चीन से प्रकाशित Indusanchetana इंदुसंचेतना पत्रिका का विश्वभाषा हिन्दी विशेषांक

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संचेतना

इंद ु

हिंदी साहित्य की त्रैमाससक सज ृ न परिक्रमा

इंदस ु ंचेतना हिंदी साहित्य की त्रैमाससक सज ृ न परिक्रमा चीन से ननकलने िाली साहित्य की पिली अंतिा​ाष्ट्रीय पत्रत्रका

वर्ष-2 , अंक-8, विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017 इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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प्रमुख संिक्षक एिं प्रधान संपादक : डॉ० गुणशेखि संरक्षक : चोंग वेई ह

प्रबंध संपादक : हू रुई परामर्ष मंडल : प्रोफेसर प्रेम सुमन र्माष, प्रोफेसर पवन अग्रवाल, प्रोफेसर योगेन्द्र प्रताप ससंह, प्रोफेसर ददववक रमेर्, डॉo प्रणव र्ास्त्री, डॉo बलजीत श्रीवास्त्तव

संयुक्त संपादक(चीन) : ततअन केवपंग फ़ोन : +86-15989288715 उप संपादक : राहुल दे व

कायाकािी संपादक :त्रिनय कुमाि शुक्ल ‘गुणातीत’ आि​िण डडजाइन,मुद्रण : अजय अरोड़ा आईटी जोन वेब पब्ललर्सष,‘कोलकाता’ फोन -+91-7003774833

भाितीय प्रनतननधध : अंजु शमा​ा

संपका – दहंदी ववभाग, क्वान्द्​्तोंग वैदेसर्क अध्ययन ववश्वववद्यालय,पाय यून ताताओ पेई, क्वान्द्​्चौ, 510420, चीन

संपका (भाित) – 9/48, सादहत्य सदन, कोतवाली मागष, महमूदाबाद(अवध), सीतापुर, 261203, उत्तर प्रदे र्, भारत

ईमेल- indusanchetana@gmail.com dr.gunshekhar@gmail.com, gpsharma@gdufs.edu.cn, संवेदन-sparsh@gmail.com दिू भाष संख्या - +86-2036204385, +91-9454112975

संपादन एिं संचालन अिैतननक एिं अव्यिसानयक |

प्रकासशत िचनाओं के विचाि से संपादक मंडल का सिमत िोना आिश्यक निीं | विशेष विज्ञप्तत

संचेतना पत्रत्रका अि इन्द ु संचेतना िो गयी िै । पता चला िै कक कुछ लोग अनधधकृत रूप से

स्ियं को संचेतना का प्रनतननधध िताकि िचना आमंत्रण एिं व्यापाि का प्रयास कि ि​िे िैं । पाठकों एिं िचनाकािों से अनिु ोध िै कक इंदस ं ेतना/संचेतना के सलए िचना आमंत्रण एिं जानकािी के सलए ु च अधधकृत सम्पादन मण्डल के अनतरिक्त ककसी औि के पत्राचाि का जिाि न दें ।

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इस अंक में ||| सम्पादकीय- -डॉ. गंगा प्रसाद शमा​ा ’गुणशेखर’-6 आलेख हिन्दी भाषा का अंतरा​ा ष्ट्रीय स्वरूप- डॉ जी शां हत -8/ हिन्दी पट्टी में हिन्दी हक ह ंता – हगरीश्वर हमश्र -17/हि​िक हमटे तो हिन्दी बढ़े -तरकेश कुमार ओिा -20/ हवश्वभाषा के रूप में हिन्दी : नयी संभावनाओं की तलाश – डॉ शै लेन्द्र कुमार शमा​ा -22/ हिं दी भाषा हशक्षण में गुणवत्ता हनयंत्रण एवं मू ल्ां कन का मित्व- डॉ. उषा रानी-28 / हिन्दी में हवज्ञान साहित्य की उपलब्धता और पाठ्यक्रम- राहुल खटे -33/ पुतहलकाला- परं परा और प्रयोग – डॉ रे िाना बेगम -39 /हिं दी साहित्य में प्रेम ंद की भू हमका – डॉ. रं जना हपल्लई-46 व्यंग्य मातृभाषा और हवदे शी भाषा के जाल में – ज़े बा रशीद-48 /मैं हिन्दी बोल रिी हूँ-ज्ञान ंद ममा ज्ञ-50 नाहिका

वपता पर ु ी वाताषलाप – र्ंभ(ू पलार्) रॉय-52 कहवता डॉ. नीतू राठोड की कहवतायें -54 / डॉ. हकरण वाहलया की कहवतायें-55/, सुशां त सुहप्रय की कहवतायें -57/ काल क्रमु किस कुमार ऋहष -59 / मैं वृक्ष हूँ – एक असिाय वृक्ष – कां ता िा -60/ ररत्रिीन – डॉ सरला हसंि 61-/स्वणालता हवश्वफूल की कहवतायें -62/ अपनों को अपना – तारा प्रजापत प्रीत -64 / गरीबी और धमा – संध्या कुमारी -64 /, मजदू र – न्द्रशे खर प्रसाद -65 / िै रानी सारी िमें िी िोनी थी – वृजमोिन -66/ हकसान – प्रभात कुमार गुप्त -68 /गुंजन गुप्ता की कहवतायें -69 /, मैं ने गीत सुनाये – जयराम जय -70/ डॉ. हप्रय सूफी की कहवतायें -71/पुरानी यादें – डॉ मोहनका शमा​ा -72/अनाम ररस्ता – ज़े बा रशीद -73/राजे श पुरोहित के गीत 74/पररतोष कुमार पीयूष की कहवतायें -75 / गजल काहसम हबकने री की गजलें -77 /मिे बूब सोनहलया की गजलें -77/ डॉ राकेश जोशी की गजलें -81 / अशोक अंजुम की गजलें -82/ नवगीत / िाइकू/ अवनीश हत्रपाठी के नवगीत -85 /हशवानं द सियोगी के नवगीत -87 /साूँ ि – सुशील जोशी -90/फरीदा खातून की र नाएूँ -92 किानी आहुती – अंकुश्री -93 /सीप में सागर – कहवता हवकास -97 /एक आदशा आत्मकथा – हवश्वनाथ हत्रपाठी 106/कीमत की ाि – जनकदे व जनक -109 /में कैसे िसू​ूँ- सुशां त सुहप्रय – 118 / हदल के छाले – ज़े बा रशीद125 / हवदाई – राय बिादु र हसंि -129/ अधूरा सपना – रश्मि शील -139/ इश्क में – ज़े बा रशीद -143/ खाली बैठी औरत – नीहलमा हटक्कू -148/कबीर दास – सुशां त सुहप्रय -156 / शोर – सुशां त सुहप्रय -165/ टू टती लाशें – टी मनु -169/घड़ी ोर – माला वमा​ा -172/ gkfre rkbZ dh ft+n a xh dk ,d fd+Llk–lhrkjke xqIrk-178

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शोध पत्र हवश्वभाषा के रूप में हिन्दी का हवस्तार – डॉ हवक्रम कुमार साव -180/दहलत हिन्दी कहवता – डॉ एक़रार अिमद -187/, संत साहित्य में गुरु की महिमा – डॉ रणजीत हसंि ौिान -194/ भाषा हशक्षण एवं हवश्वभाषा के रूप में हिन्दी की प्रासंहगकता – डॉ ंद्रकां त हतवारी -197/ हवश्व में हिं दी भाषा का मित्व –प्रोफेसर शमीला हबस्सा-209/ भू ले हबसरे ह त्र में व्यक्त समाज का स्वरूप – शाइस्ता सैफी -214/ प्रेम ंद के कथा साहित्य में ह हत्रत सेवा मू ल् – पवने श ठकुराठी ‘पवन’-218/, हशतां शु भारद्वाज के उपन्यासों में मां के संबंध में नारी- बन्दना ंद-221/ भीष्म सािनी की किाहनयों का पररवेश – टी. सुनीता -224/ आधुहनक हशक्षण प्रणाली में बहुआयामी मे घा की प्रासंहगक व आवश्यकता – डॉ. के श्यामसुंदर-228/ मु श्मिम उपन्यासकारों के उपन्यास में स्त्री पुरुष सम्बन्ों की पड़ताल – डॉ. एस. राहजया बेगम-232/आचायष महावीर प्रसाद द्वववेदी स्त्वयं में एक यग ु – डॉ. चंरकांत ततवारी-239/ववश्वभार्ा के रूप में उभरती दहन्द्दी-पोली कापष सोरें ग-239/ पुस्तक समीक्षा िाहशये की दु हनया - प्रताप दीहक्षत- 251 / घड़ी – मोिन हसंि -253 दू र दे श की पाती/पाठकीय प्रहतकृया -108 िल ल -255 लेखकों के पते – 259

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संपादकीय

'इंद ु संचत े ना ' का ववश्व भार्ा ववर्ेर्ांक आपके हाथों में है । इसमें भाई बबनय र्ुक्ल का

श्रम-स्त्वेद अपनी मोततया चमक के साथ मौजूद है ।

दहंदी सेवा के नाम पर बहुत सारे लोग बस कंगूरे बनना चाहते हैं । वे ब्जन नींव की ईंटों के कन्द्धों पर सवार होकर दतु नया को अपनी छवव ददखा पाते हैं प्रायः उन्द्हें ही भूल बैठते हैं।

' इंद ु संचत े ना ' से भी कई लोग समय-समय पर जुड़े और अलग हुए। कुछ को ज़बरन अलगाना पड़ा । जब कंधे ही तछलने लगे तो उनको उतार फेंकना हमारी मज़बूरी हो गई थी। दहंदी अपने नाना रूपों में दतु नया को अपनी ओर खींच रही है ।

व्यापार और फफल्म का

इसमें बड़ा योगदान है । ववश्वववद्यालयों में पढ़ी-पढ़ाई जा रही दहंदी अधधकतर सादहत्य के रूप में है । जाएगी।

दतु नया भर में यदद केवल इसी दहंदी को लेकर जाएंगे तो दहंदी की गतत धीमी हो

इससलए सादहत्य के साथ-साथ धारावादहकों ,ज्ञान-ववज्ञान और मानववकी की पुस्त्तकों

के रूप में भी दहंदी को हमें दतु नया के ओर-छोर तक पहुंचाना होगा। दहंदी मार भार्ा नहीं है । यह हमारी संस्त्कृतत की संवादहका सररता है । दस ू रे दे र्ों में जाएगी तो हमारी संस्त्कृतत को साथ में ले जाएगी।

यह जब

सूरीनाम, बरतनदाद, टुबैगो

और मारीर्स की राम कथाएं वहां हवा में तैरती हुई नहीं पहुंची हैं। बोलने वालों के साथ गई हैं।

अवधी और भोजपुरी

हमारा मज़दरू सगवष अपनी भार्ा और संस्त्कृतत के साथ यारा करता है लेफकन

भरजन इसमें सकुचाते हैं।

इससलए सर्क्षक्षत समाज (व्यापार या नौकरी पर ववदे र्

जाने वालों)को भी गवष के साथ अपनी भार्ा को ले जाने में संकोच नहीं करना चादहए। हमें अपनी भार्ा और संस्त्कृतत पर गवष करना चादहए क्योंफक यह वही संस्त्कृतत है

जो परमाणु ऊजाष की तरह हज़ारों साल पहले समर ु पर पल ु बनवा सकती थी और सैकडों

साल पहले ताज़महल। मल ू तः यह हमारे उत्कृष्ट संस्त्कारों की भावात्मक थाती है ,जो समयसमय पर हमारे नाना उत्सवों,परं पराओं में जीवंत होती रहती है । चूँ फू क यह भाव वाचक संज्ञा है , इससलए इसको आश्रय की आवश्यकता होती है । यह आश्रय अजंता-एलोरा की गफ ु ाएं भी हो सकती हैं और

ताज़महल भी ।

मदरु ै का मीनाक्षी मंददर कोणाकष का सय ू ष मंददर भी हो

सकता है और खजरु ाहो के मंददर भी।

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उसके

संस्त्कृतत और समाज को जोड़ने वाली महत्त्वपूणष कड़ी है भार्ा। हर समाज और

समकाल

की

अपनी

भार्ा

होती

है । सांस्त्कृततक

मूल्यों

की यह व्याख्याता भार्ा

ध्वन्द्यात्मक भी हो सकती है और प्रतीकात्मक भी । प्रतीकात्मक भार्ा में वह सलखता है । धचर बनाता है और ध्वन्द्यात्मक में बोलता है। प्रेम करता है । घण ृ ा करता है । गुस्त्सा करता है । वैरा्य की बातें करता है । दर्षन को स्त्वर दे ता है ।

"भार्ा, संस्त्कृतत और समाज आपस में इतने घतनष्ठ रूप से जुड़े हैं फक बबना एक को

समझे दस ू रे को समझना अकल्पनीय है । यदद भार्ा और संस्त्कृतत को समाज ववर्ेर् के संदभष में ही समझा जा सकता है तो यह भी उतना ही सच है फक भार्ा और संस्त्कृतत को समझे बबना फकसी समाज को समझना असंभव है । एक संपकष भार्ा के रूप में दहंदी की आज

व्यापक उपब्स्त्थतत है और इसमें भारतीय सांस्त्कृततक चेतना का स्त्पंदन है । भार्ा स्त्वयं एक

सांस्त्कृततक प्रफिया का ऐसा असभन्द्न दहस्त्सा होती है ,जो संस्त्कृतत रचती भी है और स्त्वयं संस्त्कृतत द्वारा रची भी जाती है ।"-प्रोफेसर धगरीश्वर समश्र

आज दतु नया भर में दहंदी ने अपना लोहा मनवा सलया है ।

को अगर कोई चन ु ौती दे रहा है तो है बॉलीवुड ।

अंग्रेज़ी के वचषस्त्व वाले हॉलीवुड

यह असभनय से अधधक भार्ा का सामर्थयष

है । दहंदी ने अब एक सर्क्त संपकष भार्ा के साथ-साथ एक समथष ववश्व भार्ा के रूप में अपने को प्रततब्ष्ठत करने की और कदम बढ़ा ददया है ।

इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है फक

'दं गल' चीन जैसे दे र् में भी हज़ार करोड़ का व्यापार कर लेती है । वहां की एक लड़की दे वों के दे व महादे व के सात सौ एवपसोडों के मंडाररन (चीनी ) में और दस ू रे नए वाले महाभारत के कैप्सन सलखती है ।

यह ब्स्त्थतत केवल एक दे र् में ही नहीं है ।

रही है ।

सारी दतु नया में दहंदी मान पा

'इंद ु संचत े ना 'दो दे र्ों के मध्य सांस्त्कृततक सेतु की तरह ववद्यमान है । वपछली बार बाल

सादहत्य ववर्ेर्ांक होगा। रहा है ।

था । इस बार भार्ा ववर्ेर्ांक है और अगला अंक व्यं्य ववर्ेर्ांक

हर अंक में हमारे लेखकों का ईमानदार श्रम अपनी संपण ू ष आभा के साथ ववद्यमान आर्ा है भववष्य में भी इसी तरह का लेखकीय सहयोग समलता रहे गा।

-डॉ गंगा प्रसाद शमा​ा ‘गुणशेखि’

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दहन्द्दी भार्ा का अंतराषष्रीय स्त्वरूप

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ds U;w;kdZ “kgj esa vkgwr 8 esa fo”o fgUnh lEesyu ds mn~?kkVu Hkk’k.k ds “kqHk volj ij la;qDr jk’Vªla>k ds egklfpo Jh ckWu dh&ewu us fgUnh esa gh dgk fd ^^ eSa fgUnh ls izse djrk gw¡ vkSj fgUnh cgqr lqanj Hkk’kk gSA* vUrjk’Vªh; Lrj - fo”o Hkk’kk ds :Ik esa fgUnh dh izxfr dks fuEu i{kksa esa fo”ys’k.k fd;k tk ldrk gSa & laidZ Hkk’kk v/;;u ,oa v/;kiu fgUnh

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dk le; c<k fn;k x;kA i<us okyksa dh la[;k c<hA v/;kidksa dks Hkh os tc lqfo/kk,¡ lqxe gks xbZ] tks vaxzsth vkSj Qzp sa ds v/;kidksa dks izkIr FkhaA teZu ds pkSng ds pkSng fo”ofo|ky;ksa&laLFkkuksa esa fgUnh Hkk’kk vkSj lkfgR; ij v/;;u&v/;kiu lfgr “kks/k&losa{k.k ds dk;Z gksrs gSaA vesfjdk] izkWl] baXySaM lHkh txg fganh i<kbZ tkrh gSA if”pe ds ns”kksa esa :l vkfn ns”k vkSj Hkh vf/kd ltx vkSj fdz;k”khyk gSaA :l esa fgUnh ds fy, tks dqN gks jgk gS] og lpeqp vn~Hkwr gSA os Hkk’kk dk gh ugha lkfgR; dk Hkh v/;;u Hkh djrs gSaA vkt fo”o ds djhc 150 fo”ofon~;ky;ksa esa fgUnh dh f”k{kk v/;;u v/;kiu ds :Ik esa dh tk jgh gS A fons”kksa ds yx Hkx 144 fo”ofon~;ky;ksa esa fgUnh f”k{k.k dh O;oLFkk gSA lai.w kZ Ikf”peh nqfu;k esa fgUnh ds izpkj izlkj esa fo”ofon~;ky;ksa dk mYys[kuh; ;ksxnku gSA TkeZfu ds 17 fo”ofon~;ky;ksa esa vkt fgUnh ds Lora= foHkkx gSaA fCkzVsu esa lu~ 1921 esa *bULVhV;wV vkWQ vksfj;UVy LVMht* dh LFkkiuk ds lkFk Hkkjrh; Hkk’kkvksa vkSj fgUnh lkfgR; dk v/;;u vkjaHk gqvk A dSfEczt fo”ofon~;ky; esa fgUnh v/;;u dh okLrfod “kq#vkr ekuh tkrh gSA ;gka “kks/k gsrq Nk=ksa dks i;kZIr lqfo/kk,a nh tkrh gSa A fgUnh lkfgR; dh cgqr lh ik.Mqfyfi;ka fczfV”k E;wft;e rFkk bf.M;k vkfQl ykbZczsjh esa lqjf{kr j[kh gqbZ gSa A fCkzVus esa fgUnh izpkj izlkj dk dk;Z *fgUnh izlkj ifj’kn~ * ds rRok/kku esa gks jgk gSA lkFk gh bl ifj’kn~ ds }kjk *izokfluh* uke ls ,d if=dk dk izdk”ku Hkh gksrk gSA ekWjh”kl }hi us fgUnh lkfgR; ds fodkl esa i;kZIr ;ksxnku fn;k gSA bl }hi esa lkfgR; dh Ykx Hkx lHkh fo/kkvksa dkO; ] miU;kl ] dgkuh rFkk UkkVd vkfn dk lkfgfRd l`tu gqvk gSA vuqokn - vuqokn ds }kjk fgUnh lkfgR; ~ fo”o lkfgR; esa fojkteku gks jgk gSA rFkk fgUnh esa vuqokn ds dkj.k fo”o dh vU; Hkk’kkvksa dk lkfgR; Hkkjrh; turk rd lqyHkrk ls izkIr gksus yxk gSA fgUnh esa vuqokn&dk;Z dk ,d cgqr cM+k dsUnz #l gS] ftlesa #lh Hkk’kk ls fgUnh vkSj fgUnh ls #lh esa vuqokn dk;Z gq, gSa vkSj vHkh Hkh gks jgs gSaA #l ds fgUnh ys[kdksa esa okjkfUudkso] psyh”kso] lsdsfop vYrlQsjkso vkSj bafnjk xkt+hb;k dkQ+h yksdfiz; gSaA izoklh lkfgR; - ftl ns”k dks viuh Hkk’kk vkSj vius lkfgR; ds xkSjo dk vuqHko ugha gSA og mUur ugha gks ldrk A fgUnh Hkk’kk vkSj lkfgR; dks lokZax lqUnj cukuk gekjk drZO; gSA Hkkjrh; ewyoaf”k;ksa ds ns”kksa esa ekjh”kl] lwjhuke] fQ+th] xq;kuk vkSj f+=fuMkM gS ftlesa fgUnh cgqrk;r esa cksyh tkrh gSA bu ns”kksa esa rks bls vlk/kkj.k xkSjo izkIr gS rFkk vke&Qge dh Hkk’kk ds lkFk&lkFk O;kikj dh Hkh Hkk’kk gSA ;gk¡ds f”k{k.k &laLFkkuksa esa fgUnh dh fu;fer i<+kbZ rks gksrh gh gS] lkfgR; Hkh cgqrk;r ea fy[kk tk jgk gSA ekjh”kl ds fgUnh ys[kdksa esa vfHkeU;q vur] jkenso /kqja/kj] lksenRr c[kkSjh vkSj iwtkuan usek Hkkjrh; ikBdksa ds fy, vkt vifjfpr ugha gSA mudk fof”k’V ys[ku fgUnh ds fy, xkSjo dh ckr gSA

byDVzkWfud ehfM;k - HkweaMyhdj.k ;k XykcykbZts’ku ds bl ;qx esa lapkj ek/;eksa dh ,d vga Hkwfedk gSA jsfM;ks vkSj Vsfyfotu us nwjlapkj dh nqfu;k esa rgydk epk fn;k gSA eqEcbZ] dydRrk vkSj enzkl esa f’ki’kksj lsok 800 fdykehVj nwj ij pyus इंदस े नाु ंचत

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okys ty;kuksa dsfy, jsfM;k lqfo/kk;sa miyC/k gSA ;s lsok,Wa vUrjkZ"Vªh; VªUd dkWay ds :i esa miyC/k gSaA fo”o ds lEcU/k esa ^^lwpuk dzkarh vkSj fganh** ij Jh QhMeSu ySaMj dk ;g dFku mYysDuh; gS fd ^^ fganh dks vki vks.Vsfj] U;w;kWdZ vkSj Vksfd;ks] rd igwWpuk gS ij lkFk gh mls dLcs esa Hkh cuk jguk gSA lapkj ek/;eksa ds vk/kqf udhdj.k us nqfu;k dks NksVk cuk fn;k fd Hkh xkWo dh rjgA jktdh; egk+fo|ky;ksa vkSj izf”k{k.k egkfo|ky;ksa esa fnUnh dk izf”k{k.k izkjaHk gqvkA jsfM;ks vkSj nwjn”kZu vkfn ljdkjh ek/;eksa ij Hkh fganh dks mldk mfpr LFkku feyus yxk nwjn”kZu ij fgUnh ds Ikz;ksx dsfy, O;kid {ks= [kqyk gSaA lekpkj] /kkjkokfgd] foKkiu] ppZk ] ekSle lekpkj vkfn ds fy, fgUnh dk CkMh lqxerk ls iz;ksx gks jgk gSaA vkdk”kok.kh esa Hkh fgUnh ds fofHkUUk dk;Zdzeksa dks ge ns[k ldrs gSaA eqacbZ esa cuus okyh fQYeksa ds fgUnh esa fy[ks ljy vkSj e/kqj xhr rks lkjs ns”k Hkj esa Nk, jgsA fgUnh dks O;kolkf;d txr dh loZizeq[k Hkk’kk cukus esa fo}kuksa dk cgqr cMk gkFk gSA fons'kksa esa fgUnh i=&if=dk,Wa%& fons”kksa esa fLFkkfie fgUnh i=dkfjrk us vius thou ds yxHkx 100 o"kZ iwjs dj fy;s gSaA fons’k esa izdkf’kr izFke fgUnh i= gksus dk Js; fganksLFkku dks gSA fgUnh] mnwZ vkSj vaxzst+h esa f=Hkk"kh; vk/kkj ij ;g i= ykanu ls izdkf”kr gqvkA fgUnh i=ksa dk izpyu vkfQzdk esa fn[kk;h nsrk gSA Lora=rk laxzke esa ogkWa ds izoklh Hkkjrh;ks a us tu&tkxj.k iSnk djus ds m)s”; ls dbZ i=ksa dk tUe fn;kA 1904 esa enuthr egksn; us Mjcu uxj vQzhdk ls ^bafM;u vksihfu;u* uked i= laiknu fd;k] tks dkykarj esa QhfuDl ls xkWa/khth ds usr`Ro esa fudyus yxkA ;g cgqHkk"kh lkIrkfgd FkkA xkWa/khth bldk laikndh; vaxzst+h esa fy[krs] ckn esa mldk fgUnh vuqokn fd;k tkrkA ^bafM;u vksfifu;u* us lgh vFkZ esa fgUnh turk dk er rS;kj djus dk dk;Z fd;kA ^usVky bafM;u dkaxzsl* vkSj fczfV’k mifuos’k & fojks/kh vkanksyu esa bl i= dk egRoiw.kZ Hkwfedk gSA 1902 esa ^fgUnh* uked i= uked i= dk vkjaHk gqvk tks rhu o"kksZa rd pyrk jgkA vkt fgUnh i=&if=dkvksa dk lokZf/kd izpyu Qhth vkSj ekjh”kl esa gSA Qhth lekpkj] t; Qhth] lukru lans’k] Qhth lans’k] 'kkafrnwr vkSj tkx`fr fofHkUu fo"k;ksa ds ;g N% i= izpfyr gSaA cz`gRrj Hkkjr esa usiky] cekZ] Jhyadk] ikfdLrku vkSj caxykns’k fgUnh i=ksa ds eq[; dsUnz jgs gSaA ekjh”kl esa ,d lkIrkfgd fgUnh i= fudy jgk gSA bl lepkji= ds lapkyd eaMy ds v/;{k ogkWa ds iz/kkuea=h Lo;a lj f’kolkxj jkexqyke th gSaA bl i= ds lkFk ns’k ds vusd fof’k"V yksxksa ds uke tqMs jgs gSaA 23 ekpZ 1971 dks ljnkj Hkxrflag ds tUefnu ij fczVsu esa ^vejnhi* lekpkji= izdkf’kr gqvkA fczVsu ds lHkh iqLrdky;ksa esa feyus okyh bl i= esa y?kqdFkk,Wa] ys[k] okd&fof/k;kW]a pqVdys] dfork,Wa vkfn ds lkFk miU;kl Hkh Nis gSaA ;w-ds- ls izdkf’kr ^iqjokbZ* fgUnh dh =Sekfld lkfgfR;d if=dk gSA ;g if=dk izoklh & ys[ku dks इंदस े नाु ंचत

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laxzghr djus esa ehy dk iRFkj gSA ^iqjokbZ* esa vesfjdk] tkiku] ekfj’kl] f=funkn] fQth] ukosZ] jksekfu;k] gaxjh vkfn ns’kksa ds ys[kdksa dh jpuk,Wa Hkh izdkf’kr gksrh gSA Lwkpuk izk|ksfxdh - Lwkpuk izk|ksfxdh esa eq[; :i ls bZ&esy izkS|ksfxdh] baVjusV izkS|sfxdh] eYVhehfM;k] MkVkcsl vkfn vkrs gSaA lwpuk izkS|ksfxdh us lkjh nqfu;k esa dzkafr epk nh gSA vkt dEI;wVj vkSj bu lk/kuksa dh lgk;rk ls ge iyHkj esa fdlh Hkh O;fDr ;k fdlh Hkh O;kikjh ls laidZ dj ldrs gSaA buds vfrfjDr VsyhVsDLV] ohfM;ksVsDLV] mixzg VsyhdkUQzsl a vkfn Hkh dEI;wVj dh nsu gSaA izdk”kh; lapkj vkSj yslj lapkj dh Hkh tUe lwpuk izkS|ksfxdh ls gh gqvk gSA lsywyj VsyhQksu ;k lSy VsysQksu Hkh lwpuk izk|ksfxdh ls gh laHko gks ik, A eksckbZy midj.kksa esa cgqHkkf’kd lqfo/kk miyC/k gksus ds dkj.k uksfd;k daifu us vius gSaMlsV uacj -1100-1110-1112-1600-1800-2310-6030-6070 vkfn gSaMlsV esa lans”k Hkstus vkSj ikus esa l{kEk gSA ;g ,d usVodZ vk/kkfjr lqfo/kk gSA uksfd;k daifu us ys[ku Hkk’kk lsafVax-fgUnh dqth iVy- v{kj ys[ku- v{kj gVkuk lk/kkj.k “kCn – O;atuksa dk feJ.k-O;atuksa ds ckn LorU= Loj yxkkuk- fof”k’V v{kjksa ds lwphi= dks [kksyukjsQ v{kj fy[kuk gayr v{kj fy[kuk jdkj v{kj fy[kuk - Vh-9 “kCndks”k dk iz;ksx fgUnh ikB~;ys[ku dks vU; Qhpjksa ds lkFk bLrseky djuk vkfn lacfa /kr foLr`r ekxZn”kZu uksfd;k 2310 iz;ksDrk ekxZnf”Zdk esa fn;k gSA eksckby ij fons”kh i;ZVdksa ds fy, vaxzst fgUnh “kCndks”k -vuqokn-fofM;ks- vkfn miyC/k gks x, gSA fgUnh dk iz;ksx vkt bUVjusV vkSj bZ- esy esa Hkh laHko gks x;k gSA rFkk fgUnh esa vusd iksVZy Hkh izkjEHk gks x;s gSA iksVZy ds ek/;e ls ns”k fons”k dh [kCkjsa ]oxhZd`r foKkiu ]dkjksckj laca/kh lwpuk,W ]“ks;j cktkj] f”{kk ekSle ] [ksy-dwn ] Ik;ZVu ]lkfgR; vkfn ds lac/k esa vn~;u tkudkjh ikbZ tk ldrh gSA dbZ dk;kZy;ksa esa fgUnh iksVZy ds vfrfjDr f}Hkk’kh vkSj cgqHkk’kh lkWQVosvj Hkh gSaA jktHkk’kk dh Lo.kZTk;arh ds volj ij f}Hkk’kh osclkbZV dk fuekZ.k fd;k x;k A bl osclkbZV ij bZ-esy lqfo/kk Hkh miyC/k gSA lkW¶Vos;j daiuh buuQkWesZ”ku flLVEl] bankSj us fganh nsoukxjh izFke fu”kqYd bZ&esy¼bZ&i=½ lsok dk izkjaHk fd;k] ftlls nsoukxjh ds }kj eqDr :Ik ls [kqy x;sA blls iwoZ bl lqfo/kk dks izkIr djus ds fy, jkseu esa Vkbi djuk iM+rk FkkA bl fn”kk esa bl daiuh ds izca/k funs”kd fou; Ntykuh dks ;g Jsl izkIr gqvkA vkius ^bZ&i=* dh lsok 6 Qjojh] 1999 ls izkjaHk dh] ckn esa ebZ 1999 ls xqtjkrh esa Hkh miyC/k gks xbZ www.rajbhasha.com. bl os lkbV ij jktHkk’kk fgUnh ls lacfa /kr fu;e] lkfgR;] O;kdj.k] “kCndks”k] vkfn dh tkudkjh gh gSA lkFk esa fgUnh i=dkfjrk] rduhdh lsok,¡] fgUnh f”k{kk] fgUnh lapkj vkfn ls lacaf/kr lwpuk,¡ Hkh miyC/k gksrh gSA www.rajbhasha.nic.in. इंदस े नाु ंचत

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इंदस े नाु ंचत

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हिंदी-पट्टी में हिंदी की धचंता धगिीश्ि​ि समश्र ( कुलपनत मिात्मा गांधी अंतिा​ाष्ट्रीय हिंदी विश्िविद्यालय ) हिंदी को िासशये से उठा कि मुख्य धािा के लायक िनाये िखने की सिकािी किायद

िदस्तूि जािी िै । उसकी व्यिस्था पुख्ता िनी िुई िै । िाजभाषा विभाग, संसदीय िाजभाषा ससमनत, केन्द्रीय हिंदी ननदे शालय, तकनीकी शब्दािली आयोग, केन्द्रीय हिंदी संस्थान ननदे शालय तथा अनुिाद ब्यूिो जैसी संस्थाएं औि हिंदी अधधकारियों का उनका अमला चाि

पांच दशकों से हिंदी के संिधान की हदशा में ननिं ति कायाित िै । व्यिस्था के मुतात्रिक़ उनकी अधधकांश शप्क्त मूल अंग्रेजी सूचनाओं औि ननदे शों के अनुिाद में खप जाती िै औि शेष

िची-खच ु ी शप्क्त हिंदी विकास की जानकािी दे ने िाली भािी भिकम प्रश्नािली को पूिा किने में व्यय िोती िै । संस्थाओं की निाकास ससमनतयां भी िैं । पुिस्काि योजनायें िैं। मंत्रालयों की हिंदी सलािकाि का ससमनतयां

विसभन्न

िैं जो समय-समय पि हिंदी की प्रगनत के

आकलन का अनष्ट्ु ठान किती िैं औि सझ ु ाि भी दे ती ि​िती िैं। चौदि ससतम्ि​ि को हिंदी

हदिस, हिंदी पखिाड़ा प्रनतिषा िी मनाया जाता िै । कुछ िषों के अंतिाल पि विश्ि हिंदी

सम्मलेन भी आयोप्जत िोते िैं। ये सभी संस्थाएं औि उनके प्रयास सिकािी तंत्र की व्यिस्था

के अनरू ु प हिंदी के प्रचाि प्रसाि को लेकि अपने दानयत्िों का ननिा​ाि कि ि​िी िैं। उनके अपने

कायदे कानन ू िैं प्जनकी परिधध में ये संस्थाएं िषों से कायाित िैं पि यहद थोड़े ि​िुत अपिादों को छोड़ हदया जाय तो सिकािी काम-काज में हिंदी के उपयोग को लेकि यथाप्स्थनत सी िी िनी प्रतीत िोती िै । िदलाि कम आया िै औि सि कुछ का लब्िे लि ु ाि यिी िै कक अभी भी

अपने िूते िाजभाषा का अमली जामा पिनने के सलए हिंदी कात्रिल निीं िो पाई िै । अंग्रेजी की ठसक पूि​ि ा त ि​िक़िाि िै । सिकाि अपने दानयत्ि को ननभा ि​िी िै । शायद कुछ औि किने की जरूित भी िै । पि भाषा का िमािे मानस से सम्िन्ध िोता िै औि सिकािी चािुक से

भाषा का िथ निीं िांका जा सकता। अगि ऐसा िो पाता तो प्स्थनत अि तक िदल चक ु ी िोती। िम िेिति िाल में िोते। पि यिा​ाँ पि प्रश्न यि भी उठता िै कक हिंदी समाज स्ियं

हिंदी को ककतनी गंभीिता से लेता िै ? ि​ि ककधि जा ि​िा िै ? भाषा को लेकि उसकी क्या मनप्स्थनत िै ? इस िात से शायद िी ककसी को गुिेज िो कक भाषा समाज की संपप्त्त िोती िै औि भाषा का व्यि​िाि कैसे, ककतना औि ककस प्रयोजन के सलए ककया जाय यि अंततोगत्िा एक

सामाप्जक–सांस्कृनतक मुद्दा िै औि ऐसा िोना भी चाहिए। भाषा जीिन में इतनी घुलसमल जाती िै कक िमािी पिचान औि अप्स्मता से जुड़ जाती िै । मीडडया औि मनोिं जन की दनु नया

में हिंदी की सफलता को लेकि हिंदी िाले मन में खश ु िो लेते िैं पि भाषा की शप्क्त को ज्ञान-विज्ञान औि विचाि-विमशा की भाषा के रूप में प्रयोग की की प्स्थनत

को लेकि जि

विचाि किते िैं तो असंतोषजनक प्स्थनत िी नजि आती िै । हिंदी भाषा की ऐसी प्स्थनत के इंदस े नाु ंचत

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सलए अधधक भयाि​ि िात यि िै हिंदी भाषी समाज कदाधचत स्ियं हिंदी के प्रनत िै । ि​ि इसके सलए ककसी प्रकाि का उत्साि तो निीं िी हदखा ि​िा िै

उदासीन

अि नकािात्मक दृप्ष्ट्ि

िखने लगा िै । हिंदी पट्टी अथा​ात सामाप्जक-आधथाक दृप्ष्ट्ि से वपछड़ा क्षेत्र कभी ‘िीमारू’ नाम से जाना जाता था। यिा​ाँ उद्योग धंधे ि​िुत कम िैं औि खेती िी अधधकांश जनसंख्या का जीविका का प्रमुख आधाि िै । आज के जमाने में आगे िढ़ने के सलए शैक्षक्षक योग्यता िे तु सशक्षा की सुविधाएाँ भी कम िैं औि जो िैं उनका भी स्िास्​्य ठीक निीं िै । क़स्िों औि गािों में विद्यालयों में पढ़ाई

की िालत ठीक निीं िै । पाठ्य सामग्री की कमी, प्रयोगशाला का अभाि, प्रसशक्षक्षत अध्यापकों की कमी आहद के चलते अध्यापन की गुणित्ता प्रभावित िोती िै औि विज्ञान आहद विषयों में छात्रों की शैक्षक्षक उपलप्ब्ध प्रनतिंधधत िो जाती िै । अधकचिी पढ़ाई केिल पढ़ाई का भ्रम

या मुगालता िी पैदा किती िै । यि प्स्थनत ककस क़दि त्रिगड़ ि​िी िै इसका अंदाजा हिंदी विषय में उत्ति प्रदे श के िोडा की पिीक्षा का

ताजा परिणाम िै । इस िाि की िोडा पिीक्षा में

काफी िड़ी संख्या में छात्र इसमें असफल िुए िैं । शायद मातभ ृ ाषा िोने के कािण हिंदी के अध्ययन को छात्रों औि अध्यापकों ने अपेक्षक्षत गंभीिता से न सलया िो या कफि पढ़ने-पढ़ाने की पद्धनत में िी कमी िो। भाषा के सलए सज ृ नात्मक औि रुधचकि मािौल आिश्यक िै

प्जसके सलए विद्यालयों में न अिसि िै न अिकाश। शायद अध्यापक गण भी भाषा के सलखखत औि िाधचक रूपों के अध्यापन के सलए अच्छी ति​ि प्रसशक्षक्षत निीं िैं । अक्षिों के उच्चािण में ह्रस्ि औि दीघा के उच्चािण को लेकि कई ति​ि के दोष समलते िै । इसी ति​ि लेखन में आम तौि पि मात्रा लगाने औि अक्षिों को समलाने में अनेक अशुवद्धया​ाँ पाई जाती

िैं। विद्यालयों में कविताओं औि गद्य के अंश पढने का अभ्यास भी कम िो पा ि​िा िै । एक मुप्श्कल यि भी िै कक हिंदी की मानक ितानी या हिज्जे को लेकि भी कई भ्रम िैं प्जन्िें दिू कि लेना चाहिए।

याद ि​िे कक जो छात्र हिंदी में असफल िुए हिंदी उन छात्रों की मातभ ृ ाषा िै । अतः अनुमान ककया जाता िै कक हिंदी का उपयोग औि अभ्यास किने का अिसि उन्िें अधधक समलता ि​िा िोगा। पि उनका भाषा-परि​िेश जरूि समद्ध ृ न ि​िा िोगा। यहद भाषा-प्रयोग की मूल योग्यता

उनमें निीं आ पाएगी तो यि उनके भविष्ट्य को िाधधत-कंु हठत किने िाली िात िै । भाषा पि अच्छा अधधकाि िोने पि असभव्यप्क्त प्रभािपूणा िो जाती िै , संचाि शप्क्तशाली िो उठता िै औि व्यप्क्त स्ियं को प्रमाखणत कि पाता िै । हिंदी माध्यम के छात्रों के साक्षात्काि में कई

िाि ऐसा अनुभि समलता िै कक इन प्रत्यासशयों का संचाि कौशल का अभ्यास दि ा िै । ऐसा ु ल मान सलया सलया जाता िै कक हिंदी सीखने की आिश्यकता निीं िै । अंग्रेजी सीखने की दक ू ानें खि ू चलती िैं औि त्रिहिश काउप्न्सल का तो अंग्रेजी ससखाने का िड़ा भािी व्यापाि िै ।

चकूं क भाषा का प्रयोग ति​ि-ति​ि के औपचारिक औि अनौपचारिक अिसिों औि सन्दभों में

िोता िै उसका अध्ययन औि भाषा के उपयोग की योग्यता ससफा कक्षा में िोने िाले अध्ययन तक िी सीसमत निीं िोता। उसका िाताि​िण इंदस े नाु ंचत

व्यापक सामाप्जक परि​िेश में िचता-िनता िै ।

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मीडडया में ि​िस, साक्षात्काि, सीरियल, कफल्म, िी िी औि िे डडयो पि समाचाि आहद सिमें भाषा का जीता-जागता प्रयोग समलता िै औि उन लोगों का ज्यादा प्रभाि पड़ता िै जो जीिन में सफल िै औि ‘सेसलि​िी’ की औकात िखते िैं। उनकी प्रनतष्ट्ठा उनके

भाषा-प्रयोग औि

आचिण पि मि ु ि लगाती िै । ये नेता, असभनेता औि अधधकािी प्जस ति​ि की भाषा, लिजा, िाि-भाि का उपयोग किते िैं ि​ि सि अनजाने िी भाषा-प्रयोग के मानकों का भी ननमा​ाण किता चलता

िै औि लोगों के मन पि अचेतन रूप से छाने लगते िै ।

हिंदी सीखने ससखाने को लेकि सामाप्जक स्ति पि कोई सजग प्रयास निीं हदखता। विद्यालयों में हिंदी भाषा के प्रयोग औि हिंदी सशक्षण के प्रनत कोई आदि भाि निीं िोता िै । जि तक हिंदी के प्रनत िमािा मनोभाि निीं िदलेगा औि उसके उपयोग को आदि तथा प्रनतष्ट्ठा निीं समलेगी हिंदी ठि​िी ि​िे गी.

इंदस े नाु ंचत

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खझझक समिे तो हिंदी िढ़े ...!!

तािकेश कुमाि ओझा एक बार मुझे एक ऐसे समारोह में जाना पड़ा, जहां जाने से मैं यह सोच कर कतरा रहा था फक

वहां अंग्रेजी का बोलबाला होगा। सामान्द्यतः ऐसे माहौल में मैं सामंजस्त्य स्त्थावपत नहीं कर पाता। लेफकन मन मार कर वहां पहुंचने पर मुझे अप्रत्यासर्त खर् ु ी और सुखद आश्चयष हुआ। क्योंफक ज्यादातर वक्ता भले ही अदहंदी भार्ी और ऊंचे पदों को सर् ु ोसभत करने वाले थे,

लेफकन समारोह के र्ुरूआत में ही एक ने दहंदी में भार्ण क्या र्ुरू फकया प्रबंधक से लेकर प्रबंध तनदे र्क तक ने पूरा भार्ण दहंदी में प्रस्त्तुत फकया। बात वहां मौजूद हर छोटे - बड़े के हृदय तक पहुंची। इस घटना ने मेरी धारणा बदल दी। मुझे लगा फक अंग्रेजीदां समझे जाने वाले लोग भी दहंदी पसंद करते हैं और इस भार्ा में बोलना चाहते हैं। लेफकन अक्सर वे बड़े

समारोह जहां ऊंचों पदों को सुर्ोसभत करने वाले लोग मौजूद हों दहंदी बोलने से यह सोच कर कतराते हैं फक यह र्ायद उन्द्हें पसंद न आए। जीवन प्रवाह में मुझे इस तरह के कई और

अनुभव भी हुए। मसलन मैं एक नामी अंग्रेजी स्त्कूल के प्राचायष कक्ष में बैठा था। स्त्वागत कक्ष में अनेक पर - पबरकाएं मेज पर रखी हुई थी। ब्जनमें स्त्कूल की अपनी पबरका भी थी। जो थी तो अंग्रेजी में लेफकन उसका नाम था र्ैर्व। इससे भी सख ु द आश्चयष हुआ। क्योफक परू ी तरह से अंग्रेजी वातावरण से तनकलने वाली अंग्रेजी पबरका का नाम दहंदी में था। बेर्क इसके प्रकार्कों ने दहंदी की ताकत को समझा होगा। इस घटना से भी मैं गहरे सोच में पड़ गया फक आखखर क्या वजह है फक बड़े - बड़े कारपोरे ट दफ्तरों व र्ॉवपंग मॉलों में भी रोमन सलवप में ही सही लेफकन दहंदी के वाक्य कैच वडष के तौर पर सलखे जाते हैं। जैसे.. र्ादी में अपनों को दें खास उपहार... खास हो इस बार आपका त्योहार... र्भ ु नववर्ष... र्भ ु दीपावली... हो जाए नवरार पर डांडडया ... वगैरह - बगैरह। यही नहीं सामद ु ातयक भवनों के नाम भी

मांगसलक आर्ीवाद, स्त्वागतम तो बड़े - बड़े आधतु नक अस्त्पतालों का नामकरण स्त्पंदन, नवजीवन , सेवा - सुश्रर्ा होना क्या यह साबबत नहीं करता फक बोलचाल में हम चाहे ब्जतनी

अंग्रेजी झाड़ लें लेफकन हम भारतीय सोचते दहंदी में ही है । क्या इससलए फक अंग्रेजीदां फकस्त्म के लोग भी जानते हैं फक बाहर से हम चाहे ब्जतना आडंबर कर लें लेफकन दहंदी हमारे हृदय में बसती है । मुझे लगता है दहंदी की राह में सबसे बड़ी रुकावट वह खझझक है ब्जसकी वजह से उच्चसर्क्षक्षत माहौल में हम दहंदी बोलने से कतराते हैं। जबफक फकसी भी वातावरण में अब

दहंदी के प्रतत दभ ु ाषवना जैसी कोई बात नहीं रह गई है । अपने पेर् के चलते मुझे अक्सर आइआइटी जाना पड़ता है। बेर्क वहां का माहौल पूरी तरह से अंग्रेजी के रं ग में रं गा होता है । इंदस े नाु ंचत

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लेफकन खास समारोह में जब भी मैने फकसी संस्त्थान के छार या अन्द्य प्राध्यापकों से दहंदी में बातचीत की तो फफर माहौल बनता चला गया। यह तो हमारी खझझक है जो हम अपनी भार्ा में बात करने से कतराते हैं। आइआइटी के ही एक कायषिम में एक अतत ववसर्ष्ट हस्त्ती मुख्य अततधथ थे। जो दक्षक्षण भारतीय पष्ृ ठभूसम के तो थे ही उनकी अंतर राष्रीय ख्यातत भी थी। उनके संभार्ण से पहले एक दहंदी दे र्भब्क्त गीत बजाया गया तो उन्द्होंने अपने संभार्ण की र्ुरूआत में ही इस गीत का ववर्ेर् रूप से उल्लेख फकया। ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं

फक आज के दौर में फकसी को दहंदी से परहे ज है .या कहीं दहंदी सीखने - ससखाने की आवश्यकता है । अपने पेर्े के चलते ही मुझे अनेक नामचीन लोगों के मोबाइल पर फोन

करना पड़ता है ब्जनमें दे र् के ववसभन्द्न प्रांतो के लोग होते हैं। लेफकन मैने ज्यादातर अदहंदीभार्ी ववसर्ष्ट हब्स्त्तयों का कॉलर टोन दहंदी में पाया। बेर्क कुछ दहंदी भावर्यों के मोबाइल पर अदहंदीभार्ी गानों की धन ु टोन के रूप में सुनने को समली। भार्ाई उदारता और दे र् की एकता की दृब्ष्ट से इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । दरअसल हीन ग्रंधथ

हमारे भीतर है । हम सोचते हैं फक उच्च सर्क्षक्षत और पढ़े सलखे लोगों के बीच मैं यदद भारतीय भार्ा में बात करुं गा तो वहां मौजद ू लोगों को अजीब लगेगा।लेफकन ऐसा बबल्कुल नहीं है ।हमें अपनी इस खझझक से पार पाना ही होगा। मझ ु े याद आता है श्री हररकोटा में

प्रधानमंरी का दहंदी में ददया गया वह भार्ण ब्जसे वहां मौजद ू वैज्ञातनक परू ी तन्द्मयता से सन ु ते रहे । फफर भार्ाई वैसर्ष्टय या संकीणषता को लेकर हम आधारहीन सर्कायत क्यों करें ।

इंदस े नाु ंचत

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विश्िभाषा के रूप में हिंदी: नई सम्भािनाओं की तलाश

डॉ र्ैलेंरकुमार र्माष दहंदी सददयों से भारत सदहत दक्षक्षण एसर्या के बड़े भभ ू ाग की जनवाणी रही है । इसे यह रूप धारण करवाने में दे र् – दे र्ांतर के न जाने फकतने लोगों और समद ु ायों का सहकार समलता

आया है । आज यह जनभार्ा से राष्रभार्ा, फफर उससे आगे चलकर राजभार्ा से ववश्वभार्ा तक ववस्त्तार लेती हुई ददखाई दे रही है , तो उसके पीछे इसकी सहज ग्राह्यता, सरलता, सवषसमावेर्ी स्त्वरूप और सवषस्त्वीकायषता की अहम भूसमका रही है । इधर आत्महीनता की ब्स्त्थतत के कारण भारत में लोगों का दहन्द्दी के प्रतत लगाव और समपषण कम ददखाई दे रहा

है , लेफकन सात समुंदर पार ब्स्त्थततयाूँ कुछ अलग ही तस्त्वीर पेर् करती हैं । आज दतु नया के

तमाम मुल्कों में बसे तीन करोड़ से अधधक भारतवंर्ी दहंदी को फकसी न फकसी रूप में -

परस्त्पर सम्पकष, सूचना, सर्क्षा, मनोरं जन आदद का माध्यम बनाए हुए हैं। जनभार्ा से ववश्वभार्ा बनने तक दहंदी ने बहुत लंबी यारा तय की है । इस यारा का आकलन अपने आप

में रोचक अनुभव दे ता है । दहन्द्दी के अतीत, वतषमान और भववष्य का आकलन करते हुए हम दे खते हैं फक दहन्द्दी का स्त्वरूप तनरं तर बह ृ त्तर होता आ रहा है । यह अध्ययन जनभार्ा से लेकर ववश्वभार्ा तक दहन्द्दी के ववकास, उसकी व्यापकता, सवषस्त्वीकायषता और समावेर्ी स्त्वभाव

को साक्षात ् करवाने के साथ दहंदी की वतषमान अवस्त्था, चन ु ौततयों और संभावनाओं पर ववचार का भी अवसर दे ता है ।

दहंदी के वैब्श्वक प्रसार में दतु नया के कोने कोने में बसे भारतीय समद ु ाय, संस्त्थाओं और व्यब्क्तयों की महत्त्वपूणष भूसमका रही है । एक दौर में दे र् - दे र्ांतर में स्त्थावपत आयष समाज, सनातन धमष सभा जैसी संस्त्थाओं ने अपने मूल उद्देश्यों के साथ दहंदी प्रचार का लक्ष्य भी रखा

था, ब्जसके पररणामस्त्वरूप पुरानी पीढ़ी भारतीय जड़ों से जुड़ी रही। कालांतर में दहंदी प्रचार की बागडोर सादहब्त्यक - सांस्त्कृततक संस्त्थाओं, व्यब्क्तयों, पर – पबरकाओं और इलेक्रॉतनक मीडडया

ने संभाल ली, ब्जनके अथक प्रयासों से दहंदी कई नए क्षेरों और ददर्ाओं में गततर्ील हुई है । आज ववश्व के प्रायः सभी प्रमुख दे र्ों में इस प्रकार की संस्त्थाएं और लोग सफिय हैं। ब्जस तरह दहंदी भारत भर के ववसभन्द्न भार्ा भावर्यों के बीच संपकष भार्ा के रूप में सस्त् ु थावपत

है , ठीक उसी प्रकार की भसू मका यह भारत की सरहद के पार तनभा रही है । यह बैंकॉक, ससंगापरु से लेकर लन्द्दन, न्द्यय ू ॉकष तक दतु नया के तमाम महानगरों में भारतवाससयों के बीच इंदस े नाु ंचत

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संवाद की भार्ा बनी हुई है , वहीं दक्षक्षण एसर्या के पयषटकों के मध्य संचार की भार्ा के रूप में व्यापार व्यवसाय को भी आधार दे रही है । भारत में बोले जाने वाले नए बोली रूप यथा मुंबईया, कलकततया दहंदी की तरह दहंदी के कई नए बोली रूप दे र् की सीमा से परे ववकससत

हुए हैं। इनमें उल्लेखनीय हैं- मॉरीर्सी दहंदी, सरनामी दहंदी, फफजीबात, नैताली दहंदी, ससंगापुरी दहंदी, अरबी दहंदी, लन्द्दनी दहंदी, नेपाली दहंदी आदद। उजबेफकस्त्तान और तजाफकस्त्तान में बोली जाने वाली 'पायाष' भी दहंदी की ही एक भावर्क र्ैली है । इसके सलए ‘ताजुज्बेकी दहंदी’ नाम भी सुझाया गया है । दहंदी के ऐसे अनेक बोली रूप दतु नया के कोने कोने में ववकासमान हैं, ब्जनमें

स्त्थानीय भार्ा और बोसलयों का जैववक संयोग हो रहा है । दहंदी की ये नई बोसलयाूँ ववश्व आूँगन से लेकर बाज़ार तक अटखेसलयाूँ कर रही हैं। दे र्ान्द्तर में सर्क्षा के क्षेर में दहंदी लंबे समय से अपनी प्रततष्ठा के सलए संघर्षरत रही है । वतषमान में ववदे र्ों में चालीस से अधधक दे र्ों के 600 से अधधक ववश्वववद्यालयों और स्त्कूलों में दहन्द्दी पढाई जा रही हैं। इधर अनुसन्द्धान की दृब्ष्ट से कई दे र्ों में दहंदी की स्त्वीकायषता बनी है । हाल ही में बारह दे र्ों के ववश्वववद्यालय में भारत सरकार की मदद से दहंदी का

पाठ्यिम फफर से र्ुरू फकया गया है । सुवा के भारतीय दत ू ावास में कायषरत अतनल र्माष बताते हैं फक यूतनवसषटी ऑफ साउथ पैससफफक प्रर्ांत क्षेर के बारह दे र्ों का ववश्वववद्यालय है । इसमें वपछले वर्ष ववत्तीय कारणों से दहंदी का पाठ्यिम बंद करने की घोर्णा हुई थी। फीजी के दहंदी प्रेसमयों में इस ववर्य पर बहुत धचंता थी और भारतीय मूल की सभी संस्त्थाओं के प्रतततनधध इस संबंध में सरकार से भी समले। भारत सरकार ने ब्स्त्थतत की गंभीरता को

समझते हुए ववश्वववद्यालय को मदद करने की पहल की। जल्द ही यहाूँ पहला पाठ्यिम प्रारं भ होने की ब्स्त्थतत बनी है । दहंदी कनाडा की संसद की तीसरी आधधकाररक भार्ा बनी हुई है । ववश्व के सबसे ताकतवर मल् ु कों में एक अमेररका में दहन्द्दी धीमी रफ्तार से ही सही, पर अपना स्त्थान बना रही है । अमेररकी जनगणना लयरू ो की ओर से जारी आंकड़ों बताते हैं फक यहां पर दहंदी भारतीयों के

बीच में बोली जाने वाली सबसे बड़ी भार्ा है । आंकड़ों के मुताबबक करीब साढ़े छह लाख लोग दहंदी बोलते हैं। अमेररका में इस समय करीब छह करोड़ लोग घरों में अंग्रेजी के अलावा स्त्पेतनर्, चाइनीज, फ्रेंच, दहंदी, कोररयन, जमषन, ववयतनामी, अरबी, टागालोग और रूसी का प्रयोग करते हैं। भारतीय भार्ाओं में दहंदी सवाषधधक प्रचसलत है । चार लाख अमेररकी उदष ू में तो 3.7

लाख से ज्यादा लोग गुजराती भार्ा का प्रयोग करते हैं। पंजाबी, मराठी, बां्ला, तसमल, मलयालम आदद भी भारतवंसर्यों की प्रमुख मातभ ृ ार्ाएूँ हैं। अनेक दर्कों से दहंदी इन सब के बीच सेतु की भूसमका तनभाती आ रही है ।

अमेररका में दहन्द्दी के प्रचार-प्रसार में सफिय प्रो. हरमन वॉन ऑलफन दहन्द्दी जगत से वपछले करीब 45 वर्ों से जुड़े हुए हैं। वे मानते हैं फक जब प्रवासी भारतीय बड़ी संख्या में अमेररका आए तो दहन्द्दी के प्रचार -प्रसार में गतत आई। वे लोग बच्चों को दहन्द्दी पढ़ाए जाने को लेकर इंदस े नाु ंचत

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स्त्थानीय सरकार पर दबाव बना रहे थे। सन ् 1960 ई. के आसपास ही अमेररका में दहन्द्दी की

पढ़ाई र्ुरू हुई थी। अब तक अमेररका के हाई स्त्कूलों में दहन्द्दी का प्रवेर् अधधक नहीं हुआ, लेफकन अब ब्स्त्थतत बदल रही है । दस वर्ष पहले तक अमेररका में केवल 25 ववश्वववद्यालयों में दहन्द्दी पढ़ाई जाती थी, लेफकन अब 100 से भी अधधक ववश्वववद्यालयों में दहन्द्दी पढ़ाई जा रही है । अमेररकी र्हरों में दे वनागरी सलवप में सलखे हुए वाक्य या र्लद नहीं ददखाई पड़ते हैं। यहाूँ तक फक भारतीय रे स्त्तरां, होटलों के नाम भी दस ू री सलवपयों में सलखे हुए ददखलाई पड़ते हैं, अरबी, चीनी, फारसी सलवप पर लोगों की नजर सहजता से पड़ सकती है । इसके बावजूद प्रो.

ऑलफन तनरार् नहीं हैं। उनका मानना है फक अमेररका में दहन्द्दी भार्ा प्रगतत पर है। वह अपनी ब्स्त्थतत मजबूत कर रही है और इसके सुखद पररणाम भी

सामने आ रहे हैं। मनोरं जन

की दतु नया में 'सलाम नमस्त्ते' नामक दहन्द्दी रे डडयो कायषिम प्रसाररत फकया जा रहा है ।

दहन्द्दस्त् ु तान में दहन्द्द ू - उदष ू के बीच उत्पन्द्न होने वाली प्रततस्त्पधाष के उलट वे बताते हैं फक अमेररका में दहन्द्दी और उदष ू के बीच बड़ी पतली खाई है ।

हाल ही में हुए अमेररकी राष्रपतत के चन ु ाव में दहंदी ने तमाम दहंदस्त् ु तातनयों को गौरव और सम्मान का अहसास कराया। उसे ववस्त्मत ु ाव में ृ नहीं जा सकता है । अमेररकी राष्रपतत के चन मतदान रसीद पर अंग्रेजी, फ्रेंच और चीनी भार्ा के साथ-साथ दहन्द्दी को भी स्त्थान ददया गया था। 8 नवम्बर 2016 को मतदान के बाद जो ‘धन्द्यवाद’ की रसीद दी गई, उसमें दहंदी में सलखा गया फक ‘8 नवम्बर 2016 को आम चन ु ाव में मतदान के सलए धन्द्यवाद।‘ यह कथन परू े दहन्द्दी जगत और भारत को सम्मान ददला गया है ।

दहंदी ववश्व पटल पर भारतीय संस्त्कृतत, धमष, अध्यात्म, दर्षन की संवादहका के रूप में प्रभावी भसू मका तनभा रही है ।

इसी तरह भारत की समद्ध ृ सादहब्त्यक ववरासत के संवहन की दृब्ष्ट से

दहंदी का महत्त्व बना हुआ है । स्त्टै नफोडष ववश्वववद्यालय में धासमषक अध्ययन ववभाग की वररष्ठ व्याख्याता डॉ सलंडा हे स कबीर की प्रेमी ववदर् ु ी और लेखखका हैं। वे 1960 के दर्क से भारत यारा और अध्ययन कर रही हैं। 1970 के दर्क से उन्द्होंने कबीर वाणी का अनुवाद

प्रारम्भ फकया। वतषमान सदी में भी कबीर गायन फकया जाता है , इससे वे गहरे प्रभाववत हुईं। तब उन्द्होंने अपना ध्यान उत्तर भारत में कबीर की मौखखक और संगीत परं परा पर केंदरत फकया। आज वे भारत के ववसभन्द्न क्षेरों में जारी कबीर और तनगण ुष ी गायन की परम्परा और ववश्व मानवता के दहत में उसकी मदहमामयी उपब्स्त्थतत को ववश्व मंच पर रे खांफकत करने में सन्द्नद्ध हैं।

इस तरह के प्रयासों से दहंदी की व्याब्प्त और ववस्त्तार की नई ददर्ाएूँ खल ु रही

हैं। साथ ही कबीर की मौखखक परं पराओं और उत्तर भारत में उसके फियात्मक संसार से साक्षात्कार का नया ससलससला र्ुरू हो सका है ।

दहंदी भारत को जानने के सलए एक महत्त्वपण ू ष साधन बन चक ु ी है । दर्कों से भारत ववद्या के प्रचार के साथ दहंदी का प्रसार जड़ ु ा रहा है । योग, आयव ु ेद, दे र्ज ज्ञान, प्राकृततक धचफकत्सा

आदद सदहत ववववध क्षेरों में भारतीय ज्ञान के प्रसार में दहंदी ने सर्क्त भसू मका तनभाई है ।

भारत की ववववधववध परम्पराओं, कला रूपों, जीवन मूल्यों, संस्त्कृतत और पयषटन के प्रतत रुधच इंदस े नाु ंचत

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रखने वाले इसे स्त्वीकार करते हैं। तेल अवीव ववश्वववद्यालय के पूवी एसर्या अध्ययन ववभाग के प्रोफेसर एवं इसराइल में दहन्द्दी के अनन्द्य सेवी डा. श्लोम्पर गेनादी ने एक साक्षात्कार में

मुझे बताया फक इसराइल दे र्वाससयों को दहन्द्दी से गहरा प्रेम है । दे र् की आबादी 80 लाख है ,

ब्जसमें भारतीय संस्त्कृतत को जानने लाखों लोग हर वर्ष भारत भ्रमण पर आते हैं। वस्त्तुतः भार्ा और संस्त्कृतत का गहरा ररश्ता है । भार्ा

सीखने के सलए संस्त्कृतत जानना जरूरी है ।

संस्त्कृतत सीखे बबना भार्ा का अच्छा ज्ञान नहीं हो सकता। इससलए दहंदी इसराइल वाससयों के

सलए भारतीय संस्त्कृतत का द्वार खोल रही है । वे कहते हैं फक भारत में दहन्द्दी का ही प्रयोग करता हू​ूँ। उदष ू पहली जुबान है । पंजाबी भी सीखी है , उससे प्यार है । वे स्त्वीकार करते हैं फक अन्द्य भार्ाओं की तल ु ना में दहन्द्दी सीखना ज़्यादा आसान है ।

प्रवासी भारतीयों के सलए दहंदी अपनी भार्ाई - सांस्त्कृततक पहचान को रे खांफकत करने का माध्यम रही है । वतषमान दौर में सफिय कई ललॉगर, लेखक, परकार, संस्त्कृततकमी आदद इसी रूप में दहंदी को अपनी असभव्यब्क्त का माध्यम बनाये हुए हैं। ववदे र्ों में बसे दहन्द्दी लेखकों को ववसर्ष्ट पहचान समलने लगी है । हाल ही में कुछ ववश्वववद्यालयों के पाठ्यिमों में ववदे र्ों

में दहन्द्दी और दहन्द्दी डायस्त्पोरा को र्ासमल फकया गया है । मॉरीर्स से असभमन्द्यु अनत (कथा सादहत्य), अमरीका से सर् ु म बेदी (कववता), सध ु ा ओम ढींगरा (कहानी), सद ु र्षन वप्रयदसर्षनी

(उपन्द्यास), बिटे न से मोहन राणा (कववता), ज़फकया ज़ब ु ैरी (कहानी), तेजेन्द्र र्माष(कहानी), यरू ोप से अचषना पेन्द्यल ु ी (उपन्द्यास), र्ारजाह से पखू णषमा बमषन (कववता), ससंगापरु से श्रद्धा जैन (ग़ज़ल)

जैसे कई लेखक पाठ्यिम के अंग बने हैं, वहीं प्रवासी सादहत्य पर अनस ु न्द्धान की नई राह खल ु गई है । वतषमान में अनेक लेखकगण दतु नया के तमाम दे र्ों में सज ृ नरत हैं। इनमें उल्लेखनीय हैं - सरु े र्चन्द्र र्क् ु ल र्रद आलोक (नॉवे), कववता वाचक्नवी

(यक ू े ), स्त्नेह ठाकुर

(कनाडा), अतनल जनववजय (रूस), अंजना संधीर (यूएसए), सोमदत्त बखोरी, मुनीश्वरलाल धचंतामखण, पं वासुदेव ववष्णुदयाल, पूजानन्द्द नेमा, रामदे व धरु ं दर (मॉरीर्स) आदद। ववदे र्ी मूल

के अनेक लेखकों, ववद्वानों ने दहन्द्दी के ववववधायामी ववकास में योगदान ददया है । जॉन जोर्ुआ कैटे लर, डॉ कैलाग, दीमसर्त्स, वाराब्न्द्नकोव, डॉ लोथर लुत्से

आदद का कायष आज भी

मील का पत्थर बना हुआ है । इन ददनों दे र् दतु नया के कई ववश्वववद्यालयों की पाठ्यचयाष और र्ोध की दृब्ष्ट से दहन्द्दी में जारी प्रवासी लेखन को लेकर पैदा हुए नए रुझान और सफियता को र्ुभ संकेत माना जा सकता है ।

मनोरं जन के क्षेर में दहंदी की असरकारक भूसमका ने दतु नया के कई दे र्ों में ववसर्ष्ट पहचान बना ली है । फफल्म, टे लीववजन, एफ एम चैनल के जररए दहन्द्दी भार्ी ही नहीं, दहन्द्दीतर भार्ी

भी बड़ी संख्या में इनसे जुड़े हुए हैं। दहंदी ससनेमा ने दरू दे र्ों में अपना बहुत बड़ा दर्षक वगष तैयार कर सलया है । ससने तनमाषताओं की आय का बहुत बड़ा दहस्त्सा ववदे र्ों में फफ़ल्म के ववतरण अधधकार दे ने से प्राप्त हो रहा है । हाल में सफल हुई दहंदी की अनेक फफल्मों ने इसके माध्यम से बहुत बड़ी पूँज ू ी जुटाई है । यही वजह है फक दहंदी की बड़े बजट की फफल्में मुंबई, ददल्ली के साथ लन्द्दन, न्द्यूयाकष और अन्द्य र्हरों में भी प्रदसर्षत की जाती हैं। यूरोप, इंदस े नाु ंचत

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अमेररका

सदहत कई दे र्ों में दहन्द्दी और दहन्द्दीतर भार्ी पररवारों के सलए दहन्द्दी फफ़ल्में भारत

से जुड़ने के एक सर्क्त साधन के रूप में उभर कर आती हैं। वहाूँ

भारत से जुड़ाव के सलए

दहन्द्दी फफ़ल्मों के अततररक्त टी. वी. धारावादहकों, समाचार चैनलों और

फिकेट का भी अहम

योगदान रहा है । सच ू ना संचार की दृब्ष्ट से दहंदी दतु नया के कोने कोने में बसे भारतवंसर्यों के सलए महत्त्वपण ू ष बनी हुई है । अख़बार, न्द्यज़ ू चैनल, रे डडयो से लेकर सोश्यल मीडडया तक ववस्त्ताररत दहंदी का प्रयोग ववश्व मंच पर बढ़ा है तो उसमें ववदे र्ों में बसे दहंदी प्रेसमयों की कोसर्र्ें उल्लेखनीय हैं।

दहंदी परकाररता के ववकास में दे र्ान्द्तर से प्रकासर्त पबरकाओं की उल्लेखनीय भसू मका रही है । ये पबरकाएूँ अनेक दर्कों से दरू दे र्ों में बसे आप्रवासी भारतीयों की असभव्यब्क्त का सर्क्त

माध्यम बनी हुई हैं। ऐततहाससक दृब्ष्ट से ववदे र्ों में दहन्द्दी परकाररता का जन्द्म सन 1883 ई. में हुआ था। इस वर्ष लंदन से ‘दहन्द्दोस्त्थान’ नामक रैमाससक पर का प्रकार्न प्रारम्भ हुआ

था। ववदे र् से प्रकासर्त होने वाले सवषप्रथम दहन्द्दी पर के रूप में इसकी मान्द्यता है । इसके संस्त्थापक राजा रामपाल ससंह थे। यह बरभार्ी रूप में प्रकासर्त होता था और इसमें दहन्द्दी के साथ ही उदष ू तथा अंग्रेजी के अंर् भी रहते थे। मॉरीर्स, सूरीनाम, फफजी, दक्षक्षण अफ्रीका से लेकर कनाडा, यूएसए तक, इधर अरब से लेकर जापान, कोररया का ससलससला आज भी जारी है । वतषमान में

तक इस प्रकार की पबरकाओं

ववदे र्ों से 50 से अधधक पर-पबरकाएं

तनयसमत

रूप से दहंदी में प्रकासर्त हो रही हैं। इनमें से अधधकांर् के वेब संस्त्करण भी उपललध हैं। ऑस्त्लो, नॉवे से डॉ सुरेर्चन्द्र र्ुक्ल र्रद आलोक वपछले कई दर्कों से दहंदी – नॉवेब्जयन

द्ववभार्ी पबरका स्त्पैल दपषण का प्रकार्न कर रहे हैं। ववश्व मंगल की कामना सलए यह पबरका ववश्ववाणी दहंदी के माध्यम से सामतयक समाज और सभ्यता का आईना ससद्ध हो रही है । भारत - नॉवे के ररश्ते को फकसी अन्द्य भार्ा के बजाय सीधे दहंदी और नॉवेब्जयन भार्ा के जररये मज़बूती दे ने का यह उद्यम अनूठा और अनुकरणीय है । इस पबरका के कलेवर और पाठ्य सामग्री में तनरन्द्तर तनखार आ रहा है । हाल के वर्ों में इस तरह की कई पबरकाएूँ दहंदी जगत ् के ववस्त्तार और व्याब्प्त को प्रभावी ढं ग से साकार कर रही हैं। सूचना प्रौद्योधगकी में भारतीय भार्ा तकनीक का ववकास सरकारी और गैर सरकारी क्षेरों में

यहाूँ तक फक भारत के बाहर भी जारी है । दतु नया के एक अरब से भी अधधक बहुभार्ी भारतवंसर्यों को परस्त्पर समीप लाने में सूचना प्रौद्योधगकी की भार्ा तकनीकी अहम भूसमका तनभा रही है । भार्ा तकनीक की दृब्ष्ट से ववकससत सॉफ्टवेयर एवं अन्द्य उपकरणों को ववश्व

भर के दहंदी सदहत भारतीय भार्ाओं के प्रेसमयों तक पहुूँचाने की ददर्ा में तेजी आई है । भारत सरकार के सूचना प्रौद्योधगकी ववभाग के साथ ही ववश्व स्त्तर पर सफिय अनेक आई. टी.

कम्पतनयों ने अपनी अपनी वेबसाइटों द्वारा दहंदी के प्रयोग के सलए व्यवस्त्थाएूँ की हैं। दहंदी के ववस्त्तार और ववकास में अत्यंत सहायक ससद्ध हो रहे इन उपकरणों एवं सेवाओं में प्रमुख हैं –

दहंदी यूतनकोड, र्लद-संसाधक, अनुवाद उपकरण, फ़ॉन्द्ट पररवतषक, वतषनी संर्ोधक, ओपन ऑफफ़स, इंदस े नाु ंचत

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मैसेंजर, ई-मेल सुववधा, ओ सी आर, स्त्पीच टू टे क्स्त्ट, टे क्स्त्ट टू स्त्पीच सुववधा, र्लदकोर्, िाउज़र, रांससलटरे र्न उपकरण, कॉपोरा आदद।

दहन्द्दी आधधकाररक रूप से ववश्व भार्ा के रूप में मान्द्यता प्राप्त करने की ओर अग्रसर है । ववदे र्ों में अब तक हुए प्रायः सभी ववश्व दहन्द्दी सम्मेलनों में एकमत से यह प्रस्त्ताव पाररत फकया जाता रहा है फक 'दहन्द्दी को संयक् ु त राष्र संघ की भार्ा बनाया जाए।' इस तरह के

औपचाररक संकल्पों के बजाय संयक् ु त राष्र संघ की आधधकाररक भार्ा के रूप में दहन्द्दी की प्रततष्ठा के सलए व्यापक प्रयत्नों की दरकार है । हाल के दौर में भारत सरकार ने दहन्द्दी की वैब्श्वक स्त्वीकायषता और राजभार्ा के रूप में समधु चत प्रयोग-प्रसार की ददर्ा में महत्त्वपण ू ष

कदम उठाए हैं। संयुक्त राष्र संघ में आधधकाररक भार्ा के रूप में दहन्द्दी की मान्द्यता की राह खल ु े यह बेहद जरूरी है ।

यह दौर दहंदी की वैब्श्वक महत्ता के आकलन के साथ ववववध क्षेरों में उसकी नई संभावनाओं की तलार् का दौर है । इस ददर्ा में दहंदी प्रेसमयों और तनकायों के समवेत प्रयत्न आवश्यक हैं।

इंदस े नाु ंचत

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हिन्दी भाषा सशक्षण में गण ु ित्ता ननयंत्रण एिं मल् ू यांकन का मित्ि

डा. उर्ा रानी

‘सवे र्लदे न भासते ‘

समस्त्त ज्ञान र्लद के द्वारा प्रकट होता है । र्लद र्ब्क्त भार्ा के माध्यम से रुपातयत होती है । भार्ा

र्लद

(Phonetic)।

की

उत्पब्त्त

संस्त्कृत

के

भार्_धातु

से

हुई है ब्जसका अथष है , स्त्वन मानवीय ववचारों के संप्रेर्ण और स्त्वीकरण की प्रफिया स्त्वन प्रतीकों के

माध्यम से होती है , भार्ा कही जाती है । मनुष्य के द्वारा भार्ा बद्ध,अक्षर बद्ध और ज्ञान बद्ध ववचार ही सादहत्य है । भार्ा का पररमाब्जषत रूप ही सादहत्य में प्रकट होता है । इसी रूप में

सादहत्य भार्ा का चरम पररणतत है । भार्ा सीखे बबना सादहत्य तक नहीं पहुूँचा जा सकता। सर्क्षा केवल साक्षरता ही नहीं अवपतु, मानव के आंतररक गण ु ों का प्रकटीकरण भी है । सर्क्षा श्रेष्ठ नागररकों का तनमाषण करती है । सर्क्षा में व्यब्क्तत्व का पण ू वष वकास एवं पररब्स्त्तधथयों का समायोजन करने की क्षमता है ।

इससलए संस्त्कृत में कहा गया है :

सादहत्य, संगीत, कला ववहीन:

साक्षात पर्ु पच् ृ छ ववर्ाण हीन।

अथाषत, सादहत्य, संगीत, कला से ववहीन मनुष्य बबना ससंग,पूँछ ू वाले प्राणी के समान है । भार्ा का व्यवहार मनुष्य को मनुष्य बनाता है । मानव जीवन में पररवतषन होता रहता है । समाज पररवततषत होता है , अत: भार्ा में एवं सर्क्षण पद्धततयों में पररवतषन स्त्वाभाववक है । मानव भार्ा के ववकास की

परं परा रूपांतरणों के फल स्त्वरूप हुई है । दहन्द्दी भार्ा को हम तीन मुख्य अवधधयों में ववभाब्जत दे खते हैं। · · ·

प्राचीन आयषभार्ा १५०० ईसा पूव।ष

मध्यकालीन भार्ा ५०० ईसा पूव।ष

आधतु नक भार्ा १००० ई० से वतषमान तक।

र्ैक्षक्षक उद्देष्य की प्राब्प्त के सलए पाट्यिम एवं पुस्त्तक का तनमाषण करते हैं। परं तु उन्द्हें

पढाने की ववधधयों का तब तक तनमाषण नहीं फकया जा सकता,जब तक उद्देष्य का ज्ञान न हो। सर्क्षण पद्धततयों के संबंध में पब्श्चम के दार्षतनकों ने अपने ववचार व्यक्त फकए हैं· · · · ·

सुकरात- दार्षतनक ववचारों के अनुसार प्रश्नॊत्ति विधध को जन्द्म ददया। प्लेटो- संिाद विधध को जन्द्म ददया।

अरस्त्तू- आगमन ननगमन को जन्द्म ददया।

फ्रांससस बेकन- प्रयोग एिं ननरिक्षण को जन्द्म ददया। फ्रेदररक फ्रोबेल- ककंडिगािा न पद्धतत को जन्द्म ददया।

इंदस े नाु ंचत

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इस प्रकार सभन्द्न- सभन्द्न सर्क्षा र्ाब्स्त्रयों तथा दार्षतनकों ने सभन्द्न- सभन्द्न पद्धततयों को ग्रहण करने का परामर्ष ददया है । पब्श्चमी सर्क्षा पद्धतत: प्राचीन भारत में तीन प्रकार की सर्क्षा संस्त्थाएूँ थीं(१) गुरुकुल- जहाूँ ववद्याथी आश्रम में गुरु के साथ रहकर ववद्याध्ययन करते थे, (२) परिषद- जहाूँ ववर्ेर्ज्ञों द्वारा सर्क्षा दी जाती थी,

(३) तपस्थली- जहाूँ बड़े-बड़े सम्मेलन होते थे और सभाओं तथा प्रवचनों से ज्ञान अजषन होता था। नैसमर्ारण्य ऐसा ही एक स्त्थान था। गुरुकुल पद्धतत:

गुरुकुलों के ही ववकससत रूप तक्षसर्ला, नालंदा, वविमसर्ला और वलभी के ववश्वववद्यालय थे।

प्राचीन भारतीय काल में अध्ययन अध्यापन के प्रधान केंर गुरुकुल हुआ करते थे, जहाूँ दरू दरू से िह्मचारी ववद्याथी, अथवा सत्यान्द्वेर्ी पररव्राजक अपनी अपनी सर्क्षाओं को पूणष करने जाते थे। वे गुरुकुल छोटे अथवा बड़े सभी प्रकार के होते थे। ववद्याधथषयों के मानससक और बौवद्धक ववकास का उत्तरदातयत्व गरु ु पर होता था। भाषा सशक्षा में गण ु ित्ता:

दहंदी भार्ा सर्क्षण में गण ु वत्ता तनयंरण के सलए भार्ाई कौर्ल के ववकास की सफलता आवश्यक है । भार्ा सर्क्षण का अथष भार्ाई कौर्ल का ववकास करना है । गण ु वत्ता को कायम

रखने के सलए नई- नई ववधधयों के माध्यम से ववद्याधथषयों में भार्ाई कौर्ल का ववकास होता है । आज के आधतु नक यग ु में जहाूँ तक भार्ा सीखने और ससखाने का प्रश्न है , उसकी आवश्यकता की गंभीरता कम होती जा रही है । केवल पास होना मख् ु य उद्देश्य रह गया है । भार्ा का सर्क्षण दे र् के सभी राज्यों में हो रहा है । दहन्द्दी को जन संपकष की भार्ा अथवा

जोडने वाली भार्ा कहा जाता है । राष्र भार्ा होने के नाते दहन्द्दी महाववद्यालयों में व अदहन्द्दी भार्ी क्षेरों में पढाई जा रही है । भार्ा सर्क्षण का मुख्य उद्देश्य भर्ाई कौर्ल का

ववकास करना है । ब्जससे छार सुनी हुई भार्ा को समझ सके,उसे र्ुद्ध रूप से बोल सके, उसका र्ुद्ध उच्चारण कर सके तथा अपने ववचारों को र्ुद्ध और प्रभावपूणष ढं ग से सलख सके। दहन्द्दी भार्ा का सर्क्षण में नई- नई ववधधयों- प्रववधधयों के माध्यम से छारों में भार्ाई कौर्ल का ववकास करने में सहायता समलती है । एक सवे के अनुसार २००७ से २०११ तक दहन्द्दी में

पास होने वाले छारों की संख्या ७८.९४ % थी। अत: भार्ा का सर्क्षण दो स्त्तरों पर आवश्यक है - पहला ज्ञानात्मक, दस ू रा कौर्लात्मक भार्ा । भारतीय संववधान के अनुसार, राजभार्ा

अधधतनयम ७६ के अनुसार दहन्द्दी एवं अदहन्द्दी राज्यों में बरभार्ा सूर के अन्द्तगषत दहन्द्दी भार्ा का सर्क्षण हो रहा है । भार्ाई कौर्ल

को मुख्य रूप से सुनना, बोलना और सलखना के

माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं जो तनम्नसलखखत है ·

भार्ा कौर्ल

A) ग्रहण इंदस े नाु ंचत

B)

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असभव्यब्क्त


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a) सुनना- पढना {श्रवण- वाचन}

a) बोलना- सलखना {मौखखक असभव्यब्क्त-

लेखन}

दहन्द्दी भार्ा सर्क्षण में यह आवश्यक है फक पहले भार्ा के मुख्य कौर्ल श्रवण और भार्ण, पठन और लेखन ससखाएूँ।

1) दहन्द्दी को अथष बोध के साथ समझना (सुनना और बोलना)।

2) सामान्द्य ववर्यों पर बातचीत करना और पररचचाष में भाग लेना । 3) दहन्द्दी कववताओं को उधचत लय, आरोह- अवरोह और भाव के साथ पढना । 4) सरल ववर्यों पर भार्ण दे सकना । 5) दहन्द्दी असभनय में भाग लेना । 6) दहन्द्दी तनबंध कहानी, जीवनी, आदद को रुची के साथ पढना (असभव्यब्क्त- लेखन) । 7) पाठ्य वस्त्तु के संबंध में ववचार करना और अपना मत व्यक्त करना । 8) दहन्द्दी में पर, कहातनयाूँ, सारांर्, आदद सलखना । 9) ववराम- धचह्नों का प्रयोग करना । 10)दहन्द्दी के पररधचत और अपररधचत र्लदों की र्ुद्ध वतषनी सलखना ।

इस प्रकार भार्ा सर्क्षण में पठन- लेखन तथा मौखखक असभव्यब्क्त के कौर्लों के ववकास पर महत्त्व ददया जाता है । भार्ाई कौर्ल के ववकास की सफलता और असफलता कुछ हद तक अध्यापक की कायषर्ैली पर तनभषर करती है । सशक्षण की विधधया​ाँ :

सस्त्वर पाठन, प्रश्नोत्तर, कहानी कहना और सन ु ना, श्रत ृ लेख, दृश्य एवं श्रव्य समग्री का प्रयोग,

रे डडयो,

टे प ररकाडषर, सी.डी, वीडडयो, वाताषलाप, कहानी, कववता पाठ, भार्ण, वाद

वववाद प्रततयोधगता, असभनय-नाटक का मन्द्चन, समाचार पठन, वाक्य ववधध ,साहचयष ववधध, र्लद िीडा प्रततयोधगता, जीवनी, आत्मकथा, एकान्द्की, आदद भार्ा सर्क्षण की अनेक ववधधयाूँ है । छारों की रुधच मानससक योगता, भार्ा र्ब्क्त को दे खते हुए ववर्य के अनुकूल उधचत ववधध का अनुसरण अपेक्षक्षत है । ववर्ेर् रूप से स्त्नातक एवं स्त्नातोकत्तर आदद उच्च कक्षाओं के सलए तनम्न ववधधयाूँ अपनाई जा सकती हैं। गुणित्ता ननयंत्रण:

1) रूप रे खा ववधध- ववद्याथी को ववर्य से सम्बंधधत संकेत दे ददया जाता है । 2)

स्त्वाध्याय ववधध- ववद्याथी को स्त्वयं अध्ययन के सलए प्रेररत फकया जाता है ।

3) तकष ववधध- ववद्याथी के सामने ववर्य के प्रतत पक्ष- ववपक्ष तथा वाद- वववाद रखकर प्रोत्सादहत फकया जाता है । मूल्यांकन का मित्ि:

सर्क्षण छार एवं अध्यापक का सब्म्मसलत प्रयास है । एक सवे के अनुसार·

गद्यांर्- पद्यांर् का पाठन के समय ववद्याधथषयों से प्रश्न पूछा जाता है —

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अध्यापक- ८६% ·

ववद्याथी- ७८%

अध्यापन में प्रौद्योधगकीय साधन का उपयोग फकया जाता है --

अध्यापक- ६०%

ववद्याथी- ३०% ६०% प्रततर्त अध्यापक

ऎसे साधनों के उपयोग की बात स्त्वीकारते हैं जबफक

९०% छार

मानते हैं फक पूरी तरह से इन साधनों का उपयोग अध्यापन में नहीं हो रहा है । सर्क्षण में

समान रूप से आदर्ष ब्स्त्थतत नहीं आ पा रही है । वास्त्तव में सर्क्षण सन्द्स्त्थानों में ऎसे साधनों की सुववधा उपललध नहीं है । कुछ अध्यापक वगष भी प्रौद्योधगक

साधनों के उपयोग के प्रतत

सचेत नहीं है ।

कक्षा में अध्यापक छारों के साथ1) दहन्द्दी में बातचीत करते हैं

-- अध्यापक- ७६%

-- छार

- ६७%

-- छार

- ४७%

2) कक्षा के अततररक्त बाहर अध्यापक छारों के साथ दहन्द्दी में बातचीत करते हैं

-- अध्यापक- ६०%

3) कक्षा में छार सहपादठयों के साथ दहन्द्दी में बातचीत करते हैं।

-- अध्यापक- ७६% -- छार

- ९६%

अध्यापकों ने स्त्वीकारा फक अवश्यकता पड़ने पर र्लद स्त्तर पर भी अन्द्य भार्ा की सहायता लेते हैं। वतषनी और वणष संबंधी रदु टयों का सुधार प्रातसमक स्त्तर पर जरूरी है ।

भार्ा सर्क्षण पद्धततयों में नई िांतत आई है । नई तकनीक एवं नए प्रौद्योधगक साधनों का प्रयोग फकया जा रहा है । दहंदी भार्ा सर्क्षण में चाहे कोई भी ववधध अपनाई जाए, गुणवत्ता

तनयंरण के सलए भार्ाई कौर्ल का ववकास एवं मूल्यांकन ववधध महत्त्वपूणष भूसमका तनभाती है ।

सुझाि: आधतु नक समय में नई तकनीकों के उपयोग के बाद भी भार्ा सर्क्षण के साथ साथ मूल्यांकन करने में भी सरलता रहे गी। गुणवत्ता के तनयंरण के सलए कुछ सुझाव अपेक्षक्षत हैं-

1) भार्ा प्रयोगर्ाला 2) मल्टी मीडडया का उपयोग 3) सीडी, फफल्म आदद के द्वारा ववद्याधथषयों में रुधच पैदा करना । 4) स्त्माटष बोडष के प्रयोग के द्वारा सर्क्षण को आसान बनाना । 5) ववद्याधथषयों को दहन्द्दी में बातचीत के सलए प्रोत्साहन के साथ साथ पुरस्त्कृत फकया जाए

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6) महाववद्यालय के बाहर भी दहन्द्दी के अवसर सब्ृ जत फकए जाएूँ। उदाहरण के रूप में -र्हर में कोई व्याख्यान, नाटक का मंचन अथवा कवव सम्मेलन होने पर छारों को वहाूँ ले जाया जाए । 7) दहन्द्दी बोलने में व्याकरखणक समस्त्या होती है । इसके समाधान हे तु प्रोत्सादहत फकया जाए।

8) मौन पठन के सलए अवसर ददए जाएूँ एवं मौन पठन के पूवष कदठन र्लद के अथष बता ददए जाएूँ तो पठन अधधक प्रभावी होग।

9) उच्चारण की अर्ुवद्धयों को दरू करने के सलए अध्यापक का पठन र्ुद्ध होना आवश्यक है । यदद फकसी अध्यापक का पठन दोर् युक्त हो तो टे प ररकाडषर या भार्ा प्रयोगर्ाला की सहायता से उच्चारण का र्ुद्ध रूप सुनाया जाना चादहए।

10)कक्षा में एकांकी/ नाटक को असभनय के साथ प्रस्त्तुत फकया जाए।

11)व्याकखणषक अर्ुवद्धयों का पता कर उन बबंदओ ु ं का अभ्यास कराया जाए।

12)छारों में स्रुजनात्मक एवं रचनात्मक लेखन की क्षमता को प्रोत्साहन दे ना चादहए जैसे तनबंध, पर, कहानी, कववता, आदद ववर्यों पर तनदे र् ददया जाए ब्जनसे छारों में स्त्वतंर आत्मासभव्यब्क्त की क्षमता ववकससत हो सके। 13)टे ली कान्द्फ्रेंससंग, कंप्यट ु र स्त्कईप, वेबसाईट व ललाग आदद आधतु नक तकनीक के उपयोग से दहन्द्दी भार्ा सर्क्षण को सरल बनाया जा सकता है ।

अस्त्तु भार्ा सर्क्षण में समय- समय पर, ववधधयों- प्रववधधयों में सध ु ार करते रहना चादहए।

नई तकनीकों के उपयोग पर जोर दे ना चादहए। अत: अध्यापकों के सलए कायषर्ाला, संगोष्ठी, असभववन्द्यास एवं पन ु श्चयाष का आयोजन होना चादहए। इससे गण ु वत्ता तनयंरण एवं मल् ू यांकन के सलए उपयोगी होगा।

भार्ा दे र् की एकता का प्रधान साधन है , दे वनागरी सलपी दतु नया की वैज्ञातनक सलपी मानी जाती है ।अस्त्त,ु दहन्द्दी का पौधा त्याग एवं समपषण

से सींचा गया है । इसे हरा- भरा रखना

हमारा कतषव्य है ।

इंदस े नाु ंचत

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हिं दी में हवज्ञान साहित्य की उपलब्धता और पाठयक्रम लेखक - राहुल खटे , उप प्रबंधक (राजभाषा) राजभाषा), भारतीय स्टे ट बैंक, नाहसक प्राय: समिा जाता िै हक, हवज्ञान और तकनीकी की पढाई केवल अंग्रेजी में िी संभव िै। ऐसी धारणा िोना स्वाभाहवक भी िै क्ोंहक िमारी हशक्षा प्रणाली में यिी पढाया जाता िै हक हवज्ञान की पढाई केवल अंग्रेजी में िी िो सकती िै । हवज्ञान और हिं दी के सभी हवद्वान यिी बताते हुए पाए जाते िैं हक हवज्ञान की परर भाषा केवल अंग्रेजी में िी करना संभव िै । बड़े -बड़े पुरस्कार प्राप्त हिं दी के हवद्वान हिं दी का महिमा मं डन करते निीं थकते, ले हकन जब उनके अपने बच्ों को स्कूल में दाश्मखला दे ने का समय आता िै , तो वे अंग्रेजी के स्कूलों को िी प्रधानता दे ते िैं । दू सरी तरफ हवज्ञान के हवद्वान जब भी हवज्ञान की बात करें गे तो उनके जु बान से अंग्रेजी िी िावी रिे गी। एक और तका हदया जाता िै हक हवज्ञान का उगम िी पहिम की अंग्रेजी भाषा में हुआ िै , इसहलए उसे हवज्ञान केवल अंग्रेजी में िी पढना और पढाना उह त िै । इसमें हवज्ञान हवषय की पया​ा प्त मात्रा में सामग्री न िोने का भी कुतका हदया जाता िै । हवहकपीहडया पर प्रकाहशत एक ले ख के अनु सार हिं दी के 3500 ले खक िैं जो हवज्ञान के हवहभन व हवषयों पर हलखते िैं और ऐसे पुस्तकों की संख्या 8000 के आसपास जो हवज्ञान के हवषयों पर हलखी गई िैं । ंद्रकां त राजू की पुस्तक "क्ा क्ा हवज्ञान का जन्म पहिम में हुआ िै ?" पुस्तक में स्पष्ट् रूप से बताया गया िै हक हकस प्रकार भारतीय प्रा ीन हवज्ञान के सूत्र जो पिले संस्कृत में थे , हकस प्रकार अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में अनु दीत कर उसे अपने नाम से प्रसाररत हकया गया िै । अब िम इस हवषय पर हव ार करें गे हक भारत में वतामान समय में क्या हवज्ञान की पढाई हिं दी में संभव िै और यहद संभव िै तो हकस कक्षा तक, क्योंहक हवज्ञान की पढाई हिं दी में करवाना तो संभव िै यि कुछ पालक जानते हुए भी अहधकतर पालक अपने बच्ों को अंग्रेजी मीहडयम स्कूलों में इसहलए भे जते िैं , क्योंहक उन्िें लगता िै हक जब आगे की पढाई अंग्रेजी में िी करनी िै , तो ब पन से िी उन्िें अंग्रेजी की आदत क्यों न डाल दें । ले हकन पालकों को यि निीं पता िोता हक उनके बच ों यहद ब पन में मातृभाषा और हिं दी में हवज्ञान और गहणत जै से कठीण हवषय पढें गे तो उनकी समि बढे गी और जटील संकल्पनाओं को वे और बेितर ढं ग से समि पाऐंगे। ले हकन माध्यहमक, उच् और मिाहवद्यालयीन तथा हवश्वहवद्यालयीन स्तर की तकनीकी और हवज्ञान की पुस्तकें और पढाई हिं दी में उपलब्ध िै तो हफर स्कूल और ब पन में िी अंग्रेजी का बोि लादने की आव‍यकता क्ा िै। बच्ों के बस्तें और हदमाग पर बोि बढाने से अचछा िै उन्िें मातृभाषा और हिं दी में हलखी गई हवज्ञान की पुस्तकें पढवाई जाए, इससे उनकी हवज्ञान संबंधी सो

स्पष्ट िोगी ओर उनके कोमल मन और बुश्मधि पर हवदे शी भाषा

का बोि भी निीं बढे गा। माध्यहमक हशक्षा के बाद सारी पढाई अंग्रेजी में िोने की वजि से भारतीय हवद्याथी िीन भावना के हशकार भी िोते िैं , साथ में उनकी हवज्ञान की कोई सो

हवकहसत निीं िो पाती या सीधे शब्ों में किें तो बच्े अंग्रेजी से सीधे

तौर पर सिज निीं िो पाते िैं , हजससे हक उनके हव ारों में मौहलकता की कमी िो जाती िै । माध्यहमक स्तर के बाद हवज्ञान, इं जीहनयररं ग, मे हडकल और प्रोफेशनल कोसेस की भाषा हिं दी में िोनी ाहिए तभी हवज्ञान का सिी मायनों में प्रसार िोगा। हिं दी में हवज्ञान को शै क्षहणक स्तर के साथ साथ रोजगार की भाषा भी बनाना िोगा। किने का मतलब यि िै हक अगर कोई छात्र हिं दी माध्यम से हवज्ञान या इं जीहनयररं ग आहद की पढाई करें तो उसे बाजार भी सपोटा करें हजससे हक उसे नौकरी हमल सके। उसके साथ रोजगार के मामले में भे दभाव निीं िोना ाहिए। सरकार को इसके हलए एक व्यवस्था हवकहसत करनी िोगी तभी हिं दी हवज्ञान की भाषा बन पायेगा। इसी तरि हिं दी में हवज्ञान सं ार को भी रोजगारपरक बनाते हुए बढ़ावा दे ना िोगा। इंदस े नाु ंचत

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34 इसका एक और फायदा यि िै हक मिाहवद्यालयीन और हवश्वहवद्यालय स्तर की पढाई को जो सामान्यत: 4 से 5 वषे ाेां की िोती िै, उसे घटाकर 2 से 3 वषों का हकया जा सकता िै और अंग्रेजी समिने में लगने वाले समय और मे िनत से भी ब ा जा सकता िै । भारत सरकार के राजभाषा नीहत को काया​ा न्वीत करने में भी इससे गहत हमले गी क्योंहक युवापीहढ हिं दी में तकनीकी और हवज्ञान के हवषयों को पढें गे तो उन्िें केंद्र सरकार के काया​ा लयों में रोजगार प्राप्त करने पर अलग से हिं दी प्रहशक्षण योजना के माध्यम से प्रबोध, प्रवीण तथा प्राज्ञ की कक्षाओं को लाने की भी आव‍यकता निीं िोगी और उन्िें सीधे 'पारं गत' पाठ्यक्रम में प्रवेश हदया जा सकता िै। इसके अहतररक्त यहद स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर काया​ा लयीन हिं दी भाषा को अहनवाया तौर पर एक हवषय के रूप में लागू हकया गया तो इससे भी राजभाषा हिं दी के प्रहशक्षण और काया​ा न्वयन को और भी गहत हमले गी। प्राय: दे खा गया िै हक सरकारी काया​ा लयों में भती िोने वाले अहधकतर लोग अपने तकनीकी और हवज्ञान के हवषयों को अंग्रेजी में पढ़कर आते िै , इसहलए उन्िें अपना काया हिं दी में करने में कठीनाई जाती िै, हजसके हलए ऐसे कमा ाररयों के हलए अलग से प्रहशक्षण कायाक्रम

लाना पड़ता िै , जो हसफा हिं दी में काया​ा लयीन काया में

प्रवीण बनाने के हलए िोता िै । भारत के कुछ राजयों में हवज्ञान हवषयों को हिं दी में पढने और पढाने से अचछे पररणाम सामने आने लगे िैं । अहधकतर स्पधा​ा परीक्षाओं में अ्वलल आने वाले हवद्याथी हिं दी माध्यमों से अचछे अंक प्रा‍त करते हदखाई दे रिे िैं । खासकर जटील हवषयों को अपनी भाषा में पढने से हवषय को समिने में आसानी िोती िै । स्कूल के हवज्ञान के साथ-साथ माध्यहमक, उच माध्यहमक, मिाहवद्यालयीन, स्नातक और स्नातकोत्तर के हवज्ञान और तकनीहक संबंधी हवषयों की पुस्तकें हिं दी में भी उपलब्ध िै , हजसकी जानकारी अहधकतर लोगों को निीं िै । जै से हवज्ञान की सभी शाखाओं, तकनीकी, अहभयां हत्रकी, पॉहलटे क्नीक, आइटीआइ, सीए, सीएस, सीएमए, कं‍यूटर, आयकर(टै क्​्स), स्पधा​ा पररक्षाओं की तैयारी से संबंहधत पुस्तकें, धमा , हवहधशास्त्र, मे हडकल, नहसेांग, औषध हनमा​ा ण (फामा सी), बी फामा सी की पुस्तकें भी हिं दी में उपलब्ध िैं । राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदे श, मिाराष्टर , उत्तराखं ड, उत्तर प्रदे श, हबिार, हदल्ली, पंजाब, िररयाणा आहद राजयों में हवज्ञान हवषयों का हिं दी में आसानी से पढाया और समिाया जा सकता िै । इससे स्पधा​ा परीक्षा और अन्य परीक्षाओं में भी अ्‍वल स्थान प्रा‍त हकया जा सकता िै । एमएस सी आयटी जै से कं‍यू टर कोसेस में यहद भाषा संबंधी एक अध्याय जोड़ हदया जाए तो कं‍यूटर में प्रहशक्षण प्रा‍त करते समय िी हिं दी और अन्य भारतीय भाषाओं में कं्ूटर पर काया करने का प्रहशक्षण हदया जा सकता िै । वतामान समय में प्राथहमक, माध्यहमक, उच्तर, मिाहवद्यालयीन, स्नातकोत्तर, स्नातक, हवश्वहवद्यालय स्तर की हवहभन व हवषयों की पुस्तकें हिं दी में उपलब्ध िै , हजनकी जानकारी िम प्राप्त करें गे। हवज्ञान शाखा से ग्यारिवीं और बारिवीं कक्षाओं के बाद बीएस.सी, बी.कॉम. बी.सीए, इले श्मक्टर कल, इले क्टर ॉहनक्स, इं हजहनयररं ग, नहसेांग तथा एलएलबी (हवहध) की पढाई हिं दी में की जा सकती िैं । ले हकन इसमें एक समस्या यि िैं हक जो लोग पिले से िी इन हवषयों को अंग्रेजी में पढ़कर कॉले जों तथा हव‍वहवद्यालयों में पढा रिें िैं , उन्िें इन हवषयों को पिले हिं दी में पढना िोगा तभी वे अपने हवद्याहथेां यों का हिं दी में पढा पाऐंगे। इसके हलए, डी.एड, बी.एड, तथा एम.एड के पाठ्यक्रमों में भी पिले इन हवषयों को हिं दी में पढ़ने का पया​ा य उपलब्ध कराना िोगा। इसके हलए भारत सरकार के उच्हशक्षा तथा तकनीकी हशक्षा हवभाग द्वारा हवशे ष ध्यान दे ने की आव‍यकता िै । इन सभी पररवतानों से िमारे दे श की वैज्ञाहनक ेतना में जागृहत बढे गी और केवल अंग्रेजी के बोि के नी े दबे प्रहतभाशाली हवद्याहथेां यों के भहवष्य को सवॉरने में भी सिायता हमले गी। इन हवषयों में अथाशास्त्र (economics), पया​ा वरण (Environment), कं‍यूटर (Computer), ले खां कण (Accountancy),

आयकर

(Income

Tax),

अंकेषण

(Audit),

वाहणजय

(Commerce),

प्रबंधन

(Management), ग्रामीण हवकास (Rural Development), हवपणन (Marketing), मानव संसाधन (Human Resource), प्राणी हवज्ञान (Zoology), जीव हवज्ञान (Biology), प्राणीशास्त्र (Zoology), प्रहतरक्षा हवज्ञान इंदस े नाु ंचत

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35 (Resistance Science), सूक्ष्मजीव शास्त्र (Micro-biology), जै व प्रौद्योहगकी (Bio-Technology), वनस्पहतशास्त्र (Botany), पाररश्मस्थहतकी पया​ा वरण हवज्ञान (Environment Science), अनुप्रयुक्त प्राणीशास्त्र (Applied Zoology), जै व सां श्म‍यकी (Bio-Statices), प्रकाहशकी(Optics), सां श्म‍यहकय और उष्मा-गहतहक, भौहतकी (Physics), गहणत भौहतकी (Mathematics Physics), प्रारं हभक क्वान्टम यां हत्रकी, स्पेक्टर ोस्कोपी (Spectroscopy), प्रायोहगक भौहतक अवकल समीकरण (Experimental Physics), सं‍यात्मक हवष्ले षण (Statistics Analysis), हनदे शां क जयाहमहत (Directive Geometry), दीमीव, सहदशकलन, सहमश्र हव‍लेषण, गहत हवज्ञान (Speed Science), काबाहनक और अकाबाहनक रसायन (Organic and inorganic Chemistry), काबाहनक रसायन हवज्ञान (Organic Chemistry), भौहतक रसायन (Physics Chemistry), प्रायोहगक रसायन (Practical Chemistry), शोध पधिहत (Research Methodology), सिकाररता हवज्ञान (Co-Operation Science), प्रायोहगक वनस्पहत कोश (Experimental Botany Dictionary), प्रायोहगक वनस्पहतशास्त्र (Experimental Botany), भृ ण हवज्ञान (Embryology), आश्म‍वक जै हवकी और जै व प्रौद्योहगकी (Atomic Biology and Bio Technology), पाररश्मस्थहतकी और वनस्पहतहवज्ञान (Ecology and Botany), भ्रौहणकी (Embryology Science), पया​ा वरणीय जै हवकी (Environmental Biology), अनु प्रयुक्त प्राणीशास्त्र और ्‍याविाररकी (Applied Zoology and Behavior Science), जै व सां श्म‍यकी (Bio Statics), प्रायोहगक प्राणीहवज्ञान (Practical Zoology), कॉडे टा (Cordite), नाहभहकय भौहतकी (Nuclear Physics), ठोस अवस्था भौहतकी (Solid State Physics), हवद् यूत

ुंबकत्व (Electric Magnetic), हवद् युत

ुंबहककी (Electric

Magnetic Science), पया​ा वरण अध्ययन (Environmental Study), शै वाल, लाइकेन एवं बायोफाइटा (Liken and Biofrita), सूक्ष्म जै हवकी (Micro-Biology), प्राहण हवहवधता एवं जै व हवकास (Diversity of animals and evolution), कवक एवं पादप रोग हवज्ञान(, पररवधान जै हवकी (Developmental Biology), पादक काहयाकी और जै व रसायन (Plant Psychology and Bio Chemistry)कोहशका हवज्ञान अनु वां हशकी एवं पादप प्रजनन, पादप शरीर हक्रया हवज्ञान और जै व रसायन (Plant Physiology and Bio Chemistry) शै वाल, शै वक एवं ब्रायोफायटा,

टे ररओडोफायटा

हजम्नोस्पमा

और

पेहलयोबॉटनी

(Teriodofita,

Gymnosperm

and

Paleobotany), सहमश्र हव‍ले षण (Complex Analysis), अमू ता बीजगहणत (Abstract Algebra), अवकलन गहणत, समाकलन गहणत, रे खीय हसधिां त, हवहवक्त गहणत, इष्टहमहतकरण हसधिां त, हत्रहवम हनदे शां क जयाहमहत, सां श्म‍यहकय और उष्मागहतकी भौहतकी, इले क्ट्राहनक्स एं व ठोस प्रावस्था युश्मक्तयॉं, हद्वमीय हनदे शां क जयाहमहत, हत्रहवम हनदें शां क जयाहमहत, ्‍यावसाहयक सां श्म‍यकी, उद्यहमता और लघु ्‍यापार प्रबंधन, हनगमीय और हवत्तीय ले खां कण, भारतीय बैंहकंग, हवत्तीय ्‍यवस्था, ्‍यापाररक हवहध, सामान्य प्रबंधन, हवपणन प्रबंधन, मानव संसाधन प्रबंधन, उच्तर प्रबंधन, ले खां कण, ्‍यावसाहयक वातावरण, हवपणन शोध प्रबंध, प्रबंधहकय अथा शास्त्र, हवज्ञापन प्रबंधन, अंतरा​ा ष्ट्रीय हवपणन, मानव संसाधन प्रबंध, हक्रयात्मक (प्रयोजनमू लक) प्रबंधन, ्‍यावसाहयक बजटन, पररयोजना हनयोजन एवं बजटरी हनयंत्रण, भारत की संवैधाहनक हवहध, हवहधक भाषा इत्याहद।

बी एस.सी. के हलए उपयोगी प्राहण काहयाकी एवं जै व रसायन, प्रहतरक्षा हवज्ञान, सूक्ष्म जीवहवज्ञान एवं जै व प्रौद्योहगकी, प्रायोहगत प्राणी हवज्ञान, कॉडे टा (संर ना एवं काया), पाररश्मस्थहतकी एवं पया​ा वरण जै हवक, बी.एससी पाटा 3 के हलए अनु प्रयुक्त प्राणीशास्त्र, ्‍याविाररकी एवं जै वसां श्म‍यकी, तृतीय वषा के हलए प्रायोहगक प्राहणहवज्ञान, प्रकाहशकी(भौहतकी) सां श्म‍यहकय और उष्मा गहतकी भौहतकी बी.एस.सी हद्वतीय वषा के हलए। बी.एससी. (तृतीय वषा के हलए) प्रारं हभक क्वॉटम और स्पेक्टर ोस्कोपी, वास्तहवक हव‍ले षण, अवकलन समीकरण (हडफ्रंहशयल इक्वीशन्स), हनदे शां क जयाहमहत, द्वीमीव, सदीश कलन, सहमश्र हमश्रण, गहत हवज्ञान, काबा हनक और अकाबाहनक रसायन, इ.उपलब्ध िैं । अथा शास्त्र में ्‍यावसाहयक सां श्म‍यकी, ्‍यावसाहयक अथा शास्त्र, समाजशास्त्र, मनोहवज्ञान की पुस्तकें भी उपलब्ध िै । अब पॉहलटे श्मक्नक की पुस्तकें के बारे में जानें गे। पॉहलटे श्मक्नक के हद्वहतय और तृतीय वषा की पुस्तकें: प्रथम इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


36 वषा के हलए बेहसक इले क्टर ाहनक्स, बेहसक इले श्मक्टर कल इं हजनीयररं ग, इले श्मक्टर कल मै नेजमें ट और इन्रूमें शन, इले श्मक्टर कल सहकाट थ्योरी, इने श्मक्टर कल मशीन, पावर हसस्टम, माइक्रो प्रोसेसर और सी प्रोग्राहमं ग, इले श्मक्टर क वकाशॉप, स्टें थ मफ मटे ररयल, फ्यू हयड मैं केहनक्स ए‍ड मशीन, इं हजहनयररं ग मटे ररयल ए‍ड प्रोसेहसंग, मशीन डराइेां ग और कं‍यूटर एडे ड डराटींग, बेहसक मटोमोबाइल इं हजहनयररं ग, इले श्मक्टर कल इलेक्टर ाहनक्स इं हजनयररं ग, थमोडायनाहमक्स और अंतादिन इं हजन, वकाशॉप टे क्नॉलॉजी और मे टरोलॉजी, सी प्रोग्राहमग, हबहडं ग टे क्नॉलॉजी, सवेहयंग, टर ान्सपोटा इं हजहनयररं ग, सॉईल फाउं डेशन इं हजहनयररं ग, कॉश्मन्क्रट टे क्नोलॉजी, हबश्मल्डं ग डराइेां ग इत्याहद। इले क्ट्रीकल और इलेक्ट्राहनक्स इं हजहनयररं ग की पुस्तकें भी हिं दी में उपलब्ध िैं - बेहसक इले क्ट्रॉहनक्स, बेहसक मै केहनकल इं जीहनयररं ग, बेहसक इले श्मक्ट्रकल इं हजनीयररं ग, इले श्मक्टर कल प्रबंधन (मैं नेजमें ट) ए‍ड इं स्टू में टेशन, इले श्मक्ट्रकल सहकाट थ्योरी, इले श्मक्टर कल मशीन, पावर हसस्टम, माइक्रो प्रोसेसर और सी प्रोग्राहमं ग, इले श्मक्​्टरकल वकाशॉप, इं टर प्रोन्यूरहशप ए‍ड मै नेजमें ट, प्रशासहनक हवहध। इन पुस्तकों के माध्यम से आसानी से इले श्मक्टर कल इं हजहनयररं ग की पढाई पूरी की जा सकती िै । सामान्य अथाशास्त्र, ले खां कण के मू ल तत्व, पररणामात्मक अहभरूह , ्‍यापाररक हवहध, ्‍यापाररक हवहध, नीहतशास्त्र और संर ना, ्‍यापाररक हवहध, नीहतशास्त्र और सं ार, अंकेषण और आ‍वासन इत्याहद पुस्तकें उपलब्ध िैं , हजन्िें राजस्थान हव‍वहवद्यालय में समाहवष्ट हकया गया िै । प्राय: दे खा जाता िै हक हवहध संबंधी पुस्तकें हिं दी में न हमलने के कारण िमारी न्याय्‍यवस्था से आवाज उठती िै हक हिं दी को न्यायालयों में प्रयोग में निीं लाया जा सकता िै । ले हकन हिं दी में भी एलएलबी की पुस्तकें उपलब्ध िैं , जो इस प्रकार िैं ' हवहधशास्त्र एवं हवहध के हसधिां त, अपराध हवहध, संपत्ती अंतरण अहधहनयम एवं सुखाहधकार, कंपनी हवहध, अंतरा​ा ष्टर ीय हवहध और मानवाहधकार, श्रम कानू न (हवहध), प्रशासहनक हवहध, आयकर अहधहनयम, बीमा हवहध इत्याहद हजनकी सिायता से हवद्याथी हिं दी में कानू न की पढाई की जा सकती िै । इससे आगे

लकर

यहि लोग न्यायालयों में हिं दी में अपनी बात रख सकते िैं । इसमें संहवदा हवहध, दु ष्कहत हवहध (मोटर वािन अहधहनयम और उपभोक्ता), हिं दु(लॉ) हवहध, मु श्मस्लम (लॉ) हवहध, भारत का संवैधाहनक हवहध, हवहधक भाषा लेखन और सामान्य अंग्रेजी, भारत का हवहधक और संवैधाहनक इहतिास, लोकहित वाद और हवहधक सिायता और पैरा लीगल सहवासेस इत्याहद। इसके अहतररक्त कृहष हवज्ञान और पशु ह हकत्सा जै से हवषयों को हिं दी में पढाने से भी उसका सीधा फायदा पाठकों को िोगा क्योहक यि दोनों हवषय दे श की हमट्टी से जु ड़े िैं । कृहष हवज्ञान को हिं दी में पढाये जाने से दे श की कृहष ्‍यवस्था को इसका लाभ िी िोगा। हजसकी पूस्तकें भी हिं दी में उपलब्ध िै । कं‍यूटर की पढाई में सीप्रोग्राहमं ग, इले क्ट्रॉहनक्स और शॉप प्रश्मक्टस, सहकाट एनॅ लीहसस, इले क्टर ॉहनक्स मे जरमेंट ए‍ड इन्स्रुमें टेशन, इले क्टर ॉहनक हडवाईसेस एवं सहकाटस्, हडजीटल इले क्टर ॉहनक्स, वेब प्रोपोगेशन एवं कम्यू हनकेशन इं हजहनयररं ग, इले क्टर ॉहनक्स इन्स्रुमें टेशन, आहद तकनीकी हवषयों का समावेश िै । भारत सरकार के केंद्रीय हव‍वहवद्यालय जै से मिात्मा गां धी अंतरा​ा ष्टर ीय हिं दी हव‍वहवद्यालय, वधा​ा और अटल हबिारी वाजपेयी हव‍वहवद्यालय, भोपाल ने ऐसे कुछ पाठ्यक्रमों को हिं दी में पढाने का शु भारं भ भी हकया िै , हजसमें प्रबंधन, इन्फॉमेशन टे क्नोलॉजी, कम्​्ूटर साइं स, हिं दी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, मनोहवज्ञान, मीहडया, हफल्म अध्ययन, भौहतकी, गहणत, सू ना-प्रौद्योहगकी एवं भाषा-अहभयां हत्रकी आहद हवषय सश्मम्महलत िैं । इसके अहतररक्त भाषा संबंधी कुठ पाठ्यक्रमों का भी समावेश िै , जै सें पी-ए .डी. स्पेहनश, एम.हफल. (कंम्‍यूटेशनल हलं श्मिश्मरक्स), एम.हफल (कं्ूटेशनल भाषाहवज्ञान), अनु षंगी अनु शासन: अनु प्रयुक्त भाषाहवज्ञान कं्ूटर साइं स, इनफॉरमे शन टे क्नोलॉजी, भौहतक हवज्ञान, गहणत का भी समावेश िैं । इनसे कई रोजगार के अवसर भी उपलब्ध िोते िैं जै से कं्ूटेशनल भाषाहवज्ञान के हवद्याथी दे श हवदे श के हवहभन व संस्थानों में , हवश्वहवद्यालय में सिायक प्रोफेसर एवं शोध अनु षंगी (ररस ा एसोहशएट) हवहभन व प्रौद्योहगकी संस्थानों जै से-आई.आई.टी.,आई.आई.आई.टी अथवा हवहभन व शोध संस्थान जै से सी-डै क अथवा हवहभन व बहुराष्ट्रीय कंपहनयों में भाषा संसाधन हवशे षज्ञ या इंदस े नाु ंचत

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37 कं्ूटेशनल भाषाहवज्ञानी के रूप में हनयुश्मक्त प्राप्त कर सकते िैं । दे श-हवदे श के हवहभन व हवश्वहवद्यालयों में भी शोध एवं अध्यापन के पया​ा प्त अवसर उपलब्ध िैं । इसके अहतररक्त एम. हफल.

ायनीज़, एम. हफल. स्पेहनश,

एम.हफल. हिं दी (भाषा प्रौद्योहगकी), एम.ए. कं‍यूटेशनल हलं श्मिश्मरक्स पाठ्यक्रमों से भी रोजगार के द्वार खु ल गए िैं , हजसके अंतगात कम्​्ूटेशनल हलं श्मिश्मरक्स के सैधिां हतक एवं अनु प्रयुक्त क्षे त्र यथा-कम्​्ूटर प्रोग्राहमं ग भाषा, प्राकृहतक भाषा संसाधन आहद का अध्ययन हकया जाता िै । मास्टर मफ इन्फॉरमे हटक्स एन्ड लैंग्वेज इं जीहनयररं ग इस पाठ्यक्रम के अंतगात भाषा से जुड़े सू ना एवं अहभयां हत्रकी क्षे त्र का अध्ययन हकया जाता िै । इसका उद्दे श्य हवद्याहथा यों में हिं दी भाषा को ले कर नई अवधारणा का हवकास करना िै । इस पाठ्यक्रम में भाषाअहभयां हत्रकी एवं सू ना-प्रौद्योहगकी से संबधि हवहवध प्रयोगात्मक क्षे त्रों के अध्ययन पर बल हदया जाता िै । कम्‍यूटर अप्लीकेशन में स्नातकोत्तर हडप्लोमा (भाषा प्रौद्योहगकी) भाषा प्रौद्योहगकीय अध्ययन हवकास एवं शोध के हलए बौश्मधिक संसाधनों का उत्पादन एवं प्रहशक्षण प्रदान करना िैं । इसके अहतरक

ीनी भाषा में एडवां स्ड

हड‍लोमा हडप्लोमा पाठ्यक्रम भी उपलब्ध िैं । यि एकीकृत पाठ्यक्रम िै, जो दो वषीय पाठ्यक्रम िै, जो

ार

छमािी में पूणा िोता िै । स्पे हनश भाषा में हड‍लोमा, यि एक वषीय पाठ्यक्रम िै , जो दो छमािी में पूणा िोता िै । स्पेहनश भाषा में एडवां स्ड हड‍लोमा, यि दो वषीय पाठ्यक्रम िै , जो ार छमािी में पूणा िोता िै । जापानी भाषा में हड‍लोमा यि एक वषीय पाठ्यक्रम िै , जो दो छमािी में पूणा िोता िै ।मलयालम भाषा में हड‍लोमा, उदू ा भाषा में हड‍लोमा, हड‍लोमा इन कम्‍यूटर ए‍लीकेशन, यि एक वषीय अंशकाहलक पाठ्यक्रम िै , जो दो छमािी में पूणा िोता िै । फ्रें

भाषा में हड‍लोमा, यि एक वषीय पाठ्यक्रम िै , जो दो छमािी में पूणा िोता िै । इसके अहतररक्त

संस्कृत भाषा में हडप्लोमा, स्पेहनश भाषा में सहटा हफकेट,

ीनी भाषा में सहटा हफकेट, फ्रें

भाषा में सहटा हफकेट

पाठ़यक्रम, जापानी भाषा में सहटा हफकेट, बां ग्ला भाहषयों के हलए सरल हिं दी हशक्षण में सहटा हफकेट इत्याहद पाठ्यक्रम लाए जाते िैं । ज्ञान-हवज्ञान के सभी क्षेत्रों में हशक्षण, प्रहशक्षण एवं शोध को हिन्दी माध्यम से बढ़ाने िे तु 19 हदसंबर 2011 को मध्यप्रदे श शासन ने अटल हबिारी वाजपेयी हिं दी हव‍वहवद्यालय, भोपाल की स्थापना की िै । इस हवश्वहवद्यालय का उद्दे श्य ऐसी युवा पीढ़ी का हनमा​ा ण करना िै जो समग्र व्यश्मक्तत्व हवकास के साथ रोजगार कौशल हिं दी माध्यम से करना िै। हवश्वहवद्यालय ऐसी शै हक्षक व्यवस्था का सृजन करना

ािता िै , जो भारतीय ज्ञान तथा

आधुहनक ज्ञान में समन्वय करते हुए छात्रों, हशक्षकों और अहभभावकों में ऐसी सो हवकहसत कर सके जो भारत केश्मन्द्रत िोकर सम्पू णा सृहष्ट् के कल्ाण को प्राथहमकता दे । इस हवश्वहवद्यालय का हशलान्यास 6 जू न 2013 को भारत के राष्ट्रपहत माननीय श्री प्रणव मु खजी के कर कमलों से ग्राम मु गाहलया कोट की 50 एकड़ भू हम पर हकया गया िै । हशक्षा सत्र 2012-13 में 60 हवद्याहथा यों से प्रारम्भ िोकर इस हवश्वहवद्यालय में सत्र 2017-18 में लगभग 442 हवद्याहथा यों ने अध्ययन िे तु प्रवेश हलया िैं । अब तक 18 संकायों में 231 से अहधक पाठयक्रमों का हिन्दी में हनमा​ा ण कर हलया गया िै । हवश्वहवद्यालय में प्रत्येक छात्र को हिं दी भाषा के साथ-साथ एक हवदे शी भाषा, एक प्रां तीय भाषा के साथ साथ संगणक प्रहशक्षण की सुहवधा अंशकालीन प्रमाण-पत्र कायाक्रम के माध्यम से उपलब्ध िैं । सभी पाठयक्रमों में आधुहनक ज्ञान के साथ उस हवषय में भारतीय योगदान की जानकारी भी दी जाती िै तथा संबंहधत हवषय में मू ल् आधाररत व्यावसाहयकता के साथ स्वरोजगार की अवधारणा के संवधान पर ज़ोर हदया जाता िै । अटल हबिारी वाजपेयी हिं दी हव‍वहवद्यालय, भोपाल में ह हकत्सा, अहभयां हत्रकी, हवहध, कृहष, प्रबंधन आहद में हिं दी माध्यम से हशक्षण-प्रहशक्षण एवं शोध का काया कर रिा िैं । अटल हबिारी वाजपेयी हिं दी हवश्वहवद्यालय ने ह हकत्सा के अहतररक्त सभी पाठ्यक्रम हकसी न हकसी स्तर पर हिं दी माध्यम से प्रारं भ कर हदए िैं । हवश्वहवद्यालय के अहभयां हत्रकी संस्थानम् ने वषा 2016-17 से अहभयां हत्रकी (बी.ई.) ार वषीय पाठ्यक्रम नागर (हसहवल), वैद्युत (इले श्मक्ट्रकल) एवं यां हत्रकी (मै केहनकल) शाखाओं में हिं दी माध्यम से प्रारं भ कर हदया िै । सत्र 2017-18 से स्नातक ह हकत्सा (एमबीबीएस) पाठ्यक्रम हिं दी माध्यम से प्रारं भ कर हदया गया िै ।

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38 हवश्वहवद्यालय ने गत ार वषों में हवशे ष अध्ययन एवं अनु संधान केन्द्रों की स्थापना की िै तथा कुछ केन्द्रों में तो उल्ले खनीय काया ल रिा िै । भारत हवद्या अध्ययन एवं अनु संधान केन्द्र तथा गभा संस्कार तपोवन केन्द्र हवश्वहवद्यालय के प्रमु ख आकषाण िै । हजनके बच्े अंग्रेजी के भार से पीहड़त िोने के कारण उच् हशक्षा ग्रिण निीं कर पाये तथा जो अंग्रेजी माध्यम के कारण डॉक्ट्र, इं जीहनयर, प्रशासक, प्रबंधक आहद बनने का सपना साकार निीं कर पाये , वे हवश्वहवद्यालय से जु ड़ कर अपने उद्दे श्य की पूहता कर सकते िैं । इस हवश्वहवद्यालय में अध्ययन करने के हलए उम्र की बाधा निीं िै । हवश्वहवद्यालय में हवहभन व हवषयों में प्रहशक्षण प्रमाणपत्र, पत्रोपाहध, स्नातकोत्तर, पत्रोपाहध, स्नातक, स्नातकोत्तर, हवद्याहनहध, हवद्यावाररहध एवं हवद्या वा स्पहत पाठ्यक्रमों में अध्ययन एवं शोध की भी व्यवस्था िै । संत गाडगेबाबा अमरावती हव‍वहवद्यालय के स्नातकोत्तर हिं दी हवभाग में अनु वाद हिं दी, प्रयोजनमू लक हिं दी जै से ्‍यवसायाहभमु ख पाठयक्रमों के कारण हिं दी के ्‍याविाररक और आधुहनक रूप का प्र ार-प्रसार िो रिा िैं । इस हव‍वहवद्यालय की हवशे षता यि िै हक इस हव‍वहवद्यालय में एम एम (अनु वाद हिं दी) स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम पूणाकाहलक 2 दो वषा का िै, हजससे हवद्याहथायों को हिं दी के ्‍याविाररक पक्ष को जानने समिने का पया​ा ‍त समय हमलता िैं । हिं दी के साहिश्मत्यक रूप के साथ-साथ हिं दी प्रयोजनमू लक रूप को पढने का अवसर यि हव‍वहवद्यालय उपलब्ध कराता िै । संदभा : www.onlinebookmart.com; www.hindiwishva.org.in, www.abvhv.org; www.sgbau.ac.in

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fd, x,] mn;iqj esa viuh laLFkk yksddyk eaMy esa Lo- nsohyky lkej us dBiqryh esa egRoiw.kZ dk;Z fd;k gSA mUgksua s ,d iqryh ny j[kk vkSj mlds lkFk dbZ vUrjjk’Vªh; iqryh lekjksgksa esa Hkkx fy;k gSA ;wjksi dh vk/kqfud iqryh ijEijkvksa ls izHkkfor gksdj mUgksua s u, fo"k; izkjEHk fd, vkSj ubZ rjg dh iqrfy;ksa cukus ds iz;ksx fd,A ubZ fnYyh fLFkr dsUnzh; laxhr ukV~d vdkneh ijEifjd dykvksa dks izks Rlkfgr djus dh ;kstuk ds vUrxZr iqryh izn'kZu ,oa iqryh lekjksg djrh jgh gSA vdkneh esa Hkh iqrfy;ksa dk dkQh cM+k laxzg gS ftlesa ls dqN bldh nh?kkZvksa esa yxh gqbZ gSA vkt ds oSf'od ;qx esa iqryh dyk us Hkh u;s&u;s fo"k; xzg.k fd, gSA tSls & eagxkbZ] csjkstxkjh] Hkz"Vkpkj] L=h&foe'kZ bR;kfnA oSf'od ;qx esa iqryh dyk ds oSf'k"V~; esa dqN egRoiw.kZ fo'ks"krk,a fn[kkbZ nsrh gS& iqryh dyk yksd laLd`fr dh >yd Li"V djrh gSA vkt ds lekt dh Toayr fofHkUu leL;kvksa dks Hkh pfjrkFkZ djrh gSA vkt dh iqryh dyk ikjEifjdrk ds lkFk vR;k/kqfud ;qx dh leL;kvksa dh lkFk ysdj py jgh gSA vkt ds bl ;qx esa Hkkjr ljdkj }kjk bUgsa izksRlkfgr fd;k tk jgk gSA lekIr gksrh budh ijEijk dh dsUnz ,oa jkT; ljdkjksa dh vksj ls lg;ksx fey jgk gSA iqryh dyk gekjs bfrgkl dk vkbZuk gSA blesa izkphu ls ysdj vk/kqfud ;qx dh yksd lkaLd`frdrk dh >yd fn[kkbZ nsrh gSA oSf'od ;k Hkwe.Myh;dj.k ;qx esa vrhr dks [kksrh gq, ;s iqryh ijEijk vkt ds ifjisz{; esa viuk jax cny jgh gSA bldh vksj /;ku u nsus ls ;s fojklr [kRe gks tk;sxhA eap izLrqfr;k¡] O;k[;ku izn'kZu] lsfeukjksa ds ek/;eksa ls vkus okyh ihf<+;ksa dh ;s gLrkarfjr dh tk ldrh gSA LFkkbZ rFkk vLFkkbZ izn'kZfu;ksa ds vk;kstu ftlls dykdkjksa dh viuh d`fr;ksa dks iznf'kZr djus dk volj izkIr gks ldsA iqjLdkj ,oa lEeku ;kstuk ls ;g dyk vkxs c<+sxh rFkk dykdkjksa dks izsj.kk feysxhA dyk&psruk fo'ks"k :i ls HkkV] u`rdksa jko] rFkk eaMfy;ksa ds ;qokvksa esa tkx`fr ykuk] bl fn'kk esa xfrfof/k;k¡ vk;ksftr djukA vkWfM;ks ohfM;ks dsUnz rFkk dyk fQYe o budh ohfM;ksa dSlVs dk laxzg.k djuk ,oa laHkky dj j[kukA iqryh dyk dh ijEijkvksa dk dEI;wjhdj.k rFkk vkWfM;ks&ohfM;ksa dk laj{k.k djukA fujarj iqryh egksRloksa dk vk;kstu djuk pkfg,A Hkkjr esa O;kolkf;d dBiqryh flusek ges”kk tu leqnk; ds euksjatu ij /;ku nsrs jgs gSa pkgs ;s dk;ZØe “kSf{kd ;k /kkfeZd vk/kkj ij gksAa Hkkjrh; lUnHkZ esa lesfdr /kkj.kk jgh gSA egkHkkjr dh dgkfu;k¡ tks fd n”kZdksa ds fy, lqifjfpr gksrh gS vkSj vklkuh ls le> rFkk euksjatd gksrh gSA bu dgkfu;ksa ds Hkkx tks egkHkkjr vkSj iqjk.k ls fy;s tkrs rFkk n”kZdksa ds efLr’d ij izHkko Mkydj euksjatu iznku djrsA laxhr dks thoUr dke esa ysrs ftlls n”kZdksa ls rkjrE; cu tkrkA eq[; n`”; u`R; dBiqryh }kjk izLrqr gksrk gS ftls n”kZdksa dks euksjatu feyrk gSA fonw’kd ds :Ik esa dykdkj dh Nki Hkkjrh; dBiqryh dk uokpkj gS tks mldh fof”k’V Hkwfedk ls n”kZdksa dks इंदस े नाु ंचत

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izHkko”kkyh euq’; jkstu fMdsu us iqryh dks ,d cukoVh fNnz esa izHkkfor fd;kA iqryh dk;ZØe fQYe fuekZrkvksa esa fo”ks’k ifjfLFkfr iSnk djus esa izfl) gq,A gky gh esa ukurstÝkUl esa ,d Ýsap fQYe esdj us fo”kky dBiqrfy;ksa ds ek/;e ls izn”kZu djus okyh iisV fFk;sVj dEiuh *jkW;y n yqDls* ds rhu fnolh; izn”kZu ij ,d o`Ùkfp= tkjh fd;kA ftlesa fo”kky dBiqrfy;ksa ds LVhy ds rkjksa ls cka/kdj upk;k tkrk gS] ydM+h dh 18 QhV yEch eq[; dBiqryh dk otu yxHkx 1700 ikS.M gSA ftls Øsu ls lapkfyr fd;k tkrk gSA ;g tkuuk fnyPkLi gksxk fd bl dBiqryh ds flj ds ckyksa dks cukus ds fy, 70 ?kksM+ksa dh iwaN ds cky yxk;s x;sA 1949 esa LFkkfir laLFkku dbZ ns”kksa esa fo”kky dBiqryh ds izn”kZu dj pqdh gSA U;w;kWdZ dh vizSy cqdj dks viuh iqrfy;ksa ls cgqr yxko gSA og viuh 16 iqrfy;ksa ds lkFk LorU= :Ik ls jgrh gS] 30 o’khZ; cqdj us fiNys nl o’kksZa esa iqrfy;ksa ij 1-34 yk[k ikS.M ¼1-29 djksM+ :½ [kpZ fd, gSA nLrkuk] Nk;k] NM+ iqrfy;ksa dk iz;ksx u;s :Ik esa gks jgk gS] Nk;k iqrfy;ksa eas fQYeksa esa Nk;k u`R; ds ek/;e ls fd;k tk jgk gSA lw= iqrfy;ksa dk iz;ksx Hkh ekuoh; u`R;ksa esa “kkfey gks x;k gSA ijEijkoknh iqrfy;ksa dk izpyu ubZ iqrfy;ksa ds uke ls de gks x;k gSA fdUrq tks ijEijkoknh iqryh dykdkj gS os vkt Hkh iqrfy;ksa ds izn ”kZu esa viuh ijEijk dks latks;s gq, gSA Hkkjrh; iqryh dyk dh ijEijk dks thfor :i fn;k tk ldrk gSA iqryh ukV~; nyksa esa lHkh izdkj ds Å¡p&uhp tkfr;ksa ds O;fä ,d gks lQy izn'kZu }kjk lekt dk LoLFk euksjatu o f'k{kk izpkj dj ldrs gSA iqryh ukV~; dh ,d l'kDr ,oa lEiUu fo/kk tks gekjs ;gk¡ lfn;ksa ls pyh vk jgh Fkh] ;gk¡ lnSo yksd lEizs"k.k] yksdkuqjt a u] lkekftd ifjorZu ,oa oSpkfjd Økafr dk ,d vPNk ek/;e jgh gSA Hkkjr ds fofHkUu izn's kksa dh iqryh ijEijk gekjh yksd laLd`fr dh igpku gSA ;g ekuoh; ewY;] O;aX; ,oa izrhdksa ds ek/;e ls vfHkO;fDr ik jgh gSA budk izLrqrhdj.k ,oa eaph; izn'kZu 'kkunkj jgk gSA lapkj] fQYe o nwjn”kZu ds fy, iqryhdyk l/kh gqbZ o egRoiw.kZ dyk gSA

इंदस े नाु ंचत

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हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद साहित्य की भसू मका डॉ िं जना वपल्लई सादहत्य समाज के प्रततमान के रुप में सदै व अपनी महत्वपण ू ष तनभाता रहा है । दहन्द्दी

सादहत्य के इततहास पर नज़र डालें , तो ज्ञात होता है फक फकस प्रकार सादहत्य संदेर् वाहक, ज्ञान वाहक के रूप में घटनाओं और पररब्स्त्थततयों को भववष्य को सौपनें का काम करता रहा है । हम सादहत्य को यदद इस पररकल्पना से अलग कर दें तो हम पाते है फक सटीक जानकारी हमें उपललध होना संभव ही नहीं है । सादहत्य के ववसभन्द्न कालों की जानकारी हमें सादहत्य उपललध कराता है । आददकाल, भब्क्तकाल, रीततकाल व आधतु नक काल अपने वास्त्तववक स्त्वरूप में हमें सादहत्य में ही समलता है । समाज में होने वाले राजनीततक , आधथषक

, सामाब्जक सभी तरह के बदलाव व ववकास की जानकारी सादहत्य से समलती है । इससलए साÌहत्य समाज का दपषण कहा जा सकता है । सादहत्यकार अपने पररवेर् से कथावस्त्तु लेकर उसे सलवपबद्ध करता है ।

वह काल जब भब्क्त का अभाव ददखाई दे ने लगा, लोगों में भब्क्त के प्रतत आस्त्था कम होने लगी तब भब्क्त रस के प्रभाव को पुन: प्रस्त्थावपत करने के सलए कववयों व सादहत्यकारों

ने

अपनी लेखनी को भब्क्त में सराबोर कर ददया। रीततकाल का वह समय जब राजाओं के आश्रय में रहकर चारण व भाट उनका यर्ोंगान करते थे। इस समय राजाओं ने कववयों को अपने आश्रय मे रखा व उनसे अपने यर् का बखान करवाया। इसके पश्चात आधतु नक काल

का आरं भ ववसभन्द्न पररवतषनों के साथ हुआ। इस काल में भारतें द ु हरीर्चंद से लेकर हररवंर्राय बच्चन तक के सादहत्य को हम सामाब्जक बदलाव के प्रततमान के रूप में दे ख सकते है । सादहत्य, सादहत्यकार की मनोब्स्त्थतत को दर्ाषता है । सादहत्यकार की मनःब्स्त्थतत सामाÎजक पररवेर् के अनुकूल पररवततषत होती रह्ती है । सादहत्यकार ब्जन अनुभवों को व्यक्त करता है

वह उसके जीवन व पररवेर् का साक्षात अनभ ु व होता है । उन अनुभवों को आधार में रखकर

मनुष्य जीवन में व्यवहार करता है और उसका लाभ पाता है । प्रेमचंद सादहत्य का अवलोकन

करने पर हम पाते है फक आज़ादी से पूवष और पश्चात भारत के फकसानों का जीवन, ग्रामीण

जनजीवन, महाजनों व ज़मीदारों का वचषस्त्व, कैसे समाज पर हावी था। उत्तर भारत के फकसान फकस प्रकार पाररवाररक समस्त्याओं का सामना करते थे।

फकस प्रकार महाजन व

ज़मीदार फकसानों की तनरक्षरता का लाभ उठाकर उनसे मनचाहा लगान वसल ू ते थे। फकसान

उधारी की रकम जीवन भर चक ु ाते थे, उनके मरणोपरान्द्त उनकी संतान उसके सलए उत्तरदायी हो जाती थी। व्यवस्त्था का ढीलापन फकसान को मज़दरू बना दे ता था।

इस प्रकार हम कह सकते है फक सादहत्य समाज का स्त्वरूप प्रस्त्तत ु करने में पण ू ïत: सक्षम है ।

इंदस े नाु ंचत

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प्रेमचंद द्वारा रधचत उपन्द्यास व कहातनयों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है फक उनका सादहत्य समाज की तात्काÍलक पररब्स्त्थततयों का धचरण करने में पूणत ष : सक्षम है । प्रेमचंद

द्वारा रधचत गोदान उपन्द्यास भारतीय दहन्द्दी संस्त्कृतत में गौ पालन के महत्व को दर्ाषता है । उस उपन्द्यास का मुख्य पार होरी आजीवन अपने आंगन में गाय बांधने की चाह मन में रखता है । और उसी अधरू ी इच्छा के साथ मत्ृ यु को प्राप्त हो जाता है ।

सवा सेर गें हू कहानी में वह फकसान जो सवा सेर गेहू के बदले आजीवन महाजन को कर चक ु ाता है फफर भी वह उस कजष से मुक्त नहीं हो पाता। उसकी मत्ृ यु के बाद उसकी संतान

उसके सलए हुए कजष को चक ु ाने लगती है । उस कजष को चक ु ाने के सलए वह पहले फकसान फफर मजदरू और फफर बेगारी करते हुए जीवन के अंततम चरण मे पहुचता है । पूस की रात कहानी में प्रेमचंद ने ऐसे फकसान की दर्ा का वणषन फकया है जो अन्द्नत कष्टों

को सहता हुआ भागीरथ पररश्रम करने के बाद भी महाजन के ऋण से मुक्त नहीं हो पाता। वह पूस की ठं डी रातों को बबना फकसी गरम कपडे के, चना चबैना खाकर बीतता है । परं तु जब वह कजष का लयाज़ भी नहीं चक ु ा पाता तब उसका उत्साह खत्म हो जाता है और वह सभी लेन-दे न भल ू कर खेत में सख ू ी लकडड़याूँ जलाकर कुत्ते को अपने पास लेकर सक ु ू न से सो जाता है । खेत में जानवरों के घस ु ने की आवाज़ भी नज़रअंदाज़ कर दे ता है ।

इस प्रकार हम दे खते है फक प्रेमचंद का सादहत्य तात्कासलक समाज को पूणïत: धचबरत करने में समथष है ।

प्रेमचंद ने ३०० कहातनयाूँ व अनेक उपन्द्यास सलखे ब्जनमे नमक का दरोगा, सवा सेर गें हू, बढ ू ी काकी, तनमषला , कमषभसू म , वरदान, ववरासत, परु स्त्कार, दो बैलों की कथा, पंच-परमेश्वर, माता का ह्रदय, ईदगाह, गैरत की कटार, परीक्षा, पंच-परमेश्वर, बढ ू ी काकी, ममता, बडे घर की बेटी, इस प्रकार उनके उपन्द्यास व कहातनयाूँ समाज को दर्ाषने में सक्षम है ।

सादहत्य समाज को उसकी वास्त्तववकता ददखाने का सर्क्त माध्यम है । सादहत्य के माध्यम से प्रत्येक कालावधध

की सटीक जानकारी हमें प्राप्त होती है। सादहत्य न केवल व्यब्क्त का

स्त्वरूप प्रस्त्तुत करता है अवपतु दे र्काल, वातावरण, पररब्स्त्थततयों को दर्ाषकर समाज को उपयुक्त मागष का चयन करने के सलए प्रेररत भी करता है ।

इंदस े नाु ंचत

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इंदस े नाु ंचत

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"मैं हिंदी िोल ि​िी िूाँ"

-ज्ञानचंद ममाज्ञ जी हाूँ ! आपने ठीक पहचाना , मैं दहंदी ही बोल रही हू​ूँ ,वही १४ ससतम्बर वाली दहंदी, ब्जसे

आप वपछले कई वर्ों से सामूदहक गुणगान के सहारे राष्रभार्ा के ससंहासन पर आसीन करने

का हृदयग्राही स्त्वप्न दे ख रहे हैं ! मैं भी अजन्द्मी खसु र्यों के कई सपने उधार लेकर हर वर्ष आपके कायषिम में आती हू​ूँ, इस उम्मीद के साथ फक क्या पता मेरे अधधकार का मुकुट मेरे माथे पर लगने की बाट जोह रहा हो मगर आप में से कोई मुझे पहचान भी नहीं पाता ! मैं सबसे पीछे की पंब्क्त में अपनी वर्ो

पुरानी जजषर छड़ी के सहारे खड़ी होकर आप लोगों

की बातें बड़े ध्यान से सुनती हू​ूँ ! कुछ दे र के सलए ही सही , मेरे र्लदों को पहनकर आप लोग

अच्छे लगते हैं ! आपकी आूँखों से दे खते हुए मैं भूल जाती हू​ूँ फक कल्पना के गोटे से जदटत राष्रभार्ा का स्त्वप्न आज़ादी के साथ समला १५ वर्ों के असभर्ाप का वह दं र् है ब्जसे मैं आज तक भीग रही हू​ूँ ! आपके अधरों पर उगकर मैं यह भी भूल जाती हू​ूँ फक ब्जस स्त्पर्ष को मैं अपनी प्यास की अंततम असभलार्ा समझ रही हू​ूँ वह उस छलावे का रे तीला तट मार है जहाूँ मैं वपछले कई वर्ों से प्यासी भटक रही हू​ूँ ! आपकी खसु र्याूँ मुझे असभभूत तो करती हैं मगर दःु ख का गहन अन्द्धकार मेरा हाथ पकड़कर उस ओर खींच ले जाता है

जहाूँ फकसी ने सूरज का बीज तो बोया था पर अभी तक प्रकार् का कोई पौधा नहीं उगा ! आप भी तो उसी सूरज को सींच रहे हैं ! आपके उत्सव में आकर भले ही पीड़ा का आभास होता है मगर आपके स्त्नेह का आचमन मेरे प्राण को

एक और वर्ष

जीने की ऊजाष से

असभससंधचत कर दे ता है ! इस तरह आपके अगाध स्त्नेह और दल ु ार के साथ एक और" १४

ससतम्बर" की प्रतीक्षा में वापस आकर अपनी कोठरी में पड़ी उस चारपाई पर लेट जाती हू​ूँ ब्जसमे असंख्य कीलें गड़ी है ! यहाूँ मै अकेली नहीं रहती, मेरी ही तरह मेरे साथ अनेक उपेक्षक्षत भार्ाएूँ अपने कल की बची खच ै बबखरी पड़ी ु ी सांसें सहे जते हुए भोर की लासलमा का आसलंगन करने के सलए बेचन रहती हैं ! मेरे कमरे में एक ही दरवाजा है जो बाहर से बंद रहता है ! यहाूँ एक रोर्नदान भी है जहाूँ से कभी कभी मेरे अक्षर रें गकर अंदर आ जाते हैं और फकसी नई आर्ा की सुनहरी कहानी सुनाकर वापस चले जाते हैं ! अब तो मुझे डर भी लगने लगा है ! मै अनुवाददत होते

होते थक गयी हू​ूँ ! अपने ही दे र् में ववदे र्ी भार्ा के अनुवाद का चेहरा लगाते लगाते मेरे रूप का लावण्य धसू मल होता जा रहा है ! मै यह कृरम आवरण उतार कर फेंक दे ना चाहती हू​ूँ ! आप सब मुझे माूँ कहते हैं , मै आप से पूछती हू​ूँ क्या कभी माूँ का भी अनुवाद फकया जाता इंदस े नाु ंचत

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है ? अगर आपकी बहरी वैचाररकता मेरी मौन संवेदना को छूकर जरा भी ववचसलत होती है तो बताइये ,कोई है ? जो मुझे इस अनुवाद के कारावास से मुक्त करा सके ! ववर्म पररब्स्त्थतयो के ताप पर अब तो मेरे र्लद भी वपघलने लगे हैं , आये ददन उन्द्हें नए नए रूप में ढाला

जाता है ! कई बार तो अंग्रज़ी के पररधान मे लपेटकर मेरा वरण फकया जाता है !क्या पता कुछ वर्ों बाद मै अपने नए रूप को दे खकर कहीं स्त्वयं ही न डर जाऊूँ और उस धल ू भरे दपषण को तोड़कर फेंक दूँ ू जो वपछले ६७ वर्ों से मैंने अपनी पुरानी पोटली में संभाल कर रखा है !

वैसे इस परु ाने दपषण को छोड़कर मेरे पास त्यागने को कुछ और है भी नहीं ,हाूँ एक आत्मा

अवश्य है ब्जसमें मैंने अपने दे र् की सभ्यता और संस्त्कृतत के अणुओं को संभाल कर रखा है ! मुझे नहीं पता स्त्वासभमान के उन सपनो का क्या होगा जो दे र् के बसलदातनयों ने अपने लहू से सींचकर राष्रभार्ा के साथ जोड़कर दे खा था ! मुझे नहीं पता, ततरं गे के साथ चहकने वाली

राष्रभार्ा का गौरवर्ाली हुंकार कब हमारी अब्स्त्मता के अब्स्त्तत्व का राब्ष्रय उद्घोर् बनकर पूरे ववश्व में आच्छाददत होगा ! मुझे यह भी नहीं पता फक इतने वर्ों से राष्रभार्ा-ववहीन राष्र के जागरूक लोगों के स्त्वासभमान की गररमा उनकी महत्वाकांक्षाओं के फकस कोने में दबी पड़ी

है , मगर अपने बच्चों से यह अवश्य कहना, मैं मन,ववचार और चेतना से प्रस्त्फुदटत होने वाली राष्र की सच्ची असभव्यब्क्त हू​ूँ ! मैं इस दे र् की वाणी हू​ूँ ! मुझे माूँ कहने वालों ! उन्द्हें यह भी बताना फक मैं उनकी लोरी भी हू​ूँ और फकलकारी भी ! मै ही सांसों में तरं धगत होकर भावों की गतत बनकर बहती हू​ूँ ! मै ही गंगा बनकर अनधगनत लहरों में समाती हू​ूँ और राष्र-गौरव का गीत गाकर हर भारत वासी के माथे पर स्त्वासभमान का ततलक लगाती हू​ूँ ! मेरे प्रवाह के आूँचल में

इस दे र् की सारी भार्ाएूँ तरं धगत होकर आह्लाददत होती हैं ! उनसे यह भी कहना मुझे स्त्पर्ष करें , मेरे होने का अनुभव करें ! मेरे अंदर समादहत भारतीयता का आत्मसात करें ! बस एक बार मुझे अपने अधरों से मुखररत होने दें ,मै उन्द्हें राम,कृष्ण, तुलसी,रहीम,कबीर,मीरा सब दं ग ू ी, और उन्द्हें वहां तक लेकर जाउं गी जहा उनकी जड़ें अभी भी प्रतीक्षा कर रही हैं परम्पराओं में गुंफफत भारतीय संस्त्कृतत के पुरातन मूल्यों के अनमोल धरोहर सौपने के सलए ! संस्त्कृत के कोख से जन्द्मी मै केवल भार्ा

ही नहीं बब्ल्क अनंततम सत्य की प्रस्त्तावना और

नैततक मूल्यों की संवाहक भी हू​ूँ ब्जसे पाने के सलए आज सम्पूणष ववश्व तड़प रहा है ! वैसे तड़प तो मैं भी रही हू​ूँ लेफकन मेरी तड़प की पीड़ा उस समय कम हो जाती है जब आप लोग मुझे राष्रभार्ा का

मान दे कर चन्द्दन बना दे ते हैं ! मैं जानती हू​ूँ मेरा राष्रभार्ा

का स्त्वप्न

आप का ही स्त्वप्न है , आपने ही उसे संजोया है , और आप यह भी चाहते हैं की मैं गवष से कहू​ूँ

फक "मै राष्रभार्ा दहंदी बोल रही हू​ूँ " मगर जब तक अधधकार का ततलक मेरे माथे पर नहीं लगता तब तक तो बस इतना ही कह पाूँऊगी फक : " मै.... दहंदी बोल रही हू​ूँ " इस आर्ा के साथ फक ब्जन्द्हें सुनना है , कार् ! वो भी सुन पाते !

इंदस े नाु ंचत

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वपता-पुत्री िाता​ालाप

र्ंभु (पलार्) राय वपता -

बार-बार क्यों मेरे पास एक ही बात कह रही हो?

पत्र ु ी - क्योंफक इसे सन ु ने में हम सबकी भलाई है । वपता -

(कुछ नरम सरु में ) कहो।

पत्र ु ी - स्त्कूलों में हमारी सेकेंड लैं्वेज दहंदी हो, यह हमारी चाहत है । वपता -

क्यों?

पुत्री - क्योंफक, दहंदी मुझे अच्छी लगती है । दहंदी में सरलता है , मन की भावनाओं को व्यक्त

करने के सलए इतनी सरल और समठास भार्ा कोई नहीं है । इसे दे खते हुए राष्र ने इसे राजभार्ा का दजाष ददया है । प्लीज! पापा! आप इंकार न करो। मेरे पाठ्यिम में दहंदी को अतनवायष कीब्जए। वपता -

ठीक है , मैं सोचकर बताऊंगा।

पुत्री - सोचना क्या है ? अच्छी चीजों के सलए समय बबाषद करना नहीं चादहए। वपता - (धचल्लाकर उसकी माूँ से कहा) हाूँ जी, सन ु रही हो? तम् ु हारी बेटी को यह बता दो फक हमारा फैसला अटूट है । माूँ -

हाूँ जी मैं सुन रही थी। आप बाप-बेटी का वाताषलाप। बुरा ना मातनए तो मुझे भी

उसकी बात ठीक लग रही

थी। पडोसी नंदा की बेटी बोटनी में पी.एच.डी. की। उसकी

ददल्ली में नौकरी लगी है । क्या कहते हैं उसे- ररसचष

की नौकरी। आज नंदा कह रही

थी फक उसकी बेटी को ववदे र्ों के यूतनवससषटी से बुलावा आया है । वहाूँ दहंदी में

वह

अपना

वक्तव्य रखेगी और ररसचष भी करे गी।

पुत्री - माूँ! मेरा लक्ष्य यह नहीं है फक दहंदी मुझे रोजगार व पेर्ा में सहायता करे बब्ल्क मैं

चाहती हू​ूँ फक सारे ववश्व में दहंदी का प्रसार हो। द:ु ख की बात है फक यह कुछ ही राष्रों में सीमावद्ध है । माूँ! यह दहंदी भार्ा ऐसा एक माध्यम है जो कोई भी राष्र यह मजहब को एक दस ू रे के साथ जोडता है जो भार्ा फूल-फल और पेडों की तरह

है । जो ब्जंदगी से

अंत तक साथ नहीं छोडती है । जो ब्जंदगी के हरपल हमारे साथ है क्यों न उसे अपनाएूँ।

इंदस े नाु ंचत

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वपता - ठीक है - ठीक है । मैंने आपकी समस्त्त बातें सुनी। अब तुम जाओ, अपना काम करो। पत्र ु ी - आपका आदे र् मानते हुए मैं जा रही हू​ूँ। जाते-जाते एक बात- आप पांडडचेरी में उस आदमी को दहंदी में समझा रहे थे फक बंगाल में क्या-क्या दे खने की चीज है । क्या आप बता सकते हैं फक दहंदी आपकी भार्ा ना थे?

होते हुए भी आप क्यों दहंदी का प्रयोग कर रहे

क्योंफक आपको लगा फक दहंदी भार्ा के प्रयोग से आप उनतक पहुूँच सकते हैं। O.K बाय पापा। रात को 11 बजे खाना खाने बैठे उस लडकी के वपता को थाली में चार रोटी, सलजी, दध ू दे कर पत्नी ने

कहा छोडडए न उसकी बात। आप खाना खा लीब्जए। पर खाया नहीं

गया। बार-बार उस पांडडचेरी की बात कान

में गूँज रही थी। पूरा खाना आज जूँ चा नहीं। ू

हाथ धोकर पत्नी से कहा- बबस्त्तर लगा दो कल सुबह आफफस सलए तैयार होकर तनकल पडे। पत्नी -

जाना है । सुबह आफफस के

आज आप बडी जल्दी तनकल पडे। क्या कोई जरुरी काम है ?

पतत - हू​ूँ! काफी रात हो गई आज आफफस से घर आने में । घर घुसते ही पत्नी से कहा, 'जरा

चाय लाना'।

पत्र ु ी - पाप- आई लव य।ू वपता -

क्यों बेटा?

पुत्री -

आप ...आप मेरे स्त्कूल गए थे। मुझे मालूम हुआ फक आप प्रंससपल को एक धचट्ठी दे कर इतला फकए हैं फक मेरे पाठ्यिम में दहंदी को आवश्य र्ासमल फकए जाएं। पापा यू आर ग्रेट!

 पापा आप जानते हैं फक दहंदी मेरी सोच का एक दहस्त्सा है । दहंदी मेरा प्यार है । दहंदी मेरी ब्जंदगी का एक दहस्त्सा है जो- आपके कारण मुझे समला है । वपता न अपनी दोनो िा​ाँिें फैलाकि िेिी को अपने सीने से लगाया औि किा- मैं तुम्िािी भािनाओं की कद्र किता िूाँ।

हिंदी की जय िो। इंदस े नाु ंचत

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Mk- uhrw jkBkSM की

कवितायें

स्वयं िी जीती िै .... ----------अपनी मुस्कुरािटों को गवा से खुद तलाश कर गमों के दस्तावेजों को एक हकक मार कर उजास की लनी से हसफा खुहशयों को िी मिीन छान छान कर उम्मीद की रोशनी भर कर वक़्त की हछपी हुई रुस्तमी पोटली खोलकर अपने मोटे िे से जरदोजी लम्ों को बीन कर अपनी पसंद के बेपरवाि से गुमशुदा लम्ों को ढूंढ़ कर हफर सबकी नजर ब ा कर शाम के धुूँधलके में शां त दरख्ों के िुरमुटे में सौम्य और शालीनता से अपने जीवन को जीतते हुए अक्सर कई बार ऐसा वि हबंदास श्मखलश्मखलाती हुई जीती िै

एक प्रश्न मेरी मीरां से -----वो जो मीरां मेड़तनी थी ं उसका कुछ तो अंश िै मुिमें भी पूछू​ूँगी उनसे कभी हमलेंगी तो वो... हक कृष्ण को कौनसा रूप मोहित कर गया था तुम्ें बालपने का नटखट गोपाला या हफर माखन ुराता कान्हा या हफर गोहपयों संग रास र ाता या तो सोलि िजार राहनयों का वो रहसक भरतार या अजुान का सारथी बन युधि की हवभीषका को अंजाम दे ता हकस भाव से समहपात थी ं तुम उस पाखंडी बिरूहपये पर कभी हमलेंगी तो पूछू​ूँगी उनसे ... क्ों तजा राजसी राज पाट उस हनमोिी के हलये क्ों हपया जिर का ्ाला क्ों हनष्काहसत हुई रनवास से क्ों राणा जी के काूँ टों से बोल सिे क्ों कुल द्रोहिणी किलाई तुम न राधा से ईश हुई तुम्ें न कभी रुक्मण से बैर हुआ पूछू​ूँगी उनसे कभी हमलेंगी तो वो .... क्ों नरसी का मायरा र कर आूँ खों में नमी दे गयीं तुम क्ों र े अनदे खी प्रीत के गीत क्ों छे ड़ा साज एक हवरि राग का संसार को हनस्सार समिकर तुम हकस हनहलाप्त हनहवाकार भाव से हवलीन िो गयी अपने कान्हा में एक बार तो बतला दो न... मीरां मेड़तनी ...!!

इंदस े नाु ंचत

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डॉ. हकरण वाहलया की कहवतायें

1)' वसीयत ' आज पूरी हो गई मेरी वसीयत कई ददनों से

मेरे कांपते हाथ

2) ' वो मैं नहीं थी ' सन ु ो !

कलम का बोझ सह नहीं पाते ... मेरी आूँखों को

कुछ कहने से पहले जान लो अपने तम् ु हारे बीच

ये जो ररश्ता है ना

न जाने क्यों धध ुं ला धुंधला ददखता.... मेरा यह मन

न जाने कौन से जन्द्मों का ददष समेटे था ... पर आज सब कज़ष उतार ददए मैंने । दे डाले सारे अंगारे उड़ेल ददया सारा प्यार अपनी ममता

इसे बार बार अंगारों पर चलना होगा तम ु वपघलोगे क्या बफष बन ... दे खो !

तपती दोपहरी में चलते चलते प्यासे थके पधथक को घनी छाया की तलार् है जैसे तुम अपने प्यार के साए में

थाम पाओगे यह तपता तन...

अपना ववश्वास

ठहरो !

अपनी पीड़ा

कदम अपने थामें रखो

अपना उल्लास

सूरज को हथेली में उगा

अपना उन्द्माद

मोम के पंखों को फैला

अपना संघर्ष

उड़ना है बादलों पार

अपने ररश्ते

उड़ सकोगे मेरे साथ

सारे नाते सब तुम्हें तनभाने हैं अब लो सलख डाला है अपना

दतु नया से हो बेपरवाह कहो !

वसीयनामा

इंदस े नाु ंचत

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मेरे हौसलों से लड़ न पाएगा मेरे चमकते चेहरे से अंगारों पर चलकर तपते तन को थाम या मेरे संग उड़ कर इक नया जहान बना ढल पाओगे मेरे संग तो ठहर जाना

डर गया वह कायर आदमी । र्ायद उसके सांचे में ढल सकती जो वो मैं नही थी वो मैं नहीं थी ।

लेफकन ... वह जा चक ु ा था

र्ायद जान गया था

इंदस े नाु ंचत

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सुर्ांत सुवप्रय की कववतायें 1. जागी नींद में

2. तयाि

धरती पर बहुत कुछ ऐसा है जो नहीं दे ख पाता हू​ूँ मैं :

यह ऐसे ही होता है

बाल मज़दरू ों का

फकंतु वह अपने साथ

तछन गया बचपन ऋतु के यौवन के समय

उखाड़ फेंके गए पौधे की व्यथा घरे लू कामकाज में ददन-रात वपसती

मैंने कहा -अकेले आना

पूरा वसंत ले आई मैंने कहा --

चप ु चाप आना

फकंतु वह अपने साथ

पक्षक्षयों का संगीत ले आई

पत्नी की थकान

मैंने कहा --

रक्त में टहल रही

फकंतु वह अपने साथ

चापलूसी और अवसरवाददता ... इसी तरह खल ु ी आूँखों से सो रहे और लोग भी तो होंगे

जो नहीं दे ख पाते होंगे हत्यारों को और

रात में आना

चब ुं नों का उजाला ले आई मैंने कहा --

कुछ मत कहना

फकंतु वह अपनी चप्ु पी में भी

चाहत के गूँज ू ते गीत ले आई

माससू मयत से कहते होंगे --

उसकी आूँखों में

कहाूँ हैं लार्ें यहाूँ ?

कोमल स्त्पर्ष अटके हुए थे उसके रोम-रोम में

फकतनी सुख-र्ांतत है चारो ओर

----------०----------

मद ु तनगाहें उगी हुई थीं ृ ल उसकी दे ह में महासागर दहलोरें ले रहा था सोने के समय भी उसका अंग-अंग जगा हुआ था ... ----------०----------

इंदस े नाु ंचत

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3. लापता का िुसलया उसका रं ग ख़र् ु नम ु ा था

क़द ईश्वर का-सा था चेहरा मर्ाल की रोर्नी-सा था वह ऊपर से कठोर

फकंतु भीतर से मुलायम था वैसे हमेर्ा

इंसातनयत पर क़ायम था अकसर वह बेबाक़ था कभी-कभी वह तघर गए जानवर-सा ख़तरनाक था उसे नहीं स्त्वीकार थी तुच्छताओं की ग़ल ु ामी उसे नहीं दे नी थी

तनकृष्टताओं को सलामी सम्भावना की पीठ पर सवार हो कर वह अपनी ही खोज में तनकला था

और ग़ायब हो गया

4. अिसास जब से मेरी गली की कुततया झबरी चल बसी थी

गली का कुत्ता कालू सुस्त्त और उदास रहने लगा था

कभी वह मझ ु े

फकसी दख ु ी दार्षतनक-सा लगता

कभी फकसी हतार् भववष्यवेत्ता-सा कभी वह मझ ु े

कोई उदास कहानीकार लगता कभी फकसी पीडड़त संत-सा वह मुझे और न जाने क्या-क्या लगता

फक एक ददन अचानक गली में आ गई एक और कुततया

गली के बच्चों ने ब्जसका नाम रख ददया चमेली मैंने पाया फक चमेली को दे खते ही

पुराने लोग बताते हैं फक

ख़र् ु ी से उछलते-कूदते हुए रातोंरात बदल गया

गाूँधीजी के सपनों का भारत

हमारा कालू

दे खने पर लगता था वह

----------०----------

फकतना आदमी-सा लगने लगा था वह जानवर भी अपनी प्रसन्द्नता में

इंदस े नाु ंचत

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काल - चक्र --------------

मुकेर् कुमार ऋवर् वमाष अपनी बढ़ती स्त्वाथषवब्ृ त्त पर लगा अंकुर् |

तनब्श्चत ही तेरा तनज तन-मन होगा खर् ु || संधचत - संपब्त्त रख सदा पावन - पववर | महाकाल की दृब्ष्ट यहॉ - वहॉ सवषर || झूंठ-कपट-छल कब तक साथ तनभायेगा |

एक -न- एक ददन यम के चाबुक खायेगा || व्यसन - प्रदर्षन में तनत सलप्त रहा | आनी - जानी माया का क्यों दास रहा || यहॉ राजा - जमींदार सब समट गये | तेरे जैसे फकतने आये और चले गये || काल - चि से कहीं नहीं कोई बच पाया | सद्ग्रंथो ने मनुज को र्ुरू से ही समझाया||

इंदस े नाु ंचत

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60

eSa o`{k gwa ---- ,d vlgk; o`{k

कांता झा Mkyksa ij esjs clsjs cls er Hkwy fd lH;rk dk rsjs j{kd gwa--Nkaoksa esa esjh rqeus xqt+kjs fdrus gh fnu lfn;ksa dk rsjk lkFkh gaw---epk dksykgy gj 'kke esjs bnZ&fxnZ esjs fcuk ugha gS rsjk Hkh vfLrRoA cPpksa ds [ksy Hkh ns[ks cqtqxksZa ds ppsZ Hkh lqus er [kksn vius fouk'k dh [kkbZ vius gh galh vV~Bgkl dzks/k jks"k gj Hkko ns[ksA gkFkksAa fdrus lkou ds u tkus fdrus >wys lts] vc Hkh oDr gS :d tk] laHky tk-oV cudj lqgkx cpk;k [kksy dj viuh vka[ksa ns[k--esagnh cu J`axkj jpk;k ftruh tM+sa rw [kksn jgk gS rks cwVh cu izk.k cpk;k! fouk'k ds vius mrus gh djhc tk jgk gSA dHkh Nr rks dHkh ltkoV lkgp;Z gekjk gS thou dk laxhr-gj t:jr dks fd;k ekSu Lohdkj ctus ns bldh gj /kqu] r; fd;k vlH; ls lH; rd dh jkg >we mBsxh /kjrh I;kjh js euq"; rsjs lkFkA >we mBsxh ekuork lkjhA ij D;k ns ik;k rw bl nku dk izfrnku \ xj jgk iYyfor eS-rwus rks esjs iRrksa] Qwyks]a 'kk[kks]a Nkyksa iYyfor gksxh /kjrh vkSj tkus fdu&fdu dk u fd;k mi;ksx iYyfor jgsxk rw rc Hkh u Hkjk th rks ,d fnu + vc QSlyk rsjs gkFkksa esa gS----fn;k esjs tM+ rd dks [kksn gkFk u dkais rfud Hkh + iSj u yM+[kM+k, iy Hkj dks Hkh---\ D;ksa Hkj u vkbZ vka[ks----\ D;k vkRek us Hkh u fd;k phRdkj fd ftldk rwus fry fry mi;ksx fd;k tks nsrk jgk rsjh ihf<+;ksa dks viuh Nkao esa iukg] gk;!!! vkt rw mldk gh Hk{kd cuk D;k lw[k xbZ laosnuk,a] ej xbZ Hkkouk,a \\

इंदस े नाु ंचत

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चरित्रिीन

डॉ सिला ससंि

सफेदपोर् चरररहीनो से , दतु नया पटी पड़ी है भाई। दौलत- चादर से ढककर,

कहलाते सबसे महान हैं। गरीब की इज्जत खरीदते, चरररवान फफरभी कहलाते। ऐसे चरररहीन प्राणी से तो ,

नारी को बनाया साधन ऐर् का। इनको ही चरररहीन कहते हैं परनारी का सम्मान न ब्जनमें । व्यब्क्त वस्त्तु में अन्द्तर न जाने ,

पर्ु को भी उत्तम कहना ।

वववर् वववर्ता को खरीदते ।

ब्जस नारी ने बाूँधी है राखी ।

ये ही असली चरररहीन हैं भाई ।।

ब्जस नारी ने जन्द्म ददया और जो नारी

इनको ही चरररहीन कहते हैं,

बेटी रूप में जन्द्मी,

उसका ही मोल लगाते सौदाई। चरररहीन इनको ही है कहते , जग के असली भार यही है । मानव होकर मानव को सताते, ईश्वर से भी न घबराते है पापी । इनको ही चरररहीन कहते है , पततत नहीं कोई इनसा भारी। दे वदासी से ले बारबाला तक ,

पररचय नाम: डॉ.सरला ससंह जन्द्मततधथ: 4अप्रैल जन्द्मस्त्थान: सुल्तानपुर,(यू.पी.) मूल तनवासी: दे वररया (यू.पी.) सर्क्षा:एम.ए,बी.एड.,पी-एच.डी.

संपकष: 180ए,पॉकेट ए-3,मयूर ववहार फेस -3,ददल्ली 96..

मोबाइल फोन नंबर: 9650407240 सम्प्रतत: टी.जी.टी.(दहन्द्दी),सर्क्षा ववभाग ददल्ली

इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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*स्िणालता 'विश्िफूल' की कविताएाँ* 1."जीिन : िनिे-रै कफक" _________________ कहाूँ आ पड़ी अकेली ? यहाूँ न आती माूँ-बाबा की 'पढ़ने बैठो' की आवाज़ें, न भैया की डाूँट, न छोटे भाई-बहन का प्यार, अचीन्द्हीं यहाूँ की घर की दीवार भी । न यहाूँ आूँगन पर खटर-पटर, कैसे हम खेला करते थे संग-संग, गुल्ली-कबड्डी / खो-खो और अन्द्य रं ग । बाबा की अूँगुली थाम बढ़ी,

माूँ की आूँचल बनी सौगात, कैसे माधचस की तीली-सी छोटी थी, क्यों बेवक्त अूँगारे बन गयी / बना दी गयी । अबतो है , मेरी बढ़ती उम्र से घण ृ ा,

पर, माूँ-बाबा की बढ़ती उम्र से भय, और ढलती काया से भयावहता, अब तो दादा-दादी भी नहीं है --

हम छह जने हैं / चार भाई-बहनें चारों अपनी-अपनी सेवा में व्यस्त्त, चारों कूँु वारे / भैया 42 पार ,

परे र्ाूँ माूँ-बाबा / क्या यही है , ब्जंदगी का सार । पररवार बसाना -- क्या है जरूरी ? पररवार तो मीराबाई भी बसाई थी, सोचती--कई भेडड़ऐं से अच्छा है / एक भेडड़या में दटक जाऊूँ ! एक स्त्री-- एकाकीपन से क्यों है घबराती ? या पुरुर्ों को भी ऐसा भय है सालता ! अनसलसमटे ड ब्ज़न्द्दगी, इंदस े नाु ंचत

बन गई है 'वनवे रै फफक' ख़र् ु ी तो इस बात की है / यही सोच....

समस्त्या नहीं यहाूँ कोई, 'रै फफक-जाम' की । ×× ×× ×× "चाक पि चढ़ी औित" _________________ सन्द् ु दर प्रततमा !

यौवन से उफ़नाती प्रततमा !! अप्रततम प्रततमा !!! सददयों पहले एक दक ू ानदार से

उस एकमार स्त्रीसलंग प्रततमा को-एक ग्राहक ने खरीदा / कुछ ससक्कों में ..... उस पुरुर् ग्राहक ने छूआ उसे,

कई जगह / उस नारी प्रततमा के-तनतम्ब को सहलाते-सहलाते कूल्हे तक, ओठ के फ़ाूँक से यौनांग तक,

गाल की रसगुल्लाई से छाती तक,

अपनी तजषनी से / मध्यमा से / अूँगुष्ठा से,

कतनष्ठा और अनासमका को छोड़, क्योंफक ये अंग उस मदष के कमजोर थे, फकन्द्तु वे उनकी बाल नहीं सहलाये,

पीठ सहलाये / िा के फ़ीते के अंदाज़न.... यौन-कंु ठा से पीडड़त उस मदष के अंदर थी अज़ीब छटपटाहट

इससलए असंतुब्ष्ट के ये आदमखोर ने उस सुन्द्दर प्रततमा,

यौवन से उफनाती प्रततमा,

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


63

अप्रततम प्रततमा--- को

और उसे अपने वीयष से सानकर/गूँथ ू कर

सीमें ट-ससरकी के रोड पर पटक-पटक

समट्टी का लौन्द्दा बना ददया

चरू -चरू कर डाला ।

और उसे चाक पर चढ़ा ददया

कहने को ये र्रीफ ने

कहा जाता है ---

अपनी र्रीफाई में है वानी का पेस्त्ट बनाकर

तब से ही औरत / चाक पर चढ़ी है । ×× ×× ××

प्रततमा के उस चड़ ू न को

ससला-पाटी में पीस डाला **किनयत्री स्िणालता 'विश्िफूल' : एक परिचय** _____________________________________ सर्क्षा:-एम। ए। (दहंदी), डी.एल.एड., परकाररता में डडप्लोमा । प्रकासर्त

कृततयाूँ:-बावन

लघुकथाएूँ

(सम्पादन, 2002), ये

उदास

चेहरे

(कववता

संग्रह,

2011), कोसी की नई जमीन (संकसलत, 2012) सदहत ववववध पर-पबरकाओं:- हं स, गगनांचल, संवददया, युद्धरत आम आदमी, फारवडष प्रेस, मंडल ववचार, अंबेडकर इन इंडडया, र्ुिवार,

समकालीन तापमान, पायस, दै तनक जागरण, नवबबहार इत्यादद में प्रकासर्त । आकार्वाणी और दरू दर्षन के कायषिमों में भागीदारी ।

पुरस्त्कार/सम्मान:-बबहार राष्रभार्ा पररर्द् पुरस्त्कार, बबहार राजभार्ा ववभाग पांडुसलवप अनुदान

पुरस्त्कार, भारतीय सांस्त्कृततक संबंध पररर्द् पुरस्त्कार, राष्रीय कबीर पुरस्त्कार, ब्जला गौरव सम्मान, ब्जला उत्कृष्ट सर्क्षक सम्मान इत्यादद ।

इंदस े नाु ंचत

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अपनों को अपना

तारा प्रजापत'प्रीत',

"गिीिी औि धमा"

जोधपुर(राज०)

बन्द्द करो लड़ना, मंददर और मब्स्त्जद के सलए

बनाकर रखना आसान नहीं है आजकल। सब कुछ करते हुए भी कोई खर् ु नहीं होता।

कोई न कोई सर्कायत तो बची रह ही जाती है , क्या करें ऐसा की सभी को खसु र्याूँ समल सके? न उलझो इस मुद्दे पर

अपने को खर् ु रखने की कला सीखलो,

क्योंफक ब्जंदगी में कभी पण ू वष वराम नहीं होता। अल्प ववराम के बाद

फफर से र्रु ु वात होती है । संभालना है प्रेम से

समटा कर अहम अपना अपने अपनों के संबंधो को

गर लड़ना है लड़ो ग़रीबी को दरू करने के सलए

हमारा एक ही धमष हैं एक ही ईमान हैं और भारत दे र् ही हमारी पहचान हैं ये ज़मीन के टुकड़े तो यही रह जायेंगे जो बोओगे आखख़रकार वही पाओगे न करवाओं तुम फ़साद इसके सलए

न बनो मवाद आपने बाख़द ु ा के सलये चाहें हम दहन्द्द ू हैं या मुसलमान हमारा लहु का रं ग एक हैं हमारी मातभ ृ ूसम भी एक हैं

फफर हम लड़ते हैं फकस बात के सलए इन लड़ाई-झगड़ों में रखा क्या है इन फ़सादों में ग़रीब ही मरता है घर से बेघर भी ग़रीब ही होता है बन्द्द करो ये फ़साद, बन्द्द करो ये नारे बाजी इंसातनयत के सलए

और,फफर

जी उठे गें मरे संस्त्कार फफर मरते ररश्तों को समलेंगा जीवन में प्राण-दान।

इंदस े नाु ंचत

-संध्या कुमारी

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65

मजदिू बदले फकतने मौसम जीवन में ,

चन्द्रशेखि प्रसाद

बदले फकतने गाूँव र्हर में | बदली फकतनी सरकारें सत्ता में , हुआ न पररवतषन मजदरू ों के हाल में || धचर कर चट्टान को भी, बनाते रहे जो रास्त्ते, सज ू रों के वास्त्ते| ृ न करते रहे इमारतें , दस

करके जतन, उनकी राहों का कांटा है छांटते,

दख ु मय जीवन जीकर भी, सख ु ही है बाूँटते|| धप ु में झुलसता गया, पसीनों से लथपथ रहा|

गरीबी में जीता, जीववका हेतु छटपटाता रहा||

झोपडड़यों में रहता, बाररस में घर टपटपाता रहा|

वो मजदरू ही है , जो मेहनत ईमान से जीता रहा|| ववर्मताओं में , वववर्ताओं में भी जो अवसर ढू​ूँढ रहा है |

ठे ले पर बेचता सामान वो, आवाज दे कर ग्राहक ढू​ूँढ रहा है ||

दै व कुवपत हो गए तभी तो, उनकी जुवां पर ताला रहा है|

भीख न माूँगा कभी, मेहनत से जीने का सलीका सीखा रहा है ||

टूटी चप्पल, फटा पजामा सर पर पगरी, मन में अरमान सलए,

भुज में र्ब्क्त है , पर रोटी नहीं भूख समटने को, थोड़ा सुख पाने को|

ऊूँची इमारतों पर, कोयला के खादानों में , गटर हो या मैदानों में ,

होली हो दीवाली हो ईद हो या हो मुहरष म, वे काम पर जाते हैं|| मुन्द्ना अब अठन्द्नी नहीं मांगता, गुडड़या गुमर्ुम रहती है ,

माूँ की दवाइयां खत्म होने को है , बीबी की फटी साररया हैं|

गहने उनके सारे धगरवी है , फफर भी मुझे दे ख मुस्त्कुरा लेती है ,

स्त्कूल जाने को ब्जद्द करते हैं बच्चे, अब तो मेरे आूँसू भी सुख गए हैं||

इंदस े नाु ंचत

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है रानी सारी हमें ही होनी थी बज ृ मोहन स्त्वामी 'बैरागी' है रानी कुछ यू​ूँ हुई फक उन्द्होंने हमें सर खज ु ाने का

और हमने तकलीफों को

जबफक वक़्त उनकी मुदट्ठयों में भी नही

घुटाकर मरा

लब पर जलती हुई सारी बात हमने फूँू क दी

हमने हयात फूंकने की ज़हमत उठाई

फक हमने सपनों की तरह

ताफक एक पीढ़ी बचा सकें।

आदमी दे खे,

प्यार के दरवाज़े हमारे सलए ससफष

जबफक 'सपने' फकसी गभाषर्य में पल रहे

स्त्कूलों की उबाससयों में दटफफन की तरह ही

वक़्त भी नही ददया, दे खा गया,

ससवाय इस ससद्धांत के

होते तो सारे अल्रासाउं ड घडड़यों की तरह बबकते

मुद्दों की तरह उठाया

जबफक 'रोना' कॉलेजों के र्ौचालयों में ही बाहर हमारे बनाये पोस्त्टर दम तोड़ते गए। और हड्डडयों के बुरादे को रोदटयों में समलाकर खाया

खल ु ते थे

खबरों के साथ हमने नींद के केप्सूल खाये, जबफक बीच रात पालने में खेलते

और हम वक़्त दे खने के सलए सर फोड़ते,

हमारे छोटे बहन-भाइयो का बदन

मेहूँदी की तरह लांछन लगाते,

अखबारों से पोंछा जाता रहा

कुत्तों की तरह बच्चे पालते,

खबरे थी

ससगरे टों की तरह घर फूंकते,

उनमे इसी दतु नयां के लोगों के मौत की

रक्तदान की तरह सझ ु ाव दे ते,

हमने बबस्त्तरों की चादरें खींच कर

एक हाथ से ताली बजाते,

अपने बदन और चेहरे को ढक सलया था

औरतें चडू ड़यों में छुपाती 'सह ु ाग'

समझदार प्रेसमकाओं की तरह।

और भाट परू ी रात गाते ववरुदावसलयाूँ

मह ु ल्लेदारी से ररश्तेदारी तक

आदमी बटुओं में 'सह ु ागरात' छुपाते

अपनी महानता के तनयमों में

सच बताऊूँ तो हुआ यूँू था फक जब हमने आज़ादी के सलए आवाज़ उठाई

सान्द्त्वना दे ने के बहाने

तो हमारी अंगुसलयां बफष की तरह जमी हुई समली, हमारे गलों में इंदस े नाु ंचत

हमने धरती रोककर उनका मांस सहलाया, पावरोटी सी फूली बाजुएूँ सलए फफरे ,

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आपब्त्तजनक दटप्पखणयाूँ

जबफक रे लगाडड़यों के आगे कटकर मरना

कागजों में ही सोई रही।

सस्त्ता था।

संयोग से

सबकुछ छीनने के बाद भी

आदमी ही हधथयार बनाया गया

उन्द्हीं सांसों में सहारा सलया गया

नौकरी ससफष ववज्ञापनों में रही,

जो ससफष 'सांस'ें थी

िब्न्द्तकारी तस्त्वीरों में चले गए,

और गुनाह ससफष इतना था

अंगूरों पर मौत सलखी गई,

की हमने

टीवी, रे डडयो और मोबाइलों पर ब्जंदगी

घटनाओं का ववरोध करना अपने बच्चों को

अब जाकर नर्ा टूटा

सौंपा !!

हमने उन्द्ही रास्त्तों में वपरोये दस्त्तखत

फकतने ददष छुपाएगी?

आज़ादी का असली मतलब दे खा उन्द्हीं सपनों को ब्जया जो हमारे सर काटना चाहते थे

इंदस े नाु ंचत

बेज़ुबां दास्त्ताूँ ये...

-

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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कववता ........ककसान .......

......प्रभात कुमार गुप्ता. चीर धरा की छाती को, भूखों का करने कल्याण,

हाथों मे हल को थामे फफर, खेती करने चला फकसान । फटा वस्त्र और जीणष र्रीर, ना समला ठीक से भोजन-नीर, फफर भी न थमता कमष महान, खेती करने चला फकसान । दे खो कैसी ववपदा आई, डूब गई जो फसल लगाई, नेताजी के वादों पर,

ठहराए अब दोनो कान, खेती करने चला फकसान । कभी मेहनत से जी न चरु ाया, बीज-खाद दे फसल उगाया, पर कीमत है धल ू समान,

क्यों खेती कर रहा फकसान।

इंदस े नाु ंचत

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गंज ु न गतु ता की कवितायें

- मेिा साहित्य------

( 2)

सादहत्य सरोवर के अगखणत

इक़ ख़त तेरे नाम सलखूँू मैं

प्रसन ू मझ ु े अतत प्यारे हैं

स्त्वप्न भरा पैगाम सलखू​ूँ मैं।

नव-प्राचीन रत्न भरे हैं

इंरधनर् ु की स्त्याही लेकर

जो मक् ु ता से उब्जयारे हैं।

पलकों को लेखनी बनाकर

पर्थ ृ वीराज की है र्ौयष कथा

है पदावली का सरु सभत गान,

पद्मावत का मुस्त्काता अमर-प्रेम वो

आसमान के भोजपर पर तुझको धरती का उपहार सलखू​ूँ मैं। इक़ ख़त तेरे नाम सलखू​ूँ मैं॥

साखी अरु रामायण है जीवनधर। , सतसई जैसे इक़ कनक संद ु री हर्ाषता हुआ वो प्रेम-सरोवर, साकेत बसे जहाूँ सभी हृदय में

कामायनी बहे बन पावन मानसरोवर। , जूही की कली इक राजकुमारी

नयनों के मक् ु ता चन ु -चन ु कर साूँसों की डोरी से बन ु कर

अपने अधर पटल पर वप्रयतम तझ ु को र्माषती मस्त् ु कान सलखू​ूँ मैं। इक़ ख़त तेरे नाम सलखू​ूँ मैं॥

ओढ़ तारों की खझलसमल चन ु री चंदा की मैं पहनूं मुंदरी

मधर् ु ाला की मादकता न्द्यारी,

अंधधयारी रातों के अंजन से

हुूँकार हमारी पहचान बने कभी असाध्य-वीणा की झंकार है प्यारी। , जहाूँ कनुवप्रया का परम समपषण

आिोर् पहुंचते संसद से सड़क तक, धरा करे तनत ् सूयष का स्त्वागत

तुझको सोलह श्रग ं ृ ार सलखू​ूँ मैं। इक़ ख़त तेरे नाम सलखू​ूँ मैं॥ नददयों की तरुणाई पर लहरों की अूँगड़ाई पर

सागर के खामोर् फकनारों पर

इठलाती है कववता में औरत। , ये तो मार हमारी एक व्यंजना है

तुझको ख़र् ु बू भीगी र्ाम सलखू​ूँ मैं।

नहीं क्षखणक भी अततरं जना है

साूँसें चन्द्दन सी महक जाए

सादहत्य लगे मुझे पुनीत मन्द्र सा सत्य है ईर् की ये वन्द्दना है ॥

इक़ ख़त तेरे नाम सलखू​ूँ मैं॥

तन यमुना सा पावन हो जाए मन मंददर का बना कन्द्है या तुझको वन्द्ृ दावन का धाम सलखू​ूँ मैं। इक़ ख़त तेरे नाम सलखू​ूँ मैं

स्त्वप्न भरा पैगाम सलखू​ूँ मैं॥ इंदस े नाु ंचत

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मैंने गीत सन ु ाये ~जयिाम जय में हदी रची हाथ जब तेरे तन ू े अश्रु बहाये

यही भावना थी मेरी पर मैंने गीत सन ु ाये अधरों की मोहक मुस्त्कानें हैं अतीत की बातें

नीरवता से भरी हुई हैं चन्द्दन जैसी रातें तारों को धगनते हैं उनकी यादें मीत बनाये कभी घेरते थे मुझको जो सूनी राहों में

वे सपने भी साथ नहीं अब मेरी बाूँहों में दे खो घना अंधेरा छाया कैसे उन्द्हें बुलायें कौन प्रयास करें बोलो फफर कैसे हरर्ेंगे जलते मरुथल में प्यासे ही कब तक तरसेंगे बादल के घर नहीं नीर नहीं तो कैसे प्यास बुझाये में हदी रची हाथ जब तेरे तूने अश्रु बहाये

यही भावना थी मेरी पर मैंने गीत सुनायें •• इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


71

डॉ. वप्रया सफ़ ू ी की कवितायें

कवितायेँ..... कुण्डसलया चौमासा मैंने पछ ू ा जेठ से, ठान रहे क्यों रार,

सजना मेरे संग हैं, तम ु क्यों खाते खार।

तम ु क्यों खाते खार, जलो बस तम् ु हीं अकेले, ददल की बाज़ी आज, प्रेम से हम तो खेले,

घनी छांव है प्रीत, वपय के संग क्या कहने, तम ु क्यों जलते आज, जेठ से पछ ू ा मैंने। ��� कारे घन आर्ाढ के, सन ु ले सारा गांव,

वपया संग समलती मझ ु ,े पीपल जैसी छांव। पीपल जैसी छांव, समले तो भल ू न जाना, खड़ी खेत में ईख, मेह से उसे बचाना,

प्रीत फकया मदहोर्, भल ू ती नाते सारे ,

भध ू र रखना याद, छा रहे बदरा कारे । ��� सावन आया झम ू के, तनमन बहके आज, बूँद ू बूँद ू से रस ढले, बजता है ज्यू​ूँ साज।

बजता है ज्यू​ूँ साज, वपया भी रस में डूबे, काम जगाए मान, प्रीत से मन न ऊबे,

समले गात से गात, खेल है यह मनभावन,

समला वपया का साथ, झम ू के आया सावन। ��� भादों में तनमन जले, सांसों में है आंच,

घट ु घट ु कर बीते नहीं, मास ददवस भी पांच। मास ददवस भी पांच, दरू मत जाओ साजन,

तम ु बबन तनकले प्राण, नहीं लगता है यह मन, वादा करलो आज, रहू​ूँगी मैं यादों में ,

झूठी मत कर प्रीत, साजना यूं भादों में । �����

इंदस े नाु ंचत

सन ु ो वप्रय...

सन ु प्रीतम बात कहूं तम ु से, कर प्रीत जरा गहरी गहरी, फफर टीस उठे कुछ भाव जगे, इस ठाूँव रहे कववता ठहरी।

चल दीप जला फफर र्ाम ढले, जब प्राण प्रतीक्षक्षत द्वार खल ु ,े

तम ु लौट कभी जब आन समलो, गम भल ू सभी मन ताप धुल,े

अब आस रहे मन में पलती, अनरु ाग पगी रहती सगरी...!

फफर टीस उठे कुछ भाव जगे....! सन ं ु जीवन के मधरु ाग तम् ु हीं, वन चन्द्दन का मधग ु ध तम् ु हीं,

सजते मन में नवगीत तम् ु हीं, मनभावन सा लय छं द तम् ु हीं,

तम ु ही भरते अब र्ीतलता, महकी तम ु से मन की नगरी...!

फफर टीस उठे कुछ भाव जगे....! तम ु पायल की झनकार बने,तम ु से खनके खन कंगन की,

पग आज महावर प्यार रचंू, तन रे र्म सी मद रं जन की,

अतत मोहक से अतत पावन से, अनरु ाग भरे मन के प्रहरी

फफर टीस उठे कुछ भाव जगे, इस ठाूँव रहे कववता ठहरी....!

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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कविता पिु ानी यादें

बाररस की बूंदों में अपने को सभगोकर आना।

डॉ मोननका शमा​ा

घर पे आकर माूँ से डांट खाना। वक्त का क्या दौर था। तब टी. वी पर भी पहरा था।

धारावादहक दे खने को आूँगन भर जाता था। चला जाये सस्नल,पकड एंटीना बैठते थे। एंटीना पकड़े ही सारा धारावादहक दे ख जाते थे। ना धप ू की परवाह थी,ना थी कोई बैचनी। स्त्वच्छ वायु मंडल में करते थे मनमानी।

चहुूँ ददर्ाओं में हम ही हम नज़र आते । गाूँव भर को भरी दोहपरी नंगे पांव नाप जाते। आम अमरुद के बाग में जाना। भरी गमी में धमाचौकड़ी मचाना। साूँझ ढ़लते ही घर याद आना। दे ख सरू त हमारी माूँ प्यार लट ु ाने आती। वो यादों का ररमखझम सावन,

था बहुत मनभावन। पावन हॄदय से सब को चाहा। सबका प्यार हमने पाया। परु ानी यादों का वो दौर था कुछ और।।

पररचय

:

दहंदी सहायक आचायष दहंदी महाववद्यालय है दराबाद तेलंगाना। अब तक मेरी 18 कववताएूँ प्रकासर्त हो गयी है । 22 आटीकल प्रकासर्त हो कर आ गए है दो बार रे डडयो कायषिम का अवसर समल चुका है 5 दहंदी लेखन में सम्मान ।

1,दहंदी सेवा सम्मान -हररयाणा ग्रूँथ अकादमी से 2,र्ोधश्री सम्मान -धगना दे वी संस्त्थान से सभवानी हररयाणा,3,सादहत्य सर्रोमखण उत्तर प्रदे र् से,4,वाचस्त्पतत मानद उपाधध सम्मान उत्तर प्रदे र् से,5,दहंदी लेखन के सलए दहंदी ववश्व संस्त्थान कनाड़ा से ।

इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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vuke fj’rk

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इंदस े नाु ंचत

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विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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िाजेश पुिोहित के गीत

1. गीत:-

2. दे र् सेवक:-

पीत पात झड़ गए

सच्चे दे र् सेवकों की अब कमी लगती है ।

लोग सारे कह गए

सभ ु ार् भगत आज़ाद की अब कमी लगती है ।।

घर की जो र्ान थे हम सब की आन थे आज वो कहाूँ गए बात जरा सी थी

चहुूँ ओर दहंसा ने पैर जमा सलए हैं दे खो।

आज के दौर में दे र्भक्तों की कमीं लगती है ।। उठा भुजा जो चले रण में र्रु सारे उखाड़ दे । ऐसे महावीर की आज कमी लगती है ।।

मगर वो तो अड़ गए

स्त्वाथषपरता की आंधी उड़ाती अब संस्त्कारों को।

दाूँत पीस पीस कर

घर पररवारों में ररश्तों की कमी लगती है ।।

वो अब झगड़ रहे

सोच नहीं समपषण की पहले जैसी अब लोगों में ।

दे ख सारे हाल हम

सदववचारों के ववस्त्तार की अब कमी लगती है ।।

इतना समझ गए आये बुढापा न कभी सारे लोग कह गए

'कवव राजेर् पुरोदहत'

जीवन पररचय:वपता का नाम - सर्वनारायण र्माष माता का नाम - चंरकला र्माष जीवन संधगनी - अतनता र्माष जन्द्म ततधथ - 5 ससतम्बर 1970 सर्क्षा - एम ए दहंदी सम्प्रतत अध्यापक रा उ मा वव सुसलया

प्रकासर्त कृततयां 1. आर्ीवाषद 2. असभलार्ा 3. काव्यधारा सम्पाददत काव्य संकलन राष्रीय स्त्तर की पर पबरकाओं में सतत लेखन प्रकार्न

सम्मान - 4 दज़षन से अधधक सादहब्त्यक सामाब्जक संस्त्थाओं द्वारा सम्मातनत अन्द्य रुधच - र्ाकाहार जीवदया नर्ामुब्क्त हे तु प्रचार प्रसार,पयाषवरण के क्षेर में कायष फकया

इंदस े नाु ंचत

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पररतोर् कुमार 'पीयर् ू ' की कववतायें 1. इस कदठन समय में ! --------------------------------इस कदठन समय में

2. ठगी जाती हो तुम! --------------------------पहले वे परखते हैं

जब यहाूँ समाज के र्लदकोर् से

तुम्हारे भोलेपन को

ववश्वास, ररश्ते, संवेदनाएूँ और प्रेम नाम के तमाम र्लदों को समटा ददये जाने की मुदहम जोरों पर है ०

तौलते हैं तुम्हारी अल्हड़ता नाूँपते हैं तुम्हारे भीतर

संवेदनाओं की गहराई०

तुम्हारे प्रतत मैं

फफर रचते हैं प्रेम का ढ़ोंग

फक आखखर तुम

ददखाते हैं तुम्हें

बड़े संदेह की ब्स्त्थतत में हू​ूँ अपनी हर बात अपना हर पक्ष मेरे सामने इतनी सरलता

फेंकते है पार्ा साब्जर् का आसमानी सुनहरे सपने०

और सहजता के साथ कैसे रखती हो०

जबतक तम ु जान पाती हो

हर ररश्ते को

वहर्ी नीयत के बारे में

तनश्छलता के साथ जीती

वे तम् ु हारी इजाजत से

इतनी संवेदनाएूँ कहाूँ से लाती हो तम ु ० बार-बार उठता है यह प्रश्न मन में

उनका सच! उनकी साब्जर्!

टटोलते हुए तम् ु हारे वक्षों की उभारें

रौंद चक ु े होते हैं तम् ु हारी दे ह०

क्या तुम्हारे जैसे और भी लोग

उतार चक ु े होतें हैं

दे खकर तुम्हें

अपने यौवन का खम ु ार

अब भी र्ेर् हैं इस दतु नया में थोड़ा आर्ाब्न्द्वत होता हू​ूँ० खखलाफ मौसम के बावजूद तुम्हारे प्रेम में

कभी उदास नहीं होता हू​ूँ०

अपने ब्जस्त्म की गमी समटा चक ु े होतें हैं

अपने गुप्तांगों की भूख० और इस प्रकार तुम

हर बार ठगी जाती हो अपने ही समाज में अपनी ही संस्त्कृतत में अपने ही प्रेम में

इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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अपने ही जैसे तमाम र्क्लों के बीच०

मुठ्ठी भर वक्त जीता हू​ूँ उन तनर्ातनयों के साथ बीते ददनों में

. 4. हमेर्ा तो नहीं

हर बार की तरह

पर हाूँ जब भी कभी तम् ु हारी याद आती है टटोलकर अपनी आलमीरा से तनकालता हू​ूँ

पुरानी बंद पड़ी एक घड़ी बबना ब्जल्द वाली डायरी

छूटे हुए तम् ु हारे एकाध वस्त्र टूटे हुए तुम्हारे कुछ बाल

फफर थोड़ा पत्थर होता हू​ूँ अपने आप से वायदे करता हू​ूँ फक लौटा दूँ ग ू ा ये तमाम तनर्ातनयाूँ तम् ु हें इस उम्मीद के साथ फक कभी न कभी वक्त के फकसी न फकसी ससरे पर तो तुम समलोगी०

ब्जसे अपनी फकसी अल्सायी सुबह कमरे से उठा सहे ज रखा था मैंने पररचयः नाम- पररतोर् कुमार 'पीयूर्' जन्द्म- 28/10/1995

जन्द्म स्त्थान- जमालपुर (बबहार) सर्क्षा- बी०एससी० (फफ़ब्जक्स) रचनाएूँववसभन्द्न सादहब्त्यक पर-पबरकाओं,ललागों,ई-पबरकाओं एवं साझा काव्य-संकलनों में कववताएूँ प्रकासर्त। संप्रतत- अध्ययन एवं स्त्वतंर लेखन। मो०-7870786842,7310941575 ईमेल- 842pari@gmail.com

इंदस े नाु ंचत

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गजल क़ाससम िीकानेिी जैसे गज़ ु र रही है मैं कैसे गज़ ु ार दं ू |

ए ब्ज़ंदगानी आ तेरा कज़ाष उतार दं ू || आलद ू गी से हो गया चेहरा तेरा ख़राब |

चमन चमन खखला हुआ कली कली तनखार है | जहां में आज हर तरफ मह ु लबतें हैं प्यार है ||

जैसे नई दल् ु हन को सजाते हैं र्ौक़ से |

खखले हुए है गच ुं े सब फ़ज़ा भी ख़ुर्गवार है | बसंत है तो हर तरफ बहार है बहार है ||

बस इक नज़र मेरी तरफ जो दे खो प्यार से |

भरी हुई है ख़ुर्बओ ू ं से आज तो बयार है | हवाएं झम ू ती है और बज रहा ससतार है ||

मेरी तमन्द्ना है तेरा चेहरा तनखार दं ू ||

मैं हुस्त्न को तम् ु हारे कुछ ऐसे संवार दं ू ||

मैं उसके बदले तम ु को बेर्म ु ार प्यार दं ू ||

ले लीब्जए हमारा ददल ये जान भी सलजे |

कुछ और चादहए तो कहो तझ ु पे वार दं ू || अपना सक ु ू नो-चैन तेरे नाम कर ददया |

फफर भी तसल्ली न हो तो कैसे क़रार दं ू || जीने नहीं दे ती है ये 'क़ाससम' को ख़्वादहर्ें | लेफकन मैं चाहता हूं फक मैं इनको मार दं ू ||

बसंती रुत के आने से बझ ु ा हर इक र्रार है | मसरष तें जहां नहीं वो कौनसा

दयार है ||

हसीन है ये बदसलयां घटाओं में ख़ुमार है | बसंत का बहार से क़रार है क़रार है ||

ये रं गो-बू की तनकहतें हर इक र्जर हरा-भरा | लगे ज्यूं सहरा में बरसती रस भरी फुहार है || ये गन ु गन ु ाते भंवरे और कोयलों की नग़्मगी |

ये मोर रक्स कर रहे ख़र् ु ी का ये त्यौंहार है || इन आंखों ने समंदरों की लहरें जब से दे ख ली | तो यूं लगा फक सागरों में उठ रहा ज्वार है || हसीन लम्हे जो समले बसंत के तो हो गई |

हमारी ब्ज़ंदगी भी 'क़ाससम' आज ख़ुर्गवार है ||

इंदस े नाु ंचत

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क़ाससम िीकानेिी की नज़्म

'उस हदन िी अपना िसंत िोगा' जब हरसू होगी हररयाली और दे र् में होगी ख़र् ु हाली

जब ख़सु र्यों की बाररर् होगी न होगी ग़म की र्ब काली

उस ददन ही अपना बसंत होगा उस ददन ही अपना बसंत होगा जब ज़ात धमष पे हम सब यंू आपस में लड़ना छोड़ेंगे जो हम को लड़ाना चाहे गा हम उसकी आंखें फोड़ेंगे

उस ददन ही अपना बसंत होगा उस ददन ही अपना पसंद होगा जब हम सब समलकर भारत को सरताज जहां का कर दें गे दहंदस्त् ु तां के दामन को जब हम सब ख़सु र्यों से भर दें गे

उस ददन ही अपना बसंत होगा उस ददन ही अपना बसंत होगा जब भूख से कोई भी ग़रीब न अपनी जान गंवाएगा

जब अबलाओं पर कोई दे र् में ज़ुल्म नहीं कर पाएगा

उस ददन ही अपना बसंत होगा उस ददन ही अपना बसंत होगा जब गद्दारों के हाथों में हम दे र् का ताज नहीं दें गे ये वा'दा कर लो ख़द ु से तम ु फफर उनको राज नहीं दें गे

उस ददन ही अपना बसंत होगा उस ददन ही अपना बसंत होगा हम प्यार की अपनी बोली से दतु नया को अपना कर लें गे जब नफ़रत करने वाले भी हमको बाहों में भर लेंगे

उस ददन ही अपना बसंत होगा उस ददन ही अपना बसंत होगा

इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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मिे ि​ि ु सोनासलया की गजलें

ब्ज़न्द्दगी तम ु हो मौत भी तम ु हो। राहत ए कल्ब तम ु ख़र् ु ी तम ु हो। तुम नहीं हो तो कुछ नहीं है यहाूँ

है अगर कुछ तो वो तुम ही तुम हो। एक मुद्दत से साथ है मेरे

कौडड़यों में ही जहां सर भी बबका करते है क्या भला ऐसे में दस्त्तार की कीमत होगी। अश्क से करना वजू ससख सलया है मैंने।

कब र्ुरू रूह की क्या जाने इबादत होगी

रोज़ लगता है अजनबी तम ु हो।

चेन से सोया है फूटपाथ पे महबब ू कोई

मैं तुम्हारे बबना नहीं कुछ भी

होगी।

तीरगी मैं हू​ूँ रोर्नी तुम हो।

तल्खी ए ग़म से कौन डरता है ? मेरे जीवन की चार्नी तम ु हो।

महे बब ु सोनासलया 2. मुझपे गर उसकी कभी चश्मे इनायत होगी।

जागती र्ायद उस इंसान की फकस्त्मत

नरू े महबब ू जो बेपदाष नजर आ जाए

फफर तो सलल्लाह उसी रोज़ कयामत होगी। महे बब ु सोनासलया। 3. लबों पर मुस्त्कुराहट चाहता हू​ूँ। ददखावे की सजावट चाहता हू​ूँ।

होगी।

बहुत ददन सज चक ु ी चेहरे पे खसु र्याूँ। मैं अब गम की सलखावट चाहता हू​ूँ।

जब भी इन्द्सान को इंसान से चाहत होगी।

करम फरमा मेरे खामोर् घर पे।

फफर तो हर र्य में महोलबत ही महोलबत

इस जमीं पे ही मेरे दोसतो जन्द्नत होगी।

तेरे क़दमों की आहट चाहता हू​ूँ।

पार लगते हैं भरोसे पे सफफ़ने डूबे

रहे गा फफर न संजीदा कोई भी।

पर भरोसे पे ही जी ने में मुसीबत होगी।

अदाए उसकी नटखट चाहता हू​ूँ।

फफर भला कैसे मसीहा भी गमो से दे

लहद सी तंगदस्त्ती सोच में है

तनजात ज़ल् ु म सहने की अगर आपको आदत होगी। दश्ु मनी को जो तनभाता हो बड़ी सर्द्दत से जाने क्या होगा अगर उसको महोलबत होगी। इंदस े नाु ंचत

बदलना जब भी करवट चाहता हू​ूँ। ख़र् ु ी सर चढ़के जब भी बोलती है । गमो की चौधराहट चाहता हू​ूँ।

मेरे महबब ू क्यू​ूँ भटकू में दर दर।

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तुम्हारे दर की चौखट चाहता हू​ूँ।

महे बुब सोनासलया 4. महोलबतों का समन्द् ु दर उदास रहता है ।

न जाने क्यू​ूँ मेरा ददलबर उदास रहता है । बबना वही का पयम्बर उदास रहता है । ये कैसा र्हर है र्ायर उदास रहता है ।

समज़ाज कौन समज पाया नस्त्ल ए आदम का। ग़मो को धल ु चटाकर उदास रहता है । अजीब र्ख्स है महबूब नाम है उसका

सभी से हो के भी बहे तर उदास रहता है

खद ु ा ही जाने वो काटे गा ब्ज़न्द्दगी कैसे?

महे बब ू सोनासलया। 5. अश्क पलकों पे ठहर जाते है ।।

जो अपने आपसे हो कर उदास रहता है ।

तेरी रुसवाई से डर जाते है ।

हमारी वपठने ससख है दे खना जब से।

खद ु की नजरों से उतर जाए जो

तुम्हारे हाथ का खंजर उदास रहता है ।

जीते जी लोग वो मर जाते है ।

है एक र्ख्स यहाूँ ब्जंदगी जरा सन ु ले।

भागते रहते है इन्द्सान मगर

जो तेरे नाम से डर कर उदास रहता है ।

बेखबर खद ु है फकधर जाते है ?

तेरे बगैर गुजारी है ब्ज़न्द्दगी जैसे।

क्यू​ूँ खद ु ा से नही डरते हम लोग

भला क्या रं ग ये तालीम लाई बच्चे की।

जैसे इक पेड़ हू​ूँ मैं सायादार ग़म सभी ब्जस में ठहर जाते है ।

पररंदा उड़ गया ,वपंजर उदास रहता है ।

वो बचपने में भी अकसर उदास रहता है । हमारी प्यास तो पीने लगी सराब मगर न जाने फकस लीए सागर उदास रहता है ।

इंदस े नाु ंचत

ससफष र्ैतान से डर जाते है ।

सादगी हुस्त्न से भर जाती है । जब भी अख़लाक़ संवर जाते है ।

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डॉ िाकेश जोशी की गजलें 1 ग़रीबों का ज़रा-सा भी तनवाला कम नहीं होता तुम्हारे इन अूँधेरों से उजाला कम नहीं होता

सुना है वक़्त भरता है सभी के घाव दतु नया में हमारे पाूँव का तो एक छाला कम नहीं होता

फकसी मकड़ी से समलकर फफर हमें ये पूछना होगा हमारे मन में फैला क्यों ये जाला कम नहीं होता हज़ारों रं ग समलकर ख़ब ू दतु नया को सजाते हैं

मगर रं गों के भीतर जो है काला कम नहीं होता

परिचय:

जन्मनतधथ: 09/09/1970 प्रकासशत कृनतया​ाँ: "कुछ िातें कविताओं में "

(काव्य-पुप्स्तका), “पत्थिों

के शि​ि में” (गजल संग्रि)

अनूहदत कृनत: हिंदी से अंग्रज े ी “द क्राउड िेअसा वि​िनेस” (The Crowd Bears Witness)

कहाूँ दररया, समंदर ढू​ूँढते रहते हो तुम हरदम

संप्रनत: िाजकीय स्नातकोत्ति मिाविद्यालय,

अगर हैं आदमी के ख़्वाब सारे ही समटाने तो

प्रोफेसि (अंग्रज े ी)

सफाई के सलए तो एक नाला कम नहीं होता

डोईिाला, दे ि​िादन ू , उत्तिाखंड में अससस्िें ि

जो है अब हाथ में तेरे वो ताला कम नहीं होता

2 सूखी धरती, सूना अंबर फकसको अच्छा लगता है

सपनों में भी कोई बेघर फकसको अच्छा लगता है धचडड़या जब उड़ती रहती है सबको अच्छी लगती है धचडड़या का टूटा-सा पर फकसको अच्छा लगता है बादल से लड़ना ही होगा सारी दतु नया वालों को

खेत कहीं पर कोई बंजर फकसको अच्छा लगता है जंगल में जाकर कुछ वादे करके तो आ जाते तुम

र्हरों की सड़कों पर बंदर फकसको अच्छा लगता है आूँखों से आकार् बड़ा हो जाए तो चल सकता है आूँखों से भी बड़ा समंदर फकसको अच्छा लगता है ज्ञानी-ध्यानी बता गए हैं दःु ख का कारण दतु नया में

ख़द ु से अच्छा, ख़द ु से सुंदर फकसको अच्छा लगता है

इंदस े नाु ंचत

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अशोक अंजम ु की गजलें

एक

ये बच्चा क्या ही बच्चा है ख़द ु ा का नूर पाया है

जो गुल्लक तोड़कर अपनी दवाई माूँ की लाया है ग़लत करने चले जब भी तभी अन्द्दर कोई बोला सदा ब्जसने भी ये सुन ली क़दम पीछे हटाया है समले हैं ख़ब ू व्यौपारी, ईमानों के वो सौदागर

मेरी गुरबत ने मुझको हर क़दम पे आजमाया है अूँधेरों ने ददए न्द्यौते हमें अक्सर बल ु न्द्दी से

नफ़ा-नक ु सान कब दे खा उजालों से तनभाया है मस ु ाफफर वो कभी मंब्ज़ल तलक पहुूँचें बहुत मब्ु श्कल ज़रा-सी धप ू से ब्जनका इरादा डगमगाया है उसल ू ों की तरफदारी में गज ु री है उमर सारी

हवाओं ने तो की कोसर्र् ददया बुझने न पाया है कोई गाता है छुप-छुप के कोई खल ु कर सुनाता है मुहलबत गीत वो है ब्जसको सबने गुनगुनाया है

पररन्द्दे उड गये आकार् में ऊूँचे, बहुत ऊूँचे सर्कारी आज फफर जंगल से खाली लौट आया है सफ़र में धप ू फकतनी हो मगर रहती है ठं डक-सी सफ़र में साथ मेरे माूँ के आर्ीर्ों का साया है

इंदस े नाु ंचत

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दो

खाना- पीना, हं सी-दठठोली , सारा कारोबार अलग ! जाने क्या-क्या कर दे ती है आूँगन की दीवार

अलग !

पहले इक छत के ही नीचे फकतने उत्सव होते थे, सारी खसु र्याूँ पता न था यू​ूँ कर दे गा बाज़ार

अलग !

पत्नी, बहन, भासभयाूँ, ताई, चाची, बुआ, मौसीजी

सारे ररश्ते एक तरफ हैं लेफकन माूँ का प्यार

अलग !

कैसे तेरे - मेरे ररश्ते को मंब्जल समल सकती थी कुछ तेरी रफ़्तार अलग थी, कुछ मेरी रफ़्तार अलग ! जाने फकतनी दे र तलक ददल बदहवास-सा रहता है तेरे सब इकरार अलग हैं, लेफकन इक इनकार अब पलटें गे,

अलग !

अब पलटें गे, जब-जब ऐसा सोचा है

'अंजम ु जी' अपना अन्द्दाज़ा हो जाता हर बार

अलग !

तीन खझलसमल-खझलसमल जाद-ू टोना पारा-पारा आूँख में है बाहर कैसे धप ू खखलेगी जो अूँधधयारा आूँख में है

यहाूँ-वहाूँ हर ओर जहाूँ में ददलकर् खब ू नज़ारे हैं

कहाूँ जगह है फकसी और को कोई प्यारा आूँख में है एक समन्द्दर मन के अन्द्दर उनके भी और मेरे भी मंब्ज़ल नहीं असंभव यारो अगर फकनारा आूँख में है परवत-परवत, नददया-नददया, उड़ते पंछी, खखलते फूल बाहर कहाूँ ढू​ूँढते हो तुम हर इक नज़ारा आूँख में है

इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


84

चैन कहाूँ है , भटक रहे हैं कभी इधर तो कभी उधर पाूँव नहीं थमते हैं ‘अंजुम’ इक बंजारा आूँख में है । रचनाकार पररचय : अर्ोक अंजुम(अर्ोक कुमार र्माष ) १५ ददसम्बर ६६ ( गाूँव : दवथला, ब्जला : अलीगढ़ ) बी.एस-सी , एम ्.ए ( अथषर्ास्त्र , दहन्द्दी ) बी.एड ,

17 मौसलक और 35 सम्पाददत पुस्त्तकें प्रकासर्त ! / ववसभन्द्न भार्ाओं

में रचनाओं का अनुवाद ! /

" अर्ोक अंजुम : व्यब्क्त एवं असभव्यब्क्त " पुस्त्तक श्री ब्जतेन्द्र जौहर द्वारा सम्पाददत ! / पाठ्यिमों में रचनाएूँ ! /

दज़षनों र्ोध ग्रंथों में प्रमुखता से उल्लेख !

काव्य मंचों पर व्यंग कवव , ग़ज़लकार, दोहाकार के रूप में चधचषत ! "अलीगढ़ एंथम" के रचतयता ! टी.वी. के दज़षनों चैनल्स पर अनेकों बार काव्य पाठ ! दज़षनों सम्मान , दज़षनों पुरस्त्कार !

इंदस े नाु ंचत

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85

निगीत अिनीश त्रत्रपाठी के निगीत 【एक】 रास्त्ते मुड़ गये -------------------

रथ कई गुजरे

हाल हब्स्त्तनापुर

से आज तक,

दय ु ोधन धमकाये

यहाूँ

धमष के पथ से

भीड़ संर्य में खड़ी बततया रही, रास्त्ते चप ु चाप

जाकर मड़ ु गये।। कन्द्दराएूँ चीखतीं पवषत

असरु

के राज तक, आहटें ,हलचल अधधक ब्जससे समलीं, लोग उस इततहास से ही जुड़ गये।।

खड़े हैं, मौन हैं, रात को अंधे

【दो】

कुएूँ में

झाूँकते ये कौन हैं? हम रहे अनजान हरदम ही यहाूँ,

बचावें राम रमैया ---------------------अपने पूरे रोब दाब से चढ़ा करे ला नीम

हाथ के तोते

बचावें राम रमैया।

अचानक उड़ गये।। घड़ ु सवारों

टूट गई

खदटया की पाटी

की तरह ही

बैठे,सोये फकस पर,

पीठ पर कसने लगीं,

अब उधार

मत्ृ य-ु र्ैया

की बात करे क्या

पर अचानक

धगरवी छानी-छप्पर,

ससलवटें गढ़ने लगीं, धप ू की सतहें

कसी हैं जीन सी राह के हमददष लैया-गुड़ गये।।

लेटे हैं टूटे मचान पर चप्ु पी और नसीम

बचावें राम रमैया। बंधक है लाचार व्यवस्त्था फकससे व्यथा सुनाये,

इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017

जैसा अब

राजनीतत की दर्ा हो गई जैसे नीम-हक़ीम बचावें राम रमैया। मंददर-मब्स्त्जद चचष हर जगह आडम्बर-सम्मोहन, माूँग और आपूततष धासमषक

व्यापारों के बन्द्धन टुकड़े-टुकड़े गये बबखेरे फकतने राम-रहीम

बचावें राम रमैया। 【तीन】 पसीने छूट रहे हैं ----------------------ककष रासर् से

मकर रासर् तक मौसम है ग़मगीन पसीने छूट रहे हैं। ववर्धर जैसा फन फैलाये धचलक रहा है सूरज, धप ू कूँु वारी

चमक रही है जैसे कोरा कागज,


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क्षणभंगुर

छाया बादल की उघरी दे ह जमीन पसीने छूट रहे हैं।। थकी हुई खखड़की पर बैठी तनपट अभाधगन परु वाई, हाूँफ रहे

इंदस े नाु ंचत

ददन-सुबह-साूँझ पर रातें करें दढठाई,

ऊूँघ रही पेड़ों के नीचे छाया मोट-महीन पसीने छूट रहे हैं। उथली नददयों के पारं गत जलचर भी उतराये,

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017

रे त भा्य में सलखी हुई अब अपने प्राण गंवाये प्रश्न अढाई गन ु ा बढ़े तो उत्तर साढ़े तीन

पसीने छूट रहे हैं।


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सशिानंद ‘सियोगी’ के निगीत

कहो कबीर !

महूँगाई का हाल बुरा है

कहो कबीर ! समला है तम ु से ? ऐसा तल ु सीदास

चप्ु पी की हड़ताल नहीं बुझा पाया जो अब तक

मूँग ू फली की प्यास

सुख-सुववधा का परम समर है

आता अस्त्सी घाट कहीं सुना है

र्लद अपादहज

लोग बताते

ददल्ली का है लाट फटकी नहीं

कुछ-कुछ नजला

कोई हवा-बतास

छुटकी को है

कुछ-कुछ खाूँसी

कार्ी छोड़ बसे तुम मगहर होगी कोई बात

खल ु ी सड़क पर

घर की हालत ठीक नहीं है आई धचट्ठी

तुम्हें छोड़कर

कल मैके से

होगी सोई रात ब्जसके घर तक नहीं पहुूँचता सड़कछाप उपवास माना ! हुआ ववकास बहुत कुछ इंदस े नाु ंचत

मौनीबाबा बड़की को है

असुववधा कोई

रोटी है बेहाल

२.

गई भतीजी पैदल घर से बाप वकील ससपाही भैया

घरवाली भी पहुूँची झाूँसी घर की हालत ठीक नहीं है बड़का पैसा माूँग रहा है भरती उसका जनमा बेटा जनमा है वह दब ु ला-पतला

‘बाल बादटका’ में है लेटा बता रहा था र्ाली उसकी लगा गई है कल ही फाूँसी घर की हालत ठीक नहीं है बदली भार्ा की पररभार्ा र्लद अपादहज मौनीबाबा अलग चौपई रहा अलापा पड़ा अकेला दखु खया ढाबा है खखससयाई काली माई

मम्मी मुखखया तनकली डर

‘सुतन-सुतन आवत’ ‘जब-

बबना बताये

घर की हालत ठीक नहीं

से

बबना कहे कुछ

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017

तब हाूँसी’ है


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३. पढ़े पैंतरा नया पहाड़ा

अलाव जलाना अच्छा

सभी चढ़ावे

लगता है

खर् ु बू पहुूँचाये

सागर का हो एक फकनारा

समलजुल बैठ

कहीं बततयाना अच्छा लगता है

झाूँक रहा हो खझलसमल तारा दरू कहीं पर

तब कुछ थोड़ी बात बनी है

मौसम खास हुआ संगत ही कुछ ठीक नहीं थी

नाव खड़ी हो

मददरा पीता था

खेल रही हो उससे धारा

और भाूँग की

जकड़ा है सम्वाद पुराना

समलजुल बैठ

दटफकया खाकर

छे ड़ाखानी

लगता है

बीड़ी-खैनी

आज व्यस्त्तता की बाहों में संबंधों में

छे ड़ा है अततवाद तराना समलजुल बैठ

कहीं कुछ खाना अच्छा लगता है

फुरसत के पल

कसलल मुसकाना अच्छा

४.

पढ़े पैंतरा नया पहाड़ा

था अनुप्रास हुआ हर की पौड़ी

कई साल के

पहुूँच गई है माूँ काूँवड़ लाने

‘छ्ठुआ’ पास हुआ

गरमी खब ू

सोमवार व्रत

पसीना पोछी

व्रत एकादर्ी

थर-थर काूँपा तनष्ठुर जाड़ा

सालों तक आये

समलजुल बैठ

बुरी लतों का

‘छ्ठुआ’ पास हुआ

बाद आठवीं

पड़े अकेले

जीवन जीता था

र्तन-मंददर के

भीड़भाड़ में भब्क्तभाव का कुछ धक्का खाने ‘काली पलटन’ के मंददर पर है ववश्वास हुआ

‘‘काली पलटन’’- मेरठ का एक प्रससद्ध मब्न्द्दर है , कहा जाता है फक र्हीद मंगल पाण्डेय ने १८५७ की आजादी की पहली लड़ाई का ‘श्रीगणेर्’ यहीं फकया था

सर्वानन्द्द ससंह ‘सहयोगी’ जीवनपररचय जन्म स्थान :

वपता का नाम :

सुजन ष छपरा , बैररया , बसलया , उ.प्र. स्त्व. राम नाथ ससंह

माता का नाम : पत्नी

:

श्रीमती आभारानी ससंह

जन्म नतधथ : सशक्षा

स्त्व. सोमवती दे वी

:

इंदस े नाु ंचत

दो जुलाई सन उन्द्नीस सौ पचास , ०२.०७.१९५० ववज्ञान स्त्नातक इलाहाबाद ववश्वववद्यालय , सर्क्षा स्त्नातक टाउन डडग्री कालेज बसलया

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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प्रकासशत कृनतया​ाँ १.एक र्ून्द्य

२००५ काव्य संग्रह

३.गाूँववाला घर

२.जीवन की हलचल

२००७ काव्य संग्रह

५.माूँ जीत ही जायेगी

२००९ काव्य संग्रह

४.समय की फूँु कार

७.घर-मुंडरे की सोनधचरै या २०११ गीत संग्रह ९.मेरे गीतों का पाथेय ११.वही हमारा गाूँव

२०१३ गीत संग्रह

२०१४ दम ु दार दोहे

२००६ काव्य संग्रह २००८ काव्य संग्रह

६.बबखरा आसमान ८.दम ु दार दोहे

१०.यादों के पंछी

२०१० गजल संग्रह २०१२ दोहा संग्रह २०१४ गीत संग्रह

१२.कुण्डसलयों का गाूँव

१३.सरू ज भी क्यों बन्द्धक २०१५ नवगीत संग्रह

२०१४ कुण्डसलया संग्रह

प्रकाशनाधीन

१.रोटी का अनुलोम-ववलोम (नवगीत संग्रह) २.र्लद अपादहज मौनीबाबा (नवगीत संग्रह)

साहिप्त्यक गनतविधधया​ाँ

१.’असभनव प्रसंगवर्’ रैमाससक पबरका अलीगढ़ का सरक्षक सदस्त्य २.मज ु फ्फरनगर की अग्रणी सादहब्त्यक संस्त्था ‘वाणी’ का आजीवन सदस्त्य ३.र्ोध ददर्ा’ रैमाससक पबरका बबजनौर का आजीवन सदस्त्य

४.’संयोग सादहत्य’ रैमाससक पबरका मुम्बई का आजीवन सदस्त्य ५.’मोमदीप’ रैमाससक पबरका जबलपुर का आजीवन सदस्त्य ६.’संकल्प रथ’ माससक पबरका भोपाल का आजीवन सदस्त्य

७.’सादहब्त्यक सांस्त्कृततक कला संगम’ पररयावां प्रतापगढ़ का आजीवन सदस्त्य ८.’अनब्न्द्तम’ रैमाससक पबरका कानपरु का आजीवन सदस्त्य

९.’असभनव प्रयास’ रैमाससक पबरका अलीगढ़ का आजीवन सदस्त्य १०.’अववराम सादहब्त्यकी’ रैमाससक पबरका रुड़की का आजीवन सदस्त्य ११.’समकालीन स्त्पंदन’ रैमाससक पबरका वाराणसी का आजीवन सदस्त्य १२. ‘नये क्षक्षततज’ रैमाससक पबरका बबसौली बदायू​ूँ का आजीवन सदस्त्य

१३.गीत , गजल , कववता , मक् ु तक , दोहे , दम ु दार दोहे , कुण्डसलया , क्षखणका , बालगीत एवं कहानी लेखन १४.मंचों से गीतों / नवगीतों का सस्त्वर पाठ

संयोजकत्ि एिं संपादकत्ि

संचार भारती (मेरठ) , स्त्मतृ तयों के वातायन ( स्त्व. डा. कमल ससंह सुप्रससद्ध भार्ाववद अलीगढ़ के जीवन पर आधाररत

संस्त्मरण ) , स्त्मतृ त समीक्षा एवं मल् ू यांकन ( स्त्व. कमल ससंह अलीगढ़ की अप्रकासर्त कृततयों का प्रकार्न )

‘नये क्षक्षततज’ रैमाससक पबरका बबसौली बदाऊूँ (उ.प्र.) के नवगीत ववर्ेर्ांक अंक का अततधथ संपादकत्व

पुिस्काि एिं सम्मान

१-भारत संचार तनगम सलसमटे ड मुजफ्फरनगर द्वारा आयोब्जत ‘राजभार्ा दहंदी पखवाड़ा’ काव्य प्रततयोधगता के वर्ष २००६ एवं २००७ का प्रथम पुरस्त्कार एवं अन्द्य पुरस्त्कार ,२-भारत संचार तनगम सलसमटे ड मेरठ द्वारा आयोब्जत ‘राजभार्ा दहंदी पखवाड़ा’ के र्ुभावसर पर ‘संचार भारती’ के सम्पादन एवं सादहब्त्यक योगदान के सलए सम्मातनत

३-‘आर्ा मेमोररयल समरलोक पुस्त्तकालय’ दे हरादन ू उत्तराखंड द्वारा ‘पुस्त्तकालय सहयोग सम्मान-२००८’ एवं ‘लेखक

समर’ मानद उपाधध से ववभूवर्त ,४-‘प्रेरणा पररवार’ सादहब्त्यक संस्त्था पुवायाूँ र्ाहजहाूँपुर द्वारा ‘समय की फुूँकार’ के सलये ‘प्रेरणा श्री’ सम्मान से ०३.०४.२००९ को सम्मातनत ,५-राष्रभार्ा स्त्वासभमान न्द्यास (भारत) के १८वें अखखल भारतीय दहंदी

सादहत्य सम्मेलन गाब्जयाबाद द्वारा ‘माूँ जीत ही जायेगी’ के सलये प्रर्ब्स्त्त-पर ,६-अखखल भारतीय सादहत्य संगम उदयपरु द्वारा काव्य-कृतत ‘गाूँववाला घर’ के सलये ‘राष्रीय प्रततभा-सम्मान-२०१०’ एवं ‘काव्य-कौस्त्तुभ’ की मानद सम्मानोपाधध से अलंकृत

इंदस े नाु ंचत

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िाइकू सुर्ीला जोर्ी ,मुजफ्फरनगर ( साूँझ

)

6-फागुनी र्ाम इंरधनुर्ी रं ग

1-सुहानी साूँझ

आकार् का आंगन रं गों से भरा

7-ससमट आता बालक सा मचल

2-रं ग गुलाल

धरा से नभ तक तना ववतान 3-र्ाम का वक्त आसमानी झील में है सम्मोहन 4-गोधल ू ी

उड़ता मन

जातकी सांझ

साूँझ का ददनकर खखंचता धचर 13-मुस्त्काती सांझ

8-पूनमी सांझ

चांदी सी आस

चाूँद हूँ से नभ में चांदनी राख

झुलसती है र्ाम

झीना सा आकार्

12- दटमदटमाता

गोद मे चाूँद

9-ससंदरू ी मन

वेला

सांझ की बबंदी

ववलक्षणता

10-झरु मट ु ों में

फकलकता सा चाूँद

14- पंछी के पंख गढ़ते है कहानी उड़ान भर 15-नीला आसमां सन ु हला है मरु ब्जंदगी हरी

हूँसी तछपाता चाूँद जली चांदनी

5-ससंदरू ी र्ाम

इठलाता सा रवव घास उदास

11-ससंदरू ी रं ग

घुल गया झील में

परिचय ...... जन्द्म ततधथ ---------5 ससतम्बर 1941

सर्क्षा ----MA -दहंदी ,अंग्रेजी । ,BEd । संगीत प्रभाकर -गायन, तबला ,ससतार ,कथक ( प्रयाग -संगीत -ससमतत इलाहाबाद )

प्रकार्न --- 6 पस्त् ु तकें प्रकासर्त , 39 साझा संकलनों में रचनाये प्रकासर्त, 8 पबरकाओ में रचनाये प्रकासर्त , 2 ई बक ु - गीततकाव्य , पररचय ।

सम्मान --- अन्द्य सम्मानों के साथ उत्तर प्रदे र् दहंदी , सादहत्य संस्त्थान द्वारा प्रदत्त "अज्ञेय " परु स्त्कार 2009 में इंदस े नाु ंचत

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िाइकू

फिीदा खातून

लगा ततलक ऊंचा हुआ ललाट ववजयी भव। बढ़े सैतनक

ससंहनाद करते ससहरे र्र।ु

धचघारे गज धड़ ससर अलग रक्तरं ब्जत। कब्म्पत जन पराब्जत है र्रु नतमस्त्तक। ववजयनाद गौरवाब्न्द्वत दे र् ववजयी वीर। आरती थाल जय वीर जवान हैं पल ु फकत।

धन्द्य हो वीर रखा राखी की लाज चक ु ाया ऋण। फ़रीदा खातन ू

इंदस े नाु ंचत

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सोपान : सुप्रभात नमन सोपान

फिीदा खातून न झक ु ा

पताका मानवता

ले

सत्य अदहंसा

व्रत

बन्द्दे राष्रवपता ऋणी भारतवासी *************** तू चल

धरा पर धमष अदहंसा सदै व ववजयी महागुरु गांधीजी। *************** दे

मानव धमष राह अदहंसा पथ

मन्द्र

हो जग भलाई न रहे गी बरु ाई। ************* हे बापू

अमोघ पराब्जत ववदे र्ी राज अदहंसा है धमष सबसे अनमोल। ************** क्यों

गववषत राष्र सारा पूजा अदहंसा

रहे

ददखलाया राह तुम पूज्य मसीहा। ************** इंदस े नाु ंचत

कायम

तू सख ु ी

दहंसा पाप अदहंसा सत्य

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घायल ससद्धान्द्त

इंदस े नाु ंचत

दख ु ी है जन जन।

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इंदस े नाु ंचत

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सीप में सागि

कविता विकास खखड़फकयों को मोटे - मोटे पदों से ढं कते हुए संजीवन कह रहे थे ," इस बार बफ़षबारी बंद होने का नाम नहीं

ले रही है । तर् ु ारा ृ ा ,तुमने अलाव जला दी है न ,आज रूम हीटर से काम नहीं चलेगा। ""आ - हाूँ "दब

र्ायद उन्द्होंने यह बात कही थी ,क्योंफक आवाज़ में थोड़ी सख्ती थी। "हाूँ जी ,बैठक कक्ष में तो र्ाम से ही अलाव जला दी थी। वपछले दो - तीन सालों से सर्मला में बफ़षबारी काफी होने लगी है । सच पूछो तो

बफ़षबारी मुझे बहुत अच्छा लगता है । रूई के फाहों जैसे बफष जब पब्त्तयों पर जम जाते तो अलग सी खब ू सूरती ददखलाई दे ती। पर इस बार की बफष को मेरे अंदर की ज्वाला मात दे रही थी। बाहर की बफष भले ही ठं डी और कठोर हो ,पर मेरे अंदर ,मेरे अतीत पे तीस सालों से जमी बफष अख़बार के एक कोने पर

छपी खबर से यू​ूँ वपघल गयी मानो यह लम्हा इतना लंबा न रह कर कल की बात हो।प्रोफेसर उत्कर्ष बबनानी ,भारत मूल के

वैज्ञातनक को हावषडष यूतनवससषटी की ओर से ववश्व का सवोच्च

"साइंदटफफक अवाडष "रसायन र्ास्त्र के क्षेर में उनके अमल् ू य र्ोध के सलए ददया जाएगा।

उन्द्होंने पहले भी केसमस्त्री के अनेक तर्थयों को सरल करते हुए पाठ्य िम को मनोरं जक बनाने का प्रयास फकया था ब्जसे नामचीन वैज्ञातनकों ने बहुत सराहा था। इस समाचार को पढ़ने के बाद अजीब सी बेचन ै ी और प्रसन्द्नता दोनों का अहसास हो रहा था। करीब अट्ठाइस

साल के बाद उत्कर्ष को टी वी पर दे खग ूँू ी। कैसा लगता होगा वह! बाल झड़ गए होंगे क्योंफक कॉलेज के समय से ही उसके बाल झड़ने लगे थे

और उसकी दाढ़ी.. . फ्रेंच कट दाढ़ी पक

गयी होगी। मेरी तरह ही चेहरे पे झरु रष यां हो आई होंगी। उम्र की मार कमोबेर् सब पर एक ही जैसी होती है ।मैंने समाचार पढ़ते ही भावों के अततरे क को यथा सम्भव तछपाते हुए घोर्णा कर दी फक र्तनवार के ददन जो अवाडष समारोह का लाइव टे लीकास्त्ट होगा ,वो मैं दे खग ंू ी।

संजीवन ने कहा ,"ठीक है यह बोररंग प्रोग्राम जब तक तुम दे खोगी ,मैं क्लब चला जाऊूँगा। "बेटे

ने भी घोर्णा कर दी ,"बाप रे , फफर वही लम्बा चटाऊ वाला प्रोग्राम। साक्षात्कार भी

होगा न... आपकी सफलता का राज कौन स्त्री, घर- पररवार में फकसने मदद की और फकसने ऑलजेक्ट फकया वगैरह - वगैरह। "संभाववत प्रश्नों की झड़ी लगा दी बेटे ने। "ठीक है माूँ ,मैं उस समय कुछ काम तनबटा लूँ ग ू ा ,और धचंता न करो ,बीच - बीच में तुम्हे आवाज़ दे ददया

करू​ूँगा फक कहीं तुम बोर होकर सो न जाओ। "संजीवन और संदीप ज्यादातर स्त्पोट्षस और न्द्यूज़ चैनल ही दे खते हैं ,उन्द्हें इस तरह

के गंभीर ववर्य नहीं

भाते

हैं। संदीप के कथन

पर अब तक मेरा ध्यान ब्जस पहलु पर नहीं गया था ,उस पर भी चला गया। "सचमुच कैसी

होगी उत्कर्ष की पत्नी ? क्या मेरी तरह ही या कुछ अलग। गोरी चमड़ी वाली मेम भी हो

सकती है क्योंफक वर्ों से वह इं्लैंड में रह रहा है । " मेरे रूप पर तो उसने वांतछत पररवतषन इंदस े नाु ंचत

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फकये थे मसलन हे यर स्त्टाइल कैसे रखने हैं ,क्या पहनना है आदद - आदद। मैंने बड़ी सर्द्दत से उसकी बातों को माना था। क्या उसकी पत्नी भी उसके मनोनुकूल चलती होगी ? बहुत सारे सवाल मन में उथल - पुथल हो रहे थे। रात की नींद उड़ गयी थी ,सोते - जागते हर समय उसका ही ख्याल रहता।

मेरे पापा और उत्कर्ष के पापा रे लवे में काम करते थे और अगल - बगल ही रे लवे क्वाटष र में रहते थे।

साथ - साथ हम स्त्कूल जाते। रास्त्ते भर लड़ते - झगड़ते। वह अक्सर मेरे स्त्कूल

बैग से पानी की बोतल तनकाल लेता और स्त्कूल पहुूँचने के पहले ही पीकर ख़त्म कर दे ता। इस बात पर मैं उससे खब ू लड़ती। लड़ाई की और वजहें थीं। उसे कुछ बोलना होता तो बड़ी

बेददी से मेरे बाल खींच कर मुझे बुलाता। फफर मैं उसे मारने दौड़ती। वह आगे - आगे ,मैं उसके पीछे - पीछे । छोटी कक्षाओं में हम साथ - साथ बैठते। अगर हमें टीचर अलग करतीं तो हम रोने लगते। फफर घर से पापा का आग्रह - पर जाता फक हमें साथ बैठने ददया जाए। उत्कर्ष बचपन से ही मेधावी था। हाई स्त्कूल आते - आते हमारे बैठने का स्त्थान बदल गया। आठवीं कक्षा में उसने एक कहानी सलखी जो हमारे स्त्कूल की पबरका में छपी।

स्त्कूल से

लौटते हुए उसने कहा ," मेरे जीवन की पहली कहानी तम् ु हे समवपषत है । दे खा ,इसकी नातयका तम् ु हारी तरह है । " "हें ... ये समवपषत - वमवपषत क्या होता है । "लापरवाही से मैंने

पछ ू ा था। उसने कोई जवाब नहीं ददया ,बस गहरी तनगाहों से मझ ु े तनहारता रहा। उसके बाद के सालों में सादहत्य की दतु नया में उसने तहलका मचा ददया।

बारहवीं तक पहुूँचते - पहुूँचते अनेक कहातनयां प्रकासर्त हुईं। था तो वह साइंस का स्त्टूडेंट ,लेफकन कला और सादहत्य का ममषज्ञ। हाई स्त्कूल की परीक्षाओं में खरा उतरने के कारण ऐसे भी सभी सर्क्षकों की आूँखों का तारा बन चक ु ा था।

अब पहले वाली चह ु लबाब्जयां कम हो गयी थीं। स्त्कूल में भी हमारी बातें कम होतीं क्योंफक हमारी दोस्त्ती

पर सभी की नज़रें रहतीं। एक ददन स्त्कूल से घर लौटते समय उत्कर्ष ने कहा ,"दे खो दीपाली ,बारहवीं के ररजल्ट पर हमारा भववष्य दटका हुआ है । तुम भी मन लगा कर पढ़ो। इधर दे ख रहा हू​ूँ फक तुम हर ददन

बदल - बदल कर नेल - पॉसलर् लगाती रहती हो और बनने - संवारने में ज्यादा ध्यान दे ती हो। इन सब को छोड़ो ,याद रखो ,सादगी में सुंदरता है । तुम एक लम्बी चोटी या खल ु े बालों में ही अच्छी लगती हो। " "आदतन उसकी बातों का मज़ाक उड़ाते हुए मैंने कहा ," बड़े आए ज्ञान बांटने वाले ,मेरी मज़ी ,मैं सजूँू या न सजूँू .... तुम्हे क्या फकष पड़ता है ?" "फकष पड़ता है ,अन्द्य लड़के तुम पर फब्लतयां कसते हैं ,तुम्हारी तस्त्वीर कॉपी में बना कर भद्दी - भद्दी बातें सलखते हैं ,जो मुझे पसंद नहीं। " "क्यों पसंद नहीं ,.... क्या तुम्हे प्यार है मुझसे ?"

अचानक उत्कर्ष ने मेरे कंधे को पकड़ कर सागवान के एक बड़े से पेड़ से मुझे दटका ददया और मेरी आूँखों में आूँखें डाल कर कहा ," हाूँ ,प्यार है ,तुम्हे भी है । " "मुझे भी है वो तुम कैसे जानते हो ?"

"…क़्योफक उस ददन जब क्लास में श्रीमाली और ऋवर्का मुझसे हं सी - मज़ाक कर रही थीं ,तुम उन्द्हें घूर कर दे ख रही थी और उनके चले जाने के बाद याद करो क्या कहा था तुमने …। " इंदस े नाु ंचत

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"हाूँ ,वो... मैंने कहा था ,ये तुमसे इतना हूँस - हूँ स कर क्यों बात कर रहीं थीं ,तुम इनसे दरू ही रहना। "

"तो फफर ,क्यों जलन हो रही थी तुम्हे उनसे ,क्योंफक तुम मुझे चाहती हो। " र्रारत से मुस्त्कुराते हुए उसने मेरे कमर को हौले से खींच कर मेरे मस्त्तक पर जीवन के पहले प्यार की चम् ु बन जड़ ददया।

घर पहुूँच कर काफी दे र तक मैं प्यार की ,उस छुअन की पहली अनुभूतत की खम ु ारी में गोते लगाती रही थी। और उस ददन से लेकर आज तक मैंने कभी नेल पॉसलर् को नहीं छूआ। अपने ख्यालों में खोई हुई थी

फक संजीवन की आवाज़ सुनाई दी ," आज खाने में पकौडड़याूँ तल दो तर् ृ ा ,काफी ददन हो गए तुम्हारे हाथ की पकौडड़याूँ खाए। "मैं रसोई के सारे काम तल्लीनता से पूरी कर रही थी पर ददल के एक कोने में उत्कर्ष

से जुड़ी तमाम स्त्मतृ तयाूँ करवटे ले रहीं थीं। सारे काम तनबटा कर जब बबस्त्तर पर पहुंची ,संजीवन ने रूम

को अच्छा गमष कर ददया था। संजीवन को लेटते के साथ नींद आ जाती है ,पर मेरी आूँखों से तो नींद गायब हो चक ु ी थी।

बारहवीं में मुझे साइंस में ददक्कत होने लगी। कोधचंग की ज़रुरत पड़ने लगी थी। मैंने उसी कोधचंग

इंब्स्त्टट्यूट को ज्वाइन फकया ब्जसे उत्कर्ष ने फकया हुआ था। वपताजी को तसल्ली थी फक आधे घंटे के इस रास्त्ते में जहां एक जगह पर ऑटो बदलना भी पड़ता है ,मुझे कोई परे र्ानी नहीं होगी अगर उत्कर्ष

मेरे साथ होगा। हमें ऑटो में अगल - बगल बैठना बहुत अच्छा लगता। एक ददन ऑटो स्त्टैंड पर हम खड़े थे फक बाररर् होने लगी। तनकट की एक दक ू ान में बचने के सलए हम दौड़ पड़े। फफर भी उस बंद दक ू ान के बरामदे में पहुूँचते - पहुूँचते हम दोनों भींग गए थे। उस समय रात के आठ बजे थे। कोधचंग से लौटते हुए अक्सर इतनी दे र हो जाती थी। दक ु ान के बरामदे में मैं अपने दप ु ट्टे को सख ु ाने का यत्न करने लगी। मैंने

महसस ू फकया फक उत्कर्ष बड़े ही रोमांदटक अंदाज़ में मझ ु े तनहार रहा है । उसे नज़रअंदाज़ करना चाह रही थी फक अचानक उसने मेरी कमर को पकड़ कर धीरे से अपनी ओर खींचा और मेरे मस्त्तक पर अपने गमष होंठ रख ददए। फफर मेरी आूँखों पर ,गालों पर और होंठ पर अपने दहकते स्त्पर्ष की मोहर लगा दी।तरुणाई का यह प्यार आज तक जेहन में ब्जन्द्दा है । मैंने संजीवन की और दे खा ,वह नींद की आगोर् में

ददन भर की थकावट तनकाल रहे थे। बहुत मासूम लग रहे थे। जाने क्यों बदन में एक ससहरन सी उठी ,र्ायद उत्कर्ष के साथ की ये यादें मुझे गुदगद ु ा रहीं थीं।

हमने कॉलेज में ववज्ञान संकाय में प्रवेर् सलया था। स्त्नातक करने की अवधध

में उत्कर्ष की यो्यता तनखर कर सामने आयी। उसके तकष ,दलील और अपने ववर्य में गहरी पकड़ दे ख कर प्रोफेससष उसे आगे की पढ़ाई के सलए हमेर्ा ववदे र् जाने की सलाह दे ते। रसायन र्ास्त्र के फकसी

ववर्य को

वह अपने वाद - वववाद में उलझा कर अक्सर सर्क्षकों

को उलझा दे ता फफर स्त्वयं ही उसका हल तनकाल दे ता। फ्री टाइम में कहातनयों के माध्यम से समाज की घटनाओं पर सलखता। उसकी कहातनयों का मूल आधार उसने कहा

,"मेरी नयी

कहानी की नातयका तुम ही हो

प्रेम ही था।एक ददन

- लम्बे, घने, काले बाल और भरी

- भरी दे ह वाली। " "अच्छा ,तो मेरा मोटापा अब दे र् - दतु नया में जानी जाएगी?…तो लो ,मैं ब्स्त्लम हो कर ददखा दे ती हू​ूँ। और सचमुच मैंने अपना नामषल डाइट काम कर ददया। इसके कारण मुझे कुछ ही ददन बाद कमज़ोरी होने लगी। चक्कर भी आने लगे और तीन ददन तक कॉलेज नहीं गयी। अचानक यू​ूँ अनुपब्स्त्थत दे ख चौथे ददन वह मेरे घर आया। माूँ ने उसे मेरे इंदस े नाु ंचत

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कमरे में भेज ददया और सर्कायत भी की ,"जाने क्या डाइदटंग का र्ौक चढ़ा है ,हालत ख़राब हो रही है ,पर भरपेट खा नहीं रही। समझाओ इसे "माूँ उसे मेरे कमरे में पहुूँचा कर चली गयी।

फक पहले वाली दीपाली ही अच्छी थी।

"यह क्या रु्ण काया बना रखी हो ,अचानक

वेट - लॉस का क्या भूत चढ़ गया तुम्हे ?" मैंने नज़रें नीची करते हुए कहा ,"यू​ूँ ही ,यह तो आजकल का रें ड है ,फफर तुम्हारी हीरोइन भी दब ु ली - पतली रहे गी तो अच्छी लगेगी। "

ऐसा लगा जैसे मेरी बातों से उसे चोट पहुंची हो। मेरे गालों को अपनी हथेसलयों के बीच दबा कर उसने कहा ," ऐसी ही हीरोइन चादहए मुझे भरी - भरी दे ह वाली ,और हाूँ फकसी ग़लतफ़हमी में न रहना फक मैं आज कल के रें ड का दीवाना हू​ूँ। उसकी पतली - पतली धचरकार सी अंगुसलयां मेरे कमर के इदष - धगदष रें गने लगी और एक झटके से मुझे खींच कर अपने अधरों को मेरी आूँखों पर रख ददया। उसकी साूँसों की गमी

थी या स्त्पर्ष का सुख... मैं

बबलकुल स्त्वस्त्थ महसूस करने लगी। कॉलेज की लाइिेरी में हम छुट्टी के बाद एकाध घंटा अवश्य बैठते। नयी पर - पबरकाओं का अध्ययन करते। मेरे सलए तो उसका मेरे साथ होना

इतना मायने रखता फक अनेक बार वहाूँ मेरे काम की फकताबें न भी होतीं तो मैं ससफष उत्कर्ष के सलए बैठी रहती। एक

अजीब सा खखंचाव महसस ू करती। रात करवटों में बीत जाती।

सब ै रहता। उसके घर में आगे की ु ह होने और कॉलेज में उत्कर्ष से समलने के सलए मन बेचन पढ़ाई के सलए उसे इं्लैंड भेजने की बात चल रही थी। जब

भी वह इन बातों को छे ड़ता मैं

परे र्ान हो जाती। कैसे जीऊूँगी उसके बबना और वहाूँ जाकर यदद वह बदल जाए तो मेरा क्या होगा ,मैंने तो फकसी और के साथ ब्ज़न्द्दगी गज ु ारने की कल्पना भी नहीं की थी। एक ददन

मेरा यह डर उभर कर उसके सामने आ गया। मैं उसके कंधे पर सर रख कर रो पड़ी। उसने मझ ु े अपनी बाहों में भरते हुए कहा ,"यह क्या पागलों जैसी बातें कर रही हो?मैं तम् ु हे कैसे भूल सकता हू​ूँ। तुम तो मेरी प्रेरणा हो। मेरे बचपन की कली ब्जसे मैंने अपने मन मुताबबक खखलाया है । तुम

तो मेरी

इबादत हो। " उसके बाद हमारा समलना और भी कम हो गया

क्योंफक उसे कई प्रततयोधगताओं में बैठना था और उनकी तैयारी में वह जी- जान से जुट गया। उसकी मेहनत रं ग लाई। करीबन सभी प्रततयोधगताओं में वह सफल रहा। उसके पापा उसकी हर कामयाबी की खबर दे ने हमारे घर आते। वह भी आता ,मेरे पापा - मम्मी के पैर छू कर आर्ीवाषद लेता। मैं दरवाज़े की ओट से उसे

दे खती और जब नज़रें समल जातीं तब र्रारत से वह आूँख मार दे ता। अंततः वह ददन भी आया जब उसे हावषडष में प्रवेर् समल गया। उसने मुझे स्त्कूल के रास्त्ते वाले पाकष में समलने को बुलाया। सागवान के पेड़ के नीचे की बेंच में हम बैठ गए। उत्कर्ष ने मेरी हाथों को थाम रखा था।

र्ाम का धुंधलका तघर रहा था।

"दीपाली ,मैं कल जा रहा हू​ूँ। पहले ददल्ली फफर वहाूँ

से लंदन। तुम अपना जीवन बबलकुल स्त्वाभाववक तौर पे जीना। ऐसा नही फक मेरी याद में कुम्हला जाओ। " उत्कर्ष ने ऐसे ही बात की र्ुरुआत की थी। " पर यह कैसे मुमफकन है ,उत्कर्ष ……मैंने

तो तम् ु हारे बबना जीवन की कल्पना भी नहीं की

है । अब तो कल से तुम्हारे वापस आने की बाट जोहती रहूंगी। " इंदस े नाु ंचत

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"नहीं तुम ऐसा कुछ नहीं करोगी ,अन्द्यथा मेरा भी मन उदास रहे गा और ब्जस लक्ष्य को प्राप्त करने मैं जा रहा हू​ूँ ,र्ायद उससे ववमुख भी हो जाऊं। मुझ तक पहुूँचती है । इससलए

तुम्हारे ददल की हर आवाज़

मुझे याद कर कभी आंसू न बहाना।" कहते - कहते उसने

मुझे अपनी बाूँहों में भर सलया। एक दोस्त्त ,एक गाब्जषयन की तरह मुझे वह समझाता रहा। मैंने अपनी आूँखों के आंसू

पी सलए। हम घर जाने के सलए उठ पड़े।

वह रुक गया। फफर मेरे कमर को

चार कदम बढ़ कर

अपने हाथों से पकड़ हौले से खींच कर मुझे अपने इतने

करीब ले आया जहाूँ से मैं उसकी धड़कनों को धगन सकूँू और वही धचर- पररधचत अंदाज़ में

मेरी आूँखों ,गालों और मेरे होठों पे अपने प्रेम की आखखरी मुहर लगा गया। बहुत तनराला अंदाज़ था उसका। मैं तो उसके प्यार के गहरे सागर में डूब जाती थी। वादों - यादों की लम्बी फेहररस्त्त सलए हम जुदा हो गए। जल्द अपना र्ोध कायष पूरा कर वह मुझे सलवा ले जाएगा ,यह सांत्वना मुझे खर् ु रखने की एक दवा थी जबफक

उसकी अनुपब्स्त्थतत के वे क्षण बेहद

बोखझल होते। एक - एक ददन काटना मुब्श्कल लगता था ,जब भी मैं फ़ोन लगाती ,वह जल्द आने की बात करता और ढे र सारी नसीहतें दे दे ता ,मसलन ,खाना भरपूर खाना ,सूख न जाना ,बालों की दहफाज़त

करना ,पढ़ाई में मन लगाना आदद - आदद। उत्कर्ष मेरे लम्बे बाल को मेरी संद ु रता का राज़ बतलाता था। यह अलग बात है फक उसके अपने बाल तेज़ी से झड़ रहे थे। मैं उससे मज़ाक में कहती ,साइंदटस्त्ट बनने के सारे लक्षण हैं तम ु मे ,दे खो कैसे गंजे हो रहे हो ! धीरे - धीरे हमारी बातें कम होती गयीं। अगला साल बीत गया ,फफर अगला भी। पर वह नहीं आया। पापा ररटायर होने जा रहे थे। उत्कर्ष के पापा भी

तक़रीबन उसी समय ररटायर हो रहे थे। वे अपनी पश्ु तैनी मकान में गोरखपरु जाने वाले थे। उनके जाने

के पहले पापा ने उनसे उत्कर्ष के साथ मेरी र्ादी की बात चलायी। अंकल को कोई ऑलजेक्र्न नहीं था पर उत्कर्ष के भारत आने तक मझ ु े रुकना था।वपताजी ने अगले दो साल तक कहीं भी मेरी बात

नहीं चलाई। इस बीच मैंने मास्त्टसष कर ली। पर ,उत्कर्ष के भारत आने की कोई गुंजाइर् नहीं ददख रही थी। अब तो फ़ोन की घंटी बजती रहती पर वह उठाता भी नहीं। उसकी छोटी- बड़ी

उपलब्लधयाूँ पेपर में आती रहती। मुझे ववश्वास नहीं होता फक समय इतना बेरहम भी हो

सकता है । अपनी खोजों में कोई इतना कैसे खो सकता है फक सारे अंतरं ग ररश्ते टूट जाएूँ।

उसके पररवार वाले भी उसकी इस आदत से खफा थे। यह मेरे सलए बेहद मुब्श्कल समय था। पापा मेरे सलए लड़का खोज रहे थे। अपने सारे जज़्बातों को परे हटा कर एक नयी दीपाली का

तनमाषण करना बहुत कदठन था। मैंने ददल को समझा सलया ,उसे कोई गोरी मेम समल गयी होगी ,और फफर जब वह मझ ु े इतनी आसानी से भूल सकता है तब मैं ही क्यों उसकी याद में पागल होती रहू​ूँ।उत्कर्ष ने जाने से पहले कहा भी था फक मुझे अपना जीवन एक स्त्वाभाववक तौर

पर जीना है ,उसे याद कर आंसू नहीं बहाना है । तो क्या ,उत्कर्ष का मुझसे दरू हो

जाना पूवतष नयोब्जत था ?ववश्वास नहीं होता पर अववश्वास जैसा भी कुछ नहीं था। ब्ज़न्द्दगी की र्ुरुआत

अपने सारे अरमान और अहसास को भूल कर

की। उसके अनेक कहानी संकलन और रचनाओं की पबरकाएं लेकर मैं

संजीवन के घर आ गयी। उसके घर में सभी जानते थे फक इंदस े नाु ंचत

मैंने नए ससरे से

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मैं पढ़ने - सलखने की र्ौक़ीन


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हू​ूँ ,इससलए अपने साथ लाई

हुई फकताबों को करीने से मेरे बैडरूम के र्ेल्फ में सजा ददया गया। ससुराल में संजीवन के साथ - साथ सभी मुझे तर् ृ ा कह कर बुलाते। यह नया नाम

मुझे अपनी वपछली ब्ज़न्द्दगी को भूलने में वरदान ससद्ध हुआ। मैं केवल अपने मायके वालों के सलए दीपाली थी। धीरे - धीरे अपनी गह ृ स्त्थी में मैं रम गयी।एक समसलरी मैन की बीवी कहलाने का बड़ा सुखद अनुभव रहा। ढे र सारे अटें डेंट रहते।खाना

बनाने से लेकर बाज़ार

करने तक अलग - अलग कमषचारी थे।

बहुत सारा फ्री टाइम समलने के कारण मैं सोर्ल वकष में अपना समय बबताने लगी। बड़ा सुकून समलता था गरीब और त्यक्तों की सेवा करके। संदीप के जन्द्म के बाद तो समय जैसे पंख लगा कर उड़ता गया। कोई धगला नहीं ,कोई

सर्कवा नहीं। जो भी समला ,ब्जस हाल में भी ,मैंने उसे गले लगा सलया। अब संदीप बाइस साल का खब ू सूरत नौजवान बन गया है । मैंने उसे वह सभी आज़ादी दी जो उसके सलए ज़रूरी था। उसकी गलष फ्रेंड मुझे दे ख कर पूछती ,"आंटी

आप नेल पोसलर् क्यों नहीं लगातीं

,आपके नेल्स तो बड़े अच्छे कटे होते हैं ?मैं कहती ,"मुझे र्ौक नहीं है । " "फफर आप बालों में जुड़ा क्यों नहीं करती ?" मैं कहती ,"मझ ु े चोटी

या खल ु े बाल पसंद हैं। "

" आंटी आप कोई श्रग ंृ ार क्यों नहीं करतीं ?"

"जी में आता कह दूँ ू फक मैंने फकसी की बात मानी है " ,पर चप ु लगा जाती।

वह बोलती जाती ,मझ ु े लगता है आंटी ,कॉलेज में आपके दीवानों की संख्या कम न होगी ,आप हैं ही

इतनी आकर्षक। उसकी बात सन ु कर मैं मस्त् ु कुरा दे ती। कभी- कभी संजीवन इन बातों को सन ु कर मझ ु े बाूँहों में भर लेते ," अरे मैं उन दीवानों को पीछे छोड़ इन्द्हें जीत सलया। आखखर में जो जीता वही ससकंदर।

"मैं भी र्रमा कर इनकी बाूँहों में ससमट जाती।अपने अतीत को पीछे छोड़े हुए एक लम्बा समय गुजर गया था। वपछले हफ्ते अख़बार के एक कोने में छपा समाचार ब्जस में उत्कर्ष को ववज्ञान वगष में दी जाने वाली ववश्व - ववख्यात इस अवाडष की घोर्णा की गयी थी ने मेरी अपनी दतु नया में

सेंध लगा दी थी। बचपन और जवानी के ददनों में उत्कर्ष के साथ बबताये

गए ददन अक्सर मेरी आूँखों में तैरते रहते। कई बार तो अकेली बैठी मुस्त्कुरा पड़ती ,कभी ससहर जाती तो कभी उत्तेब्जत हो जाती। अवचेतन मन में बैठी हुई उसकी यादें पुनः उभर पड़ीं थीं। मन करता उसकी पत्नी को दे खू​ूँ ब्जसके सलए उसने मुझे छोड़ ददया ,वर्ों के कसमें - वादे तोड़ ददए। कुछ तो कारण रहा होगा आखखर ,ब्जसके चलते मुझसे बात करना उसने छोड़ ददया था। अपने र्ोध कायष को अद्ववतीय बनाने का जुनून समझ में आता है ,ववलक्षण

प्रततभा का धनी था वह ,ब्जस कायष में हाथ लगाता ,उसमे डूब जाता। पर ऐसा भी क्या

जुनून फक सारे ररश्ते - नाते बेमानी हो गए। आश्चयष है ,गुस्त्सा भी करती हू​ूँ उस पर ,फफर बड़ी सहजता से उसकी मज़बूरी की सफाई भी खद ु ही दे डालती हू​ूँ। ददल में ही उसकी सफलता का जश्न मना लेती हू​ूँ। फकसी के साथ बगैर र्ेयर फकये। मेरे जीववत नहीं थे और उसके माूँ - पापा के साथ कोई संपकष नहीं रहा था।

माूँ - वपताजी अब अच्छा लगता था

सोच कर फक इस सम्मान के भागीदार ववरले ही हैं और मेरा उत्कर्ष उनमे से एक है । इंदस े नाु ंचत

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रवववार का ददन था। मैंने सुबह में ही र्ाम के नाश्ते - खाने का इंतज़ाम कर सलया था। रात आठ बजे

सम्मान समारोह का सीधा प्रसारण था। कायषिम के दौरान मैं अपने को कहीं नहीं व्यस्त्त रखना चाहती थी। धीरे - धीरे वह घड़ी भी पास आ रही थी। संजीवन सात बजे क्लब चले गए और संदीप अपने दोस्त्तों के साथ तनकल गया। साढ़े सात बजे से मैंने टी. वी. ऑन कर ददया। जैसे -जैसे समय ससकुड़ रहा था ,मेरी

धड़कनें भी तेज़ हो रहीं थीं। गज़ब की बेचन ै ी …कैसे दे खग ूं ी उसे .... अब तो उसकी दाढ़ी भी पक गयी होगी। आूँखों पर मोटा चश्मा होगा ,हलके पके बाल या वैज्ञातनकों की तरह गंजे ससर वाला हो गया होगा

वो …ज़रूर वाइट र्टष और ललैक पैंट में ही आएगा …। फॉमषल पादटष यों में यह उसका मनपसंद ड्रेस होता था। अट्ठाइस साल पहले के उत्कर्ष में मेरी कल्पनाओं ने रं ग भरना र्ुरू कर ददया था। अब मैं पचास

साल के उत्कर्ष को दे ख रही थी। बेचन ै ी के ये पल कहीं मेरी जान न ले ले। नहीं .... मैं नहीं दे ख पाऊूँगी उसे .... हे भगवान यह लाइट चली जाए .... कोई आ जाए .... मैं अपना आपा न खो दूँ ।ू हे ईश्वर .... र्ब्क्त दे ना मुझ।े मेरे जीवन का पहला प्यार ,ब्जसके संग स्त्मतृ तयों की अनधगन परतें दबी थीं ,ब्जसकी इच्छाओं को मैंने अपने व्यब्क्तत्व में ढाल कर खद ु को जीववत रखा है .... वो आज मेरे सामने होगा। टी. वी. स्त्िीन से तनकल कर कार् मेरे सामने आ जाए ! मैं भी न उलजलूल सोचती हू​ूँ .... !

अरे ,यह क्या हुआ .... मेरी आूँखें बंद होने लगीं। लगता है कोई भारी बोझ रखा है पलकों पर। मेरा परू ा र्रीर उत्तेब्जत हो रहा है । मैं दीवार से सट कर खड़ी हो जाती हू​ूँ। लगा जैसे मेरे पीछे कोई खड़ा है । ये

पतली - पतली धचरकार सी अंगसु लयां मेरे कमर पे रें ग रही थीं और वह एक झटके से मझ ु े खींच कर मेरे

बालों के झरु मट ु में अपना सर छुपा रहा था। मेरे नाक ,गाल ,गदष न हर जगह वह बेतहार्ा चम ु रहा था। मैं उस जानी पहचानी दे ह - गंध के आगे अपने आप को खो रही हू​ूँ। उस अद्भत ु प्यार के सागर में डूब रही हू​ूँ। वर्ों का धगला - सर्कवा उसकी उपब्स्त्थतत मार से समट गया। ज़रा भी नहीं बदला था वह..... ज़रा भी नहीं। वही रूप - रं ग ,वही हरकतें । मैं पसीने से तर - बतर थी। " हाूँ तो बाल नहीं काटे न तम ु ने ,ठीक फकया

,और वैसे ही भरी - भरी हो ,ब्स्त्लम होने का भूत नहीं चढ़ा ,अच्छा है । कोई कृबरमता नहीं ,वैसा ही नैसधगषक सौंदयष है । मेरी दीपाली ,भोर की तरह ब्स्त्न्ध ,ओस की तरह र्ीतल और गुलाब की तरह नमष है । सचमुच तुम मुझे इतना चाहती हो... मेरी कल्पना से भी ज्यादा।

यातन वपछले अट्ठाइस सालों से वक़्त आगे बढ़ा ही नहीं। हम जैसे जुदा हुए थे , वैसे समल रहे थे। मेरी

साूँसें ऊपर - नीचे होती हुई तीव्र गतत से चल रही थी। मैं धम्म से कुसी पर बैठ जाती हू​ूँ। अचानक फकसी

ने मेरे कन्द्धों को खझंझोड़ा। " माूँ... माूँ ,क्या कर रही हैं आप अूँधेरे में ?कब से पावर कट हो चक ु ा है और आप इस ठं डक में भी पसीने - पसीने हो रही हैं। आपने प्रोग्राम दे खा? "

"आ … हाूँ … नहीं ,पावर कट हो गया था न ,मैं इन्द्वटष र का ब्स्त्वच भी नहीं ऑन कर पाई। जाने कब मेरी आूँख लग गयी, " मैंने अपने आप को सूँभालते हुए कहा।

" मैं ववददर्ा को कह ही रहा था फक माूँ जो भी चाहती हैं उन्द्हें समलता नहीं। फकतने ददनों बाद आज वह फकसी प्रोग्राम को लेकर उल्लससत थीं ,तो पावर कट हो गया। तुमने ररकॉडडिंग मोड भी ऑन फकया होता तो बाद में यह प्रोग्राम दे ख लेती। " संदीप को मेरी हालत पर तरस आ रहा था।

इंदस े नाु ंचत

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उत्कर्ष को न दे ख पाने का अफ़सोस बना रहा। मुझे अपने आप पर कोफ्फत हो रही थी। संजीवन भी क्लब से आ गए थे। खाने के समय बेटा अपने पापा को बता रहा था ,' माूँ तो अपने पसंदीदा कायषिम के इंतज़ार में सो गयी थी। वह तो मैंने आकर इन्द्हे जगाया और इन्द्वटष र ऑन फकया। " रात के सारे काम तनबटा कर मैं सोने चली गयी। वैसी सुकून भरी नींद बहुत ददनों बाद आयी थी। पोर पोर हल्का हो गया था। जाने क्या जाद ू हो रहा था।

सवेरे चाय की चब्ु स्त्कयों के साथ अख़बार दे ख रही थी। अख़बार के एक कोने पर कल के अवाडष

समारोह की ख़बरें थीं। वहाूँ मौजूद भारतीय परकारों ने उत्कर्ष पर ववर्ेर् फोकस फकया था।

"प्रोफेसर उत्कर्ष बबनानी ववश्व के पाूँच महान वैज्ञातनकों के साथ सम्मातनत " इस है डलाइन के साथ एक लम्बा - चौड़ा उसका साक्षात्कार भी था और एक ग्रप ु फोटो। फोटो अत्यंत छोटा होने के कारण स्त्पष्ट

नही था ,पर बाएं से तीसरे वाले स्त्थान पर उत्कर्ष की फोटो थी। मेरी सोच सही थी ,वह वाइट र्टष और

ललैक पैंट में ही था। मैंने उसके साक्षात्कार को पढ़ना आरम्भ फकया। परकार ने बड़ी चतुराई से उसके

जीवन की एक- एक पहलुओं पर उसके जवाब सलए थे। आरं सभक जीवन में पररवार का सहयोग ,स्त्कूल कॉलेज की मेधा सूधच में नाम दज़ष करने के अनुभव ,ववदे र्ों में भारततयों के साथ होने वाले व्यवहार और

हावषडष की अन्द्य गततववधधयों के बीच समायोजन आदद बबन्द्दओ ु ं पर चचाष थी। साक्षात्कार के ब्जन प्रश्नों पर उसके उत्तर ने मझ ु े आकवर्षत फकया ,वो ये थे …

साक्षात्कारकताष - इस कामयाबी का श्रेय आप फकसे दें गे ? उत्कर्ष - मेरे माता - वपता ,गरु ु जनों और बचपन की मेरी सहपाठी। सा. - आपने वववाह क्यों नहीं फकया?

उत्कर्ष- मैंने महसस ू फकया फक वववाह कर के मैं उसके साथ न्द्याय नहीं कर पाऊूँगा। मेरा र्ोध मेरा पण ू ष

समपषण चाहता था। इससलए मैं उससे दरू होता गया। पर सच कहू​ूँ आज भी उससे जड़ ु ा हुआ हू​ूँ ,कभी उसे अपने से अलग नहीं समझा।

सा.- तो अब आप उसे दे खना चाहें गे? उत्कर्ष - यू​ूँ तो लंदन जाने के छह साल बाद मैं भारत आया था। मुझे पता चला उसकी र्ादी हो गयी है

और वह अपने पररवार के साथ खर् ु है । यह सही तनणषय सलया था उसने। उसमे एडजस्त्टमें ट की गज़ब

की क्षमता थी। ब्जंदगी जीने के सकारात्मक दृब्ष्टकोण का मैं सदा से कायल रहा हू​ूँ। वह जहां भी है ,मेरी सफलता की खबर उसे ज़रूर समल गयी होगी.. और उसने इस कायषिम को दे खा भी होगा। मेरी सफलता उसकी र्ुभकामनाओं का ही प्रततफल है । उसे जीवन की बीच राह पर छोड़ दे ने के सलए उससे माफ़ी माूँगता हू​ूँ।

सा. - आपकी समर और प्रेरक के बारे में कुछ बताएं।

उत्कर्ष - काफी लम्बे - घने बाल थे उसके , औसत कद - काठी , मोटी नहीं, पर पतली भी नहीं। (पढ़ते पढ़ते मैं मुस्त्कुरा पड़ी )…और बायीं कान के पीछे कटे का तनर्ान।

अचानक मेरा हाथ बायीं कान के पीछे चला गया उस कटे के तनर्ाूँ पर जो बालों से ऐसा ढं का रहता था फक आज तक फकसी ने कभी नोदटस नहीं की थी। सा. - कैसे कटा था वह जगह ? इंदस े नाु ंचत

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उत्कर्ष - आटष की कक्षा में पेपर काटने वाली कैंची से उसने अपने बाल कुतर दी थी। सामने

के बेतरतीब कटे बाल पर पूरी कक्षा में ठहाके लग रहे थे और वह भी इन ठहाकों में र्ासमल

थी। मुझे बेहद गुस्त्सा आ गया ,मैंने आव दे खा न ताव और अपने बस्त्ते से उसे दे मारा। यह तीसरी कक्षा की घटना थी। वह खब ू रो रही थी। उसे टाूँके लगे और मुझे सजा समली। उस के ददष को मैं आज भी महसूस कर ्लातन से भर जाता हू​ूँ। पागल लड़की थी वह....(कहते हुए चेहरे पर ददष की रे खाएं उभर गयीं ) मैंने मन ही मन सोचा ,"पागल तो तुम भी थे उत्कर्ष। प्यार में बेहद हो जाना तभी होता है जब दोनों पागल होते हैं। असली प्यार तो तुमने तनभाया है । अभी तक मेरी यादों के सहारे जी रहे हो। तुम्हे वादाखखलाफी और मतलबपरस्त्त माना था ,मुझे क्षमा कर दो दोस्त्त।

उसकी ववद्वता पर नाज़ हुआ फक बगैर मेरा नाम सलए तमाम एहततयातों के साथ अपना सन्द्दे र् मुझ तक पहुंचा ददया उसने। मुझे मेरे अनधगनत सवालों के जवाब समल गए थे। मैंने जीवन के मीठे - खारे सभी अनुभवों को सागर की भांतत खद ु में समा सलया था ,पर वह तो सीप था ब्जसने सागर को खद ु में समा सलया था। कहा ," लो दे खो ,ऐसे भी लोग होते हैं दतु नया में । "

संजीवन की ओर पेपर बढ़ाते हुए मैंने

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परिचय : ( वररष्ठ सर्क्षक्षका और लेखखका ),सर्क्षा - एम.ए. (अंग्रेजी ,अथषर्ास्त्र ),बी. एड.,पी.जी.डी.(परकाररता),सी टे ट ललॉग सलंक - काव्य वादटका http://kavitavikas.blogspot.in/,http://koylanagar.blogspot.in/ ई मेल- kavitavikas 28@gmail.com

कृततयाूँ - दो कववता संग्रह (लक्ष्य और कहीं कुछ ररक्त है )प्रकासर्त । साझा कववता संग्रह (हृदय तारों का स्त्पंदन)

, (खामोर् ,ख़ामोर्ी और हम ), (र्लदों की चहलकदमी) और (सज ृ क )प्रकासर्त ।

दै तनक समाचार पर - पबरकाओं ,सादहब्त्यक पबरकाओं व लघु पबरकाओं में कववताएूँ ,कहातनयाूँ ,लेख और ववचार प्रकासर्त

।ई -पबरकाओं में तनयसमत लेखन ।इंक़लाब ,दृब्ष्टपात ,र्लददत ू ,उत्कर्ष मेल, सम्यक भारत , वुमेन ऑन टॉप , र्ब्लदता ,दहंदी चेतना ,वटवक्ष ुष ृ , माटी ,नव्या ,लोकसत्य,आज का अजन

,मेरो उजाला

, लोकजंग ,सद्भावना

सन्द्दे र् ,वाकधारा, असभनव मीमांसा ,यादें , युग गररमा , सज ृ नलोक ,असभनव इमरोज़ , एक और अंतरीप ,हमारा

ततस्त्ता - दहमालय , वाताषलोक ,असभनव प्रयास ,नयी धारा , भव्य भास्त्कर, स्त्कैनर ,सन्द्मागष ,संवद्ध ृ सुखी पररवार ,संगम , अन्द्वेर्ी , प्रततमान , अंजुम ,आधुतनक सादहत्य ,सवषप्रथम ,पूरी दतु नया , नए हस्त्ताक्षर, जागरण सखी , गह ृ लक्ष्मी ,मेरी सजनी ,वतनता, बबंददया, दमखम , र्लद सररता ,आधी आबादी , दहमतरु ,समकालीन स्त्पंदन ,जनसंदेर् टाइम्स ,नव

तनकर् ,इंडडयन हे ल्पलाइन ,बालहं स ,जनसत्ता , फेसमना ,गगनांचल , मध्य प्रदे र् जनसंदेर् ,दबंग दतु नया ,पूवािंचल प्रहरी

,ट्रू मीडडया ,अटूट बंधन , नई दतु नया , दीवान मेरा,ससम्पली जयपुर, समाचार आलोकपवष ,कल्पतरु एक्सप्रेस,मरुतण ृ ,हररभूसम ,सादहत्य यारा ,कादब्म्बनी, अक्षर पवष, पररकथा ,पररंदे , दहंदस्त्ु तान, दै तनक जागरण ,अमर उजाला ,प्रभात खबर ,दै तनक भास्त्कर(मधुररमा) और अन्द्य पबरकाओं में लेख और रचनाएं प्रकासर्त सम्मान - ववसर्ष्ट दहंदी सेवी सम्मान ,भारत गौरव

सम्मान - २०१२,रं जन कलर् सर्व सम्मान ,नारायणी

सादहत्य अकादमी अवाडष- 2012, राजीव गाूँधी एक्सीलें सी एवाडष 2013, प्रभात खबर प्रततभा सम्मान 2014, दै तनक जागरण संधगनी सम्मान सम्प्रतत - डी . ए. वी . संस्त्थान,कोयलानगर,धनबाद

अन्द्य उपलब्लधयां - कोल इंडडया सलसमटे ड ,स्त्टे ट बैंक ऑफ़ इंडडया ,सी. बी .आई .,ववद्यालयों , रे डडयो स्त्टे र्न, कवव सम्मलेन काम फकया

इंदस े नाु ंचत

और अनेक संस्त्थानों के सांस्त्कृततक कायषिमों के

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सलए मंच संचासलका और उद्घोवर्का का


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- एक आदशा आत्मकथा --विश्िनाथ त्रत्रपाठी ‘साथ उस कारवाूँ के हम भी हैं’ मेरे समर, ब्जनका मैं बहुत आदर करता हू​ूँ और ब्जन्द्हें मैं एक आदर्ष सादहत्यकार मानता हू​ूँ, रमेर् उपाध्याय की धमषपत्नी श्रीमती सध ु ा उपाध्याय की

आत्मकथा है । मैं र्ुरू में ही कह दूँ ू फक मैंने दहंदी में इतनी अच्छी फकताबें बहुत कम पढ़ी हैं। सबसे पहली बात तो यह फक बहुत ही कम लेखक ऐसे हैं, जो इतनी अच्छी खड़ी बोली सलख सकते हैं। मैं रमेर् उपाध्याय के भी गद्य का बहुत प्रर्ंसक हू​ूँ। जो गद्य बड़ी धीमी आवाज में सलखा जाता है , बहुत सबड्यूड वाॅइस में सलखा जाता है , वह सलख पाना बड़ा मुब्श्कल काम है । गजषन-तजषन करते हुए, अततर्योब्क्त करते हुए लंतरानी करना गद्य नहीं होता।

कोई लेखक यदद अच्छा गद्य सलखता है , तो मैं जरूर उसकी प्रर्ंसा करता हू​ूँ। अच्छा गद्य सलखना मुझे लेखक के चररर का सबसे बड़ा गुण लगता है , क्योंफक वह सबड्यूड होता है । वह दस ू रों को जगह दे कर अपनी बात कहता है । धीमे स्त्वर में गद्य सलखना एक मानवीय

व्यवहार है , केवल लेखन नहीं है । अपने ववचार को महत्त्व दे ना एक अलग बात है , लेफकन अपने ववचार को संयत ढं ग से व्यक्त करना एक बड़ी बात है । और इस फकताब में यह गण ु है ।

यह कहने से मैं अपने-आपको रोक नहीं पा रहा हू​ूँ फक सुधाजी यदद लगातार सलखती रहतीं, तो रमेर् उपाध्याय से उन्द्नीस न पड़तीं। जीवन के लयौरों का जैसा बयान वे करती हैं, वह बहुत ववसर्ष्ट है । जैसे वे अपने बचपन का वणषन करती हैं, तो डडटे ल में बताती हैं फक बचपन का

मकान कैसा था। दरवाजे कैसे थे। ऊपर क्या था। नीचे क्या था। मुहल्ले में कौन रहता था। अगर नल था, तो नल कैसा था। बचपन में की गयी यारा का वणषन करती हैं, तो डडटे ल में

बताती हैं फक कौन बच्चा कब क्या कर रहा था। कौन कहाूँ बैठा था। यारा में कौन समला। वह क्या कह रहा था। फकसने क्या कपड़े पहने थे। फकसने क्या खाया। यह सब पढ़ते हुए पाठक भी मानो उनके साथ यारा कर रहा होता है । वणषन करने का मतलब यह नहीं है फक आपके ददमाग में एक बात आ गयी और आप उसे कहे चले जा रहे हैं। कुछ करते हुए, कहीं जाते हुए, आपके आसपास बहुत कुछ घट रहा होता है । अच्छा लेखक उसे यू​ूँ ही चले नहीं जाने दे ता। वह उस पर ध्यान दे ता है, उसका वणषन करता है । यह गुण इस फकताब में है । इसके डडटे ल्स मेरे सलए ववस्त्मयकारी हैं। कला में

डडटे ल्स बहुत बड़ी चीज होते हैं। उदाहरण के सलए, सत्यब्जत राय की फफल्मों की जान उनके डडटे ल्स हैं। प्रेमचंद के लेखन में दे खा जा सकता है फक एक बड़ा लेखक डडटे ल्स को कैसे लाता है । इस फकताब में एक सद् गदृ हणी का जीवन है । इससलए इसमें ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो अगर सध ु ाजी ससफष लेखक होतीं, तो र्ायद न सलखतीं। सबसे ज्यादा उत्सक ु ता से जो अंर् मैंने पढ़ा, इंदस े नाु ंचत

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वह है उनकी र्ादी का। सुधाजी और रमेर्जी की र्ादी का वह वणषन बहुत ही अच्छा वणषन है । ब्जतने आदर्ष ढं ग से यह र्ादी हुई है , उतने ही संयत ढं ग से उसका वणषन फकया गया है । और भी आदर्ष र्ाददयाूँ हुई हैं, लेफकन मेरे पररचय में फकसी लेखक बंधु की र्ादी इस ढं ग से नहीं हुई। रमेर्जी की ब्स्त्थतत सुधाजी की ब्स्त्थतत से सभन्द्न है , लेफकन फकसी ने फकसी के साथ

मुरव्वत करके र्ादी नहीं की है । सुधाजी के पास अपना वववेक है और रमेर्जी अपने ससद्धांत पर अटल हैं।

यह ऐसा प्रेम वववाह है , जो प्रेम वववाह नहीं है । यह अजीब-सा वववाह है और इतनी सादगी से होता है फक फकसी भी आदर्षवादी व्यब्क्त को ईष्याष हो। र्ादी में रमेर्जी के पररवार से कोई नहीं है , सब समर हैं। वे ही सब समलकर कराते हैं र्ादी। ऐसी र्ादी, ब्जसमें न दान है , न दहे ज है , न कोई आडंबर है । और र्ादी के बाद हनीमून का जो वणषन है , वह तो मेरे सलए अकल्पनीय था। उसे पढ़ते हुए रोमांच हो आता है । आूँसू आ जाते हैं। हनीमन ू का अच्छा वणषन मैंने दो ही जगह पढ़ा है । एक तो हजारी प्रसाद द्वववेदी के उपन्द्यास ‘चारुचंरलेख’ में और दस ू रा इस आत्मकथा में ।

बहुत ही सहज, संक्षक्षप्त और सांकेततक। कई आत्ममु्ध लेखक, जो वास्त्तव में कुछ नहीं होते, अपने लेखन में खद ु को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर ददखाते हैं। हनीमून आदद का वणषन तो ऐसे करते

हैं फक दतु नया उसी में डूब जाये। लेफकन अच्छे लेखक के सलए उसकी भावना सबसे कीमती चीज होती है । जैसे कोई अपनी कीमती चीज को तछपाकर रखता है , उसे बहुत सहे जकर रखता है , प्रदर्षन की वस्त्तु नहीं बनाता, वैसे ही सुधाजी अपनी भावनाओं को तछपाती और सहे जती हैं। उनको उतना ही व्यक्त करती हैं, ब्जतना बेहद जरूरी हो।

उदाहरण के सलए, जब र्ादी हो जाती है और बारात लौटकर आगरा से अजमेर जा रही होती है , तब का एक वणषन है : ‘‘रे न में हम दोनों के सलए प्रथम श्रेणी का एक अलग कूपा अलग

से आरक्षक्षत कराया गया था, जबफक बाराती तत ृ ीय श्रेणी के एक डडलबे में थे। कूपे में हम दोनों ही थे, इससलए हमने एक-दस ू रे को जी भरकर दे खा। र्ादी से पहले ‘प्लाजा’ में ससनेमा दे खने

के समय थोड़ी दे खा-दे खी हुई थी, तब कहाूँ मैं इन्द्हें खल ु ी नजरों से दे ख पायी थी। फफर भी ऐसा नहीं लगा फक ये मेरे सलए कोई अजनबी हैं। सारी रात हम जागते रहे । खब ू बातें कीं। खब ू प्यार फकया।’’

कोई खराब लेखक होता, तो इस प्रसंग पर न जाने फकतने पष्ृ ठ रूँ ग दे ता। लेफकन सध ु ाजी केवल एक पंब्क्त सलखकर फक ‘‘खब ू प्यार फकया’’, इस प्रसंग को समाप्त करके आगे बढ़ गयी हैं।

बहुत-सी आत्मकथाएूँ मैंने पढ़ी हैं, ब्जनमें लेखक बहुत खल ु कर सलखते ददखते हैं, पर वास्त्तव में तछपा अधधक रहे होते हैं। इस आत्मकथा में एक अद्भत ु ाजी ने अपने बच्चों ु स्त्पष्टता है । सध

के बारे में बहुत खल ु कर सलखा है । कहीं कोई दरु ाव नहीं है , कोई कंु ठा नहीं है । र्ायद इसका कारण इस पररवार का ववसर्ष्ट होना भी है । इस पूरे पररवार में प्रबुद्ध लोग हैं। ईमानदारी से इंदस े नाु ंचत

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अपना काम करते हैं। इससलए सब में एक खास तरह का स्त्वासभमान है , एक खास तरह की तनभीकता है , और यह समझ है फक हम ठीक हैं और जो हमारे ववरोधी हैं , उनसे हमें कोई कष्ट नहीं है । इस प्रकार यह केवल एक स्त्री की आत्मकथा नहीं है , एक लेखक पररवार की भी कथा है , जो एक आदर्ष प्रस्त्तुत करती है और पाठक के मन पर एक छाप छोड़ती है । इसमें रमेर्जी की पबरका ‘कथन’ के प्रकार्न का, फफर उसके पुनप्रषकार्न का, दोनों बार उसका कैसा स्त्वागत हुआ और उसके संपादन में फकतनी मेहनत रमेर्जी करते थे, फकतनी मेहनत संज्ञा करती थी, इस

सबका ववस्त्तार से वणषन फकया गया है । पुस्त्तक का यह अंर् बहुत महत्त्वपण ू ष है । पबरका कैसे तनकलती थी, उसके पीछे फकतनी मेहनत थी, फकतनी योजना थी, यह सब उस अंर् में है । इसके साथ ही एक नया लेखक संगठन बनने की और उसमें रमेर्जी की, उनकी पबरका की और उनके पररवार की जो भसू मका थी, उसका भी वणषन है । संगठन के कायषकताषओं का रमेर्जी के प्रतत कैसा व्यवहार था, यह भी सध ु ाजी ने सलखा है ।

वामपंथी लेखक संगठनों में , खास तौर से सी.पी.एम. से जुड़े लेखक संगठन में , फकतनी एरोगें स होती है , इसका जो वणषन सुधाजी ने फकया है , वे ही कर सकती थीं। यह सब रमेर्जी नहीं सलख सकते थे। वे सलख पायीं, और इससलए सलख पायीं फक संगठन के कायषकताष उनके घर में

पूरे अधधकार भाव से आते थे, खाते-पीते थे और रमेर्जी से संगठन से संबंधधत तरह-तरह के काम कराकर ले जाते थे। चूँ फू क सुधाजी उस सबको दे खती थीं, इससलए उन्द्होंने उन लोगों को जैसा समझा है , वैसा उनके बारे में सलखा है । लेफकन बहुत संयम के साथ सलखा है ।

इस फकताब में एक लेखकीय आत्मानुर्ासन है , जो बहुत प्रभाववत करता है । पढ़कर मुझे लगा फक एक बहुत बड़ी बात इसके माध्यम से कही गयी है , जो बहुत जरूरी थी। यह केवल एक

लेखक-पत्नी की आत्मकथा नहीं, एक पूरे सादहब्त्यक पररवार की कथा है और एक पूरे आंदोलन की भी कथा है । यह फकताब हमारे सादहब्त्यक आंदोलन, राजनीततक आंदोलन और वैचाररक आंदोलन के एक ववसर्ष्ट कालखंड का एक बहुत प्रामाखणक दस्त्तावेज है । ('हं स', अक्टूबर 2016 में प्रकासर्त)

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किानीकीमत चाित की जनकदे व जनक ‘हमारे धंधे में प्यार- मोहलबत की कोई जगह नहीं होती मैना! तुम आवश्यकता से ज्यादा जज्बाती न बनो। अपने ददल पर पत्थर रखना सीखो, तभी पुरूर् प्रधान इस समाज में ससर

उठाकर चल सकोगी। नहीं तो ये दररंदे तुम्हें नोंच खाएंगे। कल, बल और छल तवायफों का

हधथयार है । उसी के सहारे वे मदों के ददलों पर राज करती है जो इस नीतत का पालन नहीं करती। वह बेमौत मारी जाती हैं। बेददष जमाना उसकी पीड़ा पर तरस नहीं खाता। हमारा काम नाच गान कर मुजरा करना है । रईसों का मनोरं जन करना है , दे ह व्यापार करना नहीं! क्या

समझी?....’ अनवरी बेगम ने मैना को समझाते हुए कहा। साथ ही रं ग महल में टं गे मैना के प्रेमी मयंक के तैल धचर को नीचे धगराया और लात मार कर कूचल ददया। मैना ससर झुकायें गुमर्ुम फकसी बंदनी की तरह खड़ी थी।

‘ वह ददन तुम याद करो, जब तेरे यार ने सोना गाछी में तुम्हें बेच ददया था जहां तेरे पांवों में

पाजेब की जगह घुंघरूओं ने घेरा डाल ददया। उस वक्त तुमने खद ु सससकते हुए मुझे बताया था फक डुमररया ररयासत की तुम राजकुमारी हो। र्ादी के चार माह बाद ही तु ्म्हारा र्ौहर फकसी जंग में मारा गया था। तब तुम जवान ब्जस्त्म लेकर बेबा की ब्जंदगी बीता रही थी। इसी दरसमयान तुम्हारे ररयासत का एक युवक रासर्द पर तेरा ददल आ गया था। ररयासती पाबंदी

के कारण तुम दोनों का समलन नहीं हो पाता था। लेफकन प्रेम का रं ग ऐसा चढ़ा फक दोनों भाग कर कलकत्ता पहुंच गये। मौज मस्त्ती करने के बाद रासर्द ने तुम्हें रं डडयों के नरक में ढकेल कर भाग तनकला। जहां से तुम तनकलने के सलए बेचन ै थी। मुझे मासूम चेहरावाली फकसी

युवती की तलार् थी। जब मैं तुम्हारे कोठे पर पहुंची तो संयोग कहो फक तुम समल गई। तुम्हारी मासूसमयत पर मुझे दया आ गई और खरीदकर अपने घर लाई.। वहीं पर तम् ु हारी सर्क्षा, दीक्षा, र्ास्त्रीय नत्ृ य और संगीत की व्यवस्त्था की। आज तुम यहां मेरी बेटी की है ससयत से हो। यह राज हम दोनों के अलावा कोई नहीं जानता। आज पूरे इलाके में मैना के नाम का

डंका बजता है । लोगों के लबों पर तेरा ही नाम है । तेरा एक झलक पाने के सलए मदष बेकरार रहते हैं। कभी उसके बारे में सोचती हो, ब्जसने तेरे नाम बावन बबघा का राधा बाग सलख ददया। एर्ो आराम की सा्री चीजें उपललध कराई है । वह राजपुरोदहत तेरा कौन है ! वह तुम से

क्या चाहता है ? जब उसके कान में तेरी यह हरकत पड़ेगी तो हम कहीं के नहीं रहें गे....’ इतना बोलते बोलते अनवरी बेगम माथा पकड़कर बैठ गई। इंदस े नाु ंचत

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दबू और संकोची मैना यकायक आिोसर्त हो गई। जैसे ही बेगम ने बोलना बंद फकया। उसकी जुबान से तनकल पड़ा,

‘ अच्छा भार्ण ददया आपने। पता नहीं आप मेरी मां हैं या डायन !’ ‘अरे , तूने मुझे क्या कहा, डायन ?’ ‘ हां हां, मैंने डायन कहा । ’ मां के बदले व्यवहार से उत्तेब्जत मैना गस्त् ु से में चीख पडी और बोली, ‘डायन भी अपना घर छोड़कर खाती है । लेफकन आप तो उससे भी दो कदम आगे हैं। सबसे बड़ा तघनौना काम तो आप करती है , जो फकसी को कानों कान भी पता नहीं चलता !’ ‘तुम्हारे खखलाफ ऐसा कौन सा तघनौना काम फकय। बोलो, जरा हम भी तो सुने? ’ अनवरी बेगम अपने को संभालती हुई बोली।

‘ मोम की गुडड़या समझ कर अक्सर मुझे रातों को कहां भेजा जाता हैं, आपसे बेहतर कौन जानता है !

आपका मददगार राजपुरोदहत हो या कोई रईसजादा, सभी हरामजादे हैं। उनका ददल बहलाना अंगारे पर चलने जैसा है । तब आपकी नसीहतें कहां चली जाती हैं? जब र्राब के नर्े में

आपकी फूल सी बेटी को वे नोंचने के सलए दौड़ाते है । कभी बाल पकड़ कर खींचते है तो कभी

गालों को छूने की होड़ में नाखन ू मार दे ते हैं। जाम में अफीम समला कर उन्द्हें न सल ु ाऊ तो अस्त्मत बचना भी मब्ु श्कल हो जाये। ’

‘ तू झूठ बोलती है । उन पर बेहूदा आरोप लगा रही है । साकी बन कर जाम वपलाना कोई बुरी

बात नहीं है। अपनी जवानी में मैंने भी यह सब फकया है । एक तुम हो फक नाचीज एक घुड़सवार पर मरसमटी हो! समाज में ब्जसका कोई वजूद नहीं है । उसे भूल जाओ।’

‘आपको कभी अहसास नहीं होता फक आपकी बेटी के सीने में भी ददल है , जो प्यार पाने का हकदार है । आपने जान बुझकर मेरे अरमानों का गला घोंटा है .....’ मैना व्यधथत होती हुए बोल रही थी, तभी बीच में ही अनवरी बेगम गुस्त्से में फट पडी, ‘ चप ु र्ैतान, छोटा मुंह बड़ी बात। पराये के सलए मां से लड़ती है । मेरी नेकी का यही ससला दे

रही है तू। मैं तुम्हें आश्रय नहीं दे ती तो पता नहीं कहां सड़ती रहती।’ नाधगन की तरह अनवरी बेगम ने फुफकारा और तीन बार अपनी तासलयां बजाई। तासलयों की आवाज सुनकर उसके ससपहसलार आ गये और इर्ारे का इंतजार करने लगे।

‘आप बार बार मेरी आप बीती दहु राकर क्या कहना चाहती हैं ?...। उत्तेजना में चीख पड़ी थी

मैना, ‘ आप मेरी सगी मां होती तो ऐसा वताषव कभी नहीं करती। असली मां अपनी संतान की

इंदस े नाु ंचत

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सुख समवृ द्ध चाहती है न फक उसकी बबाषदी? अगर मयंक के साथ फकसी तरह का बुरा सलूक फकया गया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा....।’

अनवरी बेगम के इर्ारे पर मैना को बंदी बना सलया गया। उस ददन के बाद से मयंक का कुछ

भी अता- पता नहीं चल सका। उसे छोड़ ददया गया या मौत के घाट उतार ददया गया! उसके बारे में सोच- सोच कर मैना बेदम हुई जा रही थी। अचानक उसके मानस पटल पर हाथ जोड़े मयंक का चेहरा उभर आया। जब उसने एक सहे ली से मयंक की प्रर्ंसा सुन कर उसे समलने के सलए बुलाया था। मयंक मैना का ऐसा दीवाना था फक लगभग हर महफफल में उसकी कला

को दे खने पहुंच जाता था। ‘ बैठो मयंक बैठो, अरे हाथ जोड़े क्यों खड़े हो? तुम से मुझे कुछ खास काम है । ’ मदो के ददलों

पर राज करने वाली र्ोडर्ी मैना ने अपनी र्ोख अदाओं के साथ बीस वर्ीय युवक मयंक को बैठने का आग्रह फकया। लेफकन युवक माटी का मूरत बना अपने स्त्थान पर जहां का तहां खड़ा

था। वह अपने को मैना के सामने खड़ा कर पाने में असहज महसूस कर रहा था। उसे अपनी औकात और मैना की है सर्यत पता थ।

मैना मांझा एस्त्टे ट की एक खब ू सरू त नतषकी थी। उसके नाच गान से खर् ु होकर वहां के राजा

मांझी मकेर के पौर राजन ने 15 गांवों को दान स्त्वरूप दे ददया था। जहां उसकी मां अनवरी बेगम रै यतों पर र्ासन करती थी और अपने कररंदों द्वारा रै यतों से जबरन कर वसल ू ती थी

जो पैसा दे ने में आना- कानी करते, उनके साथ बरु ा सलक ू फकया जाता था। मानससक व

र्ारीररक यातनाएं दी जाती थी। मैना की मां भी जमींदारों की तरह तानार्ाह थी। लेफकन रहमददल मैना को यह सब बबल्कुल पसंद नहीं था। उसके हृदय में गरीबों के सलए दया और प्यार था। इस धंधे में उसने काफी चल अचल- संपब्त्त बटोरा था। नाम व धमष कमाने के सलए

उसने कई गांवों में कुआं, तालाब और हाट-बाजारों में धमषर्ाला का तनमाषण कराया थ। .जहां हलक सूखे राहगीर अपनी प्यास बुझाते और थके मांदे राही-बटोही अराम फरमाते थे।

उन्द्हीं पीडड़तों में मयंक के वपता रघुनी साह भी एक थे। ब्जन्द्होंने अनवरी बेगम से अपनी बेटी

की र्ादी में दो सौ रुपये कजष सलया था। सूद के पैसों को लेकर काररंदों ने रघुनी साह को बुरी तरह से वपटाई की थी। उस यातना से मयंक का पररवार दहर्त में था। यही कारण था फक मयंक हाथ जोड़े गुमर्ुम मैना के सामने खड़ा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था फक ऐयार्ी की ब्जंदगी जीने वाली मैना उससे क्या चाहती है !

‘अरे मयंक, ये रोनी सूरत क्यों बना रखी है ! न बैठते हो न कुछ बोलते हो? मैना से नहीं बोलने की कसम खा रखी है क्या?’अपने स्त्वर में अपनापन का तंज कसती, कजरारे मदभरे नैंनों

वाली मैना ने एक बार मयंक को दे खा। छड़हरे बदन के गौरवणष युवक का र्ारीररक सौष्ठव गजब का था। उसका तन व मन युवक के मजबूत बाजुओं और चौड़े सीने में समा जाने को मचल रहा था।

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‘ नहीं..। नहीं...र्हजादी सादहबा, ऐसी ...कोई बात ...नहीं है ..., क्या बताऊ आपको...’ वह बोलते बोलते एक ब एक रूक गया और अपनी परे र्ातनयों को छुपाने के सलए ससर झुकाये अपने बालों को खज ु लाने लगा।

‘ अरे , बोलते-बोलते रूक क्यों गये। अपनी पूरी बात तो कहो, जो तुम्हारी जुबान पर आकर

अटक गई है । बोलो मयंक, बोलो ! आज तुम मैना के आमंबरत मेहमान हो। तुम्हारा स्त्वागत करना हमारा फजष है ।’ इतना कहने के बाद इठलाती हुई र्ोडर्ी फकसी राज महल की नातयका की तरह अपने स्त्थान से उठी। अपने पैरों में नक्कार्ीदार जूततयों को पहना और बलखाती हुई

युवक के समक्ष आ खड़ी हुई। अपनी में हदी रची कोमल अंगुसलयों से उसने सहसा युवक की ठोड़ी को ऊपर उठाया। चेहरा ऊपर उठते ही मयंक की नजरें मैना से चार हुई। वह उसकी नीली झील से गहरी आंखों में डूब गय।फकसी मायावी जाद ू की तरह ऐसा डूबा फक अपना होर्ो

हवार् खो ददया। सब कुछ फकसी ददवा स्त्वप्न की तरह था। वह कभी सपने में भी नहीं सोचा

था फक मैना जैसी अदाकारा का उसे दीदार होगा, वह भी इस तरह। मैना की अंगुसलयों का स्त्पर्ष

पाकर उसका तन और मन फकसी ववद्युत तरं ग की तरह झनझना उठा।। इतर व गुलाब जल

की खर् ु बू ने वातावरण को और भी हसीन बना ददया था। परू े रं ग महल में हवा के झोंकों के ऊपर मैना के दे ह की सग ु ंध तैर रही थी। ब्जसमें गोता लगाता हुआ मयंक अकस्त्मात उन्द्मक् ु त होकर मैना के कंधों पर अपना दोनों हाथ रख ददया जो उसका ठोड़ी पकड़े असभर्प्त बरलोक संद ु री अदहल्या की तरह पार्ाण का स्त्टै च्यू बनी हुई खड़ी थी। मैना की इस भाव भंधगमा और मख ु मर ु ा पर वह मरसमटा। उधर मैना भी यव ु क के समलन संयोग के कारण अपना सध ु बध ु खो

बैठी थी। यव ु क का सब्न्द्नध पाकर उसका चेहरा गल ु ाब की तरह खखल उठा था। वह भी यव ु क की कमर पकड़ कर आसलंगनबद्ध हो गई। बसंत ऋतु में बौराई फकसी तततली की तरह उस पर धचपक गई। तततली बन फूल का रस चस ु ने लगी। मैना इस कदर मदहोर् थी फक वह भूल गई

फक वह इस ररयासत की मब्ल्लका है । रं ग महल में सावषजतनक रूप से फकसी पराये पुरूर् से समलना उधचत नहीं, वह तो कला पारखी व रसववज्ञों के सलए राधाबाग की मैना थी। मांझा

एस्त्टे ट के राजपुरोदहत स्त्वामी राधाफकर्न जी महाराज के सपनों की पंछी थी। ब्जसे उन्द्मुक्त गगन में उड़ने के सलए अपना बावन बबधा का राधाबाग मैना के नाम कर ददया था। मैना से उनके संबंधों की कहनी भी बड़ी रोचक और दख ु द है ।

दरबार-ए-आम के बाहर खड़े पहरे दार ने मैना के खास दासी रूखर्ाना को दरबार में बेगम सादहबा अनवरी बेगम के पधारे जाने की सूचना दी। वह प्रतत ददन अपनी ररयासत की प्रजा

की फररयाद सुनती थी। वक्त की पावंद मैना रोजाना समय से पूवष दरबार में अपना आसन ग्रहण कर लेती थी। लेफकन आज वह दरबार में गैरहाब्जर थी। रूखर्ाना पहरे दार का संदेर्

पहुचाने के सलए रं ग महल में दाखखल हुई तो दे खा फक उसकी र्हजादी मैना फकसी पराये के साथ आसलंगनबद्ध थी। अचानक उसकी जब ु ान से तनकल पड़ा,‘ र्हजादी सादहबा, बेगम सादहबा दरबार में पधार चुकी है ....और आप...?’

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दासी की आवाज सुनकर मैना चौंकी। तुरंत मयंक के दामन से तछटक कर अलग हो गई।

अपने को संभालते हुए दासी की ओर दे खा, वह बबना फकसी जवाब का इंतजार फकये अपने स्त्थान की ओर जा रही थी। दस ू रे ही पल वह मयंक की ओर मुखाततब हुई। अब मयंक का चेहरा पूवष की तरह डरा और सहमा हुआ नहीं था। वह बबल्कुल सामान्द्य लग रहा था। मैंना ने उसे एक चांदी का ससक्का ददया और पीछे के रास्त्ते से बाहर तनकल जाने का इर्ारा फकया।

मयंक के जाने के बाद वह ड्रेससंग टे बल के पास गई। आदमकद आईने में अपने चेहरे को तनहारा। वह अपना ही चेहरा दे खकर है रान रह गई। उसके प्रफुब्ल्लत चेहरे से नूर बरस रहा था। इंरधनुर् सी तनी भौंहों के नीचे मदमाती आंखों में खम ु ार था। मयंक का स्त्पर्ष पाकर अंग

अंग गुलाब की भांतत खखल उठा था। संतरे की फांक सा खल ु े पतले होंठों की लाली गजब ढा

रही थी। बेकाबू ददल की धड़कनों के कारण उसका उन्द्नत उरोज अब भी नीचे ऊपर हो रहा

था। वह दरबार-ए-आम में जाने से पूवष अपने तन और मन को संयसमत कर लेना चाहती थी। उसने सामान्द्य ददखने के सलए बेतरतीब बालों को कंघी से सहे जा और अपने चेहरे पर हल्का

मेकअप फकया। वह अपने को सहज महसूस करती हुई दरबार की ओर तनकल पड़ी। दरबार में जाते जाते मैना को यकायक बांका नौजवान मयंक का चेहरा उसकी आंखों में तैर गया। वह सोचने लगी फक इससे पव ू ष मयंक से उसकी मल ु ाकात क्यों नहीं हुई। जबफक तालक ु दारों, जमींदारों व राजघरानों में उसका आना जाना लगा रहता था। एक से बढ़कर एक छै ल छबबले नौजवानों से वह समल चक ु ी है । लेफकन फकसी से कभी ददल की लगी नहीं लगी। वासना में डूबे राजकुमारों के एक तरफा इश्कबाजी का चभ ु न वह झेल चक ु ी थी। ददलफेंक रइसजादों की नजरें महफफलों में ताबले की थाप पर मचलते उसके पैरों पर नहीं, बब्ल्क अदाकारी में मटकते उसके तनतंबों और चोली में कसमसाते यौवन पर दटकी रहती थी। प्रोत्साहन रासर् दे ने के बहाने उनका मकर्द कोमल अंगों को छुना, मसलना और कौमायष भंग

करना रहता। कोई कोई तो वासना में वर्ीभूत होकर उसके दठकाने तक पहुंच जाते और महज एक रात के सलए अपना सबकुछ दावं पर लागा दे ने को तैयार समलते थे। जब मैंना का सब्न्द्नध्य नहीं समलता तो वह बुरे पररणाम की धमकी दे ते हुए लालची कुत्ते की तरह लार टपकाते वहां चले जाते।

घर लौटने के बाद मयंक की परे र्ानी कम नहीं हुई। उसके माता-वपता काफी डरे हुए थे। घर पहुंचते ही उससे तरह तरह के सवाल करने लगे। र्हजादी ने तुम्हें क्यों बुलाया था! कहीं तुम्हारे साथ कोई बुरा सलूक तो नहीं फकया?

उनका कहना था फक जब हम कजष सलए हैं तो दरबार में हमें ही बुलाना चादहए। माता वपता के मरने के बाद ही उनके पररजनों को तलब फकया जाता है । वैसे भी बेगम सादहबा दरबार में

सुनवाई करती है कोई दस ू रा नहीं, तो फफर र्हजादी मैना तुम्हें क्यों बुलाने लगी ?। र्ोचनीय ब्स्त्थतत में मयंक के माता वपता उसके जवाब की प्रतीक्षा में थे। मयंक ने जब कोई उत्तर नहीं

ददया तो उन्द्हें लगा फक कजष का सूद इस माह नहीं दे पर र्ायद उसे डांट- फटकार लगाई गई होगी, इससलए वह उदास है ! इंदस े नाु ंचत

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माता- वपता को परे र्ान दे ख कर मयंक ने अपना मौन तोड़ा और गोल मटोल जवाब ददया फक आज र्हजादी से मुलाकात नहीं हो सकी। कल फफर उससे समलने जाना है । बेगम और र्हजादी फकसी काम में व्यस्त्त थी। वह सफेद झूठ बोल गया। कहा फक उनकी हवेली के बाहर

बुलाने का इंतजार करता रह गया था। तभी पहरे दार ने बाहर आकर उससे कल आने की बात कही। तब मयंक के माता- वपता ने राहत की संस ली।

मैना का ददया हुआ चांदी का ससक्का ने मयंक की नींद उड़ा दी थी। वह सोच रहा था फक उसने ससक्का दे कर उसे दस ू रे ददन आने का नेवता क्यों ददया! ससक्का वह नहीं भी दे ती तो उसके यहां उसे तो जाना ही था। आखखर वह इस ससक्का का क्या करे ! अगर पररवार के लोग ससक्का के बारे में पूछेंगे तो वह क्या जवाब दे गा?। फफर वह सोचने लगा फक फकसी की र्ादी

वववाह में वह घुड़सवारी करता है तो मजदरू ी व बख्र्ीर् में दो सेर जई समलता है , ब्जसका

उपयोग वह घोड़ा को खखलाने में करता है । जबफक मैना ने उसे बबना काम का एक रुपये का ससक्का दे ददया। इस हराम की कमाई को लौटा दे ना चादहए! इसी उधेड़बुन में उसे कब नींद आ गई पता नहीं चल सका।

अचानक फकसी की आहट पाकर मयंक की नींद उचट गई। उसे लगा फक रात के सन्द्नाटे में मैना आई है । वह यहीं कहीं है जो फकसी भी पल उससे आकर सलपट सकती है । उसके आसलंगन की अनभ ंु न और गमष सांसों का ु तू त से उसका रोम रोम रोमांधचत हो उठा। चब

अहसास कर वह करवटें बदलने लगा। इसी बीच उसकी नजरें ववस्त्तर पर लेटे लेटे ही नीम अंधेरे में फकसी को ढूंढ़ने लगी। लेफकन उसे कुछ भी नजर नहीं आया। उसने सोचा र्ायद

झोपड़ी के बाहर रातरानी का पौधा है । तेज परु बइया के झौंको और उसकी सरसराहट ने र्ायद उसकी नींद उड़ा दी है । वह मन ही मन एक सेर बद ु बद ु ाया, ‘ नसीम तेरे र्बबस्त्तां से होकर आई है , और खर् ु बू है तेरे बदन की सी.....’

दस ू रे ददन हवर्षत मुरा में जब मयंक मैना की दहसलज पर पहुंचा तो वह अंदर नहीं जा सका।। उससे कहा गया फक दरबार-ए-आम ददन के 10बजे होता है । अभी फकसी की फररयाद नहीं सुनी जाएगी, तुम बाद में आना। यह सुनकर उसका हवर्षत मन मब्ल्लन हो उठा। पानी के बुलबुले

की तरह उसका उमंग यकायक गायब हो गया। मैना की ददवानगी में वह ऐसा रमा था फक वक्त का ज्ञान ही नहीं रहा। वह मैना से समलने ददन के 10 बजे की जगह सुबह आठ बजे ही पहुंच गया था। उसने मुख्य द्वार पर खड़े पहरे दार से कहना चाहा फक वह फररयादी नहीं है , उसे तो र्हजादी मैना ने खद ु ही बुलाया है । लेफकन संकोचवर् वह अपने मन की बात उससे कह नहीं सका। पहरे दार भी दस ू रे लोगों से बातचीत में व्यस्त्त हो गया। वह वहीं खड़ा-खड़ा सोचने लगा फक अब क्या करे ! तभी उसे याद आई फक मैना राधा बाग में हो सकती है । लेफकन उस बाग में आम लोगों का घुसना मना था।

वह बमुब्श्कल राधा बाग की चहार ददवारी पर चढ़ पाया। दीवार पर बैठकर मैना को ढूंढ़ने

लगा। इतने बड़े बाग में उसे वह कहां खोजे ? उसके सलए कदठन समस्त्या थी। तभी उसकी नजर दासी रूखर्ाना पर पड़ी, जो बाग के कुआं से बाल्टी में पानी भर कर तांबे के कलर् में इंदस े नाु ंचत

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रख रही थी। वह उसके पास जाने की तरकीब सोचने लगा। तभी उसे एक पेड़ ददखाई पड़ा। ब्जसकी डाल दीवार के पास झुकी हुई थी। उसके सहारे वह बाग के अंदर प्रवेर् कर गया। उसे भय था फक दासी उसे दे खकर धचल्लाएगी। इससलए वह पेड़ों की ओट में छुपते हुए उसके पास पहुंचा और अपनें मुंह पर अंगुली रख कर न धचल्लाने का आग्रह फकया। ब्जसका अनुर्रण रूखर्ाना ने फकया। उसे दे खते ही वह पहचान गई। इधर-उधर दे खकर उसने इर्ारे से पूछा फक यहां जान जोखखम में डालकर फकससे समलने आये हो। तब मयंक ने र्हजादी का फरमान उसे सुनाया।

दासी रूखर्ाना को मयंक की बेबसी पर दया आ गई। उसने बाग के पूरब की तरफ जाने का इर्ारा फकया। साथ ही धीमे स्त्वर में बोली फक र्हजादी गुलाब बाग में है ।

‘आपको कांटों से डर नहीं लगता ?’ फूलों से खेल रही मैना को दे खकर मयंक ने उसे टोका।

‘अरे , मयंक तुम ! और, इस वक्त ?’ मैना चौंकते हुए मयंक की ओर दे खकर मुस्त्कुराई और अचरज प्रकट करते हुए बोली, ‘ कांटों से खेलना तो मेरी बचपन की आदत है । ’ ‘ बहुत खब ू , आपने मुझे बुलाया था, इससलए आ गया। समय का ज्ञान नहीं रहा। इस ससक्के के

कारण रात भर सो नहीं सका। इस बला को आप ही रखखए।। यह मेरी जेब में समा नहीं रहा है .?’ ‘ ऐसी क्या बात है । मैंने तो यंह ू ी तम् ु हें दे ददया था। क्या परे र्ानी है , साफ साफ बताओ? ’

‘ मेरे मां-बाप आपका कजषदार हैं। समय से सद ू का पैसा भी नहीं दे पाते है । मैं भी बेरोजगार

हूं। ऐसे में बबना मेहनत का यह ससक्का मेरे गले नहीं उतर रहा है । आप ही इसका हल तनकाले।’ मयंक ने साफगोई के साथ अपनी बात रखी। मयंक की सादगी पर मैना मरसमटी। वह उसकी बेबसी पर तरस खाये बबना नहीं रह सकी। उसने सहानुभूतत प्रकट करते हुए कहा, ‘ओह, ऐसी बात है । मैं तम् ु हारे मां बाप का कजष माफ करवा दं ग ू ी। रही बात तुम्हारी नौकरी की

तो मैं तुम्हें अपना अंग रक्षक तनयुक्त करती हूं। वह ससक्का मैना की रखवाली के सलए अग्रीम रासर् समझो और कुछ ख्वादहर् हो तो बोलो?’ प्रसन्द्न मुरा में मैना ने अपना आदे र् सुना ददया। ब्जसे सुनकर मयंक की आंखों में आंसू भर आए। हाथ जोड़ कर मैना का र्ुफिया

अदा फकया। मयंक की डबडबाई आंखो को दे खकर मैना भी भावववह्वल हो उठी और मयंक को अपने गले से लगा सलया। उसके बाद मैना और मयंक की जोड़ी ऐसी जुटी फक दे खने वाले कहते थे फक ईश्वर ने दोनों को

एक दस ू रे के सलए बनाया है । महफफल में जब दोनों के पांव धथरकते तो र्मां बांध दे ते। मैना का साथ पाकर घुड़सवार मयंक, काफी बदल गया था। र्ास्त्रीय नत्ृ य व संगीत की कई ववधाओं

को सीख सलया था। उसकी कला-कौर्ल को दे खकर मैना की संगीत मंडली भी दं ग रह जाती थी। लेफकन होनी को कुछ और ही मंजूर था। महफफलों में मैना के साथ मयंक की चचाषएं

अनवरी बेगम को नागवार गुजरती थी। मयंक की प्रर्ंसा सुनकर बेगम की छाती पर सांप

लोट जाता था। उसके ददलों ददमाग पर कजषदार रघुनी साह का पुर मयंक छाया रहता। वह इंदस े नाु ंचत

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उसकी प्रततभा से जलती थी।। मैंना से मयंक का समलना- जुलना बबल्कुल पसंद नहीं करती थी। वह मैना-मयंक की जोड़ी को तोड़ना चाहती थी।

राधा बाग के सरोवर में केवल ब्स्त्रयां ही जल िीड़ा करती थी। लेफकन उसके ववपरीत एक ददन मैना व मयंक जल िीड़ा कर रहे थे। चांदी सा चमकते जल में मैना का गोरा बदन र्ोला की तरह दमक रहा था। वह मछली की भांतत तैयरती हुई कभी मयंक को अपने आगोर् में भर लेती तो कभी मयंक उसे अपनी पीठ पर चढ़ाए मगरमच्छ की तरह जल तल पर घम ू ता फफरता।

इस जल िीड़ा की सूचना फकसी ने मैना की मां अनवरी बेगम को दे दी। वह लाव लश्कर के

साथ सरोवर जा पहुंची और दाससयों से अपने आने की सूचना मैना के पास भेजवाई। इस खबर से मैना और मयंक सकते में आ गये। कपड़े बदल कर मैना दासी के साथ बेगम के पास पहुंची। उधर सरोवर से तनकलते ही मयंक को बंदी बना सलया गया। ‘र्हजादी, यह क्या हो गया, मैना मयंक की जोड़ी को फकसकी नजर लग गई? आप कुछ तो बोसलए। मुझे ऐसे क्यों घूर रही हैं? मैं..। मैं ...मैं...आपकी प्यारी दासी रूखर्ाना.....’ बंदीगह ृ में

बंद मैना ने जब रूखर्ाना की आवाज सन ु ा तो उसकी तंरा भंग हुई। वह अपने ववचारों से वापस आई। वह रूखसाना को दे र तक दे खती रह गई। र्न्द् ू य में ढूंढ़ती उसकी आंखों में उदासीनता थी। यकायक उसके र्ष्ु क होंठों से बोल फूटे ,

‘कुदरत का खेल तनराला है रूखर्ाना, मेरा मयंक कहां है ? ’ बड़ी मब्ु श्कल से मैना ने दासी से सवाल फकया।

‘ मझ ु े कुछ भी मालम ू नहीं र्हजादी, चप ु के से समलने आ गई हूं। बेगम सादहबा से आपकी मब्ु क्त के सलए फररयाद करूंगी।’ इतना कहते हुए रूखर्ाना रो पड़ी। ‘नहीं, रूखर्ाना, नहीं! मेरे सलए फररयाद मत करना। अब मैं र्हजादी कहां रह गई। बंदी का जीवन तो तुम जानती ही हो ! हो सके तो मालूम करना फक मयंक कहां है , फफर मुझसे

समलना.....’ मैना आसमान की तरफ दे खते हुए अपने मन की बात कही। मैना ने खाना पीना छोड़ ददया था। वह मयंक की याद में अद्धष ववक्षक्षप्त सी हो गई थी। एक ददन रूखर्ाना ने उसे बताया फक मयंक अब इस दतु नया में है या नहीं, कुछ पता नहीं चल पा

रहा है । उसके गांव भी गई थी। उसके मां बाप को भी कुछ मालूम नहीं है । यह सुनते ही उसके ददल पर बज्रपात हुआ। वह चैतन्द्य र्ू ्न्द्य हो गई। यकायक मूतछष त होकर नीचे धगर पड़ी। दाससयों ने इसकी सूचना बेगम सादहबा को दी। वैद्यों के दे ख रे ख में उसका इलाज होने लगा। लेफकन उसके स्त्वास्त्र्थय में फकसी तरह का सुधार नहीं हुआ।। इन सारी घटनाओं की जद में बेगम सादहबा की बादर्ाहत थी, जो अपने वसूलों की खाततर बेकसूर और मजलुमों को र्ूली पर चढ़ाती जा रही थी। सोचते-सोचते मैंना ने एक-ब-एक आसमान की ओर दे खा, उसकी जुबान

से तनकल पड़ा,‘ या खद ु ा परवर ददगार! उनके रहमों करम पर रहम कर। पीडड़तों को उनकी जुल्मों र्ीतम से तनजात ददला....’

इंदस े नाु ंचत

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मैना का खब ू सूरत चेहरा कंकाल बन गया था। दे खने वाले उसे पहचान नहीं पाते थे। साथी के न रहने से उसके जीने की इच्छा मर चक ु ी थी। उसे मयंक के वगैर पूरी दतु नया मरघट सा

लगने लगी। उसे बार-बार एक ही बात का पछतावा था फक अपना ददल हारी भी तो मयंक पर, जबफक उसके जीवन में लाखों चाहने वाले समले। फकसी ने उसे आकवर्षत नहीं फकया। ब्जस पर वह मरसमटी आज वहीं नहीं रहा। एक रात मैना पूखणषमा के गोल चांद को दे ख रही थी। ब्जस पर मयंक की सुघर छवव दृब्ष्टगोचर हो रही थी। चांद को तनहारते- तनहारते उसे लगा फक

मयंक धरती की ओर उड़ता हुआ आ रहा है । वह असीम उमंग और उल्लास से भर गई। यकायक उसके सर्धथल र्रीर में न जाने कहां से स्त्फूततष आ गई। अकस्त्मात वह अपनी लकड़ी की तरह सूखे पैरों पर खड़ी हो गई और आकार् की ओर दोनों बाहें फैलाकर मयंक...मयंक धचल्लाने लगी। लगा फक अब उड़ कर वह मयंक को अपने आगोर् में भर लेगी। --------------------------परिचय: जन्द्म ततधथ-5 मई 1959

-जन्द्म स्त्थान-ग्राम-सारण, ब्जला छपरा, बबहार, सर्क्षा - स्त्नातक लेखन- दहंदी-भोजपुरी में एक साथ लेखन, लेख,कहानी, नाटक, साक्षात्कार आदद दे र् की ववसभन्द्न पर पबरकाओं में प्रकासर्त

उपाध्यक्ष-जनवादी लेखक संघ झररया इकाई,धनबाद,झारखंड.भारत. अध्यक्ष-राष्रीय भोजपुरी कला मंच,झररया,धनबाद,झारखंड. प्रकार्न- पस्त् ु तक ‘ धचट्ठी बच ु ना के माई के’

सम्मान -झारखंड ससने अवाडष रांची 2008 में र्ासमल भोजपरु ी फफल्म ‘ आजा हमार राजा ’का सवषश्रेष्ठ कहानी लेखन परु स्त्कार

संप्रतत: प्रभात खबर झररया कायाषलय में उप संपादक, मौसलक रचना- यह रचना में री अपनी व मौसलक है । इसे ववचारथष इंद ु संचत े ना के सलए भेज रहा हूं

इंदस े नाु ंचत

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किानी मैं कैसे िाँ साँू ? सुशांत सुवप्रय मैं कैसे हूँ सूँू ? चौदह वर्ों तक मेरा सबसे अच्छा दोस्त्त रहा मेरा पालतू कुत्ता 'जैकी '

मर चक ु ा है । मेरे बेटे मुझे छोड़ कर दरू चले गए हैं । ब्जन लोगों पर मैं भरोसा करता था, वे ही मुझे धोखा दे रहे हैं । बाल्कनी में रहने वाले ब्जस कबूतर को मैं रोज़ सुबह दाना दे ता था,

उसे इलाक़े की बबल्ली मारकर खा गई है । मेरे अकेलेपन की साक्षी मेरे कमरे में रहने वाली पूँछ ू -कटी तछपकली भी करें ट लगने से मर गई । और वपछले कई ददनों से मूसलाधार बाररर् हो रही है । मेरे र्हर में यमुना ख़तरे के तनर्ान से ऊपर बह रही है । सारे र्हर पर बाढ़ का

ख़तरा मूँडरा रहा है । डॉक्टर कहते हैं --"आप लोगों से समला-जुला कीब्जए । लोगों के घर आया-जाया कीब्जए । खुलकर हूँ सा कीब्जए और खर् ु रदहए ।" पर मैं कैसे हूँ सूँू ?

दे र् में जब बाढ़ नहीं आई होती तो सख ू ा पड़ा होता या सन ु ामी या भच ू ाल आया होता

या नगर-तनगम के नलों में कई ददनों तक पीने का पानी नहीं आता या ददन में दस घंटे

बबजली नहीं होती या महूँ गाई बढ़ गई होती -- सब्लज़याूँ, दालें , तेल ,रसोई-गैस, पेरोल, फकरासन तेल -- सब की क़ीमतें आम आदमी की पहुूँच से बाहर हो गई होतीं । कॉलेज से आने के बाद

मैं दे र तक अूँधेरे को घूरता हुआ कमरे में अकेला पड़ा रहता । टी.वी। चलाता तो ख़बरें मुझे अवसाद से भर दे तीं । तीथष-स्त्थानों पर हुई भगदड़ में दबकर दजषनों तीथष-यारी मारे जा रहे होते या ग़रीबों की झु्गी-झोंपडड़यों और बब्स्त्तयों पर बुलडोज़र चल रहे होते या फकसान क़ज़ष तले दबकर आत्महत्याएूँ कर रहे होते या अदालत में पेर्ी के सलए लाए गए दद ु ािंत अपराधी पुसलस दहरासत से भाग रहे होते या अदहंदी-भार्ी प्रदे र्ों में दहंदी-भावर्यों को मारा-पीटा जा रहा होता।

कभी कहीं प्रेर्र-कुकर या स्त्टोव या गैस का सससलंडर फट गया होता या स्त्कूल-बस

पल ु तोड़ कर नदी में धगर गई होती या चालकों के सो जाने की वजह से बीच रात में दो रे लगाडड़यों की टक्कर हो गई होती या कोई ववमान दघ ष नाग्रस्त्त हो गया होता और इन हादसों में ु ट

दजषनों या सैकड़ों लोग मारे गए होते । कहीं आरक्षण के ववरोधी दहंसा पर उतारू होते , कहीं आरक्षण के समथषक रे ल की पटररयाूँ उखाड़ रहे होते और राष्रीय राज-मागों को जाम कर रहे होते । जब यह सब नहीं हो रहा होता तो कहीं आतंकवादी बम-ववस्त्फोट कर दे ते या फफर कहीं दो समुदायों में दं गा-फ़साद हो जाता । इन ख़बरों से घबराकर मैं कभी बाल्कनी में आ कर खड़ा होता तो सामने वाली इंदस े नाु ंचत

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ख़ाली प्लॉट में पड़े कूड़े के ढे र पर सभखारी और कुत्ते एक साथ खाना ढू​ूँढ़ते नज़र आते ।

जीववत लोगों को पूछने वाला कोई नहीं था जबफक मरे हुए लोगों के बुत बना कर चौराहों पर लगाए जा रहे थे , उनके गले में फूल-मालाएूँ डाली जा रही थीं । यह सब दे खकर मुझे ऐसा लगता जैसे मेरे सीने पर कोई भारी पत्थर पड़ा हुआ हो ।

यह इक्कीसवीं सदी का दस ू रा दर्क था जब दे र् के अय्यार् वगष के पास अथाह

सम्पब्त्त थी और वह ऐर् कर रहा था जबफक मेहनतकर् वगष भूखा मर रहा था ।

मेरे पड़ोसी के। डी। ससंह एक बहुराष्रीय कम्पनी में उच्च पद पर काम करते थे । उन्द्हें हर महीने लाखों रुपए वेतन में समलते थे । उनके यहाूँ तीन-तीन लक्ज़री कारें और एस। य।ू वी। थे । उनके यहाूँ आए ददन पादटष याूँ होती रहती थीं , जो दे र रात तक चलती थीं ।

उनके घर में जैसे ददन-रात र्राब की नददयाूँ बहती थीं । उनके बच्चे पानी की जगह धचल्डबीयर पी कर बड़े हो रहे थे । दस ू री ओर इलाक़े के कपड़े इस्त्री करने वाला था जो एक कमरे की खोली में रहता

था । उसकी पत्नी हमेर्ा बीमार रहती थी । पौब्ष्टक आहार नहीं समलने की वजह से उसके स्त्तनों का दध ू सख ू गया था और उसका नवजात सर्र्ु बीमार पड़कर अकाल-मत्ृ यु के ग्रास में

चला गया था । । बहती नाक वाले उसके बाक़ी दोनों बच्चों को भरपेट खाना नहीं समलता था और वे कभी स्त्कूल नहीं जाते थे । मेरे दस ू रे पड़ोसी संजीव प्रताप अपने घर पर कुछ ही घंटों के सलए आते

थे । लोगों का कहना था फक वे दरअसल अपनी पहली बीवी के साथ कहीं और रहते थे । मेरे पड़ोस के मकान में उनकी दस ू री बीवी और दस ू री बीवी से हुआ उनका एक बच्चा रहता था । वे यह दोहरा जीवन र्ान से जी रहे थे । उस मकान का बूढ़ा मासलक कई बार प्रताप साहब को मकान ख़ाली करने का नोदटस दे चक ु ा था पर प्रताप साहब की जान-पहचान इलाक़े के

गुंडों से भी उतनी ही प्रगाढ़ थी ब्जतनी इलाक़े के पुसलसवालों से थी । अपने ' कांटैक्ट्स ' की वजह से वे न तो मकान का फकराया दे रहे थे न ही मकान ख़ाली कर रहे थे बब्ल्क मकान पर क़लज़ा जमाकर उसे हड़पने की तैयारी में थे । मैं कॉलेज में उन लड़के-लड़फकयों को सर्क्षा दे ने के सलए तनयुक्त फकया गया था ब्जन्द्हें

मेरे द्वारा दी जाने वाली सर्क्षा हास्त्यास्त्पद लगती थी । वे लड़के और लड़फकयाूँ चमचमाती लम्बी गाडड़यों में से तनकलकर कॉलेज में महज़ समय व्यतीत करने के सलए आते थे । उनके माूँ-बाप उद्योगपतत , व्यापारी या राजनेता थे जो कॉलेज को तगड़ी ' डोनेर्न ' दे ते थे । कॉलेज के मैनेब्जंग कमेटी के कई सदस्त्य उनके माूँ-बाप की जेब में थे । वे परीक्षा में धड़ल्ले से नक़ल करते थे और उनका नाम हर साल ' मेररट-सलस्त्ट ' में होता था । इन लड़कों के आदर्ष गाूँधीजी जैसे महापरु ु र् नहीं थे बब्ल्क फफ़ल्मों में क़मीज़ उतार कर दे ह-प्रदर्षन करने इंदस े नाु ंचत

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वाले सलमान खान और लक्स साबुन का प्रचार करने के सलए ' पूल ' में ससने-ताररकाओं से तघरे नंगे बदन वाले र्ाहरुख़ ख़ान सरीखे असभनेता थे । लड़फकयाूँ फफ़ल्मों में हॉट और बोल्ड

दृश्यों में ददखने वाली सन्द्नी सलओनी , मब्ल्लका र्ेरावत और राखी सावंत को अपना आदर्ष मानती थीं , मदर टे रेसा को नहीं । यह वह समय था जब लोग महूँ गी ववदे र्ी र्राब की बोतलें ' धगफ़्ट ' में दे कर अपने रुके हुए काम करवा रहे थे । लोग हर वैध-अवैध ढं ग से ज़्यादा-से-ज़्यादा धन कमाने के पीछे पागल हुए जा रहे थे । समाज में धन और पद की क़र थी , गुण और बुवद्धमत्ता की नहीं । जो सच्ची बात कहने का साहस करते उन्द्हें या तो नौकरी से तनकाल ददया जाता या उनके ऊपर फकसी ससफ़ाररर्ी गधे को बैठा ददया जाता । दसलतों और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार रोज़मराष की बातें हो गई थीं । मैं कॉलेज में परू ी लगन और तनष्ठा से अध्यापन-कायष करता था पर मेरे काम को

कभी सराहा नहीं जाता था ; उलटे माइिोस्त्कोप ले कर उसमें काल्पतनक ग़लततयाूँ ढू​ूँढी जाती थीं । कॉलेज के वप्रंससपल महोदय चाहते थे फक कॉलेज की ड्यूटी के अलावा मैं उनके घर के

काम-काज भी करू​ूँ -- कभी उनके सलए अपने पैसों से बाज़ार से सलज़ी , फल और समठाई वग़ैरह ख़रीदकर दे जाऊूँ तो कभी स्त्कूल जानेवाली उनकी बब्च्चयों की फ़ीस अपनी जेब से दे

आऊूँ । उन्द्हें यह ग़लतफ़हमी भी थी फक वे एक बहुत अच्छे कवव और कथाकार भी थे । वे चाहते थे फक मैं उनके महान व्यब्क्तत्व और कृततत्व का मदहमामंडन करने वाली पस्त् ु तक सलखू​ूँ !

वप्रंससपल साहब अंग्रेज़ी र्राब के र्ौक़ीन भी थे , जबफक मैं र्राब बबल्कुल नहीं पीता

था । हर र्ाम उनके यहाूँ पीने-वपलाने वाले र्राबी प्राध्यापकों का जमावड़ा लगता था । मांस और मददरा के सेवन के बीच यहाूँ र्ड्यंर रचे जाते थे , गण ु ी फकंतु सींधे-सादे प्राध्यापकों की

राह में काूँटे बबछाने की साब्ज़र् की जाती थी ।चूँ फू क मुझे मददरा सेवन करने वाली इस मंडली

का सदस्त्य बनना मंज़ूर नहीं था , चूँ फू क मैं झूठी प्रर्ंसा करने वाली फकताब नहीं सलख सकता था , चूँफू क मैं अपनी गाढ़ी कमाई के पैसे ख़चष करके वप्रंससपल साहब को धगफ़्ट्स नहीं दे

सकता था , इससलए मेरे सारे अन्द्य गुण उनकी नज़र में अवगुण थे । उनकी तनगाह में मैं फकसी काम का नहीं था , मैं ग़लत यग ु में भटक आया एक ' समसफफ़ट ' था । मेरी सबसे बड़ी

कमज़ोरी यह थी फक मैं फकसी का चमचा नहीं बन सकता था । मेरे रक्त में चापलूसी और चाटुकाररता नहीं घुली थी। कोई मेरी पीठ ठोककर मुझे रीढ़हीन नहीं बना सकता था ।

और इक्कीसवीं सदी के दस ू रे दर्क के भारत में यह सब एक बड़ी अयो्यता थी , सफलता की राह में भारी रुकावट थी ।

मेरे एक समर का बेटा फकसलय वपछले आठ सालों से ददल्ली ववश्वववद्यालय के ववसभन्द्न कॉलेजों में एड-हॉक पदों पर दहंदी पढ़ा रहा था । हालाूँफक वह दहंदी और भार्ाववज्ञान इंदस े नाु ंचत

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में प्रथम श्रेणी में एम.ए। था और दहंदी में पी। एच। डी। भी था , पर उसके पास वह यो्यता नहीं थी जो कॉलेज में स्त्थायी पद पर तनयुब्क्त के सलए सबसे ज़रूरी थी -- वह फकसी

अकादसमक मठाधीर् का चमचा नहीं था , उसके पास ' कांटैक्ट्स ' नहीं थे , वह उच्च पदों पर आसीन गधों के सामने ' हाूँ, सर', 'जी, सर ' करते हुए अपनी ववलुप्त पूँछ ू नहीं दहला सकता था, और न ही वह साक्षात्कार के सलए आए आचायों को महूँ गे तोहफ़े दे सकता था । यह वह समय था जब हर जगह घाघ मठाधीर् बैठे थे जो यो्य लोगों को आगे नहीं आने दे रहे थे । जो काम कर रहे थे , उन्द्हें सराहा नहीं जा रहा था । जो नतीजे दे रहे थे, उनकी पदोन्द्नतत नहीं हो रही थी । धमष और जातत के आधार पर ही व्यब्क्त की यो्यता आूँकी जा रही थी । हॉकी में तो ओलब्म्पक खेलों में हमारी दग ु तष त हो रही थी , पर यो्य आदमी

से

जलना

और

उसे

कुचलना

जैसे

हमारा

'राष्रीय

खेल' बन गया था । यदद यह खेल ओलब्म्पक्स में र्ासमल होता तो इसमें हम अवश्य ही स्त्वणष-पदक ले आते ! डॉक्टर कहते हैं -- " यू​ूँ उदास मत रहा कीब्जए । आपको हूँ सना चादहए । जब भी

आप अकेलापन और अवसाद महसूस करें , घर से बाहर तनकल जाइए । पादटष यों में जाइए । लोगों

बनने

से

समसलए-जुसलए

समर

बनाइए

..।

"

पर

मैं

कैसे

हूँसूँू

?

कॉलेज में कभी मेरा सबसे अच्छा दोस्त्त रहा मेरे ही ववभाग का र्ुक्ला ववभागाध्यक्ष

के

लोभ

में

मुझसे

'सभतरघात'

कर

रहा

था

वह

वप्रंससपल,

अन्द्य

अध्यापकों और छारों को मेरे ववरुद्ध भड़का रहा था । उसकी हर मुसीबत में मैंने तन-मन-धन से उसका साथ ददया था पर आज अपने स्त्वाथष की पूततष के सलए वही मेरा र्रु बन बैठा था ।

दतु नया में एक जीव जो मुझसे बेइंतहा प्यार करता था , वह मेरा पालतू कुत्ता ' जैकी '

था । उसका-मेरा वपछले चौदह वर्ों का साथ था । वह मुझे खद ु से भी ज़्यादा प्यार करता था। वह मुझे बबना फकसी स्त्वाथष के चाहता था । उसने मुझे कभी धोखा नहीं ददया था ।

उसका मेरे प्रतत प्यार छलावा या ददखावा नहीं था । वह मेरे सलए सगे-सम्बंधधयों से बढ़ कर था । कुछ ददन पहले दस-पंरह ददनों तक बीमार रहने के बाद वह चल बसा था । उसके जाने के बाद मैं बबल्कुल अकेला रह गया था।

पत्नी कई साल पहले मुझे छोड़ गई थी । उसके सलए ववदे र्ी एन। जी। ओ.

में उसका कैररयर और उसकी नौकरी मुझ से ज़्यादा महत्त्वपूणष थी । उसका पररवार उसकी महत्त्वाकांक्षा की राह में रुकावट था । इससलए उसने मुझे और बच्चों को वर्ों पहले त्याग ददया था । मैंने अकेले ही दोनों बच्चों को पाला-पोसा था । पर उनके लालन-पालन में र्ायद

मुझसे ही कोई कमी रह गई थी । हालाूँफक कहने के सलए वे दोनों मेरे बेटे थे पर वे दोनों

अमेररका और आस्त्रे सलया में जा कर बस गए थे । वे अपने-अपने बीवी-बच्चों के साथ अपनी-

इंदस े नाु ंचत

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अपनी दतु नया में गुम हो गए थे । उनके राडार पर वपता नाम के इस र्ख़्स की उपब्स्त्थतत अब दज़ष नहीं होती थी ।

जब मैं छलबीस साल का था , माूँ तब घर की सीदढ़यों से धगरकर असमय ही चल बसी थीं । मैंने तब नई-नई नौकरी करनी र्ुरू ही की थी । माूँ जल्द-से-जल्द मेरी र्ादी कर

दे ना चाहती थीं । उन्द्हें बहुत अरमान था फक मेरा बच्चा उनकी गोद में खेलता । लेफकन उनके अरमान अधरू े रह गए । माूँ के ससर में गहरी चोट लगी थी । वे चार ददनों तक अस्त्पताल में

कोमा में पड़ी रही थीं । तब सारा ददन बाररर् होती रहती थी । डॉक्टरों ने उन्द्हें ' वेंदटलेटर ' के सहारे जीववत रखा हुआ था । माूँ को अभी जीना था । उन्द्हें बहुत कुछ दे खना था । पर ऐसा नहीं हो सका । मेरी प्राथषना अर्क्त हो गई । वे मुझे अकेला छोड़ गईं ...

आप ब्जन को चाहते थे , ब्जनसे प्यार करते थे , वे आप से दरू चले जाते थे -- या

तो फकसी वजह से उनकी मौत हो जाती थी या आपके और उनके बीच कोई ग़लतफ़हमी हो जाती थी जो दरू होने की बजाए बढ़ती ही जाती थी । सारे ररश्ते-नाते स्त्वाथष से प्रेररत थे ।

आप ब्जनसे उम्मीद लगाते थे , उन्द्हीं से धोखा खाते थे । अधधकांर् ररश्ते-नाते जैसे अपना काम तनकालकर आपको ठें गा ददखा दे ने की हृदयववहीन और अवसरवादी पररयोजना का अटूट दहस्त्सा थे ।

कॉलेज में लड़कों का छारावास अनुर्ासनहीनता और गुंडागदी का गढ़ बन गया था ।

जब छारावास के ' वाडषन ' ततवारीजी लड़कों को तनयंबरत नहीं कर पाए तो उन्द्होंने ' वाडषन ' का पद छोड़ ददया । कोई प्राध्यापक इस काूँटों के ताज को पहनने के सलए आगे नहीं आया । जब वप्रंससपल ने मुझे यह ब्ज़म्मेदारी सौंपने की मंर्ा ज़ादहर की तो मैंने इसे स्त्वीकार कर सलया ।

मैंने छारावास में अनर् ु ासनहीनता समाप्त करने का भरसक प्रयत्न फकया । पर गंड ु ा

तत्वों को कॉलेज के प्राध्यापकों के ववसभन्द्न गुटों के समथषन के साथ-साथ राजनीततक समथषन भी प्राप्त था । कई बाहरी तत्व भी छारावास में अपना दबदबा बनाए हुए थे । छारावास में अचानक तलार्ी लेने पर वहाूँ से तलवारें और दे सी कट्टे बरामद फकए गए । जब मैंने दोर्ी

छारों के ववरुद्ध कारष वाई करनी चाही तो वप्रंससपल साहब ने मुझे मामले को रफ़ा-दफ़ा करने की सलाह दी ।

और ऐसे माहौल में छारावास में आया एक नया लड़का ' रै धगंग ' का सर्कार हो गया । गंड ु ा तत्वों ने उसे इतना पीडड़त फकया फक उसने सीसलंग-फ़ैन से लटककर आत्म-हत्या करने की कोसर्र् की । सौभा्यवर् उसे बचा सलया गया । जब मैंने दोर्ी लड़कों के ववरुद्ध दं डात्मक

कारष वाई करनी चाही तो वप्रंससपल ने एक बार फफर उन लड़कों की पहुूँच ऊपर तक होने की

बात कहकर मामले को दबा दे ना चाहा । इसके ववरोध में मैंने छारावास के ' वाडषन ' के पद से इस्त्तीफ़ा दे ददया । इंदस े नाु ंचत

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यह वह समय था जब सही काम करने वाले व्यब्क्त के सामने तरह-तरह की बाधाएूँ उत्पन्द्न की जाती थीं , जबफक ग़लत काम करने वालों को परू ी छूट थी । आलम यह था फक

पसु लसवाले थानों में ही औरतों से बलात्कार कर रहे थे । बाहुबली और माफफ़या डॉन जेलों के

भीतर से ही मोबाइल फ़ोन के ज़ररए अपना काला साम्राज्य चला रहे थे । खाने-पीने के सामान में धड़ल्ले से समलावट की जा रही थी । काला-बाज़ाररयों और भ्रष्टाचाररयों की दसों उूँ गसलयाूँ घी में थीं । महानगरों में गठे हुए बदन वाले यव ु क ' धगगोलो ' का काम कर रहे थे । वे बबगड़ी रईसज़ाददयों को बड़ी धन-रासर् के बदले यौन-सेवा मह ु ै या करा रहे थे । ' वाइफ़ स्त्वैवपंग ' की पादटष यों में कार की चाबबयों की अदला-बदली करके एक रात के सलए

पब्त्नयों की अदला-बदली हो रही थी । पतत-पत्नी बबना फकसी नैततक ऊहा-पोह के ऐसी पादटष यों में ' लाइफ़ ' को ' एन्द्जोय ' कर रहे थे । ऐसे माूँ-बाप की संतानें र्राब पीकर अंधाधूँध ु

कारें चला रही थीं और सड़क पर पैदल चलने वालों को मौत की नींद सुला रही थीं । लोग सड़क-दघ ष ना में घायल पड़े व्यब्क्त को मरता हुआ छोड़ कर आगे बढ़ जा रहे थे । अदालतों ु ट में रुपए के दम पर गवाह ख़रीदे जा रहे थे । धन और पद का दरु ु पयोग करने वाले मदांध

लोग इंसाफ़ का गला घोंटकर बाइज़्ज़त बरी होते जा रहे थे । ब्जनके चेहरों पर कासलख़ पुती

हुई होनी चादहए थी , उनके चेहरे रक्ताभ थे । ब्जनके हाथों में हथकडड़याूँ होनी चादहए थीं , उनके हाथों में दौलत और सफलता की कंु ब्जयाूँ थीं । ऐसे ही लोग जंगल उजाड़ रहे थे । नदी-नाले गंदे कर रहे थे । बड़े-बड़े बाूँध बनाने के नाम पर सैकड़ों को ववस्त्थावपत कर रहे थे।

हवा , पानी और समट्टी को ववर्ाक्त करते जा रहे थे । जो फकसी भी दृब्ष्ट से -- न मन से , न वचन से , न कमष से -- सम्मातनत थे , वे असल में सम्माननीय लोगों की इज़्ज़त उतारने में लगे थे । धमािंध कट्टरपंधथयों द्वारा दसलतों और अल्पसंख्यकों को मारा-पीटा जा रहा था , उनकी हत्या की जा रही थी । गाय और दे र्भब्क्त की आड़ में साम्प्रदातयक एजेंडा लागू फकया जा रहा था । उधर सीमा पर तनाव बढ़ता जा रहा था और युद्धोन्द्माद को हवा दी जा रही थी।

लोग काम पर जा रहे थे पर र्ाम को घर वापस नहीं आ रहे थे । कुछ सड़क-

दघ ष नाओं में मारे जा रहे थे , कुछ की हत्याएूँ हो रही थीं । कुछ को पुसलस उठा कर ले जा ु ट रही थी और वे उसके बाद दोबारा कभी ददखाई नहीं दे रहे थे । एक ददन कॉलेज में मेरी कक्षा

का मेधावी छार मखणपुर का इरोम ससंह ग़ायब हो गया । पता नहीं , उसे ज़मीन खा गई या आसमान तनगल गया । फकसी ने बताया फक उसे

पुसलस

उठाकर ले

गई थी ।

पहले तो पुसलसवालों ने यह मानने से इंकार कर ददया फक उनका इस मामले से कोई

लेना-दे ना है । बाद में दबाव बढ़ने पर पुसलस ने दावा फकया फक दो ददन पहले उसने एक मकान पर छापा मारकर उत्तर-पूवष के आतंकवाददयों के एक धगरोह को नष्ट कर ददया ।

पुसलस ने दावा फकया फक इस मुठभेड़ में जवाबी गोलीबारी में इरोमससंह नाम का एक इंदस े नाु ंचत

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ख़तरनाक आतंकवादी मारा गया । पुसलस ने उसके पास से चीन में बनी एक ररवॉल्वर और कुछ राष्र-ववरोधी सादहत्य बरामद करने का भी दावा फकया ।

लेफकन कॉलेज के उसके समर और हम अध्यापक यह जानते थे फक यह सब झठ ू था ।

इरोमससंह को फ़ज़ी मुठभेड़ में मारा गया था । वह आतंकवादी हो ही नहीं सकता था । वह

अंतर-ववश्वववद्यालय खेलों में ददल्ली यूतनवससषटी की हॉकी टीम का बेहतरीन सदस्त्य था । आगामी ववश्व-कप प्रततयोधगता में उसका भारत की जूतनयर हॉकी टीम में र्ासमल होना तय

माना जा रहा था । उसे भारतीय रे लवे की ओर से टी। टी। के पद की पेर्कर् भी की गई थी। वह हम सब का प्यारा था । वह हमारे कॉलेज की र्ान था । मखणपुर से आए उसके

वपता ने यह मानने से इंकार कर ददया फक उनका बेटा आतंकवादी था । " वह ऐसा नहीं था , " वे बोले और फूट-फूट कर रोने लगे । जीवन से भरपूर एक हूँ सता-खेलता र्ख़्स जैसे एक र्ड्यंर के तहत अचानक हमसे छीन सलया गया था ।

एक बार मैं बस से कहीं जा रहा था । लाल बत्ती पर बस रुकी । मैं खखड़की वाली

सीट पर बैठा था । अचानक एक छोटा-सा चह ू ा बगल में खड़े थ्री-व्हीलर में से तनकलकर बीच

सड़क पर आ धगरा । ददन में बारह-एक बजे का समय था । चह ू ा बीच सड़क पर भौंचक्का-सा पड़ा था । पीछे से और गाडड़याूँ भी आ रही थीं । चह ू े ने सड़क पार करके बीच के फुटपाथ पर जाने की कोसर्र् की । र्ायद वह पीछे से आ रही गाडड़यों की चपेट में आने से बच भी जाता

, पर तभी न जाने कहाूँ से वहाूँ पहुूँचे एक कौए ने झपट्टा मारकर उस चूहे को चोंच में दबाया और उड़ गया । मेरे दे खते-ही-दे खते एक जीवन ऐसे ही ख़त्म हो गया । ..। इरोम ससंह की याद में कॉलेज में आयोब्जत कायषिम में मेरी तबीयत अचानक बबगड़ गई । मेरे हाथ-पैर काूँपने लगे थे और मेरे ससर में सैकड़ों रे लगाडड़यों के पटरी पर धड़धड़ाने का र्ोर फैल गया था । इरोम ससंह आतंकवादी नहीं था । वह केंर सरकार का आलोचक ज़रूर था , लेफकन वह राष्र-ववरोधी नहीं था । लेफकन एक पूरा तंर झूठ को सच बनाने की क़वायद में लगा था । लोग तेज़ाबी बाररर् से , ओज़ोन-तछर से डरते थे , जबफक मैं

उपेक्षा की नज़रों से , अलगाव की टीस से डरता था । लोग कैंसर से , एड्स से , मत्ृ यु से डरते थे , जबफक मैं उन पलों से डरता था जब जीववत होते हुए भी मेरे भीतर कहीं कुछ मर जाता था ।

आजकल मझ ु े अजीब से सपने आते हैं ब्जनमें भारत के झंडे पर साूँप सलपटे हुए होते हैं , महात्मा गाूँधी की मतू तष पर दीमक लगी हुई ददखाई दे ती है , मदर टे रेसा की फ़ोटो फटी हुई नज़र आती है , जबफक पब्श्चमी पररधानों में सजे राक्षस-राक्षससयाूँ क़बिस्त्तानों में नत्ृ य कर रहे

होते हैं । अकसर सपनों में मुझे धचथड़ों में सलपटा एक बीमार सभखारी नज़र आता है ब्जसके

बदन पर कई घाव होते हैं , जो बेतहार्ा खाूँस रहा होता है , ददष से कराह रहा होता है और रो रहा होता है । फफर दे खते-ही-दे खते वह बीमार सभखारी मेरे दे र् के नक़्र्े में बदल जाता है । अब आप ही बताइए , मैं कैसे हूँसूँू ? इंदस े नाु ंचत

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इंदस े नाु ंचत

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“ विदाई ”

राय बहादरु ससंह दरवाज़े के बाहर प्रभाकर धचन्द्ता में डूबा जा रहा था | आते-जाते लोग उसका हौसला बढ़ाते रहते ... भरोसा रखो इस बार तो सब ठीक हो जाएगा | उसकी तीनों बेदटयाूँ घबराई आूँखों से उसके पास खड़ी होकर आते – जाते लोगों को दे ख रही थी | बड़ी बेटी सबसे छोटी बेटी को गोद में सलए छज्जे पर खड़ी बाज़ार की ओर दे ख रही थी |

छज्जे पर खड़ी उसकी बड़ी बेटी धचंता में डूबी जा रही थी | डर से उसका ददल ज़ोरों से

धड़क रहा था | एक सवाल उसके भीतर बुलबुलों - सा बंता और फूट जाता | कहीं इस बार भी

लड़की

हुई तो क्या होगा | दाई बाहर आकर क्या इन सब चीजों का ब्जम्मेदार फफर हमें ही ठहराया जाएगा ?

क्या

कहे गी

?

वो अभी इसी असमंजस में थी फक प्रसव पीड़ा की चीखें अचानक से सुनाई दे ना बंद हो गई और थोड़ी दे र बाद बच्चे के रोने की आवाज़ कमरे के बाहर तक सुनाई दे ने लगी | वह कमरे

की ओर मुड़ी | कमरे का दरवाज़ा खल ु ा दाई को बाहर आता दे ख वो थोड़ा आगे बढ़ी, पर प्रभाकर को आगे बढ़ता दे ख वो रुक गयी | प्रभाकर उम्मीद भरी आूँखों से दाई को दे खता उसके सामने खड़ा था

| दाई सांत्वना दे ने के स्त्वर में बोली बाबू ए बार भी तोहार घर

बबदटया हुई है | दाई फक बात सुनकर प्रभाकर जहां खड़ा था वहीं सर पकड़कर बैठ गया | हे भगवान... ये समलाकर कुल 6 हो गई | कैसे पार लगें गी यह सब | अभी वो यही सवाला

बद ु बद ु ा रहा था फक उसे कुछ याद आया | वो तेज़ कदमों से कमरे में घुसते ही बोला ... जी होता है जाकर मार ही दूँ ू …

साले हरामी डाक्टर को , एक तो साला फफर से लड़की हो गयी|

ऊपर से साले ने दस हजार रुपए भी लूट सलए | प्रभाकर का गला भर गाया था | झठ ू ा साला सअ ू र फक औलाद कहीं का

|

नवजात माूँ के बगल में सो रही थी | एक दस ू रे को दे खते हुए मानों दोनों ने बबना कुछ बोले र्लदहीन समझौता कर सलया और सरला के आूँसू खामोर्ी से बहने लगे |

वह नवजात दो ददनों तक तड़पती रही | सरला ने न ही उसे एक बार मुड़ कर दे खा और न

ही उसकी आवाज़ सुननी चाही | इस उम्मीद में फक र्ायद वो भूख प्यास से मर जाए तो एक बोझ कम हो जाएगा और कोई दोर् भी नहीं दे गा | प्रभाकर की बड़ी बेटी माूँ की एक

बार फफर यह सब हरकते दे ख कर बहुत दख ु ी थी | छोटी बहन का रोना उस से बरदाश्त नहीं हुआ तो पड़ोसी के यहाूँ से र्हद मांग लाई और रुई से र्हद चटा चटाकर उसने उसे ब्ज़ंदा रखा |

इंदस े नाु ंचत

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प्रभाकर के घर बेटी आने की बात सुन कर लोग आते और ददलासा दे कर चले जाते इसी बीच उस मकान का माहौल गरमाने लगा मकान के एक कमरे में प्रभाकर का पूरा पररवार रहता था | मकान और आस पड़ोस में छठी बेटी की जन्द्म की ख़बर जंगल में आग की तरह फैल गई थी | ब्जसमें पूरा पररवार जल रहा था | अगली सुबह हल्ला मच गया फक दहजड़े आ रहे

हैं | जाने फकसने प्रभाकर के घर की मुखबरी कर दी थी | यह सुन कर प्रभाकर की जान सकते में आ गई |

कमरे से बाहर तनकलते हुए बोला ....साले हारामी डॉक्टर ने लूट सलया | घर में फफर बेटी पैदा हो गई | घर में पैसा का दठकाना नहीं है लेनदार तगादा कर रहें हैं , अब ये साले मेरा खन ू पीने आ गाए | प्रभाकर और सरला के चेहरे उतरे हुए थे | चेहरे पर दयनीयता का भाव था | दोनों को कमरे में बैठा दे ख दहजड़े अपने धचर पररधचत अंदाज़ में बोले... हायरे र्लबो हमारे भईया का तो कुछ हो ही नहीं

पा रहा है ... दस ू री ने बात को सहारा ददया अरे मरी

सारा दोर् तो भाभी का है भईया का ख्याल ही नहीं रखती | दे ख कैसे गाल वपचक से गए है

भईया के अंदर कुछ होगा तभी तो बाहर आएगा और इसके साथ ही ठहाकों और तासलयों की आवाज़ बराम्दे में गंज ू ने लगी | ला रे चाूँदनी लल्ली की सरू त तो ददखा चाूँदनी के बच्चा उठाते ही सरला रो पड़ी | सरला को रोता दे ख र्न्द्नो आगे बढ़ कर ताली पीटते हुए बोली अरे मरी हम तम ु से कुछ मांगने थोड़ी आएं हैं जो धचंता से मरी जा रही है | हम तो तेरी बेटी

का चेहरा दे खने आए हैं | र्न्द्नो ने यह कहते हुए बच्ची को गोदी में उठा सलया और बराम्दे से ढोलक और हारमोतनयम की धन ु सन ु ाई दे ने लगी और वो बच्ची को लेकर नाचने लगी | दहजड़े ख़ब ू नाचे और प्रभाकर और सरला ने जो सोचा था | उसके एकदम उलट दहजड़े बबना

कुछ सलए उनकी बच्ची को र्गुन दे गए | यह घटना सरला के ददल पर लगी | उनके जाने के बाद वो ख़ब ू रोई और बच्ची को उस रोज़ पहली बार अपना दध ू वपलाया |

फरवरी का महीना था धप ू अच्छी खखली हुई थी | मोहल्ले भर के मकानों की छतों पर कपड़े ही कपड़े नज़र आ रहे थे | कोई एक महीने बाद सरला अपनी छोटी बेटी को छत पर मासलर् के सलए ले आई थी..... और एक गीत गुन - गुना रही थी | लेके छववया हमार

सलहलू तू बबपततया उधार ए बेटी हो ....

जै होइतू तू बेटा हमार , जातनत जग संसार , दे तू हमरी जीतनधगया उबार , ए बेटी हो ...

भइल बाआ अनहररया , आंखी के अजोररया काइसे बनबू हमार हो... ए बेटी हो....

दस ु मन सनसरवा होई ते , सभनसहरवा लाग जाई पछवा तोहार हो ... ए बेटी हो .... इंदस े नाु ंचत

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पुरुस समजवा नाथ के पगहवा ,लेई जाई घर से बहरवा जाने कौन अंगनवा बनहाइ बू ए बेटी हो ...... बेटी हो |

साथ वाली छत पर उमेर् प्रसाद की पत्नी भी छोटे बेटे कृष्णा को मासलर् के सलए ले आई थी | उनकी आवाज़ सुनकर सरला कुछ झेंप गई और गाना बंद कर ददया

| उनका बेटा

सरला की सबसे छोटी बेटी से एक सप्ताह पहले जन्द्मा था | चाय की दक ु ान के दम पर

उन्द्होने पूरे दो ददन तक सोहर गवाया था | सरला भी सोचे बैठी थी इस बार बेटा हुआ तो ख़ब ू सोहर गवाऊंगी पर मन की सब मन में ही रे ह गई | कैसी हो सरला ? यहाूँ सब ठीक ही है लीला दीदी अपना बताओ

?

लीला अपनी बात कहते हुए भोजपुजरी मे बोलने लगी .... अब का कहीं एकर बाबू कूकुर के मूत पीकर पगलाइल बा | काआ ?

र्राब पी लेले बा..... बतछया न ररक्र्ा चलावे गइल और न मुहबंद करके सुतत बा |

हमार तो चाय के दक ु ान ठीक से नईखे चलत..... वो क्यों दीदी ? सरला ने लीला के ददल का हाल यह पछ ू कर पता लगाना चाहा |

बच्चे को तेल मलते हुए लीला सरला के सवालों का जवाब दे ने लगी | हम ने तो बस औलाद सअ हैं | सब बैठ के ही खाना चाहते हैं | लीला इससे ज़्यादा कुछ ू र की तरह ही पैदा की और कहती की उससे पहले ही बाप बेटे लड़ने लगे , गाली की आवाज़ें छत तक आ रही थीं | साले हारामी तू कतनों पढले कामयाब नहीं होगा | मंह ु बंद कर र्राब पीकर नौटं की कर रहा है |

तेरी कमाई का वपया हू​ूँ साले कुत्ते रं डी की औलाद | वपता के मुंह से ऐसी गासलयां सुनकर बेटा आपा खो बैठा उसके माथे की नसे फड़कने लगी | गुस्त्से में उसने उमेर् को पकड़कर कमरे से बाहर फेंक ददया और कमर पर एक लात भी जमा दी | उमेर् बराम्दे की दीवार से

टकरा गया और उसके माथे से ख़न ू बहने लगा | वो वहीं धगर कर लेट गया और फूहड़ गासलयाूँ दे ने लगा | लीला बच्चे को छोड़ कर नीचे आई और उमेर् को उठाने लगी |

बड़का को मह ुं लगाना तुम्हें ज़रूरी है , अब बच्चा नईखे ऊ , बड़ा हो गइल बा | ..... तू छोड़ हमके, तू जान बूझ के ऊकरा से हमके मरवाबे ले| साली रं डी , ऊ हमार रदहत त हमरा पर

हाथ उठाइत | उमेर् की बात लीला को बरदाश्त नहीं हुई तो उसे वहीं छोड़ चलते बनी | बड़का भी माूँ को वहाूँ से जाता दे ख नीचे वाली नई फकरायदारनी के कामरे में चला गया | जब से वह मकान में सपररवार आई थी | सब कहते हैं फक दोनों में तब से ही कुछ चल रहा है | पर बड़का के द्वारा बाप पर हाथ उठाने के कारण फक घटनाओं को दे ख कर कोई उसको या उसकी माूँ को सामने से कुछ कहने फक दहम्मत नहीं कर पाता था |

बड़का ने कमरे में घुसते ही दरवाज़ा बंद कर ददया | वह र्ीर्े में दे ख कर ससंदरू लगा रही थी |

इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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बड़का दरवाज़े के पास ही खड़ा रहा और वहीं से उसे दे खने लगा | कुछ झेपती हुई उसने पूछा क्या दे ख रहे हो ? .... तुम्हें दे ख रहा हू​ूँ बड़का ने तनडरता से कहते हुए आगे बढ़ कर उसका हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच सलया और उसके साथ बबस्त्तर पर लेट गया |

तुम्हारे पापा आज फफर क्यों धचल्ला रहे थे | ... वो धचड़ते हुए बोला पता नहीं वो क्यों मर रहा था वही जाने | ..... धचड़ते क्यों हो , मैं तो बस यूं ही पूछ रही थी | पता नहीं , पर मुझे वो पसंद नहीं है | ... ऐसा क्यों ? उसके रहते मुझे हमारे वपछले मकान मासलक की

टट्टी तक साफ करनी पड़ती थी |...

मतलब ?

मतलब यह फक मेरी माूँ ने मुझे हमारे पुराने मकान मासलक के पास रख छोड़ा था | उसकी सेवा के सलए ..... साला र्राबी था | बहुत बीमार रहता था , र्राब पीकर कहीं भी पड़ जाता था | पैंट में ही हग - मूत ददया करता था | वो सब मझ ु े साफ करना पड़ता था … बदले में वो मेरी पढ़ाई खचष उठाता था और हमें फकराया भी नहीं दे ना पड़ता था | इसके साथ ही कमरे

में खामोर्ी छा गयी | वो बड़का के सीने पर लेटते हुए बोली .... तुम्हें पता है , मकान के सब लोग बातें बना रहे हैं | .... क्या बातें बना रहे हैं ? वह कहते हैं फक मैंने बच्चा फसा सलया है | उसके बालों को सहलाते हुए उसने पछ ू ा ऐसा फकसने कहा नाम तो बताओ ? नाम क्या बताना है |…. तम ु मझ ु से छोटे तो हो ही | बड़का बबस्त्तर से उठता हुआ बोला दे खो मैं अभी 12 वीं में ही पढ़ रहा हू​ूँ , इसका यह मतलब तो नहीं की मैं बच्चा हू​ूँ , 19 साल का जवान हू​ूँ | तम् ु हें तो सब कुछ मैंने बता ही ददया है | घर की आधथषक ब्स्त्थतत ठीक

नहीं थी | माूँ घरों में काम करती थी | दक ु ान तो अब खल ु ी है और बाप साला नसेड़ी है |

ऐसे में मैं ठीक से पढ़ाई परू ी कैसे कर सकता हू​ूँ | दोनों उठकर खड़े हो गए | वो बड़का को दे खते हुए बोली चाहें तुम जो कहो मैं तुम से बड़ी तो हू​ूँ ही | मैं कहाूँ 29 साल की और तुम ससफष 19 के ही हो हम दस साल छोटे - बड़े हैं | ऊपर से मेरे तीन बच्चे भी हैं | लोग बातें

क्यों नहीं बनाएूँगे | बड़का को उसकी बात ज़्यादा अच्छी नहीं लगी | थोड़ा धचड़ते हुए बोला मुझे इससे कोई फकष नहीं पड़ता है बोलते हुए बरवाज़े की ओर बढ़ा | उसने फट से उसका हाथ पकड़ कर पूछने लगी ... क्या हुआ नाराज़ हो गए ? हू​ूँ |

.... नहीं लाइट बंद करने जा रहा

वो थोड़ा घबरा गई बोली दे खो बच्चे छत पर खेल रहे हैं | उनके स्त्कूल जाने का टाइम होने वाला है वो कभी – भी आ सकते हैं | अभी रहने दो |…… कोई बात नहीं उनके आने तक सब

हो जाएगा | अच्छा सुनो तो मुझे कुछ जानना है | बड़का गदष न मोड़ते हुए बोला .. क्या जानना है | तुम कभी मुझे छोड़ के तो नहीं जाओगे या मेरे पतत की तरह मुझे धोखा तो नहीं दोगे न ...बड़का ने हे रत से पूछा तुम ऐसा क्यों सोचती हो ......पता नहीं पर तुम से समलने से पहले में इतनी खर् ु कभी नहीं थी ब्जतना अब हू​ूँ | वो थोडा आगे बढ़ कर बोली एक और बात पूछनी है | बड़का चीड़कर बोला अब वो क्या ..... यही की अगर कभी मेरे

इंदस े नाु ंचत

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पतत ने मुझे छोड़ ददया तो तुम मुझे अपनाओं गे ... उसने कमरे की लाइट बंद कर दी |

बड़का ने सहज भाव से हाूँ कहते हुए

र्ाम का वक्त था मकान के बाहर बाज़ार में चहलकदमी तेज़ हो रही थी | फकसी ने मकान के ठीक सामने वाली दक ु ानवाले से पूछा ये साला आइस िीम वाला कहाूँ गया भाई साहब ?

हरामी साला रोज़ दक ु ान के सामने अपनी आइस िीम की गाडी खड़ी करके जाने क्या अपनी

मरवाने सामने वाले मकान में जाता है | दोनों की बातचीत के बीच प्रभाकर भी दक ु ान पर

समान खरीद ने आ पहुूँचा ..... दक ु ानदार से प्रभाकर कुछ बोलता उससे पहले ही वह दस ू रा व्यब्क्त बोला सामने वाले मकान में होगी कोई तभी साला माकान में घस ु ा रहता होगा | दक ु ानदार प्रभाकर को समान दे ते हुए बोला भाई साहब चाहे आप ब्जतना भी लड़फकयों को लाड-प्यार करो एक ददन बाप का मंह ु काला कर ही दे ती हैं | अब हमारे एक ररश्तेदार हैं | कानपुर में रहते हैं | उनकी एक ही बेटी थी | उसे मंहगे स्त्कूल में पढ़ाया कॉलेज भेजा बेटे

जैसा प्यार ददया | जब र्ादी की बात आई तो सुना है , कॉलेज में साथ में पढ़ने वाले एक चमार के साथ भाग गयी | अब हालत यह है फक कानपुर छोड़ के सपररवार ददल्ली चले आए हैं |

अब दे ख लो बेटी पैदा करने के क्या अंजाम दे खने को समलते हैं | प्रभाकर उन दोनों की बाते सन ु कर अंदर ही अंदर धसा जा रहा था | गस्त् ु से से उसका र्रीर जलने लगा था | जलता भी क्यों न उसकी कोई एक बेटी थोड़ी थी कुल छ्ह बेदटयों का बाप था वो | प्रभाकर के

वहाूँ से जाते ही उस आदमी से बोला इस साले की छ्ह बेदटयाूँ हैं | इसकी

हालत दे ख कर हमने इस साले को एक डॉक्टर को ददखाने के सलए सझ ु ाव ददया | अब इस

साले के फकस्त्मत के कनश्तर में ही छे द हैं , तो कोई क्या करें | साले की इस बार भी लड़की हुई , तो हम क्या करें | कमीना कहता था फक मैंने उसे लुटवा ददया | प्रभाकर मकान की सीदढ़याूँ चढ़ता जा रहा था और उसके ददमाग में दक ु ानदार की बातें गूंजती जा रही थी | सामने से सीदढ़याूँ उतरते आइस िीम वाले को दे ख कर उसका ददमाग तमतमा गया | दक ु ानदार की कही बातें अचानक से सच होने – सी लगने लगी |

जब वह कमरे में पहुूँचा तो सरला बच्ची को तखत पर बैठी दध ू पीला रही थी | चल् ू हे पर दाल और चावल पक रहा था | बड़ी बेटी सील बट्टे पर चटनी पीस रही थी | वह ततरछी तनगाहों से पहले छोटी बेदटयों को फफर बड़ी को दे खता पत्नी के बगल में बैठ गया | थोड़ी दे र में खाना बन गया | सरला ने खाने की ओर दे ख कर कहा सुनीता खाना बन जाये

तो पापा को परोस दे | थोड़ी दे र बाद खाना बन गया और सुनीता ने वपता को खाना परोस ददया |

जब से प्रभाकर ने दक ु ानदार की बात सुनी थी | उसके ददमाग में उथल – पुथल मच गयी

थी | खाना भी उसे कुछ खास अच्छा नहीं लग रहा था | खाने में कंकड़ तनकालने से उसके

गुस्त्से का सारा बांध टूट गया | प्रभाकर आपा खो बैठा बेदटयों के साथ पत्नी को भी पीटकर

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सो गया | सरला छोटी बेदटयों को चप ु करा कर सो गयी | बड़ी कमरे के एक कोने में सससफकयाूँ भरती रही और वहीं सो गयी |

सुबह वह सबसे पहले उठी और जैसे ही उसने कमरे का दरवाज़ा खोला तो तो उसकी आूँखें चौंधधया गईं | दरवाज़े के बाहर प्रकार् इतना था फक उसे कुछ भी साफ – साफ ददखाई नहीं

दे रहा था | वो कुछ कहती उससे पहले अपना नाम सुनकर चौंक गयी | सुनीता... तुम बहुत परे र्ान हो ? कौन है ?... सुनीता ने जानना चाहा मैं तो वही हू​ूँ ब्जसे तुम हर रोज़ कुछ न कुछ पूजा करते समय, बतषन धोते समय कुछ न कुछ कहती ही रहती हो |

कौन भगवान ?..... हाूँ मैं वही हू​ूँ ... अच्छा तो ददखाई क्यों नहीं दे रहे हो ... मुझे दे खना इतना सरल नहीं है और सरल भी है ... मगर उसके सलए मन फक आूँखों से दे खने की तुम्हें जरूरत है | वो तो फकतने सालों से कोसर्र् कर रही हू​ूँ.... ददखा तो कुछ भी नहीं | हा हा हा हा हा ... ऐसा नहीं है | तुमने मुझे दे खा तो है पर पहचान नहीं पाई हो |

सुनीता कोहरे नुमा छाए प्रकार् में आगे बढ़ते हुए पूछा वो कैसे ? मैंने कहा न तम ु ने मझ ु े मन की आूँखों से दे खा नहीं अगर तम ु ऐसा करती तो मैं तम् ु हें

तम् ु हारी बहनों में तम् ु हारी माूँ और वपता मैं नज़र आता | दे वी - दे वता मैं ही हू​ूँ | तम् ु हारा आस पड़ौस मैं ही हू​ूँ | सन ु ीता का सर गस्त् ु से से फटने लगा ... वो घण ु ष र्ा ृ ा के स्त्वर में बोली अच्छा .... तो मेरी दद

के उत्तरदायी तम ु ही हो मझ ु े बात बेबात पर पीटने वाले मेरे वपता नहीं तम ु हो | वो गस्त् ु से

में प्रकार् में बहुत आगे बढ़ आई थी | प्रकार् का तेज बढ़ता ही जा रहा था | हाूँ .... तम ु यह कह सकती हो | अगर वो तुम हो तो तुम मेरे भगवान नहीं हो... नहीं हो..... नहीं हो..... नहीं हो ..... उसके हर एक नहीं र्लद के साथ प्रकार् तेज़ी घटता जा रहा था | प्रकार् के उस पार प्रभाकर को

हाथ में बेल्ट सलए दे ख उसके चेहरे का रं ग उड़ गया | सुनीता को मारने के सलए प्रभाकर पगलाए हाथी सा दौड़ा सुनीता ज़ोर से धचल्लाई ... कमरे में ट्यूब लाइट जल उठी ... सरला और

प्रभाकर के साथ सारी बहे ने भी घबरा उठ बैठी .... वपता को फफर सामने दे ख सुनीता

कमरे के उसी कोने में छुपने के सलए जगह तलार्ने लगी |

आज प्रभाकर ने फफर एक बार अपनी बेटी में अपना डर दे खा था | सुबह के 4 बजे थे | प्रभाकर कमरे

के बाहर जा कर बीड़ी पीने लगा | प्रभाकर के ददल में यह डर बैठ गया था

फक कहीं उसका डर ही सुनीता को फकसी के साथ भाग जाने को मजबूर न कर दे |

सुबह होते ही प्रभाकर ने सुनीता के स्त्कूल जाने और मकान से बाहर जाने पर रोक लगा दी | सुनीता अभी 11वीं में थी और आगे पढना चाहती थी, पर वपता के आदे र् के आगे वो कुछ बोल न सकी |

प्रभाकर को सुबह िर् करता दे ख पड़ोसी उसके पास आ कर बातें करने लगा ... भईया प्रभाकर क्या हाल है ? इंदस े नाु ंचत

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रात सुनीता के चीख पुकार सुनी क्या हुआ था ? कुछ नहीं वो …. उसने बुरा सपना दे ख सलया था , तो डर के रोने लगी थी |

..... तुम

बताओ तुम्हारा क्या चल रहा है | कुछ खास नहीं बस बस थोड़ा सा परे र्ान हू​ूँ | सोच रहा हू​ूँ ओखला झोड़ दूँ ू | ..... क्यों क्या हुआ ? होना क्या है भईया ई साला जब से इस इलाके में में मेरो बनी है | जीना हराम हो गया है |

नंजी भाई हुआ क्या है , वो तो बताओ ? अब काआ बताएं भईया ,अब आस-पड़ोस का माहौल तो उमेर् के लइका पहले से ही खराब फकए हुए है | बचा खच ु ा साला मेरो बनने से हो गया है | कैसे ...? भईया हमार बेटी रोज़ सलज़ी सलया वे मंडी जाओ आ दे री से वापस आवे … पूछला

पर कह दे व फक मेरो घुमत रहनी है | काल जब ओकरा गइल बहुत दे र हो गइल तब हम ओके ढू​ूँढे गइनी | ख़ब ू ढूंढला पर ऊ न समलल तआ हम मेरो के पीछे जाकर दे खनी फक कौनों साला हरामी के लाइका

ओकरा के गला लगाईले रहे | …. प्रभाकर नंजी की बातें

सुनता जा रहा था और उसके मन में सुनीता उभर रही थी |

भईया सच में दन ु ों के जान से मार दे वे के मन रहे मगर ई बात कौनों जान जाइत तआ …… समाज बबरादरी में बदनामी के डर से हाथ पेर कामे न काइल्स | अब जब तक ऐइजा बानी तब तक घर से बाहर तनकल बंद अबकी ई ्यारहवां में जाईत पर अब सब बंद घर छोड़ के भाग न

......कहीं

जाओ …एकरो डर बाआ |

बस इहे सब है भईया जो परे र्ान फकए हुए है हम को .....बाकी चलते हैं काम पर जाना है | प्रभाकर उसे टोका हुए बोला अच्छा ....नंजी र्ाम के ठे का चलो .... भाई बहुत ददन गए गले से कुछ उतरा नहीं | हाूँ बबलकुल भईया ….. चलो फफर समलते हैं सांझ ले |

उधर नई फकरायदारन के पतत तक बड़का और उसके प्रेम प्रसंग का समाचार पहुंच रहे थे | कोई साक्ष न होने के कारण पड़ोससयों की बातें अनसुना कर जाता मगर यह बातें उसके मन पर चोट जरूर करती | दे ख मैं तुझे समझा रहा हू​ूँ .... सुधारजा....समझी |

क्यों क्या हुआ है लोग बाते कर रहे हैं तेरे और उस चायवाली के लड़के के बारें में ... वो बच्चों को खाना खखलाते हुए बोली... तो ....इसमे मैं क्या करू​ूँ ?

तुझे कमी क्या है … क्यों जाती है उस हरामी कुत्ते के पास ? ..... उसने बैठे – बैठे ही ऊूँचे सुर में जवाब ददया | मुझे तुम्हें कुछ बताने की जरूरत नहीं है समझे ..... तुमसे तो मैंने नही पूछा फक तुम उस रात मेरी बहन के ऊपर लेट कर क्या कर रहे थे या

रात – रात भर

गायब कहाूँ रहते हो | ... उसकी बात सुनकर वो ततलसमला उठा ....बबस्त्तर से उठकर तेज़ी से उसकी गदष न दबोच ली |

बच्चे उसका अचानक से यह रूप दे ख कर घबरा गए और रोने लगे ..... पापा छोड़ दोना मम्मी को ....पापा ....छोड़ दोना | बच्चों को रोता दे ख वो कमरे से बाहर चला गया | उसके जाने के थोड़ी दे र बाद वो बरामदे में आई ..... आरती ... आरती ...दो बार धचल्लाई ....

क्या हुआ भाभी यह कहते हुए वो कमरे से बाहर आई ... अपने भईया को भेज ....

इंदस े नाु ंचत

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भेजती हू​ूँ यह कह कर कमरे में वापस चली गयी | बड़का को कमरे में आता दे ख वो उसके

गले सलपट गयी और रोने लगी | मेरा आदमी तुम्हें मार दे गा | उसकी आूँखों में ख़न ू उतर

आया है | वो और आदमी लाने गया है | वो बड़का से अलग होते हुए ही बोली ....अब हम यहाूँ नहीं रहें गे | तुम आपना सामान ले आओ |….. वो सब तो ठीक है पर हम जाएंगे कहाूँ .... बड़का ने जानना चाहा ? मेरी माूँ के यहाूँ ....गाूँव में जाएंगे ? ... नहीं वो अब गाूँव में

नहीं रहते हैं | इलाहाबाद में रहते हैं ... उनका पता मेरे आदमी के पास नहीं है ....इस सलए हम वहीं जाएूँगे | मोहल्ले में सुबह तक ख़बर चल तनकली फक चाय वाली का लड़का फलां की बीवी को लेकर भाग गया | मामला ताज़ा था लोगों के सलए बेहद रोचक था | इस सलए मामले को और

ज़्यादा नाटकीय बना कर प्रस्त्तुत फकया जा रहा था | चाय वाली की और फलां की इस घटना के बाद थ-ू थू हो गयी थी |

र्ाम को सुनीता छत पर कपड़े समेट रही थी | अपना नाम सुनकर वो पीछे मुड़ी .....तुम यहाूँ क्या कर रहे हो ... वो आइस िीम वाला लड़का था | कुछ नहीं बस तुमसे समलने का मन हुआ तो यहाूँ चला आया | ..... दे खो रात लीला आंटी का लड़का उस औरत को लेकर भाग गया | उसके बाद से ही

हमारे आस-पास की लड़फकयों पर र्क फकया जा रहा है |…… तो क्या हुआ … बद्ध ु ू फकसी ने हमें यहाूँ इस वक़्त दे ख सलया तो सब सोचें गे फक हमारे बीच में कुछ चल रहा है ... क्यों

हमारे बीच कुछ भी नहीं है ? दे खों मैं पहले से ही परे र्ान हू​ूँ | तम ु और मत करो ठीक है ... हम बस दोस्त्त हैं बस ........ सन ु ीता और आइस िीम वाले लड़के को छत पर साथ – साथ पड़ोस की औरतों ने दे ख सलया था | ब्जसके बाद सन ु ीता भी एक नया और ददलचस्त्प ववर्य बन गयी |

आज कई ददन बाद प्रभाकर र्राब पीकर आया था | जीने पर पढ़ते हुए फकसी पड़ोसन के मुंह से सुनीता का नाम सुनकर जीने पर ही रुक गया | यह ठकुराइन थीं , नंजी की पत्नी ताज़ा समाचार पड़ोस में फकसी को सुना रही थी |

काआ बताईं बतछया ... छत से आवतानी ...तू मनबू न ..हमके तआ लगता फक अब सुनीतवों

मूत वपयना आईस िीम वाला के साथ भाग जाई | उनकी बातें सुनकर प्रभाकर का नर्ा तुरंत उतर गया | वो सीदढ़यो पर ही ठहर गया | क्या कह रही हो ठकुराइन .....?

एक दम सच कह रही हू​ूँ भाई ……

ऊ दन ु ो के हम अपना आंखखन से दे खनी है |

प्रभाकर

को सीदढ़याूँ चढ़ते दे ख दोनों दठठक गए | प्रभाकर उन दोनों को कुछ दे र दे खता रहा फफर सीदढ़याूँ चढ़ गया |

सुनीता के कमरे का दरवाज़ प्रभाकर के आते ही बंद कर ददया गया | प्रभाकर की गासलयाूँ

नीचे बाज़ार तक साफ साफ सुनाई दे रही थीं | थोड़ी दे र बाद सुनीता का अधषनाद सुनाई दे ने

लगा | प्रभाकर उस पर अपनी बेल्ट का इस्त्तेमाल कर रहा था | सटाक सटाक की आवाज़ों इंदस े नाु ंचत

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को कमरे के बाहर साफ – साफ सुना जा सकता था | और रह रह कर उनका संवाद भी सुनाई दे ता रहता |

उस हरामी के साथ छत पर क्या कर रही थी .... बोल क्या कर रही थी |

तूस भागना चाहती है उसके साथ .... भागना चाहती है | नहीं पापा ....पापा नहीं | ऐसा नहीं है पापा .... कसम से पापा ऐसा

कुछ भी नहीं है .... मत मारो न पापा आपके के हाथ

जोड़ती हू​ूँ | कमरे के बाहर पड़ोससयों की भीड़ इकट्ठा हो गयी थी | सीदढ़यों पर आइस िीम वाला लड़का

भी आ पहुंचा था | धचल्लाने और रोने की आवाज़ें धीमी होने के साथ सब लोग भी चलते बने | सुनीता पर पहरा कड़ा कर ददया गया | स्त्कूल जाने पर पहले ही रोक थी | अब छोटी बहनों की ब्ज़म्मेदारी पूणष रूप से सुनीता को सौंप दी गयी थी | अब वो छत पर होती , छ्ज्जे पर होती माूँ रह – रह कर आवाज़ दे दे कर

उसकी ब्स्त्थतत का पता लगाती रहती |

एक रोज़ र्ाम में सुनीता छत से कपड़े उतारने गयी थी | वो रस्त्सी से माूँ की साड़ी उतार

रही थी | साड़ी के पीछे आईस िीम वाले लड़के को खड़ा दे ख वो घबरा गयी | तुम यहाूँ क्या

कर रहे हो जाओ यहाूँ से ... तम ु ऐसे क्यों बोल रही हो ? मैं तो तम ु से यहाूँ समलने आया हू​ूँ| ... कोई जरूरत नहीं है | तम ु जाओ यहाूँ से .... क्यों जाऊ मैं तम ु से प्यार करता हू​ूँ ..... तम ु मझ ु े बस बदनाम कर रहे हो समझे ..... सब लोग मेरा नाम तम् ु हारे साथ जोड़ कर हस्त्ते हैं | दे खो तम ु इस छत पर मत आया करो | सन ु ीता को छत पर गए काफी दे र हो गयी थी | सरला को र्क हुआ और वो दबे पांव छत की ओर गयी और उन दोनों की आवाज़ सन ु कर सीदढ़यो पर रुक गयी |

सन ु ीता एक बात कहू​ूँ मानोगी ... मेरे साथ यहाूँ से भाग चलो न ....कहीं दरू बहुत दरू .....तुम्हारा ददमाग खराब है ... यह कहते हुए सन ु ीता सीदढ़यों की और बढ़ी उसने आगे बढ़ कर उसका हाथ थाम सलया |

तुम क्या समझती हो मैं तुम से प्यार नहीं करता , मैं तुमसे झूठ बोलता हू​ूँ | उस रोज़ तुम्हारे वपता ने बस तुम्हें ही नहीं पीटा था , बब्ल्क मैंने भी उस रोज़ ख़ुद को सजा दी थी | दे खो मेरी कलाई , इस पर मैंने तुम्हारा नाम चाकू से सलख ददया है | उसका हाथ दे ख कर

सुनीता का चेहरा लाल पड़ गया | दे खो मेरे माूँ – बाप मुझ पर पहले से ही र्क फकए बैठे हैं | तुम क्या चाहते हो मैं तम् ु हारे साथ भाग जाऊ ....मेरी 5 बहने और भी हैं | मेरे यहाूँ से चले

जाने के बाद क्या होगा उनका कुछ पता भी है | .... तुम्हारी भी तो 2 बहने हैं ... कभी सोचा है तुम्हारे यहाूँ से भाग जाने के बाद उनका क्या होगा | तुम्हारे गरीब माूँ – बाप उनका

लयाह कैसे करें गे | ......मुझे नहीं पता कैसे करें गे ....मैं बस इतना जानता हू​ूँ फक मैं तुमसे प्यार करता हू​ूँ | ब्जसकी बेदटयाूँ हैं वो जाने मैंने उन सब का कोई ठे का नहीं ले रखा है | मुंह बंद कर नहीं तो तुझे चप्पल से पीटूंगी ... नीच कहीं के .... दब ु ारा मेरे सामने मत आ

जइयो ....यह कहते हुए सुनीता सीदढ़यों फक ओर बढ़ गयी | सुनीता को अपनी ओर आता दे ख सरला भी सीदढ़याूँ उतर गयी | इंदस े नाु ंचत

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आज छत पर उन्द्हें आस – पड़ोस के कई औरतों ने दे ख सलया था | यह बात बबजली की गतत से आस पड़ोस में फैल गयी | र्ाम जैसे - जैसे गहरा रही थी ठकुराइन की बेचन े ी भी बढ़ी जा रही थी | वो बतषन साफ़ कर रही थी | प्रभाकर को मकान की सीदढ़याूँ चढ़ता दे ख बतषन छोड़ प्रभाकर की ओर भागी .... भईया ... भईया ... आज बड़ी दे र की आवे मा | क्या हुआ ? हम तो ऐसे ही आते हैं | ठकुराइन सांत्वना दे ते हुए बोली भईया हमें तो बड़ा दख ु होता है तोहार कुछ रोज़ पहले ही तू सुनीता के समझाइला फक उ

खाततर .... अब दे खा

आइस िीम वाले से न समले ..... पर

आज – कल कौन लड़की आपन बाप के धचरौरी सुनतीया |

प्रभाकर के मन में सुनीता को लेकर जो डर बैठा हुआ था वह अब र्क्ल लेने लगा | उसने मन यह कल्पना भी करली की वह जल्दी ही भाग कर उसका नाम बदनाम कर दे गी | ठकुराइन कहना क्या चाहती हो .... साफ – साफ बताओ |

ठकुराइन थोड़ा गला रुर कर के बोलीं भईया बात तआ इहे बाआ फक आज फफर सुनीतवा उ मुअना आइस िीम वाला के साथ छत पर दे री ले

बततयाईला सा |

पल्लू से मंह ु ढकते हू​ूँ बोली भईया हमके कहे में लाज लगता | नजाने काआ हाथ छोड़त रहे |

धरत

प्रभाकर का चेहरा गस्त् ु से से लाल हो गया था | वह ठकुराइन को पीछे छोड़ सीदढ़याूँ चढ़ने

लगा | जब वह कमरे में पहुूँचा तो दे खा सरला तखत पर बैठी छोटी बेटी को दध ू पीला रही थी और कुछ ववचार रही थी | सन ु ीता सील बट्टे पर सलजी का मसाला पीस रही थी | सरला ऐसी खोयी

हुई थी फक प्रभाकर कब आया उसे पता ही नहीं चला | प्रभाकर के नथन ु े फूल रहे थे और आूँखें लाल थी | वपता को दे ख सन ु ीता दठठक गयी | वपता को पानी दे ने के सलए उठी पर प्रभाकर ने आगे बढ़ कर पूरी ताकत से सुनीता को थप्पड़ मारा ... सुनीता की आूँखों

के सामने अंधेरा छा गया | वह सील बट्टे के पास ही धगर गयी | सरला का ध्यान टूटा

....सामने प्रभाकर था | उसने अपनी बेल्ट तनकाल ली जैसे ही उसने सुनीता को मारना चाहा सरला ने अपने स्त्वभाव से अलग आज आगे बढ़ कर प्रभाकर का हाथ पकड़ सलया |

यह घटना पहली बार हुई थी जब सरला ने प्रभाकर का हाथ पकड़ा था | गुस्त्से पागल प्रभाकर ने उसे फर्ष पर पटक ददया और उस पर ही बेल्टों को बाररर् कर दी | माूँ को पीटता दे ख सुनीता ने वपता को ज़ोर से धक्का मारा | प्रभाकर बराम्दे

की दीवार से जाकर टकरा

गया | उसका माथा फूट गया | प्रभाकर गाली दे ते हुए उठा......साली रं डी.....धक्का मारती है | बरान्द्दे में सभी फकरायेदार इकठ्ठा होकर तमार्ा दे ख रहे थे | प्रभाकर को अपनी ओर आता दे ख सुनीता ने चाकू उठा सलया और सावधान करने के स्त्वर में बोली ....बस |

इंदस े नाु ंचत

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कहानी अधरू ा सपना

-िप्श्मशील जगत और तेज तेज पैर चलाने लगा। हालांफक र्रीर थक चक ु ा था और मन के उत्साह से कोसें पीछे चल रहा था। मन और र्रीर दोनों ववपरीत ददर्ा में चल रहे थें । र्रीर तनढाल था

और कहीं भी दो क्षण ववश्राम चाह रहा था।जब फक मन का पंक्षी उड़कर पलभर में लाली के पास पहुूँचना चाह रहा था। लाली की याद आते ही उसकी बड़ी बड़ी आूँखें जगत की छाती में धचपक के रह गयी। आूँखों के नीचे थोड़ी चपटी गोल सी नाक से तनकली सग ु न्द्ध से जगत सराबोर होने लगा तो उसने थोड़ा और जोर लगाया और गोल गोल घम ू ते पैरों के साथ गाने लगा-तोरे कजरारे नैना मा मोरा ब्जयरा गोता खाय।

बड़ी दे र तक वह यही एक लाइन दोहराता रहा। जब उसे लगा फक पीछे बैठी सवारी उस पर हूँस रही है तो झेंप कर चप ु हो गया। उसको चप ु दे खकर सवारी ने सवाल फकया-का भवा भैया! चप ु काहे हो गये तो जगत र्रमाकर ससकुड़ सा गया। मगर सवारी बात का ससलससला

आगे बढ़ाने के मूड में थी। उसने अगला प्रश्न फकया का, हो भैया! नवा नवा ववहाव भवा हय? इस प्रश्न पर जगत ने पीछे मुड़कर सवारी को दे खा। कोई अधेड़ उम्र होगी । बातचीत के आधार पर जगत को यह समझते दे र न लगी फक सवारी फकसी गाूँव से तर्रीफ लायी है ।

सवारी के सलये जगत के मन में आदर भाव उपजा। उसने ववनम्रता से जवाब ददया ‘नाहीं, दद्दा। बबहाव भये तो चार साल होइगे हय, हाूँ गौना भये थोड़े ही ददन भै हय।’ सवारी ‘अच्छा अच्छा! कौने गाूँव के रहवइया आदहयु।’ जगत-दद्दा, यदह उन्द्नाव ब्जला के मंगतपुर गाूँव के हन। गाूँव का नाम लेते ही जगत के मुख का स्त्वाद कसैला हो गया। र्हर में भले ही प्रजातंर

आ गया हो, मगर गाूँव में तो प्रजातंर बस कहने के सलए है । यहाूँ र्हर में लोग जातत कुजातत का ववचार नहीं करते है । मगर गाूँवों का ददल अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है । पहले के जमींदार अब प्रधान का चोला धारण कर काबबज हय। उसके गाूँव में भी तो ठाकुर

प्रताप ससंह ही सवेसवाष हैं।गाूँव के ववधायक, नेता या कोई दस ू रा बड़ा आदमी गाूँव आता है तो ठाकुर के दरवाजे ही आता है । वही पर खा पीकर मौज मस्त्ती कर वापस चला जाता है , वहीं से गाूँव की सारी प्रगतत ररपोटष तैयार हो जाती है । आत्मा सन्द्तुष्ट तो परमात्मा सन्द्तुष्ट। गाूँव

का केन्द्र बबन्द्द ु वही है । उसके मन से एक गाली ठाकुर के सलए तनकली साला हराम ॅ ॅ ॅ।

उसी की बदौलत तो आज वह ररक्र्ा चला रहा है , नहीं तो पढ़ सलखकर और कुछ नहीं तो कहीं बाबू तो हो ही जाता। उसके जेहन में वह घटना कौंध गयी जब जगत ठाकुर की हमजोली ववदटया रमा के साथ बाग में चला गया था और पेड़ से आम तोड़ कर रमा को ददया

था। तब ठाकुर ने उसके बाप को बल ु ाकर फकतनी फटकार लगाई थी। उसने जगत के बाप से इंदस े नाु ंचत

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कहा था फक हररया। अपै लररका का ऊच नीच समझाव, पैर केरर धरू र माथे नहीं चढ़ाई जात हय। पढ़वे पठवत हो तो दतु नयादारी केर पाठ पढ़ाब न भूलौ। औ तब हररया ने उसको बहुत मारा था और मारने के बाद उसी के साथ रोने लगे थे। मगर रमा दस ू रे ददन फफर मीठी गोसलयाूँ

आ गई

थी उसके साथ खेलने के सलए। वह जगत के सलए खट्टी

भी लायी थी। ब्जससे

फक

वह नाराज

न रहे । रमा उसको बड़ा मान दे ती

थी। अब तो रमा भी फकतनी बड़ी हो गई होगी। सोचा फक अबकी जाऊूँगा। तो ठाकुर के घर भी जाऊूँगा, र्ायद रमा से मुलाकात हो जाये। वरना

तो उस घटना के बाद जगत ठाकुर के

दरवाजे न गया।और बाप से मार खाने के बाद ही नाराज होकर उसने

दो चार ददन बाद एक

रात चप ु के से यहाूँ लखनऊ भाग आया था।इधर उधर दक ु ान और होटल, ढाबे में काम करते हुए अब ररक्र्ा चालक बन गया है । उसकी सोच को िेक लगा, उसने सुना पीछे बैठी सवारी कह रही हमरे पड़ोसी

थी फक अरे भाई ,तब तो तुम

हव।मंगतपरु ते करीब दस कोस दरू बरसाइतपुर हमार गाूँव हय। जगत को याद

आया फक उस गाूँव में उसके दरू के ररश्ते की बदहन

व्याही है ।जगत को पीछे

बैठी सवारी के

प्रतत बड़ा अपनापन उमड़ा। अब से पहले वह सोच रहा था फक ठीहे पर पहुूँच कर तय पेसे से कम से कम दस रुपये अधधक माूँगेगा। मगर अब सोचा फक यह ठीक नहीं होगा। आखखरकार गाूँव का हे त व्यवहार भी तो कोई चीज हय। सवारी भी सोच रही थी फक ये तो हमारे ही पड़ोसी गाूँव का है , इसे हम दस रुपये ज्यादा दे दें गे।कह दें गे फक बहुररया का दे ददयौ। मगर सोच को दोनों ने ही जादहर न होने ददया। इधर उधर की, खेती पाती गाूँवघर की बातों के बीच चारबाग से मवैंया पल ु की चढ़ाई पार हो गई। पल ु से उतरने में तो वैसे ही मेहनत कम लगती

है । मवैया पल ु के नीचे उतरकर दादहनी ओर सड़क पर मड़ ु कर थोड़ा आगे ही सवारी को उतरना था।

सवारी उतार कर जगत वापस चल पड़ा। दस रुपये ज्यादा समलने पर पहले जगत ने वापस फकया लेफकन बाद में सवारी के कहने पर उसने रख सलया। अब उसने तय फकया फक वह सीधा घर पहुूँचग े ा। वह लाली के पास

जल्द से जल्द पहुूँचना चाहता था। आज वह खर् ु था क्योंफक अच्छी सवारी समली थी। इससलए उसकी कमाई ठीक ठाक हो गई थी। ररक्र्ा मासलक को दे ने वाले पचास रुपये हटाकर

भी उसके पास करीब दो सौ अस्त्सीरुपये थे। उसने सोचा फक इन्द्हीं रुपयों से वह लाली के सलए एक र्लवार सूट खरीदे गा।अभी राजाजीपुरम ् की बाजार लगी होगी। बाजार से खरीदने पर

सस्त्ता समल जाता हैं। वरना दॅ ु ुॅुॅुॅुॅुॅुकान के अन्द्दर से खरीदना बड़ा मुब्श्कल है , क्योंफक

दक ु ान में दाम दग ु ने ततगुने हो जाते हैं।वपछली बाजार में उसने एक का दाम भी पूछा था। तीन सौ बता रहा था, मोलतोल करने पर ढाई सौ का दे ने को तैयार हो गया था।जगत ने

सोचा फक अगर बबका नहीं होगा। तो उसी को ले लेगा। लाल सुखष रं ग पर पीले रं ग के फूल टके थे। उसे वह कपड़ा बड़ा पसन्द्द आया था।

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जगत अभी थोड़ी ही दरू आगे बढ़ा फक फकसी ने उसे पीछे से आवाज दी-ए ररक्र्ा खाली है ?

जगत ने नहीं कहा और आगे बढ़ने ही वाला था फक उसने फफर कहा- चारबाग तक चलना है , अधधक पैसे ले लो मगर चलो। साथ में बूढ़ी माूँ है , इनसे पैदल चला नहीं जा रहा है । हम वैष्णव माता के दर्षन के सलए जा रहे हैं। उसका पुण्य तुम्हें भी समलेगा।

जगत को पाप-पुण्य से कुछ लेना दे ना नहीं था। वह कमष वादी था। ददन भर हाड़ तोड़ मेहनत के बाद सुख से सूखी रोटी खाकर जमीन पर सोकर उसके सख्त र्रीर का तनमाषण हुआ है ।मगर बूढ़ी माूँ की हालत और अधधक पैसे के लालच में वह तैयार हो गया। सोचा आज का ददन अच्छा है । अबकी जो पैसे समलेंगे उससे चारबाग के ही फकसी रे स्त्टोरे न्द्ट से दो डोसा पैक

करा लेंगे। फफर घर में दीपक की रोर्नी करके खायेंगे। लाली से कहे गा फक रानी खाओ, ये कैब्ण्डल लाइट डडनर है । लाली तो समझ भी न पायगी वह बेचारी इ र्हर के तौर तरीका क्या

जाने। अभी उसे ही कहाूँ पता है ? हाूँ मगर वह खर् ु जरूर होगी। लाली एक बार फफर मुस्त्कुराती इठलाती सी उसके सामने खड़ी हो गई लाली को मुस्त्कराता दे ख वह भी मुस्त्कुरा उठा। पहले तो वह वववाह को ही राजी न था।मगर अब तो लगता है फक लाली के बबना वह

कभी रहा ही नहीं। भला हो अम्मा का, ब्जन्द्होंने अपने बेटे की खाने पीने की परे र्ानी को दे खकर बहू को साथ भेज ददया। हालांफक लाली के आने से खचष काफी बढ़ गये हैं। पहले तो वह एक छोटी थाली, भगोना और लोटा अपने ररक्र्े के नीचे की सीट पर रखे हुए था।जहाूँ मोका लगा, वहीं कभी रोटी तरकारी , कभी रोटी दाल तो कभी दाल भात बना कर खा लेता था।रहने का दठकाना भी उसने अपने ररक्र्ा मासलक के घर के बाहर चबत ू रे पर ही बना सलया था। मासलक को इससलए एतराज न था क्योंफक उसके घर की चौकीदारी फ्री में हो जाती थी।

लाली को लाने के बाद तुरन्द्त ही रहने का इंतजाम करना पड़ा। राजाजीपुरम से आगे जाने

वाले सड़क पर रघु दादा ने अवैध कलजा कर रे लवे लाइन के फकनारे टीन की छत बनवा कर छोटी छोटी कोठरी तैयार करवाई थी। उसी में एक कोठरी जगत ने दो सौ रुपये महीना फकराये

पर ले ली थी। कुछ बतषन भाड़े का इंतजाम भी करना पड़ा। मगर घर में रहने का सुकून समला। सच में लाली बड़ी सुघड़ है । उसने

पूरे घर को करीने से व्यवब्स्त्थत कर ददया है ।

कोठरी के एक कोने में फोसलड्ं ग चारपाइर पड़ी हैं ददन में लाली चारपाई खड़ी करके दो कुसी डाल दे ती है । रात में कुसी फकनारे करके चारपाई पड़ी है । एक तरफ पुरानी धोती का परदा करके उसने रसोई बना रखी है । बड़ी बड़ी कीलें ठा्रेक कर उस पर लकड़ी के पटरे रख ददये

है ।उसी पर पुराने अखबार बबछा कर घर गह ृ स्त्थी का जरूरी सामान सजा ददया है ।दरवाजे पर भी धोती का टुकड़ा डाल कर परदा कर ददया है । यह सब सोचते सोचते लाली की याद तीव्रतर होती गई। मन जब यादों के सागर में गोता खाने लगा तो र्रीर उसी भावसागर के फकनारे

ववश्राम करने लगा। अभी कुछ ही दे र पहले वह इसी पुल को पार करके गया था और अब फफर से चढ़ाई चढ़ने से उसका दम फूलने लगा। साूँस तेज चलने लगी। बीच बीच में आूँखें मूँद ु जातीं। मगर लाली उसके आगे इंदस े नाु ंचत

आगे चलकर उसे रास्त्ता ददखा रही थी। ददल से आवाज

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आने लगी-बस थोड़ी दे र, बस थोड़ा सा रुको। लाली ने अपनी बड़ी बड़ी पलकें झुका लीं, जगत ने भी आूँखें बन्द्द कर लीं।

ए ररक्र्ा, थोड़ा जल्दी जल्दी चलो, रे न छूट जायेगी। समय पर पहुूँचा दो, इसीसलए ज्यादा पैसे दे रहा हू​ूँ। फटकार सुनकर जगत फफर पैडल पर पैर मारने लगा।पुल उतरते समय ज्यादा मेहनत नहीं लगती है। मगर है ब्ण्डल संभालने में जगत को खासी मर्क्कत करनी पड़ी।मवैया पुल से उतर कर जगत बायीं ओर मुड़ा। पीछे बैठी सवारी लगातार जल्दी जल्दी की रट लगाये

थी। जगत ने स्त्टे र्न के बाहर ररक्र्ा लाकर खड़ा फकया। रे न प्लेटफामष पर लग चक ु ी थी। सवारी ने पचास का नोट ददया और र्ेर् पैसे वापस सलये बबना ही जल्दी जल्दी स्त्टे र्न के

अन्द्दर चली गयी। जगत पैसे वापस करने के सलए लपका, तभी पुसलस वाले ने उसको डपटा-

अबे, कहाूँ खड़ा है । यह कोई तेरे बाप की जगह है । जगत बबना कुछ कहे चुपचाप ररक्र्ा लेकर सर्धथल हो चक ु े कदमों से लौट पड़ा। मगर उसकी चप्ु पी उस पुसलस वाले को खटकी । उसने तुरन्द्त भद्दी सी गाली तनकाली ॅ ॅ ॅ ॅ साला। अबें , कहाूँ जाता है और पीछे से सर पर डण्डा से वार फकया जगत संभल न सका लड़खड़ा

गया। ससपाही ने उसका धगरे बान पकड़ सलया-

ओये, पीकर चलाता है । चल अभी अन्द्दर करता हू​ूँ। तेरी सारी हे कड़ी तनकालता हू​ूँ। और जोर से झटका ददया। जगत धप्प करके सामने आती कार से टकरा कर धगर गया। िेक लगात लगाते कार का पदहया उसके ऊपर आ गया।ससपाही अब जगत को छोड़ कर कार वाले से सभड़ गया। जगत जमीन पर औंधा पड़ा था। दक ु ान

पर टूँ गा लाल सट ू उसके र्रीर से धचपट गया था।

उसका लाल दप ु ट्टा उसके स्त्वप्न से समलकर एक हो गये। लाली का स्त्पर्ष उसे बहुत समीप से महसस ू हुआ। और उसके र्रीर की सग ु न्द्ध उसकी साूँसों के साथ उड़ चली। दरू ....... बहुत दरू ।

िचनाकि परिचय डॉ0 रब्श्मर्ील

जन्द्म ततधथ : 1 जनवरी 1967 जन्द्म स्त्थान : उन्द्नाव सर्क्षा : पीएच0डी0 लेखन प्रवब्ृ त्त : कववता, कहानी, समीक्षा, नाटक, बालफफल्म, वत्ृ तधचर, रूपक, वाताष आदद फफल्म : ‘ववद्या’, ‘मुट्ठी भर आकार्’, मास्त्टर जी

परकाररता : संयुक्त संपादक, अपररहायष, लखनऊ, अवधी ग्रंथावली के पंचम खण्ड के संपादक मंडल की सदस्त्या और लेखकीय सहयोग, अनुभव की सीढ़ी (सम्पाददत)

प्रकार्न : ‘कोखजाए’, ‘प्रजातांबरक ववकेन्द्रीकरण में जन सहभाधगता’, रज्जो जीजी, ‘वसंत’ अभ्यास पुब्स्त्तका (1,2,3), ‘सुरसभ’ व्याकरण एवं रचना (6 से 8)

सम्मान/पुरस्त्कार : ववसभन्द्न प्रततब्ष्ठत संस्त्थाओं द्वारा पुरस्त्कृत एवं सम्मातनत।

संबद्ध : राज्य कमषचारी सादहत्य संस्त्थान, उ0प्र0 सदहत अनेक संस्त्थाओं से सम्बद्ध। इंदस े नाु ंचत

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इंदस े नाु ंचत

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खाली िैठी औित

नीसलमा हिक्कू र्ाम को थके मादे घर में घुसे तनर्ांत ने दे खा रं जना रसोई में नहीं थी, ना ही दाल के

पकौड़ों की खर् ु बू आ रही थी। चाय तक बना के नहीं रखी थी। घड़ी की सुई से कांटा समलाते

हुए ठीक छ: बजे वह घर आ जाता है । रं जना ने रोज की तरह दरवाजा तो खल ु ा रखा हुआ था, लेफकन स्त्वयं गायब थी। तभी उसने दे खा, बबना पंखा चलाये रं जना अंदर कमरे में पसीने से तरबतर बैठी हुई थी। साथ के पलंग पर सौरभ सो रहा था। इस समय तक तो वह बाहर खेलने चला जाता है । झुंझलाते हुए वह पत्नी से बोला, ‘‘दाल के पकौड़े तो छोड़ो, तुमने तो चाय तक नहीं बनायी है, एक छोटी सी फरमाइर् सब ु ह तम ु से की थी तम ु वह भी परू ी नहीं कर सकीं। ददनभर खाली बैठी आखखर करती क्या रहती हो?’’

मख ु पर अंगल ु ी रखकर पतत को चप ु रहने का संकेत करती रं जना उन्द्हें हाथ से पकड़कर

बाहर ले आयी।

‘‘क्यों र्ोर मचा रहे हो बड़ी मब्ु श्कल से सोया है बच्चा। ददनभर बख ु ार में तप रहा था।’’

‘‘बख ु ार था तो िोसीन की टे बलेट दे दे तीं, उससे बख ु ार तरु न्द्त उतर जाता।’’ ‘‘तम ु क्या

सोच रहे हो फक मैं सारा ददन हाथ पे हाथ धरे बैठी थी। मैंने डॉक्टर साहब से फोन करके पूछ सलया था, उन्द्होंने ही कहा था फक अपने मन से कोई दवाई मत दे ना उसे क्लीतनक ले

आओ। सो कैब में इसे क्लीतनक ले गई थी। वहाूँ ललड टै स्त्ट और कुछ अन्द्य टै स्त्ट जो भी उन्द्होंने कहे थे करवा सलए थे। उनकी सलखी दवाई भी इसे खखला दी थी। एक घंटे तक गीली पट्टी करी तब कहीं जाकर बुखार उतरा है तभी तो सो पाया है चैन से।’’

फफर मेरा हाथ पकड़ कर बोली, ‘‘तुम्हीं बताओ इन सब चक्करों में भला दाल सभगोना

कहाूँ याद रहता? इसका बुखार दे खकर मैं तो घबरा ही गई थी।’’ मैं धचड़धचड़ा उठा, ‘‘तुम तो

जरा-जरा सी बात पर घबराने लगती हो। कल इसके स्त्कूल में स्त्पोट्षस डे था। खेल खेलकर थक गया होगा और चढ़ गया बुखार। जुकाम, खांसी कुछ भी तो नहीं था इसे। डॉक्टर को

फोन करने और क्लीतनक ले जाने की क्या जरूरत थी? तुम्हें तो बस पैसों की तूली लगानी होती है । दे ख, लेना टै स्त्ट के ररजल्ट में भी कुछ नहीं तनकलेगा।’’ रं जना बड़बड़ाई, ‘‘तुम्हारे मूँह ु

में घी र्क्कर, ईर् ्वर करे तुम्हारी बात सच तनकले और टै स्त्ट ररपोटष में कोई बीमारी ना तनकले।’’

इंदस े नाु ंचत

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तनर्ांत के ऑफफस में बॉस सारा ददन बैठकर उससे टूअर की फाइलें तैयार करवा रहे थे

सो लंच टाइम में समोसा तो दरू चाय तक नसीब नहीं हुई थी उसे। उसका ससर ददष से फटा जा रहा था।

‘‘यह मूँह ु में घी र्क्कर डालने का नाटक बंद करो और तुरन्द्त चाय के साथ आलू प्याज

के पकोड़े ही ले आओ।’’

पतत की ब्स्त्थतत से बेखबर रं जना सोच रही थी, फकतना कठोर हृदय पतत समला है । बेटे की बीमारी की जरा सी भी परवाह नहीं, अपने चाय नाश्ते की पड़ी है । यहाूँ मैंने धचन्द्ता के मारे सुबह से खाने का एक ग्रास तक मूँह ु में नहीं डाला, मुझसे यह तक पूछना तो दरू फक मैंने ऐसे में कुछ खाया या नहीं अपनी पकौड़ो की रट लगा रखी है । गुस्त्से में आकर वह बोली,

‘‘कान खोलकर सुनलो आज घर में पकौड़े नहीं बनेंगे। सौरभ जाग गया और कहीं उसने

पकौड़ों की फरमाइर् कर दी तो लेने के दे ने पड़ जायेंगे।’’ पतत को चाय के साथ बबब्स्त्कट व नमकीन रे में पकड़ा कर रं जना बेटे को दे खने कमरे में चली गई। उसने हाथ से छूकर दे खा उसे बख ु ार नहीं था। वह इत्मीनान से सो रहा था। उसने चैन की सांस ली।

कमरे से बाहर आकर उसने भी चाय के साथ बबब्स्त्कट खाने र्रू ु कर ददए। अब उसे भी

भख ू लग आई थी।

पतत की ओर दे खते हुए वह बोली, ‘‘सन ु ो उसका बख ु ार उतर गया है’’

पतत का पारा अभी भी बरु ी तरह चढ़ा हुआ था, वे बड़बड़ाये, ‘‘बेवकूफ औरत ना जाने फकतने रुपये की चपत लगा आई है । साधारण बख ु ार तो एक

पैराससटामोल की गोली से ही उतर जाता।’’

पतत की बात रं जना ने सुन ली थी, ददनभर की र्ारीररक व मानससक थकान तो थी ही,

उस पर भी िोध हावी होने लगा था।

‘‘तुम वपता हो या राक्षस, अपने बच्चे की बीमारी से ज्यादा उस पर फकए गए खचष को

लेकर पागल हो रहे हो। इंसातनयत नाम की चीज़ तुममें है या नहीं?’’

चाय के साथ बबब्स्त्कट खाता तनर्ांत पहले ही जला भुना बैठा था। मन फकया फक सामने

बैठी पत्नी नाम की इस बौडम मदहला के सामने से उठकर कहीं दरू भाग जाये लेफकन वह

यह भी जानता है फक रं जना सौरभ को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनर्ील हो उठती है । अत: अपने आप पर तनयंरण रखते हुए वह चाय की रे लेकर बाहर बॉलकनी में जा बैठा लेफकन हाय री फकस्त्मत सामने की बॉलकनी में र्माष दम्पब्त्त कुछ दटफकया सरीखी चीज़ खा रहे थे।

उनके सब्म्मसलत ठहाके तनर्ांत के ससर पर हथौड़े सा वार कर रहे थे। उसने खीझकर अपना मूँह ु दस ू री ओर घुमा सलया फकन्द्तु र्माष जी ने उसे दे ख सलया था।

‘‘और तनर्ांत भाई यूं मूँह ु तछपाकर हमसे पीठ फकए बैठे हो। चाय के साथ चप ु के-चप ु के

क्या खाया जा रहा है ?’’ इंदस े नाु ंचत

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तनर्ांत का मन फकया फक अपना ससर दीवार में दे मारे पर प्रत्यक्षत: उसके मूँह ु से

तनकल गया,

‘‘पकौड़ी बनाई थी रं जना ने वही खाई थी।’’ हालांफक अपने झूठ पर उसे स्त्वयं भी आर्चयष हो आया था, र्माष जी धचल्लाये,‘‘फकस्त्मतवाला ् है यार तू पत्नी बता रही थी, रं जना भाभी सुबह से सौरभ को लेकर परे र्ान थीं। सारा ददन

डॉ. क्लीतनक टै स्त्ट में तनकल गया, उसके बाद भी तेरे सलए गमष पकौड़ी तैयार। वाह भई पत्नी हो तो ऐसी। एक हम हैं जो बीवी की आज्ञा पर दक ु ान से गमाषगमष कचौरी लेकर हाब्जर हो गए तब भी इन्द्हें सर्कायत है फक घर लाते लाते कचौरी ठं डी हो गई।’’

तनर्ांत धीरे से बड़बड़ाया, ‘‘हुंह जोरू का गुलाम, ददन भर ऑफफस में अपनी अफसरी का रौब जमाता रहता है और घर आते ही बीवी की जी हजरू ी में जुट जाता है । ऐसे आदमी ही औरत को ससर पर चढ़ा कर रखते हैं। इसकी बीवी की संगत में ही रं जना भी बबगड़ती जा रही है , वनाष पहले उसकी इतनी दहम्मत नहीं होती थी फक बबना मुझसे पूछे कोई काम करे ।

डॉक्टर के पास सौरभ को ले जाने का सुझाव भी इसी ने ददया होगा। हम भी चार बदहन भाई

थे। बीमार पड़ते रहते थे लेफकन मामल ू ी से जक ु ाम बख ु ार में अम्मा-दादी के नस्त् ु खों से ही ठीक हो जाते थे। आजकल एक बच्चे को पालना होता है । उसी में ददन रात हाय तौबा मची रहती है । रं जना नौकरी नहीं करती। ददन भर घर में खाली बैठी रहती है, झाडू-कटका, बतषन-कपड़े,

खाना आदद का काम कौनसा मब्ु श्कल है । ऑफफस में फाइलों में ससर खपाना पड़े तो पता चले। एक बच्चे को संभालना, पढ़ाना-सलखाना या फफर घर-गह ृ स्त्थी में कभी नाते-ररश्तेदार,

दोस्त्त-यारों की खाततर करना कौनसा पहाड़ तोड़ना है । इतना तो घर में सारा ददन बैठे रहने वाली औरत कर ही सकती है । कई बार तो रात को बहाने बनाने लगती है , आज फलां ररश्तेदार आ गया था, सारा ददन उसकी खाततरदारी में तनकल गया, आज बाजार से रार्न लाई बहुत थक गई हू​ूँ। गुस्त्सा तो उसे बहुत आता लेफकन तब चप ु रहने में ही भलाई लगती है , उसे मनाना पड़ता है वनाष वह रोना धोना र्ुरू कर दे ती है । मैं अक्सर सोचना हू​ूँ, मैं अगर घर में रहू​ूँ तो ये सारे काम चट ु फकयों में कर दूँ ।ू यह भी कोई काम हैं भला।

आजकल मेरी रं जना से ऑफफस के अपने काम और रं जना के घर के कामों की तुलना

को लेकर खटपट कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है । मेरा कहना था फक ऑफफस के सात घंटे फाइलों

के साथ बबताओ तो जानो और रं जना का कहना था फक तुम एक औरत की तरह चौबीस घंटे घर के कामों में लगे रहो तो ददमाग दठकाने आ जाये। यूं ही तनाव में हमारे ददन तनकल रहे

थे फक एक ददन ददल्ली से वपताजी का फोन आ गया, ‘‘बेटा तुम्हारी माूँ की तबबयत कुछ खराब है । कुछ ददनों के सलए रं जना को यहाूँ भेज दो और हाूँ सौरभ के स्त्कूल हैं, उसे तुम अपने पास ही रख लेना। व्यथष ही उसकी पढ़ाई खराब होगी।’’

मेरी काफी छुदट्टयाूँ बची हुईं थीं सो खर् ु ी-खर् ु ी दोपहर की बस से रं जना को चढ़ा आया। इंदस े नाु ंचत

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रं जना रात का खाना बनाकर रख गई थी। मैंने उसे मना भी फकया था तुम घर की धचन्द्ता मत करो मैं हू​ूँ ना। लेफकन वह नहीं मानी। र्ायद उसे मुझ पर ववर् ्वास नहीं था। ददन भर

तो सौरभ खेलता रहा लेफकन र्ाम होते ही उसे माूँ की याद आने लगी, ‘‘पापा मम्मी कब आएंगी।’’ ‘‘अबे चार घंटे नहीं हुए उसे गए तू ने अभी से मम्मी-मम्मी की रट लगा दी मैं हू​ूँ ना?’’ ‘‘अच्छा पापा मुझे दध ू दे दो’’, मैं उसके सलए दध ू गमष कर के ले आया। ‘‘यह क्या पापा

गमष दध ू ? मैं तो ठं डा दध ू पीता हू​ूँ।’’ तेज गमष दध ू को दो बतषनों में फकसी तरह लहरा-लहरा कर ठं डा फकया और उसे पकड़ाया, ‘‘पापा मैं फफ्रज का ठं डा दध ू पीता हू​ूँ और वह भी रूहअफज़ा डालकर।’’ मुझे बेहद गुस्त्सा आया फकतने नखरे करने की आदत डाल दी है इसे रं जना ने।

खैर फफ्रज से बफष तनकाल कर दध ू के धगलास में डाली फफर रूहअफज़ा की बोतल ढूंढने

लगा। बड़ी मुब्श्कल से बोतल समली। रूहअफज़ा दध ू में समला कर सौरभ को ददया तो वह एक

घूंट पीते ही धचल्लाया, ‘‘यह तो फीका है , आपने इसमें चीनी नहीं डाली क्या? मूँह ु से तनकलते तनकलते रह गया तेरे बाप का नौकर हू​ूँ क्या। फफर अपनी सोच पर खद ु ही र्समिंदा हो उठा। चीनी समला कर फकसी तरह साहबज़ादे को दध ू पेर् फकया।’’

रात का खाना बना हुआ था, सलजी दाल माइिोवेव में गमष कर मेज पर रख दी। खाना खाते हुए सौरभ बोला, ‘‘रोदटयां फकतनी ठं डी हैं, मैंने भी महसस ू फकया रोदटयां ठं डी ही थीं। रोज़ तो रं जना एक-एक फुलका तवे से उतारती गमष-गमष रोटी खखलाती थी। खैर रात का

खाना खत्म हुआ, सलजी-दाल बच गई थीं फकन्द्तु उसे उन्द्हीं बतषनों में फफ्रज में रख बाकी झठ ू े बतषन रसोई के ससंक में डाल मैं रोज की तरह टे लीववजन पर अपना पसंदीदा चैनल दे खने लगा और सौरभ मेरे फोन पर कोई गेम खेलने लगा। अमूमन मैं उसे अपना फोन ज्यादा दे र

तक नहीं दे ता था लेफकन रात का समय था और वह कभी भी रं जना को याद कर रोना धोना र्ुरू कर सकता था इससलए चप्ु पी साध गया, गनीमत रही फक गेम खेलते-खेलते उसे नींद आ गई।’’

मैं भी सोने की कोसर्र् करने लगा लेफकन बरबस ही रं जना की याद हो आई आज उसकी जगह सौरभ मेरे साथ सो रहा था। दस ू रे ददन रवववार था तो हम दोनों बाप बेटे लम्बी तान कर सोते रहे । ध ्ॅाॅूप जब

गहरा गई तो मेरी नींद खल ु ी। दस बज गये, आज रं जना को क्या हो गया? चाय भी नहीं दी। तभी बबस्त्तर पर साथ में सोये सौरभ पर मेरी नज़र पड़ी और याद आ गया फक रं जना

तो ददल्ली गई हुई है, मुझे उठा दे ख सौरभ भी आूँख मलता उठ बैठा, ‘‘पापा दध ू दे दो।’’ ‘‘तुम पहले उठकर िर् कर लो तब तक मैं तुम्हारे सलए दध ू लाता हू​ूँ।’’ दध ू की याद आते ही जैसे मेरे र्रीर में करं ट दौड़ गया, तुरंत फ्लैट का दरवाजा खोला।

बाहर दध ू की बोतल और अखबार पड़े थे। दध ू को गमष फकया फकन्द्तु वह फट चक ु ा था। छ: बजे से दस बजे तक गमी में बाहर जो रह गया था। सौरभ िर् करके आ गया था। पापा इंदस े नाु ंचत

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भूख भी लगी है । नाश्ता क्या बनाया है ?

सुनकर मेरा ससर भन्द्ना गया। सुबह से चाय तक नसीब नहीं हुई। नाश्ता क्या बनाता? सौरभ को पुचकार कर समझाया तू यहीं बैठ बेटा मैं तेरे सलए छोले भटूरे लेकर आता हू​ूँ।

सौरभ ने टीवी लगा सलया था। मैंने हलवाई से छोले-भटूरे बंधवाये और दो थैली दध ू की ले आया।

दध ू की थैली को चाकू से काटने के चक्कर में मेरे अंगूठे पर हल्का सा चीरा लग गया।

सबसे पहले वाटर पू ्रफ बैंडड े ढूंढ कर उस पर लगायी फफर दध ू उबालकर ठं डा कर बफष और रूहअफज़ा डाल सौरभ को पकड़ाया।

सौरभ खीझते हुए बोला, ‘‘पापा ठं डा दध ू तो मैं र्ाम को खेलकर आता हू​ूँ तब पीता हू​ूँ, सुबह तो कोसा-कोसा दध ू ही पीता हू​ूँ।’’ मैंने अपने आप पर तनयंरण करते हुए कहा, ‘‘बेटा अभी तो यही पीले। नहीं तो ऐसा कर तुझे भूख लग रही है ना तो पहले गमष-गमष छोले भटूरे खाले।’’

खाने की मेज पर छोले भटूरे के पैकेट खोल मैंने सौरभ को बबठा ददया। सौरभ सी सी

करते हुए उन्द्हें खाने लगा बीच-बीच में ठं डे दध ू के घंट ू भी पी लेता। तब तक मैंने अपने सलए चाय बनायी गनीमत थी फक चाय पत्ती, चीनी मझ ु े ढूंढ़नी नहीं पड़ी वह सामने र्ैल्फ पर ही पड़ी थीं। अपनी ही बनायी चाय मझ ु े बेहद बकबकी लगी।

अखबार पढ़ने में भी मन नहीं लगा। बारह बजने वाले थे मेरे पेट में भी चह ू े कूदने लगे और फफर जैस-े तैसे मेज पर पड़े ठण्डे छोले भटूरे ही उदरस्त्थ कर सलये। मैंने दे खा सौरभ ने खाने की मेज पर जगह-जगह भटूरे के तेल व छोले का रस धगराकर उसका परू ा सत्यानास कर ददया था। मेज से सारा सामान उठाकर रसोई के ससंक में रखने गया फकन्द्तु ससंक रात के

झूठे बतषनों से पहले ही भरा हुआ था, र्ेल्फ पर बाकी के बतषन रखकर मैं उबकाई रोकता बाहर की ओर भागा। तेल से भरे ठण्डे भटूरे खाते समय मुझे रं जना की याद आ रही थी। गलती से भी कभी

वह सलजी में तेल ज्यादा डाल दे ती तो मैं उसे अपनी सेहत को लेकर लम्बा चौड़ा भार्ण

सुना दे ता था। ब्जसे वह चप ु चाप सुनती रहती थी। बड़ी मुब्श्कल से सौरभ का मूँह ु हाथ ध ्ॅाॅुलवाया, भटूरे खाकर वह सोफे पर पसरकर फफर से टीवी दे खने लगा। मैंने गुस्त्से में

कहा, ‘‘सारा ददन टीवी ही दे खता रहे गा। पढ़ना सलखना नहीं है ।’’ मेरा इतना कहते ही वह मम्मी के पास जाना है कहकर दहाड़े मारकर रोने लगा। उसे व्यस्त्त रखने के सलए टी.वी. से बेहतर दस ू रा कोई ववकल्प मेरी समझ में नहीं आ रहा था। सो फकसी तरह उसे चप ु कराकर टी.वी. के आगे बबठा ददया। खाने की मेज पर जगह-जगह लगे तेल व छोले के पीले दाग

दे खकर मैं रसोई से ढूंढकर एक कपड़ा लाया और उन्द्हें पोंछने की भरसक कोसर्र् की लेफकन

मैं अपने सफाई असभयान में सफल नहीं हो सका। मेज पर लगे दाग अभी भी यथावत थे और मुझे मूँह ु धचढ़ाते से लग रहे थे। इंदस े नाु ंचत

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सौरभ टी.वी. दे खते दे खते सो गया था, सो मैं भी तानकर सो गया।

चार बजे के

लगभग सौरभ की नींद खल ु ी उसने मुझे खझंझोड़ा, ‘‘पापा उठो।’’

‘‘क्यों अब क्या हुआ’’ नींद के बीच में से उठना मुझे बहुत बुरा लगता है ? ‘‘पापा मुझे भूख लगी है ।’’ ‘‘क्या!? थोड़ी दे र पहले ही तो छोले भटूरे खाये थे।’’ ‘‘पापा तब ्यारह बजे थे अब चार

बज गये वैसे भी छोलों में बहुत समची थी मम्मी फकतने अच्छे बनाती हैं। मम्मी तो संडे को हमेर्ा स्त्पेर्ल नाश्ता व खाना बनाती हैं।’’ ‘‘दे ख बेटा मम्मी जो बनाती हैं, वह भूल जा मैं मम्मी नहीं हू​ूँ, तू कहे तो बाज़ार से तेरे सलए चाउमीन ले आता हू​ूँ।’’ वह खर् ु ी से ताली बजाने लगा, ‘‘हाूँ ठीक है ।’’

र्ाम को उसने फफर सीसी करते चाऊमीन खा सलए, रात के खाने में मैंने दाल चावल बनाने की सोची। गनीमत थी फक रं जना ने सभी डडलबों पर करीने से सामान के नाम सलखे हुए थे सो वे मुझे आसानी से समल गये। सब ु ह दध ू की थैली चाकू से काटने के चक्कर में मेरा अंगठ ू ा पहले ही घायल हो चक ु ा था। बार-बार मेरी नजर उसी पर जा रही थी। कल रात चली ध ्ॅाॅूल भरी आंधी से घर वैसे

ही ध ्ॅाॅूल से भर गया था फकन्द्तु घायल हाथ से घर की सफाई करने का तो सवाल ही नहीं था। खाना बना लू वही बहुत है । आखखर रं जना को फोन लगाया,

फोन छोटी बदहन ने उठाया, दठठोली करती बोली, ‘‘क्यों भैया भाभी के बबना रात भर नींद नहीं आई क्या?’’ मैंने झेंपते हुए कहा, ‘‘अरी बबलौटी तू उसे फोन दे कुछ जरूरी काम है ।’’ तभी रं जना की आवाज आयी, ‘‘हाूँ जी बोलो क्या हुआ?’’ मैं थोड़ा झेंपते हुए बोला, ‘‘होना क्या है, यह बताओ एक कटोरी दाल में फकतना पानी डालू और मसाले क्या क्या और फकतनी मारा में डालू। साथ ही एक कटोरी चावल में फकतना पानी डाल? ंू ’’

उधर से रं जना की हं सी की आवाज सुनाई दी।

‘‘मैं तो कुछ भी नापकर नहीं डालती हू​ूँ। ऐसा करो दाल में छोटा आधा चम्मच नमक व उतनी ही हल्दी डाल कर एक बड़ा धगलास पानी समलाकर कूकर में दो सीटी दे दो और चावल में भी एक धगलास पानी डालकर एक सीटी दे दे ना और कुछ!?’’

ना जाने क्यों उसके र्लदों से मुझे व्यं्य की बू आ रही थी सो मैंने अकड़ते हुए कहा, ‘‘नहीं और कुछ नहीं।’’ ‘‘अम्मा की तबबयत अब कैसी है ?’’

‘‘पहले से ठीक है पर मुझे आने में कुछ ददन और लगें गे।’’ ना जाने मुझे क्या हुआ मैंने िोधावेर् में फोन काट ददया। इंदस े नाु ंचत

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रात को खाने की मेज पर दाल चावल दे खकर सौरभ ने फफर नाक भौं ससकोड़े, ‘‘यह क्या कोई सलजी नहीं बनाई आपने? दाल भी उबालकर रख दी। घी जीरे का बगार भी नहीं लगाया। मैं जल्दी जल्दी रसोई में गया घी गमष कर उसमें हींग जीरा डाला। जब तक उसे दाल में समलाया जीरा पूरा काला पड़ चक ु ा था। सौरभ ने खाना खाने से मना कर ददया। एक नई मुसीबत पैदा हो गई। आठ बज चक ु े थे, अब कौन फफर से बाज़ार जाये। अचानक एक तरकीब सूझी, ‘‘वपज़्ज़ा खायेगा।’’ सौरभ खर् ु ी से उछल पड़ा, ‘‘हाूँ पापा आप फोन से ऑडषर

कर दो यहीं आ जायेगा।’’ राम-राम करके रात कटी। दस ू रे ददन सुबह छ: बजे का अलामष

लगाया था। सौरभ को बड़ी मुब्श्कल से उठाकर तैयार फकया तो पता चला उसे यूनीफामष गलत पहना दी। सोमवार के सलए दस ू री यूनीफामष पहननी होती है , तुरन्द्त कपड़े बदलवाये। दध ू कानषफ्लैक्स का नाश्ता कराया, खाने के दटफफन में वह रात का बच्चा वपज़्ज़ा साथ ले

गया था लेफकन बस स्त्टाप पर पहुूँचे तो पता चला फक स्त्कूल बस तनकल चक ु ी थी। घर आकर उसे स्त्कूटर पर बबठा कर स्त्कूल छोड़ने गया। वावपस घर पहुूँचा तो उसकी पानी की बोटल को मेज पर पड़ा दे ख उल्टे पैर पुन: उसके स्त्कूल पहुूँचा और चौकीदार को सौरभ के नाम व कक्षा की धचट के साथ पानी की बोतल थमाई। इन सबमें नौ बज गये। आखखर अपने सलए चाय बनाकर अखबार पढ़ने बैठा तो पास में पड़ी सौरभ के स्त्कूल की डायरी ददखाई दे गई, ब्जसे वह साथ ले जाना भल ू गया था। खोल कर दे खा तो र्तनवार की तारीख में स्त्कूल से समले

गह ृ कायष की सलस्त्ट ददखी। र्तनवार को दोपहर में ही तो रं जना को बस में बबठा कर आया था

उसके बाद से तो सौरभ ने कॉपी फकताबों को हाथ भी नहीं लगाया था। फफर भला गह ृ कायष कहाूँ से फकया होगा। आज स्त्कूल में डांट खाकर आयेगा तब पता चलेगा उसे। यही सब

सोचते सोचते चाय का घंट ू भरा तब तक चाय बेहद ठं डी हो चक ु ी थी। मेरी आदत पड़ी हुई है फक जब तक रं जना के हाथ की गमाषगमष मसालेदार चाय ना पी लूं तो मेरी सुबह की अच्छी र्ुरूआत नहीं होती। जब से वह गई है हर पल उसकी कमी महसूस करता रहा हू​ूँ।’’

दोपहर को सौरभ के सलए क्या बनाऊूँ यही सोच रहा था। अपने झूठे अहम ् को पीछे ठे ल

कर मैंने रं जना को फोन लगा ही सलया, ‘‘सुनो दोपहर में तुम सौरभ को क्या खखलाती हो।’’

कुछ नहीं रोटी सलजी और कस्त्टडष खाता है । ‘अच्छा ठीक है ’ कहकर मैंने फोन काट ददया।

फफ्रज में आलू उबले पड़े थे, मटर भी तछले रखे थे। आलू मटर की सलजी बना सकता था पर

बनानी आती नहीं थी सो सलजी रोटी पास के ढ़ाबे से ले आया। कस्त्टडष बनाना भी मेरे बस का नहीं था इससलए दो पीस खीर मोहन के सलए भी ले आया सौरभ को पसंद थे। दोपहर को स्त्कूल से लौटे सौरभ का मूँह ु पीला पड़ा हुआ था। उसने बताया फक वपज़्ज़ा रात को फफ्रज में नहीं रखा था सो दटफफन खोलते ही सड़ी हुई बदबू आई। टीचर ने यह लैटर ददया है आपके सलए।

स्त्कूल से आए पर में सलखा था, ‘‘बच्चा आज स्त्कूल में डायरी नहीं लाया ना ही होमवकष

करके आया। दटफफन में रखा बासी वपज़्ज़ा बच्चे को फकस कदर बीमार कर सकता था और

आप लोग अपनी गलती की ब्जम्मेदारी हम स्त्कूल वालों पर डालकर फ्री हो जाते। आपके घर इंदस े नाु ंचत

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में चाहे जो भी परे र्ानी चल रही हो कृपया बच्चे को नैगलैक्ट ना करें और कल सुबह 10 बजे कक्षा टीचर से आकर अवश्य समलें।

कक्षा टीचर का पर पढ़कर मैं परे र्ान हो उठा, अपना झूठा मान त्याग कर तुरंत रं जना

को फोन लगाया।

उधर से वह कुछ बोलती उससे पहले ही मैं कह उठा,

‘‘रं जना माूँ की तबबयत ज्यादा खराब है तो उन्द्हें तुरन्द्त यहाूँ ले आओ यहाूँ अच्छे

अस्त्पताल में ददखा दें गे लेफकन तुम्हारे बबना घर और सौरभ दोनों को ही संभालना मेरे बस की बात नहीं है ।’’

उधर से फोन कट चक ु ा था इसका मतलब अभी उसके आने के कोई आसार नहीं थे। हे

भगवान एक बार रं जना को वावपस घर भेज दो अब ये घर का काम मेरे बस का नहीं है ।

र्ाम को दरवाजे की घंटी ब्जस तेजी से बज रही थी मैं चौंक गया ना जाने कौन आ गया कोई मेहमान ना हो, घर की क्या हालत हो रही है । खास तौर से रसोई की। रसोई के अंदर जाने का तो मन ही नहीं कर रहा। ना जाने रं जना इतना सब कैसे संभाल लेती है । दरवाजा खोला तो ववर् ्वास नहीं हुआ। सामने रं जना खड़ी हुई थी। पीछे से मस्त् ु कराती हुई माूँ का चेहरा ददखाई ददया। माूँ परू ी तरह से स्त्वस्त्थ थीं।

‘‘क्यों बेटा दो ददन में ही तारे नजर आ गये। घर संभालना औरत के सलए चौबीस घंटे

की ब्जम्मेदारी होती है । अब तेरी समझ में आयी यह बात।’’ ओह तो यह सब मां की योजना थी मझ ु े सबक ससखाने की?

सौरभ तो तरु न्द्त दादी की गोद में चढ़ गया। माूँ उससे लाड़ लड़ाने लगी। रं जना मंद मंद

मस्त् ु कराती अटै ची कमरे में रखने चल दी और मैं उसके पीछे -पीछे जाता उसके कान में

फुसफुसाया, ‘‘रं जना माूँ सही कहती हैं सच मैंने तुम्हें बहुत सताया मुझे माफ कर दो।’’ रं जना ने मुस्त्कराते हुए हौले से मेरे मूँुह पर अपना हाथ रख ददया और खखलखखला कर कह उठी, ‘‘दे र आए दरु ु स्त्त आए।’’

इंदस े नाु ंचत

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किीिदास

--- सुर्ांत

सुवप्रय

यह काल्पतनक कहानी नहीं है , सच्ची घटना है । वपछले साल गमी की छुदट्टयों में मैं

अपने मामा के यहाूँ रहने के सलए आया । वहीं मामाजी ने मुझे यह सत्य-कथा सुनाई ।

वपछले कई सालों से र्हर के इलाक़े रामपुरा र्रीफ़ में एक अद्धष-ववक्षक्षप्त बूढ़ा भटकता

हुआ ददख जाता था । वेर्-भूर्ा और हरकतों से वह कोई पागल सभखारी लगता था । कोई नहीं जानता था फक उसका नाम क्या था या वह कहाूँ से आया था । कोई कहता फक वह एक स्त्वतंरता-सेनानी था ब्जसके बहू-बेटों ने बुढ़ापे में उसे घर से बाहर तनकाल ददया था । इसी सदमे से वह पागल हो गया था । फकसी का कहना था फक वह दहन्द्दी का एक समथष कवव और कहानीकार था ब्जसकी रचनाओं को दहंदी सादहत्य के खेमा-बद्ध आलोचकों ने कोई महत्त्व नहीं ददया था । धीरे -धीरे वह अद्धष-ववक्षक्षप्त हो गया था । उसके घरवालों ने उसका इलाज

कराने की बजाए उसे घर से बाहर तनकाल ददया था । कुछ लोगों का यह भी कहना था फक 1947 में दे र् के ववभाजन के समय हुए दं गों में उसके माूँ-बाप मारे गए थे । ददसम्बर 1992 में बाबरी मब्स्त्जद के ववध्वंस के बाद हुए दं गों में उसके बीवी-बच्चे मारे गए थे । इसी सदमे की

वजह से वह अपना मानससक संतुलन खो बैठा था । सच क्या था , कोई नहीं जानता था । इलाक़े

के

लोगों

ने

उसका

नाम

'कबीरदास'

रख

ददया

था

मैले -कुचैले धचथड़े , बबखरे हुए बाल और आूँखें लाल -- यही कबीरदास का हुसलया था। सदी हो , गमी हो या बरसात हो , कबीरदास हवा को घूरता हुआ , अदृश्य लोगों से बातें करता

हुआ , कभी हूँ सता , कभी रोता हुआ अकसर इलाक़े की गसलयों में भटकता हुआ ददख जाता था । उसके पास एक पोटली होती थी ब्जसे वह सीने से धचपकाए रहता था । कोई नहीं जानता था फक उस पोटली में क्या था । हालाूँफक कबीरदास इलाक़े के बच्चों को कुछ नहीं कहता था पर वे उससे डरते थे । दरअसल , इसमें कबीरदास का कोई दोर् नहीं था । हमारे

यहाूँ पागलों और दहजड़ों से डरने का ररवाज़ है । इलाक़े की माूँएूँ जब अपने ब्ज़द्दी और उद्दंड बच्चों को तनयंबरत नहीं कर पातीं तो वे कबीरदास का नाम ले कर अपने बच्चों को डराती थीं। बबलकुल फफ़ल्म ' र्ोले ' के गलबरससंह के नाम की तरह । हालाूँफक उनमें कोई साम्य नहीं था

इलाक़े

के

र्ोहदे

जब

कबीरदास

को छे ड़ते

तो

वह

फकसी

' एंग्री

ओल्ड

मैन ' की तरह उन पर पत्थर फेंकने लगता । लेफकन जल्दी ही वह र्ांत हो जाता । पर इलाक़े के लोगों के सलए है रानी की बात यह थी फक कभी-कभी कबीरदास के ज़हन पर छाई पागलपन की काई हट जाती थी । तब वह सयानों जैसी बातें करने लगता था । एक इंदस े नाु ंचत

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बार नत्थू के ढाबे पर लोग दे र् में जगह-जगह हो रहे दं गे-फ़सादों के बारे में बातें कर रहे थे। कबीरदास वहीं पास में बैठा लोगों की बातें सुन रहा था । अचानक वह अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और गम्भीर आवाज़ में बोला –

" ना दहंद ू बरु ा है , ना मस ु लमान बरु ा है ,

बरु ाई पर जो उतर आए , वो इंसान बरु ा है । "

फफर वह ताली बजा-बजा कर हूँसने लगा । एक पागल के मूँह ु से ऐसी बातें सन ु कर

लोग दं ग रह गए ।

इसी तरह एक बार और नक् ु कड़ के पान वाले गनेर्ी की दक ु ान पर जब लोगों के बीच

साम्प्रदातयकता पर बहस तछड़ गई तब वहीं मौजूद कबीरदास अचानक बोल पड़ा -" कोई बोले राम-राम , कोई ख़द ु ा-ए ,

कोई सेवै गोसैयाूँ , कोई अल्लाह-ए । "

यह सुनकर लोगों के है रानी की सीमा नहीं रही ।

इन्द्हीं घटनाओं के बाद लोगों ने उस पागल बूढ़े को ' कबीरदास ' कहना र्ुरू कर ददया ।

एक बार मास्त्टर रामदीन और दज़ी सलयाक़त समयाूँ फकराने की दक े वाल स्त्टोसष ु ान खंडल

के बाहर खड़े होकर दे र् की राजनीतत पर बातें कर रहे थे । कबीरदास भी पास में ही खड़ा

हवा को घूर रहा था अचानक वह कॉलेज के फकसी दहंदी प्रोफ़ेसर के अंदाज़ में बोल उठा -" न कोई प्रजा है न कोई तंर है यह तो आदमी के खख़लाफ़ आदमी का खल ु ा-सा

र्ड्यंर है । " मास्त्टर रामदीन ने धसू मल को पढ़ा था । पागल कबीरदास के मूँह ु से धसू मल की

पंब्क्तयाूँ सुनकर वे भौंचक्के रह गए । पर मास्त्टर रामदीन कबीरदास से कुछ पूछ पाते इससे

पहले ही वह फकन्द्हीं अदृश्य लोगों को गासलयाूँ बकता हुआ वहाूँ से चला गया । इस बीच एक ददन र्हर में बड़ा हादसा हो गया । लाल , सूजी आूँखों वाली एक सुबह आतंकवाददयों ने र्हर में कई जगह बम धमाके कर ददए । इन ववश्फोटों में बहुसंख्यक वगष के दजषनों लोग मारे गए । ववस्त्फोटों के बाद असामाब्जक तत्वों ने अल्पसंख्यक वगष के

मकानों व दक ु ानों पर हमला कर ददया । दं गे-फ़साद र्रू ु हो गए । बड़े पैमाने पर लट ू -पाट , आगज़नी और छुरे बाज़ी की घटनाएूँ होने

लगीं । एक-दस ू रे के धमष-स्त्थलों में गाय और सअ ु र का मांस फेंकने की वारदातें होने लगीं ।

क़ानन ू और व्यवस्त्था बहाल करने और ब्स्त्थतत पर तनयंरण पाने के सलए प्रर्ासन को र्हर में कफ़्यूष लगाना पड़ा । पर कफ़्यूष के दौरान भी तछटपुट घटनाएूँ होती रहीं । इंदस े नाु ंचत

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दो ददन बाद एक बबना धचडड़यों वाली सुबह कफ़्यूष में कुछ घंटों की ढील दी गई । पर

कफ़्यूष में ढील के दौरान इलाक़े में एक ससर-कटी लार् समलने से लोगों में तनाव बढ़ गया ।

र्रारती तत्व मौक़े की ताक में थे । दे खते-ही-दे खते लार् के इदष -धगदष एक उत्तेब्जत भीड़ जमा हो गई । भीड़ में दहंद ू और मुसलमान , दोनों ही थे ।

वपछली रात ही आसमान से मरे हुए पक्षक्षयों की बाररर् हुई थी । कुछ लोग कौतूहल-वर् वहाूँ पहुूँचे थे । कुछ लोगों के जवान बेटे दो ददन से घर नहीं लौटे थे । ऐसे आर्ंफकत लोग भी भीड़ में थे ।

भीड़ में दहंद ू और मुसलमान युवकों की संख्या ज़्यादा थी । कई खख ू​ूँ ार युवा चेहरे

ऐसे भी थे जो उस इलाक़े में पहले कभी नहीं दे खे गए थे । ज़ादहर है , वे फकसी ख़ास मक़सद के सलए बाहर से आए या बुलाए गए थे । पता नहीं कबीरदास को क्या और फकतना समझ में आ रहा था , पर वह भी भीड़ में मौजूद था ।

दे खते-ही-दे खते भीड़ दो दहस्त्सों में बूँट गई । दहंद ू एक ओर हो गए । मुसलमान

दस ू री ओर हो गए । कबीरदास फकसी ओर नहीं गया । वह ससर-कटी लार् के पास ही बीच में

खड़ा रहा । उदास आूँखों से लार् को घरू ता हुआ । यह वह समय था जब सारे दे र् पर एक डरावनी-सी परछाईं फैली हुई थी । र्हरों की गसलयों में अफ़वाहें सीना ताने घम ू रही थीं । इस धमष के इतने लोग मारे गए , उस मज़हब के इतने लोग ब्ज़ंदा जला ददए गए -- चारों ओर ऐसी अफ़वाहों का ज़ोर था ।

ऐसा लगता था जैसे भरी दप ु हरी में अूँधेरा छा गया हो । लोग अूँधेरों में तघरे थे और अूँधेरों को ही रोर्नी समझ रहे थे । वह एक सड़े हुए फल-सा सलजसलजा और बदबद ू ार ददन था । दहंदओ ु ं और मस ु लमानों की उत्तेब्जत भीड़ र्हर के उस इलाक़े रामपरु ा र्रीफ़ में एक ससर-

कटी लार् के इदष -धगदष जमा थी । भीड़ में इंसान की र्क्ल में भेडड़ए , लकड़ब्घे , साूँप , बबच्छू , धगद्ध और मगरमच्छ मौजूद थे । भीड़ में से जंगली जानवरों के गुराषने की डरावनी आवाज़ें

आ रही थीं । ववचारधाराओं के मुखौटे ओढ़े अपराधी तत्व भीड़ में घुसे हुए थे । और मौक़े की प्रतीक्षा में थे । फकसी बड़ी अनहोनी की आर्ंका का साया सब पर मूँडरा रहा था । अफ़सोस की बात यह थी फक ऐसे संवेदनर्ील इलाक़े और तनावपूणष माहौल में एक भी पुसलसवाला

मौजूद नहीं था । दरअसल प्रदे र् के गह ृ -मंरी दं गा-प्रभाववत इलाक़ों के दौरे पर आ रहे थे ।

सलहाज़ा समूचा प्रर्ासन और पूरा पुसलस-बल हवाई-अड्डे और मंरी महोदय के आने के रास्त्ते पर उनकी सुरक्षा और अगवानी के सलए मुस्त्तैदी से तैनात था ।

भीड़ अब ख़तरनाक रूप से दो ववपरीत खेमों में बूँट चक ु ी थी । भीड़ में मौजूद दहंद ू

युवकों का कहना था फक वह ससर-कटी लार् फकसी दहंद ू की थी और उसे मुसलमानों ने मारा

था । दस ू री ओर भीड़ में मौजूद मुसलमान युवकों का दावा था फक वह ससर-कटी लार् फकसी

मुसलमान की थी ब्जसे दहंदओ ु ं ने मारा था । माहौल में तनाव था , उत्तेजना थी । ऐसा लग रहा था जैसे फकसी भी पल कुछ भी हो सकता था ।

इंदस े नाु ंचत

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अचानक भीड़ में से एक बुज़ुगष दहंद ू आगे आया । वह थके हुए क़दमों से लार् के पास गया और लार् पर झुककर कुछ दे खने लगा । फफर उसके मूँुह से एक ददष नाक चीख़

तनकली जो कातर ववलाप में बदल गई । वह लार् के पास उकड़ू​ूँ बैठ गया और आसमान की ओर दे खकर मातमी स्त्वर में बोलने लगा -" हे ईश्वर , यह ददन भी दे खना सलखा था । आज मेरा बेटा फकर्ोर मेरी आूँखों के सामने मरा पड़ा है । यह लार् उसी की है । क्या मैं अपने बेटे को नहीं पहचानूँग ू ा ? अगले महीने इसकी र्ादी होने वाली थी । बम धमाकों के बाद यह

' अभी आता हू​ूँ ' कहकर जो गया तो वापस ही नहीं लौट पाया । बेरहम दं गाइयों ने फकतनी बेददी से मेरे बेटे का ससर काट ददया । हाय , मेरा बेटा ! " इतना कह कर वह बुज़ुगष दहंद ू उस ससर-कटी लार् से सलपट कर बबलख-बबलख कर

रोने लगा ।

भीड़ में खड़े दहंदओ ु ं की आूँखें नम हो गईं । कई दहंद ू युवकों ने ' हत्यारों का नार् हो

' जैसे नारे लगाए । वहाूँ मौजूद मुसलमानों के चेहरों पर तनाव की रे खाएूँ बढ़ गईं ।

अचानक दस ू री ओर की भीड़ में से एक बज़ ु ग ु ष मस ु लमान आगे आया वह भी थके-हारे

क़दमों से चलता हुआ उस ससर-कटी लार् तक गया । लार् को ध्यान से दे खने के बाद वह भी फूट-फूटकर रोने लगा । " या अल्लाह , यह तो मेरा बेटा नदीम है । दो ददन से लापता था । मैंने बहुत समझाया था , " बेटा , दं गे हो रहे हैं । बाहर मत जा । " पर वह नहीं माना । " अभी आता हू​ूँ , अलबा " कहकर जो गया तो फफर लौट नहीं पाया । हाय , कसाइयों ने फकतनी बेरहमी से मार डाला है मेरे ब्जगर के टुकड़े को ! "

इतना कहकर वह बुज़ुगष मुसलमान भी लार् के पास बैठकर बबलखने लगा । भीड़ में

खड़े मुसलमानों में ग़मो-ग़स्त् ु सा साफ़ ददखने लगा । कई मुसलमान युवकों ने ' हत्यारे जहन्द्नुम में जाएूँ , र्हीद को जन्द्नत नसीब हो ' जैसे नारे लगाए ।

अब दहंदओ ु ं के चेहरों पर तनाव की रे खाएूँ नज़र आने लगीं ।

अजीब ब्स्त्थतत हो गई । एक ससर-कटी लार् के दो दावेदार आ गए । भीड़ में लोगों

की संवेदनाएूँ बूँट गईं । आधे लोग दहंद ू बुज़ुगष से सहानुभूतत जताने लगे , आधे मुसलमान

बुज़ुगष से । पर वह ससर-कटी लार् दहंद ू की है या मुसलमान की , यह ववकट समस्त्या ज्यों-कीत्यों बनी रही ।

फकसी ने इलाक़े के थाने का नम्बर समलाया । फ़ोन की घंटी लगातार बजती रही पर फकसी ने फ़ोन नहीं उठाया । सभी पुसलसवाले प्रदे र् के गह ृ -मंरी की अगवानी में व्यस्त्त थे ।

र्हर में र्ांतत-व्यवस्त्था तो बाद में भी क़ायम की जा सकती थी । मंरी महोदय की आवभगत और उन्द्हें सुरक्षा मुहैया कराना ज़्यादा ज़रूरी था ।

इससलए पुसलसवालों के पास आम नागररकों के सलए समय नहीं था । वे वी.आइ.पी. ड्यूटी में लगे थे । इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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अजीब दृश्य था । दहंद ू बुज़ुगष और मुसलमान बुज़ुगष -- दोनों ही लार् के पास बैठकर

ववलाप कर रहे थे । दोनों का ही दावा था फक लार् उनके ही बेटे की थी । ववकट समस्त्या थी । माहौल में तनाव बढ़ रहा था ।

तभी खख ू​ूँ ार चेहरोंवाले कुछ दहंद ू युवक और वैसे ही कुछ मुसलमान युवक भीड़ में

से आगे आए । उन्द्होंने आपस में सलाह की और फफर ऐलान फकया फक इस समस्त्या से

तनपटने का अब एक ही तरीका था । लार् की पैंट उतार कर उसकी जाूँच की जाएगी , तभी पता चलेगा फक लार् दहंद ू की है या मुसलमान की । मातम कर रहे दोनों ही बुज़ुगों ने लार्

की बेइज़्ज़ती करने की इस बेहूदा बात को मानने से इंकार कर ददया । दोनों ओर की भीड़ में मौजूद कई लोगों ने बुज़ुगों की बात से सहमतत जताई । पर खख ू​ूँ ार चेहरों वाले वे दहंद ू और

मुसलमान युवक लोगों कीअसहमतत के बावजूद इस काम को अंजाम दे ने के सलए आगे बढ़े । दोनों बुज़ुगष उन युवकों के सामने बेबस और लाचार नज़र आने लगे । अब यह तय था फक लार् को नंगा फकया जाएगा । मरने वाले को भी क्या पता था फक उसकी दे ह को यह ब्ज़ल्लत झेलनी होगी । तभी एक आश्चयषजनक घटना घटी । बुज़ुगष दहंद ू का बेटा फकर्ोर न जाने कहाूँ से

भीड़ को चीरता हुआ अपने वपता के पास आ पहुूँचा । अपने लाल को जीववत और सहीसलामत दे ख कर यव ु क का वपता ख़र् ु ी से झूम उठा । और उसने अपने बेटे को गले से लगा

सलया । " वपताजी , मैं दं गों में फूँस गया था । फकसी तरह जान बचा कर तछपता हुआ भागा । फफर र्हर में कफ़्यूष लग गया , इससलए पहले नहीं आ पाया । " फकर्ोर ने अपने वपता को बताया । भीड़ में से फकसी ने र्ंख फूँू ख ददया । खख ू​ूँ ार चेहरों वाले दहंद ू युवकों ने इस दृश्य को दे खकर ' जय श्रीराम ! ' का उद्घोर् फकया । भीड़ में मौजूद दहंदओ ु ं में हर्ष की लहर दौड़ गई । पता नहीं कबीरदास को यह सब क्या और फकतना समझ में आया , पर वह भी ख़र् ु ी से नाचने-कूदने लगा ।

दस ू री ओर ससर-कटी लार् के पास बैठा बज़ ु ग ु ष मस ु लमान अब फूट-फूट कर रोने

लगा । " मैं र्ुरू से कह रहा था फक यह लार् मेरे बेटे नदीम की है । या अल्लाह , ब्जन हत्यारों ने मुझसे मेरा जवान बेटा छीन सलया है , उन्द्हें कोढ़ हो जाए ।

वे दोज़ख़ में जाएूँ । " बुज़ुगष मुसलमान यह कहकर मातम करने लगा ।

तभी एक और है रान कर दे ने वाला वाक़या हुआ । बुज़ुगष मुसलमान का बेटा नदीम भी न जाने कहाूँ से वहाूँ आ पहुूँचा । उसे सही-सलामत दे ख कर उसके अलबा ने उसे गले से लगा सलया । " अलबा , दं गाइयों से बचते हुए मैंने कहीं पनाह ली । फफर र्हर में कफ़्यूष की वजह से वहीं रुकना पड़ा । " नदीम ने अपने वासलद को

बताया। अब खख ू​ूँ ार चेहरों वाले मुसलमान युवकों ने ' अल्लाह-ओ-अकबर ' का नारा बुलंद फकया । भीड़ में मौजूद मुसलमानों में भी ख़र् ु ी की लहर दौड़ गई ।

र्ायद बुज़ुगष मुसलमान को ख़र् ु दे खकर एक बार फफर कबीरदास भी ख़र् ु ी से

इंदस े नाु ंचत

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नाचने-कूदने लगा । फकसी ने कहा , " अरे , दे खो-दे खो , पागल भी ख़सु र्याूँ मनाते हैं ! " पर इस सब से बेफफ़ि कबीरदास नाचने-कूदने में मस्त्त था ।

लेफकन मूल समस्त्या अब भी मौजूद थी । आखख़र वह ससर-कटी लार् फकसकी थी ?

खख ू​ूँ ार चेहरों वाले दहंद ू और मुसलमान युवक एक बार फफर आगे

बढ़े । उन्द्होंने लार् की तलार्ी ली । क़मीज़ के बाज़ू का बटन खोल कर क़मीज़ ऊपर करने

पर उन्द्हें लार् की दाईं कलाई में ' कड़ा ' नज़र आया । क़मीज़ के ऊपरी बटन खोलने पर उन्द्हें बतनयान के ऊपर ' कृपाण ' लटकी हुई ददखी । अब दोनों पक्षों को यह बात पता चल गई फक लार् न फकसी दहंद ू की थी , न मुसलमान की थी , बब्ल्क यह तो फकसी ससख की लार् थी ।

भीड़ में मौजूद कुछ लोगों ने आवाज़ लगाई , " अरे , यहाूँ कोई सरदार है तो आगे

आए और इस लार् को ले जाए ।"

पर उस भीड़ में र्ायद एक भी ससख नहीं था । वहाूँ केवल दहंद ू थे और मुसलमान थे ।

दोबारा पुसलस को फ़ोन लगाया गया , पर सौ नम्बर पर फ़ोन करने पर भी कोई

फ़ायदा नहीं हुआ । फकसी ने फ़ोन नहीं उठाया । प्रदे र् के गह ृ मंरी का र्हर में आगमन कोई मामल ू ी घटना नहीं थी । समच ू ा पसु लस बल उन्द्हें सरु क्षा प्रदान करने और उनकी तीमारदारी में लगा था ।

तब खख ूँू ार चेहरों वाले दहंद ू यव ूँू ार चेहरों वाले मस ु कों ने खख ु लमान यव ु कों से

कहना र्रू ु फकया -- " दे खो , यह लार् एक ससख की है । सरदार और दहंद ू सगे भाइयों की

तरह हैं । हम भी अपने मद ु ों को जलाते हैं और सरदार ( ससख ) भी अपने मद ु ों को जलाते

हैं। हमारा-उनका रोटी-बेटी का , नाख़न ू और मांस का ररश्ता है । दहंद ू अपने बड़े बेटे को ससख बनाते रहे हैं । चूँ फू क यहाूँ कोई सरदार नहीं

है , इससलए इस लार् पर हमारा हक़ है । इसे हम ले जाते हैं । " पर खख ू​ूँ ार चेहरों वाले मुसलमान युवकों को इस बात पर एतराज़ था । वे कहने

लगे फक मुसलमान और ससख भी भाइयों जैसे ही हैं । उन्द्होंने दलील दी फक ससखों के पहले

गुरु श्री नानक दे व जी मक्का-मदीना की यारा पर गए थे । ससखों के सबसे पाक धमष-स्त्थल

श्री हररमंददर सादहब का नींव-पत्थर समयाूँ मीर जी ने रखा था जो एक मुसलमान थे । ससखों

की पववर फकताब श्री गुरु ग्रंथ सादहब में मुब्स्त्लम सूफ़ी संत बाबा फ़रीद की ' बाणी ' दज़ष थी । सलहाज़ा मुसलमानों और ससखों के बीच भी गहरा ररश्ता था । इससलए मुसलमान युवकों ने दावा फकया फक एक सरदार की उस ससर-कटी लार् पर उनका हक़ था ।

एक बार फफर माहौल में तनाव बढ़ने लगा । दोनों पक्ष अपनी-अपनी बात पर अड़ गए । एक ओर भीड़ में से फकसी ने कहा -- " इततहास गवाह है फक ससखों और मस ु लमानों के आपसी सम्बन्द्ध कभी अच्छे नहीं रहे ।"

दस ू री ओर से जवाब आया -- " दहंदओ ु ं और ससखों का भाईचारा हम खब ू जानते

हैं । 1984 में ससखों के खख़लाफ़ हुए दं गों में हज़ारों बेक़सूर ससखों के गले में टायर डाल-डाल इंदस े नाु ंचत

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कर फकसने उन्द्हें ब्ज़ंदा जला ददया था ? " एक पक्ष ने धमकी दी -- " इस लार् पर हमारा हक़ है । हम दे खते हैं फक तुम

यह लार् कैसे ले जा सकते हो । "

दस ू रे पक्ष की ओर से भी वैसा ही जवाब आया -- " हमने भी चडू ड़याूँ नहीं पहन

रखी हैं । अगर तुम लोगों ने लार् को हाथ भी लगाया तो अंजाम बहुत बुरा होगा । " ब्स्त्थतत ववस्त्फोटक होती जा रही थी । बेचारे मरने वाले को भी क्या पता था फक उसकी लार् को लेकर बाद में इतना बवाल हो जाएगा । दोनों पक्षों की ओर से भड़काऊ नारे बाज़ी होने लगी । हवा में ज़हर घुलने लगा ।

तभी अचानक भीड़ में से कूदकर कबीरदास लार् के पास पहुूँच गया । उसने

दोनों ओर दे खा और गम्भीर मुरा बनाकर भार्ण दे ने लगा --

" भाइयो , हवा फकस धमष की होती है ? धप ू का सम्प्रदाय क्या है ?

नदी के पानी की क्या नस्त्ल है ? आकार् की जात क्या है ? पररंदे फकस क़ौम के हैं ? बादलों का मुल्क़ क्या है ? इन्द्रधनुर् की बबरादरी तो बताओ , लोगों ! सूरज, चाूँद और ससतारों का मज़हब क्या है ..। "

चारों ओर सन्द्नाटा छा गया था । कबीरदास हाथ दहला-दहला कर बोलता जा रहा था । भीड़ में खड़े ज़्यादातर लोग जैसे मंरम्ु ध हो कर एक 'ववक्षक्षप्त'

आदमी को इंसातनयत की बात कहते हुए सन ु रहे थे । ऐसा लग रहा था जैसे मध्यकाल के संत कबीरदास की आत्मा हमारे इस कबीरदास में प्रवेर् कर गई थी । 'पागल' कबीरदास संतों, महात्माओं और दरवेर्ों की वाणी बोल रहा था । कार् , वक़्त यहीं थम जाता । पर ऐसा नहीं हुआ । 30 जनवरी , 1948 की सब ु ह भी यही हुआ था । अचानक धाूँय की आवाज़ के साथ गोली चली । पता नहीं , गोली इधर वालों ने चलाई या उधर वालों ने । पर दस ू रे ही पल कबीरदास उस ससर-कटी लार् के पास ज़मीन पर पड़ा तड़पता नज़र आया । लगा जैसे भयंकर आूँधी-तूफ़ान में फकसी छायादार पेड़ पर बबजली

धगर गई हो । दे खते-ही-दे खते दोनों ओर की भीड़ में मौजूद दररंदों के हाथों में बम , दे सी कट्टे और तलवारें तनकल आईं । ' जय श्री राम ' और ' अल्लाह-ओ-अकबर ' के नारों के बीच दं गेफ़साद र्ुरू हो गए । चारों ओर चीख़-पुकार मच गई ज़मीन पर लार्ों के ढे र लगने लगे । इस पूरे कांड के दौरान वहाूँ एक भी पुसलसवाला नज़र नहीं आया । अलबत्ता

इलाक़े के कुत्ते ज़रूर एकजुट हो कर दं गाइयों पर भौंक रहे थे । वे बबना फकसी भेदभाव के

दहंद ू दं गाइयों और मुसलमान दं गाइयों -- दोनों पर ही समान भाव से भौंक रहे थे । वे एक-

दस ू रे को नहीं नोच रहे थे जबफक इंसान है वातनयत पर उतारू थे । ईश्वर की रचना स्त्वयं को खद ु ही नष्ट कर रही थी । अल्लाह के बंदे अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे थे । दीवारों पर सलखे ' जय गुरुदे व , सतयुग आएगा ' जैसे नारों पर ख़न ू के छींटे पड़ रहे थे ।

बाद में जब पुसलस घटनास्त्थल पर पहुूँची तो वहाूँ इंसातनयत लहुलुहान पड़ी थी । चारों ओर लार्ों का ढे र लगा था । बुरी तरह घायल लोगों की कराहों और चीत्कारों से माहौल इंदस े नाु ंचत

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ग़मगीन हो गया था । बाक़ी लार्ों के बीच ही फकर्ोर और नदीम की खल ु ी आूँखों वाली लार्ें

जैसे स्त्तलध पड़ी हुई थीं । सरदार की ससर-कटी लार् के पास ही कबीरदास अंततम साूँसें ले रहा था । बाद में एक पुसलसवाले ने फकसी अख़बार के संवाददाता को बताया फक लार्ों के बीच पड़े एक बूढ़े

सभखारी के सीने में बाईं ओर , जहाूँ इंसान का ददल धड़कता है , ठीक उसी जगह गोली लगी हुई थी । जब पुसलसवाले उसे उठाकर एम्बुलेंस में डालने लगे , उस समय तक र्ायद उसमें थोड़ी जान बची हुई थी । उस पुसलसवाले ने बताया फक नाम पूछे जाने पर उस बूढ़े सभखारी ने अस्त्फुट स्त्वर में र्ायद ऐसा कुछ या इससे समलता-जुलता कुछ कहा – " अव्वल अल्लाह नूर उपाया क़ुदरत के सब बंदे ,

एक नूर से सब जग उपज्या कौण भले , कौण मंदे ..। "

इतना कह कर उस बूढ़े सभखारी ने दम तोड़ ददया । उस पुसलसवाले ने अख़बार

के ररपोटष र को यह भी बताया उसका हुसलया दे खकर पुसलसवालों ने यही समझा फक कोई पागल सभखारी दं गों की चपेट में आ गया था । पुसलस ने पूरे इलाक़े में दोबारा अतनब्श्चतकालीन कफ़्यूष लगा ददया । दं गाइयों को दे खते ही गोली मार दे ने के आदे र् दे ददए गए ।

मामाजी बताते हैं फक उस ददन कबीरदास की लार् के पास पुसलसवालों को एक

पोटली भी समली ब्जसमें साम्प्रदातयक सद्भाव पर कुछ लेख थे और महात्मा गाूँधी की कुछ तस्त्वीरें थीं । इन्द्हीं तस्त्वीरों के साथ एक औरत और दो छोटे बच्चों की फ़ोटो भी थी ।

मामाजी का कहना है फक ये फ़ोटो र्ायद कबीरदास की पत्नी और उसके बच्चों की थी जो बाबरी मब्स्त्जद के ववध्वंस के बाद हुए दं गों में मारे गए थे । कबीरदास इसीसलए इस पोटली को अपने सीने से धचपकाए रहता था । उस ददन जगह-जगह हुए साम्प्रदातयक पागलपन में दजषनों लोग मारे गए , दजषनों औरतें ववधवा हो गईं , दजषनों बच्चे अनाथ हो गए । सरकार ने एक सेवातनवत्ृ त न्द्यायाधीर् की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन फकया ब्जसे तीन महीने में अपनी ररपोटष दे ने के सलए कहा गया । पर एक साल बीत जाने और तीन बार कायषकाल बढ़ाए जाने के बाद भी आयोग की ररपोटष आनी अभी बाक़ी है । पर प्रत्यक्षदर्ी बताते हैं फक उस रात एक और अजीब घटना हुई थी । आगरा , राूँची , र्ाहदरा ( ददल्ली ) समेत दे र् के तमाम पागलखानों के अधधकांर् पागल उस रात बेचन ै होकर न जाने क्यों घंटों तक रोते रहे थे । जैसे उनका कोई सगा मर गया हो! इंदस े नाु ंचत

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पागलों का यह सामूदहक ववलाप मीलों तक सुना गया था और इसे सुन कर पत्थर-ददल लोगों के भी ददल दहल गए थे ।

डॉक्टर और समाजर्ास्त्री अब तक इस ववधचर घटना का कोई तकष-संगत कारण ढू​ूँढ़ने में लगे हैं । हालाूँफक सरकार ऐसी फकसी घटना से साफ़ इंकार करती है । उसका कहना है फक यह सब र्रारती तत्वों द्वारा फैलाई गई अफ़वाहें हैं ।

पर असली बात आपको बताना तो मैं भल ू ही गया । रामपरु ा र्रीफ़ के लोगों का

दावा है फक उन्द्होंने अकसर इलाक़े में आधी रात के समय कबीरदास के भत ू को भटकते हुए दे खा है । इलाक़े के लोगों का यह दृढ़ ववश्वास है फक कई बार आधी रात के समय जब चाूँद

बादलों में तछप जाता है , जब हवा चलनी बबल्कुल बंद हो जाती है , जब रोते हुए कुत्ते अचानक सहमकर चप ु हो जाते हैं , जब माूँएूँ नींद में डर गए बच्चों को अपने सीने से धचपका लेती हैं तब घटनास्त्थल के पास मैले-कुचैले धचथड़े पहने , बबखरे बाल और लाल आूँखों वाला

कबीरदास का भूत एक हाथ में अपनी पोटली थामे , उसी अन्द्दाज़ में अपना दस ू रा हाथ दहलादहला

कर

"भाइयो,हवा

वही

ऐततहाससक

फकस

धमष

भार्ण

दे ता

की

होती

है

जो

है

वह

?

उस

धप ू

ददन

दे

रहा

था

का

सम्प्रदाय

--

क्या

है ? नदी के पानी की क्या नस्त्ल है ? आकार् की जात क्या है ? पररंदे फकस क़ौम के होते हैं ? बादलों

का

मुल्क

क्या

है

? इन्द्रधनुर्

की

बबरादरी

तो

बताओ

,

लोगों

सूरज, चाूँद और ससतारों का मज़हब क्या है ..। " इलाक़े के लोगों का कहना है फक खखड़की-दरवाज़े बंद कर लेने के बाद भी कबीरदास की गम्भीर और भारी आवाज़ खझररष यों में से प्रवेर् करके इलाक़े के घरों में दे र तक गूँज ू ती रहती है । यदद आपको मेरी बातों पर यक़ीन नहीं आता तो कबीरदास के इलाक़े रामपरु ा र्रीफ़ में आपका स्त्वागत है ।

इंदस े नाु ंचत

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र्ोर

सश ु ांत सवु प्रय सन्द्नाटे की कनपटी पर दाग़ी गई वपस्त्तौल की गोली था र्ोर । चुप्पी के ताल में

फेंका गया बड़ा-सा पत्थर था र्ोर । मौन के रन-वे से उड़ान भरता जेट ववमान था र्ोर । कभी-कभी गप्ु ताजी ऐसा सोचते ।

वे र्ोर से पीडड़त थे । सब ु ह जागने से लेकर रात में सोने तक वे हर पल र्ोर का

सर्कार बने रहते । र्ोर असंख्य रूपों में असंख्य बार उन पर असंख्य वार करता ।

र्हर के रै फफ़क को न जाने उनसे क्या बैर था । बसों , रकों और कारों के हॉनष

तनरं तर उनके कानों के पदों का चीर-हरण करते रहते । अक्सर वे रै फफ़क-जाम में फूँस जाते और पानी से बाहर आ धगरी मछली-सा छटपटाते । पींऽऽ पोंऽऽ का र्ोर उनके ददमाग़ की

नसों को तनचोड़कर उन्द्हें पीड़ा की सलीब पर टाूँग दे ता । उनके अदृश्य घावों में से र्ोर का मवाद ररसता रहता । रै फफ़क से ज़रा राहत समलती तो फिकेट-कमें री का र्ोर उनकी छाती पर मूँग ू दलने

लगता । मैच वाले ददन गली-मोहल्लों-मकानों-दक ु ानों से केवल 'एल. बी.

डलल्यू' , 'बोल्ड' , 'बाउं सर' , 'ससक्सर' , आदद का र्ोर आ रहा होता । वे इस र्लदावली के अथष से अपररधचत थे । पर र्ोर को समझने के सलए न भार्ा आनी चादहए , न र्लदों के अथष ।

कमें री के प्यालों में से दर्षकों का र्ोर उफन-उफन कर बाहर धगरता रहता । गुप्ताजी को लगता जैसे उनके ददमाग़ की नसों में मंगोलों की आततायी सेना मार-काट कर रही हो ।

घर पर भी चैन नहीं था । गुप्ताजी का बेटा जवान हो रहा था । उसे रॉक और पॉप

म्यूब्ज़क का र्ैतानी र्ौक़ था । आए ददन वह अपना म्यूब्ज़क-ससस्त्टम तेज आवाज़ में चला

दे ता । गुप्ताजी को लगता जैसे कोई उनके ददमाग़ में र्हर के घंटा-घर में लगा भारी-भरकम घंटा बजा रहा हो । वे बबना मरे ही कई-कई मौतें मर जाते ।

गुप्ताजी की श्रीमती भी कम नहीं थीं । उन्द्होंने एक तोता पाल रखा था । रोज़ उसे

हरी समचष खखलाती थीं । ससुरा ददन-रात टाूँय-टाूँय करता रहता था । जैसे ही तोता बोलना

र्ुरू करता , गुप्ता जी का रक्तचाप बढ़ जाता । उनके ददल में आता फक उसकी ज़ुबान खींच लें । या उसकी गदष न मरोड़ दें ।

गुप्ताजी की बदनसीबी यहीं ख़त्म नहीं होती थी । उनके घर के पास से ही एक

रे ल-पटरी गुज़रती थी । प्रततददन बीच रात में गुप्ताजी की छाती पर कोई भारी-भरकम इंजन

धड़धड़ाता हुआ गुज़र जाता था । एक्सप्रेस और पैसेंजर गाडड़याूँ जब जब ददन में कई बार उस पटरी पर से धड़ल्ले से गुज़रती थीं तो भला माल-गाडड़याूँ क्यों पीछे रहतीं । गप्ु ताजी र्ोर के इंदस े नाु ंचत

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इस महा-सैलाब में डूबते हुए तैराक-सा हाथ-पैर मारते रहते । इधर कुछ ददनों से सीमा पर तनाव बढ़ गया था । सो वाय-ु सेना के जेट ववमान

नीची उड़ानें भर कर युद्धाभ्यास करने लगे थे । रही-सही कसर इन जेट ववमानों ने पूरी कर दी । तीव्र गतत वाली इनकी नीची उड़ानों से गुप्ताजी के ददमाग़ की बुतनयाद काूँप जाती । उनकी रूह र्ोर के इस चौतरफ़ा हमले पर धाराप्रवाह आूँसू बहाती ।

मंददरों , मब्स्त्जदों और गुरुद्वारों से भी लाउड-स्त्पीकरों पर सुबह-र्ाम प्रसारण होता

था । कई बार रात-रात भर जगरातों की धम ू मची होती । कभी र्ादी-लयाह के समय बारात

वालों के बैंड-बाजे गुप्ताजी की र्ांतत का चीर-हरण कर रहे होते । बेचारे गुप्ताजी मन मसोस कर रह जाते ।

गली के आवारा कुत्तों ने भी जैसे उन्द्हें सताने की प्रततज्ञा कर ली थी । रात होते

ही वे समवेत स्त्वर में भौंकते और रोते । उधर कुत्तों का सामूदहक रुदन चल रहा होता , इधर न सो पाने के कारण गुप्ताजी अपने ससर के बचे-खच ु े बाल नोच रहे होते ।

जैसे तरह-तरह का मधरु संगीत सुनकर गाय अधधक दध ू दे ने लगती है , इसके

ठीक उलट नाना प्रकार के कणष-कटु र्ोर सन ै होने लगते । उनके ु कर गप्ु ताजी अधधक बेचन सलए जीवन एक लम्बा ससर-ददष बनता जा रहा था ।

घर में फ़ोन का होना भी एक अजीब आफ़त थी । सब ु ह-र्ाम , ददन-रात फ़ोन की

घंटी िीं-िीं करती रहती । गप्ु ताजी को लगता जैसे टे लीफ़ोन ववभाग भी उनके ववरुद्ध होने वाली साब्ज़र् में र्ासमल हो ।

आखख़र गप्ु ताजी ' रादहमाम ् , रादहमाम ् ' करते हुए प्रभु की र्रण में जा पहुूँचे । वे प्रततददन प्रभु से प्राथषना करने लगे फक वह उनकी मदद करे । वह कृपालु है । दयालु है । सवषर्ब्क्तमान है । वही उन्द्हें र्ोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त करवा सकता है । उन्द्होंने इतने मन से , इतनी लगन से , इतनी सर्द्दत से यह प्राथषना की फक पेड़-पौधे , पर्ु-पक्षी ,

नदी-पहाड़ , समुर-आकार् -- सब के ददल पसीज गए । वे सब भी प्रभु से प्राथषना करने लगे

फक हे ईश्वर , गुप्ताजी को र्ोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त कर दो । चाूँद-ससतारे कहने

लग -- हे ईश्वर , गुप्ताजी को र्ोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त कर दो । नीहाररकाएूँ और आकार्गंगाएूँ कहने लगीं -- हे ईश्वर , गुप्ताजी को र्ोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त कर दो । िह्मांड का कण-कण कहने लगा -- हे ईश्वर , गुप्ताजी को र्ोर के ऑक्टोपस के चंगुल से मुक्त कर दो ।

पता नहीं इस कसलयुग में प्रभु ने उन सब की प्राथषना सुनी या नहीं

सुनी । लेफकन गुप्ताजी के र्हर में एक ददन अचानक हालात कुछ ऐसे बन गए फक गुप्ताजी को र्ोर के आिमण से कुछ राहत समली ।

हुआ यह फक कुछ मज़दरू संगठनों ने अपनी माूँगों को लेकर र्हर में 'बंद' का आह्वान फकया । कुछ असामाब्जक तत्त्वों ने मौके का फ़ायदा उठा कर र्हर में तोड़-फोड़ र्ुरू कर दी । पथराव हुआ । आगज़नी हुई । छुरे बाज़ी हुई । और र्हर में कफ़्यूष लग गया । इंदस े नाु ंचत

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पुसलस और अद्धष-सैतनक बल के जवान गसलयों में गश्त करने लगे । र्हर के ववराट् रथ के पदहए थम गए । सामान्द्य जन-जीवन की सभी गततववधधयाूँ ठप्प हो गईं । सड़क पर

यातायात बंद हो गया । रे ल-गाडड़याूँ वपछले स्त्टे र्न पर ही रोक दी गईं । मेरो-रे ल भी बंद कर दी गई । लोग सहम कर घरों में दब ु क गए । चारों ओर एक भुतहा चप्ु पी व्याप्त हो गई ।

लेफकन गुप्ताजी अजीब दवु वधा में फूँस गए । एक ओर तो उन्द्हें प्रततददन के र्ोर

से राहत समली । लेफकन दस ू री ओर वे अपनी पत्नी और बेटे को लेकर धचंततत हो उठे । हुआ यह फक उनकी पत्नी बेटे के साथ र्हर के दस ू रे छोर पर एक ररश्तेदार से समलने गई हुई थी। तभी र्हर में दहंसा हुई और कफ़्यूष लग गया । अब गुप्ताजी घर पर अकेले रह गए । उधर उनकी बीवी और बेटा र्हर के दस ू रे छोर पर फूँस गए ।

वैसे तो गुप्ताजी टे लीफ़ोन को प्रततददन कोसते थे । जब दे खो तब बजता रहता है ।

पर आज उन्द्हें फ़ोन की आवश्यकता महसूस हुई । उन्द्होंने लैंड-लाइन वाले फ़ोन को बड़े प्यार से दे खा । पर जैसे ही उन्द्होंने फ़ोन का चोगा उठाया , डायल-टोन को ग़ायब पाया । धोखेबाज़। इसे भी आज ही ' डेड ' होना था ! अब उन्द्हें मोबाइल फ़ोन की र्रण में जाना पड़ा । पर यहाूँ फ़ोन कंपनी का नेटवकष ही ग़ायब था । नए ज़माने की चीज़ों में यही ख़राबी थी । ऐन ज़रूरत के समय धोखा दे जाती थीं । अजीब मस ु ीबत थी । जैस-े जैसे समय बीतता गया , गप्ु ताजी की उद्वव्नता बढ़ती गई ।

उनके चारो ओर अब अथाह र्ांतत थी । पर उनके भीतर असीम र्ोर भरा हुआ था । सारी रात गप्ु ताजी सो नहीं पाए ।

अगले ददन कफ़्यूष में एक घंटे की ढील के दौरान फकसी तरह उनकी पत्नी और

बेटा सकुर्ल वापस लौटकर आ सके । गप्ु ताजी ने चैन की साूँस ली । पर टी. वी. पर ददखाए जाने वाले समाचारों से पता चला फक कफ़्यूष में ढील के दौरान र्हर में कई स्त्थानों पर दहंसा हुई । कई लोग मारे गए । प्रर्ासन ने एक बार फफर कड़ाई से कफ़्यूष लागू कर ददया । इस बार कई ददनों तक कफ़्यूष में कोई ढील नहीं दी गई ।

अगले कई ददनों तक सामान्द्य जन-जीवन की सभी गततववधधयाूँ पूरी तरह से ठप्प

रहीं । स्त्कूल-कॉलेज और दक ु ानें बंद रहीं । सड़कों पर यातायात नहीं चला । न रे ल-गाडड़याूँ चलीं , न हवाई जहाज़ उड़े । लोग कदठनाई महसूस करने लगे ।

गुप्ताजी को पहले एक-दो ददन तो र्ोर न होने के कारण राहत महसूस हुई । पर जब कफ़्यूष का आलम सात-आठ ददन चल गया तो उन्द्हें भी यह आरोवपत सन्द्नाटा चभ ु ने लगा।

फ़ोन मज़े से ' डेड ' पड़ा था । आवारा कुत्तों ने भी रात में भौंकना-रोना बंद कर

ददया था । र्ायद वे भी ब्स्त्थतत की नज़ाकत को भाूँप गए थे । आमतौर पर प्रततददन ' टाूँयटाूँय ' करने वाला घर का तोता भी हफ़्ते-भर से अपने वपंजरे में सहमा-दब ु का-सा बैठा था ।

गुप्ताजी ने उसे उकसाना चाहा । पर उसके मूँह ु में जैसे ज़ुबान ही नहीं थी । इन ददनों कहीं इंदस े नाु ंचत

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कोई फिकेट-मैच भी नहीं चल रहा था । इससलए कमें री भी सुनने को नहीं समली । न ही बेटे ने तेज आवाज़ में रॉक-म्यूब्ज़क चलाया ।

इसी तरह आठ-दस ददन बीत गए । जीवन की चहल-पहल और र्ोर का स्त्थान

एक भुतहा सन्द्नाटे ने ले सलया था । र्हर जैसे नींद की गोसलयों का ओवरडोज़ लेकर सो गया था । इन आठ-दस ददनों में गुप्ताजी ने खद ु में एक ववधचर पररवतषन महसूस फकया । उन्द्हें

यह अस्त्वाभाववक सन्द्नाटा खलने लगा । उनके भीतर कहीं इस इच्छा की कोंपल उग आई फक र्हर की सड़कों पर फफर से बसों , रकों , कारों और दोपदहया वाहनों का र्ोर सुनाई दे ।

कारखानों के भोंपू फफर से बजें । फ़ोन की घंटी फफर घनघनाए । घर का तोता फफर से ' टाूँयटाूँय ' करे । गली के आवारा कुत्ते फफर से भौंकें-रोएूँ । मंददरों और गुरुद्वारों पर लगे

लाउडस्त्पीकर फफर से भक्तों को बुलाएूँ । मब्स्त्जदों से फफर से अजान की आवाज़ आए ।

ददर्ाओं में एक बार फफर जगरातों के गीत-भजन व्याप्त हो जाएूँ । गसलयों-बाज़ारों में फफर से चहल-पहल और रौनक़ लौट आए । घरों-दक ु ानों में फफर से फिकेट-कमें री गूँूज जाए । र्ादीलयाह वालों के बैंड-बाजे फफर से फड़कती धन ु ें सुनाएूँ । उनका बेटा फफर से तेज आवाज़ में

रॉक-म्यब्ू ज़क चलाए । और र्हर भत ु हा चप्ु पी वाले ऑक्टोपस की धगरफ़्त से आज़ाद हो जाए। गप्ु ताजी ने समाचार जानने के सलए टी.वी. चलाया । फकसी समाचार-चैनल पर

फकसी समर ु -तट पर आई भयावह सन ु ामी से हुई भारी तबाही के दृश्य ददखाए जा रहे थे । चारों ओर एक भत ु हा चप्ु पी थी । एक भयावह सन्द्नाटा था । कहीं-कहीं इंसानों और पर्ओ ु ं की लार्ें फूँसी पड़ी थीं ।

और तब गप्ु ताजी ने महसस ू फकया फक जहाूँ मौत है , वहाूँ चप्ु पी है , मरघटी

सन्द्नाटा है । जहाूँ जीवन है , वहाूँ रौनक़ है , चहल-पहल है । और जीवन से जड़ ु ा र्ोर है । धीरे -धीरे र्हर में ब्स्त्थतत सामान्द्य होने लगी । सामान्द्य जन-जीवन की

गततववधधयों से जुड़ा र्ोर वापस लौट आया । पर इस बार गुप्ताजी बाहर के र्ोर से ववचसलत नहीं हुए क्योंफक उनके भीतर अब असीम र्ांतत भरी थी । ------------०------------

इंदस े नाु ंचत

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♥ िूिती लाशें ♥ िी मनु ----------------वो कब की जग चक ु ी थी, लेफकन उनकी 80 वर्ीया वद्ध ृ ायी चेहरा पर ससकन, थकावट और उस

जगह का अजनबीपन उसे कसोटे जा रही थी फक अचानक उसे याद आई फक वो इतनी 'चंगीभली' कैसे है , प्लेटफामष पार करते वक़्त वह तो रे न की चपेट में आ गयी थी । उसे महसूस

हुई फक उनकी बूढ़ी हो चुकी सारे कल-पुजे तो सही सलामत हैं, लेफकन 'एक्सीडेंट' तो हुई थी ! तो क्या वह अभी 'हॉब्स्त्पटल' में है ...। यह सोचकर उसने अपनी 'बूढ़ी -आूँखों' की गोलाई को इधर-उधर दे खने हे तु ले गयी, पर वह 'अजनबी' जगह उसे 'हॉब्स्त्पटल' माफफक नहीं लग रही थी ...? पर वह जगह 'महलनुमा' जरूर लग रहा था और वह इक बड़ा-सा वगाषकार चमकदार

दरवाजा लगा था उनमें , वह अभी अपने को सोफे पर सोई पा रही थी ....। न सोचते हुए भी अपनी वद्ध ृ ायी और असर्क्षक्षत ददमाग पर जोड़ डाली पर 'ढाक के तीन पात' की तरह ही ददमाग वही​ीँ मसक के रह गयी...। कोई जवाब नहीं सूझ पायी ।

इसी ऊहापोह में अचानक ही उसे 'मदष कदमों' की आहट कानों सुनाई पड़ी, जो फक उस

चमकदार दरवाजा को खोलते हुए आ रहे थे । बुदढ़या ने अपनी मस्त्तक दरवाजे की तरफ की , उसे मार दो व्यब्क्त ददखाई पडी, पर जगह

की तरह वो र्ख्स भी उन्द्हें 'अनजान' के माफफक लगे, वद्ध ृ ा ने जैसे उन्द्हें दे खी तो सवालों की झड़ी लगा दी ।

आपलोग कौन है ? मैं यहाूँ कैसे आई ?? कहाूँ हू​ूँ मैं ??? मेरी रे न तो एक्सीडेंट हुई थी, फफर मैं यहाूँ कैसे ????

आगंतक ु में फकसी ने कहा - एकसाथ इतने प्रश्नों के उत्तर दे ने से पहले मैं आपको बता दूँ ू फक मैं 'यम' हू​ूँ यानी मत्ृ यु का दे वता और आप अभी यमलोक में हैं ........। लेफकन मैं मरी कब और मैं तो मब्ु स्त्लम मदहला हू​ूँ, फफर 'दहन्द्द ू यमलोक' में कैसे ? मझ ु े तो 'अल्लाह ताला' के यहाूँ ही ना होनी चादहए थी ?

आप मत्ृ यु को कैसे प्राप्त की, ये तो मैं बतला सकता हू​ूँ , पर अन्द्य सवालों के जवाब का उत्तर से मैं आपको संतुष्ट नहीं कर पाउूँ गा । वद्ध ृ ा-- क्यों बेटे ?

यम ने बेटे-जैसे सम्बोधन सुनकर भावववभोर हो गए और उसने बुदढ़या को माई कहना ही उधचत समझा।

यम ने हाथ में 'yam apple10' मोबाइल-सेट पॉकेट से तनकाले और धचरगुप्त से कहा--

जरा अपना 'Wifi' तो 'ऑन' करना, 'माई' को 'yam tube' (youtube की तरह) से जारी 'वीडडयो' ददखाना है फक कैसे उनकी मत्ृ यु हुई । इंदस े नाु ंचत

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धचरगुप्त-- क्या सर, यह वीडडयो इतना वायरल हो गया , की यमलोक के साईट पर भी अपलोड हो गया है ।

यम-- हाूँ भाई ,धरती वासी एक परकार ने इस माई को इतना फेमस कर ददया है न फक यहाूँ के सोर्ल नेटवकष साइट 'यम बुक' में ससफष इन्द्ही की खबर है (फेसबुक की तरह yambook), नरक में रहने वालों ने इनकी वीडडयो को इतने र्ेयर और कमें ट पर कमें ट फकये हैं फक हमारी सरकार भी दहल गयी है ।धचरगुप्त, wifi on करना तो फ़ास्त्ट ।

धचरगुप्त-- क्या सर , यमलोक के स्त्वामी होते हुए भी आप 'डेटा-पैक' नहीं डलवाते हैं (बुदढ़या इनदोनो की बातों को गौर से सुन रही थी और सोच रही थी फक यमलोक में भी मोबाइल, ब्जसे वह तो धरती पर दे खती थी ), पर सर , आपके पास इतना महंगा मोबाइल कैसे ? कही लंबा हाथ मारे हैं क्या ?

यम-- नहीं रे , यह तो धरतीवासी ही कर सकते हैं । पता है , धरती पर के 10 ईमानदार व्यब्क्त खोजने के बाद ही मुझे तोहफा-स्त्वरुप हमारे पाटी के उच्च भगवन ने यह मोबाइल धगफ्ट में ददया है , अब बकझक मत कर और wifi on कर bro.

धचरगप्ु त-- माई, ये दे खखये, आप अपनी मत्ृ यु का वीडडयो फक कैसे मरी ?

माई--(दे खती हुई) (कैसे वह प्लेटफॉमष पार कर रही थी और कैसे रे न के धक्के से हॉब्स्त्पटल पहुूँची).....पर ये मेरे 'र्रीर' के साथ ऐसा क्यों कर रहे है ? मेरे नाजक ु और बढ़ ू े कमर को ये

ऐसे क्यों तोड़ रहे हैं, बेटे और मझ ु े बांध कर ये दोनों कहाूँ ले जा रहा है मझ ु े ? तम ु तो मत्ृ यु के दे वता हो 'ब्ज़न्द्दगी और मौत' तम् ु हारे हाथ में है । मैं मब्ु स्त्लम बदु ढ़या, लेफकन दहन्द्द ू धमष के बारे काफी कम, फकन्द्तु जो कुछ भी जानती हू​ूँ फक फकसी भी धमष में 'इंसानों के साथ ऐसा बताषव तो नहीं फकया जाता है न ! यम-- माई यह तो आपकी गलततयों की सजा है । माई-- ...। पर मैंने क्या गलततयां की , बेटे ? यम तो माई के नधचकेता से भी भयानक और 'ववगभष' सवालों से बचने का प्रयास कर रहा था , पर ऐसा नहीं हो पा रहा था ...! यम--(धचरगुप्त की तरफ मुखाततब होते हुए) धचर , माई के प्रश्नों का उत्तर तुम दो । धचर-- माई , मैं धचरगुप्त हू​ूँ , मनुष्यों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखनेवाले । अभी तक 'यम सर' ने मेरा पररचय नहीं कराया था न !

माई - हाूँ , सुनी हू​ूँ और tv पर दे खी भी हू​ूँ तुम्हे । धचर - मुझे और tv पर , पर मैं तो आजतक 'नीचे की दतु नया में सुदट्टंग' करने गया ही नहीं!

यम-- (बीच में टोकते हुए) 'मानव' रूपी धचर ....पहले माई को जवाब दे , उनसे ही प्रश्न करने लगा तू । धचर - आपकी गलती बस इतनी है फक आप "भ्रष्ट दे र् में जन्द्म" सलए हैं ।

माई - लेफकन ये तो मेरी गलती नहीं है फक ये तो 'भेजने वाले अल्लाह' की गलती है ।

इंदस े नाु ंचत

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धचर - यह न अल्लाह की गलती है न यम की, आप बच सकती थी , लेफकन भ्रष्ट डॉक्टर के कारण आप मारी गयी, जो फक आपके मत ृ र्रीर को पोस्त्टमाटष म करने ले जा रहे हैं, यह दे खखये....

[तभी धचरगुप्त का yamsapp (whatsapp की भाूँतत) सभनसभनाया ]

.....एक समनट माई एक वीडडयो आया है बस डाउनलोड कर लूँ ू , यम सर ! आप भी दे खखये .....!! माई आप भी !!! आपकी जैसीॅे ही 'इंसातनयत को घखृ णत' कर दे ने वाली घटना ।

yamsapp वीडडयो चालू फकया गया । एक परकार अपने काम को तनष्ठा से 'न्द्यूज़' में कह आ रहा था फक कैसे एक आददवासी व्यब्क्त ने अपनी पत्नी की बेजान पड़ी लार् को कंधे पर

रखकर 10-12 KM जाकर गाूँव तक लाया, लेफकन 'जातत पीडड़त' समाज इसे दे खता रहा , फकसी का हाथ मदद के सलए आगे नहीं आया फक उनके कोई साथ दे , लेफकन इक परकार ने इस न्द्यूज़ को दे र् के हर जवान के साथ यम लोक में भी प्रचाररत कर ददया । उस परकार ने

ससफष न परकारी का काम , बब्ल्क DM को फ़ोन कर वहां के बारे में बताकर एम्बुलेंस भी

उपललध कराया , लेफकन इन सबके बावजूद पर्थ ृ वीवासी उस परकार को आलोधचत ही कर रहे थे

, फकसी ने 'लार्' को तो छोडड़ये उनके 12 साल बेटी की माूँ के गज ु रने का ददष भी नहीं समझ पाया यदद समझ पाया भी तो मार पैरों में उनकी ब्स्त्लपर लोगों को ददखाई ददया । खास बात

यह थी फक जन्द्माष्टमी के ददन ऐसी घटना का होना, यम सर ! कान्द्हा पर भी लांछन लगा सकता है ....... धचर ने सझ ु ाव दे ते हुए कहा । वीडडयो दे खने के बाद माई और यम के आूँखों से बस अश्रध ु ार ही धगर रहे थे ...। माई-- इंसातनयत तो है ही नहीं !!

यम-- इंसातनयत होती तो आप अभी ब्ज़ंदा रहती माई । आप अब यमाइयत की ईमानदारी दे खखये

इंदस े नाु ंचत

!!

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किानी घड़ी चोि माला िमा​ा सरला का एक हाथ हवा में लहराया और चटक की आवाज गूंज उठी | पास के कमरे

में बैठा मैं अपने ऑफफस की फाइलें तनपटा रहा था | तत्काल उठकर बहार आया | डाइतनंग टे बल का फकनारा थामे राजू सससक रहा था और पास ही मेरी पत्नी सरला िोधधत मुरा में खड़ी थी |

मैं आगे बढ़ा | पत्नी के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा, “आखखर सुबह-सुबह ऐसी क्या बात हो गयी ?” मेरा पूछना था फक सरला चीख पड़ी, “अपने नौकर से क्यों नहीं पूछते ?

रीमा की नयी घड़ी गायब है | कहाूँ जाएगी ? घर तनगल गया या आसमान खा गया ? तब से खोज रही हू​ूँ अब क्या सारा काम धाम छोड़कर घड़ी खोजती फफरूं ? मुझे तो लगता है इस राजू ने घड़ी को कहीं बेच डाला है | परसों रीमा से पूछ भी रहा था मनीआडषर कैसे फकया

जाता है ! जरूर मां बाप को पैसे की जरूरत पड़ी होगी | घड़ी बेचकर पैसे भेजे होंगे ! इससलए मैं कहती हू​ूँ इसे बार-बार घर न जाने दीब्जये | छोटी उम्र तो बस दे खने की है | पेट में दाढ़ी रखते हैं ऐसे गरीब लोग | तुम्हारे ब्जद करने पर मैंने इसे साथ रखा है | बहुत दयावान बनते थे न फक गरीब का बच्चा है हमारे यहाूँ रहकर काम भी करे गा और दो पैसे की मदद भी उसके मां बाप को हो जाएगी, अब भुगतो ! आज घड़ी पर हाथ साफ़ फकया है कल गहने पार करे गा …..”

पत्नी के सटासट जुबान चलने से मैं झुंझला उठा | राजू की तरफ दे खा | मेरा

सांत्वना भरा हाथ अपनी पीठ पर पते ही राजू बुरी तरह फफक पड़ा | तरु ं त मेरे क़दमों पर लोट गया, “चाचा आप यकीन कीब्जये मैंने रीमा दीदी की घड़ी नहीं चरु ाई |

घड़ी लेकर मैं

क्या करूंगा ? मझ ंू ा क्या, ु े तो समय दे खना भी नहीं आता ? जब घड़ी ही नहीं ली तो बेचग मैं तो फकसी दक ू ान वाले को भी नहीं जानता | कभी कभार सलजी वाले से आलू प्याज खरीद

कर ला दे ता हू​ूँ, वहां घड़ी बेचने से क्या मैं पकड़ा नहीं जाऊंगा ? वे सब लोग तो आपके जान पहचान वाले हैं | क्या ऐसी गलती करने पर वे आपको खबर नहीं करें गे ? और फफर जब मैं गावं से र्हर आया था, भाई बाबज ू ी ने मझ ु े खब ू समझाया था फक हमेर्ा ईमानदार रहना | चाचा- चाची को कभी सर्कायत का मौक़ा मत दे ना | र्हर जाने से ब्जंदगी संवर जाएगी | आप खद ु बताएं जहाूँ मेरा भववष्य

सुधरने वाला हो वहां ऐसी गलती कैसे करूंगा ?

आप मेरे सेज चाचा- चाची नहीं हैं फफर भी सेज से बढ़कर इज्जत करता हू​ूँ | कृपया आप चाची से कहें फक 'मैं चोर नहीं हू​ूँ'| ऐसा लांछन लगाकर आप मुझे गावं न भेजें | वहां इतने इंदस े नाु ंचत

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भाई बहनों के बीच भर पेट भोजन तक नहीं समलता फफर चोरी की बात सुनकर बापू मुझे घर से तनकाल दे गा | मैं कहाूँ जाऊंगा सरकार |”

बारह वर्ीय बच्चे की ऐसी तकषपूणष दलीलें सुनकर मैं अंदर से काूँप गया | पांच रुपए

का नॉट उसे थमाया तथा पास वाले नुक्कड़ से कुछ पान के बीड़े खरीदकर लाने को कहा |

पान के बहाने राजू को बहार भेजकर सरला से एकांत में बातें करना चाह रहा था | राजू ने अपनी ढीली- ढाली कमीज को ऊपर करके आूँखें पोछी तथा कमरे से बाहर तनकल गया |

मैं पत्नी की तरफ घूम गया | सरला कुसी पर बैठे बैठे मुझे आ्नेय दृब्ष्ट से घूर रही

थी | मैंने

उसके पास वाली कुसी खींची तथा बैठते हुए कह उठा, “क्या तम् ु हें ववश्वास है फक राजू ने चोरी की है ?उसकी बातें सुनकर तो मुझे यकीन नहीं आता | पैसे की जरूरत होती तो हमें कह सकता था | बबना सच्चाई का पता लगाए फकसी पर प्रत्यक्ष दोर्ारोपण नहीं करते| फफर चांटा मारने की क्या जरूरत

थी ? डांट-डपट भी तो हो सकती थी ! पराये लोग

चोर बेईमान ही होते हैं ऐसी भ्राब्न्द्त मत पालो | एक इतना छोटा बच्चा अपना घर पररवार छोड़कर यहाूँ आया है तम् ु हारे काम में हाथ बंटाने, कम से कम इतना तो सोचो फक उसके

आने के बाद तम् ु हें फकतना आराम हो गया है | ददन भर राजू चकरतघन्द्नी की तरह घम ू ता

रहता है , थकने का नाम नहीं लेता | सच पछ ू ो तो सरु मझ ु े यह सब दे खकर पश्चाताप होता

है , क्या यह र्ोर्ण नहीं ? अपनी बेटी रीमा को दे खो 17-18 साल की हो गयी है ससवाय पढ़ने- सलखने व दोस्त्तों के साथ गपर्प के और क्या काम करती है ? आखखर लड़की जात है , पढ़ाई सलखे के साथ-साथ रसोई का काम नहीं सीखना ? इतना भी प्यार दल ु ार फकस काम का ! लड़फकयां फकतनी भी पढ़-सलखकर नौकरी करने लगें घर गह ृ स्त्थी की असली स्त्वासमनी तो वही होती हैं | लड़फकयों को इसके ऊपर फि होता है तभी दोनों मोचाष बखब ू ी संभल ले जाती हैं | जहाूँ इस तरह के तालमेल में कमी होती है पररवार वही​ीँ बबखरता है …...”

सरला मेरी बात काटते हुए कह उठी, “तुम रीमा पर कैसे आ गए ? बात यहाूँ घड़ी चोरी की हो रही थी | रीमा को चौका बासन ससखाने की बात है वो मैं दे ख लंग ु ी | उसकी

धचंता करने की तुम्हें जरूरत नहीं और हाूँ, राजू का मैंने सारा कुछ चेक कर सलया है | मुझे लगता है घड़ी अगर उसने न भी बेचीं हो तो जरूर फकसी आसपास के नौकर के हाथों दे रखी है | सच कहती हू​ूँ- राजू के पास से घड़ी

तनकली तो मैं उसे यहाूँ एक पल न दटकने दं ग ू ी |

तुमने तो मुफ्त में चाचा भतीजा का ररश्ता कायम कर सलया है | सेज ररश्ते तो तनभते नहीं ऊपर से ये नए ररश्ते बनाने की क्या जरूरत है ?

पता नहीं अभी सरला की बातें और फकतनी सन ु नी पड़ती तभी दरवाजे पर थाप पड़ी |

राजू अपराधी की तरह खड़ा था | मैंने उसे अंदर बुलाया, पान टे बल पर रख दे ने का इर्ारा इंदस े नाु ंचत

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फकया तथा फकचेन में जाने को कहा | मुझे डर था कहीं उसे दे खकर सरला फफर से न उबल पड़े | एक अजीब से तनाव में पूरा ददन गुजर गया | र्ाम को रीमा से मैंने घड़ी के बारे में पूछा | उसका कहना था तकरीबन चार- पांच ददनों से घड़ी

नहीं ददख रही | पहले तो रीमा

ने सोचा कहीं रख कर भूल गयी होगी पर चप्पा-चप्पा छान मारा, जहां-जहां संभव था पूछ डाला | घड़ी का नामोतनर्ान नहीं समला |

राजू के

सबकी बातें सुनकर मैं तय नहीं कर पा रहा था आखखर घड़ी

गयी तो कहाूँ गई ?

अलावा हमारे घर में कोई दस ू रा नौकर भी नहीं |एक बात जरूर है परन्द्तु वो दो

महीने से छुट्टी पर है | रहने से भी उस पर अववश्वास का प्रश्न नहीं उठता था क्योंफक ये बाई हमारे पास वपछले

बीस वर्ों से है | अपने बेटी की र्ादी करके गावं गयी है | हो सकता है

आने में और दे री कर दे | इधर उसकी गैरहाब्जरी में सरला की खटतन बढ़ जाएगी यही सोचकर गावं से राजू को लेकर आया था | मैं तो मन ही मन ये भी तय कर चक ू ा हू​ूँ की अपनी बाई जब काम पर वापस लौट आएगी तब राजू को पास के स्त्कूल में दाखखल करा दं ग ू ा| घर में थोड़ी बहुत मदद करे गा साथ ही पढ़ाई भी कर लेगा | बच्चा पराया ही सही अगर कुछ पढ़ सलख लेता है तो इसमें हजष ही क्या है | दो टाइम के भोजन और चाूँद पैसे के सलए फकसी गरीब का र्ोर्ण करना मझ ु े कतई गंवारा न था परन्द्तु आज इस घड़ी

मझ ु े राजू का भववष्य डूबता नजर आ रहा था | क्या पता राजू ने वास्त्तव में घड़ी

को लेकर

चोरी की

हो और कहीं तछपा कर रख दी? पर उसका मेरे पैरों पर धगरकर बार- बार कहना फक 'मैं चोर नहीं हू​ूँ ' मेरे र्क को धंध ु ला बना जाता | नींद मेरी आूँखों से दरू जा चक ु ी थी | ठीक उसी तरह की घटना मेरे साथ हुई थी | मैं उन ददनों पंरह वर्ष का था | मंझली दीदी की र्ादी बबदहयां हुई थी | र्ादी के चार ददनों के बाद मैं कलेवा लेकर दीदी के ससुराल पहुंचा था | पांच बहनों में अकेला भाई था मैं | दीदी के ससुराल में बहुत खाततर हुई | एक हफ्ते के सलए मैं गया था और रह गया पूरा महीना | उस एक महीने के दौरान वहां मेरे काफी नए दोस्त्त बन चक ु े थे | ददन भर इधर उधर खेलना और समय से खाना पीना यही मेरी ददनचयाष थी | वपताजी ने एकाध बार लौट आने की खबर

सभजवाई पर दीदी मुझे छोड़ने को तैयार नहीं होती | फफर मुझे वहां क्या तकलीफ थी ? आठवीं क्लास की सालाना परीक्षा दे कर मैं आया था | ररजल्ट तनकलने में अभी खासी दे री

थी | इससलए मैं पूरा तनब्श्चत था | पर फकतने ददन ! लौटना तो था ही | मेरे जाने की खबर सुनकर दीदी बुरी तरह रोने लगी | मैंने समझाया- बुझाया तथा दब ु ारा आने की सांत्वना दी|

जाने के एक ददन पहले घर में समठाइयां बनने लगीं जो मेरे साथ दीदी दे ने वाली थी| मैंने बहुत मना फकया पर दीदी की सास कहानी चप ु बैठने वाली थीं | बेलग्रामी और खीरमोहन की पांच फकलो की गठरी तैयार हो गई | इसी सब झमेले में अचानक र्ोर हुआ इंदस े नाु ंचत

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फैलाने की घड़ी चोरी हो गयी | क्षणभर में अफरा तफरी मच गयी | सबके सब परे र्ान हो गए क्योंफक घड़ी की बेल्ट सोने की थी | मैंने दीदी से पूछा तो पता चला घड़ी उनकी ननद की थी | मैं भी सबके साथ समलकर घड़ी

खोजने लगा पर अफ़सोस घड़ी नहीं समली |

मुझे एकदम सुबह वाली बस पकड़नी थी | अतः में चाहता था फक रात जल्दी से खा

पीकर सो रहूं ताफक तड़के तनकल जाऊं | मैंने दीदी से अपने जाने की बात बताई, उन्द्होंने मुझे खखला- पीला ददया तथा सो जाने को कहा | लालटे न की लौ काम करके मैं अपने

बबस्त्तर पर दब ु क गया | नींद जल्दी नहीं आ रही थी | चप ु चाप आूँखें बंद फकये हुए मैं महीने भर की छुट्टी का आनंद ले रहा था | फकतना मजा आया दीदी के ससुराल में | अब घर जाने पर वही पढाई- सलखाई का चक्कर र्ुरू हो जाएगा | कोई न कोई बहना बनाकर मैं जल्दी ही दीदी के पास लौटूंगा | काल्पतनक धचंताओं में डूब आवाज सुनाई दी | मैं दम साढ़े रहा |

उतरा रहा था तभी कुछ खस ु ुर- पुसुर की

आवाज धीरे - धीरे स्त्पष्ट होने लगी |दीदी की सास, ननद ननदोई थे | एक जननी आवाज उभरी, 'बहु के भाई के बक्से की तलार्ी ली ? जरूर घड़ी इसी ने चरु ाई होगी | सोने की बेल्ट वाली घड़ी दे खकर लालच आ गया होगा | पहले बक्सा चेक करो फफर होल्डाल भी खोलकर दे ख लेना | छोकरा अपनी उम्र से कुछ ज्यादा हो होसर्यार ददख रहा है | कल सब ु ह की बस से तनकल जाना है , अगर चला गया तो समझो हजारों की घड़ी

भी इसके साथ

तनकल जाएगी |” काटो तो खन ू नहीं वाली ब्स्त्थतत पैदा हो गई थी | इतना सब सुनकर मैं अंदर ही

अंदर रो पड़ा | आूँखों को बरबस बांधें रखा | अपने को जलत करना मुब्श्कल हो गया था | दीदी की सास ने लालटे न की लौ तेज कर दी थी | उन तीनों प्राणी ने बारी-बारी से मेरे बक्से और होल्डाल को चेक फकया तथा घड़ी

न समलने पर अफ़सोस जादहर करते हुए बाहर तनकल गए | कमरे में पुनः अन्द्धकार हो गया | अब मैं अपनी बेबसी पर रोने के सलए आजाद था | मेरी इतनी बेइज्जती ? अपने घर का मैं लाडला व दल ु ारा लड़का था | मुझे याद नहीं

फक मैंने माता- वपता से मार भी खाई हो | वही​ीँ आज मुझपर चोरी का इल्जाम लगाया गया? मैं बचपन से ईमानदार और एक सच्चररत लड़का था

| इतनी साड़ी अवहे लना से मेरे साथ

मेरी आत्मा भी रो पड़ी थी | अब तो यही लग रहा था फक कब सुबह हो और मैं इस तनष्ठुर परायी जमीन से छुटकारा पा

सकंू |

सुबह उठकर मैंने जल्दी- जल्दी अपना बक्सा तथा होल्डाल पुनः ठीक फकया | दीदी

नाश्ता सलए हाब्जत थी | वे खुद अपने हाथों से मुझे पुड़ी दही खखलाने लगीं | साथ ही रोती इंदस े नाु ंचत

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भी जा रही थीं | एक तो चोरी का लांछन दस ु रे दीदी से बबछुड़ना | मैं भी जोरों से रो पड़ा

था| बहुत भारी मन से वहां से ववदा हुआ | रास्त्ते भर चोरी वाली बात ददल ददमाग को मथती रही | इस घटना के बहुत ददनों बाद मैंने दीदी से पूछा था आखखर ननद की घड़ी फकसने चरु ाई थी? दीदी ने बताया, घड़ी फकसी ने चरु ाई न थी, भण्डार घर में उनकी ननद

समटटी के भाड़ से कुछ तनकालने गई थी, फफसल कर धगर गयी | दस ू रे ददन सास को घड़ी समली थी |

आज राजू की घटना से मुझे वर्ों पुराणी अपने बचपन की वो साड़ी बातें याद हो आई

ब्जसे मैं प्रायः भूल चक ु ा था | उस ददन मैं भी तनदोर् था ? कैसा कटु अनुभव हुआ था ? अगर राजू ने सचमुच घड़ी न चरु ाई हो तो उसे कैसा अनुभव होता होगा | राजू की तरह मेरी भी अंतरात्मा उस समय कैसे चीख- चीख कर कह रही थी, 'मैं चोर नहीं ….. मैं चोर नहीं ..'

मैं झटके से उठ बैठा | पुराणी बातों को याद कर मेरी नींद यू​ूँ ही हराम हो

चक ु ी थी | मैंने पैरों में चप्पलें डाली | बरामदे में राजू की खत लगी थी | दबे पावं मैं उसके

ससरहाने जा खड़ा हुआ | राजू सीने पर दोनों हाथ रखे नींद में बड़बड़ा रहा था, “साहब मैंने घड़ी नहीं चरु ाई.. नहीं चरु ाई ..” मैंने आदहस्त्ता से उसके ससर पर हाथ फफराया तथा बोल उठा - हाूँ मझ ु े परू ा ववश्वास है राजू.. तम ु ने कोई चोरी नहीं की | भले और कोई इस बात को न

माने लेफकन मैं तम ु में अपने बचपन की छवव दे ख रहा हू​ूँ | हम दोनों तनरपराध थे और हैं | मेरी आूँखों से दो बंद ू आंसू टपक पड़े | मैं बड़ी खामोर्ी से वापस लौट आया | उसके बाद कुछ ददनों तक घड़ी की कोई चचाष मैंने नहीं उठने दी | सरला को मैंने

अपनी कैसा ददला दी थी पर कसम ददलाने से क्या होता | राजू के प्रतत उसका गुसा बरक़रार रहा |

और .. आज की डाक ने मेरी छाती पर पड़े उस पर्थथर को दरू फेंक ददया ब्जसके

तनचे मैं घुट रहा था | साले साहब की धचट्ठी थी | आदरणीया सरला दीदी, चरण स्त्पर्ष,

मैं बहुत र्समिंदा हू​ूँ |क्या कहूं सलखते हुए भी मेरे हाथ कांप रहे हैं | दस ददन पहले मैं तुम्हारे घर सपररवार आया था | मेरे छोटे लड़के ने रीमा की घड़ी चरु ा ली थी| मैंने जब कड़ाई से पूछताछ की तो काफी ना नक ु ु र के बाद उसने अपनी चोरी स्त्वीकार कर ली| गलत बच्चों के सांगत में पड़कर उसकी आदतें बबगड़ गईं हैं | कई लोग सर्कायत कर

चक ु े हैं | दीदी मुझे माफ़ करना , मैंने अपने बेटे को बहुत पीटा | उसने वादा फकया है ऐसी इंदस े नाु ंचत

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गलती वह दब ु ारा नहीं करे गा | घड़ी

मेरे पास सरु क्षक्षत है | तुम धचंता मत करना, मैं फकसी

के हाथों जल्दी ही भेजवा दं ग ू ा | घर में सब यथायोगय कहना ….

तुम्हारा भाई – सुरेर्

आदहस्त्ता से धचठ्ठी मैंने सरला की तरफ बढ़ा दी | कई ददन का संधचत एक दरू ु ह भार

आज धीरे धीरे वपघलने लगा था | इच्छा हो रही थी आजाद पररंदे की तरह आकार् में उड़ जाऊं …........ (संक्षक्षतत परिचय)

जन्म

जनवरी 1965, आरा, भोजपुर, बबहार सशक्षा :बी.एस.सी(बॉटनी ऑनसष)

:

वपता

स्त्वगीय डॉ. बी एम ससन्द्हा(रमनी बाबू)

प्रकासशत पुस्तकें :कविता संग्रि-सूरज की चाह, अम्मा- पापा, आन्द्या,लघुकथा संग्रि – पररवतषन, थोड़ी सी

हं सी,मैं हू​ूँ ना,किानी संग्रि – बसेसर की लाठी,नीड़,म्यतु नससपैसलटी का भैंसा, घघ ु ली सी माई,यात्रा ित ृ ांत/संस्मिण – यूरोप, वपरासमडों के दे र् में , अमेररका में कुछ ददन,चीन दे र् की यारा ,ग्रीस एवं दब ु ई,टकी,ववश्व के 20 आश्चयष, जॉडषन,ससंगापुर-मलेसर्या- थाईलैंड,कनाडडयन रॉकीज एवं अलास्त्का ,िूज, स्त्कैब्न्द्डनेववया (प्रेस में)

सम्मान : आंबेडकर फेलोसर्प अवाडष 1998, सादहत्य सर्रोमखण सम्मान, कवी कोफकल सम्मान, श्री कृष्ण कला सादहत्य

अकादमी सम्मान 2001, गोववंदी बाई अवाडष 2007, वररष्ठ लघक ु थाकार सम्मान 2010, सादहत्य

सुरसभ 2010, कहानी सम्राट सम्मान- जी वी प्रकार्न जालंधर 2014,कहानी ववधा में ववसर्ष्ट सेवा हे तु र्लद प्रवाह अखखल भारतीय सादहत्य सम्मान,उज्जैन द्वारा 'अम्मा- पापा' कववता संग्रह पर र्लद श्री की मानद उपाधध, भारतीय सादहत्य सज ृ न संस्त्थान एवं कथासागर सम्मान | प्रकाशन प्रसािण : दे र् की प्रततब्ष्ठत पर पबरकाओं में कववता, लेख, लघक ु था, व्यं्य, कहातनयों एवं तर्थयपरक

समसामतयक लेख आदद का अनवरत प्रकार्न, अब तक कई कहातनयां ववसभन्द्न पर पबरकाओं में पुरस्त्कृत तथा कई रचनायें साग्रहों में चयतनत, आकार्वाणी कोलकाता से कई रचनाओं का प्रसारण |

इंदस े नाु ंचत

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शोध पत्र विश्िभाषा के रूप में हिंदी का विस्ताि

डॉ त्रिक्रम कुमाि साि

दहंदी भार्ा अपनी उदार दृब्ष्ट और ववर्ाल हृदयता के कारण धमष और जातत के भेदभाव से परे रही | यह तो उसकी हो गयी ब्जसने इसे गले लगा सलया, चाहे वह रसखान, रहीम और रसलीन हों, या धग्रयसषन, धगलिाइस्त्ट या कासमल बल् ु के हों,वरातनकोव हों या चेसलर्ेव हों |

ब्जस भार्ा को तक ु ों ने अपनाया, मग ु लों ने गले लगाया, ब्जसमें कबीर ने फटकारा, सफू फयों ने प्रेम का सन्द्दे र् सन ु ाया, आज उस भार्ा की उन्द्नतत के सलए आजाद दे र् के आजाद नागररक क्या कर रहे हैं ?अपनी आने वाली नस्त्लों को हम मां जैसे मीठे र्लदों से वंधचत कर उन्द्हें मातभ ृ ार्ा का पहला पाठ न ससखाकर अपने ररश्ते-नाते, अपने फल- फूल अंग्रेजी में

ससखाते हैं | सर्ष्टाचार की भार्ा ववदे र्ी भार्ा में 'सॉरी' और 'थैंक्य'ू कहकर दे ते हैं | ऐसी ब्स्त्थतत में भावनात्मक एकता की

अग्रदत ू दहंदी क्या करे , यह प्रश्न बार- बार उठता है ?

और फफर मन सांत्वना दे ता है फक तनरार् होने की कोई बात नहीं है | वह समय दरू नहीं जब हम अपनी भार्ा पर गवष करना सीखेंगे | ववदे सर्यों ने हमें बहुत कुछ ससखाया है | वही यह पाठ भी हमें ससखा दे गा | ऐसा कहने के पीछे कारण यह है फक आज दहंदी भार्ा के प्रतत ब्जतनी उदासीनता दहन्द्दस्त् ु तान में दे खने को समल रही है , उतनी ही तीव्र गतत से ववदे र्ों में दहंदी के प्रतत लगाव बढ़ रहा

है | अमेररका के भूतपूवष राष्रपतत 'बुर्' ने दहंदी को 21 वीं

सदी की भार्ा ही नहीं कहा बब्ल्क 10 करोड़ 40 लाख डालर दे ने की सावषजतनक घोर्णा कर उसे फियाब्न्द्वत भी फकया था | और तो और अंग्रेजी भार्ी दे र्ों में ववश्व दहंदी सम्मलेन

सफलतापूवक ष संपन्द्न भी हुए | दहंदी भार्ा का व्यावहाररक ववस्त्तार और सामब्जक आचरणों में प्रततष्ठापन न असंभव है , न दल ष | ववश्व में दहंदी के व्यवहार को दे खते हुए इस ददर्ा में प्रेरणा समलनी ु भ स्त्वाभाववक है | डॉ पूरनचंद टं डन के र्लदों में -”आज हम सभी भारतीयों का यह गंभीर

दातयत्व है फक रोजी-रोटी की प्रततयोधगताओं में अपने को वपछड़ा या वपछड़ता हुए महसूस करने वाले प्रत्येक दहंदी सेवी, कमी तथा सर्क्षाथी को यह बोध करा सकें फक दहंदी राष्रीय ही नहीं अंतराषष्रीय स्त्तर पर बोली, समझी, पढ़ी, सलखी और पढ़ाई जाने वाली गररमामयी भार्ा है | मॉरीर्स, फीजी,सूरीनाम, श्रीलंका, चीन, पाफकस्त्तान, बंगलादे र्, नेपाल, जापान तथा

रूस ही नहीं कनाडा, अमेररका , ववयतनाम अरे बबक दे र्, लन्द्दन, फ़्ांस, जमषन, पेररस, इंदस े नाु ंचत

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ब्स्त्वट्जरलैंड तथा इटली जैसे दे र्ों में भी यह ससम्मान अध्ययन- अध्यापन का ववर्य बन गई है | सादहब्त्यक स्त्तर पर दहंदी में र्ोध भी कई दे र्ों में होने लगा है | ववश्व के अनेक ववश्वववद्यालय अब दहंदी ववर्य की सर्क्षा दे रहे हैं |1

उपयक् ुष त कथन के आलोक में दहंदी भार्ा के ववस्त्तार को दे खें तो आज करीब 150 से

अधधक ववश्वववद्यालयों में दहंदी की पढ़ाई हो रही है |सोववयत संघ, पूवी जमषनी, फ़्ांस, इटली, चेकोस्त्लोवाफकया, पोलैंड, इं्लैण्ड, हॉलैंड, युगोस्त्लाववया और हं गरी आदद दे र्ों में दहंदी

बहुत ही अधधक लोकवप्रय है | दतु नया में सबसे अधधक सोववयत संघ में छार- छाराएं दहंदी के अध्ययन में संल्न हैं | सोववयत संघ के प्रससद्द ववद्वान पी.ए.वदाब्न्द्नकोव ने 'रामचररत मानस' का रूसी भार्ा में अनुवाद फकया है |इसके अलावा दहंदी के अनेक सादहत्यकारों की रचनाओं का रूसी भार्ा में अनुवाद हो चक ु ा है | संयुक्त राज्य अमेररका के येन

ववश्वववद्यालय में सन ् 1815 से दहंदी ववर्य का अध्ययन- अध्यापन हो रहा है | आज की तारीख में वहां 30 से अधधक ववश्वववद्यालयों तथा स्त्वयंसेवी संस्त्थाओं द्वारा दहंदी पाठ्यिम

का आयोजन फकया जाता है | चेकोस्त्लाववया दहंदी का एक प्रधान गढ़ है | प्राह्य ववश्वववद्यालय के दहंदी ववद्वान डॉ.स्त्मेकल दहंदी के अनन्द्य भक्त हैं | बिटे न में दहंदी का अध्ययन-अध्यापन जारी

है | बिटे न के लेखकों में धगलिाइस्त्ट, फोवसष- प्लेट्स, मोतनयर

ववसलयम्स, केलॉग होली, र्ोलवगष ग्राह्मबेली

तथा धग्रयसषन जैसे ववद्वानों ने दहंदी कोर्

व्याकरण और भावर्क वववेचन के ग्रन्द्थ सलखे हैं | लंदन, कैब्म्िज तथा याकष ववश्वववद्यालयों में दहंदी पठन- पाठन की व्यवस्त्था है | यहाूँ पर 'ववनय- पबरका', 'कववतावली' आदद प्रससद्द काव्य ग्रंथों पर महत्वपण ू ष कायष होते हैं | बिटे न से 'अमरदीप', 'प्रवाससनी' तथा 'भारत- भवन' जैसी पबरकाओं का प्रकार्न होता है एवं बी.बी.सी. में दहंदी कायषिम भी प्रसाररत होते हैं | फ़्ांस में दहंदी की पढाई जारी है | कबीर

की रचनाओं,

गोदान और कामायनी आदद का फ्रेंच

भार्ा में अनुवाद हुआ है | एसर्या दहंदी का घर बनता जा रहा है | जापान के दस से अधधक ववश्वववद्यालयों में दहंदी पढ़ाई जाती है | यहाूँ तक फक इस दे र् में अंग्रेजी की अपेक्षा दहंदी जानने वालों की संख्या अधधक है | नेपाल एवं लंका में एम.ए. स्त्तर तक पढ़ाई की पूरी व्यवस्त्था

है | नेपाल की राजधानी काठमांडू से दहंदी में पर पबरकाओं का प्रकार्न होता है |

यहाूँ के प्रख्यात लेखक, कहानीकार एवं उपन्द्यासकार डॉ. भवानी ने अपने लेखन का आरं भ

दहंदी से ही फकया है |यहाूँ दहंदी में रचनायें सलखनेवालों में हृदयचन्द्र ससंह प्रधान, मोहन बहादरु मल्ल, रुरराज पांडे एवं धगरीर् वल्लम जोर्ी महत्वपूणष रचनाकार हैं | दक्षक्षण कोररया

में दहंदी काफी लोकवप्रय हुई है | तुकी, ईराक, समश्र, लीबबया, संयुक्त अरब अमीरात, दब ु ई इत्यादद दे र्ों में भी दहंदी ने अपनी लोकवप्रयता का ससक्का जमा सलया है | डेनमाकष, चीन, ईरान, अफगातनस्त्तान और बेब्ल्जयम आदद दे र्ों में भी दहंदी सर्क्षण की व्यवस्त्था है | थाईलैंड, इंडोनेसर्या, मलेसर्या आदद पूवी द्वीप समूहों में दहंदी काफी सम्मातनत हुई है | मॉरीर्स, फफजी, सूरीनाम, गयाना आदद द्वीपों में तो दहंदी को राष्रभार्ा जैसा सम्मान समल रहा है | मॉरीर्स की राजभार्ा अंग्रेजी है और फ्रेंच भार्ा भी लोकवप्रय इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017

है | इसके अलावा


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यहाूँ दहंदी ही एक ऐसी महत्वपूणष और र्सक्त भार्ा है ब्जसमें पर- पबरकाओं तथा सादहत्य

का प्रकार्न पूरे जोर पर है | फफजी का भारतीय समुदाय दहंदी में कववतायें, कहातनयां आदद सलखता है | यहाूँ की दहंदी ससमततयों एवं दहंदी केंरों द्वारा संगोष्ठी तथा प्रततयोधगताओं का

भी आयोजन फकया जाता है | राष्रसंघ की पबरका 'कररयन' दहंदी में प्रकासर्त हो रही है | डॉ. वैश्ना नारं ग के र्लदों में - “दहंदी भार्ा को मातभ ृ ार्ा के रूप में स्त्वीकारने वाले अब न केवल भारत में हैं बब्ल्क फफजी, गयाना, मॉरीर्स, हॉलैंड, बरतनदाद आदद कई अन्द्य दे र्ों में भी

बहुत बड़ा जन समुदाय इस भार्ा को अपनी सांस्त्कृततक असभव्यब्क्त के प्रतीक रूप में , अपनी मातभ ृ ार्ा के रूप में स्त्वीकार करता है और दहंदी भार्ा के फकसी न फकसी रूप को अपने दै तनक सम्प्रेर्ण व्यवहार में साधन भी बनता है | भारत के ववसभन्द्न प्रांतों में और

अन्द्यर ववदे र्ों में दहंदी के व्यापक प्रयोग को दे खते हुए आज 'अंतराषष्रीय दहंदी' की संकल्पना आवश्यक जान पड़ती है |”2 दहंदी की सलवप अत्यंत सुगम,सरल और वैज्ञातनक है , दतु नया में सबसे अधधक लोगों

द्वारा बोली जाने वाली भार्ाओीँ में यह एक है | ववश्व जनमानस ने इसे स्त्वीकार कर सलया

है फक दहंदी में ववश्व भार्ा बनने के समस्त्त गण ु ववद्यमान हैं |यहां तक फक डडब्जटल वल्डष में भी दहंदी का ववस्त्तार सतु नब्श्चत हो चक ु ा है | 10 वें ववश्व दहंदी सम्मलेन में माननीय

प्रधान मंरी श्री नरें र मोदी ने कहा फक- “आने वाले समय में डडब्जटल वल्डष का महत्व बढ़े गा| जानकारी के मत ु ाबबक आने वाले समय में डडब्जटल वल्डष में ससफष तीन भार्ाएं रह जाएूँगीअंग्रेजी चाइनीज और दहंदी | इससलए दहंदी के ववकास पर सभी को जोर दे ना होगा और इसे 3 समद्ध ृ बनाना होगा |”

डडब्जटल वल्डष में कम्प्यट ू र और इंटरनेट ने वपछले वर्ों में ववश्व में सच ू ना िांतत ला दी

है | आज कोई भी भार्ा कम्प्यूटर तथा कम्प्यूटर सदृर् अन्द्य उपकरणों से दरू रहकर लोगों से जुड़ी नहीं रह सकती | कम्प्यूटर के ववकास के आरं सभक काल में अंग्रेजी छोड़कर ववश्व के अन्द्य भार्ाओीँ के कम्प्यूटर पर प्रयोग की ददर्ा में

बहुत कम ध्यान ददया गया ब्जसके कारण सामान्द्य लोगों में यह गलत धारणा फ़ैल गई फक कम्प्यूटर अंग्रेजी के अलावा फकसी

दस ू री भार्ा(सलवप) में काम ही नहीं कर सकता |फकन्द्तु यूतनकोड(Unicode) के आगमन बाद ब्स्त्थततयां बहुत तेजी के साथ पररवततषत हुई हैं | इस समय दहंदी में सजाल(website), धचट्ठे (Blog), ववपर(e-mail), गपर्प(chat),खोज(web-search),सरल मोबाईल सन्द्दे र्(SMS) तथा अन्द्य दहंदी सामग्री उपललध है | इस समय अंतजाषल पर दहंदी में संगणन के संसाधनों की भी भरमार है और तनत्य नए कम्प्यूदटंग उपकरण आते जा रहे हैं , ब्जससे दहंदी के ववश्व व्यापी ववस्त्तार में अभूतपूवष सहायता समल रही है |

दहंदी के ववस्त्तार में दहंदी परकाररता, अनुवाद और दहंदी रे डडयो स्त्टे र्नों की भूसमका को

नकारा नहीं जा सकता | दहंदी परकाररता की जन्द्मस्त्थली भले ही भारत हो, लेफकन आज यह परकाररता भारत की सीमाओं को पारकर ववदे र्ों

में पहुूँच गयी है | बिटे न में '1883' में ही 'दहंदोस्त्थान' नामक रैमाससक पबरका का प्रकार्न र्ुरू हो चक ु ा था | 'दहंदोस्त्थान' के बारे में इंदस े नाु ंचत

विश्िभाषा हिन्दी विशेषांक 2017


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माना जाता है फक यह ववदे र् में प्रकासर्त होने वाली पहली दहंदी पबरका थी | बरतनदाद एवं टोबैगो में 'कोदहनूर', सुररनाम में 'वैददक जीवन'(माससक), फफजी में 'र्ांततदत ू ', फफजी सन्द्दे र्

(साप्तादहक), अमेररका में 'अनुभूतत- असभव्यब्क्त'(साप्तादहक ई- पबरका) दहंदी की महत्वपूणष पर- पबरकाओं का नाम हैं | कनाडा में 'दहंदी चेतना'(रैमाससक), पब्श्चम आस्त्रे सलया में 'भारतभारती'(वावर्षक) पबरका प्रकासर्त हो रही है | मॉरीर्स में दहंदी परकाररता का एक ववसर्ष्ट स्त्थान है | यहाूँ 1909 में ही 'दहंदस्त् ु तानी ' नाम से साप्तादहक पबरका का प्रकार्न हुआ था |दक्षक्षण अफ्रका में भी 'अमत ृ ससंध'ु (माससक पबरका) नेटाल से 1990 में र्ुरू हुआ | 'धमषवीर'(साप्तादहक पर) यहाूँ की एक लोकवप्रय पबरका मानी जाती है | फ़्ांस की राजधानी पेररस में 'यूनेस्त्को कोररयर' और जापान से 'सवोदय' दहंदी में प्रकासर्त होने वाली पबरकाएं

हैं |1954 में सूरीनाम से 'आयष ददवाकर' प्रकासर्त हुआ | गुयाना में दहंदी परकाररता का प्रारं भ अंग्रेजी दै तनक पर 'अगोसी' के रवववासरीय पररसर्ष्ट के रूप में हुआ ब्जसमें एक पष्ृ ठ दहंदी का होता था | भारत के पड़ोसी मुल्कों में दहंदी परकाररता की दृब्ष्ट से वमाष और नेपाल का स्त्थान उल्लेखनीय है | इस प्रकार अपनी भार्ा में भार्ासभव्यब्क्त तथा उसके व्यापक प्रसार

की इच्छा ने ववदे र्ों में बसे प्रवासी भारतीयों को परकाररता की ओर उन्द्मख ु फकया ब्जसके

माध्यम से दे र्ी और ववदे र्ी संस्त्कृतत, राजतनततक गततववधधयां, सादहत्य तथा कला से यहाूँ के प्रवासी भारतीयों और दहंदी ससखने वालों को पररधचत कराना था और है |

अनुवाद के माध्यम से भारत तथा अन्द्य दे र्ों के बीच सांस्त्कृततक और सादहब्त्यक आदान-

प्रदान

की परम्परा बहुत प्राचीन है | भारत के साथ चीन, जापान, म्यांमार, ततलबत, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, पूवष एवं पब्श्चम के ववसभन्द्न दे र्ों में बौद्ध धमष और सादहत्य पहुंचा था |

भारत के प्राचीन महाकाव्यों (रामायण, महाभारत), बरवपटक , गीता आदद का चीनी, जापानी भार्ाओीँ में अनुवाद हुआ है | आधतु नक दहंदी सादहत्य भी चीनी, जापानी, लाततनी तथा प्राच्य और पाश्चात्य के ववसभन्द्न भार्ाओीँ में अनूददत ही नहीं हो रहे हैं बब्ल्क ववसभन्द्न सादहत्यकरों

और उनकी कृततयों पर र्ोधकायष हो रहे हैं | दहंदी में चीनी, जापानी,अरबी , फ़्ांसीसी, अंग्रेजी तथा अन्द्य भार्ाओीँ की ववचारधारा से सम्बंधधत ववर्यों के अनव ु ाद भी हो रहे हैं | अतः आज दहंदी के साथ ववसभन्द्न भार्ाओीँ के पारस्त्पररक आदान प्रदान की प्रफिया सतत गततर्ील है |

बीसवीं सदी में ववश्व की ववसभन्द्न भार्ाओीँ के सादहत्य में हम भारतीयों का पररचय अंग्रेजी और जमषन के माध्यम से हुआ |कालांतर में ववसभन्द्न भार्ाओीँ के सर्क्षण के आग्रह बढ़ने एवं ववसभन्द्न दे र्ों के बीच सांस्त्कृततक तथा राजनैततक संपकष स्त्थावपत होने से दहंदी के

साथ पारस्त्पररक सम्बन्द्ध ववकससत हुए | वैसे र्ांततकेतन में रवीन्द्रनाथ के नेतत्ृ व में ववववध भार्ा ववर्ेर्तः जापानी, ततलबती, चीनी के ववभाग खोले गए और भार्ा सर्क्षण आरम्भ हुआ|धीरे -धीरे अन्द्य ववश्वववद्यालयों में ववदे र्ी भार्ा सर्क्षण ववभाग खोले गए |ववदे र्ों के सलए दहंदी भार्ा सर्क्षण में 'केंरीय दहंदी संस्त्थान' की भसू मका भी अहम रही है | इस प्रकार

अनुवाद के सलए लक्ष्य और श्रोत भार्ाओीँ के जरूरी और महत्वपूणष भार्ाई दक्षता अजषन के इंदस े नाु ंचत

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आधार तनमाषण की प्रफिया वपछली र्तालदी में ही र्ुरू हो चक ु ी थी और आज यह परं परा समद्ध ृ हो रही है |

जापानी से दहंदी में अनुवाद के क्षेर में क्यूया दोई, तोवर्यो तनाका, तकाकुरा योसर्यो

आदद उल्लेखनीय हैं | जापानी में प्रेमचंद, जैनेन्द्र, मोहन राकेर्, मुब्क्तबोध, भीष्म साहनी, तनमषल वमाष आदद की ववसभन्द्न रचनाओं में अनुवाद हुए हैं | तोवर्यो तनाका ने 'मलबे का मासलक', मुब्क्तबोध की कववता 'अूँधेरे में ', भीष्म साहनी के 'तमस', 'मेरे भाई बलराज, का अनुवाद फकया है | जुए केकूयो ने 'कलम का ससपाही' और तोसर्यो तनाका ने 'कंु वर नारायण की एक कृतत का भी जापानी में अनुवाद फकया है | अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, प्रोफ़ेसर सत्यभूर्ण वमाष, राजा बुवद्धराजा, तकाक़ुरा योसर्यो, प्रोफ़ेसर तनता सब्च्चनान्द्द, प्रोफ़ेसर रीतारानी पालीवाल, प्रोफ़ेसर जी ब्जयातनल, जू के क्यो आदद दहंदी और जापानी लेखकों ने परस्त्पर अनुवाद के माध्यम से दहंदी के प्रसार को पोख्ता फकया है |

इन ददनों चीन का भी दहंदी के प्रतत आग्रह बढ़ा है | चीन के कई ववश्वववद्यालय में दहंदी

सर्क्षण कायषिम चल रहे हैं | दहंदी के जानकार व्यब्क्तयों की संख्या भी बढ़ रही है | आर्ा व्यक्त की जा रही है फक आने वाले ददनों में दहंदी सादहत्य के अनुवाद की परम्परा िमर्ः समद्ध ृ होगी | इसी प्रकार चीनी से दहंदी में भी अनुवाद

हो रहे

हैं | वैसे लू र्ून की

कहातनयों का दहंदी में अनुवाद हुआ है | बरनेर जोर्ी ने कई कृततयों का अनुवाद फकया है ब्जसमें कवव आ कंु ईं की कववताओं का अनव ु ाद महत्वपूणष है | उन्द्होंने काओ युका का नाटक 'ले यू' का भी अनुवाद फकया है | तांग और सांग के तनवाषधचत कववताएूँ भी उनके द्वारा

अनूददत हुईं हैं | इधर चीनी लोक- कथाओं का अनुवाद दहंदी के पाठक समाज को चीन के लोकसादहत्य से जोड़ा तो दहंदी सादहत्य की रचनाओं का चीनी में अनुवाद ने चीनी जन-जीवन के साथ दहंदी कववताओं का असभव्यब्क्त पक्ष तादात्मय हो उठा है |

इसी प्रकार रोमातनयाई, कोररयाई, अरबी, ववयतनामी, मंगोसलयन, अंग्रेजी, फ्रेंच अदद भार्ाओं में परस्त्पर अनव ु ाद के जररये ववसभन्द्न भार्ाऐं और दहंदी एक दस ू रे के करीब आई हैं | भावात्मक एकता स्त्थावपत कर भार्ाई अपनापन ववकससत हुआ है | भारत या ववश्व की और दस ू री भार्ाओीँ में अपनापन के इस जज्बे को ववकससत करने में दहंदी की अहम ् भसू मका है जो इस भार्ा की उपलब्लध है |

वैब्श्वक स्त्तर पर दहंदी के ववकास एवं प्रचार-प्रसार में दहंदी रे डडयो चैनलों की भूसमका

भी काफी महत्वपण ू ष रही है | ओमान का उदाहरण लें | यहाूँ कई व्यावसातयक रे डडयो चैनलों

के मासलकों ने एक दहंदी स्त्टे र्न खोलने की पैरवी की ताफक दहंदी भार्ी लोगों तक पहुूँच बनायीं जा सके | ओमान के पड़ोसी दे र् संयुक्त अरब अमीरात में 6 दहंदी रे डडयो चैनल हैं

जो भारतीय प्रवाससयों के बीच खासी लोकवप्रय हैं | यहाूँ दहंदी रे डडयो चैनलों के कुल ऍफ़ एम,102.4, सुनो ऍफ़.एम, सीटी ऍफ़.एम, हम ऍफ़.एम, रे डडयो-4

ऍफ़.एम, स्त्पाईस ऍफ़.एम

महत्वपूणष हैं | बिटे न में एसर्यन गोल्डन रे डडयो स्त्टे र्न भी लोकवप्रय है | ऑस्त्रे सलया में भी कई दहंदी रे डडयो चैनल प्रसाररत हो रहे हैं | इंदस े नाु ंचत

यहाूँ का सबसे मर्हूर रे डडयो चैनल 'धनक' है ,

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ब्जसमें दहंदी, पंजाबी और उदष ू कायषिम पेर् फकये जाते हैं | इसके अलावा अन्द्य रे डडयो चैनलों पर भी दहंदी के कायषिम पेर् फकये जाते हैं |अमेररका की बात करें तो न्द्यूयाकष सीटी में

'आर.बी.सी रे डडयो', न्द्यूजसी और कनक्टीकट में रे डडयो 'हमसफ़र', सर्कागो में 'दे र्ी जंक्र्न', टे क्सास में 'रे डडयो सलाम-नमस्त्ते', हॉस्त्टन में 'संगीत रे डडयो' के माध्यम से दहंदी का प्रचारप्रसार हो रहा है | फ़्ांस की राजधानी पेररस से 'रे डडयो तीन ताल' का प्रसारण होता है , ब्जसके कायषिमों में दहंदी की प्रमुखता होती है | उधर, चीन में रे डडयो इंटरनेर्नल भी अपने ववदे र्ी कायषिमों के तहत दहंदी में प्रसारण करता है | अबूधाबी में 'रे डडयो समची' लांच फकया गया है |

ववश्व व्यापी स्त्तर पर दहंदी के प्रचार- प्रसार में दहंदी दरू दर्षन और दहंदी ससनेमा का भी

अभूतपूवष योगदान

है | दरू दर्षन और ससनेमा को रोजगार का क्षेर बनाकर तमाम ववदे र्ी

कलाकार दहंदी सीखकर इस क्षेर में अपना हुनर साबबत कर रहे हैं | दहंदी दरू दर्षन के चैनलों और दहंदी ससनेमा के आय का एक बड़ा दहस्त्सा ववदे र्ों से आता है |हम आये ददन सुनते हैं फक र्ाहरुख़ खान या अमीर खान या अक्षय कुमार की फफल्मों ने चीन, अरब, जापान में

'करोड़ों' का बबजनेस फकया | दहंदी में दरू दर्षन के तमाम समाचार, मनोरं जन, खेल चैनलों का प्रसारण भी ववदे र्ों में हो रहा है | अन्द्य ववदे र्ी भार्ाओीँ में फफल्मों और कायषिमों को दहंदी

में अनुवाद करके भारत या भारत के बाहर ववदे र्ों में ददखाकर दहंदी का ववस्त्तार ही हो रहा है | ववश्वव्यापी इलेक्रॉतनक मीडडया के ववस्त्तार ने दहंदी को ववश्व के कोने कोने में आसानी से

पहुंचा ददया है और उसकी वयब्क्तगत स्त्वीकायषता को बढ़ाने का काम फकया है | बॉलीवुड फफल्मों की बढ़ती हुई लोकवप्रयता ने दहंदी को ववदे र्ों में लोकवप्रय बनाने में महत्वपूणष योगदान ददया है |

इधर तमाम प्रर्ासतनक और व्यावसतयक क्षेरों में रोजगार की तलार् और संबंधों के कारण ववश्व के लोगों में दहंदी सीखने का आग्रह बढ़ा है |यह प्रततफिया आज की नहीं है बब्ल्क प्राचीन काल से ही चली आ रही है |यहाूँ तक फक इस प्रफिया के तहत ववश्व पटल पर राज करने वाली अंग्रेजी भार्ा को बोलने वाले अंग्रेजों को भी भारत में व्यवसाय करने और अपनी प्रर्ासतनक अधधकार जमाने के सलए दहंदी सीखनी पड़ी थी | आज के दौर में भारत के साथ तमाम ववश्व के दे र् अपना प्रर्ासतनक और व्यावसातयक सम्बन्द्ध बनाये हुए है |इन क्षेरों में भार्ा व्यवहार के सलए जहाूँ भारतीयों को दस ु रे दे र् की भार्ाएं सीखनी पड़ती है वही​ीँ ववदे सर्यों को भी भारत की प्रभत्ु वर्ाली भार्ा दहंदी को सीखना पड़ता है |फलतः दहंदी का ववस्त्तार स्त्वाभाववक रूप से हो रहा है |

बहरहाल,अंतराषष्रीय क्षक्षततज पर अपने सवािंगीण ववकास का ध्वजारोहण करने वाले ववश्व के ववकासर्ील राष्रों में अग्रगण्य "भारत" की राजभार्ा कहें या राष्रभार्ा दहंदी, आज के वैब्श्वक पररप्रेक्ष्य में अपनी सरलता, सहजता एवं बोधगम्यता आदद गण ु ों के कारण एक

र्सक्त संपकष भार्ा के रूप में पररलक्षक्षत तथा ववश्वभार्ा के रूप में पररभावर्त हो रही है | दरअसल हमारे संववधान तनमाषता ब्जस भार्ा(दहंदी) को दे र् की संपकष भार्ा बनने की ववपल ु इंदस े नाु ंचत

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संभावनाओं के मद्देनजर ही 14 ससतम्बर 1949 ई0 को संघ की राजभार्ा का सम्मान ददया वही आज अंतराषष्रीय इस पहचान को

क्षक्षततज पर अपनी एक अलग पहचान बना चक ु ी है | आज दहंदी की

अंतराषष्रीय दहंदी भी कहा जा रहा है क्योंफक एकात्मकता के अमत ृ से

तनकले समुदाय को असभसर्क्त करते हुए दहंदी न केवल भारत की सीमाओं के भीतर प्रचसलत है बब्ल्क 326 भार्ाओीँ एवं 1652 बोसलयों को अवपतु दक्षक्षण-पूवष एसर्या की बौद्ध पष्ृ ठभूसम की राष्रमाला और उससे भी परे जाकर ववश्वभर की ववकससत- ववकससत

269 भार्ाओीँ के

एक साथ जुड़ने और जोड़ने का साथषक प्रयास कर रही है , जो इसकी बढ़ती लोकवप्रयता एवं

उपयोधगता का मूल कारण है | डॉ. ववमलेर् कांतत वमाष के र्लदों में -"अंतराषष्रीय पटल पर दहंदी आज ववश्व की एक भार्ा के रूप में मान्द्यता प्राप्त भार्ा है जो अपने संख्या-बल के आधार पर तो ववश्व की दस ू री प्रमुख भार्ा है ही, वह ववश्व की एक ऐसी भार्ा है ब्जसे ववश्व

के फकसी भी दे र् में बसे हुए और फकसी भी भार्ा में बोलने वाले मूलतः भारतीय रहे हों, वे दहंदी को भारतीय अब्स्त्मता से जड़ ु ा मानते हैं | वे उसकी सुरक्षा तथा प्रततष्ठा के प्रतत तनरं तर सचेत हैं | ववश्व में दहंदी की नवीन भावर्क र्ैसलयों को उन्द्होंने ववकास फकया है , और उसमें

वे अपने भावों एवं ववचारों को असभव्यक्त करते हैं | दहंदी अध्ययन एवं र्ोध की एक सष्ु ठु परम्परा ववदे र्ों में है | दहंदी भार्ा का सर्क्षण आज ववश्व के सभी प्रमख ु ववश्वववद्यालयों में

हो रहा है |दहंदी परकाररता का भी ववदे र्ों में ववकास हुआ है , दहंदी सादहत्य के अनव ु ाद के प्रतत ववदे सर्यों की रूधच तनरं तर बढ़ रही है और इतना ही नहीं, प्रवासी भारतीय और अनेक ववदे र्ी भी दहंदी भार्ा में मौसलक सादहत्य सज ृ न कर रहे हैं |यही कारण है फक दहंदी को ववश्वभार्ा के रूप में प्रततष्ठा प्राप्त हुई है |”4 इस प्रकार दहंदी अपनी सम्पण ू षता,

सस्त् ु पष्टता,

सम्प्रेर्णीयता,सहजता,

सरलता,ग्राह्यता,उदारता, नमनीयता, बोधगम्यता और भार्ा वैज्ञातनक ववसर्ष्टताओं के बल पर यूरोपीय संस्त्कृतत, लैदटन अमरीकी संस्त्कृतत, ऑस्त्रे सलयाई संस्त्कृतत, रूसी संस्त्कृतत, चीनी

संस्त्कृतत एवं ववश्व के समन्द्वयात्मक गततववधधयों के साथ जुड़ती जा रही है और ववस्त्तार को प्राप्त कर रही है |

सन्द्दभष : 1- (तनदाररया, डॉ. भ.प्र.(सं0),भार्ा, केंरीय दहंदी तनदे र्ालय, नई ददल्ली, वर्ष -38,अंक-5, मई- जून :1999, पष्ृ ठ संख्या-12,13) | 2-(तनदाररया, डॉ भ.प ्.र(सं.),भार्ा, केंरीय दहंदी तनदे र्ालय, नई

ददल्ली, वर्ष -37,अंक-2, नवम्बर ददसंबर-1997, पष्ृ ठ

संख्या-31)|3-(प्रजापतत, नवीन कुमार(मु.सं.), असभव्यब्क्त, नगर राजभार्ा कायाषन्द्वयन ससमतत, कोलकाता, अंक-20, जनवरी-

2016, पष्ृ ठ संख्या-17.)4-(गौड़, डॉ रामर्रण, इंरप्रस्त्थ भारती (रैमाससक पबरका), दहंदी अकादमी ददल्ली, वर्ष-12,अंक-4, पूणािंक -39,अक्टूबर- ददसंबर :1999,पष्ृ ठ संख्या 120-121)

परिचय:

सर्क्षा : एम.ए(दहंदी सादहत्य)-कलकत्ता ववश्वववद्यालय, बी.एड(सेंट जेबबयसष कॉलेज,कोलकाता), एम.फफल(दहंदी)कलकत्ता ववश्वववद्यालय, पी.एच.डी(दहंदी)- कलकत्ता ववश्वववद्यालय पेर्ा : बैरकपुर सुरेंर नाथ कॉलेज के दहंदी ववभाग में अससस्त्टें ट प्रोफेसर के पद पर कायषरत |

लेखन : ववसभन्द्न पर पबरकाओं में आलेख आदद प्रकासर्त, प्रकासर्त कृतत- डॉ. सय ष े व र्ास्त्री का मनोभार्ा ू द धचंतन और कवी व्यब्क्तत्व |

पदापषण पबरका का सह संपादन(अवैततनक)

इंदस े नाु ंचत

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शोध पत्र दसलत हिन्दी कविता MkW0 bdjkj vgen fgUnh dkO; dh fl)ksa o ukFkksa ls pyh vk jgh ijEijkvksa vkSj ejkBh nfyr dfork ds la;ksx ls fgUnh esa lu~ 1980 bZ0 ds vklikl nfyr fgUnh dfork dk mn; gqvkA bl /kkjk ds dfo;ksa us o.kZ&O;oLFkk ls ihfM+r fo'kky tuleqnk; dh foMEcukvksa dk fp=.k fd;k gSA fgUnh dfork us vc rd ftu fo"k;ksa dks Nqvk ugha Fkk nfyr dfork us mu dF;ksa dks vk/kkj cukdj viuh dkO; jpuk dh gSA izxfr'khy tuoknh dfo;ksa ds tueqfDr la?k"kZ dks iw.kZrk dh vksj ys tkus dk Js; nfyr fgUnh&dfork dks gSA u;s dF; o :i esa bl nfyr fgUnh dfork dk vk'k; ^LokuqHkwfr* ls gS vFkkZr bl /kkjk ds dfo;ksa o vkykspdksa us nfyrksa }kjk jfpr nfyr psruk dks :ikf;r djus okyh dforkvksa dks nfyr dfork dh laKk nh gSA xSj nfyr vkykspd LokuqHkwfr ds bl fopkj ls lger ugha gaSA mudk rdZ gS fd ?kksM+s dh osnuk dks fy[kus ds fy, rc ?kksM+k gh gksuk pkfg,A bl izdkj dfork ds fo"k; lhfer jg tk;saxsA ;g ckr lp gS fd ?kksM+s dh osnuk dks O;Dr djus ds fy, ?kksM+k ugha cuk tk ldrkA ysfdu ;g ckr Hkh lp gS fd ;fn ?kksM+k viuh osnuk dks O;Dr dj ldrk gksrk rks ?kksM+s ij fy[kh x;h og loZJs"B dfork gksrhA mldk dkj.k gS fd ge ?kksM+s ij lokjh djrs gq, vkuUn dh vuHkwfr djrs gSaA mls ltkrs laokjrs gSa] mls Hkkstu Hkh djkrs gSa ysfdu mi;ksfxrkoknh n`f"Vdks.k lsA mlds iSjksa esa uky Bqdokus ls ysdj lM+d ij cks> [khapdj pyus dh osnuk dks ge vuqHko ugha dj ldrs] dsoy mldh osnuk dks nwj ls ns[k ldrs gS aA blh izdkj ls lo.kZ dfo nfyrksa ds thou ls nwj gSaA ?kksM+s dks rks ge ?kj esa j[krs gSa] mls Nwrs Hkh gSa] ijUrq nfyr uked tho dks rks Nwus ls gh vifo= gks tkrs gSaA nfyr dfo ';kSjkt flag ^cspSu* viuh dfork ^feysx a s ij dSls* esa dgrs gSa & ^rqe us eq>s ns[kk ugha@ rqeus eq>s lquk ugha@ rqeus eq>s Nqvk ugha@ rqe nq[kn {k.k esa gks x;s gks vkReh;@,slk rks dqN gqvk ugha@ rks rqe dSls tkurs gks@esjs ikao esa fdrus t[e@ lhus esa fdruk nnZ vkSj@fopkjksa esa fdruh vkx gS \**1 nfyr fgUnh&dfork dh ewy izsj.kk gS& vEcsMdjoknA MkW0 Hkhejko vEcsMdj us gh nfyrksa dks ^f'kf{kr cuks] laxfBr jgks vkSj la?k"kZ djks* dk ewyeU= fn;k gSA LorU=rk vkUnksyu vkSj mlds i'pkr~ LokrU«;ksÙkj ;qx esa nfyr vkUnksyu ds drkZ&/krkZ MkW0 vEcsMdj gh FksA blh vkUnksyu ls dfork dk tUe gqvk blfy, ;g dfork vEcsMdj ds fopkjksa ls ÅtkZ ysdj dkO; jpuk djrh gSA nfyr fgUnh&dfork dks dqN fo}kuksa us vEcsMdjh dfork Hkh dgk gSA fgUnh lkfgR; esa fdlh Hkh /kkjk ds dfo;ksa us vEcsMdj ls izsj.kk xzg.k ugha dh gS dsoy nfyr dfork gh vEcsMdj ds fopkjksa dh laokgd gSA ofj"B nfyr dfo ^ealkjke fonzksgh* vEcsMdj ds fopkjksa dks dfork dk fo"k; cukdj dgrs gSa &^^vEcsMdj us ;g dgk& fut ns'k dh rw 'kfDr gS@ इंदस े नाु ंचत

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संदभष :

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Hkk’kk f”k{k.k ,oa fo”oHkk’kk ds :i esa fganh dh izklafxdrk

MkW0 pUnzdkUr frokjh lkjak”k & ^Hkk’kk jsr dh rjg gS] ftls eqV~Vh eas laHkkydj ugha j[ksa rks fQly tk,xhA* fgUnh fo”o esa fo|eku le`)re Hkk’kkvksa esa ,d gSA lajpuk dh lkSUn;Z”khyrk] Hkko&Hkafxekvksa dh xgurk] vfHkO;fDr dh rhozrk rFkk “kSfy;ksa dh fofo/krk dks lesVrh gqbZ fgUnh Hkk’kk vusd mUur :iksa esa izokgeku gSA vk/kqfud ;qx esa fo”o Qyd ij foKku vkSj izkS|ksfxdh ds vHkwriwoZ izLQqVu o QSyko ds lkFk Hkkjro’kZ ds Kku&foKku ds fofHkUu {ks=ksa rFkk Hkk’kkxr vUrizokgksa ds lEidZ lw=ksa dks ;Fkkor vfHkO;Dr dj ifjHkkf’kr djus gsrq fgUnh Hkk’kk dh o`fÙk;ksa] izo`fÙk;ksa ,oa izk;ksfxd Lrjksa esa vkewy ifjorZu dh ;qxhu vko”;drk eglwl dh xbZ ftlds rgr fgUnh dk loZFkk u;k iz;ksx/kehZ :i mHkjdj lkeus vk;kA vkt dk ;qx Hkw.Myhdj.k dk ;qx gSA dksbZ Hkh ns”k vyx&Fkyx jgdj viuk fodkl ugha dj ldrkA Hkkjr Hkh ^Xykscykbts”ku* dh bl nkSM+ esa “kkfey gSA ,sls le; esa fganh dks Hkh viuh o`gÙkj Hkwfedk dk fuokZg djuk gksxkA Hkkjr esa vkt ,slk dksbZ {ks= ugha tgk¡ fganh flusek ;k fganh pSuyksa dh igq¡p u gksA fganh flusek vkt varjkZ’Vªh; Lrj ij viuh igpku cuk pqdk gSA vfHkizk; ;g gS fd fganh fQYe lalkj Hkkjrh; fofo/krk eas ,drk ds lw= fodflr djrk gSA fofHkUu Hkk’kkbZ] HkkSxksfyd lewgksa dks bdV~Bk djds muesa leUo; LFkkfir djrk gSA jk’Vª&Hkk’kk ds :i esa fgUnh dk f”k{k.k Hkkjrokfl;ksa dks jk’Vª dh vkRek ds lkFk tksM+rk gSA jk’Vª&Hkk’kk ds :i esa fgUnh dk f”k{k.k jk’Vªh; Hkkouk dks fodflr djus dk l”kDr lk/ku gS] blds fcuk dksbZ Hkh O;fDRk Hkkjr ds O;kogkfjd] lkekftd ,oa lkaLd`frd thou dks iw.kZ :i ls ugha le> ldrkA f”k{k.k dh lQyrk dbZ rF;ksa ij vk/kkfjr gksrh gSA fuLlansg Hkk’kk f”k{k.k ,d dyk gSA blesa dksbZ “kd ugha gS fd vkus okyh lgL=kCnh esa Hkk’kkvksa vkSj lkfgR; dk Hkfo’; cktkj r; djsxkA tgk¡ rd fgUnh ds Hkfo’; dk iz”u gS Hkwe.Myhdj.k ,oa Hkkjr dks nqfu;k ds cM+s cktkj ds :i esa fodflr gksrs ns[kdj gh fgUnh Hkk’kk ds izfr fons”kh yksxksa dk :>kUk c<+rk fn[kkbZ nsrk gSA Hkkoksa rFkk fopkjksa dk izdVhdj.k gh Hkk’kk gSA Hkk’kk lkekftd oLrq gSA bldk izokg vfofPNUu gSA ;g loZ&O;kid gSA lEizs’k.k dk ekSf[kd lk/ku gSA Hkk’kk vftZr oLrq gS] D;ksfa d ;g O;ogkj }kjk vftZr dh tkrh gSA Hkk’kk lgt vkSj uSlfxZd fdz;k gSA lkekftd n`f’V ls bldk Lrjhdj.k gksrk gSA ;g ifjorZu”khy gS D;ksfa d ;g la;ksxkRedrk ls fo;ksxkRedrk dh vksj mUeq[k gksrh gSA Hkk’kk fLFkjhdj.k vkSj ekudhdj.k ls izHkkfor gksrh gSA ;g igys mPpfjr :i esa ifjofrZr gksrh gSA Lora= <k¡pk fy, HkkSxksfyd :i ls LFkkuhd`r gksrh gSA bruk lc gksus ds ckotwn Hkh Hkk’kk esa u tkus fdruh vFkksZa dh irksZa dk lekxe gksrk gSA u tkus fdrus xw<+ Hkkoksa dk leanj fgyksjsa ysrk jgrk gSA Hkk’kk rks dfo ân; dh izsfedk dk u;u fcUnq gSA ukf;dk ds vax&vax dh mTtoy vkHkk gSA usrk dk dykRed Hkk’k.k gS rks vfHkusrk dk lfp= jaxeaph; eqnzkvksa lfgr u`R; gSA ;g rks vkykspd dh dye ls fudyk eksrh gS] vkSj i=dkj dh ys[kuh dk Toyar eqn~nk gSA dguk uk gksxk fd ;g f”kf{kr “kks/kkFkhZ csjkstxkj dh eu dh HkM+kl gSA fQj Hkh Hkk’kk f”k{kd ds fy, ;g mlds iq= ds leku gSA fgUnh Hkk’kk ds lanHkZ esa ;g tulewg ds ân; dk fodkl gSA rks mlds f”k{k.k ds lanHkZ esa lEiw.kZ /kjrh ij chtkjksi.k ds leku gSA ^^oLrqr% ftrus O;fDr gSa] mruh Hkk’kk,a gSa( dkj.k fd fdUgha nks O;fDr;ksa ds cksyus dk <ax ,d ugha gksrkA^^¼Hkk’kk foKku dh Hkwfedk] nsosUnzukFk “kekZ] nhfIr “kekZ] jk/kkd`’.k izdk”ku] ubZ fnYyh] i`0 la0 45½ इंदस े नाु ंचत

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fuLlansg Hkkoksa rFkk fopkjksa dk izdVhdj.k gh Hkk’kk gSA Hkk’kk ,d foLr`r izk;ksfxd {ks= gSS vkSj Hkk’kk f”k{k.k ,d vuqiz;ksxkRed fo|k gSA vuqi;ksx gksus ds dkj.k blesa mn~ns”; ,oa lw= fufgr gSaA bl ckr ls budkj ugha fd;k tk ldrk fd Hkk’kk fdlh u fdlh fof”k’V mn~ns”; dh vksj ladsr djrh gS vkSj liz;kstu gh lh[kh&fl[kkbZ tkrh gSA bl ckr esa otu gS fd tc rd Hkk’kk f”k{k.k ds mn~ns”; ,oa iz;kstu fu/kkZfjr ugha gksrs rc rd mldh lkFkZdrk vkSj laizkfIr dk ewY; vk¡dk ugha tk ldrk gSA Hkk’kk f”k{k.k dk pje fcUnq ml y{; dh vksj fufnZ’V ,oa ,dkxzfpÙk gksrk gS ftldh /kqjh ij fo|kFkhZ v/;kid dh euksfLFkfr ds lerqY; ,d ljy xfr esa py jgk gksrk gSA Hkkjrh; f”k{kk&i)fr esa fgUnh&f”k{k.k dk egRoiw.kZ LFkku gSA ^^gekjs ns”k dh viuh Hkk’kk&leL;k Hkh o`gn~ :i esa gekjs lkeus vk x;h gSA dsoy fgUnh ds lUnHkZ esa lksp]sa rks Hkh Hkk’kk&f”k{k.k dh leL;k vR;Ur tfVy :i esa gekjs lkeus vkrh gSA bl cgw&Hkk’kk&Hkk’kh ns”k esa fgUnh&Hkk’kk ds f”k{k.k dh mi;ksxh fof/k ;k fof/k;ksa dk fuekZ.k fHkUu&fHkUu Hkk’kkvksa ds lUnHkZ dh mis{kk djds lEHko ugha gSA Lo;a fgUnh&Hkk’kk dk {ks= bruk fo”kky vkSj Hkk’kkoSfo/;iw.kZ gS fd mldh leL;k,¡ Hkh oSKkfud vk/kkj ij lek/kku <w¡<+us dh vis{kk j[krh gSaA^^¼Hkk’kk&f”k{k.k rFkk Hkk’kk foKku] la0 czts”oj oekZ] dsna zh; fganh laLFkku] vkxjk] i`0 la0 04½ fgUnh dgha ekr`&Hkk’kk ds :i esa i<+kbZ tkrh gS] dgha jk’Vªh; Hkk’kk ds :i esa i<+kbZ tkrh gS rks dgha fgUnh dk iz;ksx f”k{kk ek/;e ds :i esa gksrk gSA fgUnh&f”k{kd dks fgUnh i<+krs le; ml ds cgq&eq[kh mís”;ksa dks vius lkeus j[kuk gksrk gSA mls fo|kfFkZ;ksa dks fgUnh cksyus] i<+us] le>us rFkk fy[kus dh f”k{kk rks nsuh gh gksrh gS] lkFk esa lkfgR; dh fofHkUu fo/kk,a&dfork] dgkuh] ukVd] fucU/k vkfn&i<+krs le; dqN fof”k’V mís”;ksa dks Hkh lEeq[k j[kuk gksrk gSA xq:nso VSxksj dk dFku gS] ^^v/;kid rc rd okLrfod vFkksZa esa ugha i<+k ldrk tc rd og Lo;a fujUrj u lh[krk jgsA ,d nhid rc rd nwljs nhid dks izTofyr ugha dj ldrk tc rd og Lo;a u tyrk jgsA^^ ^^Hkk’kk&f”k{k.k izdj.k esa nks “kCn lfEefyr gSa& Hkk’kk rFkk f”k{k.k ;g nksuksa gh “kCn vius esa Lora= izdj.k gSa vr% nksuksa dk vFkZ vkSj mudh izd`fr le>uk vko”;d gS] rHkh Hkk’kk&f”k{k.k dk “kq) cks/k gks ldsxkA f”k{k.k izdj.k esa ,d vU; izdj.k fufgr gS ftls vf/kxe ;k lh[kuk dgrs gSaA f”k{k.k dk y{; gksrk gS fl[kkuk] blds fcuk f”k{k.k dk dksbZ vFkZ ugha gksrk gSA^^¼fgUnh f”k{k.k] MkW0 f”k[kk prqosZnh] lw;kZ ifCyds”ku] esjB] i`0 la0 14½ fganh Hkk’kk f”k{k.k ds lanHkZ esa ns[kk tk, rks ,d ,slk Hkk’kkbZ leqnkf;d {ks= gS tks fganh dks u gh Bhd ls tkurk gS vkSj u gh mls mldk O;kdjf.kd Kku gS vkSj u gh og ml Hkk’kk dks lekt esa jgus ds fy, vko”;d le>rk gSA ijUrq nwljh vksj ,d ,slk foLr`r {ks= gS tks fganh Hkk’kk dk Kkuh gksus ds lkFk&lkFk ekud :iksa ls Hkh ifjfpr gSA ckr vxj Hkk’kk f”k{k.k dh djsa rks Hkk’kk f”k{k.k dk laca/k ekr`Hkk’kk ls rks gksrk gh gS fdUrq vU; Hkk’kkvksa ds f”k{k.k ls Hkh gksrk gSA bu nksuksa ds lanHkZ esa fganh f”k{k.k dh izd`fr vkSj iz.kkyh fo|kFkhZ dh vko”;drk] iz;kstu vkSj vfHkizsj.kk ds dkj.k vyx&vyx gks tkrh gSA oLrqr% ekr`Hkk’kk ,d lkekftd rF; gSA dgk tk ldrk gS fd lkekftd ;FkkFkZijd voyksduA^^Hkk’kk&v/;kid dks iz;kl ;gh djuk pkfg, fd og vU;&Hkk’kk dh mPpkj.k&i)fr dks fo|kFkhZ dh vknr cuk ns rFkk ;g dk;Z bl izdkj lEiUu gks fd fo|kFkhZ dks bl ckr dk de&ls&de vkHkkl gks fd og dksbZ u;h ckr lh[k jgk gSA mnkgj.kkFkZ ge vU;&Hkk’kk dh mu /ofu;ksa dks fl[kk jgs gSa] tks mudh ekr`Hkk’kk esa ugha gSaA ;g dk;Z lEiUu djus ds fy, vU;&Hkk’kk dh mu /ofu;ksa ls feyrh&tqyrh tks /ofu;k¡ mldh ekr`Hkk’kk esa gks]a muds y?kqre ;qXeksa dk ckj&ckj mPpkj.k djk;k tk ldrk gSA fcuk ;g crk;s fd mls /ofu;ksa dks fl[kk;k tk jgk gS] og /ofu;ksa dk mPpkj.k lh[k tk;sxkA eku fy;k fd rfey&Hkk’kh fo|kFkhZ dks ^M+^ /ofu fl[kkus dh leL;k gSA mldh ekr`Hkk’kk easa ^j^ /ofu gS] ^M+^ ugha gSA ge mls ^lM+d^ ,oa ^ljd^ nks “kCnksa dk ckj&ckj mPpkj.k fl[kkdj ^M+^ /ofu ds mPpkj.k dks mldh vknr cuk ldrs gSaA bl i)fr ds f”k{k.k ls og ^j^ ,oa ^M+^ dk vUrj Hkh lh[k ldsxkA^^¼Hkk’kk&f”k{k.k rFkk Hkk’kk foKku] la0 czt”s oj oekZ] dsna zh; fganh laLFkku] vkxjk] i`0 la0 47½ pw¡fd ge Hkkjroa”kh gSaA gekjh ekr`Hkk’kk fganh gSA tks lexz jk’Vª dks ,d lw= esa fijksrh gSA fganh Hkk’kk esa f”k{k.k nsuk vkSj izkIr djus esa u rks dksbZ cqjkbZ gS vkSj u gh blesa dksbZ vkReghurk इंदस े नाु ंचत

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dk Hkko gh fughr gSA vfirq viuh tM+ksa ls tqM+k jguk gh rks ekr`Hkk’kk dh viuh Js’Brk iznf”kZr djrk gSA ftl izdkj o`{k viuh tM+ksa }kjk [kkn&ikuh izkIr dj vkWDlhtu nsus ds ;ksX; cu tkrk gS mlh izdkj ekr`Hkk’kk dks vxj ek¡ dh xksn ls gh tks ckyd lh[k ysrk gS og Lo;a ml o`{k dhgh Hkk¡fr tks thounkf;uh ok;q nsrk gS] ds leku lEiw.kZ fo”oesa QSy tkrk gS vkSj viuh Hkk’kk dk Madk ctk nsrk gSA xk¡/kh th ds futh fopkj bl ckr dks dqN bl dnj vfHkO;Dr djrs gSaA^^cPps ds ekufld fodkl ds fy, ekr` Hkk’kk mruh gh vko”;d gS ftruk fd cPps ds “kkjhfjd fodkl ds fy, ekrk dk nw/kA^^ lkekU;r% Hkk’kk dks ,d ,slk lk/ku le>k tkrk gS ftlds ek/;e ls euq’; vius fopkjksa rFkk Hkkoksa dks cksy dj ;k fy[k dj izdV djrk gSA fo”o esa vusd Hkk’kk,a cksyh ,oa fy[kh tkrh gSa vkSj euq’; fdlh Hkh Hkk’kk dks lh[k dj mldk iz;ksx dj ldrk gS] ijUrq lc ls igys og ftl Hkk’kk dk iz;ksx djrk gSa og mls viuh ekrk ds nw/k ls izkIr gksrh gS] vFkkZr~ ftl Hkk’kk dk O;ogkj cPps dh ekrk rFkk vU; cU/kqx.k djrs gSa] cPpk Hkh /khjs&/khjs mldk iz;ksx djus yxrk gSaA ;gh Hkk’kk cPps dh ekr`&Hkk’kk dgykrh gSA cPpk bl Hkk’kk dks lgt :i ls vuqdj.k }kjk /khjs&/khjs lh[krk gSA bl izdkj ekr` Hkk’kk dh fl[kykbZ vuqdj.kkRed Hkh gksrh gS vkSj HkkokRed HkhA ;g Hkk’kk euq’; ds Hkhrj brus xgjs esa cSB tkrh gS fd ;g mlds lksp&fopkj rFkk HkkokfHkO;fDRk dh izkd`frd Hkk’kk cu tkrh gSA euq’; lalkj dh fofHkUu Hkk’kkvksa dk izdk.M if.Mr D;ksa u cu tk;s ijUrq ekr` Hkk’kk esa vkRekfHkO;fDr dk tks vkuUn mls feyrk gS og nwljh Hkk’kk esa ugha feyrkA ¼fgUnh f”k{k.k fof/k;k¡] fot; lwn] VaMu ifCyds”kUt] yqf/k;kuk] i`0 la0 13½ bl izdkj xk¡/kh th dk ;g dFku izklafxd fl) gksrk gS fd ^^ckyd viuk igyk ikB viuh ekrk ls gh i<+rk gS] blfy, ml ds ekufld fodkl ds fy, ml ds Åij ekr`&Hkk’kk ds vfrfjDr dksbZ nwljh Hkk’kk yknuk eSa ekr`&Hkk’kk ds fo:) iki le>rk gwaA^^ vr% ;g ,d euksoSKkfud lR; gS fd O;fDr ds KkuktZu dk l”kDr ek/;e ml dh ekr`&Hkk’kk gSA ekr`Hkk’kk euq’; ds lEiw.kZ fodkl esa vfr egRoiw.kZ Hkwfedk fuHkkrh gSA O;fDRk ds lHkh rRo blls izHkkfor gksrs gSaA tSls& “kkjhfjd] ekufld] ckSf)d] lkekftd] lkaLd`frd bR;kfnA ckyd ds vxj lokZaxh.k O;fDrRo dk fodkl djuk gS rks mldks jpukRed fodkl dh vksj vxzlj djuk gksxk vkSj mldh f”k{kk esa ekr`Hkk’kk dks mfpr LFkku nsuk gksxkA^^fdlh ns”k dh Hkk’kk mldh laLd`fr dh okfgdk gksrh gSA fcuk Hkk’kk ds laLd`fr dk izdk”ku lEHko ughaA Qyr% Hkk’kk vkSj laLd`fr dk lEcU/k vfHkUu gSA laLd`fr gksrh gS fdlh jk’Vª dk izk.k] mldk ân;LiUnu] ftlds fcuk jk’Vª e`r gSA blh dkj.k izR;sd LokfHkekuh] LorU= jk’Vª viuh Hkk’kk dks loksZPp vklu ij izfrf’Br djrk gSA jk’VªHkk’kk jk’Vª dks ,drk ds lw= esa fijksus okyh vkSj mlesa vfLerkcks/k txkus okyh lathouh gSA^^¼fgUnh Hkk’kk&f”k{k.k] HkkbZ ;ksxsUnz thr] fouksn iqLrd efUnj vkxjk] i`0 la0 135½ fganh Hkk’kk f”k{k.k esa dkS”kykRed mn~ns”;ksa esa fo|kfFkZ;ksa esa lqudj] cksydj] lLoj ,oa ekSu ikB dj] eqgkojks]a yksdksfDr;ksa] “kCn Hk.Mkj] “kq) Hkk’kk ys[ku ,oa lkfgR; dk mfpr vkjksg&vojksg Kku djkdj gh dkS”kykRed fodkl fd;k tk ldrk gSA ckr vxj KkukRed mn~ns”;ksa dh fd tk, rks ewyr% blds }kjk fo|kfFkZ;ksa esa “kCn&:iks]a /ofu;ks]a okD; jpuk] lkaLd`frd] ikSjkf.kd] lkekftd] oSKkfud] vkfn {ks=ksa dk Kku djk;k tk ldrk gS rks ogh ek/;fed Lrj ij dgkfu;ksa] miU;klks]a ukVdksa ,oa dforkvksa }kjk lkekU; tkudkjh iznku dh tk ldrh gS rks mPp d{kkvksa esa fo|kfFkZ;ksa dh fo”ys’k.kkRed ,oa rqYkUkkRed ;ksX;rk dks vf/kd ls vf/kd mnkgj.k nsdj fodflr fd;k tk ldrk gSA ^^vkt d{kk f”k{k.k esa fo”oluh; fujh{k.k rduhfd;ksa rFkk izekihd`r ijh{k.kksa ,oa vfHkdzfer v/;;u vkfn gesa bl ckr ds fy, funsZ”k nsrs gSa fd ge f”k{k.k lEcU/kh fofHkUu izfdz;kvksa ds iznÙk ,df=r djsa vkSj vko”;drkuqklj xf.kr ;k lkaf[;dh }kjk fo”ys’k.k djrs gq, fuf”pr fu’d’kksZa ij igq¡pAsa nwljs “kCnksa esa xf.krh; fl)kUr] f”k{k.k izfdz;k dks O;ofLFkr] laxfBr rFkk leqfpr cukus ds fy,] ifjek.kkRed fn”kk (Qualification) dk iz;ksx djrk gSA^^¼”kSf{kd rduhdh ds ewyvk/kkj] MkW0 ,l0 ih0 dqyJs’B] fouksn iqLrd efUnj] vkxjk] i`0 la0 285½ ckr fo|kfFkZ;ksa esa vxj l`tukRedrk ykus dh fd tk, rks blds }kjk loZizeq[k mudks lkfgR; dh fofo/k “kSfy;ksa ls ifjfpr djkuk] dYiuk”khy cukuk] Lok/;k;] ekSfyd fopkjksa ds इंदस े नाु ंचत

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lkFk&lkFk Lora= ys[ku ds fy, izsj.kk ,oa mRlkfgr djuk vkfn fcUnqvksa dks ns[kk tk ldrk gSA rks jlkRed ,oa leh{kkRedrk ds }kjk fo|kfFkZ;ksa esa lkfgR; dh fofHkUu fo/kkvksa dk jliku ,oa leh{kk djkbZ tk ldrh gSA fganh f”k{k.k dk vfUre ,oa l”kDr mn~ns”; fo|kfFkZ;ksa esa vfHko`R;kRed “kfDr ,oa n`f’Vdks.k dks fodflr djuk ,oa muesa vkRefo”okl dh “kfDr dks izcy cukuk gSA blds }kjk tgk¡ mudh vkfRed “kfDr fodflr gksxh ogha muesa viuh ns”k dh jk’Vªh; Hkk’kk dks le> ds foLrkj nsus dk dkS”ky Hkh fodflr gksxk D;ksafd blds varxZr fo|kfFkZ;ksa ds fy, vPNs iqLrdky;ksa] vPNh iqLrdksa ys[ku dkS”ky vkfn fodflr djus ds lkFk&lkFk muesa lkfgR; ds izfr :fp txkus ds fy, le;≤ ij lkfgfR;d dk;Zdzeksa tSls& dkO; xksf’B;ks]a laxksf’B;ksa] dgkfu;ksa dk eapu] ukV~; ,oa yksd xhrksa dk :ikarj.k] lkaLd`frd dk;Zdzeksa esa lgHkkfxrk] fuca/k ys[ku izfr;ksfxrk] Hkk’k.k izfr;ksfxrk] i{k&foi{k esa ppkZ] laokn ys[ku] yksd Hkk’kk izfr;ksfxrk] eap lapkyu] lkfgfR;d dfo;ksa ,oa ys[kdksa ds fp=ksa dks ,d= dj izn”kZfu;ksa dks vk;ksftr djkdj tgk¡ fo|kfFkZ;ksa dks lkfgfR;d jpukvksa ds izfr izsfjr fd;k tk ldrk gS ogha muesa viuh laLd`fr ds izfr le> Hkh fodflr dh tk ldrh gS vkSj fganh Hkk’kk esa ;g lkeF;Z vkSj {kerk gS bl ckr dks udkjk ugha tk ldrkA ^^n`”;&JO; lk/kukas dk egRo le>us ls igys ;g tkuuk vko”;d gS fd n`”;&JO; lk/kuksa dk f”k{kk”kkfL=;ksa dh “kCnkoyh esa D;k vFkZ gSA fdlh Hkh izdkj dh f”k{kk izkIr djus ij gekjk efLr’d fdz;k”khy gks tkrk gS] efLr’d dks fdz;k”khy cukus esa gekjh KkusfUnz;ksa dk cgqr cM+k gkFk gksrk gSA fdlh us Bhd dgk gS fd ^^us= vkSj dku uked KkusfUnz;k¡ Kku ds izos”k }kj gSa^^] blhfy, f”k{kd dh lgk;rkFkZ ,sls midj.k fudkys x;s gSa ftuds iz;ksx ls f”k{k.k&dk;Z vf/kd izHkko”kkyh cu ldrk gSA^^¼fgUnh f”k{k.k] ih0 ds0 vks>k] vueksy ifCyds”kal izk0 fy0] ubZ fnYyh] i`0 la0 176½ bl izdkj ekr`Hkk’kk esa f”k{k.k nsus gsrq dkS”kykRed] KkukRed] l`tukRed] jlkRed vkSj leh{kkRedrk ds lkFk&lkFk vfHko`R;kRedrk Hkh vR;ko”;d gSA mi;qZDr foospu ls fu’d’kZr% bl ckr ij igq¡pk tk ldrk gS fd ^^lkekU;r% lqu dj le>us rFkk “kq) :i ls cksyus] i<+us rFkk fy[kus dh ;ksX;rk dks fodflr djuk gh Hkk’kk&f”k{k.k dk mn~ns”; ekuk tkrk gS ijUrq bUgha dkS”kyksa esa gh Hkk’kk&f”k{k.k ds O;kid mn~ns”; fufgr gSA bUgha dkS”kyksa }kjk euq’; Hkk’kk vkSj lkfgR; dk okLrfod jlkLoknu djrk gS] thou ds fofHkUu {ks=ksa esa lQyrkiwoZd izos”k djus dh ;ksX;rk izkIr djrk gS] lkekftd ,oa pkfjf=d fodkl dh vksj mUeq[k gksrk gS] vkfRed vfHkO;fDr }kjk ekufld LokLF; dks izkIr gksrk gS vkSj jpukRed dk;ksZa esa izo`Ùk gksrk gS] vFkkZr~ f”k{kk ds cgqeq[kh mn~ns”;ksa dh izkfIr esa Hkk’kkbZ&dkS”ky vR;Ur egRoiw.kZ Hkwfedk fuHkkrs gSaA vr% Hkk’kk&f”k{k.k ds mn~ns”; lhfer gksrs gq, Hkh O;kid gSaA^^¼fganh f”k{k.k fof/k;k¡] fot; lwn] VaMu ifCyds”kUt] yqf/k;kuk] i`0 la0 24½ vius vki esa iz”u cM+k fofp= gS fd ckyd dks Hkk’kk i<+kus vkSj fl[kkus ds fy, fo|ky; D;ksa Hkstk tk,] eryc fd fo|ky; esa ekr`Hkk’kk fganh dks f”k{k.k dk fo’k; cukus dh D;k vko”;drk gS? bl ckr esa “kd ugha fd;k tk ldrk fd ckyd ek¡ dh xksn] okrkoj.k rFkk vuqdj.k vkfn }kjk Hkk’kk lh[krk gSA fQj f”k{k.k laLFkkuksa dh D;k vko”;drk? blds ihNs dkj.k dksbZ Hkh gks fdUrq bl lh[kus ds ihNs vius vki dks O;Dr djus dh bPNk dke djrh gSA ^^fpUrj vkSj vfHkO;fDr dh bPNk ls izsfjr gksdj euq’; vpsru :i ls /ofu;ksa dks xzg.k djus yxrk gSA fQj vuqdj.k ls /ofu;k¡ Li’V gksus yxrh gSa vkSj bl izdkj euq’; cksy&pky dh Hkk’kk lh[k tkrk gSA cPpk viuh LokHkkfod izo`fÙk ls ifjokj ds leqfpr okrkoj.k esa Hkk’kk lh[k tkrk gSA ijUrq bldk ;g eryc ugha gS fd ?kj esa gh ml dh Hkk’kk&f”k{kk ifjiw.kZ gks tkrh gS vkSj Hkk’kk lh[kus ds fy, mls Ldwy Hkstus ;k ml ds fy, fdlh Hkk’kk&f”k{kd dh vko”;drk ugha gSA thou ;kiu dh n`f’V ls ekrk dh xksn rFkk vkl&ikl ls lh[kh xbZ cksy&pky dh Hkk’kk gh i;kZIr ughaA vfHkO;fDr dks Li’V] lqcks/k ,oa izHkko”kkyh cukus ds fy, ekSf[kd Hkk’kk dk Hkh “kq) rFkk O;kdj.k laxr gksuk t:jh gS vkSj fQj vfHkO;fDr ds fy, dsoy ekSf[kd Hkk’kk gh rks i;kZIr ugha] ml ds fy, fyf[kr Hkk’kk esa izoh.krk Hkh rks vko”;d gSA^^ ¼fganh f”k{k.k fof/k;k¡] fot; lwn] VaMu ifCyds”kUt] yqf/k;kuk] i`0 la0 38&39½ इंदस े नाु ंचत

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Hkk’kk f”k{k.k ds lkFk&lkFk fo|kfFkZ;ksa dh lgHkkfxrk dk izfrQyHkh gksrk gSAd{kk d{k esa v/;kid ,oa Nk=ksa nksuksa dks gh vkxkeh okafNr lQyrk ds fy, ldkjkRed iz;kl djus gksrs gSaA bu iz;klksa dh uhao esa fganh f”k{k.k ds ewyHkwr fl)kar ,oa lw= fughr gksrs gSaA ftlesa eq[;r% cksypky ds fl)kar ds vUrxZr vfHkO;fDr dks l”kDr cryk;k x;k gSA ;g ,d euksoSKkfud lR; gSA^^f”k{kk vkSj f”k{k.k oSls rks vukSipkfjd :i esa lrr xfr”khy izfdz;k ds uke gSa] tks izkf.kek= esa fdlh u fdlh :i esa pyrh gh jgrh gSA fdUrq euq’; f”k{k.k dh xfr dks nqzrrj cukus ds fy, fof”k’V vkSipkfjd O;oLFkk djrk gSA bl vkSipkfjd f”k{k.k esa lEiw.kZ fo’k;ksa ds f”k{k.k dk izeq[k ek/;e Hkk’kk gh jgrk gSA Hkk’kk ds vHkko esa vkSipkfjd f”k{k.k izk;% vlEHko gSA vkSipkfjd f”k{k.k dh dfBukbZ rc vkSj Hkh vf/kd c<+ tkrh gS] tc Hkk’kk ds ek/;e ls gh Hkk’kk dks lh[kuk&fl[kkuk iM+rk gSA ;fn f”k{k.k dh ek/;e Hkk’kk vkSj y{;&Hkk’kk nksuksa ,d gh gks]a rks Hkh leL;k ls fuiVk tk ldrk gS] fdUrq ;fn ek/;e rks ,d Hkk’kk gks vkSj y{;&Hkk’kk dksbZ vU; gks] vFkkZr~ tc vU;&Hkk’kk ds :i esa dksbZ Hkk’kk i<+k;h tkrh gks] rks nksuksa Hkk’kkvksa ds ifjos”k] /kkj.kkvksa rFkk vkUrfjd vuq”kklu dh O;frjsdrk ds dkj.k tks leL;k,¡ mRIkUu gksrh gSa] mUgsa Hkk’kk ds ek/;e ls lekfgr djuk vlaHko gks tkrk gSA nh?kZdkyhu vH;kl rFkk vuqHko gh ,slh leL;kvksa dk ,dek= lek/kku izLrqr djrs gSaA^^¼Hkk’kk&f”k{k.k rFkk Hkk’kk foKku] la0 fczt”s oj oekZ] dsna zh; fgUnh laLFkku] vkxjk] i`0 la0 151½ Hkk’kk f”k{k.k ds }kjk ge “kq) ¼ys[ku½ ikrs gSa ,oa “kq) mPpkj.k dj ikrs gSaA blds vfrfjDr ge nwljksa dks lqurs Hkh gSa rFkk iqLrdsa Hkh i<+rs gSaA lqudj vFkZ xzg.k djuk] “kq) cksyuk lh[kuk] i<+dj vFkZ xzg.k djuk] “kq) fy[kuk fl[kkukA ^^fofHkUu dkS”kyksa esa n{krk fnykus ds fy, Hkk’kk&f”k{kd cgqr lhek rd ftEesnkj gksrk gSA ikB ds eq[; rF;ksa dk p;u djuk] “kCnkFkZ] jpuk] ikB~;&lkexzh] f”k{k.k&fof/k ,oa mís”;ksa dh izkfIr bl fl)kar ds vk/kkj ij gh lgh rjhds ls lEikfnr dh tk ldrh gSA^^¼fganh f”k{kk fl)kUr ,oa O;ogkj] MkW0 ujs”k dqekj ;kno] vkjksgh IkfCyds”ku] ubZ fnYyh] i`0 la0 11½ dgk tkrk gS fd dku vkSj eq¡g Hkk’kk lh[kus dh nks egRoiw.kZ bfUnz;k¡ gSA bu bfUnz;ksa }kjk gh ckyd dks mlds :fp ds vuqlkj lh[kuk gksrk gSA vFkkZr tc rd cPps dks Hkk’kk lh[kus esa :fp uk gksxh og dk;Z esa eu uk cuk ik;sxkA blds fy, lQy v/;kid dks JO;&n`”; lk/kuksa dk iz;ksx dj iwoZ&Kku ds vk/kkj ij u;s Kku dks vkxs c<+kuk] Nk=ksa dh ekufld fLFkfr ds vuqdwy iz”u iwNuk] [ksy fof/k;ksa dks viukdj uhjlrk nwj djuk rFkk mnkgj.kks]a rqyukvksa] laLej.kksa] vkn”kksZa pfj=ksa dks izLrqr dj] vfHku; dkS”ky ,oa okn&fookn] ys[ku dkS”ky ds lkFk&lkFk Nk=ksa dh vfHkO;atuk “kfDr dks c<+kuk rks muds lkFk lgkuqHkwfriw.kZ ,oa LohdkjkRed n`f’V viukdj mudh lh[kus dh LokHkkfod izo`fÙk dks c<+kok nsukA D;ksafd Hkk’kk iSr`d lEifÙk ugha ;g cgrh unh ds leku gS vkSj Nk=ksa esa bls lh[kus dh LokHkkfod izo`fÙk vo”; gksrh gSA cl v/;kid dks ;g /;ku nsuk vR;ko”;d gS fd lh[kkrs le; igys okD;] fQj “kCn vkSj ml ds ckn /ofu;ksa dks foLrkj nsuk pkfg,A rks ogha ekSf[kd&Hkk’kk igys] rRi”pkr okpu vkSj ys[kuA ^^;g y{; ftruk gh egRoiw.kZ gS] bldk fuokZg mruk gh dfBu gSA Hkk’kk&iz;ksDrk ds :i esa u rks f”k{kkFkhZ vius prqfnZd okrkoj.k ls dVk ^Lok;Ùk^ bdkbZ gksrk gS vkSj u gh Hkk’kk f”k{k.k dk O;kikj iwjs f”k{k.k ra= dh viuh izd`fr ,oa cqukoV ls dV dj gh py ldrk gSA lekt dh vkfFkZd&lkekftd izd`fr D;k gS] ljdkj dh f”k{kk vkSj Hkk’kkuhfr dSlh gS] Ldwy ds <kaps dk :i D;k gS] f”k{kd dh ;ksX;rk fdl izdkj dh gS&vkfn iz”u u dsoy Hkk’kk f”k{k.k ds vusd O;kogkfjd lanHkksZa ds lkFk tqM+s gq, gSa oju cgqr dqN mlds lS)kafrd lanHkksZa dks Hkh izHkkfor djus esa leFkZ gSaA^^¼Hkk’kk f”k{k.k] MkW0 johUnzukFk JhokLro] ok.kh izdk”ku] ubZ fnYyh] i`0 la0 11½ izkFkfed Lrj ij v/;kid dks ;g /;ku j[kuk pkfg, fd cPps dks igys vFkZxzg.k djus ;ksX; cukuk gS fQj vfHkO;fDr dh vksj c<+uk gksxk] D;ksafd dku vkSj eq¡g Hkk’kk lh[kus dh nks egRoiw.kZ bfUnz;k¡ gSaA Hkk’kk f”k{kk dk egRoiw.kZ fcUnq vuqdj.k gSA oSls rks dyk udy dh udy gSA ijUrq Hkk’kk ds ifjizs{; esa vuqdj.k blfy, vR;ko”;d cu tkrk gS D;ksafd tc v/;kid d{kkeas i<+krk gS rks Nk=ksa }kjk mldk “kq) vuqdj.k] “kq) mPpkj.k] mfpr xfr ,oa mfpr vkjksg&vojksg gksuk gh lQy f”k{k.k dk ewyea= gSA इंदस े नाु ंचत

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vuqdj.k vPNk vkSj lPpk /ofur gksus ds lkFk&lkFk vuqlj.kkRed uk gksrs gq, fo’k;laxr ,oa Hkk’kk vkSj lkfgR; ds vuqdwy gksuk pkfg,A rHkh Hkk’kk f”k{k.k dh d{kk dh fdz;k”khyrk cuh jgsxhA D;ksafd ckyd LoHkko ls gh fdz;k”khy gksrk gSA ewd n”kZd cus jguk lQy Hkk’kk f”k{k.k d{k dk ladsr ughaA Nk= dh vfHkO;fDr dks l”kDr ,oa izHkkoiw.kZ cukus gsrq Hkk’kk v/;kid dks igys ikB i<+krs oDr ,d vuqPNsn dk Lo;a vkn”kZ okpu djuk pkfg,] fQj fo|kfFkZ;ksa dks i<+us dks dgk tk,A D;ksafd izR;sd d{kk esa] izR;sd fo’k; esa O;fDrxr fofHkUurk ikbZ tkrh gSA fuLlansg O;fDrxr fofHkUurk ,d euksOkSKkfud lR; gSA ijUrq tc Hkk’kkbZ&dkS”kyksa dks lh[kus dh ckr gksrh gS rks vH;kl dh vf/kdkf/kd vko”;drk eglwl gksrh gSA izfl) euksoSKkfud FkkuZMkbZd us dgk fd ^^Hkk’kk ,d dkS”ky gS vkSj mldk fodkl vH;kl ij fuHkZj gSA^^ ^^Hkkjrh; dkO;”kkL= esa vkpk;Z Hkkeg] n.Mh] okeu] eEeV ,oa jkt”ks[kj lHkh fo}kuksa }kjk izfrHkk] O;qRifRr vkSj vH;kl dks dkO;&gsrq ds :i esa Lohdkj fd;k x;kA dgus dk rkRi;Z ;g gS fd dHkh&dHkh de izfrHkklEiUu O;fDr lrr vH;kl djrs&djrs lqUnj jpuk dj cSBrk gS] tcfd vH;kl ds vHkko esa vusd izfrHkk,¡ dqafBr gksrh gqbZ fn[kk;h iM+rh gSaA^^¼Hkkjrh; dkO;”kkL= ,oa ik”pkR; lkfgR; fpUru] MkW0 lHkkifr feJ] t; Hkkjrh izdk”ku] bykgkckn] i`0 la0 34½ bl izdkj fo|kfFkZ;ksa dks ckj&ckj i<+okuk] “kCnksa rFkk eqgkojksa ls okD; cukus dh dyk lh[kkuk vkSj fujarj vH;kl }kjk tgk¡ muds HkkokRed laons uksa dks n`<+ fd;k tk ldrk gS ogha mudks Hkk’kk vk/kkfjr fofHkUu iz”uksa ds mRrj fy[kus dks dguk rFkk izR;sd Nk= dh O;fDrxr fofHkUurk dks /;ku esa j[kdj mUgas x`g&dk;Z nsdj Hkh vH;kl dh izfdz;k }kjk fo|kfFkZ;ksa dk f”k{k.k dkS”ky ds vuq:i i<+k;k tk ldrk gSA ^^fy[kuk i<+uk ,d lEizs’k.kkRed izokg gSA D;ksafd nks dkS”kyksa ds e/; izokg gksxk rHkh rks cks/kxE;rk gks ldsxhA fuLlansg ^^Hkk’kk dkS”kyksa dk mi;ksx lEizs{k.k esa fd;k tkrk gSA lEizs{k.k dh izfdz;k ,d&ekxhZ rFkk f}&ekxhZ gksrh gSA lEizs{k.k dh fdz;k fyf[kr rFkk ekSf[kd nksuksa gh izdkj dh gksrh gSA^^¼fgUnh f”k{k.k] MkW0 f”k[kk prqosZnh] lw;kZ ifCyds”ku] esjB] i`0 la0 78½ fl)kUr tgk¡ O;fDrRo esa vkRefo”okl txkrs gSa ogha lw= vkRefo”okl dh izfdz;k esa rsth ykrs gSaA ;gh ckr Hkk’kk ds /kjkry ij Hkh Li’V gksrh gSA ^^f”k{kk “kkfL=;ksa us Hkk’kk&f”k{k.k ds dbZ lkekU; fl)kUr fu/kkZfjr fd;s gSaA ;s lHkh fl)kUr ¼fo”ks’kdj f”k{k.k&lw=½ f”k{k.k dks jkspd] euksoSKkfud rFkk lqcks/k cukus dk iz;kl djrs gSaA iz”u mBrk gS fd v/;kid dks dkSu&ls fl)kUr dks viukuk pkfg,A ^p;u ds fl)kUr^ ds vuqlkj v/;kid dks ekufld ,oa ckSf)d vko”;drkvksa ds vuqdwy f”k{k.k&fl)kUr dks viukuk pkfg,] ijUrq bruk i;kZIr ughaA f”k{k.k ,d xfr”khy fdz;kRed fdz;k gSA blesa fdlh ,d fl)kUr ;k f”k{k.k lw= dk vuqlj.k djuk i;kZIr ugha gksxkA^^ ¼fgUnh f”k{k.k fof/k;k¡] fot; lwn] V.Mu ifCyds”kUt] yqf/k;kuk] i`0 la0 47½ fuLlansg Hkk’kk f”k{k.k ,d dyk gSA gj dksbZ v/;kid Hkk’kk f”k{k.k esa ikjaxr ugha gks ldrk] ijUrq v/;kid dks fur&fur vius f”k{k.k dks lqcks/k] lq:fpiw.kZ] fdz;kRed rFkk vkuUnewyd cukus dk iz;kl djuk pkfg,A tgk¡ ftl fl)kUr ;k f”k{k.k lw= dh vko”;drk gks] ogk¡ ml dk LoPNaniwoZd iz;ksx djsA fgUnh Hkk’kk f”k{k.k ds fy, bl Hkk’kk dks vuqiz;ksxksa ds vk/kkj ij v/;;u djuk pkfg,A vFkkZr~ bl Hkk’kk ds }kjk vf/kdkf/kd dkS”kykRed fodkl gks lds blds fy, ,dvR;k/kqfud fgUnh iz;ksx”kkyk ds fuekZ.k dh vko”;drk gSA ^iz;ksx”kkyk^ ls rkRi;Z ;g gS fd^^Hkk’kkiz;ksx”kkyk f”k{k.k ds {ks= esa vU; n`”;] JO; midj.kksa dh Hkk¡fr ;g lgk;d ek= gS] u fd v/;kid@f”k{kk dk izfrLFkkiuA Hkk’kk&iz;ksx”kkyk ,d fo”ks’k d{k gksrk gS tks fofo/k n`”;] JO; rFkk n`”;&JO; midj.kksa ls ;qDr gksrk gS lkekU;r% ,d Hkk’kk iz;ksx”kkyk pkj&N% vkB ----------------cÙkhl Vsi fjdkWMZjksa dk ,d dzfed O;ofLFkr la;kstu gksrk gS] ftlds ek/;e ls f”k{kkFkhZ@v/;srk Hkk’kk&v/;;u ds fy, fofo/k izdkj ds vH;kl djrs gq, Hkk’kk lh[krs gSaA ladqfpr vFkZ esa ,d ,slk dejk Hkh Hkk’kk&iz;ksx”kkyk dgk tk ldrk gS] ftlesa dsoy ,d VsifjdkWMZj gks vkSj ftlds ek/;e ls f”k{kkFkhZ@v/;srk Hkk’kk vH;kl dk;Z djrs gksa] fdUrq okLro esa Hkk’kk&iz;ksx”kkyk ,d lkekU; d{kk dk iwjd :i gS] tgk¡ f”k{kkFkhZ lkekU; d{kk ds v/;;u ds vfrfjDr le; esa Vsfir (tapped) ikBksa dk इंदस े नाु ंचत

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Jo.k djrs gq, vuqdj.k vkfn ds }kjk Hkk’kk dks O;ogkj ds Lrj ij lh[krs gSaA Hkk’kk dkS”kyksa dk fodkl fd;k tkrk gSA^^¼fgUnh f”k{k.k] MkW0 f”k[kk prqoZsnh] lw;kZ ifCyds”ku] esjB] i`0 la0& 353&354½ f”k{kk ds izR;sd Lrj izkFkfed] ek/;fed] mPp ek/;fed] Lukrd] ijkLukrd ,oa “kks/kkRed lexz pj.kksa esa fgUnh Hkk’kk dks iz;ksxkRed fo’k; ds :i esa i<+k;k tk,] vkSj fgUnh Hkk’kk f”k{k.k dks vuqi; z qDr Hkk’kk foKku ds vUrxZr fodflr djds O;olk;ijd cuk;k tk,A fgUnh Hkk’kk f”k{k.k ls yksxksa dks vf/kdkf/kd jkstxkj feys] vkSj Hkkjr ds izR;sd futh] ljdkjh] v)Zljdkjh lHkh laLFkkuksa esa fgUnh Hkk’kk dk iz;kstuewyd :i viuk;k tk,A ftlls yksx ksa esa bl Hkk’kk ds izfr uxn >qdko c<+x s k vkSj ;g Hkk’kk Hkkjr ds uo;qodksa dks dke nsxh] jksth jksVh nsxhA ijUrq blds fy, ,d ekWMy RkS;kj djuk gksxkA ,d fgUnh iz;ksx”kkyk fufeZr djuh gksxhA fgUnh Hkk’kk f”k{k.k esa uohu lq/kkjkRed n`f’Vdks.k viukus gksx a sAHkk’kk&f”k{k.k dk {ks= vf/kd O;kid rFkk fo”kn~ gS rFkk vU; fo|ky;h fo’k;ksa ls f”k{k.k dh izfdz;k Hkh fHkUu gSA ^^Hkk’kk f”k{k.k ds nks i{k gS& ¼v½ Hkk’kk dk f”k{k.k rFkk ¼c½ lkfgR; dk f”k{k.kA ;g nksuksa ijLij lEcfU/kr rFkk ,d nwljs ds iwjd gSa ijUrq budh izd`fr fcYdqy gh fHkUu gSA tc ^Hkk’kk&f”k{k.k^ dgrs gSA blesa nksuksa i{k fufgr jgrs gSaA lkfgfR;d f”k{kk] Hkkf’kd rRoksa ds f”k{k.k ds gh ek/;e ls gksrh gSA vkt f”k{k.k dks dyk rFkk foKku nksuksa gh ekurs gSaA blh izdkj Hkk’kk dks foKku rFkk lkfgR; dks dyk ekurs gSaA Hkk’kk&f”k{k.k esa dyk rFkk foKku nksuksa dk leUo; gSA blds vfrfjDr fgUnh dk f”k{k.k rhu :iksa esa fd;k tkrk gS % ¼v½ ekr`Hkk’kk ¼c½ jk’VªHkk’kk ds :i esa rFkk ¼l½ f}rh; Hkk’kk ¼vfgUnh Hkk’kh½ ds :i esaA^^¼fgUnh f”k{k.k] MkW0 f”k[kk prqoZsnh] lw;kZ ifCyds”ku] esjB] i`0 la0 03½ fuLlansg vkt vxj fgUnh f”k{k.k dh izklafxdrk dks cuk;s j[kuk gS rks fgUnh Hkk’kk dks O;olk;ijd cukuk gksxk] mlh rjhds ls fo|kfFkZ;ksa dks d{kk d{kksa esa f”k{k.k nsuk gksxk ftlls mudks viuh ekr`Hkk’kk fgUnh }kjk jkstxkj izkIr gks lds] rHkh iz;kstuewyd fgUnh dh lkFkZdrk gSA D;ksfa d ^^iz;kstuewyd^^ ,d ifjHkkf’kd “kCn gS tks Hkk’kk dh vuqi; z qDrrk vkSj izk;ksfxdrk ds fuf”pr vFkZ esa iz;qDr fd;k x;k gSA iz;kstuewyd Hkk’kk dk Li’V] ,dkFkZd rFkk vfHk/kkijd gksuk furkUr vko”;d gS rkfd mls iz;ksx djus okys O;fDr ds Hkkoksa ,oa fopkjksa dks fo’k;xr ifjizs{; esa lgh rFkk fuf”pr :i ls le>k tk ldsA ¼iz;kstuewyd fgUnh % fl)kUr vkSj iz;ksx] Jh naxy >kYVs] ok.kh izdk”ku] ubZ fnYyh] i`0 la0 7 izLrkouk½ vxj ge viuh fgUnh Hkk’kk f”k{k.k izfdz;k esa uSfrd&vkn”kksZa ,oa thou&ewY;ksa dks vk/kkj cukdj f”k{k.k izfdz;k esa fodklkRed ifjorZu djsa rks ;g lkekftd mi;ksfxrk dh flf) dk ,d l”kDr lk/ku gksxkA ^^pj[ks ls ysdj vkUrfjd Toyu okys batu rd ds lk/ku fo”kq) :i ls lkekftd mi;ksfxrk ds lk/ku gSaA mudk dksbZ futh uSfrd ewY; ugha gSA os dsoy rHkh rd ewY;oku gSa] tc rd mudk mi;ksx mPprj uSfrd mn~ns”;ksa ds fy, gksrk gSA izxfr ds lk/ku vius vki esa dksbZ mn~ns”; ugha gSaA “kk”or dks lkalkfjd ds v/khu djds] vfuok;Z dks vkdfLed ds v/khu djds] vuUr dks {kf.kd ds v/khu djds thou ewY;ksa dks fod`r djus dh vknr dks dsoy lcy f”k{kk }kjk jksdk tk ldrk gSA f”k{kk vkRek esa euq’; dk lrr tUe gS( ;g vkUrfjd jkT; dh vksj tkus okyk jktekxZ gSA lkjh ckg; efgek vkUrfjd izdk”k dk izfrQyu&ek= gSA f”k{kk loksZPp thou&ewY;ksa ds pquko dh vksj mu ij n`<+ jgus dh iwoZ dYiuk djrh gSA gesa ,sls leqnk; ds fy, dk;Z djuk pkfg,] tks jkT; dh vis{kk vf/kd foLr`r vkSj vf/kd xEHkhj gksAa og leqnk; fdl <ax dk gks] ;g gekjs vkn”kksZa ij fuHkZj gSA^^ ¼/keZ vkSj lekt] MkW0 losZifYy jk/kkd`’.ku~] jktiky ,.M lUt] d”ehjh xsV] ubZ fnYyh] i`0 la0 236½ ^^lafo/kku ds vUkqPNsn 343 ls ysdj vuqPNsn 351 rd dqy ukS vuqPNsnksa esa la?k dh jktHkk’kk] izknsf”kd Hkk’kk,¡ ¼jkT; dh jktHkk’kk ;k jktHkk’kk,½ mPp U;k;ky;ksa] mPpre U;k;ky; vkfn esa iz;qDr Hkk’kk rFkk fgUnh Hkk’kk ds fodkl vkfn ds ckjs esa izko/kku fd;s x;s gSaA blds lkFk vuqPNsn 120 esa laln rFkk vuqPNsn 210 esa ns”k ds ¼jkT;ksa ds½ fo/kku&eaMy esa iz;qDr Hkk’kk ds ckjs esa izko/kku gSA^^ ¼iz;kstuewyd fgUnh % fl)kUr vkSj iz;ksx] Jh naxy >kYVs] ok.kh izdk”ku] ubZ fnYyh] i`0 la0 133½ lafo/kku dk vuqPNsn 351 vR;Ur egRoiw.kZ gSA D;ksafd blh vuqPNsn esa fgUnh Hkk’kk dk izpkj&izlkj] fodkl ,oa Hkk’kk dh lkekftd laLd`fr dk mYys[k fd;k x;k gSA इंदस े नाु ंचत

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^^eq[; :i ls Hkk’kk f”k{k.k ds vUrxZr ;g ,d dkS”kykRed izfdz;k gSA ftldh vkUrfjd izfdz;k Jo.k] ekSf[kd] okpu rFkk ys[ku bu pkjksa dkS”kyksa }kjk fo|kfFkZ;ksa ds ;ksX; cuk;k tkrk gSA^^ ¼fgUnh f”k{k.k fof/k;k¡] fot; lwn] VaMu ifCyds”kUt] i`0 la0 93½ ^^fgUnh ds fodkl dh lEHkkouk,¡ Hkwe.Myhdj.k ds nkSj esa ,d egRoiw.kZ fo”o Hkk’kk ds :i esa fgUnh ds fodkl dh vuUr lEHkkouk,¡ gSaA dkj.k dh fgUnh dh Kku fo’k;d cgqvk;keh izklafxdrk c<+ jgh gSA vc fgUnh dsoy lkfgR; dh gh Hkk’kk ugha jghA blds Lo:i ,oa vkdkj esa foLrkj gqvk gSA blus ledkyhurk dks le>k rFkk Lo;a dks ifjofrZr&ifjof)r fd;k gSA Hkk’kk vc dsoy lkfgfR;d u jgdj O;kogkfjd ,oa O;kolkf;d Hkh gks x;h gSA^^ ¼Hkwe.Myhdj.k % fgUnh ds fodkl dh laHkkouk,¡ vkSj pqukSfr;k¡] fgUnh % fofo/k vk;ke] vkuan ikVhy] r{kf”kyk izdk”ku] ubZ fnYyh] i`0 la0 349&350½ ^^fgUnh rksM+us okyh ugha] tksM+us okyh Hkk’kk gSA fgUnh&Hkk’kh izkUrksa esa tuinh; Hkk’kk,a vusd gSa] fdUrq mu ls ,dkdkj gks dj fgUnh us lHkh fgUnh&izkUrksa dks ,d lw= esa ckU/k j[kk gSA ;gh ugha] fgUnh dk ,d vn`”; rkj xqtjkr ls ysdj vle rd lkjs mRrj Hkkjr dks ,d /kkxs esa cU/ks gq, gSA^^ mi;qDr foospu ls Li’V gS fd Hkkjrh; thou esa fgUnh ekr`&Hkk’kk vkSj jk’Vªh; Hkk’kk ds :i esa egRoiw.kZ LFkku j[krh gSA ekr`&Hkk’kk ds :i esa bl dk f”k{k.k euq’; ds “kkjhfjd] ekufld] lkekftd] ckSf)d ,oa O;kogkfjd fodkl esa lgk;rk iznku djrk gSA czt&Hkk’kk ds leku ^vo/kh^ dk bruk iz;ksx vkSj izpkj rks ugha gqvk ijUrq lUr rqylhnkl dh vej d`fr ^jkepfjrekul^ us bls xkSjo iznku fd;k vkSj bl vej d`fr ds ek/;e ls ^vo/kh^ us ^fgUnh^ ds fodkl esa egRoiw.kZ Hkwfedk fuHkkbZ gSA rqylhnkl ds vfrfjDr lwQh dfo;ksa us Hkh ^vo/kh^ dk iz;ksx fd;k gSA jk’Vª&Hkk’kk ds :i esa fgUnh dk f”k{k.k Hkkjrokfl;ksa dks jk’Vª dh vkRek ds lkFk tksM+rk gSA jk’Vª&Hkk’kk ds :i esa fgUnh dk f”k{k.k jk’Vªh; Hkkouk dks fodflr djus dk l”kDr lk/ku gS] blds fcuk dksbZ Hkh O;fDRk Hkkjr ds O;kogkfjd] lkekftd ,oa lkaLd`frd thou dks iw.kZ :i ls ugha le> ldrkA ftu izns”kksa dh ekr`Hkk’kk fgUnh gS ogka ekr`Hkk’kk ds :i esa bl dk f”k{k.k gksuk pkfg, vkSj vfgUnh&Hkk’kh izkUrksa eas bl dk f”k{k.k jk’Vª&Hkk’kk ds :i esa gksuk pkfg,ACykfxax ds }kjk Hkh fganh Hkk’kk f”k{k.k dks fo”oO;kih cuk;k tk ldrk gSA oLrqr% fgUnh esa CykWfxax ds vkjaHk dk Js; vkyksd dqekj dks fn;k tkrk gSA^^ ¼fgUnh CykWfxax dk bfrgkl] johanz izHkkr] fgUnh lkfgR; fudsru fctukSj] Hkkjr] o’kZ&2011] i`’B&180½ vkyksd dqekj fgUnh ds izFke CykWxj vkSj muds ^ukS nks X;kjg ¼9&2&11½ CykWx dks fgUnh dk izFke CykWx ekuk tkrk gSA uCcs ds n”kd ds mRrjk/kZ esa vkjaHk gq, CykWfxax ds bl lQj dk ukedj.k fgUnh esa vkyksd dqekj us gh ^fpB~Vk^ “kCn nsdj fd;k] tks cgqr rsth ds lkFk fgUnh ds vU; CykWxlZ }kjk viuk;k x;kA “kh?kz gh fgUnh esa CykWfxax ds fy, ^fpB~Vk^ “kCn ,d ekud “kCn cu x;k vkSj fgUnh CykWxlZ dks ^fpV~Vkdkj^ dgk tkus yxkA ¼fof/k Hkkjrh] laiknd&larks’k [kUuk] “kkyhekj ckx] fnYyh] i`0 25½ f”k{k.k dh lQyrk dbZ rF;ksa ij vk/kkfjr gksrh gSA f”k{kd cgqr ;ksX; gS mlds i<+kus dk rjhdk Hkh cgqr vPNk gS] d{kk esa n`”;&JO; midj.kksa ds vykok vU; f”k{k.k lkexzh Hkh gSa] vk/kqfud lkt&lTtk ls lq”kksfHkr d{kk Hkh gS ijarq ;fn Nk=ksa esa f”k{k.k ds izfr :fp ugha rks lc dqN csdkjA dgus dk rkRi;Z ;g gS fd cPpksa dks f”k{kd tc rd vfHkizsfjr ugha djrs rc rd f”k{k.k lQy ugha gks ldrkA fdlh dks mPpkj.k esa dfBukbZ gksrh gS rks fdlh dks v{kj le> esa ugha vkrs] dksbZ dfork&ikB esa ikjaxr gksrk gS rks fdlh dk i<+us@i<+kus dk <ax cgqr vPNk gksrk gS] dksbZ vfHku; cgqr vPNk dj ysrk gS rks dksbZ O;kdj.k lac/a kh v”kqf);ka cgqr djrk gSA ;fn f”k{kd ;g mEehn dj cSBs dh Hkk’kk f”k{k.k esa lHkh Nk= gj {ks= ¼pht½ esa ,d leku gks rks ,slk O;fDrxr fHkUurk ds dkj.k laHko ugha gSA blfy, f”k{kd dks Nk=ksa dh O;fDrxr fHkUurkvksa dks tkudj mudh fHkUurkvksa ds vuqlkj gh mudks f”k{kk iznku dh tkuh pkfg,A vkt dk ;qx Hkwe.Myhdj.k dk ;qx gSA dksbZ Hkh ns”k vyx&Fkyx jgdj viuk fodkl ugha dj ldrkA Hkkjr Hkh ^Xykscykbts”ku* dh bl nkSM+ esa “kkfey gSA ,sls le; esa fganh dks Hkh viuh इंदस े नाु ंचत

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o`gÙkj Hkwfedk dk fuokZg djuk gksxkAHkkjr dh Hkk’kkvksa esa fgUnh ,dek= Hkk’kk gS tks lkjs ns”k esa gh ugha] fons”kksa esa Hkh cksyh vkSj le>h tkrh gSA fgUnh ,dek= Hkkjrh; Hkk’kk gS ftleas ml Hkk’kk ds {ks= ds ckgj ds lkfgR;dkjksa us bruk lkfgR; fy[kk gS] dqN ukeksa esa ¼caxky ds½ f{kfrteksgu lsu] eUFkukFk xqIr( ¼egkjk’Vª ds½ “ksoM+s] ekpos xtkuu eqfDrcks/k( ¼xqtjkr ds½ d0 ek0 eqa”kh vkfn( ¼rfeyukMq ds½ Jhfuoklkpkjh] jkty{eh jk?kou] MkW0 xksikyu] MkW0 “kadj jktw( ¼vkU/kz ds½ ckyd`’.k jko] cky”kkSfj jsMMh] jes”k pkS/kjh vkfjxiwfM] vkywjh oSjkxh pkS/kjh] âf’kds”k “kekZ] eks0 lR;ukjk;.k( ¼dsjy ds½ pUnzgklu] MkW0 HkkLdju uk;j( ¼iatkc ds½ ;”kiky] misUnzukFk v”d bR;kfn&bR;kfn mYys[kuh; gSaA eksVqfj lR;ukjk;.k dks nf{k.k dk VaMUk dgk tkrk gSA¼fgUnh% mn~Hko] fodkl vkSj :i] MkW0 gjnso ckgjh i`0 la0 &208½ vkt oS”ohdj.k ds ;qx esa cgqlaLd`frokn ,oa cgqHkk’kkokn vius iSj ilkj pqdk gSA fo”o esa yxHkx Ms<+ lkS fo”ofo|ky;ksa esa fgUnh dk iBu&ikBu gks jgk gSA bu fo”ofo|ky;ksa esa vU; Hkk’kk ds :i esa fgUnh dh O;oLFkk gSA fons”k esa 12 fo”ofo|ky; ,sls gSa tks nf{k.k&,f”k;kbZ v/;;u ls tqM+s gq, gS vkSj buesa fgUnh ek/;e ls ih-,p-Mh- “kks/k djus dh O;oLFkk gSA yxHkx 22 fo”ofo|ky;ksa esa vkjafHkd Lrj ls fgUnh f”k{k.k gksrk gSA ftu ns”kksa esa Hkkjroa”kh vf/kd la[;k esa gSa] muesa fgUnh f”k{k.k vf/kdka”kr% f}rh; Hkk’kk ds :i esa gksrk gS vkSj tgk¡ ml ns”k ds ewy fuoklh fgUnh lh[krs gSa] ogk¡ fgUnh dk f”k{k.k fons”kh Hkk’kk ds :i esa gksrk gSA bl n`f’V ls fons”kksa esa fgUnh f”k{k.k rhu vk;keksa esa gksrk gSA ,d Hkkjroa”kh cgqy ns”kksa esa] nks ,f”k;kbZ ns”kksa esa rFkk rhu ;wjksih; ns”kksa vkSj vejhdk esaA dukMk dk lekt cgqtkrh; ,oa cgqHkk’kh; gSA dukMk esa fgUnh i<+kus ds vkB dsna z cSadwoj] VksjUVks] foaMlj] ekafVª;y] jathuk fo”ofo|ky; vkfn gSaA izk;% lHkh izeq[k “kgjksa ds fo”ofo|ky; vkfn gSaA izk;% lHkh izeq[k “kgjksa ds fo”ofo|ky;ksa esa fgUnh i<+kbZ dh tkrh gSA VksjUVks esa gkbZLdwy esa vU; fo’k;ksa ds lkFk fgUnh Hkk’kk dh d{kk,¡ Hkh yxrh gSaA dukMk esa fgUnh ifj’kn] D;wcd s fgUnh la?k] fgUnh fyVªsjh lkslkbVh] fgUnh fo|kihB vkfn vusd laLFkk,¡ gSa tks fgUnh ds fodkl esa dk;Zjr gSaA bl izdkj fgUnh Hkk’kk dk tuinh; vkSj jk’Vªh; egRo ds lkFk&lkFk vUrjkZ’Vªh; egRo Hkh gSA ;g Hkk’kk ekWfj”kl] Qhth] lwjhuke] xqvkuk] Vkscsxks ,oa fVªfuMkM vkfn ns”kksa esa cls Hkkjrh; ewy ds tu leqnk; dh Hkk’kk gSA gaxjh ds cqnkis”r esa fgUnh dk ik¡p o’khZ; ikB~;dze gSA fiNys 10&15 o’kksZa ls gaxjh esa Hkkjrh; laLd`fr rFkk Hkk’kkvksa ds izfr yksxksa dh :fp c<+ jgh gSA fo”ofo|ky; ds vfrfjDr Hkkjrh; nwrkokl esa Hkh fgUnh dh fu;fer d{kk,¡ gksrh gSaA vesfjdk egk}hi ds rhuksa [kaMksa&mÙkjh] dsUnzh; ,oa nf{k.kh vesfjdk esa fgUnh le>us vkSj lh[kus okyksa dh la[;k yk[kksa esa gSA mÙkjh vesfjdk esa la;qDr jkT; vesfjdk] dukMk vkfn ns”kksa esa fgUnh v/;;u&v/;kiu Ldwy Lrj ls ysdj fo”ofo|ky; Lrj vkSj “kks/k Lrj rd gks jgk gSA dsUnzh; vesfjdk esa eSfDldks rFkk nf{k.kh vesfjdk ds vtsZfUVuk] czkthy] osustq,yk] dksyafc;k] D;wck] is: vkSj fpyh ns”kksa esa lkekU; Lrj ij fgUnh ikB~;dze py jgs gSaA bu ns”kksa esa fgUnh v/;srk nks izdkj ds gSa& ,d vizoklh Hkkjrh; gSa vkSj nwljs ewy vesfjdhA vk/kqfudre Hkk’kk fo”ys’k.k ds fl)karksa ds vk/kkj ij fgUnh dk lcls vf/kd v/;;u dk;Z la;qDr jkT; vesfjdk esa gqvk gSA bl v/;;u ds vk/kkj ij fofHkUu izdkj dh f”k{k.k lkexzh& ikB~; iqLrds]a izosf”kdk,¡] dks”k rFkk vU; lgk;d lkexzh vFkkZr ,d egRoiw.kZ dk;Z gSA fczfVl dksyafc;k] bfyuk;] bafM;kuk] gokbZ] ckslVu] fiV~lcxZ] dsfyQksfuZ;k] f”kdkxks] isfULyokfu;k] U;w;kdZ] vksgk;ks] dkusZy] fe”khxu] foLdkaflu] VsDlkWl] okf”kaxVu] fefuLlksVk] othZfu;k vkfn fofHkUu fo”ofo|ky;ksa esa fgUnh rFkk Hkkjr lac/a kh v/;;u ds O;kid dk;Zdze “kq: fd, x, gSA vesfjdk ljdkj us VsDlkWl fo”ofo|ky; esa fgUnh&mnwZ ¶ysxf”ki dh ifj;kstuk fgUnh f”k{k.k vkSj izpkj izlkj ds fy, izkjaHk dh gSA vesfjdh fo”ofo|ky; esa fgUnh dk v/;;u Hkk’kkfoKku ds dk;Zdzeksa ds varxZr] nf{k.kh ,f”k;k dsUnz] ,f”k;k&vfQzdk v/;;u dsna z] izkP; fo|k dsna z vFkok fons”kh Hkk’kk foHkkx ds varxZr py jgk gSA इंदस े नाु ंचत

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phu esa fgUnh v/;;u&v/;kiu dh fu;fer O;oLFkk dk Jhx.ks”k lu~ 1942 esa [kqufeM+ esa Ldwy vkWQ vksfj;aVy ysXa ost ,aM fyVjspj esa nks o’khZ; ikB~;dze ls gqvkA isbfpax fo”ofo|ky; esa Hkkjr fo|k vkSj fgUnh f”k{k.k dh O;oLFkk izks- f;u us dh FkhA Hkkjr ds iM+kl s h ns”k usiky] E;kaekj] Jhyadk vkSj ikfdLrkj esa fgUnh f”k{k.k lqpk: :i ls py jgk gSA usiky dks fgUnh dk ,d fo”kky {ks= ekuk tk ldrk gSA dkBekaMw esa fLFkr f=Hkqou fo”ofo|ky; esa ,e-,- fgUnh dk ikB~;dze lqpk: :i ls py jgk gSA ikfdLrku esa djkph] bLykekckn vkSj ykgkSj rhu fo”ofo|ky;ksa esa fgUnh f”k{k.k gksrk gSA blesa izek.ki=] fMIyksek ikB~;dzeksa ds lkFk&lkFk ,e-,- fgUnh dh i<+kbZ Hkh vkjaHk gks pqdh gSA bu ikB~;dzeksa esa vf/kdrj efgyk,¡ gSaA ;gk¡ ij fgUnh esa Hkkjrh; laLd`fr rks feyrh gh gS] lkFk gh bldk fetkt vkSj jax&<ax Hkh viuk gSA dgha&dgha Qkjlh dk izHkko Hkh feyrk gSA Jhyadk esa fgUnh fudsru dh fofHkUu “kk[kkvksa esa] dyf.k; fo”ofo|ky;] dksyacks fo”ofo|ky;] Jh t;o/kZuiqj fo”ofo|ky; rFkk futh laLFkkuksa esa fgUnh dk v/;kiu mikf/k Lrj ij yxkrkj py jgk gSA ;gk¡ ij dsUnzh; fgUnh laLFkku] vkxjk ds ikB~;dzeksa ds vuqlkj fgUnh dh d{kk,a Hkh vk;ksftr gksrh gSaA ;wjksih; ns”kksa vkSj vesjhdk esa fgUnh f”k{k.k% baXySaM esa [kqys vksfj;aVy lsfeujh esa fganqLrkuh dh i<+kbZ 1798 esa “kq: gqbZ Fkh vkSj yxHkx 150 lky igys gh dSafczth fo”ofo|ky; esa fgUnh dh i<+kbZ “kq: gks xbZ FkhA gqEcksYV fo”ofo|ky;ksa ds varxZr lu~ 1950 ls ,f”k;kbZ v/;;u laLFkku dh LFkkiuk gqbZ gS] ftlesa fgUnh ds vykok vU; Hkkjrh; Hkk’kkvksa laLd`r] mnwZ rFkk ckaXyk dk Hkh v/;;u&v/;kiu gks jgk gSA fgUnh] ckaXyk] dUuM+ rFkk :lh ds teZu fo}ku yksBkj yqRls us izks- cgknqj flag ds lkFk feydj ,d fgUnh ikB~;iqLrd dh jpuk dh] tks teZuh ds vusd fo”ofo|ky;ksa esa lgk;d ikB~;iqLrd ds :i esa iz;qDr gksrh gSA psd x.kjkT; ds pkyZ~l fo”ofo|ky;] izkgk] vksfj;aVy fgUnh baLVhV~;wV] izkx ;wfuoflZVh vkfn esa fgUnh f”k{k.k dk dk;Z gksrk gSA blesa fofo/k izekf.kd f”k{k.k] lkexzh ds fuekZ.k rFkk iz.k;u ij vf/kd ls vf/kd /;ku fn;k tkrk gSA fgUnh Hkk’kk ds izfr jksekfu;k dk vuqjkx fo”ks’k :i ls mYys[kuh; gSA fgUnh dk v/;;u&v/;kiu jksekfu;k ds cq[kkjLr fo”ofo|ky; esa ,fPNd fo’k; ds :i esa lu~ 1965 esa loZizFke izkjaHk gqvk FkkA 1971 esa jksekfu;k ds cq[kkjsLr fo”ofo|ky; esa fgUnh dk pkj o’khZ; ikB~;dze “kq: gqvk blds Lukrd Nk=ksa dks fons”kh Hkk’kk ds :i esa fgUnh dk v/;;u ,d eq[; fo’k; ysdj djuk gksrk gSA iksySaM ds oklkZ fo”ofo|ky; esa fgUnh ikB~;dze dk “kqHkkjaHk Jherh rkR;kuk :RdksOldk us fd;k blds ckn lu~ 1966 esa ekfj;k fdzLrksQj c`Ldh ds iz;kl ls fgUnh ds izkjafHkd f”k{k.k ds lkFk&lkFk ,e-,- ikB~;dze Hkh py jgk gSA fgUnh lkfgR; vkSj Hkk’kk ij “kks/k dk;Z Hkh gks jgk gSA blesa fgUnh f”k{k.k dh fu;fer O;oLFkk lu~ 1974 ls izkjaHk gqbZ] tc fo”ofo|ky; ds izkP; fo|k foHkkx esa phuh] tkikuh] eaxksfy;u] Qkjlh] rqdhZ vkfn Hkk’kkvksa ds lkFk fgUnh dks Hkh tksM+k x;kA bl f}o’khZ; ikB~;dze esa fgUnh /ofu vkSj mPpkj.k ij vf/kd cy fn;k x;k gSA bVyh esa jkse] usiYl] rksfjuks] feyku] osful vkfn “kgjksa esa fgUnh i<+kbZ tkrh gSA jkse] rksfjuks ,oa feyku eas uxjikfydk }kjk pykbZ tk jgh dqN f”k{k.k laLFkkvksa esa fgUnh dk nks o’kksZa dk ikB~;dze gSA eq[; :i ls fgUnh f”k{k.k fiNys dbZ o’kksZa ls fujarj py jgk gSA ;g v/;;u Hkk’kk] lkfgU; vkSj laLd`fr ds Lrj ij gksrk gSA LohMu ds milkyk fo”ofo|ky; esa 1968 ls fgUnh i<+kus dh “kq:vkr gqbZA Hkkjroa”kh cgqy ns”kksa esa fgUnh f”k{k.k % vQzhdk egk}hi] iz”kkar egklkxj] dSjsfcvu lkxj esa ekWfj”kl] fQth] xqvkuk] lwjhukek] fVªfuMkM ,oa Vqcsxks ns”k gSa ftuesa Ms<+&nks lkS o’kksZ igys Hkkjrh; yksx igq¡ps FksA bu Hkkjrh;ksa us Hkkjrh; laLd`fr vkSj ijaijk dks cuk, j[kus ds lkFk&lkFk fgUnh Hkk’kk dk Hkh v/;;u&v/;kiu fd;kA ekWfj”kl ds iksVZ yqbZ fLFkr jkW;y dkWyst esa fgUnh dh i<+kbZ 1892 esa izkjaHk gqbZA ;gk¡ fgUnh f”k{k.k izkFkfed Lrj ls izkjaHk gksrk gSA ekWfj”kl fo”ofo|ky; esa ch-,- rFkk egkRek xka/kh laLFkku esa ,e-,- rFkk ih-,p-Mh- Lrj ij fgUnh ,d fo’k; gSA bl ns”k esa LoSfPNd fgUnh laLFkkvksa dk ;ksxnku इंदस े नाु ंचत

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fganh gSa ge oru gSa fgUnksLrka gekjk -------------------Lkgk;d xzaFk lwph%& 1- Hkk’kk&f”k{k.k rFkk Hkk’kk foKku] la0 czts”oj oekZ] dsanzh; fganh laLFkku] vkxjk 2- fgUnh f”k{k.k] MkW0 f”k[kk prqoZsnh] lw;kZ ifCyds”ku] esjB 3- gUnh f”k{k.k fof/k;k¡] fot; lwn] VaMu ifCyds”kUt] yqf/k;kuk] 4- fgUnh Hkk’kk&f”k{k.k] HkkbZ ;ksxsUnz thr] fouksn iqLrd efUnj vkxjk 5- ”kSf{kd rduhdh ds ewyvk/kkj] MkW0 ,l0 ih0 dqyJs’B] fouksn iqLrd efUnj] vkxjk 6- fgUnh f”k{k.k] ih0 ds0 vks>k] vueksy ifCyds”kal izk0 fy0] ubZ fnYyh 7- fganh f”k{kk fl)kUr ,oa O;ogkj] MkW0 ujs”k dqekj ;kno] vkjksgh IkfCyds”ku] ubZ fnYyh 8- Hkk’kk f”k{k.k] MkW0 johUnzukFk JhokLro] ok.kh izdk”ku] ubZ fnYyh 9- Hkkjrh; dkO;”kkL= ,oa ik”pkR; lkfgR; fpUru] MkW0 lHkkifr feJ] t; Hkkjrh izdk”ku] bykgkckn 10- iz;kstuewyd fgUnh % fl)kUr vkSj iz;ksx] Jh naxy >kYVs] ok.kh izdk”ku] ubZ fnYyh 11- /keZ vkSj lekt] MkW0 loZifYy jk/kkd`’.ku] jktiky ,.M lUt] d”ehjh xsV fnYyhA 12- fgUnh fofo/k vk;ke] laiknd Jh vkuan ikfVy] r{kf”kyk izdk”ku] nfj;kxat] ubZ fnYyhA 13- fgUnh CykWfxax dk bfrgkl] johanz izHkkr] fgUnh lkfgR; fudsru fctukSj] Hkkjr] o’kZ&2011 14- fof/k Hkkjrh] laiknd&larks’k [kUuk] “kkyhekj ckx] fnYyh 15- Hkk’kk foKku dh Hkwfedk] vkpk;Z nsoUs nzukFk “kekZ] nhfIr “kekZ] jk/kkd`’.k] nfj;kxat] ubZ fnYyhA 16- fgUnh lkfgR; dk bfrgkl] vkpk;Z jkepUnz “kqDy] dey izdk”ku] nfj;kxat] ubZ fnYyhA 17- vk/kqfud Hkk’kk foKku] MkW0 HkksykukFk frokjh] fyfi izdk”ku] d`’.kuxj] ubZ fnYyhA 18- fgUnh Hkk’kk] MkW0 HkksykukFk frokjh] fdrkc egy] ubZ fnYyhA 19- fgUnh mn~Hko fodkl vkSj :i] MkW0 gjnso ckgjh] fdrkc egy] bykgkcknA 20- Hkk’kk foKku ,oa Hkk’kk”kkL=] MkW0 dfiynso f}osnh] fo”ofo|ky; izdk”ku] pkSd okjk.klhA 21- fgUnh Hkk’kk ukxjh fyfi] ds”ko nRr :okyh] xzUFkky; izdk”ku] loksZn; uxj] vyhx<+A 22- ledkyhu i=dkfjrk ewY;kadu vkSj eqn~ns] laiknd&jktfd”kksj] ok.kh izdk”ku] ubZ fnYyhA 23- l`tu'khy thou vkSj f'k{kk] ¼Rlqul s kcqjks ekdhxqph ds fopkj vkSj lq>ko½] laiknd &Msy ,e csFksy] vuqokn v”kksd yky] us'kuy cqd VªLV bafM;k] calUr dqat] ubZ fnYyh 24- izkFkfed fo|ky;% f”k{kd vkSj f”k{k.k&i)fr;kW]a ¼fxtqHkkbZ&vuqokn& jkeujs”k lksuh½ ltZuk izdk”ku] f'kockM+h jksM]+ chdkusjA 25- xkWa/kh ds ”kSf{kd fopkj] jk’Vªh; v/;kid f”k{kk ifj’kn~] ubZ fnYyhA 26- Hkkjr esa izkjfEHkd f”k{kk Lora=rk ls iwoZ rFkk Ik'pkr~] ,l xqIrk] ts lh vxzoky] f”kizk izdk”ku] fodkl ekxZ] ubZ fnYyhA 27- Hkkjr esa f”k{kk O;oLFkk dk bfrgkl] ts lh vxzoky] f”kizk izdk”ku] fodkl ekxZ] ubZ fnYyhA 28- Hkkjr esa ek?;fed f”k{kk] ts lh vxzoky] f”kizk izdk”ku] fodkl ekxZ] ubZ fnYyhA 29- Ekkuo vf/kdkj f”k{kk] ,u ,l cD”kh] izsj.kk izdk”ku] jksfg.kh] ubZ fnYyhA 30- jk"Vªh; ewY; ,oa ekuokf/kdkj f”k{kk] Mk0 f”kjh’k iky flag] , ih ,p ifCyf”kax dksjiksjs”ku] valkjh jksM+] nfj;kxat] ubZ fnYyhA

इंदस े नाु ंचत

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विश्ि में हिन्दी भाषा के मित्ि प्रोफेसि शसमाला त्रिस्सा प्रस्तािनासंस्त्कृतत व भार्ाओं की ववसभन्द्नताओं से समद्ध ृ भारत दे र् में दहन्द्दी भार्ा सवाषधधक व्यवहार

में लायी जाने वाली भार्ा रही है । लगभग ८०% जनता द्वारा दहन्द्दी भार्ा का उपयोग करने के कारण दहन्द्दी जन संम्पकष की भार्ा कहलाती है। समय के साथ-साथ दहन्द्दी भार्ा का क्षेर व रुप भी ववस्त्तत ृ होता गया। अनेकों बदलावों का भी अपनाता गया। अपने समद्ध ृ एवं गौरवर्ाली इततहास के कारण तथा अपनी सरलता व सौन्द्दयष के कारण दहन्द्दी का हर क्षेर में

ववकास हुआ और इस कारण हमारी दहन्द्दी भार्ा भारत की सीमाओं को पार कर ववश्व के अनेकों दे र्ों में अपना प्रभाव जमाती गयी। भारत की संस्त्कृतत दे र्ों के लोगों को अपनी ओर आकवर्षत करती गयी। इतना ही नहीं ववश्व में तनरं तर फ़लती फ़ूलती रही है । संपूणष ववश्व में

कुछ ही भार्ाओं को अन्द्तराषष्रीय स्त्तर की मान्द्यता प्राप्त हुई है और दहन्द्दी भार्ा उसमें से एक है । दहन्द्दी भार्ा अपने उदार, व्यापक व समन्द्वयवादी प्रकृतत के कारण भारत की अन्द्य भार्ाओं को भी अपने में समेटती हुई सभी भारतीय प्रदे र्ों के सलये अवगाहन में बरवेणीवत ससद्द हुई है । अपनी ऐसी प्राकृततक ववसर्ष्टता के कारण ही दहन्द्दी भार्ा का व्यवहार आज

ववश्व के अन्द्य राष्रों में भी हो रहा है। आजादी के बाद दहन्द्दी भार्ा के महत्व को तनरन्द्तर आगे बढाने में दे र् के प्रत्येक राज्य का ववर्ेर् हाथ रहा है । पब्श्चम के भार्ा ववर्ेर्ज्ञों कों तथा वैज्ञातनकों ने भी दे वनागरी सलपी को दतु नया की अन्द्य सलवपयों से अधधक र्ास्त्रसंगत व वैज्ञातनक माना है । दहन्द्दी भार्ा ने अपने माधय ु ष, अनगढ सौन्द्दयष एवं ववसर्ष्ट रस के कारण

ववश्व के अनेक दे र्ों के लोगों को अपना मुरीद बनाया है । अपनी इन्द्ही ववसर्ष्टताओं के

कारण दहन्द्दी भार्ा भारतीय संस्त्कृतत को ववश्व के अन्द्य भागों में अनेकों स्त्तरों पर प्रचाररत-

प्रसाररत करने में सफ़ल रही है । ववश्व स्त्तर पर अपने महत्व को कायम करने के मुख्य कारणों में दहन्द्दी भार्ी लोगों का ववश्वभर में व्यापार करने के सलये, सर्क्षा के सलये बसना व

आवागमन मुख्य रहा है । एक अनुमान के अनुसार १३२ राष्रों में भारतीय मूल के लोग है ,जो दहन्द्दी भार्ा की जानकारी रखते हैं।

दहन्द्दी भार्ा का महत्व वैब्श्वक स्त्तर पर तनम्न बबंदओं के आधार पर भली प्रकार समझाया ु जा सकता है ।

१.धासमषक एवं दार्षतनक क्षेर के द्वारा ववश्व में दहन्द्दी के महत्वधमष एवं दर्षन का योगदान दहन्द्दी भार्ा के वैब्श्वक महत्व में ववसर्ष्ट रुप से रहा है । सनातन धमष या अन्द्य भारतीय धमष सददयों से वैब्श्वक स्त्तर पर ववर्ेर् आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। सनातन धमष एवं दर्षन से संबंधधत ज्ञान मुख्य रूप से दहन्द्दी भार्ा में संजोया रखा गया है ।

भारतीय धासमषक संस्त्था इस्त्कान ने सनातन धमष के सलये वैब्श्वक स्त्तर पर बडा ही महत्वपूणष इंदस े नाु ंचत

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काम फकया है ब्जससे दहन्द्दी भार्ा का महत्व अन्द्य राष्रों में ववस्त्ताररत होने लगा व कई राष्रों के बौवद्धक वगष के नागररक दहन्द्दी भार्ा को सीखने लगें साथ-साथ दहन्द्दी भार्ा के ज्ञान की जानकारी प्राप्त करके महत्व को प्रचाररत करने लगे। इस प्रकार धमष व दर्षन के कारण भी दहन्द्दी भार्ा आज ददन-प्रततददन प्रगतत के सर्खर को छू रही है । अन्द्य र्लदों में हम यह

भी कह सकते हैं फक भारतीय धमष व दर्षन र्ास्त्र का अन्द्य राष्रों में संस्त्थाओं जैसे फकइस्त्कान, रामकृष्ण समर्न, आटष आफ़ सलववंग, तथा व्यब्क्त ववर्ेर् द्वारा जैसे फक- स्त्वामी रामकृष्ण

परमहं स, स्त्वामी वववेकानंद,गुरू रववर्ंकर आदद व्यब्क्तयों द्वारा प्रचार-प्रसार के प्रयासों से बुदद्दजीववयों में भारतीय धमष एवं दर्षन को और गहनता से जानने की ब्जज्ञासा जाग्रत होकर

बढती ही गई ब्जसके पररणाम स्त्वरूप तीव्र ब्जज्ञासा ने दहन्द्दी भार्ा का ज्ञान प्राप्त करने के सलये प्रेररत फकया । इसके अलावा यह कहना भी उधचत होगा फक जो भारतीय ववदे र्ों में

जाकर बसे वो अपने साथ अपने धासमषक ग्रंथों को भी लेकर गये जहाूँ ववदे र्ी धमों का अनुकरण न करते हुये अपने ही धमों का अनुसरण फकया ऐसे महत्वपूणष कारणों से भी दहन्द्दी भार्ा का महत्व बढता चला गया। उदाहरण के तौर पर फफ़जी में सबसे पहले दहन्द्दी का प्रवेर् ९ मई १८७९ में हुआ। सांस्त्कृततक कायषिमों के आयोजन जैसे रामायण, भजन मूँडसलयाूँ ,राम और कृष्ण लीलाओं के माध्यम से दहन्द्दी भार्ी एवं दहन्द्दी फफ़जी वाससयों के ददलों में समा

गये। ऐसे प्रमख ु कारणों से आज दहन्द्दी फफ़जी में मख् ु य द्ववतीय भार्ा के रूप में ववकससत हो चक ु ी है । माररर्र् भी दहन्द्दी के महत्व से अछूता नहीं है । जहाूँ पर हजारों की तादाद में

भारतीय राज्यों जैसे फक- उत्तर प्रदे र् व बबहार से लोग श्रसमकों की है ससयत से जाकर बस गये। ये लोग अपने साथ तल ु सीकृत रामायण, सत्यनारायण कथा आदद साथ में ही लेकर

गये। बाद के समय में गीता, सत्याथष प्रकार् आदद धासमषक ग्रथों द्वारा भी दहन्द्दी भार्ा का महत्व माररर्र् में बढ़ता गया। सन १९१० में ही यहाूँ आयष समाज की स्त्थापना हुई ब्जससे दहन्द्दी भार्ा का महत्व और अधधक बढा। १९३५ में दहन्द्दी प्रचाररणी सभा की स्त्थापना की गई । १९४९ में सभी सरकारी पाठर्ालाओं में दहन्द्दी की पढ़ाई होने लगी। डा. मखणलाल जी ने दहन्द्दी और अग्रें जी में ‘दहन्द्दस्त् ु तानी’ पर प्रकासर्त फकया इसी प्रकार अन्द्य राष्रों जैसे गुयाना, बरतनदाद में भी दहन्द्दी का महत्व धमष एवं दर्षन के माध्यम से बढता चला जाता रहा है । मैं यहां एक और उदाहरण सन १९८८-८९ में दरू दर्षन पर प्रसाररत होने वाले दहन्द्दी धारावादहक ‘महाभारत’ का प्रस्त्तुत करना चाहती हुं, ब्जसके संवाद सलखने वाले दहन्द्दी के जाने माने सादहत्यकार डा. राही मासूम रजा थे। राही जी ने मुसलमान होते हुए भी दहंदओं के महान ग्रंथ का गहन अध्ययन कर दे र् में ु

ही नहीं ववदे र्ों में भी धमष के माध्यम से दहन्द्दी को जन-जन तक पहुूँचाने का महत्वपूणष कायष फकया। २. र्ैक्षखणक क्षेर द्वारा ववश्व में दहन्द्दी के महत्व-

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एसर्या महाद्वीप,यूरोप महाद्वीप, पूवी यूरोप, अफ़्ीका महाद्वीप, में दहन्द्दी भार्ा का महत्व उच्च सर्क्षण संस्त्थाओं में भली-भाूँतत दृब्ष्टगोचर हो रहा है । एसर्या महाद्वीप के दे र् जैसे-

चीन में दहन्द्दी उपन्द्यासों के अनुवाद और दहन्द्दी पबरका ‘सधचर चीन’का प्रकार्न हुआ तो जापान में ‘ज्वालामुखी’ नामक पबरका का प्रकार्न हुआ। दहन्द्दी की राबर में कक्षाओं का चलना आरं भ भी हुई। इन्द्हीं कारणों से दहन्द्दी का महत्व तो बढा ही दहन्द्दी की पहचान भी बढी। मलेसर्या में पहले दक्षक्षण भारत दहन्द्दी प्रचार सभा के द्वारा दहन्द्दी की परीक्षाओं को

चलाया जाता था। नेपाल, ससंगापुर, पाफकस्त्तान, श्रीलंका में भारतीयों की संख्या अधधक होने के कारण दहन्द्दी का स्त्नातक पाठ्यिम चलाया जाता है ।

यूरोप महाद्वीप में दहन्द्दी भार्ा के महत्व को बढाने में वहाूँ के तनवाससयों का मुख्य सहयोग और योगदान रहा है। बिटे न के तीन ववश्वववद्यालयों जैस-े लंदन, केंबिज तथा साकष में दहन्द्दी

का ववश्वववद्यालयीन स्त्तर का अध्ययन फकया जाता है । वहाूँ दहन्द्दी पबरकाओं ‘प्रवाससनी’ तथा साप्तादहक ‘अमरदीप’ के प्रकार्न के कारण भी दहन्द्दी का महत्व बढा है । पब्श्चमी जमषनी,फ़्ांस,बेब्ल्जयम

जैसे

दे र्ों

में

िमर्:

१४

ववश्वववद्यालयों

में

दहन्द्दी

का

अध्ययन,अध्यापन, मध्यकालीन दहन्द्दी सादहत्य का पाठ्यिम,आधतु नक पाठ्यिम को लागू फकया गया। ब्स्त्वजरलैण्ड,नावे, डेनमाकष के ववश्वववद्यालयों में दो वर्ीय दहन्द्दी के पाट्यिम

चलाये जा रहे है । इस प्रकार ववदे र्ों में र्ैक्षखणक क्षेर में दहन्द्दी भार्ा से संबंधधत गततववधधयों को दे खते हुए यह स्त्पष्ट होता है फक दहन्द्दी भार्ा अपने महत्व के कारण ववदे र्ों तक ववस्त्ताररत होकर अपना एक ववसर्ष्ट स्त्थान ले सलया है । पव ू ी यरू ोपीय दे र्ों में दहन्द्दी की

ब्स्त्थतत प्रारं भ से ही काफ़ी अच्छी रही है ।भारत व रूस (पव ू ष में सोववयत संघ) की समरता तो

जगजादहर है । मैंने स्त्वयं ने अपने बचपन में सोववयत संघ और सोववयत नारी जैसी पबरकाओं का अध्ययन फकया है । ऐसा अवसर मुझे दहन्द्दी भार्ा के ववश्व स्त्तर पर महत्व के कारण ही

समला था। इसके साथ ही ववर्ेर्रूप से दहन्द्दी सादहत्यकारों की रचनाओं का अनुवाद भी रूस में हो चक ु ा है । इसके अततररक्त चेकोस्त्लोवाफकया के

ववश्वववद्यालयों में भी पंचवर्ीय दहन्द्दी पाठ्यिम चलाये जाते है तो रोमातनया में चतुवर्ीय एवं बुल्गाररया में द्वी-स्त्तरीय पाठ्यिम चलाये जाते है ।

अमेररका की अगर बात करें तो उत्तरी अमेररका उपमहाद्वीप में पें नससलवेतनया में तो वर्ष १९४७ से ही दहन्द्दी अध्यापन की व्यवस्त्था र्ुरू कर दी गई थी। आज ब्स्त्थतत यह है फक २७ ववश्वववद्यालयों में ववसभन्द्न स्त्तरों पर दहन्द्दी भार्ा की सर्क्षा दी जा रही है । इसी तरह

सवषववददत है फक कनाडा में भारतीयों की संख्या काफ़ी अधधक है । जहाूँ पर ‘ववश्वभारती’जैसी एकस्त्तरीय प्रकार्न दहन्द्दी भार्ा को परकाररता के माध्यम से प्रचार-प्रसार में लगा है । और भी ऐसे अन्द्य दे र्ों जैसे क्यूबा, मैब्क्सको और वैनेजुअला में भी अनौपचाररक व औपचाररक

रूप से दहन्द्दी का सर्क्षण चल रहा है ।अफ़्ीका महाद्वीप में दहन्द्दी सर्क्षा संघ की स्त्थापना १९४८ में हो चक ु ी है । इंदस े नाु ंचत

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यहाूँ की सरकार ने तो दहन्द्दी को सर्क्षा ववभाग के स्त्तर पर मान्द्यता भी दे दी है । डबषन वेस्त्टववश्वववद्यालय में स्त्नातक स्त्तर तक दहन्द्दी अध्यापन की व्यवस्त्था भी हो चक ु ी है । और तो और वर्ों पूवष सन १९७४ से दहन्द्दी को ६से १० तक की माध्यसमक कक्षाओं के सलये एक

ववर्य के रूप में सरकारी स्त्वीकृतत भी समल चक ु ी है । ववश्व दहन्द्दी सम्मेलन चाहे भारत में हो चाहे ववदे र् में हो भारतीय हो या फफ़र ववदे र्ी इस सम्मेलन में भाग लेते आ रहे है। १०वाूँ ववश्व सम्मेलन का आयोजन भोपाल में फकया गया था। इस प्रकार के आयोजन से दहन्द्दी भार्ा के महत्व को बढावा समल रहा है और एक ददन हमारी दहन्द्दी भार्ा को राष्रभार्ा का मुकुट भी पहनाया जायेगा।

३. सांस्त्कृततक व कला क्षेर के द्वारा ववश्व में दहन्द्दी के महत्व-

भारतीय संस्त्कृतत व कला ने ववर्ेर्कर दहन्द्दी ससनेमा जगत और दरू दर्षन जगत ने वैब्श्वक स्त्तर पर ववर्ेर् रूप से ववदे सर्यों को दहन्द्दी भार्ा के प्रतत अपने आकवर्षत ही नहीं फकया वरन

भार्ा के महत्व को भी उजागर फकया है । सांस्त्कृततक एवं कला के क्षेर के द्वारा दहन्द्दी भार्ा

को जन-जन तक आकर्षक का केन्द्र बनाने में दहन्द्दी सादहत्य के मनीवर्यों, भारत सरकार और ववदे र्ी सरकार का महत्वपण ू ष योगदान रहा है । भारतीयों की सरलता, ग्राहन्द्यता , खानपान, पहनावा, रीतत-ररवाज, त्यौहार, धमष, दर्षन इन सभी ने ववदे र्ों में दहन्द्दी भार्ा को

महत्वपण ू ष स्त्थान पर प्रततब्ष्ठत फकया है ।भारतीयों की संस्त्कृतत ववदे सर्यों को रास आई तथा

उन दे र्ों के नागररकों ने भारतीयों को खल ु े ददल से अपनाया।भारतीय ववदे र्ों में दध ू -र्क्कर जैसे घल ु समल गये।इस प्रकार ववदे सर्यों ने भारतीय संस्त्कृतत को और नजदीक से जाननेपहचाने में अपनी रूची ददखाई। दहन्द्दी भार्ा को उन लोगों ने अपनाया ही नहीं महत्व भी

ददया। भारतीय फफ़ल्में तो ववदे र्ों में र्रू ु से ही वप्रय और आकर्षण का केन्द्र रही है ।दहन्द्दी ससनेमा जगत के नायक राजकपूर की फफ़ल्मों को बहुत पसंद फकया गया। फफ़ल्मों के माध्यम से नागररकों को दहन्द्दी भार्ा को सीखने के सलए भी प्रेररत फकया। इसी प्रकार दहन्द्दी का

महत्व बढता ही गया । आज के दौर में युवा फफ़ल्म तनदे र्क व तनमाषता ववदे र्ी भारतीय

समाज की पसंद को ध्यान में रखते हुये ही फफ़ल्मों का तनमाषण करने लगे है । वपछले कुछ वर्ों में बडे बजट की दहन्द्दी फफ़ल्मों का ववदे र्ों में प्रसारण होने से भारतीयों के सम्मान के अततररक्त उन दे र्ों के नागररकों को भी बहुत आकवर्षत फकया है । यह भी एक ववर्ेर् कारण रहा है फक अब ववदे र्ी दहन्द्दी सीखने लगे है । ववदे र्ों के कलाकार भारत में आकर हर प्रकार के र्ो में अपनी प्रस्त्तुतत

दे ने लगे है । मेरा मानना है फक महानायक असमताभ बच्चन दहन्द्दी भार्ा के महत्व को वैब्श्वक स्त्तर पर ववर्ेर् पहचान ददलाई है । ऐसे महान कलाकारों का मैं भारतवर्ष की ओर से हाददष क आभार प्रकट करती हू​ूँ। ४.राजनीततक क्षेर के द्वारा ववश्व में दहन्द्दी भार्ा के महत्व-राजनीततक क्षेर में दहन्द्दी भार्ा को वैब्श्वक स्त्तर पर सम्मान समल रहा है । दहन्द्दी को अन्द्तराषष्रीय मान्द्यता प्राप्त होने के कारण ववदे र्ों में ववदे र्ी सांसदों द्वारा ददये जाने वाले भार्ण उनकी आम भार्ा में होने पर इंदस े नाु ंचत

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भी वहाूँ पर उपब्स्त्थत नेतागण अपनी ही भार्ा में सुन सकते है । अत: ववदे र्ों में संपकष की भार्ा दहन्द्दी अपना जोर पकडती जा रही है। दहन्द्दी भार्ा ने राजनीततक क्षेर में लोकवप्रयता एवं व्यवहाररकता हाससल की है । प्रर्ासन और सांसदीय क्षेर में ववदे र्ी नेता जो भारतीय सांसद है उनके द्वारा ददये जाने वाले भार्ण को दहन्द्दी में अनुवाद केन्द्रीय अनुवाद लयूरों के कायषरत अधधकाररयों से करवाया जाता है ।

दहन्द्दी भार्ा का प्रभाव राजनीततक रूप से अभी हाल ही में दे खने को समला। अवसर था पूवष अमेररकी राष्रपतत बराक ओबामा क भारत आगमन ददल्ली ब्स्त्थत हराइदबाद हाउस में सभा

को संबोधधत करते हुए जब उन्द्होंने यह कहा फक "नमस्त्ते, मेरा प्यार भरा नमस्त्कार।" तो ऐसा लगा फक दहन्द्दी भार्ा ववश्व स्त्तर पर मुस्त्कुरा रही है । उन्द्होंने ववश्व के समस्त्त दहन्द्दी भावर्यों के ददल को छू सलया। भार्ण की समाब्प्त "चलें साथसाथ" के र्लदों के साथ समाप्त की। ववश्व के एक सबसे र्ब्क्तर्ाली राष्राध्यक्ष के

द्वारा दहन्द्दी भार्ा का इस तरह का प्रयोग से ववश्व स्त्तर पर एकता का भाव मुखररत होता ददखाई ददया। यह राजनीततक प्रभाव ओबामा ने दहन्द्दी भार्ा के र्लदों का प्रयोग करके ही

समस्त्त भारतीयों और ववश्वभर में फ़ैले भारतीयों पर जमाया। ववश्व की दो सबसे महत्वपण ू ष अथषव्यवस्त्थाओं को जोडने में दहन्द्दी एक महत्वपण ू ष औजार साबबत हुई है । राजनीततक क्षेर के प्रभाव से इस तरह दहन्द्दी भार्ा का महत्व ववश्व स्त्तर पर बहुत ही सराहनीय है । भारत के प्रधानमंरी माननीय श्री नरे न्द्र मोदी जी द्वारा ववदे र् याराओं के दौरान दहन्द्दी के

अधधकाधधक प्रयोग ने भी दहन्द्दी भार्ा के महत्व को ववश्व स्त्तर ववर्ेर्

लोकवप्रय बनाया। इसके अततररक्त अन्द्य राष्रों मे स्त्थावपत भारतीय दत ू ावासों द्वारा दहन्द्दी भार्ा के प्रयोग से दहन्द्दी भार्ा का महत्व राजनीततक रूप से ववश्व स्त्तर पर बढा है । तनष्कर्ष:

ववश्व

स्त्तर

पर

दहन्द्दी

भार्ा

का

महत्व

धासमषक,

सांस्त्कृततक,

दार्षतनक,

र्ैक्षखणक,राजनीततक कायषिम के आयोजनों से ववश्व के उत्तर-दक्षक्षण तक फ़ैल रही है । दहन्द्दी संपकष भार्ा के रूप में होने के कारण कला क्षेर में ववदे र्ी चैनल भी सवाषधधक कायषिम दहन्द्दी में प्रसाररत कर रहे हैं अत: दहन्द्दी भार्ा का महत्व अंतराषष्रीय स्त्तर पर संपकष भार्ा के रूप में उभर कर सामने आयी है । साथ-साथ व्यवसातयक क्षेर में भी सफ़ल हुई है । संदभष सूची: १. दहन्द्दी और हम - ववद्यातनवास समश्र, नई ददल्ली २. दहन्द्दी भार्ा - नारायण कुमार, बेलगोर

३. प्रयोजन मूलक दहन्द्दी, अधन ु ातन आयाम - डा. अंबादास दे र्मुख, कानपूर ४. मैसूर दहन्द्दी प्रचार पररर्द पबरका - ससतंबर २०१५, बैंगलूरू

५. सज ृ न रैमाससक पबरका - नामदे व एम. गौडा - जनवरी -माचष २०१६

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‘भूले-त्रिसिे धचत्र’ में व्यक्त समाज का स्िरुप

र्ाइस्त्ता सैफ़ी (र्ोधाथी ) सादहत्य और समाज का संबंध बहुत गहरा है सादहत्य मानव कल्याण और प्रगतत के सलए आवश्यक और समाज का तनयंरक है | मनुष्य समाज में रहता है वह समाज से प्रभाववत होता है समाज को प्रभाववत करता है और वही सादहत्य की रचना भी करता है | जो रचनाकार सामब्जक जीवन की

गहराईयों में ब्जतना ही अधधक उतर सकने की क्षमता रखता है , उसकी रचना उतनी ही अधधक जीवंत होती है इस संबंध में बाबू गल ु ाबराय सलखते है , “समाज कवव और लेखकों को बनाता है और लेखक तथा

कवव समाज को बनाते हैं | दोनों में आदान-प्रदान तथा फिया-प्रततफिया भाव चलता रहता है यही 1 सामाब्जक उन्द्नतत का तनयामक सर ू बनता है |”

समाज और सादहत्य का संबंध अनाददकाल से चला आ रहा है आदद कवव वाब्ल्मकी ने अपने

महाकाव्य रामायण में एक आदर्ष सामाब्जक व्यवस्त्था को धचबरत फकया है | अपने दृब्ष्टकोण के अनस ु ार समाज के ववसभन्द्न पहलओ ु की वववेचना करते हुये वाब्ल्मकी ने ससद्ध फकया है फक मानव समाज फकस प्रकार आदर्ष रूप में पररणत हो सकता है |इस बात का संबंध जीवनप्रकार् जोर्ी के तनबंधों में भी दे खने को समलता है ,‘‘हम सब कहते है फक सादहत्य और समाज का संबंध गहरा है फकन्द्तु सादहत्य समाज का दपषण नहीं, अवपतु उसका द्वीप भी है | फकसी भी दे र्काल में समाज का प्रततबबंब हम

सादहत्य में पा सकते है और इससे अधधक महत्वपूणष हम उसमे पाते है समाज का प्रतततनधधत्त्व उसे क्या से क्यों, कैसा होना चादहये ? इसका प्रभावर्ाली और प्यारा सन्द्दे र् | समाज सादहत्य को प्रेरणा

और यर् दे ता है यों समाज यदद सादहत्य को अपना ऋण दे ने में महत्वपूणष है तो सादहत्य उस ऋण को 2 चक ु ाने के साथ रस दे ने में महान है |’’

समाज में जब-जब र्ोर्ण, अत्याचार, ववर्मताएं अन्द्याय बढ़ता है तब-तब सादहत्य सभी प्रकार के

कारकों एवं ववसंगततयों पर नज़र रखकर समाज को स्त्वस्त्थ मानससक दृब्ष्टकोण प्रदान करता है | “कासलदास, सरू , तुलसी पर हमें गवष है , क्योंफक उनका सादहत्य हमें संस्त्कृतत और एक जातीयता के सूर में बांधता हैं | जैसा हमारा सादहत्य होता है उन्द्ही के अनुकूल हम कायष करने लगते है | सादहत्य केवल समाज का दपषण मार न रहकर उसका तनयामक और उन्द्नायक भी होता है |”3

समाज में हो रही गततववधधयों, पररवतषनों आदद का तत्कालीन सादहत्य के माध्यम से पररचय

प्राप्त करना फकसी भी सादहत्यकार के सलए बहुत ही सहज है | भगवतीचरण वमाष ने भी अपने सादहत्य में तत्कालीन समाज का वणषन ववववध रूपों में फकया है | वह दहंदी सादहत्य में एक उपन्द्यासकार,

कहानीकार, नाटककार एवं कवव के रूप में प्रससद्ध है | उनकी अनुभूतत एक ववर्ेर् प्रकार की है | स्त्वभाव में मस्त्ती और फक्कडपन होने के कारण इनका सादहत्य और भी प्रभावकारी बन गया है | उनके इंदस े नाु ंचत

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व्यब्क्तत्व की एक झलक – “हम दीवानों की क्या हस्त्ती है , आज यहाूँ कल वहां चले’’|4 इस प्रकार की अनुभूतत उन्द्हें एक नवीन क्षक्षततज पर ला खड़ा कर दे ती है |

वमाष जी ने अपने सादहत्य में पररवततषत सामाब्जक धारा को मध्य वगष के माध्यम से व्यक्त फकया

हैं | वह कहानीकार एवं कवव के साथ-साथ एक श्रेष्ठ उपन्द्यासकार के रूप में भी प्रससद्ध है | वमाष जी ने तत्कालीन समाज को दे खा तथा उसके पररवेर् को समझा और उसी को आधार बनाकर अपनी कृततयों का सज ृ न फकया है | भारतीय इततहास के अत्यंत महत्वपूणष एवं संिमणर्ील युग को उन्द्होंने दे खा एवं भोगा था | ब्जसमे दे र् सामाब्जक समस्त्याओं से जूझ रहा था | पदाष-प्रथा, अछूत समस्त्या, जातत प्रथा,

धासमषक आडम्बर, नारी सर्क्षा आदद फकतनी ही समस्त्याओं में भारतीय समाज उलझा हुआ था| वमाष जी

ने अपनी रचनाओं द्वारा तत्कालीन समाज का सजीव धचर प्रस्त्तुत फकया है | |इस संबंध में धमषवीर भारती का कथन है , ‘‘भगवतीचरण वमाष मेरी दृब्ष्ट में , दहंदी के अकेले कथाकार हैं ब्जन्द्होंने

अपने उपन्द्यासों के माध्यम से इस पूरी र्तालदी में भारतीय सामाब्जक ढांचे के बाहरी और

अंदरूनी ठहरावों और बदलावों का िमबद्ध धचरण फकया है और न केवल सामाब्जक, पाररवाररक टूटते-बनते संबंधों का एक िमबद्ध धचरण फकया है बब्ल्क आंतररक भावात्मक उथल-पुथल को भी दे खा है | बाहरी तथाकधथत ऐततहाससक घटनाओं के फ्रेम को उतनी ही बखब ू ी ढं ग से तनभाते चले गए है | यह तो कमजोरी हमारी वत्तषमान दहंदी-समीक्षा की है वरना फकसी भी

भार्ा में यदद भल ू े-बबसरे धचर, सीधी-सच्ची बातें और प्रश्न और मरीधचका यह उपन्द्यास रयी प्रकासर्त होती तो भगवती बाबू की इस असाध्य अथषवान ऐततहाससक कथोप्लब्लध का महत्त्व पहचाना जाता|’’5

सन ् 1959 में प्रकासर्त उपन्द्यास भल ू े-बबसरे धचर महाकाव्यात्मक फलक को ध्यान में रखकर

सलखा गया उपन्द्यास है | भारतीय जीवन के ववववध पक्षों को समेटे हुये इस उपन्द्यास का कथानक लगभग पचास वर्ष के पररवतषन की झांकी प्रस्त्तुत करता है | यह व्यब्क्त को केंर में रखकर समय के पररवतषन को धचबरत करता है | सन ् 1885 से लेकर 1930 तक के कालखंड को लेखक इस उपन्द्यास में

पांच खण्डों के माध्यम से सामने रखता है | उपन्द्यास में एक पररवार की चार पीदढ़यों के कथािम से पाररवाररक व सामब्जक ढांचे में हो रहे पररवतषनों को प्रदसर्षत फकया गया है | मध्यवगष के उदय के साथ पररवार का सामंती ढांचा संयुक्त पररवार टूट जाता है | समाज का सामंती स्त्वरुप नष्ट हो जाता है |

पुराने ररश्तों की जगह नये आधथषक ररश्ते बन रहे है , सामन्द्तवाद टूटने की प्रफिया में है और पूंजीवाद का उदय हो रहा है | सर्वलाल ,ज्वालाप्रसाद ,गंगाप्रसाद और नवल िमर्ः चार पीदढ़यों का प्रतततनधधत्त्व करते है | चारों पीदढयों का साक्षी है ज्वालाप्रसाद| वमाष जी के उपन्द्यास का पररवेर् सामंतवाद के ववघटन और पूंजीवाद के उदय का प्रस्त्तुतीकरण है |

पररवार के क्षेर में यह प्रफियाए एक ओर सामंतवाद के साथ ववघदटत होते हुये संयक् ु त पररवार में वपता-

पुर, भाई-भाई, चाचा-भतीजे आदद संबंधों में आये पररवतषन के रूप में असभव्यक्त हुई है , तथा दस ू री ओर वे वववाहे तर प्रेम संबंधो और इन सब के साथ जुड़े हुये पाप-पुण्य के प्रश्नों को भी तलार्ती है |

परम्परा एक असलखखत प्रफिया है जो एक पीढ़ी से दस ू री पीढ़ी को अनजाने में सौंप दी जाती है |

वस्त्तुतः यह भावना या ववचार के स्त्तर पर उतरती है | व्यब्क्त मूल्य ही सामाब्जक मूल्य का आधार है इंदस े नाु ंचत

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और सामाब्जक मूल्य ही व्यब्क्त मूल्य का प्रेरणा स्रोत है | एक का ववघटन दस ू रे का ववघटन है | लेखक ने ‘भूल-े बबसरे धचर’ में ववसभन्द्न पररब्स्त्थततयों में एक पररवार की परं परा और उसके सामाब्जक मूल्यों में

हुये पररवतषन को ववस्त्तार से ददखाया है | सामंती व्यवस्त्था में जन्द्मे और पले सर्वलाल का जीवन मूल्य परम्परागत स्त्वाथष भावना से सना है | धोखा-धड़ी, जाल-साज़ी और भोग ववलास तक ही उनका जीवन मूल्य सीसमत है | सलीमा बीबी की ज़मीदारी गलत तरीके से हड़पने से इनकार कर दे ने पर सर्वलाल

अपने बेटे को डांटता है तब ज्वालाप्रसाद उत्तर दे ता है , ‘‘अपनी सच्चाई और इमानदारी को मैं आप तो 6 क्या भगवान खद ु आकर भी छोड़ने को कहे तो इनकार कर दं ग ू ा|’’ ज्वालाप्रसाद के इस मूल्य बोध के

सामने सर्वलाल पराब्जत हो जाता है | सर्वलाल के सामन्द्ती और स्त्वाथष से सने ववचारों पर ज्वालाप्रसाद के मानवीय मूल्य हावी हो जाते है लेफकन गंगाप्रसाद की पीढ़ी तक आते-आते मानवीय मूल्यों का ववघटन र्ुरू हो जाता है | गंगाप्रसाद अपने तक सीसमत है , अपने स्त्वाथष अपने भोग ववलास और अपनी पदमयाषदा तक |

सामंतर्ाही और पूंजीवाद के संघर्ष में वमाष जी ने जहाूँ बरजोरससंह, भूपससंह,

चंदभूर्ण ससंह आदद के माध्यम से सामंतर्ाही और घासीराम, मेवालाल और प्रभुदयाल के

माध्यम बतनया संस्त्कृतत की संस्त्कारगत प्रवतृ तषयों को सफलता के साथ उभरा है | वहीं बरजोर का पतन तथा उसके पररवार को फकसान बनने के सलए भी जैदेयी की कृपा पर तनभषर ददखाकर सामंतर्ाही के पतन और वखणक वगष के ववकास को उतनी ही खब ू ी के साथ प्रस्त्तत ु

फकया है | बदलते यग ु की सच ू ना लेखक दे ता है -‘‘आज की मान्द्यतायें बदल गई है | ब्जस जगह तम ु हों, यहाूँ हर चीज़ बबकती है - दीन ईमान, सत्य, चररर| यह पंज ू ीवाद का यग ु है यह बतनयों की दतु नया है ,सब कुछ बबकता है |’’7

आधतु नक यग ु में अथष के प्रभावस्त्वरूप मानवीय संवेदना फकस प्रकार चकनाचरू हुई है वमाष जी के

सादहत्य में इसका यथाथषपरक धचरण समलता है | अथष आज के मानव की इतनी बड़ी आवश्यकता बन गया है फक एक मनुष्य दस ू रे मनुष्य को बराबर का दजाष दे ने के सलए तैयार नहीं है | पैसे ने मनुष्य में वगष खड़े कर ददये है | जहां ईमानदारी और मानवीयता जैसे गुण कोई महत्त्व नहीं रखते बस पैसा ही सब कुछ है | जैदेयी अपनी मत्ृ यु के समय गंगाप्रसाद को अपने कुछ जेवर और नकदी दे ना चाहती थी लेफकन

लक्ष्मीचंद को यह पसंद न था और वह मत्ृ युर्य्या पर पड़ी अपनी माूँ से गाली-गलोंच करने से भी नहीं चक ू ता | जैदेयी अपनी व्यथा कहती है - भगवान ने मझ ु े सहने को जो पैदा फकया था | पतत ददया-बेईमान

और तनमषम कोख से पैदा फकया बेटा- बेईमान और तनमषम | दतु नया को इन दोनों ने फकतना सताया

है |’’8 मत्ृ युर्य्या पर पड़ी जैदेयी के साथ लक्ष्मीचंद के दव्ु यषवहार के माध्यम से उपन्द्यासकार ने माूँ बेटे के संबंध में भी अथष की भयावह कुरूपता को रे खांफकत फकया है |

भारतीय समाज में नारी के र्रीर के साथ नैततकता का बड़ा गहरा संबंध रहा है | फकसी न फकसी रूप

में यह ववचार आज के आधतु नक समाज में भी जीववत है | यग ु ों से चले आ रहे स्त्री-पुरुर् के भेदभाव पूणष

संबंधों को वमाष जी ने अपने उपन्द्यासों में स्त्थान ददया है | युग-युग से पीडड़त इस नारी जातत को अपना

उधचत स्त्थान ददलाने का प्रयास फकया है | ववसभन्द्न रूपों में स्त्री का र्ोर्ण हो चक ु ा था | बेचारी स्त्री

ब्जस रूप में वह अपना जीवन जीती थी उसे दे खकर र्ायद ही कोई ववश्वास करे फक वह एक सजीव प्राणी इंदस े नाु ंचत

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है | र्ारीररक कोमलता, आधथषक असमथषता के बहाने सामाब्जक और पाररवाररक जीवन में उसका कतषव्य ब्स्त्थर कर ददया गया था | उसकी सीमा बाूँध दी गई थी | वेश्या को समाज में हीन समझने की जो यह परम्परा चल पड़ी थी उसके ववपरीत वमाष जी ने उसको स्त्थान ददलाना चाहा-“मैंने अपनी ख्वादहर् ज़ादहर की फक में नेक और इज्ज़त और आबरू की ब्ज़न्द्दगी बसर करना चाहती हू​ूँ | वह बोले

अगर तुम चाहो तो मैं तुमसे र्ादी कर सकता हू​ूँ, तुम्हें इस ब्ज़न्द्दगी से ऊपर उठा सकता हू​ूँ |’’9 संतो अपने पतन के सलए गंगाप्रसाद को दोर्ी मानती है , मेरे दे वता, तुम्ही ने तो मुझे वह बनाया,जो मैं हू​ूँ |’’10

पुरुर् ने हर प्रकार से नारी को कमज़ोर, दब ष और असमथष समझा है , उसमे यह भावना भर दी ु ल

है फक वह अबला है अपने बल पर कुछ कर नहीं सकती | दहे ज़ के कारण ववद्या अनेक प्रकार की यातनाएं सहती है | अथष वपर्ाच बबन्द्दे श्वरी दहे ज़ के लोभ में अपने बेटे का दस ू रा वववाह करना चाहता है

और वह नवल से कहता है - “अपनी इस डाइन बहन को ले जाइए, हम लोगों की जान बखसर्ए’’11 अब

इस घर में पैर न रख पाओगी इतना समझ लेना”12 ववद्या भी तुरंत जवाब दे ती है – तुम लोगों का घर

नरक है | यमुना के समान ववद्या सब कुछ सहन करके घर में बैठने वाली स्त्री नहीं है | वह इस नरक से

तनकलकर नौकरी करती है , आत्मतनभषर बनती है | जब उसको पता चलता है फक ससध्धेश्वरी ने दस ू रा दस ू रा वववाह कर सलया है तो वह दख ु ी होने के बजाय उसको अपनी मब्ु क्त मानती है | इस प्रकार वमाष जी ने जहां एक ओर स्त्री के ऊपर हो रहे अत्याचारों को ददखाया है तो साथ ही उसको हर पररब्स्त्थततयों से लड़कर आगे बढ़ने का मागष भी प्रर्स्त्त फकया है | वमाष जी ने अपने कथा सादहत्य के माध्यम से समाज के ववववध पहलओ ु ं को दे खने का साहस

फकया है | उनके उपन्द्यासों में मख् ु यतः मध्यवगष की सामाब्जक ब्स्त्थतत का धचरण हुआ है | सामाब्जक,

आधथषक, राजनीततक आदद सभी क्षेरों में हो रहे पररवतषन को पारों के माध्यम से बड़ी कलात्मकता के साथ व्यक्त फकया है | अपने समकालीन उपन्द्यासकारों में उनका महत्वपण ू ष स्त्थान है जब जैनेन्द्र व इलाचंद जोर्ी व्यब्क्त मन के ववश्लेर्ण में लगे हुए थे तब भी वे सामाब्जक यथाथष का धचरण कर रहे थे| सन्द्दभष ग्रंथ:

1- गुलाबराय – काव्य के रूप, आत्माराम एंड संस ददल्ली- 1954

2- जोर्ी, जीवनराम, नवनीत तनबंध, साधना प्रकार्न, भागलपुर –1987

3- गुप्ता वी०डी०, सादहत्य समाजर्ास्त्रीय सन्द्दभष, सीताराम प्रकार्न, हाथरस-1987

4- डा० नगेन्द्र, डा० हरदयाल: दहंदी सादहत्य का इततहास, पैतीसवा संस्त्करण – 2009 -प०ृ –543

5- नवल फकर्ोर, आधतु नक दहंदी उपन्द्यास और मानवीय अथषवत्ता, प्रकार्न संस्त्थान, नई ददल्ली, प्रथम संस्त्करण1977- प०ृ - 160

6- भूले बबसरे धचर, भगवतीचरण वमाष रचनावली खंड -1 राजकमल प्रकार्न प्रथम संस्त्करण:2008 प0ृ - 85 7- वही, प०ृ -214

8- वही, प०ृ –247

9- वही, प०ृ – 344 10- वही, प०ृ –247 11- वही ,प०ृ –446

12- वही, प०ृ – 448

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iq= ds fy, rM+i mBrh gSA vius iq= dh gkyr ns[k mls cM+k vk?kkr igaqprk gSA og viuh iq=h uank vkSj iq= dh fpark djrs&djrs viuh vka[ksa ewan ysrh gS% ^^nzkSinh dk <hyk gks vk;k gkFk uank vkSj “kjn ds flj ij fQjus yxkA mlus “kjn dk gkFk eksrhjke th ds gkFkksa esa Fkek fn;kA rHkh mls ,d tksj dh fgpdh vk yxhA vxys gh {k.k mlds izk.k i[ks: mM+ x,A**4 blh miU;kl dh #de.kh Hkh vkn”kZ Hkkjrh; eka ds :i esa fpf=r gqbZ gSA og vius e`r iq= dks ;kn djrh gqbZ jksrh jgrh gS& ^^#de.kh xkS”kkyk dh vksj tk jgh FkhA “kjn ds dejs ds ckxs os fBBd xbZA “kjn ds vksBksa ij fc[kjh gqbZ ml LofIuy eqLdku dks os ns[krh gh jg xbZA ,sls esa mls vius e`r iq= HkSjo gh ;kn vkus yxhA ml euksn”kk esa mudh vka[ksa Nyd vkbZA**5 viuh csVh t;k dh fonkbZ ds volj ij #de.kh ftl izdkj Hkkoqd gks mBrh gS mlls eka dh eerk mtkxj gksrh gS% ^^eka ds ân; esa rks ges”kk gh dks[k dh vkx ngdrh jgrh gSA csVh dh n”kk dks ns[kdj #de.kh Hkh rks Hkj vkbZ FkhA os nksuksa eka&csVh fiNyh jkr ls Hkw[kh FkhaA**6 ^fQj ogh cs[kqnh* miU;kl esa nsok vkSj nsok dh eka Hkh vkn”kZ Hkkjrh; eka gksus dk xkSjo izkIr djrh gSA nsok dh eka nsok dks vkn”kZ eka dh rjg le>krh&cq>krh gSA ,d csVh dks le>us dh {kerk Hkh eka esa gh gksrh gSA blhfy, rks nsok dh eka nsok dks I;kj ls le>krh gS% ^^;ksa vcsj&lcsj ugha vk;k djrs nsokA ;gka rks tSl& s rSls fuHkk fy;k] ijk, ?kj esa ;g lc ugha pysxk csVh! eka us mls feBklHkjh f>M+dh nhA muds ekFks gh lyoVksa ls yxrk Fkk tSls fd og nsok ds fy, cM+h ijs”kku jgh gksA** 7 blh izdkj nsok Hkh vkn”kZ Hkkjrh; eka dh Hkkafr vius cPps dh ns[kHkky djrh gS vkSj vius vHkkoxzLr thou ls tw>rh gqbZ vius cPps ds Hkfo’; ds lius ns[krh gS% ^^esgur etnwjh djrh gqbZ og vius fcTtw dks [kwc i<+k,xh&fy[kk,xh] ckj&ckj og vius bl ladYi dks nksgjkus yxrhA jks&jks dj ;|fi mldh vka[ksa igys tSls fueZy ugha jg ikbZ Fkha fQj Hkh] og viuh mu fu’iki vka[kksa esa thou ds Hkksys&Hkkys lius latksus yxh FkhA**8 ^eksM+ dkVrh unh* miU;kl esa egkuxjh; thou dh HkhM+&HkkM+ esa c<+rh ?kVukvksa ds dkj.k vkseh dh eka vkseh ds nsj ls ?kj ykSVus ij fpafrr fn[kkbZ nsrh gSA blds lkFk gh og vius csVs dh lsgr dh fpark djrh gqbZ fn[kkbZ nsrh gS] ftlls og ,d vkn”kZ eka ds :i esa lkeus vkrh gS% ^^?kj tYnh vk tk;k dj] vkse!w eeh us pSu dh lkal yh] bl fnYyh dk dksbZ Hkjkslk ugha gSA ;s [kwuh lM+dsa u tkus dc-------------eeh us vkyekjh ls xksn ds yM~Mw fudky fy,A mUgksua s vkseh ds vkxs yM~Mw j[k fy,] dqN [kk;k&fi;k dj csVs! rw rks “kq: ls gh detksj jgk gSA**9 blh miU;kl dh ek/koh ukjh pfj= Hkh vkn”kZ Hkkjrh; eka dh rjg viuh csVh pkanuh dh fpark djrh gS% ^^eeh ls pkanuh dk og yVdk gqvk psgjk ugha ns[kk x;kA mUgksua s iwNk] pkanuh D;k ckr gS \ rw [kksbZ&[kksbZ dSls jgus yxh gS\ &D;k dgwa eeh\ pkanuh us viuk flj eeh ds da/ks ij fVdk fn;kA og Hkh eeh ls ogh “kk”or iz”u iwNus yxhA ncax&ls&ncax vkSjr Hkh detksj D;ksa gksrh gS \ &detksjh rks vkSjr tkr dh fu;fr gS] csVh ek/koh dk gkFk mldk flj lgykus yxkA**10 buds ^uqekbans* miU;kl esa jek] jek dh eka] HkkbZ th dh eka ,slh Hkkjrh; ukfj;ka gSa tks eka ds :i esa viuh larku dh mfpr ijofj”k djrh gSaA bl miU;kl esa jek ds fo/kok gks tkus ij mldh eka mls gkSlyk nsrs gq, dgrh gS% ^^/khjt j[k csVhA इंदस े नाु ंचत

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ek;ds esa vkus ij eeh mlls gennhZ trykus yxh Fkha] fo/kkrk ds fy[ks dks dksbZ ugha esV ikrkA**11 blh miU;kl esa HkkbZ th dh eka mUgsa vPNs jkLrs esa pyus dks dgrh gSA HkkbZth jktuhfr esa fyIr jgrs gq, vussd xyr dkeksa ls /ku vftZr djrs gSaA HkkbZth dh eka ds }kjk mls le>kuk Hkkjrh; eka ds vkn”kZ dks izLrqr djrk gS% ^^NwVk gqvk rhj fQj ls okil ugha vkrk “kkarw! eka mUgsa /kS;Z ca/kkus yxh] vc rks rsjs fy, ,d gh jkLrk cpk gSA &oks D;k eka\ os eka dk eqag rkdus yxsA &viuk jktuhfr dk pksyk mrkj Qsd a A eka us dgk] viuh pknj esa fleV vkA**12 ^ykSVrs gq,* miU;kl dh “kqfp vkRegR;k djus dk dBksj QSlyk ysdj ?kj ls fudyrh gS] fdarq viuh csVh ds izfr eerk mls ?kj ykSVus ij etcwj dj nsrh gS% ^^eek! yfrdk vka[ksa eyus yxhA vxys gh {k.k og mldh Vkaxksa ls vk fyiVhA og lqcd mBh] ^rqe dgka pyh xbZ Fkh eeh\ “kqfp us fcfV;k dks mBkdj o{k ls lVk fy;kA vka[ks eqans gqbZ og mldh ihB lgykus yxhA yfrdk dk eeRo gh rks Fkk fd ,d cM+s gknls ls cky&cky cp vkbZ FkhA**13 ^lh[kpksa ds ikj* miU;kl esa “kkjnk] foeyk] fueZyk] jeyk vkfn Hkkjrh; ukfj;ka vkn”kZ eka ds :i esa fpf=r gqbZ gSaA “kkjnk ,d ,slh Hkkjrh; eka gS ftls viuh csVh ds fookg dh fpark lrkrh gSA blh dkj.k og vius ifr ls >xM+rs jgrh gS% ^^eSa iwNrh gwa fd vkidks csVh dh fpark gS ;k ugha\ ,d fnu rks “kkjnk ml ij cqjh rjg ls fcQj iM+h FkhA -------------------------- gka rks! “kkjnk vkSj Hkh QV iM+h Fkh] tc csVh iSnk dh gS rks mlds gkFk Hkh ihys djus gh gksx a sA og rks ijk, ?kj dk HkkaMk gSA**14 ^”kga”kkg&,&rgcktkjh* miU;kl dh xksik] Hkwisanz dh eka gjizhr dkSj Hkh vkn”kZ eka ds :i esa fpf=r gqbZ gSA xksik vius iq= jf{kr vkSj mlds HkkbZ&cguksa dks ykM+&I;kj ls ikyrh gS% ^^vkjke dqlhZ ij iljk gqvk jf{kr vius cpiu dks ;kn djus yxkA eka us mu pkjksa HkkbZ&cguksa dks fdrus ykM+&I;kj ls ikyk FkkA mls os fnu ;kn vkus yxs tc og NqViu esa eka dks O;FkZ ds gh lCtckx fn[kyk;k djrk FkkA &eka] eSa rsjs uke dk cgqr cM+k gksVy cukÅ¡xkA &eka] eSa rq>s fons”kksa esa ys tkÅ¡xkA bl ij eka eqLdjk dj mldk flj lgykus yxrh Fkh] vjs ixys! igys vius ikaoksa ij [kM+k rks gks ysA ;ksa vHkh ls D;ksa “ks[kfpYyh---------A**15 bl izdkj Li’V gS fd “khrka”kq Hkkj}kt ds miU;klksa esa fpf=r ukjh vkn”kZ eka ds :i esa viuk xkSjoiw.kZ LFkku izkIr djrh gSA buds miU;klksa esa fpf=r eka Hkkjrh; vkn”kZ ukjh gS tks fd eerk] R;kx] Lusg vkSj d#.kk dh lkxj gSA lanHkZ lwph1- ,d vkSj vusd] i`0 139 2- MkWDVj vkuan] i`0 47 3- nks ch?kk tehu] i`0 30 4- ,d vkSj lhrk] i`0 114 5- ogh] i`0 37 6- ogh] i`0 94 7- fQj ogh cs[kqnh] i`0 19 8- ogh] i`0 113

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9- eksM+ 101112131415-

dkVrh unh] i`0 14 ogh] i`0 79 uqekbans] i`0 18 ogh] i`0 175 ykSVrs gq,] i`0 133 lh[kpksa ds ikj] i`0 9 “kga”kkg&,&rgcktkjh] i`0 57


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Hkh’e lkguh dh dgkfu;ksa dk ifjos”k Vh- lqfurk dgkuh ds }kjk dFkkdkj tks Hkh dguk pkgrs gSa] mldks “kr izfr”kr laizs’k.k djus ds fy, fofHkUu rRoksa ds ek/;e ls O;Dr djrs gSaA lHkh rRoksa dks lgh vkSj mi;qDr i)fr esa fuokZg djus ls gh y{;flf) rd igq¡pk tkrk gSA blds fy, fuiq.krk ,oa ekSfyd izfrHkk dh vko”;drk gSA dgkuh dks fcydqy ikBd ds ân; rd igq¡pus ds fy, ifjos”k fp=.k dh vR;ar vko”;drk gSA D;ksfa d ifjos”k ds }kjk gh irk pyrk gS fd dgkuhdkj fdl ckr dks dguk pkgrs gSaA ;g ifjos”k ,d vko”;d xq.k gSA dgkuh dh fo’k;oLrq] ik=] Hkk’kk] “kSyh] os”kHkw’kk] vkpkj&O;ogkj] jgu&lgu vkfn ifjos”k ds vuq:i gh fpf=r djuk gSA Hkh’e lkguh dh dgkfu;k¡ % iatkch thou phQ dh nkor Hkh’e lkguh us ^phQ dh nkor* dgkuh esa ekuoh; laca/kksa ds ewY;kadu dk iz;Ru fd;k gSA ekrk&firk ds lkFk larku ds laca/k dks fn[kkuk bl dgkuh dk mÌs”; gSA feLVj “kkeukFk vkSj mudh iRuh dks ukSdjh dh rjDdh vkSj mlds }kjk feyusokyh HkkSfrd lq[k&laifRr ds vykok vkSj dqN lw>rk gh ugha gSA cM+s lkgc mu ls izlUu gksx a s rks in esa mUufr gksxhA cM+s lkgc dks [kq”k djus ds fy, os vius ?kj esa nkor dk vk;kstu djrs gSaA “kkeukFk vkSj mudh iRuh lksprs gSa fd cw<+h ek¡ dks ^^vanj ls njoktk can dj ysaA eSa ckgj ls rkyk yxk nw¡xkA ;k ek¡ dks dg nsrk gw¡ fd vanj tkdj lks;s ugha] cSBh jgsa vkSj D;k\1 vkSj ek¡] ge yksx igys cSBd esa cSBsx a sA mruh nsj rqe ;gk¡ cjkens esa cSBuk] fQj tc ge ;gk¡ vk tk;a rks rqe xqly[kkus ds jkLrs cSBd esa pyh tkukA**2 phQ dgrk gS fd & ^^lp\ eq>s xk¡o ds yksx cgqr ilan gSaA rc rks rqEgkjh ek¡ xk¡o ds xhr vkSj ukp Hkh tkurh gksxh\**3 “kkeukFk [kq”kh esa >we jgs FksA cksys ^^vks cgqr dqN&lkgc ! eSa vkidks ,d lsV mu phtks+a dks HksVa d:¡xkA vki mUgsa ns[kdj [kq”k gksx a sA**4 ^^yM+fd;k¡ xqfM;k¡ cukrh gSa vkSj vkSjrsa Qqydkfj;k¡ cukrh gSaA D;ks]a ek¡] dksbZ iqjkuh Qqydkjh ?kj esa gS\**5 “kkeukFk us dgk fd & ^^vks vEeh\ rqeus vkt jax yk fn;kA ---- lkgc rqels bruk [kq”k gqvk fd D;k dgw¡\ vks vEeh ! ek¡ mUgsa iksN a rh gqbZ 6 /khjs ls cksyh & ^^csVk rqe ew>s gfj}kj Hkst nks] eSa dc ls dg jgh gw¡A** rc “kkeukFk ek¡ ls dgrk gS fd & ^^dgha ugha] exj ns[krh ugha] fdruk [kq”k gks x;k gSA dgrk Fkk] tc rsjh ek¡ Qqydkjh cukuk “kq: djsx a h] rks eSa ns[kus vkÅ¡xk fd dSls cukrh gSaA tks lkgc [kq”k gks x;k] rks eq>s blls cM+h ukSdkjh Hkh fey ldrh gS] eSa cM+k vQlj cu ldrk gw¡A**7 rjDdh ;w¡gh gks tk;sxh\ lkgc dks [kq”k j[kw¡xkA rks dqN djsxk] ojuk mldh f[kner djus okys vkSj FkksM+s gSa\ rks rsjh rjDdh gksxh csVk\ rks eSa cuk nw¡xh] csVk] tSls cu iM+x s k] cuk nw¡xhA pfj=ksa ds bu ekuoh; laca/kksa dks O;Dr djus ds fy, dgkuhdkj us cM+h dgkuh dh igpku ^lkadsfrdrk* dk iz;ksx fd;k gSA ^ek¡ dk D;k gksxk\* ;g iz”u dgkuh ds iwokZFkZ ij Nk;k jgrk gSA iq= ds }kjk misf{kr vkSj frjLd`r ekrk mldh inksUufr ds fy, vfuok;Z dkj.k cu tkrh gSA rc iq= mldks gfj}kj Hkstus ls budkj dj nsrk gSA vius LokFkZ ds fy, og ekrk ds vk/;kfRed thou esa Hkh ck/kk Mkyrk gSA lkjka”k ;g gS इंदस े नाु ंचत

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fd igys Hkh vkSj vkt Hkh “kkeukFk ds fy, LokFkZ gh loksZifj gSA iatkch thou mÌs”; dks izdV djus ds fy, vko”;d tu/kehZ Hkk’kk dk iz;ksx dgkuhdkj us fd;k gSA e/;oxhZ; ifjos”k dh Hkk’kk&”kSyh ds }kjk ekuoh; laca/kksa dks iw.kZ :i ls mHkkjk x;k gS vkSj fu:fir fd;k gSA lHkh izdkj ls os vius mÌs”; esa lQy gq, gSaA ve`rlj vk x;k gS foHkktu dh =klnh dks ysdj fy[kh dgkuh gS ^ve`rlj vk x;k gS ----*A ;g dgkuh ^rel* miU;kl dh vk/kkjf”kyk gSA ^ve`rlj vk x;k gS ------* dgkuh esa Vsªu ds ,d daikVZesaV dk fp=.k gS] ftlesa fganw] eqfLye] flD[k cSBs gSaA ,d iBku pgddj cksyk & ^^vks [kathj ds rq[e] b/kj rqesa dkSu ns[krk , ge rsjh choh dks ubZ cksyx s kA vks 8 rw gekjs lkFk cksVh rksM+A ge rsjs lkFk nky fi,axk------A** vks fdruk cqjk ckr ,] ve [kkrk ,] vkSj rw gekjk eq¡g ns[krk ,---- lHkh iBku exu FksA ,d eqlkfQj us dgk fd & ^^fVdV gS th esjs ikl] eSa csfVdV ugha gw¡A ykpkjh gS “kgj esa naxk gks jgk gSA cM+h eqf”dy ls LVs”ku rd igq¡pk g¡wA cgqr ekj&dkV gqbZ gS] cgqr yksx ejs gSa] rxrk Fkk] og bl ekj&dkV esa vdsyk iq.; dekus pyk vk;k gSA**9 ^^”kgj vk x;k gS] fQj Å¡ph vkokt+ esa fpYyk;k] ve`rlj vk x;k gSA mlus fQj ls dgk vkSj mNydj [kM+k gks x;k] Åij okyh cFkZ ij ysVs iBku dks lacksf/kr djds fpYyk;k&vks cs iBku ds cPpsA uhps mrj rsjh ek¡ dh---- uhps mrj] rsjh ml iBku cukus okys dh eSa -----**10 fdlh us tathj [khapdj xkM+h dks [kM+k ugha fd;k Fkk] NM+ [kkdj fxjh mldh nsg ehyksa ihNs NwV pqdh FkhA lkeus xsgw¡ ds [ksrksa esa fQj ls gYdh&gYdh ygfj;k¡ mBus yxh FkhaA cM+h fgEer fn[kkbZ gSA rqels Mjdj gh os iBku MCcs esa ls fudy x;kA ;gk¡ jgrs rks ,d&u&,d dh [kksiM+h rqe t:j nq:Lr dj nsrs----- vkSj ljnkj th galus yxsA txg de gS] yksx T;knk gSa] blfy, tks igys ls vklu tek;s cSBs gSa] os vkusokyksa dks daikVZesaV esa p<+us gh ugha nsrs vkSj vxj dksbZ p<+ tkrk gS rks mls cSBus ugha nsrsA Åij ds cFkZ esa ,d iBku ysVk jgrk vkSj dqN Hkh cksyrk tkrk gSA uhpsa ,d fganh ckcw cSBk mldk O;ogkj ns[krk jgrk gSA rHkh iBku ,d fganw vkSjr tks xHkZorh jgrh gS] uhps mrjdj mlds isV esa ykr ekjrk gS vkSjr fryfeyk dj cSB tkrh gSA ckcw vanj gh vanj rerek tkrk gS] D;ksfa d ml oDr ogk¡ ij iBkuksa dh la[;k T;knk jgrh gSA ijarq tSls gh ve`rlj vkrk gS] ckcw “ksj gks tkrk gSA ph[k&ph[kdj xkfy;k¡ nsrk gSA mlesa u tkus dgk¡ ls “kfDr vk tkrh gSA Hkh’e lkguh us ml ckcw ds ek/;e ls ,d lgt ekuoh; izo`fRr tks vius ifjos”k esa izdV gks tkrh gS] fpf=r djrs gSaA bl lanHkZ esa ckcw ds lkFk ,slk gh gqvk gSA ckcw dh ekufldrk dks yxrk gS Hkh’e lkguh us [kqn fn;k gSA bl ekeys esa Hkh’e lkguh dks ;”kiky ls Åij ekurk gw¡A [kkldj foHkktu =klnh dks ysdj mUgksua s ftu pfj=ksa dk fuekZ.k fd;k gS] mlesa cM+h [kwch ds lkFk lkjh fLFkfr;k¡ lgt Hkko ls vk tkrh gSaA “kgj vk x;k gSA rc ckcw dgrs gSa fd ^^fganw vkSjr dks ykr ekjrk gS] gjketkns] rsjh mlA** 11 bl izdkj iBku dks xkfy;k¡ nsrk gSA Hkh’e lkguh us jsyxkM+h esa tks ?kVuk ?kVh] mlds }kjk vius izkar esa izos”k djus ds ckn muesa ,d tks”k] /kkS;Z vk tkrk gS vkSj lkgl ds lkFk ml iBku ls >xM+k djus dk lkgl Hkh djrk gSA bu lHkh ?kVukvksa ds ek/;e ls ^ve`rlj vk x;k---* dgkuh ds }kjk iatkch thou dks O;Dr fd;k gSA Hkh’e lkguh dh dgkfu;ksa esa eqlyeku thou ikyh इंदस े नाु ंचत

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laxzg dh igyh dgkuh ^ikyh* ftl uke ls laxzg gS] ,d vcks/k vkSj eklwe ckyd gSA ifjfLFkfr;ksa ds dkyØe esa Qaldj ^ikyh* dks igys fganw ls eqlyeku cuk;k tkrk gS] fQj eqlyeku ls fganw cuk;k tkrk gSA ijarq eqfLye laLdkjksa ls eq Dr ugha gks ikrk mlds eqfLye laLdkj [kRe u gksus ds dkj.k vusd leL;k,¡ mBrh gSaA ^ikyh* ds nksuksa rjQ fganw vkSj eqfLye iafMr&eqYykvksa dk ?ksjk gS] tks vius /keZ vkSj etgc ls mls cka/kus dh dksf”k”k djrs gSa] tcfd mldh fganw&eqfLye ekrk,¡ gSa&eerk ls NyNykrk ân; fy, tks mls flQZ csVs dh rjg gh Lohdkjrh gSaA njvly Hkh’e lkguh /keZ ;k etgc ds iats ls eqDr euq’; dh dYiuk djrs gSa] Bhd mlh rjg tSls dchj us vkokt+ mBkbZ Fkh] ftldh xw¡t vkt Hkh lqukbZ iM+rh gSA vkt etgcksa ls f?kjk euq’; fdruk nk:.k] foo”k vkSj =Lr gS] bldh xgjh ihM+k gekjs Hkhrj os mrkjrs gSaA euksgj yky vkSj mldh iRuh vkSj nks cPps gj “kj.kkFkhZ dh QVh&QVh lk¡lsa jkLrk [kkst jgh FkhA nw/k&ihrh cPPkh dks xksn esa fy, ykfB;ksa dh vksj c<+ jgs Fks ftuesa “kj.kkFkhZ vius&vius xÎj vkSj laM+dfp;k¡ Qsad jgs Fks vkSj dwn&dwndj p<+ jgs Fks] rc euksgj yky us ik;k fd mlds csVs ikyh dk gkFk mlds gkFk ls NwV x;k gSA rc euksgj yky us ykjh okys ls dgk fd & ^^jksdks ! jksdks ykjh ! gk; jksdks ykjh ! cnys esa ykjhokys us dgk fd rqEgkjs ,d cPps dh [kkfrj ykjh [kM+h jgsxh\---- vxj cPpk [kkstuk gS rks mrjks ykjh esa ls !**12 lhek rd igq¡prs&igq¡prs va/ksjk iM+us yxk Fkk] tc ,d txg ykfj;k¡ :dha rks euksgj yky ykjh esa ls dwndj lM+d ij vk x;k vkSj ikyh ! ikyh fpYykrk gqvk lHkh ykfj;ksa esa ls mrj&mrjdj nwljh ykfj;ks a esa cSBus yxs vkSj ykfj;k¡ jkr ds va/ksjs esa ve`rlj dh vksj c<+us yxhaA ^^lHkh fganw&flD[k ?kj&ckj NksM+dj pys x, gSaA dSai [kkyh gks x;k gSA vc b/kj dksbZ ugha vk,xkA**13 “kdwj cqncqnk;kA ,d eqlyeku ifjokj ikyh dks ikyus yxkA dgrs gSa fodle dqjku “kjhQ dh] geus fdlh dks fNik ugha j[kk gSA “kdwj cksyk & ^^geus rks flQZ ,d ;rhe yM+ds dks iukg nh gSA**14 ikyh dk uke bYrkQ gqlSu j[k fn;k x;kA ,d LoPNan laLFkk us ikyh dh [kcj ysdj mls ykus dk cankscLr dj nsrh gSA os dgrs gSa fd & ^^budh ,slh dh rSlh] rqe csfQØ jgks] fdlh dh etky ugha tks cPps dks gkFk yxk,A vc ;g nhu dcwy pqdk gSA rqe le>rh gks] ge bls dkfQjksa ds gkFk esa tkus nsx a s\15 dkjZokbZ “kq: gqbZA eftLVªsV us dgk fd & ^^csVk] b/kj vkvks] ns[kks rks ;s dkSu gSa% buesa ls fdldks rqe tkurs gks\16 “kdwj vgen dgrk gS fd & ^^;g rks ge Hkh tkurs gSa fd yM+dk xksn fy;k gS] ij dksbZ dSls eku ys fd cPpk fganw dk gS vkSj bUgha lkgc dk gS\17 euksgj yky us ml vkSjr ¼eqlyeku½ ls dgk fd & ^^cfgu eSa rqe ls cPps dh ugha] viuh ?kjokyh ¼dkS”kY;k½ dh tku dh Hkh[k ekaxus vk;k gw¡A og vius nksuksa cPpksa dks [kks pqdh gSA ikyh ds fcuk og ikxy gqbZ tk jgh FkhA og fnu&jkr yM+irh jgrh gSA ml ij rjl [kkvksA**18 og mlds cnys esa dgrk gS fd ^ys tkvks vius cPps dks] ge ugha pkgrs fdlh cnulhc dh cnnqvk gesa yxsA* gesa D;k ekywe rqEgkjs nksuksa cPps [kks pqds gSaA ij ,d “krZ ij cPpk nw¡xhA ------ gj lky bZn ds ekSds ij bls gekjs ikl HkstasxsA eghuk&Hkj ;g gekjs ikl jgsxkA cksy eatwj gS\ ok;nk djksA**19 euksgj yky us blds cnys esa dgk fd & ^^rqEgkjh nkSyr gS cguA rqeus bls ikydj cM+k fd;k gSA eSa ok;nk djrk gw¡] eSa tUe&tUe rd rqEgkjk vglku ugha Hkwy¡wxkA**20 var esa dgrs gSa fd & ^^x;k rks ?kj dh lkjh jkSud ys x;kA bl oDr esa इंदस े नाु ंचत

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mls xyh&eqgYys <¡w<+us fudyk djrh FkhA dHkh dgha tk igq¡prk Fkk] dHkh dgha D;ksfa d bZn ij vk,xkuk\ mls os yksx Hkstasxs uk\ D;k ge feyus ugha tk ldrs\ rqe dgrs Fks u fd rqEgkjk dksbZ ukrh cjsyh esa jgrk gSA ge mlds ikl tk jgsa vkSj csVs ls fey vk,axsA D;ksa--- thA**21 bl izdkj Hkh’e lkguh us ekr`izse dks ^ikyh* dgkuh ds }kjk izLrqr fd;k gSA lanHkZ lwph % 1- phQ dh nkor ¼esjh fiz; dgkfu;k¡½ & Hkh’e lkguh & i`- 13 2- phQ dh nkor ¼esjh fiz; dgkfu;k¡½ & Hkh’e lkguh & i`- 14 3- phQ dh nkor ¼esjh fiz; dgkfu;k¡½ & Hkh’e lkguh & i`- 18

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इंदस े नाु ंचत

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मप्ु स्लम उपन्यासकािों के उपन्यासों में स्त्री-परू ु ष संिंधों की पड़ताल डॉ. एस. िप्जया िेगम भारत में ही परं परा और रूदढयों की जड़े ज्यादा मजबत ू दीखती है और अनाददकाल से ही औरतों को दोयम दजाष में ही रखा जाता रहा है। पदाष या दहलीज के हद मे ही रहना जैसे

उनकी तनयती-सी बन गई है , हर इच्छा-अतनच्छा परू ु र्ों पर ही तनभषर है । जीवन की यह एकरसता उनमें वववर्ता और ऊब पैदा करती है ब्जससे उनके अंदर तनरार्ा और कंु ठा का जन्द्म लेने स्त्वाभाववक ही है और पररणामस्त्वरूप अक्सर घरों में आपसी झगड़ों के रूप में दे खा जाता रहा है । दे ता है

यहीं यह समाप्त नहीं होता है बब्ल्क यहां भी वह अपना जाल बबछा ही

और उसका ठीकरा भी पुरूर् समाज औरतों के ही ससर फोड़ता है , जैसे फक - औरत

ही औरत की दश्ु मन होती है , वह चरररहीन है , आदद-आदद। ऊपरी तौर पर भले ही यह सही

प्रतीत होता हो फकंतु इसके मूल में सददयों से उनके अवचेतन मन में तनधाषररत संस्त्कारों को आरोवपत और पोवर्त फकया जाना ही है । जादहर तौर पर इन सारी परं पराओं में पुरूर्ों के

उन्द्मुक्त और व्यासभचारर प्रवतृ त पर कोई प्रततबंध नहीं लगता। यहां तक की इसके ववरूद्ध मुंह खोलने की आजादी भी नहीं दे ता आधतु नक दहन्द्दी उपन्द्यासों में यही मनोभावों को काफी

अच्छी असभव्यब्क्त समली है । आधा गाूँव उपन्द्यास में राही कहते है ये है ‘मेरा गाूँव, मेरे लोग’ जब वह अपने लोगों की बात र्ुरू करते हैं तो वे उनके घर के भीतर की अंतरं ग झांकी को

भी प्रस्त्तुत करते है ब्जससे यह पता चलता है फक स्त्री-स्त्री का आपस में कैसे संबंध हैं, और स्त्री-पुरूर् का संबंध भी पता चलता है , एक-एक वाक्य से परू े पररवेर् को समझा जा सकता है

-‘‘उस खाहुनपीती ब्जनती नाइन की जवानी ऐसी फट पड़ रही थी फक समयां लोग पागल हुए जा रहे थ। और हर लयाहता को इसका धड़का लगा रहता था फक कब उसके आंगन में एक खलवत बन जायगी।’’1 लेखक आगे बताते हैं फक-‘‘दस ू रा लयाह कर लेना या फकसी ऐरी-गैरी औरत को घर में डाल लेना बुरा नहीं समझा जाता था, र्ायद ही समयां लोगों का ऐसा कोई

खानदान हो, ब्जसमें कलमी लड़के-लड़फकयां न हो। ब्जनके घर में खाने को भी नहीं होता, वे भी फकसी न फकसी तरह कलमी आमों और कलमी पररवार का र्ौक पूरा कर ही लेते हैं।’’2 इस पंब्क्त में यह दे खा जा सकता है फक फकस तरह अपनी जरूरत पूरा करने के सलए पुरूर् बयाहता होते हुए भी अपने ही आंगन में एक और घर बना लेता था और सबसे ताज्जुब की बात यह है फक घर की ब्स्त्रयों का अपने मदष से वर्कायत नहीं होती थी बब्ल्क उनको ता उस स्त्री से कोफ्त हुआ करती थी जो उनके घर आ बसती थी, अगर आप वतषमान समय को भी खंगाले तो यही ब्स्त्थतत पाएंगे। गौरतलब है फक - सल ु ेमान-चा बड़े मज़हबी आदमी थे इससलए र्ादी तक से भागते थे।

लेफकन दद्दा के बहुत कहने-सन ु ने के बाद अपनी दे खभाल के सलए घर में एक चमाइन रख सलए थे। और यही चमाइन इनके तीन बच्चों की माूँ भी थी। पर सल ु ेमान-चा मज़हबी आदमी इंदस े नाु ंचत

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ठहरे इससलए वह झंगदटया-बो की छुई हुई कोई गीली चीज़ को हाथ भी नहीं लगाते। पर इनका मज़हब के प्रतत प्रेम दे खखए जब एक तरफ मह ु रष म की मजसलस चल रही है और दस ू री तरफ -‘‘छोडडये... कोई आ जाई।’’ यह आवाज मेहरुतनया नाइन की थी। ‘‘कोई ना आइय्हे ...मजसलस हो रही है !’’ यह आवाज सुलैमान-चा की थी।’’3 इस उपन्द्यास के ठाकुर

साहब भी मुसलमानों का छुआ नहीं खाते लेफकन अपनी हवस के सलए वह रं डी गुलीबी जान

के साथ आराम से रहते हैं तब इन्द्हें धमष से कोई वास्त्ता नहीं होता, लेफकन गुलाबी जान का ददष इसमें दे खा जा सकता है -‘‘ठाकुर साहब को जब मालूम हुआ फक कलक्टर साहब बहादरु का माली आया हुआ, तो वह झट से बाहर तनकल आये। हालाूँफक यह वक्त था अपनी रं डी

गुलाबी जान के साथ आराम करने का। (यह गुलाबी जान कट्टर मुसलमान थी। ठाकुर साहब के कमरे से जाकर वह फ़ौरन नहाती थी और अल्लाह समयाूँ से माफ़ी माूँगती थी फक पेट की

वजह से उसे एक काफफर के साथ सोना पड़ता है ।)4 प्रस्त्तुत उद्धरणों के द्वारा लेखक ने

भारतीय समाज के दोहरे चररर पर तीखा कटाक्ष फकया है लेखक ने सोचने पर मजबूर कर ददया है फक एक तरफ तो हमारा भारतीय समाज धासमषक अंधववष्वास और कट्टरता के खाततर

मानवता तक को ताक पर रखके एक दस ू रे के खन ू के प्यासे हो जाते हैं वही औरतों की बात आते ही धासमषक भेदभावपण ू ष रोमातनयत का भाव मख ु र हो उठता है और यह मख ु रता सारी धासमषक और सामाब्जक हदों और मयाषदाओं का अततिमण करता वासना और व्यसभचार के

सलए इतना सदहर्णु हो उठता है यह समाज में प्रततब्ष्ठत माने जाने वाले समीउद्दीन खाूँ और

ठाकुर साहब के वाताषलाप से समझा जा सकता है -‘‘समीउद्दीन खाूँ दहन्द्दओ ु ं का छुआ नहीं

खाते थे और ठाकुर साहब मस ु लमानों की छुई हुई फकसी चीज़ ्ॅा को हाथ नहीं लगाते थे। ...ठाकुर साहब जब उनके साथ अकेले होते तो ख़ब ू इस्त्लाम का मज़ाक उड़ाते -‘‘वाह, यह भी कोई मज़हब हुआ फक खद ु तो पैगंबर साहब ने नौ-नौ लयाह कर डाले और बाकी मुसलमानों को चार र्ाददयों पर टरका ददया।’’ समीउद्दीन भी चक ू ते नहीं थे तड़-से जवाब दे ते, ‘‘ठाकुर साहब, यह तो कमर की बूते की बात है । ‘आूँ हजरत’ ने ऐसी-वैसी हरकतों में अपनी ताक़त हमारी तरह लुटायी होती, तो वह भी चार से ज़्यादा र्ाददयाूँ न करते। ...पाूँच भाइयों में एक

बीवी से हमारा काम अब भी नहीं चल सकता। यह भी कोई कमर हुइ? उनसें अच्छे तो हमीं हैं। चार भाइयों में कुल समलाकर सात बीववयाूँ हैं। एक मेरी, तीन भाई साहब की और तीन मूँझले भाई की, चौथा भाई अभी कूँु वारा है । दो-चार बीववयाूँ वह भी रक्खेगा ही।’’5

धमष या औरतों के प्रतत उदारता वासना और र्ररारक सलप्सा के संदभष पुरूर्ो में ददखाई

पड़ता है वह अपने घर के अंदर आते ही कू्ररता में बदल जाता है । औरतों की इस पराधधन

और असहाय ब्स्त्थतत और वववर्ता का मासमषक धचरण ‘आधा गांव’ उपन्द्यास में हुआ है रहमान-बो कुलसूम की रोने की आवाज़ सुनकर उसके घर जाना चाहती है , क्योंफक उसकी लड़की का इंतकाल हो गया है लेफकन वाब्जद समयाूँ उसे जाने के सलए मना कर दे ते हैं और

जब वह कुछ कहने के सलए आगे बड़ती है तो उसे थप्पड़ों के द्वारा समझाया जाता है -‘‘कहाूँ जा रदहयो, का तोहे मालूम ना है फक फुन्द्नन समयाूँ का हुक्का-पानी बंद है ?’’ रहमान-बो ने कुछ इंदस े नाु ंचत

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कहना चाहा तो वाब्जद समयाूँ ने उसे दो थप्पड़ मारे । मारने की बात ही थी। एक दासता की यह मजाल फक उनकी मरज़ी के खखलाफ़ चीं-पीं करे !’’ 6

गंगौली के सय्यद घरानों में औरतों

की वही ब्स्त्थतत नज़र आती है जो उस समय पूरे भारत में थी। पुरूर् औरतों को ससफष भो्या मार समझता है , इससलए वाब्जद समयाूँ जैसे लोग अपने ही पुर को ‘हरामजादे ’ जैसे गाली दे ने से भी नहीं चुकते। भारतीय ब्स्त्रयों में पतत परमेष्वर की अवधारणा इस हद तक बैठी है फक रहमान-बो जैसी औरतों के साथ इतना अत्याचार होने के बाद भी वह ब्जसे अपना र्ौहार

मानती है , न ससफष उसकी इज्जत करती है बब्ल्क उसके जुल्मों के खखलाफ अपने संतान तक

के प्रततरोध का ढाल बन जाती है । इससलए ऐसे मदो को और दहम्मत समल जाती है -‘‘कोनो नयी गाली द्यो! हरामज़ ्ॅाॅादे त हम दहयै हैं।’’ कम्मो ने कहा ‘‘बाकी अब जो तूँू अम्माूँ के

कुछ कदहयो तो खन के गाड़ दें गे।’’ रहमान-बो कम्मो से सलपट गयीं, ‘‘छोड़ माटीसमले! का तैं बाप को मरबे? तोरा जनाज़ा तनकले!...’’7

पुरूर् की स्त्री पर प्रभुत्व की प्रवतृ त का इससे भी ववसभत्स और तघनौना रूप ‘काला जल’ उपन्द्यास में दे खने को समलता है -‘‘दालान के कच्चे फर्ष पर सुनाररन नंगी पड़ी हुई थी और बलपव ष उसे दबाए हुए उसका पतत छतत पर बैठा हुआ था। अपने हाथ में सोने के जेवर ू क

बनानेवाली छोटी हथौड़ी सलए वह यव ु ती की नासभ के नीचे की नंगी हड्डी पर रह-रहकर चोट

दे ता, दाूँत पीसता और जैसे सबक ससखाने के ढ़ग पर गंदी गासलयाूँ बकता हुआ कहता,’’ अब, बोल, बोल’’8 नाररयों की ब्स्त्थतत पर्ुओं से भी बदतर थी, पर्ु तो फफर भी अपने दख ु तकलीफ में चीख धचल्ला सकते थे पर नारी को वो भी अधधकार नहीं था। पर्ओ ु ं के समान ब्स्त्रयों का भी दाना-पानी बस उनके दोहन तक ही सीसमत था। ददनभर घर गह ृ स्त्थी के कामों में पेरे

जाने से लेकर परू ु र्ों की हवस तक की पतू तष करना ही एक मार उपयोधगता है । चाहे उनके गले पे पर्ुओं के समान रस्त्सी या जंजीर न हो पर पैरों में परपंरा, रूदढयों, र्मष, हया और मयाषदाओं की इतनी अदृष्य जंजीरे डाल दी गई हैं ब्जनसे तनकलने की छटपटाहट के बावजूद भी मूब्क्त का मागष नहीं पाती। जैसा फक इसी उपन्द्यास में फूफी के प्रसंग में ददखता है छोटी

फूफी को सास के प्रताड़ना तो सहना पड़ता ही और साथ में अपने पतत रोर्न का भी फूफा

कहते हैं -‘‘वह मर-मरकर कमाते हैं और सब सालों का पेट पालते हैं, लेफकन कोई उनके ज़रासे-खाने-पीने का ख़याल नहीं करता,’’ उन्द्होंने दाल की कटोरी उठाई, फूफी के मूँह ु पर दे मारी

और दाूँत पीसकर यह कहते हुए चले गए, ‘‘ले साली, अब तू ही खा...’’9 अपने ससुर द्वारा फक गई बदसलूकी को फूफी फूफा से नहीं कह सकती थी क्योंफक फूफा उनके फकसी भी बात

पर ववष्वास नहीं करते थें उन्द्हें हर बार ऐसा लगता फक फूफी को मेरे मां-बाप पसंद नहीं लेफकन यहां रज्जू समयां तो ऐसे ही पररब्स्त्थततयों का फायदा उठाते हैं- ‘‘छोटी फूफी ज़ ्ॅाबान

काटकर रह गई। कहने का मन इस बार भी हुआ और र्लद होंठों तक आ गए, ‘तुम्हें क्या पता ये फकससलए लयाह लाए हैं और भीतर से क्या हैं? सोचा, कह दें , चाहे बाद में कुछ भी भोगना क्यों न पड़े, लेफकन अपने िोध और अपमान की याद करके वह चप ु हो गईं- जहाूँ उन्द्हें तनभना-खटना है , वहाूँ इस तरह की बातों से आखखर क्या बनेगा? सब एक हो जाएूँगे, इंदस े नाु ंचत

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ससफ़ष उन्द्हीं की ब्स्त्थतत दध ू की मक्खी कर तरह हो जाएगी...।’’10 समाज में फकतने पररवतषन आ जाए लेफकन कहीं-न-कहीं स्त्री को इस बात का एहसास कराया ही जाता है फक स्त्री का

अपना काई घर नहीं है । राजेन्द्र यादव के र्लदों में -‘‘स्त्री का अपना ‘घर’ नहीं होता। घर बाप का होता है , पतत का होता है या बाद में बेटाका होता है -वह वहां ससफष मेहमान या र्रणाथी होकर रहती है।’’11 ‘काला जल’ उपन्द्यास के रोर्न फूफा कहते हैं- ‘‘साली, मेरे घर में रहकर मेरे ही माूँ-बाप से दष्ु मनी रखती है ! कमाने-लानेवाला मैं, खखलाने-वपलाने वाला मैं, तू कौन होती है फक बीच में टाूँग अड़ाए! रहना है तो सीधी तरह से रह, नहीं अपना रास्त्ता नाप’’12

बलबन के घर में भी उसके अम्मी-अलबू का ररष्ता सामान्द्य नहीं ददखाई पड़ता है -‘‘रात एकाएक अम्मी की सससफकयों की आवाज़ से नींद उचट गई। कमरे में एक छोटा-सा लैंप

मवद्धम लौ से जल रहा था। उसमें फकसी का चेहरा पहचान पाना कदठन था, लेफकन आकृततयों से अनुमान लगाकर दे खा फक अम्मी उठकर अपने बबस्त्तर पर बैठी रो रही हैं और उनके पास

खड़े अलबा ववनम्र स्त्वर में समझाते हुए कह रहे हैं, ‘‘तुम खामख़ाह बहुत ब्जद करती हो। कभी तो बात समझने की कोवर्र् फकया करो।’’ ‘‘अब इस उम्र में समझकर क्या करू​ूँगी?’’ अम्मी ने

रू​ूँधे हुए कंठ से जवाब ददया, ‘‘समझो तम ु और समझाओ उस राूँड को, ब्जसके पीछे तम ु कुत्ते बन गए हो!’’13 अम्मी ने जब अपनी बात को ज़ोर दे कर कहना र्रू ु फकया तभी -‘‘चप ु रहती

है फक नहीं? बेहया, कमीनी कहीं फक...’’ पर इतने पर भी अम्मी चप ु नहीं हुईं, बराबर ज़ ्ॅाबान लड़ाती हुई बात-पर-बात जोड़ती रहीं।... अंत में यह हुआ फक अलबा ने गंदी और मोटी

गासलयों के साथ अम्मी का झोंटा पकड़कर खाट पर पटक ददया और बेदहसाब लात-घूँस ू े जमाकर हाूँफते हुए कमरे से बाहर तनकाल गए।’’14 र्म्सल ु इस्त्लाम अपने एक लेख ‘क्योंफक औरतें तम् ु हारी खेती हैं’ में सलखते हैं -‘‘भारतीय समाज में औरत ही एक ऐसी हस्त्ती है , ब्जसका नसीब संस्त्कृततयों, क्षेरों, वगो और धमों में व्यापक अंतर और भेद होने के बावजूद हर जगह एक जैसा ही रहता है । लगातार ततरस्त्कार और अपमान जैसे उसकी तनयतत है ।’’15

समाज में स्त्री के सलए जो परं परा बना दी गई है , वह उसे ही मानकर चलती है अलदल ु बबस्त्मल्ला के उपन्द्यास ‘झीनी-झीनी बीनी चदररया’ में इसका उदाहरण दे खने को

समलता है -‘‘अलीमुन को टी.बी. हो गयी है । मतीन को मालूम है । लेफकन वह कुछ नहीं कर

सकता। घर का जो काम है , वह बीवी को करना ही होॅेगा। फेराई-भराई, नरी-ढोटा, हाूँड़ी-चल ू ी... सभी कुछ करना होगा। बबन फकये काम नहीं चलेगा नहीं। और रहना भी होगा पदे में । खल ु ी हवा में घूमने का सवाल नहीं। समाज के तनयम सत्य हैं, उन्द्हें तोड़ना गन ु ाह है ।’’16 स्त्री को केवल घर की रखवाली करने और बच्चे की दे खभाल करने के सलए रखा जाता है अगर वह

इन कामों में थोड़ा भी ढील ददखाए तो उसे गाली-गलौच तो सुनना पड़ता ही है , ‘झीनी-झीनी बीनी चदररया’ उपन्द्यास के संदभष द्वारा इसे समझा जा सकता है - ‘‘लतीफ जब घर पहुूँचता है तो दे खता है , करघा सूना पड़ा है । ढरकी खामोर् है । र्ररफवा गायब है । वह बीवी पर उखड़ जाता है । इसी हरामजादी के चलते लड़का बबगड़ रहा है ।’’17

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स्त्री पुरूर् संबंधों फक पड़ताल करते अलदल ु बबस्त्मल्लाह का उपन्द्यास ‘ज़हरबाद’ भी इन्द्हीं

ववचारों की पुब्ष्ट करता है । लेखक ने अपने उपन्द्यास में उन श्रसमक पारों को सलया है , जो ददन-रात मेहनत करके दो जून की रोटी कमाते हैं, और फफर उसमें ब्स्त्रयों का साथ कैसा

व्यवहार फकया जाता है यह ददखाया गया है - ‘‘अपनी ब्ज ्ान्द्दगी खर् ु नुमा बनाने की पूरी तैयारी

हमने कर ली थी। पर बाहर के आनन्द्द का भीतर के वातावरण से कोई सरोकार नहीं होता, यह बात मुझे जल्दी ही मालूम हो गयी थी। क्योंफक इस नये घर में भी अम्माूँ और अलबा

की लड़ाइयाूँ उसी प्रकार बरकरार थीं। अलबा पूवव ष त मछली का वर्कार कर रहे थे और अम्माूँ टोपरा ढो रही थीं। अम्माूँ उसी तरह अलबा को तनकम्मा ससद्ध फकया करतीं और अलबा उन्द्हें

पीटा करते। मैं पूवव ष त ् तनववषकार भाव से उस घरे लू यद्ध ु को दे खा करता।’’18 ज़्हरबाद उपन्द्यास में लेखक ने मुब्स्त्लम स्त्री के जीवन पर ही प्रकार्

नहीं डाला है बब्ल्क यह साबबत

कर ददया है फक स्त्री फकसी भी धमष की पालन करने वाली हो उसे पर उसका ददष एक ही

होता है , इस उपन्द्यास की पार फुलझर अपनी र्ादी के बाद घटना अपनी सहे ली को बता रही थी और बताते उसकी सहे ली ने जब उससे उसके खसम के बारे में पूछती है तो वह असहाय

पीड़ा में डूब जाती है -‘‘फुलझर अम्माूँ के पास बैठ गयी थी और बहुत दे र तक वह अपनी ससरु ाल की बातें बताती रही थी। कभी पड़ोस की ब्स्त्रयों की बातें तो कभी उन मदो की बाते.... बस बातों-ही-बातें थीं उसके पास। -अपने खसम की बात बता री। लेफकन अम्माूँ ने

उसे जब छे ड़ना चाहा तब तो जैसे वह फकसी गहरे गड्ढे में धगर पड़ी। यक-ब-यक वह रोने लगी अपनी पीठ खोलकर चोट के तनर्ान ददखाने लगी। मैंने भी दरू से दे खा। उसकी पीठ पर डण्डों के लाल तनर्ान इस प्रकार लग रहे थे जैसे फकसी ढोर के ब्जस्त्म की गमष र्लाखों से

दाग ददया गया हो और घाव पक गये हों। -मोर सब गत बनाय डाररस व। फलझर ने बहुत ही आरष होकर कहा और फफर रोने लगी।’’19 तल ु सीदास की यह प्रससद्ध चौपाई ‘ढोल गूँवार सूर पर्ु नारी। सकल ताड़ना के अधधकारी’ ...ढोल का काम है बजना। लेफकन जब तक उसकी

वपटाई न की जाये, वह बजता नहीं है । इस प्रकार गूँवार, र्ूर, पर्ु और नारी से काम लेने के

सलए उसकी वपटाई अथवा ताड़ना आवष्यक है ।’’20 इस उपन्द्यास में भी ऐसे बहुत से संदभष है ब्जससे यह मालूम होता है फक पुरूर् गरीब हो या अमीर वह अपने को श्रेष्ठ मानता है - ‘‘कहाूँ गयी थी? भीतर प्रवेर् करते ही अलबा ने प्रष्न फकया। उनके र्लदों का तेवर कुछ इस प्रकार

का था फक सुनकर ही आदमी दहल जाय। अम्माूँ चप ु चाप उनका मूँह ु ताक रही थी। जैसे इस

प्रष्न के औधचत्य को भली प्रकार समझ लेना चाहती हों। तड़ाक् ! अलबा का एक भरपूर झापड़ अम्माूँ के मूँह ु पर पड़ा था और वे धगर पड़ी थीं। -जा वहीं अपने यार के साथ रह। इस घर में

तेरे सलए कोई जगह नहीं है । कमीनी! लुच्ची! कुततया! अलबा एकदम से जानवर हो गये थे।

अम्माूँ के र्रीर पर लगातार लातों, घू​ूँसों और जूतों का प्रहार होता रहा था। मगर वे चप ु थीं। उन्द्होंने न कोई प्रततवाद फकया था, न फकसी प्रकार की सफाई दी थी। वे चीखी-धचल्लायी भी नहीं थीं। जब तक अलबा थक नहीं गये, अम्माूँ को कुचलते रहे और वे तनववषरोध वपटती रही।’’21 सीमोन द बाउवार अपनी पुस्त्तक ‘द सेकेण्ड सैक्स’ में सलखती है फक- स्त्री आज भी इंदस े नाु ंचत

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पराधीन है , पुरूर् के अधीन है । वपता, पतत और पर ु के द्वारा थोपी गई व्यवस्त्थाओं के अधीन

है । र्ोर्ण, उपेक्षा और अपमान का जीवन जीने के सलए असभर्प्त है । उपयक् ुष त बातों को ‘जहरबाद’ उपन्द्यास के संदभष में समझा जा सकता है फक -‘‘न वे अलबा की बीवी थीं न नानी की बेटी और न मेरी माूँ। तब मैं सोचता फक अन्द्तर में वेदना का अनंत स्रोत भर कर भी पत्थर बन जाने वाली प्राणी कैसा अनुभव करता होगा?’’22 ‘कोरजा’ उपन्द्यास में भी ऐसे

उदाहरण दे खे जा सकते हैं जहां स्त्री का अपना कोई अब्स्त्तत्व ददखाई नहीं पड़ता है , फातमा अपनी आवाज़ तो उठाती है पर उसकी आवाज़ दब कर रह जाती है क्योंफक वह न तो पढ़ीसलखी और न तो आधथषक रूप से संपन्द्न है यही एक चीज़ है जहां स्त्री सबसे अधधक कमजोर हो जाती है -‘‘माटी-समली ब्जंदगी में एक-एक चीज़ के सलए तो तरसना पड़ रहा है । तरसना पड़ रहा है तो चली क्यों नहीं जाती अपने रईस माूँ-बा पके पास। क्यों जाऊूँ? क्या बीवी को

पालने की अब ताकत नहीं रही?... तछनाल, मुहूँ लड़ाती है , ...अलबा का गुस्त्सा बेकाबू हो गया, उन्द्होंने खट ू​ूँ ी पर से बेंत उतारा और अम्मा को पीटना र्ुरू कर ददया, अब बेंत से पीटते-पीटते थक गए तब अम्मा के सारे बालों को मुट्टी में पकड़कर उन्द्हें दो-तीन चक्कर दे कर नींचे फेंक ददया। अम्मा सीदढयों के पास जाकर धगर पड़ीं।... वह अचेत-सी सीदढयों पर पड़ी थीं। उनके

पीठ पर ललाउज फट चक ु ा था और उधड़ी पड़ी खल ु ी पीठ साफ-साफ ददख रही थी।’’23 र्म्सल ु इस्त्लाम भी अपने एक लेख में सलखते हैं फक -‘‘मध्यवगीय बब्स्त्तयों में जहाूँ एक

सवेक्षण के अनस ु ार 20 से 30 प्रततर्त घरों मंॅे पब्त्नयों को अक्सर पीटा जाता है , पड़ोसी बबल्कुल बहरे -गूँग ू े बने रहते हैं। सबसे र्मषनाक हाल तो पसु लस थानों का है । ...भारतीय

पररवारों में औरत के साथ मारपीट तो चलती ही है , इतना ‘एडजस्त्ट’ तो औरत को करना ही चादहए।’’24 उपयक् ुष त बातों से परू ी तरह स्त्पष्ट है फक हमारा समाज स्त्री के प्रतत कैसा उदाससन रवैया रखता है । और इन उपन्द्यासों में भी स्त्री अपनी पारं पररक पाररवाररक ढ़ाचे में

जकड़ी हुई नज़र आती है । पररवतषन प्रकृतत का तनयम है इससलए वतषमान समय तक आते-आते मुब्स्त्लम स्त्री

अब वववेकर्ील हो चक ु ी है । वह अब पारं पररक पाररवाररक ढांचे को तोड़ना चाहती है । अब वह यह समझने लगी है फक ररष्ते स्त्वगष में नहीं बनते हैं। यह ररष्ता तो सहयोग और ववष्वास के धरातल पर इसी दतु नया में बनती है । मुब्स्त्लम समाज में भी पतत को श्रेष्ठ माना जाता है

और पत्नी दासी, पतत चाहे कुछ भी करे , लेफकन पत्नी को बोलने का कोई अधधकार नहीं है ,

क्योंफक धमष उसकी आज्ञा नहीं दे ता। औरत अब अपने अब्स्त्तत्व के प्रतत सजग है , वह अब इसे खोना नहीं चाहती और अपने व्यब्क्तत्व के स्त्वतंर रूप बनाये रखना चाहती है , इससलए ‘ठीकरे की मंगनी’ की महरुख सोचती है फक -‘‘रफ़त भाई के ख़्यालत कौन-से समलते हैं, मगर तो भी वह अपने को फकतना बदल रही है । इसका मतलब हुआ, हर औरत को र्ादी के बाद अपने को समटा कर अपने वजूद को हर के वजूद में समलाना पड़ता है ।’’ आगे महरुख सोचती

है फक पता नहीं स्त्री को क्यों अपना वजूद दस ू रों के सलए बदलना पड़ता है -‘‘अम्मी र्ादी के पहले कैसी आदतों की होंगी! रे र्मा भी बदल जाएगी। फफर क्यों हमसे कहा जाता है फक इस इंदस े नाु ंचत

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तरह से रहना चादहए, यह हमारे घर का ररवाज है और फफर एक ददन सब कुछ छोड़ कर अपने नए सांचे में ढालना पड़ता है । आखखर क्यों?’’25 महरुख की धचंता बबल्कुल स्त्वाभाववक

लगती हैं। क्यों एक स्त्री ही अपने को बदले, क्यों हर बार स्त्री ही अपने अब्स्त्तत्व की बली चढाये? महरुख अपनी अम्मी की बातें सुनकर सोचती हैं फक- ‘‘र्ादी हर औरत-मदष के सलए जरूरी है , मगर इतनी जरूरी नहीं है फक वह बेजान दीवारों और बेज़बान पलंगों से कर ले या जो भी अंधा, लूला, लंगड़ा रास्त्ते में आ टकराए उसी के साथ तनकाह पढ़वा सलया जाए। आखखर

हर ब्जन्द्दगी का एक ही चौखटा तो नहीं हो सकता। यह बात घर में कोई क्यों नहीं समझता है ? यह भी कोई नहीं समझता है फक पढ़ी-सलखी लड़की के हर अहसास में फकतनी वर्द्दत, फकतना ववस्त्तार, फकतने अथष और फकतने आयाम र्ासमल होते हैं? उसे र्ोहर के साथ एक साथी की भी जरूरत होती है , जो उसको हर र्क्ल, हर हाल में संभाल सके, समझ सके।’’26 महरुख की सोच वास्त्तुववकता का बोध कराती है , इससलए उसकी धचंता भी स्त्वाभाववक लगती है । ‘अकेला पलार्’ उपन्द्यास की तहमीना दरु ाषज़ भी पतत से दख ु ी होकर कहती है फक -‘‘मैं तुम्हारी

पत्नी जरूर हू​ूँ, और समाज ने मेरे र्रीर के साथ हर प्रकार का खखलवाड़ करने की आथटी तम् ु हें दे रखी है , इसका यह मतलब नहीं फक तम ु रोज मझ ु े मारो, रोज मेरी मत्ृ यु हो।’’27 तहमीना अपने पतत जमर्ेद से खल ु कर यह सारी बातें इससलए बोल पाती है क्योंफक वह

नौकरी पेर्ा यव ु ती है, पर दस ू री तरह घर के भीतर उसे अपने पतत की अवहे लना सहनी पड़ती

है , पतत जमर्ेद उससे उम्र में काफी बड़ा है , इससलए वह उसे यौन संतब्ु ष्ट नहीं दे पाता। इस तरह उपरोक्त उदाहरणों से स्त्पष्ट है फक तमाम ववसंगततयों और बदलते वक्त के साथ सोच

में पररवतषन के बावजद ू ब्स्त्थततयां परू ी तरह बदली नहीं है । और अभी भी पररवार को बनाये रखने के सलए सबसे ज्यादा समझौता ब्स्त्रयों को ही करना पड़ता है ।

इंदस े नाु ंचत

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lgk;d xzaFk lwph& 1- fganh x| lkfgR;( MkW0 jkepUnz frokjhA 2- egkohj izlkn f}osnh vkSj mudk ;qx( MkW0 mn; Hkkuq flagA 3- vk/kqfud dfork dh ;k=k( MkW0 “kaHkwukFk prqoZsnhA 4- L=h vfLerk lkfgR; vkSj fopkj/kkjk( txnh”oj prqosZnh] lq/kk flagA 5- /keZ vkSj lekt( MkW0 losZifYy jk/kkd`’.kuA 6- fganh lkfgR; dk bfrgkl( vkpk;Z jke pUnz “kqDyA 7- fganh lkfgR; dk bfrgkl( MkW0 uxsUnzA 8- lkdsr( eSfFkyh”kj.k xqIrA 9- Hkwe.Myhdj.k fopkj uhfr;k¡ vkSj fodYi( Jh dey u;u dkcjkA 10- fganh fofo/k vk;ke( Jh vkuan ikfVyA 11- vkpk;Z egkohj izlkn f}osnh fL=;ksa dk lkekftd thou ,oa vU; fuca/kA 12- chloha “krkCnh dk fganh lkfgR;( fot; eksgu flagA 13- HkweaMyhdj.k % fganh ds fodkl dh laHkkouk, vkSj pqukSfr;k( MkW0 fefFkysl dqekj flUgkA 14- fganh i=dkfjrk&fofo/k vk;ke( la0 osn izrki oSfndA

इंदस े नाु ंचत

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विश्िभाषा के रुप में उभिती हिंदी

पोलीकापा सोिें ग,

िरिष्ट्ठ हिन्दी अनुिादक

माूँ, मातभ ृ ूसम और मातभ ृ ार्ा आपस में इस तरह जुडे हुए हैं फक हम चाहकर भी इसे अलग नहीं कर सकते हैं। हमारी संस्त्कृतत, हमारी मातभ ृ ार्ा और हमारे अब्स्त्तत्व की जडें

मातभ ृ ूसम से ही ससंधचत और ववकससत होती है । इससलए मातभ ृ ूसम और मातभ ृ ार्ा का जनम-

जनम का ररश्ता होता है । माूँ के आूँचल में पला-बढा व्यब्क्त कभी भी अपनी माूँ के तनस्त्वाथष प्यार एवं उनके एहसानों को कभी नहीं भूल सकता है । हमारी मातभ ृ ूसम हमारी माूँ है और

उनकी दी हुई भार्ा एवं संस्त्कृतत हमारी भार्ा और हमारी संस्त्कृतत है तो हम कैसे उनके प्रतत उदासीन हो सकते हैं। मातभ ू रे के पूरक होते हैं। इसपर फकसी धमष या जातत का ृ ार्ा और संस्त्कृतत एक दस

अधधपात्य नहीं होता है । दहंदी भारत दे र् की मातभ ृ ार्ा है और यह हमारे भारतीय होने का द्योतक है । हम प्रत्येक वर्ष 14 ससतंबर को दहंदी ददवस मनाते हैं। दहंदी ददवस मनाने का

उद्देश्य है फक ववश्व में भार्ाई एवं सांस्त्कृततक ववववधता को बढावा समले। भार्ा महज असभव्यब्क्त का माध्यम ही नहीं होती, बब्ल्क इसके साथ एक पूरी सास्त्कृततक ववरासत भी जुडी होती है । दतु नया के अधधकतर मनोवैज्ञातनक, सर्क्षाववद, ववद्वान एवं भार्ा वैज्ञातनक इस

बात पर सहमत हैं फक बच्चों को उसकी मातभ ृ ार्ा में ही सर्क्षा दी जानी चादहए। यह एक

हकीकत है फक मातभ ृ ार्ा में सर्क्षा बच्चों के उन्द्मुक्त ववकास में ज्यादा कारगर होती है । मातभ ृ ार्ा में पढना, सलखना, समझना एवं असभव्यक्त करना अन्द्य भार्ाओं की तुलना में सहज व सरल होता है ।

इंसान ब्जस भार्ा में अपने सुख-दख ु , खर् ु ी या गम, आश्चयष या अन्द्य भावों को

व्यक्त करने में सक्षम हो, वही उसकी मातभ ृ ार्ा है । आप ब्जस भार्ा में सपने दे खते हैं, वही आपकी मातभ ृ ार्ा है । भारत जैसे ववकासर्ील एवं बहुभार्ीय दे र् में हमारी अपनी राष्रीय सर्क्षा नीतत भी मातभ ृ ार्ा की अहसमयत को स्त्वीकार करती है । मगर मुझे ऐसा लगता है फक दे र् में भारतीय भार्ाओं खासकर छोटी-छोटी बोसलयों के संरक्षण पर ब्जतना ध्यान ददया जाना चादहए उतना नहीं ददया जा रहा है । दहंदी संवैधातनक रूप से भारत की राजभार्ा है । यह भारत की सबसे अधधक बोली और समझी जाने वाली भार्ा भी है । चीनी के बाद यह ववश्व में सबसे अधधक बोली जाने इंदस े नाु ंचत

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वाली भार्ा भी है । ववश्व आधथषक मंच की गणना के अनुसार यह ववश्व की दस र्ब्क्तर्ाली भार्ाओं में से एक है ।

दहन्द्दी और इसकी बोसलयाूँ उत्तर एवं मध्य भारत के ववववध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत के अलावा अन्द्य दे र्ों में भी लोग दहन्द्दी बोलते, पढ़ते और सलखते हैं।

फफजी, मोररर्स,

गयाना, सूरीनाम, नेपाल आदद दे र्ों में भी दहंदी बोली जाती है । इसके अततररक्त संयुक्त राज्य अमेररका, दक्षक्षण अफ्रीका, यमन, यूगांडा, ससंगापुर, न्द्यूजीलैंड, जमषनी आदद दे र्ों में भी दहंदी भार्ी आबादी है । 2001 की जनगणना के अनुसार भारत का 42.2 करोड़ आबादी ने दहंदी को अपनी मूल भार्ा बताया।

दहन्द्दी राष्रभार्ा, राजभार्ा, सम्पकष भार्ा, जनभार्ा के स्त्तर को पार कर ववश्वभार्ा

बनने की ओर अग्रसर है। भार्ा ववकास क्षेर से जुड़े वैज्ञातनकों की भववष्यवाणी दहन्द्दी प्रेसमयों के सलए बड़ी सन्द्तोर्जनक है फक आने वाले समय में ववश्वस्त्तर पर अन्द्तराषष्रीय महत्त्व की जो चन्द्द भार्ाएूँ होंगी उनमें दहन्द्दी भी प्रमुख होगी। हिन्दी अपनी ननम्नसलखखत विशेषताओं के कािण विश्ि भाषा िनने की अधधकािी िै

ववश्व की उन्द्नत भार्ाओं में दहंदी सबसे अधधक व्यवब्स्त्थत भार्ा है ।

यह सबसे अधधक सरल और लचीली भार्ा है ।

दहंदी ववश्व की सवाषधधक तीव्रता से प्रसाररत हो रही भार्ाओं में से एक है ।

दहंदी का र्लदकोर् बहुत ववर्ाल है और एक-एक भाव को व्यक्त करने के सलए सैकड़ों र्लद हैं।

दहन्द्दी सलखने के सलये प्रयुक्त दे वनागरी सलवप अत्यन्द्त वैज्ञातनक है ।

दहंदी अन्द्य भारतीय भार्ाओं एवं बोसलयों आदद से र्लद लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल र्लद लगभग दस हजार हैं, जबफक दहन्द्दी के मूल र्लदों की संख्या ढाई लाख से भी अधधक है ।

दहन्द्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधधक है ।

दहंदी ववश्व की तीसरी सबसे अधधक बोली जाने वाली भार्ा है ।

दहन्द्दी का सादहत्य सभी दृब्ष्टयों से समद्ध ृ है ।

दहन्द्दी आम जनता से जुड़ी भार्ा है तथा आम जनता दहन्द्दी से जुड़ी हुई है । भारत के स्त्वतंरता-संग्राम की वादहका।

भारत की संपकष भार्ा।

भारत की राजभार्ा।

हिन्दी के विकास की अन्य विशेषताएाँ 

दहंदी परकाररता का आरम्भ भारत के उन क्षेरों से हुआ जो दहन्द्दी-भार्ी नहीं हैं जैसे कोलकाता, महाराष्र आदद।

दहंदी परकाररता की कहानी भारतीय राष्रीयता से जड ु ी हुई है । दहन्द्दी को राष्रभार्ा बनाने का आन्द्दोलन महात्मा गाूँधी, दयानन्द्द सरस्त्वती आदद

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अदहन्द्दी भावर्यों के द्वारा ही आरम्भ फकया। 

दहन्द्दी भार्ा सदा से उत्तर-दक्षक्षण के भेद से परे चहुंददर्ी व्यावहाररक होती चली आई है । उदाहरण के सलये दक्षक्षण के प्रमुख संतो वल्लभाचायष, वट्ठल, रामानुज, रामानन्द्द आदद, महाराष्र के नामदे व, एवं संत ज्ञानश्वर, गुजरात के नरसी मेहता, राजस्त्थान के दाद,ू रज्जब, मीराबाई, असम के र्ंकरदे व, बंगाल के चैतन्द्य महाप्रभु तथा पंजाब के गुरु नानक तथा सूफी संतो ने अपने धमष और संस्त्कृतत के प्रचार के सलए दहन्द्दी भार्ा को अपना माध्यम बनाया।

दहन्द्दी के ववकास में संतों एवं धासमषक गुरुओं का महत्वपूणष योगदान रहा। इस ददर्ा में दहंदी परकाररता एवं स्त्वतंरता संग्राम का योगदान तो जगजादहर है। फफर दहंदी

फफल्मों का दौर चला और अब इलेक्रॉतनक मीडडया के कारण दहन्द्दी समझने-बोलने वालों की संख्या में बहुत अधधक ववृ द्ध हुई है ।

हिन्दी का िैप्श्िक प्रसाि

सन ् 1998 के पूव,ष मातभ ृ ार्ा बोलनेवालों की संख्या की दृब्ष्ट से ववश्व में सवाषधधक

बोली जाने वाली भार्ाओं के जो आूँकड़े समलते हैं , उनमें दहन्द्दी को तीसरा स्त्थान ददया जाता

था। सन ् 1997 में 'सैन्द्सस ऑफ़ इंडडया' का भारतीय भार्ाओं के ववश्लेर्ण का ग्रन्द्थ

प्रकासर्त होने तथा संसार की भार्ाओं की ररपोटष तैयार करने के सलए यन ू ेस्त्को द्वारा सन ् 1998 में भेजी गई यन ू ेस्त्को प्रश्नावली के आधार पर उन्द्हें भारत सरकार के केंरीय दहंदी

संस्त्थान के तत्कालीन तनदे र्क प्रोफेसर महाबीर सरन जैन द्वारा भेजी गई ववस्त्तत ृ ररपोटष के बाद अब ववश्व स्त्तर पर यह स्त्वीकृत है फक मातभ ृ ावर्यों की संख्या की दृब्ष्ट से संसार की भार्ाओं में चीनी भार्ा के बाद दहन्द्दी का दस ू रा स्त्थान है । चीनी भार्ा के बोलने वालों की संख्या दहन्द्दी भार्ा से अधधक है फकन्द्तु चीनी भार्ा का प्रयोग क्षेर दहन्द्दी की अपेक्षा सीसमत

है । अंग्रेज़ी भार्ा का प्रयोग क्षेर दहन्द्दी की अपेक्षा अधधक है फकन्द्तु मातभ ृ ावर्यों की संख्या अंग्रेज़ी भावर्यों से अधधक है ।

बीसवीं र्ती के अंततम दो दर्कों में दहंदी का अंतराषष्रीय ववकास बहुत तेजी से हुआ है । वेब, ववज्ञापन, संगीत, ससनेमा और बाजार के क्षेर में दहंदी की मांग ब्जस तेजी से बढ़ी है वैसी फकसी और भार्ा में नहीं। ववश्व के लगभग 150 ववश्वववद्यालयों तथा सैकड़ों छोटे -बड़े केंरों में ववश्वववद्यालय स्त्तर से लेकर र्ोध स्त्तर तक दहंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्त्था हुई है । ववदे र्ों में 25 से अधधक पर-पबरकाएं लगभग तनयसमत रूप से दहंदी में प्रकासर्त हो रही हैं। ददसम्बर 2016 में ववश्व आधथषक मंच द्वारा जारी 10 सवाषधधक र्ब्क्तर्ाली भार्ाओं की सूची

में दहन्द्दी भी एक है । इसी प्रकार कोर लैं्वेजेज नामक साइट ने 'दस सवाषधधक

महत्वपूणष भार्ाओं' में दहन्द्दी को स्त्थान ददया था। के-इण्टरनेर्नल ने वर्ष 2017 के सलये सीखने यो्य सवाषधधक उपयुक्त 9 भार्ाओं में दहन्द्दी को स्त्थान ददया है ।

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पुस्तक समीक्षा

िासशए की दनु नया : न दै न्यं, न पलायनं (एक अनि​ित संघषा की असमातत गाथा)

प्रताप दीक्षक्षत महें र भीष्म एक संवेदनर्ील, पररवेर् और समाज के सरोकारों के प्रतत प्रततबद्ध रचनाकार हैं। उनके लेखन में एक ओर क्षररत होती मानवीय संवेदनाओं की तलार् दस ू री ओर तथाकधथत आधतु नकता की

दौड़ में र्ासमल ब्जंदगी की वववर्ताओं में अपसंस्त्कृतत की गतष में धंसते जा रहे क्षररत जीवन मूल्यों के धचर उभरते हैं। इस िम में तनम्न-मध्य वगष ब्जंदगी के समच ू े दायरे में प्रवेर् कर चरररों को खंगालते हैं। लेखक ने र्ोर्ण-ववर्मता-अन्द्याय के प्रततरोध में संवेदना को हधथयार बनाया है । ब्जस प्रकार दहंसा

के सामने अदहंसा को बनाया गया था। लेखक का व्यब्क्तत्व और कृततत्व ववनम्रता का द्योतक है । यह उनकी संवेदनर्ीलता और दृढ़ता का प्रततरूप है । इस िम में लेखक के पार पलायन नहीं करते। कर्थय और ववचारों के ववर्ाल फलक पर उनकी रचनाएं अदृश्य क्षक्षततजों के पार जाकर मानवीय संवेदना की तलार् करती और मानवीय सरोकारों से जड़ ु ती हैं।

उनके चधचषत उपन्द्यास ‘फकन्द्नर कथा’ के बाद इसी परं परा में उनका नया उपन्द्यास ‘मैं पायल - -‘ एक

नए ववर्य, समाज में उपेक्षक्षत, उपहास के पार माने जाते वगष दहजड़ाओं, ब्जन्द्हें पररमाब्जषत भार्ा में फकन्द्नर कहा जाने लगा है , की वेदना, दश्ु वाररयों, पररवार-समाज में उनके प्रतत नज़ररये की अंतकषथा है ।

समाज में र्ोवर्त-ववस्त्थावपत-दसमत लोगों की पीड़ा और भेदभाव की अनेक परतें हैं। जातत, धमष, वगष आदद की गैर-बराबरी के बावजूद इनमें मनुष्य होने की गररमा मौजूद है। लेफकन फकन्द्नर समुदाय की रासदी है फक इन्द्हें कभी मनुष्य नहीं समझा गया।

ववडंबना है फक जहाूँ अन्द्य र्ारीररक ववकृततयां

उपहास का कारण नहीं बनती, लैंधगक ववकृतत से ग्रस्त्त सर्र्ु का अब्स्त्तत्व पररवार के सलए अवांछनीय

बोझ ही नहीं त्याज्य हो जाता है । पायल के माध्यम से, उपन्द्यास, समाज में अरसे से चली आ रही प्रततष्ठा के थोथे चलन का प्रततरोध करता है , ब्जसके कारण मनुष्य का उपहास-उपेक्षा उसकी दै दहक

ववकृतत के कारण फकया जाता है । प्रश्न यह उठता है फक जब मूक, बधधर, दृब्ष्टबाधधत या दस ू री ववकलांगताएं समाज में सह्य है तब कमर से नीचे की ववकृतत क्यों अवांतछत मान ली जाती है ?

सभ्यता के ब्जस सोपान पर आज मनुष्य खड़ा है वह वास्त्तव में मानवीय मूल्य खो चक ु ी है । संवेदन

हीनता, आत्म-केन्द्रीयता, स्त्वाथष के चलते दस ू रे मनुष्य ही नहीं अपनी संतान को ही दहकारत से दे खता

है । सभ्यता के ववकास की ववडंबना है फक इसके मूल में दोहरे मूल्यों के बीच जीने की असभर्प्त प्रवतृ तयाूँ ववद्यमान हैं। आदमी के रूप में मनुष्य को गररमा से जीने का अधधकार जन्द्म से समलता है , ब्जसे कोई व्यवस्त्था, नीतत, क़ानून नहीं छीन सकता। लेफकन समाज की परम्पराएूँ और समद ु ाय द्वारा रूदढ़यों के चलते उन्द्ही जैसा व्यब्क्त अलग-थलग छोड़ ददया जाता है । ररश्ते-सम्बन्द्ध, जो जीवन को अथष,

ब्स्त्थरता और मकसद प्रदान करते हैं, अवसर समलते ही रूदढ़यों, लोकापवाद, असुरक्षा की आर्ंका से

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हासर्ए पर ढकेल ददए जाते हैं। ब्जसके दं र् और अपराधबोध में जलना दोनों ही पक्षों की तनयतत बन जाती है । ‘मैं पायल’ यातना, संघर्ष और ब्जजीववर्ा की अनवरत यारा है । एक और मनुष्य के अंदरूनी संसार

की कर्मकर् और आत्मबल, दस ू री और तनमषम दतु नया में जीने - अब्स्त्तत्व की रक्षा, पहचान की स्त्वीकृतत के सलए तनरं तर संघर्ष। उपन्द्यास पाठकों को यथाथष के उस रूप से पररचय करता है जो उसके अनुभव के दायरे से, रोज दे खते सुनते हुए भी, छूट जाता हैं। लेखक के साथ हम ऎसी दतु नया में प्रवेर् करते हैं, जहाूँ होकर भी हम नहीं होते।

उपन्द्यास का कर्थय एक महानगर के पड़ोस ब्स्त्थतत कस्त्बे के तनम्न-मध्य वगीय पररवार में चौथी लड़की के जन्द्म से प्रारम्भ होता है । पुर की उम्मीद में अवांतछत। –एक अवप्रय आवाज, ‘राम बहादरु के

एक और लड़की हुई.’ कन्द्या के जन्द्म के सलए, रूदढ़यों के अनुसार, इसका ‘सारा दोर् माूँ’ पर मढ़ ददया

जाता है । र्राबी-गुस्त्सैल-तनदष य ड्राइवर वपता, माूँ, पांच बहन-भाई, दाऊ, बाबा, बचपन की स्त्मतृ तयों के, जुगनी द्वारा वणषन (उपन्द्यास आत्मकथात्मक र्ैली में सलखा गया है ) के साथ कहानी का ववकास होता

है जुगनी की दै दहक सच्चाई की जानकारी के साथ, जब वपता दारू के नर्े में कोसते –‘ये जुगनी! हम क्षबरय वंर् में वंर् में कलंक पैदा हुई है , साली दहजड़ा.’ सच्चाई पर आवरण डालने, अपने को ही धोखा

दे ने अथवा सामब्जक अपवाद से बचने के सलए वपता जुगनी को जुगनू ससंह के रूप में पालने, स्त्कूल भेजने का आदे र् दे ते हैं। बेटी की लैंधगक ववकृतत के जादहर होने से सामाब्जक अवमानना, अपनी आन-

बान पर धलबा समझने की मनोवब्ृ त्त, बड़े बेटे की आवारगी की कंु ठाओं से ग्रस्त्त वपता एक ददन जुगनी को पानी में नहला गीले बदन पर चप्पलों से पीट-पीट कर अधमरी कर दे ते हैं। इसके पहले अक्सर

वपटाई तो होती ही थे। इस बार पीटने के बाद वपता जग ु नी को समाप्त करने के सलए गले में फंदा डाल कर टांग दे ते हैं। माूँ द्वारा उसे बचा सलया जाता है । यातनाओं से रस्त्त जुगनी आत्हत्या करने के सलए तनकलती है । मत्ृ यु भय, पैर में काूँटा लगने की असह्य पीड़ा या तनयतत द्वारा तय भववष्य, वह वह रे न

के एक डडलबे में बैठ अनजानी यारा में चल दे ती है । इसके बाद प्रारम्भ होता है यंरणाओं और संघर्ष का दस ू रा दौर। यौतनक उत्पीड़न, भख ू , जीने के सलए संघर्ष, समलाने वाली र्रण स्त्थसलयों में प्रवंचना और आत्मीयता उसकी अटूट ब्जजीववर्ा का अनवरत सफ़र ब्जसमें यौन बभ ु ीक्षक्षत सफेदपोर् प्रौढ़ - पसु लस कांस्त्टे बबल, दयालु सभखारी, र्रणाथी पररवार का अनवर अनेक चेहरे सामने आते हैं। यह चेहरे

आकब्स्त्मक रूप से आए लोगों के नहीं परू े समाज और ब्स्त्थततयों के प्रततबबम्ब हैं। उम्र बढ़ने के साथ

जग ु नी अपनी र्ारीररक सच्चाइयों से वाफकफ हो चक ु ी है । सरु क्षा की दृब्ष्ट से उसे पहचान बदल कर

रहना पड़ता है। कानपरु में ससनेमा टाकीज के रे स्त्तराूँ में बैरे, पन ू म टाकीज में गेट कीपर, प्रोजेक्टर

चलाने के िम में जुगनी अपना प्राकृततक रूप नहीं भल ु ा पाती – ‘मेरे फकन्द्नर र्रीर में आत्मा तो परू ी तरह एक स्त्री की वास करती है , ब्जसे पुरुर् ही पसंद आता है , स्त्री नहीं.’ यही लालसा उसे स्त्री वेर्भूर्ा

में लखनऊ ले आती है । यहाूँ एक कीतषन मंडली के जागरण में धथरकते-नाचते सुबह तक थक के चरू हो जाती है । लौटने के पहले बीच सड़क से एक फकन्द्नर मंडली द्वारा उसको अपहृत कर सलया जाता है । उसे भूखा-प्यासा रख बधाई के सलए घर घर जाने के सलए वववर् फकया जाता है । परवती कथािम में

पप्पू, अर्ोक सोनकर हैं। संघर्ष के दौरान पायल की आत्मीयता पाने की तलार् में फकसी के द्वारा जरा इंदस े नाु ंचत

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भी सहानुभूतत प्रकट करना उसके कोमल मन को संवेददत कर दे ता है । परं तु यही कोमल मन दस ू री और दृढ़ता का पररचायक है । फकसी का अधधपत्य। एकाधधकार अथवा प्रततबन्द्ध उसकी अब्स्त्मता को

स्त्वीकार नहीं। वह पूरी सर्द्दत से, पप्पू हो या ओझा नाम का ससपाही, प्रततरोध ही नहीं करती अवसर समलने पर भरपूर प्रततर्ोध भी लेती है । यह प्रततर्ोध वर्ों से उसके अवचेतन में व्यवस्त्था और र्ोर्ण के ववरोध में दबा आिोर् है – न केवल प्रमोद व पप्पू बब्ल्क र्ायद रे न में समले प्रौढ़, कांस्त्टे बबल, अनवर

की मौत के सलए ब्जम्मेदार ससपाही ब्जसके डंडे की चोट से धगरने पर उसका र्रीर रे ल से कट कर दो टुकड़ों में बाूँट गया था या परू ी व्यवस्त्था के ववरोध में क्षोभ। उपन्द्यास उस ‘उस दतु नया’ से पलायन नहीं, दश्ु वाररयों के बावजूद, साथषक मागष प्रर्स्त्त करता है। पूरी कथा उस प्रवहमान नदी है में बदल जाती है ब्जसमें सब अवांतछत बह जाने के बाद भी नदी हमेर्ा पववर-पावन बनी रहती है ।

उपन्द्यास के केन्द्र में जरूर पायल और फकन्द्नर समुदाय की व्यथा-यातना-संघर्ष है , लेफकन उसके

चतुददष क पररिमा वत्ृ त में पूरा समाज, व्यवस्त्था और व्यब्क्त के अन्द्दर तछपी कलुवर्त प्रवब्ृ त्तयां, स्त्री की तनयतत, कच्चे बाल मन की यौतनक ब्जज्ञासाएं, प्रेम के गहरे अथष, दे ह की जरूरत, नैततक मूल्यों की तनरथषकता, अमानवीय सामाब्जक ववर्मता, गरीबी-अभाव, भूख की रासदी, भष्ृ टाचार, बच्चों-फकर्ोरों

के अपराध में सलप्तता के कारण, तनस्त्वाथष प्रेम, सदार्यता, माूँ की ममतामयी छावं की अपररहायषता और उसे महत्व दे ने की जरूरत जैसे अनेक सवाल उठाए गए हैं। उपन्द्यास पायल के माध्यम से परू े समाज की सोच बदलने की आकांक्षा की महागाथा है । अनेक अनत्ु तररत प्रश्न उपन्द्यास उठाता है – फकर्ोर अनवर जैसे अनेक लोगों की अपराध सलप्तता के सलए कौन उत्तरदायी है ? अनवर की मत्ृ यु क्यों

फकसी इततहास का दहस्त्सा नहीं बनेगी? कौन व्यवस्त्था ब्जम्मेदार है इस सबका? पायल का अभीष्ठ केवल अपनी मब्ु क्त नहीं बब्ल्क उस परू े समद ु ाय-वगष के सम्मान के साथ जीने के अधधकार का प्रश्न है , ब्जसके साथ तनयतत ने उसे जोड़ ददया है । उपन्द्यास केवल पायल या फकन्द्नर समद ु ाय की नहीं बब्ल्क मनुष्य की अब्स्त्मता की प्रमाखणकता और पहचान की लड़ाई की र्ुरुआत है । उपन्द्यास का प्राप्य यह है

फक पाठक को अपने व्यब्क्तत्व की सीमाओं से बाहर तनकल कर अनुभूतत के वह ृ त्तर संसार से जोड़ते हुए अनेक आयामों तक उपन्द्यास का ववस्त्तार हुआ है ।

फकसी रचना का सज ृ न आकब्स्त्मक नहीं होता। उसका सीधा और गंभीर नाता अतीत और

वतषमान से होता है । कोई भी लेखक अपने पररवेर् से ववब्च्छन्द्न नहीं हो सकता। इसी सलए सादहत्य

सदै व जीवंत रहता है । समाज से उसका जीवंत संबंध होता है । ब्जंदगी, समाज, सत्ता और मनष्ु य के अंतववषरोधों के गहरे तल में उतर कर कहानी का जन्द्म होता है । ब्जतना वह इसमें सफल होता है उतना

ही रचना पाठकों की संवेदना का अंग बनती है । लेखक ने समय, समाज और मनष्ु य के अंतववषरोधों को गहराई से समझा है । उपन्द्यास में समाज की तनस्त्संगता, अमानवीयता पर प्रश्न के साथ ववचार फकया गया है फक मनुष्य की धचंताएं इतनी आत्मकेंदरत क्यों हो गई हैं?

उपन्द्यास में पायल की अप्रततम सदार्यता के साथ ववसंगततयों से लड़ने- संघर्ष की अपूवष क्षमता

है । माूँ के पावों की आकृतत ही उसके मन में बस गई है । वपता जो हमेर्ा उसके प्रतत कटु रहे , चप्पलों से पीटा, जान से मारने की कोसर्र् की उनके प्रतत भी उसके मन में रोर् नहीं है । वह उनकी ब्स्त्थत,

मजबूररयों को समझती है । उनकी बीमारी की धचंता उसे सालती है । माूँ के रूप में अप्रततम छवव उभरती इंदस े नाु ंचत

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है । बेटी के प्रतत असीम स्त्नेह-लगाव, जो पूरे जीवन पतत और सामब्जक दबाव, आर्ंका, सामब्जक भय

के बावजूद, कभी समटता नहीं। एक अखंड आत्मा के अलग हुए दो टुकड़े। माूँ को ईश्वर का प्रततरूप कहा गया है । प्रकारांतर से स्त्री की महत्ता - औरत ने होती तो न जीवन होता, न मानव सभ्यता।

ववस्त्मतृ त, ‘स्त्मतृ तयों’ के स्त्थगन की अल्पकासलक प्रफिया मार है । स्त्मतृ तयाूँ कभी समटती नहीं।

भूलते क्यों नहीं कीलों से चभ ु ते प्रसंग। रचनाकार का उद्देश्य समाधान दे ना नही होता। लेफकन

उपन्द्यास के कथा-ववतान में उसके चररर-पार मानवीय सन्द्दभों में ब्जस तनष्कर्ष पर पंहुचते हैं उससे पाठकों का वववेक तनब्श्चत तौर पर सहमत होगा। कहानी-उपन्द्यास के स्त्वरुप, बनावट में चाहे ब्जतना बदलाव आ गया हो लेफकन उसकी कथनीयताफकस्त्सागोई कभी नहीं खतम होगी। लेखक की क्षमता और सामर्थयष का आधार यही होते हैं। इस दृब्ष्ट से लेखक ने कर्थय और सर्ल्प में नया प्रयोग फकया है । यथाथष को खंगालते हुए आत्मकथा में उपन्द्यास, फकन्द्नर गुरु पायल की स्त्मतृ तयों को र्लद दे कर, और उपन्द्यास में आत्मकथा का प्रततस्त्थापन फकया है ।

यथाथष के धरातल पर उपन्द्यास का ववन्द्यास लेखक की सज ृ नात्मक कल्पना से जीवनी या आत्मकथा से

ऊपर उठ कर एक नई ववधा की स्त्वतंर सत्ता के रूप में तनरूवपत फकया गया है । कहानी को कहानी रहने दे ने की प्रततबद्धता के साथ भार्ा-सर्ल्प के स्त्तर पर यह उपन्द्यास सहज संवेदनात्मक, गहरी ववचार दृब्ष्ट के साथ अन्द्याय और ववसंगतत का प्रततवाद करता है । काव्य की तरह एक सफल कथाकृतत में भी

रचना के मासमषक अंर्ों के पाठक के साथ साधारणीकरण के बबंद ु होते हैं। लेखक के प्रकट वणषन के बबना

भी। पाठक उन बबन्द्दओ ु ं से साक्षात्कार करता है । यह रचना और पाठक के एकात्म का क्षण होता है । समीक्ष्य कृतत में ऐसे अनेक स्त्थल हैं। भख ू के कारण ‘जठ ू े दोने से चाट का चाटना’, ‘प्लेटफ़ॉमष पर फेंके

गए सड़े भोजन को खाना’, ‘अनवर के र्रीर का दो दहस्त्सों में कट जाने’ ऐसे अनेक प्रसंग रोंगटे खड़े कर दे ते हैं। केवल करुणा ही नहीं जगाते उस व्यवस्त्था पर सोचने के सलए वववर् करने के साथ आिोर् जगाते हैं, जो इसके सलए उत्तरदायी है । भार्ा और सर्ल्प की सहजता उपन्द्यास की संवेदना को घनीभूत करने के साथ पठनीयता बढ़ाते हैं। समीक्ष्य कृनत :

मैं पायल (उपन्यास) लेखक : मिें द्र भीष्ट्म प्रकाशक : सामनयक पेपि​िैक्स अमन प्रकाशन, 104 A /80 C, िाम िाग, कानपुि

मूल्य : रु० 125/-

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पुस्तक समीक्षा पुस्त्तक का नाम: घड़ी

मूल लेखक : मोहन ससंह

अनुवादक: यर्पाल तनमषल

प्रकार्क: तनधध पब्ललकेर्न, 524-माता रानी दरबार, नरवाल पाईं, एयर पोटष रोड ,सतवारी, जम्मू -180003,mobile-9086118736 प्रकार्न वर्ष : 2015,मल् ू य-270/-

घड़ी सग्रह के मल ू लेखक कवव मोहन ससंह हैं, ब्जसे यर्पाल तनमषल ने डोगरी से दहंदी में

अनदू दत फकया है ।यूँू तो अनव ु ाद का काम ही

अत्यंत दरू ु ह है परन्द्तु यदद काव्य को अनदू दत

करना हो तो अनुवादक की ब्जम्मेवारी और अधधक बढ़ जाती है और यह कायष और अधधक दरू ु ह हो जाता है । काव्य का अनुवाद अन्द्य ववधाओं से अधधक जदटल होता है । इसका कारण

ये है फक काव्य में भाव प्रधान होते हैं और फकसी अन्द्य के भावों को बनाये रखते हुए लय के साथ बबना भावों को बदले अनुवाद करना वास्त्तव में यर्पाल सरीखे रचनाधमी ही कर सकते हैं ।

यर्पाल की एक प्रमुख ववर्ेर्ता इस अनुददत पुस्त्तक में ददखाई दे ती है फक वे अत्यंत भाव प्रणव हैं । छं दबद्ध

रचना का जहाूँ आज के युग में प्रादभ ु ाषव हैं वही यर्पाल न केवल अनुवाद

करते हैं बब्ल्क छं द के तनयमो का पुणत ष ः पालन करते हैं: आते-जाते को तनहारती

एक ववयोगन खड़ी-खड़ी। घड़ी की तुलना ववयोगन से करके यर्पाल एकदम अलग खड़े प्रतीत होते हैं वे पुन: कहते हैं: आज तेरे यौवन की चचाष

हर कववता की कड़ी कड़ी। ये र्लद संयोजन ही है जो उन्द्हें एक कवव के रूप में स्त्थावपत करता है तब वो एक अनुवादक नहीं रह जाते, पूणष रुपें कवव में तलदील हो जाते हैं, जहाूँ भाव प्रधान हैं,, जहाूँ र्लदों की

बाजीगरी नहीं, भावों की बाजीगरी चलती है । इस पूरी प्रफकया में वे मार अनुवादक नहीं रह जाते वरन ऐसा प्रतीत होता है फक वे एक सम्पूणष रचनाकार हैं, और ये सम्पूणष रचना उनकी स्त्वयं की है वे ही इसके असभयंता हैं । पुस्त्तक के प्रारं भ में अचषना केसर उन्द्हें आर्ीवषचन में सलखती भी हैं ---

“यर्पाल ने अपने अंदर रहने वाले कवव को यथासंभव अनव ु ादक से प्रथक रखा है ।“ समाज की ववसंगतत पर भी यहाूँ बहुत सलीके से कलम चलायी गयी है इंदस े नाु ंचत

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हमीं कहार थे और हमीं फफर आये र्ोक मनाने। हमीं समक्ष हुए अब्​्न फेरे जली हमारे हाथों । यहाूँ रचनाकार संवेदनाओ पर तीखा व्यं्य करता प्रतीत होता है और अनायास ही रचनकार एक अन्द्दर का व्यं्यकार धचबरत हो उठता है । र्लदों का संयोजन यहाूँ बहुत महत्वपूणष हो जाता है , जहाूँ जब ब्जस तरह के र्लदों की जरुरत होती है यर्पाल उसी तरह के र्लदों का संयोजन करते हैं,उनके आनुवाद को दे खकर ऐसा लगता है फक जहाूँ कहीं आवश्यकता होती है

वो डोगरी के र्लदों को यथावत रखने के दहमायती हैं. जैसे धाम भोजड़ी मीटी। यर्पाल मल ू रचना के फ्लेवर के साथ खड़े हैं, उन्द्हें इस तरह के र्लदों के सलए दहंदी र्लदों की आवश्यकता

नहीं पड़ती, ये जो डोगरी दहंदी की समलीजुली खुर्बु है ये काव्य की महक को बढ़ाती है ।

यर्पाल जहाूँ कहीं जरुरत होती है अलंकाररक भार्ा का प्रयोग भी करते हैं- मन मेरा मौजी मतवाला, पढ़-पढ़ प्रीतम पाठ तेरा। बकौल मल ू लेखक मोहन ससंह घड़ी अस्त्सी के दर्क का चधचषत काव्य संग्रह है ब्जसे कववसम्मेलनों, मर् ु ायरों में खब ू प्रर्ंसा समली है , लेफकन ये बेहद अफ़सोस की बात है फक एक लम्बे अरसे के बाद इसका अनव ु ाद दहंदी में आया है तथावप यर्पाल तनमषल इस कायष के सलए

बधाई के पार हैं. ये भी एक ववधचर बात है फक हर राज्य की अकादसमयां होने के बावजद ू यर्पाल को इस अनव ु ाद को तनजी प्रयासों से प्रकासर्त कराना पड़ा। हालाफक ये एकदम अलग

ववर्य है फक भारतीय भार्ाओ के सादहत्य को दहंदी में अनदु दत कर दहंदी के वह ृ द पाठको तक कैसे पहुूँचाया जाए। इस कायष के सलए यर्पाल तनमषल तनब्श्चत ही बधाई के पर हैं ।

यदद काव्य के सर्ल्प और ववधान की चचाष की जाए तो वहाूँ भी यर्पाल एक कमषठ योद्धा की तरह कहदे ददखाई दे ते हैं, इस काव्य संग्रह में छं दमय और छं दमुक्त दोनों तरह की काव्य

र्ैली के दर्षन होते हैं। भार्ा की दृब्ष्ट से भी यर्पाल असभनव प्रयोग करते हैं, डोगरी पंजाबी और दहंदी भार्ाओीँ की खर् ु बु को इस पुस्त्तक में महसूस फकया जा सकता है । काव्य में

कसलष्ठता नहीं है , तथावप दहंदी का पाठक डोगरी के र्लदों में उलझ सकता है और अथष स्त्पष्ट न होने की ब्स्त्थतत में काव्य उकी समझ से बाहर होने का अंदेर्ा भी होता है , लेफकन यह बात कहीं कहीं ही दे खने को समलती हैं अधधकार् जगह जहाूँ कहीं इस तरह का प्रयोग हुआ है वहाूँ ले के साथ अथष आसानी से स्त्पष्ट होता जाता है और पाठक खद ु को काव्य से जुड़ा हुआ महसूस करता है, और ये कवव और अनुवादक यर्पाल की ववसर्ष्टता भी है । बतौर समीक्षक मैं इस तरह के कायष की सराहना करता हू​ूँ, अनुवादक यर्पाल के इस महान कायष के सलए उन्द्हें बधाई प्रेवर्त करना भी मैं अपना फजष समझता हू​ूँ और बतौर कवव उन्द्हें र्ुभकामना दे ता हू​ूँ, आर्ा है भववष्य में भी वो दहंदी पाठको को डोगरी सादहत्य से पररधचत कराते रहें गे।

समीक्षक - संदीप तोमि,D2/1 जीिन पाका ,उत्तम नगि, नई हदल्ली 110059,मोिाइल 08377875009 इंदस े नाु ंचत

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दू र दे श की पाती/पाठकीय प्रहतकृया पहत्रका के बाल साहित्य हवशेषां क की समीक्षा –- वेबसाइट र नकर डॉट मगा(विश्ि की पिली, यूननकोडडत

हिंदी की सिा​ाधधक प्रसारित, समद्ध ृ ि लोकवप्रय ई-पत्रत्रका – िचनाकाि) पर प्रकाहशत

विश्ि की पिली, यूननकोडडत हिंदी की सिा​ाधधक प्रसारित, समद्ध ृ ि लोकवप्रय ई-पत्रत्रका (HOME / ई-िुक / ईिकु / िाल

कथा / इंद ु संचत े ना - िाल साहित्य विशेषांक - पहढ़ए / डाउनलोड किें ईिुक के रूप में)

(इंद ु संचेतना - िाल साहित्य विशेषांक - पहढ़ए / डाउनलोड किें ईिक ु के रूप में ) इंद ु संचत े ना का बाल सादहत्य ववर्ेर्ांक ववसर्ष्ट है . चीन के क्वांगतोंग वैदेसर्क अध्ययन ववश्वववद्यालय के दहंदी ववभाग के सहयोग से प्रकासर्त यह पबरका बहुत ही कम समय में अपनी एक नई, ववसर्ष्ट पहचान छोड़ने में सफल रही है .

प्रस्त्तुत ववर्ेर्ांक में बच्चों के सलए प्रचरु सामग्री जुटाई गई है , वह भी तब जब बाल सादहत्य और बाल सादहत्यकारों का अकाल सा हो रहा है .

अपने संपादकीय आलेख में डॉ. गुणर्ेखर ने इस संबंध में ववस्त्तार पूवक ष इस ववकराल समस्त्या की ओर इंधगत फकया है फक वतषमान दहंदी सादहत्य में बाल सामग्री या बाल सादहत्य का अभाव क्यों है , और इस अभाव को दरू करना क्यों बेहद आवश्यक है .

बाल सादहत्य के अभाव को थोड़ा सा भरने की कोसर्र् करता पबरका का यह अंक कई मायनों में लाजवाब है . दजषनों बाल कववताएूँ हैं , ढे रों कहातनयाूँ हैं , कुछ ववचारोत्तेजक आलेख हैं, लघुकथाएूँ हैं तथा और भी बहुत कुछ हैं. नीचे ददए गए ववंडो में फुल स्त्िीन बटन पर टच कर इसे पढ़ सकते हैं. अथवा डाउनलोड

करने के सलए आकाषइव.ऑगष के धचह्न पर ब्क्लक/टच कर सलंक खोलें . ईबुक ववंडो लोड होने में समय लग सकता है अतः कृपया धैयष बनाए रखें .

-श्री रहव रतलामी

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Please sent me your membership detail, So, I can sent my article for your magazine.Cont.-- 8420341322-- र्ुभकामना दनु नया के सामने ससफा"जीतने" िाला िी "विजेता" निीं िोता।ककन "रिश्तों" के सामने कि औि किा​ाँ पि "िािना" िै ,यि जानने िाला भी विजेता िोता िै । Preeti Gupta इंद ु संचत े ना का अंक दे खा... पढा, बहुत अच्छा लगा. इसमें आपको एक रचनाकार की एक ही रचना प्रकासर्त करनी चादहए थी. ताफक ज्यादा रचनाकारों को मौका समलता.प्रयास सराहनीय है . मेरी र्ुभ कामनाएं.

-दीनदयाल र्माष, बाल सादहत्यकार,सादहत्य संपादक, टाबर टोली, हाउससंग बोडष कॉलोनी,हनुमानगढ, राजस्त्थान, वपन कोड 335512 Mobile : 8619328456, 9414514666 E mail : deen.taabar@gmail.com

आदिणीय संपादक मिोदय, इन्द ु संचत े ना का िाल साहित्य अंक प्रातत िुआ । िास्ति में साहित्य का संगम िै यि पत्रत्रका । विदे शी धिती पि हिन्दी साहित्यकािों की िचनाओं का सैलाि अपने आप में एक अद्भत ु उदाि​िण िै । चीन की धिती से प्रकासशत िोने िाली इस पत्रत्रका में कुछ चीनी किाननयों को

भी यहद

शासमल ककया जाए तो हिन्दी औि चीन के संयक् ु त साहित्य का

संगम औि भी लाभदायक िोगा ।

शभ ु कामनाओं सहित,सध ु ीि कुमाि दि ू े, गोिखपिु

दहन्द्दी ददवस पर सभी को शुभकामनाएं आपको पुिाना संगीत याद हदला दाँ ू तो आपको जिाि समल जायेगा

िदन पे ससतािे लपेिे िुए, ओ जाने तमन्ना ककधि जा ि​िी िो……… “िै िनने संिने का ति िै मजा तुझे दे खने िाला आसशक तो िो”……

हिन्दी को आखखि आप ककसे हदखायेंगे? दस ू िी तिफ यहद अंग्रेजी या दस ू िी भाषायें अच्छी िै तो उसे भी

जानने के सलए अगली भाषा को जानना जरूिी िै। --मेिी िचना “हिन्दी िनाम सूित” (गंगा िाम) से साभार, मेिी जन्महदन (14 ससतंि​ि, 1985) एिं हिन्दी हदिस पि सभी को शभ ु कामनाएं

दनु नया के सामने ससफा"जीतने" िाला िी "विजेता" निीं िोता। ककन "रिश्तों" के सामने कि औि किा​ाँ पि "िािना" िै , यि जानने िाला भी विजेता िोता िै । - प्रीतत गुप्ता

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िलचल क्िान्ग्तोंग विश्िविद्यालय के एसशयाई भाषा के ननदे शक श्री िू रुई तथा सिायक प्रोफेसि धथएन खकफं ग की भाित के प्रनतननधध से जीिंत संिाद

इस वाताष के दौरान उन्द्होने बताया फक कैसे वे दहन्द्दी से प्रभाववत होकर कम से कम समय में दहन्द्दी में बातचीत करने में पारं गत हो गए और दहदी के पठन-पाठन से जुड़े व उक्त ववश्व ववद्यालय में फकतने श्रम से दहंदी ववभाग की स्त्थापना की ।

उनकी इस उपलब्लध में डॉ. गंगा प्रसाद र्माष का ववर्ेर् योगदान है | इस बात को उन्द्होनेअपनी वाताष

में

भी स्त्वीकार फकया |

वैब्श्वक पटल पर ऐसे दहन्द्दी प्रेमी सज्जनों के कारण ही दहंदीजन की बजाय ववदे र्ी भार्ाभार्ी में दहन्द्दी का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है ।

इंदस े नाु ंचत

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*एक संशोधन : समाचाि में “क्िाङ्गग्तोंग विश्िविद्यालय चीन के प्रो. गंगाप्रसाद शमा​ा” के स्थान पि “पूिा प्रोफेसि गंगाप्रसाद शमा​ा” पढ़ें । इंदस े नाु ंचत

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िाज्यपाल केसिीनाथ त्रत्रपाठी ने ली िाजस्थानी भाषा की जानकािी

कोलकाता। अखखल भारतवर्ीय मारवाड़ी सम्मेलन के राष्रीय संगठन मंरी, परकार संजय हरलालका, अखखल भारतीय मारवाड़ी यव ु ा मंच के पव ू ष राष्रीय अध्यक्ष सादहत्यकार प्रमोद र्ाह, मारवाड़ी सम्मेलन उत्तर पव ू ष र्ाखा के अध्यक्ष सद ु े र् अग्रवाल, सादहत्यकार ववनय र्क् ु ला आदद

ने अज राजभवन में राज्यपाल केसरीनाथ बरपाठी से मल ु ाकात की। मल ु ाकात का मख् ु य ववर्य था राज्यपाल महोदय की राजस्त्थानी भार्ा के बारे में जानकारी हाससल करना।

दरअसल राज्यपाल श्री बरपाठी की की पुस्त्तक ‘जख्मों पर र्बाब’ का जोधपुर तनवासी डॉ. जेबा रर्ीद ने राजस्त्थानी भार्ा में अनुवाद कर राज्यपाल महोदय को प्रेवर्त फकया था। राज्यपाल महोदय इसी सम्बन्द्ध में राजस्त्थानी भार्ा की जानकारी हाससल करना चाहते थे।

इस मुलाकात के दौरान राज्यपाल को मारवाड़ी सम्मेलन द्वारा प्रकासर्त की गई सहज राजस्त्थानी व्याकरण की पुस्त्तक सौंपी गई, ब्जसमें दहन्द्दी के र्लदों का राजस्त्थानी उच्चारण ददया गया है । इसके अलावा श्री हरलालका ने अन्द्य सादहब्त्यक सामग्री राज्यपाल को सौंपी। श्री र्ाह, श्री हरलालका आदद ने उन्द्हें राजस्त्थानी में अनुवाददत पुस्त्तक में ददये गये कुछ र्लदों

के अथष भी बताये ब्जसे राज्यपाल महोदय ने पूरे मनोयोग के साथ जाना व समझा। राजस्त्थानी व्याकरण की पुस्त्तक प्राप्त उन्द्होंने हाददष क प्रसन्द्नता जादहर की अर कहा फक इससे

मेरा काम सचमुच सहज व सरल हो गया है । फुसषत के क्षणों में मैं इस पुस्त्तक के माध्यम से राजस्त्थानी र्लदों की जानकारी लूंगा।

गौरतलब है फक करीब तीन साल पहले गुवाहाटी में अयोब्जत मारवाड़ी सम्मेलन के राष्रीय अधधवेर्न में डॉ. जेबा रर्ीद को राजस्त्थानी भार्ा में बाल सादहत्य के क्षेर में अवदान के सलये

केदारनाथ- भागीरथीदे वी कानोडड़या राजस्त्थानी भार्ा बाल सादहत्य पुरस्त्कार प्रदान फकया गया था।

इंदस े नाु ंचत

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समाचाि

कवि अशोक अंजम ु "अजेय स्मनृ त पिु स्काि -१७ " तथा "साहित्य भास्कि" की उपाधध से सम्माननत

गत ददवस 1089 से तनरं तर सफिय तनझषर सादहब्त्यक संस्त्था, कासगंज ने सादहत्य के क्षेर में श्री अर्ोक अंजुम की ववसर्ष्ट उपलब्लधयों के सलए "अजेय स्त्मतृ त पुरस्त्कार -१७ " तथा "सादहत्य भास्त्कर" की उपाधध से सम्मातनत फकया ! संस्त्था के पदाधधकाररयों

तथा कायषिम के

अततधथयों

ने

स्त्मतृ त

धचह्न, सम्मान अलंकरण, र्ाल और सम्मान रासर् श्री अर्ोक अंजुम को भें ट

की ! तनझषर सादहब्त्यक संस्त्था,अब तक डॉ कंु वर बेचन ै ,

डॉ

सर्वओम

अम्बर, श्री फकर्न सरोज आदद

वररष्ठ

चधचषत

कववयों को उक्त सम्मान प्रदान कर चक ु ी है ! इस

अवसर पर श्री अंजुम ने अपनी व्यं्य कववताओं, गीत, ग़ज़ल और दोहों से काफी दे र तक

समां बाूँधे रखा ! ज्ञातव्य है फक दे र् भर के काव्य मंचों पर तनयसमत काव्य-पाठ के सलए बुलाए जा रहे श्री अंजुम की मौसलक और सम्पाददत 55 फकताबें प्रकासर्त हो चक ु ी हैं !

औरं गाबाद (महाराष्र ) और जालंधर (पंजाब)) से आपके सादहत्य पर र्ोध कायष हो रहे हैं ! टीवी के अनेक चैनल्स पर आप काव्य पाठ करते रहे हैं ! आप सादहब्त्यक रैमाससक

पबरका

"असभनव प्रयास " का एक असे से संपादन /प्रकार्न कर रहे हैं ! कायषिम के सर ू धार व

संस्त्था के सधचव श्री अखखलेर् सक्सेना ने श्री अंजम ु के व्यब्क्तत्व

और कृततत्व पर प्रकार् डाला ! डॉ अखखलेर् चंर गौड़

ने सम्मान पर का वाचन फकया ! और

सरस सञ्चालन डॉ रामप्रकार् 'पधथक' ने फकया ! इस अवसर पर डॉ रामबहादरु ससंह 'तनदोर्ी',

श्री बलबीर ससंह 'पौरुर्', श्री बलराम सरस, श्री अजय अटल, श्री अखखलेर् सक्सेना, श्री अवर्ेर् कुमार आदद ने भी काव्य-पाठ फकया !

इंदस े नाु ंचत

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इस अंक के लेखकों के पते –

सश ु ांत सवु प्रय, माफ़षत श्री एच। बी। ससन्द्हा, ५१७४, श्यामलाल बबब्ल्डंग , बसंत रोड, ( तनकट पहाड़गंज) , नई ददल्ली -११००५५ मो: 08512070086,ई-मेल: Sushant1968@gmail.com

नीिज कुमाि नीि,आर्ीवाषद,बद्ध ु ववहार,पो ओ - अर्ोक नगर,रांची , झारखण्ड - 834 002 Mob - 8797777598 email - neerajcex@gmail.com

MkW-th-'kkfUr vflLVs.V izkQ s l s j ¼,l ,l½]Jh vfcjkeh bYye 2@179 ch 2 vUuiw.kkZ QwM~l lehi]ouizLFkk jksM] oMofYYk] dks;Ecrwj & 641041 eks-ua- 09443652088 bZey s % visaanthi@gmail.com

MkW0 pUnzdkUr frokjh vflLVsUV izksQslj&fgUnh ch0,l0,0bZ0vkbZ0 Qjhnkckn] ,u0lh0vkj0]esy vkbZ0 Mh &damantewari@gmail.comeks0 ua0 &+918586098669,+8851679576,

अिविंद कुमाि सािू – ‘साहू सदन , अकोदढ़या रोड , ऊंचाहार , ब्जला – रायबरे ली (ऊप्र) वपन 229404 मोबाइल – 7007190413 ईमेल aksahu2008@rediffmail.com

,l- HkkX;e 'kek]Z ch&41 lsBh dkyksuh t;iqj 302004 Ekks&9468712468 िवि कुमाि गोंड़, र्ोधाथी, दहंदी ववभाग, केन्द्रीय ववश्वववद्यालय दहमाचल प्रदे र्,अस्त्थाई

र्ैक्षखणक खण्ड र्ाहपरु , छतरी ,ब्जला- काूँगड़ा (दह.प्र.) 176206 ई-मेल-ravigoan86@gmail.com, दरू भार् नं। : 0780711173 प्रा.

डॉ.

मनोि​ि,संस्त्थापक व संपादक ,‘र्लदसब्ृ ष्टी’,भारतीय सादहत्य, कला व सांस्त्कृततक

प्रततष्ठान व दहंदी-मराठी द्ववभावर्क पबरका, भ्रमणध्वतन : 9870255527

मक ु े श कुमाि ऋवष िमा​ा ,गॉव ररहावली, डाक तारौली गज ु रष , फतेहाबाद-आगरा 283111 डॉ.सिला ससंि, 180ए,पॉकेट ए-3,मयूर ववहार,फेस -3,ददल्ली 96..मोबाइल नंबर: 9650407240

तािकेश कुमाि ओझा, भगवानपरु , जनता ववद्यालय के पास वाडष नंबरः09 (नया) खड़गपरु , ब्जला पब्श्चम मेददनीपुर (पब्श्चम बंगाल) वपन 721301 संपकषः 09434453934,, 9635221463

अशोक अंजम ु ,संपादक: असभनव प्रयास, गली.2, चन्द्रववहार कालोनी, [नगला डालचन्द्द,] क्वारसी बाईपास, अलीगढ़-202002 मोबा॰ 9258779744

सशिानन्द ससंि ‘सियोगी’, ‘सर्वाभा’ , ए-२३३ , गंगानगर, मेरठ-२५०००१ (उ.प्र.), दरू भार्-

०९४१२२१२२५५ ,e-mail-shivanandsahayogi@gmail.com

डॉ. िप्श्मशील,सम्पकष : 3/1, दटकैत राय तालाब कालोनी, लखनऊ नीसलमा हिक्कू,ई-311,312,लालकोठी स्त्कीम,जयपुर-302015,राजस्त्थान,भारत

डॉ. विक्रम साि, : 55/5, कैलार् दास रोड, गररफा(नैहाटी/गौरीपरु ), उत्तर 24 परगना, वपन743135(पब्श्चम बंगाल) दरू भार् : 9331087920

-अवनीर् बरपाठी,सल् ु तानपरु ,उप्र 94515542

इंदस े नाु ंचत

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MkW- jsgkuk csxe+] jkT; lalk/ku dsUnz vkbZ- vkj ,e dsEil] jk/kkd`".kiqje]pkS[kk jksM+] pkSikluh] tks/kiqj ¼jkt-½fiu dksM 342001 eksckby ua- 9680235343] 9468762110 esy vkbZ Mh & rbshaikh11@gmail.com पररतोर् कुमार पीयूर् - 【s/o स्त्व० डा० उमेर् चन्द्र चौरससया(अधधवक्ता),मुहल्ला- मुंगरौड़ा पोस्त्ट- जमालपुर,वपन- 811214, ब्जला मुंगेर(बबहार)】

शाइस्ता सैफ़ी, (र्ोधाथी )दहंदी ववभाग, अलीगढ मब्ु स्त्लम ववश्वववद्यालय, Shaistasaifi8650@gmail.com

&ious“k BdqjkBh ^iou* 'kks/k Nk=&fganh ,l0,l0ts0 ifjlj]vYeksM+k dqekÅa fo“ofo|ky; ¼mÙkjk[k.M½ &263601 eks0&7351178355 bZesy&pawant2015@gmail.com

aिन्दना

चंद 'kks/k Nk=k&fganh ,l0,l0ts0 ifjlj] vYEkksMk+ ¼mÙkjk[k.M½ &263601 Ekksck0

9627569423 डा. उषा िानी,काव्य एवं आलोचना लेखन, ववभागाध्यक्ष,दहंदी ववभाग,बाल्डववन मदहला महाववद्यालय, बेंगलरु ु ;Mobile no.- 9845532140E- mail- drusharani25@gmail.com,Res. add.- No. 94, 30th cross, B.S.K 2nd stage, B'lore 70

प्रोफेसि

शसमाला त्रिस्सा,दहन्द्दी ववभागाध्यक्ष,सरु ाणा कालेज,१६,

रोड,बैंगलोर ५६०००४ -मोबाईल नं. ९५३८६२००४४ :

बसवनगड ु ी,

साउथ एण्ड

Vh- lqfurk] “kks/kkfFkZuh]mLekfu;k fo”ofo|ky;]gSnjkckn]rsyaxk.k jkT;] nwjHkk’kk%0986680112 MkW-ds- “;ke lqUnj ofj’B fgUnh izk/;kid] ia- ujsUnz izkP; egkfo|ky; ds”ko Lekjd Hkou] ukjk;.kxqMk] gSnjkcknA मोबाईल ua % 9848285647 डॉ.

एस.

िप्जया

िेगम,सहायक

प्रोफेसर,

दहन्द्दी

ववभाग,ववज्ञान

एंव

मानववकी

संकाय,एस.आर.एम ववष्वववद्यालय . 603203

lhrkjke xqIrk], Mh&106&lh] ihre iqjk]fnYyh&110034eks0 Qksu ua 09555622323 Email: srgupta54@yahoo.co.in गुंजन गुतता ,प्रतापगढ उत्तर प्रदे र् भारत,Gunjanguptanov@gmail.com

MkW0 bdjkj vgen ,lksfl,V izksQslj & fgUnh foHkkx foosdkuUn xzkeks|ksx egkfo|ky; fnfc;kiqj&vkSjS;k eks0&09412068566 bZ&esy % ekrar38@gmail.com जनकदे व जनक,सललोरी पथरा, सलजी बगान,पो. झररया, धनबाद, झारखंड. मो 9431730244 ई मेल: jdjanak@gmail.com,ईमेल:- ye.udas.chehare@gmail.com प्रताप दीक्षक्षत, एम डी एच 2/33, सेक्ि​ि एच, जानकीपुिम, लखनऊ 226 021, मो 09956398603

सुशांत सुवप्रय, A-5001, गौड़ ग्रीन ससटी , वैभव खंड , इंददरापुरम , ग़ाब्ज़याबाद -201014 ( उ. प्र. )

मो: 8512070086,ई-मेल : sushant1968@gmail.com

अंकुश्री, प्रेस dkWyksuh] flnjkSy] ukedqe] jkaph ¼>kj[k.M½&834 ¼E-mail : ankushreehindiwriter@gmail.com½ इंदस े नाु ंचत

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tsc+ k j'khn]151 pkSikluh pwx a h pkSdh ds ihN] tks/kiqj 342008 jktLFkku ] eksckby&& 9829332268 िाय ि​िादिु ससंि,जासमया समसलया इसलासमया, मोबाइल-9910693349

क़ाससम िीकानेिी,मदीना मब्स्त्जद के सामने मोहल्ला सभब्श्तयान ,बीकानेर (राजस्त्थान),वपन कोड 334001, मोबाइल नंबर,9252883014,8561814522,Email - qasimbikaneri@gmail.com डॉ शैलेंद्रकुमाि शमा​ा,आचायष एवं क़ुलानुर्ासक,वविम ववश्वववद्यालय उज्जैन,संपकष :407 साईनाथ कॉलोनी सेठी नगर , उज्जैन 456 010,मोबाईल :098260-47765 , तनवास: 0734-2515573,Email shailendrasharma1966@gmail.com

िाजेश पुिोहित,संपकष:- 98 पुरोदहत कुटी,श्रीराम कॉलोनी भवानीमंडी,ब्जला झालावाड़,राजस्त्थान,वपन 326502,मोबाइल 7073318074,Email 123rkpurohit@gmail.com जयिाम जय,'पखणषका' 11/1 कृष्ण ववहार,आवास ववकास कल्याणपुर कानपुर,(उ प्र) 208017

मो०नं० 9415429104

चन्द्रशेखि प्रसाद, मुखखयापट्टी, साहरघाट, मधब ु नी, बबहार संपकष:

07600562108,

ई-मेल :shekhar.svnit@gmail.com ललॉग: http://poetryfantasy.blogspot.com/ फेसबुक पेज : https://www.facebook.com/lifecoachshekhar/ कविता विकास,डी. - 15 ,सेक्टर - 9 ,पी ओ - कोयलानगर ,dist - धनबाद,वपन - 826005 ,झारखण्ड मोबाइल - 09431320288 मिे िूि सोनालीय, एल आई सी ऑफ इंडडया, सीहोर र्ाखा, टाउन हाल के ववपरीत, सीहोर364240 ब्जला भावनगर (गुजरात) मोबाइल -MO - 09725786282

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