Vol 1 , issue 2, april 2015

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वर्ष :

Vol.1 , issue.2, April 2015

जनकृति (तवमर्ष कें ति​ि अिं रराष्ट्रीय मातिक ई पतिका)

िंपादक

कुमार गौरव तमश्रा

1, अंक 2, अप्रैल 2015


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

िंपादक की कलम िे ....

संपादकीय किसी पर गहन सोच-किचार किकनमय िरना ही किमर्श है. बहुत िारगर ढंग से सोचिर िस्तुकनष्ठ तथा तिश संगत कि​िेचन और आलोचना िरना ही किमर्श है. व्यकि, समाज, िगश, जाकत, किचार तथा िोई भी किकर्ष्ट कस्थकत आकि सब किमर्श िे किषय हो सिते हैं. किमर्श िा स्िरुप अत्यंत व्यापि है. यह एि ऐसी संिल्पना है कि कजसिे अतं गशत ससं ार िे किसी भी किषय पर तिश संगत सोच-किचारकिकनमय हो सिता है, कि​िेचन-किश्लेषण किया जा सिता है. ितशमान िौर में किमर्श िी उपयोकगता िो ध्यान में रखते हुए जनिृ कत पकि​िा, सृजन िे प्रत्येि क्षेि में किमर्श िो स्थाकपत िरने िे उद्देश्य से कनिाली जा रही है. जनिृ कत ने अतं रराष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रथम अि ं िे साथ ही अपनी साथशि उपकस्थकत िजश िी. जनिृ कत ने कजस साथशि उद्देश्य िो लेिर सफ़र प्रारम्भ किया उसमें किश्वभर िे सृजनिकमशयों ने हमारा सहयोग किया. हमें किश्वभर से सिारात्मि प्रकतकिया कमली एिं सझु ाि प्राप्त हुए कजस पर यथार्ीघ्र िायश किया जायेगा. पकि​िा िी अपनी िुछ सीमाएं हैं कजसिे िारण सभी िो स्थान िे पाना संभि नहीं है. परंतु उन प्रत्येि सृजनिकमशयों िा हम आभार व्यि िरते हैं, कजन्होने पकि​िा में अपना रचनात्मि सहयोग किया. आप सभी िे रचनात्मि सहयोग से यह पकि​िा अिश्य ही अपने साथशि उद्देश्य िो लेिर िायश िरती रहेगी. ितशमान अि ं (अि ं -2, अप्रैल-2015) आपिे सम्मख ु प्रस्ततु है. इस अि ं में किमर्श िे किकभन्न दृकष्टिोण िो समाज एिं पाठि िगश िे समक्ष रखा गया है. हमने किमर्श िे िायरे में प्रत्येि सृजन क्षेि िो लाने िा प्रयास किया आर्ा है आर्ा है कि पाठि​िगश इससे अिश्य ही लाभाकन्ित होंगे. राहत इन्िौरी िी चंि पंकिया​ाँ याि आती हैंसफ़र की हद है वहा​ाँ तक कक कुछ किशाि रहे| चले चलो के जहा​ाँ तक ये आसमाि रहे| आप सभी कमिों िे सहयोग से पकि​िा िा सफ़र जारी रहेगा...........


अंक-1, मार्च-2015

अक ं -2, अप्रैल-2015 विषय- सूची साविवययक विमर्श (कविता, निगीत, किानी, लघु-कथा, व्यंग्य, काव्य विमर्श) कविता अशोक कुमार, ऋषिके श सारस्वत, षकरण अग्रवाल, पंकज षिवेदी, पुष्पा षिपाठी ‘पुष्प’, राज हीरामन (मॉररशस), रामषकशोर उपाध्याय, राहुल देव, संदीप षतवारी, सषिन कुमार दीषित, सजन कुमार, सरु ेखा काषदयान निगीत आठ अठन्नी खिच रुपैया: योगेन्र वमाच किानी महानगरी का प्रेत: मनीि कुमार षसहं नमचदे हर: मनीि वैद्य वतचमान का सि: भारत श्याम स्नेही लघु कथा आईना: भारती िदं वानी अनाथ: संजय षगरी व्यंग्य अषिकार या षिक्कार: षवनय पाठक वररष्ठ होने का सख ु :दुःु ख : अरषवदं कुमार खेड़े काव्य विमर्श कषवता में हाषशये पर गा​ाँव: डॉ. षप्रयंका षमश्र सामाषजक िेतना का पयाचय है वीर षसंह ‘हररत’ का काव्य सग्रं ह: डॉ. उदयवीर षसहं

प्रयोगवादी रिनाकार: कुछ षवमशच: डॉ. मो. मजीद षमया समकालीन कषवता और िन्रकांत देवताले का काव्य (खदु पर षनगरानी का वक्त- के षवशेि संदभच में: राहुल शमाच कषवता और रिना प्रषिया के बारे में: अनूप बाली नि लेखन प्रषतरोि: डॉ. पुष्पलता मामूली िीजों का देवता (The God of Small Things)-अरुंिती रॉय: समीिा: रजनीकांत षमश्रा स्त्री विमर्श स्त्री षवमशच: अविारणा व् स्वरूप: दीषपका जायसवाल अन्तराष्रीय मषहला षदवस की िकािौि और नारी षनके तन का अाँिरे ा: डॉ. नतू न गैरोला नारी स्वतंिता: सकारात्मक एवं नकारात्मक पि: प्रो. उषमचला पोरवाल सेषठया नारी सशक्तीकरण बनाम अशक्तीकरण: आकाि ं ा यादव दवलत एिं आवदिासी विमर्श शतरंजी िालों में षिरी आषदवासी अषस्मता: डॉ. शरद कुमार षिवेदी बाल विमर्श बाल-साषहत्य सृजन: नई िुनोषतया​ाँ: षदषवक रमेश बाल साषहत्य और षशिा समीिा से बाहर: कौशलेन्र प्रपन्न


अंक-1, मार्च-2015

पषं डज्जी का मषं दर एवं अन्य कहाषनया​ाँ: समु न जीवनदाषयनी गगं ा: अरषवदं कुमार मक ु ुल रगं विमर्श झाड़ीपट्टी नाट्य समारोह: षवदभच राज्य की सांस्कृ षतक िरोहर: डॉ. सतीश पावड़े स्त्रीयां एवं रंगमिं : पारसी रंगमिं से नुक्कड़ नाटकों तक का सफ़र: डॉ. सषु प्रया पाठक I am a big man: My dreams are bigger than me (Ratan Thiyam): Dr. Satyabrata Rout Shakespeare performance in park: Dani Karmakar वसने विमर्श देश की सोि का हाइवे- एनएि 10: मृत्युंजय प्रभाकर षवकास: षकसके षलए और षकस कीमत पर: सौरभ वमाच लोक विमर्श मालवा के लोकमानस का प्रभावी मंि है माि: प्रो. शैलेन्र कुमार शमाच िरक: एक पवच: दीपेन्र षसहं भदौररया ‘देव’ र्ोध आलेख िीन में संस्कृ षत, भारतीय संस्कृ षत और बौद्ध िमं: डॉ. गुणशेखर (िीन) गािं ीजी और सत्याग्रह: डॉ. गगं ािर वानोडे आत्मकथा: षहदं ी साषहत्य लेखन की गद्य षविा: डॉ. प्रमोद पाण्डेय मषहलाओ ं में टीबी: डॉ. लोके न्र षसंह कोट मानवाषिकार षशिा, शैिषणक भूषमका एवं उनकी प्रसषं गकता: दीनानाथ

मीविया विमर्श पेड़ न्यूज़- रामेश्वर षसंह सामाषजक षवसगं षतयों के षखलाफ पोस्टरों के जररए अलख जगाता एक षकशोर: इरफ़ान अहमद ‘राही’ भावषक विमर्श राष्रीय एकता की अषनवायच कड़ी षहदं ी भािा: बृजश े कुमार षिपाठी आंठवी अनुसूिी और बढ़ता भािावाद: षनष्ठा प्रवाह विदं ी विश्व षवदेशों में षहदं ी अध्ययन एवं अध्यापन की षस्थषत: डॉ. वदं ना मुकेश (इग्ं लैंड) अनुिाद यह अपना: उज्जवल भट्टािायच


अशोक कुमार की कविताएं ' मेरे शहर का बि-पड़ाि ' मेरे शहर का बि-पड़ाि इक्कीि​िीं िदी में एक ऐिे शहर का पड़ाि है जहा​ाँ आज भी एक रेल अपने गुजरने की गुंजाईश तलाशती है मेरे शहर का बि अड् डा बिों के पड़ाि िे ज्यादा शहर के लोगों का अड् डा है जो एक कै फे टाररया ढाँढते हैं िहा​ाँ जब िे एकरिता के वशकार हो िहा​ाँ पहचाँ ते हैं काफी पीते हए विगरेट के धुओ ं में अपनी परेशावनया​ाँ उड़ाने . कहीं कुछ ज्यादा बदलाि तो नहीं आया है बि-पड़ाि पर वि​िाय इिके वक उिकी उम्र के कई दशक गुजरे हैं मेरे गुजारे डेढ दो दशकों की तरह बिें िहा​ाँ आज भी आती हैं कुछ एक ही अपने वनयत िमय पर िही लाल-पीली बिें िही उजली-आिमानी बिें बिों में ठिमिाये लोग रोज ही तो जाते हैं कहा​ाँ -मैं नहीं जानता बिों पर वलखा शहर गंतव्य तो नहीं हो जाता शायद उि​िे दर भी बिों में जाते लोग लौटते भी होंगे शहर को शायद नहीं बि- पड़ाि को मतलब नहीं मुझे भी नहीं मैं तो बि रोज बि-पड़ाि पर रोज

उि आदमी को आगे बढने का इशारा करता हाँ उिकी ओर न देख कर जो रोज विफफ एक रुपया ही मांगता है मैं रोज उि मुिावफर की ओर न देख कर उिे आगे बढ जाने का िंकेत करता हाँ जो रोज एक िफर करता है कभी लौटने के वलये कभी न लौटने के वलये मैं पपीते खाते उन लोगों को देख कर यह तय नहीं कर पाता वक िे लोग मुिावफर ही हैं और वकतने भखे हैं मैं तरबज खा कर बची हई िफे द तरबज रख देता हाँ उन उजली बा​ाँझ गायों के िामने जो न दध देती हैं न बछड़े वजनका कोई पड़ाि नहीं होता जो अपनी बची हई वजन्दगी एक अनाम िफर के नाम कर डालती हैं बि-पड़ाि पर वलट्टी-चोखे की ठे लािाली दक ु ान भी तो रोज खड़ी हो कर एक िफर करती है बदलाि विफफ यह होता है वक अब िहा​ाँ दक ु ानदार एक लड़का होता है उि बढे की जगह जो वकिी िफर पर गया है मैं ऐिा कह कर वदल को मना लेता हाँ वक शायद िह लौटे वकिी वदन तो कहगाँ ा

जनकृ वत (अंतरराष्ट्रीय माविक ई पविका), अंक-2, अप्रैल-2015

कविता वलट्टी का जायका िही है जो तुम बनाते थे लोग जब अधेड़ और बढे होते हैं बि-पड़ाि पर बुक स्टाल पर पविकायें पलटते खरीदते िहीं कुछ बच्चे जिान भी होते होंगे हर िाल यहीं स्टाल पर कनवखयों िे देख भर लेता हाँ डेबोवनयर का मुख-पृष्ठ भर और िोचता हाँ उन जिान बच्चों में 'मड् ि प्लीज ' कहने िा भरे हए िाहि के बारे में जब िे खरीदते होंगे उन्हें बि -पड़ाि के वलये उम्र भी एक पड़ाि है उम्र एक िफर भी है एक िंगीत भी बि-पड़ाि िे लौटते हए मैं वफर एक िफर पर जाने की िोचता हाँ . ' जनता चनु ती है आम आदमी ' जनता ने चनु ा आम आदमी और िह ित्ता की दीिारों में वचना गया वफर िमय की भट्ठी में तप कर खाि बन गया जनता ने पहले भी चनु े थे आम आदमी जो महल के परकोटे पर चढ कर खाि हो गये थे जनता ने वफर चनु ा आम आदमी इम्तहान की घवड़यों ने जब वटक वटक वकया िह खाि हो गया था जनता हर बार चनु ती है आम ही आदमी और हर बार िह खाि हो जाता है .


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका) अंक-2, अप्रैल- 2015

एक दिन अचानक... एक दिन अचानक आधी रात को आँख खल ु ी मेरी और मैंने िेखाघोटालों की टालों पर दटमदटमा रही है िदु नया टेलीदिजन के दिजन में घरपररिार दलफाफों में बन्ि है आर्षीिाि पैसों में खनकता है प्यार सौन्ियय के बाजार में हँसती है दिष्ि सुन्िरी दविदमिंग कौवट्यूम में दिरकती हुई धीरे -धीरे कादबज हो रही है जीिन मूल्यों पर वपधाय और मुनाफे की हत्यारी सिंवकृ दत सइबर कै फे में बैठे िे घटिं ों चैट करते हैं उड़ते हैं साइबर वपेस में उनकी िेह में िौड़ती हैं उत्तेजना की दबजदलयाँ और दगरती हैं जाकर दकसी गरीब की पँजू ी पर गहराते धधुँ लके में तब एक चीख उठती है िरू झोंपड़पट्टी के घने जगिं लों से िहाँ, जहाँ घुटकर रह जाती है हताहत हिा भी

गीली लकड़ी की मादनि​िं सल ु गती है भख ू और पररितयनकामी आकािंक्षाएँ खोल नहीं पातीं अपनी धआ ु ँई आँखें िहाँ, जहाँ पीने के पानी के अभाि में आदहवता-आदहवता खतम होता है आिमी और उसके महुँ में कोकाकोला और पेपसी डाल मनाते हैं हम अपनी सिंवकृ दत का मरणोत्सि एक दिन आधी रात को अचानक मेरी आँख खल ु ी और मैंने पाया दक प्यास से मेरा गला सूख रहा है िे मेरे मुँह में गिंगाजल टपका रहे हैं और मैं महुँ फे र कर जमीन पर िूक िेती हँ उसे ‘‘टेक अिे दिस डटी गेंगा जाल, यू फूल्स! दगि मी पेपसी’’ मैं एक साँस में परू ी पेपसी पी गयी हँ और दफर मुँह ढँक कर सो जाती हँ

कविता िबु ारा मेरी नींि नहीं खल ु ती नहीं दिखाई िेती मझु े घोटालों की टालों पर दटमदटमाती िदु नया नहीं सनु ाई पड़ती मुझे झोंपड़पट्टी के घने जगिं लों से उभरती चीख नहीं लगता आँखों में गीली भूख से उठता धआ ुँ कुछ नहीं दिखाई िेता कुछ नहीं सनु ाई िेता कुछ नहीं महससू होता मुझ।े - दकरण अग्रवाल


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका) अंक-2, अप्रैल-2015

कविता जल ......................... जल बहता है झरनें बनकर, बहकर ललए अपनी शुद्धता को वन की गहराई को, पेड़, पौधों, बेलों की झल ू न को ललए जानी-अनजानी जड़ीबलू ियों के चमत्कारों से समृद्ध होकर लनममलता में तैरते पथ्थरों को कोमल स्पशम से शाललग्राम बनाता हुआ धरती का अमृत बनकर वनवालसयों का, प्रालियों का लवराम ! जल बहता है नदी बनकर, नालों का बोज उठाती, कूड़ा घसीिती मदं गलत से बहती, अपने लनज रंग पर चढी काललमा को ललए भिकती है गा​ाँव-शहरों की सरहदों से लिल जाते अपने अलस्तत्व को लेकर के लमकल्स की लचपलचपाहि, ज़हरीले सा​ाँप का पयामय बनती हुई थकी-हारी सी, यौवन में भी वृद्धत्व को सहती, िेड़ी चाल चलती हुई जल लस्थर है लकसी मूढ़ व्यलि के पेि के समान सबकुि पचाता है

रंग बदलता है आसमान के बहाने लगरलगि की तरह गरदन फूलता हुआ सुनने के ढोंग करते खदु का शोर मचाता कभी चपु होकर आक्रमि करता प्रकृ लत के खज़ाने पर कुण्डली लगाएं बैठा है धीर-गभं ीर-गढ़ू -मढ़ू बनकर संसार के कताम-धताम को शेषशैय्या के प्रलोभन से बंदी बनाकर उफ़नता कभी जल बहता है मेरे अदं र, तम्ु हारे अदं र, उन रगों को खोलता हुआ, कभी खौलता हुआ बहता है, बदलता है अपने मूल रंग की लाललमा को िोड़कर बन जाता है कभी जालतवादी काला रंग, हरा रंग और खदु के साम्राज्य को स्थालपत करता है इसं ानों को भ्रलमत करता हुआ लड़ाता है इसं ानों से, अपनी नश्ल को बबामद करता कौन हारता, बबामद होता, कौन बहता है मेरे-तुम्हारे अदं र जल के रूप में... – पंकज त्रिवेदी


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका) अंक- 2, अप्रैल-2015

(१) बबबादी की महु र

(२) मैं देवी नहीं

चैनलों में शोर है पबर्टी में हो हँगबमब जनतब त्रबसदी पररवबर उजडब है कोई गबँव कंगबल हुआ है फलब गबँव में मबतम फै लब है गरीब ककसबन ने आत्महत्यब की है बेर्टी पत्नी बूढी मबँ को छोड गयब है नबथू -- ककसबनी छोड गयब !

मैं ककसी रेखब के दबयरे नहीं रहनब चबहती रीती ररवबजों की रूक़ि परंपरबगत से किरनब नहीं चबहती ककसी बुकिजीवी सोच की खर्टबस नहीं िुर्टनों को मोडकर इन्तजबर करनब नहीं नहीं मैं उस कलहबज की थोपी जबनेवबली पदबा भी नहीं बननब चबहती कजसे कसफा िर के दबयरे तक ही लर्टकबने की शोभब बनबई जबती है मैं स्त्री हँ अकिकबररणी चबहती हँ हर क्षेत्र में फै लनब न की पुरबतन की सीतब बनकर रबम की आज्ञब के कलए आत्मसमपाण करनब देह त्यबगनब नहीं अब ये मुिसे नहीं होगब मैं देवी नहीं ----- स्त्री हँ l

सुदखोरों की सूबेदबरी से ब्यबज बैंक चुकबने के डर से बोकिल शरीर मबयूस हुआ बदहबली के खस्तब खबते में नबथू -- जीवन छोड गयब ! बेमौसम कगरते ओलों ने खडी फसल फुंफ लगब दी है सड रहे गेहं की छरहरी देह गलते गोबर सब कलप कदयब क्यब होगब आगे कब कदन ? भख ु मरी से जीवन गजु रेगब रोर्टी तो नहीं कमलेगी भख ू को क्यब पबनी से जीवन गजु रेगब ? कडी मेहनत की फसली कबगज पर बबबादी महु र लगब दी है !!!!

पुष्पब कत्रपबठी 'पुष्प’

कविता


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका) अंक-2, अप्रैल- 2015

कतविा (विकास?)यात्रा इन दिनों सभ्यता दिमर्श का चल रहा है एक नया िौर दिकास का छलािा दिसे भा​ांपना मदु ककल िरूर है लेदकन नाममु दकन नहीं निसाम्राज्यिािी िदु नया के दलए अपना मल्ु क महि एक बाज़ार है कब समझेंगें लोग कब समझेगी सरकार इसां ादनयत आधदु नकता के गद्देिार दबस्तर पर पड़ी िम तोड़ रही उसके रेर्मी तदकये के नीचे रखी सदु िधाओ ां की िसीयत पर तम्ु हारे िस्तखत चाहता तम्ु हारा स्िार्श बन्िक ू ताने है हमारी आज़ािी की कीमत एक सनु हरा दपांिरा है मौन पररभाषाएां गढ़ी िा रही हैं भीतर ही भीतर अदभर्प्त झल ू े पर पींगें मारते हम मगन हैं धीमी धीमी आिाज़

डाल का टूटना अभी हमें नज़र नहीं आता िबदक िह दनकट भदिष्य में हमें बहुत चोट पहुचुँ ाने िाला है दिचार करो तो ज़रा दिकास की अदधकता प्रगदत की यह रफ़्तार आपको अिनदत की पराकाष्ठा नहीं लगती हमें कुछ नहीं दिखता या हमारी आुँखें बांि हैं इस दिकासयात्रा में गांिू ता भािी प्रलय का र्ोर अभी मधरु सांगीत मालमू होता है कल्पनाओ ां पर चढ़ता यर्ार्श का गाढ़ा रांग आपसी रांदिर्ें सिालों के घेरे में सरु दित रास्ता तलार्ने की कोदर्र्े बिस्तरू िारी हैं समझिार औरतें तीसरे दिकल्प की खोज़ ज़ोरर्ोर से कर रही हैं ऐसे में मेरा और मेरी कदिताओ ां का

िनु नू ी हो िाना युँू ही नही ता​ांडि, कला का रौद्र रूप िब-िब बनता है तानार्ाही का बड़े से बड़ा िगु श ढहता है सांस्कृ दतयों के ये सांघषश तो पहले भी हुए दिनार् और दिकास के बीच एक छोटा सा डैर् बड़े-बड़े यद्ध ु ों को अपने में समेटे हुए है कालखडां दनरुदपत करता सीमारेखाओ ां को दकसी रेखा को छोटा करने का सबसे आसान तरीका तमु भी िानते हो अच्छा एक बात बताइए इस समय एक चालाक आिमी और क्या-क्या कर सकता है ? और क्या कर सकता है एक मामल ू ी आिमी ??

- राहुल देव


कविता

जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मासिक ई पत्रिका), अंक-2, अप्रैल-2015

पर िंदे के कटे पिंख......

लोग नफ त के बीज कह ाँ से बोते हैं !

पर िंदे के कटे पिंख कह ाँ से जड़ु ते हैं !

लोगों को बददवु एाँ क्यों कह ाँ से देते हैं !

कटी स्सी के नेट कह ाँ से खल ु ते हैं !

ए मे े हम ही तू इतन तो बत ,

ए मे े हमसफ तू इतन तो बत ,

इन्स नी मदल,प प्य कह ाँ से क ते हैं !

प्रेम से ममले ज़ख़्म कह ाँ से भ ते हैं !

पर िंदे के कटे पिंख......

पर िंदे के कटे पिंख...... मे े सव लों के जव ब कह ाँ से बनते हैं ! अपनों के मदए ददद कह ाँ से ममटते हैं !

जव बदेही मौन उत्त भी कह ाँ से देते हैं !

घ व जो ममले गह े कह ाँ से भ ते हैं !

ए मे े हमजोली तू इतन तो बत ,

ए मे े हमददद तू इतन तो बत ,

गाँगू े शह में बह े कह ाँ से आते हैं !

ज़ख़्मी खनू जो बहे कह ाँ से लौटते हैं !

पर िंदे के कटे पिंख.....

पर िंदे के कटे पख िं ......

नदी-न ले उल्टे पलट कह ाँ से बहते हैं ! नदी के पत्थ धपू कह ाँ से सेंकते हैं ! ए मे े हम ज़ तू इतन तो बत , न व में गह े स ग कह ाँ से डूबते हैं ! पर िंदे के कटे पख िं ......

-

ज ही मन मॉर शस


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका) अंक-2, अप्रैल-2015

आखिर वो सबु ह कभी तो आएगी ------------------------------------आज भी बाड़े में िड़ी हूँ कै द होकर तुमने बस एक झरोिा छोड़ रिा है खजससे मैं झा​ांक सकती हूँ खववश हूँ ,बाहर नहीं आ सकती तुम तो सबु ह कह कर गए थे खक हरा चारा लेकर आऊांगा मुझे बादाम और खकशखमश भी खिलाऊांगा पीने को ताज़ा पानी भी दगां ा बहुत से वायदे खकये हैं तमु ने यही सनु ती आई हूँ आज से नहीं ,,, खपछली सखदयों से खनरांतर हर बार तमु नए कपड़े बदलकर आते हो कभी तुम्हारे सर पर अग्रां ेजी हेट था कभी टोपी – आड़ी या गोल हर बार मैं भ्रखमत हो जाती खिर हर बकरीद पर खजबह कर दी जाती हूँ और तुम और तुम्हारे दोस्तों का खनवाला बन जाती हूँ कर भी क्या सकती हूँ अब तो प्यास से बरु ा हाल है नखदयाूँ सि रही है तमु ने डैम बना ड़ाले अब यह छप्पर भी टपकता है बरसात में.. तमु ने अपने खलए कोखिया​ां बनवा डाली मेरे बच्चों को भेखड़ये उिा ले जाते हैं

कविता तमु कुछ कहते भी नही इस बाड़े में मेरे साथ बहुत भीड़ है मगर सभी पस्त हैं और कुछ मस्त भी और कुछ अस्तव्यस्त भी ये सभी बेजबु ान हैं बोलते नही ... पर इनकी आूँिें चीिती हैं ...ददद से जब इनको खनचोड़ा जाता है अफ़सोस है खक मैं बकरी नही हूँ इस मुल्क की प्रजा हूँ अब देिना हैं खक यह बाड़ा मुझे कब तक रोक कर रिता है.. आखिर वो सुबह कभी तो आएगी ...... | ** रामकिशोर उपाध्याय


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका) अंक-2, अप्रैल- 2015

तवायफ़

नजर आयेंगे तम्ु हें

कविता -ऋषिके श सारस्वत 'साशहत्य समु न' नगदहा पुरनशहया, घोड़ासहन

(1)

मेरी ड्योढ़ी पर

मजबूर हूँ मैं

शनरे स्याह तुम्हें .

कोठे की रानी कहलाना

समाजसेवक का तमगा शलए

पवू ी चपां ारण, शबहार845303

इन्हीं लोगों ने

पुरस्कृ त होते नजर आयेंगे

Mob:- 09122273890

बनाया था मुझे

देख लेना जरा गौर से

अपनी हवस का शिकार

राशि मेरी ड्योढ़ी पर

समाज ने अपनाया नहीं

गुजारते नजर आयेंगे .

डरपोक थी मैं

उजाले के सफ़े द चेहरे

आत्महत्या भी न कर सकी

औरतों वशवकलागां ों के मसीहा नजर आयेंगे

मजबूर थी मैं कोठे की रानी कहलाना (2) बेच दी गई

देखना जरा गौर से शवकला​ांगों से भीख मांगवाते औरतों से खेलते

तस्करों के हाथ

पढना जरा गौर से इनके चेहरों को

शपता के पास

उजाले में वेदना से

दो जनू की रोटी के शलए

गुजरते नजर आयेंगे

पैसे नहीं थे . (3) उजाले के सफ़े द चेहरे


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

वो एक बीघे का जमींदार ककतना खश ु था वो एक बीघे का जमींदार अपनी बढती फसल देखकर गेंहू की घनी मोटी बाकलया​ाँ स्वर्ण सी चमकती चंहओ ु र मन ही मन में बन डाला था उसने सदंु र सख ु द स्वप्नों का एक जाल कजसमे थी लागत लाभ की प्रत्याशा उधार चक ु ाने के बाद और साथ ही... बढती उम्र की कबकटया के हाथ पीले करने की इक्क्षा भी

ककन्तु है अकत दल ु णभ मनवांकित की प्राकि एक सामान्य व्यकि हेतु तभी कहीं दरू कषकतज पर कखली तेज धपू से मानो करने लगे प्रकतस्पधाण सी वो घने, श्याम मेघ और बैठने लगा ह्रदय उस एक बीघे के कृ षक का देखकर प्रकृ कत की इन अठखेकलयों को उस रात मानो किड़ा हो देवासरु संग्राम कहीं नभ के उस पार तकड़त गजणना के वे कर्णभेदी स्वर व् वायु के प्रचंड वेग के मध्य

कविता अनवरत कगरती वो श्वेत लघु कन्दक ु ें आह ! कै से कर कटी वह कालराकि और प्रातःकाल देखा कुि कृ षकों को परस्पर वाताण करते एक घेरे में उसी स्वर्ण सी ककन्तु अब कबखरी, उजड़ी एवं नष्टप्राय गेंहू की फसल के खेत में और उन सब के मध्य भकू म पर पड़ा था औधं ा वो ही एक बीघे का जमींदार कनस्तेज ! कनष्प्प्रार् ! सकचन कुमार दीकषत 'स्वर'


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

कविता एक पाती बच्ची के नाम फ़ोन जब आया कल शाम स़ोच में बीता समय स़ो नहीं पाया सारी रात अवरूद्ध गले से अस्पष्ट आवाजें हथौडे सा च़ोट करती ख़नकती रही बात क्या करू​ूँ समझ के मझ़धार वततमान और भववष्य द़ोनों खडे ह़ो गए लेकर भीषण आकार यातना वकतनी सहओगी लौटकर आओगी घर तुम्हारे, मेरे पास वसर्त इस एहसास से ररश्तों से बडकर अपनापन करें कई सवाल आगे आने वाला जीवन मेरे मरने के बाद मेरा पररवार क्या तम्ु हें देगा इतना ही प्यार वजसकी थी, और ह़ो उतनी हकदार तम्ु हें इस हाल पर छ़ोडकर भी मैं रहगूं ा

बैचन, नाकाम वलख रहा पाती तेरे नाम बेटी ह़ोती पराई वचरूंतन वववशताई घर से उठी ड़ोली बेटी पराई ह़ोली कहना नहीं चाहता पर कहता समझौता कर रह़ो ससुराल बहुत मुवश्कल पडेगी अगर लौट आयेगी वैसे मरकर भी जी लेगी वहाूँ यहाूं न तुम्हें जीने देगा न मुझे समाज हर बात पर उलहाना चररत्र हनन मानवसक उत्पीडन मैं करू​ूँ त़ो क्या करू​ूँ - सजन कुमार मुरारका


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

(1) 'रोटी ' जह ाँ आज भी सिलेंडर नहीं पहचुं वह ुं चल्ू हे की आग ब द में जलती है, पहले घर जलत है घर के लोग जलते हैं सिर कहीं चलते-चलते...... आग चल्ू हे तक पहचाँ ती है लेसकन आग िे भी पहले, भयक ुं र धवाँ होत है और िच ब त तो ये है सक यही धाँव , हम रे सलए मौत क काँ व होत है सजिमें, हम त उम्र चक्कर लग ते-लग ते न ही जलते हैं, न ही मरते हैं, सि​िफ़ िड़ते हैं क्योंसक, इि आग और धएुं के बीच िे पैद हई रोटी के सलए, खोजनी पड़ती हैं लकसड़य ,ाँ झ ल झख ुं ड़ के बीच िे गज़रने में और लकड़ी के ही जग ड़ में जब सदन बीत ज त है... ि हब! तब... लकड़ी,रोटी और महुं के बीच, सकतनी दरू रय .ुं . होती होंगी जर िोसचये ....? (२) 'लहूलह न िपने' हम िपने के अदुं र िपने देखते हैं

एक नहीं, दो नहीं, हज़ र देखते हैं ब र-ब र देखते हैं जब भी देखते हैं आर-प र देखते हैं पर अमीरों के ब ग़ में िपनों की खेती होती है जह ाँ सदन दनू , र त चौगन की दर िे लहलह ती हैं उनकी फिलें बढ़ती ज ती हैं उनकी नस्लें... और जब इि महमह ती हव में हम देखन शरू करते हैं, िपन .........! उि िमय, आधे चम्मच अिसलयत और एक घटुंू भ्रम के बीच, हमे परू आिम न लगत है अपन हम उड़ते चले ज ते हैं.... चले ज ते हैं.......... आक श की अनुंत उुंच ई में तभी क़तर सदए ज ते हैं, हम रे पुंख ! सिर हम रे ज़ख्मी िपने, छटपट कर श ुंत पड़े होते हैं सकिी भय वह ख ई ुंमें!!! और उि िमय हम रे शरीर के खनू क एक भी कतर , ज़मीन तक नहीं पहचाँ प त है अिल में हव इतनी तेज औ गमफ़ होती है सक िब बीच में ही िख ू ज त है सिर िख ू ने के ब द हम रे ि रे िपने... कचड़े के ढेर में दबे प्ल सस्टक

कविता िे, कई गन ज़्य द बदबदू र होते हैं और उि​िे भी भय नक ट्रेजडी यह सक उि िमय हम रे प ि रुम ल के सलए एक सचथड़ तक नहीं होत सक ढक ली ज य न क य सिर आाँख !! (३) 'िब सबक ज ए रे..........' देखो दसनय के सितरू , सफर रो-रो के सचल्ल ओ कत्तों जैिी हिुं ी हिुं ो, और मगे जैि ग ओ बन्दर जैि न चो प्य रे य कूदो ड ल िे ड ल, जीन है ग़र धर ध म पर बेचो अपनी ख ल डरो नहीं तम! इि ब ज़ र में िब सबक ज ए ख ल कौन िी बड़ी चीज़ है, पैि फे को.... इि ब ज़ र में सदल समल ज ए प्य र समले, भगव न समले बड़े- बड़े शैत न समले, इि ब ज़ र में तेरे िब अरम न समलें बि पैि फे को..................... मदे में भी ज न समले इि ब ज़ र में....! िम्पकफ़ - िदुं ीप सतव री अमरन थ झ छ त्र व ि इल ह ब द सवश्वसवद्य लय, इल ह ब द- २११००२


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका) अंक-2, अप्रैल-2015

बहुत सनु ा प्रचारों म ेँ, बहुत पढ़ा अखबारों म ेँ, बटी बचाओ, बटी बचाओ, गूंज रहा बस नारों में। अपन ही घर में बटी को रोज ही रोत दखा है, अपनों की बरुखी को रोज ही सहत दखा है। खदु एक औरत होकर भी क्ेँ त बटी को दत्ु कार रही, नही ेँ है पैर की जती ् त खदु भी ना स्वीकार रही। नन्ही सी वो जान जब कलि्ों सी मुस्काती है, रब की रहमत है हम प ् अहसास जगाती है। पत्थर हैं क्ा वो सीन जो दख नहीं पात ् मजूं र, प्रम स भर उसक लदि में कै स घोंप दत हैं खजूं र? प्​्ार नहीं है हमको तुमस अपनों की जबु ाेँ ही ् कहती है, सोचती हेँ क्ा उनक अदूं र इसूं ानी रूह ही रहती है?? काश खदु ा इस नाजक ु तन सगूं वज्र सा मन भी द दता, जमान स लमिी सारी पीड़ा को लबन लपघि जो सह िता। सुरखा कालद्ान चहि करनाि हरर्ाणा।

कविता


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

नवगीत-1 आय अठन्नी खर्च रुपैया ननत्य आत्महत्या करती हैं इच्छाएँ सारी आय अठन्नी खर्च रुपैया इस महँगाई में बड़की की शादी होनी है इसी जल ु ाई में कै से होगा ? सोर् रहा है गुमसुम बनवारी नबन फोटो के फ्रेम सरीखा यहाँ नदखावा है अपनेपन का नवज्ञापन-सा नसर्फच छलावा है अपने मतलब की ख़ानतर ननत नई कलाकारी हर पल अपनों से ही सौ-सौ धोखे खाने हैं अतं समय तक नफर भी सारे र्फर्च ननभाने हैं एक अके ला मुनखया घर की सौ नर्म्मेदारी नवगीत-2

मनु क़िल भरे कँ टीले पथ पर युवा स्वप्न घायल मात्र एक पद हेतु देखकर लाखों आवेदन मन को कुंनठत करती रहती भीतर एक घुटन बढ़ता जाता घोर ननराशा का दलदल पल-पल मेहनत से पढ़कर, अपनाकर के वल सच्र्ाई बुनधया के बेटे को कहाँ नौकरी नमल पाई अपने-अपने स्वाथच सभी के अपने-अपने छल

नवगीत नगद्धों, बार्ों का वहशीपन िायम है घर के ही दरवार्ों का ऐसे में कै से मुमनिन है अपनों की पहर्ान

िदम-िदम पर अनहोनी के अपने ख़तरे हैं नकया भरोसा नजस पर, उसने ही पर कतरे हैं हर नदन हर पल की दहशत अब छीन रही मुस्कान

रोर्गार के नसमट रहे जब सभी जगह अवसर और हो रहा जीवन-यापन नदन-प्रनतनदन दक़ु कर समझ न आता ननकले कै से समीकरण का हल

ऊँर्ाई छूने की मन में हौंस मर्लती है नकन्तु नसयासत रोर् सुनहरे स्वप्न कुर्लती है दीवारों पर नलखा हुआ है ‘मेरा देश महान’

नवगीत-3

-योगेन्द्र वर्मा ‘व्योर्’ पोस्ट बॉक्स न0ं - 139, मख्ु य डाकघर, मुरादाबाद 244001(उ0प्र0) र्लभाष- 94128-05981

....कै से भरँ उड़ान नन्ही नर्नड़या सोर् रही है कै से भरँ उड़ान

... युवा स्वप्न घायल आसमान में झण्ु ड लगा है


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

कहानी

महानगरी का प्रेत

वह इिना बेवकूफ नहीं था लक अपनी गिलियों से भी सबक न िे। -मनीष कुमार लसहिं साहब कोई काम लमिेगा? वह पहिे से प्िालनिंग करके नहीं यया था। जो भी लमि​िा षससे पॉच साि पहिे वह मम्ु बई यया था। हननर खडे-खडे सवाि कर बैठिा। षत्िर नकारात्मक होिा के नाम पर लसफर था। बाप की डॉट खाकर भागा था। था। स्टेान पर कुिी का काम करने के षसके रयतयत्नों अगर मॉ ने समय पर ममिा की पया​ाप्ि ष्म दी होिी को परु ाने स्थालपि कुलियों ने सगु मिापवू ाक लवफि कर िब ऐसा न करिा। ररशिेदारों से भी षसे लदया। यवशयकिानसु ार सम्बि की या​ा न थी। यह कहा ''हमारे यहॉ काम करेगा रघय ु ?'' चाय वािेने जा सकिा था लक अपने द्दलिकोण से सभी से लनरा​ा षसे दीन-हीन पाकर अपना नौकर बनाने हेिु होकर ही षसने इधर नजर फे री थी। षपयकु ि सम ा। बहनि से अन्य िोगों की ''करेगें काहे न हजरू ।'' वह िरह वह भी गाडी में बेलटकट षस समय पि ु लकि हो षठा था। सवार हनय। टी.टी. के यने पर नेपोलियन का कथन था लक दरअसि चाय वािा हफ्िे भर एक भिे मानषु की सिाह बेवकूफ अपनी गिलियों से से षसे धकके खािे देख रहा था। मानकर वह षसने बथा के नीचे सबक िेिे हैं और बुलिमान लकसी और सलटालफके ट की ारण िे िी। स्टेान पर द स रों की गिलियों से । ू जरुरि नहीं थी। रघय ु भी सबु हपहचु कर वह अपनी गठरी ा​ाम अिलडयों में ऐठन षठने की प्िेटफामा पर रखकर सावाजलनक रयतलिया के अन्ि पर रयतसन्न था। नि से हाथ-पॉव धोने और पानी मेहनिाना और खाना-कपडा जो देिा था। पीने गया। िौटकर षसे ज्ञाि हनय लक ारु​ु में खच्चर की िरह काम लिए जाने पर भी षसने गठरी लकसी और ने अपनी पैिक ृ सम्पलि सम कर एडजस्ट करने की भरपरू कोला​ा की। कारण लवक्प षडा िी है। पास के िोगों से षसने पछू िाछ की। षनमें का अभाव था। पर जब गॉव से मालिक का परु ाना से कई िो रुके ही नहीं। कुछे क ने पलु िस के पास जाने खच्चर य गया िब षसने रघय ु को चोरी का इ्जाम की नेक सिाह दी। वहॉ जाकर षसे मािमू हनय लक देकर धकके मार कर लनकाि लदया। मेहनािाने के बदिे परू ी जािी देखकर यधी को बचा िेना ही बलु िमानी चार थप्पड गो्डेन हैंडाेक के रुप में दे लदए। है। वह सीधे भागा वरना खदु ही अपने माि को चरु ाने लनरिंजन के रुप में षसे पहिी बार एक के जमु ा में अन्दर हो जािा। ाभु लचि​िं क लमिा था। वह चौराहों पर िाि बत्िी के खैर! गठरी में था ही कया? एकाध कपडे, समय कारों की सफाई करके खाने-पीने भर लनकाि कम्बि और बासी रोलटयॉ। पर जो था वह चिा गया। िेिा था। रघय ु ारु​ु में कुछ लदन षसी के सिंरक्षण में गनीमि थी लक पैसे षसने गॉठ में बॉध रखे थे। काम करिा रहा। ''बम्बई का सारा हाि बिा दगू ा।'' पररलस्थलि के इस थप्पड ने षसे दो चीजें षसने यत्मलवशवास से कहा। ''देखिे जाओ। ाहर की लसखायीं। एक िो स्वयिं की चीजें दॉि से पकडकर सडकों के साथ-साथ िोगों का सारा नका​ा भी अपनी रखना िथा लि​िीय, वदी वािों से बच कर रहना। जेब में पडा है।'' नेपोलियन का कथन था लक बेवकूफ अपनी गिलियों से सबक िेिे हैं और बलु िमान दसू रों की गिलियों से।


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

''साब िोगों से लजत्िा भी लमि​िा जाए, रखिा जा।'' लनरिंजन ने कहा। ा​ाम िक रघय ु को अपनी जेब का वजन कई ग्राम भारी िगा। ढेर सारी रेजगाररयों के साथ दस-दस के चार करारे नोट भी थे। लगनने पर सत्िर रुपए की सम्पदा सामने ययी। लनरिंजन को षसने कृ िज्ञिा के िौर पर कुछ राला भेंट करनी चाही। वह हसा। ''रख िे यार। िेरा लहस्सा खाने के लिए थोडे न धन्धे पर िगाया था।'' रघय ु को रयतथम बार महानगरी में मानव सभ्यिा के अवाेष रयताप्ि हनए। लफर िो गाडी धकाधक चिी। षसने मोटर मैकेलनक बनने की यवशयकिा को महससू लकया। व्यस्ि ्ैलफक वािे ाहर में ऐसे हननर का खबू िाभ था। सामने िोग लदन भर में सैकडों के वारे -न्यारे कर िेिे थे। पर खदु की दक ू ान के लिए पजू ी चालहए। षसने सोचा लक ारु​ु में लकसी के यहॉ कुछ महीने काम कर िेगें। ज्ञान भी हालसि होगा। मालिक होलायार था। षसने अपने लहसाब से पगार िय की। बाद में अगि-बगि से मािमू करने पर ज्ञाि हनय लक यह िनखाह अन्यों के मक ु ाबिे काफी अ्प है। इसकी न्यनू िा को षसने अनेक पाटा-पजु े गायब करके परू ी की। गढढे में लछपािा और बेचिा था। मािमू होने पर मालिक ने षसे काम से लनकाि लदया। िेलकन इस बार षस साि-सवा साि परु ाने रघय ु और अब के रघय ु में कलिपय मि ू भिू अन्िर थे। कोटाकचहरी की धमकी के समक्ष षसे सेवा-लनवृलि सममानजनक लमिी। सारा वेिन देना पडा सो अिग। वह इटिं र पास था। गॉव से िलनक दरू पर जो लवद्यािय था षसी से लाक्षा रयताप्ि की थी। अच्छा लिख-बोि सकिा था। यह बाि षसे अपेक्षाकृ ि कमपढे लिखों और लनरक्षरों पर एक बढि देिी थी। लनरिंजन ने षसे अपने घर के बगि में दक ू ान के लिए जगह लदिवा दी। जमीन पर अनालधकृ ि कब्जा था। पलु िलसया हस्िक्षेप से षसे रयतारम्भ में यलथाक हालन भी षठानी पडी। पर बाद में एकमशु ि मालसक

राला के यधार पर लनपटारा हो गया। धधिं ा चि लनकिा। ''रघु जरा इधर यना।'' लनरिंजन ने यवाज दी। के वि वही था जोलक कभी-कभार षसके मॉ-बाप का रखा नाम िे िेिा था। ''कहो गरु​ु ?'' वह ग्रीज िगे हाथ साफ करिा यया। ''चौराहे िक चिो।'' ‘’काम कया है?’’ ‘’िाइन मारनी है।’’ लनरिंजन ने नाक पर से धि ू षडायी। ‘’कया....?’’ ‘’हॉ यार! हम भी इसिं ान हैं। मेरे सामने कोई मेरी मगु ी िे षडे, यह बदा​ाशि नहीं होगा।’’ रयतलि​िन्िी का नाम षसने यगे स्कूटर बढािे हनए स्प्ट लकया। ‘’बबन है सािे का नाम।....अबे महीने भर से मैं ्ाई कर रहा ह,ू अब वो य टपका। खैर, देख िगू ा।’’ षसके मख ु पर द्दढिा थी। रास्िे में स्कूटर रोकी। ‘’कस्टमर का स्कूटर िेकर षड रहा ह।ू परू े काबोरेटर में कचरा भरा है,’’ लनरिंजन क ु कर देखने िगा। ‘’साफ करिे-करिे हमारी सॉस फूि गयी।’’ ‘’िाओ मैं देख,ू ’’ रघय ु यगे बढा। दस लमनट बाद षनकी या9ा​ा पनु : रयतारम्भ हनई । ‘’गरु​ु कोई बवाि िो नहीं होगा....?’’ षसने यािंका रयतकट की। ‘’हट...!’’ लनरिंजन लहकारि से हवा में हाथ टकिा हनय बोिा,’’ऐसे डर के बम्बई में नही रहा जा सकिा।’’ यगे चिकर वह दबु ारा बोिा,’’ढाई महीने से लदमाग खराब है हमारा।’’ रघय ु ने लहसाब िगाया। यही समय था षसका िडकी से पहिी मि ु ाकाि का। ‘’ऊपर रहिी है। नीचे से पाु रने पर लखडकी से पहिे ॉके गी, लफर हाथ देकर सीढी से नीचे यएगी,’’ लनरिंजन ने खि ु ासा लकया। ‘’…..अभी लफिहाि


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

चौखट से ही बाि करेगी। ही...ही, मामिा बाद में यगे बढेगा।’’ करे भी कया। धरावी में रहकर मािाबार लहि और साषथ लद्िी वािी नैलिकिा कहॉ से िाए। जहॉ एक कमरे में यठ-दस िोग पडे रहिे हैं वहॉ मया​ादा को लि​ि रखने भर की जगह नहीं लमि​िी। रघय ु अपने गॉव की नैलिकिा के मानदणडों से यहॉ लमिान करने िगा। कमबख्ि मनोरिंजन के मा्यमों िारा पनघट का लकिना व्यवसालयकरण लकया गया है। गॉव की बहू-बेलटयों की इज्जि समचू े गॉव की इज्जि होिी है। लकसी लवाेष पररवार की नहीं। यहॉ पालटायों में दसू रे की लियों के साथ नाचना से िेकर अपने जीवन-साथी को धोखा देना फै ान के अन्िगाि यिा था। अपने यहॉ लकिना भी जालि-पॉलि या ऊच-नीच का भेदभाव हो िेलकन कम से कम मेहमान की खालिर या बेटी की ा​ादी की िैयारी में सहयोग को िेकर सभी एक हो जािे थे। यहॉ लबना काम के कोई लकसी से बाि नहीं करिा। भारी भीड के कोिाहि में भी सन्नाटा पसरा रहिा है। खैर! गणु -दोष िो हर जगह होिे हैं। गन्दी बलस्ियों में चाय-भाजी के दाम के से लमि​िी-जि ु िी कीमि पर िडकी लमि जािी थी। सेठों को जरा ज्यादा दाम पर सोसाइटी गिा सि ु भ होिी थी। अन्िर लसफा पररमाण का था, रयतकार का नहीं। अपने गॉव में रघय ु ने एक ब्रह्मराक्षस की दास्िान सनु ी थी। पोखरे से गजु रने वािे रास्िे पर एक पीपि के वृक्ष पर िोग षसका बसेरा बिािे थे। ऊधर से गजु रनेमें िोगों की भय से जान जािी थी। खासिौर पर गमी की दपु हररयों और राि में। रघय ु के भागने से एक महीना पहिे ही एक बलु ढया को षसने पकड लिया था। घर यकर दो लदन िक षनमाद में बडबडाने के बाद षसकी मृत्यु हनई थी। अनेक बार खेि में पहरा देने की षसकी भी बारी ययी। िेलकन वह ज्यादािर बहाने बनाकर बचने की कोला​ा लकया करिा था। डालियों के गडु मडु होने से यदमी सरीखा एक चेहरा बन

जािा। हवा चिने पर वह लहि​िा िो घर बैठे िोगों की भी कपकपी छूट जािी। सडक के दसू री ओर ही लनरिंजन ने स्कूटर रोका। दोनों सडक पार करने िगे। एक मोटर साइलकि लजसपर दो छोकरे सवार थे, िेज स्पीड से दौडिी हनई ययी। रघय ु घबरा कर िेजी से यगे बढकर सडक िॉघने िगा। लनरिंजन ने हाथ पकड कर रोका। मोटरसाइलकि सामने जमू से लनकि गयी। ‘’देखा, हमें पिा था लक िौंडा सीधे लनकािेगा।....हमने भी ऐसों की चाि देखी है। मेरे सामने की बाि है। िीन महीने पहिे एक छोकरा ऐसे में भी धडाम से षिटा था। हमने ही अस्पिाि पहचु ाया था। ससरु े, बीबी-बच्चों का चककर सर पर नहीं होिा है िो खदु को िीसमारखॉ सम िेिे हैं।‘’ षसने यलखरी वाकय भनु भनु ािे हनए कहा। एक मटमैिी दीवार वािी मकान की चौखट पर खडा होकर लनरिंजन गरु ा​ाया, ‘’देख बे बबन, यह लघसलघस ठीक नहीं है। यज फै सिा हो ही जाए।‘’ अन्दर से षसका रयतलि​िन्िी लनकिा। ‘’कया बाि है? काहे खख ु य ु रहे हो?‘’ ‘’होा में य। हमारे कजे से सेठ बन बैठा है। अब दरबे की मगु ी मु े ऑखिं लदखाने चिी है,‘’ लनरिंजन िोलधि था। ‘’वो लदन भि ू गया जब हाथ फै िाए लफरिा था।‘’ ‘’जबान सभाि कर बाि कर।‘’ बबन फुफकारा। ‘’कया कहा,‘’ लनरिंजन भडका। रघय ु को िगा लक अब िफडा हो जाएगा। िभी अन्दर कमरे से अन्धकारमें बैठा बढु ढा बोि पडा, ‘’बाि कया है रे बबन?‘’ षसने पीछे मडु कर कहा, ‘’खामखाह षि ा जा रहा है।‘’ बढु ढा बाहर लनकिा। ‘’हमये बाि करो। िौडों से न फसो।‘’


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

‘’का बाि करे ...। एक ही महु ्िे में रहकर रिंलजा पाि रहा है।...पछू ो इससे।‘’ बढु ढा मामिा सम ने के बाद बबन से बोिा, ‘’िू कोई और काहे नहीं देखिा।‘’ वह सर खजु िाने िगा। बढु ढे ने यशवासन लदया। ‘’मैं सम ा दगू ा इसे। यज से वह इसकी भाभी िगेगी।‘’ लनरिंजन बडबडािा हनय िौट गया। रघय ु ने देखा लक मामिा का सिंिोषजनक अन्ि हनय। ‘’कया डराया था षस्िाद!‘’ षसने िाररफ की। लनरिंजन खाु होकर बीडी सि ु गाने िगा। ‘’ऐसे का ही जमाना है।‘’ िौटकर दोनों वका ाॉप में य गए। ‘’गरु सीख िे बेटा,‘’ लनरिंजन ने स्टेपनी षठायी,‘’यगे काम देगा।‘’ साि भर में षसने साि हजार बचाए। कुछ षधर भी लभजवाए थे। ऊधर से लचठ्ठी ययी। हािचाि के बारे में। पढकर षसने पहिे फें क देना चाहा। पहिे भगा लदया, अब खैररयि पछू िे हैं। लफर सोचा लक मॉबाप हैं। ‘’अपने लिए भी कोई मगु ी फसा,‘’ लनरिंजन ने एक लदन कहा, ‘’कब िक यू ही चॉदमारी करिा लफरेगा।‘’ ‘’इिनी यसानी से कहॉ फसेगी। िमु िो धकाधक नोट कमा रहे हो। मैं खदु वका ाॉप में सोिा ह।ू षसे कया यसमान के नीचे रखगू ा।‘’ ‘’यसमान के नीचे कयों? खोिी ढढू ।’’ ‘’पगडी कया मेरा बाप देगा!‘’ ‘’मैं लदिाऊगॉ।‘’ लनरिंजन ने सीना ठोका। ‘’पर कै से?‘’ रघय ु ने षसकी क्षमिा पर ाक लकया। लनरिंजन को गस्ु सा य गया। ‘’भेजा खराब है िेरा,….वो बढु ढा षस लदन बहनि काननू दे रहा था। षसी की...सािा अके िे रहिा है। पटाऊगॉ। बबन िो गॉव िौट गया। थोडा लकराया देना पडेगा।‘’ ‘’लकराया षस्िाद लजिना मॉगोगे, लमिेगा।‘’ रघय ु सहसा षत्िेलजि हो गया।

‘’बैठ बे,‘’ लनरिंजन ने षसके कन्धे पर हाथ मारा, ‘’अभी से षडने िगा। बढु ढा गम का मारा है।‘’ वह सम ाने िगा। ‘’ बाि-बच्चोंके नाम पर जीरो। यज न कि जजबािी हनय िो सब कुछ दे देगा। टेढा हनय िो हत्थे से षखड जाएगा।‘’ बाि सच थी। टाइफाइड में रघय ु लगरफ्िार हनय िो महीने भर बडबडािा रहा। ऐसे में बढु ढा लदन-राि सेवा में िगा रहा। अपना बाप भी कमबख्ि इिना कया करिा। िोगों ने वाकया खत्म होने के बाद लटप्पणी की। वका ाॉप में एक खटारा पहचु ी। षसे देखकर मैकेलनकों ने असा्य घोलषि कर लदया। कार के नाम पर मात्र षसकी बाह्य रुपरेखा थी। रघय ु ने अथक पररश्रम करके षसे पनु ाजीलवि कर लदया। कार पहिे दधु महु े बच्चे की िरह ठुमकिी चिी। लफर कुाि एथिीट की भॉलि भागी। मालिक ने खाु होकर षसे एक हजार के नोट परु स्कार स्वरुप अलपाि लकए। सामने एक टैकसी यकर रुकी। एक पलु िस वािा षिरा। षिर कर चि​िा बना। पीछे टैकसी वािा असन्ि्ु ट ाकि लिए षिरा। यसपास िोगों को सनु ाने के लिए बडबडाने िगा। ‘’सािा बीस मीि से चिा य रहा था। रास्िे भर लदमाग चाटिा रहा। इस बाि पर भडकिा था-िमु कया बिाओगे, हम सब जानिे हैं।....जब पैसे देने की बारी ययी िो ऐसे चि​िा बना जैसे टैकसी ससरु ने दहेज में दी हो।’’ एक अच्छी सी गािी देकर टैकसी वािे ने बगि की नािी में थक ू ा। ‘’अपने इन्हीं िक्षणों के कारण ये िोग अन्ि समय में कुत्िे की मौि मरिे हैं।‘’ षसने रघय ु से कहा, ‘’काबोरेटर चेक कर देना। िगिा है लक कचरा बैठ गया है।‘’ ‘’पलु िस वािों को देखकर गाडी भगा लिया करो।’’ एक मैकेलनक ने सिाह दी। ‘’दौडा कर मारेगा िब मेरे लहस्से के जिू े िू खाएगा?’’ टैकसी वािा इस षिटी सिाह पर भडका। बीडी सि ु गा कर षसने मालचस कुरिे के हवािे की।


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

एक मारुलि बनने ययी। रघय ु को षस लदन ि​िब िगी थी। पैसा नहीं था। कार के दो-एक अवयव बेच डािे। बाद में मालिक को जब पिा चिा िो मामिा षग्र रुप धारण कर गया। िेलकन पास-पडोस वािों के सहयोग से षसे खदेड लदया गया। बढु ढे से महीने भर बाद लनरिंजन की मि ु ाकाि हनई । छूटिे ही रघय ु की लाकायि करने िगा। ''ससरु े को रहने की जगह दी है। नैन मटकका करने को नहीं।'' ''कया बाि हनई ?'' लनरिंजन सावधान हनय। ''बगि की छोरी को िेकर षड जाना चाहिा है।'' ''षडेगा कहॉ चाचा। रहने के लिए बम्बई में जगह कहॉ है। लटके गा वही...।'' ''देखो हरामीपन। लजस छि पर पहिे में खाट डािकर राि में सोिा था, वह नैन लमिाने की खालिर इस्िेमाि कर रहा है। अबे...एक ही कमरा है। षसमें मैं और बबन गजु ारा करिे थे। यह िो षससे भी चार लडग्री यगे है।'' बढु ढा वास्िव में रु्ट था। ''जाने दो'', लनरिंजन हसने िगा, ''िडकी वािे िैयार न हनए िब िमु कन्यादान कर देना।'' सि ु ोचना को िेकर रघय ु गैरेज में ही रहने िगा। ''अबे िु से ठहरा नहीं गया।'' लनरिंजन हसने िगा। वह ामा​ा कर सर खजु िाने िगा। ''कब िक ऐसे रहेगा?'' म्यलु नसपे्टी के नि पर बैठा रघय ु दािनु कर रहा था। बगि में गढढे में पानी गढमढ होकर लचत्िकबरा हो गया था। ''जब बढु ढा मर जाएगा िो लफर वहॉ लाफ्ट कर जाएगें।'' वह दॉि लनकाि कर हसने िगा। गढढे के पानी में षसे अपनी छलव पीपि के पेड वािे ब्रह्मराक्षस से लमि​िी-जि ु िी िग रही थी।


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015


कहानी

जनकृति (अिं रराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अक ं -2, अप्रैल-2015

नममदे हर - मनीष वैद्य नदी के श ांत और ननर्द्वदं बहते प नी पर से अभी – अभी नसदां रू ी रांग उतर है और अब नदी के प नी में धपू की सनु हरी परतें निलनमल रही हैं. चैत के महीने में धपू अभी से चटख हो रही है. वैसे यह ाँ की सबु ह अल भनु स रे ही शरू ु हो ज ती है. सबु ह च र बजे जब बड़े मनां दर के पजु री नममद में डूबकी लग कर नममदे हर....नममदे हर.....मनां दर की ओर बढ़ते हैं, तब तक यह ाँ के ब की लोग भी ज ग चक ु े होते हैं. निर तो डूबनकयों क नसलनसल देर तक चलत रहत और न व – डोंगे खेने व लों क भी. कई श्रद्ध लु डूबनकय ां लग कर लौट चक ु े तो कई अब भी स्न न कर रहे हैं. नममद के बीच ध र में न नभकांु ड से तीर्म य नियों को दशमन करव कर तीसरी मोटर बोट भी लौट रही है. मल्ल हों के बच्चे और औरतें ब सां में ज नलय ां लपेटकर नदी से तीर्म य नियों के िैं के गए नसक्के और न ररयल ननकलने की होड़ में हैं. िूल - प्रस दी की दक ु नों पर ग्र हकों और दक ु नद रों के बीच मोल – भ व चल रह है. पररक्र्म व नसननय ाँ ह र् में नममद क िोटो नलए तीर्म य नियों से द न – धमम की गहु र कर रही है. ....अरे, आज निर एक बच्ची नमली है.....यह नशव के वट क हलक र है, जो उधर बड़े पल ु के नीचे से आ रह है. नशव के वट के इस हलक रे ने उस रोज रफ़्त र नजन्दगी को जैसे र् म नदय है. उधर परू ब की तरि मनां दर की ओर ज रहे लोग रुक गए हैं. उधर दनिण में बहती नदी के न व और डोंगे खेने व लों ने उन्हें नकन रे लग कर हलक रे की नदश में दौड़ लग दी है. कुछ तीर्म य िी और कुछ रोज

नह ने आने व ले भी दौड़ पड़े हैं. पजु री - पण्डे भी अपनी धोनतय ाँ साँभ लते ह ि ां ते हुए भ ग रहे हैं. नदी से चढ व उलीच रहे छोटे – छोटे बच्चों के ह र् भी अन य स रूक गए. वे भी अपन ज ल िैं ककर उस तरि भ गे ज रहे हैं. मनां दर की सीनढ़यों से सटी िूल – प्रस दी की दक ु न व ले भी एक - दसू रे को सपु दु म लग कर बड़े पल ु के नीचे की ओर बढ़ गए हैं. र्ोड़ी ही देर में यह ाँ अच्छ – ख स मजम जटु गय . सत्त ईस स ल की नरबदी भी अपनी िूल - प्रस दी की दक ु न पर बेटी को छोड़कर भीड़ के बीच आ खड़ी हुई है. नशव के वट के ह र्ों में एक बच्ची है करीब दो – तीन महीने की. वह लग त र नबलख – नबलख कर रो रही है. ल ल चनु री ओढ़े इस बच्ची के कप ल पर लग कांु कू – हल्दी अब पसीने और आसां ओ ु ां से भींगकर परू े चेहरे पर फ़ै ल गए हैं. बच्ची रोते – रोते हर नकसी की ओर टुकुर – टुकुर त क रही है, श यद अपनी म ाँ को ढूांढ रही है. भीड में नजतने महांु उतनी ब त. कोई उस अभ गी की नकस्मत को कोस रह है तो कोई उसे चपु करने की कोनशश कर रह है. यह ाँ नदी के इस घ ट पर पवम स्न नों पर ल खों लोगो की भीड़ होती है. पर आम नदनों में स म न्य भीड़ ही होती है. परू ब की ओर घ ट से करीब सौ िीट ऊाँच ई पर बहुत परु न बड़ स मनां दर है. मनां दर और घ ट के बीच कई सीनढय ां हैं और इन्ही सीनढ़यों पर िूल – प्रस दी बेचने व लों की करीब दो दजमन से ज्य द दक ु ने हैं, स मने करीब आध नकलोमीटर चौड़े प ट में नममद बहती है और इधर पनिम की ओर इल के को इदां ौर शहर से जोड़ने व ल च र िल ंग लम्ब पल ु है. इसे यह ाँ के लोग बड़ पल ु कहते हैं. नरबदी की आाँखे अगां रे की तरह ल ल हो रही है. अदां र कुछ उबल स रह है. स साँ े धोंकनी की तरह, मरु िय ाँ भींचने लगी. ऊपर से चपु नजर आ रही


जनकृति (अिं रराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अक ं -2, अप्रैल-2015 नरबदी के अदां र कुछ भी सहज नहीं है. ऊपर से श ांत नजर आ रही नदी में भीतर की लहरों के कोल हल की तरह. उसके मन में उर्ल – पर्ु ल मची है. म र् तप रह है. पैर कांपकांप ने लगे हैं. गल सख ू ने लग है. जब भी कोई बच्ची यह ाँ इस ह ल त में नमलती है, तब नरबदी सहज नहीं रह प ती. वह गस्ु से से उबलने लगती है. कई – कई नदनों ब द तक सहज नहीं हो प ती वह. ऐसी बनच्चयों को लेकर वह परेश न हो उठती. देर तक वह उस बच्ची के ही ब रे में सोचती रहती. वह उन हैव नों को कोसती रहती, नजन्होंने उसे इस ह लत में पहां चु नदय . क्य सच में कोई इतन ननदमय हो सकत है. कै स पत्र्र कलेज रहत होग उन लोगों क . यह ाँ तो ये सब होत ही रहत है. दो – च र महीने हुए नहीं नक निर कोई बच्ची नमल ज ती है इसी तरह ल ल चनु री ओढ़े. कप ल पर हल्दी – कांु कू. कभी यह ाँ से तो कभी वह ां से. नदी के नकन रे कहीं से भी. अब बच्ची को नशव के वट से भीम की पत्नी ने अपनी गोद में ले नलय है. उसने अपनी गोद में बच्ची को भींच नलय है और उसे र्पनकय ाँ देकर चपु कर ने की कोनशश कर रही है. पर वह चपु नहीं हो प रही. वह अब भी नबलख – नबलख कर रोती ही ज रही है. लग त र रोने से उसकी नससनकय ाँ आ रही है. भीम की पत्नी उसे चपु कर ने की हर सभां व कोनशश कर रही है लेनकन बच्ची पर इसक कोई असर नहीं हो रह . वह रोए ज रही है. नबलख – नबलखकर. नरबदी वही ाँ ब लू पर पसर गई. उसकी नजरें नदी के बहते हुए प नी पर है. मन में उर्ल – पर्ु ल मची है. वह सोचती है – उसके अदां र कोहर म मच है लेनकन नदी तो उसी तरह बह रही है.श ांत और ननर्द्वदं . जैसे पहले बह रही र्ी, जैसे इस बीच कुछ हुआ ही नहीं. नदी इतनी कठोर, तटस्र् और नननलमप्त कै से रह सकती है. क्य उसे बच्ची क रोन सनु ई

नहीं देत . नममद को तो इल के के लोग म ाँ की तरह म नते हैं. यह कै सी म ाँ है और कै सी इसकी ममत . उसकी नजरें नदी के बहते हुए प नी पर है. जैसे नजरें र्म गई हों. वह सोचती है, नदी की ननयनत भी कै सी होती है. सब कुछ ज नते हुए भी श ांत रह ज ने की, ननर्द्वदं रह ज ने की. ऊपर से श ांत और अदां र से कई ध र ओ ां को समेटे हुए, नदी की गहर इयों में नकतने रहस्य छुपे होंगे. नकतने र ज दबे होंगे, और नकतनी पीड एां भी. नदी नकतने लोगों के दुःु ख - तकलीिें हरती हैं. नकतने लोगों को उम्मीद से ब धां ती है नदी. सैकड़ों बरसों से इसी तरह बहती रही है नदी. ऊपर से श तां लेनकन अदां र दुःु ख समेटे हुए, नभन्न – नभन्न ध र ओ ां को एकरूप करती नदी. कभी तोडन पडती है नदी को भी अपनी हदें. तब वह श ांत नहीं रह प ती, वह अपने रौद्र रूप में आ ज ती है और तोड़ देती है तम म हदें, अपने तटबांध भी. तब नदी के आचां ल में हमेश रहने व ले लोग भी यह ाँ नहीं ठहर प ते नदी क गस्ु स जब श ांत होत हैं तो बची रह ज ती है तब ही की ननश ननय ाँ नदी कै से रह लेती है इस तरह ननर्द्वदं ...क्य नदी क जीवन ही ऐस है. श यद यही ननयनत है उसकी. कहीं र्मन नहीं, कहीं रूकन नहीं, न नकसी से मोह – म य , न कहीं कोई बधां न,,,,,नदी कभी कहीं रूक ज ने की ल लस नहीं करती. पत्र्रों, चट्ट नों और पह ड़ों को ल घां ती, िल गां ती और रौंदती हुई वह बहती रहती है अनवरत. नजन्दगी भी कह ाँ रूकती है. तम म परेश ननयों, ि सनदयों और य तन ओ ां के ब द भी वह चलती ही रहती है. मोह – म य से परे ज कर भी नजन्दगी कह ाँ र्म प ती है. ये पररक्र्म व नसननय ाँ ...कभी घर – पररव र की दहलीज में नसमटी रही, घर – ब र छोड़ और नदी के नकन रे को ही घर – आाँगन बन नलय पर अपने को ब हर कह ाँ ननक ल प ई. अब भी वही मोह – म य , वही मेर की ल लस . कभी – कभी तो एक – एक रूपए की भीख के नलए एक – दसू रे से नभड


जनकृति (अिं रराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अक ं -2, अप्रैल-2015 ज ती हैं वे. नकसने क्य छोड़ ...? नकसने नकसको छोड़ ....? और कौन नकसको छोड़ सकत है ......? नकसी के छोड़ देने भर से क्य कोई छूट सकत है. यही तो नजन्दगी क क्रम है. नदी और नजन्दगी की ननयनत एक सी होती है. उसने यहीं नममद के तट पर देख है सबको एक घ ट पर. स धु – सन्य सी, पण्डे – पजु री, पररक्रम व सी औरतें और आदमी, तीर्मय िी, मरने के नलए नदी नकन रे छोड़े ज चक ु े बढ़ू े, मल्ल हों और डोंगे खेने व लों के बच्चे. कौन मोह – म य के परे ज सक है. श यद कोई नहीं. अपने ही पररजनों से ठुकर ई ये नवधव पररक्रम व सी र त के अाँधेरे में नदी के तट की ब लू को अपने आसां ओ ु ां से नभगोती रहती है. श यद उन्ही के नलए जो इन्हें यह ाँ छोड़ गए, अपने से दरू ....मर ज ने को. वे पीछ छुड़ गए इनसे पर ये अब भी नहीं भल ू ी उन्हें. कै से भल ू सकती हैं...नदी की सी गहर ई सबमें कह ाँ होती. वे भी जो खदु भ ग आई हैं नजन्दगी की तकलीिों से. क्य कोई अपने नपछले को सफ़े द स डी य भगव कपड़ों में छुप सकत है. अब तक ग ांवव ले भी आ चक ु े हैं. सरपचां भी. पनु लस पांचन म बन रही है. सरपचां नए – नए आए दरोग को समि रहे हैं - यह ाँ की बहुत परु नी बरु ई है स हब. च र – छह बेनटयों के ब द भी जब बेट पैद नहीं होत तो लोग यह ाँ नममद से मनौती करते हैं स हब. मनौती क्य नबजनेस डील की तरह .. म ाँ अबकी ब र बेट ही देन . यनद बेटी हुई तो यहीं तेरे नकन रे पर छोड़ ज एाँगे.... और स हब ऐसे लोग होते भी हैं, पत्र्र कलेजे के . ल ल चनु री ओढ कर कांु कू - हल्दी में कर देते हैं नबद ई, कभी न व पस लौटने के नलए. उनके अपने ही उन्हें छोड़ ज ते हैं इस तरह. मरने के नलए य श यद बच ज ने की उम्मीद के भरोसे नदी की तपती ब लू में. स हब, नजन्दगी के रांग भी अजीब होते हैं. नजसकी तकदीर में जीने की रेख हो वह ऐसे कै से

मर सकत है. कोई सह र नमल ज त है और एक नई नजन्दगी शरू ु हो ज ती है. निर से. यह अभ गी अके ली नहीं है स हब, नदी के इस तट पर ऐसी दजमनों हैं. कुछ को सह र नमल ज त है तो उनकी नजन्दगी रफ़्त र पकड़ लेती है. उनकी एक म ाँ नबछुड़ती है तो उस दसू री म ाँ क आचां ल नमल ज त है. पर कुछ इनसे भी अभ गी होती है. कुछ को कुत्ते नोंच लेते हैं तो कुछ इसां नी भेनडयों य दल लों के ह र्.. कहते – कहते सरपचां क स्वर रुआस हो गय र् . अब वह म समू लग त र रोने से र्क कर सो रही है भीम की पत्नी की गोद में. उसके चेहरे पर अब र हत के भ व हैं. बीच – बीच में उसके चेहरे पर ब ल - सल ु भ मस्ु कर हट आती है और चली ज ती है. उस म समू को नहीं पत नक उसके स र् नकतन बड़ छल नकय है उसके ही अपनों ने. उसे नकस गलती की सज दी ज रही है. इसक जव ब नकसी के प स नहीं. बच्ची नींद में हैं, पर भीम की पत्नी निर भी उसे प्य र से दल ु र ते हुए र्पकी दे रही है. इतनी सी देर में भीम की पत्नी को ममत पड़ गई है उससे. निर उस म ाँ क कलेज कै स रह होग , नजसने उसे महीनों तक पेट में न ल से ब धां कर रख . अस्पत ल की ग ड़ी आ गई है. भीम की पत्नी से नसम ने बच्ची को ले नलय है. बड़े मनां दर की घनां टय ाँ बज रही है. अलसबु ह च र बजे से ज गे भगव न अब छप्पन भोग क स्व द लेकर सो ज एाँगे. अब उन्हें कोई नहीं जग सकत . बरसों से भगव न इसी तरह सोते रहे हैं. तयशदु समय पर. नरबदी अब भी वही ाँ है. ब लू पर बैठी नदी की ध र को एकटक देखते हुए,म नों सव ल कर रही हो नदी से. नदी से य अपने आप से. बरसों से करती रही है वह ये ही सव ल पर जव ब कभी नमल ही नहीं. यह ाँ नममद क न नभकांु ड है. यह तीर्म म न ज त है, दरू – दरू से लोग यह ाँ आते हैं अपने प प


जनकृति (अिं रराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अक ं -2, अप्रैल-2015 नदी में प्रव नहत कर पण्ु यों की गठरी ब धां ने. लोग म नते हैं नक यह ाँ मरने व ल मोि प ज त है, उसे निर – निर जन्म नहीं लेन पड़त . यह ाँ धरम – करम करने से लोगो की मनौनतय ाँ परू ी होती हैं. लोगों की नदी से आस्र् जडु ी है. इसे इस तरि की गांग म नते हैं वे. यह ाँ क कांकर भी शक ां र म न ज त है पवम स्न नों पर यह ाँ ल खों लोग जटु ते हैं. ल खो लोग नममदे हर... के उदघोष के स र् डूबनकय ां लग ते हैं त नक उनक वांश चलत रहे, उनक क रोब र चलत रहे, लक्ष्मी की कृ प बनी रहे. सत्त ईस स ल पहले नरबदी भी इसी नदी की तपती ब लू में ल ल चनु री में नलपटी कांु कू- हल्दी लग कर छोड़ दी गई र्ी. जब म ाँ की र्पनकयों से सोकर दो महीने की नन्ही ज न ने आाँखे खोली तो म ाँ के आाँचल की जगह नदी क आाँचल र् . नीचे धपू में तपती ब लू और ऊपर आसम न. िूल – प्रस द की दक ु न लग ने व ली दल ु री ब ई की ममत ज गी तो म ाँ क आाँचल नमल गय . जन्म देने व ली ने छोड़ तो प लने व ली म ाँ नमल गई. अपने बेटों की तरह प ल उसे भी. कोई िकम नहीं. उसकी श दी भी कीऔर अब आठ स ल की बेटी है उसकी. नममद से नमली तो न म पड़ गय नरबदी. दल ु री ब ई नरबदी के म ाँ – ब प को हमेश कोसती रहती. कै से लोग रहे होंगे, न ज ने नकस नमट्टी के , जल्ल द और कस ई के भी ह र् क ांप ज ते हैं निर वे तो उसके अपने ही र्े. कै से घर लौटे होंगे ख ली ह र्......क्य ननयनत है औरतज त की भी. नरबदी लग त र सोच रही है. लोग बत ते हैं नममद नचरयौवन है. उसे कोई मोहप श में नहीं ब धाँ प य . इधर के लोग नदी को कुम री ही म नते हैं. ब की सभी ननदय ाँ सहु नगने पर नममद कुम री... बत ते हैं नक ब की ननदयों क सत खत्म हो ज त है, तब भी, नममद क सत कलयगु में भी उतन ही है.

ब की ननदय ाँ जब मैली होते – होते सख ू ने लगी हैं, तब भी नममद उसी तरह बह रही है. पवम - त्यौह रों पर हज रों म एाँ अपने बेटों की सल मती के नलए जलेबी भोग लग ती हैं. नजतने बेटे उतने प व जलेबी. नदी को भोग. बेटे नकतने सल मत रह प ते हैं, पत नहीं पर हर स ल सैकड़ों नक्वटां ल जलेबी जरूर नबक ज ती है. नरबदी की आाँखों में वह दृश्य ब र – ब र कौंध ज त है. भतू ड़ी अम वस की क ली र त. स ांि ढलते ही नममद के तट पर शरू ु होत है भतू ों क मेल . ओि – पनडय रों से जांजीरों से नपटती औरतें, भतू भ गने के न म पर. ब लों की चोटी पकड़कर घसीटी ज ती औरतें. बीस – बीस कोस दरू से आते हैं यह ाँ लोग. म ननसक तौर पर बीम र औरतों के इल ज क यह कौन स तरीक है. ओि – पनडय र बरु ी तरह म रते रहते हैं और इन औरतों के पररजन ओि की जय – जयक र करते रहते हैं. नघनघय ती – चीखती औरतें. र त के सन्न टे में औरतो की चीखें गांजू ती रहती है और ओि ओ ां के कहकहे....अट्टह स. कहीं तलव र की ध र से खनू ननकल रह है तो कहीं जीभ में च कू. वीभत्स से भी वीभत्स. क ली र त गजु रते ही सबु ह की उज स के स र् बीती र त क कोई ननश न ब की नहीं बचत , कोई मल ल नहीं. लोग उसी तरह डूबनकय ां लगते रहते हैं, जैसे बीती र त कुछ नहीं हुआ. नजन्दगी उसी तरह शरू ु हो ज ती है अपनी ही रौ में. बीती र त की ब तों को भल ू कर औरतें निर जटु ज ती हैं घर – घरस्ती में. यह ाँ से लोग पण्ु य की गठररय ाँ ब धां ते है, बेटों की सल मती म ांगते हैं. मनौनतय ाँ म ांगते हैं. निर यह ाँ जो प प करते है उसक .... छोटे मनां दर के पजु री कहते हैं – अन्यिेिे कृ तां प पम, तीर्मिेिे नवनश्यनत | तीर्मिेिे कृ तां प पम, कद नप न नवनश्यनत ||


जनकृति (अिं रराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अक ं -2, अप्रैल-2015

अन्य िेि में नकय प प तो यह ाँ नममद में बह दोगे पर यह ाँ नकय हुआ प प... नरबदी को लग यह सब कहने की ब तें हैं. अब तो नममद में भी सत नहीं बच . ऐसे लोगों की सज क्य हो...इन्हें तो तडप – तडप के म रन होग . उसके म ाँ – ब प को भी. उन्हें तो नजतनी धीमी मौत की सज हो सकती है, वह देन च नहए. मौत से भी कोई बड़ी सज हो तो वही सज . श यद सबसे बड़ी सज .. जैसी अब तक नकसी को न नमली हो. बीते सत्त ईस स लों में वह अपने म ाँ – ब प की सज तय नहीं कर प ई.. उनके जमु म के नलए तो हर सज छोटी ही लगती है. 11 ए मख ु जी नगर, प योननयर स्कूल चौर ह देव स म प्र 455001 मोब .नां.98260 13806


श्याम “स्नेही” कहानी

सम्पर्क-सूत्र :-

५०२/ से० १०ए

वर्तमान का सच गा​ाँव के बेवा बधु िया की लाश बीच चौराहे पर पड़ी है, शायद कुछ लोग श्मशान ले जाने की तैयारी में लग रहे हैं | बधु िया के मौत की खबर आस-पास के इलाके में जंगल के आग की तरह फ़ै ल चक ु ी थी |लोगों में सवं ेदनाएं कम पर धजज्ञासा ज्यादे झलक रही थी | दो-चार लोगों के झण्ु ड मगर अलग-अलग, धजतने मंहु उतनी बातें | श्यामल भी अपनी स्कूटर सडक के धकनारे ख्दाक्र लोगों के प्रधतधक्रयाएं सनु ने लगा | याँू तो आधिस आते-जाते बराबर ही बधु िया को देखता, पर असली कहानी से पररधचत तो नहीं था | आज धजस तरह की बातें सनु ने को धमल रही थी उसने तो धजज्ञासा की भख ू ही बढा दी थी | कोई कह रहा था बेचारी आधखर मर गयी | कभी बड़े नाम के घर की बहू, जो उदार प्रकृ धत की थी | उसके घर से शायद ही कोई जरुरतमन्द इंसान धनराश लौटा हो | वक्त बदला ससरु और पधत की बीमारी ने बारी-बारी से आधथिक झंझावात से धघरती चली गयी अपने पधत की धनशानी दोनों बेटों के घर बसाने तक | आज उसके दोनों बेटे धवदेशों में खश ु हाल धजन्दगी धबता रहे हैं | लोग बता रहे थे – िोन तो धकया था पर हवाई जहाज के धटधकट के अनपु लब्िता बता रहे थे | हा​ाँ, इतना जरुर कहा धक कुछ पैसे भेज रहा हूाँ, उससे आवश्यक धक्रयाकमि जरुर कर देने की बात कही | कुछ लोग बता रहे थे बच्चों ने कई बार प्रयास धकया धक यहा​ाँ की सम्पधि बेचकर अपने साथ ले जाने की | बधु िया एकाि बार गयी भी | मगर पाश्चात्य आिधु नक सस्ं कृ धत में खदु को नहीं ढाल पाने के कारण जल्दी ही वापस आ जाती | अब तो बेटों के पास जाने तक से यह कहकर इनकार कर देती धक –“परु​ु खों की धमट्टी को कै से छोड़ जाऊाँ , धजस घर डोली चढ़ दल्ु हन बनकर आई थी उसी घर से अथी भी धनकले” यही सीख और सस्ं कार जो माता-धपता से धमले थे | धजसे वह जीते जी नहीं भल ु ा पा रही थी | और ऐसी ही अपेक्षा उसके माता-धपता की भी थी, जो कब के स्वगिवासी हो चक ु े थे, पर बधु िया उस बंिन से स्वयं को कल तक बांिे थी |

जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

गुरुग्राम (हरियाणा) ०९९९०१७८५०२

बधु िया अक्सर कहती – “मेरा सबकुछ तो यहीं है” और अतीत में खो सी जाती | कभी-कभार सास-ससरु के तानों की कहानी सनु ाती तो उन तानों में भी मेरी भलाई ही धछपी होती, बेशक कुछ समय के धलए कटु जरुर महससू होता पर बाद में धवचारने पर उपदेशात्मक ही प्रतीत होती धजसमें मेरे भधवष्य की उज्ज्वल पररकल्पना मात्र ही उद्देश्य होता | वैसे सासु मा​ाँ थी तो ककि शा मगर अन्तर से धबलकुल ही धनश्छल और धनष्पाप | कभी अपने पधत के बल ु ंधदयों के धकस्से तो कभी मनहु ार की बातें | जमीन-जगह सभी बच्चों के भधवष्य सवं ारने में या तो धबक गये या धिर दबगं ों ने कब्जा धलया | जब लोगों को धवश्वास हो चला धक – पहले तो बच्चे साल में एकाि बार आ भी जाते पर अब बहुत हे कम आते हैं और इनके बच्चों ने लगभग नाता तोड़ सा धलया है और िोन पर भी कम ही बातें होती है तो दबगं ों ने अपना जाल धबछाना शरू ु कर धदया | अचानक एक धदन बधु िया लम्बी बीमारी के धगरफ्त में आई और अस्पताल से इलाज कराकर वापस आई तो चौकीदार वाला कमरा छोडकर परू े मकान पर भी एक दबंग तथाकधथत नेता द्वारा कब्जा देखकर हतप्रभ सी रह गयी | जब गेट पर खड़े रंगदारनमु ा दो व्यधतयों ने रोबीले स्वर में हाथ के ईशारे से धकस्से जमाने का दरबान क्वाटिर के ओर धदखाते - समझाते हुए कहा – “अम्मा, आपके जरूरत के सारे सामान रखे हुए हैं | अब आप उश्र ही उस कमरें में जाएाँ | आपका मकान धबक चक ु ा है | ललन बाबू ने खरीद धलया है |” यह सनु ते ही बधु िया बेहोश हो गयी | धकसी नमनू े जब होश में आई तो रधजस्री के कागजात देख कुछ बदु बदु ाते हुए दबु ारे बेहोश हो गयी | उन्हीं लोगों ने धकसी तरह बधु िया को उसके कमरे में पडी टूटे से खात पर धलटाकर वापस हो गये | स्वत: जब होश में आयी तो – बेटों द्वारा उसे पागल करार देकर डाक्टरी प्रमाण-पत्र के आिार पर रधजस्री मक ु म्मल हो ची थी, धसि​ि एक कमरे को छोडकर | बधु िया बदहवाशी के हालत में अपने ध ंदा और मानधसक रूप से स्वस्​्य होने के सबतू गा​ाँव के पंचायत, थाने से लेकर उच्चाधिकारी तक के साथ छोटे -बड़े नेता मंत्री तक पहुचं ाती रही | मगर सभी ने सचमचु के पगली समझकर टालते रहे | कोई-कोई तो सहानभु धू तपवू िक उसकी


व्यथा सनु ने के बजाय दत्ु कारते – िटकारते रहे और अपनी चौखट से भगाते भी रहे | यहा​ाँ तक धक बच्चे भी धचढातेकुढाते रहते | कुछ तो लोगों ने और कुछ ललन बाबू के गगु ों ने बधु िया के पागल होने की कई मनगढन्त कहाधनया​ाँ िै ला रखी थी | एक धदन थाने के थानेदार का मन पसीजा या आधथिक लोभवश एक दरख्वास्त बधु िया से धलखवाकर ले धलया | दसू रे ही धदन थानेदार ललन बाबू के घर पहुचं ा और चायपानी के खचे का जगु ाड़ कर वापस लौट आया | लेधकन पहुचं और पैसेवाले होने का लाभ बराबर धमलते रहने के उद्देश्य से एक मक ु दमा तो दजि करने की गलती तो थानेदार ने कर ही ली थी | इसके एवज में कई बार अपना तबादला भी रुकवा चक ु ा था | इस कदर सालों-साल तक जांच भी चलती रही | जांच प्रधतवेदन की अप्राधि के आिार पर तारीख-दर तारीख साल धबतते रहे | कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते बधु िया लगभग टूट सी चक ु ी थी | बधु िया जो कभी बड़े घर बधु िमती और अन्नपूणाि सी एकलौती बहू हुआ करती थी वही अब बधु िया बनकर धसलाई-कढ़ाई, पापड़-अाँचार बनाकर अपना गजु ारा चलाती और मक ु दमे की पैरवी भी | यहा​ाँ हाजरी के नाम पर कुछ न कुछ तो खचि करने ही पड़ते | सबु ह जाती तो अंिरे ी शाम तक कचहरी से वापस आती, खाना बनाती, कुछ देर रामायण पढती और सो जाती | यही क्रम वर्षों से चल रहा था | उस एक कमरे पर नजर गडाए लल्लन बाबू की धनयत तो उसे भी लपक लेने की थी और बधु िया की धनयती भी कुछ और | सहानभु धू तवश कोई कुछ सहायता भी करता तो ललन बाबू के प्रताड़ना से छुपाकर |

पहले तो रमेश जी ने भी पागल या भीख मागं नेवाली ही समझा | पर, साथ ही एक दया और करुणा का जो भाव बधु िया की आपबीती सनु कर जागा तो अश्वस्त करते हुए वकालतनामे पर दस्तखत लेकर उसका मक ु दमा लड़ने को तैयार हो गया | वह भी धबना िीस के | यह जानते हुए भी धक प्रधतपक्ष में नामी-धगरामी प्रख्यात वकील इस मक ु दमें की पैरवी कर रहे हैं | आधखर रमेश को भी अपनी काधबधलयत का लोहा मनवाना था | रमेश अपने धशक्षाक्रम में हमेशा सवोत्कृ ष्ट स्थान पाने वाला एक गरीब बाप का एकलौता सन्तान था | शायद गरीबी के कारण ही डाक्टर, इजं ीधनयर तो नहीं बन सका पर, मात्र एक वकील बनकर रह गया | सत्यधनष्ठ धपता और कमिधनष्ठ मा​ाँ के खनू ने उसे सत्य के पथ से कभी धडगने नहीं धदया | पर, सच को झठू और झठू को सच धसि करने के बाजार में, सच को सच बताने का जज्बा बरकरार था | इसधलए भी शायद वह आिधु नक न्याय की दधु नया​ाँ में सबसे अलग-थलग पद गया था | हा​ाँ, अपनी काधबधलयत और अध्ययन पर परू ा भरोसा था रमेश जी को | बधु िया का मक ु दमा आठ साल बाद अपने बहस के पहले पादान पर पहुचं रहा था | बहस-दर-बहस में एक तरि तो अके ले रमेशजी जबधक प्रधतपक्ष में तीन-तीन, चारचार बढ़ू े खन्नास वकीलों के तकों को अपने तकों से काटकर धछन्न-धभन्न करता रहा तो परू े न्यायालय पररसर में मानो एक ख्याधत सी फ़ै ल गयी | ये चचाि आम हो चली धक इस मक ु दमें का िै सला रमेश जी के ही पक्ष में जायगा |

आधखर एक धदन ऐसा भी आया जब न्यायालय के िटकार के बाद जाच ं प्रधतवेदन न्यायालय में एकपक्षीय अनमु ोदन के साथ दाधखल धकया गया |

पर धनणिय के धदन तो नजारा ही बदल गया | जब न्यायािीश ने िै सला देते हुए रमेश जी के धवरुि देते हुए धवपक्ष को सही ठहरा धदया |

गनीमत ये थी धक पहले ही धदन के नोधटस पर जब धबधिया कचहरी पहुचं ी तो वकीलों के बाजार में खदु को पाकर दगं रह गयी | सबने लगभग पागल ही मान धलया और यह कहकर टाल धदया धक उसका कुछ नहीं हो सकता | नये-नये बने वकील रमेश जी, जो मौन मरु ा में अपने मक ु द्दर को कोस रहा था, तभी बधु िया की आवाज से उसकी तन्रा टूटी – “मैं पागल नहीं हूाँ और ध ंदा हूाँ | बेटा, मेरा हक मझु े काननू से धदलवा दो |”

बधु िया भी अवाक रह गयी | बस, इतना ही बोल सकी धक “ बाबू तमु ने तो जान लदा दी, मगर, मेरी धकस्मत ही खोटी धनकली |” और बधु िया वहीं बेहोश हो गयी | तत्काल पधु लस उसे अस्पताल ले गयी जहा​ाँ उसे मृत घोधर्षत कर धदया गया | पोस्टमाटिम ररपोटि में उसके धपछले कई धदनों से भख ू ा बताया गया |

जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

न्याय की आकांक्षा से धलपटी िटी-परु ानी, मटमैली चादर में बधु िया के मृत शरीर को रमेशजी और गा​ाँव


के कुछे क लोगों ने घर तक पहुचं ाया, धजसे अब सनू े श्मशान में दाह-सस्ं कार के धलए ले जाने की तैयारी हो रही थी |

जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

'आईना' राधिका को सामने वाले फ्लैट में आए हुए अभी दो महीनें ही हुए थे पर इन दो महीनों में वह अल्का की बहुत खास सहेली बन गयी थी। धबधल्डिंग का हर एक पररवार उसके आने से खश ु था जैसे राधिका में उन्हें एक आदशश धमल गया हो। राधिका शहर की धवख्यात डॉक्टर और एक समाज सेधवका है जो धनचले तबके के लोगों के उत्थान के धलए अक्सर पत्र-पधत्रकाओ िं के धलए आकर्शण रही है। अपने पररवार व् बच्चों की देख रेख के साथसाथ समाज के प्रधत धजम्मेदारी व् अपने पेशे को बखबू ी धनभाना इतना आसान नहीं है,राधिका की यही खबू ी शायद अल्का को उसके व्यधित्व की ओर आकधर्शत करती है और दो ही महीनों में मानो बरसों पुराना ररश्ता धिर जवािं हो गया हो। सवेरे काम पर धनकलने से पहले से दोनों में मुस्कराहट का आदान प्रदान होता। शाम को दोनों कई देर तक दरवाज़े पर खड़ी बधतयाती रहती। अल्का अक्सर राधिका से धचधकत्सा सिंबिंिी परामशश व अन्य सीख लेने को उत्साधहत रहती।अल्का सहर्श धकटी पाटी में सभी को राधिका से कुछ धसखने की नसीहतें देती। रधववार की सबु ह अल्का मदुिं ी आँखों से अखबार खोलती है तो राधिका की फ़ोटो देख,हर्श और उत्साह से अपनी महरी को धदखाती है "देख सुखी! धकतनी नेक मधहला है,समाज के प्रधत कतशव्यधनष्ठ...वरना कौन डॉक्टर सामाधजक चेतना के धलए झग्ु गी-झोंपररयों में इन धनचले तबके के लोगों के साथ एक ही थाली में खाता है..." अल्का की सराहना को अभी धवराम नहीं लगा था की दरवाजें की घिंटी बजती है। महरी के पीछे पीछे राधिका को

लघु कथा

आते देख अल्का का राधिका के प्रधत सम्मान तेज लहर की भािंधत और अधिक उछलता है। "आज सवेरे कुल देवी के मिंधदर गयी थी,रधववार को ही जाने का समय धमल पाता है..." अल्का के हाथों में धडब्बा देते हुए राधिका कहती है। "...पर इस प्रसाद को के वल पररवार के लोगों में ही बाँटना,महरी या धकसी छोटे कुल के लोगों में मत देना। क्या है न कूल-देवी का प्रसाद है जो धसिश ऊँचे कुल के लोगों में ही बािंटा जाता है। बचपन से ही यही सनु ने को धमलता आ रहा है की धनचले कुल में देवी का यह प्रसाद वधजशत है..." अल्का सामने रखे अखबार की राधिका और साक्षात् खड़ी राधिका के भेद से अवाक,महरी की ओर एक बोधझल सी मुस्कान का आवरण ओढे देखती है। जैसे सिंदक ू में सहेजे हुए कीमती खजानें से एक बहुमूल्य शीशा टुटा हो पर धबखरी हुई धकधचशयों में मानों एक-एक टुकड़ा सम्पूणश आईना है जो अलका को हकीकत से रूबरू करवा रहा है। भारती चिंदवानी, अजमेर, राजस्थान।


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

* आनाथ * एक बार मुझे कुछ बदमाशो ने चाकू मार ददया ,मै अचेत पड़ा हूँ ,लोग आ -जा रहे हें पर दकसी कपो भी इतना वक्त नहीं हे की मुझे देख सके .हॉदपपटल पंहुचा सके , इतने मै ही मेने देखा दक एक गरीब व्यदक्त दजसकी उम्र लगभग ५५-६० के आस -पास होगी मुझे उठा के अपने कंधो पे ड़ाल हॉदपपटल दक और चल पड़ा .हॉदपपटल पहुच कर वो मुझे आपात -कालीन वार्ड एर्दमट करा कर मेरी देखभाल दक खादतर रातभर रुका .मेरी देखभाल करने मै उस ने कोई कसर नहीं छोड़ी .सुबह होते ही वह मेरे दलए चाय और दबपकुट ले आया और मेरी और बढ़ाते हुए बोल लो बेटा नापता कर लो .उसके महू से अपने को बेटा शब्द सनु ते ही मेरी आूँखों मै आूँशु बह दनकले .आज तक मुझ अनाथ को दकसी ने भी बेटा कह कर नहीं बुलाया था ,मेरे बहते हुए आंशुओ ं को देख कर वह व्यदक्त बोला,बेटा रोते दकयों हो दकया दकया ददड ज्यादा हो रहा हे .रुको मै र्ॉक्टर को बल ु ाता हूँ .मेने उन्हें रोकते हुए कहा ,नहीं बाबा ये ददड मेरे ज़ख्मों का नहीं ज़माने द्वारा ददए तानो व् गदलयों का हे .आज तक दकसी ने भी मुझे बेटा कह कर नहीं पुकारा , सभी ने मुझे कभी छोटू ,छोकरे .लोंर्े या हरामी के नाम से पक ु ारा था , आप ही वो पहले शक्स हें जो मझु े बेटा कहा हें .मेरी बात सनु कर वह बढ़ू ा व्यदक्त भी रो पढ़ा और मेरे गले लग कर रोने लगा और बोला बेटा मैं भी तुम्हारी ही तरह आनाथ हूँ मेरा भी इस ददु नया में कोई नहीं हें , हम दोनों ने अब एक दसु रे को सम्भाला और हॉदपपटल से छुट्टी ले कर अपने गन्तव्ये दक

लघु कथा

और चल पड़े ,एक दसु रे दक बाहं पकर्े ,अब हम आनाथ नहीं थे ,हमारे बीच एक नया ररश्ता बन चुका था दपता और पुत्र का . *संजय कुमार दगरर


व्यंग्य

जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

अधिकार या धिक्कार - विनय कुमार पाठक अच्छे विन आते जा रहे हैं| डर है वक जनता कहीं अच्छे विन आने की खश ु ी में पागल न हो जाए| अब िेवखए स्िास्​्य का अविकार भारतीय जनता क तोहफे में वमलने िाला है| पहले से जनता के पास इतने अविकार थे वक जनता खिु क अविकारी से कम नहीं समझती| अब अविकारों के ढेर पर बैठी जनता खश ु ी से फुले नहीं समा रही| अब तो सभी स्िस्थ होंगे, प्रसन्न होंगे| अब डॉक्टर ऑपरेशन के बाि मरीज के पेट में कैं ची नहीं छोड़ेंग|े अब डॉक्टर पररिार वनयोजन के ऑपरेशन के िौरान मवहलाओ ं की जान नहीं लेंग|े अब वसजेररयन ऑपरेशन के िौरान निजात वशशु के कान नहीं काटेंगे| और तो और अब वशक्षण और अनसु िं ान के वलए मेवडकल कॉलेज को िान में विए गए शरीर को चहू ों से नहीं कुतरिाएगं |े अब सरकारी ि​िाओ ं की कालाबाजारी नहीं होगी| आवखर स्िास्​्य का अविकार जो वमलने िाला है| कहा भी गया है पहला सख ु वनरोगी काया| स्िस्थ शरीर में स्िस्थ मवस्तष्क का िास होता है आवि आवि| अब शरीर भी स्िस्थ होगा और मवस्तष्क भी| अविकार का वमलना अपने आप में बहुत बड़ी बात है| उसका उपयोग हो पाए न हो पाए यह अलग बात है| अब भले ही कोई उपन्यासकार

व्यंग्य या काटूवनस्ट कट्टरपंवथयों के िबाि के कारण जान से हाथ िोए या वफर लेखन-जीिन से हाथ िोए पर अवभव्यवि का अविकार तो है न संवि​िान प्रित्त? और वफर सोचने की बात है वक जो होगा उसी का तो उपयोग होगा| अतः अब जब स्िास्​्य का अविकार वमलने ही िाला है तो हम कह सकते हैं वक और कुछ नहीं तो पहला किम तो उठ चुका है| मंवजल वमलेगी ही| कुछ विनों पहले वशक्षा का अविकार वमला था| सभी स्कूलों को वनिेश विये गए थे वक गरीब बच्चों का नामाक ं न करें और ‘फी’ न भर पाने भर के कारण उन्हें वशक्षा के अविकार से िवं चत न करें| कई स्कूलों में बच्चों के नामाक ं न हुए भी| िैसे कुछ में नहीं भी हुए| वजन स्कूलों को आज के पैमाने पर अच्छे माने जाते हैं, उनमें तो खैर नहीं हुए| अगर उनमें हो ही जाते तो वफर िे स्कूल अच्छे कै से माने जाते वफर? नामाक ं न हुए या नहीं पर वशक्षा का अविकार तो सभी को उपलब्ि है न? अविकार उपलब्ि होना अपने आप में बहुत बड़ी राहत है| बहुत बड़ी चाहत है| और वफर क्या वशक्षा स्कूल में ही वमलती है? हमारे िेश में तो परंपरा रही है स्कूलों में या वफर आश्रमों में वशक्षा के अविकार से िवं चत रखने की| एकलव्य को गरु​ु द्रोणाचायू ने िवं चत रखा था तो कणू को गरू ु परशरु ाम ने| एक को जावत के कारण िवं चत रहना पड़ा था तो िसू रे को


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

जावत वछपाने के कारण| पर सीखने िाले कहा​ाँ हार मानते हैं| सीखा तो एकलव्य ने भी और कणू ने भी| अब गुरू के करतूत के कारण सीखी हुई विद्या का प्रयोग करने लायक नहीं रह पाए या प्रयोग नहीं कर पाए तो क्या वकया जा सकता है? ितूमान में हमारे िेश में द्रोणाचायू और परशुराम से भी बड़े बड़े वशक्षावि​ि् हैं| िे बच्चों की वशक्षा को स्कूल तक सीवमत नहीं रखना चाहते| अनेक निोन्मेषी उपाय से िे बच्चों को वशवक्षत करते हैं| सोना उगलने िाले मेरे िेश की िरती में इतनी क्षमता तो है ही वक कहीं भी वशक्षा उपलब्ि करिा िें| अभी कुछ ही हप्ते पहले की बात है जयपरु में एक तहखाने में चड़ु ी कारखानों में बच्चे वशवक्षत होते पाए गये| इन्हें चड़ू ी वनमाूण के सपं णू ू विवि की वशक्षा िी गई| वशवक्षत करने पर कुछ इतना जोर था वक बच्चों को न नहाने का समय विया गया न खाने का| भाई वशक्षा है ही इतनी बड़ी चीज| अब चड़ू ी फै क्री में काम करते हुए जो वशक्षा ये ग्रहण करेंगे िह नहाने से िल ू जाएगा वक नहीं? परसाई जी ने भी बताया है वक नहाने से आिमी की प्रवतभा के िल ु ने का खतरा होता है| और वफर विद्याथी-वशक्षाथी के पा​ाँच लक्षणों में अल्पाहारी होने को पहला लक्षण माना गया है| अतः इन बच्चों को कम से कम भोजन विया जाता था तावक चूड़ी वनमाूण के वशक्षण में कोई बािा वबघ्न न आए| इसी प्रकार

विद्याथी के पा​ाँच लक्षणों में िसू रा लक्षण है श्वान वनंद्रा| अथाूत कुत्ते की तरह हल्की नींि| अब नींि कुत्ते की तरह हो या न हो इनकी वजिं गी को तो कुत्ते की वजिं गी से बितर बना ही िी गई थी| हल्की नींि की शतू को पूरा करिाने के उद्देश्य से इनसे काम अठारह घंटे करिाये जाएं तो ज्यािा सोएंगे कै से? विद्याथी लक्षण मे इजाफा हुआ वक नहीं? गृह त्यागी भी एक लक्षण है पा​ाँच लक्षणों में| तो वबहार-झारखडं से आये ये बच्चे गृह त्यागी तो थे ही| वफर इन्हें िबु ारा घर जाना नसीब भी नहीं होने विया जाता तावक गृहत्यागी होने के लक्षण में वकसी तरह की कोई कमी न आए| जहा​ाँ तक ‘बको ध्यानम’ की बात है तो इनसे इतना महीन काम करिाया जाता था वक इनका ध्यान अजनुू की तरह हो गया था| वजिं गी का उद्देश्य बस चूड़ी बनाना और कुछ नहीं| काग चेष्टा की बात है तो इन्हें वसफू और वसफू चूड़ी बनाने पर ध्यान कें वद्रत रखना था| काम के बिले क्या वमल रहा है वमल भी रहा है या नहीं इस पर उन्हे ध्यान िेने की जरूरत नहीं थी| जरा भी चूक हुई तो बेंत से चमड़े को िरु​ु स्त कर विया गया था| यह तो एक उिाहरण मात्र है बच्चों को वशक्षा के अविकार के तहत वशवक्षत करने का| न जाने वकतने होटलों में, वकतनी िक ु ानों में, वकतने गैरेजों में, वकतने कालीन उद्योगों में, वकतने पटाखा फै क्टररयों में और न जाने अन्य वकतने


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

खतरनाक जगहों में बच्चों को वशवक्षत कर उनके वशक्षा के अविकार की पूवतू की जा रही है; उन्हें खतरों का मंजा हुआ वखलाड़ी बनाया जा रहा है| और यह तो तब से ही होता आ रहा है जब वक वशक्षा का अविकार उपलब्ि नहीं था| अब जब वशक्षा का अविकार उपलब्ि हो गया है तो इसमें इजाफा ही होना है| हम खश ु नसीब हैं वक हमें इतने प्रकार के अविकार वमल रहे हैं| वकसी महापरु​ु ष ने तो वशशओ ु ं के स्तनपान के अविकार के वलए भी काननू बनाने की सलाह िी थी| शायि काननू आज न कल बन भी जाए| ऐसी वस्थवत में ि​िू माँहु े वशशु कचहरी में जा कर अजी लगाएगं े वक उनकी माता िेह विन्यास के चक्कर में उन्हें स्तनपान नहीं करा रहीं| इस प्रकार हमें अनेक प्रकर के अविकार उपलब्ि हैं और विनानुविन होते जा रहे हैं| हम खश ु नसीब हैं वक हमें इतने प्रकार के अविकार वमले| भांवत भांवत के अविकारो की ढेर सारी बिाई| प्रमावणत वकया जाता है वक " अच्छे विन आते जा रहे हैं....”शब्िों से प्रारम्भ होने िाली प्रस्तुत रचना "अविकार या विक्कार" मेरी स्िरवचत मूल रचना है ; इसे जनकृ वत में प्रकाशन हेतु

विचाराथू प्रेवषत वकया जा रहा है | यह कहीं प्रकावशत नहीं हुई है | विनय कुमार पाठक ई 3 / 93, प्रथम तल, वचत्रकूट, िैशालीनगर, जयपुर, 302 021 मो. 090018 95412 िरू भाष- 0141-2441042


काव्य तिमर्श

जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

कविता और रचना-प्रविया के बारे में कोई भी रचनाकार,कवि या लेखक, आलोचक या दार्शवनक जीिन के सन्दभश में ही अपने कृ वि, आलोचना या दर्शन को रचिा है .जीिन वकसी भी कलाकार के वलए िो समय या यथाथश स्रोि है ,वजसके आधार पर ही िो ज्ञान और सिं देनाओ ं की खोज करिे हुए, जीिन को उसकी जविलिाओ ं के साथ कला में पनु रश वचि करिा है. इसीवलए वहदं ी सावहत्य के आवद-आलोचक आचायश रामचन्र र्क्ु ल ने काव्य में लोकजीिन को महत्ि वदया है, उनके अनुसार कवि को ‘लोक-हृदय’ की पहचान होनी चावहए, िे काव्य को दो विभागों में विभक्त करके यह स्थावपि करिे हैं वक जीिन की समग्रिा की उपेक्षा करके कोई भी कवि महान काव्य की रचना नहीं कर सकिा, इसे ही िो “लोकमंगल की साधनािस्था” कहिे हैं, उनके अनसु ार मंगल वसद्ध नहीं होिा, बवकक उस िक पहुचुँ ने का प्रयत्न ही वकया जा सकिा है, और इसी प्रयत्न की रुपरे खा में विरोधी भािों-व्यापारों के सामजं स्य और द्वन्द्वात्मक सबं ंधों के फलस्िरूप िह ‘कमश-क्षेत्र के सौन्दयश’ से साक्षात्कार करिा और पा क को भी करािा है. इस िरह कवि के वलए र्क्ु लजी जीिन की अविमहत्िपर्ू िश ा को रे खावं कि करिे हैं. ‘काव्य में लोक-मगं ल की वसद्धािस्था’ की िह आलोचना करिे हैं, आगे मवु क्तबोध के काव्यवचंिन में भी हम जीिन-ज्ञान-व्यिस्था और उससे उत्पन्न होने िाले सिं ेदनात्मक-ज्ञान और ज्ञानात्मक-सिं ेदना के माध्यम से हम काव्य में जीिन की महत्िपूर्श भवू मका को देखिे हैं. इस िरह मवु क्तबोध एक िरह से आचायश र्क्ु ल की परम्परा के आलोचक हैं, जो आचायश र्ुक्ल की काव्य-दृवि को और अवधक विकवसि करिे हैं. प्रस्ि​िु कवि​िाओ ं में ि​िशमान समय के सन्दभश में कवि के काव्य-सघं र्श को वचवत्रि करने का प्रयास वकया गया है, और साथ ही एक कवि​िा का कथ्य यह भी है वक कै से इस सघं र्श में ना पड़कर या जीिन की उपेक्षा और समय के र्ड्यंत्रों में फंसकर एक कवि की मौि हो जािी है, कवि का मरना एक साधारर् मौि नहीं हैं, बवकक कवि का मरना उसकी कवि​िा का और सावहत्या का मरना है. उसकी कवि​िाओ ं को जोड़िी जीिन-दृवि का अंि है, यही संघर्श (कवि का सघं र्श) और उन सघं र्ों में उसकी हार यही इन कवि​िाओ ं का िस्ि-ु ित्ि है. िही ुँ रूप में अबकी बार मैंने एक नया प्रयोग वकया है, कवि​िा में अमिू श वबम्बों की श्ृंखलाएं हैं, जो पा क को कोई वनवि​ि करिी प्रदान नहीं करिी, बवकक यही उसकी ककपनात्मकिा को त्िरिरि करिी है. लेवकन कोई एक वबम्ब एक अलग खंड

नहीं बवकक परू ी कवि​िा समग्रिा में ही समझा जा सकिा है, क्योंवक उसका सन्दभश उसकी समग्रिा में ही है, कवि​िा आपके सामने प्रस्ि​िु हैं. एक कवि की मौत बीच राि एकाएक उसकी आुँख खल ु ी उसके हों ों पर वचपका था पीछे घवि​ि हुए हादसों का बेस्िाद ज़ायका और उसकी उुँगवलयों पर पसीनों की र्क्ल जैसी कोई मदु ाश कोवर्र् काुँप रहीं थी, िो आुँखें गढ़ाए छि की िूिी हुई दरारों की पेचीदवगयों में वज़न्दगी के बेचैन मच्छर देख रहा था, िक्त एक किी हुई पंछू की िरह िड़प रहा था, िक्त उसके अंदर का या िक्त जो बाहर से उसके भीिर दावखल हुआ था? जो हर क्षर् लंगड़े मंसबू ों की ख़वु िया गफ़्ु िगू की िरह उसकी कोवर्र्ों में उसकी सम्भािनाओ ं को वनरस्ि कर रहा था, िो सिालों की िहों से उिरिे हुए मैले नाखनू ों की वगरफ़्ि में जकड़ा हुआ था (खरोंचों भरा था उसका चेहरा, वक जब उसकी लार् की र्नाख्ि की गयी) उसके र्ब्दों पर बदहज़मी की फफुवन्दयाुँ उसके अपने ही विचारों पर उवकियां कर देिी थी, वजनको साि करने वक एक मरी हुई कोवर्र् में िो अपने मन के कूड़ेदान से जले हुए वसद्धांिों की राख लेिा था. िो एक डर हुई सभ्यिा का िुिा हुआ पंख उड़ना चाहिा था मगर इन दलदली आसमानों के िेज़ाबी मौसमों से


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 िो जला रहा था ख़दु अपने ही अदं र वक सारी ककपनाएुँ अपनी ही सृजनात्मक कोवर्र्ों को अपनी ही ‘कलात्मक चेिना’ से िो उड़ना चाह रहा था मगर हिाओ ं की उन्मक्त ु िा को क़ै द करके . कवि होना धएंु के बादलों में वफरिा रहिा ह,ुँ आरुजओ ु ं के िूिे पंखों की आिाज़ें लेकर दफ्न कहावनयों के वकरदारों की आुँखों में आुँखें डालिा ह,ुँ चवु पपयों में पीिा हुँ सब िजहों की कड़िी हकीक़िें जो अंिस में िेज़ाब सी जलिी हैं, और एक रुके आरम्भ को अंि बना देिा हुँ अंि की अनंि से मल ु ाक़ाि करािा ह,ुँ प्रवियाओ ं की गां ों में उलझा जीिन-सत्य ढूंढिा हुँ और वफर अपनी ही ‘समग्रिा’ पर प्रश्न-वचन्ह बन लिकिा ह,ुँ चीलों-वगद्दों की नज़रों से ज़ख़्मी रािों के कंकाल चरु ािा हुँ (जो खिरनाक हैं) सड़क के कुत्तों से बािें करिा ह.ुँ आधी राि के भवु िया नगं े नाच पर कसीदे गढ़िा हुँ, उकलओ ु ं की खदु गज़श महवफलों में वगड़वगड़ािे र्ब्दों की ग़ल ु ाम रूहों के दहकिे स्िपनों की ज़ख़्मी छावियों से िपकिा लह चखिा ह,ुँ बेहोर्ी से होर् में होर् सी बेहोर्ी में धएंु और आग की लपिों से खेलिा ह,ुँ जलिा ह.ुँ ....राख होिा ह.ुँ ... धआ ंु हो जािा हुँ धएंु के बादलों में वफरिा रहिा ह.ुँ .......

- अनूप बाली


काव्य तिमर्श

जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

प्रयोगवादी रचनाकार : कुछ ववमर्श

1. पररचय : प्रयोग एवं वाद के योग से प्रयोगवाद शब्द का निर्ा​ाण हुआ है। प्रयोग शब्द का पहला अर्ा होता है, नकसी भी वस्तु या नवषय को व्यवहार र्ें लािे का काया या उपयोग एवं दसू रा अर्ा िीनत, नियर्, नसद्धान्त आनद की स्र्ापिा करके उसे काया रूप र्ें लािे की प्रनिया। नि​ि रीनतबद्ध(क्लानसकल) सर्ालोचकों िे प्रयोगवादी रचिाओ ं के बारे र्ें अपिे राय व्यक्त नकए हैं, वैसे प्रयोगवदी परस्त सर्ालोचकों को अपिे आलोचिा र्ें ज्यादा-ज्यादा ध्याि देिे की िरूरत हैं। प्रयोग शब्द नकसी भी चले आ रहे पुरािे परंपरा, नसद्धान्त या र्ान्यताओ ं र्ें िए प्रयोग करिे अर्वा स्र्ानपत नसद्धान्त या वस्तुओ ं को व्यवहार र्ें लािे का भी अर्ा सर्झाता है। “प्रयोगवाद शब्द- ‘पहले से चले आ रहे कलात्र्क या सानहनत्यक परम्पराओ ं को प्रयोगात्र्क रूप से परीक्षण करके उसर्ें नस्र्त अिावश्यक तर्ा निरर्ाक र्ान्यताओ ं का नवरोध करते हुए या वैसे र्ान्यताओ ं को त्यागते हुए िए अर्ा यक्त ु र्ान्यताओ ं को लागू करता है’। इस प्रकार प्रयोग शब्द का अर्ा वस्तु या नवषय को व्यवहार र्ें लाकर परीक्षण करिा है। इस दृनिकोण से देखा िाए तो श्री गणपनतचन्र गप्तु के पाव आरम्भ र्ें लड़खड़ा गए र्े पर बाद र्ें ठीक प्रकार से चलिे लगे र्े।1 प्रयोगवादी कर्ाकारों के बारे र्ें गॉर्ाि चार्लसा नलखते हैं- ‘िैिेन्र पहले कर्ाकार हैं, नि​िहोिे लोगों का ध्याि प्रेर्चन्र से हटाकर अपिी ओर आकृ ि नकया। िैिेन्र, प्रेर्चन्र के बाद ही प्रर्ख ु नहन्दी कर्ाकार के रूप र्ें प्रनतनित हुए है और सार् ही युवा कहािीकार भी आरंभ से कर्ावस्त,ु भाविा और भाषा के नवषय र्ें उिकी अगुआई स्वीकार करते रहे है। प्रयोगवादी शब्द हर्ेशा प्रयोगवाद संबंधी, प्रयोगवाद के

र्ॉo र्ोo र्िीद नर्या

अिुयायी, प्रयोगवादी शैली शब्दगत नवश्लेषणनसद्धान्त, व्यवहार परीक्षण एवं नवचार धारा के प्रनतपादि करिे के अर्ा का बोध करता है। इस प्रकार सानहत्य के संदभा र्ें परंपरागत र्ान्यताओ ं को त्याग कर सानहत्य र्ें िए-िवेले रूप, सरं चिा एवं भानषक नवन्यास ही सानहनत्यक प्रयोग है।2 2. प्रयोगवाद पर सैद्धावतिक चचाश : नवज्ञाि के वारारा र्िुय य को नदया गया िया पररवतािशील दृनिकोण ही प्रयोग है। अगर देखा िाए तो नवज्ञाि के यगु र्ें बौनद्धक नवश्लेषण के नबिा नकसी भी प्रकार के सत्य को हर् स्र्ानपत िहीं कर सकते हैं। निस प्रकार नवज्ञाि र्ें प्रयोग एवं तका वारारा पदार्ा का नवश्लेषण नकया िाता है उसी प्रकार प्रयोगवदी रचिाकार र्ािव के र्ािनसक नवचार एवं उसके नस्र्नतयों का नवश्लेषण करता रहता है। साधारणतः रचिाकार एक वैज्ञानिक के हैनसयत से िीवि के नस्र्नत एवं प्रनतनियाओ ं की र्ीर्ांसा करते हुए कलात्र्क दृनि से उिको अनभव्यक्त करते हैं तदिुरूप िवीि शब्द योि​िा, शैली या नशर्लप का आनवय कार होता है और इसी र्ें प्रयोगवाद की सार्ाकता होती है। अज्ञेय और िैिेन्र को एक ही श्रेणी र्ें रखते हुए आलोचक वाश्र्णेय का कर्ि है- “दोिों भूल गए हैं नक उिके ‘िीवि र्ें भी सत्य और संदशे ’ की िरूरत है, दोिों ही अपिे कहािी र्ें संशय, निराशा और यौि कुंठा को लेकर चलते हुए ियी कनवता को भी वे इसी श्रेणी र्ें रखते हैं।3 कनतपय नववारािों िे भी चचा​ा नकया है नक प्रयोगवाद असल र्ें कोई वाद िहीं, क्योंनक िए-िए नशर्लप का


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

प्रयोग करिे वाले नवषयों र्ें सभी वाद का पणू ातः या आनं शक रूप र्ें झक ु ाव होता ही है। उत्तरोत्तर युग र्ें सृनित होिे वाले सानहत्य र्ें िवीि नबम्ब-प्रतीक, नशर्लप का प्रयोग एवं अनभव्यनक्त के िए र्ाध्यर्ों का प्रयोग होते रहा है, निर भी प्रयोगवाद वारारा सानहत्य के रचिा र्ें प्रयोगशीलता को अत्यनधक र्हत्व देिे के कारण इसे प्रयोगवाद कहिा उनचत ठहरता है।4 खास करके पूवा एवं पनिर् दोिों तरि के काव्य साधकों र्ें प्रयोगात्र्क प्रवृनत के प्रनत झक ु ाव पहले से देखा िा सकता है। प्रयोगशीलता के दृनि से पूवा से पनिर् ज्यादा धिवाि है निर भी सानहनत्यक वाद के रूप र्ें काव्य सबं धं ी एक अलग अनभयाि के रूप र्ें प्रयोगवाद का िन्र् भारत र्ें हुआ है। एनतहानसक रूप र्ें प्रयोगवाद का आनवभा​ाव 1943 को ‘तारसप्तक’ के प्रकाशि से र्ािा िाता है, निसके प्रवताक ‘अज्ञेय’ र्े। पनिर् के एज्रा पौण्र् एवं टी. एस. इनलयट आनद के कनवताओ ं से अनधकतर हर्ारे प्रयोगवदी कनव प्रभानवत देखे िा सकते हैं। प्रयोगवादी कनवता यर्ार्ावादी है, उिका र्ािवतावाद नर्थ्या आदशा के पररकर्लपिा पर आधाररत िहीं है। वह यर्ार्ा की तीखी चेतिा वाले र्िुय य को उसके सर्ग्र पररवेश र्ें सर्झिेसर्झािे का वैनदक प्रयत्ि करती है। प्रयोगवाद र्ें िया कुछ भी िहीं होता है और हो भी क्या सकता है, के वल संदभा िया होता है निसर्े िया अर्ा बोलिे लगता है निससे नववेक की कसौटी पर खरी उतरिे वाली आस्र्ाएं ही ग्राह्य हो सकती हैं।5 3. उपतयास एवं प्रयोगात्मकिा : शैली के नर्श्रण के संदभा से देखिे पर उपन्यास र्ें सवा​ानधक नर्श्रण सहि एवं सरल स्वभाव र्ें िाता है। उपन्यास के लचकता के कारण िहां कहीं भी इसे घसीटकर या नर्ला कर नकसी भी ढाचं ा र्ें ढाला िा सकता है। इसी कारण से गार्ा तर्ा आखों देखी उत्तराधनु िकता तक के आख्यािों को देखिे पर ऐसे प्रयोग की निरंतरता की याद नदलािे के सार्-सार्

औपन्यानसक प्रनवनध के नवकासिर् को भी दशा​ाता है, िो नित्य पररवताि होते हुए, नवनवधता एवं नभन्िता र्ें िािा नवनध के आकार प्रकार, स्वरूप ग्रहण करते हुए अनवनछछन्ि रूप से प्रवानहत होता है। प्रगनतवाद के सर्ािांतर प्रयोगवाद की धारा भी प्रवानहत होती है निसका प्रवताक अज्ञेय को स्वीकार नकया गया है। सि १९४३ र्ें अज्ञेय िे तार सप्तक का प्रकाशि नकया, निसर्े सात कनवयों र्ें प्रगनतवादी कनव अनधक र्े। रार्नवलास शर्ा​ा, प्रभाकर र्ाचवे, िेनर्चंद िैि, गिाि​ि र्ाधव र्ुनक्तबोध, नगररिाकुर्ार र्ार्ुर और भारतभषू ण अग्रवाल ये सभी कनव प्रगनतवादी हैं। इि कनवयों िे कथ्य और अनभव्यनक्त की दृनि से अिेक िए िए प्रयोग नकये निससे तारसप्तक को प्रयोगवाद का आधार ग्रर्ं र्ािा गया। अज्ञेय वारारा संपानदत प्रतीक र्ें इि कनवयों की अिेक रचिाएं प्रकानशत हुई है।6 उपन्यास के अपिे स्वरूप, संरचिा, कर्ािक, चररत्र एवं पया​ावरण र्ें कुछ िवीिता नर्लाकर उत्तरोत्तर िएिए प्रवृनतयों को आगे बढ़ािे को प्रयोग का सार्ान्य नियर् र्ािा िाता है। यही िए रूप, अनभव्यनक्त एवं नशर्लप के खोि के कारण आि उपन्यास के क्षेत्र र्ें नवस्तार हुआ है एवं क्षेत्र नवस्तार ही आगे प्रयोगवाद र्ें आरोपण के कारण होते िा रहे हैं। प्रयोगवदी कनवयों को के वल ‘प्रयोग’ प्रयोग के नलए र्ात्र ि कर कलात्र्क उत्कषा के नलए करिा होगा ऐसा नववारािों की धारणा है। आि नि​ि प्रनवनध से र्िय ु यों(पाठक) को अनधक सम्र्ोनहत नकया िा सकता है, वह र्ान्य नसद्धान्त ि होिे पर भी पाठक के र्ि पर शैनर्लपक एवं सैद्धानन्तक दोिों दृनिकोण से प्रभाव र्ालता है। आि सानहत्य के इनतहासकार की पहली सर्स्या 'सर्सार्नयकता के बोध' की है और र्झु े आशा है नक नसद्धांत रूप से इस बात को सभी िािते और स्वयंनसनद्ध के सर्ाि र्ािते भी हैं। कनठिाई नसिा इतिी है नक यह के वल िाि लेिे और र्ाि लेिे की बात िहीं है। कौि िहीं कहता नक हर युग की आवश्यकता के अिुसार इनतहास की बार-बार पुिव्यावस्र्ा होिी


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

चानहए, पररवताि का सत्य इतिा प्रत्यक्ष है नक बड़े से बड़ा शाश्वतवादी भी 'ससं ार पररवतािशील है' कहता पाया िाता है।7 प्रयोगोन्र्ख ु रचिा धर्ा भी है अन्यत्र रचिा प्रनवनध का नवकास अर्वा िए-िए स्वरूप व िई कनवता की व्यनक्तपरक काव्यधारा र्ें भरत िी की अग्रचेत भूनर्का रही है। भरत िी का काव्य ऊिा​ायुक्त, आत्र्नवश्वास और काव्य नशर्लप की निराली भनं गर्ा के कारण अपिा वैनशि्य रखता है।8 प्रगनतवादी रचिाकार प्रचनलत पररनर्तता र्ें बंधिा ि चाहते हुए या उस पररनर्तता िे िया सोंच व्यक्त ि कर पािे पर भी दसू रा रास्ता ढूढिे र्ें वह सिल हो िाता है। पुरािे र्ान्यता या नियर्ों को स्वीकार कर रचिा करिा होगा ऐसा िरूरी िहीं है क्योंनक दसू रे पद्धनत का अबलम्बि िहीं करिा, यह सोंच भी प्रचनलत र्ान्यता के प्रनत असर्र्ा एवं अस्वीकृ नत की दृनिकोण को स्पि करता है। वतार्ाि र्ें इसी सोंच के पररणनत के स्वरूप नवपन्िता, अकर्िात्र्क, अपररवेशात्र्कता, अवैचाररकता, असस्ं कृ नतकता, अनचतं िता एवं नर्र्कीयता िैसी र्ूर्लयों के सर्ायोि​ि से युक्त रचिाए रनचत होिे लगी है। इसी पक्ष र्ें अनभर्ुख होकर रनचत सानहत्य आि की र्ौनलक पहचाि बिी हुई है। ऐसा नचंति ‘अकर्ात्र्क’ कर्ा लेखि एवं ‘अउपन्यासत्र्क’ उपन्यास लेखि के वारारा आख्याि क्षेत्र र्ें प्रवेश नकए हुआ है। ऐसे नचंति का प्रभाव आख्यािेतर नवधा कनवता एवं िाटक र्ें भी देखी िा सकती है। प्रयोग का िया-िया संकरण बढ़ते िािे पर पाठकों को पारंपररत रूढ रचिा के िैसा वैनचत्य प्राप्त िहीं हो सकता एवं वैसी रचिा सहि स्वीकाया भी िहीं हो सकता, निर भी प्रयोग एवं िवीिता के िार् पर सवार्ा अलग पाठ प्रसस्त कर उपन्यास या अन्य नवधा अपिे स्वभाव से भी हटता हुआ दृनिगोचर होता है। प्रयोगात्र्क सानहत्य की रचिा करते सर्य यह बौनद्धक एवं सार्ान्य पाठक के नलए उपयाक्त ु है की िहीं, यह ध्याि र्े रखिा आवश्यक होता है। इसी दृनि से प्रयोगात्र्क उपन्यास आरंभ र्ें अस्वाभानवक लगिे पर भी धीरे -धीरे पाठकों को आदत

हो गई है, यह बात भी सत्य है प्रयोगात्र्क उपन्यास आगे चलकर प्रयोगधर्ी रचिा होिे के कारण प्रयोग के बल र्ात्र सैद्धानन्तक आग्रह र्ात्र बिकर रह िाता है, ऐसी नस्र्नत र्ें लेखक िया प्रयोग कर िार् एवं दार् कर्ािे के लालच र्ें पर कर रचिा करिा प्रारम्भ कर देता है। अगर देखा िाए तो प्रयोग सानहत्य की बाध्यता भी है, क्योंनक दसू रे सानहत्यकारों से पृर्क नदखिे की लालसा से सानहत्यकार िया रास्ता अपिािे के ताक र्ें हर्ेशा रहता है। प्रयोगवाद के रूप र्ें रूपांतररत होिे पर वही बातें नसद्धान्त एवं दशाि बि िाता है एवं उसर्े पयोग का अश ं बाकी िहीं रह िाता है। अतः प्रयोगवाद होकर भी इसकी प्रवृनतया प्रयोगशील रहता है। प्रयोगवाद सानहनत्यक रूनढ़ को तोड़कर िए परंपरा का स्र्ापिा करता है। यह वाद प्रगनत र्ें आस्र्ा रखिे के कारण इसकी गनतशीलता एवं िवीिता इसकी धड़कि होती है। अतः परंपरा से हटकर िवीिता नलए सभी उपन्यास प्रायोनगक उपन्यास होते है। प्रयोग हर्ेशा सापेक्षता पर आधाररत िहीं होता है बनर्लक प्रयोग का तात्पया ‘उपन्यास की परंपरागत र्ूर्लयों को धराशाई करके िए क्षेत्र का अन्वेषि को सर्झिा होता है। नवशेषकर उपन्यास लेखि के िर् र्ें आिकल ‘िए उपन्यास’, ‘अउपन्यास’, ‘अनधउपन्यास’ आनद प्रयोगवादी उपन्यास की रचिा करते देखा िाता है। प्रयोगवाद के इतिे लंबे बहस के बाद इसके प्रवृनत एवं नवशेषताओ ं को िर्बद्ध रूप र्ें इस प्रकार देखा िा सकता है।  िए कथ्य, िए पद्धनत एवं िए सभं ाविाओ ं का खोि करिा  रूढ बि चक ु े नियर्ों पर प्रश्न खड़ाकर आगे बढ़िे के नलए प्रेररत करिा  निज्ञासा को शातं करिे के नलए िया प्रयोग कर उसके कलात्र्क गुणों का परीक्षण करिा


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 चर्त्कार को र्हत्व ि देकर नववेक के प्रयोग के नलए रचिाकारों को प्रेररत करिा  िवीिता के प्रनत आस्र्ावाि रहकर प्रकृ नत के नवकाश र्ें योगदाि देिा  प्रयोग अपिे र्ें ही पूणा ि होिे के कारण लप्तु एवं िवीि सत्य के साक्षात्कार का प्रयास करिा, कथ्य, शैली एवं भाषा का िए प्रयोग एवं प्रणाली से िवीि सौन्दया का खोि करिा  अनतयर्ार्ावाद एवं अनस्तत्ववाद से प्रभानवत होकर असपि एवं नवकृ त रूप र्ें यर्ार्ा का उदघाटि करिा  कर्लपिा का प्राय अभाव होिा  आत्र् ग्लानि या लघुताबोध का उदघाटि करते हुए अपिे दबु ालता एवं नखन्िता को बौनद्धक आवरण से ढक ं िे की कोनशश करिा  कलापक्ष या नशर्लप से र्क्त ु छंद एवं उन्र्क्त ु िवीि प्रयोग के नलए प्रयास करिा  व्यग्ं य एवं वैनचत्य का प्रदशाि करिा एवं यौि प्रतीक का आनधक्य होिा

काव्य की उपयोनगता से ज्यादा कर्ि के चर्त्कार को र्हत्व देता है। अतः प्रयोगवाद िीवि एवं िगत के अिुभूनतयों को उतिा र्हत्व ि देकर व्यनक्त वैनचत्य को ही सवास्व र्ािता है। आि इस पररपाटी के कारण ही सानहत्यकार धीरे-धीरे कहीं अधं रे े र्ें नवलप्तु होता चला िाता है।

वास्तव र्ें सार्ानिक िीवि प्रणाली एवं परंपरागत र्ान्यता के प्रनत शंका एवं असतं ोष व्यक्त कर प्रयोगवाद नि​िी र्ान्यता एवं प्रयत्िों को नवकनसत एवं पररर्ानिात करिे की कोई खास योि​िा िहीं है। ‘प्रयोग’ का के बल प्रयोग के नलए उपयोग र्ात्र करिे पर रचिा की कलात्र्क वैनचत्य लप्तु हो िाता है और कठोर प्रयोग का शैनर्लपक आग्रह िए उदभाविा के र्ोह के कारण उपन्यास नशनर्ल हो िाता है एवं अपिे स्वभाव को खोिे की कगार पर पहुच िाता है। निसके कारण स्र्ानपत र्ूर्लय को िड़ से उखाड़ कर िए नकसी भी र्ूर्लय एवं र्ान्यताओ ं की स्र्ापिा िहीं हो सकती है? प्रयोगवादी सानहत्यकार िीवि एवं िगत के प्रनत उदासीि होकर काव्य के बनहरंग के पक्ष र्ें यानि नशर्लप सधं ाि र्ें अपिा ध्याि के नन्रत करता है। इस वाद र्ें

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संदर्श ग्रंथ : 1. नहन्दी सानहत्य का इनतहास - आचाया रार्चरं शुक्ल 2. नहन्दी सानहत्य र्ें प्रयोगवाद – िी. भास्करर्ैया 3. गॉर्ाि चलसे रोदरर्ल नहन्दी कहािी पृ. स.ं 28 4. प्रयोगवाद - सपं ादक- नर्नर्लेश वार्िकर 5. प्रयोगवाद और अज्ञेय - र्ा. रि​िी नसहं 6. आधनु िक नहन्दी सानहत्य का इनतहास - पूनणार्ा वर्ाि 7. नहदं ी-सानहत्य के इनतहास पर पुिनवाचार िार्वर नसहं 8. भारत भषू ण अग्रवाल और उिका काव्य र्ीिा अहूिा

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काव्य विमर्श

जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

कविता में हाविए पर गा​ाँि दतु नया बदल रही है, लेतकन बदलिी हुई दतु नया में अपने अततित्व को बनाए रखने के तलए जरूरी है तक उिके िाथ-िाथ हम भी बदलें, हमारे तवचार भी बदलें और हमारी रचनाधतमि िा भी। भूमण्डलीकरण के काल पररप्रेक्ष्य में देखा जाए िो िारे िंिार ने अपने खुद के तलए एक नई दतु नयावी िोच को गढा। एक ऐिी रहतयमयी दतु नया, जहा​ाँ तवकाि की ऊंची-ऊंची इमारिों ने िबु ह के उगिे हुए िूरज की लाल तकरणों को वापि धके ल तदया और िूयि हा​ाँफिा, कराहिा हुआ न जाने कब ढल गया, पिा ही नहीं चला। इन बल ु न्द इमारिों की ऑटोमैतटक लॉक्ि िे िुरति​ि कृतिम दतु नया में ही हमारी िांतकृतिक अततमिायें दफ्न हो गई ं। और दफ्न हो गए वे िपने, जो आाँखों की पिु तलयों के पीछे अक्िर चाहे-अनचाहे भीगे हुए िलाशिे थे लहलहािे हुए खेिों को, िरिों की पीली किारों को, गेंहु की फुनतगयों पर इठलािी बातलयों को और फर-फर बहिी ठण्डी हवाओ ं को .... लेतकन दतु नया के तवकाि की आाँधी इन िपनों को उडाकर ले गई, बहुि दूर .... बहुि दरू । वर्ि 1980 के आि-पाि िक तकिी ने यह िोचा भी न होगा तक भूमण्डलीकरण की नई अवधारणा ने तवश्व के राजनीतिक गतलयारों में तजि िरह की हलचल मचाई, वह वहा​ाँ िक िीतमि न रहकर तवश्व की अथि व्यवतथा, उिकी िांतकृतिक अततमिा और उिके रचनात्मक तियाकलापों को भी अपनी हद में ले लेगी। लेतकन यह हुआ और िमूचा तवश्व बदलाव के एक नए रातिे पर चल पडा। बाजार ने तवश्व की अथि व्यवतथा पर अपना तनयंिण बना तलया; तवश्व की िमाम िंतकृतिया​ाँ बाजार के तलए एक प्रोडक्ट की िरह बनकर रह गई ं। हर िमाज की 'मॉडल कल्चर' अब 'मॉल कल्चर' में िब्दील हो गई .... अब खुली हवायें एयरकं डीशंड इमारिों के बंद गतलयारों को छू पाने में अिमथि थीं .... और इन िबमें कहीं दरू छूट गया .... िो बि एक गा​ाँव। बदलाव की इि बयार ने िभी को अपनी िीमाओ ं में कै द कर तलया। ऐिे में भारिीय िातहत्य भी उि​िे अछूिा न रहा। बदलिी हुई दतु नया के िाथ-िाथ तनरन्िर प्रगतिशील िातहत्य ने भी अपने

काव्य विमर्श

तलए तवचाराधाराओ ं की नई इमारिों को गढा। िमकालीन िातहत्य के इि दौर में प्रत्येक तवधा तकिी-न-तकिी रूप में नई वैतश्वक तवचारधाराओ ं के छोर पकडक़र आगे बढिी रहीं। लगािार बदलावों के िवालों िे तिरिी ये तवचारधारायें जीिने लगी और हारने लगा आधतु नक मनुष्ट्य। कतविा में तविंगति, तवडम्बना और िनाव िे जडु े िवालों के चलिे तहन्दी कतविा का तवर बदलने लगा था। अतवश्वाि और िंशय की पष्ठृ भूतम पर कतव तवयं को ही दबाव में महिूि करिे लगा। उिके पाि िमाज और िमाज की िम्पूणि िंवेदना िो थी लेतकन वह उि िंवेदना की नदी के बजाए िूखी या बफि िे लदी झीलों की खामोशी को अपनी कतविा में आवाज देने लगा। नदी की मािूतमयि और उिकी कलकल ध्वतन की गज ूाँ उिे िुनाई नहीं देिी थी। ऐिे में उि नदी, उि झरने की गज ूाँ , उि जीवन के तवश्वाि की िच्चाई के बजाए िमकालीन कतवयों ने हातशए पर खडी तजन्दगी के िूखेपन को कतविा के चालू महु ावरे िे हटकर नए महु ावरों को गढने का जोतखम उठाया। जहा​ाँ िमकालीन कतविा के दौर के आरम्भ िे तवकाि की ओर अग्रिर तहन्दी कतविा 1980 के बाद भी वैचाररक िमािान िे जूझ रही थी वहीं तहन्दी के कई नए उभरिे हुए यवु ा कतवयों ने बदलिे हुए दौर के िाथ-िाथ अपनी कतविाओ ं को तवचारधाराओ ं िे मक्त ु करने का प्रयाि तकया। पज ूाँ ीवादी िभ्यिा की इि आशंतकि इबारि को तलखिे हुए इन कतवयों के हाथ नहीं का​ाँपे। लेतकन इन यवु ा कतवयों के िाथिाथ नई कतविा के दौर िे तहन्दी कतविा में तथातपि कतवयों ने भी 1980 के बाद की कतविा में अपने िेवरों को बदला। के दारनाथ तिंह, तिलोचन, रमेश कुंिल मेि, नरेन्र मोहन, तदतवक रमेश आतद वररष्ठ कतवयों की कतविाओ ं में तमट्टी की खुशबूं अब जीवन की खीझ और ऊब में िब्दील हो चक ु ी थी। अराजक होिी ततथतियों में भी कतव ने िो दतु नया के िमाम फटेहाल बच्चों, गमछा बा​ाँधे बेकार नौजवानों, िमाम रुके हुए रातिों और तिले हुए होठों को अपना हतथयार बना तलया और कह उठा 'ये तमाम सिर मेरे हसियार हैं सिनकी महक िे मेरी कसिताएँ पूरी दुसनया को हर रोि महका देती हैं।'


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

जीवन की जतटलिाओ ं ने ही उत्तरोत्तर जतटल होिी दतु नया को नए नजररए िे देखना शरू ु तकया। तिमटिे हुए गा​ाँव और जंगल हमारी िबिे बडी िांतकृतिक तवराि​ि के प्रिीक हैं। गा​ाँव ने ही प्रकृति की तवराटिा का अनुभव हमें कराया है। हमारे िमूचे प्राचीन िातहत्य में प्रकृति की अद्भिु छटाओ ं में ग्रामीण जीवन और उिके अनभु व िवि ि तवद्यमान हैं। लेतकन 1980 के बाद की कतविा में प्रत्यि रूप िे िो गा​ाँव जैिे बतहष्ट्कृि है। गा​ाँव जहा​ाँ भी मौजूद है वहा​ाँ कभी वह तवडम्बनाओ ं के रूप में है, कभी प्रिीक के रूप में और कभी पीडाओ ं की प्रतितियाओ ं के रूप में। इिे मैं दभु ाि ग्यपूणि ही कहगाँ ी तक तपछले पा​ाँच-िाि वर्ों में तहन्दी की अनेक पि-पतिकाओ ं और कुछ चतु नन्दा कतवयों के काव्य िंकलनों को पढिे हुए मझ ु े प्रत्यि रूप िे गा​ाँव कहीं भी तदखाई नहीं तदया। हा​ाँलातक उपन्यािों और कहातनयों में तनरन्िर गा​ाँव और ग्रामीण जीवन की छतवया​ाँ मजबूिी के िाथ मौजूद थीं वहीं कतविाओ ं िे गा​ाँव का गायब हो जाना आवश्चयि जनक है। तवशेर् रूप िे 1980 के बाद तजन कतवयों को कतविा के िेि में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई उनमें िे कई कतवयों का िम्बन्ध गा​ाँव िे होने के बावजूद उनकी कतविा उत्तर आधतु नक िमाज की तविंगतियों और उिकी बौखलाहट को ही कतविा का तवर्य बनािी तदखाई दी। एकांि श्रीवातिव, तजिेन्र श्रीवातिव, पवन करण, हेमन्ि कुकरेिी, कृष्ट्ण मोहन झा, बोतधित्व, अनातमका, नीलेश रिवु ंशी, अष्टभज ु ा शक्ु ल, कुमार अनपु म, तमतथलेश श्रीवातिव आतद कतवयों की कतविायें जैिे ग्रामीण जीवन के तवराटबोध िे अछूिे ही रहना चाहिी हैं। शहर की पथरीली होिी तजन्दगी का रूखा तवर इन कतवयों की कतविाओ ं में गहराई िक गज ूाँ िा हैं। तप र भी तजन कुछ कतवयों की कतविाओ ं में ग्रामीण जीवन और प्रकृति का तवर उभरिा हुआ िुनाई देिा है वह भी प्रत्यि न होकर आरोतपि है। कतव मत्ृ यज ंु य अपनी कतविा में छत्तीिगढ के जीवन के यथाथि को अतभव्यतक्त देिे हुए कहिे हैं बस्तररया मैना के कण्ठ में उग आये का​ांटे ... अबकी बसन्त में टेसू के लाल फूल सुर्ख-सुर्ख रक्त चटर् झन-झन कर बज उट्ठे

र्ून की होली जो र्ेली सरकार बेकरार ने। तबयावान जंगलों के भीिर आतदवातियों की ग्रामीण जीवन की छाया िो इि दौर में कतविा में आपको तदखाई दे जाएगी लेतकन खेिों-खतलहानों और कच्ची-पगडतण्डयों का एहिाि तलए चला आ रहा गा​ाँव कतविा के गायब है। गा​ाँव जहा​ाँ था, या िो आज भी वहीं है या तप र पथरीली चट्टानों ने उिके कच्चेपन को तनगल तलया है। नरेन्र गौड़ जब अपने गा​ाँव की ओर लौटिे हैं िो तवकाि उि​िे कोिों दूर है यह कच्चा रास्ता िैसा ही कच्चा है जैसा छोड़ा था मैंने इसे बूढा पीपल िैसा है भूत के वकस्सों के साथ जीिांत िाम के धधुां लके में हिा िैसी ही है इठलाती इतराती धूल धआ ुाँ धधुाँ बरसों पहले सरीर्ा। तवकाि की िेज गति ने गा​ाँवों और उिकी जीवन-चेिना को जैिे लील तलया है। जंगल काट तदए गए, नतदयों के धारायें मोड दी गई,ं िाल-िलैया िूख गए, ठूंठ हो चक ु े हैं िने-िने वृि .... बि बची है िो एक ऐिी पगडण्डी जो गा​ाँव की ओर नहीं जािी बतल्क गा​ाँव िे शहर की ओर आिी है। एकांि श्रीवातिव के शब्दों में कह ाँ िो समरु है तो बादल है बादल है तो पानी है पानी है तो नदी है नदी है तो घर हैं उसके वकनारे बसे हुए घर हैं तो गा​ाँि हैं गा​ाँि हैं मगर डू बान पर डू बान में एक द्वीप है स्िप्न का वझलवमल। 1980 के बाद की कतविा में यथाथि ग्रामीण जीवन की अतभव्यतक्त के तवतभन्न पहलुओ ं की ओर तनगाह डाली जाए िो आतदवािी जीवन की कतविा में गा​ाँव अपनी पूरी िाकि के िाथ मौजूद है।


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

आतदवातियों की खातियि यही है तक वे िामतू हकिा में तवश्वाि करिे हैं। आधतु नक जीवन जहा​ाँ एकल पररवार की ओर अग्रिर है वहीं आतदवािी िमाज आज भी िामूतहक जीवन जीने में ही तवश्वाि करिा है। उिके यहा​ाँ भोलापन है, लोक है, लोक की िंतकृति है .... और है अपनी अततमिा को बचाए रखने की तजजीतवर्ा। इिीतलए आतदवािी जीवन की कतविा में एक खाि देिीपन तदखाई देिा है। कुमारेन्र पारिनाथ की कतविा इि यथाथि को यूाँ उभारिी है सामने पूाँछ उठाए बछड़े को चाटती हुई एक गाय र्ड़ी वमलती है और वबल्कुल पास ही कोई बवु ि़या इस तल्लीनता से गोइांठा थापने में लगी रहती है जैसे थाप-थाप पर एक-एक दुवनया साँिरती जा रही हो। ग्रामीण जीवन के ऐिे तचि आज की कतविा में िचमचु में दल ु ि भ होिे जा रहे हैं। जंगलों िे बतहष्ट्कृि कर देने और पलायन की तनयति के चलिे गा​ाँव का ठेठपन जैिे धके ल तदया गया हो कतविा िे। इिीतलए अनुज लुगनु कह उठिे हैं हमारे सपनों में रहा है एक जोड़ी बैल से हल जोतते हुए र्ेतों के सम्मान को बनाए रर्ना हमारे सपनों में रहा है कोइल नदी के वकनारे एक घर जहा​ाँ हमसे ज्यादा हमारे सपने हों और इन्हीं सपनों में है एक चाहत वक जांगल बचा रहे अपने कुल-गोत्र के साथ पृथ्िी को हम पृथ्िी की तरह देर्ें पेड़ की जगह पेड़ ही देर्ें नदी की जगह नदी समरु की जगह समरु और पहाड़ की जगह पहाड़। िच िो ये है तक गा​ाँव की नींव पर ही तवकाि की इबारिें तलखी गई ं लेतकन गा​ाँव अब अछूि की िरह हातशए पर धके ल तदया गया है। लोक-िंतकृति का जो तवराट अनुभव ग्रामीण जीवन की चेिना के

द्वारा िमाज को प्राप्त होिा है, वह अनभु व इक्कीिवीं िदी के गा​ाँव में कहा​ाँ होगा, ज्ञान नहीं। गा​ाँव का िच अब खेिों, हवाओ ं और तमट्टी िे तनकलकर व्यवतथाओ ं के चिव्यूह में फं ि गया है। देवेन्र दीपक की कतविा िे मैं अपनी बाि को तवराम दगूाँ ी इक्कीसिीं सदी के दरिाजे पर दस्तक देते गा​ाँि पांचों के परमेश्वर गा​ाँि? कृष्ण के सुदामा गा​ाँि? पानी यहा​ाँ अभी भी सिणख और अछू त है स्कूल की टाट-पट्टी अभी भी छू आछू त मानती है .... कौिे की का​ाँि-का​ाँि इक्कीसिीं सदी के दरिाजे पर दस्तक देते गा​ाँि। ***** डॉ. वियांका वमश्र priyadarshinimishra85@gmail.com


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

काव्य तिमर्श

समकालीन कविता और चन्द्रकान्द्त देिताले का काव्य (खुद पर वनगरानी का िक्त – के विशेष संदर्भ में) -राहुल शमाभ समकालीनता, समकालीन कविता और कवि के संबधं को दर्ा​ाना एक विस्तृत चचा​ा की मागं करता है। जहां तक समकालीनता का प्रश्न हैतो इसे कुछ इस तरह से पररभावित वकया जा सकता है – “समकालीनता एक कटा हुआ टुकड़ा नहीं है,िह भी परम्परा यानी इवतहासबोध का अगं होता है और जब हम अनभु ि की प्रमाविकता की बात उठाते हुए समकालीनता को उसकी एक कसौटी मानते है तब यह वनवहत होता है वक परम्परा की प्रत्यक्ष या परोक्ष अविवछन्नता को भी कहीं स्िीकार करते हैं।” देिीर्क ं र के इस विचार के सदं भा में यह कहना आिश्यक हो जाता है वक वहन्दी सावहत्य में एक ऐसा भी दौर आया था जब समकालीनता को ‘तत्कालीन’ पररवस्थवतयों के संदभा में देखा गया था जो वक समकालीनता की कसौटी के अथा को अनथा करने की सावजर् सी जान पड़ती है। समकालीनता के सदभा में यवद रघुिीर सहाय जी के कथन पर विचार वकया जये तो हम पायेंगे वक इन्होंने समकालीनता को एक व्यापक संदभा में पररभावित वकया है“मेरी दृवि में समकालीनता मानि भविष्य के प्रवत पक्षधरता का दसू रा नाम है।“ (समकालीन काव्य यात्रा की भवू मका, लेखक- नदं वकर्ोर निल) रघुिीर सहाय जी का यह कथन ‘समकालीनता’ पद में वनवहत गंभीर अथा को उजागर करने में पूरी तरह सक्षम नज़र आता है।‘समकालीनता’ मनुष्य के भविष्य को वनधा​ाररत करने का मापदडं भी है जो युगीन पररवस्थवतयों के पररमाि पर प्रकार् डालती है। थोड़े और विस्तार से चचा​ा की जाये तो हम पाते हैं वक, समकालीनता, एक समय खडं में साथ-साथ जीना नहीं बवकक अपने समय और समस्याओ ं से लड़ना है और उनका सामना करना है। रोवहताश्व के र्ब्दों में“समस्याओ ं और चुनौवतयों में भी के न्रीय महत्ि रखने िाली समस्याओ ं की समझ से समकालीनता उत्पन्न होती है।“ (समकालीन कविता और सौन्दयाबोध, लेखक- रोवहताश्व) रोवहताश्व की इन पंवियों की व्याख्या की जाये तो इस वनष्किा पर पहुचं ा जा सकता है वक ‘समकालीनता’ एक ऐसी अिधारिा है जो अपने समय के साथ कदम से कदम वमलाकर चलती है और अपने समय की विसंगवतयों और विडम्बनाओ ं से टकराती है।


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

समकालीनता पर विस्तृत चचा​ा के बाद जब हम कविता के क्षेत्र अथा​ात समकालीन कविता की ओर अपना ध्यान ले जाते हैं तो पाते है वक ‘समकालीनता’ और ‘समकालीन कविता’ एक ही वसक्के के दो पहलू है। वजस प्रकार समकालीनता का सम्बन्ध जीिन की विविधता और सकारात्मकता से है उसी प्रकार समकालीन कविता इस विविधता और सकारात्मकता को व्यि करने की एक विधा। जब समकालीन कविता पर बात आती है तब सबसे पहला प्रश्न वजससे हमारा सामना होता है िह यह वक ‘समकालीन कविता का आरंभकब से हुआ? तो इस प्रश्न को लेकर अनेक वि​िर्ताएं हैं। जब हम इस प्रश्न का उत्तर ढूंढना आरंभ करते हैं तो हम यह पाते हैं वक समकालीन कविता की पृष्ठभूवम 1970 के बाद का भारतीय पररिेर् है। 1970 का दौर िह दौर है जब भारतीय इवतहास में दो महत्िपूिा घटनाएं घवटत होती हैं- पहला बांग्लादेर् का वनमा​ाि और दसू रा आपातकाल। इन दो घटनाओ ं ने समकालीन कविता की भूवम को उिार बनाने में महत्िपूिा भूवमका वनभायी।बांग्लादेर् के वनमा​ाि ने भारत को आवथाक और राजनैवतक समस्याओ ं से घेर वदया। अथा और राजनीवत ने जहां गरीबी, मकू यिृवि और भ्रिाचार को बढािा देकर साधारि जनता को त्रस्त वकया िहीम दसू री ओर समाज का बुविजीिी िगा भी इससे काफ़ी आहत हुआ। इसके बाद वजस पररवस्थवत ने जन्म वलया िह आज भी मुंह बाये खड़ी है। कहते है न पररवस्थवतयां िह प्रयोगर्ाला है जहां सामावजक वमश्रिों की प्रवतविया एक नयी समस्या को जन्म देती है चाहे आपातकाल हो, दगं े हो,भारतीय अथाव्यव्स्था में बढ रहा विदेर्ी कम्पवनयों का हस्तक्षेप हो,राजनैवतक पावटायों का विखडं न हो या राजनीवत और अपराधका गठबधं न इन सभी समस्याओ ं ने समकालीन कविता की भवू म को उिार बनाने में खाद का काम वकया के िल यही नहीं समकालीन कविता के के न्र में वनम्न मध्यिगा और सिाहारा भी है जो इसके बदलते मूकयबोध को दर्ा​ाते नज़र आते है। समकालीन कविता पर जब बात होती है तब मानस पटल पर कवतपय कवि स्ितः स्फूता होने लगते हैं – रघुिीर सहाय, गगन वगल, के दारनाथ वसंह, अरूि कमल, मंगलेर् डबराल, िीरेन डंगिाल, उदय प्रकार् आवद वजनकी कविताओ ं में समकालीन समस्याओ ं के समाधान की छटपटाहट देखने को वमलती है। ठीक ऐसी ही छटपटाहट को एक और कवि अपनी कविताओ ं में स्थान देता नज़र आता है और िह है- चन्रकांत देिताले। देिताले जी वहन्दी कविता की साठोत्तरी पीढी के सर्ि हस्ताक्षर हैं। हड्वडयों में वछपा ज्िर, दीिारों पर खनू से, पत्थर की बेंच, इतनी पत्थर रोर्नी इत्यावद कव्य संग्रहों के माध्यम से इन्होंने समकालीन कविता की भूवम को उिार बनाने में महत्िपूिा भूवमका वनभायी है। देिताले जी न के िल ‘समकालीन कविता’ के िास्तविक अथा को अवभव्यंवजत करते हैं बवकक प्रवतरोध की सैिावं तकी को भी गढते हैं।हालही में प्रकावर्त उनके निीन काव्य-सग्रं ह ‘खदु पर वनगरानी का ि​ि’ में प्रवतरोध की इस सैिांवतकी को स्पि रूप से देखा जा सकता है। इस सग्रं ह की एक कविता है ‘गुज़र गया दो हज़ार दस’ वजसमें कवि के व्यिस्था के प्रवत आिोर् को स्पि रूप से देखा जा सकता है। यह कविता जहां एक ओर राजनीवत के वर्कार लोगों की पक्षधर के रूप में खड़ी नज़र आती है िही दसू री


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

ओर यह व्यिस्था तत्रं के पक्ष में खड़े समाज के चार खभं ों में से एक इलेक्रावनक मीवडया की भी जम कर खबर लेती हैवसर मुंडाकर गुज़र गया दो हज़ार दस निम्बर-वदसम्बर तो व्यिस्था ही की तरह लार्ें-ताबूत ढोते हांफते रहे मरे भख ू से,बे-मौत भी वफ़र हत्याएं हुई वगन पाना असभं ि िह भी वदपवदपाते चारों खभं ों की छाया में। कविता ज्यों-ज्यों आगे बढती है कवि का आिोर् भी उतना ही पैना होता जाता है और िह पूंजीिाद तथा राजनीवत के गठजोड़ को कुछ इस तरह बयां करता हैइकतीस वदसम्बर रात नौ बजे से ही भव्य आयोजन ताम-झाम दो ग्यारह की आगिानी का आत्महत्याएं,र्ोक-सूतक सबको झटक गलाफाड़,गाते-बजाते झमू रहे थे अग्रं ेजी-ढोल-ढमाकों की गगनभेदी आिाजों के साथ। वफ़र कविता में कवि स्ितत्र्ं योत्तर भारत के सिाहारा िगा का प्रवतवनवधत्ि भारतेंदु की पवं ियों के माध्यम से करता हुआ कहता हैदृश्य में कहीं नहीं मुकक के असली अपने करोड़ो वजनके पेट-पीठ वमलकर हैं एक जो जहां-तहां गािं ों,खेतों,उजाड़ मैदानों में उकडू बैठे वसर थामे मातम मना रहे बरबादी का ऐसे ही भीि​ि का थोड़ा कुछ देख सौ बरस पहले कहा था माहताबे वहदं ने ‘आओ सब वमलकर रोओ भाई यह भारत ददु र्ा ा न देखी जाई।‘


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

इसी सग्रं ह वक एक अन्य कविता है ‘सात निम्बर:2011’ । यह एक ऐसी कविता है वजसमें कवि अपने जन्म तारीख के माध्यम से तत्कालीन पररवस्थवतयों और देर् में व्याप्त कुव्यिस्था पर एक पैनी वनगाह फे रता है ठीक वनलय उपाध्याय की कविता के ‘जेबकतरे’ की तरह- पानी से भरे बतान में कमल के पत्ते पर/इस तरह मारना ब्लेड वक पानी की बूंद/ब्लेड पर न पड़े। भारतीय राजनीवत के मुखौटे के पीछे वछपे चेहरे का पदा​ाफार् करते हुए वलखते हैअसंभि है अब मेरे वलये र्ावमल होना सफे द और काले-कौिों की देर्भवि और तरक्की की कांि-कांि में मेरे प्यारे देर् कै से कर रहे बदा​ाश्त। ‘काले और सफ़े द’ तथा ‘तरक्की के कांि-कांि’ के मध्य कवि की यह दत्ु कार उसके बाहरी और भीतरी सोच को उजागर तो करती ही है साथ ही साथ ‘जन-गि-मन’ पर चारों ओर से वकये जाने िाले सास्ं कृ वतक हमलों पर करारा प्रहार करता हैधरती-पररंदों-दरख्तों-नवदयों ही नहीं समूचे जन-गन-मन पर ताक़तिर दैत्यों का चहुतं रफ़ा हमला भचू ाल और ज्िालामुखी के दहाने पर खड़े हम हमारे सामने सास्ं कृ वतक विस्फोट का महादृश्य। पजूं ीिाद,साम्राज्यिाद, उदारिाद जैसे ताक़तिर दैत्यों की खबर लेता हुआ कवि अपनी जड़ों से कत रहे िगा का प्रवतवनवधत्ि करता हुआ कापोरेट पूंजी रूपी हरकारे का पदा​ाफार् करता हुआ ‘इतं ज़ार करो, तुम कतार में हो’ र्ीिाक कविता में कहता हैतुम्हारे तो कई-कई दस्ते हैं भैया एक िो ज़मीन-जल-जगं ल को लटू ने िाला हरकारा कारपोरेट पजूं ी का। वफ़र कवि कविता में कापोरेट कंपवनयों के बढते प्रभाि और वकसानो पर होने िाले उसके असर को वचवत्रत करता हुआ कवि कहता हैवजसके झटकों से अन्नदाता हमारे कर रहे हैं आत्महत्या। आज उदारिाद और पजूं ीिाद की बाढ में जब प्रवतरोध के सारे स्िर बहते नज़र आ रहे हैं और कलमनिीसों का एक कुनबा हवथयार डालता वदखाई पड़ता है जो अपनी भोथरी कलम से इस बढते उदारिाद और पूंजीिाद का गुिगान कर रहा है िहीं कवि ऐसे लोगों की खबर लेता हुआ कह पड़ता हैभूखी मौत मैया


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

ऐसी कै सी भख ू , कै सी भस्मी व्यथा दवु नया की नामी हवस्तयों से लेकर देर् और र्हर के वदग्गज कवियों,लेखकों सुर-आिाज़-रंग और वथयेटर के अदाकारों पर अधं ी हो विफर गयी। इस भस्मी व्यथा की पहचान करता हुआ कवि जैसे जैसे आगे बढता जाता है उसे हर तरफ़ एक ही र्ोर सनु ाई पड़ता है-पजूं ी और बाज़ार का र्ोर, वजसने दवु नया को बहरा बना वदया है। कवि इस यथाथा से मुठभेड़ करता हुआ सावहत्य में भी इस र्ोर को सुन रहा है और इस पूंजी और बाज़ार के सावहत्य में सेंध को ‘इतने दरख्त और पत्ता तक नहीं खड़कता’ र्ीिाक कविता में वचवत्रत करता हुआ कहता हैऔर आज के हालात देख मुझे तो यही लगता असभं ि है कविता से भी सच उगलिा लेना। वफ़र कविता को उस दरख्त में तवब्दल होते हुए देखता है वजसका पत्ता तक नहीं खड़कता अथा​ात अन्याय आंखों के समक्ष घवटत हो रहा है पर उसके विरूि कोई आिाज़ नहीं उठ रही है और वजनका एक मात्र उद्देश्य वसफ़ा और वसफ़ा प्रवसवि प्राप्त करना है। कवि ऐसे दरख्तों की ज़मात में र्ावमल नहीं होना चाहता वजनका उद्देश्य गरीबी भनु ा पैसे कमाना हैतो क्या कवि भी र्ावमल हो जाये उनकी जमात में वजनके वलये तैयार रहता रोता हुआ आदमी वफ़र आसं ू पोछते उसके वखचं िाते अपने फोटू छपिाने के वलये दसू रे वदन अखबार में। सग्रं ह की कविताओ ं में जहां एक ओर देिताले जी कापोरेट दवु नया, पूंजीिाद, उदारिाद के बढते प्रभािों को उजागर करते हैं तो िहीं दसू री ओर राजनैवतक गवतविवधयों और उसके कुचिों का भी पदा​ाफार् करते हैं।‘र्ांवत और व्यिस्था’ के नाम पर वकये जाने िाले नेताओ ं के प्रयासों को उजागर करते हुए और इन र्ब्दों (र्ांवत और व्यव्स्था) के भीतर वछपी मावमाकता की आड़ में की जाने िाली हत्याओ ं का वचत्रि ‘र्वमिंदा हैं हम तो आप अपनी जाने’ र्ीिाक कविता में करते हुए कहते हैंआप जानते हैं अच्छे से वक बेहद संिदे नर्ील र्ब्द हैं ‘र्ांवत और व्यव्स्था’


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और इनको कायम रखने के नाम पर ही हो रहीं हत्याएं और अवग्नकाडं । संग्रह की कविताओ ं को पढते हुए जैस-े जैसे हम आगे बढते जाते हैं हमारे समक्ष कवि की सोच की तह एक-एक कर खल ु ती जाती है और उनके मवस्तष्क में चल रहे िैचाररक दव्​् न्व से रूबरू होते चलते हैं।संसार में व्याप्त दरु ािस्था और बदनसीबी के खाके को अपनी कवितओ ं में प्रस्ततु करते हुए देिताले लगातार यह भी पछ ू ते चलते हैं वक आवखर इस वस्थवत का वज़म्मेिार कौन है और इस परदे के पीछे कौन सी ताकतें वछपी हुई हैं और इन सिालों का जिाब ढूंढने के वलये िे श्रीमंतों, महामवहमों, महाप्रभुओ ं के पास जाता है। कवि इन िचास्ि​िादी ताकतों के साथ पाश्चात्य संस्कृ वत के बढते प्रभाि को ‘झाडू के कारि संवक्षप्त वचंतन’ र्ीिाक कविता में रेखांवकत करता हुआ कहता हैपर श्रीमान झाड़ू का पैदाइर्ी ररश्ता, र्गनु ों से कहीं अवधक कचरे-गंदगी-धल ू और मकड़ी के ही नहीं वदमागी जालों से रहता है X X X X इस आयावतत कचरे की ओर भी आकविात करना चाहता हं जो घरों मवस्तष्कों से लेकर महाघाट तक में वबछा रहता है। वजसे कूड़ा-करकट कहने में भी र्मा आयेगी हमें पाचं -दस रूपये की झाड़ू से खदेड़ने की वहमाकत की जा सकती है। ‘झाड़ू’ प्रतीक के माध्यम से कवि बाज़ारिाद के बढते दष्ु प्रभािों और पाश्चात्य संस्कृ वत वजसे ‘पब संस्कृ वत’ भी कहा जा रहा है वक गंदगी को साफ करने के वलये उदध्​् त वदखता है पर एक संर्य की वस्थवत भी उसके कथन में स्पि नज़र आती हैक्या इस कचरे को पाचं -दस रूपये की झाड़ू से खदेड़ने की वहमाकत की जा सकती है। कवि का यह संर्य कोई साधारि संर्य नहीं है क्योंवक इस संस्कृ वत ने दवु नया को मुठ्ठी में कर रखा है।


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

‘खदु पर वनगरानी का िक़्त’ र्ीिाक कविता जो सग्रं ह का र्ीिाक भी है एक ऐसी कविता है जो अपने समय से सत्रं स्त और हतार् कविता की वस्थवत को दर्ा​ाती है।इस कविता के माध्यम से कवि मौजदू ा दौर को ‘खदु पर वनगरानी रखने का दौर’ मानता है और इस वनगरानी के दौर से आगाह भी करता चलता हैकह रही बार-बार वनगरानी रखो जैसी दश्ु मन पर िैसी ही खदु पर चुटकी भर अमरता खावतर विश्वासघात न हो जाये अपनी भािा,धरती और लोगों के साथ। ‘खदु पर वनगरानी का िक़्त’ संग्रह की एक ऐसी कविता है वजसमें कवि दश्ु मन की पहचान और उसके प्रवतरोध के साथ-साथ आत्मवनरीक्षि भी करता नज़र आता है।इस कविता में जहां एक ओर कविता से उसके चीखने और छातीकुट्टा करने की उम्मीद है तो दसू री ओर उन लोगों की असवलयत को उजागर भी करना है जो ‘पजूं ी मडं ी में फोटू वखचं िाते’ नज़र आते हैं और ‘जनता रथ को छोड़ हिाई जहाजों का सफ़र करते हैपूंजी मंडी में कै से मुस्काते फोटू वखचं िाते नि हो रहा वि​िेक वबक रहा कौड़ी के भाि ईमान और करोड़ों ने सािाजवनक रूप से वजन्हें बनाया थ अपने सुख-चैन के वलये सारवथ जनता रथ छोड़ िो सब हिाई जहाजों से कुनबे समेत सौदा करने जा रहे विदेर्। इस प्रकार हम देखते है वक समकालीनता का अथा जहां समसामवयकता से जडु ा हुआ है िहीं समकालीन कविता उस समसामवयकता को वचवत्रत करने की एक विधा है जो न के िल अपने समय से सिाल करती है बवकक उसे रेवक्टफाई भी करती है।‘खदु पर वनगरानी का िक़्त’ िास्ति में कवि का कथन भर ही नहीं है बवकक ित्मा​ान समस्याओ ं से कवि और यथाथा की मुठभेड़ भी है, सृजन-अनुष्ठानों टेंट हाउसों की पोल-खोल करती हुई। -----


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

प्रतिरोध प्रतिरोध सचेि जागरुक सक ं ल्प बद्ध व्यति का बल प्रयोग है |यकीनन यह अतधकिर व्यति के आन्िररक द्वन्द और दाह से उभरिा है |यह मानव के अततित्व को रेखतं कि करिा है |प्रतिरोध का सघं र्ष भी मानव मन के माध्यम से ही होिा है |प्रतिरोध जो हो रहा है उसे सहना नहीं तसखािा |मनुष्य को पति​ि प्रवाह में पति​ि नहीं होने देिा |जब हम चारों और से तनराश हो जािे हैं |िब हमारे भीिर से उभरकर हमें बिािा है आतखरी उपाय तक सावषत्रक संकट में अब हम क्या करें |एक व्यति प्रतिरोध का प्रतितनतध बनिा है |प्रतिरोध का अजं ाम पूवष तनधाषररि नहीं होिा प्रतिरोध तक प्रकृ ति िय करिी है |कभी कभी प्रतिरोध पैदा करने कारक ही प्रतिरोध को तनगलने तक चेष्टा करिे हैं| कई बार प्रतिरोधी खदु ही लक्ष्य से भटक जािा है |प्रतिरोधी अक्सर समाज का नायक बन जािा है| सम्मानों के ढेर िले या तकसी बडे पद िले या तकसी सिही उपलतधध को पाकर अपना मुंह बन कर लेिा है | प्रतिरोध के नायक या नतयका सघं र्ष धमी होिे हैं |सघं र्ष छोडिे ही प्रतिरोध दम िोड देिे हैं | प्रतिरोधी एक तिर पर जाकर ति​िक जािे हैं |कभी -कभी प्रतिरोध का नायक प्रतिरोधी पीछे रह जािा है |और उसका सहप्रतिरोधी प्रतिरोध का सारा श्रेय लेकर सफलिा पा जािा है |नायक बन जािा है |तकसी भी प्रतिरोध के तलये व्यति को अन्य प्रतिरोतधयों तक आवश्यकिा पडिी है |प्रतिरोधी नायक के सामने उसका बल गृहण करने के साथ प्रतिरोध का फल अथाषि अपना नायकत्व बचाये रखने तक चनु ौिी होिी है |प्रतिरोध का फल हमेशा लाभदायी हो यह भी

नव-लेखन

जरूरी नहीं होिा |कई बार व्यति प्रतिरोध बस प्रतिरोध कर रहा है यह तदखाने के तलये भी करिा है |उसका लक्ष्य प्रतिरोध के सहारे अपना लक्ष्य पा जाना होिा है |प्रतिरोधी आजकल अपना ध्यान प्रतिरोध से ज्यादा स बाि पर के तन्ि​ि रखिे हैं तक हम प्रतिरोध कर रहे है बस लोग यह जान लें|हम प्रतिरोधी के रूप में सम्मान पा जायें|उनका मकसद तवयम को उिाना होिा है या बाद में बन जािा है |प्रतिरोध उनके तलये सीढी बनिा है वें चढ़िे हैं |तजस चीज का प्रतिरोध तकया जािा है वह वहीं रह जािी है | स िराह एक के बाद एक प्रतिरोतधयों तक किार खडी हो जािी है उपर खडे प्रतिरोधी तवयम को असली प्रतिरोधी मंटे हुए नीचे के प्रतिरोतधयों में से कुछ को अच्छे प्रतिरोधी होने के िमगे बांटिे हैं | स िरह प्रतिरोध के बजाय प्रतिरोधी िैयार करने तक फै क्टरी के मतु खया बन जािे हैं |और नये प्रतिरोधी उनके चमचे क्योंतक वें उन्हें असली प्रतिरोधी मानिे है |प्रतिरोध का यही िरीका उन्हें समझ आिा है | क्या तकया जाये स प्रश्न का उत्तर प्रतिरोध है मगर ससे हमें क्या तमलेगा हमारी तगद्धिष्टी उस लक्ष्य पर जम जािी है |हम करने के बजाय कर रहे हैं यह तदखाने पर लग जािे हैं|प्रतिरोध लाभकारी न हो िो उसे बीच में छोड भी देिे हैं| हमारे प्रतिरोध को चनु ौिी देने वाला हमें िब भी पसन्द नहीं होिा जब वह हमसे बेहिर प्रतिरोध कर रहा होिा है |हमारे द्वारा शुरू तकए लक्ष्य को पाने की हमसे बेहिर व्यूह रचना करिा है |िब हमें अपने नायकत्व तछन जाने का भय होिा है |हम हर अपने से बेहिर प्रतिरोधी की महुं पर


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

प्रशसं ा करिे हुए भी भीिर ही भीिर उससे जलिे भी है |मगर तवीकार नहीं करिे यह जलन कम- ज्यादा सहनीय -असहनीय या तबल्कुल नहीं भी होिी है क्योंतक यह मानवीय प्रकृ ति पर तनभषर है | ऐसा नहीं है प्रतिरोध तनष्फल ही होिा है कई बार प्रतिरोध की सि​िा िीव्रिा हमें हमारा लक्ष्य प्रदान कर देिी है |मगर यह सिही होिा है |लक्ष्य तमलिे ही हम पुराने ढरे पर आ जािे हैं |सब कुछ तफर पहले जैसा हो जािा है |बस तजन लोंगों या चीजों का तवरोध करिे हैं उनके चेहरे बदल जािे हैं |अथाषि वही चीज हमें दसू रे रूप में आकर ग्रस् लेिी है |तजसके तवरुध हम प्रतिरोध करिे हैं |क्योंतक हमारा बल प्रयोग िब िक जारी रहिा है जब िक उपलतधध होिी है वह उपलतधध क्या हो यह हम िय करिे हैं या िय करने को मजबरू होिे है | कुल तमलाकर यह प्रतिरोध और प्रतिरोधी के बीच भी नूरा कुश्िी होिी है प्रतिरोध और प्रतिरोध पैदा करने वाले कारकों की िरह| स नूरा कुश्िी में भी तजस बाि का प्रतिरोध होिा है उस पर समाज का ध्यान के तन्ि​ि िो होिा ही है |कुछ फोरी उपचार भी समतया का समाज सरकारें या तजम्मेदार लोग कर लेिे हैं |महगं ाई,गरीबी तलंगभेद, भ्रष्टाचार, प्रदर्ू ण, आतद समतयाओ ं का प्रतिरोध सी िजष पर होिा है जो समाधान के बजाय लीपा पोिी करवाकर सिं ष्टु होिा है |कुल तमलाकर हम सब एक ऐसी प्रतिरोधी संतरति के चरव्यूह में फंसे है तजसमें घसु ना हर कोई जानिा है तजनके कारण प्रतिरोध अपनािे है उन कारकों को मारकर बहार तनकलना कोई नहीं जानिा |तविः ही कुछ कारक व प्रतिरोधी

माि खािे या सम्मान पाकर नायक बनिे रहिे हैं |प्रतिरोतधयों के भीिर मानविा का पिन तदन दनू ी राि चौगुनी गति से हो रहा है| भूख पर गला फाडकर तचल्लाने वाला कलाम तघसने वाला धन सम्मान पाकर उन्हें भूल जािा है |तफर कोई नया भूख और भूखों को पकडकर तचल्लाने कलाम तघसने लगिा है |ऐसा नहीं प्रतिरोधी में संवदे ना नहीं होिी मगर दतमि कामनाओ ं के बोझ िले दबकर दम िोड देिी है |हमारा लक्ष्य बाद में बदल जािा है |मगर हमारे प्रतिरोध का लाभ िो हमें तमल ही जािा है |प्रतिरोध हम तकसी लाभ की एवज में शरू ु भले न करें मगर बाद में लक्ष्य बदल जािा है |तकसी भी क्षेत्र के प्रतिरोधी के गले में सम्मान की हड्डी फंसिे ही वह प्रतिरोध भूलकर और बडी हड्तडयों के जगु ाड मे लग जािा है |भख ू , गरीबी, प्रयावरण ,प्रदर्ू ण आतद के प्रतिरोधी बढ़िे जािे हैं समतया नहीं घटिी |प्रतिरोधी सत्ता िक बदल देिे है मगर समतया नहीं बदलिी|तफर भी ''सम तथंग ज बेटर देन नातथंग'' भेडों बन्दरों की िरह लीक पर बढने चलने से ये सब हो रहा है छद्म प्रतिरोध को रोकना और साथषक प्रतिरोध को प्रोत्सातहि कर ना होगा | डा. पुष्पलिा


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मामूली चीजों का देवता (The God Of Small Things)- अरुंधती रॉय समीक्षा – रजनीका​ांत ममश्रा पररचय पाठ्यक्रम की मेहरबानी, 1997 में बुकर पुरस्कार से सम्मामनत 'The God Of Small Things' को दबु ारा पढ़ा.. अरांधती रॉय से ज्यादातर समकालीन राजमनमतक या सामामजक मुद्दों पर असहममत के बाद भी, इस उपन्यास को समकालीन भारतीय सामहत्य की सर्वश्रेष्ठ रचनाओ ां में रखने में कोई महचक नहीं है. मामूली चीजों का देवता समाज और इसकी तमाम मर्सगां मतयों मसलन, राजनीमत का अमानर्ीयकरण, धमं और जामत का शोषक तांत्र , पररर्ार और मर्र्ाह जैसी सस्ां थाओ ां का मनज को खोखला करते जाना; के र्ृहत {large}पररप्रेक्ष्य में मामल ू ी{Small } चीजों को कें द्र में लाने का सफल प्रयास, अरांधती रॉय ने मकया है .छोटे लोग और उनकी बातें ["whisper and scurry of small lives"]; र्मजवत ख्यालों, रहस्यों, र्ायदों के भार्नात्मक मनष्ु यों की बात मजसे मुख्य धारा अनसुना कर देती है, उपन्यास की कथा भूमम का मनमावण करते हैं. ठुकराए हुए इन मामूली लोगों की शरणगाह, नदी के तट या History House जैसी जगह ही बनती है. र्ेलथु ा मजसे लेमखका ' God Of Small Things ' कहती है, मबना इस बात की परर्ाह मकये मक अछूत जामत में जन्म उसे 'जड़ु र्ा​ाँ बच्चों' से स्नेह और उनकी मा​ाँ को प्यार करने से र्जवता है, जीर्न मक छोटी छोटी खमु शयों से दामन भरता चलता है. पर इसी र्ेलथु ा को

साहिहयिक हिमर्श

लेमखका का ' God Of Loss' कहना मामल ू ी चीजों और मामल ू ी भार्नाओ ां से मचपकी हुई त्रासदी को इमां गत करता है. उपन्यास मामूली चीजों के हामसये को के द्र में लाता है पर एकाकीपन और दुःु ख की स्र्ाभामर्क महागाथा में गूांथ कर ही. मामल ू ी चीजों को मनभवय अपनाते जड़ु र्ा​ां बच्चों को भी बड़ी बातें नहीं बख्सती और पच्चीस साल बाद मकया मनर्द्वदं प्यार , जले हुए बचपन की ताप और पापछाया से मुमि का ही प्रयास है. कथावस्तु :मुख्यतया दो जड़ु र्ा​ां बच्चों के मार्व त जीर्न के एकाकीपन और अजनबीयत की कहानी को के रल के कस्बे एमनम [ Aymanam ] में बसे एप [ Ape ] पररर्ार की तीन पीमढ़यों की त्रासदी से उभारा गया है . अग्रां ेमजयत में रांगे पापच्ची की नाक पर सामन्ती ढोंग टांगा रहता है. उनकी पत्नी मामाच्ची का सफल व्यर्सायी होना भी पमत की मार से बचा नहीं पाता . मामाच्ची का हाथ व्यर्साय में मजतना भी मसध्दहस्त हो , श्रममकों के शोषण को अमधकार ही समझती हैं. बेटे चाको पर अाँधा प्रेम.. कारखाने में बेटे की रासलीला को बढ़ार्ा देने र्ाली मामाच्ची, अछूत र्ेलुथा से अपने बेटी अम्मू के सांबांधों को सहन नहीं कर सकती. अम्मू और चाको की बुआ बेबी कोचम्मा, बचपन के प्रेम में ममले अमभशाप को अपने व्यमित्र् में ढाल चुकी है. यथामस्थमत को चुनौती देते जीर्न के मकसी भी सुन्दरता को बेबी कोचम्मा की नज़र लगती ही है. परु े


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

उपन्यास में बेबी कोचम्मा खलनायक की भमू मका में नज़र आती है. पररर्ार र्द्वारा उपेमक्षत अम्मू बहाने से कलकत्ता जा, चाय बगान मैनेजर से शादी कर लेती है. दो जड़ु र्ा​ाँ बच्चों को जन्म देती है. बच्चों पर अगाध प्रेम रखती है. पमत पीटता है और अपने कै ररयर की खामतर उसका शरीर बॉस को सौपने की मांशा रखता है तो अम्मू के पास Aymanam र्ापस आने के अलार्ा कोई चारा नहीं बचता. उपन्यास बार बार घर वापस लौटने की कहानी भी है. अमेररका में पढ़े और बसे चाको को जब उसकी पत्नी धोखा देती है, पत्नी को तलाक दे बेटी सोफी मोल को छोड़ चाको भी घर लौटता है. दसु रे पमत के मरने के बाद, चाको से आमत्रां ण पा मागवरेट सोफी मोल के साथ Aymanam आती है. उनके आने को पररर्ार घर र्ापसी ही मानता है. सोफी मोल के आने के साथ ही नाटकीय पररर्तवन शुर होते है. हर्ाई अड्डे जाते र्ि कम्म्यमु नस्टों के दल ने बेबी कोचम्मा को नारा लगाने को मजबरू मकया. उसी दल में कारखाने का नौकर अछूत र्ेलुथा मदखाई पड़ता है. पहले सहमे हुए जड़ु र्ा​ां बच्चे राहेल और एश्था जल्द ही सोफी मोल के दोस्त हो जाते हैं. पर उनकी दोस्ती परर्ान चढ़ रही होती है र्ेलथु ा के साथ. राहेल और एश्था ही नहीं, उनकी मा​ां अम्मू भी र्ेलुथा की सगां त में जीर्न के मायने ढूढती है. मदन में मजस नदी तट पर बच्चे मामूली चीजों से जड़ु ते हैं, रात में अम्मू और र्ेलथु ा आपसी ससां गव से र्जवनाओ ां के समाज

को नकारते हैं. हर मदन अगले मदन की कामना करता है. एक और रात के मसर्ा और कोई ख्र्ामहश नहीं, कोई बांधन नहीं.. के र्ल मामूली चीजों और मामूली भार्नाओ ां का उल्लास . व्यमि पर समाज का बांधन, मामूली चीजों के मलए र्जवनाओ ां के नकार को त्रासदी की ओर ले जाता है. अम्मू की त्र्चा की गधां को खदु में समटने के अपराध में खदु र्ेलुथा का मपता उसकी हत्या खदु कर देने की आकाक्ष ां ा मक हद के ग्लामनबोध के साथ, अम्मू और र्ेलथु ा की गाथा मम्माची तक पहुचां ता है. अम्मू कोठरी में बदां कर दी जाती है..जीर्न की खमु शयों से र्चां ना का दोष बच्चों के सर देती है..आहत बच्चे घर से कहीं दरू भाग मनकलने को मनकलते हैं..सोफी मोल भी साथ हो लेती है.. नदी में डूब मोल की मौत हो जाती है..पररर्ार की मयावदा रक्षा में तत्पर बेबी कोचम्मा एन के न प्रकारेण र्ेलथु ा को बच्चों के अपहरण और सोफी मोल की हत्या का दोष र्ेलथु ा के सर मढ़ने में सफल रहती है. कामरेड मपल्लई ने साथ देने से मना मकया तो अबोध एश्था, बेबी कोच्चम्मा के बहकार्ें में आ ही जाता है.पमु लस की मार से र्ेलथु ा की मौत ददवनाक बनती है. अम्मू चाह कर भी व्यर्स्था के चक्र से र्ेलुथा, खदु को या बच्चों को बचा नहीं पाती. नौकरी को दर बदर भटकती अम्मू गुमनाम मरती है. सोफी मोल के आने की पर्ू सव ध्ां या मथयेटर में यौन शोषण का मशकार, एश्था मौन को अपना साथी चुन लेता है. मपता के पास भेज मदया गया एस्था, र्ेलुथा की हत्या में खदु की भूममका के ग्लामन को साथ साथ जीता रहा. एश्था और रहेल का अलग मकया जाना एक


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

ही आत्मा की चीर फाड़ थी. रहेल और एश्था अगले एकतीस सालों तक अपणू व ही रहे. पर मकसी तरह के सांपकव में भी नहीं रहे. एक महस्सा दसु रे महस्से को क्या मलखता , क्यूाँ मलखता.. अमेररका में मडप्लोमा पा राहेल ने शादी और तलाक भोगा. एश्था के Aymanam आने की खबर पा राहेल भी लौटती है. दख ु , अजनमबयत और एकाकी अपूणतव ा के चक्र को राहेल और एश्था एक दसु रे के शरीर में खदु को घुला कर तोड़ते हैं. मथयेटर में एश्था का कुचला जाना, सोफी मोल की जागती सी लाश, र्ेलुथा की खोपड़ी से मटमैले रि की लकीर और अपनी एक ही आत्मा को चीर खदु को अलग अलग मकये जाने की तमाम र्ीभत्स व्यूहों को जड़ु र्ा​ाँ भाई बहन के शारीररक ससां गव से जोड़ने की कोमशस करता है, उपन्यास का अतां . प्रेम :एप पररर्ार की उलझनों और सल ु झनों के माध्यम से कही गयी कथा के कें द्र में प्रेम ही है. मम्माची का बेटे के प्रमत मोह, चाको का बेटी के प्रमत स्नेह मबना श्रम ही लमक्षत मकया जा सकता है. अम्मू का अपने अपने बच्चों को लेकर प्यार इतना प्रगाढ़ है मक तीनों एक यूमनट का ही महस्सा लगते हैं. रहेल और एश्था तो एक ही आत्मा के दो शरीर हैं. मबना कुछ कहे एक को दसु रे के बारे में सब पता चलता रहता है. स्त्री पुरष का प्रेम अपने कई आयामों में सृजन और सांहार मक श्रृमि करता है. अन्यथा बदचालों और षड्यत्रां ों को बनु ती हुई बेबी

कोचम्मा ने एक पादरी के एकतरफा असफल प्रेम में सब गर्ाया . चाको का मागवरेट के प्रमत प्रेम प्रमतदान मक मा​ांग नहीं करता, मागवरेट के धोखा देने के बाद भी चाको के मदल में नरम कोना बना रहता है. एकाकी जीर्न को अमभशप्त अम्मू के जीर्न में र्ेलथु ा का प्रेम नई प्राणर्ायु लेकर आता है. के र्ल अगले मदन मक चाहत के साथ मबदा होने से पहले अम्मू के मन मक नदी और शरीर का समांदर र्ेलुथा के सांसगव से हर रात अघा जाता है. सामामजक बधां नों में पररर्ार की मयावदा को ढोते एप पररर्ार के सभी प्राणी प्रेम में र्जवनाओ ां को तोड़ते है. बेबी कोचम्मा कथोमलक पादरी के खामतर सम्प्रदाय बदल देती है. चाको शासकों की अहक ां ारी जामत की मागवरेट से अपना अमस्तत्र् हारता है. जामत से बड़ी भारत में कोई पहचान नहीं है, ऐसे में अम्मू का अछूत र्ेलथु ा के साथ मनुःसांकोच और मनर्द्वदं सम्भोग, सामामजक र्जवनाओ ां को ऐसा धक्का है मजसकी मतलममलाहट, तत्रां र्द्वारा र्ेलथु ा की तल्काल और अम्मू की धीमी हत्या से पता चलती है. पाठक का deconstruction करते हुए अरांधती, र्जवना के एक ऐसे क्षेत्र से गुजरती हैं जहा​ाँ ताक झा​ाँक भी सामान्य मानस को मर्तृष्णा से भर देता है. बचपन में अलग कर एकाकी कर मदए गए, रहेल और एश्था एकतीस की उम्र में मफर ममलने पर पूणवता, अपने शरीरों के सांसगव में ढूढ़ते हैं. जड़ु र्ा​ां भाई बहनों का शरीरों के माध्यम आत्मा की


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एकजटु ता ढूढना र्जवना के अमां तम मकले पर लेमखका का प्रहार है. प्रेम को खाचों में बाधना लेमखका को मांज़रू नहीं. महदां ी के प्रख्यात समहत्यकार अज्ञेय के उपन्यास ' शेखर- एक जीर्नी ' का मुख्य पात्र शेखर प्रेम को ररश्तों के बधां न से पररचामयत करने को तैयार नहीं होता. 'ममडनाईट मचल्रेन' में रश्दी ने भी भाई बहन के प्रेम को स्त्री पुरष के आमदम प्रेम तक जाने का सांकेत मकया है परन्तु भाई बहन के मध्य स्त्री परु ष के incestuous जैमर्क प्रेम को बेहद स्पि शब्दों में व्यि करने का साहस मकया है लेमखका ने. परन्तु उपन्यास के अतां तक आते आते लेमखका अपने पाठक को अपनी कथा र्स्तु से इस तरह सांपि ृ कर देती है मक ताबू का तोडा जाना मर्तृष्णा मक लहर लेकर नहीं आता. यही लेमखका मक सबसे बड़ी उपलमब्ध है. त्रासदी मामल ू ी चीजों और भार्नाओ ां में जीते पात्र प्रेम में र्जवनाओ ां का ससां ार तोड़ते है. पर साथ ही उसकी कीमत भी चुकाते हैं. चाको को छोड़ मागवरेट मकसी और से शादी कर लेती है. बेबी कोचम्मा स्र्यां में अपूणव रहती है और बचपन का घार् टीसते टीसते उसके पुरे व्यमित्र् को मति कर देता है. र्ेलुथा अछूत हो भी अम्मू से प्यार करने ददवनाक सजा भुगतता है. फटी खोपड़ी से बहती रि मक मटमैली लकीर 'God of Small Things' के 'God Of Loss' रह जाने मक गाथा है. अम्मू न के र्ल अपने बच्चों

से मर्छोह सहती है, बसतां की बयार लाए र्ेलथु ा की मौत की गर्ाह बनती है, खदु मर्स्थापन और अतां में गुमनामी की असमय मृत्यु पा त्रासदी को घनीभतू करती है. पर समय के आगे पीछे जाते हुए राहेल और एश्था की लगातार जारी मर्छोह,त्राण और एकाकीपन की मख्ु या कथा परू े उपन्यास को त्रासदी के रांग में लगातार रांगे रहती है. एक ही आत्मा की दो आकारें राहेल और एश्था बचपन से महरूम होते हैं. बाप का प्यार कभी था नहीं. र्ेलुथा जैसे दोस्त की मौत और उसकी मौत में एश्था का मिक मकया जाना उनका जीर्न भर पीछा नहीं छोड़ता. दरू देश से आई सोफी मोल उनके साथ घर से भागते हुए डूब जाती है पर उसकी लाश से मज़न्दगी की झलक उनका पीछा नहीं छोड़ता. राहेल कभी भल ू नहीं पाती की अम्मू उसे थोडा कम ही चाहती है तो र्ेलथु ा प्रसगां उजागर होने के बाद अम्मू का अपने दख ु ों के मलए बच्चों को कोसना, उनकी मनदोष दमु नया को झझकोर देता है. lemondrinking man के हाथों एस्था का यौन शोषण उसे mute कर देता है. पर सबसे त्रासद है, राहेल और एश्था का मबछड़ना. एक दसु रे से दरू हो दोनों अपनी जड़ों से उखड जाते है. वहृ त यातनाओ ं का क्रूर तंत्र मामल ू ी चीजों को उनका स्थान देते हुए उपन्यासकार की दृमि समाज के सनातनी और समकालीन अमानर्ीय व्यर्स्थाओ ां को नज़रअदां ाज़ नहीं करती. सामामजक व्यर्स्थाएां, अके ले के सपनों, नकार को मनषेधमत मनजी आका​ाँक्षाओ ां को त्रासद अतां की और ले जाती


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हैं और पाठक की मनोचेतना पर उनकी क्रूरता का गहरा मप्रटां छोड़ती हैं . कथा की मुख्यभूमम पर मर्स्तार मदए मबना देश की राजमनमतक व्यर्स्था का खोखलापन अपनी नग्नता में उभर आता है. भारत में साम्यर्ाद भी psychology of caste से मलप्त ही रह जाता है. ऊांची जामत की मयावदा पर आांच आने पर कामरेड मपल्लई मनष्ठ कायवकताव र्ेलुथा से पल्ला झाड़ लेते हैं. जामत की पहचान अन्य मकसी भी पहचान से बड़ी है. अछूत होना र्ेलथु ा की सनातनी मनयमत है, भले ही इसाई समाज मानर् की समानता को गाता मफरे . अछूत होकर जामत की देहरी ला​ांघने की कीमत र्ेलुथा को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है. जामत मानस में इस कदर समाई है की र्ेलथु ा का अपना बाप, र्मजवत सबां धां ों को नकारने पर उसकी जान अपने ही हाथों लेने की बात करता है. चाको कारखाने में कम करने र्ाली मस्त्रयों का यौन शोषण कर भी अपने ख्यालों में कम्यमु नस्ट है. भारत में र्गव मर्भेद का नया चेहरा शोषण के तांत्र की एक और धरू ी बनता सार् मदखता है. सास्ां कृ मतक मर्भेद , जामत भेद की तरह ही स्तर दर स्तर की मापी न जाने र्ाली मपराममड में समाज का अमानर्ीयकरण करती चलता है. र्गव भेद और सा​ांस्कृ मतक भेद का तनार् उपन्यास में लगातार बना रहता है. स्थानीय समाज में आदरणीय एप पररर्ार का ही चाको मर्देश में पढ़ मलख कर भी मागवरेट और उसके

पररर्ार के बनाम सहमा रहता है. जड़ु र्ा​ाँ बच्चों और सोफी मोल का ररश्ता अपनी बमु नयाद में सा​ांस्कृ मतक मर्भेद के पायदान पर ही मटका है. वातावरण, संरचना ,तकनीक और भाषा उपन्यास की मख्ु य कथा के रल के Ayemenem में सेट की गयी है. कोट्टायम मजला लेमखका का अपना गृह जनपद है और इस मामले में उल्लेखनीय है मक महन्दू मुमस्लम और इसाई समुदाय एक ही ज़मीन से अपनी उर्वरा पाते हैं. अलग धमव मर्ज्ञानों के रहते भी समाज का स्तरीकरण हर समुदाय मक खामसयत है. मर्शेषकर सीररयन ईसाई समाज का चररत्र और इसके अतां मर्वरोध कोट्टायम के ईसाई बहुल जनाख्या में कायदे से लमक्षत होता है. 1979 का समय र्ह समय है जब कम्म्यमु नस्ट आन्दोलन अपने जोर पर है और जामत का बांधन मशमथल नहीं हुआ है. उच्च र्गव अग्रां ेजी और अग्रां ेमजयत में ही पोषण पाता है. ऐसा र्ातार्रण कथा को मर्श्वसनीयता प्रदान करता है. इक्कीस अध्यायों में बटी कथा, अपनी अरेखीय शैली के नाते उल्लेखनीय है. पूरी कहानी समय में कभी भतू तो कभी र्तवमान में आगे पीछे चलती है. घटना का मज़क्र मकसी अध्याय में आता है तो घटना मकसी और अध्याय में मर्स्तार पाती है.ऐसी शैली का कुशल उपयोग उपन्यास की सामहमत्यक सुन्दरता में बढ़ोत्तरी तो करता है पर सामान्य पाठक को समय की अरेखीय चाल से


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सामजां स्य मबठाने में मदक्कत जरर होती है. उपन्यास अपने पाठन में लगातार सार्धानी की मा​ांग करता है.


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स्त्री विमर्श

नारी सशक्तीकरण बनाम अशक्तीकरण - आका​ांक्षा यादव राजनीति और प्रशासन, दो ऐसे क्षेत्र हैं जो न तसर्फ नीति-तनर्ाफण करिे हैं बतकक उनका कार्ाफन्वर्न भी सुतनति​ि करिे हैं। र्ह पहली बार हुआ है जब भारिीर् राजनीति र्ें र्तहलाएं शीर्फ पर स्थान बनाने र्ें कार्र्ाब हुई हैं। राष्ट्रपति (पवू )फ प्रतिभा पातिल, लोकसभा अध्र्क्ष (पवू )फ र्ीरा कुर्ार, र्ू0पी0ए0 अध्र्क्ष सोतनर्ा गा​ाँधी, तवदेश र्ंत्री सुर्र्ा स्वराज के साथ-साथ राजधानी तदकली र्ें शीला दीतक्षि, उत्तर प्रदेश र्ें र्ार्ाविी, प0 बंगाल र्ें र्र्िा बनजी, ितर्लनाडु र्ें जर्लतलिा, तबहार र्ें राबडी देवी, राजस्थान र्ें वसुन्धरा राजे इत्र्ातद र्तहलाएं र्ख्ु र्र्ंत्री पर पर आसीन हैं र्ा हो चुकी हैं। प्रशासतनक स्िर पर भी देखे िो र्तहलाएं अहर् पदों पर पदस्थ हैं। आई0ए0एस0 की परीक्षा र्ें जहा​ाँ र्तहलाओ ं ने शीर्फ स्थान हातसल तकए हैं, वहीं सी0बी0एस0ई0 द्वारा घोतर्ि 10वीं व 12वीं के निीजों र्ें प्रार्ः हर साल लडतकर्ा​ाँ ही बाजी र्ारिी हैं। भारि र्ें हर साल 1.25 लाख र्तहलाएं डाॅक्िर की तडग्री प्राप्त करिी हैं, जो तक कुल उत्तीणफ छात्रों का 50 प्रतिशि है। भारि की 6.38 लाख पंचार्िों र्ें से 77, 210 की अध्र्क्षिा र्तहलाएं कर रही हैं। एक लंबे सर्र् बाद ही देश के सवोच्च न्र्ार्ालर् र्ें भी र्तहलाओ ं की भागीदारी तदख रही है। कारपोरेि जगि र्ें भी िर्ार् र्तहलाएं शीर्फ पदों पर हैं। उपरोक्त तस्थति देखकर तकसी को भी भ्रर् हो सकिा है तक भारि र्ें नारी सशक्तीकरण चरर् पर है और र्तहलाएं न तसर्फ घर चला रही हैं बतकक देश भी चला रही हैं। पर क्र्ा वाकई ऐसा है र्ा र्ह उपतस्थति प्रिीकात्र्क र्ात्र है। राजनैतिक स्िर पर ऊपरी िौर पर भले ही र्तहला प्रतितनतधत्व एक गल ु ाबी िस्वीर पेश करिा है पर असतलर्ि र्ह है तक भारि र्ें लोकसभा र्ें र्तहलाओ ं को तसर्फ 11 र्ीसदी और राज्र्सभा र्ें के वल 10.7 र्ीसदी प्रतितनतधत्व है। अिं राफष्ट्रीर् सर्हू इिं र पातलफर्ार्ेंिरी र्ूतनर्न (आईपीर्ू) द्वारा जनवरी 2014 र्ें जारी तकए गए आंकडों के अनुसार भारि का राजनीति र्ें र्तहलाओ ं की भागीदारी के र्ार्ले र्ें 98वा​ाँ स्थान है। र्हा​ाँ आतखर र्ूाँ ही 33 र्ीसदी आरक्षण की र्ा​ाँग नहीं हो रही है। सर्ाज के दतलि-तपछडे वगफ से आने वाली र्तहला प्रतितनतधर्ों के साथ कै सा व्र्वहार होिा है, तकसी से नहीं छुपा है। तबहार से र्ुसहर जाति की एक सांसद को िी0 िी0 ने रेन के वािानक ु ू तलि कोच से पररचर् देने के बावजदू इसतलर्े बाहर तनकाल तदर्ा क्र्ोंतक वह वेश-भर्ू ा से वािानुकूतलि कोच र्ें बैठने लार्क नहीं लगिी थीं। भारि र्ें र्तहलाओ ं की तस्थति क्र्ा है, इस संबंध र्ें जनगणना 2011 के आंकडे सातबि करिे हैं तक आज भी तलंगानुपाि 940 है अथाफि 1000 पुरुर्ों पर र्ात्र 940 र्तहलाएं। आतखर हर् इस िथ्र् की अवहेलना क्र्ों करिे हैं तक नारी के अतस्ित्व पर ही सृति का अतस्ित्व तिका हुआ है। अके ले


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परु​ु र् से दतु नर्ा को नहीं चलार्ा जा सकिा। र्ही कारण है तक तलगं ानपु ाि र्ें बढ़िे र्ासले का असर देश के कुछ इलाके र्ें तदख भी रहा है, जहा​ाँ लडकों को शादी र्ें परेशानी आ रही है। र्ह उसी परु​ु र् र्ानतसकिा का हश्र है, तजस पर हर् गवफ करिे रहे हैं। कन्र्ा जन्र् के नार् पर पररवार र्ें र्ािर् अभी भी आर् बाि है। लडतकर्ों को गभफ र्ें ही र्ा पैदा होिे ही र्ार देने की घिनाएं बढ़ी हैं। छः साल िक की आबादी र्ें इस सर्र् 1000 लडकों के र्ुकाबले तसर्फ 914 लडतकर्ा​ाँ ही हैं, जो तक 2001 र्ें 927 थीं। आज भी हररर्ाणा और पंजाब जैसे राज्र् र्ें र्ह तस्थति भर्ावह है। भारि र्ें साल भर र्ें 2,90,000 बेतिर्ा​ाँ कोख र्ें ही र्ार दी जािी हैं और इसके तलए बकार्दा लगभग 450 करोड रूपर्े का भरण ू ू् हत्र्ा का कारोबार चल रहा है। एक नए अध्र्र्न र्ें र्ह बाि सार्ने आई है तक संिान के रूप र्ें एक लडकी होने के बाद र्तद गभफ र्ें दसू री भी लडकी आ जािी है िो ऐसे भ्रूण की हत्र्ा करवाने की प्रवृति भारि र्ें िेजी से बढ़ रही है। प्रतिति​ि ‘लैंसेि‘ पतत्रका र्ें प्रकातशि होने वाले इस अध्र्र्न के तनष्ट्कर्ों के अनसु ार 1980 से 2010 के बीच इस िरह के गभफपािों की सख्ं र्ा 42 लाख से एक करोड 21 लाख के बीच है। सबसे बडी तवडंबना िो र्ह है तक र्ह कृ त्र् उन पररवारों र्ें अतधक देखा गर्ा, तजन्हें सुतशतक्षि एवं सर्ृद्ध र्ाना जािा है। गरीब व अतशतक्षि व्र्तक्त िो बच्चों को ईश्वरीर् तनर्ति र्ानकर शांि रह जािा है पर िथाकतथि सुतशतक्षि, संपन्न एवं संभ्रांि लोग अवैध होने के बावजदू पैसों के दर् पर न तसर्फ प्रसवपवू फ तलगं जा​ाँच करा रहे हैं, बतकक कन्र्ा-भ्रणू होने पर उसे गभफ र्ें ही खत्र् कर देने से गरु ेज भी नहीं करिे हैं। ऐसी प्रवृति आर्िौर पर पहली सिं ान के लडकी होने के र्ार्लों र्ें देखी जािी है। 1980 के दशक र्ें कन्र्ा भ्रूण का चुतनंदा गभफपाि 0.20 लाख था, जो 1990 के दशक र्ें बढ़कर 12 लाख से 40 लाख िथा 2000 के दशक र्ें 31 लाख से 60 लाख िक हो गर्ा। र्तद कोई र्तहला इसका तवरोध भी करना चाहे, िो उसे िवज्जो नहीं तर्लिी। वैसे भी धर्फ और संस्कृ ति के सहारे तपिृसत्ता स्त्री के एक स्वित्रं चेिा व्र्तक्तत्व होने की सभं ावनाओ ं को नि करिी रही है। तहदं ू सर्ाज र्ें उसी स्त्री को आदशफ र्ाना गर्ा जो र्नसा-वाचा-कर्णाफ पति की अनुगातर्नी रही हो। भारि ही नहीं अर्ेररका र्ें भी भारिीर् र्ल ू की र्तहलाएं पुत्र की चाह र्ें खबू कन्र्ा भ्रूण हत्र्ा करवा रही हैं। खास बाि र्ह है तक भारि के तवपरीि अर्ेररका र्ें तलगं तनधाफरण करवाना कानूनन वैध है। र्ूतनवतसफिी आर् कै तलर्ोतनफर्ा द्वारा तसिम्बर 2004 से तदसम्बर 2009 के बीच तलगं तनधाफरण परीक्षण करवाने वाली प्रवासी भारिीर् र्तहलाओ ं पर हुए शोध र्ें र्ह बाि सार्ने आई है तक 40 प्रतिशि र्तहलाओ ं ने र्ह जानने के बाद तक उनके गभफ र्ें कन्र्ा पल रही है, गभफपाि करवा तदर्ा। एक िरर् प्रधानर्ंत्री कन्र्ा भ्रूण हत्र्ा को ‘राष्ट्रीर् शर्फ‘ बिािे हैं, वहीं कन्र्ा भ्रूण से लेकर अतं िर् सर्र् िक तपस रही है। र्तद कन्र्ा-भ्रूण ने जन्र् ले भी तलर्ा िो उनके सम्र्ान से होिा तखलवाड, दहेज उत्पीडन, बलात्कार की दजफनों घिनाएं, अपनी नाक की खातिर र्ा​ाँ-बहन-बेिी की


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हत्र्ा, और बढ़ू ी र्ा​ाँ को दर-दर की ठोकरें खाने के तलए छोड देना आर् बाि हो गई है। आज भी तकसी अपराध र्ें सबसे आसान र्ोहरा र्तहलाएं ही होिी हैं- उनके साथ दव्र्ु र्वहार, दष्ट्ु कर्फ व छे डछाड आर् बाि है। आाँकडे बिािे है तक पेशेवर अपरातधर्ों से भी ज्र्ादा गली-र्ुहकले, दफ्िर र्ें कुंतठि र्ुवक व अधेड, स्त्री संबंधी अपराधों के सूत्रधार हैं। घरेलू तहसं ा व कार्फस्थलों पर र्ौन उत्पीडन के संदभफ र्ें इिं रनेशनल सेंिर र्ार ररसचफ ऑन वर्ू ने , अर्ेररका और इस्ं िीिू्र्ूिी प्रोर्ुंडीन, ब्राजील द्वारा संर्ुक्त रूप से तकर्ा अध्र्र्न बिािा है तक अपने तजन्दगी र्ें कभी न कभी 24 र्ीसदी भारिीर् परु​ु र् र्ौन तहसं ा को अजं ार् देिे हैं, तसर्फ 17 र्ीसदी भारिीर् पुरुर् ऐसे कहे जा सकिे हैं, जो ‘सर्ानिार्ूलक‘ संबंधों के तहर्ार्िी हैं। राष्ट्रीर् अपराध ररकाडफ ब्र्ूरो के आंकडों के र्ुिातबक भारि र्ें प्रति 51वें तर्नि र्ें एक र्तहला र्ौन शोर्ण का तशकार, हर 54वें तर्नि पर एक बलात्कार और हर 102वें तर्नि पर एक दहेज हत्र्ा होिी है। देश र्ें बलात्कार के र्ार्ले 2005 र्ें 18,349 के र्ुकाबले बढ़कर 2009 र्ें 22,000 हो गए। र्तहलाओ ं के उत्पीडन के र्ार्ले भी इस अवतध र्ें 34,000 से बढ़कर 39,000 हो गए जबतक दहेज हत्र्ाओ ं के र्ार्ले 2005 र्ें 6,000 के र्ुकाबले 2009 र्ें 9,000 हो गए। र्ही नहीं तवश्व र्ें सवाफतधक बाल वेश्र्ावृतत्त भी भारि र्ें है, जहा​ाँ 4 लाख र्ें अतधकिर लडतकर्ा​ाँ हैं। कहिे हैं तक सार्ातजक व आतथफक तवकास र्ें तशक्षा की अहर्ू् भतू र्का है, पर र्हा​ाँ िो तशतक्षि पररवार अभी भी रूति़र्ों से ग्रस्ि नजर आिा है। आज हर क्षेत्र र्ें र्तहलाएं परु​ु र्ों से कदर् से कदर् तर्लाकर चल रही हैं और घर के साथ-साथ बाहरी दतु नर्ा से भी िालर्ेल बनाए हुए हैं। इसके बावजदू बेतिर्ों को परार्ा सर्झना, शादी के तलए बोझ सर्झना, वश ं वृतद्ध से लेकर तचिा र्ें अतनन देने जैसी िर्ार् परर्पराओ ं का वाहक र्ात्र बेिों को सर्झना, आर् बाि है। अभी भी नारी तशक्षा पररवार की प्राथतर्किाओ ं र्ें शातर्ल नहीं है, िभी िो देश की तछर्ासी प्रतिशि बेतिर्ा​ाँ प्राथतर्क स्िर पर ही स्कूल की पढ़ाई छोड देिी हैं और चैंसठ र्ीसदी र्ाध्र्तर्क कक्षाओ ं से आगे की पढ़ाई नहीं कर पािी। जनगणना 2011 के ऑकं डानुसार देश र्ें र्तहला साक्षरिा र्ात्र 65.46 है और इनर्ें भी र्ात्र िेईस प्रतिशि को रोजगार तर्ल पार्ा है। बेतिर्ों से छुिकारा पाने के तलए देश र्ें िैंिालीस र्ीसद लडतकर्ा​ाँ तववाह के तलए तनधाफररि अठारह वर्फ की आर्ु पूरी करने से पहले ही ब्र्ाह दी जािी हैं और इनर्ें से बाईस र्ीसदी िो इस अपररपक्व उम्र र्ें र्ा​ाँ भी बन जािी हैं। र्ध्र् प्रदेश र्ें 73 र्ीसदी लडतकर्ां 18 वर्फ से पहले ब्र्ाह दी जािी है, जबतक आध्रं प्रदेश र्ें र्ह आक ं डा 71 प्रतिशि, राजस्थान र्ें 68 प्रतिशि, तबहार र्ें 67 र्ीसदी और उत्तर प्रदेश र्ें 64 प्रतिशि है। तदन भर सबका ख्र्ाल रखने वाली नारी के स्वास्थ्र् का शार्द कोई भी ख्र्ाल नहीं रखना चाहिा। िभी िो हर्ारे देश र्ें पंद्रह से उन्नीस साल की उम्र वाली सैंिालीस र्ीसदी लडतकर्ां औसि से कर् वजन की हैं। आज भी 56 र्ीसदी लडतकर्ा​ाँ एनीतर्र्ा र्ानी खनू की कर्ी का तशकार हैं। प्रति वर्फ छः हजार र्तहलाएं बच्चे को जन्र् देने के साथ ही र्ौि के आगोश र्ें चली जािी हैं। देश र्ें हर साल िी0 बी0 (क्षर्


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रोग) के कारण एक लाख से ज्र्ादा र्तहलाएं पररवार से अलग कर दी जािी हैं। सार्ातजक िौर पर कई इलाकों र्ें आज भी र्तहलाओ ं को ‘डार्न’ और ‘चडु ैल’ बिा कर पत्थरों से र्ार डाला जािा है, तजदं ा जला कर ‘सिी’ के नार् पर र्तहर्ार्ंतडि तकर्ा जािा है। आर् बोलचाल की भार्ा र्ें बािबाि पर र्तहलाओ ं के अगं ों की लानि-र्लानि लोगों के रोजर्राफ के व्र्वहार का तहस्सा है। ऐसे र्ें भला नारी सशक्तीकरण, अशक्तीकरण र्ें क्र्ों न बदल जाए? इक्कसवीं सदी र्ें, जबतक नारी के प्रति तवभेद की दीवारें िूिनी चातहए, तशतक्षि सर्ाज द्वारा इस प्रकार का तवभेद स्वर्ं उनकी र्ानतसकिा को किघरे र्ें खडा करिा है। आतथफक आंकडे बिा रहे है तक भारि 8-9 प्रतिशि तवकास दर के साथ सर्ृद्ध और संपन्निा की ओर अग्रसर है, पर क्र्ा इस संपन्निा र्ें र्तहलाओ ं का र्ोगदान शून्र् है। हर् प्रार्ः भूल जािे हैं तक तजन बीजों के सहारे सृति का तवकास-क्रर् अनुविफ चलिा रहिा है, र्तद उस बीज को प्रस्र्ुति​ि ही न होने दें िो सारी सृति ही खिरे र्ें पड जाएगी। र्ह सर्र् है र्थं न करने का, तवचार करने का तक सृति का अतस्ित्व सह-अतस्ित्व पर तिका है, न तक तकसी एक के अतस्ित्व पर। आका​ांक्षा यादव मेघदूत सदन, पोस्टल ऑफिससस कॉलोनी जेडीए सफकस ल के फनकट, जोधपुर, राजस्थान - 342001 ई-र्ेल: kk_akanksha@yahoo.com ब्लॉग: http://shabdshikhar.blogspot.in/ http://www.facebook.com/AkankshaYadav1982


स्त्री विमर्श

जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

अन्तराष्ट्रीय महिला हिवस की चकाचौध और नारी हनके तन का अँधेरा -डॉ. नूतन गैरोला सूफी से वे, सुधबुध बबसरा कर गोल गोल घूमते हुए,नाचती हुई भक्त मबहलायें ... बकसी दरू से आती हुई ढोलक की थाप पर ... और भबक्तमय इस माहोल पर, बदल बाग़ बाग़ हुए जा रहा था बक जाए हम भी जा कर वहा​ां बैठ जाए, कुछ रूह से उमगता हुआ भाव बक सब कुछ भल ु ा कर कुछ हम भी भबक्तमय हो जाए, गीतों की रुनझनु धनु में कुछ दबु नया​ां के दख ु ा कर इस टोली में हम भी ु ड़े भल शाबमल हो जाएँ ... मेरे साथ गयीं शोभा जी भी एक बारगी कह उठी डॉ नूतन उधर चलें .. पर मुझे तो अपना कायय देखना था ... मुझे वहा​ां रहती मबहलाओ ां का स्वास्थ परीक्षण, परामशय और इलाज देना था .. जी हा​ां .. नारी बनके तन में थी मैं उस वक्त और वे नाचती हुई मबहलायें नारी बनके तन की थी ... उनकी ददयभरी हकीकत से अनबभज्ञ मैं मन्त्रमग्ु ध सी वही ँ एक मेज पर बैठ गयी, जहा​ां मझु े उन बियों का स्वास्थ पररक्षण करना था| बहदायतें चारों ओर थीं, तस्वीर खींचने की सख्ती से मनाही थी .. प्रवेश द्वार पर भी एक बहदायत बक बबना मबजस्रेट की आज्ञा के प्रवेश वबजयत ............. खैर, हमें तो तकलीफों ( शारीररक ) से बाबस्ता होना था .... वहा​ां मबहलाओ ां की सनू ी आँखें कहती थी बक ये तकलीफें बहुत कुछ अपनों की चाहत में बढ़ गयी हैं ... बफर चीखने की आवाजें .. बार बार बचल्लाती औरते, लड़ती औरते, रोने की आवाजें, डांडे पटकने की आवाजें या डांडा

स्त्री विमर्श

खाने की भी और वो भक्तों की तरह झमू ती औरतें ... वह भबक्तमय नहीं था जो दरू से नज़र आता था, वह घोर मानबसक अवसाद और बवतृष्णा की बस्तबथ थी कुछ कुछ बेसुध बस्तबथ अपने दख ु ों में खदु से दरू | छोटी लड़बकयों से ले कर वृद्ध बजनके घर वालों ने कभी सुध ही नहीं ली बरसों बरसों से .. अपने घर वालों की आवाज को तरसती, और दो गभयवती लड़बकयों की भी जा​ांच की थी बजन्त्हें ऐसे में घर वालों के साथ सबां ल की जरूरत थी बचबकत्सा की जरूरत थी, वे भी भी पररत्यक्ता का जीवन बसर करने को मजबरू थी और घोर लापरवाही का बशकार हो रही थी .. एक अच्छी बात यह थी बक कुछ लड़बकया​ां पढने बाहर स्कूल में जाती हैं एक लड़की पढाई में अव्वल भी थी ऐसा पता चला था| पर मबहलाओ ां की बस्तबथ पर ...................................सोचती हँ एक तरफ अन्त्तराष्रीय मबहला बदवस पर बहसों की चकाचौंध ....... दसू री ओर अपने गम के अधां रे ों में खोयी हुई ये मबहलायें,शारीररक, मानबसक कष्टों में, बाहरी दबु नया​ां से कटी, भोजन और जीवन के बलए लड़ती ये बियाँ ....... बजनकी इरले बबरले ही कोई सनु वाई हो ....... ................समाज में इनके बलए क्या कहीं कोई जगह थी या कोई स्वीकारोबक्त है/ थी जब इनके घर वाले भी इनको दर दर भटकने के बलए छोड़ गए ... ऐसे में मझु े वह पगली सी सड़क की लड़की ( २५ साल उम्र लगभग ) बहुत याद आई .... जो हररद्वार से रात २ बजे लायी गयी थी ...... वह प्रसव पीड़ा में थी पर बजसका दो बार सीजेररयन ओपरेशन हो चुका था ... वह बचल्ला रही थी, क्रोध में भाग रही थी ..अपने


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

पर हाथ नहीं छूने दे रही थी ... परू े कपडे लहुलहु ान थे ..... उसे मालमू भी नहीं था बक ये लोग उसके बहतेषी है ....क्यूांबक उसे बकसी पर भी बवश्वास नहीं था ... सोचती हँ इस वहशी समाज में वह रात को कै से सड़क में जीती थी होगी लावाररश अनाथ सी ... बकतने ही बलात्कार उसके बलए आम हो गए होंगे बजनका वह रोज बशकार होती रही होगी ... उसका बच्चा और वह अब बकसी ऐसी ही जगह सहारा पाए होंगे ... वह ४ साल की लड़की भी याद आई बजसको बलात्काररयों ने बकसी अन्त्य शहर में ला कर सड़क पर छोड़ बदया था और वह उस जगह को नहीं पहचानती थी .. उसे उसकी माँ बपता की तलाश में देहरादनू लाया गया था .... पर वह शायद कुछ भी सही नहीं बता पा रही थी और अनाथ हो चक ु ी थी, वह भी ऐसी ही बकसी जगह पर होगी ... बजस एक बात की मुझे ख़श ु ी हुई वह थी बक कुछ लडबकया​ां वहा​ां से स्कूल पढने जाती है .................. लेबकन वे घर आ कर कै से पढ़ती होंगी .... जहाँ बार बार चीखते लोग ....... चीजें पटकते आपस में लड़ते झगड़ते या रोते हुए लोग एक दीवार के अन्त्दर बांद बजदां गी और वही चेहरे हर वक्त ...... मेरा व्यबक्तगत सोचना है बक हम ऐसी मबहलाओ ां के बलए सस्ां थागत मनोवैज्ञाबनक इलाज, काउांसबलांग करें, घर वालों को उनसे बमलने के बलए उत्साबहत करें और उनको बमलवायें, इसके अलावा उनको आउबटांग करवाएां ताबक उनका भी एक बड़ा आसमान हो ..... उनकी ऊजाय को बकसी सकारात्मक

कायों में लगवाएां ताबक वह भी समाज के बलए योगदान दे कर अपने होने को साथयक समझ सकें और उनकी समाज को जरूरत है ये भाव उनके मन में स्थाबपत बकया जाए .. उनको अच्छा खाना रहना बमले .... साथ ही हम सब को भी बदवाली या शादी ब्याह या जन्त्मबदन और उत्सवों के खचों में से बफजल ू खची को बचा कर बमलजल ु कर ऐसे लोगो के बलए कुछ नेक कायय करना चाबहए ...... ( सेंसर कर के बलखा गया ) जन्त्म १० जल ु ाई देहरादनू , उत्तराखडां १० सामूबहक सांकलन पर पबरकाओ ां लेख सांस्मरण कबवतायें प्रकाबशत साबहबत्यक ई पबरकाओ ां में प्रकाशन चार पुस्तकें प्रकाशनाथय सम्प्प्रबत - कांसल्टेंट गाय्नाकोलोबजस्ट मधरु नबसिंग होम, श्रीनगर, उत्तराखडां एवां मधरु बक्लबनक देहरादनू सबचव, मबहला सभा धाद, देहरादनू फोन : ०९६९०७७५७४४


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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स्त्री विमर्श

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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दतलि एवं आतदवािी तवमर्श तवमर्श

जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

बाल-साहित्य सज ृ न: नई चुनॊहिया​ां -हिहिक रमेश सृजन किसी भी समय िा क्यों न रहा हो अपने उपजने में वह चनु ॊतीपर्ू ण ही रहा होगा। हर उकचत ऒर अच्छी रचना सजग ऒर कजम्मेदार रचनािार िे समक्ष चनु ॊती ही लेिर आती हॆ। लेकिन जब हम सृजन िे साथ ’नई चनु ॊकतया’ां जोड़ते हॆां तो उसिा आशय कनरन्तर बदलते सामाकजि-प्रािृ कति पररवेश में नई समझ ऒर नए भावबोध िी गहरी समझ से लॆस रचनािार िी परम्परा िी अगली िड़ी िे रूप में अपेकक्षत सृजन िो सांभव िरने वाली तॆयाररयों से होता हॆ। यांू मेरी समझ में तो हर कजम्मेदार बाल साकहत्यिार िे सामने उसिी हर अगली रचना नई चनु ॊती ही लेिर आती हॆ क्योंकि यहा​ां न िोई ढराण िाम आता हॆ ऒर न ही िोई सीख। सही मायनों में तो अन्तत: अपना बोना ऒर अपना िाटना ही प्राय: िाम आता हॆ।चाल या चलन िो चनु ॊती देते हुए। अपने प्रगकत-प्रयोगों िे प्रकत उपेक्षा िे आघात सहते हुए भी। अन्यथा बालि िो दो क्षर् भी नहीं लगते किसी भी रचना से महांु फे रते। क्षमा कीहजए मॆां शरु​ु में ही नोबेल पुरस्कार हिजेिा अमेररकी लेखक हिहलयम फॉकनर ऒर गल ु जार िे िथनों िा कजक्र िरना चाहगां ा। कवलयम फॉिनर िे अनसु ार, ’आज सबसे बड़ी त्रासदी यह हॆ कि अब लोगों िी समस्याओ ां िा आत्मा या भावना से िोई लेना-देना नहीं रह गया हॆ।अब सबिे मन में कसफण एि ही सवाल हॆ -मॆां िब मशहर बनांगू ा/बनांगू ी।जो भी यवु ा लेखि ऒर लेकखिाएां हॆां वे अपनी इस चाहत िे िारर् खदु से द्वद्व िर रहे हॆ।ां इसी द्वद्वां िे िारर् वे जमीनी हिीित ऒर इसां ानी भावनाओ ां िो भल ू गए हॆ।ां उन्हें एि बार कफर से जॊवन िे शाश्वत सत्य ऒर भावनाओ ां िे बारे में सीखना होगा, क्योंकि इसिे कबना िोई भी रचना बेहतर नहीं हो सिती। िकवया लेखि िी कजम्मेदारी बनती हॆ कि वह ऎसा कलखे कजसे पढ़ने वाले व्यकि िे मन में साहस, सम्मान, उम्मीद ऒर जज्बा पॆदा हो, जो

बाल विमर्श

उसे प्रेररत िर सिे अपने जीवन िी मकु किलों िे आगे डटे रहने ऒर जीतने िे कलए।’ भले ही यह कवकलयम फॉिनर द्वारा 10 कदसम्बर 1950 िो स्टॉिहोम में नोबल परु स्िार ग्रहर् िरते समय कदए गए भाषर् िा अश ां हॆ लेकिन मॆां इसे आज भी प्रसांकगि मानता ह।ां मॆां इसे बाल साकहत्य लेखन पर घटा िर भी देखना चाहगां ा भले ही बालि िे रूप में व्यकि िी बात िरते हुए इसमें िुछ ऒर बातें भी जोड़ने िी आवकयिा पड़ेगी। मसलन उत्िृ ष्ट बाल साकहत्य लेखन िे सांदभण में हमेशा बाल सल ु भ कजज्ञासाओ ां ऒर उनिी अकभरुकच िे अनसु ार रचना िो मज़ेदार बनाने ऒर बाल सल ु भ प्रश्नों िो रचनात्मि ढगां से उभारने िी भी बहुत बड़ी चनु ॊती ऒर कजम्मेदारी कनभाए कबना िाम नहीं चलता। यकद िोई िकवता प्रश्न जगाने में सफल हो जाए तो समझ लेना चाकहए कि वह साथणि हॆ, भले ही वह प्रश्न िा उत्तर न भी दे पायी हो। अमेररिी लेकखिा ऒर बच्चों िे लेखन िे कलए अत्यांत प्रकसद्ध मेडेलीन एल एगां ल (Madelien L' Engle, 19182007) िे शब्दों में, "I believe that good questions are more important than answers, and the best children's books ask questions, and make the readers ask questions. And every new question is going to distrurb someone's universe." सकहत्य में प्रश्न उठाना बहुत आसान नहीं होता क्योंकि प्रश्न उठाया ही जब जाता हॆ जब उसिे उत्तर िी ओर जाने िी कदशा िा ज्ञान हो। गनीमत हॆ कि कहन्दी ऒर अन्य भारतीय भाषाओ ां िे बाल साकहत्यिारों में आज अनेि ऎसे भी हॆां जो ऊपर बतायी गयी लेखिीय कजम्मेदारी िी चनु ॊती िो भलीभा​ांकत कनभा रहे हॆ।ां ऒर उन्हीं िे लेखन से भारतीय बाल साकहत्य लेखन िी वॆकश्वि ऒर उत्िृ ष्ट छकव कनरांतर बन भी रही हॆ। िूसरा कथन बाल साकहत्यिार िे रूप में गुलजार िा हॆ कजसिे द्वारा लेखन िी एि अन्य चनु ॊती िी ओर इशारा किया गया हॆ। । उनिे अनसु ार,"बच्चों िी भाषा


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

सीखना एि चनु ौतीपर्ू ण िाम है। जैसे पीकढ़या​ां बदलती हैं, वैसे ही भाषा भी पररवकतणत होती हैं।’ इस िथन से सहमत होना ही पड़ेगा ऒर हमारे बहुत से लेखि इस चनु ॊती िो भी बखबू ी स्वीिार किए हुए कलख रहे हॆ।ां वस्ततु : आज एस.एम.एस , टेलीकवजन, नई टेक्नोलोजी, कफल्मों, इटां रनेट यि ु िम्​्यटू र आकद िी भाषा, ऒर अब तो समाचार पत्रों िी भाषा अपना एि अलग स्वरूप लेिर बालिों िी दकु नया में भी प्रवेश िरता चला गया हॆ। आज िे बाल साकहत्यिार िो इस ओर ध्यान देना पड़ता हॆ। कहन्दी िे स्वरूप में जहा​ां एि ओर महानगरीय भाषा-स्वरूप में अगां ेजी िा घोल कमलता हॆ वहा​ां लोि िी भाषाओ ां िा अच्छा सख ु द छोंि भी कमलता हॆ। स्पष्ट हॆ कि इस स्वरूप िो सहज रूप में अपनाना भी एि नई चनु ॊती हॆ।यहीं यह भी िहना चाहगां ा कि यह ठीि हॆ कि बाल साकहत्य म्रें ऎसी भाषा िा सहज उपयोग होना चाकहए जो आयु वगण िे अनसु ार बच्चे िी शब्द -सम्पदा िे अनि ु ू ल हो । लेकिन एि समथण रचनािार उसिी शब्द-सम्पदा में सहज ही वृकद्ध िरने िी चनु ॊती भी स्वीिार िरता हॆ। बाल-साकहत्य सृजन िी चनु ॊकतयों पर थोड़ा कवराम लगाते हुए पहले मॆां अपने मन िी एि ऒर दख ु द कचन्ता साझां ा िरना चाहगां ा जो भारतीय समाज में बालि िे महत्त्व िो लेिर हॆ। क्या हमारे समाज िे तमाम बालि उन न्यनू तम सकु वधाओ ां ऒर अकधिारों से भी सम्पन्न हॆां कजनिा हमें किताबी या भाषर्बाकजयों वाला ज्ञान अवकय हॆ? िहना चाहता हां कि बालि (नर-मादा, दोनों) हमारी सासां िी तरह हॆ। कजस तरह ऊपरी तॊर पर सा​ांस हम मनष्ु यों िी एि बहुत ही सहज ऒर सामान्य प्रकक्रया हॆ लेकिन हॆ वह अकनवायण। उसी तरह बालि भी भले ही ऊपरी तॊर पर सहज ऒर सामान्य उपलकब्ध हो लेकिन हॆ वह भॊ अकनवायण। ऒर जब मॆां बालि िी बात िर रहा हां तो मेरे ध्यान में शहरी, िस्बाई, ग्रामीर्, आकदवासी, गरीब, अमीर, लड़िी, लड़िा आकद सब बालि हॆ।ां न

सा​ांस िे कबना मनष्ु य िा जीकवत रहना सांभव हॆ ऒर न बालि िे कबना मनष्ु यता िा जीकवत रहना। यह कवडम्बना ही हॆ कि समाज में बालि िे अकधिारों िी बात ति िही जाती हॆ लेकिन वह अभी ति िागजी सच अकधि लगती हॆ, जमीनी सच िम। आज साकहत्य में दकलत, स्त्री ऒर आकदवासी कवमशण िी तरह ’बालि(कजसमें बाकलिा भी हॆ) कवमशण’ िी भी जरूरत हो चली हॆ। हमारा अकधिाश ां बाल लेखन महानगर/नगर िे कन्ित हॆ ऒर प्राय:वहीं िे बच्चे िो िे न्ि में रखिर अकधितर कचन्तन-मनन किया जाता हॆ तथा कनष्िषण कनिाले जाते हॆ।ां लेकिन मॆां जोर िेकर िहना चाहगां ा कि आज ज़रूरत बड़े-छोटे शहरो ऒर िस्बों िे साथ-साथ गावों ऒर जगलों मे रह रहे बच्चों ति भी पहुचां ने िी हॆ । ऒर उन ति िॆ से किस रूप में पहुचां ा जाए, यह भी िम बड़ी चनु ॊती नहीं हॆ। मेरी बाल रचनाओ ां में जो गा​ांव आ जाता हॆ उसिा एि सहज िारर् मेरा गा​ांव से होना ऒर अभी ति थोड़ाबहुत गा​ांव से जड़ु ा रहना हॆ। यह अलग बात हॆ कि वॆसी रचनाओ ां िे प्रकत मसलन नांदन में प्रिाकशत मेरी बाल िकवता ’चने िा साग’ आकद िे प्रकत खास ध्यान नहीं जा सिा हॆ। वस्ततु : आज हमारे बाल-लेखिों िी पहुचां ग्रामीर् ऒर आकदवासी बच्चों ति भी सहजसल ु भ होनी चाकहए । इसमें साकहत्य अिादमी, अन्य अिदकमयों ऒर नेशनल बि ु ट्रेस्ट आकद िी महत्त्वपर्ू ण भकू मिा हो सिती हॆ। कशकवर लगाए जा सिते हॆ,ां िायणशालाएां आयोकजत िी जा सिती हॆां ।भारतीय बच्चों िा पररवेश िे वल िम्​्यटू र, सड़िें , मॉल्ज, आधकु नि तिनीकि से सम्पन्न शहरी स्िूल, अतां राणष्ट्रीय पररवेश ही नहीं हॆ( वह तो आज िे साकहत्यिार िी कनगाह में होना ही चाकहए), गा​ांवदेहात ति फॆ ली पाठशालाएां भी हॆ, िच्चे-पक्िे मिान-झोंपकड़या​ां भी हॆ,ां उन िे माता-कपता भी हॆ,ां उनिी गाय-भॆसां -बिररया​ां भी हॆां ।प्रिृ कत िा ससां गण भी हॆ। वे भी आज िे ही बच्चे हॆां । उनिी भी उपेक्षा नहीं होनी चाकहए जो कि कदख रही हॆ। अि: बाल


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

साहित्यकारों को इस या उस एक िी कोठरी में रिकर निीं बहकक समग्र रूप में सोचना िोगा । और यि भी एक बड़ी चुनॉिी िै ऎसा सोचा भी जा रहा हॆ। गा​ांव देहात से जड़ु ने िी इच्छा रखने वाले एि शहरी बच्चे िी िल्पना िरते हुए मॆनां े िभीअपनी एि िकवता में कलखा था-"कचकड़या िभी पांख में भरिर /थोड़ी हवा गावां िी लाना/ पजां ों में अटिािर अपने/थोड़ी सी कमट्टी भी लाना .....पस्ु ति में ही कजसे पढ़ा हॆ/उसिी थोड़ी झलि कदखाना .....।" यहा​ां मझु े एि िकव अश्वघोष जी िी बाल िकवताओ ां िी याद हो आयी हॆ ।दृकष्ट सांपन्न िकव हॆां । उनिी िकवताएां कवशेष ध्यान चाहती हॆां । क्षमा चाहते हुए यह भी कलखना चाहता हां कि रूसी बाल िकवताओ ां में िुत्ताकबल्ली-उल्लू आकद िे प्रकत आधकु नि अथवा नई दृकष्ट सपां न्न रचनाएां पढ़त् े पढ़ते खदु मेरे ग्रामीर्​् मन ने िभी गधे पर एि िकवता कलखवा ली थी कजसमें गधा अपने प्रकत पारम्पररि व्यवहार िा प्रकतिार िरते हुए खदु िो ’वेटकलफ्टर’ िे रूप देखने िी समझ देता हॆ-"बहुत नाम हॆ मेरा जग में/इसीकलए सब कचढ़ते बच्चो/अच्छे भले’वेटकलफ्टर’ िो/जलिर िहते ’लद्द’ु ’ बच्चो" । मॆ समझाता हां इस प्रिार िी सम्यि समझ ऒर लेखन भी एि प्रिार से नई चनु ॊती िा कनवाणह ही िहा जाएगा। ऎसा नहीं हॆ कि बच्चे िो लेिर आज कचन्ता ऒर कचन्तन उपलब्ध न हो। बच्चे िे स्वतांत्र व्यकित्व, उसिे बहुमख ु ी कविास िो लेिर गहरा कवचार, कवशेष रूप से, कपछली सदी से होता आ रहा हॆ। जॆसे-जॆसे सकदयों से परतांत्र रह रहे देश आजाद होते गए ऒर नवजागरर् िे प्रिाश से जगमगाते गए वॆस-े वॆसे बच्चे िी ओर भी अपेकक्षत ध्यान देने िा माहॊल बनाए जाने िी िोकशशों िा जन्म हुआ। मनष्ु य ही नहीं बकल्ि राष्ट्र िे कनमाणर् िे कलए बच्चे िे चतकु दणि कविास िो आवकयि मानने िी समझ उपजी। इस समझ िो उपजाने में बाल साकहत्यिारों िी भांकू मिा भी अहां रही

हॆ ऒर इसिे कविास में भी बाल-साकहत्यिार परू ी तरह समकपणत नज़र आ रहे हॆ।ां लेकिन आज िा लेखि इस परम्परा िो तभी आगे ले जाने में सक्षम होगा जब वह कवकलयम फॉिनर द्वारा ऊपर बताए गए मोह से अपने िो बचाए रखेगा। वस्ततु :, सांक्षेप में िहना चाहगां ा कि बड़ों िे लेखन िी अपेक्षा बच्चों िे कलए कलखना अकधि प्रकतबद्धता, कजम्मेदारी, कनकछलता, मासकू मयत जॆसी खकु बयों िी मा​ांग िरता हॆ। इसे लेखि, प्रिाशि अथवा किसी सांस्था िो बाजारवाद िी तरह प्रथकमि रूप से मनु ाफे िा िाम समझ िर नहीं िरना चाकहए। बाल साकहत्यिार िे सामने बाजारवाद िे दबाव वाले आज िे कवपरीत माहॊल में न िे वल बच्चे िे बचपन िो बचाए रखने िी चनु ॊती हॆ बकल्ि अपने भीतर िे कशशु िो भी बचाए रखने िी बड़ी चनु ॊती हॆ। िोई भी अपने भीतर िे कशशु िो तभी बचा सिता हॆ जब वह कनरांतर बच्चों िे बीच रहिर नए से नए अनभु व िो खल ु े मन से आत्मसात िरे। लेकिन यह बच्चों िे बीच रहना ’बड़ा’ बनिर नहीं बकल्ि जॆसा िोररया िे बच्चों िे सबसे बड़े कहतॆषी, उनिे कपतामह माने जाने वाले सोपा बा​ांग जुांग ह्वान (1899-1931) ने बच्चे िे ितणव्यों िे साथ उसिे अकधिारों िी बात िरते हुए ’िन्फ्य़कू सयन’ सोच से प्रभाकवत अपने समाज में कनडरता िे साथ एि आन्दोलन -"बच्चों िा आदर िरो" शरु​ु िरते हुए िहा था, ’टोमग’ू या साथी बनिर। अपने िो अपने से छोटों पर लादने, बात-बात पर उपदेश झाड़ने, अपने िो श्रेष्ठ समझने ऒर मनवाने तथा अपने अहां िार िे आकद बड़ों िे कलए यह िाम इतना आसान नहीं होता। लेकिन जो आसान िर लेते हॆां वे इसिा आनन्द भी जानते हॆां ऒर उपयोकगता भी।यकद हम चाहते हॆां कि बाल-साकहत्य बेहतर बच्चा बनाने में मदद िरे ऒर साथ ही वह बच्चों िे द्वारा अपनाया भी जाए तो उसिे कलए हमें अथाणत बाल-साकहत्यिारों िो बालमन से भी पररकचत होना पड़ेगा। उनिे बीच रहना होगा। उनिी कहस्सेदारी िो मान देना होगा। अमेरीिी


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िकव ऒर बाल-साकहत्यिार चाल्सण कघग्न(Charles Ghigna, 1946) िे अनसु ार, "जब आप बच्चों िे कलए कलखो तो बच्चों िे कलए मत कलखो। अपने भीतर िे बच्चे िे द्वारा कलखो।" आज िे बालसाकहत्य लेखन िे सामने यह भी एि चनु ॊती हॆ।हमें, कहन्दी िे अत्यांत महत्त्वपर्ू ण बाल साकहत्यिार ऒर कचन्ति कनरांिार देव सेवि से शब्द लेिर िहां तो ’बच्चों िी कजज्ञासाओ,ां भावनाओ ां ऒर िल्पनाओ ां िो अपना बनािर उनिी दृकष्ट से ही दकु नया िो देखिर जो साकहत्य बच्चों िो भी सरल भाषा में कलखा जाए, वही बच्चों िा अपना साकहत्य होता हॆ।’ पर एि महत्त्वपर्ू ण प्रश्न यह भी हॆ कि क्या व्यापि सांदभण में बच्चे िो एि ऎसा पात्र मान कलया जाए कजसमें बड़ों िो अपनी समझ बस ठूांसनी होती हॆ। मॆां समझता हां कि आज जरूरत बच्चे िो ही कशकक्षत िरने िी नहीं हॆ, बड़ों िो भी कशकक्षत िरने िी हॆ। इसकलए बाल साकहत्यिार िे समक्ष यह भी एि बड़ी ऒर दोहरी चनु ॊती हॆ। वस्ततु : सजग लोगों िे सामने मल ू कचन्ता यह भी रही हॆ कि िॆ से सकदयों िी रूकढ़यों में जिड़े मा​ां-बाप ऒर बजु गु ों िी मानकसिता से आज िे बच्चे िो मि ु िरिे समयानि ु ू ल बनाया जाए। साथ ही यह भी कि आज िे बच्चे िी जो मानकसिता बन रही हॆ उसिे साथणि अश ां िो िॆ से प्रेररत किया जाए ऒर िॆ से दकियानसू ी सोच िे दमन से उसे बचाया जाए।गोिी ने अपने एि लेख ’ऑन थीसस’ (1933) में कलखा था कि हमारे देश में कशक्षा िा उद्देकय बच्चे िे मकस्तष्ि िो उसिे कपता ऒर बजु गु ों िी अतीत िी सोच से मि ु िराना हॆ। ध्यान रहे कि अतीत िी सोच से मि ु िराना ऒर अतीत िी जानिारी देना दो अलग-अलग बातें हॆ।ां आवकयितानसु ार, अपने इकतहास ऒर परांपरा िो बच्चे िी जानिारी में लाना जरूरी हॆ। आकस्ट्रया िी लकू सयाकबन्डर ने उकचत ही िहा हॆ कि िोई भी राष्ट्र मजबतू नहीं हो सिता, यकद उसिे बच्चे अपने देश िे

इकतहास ऒर ररवाजों िी जानिारी नहीं रखते। अपने अनभु वों िो नहीं कलख सिते ऒर कवज्ञान तथा गकर्त िे बकु नयादी कसद्धा​ांतों िी समझ नहीं रखते। अथाणत बच्चे में एि वॆज्ञाकनि दृकष्ट िो कविकसत िरते हुए अपने इकतहास, ररवाजों आकद िी आवकयि जानिारी देनी होती हॆ। आज बड़ों में ’कह्पोक्रेसी’ भी देखने िो कमलती हॆ।ऒर यकद उसिे प्रकत सजग नहीं किया जाए तो वह सहज ही बच्चों ति भी पहुचां ती हॆ। ऒर इस िाम िी चनु ॊती िा सामना बाल साकहत्यिार अपने लेखन में बखबू ी िर सिता हॆ। हमारे यहा​ां ऒर किसी भी समाज में िहने िो तो िहा जाता हॆ कि िाम िोई भी हो, अच्छा होता हॆ, महत्त्वपर्ू ण होता हॆ लेकिन इस सोच या मल्ू य िो िायाणकन्वत िरते समय अच्छे अच्छों िी नानी मर जाती हॆ। हर िोई अपने बच्चे िो िुछ खास िायों ऒर पदों पर देखना चाहता हॆ ऒर अपने बच्चे िो वॆसी ही सलाह भी देता हॆ, अन्य िामों िो जाने-अनजाने िमतर या महत्त्वहीन मान लेता हॆ। ऒर जब बच्चे िो बड़ा होिर किसी भी िारर् से तथािकथत िमतर या महत्त्वपर्ू ण िायण ही िरना पड़ जाता हॆ तो वह हीन भावना से ग्रकसत रहता हॆ। िांु कठत हो जाता हॆ। रूसी िकव मयािोवस्िी िी एि िकवता हॆ ’क्या बनां’ू । अपने समय में इस िकवता िे माध्यम से िकव ने हर िाम िी प्रकतष्ठा िो समानता िे आधार पर रेखा​ांकित िरते हुए बच्चों पर प्राय: लादे जाने वाले िुछ लक्ष्यों िी प्रवृकत्तपरि एि नई चनु ॊती िा बखबू ी सामना किया था। एि अश ां देकखए: बेशि अच्छा बनना डाक्टर, पर मजदरू ऒर भी बेहतर, श्रकमि खशु ी से मॆां बन जाऊां, सीख अगर यह धन्धा पाऊां। .............. िाम िारखाने िा अच्छा पर ट्राम तो उस से बेहतर, िाम अगर कसखला दे िोई बनांू खशु ी से मॆां िांडक्टर।


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िांडक्टर तो मॊज उड़ाएां ... कबना कटिट िे वे तो कदन भर जहा-ां तहा​ां पर आए,ां जाएां। ... िाम सभी अच्छे , वह चनु लो, जो हॆ तम्ु हें पसन्द। (अन०ु :डॉ. मदन लाल ’मध’ु ) ऎसी रचनाओ ां से कनश्चय ही बालिों िो जहा​ां राहत कमलती हॆ वहीं अकभभाविों िो एि नई लेकिन सहीसच्ची समझ भी। आजिल (हाला​ांकि थोड़े पहले से) बाल साकहत्य लेखन िे सदां भण में एि चचाण बराबर पढ़नेसनु ने में कमल जाती हॆ कजसे चाहें तो हम परम्परा बनाम आधकु निता िी बहस िह सिते हॆां कजसने एि ऒर तरह िी चनु ॊती िो जन्म कदया हॆ।। एि सोच िे अनसु ार राजा-रानी, पररया,ां राक्षस, चहू ,े कबल्ली, हाथी, शेर, ऒर यहा​ां तकि िी फूल-फल, पेड़-पॊधे आकद आज िे लेखन िे कलए सवणथा त्याज्य हॆां क्योंकि इनिी िल्पना बालि िे कलए कवष बन जाती हॆ। उन्हें अधां कवश्वासी ऒर दकियानसू ी बनाती हॆ। कवरोध पारांपररि, पॊराकर्ि थथा िाल्पकनि िथाओ ां िा भी हुआ। ऒर यह तब हुआ जब कि सामने प्रकसद्ध डेकनश लेखि हेंस कक्रकश्चयन एडां रसन िे ऎसा लेखन मॊजदू था कजसमें प्राचीन, पारांपररि लोि​िथाओ ां िो अपने समय िे समाज िी प्रासांकगिता दी गई थी जॆसा कि बड़ों िे साकहत्य में इकतहास या कमथ आधाररत िृ कतयों में कमलता हॆ। मॆां भी मानता हां कि राजा-रानी, पररयों भतू -प्रेतों िो लेिर कलखे जाने वाले ऎसे साकहत्य िो बाहर कनिाल फें िना चाकहए जो अधां कवश्वास, दकियानसू ी, िायरता, कनराशा आकद अवगर्ु ों िा जनि हो। यह सत्य हॆ ऒर इसे मॆां गलत भी नहीं मानता कि आज भारत में बच्चों िा एि सॊभाग्यशाली कहस्सा उस अथण में मासमू नहीं रहा हॆ

कजस अथण में उसे समझा जाता रहा हॆ। हालाकां ि यह िहना कि वह किसी भी अथण में मासमू नहीं रहा यह भी ज्यादती होगी। बेशि आज उसिे सामने ससां ार भर िी सचू नाओ ां िा अच्छा खासा भण्डार हॆ ऒर उसिा मानकसि कविास पहले िे बालि से िहीं ज्यादा हॆ। वह बड़ों िे बीच उन बातों ति में कहस्सा लेने िा अत्मकवश्वास रखता हॆ जो िभी प्रकतबकां धत मानी जाती रही हॆ।ां आज िा बच्चा प्रश्न भी िरता हॆ ऒर उसिा कवश्वसनीय समाधान भी चाहता हॆ। आज िे सजग बच्चे िी मानकसिता परु ानी मानकसिता नहीं हॆ जो प्रश्न िे उत्तर में ’डा​ांट’ या ’टाल मटोल’ स्वीिार िर ले। वह जानता हॆ कि बच्चा मा​ां िे पेट से आता हॆ कचकड़या िे घोंसले से नहीं। दसू रे, हमें बच्चे िो पलायनवादी नहीं बकल्ि कस्थकतयों से दो-दो हाथ िरने िी क्षमता से भरपरू होने िी समझ देनी होगी। अहि ां ारी उपदेश या अधां आज्ञापालन िा जमाना अब लद चि ु ा हॆ। बात िा ग्राह्य होना आवकयि हॆ। ऒर बात िो ग्राह्य बनाना यह साकहत्यिार िी तॆयारी ऒर क्षमता पर कनभणर िरता हॆ। तो भी कवज्ञान, नई टेक्नोलोजी, वॆकश्वि बोध ऒर आधकु निता आकद िे नाम पर शेष िा अधां ाधधांु , असांतकु लत ऒर नासमझ कवरोध भी िोई उकचत सोच नहीं हॆ।लदां न में जन्में लेखि जी.के . चेटरसन (G.K. Chesterton 1874-1936) ने जो िहा वह आज भी सोचने िो मजबरू िर सिता हॆ -"परी िथाएां (Fairy Tales) सच से ज्यादा होती हॆ:ां इसकलए नहीं कि वे बताती हॆां ड्रेगन होते हॆां बकल्ि इसकलए कि वे हमें बताती हॆां कि उन्हें हराया जा सिता हॆ।"ओकड़या भाषा िे सकु वख्यात साकहत्यिार मनोज दास िा मानना हॆ कि बाल ऒर बड़ों िा यथाथण एि नहीं होता।उनिे शब्दों में, "His realism is different rom the adult's. He does not look at the giant and the fairy from the angle of genetic possibility. They are a spontaneous exercise for his imaginativeness--a quality that alone can


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enable him to look at life as bigger and greater than what it is at the grass plane." डॉ. हररिृ ष्र् देवसरे िी एि पस्ु ति हॆ ’ऋकष-क्रोध िी िथाएां’ कजसमें सरु भी हॆ,ां असरु भी हॆां ऒर राजा भी हॆ ऒर परु ार् भी हॆ। ऎसे ही उन्हीं िी एि ऒर पस्ु ति हॆ-’इनिी दकु मनी क्यों" कजसमें िुत्ता भी हॆ, कबल्ली भी हॆ, चहू ा भी हॆ, सापां भी हॆ, हाथी भी हॆ ऒर चींटी भी हॆ। ऒर ये मनष्ु य िी भाषा भी बोलते हॆ।ां इसी प्रिार अत्यांत प्रकतकष्ठत बाल-साकहत्यिार ऒर कचन्ति जयप्रिाश भारती िी ये पकां िया​ां भी देकखए जो आज िे बच्चे िे कलए हॆ:ां एि था राजा, एि थी रानी दोनों िरते थे मनमानी राजा िा तो पेट बड़ा था रानी िा भी पेट घड़ा था। खबू वे खाते छि-छि-छि िर कफर सो जाते थि-थि-थि​िर। िाम यही था बि-बि, बि-बि नौिर से बस झि-झि, झि-झि तो क्या कबना यह सोचे कि राजा-रानी आकद िा किस रूप में इनिा अगमन हुआ हॆ, वह कितना सृजनात्मि हॆ, इनिा बकहष्िार िर कदया जाए क्योंकि इनमें न िोई वॆज्ञाकनि आकवष्िार हॆ ऒर न ही िोई आधकु नि बालि-बाकलिाएां या व्यकि। दसू री ओर देवसरे जी िी एि ऒर पस्ु ति हॆ ’दरू बीन’ जो दरू बीन िे जन्म िा इकतहास समने लाती हॆ ऒर वह भी िहानी िे कशल्प में। लेकिन मझु े इसे रचनात्मि बाल-साकहत्य िी श्रेर्ी में लेने में स्पष्ट सांिोच हॆ। वस्ततु : यह बालोपयोगी साकहत्य िी श्रेर्ी में आती हॆ कजसिे अतां गणत सचू नात्मि या जानािारीपर्ू ण कवषय आधाररत सामग्री होती हॆ भले ही कशल्प या रूप िकवता ,िहानी आकद िा ही क्यों न हो। िकवता िी शॆली में तो कवज्ञापन भी होते हॆां पर वे िकवता नहीं होते। यह पाठ्य पस्ु ति जरूर बन सिती हॆ। यह ’कलखी गई पस्ु ति हॆ जो कववरर्ॊां ऒर तथ्यों से लदी होने िे िारर् सृजनात्मि बाल साकहत्य जॆसी रोचिता, मजेदारी

ऒर पठनीयता से वकां चत हॆ। गनीमत हॆ कि अतां में स्वयां लेखि ने पात्रों िे माध्यम से स्वीिार किया हॆ"बबलू ऒर कक्षप्रा, दरू बीन िे बारे में इतनी मज़ेदार ऒर कवस्तृत जानिारी प्राप्त िर बहुत प्रसन्न थे।" लेकिन ऎसे साकहत्य िे कलखे जाने िी भी अपनी बड़ी आवकयिता हॆ।बालि िो ज्ञानवधणि पस्ु तिें भी चाकहए। मेरा मानना हॆ कि बड़ों िे रचनात्मि लेखन िी रचना-प्रकक्रया ऒर बच्चों िे रचनात्मि लेखन िी प्रकक्रया समान होती हॆ। रचनािार किसी भी कवषय िो ट्रीटमेंट िे स्तर पर मॊकलिता ऒर नई मानकसिता प्रदान किया िरता हॆ। महाभारत िे वाचन ऒर उसिी िथाओ ां पर आधाररत बाद िे साकहत्य में मॊकलि अतां र होता हॆ। राजा-रानी, हाथी, कचकड़या, चादां , तारे आकद पर नई दृकष्ट से कलखा जा सिता हॆ ऒर कलखा जा भी चि ु ा हॆ। मागां यह होनी चाकहए कि राजा-रानी िी व्यवस्था िी पोषि अथवा पररयों िी ढ़रेदार िल्पना िो िायम रखने वाली प्रवृकत्त िा बालसाकहत्य से त्याग किया जाए। आज िे बाल साकहत्य में तथािकथत रांग-रांगीली पररयों िे स्थान पर ज्ञान ऒर सगां ीत परी जॆसी पररयों िी भी िल्पना कमलती है जो बच्चॊां िो एि नयी सोच प्रदान िरती हॆ।ां हाल ही में एि समाचार प्रिाकशत हुआ था कि हेरी पोटर िी एि कवकचत्र िल्पना िो वॆज्ञाकनिों ने यथाथण िर कदखाया। यह िम आश्चयण िी बात नहीं है कि हेरी पोटर ने कबक्री िे कितने ही ररिाडण तोड़े हैं बावजदू तमाम आधकु नताओ ां िे । सच तो यह भी है कि आज पररयों, राजा रानी आकद िो लेिर और कवशेष रूप से उनिे पारांपररि रूप िो लेिर कलखना बहुत िम हो गया है और जो है उसे मान्यता भी नहीं कमलती। आज तो नई ललि िे साथ वस्तु ऒर अकभव्यकि िी दृकष्ट से बाल साकहत्य में नए-नए प्रयोग हो रहे हॆ।ां वस्ततु : समस्या उन लोगों िी सोच िी हॆ जो जाने-अनजाने बाल साकहत्य िो ’कवषयवादी’ कवषय िें कित मानते हॆ।ां अथाणत कजनिा मानना हॆ कि बाल-साकहत्य में रचनािार कवषयों पर कलखते हॆ-ां मसलन पेड़ पर,


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

कचकड़या पर, राजा-रानी पर, दरू बीन,टी.वी पर, इत्याकद। यकद रचना कवषय कनधाणररत िरिे कलखी जाती हॆ तब तो उनिे मत से सहमत हुआ जा सिता हॆ। लेकिन सृजनात्मि साकहत्य, चाहे वह बड़ों िे कलए हो या बालिों िे कलए, कवषय पर नहीं कलखा जाता। वस्ततु : वह कवषय िे अनभु व पर कलखा जाता हॆ । अथाणत रचना रचनािार िा िलात्मि अनभु व होती हॆ। बात िो ऒर स्पष्ट िरने िे कलए िहां कि पेड़ या साइकिल िो कवषय मानिर कनबन्ध, लेख आकद कलखा जा सिता हॆ, िकवता, िहानी आकद रचनात्मि साकहत्य नहीं। पेड़ पर कलखी िकवता पेड़ पर कवषयगत जानिारी से एिदम अलग हो सिती हॆ, बकल्ि होती हॆ। वह पेड़ िा िलात्मि अनभु व होता हॆ।आज बालसाकहत्य सृजन में वॆज्ञाकनि दृकष्ट िी आवकयिता हॆ ऒर यह लेखि िे कलए एि चनु ॊती भी हॆ। वॆज्ञाकनि दृकष्ट िा अथण यह नहीं हॆ कि बच्चे िो िल्पना िी दकु नया से एिदम िाट कदया जाए। िल्पना िा अभाव बच्चे िो भकवष्य िे बारे में सोचने िी शकि से रकहत िर सिता हॆ। वॆज्ञाकनि दृकष्ट ’िाल्पकनि’ िो भी कवश्वसनीयता िा आधार प्रदान िरने िा गरु कसखाती हॆ जो आज िे बच्चे िी मानकसिता िे अनि ू ू ल होने या उसिी तिण -सांतकु ष्ट िी पहली शतण हॆ। कवज्ञान ऒर वॆज्ञाकनि दृकष्ट में अतां र होता हॆ। कवज्ञान मनष्ु य िे मल ू भावों, सांवदे नाओ ां आकद िा कविल्प नहीं हॆ जो बालि ऒर मनष्ु यता िे कविास िे कलए जरूरी हॆ।ां ।ओकड़या िे प्रकसद्ध लेखि मनोज दास ने अपने एि लेख 'Talking to Children: The Home And The World' में कलखा हॆ-’no scientific or technological discovery can alter the basic human emotions, sensations and feelings. Social, economic and policial values amy change, but the evolutionary values ingrained in the consciousness cannot change--values that account for our growth." आज वॆज्ञाकनि दृकष्ट िो सजग रह िर

अपनाने िी चनु ॊती अवकय हॆ। मझु े तो यगु ोस्लाव िथािार, उपन्यासिार श्रीमती ग्रोजदाना ओलकू वच िी अपने साक्षात्िार में िही यह बात भी कवचारर्ीय लगती हॆ-"मेरा ख्याल हॆ कि लोगों िो सपनों ऒर फन्ताकसयों िी उतनी ही जरूरत हॆ, कजतनी कि दालरोटी िी, यही वजह हॆ कि लोग आज भी परीिथाएां पढ़ते हॆ।ां "(सान्ध्य टाइम्स, नयी कदल्ली, 16 फरवरी, 1982)| अब मॆां अपने सांदभण में एि कनजी चनु ॊती िो जरूर सा​ांझा िरना चाहता ह।ां हम देख रहे हॆां कि इधर यॊन शोषर् िे कहसां ा िे स्तर ति पर होने वाली घटनाओ ां िी भरमार हमें कितना कवचकलत िर रही हॆ ऒर इसमें हमारे बालि भी सकम्मकलत हॆ-ां कशिार िे रूप में भी ऒर िभी-िभी कशिारी िे रूप में भी। मॆां लाख िोकशश िरिे भी इस कदशा में अब ति बालसाकहत्य सृजन नहीं िर पाया ह,ां बावजदू आकमर खान िे टी.वी. पर आए िायणक्रम िे । लेकिन इस नई चनु ॊती से जझू जरूर रहा ह।ां थोड़ी बात इलॆक्ट्रोकनि माध्यम ऒर टेक्नोलोजी िे हॊवे िी भी िर ली जाए कजन्होंने कवश्व िे एि गा​ांव बना कदया हॆ। यह बात अलग हॆ कि भारत में आज भी अनेि बच्चे इनसे वांकचत हॆ।ां इनसे क्या वे तो प्राथकमि कशक्षा ति से वकां चत हॆ।ां कितने ही तो अपने बचपन िी िीमत पर श्रकमि ति हॆ।ां अपने पररवेश ऒर पररकस्थकतयों िे िारर् अनेि बरु ी आदतों से ग्रकसत हॆ।ां वे भी आज िे बाल साकहत्यिार िे कलए चनु ॊती होने चाकहए ? खॆर कजन बच्चों िी दकु नया में नई टेक्नोलोजी िी पहुचां हॆ उनिी सोच अवकय बदली हॆ। अच्छे रूप में भी ऒर गलत रूप में भी। कवषया​ांतर िर िहना चाहां कि मॆां टेक्नोलोजी या किसी भी माध्यम िा कवरोधी नहीं ह,ां बकल्ि वे मानव िे कलए जरूरी हॆ।ां उनिा कजतना भी गलत प्रभाव हॆ उसिे कलए वे दोषी नहीं हॆां बकल्ि अन्तत: मनष्ु य ही हॆ जो अपनी बाजारवादी मानकसिता िी तकु ष्ट िे कलए उन्हें गलत िे परोसने िी भी वस्तु बनाता हॆ।कफर चाहे


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

वह यहा​ां िा हो, पकश्चम िा हो या कफर िहीं िा भी हो। होने िो तो पस्ु ति िे माध्यम से भी बहुत िुछ गलत परोसा जा सिता हॆ। तो क्या माध्यम िे रूप में पस्ु ति िो गाली दी जाए। एि जमाने में कचत्रिथाओ ां िी कववादास्पद दकु नया में अमर कचत्रिथा ने सख ु द हस्तक्षेप किया था। िहना यह भी चाहगां ा कि पस्ु ति ऒर इलॆक्ट्रोकनि माध्यमों में बकु नयादी तॊर पर िोई बॆर िा ररकता नहीं हॆ। न ही वे एि दसू रे िे कविल्प बन सिते हॆ।ां दोनों िा अकस्तत्व एि दसू रे िे िारर् खतरे में भी नहीं हॆ। आज बहुत सा बाल साकहत्य इन्टेरनेट िे माधय्म से भी उपलब्ध हॆ।अत: जरूरत इस बात कि हॆ कि दोनों िे बीच बहुत ही साथणि ररकता बनाया जाए।किताबों िी किताबें भी िम्​्यटू र पर पढ़ी जा सिती हॆ।ां इसिे कलए कितने ही वेबसाइट हॆ।ां हा​ां बाल साकहत्य सृजन िे क्षेत्र में बगां ाली लेखि ऒर कचन्ति शेखर बसु िी इस बात से मॆां भी सहमत हां कि आज िा बालि बदलते हुए ससां ार िी चीज़ों में रुकच लेता हॆ लेकिन इसिा अथण यह नहीं हॆ वह अपनी िल्पना िी सन्ु दर दकु नया िो छोड़ना चाहता हॆ। लेखि िे शब्दों में," Children today take active intrest in things of the changed world, but this does not mean leaving their own world of fantasy....They love to read new stories where technology plays a big part. But that is just a fleeting (क्षकर्ि) phase. They feel comfortable in their eternal all-found land." . मॆां िहना चाहगां ा कि चनु ॊती यह हॆ कि बाल साकहत्यिार उसे मजा देने वाले िाल्पकनि लोि िो िॆ से कपरोए कि वह बे कसर-पॆर िा न लगते हुए कवश्वसनीय लगे। सजग बच्चे िो मख ू ण तो नहीं बनाया जा सिता। ऒर अपनी अज्ञानता से उसे लादना भी नहीं चाकहए। सझू -बझू ऒर िल्पना िो साथणि बनाने िी योग्यता आज िे बाल साकहत्यिार िे कलए अकनवायण हॆ। कनकश्चत रूप से यह कवज्ञान िा यगु हॆ। लेकिन बच्चे िी मानकसिता िो समझते हुए उसे

समाज ऒर कवज्ञान से रचना िे धरातल पर जोड़ने िे कलए िल्पना िी दकु नया िो नहीं छोड़ा जा सिता। बालि िो एि सांवदे नशील नागररि बनाना हॆ तो उस राह िो खोजना होगा जो उसिे कलए मज़ेदार ऒर ग्राह्य हो, उबाऊ नहीं।कजसे कवज्ञान बाल साकहत्य िहते हॆां उसे भी बालि तभी स्वीिार िरेगा जब उसिे पढ़ने में उसे आनन्द आएगा। मॆां उन िुछ चनु ॊकतयों िी ओर भी, बहुत ही सांक्षेप ऒर सांिेत में ध्यान कदलाना चाहगां ा जो आज िे कितने ही बाल साकहत्यिार िे कलए सृजनरत रहने में बाधा पहुचा सिती हॆ।ां मॆनां े प्रारम्भ में बालि िे प्रकत समाज िी उपेक्षा िे प्रकत ध्यान कदलाया था। सच तो यह हॆ कि अभी बालि से जड़ु ी अनेि बातों ऒर चीज़ों कजनमें इसिा साकहत्य भी मॊजदू हॆ िे प्रकत समकु चत ध्यान ऒर महत्त्व देने िी आवकयिता बनी हुई हॆ। न बाल साकहत्यिार िो ऒर न ही उसिे साकहत्य िो वह महत्त्व कमल पा रहा हॆ कजसिा वह अकधिारी हॆ। उसिो कमलने वाले परु स्िारों िी धनराकश ति में भेदभाव किया जाता हॆ। उसिे साकहत्य िे सही मल्ू याि ां न िे कलए न पयाणप्त पकत्रिाएां हॆां ऒर न ही समाचार-पत्र आकद। साकहत्य िे इकतहास में उसिे उल्लेख िे कलए पयाणप्त जगह नहीं हॆ।बाल साकहत्यिार िो जो परु स्िार-सम्मान कदए जाते हॆां वे उसे प्रोत्साकहत िरने िी मिु ा में कदए जाते हॆ।ां साकहत्य अिादमी ने बाल साकहत्य ऒर बाल साकहत्यिारों िो सम्माकनत िरने िी कदशा में बहुत ही साथणि िदम बड़ाएां हॆां लेकिन मेरी समझ िे बाहर हॆ कि क्यों नहीं ज्ञानपीठ ऒर नोबल परु स्िार देने वाली सस्ां थाएां ’बाल साकहत्य’ िो परु स्िृ त िरने से गरु ेज किए हुए हॆ।इसी प्रिार बाल साकहत्य िी अकधिाकधि पहुचां उसिे वास्तकवि पाठि ति सांभव िरने िे कलए बहुत िुछ िरना बािी हॆ। कहन्दी िे सदां भण में बाल साकहत िे अतां गणत िकवता ऒर िहानी िे अकतररि अन्य कवधाओ ां में भी सृजन िी बहुत सभां ावनाएां बनी हुई हॆ। भारत िे सांदभण में आज बहुत जरूरी हॆ कि तमाम


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भारतीय भाषाओ ां में उपलब्ध बाल साकहत्य अनवु ाद िे माध्यम से एि-दसू रे िो उपलब्ध हो। उत्िृ ष्ट बाल साकहत्य िे चयन प्रिाकशत होते रहने चाकहए। भारतीय बाल साकहत्यिारों िो समय-समय पर एि मचां पर लाने िी आवकयिता हॆ ताकि बाल-साकहत्य सृजन िो सही कदशा कमल सिे । इस कदशा में साकहत्य अिादमी िा यह िदम कजसिे िारर् हम यहा​ां एिकत्रत हॆां अत्यांत स्वागत िे योग्य हॆ। जोर िेकर किना चािांगा कि आज साकहत्य में बालि(कजसमें बाकलिा भी सकम्मकलत हॆ) कवमशण िी बहुत जरूरत हॆ। आज कहन्दी में उत्िृ ष्ट बाल साकहत्य उपलब्ध हॆ, कवशेषिर िकवता। लेकिन अभी बहुत िुछ ऎसा छूटा हॆ कजसिी ओर िाफी ध्यान जाना चाकहए। उकचत मात्रा में किशोरों िे कलए बालसाकहत्य सृजन िी आवकयिता बनी हुई हॆ। तमाम तरह िे अनभु वों िो बा​ांटते हुए हमें अपने बच्चों िो ऎसे अनभु वों से भी सा​ांझा िरना होगा, अकधि से अकधि, जो मनष्ु य िो बा​ांटने वाली तमाम ताितों ऒर हालातों िे कवरुद्ध उनिी सवां ेदना िो जागृत िरे। उसिे बड़े होने ति इतां जार न िरें। मॆां तो िहता हां कि सच्चा स्त्री कवमशण भी बालि िी दकु नया से ही शरु​ु किया जाना चाकहए। भारत िे बड़े भाग में आज भी लड़िे -लड़िी िा दख ु दायी ऒर अनकु चत भेद किया जाता हॆ। मसलन लड़िी िो बचपन से ही इस योग्य नहीं समझा जाता कि वह लड़िे िी रक्षा िर सिती हॆ। एि िकवता हॆ, ’जब बा​ांधांगू ा उनिो राखी’ कजसमें लड़िे िी ओर से बाराबरी िी बात उभर िर आती हॆ: मा​ां मझु िो अच्छा लगता जब मझु े बा​ांधती दीदी राखी तमु िहती जो रक्षा िरता उसे बा​ांधते हॆां सब राखी।

तो मा​ां दीदी भी तो मेरी हर दम देखो रक्षा िरती जहा​ां मॆां चाहां हाथ पिड़ िर वहीं मझु े ले जाया िरती। मॆां भी मा​ां दीदी िो अब तो बाधां गांू ा ्यारी सी राखी कितना ्यार िरेगी दीदी जब बा​ांधांगू ा उनिो राखी! कितने ही घरों में चल्ू हा-चॊिा जॆसे घरेलू िाम लड़िी िे ही कजम्मे डाल कदए जाते हॆ।ां लेकिन शायद होना िुछ ऎसा नहीं चाकहए क्या जॆसा इस िकवता ’मॆां पढ़ता दीदी भी पढ़ती’ में हॆ। एि अश ां इस प्रिार हॆ: िभी िभी मन में आता हॆ क्या मॆां सीख नहीं सिता हां साग बनाना, रोटी पोना? मॆां पढ़ता दीदी भी पढ़ती क्यों मा​ां चाहती दीदी ही पर िाम िरे बस घर िे सारे? सबिुछ कलखते हुए बाल साकहत्यिारों िी ऎसी रचनाएां देने िी भी कजम्मेदारी हॆ कजनिे द्वारा सपां न्न बच्चों िी कनगाह उन बच्चों िी ओर भी जाए जो वांकचत हॆ,ां परू ी सांवेदना िे साथ। िकवता ’यह बच्चा’ िा अश ां पकढ़ए: िॊन हॆ पापा यह बच्चा जो थाली िी झठू न हॆ खाता । िॊन हॆ पापा यह बच्चा जो िूड़े में िुछ ढूांढा िरता । पापा ज़रा बताना मझु िो क्या यह स्िूल ् नहीं हॆ जाता । थोड़ा ज़रा डा​ांटना इसिो नहीं न िुछ भी यह पढ़ पाता ।


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

अतां में, सांक्षेप में िहना चाहगां ा कि बड़ों िे लेखन िी अपेक्षा बच्चों िे कलए कलखना अकधि प्रकतबद्धता, कजम्मेदारी, कनकछलता, मासकू मयत जॆसी खकु बयों िी मा​ांग िरता हॆ। इसे लेखि, प्रिाशि अथवा किसी सांस्था िो बाजारवाद िी तरह प्राथकमि रूप से मनु ाफे िा िाम समझ िर नहीं िरना चाकहए। बाल साकहत्यिार िे सामने बाजारवाद िे दबाव वाले आज िे कवपरीत माहॊल में न िे वल बच्चे िे बचपन िो बचाए रखने िी चनु ॊती हॆ बकल्ि अपने भीतर िे कशशु िो भी बचाए रखने िी बड़ी चनु ॊती हॆ। िोई भी अपने भीतर िे कशशु िो तभी बचा सिता हॆ जब वह कनरांतर बच्चों िे बीच रहिर नए से नए अनभु व िो खल ु े मन से आत्मसात िरे। अिे ले होते बच्चे िो उसिे अिे लेपन से बचाना होगा। लेकिन यह बच्चों िे बीच रहना ’बड़ा’ बनिर नहीं, बकल्ि जॆसा िोररया िे बच्चों िे सबसे बड़े कहतॆषी, उनिे कपतामह माने जाने वाले सोपा बा​ांग जांगु ह्वान (1899-1931) ने बच्चे िे ितणव्यों िे साथ उसिे अकधिारों िी बात िरते हुए ’िन्फ्य़कू सयन’ सोच से प्रभाकवत अपने समाज में कनडरता िे साथ एि आन्दोलन -"बच्चों िा आदर िरो" शरु​ु िरते हुए िहा था, ’टोमग’ू या साथी बनिर। अपने िो अपने से छोटों पर लादने, बात-बात पर उपदेश झाड़ने, अपने िो श्रेष्ठ समझने ऒर मनवाने तथा अपने अहां िार िे आकद बड़ों िे कलए यह िाम इतना आसान नहीं होता। लेकिन जो आसान िर लेते हॆां वे इसिा आनन्द भी जानते हॆां ऒर उपयोकगता भी।यकद हम चाहते हॆां कि बाल-साकहत्य बेहतर बच्चा बनाने में मदद िरे ऒर साथ ही वह बच्चों िे द्वारा अपनाया भी जाए तो उसिे कलए हमें अथाणत बालसाकहत्यिारों िो बाल-मन से भी पररकचत होना पड़ेगा। उनिे बीच रहना होगा। उनिी कहस्सेदारी िो मान देना होगा। अमेरीिी िकव ऒर बाल-साकहत्यिार चाल्सण कघग्न(Charles Ghigna, 1946) िे अनसु ार, "जब आप बच्चों िे कलए कलखो तो बच्चों िे कलए मत कलखो। अपने भीतर िे बच्चे िे द्वारा कलखो।"

आज िे बाल-साकहत्य लेखन िे सामने यह भी एि चनु ॊती हॆ।हमें, कहन्दी िे अत्यतां महत्त्वपर्ू ण बाल साकहत्यिार ऒर कचन्ति कनरांिार देव सेवि से शब्द लेिर िहां तो ’बच्चों िी कजज्ञासाओ,ां भावनाओ ां ऒर िल्पनाओ ां िो अपना बनािर उनिी दृकष्ट से ही दकु नया िो देखिर जो साकहत्य बच्चों िो भी सरल भाषा में कलखा जाए, वही बच्चों िा अपना साकहत्य होता हॆ।’ यहा​ां मझु े महािकव कजब्रान िी िुछ िकवता पांकिया​ां याद हो आयी हॆां कजनसे मॆां इस प्रपत्र िा अतां िरना चाहगां ा। पकां िया​ां हॆ:ां तम्ु हारे बच्चे तम्ु हारे नहीं हें। कजन्दगी जीने िे वे प्रयास हें। तमु िे वल कनकमत्त मात्र हो, वे तम्ु हारे पास हॆ,ां कफर भी-वे तम्ु हारे नहीं हें। उन्हें अपना कवचार मत दो, उन्हें प्रेम चाकहए। दीकजए उन्हें घर उनिे शरीर िे कलए लेकिन, उनिी आत्मा मि ु रहने दीकजए। तम्ु हारे स्व्न में भी नहीं, तमु पहुचां भी नहीं पाओगे-ऎसे िल से उन्हें अपने घर बनने दीकजए बच्चे बकनए उनिे बीच, लेकिन अपने समान उन्हें बनाइए मत।


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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बाल विमर्श

egt ,d nks dgkuh o dfork i<+dj viuh jk; cuk ysrs gSaA njvly vHkh dfork]dgkuh vkfn dh fdrkcksa dh lekykspuk gksuk ckdh gSA fofHkUu izdk”kdksa ds lwph i=ksa ls xqtjus ds ckn tks gkFk yxrk gS og csgn fujk”kktud gh dgk tk,xkA fgUnh ds izdk”kd ftl rjg dh cky fdrkcsa Nkirs gSa muesa T;knkrj cky dgkfu;ka] cky xhr gksrh gSaA nwljs Lrj dh os fdrkcsa feysaxh tks flQZ ulhgrsa nsrh feysaxhA tSls cPps dSls lh[krs gSa] cky eu ds xhr] cky ukVd] eancq)h cPps vkfnA bu fdrkcksa dh fo’k;h le> vkSj QSyko ij utj Mkysa rks ;s fdrkcsa cM+ksa dg utj ls cPpksa dh nqfu;k dks ns[kus dh dok;nsa T;knk yxsaxhA cPpksa ds fy, mi;kxh fdrkcsa dh la[;k csgn de gSaA tks cktkj esa miyC?k gSa os vaxszth dh fdrkcsa gSa ;k fQj cky xhr gSaA D;k cky lkfgR; flQZ cky xhr] cky dgkfu;ka Hkj gh gSaA bl ij foe”kZ djus dh vko”;drk gSA cPps dSls lh[krs gSa] Hkk’kk f”k{k.k ds rkSj rjhds D;k gksa] dgkuh dSls dgh tk,] d{kk esa Hkk’kk vkSj cksyh] cPpksa dh dgkfu;ka dSlh gksa vkfn ,sls fo’k; gSa ftu ij ys[k] fdrkcsa fy[kh tkuh pkfg,A ;fn 2014 esa izdkf”kr dqN fdrkcksa ij utj Mkysa rks fofHkUu izdk”kdksa dh lwph esa cky lkfgR; vkSj f”k{kk dh fdrkcsa 50 ls T;knk ugha gSaA ogha vU; dfork] dgkuh dh fdrkcsa gtkj dh la[;k vklkuh ls ikj dj tk,axhA Hkk’kk vkSj f”k{kk ls lacaf/kr ^lekt] cPps&cfPp;ka vkSj f”k{kk*] ^lokyksa dh f”k{kk* ohjsanz jkor dh fy[kh bu nks fdrkcksa ls xqtjuk xf.kr f”k{k.k] d{kk voyksdu] Hkk’kk dh cqfu;knh “kSf{kd le> dh foLrkj ls foe”kZ djrh pyrh gSA ogha dbZ izklafxd nLrkostksa dh jks”kuh esa ;g fdrkc


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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Jankriti (International e magazine), vol-2, April-2015

रंग विमर्श

“I am a big man: My dreams are bigger than me”. The Theatre of Ratan Thiyam , Chorus Repertory Theatre and Actor’s Training

Essay written by: Dr. Satyabrata Rout

Ratan Thiyam is a man of multi-dimensional personality. At

one

hand

accomplished

he

is

writer,

an poet,

dancer, and painter and on other he keeps a strong political viewpoint and frequently raised his voice for human rights, against war and sufferings. He has developed a passion to serve people and work for society through theatre during his

NSD

days

in

early

seventies. He knew the dreams could only be realised through a proper

organization

with

a

group of performers who could understand his ideology and execute them with faith and belief. In the quest of apprehending his vision, he returned back to his hometown at Imphal, Manipur after graduating from NSD, New Delhi in 1975. He knew it well that achieving the goal by doing regional theatre is not an easy job; it needs a life’s struggle. North-Eastern part of India remains backward for many reasons. The major population of the frontier belongs to tribal communities, leaving no space for progressive thoughts. Moreover there was always turmoil of political fights. But

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somehow the valley of Manipur is different from other hilly regions. It has a strong ritualistic vaishnav tradition that forms its base. During the Gaudiya Vaishnava movements in 18th century initiated by Sri chaitanya Dev of Navadwip, the Vaishnava culture was flourished into a highly devotional ritualistic tradition and formulated the socio-cultural behaviour of Manipuri people. The vaishnav tradition gave rise to many ritualistic activities, which reflects in art and culture of the Manipuri society. Shringarika- Bhkti (devotion through love), being the major component of all the cultures of Manipur is expressed through various performance traditions. These performance traditions are directly related to temple culture and Radha-Krishna cult. Pung Cholom and Sankirtan, Rasa-lila, Laiharaoba, Thang-Ta, Sumanga lila, etc. are some of the traditional performing art forms, grew in the soil as a cross breed of bhakti and tribal culture. But with all the strong heritage of culture, rituals and other homogenous activities, Manipur has politically suffered every time. Unrest and communal rites break frequently in the land and people suffer attacks from Border countries. In the midst of these socio-political conditions, Thiyam started struggling for a progressive art movement in the mid seventies. To start a career in theatre in a place where there is no scope for further development, Thiyam dreamt of connecting this isolated North-East valley with the mainstream theatre in global perspective. He began motivating youths from various tribes to theatre. The drama school training helped him to inspire few like-minded people; Bhogen, Ibomcha, Ibachoba and Ravindra, etc. who came forward initially to work in his mission. In the beginningThiyam with the help of these local youths conducted few workshops by adopting realistic method of acting training for his plays as learnt from the drama school. But soon he understood the limitation of urban training method in the soil of Manipur. A Manipuri youth is more exposed to vibrant ritualistic and tribal cultures as a part of cultural and social heritage. Moreover the urban theatre training could not be easily adopted by the physical and psychological structures of the native youths; they have different ecological, geographical and social conditions, who can be more expressive through the native cultures than an urban training system developed in West. Immediately Thiyam shifted his perception towards the local indigenous culture and gradually developed a new theatre training system during the course of time. Being a student of the legendary director, E. Alkazi, Ratan Thiyam was well exposed to Western, Greek and Oriental theatre that guided

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him in developing a global understanding. He developed a method with the amalgamation of the rooted tradition of Manipur and contemporary global theatre. While looking Thiyam in the perspective of another noted director of Manipur, H. Kanhailal, we found that, both had struggled vividly to achieve regional identity in their theatre practices. Kanhailal rejected urban training system and developed a discipline, borrowing elements from the local day-to-day activities, since he found them more comfortable for his rural actors1. Ratan Thiyam involved gurus and experts from various cultural milieus to impart physical and vocal training to his actors in order to bring discipline and order in the physical and vocal system of the actors. He knew that, to express in his kind of theatre, the actors should develop a discipline of voice and body.

Ratan Thiyam explains: “In general the infrastructure of my productions is based on actor’s physical appearances. The body language is the main tool to carry the expression. For that my actors work on their body structure, focusing on spine and knee joints. When the spine and knees of the body system are in a bend position, it influences the voice significantly. To bring right emotion through voice in different situations, the actor has to work on his standing and sitting gestures. It also works in reverse way. Physical gestures and voice culture work reciprocally in my productions2”. 1 2

Elaborate discussion on Kanhailal’s training system is in a different chapter. Interview of Ratan Thiyam, Nov--‐2013, Imphal.

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To execute this idea of shaping the physical structure of the actors, he introduced Laihui, Lai-haraoba, Pena, Cholom, Pung, Thanh-Ta, Rasa-lila and many tribal and folk dance forms into his training. The movement and rhythm of these forms were learnt rigorously from the gurus, without which his actors cannot express. Since Thiyam believes on the holistic approach of theatre, where each actor has to express through dance, movement, improvisation, music, chanting, singing, speech delivery, narrative style, mime, and at the same time interact with space and visuals, it became essential to go through a painstaking process. Thiyam used to tell his actors; “These forms are like weapons for a warrior, which can be applied at the time of need3.” Out of this concept of new genre theatre and innovative training system, the famous Chorus Repertory Theatre was born on the 1st April, 1976 at Imphal. A Manipuri play that instigated Thiyam’s methodology was “Sanarembi Chaisra”, presented by the repertory in 1977. This is considered as the first play of the repertory and was travelled outside of Manipur to be performed in Delhi at Sriram Centre. Slowly but steadily, Chorus Repertory Theatre gained popularity out side the state and was invited in many theatre festivals. It acquired a small piece of land at the outskirt of Imphal city and with the help of few actors; Thiyam was engaged in fulfilling his dream.

Though the existing campus of the repertory was developed gradually by

acquiring the land bit by bit in the course of time, to start with, he constructed few huts and a workspace for his theatre and training purpose where the actors started dwelling; it became a residential repertory. During this time, in the early 80’s, Thiyam directed three plays, Urubhangam, Imphal Imphal and Karnabharam, in which he experimented with the Manipuri martial art Thang-ta along with the other traditional dance forms; Pung cholom, Rasa lila, etc. By that time Chorus had developed into an institution having a small but exotic campus. Ratan Thiyam received worldwide recognition as a genius of theatre and Chorus entered in to the international arena with the production of Chakravyuha in 1984. Making of Chakravyuha was the turning point of Thiyam’s career. It was prepared under the Sangeet Natak Akademi’s young directors’ scheme to promote young theatre practitioners of the country as a part of Theatre of Roots movement, initiated by Dr. Suresh Awasthi, the founder chairman of Sangeet Natak Akademi, New Delhi. Chakravyuha, not only brought name and fame to Thiyam and his Chorus Repertory in the country, it bagged the most prestigious 3

Interview of Bhogen Singh in Nov. 2013 at Chorus Repertory Theatre, Imphal.

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award “The Grand Fringe Award” at the Edinburg Theatre Festival in 1987. The play succeeded in setting a trend of twentieth century Indian theatre in global arena. Michael Coveney, the renowned UK based theatre critic and author writes in Financial Times, London about Chakravyuha’s histrionic presentation at Fringe Festival. “I have not yet seen Peter Brook’s acclaimed epic staging of the Mahabharata, which begins its farewell world tour in Zurich this Saturday, but this remarkable Indian company from the Manipur valley in the North East of the continent has all the excitement, vigour and narrative simplicity of a Bruce Lee film or the more recent Golden Child... ...There are battles, processions, and banner waving soldiers, undulating military choreography, thrilling exhibition of martial arts. The music is exquisite, played from the wings on cymbals, drums, gongs, and a celeste. Now this really some thing worthy of a great international festival...4”

After the grand success of the play at Edinburg Theatre festival, invitations flung in to present the play at numerous theatre festivals over the world. The repertory became a touring company, performed in more than hundred theatre festivals across the globe. It travelled in entire Europe, USA, Latin American countries and the Eastern world, which include, Japan, China, Chorea, Thiland, Austrelia, etc. All the succeeding productions of Chakravyuha; Andhayug, Urubhangam, Uttar Priyadarshi, 4

Indians on the Fringe, Michael Coveney, Financial Times, 20th August 1987, London.

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Ritusamgharam, Nine hills One Valley, Prologue, When We Dead Awaken, King of Dark Chamber, etc. grabbed immediate attention and received international invitations to participate in numerous festivals and occasions across the globe. Chakravyuha placed Chorus Repertory Theatre in the forefront of the tradition. Under the guidance of Thiyam, Chorus developed a particularly rich form of theatre, combining modern dramatic techniques with the enormous variety of traditional styles of the valley. It drew on and fused these styles to arrive into a dramatic spectacle, combining dance, drama, mime, martial arts and ancient rituals. With all these creative inputs to the repertory company, Thiyam also started expecting the same high-level commitment from his actors. They are supposed to live in the campus and work professionally with dedication to develop a work-culture. To make their ends meet the actors adopted some other vocations, like; diary, fishery and poultry in the campus and engaged round the year in researching a particular training system, which becomes a part of their regular curriculum. To achieve the desired expression as per the demand of the production suit to Thiyam’s imagination, the actors have to work on their self; physical, oral and intellectual level, even more than a year prior to the productions. This total understanding of the traditional forms, central to their work, forms the base to develop a new approach on training method, a hybrid of old and new techniques. Stylization being the prime mode of Thiyam’s expression brought many skills and craft to the training system. Its reflection from text to performance is felt in every smallest components of his creation. The actors has to emphasize simple oral effect by physically thrusting the words, in which their entire body is involved to create the meaning. This physical portrayal is a distinctive feature of Ratan Thiyam's style. The actor's body moves in internal and external rhythm to the performance text. Thiyam works on varied breathing techniques to create a distinctive language of expression for each character. We can perceive all the techniques in his productions. Lets take Macbeth as an example to understand his techniques. Each character in this production stands and walks with bending knees as if clinching to the earth. The movements are derived after a keen observation of the tribal communities and their day today behaviours; their regular habits of climbing trees, swimming the river, walking on the landscapes, etc. The steady, slow and controlled movements and gestures of the characters in the play generate a definite sound and oral pattern for the actors and generates excitement and interest in viewing the show. At the same time it

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also projects the inner psychological condition of the characters, passing through in different situations of the play. This kind of performance allows the audience to comprehend the conflict and tension of the characters that penetrates in their mind slowly and gradually. The controlled movements of the actors with the help of their spine and knees position and projection of the voices from various resonators derived from their gestures and postures make Thiyam’s productions different from the general trend of contemporary Indian theatre practices. This innovative discipline of performance practice, spectacular aural and visual aesthetic, and potent thematic explorations, placed him in the company of Tadashi Suzuki, Peter Brook, and Jerzy Grotowski. Apart from developing a systematic training system for his actors, Thiyam also gave equal importance on the technical aspects of theatre. As it was made clear from the beginning, Thiyam’s theatre is an amalgamation of acting and design where equal emphasis is given to both the components; stagecraft was introduced as an integral part of the training to the actors. His actors not only became trained in acting, they had to learn weaving, tailoring, knitting, carpentry, cane-craft, papier-mâché work, plaster of Paris and clay moulding, Fibre glass work, scene painting, etc. in order to create a holistic theatre atmosphere.

The actors prepare sets, masks, props and

anything related to performances as a part of their responsibility and professional endeavour. As the noted columnist Kavita Nagpal points out; “The actors of the Chorus Repertory craft and create their own props thus establishing an intimate relationship and making them indivisible parts of the character they are portraying.5 ” In the year 2002 Chorus Repertory added another wings to its repertory at the outset of its silver jubilee celebration. It was the Shrine Theatre, a 200 capacity auditorium with all modern technical facilities. The architectural beauty of this intimate theatre is drawn from the Buddhist architecture of Thailand, designed by him. Over the years Chorus Repertory grew into an international centre for theatre and performance studies and attracted people from across the globe. Scholars, practitioners and intellectuals started pouring in to the campus, which resulted in The Theatre of Thiyam: Kavita nagpal, The Theatre India: Journal, NSD Publication, Issue--‐9, May 2004, New Delhi. 5

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developing a global dialogue on contemporary theatre practices. Peter Brook, Eugeneo Barba, Richard Schechner, Tadashi Suzuki, Grotowski, and many international theatre personalities at Chorus brought with them an air of new theatre sensibility and Chorus Repertory Theatre could able to find an important space in the arena of world theatre. Ratan Thiyam became the ambassador of Indian contemporary theatre practices. His own words depicts his personality as once in a vary casual mood he told me laughingly; “I am a big man; my dreams are bigger than me”.

© Copyright reserved (This essay is under copyright act. No part is permitted to be copied or produced in any form. The essay is only for reading purpose)

(Note: The essay is an excerpt from my D.Lit thesis on “Dialectics of New Direction”) Dr. Satyabrata Rout--‐ Associate Professor, Dept. of Theatre Arts, University of Hyderabad, India

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झाड़ीपट्टी नाट्य समारोह विदर्भ राज्य ी सा्ीसविी धरोहर (The Cultural Functions of Theatre Festivals)  डॉ. सिीश पािडे महाराष्ट्रrर रापर र ेर ्ाीन र िदर्भ र ्र र ेर ुदर रभ क्षत्ररेोरझाड़नुट्टनरेहारजातारहै।रइसर्र रमेंरहरर दर्भ र अकरतरबर रर सर माीभ र तेर झाड़नुट्टनर ाट् र समारोहर ामेर ाट् र समारोहर अलगर अलगर गादोंर में,र अलगर अलगर मंडिल ार आ ोिजतर ेरतनरहै।रराष्ट्रrन रतंारअतं रराष्ट्रrन रस्रतररुरर्नर इसर एेर अ ोखा,र अलग,र िदरलार औरर िद र्र ाट् रसमारोहरेहारजातारहै।रबर रलतरसम रऔरर बर रलतनर रिर ांर ेर ुरर्क्ष्र र मेंर हर एेर ाट् समारोहर हनर बर लरेीैर एेर सांस्रेवितेर धरोहरर है,र िजस र इसर ्र र ेर ज मा सर ेोर जनद रेारधरातलररऔररएेर रु ाभ दरणरेार ्नर ि माभ णर िे ार है।र ज संदारर ेर माध्र मर ेर रूुर मेंर ्नर हर ाट् र समारोहर अु नर ेारगरर ्ूिमेारि ्ातारहै।रगितरसरबर रलतररिर ारमेंरइसर ्र र ेर लोगोंर ेर त ाद,र सघं र्भ र औरर मत्रर ्रला ेंर मेंर मरररेर रेरिलएर हर ाट् समारोहर अु नरमहत्रदुूणरभ ्ूिमेारि ्ातारहै।

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल- 2015

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“This Uniquely eastern vidharbha theatre gives full time work to some the year round. And employment thousands each season During the offagriculture season, It earns a livelihood for laborers, tailors carpenters painters, venders, Farmers, the like. It cast up to Rs. 80,000 to stage a play at big centers” Theatre in vidharbha P. Senath (Support India to Gather) 23 Jan 2007 Hindu अकरतरबर ररसरमाीभ र तेरअंाभ तरलगाताररछहरमाहर हर समारोहर जारनर रहतार है।र ेरनबर र 10,000र लोगरइसमरिदिदधर्िू मेाओं रं मरसािमलरहोतरहै।र इ र छहर माहर मेंर 25र ेरोडर रूु रें ेार िबर झ सर

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल- 2015

सर रखार जातार है।र गांदर ेर लोगर उ ेीैर बर हुतर इपरजतरेरतरहै।रउ ेारसम्रमा रगादं रेीैर्ितष्ट्ठर ार समझनरजातनरहै। आजर ्ूमंडलनेरण,र इलकरrाि ेर ज र संीारर माध्र मरऔररआधिर ेतारेर्​्ादरमेंर र ्ररमेंर िंएटरर मरर रहार है,र लोे​ेलांए,र लोेसंस्रेवितर लरप्रतर होतर जार रहनर है।र दहनर 150र दर्ोर सर झाड़नुट्टनररंगमीं रिजरं ारहै।रेदलरिजरं ारहनरकर ोंर अु नर िद र्ताओं रं ेर सांर फलफरलर रहार है।र आिंभ ेरुररुक्ष्र रमेंर ्नरम ोरंज रउद्योगरेरररूुर मेंर इसररंगमीं र रअु रआुरेोरस्रंािुतरिे ार है।र जहार र र ेर ेईर िहस्रसोंर मेंर िेसा र आसमा न,र सल र ता नर संेट,रगररबर न,र िुछडाु ,र अेाल,रेजाभ र आरनरेरेारणरआत्रमहत्र ारेरर रहर है।र इसनर समस्र ार सर झाड़नुट्टनर ्र र ेर िेसा र ्नर झझर र रहर है।र लिे र इसर ्र र ेर िेसनर िेसा र र े्नर आत्रमहत्र ार हनर ेीै।र िजसेार श्र र झाड़नुट्टनर ाट् समारोहर ेर सांस्रेवितेर धरोहरर ेोर िर ार जार सेतार है।र कर ोंेीैर हनर धरोहरर ह रं ेर िेसा ोंर ेोर ्नर ैिते,र आित्मे,र सामािजे,र सास्ं रेवितेर औरर म ोदैज्ञाि ेरदृि​िरसरसक्षमरबर ातरहै।र झाड़नुट्टनर ेरलोगोंर ेरसासं ोंर मेंर सोंर मररंगमीं रबर सारहुआर है।र रंगमीं र सर ्म,र आस्रंार हा​ाँर ेर हरर घरर ेीैर ुरम्रुरार है।र औरर सामाितेर ेतभ व्र र ्न।र सांहनर सास्ं रेवितेर उत्रतरराि त्रदर ेीैर ्ाद ार सर झाड़नुट्टनर ाट् रसमारोहरएेरएैसारउत्रसदरहैर जोर

इसर ्र र म ौदैज्ञाि ेर रूुसर ्नर ीैत्र नलर औररउजाभ दा रबर ातारहै। हर ाट् र समरोहर सिहर मा र मर िदलजसभ र फस्रटनदलर है।र िु​ुलरसर फस्रटनदलर है।र ‘फामसभ र फस्रटनदल’रहैा Dr. Ajay Joshi said “ Zadipatti Theatre is like a sooraj Barjatya film Unfolding before your eyes- with songs, live orchestras dramatic lights and many character’s on stage. It was also started to keep the farmers entertained and engrossed after the harvest. It is truly democratic- by the villagers for the villagers and of the villagers” इसरएेरडमोक्रॅटनेरिंएटररफस्रटनदलरेहारजार सेतार है।र दगैरर ्ि क्षणर िलएर ्नर अ र्दोंर सर ्ि िक्षतरहोेररगादरेारआमरआरमनर्नरएेर अचरछार ाटे​ेार,र अि् ता,र तेि ेीैर िद र्ज्ञ,गा े,र संगनतेार,र मै जर,र दृश्र र िद्र ासेार,र मीं र आलोी ेार,र दस्रत्रसपरजाेार,ररूुसपरजाेार,रइदेंटरमै जररबर र जातार है।र िजसर ि ष्ट्रठार औरर लग र सर दहर खतनर ेरतार है,र अ ाजर उगातार है,र उसनर ुररश्रम,र लग ,ि ष्ट्रठारसरइसर ाट् समारोहरेारआ ोज र ेररउसमेंर अु नरसिक्र र्ूिमेार्नरअरारेरतार है।र खतनर उसेार ुटर ्रतनर है,र तोर हर ाट् र


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समारोरहर उसर िजरं गनर िज र ेार हौसलार ्रा र ेरतनरहै।रउसरम ोदैाि ेररूुस,र ैितेररूुस,र आित्मे,र्ादि ेररूुसरसक्षमरबर ातारहै। िुछलर ेरछर दर्ोंर सर झाड़नुट्टनर रंगमीं र ेोर छत्रतनसगत,्ोजुररन,र धमाल,र हगं ामार जैसर फरहडर औररअि​िलर त्व र ,र ाट् ,रलोे ाट् रेा भ क्रमर ीर ौतनर रर रहर है।र ेरछर बर ाहरनर इदेंटर मै जमेंटर ेंु न ार ्ूमंडलनेरणर ेर बर ततर ्ेोुर ेार फा रारउठाेररुैसारबर ा रेीैरलालीरऔररहोडर मेंर हर ंगर हगं ाम,र ंगर धमालर झाड़नुट्टनर र भ ेोंर ेरसाम रुरोसररहरहै।रेरछरुैमा रमेंर रदारिुतनर ्नर उसर हगं ामर ेीैर औरर आेिर्भ तर होर रहनर है।र िेंतरर उससरलत रेीैर क्षमतारझाड़नुट्टनररंगमंीरमर है।रकर ोेीैर हर रंगमीं र हा​ाँर ेरलोगोंरेरजनद र धारणा,र मा्र ता,र ुरम्रुराऔरर िजिजिदर्ार सर ज्रमार है।र हर रंगमंीर उ ेीैर ुहीा र ेा,र अिस्मतारेारहनर नरबर लरेीैरअिस्तत्रदरेार्िते है।रझाड़नुट्टनर ाट् समारोहरइ रलोगोंरेीैरआ ाआेांक्षाए,र ्ाद ांए,र उ ेीैर सोी,र समज,र ररश्रत- ात,र सस्ं रेार,र ुरम्रुराए,ं सस्ं रेवितर ेोर सहजतारहै।रइिसिलएरइ रलोगोरेरजनद रसर हर समारोहर ‘र स स’र औरर ब्रजर मेंर ‘खू ’ेार ेामर ेरतारहै। सदर्भ ग्रथ

1) झाड़नुट्टनररंग्ूमनर–रिहराम रलांज

2) दैर्ी र ाटे​ेार-रसम्रुारे-र्ित्ार ेरलेणी 3) साक्षात्रेारर–रश्रनरसरा ंररबर ोरेर 4) ुन.रसाई ां,रड .रअज रजो न,रसरा ंरर बर ोरेर,रड .र्मोररमू घाटरेर ोधुणू भ र आलख. 5) एेरर भ े,रआलोीेरतंारअभर ासेर ेररूुरमेंरझाड़नुट्टनर ाट् रसमारोहरमेंर सह्ागनता  डॉ. सिीश पािड़े अिसस्रटेंटर्ोफसर,र ाट् ेलारआिणर िफलरमरअध्र रिद्ाग, महात्रमारगाधं नरआतं रराष्ट्रrन रिह्ररनर िदश्रदिदद्याल ,र दधाभ र(महाराष्ट्रr)र–र442001,र मो.र–र09372150158 e-mail : satish_pawade @ yahoo.co.in satish_pavade@yahoo.com


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

रं ग विमर्श

स्त्रिय ां एवां रां गमांच: प रसी रां गमांच से नुक्कड न टकों तक क सफर

दक्षिण एक्षियाई सा​ांस्कृ क्षिक इक्षिहास में ‘पारसी रंगमच ं ’ का महत्वपणू ण स्थान है । इस िब्द का प्रयोग आमिौर पर उस छोटे से पारसी समदु ाय को सांबोक्षि​ि करने के क्षिए क्षकया जािा है, क्षजसने आिक्षु नक और िहरी जनिा में प्रचक्षि​ि मनोरांजन की परांपरा को जन्म क्षदया ।। इस िब्द का अपना सा​ांस्कृ क्षिक एवां ऐक्षिहाक्षसक महत्व भी है क्योंक्षक पारसी रांगमचां के उदय के उपरा​ांि ही सावणजक्षनक रुप से अक्षि िोकक्षप्रय रांगमचां का पहिा चरण िरु​ु होिा है ।1 भारि की अच्छी खासी जनसांख्या 19वीं सदी के उत्तरार्द्ण और 20वीं सदी के पवू ाणर्द्ण में इस िोकक्षप्रय नाट्य परांपरा का क्षहस्सा बन चक ु ी थी हािा​ांक्षक इस आिेख का उद्देश्य य पारसी रांगमचां का इक्षिहास अथवा उसकी प्रासांक्षगकिा का गहरा अययययन करना नहीं है बक्ष क इसके मायययम से िोकक्षप्रय रांगमचां की दक्षु नया में क्षियों के प्रवेि के रोचक इक्षिहास एवां उनके द्वारा इस िेत्र में आने के क्षिए क्षकए गए सांघर्षों िथा पररक्षस्थक्षियों का क्षवस्िृि क्षववरण प्रस्ि​िु करना है । पारसी रांगमचां में मक्षहिाओ ां के प्रवेि एवां उनकी भक्षू मका को िेकर अत्यांि मिभेद रहे और कई बहस-मबु ाक्षहसों के उपरा​ांि ही इस दक्षु नया में मक्षहिाओ ां का प्रवेि सभां व हो सका । क्षवगि 150 वर्षों का रांगमचां का इक्षिहास क्षियों के क्षिए जहा​ाँ एक िरफ अत्यांि सघां र्षणपणू ण रहा , वहीं इसने उनके क्षिए सिक्त मायययम का भी कायण क्षकया । 1950 के दिक के बाद जनवादी नाट्य समहू ों के जररए िी क्षवर्षयक मद्दु ों को आम जनिा के समि प्रस्ि​िु क्षकया जाने िगा था, परांिु इन सबकी आिार-भक्षू म पारसी रांगमचां के जररए ही िय हो पाई । इस रांगमचां की िरु​ु आि एक ऐसे दौर में हुई जब भारि में राष्ट्रवादी क्षवचारिाराओ ां की िहर एवां उनका प्रभाव समाज पर व्यापक रुप से पड़ रहा था । यह वह दौर था जब राष्ट्रीय क्षवमिण के कें द्र में भारि की सांस्कृ क्षि एवां उनसे गहरे िौर पर जड़ु े ‘िी-प्रश्नों’ पर सभी राष्ट्रवादी िाराएाँ प्रक्षिक्षिया व्यक्त कर रही थीं । 19वीं सदी के बांगाि पनु जाणगरण के दौरान समाज सिु ार के आदां ोिनों के कें द्र में भी ‘स्त्री प्रश्न’ था । राजा राम मोहन राय द्वारा सिी प्रथा का क्षवरोि और ईश्वरचन्द्र क्षवद्यासागर के नेित्ृ व में क्षविवाओ ां के पनु क्षवणवाह के पि में चिाए गए अक्षभयान इस दौर की पहचान हैं । पाथण चटजी ने इस क्षवर्षय पर क्षवचार करिे हुए राष्ट्रवाद और िी प्रश्नों के समीकरण की व्याख्या की है । उनका मानना है क्षक राष्ट्रवादी पररयोजना ने औपक्षनवेक्षिक राज्य के साथ राजनीक्षिक अक्षिकारों के क्षिए सांघर्षण में जाने से काफी पहिे ही सा​ांस्कृ क्षिक सांप्रभिु ा के एक स्वायि िेत्र का क्षनमाणण कर क्षिया था ।2 जहा​ाँ 19वीं सदी के पवू ाणर्द्ण में समाज-सिु ारकों ने िमण और समाज सिु ार के क्षिए औपक्षनवेक्षिक िासकों के काननू ी-िांत्र की मदद िी, वहीं 19वीं सदी के अक्षां िम दिकों में नए मयययवगण से बने राष्ट्रवादी नेित्ृ व ने एक ऐसे सा​ांस्कृ क्षिक दायरे का क्षनमाणण क्षकया जो औपक्षनवेक्षिक िासन के हस्ि​िेप से मक्त ु सम्प्प्रभिु ा का दायरा था ।पाथण चटजीकीदृष्टी में सामाक्षजक सांस्थाओ ां और व्यवहारों को राष्ट्रवाद ने दो क्षहस्सों में बा​ांटा । उसकी पररयोजना में भौक्षिक दायरा बाहरी है, आयययाक्षत्मक दायरा भीिरी । उनके अनसु ार,भौक्षिक दायरे में David Willmar, Theatricality, mediation and Public space: The legacy of Parsi Theatre in South Asian Cultural History, Ph.D Thesis (unpublished), may 1999.Page.17. 1

2

चटजी पाथण, द नेशनलिस्ट रिशोल्यश ू न ऑफ वीमेन क्वेशचन, पोस्ट कोिोक्षनयि क्षिस्कोसण:एन एांथोिोजी, ऑक्स्फोिण ब्िैक्वेि पक्षब्ि​िर, 2001, पृ.23


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

अथणव्यवस्था, राजकाज, क्षवज्ञान, िकनीक आक्षद आिे हैं क्षजनमें पक्षिम की श्रेष्ठिा स्वीकायण है । क्षजसे सीख कर दि बनना है िाक्षक पक्षिम का उसकी ही जमीन पर मक ु ाबिा क्षकया जा सके । दसू री ओर, आयययाक्षत्मक दायरा भीिरी है की सा​ांस्कृ क्षिक अक्षस्मिा का िेत्र है, जहा​ाँ भारि की पक्षिम पर श्रेष्ठिा स्वयांक्षसर्द् है । पािसी ल दिं ी ि​िंगमचिं में िॉ िक्ष्मी नारायण िाि इस समय क्षक क्षविेर्षिा बिािे हुए कहिे हैं क्षक इस परू े काि का िोक मानस बड़ा ही क्षवक्षचत्र और अिां क्षवणरोिों से भरा पड़ा था । एक िरफ जहा​ाँ यह नएपन के क्षिए व्याकुि था, वहीं दसू री ओर अपने आपको महान प्राचीन और गौरवमयी अिीि से बािां े भी रखना चाहिा था । एक ओर यह जािीय परांपरा और एक नए राष्ट्रबोि के स्वप्नों में िूबा था, दसू री ओर यह नवोत्थान आदां ोिन के फिस्वरूप अपने को असीम व्यापक मानविा में फै िाकर देख रहा था । " व नया जनमानस जो नए मेट्रोपोलिटन नगिों (बिंबई, मद्रास, किकत्ता) में पैदा ुआ था,नए उद्योगों,नए व्यापाि,नए बाजाि में जो नया मन पिु ाने से थका ुआ लबल्कुि नए की तिाश में था, जो मानस नई अग्रिं ेजी लशक्षा-दीक्षा एविं नवोत्थान के नशे में डूबा ुआ था, लजसने अब अग्रिं ेजी के लथएटि को देखा था ओि उसी ति की कोई नई चीज देखना चा ि ा था, इसी जनमानस का एक दसू िा उदा िण था जो ऐग्िं िो सेक्शन सभ्यता के सम्पकक औि प्रभाव में आकि पलिम मध्य पवू क औि सदु िू पवू क की लजदिं गी, उसकी तवािीख, उसके ीिो- ीिोइन, उसके िोमालिं टक लकस्से औि जिंग- मु ब्बत के लकिदाि तथा नए अफसाने देखना चा ि ा था । पािसी लथएटि ी सिंयोग से इस दसू िी आकािंक्षा का पिू क सिंस्थान बना । य एक अलमट ऐलत ालसक सत्य ।ै “ 3 पारसी रांगमचां का दक्षिण एक्षियाई देिों में िोकक्षप्रय रांगमचां िथा क्षसनेमा के क्षवकास में अत्यिां महत्वपणू ण स्थान है। साथ ही यह भी एक अबझू पहेिी है क्षक पारसी रांगमचां ने क्षकस प्रकार िैंक्षगक िथा नस्िीय पहचानों को अपनी वेिभर्षू ा, साज-सज्जा िथा सवां ादों के जररए नए रूप में प्रस्ि​िु क्षकया । इस रांगमचां में िी की भक्षू मका क्षनभा रहे परु​ु र्ष किाकारों ने भारिीय िीत्व/नारीत्व के क्षिए नए मापदिां ों की रचना की । पारसी रांगमचां ही वह पहला रंगमंच था क्षजसने क्षियों के क्षिए अक्षभनय की जमीन िैयार की । यह िब की बाि है जब क्षियों ने स्वयां को रांगमचां की दक्षु नया से बाहर रखा हुआ था, या िायद रखी गई थीं । कै थररन हैन्सन पारसी रांगमचां के सांबांि में अपने अययययनों में इस िथ्य को रेखा​ांक्षकि करिी हैं क्षक िी पात्र की भक्षू मका अदा कर रहे परु​ु र्षों ने क्षियों के क्षिए उस स्थान (space)को बनाया जहा​ाँ से वे स्वयां को इस दक्षु नया में िाक्षमि कर सकें । यह एक प्रकार से राष्ट्रवादी िाराओ ां द्वारा राष्ट्रवाद के क्षवमिण के ‘भाितीय स्त्री’ के रुप में प्रस्ि​िु की जा रही ‘आयक समाजी मल िा’ की छक्षव से बहुि हद िक अिग छक्षव थी । पक्षिमी भारि के रांगमचां के क्षवकास का इक्षिहास इस दृक्षष्ट से ज्यादा पारदिी है , जहा​ाँ परू े उपक्षनवेि-काि के दौरान िी पात्र की भक्षू मकाओ ां का क्षनवाणह अन्य िोगों द्वारा क्षकया जािा रहा । इसका उ िेख हमें क्षिक्षखि अक्षभिेखों जैसे पक्षत्रकाओ,ां सांस्करणों िथा जीवनवृत्तों से प्राप्त होिा है । पारसी रांगमचां के मायययम से ही ित्कािीन समाज में िी की भक्षू मका क्षनभा रहे परु​ु र्ष किाकारों ने औरिों को फै िन के नए-नए िौर िरीके क्षसखाए एवां नारीत्व को भी सांिोक्षि​ि रुप में पररभाक्षर्षि क्षकया । जैसे मास्टर क्षनसार, मास्टर फूिचन्द, मास्टर नैनरू ाम, मास्टर नमणदा, िांकर मास्टर, चम्प्पािाि, मास्टर भोिे िक ां र,मास्टर क्षफदा हुसनै , खेमराज मारवाड़ी, अमीरीदीन इत्याक्षद कई नाम है, क्षजन्होंने पारसी रांगमचां में क्षियों के क्षकरदार को क्षनभाया, क्षविेर्षकर गजु रािी पारसी रांगमचां में इन परु​ु र्ष क्षकरदार में से कईयों के पास 3

िॉ िक्ष्मी नारायण िाि, पािसी ल दिं ी ि​िंगमिंच, राजपाि एण्ि सन्स, पृष्ठ.63-63


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

अच्छे घराने की क्षिया​ाँ साड़ी पहनना सीखिी थीं । गजु राि के जयिांकर सांदु री और मराठी किाकार बाि गांिवण का नाम इस दृक्षष्ट से काफी मिहूर था । गणपि िा​ांगी यह बिािे हैं क्षक : ‘‘जब म नकिी स्त्री बनते थे तो लदि में बड़ा घमडिं ोता था । वैसी ी चाि, बातचीत, नाज नखिे, अदा औि खास किके जब कभी मेिी पत्नी चिखािी में नाटक देखने आती औि मैं स्त्री का िोि अदा किता उस समय मािे लदि में एक अजब घमडिं ोता औि पत्नी की आँखों में अजीब सी झेंप । एक दफा मेिे िाधा बनने पि बासिं वाडी की बाईसा ने मेिे लिए सोने की पाजेब औि पोशाक भेजी थी ।" 4 कै थरिन के अनसु ाि , परु​ु र्ष िथा बाहर से आई ऐग्ां िो इक्षां ियन अक्षभनेक्षत्रयों ने एक िरह से रांगमचां की दक्षु नया में िब िक िी-पात्रों की भक्षू मका अदा की , जब िक भारिीय क्षियों ने रांगमचां की दक्षु नया में प्रवेि नहीं क्षकया । मयययवगीय जनिा के नाटक देखने जाने की िरु​ु आि के बाद और उसमें िगािार बढ़ रही मक्षहिा दिणकों की सख्ां या के मद्देनजर िी पात्रों की वेिभर्षू ा िथा अन्य रांगमचां ीय पहिओ ु ां को दिणकों की दृक्षष्ट से देखा जाने िगा । िी दिणकों की िगािार बढ़िी सख्ां या को क्षथएटर हाउस में अिग से बैठने के क्षिए बड़े स्थान की आवश्य यकिा थी, जहा​ाँ से वे नाटक का आनदां उठा सकें । िी एवां परु​ु र्ष दोनों के क्षिए िी पात्रों का अक्षभनय परु​ु र्षों द्वारा क्षकया जाना जेंिर आिाररि भक्षू मकाओ ां की दृक्षष्ट से स्पष्ट रुप से बहस का मद्दु ा था । रांगमचां की दक्षु नया में मक्षहिाओ ां के प्रस्ि​िु ीकरण का सार्वजनिक जीर्ि (Public Space) में मक्षहिाओ ां के प्रवेि के साथ गहरा सांबांि है । यही वह समय था जब समाज सिु ार आदां ोिनों के मद्दु ों, काननू ी प्राविानों िथा साक्षहक्षत्यक रचनाओ ां में भारिीय िी को नई भक्षू मका प्रदान की जा रही थी । सावणजक्षनक जीवन में सहभागी होने के क्षिए िी को परु​ु र्षों के समान ही सामाक्षजक स्वीकायणिा की आवश्य यकिा थी । परांिु 1853 से 1931 के मययय एक जीवांि रांगमचां की सांस्कृ क्षि का वािावरण होने के बावजदू पारसी, मराठी एवां गजु रािी क्षथएटर कांपक्षनयों में मक्षहिाओ ां के अक्षभनय को िेकर िगभग एक जैसी भावना बनी रही । वे व्यावसाक्षयक नाटक कांपक्षनया​ाँ थीं । कांपनी के माक्षिक िहर की बहुसांख्यक जनिा की पसदां के नाटकों का मचां न करवाया करिे एवां हरसांभव उनकी सहमक्षि-असहमक्षि का यययान रखिे । सांगीि, नृत्य िथा नाटकों को देखने के क्षिए आमिौर पर सभी वगण, जाक्षि के िोग आया करिे । पहिे बांबई में रूक्षढ़वादी, परांपराक्षप्रय िनाढ़य व्यवसायी वगण िक ही नाटक सीक्षमि थे । परांिु समाज में बढ़िे बजु णआ ु िबके ने सावणजक्षनक स्थानों एवां जनिा के खािी वक्त को भी अपने मनु ाफे के क्षिए क्षथएटर के मायययम से भनु ाना िरु​ु कर क्षदया । बांबई िहर का पारसी समदु ाय िगभग परू ी िरह यरू ोक्षपयन िजण पर बड़ी बड़ी क्षथएटर कम्प्पक्षनया​ां खोि रहा था और जनिा का मनोरांजन कर रहा था, परांिु अक्षभनय को िेकर अभी भी परु ानी परांपरा ही कायम थी । दक्षिण एक्षियाई नाटकों में िी की भक्षू मका परु​ु र्षों द्वारा क्षकया जाना एक प्रकार से नाटक की अक्षनवायणिा थी । आम जनिा के बीच क्षियों द्वारा अक्षभनय िमणनाक माना जािा था । घर िथा बाहर के िैंक्षगक क्षवभाजन ने क्षिया​ाँ को घर की चारक्षदवारी में बािां कर रखा था । उस जमाने में गाने और नाचने के काम को किक्षां कि करने वािा काम माना जािा था, क्षजसे करनेवािी मक्षहिाएां अक्षिसख्ां यक वेश्य याएां 4

रणवीर क्षसांह, पारसी क्षथयेटर, राजस्थान सांगीि नाटक किा अकादमी, जोिपरु , 1990, पृ . 58.


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(िवायफें )या गरीब िबके की हुआ करिी थीं । वे यह कायण अपनी आजीक्षवका के क्षिए क्षकया करिी और अपने एक या अक्षिक परु​ु र्ष सांरिकों के क्षिए क्षनयक्षमि रुप से गाया बजाया करिी । िब सवाि यह पैदा होिा है क्षक क्यों इन पेिवे र मक्षहिाओ ां को भी 19वीं सदी में मचां पर अक्षभनय करने की अनमु क्षि प्रदान नहीं की गई ? आमिौर पर इसका उत्तर यह क्षदया जािा है क्षक वे स्वयां को अपार प्रक्षसक्षर्द् से दरू रखना चाहिी थीं अथवा वे अक्षभनय में दि नहीं थीं ।हािा​ांक्षक िी के हमिक्ि के रुप में परु​ु र्षों द्वारा अक्षभनय क्षकए जाने की कुछ हद िक यह सही व्याख्या हो सकिी है परांिु ऐक्षिहाक्षसक साक्ष्य इन िकों को गि​ि साक्षबि करिे हैं । रांगमचां की दक्षु नया में अक्षभनय करने वािी क्षिया​ाँ थीं ही नहीं, इसको अस्वीकार करिे हुए दस्िावेज यह बिािे हैं क्षक पारसी रांगमचां में िी िथा परु​ु र्ष दोनों किाकारों को माक्षसक िनख्वाह पर रखा जािा था, क्षजसकी अवक्षि सीक्षमि हुआ करिी थी । अथाणि वे आपस में प्रक्षिद्वक्षां दिा करिे रहें और कांपनी िथा जनिा यह चनु ाव करे क्षक वह मचां पर क्षकसे देखना चाहिी है िी को या परु​ु र्ष को । पारसी क्षथएटर में िड़कों की क्षनयक्षु क्त की जािी और उनको प्रक्षि​िण भी क्षदया जािा था । क्षकसी भी अक्षभनेिा का अक्षभनय उसकी प्रारांक्षभक भक्षू मका के द्वारा िय होिा था । सबसे पहिे उन्हें नाक्षयका की सखी-सहेिी या अिां रांग क्षमत्र की भक्षू मका दी जािी थी । उनमें से कुछ अक्षभनेिा सभी भक्षू मकाएां जैसे नायक, नाक्षयका, क्षवदर्षू क आक्षद क्षनभाया करिे थे । खिु ीद बािीवािा (1852-1903) क्षजन्होंने बाद में विक्टोरिया विएटि कंपनी की बागिोर सांभािी और पारसी क्षथएटर की एक सप्रु क्षसर्द् हस्िी बने । उन्होंने 18 वर्षण की आयु में 'रुस्तम औि सोहिाब ' में िी की भक्षू मका अदा की थी । उसके एक वर्षण के उपरा​ांि ही उन्होंने परु​ु र्ष भक्षू मकाएां करनी िरु​ु की । सांभविः परु​ु र्षों द्वारा क्षियों की भक्षू मका अदा करने का यह क्षसिक्षसिा 20वीं सदी के प्रारांभ िक चिा । जब िक जनिा ने उन्हें पसदां क्षकया और जब िक कांपनी माक्षिकों की दया उन पर बनी रही, उन्होंने बकायदा यह काम क्षकया । उन परु​ु र्ष अक्षभनेिाओ ां की एक िांबी सचू ी है क्षजन्होंने पारसी रांगमचां में िी भक्षू मकाओ ां को क्षनभाया । परांिु दभु ाणग्यवि उन अक्षभनेिाओ ां को भि ु ा क्षदया गया । उनके जीवन, पसांद और उनकी आदिों के सांबांि में क्षिक्षखि साक्ष्य अत्यांि कम मात्रा में मौजदू हैं । दस्िावेजों में क्षसफण दो गैर पारसी अक्षभनेिाओ ां का ही क्षजि क्षमि​िा है । जयशक ं र सदं री(1888-1962) िथा बाल गध ं र्व (1889-1975) दोनों ने ही अपने समय में अत्यिां अदा और खबू सरू िी के साथ िी भक्षू मकाएां क्षनभायी ।5 पारसी क्षथएटर की दक्षु नया में अक्षभनेक्षत्रयों के प्रवेि पर चिी बहस पर नजर िािें िो पिा चि​िा है क्षक पारसी रांगमचां में िी दिणकों की िगािार बढ़िी सांख्या ने क्षथएटर माक्षिकों के क्षिए बड़ी सांघर्षणपणू ण क्षस्थक्षि पैदा कर दी। कांपनी माक्षिक यह चाहिे थे क्षक उनके यहा​ाँ नाटक देखने ज्यादा से ज्यादा सांख्या में मक्षहिाएां आएां िाक्षक उनकी कांपनी की प्रक्षिष्ठा बढ़िी रहे । उस दौर में मयययवगीय क्षिया​ां अपने नािे ररश्य िेदारों के साथ नाटक देखने आया करिी थीं क्षकांिु ि​िण यही होिी क्षक नाटक में वेश्य याओ ां से अक्षभनय न कराये जाएां और क्षथएटर हॉि में क्षियों के बैठने की समक्षु चि व्यवस्था हो । इस सदां भण में दस्िावेज बिािे है क्षक पारसी रांगमचां में पहिी हिचि िब हुई जब मेरी फें टि नामक एक एांग्िो इक्षां ियन अक्षभनेत्री को िाया गया। इसे िेकर क्षथएटर माक्षिकों के बीच काफी बवाि मचा क्षजसकी एक झिक हमें के .एन.काबरा(1542-1904) के दृक्षष्टकोण से क्षमि​िी हैं । वे उस दौर के महत्वपणू ण पारसी समाज सिु ारक थे । वे नाटक को नैक्षिक उत्थान Kathryn Hansen, Making Women Visible: Gender and Race Cross-Dressing in the Parsi Theatre, Theatre Journal, Vol. 51, No. 2 (May, 1999), pp. 127-147. 5


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का मायययम मानिे थे । वे एक अच्छे नाटककार भी थे और उन्होंने गजु रािी में करीब 15 नाटक क्षिखे थे । 1868 में उन्होंने एक नाटक क्िब की स्थापना की जो आगे चिकर सप्रु क्षसर्द् ‘लवक्टोरिया लथयेट्रीकि किंपनी’ में पररवक्षिणि हो गई। उन्होंने 1976 में एक अन्य नाटक कांपनी की भी स्थापना की । यह कांपनी उस समय के अक्षभनेिा एवां कांपनी माक्षिक दादी पटेि के उस क्षनणणय के क्षवरोि में खोिी गई थीं, क्षजसमें उन्होंने क्षवक्टोररया कांपनी के नाटकों में मक्षहिाओ ां को अक्षभनय करने की अनमु क्षि दी थी ।काबरा ने क्षथएटर के क्षबगड़िे हुए माहौि की कटु आिोचना की जो वेश्य याओ ां के प्रवेि की वजह से पैदा हुई थी । उनका मानना था क्षक रांगमचां की पक्षवत्र दक्षु नया वेश्य याओ ां के अक्षभनय से दक्षू र्षि हो जाएगी । दसू री पीढ़ी के कांपनी माक्षिकों ने भी न्यू अन्रे ड लथएट्रीकि किंपनी की क्षपछिी परांपरा का अनसु रण करिे हुए क्षियों को अक्षभनय करने की अनमु क्षि नहीं दी । एक िरह से यह स्वघोक्षर्षि बाि थी क्षक मक्षहिओ ां को अक्षभनय की अनमु क्षि न प्रदान की जाए । इन कांपक्षनयों ने हमेिा मक्षहिा दिणकों को अक्षभनेक्षत्रयों से दरू रखा । मक्षहिा अक्षभनेक्षत्रयों के साथ अफवाहों एवां सरु िा का खिरा हमेिा बना रहिा था । इसक्षिए कोई कांपनी यह खिरा नहीं मोि िेना चाहिी थी । पारसी रांगमचां पर क्षकसी मक्षहिा पात्र के अक्षभनय का सदां भण हमें उसके अपहरण से प्राप्त होिा है । 1872 में पािसी नाटक मडिं िी ने ि​िीफा बेगम के साथ ‘इदिं ि सभा’ नामक नाटक का मचां न क्षकया । इस नाटक में उस मिहूर नृत्यागां ना ने परी की भक्षू मका अदा की थी । नाटक के खत्म होने के समय जैसे ही उसने मचां से बाहर प्रवेि क्षकया, एक पारसी परु​ु र्ष द्वारा उसका अपहरण कर क्षिया गया । उसने अपना ओवर कोट उस मक्षहिा पर िािा और कांिों पर उठा नौ दो ग्यारह हो गया । ि​िीफा के इस िरह से गायब होने ने क्षथएटर जगि में सनसनी फै िा दी । कई क्षदनों िक अखबारों में इस घटना की चचाण होिी रही । जब 1891 में अल्रे ड किंपनी का बांटवारा हुआ िब नई कांपनी ने सोहराब ओगरा (1858-1933) नामक एक व्यक्षक्त को प्रबांिक के िौर पर क्षनयक्त ु क्षकया । काबरा की िरह ओगरा भी गरीब पररवार से सांबांि रखिे थे और उन्होंने भी औपचाररक क्षि​िा नहीं पाई थी । उन्हें भी इसीक्षिए याद क्षकया जािा है क्षक उन्होंने िी द्वारा अक्षभनय क्षकए जाने का क्षवरोि क्षकया । यहा​ाँ िक क्षक उन्होंने कभी भी अपनी पत्नी या बच्चों को नाटक देखने आने की अनमु क्षि नहीं दी । 1933 में उनकी मृत्यु होने िक कांपनी में अक्षभनेक्षत्रयों का प्रवेि प्रक्षिबांक्षि​ि रहा। इसक्षिए इसमें कोई आियणजनक बाि नहीं है क्षक न्यू अल्रे ड किंपनी को पारसी क्षथएटर कांपक्षनयों में सवाणक्षिक रुक्षढ़वादी, परांपरा-पसदां एवां सम्प्मानजनक होने की प्रक्षिष्ठा प्राप्त थी । इसी कारण इसने अपने दौर के महान नेिाओ ां जैसे मोिीिाि नेहरु और मदन मोहन मािवीय को भी प्रभाक्षवि क्षकया । इसी बीच क्षवक्टोररया कांपनी के माक्षिक दादी पटेि को नाटक खेिने के क्षिए हैदराबाद आमक्षां त्रि क्षकया गया । उन्होंने वहा​ाँ अपने नाटकों से िमू मचा दी । वहा​ाँ से िौटिे समय वे कुछ गानेवाक्षियों को अपने साथ िे आए । क्षजन्होंने 1875 में मक्षां चि नाटक ‘इन्दि सभा’ में पररयों की भक्षू मका अदा की । हािाक्षां क यह नाटक उस समय का असफि नाटक माना जािा है । उसी िरह 1550 में बािीवािा क्षवक्टोररया कांपनी में मक्षहिाओ ां को िेकर आए । उनकी कांपनी में क्षमस गौहर, क्षमस मक्षिका, क्षमस फाक्षिमा, क्षमस खािनू िथा अन्य िड़क्षकया​ाँ काम करिी थीं । बािीवािा और लवक्टोरिया लथयेट्रीकि ने अपने यहा​ाँ अक्षभनेक्षत्रयों को काम पर रखना जारी रखा िथा अपने साथ-साथ क्षसिोन, क्षसांगापरु , वमाण जैसे िहरों में क्षथएटर टूर पर भी साथ िेकर गए । इन क्षछट-पटु प्रयासों को सामाक्षजक मान्यिा भिे न क्षमिी हो परांिु इससे माहौि जरुर बनने िग गया था। 1896-98 में एक अन्य अक्षभनेत्री गौहर का क्षजि क्षमि​िा है क्षजसने अनेक नाटकों में


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उ िेखनीय भक्षू मकाएाँ अदा की जैस-े बज्में फानी में सोसन, मािे आस्तीन में क्षबजिी, चिंद्राविी में चांद्राविी िथा श ीदेनाज में सईदा इत्याक्षद । उसने बाद में मक ू क्षफ मों में भी काम क्षकया ।6 परांिु इिना सब कुछ होने के बावजदू पारसी क्षियों के क्षिए अक्षभनय आसान नहीं था । इसी क्षसिक्षसिे में 1904 में सर जमिेद जी की अयययि​िा में एक बैठक भी हुई पर िमाम बहस मबु ाक्षहसों के बाद भी पारसी िड़क्षकयों को मचां पर िाने की बाि स्वीकृ ि नहीं हो पाई ।इस सबां िां में एक मात्र अपवाद एक पारसी िी का क्षमि​िा है जो एक परु​ु र्ष किाकार के जोर देने पर मचां पर आई । पारसी िी के इस कृ त्य ने पारसी समदु ाय के भीिर काफी हिचि मचा दी और उस अक्षभनेत्री पर कांपनी छोड़ने का दबाव बनाया जाने िगा । एलिजाबेथन लथएटि में भी यही क्षस्थक्षि थी । वहा​ाँ अग्रां ेज मक्षहिा दिणकों का स्वागि िो क्षकया जािा था पर अग्रां ेज अक्षभनेत्री स्वीकायण नहीं थीं । इस प्रकार हम देखिे हैं क्षक मक्षहिाओ ां के क्षिए क्षथएटर कांपक्षनयों के द्वार क्षकस िरह खि ु े । मेरी फें टन एक एांग्िो इक्षां ियन मक्षहिा थी जबक्षक ि​िीफा बेगम, मोिी जान, क्षमस फाक्षिमा इत्याक्षद नाम इिां ो मक्षु स्िम सांस्कृ क्षि को दिाणिे थे और िवायफों की परांपरा से आए थे । अक्षभनेक्षत्रयों के रांगमचां की दक्षु नया में प्रवेि, उनके सघां र्षण िथा उनसे जड़ु ी क्षकांवदाँक्षियों का इक्षिहास काफी रोचक रहा है क्षजनके सबां िां में क्षिक्षखि सामग्री की उपिब्ि​िा काफी कम है । पारसी रांगमचां की ही िरह बांगाि में भी रांगमचां की दक्षु नया में क्षियों के प्रवेि को िेकर काफी मि मिा​ांिर रहे । 1873 में किकिा की ‘बगं ाल विएटि’ नाम की क्षथएटर कांपनी िरिचन्द्र घोर्ष िथा क्षबहारीिाि चटोपायययाय के नेित्ृ व में िरु​ु हुई । अपनी पस्ु िक ‘द स्टोिी ऑफ कलकत्ता विएटि’ (1753-1980) में वे बिािे हैं क्षक दरअसि यह क्षथएटर िाइलशयम लथएटि की नकि के रूप में स्थाक्षपि हुआ था । घोर्ष िथा चट्टोपायययाय ने उस समय के कई महत्वपणू ण बक्षु र्द्जीक्षवयों, सरकारी मि ु ाक्षजमों, सांस्कृ क्षि के क्षवद्वानों िथा समाज सिु ारकों के मययय इस क्षवचार पर आम सहमक्षि बनाने का प्रयास क्षकया क्षक बांगािी रांगमचां पर क्षियों को भी अक्षभनय करने की स्विांत्रिा प्रदान की जाए । उस समय बांगाि में समाज सिु ार आदां ोिनों में मिसु दू न दत्त िथा ईश्वरचदां क्षवद्यासागर के क्षवचार इस क्षवर्षय पर क्षब कुि क्षभन्न थे ।जहा​ाँ, माइकि मिसु दू न दत्त ने रांगमचां पर क्षियों की उपक्षस्थक्षि का िहे क्षदि से स्वागि क्षकया वहीं ईश्वरचदां क्षवद्यासागर ने उस सक्षमक्षि के इस फै सिे के प्रक्षि क्षवरोि दजण करिे हुए त्यागपत्र दे क्षदया, क्षजसने वेश्य याओ ां द्वारा रांगमचां पर अक्षभनय करने को अनमु क्षि प्रदान की थी । क्षवष्ट्णक्षु प्रया दत्त अपने िोि में बिािी हैं क्षक इस फै सिे के बाद बांगािी क्षथएटर में किकत्ते के रेि िाइट इिाकों से चार वेश्य याओ ां जगिाररणी, गोपाि सदांु री, एिोके सी िथा श्य यामा को िाया गया । इस फै सिे ने बांगाि के सक्षु िक्षि​ि समाज में अिा​ांक्षि फै िा दी । यही वह दौर था जब बांगाि में अग्रां ेजी पढ़े-क्षिखे िथा अपने आचार-व्यवहार में अग्रां ेजीयि पांसद िबका ‘भद्रिोक’ के रूप में उभर चक ु ा था । इस भद्रिोक को वेश्य या अक्षभनेक्षत्रयों के क्षववाद ने बहुि प्रभाक्षवि क्षकया । सावणजक्षनक स्थानों में होने वािी बहसों में इस क्षवर्षय पर काफी चचाण हुई क्षजसकी झिक हमें ित्कािीन अखबारों िथा प्रेस क्षवज्ञक्षप्तयों में क्षमि​िी हैं । 18 अगस्ि, 1873 में ‘द वहदं ू पेट्रीऑट ' ने क्षिखा : " बिंगािी लथएटि ने अपने प िे प्रदशकन के लिए माईकि मधसु दू न दत्त की ‘सलमकष्ठा’ नाटक को चनु ा जो अत्यिंत सफि ि ा ।अलभनेताओ िं ने अपनी भलू मका बखबू ी अदा की तथा उन दो पेशेवि अलभनेलियों ने ब ुत सफि तिीके से अपने 6

पारसी रांग पवू ाण, मद्रु ा रािस, ि​िंग-प्रसिंग, जनवरी-माचण,2008, अांक-1.


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चरि​िों को लनभाया । पि​िंतु म य चा गें े लक य लथएटि लबना अलभनेलियों के ी चिे । य सच ै लक बिंगाि में पेशेवि मल िाओ िं ने जािा तथा नाच जैसी िोक किाओ िं में कदम िखा ,ैं पि​िंतु मने य आशा की थी लक बगिं ािी लथएटि के प्रबिंधक जािा वािों की ति अपनी गरिमा औि साख को नीचे न ीं लगिने देंगे” । 7 जनवरी 1874 में अमृत बाजार पनिका ने क्षिखा: " बिंगाि लथएटि सिंभ्ािंत बिंगािी समाज के लिए नई चीज ।ै य अत्यिंत सख ु द औि खबू सिू त प्रयास ै लक मल िाएिं स्त्री पािों की भलू मका अदा किें । पि​िंतु इसके कािण समाज में अनैलतकता को बढ़ावा लमिेगा औि समाज को गित सिंदेश लमिेंगें ।यलद ये मल िाएिं जो एक ति से समाज द्वािा बल कृकत तथा अनैलतक (वेश्याएिं) ,ैं स्त्री भलू मकाओ िं का लनवाक किेंगी तो य अच्छी बात न ीं ोगी । बगिं ािी लथएटि ने इस कलिन कायक का भाि अपने ऊपि लिया ै ।अच्छी-खासी जनता ै जो उनके ि​िंगमचिं के प्रलत आकलषकत ै तथा अनेक प्रदशकनों की साक्षी ै " । 8 सि ु ीि मख ु जी बिािे हैं क्षक एक क्षिक्षटि अखबार ‘द इगं वलशमैन’ ने भी पेिेवर मक्षहिाओ ां द्वारा अक्षभनय क्षकए जाने की आिोचना की थी । मनमोहन बसु ने, जो उस दौर के नाटककार थे, एक बांगािी पक्षत्रका ‘मध्यस्था’ में अत्यांि व्यांग्यात्मक िहजे में इस क्षवर्षय पर अपने क्षवचार रखिे हुए क्षिखा: "अतिं तः ि​िंबे समय बाद िड़के तथा परु​ु ष चैन की सािंस िे सकें गे औि उनके घिवािे, उनकी पलत्नयाँ आिाम से ि सकें गे । िबिं े समय के बाद वेश्याओ िं को इस सलु शलक्षत समाज में समानता का दजाक प्राप्त ो सका ै । अब वे परु​ु षों के साथ-साथ अलभनय कि सकें गी । अब स ी मायने में बिंगािी दशकक वगक को सिंतलु ि ालसि ोगी क्योंलक अब इस समाज की नैलतकता को नवअवतरित समू परिभालषत किेगा ।" 9 परांिु िी-अक्षभनेक्षत्रयों के पि में बोिनेवािे भी कई महत्वपणू ण िोग थे क्षजन्होंने रांगमचां पर क्षियों की आवश्य यकिा एवां उनकी उपयोक्षगिा को अपने िकों द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास क्षकया । क्षकरणचन्द्र दत्त, जो उस दौर के प्रमख ु क्षनदेिक-नाटककार थे और बांगाि क्षथएटर के साथ काम कर रहे थे उन्होंने यरू ोक्षपयन क्षथएटर को आिार बनािे हुए यह िकण क्षदया क्षक यरू ोप में कई िोग गृक्षहणी मक्षहिाओ ां को अक्षभनय को एक पेिे के रूप में अपनाने के क्षिए प्रोत्साक्षहि करिे हैं । अि: हमें भी मक्षहिाओ ां को अक्षभनय की स्विांत्रिा देनी चाक्षहए । उनकी बाि को आगे बढािे हुए क्षगरीि घोर्ष ने उन िथ्यों को भी उजागर क्षकया जो बांगािी भद्रिोक में अिां क्षनणक्षहि क्षवरोिाभासों को दिाण रहे थे । अक्षभनेक्षत्रयों के रांगमचां पर आने का क्षवरोि करने वािे वही बाबू िोग थे क्षजन्होंने अपने िौक के क्षिए कई वेश्य याओ ां को अपनी रखैि बनाकर रखा हुआ था । वे क्षनजी िौर पर उनके गाने और नृत्य के प्रिांसक थे परांिु उन्ही क्षियों के सावणजक्षनक प्रदिणन का वे खि ु े िौर पर क्षवरोि कर रहे थे । परांिु क्षगरीि घोर्ष ने अपने िथ्यों को प्रस्ि​िु करिे हुए इस बाि पर गौर नहीं क्षकया क्षक दरअसि क्षथएटर का अक्षभप्राय Bandyopadhyay, Samik. 2000 Years: A Tolly gunge Club Perspective, Statesman Printing Press. Calcutta,1981. 7

Bandyopadhyay, Samik. 2000 Years: A Tolly gunge Club Perspective, Statesman Printing Press. Calcutta, 1981. 9 Bandyopadhyay, Samik. 2000 Years: A Tolly gunge Club Perspective, Statesman Printing Press. Calcutta, 1981. 8


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क्षसफण बाबओ ु ां के क्षिए प्रदिणन नहीं था बक्ष क वे इस दक्षु नया के किाणि​िाण भी थे और अक्षभनय भी कर रहे थे । वेश्य याओ ां को रांगमचां पर प्रवेि की अनमु क्षि देने का अथण था क्षक अब प्रक्षिक्षष्ठि परु​ु र्ष समाज की असम्प्मानीय मक्षहिाओ ां के साथ सह भक्षू मका करने जा रहे थे । रांगमचां को िांबे समय से एक नैक्षिक सांस्थान और सामाक्षजक व्यवस्था में पररविणन िाने वािे मजबिू मायययम के रूप में देखा जा रहा था । परांिु वेश्य याओ ां के प्रवेि ने इस स्थाक्षपि पररभार्षा को बदि िािा । इस सांबांि में दिणन चौिरी ने अपने एक आिेख में ईश्वरचन्द्र क्षवद्यासागर को इस बाि के क्षिए बिाई दी क्षक उन्होंने वेश्य याओ ां को अक्षभनेत्री बनाए जाने पर आपक्षत्त जाक्षहर की थी । उनका मानना था क्षक रांगमचां एक सामाक्षजक बि ु ेक्षटन की िरह है क्षजसका कायण समाज में हो रहे बदिावों की घोर्षणा करना, उस पर िकण करना और उसे प्रोत्साक्षहि करना है न क्षक स्वयां इस पररविणन में सक्षिय भक्षू मका अदा करने िगना । परांिु बांगािी रांगमचां के सांस्थापक क्षगरीि घोर्ष ने अक्षभनेक्षत्रयों के पि में अन्य िकण भी प्रस्ि​िु क्षकए क्षजसमें उन्होंने िड़कों द्वारा क्षियों की भक्षू मका अदा क्षकए जाने पर क्षचांिा जाक्षहर करिे हुए क्षिखा : "जब िड़कों को िड़लकयों की भलू मका किने के लिए लनयक्त ु लकया जाता ै तो न लसफक प्रदशकन अकुशि ोता -ै बलल्क इसके कािण िड़कों में व लवकलत पैदा ोती ै लजसे िीक ोने में कलिनाई पैदा ोती ै । अपने यवु ाकाि के प्राि​िंभ में ी लस्त्रयों की भलू मका अदा किने के कािण वे जीवन भि कुछ खास भलिं गमाओ िं को साथ िेकि चिते ैं ।”10 अमृि िाि ने इस िकण को आगे बढ़ािे हुए दो बािों पर जोर क्षदया क्षक वे िड़के , जो क्षियों की भक्षू मका क्षनभािे हैं, ज दी बड़े हो जािे हैं क्षजसके कारण वे उस भक्षू मका के योग्य नहीं बचिे अथवा वे स्वयां उस भक्षू मका को क्षनभाने से इक ां ार कर देिे हैं िथा अच्छे नाटकों के अभाव में क्षथएटर को बचाए रखने के क्षिए अक्षभनेक्षत्रयों की आवश्य यकिा है । इस िकण ने अक्षभनेक्षत्रयों के जररए कांपनी को होने वािे व्यावसाक्षयक फायदे के समि नैक्षिकिा के मद्दु े को गौण कर क्षदया । परांिु वेश्य या अक्षभनेक्षत्रयों के अक्षभनय को िेकर पैदा हुआ क्षववाद 1873 के बाद भी चि​िा रहा । 1877 में ‘आयकदशकन’ नामक पक्षत्रका में जोगेन्द्रनाथ क्षवद्याभर्षू ण ने क्षियों द्वारा अक्षभनय का स्वागि करिे हुए अपने िकण प्रस्ि​िु क्षकए । उनका मानना था क्षक यह पहिी बार नहीं है बक्ष क क्षवक्षभन्न िोक परांपराओ ां जैसे ‘जािा’ िथा ‘कीतकन’ इत्याक्षद में मक्षहिाओ ां द्वारा अक्षभनय क्षकया जाना आम बाि है । 1795 में नवीन चन्द्र बासु द्वारा श्याम बाजाि लथएटि में भी मक्षहिाओ ां को क्षनयक्त ु क्षकया गया था । इरगो ने एक िेखक के रुप में इस बाि की वकाि​ि की क्षक यह उक्षचि होगा क्षक हम मनोरांजन के व्यवसाय को उन सरु क्षि​ि हाथों में सौंप दें जो सक्षदयों से मनोरांजन करिे आए हैं । क्षिजभर्षू ण ने अपने िकण को उन समस्ि समाज सिु ार आदां ोिनों के साथ जोड़ने का प्रयास क्षकया जो िी मक्षु क्त के सन्दभण में 19 वीं सदी में बांगाि में चिाए जा रहे थे । वेश्य याओ ां को रांगमचां में प्रवेि की अनमु क्षि देकर बांगािी क्षथएटर वास्िव में एक महान सामाक्षजक कायण कर रहा था । इसने समाज में सबसे अक्षिक क्षनकृ ष्ट समझी जाने वािी मक्षहिाओ ां को उनके कष्टप्रद जीवन से मक्षु क्त क्षदिाकर एक सनु हरा रास्िा खोिा । क्षिजभर्षू ण ने अपने पाठकों से इन मक्षहिाओ ां के प्रक्षि सवां ेदनिीि होने की परु जोर अपीि की । साथ ही, वे वेश्य यावृक्षि के सा​ांस्थाक्षनक रुप के क्षिए समाज को उत्तरदायी मानिे हुए िमाप्राथी भी थे । उस समय के

Dutt, Vishnu Priya, Munsi, Urmimala Sarkar, Engendering Performance: Indian Women Performers in Search of Identity, Sage Publication, New Delhi, 2010. 10


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

स्वास्थ्य अक्षिकारी िॉ.एफ.सी.फै िे होनेरे ने एक आकड़े के जररए बिाया क्षक किकिा िहर में उस समय वेश्य याओ ां की सांख्या िगभग 30,000 थी । इन समस्ि क्षबन्दओ ु ां से यह स्पष्ट होिा है क्षक उस दौर में क्षथएटर कांपनी में कायणरि बगां ािी समदु ाय का मक्षहिा अक्षभनेक्षत्रयों को िेकर रुख बहुि हद िक उदारवादी / प्रगक्षि​िीि था । जबक्षक उसी समय राष्ट्रवादी क्षचिां न में मग्न कई िोगों के क्षवचार अत्यिां रूक्षढ़वादी थे । 19 वीं सदी के बगां ाि का बक्षु र्द्जीवी वगण दरअसि कई क्षवचारों में बटां े होने के कारण ‘िी सिु ार’ के प्रश्न पर भी क्षवभाक्षजि था । राष्ट्रवाद के क्षजस खा​ाँचे में बगां ाि की आयण समाजी नई िी गढ़ी जा रही थी, उसमें उसका िेत्र ‘घर’ था क्षजसकी पक्षवत्रिा और सस्ां कृ क्षि की उसे रिा करनी थी, वहीं हाक्षिए की वे मक्षहिाएाँ भी थीं क्षजनके सिु ार का रास्िा बांगाि का प्रगक्षि​िीि िबका किा के मायययम से देख रहा था । िीसरी िरफ, क्षथएटर कांपक्षनयों के किाणि​िाणओ ां का एक समहू था जो वेश्य याओ ां को अक्षभनेत्री के रूप में िाक्षमि करने के क्षिए इच्छुक था क्षजनके कारण क्षथएटर कांपक्षनयों को आक्षथणक िौर पर बहुि फायदा हो रहा था । दिणकगण बड़ी सांख्या में इन अक्षभनेक्षत्रयों को देखने आया करिे थे । परांिु अभी भी रांगमचां पर जो िी अक्षभनय कर रही थी वह क्षकसी सभ्रां ाि घर की िी नहीं बक्ष क समाज के क्षनचिे िबके से थी । इस दक्षु नया में आने के क्षिए मयययवगीय क्षियों द्वारा क्षकए गए सघां र्षों का अययययन अभी िेर्ष है । क्षहदां ी प्रदेिों की क्षस्थक्षि और अक्षिक भयावह थी । यहा​ाँ रांगमचां में क्षियों का अभाव हमेिा बना रहा । प्रत्येक नाटक मिां िी यह अपेिा करिी थी क्षक अन्य समाजों की क्षिया​ाँ उनके साथ काम करें , परांिु इसकी िरु​ु आि उन्होंने अपने घरों से कभी नहीं की । क्षहदां ी प्रदेिों के जनमानस में यह भावना गहरी पैठ बनाए हुई थी क्षक रांगमचां में भिे घरों की क्षियों का अक्षभनय करना न क्षसफण अिोभनीय है बक्ष क इससे उनमें नैक्षिक मू यों में ह्रास िथा घर के कायों के प्रक्षि अवहेिना के भाव भी उत्पन्न होंगे । हािा​ाँक्षक इस समय िक कुिीन पररवारों के िड़कों का भी अक्षभनय करना िक्षमदिं गी का कारण माना जािा था । िड़क्षकयों द्वारा अक्षभनय िो बहुि दरू की बाि थी । 1931 में कुमारी सत्यविी ने ‘माधिु ी’ नामक पक्षत्रका में यह प्रश्न अपने िेख के मायययम से उठाया क्षक क्षहदां ी रांगमचां पर क्षिया​ाँ क्यों नहीं? उन्होंने न क्षसफण यह प्रश्न उठाया बक्ष क ित्कािीन समाज में क्षियों की सामाक्षजक क्षस्थक्षि एवां भक्षू मका का भी आकिन क्षकया । सत्यविी ने क्षियों के सपां णू ण क्षवकास के क्षिए अनक ु ू ि पररक्षस्थक्षियों की मागां की । आज की िब्दाविी में कहें िो यह िेख नहदं ी रंगमच ं का पहला स्त्री नर्मशव है क्षजसके जररए िेक्षखका ने रांगमचां में क्षियों के प्रवेि की िाक्षकणक आवश्य यकिा जाक्षहर की । नाटकों में िी भक्षू मका को परु​ु र्षों द्वारा क्षनभाए जाने को िेकर कई आपक्षत्तया​ाँ उठािे हुए उन्होंने क्षिखाः ‘‘लजस प्रकाि जीवन स्त्रीत्व एविं परु​ु षत्व इन दो भागों में लवभक्त ै तथा जीवन के ि कायक में स्त्री तथा परु​ु ष दोनों को भाग िेना पड़ता ै । उसी प्रकाि किा के अगिं नाटक में भी ज ाँ जीवन के सख ु औि दःु ख दोनों लदखाए जाते ,ैं स्त्री एविं परु​ु ष दोनों को भाग िेना चाल ए । दाढ़ी मछू मड़ु ाए एु स्त्री-भेष में परु​ु षों का ि​िंगभलू म में आना ास्यास्पद तथा किा की दृलि से अपमानजनक ै । परु​ु ष के लिए य बात सवकथा अस्वाभालवक ोने के कािण य एकदम असिंभव भी ै लक व सफितापवू कक स्त्री की भलू मका अदाकि सके एविं वास्तलवक भावों को िोगों के हृदय में उताि सके । क्या य सभिं व ै लक परु​ु ष के मन में व ी भावनाएिं उसी प्रकाि जोिों से आदिं ोलित ो सकती ै । लजस प्रकाि स्त्री के मन में ोती ?ैं परु​ु ष लकसी बात को उसी ति म ससू न ीं कि सकता लजस प्रकाि स्त्री औि जब मािा हृदय ी लकसी भावना के आवेग से प्रकिंलपत न ीं ो ि ा ै तब य कै से सभिं व ोगा लक म लकसी दसू िे के मन पि प्रभाव डािने में समथक ों । य किा न ीं, किा का उप ास ै । जब भावनाएँ झिू ी या बनावटी ोगी तब उनकी अलभव्यलक्त भी वैसी ी ोगी । इसलिए


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

किा की दृलि से स्त्री का ि​िंगमचिं पि आना आवश्यक ै । य ाँ आकि ी वे बता सकती ैं लक किा में लकतना सौंदयक ै । परु​ु ष के लिए लस्त्रयों के चरि​ि का अलभनय किना कदालप ल तकि न ीं ो सकता " । 11 सत्यविी का िेख क्षियों की अक्षभव्यक्षक्त थी । इस िेख ने उस समय के बौक्षर्द्क जगि में हिचि पैदा कर दी । क्षजससे उत्तेक्षजि होकर इसके प्रत्यत्तु र में कई िेख क्षिखे गए । ‘लवशाि भाित’ के सह सपां ादक िजमोहन िाि वमाण ने िो रांग पररवेि की क्षस्थक्षि को बदिने की बजाए क्षियों के मचां पर आने के क्षवचार को ही अिाक्षकणक बिाया । मािरु ी के अक ु िापणू ण ां 6 में कुमारी सत्यविी के क्षवचारों को भावक एवां अिाक्षकणक बिािे हुए उन्होंने क्षिखा : ‘‘ि​िंगमचिं पि लस्त्रयों को स्थान लदिाने की अपेक्षा क ी अलधक म त्वपणू क प्रश्न ै लक क्या ि​िंगमचिं पि भिे घि की ि​िनाओ िं का उतिना वािंछनीय ?ै किा की दृलि से मैं प िे ी स्वीकाि कि चक ु ा ँ लक स्त्री की भलू मका स्त्री के द्वािा लकया जाना लनिय ी वािंछनीय ै । पि​िंतु क्या सदाचाि, नैलतकता औि चरि​ि गिन आलद की दृलि से मािी िड़लकयों का नाटक किा में अलभनय किना वािंछनीय एविं उलचत ?ैं क्या ि​िंगमचिं पि ना लथिकने से ी मािी देलवयों की शलक्तयािं अलवकलसत ोकि नि ो ि ी ?ैं क्या लथएटि में ी नाच कि लस्त्रयों की शलक्त के अपव्यय को िोका जा सकता ?ै सिंसाि की लकतनी म ान लस्त्रयों ने नाटक में अलभनय किके अपना लवकास लकया ?ै ’’12 इस प्रकार की कई क्षटप्पक्षणया​ाँ इस िेख में की गई, क्षजनमें ित्कािीन समाज की सक ां ीणणिा की झिक क्षमि​िी है । इसने रांगमचां के सहज क्षवकास एवां उसमें क्षियों के प्रवेि को बार-बार अवरूद्व क्षकया । यही वह दौर था जब महात्मा गािां ी के अह्वान पर हजारों की सख्ां या में क्षिया​ाँ देि की आजादी के क्षिए घरों से बाहर क्षनकि रही थीं और परू ा देि एक बड़े पररवार में िब्दीि हो चक ु ा था । अययययन यह बिािे है क्षक स्वािीनिा-आदां ोिन में मक्षहिाओ ां की भागीदारी गािां ीजी की बदौि​ि ही सभां व हो पाई । 1920 के बाद वे एक जीिे जागिे महापरु​ु र्ष में िब्दीि हो चक ु े के थे । गािां ी जी का यह मानना था क्षक कई काम क्षसफण मक्षहिाएां ही कर सकिी हैं । मिु क्षकश्वर यह मानिी हैं क्षक गािां ीजी ने सावणजक्षनक जीवन में क्षियों को एक नया आत्म सम्प्मान, नया क्षवश्वास नई आत्मछक्षव क्षदिाई क्षजसके कारण क्षियों का सावणजक्षनक जीवन में आना सभां व हो सका । परांिु यह क्षसफण इसक्षिए सभां व हो सका क्योंक्षक िब स्वित्रां िा आदां ोिन को एक िाक्षमक ण क्षमिन माना गया और गा​ांिी को महात्मा।यह कोई राजनीक्षिक कृ त्य नहीं है यह सोचिे हुए घर के परु​ु र्षों ने भी अपनी मक्षहिाओ ां को इसमें भाग िेने की सहर्षण अनमु क्षि दे दी ।परांिु उसी दौर में एक और वगण भी सक्षिय था जो सांस्कृ क्षि, सभ्यिा एवां परांपरा के नाम पर क्षियों की स्विांत्रिा को बाक्षि​ि कर रहा था । इस बहस को रांगमचां की दक्षु नया में भी ि​िािा जा सकिा है । जहा​ाँ एक िरफ िरक्की पसदां िबका था िो दसू री िरफ परांपरावादी । क्षियों के रांगमचां में अक्षभनय को िेकर अपने क्षवचार रखिे हुए चा​ाँद पक्षत्रका (1921) में प्रकाक्षि​ि िेख ‘‘ग पत्नी या किा देवी’’ में रामकृ ष्ट्ण ने कहा क्षक :

11 12

कु॰ सत्यविी, रांगमांच पर क्षिया​ाँ का स्थान, माधिु ी, वर्षण 10-, खांि 1-, 1931, सांख्या 8. िजमोहन वमाण, रांगमांच और क्षिया​ाँ, माधिु ी, वर्षण 10-, खांि 1-, 1931, सांख्या 6.


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

" क्या मािी गल लणयाँ अलभनेिी बनकि ग स्थ, गौिव औि दापिं त्य के उत्तिदालयत्व को उसी खशु ी औि तत्पिता से व न कि सकती ैं जो एक गैि अलभनेिी के लिए सभिं व ?ै मािा प्रश्न य ीं समाप्त न ीं ोता,इसमें दापिं त्य जीवन की पलविता औि पारिवारिक लजम्मेवारियों से भी बड़ी सािंस्कलतक लनमकिता का प्रश्न ै ।’’ 13 1936 के पिाि् राष्ट्रीय आदां ोिन में भी वामपांथ की गाँजू सनु ाई देने िगी क्षजसके उपरा​ांि जनवादी आदां ोिनों का दौर िरु​ु होिा है। भारि में आजादी से पहिे और उसके बाद कई ऐसे जनवादी आदां ोिन खिे​े़ हुए क्षजनसे जनवादी रांगकमण, क्षविेर्षिः नक्ु कड़ नाटक िेखन को बि क्षमिा और इन नाटकों ने भी कई आदां ोिनों में अपना यथासभां व सहयोग क्षदया । उनमें साक्षहक्षत्यक - सा​ांस्कृ क्षिक आदां ोिनों के प्रगक्षि​िीि िेखक सांघ और इप्टा िथा राजनीक्षिक सामाक्षजक आदां ोिनों में से मजदू रों, क्षकसानों, मक्षहिाओ ां और दक्षि​िों द्वारा चिाए गए आदां ोिनों को जानना आवश्य यक है । िीरे-िीरे ही सही अब प्रगक्षि​िीि क्षवचारों वािे पररवारों में क्षियों के रांगमचां पर अक्षभनय करने को िेकर जड़िा की क्षस्थक्षि नहीं रह गयी । क्षजस समय भारि में क्षिक्षटि साम्राज्यवाद और अिांराष्ट्रीय स्िर पर फासीवादी िक्षक्तयों का क्षवरोि चरम पर था उस समय साम्राज्यवाद और फासीवाद से िड़ने के क्षिए जनिा को िैयार करने के उद्देश्य य से इप्टा(इलिं डयन पीपल्ु स लथएटि एसोलसएशन या भाितीय जन नाट्य सिंघ) की स्थापना हुई । इप्टा ने रांगकमण के मायययम से जन-जागृक्षि में महत्वपणू ण भक्षू मका क्षनभाई । उसने नाट्यों को क्षसफण क्षथएटर हाउसों िक सीक्षमि नहीं रखा बक्ष क गिी, मोह िों, कस्बों और गा​ांवों िक पहुचाँ ाया । इसके क्षिए उसने िोक नाट्य रुपों जैसे जात्रा, िमािा, स्वा​ांग, नौटांकी आक्षद का उपयोगी समकािीन यथाथण को प्रस्ि​िु करिे हुए जनिा िक अपना सदां ेि पहुचाँ ाने के क्षिए क्षकया । इस िरह जननाट्य की प्रगक्षि​िीि परांपरा को पनु जीक्षवि करिे हुए नाट्य एक नई पहचान के साथ सामने आया । 1942 से इप्टा जैसी नाट्य सांस्थाओ ां के सक्षिय होने के उपरा​ांि नाटकों एवां गीिों के मायययम से आम जनिा के सांघर्षण को बि क्षमिा । जहा​ाँ एक िरफ पारसी रांगमचां ने आक्षथणक िाभ को कें द्र में रखा, क्षजसका उद्देश्य य क्षविर्द् ु रुप से जनिा का मनोरांजन करना था वहीं इप्टा िथा उस दौर की अन्य जनवादी नाट्य सांस्थाओ ां ने अपने नाटक का क्षवर्षय जनिा की समस्याओ,ां उनके प्रक्षि हो रहे अन्याय िथा सांघर्षों को बनाया । इन यथाथण आिाररि सोदेश्य य जन नाटकों ने रांगमचां के िेत्र में भारी पररविणन क्षकया । इस क्षदिा में पृथ्वी क्षथएटर की भक्षू मका भी अत्यांि सराहनीय है । 1944 में पृथ्वी क्षथएटर की स्थापना के बाद पृथ्वीराज कपरू ने क्षथएटर के मायययम से जनवादी आदां ोिनों को बहुि समथणन क्षदया । इस क्षथएटर में इप्टा की कायणकिाण एवां रांगकमी रह चक ु ी कई मक्षहिाओ ां ने व्यावसाक्षयक िौर पर बिौर अक्षभनेत्री काम करना िरु​ु कर क्षदया । उन अक्षभनेक्षत्रयों में एक महत्वपू णण अक्षभनेत्री जोहरा सहगि भी थीं, क्षजन्होंने अपनी आत्मकथा‘स्टेवि​ि’ में पृथ्वी क्षथएटर के उन क्षदनों को याद करिे हुए कई महत्वपणू ण बािें क्षिखी हैं । आजादी के उपरा​ांि कई अक्षभनेक्षत्रयों यथा- िृक्षप्त क्षमत्रा, िोभा सेन, के िकी दत्ता, सि ु भा देिपा​ांि,े सिु ा क्षिवपरु ी, सरु ेखा क्षसकरी, उत्तरा बावकर, रोक्षहणी हटांगड़ी, सनु ीिा प्रिान इत्याक्षद ने नाटकों में परु​ु र्षवादी मानदण्िों से परे जाकर महत्वपणू ण भक्षू मकाएाँ क्षनभायीं । अब इस िेत्र में क्षसफण अक्षभनेक्षत्रयों ही नहीं रह गई थी बक्ष क मक्षहिा क्षनदेक्षिकाओ ां का भी एक समहू उभर रहा था । क्षजसमें िा​ांिा गा​ांिी, क्षवजया मेहिा, ज्वॉय क्षमिेि, उर्षा गा​ांगि ु ी, रेखा जैन, प्रक्षिभा अग्रवाि, बी .जयश्री, कीक्षिण जैन, नीिम मानक्षसांह, अनरु ािा कपरू , क्षत्रपरु ारी िमाण, अमि 13

गृह पत्नी या किा देवी , रामकृ ष्ट्ण , चाँद, अप्रैि, 1940, पृ.103.


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

अ िाना इत्याक्षद नाम उ िेखनीय हैं । इन्होंने न क्षसफण अक्षभनय प्रक्षिया को पनु व्याणख्याक्षयि क्षकया बक्ष क रांगमचां को कई ऐक्षिहाक्षसक नाटक भी प्रदान क्षकए । बावजदू इसके , रांगमचां की दक्षु नया में क्षियों की क्षस्थक्षि पहिे से बेहिर हुई थी, यह कहना अक्षि​ियोक्षक्त होगी । जो क्षिया​ाँ मचां पर अक्षभनेत्री के रुप में उिर रही थीं वे अभी भी सामाक्षजक दृक्षष्ट से हेय मानी जा रही थीं । नाटककार के रुप में मक्षहिाएाँ परु​ु र्षों द्वारा हाक्षिए पर ढके िी जा रही थीं । क्षनदेक्षिका के रुप में भी उन्हें इस दक्षु नया में जगह बनाने के क्षिए काफी मिक्कि करनी पड़ी । अभी भी प्रबिां क के िौर पर मक्षहिाओ ां की उपक्षस्थक्षि नगण्य थी । परांिु इसका िात्पयण यह भी नहीं था क्षक उन्होंने रांगमचां की दक्षु नया में कोई महत्वपणू ण योगदान नहीं क्षदया । आजादी के उपरा​ांि उभरी मक्षहिाओ ां की इस पहिी पीढ़ी ने हमेिा रांगमचां की दक्षु नया में सफि​िा का परचम िहराया । क्षवजया मेहिा मबु ांई में और िैिजा भाक्षटया क्षद िी में मिहूर क्षनदेक्षिका के िौर पर उभरीं । रोिन अ काजी उस जमाने में वेिभर्षू ा क्षवश्लेर्षक थीं । यहा​ाँ िक क्षक नया लथएटि जैसी नाट्य कांपक्षनया​ां, क्षजनके साथ आमिौर पर हबीब िनबीर का नाम जोड़ा जािा है, वह भी मोक्षनका क्षमश्रा िनवीर के अथक प्रयासों एवां उनके कुि​ि प्रबिां न-सयां ोजन के क्षबना खड़ा न हो पािा । उस नाट्य कांपनी में भी िीन और मक्षहिाएां रही है । किाकार के रुप में क्षफदाबाई िथा गाक्षयका के रुप में मािाबाई और नगीन िनवीर । इसके बावजदू सपां णू णिा में उस दौर के रांगमचां के अविोकन के अनसु ार यह सत्य है क्षक मक्षहिाएां हाक्षिए पर थीं । उसी िरह 1960 का दिक न क्षसफण भारि में बक्ष क वैक्षश्वक स्िर पर भी काफी उथि-पथु ि भरा रहा । नव-सामाक्षजक आदां ोिनों के फिस्वरूप उभरे कई आदां ोिनों जैस-े दक्षि​ि,अश्वेि िथा मक्षहिा समहू ों ने अपनी अक्षस्मिा िथा सांघर्षण को अपने नजररए से रखना िरु​ु क्षकया । 1970 का दिक वैक्षश्वक स्िर पर आदां ोिनों का दिक रहा । इस दौरान बड़ी सख्ां या में सामक्षू हक प्रयास के रुप में नाटक खेिे गए, जो िी मद्दु ों पर कें क्षद्रि थे । 1970 में क्षवक्षभन्न नारीवादी समहू ों ने मक्षहिा मद्दु ों के प्रक्षि चेिना जागृक्षि का कायण िरूु क्षकया और अपने सांघर्षों को नक्ु कड़ नाटकों के जररए सड़क पर िेकर आयी ।कुछ महत्त्वपणू ण नारीवादी सांगठनों जैसे जोगािी, स्त्री मलु क्त सिंगिन, गिीब, जोगिी सस्िं थान, लथएटि यलू नयन िथा स ि े ी ने इस कायण में महत्त्वपणू ण भक्षू मका क्षनभायी । हािाक्षां क इस सबां िां में अक्षिक क्षिक्षखि दस्िावेज उपिब्ि नहीं है परांिु व्यक्षक्तगि प्रयासों के कारण जो थोड़े बहुि साक्ष्य उपिब्ि हैं, उनसे यह पिा चि​िा है क्षक क्षकस प्रकार इन स्वायि सांगठनों ने औरिों की कहानी और रोजमरे की उनकी िकिीफों को सावणजक्षनक मद्दु े के िौर पर पेि क्षकया ।14 1970 के दिक में सामाक्षजक क्षहसां ा और मक्षहिाओ ां के प्रक्षि हो रहा िोर्षण ‘दहेज हत्याओ’ं के रूप में हमारे सामने आया ।ये हत्याएां विू पि द्वारा वर पि की मा​ांगों को परू ा न कर पाने के कारण होिी थीं । भारि में इस प्रकार के ‘पाररवाररक झगड़े’ िगभग सभी जाक्षियों, वगों, िमों िथा समदु ायों में सामान्य बाि थे । वास्िक्षवकिा यह थी क्षक दहेज की ि​िण पत्नी उत्पीड़न का पयाणय बन गई थी । मक्षहिा आदां ोिन के क्षिए उस दौर में यह िूरिा प्रमख ु मद्दु ा थी । कम्प्यक्षु नस्टों िथा वामपांथी पाक्षटणयों ने भी िोभ के साथ यह बाि स्वीकारी क्षक यह कुरीक्षि उनके अपने सदस्यों के बीच भी जारी है । िी उत्पीड़न का यह मद्दु ा सारे देि के मक्षहिा आदां ोिन का कें द्र-क्षबन्दु बन गया । दहेज के क्षवरुर्द् चिाए जाने वािे अक्षभयान के अिां गणि मक्षहिा कायणकिाणओ ां को पीक्षड़ि मक्षहिाओ ां से बार-बार होने वािी मि ु ाकािों और उनकी व्यथा-कथा सनु कर इस बाि का परू ा यकीन हो गया था क्षक इस देि में क्षियों को अनेक सक ां टों का सामना करना पड़ रहा है । नारीवादी स्वांय भी उनकी कोई सहायिा कर पाने में खदु को िाचार महससू कर रहे थे । समकािीन नारीवादी आदां ोिन में दहेज के क्षवरुर्द् 14

kanika Batra, In Alliance with the women’s movement, 2008.


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

प्रारांक्षभक क्षवरोि हैदराबाद में सन् 1975 में प्रगलतशीि मल िा सिंगिन द्वारा दजण कराया गया । अनेक बार सांगठन द्वारा आयोक्षजि प्रदिणनों में मक्षहिाओ ां की सांख्या सौ िक पहुचाँ गई क्षफर भी उनका क्षवरोि प्रदिणन पणू णरुपेण आदां ोिन की िक्ि नहीं िे पाया । िगभग दो वर्षों की खामोिी के बाद दहेज के क्षवरुर्द् आदां ोिन क्षद िी में िरू ु हुआ । यह आदां ोिन इस बार मक्षहिाओ ां के दहेज-उत्पीड़न पर के क्षन्द्रि था । खासिौर से दहेज हत्या के क्षवरुद्व पांजाब, महाराष्ट्र, कनाणटक, गजु राि, मययय-प्रदेि, पक्षिम-बांगाि सक्षहि भारि के अनेक भागों में क्षवरोि अक्षभयान चि रहे थे परांिु दहेज सांबिां ी अपरािों के क्षवरुर्द् क्षवस्िृि आदां ोिन क्षद िी में ही चि रहा था । इसका कारण यह था क्षक क्षद िी में दहेज के कारण होने वािी हत्याओ ां की सख्ां या सबसे अक्षिक थी । अब िक आग िगने से होनें वािी मौिों को आत्महत्या के रूप मे क्षिया जािा था, और दहेज-उत्पीड़न को आत्महत्या का कारण बहुि कम माना जािा था । आमिौर पर पक्षु िस द्वारा भी ऐसे मामिों को ‘पाररर्ाररक और निजी’ कहकर नजरअदां ाज कर क्षदया जािा था । इसे राज्य की क्षचांिा का क्षवर्षय नहीं माना जािा था । बहरहाि, दिकों से चिी आ रही इस उदासीनिा का नारीवाक्षदयों ने क्षवरोि क्षकया िथा आग िगने से होने वािी मौिों को यह कहिे हुए क्षक उनकी औपचाररक ‘आत्महात्याए’ां आत्महत्याएां नहीं, बक्ष क हत्याएां है, उसे दहेज उत्पीड़न से जोड़ना िरु​ु क्षकया गया । कुछ मामिों में दहेज हत्या की क्षिकार मक्षहिाएाँ बयान देने के क्षिए काफी देर िक जीक्षवि रहीं और उन्होंने अपने मृत्य-ु पवू ण बयान में सास-ससरु द्वारा दहेज के क्षिए िांग क्षकए जाने का उ िेख भी क्षकया परांिु पक्षु िस ने इिनी सस्ु ि और देर से कारवाई की क्षक हत्यारे साक्ष्य क्षमटाने में कामयाब हो गए और हत्या के मामिे को आत्महत्या कह कर सारा मामिा रफा-दफा कर क्षदया गया । नारीवाक्षदयों ने इस क्षस्थक्षि के क्षवरुर्द् यह कहिे हुए आवाज बि ु दां की क्षक मृत्य-ु पवू ण मक्षहिा द्वारा क्षदए गए बयान को साक्ष्य माना जाए और पक्षु िस के िौर िरीकों को चस्ु ि क्षकया जाए िथा समाज हत्यारों का बक्षहष्ट्कार करे । कुछ िोगों पर इसका असर भी हुआ।उन्होंने सहमक्षि जिािे हुए िरनों में भी भाग क्षिया । िी सांघर्षण द्वारा क्षकया गया क्षवरोि प्रदिणन इिना िीि था क्षक अक्षभयक्त ु ों के घर पहुचाँ िे-पहुचाँ िे जि ु सू िीन गनु ा बड़ा हो जािा । इस जि ु सू में हत्यारों के पड़ोसी, अपने बच्चों के साथ िाक्षमि होिे, सफाई कमणचारी, घरेिू नौकर िथा आसपास से गजु रने वािे िोग भी इसमें िाक्षमि हो जािे । इस सफि​िा को देखिे हुए नारीवाक्षदयों ने दहेज के मद्दु ें को उठाने के क्षिए िोगों से सवां ाद का सीिा िरीका खोजने की जरूरि महससू की । नए िरीके ि​िािने के क्षिए हुई चचाण के दौरान ‘नक्ु कड़ नाटक’ का सझु ाव उभरा । क्षजसके पिाि िी सांघर्षण ने दहेज हत्या पर आिाररि पहिा नक्ु कड़ नाटक‘ओम स्िाहा’ खेिा गया । नाटक की कहानी दो मक्षहिाओ ां की दहेज हत्या पर आिाररि थी । इसकी िोकक्षप्रयिा इिनी बढ़ी क्षक सभी िेत्रों से सक्षमक्षि के पास नाटक के प्रदिणन के अनरु ोि आने िगे । िोगों ने नािी िक्षा सलमलत को पत्र क्षिखकर उनके िेत्रों में आने िथा नक्ु कड़ नाटक करने का अनरु ोि क्षकया । नाटक करने वािी अक्षिकिर मक्षहिाएाँ मयययवगीय थी । उनकी ओर से पहिी बार यह सिीय प्रयास क्षकया गया। इसी िम में कई मक्षहिा सगां ठनों का भी गठन हुआ जैसे बबां ई में फोिम अगेंस्ट ऑप्रेशन ऑफ वमु ने , लवमोचना, स्त्री शलक्त सगिं िन, स ि े ी,जागोिी आक्षद । इन सभी सांगठनों ने राज्य को इस बाि के क्षिए सीिे िौर पर उत्तरदायी ठहराया क्षक वह मक्षहिाओ ां के प्रक्षि हो रही क्षहसां ा के प्रक्षि जरा भी सजग नहीं है और सरकार से इस िरफ क्षविेर्ष यययान देने की अपीि की ।15 1979 में क्षद िी में नारीवाक्षदयों के एक समहू ने पहिी नारीवादी पक्षत्रका ‘मानषु ी’ की िरू ु आि की क्षजसने बि ु दां आवाज में दहेज जैसी कुप्रथा की क्षवरोि करिे हुए मक्षहिा आदां ोिन को एक महत्त्वपणू ण मचां उपिब्ि कराया । 1978 में क्षद िी में सभु द्रा बटु ाक्षिया ने दहेज को अपने प्रक्षिरोि का मख्ु य क्षवर्षय बनाया । अन्य सभी गक्षिक्षवक्षियों के अक्षिररक्त इन सगां ठनों ने नारे क्षिखे, दहेज पीक्षड़िों के घर के सामने 15

Bhatia Nandi, Bringing women’s struggles to the streets in postcolonial India, Act of Authority/Act of

resistance: Theatre and Politics in colonial and post colonial India, oxford University Press,2004.


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

िरना प्रदिणन क्षकया िथा पक्षु िस के दस्िावेजों की छानबीन िरूु की ।नारीवादी कायणकिाणओ ां ने नक्ु कड़ नाटकों के मायययम से इन सामक्षजक कुप्रथाओ ां को सबके सामने उठाने का िरीका अपनाया । यह नाटक क्षसफण क्षनदेिात्मक ही नहीं थे, बक्ष क मनोरांजन भी थे । उदाहरण के क्षिए कई मक्षहनों िक िगािार दहेज हत्याओ ां के क्षवरुर्द् िरना प्रदिणन करिे हुए, नारे िगािे हुए, पोस्टर िगािे हुए िी सघां र्षण ने यह महससू क्षकया क्षक ‘नक्ु कड़ नाटक वास्तव में िोगों को सिंबोलधत किने का सबसे सीधा औि सि​ि तिीका था' ।16 अनरु ािा कपरू , रक्षि बाथोिोभ्यू िथा माया राव के प्रयासों से िी सघां र्षण ने ‘विएटि यूवनयन’ नाम की ईकाइ का गठन क्षकया क्षजसका उद्देश्य य नाटकों के मायययम से िी अक्षिकारों के प्रक्षि जनिा में जागरूकिा पैदा करना था । 1980 में क्षथएटर यक्षू नयन द्वारा ‘ओम स्िाहा’ नामक नक्ु कड़ खेिा गया क्षजसे जनिा ने इिना पसदां क्षकया की बाद में कई स्थानों पर इसे खेिा गया । परू े नाटक का कथानक एवां सांवाद जैसा क्षक अनरु ािा कपरू बिािी हैं क्षक पांजाबी िोकगीि और वहा​ाँ की स्थानीय बा​ांिी में क्षिखे गए । इन नाटकों ने आम िोगों के बीच ऐसा असर पैदा क्षकया क्षक ज्यादा से ज्यादा िोग दहेज जैसी कुप्रथा के क्षखिाफ बोिने िगे और औरिों की विणमान दिा से मक्षु क्त के क्षिए कृ िसांक प होने िगे।“ओम स्वाहा’ जैसे नाटक ने जनिा में यह सदां ेि फै िाने में सफि​िा हाक्षसि कर िी थी क्षक घरों के बदां दरवाजों के भीिर अभी बहुि कुछ ऐसा है क्षजस पर बाि क्षकया जाना जरूरी है"। भारि में मक्षहिा क्षथएटर ग्रपु के रूप में क्षथएटर यक्षू नयन ने न क्षसफण दहेज हत्या जैसे मद्दु ों को उठाया बक्ष क सिी-प्रथा और पक्षु िस क्षहरासि में होने वािे बिात्कारों को भी अपने प्रदिणनों में मद्दु ा बनाया । बिात्कार के मद्दु े को नाटक दफा 108 में उठािे हुए पक्षु िस क्षहरासि में मक्षहिाओ ां के अक्षिकारों से दिणकों को अवगि कराया जािा । समहू ने इस नाटक को कॉिेजों, पाकों िथा उन झग्ु गी बक्षस्ियों में कई-कई बार क्षदखाया जहा​ाँ की औरिों को पक्षु िस वेश्य या होने के सदां ेह पर क्षगरफ्िार करिी थी और जेि के अदां र मक्षहिाएाँ कई क्षदनों िक बिात्कार का क्षिकार होिी थीं । क्षद िी में क्षथएटर यक्षू नयन के अक्षिररक्त भारि के अन्य िहरों और गा​ाँवों में भी कई क्षथएटर कायणिािाओ ां का आयोजन क्षकया गया क्षजसमें जन नाट्य मचिं क्षजसे मािा हािमी चिा रही थीं, िमि​ि ु इस्िाम की लनशािंत क्षजसमें हबीब िनवीर और बादि सरकार जैसे कायणकिाण िाक्षमि थे, अह्वान जैसे सगां ठन सभी साथ क्षमिकर आवाज उठा रहे थे । इनमें से कई समहू ों ने अपने नाटक खदु क्षिखे और खदु ही उनका क्षनदेिन क्षकया । झग्ु गी-बक्षस्ियों, सड़कों, पक्षब्िक-पाकों, फुटपाथों, क्षवश्वक्षवद्यािय-पररसरों में इन नाटकों को खेि​िे हुए आवश्य यकिानसु ार इसमें पररविणन और सि ां ोिन भी क्षकए जािे रहे । इन सांगठनों के अक्षिररक्त कई छोटे-मोटे सांगठन भी थे क्षजन्होंने अत्यांि महत्त्वपणू ण योगदान क्षदया परांिु मख्ु यिारा की मीक्षिया द्वारा उसका दस्िावेजीकरण नहीं क्षकया जा सका । 1991 में हेमा रैंकर के क्षनदेिन में 15 क्षकसान मक्षहिाओ ां और दो परू ु र्षों के साथ क्षकए गए नाटक ‘अबला स्त्री’ पर एक सामक्षू हक चचाण आयोक्षजि की गयी और इसी के आिार पर एक और नाटक भी क्षकया क्षजसका नाम था, ‘सामाविक बध ु गी झाली आहे’ नामक नाटक क्षकया क्षजसे महाराष्ट्र के 2000 िोगों के बीच प्रदक्षिणि ं न’। िी मक्षु क्त सगां ठनों ने ‘मल क्षकया गया।वे सभी कायणकिाण जो सामाक्षजक मद्दु ों पर नाटक क्षकया करिी थी, उन्हें नक्ु कड़ नाटक में यह सांभावना क्षदखिी थी क्षक वे अपने मद्दु ों और प्रक्षिरोि को सिक पर िा सकें । मक्षहिाओ ां के अक्षिकारों के क्षिए अक्षभयान चिा सकें िथा मीक्षिया, राजनीक्षि और सरकार की िी सांबांिी नीक्षियों एवां कायणिमों में हस्ि​िेप कर सकें । मक्षहिाओ ां के क्षथएटर की एक और यययान वािी बाि यह थी क्षक वे अपनी घरेिू क्षजन्दगी की िकिीफों और समस्याओ ां को जाक्षहर करने के क्षिए मिहूर नारों और िोक परांपराओ ां का सहारा िेिी थी ।खासिौर पर, नारों के जररए वे नाटकों को बोक्षझि और उबाऊ बनाने की


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बजाए रोचक और मरोरांजन बनािी थीं । साथ ही, इस िम में वे दिणकों के साथ एक ररश्य िा भी बनािी थीं । वे जिािी थी क्षक क्षजस िरह हमारे गीि िम्प्ु हारे है ,उसी िरह हमारे सांघर्षण भी िम्प्ु हारे हैं । कई क्षथएटर ग्रपु ऐसे भी थे जो अपना िीर्षणक ही ऐसा चनु िे क्षजसमें सामक्षू हकिा का बोि हो । उनके नाम से ही दिणकों को उनके एजेण्िे के बारे में पिा िग जािा था । वे सभी समस्याएां क्षजनका सामना औरिें कर रही थीं उन्हें क्षसफण एक सामाक्षजक कारण के रूप में ही नहीं देखा गया बक्ष क उन्हें जाक्षहर करने के क्षिए नाट्य प्रक्षवक्षि का भी सहारा क्षिया गया । इन सांगठनों ने इस कायण के क्षिए बड़ी सख्ां या में मक्षहिाओ ां को किाकार, िेक्षखका िथा कहानी सनु ाने वािी के रूप में िाक्षमि क्षकया । अपनी कहानी कहिे हुई अक्षभनेक्षत्रया​ां क्षसफण अपने व्यक्षक्तगि अनभु वों पर ही के क्षन्द्रि नहीं थी, बक्ष क वे उन िरीकों को भी उजागर करिी थीं क्षजनके द्वारा सामाक्षजक मू यों एवां अपेिाओ ां की पररक्षि में उन्हें बािां कर रखने का प्रयास करिी थीं । नाटकों को रचने की प्रक्षवक्षि में भी यह कोक्षि​ि की जािी थी क्षक उनकी आपबीिी को साझा करने के िम में ही नाटक का कथानक भी िैयार हो सके और थोड़ी बहुि फे रबदि के साथ उसे प्रस्ि​िु क्षकया जा सके । इसका अथण यह था क्षक दिणकों के बीच से ही सवाि पैदा हों और उन सवािों को िी सिक्षक्तकरण के सदां भण में समझने की कोक्षि​ि की जाए । कई मक्षहिा किाकारों ने इसमें काम करिे हुए ‘सामाक्षजक सम्प्मान’ का भी अनभु व क्षकया। भारि में 1970 के अक्षां िम एवां 80 के प्रा​ांरक्षभक दिक में जब जि​िाट्य मंच की स्थापना हुई िब मक्षहिा आदां ोिन मक्षहिाओ ां के प्रक्षि हो रही घरेिू एवां सामाक्षजक क्षहसां ा पर अपना यययान के क्षन्द्रि क्षकए हुए था । ‘जनम’ ने अपने िरु​ु आिी क्षदनों से ही क्षिगां -आिाररि भेद-भाव के प्रक्षि आम जनिा के बीच में चेिना जागृक्षि का कायण प्रारांभ कर क्षदया था । इसी िम में उसने ‘औित’ नामक नाटक खेिा । 1979 में स्त्री शलक्त नामक एक सगां ठन बना क्षजसका मख्ु य मद्दु ा दहेज क्षवरोि था । इस सगां ठन द्वारा ‘ओम स्वा ा’ नामक नाटक खेिा गया क्षजसकी अखबारों में खबू चचाण और सराहना हुई । इसे बाद में भारि के हर भाग में मक्षां चि क्षकया गया । इसी प्रकार वो बोि उिी, ब , रुदािी, बेटी आई ै इत्याक्षद कुछ ऐसे नाटक थे जो बहुि मिहूर हुए । इन नाटकों ने मक्षहिा आदां ोिन को मजबिू ी प्रदान की िथा इसके मायययम से जनिा को क्षपिृसत्ता की सरां चना और उसके िोर्षण के िाने-बाने को समझने में मदद क्षमिी । यह अपने आप में एक रोचक इक्षिहास है क्षक क्षपछ्िे िेढ़ सौ सािों में मक्षहिाओ ां ने क्षकस प्रकार अपनी जगह इस दक्षु नया में बनाई । रांगमचां के िरु​ु आिी दौर से सामाक्षजक स्वीकायणिा, सम्प्मान िथा समान अक्षिकार पाने के क्षिए उन्होंने बहुि सघां र्षण क्षकया । मक्षहिाओ ां ने हर कदम पर असमानिा एवां सामाक्षजक हीनिा की क्षस्थक्षि का सामना क्षकया । हम सभी इस इक्षिहास से पररक्षचि है क्षक नटी लवनोलदनी जो बांगाि की एक अक्षभनेत्री थीं, उन्होंने क्षसफण अपने नाम पर एक क्षथएटर की इच्छा के कारण एक िनाढय के साथ रहना िक स्वीकार क्षकया था ।17 िेक्षकन क्षस्थक्षि बदिी और दो मिहूर क्षथएटर हाऊस मबांु ई का ‘पथ्ृ िी विएटि’ और बेंगिरू ु का ‘िंग शक ं ि’ मक्षहिाओ ां द्वारा देखे गए स्वप्न के पररणाम के रुप में हमारे सामने आये । यहा​ां महत्वपणू ण है क्षक जब भी मक्षहिाओ ां ने रांगमचां की बागिोर सांभािी, उन्होंने उसमें अपनी सांवदे ना और सरोकारों को भी िाक्षमि क्षकया जो उनकी पहचान से ज्यादा मायने रखिे थे । वे समाज के साथ व्यापक िौर पर जड़ु ाव चाहिी थीं । दसू रे िब्दों में, मक्षहिाएाँ रांगमचां की दक्षु नया में अपना कमिा चाहिी थीं, िेक्षकन जो दक्षु नया उन्होंने बनाई वह कभी उनकी खदु की नहीं रही । इिनी सारी उपिक्षब्ियों के बावजदू अभी भी मक्षहिाओ ां पर कें क्षद्रि रांगमचां ीय गक्षिक्षवक्षियों का अभाव है । अक्षभनेक्षत्रयों, रांगकक्षमयण ों िथा कायणकिाओ ां द्वारा क्षकये गए साहक्षसक कायों िथा सघां र्षों का अययययन क्षकया जाना आवश्य यक है । क्षपछिे िेढ़ सौ वर्षों में वह दक्षु नया जो 17

औरिें और रांगमचां , क्षविेर्षाक ां , नक्ु कड़, अप्रैि – क्षसिबां र, 2007, अक ां – 38-36.


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मक्षहिाओ ां के क्षिए सवणथा वक्षजणि थी, उसी रांगमचां का उपयोग मक्षहिा आदां ोिन ने एक रणनीक्षि के रुप में अपने मद्दु ों को उठाने िथा िोगों के बीच उसके प्रक्षि सांवदे निीि​िा पैदा करने के क्षिए क्षकया । इस दृक्षष्ट से भी रांगमचां के पांरपरागि इक्षिहास के बरक्स नारीवादी दृक्षष्ट से इसके इक्षिहास का पनु िेखन एवां पनु राविोकन क्षकया जाना आवश्य यक है ।


रं ग विमर्श

Jankriti (International e magazine), vol-2, April- 2015

Shakespeare Performance in Park Shakespeare Performance in Park, it is basically performance space related subject. So first we try to convey about the performance space. Mostly performance takes place in theatre auditorium. This is called indoor theatre. And other type of performance takes place in open air or street or outdoor theatre. Space, actors, audiences and stage relate one to the other. All performance spaces relate to distance an actor from audience and audience’s distance from one another. There are two types of performance spaces: Formal Space and Informal Space. In Formal Space the actor keep him or her separate from the audience, such as: 1. 2. 3. 4.

Proscenium Arch Raised platform Light curtain

Informal Space the actor may: 1. Be on the same level with audience 2. Be close 3. Be in the same light or darkness

Dani Karmakar State Junior Research Fellow Department of Drama Rabindra Bharati University Email: danidrama.karmakar@gma il.com Mobile: 09874053622

4. No boundaries

Now we are coming into the main topic. "All the world's a stage." This is the most famous line of Shakespeare’s plays. From last decades Shakespeare’s dramas have been transported to unusual landscapes like parks, parking lots, caves, beaches, mountains all over the world. And people are trying to acquire his plays from traditional theatergoers. The plays perform in open air spaces or non-traditional spaces. Besides realistic set setting, the plays perform in natural set with trees, under the sky and create an environment of fantastic world of Shakespeare. Audiences take fresh air and smash toes into the grass sitting on the grassy field. The spaces become an annual traditional event of the community. Local high quality actors or famous actors take part on these performances. It is not only to great chance to connect with friends and neighbors but also watch a great show in the park. Shakespeare’s plays perform in open air have been multiplying all over the world. Here are some examples:


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Cambridge Shakespeare Festival is one of the popular open air theatre festivals where most of Shakespeare’s dramas perform in eight weeks during July and August in the gardens of the Colleges of Cambridge University. This is the time when national and international tourists come to the city. The festival plays a significant role to attract the visitors. More than 25000 audiences watch the productions. It is highly visual experience. People can picnic before watching the plays on the evening. May be they does not have any prior experience about the plays. The productions perform with Elizabethan costumes and live music. In the evening moon provides a spectacular artistic view and different modes during the performances. The plays perform at Robinson College’s amphitheatre, Fellows' Garden at Trinity College, Downing College, Fellows' Garden at King's College, Scholar's Garden at St John's College, garden’s of Homerton College. The performances held on grassy fields or amphitheatre. University of Southern Queensland (USQ) organizes annually a large outdoor ‘Shakespeare in the Park Festival’ that held in Toowoomba, Queens Park and Queensland. The main motive is to encourage large

numbers of audiences to attend in this festival. They make Shakespeare’s play in such a way that is more accessible to the audiences. All over the country of U.S, 18 outdoor Shakespeare Festivals held in the summer. The plays are produced by well-known theatre companies. New York’s ‘Public Theatre’ is the father of all outdoor Shakespeare festivals. It organizes annually ‘Shakespeare in the Park’ (NYC) in Central Park in the evening. Popular actors participate in these performances. In United States, There has only one amphitheatre built as Theatre of Dionysus in Athens at Saint Elizabeth College campus. Approximately 400 audiences come to bring blanket or chair or cushion for sitting arrangement. Family picnics are encouraged. ‘The Shakespeare Theatre of New Jersey’ becomes a get-together party or date night. Shakespeare in the open air in park has worked successfully in cities like London and New York. They try to bring literature to life in a relaxed environment to make it more accessible. Food and combining picnicking with theatre is a new concept of performance. The growth


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of popularity of open air Shakespeare is not just in United States. In Australia, Shakespeare’s performances have been commercially successes without any government subsidy. Now we discuss the matter of open air performance basically in Shakespeare’s plays. And search the visions of these kinds of performances. Shakespeare in Clark Park, a well known theatre company in West Philadelphia offers free Shakespeare performances to invite the community to spend a summer evening in the park on green space. It is founded in 2005 by Maria Moller, Tom Reing, Marla Burkholder and Whitney Estrin. They are engaging the whole community to summer time cultural event. The park re-imagines the world of Shakespeare. More than 2000 audiences attend in this season. Toby Zinman pointed out , “Clark Park is not just a venue, but a real place, where a perfectly shaped, immense tree provides a set of real theatricality. The actors come down the hill into their next scene, and darkness falls as the plot turns grim. The company has cobbled together,

with borrowed footlights and generosity of talent, a real treat for a summer evening.” (www.shakespeareinclarkpark.org) To the organizer, “We hold a core value that public art is both important and necessary, and are committed to continuing to provide access to free and surprising performance in a community-based environment. We believe in the continuing value of presenting Shakespeare’s work to as wide as possible an audience and that participating in this cultural tradition allows for an extraordinary level of self-recognition and personal fulfillment for audiences and artists alike.” (www.shakespeareinclarkpark.org) Wendy Rosenfield pointed out on ‘For The Inquirer’ after watching ‘Merry Wives of Windsor’ at Clark Park, “The theme works, not just because it dovetails nicely with Shakespeare’s intentions, but also because it’s happening inside the sloping grass bowl – a real-life hollow – at a neighborhood park, with dogs running past, children playing, and barbecues sizzling, a setting as informal as its


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subject.” (http://ericahoelscher.com/press-andpublications/) Here we see dramas perform on large grassy field. Those run approximately 2 hours, including intermission. Audiences bring beach chairs and blankets. Encourage picnic. Here we short out the main visions for these kinds of performances as: 1. To create a dynamic theatrical experience for diverse communities. 2. It makes theatre accessible to all. 3. It incorporates community values and ideas into performances. 4. It offers an artistic expression of artistes who close to the audiences. 5. To promote literacy of Shakespeare. 6. To explore human spirit through Shakespeare. 7. They can reach wide range of audiences. Now we analyses where the excitement come from in open air performance and how it differ from indoor theatre. In Dictionary, Open-air Theatre means, ‘An open-air place or event is outside rather than in a

building.’(http://dictionary.reverso.net /english-cobuild/open-air%20theatre) In open air theatre, audiences join in the performance. Audiences sit, drink, eat and enjoy with their family or special person. Katie Normington said in ‘Modern Mysteries: Contemporary Productions of Medieval English Cycle Dramas’ “The open-air staging promoted and informality which enabled audiences to pass comments with their neighbours, to eat and drink, and come and go.”( DS Brewer, 2007, P11) We can comparison this kind of performance with the age of Shakespeare. Audiences did not quite or simply sit during the performance. They used to talk each other, eat, drink wine, and walk during the performance. They cheered. Shakespeare wrote especially for these audiences. But performances emerged outside the city walls that were unsafe area with crime. Make possible an intimacy between actors and audiences. Because sitting arrangement of audiences are same level where actors perform. Audiences are so close they can touch actors. Actors fill the bare spaces


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with their physical action and movement. There create a different chemistry between actors and audiences when they make eye contact. On the other side Stratford The Dell has become a popular outdoor daytime performance of Shakespeare. Audiences take picnic and have a glass of wine or a pint of Ale on sultry summer’s night. In open-air into nature we feel very much relaxed and refreshed. When we stay with our families including babies we are very much pleased. In Open air theatre same things are happened during the performances under the sky. Christian H. Moe is pointed out, “The aesthetic value of open-air performance is strong. By nature we are intrinsically an outdoor people and feel more relaxed and refreshed when we can take our families to watch events under the open sky.”(Creating Historical Drama, Moe, Christian H., SIU Press, 1965, p259) Regent's Park Open Air Theatre is popular venue for Shakespeare’s drama. It was established in 1932 in Britain, London. The performance is running from May to September each

year for family audiences. Mothers carry their babies, children to watch the performances. Audiences bring their pet dogs. Conclusion It is risk taking interpretations with greatest plays. The primary aim of these kinds of festivals offers lively and accessible Shakespeare performances to the large numbers of audiences. They perform in nontraditional spaces such as gardens, grassy fields and parking lot. They attract diverse audiences and tourists. The audiences are first timers or regular theatergoers. Most of are committed to bringing financially affordable theatre to their community. They connect Shakespeare text with contemporary society. Nature and trees provide a theatrical set. And moon or sun creates an additional ambiance during the performance. In this performance build a unique relation between the text of Shakespeare and informal spaces. Spaces have particular sounds, smells, structure, weather and trees. These things also become a part of these performances. Actors create a Shakespearean ambience with them. Audiences with a picnic blanket, spend a summer evening to watch


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Shakespeare’s plays in party like atmosphere. Audiences feel festiveness spirit and closeness to others. These the aesthetic advantages to perform in open air.


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ससने सवमशश

देश की सोच का हाईवे : एनएच-10 - मृत्जयुं ् प्रभाकर

अगर सच में नहीं कर सकते तो समझ लीजजए आपने इसुं ान होने तक की तमीज खो िी है.

लीजजए जिर हाजिर हूँ एक ऐसी जिल्म के साथ जजसमें जिखाने को तो बहुत कयछ नहीं है और जो जिखा्ा जा रहा है वो भी बहुत ही िेखासनय ा-जाना सा है लेजकन जिर भी जरूरी है क्जयुं क अगर झठय को बार-बार िहय राने से सच मान जल्ा जाता है तो सच के िहय राव में ही आजखर क्ा बरय ाई है. एनएच-10 को आप चाहें तो एक बेहि ही सतही जिल्म मानकर नकार िे सकते हैं. आप ्ह कहने को स्वतत्रुं हो सकते हैं जक जिल्म में जैसी पररजस्थजत्ाुं जिखलाई गई हैं वो वास्तव में सभुं व नहीं हैं. जिल्म के चलते रहने के िौरान मैं भी बार-बार उसकी घटनाओ ुं से असहमत होता रहा. जिल्म के कई पड़ाव हैं जो अजवश्वश्नी् तो हैं हीं, साथ ही साथ बेहि लचर हैं जजन्हें जकसी भी तरह न्​्ा्ोजचत नहीं ठहरा्ा जा सकता. लेजकन जिल्म ्ा कोई कलातमक अजभव्​्जि तो आम तौर पर ऐसी ही घटनाओ ुं पर आधाररत होती हैं जो ‘रे्ररेस्ट ऑफ़ रे्र’ होती हैं और जजसे समाज के बीच जसिफ एक रचनाकार ह्रि् ही पकड़ पाता है. आप जो कॉमेडी के नाम पर कयछ भी उल-जल य यल, जबना सर-पैर जक कहानी बिाफश्त कर लेते हैं क्ा जीवन के इतने नजिीक की जवसुंगजत्ों पर बने एक अताजकफ क सी प्रतीत होती पर सही सवाल उठाती एक जिल्म नहीं बिाफश्त कर सकते.

कहते हैं हमारा िेश ‘जवरूधों का सामुंजस्​्’ है. बहुत सही कहते हैं. अब िेजखए न, कै सा जवजचत्र िेश है ्ह. जहाूँ जिल्ली-मयुंबई जैसे महानगरों के ्यवा जब बार-बार प्​्ार में डयबताउतराते प्​्ार पर से भरोसा खो चयके हैं. जिल्ली जहाूँ सैकड़ों ऐसे कलब हैं जहाूँ एक रात के जलए पजतन्ों की अिला-बिली आम बात है. वही ूँ उससे मात्र 50-60 जकलोमीटर की िरय ी पर आज भी हरर्ाणा के लौंडे हर महीने उसी प्​्ार के चककर में जान को जोजखम में डाल रहे हैं और जान गूँवा भी रहे हैं. वही हरर्ाणा जहाूँ के लौंडे उज्जड-गवुं ार और पता नहीं क्ा-क्ा समझे जाते हैं. हालाूँजक ्ह भी सच है जक उन ्वय ाओ ुं की जान लेने वालों में भी सबसे आगे ्वय ा ही हैं लेजकन क्ा इससे ्ह बात भल य जानी चाजहए की जान िेने वाले भी ्यवा ही हैं जो अपना प्​्ार पाने के जलए अपने जान की कयबाफनी तक िेने को आतयर हैं वो भी ्ह जानते हुए जक पकड़े जाने पर उनके साथ ठीक वैसा ही व्​्वहार जक्ा जाएगा. आजखर हम कब तक जवजेताओ ुं का इजतहास जलखते रहेंगे. कब हम इतने समझिार होंगे जक उन जवज्ी मयस्कानों के पीछे िबी लह की लाली को िजफ कर सकें . एनएच-10 और कयछ नहीं भी करती है तो कम से कम उसे िजफ तो करती ही है.


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

्कीन माजनए ‘ऑनर जकजलगुं ’ पर मैंने और भी जफ़ल्में िेखीं हैं जजनमें भारत और जविेशों में बनी जफ़ल्में शाजमल हैं. मैंने हरर्ाणा के ‘ऑनर जकजलुंग’ पर ही बनाई एक बेहि ही घजट्ा जिल्म भी िेखी है जजसे िेखकर प्रेमी ्यगल से ज्​्ािा जिल्म बनाने वालों पर ही ि्ा आ गई थी. ‘ऑनर जकजलुंग’ तीसरी िजय न्ा के िेशों की एक ऐसी भ्ानक सच्चाई है जजससे मयुंह नहीं मोड़ा जा सकता. हालाूँजक हम जिर भी ्ह पाते हैं जक 99 प्रजतशत प्रेम कहानी बनाने वाले बॉलीवडय के जनमाफता-जनिेशकों का ध्​्ान इस जवष् के ऊपर कम ही ग्ा है. ज्​्ािातर प्रेम कहाजनओ ुं में जहाूँ अतुं में ना्क-नाज्का मार जिए जाते हैं उनके पीछे भी खानिानी िश्य मनी की भयजमका ज्​्ािा जिखलाई गई है और प्रेम के िश्य मन समाज को छयपा जल्ा ग्ा है. एनएच-10 एक सतही जिल्म होते हुए भी अब तक की सबसे महतवपयणफ जिल्मों में है जो िशफकों का ध्​्ान इस मयद्दे की ओर खींचने में सिल रही है. एनएच-10 की कहानी बहुत ही सीधी और सपाट है. गडय गाूँव का एक सिल ्यवा जोड़ा एक िेर रात की पाटी में जाता है. लड़की को अचानक जकसी जरूरी काम से ऑजिस जाना होता है. पजत पाटी से नहीं जनकल पाता तो वह अके ले ही जनकल लेती है (जो आम तौर पर अजवश्वसनी् है खैर). रास्ते में उसे कयछ मवाली टाइप लोग जमलते हैं जजनसे बचकर

वह मजय श्कल से जनकल पाती है. पजय लस कम्पप्लेन जलखाने जाने पर उन्हें नसीहत जमलती है जक गयडगाूँव बढ़ता हुआ बच्चा है तो उछलकयि तो करेगा ही इसजलए एक तो अके ले न जनकलें उस पर अपनी सयरक्षा चाहते हों तो एक लाइसेंसी जपस्टल ले लें (जो वो ले भी लेते हैं). खैर, जपछली पाटी में हुए बेमजा को ठीक करने के जलए पजत पतनी के बथफडे पर उसे बाहर लेकर जाता है. रास्ते में हाईवे पर वे एक जगह रुकते हैं. जहाूँ भाग रहे एक प्रेमी ्गय ल को लड़की का भाई और उसके पररवार वाले पकड़ लेते हैं और उनकी हत्ा के इरािे से जगुं ल के बीच ले जाते हैं. पजत बीच-बचाव के चककर में एक थप्पड़ खाता है और जिर उनके पीछे लग जाता है (जो आम तौर पर अजवश्वसनी् है खैर). इस साहस पर जक उसके पास एक जपस्टल है, ्ह भयलते हुए जक उसके पास एक जिजमनल माइडुं नहीं है. ्ह साहस से अजधक उसके ईगो का मसला हो जाता है. पतनी के मना करने के बावजिय वह ऐसी गलती करता है जो शा्ि ही कोई मध्​् वगफ का बच्चा करेगा (जो आम तौर पर अजवश्वसनी् है खैर). पतनी को कार में छोड़ वह उनके पीछे जाता है जहाूँ वह अपनी आूँखों के सामने उनकी ियर हत्ा को अजुं ाम िेते हुए िेखता है. इधर कार के पास एक मानजसक तौर पर जवकलागुं बच्चा आता है जजसे गैंग ने पता नहीं जकसजलए इधर ही छोड़ रखा है (अव्वल तो हत्ारे ऐसे लड़के को हत्ा के जमशन पर


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

अपने साथ ले ही क्ूँय जाएगुं ,े खैर). इधर पजत हत्ारों को डराने के ख्​्ाल से उन पर गोली चलाकर भागता है और रास्ते में मानजसक तौर पर जवकलाुंग लड़के को पाकर उसे हटने को कहता है लेजकन तब तक वह जगरोह की चपेट में आ जाता है. बाकी जो है वो उनके बीच की लयका-जछपी है, लड़ाई है जजसमें पजत बयरी तरह घा्ल हो जाता है, खैर. पतनी उसे जबल्कयल िेखने ला्क जगह में छोड़कर, वापस आने का वािा करके सहा्ता पाने की उम्पमीि में िौड़ लगाती है. वह पयजलस से टकराती है, धोखा खाती है और इस तरह सहा्ता की उम्पमीि में भागते-भागते हत्ारों के गाूँव ही नहीं, उनके घर और ्हाूँ तक की लड़की के कमरे तक पहुचूँ जाती है. भागी हुई लड़की की माूँ अपने गवरू सपतय को फ़ोन पर ्ह सचय ना िेती है और हत्ारी गैंग घर पहुचुं ती है. पतनी ्हाूँ से भी जान बचाकर जनकल लेती है और पजत के पास पहुचुं ती है और पाती है जक उसकी हत्ा कर िी गई है. जिर उसके भीतर इतनी जहम्पमत आ जाती है जक वह बिला लेने के जलए हत्ारों के गाूँव में वापस आती है और परय े गैंग को ख़तम कर िेती है, जबजक गाूँव वाले नाच िेखने में मगन हैं (जो आम तौर पर अजवश्वसनी् है खैर). चजलए जफ़ल्मी ही सही पर न्​्ा् तो हुआ. स्त्री ने इतनी जहम्पमत तो जिखाई. ्ाि कीजजए आम तौर पर ्ह भजय मका ना्क जनभाते हैं जब वो बहन ्ा पतनी की

मौत का बिला खलना्कों को मारकर लेते हैं. मयझे समस्​्ा इन अजवश्वसनी् घटनाओ ुं से उतनी नहीं है जजतनी की जिल्म के सरलीकरण से है. अनयष्का नाच िेखने में मगन गाुंववालों से मि​ि की गयहार नहीं लगाती और एक बच्चे की सहा्ता मागुं कर सरपुंच के घर जाती है क्?यूँ आजखर लेखक और जनिेशक ने गाुंववालों को इस परय े घटनािम से िरय क्ों रखा है? क्ा वो मानते हैं जक प्रेमी ्गय ल की हत्ा का जनणफ् मात्र पररवार का है? क्ा ऐसे जनणफ् खाप पचुं ा्तों में नहीं होते? हरर्ाणा की पृष्ठभजय म में बनी जिल्म में ऑनर जकजलुंग को जिखाती जिल्म में ‘खाप’ का जि​ि तक नहीं आता, क्ूँ?य जो पजय लस वाले और पजय लस अजधकारी समाज का भ् बताते हैं और कहते हैं जक आजखर उन्हें ड्​्टय ी तो इसी समाज में रहकर करनी है. मयझे ्ाि है आज से िो साल पहले हरर्ाणा के गयडगाूँव से लगे इद्रुं ी गाूँव में एक पयजलस ऑजिसर से मयलाकात हुई थी जो जिल्ली में पोस्टेड थे लेजकन बेजटओ ुं को गाूँव में रखते थे ताजक उनकी बजच्च्ाुं भी जिल्ली की लड़जक्ों की तरह जबगाड़ न जाएूँ. ्ही इस समाज की हकीक़त है और उसके पीछे खाप की ताकत है जजसे काग्रुं ेस, भाजपा, इनलो ही नहीं ‘आप’ भी अपना ‘बाप’ मानने लगी थी. क्ा जिल्म का जनिेशक भी ्हाूँ अपने ही उठा्े मयद्दे को लेकर बेईमान नहीं हो रहा?


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

वरना ्ह कै से सभुं व है जक जिल्म में ‘खाप’ की भयजमका पर कोई बात न आए और इसे जनजी राग-द्वेष की लड़ाई बनाकर जनपटा जि्ा जाए? खैर, जैसा की मैंने पहले भी कहा था, जस्िप्ट और प्लाट की तमाम कमजोरर्ों के बाि भी, कहीं-कहीं रोड जिल्म की नक़ल प्रतीत होते हुए भी ऑनर जकजलुंग रूपी जजस जवष् को ्ह छयती है, वह प्रशसुं नी् है. अनष्य का ने इस जिल्म में जिखा्ा है जक वो अपने कन्धों पर जिल्म को ढोने का साहस ही नहीं काजबजल्त भी रखती हैं. बतौर अजभनेत्री और जनमाफत्री वह ्ह जोजखम लेने के जलए बधाई की पात्र हैं. जनिेशक नविीप ने भी इसे रोचक बनाए रखने की भरपरय कोजशश की है. अनष्य का के अलावा जिल्म में िशफन कयमार और िीप्ती नवल का काम बोलता है. जिल्म में गीत की जरूरत नहीं थी लेजकन जिर भी िो-एक गाने रखे गए हैं. उम्पमीि करू​ूँगा जक अगली जिल्मों में वह ऐसी बचकानी गलजत्ों से बचेंगे जो इसमें जिख जाती हैं.


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

सिने सिमर्श

विकास: वकसके विए और वकस कीमत

डॉक्यर्ेंट्री मसनेर्म रहम। लमु र्एर भमइयों कम

पर?

जल ु मई 1896 र्ें र्बुं ई (बम्बई) के वॉटसन होटल - सौरभ वर्मा

र्ें अपनी मफल्र्ो कम प्रदशान करनम भमरिीय मसनेर्म के उदय की शरुआि थी। मजसर्े गहरमई

लुमर्एर भमइयों ने संवमद और जनसंचमर की नई

से जड़ु े हुए थे मिल्र्कमर दमदम समहेब फमल्के

क्मंमि र्ें अपनम पहलम कदर् जब रखम िो उन्होंने

मजनकम भमरिीय मसनेर्म की नींव र्ें बहुि ही

चमर मदवमरी और मनपुण कलमकमरों कम सहमरम

र्हत्वपणा योगदमन रहम, लेमकन मसनेर्म को

लेने के बजमय आर् जन को चनु म, चूँमक उनकम

हर्ेशम ही मसनेकमरों ने अपने र्िु ममबक िोड़-

पहलम मनशमनम थम वही आर् जन जो रेल यमत्रम

र्रोड़कर पेश मकयम, जहमं इसके हर रूप र्ें

करिम है, फै क्टरी र्ें कमर् करिम है, सड़क पर

मिल्र्कमर भी र्ौजद रहिम थम, मवषय भी और

चलिम है और इसी रणनीमि के समथ वह अपनी

कभी-कभी जनिम भी, उद्धरण के मलए मि​िीय

मिल्र्ो Train Arriving at Station,

मवश्व युद्ध के दौरमन र्ोचे पर लड़िे हुए महदं स्ु िमनी

Workers Leaving Factory, The Wall is

मसपममहओ ं की बहमदरु ी को नमरमयण मसंह थमपम

being Demolished और अन्य के समथ परी

ने खबसरिी से कै र्रे र्ें कै द मकयम। आजमदी के

दमु नयम घर्े।1

बमद वह नव मनमर्ाि मफल्र् मडवीजन र्ें कै र्रमर्ैन

असल र्ें डॉक्यर्ेंट्री मफल्र् कम स्वरूप, उसके

हो गए। उन्होंने ऊजमा से लबरेज संवदे नशील

मवषय, मनर्मािम सभी बहस के मवषय रहे है।

मफल्र्कमरों की एक नयी पीढी के मनर्माण र्ें

मकसी के अनुरूप मफल्र् कम ढमूँचम, कलम,

र्हत्वपणा भमर्कम अदम की। कई र्हत्वपणा

शब्दभेद, मनयंत्रण, सीधम मसनेर्म, गैर आपसी

वृत्तमचत्रों कम मनर्माण करिे हुए थमपम मफल्र्

सबं धं िो मकसी के मलए वमस्िमवकिम,

मडवीजन के चीफ प्रोड्यसर बनकर सेवममनवृत्त

मवचमरधमरम र्क्त ु , शब्दों र्ें मलखम हुआ मसनेर्म

हुए। उन्होंने अपनी जीवन यमत्रम को एक बेहद पठनीय मकिमब ब्िॉय फ्रॉम िमबाटा र्ें

1

Narrating Actuality - Frontline http://en.wikipedia.org/wiki/Zanjeer_%281973_fil m%29


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

रूपमिं ररि मकयम। इस मकिमब र्ें उन्होंने डमक्यर्ेंट्री मसनेर्म की जगं के सर्य पड़ी जरुरि

थम मक यहमं भी लड़मई अग्रं ेजों के पक्ष र्ें झक ु रही है लेमकन जोंको से भरे बर्मा के जगं लों र्ें

के बमरे र्ें कुछ इस िरह मलखम है:

लड़ रहे सैमनकों के मलए इसके व्यमपक प्रचमर की

“1943 के र्धयमंश िक युद्ध भमरि के पवी सीर्म

जरुरि थी।

िक पहुचूँ चुकम थम। जमपमन की 15वी सेनम

हमलमूँमक बर्मा के र्ोचे पर लड़ने वमले सैमनकों र्ें

मकसी भी क्षण हर्ले के मलए िैयमर थी। मपछले

70 फीसदी भमरिीय थे, लेमकन ज्यमदमिर लोग

हर्लों और नुकसमन के बमवजद 14वी सेनम को

उनके बमरे र्ें नहीं जमिे थे। मिमटश और

जगं ल यद्ध ु र्ें प्रमशमक्षि कर, जमपमन को बर्मा र्ें

अर्ेररकी यद्ध ु सवं मददमिम मसफा अग्रं ेजी सैमनको

घसु ने से रोकने के मलए दोबमरम जग र्ें भेजम जम

के बमरे र्ें मलखिे थे और भमरिीय सैमनकों की

रहम थम। 43 वषीय एडमर्रल लॉडा लुई

उपेक्षम करिे थे। 1943-44 र्ें भमरिीय सेनम नींद

र्मउंटबेटन के नेित्ृ व र्ें एक नई दमक्षण-पवा

से जमगी और भमरिीय सैन्य कमर्ायों को कॉम्बेट

एमशयम कर्मंड कम गठन मकयम गयम। मिमटश

कै र्रमर्ैन के बिौर बर्मा िथम इिमवली र्ोचो पर

और अर्ेररकी सशस्त्र सेनमओ ं को जहमूँ पमिर्ी

लड़ रही भमरिीय सेनम के समथ भेजने की जरुरि

र्ोचों पर मर्ली कमर्यमबी के मलए मप्रटं और

र्हसस होने लगी।”2

मवजअ ु ल मर्मडयम र्ें अच्छम प्रचमर मर्ल रहम थम,

आजमदी से पहले Information Films of

वहीं बर्मा सीर्म पर िैनमि 14वी सेनम ‘भली-

India (IFI) नमर्क मिमटश सरकमर कम एक

मबसरी सेनम कही जमने लगी थी।

सुव्यवमस्थि प्रचमर मवभमग थम जो आजमदी के

अपने इम्फमल दौरे पर लॉडा र्मउंटबेटन ने

बमद Films Division of India र्ें िब्दील हो

सैमनकों को सम्बोमधि मकयम, ‘जवमनों आप

गयम। मसनेर्म अपनी न रुकने वमली रफ़्िमर से

सोचिे होगे मक बर्मा फ्रंट भल ु म मदयम गयम है।

बढ़िम गयम मजसको मवमभन्न रूपों र्ें यमद मकयम

आप गलि हो, ऐसम मकसी ने नहीं सनु म।’ उनकी

जमिम रहम है। कभी दमदम समहेब के योगदमन को

मटप्पणी पर हसं ी कम फव्वमरम फट पड़म। उन्हें पिम 2

Pahad Magazine, Boy from Lambata by by N. S. Thapa


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

लेकर िो कभी सेवे दमदम भमटवडेकर के कै र्रम

Bhanumurthy Alur की मिल्र् India

के समथ प्रयोगों को लेकर िो कभी मफल्र्

Wins Freedom मदखमिी है मक गुलमर् भमरि

मडवीजन के मवशमल आकमाइव र्ें उपलब्ध

की आजमदी कम सपनम आमखरकमर सच हो ही

मसनेर्म को आज के इस दौर र्ें इटं रनेट पर

गयम। मिल्र् मसफा कुछ ऐमिहममसक लोगो की

आसमनी से मर्ल जमने की उपलब्धिम को लेकर।

ऐमिहममसक छमवयों को संजोएं हुए है।

मसनेर्म की लगभग मपछली एक सदी र्ें भमरिीय

मपछले कई दशक से जहमूँ हर शुक्वमर, बमजमर

दशाक अगर मकसी आभमव को र्हसस करिे रहे

के मसनेर्म के मलए सफलिम की सीमढ़यों पर

है िो वो है डाक्यूमेंट्री विल्मो में सरकार और

ऊपर चढ़ने वमलम रहम। वही दसरी िरफ यही

विकास के नाम पर हो रहे विनाश की

शक् ु वमर दस्िमवेजी मफल्र्ों को र्ख्ु यधमरम से

आिोचना का असि रूप। भमरिीय मसनेर्म

बहमर करने वमलम भी रहम। बम्बईयमं मसनेर्म की

अपने इमिहमस से लेकर विार्मन िक मनरंिर

िजा पर क्षेत्रीय मसनेर्म ने भी डॉक्यर्ेंट्री र्मधयर्

प्रगमि करिम आयम है, जहमं मफल्र्कमरों और

को कभी र्हत्त्व ही नहीं मदयम। S. Sukhdev

दशाकों ने अनेकों उिमर-चढमव देख।े यहमूँ मसनेर्म

की मफल्र् “After the Silence” जमगीरदमरों

को कही न कही प्रगमिशील बनमने र्ें र्ौजदम दौर

और गरीब मकसमनों के बीच र्ें र्ौजद एक बहुि

र्ें रही सरकमरों और पजं ीपमियों ने हर्ेशम ही

बड़ी सर्स्यम को समर्ने लेन कम कमर् िो करिी

सहमयिम प्रदमन की, क्योंमक उनकी र्दद के

है लेमकन ित्कमलीन सरकमर की भी कही न कही

कमरण ही मसनेर्म सर्मज को वह दे रहम थम

प्रसंशम करिी मदखमई देिी है।

मजसकी जन को कभी जरुरि पड़ी ही नहीं। अगर

70 कम दशक आिे-आिे कुछ लोगों को

हर् आजमदी के बमद बनी मफल्र्ो पर नजर

अहसमस होने लगम मक अब िक बने मसनेर्म को

दौड़मएं िो हर्े कुछ इस िरह की मफल्र्े मर्लिी

अगर धयमन से देखम जमये िो उसर्े उस जन की

है:

अनपु मस्थमि समफ-समफ झलकिी है मजसके मलए इमिहमस र्ें कई जन-आंदोलन हुए। जैसम


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

मक हर् पहले भी बमि कर चक ु े है मक

शरु​ु आि थी उस आदं ोलन की मजसर्े आगे

व्यमवसममयक मसनेर्म कम उद्देश्य हर्ेशम ही लोगों

चलकर कई मसनेकमरों ने अपनी कलम कम अथा

कम र्नोरंजन कर पैसम कमर्नम रहम है। कलम

मसफा कलम न रखकर उसे क्मंमन्ि र्ें िब्दील कर

मसनेर्म कम हवमलम देकर जो लोग इस बहस से अपने आप को बचमने की कोमशश करिे रहे है

मलयम। आनदं पटवधान की िीसरी मफल्र् “A Time

वह भी अच्छे से जमनिे है मक कलमत्र्क कही

to Rise” मवदेशी जर्ीन (कनमडम) के फमर्ा

जमने वमली मफल्र्े भी कही न कही अच्छी

श्रमर्कों के शोषण और प्रमिरोध पर आधमररि

व्यमवसममयक मफल्र्े सममबि होिी रही है और

है। यह मफल्र् श्रमर्क सर्दु मय के प्रवमसी

पजं ीवमदी मवचमरधमरम कम पोषण करिी रही है।

भमरिीय मसखों के वगा सघं षा को मचमत्रि करिी है

ऐसी मफल्र्े लोगो की भमवनमओ ं और िका को

जहमं मफल्र् खेि र्जदरों और उनके पररवमर के

हममशये पर रख हर्ेशम ही शमसक वगा के हमथ

इटं रव्य और उनके प्रदशान को बड़े प्रभमवशमली

कम हमथयमर बनिी रही है। दसरी िरफ एक क्मन्िकमरी मफल्र् मनर्मािम की पणािः एक ही

ढगं से मफल्र् र्ें सयं ोमजि करिी है। उनकी चौथी मफल्र् “Bombay: Our City” भी भमरि

मजम्र्ेदमरी होिी है मक वह सच्चमई और पररविान

की व्यमवसममयक रमजधमनी के नमर् से प्रख्यमि

को मकसी भी कीर्ि पर आर् जन िक पहुचं मयें

गगनचम्ु बी इर्मरिों की नगरी के झग्ु गी-झोपडी र्ें बसने वमले लोगो की सर्स्यमओ ं की पड़िमल

चमहे इसके मलए मकिनी भी कमठनमइयों कम समर्नम ही क्यों न करनम पड़े। इसी क्मन्िकमरी मफल्र् मनर्माण की पररमक्यम को सर्झने के मलए जरुरी है “आनंद पटिर्धन”3

करिी नजर आिी है। आनदं की अगली मफल्र् “Narmada Diary” नर्ादम आंदोलन को कें द्र मबंदु र्ें

की मफल्र्ो को सर्झनम, क्ांवत की तरंगो

रखकर बनमई गयी एक घटं े लम्बी मफल्र् है जो

(Waves of Revolution) से शुरू यह सफर

हर्े यह बिलमिी है मक हर्मरम मवकमस मकस कदर मवनमशकमरक भी है। यह मफल्र् यह भी

3

Films of Anand Patwardhan http://patwardhan.com/wp/


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

संकेि देिी है मक हमारा विकास वकसके विए

जब कंडकुलर् र्ें परर्मणु ररएक्टर लगमने के पक्ष

और वकस कीमत पर हो रहा है। आनंद मजस

र्ें सप्रु ीर् कोटा कम फै सलम आ रहम है, जब

रमह पर चले आगे चलकर कई मसनेकमरों ने उस

र्हमरमष्ट्ट्र र्ें कबीर कलम र्ंच के इक ं लमबी

पथ को एक नए पथ र्ें िब्दील करने की हर

संस्कृ मिकर्ी जेल र्ें डमले जम रहे हैं, जब उड़ीसम

संभव कोमशश की जहमं उन्होंने मवनमशकमरी मवकमस की चल को रोकने के मलए कई कदर्

र्ें बमंध मवरोधी आंदोलन के दौरमन पत्रकमरों पर पुमलमसयम दर्न ढमयम जम रहम है, िब संजय

उठमयें उद्धरण के मलए:

काक की हमल ही र्ें बनी मफल्र् “माटी के

ओमडशम, झमरखण्ड, र्धयप्रदेश, गजु रमि और

िाि (Red Ant Dream)” को देखनम

छत्तीसगढ़ र्ें आमदवममसयों िमरम अपनी जर्ीन

दरअसल अपने आप को सघं षा के मलए िैयमर

पर सरकमर िमरम थोपी गयी पररयोजनम कम प्रमिरोध हर्े मनदेशक बीजू टोप्पो और

करने की िरह है क्योंमक यह मफल्र् जनिम के इक ं लमबी सपनों की िहकीकमि है।

मेघनाथ की मफल्र् “विकास बंदूक की नाि से” र्ें देखने को मर्लिम है। के रल के

डॉक्यूमेंट्री का एक नया रूप या प्रवतरोर् का

प्लमचीर्मडम र्ें कोकमकोलम के मखलमफ हुआ जनप्रमिरोध हर्े पी बाबूराज और सी

एक नया हवथयार:

सरतचंद्रन की मफल्र् “1000 Days and a

"1969 र्ें दस्िमवेजी मसनेर्म के इमिहमस र्ें एक

Dream” समफ मदखमई देिम है। आमदवमसी

र्हत्वपणा घटनम हुई। इस समल अजेंटीनम के

बहुल रमज्यों र्ें प्रमकमिाक संसमधनों की लट और जनिम कम रमज्य के मखलमफ प्रमिरोध विनोद

क्मन्िकमरी मिल्र्कमर ‘फनमान्डो सोलमनमस’ ने

राजा की मफल्र् “Mahua Memoirs” र्ें भी

की दस्िमवेजी मफल्र् ‘द ऑवर ऑि द फरनेस’

उपमस्थि है।

(The Hour of the Furnace) बनमई। इस

वहमं के र्ुमक्त सग्रं मर् को धयमन र्ें रखकर 4 घंटे

मफल्र् के प्रीमर्यर के अवसर पर फ्रेंच न्य वेव के


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

र्शहूर मिल्र्कमर ‘गोदमदा’ ने सोलमनमस कम

व्यवमस्थि रमज्य सरकमर कम समर्नम कर वहमूँ हो

रेमडयो इटं रव्य मलयम। इस इटं रव्य के दौरमन बहुि

रहे जल, जगं ल और जर्ीन के जनआदं ोलनों को

सी खमस बमिों के बमद जब पलट कम सोलमनमस

और भी र्जबि कर रहम है। कॉपोरेट रमज और

ने गोदमदा से सवमल मकयम मक 'क्यम आपको अब

पमु लमसयम दर्न के इस दौर र्ें “Video

मफल्र्े बनमने के मलए प्रोडसर मर्लिे है?' िब

Republic (िीवडयो ररपवब्िक)”5 और

गोदमदा ने बड़े र्मके की बमि कही। उन्होंने कहम

उसको चलमने वमले मिल्र्कमर “सूयाध शक ं र

'मफल्र्ो के मलए िो नहीं लेमकन हमूँ, र्ैने अब

दाश” ये दो नमर् बहुि अहर् हो जमिे है जब हर्

वीमडयो फॉर्ेट पर कमर् करनम शरू ु कर मदयम है।

ओमडशम र्ें हो रहे जन आन्दोलनों की बमि

र्ैंने इस समल वीमडयो पर चमर मफल्र्े बनमयीं।'

करिे है। प्रमकमिाक ससं मधनो से लबमलब भरे

इसी इटं रव्य र्ें वह आगे कहिे है मक 'हर्े कै र्रे

ओमडशम के अमधकमंश मजलो र्ें जर्ीन को

कम इस्िेर्मल वैसे ही करनम चममहए जैसम

लेकर कई आंदोलन चल रहे है। मजनर्े प्रर्ुख

मवयिनममर्यों ने अर्रीकम से युद्ध लड़िे वक़्ि

िौर पर मनयर्मगरर, पॉस्को, कमलंगनगर आमद है।

समइमकल कम मकयम।' 1969 र्ें गोदमदा िमरम व्यक्त

मदल्ली से लगभग 1000 मकलोर्ीटर दर यहमं

यह चमहि 2005 िक आिे-आिे ओमड़शम र्ें

सभ्य सर्मज की अपेक्षमओ ं के मिलमि कुछ

चल रहे सघं षो के सन्दभा र्ें एकदर् सही सममबि

मसनेर्म यम यूँ कहें मक वीमडयो फॉर्ेट बन रहे है।

होिी है।"4

जो देश के हर महस्से र्ें जमकर आंदोलन की

जहमूँ एक िरफ बड़े-बड़े मिल्र्कमर अपने ओदे

उपमस्थमि और उसकी अहमर्यि को बिलम रहम

के महसमब से मिल्र्ो कम मनर्माण कर रहे है वही

है। यहमूँ एक और जरुरी कमर् हुआ है मजसने

दसरी िरफ ओमडशम र्ें एक मिल्र्कमर इसी

मसनेर्म और उसको बनमने के र्मयने बदल मदए

िरह के वीमडयो फॉर्ेट के समथ खेल रहम है। वह

है। पहले मसनेर्म कम र्िलब होिम थम मनदेशक,

बड़े-बड़े पजं ीपमियों और उनके गठजोड़ से

कै र्रमर्ैन और समउंडर्ैन लेमकन ओमडशम के

4

नया पथ - टे क्नोलॉजी के नए दौर में सिनेमा:

िंजय जोशी / 95

5

Video Republic https://www.youtube.com/channel/UCtq3ZjBFH wP4iLjR7BDCcrg


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

जनमदं ोलनों र्ें मसनेर्म इन सभी से मनकलकर उन

बदलमवों को धयमन र्ें रखिे हुए इस िरह की

लोगो के हमथों र्ें पहुचं गयम है मजनको इसकी

लघु और प्रमयोमगक मफल्र्ो को मबलकुल

ज्यमदम जरुरि है। अब कै र्रम उन आमदवममसयों

नजरअदं मज नहीं करनम चममहयें। और यही लघु

और लोगों के हमथों र्ें है जो कंपनी और रमज्य

एवं प्रमयोमगक सहस र्ेरम इस मवषय को चनु ने कम

सरकमर के दर्न कम मशकमर है। नई िकनीक और

दसरम कमरण है। आज जब बंबईयमं र्समलम

मसनेर्म की बमरीक़यों से मबलकुल अनजमन ये

मफल्र्ो के कमरण दशाकों को मवमभन्न प्रकमर की

लोग कै र्रे के मबलकुल समर्मन्य ज्ञमन के समथ

लम्बी डमक्यर्ेंट्री मफल्र्ो को देखने की आदि

अपने ऊपर हो रहे दर्न को कै र्रे र्ें कै द करिे है

कुछ कर् हो गयी है उस वक़्ि “The Lament

और मवकमस के नमर् पर हो रहे मवनमश कम

of Niyamraja (13 Min.), Dhinki (3:34

असल चेहरम दमु नयम के समर्ने रखिे है। मजसर्े

sec.), Displacement Colony (3:53

इनकम समथ देने के मलए वीमडयो ररपमब्लक के

sec.), Shot Dead for Devlopment (1

समथ समथ सर्दृमि, के . बी. के . सर्मचमर जैसे

min.), Repression Diary (13:12 sec.),

कुछ अन्य सर्ह भी शममर्ल है।

The Big Fat Brutal Lie (7:04 sec.),

र्ेरम इस लेख र्ें मकसी एक मवशेष मफल्र् को न चुनकर इटं रनेट पर Video Republic के य

Death of a Loom (2:54 sec.), The

टयब चेनल पर र्ौजद कुछ कुछ लघु मफल्र्ों को

(Excerpt) (3:34 sec.) और भी अन्य कई

चुनने के कई कमरण है। सबसे पहलम कमरण है

लघु एवं आकषाक मफल्र्ों के जररयें लोगों

इनकम आसमनी से उपलब्ध होनम आज जब

को अमधक से अमधक जमनकमरी देनम और

इटं रनेट िेजी से हर मकसी की जेब र्ें पहुचं रहम है

ओमडशम र्ें मवकमस मकसके मलए और मकस

उस वक़्ि यह जरुरी है की प्रमिरोध के इस

कीर्ि पर हो रहम है सबके समर्ने जममहर करनम

र्मधयर् से हर कोई रूबरू हो। मपछले कुछ वषों

एक र्हत्वपणा कदर् है शमयद 70 के दशक र्ें

र्ें हर्े इटं रनेट के कमरण हुए कई र्हत्वणा

आये एक पररविान की ही अगली कढ़ी है।

Human Zoo (9:42sec.), 90 Ke Baad


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

ग्रमर्ीण लोग जी-जमन लगमकर इसकम मवरोध िघु एिं प्रभािशािी विल्में:

कर रहे है। परी दमु नयम र्ें जल, जगं ल और जर्ीन की लड़मई

मदल्ली से लगभग 1850 मकलोर्ीटर दर देश के

बहुि बड़े स्िर पर पंजीपमि वगा के मखलमि लड़ी

इस कोने र्ें प्रमकमिाक संसमधनों कम िजमनम भरम

जम रही हुई है। चमहे मफर वो मवकमसशील देशो

पड़म है, चमहे मफर वो बमक्समइड यम अन्य खमनज

की फे हररस्ि हो यम मफर मवकमसि देशो की, हर

पदमथो के पहमड़ हो यम मफर आमदवममसयों के

जगह मवकमस के झठे र्ुखोटे को ओढ़कर

देविम मनयर्मगरर के जगं ल हो। यहमूँ के जल,

पजं ीपमि इस मघनोने स्वमगं को रच रहम है। यह

जगं ल, जर्ीन यहमूँ रहने वमलो के आरमर्दमयक

सब मकयम जम रहम है सबसे शमक्तशमली बनने को

जीवन जीने के मलए कमफी है। लेमकन सरकमर

हौड र्ें, अगर आप यह सोचिे है की मसिा कुछ

और पंजीपमि लोगो की नजरो र्ें ये मसफा

देश ही इस रेस र्ें दौड़ रहे है िो आप गलि है।

अमधकममधक पैसम कर्मने कम जररयम है, यही

मसफा दमु नयम भर के देश ही नहीं बमल्क बड़े-बड़े

कमरण है की सरकमर के समथ मर्लकर पॉस्को,

पंजीपमि और औधोमगक घरमने मवनमश की इस

वेदमिं म, टमटम और अन्य छोटी-छोटी खनन

अधं ी दौड़ कम महस्सम है।

कंपमनयम यहमूँ की उपजमऊ जर्ीन को लोगो से जबरदस्िी हड़प रही है। और यहमूँ के प्रमकमिाक

“The

Lament

of

Niyamraja”

संसमधनों को दोनों हमथो से लट रही है और इस

मनयर्मगरर के एक गॉंव ‘खमम्बेसी’ र्ें

लट र्ें सबसे आगे है पॉस्को और वेदमंिम जो

आधयममत्र्क लोक कमव Dambu Prasaka पर

ओमडशम के आसर्मन छिे पहमड़ो को जड़ से ही खत्र् कर रहे है जैसे वहमं पहले कोई पहमड़ न

कें मद्रि यह सगं ीिर्य मफल्र् लोगों के दःु ख ददा पर र्रहर् कम कमर् करिी है। आमदवमसी जममि

होकर सर्िल जर्ीन हो। इन पहमड़ो और जगं लो

डोंगररयम कोंध के लोगों के प्रवमस की जगह

को बचमने के मलए यहमूँ के आमदवमसी और

मनयर्मगरर पवाि श्रंखलम के इमिहमस और इन


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

आमदवममसयों के मलए इसकी अहमर्यि को एक

जमयेगम। जगं ल की कहमनी होने के कमरण इस

सगं ीिर्य लोक कहमनी के िजा पर कहिी यह मफल्र् दशाकों से सीधे-सीधे यही सवमल करिी

मफल्र् र्ें दल ु ाभ प्रजममि के गोल्डन जेको, मवशमल स्क्वीरक्स, समंप, मचमड़यमूँ आमद मदखमएूँ

है मक मवकमस की इस चमल र्ें अगर मकसी की

गए है जो अब िक कही मदखमएूँ नहीं गए थे। इस

प्रगमि हो रही है िो उसके पीछे मकिने लोगों

प्रकमर 13 मर्नट की यह मफल्र् जगं ल,

और प्रकमि कम मवनमश मछपम है। मनयर्मगरर

आमदवममसयों और उनकी संस्कृ मि पर पंजीवमदी

पहमड़ को रमज्य सरकमर ने एक अिं रमाष्ट्ट्रीय खनन

हर्ले, पयमावरण संकट आमद के असीमर्ि खिरों

कम्पनी ‘वेदमिं ’ को खनन के मलए दे मदयम थम

को अपनी प्रमथानम के र्मधयर् से समर्ने ले आिी

मजसके बमद वहमं लगमिमर आमदवममसयों कम

है और परे सर्य दशाकों को अपने समथ बधं े

दर्नकमरी रमज्य सरकमर और कम्पनी से संघषा चल रहम थम। जो 2013 िक आिे आिे

रखिी है। “The Human Zoo” सरकमर िमरम

डोंगररयम कोंध की मवजय के रूप र्ें समर्ने

आमदवममसयों को अजमयबघर की चीज बनम देने

आयम, लेमकन इस जीि के पीछे लोक कमव

कम और कंपमनयों िमरम आमदवममसयों के समरें

Dambu Prasaka जैसे कई सघं षारि लोगो कम

ससं मधनों पर कब्जम करने के मजिने भी प्रयमस हो

बमलदमन मछपम है मजसने इस मसनेर्म र्मधयर् के

रहे है उसर्े आमदवममसयों कम अमस्ित्व ही खिरे

जररयें जगं ल से बहमर मनकल अन्य लोगों िक

र्ें आन पड़म है और वो एक चौरमहे पर खड़े कर

अपनी अहमर्यि और अमस्ित्व को दजा करमयम।

मदए गए है। 10 मर्नट की इस मफल्र् र्ें मदखमयम

डम्ब के गीि मर्थको और सक्त वमक्यों से भरे है

गयम है मक सरकमर आमदवममसयों को मकस िरह

मजसर्े यह कहम गयम है मक पहमड़ के खनन से

दमु नयम समर्ने पेश करिी है और आमदवमसी

मकस िरह यहमं के मनवममसयों कम जीवन और

मकस िरह अपने अमस्ित्व लड़मई को देश और

जीने के समधन खिरें र्ें पड़ जमयेंगे और परे

दमु नयम के समर्ने पेश करिे है। ठीक वैसे ही मजस

मनयर्मगरर क्षेत्र र्ें पयमावरण कम खिरम पैदम हो

िरह डोंगररयम कोंध अपने अमस्ित्व को बचमने


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

के मलए पहचमन और प्रवमस की इस लड़मई र्ें

मक मवकमस की पररमक्यम र्ें आमखर क्यों यह

कदे थे। “Displacement

भल ु म मदयम जमिम है की मवकमस के मलए लोगों Colony”

आज

कम मवस्थमपन कर देनम कभी भी सर्मधमन नहीं

शमक्तशमली बनने के मलए सबसे जरुरी है की

रहम है।

आपके पमस असीमर्ि हमथयमरों कम जखीरम हो

इसी िरह अन्य मफल्र्ों र्ें भी हक़ की इस लड़मई

और उन्ही हमथयमरों के मनर्माण के मलए परी

र्ें आर् ग्रमर्ीण और आमदवमसी आदर्ी अपनी

दमु नयम र्ें धरिी के गभा को चीरम जम रहम है,

जमन की परवमह न करिे हुये सरकमर, पुमलस,

लमखों आमदवममसयो, ग्रमर्ीणों को बेघर मकयम

पजं ीपमियों के गडंु ों और भमरिीय फोज की

जम रहम है। मजन देशो र्ें इस िरह की मवस्थमपन

अर्मनवीय बबारिम कम मशकमर हर्ेशम होिे रहे है

पररयोजनमएं चलमयी जम रही है उनर्े शममर्ल है

और मकसी पर भी इससे कोई प्रभमव नहीं पड़

मगनी, ऑस्ट्रेमलयम, अफ्रीकी देश, जर्ैकम,

रहम है जो की भमवष्ट्य र्ें चलकर हर् सभी के

िमजील, मवयिनमर्, भमरि और भी न जमने मकिने? मपछले 60 वषों र्ें भमरि र्ें

मवनमश कम एकर्मत्र कमरण होगम। आज इस दौर र्ें Video Republic प्रमिरोध कम एक सशक्त

औद्योगीकरण की वजह से लगभग 6 करोड़

और अनोखम र्मधयर् बनकर समर्ने आयम है

लोग पहले से ही मवस्थममपि हो चक ु े हैं। मजनर्ें

जो मक इमिहमस र्ें हुए बदलमवों जैसम ही एक

से लगभग 20 लमख वमं चि लोग उड़ीसम र्ें रहिे

उदहमरण है, मजसकी कीर्ि हर्े अभी नहीं

हैं और चौंकमने वमली बमि यह है मक इनर्ें से 75

बमल्क विार्मन र्ें जब हर् सभी हमशयें पर खड़े

प्रमिशि लोग आमदवमसी यम दमलि हैं। ट्रैन र्ें

होकर अपनी आूँखों से मवकमस और मवनमश की

बैठकर शट की गयी लगभग 4 मर्नट की यह

इस पररमक्यम को देखगें े िब र्मलर् चलेगी।

मफल्र् बजं र हो चक ु ी टमटम कमलोनी को मदखने

मिलहमल के मलए िो मकसी न मकसी िरह इस

और अपने प्रभमवशमली सवं मदों (Voice Over)

िरह की उम्र्ीदों को जगमये और मजदं म रखनम ही

के भने मफल्र् सीधे-सीधे यह सवमल करिी है

हर्मरी सबसे प्रर्ुख प्रमथमर्किम होनी चममहयें।


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

-: "चरक: एक पर्व" :भारतर्र्व पुरातन से ही रहस्यों और आश्चयों का देश रहा है। यहा​ां पर हर प्रदेश समय समय पर बङे बङे उत्सर्ों का आयोजन करता रहता है। जजससे भारत को उत्सर्धमी देश (फे जस्िर् कांट्री) कहा जाता है। उसी का एक जहस्सा है पजश्चम बांगाल। पजश्चम बांगाल में होने र्ाली दगु ाव पूजा जर्श्व जर्ख्यात है। यहा​ां पर दगु ाव पूजा देखने देश - जर्देश से प्रजतर्र्व भारी सख्ां या में लोग उपजस्ित होते हैं। उसी पजश्चम बांगाल में एक पर्व मनाया जाता है, जजसे 'चरक पर्व' के नाम से जाना जाता है। इसे चरक मेला पर्व भी कहते हैं, क्योंजक इस उत्सर् पर यहा​ां बहुत बडे मेले का आयोजन भी जकया जाता है। यह पर्व पजश्चम बगां ाल के साि साि जिपरु ा तिा पूर्ोत्तर और भी कई राज्यों में मनाया जाता है। परन्तु यह मुख्य रूप से पजश्चम बगां ाल में बङे जोर शोर से मनाया जाता है। स्िानीय लोगों के अनसु ार इस पर्व की शुरुआत लगभग 250 र्र्व पूर्व हुई िी। यह पर्व 'पोएला बोईशाख' (नया साल) के एक जदन पहले, अिावत चैि माह के अजां तम जदन (14-15 अप्रैल को) मनाया जाता है। इस पर्व को देखते ही आपका दातां ों तले उांगली दबा लेना स्र्ाभाजर्क है। इसे अलग अलग कलाओ ां के साि मनाया जाता है, जजसमें लोहे की रॉड को गाल के इस पार से उस पार करना, आग पर चलना, कािां ा झापां , बोिी झापां (सब्जी कािने का

लोक विमर्श

धारदार औजार) पर नगां े बदन कूदना, आजद आजद। परन्तु इसके अलार्ा सबसे मुख्य और सबसे कजिन है चरक के पेङ की रजस्सयों में लगे हुक को अनुयाजययों की पीि में लगाकर उन्हें हर्ा में चरखे की तरह घुमाना। इस उत्सर् में मख्ु य है चरक का पेड। चरक के पेङ का मतलब: एक सखआ ु खभां ा लगाया जाता है। जजसके ऊपरी जहस्से में पजहया लगाया जाता है, तिा पजहए से रस्सी लगाकर उन्हीं रजस्सयों में हुक लगाया जाता है। उसी हुक को अनयु ाजययों की पीि में लगाकर चरखे की भा​ांजत घुमाया जाता है। चरक का पेड लगाते समय पूजा की जाती है, यजद पूजा में कोई रुकार्ि पैदा हो तो जकसी अनुयायी की जान जा सकती है। इस पूरे क्षेि को जसद्ध जल से भी घेरा जाता है। चरक पजू ा मेले की पर्ू व राजि सबसे बडी ता​ांजिक जिया होती है, जजसके अनुसार ता​ांजिक तलर्ार लेकर मध्य राजि को चारों जदशाओ ां में जनकल जाते हैं। तिा सुबह तक उन्हें कहीं से भी मानर् खोपडी लानी होती है। बताया जाता है जक, इस खोपडी को चरक मांजदर में जमट्टी में दबा जदया जाता है तिा अगले र्र्व जनकाला जाता है। यह सारी पूजा-अचवना जशर्जी को प्रसन्न करने के जलए होती है। - "जय देर्" लेखक: दीपेन्र जसांह भदौररया "देर्" Write.ddev@gmail.com भर्नपुरा, जभण्ङ (म0प्र0) मोबाइल: 9009715008


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मास ात क ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

मालवा के लोक मानस का प्रभावी मचं है माच डा. शैलेन्द्रकुमार शमा​ा भारत के वववभन्द्न अचं लों में बोली जाने वाली लोक-भाषाएँ राष्ट्रभाषा की समृवि का प्रमाण हैं। लोक-भाषाएँ और उनका सावहत्य वस्तुतः भारतीय संस्कृ वत एवं राष्ट्रवाणी के वलए अक्षय स्रोत हैं। हम इनका वजतना मंथन करें, उतने ही अमूल्य रत्न हमें वमलते रहेंगे। कवथत आधवु नकता के दौर में हम अपनी बोली-बानी, सावहत्य-संस्कृ वत से ववमुख होते जा रहे हैं। ऐसे समय में वजतना ववस्थापन लोगों और समुदायों का हो रहा है, उससे कम लोक-भाषा और लोक-सावहत्य का नहीं हो रहा है। घर-आँगन की बोवलयाँ अपने ही पररवेश में पराई होने का ददा झेल रही हैं।इस वदशा में लोकभाषा, सावहत्य और संस्कृ वतप्रेवमयों के समग्र प्रयासों की दरकार है।भारत के हृदय अचं ल मालवा ने तो एक तरह से समूची भारतीय संस्कृ वत को गागर में सागर की तरह समाया हुआ है। मालवा की परम्पराएँ समूचे भारत से प्रभाववत हुई हैं और पूरे भारत को मालवा की संस्कृ वत ने वकसी न वकसी रूप में प्रभाववत वकया है।मालवा भारत का हृदय अचं ल है। आज का मालवा सम्पूणा पविमी मध्यप्रदेश और उसके साथ सीमावती पवू ी राजस्थान के कुछ वजलों तक ववस्तार वलए हुए है। इसकी सीमा रेखा के सबं धं में एक पारम्पररक दोहा

लोक विमर्श

प्रचवलत है, वजसके अनसु ार चम्बल, बेतवा और नमादा नवदयों से वघरे भ-ू भाग को मालवा की सीमा मानना चावहए- इत चम्बल उत बेतवा मालव सीम सुजान। दवक्षण वदवस है नमादा यह पूरी पहचान।। मालवा लोक-सावहत्य की दृवि से अत्यंत समृि है। यहाँ का लोकमानस शताब्दी-दर-शताब्दी कथा-वाता​ा, गाथा, गीत, नाट्य, पहेली, लोकोवि आवद के माध्यम से अवभव्यवि पाता आ रहा है। जीवन का ऐसा कोई प्रसगं नहीं है, जब मालवजन अपने हषा-उल्लास, सख ु -दःु ख को दजा करने के वलये लोक-सावहत्य का सहारा न लेता हो। भारतीय लोक-नाट्य परम्परा में मालवा के माच का वववशि स्थान है। मालवा क्षेत्र का प्रवतवनवध लोक नाट्य माच है, जो अपनी सदु ीघा परम्परा के साथ आज भी लोक मानस का प्रभावी मचं बना हुआ हैं। मालवा के लोकगीतों, लोक-कथाओ,ं लोक- नृत्य रूपों और लोक-संगीत के समावेश से समृि माच सम्पूणा नाट्य (टोटल वथयेटर) की सम्भावनाओ ं को मूता करता है। लोकमानस की सहज अवभव्यंजना और लोक रंग व्यवहारों की सरल रेखीय अनायासता से उपजा यह लोकनाट्य लोकरंजन और लोक मंगल के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थावपत है। माच मालवा-राजस्थान के व्यापक जनसमुदाय को आन्द्दोवलत करता आ


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मास ात क ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

रहा है। माच शब्द सस्ं कृ त के मचं शब्द का ही पररववतात रूप है। माच के नाटकों को खेल कहा जाता है, जो मुिाकाशी रंगमचं पर प्रस्तुत वकए जाते हैं । संगीत, नृत्य, पाठ, अवभनय और बोलों की अन्द्तः विया माच को एक सम्पूणा नाट्य या यूँ कहें टोटल वथयेटर का रूप दे देती है। माच के खेलों में सामावजक सद्भाव, परस्पर प्रेम और सहज लोक जीवन के दशान होते हैं। माच के दशाकों में भी एक खास ढंग की रवसकता देखी जा सकती है। इसके दशाक महज दशाक नहीं होते, मंच व्यापार में उनकी आपसदारी भी वदखाई देती है। माच के क्षेत्र में अनेक घराने बने, वजन्द्होंने अपने-अपने ढंग से माच को नई ऊजा​ा, नई गवत दी। गुरु गोपाल जी, गुरु बालमुकुन्द्दजी, भागीरथ पटेल, गुरु रामवकशन जी, गुरु राधावकशनजी, उस्ताद कालूराम जी, पं. ओमप्रकाश शमा​ा, वसिेश्वर सेन, फकीरचंद जी, चुन्द्नीलाल जी, अवनल पांचाल आवद का माच के खेलों के सृजन और मचं न की परम्परा को आगे बढाने में अववस्मरणीय योगदान रहा है। मालवा का माच पुराण, इवतहास और लोकाख्यानों में वनवहत उच्च आदशा, प्रणय और लोक मगं ल की भावभवू म को समावहत करता आ रहा है। समाज में व्याप्त ववसगं वतयों और ववरूपताओ ं के ववरुि माच के खेलों ने लोक के अदं ाज में तीखा प्रवतकार वकया है। आधवु नक रंगमचं पर भी माच शैली के साथ प्रयोग सामने

आ रहे हैं। यह लोकववधा अपनी प्रासवं गकता बरकरार रखे हुए है। माच की उत्सभूवम उज्जैन मानी जाती है। लगभग दो सौ से अवधक वषों से माच मालवा का प्रमुख लोकनाट्य बना हुआ है। इसके उद्भव और ववकास में मालवाकी अनेक लोकानुरंजक कला प्रवृवियों का योगदान रहा है। मालवा क्षेत्र में प्रचवलत गरबी गीत, ढारा-ढारी के खेल, तुरा​ा कलगं ी, नकल-स्वागं की प्रवृवि, गम्मत, हाजरात ववद्या आवद को माच के उद्भव एवं ववकास में महत्त्वपणू ा मानने वालों में डा. वशवकुमार मधरु का प्रमख ु नाम है। मालवा के इन लोक कला रूपों में अन्द्तवनावहत तत्त्वों जैस-े नृत्य, गान एवं अवभनय, आध्यावत्मकता, नकल-स्वागं प्रवृवि, वनगाणु ी भवि के तत्त्व, परु​ु षों द्वारा स्त्री पात्रों की भवू मका सवहत अनेक रंग व्यवहार आवद माच में आज भी मौजदू हैं। डा. मधरु के अनुसार- ढारा-ढारी के खेलों से अवभनय, गबा​ा-उत्सव से संगीत, तुरा​ाकलंगी से काव्य-गायन और स्वागं -नकल प्रदशानों से अवभनय, हास-पररहास, चुटीले व्यंग्य एवं जनमनोरंजन के तत्त्व जटु ाकर माचकारों ने इस नई रंग शैली को पनपाया। राजस्थान में प्रचवलत ख्याल का प्रभाव भी माच के खेलों में वदखाई देता है। इसीवलए प्रवसि इवतहासज्ञ डा. रघवु ीरवसहं ने ख्यालों को


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माचों का जनक कहा है। माच की शैली के आरम्भकता​ा गुरु गोपालजी को माना जाता है, जो मूलतः राजस्थान के रहने वाले थे और बाद में मालवा में बस गए थे। ऐसा माना जाता है वक गुरु गोपाल जी ने मालवा क्षेत्र में राजस्थान के ख्याल जैसा कोई नाट्य रूप न पाकर स्थानीय संगीत और लोककला रूपों के समावेश से माच की शुरूआत की, जो परम्परा से िमशः पररष्ट्कृत, संरवक्षत और संववधात होता गया। ‘माच’ शब्द का सम्बन्द्ध सस्ं कृ त मल ू मचं से है। इस मचं शब्द के मालवी में अनेक क्षेत्रों में प्रचवलत पररववतात रूप वमलते हैं। उदाहणाथा-माचा, मचली, माचली, माच, मचैली, मचान जैसे कई शब्दों का आशय मचं के समानाथी भाव बोध को ही व्यि करता है। माच गरु​ु वसिेश्वर सेन माच की व्यत्ु पवि के पीछे सम्भावना व्यि करते हैं वक माच के प्रवताक गरु​ु गोपालजी ने सम्भवतः कृ वष की रक्षा के वलए पेड़ पर बने मचान को देखा होगा, वजस पर चढकर स्त्री या पुरुष आवाज आवद के माध्यम से नुकसान पहुचँ ाने वाले पश-ु पवक्षयों से खेत की रक्षा करते हैं। गुरु गोपालजी ने मचान शब्द को ध्यान में रखा होगा और वफर नाटक-प्रदशान के ऊँचे स्थान (मंच) से उसी ‘मचान’ की आकृ वत एवं रूप साम्य के आधार पर अपने मचं का नाम माच दे वदया होगा। कालान्द्तर में यही नाम

प्रचवलत हो गया। वस्ततु ः माच के मचं और मचान में पया​ाप्त साम्य रहा है। पुराने दौर में माच का मंच इतना अवधक ऊँचा बनाया जाता था वक उसके नीचे से बैलगाड़ी भी गुजर जाती थी। इन वदनों मंच की ऊँचाई प्रायः सामान्द्य ही रहती है। माच के आवद प्रवताक गुरु गोपाल जी के अलावा माच परम्परा को गुरु बालमुकुन्द्दजी, गुरु रामवकशनजी, गरु​ु भैरवलालजी, गरु​ु राधावकशनजी, गरु​ु कालरू ामजी, गरु​ु फकीरचन्द्दजी, गरु​ु वशवजीराम, गरु​ु चन्द्ु नीलाल, श्री वसिेश्वर सेन, श्यामदास चिधारी आवद ने आगे बढाया और अनेक खेलों का लेखन एवं प्रदशान वकया। माच के वववभन्द्न गरु​ु ओ ं के बीच नये-नये माच के वनमा​ाण एवं प्रदशान की स्वस्थ प्रवतस्पधा​ा रहती थी। वववभन्द्न माच गरु​ु ओ ं द्वारा मालवी में रचे गए लगभग सवा सौ अवधक माच के खेल वमलते हैं, वजन्द्हें डा. मधरु ने सुववधा की दृवि से चार भागों में बाँटा है - धावमाक और पौरावणक कथानक , शौया कथाएँ , प्रेमाख्यान और सामावजक कथानक। इन सभी प्रकार के खेलों में जीवन की वववभन्द्न पहलुओ ं की अवभव्यवि के साथ ही कहीं मानव मन की सक ु ोमल भावनाओ ं के रागात्मक सन्द्दभों को व्यि वकया गया है,तो कहीं साहसी और वीर चररत्रों को, कहीं


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आध्यावत्मकता की अवभव्यजं ना है,तो कहीं सामवयक समस्याओ ं से टकराने की कोवशश। ववववधायामी जीवन सन्द्दभों की अवभव्यवि के साथ ही उच्चतम मल्ू यों की वसवि माच की के न्द्रीय प्रवृवि रही है, जो कहीं पौरावणक तो कहीं ऐवतहावसक, कहीं लोक-प्रवसि तो कहीं काल्पवनक चररत्रों के माध्यम से मतू ा होती है। भारत की समृि नाट्य परम्परा की जीवतं ता और वनरंतरता को आधार देने में सवा​ावधक महत्वपूणा योगदान लोक-नाट्यों का ही रहा है। लोकमानस की अवभव्यंजना के वलए उपलब्ध ववववध माध्यमों में से लोक-नाट्य ही अपनी तीव्र रसविा और सहज सम्प्रेषणीयता के भाषागत अन्द्तर के बावजदू एक अन्द्तः सत्रू में जड़ु े वदखाई देते है। लोकमानस की स्वाभाववक अवभव्यवि इन सारे लोक-नाट्य रूपों को एकसत्रू में जोड़ती वदखाई देती है। यह स्वाभाववक उनकी जवटल बौविकता से ववहीन भावात्मकता से उपजती है, जो कथानक, सवं ाद, गीत-सगं ीत, नृत्य, प्रदशान-शैली, रंग-वशल्प, भाषा आवद सभी स्तरों पर स्पितः दृविगोचर होती है। इस दृवि से मालवा क्षेत्रा का लोक-

नाट्य रूप माच भारत के अन्द्य लोक नाट्यों रूपों से अलग नहीं है। उसमें भी वहीं लोकरंजता के अनक ु ू ल सगं ीत, नृत्यमल ू क अवभनय एवं प्रदशान के तत्त्व, धावमाकता के साथ ही सामावजक, राजनैवतक, लोककथामल ू क और प्रेमाख्यानपरक कथानकों की बहुलता तथा शृंगार, वीर, करुण और हास्य रसमूलक अवतरंवजत भावप्रवणता और तल्लीनता मौजदू है, जो भारत के अन्द्य लोकनाट्य रूपों जैसे नौटंकी, ख्याल,भवई,तमाशा, कररयाला आवद में वमलते ह।ं वस्तुतः इन सभी की सौन्द्दया दृवि संस्कृ त नाटकों की भांवत रसमूलक ही है। इसी तरह इन लोकनाट्य रूपों में वैयविक सघं षा के स्थान पर व्यवि एवं समूह के अन्द्तः सम्बन्द्धों की पहचान तथा जीवन की अनेक वस्थवतयों से गुजरकर एक तरह के सतं ुलन की दशा में दशाकों को ले जाने की प्रवृवि मौजदू है, वजसमें कहीं लोकमंगल की वसवि होती है तो कहीं कारुवणक अन्द्त के बावजदू लोकादशा की स्थापना। माच के प्रवत्र्तक गुरु गोपालजी (1773-1842 ई.) से लेकर आज तक सृजनरत माचकारों की एक लम्बी फे हररस्त है वजन्द्होंने माच के लगभग डेढ


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सौ खेलों का प्रणयन वकया है। बीसवीं शती के शुरूआती दशकों में माच ही मालवा का प्रवतवनवध रंगमंच था वजसके प्रदशानों में रात-रात भर सैकड़ों दशाकों की भीड़ जटु ी रहती थी। यद्यवप वपछली शताब्दी के ढलते-ढलते माच की लोकवप्रयता एवं प्रदशानों में कुछ कमी आई है वफर भी इसके संरक्षण ववस्तार और नवाचारी प्रयोगों द्वारा माच गुरुओ ं ने इसे आज जीवतं बनाए रखा है।


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शोध आलेख

चीन में संस्कृत, भारतीय संस्कृतत और बौद्ध धमम -डॉ.गुणशेखर --------------------------------किसी भी भाषा िी अकभव्यकि िे दो रूप होते हैं.पहला है मौकि​ि और दसू रा कलकित.जैसे किसी व्यकि िा बोल बदं होने लगे तो उसिे जीवन पर संदहे होने लगता है वही कथिकत भाषा िे संदभभ में भी होती है.भाषा िा कलकित रूप भले ही कितना समृद्ध हो उसिी मौकि​ि अकभव्यकि िा अभाव उसिे जीवन िो सदं हे ाथपद बना देता है.शद्ध ु तावाकदयों िी हठधकमभता िे चलते संथिृ त िी कलकित अकभव्यकि पर तो िोई प्राणघाती असर नहीं पडा लेकिन मौकि​ि अकभव्यकि पहले धीरे धीरे क्षीण हुई किर लुप्त होती चली गई.आज यह कथिकत है कि इसिे बोलने वालों िा अिाल पडा हुआ है.जो भाषा कलकित में भले ही जीकवत हो पर यकद वह बोलचाल िे क्षेत्र में जीकवत नहीं होती तो भाषाकवद उसे मृत मान लेते हैं.दभु ाभग्य से संथिृ त भाषा पर मृत भाषा िा िे वल यही यानी इिलौता लक्षण वह भी आधा-अधरू ा लागू होता है,किर भी इसी से इसिे मृत होने िे ितवे जारी होने शुरू हो गए हैं. सुना है संथिृ त भारोपीय भाषा पररवार िी भाषा है.इसे आयभ भाषा िे नाम से भी जाना जाता है.भारत िे भीतर और बाहर सकु वधा िी दृकि से इसे इडं ो ईरानी या इडं ो आयभन िहिर भी पुिारा जाता है.इसिे इडं ो ईरानी िही जाने िे पीछे इसिा फारसी और अवेथता िी िरीबी भाषा होना भी हो सिता है.ईरान में रहते हुए जब फारसी सीिनी शरू ु िी तब जान

डॉ.गण ु शेखर, प्रो.कहदं ी, गयु ाङ्​्ग्दोंग भाषा कवश्व कवद्यालय ,ग्वाङ्​्ग्जाऊ,चीन। िोन नंबर00862036204385

पाया कि सथं िृ त िी तरह ही फारसी िे भी किया रूप चलते हैं.यहा​ाँ दोनों िी कनिटता दशाभने िे कलए एि ही उदाहरण िाफी होगा कि गम् धातु िी लट् लिार िे परथमैपदी रूपों गच्छकत ,गच्छतः ,गच्छकतत िी भा​ाँकत फारसी िे मीरम ,मीरी, मीरवी रूप चलते हैं. संथिृ त और फारसी िी सहायि कियाएाँ भी उच्चारण िी दृकि से बहुत िरीबी लगती हैं.ईरान में किसी िो अपना पररचय देते समय 'मन कहदं ी हथतम'् आकद वाक्य बोलते हुए मझु े संथिृ त बोलने-सा सुि कमलता िा. अपने ही ह्रदय क्षेत्र भारत में संथिृ त बोलचाल से िै से बाहर हुई जहा​ाँ यह शोध िा कवषय है वहीं यह भी कि इसने ऎसी िौन-सी संजीवनी पी रिी है कजससे हजारों सालों से सामातय जनजीवन से िटिर भी अभी ति अपना अकथतत्त्व बनाए हुए है.प्रिम दृि्या तो इस कवराट जगत िे जड-चेतन सकहत मानवीय ह्रदय िे राग-कवराग और शाश्वत जीवन मूल्यों िी अकमय धारा से अकभकसकं चत इसिा कवपल ु साकहत्य ही इसिी सजं ीवनी िा मल ू स्रोत जान पडता है.इसे मृत भाषा घोकषत िरने िी मंशा पालने वालों िो यह जानिर कनराशा होगी कि यह मृत नहीं अमृत भाषा है कजसिी सुर-सररता में अवगाहन िरने िो आज भी लािों-िरोडों देशी-कवदेशी उद्यत रहते हैं. मातृभाषा िे रूप में कजसिी अकमय धारा िा पान िरने (बोलने) वाले अब भी गा​ाँव िे गा​ाँव पडे हैं. संथिृ त संथिारों िी भाषा है.यह मागं कलि िायों िी भाषा भी है.यह अपनी शुकचता िे कलए भी जानी जाती है. भारतीय सथं िृ कत में


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देव वाणी िहिर पजू ी भी जाती है.यह िे वल किसी एि जाकत,धमभ या क्षेत्र िी भाषा नहीं है.यह आयों से लेिर आधकु नि कहदं ,ू बौद्ध और जैन धमों िी साझी सांथिृ कति धरोहर है और आयाभवतभ से लेिर दकु नया भर िे कवकभतन देशों में अपने कवपल ु साकहकत्यि भण्डार िे साि कवश्व कवरासत िे रूप में संरकक्षत है.मुझे यह देि​िर बहुत अच्छा लगा कि कविीपीकडया में इसे बहुत अच्छी तरह से पररभाकषत किया गया है ," संथिृ तम् saṃskṛtam[səmskrtəm ], originallyसथं िृ ता वाि् saṃskṛtāvāk, "refined speech") is the primaryliturgical language ofHinduism, a philosophical language inHinduism, Buddhism, and Jainism, and a scholarly literary language that was in use as a lingua franca in the Indian cultural zone. It is a standardized dialect ofOld IndoAryan language, originating as Vedic Sanskrit and tracing its linguistic ancestry back to ProtoIndo-Iranian and ultimately to ProtoIndo-European. Today it is listed as one of the 22 scheduled languages of India" ....The oldest attested Indo-Iranian languages are Vedic Sanskrit(ancient Indo-Aryan), Older and Younger Avestan and Old Persian(ancient Iranian languages).

A few words from a fourth language (very closely related to Indo-Aryan; see Indo-Aryan superstrate in Mitanni) are attested in documents from the ancient Mitannikingdom in northern Mesopotamia and Syria and the Hittitekingdom in Anatolia."1 लौकि​ि संथिृ त और पाकल तिा प्रािृ त भाषाओ ं िा बहुत कनिट िा सबं ंध रहा है.पाकल तो अपने सुत्तों और मंत्रों िे िारण संथिृ त िे और भी कनिट जान पडती है.धीरेधीरे यह सथं िृ त िे व्यािरण िे सरलीिरण िी प्रकिया से उपजी कमकित संथिृ त से( पाकणनीय व्यािरण िे बाद)िोडाऔर भी अकधि कनिट आती हुई कदिती है.इसीकलए िे .आर नामभन( K.R. Norman)तो इसे कमकित सि ं ृ त भाषा िा ही एि रूप मानने लगते हैं.लेकिन पाकणकन िे बाद यह यही पाकल भाषा संथिृ त से दरू जाती हुई भी कदिती है"earlier works, mostly from theMahāsāṃghika school, use a form of "mixed Sanskrit" in which the original Prakrit has been incompletely Sanskritised, with the phonetic forms being changed to the Sanskrit versions, but the grammar of Prakrit being retained. For instance, Prakritbhikkhussa, the possessive singular of bhikkhu (monk, cognate with Sanskrit bhikṣu) is converted not to bhikṣoḥ as in Sanskrit but


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mechanically changed to bhikṣusya."2 संथिृ त नाटिों में शूद्र और स्त्री पात्रों िे द्वारा प्रािृ त बोला जाना यह दशाभता है कि यकद संथिृ त िा वचभथव कलकित परंपरा में िा तो दसू री भाषाओ ं पाकल और प्रािृ त िा मौकि​ि में.सथं िृ त में कलकित और मौकि​ि दोनों रूपों में व्यािरकणि शद्ध ु ता और एिरूपता िे प्रकत वैयािरणों िे आग्रह िे िारण िम पढाकलिा या अपढ वगभ पाकल और प्रािृ त में सहज रहा.इस तरह से कशकक्षत वगभ तो संथिृ त िे कनिट रहा पर शेष जनमानस सथं िृ त से दरू होता चला गया.इसिा प्रत्यक्ष उदाहरण स्त्री और शूद्र पात्र हैं जो संथिृ त नाटिों में िे वल प्रािृ त बोलते देिे जाते हैं.इसी शुद्धतावादी दृकि ने िालांतर में पाकल और प्रािृ त िो भी संथिृ त से दरू और कमकित सथं िृ त िे कनिट पहुचाँ ाया.कमकित सथं िृ त से पाकल-प्रािृ त िे इस सहज नैिट्य किंतु शास्त्रीय (मुख्यतः व्यािरकणि)दरू ी िो भी अपनी व्याख्या में बहुत सुतदर ढंग से थपि िरते हुए एडगाटभन कलिते हैं कि एि बुकद्धि पाठि कमकित(हाइकिड) सथं िृ त िी पाठ्य सामग्री िो पढते हुए,"will rarely encounter forms or expressions which are definitely ungrammatical, or at least more ungrammatical than, say, the Sanskrit of the epics, which also violates the strict rules of Pāṇini. Yet every paragraph will contain words and turns of expression which, while formally

unobjectionable ... would never be used by any non-Buddhist writer." 3 कमकित संथिृ त िा संप्रत्त्यय हाइकिड चीनी िे बरक्स है-The term 'Buddhist Hybrid Chinese',which is used to describe peculiar styles of language used in translations of Buddhist texts."4 देशी संथिृ त प्रेकमयों िो देश और देश िे बाहर िे उन संथिाओ ं और कवद्वानों िे प्रकत उदार होना होगा कजतहोंने इसिे कविास और प्रचार प्रसार में हलिा-सा भी हाि लगाया है.वह इसकलए नहीं कि हम पकिमी कवद्वानों से कनम्नतर हैं बकल्ि इस कलए कि हम उसी संथिृ त िे लाल हैं जो बडे गवभ से िहती है"अयं कनजः परोवेकत गणना लघु चेतसाम् उदार चररतानाततु वसुधवै िुटुम्बिम ." सच पकू छए तो सथं िृ त सारी दकु नया में अकधिाश ं तः अनवु ादों िे माध्यम से पहुचाँ ी.िुमाररल भट्ट जैसे संथिृ त,संथिृ कत और कहतदू धमभ िे ध्वजा वाहि कजस बौद्ध धमभ िे पीछे लाठी लेिर पडे िे,प्रायः उसी ने हमारी सथं िृ त और सथं िृ कत िी पतािा सारी दकु नया में बडे शान से िहराई.सम्राट अशोि ने बौद्ध धमभ िे प्रचारािभ अपने पुत्र और पुत्री िो िीलंिा और महायान शािा िे कमशनररयों िो चीन भेजा िा.इतहोंने बौद्ध साकहत्य िा प्रचुर मात्रा में चीनी भाषा में अनुवाद किया िा.चीन में ही नहीं इन महायाकनयों ने पूवके शया िे अनेि देशों सकहत जापान में व्यापि रूप से बौद्ध धमभ िा कमशनरी भाव से प्रचार िरने िे कलए अपने दाशभकनि कसद्धांतों िे जापानी भाषा में अनुवाद भी प्रथततु किए.वहा​ाँ बद्ध ु िो शाक्य मकु न


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और तिागत िे रूप में भी कवशेष ख्याकत कमली.इतहीं िे प्रयासों से जापानी भाषा में कवशेष रूप से 'तयोराई' अिाभत् तिागत िे रूप में जाने गए महात्मा बुद्ध.वहीं ठहर नहीं गया संथिृ त िा यह पुनीत िमभ. धीरे-धीरे पूरे एकशया और किर यूरोप पहुचाँ िर ही कवराम कलया. ईसा पूवभ ११०० में झाओ(Zhou) वश ं िे शासन िाल में ही संथिृ त चीन पहुचाँ गई िी.उसिे समय न िे वल संथिृ त िा चीनी भाषा में अनुवाद हुआ बकल्ि अनुवाद िे कनयम भी बने िे.इसिे बाद हानवश ं (२२०ईसा पूवभ से २०६ईसा पूवभ ति)िे शासन िाल में बौद्ध धमभ िे साि-साि चीन में संथिृ त भाषा और साकहत्य िे व्यापि रूप से पहुचाँ ने िे प्रमाण कमलते हैं.इस िाल से इन दोनों िो चीन में बहुत मान कमलना प्रारंभ हुआ.इसी िालिडं में ही कशगाओ नाम िे फारसी भाषी व्यकि ने भारतीय ज्योकतष और बौद्ध साकहत्य िे ग्रंिों िा कवशेष रूप से सूत्रों िा संथिृ त से चीनी भाषा में अनुवाद किया िा.पा​ाँचवीं सदी(सन ४०१ई.) में िश्मीर िे िुमारजीव ने चीन जािर व्यापि थतर पर बौद्धधमभ िा प्रचार किया.उसने अपने ३००० कवद्वानों िे साि कमलिर ७४ सूत्रों सकहत कवपुल मात्रा में संथिृ त में रकचत बौद्ध साकहत्य िा चीनी में प्रामाकणि अनुवाद भी किया.इस िाल में अिे ले चीन में १७६८ बौद्ध मकं दर बने कजनमें बराबर उठने वाले संथिृ त मतत्रों िे थवर अपने नाद से आिाश िो गुंजायमान िरते रहे. सातवीं सदी में सुप्रकसद्ध चीनी यात्री व्हेनसागं (६००-६६४ई.)ने आध्याकत्मि गरु​ु िी िोज

िे उद्देश्य साि भारत िी यात्रा िी . 'Journey to the west'िे नाम से अनूकदत उसिी चकचभत पुथति िे उद्धरणों से पता चलता है कि बौद्ध धमभ िा साकहत्य जो अकधिांश संथिृ त में रकचत िा,वह यहा​ाँ से बाईस घोडों पर लादिर महात्मा बुद्ध िी सोने िी मकू तभ और सथं िृ त में रकचत १२४ अद्भुत सूकि संग्रहों िे साि बौद्ध तिा अतय साकहत्य िी ५२० पांडुकलकपया​ाँ अपने साि ले गया िा .चीन लौटने पर उसिा राजिीय सम्मान िे साि भव्य थवागत हुआ.थवदेश वापसी पर उसने अि​ि पररिम िे साि उतनीस वषों ति संथिृ त से चीनी और चीनी से संथिृ त में कनरंतर अनुवाद िा िायभ किया.इस तरह मात्र उतनीस वषों में उसने १३३५ ग्रंिों िा अनुवाद किया.उसने अपने देश वाकसयों िे कलए सथं िृ त से चीनी और भारतीयों िे कलए चीनी साकहत्य िा सथं िृ त में अनवु ाद िरिे दोनों संथिृ कतयों िे समतवयन िा अनठू ा प्रयोग किया िा.वह भारत और भारतीय साकहत्य िा भक्त्त बन गया िा.पूरे अट्ठाईस वषों ति भारत में रहने िे बाद चीन लौटने िे समय ति न िे वल वह बौद्ध बन गया िा बकल्ि थवदेश पहुचाँ ते ही अपने सम्राट िो भी उनिे पैति ृ ताओ धमभ िो छुडवािर बौद्ध धमभ में दीकक्षत िर कलया िा. बौद्ध धमभ िे अभ्युदय और उसिे दकु नया भर में िै लने िे साि-साि सथं िृ त भी िूलती-िलती और िै लती गई.नालंदा और तक्षकशला िे कवश्व कवद्यालय जहा​ाँ िुछ िट्टरपंिी आिातताओ ं िे द्वारा जलाए जाने से संथिृ त भाषा और साकहत्य िी अपूरणीय क्षकत हुई वहीं यह भी भल ू ना ठीि नहीं है कि आठवीं


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शताब्दी में इथलाम िे भारत आगमन पर उदार इथलाम मतावलबं ी कवद्वानों द्वारा पातजं कल िे योगसूत्र ,उपकनषद और पंचतंत्र िी िहाकनयों िे साि-साि बहुत सारा संथिृ त साकहत्य अरबी और फारसी में अनूकदत होिर अरब देशों और अरब से होते हुए यूरोपीय देशों में पहुचाँ ा. अध्ययन िी सुकवधा िी दृकि से संथिृ त िे भाकषि थवरूप िो मुख्यतः तीन भागों में बा​ाँट सिते हैं.पहला है -वैकदि ,दसू रा शास्त्रीय या लौकि​ि और तीसरा है कमकित या संिर सथं िृ त.भारतीय कवद्वान पहले दो थवरूपों से सहज सहमत हो सिते हैं पर तीसरे िे कवषय में थवयं िो िोडा असहज अवश्य अनुभव िरेंगे.संथिृ त िा जो तीसरा रूप है उस िे कवषय में महात्मा बुद्ध िोडा अकधि उदार भाव रिते िे क्योंकि वे महससू ते िे कि शद्ध ु सथं िृ त तो कद्वजों िे कलए है.अतः कमकित संथिृ त बुद्ध िे संरक्षण में िबू िूली-िली लेकिन सामाकजि थतर पर शुद्धतावादी िुमाररल भट्ट िे उद्भव और उनिे बौद्ध धमभ िे प्रकत प्रबल कवरोध भाव िे िारण तिा अिादकमि थतर पर चौिी शताब्दी में वैयािरण पाकणकन िे आगमन िे साि शास्त्रीय संथिृ त िी तुलना में कमकित संथिृ त कजसमें पाकल और प्रािृ त िो सहज रूप में प्रवेश प्राप्य िा, िो आगे चलिर प्रयोग िे थतर पर बहुत सभं व है कि अप्रासकं गि और कनकषद्ध िरार कदया गया हो कजससे संथिृ त िे इस तीसरे रूप िो पनपने िा अच्छा अवसर कमल गया हो. कवदेशी कवद्वानों ने संथिृ त िे इसी तीसरे रूप िो ' Buddhist Hybrid Sanskrit'िी सज्ञं ा दी है- " Buddhist

Hybrid Sanskrit writings emerged after the codification in the 4th century BCE of Classical Sanskrit by the scholar Pāṇini. His standardized version of the language that had evolved from the ancient Vedic came to be known as "Sanskrit" (meaning "refined", or "completely formed"). Prior to this, Buddhist teachings are not known to have generally been recorded in the language of the Brahmanical elites. At the time of the Buddha, instruction in it was restricted to members of the twice-born castes.Pāli could also be considered a form of BHS''4 बौद्ध धमभ ने कमकित सथं िृ त िे साि-साि उसमें समावेकशत और थवतत्रं रूप से भी प्राप्य अपने धाकमभि साकहत्य िे माध्यम से पाकल और संथिृ त दोनों भाषाओ ं िे संरक्षण िा पनु ीत िायभ किया है.इस धमभ िी वजह से न िे वल भारत बकल्ि भारत से बाहर भी ये भाषाएाँ जीवतं रहीं. िहीं मंत्रों तो िहीं कनयमों ,कसद्धांतों िे रूप में उच्चररत होती रहीं.व्यापि जन समुदाय िे बीच सबसे मनोयोग और उत्साह पूवि भ बोली और सुनी जाती रहीं.इसकलए पाकल से नाि-भौं कसिोडने


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वालों िो िोडा उदार होना पडेगा.सथं िृ त िी सहोदरा िे रूप में सहेजना पडेगा.पाकल िे इस अवदान और उसिी व्यापिता पर कवदेशी कवद्वानों िे कवचार उल्लेिनीय हैं-"Four varieties of Pali are distinguished: the archaic language of the verse portions of the Pali canon, Tipitaka; the more uniform and regularlanguage of canonical prose; the even more simplified and standardized language of commentary literature; and the language of recentliterature, with its many new formations, deviations from rules, and foreign influences. Because of the exceptional cultural and historicalsignificance of Pali that distinguishes it from other Middle Indic languages, Pali has been preserved as a living literary language in Sri Lanka,Burma, Thailand, Laos, Cambodia, and Vietnam. It is used for religious and scholarly works, and is part of the spoken language of educatedBuddhists. Pali has exerted considerable influence on a number of languages in Southeast Asia."7 पाकल भाषा में भारत में उपलब्ध साकहत्य मुख्यतः िाह्मी और िरोष्ठी में कलिा गया िा जो भारत से बाहर िे देशों में सुकवधा िी

दृकि से उनिी अपनी कलकपयों में पनु ः कलकपबद्ध किया गया. पाकणनीय व्यािरण सम्मत संथिृ त में भी प्रचुर मात्रा में बौद्ध साकहत्य कलिा गया है लेकिन यह कमकित सथं िृ त और पाकल भाषा में कलिे गए साकहत्य िी तल ु ना में िम है.अश्वघोष िा बुद्ध चररत संथिृ त भाषा िे शास्त्रीयथवरूप में कलिे गए साकहत्य िा उत्िृ ि उदाहरण है.अतः पाकणकन िे बाद सथं िृ त भाषा ने कवशुद्ध शास्त्रीय थवरूप ग्रहण किया जो आज ति लगभग वैसा िा वैसा ही है-After Pāṇini's work, Sanskrit became the pre-eminent language for literature and philosophy in India. Buddhist monks began to adapt the language they used to it, while remaining under the influence of a linguistic tradition stemming from the protocanonical Prakrit of the early oral tradition."8 इतनी जीवतं और ऊजाभवान भाषा व्यवहार िे धरातल से िब और िै से बकहष्िृ त हुई यह गंभीर शोध िा कवषय है.इस क्षेत्र में कजतहोंने शोध किया भी वे और िोई और कनष्िषभ देने से पहले सथं िृ त िी मौत िा फतवा जारी िरने लगे.पकिमी कवद्वान पोलि इसी िेणी िे कवद्वान हैं.इतहोंने संथिृ त िो लैकटन िी भा​ाँकत ही मृत घोकषत िरते हुए तिभ कदए हैं कि-"most observers would


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agree that, in some crucial way, Sanskrit is dead".[12] .... while Sanskrit continued to be used in literary cultures in India, Sanskrit was not used to express changing forms of subjectivity and sociality embodied and conceptualised in the modern age.[36] लेकिन मैं इनिी राय से िदाकप सहमत नहीं ह.ाँ उसिा िारण यह कि संथिृ त आज भी लािों िी जीकविा िी भाषा है और हजारों िी मातृभाषा.उत्तरािडं राज्य िी राजभाषा भी है और भारतीय सकं वधान िी आठवीं अनुसचू ी में अकधसूकचत भारत िे संघीय चररत्र वाले गणराज्य िी राष्रीय भाषा भी.जब ति भारत राष्र िा लोितंत्र सुरकक्षत है,संकवधान इसिी रक्षा में सशस्त्र और सशास्त्र िकटबद्ध है और हाि उठाए िडा है.पचासों िरोड लोगों िे सथं िारों िी भाषा है.दकु नया िे उत्िृ ि और शास्त्रीय साकहत्य िी आदशभ भाषा भी है.जब ति जतम से लेिर मृत्यु ति िे संथिार होते रहेंगे और भारत िी राष्रीय अकथमता सजग रहेगी सथं िृ त िे थवर अतं ररक्ष में गाँजू ते रहेंग.े सन २००१ िी जनगणना िे अनुसार भारत में १४१३५ लोगों िी मातृभाषा संथिृ त है.दकक्षण िे िनाभटि िे कशमोगा कजले िे मात्तुर गा​ाँव से लेिर पूरब में उडीसा िे क्योंझर कजले िे श्याम सुंदरपुर गा​ाँव िो कमलाते हुए परू े देश में आठ गा​ाँवों मोहाद,नरकसंहपुर,कझरी,राजगढ,म.प्र.,िपे रण,बूाँदी,और िाडा,गनोडा बा​ाँसवाडा,आकद राजथिानी गा​ाँवों िे लोगों िी िे वल समझ िी भाषा ही नहीं मातृभाषा भी संथिृ त ही है.

सथं िृ त एि ऐसी भाषा है कजसिे साकहत्य और ज्ञानकवज्ञान िे वाग्ं मय िा दकु नया भर िी सैिडों भाषाओ ं में अनुवाद हुआ है.यह ग्रीि और लैकटन कजतनी पुरानी होिर भी न तो उनिी तरह क्षररत या थिकलत हुई और न ही मृत.यह अमृतमय भाषा है.इससे ही भारतीय भाषाओ ं िी पयकथवकनया​ाँ प्रवाकहत हुई हैं.इसिी प्रशंसा में कवकिपीकडया में उकल्लकित ये तथ्य कवशेष महत्त्व िे हैं कि-"The Sanscrit language, whatever be its antiquity, is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copious than theLatin, and more exquisitely refined than either, yet bearing to both of them a stronger affinity, both in the roots of verbs and the forms of grammar, than could possibly have been produced by accident; so strong indeed, that no philologer could examine them all three, without believing them to have sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists; there is a similar reason, though not quite so forcible, for supposing that both the Gothic and the Celtic, though blended with a very different idiom, had the same origin with the Sanscrit; and the old Persian might be added to the same family."


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सथं िृ त भाषा ने दो हजार साल पहले ही मसालों िे साि पकिमी देशों िी सरहदों में प्रवेश िर कलया िा लेकिन इसिे उतहें रास आने िे प्रमाण सबसे पहले भतृभहरर िे साकहत्य िे पतु भगाली भाषा में १६५१ ई.िे अनुवाद िे साि कमलते हैं.सन १७७९ में नैिेकनयल ने 'कववादाणभव सेतु' िा 'A Code of Gentoo Laws' िे नाम से एि उत्िृ ि लीगल िोड िे रूप में प्रिाशन किया िा.यह अनुवाद फारसी से किया गया िा.इसिा अिभ है कि अग्रं ेजी,जमभन और पुतगभ ाली से पहले अरबीफारसी में संथिृ त ग्रिं ों िे अनुवाद हो चुिे िे.१७८५ में चाल्सभ कबकल्िंस ने भगवद्गीता िा अग्रं ेजी में अनुवाद किया िा. अकभज्ञान शािुततलं िा अनुवाद १७८९ ई० में W जोतसन ने ' 'नाम से किया िा.टीएस इकलयट तो सथं िृ त से इतना प्रभाकवत िे कि उतहोंने अपनी चकचभत िृ कत 'The Waste Land' िा समापन संथिृ त भाषा िे , 'शाकं तः शाकं तः शाकं तः 'शब्दों से किया. इससे थपि है कि यह िहीं भी किसी जाकत,धमभ या क्षेत्र िे इिलौते िटूाँ े से िभी बंधी नहीं रही. िश्मीर िे मुकथलम शासिों से लेिर महमूद गजनवी ति ने संथिृ त िो राज भाषा बनाया.महमदू िे कसक्िों पर अकं ित

सथं िृ त अपनी परु ातन वैकश्वि व्याकप्त िो पिु िरती हुई कमलती है. संथिृ त में कलिे गए लगभग समग्र बौद्ध साकहत्य िे साि ही दकु नया भर िी भाषाओाँ में कनम्न कलकित संथिृ त ग्रंिों िे सवाभकधि अनुवाद हुएअकभज्ञानशािुततलम् िाकलदास,अकवमारि - भास,अिभशास्त्र चाणक्य,अिाध्यायी - पाकणकन,आयभभटीयम् आयभभट,आयाभसप्तशती गोवधभनाचायभ,उरुभंग - भास,ऋतुसंहार िाकलदास,िणभभार - भास,िादम्बरी वाणभट्ट,िामसूत्र -वात्थयायन,िाव्यप्रिाश मम्मट िाव्यमीमांसा राजशेिर,िालकवलास क्षेमेतद्र,किराताजनुभ ीयम् - भारकव,िुमारसंभव िाकलदास,बृहत्ि​िा - गुणाढ्य,चण्डीशति वाणभट्ट,चरि संकहता - चरि,चारुदत्तभास,चौरपंचाकशिा कबल्हण,दशिुमारचररतम् दण्डी,दतू घटोत्िच - भास,दतू वाक्य भास,तयायसूत्र - गौतम,नाट्यशास्त्र भरतमुकन,पञ्चरात्र - भास,प्रकतमानाटिम्भास,प्रकतज्ञायौगंधरायण - भास, बुद्ध चररतअश्वघोष, - वाराहकमकहर,िह्मथिुटकसद्धातत िह्मगप्तु ,िह्मसत्रू - बादरायण,बालचररत्र भास,मध्यमव्यायोग-भास,मनुथमृकत मन,ु महाभारत - वेद व्यास,मालकविाकग्नकमत्र िाकलदास,मुिुटताकदति - वाणभट्ट,मेघदतू िाकलदास,मृच्छिकटिम् - शूद्रि,कममांसा जैकमनी,योगयात्रा - वाराहकमकहर,योगसत्रू पतंजकल,रघुवश ं िाकलदास,रसरत्नसमुच्चय -


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वाग्भट्ठ,रसमञ्जरी - शाकलनाि,राजतरंकगणी िल्हण,रामायण महकषभ वाल्मीकि,व्यािरणमहाभाष्य पतंजकल,वाक्यपदीय भतृभहरर,कविमोवभशीय िाकलदास,वैशेकषिसूत्रम् िणाद,थवप्नवासवदत्तम - भास,समयमातृिा -क्षेमेतद्र,साकहत्य दपभण - कवश्वनाि िकवराज,सांख्यसूत्र - िकपलमुकन,हषभचररत्र वाणभट्ट संथिृ त िे अभ्युत्िान में चीन और बौद्ध धमभ िा योगदान िभी नहीं भल ु ाया जा सिता.यकद बौद्ध धमभ इतने व्यापि रूप से दकु नया में न िै ला होता तो संथिृ त भी संभवतः उतनी व्यापि नहीं हुई होती कजतनी बौद्ध धमभ िे अनुयाकययों से वकतदत और अकभनंकदत होिर हुई है.चीन भले िीलंिा या जापान िी तरह बौद्ध धमभ प्रधान देश नहीं है पर इस धमभ िे प्रचार-प्रसार में इनसे भी बडा योगदान चीन िा है. 1. प्रोफे सर जयदेव कसंह ने अपने 'माध्यकमि दशभन 'में महायान सप्रं दाय िे साथं िृ कति योगदान िो चीन ,कतब्बत और जापान िे द्वारा बचाए रिने िी सराहना िी है. बौद्ध धमभ िे महायान संप्रदाय िा अकधिांश साकहत्य या तो व्यािरण सम्मत साकहकत्यि संथिृ त भाषा में कलिा गया है या कमकित अिवा संिर संथिृ त में लेकिन शोधिताभओ ं िे अनसु ार भारत में महायान संप्रदाय िा यह साकहत्य पणू भतः अनुपलब्ध है.किततु यह सुिद सूचना है कि दसू री से ग्यारहवीं शताब्दी िे बीच संथिृ त से चीनी तिा सातवीं से ग्यारहवीं िे बीच सथं िृ त से कतब्बती में प्रचरु मात्रा में बौद्ध

साकहत्य िा अनवु ाद हुआ.सथं िृ त और कमकित सथं िृ त में कलिे बौद्ध साकहत्य िे यकद अनुवाद न हुए होते तो जैसे आज महायानी साकहत्य भारत में उपलब्ध नहीं है,शायद देश से बाहर भी न होता.कतब्बत,चीन और जापान में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध इसी महायानी साकहत्य िे आधार पर ही इनिी स्रोत भाषाओ ं िी िोजबीन िरते हुए सन १८२४ में किकटश िूटनीकतज्ञ और कवद्वान हडसन ने नेपाल से प्रचुर मात्रा में कमकित संथिृ त में कलिा बौद्ध साकहत्य संिकलत िर दकु नया िे सामने रिा.इसिे पहले दकु नया वालों से यह िजाना कछपा पडा िा. 2. संथिृ त िे उत्िान में चीन,जापान और कतब्बत िे साि-साि नेपाल िा भी अभूतपूवभ योगदान है. बकु द्धि सि ं र या कमकित सथं िृ त साकहत्य िे लेिन िा िायभ व्यापि रूप से नेपाल िे िाह्मणों द्वारा किया किया गया.इनिे द्वारा तीसरी सदी में जहा​ाँ इसिे कलप्यंतरीिरण िा िायभ तेजी से चल रहा िा वहीं इसिे उतनी ही तेजी से चीनी भाषा में अनवु ाद भी किए जा रहे िे.लकलतकवथतार सूत्र कजसमें महात्मा बुद्ध िे जीवन िे बारह मुख्य कसद्धांतों िी व्याख्या है,इनिे चीनी भाषा में अनुवाद िे िायभ २२१ई.से२६३ ,३०८ई.,४२० से ४७९ई.तिा ६८३ई.ति मख्ु यतः चार िालिडं ों में कबिरे हुए देिने िो कमलते हैं.लकलत कवथतार िे साि चकचभत सूत्र है सद्धमभ पुण्डरीि सूत्र .इसिे अनुवाद िा िायभ ईसापूवभ प्रिम शताब्दी से लेिर ईसा िी तीसरी शताब्दी ति चला. इसिी पकु ि सनु ीकत िुमार चटजी भी िरते हैं-


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''One great service the people of Nepal did, particularly the highly civilized Newars of the Nepal Valley, was to preserve the manuscripts of Mahayana Buddhist literature in Sanskrit. It was the contribution of Sri Lanka to have preserved for humankind the entire mass of the Pali literature of Theravada Buddhism. This went also to Burma, Cambodia, and Siam. It was similarly the great achievement of the people of Nepal to have preserved the equally valuable original Sanskrit texts of Mahayana Buddhism. It is therefore in Nepal that the vast majority of Sanskrit Buddhist documents have been preserved. ....The special, characteristic peculiarity of Newar Buddhism is that its ritual and its sacred literature are written in the Sanskrit language, because of which we can call Newar Buddhism the only surviving form of “Sanskrit Buddhism”. With the collapse of Buddhism in India, some Buddhists escaped from suppression and fled to Nepal. The Newars of the Kathmandu Valley accepted them and their religious and cultural inheritance. The two groups

intermarried and their religions and cultures merged to become Newar Buddhism. This happened during a period from the 9th to the 13th century A.D. The Newars have continued to copy Sanskrit manuscripts up to the present day. All Buddhists owe a debt to the Newars, through whose efforts we have been able to study these Sanskrit manuscripts in the present day. eighty-six manuscripts, comprising 179 separate works, many were presented to Asiatic Society of Bengal. 85 went to the Royal Asiatic Society of London; 30 to the Indian Office Library; 7 to the Bodleian Library, Oxford; 174 to the Société Asiatique, and others reached French scholar Eugene Burnouf. The latter two collections have since been deposited in the Bibliothèque Nationale of France."5 सथं िृ त िे वल अपने वैकदि या लौकि​ि साकहत्य िे बल पर दकु नया भर में नहीं गई बकल्ि अपनी गकणतीय और वैज्ञाकनि उपादेयता िे िारण भी गई और अरब तिा यूरोप िे देशों में बहुत तेजी से लोिकप्रय भी हुई.इसी सत्य िो प्रोफे सर बनेट ने व्यापि शोध सतदभों िे साि "1001 Inventions" conference. © FSTC 2010 में १५ जल ु ाई २०१० िो लंदन में


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प्रथततु आलेि में सथं िृ त िे इस अवदान िी सराहना िरते हुए कलिा है"A great king of the Arabs whose name was al-Safaah. He heard that in India there were many sciences, and so he ordered that a wise man be sought, fluent in both Arabic and the language of Indian, who might translate one of the books of their widsom for him. … (He found a Jew) and gave him money so that he might travel to the city of Arin on the equator under ths signs of Aries and Libra, where day is equal to night throughout the year, neither shorter nor longer, thinking ‘perhaps he will succeed in bringing one of their wise men to the king'. So the Jew went, and after many subterfuges, persuaded one of the wise men of Arin to agree to go the king...The scholar, whose name was Kanka, was brought to the king, and he taught the Arabs the basis of numbers, i.e. the nine numerals. Then from this same scholar, an Arabic named Jacob b. Sharah translated a book containing the tables of the seven planets..the rising times of the zodiac signs, ...the arrangement of the astrological houses, knowledge of the higher stars, and the eclipses of the

luminaries (and it goes on in this way). There are several elements in this story which sound like the stuff of legend, and Ibn Ezra clearly wishes to make some claim for Jewish participation in the transmission of knowledge. But in in reality, what the text he translates introduces are Indian methods of plotting the movements of the planets and fixed stars scientifically. These had been brought to their most advanced form by Brahmagupta in Sanskrit in theBrahmasphutasiddanta in the late 7th century. These Sanskrit astronomical tables and their canons (descriptions of procedures) had been brought to Baghdad soon after its foundation at the beginning of the Abbasid era, in the time of the caliph al-Mansur (754-75). This was also the time when chess (Arabic shitranj) and a set of moralizing stories (Kalila waDimna) concerning animals based on the Indian Pancatantra entered Islamic culture (also referred to in Ibn Ezra's account). The astronomical tables, known as Sindhind, formed the basis Charles Burnett, The Introduction of Arabic Learning into England,


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London, 1997. of al-Khwarizmi's tables and canons in the early 9th century. These were brought to the Islamic Spain, al-Andalus, and adapted to the meridian of Cordoba by Maslama al-Majriti in the late 9th century, and translated into Latin by Adelard of Bath in the early 12th century, as the first complete set of astronomical tables and their canons in Christendom .6 चीन में भारतीय भाषाओ ं कवशेष रूप से कहदं ी एवं संथिृ त और भारतीय संथिृ कत िे प्रकत लोगों िी रुकच देिते हुए मन गदगद है.यहा​ाँ आज भी संथिृ त और चीनी में कद्वभाषी पुथतिें प्रिाकशत हो रही हैं.थवतंत्र रूप से भी सथं िृ त िी पथु तिें प्रिाकशत हो रही हैं. अतं र्जाल की दनु ियज बहुत मजयजवी है लेनकि हमजरी संस्कृ त िे यहजाँ भी अपिी उपनस्िनत दर्ा करज ली है.हो सकतज है नक हममें से बहुत कम लोगों को इस बजत की र्जिकजरी हो नक संस्कृ त के आि लजइि निक्षण प्रनिक्षण कज कजम चल रहज है .लोग रुनच लेकर सीख-नसखज भी रहे हैं.िीचे दनु ियज भर के कुछ उत्सजही भजषज प्रेनमयों को देखते हुए मैं देिवजसी सभी संस्कृ त प्रेनमयों से अिुरोध करतज हाँ नक वे अपिी कुछ ऊर्जा कज उपयोग यहजाँ भी करेंMyLanguageExchange.com is

doing "extraordinary things online." डॉ.गुणशेिर, प्रो.कहदं ी, गुयाङ्​्ग्दोंग भाषा कवश्व कवद्यालय ,ग्वाङ्​्ग्जाऊ,चीन। िोन नबं र00862036204385


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शोध आलेख


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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 efgykvksa ds ekeys esa ;g T;knk gh gksrk gSA ,d ?kVuk tks ek= N%&lkr ekg igys e/;izns’k ds ,d egkuxj dh Js.kh esa vkus okys ’kgj esa ?kVh Fkh fd ,d efgyk dh e`R;q LokbZu Iyw ls gks tkus ij mlds ’ko dks ys tkus okys lkjs fj’rsnkj unkjr gks x, FksA ’kgjh vkSj vis{kkd`r vf/kd i<+s&fy[ks lekt esa bl rjg dh ?kVuk ds ckn xzkeh.k rcds ls chekfj;ksa ds izfr tkx:drk dks uki ldrs gSaA Vhch ds lkFk Hkh ,slk gh nqO;Zogkj mlds ejhtksa fo’ks"kdj efgykvksa dks rks lkekftd] ikfjokfjd :Ik ls cfg"d`r gh dj nsrk gSA

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

"आत्मकथा : हि​िंदी साहित्य लेखन की गद्य हिधा" (लेखक - डॉ. प्रमोद पाण्डेय) आत्मकथा हिदिं ी साहित्य लेखन की गद्य हिधाओ िं में से एक िै | आत्मकथा यि व्यहि के द्वारा अनभु ि हकए गए जीिन के सत्य तथा यथाथथ का हित्रण िै | आत्मकथा के कें द्र में आत्मकथाकार या हकसी भी व्यहि हिशेष के जीिन के हिहिध पिलुओ िं तथा हिया-कलापों का हि​िरण िोता िै | आत्मकथा का िर एक भाग मानि की हजजीहिषा तथा िर एक शब्द मनुष्य के कमथ ि हिया-कलापों से जडु ा िुआ िोता िै | "न मानुषात् श्रेष्ठतर हि हकिंहित"् अथाथत मनुष्य से बढ़कर कुछ भी निीं िै | आत्मकथा के अतिं गथत आत्महनरीक्षण, आत्मपरीक्षण, आत्महिश्लेषण,आत्माहभव्यहि यि आत्मकथा के द्वारा की जाती िै | आत्मकथा के अतिं गथत सत्यता का हिशेष मित्ि िोता िै | यहद आत्मकथा में सत्यता निीं िोगी तो ि​ि आत्मकथा उत्कृ ष्ट निीं माना जाता िै | आत्मकथा के अतिं गथत व्यहिगत जीिन के हिहिध पिलओ ु ,िं जो हक आत्मकथाकार ने स्ियिं भोगा िै तथा उसके अपने हनजी जीिन ि घटनाओ िं का सटीक ि सिी हित्र शब्दों के माध्यम से उके रता िै | आत्मकथाकार आत्मकथा लेखन में हजस शैली ि भाषा का प्रयोग करता िै ि​ि उसकी अपनी स्ियिं के जीिन अनुभि से जडु ी िोती िै| आत्मकथा यि गद्य साहित्य का रूप िै | हजसके अतिं गथत हकसी व्यहि हिशेष का जीिन िृत्ातिं स्ियिं के द्वारा िी हलखा जाता िै |

शोध आलेख आज आत्मकथा लेखन हिधा को अपना स्ितत्रिं अहस्तत्ि प्राप्त िै तथा हिदिं ी गद्य साहित्य में अपना स्थान स्थाहपत कर िुकी िै | आत्मकथा यि 'आत्म' ि 'कथा' के योग से बना िै | हजसमें 'आत्म' का अथथ िैअपना, स्िय,िं हनजी, स्िकीय आहद | इसी प्रकार 'कथा' का अथथ िै- किानी, हकस्सा, िाताथ, ि​िाथ आहद | अत: उपयुथि अथथ के आधार पर 'आत्मकथा' का अथथ िुआ- अपनी हनजी किानी, स्ियिं का हकस्सा, स्िकीय किानी आहद | आत्मकथा के अतिं गथत आत्मकथाकार की मुख्य भूहमका यि िोती िै हक ि​ि अपने जीिन का सिी ढिंग से हित्रण करे | इसमें आत्मकथाकार कथा का पात्र स्ियिं िोता िै | आत्मकथा को पररभाहषत करते िुए डॉ. श्यामसदुिं र घोष ने हलखा िै हक -"जब लेखक अपनी जीिनी स्ियिं हलखे तो ि​ि आत्मकथा िै | आत्मकथा के हलए हिदिं ी में आत्मिररत या आत्मिररत्र शब्द प्रयुि िोते िैं |" हिदिं ी साहित्य कोश के अनुसार "आत्मिररत और आत्मिररत्र हिदिं ी में आत्मकथा के अथथ में प्रस्ततु शब्द िैं और तत्ित: आत्मकथा से हभन्न निीं िैं |" इसी िम में डॉ. माज़दा असद भी हलखते िैं हक " स्ियिं हलखी अपनी जीिनी आत्मकथा किलाती िै. इसे दसू रे शब्दों में इस प्रकार किा जा सकता िै - जब कोई व्यहि कलात्मक, साहिहत्यक ढिंग से अपनी जीिनी स्ियिं हलखता िै तब उसे आत्मकथा किते िैं |" आत्मकथा हलखते समय आत्मकथाकार को यि हिशेष ध्यान रखना िाहिए हक आत्मकथा में रोिकता िो अन्यथा ि​ि आत्मकथा नीरस


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और उबाऊ िो जाएगी | आत्मकथा को रोिक बनाने िेतु कुछ मद्दु े मानहिकी पाररभाहषक कोश में हलखे गए िैं. िे मुद्दे इस प्रकार से िैं :१- हकन्िीं ऐहतिाहसक घटनाओ िं या आन्दोलनों से यहद लेखक का सपिं कथ रिा िो तो उसका हि​िरण बाद की पीहढ़यों के हलए रोिक और उपयोगी िोता िै | क्योंहक उससे तत्कालीन मनोिृहत् का कुछ सिी अनुमान, सल ु भ िो पाता िै | २- िो सकता िै हक स्ियिं लेखक का िी इहतिास हनमाथण में मित्िपूणथ योगदान रिा िो ? हिख्यात हिजेता, शासक, राजनीहतज्ञ अथिा हि​िंतक के हि​िारों का अपने तथा अन्य व्यहियों तथा घटनाओ िं के हिषय में उसके मतामत का सदा मित्ि रिता िै | ३- लेखक के दृहष्टकोण या हि​िारों में कुछ हिशेषता या अनूठापन िो अथिा ि​ि अपने युग से आगे की बात सोिने िाला िो | ४- लेखक ऐसा व्यहि िो हजसके जीिन का मख्ु य कायथ आत्ममथिं न और हितिं न िी रिा िो |" आत्मकथा को सिंस्मरण हिधा भी माना जाता िै | इस सिंदभथ में अपने हि​िार व्यि करते िुए डॉ. िररिरण शमाथ ने हलखा िै हक "आत्मकथा एक सस्िं मरणात्मक हिधा िै हजसमें स्ियिं लेखक अपने जीिन के हिषय में हनरपेक्ष िोकर हलखता िै | आत्मकथा ि​ि साहिहत्यक हिधा िै हजसमें लेखक अपनी सबलताओ िं और दबु थलताओ िं का सिंतुहलत एि​िं व्यिहस्थत हित्रण करता िै. आत्मकथा व्यहि के सपिं णू थ व्यहित्ि के हनष्पक्ष उद् घाटन में समथथ िोती िै |" परिंतु इस सिंदभथ में प्रहसद्ध

आलोिक हशप्ले आत्मकथा ि सस्िं मरण को परस्पर हभन्न मानते िैं | इस सदिं भथ में िे हलखते िैं हक " आत्मकथा और सिंस्मरण देखने में समान साहिहत्यक स्िरूप मालूम पडते िैं, हकिंतु दोनों में अतिं र िै | यि अतिं र बल सबिं िंधी िै | एक में िररत्र पर बल हदया जाता िै और दसू रे में बाह्य घटनाओ िं और िस्तु आहद के िणथनों पर िी लेखक की दृहष्ट रिती िै | सिंस्मरण में लेखक उन अपने से हभन्न व्यहियों, िस्तुओ,िं हियाकलापों आहद के हिषय में सिंस्मरणात्मक हित्रण करता िै हजनका उसे अपने जीिन में समय-समय पर साक्षात्कार िो िक ु ा िै |" पिं. जिािरलाल नेिरू द्वारा हलहखत "मेरी किानी" को अनुिाहदत करके अब्रािम काउली आत्मकथा के सिंबिंध में हलखते िैं हक " हकसी आदमी को अपने बारे में खदु हलखना महु श्कल भी िै और हदलिस्प भी क्योंहक अपनी बरु ाई या हनन्दा हलखना खदु िमें बरु ा मालुम िोता िै और अगर िम अपनी तारीफ करें तो पाठकों को उसे सनु ना नागिार मालूम िोता िै |" इसी िम में आत्मकथा के सबिं धिं में गल ु ाब राय अपने हि​िार व्यि करते िुए हलखते िैं हक " साधारण जीिन िररत्र से आत्मकथा में कुछ हिशेषता िोती िै | आत्मकथा लेखक हजतनी अपने बारे में जान सकता िै उतना लाख प्रयत्न करने पर भी कोई दसू रा निीं जान सकता हकन्तु इसमें किीं तो स्िाभाहिक आत्मश्लाघा की प्रिृहत् बाधक िोती िै और हकसी के साथ शील-सिंकोि आत्म-प्रकाश में रुकािट डालता िै |" आत्मकथा अपनी अनभु ूहतयों को अहभव्यि करने का सबसे आसान ि सिज


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माध्यम िै। आत्मकथा के द्वारा आत्मकथाकार अपने जीिन, पररिेश, मित्त्िपणू थ घटनाओ,िं हि​िारधाराओ,िं हनजी अनुभिों, अपनी क्षमताओ,िं दबु थलताओ िं तथा अपने समय की सामाहजक-राजनीहतक पररहस्थहतयों को शब्दों के माध्यम से लोगों के समक्ष प्रस्तुत करता िै। हिन्दी में आत्मकथा लेखन की एक लिंबी परिंपरा रिी िै। इस परम्परा को तीन कालखण्डों में हिभाहजत हकया गया िै जो हक हनम्नित िै :१-आत्मकथा लेखन का आरिंहभक काल :हिदिं ी की पिली आत्मकथा सन् 1641 में बनारसीदास जैन द्वारा हलहखत ‘अद्धथकथा’ को माना गया िै। इस आत्मकथा में लेखक ने अपने गुणों और अिगणु ों का यथाथथ हित्रण हकया िै। पद्यात्मक शैली में हलखी गई इस आत्मकथा के अलािा सपिं णू थ मध्यकाल में हिदिं ी में कोई और दसू री आत्मकथा निीं हमलती िै। हिदिं ी साहित्य लेखन के अतिं गथत गद्य लेखन की अन्य हिधाओ िं के साथ आत्मकथा लेखन हिधा भी भारतेंदु िररश्चद्रिं के समय में हिकहसत िुई। भारतेंदु िररश्चद्रिं ने पहत्रकाओ िं में प्रकाशन के द्वारा इस हिधा को न हसफथ पल्लहित हकया बहल्क अहपतु इसे आगे बढ़ाने में अिम् भूहमका भी हनभायी। उन्िोंने अपने स्ियिं के जीिन पर आधाररत आत्मकथा "एक किानी कुछ आपबीती कुछ जगबीती" का लेखन हकया | हजसका आरिंहभक अश िं "प्रथम खेल" नामक शीषथक से प्रकाहशत िुआ था। यि आत्मकथा आम-बोलिाल की भाषा में हलखी गई जो हक रोजमराथ के जीिन में प्रयोग हकए जाने िाले शब्दों की बिुलता इस

आत्मकथा में हदखाई देती िै। भारतेंदु िररश्चद्रिं के अलािा इस कालखण्ड के आत्मकथाकारों द्वारा हलखी गई आत्मकथाओ िं में से सुधाकर हद्विेदी की ‘रामकिानी’ तथा अहिं बकादत् व्यास की ‘हनजिृतािंत’ को मित्िपूणथ स्थान हदया गया िै। इसी िम में सन् 1875 में स्िामी दयानिंद सरस्िती की आत्मकथा सामने आई। इस आत्मकथा में दयानिंद सरस्िती के जीिन के हिहिध पिलुओ िं को उजागर हकया गया िै। सत्यानदिं अहननिोत्री की आत्मकथा ‘मझु में देि जीिन का हिकास’ का पिला खण्ड सन् 1909 में और दसू रा खण्ड सन् 1918 में प्रकाहशत िुई। सन् 1921 में परमानिंद जी की आत्मकथा ‘आपबीती’ प्रकाहशत िुई। इस आत्मकथा में आत्मकथाकार ने स्ितत्रिं ता आदिं ोलन में अपने योगदान, अपनी जेल यात्रा तथा आयथ समाज के प्रभाि को उके रा िै। सन् 1924 में स्िामी श्रद्धानिंद की आत्मकथा ‘कल्याणमागथ का पहथक’ प्रकाहशत िुई। हजसमें उन्िोंने अपने के जीिन सघिं षों का सिीसिी हित्रण हकया िै। २- स्ितिंत्रता-पूिथ आत्मकथा लेखन :हिदिं ी आत्मकथा साहित्य के हिकास में ‘िसिं ’ पहत्रका में प्रकाहशत आत्मकथािंकों का हिशेष योगदान रिा िै। सन् 1932 में प्रकाहशत अक िं में जयशक िं र प्रसाद, िैद्य िररदास, हिनोदशिंकर व्यास, हिश्विंभरनाथ शमाथ , दयाराम हनगम, मौलिी मिेशप्रसाद, गोपालराम गिमरी, सुदशथन, हशिपूजन सिाय, रायकृ ष्णदास, श्रीराम शमाथ आहद साहित्यकारों और गैर-साहित्यकारों के जीिन के कुछ अश िं ों


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को प्रेमिदिं ने स्थान प्रदान हकया | सन् 1941 में प्रकाहशत इस काल की सबसे मित्िपूणथ आत्मकथा श्यामसुिंदर दास की ‘मेरी आत्मकिानी’ िै। इसमें लेखक ने अपने जीिन की हनजी घटनाओ िं को कम स्थान देते िुए इहतिास और समकालीन साहिहत्यक गहतहिहधयों को अहधक प्राधान्य हदया िै। इसी कालखण्ड के आस-पास बाबू गुलाबराय की आत्मकथा ‘मेरी असफलताएँ’ भी प्रकाहशत िुई। हजसमें बाबू गुलाब राय ने व्यिंनयात्मक शैली में अपने जीिन की असफलताओ िं का सजीि हित्र उके रा िै। इसी िम में सन् 1946 में रािुल सािंकृत्यायन की आत्मकथा ‘मेरी जीिन यात्रा’ का प्रथम भाग प्रकाहशत िुआ। सन् 1949 में दसू रा तथा सन् 1967 में उनकी मृत्यु के उपरािंत तीसरा भाग प्रकाहशत िुआ। सन् 1947 के आरिंभ में देश के प्रथम राष्रपहत डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा "मेरी जीिन यात्रा" प्रकाहशत िुई। इस आत्मकथा में राजेंद्र प्रसाद ने देश की दशा का िणथन हकया िै। ३- आत्मकथा लेखन का स्िातत्रिं योत्र काल :- (1947 के बाद से अब तक) सन् 1948 में हियोगी िरर की आत्मकथा ‘मेरा जीिन प्रिाि’ प्रकाशन िुआ। इस आत्मकथा में समाज के हनम्न िगथ का माहमथक िणथन हकया गया िै। यशपाल की आत्मकथा ‘हसि​िं ािलोकन’ का प्रथम भाग सन् 1951 में, दसू रा भाग सन् 1952 में और तीसरा भाग सन् 1955 में प्रकाहशत िुआ। सन् 1952 में िी शािंहतहप्रय हद्विेदी की आत्मकथा ‘पररव्राजक की प्रजा’ प्रकाहशत िुई। इसमें लेखक ने अपने जीिन की करुण कथा का िणथन हकया िै। सन्

1953 में देिद्रें सत्याथी की आत्मकथा ’िाँदसरू ज के बीरन’ प्रकाशन िुआ। सन् 1960 में प्रकाहशत पाण्डेय बेिन शमाथ 'उग्र' की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ प्रकाहशत िुई। िररिश िं राय बच्िन की आत्मकथा ‘क्या भल ू ँू क्या याद करूँ’ (सन् 1969), ‘नीड का हनमाथण हफर-हफर’ (सन् 1970), ‘बसेरे से दरू ’ (सन् 1977) और ‘दशद्वार से सोपान तक’ (सन् 1985) िार भागों में हिभाहजत एि​िं प्रकाहशत हिदिं ी की सिाथहधक सफल और मित्िपणू थ आत्मकथा मानी जाती िै । बच्िन की आत्मकथा ने अनेक आत्मकथाकारों को जन्म हदया। बच्िन जी के बाद प्रकाहशत आत्मकथाओ िं में िृन्दािनलाल िमाथ की ‘अपनी किानी’ ( (सन् 1970), देिराज उपाध्याय की ‘यौिन के द्वार पर’ (सन् 1970), हशिपजू न सिाय की ‘मेरा जीिन’ (सन् 1985), प्रहतभा अग्रिाल की ‘दस्तक हज़दिं गी की’ (सन् 1990) और भीष्म सािनी की ‘आज के अतीत’ (सन् 2003) प्रकाहशत िुई। समकालीन आत्मकथा साहित्य में दहलत आत्मकथाओ िं का भी हिशेष रूप से योगदान रिा िै। ओमप्रकाश िाल्मीहक की ‘जठू न’, मोिनदास नैहमशराय की ‘अपने-अपने हपिंजरे’ और कौशल्या बैसिंत्री की ‘दोिरा अहभशाप’, सूरजपाल िौिान की आत्मकथा 'हतरस्कृ त' (2002) तथा 'सतिं प्त' (2006) आहद आत्मकथाओ िं ने इस हिधा को एक नया आयाम प्रदान हकया । ितथमान समय में महिला और दहलत आत्मकथाकारों ने इस हिधा को सामाहजकता से जोडा िै। महिला कथाकारों में मैत्रये ी पष्ु पा,


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प्रभा खेतान आहद का नाम हिशेष रूप से हलया जाता िै हजन्िोंने आत्मकथा का लेखन हकया िै। इसी िम में आत्मकथा एि​िं कथा साहित्य पर तुलनात्मक अध्ययन की दृहष्ट से दृहष्टपात करते िैं तो इस हनष्कषथ पर पिुिँ ते िैं हक आत्मकथा व्यहि के जीिन यात्रा की किानी िोती िै परिंतु यि किानी अधरू ी रिती िै क्योंहक इसमें व्यहि के जीिन के एक पडाि का लेखा-जोखा िी प्रस्तुत हकया जाता िै | यहद आत्मकथा लेखन पूणथ िो जाने के बाद लेखक कुछ और िषों तक हजदिं ा रिता िै तो उन िषों का ब्यौरा आत्मकथा द्वारा प्राप्त निीं िोता िै | जबहक कथा साहित्य में काल्पहनकता िोने के बािजदू उसके अतिं गथत किानी का प्रारिंभ, हिकास और अतिं सहु नयोहजत ढगिं से तथा व्यिहस्थत रूप से िोता िै | इस आधार पर किा जा सकता िै हक आत्मकथा व्यहि हिशेष के जीिन की अनुकृहत िोने के साथ-साथ कथा साहित्य की तुलना में यि अहनयोहजत एि​िं अपूणथ िोती िै | अत: कथा साहित्य के अतिं गथत इसे अधरू ी कथा की सज्ञिं ा दी जा सकती िै क्योंहक कोई भी आत्मकथा लेखक अपनी मृत्यु के बाद तो आत्मकथा हलख निीं सकता और जीहित रिकर हलखी गई आत्मकथा में जीिन के कुछ अश िं शेष रि जाते िैं | किना न िोगा हक आत्मकथा का अतिं यि हकसी कथा साहित्य की भॉहत पूिथ हनयोहजत अतिं निीं िोता िै | बािजदू इसके आत्मकथा में कथािस्त,ु िररत्र-हित्रण, भाषा-शैली, कथोपकथन, उद्देश्य और िातािरण जैसे कथा साहित्य के तत्ि हिद्यमान रिते िैं |

किना न िोगा हक हिदिं ी आत्मकथा साहित्य यि कथाकार के अपने हजए िुए जीिन की माहमथक अहभव्यहि िै | आत्मकथा आज अपने जीिन की साथथकता के कारण हदन-प्रहतहदन उँिाइयों की ओर अग्रसर िै तथा हिदिं ी साहित्य में अपना स्थान सुहनहश्चत हकए िुए िै | सिंदभथ ग्रिंथ सिू ी १- आदशथ हिदिं ी शब्दकोश - पिं. रामिन्द्र पाठक (सिं.) २- साहित्य के नये रूप - डॉ. श्यामसुिंदर घोष ३- हिदिं ी साहित्य का इहतिास - डॉ. िररिरण शमाथ ४- हिदिं ी साहित्य कोश- धीरेन्द्र िमाथ ५- मानहिकी पाररभाहषक कोश- डॉ. नगेन्द्र ( सिं.) ६- काव्य के रूप - गल ु ाब राय ७- गद्य की नयी हिधाएँ - डॉ. माज़दा असद ×××××××××××××××××××××××××× नाम : डॉ. प्रमोद पाण्डेय (एम.ए. , पीएि.डी. - हिदिं ी) पता : ए-201, जानकी हनिास, तपोिन, रानी सती मागथ, मालाड (पूि)थ , मुिंबई - 400097. (मिाराष्र) मो.निं. : 09869517122 ईमेल : drpramod519@gmail.com


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शोध आलेख

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मास ात क ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मास ात क ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मास ात क ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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fu’d’kZ% ge ns[krs gS fd vkTk+knh ds 65 o’kZ ckn Hkh ns”k esa Ekkof/kdkj ls lacaf/kr ?kVukvksa dh n”kk FkksM+s lq/kkj ds ckotqn gw&c&gw cuh gqbZ gSA ns”k esa jkstkuk ekuokf/kdkj ls tqM+h vijk/k o xfrfof/k;ksa dks ns[kk tk ldrk gS ftlesa ,d O;fDr viuh ekukokf/kdkj dh laj{k.k o lao/kZu ds fy, lafo/kkufud fudk;ksa ds le{k xqgkj yxrk gSA ljdkjh vkadM+s dqN vkSj gh c;ka D;ks u djrh gks ysfdu vkt Hkh ekuokf/kdkj ds izfr laons uk o fu’Bk vketu esa ugha gSA tks fur uohu ifjfLFkfr;ksa dks veyhtkek iguk jgh gSA bl dze esa ekuokf/kdkj f”k{kk va/ksjs dejs esa fnO;T;ksfr dh rjg lekt dks ubZ fn”kk iznku djrh gS tks Hkkoh ih<+h ds fy, ,d ifjorZu dh vkl cuh gwbZ gSA ?ku ?kksj va/ksjk Nk;k gS------]fnO;izdk”k fudyus nks-------A Eku dh “kksyksa dks HkM+dkvksa-----ekuokf/kdkj dh e”kky dks tyus nks----A2A lanHkZ xzaFk 1- “kekZ] th-,y- ¼2015½ lkekftd eqn~ns] jkor ifCyds”kUlA 2- JhokLro] Jhefr lq/kjkuh ¼2009½ Hkkjr esa ekuokf/kdkj dh vo/kkj.kk] vtZqu ifCyf”kax gkÅlA


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मास ात क ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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शोध आलेख

जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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foy{k.k izfrHkk ds /kuh lkfgR;dkj eqds”k ekul fnYYkh fo”ofo?kky; ds lR;orh dkWyst ]fnYyh esa ,lksfl,V izksQ+slj ds in ij dk;Zjr gSA eqds”k ekul dh dgkfu;k¡ i<+rs gq, dgh Hkh ;g vglkl ugh gqvk fd ;g fdlh mHkjrs gq, dgkuhdkj dh dgkfu;k¡ gaSAeqds”k ekul dh dgkfu;ksa dh lcls cMh fo”ks’krk gS dgkfu;ksa dh cqukoV dk lgt vkSj ljy ^dgkuhiu^A bu dgkfu;ksa dk dgkuhiu bl rjg ls cquk x;k gS fd dgkuh i<+rs gq, ;g fcydqy ugha yxrk fd dgkfu;ksa dks tcju [khaspus dh dksf”k”k dh gSA eqds”k ekul dk ;g ekuuk gS fd ,d vPNh dfork og gksrh gS tks viuh ifj.fr esa fopkj dks tUe nsrh gS vkSj ,d vPNh dgkuh og gksrh gS tks vius var esa ,d Hkko dks iSnk nsrh gS ;kuh og gesa HkkoukRed Lrj ij izHkkfor djrh gSA eqds”k ekul dh dgkfu;ksa esa muds ;g fopkj Lo;a izdV gksrs gSaA eqds”k ekul dh dgkfu;ksa dh izeq[k fo”ks’krk gS dgkfu;ksa dk okLrfodrk ls tqMkoA vkt dy ds dgkuh dkjksa esa vkxs c<+us dh gksM+ gS ftlds dkj.k dgkfu;ksa ds VªhVesaV ij /;ku ughs fn;k tkrkA eqds”k ekul us viuh dgkfu;ksa esa tks VªhVesaV fd;k] tks mUgsa :i fn;k og vius vki esa dkfcy , rkjhQ gSA vkt dy dh dgkfu;ksa esa ,slk VªhVesaV ns[kus dks ugh feyrkA dgkuhdkj dh ^vksctosZ”ku^ dh xgjkbZ vkSj fofo/krk dh vufxur “ksMl viuh ^;wuhdusl^ dk irk [kqn c [kqn ns nsrs gSSA vkSj ;s lkjs ^vksctsZ”ku^ vkSj mudk ,Dlizs”ku Hkkjrh; lekt vkSj mlds Hkhrj lekt dh ^vksCtsfDVo jh;yVht^ dk csgn okLrfod vkSj ekfeZd ;FkkFkZ gS ftlls ;g lkfcr gksrk gS fd eqds”k ekul ,d csgn ea>s gq,] ifjiDo vkSj vFkkg laHkkoukvksa ls Hkjs gq, dgkuhgkj gSA eqds”k ekul us vius ys[ku dh “kq:vkr fucU/k ls dh gSA tc og vkBoha d{kk esa Fks rc mUgksusa <sjksa fucU/k fy[k MkysaA eqds”k ekul us vius CykWx ij fy[kk gS fd cpiu ls gh bUgsa dgkfu;ka vkSj miU;kl i<+us dk bruk “kksd Fkk fd eSusa [kqn dc dgkfu;ka fy[kuk “kq: dj fn;k irk gh ugha pykA dgkuh cquus dh dyk esa gh dgkuhdkj Nqik gqvk gSSA og dgkuh dks fdl rjg ls cqurk gS blh cqukbZ dyk esa mldh ;ksX;rk mldh n`f’V mlds foosd vkSj mlds Hkk’kk dkS”ky dh ijks{k gksrh gSA eqds”k ekul fy[krs gS fd eSus Lo;a bl dyk dks yxkrkj lh[kk gS vkSj mlesa yxkrkj lq/kkj djus dh dksf”k”k dh gSA ;g lh[kus dk Hkko mudh dgkfu;ksa es lkQ ut+j vkrk gSA


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

पेड़ न्यूज़ मीडिया को लोकतत्रं का चौथा स्तभं कहा जाता है लेडकन आज मीडिया एक गभं ीर सक ं ट के दौर से गजु र रहा है, यह संकट है पेि न्यजू का, पेि न्यजू के कारण आज मीडिया की डिश्वसनीयता पर संकट आ गया है। मीडिया पैसे लेकर खबर छापकर अपने पाठकों के डिश्वास के साथ खेल रहा है और पेि न्यजू के कारण मीडिया की चारों तरफ आलोचना हो रही है। खास तौर से डपछले लोकसभा चनु ािों के दौरान और डफर कुछ राज्यों के डिधानसभा चनु ािों के दौरान मीडिया ने जमकर पेि न्यजू छापे िो भी ऐसे समय में जब चनु ािों के दौरान जनता को सही जानकारी देने की सख्त आिश्यक्ता होती है तब हमारा मीडिया पेि न्यजू छाप कर तमाम नैडतकताओ ं के साथ मजाक कर रहा था। मैंने अपनी उस ररसचच में मीडिया की इसी पेि न्यजू रुपी बीमारी को जानने समझने की कोडि​ि की है। साथ ही यह भी जानने डक कोडि​ि की है डक प्रेस पररषद इसकों रोकने के डलए क्या कर पाया है और िह क्यों इसे आज भी परू ी तरह से इसे क्यों नहीं रोक पाया है। मैंने इस ररसचच में यह जानने डक कोडि​ि डक है डक लोकतत्रं और मीडिया में कै सा संबंध है और पेि न्यजू से इस लोकतंत्र को डकस तरह से नक ु सान पहचं ा है। भारतीय मीडिया में पेि न्यज़ू डपछले महाराष्ट्र डिधानसभा चनु ािों के दौरान देखा गया डक मख्ु यमत्रं ी अिोक चव्हाण को रातों रात महाराष्ट्रों के अखबारों ने हीरो घोडषत कर डदया उनकी खबर हर अखबार में छाई हई थी लोकमत और लोकसत्ता जैसे 4 अखबारों ने अिोक की प्रेस

मीडिया डिमर्श

डिज्ञपती को अलग - अलग डदन छापा। डजसमें अखबार के मख ु पृष्ट पर के िल अिोक चव्हाण के ही गणु गान डकया गया था। लेडकन ये ऐसा पहली बार नहीं हआ था। ये खेल पहले भी होता रहा है लेडकन नजर इस पर अब पडी। एक बात और सोचने िाली है डक क्या ये पेि न्यजू की बीमारी नई है या ये परु ानी है इस पर पत्रकार प्रमोद रंजन में अपने लेख मीडिया में डहस्सेदारी,प्रज्ञा सामाडजक िोध संस्थान में पेि न्यजू के बारे में डलखा है ज्ञात तथ्यों के अनसु ार छत्तीसगढ़ में िषच 1997 के डिधानसभा चनु ाि से इसकी (पेि न्यजू ) की िरु​ु आत हई थी। उस चनु ाि में 25 हजार रुपये का पैकेज प्रत्यािी के डलये तय डकया गया था,डजसमें एक सप्ताह का दौरा-ररपोडटिंग,तीन अलग अलग डदन डिज्ञापन के साथ मतदान िाले डदन प्रत्यािी का इटं रव्यू प्रकाडित करने का िादा िाडमल था। उसके बाद के सालों में डहमाचल प्रदेि, पंजाब, चंडीगढ़, हररयाणा,राजस्थान में चनु ािों के दौरान यह संस्थागत भ्रष्टाचार पैर पसारता गया। उत्तर प्रदेि और डबहार जैसे राजनीडतक रुप से सचेत राज्यों में अखबारों को इस मामलें में फंू क-फंू ककर कदम रखना पडा। सस्ं थागत रुप से उत्तर प्रदेि में अखबारों ने पहली बार उगाही िषच 2007 के डिधानसभा चनु ाि में की। खबर के डलए भगु तान को लेकर काननू ी डस्थडत साफ न होने की िजह से पेज-थ्री कहे जाने िाले स्पेस में खबरें काफी समय से बेची जा रही हैं, और यह काम डछपकर नहीं डकया जा रहा है । पररडिष्ट में संपादकीय सामग्री के स्थान पर प्रायोडजत सामग्री को समाचार की तरह पेि करने का चलन िषों से चला आ रहा है और अक्सर यह बात डि​िादों के घेरे में भी नहीं होती। टेलीडिजन चैनल काफी समय से


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

कारपोरेट डफल्में समाचार की तरह डदखाते रहे हैं और यह बात भी डि​िादों में नहीं है । इस बारे में पहली बार गभं ीर चचाच राजनीडत के क्षेत्र में पेि न्यजू को लेकर ही िरु​ु हई है। खासकर डपछले 2009 के लोकसभा चनु ाि समेत कुछ राज्यों के डिधानसभा चनु ािों के बाद पेि न्यजू को गंभीरता से डलया जाने लगा है। इन चनु ािों में मीडिया संस्थानों ने खल ु कर पेि न्यजू छापा और डदखाया पेि न्यजू छापने और डदखाने में मीडिया सस्ं थान एक दसु रे से प्रडतस्पधाच करते नजर आए। इस चनु ािों में यह भी देखने में आया डक मीडिया ने खबर के स्पेस नेताओ ं को बेचने के साथ ही उनसे डिरोधी नेताओ ं की खबरें रुकिाने के डलए भी पैसे डलए। साथ ही नगद रुपये लेकर बकायदा उसकी रिीदें भी दी। मीडिया ने खल ु कर सौदे डकए। मीडिया किरेज के बदले कंपडनयों से भी पैसे लेता है और नेताओ ं से भी। जब िह पैसे नहीं लेता है तो डिज्ञापन लेता है। टाइम्स ऑफ इडं िया जैसे अखबार कई बार डिज्ञापन के बदले पैसे नहीं लेत,े बडल्क कंपडनयों की डहस्सेदारी ले लेते हैं। इसे प्राइिेट डरटी का नाम डदया गया है। मीडिया कई बार सस्ती जमीन और उपकरणों के आयात में ि्यटू ी की छूट भी लेता है। मीडिया हर तरह की कारोबारी आजादी चाहता है और डकसी तरह का सामाडजक उत्तरदाडयत्ि नहीं डनभाता, लेडकन 2008-09 की मदं ी के समय िह खदु को लोकतंत्र की आिाज बताकर सरकार से राहत पैकज लेता है। मदं ी के नाम पर मीडिया को बढ़ी हई दर पर सरकारी डिज्ञापन डमले और अखबारी कागज के आयात में ि्यटू ी में छूट भी डमली लेडकन यह नई बात नहीं है। यह सब 2010 से पहले से भी चल रहा था।

लेखक रामेश्वर डसहं राजपरु ोडहत "कानोडिया" बालोतरा डजला - बाङमेर सम्पकच सत्रू - 9799683421


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

सामाजिक जिसंगजियों के जिलाफ़ पोस्टरों के ज़ररये अलि िगािा एक जकशोर बचपन में बहराइच जिले में लता के गाने गागा कर और आसपास के जिलों, यहा​ां तक जक पड़ौसी देश नेपाल तक में अपने गानों की गांि पहचुँ ा देने वाले पचास श्री जकशोर श्रीवास्तव का बचपन अत्यन्त ग्लमे रयुक्त रहा। बचपन से जकशोरवास्था और जिर युवावस्था तक आतेआते श्री जकशोर का गायन कुछ कम होता गया और उसकी िगह ले ली साजहत्य की जवजिन्न जवधाओ ां ने। अपने जपता के झासां ी में तबादले के पश्चात अपनी कॉलेि की पढ़ाई के साथ ही श्री जकशोर ने झासां ी के ही एक दैजनक अखबार में पार्ट र्ाइम काम करना शुरू कर जदया। अख़बार में रहते हए िब श्री जकशोर ने जवजिन्न अखबारों में प्रकाजशत प्रजसद्ध कार्टजनस्र् श्री काक के कार्टन देखे तो उनसे प्रिाजवत होकर उन्होंने कार्टन के क्षेत्र में िी अपना हाथ आज़माना शुरू कर जदया। शीघ्र ही उनके कार्टन लोर्पोर्, सररता, पराग, दैजनक िागरण, नवनीत, सत्यकथा, नतन कहाजनया,ां िनसत्ता, नविारता र्ाइम्स और साप्ताजहक जहदां स्ु तान आजद िैसी बड़ी पत्र-पजत्रकाओ ां में स्थान पाने लगे। उन जदनों देश में मांजदर-मजस्िद के जववाद का दौर था, साथ ही दहेि और कन्या िरण ू् हत्याओ ां के कारण समाि में िय और आक्रोश का वातावरण व्याप्त था। श्री जकशोर को इन सब घर्नाओ ां ने इतना उद्वेजलत जकया जक उन्होंने अपनी रचनाओ,ां कार्टनों और गीतों

मीडिया डिमर्श

को ही इन जवसगां जतयों के जखलाफ़ आवाज़ उठाने का एक माध्यम बना जलया। श्री जकशोर ने उस वक्त जवजिन्न सामाजिक जवसांगजतयों पर कर्ाक्ष करते और साम्प्रदाजयक सद्भाव को मद्दे नज़र रखते हए ‘खरी-खरी’ शीर्टक के अतां गटत लगिग 100 रांगीन पोस्र्र तैयार जकये। इन पोस्र्रों का प्रदशटनी के रूप में का पहला आयोिन झा​ांसी में दरदशटन ज्ञानदीप मांडल की स्थानीय शाखा द्वारा वर्ट 1985 में जकया गया। श्री जकशोर का यह प्रयास अत्यन्त सिल रहा और सैकड़ों लोगों ने न के वल इसका अवलोकन जकया अजपतु इसे अत्यन्त सराहा िी। इसके पश्चात उ. प्र. की ही लजलतपुर शहर की एक सांस्था ने िी ‘खरीखरी’ नामक इस िन चेतना कार्टन पोस्र्र प्रदशटनी का आयोिन अपने शहर में जकया। िहा​ां जर्कर् रखे िाने के बाविद अपार िन समह ने इसे देखा और सराहा। यही नहीं दशटकों की मा​ांग पर इसे अगले जदन के जलये िी िारी रखा गया। इससे श्री जकशोर का उत्साह और बढ़ा तथा सामजयकता को ध्यान में रखते हए इसमें नशे के दष्ु पररणाम, जिक्षावृजत्त, आवास समस्या, अपराध, वृद्धावस्था की त्रासदी, नई पीढ़ी का खल ु ापन, ि​िी वृक्षारोपण, आतांकवाद, ऋण की समस्या, समलैंजगकता, गुडागदी, ररश्वतखेरी, बाढ़ की समस्या, िल का अपव्यय, क्षेत्रवाद, सांस्कृ जत पर प्रहार, दलबदल, बेरोज़गारी, धाजमटक उन्माद, पररवार जनयोिन, नारी उत्पीड़न, बलात्कार की समस्या, भ्रष्टाचार आजद िैसे अनेक अन्य जवर्यों को िी िोड़ा।


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

श्री जकशोर ने अपने इन पोस्र्रों में उपयटक्त ु जवजिन्न जवर्यों को कार्टन, रेखाजचत्र और लघु रचनाओ ां के माध्यम से उके रा है। एक ओर िहा​ां इन पोस्र्रों में जवजिन्न सामाजिक जवसांगजतयों पर कर्ाक्ष हैं तो वहीं दसरी ओर जवजिन्न िाजत-धमट के बीच सद्भाव का वातावरण बनाने और राष्रिार्ा जहदां ी के पक्ष में वातावरण तैयार करने का प्रयास िी सजन्नजहत है। जवगत 28 वर्ों में जवजिन्न साजहजत्यक/ सामाजिक, शैजक्षक और सा​ांस्कृ जतक सांस्थाओ ां आजद के माध्यम से इस प्रदशटनी के सौ से िी अजधक आयोिन जदल्ली सजहत झाुँसी, लजलतपुर, साजहबाबाद, मथुरा, आगरा, देवबांद, साजहबाबाद, खिु ाट, गाजियाबाद, इजां दरापुरम, जबिनौर, गोरखपुर (उ.प्र.), अबां ाला छावनी (हररयाणा), िबलपुर (म.प्र.), जशलागां (मेघालय), बेलगाम (कनाटर्क), सोलन (जह.प्र.), जहम्मत नगर (गुिरात), ना​ांदडे , कोल्हापुर (महाराष्र), िरतपुर, रािसमन्द (रािस्थान), खर्ीमा (उत्तराखडां ) में हो चुके हैं। और इसे कई राष्रीय सस्ां थाओ ां द्वारा परु स्कृ त िी जकया िा चक ु ा है। इस प्रदशटनी के जलये श्री जकशोर जकसी से कोई पाररश्रजमक नहीं लेते बजल्क इसकी तैयारी का खचाट िी खदु ही वहन करते हैं। अवकाश के जदनों में दरदराि क्षेत्रों तक में इसके प्रदशटन से उन्हें कोई गरु ेज़ नहीं। इस प्रकार से अपनी इस प्रदशटनी के ज़ररये श्री जकशोर जपछले दो दशकों से िी अजधक समय से िनमानस का ध्यान उपयुटक्त जवसांगजतयों की ओर आकजर्टत करते हए कर्ाक्ष और हसां ी-हसां ी में ही सही, उन्हें इन सब बरु ाइयों के प्रजत आगाह करने का काम

करते चले आ रहे हैं। श्री जकशोर पोस्र्रों के ज़ररये के वल दसरों को ही उपदेश नहीं देते अजपतु स्वयां मांजदर में दहेि रजहत जववाह और अपने पररवार को एक बच्चे तक सीजमत करके उन्होंने औरों के सामने खदु िी एक उदाहरण प्रस्तुत जकया है। श्री जकशोर अपने आपको कोई खास कार्टजनस्र् या कलाकार नहीं मानते, वह तो बस अपनी बात लोगों तक पहचां ाने का अपनी कलाओ ां को एक ज़ररया िर मानते हैं। उनका मानना है जक छोर्े ही सही पर ऐसे आांदोलन दरगामी पररणाम वाले होते हैं। लगातार प्रयास से धीरे -धीरे ही सही इनका समाि व िन मानस पर किी न किी और कुछ न कुछ असर ज़रूर पड़ता है। ऐसा उन्हें प्रदशटनी के दौरान दशटकों की मौजखक व जलजखत प्रजतजक्रयाओ ां से िी पता चलता रहता है। प्रदशटनी के सबां धां में दशटकों के जवचार उनकी ‘‘खरी-खरी’’ नामक पजु स्तका में िी सांकजलत हैं। उनसे जवजिन्न जवसगां जतयों व मेलजमलाप के प्रजत िनता िनादटन का रूझान िी पता चलता है। िारत सरकार के जदल्ली जस्थत एक कायाटलय में रािपजत्रत अजधकारी होने के साथ ही श्री जकशोर अपने अवकाश के समय का उपयोग अपने इस अजियान को सतत िारी रखने के जलये करते हैं। ‘‘खरी-खरी’’ के साथ ही श्री जकशोर का गायन, सगां ीत और अजिनय आजद का शौक िी साथ-साथ चलता रहता है। श्री जकशोर काव्य मचां ों पर कजवता की िुहारें छोड़ने और सांगीत के मांच से सुमधरु गायन के अलावा सांा​ास्कृ जतक मांचों पर अपनी हास्यकला/जमजमक्री से लोगों को हसां ा-हसां ा


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

कर लोर्-पोर् िी करते रहते हैं। श्री जकशोर का मो. न.-9599600313 और ईमेलkishor47@live.com - प्रस्तुजतिः इरिान अहमद ‘‘राही’’ (स्वतांत्र पत्रकार) म.न. 106, पाके र्-8, दगु ाटपाकट , नई जदल्ली110045 मो. 9971070545 ईमेलिः irfanraahi@gmail.com


जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

भाषिक षिमर्श

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 ik,xh ;k ugha vkSj Hkfo"; esa bls vkSj Hkh izxfrijd cukus ds fy, D;k laHkkouk,Wa gksuh pkfg, mldk Hkh /;ku gesa j[kuk gksxk A Lora=rk dh yM+kbZ ds nkSjku laiw.kZ ns'k us Hkk"kk ds ek/;e ls ,d lw= esa tqM+dj vaxzstksa ls yksgk fy;k A ;g og le; Fkk tcfd fgUnh us ns'k dh leLr Hkk"kkvksa dh izfrfuf/k cu dj vktknh dh yM+kbZ esa ;ksxnku fn;k A vktkn Hkkjr ds la?k ds :i esa LFkkfir gksrs gh fgUnh jktHkk"kk ?kksf"kr dj nh xbZ Z lEiw.kZ ns'k esa fgUnh us vius izdk;ksZa dh LFkkiuk djrs gq, vius iz;kstuewyd Lo:i dks Li"V fd;k A Hkk"kk ds cksypky lEcU/kh rFkk lkfgfR;d :i dh vis{kk iz;kstuewyd :i ds dkj.k mlesa vf/kd xR;kRedrk vkrh gS] tks mls fpjathoh j[kus esa vge~ Hkwfedk fuHkkrh gS A orZeku esa laLd`r] izkd`r] ekx/kh rFkk ikyh dk Hkh lkfgR; rks miyC/k gS] ijUrq iz;kstuewydrk dk rRo unkjn jgus ls os yxHkx e`rizk; ekuh tkrh gS A vk/kqfud fgUnh Hkk"kk esa mldh iz;kstuewydrk ds dkj.k Kku foKku ds {ks= esa vR;kf/kd mi;ksxh fl) gks jgh gS vkSj blhfy, mldk Hkk"kkxr fodkl Hkh pjeksRd"kZ ij igqWap jgk gS A iz;kstuewyd fgUnh Kku foKku vkSj jktdkt ds ljdkjh dk;ksZa esa oSls rks [kM+h cksyh ds ek/;e ls vf/kdkf/kd iz;ksx dh tk jgh gS fdUrq fgUnh dh lEHkkouk cjkcj cuh jgh gS A blh ds lkFk&lkFk lEidZ Hkk’kk ds :i esa og ns”k ds yxHkx iPphl jkT;ksa rFkk vusd la?k “kkflr izns”kksa esa vge~ Hkwfedk fuHkk jgh gS A ljdkj }kjk vkfoHkwZr ^f}Hkk’kk lw=* ds dkj.k mlds izpkj&izlkj esa o`f) gksus ds lkFk og vusd Hkkjrh; Hkk’kkvksa ds chp laidZ rFkk ,d dh dM+h ds :i esa Hkh dk;Zjr gSa A fgUnh vkt bl ns'k esa cgqr cM+s Qyd vkSj /kjkry ij iz;qDr gks jgh gS A dsUnz vkSj jkT; ljdkjksa ds chp laoknksa dk iqy cukus esa vkt bldh egrh Hkwfedk dks udkjk ugha tk ldrk A vkt tgkWa ,d vksj blus dEI;wVj] QSDl] rkj] bysDVªkWfud] nwjn'kZu] jsfM;ks] v[kckj] bUVjusV vkfn tulapkj ds fofHkUu ek/;eksa dks viuh fxj¶r esas ys fy;k gS] rks ogha nwljh vksj jsyos] gokbZ tgkt] cSad] chek] 'ks;j cktkj vkfn vkS|ksfxd miØeksa] j{kk] lsuk] bUthfu;fjax vkfn izkS|ksfxdh laLFkkuksa] rduhdh vkSj oSKkfud {ks=ksa] vk;qfoZKku] d`f"k] fpfdRlk] f'k{kk vkfn ds lkFk fofHkUu laLFkkuksa esa fgUnh ek/;e ls izf'k{k.k fnykus ds fy, dkWystksa] fo'ofo|ky;ksa] 'kkldh;] v)Z'kkldh; dk;kZy;ksa] fpV~Bh&i=h] ysVj iSM] eqgjsa] ukeifV~Vdk] LVs'kujh ds lkFk&lkFk dk;kZy; Kkiu] ifji=] vkns'k] jkti=] vf/klwpuk] izsl&foKfIr] fufonk vkfn esa iz;qDr gksdj vius egRo dks Lor% fl) dj fn;k

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 vkSj tc ;g Hkk"kk fodflr gksrh gS] rks dqN ,sls 'kCn bu {ks=ksa esa ls mHkjdj vkrs gSa] tks vius&vius {ks= ds vuqlj mRiknd gksrs gSa A fdlh Hkh ns'k dh Hkk"kk mldh lkaLd`frd psruk] fpUru izfØ;k] jk"Vªh; ,drk vkSj ukxfjdksa ds vkpj.k ls lEc) gksrh gS A ml Hkk"kk ds fodkl esa vojks/k vkus ij jk"Vª o lekt dh fparu izfØ;k Lor% iz Hkkfor gksrh gSa A vr% Hkk"kk dh le`f) dk iz'u jk"Vªh; vfLerk vkSj jk"Vª dh Lok;Rrk ls lacaf/kr gS A dguk u gksxk fd izR;sd izHkqlRrk lEiUu ns'k pkgs og vesfjdk gks] phu gks ;k :l gks mUgksaus vius jk"Vª ds lHkh dk;Z laO;ogkj ,oa vUr% ckg~; laidksZa ds fy, Hkk"kk dks ekU;rk nh gS A ns'k dh ,drk] v[kaMrk vkSj turk ds e/; ikjLifjd laidZ ds fy, ,d O;kid lgefr gksuk vR;ar vko';d gS A Hkk"kk dh lgefr dk lh/kk laca/k jk"Vhª; vfLerk ls tqM+k gqvk gS A

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 djds fgUnh dks jktHkk"kk cuk;k Fkk A ;gkWa rd fd vkSjaxtsc tSls dV~Vj eqfLye 'kkld ds le; Hkh jktdk;ksZa esa fgUnh dk iz;ksx Hkh gksrk Fkk A eqgEen 'kkg jaxhys ds le; iz'kklfud dk;ksZa esa laLd`r&xfHkZr fgUnh Hkk"kk dk iz;ksx gksus yxk Fkk A Hkkjr ,d cgqHkk"kh vkSj fo'kky ns'k gS A ;gkWa dh Hkk"kkbZ fLFkfr dkQh tfVy gS A foLrkj ,oa tula[;k dh n`f"V ls ugha vfirq HkkoukRed n`f"Vdks.k ls Hkh Hkkjr esa yxHkx 1652 ekr`Hkk"kk,a ,oa cksfy;ka cksyh tkrh gSa] ftuesa ls dsoy 200 ds yxHkx gh ,slh gSa] ftudks cksyus okyksa dh la[;k nl gtkj ;k mlls vf/kd gS A vr% ns'k dh ,drk gsrq ,d loZekU; Hkk"kk ;k jk"Vª Hkk"kk dk gksuk furkar vko';d gS rkfd viuh&viuh cksfy;ksa dk iz;ksx djrs gq, Hkh ge bl Hkk"kk ds }kjk ,d nwljs ls tqM+s jgsa A vkt laoS/kkfud :i ls fgUnh Hkkjr dh izFke jktHkk"kk gS vkSj Hkkjr dh lcls vf/kd cksyh vkSj le>h tkus okyh Hkk"kk gS A

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जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 lanHkksZa ls jktHkk"kk vkSj mlls lac) {ks=] i=dkfjrk] n`’; ,oa JO; ek/;e] vuqokn vkSj mlds ek/;e ds foKku] rduhdh vkSj O;kikj {ks=ksa esa fgUnh ds iz;ksx dk Kku gh vkt dh miHkksDrkoknh lH;rk ,oa laLd`fr esa fgUnh vkSj fgUnh Hkk"kk dks izfrf"Br dj ldrk gS A fgUnh Hkk"kk dk izpkj izlkj ls ns'kokfl;ksa ds Hkhrj jk"Vªh;rk dh Hkkouk dks fodflr dj mUgsa LoHkk"kk vkSj LolaLd`fr dks viukus ds fy, izsfjr djsxh vkSj Hkkjro"kZ dks ,drk ds lw= esa fijksus esa egRoiw.kZ ;ksxnku nsxh A gesa ;g ladYi djuk gksxk & **vkvks feydj ladYi djsa] Tku&tu rd fgUnh igqpk,axsa] lh[k] cksy] fy[k djds] fgUnh dk eku c<+k,axsa ** &&&00&&&


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

आंठवी अनुसूची और बढता भाषावाद - ननष्ठा प्रवाह निज भाषा उन्िनि अहै सब उन्िनि को मूल, नबिु निज भाषा ज्ञाि के नमटि ि नहय को सूल।। कनि भारिेन्दु द्वारा कही गयी ये बाि आजकल लोग नदखािे के नलए करिे हैं। नहदिं ी को राष्ट्र भाषा घोनषि नकये जािे पर भी लगभग हर प्ािंि, हर राज्य द्वारा अपिी प्ान्िीय भाषा को सनिं िधाि में निशेष दजा​ा नदये जािे की मा​ाँग जब िब उठिी रहिी है। 'अिेकिा में एकिा' जो हमारे देश की निशेषिा कही जािी रही है, असल में िो 'अिेकिा' आज एकिा को बा​ाँटिे का ही काम कर रही है..!! एक िृक्ष के पनु ष्ट्पि-पल्लनि​ि होिे में जड़, ि​िा, पनिया​ाँ, शाख, फल, फूल सबका महत्त्ि और योगदाि होिा है पर अगर उसकी जड़ें ये कहें नक मेरा निशेष योगदाि है क्योंनक मैं जमीि के अदिं र गहराई िक फै लकर उसे मजबूिी प्दाि करिी ह.ाँ ..!! फ़र्ा कररये अगर ि​िा भी कहे नक मैं जल और लिण सभी नहस्सों िक पहचिं िा ह।ाँ मेरे नबिा कौि ये काम करे ... मेरी महिा ज्यादा है!! पनियािं ये कहिे लगें नक हम ही हैं जो पेड़ के नलए भोजि बिािी हैं नजसके अभाि में ये पेड़ सूख कर ठूाँठ हो जाये...!! अगर इसी िरह पेड़ का हर नहस्सा द्रोह पर उिारू हो

भाषिक षिमर्श

जाये और अपिे अलग-अलग अनस्ित्ि की दहु ाई देिे लगे.. खदु को पेड़ से ही बड़ा माि​िे लगे िो क्या िृक्ष हरा-भरा रह सकिा है..??? जब हर अगिं को शरीर से अलग कर नदया जाये िो भला शरीर का कोई िजदू रह सकिा है?? पेड़ हो या शरीर.. सब भागों-अगिं ों से नमलकर ही बिे रह सकिे हैं। बाहर से अलग प्िीि होिे िाले इि नहस्सों से ही इिका अनस्ित्त्ि सुनिनि​ि है। ये एक दसू रे के पूरक हैं, निरोधी या कमिर या बेहिर िहीं। लोकसभा में शून्यकाल में पाली क्षेत्र से सािंसद पी.पी. चौधरी िे ये प्श्न उठाया नक " ई बार राजस्थािी िे मान्यिा। नमल्णी चायजे "..!! उन्होंिे बिाया नक राजस्थािी दस करोड़ लोगों की भाषा है नजसका अपिा सानहत्य, इनिहास, नसिेमा, गायि है। 17 नदसम्बर सि 2006 में सिंसद में नबल प्स्िुि होिे के बाद से ही राजस्थािी भाषा को सिंनिधाि की आठिं िी अिुसूची में शानमल करके निशेष दजा​ा देिे का मामला अटका पड़ा है। मगर हमारे माि​िीय सािंसद महोदय जी- ये भाषा को मान्यिा नदलिािे के अलािा भी हमारे राजस्थाि में बहि से मद्दु े अटके पड़े हैं। कई प्यासों के बािजदू भी राजस्थाि को सख ू ाग्रस्ि प्देश घोनषि िहीं नकया गया है जबनक हर साल यहा​ाँ या िो मािसिू देर से आिा है या नफर आिा ही िहीं है। प्देश के कई गा​ाँि सड़क, पािी, नबजली जैसी आधारभिू


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

सनु िधाओ िं से िनिं चि हैं, सख ू े की मार से और पाला पड़िे से जब िब नकसािों की फसलें बबा​ाद हो जािी है। ि के िल गा​ाँिों में प्ाथनमक स्िर िक की नशक्षा भी फटेहाल नस्थनि में है, बनल्क शहरों के सरकारी निद्यालयों में पढ़िे िाले पा​ाँचिी कक्षा के बच्चे भी ठीक ढिंग से नहदिं ी िक िहीं पढ़ पािे..!! राशिकार्ा की िरह निद्यालय िो खोल नदये हैं मगर कहीं नशक्षक िहीं िो कहीं भि​ि के सही इि​िं र्ामाि िहीं..!! शहरों में जगह-जगह कचरे के ढेर पड़े रहिे हैं.. राजस्थाि एक नपछड़े राज्य की नगि​िी में आिा है। मगर इि सब मुद्दों को छोड़कर हमारे सािंसद महोदय को राजस्थािी भाषा को मान्यिा नदलािे की पड़ी है। समझ िहीं आिा नक ये निशेष दर्े का िुरा​ा क्या भला कर देगा राज्य का..!!! बनल्क मुझे िो ये लगिा है नक देश में नजि​िी भी भाषायें बोली जािी हैं, उि सबको निशेष दजा​ा नदया जाये... आनखर हर भाषा का अपिे आप में महत्त्ि है!! या नफर नकसी को निशेष दर्ा​ा िा नदया जाये और सिंनिधाि में नजि​िी भी भाषायें निशेष अिुसूची में शानमल है- उन्हें हटा ही नदया जाये। क्योंनक नकसी एक को निशेष और खास ि​िज्जो/सम्माि नदए जािे का मिलब दसू रे को कमिर आाँकिा है!! अप्त्यक्ष रूप से भाषािाद को बढ़ािा देिे की ओर है ये कदम...!! और हर राज्य अपिी प्ादेनशक भाषा को सम्माि देिे के

िाम पर चाहे-अिचाहे भाषािाद के जहर को फै ला रहा है। अगर हम अपिी स्थािीय/प्ािंिीय भाषा, सिंस्कृ नि के उत्थाि, सिंरक्षण के प्नि इि​िे ही नचिंनि​ि है और िाकई सम्माि प्दनशाि करिा चाहिे हैं िो सानहत्यगि गनिनिनधयों को प्श्रय दें.. कल, सिंस्कृ नि को बढ़ािा दें.. अपिे आचरण में उस भाषा का प्योग करें। क्या निशेष दजा​ा नदया जािे मात्र से नकसी भाषा का उत्थाि हो जायेगा?? बनल्क ये निशेष दजा​ा देश के टुकड़े कर देगा...!! और िैसे भी हमारे देश में अिेकों बोली, सिंस्कृ नि, पहिािे, रहि-सहि िाले लोग रहिे हैं नमलजल ु कर...'निनिधिा में एकिा' की नमसाल रहा है सदा से हमारा देश। पर शायद अब िहीं रहा..!! अब िो अपिी-अपिी ढपली, अपिा-अपिा राग है। हमिे निनिधिा को बहि अनधक महत्त्ि नदया िभी िो आज राष्ट्रीय एकिा खनिं र्ि हो रही है। अपिी भाषा, अपिी सभ्यिा, अपिी सिंस्कृ नि के नलए सब आन्दोलि करेंगे मगर राष्ट्रीयिा के निषय पर जैसे सा​ाँप सूिंघ जािा है। निनिधिा का यशोगाि करिे-करिे एकिा िो नबसरा दी गयी है। पररणाम- आज निनिधिा 'फोर फ्रिंट' पर है और एकिा 'बैक फुट' पर चली गयी है..!! हम 'निनिधिा में एकिा' के भ्रम में नजये जा रहें और यहा​ाँ रानष्ट्रय एकिा के मलमल में टाट के ढेरों पैबदिं लग चक ु े हैं..!! हमारे आचार- निचार,


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

कायाकलाप कहीं से भी िो राष्ट्रीयिा के प्नि सम्माि िहीं झलकिा..!!! कहिा अनिश्योनि ि होगी नक "नकि​िी दीिारें उठ गयी हैं एक घर के दरम्यािं.. नक घर कहीं गुम हो गया है दीिारों-दर के दरम्यािं" धमा निरपेक्षिा नजसे हम अपिी राष्ट्रीय निशेषिा कहिे हैं दरसअल िो भी गुजरे जमािें की सी बाि लगिी है। हर िरफ दो समुदायों के बीच दगिं े-फसाद होिा आम बाि जो गयी है। चुिािों में धमा और क्षेत्र छोनर्ये अपिी-अपिी जानि के लोगों को नजि​िािे की होड़ लगी रहिी और सोिे ब्पे सहु ागा ये नक राजिीनिक दलों द्वारा नटकटों जा नि​िरण भी जानिगि समीकरणों के आधार पर ही नकया जािा है। निस पर ये भाषायी दगिं ल...!! उफ़! बस कररए!! ये भाषाभाषा का राग अलापिा बदिं कीनजये..!! जब हम सब एक हैं िो नफर इस पृथक अनस्ित्ि और निशेष सिंरक्षण की कामिा ही क्यूाँ..??? हमारे देश में हर आठ कदम पर बोली बदल जािी है। सोनचये अगर सारी भाषाओ िं के लोग अपिीअपिी भाषा को आिंठिी अिसु ूची में शानमल नकये जािे की मागिं करें िो मेरे ख्याल से आठिं िी अिसु चू ी का अलग सनिं िधाि नलखिा पड़ेगा..!!! नकसी भी भाषा को सनिं िधाि में निशेष स्थाि नमल जािे से उसका कल्याण िहीं हो जाएगा..!! भाषा लोगों को जोड़िे का काम

करिी है-क्याँू उसे िोड़िे के नलये काम में ले रहें हैं..!!!! क्या हम स्ियिं को देश से उपर माि​िे हैं? या नफर हम देश को पि​ि के गिा में ले जािा चाहिे हैं?? क्यॅ¡ु​ुनक हजारों समस्याए¡ मुह¡ बायें खर्ी हैं और हम उन्हें िजरिंदाज करके भाषाओ िं के उपर लर् रहें हैं!!! ये भाषािाद का जो जहर िेिा लोग फै ला रहें हैं.... ये नसफा िोट बैंक की राजिीनि के नलये कर रहें हैं। हमें समझिा होगा इिकी कुनत्सि राजिीनि को....!! भाषा को निशेष दजा​ा नदलािे को लेकर ये जो उठापटक देश में होिी रहिी है- आम जि​िा का इससे कोई भला िहीं होिे िाला...!! अपिी जन्मभूनम और भाषा के प्नि लगाि होिा स्िाभानिक है और होिा भी चानहये। आनखर भाषा ही है जो हमें हमारी जर्ों से जोर्िी है। हमें अपिी सिंस्कृ नि की पहचाि करिािी है। मगर राष्टर से बढकर कुछ िहीं होिा...!! नजस िरह अलग-अलग मिके नमलकर ही माला का निमा​ाण करिे हैं, उसी प्कार देश में बोली जािे िाली समस्ि भाषायें नमलकर हमारी राष्टरीय सिंस्कृ नि को एक िृहदि् ा प्दाि करिी है। सभी भाषायें अपिे में समथा और समृद्व है। मगर अफसोस नक आज देश में भाषा को लेकर राज्यों द्वारा इस एकिा और िृहदि् ा को िक ु साि पह¡चाया जा रहा है। हमारे देश में


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी िक बोली जािे िाली सभी भाषायें हमारी अपिी है। ऐसे में ये प्श्न उठिा है नक सिंनिधाि की आिंठिी अिसु ूची की क्या प्ासिंनककिा है.....?? रोज कोई िा कोई राज्य अपिी प्देनशक भाषा को अिुसचू ी में स्थाि देिे की मागिं करिा है। यही भाषािाद पृथक राज्यों की मागिं के नलये भी उिरदायी है। नबहार, मध्यप्देश, आिंध्रप्देश जैसे राज्यों के टुकर्े हो चुके हैं और खानलस्िाि, बोर्ोलैण्र् की मािंग अब भी जारी है। ऐसे में स्िाथा से उपर उठकर क्या आठिं िी अिसु चू ी पर पिु निाचार िहीं नकया जािा चानहये...??? जो चीज देश को बाटिं िे का काम करे उसे िरु न्ि प्भाि से खत्म नकया जािा चानहये। ~*~*~*~


िं ी विश्ि ह द

जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

विदे शों में ह द िं ी अध्ययन एिम ् अध्यापन की स्थिति

Dr Vandana Mukesh M.A.Eng, M.A. Hindi, PhD Hindi, Dip. In Hindi Translation ( Pune University) Qualified Teacher Status (England) Lecturer ( ESOL), Walsall Adult and Community College,Walsall West Midlands ,England. vandanamsharma@hotmail.co.uk

(इिंग्लैंड में ह द िं ी शशक्षण एि​िं प्रशशक्षण की समथयाएँचुनौतियाँ एि​िं समाधान)

तहंदी तिश्व में ि​िा​ा तिक बोली जानेिाली भाषाओं में िे एक है। िंिार में लगभग 400 करोड़ लोग तहंदी बोलिे हैं और लगभग 800 करोड़ लोग तहंदी िमझ िकिे हैं। तिश्व के अनेक देशों में िैकड़ों छोटे -बड़े कें द्रों एिं लगभग 150 तिश्वतिद्यालयों में प्राथतमक स्िर िे लेकर तिश्वतिद्यालयीन शोि स्िर िक तहंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यिस्था है। तिदेशों िे 25 िे अतिक पि-पतिकाएँ लगभग तनयतमि रूप िे तहंदी में प्रकातशि हो रही हैं। कई देशों िे रेतियो पर तहंदी काया क्रमों का प्रिारण तकया जा रहा है। तकं िु तिर भी तहंदी तशक्षण एिं प्रतशक्षण का मागा प्रश्नों और अनेक चनु ौतियों िे भरा है। इि लेख में इंग्लैंि में तहंदी के तशक्षण और उि​िे जुड़ी िमस्याओं पर एक तिहंगम दृति िे अिलोकन करिे हुए िमािानों पर तिचार तकया जायेगा। िंभि है तक तिश्व- स्िर पर तहंदी तशक्षकों द्वारा इन िमस्याओं को अनुभूि तकया जा रहा हो। इंग्लैंि में तहंदू मंतदरों की भूतमका तहंदी भाषा के प्रचार-प्रिार में अत्यंि महत्त्िपूणा है ऐिा कहा जा िकिा है तक मंतदर भाषा के प्रचार-प्रिार का प्रमुख कें द्र हैं। यह िे स्थान हैं जहाँ अक्िर भारिीयिा और भति-भािना िे ओि-प्रोि भारिीय इकठ्ठा होिे हैं। इंग्लैंि में तहंदी भाषा की तशक्षा अतिकांशिः मंतदरों में दी जािी है। लंदन के अनेक मंतदरों के अतिररि, बरतमंघम में श्री गीिा भिन, दगु ा​ा मंतदर, िोलेिरहेंप्टन में श्रीराम मंतदर, श्रीकृ ष्ट्ण मंतदर, नौतटंघम में कला तनके िन आतद अनेक मंतदरों में तहंदी भाषा की िाप्तातहक कक्षाएँ तनयतमि रूप िे चल रही हैं। कातिा फ़, बेलफ़ास्ट, आतद अनेक नगरों में िातमा क एिं िामातजक िंस्थाओं के द्वारा तहंदी तशक्षण की ितु ि​िा उपलब्ि करिाई जा रही है। अनेक स्ियंिेिी तशक्षक व्यतिगि स्िर पर भी तहंदी तशक्षण का काया कर रहे हैं। िे प्रयत्नपूिाक अपने बच्चों को घरों में तहंदी पढा रहे हैं।

तहंदी की लोकतप्रयिा बढाने और तशक्षण में तहंदी तिल्मों का योगदान तिलक्षण है। तिदेशों में बिा भारिीय िमाज तहंदी तिल्मों का दीिाना है। तिनेमा हॉल के बाहर तितभन्न भाषा-भाषी िच्चे अथों में भारिीयिा का िंिहन करिे हैं। तकं िु दख ु की बाि यह है तक भारिीय तफ़ल्म उद्योग-बॉलीि​िु की तफ़ल्मों में अब तहंदी कम अंग्रेजी ज़्यादा, या यों कहें तक तहंदी - अंग्रेजी का तमले-जुले स्िरूप; तहंतग्लश का प्रयोग अतिक हो रहा है। तकं िु तिर भी आज तिदेशों में दूिरी और िीिरी पीढी के भारिीयों एिं पातकस्िातनयों के बीच तहंदी तफ़ल्में बहुि लोकतप्रय हैं। तितभन्न भारिीय टी.िी चेनलों ने भी तहंदी की लोकतप्रयिा में िृति की है। इि प्रकार दृश्य एिं श्रव्य माध्यम तहंदी (तहंतग्लश) तशक्षण कर रहा है। कें तिज, ऑक्िफ़िा एिं लंदन यूतनितिा टी द्वारा स्नािक स्िर पर भारिीय िंस्कृ ति तिभाग के अंिगा ि तहंदी का एक ऐतच्छक तिषय के रूप में अध्यापन तकया जा रहा है। कोई भी भाषा पढाना एक चनु ौिीपूणा काया है। देश में हो या तिदेश में, यह चनु ौिी िब दोगुनी हो जािी है जब उि भाषा के िीखने पर उिे व्यिहार में लाने के अि​िर न के बराबर हों। हम िभी जानिे हैं तक भाषा माि िंिाद या िंप्रेषण का माध्यम नहीं अतपिु भाषा उि िमाज की, उि िंस्कृ ति की िंिाहक होिी है तजिमें उिका व्यिहार होिा है। अि: पररिेश िे कट कर भाषा तशक्षण तनति​ि ही एक चनु ौिीपूणा काया है। िबिे पहले िो यह देखना होगा तक िे कौन लोग हैं जो तहंदी भाषा का अध्ययन करना चाहिे हैं। मोटे िौर पर तहंदी के अध्येिाओं को दो िगों में तिभातजि तकया जा िकिा है। 1-बच्चे 2-ियस्क इन्हें भी दो िगों में तिभातजि तकया जा िकिा है।


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 1) िे लोग, तजनकी मािृभाषा अथिा प्रथम भाषा तहंदी नहीं हैं और िे तहंदी एक नयी भाषा के रूप में िीखना चाहिे हैं 2)

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एक मानक पाठ् यक्रम के अभाि में तहंदी का तशक्षण तकिी योजनाबि रूप में नहीं हो पािा। उतचि मागा दशा न के अभाि में तशक्षक तहंदी के अपने ज्ञान और िमझ के अनुरूप िे लोग तजनकी मािृभाषा िो तहंदी है ले तकन प्रथम भाषा नहीं, कामचलाऊ पाठ् यक्रम के आिार पर तहंदी अध्यापन का काया अि: स्ियं बोल, तलख-पढ नहीं िकिे, लेतकन थोड़ा बहुि करिे हैं। इि तिषय में प्रोिे िर महािीर िरन जैन का कहना है िमझ लेिे हैं। उदाहरणाथा - तितटश भारिीय तक तहन्दी तशक्षण के पाठ् यक्रम का तनमा​ा ण प्रत्येक देश के तशक्षण स्िर एिं तहन्दी प्रतशक्षण के लक्ष्यों एिं उद्देश्यों को इन िगों के पुन: िीन उपिगों में तिभातजि तकया जा िकिा हैध्यान में रखकर करना चातहए। पाठ् यक्रम इिना व्यापक एिं नौकरी के कारण तनति​ि काया काल के तलये भारि िे तिदेशों में स्पि होना चातहए तजि​िे तशक्षक एिं अध्येिा का मागा दशा न हो आये तहंदी भाषी पररिारों के बच्चे िके । का अभाि तिदेशों िे भारि में तनति​ि काया काल के तलये भेजे जानेिाले 2) यह एक ऐिी िमस्या है तजिका तनिारण उतचि प्रतशक्षण के कमा चारी द्वारा ही तकया जा िकिा है। उच्चारण, ि​िा नी, लेखन, रूपव्यतिगि रुतच के कारण- इि उपिगा को पनु : पाँच उपिगों में रचना, िाक्य-गठन और अथा आतद के स्िर पर अनेक िरह के तिभातजि तकया जा िकिा हैप्रयोग तमलिे हैं। हालाँतक िूचना प्रौद्योतगकी एिं यूतनकोि के भाषा िीखने की िहज तजज्ञािा आगमन िे इि िमस्या का कुछ हल िो तनकला है। लेतकन तहंदी तफ़ल्में इि तदशा में अभी बहुि काम होना बाकी है। भारिीय िंस्कृ ति एिं िातहत्य के प्रति आकषा ण

1. 2. 3. 4. तिश्वतिद्यालयीन स्िर पर ऐतच्छक तिषय के रूप में तहंदी का 3) अध्ययन 5. पया टन के तलये तहंदी समस्याएँ तजिनी तिति​ि​िा और तिस्िार तहंदी के अध्येिाओं की है, तहंदी- तशक्षण की िमस्याएँ भी उिनी ही अतिक हैं। कुछ पर दृतिपाि तकया जा िकिा है1) 2) 3) 4) 5) 6) 7) 8)

उतचि और मानक पाठ् यक्रम का अभाि का अभाि प्रतशतक्षि तशक्षकों को अभाि उतचि िंिािनों का अभाि व्याकरण का अपया​ा प्त ज्ञान उतचि िािािरण का अभाि तशक्षकों और तिद्यातथा यों को उतचि बढािा न तमलना ग़रीब की भाषा तहंदी, तहंदी के प्रति अिम्मान की भािना अब इन तबंदओ ु ं पर िंक्षेप में प्रकाश िाला जाएगा-

1) उतचि और मानक पाठ् यक्रम का अभाि-

प्रतशतक्षि तशक्षकों को अभाि प्रत्येक भाषा का अपना तितशि स्िरूप, व्याकरण, ध्ितनयाँ इत्यातद होिी हैं, एक तशक्षक को उि भाषा तिशेष के इन पक्षों का ज्ञान होना आिश्यक है। अंग्रेजी भाषा पढाने के तलये CELTA,TESOL का प्रतशक्षण अतनिाया है। जबतक तहंदी भाषा पढाने के तलये तकिी प्रतशक्षण की आिश्यकिा ही नहीं िमझी जािी। तहंदी भाषा को बोलने -िमझनेिाले लोग अपने तहंदी प्रेम के कारण तहंदी तशक्षण का काया कर रहे हैं और प्रतशक्षण का प्रश्न उठाना व्यतिगि आक्षेप के रूप में भी तलया जा िकिा है। अि: आिश्यक है तक तिदेशों में तहन्दी तशक्षण करने िाले तशक्षकों के तलए तशक्षण-प्रतशक्षण एिं निीकरण पाठ् यक्रमों का आयोजन एिं िंचालन होना चातहए । यहाँ यह उल्ले ख करना उतचि होगा तक, यॉका तिश्वतिद्यालय के प्रोिे िर श्री महेंद्र तकशोर िमा​ा , श्रीमिी उषा िमा​ा एिं श्री अमरीक कलिी के द्वारा नौिें दशक के उत्तरािा में भारिीय भाषा-तशक्षण हेिु एक प्रतशक्षण तशतिर आरंभ तकया। पाँच भारिीय भाषाओं के तशक्षण के तलये यह चार तदि​िीय ईस्टर प्रतशक्षण तशतिर लगभग 10 िषों िक तनरंिर चलिा रहा। इिके अंिगा ि तशक्षकों को तहंदी, उदा ,ू पंजाबी, गुजरािी एिं बंगाली भाषाएँ तिखाने के तलये प्रतशतक्षि तकया गया। यह िे


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 भाषाएँ थीं तजन्हें राष्ट्रीय पाठ् यक्रम के अंिगा ि ितम्मतलि तकया गया था। इि तशतिर में मािृभाषा प्रतशक्षण हेिु तशक्षणिामग्री िैयार करना भी तिखाया गया। उिी दौरान नॉतटंघम में तहंदी प्रतशक्षण तशतिर आयोतजि तकया गया।इन प्रतशक्षण तशतिरों के माध्यम िे तिटेन में भारिीय भाषाएँ 7) पढानेिाले अनेक तशक्षक लाभातन्ि​ि हुए। आज तिर इि बाि की गहन आिश्यकिा महिूि की जा रही है तक कोई तहंदी तशक्षण-प्रतशक्षण काया क्रम या तशतिर आयोतजि तकये जाएँ। 4) उतचि िंिािनों का अभाि एिं स्िाध्याय के तलये उतचि पुस्िकों का अभाि-तकिी भी भाषा िे अतिकातिक पररतचि होने के तलये आिश्यक है तक उि भाषा में प्रत्येक पाठक के 8) तलये िातहत्य पढने के अि​िर प्राप्त हों, उतचि पाठ् य-पुस्िकें , स्िाध्याय के तलये पुस्िकें आतद उपलब्ि हों। प्राथतमक स्िर की कुछ पाठ् य-पुस्िकें भी प्रकातशि हुई हैं, तजनमें रुपटा स्नेल की टीच योरिेल्फ़ तहंदी, िेदप्रकाश मोहला की पुस्िकें , नागरा की तबतगनिा तहंदी इत्यातद हैं और इनका उपयोग तशक्षकों द्वारा ऐतच्छक रूप िे तकया जािा है। िंभि है तक बहुि िे तशक्षकों को इन पुस्िकों के तिषय में ज्ञाि नहीं हैं अथिा िे भारि में पढाई जानेिाली पाठ् य पुस्िकों का ही आिार लेिे हैं। जो यहाँ के िािािरण के तलये उतचि नहीं है।

भाषा िीखना बहुि कतठन हो जािा है। यहाँ मािा-तपिा भी अपने दातयत्त्ि का ठीक तनिा​ा ह नहीं कर रहे हैं। स्िाथा और ितु ि​िा के कारण अतिकांश मािा-तपिा इि तदशा में कोई प्रयाि नहीं करिे। तशक्षकों और तिद्यातथा यों को उतचि बढािा न तमलना- यतद हम अपनी भाषा- िंस्कृ ति जीति​ि रखना चाहिे हैं िो प्रयाि िो हमें स्ियं ही करना होगा। भारि िरकार को तहंदी के प्रचारप्रिार करनेिाले तशक्षकों एिं अध्येिाओं को ऐिे पुरस्कारप्रोत्िाहन देना चातहये तक उि​िे अतिकातिक लोग तहंदी भाषा िीखने के तलये प्रेररि हों।

5) व्याकरण का अपया​ा प्त ज्ञान -तकिी भी भाषा–अध्ययन के तलये उि भाषा के तिति​ि अियिों का ज्ञान, उनका ति​िेचनतिश्लेषण करिे हुए उनके प्रयोग के तनयमों को आत्मिाि करना बहुि आिश्यक है। भाषा को शुि रूप िे बोलना, पढना और शुि तलखने का ज्ञान ही व्याकरण है िणा , शब्द एिं िाक्य भाषा के महत्त्िपूणा भाग हैं। तहंदी–तशक्षकों में व्याकरण का अपया​ा प्त ज्ञान भाषा तशक्षण-प्रतशक्षण में अिरोि उत्पन्न करिा है। तितशि ध्ितनयों का उच्चारण-प्रतशक्षण भी एक महत्त्िपूणा भाग है जो तनरंिर अभ्याि िे ही अतजा ि की जा िकिा है।

ग़रीब की भाषा तहंदी, तहंदी के प्रति अिम्मान की भािनाअत्यंि क्षोभ और दख ु के िाथ कहना पड़िा है तक भारि में आज भी तहंदी गरीब और दीन की भाषा है। आज भी हम मानतिक गुलाम हैं। आज भी अंग्रेजी की चमक िे हमारी आँखे चौंतिया जािी हैं।कहीं न कहीं यह ग्रंतथ है तक अंग्रेजी रौब की भाषा है, तकिी पर प्रभाि िालना हो या आिंतकि करना हो िो अंग्रेजी में बोलो। माँ-बाप इि बाि में गिा का अनुभि करिे हैं तक मेरा बच्चा अंग्रेजों जैिी अंग्रेजी बोलिा है ले तकन उन्हें यह कहने में तबल्कुल शमा महिूि नहीं होिी तक मेरा बच्चा अपनी मािृभाषा नहीं बोल पािा। तजन अंग्रेजों िे हम इिने प्रभाति​ि हैं उनिे यह िो िीख पािे तक प्राथतमक तशक्षण मािृभाषा में हो तिर दूिरी भाषा का तशक्षण हो । इंग्लैंि में फ़्रेंच, जमा न या स्पेतनश का तशक्षण पाँचिीं-छटिीं कक्षा के बाद आरंभ होिा है। काश भारि में भी ऐिा ही होिा। भारि की भाषायी तिति​ि​िा एिं िमृति तिलक्षण है। इिके बािजूद यतद हम अपनी भाषाओं का िम्मान करने में अिमथा हैं िो इिके तलये भारि िरकार की दोषपूणा नीतियाँ हैं। कें द्रीय तहंदी िंस्थान, आगरा अथिा कें द्रीय तहंदी तनदेशालय की भूतमका पर प्रश्नतचन्ह लग जािा है। क्या ये िंस्थान अब िक ऐिे पाठ् यक्रम तनमा​ा ण कर िके नहीं जो अंिरा​ा ष्ट्रीय स्िर पर न ति​िा िराहे जाएँ बतल्क मानक बन जाएँ!

6) उतचि िािािरण का अभाि- भाषा के अभ्याि के तलये उतचि िािािरण का उपलब्ि न हो पाना-तकिी भाषा तिशेष का व्यिहार एक तितशि िमाज में होिा है। जब भाषा के व्यिहार के तलये उतचि िािािरण का अभाि हो िो तहंदी क्या कोई भी

भारि िंिार का एकमाि देश है तजिके पाि अतभव्यति के तलये स्िभाषा भी नहीं है। जब िक हम अपनी भाषा का िम्मान नहीं करेंगे कोई और कै िे करेगा? िमस्या की जड़ िो भारि में ही है। ि​िा मान में तहंदी बोले जाने के आिार पर तिश्व


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 की प्रथम िीन भाषाओं में तहंदी आिी है लेतकन ि​िा मान ह्राि 11. श्रिण, िािा​ा लाप, िाचन, एिं लेखन कौशल के तिकाि के को देखिे हुए िह तदन दूर नहीं जब तिश्व की तिलुप्त भाषाओं में तलये तिशेष अि​िर प्रदान तकये जाएँ। तहंदी का नाम भी होगा।

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12. तिदेशों में ियस्क तशक्षा पाठ् यक्रम का तनमा​ा ण तकया जाए िमािान तजिके अंिगा ि दैतनक जीिन के तिति​ि प्रयोजनों की तिति के िमािानों की पड़िाल करिे हुए िंक्षेप में यह कहा जा िकिा तलए तहन्दी भाषा की आिारभूि शब्दािली का तनमा​ा ण एिं है तकआिारभूि व्याकरण के अनुप्रयोगात्मक पाठों का िमािेश ि​िा प्रथम, मािा-तपिा स्ियं तहंदी में बािचीि करें और बच्चों तकया जाए। को तहंदी बोलने, पढने और तलखने के तलये प्रेररि करें। 13. भारि िरकार के तिदेशों में तहंदी-तशक्षकों और तिद्यातथा यों को भारि और तिदेशों में भारिीयों के बीच में िंपका भाषा के रूप प्रोत्िातहि करने हेिु पुरस्कार एिं उतचि मानिन की व्यिस्था में तहंदी का व्यिहार हो। करनी चातहये। भारि में प्राथतमक तशक्षण मािृभाषा में हो और तहंदी अतनिाया 14. तहंदी-तशक्षकों के िैमातिक, अिा -िातषा क या िातषा क िम्मेलन तिषय के रूप में पढायी जाए। हो तजिमें तहंदी प्रतशक्षण काया शाला आयोतजि हों एिं तशक्षकों तिज्ञान एिं िकनीकी की जानकारी तहंदी में ि​िा िल के तहंदी के तशक्षातिदों िे िंिाद- पररिंिाद के अि​िर प्रदान ु भ हो एिं तहंदी में रोजगार के अि​िर प्रदान तकये जाएँ। तकये तिदेशों में िाप्तातहक, मातिक िामातजक काया क्रमों, िीज जाएँ। त्यौहारों का तिशेष रूप िे आयोजन तकये जाएँ । 15. कें तिज अथिा तकिी तिदेशी नाम के स्थान पर परीक्षाओं को तिदेशों में तहंदी का एक राष्ट्रीय पाठ् यक्रम तिकति​ि तकया भारिीय तिश्वतिद्यालय जैिे कें द्रीय तहंदी िंस्थान आगरा जाये। तजिमें यहाँ के तशक्षक भारिीय तिद्वानों के मागा दशा न में अथिा महात्मा गाँिी अंिरा​ा ष्ट्रीय मुि तिद्यापीठ ि​िा​ा द्वारा पाठ् य पुस्िकें बना िकें , तजिमें यहाँ का पररिेश िमाति​ि हो। मान्यिा प्रदान की जाए। अंग्रेजी की आय.ई.एल.टी.एि एिं टोिे ल की परीक्षाओं की 16. तशक्षण के िमय आनेिाली िमस्याओं का तनराकरण स्िानुभि िरह भारि में नौकरी, प्रतशक्षण के तलये जानेिाले के आिार पर कुछ इि िरह तकया जा िकिा है। तिदेतशयों/प्रिातियों के तलये तहंदी भाषा ज्ञान की योग्यिा  तिद्यातथा यों के भाषा ज्ञान का प्रारंतभक अिस्था में मूल्यांकन परीक्षा अतनिाया करनी चातहये।  उनकी आिश्यकिा के आिार पर पाठ् यक्रम तनमा​ा ण तिदेशों में राष्ट्रीय पाठ् यक्रम में तहंदी का तद्विीय भाषा के रूप में  तचिों, दृश्य िस्िओ ु ं का प्रयोग अध्ययन- अध्यापन होना चातहये। यहाँ यह उल्लेखनीय है तक हाल ही में कें तिज तिश्वतिद्यालय के  अतभनय का प्रयोग अंिरा​ा ष्ट्रीय परीक्षा तिभाग ने इंग्लैंि के िेकेंड्री स्कूलों में आई.  खेल-पारस्पररक िंिादात्मक तस्थति एिं अनभु ि का तनमा​ा ण जी. िी.एि.ई. की तहंदी परीक्षा को ितम्मतलि तकया है।  िकनीकी का प्रयोग- जैिे स्माटा बोिा तजिके माध्यम िे तहंदी अध्येिाओं को तद्विीय भाषा के रूप िंक्षेप में कहा जा िकिा है तक तहंदी भाषा के औपचाररक में तहंदी चयन करने की ितु ि​िा प्रदान की गई है। तशक्षण-प्रतशक्षण के अतिररि व्यतिगि स्िर पर तकये तशक्षकों के तलये तहंदी प्रतशक्षण की व्यिस्था की जानी चातहये। जानेिाले प्रयाि अत्यंि महत्िपूणा और तहंदी के पुनरुत्थान में िमय- िमय पर तहंदी प्रतशक्षण-निीकरण काया क्रमों और मील का पत्थर ति​ि होंगे। एक भारिीय होने को नािे हमें तहंदी तशतिरों का आयोजन तकया जाना चातहये। में बाि करने में गिा की अनुभूति होनी चातहये। स्ि​िंि​िा तहंदी-तशक्षकों को कें द्रीय तहंदी तनदेशालय द्वारा प्रकातशि िेनातनयों ने देश को स्ि​िंि करिाया अब हम पढे -तलखे पुतस्िका-देिनागरी तलतप िथा तहंदी ि​िा नी का मानकीकरणभारिीयों का दातयत्त्ि है तक हम स्ियं को मानतिक गुलामी के का ति​िरण तकया जाए। बंिन िे मि ु करें। अंि में यही कहगँ ी तक तजि प्रकार बूँद-बूदँ


जनकृ ति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015 िे घड़ा भरिा है इिी प्रकार एक-एक व्यति के प्रयाि िे ही तहंदी अपना खोया िम्मान पा िकिी है। तनज भाषा उन्नति अहै, िब उन्नति को मूल। तबन तनज भाषा ज्ञान के , तमटै न तहय को िूल।। ******************************************************** िॉ. िंदना मुकेश 68 मेिो िक ु रोि, नॉथा फ़ील्ि, बरतमंघम, B31 1ND य़ू.के . शोि आतद में महत्िपूणा भूतमका रही है


अनवु ाद

(हाल में नोबेल पुरस्कार विजेता जमम न लेखक ि कवि ग्ुटुं र ग्रास का देहाुंत हो ग्ा. सारे विश्व में िह मुख्​्तः अपने अमर उपन्​्ास टीन ड्रम के वल्े मशहूर हैं, लेवकन कवि के रूप में भी उनकी ख्​्ावत थी. भारत, खासकर कोलकाता के साथ उनके गहरे ररश्ते थे. ग्रास ने जमम न एकीकरण को पविम की ओर से पूरब को हड़पना कहा था. एकीकरण के दौरान उन्होंने सॉनेटों की एक शख ुं ला वलखी, वजन्हें निुंबर देश नामक सुंग्रह में प्रकावशत वक्ा ग्ा. उज्जज्जिल भट्टाचा्म द्वारा मूल जमम न से अनुवदत उनके चार सॉनेट)

यह अपना फै ला हुआ यह देश, कहते हैं जिसके लोकगीत सुंदर हैं पहाज़ियाुं इसकी, सपाट है यह उत्तर में, घने बसे हैं लोग यहा,ुं अटारी तक इस घर में. बाप के डर से बच्चों का जिपना कभी िहाुं थी रीत, कोई िगह अब बची नहीं, कि भी नहीं है जिपा यहा.ुं खले हैं हम इस कदर, प्रदजशित करते चारों ओर, हर प़िोसी, रहता हो वह दजनया के जकसी भी िोर देखता है बदजकस्मती, जखलती हमारी खशी िहाुं. हालत हमारी युं ही है बस, बाजार की गमी के िनन में होते िाते हैं मोटे. दख और जचतुं ा से भरा है पेट, हमला होता है ग़रीबी का खले बाजार के कानन में ; यहाुं तक जक पाप के जलए भी जमलती रहती है भेंट.

शातुं प़िा नवबुं र देश, मेहनती, बदहाल इस जकस्मत से, डर उसे रोजे-कयामत का, और बढ़ती हुई कीमत से. तफान की चेतावनी रेजडयो की घोषणा थी, इगुं लैंड से आया बवडुं र. मरे तो कम ही इस बार, लेजकन बेहद हुआ नकसान माल-मत्ते का, मौसमी तबाही का क्या हो बखान : एक आम दीवानगी सा फै लता गया वो अधुं ़ि चारों ओर, बदहाल हम वैसे भी एकीकरण के दौर से और अमीरों के क्लब से भी हो सकते हैं बाहर, डी-माकि की कमजोरी का िो बना हुआ है डर, अगर बेलगाम मौसम पक्के मेहमान के तौर से बस िाना चाहता हो यहा,ुं िैसे वह परदेसी िनन, ढीठ, नशाखोर और एड्स रोग से दजषत जिसका खन,

जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015

जचपकता है हमसे, करता िे ़िखानी हमारी जात से, ताजक खद से नहीं, नफरत हो हमें उसकी औकात से. – घोषणा होती है, जफर एकबार तफान के आक्रमण की, िो सीमाओ ुं को लाघुं दस्तक देता और मागुं करे शरण की. लगातार बाररश फै लती िाती है दहशत, धमकी दे रहा नवबुं र. धप से नहाते जदन जमलेंगे अब कभी नहीं. आजखरी मजक्खयाुं जगरती हैं दीवार से धरती पर, समय के फास्ट-फड के बाद जनश्चलता ही बची रही. मकान माजलक की जचुंताएुं बजनयाद पर आधाररत, आि जनपटना प़ि सकता है कल के खोटे काम से. नौिवान िो, - अभी से ि​ि​िर – पेंशन के जलए जचुंजतत.


और िनता के िो प्रजतजनजध रहते हैं आराम से डर के मारे कर जलया उन्होंने दोगना अपना भत्ता. टाई पहने जस्कनहेड को पदक जमले अलबत्ता. इस कारोबार के भजवष्य का अब भी िो है कायल, यगधमि का नशा उसे कर चका है घायल,

तराशे गए आसमान से, उसकी जजल्लत का एक जहस्सा, और धब्बे सा जबल्कल फै लकर, सुंदशे सा जलखा हुआ है एक खबर उसके ऊपर :

दो-जतहाई बहुमत साथ उसके , िो डर से एक होता ; नवबुं र की इस बाररश में एक जवदषक रोता.

तलाक के बाद िो हाल होता मदि और औरत का कि ही अरसे में देश और िनता का वही हुआ है हाल. फसल थी मामली, पर काफी रहा लट का माल. हाय, ट्रॉयहाुंड ने ढाया है कहर हमारे ऊपर.

जस्कनहेड - जसर म़िाकर घमने वाले नवनाजी गडुं े, िो जवदेजशयों और वामपुंजथयों पर हमले करते थे.

शक होते ही काटता है िो सरिमखी का सर, जमलेंगे न गवाह उन्हें, बलवे से होंगे बदहाल.

बेमौसम सरिमखी

ट्रॉयहाडुं – देश के एकीकरण के बाद पवी िमिन कुंपजनयों को जनपटाने के जलये बनी सुंस्था, जिसकी अगवाई में लगभग सारे कारखाने बदुं कर जदये गये थे.

नवबुं र ने मारा उन्हें, मायस उिले के बीच काला. अभी तने हैं डुंठल, ताना देते इन रुंगों को, बाररश में कि टेढ़े से, गर जमलती तलना काश, और िुंद भी, मसलन ईश्वर और लाश. अभी तक हैं वे मनाजसब, नमना ऐसा जनराला,

जनकृति (अंिरराष्ट्रीय मातिक ई पतिका), अंक-2, अप्रैल-2015


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