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⑭
¦ÉÉ®úiÉÒªÉ ÊSÉxiÉxÉ EòÒ º´ÉÉvªÉÉªÉ {ÉÊjÉEòÉ (¨ÉÉʺÉEò)
´É¹ÉÇ-2, +ÆEò-14
ʺÉiɨ¤É®ú 2012
¨ÉÚ±ªÉ 20.00
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½þ¨É ±ÉÉäMÉ ¦ÉäcÉäÆ Eäò º´É¦ÉÉ´É EòÉ +É´É®úhÉ Ê±ÉB ½þÖB ʺÉƽþ ½þé* ½þ¨É ±ÉÉäMÉ +{ÉxÉä +ɺÉ{ÉÉºÉ Eäò +É´É®úhÉ Eäò uùÉ®úÉ ºÉ¨¨ÉÉäʽþiÉ Eò®ú ¶ÉÊHò½þÒxÉ ¤ÉxÉÉ ÊnùªÉä MɪÉä ½þé* ´ÉänùÉxiÉ EòÉ =qùä¶ªÉ ¨ÉxÉÖ¹ªÉ EòÉä <ºÉ ºÉ¨¨ÉÉä½þxÉ ºÉä ¨ÉÖHò Eò®úxÉÉ ½þè* º´ÉɨÉÒ Ê´É´ÉäEòÉxÉxn, {ÉÞ. 5 {É®ú BEò SÉÒWÉ xÉä ¨ÉxÉ ¨Éå VÉc VɨÉÉ ±ÉÒ--ú ªÉ½þ ºÉƺÉÉ®ú xÉèÊiÉEòiÉÉ {É®ú Ê]õEòÉ ½þÖ+É ½þè* ºÉÉ®úÒ xÉèÊiÉEòiÉÉ EòÉ ºÉ¨ÉÉ´Éä¶É ºÉiªÉ ¨Éå ½þè* ºÉiªÉ EòÉä iÉÉä JÉÉäVÉxÉÉ ½þÒ ½þÉäMÉÉ* ÊnùxÉ {É®ú ÊnùxÉ ºÉiªÉ EòÒ ¨Éʽþ¨ÉÉ ¨Éä®úä ÊxÉEò]õ ¤ÉgiÉÒ MÉ<Ç* ºÉiªÉ EòÒ ´ªÉÉJªÉÉ Ê´ÉºiÉÞiÉ ½þÉäiÉÒ MÉ<Ç, +Éè®ú +¦ÉÒ ¦ÉÒ ½þÉä ®ú½þÒ ½þè* ¨É½þÉi¨ÉÉ MÉÉxvÉÒ, {ÉÞ. 8 ½þ¨É ¨ÉÖÊpùiÉ ¶É¤nùÉå EòÉä +Éè®ú iÉlÉÉEòÊlÉiÉ {ÉÊ´ÉjÉ OÉxlÉÉå EòÉä ÊEòiÉxÉÉ +ÊvÉEò ¨É½þi´É nùäiÉä ½þé! ºÉɨÉÉxªÉVÉxÉ ½þÉå ªÉÉ {ÉÊhb÷iÉ, ºÉ¦ÉÒ ±ÉÉäMÉ OÉɨÉÉä¡òÉäxÉ Eäò iÉ´Éä VÉèºÉä ½þÒ ½þé* ªÉä ºÉ¤É ±ÉÉäMÉ BEò ½þÒ ¤ÉÉiÉ EòÉä nùÉä½þ®úÉiÉä ®ú½þiÉä ½þé* {ÉÊhb÷iÉÉå EòÉä Eäò´É±É YÉÉxÉ-ºÉÆ{ÉÉnùxÉ ºÉä ¨ÉiÉ±É¤É ®ú½þiÉÉ ½þè, ºÉÉIÉÉiÉ +xÉÖ¦É´É ºÉä xɽþÓ* VÉä. EþÞÞò¹hɨÉÚÌiÉ, {ÉÞ. 10 ±ÉÉäEò ¨Éå VÉÉä EÖòUô ¦ÉÒ ½þè =ºÉ ºÉ¤ÉEòÉ {É®ú¨É ºÉiªÉ ½þè BEò "{ÉÖ¯û¹É' ªÉÉ BEò "ºÉiÉÂ'* ªÉ½þÉÄ ½þ¨É ÊVÉxÉ ¨ÉÉxÉʺÉEò +Éè®ú ¦ÉÉèÊiÉEò °ü{ÉÉå Eäò ºÉ¨{ÉEÇò ¨Éå +ÉiÉä ½þé ´É½þ =xÉ ºÉ¤ÉºÉä {É®úä ½þè* ¨ÉxÉ, |ÉÉhÉ +Éè®ú ¶É®úÒ®ú ºÉä {É®úä BEò +ÉvªÉÉÊi¨ÉEò ºÉkÉÉ B´ÉÆ +Éi¨ÉÉ ½þè, VÉÉä ºÉ¦ÉÒ ¶ÉÉxiÉ ´ÉºiÉÖ+ÉäÆ EòÉä +Éè®ú +xÉxiÉ EòÉä +{ÉxÉä +Ænù®ú vÉÉ®úhÉ ÊEòªÉä ½þÖB ½þè* ¸ÉÒ +®úÊ´Éxn, {ÉÞ. 12 ¦ÉÉ®úiÉ EòÒ ºÉ¦ªÉiÉÉ EòÉ ¨ÉÚ±É »ÉÉäiÉ xÉMÉ®ú ¨Éå xɽþÓ, ¤ÉʱEò ´ÉxÉ ¨Éå lÉÉ* ªÉ½þÉÄ ´ÉÞIÉ, xÉnùÒ, ºÉ®úÉä´É®ú EòÉ ¨ÉxÉÖ¹ªÉ Eäò ºÉÉlÉ ªÉÉäMÉ ¤ÉxÉÉ ®ú½þÉ* ªÉ½þÉÄ ¨ÉxÉÖ¹ªÉ ¦ÉÒ lÉÉ, ÊxÉVÉÇxÉ ºlÉÉxÉ ¦ÉÒ lÉÉ, ÊxÉVÉÇxÉiÉÉ ºÉä ¦ÉÉ®úiÉ EòÉ ÊSÉkÉ VÉc xɽþÓ ½þÖ+É, ´É®úxÉ =ºÉEòÒ SÉäiÉxÉÉ +Éè®ú ¦ÉÒ =VV´É±É ½þÉä =`öÒ* ½þ¨É Eò½þ ºÉEòiÉä ½þé ÊEò ¶ÉɪÉnù nùÖÊxɪÉÉ ¨Éå +Éè®ú Eò½þÓ BäºÉÉ xɽþÓ ½þÖ+É ½þÉäMÉÉ* ®ú´ÉÒxpùxÉÉlÉ ]õèMÉÉä®ú, {ÉÞ. 16 ´ÉɺiÉ´É ¨Éå, ºÉ¦ÉÒ ´ÉºiÉÖBÄ BEò-nùںɮúä ºÉä ºÉ]õEò®ú iÉÖ¨½þÉ®úä ½þÒ +xnù®ú ¨ÉÉèVÉÚnù ®ú½þiÉÒ ½þé--ÊVÉxÉEòÉä iÉÖ¨É SÉɽþiÉä ½þÉä +Éè®ú ÊVÉxɺÉä iÉÖ¨É b÷®úiÉä ½þÉä, ÊVÉxɺÉä iÉÖ¨É PÉÞhÉÉ Eò®úiÉä ½þÉä +Éè®ú ÊVÉxÉEòÒ iÉÖ¨É +ʦɱÉɹÉÉ Eò®úiÉä ½þÉä, ÊVÉxÉEäò {ÉÒUôä iÉÖ¨É nùÉèc ®ú½þä ½þÉä +Éè®ú ÊVÉxɺÉä iÉÖ¨É UôÖ]õEòÉ®úÉ SÉɽþiÉä ½þÉä* KɱÉÒ±É ÊVÉ¥ÉÉxÉ, {ÉÞ. 20 ÊVÉºÉ ´ªÉÊHò Eäò +xnù®ú +˽þºÉÉ EòÉ ¦ÉÉ´É +É VÉÉiÉÉ ½èþ =ºÉEòÒ ={ÉκlÉÊiÉ ¨Éå ´Éè®ú xɽþÓ ®ú½þiÉÉ* {ÉiÉÆVÉʱÉ, {ÉÞ. 32 Because of deep rooted identification with the body, one feels vulnerable and powerless. The needs of the body feel like one’s own needs, and the fears of the body become one’s own fears. When one prays intensely, the prayer removes the barrier of the conditioning and reveals the heart where the prayer is already answered. Mansoor Abdulla, p. 35
भारतीय िचन्तन की मािसक वाध्याय-पितर्का
अंक-14
िसत बर 2012
सादकीय: अदीनाः ाम शरदः शतम ्
2
धम का सार-त
ामी िववेकान
5
धम की खोज
महाा गांधी
8
िवचार का िवराम
जे. कृ मूित
10
भारतीय आािकता और जीवन
ी अरिव
12
तपोवन
रवीनाथ टैगोर
16
े -3 जीवन-संदश
ख़लील िजान
20
ा आा और परमाा एक ह ? कुछ शंकाएँ
रवी अिहोी
24
वापदीयः भतृह िर का भाषा-दशन-14
अिनल िवालं कार
26
वैिदक ाथ नाएँ-2
अिनल िवालं कार
29
पतंजिल का योग-दशन-14
"
32
Yoga of Silence or Chup Sadhana-14
Mansoor Abdulla
35
India is far from Sri Aurobindo’s Vision
Claude Arpi
37
संृत पाठ-16
अिनल िवालं कार
40
-चचा
45
पाठक की बात
48 स पादक: अिनल िव ालंकार
सहायक स पादकः राकेश नवीन
स पादन सहयोग: महे न्दर् कुमार शमार्, सौ या शमार् रूपाकन: ं संजय कुमार
यह पितर्का िशिक्षत भारतीय बनने म आपकी सहायता कर सकती है। जे-56 साकेत, नई िद ी-110017, फोन: 011-41764317
ई-मे लः sandhaan@airtelmail.in, anilvid@bharatsandhaan.org,
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉÉÉÉxÉ, xÉ, +ÆÆEòEòò-14, ÊʺÉiɨ¤É® ºÉiÉɨ¤É® 201 2012 20 2
3
स पादकीय
् वु द 36.23) अदीनाः ाम शरदः शतम (यज (हम सौ वषर् तक िबना दीन बने हु ए िजएँ ।) हमारे पूवर्ज वैिदक ऋिषय अदीनाः याम शरदः शत । भूय
का संक प थाऱ
भी दू सरे के वश म है वह दु ःख का कारण है, जो कुछ
ऱ हम
अपने वश म है उसी से सुख िमलता है)। तुलसीदास ने
शरदः शता
सौ वषर् तक िबना दीन बने हु ए िजएँ, और सौ साल के
भी कहाऱ पराधीन सपने हुँ सुख नाहीं। पराधीन आदमी
बाद भी। आज इस संक प को िफर से याद करने की
सपने म भी सुखी नहीं रह सकता। दीन होकर जीना
आव यकता है।
बहु त बड़ा अिभशाप है। दीनता के कई कार ह। उनम से कुछ मुख हऱ
यह संक प भारत के ऋिषय ने िकया था, पर यह केवल भारतीय के िलए ही नहीं था। हमने इस पितर्का
शारीिरक दीनता.
म कई बार कहा है िक जब भारतीय िचन्तन का िवकास
कािलदास
ने
कहा
थाऱ
शरीरमा ं खलु धमर्साधन (अपना कतर् य कमर् करने का
हु आ था तब दु िनया दे श म नहीं बँटी थी। ाचीन भारत
सबसे पहला साधन शरीर है)। हम
के ऋिष मनु यमातर् के िलए सोचते थे, इसिलए वे ऐसे
िलए आव यक है िक हमारा शरीर हमारे िनयन्तर्ण म हो।
िवचार दे सके जो सभी थान और समय के मनु य के
अपने देश म तन्दुरु त यि
िलए उपयोगी ह।
यह बहु त ही साथर्क श द है। व थ वह है जो वऱ अपने
वाधीन रह इसके
को व थ कहा जाता है।
जन्म के समय ब ा िबलकुल असहाय अव था म
अन्दर, थऱ ि थत हो। व थ वह है जो शारीिरक रूप से
होता है। वह अपने आप कुछ भी नहीं कर सकता, और
िकसी पर िनभर्र न हो। इसके िलए छोटी अव था से ही
िकसी भी दु खद अनुभिू त के होने पर उसकी
िनयिमत जीवन िबताने का अ यास करना आव यक है।
ितिकर्या
केवल रोने तक सीिमत रहती है। धीमे-धीमे वह अपने
अिनयंितर्त जीवन जीनेऱ असंतुिलत भोजन करने,
शरीर पर िनयंतर्ण पाने लगता है और कुछ साल म ही
शराब पीने, धू पान करने, यायाम न करने से शरीर
शारीिरक वतंतर्ता की भावना उसम आ जाती है। वह
रोगी हो जाता है। िफर हम डाक्टर की शरण म जाना
कुछ वाभािवक रूप से और अिधकतर िव ालयी िशक्षा
पड़ता है जो एक कार की दीनता है। डाक्टर के इलाज़
के ारा पिरवेश के बारे म कुछ जानकारी भी हािसल कर
से कई बार हम ठीक हो जाते ह पर बहु त बार डाक्टर
लेता है जो उसके िचन्तन के क्षेतर् को यापक बनाती है।
भी रोग का सही िनदान नहीं कर पाते, और उनके
वह धीरे-धीरे वाय
इलाज से फायदा होने की बजाय नु कसान होने की भी
अथ म उसम
यि
बनने लगता है। पर क्या सही
वाय ता आती हैय़ िकतने यि
संभावना रहती है। आए िदन पढ़ने को िमलता है िक
कह
सकते ह िक वे वा तव म अपने जीवन म वाधीन हय़
िकस
कार दवा बनानेवाली क पिनया ँ बहु त बार अपने
मनु य धनी हो या िनधर्न, पराधीनता सभी मनु य
लाभ के िलए लोग को पूरा सत्य नहीं बतातीं। िचिकत्सा
को घेरे रहती है। िनधर्न या िनबर्ल को तो दू सर के
के क्षेतर् म काम कर रही क पिनय को फायदा पहु ँचाने
अधीन होकर काम करना ही पड़ता है, धनी या सबल
के िलए बहु त बार डाक्टर ऐसी दवाइया ँ रोिगय को दे ते
भी अपने से धनी या सबल यि य की अधीनता वीकार
ह िजनकी उन्ह ज़रूरत नहीं थी, या ऐसे टै ट करवाते
करने के िलए बाध्य है। वाधीन वह यि
ह जो रोिगय के िलए आव यक नहीं थे। रोगी बेचारा
है िजसका
सारा जीवन अपने अधीन हो। सं कृत की उि परवशं दु ःखं, सवर्
आत्मवशं सुख
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
(जो
दीन बनकर यह सब सहने के िलए बाध्य है।
हैऱ सव
आधुिनक िचिकत्सािव ान ने बहु त
कुछ 4
गित की है।
अदीनाः याम शरदः शत
ेग और चेचक चेचक जैसे रोग का पृथ्वी से सफाया कर
बात को ध्यान म रखा जाता है िक उन योजनाओं को
दे ना छोटी बात नहीं है। पोिलयो के उन्मूलन म सफलता
िकर्यािन्वत करने से शासक को क्या लाभ िमलेगा।
िमलनेवाली है। मलेिरया और एड्स पर िनयंतर्ण की
आज़ादी िमलने के 65 साल बाद भी, केन्दर्ीय सरकार के
िदशा म भी गित हो रही है। कसर पर अनुसध ं ान जारी
अपने आकलन के अनु सार, बीिसय करोड़ लोग गरीबी
है, और आज कसर के रोगी पहले की तुलना म यादा
रे खा से नीचे हंै। ऐसा क्य हैय़ क्य नहीं हम इतने
जी सकते ह। हम इस सबका वागत करना चािहए।
उ ोग-धन्धे खोलते, और लोग को उनम काम करने के
हम आधुिनक िचिकत्सा को सवर्था नकार नहीं सकते। आनु विं शक और पुराने शरीरगत रोग
िलए समथर् बनाते तािक सभी लोग स मान के साथ
म,
आजीिवका कमाते हु ए जी सकय़ गान्धी जी के चरखे को
वृ ाव था म और ह ी टूटने जैसी दशाओं म डाक्टर का
याद करने की ज़रूरत है। चरखा गाधी ं जी के िलए
सहारा ज़रूरी हो जाता है और उसे िबना दीन भाव के
वराज का हिथयार था। आज चरखे को हम
हम वीकार करना चािहए।
तीक के
रूप म लेना है। इसका तात्पयर् होगा िक सभी मनु य
पर रोग से छु टकारा पाना और व थ होना एक
समथर् और
वावलंबी ह । कोई भी मनु य दीन बनकर
बात नहीं है। यिद कोई िदनभर काम करके शाम को
िकसी के आगे हाथ न फैलाए। पर आज लगता है िक
शराब पीने के िलए अपने को मजबूर महसूस करता है
कुछ योजनाएँ गरीब लोग को गरीब रखकर उनका वोट
तो वह अव य ही
बटोरने के िलए ही बनाई जा रही ह।
व थ नहीं है। उसने िदन म काम
करते हु ए केवल शारीिरक थकावट ही नहीं, मानिसक
मानिसक दीनता. आिर्थक िवकास ही मनु य के
तनाव भी एकितर्त िकया है िजसे दू र करने के िलए वह
स पूणर् िवकास का रूप नहीं ले सकता। िवकास की एक
शराब पीना ज़रूरी समझता है। शराब के या अन्य िकसी
िविचतर् पिरभाषा हमने पि म से ले ली है िक जो दे श
मादक दर् य के अधीन हो जाना भी दीनता ही है।
आिर्थक रूप से िवकिसत ह वे ही िवकिसत ह, शेष सब
शारीिरक दीनता से छु टकारा पाने और शरीर को व थ रखने के िलए
अिवकिसत या िवकासमान। मनु य मूलतः मन-केिन्दर्त
ाचीन ऋिषय ने योगासन और
ाणी है। जब तक मनु य के मन का पूणर् िवकास नहीं
ाणायाम की िविध िनकाली थी। हम एक बार िफर कह
होता तब तक सभी दे श के मनु य समान रूप से
िक जो लोग योगासन करने को योग करना समझते ह
अिवकिसत ह, भले ही वे तथाकिथत िवकिसत दे श के
वे बहु त बड़ी गलती कर रहे ह। योगासन योग की
रहनेवाले ह या अिवकिसत या िवकासमान दे श के।
साधना के अंग ह, पर वे
मनु य के मन का िवकास िकस िदशा म होगा और वह
वयं योग नहीं ह। इतना
िनि त है िक शरीर को व थ रखने के िलए योगासन
कैसे हो सकता है, इस िवषय पर पतंजिल,
से अच्छी िविध मनु य
ारा नहीं खोजी गई है। कुछ
और जे. कृ णमूिर्त जैसे मनीिषय ने बहु त िलखा है। हम
सरल आसन और कुछ उपयोगी ाणायाम करना हमारी
पि मी मनोवै ािनक के अधकचरे िवचार पर आि त
िदनचयार् का अंग होना चािहए। तो शारीिरक दीनता से मुि
रहने की बजाय इन मनीिषय से मागर्दशर्न अदीन होने का
ी अरिवन्द
ा
करना
चािहए।
पहला चरण है।
मानिसक दीनता का सबसे अिधक दु भाव हमारी िशक्षा पर पड़ रहा है। आज िशक्षासंबध ं ी सारे िवचार
आिर्थक दीनता. सामन्ती युग म केवल कुछ लोग धनी और शेष आिर्थक रूप से दीन होते थे। आज
हमने पि म से िलए ह। पा
लोकतंतर् और िवकिसत टै क्नालाजी के युग म आिर्थक
परीक्षा तक उन िवचार पर आधािरत ह जो िवदे श से
दीनता के दे श म रहने का कोई कारण नहीं है।
कर्म बनाने से ब
की
हम िमले ह। हमारा केन्दर्ीय माध्यिमक िशक्षा मंडल
होना चािहए, यह सवर्मान्य है, और उसके िलए हम
(CBSE) िव ालय िशक्षा को गुलामी की ओर ले जाने म अगर्णी है। इसकी सतत समगर् मू याकन ं (CCE) की
सभी को अिधक से अिधक
मूखर्तापूणर् योजना के िवरु
अिधकािधक आिर्थक िवकास यथाशीघर् और सबके िलए
हम इस िदशा म
यास करना चािहए। यिद
हमने पितर्का म बहु त बल
गित नहीं कर पाए तो यह केवल
दे कर िलखा है। (दे ख अंक 6 और 7, जनवरी, फरवरी,
हमारी की गलत नीितय और क्षुदर् वाथ के कारण है।
2012)। हमारे मानव संसाधन िवकास मंतर्ी ने पहले
आज जनता के िलए योजनाएँ बनाते समय
िसतंबर 2011 म कहा िक अिधकतर अध्यापक नहीं
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
ायः इस 5
अदीनाः याम शरदः शत
िमतर् है। परमात्मा हमारा िपता ही नहीं, िमतर् भी है। गीता
जानते िक CCE का मतलब क्या है। िफर कुछ महीने बाद ही उन्ह ने इस योजना को दे शभर म लागू करने का
म अजुर्न
होना चािहए। अभी हाल की खबर है िक इस योजना को
इस यु
वह
िन य िकया। अब वे कहते ह िक CCE पर पुनिर्वचार
एक
Foundation के साथ दीघर्कालीन समझौता िकया गया है जो हमारी िव ालयी िशक्षा के सभी अंग को भािवत
का
म िवजय िदला दीिजए। गीता का
ोक हैऱ नात्मान अवसादये ।
ात्मनो बन्धुरात्मैवािरपुरात्मनः।। (गीता- 6-5)
(मनु य को अपने
हम कोई यान भेजना हो तो हम अमे िरका से सीख, यह
ारा ही अपने आप को ऊपर
उठाना चािहए। उसे कभी भी िनराश नहीं होना चािहए।
समझ म आता है। पर िव ालय िशक्षाय़ उस दे श म जहा ँ
मनु य अपने आप अपना बन्धु है, और अपने आप ही
पर परा रही है!
अपना शतर्ु है।)
हम भारतीय की मानिसक दीनता का सबसे बड़ा
हम से ऊपर की कोई शि
कारण है िक हमने अपने शैिक्षक-आिर्थक-सामािजक
है िजसने यह िव
रचा है, यह िनिर्ववाद है। पर क्या उस शि
जीवन म एक िवदे शी भाषा और मानिसकता की गुलामी
से हमारा
स बन्ध दाता और याचक का हैय़ क्या वह शि
वीकार कर ली है। हर भाषा की अपनी िवचार-पर परा
इस
दु िनया को और हम बनाकर दु िनया से और हमसे अलग
होती है। हम उसके भाव से बच नहीं सकते। मानिसक
कहीं बैठी हैय़ या िफर वह हमारी सभी अनु भिू तय ,
दीनता से छु टकारा पाने के िलए हम अपने जीवन के
िवचार और काय म पिरलिक्षत हो रही हैय़ उस शि
सभी पक्ष म िहन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को मुख
को अपने अन्दर अनु भव करने पर दीनता का भाव सदा
थान दे ना होगा।
के िलए समा
मानिसक-भािषक दीनता शारीिरक और आिर्थक
हो जाता है। िफर दु िनया म हमारे साथ
जो कुछ हो रहा है उसे वीकार कर, सामने की सम या
दीनता से भी बढ़कर नाशक है।
का सामना करने के िलए हम क्या करना है यह जानकर,
धािर्मक-आित्मक दीनता. दीनता का एक बड़ा क्षेतर्
हम मागर् पर िनरन्तर आगे चलते रहते ह। ाथर्ना करनी
हम भारतीय के िलए ही नहीं, संसार के सभी लोग के
हो तो वह अपने िलए कुछ मागने ँ की न होकर उस परा
िलए, धमर् है। यह हमारे जीवन का वह क्षेतर् है जहा ँ
शि
मानकर चला जाता है िक मनु य को अपने आप सोचने
को अपने अन्दर उतारने के िलए हो। परमात्मा के
पास जाकर हम सबल बन, िनबर्ल नहीं।
का अिधकार नहीं है। हम जीवनभर वही मानते जाना है
संक्षेप म, संसार म िबना दीन बने जीवन जीने के
जो हमारे पिरवार ने और धमर्गुरुओं ने हम बचपन म
िलएऱ
िसखा िदया है। केवल धमार्न्तरण करने पर ही मनु य
शरीर व थ रख।
हो पाता है। पर
आिर्थक वावल बन
वह तुरन्त ही दू सरे नये धमर् की जकड़ म आ जाता है।
ा कर।
वैचािरक वतंतर्ता का िवकास कर। अपनी, समाज
इसका अथर् हु आ एक जेल से छूटकर दू सरी म बन्द हो
की और दे श की हर सम या पर अपनी ओर से
जाना। धमर् का दास बने रहना मनु य की िनयित हो गई
अपनी भाषा म िवचार कर। दू सर की बात आँख
बनाना चािहएऱ वयं
मींचकर नहीं मान, और न अपने िवचार दू सर पर
अपने से भी मु ।
थोपने की कोिशश कर।
धमर् अिधकतर अपने सभी अनु याियय को दीन
अपने धमर् पर अपने िववेक से िवचार कर। उन बात
बना दे ता है। यिद ई र हमारा िपता है तो उसके आगे
को मान जो आपको ठीक लगती ह। शेष को नकार द।
दीनता कैसीय़ क्या कोई िपता अपने पुतर् से यह अपेक्षा
सदा ध्यान रख िक आप सवर्शि मान परमे र की
करता है िक वह उसके आगे िगड़िगड़ाएय़ पर धमर् के
सन्तान ह। । आपके अश , दीन होने का
भाव म अिधकतर मनु य याचक बन जाते ह। वेद म
नहीं उठता।
परमात्मा के सौ से अिधक नाम ह। उनम से एक नाम ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
िस
आत्मैव
अपने आप िवचार नहीं कर सकतेय़ यिद मंगल गर्ह पर
है, जबिक धमर् को मनु य को मु
म भाग ले रहे ह, कृपा कर अपनी शि
उ रे दात्मना ऽत्मान
करे गा। क्या हम अपनी माध्यिमक िशक्षा के बारे म भी
अपने बचपन के धमर् की जकड़ से मु
ीकृ ण से यह नहीं कहता िक आप हमारी ओर से
योग कर हम यु
नया रूप दे ने के िलए एक िवदे शी सं था Pearson
िशक्षा की 5000 वषर् की अिविच्छ
ीकृ ण को सखा और पथ दशर्क मानता है।
6
ही
धमर् का सार-त व वामी िववेकानन्द (अमे िरका म िदये गए एक भाषण का िववरण) िलए ई र को ‘तू’ कहना भी ईश-ितर कार है, क्य िक
भारत म धमर् के बारे म हम लोग का एक िविश
वह ‘िपता म एकत्व’
दृि कोण है। मान लो मे रा एक लड़का होता। म उसे
ा कर लेता है।
िकसी धमर् की िशक्षा नहीं दे ता, परन्तु उसे अपने मन को
यि गत रूप से म वेद से उतना ही गर्हण करता
एकागर् करने की कोई साधना और ाथर्ना की कोई एक
हू ँ िजतना बुि स मत है। वेद के अनेक अंश िवरोधात्मक
पंि
ाथर्ना से तुम लोग जैसा समझते
तीत होते ह। पि म म िजस अथर् म समझा जाता है,
ाथर्ना नहीं, परन्तु ऐसी िक ‘म उसका ध्यान
उस अथर् म वे अन्तः फुिरत नहीं ह, पर उन्ह ई र तथा
अव य बताता।
हो, वैसी
करता हू ँ, जो िव
ा है। वह मे री बुि
करे ।’ िफर जब वह पयार् िविभ
सवर् ता संबध ं ी सम त
को िनमर्ल
ान का
ोत माना जाता है।
बड़ा हो जाता है, तब वह
परन्तु यह कहना िक केवल वेदनामक गर्ंथ म ही यह
दशर्न और उपदे श को सुनता है। और िफर
ान सीिमत है, िनरा कुतकर् होगा। हम जानते ह िक
िजसे वह सत्य समझता है, अंततः वह उसे गर्हण कर
त्येक सं दाय के धमर्गर्ंथ म यह
लेता है। तब वह उस गुरु का, उस सत्य का उपदे श
ितपािदत है। मनु का कहना है िक वेद के बुि संगत
करनेवाले गुरु का िश य हो जाता है। वह ईसा, बु
ान िविभ
अंश म
अंश ही वेद ह। हमारे बहु त से दाशर्िनक ने भी इस
या
मुह मद िकसी की भी पूजा कर सकता है। हम इनम से
दृि कोण को वीकार िकया है। दु िनया के सभी धमर्गर्ंथ
सभी के अिधकार को तथा हर मनु य को अपने इ
म केवल वेद ही ऐसे ह जो घोषणा करते ह िक वेद का
दे वता या चुने हु ए मागर् को अपनाने का अिधकारी मानते
अध्ययन गौण है। वा तिवक अध्ययन वह है िजसके
ह। अतः यह िनतान्त स भव है िक आपसी िव े ष से पूणत र् ः मु
ा होता है, न िव ास से, न तकर् से, अिपतु अितचेतन
धमार्नुयायी हो, मे री प ी ईसाई हो तथा म मुसलमान होऊँ।
त्यक्ष तथा समािध से हम इस बात से
स
हंै िक स दाय, पूजा-
ाि
ान ा कर लेता है, तो वह इन
के साथ अपनी एकरूपता अनु भव
करता है, तथा वयं का सगुण ई र के सदृश
सभी व तुओं को त्याग दे ता है। ‘मने वेद को अ वीकार
करता है। माया अथार्
िकया’, ये वेदान्त दशर्न के अिन्तम श द ह। कमर्काड, ं
गया
ा की, वे सभी उसके िलए अंतधार्न हो जाते ह।
ारा दे खा
के पास पंचेिन्दर्य
ारा पहु ँचते
ह तब हम सगुण ई र के रूप म ही उसका दशर्न कर सकते ह। भाव यह है िक आत्मा को िवषय (object)
‘म वह हू ँ’ऱ श द उसके ओठ से फूट पड़ते ह। उसके ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
अ ान के कोहरे के
ितक्षेप
ही सगुण ई र है। जब हम उस
भजन तथा धमर्गर्न्थ, िजनके अनु सार चलकर उसने मुि
होता है। जब मनु य इस
अव थावाला हो जाता है ऱ ‘म और मे रे िपता एक ह।’ वह उस िनत्य
म साधन का काम करती ह, ठीक ह।
परन्तु जब मनु य वह
ा
पूणार्व था को ा कर लेता है, तब वह सगुण ई र की
प ितया ँतथा धािर्मक पु तक, जहा ँतक मनु य के अपने वरूप की
ारा हम लोग
शा त को ा करते ह, और वह शा त न अध्ययन से
रहते हु ए एक ही समय मे रा पुतर् बौ
7
धमर् का सार-तत्त्व
नहीं बनाया जा सकता।
ाता वयं अपने आपको कैसे
कार अपने आपकी पूजा करे गाय़
जान सकता हैय़ परन्तु वह अपनी एक छाया जैसी तो
म तुमको एक छोटी-सी कथा सुनाता हू ँ। एक िंसह
डाल सकता है, और उस छाया को आत्मा के िवषय के
का ब ा था िजसकी मा ँ ने मरते समय उसे कुछ भेड़ म
रूप म दे खना ही सगुण ई र है। आत्मा तो िनत्य िवषयी
छोड़ िदया था। भेड़ ने उसे िखलाया-िपलाया और
(subject) है और हम लोग िनत्य ही उसको िवषय
आ य िदया। वह िंसह भेड़ के बीच म बड़ा हु आ। जब
बनाने के िलए संघषर्रत ह। उस संघषर् का फल यह दृ य
कभी भेड़ म-म िच ातीं तो वह भी म-म िच ाता था।
जग
है िजसे हम जड़ कहते ह।
एक िदन एक अन्य िंसह वहा ँ पहु ँचा। उस भेड़रूपी िंसह
तु हारे एक पा ात्य िवचारक का कहना है िक
को अन्य भेड़ के साथ िमिमयाते दे ख उसने आ यर्चिकत
‘एक स
ई र, मनु य की सबसे महा
कृित है ।’ जैसा
होकर पूछा ऱ "तुम यहा ँ क्या कर रहे हो?" उसने कहा
मनु य, वैसा ही ई र। मनु य ई र को मानवीय
"म-म, म एक क्षुदर् भेड़ा हू ँ, मुझे डर लगता है।" पहले
अिभ यि य के िबना नहीं दे ख सकता। जो चाहे कह
िंसह ने गरज कर कहा, "मूखर्! मे रे साथ चल, म तुझे
लो, जो चाहे
िदखलाऊँगा।" वह उसे एक शातं सरोवर के पास ले
मनु यव
य
कर लो, परन्तु तुम ई र की धारणा
बनाने के अितिर
गया और उसने उसका
और कुछ नहीं कर सकते ।
ितिब ब उसे िदखाया और
कहा, "तुम िंसह हो। मुझे दे खो, भेड़ को दे खो, अपने
और जैसे तुम हो, वैसा ही तु हारा ई र होगा। जब हम ई र के संबंध म, उसकी पिरपूणर्ता की अव था म
आपको दे खो।" तब उस ‘भेड़-िंसह’ ने दे खा और कहाऱ
िवचार करते ह तो हम घोर असफलता क्य िक हम लोग अपनी वतर्मान को मनु यव
ा
होती है ,
" म तो भेड़ के जैसा नहीं लगता- म तो सचमुच ही
कृित के
ारा ई र
िंसह हू ँ!" और इतना कहकर उसने गजर्न िकया िजससे पहािड़या ँतक कापँ गईं। हमारे साथ भी यही बात है। हम
ही जानने के िलए िववश ह। यिद भस
ईश-पूजन करना चाह, तो वे अपनी
लोग भेड़ के वभाव का आवरण िलए हु ए िंसह ह। हम
कृित के अनु सार
ई र को महामिहष के रूप म ही दे खगी। यिद कोई मछली ईश-पूजन करना चाहे तो ई र के
लोग अपने आसपास के आवरण के
शि हीन बना िदये गये ह। वेदान्त का उ े य मनु य को
ित उसकी
इस स मोहन से मु
धारणा अिनवायर्तः एक महामत् य की होगी। इसी तरह
मुि
मनु य भी ई र को मनु य ही जैसा समझता है । क पना करो िक मनु य, मिहष तथा मत् य िविभ
ारा स मोिहत कर
कार के
हू ँ िक
बरतन ह और ये बरतन समुदर्-रूपी ई र म अपने
करना है।
हमारा ध्येय है। म इस िस ातं से असहमत
कृित के िनयम का पालन ही मुि
है। म नहीं
जानता िक इसका क्या अथर् हो सकता है। मनु य की गित के इितहास को दे ख तो
आकार तथा पातर्ता के अनु सार अपने आपको भरने
कृित के उ ंघन से ही
जाते ह। मनु य म वह जल मनु य का रूप धारण करे गा,
उस
मिहष म मिहष का तथा मत् य म मत् य का रूप धारण
सकता है िक िन तर िनयम पर उ तर िनयम
ारा
करे गा, परन्तु इन सभी बरतन म उसी समुदर्-रूपी
िवजय ा हु ई, िकन्तु वहा ँ भी िवजेता का मन मुि
का
ई र का जल होगा।
अन्वेषण कर रहा था। इस कार ल य सदा ही मुि
है।
ई र को सगुण रूप म दो ही कार के लोग नहीं पूजतेऱ एक पशु वृि
वृक्ष कभी
का मनु य िजसका कोई धमर् नहीं
है, तथा दू सरे अपनी मानवीय
घ घा कभी झूठ नहीं बोलता। िफर भी वे मनु य से बड़े नहीं ह।
ही उस ई र का वरूप है। केवल ऐसा
"वा
परमहं स ही ई र की पूजा, जैसािक ई र तत्त्वतः है उस रूप म, कर सकता है। पशु वृि
करते ह, और वह ा
होता है, न
िव ास से, न तकर् से, अिपतु अितचेतन त्यक्ष तथा समािध से
ऱ ‘म वही हू ँ’ ऱ ऐसा कहता है, तब वह िकस
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
ा
शा त न अध्ययन से
वयं अपने आप म
ई र का साक्षात्कार कर चुका होता है। वह सोऽह सोऽह
तिवक अध्ययन वह है िजसके ारा हम
लोग शा त को
का मनु य इसिलए
पूजा नहीं करता िक वह अ ानी है, और एक जीवनमु इसिलए पूजा नहीं करता िक वह
ाकृितक िनयम का उ ंघन नहीं करते। मने
कभी िकसी गाय को चोरी करते हु ए नहीं दे खा, कोई
कृित के बन्धन का
अितकर्मण कर चुकनेवाला परमहं स। उसके िलए तो सम त जग
गित का िनमार्ण हु आ है। यह भले ही कहा जा
8
ा
होता है। जब
धमर् का सार-तत्त्व
मनु य इस पू णार्व था को ा कर लेता है,
िजससे धमर् की उ तम आत्म- ान की
तब वह सगुण ई र की अव थावाला हो
का है । जब कोई
जाता है ऱ ‘म और मे रे िपता एक ह।’ वह उस िनत्य
जग
के साथ अपनी एकरूपता
सगुण ई र है।"
मागर्
कहता है - "सभी मे रे ह और म उनसे यार के िलए पिवतर्
िकसी और को चोट कैसे पहु ँ चा सकते ह? तब हम
ही
दू सर से
े म िकए िबना रह कैसे सकते ह? ई र े म
के साथ, इसके फल वरूप, अन्त म सभी से उत्प
पहु ँ चते ह, उतना ही अिधक हम दे खते ह िक सभी अिवरल झरना बन जाता है । इस
पिरणत हो जाएँगे। जीवन म वतंतर्ता का एक उत्कट
े म के
े म का काश के
साि ध्य म मनु य का आन्तिरक पिरवतर्न हो जाता है
आगर्ह है। िनयम के आिधक्य का अथर् है मृत्यु। कोई
और वह अंत म इस सु न्दर तथा े रणादायक सत्य का
जाित िहन्दु ओं के समान इतने सारे िनयम का पालन
अनु भव करता है िक
नहीं करती, िजसका फल हु आ जातीय मृत्यु। परन्तु
े म,
ेिमका तथा
े मा पद
सचमु च एक ही ह।
िवचार भी था। उन लोग ने धमर्
(िववेकानन्द सािहत्य, ि तीय खंड से संकिलत।
म िकन्हीं िनयम या जड़ िस ातं की थापना नहीं की
काशक: अ ै त आ म ( काशन िवभागा), कोलकाता।)
[1981-83] दो वषर् भारत म और उसके बाद तीन वषर् िव भर का पिर मण उनके वभाव की वृि य ऱ वतंतर्ता और सेवा-भावना का सन्तोषजनक समाधान था। वे पिरवार, जाित-
बन्धन से मु
होकर, िबना िकसी पूवर् योजना के ई र के साथ अकेले घूमते रहे । उनके जीवन का
कोई क्षण ऐसा न था जब वे गावँ और नगर म गरीब और अमीर के क , इच्छाओं, बुराइय और दै न्य के स पकर् म न आए ह । वे उनके जीवन से एकाकार हो गए। जीवन की पु तक म उन्ह वह िमला जो उन्ह पु तकालय के सारे गर्न्थ म न िमलता। वतर्मान का दु खी चेहरा, मानवता म संघषर्रत ई र, भारत और िव
के आतर् जन की चीख िजन्ह रामकृ ण के उत्कट
ेम ने भी अ प
ही दे खा
था . . . वष यातर्ा, वष िभक्षाटन, कैसी अनु पम िशक्षा! वे मातर् गोशाला या िभखािरय की तृणश या पर सोने वाले िवन
बन्धु न थे , वे
त्येक मनु य के समकक्ष थे । आज अछूत की शरण म पड़े दीन
िभखारी, तो कल राजकुमार के अितिथ और बराबरी से मंितर्य और महाराजाओं से बात करने वाले ह तो कभी उत्पीिड़त बन्धु ओं के क सु
को समिर्पत। कभी धिनक के ऐ यर् की जाचं कर रहे ह, उनके
हृ दय म लोक-क याण की लौ जला रहे ह। वे जहा ँ पिण्डत के
ान से पिरिचत थे , वहीं
औ ोिगक और गर्ामीण अथर्- यव था से भी अवगत थे िजससे जनसाधारण का जीवन िनयंितर्त होता है । वे सदा िसखाते रहे , सीखते रहे और धीरे -धीरे अपने को भारत की आत्मा, एकता और िनयित के रूप म ढाल रहे थे । ये सभी तत्त्व उनम मूतर् हु ए और संसार ने िववेकानन्द म इनके दशर्न िकए। (रोमा ँ रोला,ँ िववेकानन्द की जीवनी) ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
ेम
हो जाएगा। हम भगवान के िजतना ही िनकट
व तु एँ उन्हीं म ि थत ह, तथा हमारा हृ दय
के पीछे चलते रहने से हम केवल जड़ पदाथर् म ही
दो सहज
ेम
े म करता है , तब स पू णर्
करता हू ँ ।" इसी कार सभी व तु एँ भ
समाज, राजनीित, धमर् ऱ िकसी भी क्षेतर् म िनयम
िहन्दु ओं का एक िविश
े
हो जाती ह, क्य िक सभी व तु एँ उसी की ह। तब हम
ितक्षे प करता है। माया अथार्
अ ान के कोहरे के ारा दे खा गया
भु से
के माग म
उसका यारा हो जाता है , क्य िक वह उसी का
है । भ
अनु भव करता है, तथा वयं का सगुण ई र के सदृश
गित हु ई। ाि
9
धमर् की खोज महात्मा गान्धी महात्मा गान्धी ने अपनी आत्मकथा को ‘सत्य के
योग’ नाम िदया है। उनका सारा जीवन
सत्य की योग- थली ही रहा। धमर् का क्षेतर् भी इससे अछूता न रहा। वे वै णव पिरवार म पैदा हु ए थे, पर अपने जन्म के धमर् की उन्हीं बात को उन्ह ने वीकार िकया जो उनकी दृि
से सत्य की
कसौटी पर खरी उतरीं। साथ ही उन्ह ने अन्य सभी धम का आदर िकया, और िविभ
धमार्वलंिबय
के साथ धमर् के संबध ं म खुले िदमाग और स ावना से चचार् की। यही कारण है िक वे सभी धम म अच्छाइया ँ दे ख सके और साथ ही उनकी किमया ँ भी। धमर्िवषयक उनकी खोज का
तुत है उनकी आत्मकथा म विर्णत
ारंभ। साथ राम-रक्षा का पाठ कर पाते ह इस अिभमान के कारण पाठ
छह या सात साल से लेकर सोलह साल की उमर तक
चलता रहा।
मने पढ़ाई की, पर कूल म कहीं भी धमर् की िशक्षा नहीं िमली। इस तरह कह सकते ह िक िशक्षक से जो आसानी से िमलना
पर िजस चीज़ का मे रे मन पर गहरा असर पड़ा, वह था
चािहए था वह नहीं िमला। िफर भी वातावरण से कुछ-न-कुछ
रामायण का पारायण। िपताजी की बीमारी का थोड़ा समय
तो िमलता ही रहा। यहा ँ धमर् का उदार अथर् करना चािहए। धमर्
पोरबंदर म बीता था। वे राम जी के मंिदर म रोज़ रात को
अथार्
रामायण सुनते थे। सुनानेवाले बीले र के लाधा महाराज नामक
आत्मबोध, आत्म ान। म वै णव स दाय म जन्मा था,
इसिलए हवेली म जाने के
एक पंिडत थे। वे रामचन्दर् जी के परम भ
संग बार-बार आते थे। पर उसके
थे। उनके बारे म
नहीं हु ई। हवेली का वैभव मुझे अच्छा नहीं
कहा जाता था िक उन्हे कोढ़ की बीमारी हु ई, तो उसका इलाज़
लगा। हवेली म चलने वाली अनीित की बात सुनकर मन उसके
करने के बदले उन्ह ने बीले र महादे व पर चढ़े हु ए बेलपतर्
ित
ा उत्प
लेकर कोढ़वाले अंग पर बाधेँ और केवल रामनाम का जप शुरू
ित उदासीन बन गया। वहा ँ से मुझे कुछ भी न िमला।
िकया। अन्त म उनका कोढ़ जड़मूल से न
पर जो हवेली से न िमला, वह मुझे अपनी धाय र भा से
हो गया। यह बात
सच हो या न हो, हम सुननेवाल ने तो सच ही मानी। यह भी
िमला। र भा हमारे पिरवार की पुरानी नौकरानी थी। उसका ेम मुझे आज भी याद है। मुझे भूत- ेत आिद का डर लगता था।
सच है िक जब लाधा महाराज ने कथा शुरू की, तब उनका
र भा ने मुझे समझाया िक इसकी दवा रामनाम है। मुझे तो
शरीर िबलकुल िनरोग था। लाधा महाराज का कण्ठ मीठा था।
रामनाम से भी अिधक
वे दोहा-चौपाई गाते और अथर् समझाते थे। उस समय मे री उ
ा र भा पर थी, इसिलए बचपन म
भूत- ेतािद के भय से बचने के िलए मने रामनाम जपना शुरू
तेरह साल की रही होगी, पर याद पड़ता है िक उनके पाठ म
िकया। यह जप बहु त समय तक नहीं चला। पर बचपन म जो
मुझे खूब रस आता था। यह रामायण- वण रामायण के
बीज बोया गया, वह न अमोघ शि
मे रे अत्यिधक
नहीं हु आ। आज रामनाम मे रे िलए
म गर्ंथ मानता हू ँ।
कुछ महीन के बाद हम राजकोट आए। वहा ँ रामायण
बोया हु आ बीज है। के भ
ेम की बुिनयाद है। आज म तुलसीदास की
रामायण को भि मागर् का सव
है। म मानता हू ँ िक उसके मूल म र भाबाई का
ित
इसी अरसे म मे रे चाचाजी के एक लड़के ने, जो रामायण
का पाठ नहीं होता था। एकादशी के िदन भागवत ज़रूर पढ़ी
थे, हम दो भाइय को राम-रक्षा का पाठ िसखाने की
जाती थी। म कभी-कभी उसे सुनने बैठता था। पर भ जी रस
यव था की। हमने उसे कण्ठागर् कर िलया और
उत्प
ान के बाद
नहीं कर सके। आज म यह दे ख सकता हू ँ िक भागवत
उसके िनत्यपाठ का िनयम बनाया। जब तक पोरबन्दर रहे , यह
एक ऐसा गर्ंथ है िजसके पाठ से धमर्-रस उत्प
िनयम चला। राजकोट के वातावरण म यह िटक न सका। इस
सकता है। मने तो उसे गुजराती म बड़े चाव से पढ़ा है। लेिकन
िकर्या के
इ ीस िदन के अपने उपवास-काल म जब भारत-भूषण पंिडत
ित भी खास
ा नहीं थी। अपने बड़े भाई के िलए
मन म जो आदर था उसके कारण और कुछ शु
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
िकया जा
मदनमोहन मालवीय के मुख से मूल सं कृत के कुछ अंश सुने
उ ारण के 10
धमर् की खोज तो
याल हु आ िक बचपन म उनके समान भगव -भ
के मुह ँ
की बात पढ़ीं। उनपर
से भागवत सुनी होती तो उस पर उसी उमर म मे रा गाढ़ा ेम
ा नहीं जमी, उलटे थोड़ी नाि तकता
ही पैदा हु ई। मे रे दू सरे चाचाजी के लड़के की, जो अभी जीिवत
हो जाता। बचपन म पड़े हु ए शुभ-अशुभ सं कार बहु त गहरी
ह, बुि
जड़ जमाते ह, इसे म खूब अनु भव करता हू ँ; और इस कारण
रखीं, पर वे मे रा समाधान न कर सके। उन्ह ने मुझे उ र िदया,
उस उमर म मुझे कई उ म गर्ंथ सुनने का लाभ नहीं िमला, सो
"सयाने होने पर ऐसे
अब अखरता है।
पर मुझे िव ास था। मने अपनी शंकाएँ उनके सामने
को ऐसे
राजकोट म मुझे अनायास ही सब स दाय के समान भाव रखने की िशक्षा िमली। मने िहन्दू धमर् के
ित त्येक
के उ र तुम खुद दे सकोगे। बालक
नहीं पूछने चािहए।" म चुप रहा। मन को शािन्त
नहीं िमली। मनु मृित के खा ाखा
िवषय के
दू सरे
था का िवरोध पाया। इस
करण म भी मने वतर्मान
करण म और
स दाय का आदर करना सीखा, क्य िक माता-िपता वै णव-
शंका का उ र भी मुझे लगभग ऊपर के जैसा ही िमला। मने
मंिदर म, िशवालय म और राम-मंिदर म भी जाते और भाइय
यह सोच कर अपने मन को समझा िलया िक ‘िकसी िदन बुि
को भी साथ ले जाते या भेजते थे।
खुलेगी, अिधक पढ़ूँगा और समझूग ँ ा।’ उस समय मनु मृित को
िफर िपताजी के पास जैन धमार्चाय से भी कोई न कोई
पढ़कर म अिंहसा तो सीख ही न सका। मासाहार ं की चचार् हो
हमे शा आते रहते थे। िपताजी उन्ह िभक्षा भी दे ते थे। वे िपताजी
चुकी है। उसे मनु मृित का समथर्न िमला। यह भी ख्याल हु आ
के साथ धमर् और यवहार की बात िकया करते थे। इसके िसवा
िक सपार्िद और खटमल आिद को मारना नीित है। मुझे याद है
िपताजी के मुसलमान और पारसी िमतर् भी थे। वे अपने-अपने
िक उस समय मने धमर् समझ कर खटमल आिद को मारा था।
धमर् की चचार् करते और िपताजी उनकी बात स मानपूवर्क और
पर एक चीज़ ने मन म जड़ जमा लीऱ यह संसार
अकसर रसपूवर्क सुना करते थे। िपताजी का ‘नसर्’ होने के
नैितकता पर िटका हु आ है। सारी नैितकता का समावेश सत्य
कारण ऐसी चचार् के समय म अकसर हािज़र रहता था। इस
म है। सत्य को तो खोजना ही होगा। िदन पर िदन सत्य की
सारे वातावरण का भाव मुझ पर यह पड़ा िक मुझम सब धम
मिहमा मे रे िनकट बढ़ती गई। सत्य की याख्या िव तृत होती
के िलए समान भाव पैदा हो गया।
गई, और अभी भी हो रही है।
एक ईसाई धमर् अपवादरूप था। उसके ित कुछ अरुिच
िफर, नैितकता का एक छ पय िदल म बस गया।
थी। उन िदन कुछ ईसाई हाई कूल के कोने पर खड़े होकर
अपकार का बदला अपकार नहीं, उपकार ही हो सकता है। यह
याख्यान िदया करते थे। वे िहन्दू दे वताओं की और िहन्दू धमर्
एक जीवन-सूतर् ही बन गया। उसने मुझ पर अिधकार करना
को मानने वाल की बुराई करते थे। मुझे वह अस
मालूम
शुरू कर िदया। अपकारी का भला चाहना और करना, इसका
हु आ। म एकाध बार ही याख्यान सुनने के िलए खड़ा रहा
म अनु रागी बन गया। इसके अनिगनत
होऊँगा। दू सरी बार िफर वहा ँ खड़े रहने की इच्छा ही न हु ई।
चमत्कारी छ पय यह हैऱ
उन्हीं िदन एक िस
योग िकए। वह
िहन्दू के ईसाई बनने की बात सुनी। गावँ
पाणी आपने पाय, भलुं भोजन तो दीजे;
म चचार् थी िक उन्ह ईसाई धमर् की दीक्षा दे ते समय गोमासं
आवी नमावे शीश, दं डवत कोडे कीजे;
िखलाया गया और शराब िपलाई गई। उनकी पोशाक भी बदल
आपण घासे दाम, काम महोरोनुं करीए;
दी गई और ईसाई बनने के बाद वे भाई कोट-पतलून और
आप उगारे
अंगर्ेज़ी टोपी पहनने लगे। इन बात से मुझे पीड़ा पहु ँची। िजस
गुण केडे तो गुण दश गणो, मन, वाचा, कम करी;
धमर् के कारण गोमासं खाना पड़े , शराब पीनी पड़े , उसे धमर्
अवगुण केडे जो गुण करे , ते जगमा ं जीत्यो सही।
कैसे कहा जाएय़ मे रे मन ने यह दलील की। िफर यह भी सुनने
(जो हम पानी िपलाए, उसे हम अच्छा भोजन कराएँ। जो
म आया िक जो भाई ईसाई बने थे उन्ह ने अपने पूवर्ज के धमर्
ाण, ते तणा दु ःखमा ं मरीए;
आकर हमारे सामने िसर नवाए, उसे हम उमंग से दण्डव
की, रीित-िरवाज़ की और दे श की िनन्दा करना शुरू कर
णाम कर। जो हमारे िलए एक पैसा खचर् करे , उसका हम
िदया था। इन सब बात से मे रे मन म ईसाई धमर् के ित अरुिच
मुहर की कीमत का काम कर। जो हमारे
उत्प
दु ःख दू र करने के िलए हम अपने
हो गई। इस तरह, य िप दू सरे धम के
ित समभाव जागा,
िफर भी यह नहीं कहा जा सकता िक मुझम ई र के
ाण बचाए, उसका
ाण तक िनछावर कर द।
जो हमारा उपकार करे , उसका तो हम मन, वचन और कमर् से
ित
दस गुना उपकार करना ही चािहए। लेिकन जग म स ा और
आ था थी। इन्हीं िदन िपताजी के पु तक-संगर्ह म से मनु मृित
साथर्क जीना उसी का है, जो अपकार करने वाल के
का भाषातर ं मे रे हाथ म आया। उसम संसार की उत्पि
उपकार करता है।)
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आिद 11
ित
िवचार का िवराम जे. कृ णमूिर्त िव ान को लोग से आदर और स मान िमलता है।
वह ाचीन सािहत्य का पारंगत िव ान था। ाचीन गर्ंथ के वचन उ त ृ कर अपने
व तुतः
त्येक िन कषर् को
मािणत करने की उसकी आदत थी। गर्ंथगत िवचार से
ान-संकलन मिदरा जैसा ही यसन है। पिठत
ान से स यक्
ान अथवा सत्य-दशर्न ा नहीं होता।
िभ , वतन्तर् कोई िवचार उसके पास था भी या नहीं,
ान िसखाया जा सकता है, लेिकन िसखाने से स यक्
इसम संदेह था। व तुतः िवचार ‘ वतन्तर्’ हो ही नहीं
ान या
सकता। त्येक िवचार िकसी न िकसी पर आधािरत होता
ान से स पूणर् मुि
है, पूवस र् ं कारब
ा ा नहीं हो सकती।
ा के उदय के िलए
आव यक है।
ा
ा
करने के
होता है। नाना भाव का श दाकन ं ही
िलए
ान का िस ा नहीं चलता। लेिकन जो यि
िवचार है। िवचार करने का अथर् है िकसी न िकसी पर
बार
ान के आ य- थल से िचपक जाता है, वह
अवलि बत रहना। िवचार कभी वतंतर् नहीं हो सकता।
उसकी पिरिध से बाहर िनकलने का साहस ही नहीं
उस यि था।
करता, क्य िक श द उसके िवचार को सदै व पोसते
के िलए केवल पािण्डत्य का ही महत्त्व
ान का भार वह लादे हु ए था और अपने इस
रहते ह और िवचार करते रहने म इन िव ान को संतोष
ान-
संभार को वह बड़े गौरव से ढोता था। उसने एकदम
िमलता है। पर िवचार करना साक्षा
सं कृत म ही बोलना शुरू िकया। लेिकन वह दे ववाणी
ितबन्धक ही िस
होता है। साक्षा
ा का उदय नहीं होता।
कोई समझ ही नहीं पा रहा है, यह पता चलने पर वह
बात
चिकत हो गया, उसे िव मय का ध ा लगा। उसे इस बात पर िव ास ही नहीं हो रहा था। वह कहने लगा, "आप अपने
एक
ा के मागर् के िलए या
वचन म जो कुछ कहते ह, उससे ऐसा
होती। िवमु
मन मु
अनु भव के िलए अनु भव के िबना
ान, क पना, िन ा आिद ितबन्धक ह।
नहीं होता। उसम वयं फूिर्त नहीं
और वयं फूतर् ि थित म ही नवीन का शोध
िदखता है िक या तो आपने मूल सं कृत गर्ंथ पढ़े ह
होता है। या मन अपने को पिरवेि त करता है, काश
अथवा महान ऋिषय के गर्न्थ के अंगर्ेज़ी अनु वाद का
का वेश उसम होना किठन है, वह दु भ
अध्ययन िकया है।" जब उसे यह पता चला िक धािर्मक
इसीम उसकी सुरिक्षतता और
तत्त्व ानिवषयक अथवा मानसशा ीय िकसी भी गर्ंथ
िवचार की रचना ही ऐसी होती है िक उसके कारण
का अध्ययन यहा ँ नहीं िकया गया है, तब तो वह अपना
मनु य अपनी ही नाकेबन्दी कर डालता है। वह सहज भे
अिव ास खुले रूप म य
हो ही नहीं सकता। िवचार कभी सहज फूतर् नहीं होता।
करने लगा।
हम मुिदर्त श द को और तथाकिथत पिवतर् गर्न्थ
इसी तरह वह िवमु
हो जाता है।
ित ा संिचत रहती है।
और वतन्तर् भी नहीं होता क्य िक
को िकतना अिधक महत्व दे ते ह! सामान्यजन ह या
िवचार म भूतकाल का सातत्य चलता रहता है। और यह
पिण्डत, सभी लोग गर्ामोफोन के तवे जैसे ही ह। ये सब
तो है ही िक जो सातत्यवान है, वह वतन्तर् और मु
हो
लोग एक ही बात को दोहराते रहते ह, िफर वे तवे
ही नहीं सकता। सातत्य भंग होने पर, सातत्य का अन्त
िकतनी बार बदले जाएँ। पिण्डत को केवल
ान-संपादन
होने पर ही मुि
से मतलब रहता है, साक्षा अनु भव से नहीं।
ान साक्षा
अनु भव म बाधक ही बनता है। लेिकन
या
का उदय होता है।
मन चालू यापार को अथार्
सातत्य को ही
ान-भण्डार कुल
आगे चलाता है। जैसे वह बैलगाड़ी का िनमार्ण करे गा,
िमलाकर बड़ा सुरिक्षत आ य- थल होता है। िव ान
वैसे ही वह जेट िवमान का भी िनमार्ण कर सकता है।
का अ ानी जन पर सदै व ही
हम बुि हीन ह, ऐसा हम िवचार से मान लेते ह, तो
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भाव पड़ता है, अतएव 12
िवचार का िवराम
सचमुच हम बुि हीन बन जाते ह। हम ई र ह, ऐसी हम
श दरूप ई र है। ई र का िवचार ई र नहीं है, वह
क पना कर लेते ह तो हम अपनी क पना की साकार
ई र के संबध ं म केवल पूवर् मृित
मूिर्त बन जाते हऱ ‘अहं
ाि म।’
है। मृित दीघर्काल तक िटकने वाली होती है, इसिलए
उस पंिडत ने कहा, "लेिकन लौिकक िवचार से मन को या
ऐसा
होने दे ने की अपेक्षा ई र के िवचार से
उसे या होने दे ना क्या अिधक
ारा िदया गया उ र
म होता है िक वह गहरी है। लेिकन
मृित की
रचना ही ऐसी होती है िक वह गहरी हो ही नहीं सकती।
ेय कर नहीं है?"
इस कारण वह गहन नहीं हो पाती। िवचार सदै व िवचार
हम जैसा िवचार करते ह वैसे बन जाते ह। हम
ही रहता है। उसे सत्य की गहनता का पशर् तक नहीं
िकसका िवचार करते ह, इस बात का कोई महत्त्व नहीं
हो सकता। िवचार अपने को िवशेष मू यवान मान सकता
है, वा तिवक महत्त्व तो अपनी िवचार- िकर्या के
है, लेिकन अन्ततः वह रहता केवल िवचार ही है। मन
आकलन का है। हम ई र का िवचार करते ह या मिदरा
जब
का, इस बात का कोई महत्त्व नहीं है। इन दोन िवचार
िवचार के उस पार नहीं जाता, बि क वह एक नया रूप,
का अपना-अपना िविश
पिरणाम िनकलता ही है।
नया चोगा धारण कर लेता है। इस नये आवरण म जो
लेिकन इन दोन
ारा िवचार वयं ही
रहता है, वह भी केवल िवचार ही होता है।
कार
की हु ई क पना से या
हो जाता है। सारी क पनाएं,
सारे ध्येय, सारे साध्य िवचार के ही ह। वयंिनिर्मत मन को या
क्षेिपत
व- क्षेिपत बात से या
हो जाता है, तब वह
"तब िवचार के पार मनु य कैसे जायेगा?"
क्षेप और िव तार
व तुतः यह कोई महत्त्व का मु ा नहीं है। अहं का
क्षेप से, िफर वे िकसी भी तर के ह ,
िवचार के उस पार जाना स भव नहीं है। क्य िक
कर लेने का अथर् है अहं की पूजा करना।
य
करनेवाला जो अहं है, वह भी िवचार का ही पिरपाक है।
अहं अथवा आत्मा िवचार का ही िवक्षेप है। िजस बात से
िवचार- िकर्या
िवचार या हु आ होगा, वही मनु य का वरूप हो जाता
आत्म ान है, और यही आव यक है। ऐसा होने पर
है। और उसका यह जो
वरूप है, वह भी िवचार-
वा तिवकता के अन्तगर्त जो सत्य है, वह उजागर होता है
कुछ नहीं होता। इसिलए िवचार
और उसीसे िवचार- िकर्या का अन्त होता है। वा तिवक
िवक पन के अितिर की
का
अन्तरंग
उघाड़कर
देखना
ही
सत्य िकसी भी पुरातन अथवा आधुिनक गर्ंथ म नहीं
िकर्या को समझना ही महत्त्व की बात है। िवचार जीवन की चुनौती को िदया जाने वाला
िमलेगा। गर्ंथ म केवल श द िमलते ह, सत्य नहीं िमलता।
उ र ही तो है। चुनौती नहीं होगी तो िवचार ही उ त ू
"िफर कोई सत्य का शोध कैसे करे गा?"
नहीं होगा। यह चुनौती और उ र की िकर्या ही अनु भव
सत्य का शोध नहीं हो सकता। सत्य-शोधन के
है। अनु भव का श दाकन ं ही िवचार है। अनु भव केवल
िलए िकये जानेवाले
भूत का ही नहीं होता, बि क भूत का वतर्मान से संयोग
िवक्षेिपत साध्य का िनमार्ण िकया जाता है। लेिकन यह
होने के कारण भी अनु भव आकार धारण करता है।
साध्य सत्य नहीं होता। सत्य िकसी की िन पि
अनु भव सबोध
वरूप का भी
का पिरणाम नहीं होता। पिरणाम िवचार का ही
मृित यानी सं कार-
सातत्यरूप होता है, िफर वह िव तािरत हो या क्षेिपत।
वरूप की भाित ँ अबोध
होता है। अनु भव का अवशेष है भाव। इस मृित के
ारा, इस भूतानु भव के
"पर क्या िवचार का इतना ही अथर् है? मृित के
तर
पर
कभी िनकृ
तर पर, कभी उदा
ितकार
कार के
कभी मुि
दशर्न से ही मुि
तर पर तो
या िकसी
ारा अथवा
ारा िवचार का अन्त नहीं िमलती है। मु
होने का
नहीं िदला सकता, केवल सत्य के िमलती है।
कृ णमूिर्त फ़ाउंडेशन (इंिडया), राजघाट, वाराणसी,
तर पर। िकसी भी तर पर हो, अािखर
ारा
कािशत जीवन-भा य भाग 1 से साभार संकिलत।
अनु वादक ह
ारा िनिर्मत ई र ही होता है। वह केवल
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
ारा, कठोर अनु शासन
य
वह रहता तो िवचार ही है। िवचार ारा िनिर्मत ई र मन और क पना
होता है। बल योग िकसी भी
सुनते रहने से ही उससे मुि
थािपत
करता रहता हैऱ कभी बुि हीन और उथले तर पर तो कभी सुबु , गहरे
व-
होता। जो वा तिवक है, उसकी कहानी शािन्तपूवर्क
वरूप है?
इससे अिधक गहरे तर पर क्या िवचार नहीं होता?" िवचार अपने को िविभ
के कारण केवल एक
िवचार का जब अन्त होता है, तभी सत्य का दशर्न
ारा िदया
जानेवाला उ र ही िवचार है। ारा िदया जानेवाला उ र ही िवचार का
य
13
ी जमनालाल जैन।
भारतीय आध्याित्मकता और जीवन ी अरिवन्द ी अरिवन्द कर्ान्तदशीर् ऋिष थे। पि म की वैचािरक पर परा का उन्ह ने गंभीर अध्ययन िकया था, इसिलये उसकी सीमाओं को वे प पैनी दृि
ने
प
रूप से दे ख सके थे। उनकी
दे खा िक मानवजाित की वतर्मान सम याओं का समाधान और
उसका भावी िवकास
ाचीन भारत के वैचािरक आधार को वीकार करके ही स भव
है। सिकर्य राजनीित के नेतृत्व को छोड़कर वे पुदु ेरी मेें साधना म, और अपने िश य का मागर्-दशर्न करने म लग गए। उन्ह ने अनेक पु तक िलखीं िजनम द लाइफ़ िडवाइन, द िसन्थेिसस ऑफ़ योग, और सािवतर्ी
िस
ह। यहा ँ
तुत अंश उनकी
पु तक भारतीय सं कृित के आधार से संकिलत है। सीमाओं के भीतर और अपनी कृित के अनु सार मह र
भारतीय धमर् ने मानव-जीवन के सामने चार
जीवन की ओर
आव यक बात को रखा।
गित करने म समथर् हो।
इनम से पहली तीन बात
सवर् थम, इसने मन म स ा की एक ऐसी उ तम
त्येक धमर् के िलए
चेतना या अव था पर िव ास रखने पर बल िदया जो
अत्यंत अिनवायर् ह, परन्तु िहन्दू धमर् ने अंितम को सदै व
िव
ादु भत र्ू
अत्यिधक महत्त्व िदया है। उसने जीवन के िकसी भी
होता है, िजसम सब कुछ इसे िबना जाने ही रहता और
अंग को एकदम लौिकक तथा धािर्मक और आध्याित्मक
गित करता हैै, और िजसे एक िदन सब अव य जान लगे
जीवन के िलए िवजातीय व तु कहकर अपने क्षेतर् से
जब वे उसकी ओर मुड़गे जो पूण,र् सनातन और अनंत
बाहर नहीं छोड़ा है।
यापी और िव ातीत है, िजससे सब कुछ
है।
तथािप भारतीय धािर्मक पर परा केवल एक दू सरे , इसने यि
और अनु भव के
के जीवन के सामने िवकास
सामािजक सार-ममर्
ारा अपने आपको तैयार करने की
णाली का रूपमातर् नहीं है। िंहदू धमर् का आध्याित्मक
अनु शासन
है,
सामािजक
आव यकता को रखा िजससे िक अन्त म मनु य इस
अनु शासन नहीं। सचमुच ही हम दे खते ह िक िसक्ख धमर्
मह र स ा के सत्य म िवकिसत होने के िलए
को भी वैिदक पिरवार म िगना गया, य िप उसने ाचीन
तुत
हो जाए।
सामािजक पर पराओं को तोड़कर एक नई रीित-नीित
तीसरे , इसने मनु य को
ान और आध्याित्मक या
का अािव कार िकया दू सरी ओर जैन और बौ पर परा की दृि
धािर्मक साधना का एक सु िति त, सुपरीिक्षत, शाखाशाखाओं से यु
य िप वे िहन्दु ओं की सामािजक आचार-नीित का पालन
और सदा िव तृत होनेवाला मागर्
दान िकया।
करते थे और िंहदु ओं के साथ िववाह आिद का संबध ं भी
और अन्त म, जो लोग अभी इन उ तर सोपान
रखते थे, क्य िक उनकी आध्याित्मक
के िलए तैयार नहीं ह उनके िलए इसने वैयि क और सामूिहक जीवन की एक
को
से धािर्मक घेरे के बाहर समझा गया
यव था,
णाली एवं िशक्षा
अपने मूल म वेद के सत्य का िनषेध और वैिदक पर परा का यितकर्म करती तीत होती थी। िंहदू धमर् का िनमार्ण
यि गत और
सामािजक अनु शासन और आचार- यवहार का एक
करनेवाले इन चार अंग के िवषय म िविभ
ढाचा ँ
सं दाय , समाज और जाितय के िंहदु ओं के बीच
तुत िकया, िजसके
ारा उनम से त्येक अपनी
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14
मत ,
भारतीय आध्याित्मकता और जीवन
छोटे -बड़े भेद अव य ह, िंकतु िफर भी मूल भावना,
अपने आप म कोई पूणत र् ः पृथक् मू य या वतंतर् अि तत्व
मूलभूत आदशर् और आचार तथा आध्याित्मक मनोभाव म
नहीं रखता।
एक यापक एकता भी है जो इस िवशाल िविवधता के अंदर संयोग की एक अपिरिमत शि एक
बल सूतर् को उत्प
जीवन एक िद य लीला है, अथवा वह एक साधन
तथा एकत्व के
है िजसके ारा, जीव
करती है।
े म,
ान,
ा, उपासना और कमर्गत
संक प के बल पर इस परात्पर पुरुष और इस अनन्त
सम त भारतीय धमर् का मूल िवचार एक ऐसा िवचार है जो सव
ारा, अगिणत रूप और अनेक जीवन के
मानव िचन्तन म सवर्तर् समान रूप
स ा के पास पहु ँच सकता है। इसे
पशर् और अनु भव
से पाया जाता है । इस लोक म जो कुछ भी है उस
कर सकता है, तथा इसके साथ एकत्व ा कर सकता
सबका परम सत्य है एक ‘पु रुष’ या एक ‘स ’। यहा ँ
है। यह िद य आत्मा या यह
हम िजन मानिसक और भौितक रूप के स पकर् म आते
परम स
ह वह उन सबसे परे है । मन,
मातर् ह या उस पर आि त होने के कारण ही वा तिवक
ाण और शरीर से परे
एक अाध्याित्मक स ा एवं आत्मा है , जो सभी सान्त
वयंभू पुरुष ही एकमातर्
तु है, और अन्य सभी चीज़ या तो
तीितया ँ
ह।
व तुओं को और अनन्त को अपने अंदर धारण िकये हु ए
इससे यह पिरणाम िनकलता है िक आत्मोपलि ध
है । सभी सापेक्ष व तुओं से अतीत एक परम िनरपेक्ष
और ई रोपलि ध ही जीवनधारी और िवचारशील मनु य
और धारण
का महान कायर् है। सम त जीवन और िवचार अंततोगत्वा
करती है । वही एकमे व सनातन है , एकमे व परात्पर,
आत्मोपलि ध और ई रोपलि ध की ओर गित करने के
िव
साधन ह।
स ा है जो सभी न र पदाथ को उत्प
यापी, आिद और शा त भगवान या िद य शि
स , िच , आनन्द ही व तुओं का आिद
भारतीय धमर् ने परम-सत्यसंबध ं ी बौि क या
ोत, आधार
पारमािर्थक िवचार को कभी एकमातर् केन्दर्ीय महत्त्व
और अंतवार्सी है ।
की व तु नहीं समझा। िकसी भी िवचार या िकसी भी
जीव, कृित और जीवन इस िचन्मय सनातन की एक अिभ यि
आकार के रूप म उस सत्य का अनु सरण करने,
या इसका एक आंिशक रूपमातर् है।
परन्तु स ा के इस सत्य को भारतीय मन ने बुि
के
आन्तिरक अनु भिू त के
ारा िचिन्तत केवल एक दाशर्िनक क पना, धािर्मक
ारा उसे
ा करने, और चेतना
म उसके अंदर िनवास करने को ही वह एकमातर् आव यक व तु मानता था।
िस ान्त या अमूतर् तत्त्व के रूप म ही नहीं गर्हण िकया था। यह कोई ऐसा िवचार नहीं था िजससे िवचारक
एक मत या स दाय मनु य की वा तिवक आत्मा
अपने अध्ययन के समय तो संलग्न रहे पर दै िनक जीवन
को िव ात्मा या परमात्मा के साथ अिवभाज्य रूप म एक
के साथ िजसका कोई िकर्यात्मक संबध ं न हो। यह तो
समझ सकता था। दू सरा मत सारतत्त्व म तो भगवा
एक जीवन्त आध्याित्मक सत्य था, एक स ा, शि
साथ एक, पर
एवं
उपि थित थी िजसकी खोज सभी लोग अपनी क्षमता की
तीसरा ई र,
मातर्ा के अनु सार कर सकते थे, और िजसे जीवन के
िनत्य-िभ
ारा तथा जीवन के परे सह
कृित म उससे िभ
के
मान सकता था।
कृित और जीवात्मा को स ा की तीन
शि य के रूप म वीकार कर सकता था।
परन्तु सबके िलए आत्मा का सत्य एकसमान अचल,
माग से गृहीत कर
सकते थे।
अटल था, क्य िक भारतीय ै तवाती के िलए भी ई र ही परम आत्मा और स
इस सत्य को जीवन म चिरताथर् करना और यहा ं
तु है िजसम और िजसके
ारा
कृित और मनु य रहते, चलते िफरते और अि तत्व
तक िक िवचार, जीवन तथा कमर् को पिरचािलत मुख भावना बनाना होता था। सब रूप के
रखते ह। यिद तुम ई र को बाहर िनकाल दो तो कृित
पीछे िव मान िकसी परम व तु या परम पुरुष को इस
और मनु य का कुछ भी अथर् और महत्त्व नहीं रह
करनेवाली
कार वीकार करना और खोजना ही भारतीय धमर् का
जाएगा। िव ात्मा, िव
एकमातर् सावर्जनीन मूलमंतर् रहा है। यिद इसने सैकड़
कृित (चाहे उसे माया कहा जाए
आकार गर्हण कर िलये ह तो इसका कारण ठीक यही
अथवा
है िक यह इतना अिधक जीवन्त था। केवल अनन्त ही
िव मान अन्तरात्मा, अथार्
सान्त की स ा की साथर्कता िस
िजन्ह भारत के सबके सब धािर्मक स दाय और पर पर
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करता है। सान्त 15
कृित या शि ) और जीवधारी
ािणय म
जीव– ये तीन सत्य ह
भारतीय आध्याित्मकता और जीवन
भी बनाया गया।
िवरोधी धािर्मक दशर्न सवर्सामान्य रूप से अंगीकार करते
िजस परम सत्य की घोषणा की गई वह भारतीय
ह। इस बात को भी सभी वीकार करते ह िक ई र या परमात्मा या सनातन
के साथ मनु य की अंतरात्मा
का पूणर् एकत्व ही आध्याित्मक िसि
िचन्तन की कोई िनराली िवशेषता नहीं है। सभी जगह के
ा करने की शतर्
उ तम मनीिषय और महात्माओं ने उसका साक्षात्कार
है।
और अनु सरण िकया है। परन्तु अन्यतर् वह केवल कुछयापी सनातन ‘पुरुष’ के
एक िवचारक या िकन्हीं िवरले रह यवािदय का ही
पास पहु ँचने का हमारा तरीका चाहे कोई भी क्य न हो,
जीवन्त मागर्दशर्क रहा है। जनसाधारण को इस ‘परात्पर’
आध्याित्मक अनु भव का एकमातर्
कुछ का कोई बोध या
उस िव ातीत और िव
धान सत्य यह है िक
प
अनु भव नहीं
ा
हु आ,
भगवान सभी
ािणय के हृ दय और केन्दर् म िवराजमान
इसकी िकसी छाया की झलक भी नहीं िमली। वे धमर् के
ह और सभी
ाणी उनके अंदर अवि थत ह, और उन्ह
केवल िन तर सा दाियक पहलू म, दे वता-िवषयक
ा
करना ही मनु य की
महान आत्म उपलि ध है।
सब रूप के पीछे िव मान िकसी परम व तु या परम पुरुष को इस
हीनतर िवचार म या जीवन के बा
पािर्थव रूप म ही
कार वीकार करना और िनवास करते रहे । परन्तु िव ास के मतभेद भारतीय खोजना ही भारतीय धमर् का एकमातर् सावर्जनीन अन्य िकसी सं कृित ने जो मन के िलए सबम िव मान मूलमंतर् रहा है। यिद इसने सैकड़ आकार गर्हण कर कायर् नहीं िकया है उसे एक ही आत्मा और परमे र िलये ह तो इसका कारण ठीक यही है िक यह इतना करने म भारतीय सं कृित धमर्मत-संबध ं ी
को दे खने के अलग-अलग अिधक जीवन्त था। केवल अनन्त ही सान्त की स ा अपनी दृि की तेजि वता, तरीक से अिधक कुछ नहीं की साथर्कता िस करता है। अपने दृि कोण की ह।
आत्म-साक्षात्कार
यापकता, अपनी िज ासा
ही
की ती ता के कारण अव य सफल हु ई। वह धमर् पर
एकमातर् आव यक व तु है। अंतर थ परमात्मा की ओर खुलना, अनंत म िनवास करना, सनातन को खोजना
वा तिवक आध्याित्मकता के मुख्य आदशर् की छाप
और उपल ध करना, भगवान के साथ एकत्व
लगाने म कृतकायर् हु ई, वह धािर्मक क्षेतर् के त्येक भाग
ा
करना– यही धमर् का सवर्सामान्य िवचार और ल य है,
म ठे ठ उ तम आध्याित्मक सत्य का कुछ सजीव
यही आध्याित्मक मोक्ष का अिभ ाय है, यही वह जीवन्त
ितिब ब और उसके भाव की कुछ ाणधारा अव य ले
सत्य है जो पूणत र् ा और मुि
दान करता है। उ तम
आई।
आध्याित्मक सत्य और उ तम आध्याित्मक ल य का
इस कथन से बढ़कर असत्य और कोई बात नहीं
यह िकर्यात्मक अनु सरण ही भारतीय धमर् का एकीकारक
हो सकती िक भारत के सामान्य धािर्मक मन ने भारतीय
सूतर् है और यही, उसके सह
धमर् के उ तर आध्याित्मक या दाशर्िनक सत्य को
एक अिभ
रूप के पीछे , उसका
िबलकुल नहीं समझा है। यह कहना एकदम भूल है िक
और सवर्सामान्य सारतत्त्व है।
यिद भारत जाित की आध्याित्मक आध्याित्मक सं कृित के रूप म अगर्पंि
ितभा के, या
वह सदा केवल रीित-र म, मत-िव ास और
म ि थत होने
था-
पर परा रूपी बा ाचार म ही िनवास करता रहा है।
के भारतीय स यता के दावे के समथर्न म कहने के िलए
इसके िवपरीत, भारतीय धािर्मक दशर्न के मुख्य दाशर्िनक
और कुछ न भी हो तो भी इस एक ही तथ्य से काफी हद
सत्य अपने िवशाल भावनात्मक रूप म या अपने गंभीर
तक
ितपािदत हो जाएगा िक इस मह म और
का यमय एवं ओज वी वणर्न के रूप म भारतवािसय के
यापकतम आध्याित्मक सत्य को भारत म िनतान्त
साधारण मन पर अंिकत ह। माया, लीला एवं भगवान के
साहसपूणर् िवशालता के साथ दे खा गया है। केवल इतना
अंतयार्िमत्व से संबध ं रखनेवाले िवचार एक साधारण
ही नहीं, उस सत्य को अनु पम ती ता के साथ अनु भव
मनु य एवं मंिदर के पुजारी को भी उतने ही
ात ह
और कट ही नहीं िकया गया, तथा सब स भव पहलुओं
िजतने िक एकातसे ं वी दाशर्िनक को, मठवासी संन्यासी
से केवल इस पर िवचार ही नहीं िकया गया, अिपतु इसे
और कुटीवासी सन्त को। िजस आध्याित्मक सत्य को वे
सचेतन रूप से जीवन का एक महान उ ायक िवचार,
ितभािसत करते ह, िजस गंभीर अनु भिू त की ओर वे
सम त धमर् का आधार और मानवजीवन का चरम ल य
संकेत करते ह वह यहा ँ स पूणर् जाित के धमर्, सािहत्य,
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆ ¦ÉÉ® ®úiiÉÉ-ºÉ ºÉÆÆvÉÉÉÉxÉ, ÉxÉ x , +ÆEò--14, 4,, ÊʺÉiɨ¤É® º iɨ¤É® 2012 ºÉ
16
भारतीय आध्याित्मकता और जीवन
कला और यहा ं तक िक
मोटा पदार् है। वे भगवान एवं अध्यात्म-स ा, आत्मा एवं
चिलत धािर्मक गान म भी
यापी हु ई है।
िनत्य-स ा की जीवन्त झाकी ँ अिधक सुगमता से पुनः
यह सच है िक इन चीज़ो को सवर्साधारण लोग िचन्तन के अनथक के उत्साह के
य
ा कर लेते ह। बु
की अपेक्षा कहीं अिधक भि
ारा ही अिधक सहज रूप म अनु भव
जीवन एक िद य लीला है, अथवा वह एक साधन है िजसके द्वारा अगिणत रूपों और अनेक जीवनों के द्वारा जीव प्रेम, ज्ञान, श्रद्धा, उपासना और कमर्गत संक प के बल पर इस परा पर पुरुष और इस अन त सतता के पास पहुँच सकता है। इसे पशर् और अनुभव िकया सकता है, तथा इसके साथ एक व प्राप्त िकया सकता है। यह िद य आ मा या यह वयंभू पुरुष ही एकमात्र परम सद्व तु है, और अ य सभी चीज़ें या तो प्रतीितयाँ मात्र हैं या उस पर आिश्रत होने के कारण ही वा तिवक हैं।
करते ह। परन्तु यह तो होना वाभावक है क्य िक मनु य की बुि
की अपेक्षा उसका हृ दय सत्य के अिधक िनकट
है। यह भी सच है िक बा दे ने की
वृि
अनु ान पर अत्यिधक बल
सभी थान और काल म िव मान रही
है और इसने गंभीरतर आध्याित्मक हे तु को आच्छ करने की चे ा की है, िकन्तु यह केवल भारत की ही िनजी िवशेषता नहीं है, यह तो मानव
कृित का एक
सावर्भौम दोष है जो यूरोप म एिशया से कम नहीं वरन कहीं अिधक
प
की ऊँची, कठोर और किठन िशक्षा
भला और कहा ँ सवर्साधारण के मन पर इतनी तेज़ी से
रूप से पाया जाता है। इसी कारण
वा तिवक सत्य को सजीव बनाए रखने और आचार, अनु ान, रीित-नीित और कमर् काडं के िनजीर्व बनानेवाले बोझ का ितरोध करने के िलए िवचारक की अिविच्छ पर परा तथा आलोक- ा
संन्यािसय की िशक्षा की
अिधकार कर पाती। और कहा ँ िकसी तुकाराम,
आव यकता रही है। यह भी तथ्य है िक आत्मा के इन
राम साद, कबीर, तथा िसक्ख गुरुओं के गान, और
संदेशवाहक का कभी अभाव नहीं रहा। और इससे
खर भि
के साथ गहरे आध्याित्मक िचन्तन से यु
अिधक महत्त्वपूणर् यह तथ्य भी िव मान है िक
तिमल संत के गीत इतने वेग से गुज ं ायमान होकर
सवर्साधारण के मन म उनके संदेश को सुनने की
लोकि य धािर्मक सािहत्य का रूप ले पाते? आध्याित्मक
स तापूणर् तत्परता रही है। सभी
वृि
थान की तरह भारत म भी बिहमुर्ख मन
का यह बल संचार, उ तम सत्य की ओर मुड़ने
के िलए स पूणर् रा के मन की तत्परता एक वा तिवकता
वाले लोग की अिधकता है। परन्तु कम से कम भारत के
है, और उस परम आध्याित्मक सं कृित का िच
िनवािसय म, यहा ँ तक िक ‘अ ानी जनसाधारण’ म भी
फल है जो अभी तक जीिवत है।●
यह िवशेषता है िक सिदय के िशक्षण के कहीं की भी साधारण जनता या सुसं कृत
(भारतीय सं कृित के आधार पु तक से साभार
ारा वे और े
और
जन की
संकिलत। अनु वादक है
अपेक्षा आंतिरक सत्य के अिधक िनकट ह। उनके और
चन्दर्दीप ितर्पाठी।
परम सत्य के बीच िव गत अिव ा का अपेक्षाकृत कम
पुदु ेिर।)
ी जग ाथ वेदालंकार और
काशक,
ी अरिवन्द आ म,
वैराग्य का थोड़ा-बहु त अंश िलए िबना कोई भी सं कृित महान एवं पूणर् नहीं हो सकती; क्य िक वैराग्य का अथर् है आत्म-त्याग और और आत्म-िवजय िजनके िन
आवेग का दमन करके अपनी
ारा मनु य अपने
कृित का मह र िशखर की ओर आरोहण करता
है। भारतीय वैराग्यवाद न तो दु ःख की िवषादपूणर् िशक्षा है और न अ वा थ्यकर क दायी साधना के वािमत्व की
ारा शरीर का दु ःखदायी िनगर्ह है। अिपतु वह तो आत्मा के उ तर हषर् एवं पूणर् ाि के िलए एक उदा
य
है। ी अरिवन्द
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17
ी
तपोवन रवीन्दर् नाथ टै गोर
आधुिनक स यता की ल मी का आसन िजस
ह वहा ँ उनके
योजन और बुि
को एक िविश
रूप
कमल पर िवराजमान है वह ईंट और लकड़ी का बना है।
िमल जाता है और स यता की अिभ यि
होने लगती है।
वह कमल है नगर! उ ित का सूयर् जैसे-जैसे आकाश म
लेिकन भारतवषर् म आ यर्जनक बात दे खी गई। यहा ँ
ऊपर उठता है, इस िवशाल कमल की पंखुिड़या ँ िखल-
स यता का मूल
िखल कर चार ओर या हो जाती ह। इस चूने-गारे के
सवर् थम जब भारतीय स यता का िवकास हु आ, लोग
िव तार को रोकना पृथ्वी के िलए अस भव-सा हु आ जा
एक-दू सरे से िबलकुल सटकर नहीं बैठे। उन्ह ने भीड़
रहा है।
नहीं जमाई। यहा ँ वृक्ष, नदी, सरोवर का मनु य के साथ
आज का मानव नगर म ही िव ाजर्न करता है और िव ा का
ोत नगर म नहीं, बि क वन म था।
योग बना रहा। यहा ँ मनु य भी था, िनजर्न थान भी था,
योग करता है; धन कमाता है और धन
िनजर्नता से भारत का िच
जड़ नहीं हु आ, वरन उसकी
का यय करता है; तरह-तरह से अपनी शि -स पदा
चेतना और भी उज्ज्वल हो उठी। हम कह सकते ह िक
बढ़ाने का य
शायद दु िनया म और कहीं ऐसा नहीं हु आ होगा।
कुछ भी
े
करता है। आज की स यता के पास जो पदाथर् है, सब नगर की सामगर्ी है।
वा तव म ऐसा होना
बहु त-से लोग एक-दू सरे से िमलते ह वहा ँ बुि िविवध
वृि य के संघात से िच
चार ओर की टकराहट से
हम दे खते ह िक जो लोग पिरि थितवश जंगल म
वाभािवक ही है। जहा ँ
आब
तो वे शेर की तरह िंह
की
भोले-भाले। लेिकन
जागिरत होता है।
त्येक यि
हो जाते ह उनकी वृि या ँ वन्य हो जाती हऱ या
मानवीय बुि
की शि
गितशील हो जाती है। इस तरह िच -समुदर् के मन्थन
शि
हो जाते ह, या िहरन की तरह
ाचीन भारत म वन की िवजनता ने
को परािजत नहीं िकया, वरन एक ऐसी
दान की िजससे उस वनवास-जन्य स यता की
से मानव-जीवन का सार-पदाथर् अपने-आप ऊपर
धारा ने सारे भारत को अिभिष
उठकर बह िनकलता है।
धारा का
िफर जब मनु य की शि
िकया। आज भी उस
वाह रुका नहीं है।
इस तरह उन अरण्य-वािसय
जाग उठती है तो वह
की साधना से
एक ऐसा क्षेतर् ढ़ूँढ़ती है जहा ँ अपने आपको य करने म सफल हो सके। ऐसा क्षेतर् कहा ँ हैय़ वहीं, जहा ँ बहु त-
भारत को वह सामथ्यर् िमलीऱ वह ऊजार् िमली िजसका
से लोग, िविवध
म। इसिलए वह शि
सृि शील और सचे
ोत न तो बा
यास म लीन, अनेक िदशाओं से ह ऱ अथार्
नगर म।
िव
संघात म था, न इच्छाओं की ितयोिगता मुख्यतः बिहमुर्खी नहीं है। उसने
के साथ अपनी आत्मा का योग थािपत िकया है।
जब लोग पहले-पहल एक थान पर जमा होकर
भारत ने अपनी स यता का पिरचय मुख्य रूप से ऐ यर्
नगर बसाते ह तो उनकी यह रचना स यता के आकषर्ण
के उपकरण के ारा नहीं िदया। इस स यता के कणर्धार
से नहीं होती। होता यह है िक शतर्ु के आकर्मण से बचने
अरण्य-िनवासी, अ पवसन तप वी थे।
के िलए लोग िकसी सुरिक्षत
समुदर्-तट ने िजस दे श का पालन िकया उसे
थान पर एकितर्त होना
आव यक समझते ह। पर कारण जो कुछ भी हो, जहा ँ
वािणज्य-स पदा
भी अनेक मनु य एक थान पर साथ-साथ रहने लगते
क्षुिधत रखा वे िदिग्वजयी हु ए। इसी तरह िवशेष
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दान की। मरुभूिम ने िजन लोग को
तपोवन
पिरि थितय के अनु सार मनु य की शि
पथ
कर्मशः भारत म राज्य-सा ाज्य और नगर-नगरी
िमले। समतल आयार्वतर् की अरण्यभूिम ने भारत को भी
को िविभ
की थापना हु ई। दे श-िवदे श के साथ उसका वािणज्य
को उसने यह
आर भ हु आ। अ -लोलुप खेत ने धीरे -धीरे छायादार
के अंतरतम रह य का संधान करे ।
जंगल को दू र हटा िदया। परन्तु तापशाली, ऐ यर्पूण,र्
एक िवशेष सुयोग िदया। भारत की बुि ेरणा दी िक जग उस बुि
यौवनो त भारतवषर् वन के
ने िजस स पदा को संिचत िकया उसे सारी
मानव-जाित को वीकार करना होगा। औषिध-वन पित के बीच त्येक ऋतु म िदन-रात य
होती है। यह
कािशत होती है। इसी
वीकार
करने म कभी लि त नहीं हु आ। भारत म तप या को
कृित की
ाण-शि
अन्य सभी
ाण-लीला
राजा-महाराजाओं ने भी
अ त ु भंिगभा म, ध्विन और रूप-वैिचत्र्य म, िनरंतर नयेनये भाव से
ित अपना ऋण
यास से अिधक स मान िमला है। यहा ँ के ाचीन काल के वनवासी
तपि वय को आिद पुरुष मानकर गौरव का अनु भव िकया है। पौरािणक कथाओं म जो कुछ आ यर्जनक है,
ाण-लीला के बीच
ध्यान-परायण रहने वाले लोग ने अपने चार ओर एक
पिवतर् है, जो कुछ
े
और पूजनीय है, वह
ाचीन
आनन्दमय रह य को उपल ध िकया था। इसिलए वे
तपोवन की मृित से िवजिड़त है। बड़े -बड़े राजाओं के
इतनी सरलता से कह सकेऱ ‘यिददं िंकच सव ाणादे जित
वैभव की बात मरण रखने की चे ा भारत ने नहीं की।
िन:सृत ’ जो कुछ भी हैऱ परम- ाण से िनःसृत होकर
लेिकन वन की सामगर्ी को अपने
ाण के बीच गितशील है। वे लोग ईंट, लकड़ी और लोहे का कठोर िंपजरा बनाकर उसम आब
नहीं हु ए थे। वे
जहा ँ रहते थे वहा ँ िव - यापी िवरा
जीवन के साथ
मानकर िविवध संघष के बीच आजतक उसने वहन िकया है। मानवीय इितहास म यही भारत की िवशेषता है। भारत म जब िवकर्मािदत्य स ा
उनके जीवन का अबािधत योग था। वन ने उन्हे छाया दी, फल-फूल िदये, कुश और य कमर्, अवकाश और
थे, उ ियनी
महानगरी थी, कािलदास महाकिव थे, उस समय
सामगर्ी दी। उनके दै नंिदन
योजन के साथ वन का आदान-
तपोवन का युग समा
दान था, जीिवत स बन्ध था। इसी साधन से वे अपने जीवन को चार ओर के महान जीवन के साथ यु
ाण की सामगर्ी
हो चुका था। मानवजाित के
िवशाल मे ले म हम खड़े थे। चीनी, हू ण, ईरानी, गर्ीक और रोमक- सभी ने आकर हमारे चार ओर भीड़ लगाई
करके
जान सके। पिरवेश को उन्होने शून्य, िनजीर्व या पृथक्
थी। िकसी समय जनक-जैसे राजा एक ओर अपने हाथ
नहीं समझा। अपने सहज अनुभव से उन्होने जाना िक
से हल चलाकर खेती करते थे और दू सरी ओर दे श-
िव - कृित से वे जो कुछ भी गर्हण करते थेऱ आलोक,
दे शातर ं से आये हु ए
ान-िपपासु लोग को
िव ा
वायु, अ , जल आिदऱ वह दान िम ी का नहीं था, वृक्ष
िसखाते थे। लेिकन कािलदास के युग म ऐसे दृ य नहीं
का नहीं था, शून्य आकाश का नहीं था, वरन एक
िदखाई पड़ते थे। िफर भी उस ऐ यर्गिर्वत-युग म उस
चेतनामय अनंत आनन्द के बीच उस दान का मूल
ोत
समय के
था। इसीिलए उन्ह ने उस काश और अ -जल को
ा
और भि
के साथ वीकार िकया। िव
ाण, चेतना, हृ दय और बुि साथ संयु
के
किव ने तपोवन का जैसा वणर्न िकया है
उसे दे खने से हम समझ सकते ह िक तपोवन हमारी दृि
चराचर को अपने
ारा अपनी आत्मा के
से बाहर होने पर भी हमारे हृ दय म िव मान था। कािलदास िवशेष रूप से भारतवषर् के किव ह, यह
करना ही भारत की उपलि ध रही है।
बात उनके तपोवन-िचतर्ण से
इससे हम दे ख सकते ह िक वन ने भारत के िच का अपनी शान्त छाया म, अपने िनगूढ़
े
मािणत होती है। ऐसे
पिरपूणर् आनन्द के साथ तपोवन के ध्यान को क्या और भी कोई किव मूतर् कर सका हैय़
ाण म, िकस
ाचीन इितहास के
‘रघुवश ं ’ का य म पदार् उठते ही तपोवन का
युग। इन दोन युग
शान्त, सुन्दर, पिवतर् दृ य हमारी आँख के सामने आता
म वन ने भारत के िलए ‘धातर्ी रूप’ धारण िकया था।
है। जंगल से तृण, का , फल एकितर्त करके तप वीगण
तरह पालन िकया है। भारतवषर् के दो बड़े युग हऱ वैिदक युग और बौ
ने भी िकतने ही
आते ह, और एक अदृ य अिग्न मानो उनकी अगवानी
आ वन और वेणुवन म उपदे श िकया। राज ासाद
करती है। तपोवन के िहरण ऋिष-पि य को संतान की
उनके िलए इ
तरह ि य ह, ‘नीवार’ धान्य के दाने पाकर वे कुिटया के
वैिदक ऋिषय ने ही नहीं, भगवान बु
नहीं था, वनभूिम ने ही उन्ह अपनी गोद
म जगह दी। ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
ार के सामने िनःसंकोच पड़े रहते ह। मुिन-कन्याएँ वृक्ष 19
तपोवन
को पानी दे ती ह और जब थाले भर जाते ह, वहा ँ से
कलुिषत तथा
अलग हो जाती ह, िजससे पक्षीगण िनःशंक होकर पानी
अथाह सागर म वे आत्महत्या कर बैठगे।
पीने के िलए आ सक। धान्य के ढे र कुटीर के आँगन म
बीच िनत्य काम करते हु ए भी यह िदखाती है िक वह
धूप म रखे ह, और पास-ही िहरण लेटे-लेटे घास चबा
चुपचाप खड़ी है, जैसे हम ही काम-काज म य त ह
रहे ह। आहु ित-कुंड से सुगिं धत धुआँ उठ रहा है और
और वह बेचारी केवल अलंकार की व तु हो। लेिकन
हवा से बहकर वह अितिथय के शरीर को पिवतर् कर
हमारे दे श के किवय ने कृित को अच्छी तरह पहचाना
रहा है।
है।
तरु, लता, पशु-पक्षी सबके साथ मनु य का पूणर्
यािधगर् त ह गे, अपनी मिलनता के कृित हमारे
कृित मानव के सम त सुख-दु ःख म ‘अनंत’ का
वर िमलाये रखती है। यह वर हमारे दे श के
िमलनऱ यही है इस वणर्न का आन्तिरक भाव।
ाचीन
का य म लगातार ध्विनत हु आ है। िवरा
सम त ‘अिभ ान-शाकुंतल’ नाटक म तपोवन
कृित म िजसका जो वाभािवक थान है
मानो राज ासाद की िन ुर भोग-लालसा का िध ार
उसे वहीं थािपत करके देखा जाए तो कृित की उगर्ता
करता है। यहा ँ भी मूल
नहीं रहती, लेिकन यिद त्येक व तु को िविच्छ
वर वही हैऱ चेतन-अचेतन
करके
केवल मनु य की सीमा म संकीणर् रूप से देखा जाए, तो
सबके साथ मनु य के आत्मीय स बन्ध का पिवतर् माधुयर्। ‘काद बरी’ के किव ने तपोवन का वणर्न य िकया
कृित यािध की तरह लगती है, उसका उ
और
हैऱ जब हवा बहती है लताएँ िसर झुकाकर णाम करती
रि म रूप िदखाई पड़ता है। शेक्सिपयर के दो-एक
ह; कुटीर के आँगन म हरा धान सुखाने के िलए फैला
खण्डका य ह िजनम नर-नारी की आसि
िदया गया है; आँवले, कदली, लवंग इत्यािद फल
वहा आसि ँ
एकितर्त िकये गए ह; वन-कु ु ट वै दे व-बिलिंपड का
व तु के िलए थान नहीं है। यहा ँ न आकाश है, न पवन।
भक्षण कर रहे ह; िनकटवतीर् सरोवर से कलहं स-शावक
कृित ने गीत-गंध-वणर् के िजस िवशाल आवरण से िव
ही आसि
का वणर्न है।
है, उसके चार ओर िकसी अन्य
आकर नीवार-बिल खाते ह; हिरिणया ँअपनी िज ाओं से
की सम त ल ा ढकी है उससे इस आसि
मुिन-बालक का शरीर ेम से चाटती ह।
स पकर् नहीं है। इसीिलए इस तरह के का य म वृि य
इस वणर्न के अन्तगर्त भी वही बात है। तरु-लता
का कोई
की उन्म ता अत्यन्त दु ःसह रूप धारण करती है।
और जीव-जंतुओं के साथ मनु य का िवच्छे द दू र करके
कािलदास के युग म भी भारत के सामने एक
तपोवन कािशत होता है, यही ाचीन िवचार हमारे दे श
अत्यन्त उत्कट सम या थी, जैसािक हम उनके का य
म बराबर य
को पढ़कर प
हु आ है।
लेिकन यह भाव केवल तपोवन के िच
म ही
दे ख सकते ह।
ाचीन काल म िहन्दू
समाज की जीवन-यातर्ा म जो सरलता और संयम था
कािशत हु आ हो ऐसी बात नहीं। हमारे दे श के सभी
वह न
िस
का य म मनु य और िव - कृित का िमलन
सुखपरायण तथा भोगी हो गए थे। उधर शक
पिर फुट हु आ है। जो घटनाएँ मानव-चिरतर् का आ य
आकर्मण से भारत की बार-बार दु गिर् त हो रही थी।
लेकर य
होती ह उन्हीं को नाटक का धान उपादान
हो चुका था। राजा अपने राजधमर् को भूलकर
िकन्तु इस आमोद भवन के
के
विर्णम अंतःपुर म
माना जाता है। इसिलए अन्य दे श के सािहत्य म हम
बैठकर का य-ल मी िवकल िच
दे खते ह िक नाटक म िव - कृित का आभासमातर्
िनमग्न थीय़ उसका हृ दय तो वहा ँ था ही नहीं। वह इस
िमलता है, उसे महत्त्वपूणर्
िविचतर्िश प-मंिडत, हीरे -जैसे किठन कारागार से मुि
थान नहीं िदया जाता।
लेिकन हमारे दे श के ाचीन नाटक म, िजनकी ख्याित आज तक सुरिक्षत है,
से िकसके ध्यान म
की कामना कर रही थी। कािलदास के का य म ‘बाहर’ के साथ ‘भीतर’
कृित अपने अिधकार से वंिचत
का, ‘आकाक्षा’ ं के साथ ‘अव था’ का न् िदखाई पड़ता
नहीं होती। मनु य िजस जग - कृित से िघरा हु आ है उसका
है। भारतवषर् म तप या का युग बीत चुका था; और
मनु य के िंचतन के साथ और उसके कायर् के साथ
ऐ यर्शाली राज-िंसहासन के पास बैठकर किव उसी
आंतिरक योग है। यिद मनु य का संसार िनतान्त
िनमर्ल, सुदूर अतीत काल की ओर वेदना-भरी दृि
‘मनु यमय’ हो उठे , यिद मनु य के पीछे -पीछे
दे ख रहा था। . . .
उसम
कृित भी
‘रघुवश ं ’ का आर भ राजोिचत ऐ यर् के गौरवमय
वेश न कर सके, तो हमारे िवचार और कमर्
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से
20
तपोवन
वणर्न से नहीं होता। सुदिक्षणा को साथ लेकर राजा िदलीप तपोवन म
उपिनष
वेश करते ह। चार समुदर् तक
का अनु शासन त्याग का दु ःख रूप म
अंगीकार करना नहीं है, बि क त्याग को भोगरूप म
िजनके शासन का िव तार था ऐसे राजा अिवकल िन ा
वरण करना है। िजस त्याग की चचार् उपिनष
और किठन संयम से तपोवन की गौ की सेवा म लग
पूणत र् र गर्हण है, ग भीरतर आनन्द है। वह त्याग है िव
जाते ह। ‘रघुवश ं ’ का आर भ है संयम और तप या म,
के साथ योग, भूमा के साथ िमलन।
और उसका उपसंहार है आमोद- मोद, सुरापान और
भारतवषर् का आदशर् तपोवन वह अखाड़ा नहीं है
इिन्दर्य-भोग म। इस अिन्तम सगर् म जो िचतर् है उसम
जहा ँ शरीर और आत्मा का, संसार और संन्यास का
काफी चमक-दमक है, लेिकन जो अिग्न नगर को जलाकर
सवर्नाश
लाती
है
वह
भी
म यु
कम
रूप से, िविवध रंग , और
ज्वलन्त रे खाओं से अंिकत िकया गया है। का य के इस आर भ और अन्त म किव के हृ दय की बात
च्छ
ऐसा लगता है िक वह दीघर् िन ास के साथ कह रहा है , "क्या था
भारतवषर् का ऐसा घिन , आत्मीय स बन्ध रहा है जो अन्य दे श के लोग को अ ुत
त्याग
कृित- ेम का जो पिरचय िमलता है वह
करने के
उसे अन्य दे श की किवता से अलग करता है, उसे िविश ता
िलए नहीं, अपने को पूणर् करने के
करता है। यह
िलए होता है। हम समगर् के िलए अंश का
और क्या हो गया! जब अ युदय त्याग करना है, िनत्य के िलए क्षिणक का, का युग था उस समय हम तप या ेम के िलए अहं कार का, आनन्द के िलए
को ही
धान ऐ यर् समझते थे । सुख का त्याग करना है। इसीिलए
और आज, जबिक हमारा िवनाश
समीप है , भोग-िवलास के उपकरण का अन्त नहीं। भोग की अतृ सह
उपिनष
अिग्न
म कहा गया हैऱ त्य े न
भुंजीथाःऱ त्याग के
िदशाओं म भड़क रही है और
करो, आसि नहीं।
आँख को चकाच ध कर रही है ।" कािलदास की अिधकाश ं किवताओं यह प
न्
की िकरण िमलकर
तरह िच
ेत वणर् बनता है, उसी
का वाह जब िविभ
भाग म खिण्डत
के साथ अपने अिविच्छ
सामंज य से
राग-
हु ई है। इसीिलए हमारे का य म कृित को इतना बड़ा थान
िदया गया है। हमारे मन म स पूणत र् ा के िलए जो आकाक्षा ं है उसकी पूिर्त के िलए ही ऐसा िकया गया है।Q
ेम के िलए अहं कार का,
सािहत्य अकादमी, नई िद ी,
म कहा गया हैऱ त्य े न भुंजीथाःऱ त्याग के
ारा
‘रवीन्दर्नाथ के िनबन्ध’ से साभार संकिलत।
ारा नहीं।
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पिरपूणत र् ा का रस। िजस तरह सात रंग
मानवीय यवहार के बीच
आनन्द के िलए सुख का त्याग करना है। इसीिलए के
पूणर् है। तपोवन का जो एक िवशेष रस है वह है शान्त रस। शान्त रस है
रािगिनय की सृि
होता है। हम समगर् के िलए अंश का त्याग करना है,
ारा भोग करो, आसि
माना है िक तपोवन शान्त रस से
है, उसी के आदशर् से हमारे दे श म अनेक िम
करने के िलए नहीं, अपने को पूणर् करने के िलए
उपिनष
हमारे सभी किवय ने यह
भारत के तपोवन म यह जो शान्त रस का संगीत
हम समगर् के िवरु
इसीिलए त्याग आव यक है। यह त्याग अपने को
िनत्य के िलए क्षिणक का,
कृित के साथ िमलन है।
साथ चेतना का पूणर् योग है।
करते ह। यही अमंगल की
िवदर्ोह करने के िलए ेिरत करती है, और यही पाप है। िर
कृित का उपभोग नहीं,
वायु, जल-थल, आकाश, तरु-लता, पशु-पक्षीऱ सभी के
दे ते ह तब हम समगर् को क्षित पहु ं चाते ह, और अंश को ित आसि
भुत्व
ऐसा ही शान्त रस तपोवन म है। यहा ँ सूयर्, अिग्न,
पर जब हम अपने अहं कार और वासना को केिन्दर्त कर
जड़ है। अंश के
नहीं,
कृित पर
दान
पिरपूणर् हो जाता है, तब शान्त रस का उदय होता है।
है। िकसी एक संकीणर् थान
बढ़ा-चढ़ाकर दे खने का य
ारा
न होकर िव
रूप से िदखाई पड़ता है। त्याग और भोग के
सामंज य म ही पूणर् शि
ारा भोग के
तीत होता है।
और इसीिलए हमारे दे श की किवता म
आव यक है। यह त्याग अपने को िर
है ।
ारा बाधाहीन िमलन, यही तपोवन
की साधना है। इसीिलए तरु-लता, पशु-पिक्षय के साथ
िनवास सौ य और ह के रंग म िचितर्त है; अनेक जीवन अत्यन्त प
होता रहे । य त्कच जगत्या जग ं ऱ जो कुछ भी
है सबके साथ त्याग
उज्ज्वल नहीं है। एक प ी के साथ िदलीप का तपोवननाियकाओं के साथ अिग्न-वणर् का आत्म-िवनाश का
म है वही
21
कािशत
जीवन-संदेश-3 ख़लील िज ान
वतन्तर्ता और एक याख्यानदाता बोलाऱ हमसे वतन्तर्ता के संबध ं म कुछ कहो। उसने उ र िदयाऱ मने तु ह नगर ार और अलाव पर अपनी वतन्तर्ता को सा ागं दं डव है, िजस
करते और उसकी पूजा करते दे खा
कार गुलाम अपने अत्याचारी मािलक की
िम त और
तुित करता है, यघिप वह मािलक उन्ह
मार ही डालता है। हा ँ हा,ँ मने मंिदर के कुंज और िकले की आड़ म खलील
िज ान
(1883-1933)
तुमम से अिधक-से-अिधक आज़ाद आदमी को भी अपनी
एक
वतन्तर्ता को जुआ और हथकड़ी बनाकर धारण िकए
लेबनानी-अमे िरकी रह यवादी दाशर्िनक, किव,
हु ए दे खा है।
िचन्तक और िचतर्कार थे। उनका जन्म एक
और मे रा हृ दय भीतर ही भीतर रो पड़ा है।
ईसाई पिरवार म हु आ था। आिर्थक कारण से
क्य िक तुम वतंतर् तभी होगे जब वतंतर् होने की
उनकी माता उन्ह लेकर न्यूयाकर् म अपने भाई
इच्छा भी तु ह बंधन जान पड़े गी और जब वाधीनता को
के पास आकर रहने लगीं। वहीं िज ान पि मी भाव म बड़े हु ए। अन्तमुर्खी िज ान समृि
वृि
तुम ध्येय और िसि
के युवा
वा तव म तुम
के बीच म रहते हु ए भी उसकी
चकाच ध से कभी
खाली ह गी, बि क जब ये चीज़े तु ह पीसती ह गी और िफर भी तुम इनसे ऊपर उठोगेऱ नग्न और मु ।
िमली उसे उन्ह ने लघु कथाओं
और सूि यो के रूप म
और तुम अपने िदन-रात के ऊपर कैसे उठ सकते
कट िकया। उनके
हो, जब तक िक तुम उन ज़ंजीर को नहीं तोड़ते िजन्ह
लेखन म िनत्यता और अिनत्यता, सुख और दु ःख, मुि
िक तुमने अपने
और बंधन, िव ास और आ था, ारा
यथाथर् म, िजसे तुम वाधीनता कहते हो वह इनम
कािशत िहन्दी
सबसे अिधक मज़बूत ज़ंजीर है, य िप इसकी किड़या ँ
म उपल ध खलील िज ान की कुछ पु तक हऱ जीवन संदेश (द
धूप म चमकती ह और तु हारी आँख को च िधया दे ती ह।
ोफैट), पागल (द मैडमैन),
और वे ह क्याऱ तु हारे वयं के टुकड़े ही तो, िजन्ह
बटोही (िद वाडरर), ं धरती के दे वता (द अथर्
त्यागकर तुम वतंतर् होना चाहते हो।
गॉड्स) आिद।
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
ान के सूय दय म अपनी दोपहिरय के
चार तरफ कस िदया है?
काल और कालातीत पर गहन िचन्तन िमलता है। स ता सािहत्य मंडल
वतंतर् तभी होगे जब तु हारे िदन
िंचतारिहत नहीं होगे और न रात वासना और शोक से
भािवत नहीं हु ए। वे मनु य
के अन्तरतम के रह य की खोज म लगे थे। उन्ह जो दृि
कहना छोड़ दोगे।
तुम िकसी न्यायपूणर् कानून की िकताब र 22
करना
जीवन-सं दे श-3
चाहते हो, परंतु वह कानून कभी तुमने अपने हाथ से
सकता और तु हारे तत्त्व की पार पिरक िवषमता और ित पधार् को एकता और लय म बदल सकता!
अपने ही ललाट पर िलखा था। तुम उसे िमटा नहीं सकते, भले ही कानून की
िंकतु, यह म कैसे कर सकता हू ,ँ यिद तुम वयं भी
िकताब जला दो अथवा अपने न्यायाधीश के कपाल को
शािन्त-िनमार्ता और अपने सभी तत्त्व के म े ी नहीं बनते? तु हारा िववेक और तु हारी वासना, तु हारी समुदर्-
धोने के िलए तुम समुदर् उँड़ेल दो।
वासी आत्मा के पाल और पतवार ह।
तुम िकसी ज़ािलम राजा को िंसहासन से उतारना
यिद तु हारी पाल या पतवार टूट जाए तो तुम
चाहते हो तो पहले यह िन य कर लो िक तु हारे िदल म उसके िलए जो िंसहासन बना हु आ है वह भी न
लहर
हो
चुका है।
क्य िक, िववेक एकाकी राज करते हु ए मयार्िदत
क्य िक, यिद वतंतर् और वािभमानी की वतंतर्ता
करनेवाली शि
म अत्याचार, और वािभमान म बेशमीर् का अंश नहीं है तो
अतएव, तु हारी आत्मा तु हारे िववेक को वासना
तुम िकसी िचन्ता को उतार फकना चाहते हो,
की ऊँचाई तक उठाए तािक वह गा सके।
परंतु उस िचन्ता को तुमने वयं चुना है, िकसी ने तुम
और अपनी वासना को िववेक से संचािलत होने दो,
पर लादा नहीं।
तािक तु हारी वासना िनत्य ही अपने िवनाश म से नया
तुम िकसी भय को भगाना चाहते हो परंतु उसका
जन्म पा सके, और फीिनक्स पक्षी के समान भ म होकर
वयं तु हारे हृ दय म है, न िक उसके
पुनः जीिवत हो सके।
हाथ म जो तु ह भयभीत करता है।
म चाहता हू ँ िक तुम अपने िववेक और अपनी तृ णा
वा तव म, वे सभी व तुएँ एक-दू सरे से सटकर
का सत्कार अपने घर आए हु ए दो ि य अितिथय के
तु हारे ही अन्दर मौजूद रहती हऱ िजनको तुम चाहते
समान करो।
हो और िजनसे तुम डरते हो, िजनसे तुम घृणा करते हो
िन य ही, तुम एक अितिथ का दू सरे अितिथ से
और िजनकी तुम अिभलाषा करते हो, िजनके पीछे तुम
बढ़कर सत्कार नहीं करोगे। क्य िक जो एक का अिधक
दौड़ रहे हो और िजनसे तुम छु टकारा चाहते हो। ये सभी व तुएँ तु हारे अन्तराल म
ध्यान रखता है, वह दोन के
काश और
जब तुम पहािड़य म नीम की शीतल छाया म,
के रूप म घूमती रहती ह।
खेत और मैदान की शािन्त और गंभीरता म भाग लेते
और जब छाया मंद पड़ती है और िमट जाती है तो
हु ए बैठो, तब तु हारा हृ दय उस शािन्त म बोले, "ई र
काश, जो िवदा लेने म िवलंब कर रहा है, दू सरे
िववेक म िनवास करता है।"
काश के िलए छाया बन जाता है। इस
कार जब तु हारी
और जब तूफान उठे ,
वतंतर्ता अपनी बेिड़या ँ
साथ कहे , "ई र वासना म िवचरण करता है।"
िववेक और वासना
और चूिँ क तुम भी
म िनवास और वासना म िवचरण करो।
हमसे िववेक और वासना के संबध ं म कुछ कहो। और उसने उ र िदयाऱ
दु ःख
अनेक बार तु हारा अंतःकरण संगर्ाम-भूिम बनता
और एक
तु हारी
ी बोलीऱ
हमसे दु ःख के संबध ं म कुछ कहो।
करती है।
और उसने कहाऱ
काश, म तु हारे अन्तःकरण म शािन्त-िनमार्ता बन ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
भु के लोक म एक सासँ हो,
ई र के जंगल म एक प े हो, इसिलए तुम भी िववेक
और पुजािरन ने िफर कहाऱ
यु
को
की भ य भीषणता घोिषत करे , तब तु हारा हृ दय भय के
बन जाती है।
वासना एवं तृ णा के िवरु
बल वायु जंगल
झकझोरे , और िबजली और बादल की कड़क आकाश
तोड़ दे ती है, तब वह उ तर वतंतर्ता के िलए बेिड़या ँ
है, जहा ँ तु हारा िववेक और तु हारी न्याय-बुि
ेम और िव ास से हाथ
धो बैठता है।
छाया की तरह एक-दू सरे का अनु सरण करनेवाले जोड़
वह
है, और बेलगाम वासना वह ज्वाला है
जो वयं अपने को जलाकर समा करने तक जलती है।
उस पर कोई अत्याचारी शासन कर भी कैसे सकता है?
िनवास- थान
ारा उछाले जाकर कहीं को बहोगे या िफर बीच
समुदर् म जहा-क ँ े -तहा ँ रुके रहोगे।
23
जीवन-सं दे श-3
परंतु तु हारे
तु हारा दु ःख उस िछलके का तोड़ा जाना है, िजसने तु हारे
तराजू न हो ।
ान को अपने भीतर िछपा रखा है।
िजस तरह फल के कठोर िछलके का टूटना
और िकसी बासँ या थाह लेनेवाली डोरी से अपने
अिनवायर् होता है, तािक उसका हृ दय सूयर् के काश म आ सके, उसी तरह तुमको भी दु ःख का पिरचय
ान की गहराई नापने का
ा
कहो, "मने एक सत्य पाया है।"
ित अपने हृ दय को आ यर् म रख सको तो तु ह
"मने आत्मा का मागर् पा िलया", ऐसा मत कहो,
तु हारा दु ःख तु हारे सुख की अपेक्षा कम आ यर्पूणर्
बि क कहो, "मने अपने मागर् पर चलते हु ए आत्मा के
तीत नहीं होगा।
दशर्न िकए ह।"
और तुम अपने हृ दय की ऋतुओं को उसी तरह
क्य िक आत्मा सभी रा त पर चलती है। आत्मा
वीकार करोगे िजस तरह तुम उन ऋतुओं को वीकार
एक ही लीक पर नहीं चलती, न वह नरकुल की तरह
करते हो जो तु हारे खेत म से गुज़रती ह। और तुम
उगती है।
शािन्तपूवर्क अपने शोक के पतझड़ को दे ख सकोगे।
आत्मा असंख्य पंखुिड़य वाले कमल के सदृश
अपने अिधकाश ं दु ःख को तुमने वयं चुना है।
अपने- आपको िवकिसत करती है।
दु ःख एक कड़वी औषिध है, िजससे तु हारा
अध्यापन
व थ
करता है।
तब एक अध्यापक ने कहाऱ
इसिलए अपने िचिकत्सक पर िव ास करो और
हमसे अध्यापन के िवषय म कुछ कहो।
उसकी दी हु ई औषिध को चुपचाप शािन्त से पी लो,
और उसने कहाऱ
क्य िक उसके हाथ य िप कठोर और भारी ह, वे
तु हारे
अदृ य के कोमल हाथ से संचािलत होते ह।
भी तु हारे आगे कुछ
को जलाता है, िफर भी वह उस िम ी से बनाया गया
कट नहीं कर सकता।
तले िवचरण करता है, वह उन्ह अपने
ान का अंश नहीं,
बि क अपना िव ास और वात्स य दान करता है।
आत्म- ान
यिद वह वात्स य म बुि मान है तो वह तु ह अपने
और एक आदमी ने कहाऱ
ान-मंिदर म
आत्म- ान के संबध ं म हमसे कुछ कहो।
वेश करने के िलए नहीं कहता, बि क
वह तु ह तु हारी बुि
और उसने कहाऱ
की दहलीज़ तक ले जाएगा।
खगोल-शा ी अपने आकाश-संबध ं ी
तु हारे हृ दय िनःश दता म िदवस और राितर् के
ान के िवषय
म तुमसे चचार् कर सकता है, िकन्तु वह तु ह अपना
रह य को जानते ह।
ान
दान नहीं कर सकता।
ान के श द
गायक गाकर तु ह सवर्तर्- यापी लय म से कुछ
के यासे ह।
सुना सकता है, परंतु वे कान नहीं दे सकता जो उस
जो तुम िवचार म सदा जानते रहे हो उसे तुम
लय को पकड़ लेते ह, न उसको ितध्विनत करने वाली
श द म जानना चाहते हो।
आवाज़ ही।
ऐसा करना ठीक भी है।
और िनपुण गिणत
तु हारी आत्मा के गु जल- ोत को बाहर फूटकर
तुमसे तौल और माप के लोक
की बात कह सकता है, लेिकन वह तु ह वहा ँ ले नहीं
समुदर् की ओर कल-कल करते हु ए बहना ही चािहए।
जा सकता।
और तब तु हारी अतल गहराइय का कोष तु हारे
क्य िक, एक मनु य की दशर्न-शि
कट हो जाएगा।
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
कोई
जो अध्यापक अपने अनुगािमय म मंिदर की छाया
है िजसे ‘कु हार’ ने अपने पिवतर् आँसुओं से सींचा है।
नेतर् के आगे
ान के उषा-काल म, जो कुछ पहले से ही
अधर्िनिदर्त अव था म िव मान है, उसके अितिर
और उसका िदया हु आ याला य िप तु हारे ह ठ
परंतु तु हारे कान तु हारे हृ दय के
न करना,
"मने सत्य को पा िलया", ऐसा मत कहो, बि क
यिद तुम अपने जीवन के रोज़मरार् के चमत्कार
अंतवार्सी िचिकत्सक तु हारे रोगी अि तत्व को
य
क्य िक आत्मा अगाध और असीम समुदर् है।
होना चािहए। के
ान के खजाने को तौलने के िलए
को अपने पंख नहीं दे सकती। 24
दू सरे मनु य
जीवन-सं दे श-3
और जैसे ई र की दृि खड़े हो, वैसे ही तुमम से
म तुम सब अलग-अलग
है, न िक तु हारे खालीपन को भरना।
त्येक को भी अपने ई रीय
और मैतर्ी के माधुयर् म हा य का
ान और लौिकक अनु भिू त म अकेला रहना चािहए।
उ ास का िविनमय, क्य िक नन्हीं-नन्हीं चीज़ के ओस-कण म हृ दय
िमतर्ता
अपना
भात दे खता है और ताजा हो उठता है।
और एक युवक ने कहाऱ
वातार्लाप
हमसे िमतर्ता के िवषय म कुछ कहो। और उसने उ र िदयाऱ
और तब एक िव ान ने कहाऱ
तु हारा िमतर् तु हारे अभाव की पूिर्त है। वह तु हारा
हमसे वातार्लाप के िवषय म कुछ कहो।
खेत है, िजसम तुम ेम का बीज बोते हो और कृत ता का फल
और उसने उ र िदयाऱ
ा करते हो।
जब तुमम और तु हारे िवचार म शािन्त नहीं रह
वह तु हारा भोजन-गृह है और वही तु हारा अलाव।
पाती तब तुम बातचीत करते हो।
क्य िक तुम उसके पास अपनी भूख लेकर जाते
जब तुम अपने हृ दय के एकान्त म और अिधक
हो और शािन्त पाने की इच्छा से उसे तलाश करते हो।
िनवास नहीं कर सकते तब तुम अपने ह ठ पर वास
जब तु हारा िमतर् तु हारे सामने अपना िदल खोलकर रखे तो तुम अपने मन के ‘न’ को
करते हो, जो वाणी पिरवतर्न तथा िवनोद का साधन है।
कट करने
और तु हारी अिधकाश ं चचार्ओं म िवचार का कचूमर
म मत डरो और न ‘हा ँ ’ कहने म िझझको।
िनकाल िदया जाता है।
और जब वह चुप होता है, तब भी तु हारा हृ दय
क्य िक, िवचार आकाश का पक्षी है जो श द के
उसके िदल की आवाज़ सुनना बंद नहीं कर दे ता।
िंपजरे म अपने पंख भले ही फड़फड़ा ले, लेिकन उड़
क्य िक िमतर्ता म, श द की सहायता के िबना
नहीं सकता।
ही सारे िवचार, सारी शुभकामनाएँ, और सारी आशाएँ अय
तुममे से अनेक अकेलेपन से डरकर िकसी बातूनी
आनंद के साथ पैदा होती ह और उपभोग म
की खोज करते ह।
आती ह।
क्य िक, एकातं की नीरवता उनकी आँख
जब तुम अपने िमतर् से िवदा हो तो शोक मत करो।
भागना चाहते ह।
यार करते हो, वही उसकी अनु पि थित म अिधक प
और कुछ लोग बात करते हु ए अनजाने म, पहले
हो सकती है, जैसे एक पवर्तारोही को नीचे मैदान से
के िवचार के िकसी सत्य को
और सुन्दर िदखाई दे ता है।
और कुछ लोग ऐसे ह, िजनके हृ दय म सत्य है,
योजन नहीं होना चािहए।
लेिकन वे उसे श द म य
क्य िक, जो ेम अपने ही रह य का घूँघट खोलने के अितिर
कुछ और खोजता है, वह
नहीं करते ।
ऐसे ही लोग के हृ दय म आत्मा लयपूणर् संगीत म
ेम नहीं, एक
िनवास करती है।
जाल है, िजसम िनक मी व तु के िसवा और कुछ नहीं
जब तुम अपने िमतर् से सड़क पर या हाट-बाज़ार म
फँसता।
िमलो तब तु हारी भावना ह ठ को गित दे और तु हारी
तु हारी ि य से ि य व तु अपने िमतर् के िलए हो।
िज ा का संचालन करे ।
िजसने तु हारे जीवन-समुदर् का भाटा दे खा है उसे
तु हारी वाणी की वाणी उसके कान म
उसका ज्वार भी दे खने दो। क्य िक िमतर् क्या ऐसी व तु
वेश करे ।
क्य िक उसकी आत्मा तु हारे हृ दय के सत्य को
है िजसे तुम समय की हत्या करने के िलए खोजते हो?
स हालकर रखेगी, िजस तरह जब मिदरा के रंग की
सदै व समय को सजीव करने के िलए उसे खोजो,
याद नहीं रहती और याला सामने नहीं रहता तब भी
क्य िक उसका काम तु हारे अभाव की पूिर्त करना ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
कट कर दे ते ह िजसे वे
वयं नहीं समझते।
आत्मीयता को गहरा बनाते रहने के िसवा तु हारी िमतर्ता म कोई और
के
सामने उनका नंगा रूप कट कर दे ती है और वे उससे
क्य िक, तुम उसम िजस व तु को सबसे अिधक
पवर्त अिधक प
फुरण हो और
उसका वाद याद रहता है। 25
ा आा और परमाा एक ह ? कुछ शंकाएँ डा. रवी अिहोी लगभग तीन दशक तक उ र
दे श एवं राज थान म बहु त सफल
ले खक, अनुवादक रह चु के, और अनेक रा अग्नहोतर्ी आजकल चे बु
ीय स मान से िवभू िषत डा. रवीन्दर्
ई ि थत एस. बी. आई. ओ. ए.
ोफ़ेसर, एवं िंहदी सलाहकार सिमित, िव अिग्नहोतर्ी
ाध्यापक,
बं ध सं थान म विर
मंतर्ालय, भारत सरकार के सद य ह। डा.
िचन्तक ह। भारत-सं धान म
कािशत कुछ ले ख को पढ़कर उन्ह ने
स पादक को िलखाऱ "आपने िलखा है िक मनु य का िव
त्ये क कायर् और
त्ये क िवचार उसके अन्दर
मान अनुभू ितय से सं चािलत होता है और इन अनुभू ितय पर मनु य का कोई िनयं तर्ण नहीं है । यह भी
िलखा है िक मनु य के जीवन के अन्दर की हर हलचल उससे ऊपर की िकसी शि
से िनयं ितर्त होती है । "
इसका अथर् क्या यह है िक हम जो भी कमर् करते ह वह िकसी ऐसी शि
की
े रणा से करते ह
िजस पर हमारा कोई िनयं तर्ण नहीं? यिद हा,ँ तो इसकी सं गित क्या उस दाशर् िनक िस
ातं से भी
बै ठाई जा सकती है िजसके अनुसार मनु य को कमर् करने म ‘ वतं तर्’ बताया गया है (कमर्ण्ये वािधकार ते ); यिद नहीं तो क्या यह िस
ातं गलत माना जाए?"
के सं बं ध म इस अंक की
(इस
-चचार् दे ख।)
(२) "आपने िलखा है िक आत्मा और परमात्मा एक ह, आत्मा का परम रूप ही परमात्मा है । हम लोग अपनी समझ के अनुसार आत्मा और परमात्मा को िजस रूप म अलग मानते आए ह वह म सं लग्न फ़ाइल म कितपय िबन्दु ओं के रूप म िलख रहा हू ँ ।" डा. अिग्नहोतर्ी ने बहु त पिर म से उन सभी िवचार और तक को यहा ँ
तु त िकया है । क्य िक
बहु त महत्त्वपू णर् है और हम सभी के जीवन से सीधा स बन्ध रखता है , इस िलए हम उनके पतर् के िबन्दु ओं को अिवकल रूप म नीचे दे रहे ह। हम चाहते ह िक हमारे पाठक भी इस िवषय म िचन्तन कर अपने िवचार पर चचार् हम अगले अंक म लगे।
िलखंे। इस
परमात्मा और जीवात्मा म अंतर 1. परमात्मा स , िच
और आनंद वरूप है,
इसीिलए उसे ‘सि दानं द’ कहते ह। जीवात्मा और िच
वह कभी न कभी बूढ़ा भी होता है, और उसकी कभी न कभी मृत्यु भी होती है; जीवात्मा जन्म लेता है, शरीर
स
धारण करता है, इसिलए उसका शरीर बूढ़ा भी होता है
ही है, आनन्द नहीं; जीवात्मा आनंद से रिहत
और शरीर का अंत भी होता है।
है।
4. परमात्मा सदा िन काम कमर् करता है; जीवात्मा 2. परमात्मा कमर् करने म पूणर् वतंतर् है; जीवात्मा
कमर् करने म
सकाम कमर् भी करता है।
वतंतर्, िकन्तु फल भोगने म परतंतर् है।
5. परमात्मा अभय है, कभी िकसी से भयभीत नहीं
3. परमात्मा अजन्मा है, इसीिलए अजर है, अमर
होता; जीवात्मा भयभीत भी होता है।
है। िजसका जन्म होता है, जो शरीर धारण करता है ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
6. परमात्मा सासािरक ं सुख-दु ःख से संयु 26
नहीं
क्या आत्मा और परमात्मा एक हय़
होता; जीवात्मा सासािरक ं सुख-दु ःख से संयु
होता है।
जीव-जंतु इस
7. परमात्मा कभी अधमर्-अन्याय नहीं करता, जीवात्मा अधमर्-अन्याय भी करता है .
22. परमात्मा सम त िव -
लयकाल;
ाण्ड का राजा है;
जीवात्मा राजा नहीं, बि क उस परमात्मा की
8. परमात्मा सदा जागृत रहता है, चाहे सृि काल हो या
ाण्ड म ह उन सबका जनक और
पालक है; जीवात्मा सबका माता-िपता नहीं है। जा है।
23. परमात्मा सबका गुरु है; जीवात्मा सबका गुरु
जीवात्मा सदा जागृत नहीं रहता,
कभी नहीं बन सकता।
लयकाल म बेहोश रहता है। 9. परमात्मा पूणर् धैयर्वान है; जीवात्मा पूणर् धैयर्वान
24. परमात्मा सबका उपा य (उपासना करने
नहीं है।
योग्य) है; जीवात्मा उपा य नहीं है, बि क उपासक है।
10. परमात्मा सवर्तर् यापक है; जीवात्मा एकदे शीय
25. परमात्मा अनु पम है। कोई भी व तु ऐसी नहीं है जो परमात्मा से बेहतर हो, परमात्मा िजसकी उपासना
है। 11.
परमात्मा सवर्शि मान-सवर्
अ प शि मान अ प
कर सके; जीवात्मा अनु पम नहीं क्य िक उससे अच्छे
है; जीवात्मा
है।
12. परमात्मा सृि
पदाथर् संसार म िव मान ह।
का रचियता, पालनकतार् और
िवनाशकतार् है; जीवात्मा सृि
26. परमात्मा पिरपूणर् है क्य िक उसम िकसी भी
की रचना करने, पालन
कार की कोई न्यूनता नहीं है; जीवात्मा म अनेक कार
करने और िवनाश करने म असमथर् है। 13. परमात्मा वयंभू है, अथार्
की न्यूनताएँ ह। 27. परमात्मा िनिर्वकार है। उसम िकसी भी कार
सदा अपनी स ा
म िबना िकसी की सहायता के िव मान रहता है।
का आंतिरक या बा
जीवात्मा परमात्मा की शि
राग- े ष, शोक-िचन्ता, सुख-दु ःख आिद अनेक
पाकर ही अपनी स ा की
अनु भिू त करता है।
िवकार नहीं होता; जीवात्मा म कार
के िवकार होते ह।
14. परमात्मा सवर्दर् ा है। संसार म िजतनी भी
28. परमात्मा िनरामय है, अथार्
कभी रोगी नहीं
जड़-चेतन व तुएं ह उन सबको सदै व दे खने वाला है;
होता; जीवात्मा शारीिरक-मानिसक आिद अनेक
जीवात्मा की दृि
से रोगी होता है।
सीिमत है।
कार
29. परमात्मा िनराकार है, उसका कोई आकार
15. परमात्मा सवर् ोता है। संसार म होनेवाली सम त ध्विनय
को हर समय सुनता है; जीवात्मा म
नहीं है और इसी रूप म वह अपनी शि य का उपयोग
ऐसी
नहीं है।
करता है। जीवात्मा भी िनराकार है, पर जीवात्मा जब
वण शि
सब जीव की
तक शरीर धारण नहीं करता तब तक अपनी शि य
रक्षा करता है; जीवात्मा सब जीव की रक्षा करने म
16. परमात्मा सवर्रक्षक है, अथार्
का उपयोग नहीं कर सकता, कमर् नहीं कर सकता।
समथर् नहीं है।
अतः वह शरीर धारण करके आकार गर्हण करता है।
17. परमात्मा सवार्धार है, अथार्
सम त जड़-
इस
चेतन व तुओं का आधार है; जीवात्मा सवार्धार न तो है,
कार उसका शरीर साकार होता है 30. परमात्मा िनत्य है और जीवात्मा भी िनत्य है ।
न हो सकता है।
भौितक चीज़ अिनत्य होती ह, अथार्
18. परमात्मा सव र है, अथार्
सम त जड़-
परमात्मा िनत्य है अथार् , कभी न
नाशवान होती ह। नहीं होता। जीवात्मा
चेतन व तुओं का वामी है तथा सबसे अिधक ऐ यर्वान
भी कभी न
है; जीवात्मा सव र नहीं है।
सिकर्य होता है, वह शरीर भौितक होता है और भौितक
19. परमात्मा सवर्िहतकारी है। वह सब जीव का
नहीं होता। िजस शरीर म आकर वह
होने के कारण शरीर नाशवान
होता है। तभी
तो
िहत करने वाला है; जीवात्मा सवर्िहतकारी नहीं है। वह
जीवात्मा के िलए गीता म कहा हैऱ नै नं िछन्दिन्त
कभी अ ानतावश अिहत भी कर सकता है।
श ािण नै नं दहित पावकः। न चैनं
20. परमात्मा सवार्न्तयार्मी है, अथार् ि थत
होकर
सबको
जानने
वाला
शोषयित मारुतः। (गीता-2.23) (इस शरीर के वामी
सबके अन्दर है;
जीवात्मा
जीवात्मा को श
सवार्न्तयार्मी नहीं है।
काट नहीं सकते, आग जला नहीं
सकती , पानी गीला नहीं कर सकता , पवन सुखा नहीं
21. परमात्मा सबका माता-िपता है। िजतने भी ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
े दन्त्यापो न
सकता।) 27
वाक्यपदीय-भतृर् हिर का भाषा-दशर् न-14 अिनल िव ालंकार
भारतीय दशर्न का फोट िस ान्त
फोट की िकर्या को अन्य इिन्दर्य के माध्यम से
फोट िस ान्त भारतीय मनीषा की एक बहु त
हु ए
त्यक्ष म भी दे खा जा सकता है। आप अपने घर के
बड़ी उपलि ध है। इस िस ान्त का िवकास हमारी
पास के नीम के पेड़ को कभी दू र से दे खते ह, कभी पास
वणेिन्दर्य से गर्हण होनेवाली ध्विनय और श द के
से, कभी उसके नीचे खड़े होकर, या कभी उस पर
संबध ं म िकया गया था, पर जैसा िक हम अभी दे खगे,
चढ़कर। उस पेड़ का होने वाला
यह हमारी सभी इिन्दर्य के माध्यम से
त्यक्ष करने की
है, पर जब भी उस नीम के पेड़ की बात करते ह तो
िकर्याओं पर, श द के अथर् पर और वा तव म सारे
आपके मन म एक ही सामान्य िब ब उभरता है जो उस
जीवन- यापार पर लागू होता है।
होता
पेड़ का फोट है।
पहले ध्विनय और श द के संबध ं म फोट की िकर्या समझ। कोई यि
त्यक्ष सदा िभ
आपने अनेक कार के आम खाए ह। आम के सभी
आ ध्विन का उ ारण करता
िक म का वाद अलग है, पर जब आम के वाद की
है। वह इसे सामान्य उ ारण के समय म बोल सकता है,
बात करते ह तब आपके मन म एक ही िब ब होता है जो
या उससे दु गुना समय लगा सकता है, या िफर और लंबे
उसका फोट है।
समय म उ िरत कर सकता है। सामान्य समय के उ ारण को
आप यह संसार कहकर संसार के बारे म एक
व, उससे दु गुने समय को दीघर् और
िब ब लेकर चलते ह जबिक संसार म अनन्त िविवधता
ु कहा जाता है। आपने कहींउससे ितगुने समय को त
है और यह िनरन्तर बदलता है। आप इसी
कहीं ओ
के रूप म िलखा हु आ दे खा
धमर्, मे रा जीवन, ई र आिद के बारे म बात करते ह।
होगा। ओ
श द को ओ3
कार मे रा
के बीच म 3 िलखने का आशय है िक ओ
पर जब आप िकसी भी चीज़ के बारे म बोल रहे होते ह
ध्विन को सामान्य से तीन गुने समय तक उ िरत िकया
उस समय उस चीज़ की एक ही संक पना आपके मन
जाना चािहए।
म होती है। वह संक पना ही फोट है। अनु भव के साथ
इसी कार आ को कभी नीची आवाज़ म बोला जा
यह फोट बदलता रहता है। पर वह सदा आपके अंदर
सकता है, कभी ऊँची आवाज़ म और कभी िच ाती हु ई
ही रहता है।
आवाज़ म। आवाज़ के अलग-अलग ऊँचाई म और
और यह
फोट नये-नये अनु भव के आधार पर
अलग-अलग गित से उ िरत होने पर भी हम जब आ
बदलता भी रहता है। आपका िकसी यि
यो ओ की बात करते ह तो हमारे मन म एक ही
होता है। उसके बारे म आपके मन म एक धारणा बनती
के आ या ओ का गर्हण होता है।
कार
वणेिन्दर्य से िविभ
है। ज्य -ज्य आप उस यि
से पिरचय
के बारे म अिधक जानते
भाव गर्हण करने पर भी मन म एक ही िब ब का जगना
जाएँगे उसके बारे म आपके मन म िव मान
फोट है।
बदलता जाएगा। आप एक किवता पढ़ते ह। उस किवता
फोट
वाक्य म श द को धीरे -धीरे अलग-अलग करके
के बारे म आपके मन म एक फोट बनता है। कुछ समय
बोला जा सकता है या िफर तेज़ी के साथ िजसम श द
बाद उसी किवता को िफर से पढ़ने पर उसके बारे म
आपस म िमलजुल जाते ह। पर वाक्य म श द का फोट
आपके मन का फोट बदल जाता है। वयं अपने बारे म
एक ही रूप म होता है।
आपका फोट बदलता रहता है। दस साल की उ
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
28
म
वाक्यपदीयः भतृर् हिर का भाषा-दशर् न-14
भी आप ‘म’ के बारे म बात करते थे, बीस साल की और
यह फोट की बहु त प पिरभाषा है। िकसी पदाथर्,
तीस साल की उ म भी। ‘म’ श द वही रहता है, उसका
यि
फोट िनरन्तर बदलता रहता है।
या घटना की अनेक अिभ यि य के
मन म उसके बारे म एक संक पना बनती है जो उसका
फोट की पिरभाषा दे ते हु ए भतृर्हिर कहते हऱ
फोट है। वह अिभ यि
देशकाल म होती है, फोट सदा
देशकालातीत रहता है। भाषा के बारे म कह तो भाषा के
अने क- यक्त्यिभ यंग्या जाितः फोट इित मृता।
श द देशकाल म होते ह, उनका अथर् देशकालातीत।
(वाक्यपदीय 1-93)
फोट के बारे म कुछ जान लेने के बाद, आइए
(अनेक अिभ यि य के बीच म से जो सामान्य भाव उिदत होता है वह फोट है।)
36.
ारा हमारे
हम वाक्यपदीय से इस
संग की कुछ कािरकाएँ पढ़।
फोट यािभ काल य ध्विनकालानु पाितनः। गर्हणोपािधभेदेन वृि भेदं चक्षते ।। (1-75)
फोट एक समय म अिभ अथार् एक ही रहता है, लेिकन जब फोट पर उ ारण से समय की दृि से श द का अनु पात लागू कर िदया जाता है तब, श द को िजस रूप म बोला जाता है उसके गर्हण के कार से, कहा जाता है िक यह बोलने का कार मूल श द का है, जबिक मूल फोटात्मक श द दे शकाल म नहीं होता और उ ारण के कार का उसपर कोई भाव नहीं होता। (अिभ काल य फोट यऱ काल म एक (अिभ ) रहनेवाले फोट पर, जब, दे शकालानु पाितनःऱ दे शकाल म उ िरत होनेवाले (
ु आिद के भेद से) ध्विनय और श द का अनु पात लागू कर िदया जाता है, तो लोग, व,दीघर्, त
गर्हणोपािधभेदेनऱ श द को िजस रूप म बोला जाता है उसके गर्हण के कार के भेद से, वृि भेदं चक्षतेऱ कहते ह िक यह बोलने का
कार मूल श द का है (जबिक मूल फोटात्मक श द दे शकाल म नहीं होता और उ ारण के
कार का उस पर कोई
37.
भाव नहीं होता।)
ु ािदषु। वभावभेदाि त्यत्वे ह वदीघर् त ाकृत य ध्वने ः कालः श द येत्युपचयर्ते।। (1.76)
अपनी िविश कृित के कारण िनत्य (कालातीत) रहने वाले फोट म मनु य ारा िनिर्मत ध्विन का काल मूल फोटात्मक श द का है, ऐसा मान िलया जाता है। ( वभावभेदा िनत्यत्वेऱ अपनी िविश
कृित के कारण िनत्य (कालातीत) रहनेवाले फोट म,
ु के संग म, ाकृत य ध्वने ः कालःऱ मनु य व, दीघर् और त
ु ािदषुऱ वदीघर् त
ारा िनिर्मत ध्विन का काल, श द यऱ मूल श द का
है, इित उपचयर्तेऱ ऐसा मान िलया जाता है।
38. श द योध्वर् अिभ य े वृर्ि भेदं तु वैकृताः। ध्वनयः समुपोहन्ते फोटात्मा तैनर् िभ ते ।। (1-77) श द के उ ारण के बाद, उसके उ ारण म के ारा जो िविभ ध्विनया ँ उत्प होती ह उनके आधार पर मूल फोटात्मक श द भी उसी कार का होगा, इसका अनु मान लगाया जाता है (जबिक मूल फोटात्मक श द सदा अिवकृत अव था म रहता है) (श द य ऊ ध्वर्
अिभ य े ःऱ बाद म श द की जो अिभ यि
उ िरत होने के कारण), वैकृताः ध्वनयःऱ िवकृत, िविभ ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
व ाओं 29
होती है, उसके
संग म, (िविभ
कार से
ारा िनिर्मत ध्विनया,ँ वृि भेदंऱ श द के वरूप के
वाक्यपदीयः भतृर् हिर का भाषा-दशर् न-14
भेद का, समुपोहन्तेऱ अनु मान लगाती ह, (िकन्तु उनके कारण), फोटात्माऱ फोट की आत्मा (उसका मूल वरूप), न िभ ते ऱ िभ
नहीं हो जाता, अथार्
अपिरविर्तत रहता है।
भतृर्हिर के अनु सार अपनी भाषा म हम जो श द
इस
कार संवाद करते रहने से दु िनया चलती है। हम
बोलते ह उस श द का एक फोट हमारे मन म रहता
सदा फोट के आधार पर दु िनया को दे खते और उसके
है। उस फोट को उ ारण म अिभ य
बारे म बात करते ह। हर चीज़ के बारे म हर यि
सकता क्य िक िविभ
मनु य
नहीं िकया जा
ारा उसी श द के
फोट िभ
उ ारण म अन्तर होगा। उदाहरण के िलए शािन्त श द के उ ारण म कुछ लोग अन्त म
का
होता है।
केवल संख्यावाची श द ऐसे ह िजनके अथर् का
व इ बोलते ह, कुछ
फोट सभी मनु य के िलए समान होता है और सदा
दीघर्। कुछ श के थान पर स बोलते हु ए सािन्त कहते
एक-सा रहता है। संख्या के यंजक श द का उ ारण
ह। पर इन सभी
अलग-अलग भाषाओं म अलग-अलग होता है पर उनका
कार के उ ारण को सुनकर हमारे
अंदर शािन्त श द के फोट की भावना जगती है िजसके
अथर् सबके िलए एक होता है। इसम हमारी चेतना का
कारण हम शािन्त श द का अथर् लगाते ह।
कोई गहरा रह य िछपा है। जमर्न गिणत
िजस
कार श द का फोट होता है उसी
अथर् का भी, य िप
फोट की चचार्
कार
कर्ोनेकर ने कहा है िक ई र ने अंक बनाए ह, शेष सब
मनु य की रचना है (God made the integers; all
ायः उ ारण के
else is the work of man.)। यह उि
संग म हु ई है। शािन्त श द का अथर् अलग-अलग मनु य के अन्दर अलग-अलग कार का होता है। िकसी दं गे के बाद की शािन्त, दो यु पिरवार म शािन्त, और यि
िलयोपो ड
हम इस पर
गंभीर िचन्तन करने के िलए ेिरत करती है।
के बीच की शािन्त,
आप बढ़ई से एक मे ज़ बनवाना चाहते ह, तो ‘एक
की मानिसक शािन्त म
मे ज़ बना दो’ कहने से काम नहीं चलेगा। आपको मे ज़
अन्तर है। जब कहा जाता है िक मन की शािन्त म
की लंबाई, चौड़ाई और ऊँचाई संख्या म बतानी पड़े गी।
परमात्मा के दशर्न होते ह तो अव य ही वहा ँ शािन्त का
तभी आपके मन म और बढ़ई के मन म मे ज़ के माप के
अथर् दो यु इस
के बीच की शािन्त से िभ कार
होता है।
संग म एक ही
त्येक श द का उ ारण सदा िभ -
फोट होगा। आपको बुखार की दवा
दे ने से पहले डाक्टर जानना चाहता है िक आपको
त्येक श द का अथर् भी
बुखार िकतना है, िकतने िदन से है, सुबह और शाम के
होता है, और उ ारण
तापमान म िकतना अन्तर है, आिद। िकसी भी
की तरह अथर् भी बदलता रहता है। पर भाषा म हमारा
िनदानात्मक (डायग्नोि टक) परीक्षण की िरपोटर् दे िखए।
िभ िविभ
कार से होता है, और यि य के िलए िविभ
यवहार िनरन्तर चलता है। ऐसा इस कारण है िक हम िकसी श द के सवर्था शु
हर चीज़ वहा ँ संख्या म दी जाती है। संख्यावाची श द पर सब सहमत हो सकते ह
उ ारण पर बल नहीं दे ते।
सभी मनु य के वाग्यंतर् के िविभ
भाग अलग-अलग
क्य िक उनके अथर् का फोट सबके िलए समान होता है।
कार के है। हर मनु य की जीभ और ह ठ और से
िव ान और टै क्नालॉजी का िवकास संख्यावाची श द के
अलग ह, इसिलए िकसका उ ारण
ामािणक माना
आधार पर होता है। शेष सभी क्षेतर् म, िजनम धमर्,
जाए यह िनि त करने का कोई उपाय नहीं है। िद ी
दशर्न, मनोिव ान, सािहत्य, इितहास, राजनीित शा
और मे रठ के िनकट के
ामािणक
आिद आते ह, श द का अथर् िनि त न होने के कारण
खड़ी बोली माना जाता है जबिक िद ी म ही अनेक
मतभेद की सदा गुज ं ाइश रहती है, और इन क्षेतर् म
दे श की िहन्दी को
कार की िहन्दी बोली जाती है। पर हम भाषा म सवर्था
सदा ही बहस चलती रहती है। इस बहस के कभी समा
सही उ ारण को तय करने पर बल नहीं दे ते, इसिलए
होने की संभावना भी नहीं है। इसका कारण इन क्षेतर् के
एक दू सरे की भाषा सुनकर हमारा काम चलता रहता है।
श द के अथर् की अिनि तता है। भतृह र् िर ने
अथर् के बारे म भी यही बात लागू होती है। शािन्त
फोट की चचार् भाषा की ध्विनय के
पर अन्तरार् ीय स मे लन करने से पहले शािन्त की
संबध ं म की है। हम उसी आधार पर उस चचार् को बढा़ने
पिरभाषा तय करने पर बल नहीं िदया जाता, और न
का यास कर रहे ह। इतना तय है िक हमारी भाषा का
अन्तधर्मीर्य संवाद करने के पहले धमर् की पिरभाषा पर।
रह य फोट म िछपा है। हम इस चचार् को जारी रखगे।
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वैिदक प्राथर् नाएं -2 अिनल िव ालंकार (वे द के
ाथर् ना-मंतर् म परमात्मा से हम उदा
गुण
चलने म हमारा मागर्दशर् न करने की
य आत्मदा बलदा य य िव
दान करने और सही मागर् पर
ाथर् ना की गई है ।)
उपासते िशषं य य दे वाः।
य यच्छायाऽमृतं य य मृत्युः क मै दे वाय हिवषा िवधे म।। (ऋग्वेद 10.121.2)
जो परमात्मा हम आित्मक, शारीिरक और आन्तिरक बल का दे नेवाला है, िजसके शासन को सारा संसार और दे वता भी मानते ह, िजसकी छाया म अमरत्व है, और िजसकी छाया म ही मृत्यु भी है, उस आनन्द वरूप परमात्मा की हम अपनी हिवय , आहु ितय से पू जा-उपासना कर। मनु य अपने जीवन म
ायः अपने आपको िनबर्ल
की गोद म आकर अपने आपको सुरिक्षत अनु भव करता
और असहाय अनु भव करता है। इसका मुख्य कारण है
है। पर हमारा अहं कार हमारी िनबर्लता के िनवारण के
िक हमारी इच्छाएँ, आकाक्षाएँ ं इिन्दर्य और मन से ेिरत
िलए परमात्मा की शरण म जाने म बाधक बनता है। हम
होती ह। इिन्दर्य के वश म रहकर हमारा मन एक से
अपनी ही शि
से सबकुछ करना और सबकुछ हािसल
बढ़कर एक इच्छा करता रहता है। जब एक इच्छा पूरी
कर लेना चाहते ह। पर दे र-सबेर हर मनु य को अपनी
हो जाती है तो तुरन्त ही हम उससे बड़ी कोई इच्छा
सीमाएँ पता चल जाती ह। ऐसी हालत म अपने ऊपर की
करने लगते ह। इस चाह और लोभ से हम कभी छु टकारा
शि
नहीं िमलता।
के िनकट जाना आव यक हो जाता है। परमात्मा बलदायक और आनन्द वरूप है। हर
वभावतः िजस संसार म हम रहते ह उसम सभी
यि
मनु य की सभी इच्छाएँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं। जब
सुख की कामना करता है। कोई भी दुखी बनकर
दु िनया म नहीं रहना चाहता। संसार म जो कुछ भी हम
मनु य के सामने इच्छाओं की पूिर्त म बाधाएँ आती ह तो
करते ह वह दु ःख को दूर करने और सुख को पाने के िलए
वह अपने को असहाय अनु भव करने लगता है।
ही होता है। कभी-कभी हम सुख पाने म सफलता भी
पर मनु य की िनबर्लता की अनु भिू त तभी तक है
िमलती है, पर संसार का हर सुख सीिमत और अ थायी
जब तक वह अपने आपको संसार म अकेला अनु भव
होता है। हमारी इच्छा असीम सुख पाने की होती है। यह
करता है। हमारा मन और हमारी भाषा िवभाजन के
असीम सुख हम परमात्मा के िनकट जाकर ही िमल
आधार पर चलते ह, इसिलए हम संसार म सभी मनु य
सकता है क्य िक परमात्मा आनन्द वरूप है। परमात्मा के
और सभी व तुएँ अलग-अलग िदखाई दे ती ह। पर जब
साथ िनकटता म दु ःख का लेशमातर् भी नहीं रहता।
हम जान लेते ह िक िजस परमात्मा ने हम उत्प
य
िकया
म अिग्न को समिर्पत की जानेवाली व तु को
है वह हमारे अन्दर ही िव मान है तो िनबर्लता का भाव
हिव कहते ह। अिग्न को जो भी व तु समिर्पत की जाती
सदा के िलए समा
है वह अिग्न के वरूप की ही हो जाती है। मनु य यिद
हो जाता हैऱ वैसे ही जैसे ब ा मा ँ
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वै िदक
ाथर् नाएं-2
अपने आपको पूरी तरह परमात्मा को समिर्पत कर दे तो
दु ःख नहीं सताता और न उसे मृत्यु से भय लगता है।
आनन्द वरूप परमात्मा उसका मागर्दशर्क बन जाएगा।
जीवन और मृत्यु हमसे ऊपर की शि
की लीला है।
ऐसे मनु य के सभी कायर् मानो परमात्मा ही कर रहा
हमारे रूप म िजस अमर परमात्मा ने जन्म िलया है, मृत्यु
होगा और वह मनु य, गीता के श द म िनिम मातर्
के बाद हम उसी के आ य म चले जाएँगे।
(साधन रूप) होगा।
इस भाव से जीनेवाले मनु य के जीवन म न तो
परमात्मा की छाया म रहनेवाले यि
को कभी
िनबर्लता होती है, न दु ःख और न भय।
यः आत्मदाऱ जो परमात्मा हम आत्मा (आित्मक शि ) का दे नेवाला है, बलदाऱ शारीिरक और आन्तिरक बल का दे नेवाला है, य य िशषंऱ िजसके शासन को, िव ेऱ सभी लोग, और दे वाःऱ दे वता भी, उपासते ऱ मानते ह, उपासना करते ह, य य छाया अमृत
ऱ िजसकी छाया म अमरत्व है, य य मृत्युः, (साथ ही) िजसकी छाया म ही
मृत्यु भी है, क मै दे वायऱ उस आनन्द वरूप परमात्मा के िलए, हिवषाऱ हम अपनी हिव, आहु ित के
ारा, िवधे मऱ
पूजा-उपासना करते ह।
िहरण्यगभर्ः समवतर्तागर्े भूत य जातः पितरे क आसी । स दाधार पृिथवीं
ा उते मा ं क मै दे वाय हिवषा िवधे म॥
(ऋग्वेद 10-121-39)
िजसके अन्दर विर्णम काश अन्तिर्हत था, ऐसा वयंभू परमात्मा, सबसे पहले सृि म िव मान था। वही अकेला सृि म जो भी कुछ है उसका वामी था। उसी ने पृथ्वी लोक और ुलोक को धारण िकया हु आ है। ऐसे आनन्द वरूप परमात्मा की हम अपनी हिवय के ारा उपासना कर। िव ान, कला और िनमार्ण, और सुख, शािन्त,
यह संसार यिद हम िदखाई दे रहा है तो वह काश के कारण है। िजस परमात्मा ने यह सृि
बनाई
मुि
उसके अन्दर यह काश पहले से िव मान था। उसीका
ान और
पाने की मनु य की अिभलाषाऱ सभी उस एक िबन्दु
के महािव फोट से िवकिसत हु आ।
काश िव भर म फैला हु आ है। आजकल के वै ािनक
भौितक सृि
म िवकास का कर्म िकन िनयम के
आम तौर से परमात्मा को नहीं मानते। पर हम इस
अनु सार चला इसका अध्ययन वै ािनक कर रहे ह। उसी
अनन्त
ाडं म िनरन्तर पिरवतर्न होता िदखाई दे ता है।
शृंखला म जीवन का िवकास हु आ ऐसा माना जाता है।
जो भी आज है उसके पहले कुछ था िजससे आज का
पर जीवन म एक तत्त्व ऐसा है िजसकी याख्या वै ािनक
संसार वतर्मान दशा म आया। जो कुछ पहले था उसके
नहीं कर सकते, और वह है अनु भिू त। सृि
पहले भी कुछ रहा होगा, और उसके भी पहले कुछ
नीहािरकाएँ, तारे , सभी गर्ह-उपगर्ह िकन्हीं िनयम के
और। इस कार चलते हु ए हम मानना पड़ता है िक कोई
अनु सार गित कर रहे ह। वे पूरी तरह िनयम के अधीन
ऐसी स ा अव य है जो िकसी से उत्प
ह। िकसी भी गित म िकसी की वतंतर्ता नहीं है।
नहीं
हु ई,
अिपतु जो वयंभू है। के
पर जीवनय़ जीवन शरीर म
की
कट होता है और
आधुिनकतम िव ान की मान्यता के अनु सार सृि
वह शरीर कुछ िनयम के अनु सार चलता है, यह सच
ारंभ म केवल एक िबन्दु (singularity) था िजसम
है। पर हमारा जीवन केवल हमारा शरीर ही नहीं है।
महािव फोट (big bang) हु आ और वहा ँ से सृि
का
जीवन का केन्दर् अनु भिू त है। त्येक ाणधारी का त्येक
त्येक
कायर् उस समय उसके अन्दर िव मान अनु भिू त से
नीहीिरका म असंख्य तारे ह, िजनम से एक मध्यम
ेिरत होता है। और यह अनु भिू त िकसी भौितक पदाथर् से
ारंभ हु आ।
ाडं म असंख्य नीहािरकाएँ ह,
आकार के तारे , हमारे सूयर्, के चार ओर पिरकर्मा
उत्प
करती हमारी पृथ्वी, उस पर जीवन का िवकास, उस
भौितक पदाथर् ही उत्प
िवकास की पर परा म उत्प हु ए मनु य, उनकी स यता,
का आयाम पदाथर् के आयाम से सवर्था िभ
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नहीं हो सकती। एक भौितक पदाथर् से दू सरा होगा, अनु भिू त नहीं। अनु भिू त है।
वै िदक
ाथर् नाएं-2
हमने दे खा है िक हमारे अन्दर दो तत्त्व काम कर रहे हऱ पुरुष और
हमारी अनु भिू तया ँ उत्प -चचार्)।
कहा ह ँ गे, और अगला चन्दर्गर्हण िकस तारीख को िकतने
कृित। पुरुष चेतन तत्त्व है िजससे
बजकर िकतने िमनट पर शुरू होगा।
होती ह। (दे ख इस अंक की
कृित के िनि त
िनयम को वेद म ऋत कहा गया है। ऋत से िभ
शरीर हमारे अन्दर उठनेवाली अनु भिू तय के रूप म
सत्य म आनन्द सि मिलत है इसिलए सृि
काम करता है। चेतन के अभाव म जड़
स ा को स -िच -आनन्द वरूप
िनि त िनयम आधुिनक
कृित कुछ
तैि रीय उपिनष
के अनु सार काम करती है (य िप
ाटम ं मैकेिनक्स म माना जाता है िक पदाथर्
के सू मतम
सत्य है
जो सदा-सवर्दा एक ही रहता है, कभी बदलता नहीं। इसी
कृित से वह ऊजार् आती है िजससे हमारा
की अिन्तम
कहा जाता है।
म कहा गया है,"आनन्दा
िह
खलु इमािन भूतािन जायन्ते । आनन्दे न जातािन जीविन्त।
तर पर िकसी एक कण की गित सवर्था
यिन्त अिभ संिवशिन्त।"ऱ आनन्द से ही ये
आनन्दं
अिनि त होती है िजसके बारे म हम भिव यवाणी नहीं
ाणी उत्प
होते ह, उत्प
होने के बाद आनन्द के ही
कर सकते िक वह कण अगले क्षण िकधर जाएगा। केवल
सहारे से जीते ह, और आनन्द की ओर बढ़ते हु ए अन्त
कण के बड़े समूह के बारे म ही सािख्यकीय ं आधार पर
म आनन्द म ही
पर हमारे अन्दर का पुरुष तत्त्व िकस कार काम
है। उसी
करेगा यह हम नहीं जान सकते (क्य िक हम पुरुष और
सृि
उस
से उ त ू है। उस
को हम तकर् के
उससे एकाकार होकर, अपने अन्दर जान सकते ह।
अन्दर कैसी अनुभिू त होगी िजसके अनुसार आप कोई काम करगे इसे आज तय नहीं िकया जा सकता, जबिक
उस अव था म सृि
आप बता सकते ह िक कल चादं और सूरज िकस समय
सामने
का सारा रह य हमारा
कट हो जाएगा।
काश िछपा था (िहरण्य= वणर्), ऐसा परमात्मा, अगर्े समवतर्तऱ सृि
सबसे पहले िव मान था। जातःऱ वयं उत्प आसी
को यहा ँ िहरण्यगभर् कहा गया है। सम त
ारा नहीं अिपतु उसके आगे अपने आपको समिर्पत कर,
कृित के संयोग से उत्प हु ए ह।) कल इस समय आपके
िहरण्यगभर्ःऱ िजसके गभर् म विर्णम
वेश कर जाते ह।
हमारी सभी अनु भिू तय के पीछे आनन्दमय
िनि त िनयम बनाए जा सकते ह।)
हु आ वह परमात्मा, भूत यऱ िव
म
म जो कुछ भी है उसका, एकः पितः
ऱ एकमातर् वामी था, सःऱ उसी परमात्मा ने, इमा ंपृथ्वींऱ इस पृथ्वी को, और,
ाऱं
ुलोक को, दाधारऱ
धारण िकया हु आ है। क मै दे वायऱ उस आनन्द वरूप परमात्मा की, हम, हिवषा िवधे मऱ अपनी हिव, आहु ित से पूजाउपासना कर।
वैिदक सूियाँ
एको िव भवु न राजा। ऋवेद 3.46.2 एक परमेर ही सकल भवु न का राजा है।
ु शः। अथववदे 1.34.3 भूयासं मधस म शहद के समान मीठा हो जाऊँ ।
ु ीय मामृतात।् यज.ु 3.60 मृोम म मृ ु से टूँ, अमर से नह।
ू ामिरसां तपसा तम।् यजवु द 1.18 भृगण सूय- िकरण के सश तप से यं को तपाओ।
मा भेम मा िम। ऋवेद 8.4.7 हम डर नह, थक नह।
ु ािस बकम।् अथव 6.121.4 बा ब को बन से मु कर।
पंिडत रामनाथ वेदालंकार की पु तक ‘वेद-मंजरी’ से संकिलत। ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
33
पतंजिल का योग-दशर्न-14 अिनल िव ालंकार
64. िवतकर्-बाधने ितपक्ष-भावन । (2-33) जब मन म संदेह उपि थत ह तब हम उनके बारे म उनसे िवपरीत बात का िवचार करना चािहए। (िवतकर्बाधने ऱ संदेह
ारा बाधा पहु ँचाए जाने पर,
अगर योग के मागर् पर चलने तथा यम और िनयम
ितपक्ष-भावन ऱ उसका िवपरीत सोचना चािहए।) और शतर्ुओं को मारय़ इसके पिरणाम पर िवचार कर।
के िस ातं का पालन करने म हमारे मन म संदेह
क्या िंहसा के बदले म िंहसा नहीं होगी िजसके कारण
उत्प
समाज म और
ह तो हम उनका सामना उनके िवरोधी तक के
ारा करना चािहए। उदाहरण के िलए, अगर हम लगता
वयं हमारे अन्दर िंहसा का भाव सदा
बना रहे गाय़" आिद, आिद। योग का ल य िच -वृि -
है िक हम सदा सत्य नहीं बोल सकते तो हम सोचना
िनरोध अथार्
चािहए, "ऐसा कैसे हो सकता है िक हम सत्य के साथ
शान्त करना है। योग की िसि
समझौता कर और के सामने झूठ बोल और िफर भी
सभी
कार की मानिसक हलचल को होने पर सारी िवचार-
िकर्या वतः शान्त हो जाएगी, लेिकन यह ल य ज दी
मन की शािन्त पाने की आशा करय़ अगर हर एक यह
म
सोचे िक वह केवल तभी सच बोलेगा जब वह उसके
और तकर् के तर पर रहते ह तब तक हर नकारात्मक
ा
नहीं िकया जा सकता। जब तक हम िवचार
अनु कूल होगा तो क्या संसार ऐसी दशा म सामंज य के
तकर् का सामना एक सकारात्मक िवरोधी तकर् से करना
साथ चल सकेगाय़ क्या अिंहसा के िस ातं को इस तरह
आव यक है। अपने अन्दर चलनेवाले तकर्-िवतकर् से तकर्
माना जा सकता है िक हम अपने िमतर् की तो रक्षा कर
की सीमा से ऊपर उठकर मनको शान्त कर सकते ह।
65. िवतकार् िंहसादयः कृत-कािरतानु मोिदता लोभ-कर्ोध-मोह-पू वर्का मृदु-मध्यािधमातर्ा दु ःखा ानानन्तफला, इित ितपक्ष-भावन । (22-34)
िवरोधी तक का वरूप इस कार का हो सकता हैऱ िंहसा आिद के ारा अन्ततः दु ःख और अ ान की वृि
होती है। ये िंहसा आिद कमर् यि
वयं कर सकता है, और से करवा सकता है या उनका
समथर्न कर सकता है। इन कम के कारण म लोभ, कर्ोध और मोह होते ह, और ये कोमल, मध्यम और ती
कार के हो सकते ह। (िवतकार्ःऱ िवतकर्, िंहसादयःऱ िंहसा आिद गलत काम, कृत-कािरतानु मोिदताःऱ वयं िकए गए ह (कृत),
और से करवाए गए ह (कािरत), या िफर, अनु मोिदताःऱ अनु मोदन िकए गए ह , लोभ-कर्ोध-मोह-पू वर्काऱ िजनके पहले लोभ, कर्ोध, और मोह होता है, मृदु-मध्यािधमातर्ाःऱ जो कोमल, मध्य, या ती
कार के हो सकते ह,
दु ःखा ानानन्तफलाऱ िजनका पिरणाम अनन्त दु ःख, और अ ान म होता है, इित ितपक्ष-भावन ऱ इस िवचार से संदेह का िनवारण करना चािहए। ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
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कार के
पतं जिल का योग-दशर् न-14
जब हम पता हो िक हमारे ल य तक पहु ँचने का
चल ही नहीं सकता। जो बुरे काम हम करते ह उनसे
एक ही मागर् है तो वह मागर् चाहे िजतना भी किठन
तो हम हािन होती ही है, लेिकन उन काम से भी हािन
हो और हम अपने ल य तक पहु ँचने म चाहे िकतना
होती है िजन्ह करने के िलए हम और को उकसाते ह या
भी समय क्य न लगे, हम उस मागर् पर चलगे ही
िजनका हम समथर्न करते ह। बहु त-से लोग वयं िकसी
क्य िक हम अपने वांिछत ल य तक ले जानेवाला कोई
को नहीं मारगे पर और को मारने के िलए
ोत्सािहत
यादा सुखद
करगे, या िफर वे िकसी कार की चोरी या पिरगर्ह को
और आकषर्क हो सकते ह, लेिकन यिद वे हम अपने
ोत्सािहत करगे जोिक आजकल के समाज म साधारण
ल य तक नहीं ले जाते तो वे हमारे िलए बेकार ह और
हो गया है। यह इसिलए है िक अपने लोभ पर हमारा
खतरनाक भी हो सकते ह। यम और िनयम के िस ातं
िनयंतर्ण नहीं है।
और मागर् है ही नहीं। कुछ दू सरे मागर्
हम बहु त आकषर्क नहीं लग सकते। अिंहसा, सत्य,
िजन बुरे काम का त्यक्ष या अ त्यक्ष रूप से हम
अपिरगर्ह, आत्म-िनयंतर्ण आिद म बहु त की रुिच नहीं
समथर्न करते ह वे भी हमारी चेतना पर एक िनशान छोड़
होती। जीवन म समृि , सफलता और सुख पाने के िलए
जाते ह। यि गत
बहु त बार िंहसा, पिरगर्ह,
के िलए यम और िनयम के िस ातं का िनरपेक्ष रूप
ित पधार् और छल का मागर्
छोटा और आसान लगता है। लेिकन यह एक िस
ािन्त है।
से पालन करना आव यक है। ऐसा न होने से समाज
जमर्न दाशर्िनक इमानु एल काण्ट ने कहा है िक
हम नैितक क्षेतर् म ऐसे िस ातो ं का
स ता और सामािजक समरसता
िवशृंखल हो जाएगा।
ितपादन करना
इस
कार के िंचतन से योग के मागर् पर चलते
चािहए जो सब पर समान रूप से लागू ह । यिद लोग
हु ए हमारे मन म जो संदेह उठते ह उनका सामना िकया
िंहसा, पिरगर्ह, चोरी आिद म लगे रह तो िफर समाज
जा सकता है।
66. अिंहसा- ित ाया तत्सि ं धौ वैर-त्यागः। (2-35) िजस यि
के अन्दर अिंहसा का भाव आ जाता है उसकी उपि थित म वैर नहीं रहता।
(अिंहसा- ित ायाऱं अिंहसा के पूरी तरह थािपत हो जाने पर, तत्सि धौऱ उसके िनकटऱ वैर-त्यागःऱ वैर का त्याग हो जाता है।) ईसा मसीह और महात्मा गा धी ं को िंहसा के
िंहसा का पिरणाम हमे शा िंहसा ही होता है । बु
ारा मारा
ने ध मपद म कहा, "वै र से वै र शान्त नहीं होता,
गया था। पर इससे हम अिंहसा के मागर् पर चलने म
के वल अवै र से वै र शान्त होता है । यह शा त िस ा तं
िनरुत्सािहत नहीं होना चािहए क्य िक अपने जीवन म
है "। यिद कोई हमारे
ित
शािन्त लाने का और कोई मागर् है ही नहीं। अिंहसा के
ायः िंहसा
अिधकािधक अ यास से हम अपने िवरोिधय का मन
ित या हमारे ि यजन के
िंहसा करता है तो इसके जवाब म हम भी
करते ह। "आँख के बदले आँ ख " का िस ा तं आम है ।
जीत सक गे ।
ितिकर्या चलती रहती है । यिद कोई हम गाली
साथ ही, सत्य को जानने के िलए भी अिंहसा
दे ता है और बदले म हम उसे गाली दे ते ह तो इससे
आव यक है। जब हम िंहसा पर उतारू होते ह तो हमारा
ि थित िबगड़ती ही है । और यिद हम भड़काए जाने पर
मन बहु त ही िवक्षु ध होता है। इससे हमंे चार ओर की
भी शान्त रहते ह तो सामने वाले को भी शान्त होने
वा तिवकता िवकृत रूप म िदखाई पड़ती है। िंहसा की
का एक अवसर िमलता है । हो सकता है िक अगली
कृित वाले मनु य को जहा ँ खतरा नहीं होता वहा ँ भी
बार हमारे साथ यवहार करते हु ए वह उतना िंहसक
खतरा िदखाई दे ता है। जब हमारे मन म शािन्त और
यह
न हो। यिद हम अपने शतर्ु ओं को यार द तो वे कभी
ेम होता है तब हमारे अन्दर सत्य
कािशत होता है।
न कभी अपनी शतर्ु ता छोड़ दगे । इसके पिरणाम तु रं त
इसिलए संवग े ात्मक और बौि क दोन ही दृि य से
नहीं िमल सकते । अिंहसा के दो सबसे बड़े पु जारी
अिंहसा का आचरण हमारे जीवन म सहायक है।
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पतं जिल का योग-दशर् न-14
67. सत्य- ित ाया ं िकर्या-फला यत्व । (2-36) योगी म सत्य की ि थित आ जाने पर उसके कमर् का फल उसके आि त रहता है। (सत्य- ित ायाऱं (योगी म) सत्य थािपत हो जाने पर, िकर्या-फला यत्व ऱ उसके
ारा की जाने वाली
िकर्या का फल उसके आि त रहता है।) हम सदा िकसी न िकसी उ े य से अपने कमर् करते ह। पर ऐसा
जाती है। योगी को अपने कम के फल म कोई यि गत
ायः होता है िक हम अपने कम से
रुिच नहीं होती। वह गीता म बताए गए िन काम कमर्
जो फल पाना चाहते थे वह नहीं िमलता। इसके कई
के िस ातं पर चलता है, इसिलए उसके मन म सदा
कारण ह। बहु त बार हम उन पदाथ , यि य , िविधय
शािन्त रहती है। मन म अन्दर शािन्त और प ता होने
और पिरि थितय की जानकारी नहीं होती जो हमारे
के कारण वह दू सरे यि य को अिधक अच्छी तरह
कमर् से संबिं धत होते ह। कभी-कभी हम िकसी कायर्
समझ सकता है, और अपने कम के यावहािरक पक्ष को
को करने की अपनी क्षमता का सही आकलन नहीं
अिधक अच्छी तरह स हाल सकता है। गीता कहती है
कर पाते । हम
कृित के उन िनयम से भी अनजान हो
िक कम म कुशलता ही योग हैऱ योगः कमर्सुकौशल ।
सकते ह जो उस क्षेतर् म काम कर रहे ह। इसका अथर्
कम म कुशलता के कारण योगी न कभी ऐसी बात
यह है िक अपने बारे म और और के बारे म अ ान
कहता है और न ऐसी योजना बनाता है िजसे पूरा न
या गलत धारणा के कारण हम अपने कमर् का वािञ्छत
िकया जा सके। इस कार वह सदा सत्य के िस ातं पर
पिरणाम नहीं िमलता।
आचरण करके अपने कम का वािञ्छत फल पाने की
अ ान और पक्षपात के कारण हमारी दृि दू िषत हो
ि थित म रहता है।
68. अ ते य- ित ाया सवर् ं -र ोप थान । (2-37) कभी भी चोरी न करने की भावना की ि थित पा लेनेपर, (योगी के स मुख) सारे र व तुएँ) उपि थत हो जाती ह। (अ ते य- ित ायाऱं अ तेय की ि थित पा लेने पर, सवर्-र ोप थान ऱ योगी के सामने सारे र
(बहु मू य उपि थत हो
जाते ह।) जीवन की बहु मू य व तु ओं के आकषर् ण बहु त
वाभािवक है । यि य और रा
अिधक से अिधक स पि
और से अपनी स ाई िछपाए रहते ह क्य िक उन्ह
ित मनु य का
जु टाने के िलए
और के
म
ित सं दे ह बना रहता है । बाहर से धनी होने
पर भी वे आं तिरक रूप से वा तव म बहु त दिरदर्
बल सं घ षर्
जीवन जीते ह।
होता है । अिधकतर यह सं गर् ह अन्याय और िंहसा पर ारा िकया जाता है । मनु य बहु त
इसके िवपरीत, योगी को कभी भी िकसी से
बार धन म दू स र के भाग हड़प कर धनी बन जाते
िकसी चीज़ की इच्छा नहीं होती। योगी सदा दू सर को
ह। इस
कार के समाज म धनी मनु य भी वा तव
अपनी ही तरह यार करता है । सब मनु य उसके आगे
म मानिसक रूप से दिरदर् होते ह क्य िक वे अपना
अपना िदल खोल सकते ह। तब सारा संसार ही उसका
जीवन मानिसक िवकास के बहु त िनचले तर पर जी
पिरवार बन जाता है , और वह सारे संसार की स पि
रहे होते ह। उनका मन हमे शा
को अपनी स पि
आधािरत उपाय के
यादा और
यादा
मान सकता है । िबना िकसी चीज़ पर
भौितक पदाथ को बटोरने म ही लगा रहता है , चाहे
अिधकार िकए योगी संसार म सब से धनी होता है । इस
वे पदाथर् कै से भी िमलंे । वे जीवन म उ तर चीज़
सूतर् म इस आंतिरक स पि
के बारे म सोच ही नहीं सकते । समाज म ऐसे लोग
गया है ।
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की ओर ही संकेत िकया
Yoga of Silence or Chup Sadhana-14 Mansoor Abdulla
अनन्याि न्तयन्तो मा ये ं जना: पयुप र् ासते । ते षा िनत्यािभयु ं ाना योगक्षे ं मं वहा यह ।। ananyq1cintayanto mq/ ye janq4 paryupqsate te2q/ nityqbhiyuktqnq/ yogak2ema/ vahqmyaham There are those who have understood that the Source of everything is always present in the heart as the Self. For such people, staying in the heart, effortlessly, is the highest form of worship. Proximity itself becomes worship. as the conviction of being an individual self exists, one prays to an almighty God for the resolution of one’s difficulties. Whether God is imagined to live in heaven, or is imagined as one’s own Self, prayer is equally effective. Simply put, prayer is a state of surrender. Being in the heart or coming out of the head is surrender. The individual conditioned self, realising its powerlessness, bows down or is willing to step aside. This willingness of the false-self or ego-self to step down is the opening of the door to the dungeon where the unconditioned-Self has been kept imprisoned. The true-Self’s arrival on the scene is the resolution of the problem. The
Self recognizing Self is the play of love. In this state of surrender, the Source acts like a mother, nurturing, protecting and fulfilling all the needs. Prayer and Surrender The limited personal self, imagining itself all day long to be helpless, small, defenceless, a victim of circumstances, subject to disease, death, old age and a dozen other dilemmas, prays for the fulfilment of desires and for protection from calamities. From the perspective of Indian philosophy, the Self, present in the heart, is the Lord of the Universe, the Master of delusion (maya), and for whom all things are possible. As long ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
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Yoga of Silence or Chup Sadhana-14
true-Self is already free and whole. The true-Self does not answer the prayer, but is the answer. One can look at prayer in the way that everything one could possibly want is already present as one’s Self. Because of deep rooted identification with the body, one feels vulnerable and powerless. The needs of the body feel like one’s own needs, and the fears of the body become one’s own fears. When one prays intensely, the prayer removes the barrier of the conditioning and reveals the heart where the prayer is already answered. Another way to understand prayer is that in a sense, all desires are prayers, and all prayers get answered sooner or later. The problem is that in a state of unconscious living, many desires exist in contradiction to one another. For example, one may have a desire to eat a lot of tasty food, and also a desire to be slim. So, these two prayers will cancel each other out. One may desire to have a peaceful uncomplicated life and also seek complex relationships. As one becomes quieter and quieter through Chup Sadhana or whatever practice, one finds that the thinning out of desires and Silence are the same thing. Desires create a wall between individual awareness and the Universal Awareness. As the desires dissolve, this artificial separation also dissolves and individuality and Universality become one silent space. In this Silence, in this state of ‘nothing’ all joy is seen as the joy of the Source. At this stage, desires, which were so important, start to feel like disturbance, and the desireless state is seen as the state of Grace. ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
“The
true-Self’s arrival on the scene is the resolution of the problem. The true-Self is already free and whole. The true-Self does not answer the prayer, but is the answer.
”
The highest prayer would be to pray to God for that state, in which one never has to pray for anything again. In other words, when God is experienced as one’s Self, then what is there left to pray for? The personal limited self, realizing that it was always the unlimited Universal Self, is the state of Yoga. Again, it is not that one self is joining the other Self, which is what the word Yoga as union implies, rather the realization that there never were two separate selves. Realization is not an achievement, it is just an understanding, or just a shift in perspective. In this way of looking, prayer and Yoga are the same thing. One could say that if it is absolutely not possible for somebody to practice Yoga, one can pray for Grace and reach the same state. Each prayer is an invocation, whether one is praying to this God or that God, or bowing before this statue or that statue, or using this name or that name. All prayers go to the place of truth in one’s own heart. All prayers are answered from the same place. Even a prayer for material success or for mundane things, becomes a means of knocking on that door. Any sincere prayer brings the attention from the head into the heart. In fact that is the complete spiritual journey. 38
India is far from Sri Aurobindo’s Vision Claude Arpi Claude Arpi was born in France in 1949. His spiritual search started in 1972 with a journey to the Indian Himalayas. Since then he has been an enthusiastic student of the history of Tibet, China and the subcontinent. After graduating as a Dental Surgeon from Bordeaux University in 1974, he decided to come to India. Claude Arpi regularly writes on the geopolitics of the region, environment and Indo-French relations. You can visit his blog: http://claudearpi.blogspot.com
It is true that in the past two or three decades the Spirit of the country appears to have woven new garbs. But can we equate ‘Indian renaissance' to economic growth, a Chinese-model development? Certainly not. For once I would like to write a ‘personal’ column. Why? Because 40 years ago, I set my foot on Indian soil for the first time; it was presumably my ‘good’ karma which made me visit this country during my 1972 university holidays. The journey took me to several places in the Himalayas, my main interest being to meet the Dalai Lama and the Tibetan refugees rehabilitated in hill stations, mostly working on the construction of high-altitude roads. There was something strange about these people: They had lost everything, they were living in the worst imaginable conditions but still, they always smiled. Wherever I went, I had a similar experience. After meeting the Dalai Lama in ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
Dharamsala, I began to grasp that Tibetans, as well as Indians, had a different set of values compared to us Westerners. They did not possess much material wealth or political freedom (the Tibetans at least), but they had deep human qualities. The Tibetan leader was the living embodiment of these values. Watching this ‘simple monk’, I understood that, though endangered, inner calm and compassion still exist; he was the personification of a wisdom which looked ‘within’. Perhaps the West had spent too much time looking ‘outside’, concentrating on ‘outer’ realisations, controlling the material world; in the process; it had forgotten the inner virtues and powers of the Spirit. Did the Tibetan road worker have a lost key to happiness? This first discovery later led me to settle in India two years later. I had another serious question: Should the ‘outside’, material world 39
India is far from Sri Aurobindo’s Vision
rural India, one still sees the same ‘misery’ which I saw 40 years ago (with louder noise, more chaos, pollution and garbage). It is true that in the past two or three decades the Spirit of India appears to have woven new garbs. But can we equate ‘Indian renaissance’ to economic growth, a Chinese-model development with an eight or nine per cent growth of the GNP (to ‘become rich is glorious’ à la Deng Xiaoping), it is certainly not the sort of renaissance Sri Aurobindo envisaged (though he excluded nothing). ‘Synthesis’ was a key word in Sri Aurobindo’s vision. But ‘synthesis’ does not mean aping the West! India has to rediscover her past, not for the sake of the past, but because “Spirituality is the master-key of the Indian mind.” The ancient seekers “saw that the complexity of the universe could not be explained in the present terms of man or seen by his superficial sight, that there were other powers behind, other powers within man himself of which he is normally unaware.” In the meantime, planetary civilisation is going through one of the most challenging times of its recorded history. Just read any newspaper, everywhere headlines are similar: Syria, climatic change, nuclear proliferation, corruption, new viruses… In 1940, Sri Aurobindo foresaw: “At present mankind is undergoing an evolutionary crisis in which is concealed a choice of its destiny...” How can we deal with this crisis? Sri Aurobindo’s answer is by a change in consciousness; not only an individual one, but a revolutionary transformation of the entire race.
be abandoned and all life devoted to reaching ‘higher’ realms? Frankly, I had some reservations. Travelling for a couple of months in India in the early seventies was a shock for a foreigner. The dirt, the chaos in the big cities, the lack of ‘modern’ facilities, the blaring loudspeakers, the crowds — all these were a constant reminder that things were not so bad in Europe where trains ran on time, towns were clean, information was easily available to the public and hygiene was a way of life. I carried with me a French translation of The Life Divine, Sri Aurobindo’s magnum opus. One of the first sentences went home: “The affirmation of a divine life upon earth and an immortal sense in mortal existence can have no base unless we recognise not only eternal Spirit as the inhabitant of this bodily mansion, the wearer of this mutable robe, but accept Matter of which it is made, as a fit and noble material out of which He weaves constantly His garbs.” Matter had to be transformed in the image of the Spirit. I didn’t want to spend my life in a Himalayan cave, but to live a ‘real’ life. Forty years later, one question remains: Is Sri Aurobindo still relevant in the 21st century? A few lines can’t do justice to Sri Aurobindo, who left us 35 volumes of his philosophical, political and evolutionary thought, as well as Savitri, an epic in 28,000 verses. However, some glimpses of his socio-political philosophy and how he translated it into action is thought-provoking. Today, we hear that India is shining as never before. But on the streets of any metropolis or in the villages of ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
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India is far from Sri Aurobindo’s Vision
On August 15, 1947, coinciding with his 75th birthday, Sri Aurobindo wrote about five dreams. The first one was to see India united again: “India today is free but she has not achieved unity.” The second dream was to see the “resurgence and liberation of the peoples of Asia.” He envisaged an important role for Asia in the future of mankind. His third dream was a “world-union forming the outer basis of a fairer, brighter and nobler life for all mankind.” Many groupings such the European Union or the Asean are already taking shape, though the sub-continent has been the slowest to come together. The fourth dream was the “spiritual gift of India to the world.” Here again, one just has to go to a bookshop in the West where a number of yoga, dharma or meditation centres are already flourishing. The final dream was a new “step in evolution which would raise man to a higher and larger consciousness and begin the solution of the problems which have perplexed and vexed him since he first began to think and to dream of individual perfection and a perfect society.” Sri Aurobindo has described this quest as ‘the Adventure of Consciousness and Joy’. It seems to be the most urgent task at hand for humanity. It is what attracted me to India 40 years ago; it is why I am still here.
Most contemporary Indian politicians believed that Sri Aurobindo could no longer understand the intricacies of the freedom struggle. But Sri Aurobindo strongly disapproved of the ‘two-nation theory’. He described it as “only a newly-fangled notion invented by Jinnah for his purposes and contrary to the facts,” pointing out: “Jinnah is himself a descendant of a Hindu, converted in fairly recent times, named Jinahbhai.” He also took a strong position of the Korean conflict. When North Korea attacked the South in June 1950, he foresaw the invasion of Tibet: “The whole affair is as plain as a pike-staff. It is the first move in the Communist plan of campaign to dominate and take possession first of these northern parts and then of South East Asia as a preliminary to their manoeuvres with regard to the rest of the continent — in passing, Tibet as a gate opening to India.” Sri Aurobindo opposed the hegemony of any one single ideology. For the planet to survive, every nation, every culture or individual has to find its rightful place according to its own genius. Regarding India, Sri Aurobindo wrote to his brother Barindranath who spent several years in the Andamans’ jail for opposing the mighty British Empire: “The chief cause of the weakness of India is not subjection nor poverty, nor the lack of spirituality or Dharma, but the decline of thought-power, the growth of ignorance in the motherland of Knowledge.” One of the many signs of the tremendous change has occurred in the explosion of the Indian IT phenomenon. But is it enough? ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
“The chief cause of the weakness of India is not subjection nor poverty, nor the lack of spirituality or Dharma, but the decline of thoughtpower, the growth of ignorance in the motherland of Knowledge.”● 41
सं कृत पाठ-16 सामान्य भिव य काल (लृ ); धातुओं के से और अिन वगर्); कतृर्वाच्य के कृ
त्यय; त्वा, य त्यय, ‘चतुर:
वानर:’ कथा। 16.1 िकर्. सामान्य भिव य काल (लृ लकार): अब तक हमने चार गण की धातुओं के ल , लङ्, लो और िविधिलङ् के लकार म रूप पढ़े ह। अब हम सामान्य भिव य काल के रूप सीखगे। सं कृत म दो इनम से एक दू रवतीर् भिव य
है और दू सरा सामान्य भिव य । दू रवतीर् भिव य
कायर् के िलए होता था। सामान्य भिव य है। सामान्य भिव य
और दू रवतीर् भिव य
काल का के
कार के भिव य
काल ह।
का योग सुदूर भिव य म होने वाले
योग भिव य म होने वाली िकसी भी घटना के िलए हो सकता
योग का यह भेद बाद म
ाय: समा हो गया।
िट पणी:ऱ सं कृत िकर्याओं का दस गण म िवभाजन केवल ल , लङ्, लो
और िविधिलङ् के पर मैपद और
आत्मनेपद पर ही लागू होता है। इन चार को सि मिलत रूप म ‘सावर्धातुक लकार’ कहा जाता है। अन्य सभी लकार म सभी गण की धातुओं को एक-समान समझा जाता है। 16.2 िकर्. धातुओं के से और अिन वगर्:ऱ यहा सं ँ कृत की धातुओं के एक अन्य महत्वपूणर् भेद पर भी ध्यान देना आव यक है। सावर्धातुक लकार बनाने के िलए कुछ धातुओं के साथ त्यय से पूवर् -इ जोड़ा जाता है इन्ह से धातु कहते ह जबिक कुछ धातुओं के साथ -इ नहीं जोड़ा जाता अथार्
इनम त्यय सीधे धातु के साथ जुड़ते ह। इनम से पहले वगर् को से
वगर् दूसरे वगर् को अिन वगर् कहते ह। कुछ धातुएँ ऐसी भी ह जो से और अिन
दोन वग की ह। इन्ह वे (िवक प से
इ ) कहते ह क्य िक इनम िवक प से इ जुड़ता है। 16.3 िकर्. लृ
लकार (सामान्य भिव य
काल) के पर मैपद और आत्मनेपद के अन्त्य
त्यय नीचे िदए गए ह।
वतर्मान काल के अन्त्य त्यय से इनम केवल इतना ही अन्तर है िक इनम अन्त्य त्यय से पूवर् - य जुड़ जाता है:ऱ
पर मैपद
आत्मने पद
एकवचन
ि वचन
बहुवचन
एकवचन
ि वचन
बहु वचन
थम पु.
- यित
- यत:
- यिन्त
- यते
- येते
- यन्ते
मध्यम पु.
- यिस
- यथ:
- यथ
- यसे
- येथे
- यध्वे
उ म पु.
- यािम
- याव:
- याम:
- ये
- यावहे
- यामहे
16.4 िकर्. लृ
लकार बनाने के िलए नीचे िलखे िनयम लागू होते ह:
क)
यिद
से पहले अ या आ से िभ
ख)
लृ
कोई वर हो तो
म बदल जाता है (दे िखए पाठ 9.2)।
लकार के अन्त्य त्यय से पहले धातु के अंितम वर को और मध्यवतीर् (दो यंजन के बीच आने वाले) व वर को गुण हो जाता है, जैसे:- िलख् का लेख्, और िज का जे हो जाता है।
ग)
दसव गण की धातुओं के अ
घ)
से धातुओं म धातु के साथ इ जुड़ता है। चुरािद गण की सभी धातुएँ से हो जाता है। िलख् धातु से
¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
का रूप वैसा ही रहता है ह इसिलए इनके अंितम अ का इ
है, इसिलए गुण होकर और इ जोड़ने के बाद यह लेिख हो जाती है। 42
सं कृत पाठ-16
िलख् धातु के लृ
लकार के रूप िन िलिखत ह:
एकवचन
ि वचन
बहु वचन
थम पुरुष
लेिख यित
लेिख यत:
लेिख यिन्त
मध्यम पुरुष
लेिख यिस
लेिख यथ:
लेिख यथ
उ म पुरुष
लेिख यािम
लेिख याव:
लेिख याम:
पा धातु अिन
है। इसके साथ भिव य
के रूप आगे िदए गए ह:-
काल के अन्त्य
त्यय सीधे जुड़ते ह। इसके सामान्य भिव य
एकवचन
ि वचन
बहु वचन
थम पुरुष
पा यित
पा यत:
पा यिन्त
मध्यम पुरुष
पा यिस
पा यथ:
पा यथ
उ म पुरुष
पा यािम
पा याव:
पा याम:
16.5 िकर्. आइए अब हम लृ
लकार के अिधक
योग म आने वाली कुछ धातुओं के
काल
थम पुरुष, एकवचन के लृ
लकार के रूप दे ख:ऱ क) िन िलिखत धातुएँ से
क
(कथ )
ऱ
ह (इनम अन्त्य
कथिय यित
त्यय जुड़ने से पूवर् इ जुड़ता है):
कृ (कर्)
ऱ
किर यित
कर्ी
ऱ
कर्ीिड यित
खा
ऱ
खािद यित
ग
ऱ
गिम यित
च
ऱ
चिल यित
चुर् (चोर )
ऱ
चोरिय यित
प
ऱ
पिठ यित
प
ऱ
पित यित
भू (भ )
ऱ
भिव यित
मन्तर् (मन्तर् ) ऱ
मन्तर्िय यते
मु
ऱ
मोिद यते
रुच्
ऱ
रोिच यते
िलख्
ऱ
लेिख यित
वृ (व र्)
ऱ
विर्ध यते
मृ ( मर्) ऱ
मिर यित
ह। इनम अन्त्य
त्यय जुड़ने से पूवर् इ नहीं जुड़ता:
ख) िन िलिखत धातुएँ अिन
गै
ऱ
िज
ऱ
जे यित
दा
ऱ
दा यित
दृ
ऱ
दर् यित
नी
ऱ
ने यित
पच्
ऱ
प यित
पा
ऱ
पा यित
ऱ
यित
म
ऱ
मं यते
ऱ
ल यते
सृ
ऱ
गा यित
यित
च्छ ल था
ऱ
था यित
16.6 अ. नीचे िदए वाक्य को पिढ़ए और उनका िहन्दी म अनु वाद कीिजए:
1. ते अ साय 3. त्वं
1
अ माकं गृह आगिम यिन्त। 2. वयं तै: सह
: िंक किर यिसय़ 4. अहं
:2 नगर य दशर्नीयािन3 थानािन दर् याम:।
: वकक्षाया: अन्यै: बालकै: सह कर्ीिड यािम। 5. यूय अमे िरकादेशा त यै
िक आने यथय़ 6. वयं त यै बहू िन व तूिन आने याम:। 7. तासा बािलकाना ं ंिपता ता: रिववारे कुतर् ने यितय़ 8. स: ता: रिववारे जन्तुशाला4ं ने यित। 9. यूयम ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
िंक खािद यथय़ 10. वयम 43
केवलं दुग्धं पा याम:। 11. वयं
सं कृत पाठ-16
सव अ
सं कृत य नवीनं पाठं पिठ याम: 12. तर्याणा मासाना ं प ं ा
5
वृक्षे य: पतर्ािण पित यिन्त। 13. राितर्:
गिम यित भिव यित सु भात । 14. शा ाणा पठने ं न अ माकं ानं विर्ध यते। 15. वयं पिर मेण धनं ल यामहे। 6
(श दाथर्: 1. शाम को, 2. (आनेवाला) कल, 3. दे खने लायक, 4. िचिड़याघर, 5. के बाद, 6. सुहाना सबेरा, कभी-कभी
ात:कालीन नम कार के िलए भी इसका
योग होता है।)
त्यय: अब तक हमने धातुओं से बनने वाले ऐसे ही श द दे खे ह जो वाक्य म िकर्या का काम करते ह।
16.7 िकर्. कृ
हमने दे खा है िक िकस कार प धातु से पठित, पठतु, अपठ , पठे यु:, प म िविभ
ते आिद रूप बनते ह जो िविभ
लकार
पुरुष और वचन के साथ अिन्वत होते ह। ये िकर्यारूप धातु के साथ -ित, -त:, -अिन्त; -ते , -ईते , -अन्ते
आिद अन्त्य
त्यय से िमलकर बनते ह। इन
त्यय को सं कृत याकरण म ितङ् त्यय कहते ह और इनके योग
से बनने वाले श द को ितङन्त कहते ह। इनके अितिर वाक्य म
यु
होते ह। ये श द िजन
सं कृत म धातुओं से बननेवाले अन्य बहु त-से श द ह जो
त्यय के योग से बनते ह उन्ह कृ
त्यय कहा जाता है और उनके योग से
बनने वाले श द को कृदन्त श द कहते ह। इस पाठ म हम एक महत्त्वपूणर् कृ
त्यय त्वा/य का पिरचय ा करगे।
त्यय त्वाऱ यिद वाक्य म एक ही कतार्, समािपका िकर्या ारा बताए जाने वाले कायर् से पूवर्, एक या एक से
कृ
अिधक कायर् कर रहा हो तो पहले होनेवाले कायर् को बताने के िलये त्वा कृ
मणाय अगच्छ ऱ उसने भोजन िकया और वह घूमने गया। इस वाक्य म भोजन करने का काम
स: भोजनं कृत्वा
घूमने जाने से पहले हो रहा है, अत: उसे बताने के िलए कृ धातु के साथ त्वा से
त्यय का योग होता है, उदाहरणाथर्:
वगर् की धातुओं म त्वा से पहले इ जुड़ता हैऱ सा ऱ वह
समीप अगच्छ
त्यय का
योग हु आ है।
ा पिठत्वा ते षा उ रािण च िलिखत्वा अध्यापक य
को पढ़कर और उनके उ र को िलखकर अध्यापक के पास गई। इस वाक्य म मुख्य
िकर्या से पहले दो कायर् हो रहे ह, इसिलए उन्ह बताने के िलए पिठत्वा और िलिखत्वा का योग हु आ है। एक और उदाहरण दे िखए: चौर: बहू िन व तूिन चोरियत्वा गृहा बिह: अगच्छ ऱ चोर बहु त-सी चीज़ चुराकर घर से बाहर चला गया। पिठत्वा, िलिखत्वा, चोरियत्वा श द से
धातुओं से बने ह, इसिलए इनको बनाते समय धातु के साथ इ जुड़ गया
है। त्वा जुड़ने पर धातुओं के अिन्तम नािसक्य यंजन का लोप हो जाता है जैसे: ग + त्वा = गत्वा। नीचे त्वा से बनने वाली िकर्याओं के कुछ उदाहरण दे िखए:
क
+ त्वा = कथियत्वा (कहकर)
कर्ी
ग
+ त्वा = गणियत्वा (िगनकर)
ग + त्वा = गत्वा (जाकर)
(पढ़कर)
प + त्वा = पिठत्वा
+ त्वा = कर्ीिडत्वा (खेलकर)
ु + त्वा =
( मरण करके)
मृ + त्वा = मृत्वा
िट पणी:-
योग होता है। जो धातुएँ
व वरातं होती ह अ के
भी जुड़ता है:
अनु + भू
+ य
= अनु भय ू (अनु भव करके)
आ
+ दा
+ य
= आदाय (लेकर)
आ
+ रु
+ य
= आरु
+
तु
+ य
=
+ िज
+ य
= िविजत्य (जीतकर)
िव
ुत्वा (सुनकर)
दृ + त्वा = दृ ा (दे खकर)
यिद धातु से पूवर् कोई उपसगर् हो तो त्वा के थान पर य का बाद य से पहले
त्यय
और
म अंत होने वाली धातुओं म
= आग य, आगत्य; (आकर)
(चढ़कर)
तुत्य (
तुत करके) और
यंजन का िवक प से लोप हो जाता है: जैसे:- आ + ग
+ न = ण य, णत्य ( णाम करके)।
16.9 अ. नीचे िदए वाक्य को पिढ़ए और उनका िहन्दी म अनु वाद कीिजए:
1. स: पू जा ं कृत्वा भोजनं करोित। 2. अहं िकि अ ा आरु
कालं
िमत्वा गृह
आगिम यािम। 3. सैिनका:
युध्दं कुवर्िन्त। 3. िमतर्ै: सह कर्ीिडत्वा मोहन: अमोदत। 5. स: अतर् आगत्य मा अिमल । 6.
सैिनका: शतर्ू िविजत्य वदे शमागच्छ । 7. त य कथनं ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
44
ुत्वा सव अहस ।
सं कृत पाठ-16
16.10 प. नीचे दी गई कहानी को पिढ़ए और उसका िहन्दी म अनु वाद कीिजए: चतुर: वानर:
एक या: न ा: तटे एक: िवशाल: ज बुवक्ष ृ :1 आसी । ति म
वृक्षे बहव: वानरा: वसिन्त म। वृक्ष य
फलािन अित मधुरािण आस । वानरा: तािन फलािन ितिदन अखाद । न ा एक: मकर:2 वजायया3 सह अवस । स: मकर: ितिदनं न ा: तटे ज बुवक्ष ृ य अध:4 आगच्छ । ततर् एक: वानर: त य िमतर् अभव । स: वानर: मकराय बहू िन ज बुफलािन अयच्छ । मकर: कािनिच फलािन वय अखाद कािनिच च वजायायै अनय 5। तािन मधुरािण फलािन त य जायायै अतीव अरोचन्त6। एकदा7 मकर य जाया त
अकथय - तव िमतर्ं वानर: तु
अत: त य हृ दय अित मधु रं भवे । अहं तव िमतर् य हृ दयं खािदतु
ितिदनं बहू िन ज बुफलािन खादित। इच्छािम। यिद त्वं त य हृ दयं म ं न
8
आने यिस, तिर्ह अहं न जीिव यािम। 9
(श दाथर्:- 1. जामुन का पेड़, 2. मगरमच्छ, 3. जाया- प ी ; 4. नीचे; 5. ले जाता था; 6. अच्छे लगते थे; 7. एक बार; 8. खािदतु इच्छािमऱ खाना चाहती हू ँ, 9. तो)
वजायाया: स मुखे1 मकर: िववश:2 अभव । स: नदीतीरं गत्वा विमतर्ं वानर अवद - भो:3 िमतर्, मम जाया त्विय अतीव ि
ित। सा त्वा आवयो: गृहे भोजनाय आमंतर्यते 4। त्वम
मया सह अव यं आवयो:
गृहं चल। वानर: अकथय - युवयो: गृहं तु न ा: मध्ये5 अि त। अहं ततर् कथं गिम यािमय़ मकर: अवद - अ य उपाय: सरलोऽि त। त्वं मम पृ 6े उपिवश। अहं त्वा ं वगृहं ने यािम। वानर: मकर य िव ास अकरो । स: मकर य पृ े उपािवश माग स: वानर अवद -भो: िमतर्, अहम अित मधु र
। मकर
न ा: मध्यभागं ाचल
7
।
8
अतीव दु :िखत: अि म, यत: अहं त्वा सत्यं ं न अवद । तव हृ दय 9
अि त इित मम जाया िचन्तयित। सा तव हृ दयं खािदतु
इच्छित। अहं वजायाया: स मुखे
िववश: अि म। अत: त्वा ं वगृह नयािम। (श दाथर्:ऱ 1. सामने; 2. लाचार; 3. हे ; 4. िनमंतर्ण दे रही है; 5. बीच म; 6. पीठ पर; 7. बैठ गया (उप+आ+िव ) , 8. चल पड़ा, 9. क्य िक)
वानर: सहसा1 अवद -यिद एष: तव िवचार: आसी , तिर्ह त्वं कथं2 पू वर्
3
एव मा न ं अकथय:य़ अहं तु
वहृ दयं सदा वृक्ष य कोटरे 4 एव धरािम5। त्वं मा शीघर्ं ं ततर्ैव नय। अहं वहृ दय आदाय6 पुन: त्वया सह तव जायाया: भोजनाय आगिम यािम। मूख मकर: वानरं पुन: ज बुवृक्ष य अध: आनय । वानर: शीघर्मे व मकर य पृ ा वृक्ष य शाखाया अकूदर्
7
। स: मकरमवद -त्वं शठ:9 अिस िकन्तु मूख ऽिप अिस। िंक क यािप हृ दयं त य शरीरा पृथक्10
8
भवितय़ गच्छ वगृह । भिव ये अतर् कदािप न आगच्छ। (श दाथर्:ऱ एकदम; 2. क्य , कैसे; 3. (चलने से) पहले; 4. खोह म; 5. रखता हू ँ 6. लेकर; 7. शाखा पर; 8. कू र्ऱ कूदना; 9. कपटी, धूतर्; 10. अलग ) ----अ यास के उ र 16.6 उ. 1. वे आज शाम को हमारे घर आएँग।े 2. कल हम उनके साथ शहर के दशर्नीय थान को देखगे। 3. तुम कल क्या करोगेय़ 4. म कल अपनी कक्षा के दूसरे लड़क के साथ खेलग ूँ ा। 5. आप लोग अमरीका से उसके िलए क्या लाएँगय़ े ँ जाएँगय़ े 8. वे उन्ह रिववार 6. हम उसके िलए बहु त-सी चीज लाएँग।े 7. उन लड़िकय के िपता उन्ह रिववार को कहा ले ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
45
सं कृत पाठ-16
को िचिड़या-घर ले जाएँग।े 9. आप लोग आज क्या खाएँगय़ े 10. हम आज केवल दूध िपएँग।े 11. हम सब आज सं कृत का नया पाठ पढ़गे। 12. तीन महीने के बाद पेड़ से प े िगरगे। 13. रात गुजरेगी और सुहानी सुबह होगी। 14. शा से हमारा
को पढ़ने
ान बढ़ेगा। 15. हम मेहनत से धन ा करगे।
16.9 उ. 1. वह पूजा करके खाना खाता है। 2. म थोड़ी देर घूमकर घर आऊँगा। 3. सैिनक लोग घोड़ पर चढ़कर यु करते ह। 4. िमतर् के साथ खेल कर मोहन स हु आ। 5. वह यहा आकर ँ मुझसे िमला। 6. सैिनक लोग शतर्ुओं को जीतकर अपने देश म आ गए। 7. उसकी बात सुनकर सब लोग हँस पढ़े। 16.10 प. चतुर वानर:ऱ एक नदी के िकनारे बहु त बड़ा जामुन का पेड़ था। उस पेड़ पर बहु त-से बंदर रहते थे। पेड़ के फल बहु त मीठे थे। बन्दर हर रोज उन फल को खाते थे। नदी म एक मगरमच्छ अपनी प ी के साथ रहता था। वह मगरमच्छ रोज़ नदी के िकनारे जामुन के पेड़ के नीचे आ जाता था। वहा ँ एक बंदर उसका िमतर् बन गया। वह बन्दर मगरमच्छ को जामुन के बहु त-से फल देता था। मगरमच्छ कुछ फल तो वयं खा लेता और कुछ अपनी प ी के िलए ले जाता था। वे मीठे फल उसकी प ी को बहु त अच्छे लगते थे। एक बार मगरमच्छ की प ी ने उससे कहा-तु हारा िमतर् बन्दर हर रोज बहु त-से जामुन के फल खाता है। इसिलए उसका िदल बहु त मीठा होगा। म तु हारे िमतर् के हृदय को खाना चाहती हँ। यिद तुम उसका हृदय मेरे िलए नहीं लाओगे, तो म िज़न्दा नहीं रहँगी। अपनी प ी के सामने मगरमच्छ लाचार हो गया। उसने नदी के िकनारे जाकर अपने िमतर् बंदर से कहा, ि य िमतर्, मेरी प ी तु ह बहु त अिधक यार करती है। वह तु ह हमारे घर पर भोजन के िलए आमंितर्त कर रही है। तुम आज अव य मेरे साथ हमारे घर चलो। बन्दर ने कहा, तु हारा घर तो नदी के बीच म है। म वहा ँ कैसे जाऊँगा। मगरमच्छ ने कहा इसका तरीका (बहु त) आसान है। तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ। म तु ह अपने घर ले जाऊँगा। बन्दर ने मगरमच्छ पर िव ास कर िलया। वह मगरमच्छ की पीठ पर बैठ गया। मगरमच्छ नदी के मध्य भाग की ओर चल पड़ा। रा ते म उसने बन्दर से कहाऱ ि य िमतर्, म आज बहु त दु:खी हँ क्य िक मने तुमसे सच नहीं कहा। मेरी प ी समझती है िक तु हारा हृदय बहु त मीठा है, वह तु हारा हृदय खाना चाहती है। म अपनी प ी के सामने लाचार हू ,ँ इसिलए तु ह अपने घर ले जा रहा हू ।ँ बन्दर ने एकदम कहा, अगर तु हारा यह िवचार था तो तुमने मुझे पहले ही क्य नहीं बतायाय़ म अपना हृदय हमेशा पेड़ के खोल म रखता हँ। तुम मुझे ज दी वहा ँले चलो। म अपने हृदय को लेकर िफर तु हारे साथ तु हारी प ी के भोजन के िलए आ जाऊँगा। मूखर् मगरमच्छ बन्दर को दुबारा जामुन के पेड़ के नीचे ले आया। बन्दर एकदम मगरमच्छ की पीठ से पेड़ की शाखाओं पर कूदा। उसने मगरमच्छ से कहाऱ तू धूतर् है परन्तु साथ ही मूखर् भी है। क्या िकसी का हृदय उसके शरीर से अलग होता हैय़ तू अपने घर जा। भिव य म कभी इधर न आना। -----
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-चचार् (वादे -वादे जायते तत्त्वबोधःऱ (चचार् करते रहने से तत्त्व ान की ाि होती है।) ऱ आपने िलखा है िक मनु य का
त्येक कायर् और
(तत्त्व का
ाता योगयु
मनु य "म कुछ नहीं
त्येक िवचार उसके अन्दर िव मान अनु भिू तय से
कर रहा", ऐसा मानता है, क्य िक उसके दे खते हु ए,
संचािलत होता है और इन अनु भिू तय पर मनु य का
सुनते हु ए, सूँघते हु ए, खाते हु ए, जाते हु ए, सोते हु ए,
कोई िनयंतर्ण नहीं है। यह भी िलखा है िक मनु य के
सासँ लेते हु ए, बोलते हु ए, िवसजर्न करते हु ए, गर्हण
जीवन के अन्दर की हर हलचल उससे ऊपर की िकसी
करते हु ए, इिन्दर्या ँ ही अपने-अपने िवषय म
शि
रही ह, ऐसा वह जानता है।)
से िनयंितर्त होती है। इसका अथर् क्या यह है िक हम जो भी कमर् करते
ह वह िकसी ऐसी शि
वृ
हो
एक और थान पर गीता कहती हैऱ
की ेरणा से करते ह िजस पर
कृते ः िकर्यमाणािन गुणैः कमार्िण सवर्शः।
हमारा कोई िनयंतर्ण नहीं? यिद हा,ँ तो इसकी संगित
अहंकार िवमूढात्मा कतार्ऽहिमित मन्यते ।।
क्या उस दाशर्िनक िस ातं से भी बैठाई जा सकती है
(सारे कमर्
िजसके अनु सार मनु य को कमर् करने म ‘ वतंतर्’ बताया
अहं कार से िवमूढ़ यि
गया है (कमर्ण्येवािधकार ते); यिद नहीं तो क्या यह
कृित के गुण
(गीता-3-27)
ारा िकए जा रहे ह।
"म कतार् हू ँ" ऐसा मानता है।)
हम सभी अपने-अपने अहं कार के अधीन ह। कोई
िस ातं गलत माना जाए?
यि
अपने कमर् के बारे म क्या सोचता है, यह उस
िट पणीऱ आपने ठीक ही कहा है िक गीता कमर् करने म
यि
के अहं कार की कृित पर िनभर्र करे गा। कई लोग
मनु य का अिधकार मानती है। कमर् के संग म
बहु त-कुछ करके भी उसका
ीकृ ण
ेय खुद न लेकर
ने कहा हैऱ कमर्ण्येवािधकार ते (तेरा अिधकार केवल
‘ऊपरवाले’ को दे ते ह। कुछ अन्य यि
कमर् करने म है।) पर गीता म ही िन िलिखत
खूब
ोक भी
है िजसे हम पहले भी दे ख चुके हऱ
भारतीय दशर्न के अनु सार हमारा शरीर, इिन्दर्या,ँ
अनु भिू तय के रूप म
(ई र सब लोग के हृ दय म िव मान है, और वह
इस
सब ािणय को ऐसे घुमा रहा है मानो वे यंतर् पर सवार
बात करते ह। ठं ड या गमीर् की अनु भिू त, थकान या पीड़ा
अन्यतर् गीता कहती हैऱ शृण्व
पृश
यु ो िजघर्
की अनु भिू त। हम शोक या मन्येत अ
तत्त्विव ।
गच्छ
स ता की अनु भिू त की भी
बात करते ह जो अपेक्षाकृत सू म ह। पर यिद आप ध्यान
वप
द तो पाएँगे िक हम हर समय कोई न कोई अनु भिू त
स ।। लप िवसृज गृ
कट होते ह।
संग म अनु भिू त पर ध्यान दे लेना अच्छा
रहे गा। आम तौर से हम कुछ मूतर् अनु भिू तय के बारे म
ह ।) िंकिचत्करोमीित
कृित के तीन गुण ऱ सत्त्व,
रज और तम, से बने ह। हमारे अन्दर ये गुण हमारी
ामय सवर्भूतािन यन्तर्ारूढािन मायया।। (गीता 18-61)
नै व
ेय लेना चाहते ह। सबका अपना-अपना वभाव है।
मन, अहं कार, बुि , सब
ई रः सवर्भूताना हृ ं े शे ऽजुर्न ित ित।
प य
थोड़ा-सा करके
अव य होती रहती है। आप इस समय इस चचार् को पढ़ उिन्मषि िमष िप।
इिन्दर्याणीिन्दर्याथषु वतर्न्त इित धारय ।। ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
रहे ह तो कोई अनु भिू त आपको अव य हो रही है, अन्यथा आप पढ़ना बन्द कर दे ते। यिद आपको अभी
(गीता 5-8,9)
47
-चचार्
अिधक
कोई ज़रूरी काम याद आ जाए तो आपकी अनु भिू त
बल होती है।
बोलना और सोचना भी िकर्याएँ ह, और हम िकसी
बदल जाएगी और आप उस नई अनु भिू त के अनु सार
समय क्या बोलगे, कैसे बोलगे, िकतना बोलगे यह हमारे
काम करने लगगे। िकसी अनु भिू त के कारण हम कोई काम
ार भ
अन्दर की उस समय की अनु भिू त पर िनभर्र करता है।
करते ह और जब तक वह अनु भिू त बनी रहती है हम वह
सोचने की
िकर्या भी उस समय िव मान अनु भिू त से
काम करते रहते ह। अनु भिू त के बदलते ही हम नई
िनयंितर्त होती है। अनु भिू त बदलने के साथ हमारा
अनु भिू त के अनु सार काम
ारंभ कर दे ते ह और जब
िचन्तन बदल जाता है। गहरे ध्यान की अव था म जब
तक वह अनु भिू त रहे गी हम वह काम करते रहगे। िफर
हमारी िविवध अनु भिू तया ँ शान्त हो जाती ह तो न केवल
अनु भिू त के बदलने पर काम बदल जाएगा। कभी चाय
हमारे शारीिरक काम थम जाते ह अिपतु साथ ही हमारा
बनाते हु ए अपने आपको दे िखए, कैसे हमारे अंदर एक
बोलना और सोचना भी शान्त हो जाता है। तो अबतक हमने दे खा िकऱ
के बाद एक अनु भिू तया ँ बदलती जाती ह और हम उनके
1. मनु य िकसी भी समय जो कुछ भी करता है
अनु सार एक के बाद एक काम करते जाते ह। यहा ँयह ध्यान दे ने की बात है िक हर अनु भिू त का
उसके पीछे उस समय उसके अंदर िव मान अनु भिू त
नाम नहीं होता। पानी गरम करने की एक अनु भिू त है,
होती है।
चाय की प ी डालने की दू सरी, चीनी डालने की
2. हर अनु भिू त का नाम नहीं होता।
अनु भिू त अलग है। इन अनु भिू तय के अलग-अलग नाम
3. अनु भिू तय की दु िवधा या टकराहट म उस
नहीं ह, पर हम इन सब अनु भिू तय को अलग-अलग
समय जो अनु भिू त सबसे
दे ख सकते ह।
अनु सार काम करता है।
सुबह उठते समय हमारे अन्दर एक अनु भिू त होती है। दातो ँ को
बल होती है मनु य उसके
मनु य की चेतना म जो कुछ भी िकसी समय हो
श करने की दू सरी। यिद हम घूमने जाते
रहा है वह उस समय की उसकी अनु भिू त है। हम वा तव
ह तो उस समय की अनु भिू त हम याद िदला दे ती है िक
म सदा िकसी न िकसी अनु भिू त के बारे म चेतन होते ह।
हम बाहर िनकलना है। घूमते हु ए हम कोई िमतर् िमल
कोई अनु भिू त हम हो रही है और हम उसके
जाता है तो हमारी अनु भिू त बदल जाती है और हम
नहीं ह, ऐसा कहना अन्तिर्वरोध होगा।
ित चेतन
घूमना बन्द कर बात करना शुरू कर दे ते ह। बात
अब दे खना है िक हमारी अनु भिू तया ँ आती कहा ँ से
िकतनी लंबी चलेगी यह इस बात पर िनभर्र है िक उस
ह। कोई काम करने के िलए हमारे अन्दर उस काम के
िवषय म हमारी रुिच, या कह िक हमारी अनु भिू त, कब
ित सकारात्मक अनु भिू त होनी चािहए, और उस
तक वैसी बनी रहे गी।
अनु भिू त को हम पैदा नहीं करते। ऐसा नहीं है िक हम
ायः हमारे अन्दर अनु भिू तय को लेकर दु िवधा
कोई काम करने के पहले उस काम को करने की
होती हैऱ यह कर िक यह। सुबह उठने के िलए आपने
अनु भिू त जगाते ह। होता यह है िक हमारे अन्दर कोई
अलामर् लगाया है, पर आव यक नहीं िक आप अलामर्
अनु भिू त उठती है और हम उस अनु भिू त के अनु सार
सुनकर उठ ही जाएँ। आपका उठना इस बात पर िनभर्र
काम करना शुरू कर दे ते ह। क्या हम पानी पीने से
करता है िक आपकी उठ जाने की अनु भिू त और थोड़ा
पहले पानी पीने की आव यकता की अनु भिू त जगाते ह
और सो लेने की अनु भिू त म उस समय कौन-सी अनु भिू त
या िफर यास की अनु भिू त ही हमारे शरीर से आव यक
बल है। अनु भिू तय की टकराहट म उस समय जो अनु भिू त सबसे
काम करवाती हैय़ वन म िकसी िंह
पशु को दे खकर
बल होगी हम उसके अनु सार काम
आदमी भागने लगता है। भय की अनु भिू त ही उसके
करगे। बहु त-से लोग जानते ह िक शराब पीना बुरा है
शरीर को गित दे ती है, भागने का िवचार नही। इस
पर अपनी आदत छोड़ नहीं पाते क्य िक उनके अन्दर
कार िकसी काम का कतृर्त्व मनु य के अन्दर नहीं
अच्छा वा थ्य रखने की अनु भिू त के मुकाबले शराब से
अिपतु उसके अन्दर उस समय िव मान अनु भिू त म
पैदा हु ई अनु भिू त
होता है। सही अथ
बल होती है। बहु त-से लोग
अनु भिू तया ँ ह।
आव यकता से अिधक खाते ह क्य िक खाने की उनकी
उठ सकता हैऱ तब तो कोई भी मनु य अपने
अनु भिू त डाक्टर की सलाह से पैदा हु ई अनु भिू त से ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
म कतार् मनु य नहीं, उसकी
48
-चचार्
काम के
आइए दे खे।
ित िज़ मे वार ही नहीं होगा। कोई भी हत्यारा
यिद हमारे कमरे के अन्दर छत से पानी टपक
कहे गा, हत्या करने म मे रा दोष नहीं। म क्या करता।
रहा है तो कमरे के अन्दर रहते हु ए हम नहीं जान सकते
उस समय हत्या करने की मे री अनु भिू त इतनी बल हो
िक पानी के टपकने का
गई िक म अपने आपको रोक नहीं सका। इस तरह तो
िलए हम कमरे के बाहर जाना होगा। इसी
समाज की न्याय- यव था ही ठप हो जाएगी। यह सच है िक हत्यारे की उस समय की अनुभिू त
रहती ह तो उनके
होता है। अव य ही यह ि थित मन को शान्त करने की
और जो अपनी अनुभिू तय के अनुसार न्याय की मागँ
साधना के
करगे। न्यायाधीश अपने िववेकपूवक र् िवचार के बाद उत्प
अनु भिू तय
अनुभिू तय के आधार पर दोषी को दण्ड दगे। और इस
चेतना की अव था
कर िदया गया है। कुछ
ा
की है उनका कहना है िक ोत चेतना का महासागर है
िजसे हम ई र या कोई भी नाम दे सकते ह।
म फैसला उस समय की अनु भिू तय के आधार पर होगा।
तो िफर क्या हम पूरी तरह परतंतर् हय़ िफर तो
महत्त्वपूणर् है िक क्या हम अपनी
कोई मनु य िकसी अच्छे काम के िलए
अनु भिू तय को बदल सकते ह। क्या हम जो चाह वह
य
ही क्य
करे गाय़ सब हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाएँगे। पर गीता
अनु भिू त अपने अन्दर जगा सकते हय़ क्य िक यिद हम
कहती हैऱ
कमर् करने म वतंतर् ह तो कोई कमर् करने से पहले उस
वभावजेन कौन्ते य िनब ः वेन कमर्णा।
िवषय की अनु भिू त हम य पूवर्क जगानी पड़े गी। इसके
कतु ने च्छिस यन्मोहा किर य यवशोेऽिप त ।।
िवषय म योग करना आसान है। आप इसी समय अपने
(गीता 18-60)
ित कर्ोध की अनु भिू त
(हे अजुर्न, तुम अपने
जगाइए। िकसी युवक को कहके दे िखए िक जो पहली
वभाव से और उसके
अनु सार िकए गएे कम से बँधे हो। यिद अ ान के कारण
लड़की उसे िदखे उससे यार करने लगे। अपने अन्दर
तुम कोई काम न करने का िवचार भी करोगे तो भी तु ह
अभी इस समय भय, िचन्ता, भूख या यास की अनु भिू त
लाचार होकर वह काम करना पड़े गा।)
जगाकर दे िखए तािक आप उनके अनु सार काम कर
हम सभी अपने-अपने
सक। हम आसानी से दे ख सकते ह िक ऐसा नहीं हो
वभाव से बँधे ह। और
अपना वभाव हमने वयं नहीं बनाया है। वभाव बदला
सकता। कोई अनु भिू त जब उठे गी तब उठे गी, और नहीं
नहीं जा सकता। नेपोिलयन ने कहा था, "म भाग्य म
उठे गी तो नहीं उठे गी। आप य पूवर्क अपने अन्दर कोई
िव ास करता हू ँ, पर मे रे भाग्य म है िक म संघषर् करूँ।"
अनु भिू त नहीं जगा सकते।
अच्छे से अच्छा य
पर हमारे अन्दर सदा ही कोई न कोई अनु भिू त
करके भी आप िकसी के वभाव म
बहु त ही मामूली पिरवतर्न ला सकते ह। जो लोग पैसे के
ोत
पीछे पागल ह उन्हंे उपदे श दे ने से उनकी
हम अपने शरीर के अन्दर मान सकते ह। पर आशा,
वृि
बदल
नहीं जाएगी। सामािजक िनयंतर्ण ही िकसी सीमा तक
िनराशा, भय, िचन्ता, आकाक्षा, ं िज ासा, असन्तोष,
उनको बन्धन म रख सकता है। दू सरी ओर जो यि
शािन्त, अशािन्त, उदासीनता, ई र को जानने-पाने की
पैसै और यश की कामना से ऊपर उठकर
ोत कहा ँ हैय़ कह सकते ह िक
ान- ाि के
इच्छु क ह वे भी अपने वभाव के ही अनु सार काम कर
ोत मन म है। पर मन क्या हैय़ हमारा मन भी
रहेे ह। वे पैसे के पीछे पागल नहीं हो सकते।
तो हमारी अनु भिू तय के अनु सार काम करता है। तो मन
िबना फल की इच्छा के, अपने वभाव के अनु सार
को िनयिन्तर्त करनेवाली अनु भिू तया ँ कहा ँ से आती हय़ ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
ोत का अनु मान करना है।
हमारी सारी अनु भिू तय का
अन्य दे श म इसके िवषय म बहस चल रही है। भिव य
इनका
यास केवल
िजन लोग ने मन की हलचल के ऊपर की शान्त
जाता था। आधुिनक जीवन के कारण अनु भिू तया ँ बदलीं।
इच्छाऱ इन सब का
ोत को जानने का
हु ए पानी टपकने के
पहले सभी दे श म हत्या के िलए मृत्युदंड िदया
उठती रहती है। भूख, यास जैसी अनु भिू तय का
ारा ही स भव है। उसके पहले अपनी के
अनु मानमातर् होगा, उसी तरह जैसे कमरे के अन्दर रहते
कार सामािजक यव था का िसलिसला चलता रहेगा।
पड़ोसी का ध्यान करके उसके
ोत को जानने के िलए हम चेतना
के उस तर पर जाना होगा जहा ँ अनु भिू तय का जन्म
समाज म और भी लोग ह िजनकी अपनी अनुभिू तया ँ ह
यह
कार यिद
हमारी चेतना म एक के बाद एक अनु भिू तया ँ उठती
ने उससे वह जघन्य कृत्य करवाया। पर यह भी सच है िक
कई दे श म मृत्युदण्ड समा
ोत कहा ँ है। उसे जानने के
कतर् य कमर् करते रहने म ही मनु य की वतंतर्ता है।● 49
पाठकों की बात आपके पिर म, लगन और संक प के बल पर
यसनी लोग से आगर्ह करूँगा भारत-संधान मँगाने के
भारत संधान एक वषर् का हो गया। इस उपलि ध पर हम
िलए। हम लोग अ मोड़ा के ह। वहा ँ के कई लोग को
सभी पाठक आपका हृ दय से अिभनन्दन करते ह और परमिपता परमात्मा से व थ रखे, साधन-संप आपके
िलखा था यह पितर्का मँगाने -पढ़ने -पढ़वाने के िलए।
ाथर्ना करते ह िक आपको रखे, दीघर्जीवी बनाए तािक
िकन्तु लगता नहीं िकसी को वैसी
मुदर्नी छाई है िक क्या बताएँ। सबसे अिधक ग्लािनजनक
ान एवं अनु भव का लाभ हम िमलता रहे ।
दशा तो
बारहव अंक के स पादकीय म आपने बारह अंक की सामगर्ी का मानो सार-संक्षेप
ेरणा हु ई। ऐसी
वयं िशक्षा-सं थाओं की है । म
त्यक्ष दे ख-
तुत करके गागर म
भोग रहा हू ँ। ‘तदिप न मु त्याशा िपण्ड ’। पि मी किव
मसाध्य काम था,
तो साफ कहता है ऱ ‘Hope springs eternal in the
सागर भर िदया है। यह बहु त बड़ा
संभवतः मने आपको बताया था िक यहा ँ इस
human breast/ Man never is but always to be blest.’ अब यूँ यथाथर्वादी धरातल पर तो कटु
पितर्का को मे रे पिरवार के बाहर दो अन्य िमतर् (एक
सत्य है यह। परन्तु भारतीय मन-मि त क म कुछ ऐसा
सेवािनवृ
है ऱ ऐसा सं कार पुरख के तप का िक हम इसे न
अतः इसके िलए आपको िवशेष बधाई।
पुिलस अधीक्षक और दू सरे एक डाक्टर) भी
पढ़ते ह और िफर हम लोग सुिवधानु सार इसकी सामगर्ी
जानते -समझते हु ए भी नहीं छोड़ सकते । योग
वातत्र्ं य और आनन्द की अनु भिू त साक्षा
पर चचार् भी करते ह।
ारा
सत्यापनीय
है , उसके दृ ान्त को दे खते हु ए भी लोग के मन म
डा. रवीन्दर् अिग्नहोतर्ी, मोदीपुरम, मे रठ
एक दु िवधा बनी रहती है । भारत-संधान मुझे िनयिमत िमलता रहा है। त्येक
ो. रमे शचन्दर् शाह, प
ी, भोपाल
अंक म उत्सुकतापूवर्क पढ़ता हू ँ। अभी जुलाई अंक का स पादकीय पढ़ा। वह
कारान्तर से इस माध्यम से इस
भारत-संधान िनयिमत रूप से पढ़ता हू ँ । आँ ख
पितर्का के सम त अंक का स यक् आकलन है, और
खोल दे ने वाली पितर्का है । बचपन से भारतीय सं कार
अपने रूप म उपयोगी और मरणीय हैऱ सभी के िलए।
म बड़ा हु आ हू ँ । जानना चाहता था िक आिखर वह
इसे स े अथ म आत्मदान कहना चािहए, इस उदार
भारतीय िचन्तन क्या है िजसे सारे संसार के िचन्तन
उ म को जो आप इतने मनोयोग से करते आ रहे ह।
से अलग माना जाता है । योग के बारे म िवशे ष तौर से
‘ े शः फलेन पुननर्वता ं िवधत्ते’ वाली कािलदास की
जानने की इच्छा थी। पितर्का की सरल शै ली ने बहु त-
उि
के सहारे म यही सहज िव ास य
चाहू ँगा िक आपका यह
करना
से िवषय प
ेम-पिर म, यह नैि क
कर िदए ह और आगे पढ़ने -सीखने की
उत्सु क ता जगा दी है । िव ान का िव ाथीर् होने के नाते
करे गा, और
यह जानना िवशे ष रूप से सन्तोषजनक है िक
मौजूदा दृ य म ज़रूरी सकारात्मक ह तक्षेप की तरह
आधुिनकतम िव ान और भारतीय दशर् न एक ही िबन्दु
कारगर भी होगा।
पर पहु ँ च रहे ह। इस दृि
अध्यवसाय अव य वािञ्छत ं पिरणाम उत्प
म इन िदन केन्दर्ीय िव िव ालय, हैदराबाद म ‘सवर्प ी राधाकृ णन चेयर फ़ॉर इंटरिडि पिलनरी
यास बहु त
शं सनीय
है ।
टडीज़’ म कायर्रत हू ँ। म वहा ँ दो-चार समानशील¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, +ÆEò-14, ʺÉiɨ¤É® 2012
से पा ात्य मू धर्न्य वै ािनक
के िवचार पितर्का म दे ने का
िवभु भ ा, नई िद ी 50
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®úÉ榃 ¨ÉxÉÒ+Éb÷Ç®ú, ¤ÉéEò b÷ÅÉ}]õ ªÉÉ SÉèEò ºÉä ‘¦ÉÉ®úiÉ ºÉÆvÉÉxÉ’ Eäò xÉÉ¨É ºÉä ¦ÉäVÉå* Ênù±±ÉÒ Eäò ¤Éɽþ®ú Eäò SÉèEò Eäò ʱÉB 50 ¯û. +ÊiÉÊ®úHò VÉÉäcäÆ ºÉÉlÉ ¨Éå ÊxɨxÉʱÉÊJÉiÉ VÉÉxÉEòÉ®úÒ nùäxÉä EòÒ EÞò{ÉÉ Eò®úå: xÉɨÉ, {ÉiÉÉ, Ê{ÉxÉEòÉäb÷, ¡òÉäxÉ xÉ. ´É <Ç-¨Éä±É* ¦ÉÉ®úiÉ-ºÉÆvÉÉxÉ, VÉä-56 ºÉÉEäòiÉ, xÉ<Ç Ênù±±ÉÒ-110017. ¡òÉäxÉ 011-41764317
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