुद ही बोता।।

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (27)


(४)

(५)

(६)

गतनका गतनका जोड़कर, बन जाता है नीड़।

ताकत ही सब कु छ नहीं, समय समय की बात।

थोथी बातों से कभी, जीते गए न युद्।

ऄगर गमले नेतृयव तो, ताकत बनती भीड़।।

हाथी को गमलती रही, चींटी से भी मात।।

कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्।।

ताकत बनती भीड़, नए आगतहास रचाती।

चींटी से भी मात, धुरंधर धूल चाटते।

करनी करते बुद्, नया आगतहास रचाते।

जग को कदया प्रकाश, गमले जब दीपक, बाती।

कभी-कभी कु छ तुच्छ, बड़ों के कान काटते।

करते गनत नव खोज, ऄमर जग में हो जाते।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, ध्येय सुन्दर हो गजनका।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, हुअ आतना ही ऄवगत।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, गसखातीं सारी पोथी।

रचते श्रेष्ठ गवधान, गमले सोना या गतनका।।

समय बड़ा बलवान, नहीं धन, पद या ताकत।।

ज्यों उसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी।।

(७)

(८)

(९)

सारा जग ऄपना बने, यकद हो मृदु व्यवहार।

जुड़ जाते हैं गजस घड़ी, कदल के कदल से तार।

जलता दीपक गजस समय, तम हो जाता दूर।

एकाकीपन झेलता, गजस पर दम्भ सवार।।

मन में खुगशया​ाँ फू टतीं, भाता यह संसार।।

प्रबल चाह, भरपूर श्रम, गमलती जीत जरूर।।

गजस पर दम्भ सवार, करठन जीवन हो जाता।

भाता यह संसार, ईषा, खगकु ल का कलरव।

गमलती जीत जरूर, मंगजलें चलकर अतीं।

रहता नहीं सुदीघष, कभी ऄपनों से नाता।

नकदया, पेड़, पहाड़, चा​ाँद, तारे सब के सब।

गमट जाते सब गवध्न, सुगम राहें हो जातीं।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, ऄन्ततः दम्भी हारा।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, जगत के सब रस भाते।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, सहज ही गसक्का चलता।

करो मधुर व्यवहार, बने ऄपना जग सारा।।

लगता जगत कु टु म्ब, जब कभी मन जुड़ जाते।।

कमषवीर के र्द्ार, दीप खुगशयों का जलता।।

(१०)

(११)

(१२)

जीवन से गायब हुअ, ऄब गनच्छल ऄनुराग।

भूले ऄपनापन सभी, कै सी चली बयार।

रीता घट भरता नहीं, यकद ईसमें हो छे द।

झाड़ी ईगीं गवषाद की, सूखे सुख के बाग।।

दीवारें सहमी खड़ीं, गबखर रहे पररवार।।

जड़मगत रहता जड़ सदा, गनयय पढ़ाओ वेद।।

सूखे सुख के बाग, सरसता सारी खोइ।

गबखर रहे पररवार, स्वाथष ने रं ग जमाया।

गनयय पढ़ाओ वेद, बुगद् रहती है कोरी।

कं टक ईगे तमाम, फसल यह कै सी बोइ।

ररश्ते हुए तबाह, सभी को धन ही भाया।

ईबटन करके भैंस, नहीं हो सकती गोरी।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, तोलते सब कु छ धन से।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, लोग गनज मद में फू ले।

‘ठकु रे ला‘ कगवराय, व्यथष ही जीवन बीता।

यह कै सा गखलवाड़, कर रहे हम जीवन से।।

भाया भौगतकवाद, संस्कृ गत ऄपनी भूले।।

गजसमें नहीं गववके , रहा वह हर क्षण रीता।।

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (28)


संकलन

शेखर जोशी

10 गसतंबर, 1932 को ऄल्मोड़ा (ईत्राखंड) के गा​ाँव ओगलयागांव के एक ककसान पररवार में जन्मे शेखर जोशी कथालेखन को दागययवपूणष कमष मानते हैं। सन् 1953 में गलखी ईनकी पहली कहानी ‘दाज्यू’ काफी चर्मचत हुइ। आस कालजयी कहानी का कइ भाषाओं में ऄनुवाद हो चुका है। आस पर गचल्िन कफल्म सोसायटी ने कफल्म का गनमाषण ककया। शेखर जोशी जी का अभार कक ईन्होंने यह कहानी यहा​ाँ प्रकागशत करने की ऄनुमगत प्रदान की।

दाज्यू चौक से गनकल कर बायीं ओर जो बड़े साआनबोडष वाला छोटा कै फे है

जगदीश बाबू ने राखदानी में गसगरे ट झाड़ी। ईन्हें लगा, आन शब्दों की

वहीं जगदीश बाबू ने ईसे पहली बार देखा था। गोरा-गचिा रं ग, नीली

ध्वगन में वही कु छ है गजसकी ररिता ईन्हें ऄनुभव हो रही है। और ईन्होंने ऄपनी शंका का समाधान कर गलया-

शफ्फ़ाफ अाँख,ें सुनहरे बाल और चाल में एक ऄनोखी मस्ती- पर

’क्या नाम है तुम्हारा?’

गशगथलता नहीं। कमल के पत्े पर कफसलती हुइ पानी की बूाँद की सी फु ती। अाँखों की चंचलता देख कर ईसकी ईम्र का ऄनुमान के वल नौ-दस वषष ही लगाया जा सकता था और शायद यही ईम्र ईसकी रही होगी ।

’मदन।’

ऄधजली गसगरे ट का एक लंबा कश खींचते हुए जब जगदीश बाबू ने कै फे में प्रवेश ककया तो वह एक मेज पर से प्लेटें ईठा रहा था और जब

’पहाड़ तो सैकड़ों हैं- अबू, दार्मजसलग, मंसूरी, गशमला, ऄल्मोड़ा!

वे पास ही कोने की टेबल पर बैठे तो वह सामने था। मानो, घंटों से

’ऄच्छा, मदन! तुम कहा​ाँ के रहने वाले हो?’ ’पहाड़ का हूाँ, बाबूजी!’ तुम्हारा गा​ाँव ककस पहाड़ में है?’

ईनकी, ईस स्थान पर अने वाले व्यगि की, प्रतीक्षा कर रहा हो। वह

आस बार शायद ईसे पहाड़ और गजले का भेद मालूम हो गया। मुस्कु राकर बोला-

कु छ बोला नहीं। हा​ाँ, नम्रता प्रदशषन के गलए थोड़ा झुका और मुस्कराया

’ऄल्मोड़ा, शा’ब ऄल्मोड़ा।’

भर था, पर ईसके आसी मौन में जैसे सारा ‘मीनू’ समागहत था। ‘ससगल

’ऄल्मोड़ा में कौन-सा गा​ाँव है?’ गवशेष जानने की गरज से जगदीश बाबू

चाय’ का अडषर पाने पर वह एक बार पुन: मुस्करा कर चल कदया और पलक मारते ही चाय हागजर थी। मनुष्य की भावनाएाँ बड़ी गवगचि होती हैं। गनजषन, एकांत स्थान में गनस्संग होने पर भी कभी-कभी अदमी एकाकी ऄनुभव नहीं करता।

ने पूछा। आस प्रश्न ने ईसे संकोच में डाल कदया। शायद ऄपने गा​ाँव की गनराली संज्ञा के कारण ईसे संकोच हुअ था, आस कारण टालता हुअ सा बोला, ‘वह तो दूर है शा’ब ऄल्मोड़ा से पंरह-बीस मील होगा।’

लगता है, ईस एकाकीपन में भी सब कु छ ककतना गनकट है, ककतना

’कफर भी, नाम तो कु छ होगा ही।’ जगदीश बाबू ने जोर देकर पूछा।

ऄपना है। परं तु आसके गवपरीत कभी-कभी सैकड़ों नर-नाररयों के बीच जनरवमय वातावरण में रह कर भी सूनेपन की ऄनुभूगत होती है।

’डोट्यालगों’ वह सकु चाता हुअ-सा बोला।

लगता है, जो कु छ है वह पराया है, ककतना ऄपनयवहीन! पर यह ऄकारण ही नहीं होता। ईस एकाकीपन की ऄनुभूगत, ईस ऄलगाव की

जगदीश बाबू के चेहरे पर पुती हुइ एकाकीपन की स्याही दूर हो गइ और जब ईन्होंने मुस्करा कर मदन को बताया कक वे भी ईसके गनकटवती गा​ाँव

जड़ें होती हैं- गबछोह या गवरगि की ककसी कथा के मूल में।

‘……..’ के रहने वाले हैं तो लगा जैसे प्रसन्नता के कारण ऄभी मदन के हाथ से ‘ट्रे’ गगर पड़ेगी। ईसके मुाँह से शब्द गनकलना चाह कर भी न

जगदीश बाबू दूर देश से अए हैं, ऄके ले हैं। चौक की चहल-पहल, कै फे के शोरगुल में ईन्हें लगता है, सब कु छ ऄपनयवहीन है। शायद कु छ कदनों रहकर, ऄभ्यस्त हो जाने पर ईन्हें आसी वातावरण में ऄपनेपन की ऄनुभूगत होने लगे। पर अज तो लगता है यह ऄपना नहीं, ऄपनेपन की सीमा से दूर, ककतना दूर है! और तब ईन्हें ऄनायास ही याद अने लगते हैं ऄपने गा​ाँव-पड़ोस के अदमी, स्कू ल-कालेज के छोकरे , ऄपने गनकट शहर के कै फे -होटल…!

गनकल सके । खोया-खोया सा वह मानो ऄपने ऄतीत को कफर लौट-लौट कर देखने का प्रयत्न कर रहा हो। ऄतीत- गा​ाँव…उाँची पहागड़या​ाँ…नदी…इजा (मां)…बाबा…दीदी…भुगल (छोटी बहन)…दाज्यू (बड़ा भाइ)…! मदन को जगदीश बाबू के रूप में ककसकी छाया गनकट जान पड़ी! इजा?नहीं, बाबा?- नहीं, दीदी,…भुगल?- नहीं, दाज्यू? हा​ाँ, दाज्यू! दो-चार ही कदनों में मदन और जगदीश बाबू के बीच की ऄजनबीपन की खाइ दूर हो गइ। टेबल पर बैठते ही मदन का स्वर सुनाइ देता-

’चाय शा’ब!’ ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (29)


‘दाज्यू, जैगहन्न…।’ ‘दाज्यू, अज तो ठं ड बहुत है।’ ‘दाज्यू, क्या यहा​ाँ भी ‘ह्यूं’ (गहम) पड़ेगा।’

दूसरे कदन कै फे जाते हुए ऄचानक ही जगदीश बाबू की भेंट बचपन के सहपाठी हेमंत से हो गइ। कै फे में पहुाँचकर जगदीश बाबू ने आशारे से मदन को बुलाया परं तु ईन्हें लगा जैसे वह ईनसे दूर-दूर रहने का प्रयत्न कर रहा हो। दूसरी बार बुलाने पर ही मदन अया। अज ईसके मुाँह पर वह मुस्कान न थी और न ही ईसने ‘क्या लाउाँ दाज्यू’ कहा। स्वयं जगदीश बाबू को ही

‘दाज्यू, अपने तो कल बहुत थोड़ा खाना खाया।’ तभी ककसी और से

कहना पड़ा, ‘दो चाय, दो ऑमलेट’ परं तु तब भी ‘लाया दाज्यू’ कहने की

‘बॉय’ की अवाज पड़ती और मदन ईस अवाज की प्रगतध्वगन के

ऄपेक्षा ‘लाया शा’ब’ कहकर वह चल कदया। मानों दोनों ऄपररगचत हों।

पहुाँचने से पहले ही वहा​ाँ पहुाँच जाता! अडषर लेकर कफर जाते-जाते जगदीश बाबू से पूछता, ‘दाज्यू कोइ चीज?’ ‘पानी लाओ।’ ‘लाया दाज्यू’, दूसरी टेबल से मदन की अवाज सुनाइ देती।

‘शायद पहागडय़ा है?’ हेमंत ने ऄनुमान लगाकर पूछा। ‘हा​ाँ’, रूखा सा ईत्र दे कदया जगदीश बाबू ने और वाताषलाप का गवषय ही बदल कदया। मदन चाय ले अया था।

मदन ‘दाज्यू’ शब्द को ईतनी ही अतुरता और लगन से दुहराता गजतनी अतुरता से बहुत कदनों के बाद गमलने पर मा​ाँ ऄपने बेटे को चूमती है। कु छ कदनों बाद जगदीश बाबू का एकाकीपन दूर हो गया। ईन्हें ऄब चौक, के फे ही नहीं सारा शहर ऄपनेपन के रं ग में रं गा हुअ सा लगने लगा। परं तु ऄब ईन्हें यह बार-बार ‘दाज्यू’ कहलाना ऄच्छा नहीं लगता और यह मदन था कक दूसरी टेबल से भी ‘दाज्यू’…। ‘मदन! आधर अओ।’ ‘अया दाज्यू!’ ‘दाज्यू’ शब्द की अवृगत् पर जगदीश बाबू के मध्यमवगीय संस्कार जाग ईठे - ऄपनयव की पतली डोरी ‘ऄहं’ की तेज धार के अगे न रटक सकी। ‘दाज्यू, चाय लाउाँ?’ ‘चाय नहीं, लेककन यह दाज्यू-दाज्यू क्या गचल्लाते रहते हो कदन रात। ककसी की ‘प्रेगस्टज’ का ख्याल भी नहीं है तुम्हें?’ जगदीश बाबू का मुाँह िोध के कारण तमतमा गया, शब्दों पर ऄगधकार नहीं रह सका। मदन ‘प्रेगस्टज’ का ऄथष समझ सके गा या नहीं, यह भी ईन्हें ध्यान नहीं रहा, पर मदन गबना समझाए ही सब कु छ समझ गया था। मदन को जगदीश बाबू के व्यवहार से गहरी चोट लगी। मैनेजर से गसरददष का बहाना कर वह घुटनों में सर दे कोठरी में

‘क्या नाम है तुम्हारा लड़के ?’ हेमंत ने ऄहसान चढ़ाने की गरज से पूछा। कु छ क्षणों के गलए टेबुल पर गंभीर मौन छा गया। जगदीश बाबू की अाँखें चाय की प्याली पर ही रह गईं। मदन की अाँखों के सामने गवगत स्मृगतया​ाँ

गससककया​ाँ भर-भर रोता रहा। घर- गा​ाँव से दूर, ऐसी पररगस्थगत में

घूमने लगीं… जगदीश बाबू का एक कदन ऐसे ही नाम पूछना… कफर…

मदन का जगदीश बाबू के प्रगत अयमीयता-प्रदशषन स्वाभागवक ही था। आसी कारण अज प्रवासी जीवन में पहली बार ईसे लगा जैसे

दाज्यू अपने तो कल थोड़ा ही खाया… और एक कदन ‘ककसी की प्रेगस्टज का खयाल नहीं रहता तुम्हें…’

ककसी ने ईसे इजा की गोदी से, बाबा की बा​ाँहों के , और दीदी के अाँचल की छाया से बलपूवषक खींच गलया हो। परं तु भावुकता स्थायी नहीं होती। रो लेने पर, ऄंतर की घुमड़ती वेदना को अाँखों की राह बाहर गनकाल लेने पर मनुष्य जो भी गनश्चय करता है वे भावुक क्षणों की ऄपेक्षा ऄगधक गववेकपूणष होते हैं। मदन पूवषवत काम करने लगा।

जगदीश बाबू ने अाँखें ईठाकर मदन की ओर देखा, ईन्हें लगा जैसे ऄभी वह ज्वालामुखी सा फू ट पड़ेगा। हेमंत ने अग्रह के स्वर में दुहराया, ‘क्या नाम है तुम्हारा?’ ‘बॉय कहते हैं शा’ब मुझे।’ संगक्षप्त-सा ईत्र देकर वह मुड़ गया। अवेश में ईसका चेहरा लाल होकर और भी ऄगधक सुंदर हो गया था ।

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (30)


१५ जनवरी १९०२ को औटोमन साम्राज्य के पगश्चमी महानगर में जन्मे गवख्यात कगव

तुम कहते हो तुम्हें एक आं सान की तरह जीना चागहए, एक औजार, एक संख्या, एक साधन की तरह नहीं. तुम्हारी महान अज़ादी में वे हथकगडया​ाँ पहना देते हैं तुम्हें.

नागजम गहकमत ने कगवता,

गगरफ्तार होने, जेल जाने, यहा​ाँ तक कक

काव्य मुहावरा और भाषा के बारे में ऄपनी ऄलग धारणा गवकगसत की. ईनका मानना था कक ‘वही कला ऄसली है जो जीवन

फा​ाँसी पर झूलने की ऄपनी अज़ादी के साथ तुम अजाद हो.

नागजम गहकमत

को प्रगतसबगबत करे .’ वे तुकी की अज़ादी की लड़ाइ में शागमल थे. आस दौरान ईन्हें जेल भी जाना पड़ा और देश गनकाला भी भोगना पड़ा था. जेल में रहते हुए ईन्होंने ऄपनी पत्नी और बेटे के गलए बहुत ही नायब कगवताएाँ गलखीं. आस महान कगव की कु छ कगवताएाँ यहा​ाँ प्रस्तुत हैं-

मनहूस अज़ादी तुम बेच देते हो – ऄपनी अाँखों की सतकष ता, ऄपने हाथों की चमक. तुम गूंथते हो लोआया​ाँ सजदगी की रोटी के गलये, पर कभी एक टु कड़े का स्वाद भी नहीं चखते तुम एक गुलाम हो ऄपनी महान अजादी में खटनेवाले. ऄमीरों को और ऄमीर बनाने के गलये नरक भोगने की अज़ादी के साथ तुम अजाद हो! जैसे ही तुम जन्म लेते हो, करने लगते हो काम और सचता, झूठ की पवनचकक्कया​ाँ गाड़ दी जाती हैं तुम्हारे कदमाग में. ऄपनी महान अज़ादी में ऄपने हाथों से थाम लेते हो तुम ऄपना माथा. ऄपने ऄन्तःकरण की अजादी के साथ तुम अजाद हो! तुम बेहद प्यार करते हो ऄपने देश को, पर एक कदन, ईदाहरण के गलए, एक ही दस्तखत में ईसे ऄमेररका के हवाले कर कदया ज़ाता है और साथ में तुम्हारी महान अज़ादी भी. ईसका हवाइऄिा बनने की ऄपनी अजादी के साथ तुम अजाद हो! तुम्हारा गसर ऄलग कर कदया गया है धड़ से. तुम्हारे हाथ झूलते है तुम्हारे दोनों बगल. सड़कों पर भटकते हो तुम ऄपनी महान अज़ादी के साथ. ऄपने बेरोजगार होने की महान अज़ादी के साथ तुम अजाद हो! वालस्ट्रीट तुम्हारी गदषन ज़कड़ती है ले लेती है तुम्हें ऄपने कब्ज़े में. एक कदन वे भेज सकते हैं तुम्हें कोररया,

तुम्हारे जीवन में कोइ लोहे का फाटक नहीं, बा​ाँस का टिर या टाट का पदाष तक नहीं. अज़ादी को चुनने की जरुरत ही क्या है भला तुम अजाद हो! गसतारों भारी रात के तले बड़ी मनहूस है यह अज़ादी. (ऄनुवाद- कदनेश पोसवाल)

ज़हा​ाँ ऄपनी महान अजादी के साथ तुम भर सकते हो एक कब्र. एक गुमनाम गसपाही बनने की अज़ादी के साथ तुम अजाद हो! ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (31)


जीने के बारे में

और रख लो, लोहे के दरवाजे खुलने में ऄभी ऄठारह साल और बाकी हों

जीना कोइ हंसी-मजाक नहीं,

कफर भी हम गजयेंगे बाहरी दुगनया के साथ,

तुम्हें पूरी संजीदगी से जीना चागहए

वहा​ाँ के लोगों और जानवरों, जद्दोजहद और हवा के बीच—

मसलन, ककसी गगलहरी की तरह

मतलब दीवारों से परे बाहर की दुगनया में,

मेरा मतलब सजदगी से परे और ईससे उपर ककसी भी चीज की तलाश ककये बगैर. मतलब गजना तुम्हारा मुकम्मल कारोबार होना चागहए.

मतलब, हम जहा​ाँ और गजस हाल में हों,

जीना कोइ मजाक नहीं, आसे पूरी संजीदगी से लेना चागहए, आतना और आस हद तक कक मसलन, तुम्हारे हाथ बंधे हों पीठ के पीछे पीठ सटी हो दीवार से, या कफर ककसी लेबोरे टरी के ऄंदर

हमें आस तरह जीना चागहए जैसे हम कभी मरें गे ही नहीं. यह धरती ठं डी हो जायेगी, तारों के बीच एक तारा और सबसे छोटे तारों में से एक, नीले मखमल पर टंका सुनहरा बूटा— मेरा मतलब है, यह गजब की धरती हमारी. यह धरती ठं डी हो जायेगी एक कदन,

तुम मर सकते हो लोगों के गलए—

बफष की एक गसल्ली के मासनद नहीं या ककसी मरे हुए बादल की तरह भी नहीं बगल्क एक खोंखले ऄखरोट की तरह चारों ओर लुढके गी

ईन लोगों के गलए भी गजनसे कभी रूबरू नहीं हुए,

गहरे काले अकाश में…

हालांकक तुम्हे पता है सजदगी

आस बात के गलये आसी वि मातम करना चागहए तुम्हें

सबसे ऄसली, सबसे खूबसूरत शै है.

–आस दुःख को आसी वि महसूस करना होगा तुम्हें—

मतलब, तुम्हें सजदगी को आतनी ही संजीदगी से लेना है

क्योंकक दुगनया को आस हद तक प्यार करना जरुरी है

कक गमसाल के गलए, सत्र की ईम्र में भी

ऄगर तुम कहने जा रहे हो कक “मैंने सजदगी जी है”…

सफ़े द कोट और गहफाज़ती चश्मे में ही,

तुम रोपो जैतून के पेड़— और वह भी महज ऄपने बच्चों की खागतर नहीं,

ऄंगरे जी से ऄनुवाद –कदगंबर

बगल्क आसगलए कक भले ही तुम डरते हो मौत से— मगर यकीन नहीं करते ईस पर,

अशावाद

क्योंकक गजन्दा रहना, मेरे ख्याल से, मौत से कहीं भारी है. ll मान लो कक तुम बहुत ही बीमार हो, तुम्हें सजषरी की जरूरत है— कहने का मतलब ईस सफ़े द टेबुल से शायद ईठ भी न पाओ. हाला​ाँकक ये मुमककन नहीं कक हम दुखी न हों थोड़ा पहले गुजर जाने को लेकर, कफर भी हम लतीफे सुन कर हाँसेंग,े गखड़की से झांक कर बारीश का नजारा लेंगे या बेचैनी से ताज़ा समाचारों का आं तज़ार करें ग… े . फजष करो हम ककसी मोचे पर हैं—

कगवताएाँ गलखता हूाँ मैं वे छप नहीं पातीं लेककन छपेंगी वे. मैं आं तजार कर रहा हूाँ खुशखैररयत भरे खत काशायद वो ईसी कदन पहुाँचे गजस कदन मेरी मौत हो लेककन लागजम है कक वो अएगा. दुगनया पर सरकारों और पैसे की नहीं बगल्क ऄवाम की हुकू मत होगी ऄब से सौ साल बाद ही सही लेककन ये होगा ज़रूर. ऄंग्रेजी से ऄनुवाद –कदगंबर

रख लो, ककसी ऄहम चीज की खागतर. ईसी वि वहा​ाँ पहला भारी हमला हो, मुमककन है हम औंधे मुंह गगरें, मौत के मुंह में.

शब्द – व्यंजना

ऄजीब गुस्से के साथ, हम जानेंगे आसके बारे में,

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लेककन कफर भी हम कफिमंद होंगे मौत को लेकर

रचनाएाँ प्रेगषत करें : editor@shabdvyanjana.com

जंग के नतीजों को लेकर, जो सालों चलता रहेगा. फजष करो हम कै दखाने में हों

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और वाह भी तक़रीबन पचास की ईम्र में, ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (32)


चेन्नै के कप्पम बन्दरगाह पर सूयोदय दशषन

हम

छ: लोग थे मैं, धमषपत्नी मीरा, बेटी

ऄपेक्षा, दामाद गवगपन, ज्येष्ठ पुि अकाश और हमारे मेज़बान श्रीरं ग। समय, सुबह के 5॰50। बन्दरगाह की दृगष्ट से देखा जाए तो ईतनी सुबह ईस माहौल को शान्त ही कहा जाएगा। पूर्मणमा के तुरन्त बाद वाली सुबह थी। सागर की लहरों ने चा​ाँद की ओर ईछल-ईछलकर

बलराम ऄग्रवाल

रात भर जो ईयपात मचाया होगा, जल की

सीमा से दूर-दूर तक गीली नजर अ रही सागरतट की रे त आसकी गवाही देती नजर अ रही थी। चन्दा मामा के ऄन्तधाषन हो जाने के कारण सागर ने ऄपनी ईछलकू द को यद्यगप काफी ऄनुशागसत और सीमाबद् कर गलया था तथागप ईसका दहाड़ना बदस्तूर जारी था। बावजूद आसके , गजतने भी लोग थे, चुपचाप ऄपनी-ऄपनी गगतगवगधयों में व्यस्त थे। कोइ जॉसगग

यािा वृत्ांत

रागि के ऄगन्तम प्रहर और प्रात: के प्रथम प्रहर के संगधकाल में सूयषदेव जब पूवी गक्षगतज के पाताल से उपर की ओर अने की यािा में होते हैं , तब पूवी अकाश पर खड़े रहते ; लेककन जैसे ही वे भीतर की ओर गसमटतीं , दोनों श्वान ईनके पीछे भागते। सागरतट पर यह श्वान-िीड़ा मैंने पहली बार देखी थी। मन ने कहा—मनुष्य ही नहीं , सृगष्ट का हर प्राणी प्राकृ गतक सुषमा के अकषषण में अबद् है। प्रकृ गत ऄसीम रूपों वाली है। वे सब-के सब ऄसीम रूप ज्यों के ययों जीवधाररयों में भी मौजूद हैं लेककन जागृत नहीं हैं। ईनमें से गजस-गजस रूप का गजतनागजतना ऄंश जीवधाररयों में जागृत है ईतने-ईतने ही वे ईस सुषमा का अनन्द ले पाते हैं। आसी कारण से ककसी को जंगल जड़ लगता है , ककसी को चेतन। ककसी को पवषत पथरीले लगते हैं ककसी को अकषषक। ककसी को सागर प्रेम-सा ऄथाह गप्रय लगता है ककसी को मृययु-सा काला और भयंकर।

करने में, कोइ सूयष प्रणाम करने की तैयारी में, कोइ व्यायाम करने में, कोइ प्राणायाम करने में, कोइ रं गभरे अकाश को कै मरे में ईतारने में तो कोइ सूयोदय

आनका यह सैर-सपाटा और खेलना-तैरना सुबह का ईजाला

दशषन के गलए ऄपना कै मरा सेट करने में। श्रीरं ग की प्रशंसा करनी पड़ेगी कक वह बड़ी तन्मयता और अयमीयता से हमें ईस बन्दरगाह की गवशेषताएाँ बता और कदखा

ऄच्छी तरह फै ल जाने, चल-पहल शुरू हो जाने से पहले तक

रहे थे। हमारे पास दो कै मरे थे। एक अकाश के पास , गनकॉन के पॉवरफु ल लैंसों से

अकषषण में बाँधकर ईनसे खेलता मान अनगन्दत हो रहे थे,

लैस बेहरीन क्वागलटी का और दूसरा मेरे पास ऄगर्द्तीय के नन का कामचलाउ गडगज़टल।

बहुरं गी हो ईठता है , ऐसा मेरा ऄनेक बार का ऄनुभव है। ईस समय

, जब पूवी

गक्षगतज भी ऄपेक्षाकृ त ऄन्धकारमय ही रहता है , उपरी अकाश के मेघ कदव्य रं गों से

लगातार चलता है। वे श्वान, गजन्हें हम सागर की लहरों के वस्तुत: ऄपनी पशु-प्रकृ गत के ऄनुरूप आन के कड़ों के अखेट की

प्रकिया में रत थे।

ऄपनी देह को चमकाते हुए सूयषदेव के अगमन की घोषणा कर रहे होते हैं। ईन रं गों की व्याख्या करना मुझ सरीखे रस और रं ग की चेतना से गवहीन प्रकृ गत वाले व्यगि के गलए लेशमाि भी संभव नहीं है। मुझे बस आतना महसूस होता है कक जैसे-जैसे भास्कर

आनका यह सैर-सपाटा और खेलना-तैरना सुबह का ईजाला

पाताल क्षेि से उपर अते हैं , अकाश के रं ग वैसे-वैसे ऄगधक चमकीले और अकषषक

अकषषण में बाँधकर ईनसे खेलता मान अनगन्दत हो रहे थे,

होने लगते हैं। संगधकाल के ईस नीम ईजाले में हमने दो युवा श्वानों को सागर की देह में वापस गसमटती लहरों का पीछा करते देखा। समुगचत दूरी बनाए तट

लहरें जब बाहर की ओर अतीं , वे

ऄच्छी तरह फै ल जाने, चल-पहल शुरू हो जाने से पहले तक लगातार चलता है। वे श्वान, गजन्हें हम सागर की लहरों के वस्तुत: ऄपनी पशु-प्रकृ गत के ऄनुरूप आन के कड़ों के अखेट की प्रकिया में रत थे। यह बात हमारी समझ में दरऄसल तब अइ,

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (33)


जब हमने ईन कु त्ों को सागरतट की रे त में पंजो से खोदकर के कड़े तलाश करते

सूयोदय के प्रथम दशषन के समय दोनों ही के कड़ा-अखेटक

देखा। हे इश्वर! तूने ऐसी सृगष्ट की रचना क्यों की जहा​ाँ ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ कटु

अखेट छोड़कर हमारे कै मरों के सामने शान से जमे थे

सयय बनकर यि-ति-सवषि अ ईपगस्थत होता है।

बात का पता बाद में हमें तब चला जब ऄपने र्द्ारा खींचे सूयोदय के फोटो हमने घर अकर देखे।

काफी समय तक हमारी चेतना दो ओर बाँटी रही—के कड़ों के गशकार की चेष्टा में सागरतट पर लहरों के साथ अते-जाते के कड़ों का सावधानीपूवषक पीछा करते और तट पर बने ईनके गबलों को सूाँघते-खोदते ईन श्वानों की ओर तथा पूवी अकाश पर छाये मेघों के पीछे से शनै: शनै: प्रकट होने को चेष्टारत भगवान भास्कर की ओर।

, आस

वे दोनों ईन फोटो में आस मुस्तैदी से खड़े थे जैसे कक सागर और सूयष दोनों की रक्षा में तयपर हों। ईनमें से एक के ऄचानक दो फोटो हैं गजनमें वह झलक कदखलाते सूयष और हहराते सागर तथा हम लोगों के बीच वीर योद्ा की तरह गसर ईठाए , सीना

गबल्कु ल वैसे, जैसे कक साधारण मनुष्य न तो सांसाररक मोह को ययाग पाता है

और पूाँछ ताने डटा खड़ा है। हा​ाँ , यह भी हुअ कक सूयोदय से कु छ

और न इश्वरीय सत्ा से ही जुड़ पाता है। लेककन जैसे ही पूवी अकाश की बहुअयामी रिाभा ने स्वणाषभा में पररवर्मतत होना शुरू ककया हमारी चेतना एकाग्र हो गइ। गप्रय ऄथवा इष्ट के दशषन की ऄगभलाषा और ईसे प्रकट होते देखने

पहले ईनमें से एक ने ककनारा कर गलया था और दूसरा, कै मरे के

की गजज्ञासा ककसे कहते हैं तथा वह ककतनी प्रबल होती है, आस बात को वही जानता है जो आन प्रकियाओं से गुजरता है। हम सबकी गस्थगत ईस समय गन:संदेह ईस साधक-जैसी थी जो गचत् को एकाग्र करने में सफल हो जाता है। ईधर अकाश और आधर मैं ऄपना कै मरा लेकर चौकन्ने थे। भगवान भास्कर ने परदे के पीछे से हल्का-सा झा​ाँका। हमने तुरन्त गक्लक ककया। श्रीरं ग ने पहले ही हमें चेता रखा था कक सारा खेल माि पा​ाँच गमनट का होता है। परदे के पीछे से झा​ाँकने से शुरू करके पूरी तरह सामने अने तक के अगामी लगभग पा​ाँच गमनट हमने पूरी तरह भुनाए।

ईस पार पूवी गक्षगतज पर सूयष को ताकते अकाश के सामने अ बैठा था ; गबल्कु ल आस ऄन्दाज़ में कक हे मानव! जो सूयष तेरी नजरों के सामने पूरी तरह स्पष्ट ऄभी है ही नहीं , ईसके बजाय ऄपना ध्यान तू मुझ पर के गन्रत कर गजसे महाभारतकार महर्मष व्यास ने आस धरा पर धमष , गनष्ठा और स्वागमभगि का जीवंत प्रतीक बताया है। और कमाल की बात यह हुइ कक अकाश ने भी ईसके आस कदव्य ईद्बोधन को जैसे सुन गलया। कफर तो स्वगाषरोहण के समय भी साथ गये धमषराज युगधगष्ठर के ईस गप्रय

कै मरों के शटसष को चैन नहीं लेने कदया। साध्य की एक भी छगव, एक भी मुरा को

साथी ने कभी फ्रंट पोज़ , कभी राआटसाआड तो कभी लेफ्टसाआड

हम छू ट जाने नहीं देना चाहते थे।

पोज़…तायपयष यह कक ऄलग-ऄलग मुराओं में ऄनेक गचि अकाश से सखचवाए।

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (34)


लेख - ऄध्यायम ब्रह्म, माया और जीव के बाद ‘प्रेम’ शब्द मुझे सवाषगधक रहस्यमय

दशषन

लगता है | मेरी धारणा और प्रबल हो जाती है जब मैं महायमा कबीर की आन दो पंगियों की भावभूगम में प्रवेश करने का प्रयत्न करता हूाँ और अश्चयषचककत रह जाता हूाँ कक काशी के आस तयवरष्टा ने ककतनी सहजता के साथ वेदांत दशषन एवं ऄपने ऄनुभूगतजन्य सयय के गनचोड़ को हमारे समक्ष सूि रूप में रख कदया है | पंगिया​ाँ रष्टव्य हैं‘पोथी पकढ़ पकढ़ जग मुअ पंगडत भया न कोय | ढाइ अखर प्रेम का पढ़े सो पंगडत होय ||’ यद्यगप आन रहस्यमयी पंगियों के सांकेगतक तयव का गनरूपण वृहद् गवषय है तथागप मैं यहा​ाँ सूि रूप में आतना कहना चाहता हूाँ कक कबीर के पांगडयय का अधार यह रहस्यमय ‘प्रेम’ जब तक प्रकृ गत के सायुज्य में रहता है तब तक आसका स्वरुप र्द्ैत अभागषत होता है परन्तु पुरुष से जुड़ते ही यह भगि में पररवर्मतत हो ऄर्द्ैत की कदव्य गस्थगत को प्राप्त कर शांत हो जाता है |

ढाइ अखर प्रेम का तयवाथष यह कक माया का मूल स्वरुप देवी भगवती के रूप में भगवान् के साथ ऄर्द्ैत का ही है | ईसका लोक लुभावन पररधान ‘मैं ऄरु मोर तोर ते मया’ के रूप में मया का ऄशांत र्द्ैत स्वरुप को भागषत कराता है |तयव रष्टा कबीर का ‘ढाइ अखर’ जब जीव में भगि का कदव्य स्वरुप ग्रहण करता है तब गनष्कपट गनमषल मन सम्पूणष समपषण के साथ ब्रह्म में गवलीन हो ऄर्द्ैत

डॉ. ऄगनल गमश्र

रूप में ऄवगस्थत हो शांत हो जाता है | प्रेम का यही कदव्य स्वरुप भगि ज्ञान का मूल और कबीर का पांगडयय है और यही अयमबोध है | ‘जग गशवयव से भर दे’ काव्यकृ गत में मैंने आस तयवज्ञान को अयमसात करने का प्रयास गनम्नगलगखत पंगियों के माध्यम से ककया है“ज्यों ही मुझको ज्ञान हो गया... मैं ऄपूणष हूाँ या कक पूणष हूाँ,

‘गावत बेद पुरान ऄष्ट दस | छओ साि सब ग्रंथन को रस ||’ श्रीमद्

पंच तयव का चेतन यौगगक |

गोस्वामी तुलसीदास जी गवरगचत श्रीरामचररतमानस यद्यगप माया को

गवच्छे कदत कर ज्ञान चक्षु से,

र्द्ैत का कारण बताते हुए ईसका रूप ‘मैं ऄरु मोर तोर ते माया’ तथा

ज्यों ही ककया ऄलौककक, लौककक |

गवस्तार ‘गो गोचर जहाँ लगग मन जाइ | तहाँ लगग माया जानहु भाइ ||’

माया की काया का न्यारा,

आं गगत करता है परन्तु तयव की बात ईसके ऄर्द्ैत स्वरुप का संकेत ‘कगहयत गभन्न न गभन्न’ के माध्यम से देते हुए स्पष्ट करता है कक‘श्रुगत सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी | जो सृजगत जगु पालगत हरगत रुख पाआ कृ पा गनधान की ||’ श्री माकं डेय पुराण का ऄंश श्री दुगाषसप्तशती के ‘सप्तश्लोकी दुगाष’ का प्रथम मन्ि भी कु छ आसी प्रकार का संकेत करता है | मन्ि रष्टव्य है‘ॎ ज्ञागननामगप चेतांगस देवी भगवती गह सा | बलादाकृ ष्य मोहाय

तार-तार पररधान हो गया | ज्यों ही मुझको ज्ञान हो गया | एक साथ ही दसों र्द्ार पर, धू-धू कर जल ईठीं गचताएं | क्षण भर में ही भस्म हो गईं, धमष - कमष की पररभाषाएं | कोलाहल थम गया स्वयं औ’ ह्रदय शांगत का धाम हो गया | ज्यों ही मुझको ज्ञान हो गया |”

महामाया प्रयच्छगत ||’

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (35)


कबीर के पांगडयय और चेतना के अनंदमय कोष की पररगध के गवषय

लौककक जगत् में भी प्रेम का गवस्तार ‘ऄयं गनजः परोवेगत...से वसुधैव

ज्ञान, प्रेम और भगि के ऄर्द्ैत स्वरुप के सूक्ष्म गनरूपण की आस बाल

कु टु म्बकम’ यानी व्यगष्ट से समगष्ट तक होते ही ऊगष के ऄनुभूगत जगत् में

सुलभ चेष्टा के ईपरांत हम लौककक जगत में पुनः ईतरते हैं | लौककक

मन्ि गुंगजत हो ईठता है-

जगत में भी जब तक लेन-देन, हागन-लाभ, गगला-गशकवा अकद सोच में शेष हैं तब तक तो प्रेम ऄगस्तयव में अया ही नहीं है | सयय मागनये तब

‘सवे भवन्तु सुगखनः सवें सन्तु गनरामया

तक तो तथाकगथत प्यार, व्यापार माि है | लौककक जगत में गवशुद् प्रेम

सवे भरागण पश्यन्तु मा कगश्चद् दुःख भाग भवेत् |’

का मेरी दृगष्ट में सबसे ईपयुि ईदाहरण प्रसव वेदना सहने के ईपरांत प्रसूता का छती से गचपकाये ऄपने नवजात गशशु को स्तनपान कराते हुये; ह्रदय, दृगष्ट तथा रोम-रोम से बरसाते ईस प्रेम का है, जहा​ाँ न कोइ चाह है, न कपट है, न गगला है, न गशकवा है | प्रेम चाहे गजनके बीच हो, जच्चा-बच्चा, भाइ-बहन, पगत-पत्नी,

और आसके उपर की गस्थगत में जब प्रेम ऄपने कदव्य रूप ‘भगि’ के माध्यम से जीव को ब्रम्ह से जोड़ता है, तब क्या होता है यह ईस फक्कड़ मस्त फ़कीर का ‘ढाइ अखर’ ही अपको ऄनुभूगत कराये आस कामना के साथ ईसे ही दो पंगिया​ाँ भावांजगल के रूप में ऄर्मपत कर रहा हूाँ-

प्रेमी-प्रेगमका, गुरु-गशष्य, गचगड़या-चुनमुन अकद, वह पैदा ही वहां होगा

‘जब से पाया तुझे तभी से हा​ाँ,

जहा​ाँ सौदा नहीं होगा | एक शे’र नज़र करना चाहूाँगा-

खुद को पाया न ढू ाँढने पर भी’

‘ऄगर करना मुहब्बत तो कभी सौदा नहीं करना

प्रेम के रहस्य को मैं गजतना समझ पया हूाँ, अप सभी को शब्द-सुमन के रूप

यकीं मानो मुहब्बत में कभी सौदा नहीं होता’

मे सादर ऄर्मपत कर रहा हूाँ |

और मुहब्बत का ममष समझ में अते ही वफ़ाइ-बेवफ़ाइ का गगलागशकवा भी समाप्त हो जाता है| शेर मुलागहज़ा हो‘जानता हूाँ लोग ईनको बेवफ़ा कहते हैं लेककन मैं ऄगर ईनको वही कहने लगूं तो कफर वफ़ा क्या’

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (36)


अभासी दुगनया और सागहयय

सागहयय हमेशा तमाम तरह के खतरों और गवरोधाभासों के बीच गलखा जाता रहा है, और गलखा जाता रहेगा। लेककन सागहयय तो ऄन्ततः सागहयय ही कहा जायेगा, ईसे

सागहयय के उपर आस अभासी दुगनया का सकारायमक और नकारायमक दोनों ही तरह का प्रभाव पड़ रहा है। सकारायमक आस तरह कक —

ऄगभव्यि करने का माध्यम भले ही बदलता जाय। आधर काफ़ी समय से सागहयय जगत में आस अभासी दुगनया की वजह से कदग्गजों और मठाधीशों ( सागहयय के आस बात से खलबली भी मची है और लोग ऄखाड़े के ) की मठाधीशी ऄब खतम हो रही है। पहले जहा​ाँ सागहयय कु छ गगने चुने नामों की धरोहर बन कर रह गया था वो ऄब सवष सुलभ हो रहा डॉ. हेमन्त कु मार गचगन्तत भी हैं कक ऄन्तजाषल का फ़ै लाव है। अप देगखये कक जहा​ाँ बहुत सारे नये लेखक, कगव—ककसी पि पगिका में सागहयय को नुकसान पहुाँचाएगा। लोगों का छपने को तरस जाते थे (मठाधीशी के कारण) वो अज आसी अभासी दुगनया गचगन्तत होना स्वाभागवक है। लेककन क्या ककसी नये माध्यम के चैलेंज का के कारण ही प्रकागशत भी हो रहे हैं, पढ़े भी जा रहे हैं और ऄच्छा गलख भी सागहयय का यह पहला सामना है? आसके पहले भी तो जब टेलीगवजन पर रहे हैं। सीररयलों का अगमन हुअ था, नये चैनलों की भरमार हुयी थी—क्या तब भी सागहयय के सामने यही प्रश्न नहीं ईठे थे? तो क्या चैनलों के अने अभासी दुगनया में हर रचना का तुरन्त कक्वक ररस्पान्स गमलता है। ऄच्छा से सागहयय के लेखन या पठनीयता में कमी अ गयी थी? ऄगर अप हो या बुरा तुरन्त अपको पता लगता है, अप ईसमें पररवतषन पररमाजषन गपछले कदनों को याद करें तो—‘चन्रकान्ता’ धारावागहक के प्रसारण के

भी कर सकते हैं। जब कक गप्रण्ट में ऐसा नहीं है। अपको गलखने के कइ-कइ

बाद ‘चन्रकान्ता सन्तगत’ ईपन्यास तमाम ऐसे लोगों ने पढ़ा गजनसे कभी महीने बाद ऄपनी रचना पर प्रगतकियायें गमलती हैं। अप अज गलखते हैं, हफ़्ते भर बाद ककसी पि-पगिका में भेजते हैं। वह स्वीकृ त होकर महीनों भी सागहयय का नाता नहीं रहा था। भीष्म साहनी का ईपन्यास “तमस”, बाद छपती है। तब कहीं जाकर ईस पर अपको पाठकीय प्रगतकिया गमलती मनोहर श्याम जोशी का “कु रु कु रु स्वाहा”, “तमस” और “कक्का जी कगहन” है। जबकक अप ब्लाग पर या ककसी सोशल धारावागहकों के प्रसारण के बाद तमाम पाठकों ने ईयसुकतावश पढ़ा। तो टेलीगवजन ने सागहयय के पाठक कम ककये या बढ़ाये? ठीक यही बात मैं नेटवर्ककग साआट पर गलखते हैं तो वहा​ाँ अपने रात में गलखा और और सुबह ऄन्तजाषल या अभासी दुगनया के गलये भी कहूाँगा। ऄन्तजाषल के प्रसार और तक अपके पास प्रगतकियायें हागजर। कु छ तारीफ़ की—कु छ सुझावों या ब्लाग जैसे ऄगभव्यगि के सशि माध्यम की बढ़ती संख्या के साथ ही एक वैचाररक मतभेद के साथ। बार कफ़र सागहयय से जुड़े लोगों को तमाम तरह के खतरे नजर अने लगे हैं। ईनके मन में तरह तरह की शंकाएाँ जन्म लेने लगी हैं। जबकक मुझे नहीं लगता कक सागहयय को ब्लाग या ऄन्तजाषल से ककसी प्रकार का कोइ खतरा लेखक और प्रकाशक ( गप्रण्ट माध्यम) दोनों ऄब अमने सामने हैं। अभासी हो सकता है क्योंकक ककसी भी नये माध्यम के नफ़े नुक्सान दोनों ही होते दुगनया में जहा​ाँ लेखक को पाठक ईपलब्ध हैं वहीं अज अप देगखये कक प्रकाशक भी असानी से ऄच्छे और नये लेखकों को ऄन्तजाषल से लेकर छाप हैं। ऄब यह तो सागहययकारों के समूह पर है कक वह आस गवशाल, वृहद रहा है। ये हमारे सागहयय, सागहययकारों, पाठकों सभी के गलये एक शुभ अभासी दुगनया से क्या लेता है क्या छोड़ता है। संकेत है। जहा​ाँ तक नकारायमक प्रभाव की बात है---ईसके खतरों से भी अप आन्कार नहीं कर सकते। बहुत से रचनाकारों की रचनायें ऄच्छी और स्तरीय न रहने पर भी “वाहवाह”, “सुन्दर”,“प्रभावशाली” जैसी रटप्पगणया​ाँ रचनाकार को नष्ट करने का काम कर रही हैं और आस बेवजह तारीफ़ का गशकार होकर कु छ रचनाकार ऄपने शुरुअती मेहनत और लगन के दौर में ही शायद ख़यम हो सकते हैं। ऐसे भी रचनाकार यहा​ाँ अपको गमलेंगे जो गसफ़ष यही तारीफ़ सुनने या ऄपना मनोरं जन करने के गलये कु छ भी गलख रहे हैं, गजसका सागहयय, समाज, देश के गलये या पाठकों के गलये भी कोइ ईपयोग नहीं। ऐसे सागहयय की भरमार होने पर आस अभासी दुगनया में से ऄच्छे रचनाकारों को खोजना ऄपेक्षाकृ त करठन हो जायेगा।

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (37)


आसके बावजूद मेरा मानना यही है कक ऄन्तजाषल ने अज सागहययकारों, पाठकों और प्रकाशकों को अपस में आतना करीब ला कदया है कक ऄब प्रकागशत होना, पढ़ा जाना कोइ समस्या नहीं और मुझे लगता है कक यकद आसे थोड़ा सा गनयन्िण में रखा जाये तो यह अभासी दुगनया रचनाकारों, पाठकों, प्रकाशकों के बीच एक ऄच्छे और मजबूत सेतु का काम करे गी।

अया था। मैंने गमि लोगों से पूछ-पूछ कर ब्लाग के बारे में जानकारी आकट्ठी की और आसकी मारक क्षमता को समझकर आससे जुड़ गया। अप अश्चयष करें गे जहा​ाँ मेरे पाठक 2008 में गसफ़ष भारत में थे वहीं अज की तारीख में दुगनया के हर देश में मेरे दो चार पाठक मौजूद हैं। यह सब आसी अभासी दुगनया का ही तो कमाल है और मुझे लगता है कक गजस रफ़्तार से हमारे देश में ( पूरे गवश्व की बात नहीं करूाँगा) ऄन्तजाषल पर ब्लाग्स, सोशल नेट्वर्ककग साआट्स, समूह, फ़ोरम बनते जा रहे हैं ईससे यही प्रतीत

अज अप देख सकते हैं कक पूरे सागहयय जगत में ब्लाग, फ़े सबुक, गट्वटर, गूगल प्लस की चचाष हो रही है। हर महीने ऄगर अप नेट पर या ऄखबारों में देखें तो ककसी न ककसी शहर में अपको ब्लागसष मीट सम्पन्न होने, ककसी ब्लागर के सम्मागनत होने, ब्लाग माध्यम पर अधाररत ककसी पुस्तक का गवमोचन होने, ब्लाग्स पर ककसी सेगमनार, संगोष्ठी की खबर जरूर पढ़ने को गमल जायेगी। मेरी जानकारी में कइ गवश्वगवद्यालयों में

होता है कक पूरे देश में एक तकनीकी िागन्त अ चुकी है गजससे जुड़ कर लोग एक दूसरे के काफ़ी करीब हो रहे हैं, एक दूसरे को सुन रहे हैं, समझ रहे हैं. आस अभासी दुगनया ने दूररयों को समाप्त कर कदया है और यह सही वि है देश को, समाज को, राष्ट्र को एक सही कदशा देने में आस अभासी दुगनया के सदुपयोग का। तभी हम सही मायनों में सूचना तकनीकी के सही लाभाथी कहे जायेंगे।

भी आस नये माध्यम पर सेगमनार, संगोगष्ठयों का अयोजन हुअ है। आसके ऄलावा भी गवशुद् सागहगययक संगोगष्ठयों में भी ऄब आस माध्यम के बारे में थोड़ी बहुत चचाषयें तो हो ही रही हैं।

डॉ. हेमन्त कु मार अर एस-2/108 राज्य सम्पगत् अवासीय पररसर सेक्टर-21,आगन्दरा नगर,लखनउ—226016

मुझे खुद नेट से जुड़े हुये लगभग तीन साल हुये हैं। मैं ब्लाग से तब पररगचत हुअ जब ऄगमताभ बच्चन और शाहरुख का वाक युद् ब्लाग पर

मोबाआल--09451250698

लघुकथा (जलेबी)

ऄब ऄन्दर जाने का टेम अया है। यों कहकर ईन्होंने भाइ की बा​ाँह पकड़ी।

की शहर के बाजार में

करते हो, आदर कल शाम से ऄपुन भूका है एकदम सच बात, खा लेन दो न।

गमठाआयों की दुकान है। आसी आलाके में एक तेजतराषर दारोगा की एकदम नइ पोसस्टग हुइ. वह सुबह-सुबह ही ईधर अ गनकला। सययेन्र की दुकान पर ताज़ी छन रही जलेगबया​ाँ देखकर वह ऄपने को रोक न सका। आधर-ईधर की बातें करते हुए ईसने ढाइ सौ ग्राम जलेगबया​ाँ लीं और ऄखबार के पन्ने ईलटते-पलटते सब राहुल देव चट कर गया। बोहनी न होने के बावजूद ईसके रोबीले व्यगियव को देखकर सययेन्र कु छ बोल न सका। चलते-चलते दारोगा ईसकी दूकान के बोडष की ओर देखकर भारी-भरकम अवाज़ में

अप भी खाओ, ऄम अपको कै से भूल सकता है। वो क्या है न कक आदर

सययेन्र

बोला, 'सययेन्र स्वीट होम एंड अडषर सप्लायसष’, ऄच्छा नाम है। हा​ाँ तो सतेन्र भाइ, चलता हूाँ कभी काम पड़े तो याद करना।' सययेन्र ने गसर गहलाया और दारोगा जी खींसे गनपोरते हुए चल कदए। ईतने में आलाके का नम्बरी भाइ ईसकी दूकान पर अ धमका। ईसने एक ककलो जलेगबया​ाँ तौलावाईं और बगैर पैसे कदए जाने को मुड़ा। सययेन्र ने

आस पर भाइ कु छ दबा लेककन गनभीकता से बोला, 'ऄरे साब क्यूाँ मज़ाक

मौसमी बेरोजगारी चल रइ है सो ऄपुन का मामला एकदम ठं डा है नआ तो ऄपन अपके सामने तुरंत एकदम फं टास गा​ाँधी जी को भेंट करता साब, ऄम आतना गगरा नइ है।' दारोगा साब ईसे डा​ाँटते हुए बोले, 'चल-चल, जलेबी रख! ज्यादा बातें न बना और दफा हो जा यहा​ाँ से, दुबारा नज़र अया तो ऄन्दर कर दूाँगा, समझा!' 'ठीक है साब, जैसी अपकी मज़ी, कहीं और चला जाउाँगा। मैं भूल गया था कक यह अपका आलाका है!' यों कहकर वह वहा​ाँ से भगा। दारोगा साब ने हाँसते हुए सययेन्र से कहा, 'ऄरे , मेरे होते हुए तुम्हे सचता करने की कोइ जरुरत नहीं है। यह तो रोज का धंधा है और हा​ाँ, अधा ककलो जलेबी ज़रा और पैक कर दो घर के गलए। तुम्हारी भाभी जी और

ईसे रोका तो वह ऑंखें तरे रते हुए बोला, 'जादा चू-ं चपड़ नइ करने का,

बच्चों को यहा​ाँ की जलेगबया​ाँ बहुत पसंद हैं।'

शाम को भाइ लोग आदर अयेगा तो तेरा पइसा गमल जायेगा। ऄम ऄराम

सययेन्र क्या कहता, चुपचाप ईसने अधा ककलो जलेगबया​ाँ तौलीं और

की नइ खाता, ऄभी आदर पैसे नइ हैं समझा क्या!'

दारोगा साब को ससम्मान गवदा ककया। सययेन्र ईन्हें जाता हुअ देखता रहा कफर ईसने गहसाब लगाया कक ईसकी

सहसा सययेन्र को पता नहीं क्या हुअ, ईसने गला फाड़कर जाते हुए दारोगा साब को अवाज़ लगाइ। साहब जी फ़ौरन लौट के अए। सययेन्र ने जल्दी-जल्दी ईन्हें सब गस्थगत बता डाली। आस पर दारोगा जी भाइ के उपर गरजे, 'क्यूाँ बे! बाप का माल समझ रखा है क्या कक जब मन चाहा मुाँह ईठाते हुए चले अए। ऄब बहुत कदन ऐश कर गलए तुम सब,

ढाइ सौ ग्राम जलेगबया​ाँ बच गयीं थीं, वह आसके अगे कु छ और भी सोचना चाहता था लेककन सोच न सका। क्या करना ईसे यह सोच वह चुपचाप ऄपने काम में लग गया।

- राहुल देव ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (38)


झरोखा दीगक्षत दनकौरी की पांच ग़ज़लें हमने कब सुल्तानी चाही तेरी रहमत पानी चाही

मुफ़्त गमला सामान नहीं हूाँ मैं तुझ पर ऄहसान नहीं हूाँ

ज़ख़्मी सर लेकर लौटा है हक़ की बात ईठानी चाही

तेरी एक ज़रुरत हूाँ मैं ऄनचाहा मेहमान नहीं हूाँ

झुलसे हाथ कदखाने ही थे तो क्यों अग बुझानी चाही

बंद न कर गखड़की दरवाज़े मैं अाँधी - तूफ़ान नहीं हूाँ

क्या गुज़री होगी अाँगन पर जब दीवार ईठानी चाही

मोल-भाव चाहे तो कर ले राशन की दूकान नहीं हूाँ

सारी ईम्र मुक़दमेबाज़ी रार नहीं सुलझानी चाही

राज कदलों पर करता हूाँ मैं सरकारी सम्मान नहीं हूाँ

दीगक्षत दनकौरी

बाज़ारे -नुमाआश में, मैं ककरदार साँभालूाँ ऄपनों को ऄपना कर देख जीवन भर पछता कर देख सागहल चल कर अएगा तूफा​ाँ से टकरा कर देख

घर-बार साँभालू,ाँ कक तेरा प्यार साँभालूाँ आस दौरे -तरक़्क़ी में,बचानी है ऄना भी रफ़्तार साँभालूाँ ,कक मैं दस्तार साँभालूाँ

जलता है वो सूरज सा ईससे अाँख गमला कर देख

का​ाँटों से भरा ताज ये पहना तो कदया है

औरों का भी ददष समझ ख़ुद से बाहर अकर देख

तब्दील हुइ जाती है तहज़ीब खंडर में

तू मुझको गबसरा देगा ऄच्छा चल गबसरा कर देख

दरबार साँभालू,ाँ कक मैं सरकार साँभालूाँ

बुगनयाद साँभालूाँ ,कक मैं दीवार साँभालूाँ कश्ती का भरोसा है, न मांझी पे यक़ीन ऄब

देखो तो क्या नखरा है जाने ककसका मोहरा है तेरे गबन जो गुज़रा है लम्हा वो ही ऄखरा है क्या-क्या भेद छु पाएगा चेहरा अगखर चेहरा है तेरी याद के साए में एक मुसाकफर ठहरा है फ़ररयादी फ़ररयाद न कर हाककम तेरा बहरा है

कफर क्यों न ईठूाँ खुद ही,मैं पतवार साँभालूाँ

शब्द व्यंजना एक सागहगययक पहल editor@shabdvyanjana.com

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (39)


कगव, लेखक एवं विा डॉ ऄगनल गमश्र ने सहदी, भोजपुरी तथा ऄंग्रेजी में कइ पुस्तकों का प्रणयन ककया है| राष्ट्रीय तथा ऄन्तराष्ट्रीय सम्मान के ऄगतररि डॉ गमश्र पर सन 2001 में लखनउ गवश्वगवद्यालय, लखनउ में ‘डॉ ऄगनल गमश्र की सागहयय साधना’ गवषय पर शोध भी हो चुका है|

डॉ अनिल निश्र

संपकष - 510/133 न्यू हैदराबाद, लखनउ-226007 इमेल : dranilkmishra@gmail.com

ग़ज़ल-१ फू ल की खुशबू बुलाना चाहते हैं अप को हम खयालों में बसाना चाहते हैं अप को गज़न्दगी के गीत के अरोह औ’ ऄवरोह में सा​ाँस की सरगम बनाना चाहते हैं अप को रूठने में औ’ मनाने में कसम क्या लुयफ़ है रूरठये जी कफर मनाना चाहते हैं अप को अआये लग के लबों से आक ग़ज़ल बन जाआये शे’र पढ़-पढ़ गुनगुनाना चाहते हैं अप को

ग़ज़ल आं कलाबी ग़ज़ल-२ हाथ को

आं कलाबी हाथ को गदषन पकड़ते देखना गदषन देखना पूरी व्यवस्था को सहमते देखना पकड़ते देखना नाक के उपर ज़रा पानीदेख पहुाँना चने दीगजये अब की तासीर तेज़ाबी पूबदलते री देखना व्यवस्था भीड़ को जो भेड़ सा हा​ाँका को ककये हैं ईम्र भर फू ल की सहमते ईनसे ईनका ऄपना साया भी सरकते देखना खुशबू देखना बुलाना हैं गहफ़ाजत से रखे गजसको दरो-दीवार ये चाहते हैं नाकदरकते के देखना दफ्न करने को ईसे आनको अप को उपर हम ज़रा है नहीं असान यहमेंअाँखें फटी रह जायगीं खयालों पानी वक़्त को बेवबसाना क़्त पर करवट बदलते देखना पहुाँचने चाहते हैं दीगजये अप को अब की जहां भी तुम्हें कदल केतासीर टु कड़े गमलेंगे गज़न्दगी तेज़ाबीगमलेंगे वहीं चंद मोती भी गबखरे के गीत के बदलते अरोह मैं पहुाँचा बुलंदी पे यूदें खहीनानहीं हूाँ हरे हों नऔ’ हों जख्म गहरे गमलेंगे

ग़ज़ल-२

ऄगस्तयव ऄंकुर ऄगस्तयव ऄंकुर ग़ज़ल-१ तुम्हारा ददष भी क्या क्या कमाल करता है रुला के अाँख में मोती बहाल करता है, तुम्हारा रे त पर भी नाम ऄब गलखूाँ कै से मैं जानता हूाँ समंदर बवाल करता है न जाने ककतने बुतों की मैं अजमाआश हूाँ मेरे वजूद पे पयथर मलाल करता है हो असमां को मुबारक ये चा​ाँद और तारे मेरा चराग मेरी देख भाल करता है मेरी गशकस्त के पीछे हज़ार चेहरे हैं हर एक शख्स मेरा आस्तेमाल करता है न पूछ मुझसे मेरा हाल-ए-बद ऄभी “ऄंकुर” वो याद अते ही जीना मुहाल करता है

ऄवरोह में भीड़ को सा​ाँस की जो मेंभेड़ मेरे कदल की गहराआयों जो ईतरे सरगम हा​ाँकागमलेंगे तो दररया में सागर सा के कतरे बनाना ककये हैं चाहते हैं ईम्र भर नया आकअप नगरकोबस गया है जहां पर ईनसे कइ गा​ाँव भी तुमको ईनका ईजड़े गमलेंगे

ऄपना रूठने में मेरे घरऔ’ में मनाने आं सान गमलने हैं मुगश्कल साया कइ बेज़ुबान और बहरे भी गमलेंगे में कसम सरकते क्या लुयफ़ देखना त’अल्लुक नहीं है गजनसे ऄब मेरा कोइ वो बुगरूरठये नयाद जी में मेरी ठहरे गमलेंगे हैं कफर गहफ़ाजत मनाना भले सांस लेने में अती हो कदक्कत से रखे चाहते हैं मगर जब गमलोगे तो हंस के गमलेंगे गजसको अप को दरोआसी चौक पर मेरी दीवार पूजा भीये होगी अआये आसी चौक पर मुझपे दफ्न पहरे गमलेंगे लग के करने को लबों से ईसे “ऄंकुर” तेरी शायरी और तेरे जख्म आक ग़ज़ल आनको ग़ज़ल बनबन के सारे जहां से गमलेंगे दरकते जाआये देखना ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (40) शे’र पढ़-


कु छ जरूरी बात छोड़ो गेंदे और गुलाब की बातें बोगनगबगलया पर तो मधुमगक्खया​ाँ भी नहीं बैठतीं

कगव-"राज बुन्दॆली"

चलो, बात करते हैं ध्रुवों पर गपघलती बफष की दरकती चिानों की धाँसती जमीन की खोजते हैं कारण कक क्यों बढ़ती जा रही है

ग़ज़ल-१ वफ़ा है ग़र ज़हां मॆं तॊ हमॆं भी अज़माना है ॥ फ़रॆ बी है ज़माना ग़र पता सच का लगाना है ॥१॥

घरों में दीवारों की सीलन; हल्की से गमी में भी क्यों गपघलती है सड़क सोचते हैं सा​ाँसों में बढ़ती खड़खड़ाहट गले में रुं धती अवाज़ असमान के बदलते रं ग के बारे में आस करठन समय में जब पेड़ों से पत्े लगातार झड रहे हैं सीना कफ़ से जकड गया है बाजू कमजोर हो रहे हैं, कगवता को सुन्दर फ्रेम में मढ़कर िाआं ग रूम में सजाने के बजाय करनी है कु छ जरूरी बात.

कटॆ जॊ शीश सैगनक कॆ सभी सॆ पूछतॆ धड़ वॊ, बता दॊ गहन्द का ककतना हमॆं कजाष चुकाना है ॥२॥ कहॆं रॊ कर शहीदॊं की मज़ारॊं कॆ सुमन दॆखॊ, नहीं है लाज सत्ा कॊ फ़कत दामन बचाना है ॥३॥ हमारॆ ख़ून सॆ लथ-पथ, हुयॆ आगतहास कॆ पन्नॆ, हमॆशा मुल्क की ख़ागतर, हमॆं जीवन लुटाना है ॥४॥ गमलॆ यॆ चन्द वादॆ हैं, हमारॆ खून की कीमत, शहीदॊं की शहादत पर, यही मरहम लगाना है ॥५॥ शराफ़त की करॆ बातॆं, मग़ज मॆं रं ज पालॆ है, शरीफ़ॊं का तरीका यॆ, बड़ा ही कागतलाना है ॥६॥

जागत धमष से बढ़कर गजसको गप्रय है देश वही नेता है,

चुनौती है तुझॆ तॆरॆ, ऄक़ीदॆ की आबादत की,

गजसके मन में लालच, भय न रहा ऄवशेष वही नेता है.

खुलॆ मैदान मॆं अजा, ऄगर जुरषत कदखाना है ॥७॥

जो नेता सुभाष, अजाद, भगत सी कु बाषनी दे सकता हो. जो गवकास, सुख, शांगत का ले अये सन्देश वही नेता है.

नहीं दॆतॆ कदखाइ ऄब, यहा​ाँ जॊ लॊग कहतॆ थॆ, मुहब्बत थी मुहब्बत है, मुहब्बत का ज़माना है ॥८॥

मगन्दर मगन्दर, मगस्जद मगस्जद ढू ाँढा मुझको ना धमष गमला, टहला घूमा मैं धमष नगर मुझको न कृ ष्ण का कमष गमला.

गशयासत मौन बैठी है पहन कर चूगड़या​ाँ दॆखॊ,

धार्ममक ईन्मादों दंगों ने जाने ककतने जीवन गनगले,

शहादत सॆ बड़ा ईनकी नज़र मॆं वॊट पाना है ॥९॥

मुझको तो मानवता में ही मानव जीवन का ममष गमला. कभी कॊइ बताता ही,नहीं है "राज" मुझकॊ यॆ,

मनोज शुक्ल ‘मनुज’

हमारॆ दॆश का रुतबा, हुअ ऄब क्यूाँ ज़नाना है ॥१०॥

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (41)


वतषमान व्यवस्था में बाज़ारवाद से बचा नहीं जा सकता आसगलए सागहयय की मुि-बाज़ारी व्यवस्था से मुकाबला करने के गलए गुणायमक तथा मािायमक दोनों तरह से मुकाबला करना पड़ेगा। ऄच्छे सागहयय की माके टटग भी जरूरी है साथ ही स्तरहीन सागहयय को नकारते हुए ईस पर प्रहार करना बहुत अवश्यक है, ऄन्यथा सागहयय के नाम पर फू हड़ता, चुटकु ले, मंचीय भाँड़ैती ही कदखायी देगी गजसके पैरोकार योजनाबद् तरीके से एकजुट हैं और ऄच्छे रचनाकारों को सागहयय से बेदखल करते रहेंगे। मेरा मानना है कक सागहयय में गुणवत्ा के समथषक एकजुट होकर बाज़ारवाद के र्द्ारा ही मुकाबला करें और प्रगतस्पधाष से बचें नहीं बगल्क पूरी अिामकता के र्द्ारा गहस्सा लें। यहा​ाँ पूाँजी का प्रश्न ईपगस्थत हो जाता है गजसका समाधान सहकाररता को ऄपना कर ककया जा सकता है।

अज कहीं पढ़ रही थी कक-- 'समाज के ककसी भी जीवन पक्ष को देखें हम पाते हैं कक सागहयय और सागहययकार के गलए अज भी वह जगह नहीं है जो होनी चागहए. गहन्दी में अज भी ऐसे लेखक न के बराबर हैं जो के वल गलख कर, ऄपनी जीगवका चला सकें . सागहयय ही एक ऐसी अवाज है जो समाज के बंद दरवाजों पर दस्तक देती है, ईन्हें पीटती है और कहती है कक.. तुम्हारी अयमा नष्ट हो रही है जागो! आक्का दुक्का ऄपवादों को छोड़ दें तो यह अवाज़ ऄब के वल सागहयय की अवाज है..! कला यागन गचि, संगीत, मूर्मतगशल्प अकद तो पहले से ही गहन्दी समाज में हागशए के भी बाहर रहे हैं, अज भी हैं. ऐसा नहीं है कक ऄजेंटीना का समाज भारत से कोइ ऄगधक गवकगसत और ज्ञानवान समाज है, लेककन वहा​ाँ बोखेज जैसे गूढ़ लेखक के प्रगत भी जो सम्मान है वो चककत करता है. एक बार जब बोखेज कचहरी से बाहर गनकल रहे थे तो भारी भीड़ जमा हो गयी और औरतों-बच्चों ने एक दूसरे से कहा कक 'मैंने बोखेज को छु अ है'... गहन्दी समाज में क्या ऐसा हुअ कभी? क्या कभी ऄपने गप्रय लेखक को छू कर खुश हुअ कोइ...?'

-जगदीश पंकज -

अदमी उाँची उाँची ऄिागलकाएाँ बौने लोग गवकृ गत और स्वभाव एक-दूसरे के पयाषयवाची चाहरदीवारी के मध्य शून्य वजषनाओं के टू टने का ईदघोष खामोशी से सुनते हुए

प्रदीप कु मार ससह कु शवाहा ध्वगन-प्रगतध्वगन संज्ञा-शून्य अहत भावनाएाँ ररसता खून ऄाँगुगलयों से चाटते हुए ये भी नमकीन है ऄपनों के लहू जैसा

कल और अज ईंट-गारे से चुनी उाँची-उाँची दीवारें अाँगन में खुलते र्द्ार तुलसी चौरा के न्र सबदु

(मैं तो हुइ..)

सुशीला पुरी कु िी काटती चाची रं भाती गाय कोने में जलता चूल्हा रोटी की सोंधी सुगंध टू टी खाट पर दादी से गलपटे बच्चे ककस्से-कहानी सुनते हुए नृयय करता जीवन फलती-फू लती भारतीय संस्कृ गत कं गूरे पर बैठे कपोत अज भी गवाह हैं

दरकती दीवारें ईनसे लटकती घास ररश्तों को नया अयाम देता क्षत-गवक्षत तुलसी चौरा बरसों से बंद र्द्ार मौत के सन्नाटे को चीरती जीवन का एहसास कराती झींगुरों की ध्वगन

गवनष्ट होती संस्कृ गत ररश्तों की गमठास काली रात में ढू ाँढते जुगनू अज भी गवाह हैं

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (42)


ऄरुण कु मार गनगम सोलह की मगहमा में सोलह पंगिया​ाँ

कुं डगलया छंद - 1 जीता नेकी ने सुनो, सदा बदी से युद्

सोलह -सोलह गलये गोरटया​ाँ,खेल चुके शतरं जी चाल

जहा​ाँ ऄंगुलीमार हैं , वहा​ाँ हमेशा बुद्

सोलह - मइ बताने वाली ,ककसने कै सा ककया कमाल

वहा​ाँ हमेशा बुद् ,सबेरा गनगश्चत अये धूपछा​ाँव का खेल-, यही जीवन कहलाये

सोलह कला सुसगज्जत कान्हा ने छेड़ी बंसी की तान

स्वयं जलाकर देह, सूयष ऄाँगधयारा पीता

सबका जीवन सफल बनाने,गसखलाया गीता का ज्ञान

सदा बदी से युद्, सुनो नेकी ने जीता |

मानव जीवन में पावनता , मयाषदा के हैं अधार ऊगषयों मुगनयों के बतलाये, जीवन में सोलह संस्कार सोलह - सोमवार व्रत करके , पाओ मनचाहा भरतार सोलह अने जब गमल जाते, तब लेता रुगपया अकार ईम्र शुरू हो सोलह की तो , अता ऄपने अप गनखार बीत गइ तब जीवन भर के , साथी हैं सोलह श्रृंगार सोलह चंर - कलायें होतीं, तब दुल्हन सी सजती रात

कुं डगलया छंद – 2

बरगद - पीपल हरदम कहते, सोलह अने सच्ची बात मेवा देने के गलये , खुद सहते हैं चोट सोलह - सोलह मािाओं की, चौपाइ मन खूब सुहाय

जग में सम्मागनत हुए,श्रीफल औ’ ऄखरोट

सोलह – सोलह वणों वाली,रूप – घनाक्षरी मन भाय

श्रीफल औ’ ऄखरोट,करठन होता है बनना यूाँ ही मुगश्कल जोकर के पररधान पहनना

सोलह की मगहमा को गाये,दुगष-नगर का ऄरुण कु मार

ऄपना कर पररहास , करते जोकर सेवा

छंद अपके मन भाया तो, प्रकट कीगजये गमि गवचार ||

खुद सहते हैं चोट , बा​ाँटते सबको मेवा ||

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (43)


बोल, भावों के गवहंगम! तेरे फड़फड़ाते पंखों की छु ऄन से, ऐ पटरदे! गहलोर अ जाती है गस्थर, ऄमूतष सैलाब में, छलक जाता है चमष-चक्षुओं के ककनारों से ऄनायास ही कु छ नीर.

ऄरुन शमाष ‘ऄनन्त’ ग़ज़ल

हवा दे जाते हैं कभी ये पर तुम्हारे अनन्द के ईयसाह-रं गजत ओजमय ऄंगार को, ईतर अती है

मध्य ऄपने अग जो जलती नहीं संदेह की,

मद्म सी चमक ऄधरोष्ठ तक,

टू ट कर दो भाग में बाँटती नहीं आक सजदगी.

ऄमृत की तरह.

हम गलतफहमी गमटाने की न कोगशश कर सके ,

गबखरते हैं जब,

कु छ समय का दोष था कु छ अपसी नाराजगी,

सम्वेदना के सुकोमल फू ल से पराग तेरे अ बैठने से चेतना फूाँ कती है सुगंधी

अज क्यों आतनी कमी खलने लगी है अपको, कल तलक मेरी नहीं स्वीकार थी मौजूदगी, यूाँ धराशायी नहीं ये स्वप्न होते टू टकर, अगखरी क्षण तक नहीं बहती ये अाँखों की नदी, रात भर करवट बदलना याद करना रात भर, एक ऄरसे से यही करवा रही है बेबसी.

गवन्दु बाबू

जड़, जीणष और...ऄचेतन में. बोल, भावों के गवहंगम! है कहा​ाँ तेरा घरौंदा? कण-कण में या हृदय में, या कफर दूर... यथाथष के ईस यथाथष में जो, कइ बार ऄननुभूत रह जाता है.

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (44)


गवज्ञान दशषन

आॉखों दे खी-1 डॉ. शरकदन्दु मुकजी

गवज्ञान दशषन

09 नवम्बर 1951 को सीतापुर, ईत्र प्रदेश में जन्मे शरकदन्दु मुकजी भू-वैज्ञागनक होने के साथ ही बांग्ला तथा सहदी के एक ऄच्छे सागहययकार भी हैं. आन्हें “कफ़ल्चनर शेल्फ़” तथा के दुगषम क्षेि में पहुाँचने वाले पहले भारतीय होने का गौरव प्राप्त है. “कफ़ल्चनर शेल्फ़” तथा “बकष नर अइस राइस ( बकष नर र्द्ीप)” पर आन्होंने गहमनदीय ऄध्ययन ककया. ये “मोल्टके नूनाटक” के दुगषम क्षेि में पहुाँचने वाले तीन सदस्यीय प्रथम मानव दल के सदस्य थे. आन्होंने आस क्षेि का भूवैज्ञागनक ऄध्ययन ककया. शरकददु मुकजी ऄंटाकष रटका में भारतीय वैज्ञागनक ऄनुसंधान कायष के साथ सम्बद् रहे. ये नवें शीतकालीन दल के स्टेशन कमाण्डर तथा ग्यारहवें भारतीय ऄगभयान दल के नेता थे. ऄंटाकष रटका में आनके योगदान के गलये 2004 के ‘राष्ट्रीय खगनज पुरस्कार’ से आन्हें सम्मागनत ककया गया.

बात फ़रवरी 1986 की है. भारत का पा​ाँचवा वैज्ञागनक ऄगभयान दल ऄंटाकष रटका में ऄपना काम समाप्त कर चुका था. शीतकालीन दल के सभी 14 सदस्य भारतीय ऄनुसंधान कें र “दगक्षण गंगोिी” में पहुाँच चुके थे. आस दल को ऄगले एक वषष तक यहीं रहना था. ग़्रीष्मकालीन दल के ऄगधकांश ऄगभयािी 15

ककलोमीटर दूर खड़े जहाज “एम.वी.

थुलीलैण्ड“ में थे. मौसम बेहद खराब हो जाने की वजह से एक दो वैज्ञागनक जहाज में नहीं पहुाँच पाये थे. कु छ और औपचाररकताएाँ बाकी थीं...आं तज़ार था मौसम के ठीक होने का. मौसम का अलम यह था कक हवा लगभग 80 ककलोमीटर प्रगत घंटा की रफ़्तार से बह रही थी और बफ़ष के सूखे कण ईड़ा रही थी. आन ईड़ते बफ़ष के कणों की वजह से ज़मीन से लगभग 12 फीट उपर तक कु छ भी नहीं कदख रहा था. दृगष्ट ऐसे बागधत हो रही थी कक ऄपना हाथ सीधे फै लाने से ईनमें पहने हुए दस्ताने भी नहीं कदख रहे थे. ऄचानक दल के एक वररष्ठ सदस्य जो भारतीय सेना के ऄगधकारी थे, गम्भीर रूप से बीमार पड़ गए. शीतकालीन दल के डॉक्टर ने ईनकी परीक्षा की तथा पररगस्थगत को देखते हुए जहाज में ईपगस्थत ऄन्य दो डॉक्टरों से गवचार-गवमशष करने की आच्छा व्यि की. ऄगभयान दल के नेता भी जहाज में ही थे. ईन्हें भी सूगचत करना ऄगनवायष था. ईन कदनों मोबाइल फोन की सुगवधा नहीं थी और न ही इ-मेल या स्काआप के

गंगोिी” की छत पर चढ़ा तो सामने का दृश्य देख हैरान रह गया. तेज़ तूफान के बावजूद ईड़ते बफ़ष के कण ऄब मेरी दृगष्ट को बागधत नहीं कर रहे थे क्योंकक मैं ज़मीन से 15 फीट उपर था. समुर की तरफ मैंने देखा कक असमान में एक जहाज ईल्टा लटका हुअ है. वास्तव में, मैं “थुलीलैण्ड” की मरीगचका देख रहा था. आसे ‘गमराज आफे क्ट’ कहते हैं और ऄंटाकष रटका के ठण्डे रे गगस्तान में ऐसा ऄक्सर देखा जाता है. देखते ही देखते ईस जहाज के डेक से एक लाल बत्ी नीचे की ओर लुढ़कती नज़र अइ..... ऄथाषत हेगलकॉप्टर ने ईड़ान भरी. क्योंकक मैं मरीगचका देख रहा था, कु छ सेकण्ड के गलये लाल बत्ी नीचे अती कदखी. कफर जैसे ही हेगलकॉप्टर गक्षगतज से उपर अया मैंने ईसे स्वाभागवक रूप में देखा. पा​ाँच गमनट से भी कम समय में सब लोग पहुाँच गए और नइ कहागनया​ाँ गलखी जाने लगीं. मेरे ऄनुभव की झोली भी भरनी शुरु हो गयी थी.

माध्यम से सम्पकष व्यवस्था. लगातार कोगशश करने के बावजूद “दगक्षण गंगोिी“ में ईपलब्ध बेतार तथा सैटेलाइट फोन र्द्ारा सम्पकष नहीं हो पा रहा था. आमरजेंसी चैनेल पर कोगशश करने पर सुदरू ऄट्लांरटक समुर मे ब्राज़ील के पास खड़े एक जहाज के कप्तान ने हमारी पुकार सुनी. वे सहायता करने को तयपर थे लेककन ईनका हम तक पहुाँचना नामुमककन था. ऄंतत: “थुलीलैण्ड” से सम्पकष हुअ और ऄगभयान दल के नेता ने

जो ईस कदन मैंने देखा था ईसका गचि गसफष मेरे मगस्तष्क में है. तीन वषष से ऄगधक समय मैंने गबताया है ऄंटाकष रटका के बफीले रे गगस्तान में......ककतने ऄद्भुत ऄनुभव हुए.....ऐसे ऄनुभव गजन्हें पृ्वी के और ककसी भाग में सोचा भी नहीं जा सकता. अने वाले समय में मैं अपसे ईन बातों को साझा करूाँगा गजनके कारण जीवन के प्रगत मेरा दृगष्टकोण ही बदल गया.

सूगचत ककया कक वे दोनों डॉक्टर तथा ऄन्य सहायता लेकर शीघ्रागतशीघ्र पहुाँच रहे हैं. खराब मौसम होते हुए भी भारतीय नौसेना के पायलट नन्हे चेतक हेगलकॉप्टर लेकर अने की तैयारी में जुट गए . “दगक्षण गंगोिी” में लैण्ड करते वक़्त ईन्हें नीचे कु छ भी नहीं कदखता, ऄत: एक दल को स्टेशन के बाहर भेजा गया ताकक वे हेगलकॉप्टर को ईतरने में मदद कर सकें . मुझे अदेश हुअ था कक मैं स्टेशन की छत पर बैठकर पूरी गगतगवगध पर नज़र रखूाँ. बड़ी मुगश्कल से जब मैं “दगक्षण

डॉ. शरकदन्दु मुकजी 37, रोहतास एंक्लेव, फै ज़ाबाद रोड, लखनउ–226016. इ-मेल sharadcoontee@gmail.com ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (45)


सामागजक दागययव गनवषहन मे समकालीन कगवता की भूगमका

सामागजक

दागययव के

गनवषहन में समकालीन कगवता की भूगमका पर गवचार करने के पूवष यह समझना अवश्यक प्रतीत होता है कक समकालीन कगवता क्या है और सामागजक दायगयव क्या है। समकालीन कगवता की कोइ सावषभौम पररभाषा

गोपाल नारायण श्रीवास्तव

नहीं है। ऄनेक गवर्द्ानों ने ऄपने-ऄपने ढंग से ईसे पररभागषत करने का प्रयास ककया है। ककसी के ऄनुसार समकालीन कगवता वह है जो पाठकों को यह बोध कराने में समथष हो कक वे ककस माहौल में जी रहे हैं। डॉ यतीन्र गतवारी के शब्दों में समकालीन कगवता समसामगयक समाज से ईपजी अशाओं का गबम्ब है। वह एक ऄगतररि यथाथष और जीवन है गजसमें शाश्वत जीवन मूल्यों की गमठास और यथाथष की कड़वाहट ऄथाषत दोनों की समरसता गवद्यमान है आसीगलए आसमें काव्य का रसानन्द और जीवन सयय की गवभीगषकाओं से संघषष प्रेरणा दोनों गमलती हैं। कु छ के गवचार से समकालीन कगवता अदमी को अदमी बनाए रखने का संवेदनायमक संवाद है और यह परम्परागत काव्यशािीय दायरों में बॅधकर गलखी जाने वाली कगवता नहीं है। कु छ गवचारक आसे काल-खण्ड से जोड़ते है ऄथाषत गवगत 30-40 वषों से गजस प्रकार की कगवताएाँ रची गइ हैं और रची जा रही हैं वह समकालीन कगवता है। हमारे स्कू ल-कॉलेजों में भी समकालीन कगवता के नाम पर यही सागहयय पढ़ाया जा रहा है। भगवष्य में यह छाि जब बूढे होंगे तब संभवतः कगवता का स्वरूप काफी बदल चुका होगा और तब अज की समकालीन कगवता शायद ईस समय समकालीन न रह जाए। अज का वररष्ठ कगव जो 50 या 60 की ईम्र पार कर चुका है वह जब पलट कर ऄपने सागहगययक जीवन को देखता है तो ऄपनी जवानी के तीस-चालीस वषों में गजन सागहययकारों के साथ कदम-ताल गमलाकर एवं सामागजक दागययवों को समझकर कगवता रचना की है, समग्र रुप में वही समकालीन कगवता है और ईस कगवता का जो गवचारायमक एवं रचनायमक वैगशष्ट्य है, वही ईसे पररभागषत भी करता है। समकालीन कगवता का कु छ स्वरूप समझ लेने के बाद ऄब प्रश्न यह है कक सामगजक दागययव ककसे कहते हैं। समाज हमें बहुत कु छ देता है पर हम समाज को क्या देते हैं आस प्रश्न पर संभवतः हम गवचार नहीं करते। अम व्यगि आस संबंघ मे प्रायः गनर्मवकार है क्योंकक ईसका सारा समय ऄपने ऄगस्तयव की रक्षा के ईपायों में ही खचष हो जाता है और ईसके पास ऐसी कोइ गवधा भी नहीं है गजससे वह समाज की कु छ सेवा करे सके । परन्तु कगवयों के पास कलम का जो ऄि है, आगतहास गवाह है कक ईसने बड़े-बड़े तलवारों के रं ग भी फीके ककए हैं। आस संबंध मे गवर्द्ान प्रायः पाब्लो नेरूदा की कगवता ‘‘कगव का दागययव’’ का ईल्लेख करते हैं आसमें सन्देह नहीं कक नेरूदा ने कगव दागययवों का बड़ा सांकेगतक और संवेनशील वणषन ककया है ककन्तु वह आययलम् नहीं है। काव्यायमक और कलायमक होने के कारण वह प्रायः सामान्य पाठक की पहुाँच से दूर है। परन्तु ईसे यहा​ाँ ईगल्लगखत करना समीचीन प्रतीत होता है।

‘जो शख्स नहीं सुन रहा है समन्दर की अवाज़ अज शुिवार की सुबह जो शख्स कै द है घर या दफ्तर कारखाना या औरत के अगोश में या सडक या खदान या बेरहम जेल के तहखाने में अता हूाँ मैं ईसके करीब और गबना बोले गबना देखे जाकर खोल देता हूाँ काल कोठरी का दरवाजा और शुरू होता है एक स्पंदन धुंधली और हठीली बादलों की गड़गड़ाहट धीरे -धीरे पकड़ती है रफ़्तार गमलती है धरती की धड़कन और समुरी-झाग से समुरी झंझावात से ईफनती नकदया​ाँ जगमग तारे ऄपने प्रभामंडल में और टकराती टू टती सागर की लहरें लगातार आसगलए जब मुकद्दर यहा​ाँ खींच लायी है मुझे तो सुनना होगा मुसलसल सागर का गबलखना और सहेजना होगा पूरी तरह जागरूक हो कर महसूसना होगा खारे पानी का टकराना और टू टना और गहफाजत से जमा करना होगा एक मुस्तककल प्याले में ताकक जहा​ाँ कहीं भी कै द में पड़े हों लोग जहा​ाँ कहीं भी भुगत रहे हों पतझड़ की प्रताड़ना वहा​ाँ एक अवारा लहर की तरह पहुाँच सकूाँ गखड़ककयों से होकर और ईम्मीद भरी गनगाहें मेरी अवाज़ की ओर गनहारें यह कहते हुए कक हम सागर तक कै से पहुाँचेंगे और गबना कु छ कहे मैं फै ला दूाँ ईन तक लहरों की गसतारों जैसी ऄनुगूाँज हर गहलोर के साथ फे न और रे त का गबखरना पीछे लौटते नामक की सरसराहट तट पर समुर-पांगखयों की सुरमइ कू क आस तरह पहुाँचेंगे मेरे जररए टू टे हुए कदल तक अजादी और सागर’ नेरूदा की कगवता में सामागजक दागययव का वही संदेश है गजसके ऄन्तगषत हमारी भावनाएाँ हर ऄययाचार का गवरोह करने के गलये ईद्दत होती हैं। हमारे ये प्रयास पीगड़तों के गलए मरहम का काम करते हैं। दुगनया का दुखददष कोइ नया नहीं है। युग के ऄनुसार ईसके स्वरूप बदलते रहते हैं। भगवान बुद् मानव की भौगतक पीड़ा के कारण ही गवरि हुए। वृहदारण्यक के तापस कु मार रै क्व भी मानव की भौगतक पीड़ा से ऄगभभूत हुए परन्तु ईन्हें वैराग्य नहीं हुअ ऄगपतु ईनहोंने ऄपना सारा जीवन लोगों के दुख गनवारण एवं सेवा मे ऄर्मपत कर कदया। सृगष्ट के अकद से लेकर संभवतः अज तक यकद हम पुराख्यानों को प्रमाण मानें तो मनुष्य कभी रावण, कभी कं स तो कभी दुयोधन के ऄययाचारों से िस्त एवं दगमत रहा है और प्रायः हर काल में देवों और मनुष्य के ईद्ार की समस्या रही है। यह ऄवश्य है कक हर युग की ऄपनी ऄलग पररगस्थगत और समस्याएाँ होती हैं। अज से लगभग सात दशक पूवष हमारी प्रमुख समस्या ऄंग्रेजों के ऄययाचार से मुगि और देश को अजाद कराने की रही है। परन्तु ऄब समस्याओं का स्वरूप बदला है और समकालीन कगवता का दागययव वतषमान समस्याओं के ऄनुिम में गवचारणीय है। काव्य गवधा का संवाहक होने के कारण समकालीन कगवता का दागययव ऄन्य गवधाओं की तुलना में सवोपरर है क्योंकक शब्दों के ऄगग्नबाण हृदय ‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (46)


भेदने में सदैव समथष रहे हैं। आस नज़ररए से समकालीन कगव और कगवता का प्रमुख सामागजक दागययव पाठकों को ऄपने समय की व्यवस्थाओं एवं ऄव्यवस्थाओं का सच्चा अइना कदखाना है। एक ऐसा अइना जो अपकी ऄनुभूगतयों को झकझोर दे। काययागयनी की एक कगवता आस संबंध मे प्रस्तुत है। ‘घनी घटाएाँ ईस कदन मुख पर छाईं थीं भोले मुख पर अाँखों में अाँसू तैर रहे थे बस्ता गबना ईतारे अकर खड़ा हो गया। रोज की तरह झूला नहीं पकड़कर अाँचल “सजा गमली स्कू ल में मुझे अज’’ और यह क्हते-कहते लुढ़क पड़े अाँखों से दो मोती गालों पर ‘‘सजा गमली? की होगी तूने कोइ गलती।’’ “नहीं शोर मैं नहीं दूसरे मचा रहे थे। मैं तो चुप था और सभी के साथ मुझे भी खड़ा कर कदया।’’ गबना ककसी गलती के जीवन में ककतना कु छ सहना पड़ता है ककतनों को ऄभी कहा​ाँ यह ईसने जाना जानेगा भी धीरे-धीरे सहज न्याय का बोध ऄभी तक बना हुअ है आसीगलए अहत है दुख से भरा हुअ है।‘ समकालीन कगवता का एक सामागजक दागययव यह भी है कक वह अर्मथक गवषमता के दंश, ऄसमानता, गवसंगगत और गवरूपता के सच्चे ददष को गशद्दत से बया​ाँ करे । कगवता में गजतना ही ऄगधक नैगतक बोध होगा ईसमें ईतनी ही ऄगधक संप्रेषण शगि होगी। जो कगव समाज के नंगे गवरूप रूप का गचिण करने के हामी हैं, ईनका गचिण यकद भदेस भी हो तो भी वे ऄनैगतक मूल्यों का समथषन नहीं करते। अज के समाज का वास्तगवक ददष है- भूख। दो वि की रोटी की समस्या। आस समस्या को गोगवन्द गर्द्वेदी ने ऄपनी कगवता में बखूबी ईतारा है। कगवता आस प्रकार है‘मुझे कल्प वृक्ष नहीं चागहए नहीं चागहए कामधेनु

आस पृ्वी पर गजन्दा रहने के गलए ईतना ही ऄन्न चागहए गजतना चींटी ऄपनी चोंच में लेकर चलती है ईतनी ही जमीन कक पसर सके लौकी की लहर ईतनी ही कपास की ढक जाए लान स्मृगतयों से कल्पना-लोक के दरवाजे पर दस्तक देती एक सड़क और नैगतक होने तक देती गशक्षा ककसी कु बेर का खजाना मुझे नहीं चागहए मुझे नहीं चागहए मगरमच्छों से भरी घी और दूध की शागतर नदी।‘ व्यगष्टगत या समगष्टगत दोनों ही धरातलों पर मनुष्य ईन तमान गस्थगतयों से गुजरता है जहा​ाँ वह समाज की परम्परा, गवकृ गत, गवसंगगत

और

ऄंधगवश्वास के ऄाँधेरे में ककसी रोशनी की तलाश करता है। आस तलाश में वह अस्था, प्रेम, गनष्ठा, सह-ऄगस्तयव ओर मानवीय मूल्यों को ढू ाँढता है। ककन्तु आसमें एक टकराहट भी है। युग-सयय, यथाथष और परम्परागत संस्कृ गत मे बड़ा वैषम्य है। आस सामागजक दागययव को समझकर भी समकालीन कगवताएाँ रची जा रही हैं। आस सम्बन्ध में ओम प्रकाश वाल्मीकक की एक कगवता प्रस्तुत है‘यज्ञों में पशुओं की बगल चढ़ाना ककस संस्कृ गत का प्रतीक है? मैं नहीं जानता शायद अप जानते हों। चूहड़े या डोम की अयमा ब्रह्म का ऄंश क्यों नहीं है मैं नहीं जानता शायद अप जानते हों।‘ मनुष्य की अकदम ककन्तु सबसे सुकुमार, सुकोमल वृगत् है प्रेम। प्रेम का स्वरूप बदला है। अज प्रेम-पि का जमाना नहीं है। मोबाआल पर सब कु छ सुलभ है और मोबाआल सबको सुलभ है। गपता ने शादी की बात कहीं चलाइ, बात बनी या नहीं, परन्तु संभागवत वर-वधू में फोगनक कनेक्शन प्रारम्भ हो गया। पहले जैसा वजषनाओं से जकड़ा, हृदय को मथ डालने वाला ‘‘परकाजगह देगह को धारर कफरो, परजन्य जथारथ ह्वै बरसो’’ वाला घनानन्दी प्रेम ऄब कहा​ाँ है। समय का िू र बदलाव एक प्रलय की तरह है जहा​ाँ ईस घनानन्दी प्रेम को बचाना एक समस्या है। आस सामागजक दागययव को बरी नारायन ने ऄपनी कगवता में बखूबी ईतारा है। बानगी प्रस्तुत है-

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (47)


‘प्रेत अएगा

यकद महज कुं ठा, हताषा, गवसंगगत, गवरूप और संस्कृ गत की गनमषम

ककताब से गनकाल ले जाएगा प्रेम-पि गगद् ईसे पहाड़ पर नोच-नोच खाएगा चोर अएगा तो प्रेम पि चुराएगा जुअरी प्रेम पि पर दा​ाँव लगाएगा ऊगष अएाँगे तो दान मे मांगेंगे प्रेम-पि बाररश अएगी तो प्रेम-पि को ही गलाएगी अग अएगी तो जलाएगी प्रेम-पि बंकदशें प्रेम-पि पर ही लगाइ जायेंगीं सा​ाँप अएगा तो डसेगा प्रेम-पि झींगुर अएाँगे तो चाटेंगे प्रेम-पि कीड़े प्रेम-पि ही काटेंगे प्रलय के कदनों में

अलोचना को ही गवषय बनाकर ऄतुकान्त कगवताएाँ रची जाएाँगी और हम नैगतक मूल्यों और शाश्वत सययों से सतत गनरपेक्ष रहेंगे तो संभवतः कगवता सम्पूणष नहीं होगी और न वह ऄपने सामागजक दागययवों का भरपूर गनवाषह करने मे समथष होगी तब शायद कफर ककसी अचायष को यह दुहराना पड़ेगा ककसुरम्य रूपे रस रागष रं गजते गवगचि वणाषभरणे कहा​ाँ गइ? ऄलौकककानन्द गवधायनी महा कवीन्रकान्ते कगवते ऄहो कहा​ाँ?

सप्तर्मष, मछली और मनु सब वेद बचायेंगे कोइ नही बचाएगा प्रेम-पि कोइ रोम बचाएगा कोइ मदीना कोइ चा​ाँदी बचाएगा कोइ सोना मैं गनपट ऄके ला कै से बचाउाँगा तुम्हारा पि’ सामागजक दागययव ऄनगगन हैं और ईनके सम्यक गनवाषह में सरस्वती के शत-शत वरद पुि लगे हुए हैं। यह कहना असान नहीं हैं कक समकालीन कगवता सामागजक दागययव को पूणषतः गनभा पा रही है। सामागजक जीवन के प्रायः हर क्षेि में भ्रष्टाचार व्याप्त है और यह भ्रष्टाचार मानव जीवन को ऄन्दर ही ऄन्दर खोखला कर रहा है परन्तु आस कदशा में समकालीन कगवता का योगदान अशा के ऄनुरुप प्रतीत नहीं होता। ऄगधकांश समकालीन कगवता ऄतीत में जो कु छ हुअ ईसके पोस्टमाषटम में लगी हुइ है और आसे िागन्तकारी गचन्तन माना जाता है मानो ऄतीत में कु छ ऄच्छा हुअ ही नहीं। आगतहास आसीगलए नहीं है कक हम ईसकी खागमयों का ऄरण्यरोदन करें । आसके गवपरीत हमें आगतहास के ईन पहलुओं पर गवचार करना चागहए जो अज भी हमारे गलए प्रासंगगक हैं। दूसरी ओर समकालीन कगवता गनतान्त व्यैगिक है। कगव ऄपनी स्वानुभूत पीड़ा को ऄपनी कगवताओं में व्यि करता है। यह कगवता कु छकु छ कगवयों एवं सागहययकारों की समझ में तो अती है परन्तु अम जनता का आस कगवता से क्या सरोकार है। ऄयोध्या ससह ईपाध्याय ‘हररऔध’ घर से ककसी गमि के साथ गनकले। पड़ोस में कुाँ ए पर एक ऄनपढ़ स्नान कर रहा था और जोर से पाठ कर रहा था- ‘सुगन के वट के बैन प्रेम लपेटे ऄटपटे।‘ हररऔध जी ने गमि से कहा ‘यह होती है कगवता। हम लोग क्या खाक कगवता करते हैं। के वल ऄहम-तुगष्ट करते हैं।‘ समकालीन कगवता का भी यही ददष है। आसी कारण कगवता की पठनीयता कम हुइ है। प्रकाशक प्रायः गशकायत करते हैं कक कगवता की कोइ माके ट ही नहीं है। ऄगधकांश कगव स्वयं प्रकाशक बनकर ऄपनी रचनाएाँ छापने हेतु गववश हैं। सजषनाओं और वजषनाओं के बीच एक गवकट र्द्न्द जारी है। यह कु छ-कु छ बागल-सुग्रीव के र्द्न्द युद् जैसा है आसमें कगव को राम की भूगमका गनभानी है। परन्तु आसमें कगव कमजोर पड़ रहा है। संसार में ऄभी न सयय मरा है और न मनुष्य के भीतर का सागयवक प्यार। कगवता की कमनीयता पर ऄवश्य अघात हुअ है। अज की कगवता प्रायः बेतुकी और ररदगमक प्रोज की तरह हो गइ है आसीगलए

और पोटली मे बॅंधे हुये बूटो ने फे के है ऄंकुर गनजषन घर मे जीवन की जड़ो को पोसते रहे है ये ऄंकुर खोलता हॅूं गखड़की और चारो ओर से दौड़ती है हवा मानो आसी आन्तजार मे खड़ी थी पल्लों से सट के पूरे घर को जल भरे तसले सा गहलाती मुझसे बाहर मुझसे ऄनजान जारी है जीवन की यािा ऄनवरत बदल रहा है संसार रूरावतार की एक कगवता प्रस्तुत है मां षगि के ऄधर पर सुगस्मगत छायी संकल्प अपका ईज्जवल है यह गनष्चय परम कदव्य पल है रुरावतार की महत घड़ी अयी मां षगि के ऄधर पर सुगस्मगत छायी युग-युग से आसकी सभी प्रतीक्षा मे क्ब अप धरा पर ईतरे गे गनबषल के पल कब संवरे गे साथषक गषवयव कब ? ब्रह्म परीक्षाये युग-युग से आसकी सभी प्रगतक्षाये……….

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (48)


पुस्तक समीक्षा नरे श सक्सेना के बारे कु छ गलखने की कोगशश आस प्रकार है जैसे नन्हे पौधे बरगद के बारे में कु छ कहना चाहें या कफर नकदयों से समंदर के बारे में पूछा जाए. वे ऐसे रचनाकार हैं गजन्होंने बहुत कम कगवताओं में भी बहुत ऄगधक पाठक बटोरे . नरे श सक्सेना एक ऐसी शगख्सयत हैं जो ऄपना अजीगवका धमष गनबाहते हुए जीवन भर बंजर ज़मीन पर खड़े रहे संध्या ससह और सीमेंट व कं िीट के ठोस धरातल पर खड़े-खड़े जाने ककतनी कगवताएाँ लहलहा दीं ऄपनी नमष मुलायम मन की गमिी पर .गसगवल आं जीनीयटरग जैसी शुष्क नौकरी आतने लम्बे समय तक करने के बाद भी आन्होंने कगवता की नमी बचा कर रखी .यह ईनकी एक संध्हैया ससहऄन्य कगवयों से ऄलग करती है . ऐसी गवशेषता जो ईन्हें

सुनो चारुशीला – एक पाठकीय प्रगतकिया ईनकी कगवताओं की एक ऄलग अवृगत् है. जब कगवता नज़दीक अते-अते पाठक की अवृगत से मेल खाती है तो गबजली-सी कौंधती है और कफर पाठक और कगवता एकदूसरे के पूरक हो जाते हैं. नरे श जी की कु छ कगवताओं को तो समाप्त करतेकरते मुझे लगा जैसे ईस कगवता और मेरे बीच और कोइ भी नहीं और मैं ईस कगवता के साथ ही सोइजागी, जैसे कक ‘ककले में बच्चे‘. वह कगवता मुझे ऄवाक छोड़ कर

नरे श सक्सेना की कगवता में जो रवानगी है, जो प्रवाह है, जो बहाव है वो माि

ख़यम हो गइ और मैं बाद तक जाने क्या-क्या ढू ाँढती रही ईसमें.

सपाट गगत नहीं वरन एक लय है जो पाठक की धड़कन की धक् -धक् के साथ ताल गबठा कर रफ़्तार पकडती है और ईठती-गगरती सा​ाँसों के साथ फे फड़ों में

ईनकी ‘पीछे छू टी हुइ चीजें‘ कगवता को पढ़ते हुए लगा कक क्या

समा जाती है, ऄंततः समूची कगवता प्राणवायु बन कर लहू में बहने लगती है .

भी स्थागपत कर सकता है?‘ आस कगवता का ऄंत कइ बार

ईनकी कगवताओं में पाठक के साथ एकरूप हो जाने की ऄद्भुत क्षमता है .

अपको ऄचानक रात में चौंक कर ईठने पर गववश कर सकता है.

ईनकी काव्यभूगम आतनी ईवषर है कक ईनकी एक-एक कगवता भावनायमक धरातल पर वट वृक्ष की तरह खडी नज़र अती है .ईनकी कगवताओं में बेहद सरल कदखने वाले शब्द एक गतगलस्म तैयार कर देते हैं और न जाने ककन-ककन

’दरवाज़ा‘ कगवता पढ़ते-पढ़ते समान्तर सोच साथ चली कक ऄनूठे

गुफाओं, कं दराओं और सरोवरों से ले कर यूाँ गुजरते हैं कक पाठक जान ही नहीं

कोइ गबजली गड़गड़ाने और ईसके चमकने के बीच यह सम्बन्ध

भाव की ये दुगनया कै से ईपजी होगी भीतर?

पाता कक रास्ता कब समाप्त हुअ .सबसे बड़ी बात कक प्रययेक कगवता ऄंत में

चाहे ‘सूय’ष की औलोककक गवकलांगता सागबत करती कगवता हो या

पाठक को स्तब्ध छोड़ देती है .जैसे ‘रं ग‘ में ईनकी ये पंगि -अठ पंगियों की ये

‘ऄन्तररक्ष से देखने पर’ में धरती के ददष का सूक्ष्म गनरीक्षण या कफर

कगवता जैसे धमष गनरपेक्षता का एक ग्रन्थ हो गयी .आसी तरह ‘इश्वर की

‘घगड़या​ाँ‘ में हर घड़ी का हर वगष से ऄलग ररश्ता, आन सब

औकात‘ कगवता की अगख़री पंगि -

कगवताओं में एक बात मूलतः ईभर कर अइ कक ये रचनाएाँ,

❛आस तरह वे इश्वर को ईनकी औकात बताते हैं❜ ऐसी लगी जैसे अराम से पढ़ते-पढ़ते कोइ खट से ऄचानक वार करके भाग गया हो. यह ककसी भी रचना की सबसे बड़ी सफलता है. आसी िम में ईनकी ‘मुद‘े कगवता को पढ़ना अग से गुज़रना है. ईस कगवता का ऄंगतम भाग एक गवस्फोट से कम नहीं. वहीं ईनकी ‘गशशु’ कगवता पलकों में नमी का

रचनाएाँ नहीं ईनकी रगों में बहती मानवीय संवेदनाओं की एक पराकाष्ठा है. ईनकी कगवता ‘पानी क्या कर रहा है‘ एक ऄलग ही धरातल पर रची गइ है| आस कगवता में जहा​ाँ एक ओर पानी के जमने का वैज्ञागनक दृगष्टकोण है वही ाँ दूसरी ओर प्रकृ गत र्द्ारा पानी के भीतर तैरते जीवन को बचानें की एक जंग जो गवज्ञान के गनयम भी बदल देती है और चार गडग्री के बाद मछगलयों के गलए एक रक्षा कवच बना देती है| ऄद्भुत तकष और ऄनुपम सोच से ईपजी यह कगवता ऄंत में ठन्डे पानी में भी गजज्ञासा की एक अग लगा जाती है, जब

एहसास करा जाती है-

❛बाद

में सीखेगा भाषा

नरे श गलखते हैं कक-

अभी वह अथथ समझता है ❜ आतनी ऄबोधता? यह कगवता समस्त बुगद्जीगवयों के उपर एक करारा तमाचा है.

❛बाद

में सीखेगा भाषा

अभी वह अथथ समझता है ❜

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (49)


ऄंत में यही कहूाँगी कक नरे श जी के काव्य संग्रह ‘सुनो चारुशीला‘ के पहले पन्ने से अगख़री पन्ने तक का सफ़र मेरे गलए कगवता की एक ‘आससे पहले कक ठन्डे होते ही चले जाएाँ

ऄगवस्मरणीय यािा है | सच कहूाँ तो ईनका सृजन वैज्ञागनक

हम, चल कर देख लें

पृष्ठभूगम की ठोस चिान से गनकला एक ऐसा मीठा झरना है जो सच्चे काव्य प्रेमी को बहा कर नहीं ले जाता वरन घूाँट-घूाँट तृप्त करना

कक आस वि जब पड़ रही है कड़ाके की ठण्ड तब मछगलयों के संकट की आस घड़ी में पानी क्या कर रहा है‘

जानता है | सघन भावों के धागे में गपरोए ईनके सरल शब्दों के मनके ईनकी कगवता को सागहयय जगत के गलए एक अकषषक और ऄनमोल अभूषण बनाते हैं | यह कामना करती हूाँ कक ईनकी नइ रचनाओं से रूबरू होती रहूाँ |

और ऄंत में ऄंगतम पृ‘आससे ष्ठ परपहले गलखीकककगवता की ही बात ‘परसाईं जी की बात‘ ठन्डे होते चलेकरेंजाएाँ गजसमें ईनके ऄंगतम शब्द जडवत ऄवस्था में छोड़ देते हैं पाठक कोहम, चल कर देख लें

संध्या ससह

कक आस वि जब पड़ रही है कड़ाके की ठण्ड तबहैमछगलयों के संकट की आस घड़ी में ‘तो शक होने लगता , पानी क्या कर रहा है‘ परसाइ जी की बात पर, नहीं --ऄपनी कगवताओं पर’ आसके अकगस्मक ऄंत पर गबलकु ल गनःशब्द हूाँ |

नरे श सक्सेना की कगवता-यािा सरलतम शब्दों की हरी-भरी पगडंडी है गजसमे सघन भाव के करठन पड़ाव भी पाठक गबना कदमागी ईठापटक के सीधे पार कर जाता है और कगवता का ऄक्षर-ऄक्षर सीधा ह्रदय पर टंककत होता है | नरे श जी को ऄपने सरल शब्दों से भावों के सागर को तल तक नापना बखूबी अता है | जहा​ाँ एक ओर कगव के रूप में नरे श जी पाठक के उपर ऄगमट छाप छोड़ते हैं वहीं व्यगिगत स्तर पर वे बहुअयामी व्यगियव के स्वामी हैं | गवगशष्ट होते हुए भी सरल, सौम्य और साधारण कदखना ईन्हें ऄगतगवगशष्ट बनाता है | ईम्र के गछयत्रवें वषष में भी सम्पूणष उजाष के साथ आतनी सकियता एक सुखद अश्चयष से भर देती है |

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (50)


श्रद्ाॊजलऱ

ऄलबेला खिी आससे पहले कक हर अदमी ऄपने हाथ में जूता ले ले, तुम लाइन पर अ जाओ

कारण हैं लेककन मोटा-मोटी यूाँ समझो कक अम जो है, वो फलों का राजा है और हमारी लोकतांगिक व्यवस्था में जनता ही ऄसली राजा होती है, शासक तो बेचारा सेवक होता है। दूसरा कारण ये है कक अम का सीजन, अम चुनाव की तरह कु छ ही कदन चलता है, बाकी समय तो बेचारा लापता

अम अदमी नहीं हूाँ मैं

ही रहता है, लेककन तीसरा और सबसे खास कारण ये है कक अम स्वाकदष्ट बहुत होता है। आसे खाने में मजा बहुत अता है, चाहे ककसी प्रान्त का हो,

मैं अज ऄपना सीना ठोक के कहता हूाँ कक मैं भारत गणतंि का नागररक हूाँ। नागररक आसगलए हूाँ क्योंकक नगर में रहता हूाँ और सीना आसगलए ठोक रहा हूाँ क्योंकक एक तो आससे विा की बात में वजन अ जाता है, दूसरे सीना भी ऄपना है और ठोकने वाले भी ऄपन ही हैं आसगलए ककसी दूसरे की अचार संगहता भंग होने का डर नहीं है। हालांकक मैं सीने के बजाय पीठ भी ठोक सकता हूाँ, लेककन ठोकूं गा नहीं, क्योंकक एक तो वहा​ाँ तक मेरा हाथ ठीक से नहीं पहुाँचता, दूसरे ज्यादा ठु काइ होने से पीठ में ददष हो सकता है और तीसरे मैं एक कलाकार हूाँ यार, कोइ झाड़ूवाल टाआप नेता थोड़े न हूाँ जो ऄपने ही हाथों ऄपनी पीठ ठोकता रहूाँ।

ककसी जात का हो, ककसी रं ग का हो ऄथवा ककसी भी साआज का हो। अम के अम और गुठगलयों के दाम तो अपने सुना ही होगा। जनता को अम कहने का एक कारण ये भी है कक आसे खाने में कोइ खतरा नहीं क्योंकक न तो आनमें कीड़े पड़ते है, न आसकी गुठली में कांटे होते हैं और न ही आनसे ऄजीणष होता है। ऄरे भाइ, अम तो ऐसी चीज है कक लंगड़ा हो तो भी चलता है।‘ मैंने कहा, ‘नेताजी अप एक बात तो बताना भूल ही गए कक अम हर ईम्र में ईपयोगी होता है।‘ कच्चा हो तो ऄचार डालने के काम अता है, पका हुअ रसीला हो तो काटकाट के खाया जा सकता है और बूढ़ा, कमजोर व गपलगपला हो तो चूसने के

सरकारी और गैर सरकारी सूि मुझे अम अदमी कह कर गचढ़ाते हैं जबकक मैं दावे के साथ कह सकता हूाँ कक मैं कोइ अम-वाम नहीं हूाँ। अम

काम अता है लेककन सावधान गवश्वासघाती नेताजी..ऄब अदमी को अम

क्या, अलू बुखारा भी नहीं हूाँ। हा​ाँ, चाहो तो अलू समझ सकते हो

गया है। गजस कदन कोइ दबंग बन्दा राष्ट्रीय नेतृयव के गलए कदल्ली में अ

क्योंकक एक तो मैं जमीन से जुड़ा हुअ हूाँ। दूसरे मेरी खाल आतनी पतली है कक कोइ भी ईधेड़ सकता है। तीसरे गरीब से गरीब और ऄमीर से ऄमीर, सभी मुझे एन्जॉय कर सकते हैं और चौथे हर मौसम में, हर हाल में सेवा के गलए मैं ईपलब्ध रहता हूाँ। न मुझे गमी मार सकती है न सदी, लेककन मुझे अलू नहीं, अम कहा जाता है और आसगलए अम कहा जाता है ताकक मेरे रि को रस की तरह गपया जा सके । हालांकक ये रि गपपासु भी कोइ बाहर वाले नहीं हैं, ऄपने ही हैं, बाहर वाले तो गजतना पी सकते थे, पीकर पतली गली से गनकल गलए। ऄब ऄपने वाले बचाखुचा

अम ईसका रि पीना छोड़ दो, क्योंकक वो ऄब तुम्हारी कु रटलता को समझ जाएगा ईस कदन अप जैसे स्वाथी, मक्कार और दुष्ट नेताओं का राजनीगतक कायषिम ककररया िम में बदल जाएगा। आसगलए सुधर जाओ, ऄब भी मौका है। ईसने मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा। मैंने कहा, ‘घूरते क्या हो? समय बदल चुका है। गजस जनता को तुम पा​ाँव की जूती समझते थे वो ऄब जूते चलाना सीख गइ है। आससे पहले कक हर अदमी ऄपने हाथ में जूता ले ले,

सुड़कने में लगे हैं। मजे की बात ये है कक बाहर वाले तो कु छ छोड़ भी

तुम लाइन पर अ जाओ वरना ऐसी ऑफ लाआन पर डाल कदए जाओगे जहा​ाँ से अगे कोइ रास्ता नहीं होगा अपके पास। नेताजी मेरी बातों से ईखड़ गए

गए, ऄपने वाले पठ्ठे तो एक-एक बून्द गनचोड़ लेने की जुगत में है।

और चलते बने। मैं भी ऄपने काम में व्यस्त हो गया, लेककन मेरे मन में एक

कल रात एक भूतपूवष सांसद से मुलाकात हो गइ। हालांकक वे भूतपूवष

गवजेता जैसी सन्तुगष्ट है। मैंने गसद् कर कदया कक मैं कोइ अम नहीं हूाँ। जय गहन्द ! ऄलबेला खिी

होना नहीं चाहते थे लेककन होना पड़ा। मैंने पूछा, 'भूतनाथजी, ये नेता लोग जनता को अम जनता क्यों कहते हैं?’ वो बोले, ‘वैसे तो बहुत से

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‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (51)


संजय गमश्र ‘हबीब’ एक सजदाकदल आं सान थे. ईनका ऄसमय चले जाना हम सबको स्तब्ध कर गया. कु छ ही कदन पहले ईन्होंने कह मुकररया​ाँ गलखी थीं। ईनमें से एक कह मुकरी थी : गोदी में गसर रख सो जाउाँ कभी रात भर संग बगतयाउाँ रस्ता मेरा देखे कदन भर क्या सगख साजन? ना सगख गबस्तर गबस्तर की गोदी में गसर रख के सो जाने की ईनकी बात ऄसमय ही आस तरह साकार हो जाएगी, ककसने सोचा था!

संजय गमश्र ‘हबीब’

गवनम्र श्रद्ांजगल के साथ प्रस्तुत हैं ईनकी कु छ रचनाएाँ!

चाबी राजकु मार तोते को दबोच लाया और सबके सामने ईसकी गदषन मरोड़ दी... “तोते के साथ राक्षस भी मर गया” आस गवश्वास के साथ प्रजा जय-जयकार करती हुइ सहषष ऄपने ऄपने कामों में लग गइ।

कफर गमलेंगे ऄगर खुदा लाया क्या पता ऄच्छा या बुरा लाया। चैन दे, गतश्नगी ईठा लाया।

ईधर दरबार में ठहाकों का दौर तारीं था... हंसी के बीच एक कद्दावर, अयमगवश्वास भरी गंभीर अवाज़ गूंजी... “युवराज! लोगों को पता ही नहीं चल पाया कक हमने ऄपनी ‘जान’ तोते में से गनकाल कर ऄन्यि छु पा दी है... प्रजा की प्रगतकिया से प्रतीत होता है कक अपकी युगि काम अ गइ... राक्षस के मारे जाने के ईयसाह और ईयसव के बीच प्रजा ऄब स्वयं ऄपने हाथों से ‘सत्ारानी’ के कक्ष कक चाबी अपको सौंप कर जाएगी...” राजकु मार के होंठों के साथ ही पूरे दरबार में एक अशावादी मुस्कु राहट नृयय करने लगी।

जो कहो धोखा तो यही कह लो, ऄश्क ऄजागनब के मैं चुरा लाया। क्यूाँ कफजायें धुअ-ाँ धुअाँ सी हैं, या​ाँ शरर कौन है छु पा लाया। बाग में या के हों गबयाबा​ाँ में, गुल हों महफू ज ये दुअ लाया।

ऄध्यादेश

लूटा वादा ईजालों का करके , ये बता रोशनी कु जा लाया?

शरीर पर बेदाग पोशाक, स्वच्छ जेकेट, सौम्य पगड़ी एवं चेहरे पर गववशता, झुंझलाहट,

मेरा साया मुझी से कहता है,

ईदासी और अिोश के गमले जुले भाव गलए वे गाड़ी से ईतरे ... ससम्मान पुकारती ऄनेक अवाजों को ऄनसुना कर वे तेजी से समागध स्थल की ओर बढ़ गए... कफर शायद कु छ

ऄक्स ये कै सा बदनुमा लाया।

सोच ऄचानक रुके , मुड़े और चेहरे पर स्थागपत गवगभन्न भावों की सत्ा के उपर मुस्कु राहट का अवरण डालने का लगभग सफल प्रयास करते हुये धीमे से बोले- “मैं

लो सलाम अगखरी कजा लायी, कफर गमलेंगे ऄगर खुदा लाया।

जानता हूाँ, जो अप पूछना चाहते हैं... देगखये, अप सबको, देश को यह समझना चागहए... और समझना होगा कक ‘गांधी’ जी के पदगचह्नों पर, ईनके कदखाये, बताए,

हो मेहरबा​ाँ 'हबीब' ईसुर मुझपे,

सुझाए रास्तों पर चलना ही हमारी प्रथम प्राथगमकता एवं प्रगतबद्ता है...” कहकर वे

आम्तहा​ाँ रोज ही जुदा लाया।

मुड़े और तेजी से चलते हुये भीतर प्रवेश कर गए... शीघ्र ही वातावरण में ‘गांधीजी’ के गप्रय भजन की स्वरलहररयां तैरने लगीं.... “वैष्णव जन तो.... “

संजय गमश्र ‘हबीब’

‘शब्द व्यॊजना’ : मई – २०१ ४ (52)


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