Jankriti Magazine- Issue 27 29, july spetember 2017

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Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

ISSN: 2454-2725

परामर्श मंडल डॉ. सुधा ओम ढींगरा (अमेररका),प्रो. सरन घई (कनाडा), प्रो. अननल जननिजय (रूस), प्रो. राज हीरामन (मॉरीर्स), प्रो. उदयनारायण ससंह (कोलकाता), प्रो. ओमकार कौल (ददल्ली), प्रो. चौथीराम यादि (उत्तर प्रदेर्), डॉ. हरीर् निल (ददल्ली), डॉ. हरीर् अरोड़ा (ददल्ली), डॉ. रमा (ददल्ली), डॉ. प्रेम जन्मेजय (ददल्ली), प्रो.जिरीमल पारख (ददल्ली), पंकज चतुिेदी (मध्य प्रदेर्), प्रो. रामर्रण जोर्ी (ददल्ली),डॉ. दुगाश प्रसाद अग्रिाल (राजस्थान), पलार् निस्िास (कोलकाता), डॉ. कै लार् कु मार नमश्रा (ददल्ली), प्रो. र्ैलेन्र कु मार र्माश (उज्जैन), ओम पाररक (कोलकाता), प्रो. निजय कौल (जम्मू ), प्रो. महेर् आनंद (ददल्ली), ननसार अली (छत्तीसगढ़),

(बहुभाषी अंतरराष्ट्रीय मासिक पसिका)

वर्ष 3, अंक 27. जुलाई-सितंबर 2017

संपादक कु मार गौरि नमश्रा

सह-संपादक जैनेन्र (ददल्ली), कनिता ससंह चौहान (मध्य प्रदेर्)

कला संपादक निभा परमार संपादन मंडल प्रो. कनपल कु मार (ददल्ली), डॉ. नामदेि (ददल्ली), डॉ. पुनीत निसाररया (उत्तर प्रदेर्), डॉ. नजतेंर श्रीिास्ति (ददल्ली), डॉ. प्रज्ञा (ददल्ली), डॉ. रूपा ससंह (राजस्थान), तेसजंदर गगन (रायपुर), निमलेर् निपाठी (कोलकाता), र्ंकर नाथ नतिारी (निपुरा), िी.एस. नमरगे (महाराष्ट्र), िीणा भारिया (ददल्ली), िैभि ससंह (ददल्ली), रचना ससंह (ददल्ली), र्ैलेन्र कु मार र्ुक्ला (उत्तर प्रदेर्), संजय र्ेफडश (ददल्ली), दानी कमाशकार (कोलकाता), पूजा पिार (हैदरािाद), ज्ञान प्रकार् (ददल्ली), प्रदीप निपाठी (महाराष्ट्र), उमेर् चंर नसरिारी (उत्तर प्रदेर्),

सहयोगी गीता पंनडत (ददल्ली) ननलय उपाध्याय (मुंिई, महाराष्ट्र) मुन्ना कु मार पाण्डेय (ददल्ली) अनिचल गौतम (िधाश, महाराष्ट्र) महेंर प्रजापनत (उत्तर प्रदेर्) निदेर् प्रनतनननध

डॉ. अनीता कपूर (कै नलफोर्नशया) डॉ. नर्प्रा नर्ल्पी (जमशनी) राके र् माथुर (लन्दन) मीना चौपड़ा (िोरं िो, कै नेडा) पूजा अननल (स्पेन) अरुण प्रकार् नमश्र (स्लोिेननया) ओल्या गपोनिा (रनर्या) सोहन राही (यूनाइिेड ककं गडम) पूर्णशमा िमशन (यूएई) डॉ. गंगा प्रसाद 'गुणर्ेखर' (चीन)

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िपं कक कुमार गौरव ममश्रा, कमरा संख्या 29, गोरख पाण्डेय छात्रावास, महात्मा गांधी अतं रराष्ट्रीय महन्दी मवश्वमवद्यालय, वधा​ा-442005, महाराष्ट्र, भारत 8805408656 वेबसाईट- www.jankritipatrika.in, www.jankritimagazine.blogspot.in, ईमेल- jankritipatrika@gmail.com प्रकासित रचनाओ ं में व्यक्त सिचार िे िंपादकीय िहमसत असनिायक नहीं है।

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िंपादक की कलम िे.... मवगत कुछ महीनों में देश का घटनाक्रम तेजी से पररवमतात हुआ है। लगातार सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओ ं की तरफ से जारी ररपोटों को देखकर यह आभास होने लगा है मक मजन व्यापक उम्मीदों के साथ 2014 में जनता ने बीजेपी को बहुमत मदया वह उम्मीदें कहीं न कहीं अब मबखर रही हैं। देश में लगातार सामने आए घोटालों से त्रस्त होकर जनता ने बीजेपी को सत्ता की कमान सौंपी परंतु मोदी सरकार के जन मवरोधी फै सलों से जनता में धीरे -धीरे अमवश्वास पैदा हुआ है। मकसान, मजदरू , छात्र, मनम्न वगा के व्यापारी मोदी सरकार के फै सलों से नाखश ु है। हालांमक अभी यह कहना मक चनु ावों पर इस अमवश्वास का प्रभाव पड़ेगा यह जल्दबाज़ी होगी। सवाप्रथम छात्रों की दृमि से मोदी सरकार के तीन सालों का आक ं लन मकया जाए तो मनराशा हाथ लगती है। नॉन नेट फ़े लोमशप का मद्दु ा हो या यजू ीसी द्वारा उच्च मशक्षा में सीट कटौती का या मफर जेएनय,ू जाधवपरु , मदल्ली मवश्वमवद्यालय में देशभक्त बनाम देशद्रोही का मववाद हो मवगत 3 वर्षों में शैक्षमिक सस्ं थान अमस्थर रहे हैं। छात्र मवमभन्न मद्दु ों को लेकर सड़क पर आयें हैं इसका एक मवशेर्ष कारि सरकार के अहम मत्रं ालय MHRD की अप्रभावी कायाकाल भी है। मकसान की बात करें कजा के बोझ और सरकार की मदशाहीन नीमतयों की वजह से मकसान की हालत अत्यंत खराब है। यपू ीए सरकार के दौरान ही स्वामीनाथन आयोग की मसफ़ाररशें लागू करने की मांग उठी। मोदी सरकार ने भी 2014 में मकसानों को लेकर बड़े वायदे मकए लेमकन इन तीन वर्षों में स्वामीनाथन आयोग की मसफ़ाररशें लागू करने में असमथाता जामहर करना एवं मकसानों ने मलए कोई ठोस योजना न बना पाने के कारि कुछ महीनों से मकसानों का गस्ु सा सड़क पर

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देखने को ममला है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, तममलनाडु के मकसानों का सड़क पर मवरोध दजा करना इस बात का गवाह है मक मकसान मोदी सरकार की नीमतयों से नाखश ु है। मोदी सरकार ने नवबं र 2016 में भ्रिाचार, कालेधन, आतंकवाद पर प्रहार करने हेतु नोटबंदी की, मजसको प्रारम्भ से ही शक ं ा से देखा जा रहा था ऐसे में आरबीआई द्वारा नोटों की मगनती में देरी, नोटबंदी को प्रभावी रूप से लागू न कर पाने के कारि इसके दष्ट्ु पररिाम भारतीय अथाव्यवस्था पर देखने को ममले। मनरंतर यह खबरें आयीं मक नोटबंदी की वजह से लाखों लोग बेरोजगार हुए तथा छोटे व्यापार बंद होने के कागार पर आ गए। इस बीच सरकार दावा कर रही है मक नोटबंदी का सकारात्मक प्रभाव आगे देखने को ममलेगा। इसी बीच जल ु ाई 2017 में मोदी सरकार ने एक कर व्यवस्था के तहत जीएसटी को लागू मकया इसको लागू करने में भी जल्दबाज़ी देखने को ममली। व्यापाररयों ने इसका स्वागत भी मकया तो इसकी जमटलताओ ं को लेकर मवरोध भी हुआ। यह मवरोध और अमधक मख ु र होकर तब उभरा जब भारत की जीडीपी में दो प्रमतशत की मगरावट दजा की गयी। इस मगरावट का कारि नोटबदं ी तथा जीएसटी को माना गया। जीएसटी को लेकर भी सरकार ने दावा मकया है मक इसका सकारात्मक प्रभाव आगे देखने को ममल सकता है। मोदी सरकार ने स्कील इमं डया, मडमजटल इमं डया, स्वच्छ भारत अमभयान जैसी योजनाएँ भी मनकाली, मजसमें स्वच्छ भारत अमभयान मोदी सरकार की सबसे सफल योजना कही जा सकती है। मोदी सरकार को मवशेर्ष तौर पर महन्द-ू ममु स्लम मववाद, गौ हत्या, लव मजहाद जैसे मद्दु ों से हटकर अपनी योजनाओ ं की सफलता पर ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके मलए बेहद जरूरी है है मक मोदी सरकार जनता के साथ संवाद स्थामपत करे अन्यथा सरकार के प्रमत असंतोर्ष बढ़ता जाएगा। अभी मोदी सरकार के पास 2 वर्षा का

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समय है। इन दो वर्षों में मोदी जी को 2014 में मकए गए वादों को पिू ा करने की मदशा में गभं ीरता से काया करना चामहए। देश के सभी वगों मवशेर्ष तौर पर मनम्न वगा को ध्यान में रखकर योजनाओ ं पर काया करें । जनकृ मत का वतामान अक ु ाई- मसतंबर सयंक्त ु ं जल अक ं है। मवगत कुछ समय से कुछ कारिों से जनकृ मत के प्रकाशन में मदक्कत हुई परंतु हम अपने पाठकों को मवश्वास मदलाते हैं मक आगामी अक ं समय पर प्रकामशत मकये जाएँग।े जनकृ मत के इस अक ं में हमने सामहत्य, कला, समाज, ज्ञान-मवज्ञान, मीमडया इत्यामद क्षेत्रों के मवमवध मवर्षयों को स्थान मदया है। यह अक ं मवर्षय मवमवधता को ध्यान में रखकर प्रकामशत मकया गया है। पाठकों को समू चत करते हुए यह हमें प्रसन्नता हो रही है मक जनकृ मत को यजू ीसी की मानक पमत्रका सचू ी में शाममल मकया गया है इससे पवू ा जनकृ मत मवश्व के दस से अमधक ररसचा इडं ेक्स में शाममल है। पमत्रका में गिु वत्ता को ध्यान में रखते हुए मनरंतर बदलाव मकए जा रहे हैं अतः आप भी हमें अपने सझु ाव दे सकते हैं। इसके अमतररक्त जनकृ मत की इकाई मवश्वमहदं ीजन से मवगत एक वर्षों से महन्दी भार्षा सामग्री का सक ं लन मकया जा रहा है साथ ही प्रमतमदन पमत्रकाओ,ं लेख, रचनाओ ं का प्रचार-प्रसार मकया जाता है। जनकृ मत की है एक अन्य इकाई कलासवं ाद से कलाजगत की गमतमवमधयों को आपके समक्ष प्रस्ततु मकया जा रहा है साथ ही कलासंवाद पमत्रका का प्रकाशन भी मकया जा रहा है। धन्यवाद -कुमार गौरि समश्रा

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पुस्तक िमीक्षा

इि अंक में ....

 उत्पीमड़तों का मशक्षाशास्त्र (पाओलो फ्रेरे ):

िासहसययक

सिमिक/

Literature

Discourse

समीक्षक- डॉ. दीना नाथ मौया  कारागार (उपन्यास: नेपाली भार्षा): वानीरा मगरर- समीक्षक: रक्षा कुमारी झा

कसिता शशाक ं पाण्डेय, सध्ं या यादव, अनपू बाली, परु​ु र्षोत्तम

 घड़ी (संग्रह- मोहन मसंह, अनवु ाद- यशपाल

व्यास, रोशन कुमार, सबु ोध श्रीवास्तव, दीपक कुमार,

मनमाल)- समीक्षक: सदं ीप तोमर

करुिा सक्सेना, प्रभात सरमसज, पररतोर्ष कुमार ‘पीयर्षू ’, के शव शरि

व्यंग्य  एक ममत्र के मलए उसके शभु ाकांक्षी ममत्र का

निगीत

पत्र: प्रदीप कुमार साह

पीतांबर दास सराफ ‘रंक’

डायरी कहानी

 गौरव गप्तु ा

 पानी भर मज़दं गी: कुमारे न्द्र मकशोरी महेंद्र

ग़ज़ल लघुकथा  गनु हगार: अचाना गौतम ‘मीरा’  सनु यना: नीरज शमा​ा

 नवीन ममि मत्रपाठी  डॉ. डी.एम. ममश्र  भावना

यािा िृत्ांत  ‘मही’ के मकनारे -मकनारे नौ मदन: कारूलाल जमडा ा़ Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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 मेरी पहली हवाई यात्रा: डॉ. अनीता यादव

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कला- सिमिक/ Art Discourse  Folk Dances of Tripuri Tribe: An

िंस्मरण  मैंने देखा है बादलों के आगे एक दमु नया और भी: लता तेजश्वे र  आसान नहीं है बद्री नारायि लाल हो जाना: सश ु ील स्वतत्रं

Analytical Study- Surajit Debbarma [Research article]  महमाचल प्रदेश की ‘काष्ठकला’ का एमतहामसक पररदृश्य: मजं ल ु ा कुमारी [शोध आलेख]  बजं ारा लोकगीतों में प्रेम-सौन्दया: डॉ. सनु ील गल ु ाब मसहं जाधव [शोध आलेख]

हाईकू  डॉ. अचाना मसंह  सत्या शमा​ा ‘कीमता’  आनंद बाला शमा​ा

 उत्तराखडं की लोकसस्ं कृ मत में लोकगीत परंपरा: डॉ. नीलाक्षी जोशी [शोध आलेख]  प्रेमचंद की कहानी ईदगाह का नाट्य रूपांतरि: तेजस पमू नया

िोध- सिमिक/ Research Discourse  महमाचल प्रदेश मवश्वमवद्यालय के १२४ वे उन्मख ु ी कायाक्रम के सभी प्रमतभामगयों के पीएच.डी. शोध प्रबधं में उमल्लमखत पररकल्पनाएँ (Hypothesis), उद्देश्य

 आधमु नक महन्दी नाटकों के मचंतन का स्वरूप: अजय कुमार सरोज [शोध आलेख]  इप्टा से जड़ु े भीष्ट्म साहनी का महदं ी मसनेमा में योगदान: आमदत्य कुमार ममश्रा [शोध आलेख]

(Objectives), एवं मनष्ट्कर्षा ( Findings) का स्वरुप : एक अवलोकन- डॉ. रमा प्रकाश नवले, डॉ. प्रेरिा पाण्डेय, डॉ. मजं ु परु ी

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मीसडया- सिमिक/ Media Discourse  महन्दी के प्रसार में मेमडया की भमू मका: डॉ. मौ. रहीश अली खां [शोध आलेख]

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 महन्दस्ु तानी अदब के प्रचार-प्रसार में नवल मकशोर प्रेस का योगदान: महमांशु बाजपेयी [शोध आलेख]

दसलत एिं आसदिािी- सिमिक/ Dalit and

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 समकालीन स्त्री कहानीकारों की कहामनयों में अमभव्यक्त स्त्री-परु​ु र्ष सम्बन्ध: राम सभु ार्ष  मजदं गी औरत की’ एक नारी मवमशा: मप्रयंका चाहर [शोध आलेख]  सजं ीव के उपन्यासों के स्त्री पात्र: सघं र्षा के आयाम- बेबी कुमारी [शोध आलेख]

Tribal Discourse  भमक्त आदं ोलन: दमलत संदभा- डॉ. इकरार अहमद [शोध आलेख]  ‘नवं लगु डं’ कहानी-सग्रं ह में आमदवासी ‘पारधी समाज’ का मचत्रि: रामडगे गगं ाधर [शोध आलेख]  सजं ीव के ‘धार’ उपन्यास में आमदवासी मचतं न: मनीर्ष कुमार [शोध आलेख]

स्त्री- सिमिक/ Feminist Discourse  ज्योमतरीश्वर ठाकुर का विारत्नाकरः स्त्री के पररप्रेक्ष्य से: मप्रयंका कुमारी [शोध आलेख]  बौद्धकालीन नारी : दशा और मदशा- अरुि कुमार मनर्षाद [शोध आलेख]  स्त्री-मशक्षा की अग्रदतू : सामवत्रीबाई फुलेदीपा [शोध आलेख]  ममहलाओ ं की सन्ु नत: एक कुप्रथा- आररफा खातनू [शोध आलेख]  इक्कीसवीं सदी की महदं ी कहामनयों में स्त्री की बदलती सामामजक छमव: मप्रयंका शमा​ा Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

बाल- सिमिक/ Child Discourse  A

Report

on

“Motherhood

experience of disabled child”: Garima  ग्राम बाल सरं क्षि समममत की जागरूकता का अध्ययन : देवली तालक ु ा के संदभा में-

दीना नाथ यादव[शोध आलेख]

भासषक- सिमिक/ Language Discourse  संपका भार्षा के रूप में भारत में अग्रं ेजी से अमधक सक्षम है महदं ी: रमश्म रानी [शोध आलेख]

सिक्षा- सिमिक/ Education Discourse  प्राथममक स्तर की मशक्षा व्यवस्था के पररप्रेक्ष्य में एक अध्ययन: मदनेश कुमार [शोध आलेख]

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 सरकार की गैर बराबरी बढ़ाने वाली मशक्षा नीमतः अतीत से वतामान तक- एकता [शोध आलेख]  मशक्षा, समं वधान एवं पाठ्यक्रम : एक पनु मवाचार- अधेंदु [शोध आलेख]  21 वी शताब्दी में महदं ी सामहत्य मशक्षि: मनीर्ष खारी [शोध आलेख]

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 ‘दौड़’ उपन्यास में बाजारवाद: अमनता यादव  त्यागपत्र उपन्यास में अमभव्यक्त व्यमक्त और समाज के सहसम्बन्ध: कल्पना मसंह राठौर  परशरु ाम की प्रतीक्षा: चीनी आक्रमि से उपजा क्षोभ- डॉ. गीता कमपल  श्रीलाल शक्ु ल के उपन्यास ‘रागदरबारी’ का सामामजक अध्ययन: डॉ. कमल कृ ष्ट्ि

िमिामसयक सिषय/ Current Affairs  भारत में आपदा प्रबंधन का संस्थागत एवं प्रशासमनक ढाचं ा: लमलत यादव [लेख]  मकन्नर समाज: सम्मान की दरकार- वदं ना शमा​ा [शोध आलेख]  हमथयारों के कारोबार के बाद मानव तस्करी मवश्व भर में तीसरा सबसे बड़ा संगमठत अपराध है।: अनीता ममश्रा 'मसमद्ध’ [लेख]

 रामवृक्ष बेनीपरु ी की रचनाओ ं में भारतीय सस्ं कृ मत की झलक: मववेक कुमार  ‘कुछ भी तो रूमानी नहीं’ कहानी सग्रं ह में स्त्री पात्रों के जीवन का उभरता सच: कुलदीप  मीरा और समाज : एक पनु माल्ू याक ं न- डॉ. सोमाभाई पटेल  ‘अमननगभा’ उपन्यास और नक्सलवादी

िोध आलेख/ Research Article  राममवलास शमा​ा और नामवर मसंह की आलोचना दृमि का तल ु नात्मक अध्ययन: अमृत कुमार  ‘रागदरबारी’ और ‘नागपवा’ उपन्यासों का

मवचारधारा: मोमहनी पाण्डेय  प्रेमचंद-सामहत्य में मानवेत्तर चेतना: डॉ. मीनाक्षी जयप्रकाश मसंह  पहर दोपहर : मफ़ल्मी दमु नया का यथाथा: स्वामत चौधरी

तल ु नात्मक अध्ययन: राजमनमतक एवं सामामजक पररप्रेक्ष्य में- मदु मस्सर अहमद भट्ट

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 समकालीन कथाकार चंद्रकांता एवं नीरजा

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 मनीर्षा

कुलश्रेष्ठ

के

कहानी-संग्रह

माधव के उपन्यासों में संस्कृ मतगत वैचाररक

‘कठपतु मलयाँ’ में मचमत्रत यथाथा: मप्रयंका

चनु ौमतयाँ: प्रो. मृदल ु ा शक्ु ला

चाहर

 उदयप्रकाश की महाकाव्यात्मक कहानी ‘पीली छतरी वाली लड़की’ में मनमहत मल ू संवदे ना: संतोर्ष कुमार  श्री लाल शक्ु ल के उपन्यासों का मनोवैज्ञामनक मवश्लेर्षि: डॉ. लक्ष्मी गप्तु ा  सदु ामा पाण्डेय ‘धमू मल’ के काव्य सृजन की साहमसकता: मवशाल कुमार मसहं  उदय प्रकाश की रचना सृमि का राजनीमतक आयाम: मवनय कुमार ममश्र  लीलाधर मडं लोई का पररवेश-बोध और काव्य दृमि: मवकाश कुमार यादव  आधमु नकताबोध और के दारनाथ मसहं : डॉ. मवमलेश मत्रपाठी  उत्तरमध्यकालीन प्रमख ु मनगिाु सन्त

 कबीर: कल और आज- समु मत कुमार चौधरी  मशवप्रसाद मसंह की कहामनयों में ग्रामीि जीवन और सामामजक पररप्रेक्ष्य- कंचन लता यादव  मत्रलोचन शास्त्री के सामहत्य में मानवीयता की तलाश- - डॉ. सभु ार्ष चन्द्र पाण्डेय  मध्यकालीन सामतं ी प्रमतरोध और नागमती का चररत्र- छाया चौबे  हसं राज रहबर के सामहमत्यक कृ मतयों में राष्ट्रवाद और माक्सावाद का द्वदं : पक ं ज कुमार  समकालीन महन्दी कहानी में सामामजक आमथाक लोकतन्त्र: डॉ. धनंजय कुमार साव

सम्प्रदाय: सामान्य पररचय- डॉ॰ अनरु ाधा

शमा​ा  मकतने पामकस्तानः मानवता का दस्तावेजभगवती देवी

िाक्षायकार/ Interview  राधा मकन्नर से साक्षात्कार: पावाती कुमारी  मबंु ई मवश्वमवद्यालय के महदं ी मवभाग के प्राध्यापक, प्रमसद्ध

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सामहत्यकार व

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आलोचक डॉ. करुिाशक ं र उपाध्याय से डॉ. प्रमोद पाण्डेय की बातचीत

अनिु ाद/ Translation  सामहमत्यक

अनवु ाद

:

ज्ञान

का

लोकतंत्रीकरि एवं अनवु ादक की स्वायत्ता का प्रश्न- श्वेता राज  अप्रकामशत अनमू दत रूसी कहानी: मारे य नाम का मकसान- मल ू कथाकार : फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की: अनवु ादक- सश ु ांत समु प्रय

प्रिािी िासहयय/ Diaspora Literature  मिटेन के पररप्रेक्ष्य में प्रवासी सामहत्यकार एवं लेखक: एक पररचयात्मक अध्ययनडॉ. उममाला पोरवाल सेमठया  मगरमममटया मजदरू ों की पीड़ा का दस्तावेज़: गाधं ी जी बोले थे- राजपाल

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िासहसययक सिमिक: कसिता िािांक पाण्डेय की कसिताएँ (1) िपने ----------------सपने हम में से उन सभी को देखने चामहये मजन्होंने सरु ाख की चाह रखी है कयोंमक सपने अचानक हथेमलयों पर उग नहीं आते, उसके मलये बनु ने होते है कई-कई सपने जलना होता है आग की भरियों में तपाना होता है अपने आप को सपने उन्हें देखने चामहये जो इस दौर में भी अपने को बारीक सरु मक्षत रख पाये है माँ तो रोज़ देखती है सपने मपता भी कभी-कभार देख लेते है सपने बहन-भाई तो रोज़ देखते है नये-नये सपने लेमकन क्या सपने वे नहीं देखते है जो दगं ों के भेंट चढ़ जाते होंगे और उसके बाद उनके परू े के परू े सपने अधरू े रह जाते होंगे इस देश में गनी ममयाँ के भी कुछ तो सपने जरूर रहे होंगे जैसे ठीक गाँधी और नेहरू के सपने थे आमखर उनके पवू ाज भी तो यहीं पर मवभाजन के बाद बसे थे उन्होंने भी इस देश के मलये अपना लहू बहाया था, लेमकन उनका हुआ क्या? मकन राष्ट्रवामदयों के वह मशकार हो गये मेरी माँ कहती है Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

मक-"गनी भाई गौरक्षकों के ही मशकार हुये थे" जैसे पहले इसी देश में अख़लाक,जनु ैद भी मार मदये गये और उसके बाद उनके सारे सपने उन्हीं तक जज़् हो गये जनु ैद तो पंद्रह बरस का नवयवु क था उसके सपने तो और भी ज्यादा अक ं ु ररत थे वह इसी देश में औरों की तरह मसपाही बन सकता था प्रोफे सर बन सकता था राजनीमतज्ञ बन सकता था और यमद तराजू सही हो तो तो वह इसी देश का प्रधानमत्रं ी और राष्ट्रपमत भी बन सकता था लेमकन राष्ट्रवामदयों ने उसके सपने को भी कि में काफी गहरे तक दफनाया लेमकन उम्मीदों का कई-कई क्रम टूट जाने के बावजदू मफर भी सपने नहीं टूटने चामहये इसमलये सपने हम में से सभी को देखने चामहये।। (2) सिर्क तुम्हारे सलए ----------------------आज की रात मैं मलख रहा हूँ सबसे हसीन कमवता वह भी गद्य में मसफा और मसफा तम्ु हारे मलए वह कमवता कभी भी सावाजमनक मचं ों से नहीं पढ़ी जाएगी, और न ही काव्य गोमष्ठयों में उसका मजक्र होना है वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मैं जानता हूँ मजस रात मैं मलखने बैठा हूँ उस हसीन कमवता को वह रात बहुत दःु ख भरी है मजसे मैं महसूस कर रहा हूँ के वल और के वल मैं महससू कर रहा हूँ मेरे दोस्त मजस कमवता को मैं मलख रहा हूँ वह कमवता तम्ु हारे मलये इतनी बोमझल भी नहीं होगी मक तमु पढ़ न सको लेमकन मेरे दोस्त मजसे मैं मलखना चाहता हूँ मसफा और मसफा तम्ु हारे मलए...... उसमें मेरे और तम्ु हारे हर पलों का मजक्र होगा मजक्र होगा हमारे आततायी दख ु ों का सामथयों द्वारा मदये गये गहरे घावों का, मजसे साथ रहकर ही हमने भरा है, असमय की ताप बहुत झेला है हमने कई-कई थपेड़े सहे है हमने एकसाथ लेमकन इन सबके बावजदू हमारी काया और मजबतू हुई, लड़ाई लड़ने के मलये हम और प्रमतबद्ध हुये तमु तटस्थता का यँू ही पररचायक बन कर रहना मेरे दोस्त और मैं मफर-मफर मलखता रहूगँ ा वहीं सबसे हसीन कमवता वह भी गद्य में मसफा और मसफा तम्ु हारे मलए।।

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

(3) पहला प्रेम ----------------------------तम्ु हारे कटे हुये होंठ से खनू की एक बँदू मबखर गयी है मेरे होठों के एक छोर पर, तमु खड़ी हो रे मगस्तान के तट पर उड़ाती हुई रे त को तमु क्या सोचती हो क्या तम्ु हारे होठों से मगरी हुई खनू की वह एक बँदू जो मेरे होठों पर मगरी थी क्या उतनी ही गमा है? (4) उम्मीद अब भी बाकी है ---------------------------------------गमु शदु ा की तलाश अब भी जारी है अखबारों में पोस्टरों पर, कारखानों की ओट में छापेखानों में छापे जा रहे है गमु शदु ा के नाम धड़ाधड़ अखबारों में पोस्टर फाड़ मदये जा रहे है लेमकन अखबारों में उनके नामू आज भी छापे जा रहे है शहर में घमू ता रहता हूँ मैं रोज़ न जाने मकतने लोग मझु े रोज़ ममलते है यमद ममलता नहीं तो के वल वह साला गमु शदु ा मजसकी तलाश कल भी जारी थी और आज भी जारी है उम्मीद अब भी बाकी है वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मक वह गमु शदु ा मझु े ममलेगा मकसी चौराहे पर घमू ता हुआ, अपने पररवार के साथ दोस्तों के साथ।। नाम-ि​िांक पाण्डेय पता-बी-2/280 ए-4-बी लेन नं-14 रमवन्द्रपरु ी कालोनी, भदैनी,वारािसी(221005). मो.नं-8090819694 ईमेल-shashankbhu7@gmail.com .............................................................. श्रीमती िंध्या यादि की कसिताएँ अंति की हूक 1 मचमड़या चीं चीं करती है मचमड़या ने सनु ी है आवाज जडों को ममट्टी का साथ छोड़ने की मचमड़या परे शान है तब से अपने घोंसले के मलए उसमें हैं उसके बच्चे मजनके पख ं अभी मनकले नहीं हैं मगरते हुए धोंसलों में भरती है मतनकों का पैबंद नहीं जानती आगे क्या होगा ? मचमड़या लगाती है अनमगनत चक्कर वहीं आस पास बच्चे बेपरवाह जड़ों के उखड़ने की बात से माँ जल्दी लौट आती है दाना लेकर मबताती है अपना वक्त उनके साथ बच्चे खश ु हैं, बहुत खश ु मचमड़या देखती है बार-बार जड़ों को मचमड़या बार-बार मनहारती है बंद पलकों से आसमानी आसमान को Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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शायद कोई रहता है वहाँ? मचमड़या मचखती है बहुत खामोशी से नहीं भर सकती वो जडों में ममट्टी नहीं बना सकती वो दसू रा नीड़ मचमड़या मौन है मचमड़या मक ू नहीं । 2 मेरी छाती से आग उधार ले कर खदु को दहकाता है रोज सरू ज टँग कर आसमानी आसमान में खदु पर मकतना इतराता है सरू ज । 3 चोटी खींच मेरी , मसर पर मारकर चपत अक्सर कहता था वो मझु े "पगली" जी चाहता था कभी-कभी , मिु ी में भरकर कालर उसका पछ ू ू ँ"क्यों कहता है रे मझु को पगली" नहीं पछ ू ा, नहीं पछ ू पायी , होमशयारी मझु े न रास आयी , पगली रहकर ही तो, मैं उसकी पसदं बन पायी । 4 तेरी यँू ही मलखी हुई कमवता का एक पीला पन्ना आज भी सँभाल रखा है परु ानी डायरी में - छुपाकर सोंधी सी महक आती है ! ठीक वैसी ही जैसी आती होगी शायद तेरे बदन से ।

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5 दरारें पड़ गयीं हैं दीवारों पर नयी, महकती, रंग पतु ी दीवारों पर उसके मन के ररसते जख्मों को देखकर बोलती ही तो नहीं हैं देखती और सनु ती तो सब कुछ हैं न । 6 जहाँ से काटी गयीं थीं पेड की जड़ें ... वहीं पर फूट गयीं नयीं कोंपलें... पेड़ ने भी ले मलया अपना बदला अपने ही तरीके से । 7 मजदं गी ने उम्रभर अपनी ऊँगमलयों के बीच फँ सा कर रखा, जलती हुई मसगरे ट की तरह । वो कश भरती रही और राख की तरह वक्त की ढेरी पर मगराती रही मझु े । 8 आज मफर चाँद मनकलेगा आज मफर रहोगे तमु मकसी की मनगाह में आज मफर वक्त मझु े बतायेगा ऐमडयाँ ऊँची करने से चाँद को छुआ नहीं जा सकता ।

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9 जीवन के धागों में बँधी नाचती हूँ लट्टू सी घमू -घमू कर तलाशती हूँ अपने मलए एक धरु ी नाच सकँू अपनी मजी अपनी खश ु ी से । 10 ख्वाबों का मसर थपथपाते -थपथपाते नींद को अक्सर नींद आ जाती है ख्वाब सारी रात कुनमनु ाते रहते हैं नींद हाथ बढ़ा अपने बाजओ ु ं में समेटना चाहती है... ख्वाब हर बार मबदक के खाली मबस्तर पर दरू चले जाते हैं । _______________

किसयिी- श्रीमती िंध्या यादि महदं ी प्राध्यामपका- नेशनल महामवद्यालय, बान्द्रा (पमिम), मबंु ई- 400050 संपका -9769640629 ई-मेलsandhya_chaubey29@rediffmail.com अनूप बाली की कसिताएँ कुछ गुमिुदा आिाज़ें कुछ गमु शदु ा आवाज़ें आज भी कभी-कभी सनु ाई पड़ती हैं

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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शाम के धँधु लके मे लड़खड़ाते सरू ज की तरह, कुछ वही आवाज़ें जो पीले बादलों के इशारों पर नाचतीं थीं, रोशनी के चमगादड़ों से ‘भीख’ मांग कर रोमटयाँ खातीं थीं, रोज अधं ेरे अपनी चप्ु पी की चींखों में एक नयी उम्मीद का पररन्दा पालतीं थीं, शायद कहीं उनकी कुछ जड़ें बाकी थीं कुछ बचपन, कुछ यादें, कुछ घर-आगं न मजन्हे तलाशते हुए वे मकसी बीहड़ में भटक गयीं थीं वे बीहड़ उनकी आँखों में चमकते थे बेचैन साँपों की तरह साँसों में रें गते थे सोचों के रे श-े रे शे में छीली हकीकतों की तरह चभु ते थे और मफर बहते थे उनकी ही रगों में ज़हरीला ख़नू बनकर, कुछ बेकफ़न आवाज़ें आज भी कभी-कभी मदखाई पड़ती हैं अपने ही रक्त-तालाब में तैरतीं-डूबती हुई।ं उनसे अक्सर कहा जाता (यगु ों-यगु ों से) मक वे डूबते हुए नाचें और नाचते हुए डूबें, वे नाचती भी थीं डूबतीं भी थीं, मजतना ही नाचतीं उतना ही डूबतीं और मजतना ही डूबतीं उतना ही उन्हें नाचने के मलए कहा जाता.

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इस तरह उनके नाचने और डूबने के मसलमसले में रोशनी के चमगादड़ों ने फ़रमान सनु ाया‘तम्ु हारे नाच की ‘कीमत’ तम्ु हे बकायदा दी जाएगी (एक कुमटल हसं ी) ग़र नाचोगी तो जी पाओगी वरना तो वैसे ही मारी जाओगी.’ अब तो आलम यह था मक जब भी वो नाचतीं उतना ही डूबतीं जातीं उतना ही डूबतीं जातीं कुछ जली हुई आवाज़ें टूटे खडं हरों के वीरानों में गजंू ती थीं, धल ू से सने कटे-मपटे बारूदी चेहरे छटपटाते थे उनकी गजंू ों की अनुगजँू बनकर, नाचते कदमों से ररसते लहू में उनकी स्याही के मवद्रोही अक्षर भभकते थे, मजन्हें दबा मदया जाता था समय की सल ु गती पीड़ा समझकर कत्ल होता था हर बार एक नए अक्षर का....... एक परु ाने स्वप्न का........ एक मासमू पररन्देका......... कुछ आवाज़ों को आग से नहलाया गया कुछ को पानी की मचंगाररयों से जलाया गया कुछ को ममट्टी के तहखानों में गाड़ मदया गया, कुछ को उस समय तक नचाया गया जब तक मक वो अपनी ही पहचान भल ू नहीं जाती मफर इन बेकफ्न आवाज़ों के नव-नव स्वरूपों को

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फै लाया गया, भटकाया गया जगं ल ही जगं ल के रास्तों में इसं ानी नस्लों को उजाड़ा गया, मबयाबान ही मबयाबान की दलदलों में लहुलहु ान कोमशशों को फें क मदया गया ठूंठ वृक्षों की कमज़ोर डालों पर जले हुए महाग्रंथों-महाकाव्यों को टांग मदया गया. अब वहां पनु : एकत्र हुए हैं रोशनी के सभी चमगादड़ कुछ नयी आवाज़ों के नए और अनोखे शोक-नृत्य के साथ....... अनपू कुमार बाली पीएचडी िासहसययक कला स्कूल ऑफ़ कल्चर एडं सिएसि​ि एक्िप्रेिन अम्बेडकर सिश्वसिद्यालय सदल्ली (AUD) ...............................................................

परू ु षोत्म व्याि की कसिताएँ मार दो.... िबको.... मार दो सबको कोई बचना नही चामहये मालमू नही तम्ु हें......

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मरने वालो के माता-मपता रोते है.... तो रोने दो दवु ाओ ं की हमें जरूररत नही खनू की सररता.... बहने दो..

मार दो सबको पता चले हमारी ताकत उनको हम मकतने खंख ू ार हैं.... मानवता... को ही हमने डाला.... बेच

मार दो सबको हम ससं ार भर की खबरों छा जायेग.े .. कोई कमव कमवता मलखेगा अपने को तमु मत.... बदलना.. मार दो ....सबको....। परू ु षोत्म व्याि C/o घनश्याम व्यास एल.जी 63 नानक बगीचे के पास शातं ीनगर कालोनी नागपरु (महाराि) ई-मेल pur_vyas007@yahoo.com मो. न. 8087452426

तम्ु हारे गरु​ु ओ ं (आकाओ)ं ने तुम्हें क्या मसखाया इस संसार मे राज करना है तो बेगनु ाह लोंगो मारना होगा.....

रोिन कुमार की कसिताएँ

मार दो सबको

मपछले साल बाढ़ ने रूलाया था

हमारा िहर हमारा शहर रोया तो मपछले साल भी था और इस साल दगं ों ने

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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और दोनों मे ज्यादा का फका नहीं है

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एक में हमें मजु ररम का पता होता है

छुटने टुटने कटने - न दोगी इस पतगं ों की भीड़ में।

दसू रें में हम कौन की तलाश करते है

बच्चे अब सखलौने के सलए

ये तलाश बहुत लम्बी होती है मजसमें शहर की कई पीमढ़याँ गजु र जाती है । हमारा शहर हरे क साल रोता है मकसी न मकसी ददा से अब आँखों में आँसू नहीं है

बच्चे अब मखलौने के मलए मजद्द कहाँ करते वो तो इस बात पर अड़ जाते है मक आज बोतल का दधू ु नहीं मपऊँगा मपऊँगा तो – मसफा ममा का दधू ु ।

बस चेहरे पर उसकी धार बाकी है जो बहुत गहरी हो चली है हमारा शहर ......। जब तक तुम्हारे हाथों में जब तक तम्ु हारे हाथों में मेरी मजदं गी का माँझा था गगन की ऊँचाईयों से डर नहीं लगता था हवा का रूख कोई हो उड़ने से डर नहीं लगता था जब तक तम्ु हारे हाथों में ....

दोपहर की तमपश बेसर होती थी क्योंमक शाम होते तुम अपने पास बल ु ा लेती थी तम्ु हारे हाथों की कंपन मझु े तमु से उँचाई व दरू ी बता देती थी उन काँपते हाथों में एक मवश्वास था मक तमु मझु े कुछ भी हो जाए Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

मपता को बहाना करने नहीं आता करता भी है तो पकड़ा जाता इसमलए माँ रोज मपता को एक बहना देकर जाती मक आज वह इस बात पर मजद्द पर आए तो क्या कहना तमु । लेमकन – मपता उस बहाने से भी बच्चा को समझा नहीं पाता क्योंमक – बच्चा जानता है मपता के पास रोज एक बहाना होता । और – ये मजद्द - रोने बदल जाता है रोना मससमकयों में बदल जाता मससमकयाँ लेते – लेते जब वह थक जाता मपता के सीने से लग कर सो जाता । आधी रोतों में अध-मनंद में बच्चा

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जबमपता की छाती को टटोलता है और ममा का दधू ु हाथ न लगता है तो बच्चा मफर से उठ जाता है और अपने मजद्द पर आ जाता है। रोिन कुमार, 304, अनुदीप इनक्लेि, सिजयनगर, रूकनपुरा , पिना (सबहाऱ) – 800014 िुबोध श्रीिास्ति की कसिताएँ नहीं चासहए चांद ------------------मझु े नहीं चामहए चांद/और न ही तमन्ना है मक सरू ज कै द हो मेरी मिु ी में हालामं क मझु े भाता है दोनों का ही स्वरूप। सचमचु आकाश की मवशालता भी मनु ध करती है लेमकन तीनों का एकाकीपन अक्सर बहुत खलता है शायद इसीमलए मैंने कभी नहीं चाहा मक हो सकंू चादं /सरू ज और आकाश जैसा क्योंमक मैं घल ु ना चाहता हूं खेतों की सोंधी माटी में, गमतशील रहना चाहता हूं Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मकसान के हल में, मखलमखलाना चाहता हूं दमु नया से अनजान खेलते बच्चों के साथ, हा,ं मैं चहचहाना चाहता हूं सांझ ढले/घर लौटते पमं छयों के सगं -सगं , चाहत है मेरी मक बस जाऊं/वहां-वहां जहा-ं सांस लेती है मज़न्दगी और/यह तभी संभव है जबमक मेरे भीतर मज़न्दा रहे एक आम आदमी। ---बेहतर दुसनया के सलए.. -------------------------उठो! मनकलो/देहरी के उस पार इतं ज़ार में है वक्तl याद है न तम्ु हेंहमें ममलकर बनानी है इक खबू सरू त दमु नया हा,ं सचमचु बगैर तम्ु हारे यह सब संभव भी तो नहीं..! ----

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अपरासजत ---------लौट भले ही आया हूं मैं/लेमकन हारा अब भी नहीं न ही कमज़ोर पड़ा है लक्ष्य तक पहुचं ने का मेरा इरादा। हा,ं मैं परामजत नहीं हूं पीछे लौटनामशकस्त का प्रतीक होता भी नहीं/हर बार मवजय की शरु​ु आत भी हो सकता है। मैं लौट भले ही आया था लेमकन मेरे भीतर संमचत है अब लक्ष्य प्रामप्त की ललक, आत्मबल और मवश्वास पहले से भी ज्यादा, साथ ही न चक ू ने का सबक भी। देखनामैं मवजयी होऊंगा, मैं मवजयी हो भी रहा हूं और/लो मवजयी हो गया मैं..! ---लेसकन... --------तम्ु हें भले ही न हो उम्मीद लेमकन एक मदन ज़रूर लौटूंगा Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मैं, जब सध्ं या का धधंु लका घेर चक ु ा होगा सयू ा को/ और कहीं दबु का तम तत्पर होगा अपना आमधपत्य जमाने को तब, मैं आऊंगा आलोक मबखेरने लेमकन/ तब तक तमु बझु ने न देना दीपक की थरथराती लौ को...! -पहाड़ के नाम -----------------तमु ने प्रकृ मत का वरदहस्त पाकर पाया अपना अमस्तत्व पहाड़ के रूप में और/प्रस्ततु मकया खदु को अपने स्वभाव की तरह लेमकन क्या मालूम है तम्ु हें मक मवशाल काया के अलावा कुछ भी न हो सका तम्ु हारा, न मकसी का अपनापन न जीवन का एहसास और न ही अपने बने रहने की जरूरत ही मकसी को समझा पाए तमु ,

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क्योंमक पार्षाि होने के कारि तमु में/आदम जामत की मामनंद मवकमसत नहीं हो सका ह्रदय सागर जो दरू कर पाता तमु में समाया मसफा अपना ही अमस्तत्व सवाशमक्तमान होने का अहभं ाव। शायद यही वजह है मक अपने आसपास समचू ी दमु नया बसने के बावजदू नहीं महससू कर सके तमु /कभी भी पंमछयों की चहचहाहट और सयू ा के शैशवकाल से प्रौढ़ होने तक के अतं राल में समामहत/जीवन के अलौमकक परमआनन्द और/शाश्वत सत्य का आत्मबोध। यह सब मकसी मवडंबना का पररचायक नहीं है बमल्क/यह खदु तम्ु हारे ही स्थामपत मकए आदशों और उसल ू ों का प्रमतफल है जो, अब तम्ु हारी मनयमत बन चक ु े हैं। ----िबु ोध श्रीिास्ति, 'माडनक सिला', 10/518, खलासी लाइन्स,कानपरु (उप्र)-208001. मो.09305540745 ई-मेल: subodhsrivastava85@yahoo.in

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दीपक कुमार की कसिताएँ कसिता-1 भीड़ का कोई चेहरा नही होता ----------------------------भीड़ का कोई चेहरा नही होता । यह नकाब ओढ़े , सैकड़ो की तादात में आते है । धमा , जामत, मलगं ,ऊंच- नीच के आवरि धारि मकए हुए । शेर की खाल में भेमड़ए बन हुए । और न जाने , मकतनों को मौत के घाट उतार जाते हैं । मनमामता , दयमहतं ा , महसं क्ता , क्रूरता, ही इनके औजार है । मजनसे मशकार करते है , यह मासमू ों का । इनकी अदालत में , बच्चें , बढ़ू े ,ममहला सब एक समान है । हाँ , अगर मन कर जाए इनका , तब, मस्त्रयों की इज्ज़त को तार-तार करने में यह देर नही लगाते । यह धमा के सौदागर भी है और तथाकमथत संरक्षक भी । और भक्षक भी ,,, यह आदमखोरों की बस्ती है । इनके मलए जान बहुत सस्ती है । मकसी को मारना कौन सी बड़ी बात है ख़नू खराबा करना ही इनका रोजग़ार है । यह भीड़ है साहब और

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मभड़ का कोई चेहरा नही होता । इसका कोई अपना नही होता ।। कसिता -2 सकिान -----------------अपना पेट काट-काट कर , तम्ु हारा पेट भरता हूं । मफर भी एक -एक रोटी के मलये तड़पता हूँ । जब ममलते नही अमधकार मेरें सड़कों पर ननन नृत्य करता हूं । तमु हँस रहें हो तो हँसते रहों मेरी बेबसी पर तम्ु हारी हर हँसी स्वीकार करता हूँ । अपना पेट काट-काट कर तम्ु हारा पेट भरता हूँ । तेज धपू , आधं ी , तफ ू ानों में धरती का सीना चीर कर अनाज उत्पन्न करता हूं । मफर भी उसी दाने के मलये तरसता हूँ । पेट काट काट कर -आपका पेट भरता हूँ । मेहरौली ,नई सदल्ली 8527676117 करुणा िक्िेना की कसिताएँ 1) किखनी लकीरें ममटयाये हाथों में लकीरें बहुत होती हैं.... मगर एक दसू रे को काटती हुई जैसे काटती है अम्मा Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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खेत..... दपु हररया भर ! हररया ने बेच मदया खेत कहे मक मजरू ी करे गा बाज़ार में साब लोग देते हैं चोखा दाम ! तब मखलमखलाई अम्मा महँु दाँतों से..... सफ़ां गाँव, बाज़ार हो रहा है ! कहे मक... कोई लकीर न रही गाँव और बाज़ार में... हाथों में लकीरें मफर उगने लगी हैं एकदम कटखनी मक हाय..... लला एक मदन मजरू ी करे गा अपने ही खेत में..... ।

2) मौन मेरे महस्से का मौन मेरा चयन है.....! कभी सही बातों पर भी ग़लत, तो कभी ग़लत बातों पर एकदम सही.....!! माँ.. स्कूल भेजते हुए चोमटयों में रोज़ मौन ही तो गथँू देती है... और लौटते ही बीन लेती है सारे शब्द और सवाल जबसे समझने लगी हूँ मौन....!! शब्द.. अथामवहीन लगने लगे हैं माँ ने भी साधा है इसे वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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समदयों से.... कभी कभी लगता है बदलनी ही होगी चयनमाला.... जीवन की ; मौन से मख ु रता की ओर ।

3) सिचार-सिमिक एक रोज़ दही से मथ मदए सारे मवचार अम्मा ने कहे मक यही मवमशा है ! साध लो...!! आँगन में गढ़ी मसल और गहरा गई आजन्म लोढ़े सी अम्मा पीसती है... तीखे मसाले और मवचार बहुत हुआ... मझली का ! कमबख्त बी ए की मकताबें क्या क्या मसखा गई ंबहुओ ं को.. बड़की ने तो काट मलए थे परू े बारह बरस.... आँगन में खाटों पर सख ू ते सूखते पापड़ और बड़ी के साथ सो तो न कौंधे मवचार....! छुटकी भी गाय की घण्टी सी बजती है मदं मदं लच्छन की मारी है..!! और ये मझली....हाय!! कोहराम मचा है इसका मक कुछ ज़्यादा ही करती है तका Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मनाही पर भी मवचारती है और बेपदा​ा संवादों से मवमशा साधती है ।

4) प्रेसमल कसिताए प्रेम में उमगी जब जब कमवताएँ कुछ रूपक छाँट बाँट मलए हमनें अनहद बहते भावों पर गठजोड़ी बाँध बनाए हमनें ! प्रेम की उपमाएँ भी बहुत अनठू ी होती हैं मैं ; तम्ु हारे मलए तम्ु हारी सम्पिू ा कमवता हूँ और तमु मेरी कमवताओ ं के वे चम्ु बकीय शब्द हो मजससे कमवता दर कमवता मनखर रहा है प्रेममल काव्य... मझु े भाता है व्याकरि बने रहना उन चम्ु बकीय शब्दों के बीच क्योंमक मझु े भाता है अथा हो जाना मसफ़ा तम्ु हारे साथ ! तमु मझु े मानते रहे हो तम्ु हारी उदात्त कल्पनाएँ और लगाते रहे हो गोते अतीत या भमवष्ट्य में.... पर मैंने आज को जीना सीखा है इसीमलए प्रेममल काव्य में तमु मेरे यथाथा हो ।

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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5) आिपाि आइि-पाइि/छुपन-छुपाई बहुत बचपन में एक खेल खेला था आई स्पाइ य.ू .... मेरी अग्रं ेज़ी तब भी कमज़ोर थी मैंने उस खेल को हमेशा आसपास हूँ ही समझा....! मझु े था अटूट मवश्वास की मेरे खेल के साथी हमेशा रहेंगे मेरे *आसपास* मैदानों के उस खेल में जबमक जगह नही थी छुपने की और भय भी था हमेशा छुपे रह जाने का मैं आँखों पर हाथ रख के भी छुप लेती थी.... और खेल के वो साथी देखकर मझु े मचल्लाते... आईस-पाइस...!! तो मैंने हमेशा आसपास हूँ यही सनु ा ...!! उस मवश्वास में... उन मदनों भयभीत नही रहती थी मैं ! तब अच्छा लगता था पकड़े जाना...! माँ भी अक्सर मेरे साथ खेलती थी..... आई स्पाइ यू ! छुपने छुपाने के उस क्रम में सदा ढूँढ लेती थी मझु े और एक मदन उसने मझु े नही ढूँढा मैं आज भी मछपी हूँ इस आशा के साथ Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

मक माँ मकसी रोज़ ज़ोर से लगाएगी आवाज़ आसपास हूँ पता :- नहर िाली माता रोड, नाका चंद्रिदनी लश्कर, ग्िासलयर, मध्यप्रदेि मोबाइल :- 09926649026 इमेल :- karunasaxena@rediffmail.com ................................................................. प्रभात िरसिज की कसिताएँ 1 अनरु ागी राष्ट्र-ऋसष चतष्ट्ु पद प्रामियों के प्रमत खास तरह से अनरु क्त हैं हमारे राष्ट्र-ऋमर्ष राष्ट्र-ऋमर्ष अभी वानप्रस्थ जीवन मबता रहे हैं दोपायों के मलये शरशय्या का सरंजाम कर रहे हैं हे मनस्वीगि अभी अपने श्रापों को कमडं लु में ही स्थान दीमजये कमव-मनीर्षी से प्राथाना है मक अभी रीमतकालीन दोहे रचकर इन वमनता के प्रेम-पाश से मवरक्त एवं गृहत्यागी ऋमर्ष को संवमे दत करते रहें मजनसे वे चरमानमन्दत होते रहें महमालय से भले ही दरू आज तख़्त पर हैं लेमकन वहां से उनके व्यंजन के मनममत्त मगं ाये जाते रहते हैं मवशेर्ष मकस्म के कुकुरमत्तु े इस आहार को ग्रहि करने से उन्हें स्फूमत्ता और शीतलता प्राप्त होती है कुछ दोपाये अनचु रों को छोड़ शेर्ष दोपायों पर ऋमर्ष की मवजयेच्छा प्रबल है अब उनके समक्ष हाथ में तृि-जल लेकर वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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सभी को नतमस्तक हो जाना चामहये अभी नगर-श्रेमष्ठयों की अचाना के अमभलार्षी हैं ऋमर्ष मवद्यानरु ामगयों से अपेक्षा है मक वे अपने ग्रन्थों के बस्ते को ताक पर रख दें जबतक मक उनका वानप्रस्थ-काल समाप्त न हो जाय सभी रचनाकार-रंगकमी-मशल्पी अपने सृजन को त्यागकर राष्ट्र-ऋमर्ष की बन्दना में अनरु क्त हो जायं साथ ही वह सब उपक्रम करें मजससे मक उनकी आत्मरक्षा हो अभी ऋमर्ष-मख ु से ही मन:सृत हो रही हैं राजाज्ञा अपने मवनय का मपटारा खोलकर घटु ने के बल बैठे रहें सभी सज्जन क्योंमक सयु ोधन के सभी शस्त्र और कवच राष्ट्र-ऋमर्ष के अधीन हैं उपमहाद्वीप पर यह महती कृ पा है मक चतष्ट्ु पद प्रामियों पर खास तरह से अनरु क्त हैं हमारे राष्ट्र-ऋमर्ष । 2 लसतयल महाशत्रओ ु ं के वंशज हैं बाश्शा बाश्शा भयभीत रहते हैं शस्त्र-समज्जत प्यादों के घेरे में चलते हैं बाश्शा कमव बाश्शा के मनमाम हो जाने की मनु ादी करते हुए शब्दों का ढोल पीटते हैं ढोल की थाप सनु बाश्शा कंमपत होते रहते हैं कमवयों के पास अजेय संकल्प है संवदे नाओ ं के पंजु ने संकल्प का मनधा​ारि मकया है संकल्प ही हैं उनके शस्त्र संकल्प में कल्पना की महस्सेदारी है कल्पनाओ ं में अद्भुत् आशा का अहमनाश सचं ार है

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इन्हीं आशाओ ं के बीज से प्रस्फुमटत होती है कमवता सहस्त्र मदवस से अमधक बीत गये कमवता के लात-मक्ु के खाते हुए जहांपनाह लमतयल हो चक ु े हैं अक्सर शत्रु हो गये बाश्शा को कमवता के अखाड़े में घेरकर गदान का मदान करते रहते हैं कमव मनलाज्ज हैं बाश्शा बाश्शा भयभीत रहते हुए भी तख़्त से मचपके रहते हैं महाशत्रओ ु ं के अंमतम वंशज हैं बाश्शा । 3 गत्क में ले जा रहे हैं तुम्हारे िुखानुभि बाश्शा ! तम्ु हारी इच्छा अवनमत के रास्ते पर है अथा से सयं क्त ु तम्ु हारा जीवन पर-पीड़ा को इि बना रहा है लक्ष्मी के समान अमस्थर तम्ु हारी अथा-यक्त ु वृमत्त न्याय की पटरी छोड़ रही है करोड़ों मानव मात्र पर तम्ु हारी मवजयेच्छा तम्ु हे मनलाज्ज बना रही है बाश्शा ! ये सारे सख ु ानभु व तम्ु हे गत्ता में ले जा रहे हैं बाश्शा ! सोनपरु के कोनहारा घाट में डुबकी लगाओ यहीं मदमस्त गजराज को ग्राह के ग्रसने के बाद अन्ततः सारी हमथमनयां छोड़कर चली गयी थीं तम्ु हारी हमथमनयां भी दे रही हैं संकेत सारे लश्कर तम्ु हारी शासकीयता से असंतिु हो रहे हैं इमतहास की लहरों में तम्ु हारे मनशान ममट जायंगे पालकी ढोने वाले ढाल नहीं उठाते पालकी ढोने वालों के मलये सदैव कोई मामलक नहीं होता

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सभी अनचु र भी बदलते रहते हैं कंधे तम्ु हारे प्रीमतकर पात्रों को भी कंधे बदलते देर नहीं लगेगी यह मदवस नहीं है तारों से गजगज भरी रात है यह तम्ु हारे मलये नीमतपरक वचन कहने से महचक रहे हैं कमव'-मनीर्षी जबमक वचन ग्रहि करने की श्रेष्ठ-पात्रता तमु में घट रही है नया सबेरा नहीं देता आश्रय प्रकाशमान नक्षत्रों से भरी रात को कपट के मबसात पर राष्ट्र के सत्व को नहीं बना सकता कोई लोकमसमद्ध का पासा बार-बार दे रहे हैं तम्ु हें संकेत मनस्वीगि मक वे कभी तम्ु हारे प्यादे नहीं हो सकते कपट-आचार के कारि ही तम्ु हारे अवयवों और मचत्त में तेजी से आ रहे हैं मवकार ऐसे ही गिु बना देते हैं राजत्त्व को पैतक ृ समझने वालों को शत्रु बाश्शा ! तम्ु हारी इच्छा अवनमत के रास्ते पर है । 4 बीन बजा रहा है अजगर आदमी की शक्ल धारि कर यह मायावी अजगर बीन बजा रहा है अच्छी तादात में ग्राम-नगर के भोले-भाले नागररकों को इकिा कर चाय मपलाते हुए बीन बजाना शरू ु कर देता है यह इच्छाधारी अजगर वह अपनी तजानी जैसे ही हवा में लहराता है मक बीन की मपंमपयाती आवाज पर कमर डुलाने लगते हैं यवु क-यवु मतयां आबाल-वृद्ध

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कमर डुला रहे हैं श्रममक - खेमतहर-भमू महीन मकसान आगे-आगे और जोर से कमर महलाते चल रहे हैं नहाये खाये अघाये ढंकरते चौड़े कंधे वाले लोग सबसे पीछे चल रहे हैं सहमते थरथराते भख ू े अधनंगे भमू महीन मजदरू और बेरोजगार नौजवान सबसे आगे चल रहा है मानव-वेश में यह इच्छा-शरीरधारी अजगर आमखर सरसठ वर्षा में हमारे रहनमु ाओ ं से कौन सा रास्ता छूट गया था मक उनपर ऐठं ते मथरकते मानव-वेश में बीन बजाता चला आया है यह अजगर अजगर के पैर मथरक रहे हैं डगर-डगर पर उसके पदाघात से उड़ रहे हैं ममथ्याचरि के गदोगबु ार वह स्वयं को दीनबन्धु का अवतार बता रहा है भीड़ के बहुत से लोग उसे सत्यनारायि देवता समझ शंख फंू क रहे हैं उससे सटकर चल रहे हैं इलाके के बमनये-सटोररये सशस्त्र प्यादे कुछ दल्लाल भी हैं जो जो अजगर के पाद-पद्मों पर लोट-पोट कर रहे हैं भीड़ को सम्बोमधत करता हुआ वह कहता है मक म्लेच्छ वश ं के नाश के मलये ही अवतररत हुआ है कहता है मक वह सयू ावमं शयों और चंद्रवमं शयों के उत्थान के मलये ही पद्म-पष्ट्ु प पर आसीन हुआ है समदयों के भ्रातृत्व को तहस-नहस कर सकल समाज में आग की लपटें औरतों-बच्चों की चीखें और मबखरे खनू के कतरे देख तृप्त होना चाहता है अजगर वह तजानी उठा कर बतलाता है मक म्लेच्छवमं शयों के नाश से ही धरती पर समृमद्ध आयगी और रामराज्य आयगा वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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अमधकतम अखबारमचयों की कलम उनकी अपनी है परू ी कोमशश में है अजगर मक उन कलमों में मवर्षघल ु ी स्याही भर दी जाय अखबारमचयों के अक्षर और शब्द उनके अपने है अजगर प्रयास में है मक उसके ही इरादों के अथा वे शब्द धारि करें एक मायावी पररवेश में ढल रहा है परू ा उपमहाद्वीप परू ी जमीन पर आमधपत्य जमाना चाहता है अजगर परू े पानी को अपने कब्जे में लेना चाहता है अजगर परू ी हवा को अपने मनष्ठु र अमधकार में लेना चाहता है अजगर यही समय है मक संस्कृ मत के समर में पहले दो-दो हाथ करने के मलये अजगर को ललकारें मेरे भाई कमवता में गस्ु से के बांस इकिा करें और आप तो जानते ही हैं मक अजगर को रह-रहकर जम्हाई लेने की आदत है पहले सांस्कृ मतक एका कायम हो और जैसे ही अजगर महंु खोले बस एक साथ बांसों को घसु ेड़ देना है अभी तो आदमी का वेश धारि कर अजगर बीन बजा रहा है ।

प्रभात िरसिज 101, ियय गंगा अपािक मेंि, सि​िपुरी माके ि, सि​िपुरी, पिना - 800023 (सबहार) मो. 8051994010 / 8709296755 ........................................................

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पररतोष कुमार 'पीयूष' की कसिताएँ बदलती रही सस्त्रयाँ! ------------------------------------मेरे जीवन में आती-जाती रही हैं ना जाने मकतनी ही मस्त्रयाँ० असभं व था मेरे मलए अके ले रख पाना उन सारी मस्त्रयों का लेखा-जोखा तैयार कर पाना उन तमाम मस्त्रयों के मेरे जीवन में आगमन-प्रस्थान की सचू ी० मझु से उन तमाम मस्त्रयों ने प्रेम मकया हाँ भले ही मभन्न रही हों मस्त्रयाँ मभन्न रहे हों उनके संस्कार मभन्न रही हों उनकी सभ्यताएँ और ऐउनकी परंपराएँ० गाँव की रही हों या शहर की देश की रही हों या मवदेश की कस्बाई रही हों या शाही उतना ही प्रेम मकया उतनी ही सहजता से मकया उतनी ही व्याकुलता से मकया उतनी ही उत्तेजनाओ ं के साथ मकया उतनी ही गहराईयों में उतरकर मकया० पर यह क्या हक्काबक्का भौचक्का हुआ जाता हूँ मैं बतला नहीं सकता आमखर उन मस्त्रयों के मलए प्रेम के क्या मायने रहें होंगे० वे आती जाती रही ठीक वैसे ही जैसे लोकतंत्र में बदलती है सरकारें धरती पर बदलते हैं मौसम वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मदन के बाद उतरती है रात रात के बाद चढ़ते हैं मदन साँप छोड़ जाते हैं अपने के चएु रसास्वादन कर भँवरें छोड़ जाते हैं उदास फूल० इि कसिन िमय में! ------------------------------इस कमठन समय में जब यहाँ समाज के शब्दकोश से मवश्वास, ररश्ते, संवदे नाएँ और प्रेम नाम के तमाम शब्दों को ममटा मदये जाने की ममु हम जोरों पर है० तम्ु हारे प्रमत मैं बड़े संदहे की मस्थमत में हूँ मक आमखर तमु अपनी हर बात अपना हर पक्ष मेरे सामने इतनी सरलता और सहजता के साथ कै से रखती हो हर ररश्ते को मनश्छलता के साथ जीती इतनी सवं दे नाएँ कहाँ से लाती हो तमु ० बार-बार उठता है यह प्रश्न मन में क्या तम्ु हारे जैसे और भी लोग अब भी शेर्ष हैं इस दमु नया में देखकर तम्ु हें थोड़ा आशामन्वत होता हू०ँ मखलाफ मौसम के बावजदू तम्ु हारे प्रेम में कभी उदास नहीं होता हू०ँ िगी जाती हो तुम! -------------------------पहले वे परखते हैं

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तम्ु हारे भोलेपन को तौलते हैं तम्ु हारी अल्हड़ता नाँपते हैं तम्ु हारे भीतर संवदे नाओ ं की गहराई० मफर रचते हैं प्रेम का ढ़ोंग फें कते है पाशा सामजश का मदखाते हैं तम्ु हें आसमानी सनु हरे सपने० जबतक तुम जान पाती हो उनका सच उनकी सामजश वहशी नीयत के बारे में वे तम्ु हारी इजाजत से टटोलते हुए तम्ु हारे वक्षों की उभारें रौंद चक ु े होते हैं तम्ु हारी देह० उतार चक ु े होतें हैं अपने मजस्म की गमी अपने यौवन का खमु ार ममटा चक ु े होतें हैं अपने गप्तु ांगों की भख ू ० और इस प्रकार तमु हर बार ठगी जाती हो अपने ही समाज में अपनी ही संस्कृ मत में अपने ही प्रेम में अपने ही जैसे तमाम शक्लों के बीच० - पररतोष कुमार 'पीयूष' 7870786842, 7310941575

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के ि​ि िरण की कसिताएँ यह घोड़ा __________ दौड़ता हुआ मनरन्तर यह घोड़ा मकबल ू मफ़दा हुसैन का घोड़ा नहीं है जो मनकल आया हो पेंमटंग से आसमान में छलांगें मारता भारत-भर वह होता तो कलात्मक प्रभाव छोड़ता ममु क्त सदं श े देता रौंदता नहीं ज़मीन इसे छोड़ा गया है धल ू का बवडं र उठाने के मलए रक्त की बरसात कराने के मलए इसके पीछे मामला इसके वश्य का है यह घोड़ा अश्वमेध यज्ञ का है ____________________ िमय बहुत कम, करना बहुत ज़्यादा ………………………….. समय बहुत कम है और करना बहुत ज़्यादा पहाड़ों की समस्या अलग है गड्ढ़ों की अलग पानी की समस्या अलग है

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नमदयों की अलग मवकास की समस्या अलग है प्रकृ मत की अलग सीमा की समस्या अलग है गृह की अलग धन की समस्या अलग है मनधान की अलग अन्न की समस्या अलग है आत्महत्या की अलग परू क और मवरोधी अलग-अलग मद्दु ों पर बहुत है काम मगर समय थोड़ा उपलमब्ध थोड़ी मनवा​ामचत मवधाता परे शान हो जाता सोचकर सोचकर ख़श ु भी हो जाता मनवा​ामचत मवधाता मक मफर मनवा​ामचत होगा वह देवी सरस्वती की कृ पा से महामाया के आशीवा​ाद से __________________ चोर, डाकू, ईमानदार ........................ काननू अपना काम करे गा लेमकन काननू से पहले ये भी सज़ा देंगे पकड़े गए चोर को अधमरा बना देंगे सौंपने से पवू ा ये महाशय

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स्वयं बड़े डाकू हैं मजनकी गावं में प्रच्छन्न प्रधानी है और राजधानी से सीधा सम्पका काननू का सम्मान और सवं दे नशीलता ईमानदारों में हैं लेमकन वे बड़े असहाय मक कै से चोर को छुड़ाया जाय ! ..................................

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ये है हमारी ऋतु पावस! _____________________ िम्पकक ः एि 2/564 सिकरौल िाराणिी 221002 मो. 9415295137 ....................................

मुहािरों में सज़ंदगी _________________ जल में रहकर मगर से बैर नहीं करते मबल्ली के गले में घटं ी कौन बांधेगा जैसे महु ावरों से सामना हो रहा है मकसी ने सच ही कहा है और यह भी महु ावरा हो गया है मक जो डर गया वह मर गया। ___________________ ऋतु पाि​ि ______________ वह धपू जो बाहर सब जला दे वह उमस जो अदं र सब अकुला दे मफर वह बाररश जो अदं र-बाहर एक-सा लहरा दे जल-लय कर दे सांन्द्र सरस ये है ये है

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िासहसययक सिमिक: निगीत

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मेरे मदल को छू मलया ।।४।।

पीताम्बर दाि िरार् "रंक" गीत --------------तमु ने मझु े सलाम मकया मेरे मदल को छू मलया मेरा सब कुछ तम्ु हारा अब तमु ने मझु े जीत मलया।।

प्रेषकपीताम्बर दाि िरार्"रंक" बी/६०२,बघेरिाल र्ोर िीज़न, सि​िी मॉल के िामने,राजीि गांधी नगर कोिा ३२४००५ (राजस्थान) मो-०९४२५१६८४७६,०९५२७४२९६५६ िेबिाइि www.pdsaraf.co.nr

सलाम सलाम ओ मदलरूबा तू हमसे बढ़कर है ज़रूर पर तेरे मदल में हुस्न का पल रहा है कहीं ग़रू ु र मफर भी तेरी इक अदा ने मेरे मदल को छू मलया ।।१।। जानकर जो तमु ने मेरी नज़रों से नज़रें एक कीं मेरे मदल को अपना बना शह दी पहले मफर मात दी इसी तेरी इक नज़र ने मेरे मदल को छू मलया ।।२।। अब तम्ु हारी हर अदा मेरी जान पे बन के आती है हर कहीं,मकसी जगह भी मज़दं ा ही द़फ्न कर जाती है वो तम्ु हारी कनमख़यों ने मेरे मदल को छू मलया ।।३।। अब तमु ही मदल की धड़कन तमु ही सब कुछ हो मेरा मझु से दरू होने की अब तमु सोचना भी नहीं ज़रा तमु ने हां कह के देख लो Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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‘‘दद.् ..ऽ...ऽ...ऽ...दा..ऽ..ऽ” चम्पा की चीख सनु हररया ने पलट कर देखा। पानी से भरी बाल्टी मलए चम्पा भागने की कोमशश कर रही है और एक गाय उसके पीछे लगी है। हररया और उसके साथ चल रहे दो-तीन लोग फुती से चम्पा की ओर दौड़े। उन लोगों ने अपनी-अपनी लाठी के सहारे गाय को रोकने की कोमशश की मगर गाय परू ी ताकत से चम्पा की तरफ दौड़ी जा रही थी। कई मदनों की प्यासी गाय को चम्पा के हाथ में पानी भरी बाल्टी मदखाई दे रही थी। इससे पहले मक वे लोग चम्पा को गाय से बचा पाते, गाय ने चम्पा को पटक मदया और जमीन पर फै ल गये पानी में महँु मारने लगी। हररया ने आव देखा न ताव, परू ी ताकत से गाय पर लाठी जमा दी। भख ू ी-प्यासी गाय लाठी का ताकतवर वार सहन न कर सकी और तेजी से रंभा कर भागने की कोमशश में लड़खड़ा कर वहीं फै ले पानी में मगर पड़ी। हररया ने दौड़ कर चम्पा को उठाया और कुछ लोगों ने गाय की तरफ ध्यान मदया। ‘गइया मर गई’ सनु घबरा कर हररया झक ु ा और गाय पर हाथ फे रा मकन्तु सब बेकार। उसका एक वार गाय के प्राि ले चक ु ा था। वह भौंचक्का सा गाय के पास ही उकड़ँ बैठा रहा। लोगों की भीड़ मृत गाय और हररया को घेरने लगी। ‘हररया ने गइया मार दई, पाप कर दओ, गऊ हत्या लगहै, महापाप हो गओ, हररया ने पाप कर दओ,

हररया ने गइया मार दई’ का शोर उसके चारों ओर बढ़ता ही जा रहा था। “नई ऽ....ऽ....ऽ।” एक चीख के साथ हररया उठ बैठा। ं “का भओ, काये मचल्ला बैठे?” रामदेई ने एकदम उठकर पछ ू ा। हररया ने अपने आसपास देखा, वह तो अभी भी अपने घर पर ही है। मृत गाय, भीड़, चम्पा, पानी की बाल्टी, लाठी कुछ भी तो नहीं उसके पास। उफ्! सपना था, मकतना भयानक सपना। “लेओ पानी पी लेओ, लगत कोनऊ सपनो देख लओ तमु ने।” रामदेई तब तक लोटे में पानी भर लायी। हररया ने पानी पीकर लोटा रामदेई को थमा मदया और सयू ोदय की आशा में परू ब की तरफ देखने लगा। सप्तऋमर्ष मण्डल और अन्य तारों की मस्थमत जल्दी ही सयू ोदय का सक ं े त दे रहे थे। गहरी सासं के साथ हररया लेट गया। रामदेई भी अपनी जगह पर आकर लेट गई। हररया का मदमाग अब अभी देखे सपने और पानी के इदा-मगदा मडं राने लगा. सपने में गाय की हत्या और वो भी पानी के मलए, कहीं ये मकसी बड़ी आपमत्त का सक ं े त तो नहीं. पानी अब समस्या बनता जा रहा है. नलों में पानी आना लगभग बदं है. आसपास के हैंडपपं में भी पानी नीचे उतर चक ु ा है. कँु ए भी सख ू ने लगे हैं. क्या उसे इस शहर को भी छोड़ना पड़ेगा? क्या उसे ये स्थान छोड़ना पड़ेगा? क्या अबकी बार पानी के मलए उसे मवस्थापन का ददा एक बार मफर सहना पड़ेगा? आमखर ये बसना, उजड़ना उसके साथ कब तक होता रहेगा? शहर के सौन्दयीकरि ने मच्छर चौराहे के मकनारे की अस्थायी रहाइश को हटाया तो वे सब शहर में अलग-अलग महस्सों में बस गए. मकसी के महस्से में बस स्टैंड आया तो मकसी के महस्से में अम्बेडकर चौराहा. मकसी ने स्टेशन को अपना मनवास बनाया तो मकसी ने मोक्षधाम के आसपास रहना पसंद

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िासहसययक सिमिक: कहानी पानी भर सज़दं गी कुमारेन्द्द्र सकिोरी महेंद्र


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मकया. वह भी कई-कई बार जगह बदलते-बदलते इस नवमनममात ओवरमिज के नीचे आ गया. एक ठे केदार की दयादृमि ने उसे यहीं मजदरू ी मदला दी. दो-तीन वर्षा तक चले मनमा​ाि काया ने उसे इतने समय तक स्थायी रोजी-रोटी का बंदोवस्त कर मदया. इसके साथ ही उसके रहने का भी मठकाना बना मदया. जमीन पर लेते हुए हररया ओवरमिज को ताकने में लगा था. अनजान से इस शहर में इसी ओवरमिज ने उसे सहारा मदया, उसकी रोजी-रोटी का पख्ु ता इतं जाम कराया और अब उसके मलए घर भी बना हुआ है. समय कै से गजु र जाता है पता ही नहीं चलता है. उसके पास वैसे भी बहुत जमीन नहीं थी मक खेती के सहारे जीवन मनवा​ाह हो जाता. मात्र दो बीघा जमीन थी वो भी गाँव के बड़े साहूकार के पास मगरवी रखी हुई थी. लोगों का गाँव छोड़कर जाना होने लगा तो बड़े-बजु गु ों के समझाने पर हररया ने भी पैतक ृ जमीन का मोह छोड़कर उसे साहूकार को औने-पौने बेच मदया. बचाखचु ा समान, छोटी सी गृहस्थी, पत्नी और बच्ची को समेटकर मजदरू ी की तलाश में लगभग एक दशक पहले इस शहर में आ गया था. + “क्या भैया, कहाँ ध्यान है, सही से ररक्शा चलाओ, नहीं तो उतार दो.” सवारी का उलाहना सनु कर हररया वतामान में आ गया. “कछु नई ं सामहब, बस जरा ऐसे ही.” बात को अमहस्ता से टालने की गरज से हररया बदु बदु ाया. वो जानता था मक उसके मलए उसका वतामान उसकी सवारी ही है. मबना इसके उसकी और उसके पररवार की गजु र-बसर नहीं होने वाली. रामकंु ड के पास सवारी को उतार कर वो सस्ु ताने लगा. दोपहरी की टीकाटीक दोपहरी में कंु ड की दीवार के मकनारे बने पेड़ की छाया में ररक्शे को रोककर उसी का सहारा लेकर हररया लेट गया. रह-रह कर भोर का सपना उसे

परे शान कर रहा था. हररया मजतनी बार अपना ध्यान हटाने की कोमशश करता, उतनी ही बार वो सपना उसे और तीव्रता से याद आने लगता. परे शान होकर वो ररक्शे से उतर आया और टहलने लगा. हररया ने एक उदास सी मनगाह आसपास डाली. रामकंु ड में भी पानी का कहीं नामोमनशान नहीं था. दोपहरी की चमक में ममट्टी के चटकने के मनशान स्पि रूप से चमक रहे थे. हररया को लगा जैसे वह भी ऐसे चटकने लगा है जो गाँव से सबकुछ बेचकर शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आया था. यहाँ आकर भी उसे सक ु ू न नहीं ममला. उसे अपने अदं र सख ू े कंु ड की तरह ही बहुत कुछ सख ू ा-सूखा सा महससू हुआ. + रामदेई को सामान से भरा झोला देकर हररया चबतू रे पर बैठ बीड़ी सुलगाने के बाद तम्बाकू मलने लगा। मसर पर बँधा अगं ोछा उतार अपने कंधे पर डाला और शरीर को इत्मीनान से फै ला मदया। चेहरे पर आज संतमु ि के भाव मदख रहे थे। रामदेई सामान को मनकाल यथावत जमाने लगी और राघव बैटरी के तारों में इजं ीमनयररंग करता हुआ टी0वी0 चलाने की जगु ाड़ करने लगा। ‘‘चम्पा, एक लोटा पानी दै जइयो।’’ आवाज लगाते हुए हररया ने बीड़ी के ठूँठ को जमीन में मसल कर फें क मदया। ‘‘है नईयां ं, पानी लेन ममु खया के बगैचा तक गई है।’’ रामदेई ने अदं र से ही जवाब मदया। ‘‘जा मबररया? सबेरे काये नई ंभरवा लओ?’’ ‘‘सबेरे गई हती पर पानी नई ं ममल पाओ हतो।’’ रामदेई के जवाब देते-देते हररया उसके पास आकर खड़ा हो गया। तभी ‘‘अम्मा, अ....म.् .....मा....’’ धीमी सी रोतीरोती आवाज पहचानी सी लगी तो हररया और रामदेई

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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ISSN: 2454-2725

के कान खड़े हो गये। भय और संशय से दोनों ने एक दसू रे की तरफ देखा और एक पल में दरवाजे पर पहुचँ गये। अँधेरे में भीड़ के बीच उन्हें चम्पा की परछाई ं स्पि रूप से मदखायी पड़ी। शरीर पर कपड़े थे मकन्तु फटे जो शरीर को ढांकने से ज्यादा शरीर को मदखा रहे थे। चेहरे , गदान, हाथ पर नाखनू ों, दांतों के मनशान अपनी कहानी कह रहे थे। कोहनी, घटु नों, एड़ी से ररसता लहू चम्पा के सघं र्षा को बता रहा था। देह से जगह-जगह से ररस चक ु ा लहू कपड़ों पर अपने दाग छोड़ चक ु ा था जो उसके मसले जाने को चीख-चीख कर बता रहा था। परू े मामले को समझ हररया दोनों हाथों से मसर को पकड़ चबतू रे पर मगर सा पड़ा। रामदेई दौड़ कर चम्पा के पास पहुचँ ी। ‘‘अम्मा, गेंहू ममल गओ...... पानी ममल गओ...... और.... औ... र... र पैसऊ ममल गये।’’ चम्पा की आवाज कहीं गहराई से आती लगी। चेहरे पर आँसओ ु ं के मनशान सूख चक ु े थे, आँखों में खामोशी, भय और आवाज में खालीपन सा था। मसर पर लदी गेंहू की छोटी सी पोटली, हाथ में पानी से भरी बाल्टी और मिु ी में बँधे चन्द रुपये हररया, रामदेई और चम्पा को खश ु ी नहीं दे पा रहे थे। रामदेई द्वारा चम्पा को संभालने की हड़बड़ाहट और चम्पा द्वारा आगे बढ़ने की कोमशश में चम्पा स्वयं को संभाल न सकी और वहीं मगर पड़ी। बाल्टी का पानी फै ल कर कीचड़ में बदल गया; पोटली में बँधे गेंहू के दाने रामदेई के पैरों में मबछ गये; मिु ी में बँधे चन्द रुपयों में से कुछ नोट छूट कर इधर-उधर उड़ गये। रामदेई ने चम्पा को अपनी बाँहों में सभं ालने की असफल कोमशश की मकन्तु अपने शरीर पर हुए अत्याचार से सहमी और कई मदनों की भख ू -प्यास से व्याकुल चम्पा अपनी तकलीफ, अपने शोर्षि को भल ू मबखरे गेंहू के दाने, पानी और उड़ते हुए नोटों को समेटने का उपक्रम करने लगी। वहीं हररया अपने ऊपर हो रहे

अत्याचारों - कभी माँ समान खेत, कभी बीवी और अब बेटी - का कोई उपाय न कर पाने पर खदु को बेहद असहाय सा महससू कर रहा था। कुछ न कर पाने की तड़प में वह मचल्ला-मचल्ला कर रोने लगा। गाँव की तमाशबीन भीड़ के कुछ चेहरे वहीं खड़े रहे और कुछ नजरें बचा कर इधर-उधर हो मलये। ................................................................... . कुमारेन्द्द्र सकिोरीमहेन्द्द्र (वास्तसवक नाम डॉ० कुमारेन्द्र सिंह िेंगर) िम्पादक – स्पंदन एिं िहायक प्राध्यापक, सहन्द्दी गाँधी महासिद्यालय, उरई (जालौन)

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िासहसययक सिमिक: लघुकथा गनु हगार - अचकना गौतम 'मीरा' उसमदन झल ु सा देनेवाली धपू थी और मैं बेटी के साथ उसके कॉलेज से मनकल कर काफ़ी दरू चल कर आई थी ऑटो पकड़ने. छतरी के बावजदू हमारे कंठ सख ू रहे थे. न जाने क्या हुआ मक ऑटो चलते ही मैं बेसधु - सी होने लगी. लगा मेरा दम अभी घटु जाएगा. मैं कुछ बोल तक नहीं पा रही थी. बेटी सकते की हालत में धीमे स्वर में – “अम्मा ... आर यू ओके ...क्या हुआ अम्मा ...” मकए जा रही थी. इतने में ऑटोवाले ने ऑटो मकनारे कर रोका और दौड़कर पास की गमु टी से ठंढे पानी की बोतल और कुछ टॉमफ़याँ ले आया. मैंने पानी पीया और एक टॉफ़ी खाई. कुछ ममनटों में मैं संयत होने लगी. तब जाकर मझु े महससू हुआ मक मपछले मदन मेरा उपवास था और आज इतनी देर तक कुछ न खाने से मेरा शरीर कहीं जवाब दे गया था.

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साँसें धौंकनी - सी चल रही थीं. मारे घबराहट के ज़बु ान तालू से सट गई थी ... धीरे - धीरे कुछ और लोग भी उधर आ गए. कुछ अपनी गमु मटयों और दक ु ानों से हुलक रहे थे ... तभी पेरोमलंग जीप आ गई और उसे दो लोगों ने मजप्सी के भीतर दबोच मलया. ये पमु लसवाले थे सादी वदी में जो बहुत मदनों से इस भगोड़े हत्यारे की तलाश में थे “... अरे बाप रे छह मडार मकया है !???” मकसी ने पछ ू ा है मकसी से ... और मेरी आँखों में उसकी वह मद्रु ा घमू रही है ... हाथ जोड़कर उसका कहना ... “इसं ामनयत भी तो कोई चीज़ होती है मैडमजी !” - अचाना गौतम 'मीरा' पता- जे- 160,पी. िी. कॉलोनी, कंकड़बाग,पिना- 20 िपं कक - 8051348669

ऑटोवाला सज्जन था उसने मझु े स्टैंड पर न उतार कर घर तक छोड़ा ... मैं जब उसे अमतररक्त पैसे देने लगी तो उसने हाथ जोड़ मदए – “इसं ामनयत भी तो कोई चीज़ होती है मैडमजी !” वो मदन सचमचु मझु पर भारी था. उसी रात झमाझम बाररश हुई और अगले मदन मौसम का ममज़ाज शांत हो गया ... बेटी मज़द करने लगी – “आप अपना मबलकुल ध्यान नहीं रखतीं. आज धपू भी नरम है चेक अप के मलए ...” वह मझु े ज़बरदस्ती ले चली. ऑटो स्टैंड पर चार - छह लोग जमा थे ... मैंने देखा कल मजस ऑटो पर आई थी उस व्यमक्त के दोनों हाथ ऊपर थे और एक ने उसपर ररवॉल्वर तान रखी थी ... मैंने बेटी का हाथ पकड़ा और उसे पास की दक ु ान की दछु त्ती के नीचे खींच मलया. मेरे पैर थरथरा रहे थे ... Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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िुनयना नीरज िमाक अपने अपने क्षेत्र में अच्छा काम करने वालों को अवाडा मदए जा रहे थे, टी वी पर सीधा प्रसारि मदखाया जा रहा था। तभी मवकलांग कोटे के तहत उत्कृ ि काया करने के मलए सनु यना के नाम की घोर्षिा होते ही उनके कान चौकन्ने हो गए। वो मन ही मन बदु बदु ाए ‘अरे ! यह तो अपनी सनु यना है!’

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मीना ने उसे एक बेटे की तरह परवररश दी। उसे ब्लाइडं स्कूल में दामखला मदलवाया । अच्छे सस्ं कार मदए। आज सनु यना अपने ही जैसे आख ं ों से लाचार लोगों के मलए संस्था चलाती है, खदु भी स्वामभमान से जीती है व उन्हें भी स्वामभमान से जीना मसखाती है। टी वी में यह सब देखकर, खश ु तो बहुत थे मन ही मन वो , अपनी स्वामभमानी बेटी के मलए पर-जो सर अमभमान से ऊंचा होना चामहए था, वह अपराध बोध से झक ु गया।

और कसैली यादों ने उन्हें आ घेरा। कै से उन्होंने व पररवार के सदस्यों ने मीना को बेटा न जन पाने पर प्रतामड़त मकया था, एक बेटी सनु यना हुई , उसकी भी बचपन में ही पटाखे चलाते हुए आख ं में मचनगारी जाने से आख ं ें चली गई।ं अब तो घर के लोगों के ताने और भी बढ़ गए थे। दख ु ी होकर मीना ने दृढ़्ता से अपनी बेटी के साथ अलग होने का फै सला ले मलया। अकसर वह लोगों से लड़्ती- "खबरदार मकसी ने मेरी बेटी को अधं ी कहा तो , ऐसी दघु टा ना तो मकसी के साथ भी हो सकती है, मैं इसे ऐसी परवररश दगंू ी मक एक मदन सही सलामत आख ं ों वालों को भी गवा होगा मेरी बेटी पर, मैं इसे स्वामभमान से जीना मसखाऊंगी। "

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िासहसययक सिमिक: पुस्तक िमीक्षा

सिक्षा की बैंसकंग व्यिस्था बनाम ‘उयपीसड़तों का सिक्षािास्त्र’ -डॉ.दीना नाथ मौयक “मेरी मा​ाँ ने मुझे सिखाया था की ईश्वर बहुत अच्छा है,इिसलए मैंने यह सनष्ट्कर्ष सनकला की िमाज में जो वगषभेद है,उिके सलए न ईश्वर को सजम्मेदार ठहराया जा िकता है न सनयसत को ....मझ ु े इि कथन पर कभी सवश्वाि नहीं हुआ की ‘मैंनेअपना सनमाषण स्वयं सकया है’ दुसनया में कोई व्यसि अपना सनमाषण स्वयं नहीं करता.शहर के सजन कोनों में ‘स्वसनसमषत’लोग रहते हैं, वहीं आि-पाि बहुत िे अनाम लोग भी सछपे रहते हैं.....” ---- पाओलो फ्रेरे

‘उयपीसड़तों का सिक्षािास्त्र’ पस्ु तक लैमटन अमरीका के िाजीलवासी पाओलो फ्रेरे ने मलखी है. पाओलो फ्रेरे को हम ऐसे मशक्षाशास्त्री के रूप में जानते हैं मजन्होंने मशक्षा के क्षेत्र में न मसफा मवश्वमवद्यालयी मशक्षा ग्रहि की बमल्क वे लंबे समय तक अपने देश में चलाये जा रहे साक्षरता अमभयान से भी जड़ु े रहे. उन्होंने रे मसफे मवश्वमवद्यालय में एक प्रोफे सर के रूप में मशक्षा के दशान और इमतहास का अध्यापन भी मकया. अपने लंबे अनभु व और अध्ययन से वे इस मनष्ट्कर्षा पर पहुचें मक -“ शिक्षा भी एक राजनीशि है और शजस प्रकार राजनीशि वर्गीय होिी है,उसी िरह शिक्षा भी वर्गीय होिी है.” ‘उयपीसड़तों का सिक्षािास्त्र’ पस्ु तक भी उनके इस मनष्ट्कर्षा को पिु करती है. मशक्षा पर उन्होंने अनेक पस्ु तकें मलखी है-‘कल्चर एक्शन फॉर फ्रीडम’, Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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‘एजक ु े शन फॉर मक्रमटकल कांशसनेस’, ‘एजक ु े शन :दी प्रैमक्टस ऑफ़ फ्रीडम’, ‘दी पामलमटक्स ऑफ़ एजक ु े शन’, और ‘पेडोगागी ऑफ़ होप’ प्रमख ु हैं. “यह पस्ु तक उि परम्परागत अथष में सशक्षाशास्त्र का सववेचन नहीं है, सजि अथष में बी.एड. और एम.एड. की पाठ्यपस्ु तकों में हमें देखने को समलता है. इिमें सववेसचत सशक्षाशास्त्र का आधार काफी व्यापक है. सपछले ढाई दशकों के दौरान ज्ञान की सबभ्नन्द्न शाखाओ ं के सचंतन को प्रभासवत करने वाली सवश्व की यह एक अनोखी पुस्तक है.सशक्षाशास्त्र और सशक्षाकसमषयों की िोच को प्रभासवतकरने के िाथ ही,िमकालीनदशषन,िमाजशास्त्र,सवज्ञान,िासह त्य,अनुिंधान की सबसभन्द्न शाखाओ ं और आलोचना आसद क्षेिों में कायषरत लोगों की िोच में भी इिका प्रभाव देखा जा िकता है.सजि िमाज में प्रभुत्वशाली असभजनों का अल्पतंि बहुिंख्यक जनता पर शािन करता है.वह अन्द्यायपूणष और उत्पीड़नकारी िमाज होता है. ऐिी िमाजव्यवस्था मनुष्ट्यों को वस्तुओ ं में बदलकर उनको आमानुसर्क बनाती है.जबसक मनुष्ट्य का असस्तत्वमूलक और ऐसतहासिक कतषव्य पूणषतर मनुष्ट्य बनना है.” (पस्ु िक के प्लैप कवर से उदृि ) ‘ग्रथं मशल्पी’ प्रकाशन से मशक्षाशास्त्र के नये मक्षमतज श्रृखल ं ा के अतं गात प्रकामशत इस पस्ु तक को अग्रं ेजी से महदं ी भार्षा में रमेश उपाध्याय ने अनमु दत मकया है.मजसमें कुछ शब्दों पर मटप्पिी मलखने का काया पत्रकार रामशरि जोशी ने मकया है. पस्ु तक की प्रस्तावना NCERT के पवू ा मनदेशक मशक्षामवद कृ ष्ट्ि कुमार ने मलखी है. प्रस्तावना में कृ ष्ट्ि कुमार जी ने फ्रेरे के शैमक्षक दशान और इस पस्ु तक की मजन तीन महत्वपूिा बातों की ओर इशारा मकया है उनमेंवर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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1. फ्रेरे के शैमक्षक दशान और उनके द्वारा आजमाई गई मशक्षि मवमधयों में मनमहत पवू ा धारिाएं हमारे समय की तीन बड़ी मचंतन धाराओ ं से जड़ु ी हुई हैं मजनका फलक मशक्षि से कहीं अमधक व्यापक है. ये धाराएं हैं माक्सावाद,मनोमवश्ले र्षिवाद और अमस्तत्ववाद . इन तीनों से मवचार-मबंदु लेकर और अपनी मानववादी नज़र और ठोस अनभु वों से उपजी समझ को जोड़कर फ्रेरे ने आज की दमु नया के संकट और उसके सन्दभा में मशक्षा की भमू मका को मचमत्रत मकया है. 2. फ्रेरे का मशक्षिशास्त्र हमें यह बताता है मक समस्या को ‘गरीबी’ कहना ही एक गलत प्रस्थान मबदं ु है. गरीबी उत्पीड़न का वह समु बधाजनक और भ्रामक नाम है मजसे लेकर सपं न्न मनष्ट्ु य अपनी भमू मका से मानमसक तौर पर बरी हो रहता है. उत्पीमड़त को गरीब बताकर वह अपनी मस्थमत और हैमसयत को वैध ठहराने में समथा होता है. 3. अच्छी मशक्षा मकसी साममू हक(वह भी सघं र्षाशील) कायाक्रम के प्रसगं में ही पायी या दी जा सकती है, एकातं में बैठकर नहीं. साक्षरता के सदं भा में फ्रेरे के मशक्षाशास्त्र का एक तकनीकी पक्ष भी है,लेमकन वह तकनीकी पक्ष सामामजक आदं ोलन वाले पक्ष की तल ु ना में काफी गौि है. 1980 में मलखी गयी इस पस्ु तक पर 1996 में कृ ष्ट्ि कुमार द्वारा मकया गया यह मल्ू यांकन कई मायनों में महत्वपूिा है – मवशेर्षतौर पर जब हम भारतीय समाज और स्कूली मशक्षा व्यवस्था के साथ काम करते हुए उसके अध्ययन और मवश्लेर्षि करने के काया में भी लगे हों. कथाकार और समीक्षक रमेश उपाध्याय द्वारा अनमु दत यह पस्ु तक कुल चार प्रकरिों में मवभामजत Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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है. प्रकरिों या पाठों का मवभाजन मवचार और संवाद के एक मनमित क्रम में है जो पाठक को उन दाशामनक प्रश्नों और मजज्ञासाओ ं के साथ स्कूल के व्यवहाररक पहलओ ु ं से भी पररमचत कराता है. पस्ु तक में मदए गये सन्दभा चंमू क भारतीय सन्दभों से अलग है इसमलए सामान्य पाठक को पस्ु तक के साथ गजु रते हुए भामर्षक और दाशामनक शब्दावमलयों के मलहाज से थोडा कमठनाई हो सकती है पर अनवु ादक ने पस्ु तक के आरम्भ में कुछ सामान्य बातों की ओर इशारा करके और अतं में अग्रं ेजी शब्द सचू ी देकर इस समस्या को दरू करने का यथा संभव प्रयास मकया है. पस्ु तक का पहला अध्याय ‘उत्पीमड़तों के मशक्षाशास्त्र’(पेडोगागी ऑफ़ द आप्रेस्ड) के औमचत्य और ममु क्त की पारस्पररक प्रमक्रया को कें द्र में रखकर मलखा गया गया है. पस्ु तक का लेखक यह मानता ही मक ममु क्त एक प्रसव है और यह पीड़ादायक है.इससे जो मनष्ट्ु य पैदा होता है ,एक नया मनष्ट्ु य होता है, मजसका जीमवत रहना तभी सभं व है, जब उत्पीड़कउत्पीमडत के अतं मवारोध के स्थान पर सभी मनष्ट्ु यों का मानर्षु ीकरि हो जाए. मनष्ट्ु य के अन्दर स्वयं के प्रमत यह चेतना मवकमसत हो जाये की वह समझ सके की दमु नया में जो कुछ भी हो रहा है वह मानव मनममात और पररवतान शील है ‘उत्पीमड़तों के मशक्षाशास्त्र’(पेडोगागी ऑफ़ द आप्रेस्ड) की शरु​ु वात और औमचत्य का बमु नयादी फलसफा दरअसल यही है.मशक्षा का काया मानर्षु ीकरि की प्रमक्रया को तेज करना,मवकमसत करना और फै लाना है. मशक्षा को ममु क्तदायी होना चामहए उन तमाम रुमढयों से जो मानवता मवरोधी और इमतहास मवरोधी है. बकौल फ्रेरे –“जनता का अपने आचरण के जररये यथाथष में आलोचनात्मक हस्तक्षेप करना जरूरी है. यहीं पर हैं उत्पीसड़तों के सशक्षाशास्त्र की जड़ें; उि सशक्षाशास्त्र की जड़ें ,जो अपनी मुसि के िंघर्ष में िंलग्न मनुष्ट्यों का सशक्षाशास्त्र है.” इस रूप में यह वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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के वल उत्पीमड़तों का मशक्षाशास्त्र ही नही रहता बमल्क मनष्ट्ु य की ममु क्त का मशक्षाशास्त्र बन जाता है. मनष्ट्ु य की ममु क्त के वल पेटभर खाना खा लेने से नही हो सकती उसकी ममु क्त का सपना तो सही रूप में चेतना से जड़ु ता है जहाँ से वह सोचना और चीजों को समझना शरू ु करता है. अतः मजसे हम उत्पीमड़तों का मशक्षाशास्त्र कह रहे हैं उसे सरल शब्दों में यह कहें तो गलत न होगा की वह दरअसल समाज को मवचारानश ु गं ी बनाने की प्रमकया है. मजसमें आलोचनात्मक मचंतन और रूमढ़यों से ममु क्त का सपना हो. पस्ु तक का दसू रा अध्याय सीधे स्कूली मशक्षा व्यवस्था को कें द्र में रखता है. मजसमें समाज और स्कूल का सम्बन्ध, समाज मनमा​ाि में मवद्यालय की भमू मका, मशक्षक-छात्र सम्बन्ध आमद प्रश्नों को साथ में लेकर परम्परागत मशक्षि पद्दमत की आलोचना एवं नवोन्मेर्ष की मदशा के कुछ सत्रू सझु ाये गये है. इस अध्याय में फ्रेरे परम्परागत मशक्षि प्रिाली को विानआत्मक पद्धमत कहते हैं. मजसमें मशक्षक को ज्ञानी माना जाता है और छात्र को कोरा कागज. इस पद्दमत में रटन्त प्रिाली मवकमसत होती है जो मवद्यामथायों को खाली बतान (पात्र) बना देती है और मशक्षक को भरा हुआ ज्ञान का पात्र , और मफर इसी के साथ मवकमसत होती है मसखाने की अवैज्ञामनक मवमधयाँ. इसी के तहत मशक्षा बैंक में पैसा जमा करने की भामं त छात्रों में ज्ञानराशी जमा करने का काम बन जाती है, मजसमें मशक्षक जमाकता​ा होता है और छत्र जमादार(मडपोमजटरी)होते हैं. इस मशक्षा व्यवस्था के कुछ लक्षिों को फ्रेरे ने सत्रू बद्ध मकया है—  शिक्षक पढ़ािा है और छात्र पढाए जािे हैं.  शिक्षक सब कुछ जानिा है और छात्र कुछ भी नहीं जानिे. Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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 शिक्षक सोचिा है और छात्रों के बारे में सोचा जािा है.  शिक्षक बोलिा है और छात्र सनु िे हैं – चपु चाप  शिक्षक अनि ु ासन लार्गू करिा है और छात्र अनि ु ाशसि होिे हैं.  शिक्षक अपनी मजी का माशलक है,वह अपनी मजी चलािा है और छात्रों को उसकी मजी के मिु ाशबक चलना पड़िा है.  शिक्षक कमम करिा है और छात्र उसके कमम के जररये सशिय होने के भ्रम में रहिे हैं.  शिक्षक पाठ्यिम बनिा है और छात्रों को (शजनसे पाठ्यिम बनािे समय कोई सलाह नही ली जािी) व्ही पढना पड़िा है.  शिक्षक अपने पेिेवर अशिकार को ज्ञान का अशिकार समझिा है (स्वयं को अपने शवषय का अशिकारी शवद्वान् समझिा है) और उस अशिकार को छात्रों की स्विंत्र के शवरुद्ध इस्िेमाल करिा है.  शिक्षक अशिर्गम की प्रशिया का करिा होिा है और छात्र महज अशिर्गम की वस्िएु .ं अपनी परू ी पस्ु तक में फ्रेरे इस तरह की मशक्षा व्यवस्था को ख़ाररज करते हैं और इसके मवकल्प के रूप में एक नई व्यिस्था की िकालत करते हैं सजिे उन्द्होंने ‘िमस्या-उिाऊ’ सिक्षा की पद्दसत कहा है. जहाँ बैंमकंग मशक्षा सृजनात्मक-शमक्त को कंु मठत और सौन्दया चेतना को अवरुद्द करती है,वहीं समस्याउठाऊ मशक्षा में मनरंतर यथाथा का अनावरि होता रहता है.जहाँ बैंमकंग मशकः चेतना को डूब की दशा में बनाए रखने की कोमशश करती है,वहां समस्या-उठाऊ मशक्षा चेतना को उभरने तथा यथाथा में वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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आलोचनात्मक हस्तक्षेप करने का प्रयास करती है. यह मनष्ट्ु य को सचेत प्रािी मानकर चलती है और उसके अदं र सोचने-समझने की क्षमताओ ं का मवकास करती है. इसमें (समस्या-उठाऊ मशक्षा वयवस्था में) “अब सशक्षक महज वह नहीं रहता है ‘जो पढ़ाता है’बसल्क छािों िे िवं ाद करते िमय स्वयं भी उनिे पढ़ता है.दूिरी तरफ छाि भी वे नहीं रहते ‘जो पढ़ते है’, बसल्क सशक्षक िे िवं ाद करते िमय पढ़ने के िाथ-िाथ पढ़ाते भी हैं. सशक्षक और छाि,दोनों उि प्रसिया के सलए उत्तरदायी हो जाते हैं,सजिमें िभी की वृसि होती है. इि प्रसिया में ‘असधकार’ पर आधाररत तकों की कोई वैधता नहीं रहती,क्योंसक यहा​ाँ आसधकारी को यसद काम करना है तो स्वतंिता उिके सवरुि नहीं बसल्क उिके पक्ष में होना पड़ेगा.यहा​ाँ न तो कोई दुिरे को सशसक्षत करता है,न स्वयं –सशसक्षत होता है. यहा​ाँ मनुष्ट्य एक-दुिरे को सशसक्षत करते हैं और उनके बीच में होता है सवश्व, अथाषत िंज्ञेय वस्तुए,ं जो बैंसकंग सशक्षा में सशक्षक की अपनी वस्तुएं होती है.” मनष्ट्कर्षा यह की बैंमकंग व्यवस्था की मशक्षा जहाँ छात्रों को सहायता की वस्तु मानती है वही ँ समस्या-उठाऊ मशक्षा उन्हें आलोचनात्मक ढगं से सोचने वाला बन्नती है और अपनी मशक्षाशास्त्रीय पद्दमतयों में सृजनात्मकता को आधार बनाकर चलती है. यह छात्र को एक सम्पिू ा मनष्ट्ु य मानती है जो ज्ञान का मनमा​ाि करते हैं न की कोरा कागज़ मजन पर कुछ भी अमं कत मकया जा सकता है.

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मानते हैं.और इस क्रम में ज्ञान का जो मनमा​ाि होता है उसमें पररिाम का उतना महत्त्व नही है मजतनी प्रमक्रया का. पररवेश से जड़ु ी हुई कुछ बमु नयादी अवधारिाओ ं के मनमा​ाि का काया हमारी प्राथममक कक्षाओ ं की अमनवाया शता होनी चामहए बजाय की सचू नाओ ं के संग्रहि के .अवधारिाओ ं के जानने के साथ ही बातचीत और ज्ञान के अन्य स्रोतों की ओर बढ़ा जा सकता है जो छात्रों में कल्पना और मचन्तन के मवकमसत होने के अवसर देते है. मजससे आलोचनात्मक समझ के मवकास में सहायता ममलती है. पस्ु तक के चौथे अध्याय में सांस्कृ मतक कमा की संवादात्मक और संवाद मवरोधी प्रमक्रयाओ ं में ढलकर मवकमसत होने वाले मसधांतों का मवशलेर्षि मकया गया है. कुछ सवं ाद मवरोधी और सवं ादात्मक मसद्दातं ों का मवस्तार से चचा​ा करते हए लेखक का मनष्ट्कर्षा है मक –“ सवं ाद मवरोधी कमा के मसधातं में सास्ं कृ मतक आक्रमि चालबाजी (मतकड़म) के लक्ष्यों के मलए काम करता है, चालबाजी अमभमजमत के लक्ष्यों के मलए काम करती है, और अमभमजमत प्रभत्ु व के लक्ष्यों के मलए काम करती है.सास्ं कृ मतक सस्ं लेर्षि संगठन के लक्ष्यों के मलए काम करता है और सगं ठन ममु क्त के लक्ष्यों के मलए काम करता है.

पस्ु तक का तीिरा अध्याय इस पर के मन्द्रत है की मशक्षा में मवर्षय तो एक साधन होते हैं मजनके जररए हम दमु नया को और अपने आप को समझते हैं असल जरूरत तो समचू े पररप्रेक्ष्य को समझने की है .मजसके मलए फ्रेरे मचंतन और कमा में आपसी संवाद को जरूरी

अमभमजमत,मवभाजन और शासन,चालबाजी,सास्ं कृ मतकआक्रमि,सहयोग,मु मक्त के मलए एकता,संगठन,सांस्कृ मतक संश्लेर्षि आमद मबन्दओ ु ं पर मवस्तार से चचा​ा की गयी है . उत्पीड़न से मशु ि वही ीँ से िरू ु होिी है जब “मनष्ु य को स्वयं ही अपने श्रम का स्वामी होना चाशहए, मानव का िरीर का ही एक अर्गं है,और एक मानवीय प्राणी को न िो खरीदा जा सकिा है और न ही वह स्वयं को बेच सकिा है , इन िथ्यों की आलोचनात्मक चेिना प्राप्त कर लेिा है . ऐसा करना यथाथम का मानवीकरण

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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करके मनष्ु यों को मानवीय बनाने के शलए यथाथम के प्रमाशणक रूपांिरण में संलग्न होना है.और शिक्षा में हमें कुछ ऐसी यशु ियों का शवकास करना होर्गा शजससे हम इस शदिा में आर्गे बढ़ सके .” कुल ममलाकर यह कहा जा सकता है मक पाओलो फ्रेरे के मशक्षा दशान का मल ू आधार है, उत्पीमड़तों और दमलतों का मववेकीकरि करना यामन उनमें यथाथा के प्रमत सजगता पैदा करना, उसे अपने पक्ष में बदलने के मलए संघर्षा का मागा तलाशना. फ्रेरे यह मानते हैं मक मबना मववेकीकरि के अक्षर ज्ञान (साक्षर होना) अथाहीन है. व्यमक्त को साक्षर बनाकर पररवेश और उसमें मक्रयाशील मवमभन्न सामामजक शमक्तओ ं के प्रमत उसे जागरूक और समक्रय बनाना भी हमारी मशक्षा का उद्देश्य होना चामहए. एक बच्चे में मववेकीकरि की यह प्रमक्रया जो की उसके घर से ही शरू ु हो चक ु ी होती है स्कूल को उसके मवकास में सहायक बनना चामहए बजाय की उसको अवरोमधत करने के .मववेकीकरि से चेतना का मवकास होता है और आलोचनात्मक समाज मनमा​ाि की प्रमक्रया भी शरू ु होती है. कई तरह के अनसु धं ान बटाते हैं मक इस तरह की स्कूली प्रमक्रया से मनकले हुए लोगों में अक्षर ज्ञान के साथ सामामजक वास्तमवकता को समझने का एक मक्रमटकल एप्रोच भी होता है जो की सही मायने में मशक्षा का लक्ष्य होना चाह

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प्रोजेक्ि र्े लो ,भाषा सिक्षा सिभाग एन.िी.ई.आर.िी., नई सदल्ली मोबाइल 9999108490

पस्ु तक- उयपीसड़तों का सिक्षािास्त्र लेखक- पाओलो फ्रेरे सहदं ी अनिु ादक- रमेि उपाध्याय प्रकािक- ग्रंथसिल्पी (इसं डया) प्राइिेि सलसमिे ड ,सदल्ली. डॉ. दीना नाथ मौयक Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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कारा रक्षा कुमारी झा पी-एच. डी. ( महन्दी अनवु ाद ) मो. नं. – 08130589082 भारतीय भार्षा के न्द्र भार्षा, सामहत्य और संस्कृ मत अध्ययन संस्थान जवाहरलाल नेहरू मवश्वमवद्यालय नई मदल्ली-110067 ‘कारा’ सामहत्य अकादेमी द्वारा परु स्कृ त वानीरा मगरर के नेपाली उपन्यास ‘कारार्गार’ का महदं ी अनवु ाद है। मल ू नेपाली में यह उपन्यास सन् 1979 में प्रकामशत हुआ। वानीरा मगरर नेपाली भार्षा की प्रमतमष्ठत उपन्यासकार एवं कवमयत्री हैं। वे मत्रभवु न मवश्वमवद्यालय, नेपाल से नेपाली भार्षा में पी-एच. डी. करने वाली पहली ममहला हैं। नेपाली सामहत्य में अमल्ू य योगदान देने वाली वानीरा मगरर की प्रमख ु कृ मतयां – ‘कारार्गार’, ‘शनबंि’, ‘िब्दािीि िािं न’ु (उपन्यास), ‘एउटा एउटा शजउीँ दो जर्गं बहादरु ’, ‘जीवन था-यम्मरु’, ‘मेरो आशवष्कार’ (कमवता सग्रं ह), ‘फ्रॉम द अदर लैंड’, ‘माइ शडस्कवरी एवं फ्रॉम द लेक’ (अग्रं ेज़ी कमवता सग्रं ह) इत्यामद हैं। ‘कारा’ प्रदीप मबहारी द्वारा अनमू दत उपन्यास है। इस उपन्यास में एक ऐसी स्त्री की व्यथा-कथा मचमत्रत मकया गया है, जो अमववामहत रहती है। मपता के इच्छा-पत्र में संपमत्त में नामयका का महस्सेदार होना उसके अमववामहत होने का कारि बनता है। सपंमत्त के लोभ के कारि नामयका के भाईयों द्वारा शादी का प्रस्ताव लेकर आने वाले सभी लड़के वालों को अस्वीकृ त कर मदया जाता है। अतं में वह अपने भाईयों से अलग रहने लगती है। यही अके लापन, नामयका को दरू के मामा के करीब लाता है। इस उपन्यास में कई Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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अन्य चररत्रों की कहामनयाँ भी इस उपन्यास को गमत प्रदान करती है। सन् 1960 में अमस्तत्ववाद से प्रभामवत नेपाली सामहत्य की प्रमसद्ध लेमखका पाररजात ने ‘शिरीषको फूल’ शीर्षाक से पहला अमस्तत्ववादी उपन्यास मलखा था। इसके बाद नेपाली सामहत्य में भी अमस्तत्ववाद संबंधी तत्त्वों को आधार बना कर सामहत्य सृजन मकया जाने लगा। ऐसे रचनाकारो में वानीरा मगरर का नाम अग्रिीय है। वानीरा मगरर के पहले उपन्यास ‘कारार्गार’ पर भी अमस्तत्ववाद का गहरा प्रभाव है। अमस्तत्ववाद के अनसु ार मानव मल्ू य न शाश्वत है, न सावाभौम। इस धारिा के अनसु ार मनष्ट्ु य को उन मल्ू यों को मानने के मलए मजबरू नहीं मकया जाना चामहए, मजसका चयन उसने स्वयं नहीं मकया। अमस्तत्ववाद द्वारा प्रमतपामदत मसद्धातं के अनसु ार सत्य के अनेक रूप होने के कारि, उसे धारिाबद्ध नहीं मकया जा सकता। सचाई की समझ को भी बँधे-बँधाए मल्ू यों में मनरूमपत नहीं मकया जा सकता। इस धारिा ने मनमित पररपामटयों, मतवादों, मवचारों और पवू ा​ाग्रहों को नकारकर जीवन की पारदमशाता को उजागर मकया। सन् 1946 में ज्यां पाल सात्रा ने 'अमस्तत्ववाद और मानववाद' पर भार्षि देते हुए व्यमक्त के महत्त्व, उसके स्वतत्रं ता एवं स्वावलबं न, चयन की गररमा और गिु ों का समथान मकया। अतः यह कहना समीचीन होगा मक अमस्तत्ववाद एक ऐसी मवचार एवं पद्धमत है, जो वास्तमवक अनभु मू तयों और उनके मचत्रि में सहायक होती है। अमस्तत्ववाद के अन्तगात संत्रास, मृत्यबु ोध, क्षि, परायापन, अजनबीपन (एमलयनेशन), मवसंगमत (एब्सडा) वैयमक्तक-स्वातंत्र्य आमद प्रमख ु तत्त्वों का व्यमक्त संदभा में अध्ययन मकया जाता है। इस पद्धमत में मनोमवज्ञान के तत्त्व दशान की ओर अग्रसर होते हैं। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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हमारे परु​ु र्षप्रधान समाज में हमेशा से ममहलाओ ं को दोयम दजे का स्थान प्रदान मकया जाता रहा है। नेपाल जैसे राष्ट्र में आधी से अमधक अवामद ममहलाओ ं की है, वहाँ भी ममहलाएँ जीवन के हर क्षेत्र में परु​ु र्षों से पीछे हैं। मपछले कुछ समय से सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थाओ ं के प्रयासों ने ममहलाओ ं में मशक्षा के प्रमत जागरूकता बढ़ाने का काम मकया है। मकसी भी समाज का स्वरूप वहाँ की ममहलाओ ं की मस्थमत एवं दशा पर मनभार करता है, मजस समाज की ममहलाएँ मजतनी सबल एवं एवं सशक्त होंगी वह समाज भी उतना ही सदृु ढ़ एवं मजबतू होगा। आलोच्य उपन्यास ‘कारा’ में इस पररदृश्य का उदाहरि देखने को ममलता है। इस उपन्यास में मातामपता की मृत्यु के बाद भाइयों द्वारा पाली गई नामयका पढ़-मलखकर सेक्शन ऑमफ़सर तो बन गई। लेमकन वह कँु वारी बनी रही। शादी की इच्छा होते हुए भी शादी कर नहीं पाई। उसका कारि, माता-मपता की मृत्यु के बाद मपता की वसीहत के अनसु ार सारी सम्पती उसके सभी सन्तानो को ममलनी थी। मपता ने दोनों पत्रु ों के अलावा अपनी पत्रु ी (नामयका) को भी सपं मत्त का महस्सेदार बनाया था। नेपाली समाज की परंपरा के अनसु ार नामयका से शादी का प्रस्ताव लेकर आने वाले सभी लड़के वालों को नामयका के भाई द्वारा अस्वीकृ त कर देते थे। कहते थे मक योनय वर नहीं है। दोनों भाइयों पर सपं मत्त का लोभ छाया रहता था, मकन्तमु दखावा करते थे मक वे अपनी बहन को अत्यमधक प्रेम करते हैं। बहन की नजरों से उस मदखावटी प्रेम मछपी नहीं थी। इसी बात को उपन्यास में नामयका के सम्भार्षि से स्पि मकया गया है- “दोनों भाई मझु े पहले से अमधक प्यार करने लगे। भाभी तो उन दोनों से अमधक।’’ (पृ.-67) इस कारि नामयका के मन में भाइयों के प्रमत मवतृष्ट्िा उत्पन्न हो गई। एक मदन भाइयों के मदखावटी प्रेम से तंग आकर घर-द्वार छोड़कर नामयका अके ले रहने चली गई। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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वस्ततु ः हमारा सामामजक ढाँचा ही ममहलाओ ं एवं परु​ु र्षों के मलए अलग-अलग अमधकार क्षेत्र मनधा​ारि करता है, मजसके दभु ा​ानयपिू ा पररिाम ममहलाओ ं के साथ हर स्तर पर मदक्कते उपमस्थत करते हैं। नेपाल ही नहीं, मवश्व का हर राष्ट्र यह दावा करने में आज असमथा है मक उनके यहाँ ममहलाओ ं का उत्पीड़न नहीं होता। वतामान में ममहलाएँ तृतीय मवश्व की भाँती हैं, जहाँ उनके अमधकार सीममत एवं कताव्य असीममत हैं। शहरी क्षेत्रों में ममहलाओ ं की भागीदारी हर क्षेत्र में देखी जा सकती है, वे अपने साथ हो रहे अन्यायों का मवरोध करना जानती हैं, अपने अमधकारों को हामसल करना जानती हैं, परंत,ु ग्रामीि क्षेत्रों की ममहलाएँ इन बातों से अभी भी अनमभज्ञ हैं। उन्हें न तो अपने अमधकारों की समझ है, ना ही उसे पाने की वह इच्छाशमक्त रखती हैं। पररवार में अपनी महत्ता के मलए मस्त्रयाँ कई-कई त्रासमदयाँ झेलती रहती हैं। इस उपन्यास की नामयका के जीवन की त्रासदी अपार है। शादी करने के इच्छा होने के बावजदू वह अपने भाइयों से बोल नहीं पाती, और एकाकीपन का दश ं चपु चाप झेलती रहती है। इस बात को नामयका इस तरह व्यक्त करती है- “पहले मजतने ररश्ते आए, उनमें दो-तीन मझु े पसदं नहीं आए, ऐसी बात नहीं थी। पर स्वयं मैं कै से कहती मक मझु े यह लड़का पसदं है और मै इससे शादी करूँगी।’' (पृ.-69) यह एक ऐसा समाज है, जहाँ कोई लड़की अपनी इच्छा जामहर नहीं कर सकती। मकसी लड़की के इच्छा जामहर कर देने से पररवार की इज्जत ममट्टी में ममल जाती है। नारी जीवन की मल ू के मल ू संवदे नाओ ं पर पहले भी नेपाली भार्षा के रचनाकारों ने अपनी कलम चलाई है। लेमकन पाररजात के उपन्यासों की रचना के बाद वानीरा मगरर ने अपने पहले ही उपन्यास ‘कारार्गार’ में पाठको एवं समालोचको से अपने गद्य का लोहा मनवा मलया। नारी संवदे ना के अनछुए पहलओ ु ं पर वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मकसी भी लेमखका द्वारा रमचत मकसी भी उपन्यास में इतनी सक्ष्ू मता से मचत्रि नहीं मकया गया है। इस उपन्यास में आजन्म कँु वारी रहने वाली नारी के अरमानो और भावनाओ ं को गभं ीरता से दशा​ाने का प्रयत्न मकया गया है। हर स्त्री की इच्छा होती है मक समाज में उसका अपना एक घर हो, पररवार हो, मजसमें उसकी एक पहचान हो। आलोच्य उपन्यास की नामयका भी यही सोचती है; परंतु हमारे समाज में आज भी स्त्री अपनी इच्छाओ ं के अनक ु ू ल नहीं चल पाती। असल में मस्त्रयों के प्रमत सामामजक नज़ररया और मस्त्रयों की शारीररक अपेक्षाओ ं में फका होता है। इस तथ्य को हम फ़्रॉयड के मशष्ट्य काला युङ के कथन के अनसु ार समझ सकते हैं। काला यङु के अनुसार साममू हक अवचेतन मन का मसद्धातं ही सवोपरर है। अवचेतन मन इतना शमक्तशाली होता है मक वह इगो और सपु र इगो का अमतक्रमि कर जाता है। अवचेतन मन कई बार पररमस्थमत के अनसु ार मौका पाकर इगो और सपु र इगो को दबा देता है और सामामजक मया​ादा भगं कर के ही दम लेता है। इसमलए व्यमक्त के ‘अहम’् और ‘नैमतक मन’ द्वारा मनयमं त्रत मकए जाने के बावजदू अवचेतन मन मौका पाते ही प्रबल हो उठता है। मनष्ट्ु य अपने आमदम स्वरूप तथा प्रकृ मत के अनरू ु प पामश्वक वृमत्त में मलप्त हो जाता है। व्यमक्त का ‘अहम’् मजस प्रकार सामामजक मया​ादा को सतं मु लत रखता है, वहीं अवचेतन मन सामामजक मया​ादा के हनन की प्रवृमत्त में स्वयं को अमग्रम पंमक्त में रखता है। वानीरा मगरर ने अपने इस उपन्यास में एक नारी के शारीररक लालसा को गभं ीरता से दशा​ाने का प्रयत्न मकया है। प्राकृ मतक रूप से दैमहक कामना स्त्री और परु​ु र्ष दोनों में समान रूप से रहती है। लेमकन हमारी सामामजक व्यवस्था की मवडम्बना में स्त्री की शारीररक कामनाएँ व्यक्त नहीं की जा सकती। पहले तो Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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सामामजक मया​ादा के कारि वह अपने एकाकीपन को झेलती है, मफर एकाकीपन से परे शान होकर नामयका के मन में दममत इच्छाएँ उफान मारने लगती है। वह सोचती है “कै द और छटपटाहट एकदसू रे के परू क हैं शायद! ... मकसी मल्ु क की युवा शमक्त को बंदीगृह में बंद करने जैसी दसू री कोई यौन यंत्रिा हो नहीं सकती।’’ (पृ.-45) नामयका अपने मामा की बातों को याद करते हुए कहती है “मन में बंदीगृह शब्द का उच्चारि होते ही फ्लैश बैक की तरह मामा की बातें पनु ः याद आने लगती है” (पृ.-45) वह आगे मफर सोचती है- “... प्यारी भांजी! सेक्स का सही अथा फ़्रायड और मसमोन द बोउआर की बौमद्धक पस्ु तकों को खोदकर तमु नहीं उपजा सकती हो। अमस्तत्व सात्रा और कामू के काले अक्षरों और हफ़ो में नहीं ममलेगा तम्ु हें। जीवन को समझो, बीनो, जीवन को समझने के मलए जीवन के साथ भीगना होगा। मलक ं न, स्टुअटा ममल, माक्सा, लेमनन, माओ और गाँधी के ख्यामत के साथ आत्मसमपाि करने से क्या होगा। मसद्धातं और व्यवहार के पाथाक्य को समझने का प्रयास करो।... इस शरीर के धमा के सबं धं में मवश्ले र्षि तम्ु हारी मकस मकताब में है, भाजं ी ...?” (पृ.-45) मामा के इस वक्तव्य से नामयका काफी प्रभामवत होती है। मामा के साथ पहले तो उसका बौमधक ररश्ता बना था, मफर दोनों एक-दसू रे के मनकट होने लगे। मामा नयारह वर्षों तक जेल में रह कर आए थे। मामा का भी भरा-परू ा पररवार था, मजसमें पत्नी थी... बच्चे थे... लेमकन उनके मलए अपने सारे ररश्ते-नाते खोखले बन गए थे। इन सारी बातों की जानकारी के बावजदू नामयका ने अपने मामा के साथ संबंध स्थामपत कर मलया। समाज द्वारा मदए गए संबोधन ‘मामा की रखैल’ को नामयका बड़ी सहजता से स्वीकारती है। दोनों एक-दसू रे से ममलकर अपने एकाकीपन दरू करते थे। यहाँ पर मचमत्रत परू ु र्ष और स्त्री का प्रेम असामामजक होते हुए वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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भी व्यमक्तत्व को मवकृ त नहीं करता, यही प्रौढ़ता इस उपन्यास की मवशेर्षता है। इस उपन्यास में कई कहामनयाँ साथ-साथ चलती हैं। इसके लगभग पात्र मध्य वगा के हैं, जो अपने व्यमक्तगत जीवन की मानमसक समस्याएँ रहते हैं। नामयका एक जगह कहती है- “मेरे अदं र का उत्साह और आकांक्षाएँ क्यों मरती जा रही हैं? मजजीमवर्षा क्यों कंु द हो रही है? इच्छाएँ क्यो खोती जा रही है?’’ (पृ.44)… वह आगे मफर कहती है- “मैं अपने आप से डर जाती हू।ँ कहीं यह पागलपन की पहली सीढ़ी तो नहीं है?” (पृ.-45)... कथा नामयका की ऐसी संवदे नाएँ इनके मनस्ताप, पीड़ाएँ सामामजक स्तर पर सच्ची और मवश्वसनीय हैं। इस उपन्यास में नामयका के मामा की पत्नी की कहानी भी कमतर नहीं है। मामा के पत्नी के मलए, पमत महज एक सामामजक मया​ादा है। हमारे सामामजक ढाँचें पर व्यगं करती हुई नामयका कहती है- “यौनाकाक्ष ं ा से पागल उनकी पत्नी अपनी यौन इच्छाओ ं को धान छी ँटने की तरह है, छींटती रहती है और उसकी उपज बेमफ़क्र होकर काटती है- मफर भी उसके महस्से में तीन बच्चे आए हैं। मझु े समाज और समामजक प्रपच ं ों से घृिा होती है।’’ (पृ.-56) सामामजक ढाँचें के कारि कथा नामयका को अपनी इच्छा मारनी पड़ती है। माँ बनने की इच्छा होते हुए भी वह नहीं बनती है। क्योंमक वह कँु आरी है। यह बात समझाने के मलए नामयका से उसका मामा कहता है “भावक ु मत बनो। यह मबच्छू और साँप का संसार है...आँधी और बाढ़ का...अँधेरा और कुरूपता का संसार है यह...यह आदमी ही आदमी का संसार है।’’ जीवन की वास्तमवकता को मदखा कर लेमखका ने स्त्री के एक अलग स्वरूप को भी पाठकों के समक्ष रखा है। नामयका के पड़ोस में एक नवमववामहता रहती है। वह अपने शराबी पमत की आदतों से परे शान रहती है। वह तमाम यंत्रिाएँ Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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चपु चाप सहती है, नए मक्षमतज की तलाश की इच्छा भी करती है, मकन्तु नजरें सदैव जमीन की ओर ही झक ु ाए रखती है और ससरु ाल को स्वगा समझती रहती है। इस समाज की स्त्री अपनी इच्छा को कै से दफ़नाती है, यह उपन्यास उसका जीवन्त मचत्रि करता है। इस उपन्यास की भार्षा काव्यात्मक है। उपन्यास के भमू मका में लेमखका ने कहा है मक “पात्रों के आसपास का पररवेश, अपने-बेगाने, सड़कें , मखड़की से मदखते दृश्य, काया​ालय, दोस्त एवं आत्मीयअनात्मीय... इसमें सब सगु बुगाते हैं। मकसी का कोई नाम नहीं रखा है। नाम से क्या होगा?’’ अथा​ात, परू े उपन्यास में मकसी पात्र का नाम नहीं है। अतं तः वानीरा मगरर के ‘कारार्गार’ उपन्यास में देह एवं मन के समीकरि और उसकी संवदे ना को बड़े ही सक्ष्ू म रूप से उके रा गया है। बड़े ही स्वाभामवक और मनभीकता से लेमखका ने नारी मन की सवं दे नाओ ं को उजागर मकया है; मजसे कोई परु​ु र्ष रचनाकार सम्भवत: नहीं कर पाते। अमधकाश ं ममहला रचनाकार भी ऐसे सक्ष्ू म पहलओ ु ं को उजागर करने में असफल हो जाती हैं। स्त्री की स्वतन्त्र इच्छाओ ं पर वानीरा मगरर ने जो अड़तीस वर्षा पवू ा मलखा ऐसे मवर्षयों पर नेपाली भार्षा में आज भी कम देखने को ममलता है। इस उपन्यास में व्यमक्त की अमस्मता, अके लेपन, मजजीमवर्षा व मृत्य-ु बोध के समग्र भाव को बड़े ही सृजनात्मक रूप से अमं कत मकया गया है। उपन्यास में इस खोखले समाज के प्रमत व्यंनय और असन्तमु ि मचमत्रत मकया गया है। लगभग चार दशक पवू ा मलखे गए इस उपन्यास में मचमत्रत समाज आज के सामामजक वातावरि के मलए कही अमधक प्रासंमगक है।

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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घड़ी िमीक्षक :िंदीप तोमर

घडी सग्रह के मल ू लेखक कमव मोहन मसहं हैं, मजसे यशपाल मनमाल ने डोगरी से महदं ी में अनमू दत मकया है।यँू तो अनवु ाद का काम ही अत्यतं दरू ु ह है परन्तु यमद काव्य को अनमू दत करना हो तो अनवु ादक की मजम्मेवारी और अमधक बढ़ जाती है और यह काया और अमधक दरू ु ह हो जाता है। काव्य का अनवु ाद अन्य मवधाओ ं से अमधक जमटल होता है। इसका कारि ये है मक काव्य में भाव प्रधान होते हैं और मकसी अन्य के भावों को बनाये रखते हुए लय के साथ मबना भावों को बदले अनवु ाद करना वास्तव में यशपाल सरीखे रचनाधमी ही कर सकते हैं । यशपाल की एक प्रमख ु मवशेर्षता इस अनमु दत पस्ु तक में मदखाई देती है मक वे अत्यंत भाव प्रिव हैं । छंदबद्ध रचना का जहाँ आज के यगु में प्रादभु ा​ाव हैं वही यशपाल न के वल अनवु ाद करते हैं बमल्क छंद के मनयमो का पिु ता ः पालन करते हैं: आते-जाते को मनहारती एक मवयोगन खड़ी-खड़ी। घड़ी की तल ु ना मवयोगन से करके यशपाल एकदम अलग खड़े प्रतीत होते हैं वे पनु : कहते हैं: आज तेरे यौवन की चचा​ा हर कमवता की कड़ी कड़ी। ये शब्द संयोजन ही है जो उन्हें एक कमव के रूप में स्थामपत करता है तब वो एक अनवु ादक नहीं रह जाते, पिू ा रुपें कमव में तब्दील हो जाते हैं, जहाँ भाव प्रधान हैं,, जहाँ शब्दों की बाजीगरी नहीं, भावों की बाजीगरी चलती है । इस परू ी प्रमकया में वे मात्र अनुवादक नहीं Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

रह जाते वरन ऐसा प्रतीत होता है मक वे एक सम्पिू ा रचनाकार हैं, और ये सम्पिू ा रचना उनकी स्वयं की है वे ही इसके अमभयंता हैं । पस्ु तक के प्रारंभ में अचाना के सर उन्हें आशीवाचन में मलखती भी हैं --“यशपाल ने अपने अदं र रहने वाले कमव को यथासंभव अनुवादक से प्रथक रखा है।“ समाज की मवसंगमत पर भी यहाँ बहुत सलीके से कलम चलायी गयी हैहमीं कहार थे और हमीं मफर आये शोक मनाने। हमीं समक्ष हुए अमनन फे रे जली हमारे हाथों । यहाँ रचनाकार संवदे नाओ पर तीखा व्यंनय करता प्रतीत होता है और अनायास ही रचनकार एक अन्दर का व्यनं यकार मचमत्रत हो उठता है। शब्दों का सयं ोजन यहाँ बहुत महत्वपिू ा हो जाता है, जहाँ जब मजस तरह के शब्दों की जरुरत होती है यशपाल उसी तरह के शब्दों का सयं ोजन करते हैं,उनके आनवु ाद को देखकर ऐसा लगता है मक जहाँ कहीं आवश्यकता होती है वो डोगरी के शब्दों को यथावत रखने के महमायती हैं. जैसे धाम भोजड़ी मीटी। यशपाल मल ू रचना के फ्लेवर के साथ खड़े हैं, उन्हें इस तरह के शब्दों के मलए महदं ी शब्दों की आवश्यकता नहीं पड़ती, ये जो डोगरी महदं ी की ममलीजल ु ी खश ु बु है ये काव्य की महक को बढ़ाती है। यशपाल जहाँ कहीं जरुरत होती है अलक ं ाररक भार्षा का प्रयोग भी करते हैं- मन मेरा मौजी मतवाला, पढ़-पढ़ प्रीतम पाठ तेरा। बकौल मल ू लेखक मोहन मसंह घड़ी अस्सी के दशक का चमचात काव्य संग्रह है मजसे कमव-सम्मेलनों, मश ु ायरों में खबू प्रशसं ा ममली है , लेमकन ये बेहद अफ़सोस की बात है मक एक लम्बे अरसे के बाद वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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इसका अनवु ाद महदं ी में आया है तथामप यशपाल मनमाल इस काया के मलए बधाई के पात्र हैं. ये भी एक मवमचत्र बात है मक हर राज्य की अकादममयां होने के बावजदू यशपाल को इस अनुवाद को मनजी प्रयासों से प्रकामशत कराना पड़ा। हालामक ये एकदम अलग मवर्षय है मक भारतीय भार्षाओ के सामहत्य को महदं ी में अनमु दत कर महदं ी के वृहद पाठको तक कै से पहुचँ ाया जाए। इस काया के मलए यशपाल मनमाल मनमित ही बधाई के पत्र हैं ।

ISSN: 2454-2725

मूल लेखक : मोहन सिहं अनुिादक: यिपाल सनमकल प्रकािक: सनसध पसललके िन, 524-माता रानी दरबार, नरिाल पाई,ं एयर पोिक रोड ,ितिारी, जम्मू -180003 mobile-9086118736 प्रकािन िषक : 2015 मूल्य-270/-

यमद काव्य के मशल्प और मवधान की चचा​ा की जाए तो वहाँ भी यशपाल एक कमाठ योद्धा की तरह कहदे मदखाई देते हैं, इस काव्य संग्रह में छंदमय और छंदमक्त ु दोनों तरह की काव्य शैली के दशान होते हैं। भार्षा की दृमि से भी यशपाल अमभनव प्रयोग करते हैं, डोगरी पजं ाबी और महदं ी भार्षाओँ की खश ु बु को इस पस्ु तक में महससू मकया जा सकता है। काव्य में कमलष्ठता नहीं है, तथामप महदं ी का पाठक डोगरी के शब्दों में उलझ सकता है और अथा स्पि न होने की मस्थमत में काव्य उकी समझ से बाहर होने का अदं श े ा भी होता है, लेमकन यह बात कहीं कहीं ही देखने को ममलती हैं अमधकाश जगह जहाँ कहीं इस तरह का प्रयोग हुआ है वहाँ ले के साथ अथा आसानी से स्पि होता जाता है और पाठक खदु को काव्य से जड़ु ा हुआ महससू करता है, और ये कमव और अनवु ादक यशपाल की मवमशिता भी है । बतौर समीक्षक मैं इस तरह के काया की सराहना करता हू,ँ अनवु ादक यशपाल के इस महान काया के मलए उन्हें बधाई प्रेमर्षत करना भी मैं अपना फजा समझता हूँ और बतौर कमव उन्हें शभु कामना देता हू,ँ आशा है भमवष्ट्य में भी वो महदं ी पाठको को डोगरी सामहत्य से पररमचत कराते रहेंग।े िमीक्षक :िंदीप तोमर स्तक का नाम: घडी Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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िासहसययक सिमिक: व्यंग्य एक समि के सलए उिके िभ ु ाकांक्षी समि का पि प्रदीप कुमार िाह आदरिीय ममत्रवर, अपनत्वपिू ा नमस्कार। ममत्रवर आपको समय पवू ा सचेत करते हुए अच्छा नहीं लग रहा, तथामप ममत्र धमा मझु े वैसा करने के मलए मजबरू कर रहा है। अतः क्षमा करें मक बगैर सचेत मकये नहीं मानँगू ा। ममत्र, मझु े मजबरू न आगाह करना पड़ रहा है मक सच्चाई छुपाये नहीं छुपती और एक मदन वह सबके सामने आ ही जाती है। ठीक उसी तरह जैसे मक काष्ठ की हांड़ी आग पर अमधक समय नहीं मटकता। मफर पाप की हांड़ी को एक मदन फूटना ही होता है। ममत्रवर आप "मानते हैं मक कई ईमानदार सरोकारी भी हैं।" अपने स्वीकारोमक्त में "भी" शब्द प्रयक्त ु कर अपनी अमनच्छा और अपना पवू ा​ाग्रह प्रकट करने से नहीं चक ू े । शायद दीघा समय से अनत्तु ररत यक्ष प्रश्न ही पवू ा​ाग्रह का कारि है जो मटप्पिी रूप में आगे अमं कत है मक-"सक्षम-असक्षम पाठक और इमतहास तय करे गा?" ममत्रवर, प्रथमतः तो स्वयं ही पाठक को सक्षम और असक्षम वगा में बाँटना उमचत नहीं, बमल्क यह तय करना पाठक के स्वयं के मववेक पर छोड़ना उमचत है। पनु ः यह अमधकार मकसी अन्य को नहीं मक वह मकसी अन्य पर व्यमक्तगत आक्षेप करे । मफर तय करने का अमधकार तो एकमात्र पाठक का है मक वह तय करे मक अमक ु की लेखनी कै सी है? दसू री बात मक पाठक सचमचु के आम आदमी होते हैं, खासम-खास नहीं। मकसी आमस्तक के उपरवाले प्रत्यक्षत: उसे राजा से रंक बना मदए हो और रंक से Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

राजा बनाया हो या न बनाया हो, मकंतु आम आदमी कदामप धोखा नहीं देनेवाले एक सच्चे इसं ान को अपनी आँखों में जरूर बसा लेते हैं। माना मक हमारा समाज और आम आदमी जात-पात, पंथ-समदु ाय और धमा-मजहब के जख्म से कराह रहे हैं, तथामप आम आदमी अपने मवचारधारा के धरु मवरोधी मकसी सच्चे इसं ान को अपने मदल के तख्त पर जरूर बैठा लेते हैं। उसे अपने मदल से राजा जरूर मान लेते हैं और देर-सवेरे ही सही अपने गप्तु शत्रु रूपेि सहायक को क्षमा याचना के मलये उसके कदम में जरूर डाल देते हैं। अतः ममत्र सम्भवतः संशय अब खत्म हो गया होगा मक आम आदमी इमतहास तय नहीं करते। सच तो यह है मक खासम-खास लोग इमतहास तय कतई नहीं कर सकते। अतः सादर अनरु ोध है मक तयशदु ा जगहों को कुछ भी मलखकर न भरा जाये। व्यथा में कागज काला न मकया जाये और देश कल्याि हेतु उसे गरीब छात्रों में बाँट मदया जाये, क्योंमक आज के बच्चे ही कल के भमवष्ट्य हैं।सादर। आपका शभु ाकाक्ष ं ी ममत्र, चक्षमु स अमवद्या। प्रदीप.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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िासहसययक सिमिक: गज़ल निीन मसण सिपािी की गज़लें

ISSN: 2454-2725

यह सही है बेचने वह भी गया ईमान को । मगर गया बाज़ार सारी बोमलयाँ कम पड़ गई ं।। .................................................................

पमू छये मत क्यो हमारी शोमखयाँ कम पड़ गई ं। मजदं गी गजु री है ऐसे आमधयाँ कम पड़ गई ं।।

मफक्र बनकर मतश्नगी देखा सँवर जाती है रोज़ । उस दरीचे तक मेरी सहमी नज़र जाती है रोज़ ।।

भख ंू के मजं र से लाशों ने मकया है यह सवाल । क्या ख़ता हमसे हुई थी रोमटयां कम पड़ गई ं।।

बेकरारी साथ लेकर मन्ु तमज़र होकर खड़ी । एक आहट की खबर पर वह मनखर जाती है रोज ।।

जमु ा की हर इमं तहाँ ने कर मदया इतना असर । अब हमारे मल्ु क में भी बेमटयां कम पड़ गई ं।।

मसम्त शायद है ग़लत उलझे हुए हालात हैं । है मसु ीबत बदगमु ां घर में ठहर जाती है रोज़ ।।

मान् लें कै से उन्हें है मफक्र जनता की बहुत । कुमसायां जब से ममली हैं झरु रा यां कम पड़ गई ं।। इस तरह मबकने लगी है मीमडया कीसाख भी। जबलटु ी बेटीकी इज्जत समु खायां कमपड़ गई ं।। मैच मफर खेला गया कुबा​ामनयो को भल ू कर । चन्द पैसों के मलए रुसवाइयाँ कम पड़ गई ं।। मत कहो हीरो उन्हें तमु वे मखलाड़ी मर चक ुे। दश्ु मनों के बीच मजनकी खाइयां कमपड़ गई ं।।

मजदं गी के फ़लसफ़े में है बहुत आवारगी । ठोकरें खाने की ख़ामतर दर बदर जाती है रोज़ ।। यह उमीदों का पररंदा भी उड़े तो क्या उड़े । बेरुखी तो बेसबब पर ही कतर जाती है रोज़ ।। कुछ दररंदों की तबाही , जमु ा मजदं ाबाद है । आत्मा तो समु खायां पढ़कर मसहर जाती है रोज़ ।।

हो गया नीलाम बच्चों की पढ़ाई के मलए । जामतयों के फ़लसफ़ा में रोमजयाँ कमपड़ गई ं।।

बन गया चेहरा कोई उसके मलए अखबार अब । पढ़ मशकन की दास्तां मदल तक खबर जाती है रोज़ ।।

क्यो शह्र जाने लगा है गांव का वह आदमी । नीमतयों के फे र में आबामदयां कम पड़ गई ं।।

दे रहा है वक्त मझु को इस तरह से तमिबा । आँमधयों के साथ में आफ़त गज़ु र जाती है रोज़ ।।

देखते ही देखते क्यो लटु गया सारा अमन । कुछ लटु ेरों के मलए तो बमस्तयां कम पड़ गई ं।।

वस्ल की ख़्वामहश का मजं र है सवालों से मघरा । देमखए सामहल को छूनें यह लहर जाती है रोज़ ।।

मसफा अपने ही मलए जीने लगा है आदमी । देमखए अहले चमन में नेमकयाँ कम पड़ गई ं।।

क्या कोई ररश्ता है उसका पछ ू ते हैं अब सभी । क्यँू इसी कूचे से वो शामो सहर जाती है रोज़ ।।

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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ISSN: 2454-2725

डी एम समश्र की गजलें 1

मकसी और में बात कहाँ वो बात जो चद्रं मख ु ी में है सौ-सौ दीप जलाने को वो इक तीली-सी जलती है।

नम ममट्टी पत्थर हो जाये ऐसा कभी न हो मेरा गाँव, शहर हो जाये ऐसा कभी न हो।

खड़ी दपु हरी में भी मनखरी इठलाती बलखाती वो धपू की लाली, रूप की लाली दोनों गाल पे सजती है।

हर इसं ान में थोड़ी बहुत तो कममयाँ होती है वो मबल्कुल ईश्वर हो जाये ऐसा कभी न हो।

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बेटा, बाप से आगे हो तो अच्छा लगता है बाप के वो ऊपर हो जाये ऐसा कभी न हो।

मखली धपू से सीखा मैने खल ु े गगन में जीना पकी फ़सल में देखा मैंने खश ु बूदार पसीना।

मेरे घर की छत नीची हो मझु े गवारा है नीचा मेरा सर हो जाये ऐसा कभी न हो।

अभी तो मेरे अम्मा - बाबू दोनों घर में बैठे अभी तो मेरा घर ही लगता मक्का और मदीना।

खेत मेरा परती रह जाये कोई बात नहीं खेत मेरा बंजर हो जाये ऐसा कभी न हो।

लोग साथ थे इसीमलए वरना हचकोले खाता पार कर गया परू ा दररया छोटा एक सफ़ीना।

गाँव में जब तक सरपत है बेघर नहीं है कोई सरपत सँगमरमर हो जाये ऐसा कभी न हो। 2

कहाँ ढूँढने मनकले हो अमररत इस अधं गली में अगर मज़दं गी जीना है तो सीख लो मवर्ष भी पीना।

बेाझ धान का लेकर वो जब हौले-हौले चलती है धान की बाली, कान की बाली दोनों सँग-सँग बजती है। लॉग लगाये लगू े की, आँचल का फें टा बाँधे वो आधे वीर, आधे मसँगार रस में महरनी-सी लगती है। कीचड़ की पायल पहने जब चले मखमली घासों पर छम्म-छम्म की मधरु तान नपू रु की घटं ी बजती है। मकसी कली को कहाँ ख़बर होती अपनी संदु रता की यों तो कुछ भी नहीं मगर सपनों की रानी लगती हैं। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

कई हुकूमत देख मलया है समदयाँ गज़ु र गई ंहैं बहुत बार टकराया तेरा खजं र मेरा सीना। 4 मकसी जन्नत से जाकर हुस्न की दौलत उठा लाये हमारे गाँव से क्यों सादगी लेमकन चरु ा लाये। बताओ चार पैसे के मसवा हमको ममला ही क्या मगर सब पछ ू ते हैं हम शहर से क्या कमा लाये। हज़ारों बार इस बाज़ार में मबकना पड़ा मफर भी खश ु ी इस बात की है हम ज़मीर अपना बचा लाये। तम्ु हारी थाल पजू ा की करे स्वीकार क्यों ईश्वर वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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ये सब बाज़ार की चीज़ें हैं, अपनी चीज़ क्या लाये। इसे नादामनयाँ समझें मक मकस्मत का मलखा मानें समन्दर में तो मोती थे मगर पत्थर उठा लाये। इसी उम्मीद पर तो टूटती है नींद लोगों की नयी तारीख़ आये और वो सरू ज नया लाये। तम्ु हारे हुस्न के आगे हज़ारों चाँद फीके हैं तम्ु हारे हुस्न को ही देखकर हम आइना लाये। िम्पकक – डॉ डी एम समश्र 604 सिसिल लाइन्द् सनकि राणाप्रताप पीजी कालेज िल ु तानपरु 228001 मो नं 9415074318

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2 सभं ाले रहें हैं सभं लने की हद तक मबखरता रहा मन मबखरने की हद तक कहाँ था मकनारा ,कहाँ बह के आये मबछड़ते गये हम मबछड़ने की हद तक छुपाया था अबतक जो पलकों के भीतर छलक वो रहा है ,छलकने की हद तक गगन को पता है मक धरती तपी है तो बरसा है बादल ,बरसने की हद तक ये कै सी है उलझन,कमशश है ये कै सी भटकता रहा मन ,भटकने की हद तक

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भािना की गज़लें

हो के तन्हा जो कभी धपू में मनकलते हैं साये यादों की मेरे -मेरे साथ साथ चलते हैं

1 है दरीचे न मखड़मकयाँ घर में क्यों भला खश ु हों बेमटयाँ घर में अब हवाओ ं में दहशतें हैं बहुत चपु -सी बैठी है मततमलयाँ घर में खोल ही देगी पोल ररश्तों का बढ़ रही है जो दरू रयाँ घर में लाडली जब गई है अपने घर बेसबब क्यों है मससमकयाँ घर में

दरू जाती है उनके कदमों से ममं जल अक्सर वो जो हर वक्त अपना रास्ता बदलते हैं सात फे रों में जहाँ बाधं ें जाते हों ररश्ते उस गृहस्थी में नये ख्वाब रोज़ पलते हैं हम तो गमदाश में ढूढं लेते हैं खमु शयाँ अपनी इस तरह से भी कई बार हम संभलते हैं मखमली लगती है धरती तम्ु हारी बातों -सी भोर में जब कभी हम घमू ने मनकलते हैं 4

आज गगू ल का है जमाना हुजरू कौन लाता है पोमथयां घर में Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

एक बड़ी मस्ु कान लबों पर हो ,तो हो टीस बला की मदल के अदं र हो,तो हो वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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ढाई आखर पढ़ने में हम सफल हुए काला अक्षर भैंस बराबर हो, तो हो मैंने तो बस फूल मदया उसको हरदम हाथ में उसके कोई खंजर हो ,तो हो थक जाती हूँ दख ु का मौसम साथ मलए मदल में पतझड़, सावन बाहर हो,तो हो बोल के सच ईमान बचाया है मैंने शोर-शराबा अदं र -बाहर हो, तो हो मेरे घर में पीड़ा भी पटरानी है तेरे घर में सख ु भी नौकर हो,तो हो एक इमारत झनु गी पर इठलायेगी कोई बंदा घर से बेघर हो ,तो हो भािना,मुजफ्र्रपुर,सबहार

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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िासहसययक सिमिक: यािा िृतांत "मही" के सकनारे-सकनारे नौ सदन कारुलाल जमडा ा़

पमिमी मध्यप्रदेश से मनकलकर राजस्थान के वागड़ क्षेत्र को हरा-भरा और समृद्धशाली करने वाली मही (माही) को कंठाल क्षेत्र की अथवा वागड़ की गगं ा भी कहा जाता है।उद्गम से लेकर सागर संगम तक इसका अप्रमतम सौन्दया और गहन गभं ीरता देखते ही बनती है।मही के धाममाक और पौरामिक महत्व ने सदा से ही मझु े उसकी ओर आकमर्षात मकया है।इससे प्रेररत होकर ही इसके मकनारे -मकनारे प्रवास का मनिाय मलया।धार मजले के सरदारपरू में ममण्डा गावं से लेकर गजु रात के खभं ात में सागर ममलन तक मही करीब ७५० मकलोमीटर का सफर तय करती है। रतलाम मजले की बाजना तहसील में बहती है।यहाँ समतल पठार से होकर पहाड़ों के बीच सघन वन में होकर अपनी राह बनाती है।यहीं गढखख ं ाई माता ममं दर, मजसे उच्चानगढ़ भी कहा गया है,पर मैने अपना पहला पडाव(रामत्र मवश्राम) डाला ।नदी की ा़ मवशालता और टेढ़ी-मेढी ा़सड़कें हर एक को अपने मोहपाश में बाधं लेती है।यह दैवीय स्थल वनाच ं ल के आमदवामसयों की गहन आस्था का के न्द्र है।यही कारि है की यहीं से मही को भी देवी का दजा​ा स्वत: ही ममल जाता है।नदी से के वल दस मकलोमीटर पवू ा की ओर नायन कस्बे के मनकट ही नदी तट पर प्राकृ मतक प्रागैमतहामसक गफ ु ाओ ं के दशान कर आगे बढ़ने पर मही सघन वनों में से गजु रती मदखाई देती है। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मागा न होने से शैलानन् पहामड़यों में अवमस्थत के दारे श्वर महादेव के दशान करता हुआ मैं पहुचँ ता हूँ राजस्थान की महती जल पररयोजना "माही बजाज सागर बाँध"के बैक वाटर पर।यहाँ अथाह जलरामश के बीच राजस्थान -मध्यप्रदेश अतं रप्रांतीय मागा पर बना एक मवशाल सेतू अपनी बाहें फै लाये सैलामनयों का स्वागत करता मदखाई देता है।एक पल को ऐसा लगता है मक कहीं मही ने यहीं तो खदु को सागर को सममपात नहीं कर मदया।इस नज़ारे ने कदमों को रोका और यात्रा का दसू रा मवश्राम यहीं रहा।समय भी ठहर सा गया था।चारों ओर पानी ही पानी।प्रमतपल समदं र सा अहसास। मही के साहचया में अपने तीसरे पडावा़ की ओर बढ़ने के पवू ा मैंने मही के आँचल में बसे बांसवाड़ा के ऐमतहामसक महल,मही की नहर पर मवकमसत मकये गये कागदी उद्यान और मदं ारे श्वर महादेव के दशान मकये।यहाँ पयाटन मवकास मनगम की व्यवस्थाएँ बमढ़या हैं। कलात्मक ममू तायों के मलए मशहूर तलवाड़ा के पास मस्थत शमक्तपीठ माँ मत्रपरू ा सदंु री यहाँ का प्रमसद्ध तीथा स्थल है।तीसरी रामत्र "माँ " की शरि में ही बीतायी।अगला पडावा़ माहीडेम था।माही-बजाजसागर पररयोजना ने इस वनाच ं ल के मवकास की इबारत मलख दी है।चारों ओर हररयाली ही हररयाली नजर आती है। मही यहाँ से माही(साथी)भी पक ु ारी जाने लगी है।मही के पठार में बसा कंठाल क्षेत्र अपने भीतर कई ऐमतहामसक रहस्यों,मकवदमं तयों और धाममाक-सामामजक आदं ोलनों को समेंटे हुए है।अपनी पमवत्र धारा से 'मही' ने दमक्षि राजस्थान की इस धरा पर समृमद्ध की अमृत वर्षा​ा कर दी है।मही की यहाँ से आगे की यात्रा लंबे- चौडेा़ पठारी क्षेत्र में तय होती है।मही के कछार में फै ले इस मैदान को "छप्पन का मैदान" कहा जाता है।ऐसा माना जाता है मक इस वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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इलाके से छोटी-मोटी छप्पन नमदयों ने खदु ा़ को मही में मवलीन कर मदया है। इस मैदान की कटी-फटी प्राकृ मतक संरचना से साक्षात्कार करते हुए मैं अपने अगले पडावा़ "बेिेश्वर धाम"पहुचँ ता हूँ जहाँ दो बड़ी नमदयों 'सोम' और 'जाखम' का मही से संगम होता है।इस मत्रवेिी संगम पर मही का दो धाराओ ं में बंटकर पनु ःएक होना अप्रमतम सौन्दया की सृमि करता है।यह एक मसद्ध स्थल है और हर वर्षा माघ पमू िामा पर यहाँ मवशाल जन समागम होता है।आमदवामसयों की बहुलता के कारि इसे आमदवामसयों का कंु भ भी कहते है।अब यहाँ मवदेशी पयाटक भी पहुचँ ने लगे हैं। यहाँ मही य-ू टना लेकर दमक्षिवामहनी हो जाती है।यहीं दो रामत्र मबताने के पिात मेरा अगला पडावा़ प्रमसद्ध प्राचीन ममं दर देव सोमनाथ था। यह दमक्षि राजस्थान का एक प्रमख ु तीथा है।मही अब डूंगरपरु और बासं वाड़ा मजले की सीमा बनाती हुई गजु रात में प्रवेश कर सागर सगं म की ओर अपने कदम बढानेा़ लगती है। इसी के पमिमी मकनारे पर मस्थत गमलयाकोट कस्बा बोहरा समदु ाय की मवश्वमवख्यात ममस्जद के मलए जाना जाता है।राजस्थान के सदु रू दमक्षि में बसा यह कस्बा देश-मवदेश के श्रद्धालओ ु ं की आस्था का के न्द्र है।मही के साथ अपनी यात्रा का छठा पडावा़ मैने यहीं मकया और वर्षों पवू ा मही की बाढ़ में शहर के ममटने और पनु ःबसने की रोमांमचत कर देने वाली दास्तानों और ऐमतहामसक कथाओ ं से रूबरू हुआ। यहाँ से कुछ ही मील की दरू ी पर नदी पर गजु रात सरकार ने कडािा डेम का मनमा​ाि मकया है।माही की इससे आगे की यात्रा पवू ी गजु रात के मवकास और समृमद्ध की यात्रा है।मही के साथ जैसे-जैसे मैं आगे की ओर बढ़ता जाता हूँ ,उसकी गहन गभं ीरता तो सामने Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

आती ही है लेमकन उसमें मस्थत छोटे-बडेा़ टापू उसकी चंचलता को भी मनखारते है।इसी कारि मही "द्वीपों की नदी"भी कहलाती है।लुनावडा ा़ गांव के मनकट "पानम" और "वेरी"नमदयाँ मही में ममलती है और एक और मत्रवेिी संगम का दशान लाभ ममलता है।काकमचया आश्रम और कलेश्वरी माता का अत्यंत पमवत्र और दशानीय तीथाक्षेत्र है यह।यहीं अपने सातवे मक ु ाम के पिात मैं आगे बढ़ता हू।ँ मही के सागर ममलन की वेला अब नजदीक आती जा रही है।गजु रात के दो बडेा़ शहरों बडोदरा ा़ और आिदं के मध्य से गजु रते हुए मही के अमृत जल से हुए मवकास को देखकर आखें चौंमघया जाती है। मही के सागर में समामहत होने के पवू ा उसके पवू ी तट पर वासद गांव के समीप महीसागर नामक एक अत्यतं पमवत्रतम तीथाक्षेत्र है।यहाँ मही माता की लगभग सत्रह फीट ऊंची प्रमतमा स्थामपत की गई है।शतायु सतं श्री बद्ध ु ेश्वर जी का आश्रम यहाँ भमक्त रस से सराबोर कर देता है।सतं श्री को मही नदी से गहरा लगाव था।यहीं उनकी जल समामध भी हुई थी। अपनी यात्रा के अमं तम और नवें पडावा़ पर पहुचं कर मही को सागर में समाते देखने के पवू ा मैंने अपना मक ु ाम यहीं बनाया।मही का अमं तम छोर दगु ाम और बेमहसाब गहराई मलये हुए है।अपनी सपं िू ा यात्रा में मही पमवत्र गगं ा और रे वा की ही तरह देवी के स्वरूप में पजु ी गई है।परू े समय वन प्रातं र में बहने के कारि इसे "वन देवी" भी कहा गया है।उद्भव से संगम तक इसका कि-कि पमवत्र कर देने वाला है।इसके तट पर बसे तीथाक्षेत्र के अनभु व मदव्य और अद्भुत है।मही की यात्रा एक परू े जीवन की यात्रा है। आप भी समय मनकालकर मही की महत्ता,उसके अमद्वतीय सौन्दया को मनकट से अवश्यमेव महसूस करे । (लेखक एिं अनुिादक) १४,सतलक सिहार,जािरा वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मेरी पहली हिाई यािा

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घमु क्कड़ी हमारी भारतीय संस्कृ मत की पहचान रही हैं। महन्दी सामहत्य के आधमु नक यगु में ‘यात्रा-वृतांत’ मवधा का जन्म ही इसी घमु क्कड़ी का पररिाम हैं। मेरे घमु क्कड़ी के शौक को मवकमसत करने मे मपताजी का बड़ा योगदान रहा हैं। गमी की छुरट्टयों में जहाँ आसपड़ोस के बच्चे नाना-नानी के घर छुरट्टयाँ मनाने जाते थे ,वहीं मै मपताजी के साथ धपू ढलने पर गाँव के आस-पास की जगहों पर मनकल पड़ती थी। हरे -भरे खेत और उनके बीच खड़ा फसल का रक्षक ‘मबजक ू ा’ आज भी मझु े नहीं भल ू ता। शाम को खेत मकनारे बनी झोपड़ी के बाहर हरी घास पर लेटे-लेटे ऊपर आसमान में पमक्षयों को मनहारना मझु े बहुत भाता था। उन्हे आकाश की उचाइयों को यू मापते देख मन न जाने मकतनी आकांक्षाओ ं से भर उठता था। काश ! में भी इनकी तरह आसमान से धरती देख पाती-जैसी इच्छाएँ बलवती हो उठती। उस समय तो ये सब असम्भव ही लगता था मकन्तु वतामान में हवाईजहाज जैसे यातायात के संसाधनो तक मध्यम वगा की पहुचँ ने उस सपने को साकार मकया तब, जब मझु े मदल्ली से औरंगाबाद एक सामहमत्यक कायाक्रम मे जाने का अवसर ममला। जब बात मकसी भी नए और

‘प्रथम’ अनभु व की हो तो वह स्वयं में वैसे भी अमभभतू करनेवाला होता हैं मफर चाहे वह पहले बच्चे का जन्म हो, पहली मकताब का लोकापाि हो अथवा कोई पहली हवाई-यात्रा। इससे पवू ा इसे मैने आसमान में अथवा मफल्मों में ही देखा था। आज उसे न के वल नजदीक से बमल्क अदं र से भी देखने का अवसर ममल रहा था। यही वजह थी मक मन मे उत्साह था और इसी उत्साह के चलते मै सबसे पहले एयरपोटा पहुचँ गई तय समय से पहले। बेक-पैक मलए मै एयरपोटा के सौंदया को चमू ती रही अपने नेत्रो से और कै मरे की आख ं ो से।वहीं के एक रे स्तरा से कॉफी के साथ कुछ मबस्के ट खाये जो मै अपने साथ लेकर आई थी। समय पर पहुचँ ने की जल्दबाज़ी में सुबह का नाश्ता भी ढंग से नहीं कर पाई थी,वैसे भी जब कहीं जाना हो तो मेरी भख ू मर जाती हैं और गतं व्य स्थल पर पहुचँ ते ही उठ खड़ी होती हैं अपनी उग्रता के साथ । इसकी उग्रता को कम करने के मलए ही मैने कॉफी और मबस्के ट का सहारा मलया। तभी साथी लोग आ गए और इधरउधर की बातों में समय होते ही हम बोमडिंग-पास के साथ जा लगे अकामं क्षत स्थल पर। एयर-होस्टेस हमारे बोमडिंग-पास देख-देख सीटो पर बैठा रही थी। मझु े मकनारे की सीट ममली मजसे मैने अपनी एक साथी से बदल मखड़की की सीट प्राप्त कर ली। इसके ममलते ही मन ऐसी उमगं से भर रहा था जैसे मकसी भख ू े को रोटी और प्यासे को पानी ममल जाता हैं। इजं न स्टाटा होते ही शरीर में हल्की झरु झरु ी और हृदय मे थोड़ा डर भी करवट ले रहा था और अवसर पाकर उचक कर बाहर आना भी चाहता था मजसे मै सहकममायों की उपमस्थती के कारि दबाये हुये थी। साथ ही चोरी से यह भी देख रही थी मक अन्य साथी भी क्या उसी मनः-मस्थमत में हैं या मै ही सहमी हुई हू।ँ हृदयगत भावों को छुपाने की मध्यवगीय मानमसकता पाले मै अपने सहकममायों से ये कतई नहीं बताना चाहती थी मक ये मेरी पहली हवाई यात्रा हैं। मझु े हसं ी का पात्र नहीं बनना था। खैर,

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017

डॉ अनीता यादि साराश ं –यह पहली हवाई यािा का एक िुखद और अनोखे भावों िे भरा यािा-वणषन है सजिने न के वल मेरे तन और मन को असभभूत सकया बसल्क चीजों को देखने की एक नई दृसि भी प्रदान की।आिमान िे धरती को देखने की बचपन की जो इच्छा थी उिी की न के वल पूसतष हुई बसल्क उि पुलक ने जीवन को नए अनुभवों िे भी भर सदया।


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वे सभी आराम से बेल्ट बांधे कोई न कोई मैगजीन मलए मशरुफ़ मदख रहे थे। ऐसे में, मै अपने डर को मदखा कर उन्हे स्वयं पर गवा-करने का मौका नहीं देना चाहती थी। सबकी बेल्ट लग चक ु ने पर भी जब मेरी नहीं लगी तो साथ बैठी मेरी एक सहकमी ने बेल्ट को बांधने में मेरी मदद की मजसकी मझु े मनहायत आवश्यकता थी। जैसे ही जहाज ने रनवे पर दौड़ना शरू ु मकया वैसे ही मेरी हृदय-गमत भी तेज होने लगी। जैसे-जैसे उसकी गमत और आवाज बढ्ने लगी ,वैसेवैसे मझु े अपनी तेज धड़कन महससू होने लगी और लगा मक जैसे अभी मदल बाहर आ जाएगा। हृदयकपाट तो बंद थे पर अदं र ही अदं र भावनाओ ं का जैसे सैलाब उमड़ पड़ा था अपने पिू ा आवेग के साथ मजसने मझु े मजबरू मकया कलम उठाने के मलए। पर जल्द ही ये भय और मझझक धीरे -धीरे मनकलने लगे थे जैसे ही जहाज अपनी सामान्य उड़ान-मस्थमत में पहुचं ा। यहाँ का दृश्य देख मै अमभभतू हुये मबना न रह सकी। बादलों के ऊपर-नीचे उड़ता ये एलेक्रोमनकपक्षी मेरी ‘बचपनी- आकाक्ष ं ा’ पमू ता का साधन बना हुआ था। मखड़की से बाहर मटकी मेरी आख ं े उन बादलों के लच्छों को टकटकी लगा मनहार रही थी जो कभी तो मबलकुल सफ़े द रुई के फ़ोहों जैसा तो कभी साँझ-सरीखी श्यामल चादर जैसी होने का आभास दे रहे थे और मदखते-छुपते मानो मझु से आँख-ममचौली खेल रहे हो। प्रकृ मत के ऐसे सदंु र रूप को देखने का मेरा यह पहला अनभु व था मजसे मै परू ी तरह कै श करना चाहती थी । उन रुई के पहाड़ों को पकड़ने की इच्छा भी बलवती हो रही थी। मन मचल रहा था मक कै से भी मखड़की से हाथ मनकाल उठा लू कुछ महस्सा उन फ़ोहों का ,वैसे ही जैसे हम बस में बैठे खरीद लेते हैं मखड़की से मगँू फली या अमरूद सरीखी चीजें। प्रकृ मत के इस रूप ने मेरे खाली मन को भरना शरू ु मकया जो कब का खाली पड़ा था शायद ऐसे ही मकसी वास्तमवक ‘लैण्ड-स्के प’ के मलए। बादलों से भी ऊपर

चमकता प्योर नीला आकाश मानो अपने असली स्वरूप को मदखाने हेतु आतरु था मजसे हम जमीन से इस रूप में तो कभी देख ही नहीं सकते क्योंमक हमेशा एक धंधु लका {पोलश ु न लेयर } बीच में दीवार की तरह तना रहता हैं और आज मै उस पल को जी रही थी मजसकी उम्मीद मैने बचपन में की थी। दरू तक फै ला नीला आकाश मझु े ‘मनु’ की याद मदला गया,वही मनु जो पवात की चोटी पर बैठ नीहार रहा था उस जल प्लावन को जहां उसे ‘एक तत्व’ की ही प्रधानता मदख रही थी। मझु े भी मात्र एक आकाश तत्व ही मदख रहा था। उसी में मेरा आनन्द छुपा था।यहाँ मानो मै मनु के भावों से तादात्मय कर रही थी। मखड़की की सीट होने के कारि मझु े बीच-बीच में इस एलेक्रोमनक-पक्षी के पख ं भी मदख जाते थे जो मझु े इस एहसास से भर दे रहे थे मक मै मकसी बड़े पक्षी पर सवार हूँ जो मझु े उड़ाए ले जा रहा हैं कभी बादलों के ऊपर तो कभी उसका सीना चीरते हुये सपनों के देश में। एयर होस्टेस जो खाना देकर गई थी वह अभी भी यू ही रखा था । साथ की सीट पर बैठी मेरी सहकमी ने मझु े हाथ से मझझोड़ा तो लगा मक जैसे नींद से जगी हू।ँ खान-पान से मनवृत हुये ही थे मक सीट बेल्ट बाधं ने की उद्घोर्षिा हुई क्योंमक उस पक्षी को अपनी उड़ान पर िेक लगा नीचे की ओर आना था अथा​ात ‘लैण्ड’ करना था। डेढ़ घटं े की इस यात्रा ने न के वल आसमान की ऊँचाइयों को छू आने की हसरत को परू ा मकया बमल्क पृथ्वी की वस्तओ ु ं को भी समग्र रूप में देखने की एक नई दृमि भी मवकमसत की। नीचे की ओर आता वह मवमान उसी तरह डरा रहा था जैसे उसने उड़ान भरते डराया था मकन्तु अब मै डर नहीं रही थी बमल्क उसके मोह-पाश में बंध चक ु ी थी। अब मेरी दृमि धरती की हररयाली देख अचंमभत थी। बड़े-बड़े खेत मामचस की हरी डब्बी होने का एहसास दे रहे थे तो घर की मबमल्डंगे भी रंग-मबरंगी डब्बी सरीखी मदख रही थी। मॉल की बड़ी मबमल्डंगे मजनके पास खड़े

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होकर हम उनकी मवशालता से आिया चमकत होते हैं और वे अपने पर गवोमन्वत ,अब उनके बौनेपन पर मझु े हसं ी आ रही थी। अपनी धाराओ ं को मोड-तोड़ और सीमाओ ं का अमतक्रमि कर आम आदमी की बमस्तयों को क्रूरता से मनगल जानेवाली नमदयां यहाँ से मात्र एक मोरी { जल मनकास-नली} की भांमत मालमू हो रही थी। बड़ी-बड़ी सड़के जो अपने अमस्तत्व पर इतराती रहती है वे मात्र तख्ती पर मखची चंद आडी-मतरछी लकीरों से बड़ी नहीं थी। इस यात्रा ने मझु े गल ु ेरी की कथाएँ याद मदलाई मजनमें वे कभी मवशालकाय प्रािी के रूप में तो कभी इचं -भर के मानर्षु - रूप में, मजसे हथेली पर रखा जा सके , मदखते थे। मै इस छोटे से सफर में इन दोनों भावों से भर रही थी। यहाँ से सीधे हम गेस्ट हाउस’ गए जो यमू नवमसाटी ने हमारे मलए बक ु मकया हुआ था। अगले मदन रमववार था सो आसपास घमू ने का कायाक्रम बना और हमने परू े मदन अजतं ा एलोरा घमू ा। इसी कस्बे में हमने पहली बार अजं ीर का फल खाया मजसे अब तक मात्र ‘ड्रायफ्रूट’ के रूप में ही खाया था। इसे फल रूप में खाकर न के वल मन तृप्त हुआ बमल्क नए अनभु व से भी दो-चार हुये। इसी तरह अगले दो मदन की अकादममक कायाक्रमों में सलननता के बाद,बहुत सारे लोगों से पररचय और मभन्न-मभन्न अनभु व ले हम पनु ः उसी पक्षी{मवमान} के माध्यम से वामपस आ चक ु े थे मामचस की मडमब्बयों में कै द होने की मवडम्बना के साथ। डॉ अनीता यादव गागी कॉलेज मदल्ली यमू नवमसाटी 9873650465

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िासहसययक सिमिक: िंस्मरण मैंने देखा है बादलों के आगे एक दुसनया और भी लता तेजेश्वर

मेरी फ्लाइट छुटने वाली थी। मैं मखडकी के पास वाली सीट पर बैठे सोच में मनमनन थी। मैं पहली बार अके ले घर और अपनी देश से दरू जा रही थी। मेरे पती तेजश्वे र मझु े इन्टरनशनल एरोड्रम तक छोड कर घर वापस लौट गए। वहाँ मेरी बाकी दोस्तों ने भी इसी फ्लाइट का इतं जार कर रहे थे । हम सब साथ में साल के दसू रे महीना फे िवु ारी के 21 तारीख को रात 6-30 बजे भटू ान यात्रा के मलए घर से मनकले थे। हमारा फ्लाइट रात के 9 बजे की थी। हम सब ने मटकट चैमकंग और पासपोटा की सारे मनयमों को पालन करते हुए फ्लाइट के अदं र पहूचँ े। अपना सामान कै ब में रख कर मैं अपने सीट पर जा बैठी। यात्री एक एक कर अपने सीट में बैठ रहे थे। उसी वक्त मेरी मेबाइल बज उठी । तेज का फोन था । दो ममनट बात कर रखमदए । मझु े पता था जब तक में सकुशल पहूचं कर उनसे बात कर न लेती तब तक वह मचंमतत रहेंग।े मैंने मखडकी से बाहर देखा एरोप्लेन को सट कर लगाई हुई सीमढयाँ हटाई जा रही थी । कुछ ही पल में मेरी फ्लाइट छूटने को तैयार थी। एयर होस्टेस हमारी स्वागत करते हुए सीट बेल्ट बांधने की सचू ना दी । मैं अपना फोन बंद करने से पहले मेरे पती और बेटी मेघा से आखरी बार बात की । कॉप्टेन मनोहर जोशी ने थोडी ही देर में प्लैन उडान भरने की सचू ना दी । उसके साथ ही सारे सरु क्षा की चेतावनी और हादसे के दौरान खदु को महफूस रखने के मलए जाने वाले सारे जानकारी दी गई । Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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गोरी गोरी सदंु र सदंु र जवान एयर होस्टेस लाल और गल ु ाबी रंग की मलपमस्टक लगाए हुए थे जैसे अभी अभी ब्यमु ट पालार से मेकअप करके फ्लाइट में चढी हो । पैर में काले रंग की नेट कपडे से बनी सक्स घटु नों से उपर तक ढके हुए थे और उसके उपर पएटं ेड काले रंग की बटू ् स उनकी पहनावा को और भी खबु सरू त बना रही थी । शरीर पर गाढा नीले रंग की टाइट जॉके ट जो शरीर की सौिव के अलग अलग अंगों को बारीकी से मदखा रहे थे । वही रंग की स्कटा कमर से घटु नों तक ढक रहे थे । वे अपने बालों को पीछे की और कसकर बांध कर रखे थे । उनकी बटू की ठक ठक आवाज बार बार मेरे ध्यान भनन कर रही थी । मैं लता तेजश्वे र के नाम से पहचानी जाती हूँ । संतोर्ष मश्रवास्तव जी ने जब भटु ान यात्रा की प्रस्ताव मेरे सामने रखी मैं तो उछल पडी थी। लेमकन संसाररक दौर से चलते मेरा इस कायाक्रम में भाग लेना हो पाएगा की नहीं इस मममांसा में थी । लेमकन तेजश्वे र ने मेरा यह मममासं ा को दरू कर मदया ।जैसे की मैने सतं ोर्ष जी के इस प्रस्ताव की बारे में बताया तरु ं त ही उन्होंने कहा आप को भी जाना चामहए । यह बात सनु कर मेरी खश ु ी का अतं नहीं था। मैं तरु ं त ही तैयार हो गयी। इस तरह संतोर्ष मश्रवास्तवजी के साथ साथ मवद्या मचटकोजी, रोचना भारती जी क्रीष्ट्ना खत्री जैसी बडे बडे रचनाकारों के साथ कुछ मदन मबताने का सौभानय प्राप्त हुई। इनके अलावा अनयु ा दलवी मममथलेश कुमारी आदी प्रमख ु ममहला लेमखकाएँ भी इस यात्रा में शाममल थीं । इन सब को मैं पहली बार ममली मगर ऐसा लगा की जैसे मैं बहुत पहले से उन्हें जानती हूँ । मेरा खश ु ी का तो अतं नहीं था। हम सब साथ मनकल पडे। हमारा मक्शद दसु रे देशों में जाकर लोगों से मेल जल ू बढ़ाना और उनकी रोजमरा​ा मजदं गी के अहं जानकारी हामसल करना था । पािात् देशों के लोगों की जीने की समलका उनकी ररती ररवाजें उनकी रहन सहन और उनकी जीवनी पर मलखकर लोगों को पािात देशों की तौर तरीके से रूबरू करवाना हमारा वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मक्शद था । साथ ही हमारा राष्ट्र भार्षा महदं ी को पािात् देशों में एक मचं देना और बेटी बचाव आदं ोलन की प्रचार भी हमारे मक्शद में शाममल थी । मैने मखडकी से बाहर देखा प्लेन धीमी गती से मनकल कर रफ्तार पकड़ चक ु ी थी । कुछ ही पल में हम मबंु ई की धरती छोडने ही वाले थे। एरोड्रम में जगह-जगह हवाई जाहाजें खड़ी थी । मकसी ने अभी अभी उड़ान भर कर आराम कर रहा था तो मकसी फ्लाइट को उड़ान भरने से पहले की सजावट की जा रही थी । मकसी हवाई जाहज को नहालाया जा रहा था तो मकसी जाहज गभावती ममहला की तरह लोंगों को शरीर में मलए रास्ता मक्लयर होने का इतं जार कर रही थी। तरह तरह की उड्डन जाहाज थे । कई छोटे तो कई बड़े, कई प्राइवेट प्लेन थे तो कोई सरकारी । जैसे की हमारी फ्लाइ मंबु ई की ममट्टी को छोडकर आकाश की तरफ उछल पड़ी वैसे ही खश ु ी और ड़र का एक मममश्रत भाव मन में कसमकस हो रहा था । जैसे की मझु े इस मरप में जाने की इजाजत ममलगई मैं तो बहुत खश ु थी । साथ साथ घर न लौटने की ड़र भी था जो मक अक्शर हवाई जाहाज के हादसों के चलते जो मन में होती रहती है। मैं सीट बेल्ट बांध कर पीछे की तरफ आराम से बैठने की कोमशश की । तब एयर होस्टेस की बटू की ध्वमन ठक ठक कर सनु ाई दी । वह चकलेट की टोकरी लेकर सामने रखी मैं कुछ चकलेट लेकर टोकरी वापस कर दी मफर मखडकी की ओर देखा। मखडकी से धरती का नज़ारा बहुत खबू सरू त नज़र आ रहा था । बढ़ते हुए गती के साथ साथ धरती पर चीजें छोटे छोटे और बहुत छोटे मदखने लगे। उपर से परू ी मबु ंई शहर मदख रहा था । गमतशील गामडयाँ फ्लाइ ओवर पर मचमटयों सी नज़र आ रही थी । बड़ी बड़ी इमारतें धरती पर नाक रगड़ते मदख रहे थे। मबंु ई का भगू ोल रुप रे ख समहत मबजली की रोशनी से मबंदओ ू ं सी सजाई हुई मदख रही थी । प्रशांत महा सागर की एक छोर मबु ंई की गेट वे से मनकल कर मेराइन ड्राइव और चौपाटी से होकर Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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शहर को छू कर मनकल रहा था । मबु ंई की मेराइन ड्राइव भारत माता को पहनाई हुई हीरे जेवरात की नेक्लेस की तरह खबू जगमगा रही थी । इसमलए मेराईन ड्राइव को डायमडं नेकलेस भी कहा जाता है । मबंु ई की लंबे खबु सरू त मिड्ज और मबंु ई की शान सी-मलंक की नज़ारा तो खासमखास था । धीरे धीरे सारे नज़ारे आँखों से ओझल होने लगे। हमारी हवाई जाहज आवाज़ करते हुए बादलों में प्रवेश करने लगा। समय समय पर फ्लाइट की कप्तान बाहर की मौसम और फ्लाइट की जमीन से उंचाइ के बारे में सचेत कर रहे थे । हम में से कुछ बातें करने में मनमनन थे तो कुछ हमारे अगले कायाक्रम के बारे में चचा​ा कर रहे थे। कुछ हसं ी मजाक कर रहे थे तो कुछ नींद की दमु नया में सैर कर रहे थे । बीच बीच में शेर शायरी का चटखा खबू मज़ा आ रहा था । समय ६बजकर १० ममनट हो चक ु ा था । जैसे की फ्लाइट बादल में प्रवेश करने लगा धरती का नज़ारा मबल्कुल ही मदखना बदं हो गया । जहाँ भी देखो सफे द तैरते हुए बादल। जैसे की दधू फशा पर मगर कर सफे द हो गई हो और मलाई जगह जगह अलग अलग सैप में दधू पर तैर रही हो । कहीं पलता सा एक सफे द चद्दर जैसी एक परदा मजसके अदं र से कहीं नीला आसमान मदख रहा है तो कहीं गाढा मलाई से भरी पाहड जैसी बादलें । जब इन बादलों से हवाइ जाहज रगड़ कर चलता तब आवाज़ समहत मवमान महलता ड़ुलता हुआ महससू होता रहता । अचानक ही कप्तान की आवाज़ सनु ाई दी खराब मौसम की चलते सरु क्षा के खातीर बेल्ट लगा कर बैठने की सचू ना दी गई । तब एयर होस्टस नाश्ता का पैकेट के साथ पानी ले कर पहूचँ ी। मेरा ध्यान कुछ समय के मलए नीला आसमान से हट कर उस एयर हस्टेस के उपर कें मद्रत हुई। 'थैक्य'ू कह कर मैने पैकट ले ली। खोल कर देखा एक सॉड् मवच प्लामस्टक् से लपेटे हुए साथ ही एक सॉस का पैकेट कुछ भनू े हुए वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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चने और एक एपल् ज्यसू की बोतल था। मैं प्लामस्टक हटा कर सॉंडमवच खाकर एपल ज्यसू पी ली। कुछ फ्रेश लगा । २ घटं े एयर पोटा में बैठे बैठे हल्की सी भख ू भी लगी थी । मन कर रहा था की कुछ चाय या कॉफी हो जाए । हमारी एक दोस्त ने एयर पोटा के अदं र एक कॉफी शॉप में पछ ू ा तो उसकी दाम एक अच्छी रे स्तराँ की अच्छी चाय से भी ४गनु ा अमधक था । मफरभी जरूरत तो जरूरत होते हैं चाहे छोटी हो या बड़ी । हमने कॉफी पी कर ही जाहज का इतं जार मकया। मैं कुछ देर आँख बंद कर सोने की कोमशश की लेमकन शाम का वक्त नींद कहाँ आनी थी । मन न जाने कहाँ कहाँ घमू कर आ जाती है । मफर मेरे मन की पटल पर घर और बच्चों की तमस्वरें मखलने लगी । वैसे मेरे बच्चे बड़े हो चक ु े हैं लेमकन माँ बाप के मलए बच्चे तो बच्चे ही होते हैं चाहे मकतने भी बड़े हो जाए। बेटा श्रावि तो अपनी मजम्मेदारी खबू समझता है लेमकन बेटी मेघा अब भी नादान है और तो और माँ बाप के मलए बेटी एक कागज की फूल की तरह होती है इसमलए वे बहूत नाजक ू से सभं ाल कर मदल से लगाए रखते हैं । आमखर बेटी माँ की मदल की टुकुडा और बाप की जान होती है । उन्हे भी दमु नया से ताल मेल बनाए रखने के मलए पढ़ा मलखा कर समाज में एक नाम और जगह बनाए रखना बहुत ही जरूरी हो गया है । समाज में स्त्री के प्रती हो रहे मानमसक शाररररक प्रताड़नाएँ माँ बाप के मदल दहला कर रख देती है । ऐसे हालात में उन्हें मशक्षा और कामबमलयत ही एक ऐसा मागा है जो उन्हें समाज में कंधे से कंधा ममला कर चलने के मलए महम्मत देती है । इसमलए हर वक्त उन्हें पढ़ाई के मलए जोर देनी पड़ती है । पर बच्चे तो बच्चे ही हैं, उनके जो मन में आया उन्हें वही सही लगता है । यही ख्याल अक्शर मन में आती है न जाने पढ़ने बैठी होगी की नहीं । मझु े मेरी बचपन याद आ गई। मैं भी बचपन में कहाँ पढाई करती थी । कहने को तो मकताब गोद में रहती थी पागल मन कहीं ओर भटकता रहता था । Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

छत पर बैठे बैठे शाम की सनु हरा आकाश को ताकती रहती थी । आकाश के बदलते रंगों को मनहारती रहती थी । जब सरू ज ढ़लने लगता मदन का उजाला अधं ेरे में छुपने लगता तब आकाश में चमकती वह सांझ तारा मेरा सारा ध्यान अपने तरफ खींच लेता । आकाश में वह अके ला तारा जैसे मझु े टुकुरू टुकुरू देखता था । जब उस चमकते मसतारे को देखती थी मैं अपना पलक छपकाना भल ू जाती। मेरा मन चंचल संमदं र जैसे उछलने लगता था । बहुत देर तक उस तारे को देखती रहती थी । उस सांझ तारा से जैसे एक बधं न सी जड़ु गई हो । कभी लगता उस तारे से कोई जमीन पर उतर आए और मेरे हाथ पकड़ कर उस दरू आकाश में सैर कराने ले जाए। जी करता उस अनंत नीली अबं र की इस छोर से लेकर उस छोर तक उस तारे की आँखों में आँखें ड़ाल कर परू ी आसमान की सैर करलँू । इतने में मेरी पास बैठी संतोर्ष दी और लक्षमी मखलमखला कर हँसने लगी । मेरा ध्यान सोच से हट कर उन पर कें मद्रत हो गई । कुछ समय हसं ी मजाक और शेर शायरी चलती रही । पानी पी कर वक्त देखा अभी काफी वक्त था अपने गम्य स्थल पर पहूचँ ने को। जब मैने आकाश की ओर देखा मेरे सामने नीली आकाश बाहें फै लाए नज़र आ रहा था। नीचे देखँू तो जैसे सफे द बादलों की चद्दर मबखेर पड़ी थी । जगह जगह दधू की गहरी रंग जैसी बादल कहीं गाढ़ी तैरती मलाई जैसी बादल तो कहीं हल्के भरू े रंग के बादल । कहीं कहीं हवा से इधर उधर उड़ती हुई कपास जैसे बादल । दरू कहीं ड़ुबते सरू ज की सनु हरी रोशनी बादल के उपर से प्रस्फूमटत हो रही थी। कहीं लाल तो कहीं पीले रंग से ससु ज्जीत मदख रही थी जैसे की शादी के जोड़े में हँसती खेलती दल्ु हन। मैने आँखे पसार कर दरू गगन की ओर देखा दरू नीली अबं र पर मस्ु कुराती हुई वही मसतारा नज़र आई जो मेरी बचपन की सखी सहेली सबकुछ थी। मेरे होंठों पर एक हमल्क सी मस्ु कुराहट मखल गई । एक पल तो मन मकया हवाई जाहज की दरवाजा खोल कर बाहर चली जाउँ उन बादलों के बीच जो की मझु े हाथ पसार कर बल ु ा रहे वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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थे और उस सांझ तारे को एकदम से गले लगा लँू । मखडकी के अदं र से ही हाथ फै ला कर मैने उसकी मकस्सी ली । हवाई जाहज को मेरे मन में चल रहे इन सारे ख्यालों का क्या पता था वह तो अपनी ही धनु में उड़ती जा रही थी और मैं अपनी दमु नया में खोई हुई थी । जैसे की खराब मौसम का ऐलान हुआ मैं सीट बेल्ट कस कर बांध कर रखी । कुछ ही देर में वह सफे द बादल कहीं गायब हो गए भरू े रंग के बादलों के बीच हवाई जाहज उड़ता चला । आगे जाते जाते वह रंग और भी गहरा होने लगा । कहीं कहीं मबजली कड़कने लगी । मबजली की कड़कती आवाज़ हवाई जहाज की आवाज़ में कहीं गमु हो रही थी पर भरू े रंग के बादलों के बीच से मबजली की झलक मदख रही थी । मैं समझ गई की धरती पर मबजली चमक रही होगी मजसकी झलक बादलों के उपर तक मदख रही है । लेमखका अगर ररयमलटी में जीने लगी तो लेमखका कै से बनीं ? मैं तो सपनो को घेरे में जी रही हूँ । ररयमलटी में भी कुछ नया ढूँढ लेना उस नया पन में एक नयी कहानी ढूँढ लेना ही तो लेमखका की खामसयत है । नए नए शब्दों से एक नयी कहानी रचना उन कहामनयों में रंग भर कर पाठकों को पेश करना कोई आसानी बात नहीं थी । इस बात पर एक बात याद आ गई बहूत खबू कहा है मकसीने और मबल्कुल सही कहा है, " जहाँ पहूचँ न पाता है रवी वहाँ पहूचँ जाता है कवी" । वाह! यही खयालात मेरे मन को छू गई, उन कड़कती बादलों को देख कर मेरे मन का ड़र बाहर उभर आया । जगह जगह मबजली की झलक बादलों के उपर से टचा की रोशनी जैसी नज़र आ रही थी । पल भर के मलए लगा जैसे मकसी मपता ने अधं ेरे में अपनी रास्ता भटकी हुई बच्ची की तलाश में टचा लेकर ढूढँ रहा हो । मदल में भय और ममता मलए कड़कड़ाती और थरथरा​ाती आवाज़ से अपनी लाड़ली बेटी को पक ु ार रहा हो । एकदम से मेरे रोंगटे खड़े हो गए और रोम रोम काँप उठे । मेरी अपनी बेटी की याद आ गई और मैं सपनों को तोड़ कर सीधी बैठ गई । बहुत देर तक उन आवाज़ों को महससू करती रही । मबल्कुल उसी वक्त Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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ही कप्तान का आवाज़ सनु ाई मदया मक हम ममं जल के करीब पहूचँ गए हैं और कुछ ही देर में हमारा हवाई जाहज लेंमडंग हो जाएगा । मैने आखरी बार उस सांझ तारा को देखा । वह मेरे बहुत ही करीब नज़र आ रही थी , एक पल में लगा मैने बचपन में देखी हुई वह सपना साकार हो गयी। मैं बहुत देर तक उस नीली नीली अबं र में बादलों के बीच उस साझं तारे की आँख में आँख ममला कर सैर ही तो कर रही थी । कुछ ही देर में हमारी हवाई जाहज भमू ी की ओर गतीमान होने लगी। वह बादलों से मनकल कर धीरे धीरे धरती के तरफ बढने लगा । मेरी सामने मखडकी पर बाररश के बँदू े टपटपाने लगे थे । एयर पोटा की मबजली, बाररश के साथ साथ हमारा स्वागत कर रही थी । न जाने क्यों कुछ पल के मलए मेरे आँखें नम हो गए । लगा मक ये अश्रु वो मपता के तो नहीं जो अपनी बच्ची के तलाश में भटक रहा था । क्या यह अश्रु अपनी बच्ची को पाकर उससे ममलने मक ख़श ु ी से होगी या...... मफर... खोने की दःु ख से..? मफर क्या था धरती की हर चीज मझु े धंधू ली सी नजर आने लगी । हमारी मम्ु बई से कोलकत्ता की सफर इस तरह रहा। हवाई जाहज धरती को छूते ही हम सब लेमखकाएँ अपने अपने सामान कै ब से मनकालने लगे और आगे की सफर की ओर बढ़ गए । लता तेजेश्वर Mob.no: 9004762999

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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आिान नहीं है बद्री नारायण लाल हो जाना िुिील स्ितंि मबहार कम्यमु नि पाटी के इमतहास में 21 मई 2017 कभी नहीं भल ु पाने वाली वह तारीख है, जब साम्यवादी आन्दोलन का चमचमाता लाल मसतारा अपने सामथयों को हमेशा के मलए अलमवदा कह गया। गत 31 मई को पटना के आईएमए सभागार में भारतीय कम्यमु नि पाटी ने मदवगं त कॉमरे ड बद्री नारायि लाल की स्मृमत में सवादलीय श्रद्धांजमल सभा का आयोजन मकया। श्रद्धांजमल सभा में बद्री बाबू की जीवनी और उनके योगदानों पर मवस्तार से बातें हुई। तमाम वक्ताओ ं ने उनसे जड़ु े संस्मरि साझा मकए। अपनी सरलता और सहजता से मकसी को भी प्रभामवत कर लेने की अमद्वतीय क्षमता के धनी बद्री बाबू का व्यमक्तत्व मवमवधरंगी आयामों ममलकर बना था। वे एक सच्चे माक्सावादी, कमाठ संगठनकता​ा और मवधायी जीवन में ईमानदारी की ज्वलंत ममशाल होने के साथ-साथ एक बेहतरीन एवं प्रेरक मपता थे। दरअसल, सबके प्यारे बद्री बाबू की जीवन गाथा को मकसी एक श्रद्धांजमल सभा में समेट पाना संभव ही नहीं है। और न मकसी एक आलेख में उनके जीवन के हर पहलू को छू पाना संभव है। श्रद्धांजमल सभा में बोलते हुए वयोवृद्ध कॉमरे ड गिेश शक ं र मवद्याथी ने बद्री बाबू के जीवन-संघर्षा को एक वाक्य में समामहत करते हुए कहा था मक “बद्री बाबू को अर्गर सच्ची श्रद्धाजं शल देनी है और अर्गर हमारे अन्दर जरा भी कम्यशु नष्ट श दं ा है िो अपने आस-पास जहाीँ कहीं भी िोषण हो रहा हो, उसके शखलाफ लड़ाई खड़ी कीशजए ।” कॉमरे ड गिेश शक ं र मवद्याथी ने बद्री बाबू को तब से देखा था जब वे मशक्षक की नौकरी छोड़कर प्रमतबमं धत कम्यमु नि पाटी को अपना जीवन सममपात करने आए थे। उन्होंने भमू मगत रहकर पाटी का काम शरू ु मकया था और आमखरी सांस तक उनकी सबसे बड़ी मचंता पाटी और संगठन ही थी। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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अभी चार महीने पहले ही (मदसंबर 2016 में) उनको पेसमेकर लगाया गया था। अस्वस्थ्य होने की अवस्था में भी कोई ऐसा पाटी कायाक्रम नहीं था, मजसमें मकसी यवु ा की तरह बद्री बाबू शाममल होने के मलए आतरु न रहते हों। असल में उनके मलए जीवन में पाटीसंगठन से बड़ी कोई और प्राथममकता थी ही नहीं। अपने जीवन के आमखरी कायाक्रम में वे पत्नी और घरवालों के हजार बार मना करने के बावजदू खगमड़या पाटी संगठन सम्मेलन में भाग लेने रेन से चले गए, जबमक डॉक्टरों ने उनको रे ल यात्रा नहीं करने की सख्त महदायत दी थी। वहीं जाकर बद्री बाबू को तेज बख ु ार आया। सामथयों ने उनको सम्मेलन में भाग न लेकर आराम करने को कहा। बद्री बाबू बख ु ार की दवाई लेते रहे लेमकन उनका मन होटल में रुक कर आराम करने में नहीं लगा। वे दवाई खाकर रोजाना सम्मेलन सभागार में सबसे पीछे जाकर बैठ जाया करते थे। अपनी आमखरी साँस तक बद्री बाबू इस बख ु ार से पीमड़त रहे। बद्री बाबू उन तथाकमथत कम्यमु निों में से नहीं थे जो वैचाररक रूप बल ु ंद और बेहद वाचाल होते हैं लेमकन सामामजक कुरीमतयों और धाममाक अधं मवश्वासों के मामले में बगलें झाँकने लगते हैं। 1973 में उनके मपता स्वगीय नोखी लाल का मनधन हुआ। उस समय का समाज प्रगमतशील मवचारों को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता था, मफर भी सामामजक मान्यताओ ं के मवरुद्ध खड़े होकर बद्री बाबू ने मपता के देहांत के उपरातं मकसी तरह का कमाकांड नहीं होने मदया। बद्री बाबू मृत्यू के बाद के जीवन या पनु जान्म जैसी धारिा को अधं मवस्वास मानते थे, इसमलए उन्होंने रामपरु के समस्त मनवामसयों को समू चत कर मदया था मक उनके मपता के दाह-संस्कार के बाद मकसी िाह्मि को भोज नहीं कराया जाएगा। इकलौते पत्रु होने के बावजदू मपता की मृत्यू के बाद न तो उन्होंने अपने मसर के बाल मडंु वाए और न ही मकसी तरह का मक्रया-क्रम (तेरहवीं आमद) मकया। ऐसा ही 1994 में उनकी माताजी की मृत्यू के समय हुआ। बद्री बाबू मकसी कॉमरे ड को वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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आडम्बर करते देख बहुत दख ु ी होते थे। यही कारि है मक उनके देहातं के बाद उनके मवचारों को सम्मान देते हुए दोनों बेटों ने न तो के श-त्याग मकया, न िाह्मि भोज और न ही मकसी तरह का मक्रया-कमा या संस्कार मकया गया। अपने बच्चों की शादी बद्री बाबू ने जामत-धमा के बन्धनों और सामामजक मान्यताओ ं से बहुत ऊपर उठकर मकया। वे सच्चे अथों में प्रगमतशील मवचार के साथ जीने वाले व्यमक्त थे, जो जामत और धमा की दीवारों को लांघकर उच्च आदशा स्थामपत करने में यकीन रखते थे। उनकी पत्रु ी ने जब एक ममु स्लम कॉमरे ड के बेटे से शादी की इच्छा जताई, तब बद्री बाबू ने सामामजक बंधनों की तमनक भी परवाह न करते हुए इस शादी को मजं रू ी दे दी। इसी तरह उनके पत्रु ने भी अनसु मू चत जामत की अपनी सहकमी से मववाह के मलए जब बद्री बाबू से इजाजत माँगा, तब उन्होंने मबना दहेज मलए उस शादी की न मसफा इजाजत दी बमल्क शादी समारोह रामगढ़ में आयोमजत कर बहुत अमभमान के साथ पत्रु का आदशा मववाह करवाया। अपने दोनों बेटों की शादी में बद्री बाबू ने एक रूपया भी दहेज नहीं मलया और न ही कोई धाममाक मत्रं ोच्चारि या कमाकांड हुआ। समाज में भी वे मबना मतलक-दहेज की शादी को हमेशा प्रोत्साहन देते थे। बद्री बाबू को इस बात का बहुत अमभमान था मक वे उस पाटी से जड़ु े हैं, जो उच्च आदशों और आचार-संमहता का पालन करने वाली इकलौती राजमनमतक पाटी है। वे कॉमरे ड भवु नेश्वर शमा​ा का उदाहरि हमेशा देते थे, मजनको मवधायक होने के बावजदू पाटी ने अपने बेटे की शादी में पच्चीस हजार रुपये दहेज देने की वजह से मनष्ट्कामसत कर मदया था। बद्री बाबू कम्यमु नि पाटी में आचार-संमहता की लगातार अनदेखी से दख ु ी थे। वे पाटी के रामष्ट्रय पररर्षद् का सदस्य होने के नाते कई बार कॉमरे ड्स के मलए पाटी द्वारा तय मकए गए आचार-संमहता के अनपु ालन की अमनवायाता का मद्दु ा नेशनल काउंमसल मीमटंग उठा चक ु े थे, हालाँमक उनको इस बात का Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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अफ़सोस भी था मक बदलते दौर में पाटी के नेता और कॉमरे ड्स आचार-संमहता को लेकर गभं ीर नहीं रह गए हैं। कम्यमु नि आन्दोलन के इमतहास में जब भी बद्री बाबू को याद मकया जाएगा, एक जबरजस्त संगठनकता​ा के रूप में मकया जाएगा। अमवभामजत मबहार में उन्होंने संगठन मनमा​ाि का काम शरू ु मकया। कॉमरे ड जगन्नाथ सरकार की एक मचठ्ठी ने बद्री बाबू के जीवन की धारा ही मोड़ दी। वे यवु ावस्था में ही हाई स्कूल मशक्षक की नौकरी छोड़कर भारतीय कम्यमु नस्ट पाटी के परू ावक्ती कायाकता​ा (होलटाइमर) बन गए और कॉमरे ड चतरु ानन्द ममश्र की मदद करने के मलए (तत्कालीन) मबहार के मगररडीह में माईका मजदरू ों के रेड यमू नयन का दामयत्व सभं ाल मलया। इसके बाद बद्री बाबू ने कभी पीछे मड़ु कर नहीं देखा। आज के झारखण्ड के सदु रू पठारी गाँव हो या कोयलांचल के दगु मा इलाके , बद्री बाबू ने पैदल चलकर यवु ाओ ं और मजदरू ों को प्रेररत करके पाटी संगठन का गठन मकया। हजारीबाग में पाटी की नींव रखने के बाद बद्री बाबू को वहां के मजला मत्रं ी का कायाभार पाटी ने सौंपा। उन्होंने हजारीबाग को कें द्र बनाकर आस-पास के कई मजलों में लाल परचम बहुत शान से लहराया। अनेक मजदरू ों-मकसानों के आन्दोलन खड़े मकए और उनका नेतत्ृ व मकया। इसके बाद पाटी ने उन्हें राज्य के के न्द्रीय नेतत्ृ व में रहकर काम करने का आदेश मदया और वे पटना बल ु ा मलए गए। वह पाटी की अमवभामजत मबहार राज्य पररर्षद, राज्य कायाकाररिी, राज्य समचवमडं ल, राष्ट्रीय पररर्षद और राष्ट्रीय कायाकाररिी के सदस्य के रूप में उल्लेखनीय भमू मका अनवरत मनभाते रहे और मबहार मवधान पररर्षद में दो टमा तक भाकपा का प्रमतमनमधत्व मकया। मवधान पररर्षद् में उनकी दमदार उपमस्थमत को इमतहास में याद मकया जाएगा। उनके मवधायी जीवन पर एक अलग आलेख में बात करना ही मनु ामसब होगा।

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मबहार ही नहीं परू े देश में जब कम्यमु नि आन्दोलन कमजोर पड़ रहा था। साप्रं दामयक ताकतों ने जहर उगलना शरू ु कर मदया था और सरकारें कॉपोरे ट घरानों के तलवे चाट रही थी। ऐसे समय में बद्री बाबू 18 मसतम्बर, 2004 में पाटी की मबहार राज्य पररर्षद के समचव मनवा​ामचत हुए और 7 जनू , 2012 तक इस हैमसयत से पाटी का नेतत्ृ व मकया। मबहार के पाटी कामरे ड्स में बद्री बाबू के राज्य समचव बनने से उत्साह की लहर दौड़ गई। पाटी हर मजले में मफर से मजबतू होने लगी। राज्य समचव रहते हुए बद्री बाबू ने के न्द्रीय पाटी नेतत्ृ व को पाटी का 21 वाँ राष्ट्रीय महामधवेर्षन पटना में करने का भरोसा मदलाया। उस समय सभी सामथयों को ऐसा लगा मानो उनका यह कदम दस्ु साहस से भरा है। लेमकन बद्री बाबू फौलादी इरादों वाले नेतत्ृ वकता​ा थे। उन्होंने एक करोड़ रुपये पाटी फंड में जटु ाने का कॉल मदया। राज्य भर के सभी साथी लगन से इस लक्ष्य को परू ा करने में जटु गए। आमखरकार पाटी फंड से उम्मीद से कहीं ज्यादा चन्दा इकठ्ठा हो गया। 27 से 31 माचा 2012 में जब भारतीय कम्यमु नि पाटी का 21 वाँ राष्ट्रीय महामधवेशन पटना में हुआ, तब देश भर के प्रमतमनमधयों ने मबहार की पाटी का लोहा मान मलया। इसी महामधवेशन में पाटी के नये कायाक्रम का मसमवदा पेश हुआ जो 2015 के पडु ु चेरी महामधवेशन में स्वीकृ त हुआ और आज पाटी के मक्रयाकलापों व नीमतयों की मागादमर्षाका है। अपने कायाकाल में बद्री बाबू ने पाटी के बकाया भारी मबजली मबलों का भगु तान, पाटी के जनशमक्त अखबार के पनु प्राकाशन और मबहार सरकार से बात करके जनशमक्त के भमू म आबंटन की लीज का नवीनीकरि जैसे महत्वपिू ा कामों को अजं ाम देकर पाटी को अभतू पवू ा मजबतू ी प्रदान मकया। अपनी मृत्यु के समय वे पाटी की राज्य कायाकाररिी के सदस्य थे। मपछले 17 माचा को खगमड़या में पाटी संगठन के सम्मेलन के दौरान बद्री बाबू को तेज बुखार आया, मजससे वे 21 मई को अपनी जीवन के आमखरी क्षि तक पीमड़त रहे। उन्हें इलाज के मलए पहले रामगढ़ Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मस्थत सीसीएल के अस्पताल में भती करवाया गया, स्वास्थ्य में सधु ार नहीं होने पर दो बार राच ं ी के मेदतं ा अस्पताल में भती रखा गया। यहाँ भी मस्थमत में सधु ार न देखकर उन्हें 21 अप्रैल को वेल्लौर मस्थत सीएमसी हॉमस्पटल ले जाया गया, जहाँ इलाज के दौरान 21 मई को उन्होंने आमखरी साँस ली। पाटी से बढ़कर बद्री बाबू के जीवन में कुछ और था ही नहीं। बद्री बाबू सबके मप्रय साथी थे। मबहारझारखण्ड के लोग उन्हें “बद्री दा” कहकर पक ु ारते थे। वे सबको एक ही नजर से देखते थे। उनके मलए कोई पराया नहीं था। सबको अपना बना लेने की जादईु क्षमता थी बद्री बाबू में। आज के समय में बद्री बाबू जैसा दसू रा नेता हो पाना असंभव है। उनके चले जाने से मबहार-झारखडं के ममा​ाहत पाटी सदस्यों को अच्छी तरह मालमू है मक मजदरू वगा, मेहनकश अवाम, समस्त दममत, उत्पीमड़त मानवता के मलए बद्री दा का जाना एक अपरू िीय क्षमत है। 23 मई 2017 को उनके पामथाव शरीर को वेल्लौर से उनके मनवास स्थान रामगढ़ (झारखण्ड) लाया गया। कॉमरे ड बद्री नारायि लाल को लाल सलाम और बद्री दा तेरे अरमानों को ममं जल तक पहुचँ ाएँग,े आसमान में गजंू ते इन्हीं नारों के साथ लाल झडं े के इस मसपाही को उनके घर गीता सदन से लाल झंडे में लपेट कर दामोदर मकनारे बने श्मशान घाट तक ले जाया गया। बद्री नारायि लाल जैसे साथी और नेता बार-बार पैदा नहीं होते हैं। ऐसे मबरले कॉमरे ड के अरमानों को ममं जल तक पहुचं ाने का सक ं ल्प मसफा बद्री बाबू को याद करने की सालाना रस्मअदायगी से परू ा नहीं हो पाएगा, बमल्क कम्यमु नि मल्ू यों को आत्मसात कर समाजवाद की सच्ची लडाई को बुलंद करके ही बद्री दा के सपनों को परू ा मकया जा सकता है। यही बद्री बाबू को सच्ची श्रद्धाजं मल होगी। मृत्यू के बीस मदन पवू ा एक मई को जब उन्हें बताया गया मक आज मजदरू मदवस है, तब वे वे गहन मचमकत्सा कक्ष में जीवट लड़ाके की तरह वे मौत को वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मात दे रहे थे। थोड़ी देर के मलए वे भावशन्ू य होकर ऊपर देखते रहे, मफर उन्होंने उन नाजक ु क्षिों में भी अपने मोबाइल फोन से पाटी के सामथयों को मई मदवस पर मनम्नमलमखत सन्देश प्रेमर्षत करने के मलए कहा : “सप्रय िाथी, इि मई सदवि पर मेरी तसबयत मेरा िाथ नहीं दे रही है सक मैं आपके िाथ कंधे पर लाल झंडा लेकर दुसनया​ाँ के मजदूरों के हक़ में नारे बुलंद कर िकूाँ, लेसकन आपको लड़ते रहना होगा । लाल िलाम बरी नारायण लाल (CMC वेल्लौर के ICU वाडष िे)”

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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िासहसययक सिमिक: हाईकु

ISSN: 2454-2725

सिडम्बना-

हाइकु- डॉ अचक ना सिहं

चाह मझु से

बेसियाँ-

पिू ा समपाि की ?

प्रसव पीड़ा

स्वयं स्वाथी ।

नहीं, ये तड़प तो बेटी होने की ।

तारे मगनते देखती रही राह,

बेटी होने की,

तमु न आये ।

सनु खबर मरु झाया है, मख ु ।

बाट जोहती सरू ज उगने की

पाँव पसार

बदली छाई ।

अब सोयेगा मपता बेटी ब्याह दी ।

कराहती माँ दे रही आवाज

लाडली बेटी

बेटा है धतु ।

बढ़ी दरू ी इतनी बनी बहू जो ।

सख ू ी धरती हो उठे गी व्याकुल

पाँव पजू ते

पानी न डालो ।

बेटी हुयी पराई वाह री रीत

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डॉ अचकना सिंह गोमती नगर एक्ि​िेंिन लखनऊ, वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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उदास आत्मा ।।

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मेरे चन्द्द हाइकु ियया िमाक ' कीसतक '

गजु रे पल उग आती झरु रा याँ उम्र डाली पे ।।

दौड़ता अश्व जीवन पथ पर मन सारथी ।।

पछ ू ते बच्चे आँगन औ तल ु सी ममलते कहाँ ।।

मदन गौरै या चगु ती जाती दानें उम्र खेत का ।।

नये सृजन रचे परमेश्वर धरा चाक पे ।।

हमारा मन कमजोर पमथक Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

सकिान मचलमचलाती जीवन की ये धपू वर्षा​ा तू कहाँ ।।

जीवन पथ मसफा संघर्षारत रोये मकसान ।।

सख ू ी है आँखे धरती है उदास इद्रं नाराज ।।

फटी जमींन फसल हुए नि जीवन व्यथा ।।

गीला है मन बस एक उपाय खदु की हत्या ।।

कड़वा सच होते ही हैं अनाथ सारे मकसान ।। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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टपके लहू आसमानी गोद से हैरान आँखे ।।

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रक्षा बन्धन हो स्नेह का चदं न मगं लकारी

आनन्द्द बाला िमाक

मैं और तमु नदी के दो मकनारे नतीजा शन्ू य

पता न चला कर मलया मकनारा बातों बातों में

कृ ष्ट्ि कन्हैया बजाओ रिभेरी करो न देरी

बादल छाए कहाँ गमु हो गए चाँद मसतारे

भीगा भीगा सा भीतर का मौसम बाहर शष्ट्ु क

फटे बादल बाररश घनघोर हाल बेहाल

मत लजाओ लज्जा की बात पर आयधु बनो

दोस्त हजार आभासी दमु नया में मबकाऊ प्यार

आग ही आग छोटी सी मचंगारी से जीवन खाक

पराया धन पराया होकर भी रहा पराया

सबसे न्यारी जन जन को प्यारी महन्दी हमारी

मजयो आजाद आजाद भारत में मरो आजाद

मेरे जख्मों को भर मदया तमु ने अनजाने में

मपसे मजतना मेहदं ी का रंग है चढ़े उतना

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मपछले कई सालों से अध्ययन – अध्यापन करते समय तथा शोधामथायों से शोध काया करवाते समय यह ध्यान में आया मक शोधाथी अनसु धं ान प्रमवमध से पररमचत नहीं होता। यमद अनसु धं ान प्रमवमध से पररमचत होता है तो पररकल्पनाओ ं (Hypothesis) के बारे में वह जानता नहीं है। पररकल्पनाएँ अथा​ात क्या? पररकल्पनाओ ं का स्वरूप क्या होता है? पररकल्पनाएँ मकस तरह मलखी जाती हैं? इन पररकल्पनाओ ं का शोधकाया में क्या महत्व है? – इन सारी बातों के प्रमत शोधकता​ा अनमभज्ञ होता है । शोधकाया का प्रारंभ वास्तव में मन में उठी मकसी मजज्ञासा, मकसी प्रश्न या कोई समस्या से होता है। मजज्ञासा ही शोधाथी को शोधकाया करने के मलए बाध्य करती है। प्रश्न का उत्त्तर पाने की ललक शोधाथी को चलाती है और समस्या का समाधान ढूँढे मबना शोधाथी को शामन्त नहीं ममलती। परंतु यह अनभु व है मक न तो शोधाथी के मन में कोई मजज्ञासा

होती है, और न ही उनके मन में कुछ प्रश्न होते हैं और ना ही मकसी समस्या को लेकर शोधाथी मनदेशक के पास आता है। यह मस्थमत अक्सर मदखाई देती है अपवादात्मक रूप में ही कोई शोधाथी, वास्तमवक शोधाथी के रूप में मदखाई देता है। अनसु ंधान में मवर्षय चयन का बहुत महत्व होता है। यह एक लंबी प्रमक्रया भी है। शोधाथी पहले कुछ पढ़े, उस मवर्षय में उसकी रूमच बढे तब कही वह उस मवर्षय पर शोध के बारे में सोच सकता है। शोधाथी की मकसी मवर्षय के बारे में सोचने की प्रमक्रया शरू ु होना शोध की पहली सीढ़ी है। पंजीकरि के पवू ा की यह प्रमक्रया लंबे समय तक चलती है । सोचने की प्रमक्रया के कारि ही अनसु ंधानकता​ा अपनी रूमच के क्षेत्र का चयन कर सकता है। अनसु धं ान कता​ा को अपनी रूमच के क्षेत्र में अध्ययन करने की मस्थमत इस प्रमक्रया से ही मनमा​ाि हो सकती है और इसी प्रमक्रया के कारि उपयाक्त ु प्रश्न उसके मन में मनममात होते हैं। परन्तु वास्तमवकता कुछ और ही होती है। शोधाथी तो सीधे शोधमनदेशक के पास पहुचं ता है और शोधमनदेशक से ही यह कहता है मक – “कोई आसान मवर्षय आप ही दीमजए; तामक शोधकाया जल्दी से जल्दी परू ा हो जाए।” शोधमनदेशक को भी अपने शोधामथायों की सख्ं या बढ़ानी होती है । वह उसे मवर्षय दे देता है और काम शरू ु हो जाता है। शोधकाया का प्रारंभ ही उमचत पद्धमत से न होने के कारि न वह पररकल्पनाएँ मलख पाता है और न वह जो काया करने जा रहा है उसका उद्देश्य क्या है इस बात का उसे पता चलता है। अनसु ंधान में पररकल्पनाएँ उसके मदमाग में नहीं है, शोधकाया के उद्देश्यों का भी पता नहीं है तब उसके काया में भटकाव आ जाता है। मदशा के अभाव में बार – बार शोध काया छोड़ देने की इच्छा बलवती होती है। कभी – कभी वह अनसु ंधान काया परू ा कर नहीं पाता। शोधकाया आनंद देने के बजाए नीरस और उबाऊ लगने लगता है। उपामध पाना उसका लक्ष्य है। इसमलए

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िोध-सिमिक/Research Discourse

सहमाचल प्रदेि सिश्वसिद्यालय के १२४ िे उन्द्मुखी कायकिम के िभी प्रसतभासगयों के पीएच.डी. िोध प्रबध में उसल्लसखत ं पररकल्पनाएँ (Hypothesis), उद्देश्य (Objectives), एिं सनष्ट्कषक ( Findings) का स्िरुप : एक अिलोकन डॉ. रमा प्रकाि निले डॉ. प्रेरणा पाण्डेय डॉ. मंजु पुरी प्रस्तािना एिं सिषय चयन का महयि


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जैसे तैसे वह काम परू ा कर लेता है। ऐसी मस्थमत में शोध काया के मनष्ट्कर्षा स्पि रूप में कै से आ सकते है? मनष्ट्कर्षा भी वह मलख नहीं पाता। शोधप्रबंध जांचने की मवमध एक अलग शोध का मवर्षय हो सकता है। इस प्रकार के शोधप्रबंध कचरे के ढेर का महस्सा बन जाते हैं। मवश्वमवद्यालय अनदु ान आयोग द्वारा प्रमवमध समु नमित कराने के बावजदू इस प्रमवमध के प्रमत गभं ीरता से न देखने के कारि शोधकाया में भारत मपछड़ रहा है; यह बात सवामवमदत है। अनसु ंधान में दमु नया के १३० देशों में भारत का स्थान कभी भी १०० के अदं र नहीं आ पाया है। यह मचंताजनक मस्थमत है। शोध में सधु ार हमारी अमनवायाता है। इस काया के प्रमत शोधकता​ाओ ं को अमधक सतका , समक्रय, पररश्रमी, बनाने की दृमि से तथा मनमित मदशा में काम करने की दृमि से प्रयास जरुरी हैं। यही वह प्रश्न है मजसके उत्तर ढूँढने का एक छोटा सा प्रयास इस काया द्वारा मकया जाना है।

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तो सभी ज्ञान शाखाओ ं की दृमि से है। अनसु ंधान प्रमवमध का अध्ययन मकए मबना मकसी भी मवर्षय में शोध काया मकया ही नहीं जा सकता। मशमला में आयोमजत १२४ वे उन्मख ु ी कायाक्रम में मवमभन्न राज्यों के १६ मवर्षयों के प्रमतभागी समम्ममलत है। इन सभी की दृमि से इस मवर्षय का महत्व है। इनमें कुछ शोध मनदेशक हैं, कुछ मवद्यावाचस्पमत है, कुछे क को अभी मवद्यावाचस्पमत बनना है। सभी की दृमि से इस मवर्षय का महत्व मनमवावाद है। यह शोध प्रकल्प अतं र अनश ु ासनीय शोध प्रकल्प है। िोध सिषय का राष्ट्रीय एिं अंतराकष्ट्रीय दृसि िे महयि

अनसु धं ान की एक मनमित पद्धमत है ; मजसे अनसु धं ान प्रमवमध कहा जाता है। इस प्रमवमध के अनसु ार ही शोध काया होना चामहए। इस प्रमवमध से, मकसी भी सक ं ाय के मकसी भी मवर्षय में शोध करनेवाले शोधकता​ा को पररमचत होना जरुरी होता है। प्रो. यशपाल ने भारतीय ज्ञान आयोग द्वारा अतं र अनश ु ासनीय अध्ययन के महत्व को सबसे पहली बार प्रमतपामदत मकया। उसके बाद अतं र अनुशासनीय दृमि से मकए जानेवाले अध्ययन का महत्व बढ़ गया। मवश्वमवद्यालय अनदु ान आयोग अतं र अनश ु ासनीय शोध पर बल देता है। लघु और बृहत प्रकल्प काया को स्वीकृ मत देते समय शोध मवर्षय का अतं र अनश ु ासनीय दृमि से महत्व देखा जाता है। यह जो छोटा सा प्रकल्प काया मकया जा रहा है इसका महत्व

ऊपर बताया जा चक ु ा है अनसु ंधान के क्षेत्र में भारत बहुत मपछड़ रहा है। मवश्वमवद्यालय अनदु ान आयोग ने मवद्यावाचस्पमत उपामध के मलए पजं ीकृ त शोधामथायों के मलए एक पाठ्यक्रम (Ph.D. Course – Work) अमनवाया मकया है। इस पाठ्यक्रम में चार प्रश्नपत्रों में पहला प्रश्नपत्र अनसु न्धान प्रमवमध का भी है। हमारे यहाँ बहुत अच्छी –अच्छी योजनाएँ बनती है ; परंतु अमल में लाते समय उसका मल ू रूप बच नहीं पाता, यह वास्तमवकता सवामवमदत है। मकसी भी योजना का प्रत्याभरि (Feed –Back) लेने की पद्धमत का अभाव यहाँ है। यमद अनसु धं ान प्रमवमध का गभं ीरता से पालन होता तो हम अनसु न्धान के क्षेत्र में अव्वल न सही, पहले २५ में तो होते। यह प्रश्न अनसु ंधानकता​ा को भी छलता है। यह अनुमान जरुर लगाया जा सकता है मक कही कोई सरु ाख जरुर हो सकता है; मजसके कारि अनसु ंधान प्रमवमध का गंभीरता से अध्ययन नहीं हो रहा है। इस सरु ाख को ढूँढ़ने का प्रयास ; यह शोध काया है। इस पाठ्यक्रम की व्यावहाररकता का स्वरूप क्या है? जमीनी स्तर पर यह प्रमवमध पहुचँ चक ु ी है क्या ; इसे पहचानना राष्ट्रीय

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िोधकायक का अंतर अनुिािनीय दृसि िे महयि (Interdisciplinary Approuch)


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काया है और इसमें सधु ार के मलए बँदू भर मकया गया प्रयास भी अतं रा​ाष्ट्रीय महत्व की ओर संकेत करता है। पनु रािलोकन (View of Research and Development in the Subject) शोध प्रमवमध पर अग्रं ेजी, महदं ी और अन्य भारतीय भार्षाओ ं में दजानों मकताबें मलखी गयी हैं। परंतु इस प्रमवमध का व्यावहाररक स्तर पर मकतना पालन होता है इस मवर्षय पर हमारी जानकारी में कोई शोध काया नहीं हुआ है। शोध-गगं ा पर भी इस मवर्षय के बारे में जानकारी लेने का प्रयास मकया गया ; परन्तु इस पद्धमत का एवं इस प्रकार के मवर्षय पर अभी तक कोई शोध काया नहीं हुआ है। इस मवर्षय की सबसे बड़ी मवशेर्षता यह है मक नमनू े के तौर पर मवमवध भू – भागों से संबंमधत तथा मवमभन्न मवर्षयों से सबं मं धत शोध मनदेशकों, मवद्यावाचास्पमतयों, शोधामथायों के प्राध्यापकों का ३१ लोगों का समहू ममलना दल ु ाभ बात है। इस प्रकार के नमनू े का चयन कर शोध काया नहीं मकया गया है, ऐसा हमारा मानना है। मशमला में आयोमजत १२४वे उन्मख ु ी कायाक्रम के अतं गात प्रमतभामगयों को एक पररयोजना (Project) का काया परू ा करना होता है। यह काया साममू हक शोध को बढ़ावा देनेवाला काया है। साममु हक अनसु धं ान में प्रवृत्त कराना भी समय का तकाज़ा है, जरुरत है। अत: साममू हक रूप से यह सोचा गया मक क्यों न य.ू जी.सी. - एच.आर.डी. सी. मशमला द्वारा आयोमजत १२४ वे उन्मख ु ी कायाक्रम में समम्ममलत ३१ प्रमतभामगयों के इस छोटे से समहू को नमनू े के तौर पर चयन कर अध्ययन मकया जाएँ? यह एक सअ ु वसर है ; क्योंमक प्रमतभामगयों का यह समहू देश के मवमभन्न भू - भागों से जड़ु ा है तथा मवमभन्न मवर्षयों से संबमधत है। ये प्रमतभागी अनसु ंधान प्रमवमध से पररमचत हैं क्या? इन प्रमतभामगयों ने अपने Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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शोधकाया में अनसु ंधान प्रमवमध का पालन मकया है क्या? पररकल्पनाएँ (Hypothesis), शोधकाया का उद्देश्य (Objectives) और शोधकाया के मनष्ट्कर्षा (Findings) के बारे में वे जानते हैं क्या? अपने शोध प्रबंध में उन्होंने पररकल्पनाएँ (Hypothesis), शोधकाया का उद्देश्य (Objectives) और शोधकाया के मनष्ट्कर्षा (Findings) स्पि रूप से मदए हैं क्या? आमद बातें जानने की दृमि से यह समहू इस काया में प्रवृत्त हुआ है। पररयोजना की पररकल्पनाएँ (Hypothesis) १. अमधकतर शोधाथी अनसु ंधान प्रामवमध से पररमचत नहीं होते हैं । २. अनसु ंधान प्रामवमध से पररमचत होने के बावजदू पररकल्पनाएँ स्पि रूप से मलख नहीं पाते हैं। सामहत्य के क्षेत्र में कायारत शोधामथायों में यह मस्थमत और भी मचतं ाजनक है। ३. शोधकाया मकसमलए मकया जा रहा है इसका स्पि मचत्र शोधाथी के मदमाग में नहीं होता। मभन्न सक ं ायों के शोधामथायों में यह मस्थमत अलग-अलग हो सकती है। ४. शोधकाया के अतं में शोधाथी बहुत स्पि रूप में मनष्ट्कर्षा नहीं दे पाता। मभन्न संकायों के शोधामथायों में यह मस्थमत भी अलग-अलग हो सकती है। मवज्ञान और वािीज्य में मनष्ट्कर्षा स्पि रूप से आने का औसत अमधक है। कला सक ं ाय के शोधामथायों में और मवशेर्ष कर सामहत्य के क्षेत्र के शोधाथी मनष्ट्कर्षा दे नहीं पाते। पररयोजना के उद्देश्य (Objectives)

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१. एच.आर.डी.सी. मशमला द्वारा आयोमजत १२४ वे उन्मख ु ी कायाक्रम में समम्ममलत प्रमतभामगयों के शोधकाया का अवलोकन करते हुए अनसु ंधान प्रमवमध का पालन करनेवाले शोधामथायों का औसत जानना । यह औसत मभन्न – मभन्न संकायों के अनसु ार मभन्न है क्या – इसे पहचानना। २. शोधकाया की पररकल्पनाएँ (Hypothesis), शोधकाया के उद्देश्य (Objectives) तथा शोधकाया के मनष्ट्कर्षा स्पि रूप में उमल्लमखत करनेवालों का औसत मभन्न – मभन्न संकायों के अनसु ार जानना । ३. प्राप्त औसत के अनसु ार सधु ार के उपायों पर मभन्न-मभन्न सक ं ाय के अनसु ार उपायों पर मवचार करना ४. पीएच. डी. उपामध प्राप्त करने हेतु कायारत शोधामथायों को अनसु धं ान प्रमवमध के प्रमत सचेत करना। ५. शोधकाया की पररकल्पनाएँ (Hypothesis), शोधकाया के उद्देश्य (Objectives) तथा शोधकाया के मनष्ट्कर्षा के स्वरुप की समझ बढ़ाना तथा अपने शोधकाया में स्पि रूप से इसका उल्लेख करने के प्रमत शोधामथायों को सतका करना। उन्मख ु ी कायाक्रम की २८ मदनों की समय सीमा में रोज के मनयममत कामकाज के अलावा अनेकों कायों की व्यस्तता (काया​ालयीन कामकाज से मवरत होने के बाद घर में मकए जानेवाले काम) के साथ एक पररयोजना का Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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काया परू ा करना अपने आप में बहुत बड़ी कसरत है। बड़ी ममु श्कल से ८-१० मदन का, रोज औसत डेढ़ या दो घटं े का समय ममलना भी कमठन रहा है। समय की सीमा का ध्यान रखकर यह काया करना काफी चनु ौतीपिू ा रहा है। इस समहू ने सबसे पहले चचा​ा कर मवर्षय मनमित मकया। शोधकाया की मनमित रूप – रे खा बनने के बाद एक प्रश्नावली तैयार की गयी। यह प्रश्नावली सभी प्रमतभामगयों में मवतररत की गयी। सभी प्रमतभामगयों से यह मवनम्र मनवेदन मकया गया मक अमधक से अमधक दो मदन में यह प्रश्नावली भरकर वामपस दी जाए। प्राप्त जानकारी की गोपनीयता के प्रमत प्रमतभामगयों को आश्वस्त मकया गया तथा संचालक एवं समन्वयक से भी इस मवर्षय पर चचा​ा की गयी। बावजदू प्रश्नावली भरकर आने में पाच ं से छह मदन का समय लगा। कुछ लोगों ने प्रश्नावली भरकर दी, कुछ मवद्यावाचस्पमत नहीं थे तो कुछ ने प्रश्नावली वामपस नहीं की। इस जानकारी को मनम्न ग्राफ के माध्यमसे जाना जा सकता है – आगे ग्राफ मदया जा रहा है – ग्राफ क्रमाक ं 1. कुल प्रमतभामगयों की संख्या 2. प्रश्नावली भरकर देनेवालों की संख्या का ग्राफ

ग्राफ क्रमांक १. में कुल प्रमतभामगयों की संख्या, जो मवद्यावाचस्पमत हैं उनकी संख्या तथा जो मवद्यावाचस्पमत नहीं हैं उनकी संख्या दशा​ायी गयी हैं। य.ू जी.सी. – एच. आर. डी. सी. समर महल मशमला वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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द्वारा आयोमजत १२४ वे उन्मख ु ी कायाक्रम में कुल ३१ प्राध्यापक सदस्य हैं। ये ३१ प्राध्यापक ११ राज्यों से संबंमधत हैं पर ९ राज्यों में कायारत हैं । यह ९ राज्य इसप्रकार हैं – महमाचल प्रदेश, हररयािा, उत्तराखडं , आसाम, पमिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, गजु रात, महाराष्ट्र, कना​ाटक, के रल। १६ मवर्षयों से संबमधत ये प्राध्यापक मवज्ञान, वामिज्य, कला, इजं ीमनयररंग, पेंमटंग, संगीत, योगा, कंप्यटू र सायंस, फ़ूड टेक्नोलॉजी आमद संकायों से संबमधत हैं। अध्ययन की समु वधा की दृमि से हमने इन्हें चार वगों में बाँटा है – 1. 2. 3. 4.

कला मवभाग वामिज्य मवभाग मवज्ञान मवभाग अन्य कलाएँ (Performing Art)

ग्राफ क्रमाक ं १. आगे मदखाया जा रहा है उपयाक्त ु ग्राफ क्र. २ में प्रश्नावली भरकर देनेवालों की सख्ं या दी गयी हैं। कुल ३१ प्रमतभामगयों के ३१ फॉमा मवतररत मकए गए। उनमें से २३ प्रमतभामगयों ने फॉमा भककर वामपस कर मदए। २३ में ०२ मवद्यावाचस्पमत नहीं हैं। शेर्ष ०८ प्रमतभामगयों में मजन्होंने फॉमा वामपस नहीं मकया उनमें ०४ मवद्यावाचस्पमत हैं तो ०४ मवद्यावाचस्पमत नहीं है। ३१ में से कुल २१ प्रमतभामगयों की प्रश्नावली के आधारपर Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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जो अवलोकन मकया गया इसे मनम्न रूप से प्रस्ततु मकया जा रहा है – िोधकायों में उसल्लसखत (Hypothesis) : अिलोकन

पररकल्पनाएँ

पररकल्पना अथा​ात शोध काया शरू ु करने से पहले मकए गए पवू ा​ानुमान है। ये पवू ा​ानमु ान शोधकाया के मलए मनमित लक्ष्य की ओर बढ़ने के मलए प्रेररत करते हैं। ये अनमु ान हैं, मसद्ध हो भी सकते हैं या नहीं भी। यह एक मवचार है जो स्वानभु व या परानभु व से भी होता है। शोधकाया आरंभ करने के पवू ा पररकल्पना का मनमा​ाि आवश्यक है या नहीं, इस पर मतभेद हैं इस मत को प्रमतपामदत करते हुए डॉ मवनयमोहन शमा​ा मलखते हैं – “एक मत के अनसु ार पररकल्पना तभी मनममात की जा सकती है जब मवर्षय का शोधकाया काफी आगे बढ़ जाता है। क्योंमक शोधकाया के पवू ा पररकल्पना की स्पि कल्पना नहीं हो सकती। --------- --- - - दसू रा मत – जो पररकल्पना को शोधकाया के पवू ा आवश्यक मानते हैं। ये दोनों मत मवर्षय के प्रकार को देखकर मान्य या अमान्य मकए जा सकते हैं।१ पररकल्पना की व्याख्या करते हुए डॉ. मतलकमसहं मलखते हैं – “शोधकाया में पररकल्पना या प्राक्कथन का शामब्दक अथा है पवू ा का कथन अथा​ात पहले कहना। शोध काया में प्राक्कथन का अथा है शोध क्षेत्र में प्रवेश की प्रेरिा, मवर्षय मवशेर्ष के प्रमत सस्ं कार, शोधकाया की प्रमक्रया आमद का उल्लेख।२ प्रश्नावली में कई प्रमतभामगयों ने पररकल्पना की व्याख्या मनम्न रूप से की है –  पररकल्पना का अथा है समस्या के उत्तर के रूप में प्रस्तामवत अनमु ानों को ही पररकल्पना कहा जाता है। - योगा प्राध्यापक 3

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 पररकल्पना से अमभप्राय है मक जो काया हम अपने शोध में करना चाहते हैं उसकी एक रूपरे खा तैयार कर चलना मक मेरे इस शोधकाया के पिात ये पररिाम मनकलने चामहए । - महदं ी प्राध्यापक 4

है ऐसा कुछ मवद्वानों का मानना है। इसमलए शोध मवर्षय के अनसु ार पररकल्पनाएँ कभी आवश्यक होती है तो कभी आवश्यक हो भी नहीं सकती। कुछे क शोधामथायों की पररकल्पनाएँ अस्पि हैं। कुछ शोधाथी के वल उदेश्यों के आधारपर मनष्ट्कर्षा मलख रहे हैं।

 It is a tentative and formal prediction about the relationship between two or more variables in the population being studied, and the hypothesis translates the research question in to a prediction of expected outcomes. So hypothesis is a statement about the relationship between two or more variables that we set out to prove or disprove in our research. Study. – Music Prof 5

मवमभन्न शाखाओ ं के शोधामथायों ने मनम्न रूप में पररकल्पनाएँ दी हैं –

उपयाक्त ु पररभार्षाओ ं के आधारपर स्पि होता है मक पररकल्पना शोधकाया शरू ु करने के पवू ा मकया गया अनमु ान या मवचार है जो शोध के दौरान मसद्ध हो भी सकता है नहीं भी। एक पररकल्पना से दसू री पररकल्पना जन्म लेती है। आज से ३० – ४० साल पहले पररकल्पना की अमनवायाता के बारे में मतभेद था। आज अनसु धं ान प्रमवमध में इसे अमधक महत्व मदया जा रहा है। यह शोधकाया की मदशा मनमित करनेवाला सोपान है। कुल २१ प्रश्नावमलयों में से १७ शोधामथायों ने अपने शोधप्रबधं में पररकल्पनाएँ दी हैं। ०४ िोधासथकयों ने पररकल्पनाओ ं का उल्लेख नहीं सकया हैं। अथाकत १९.०४ % िोधाथी पररकल्पना का अथक एिं स्िरूप नहीं जानते। एक दसू रा कारि पररकल्पनाएँ शोध मवर्षय पर मनभार होती Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

 कुल शोधाथी २१ में कला संकाय के ०७ शोधाथी हैं । ०७ शोधामथायों में से ०६ ने पररकल्पनाएँ दी हैं। ०१ शोधाथी ने पररकल्पनाएँ दी नहीं है। कला संकाय में पररकल्पानाओ ं का उल्लेख न करनेवाले शोधामथायों का औसत १४.२८% है।  कुल शोधाथी २१ में से वािीज्य संकाय के शोधाथी ०३ हैं । ०३ शोधामथायों में से ०२ ने पररकल्पनाएँ दी हैं। ०१ शोधाथी ने पररकल्पनाएँ दी नहीं है। वािीज्य संकाय में पररकल्पानाओ ं का उल्लेख न करनेवाले शोधामथायों का औसत ३३.३३ % है।  कुल शोधाथी २१ में से मवज्ञान संकाय के शोधाथी ०९ हैं । ०९ शोधामथायों में से ०८ ने पररकल्पनाएँ दी हैं। ०१ शोधाथी ने पररकल्पनाएँ दी नहीं है। मवज्ञान सक ं ाय में पररकल्पानाओ ं का उल्लेख न करनेवाले शोधामथायों का औसत ११.११ % है।  कुल शोधाथी २१ में से परफोममिंग आट्ास के शोधाथी ०२ हैं । ०२ शोधामथायों में से ०१ ने पररकल्पनाएँ दी हैं। ०१ शोधाथी ने पररकल्पनाएँ दी नहीं है। परफोममिंग आट्ास में पररकल्पानाओ ं का उल्लेख न करनेवाले शोधामथायों का औसत ५०.०० % है। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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पररकल्पनाओ ं का उल्लेख न करनेवाले शोधामथायों का औसत मनम्न रूप से देखा जा सकता है- कला सक ं ाय – १४.२८ % वािीज्य संकाय – ३३.३३ % मवज्ञान संकाय -११.११ % परफोममिंग आट्ास – ५० % इसे ग्राफ क्रमांक ३ द्वारा अमधक स्पि रूप से समझा जा सकता है।

उपाय : १. अनसु धं ान प्रमवमध में पररकल्पना का स्वरूप अमधक प्रभावपिू ा पद्धमत से समझाया जाए। २. शोध मनदेशक अपने शोधामथायों को पररकल्पनाएँ मलखने के मलए मनदेमशत करे । ३. शोधाथी की पररकल्पनाएँ मनमित हुए मबना उसे शोधकाया में आगे ना बढाएं । तामक शोधाथी की शोध के प्रमत गभं ीरता बढ़ेगी एवं रुमचकर मवर्षय की ओर वह प्रवृत्त होगा। उद्देश्य एिं सनष्ट्कषक : एक अिलोकन शोध काया मनमित उद्देश्य से मकया जाता है। मवज्ञान के क्षेत्र में नया आमवष्ट्कार या मकसी समस्या का समाधान करना शोध है। । जैसे इसी उन्मख ु ी कायाक्रम के अतं गात मवमवध होटलों में जो खाना परोसा जा रहा है उसके नमनू े सग्रं महत कर इस अन्न में मकतनी मात्रा में जीवािु है तथा यह अन्न मनष्ट्ु य के स्वास्थ्य के मलए हामनकारक हैं क्या ? Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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इसका परीक्षि कर मनष्ट्कर्षा प्रस्ततु मकए जा रहे हैं। यहाँ अन्न का परीक्षि कर मनष्ट्ु य स्वास्थ्य को बचाना शोध का उदेश्य है। वामिज्य के क्षेत्र में भी इसी प्रकार मकसी नए तथ्य की ओर अनसु ंधानकता​ा संकेत करता है। सामहत्य भले ही नया आमवष्ट्कार न करता हो पर सामहत्य अध्ययन का नया आयाम, नई दृमि, नया मवचार वह जरुर प्रस्ततु करता है। शोध कता​ा पहले से ही मनमित लक्ष्य लेकर चलता है। अनसु ंधान राष्ट्रीय कायों में उपयोगी होता है, देश की योजनाओ ं को मदशा देता है तथा समाज की पनु रा चना करने में सहायक होता है। उपयाक्त ु उन्मख ु ी कायाक्राम में समम्ममलत करीब करीब सभी प्रमतभामगयों ने अपने शोध के उदेश्य स्पि रूप से मदए हैं तथा मनष्ट्कर्षा भी प्रस्ततु मकए हैं। इन शोध कायों के मवर्षय जल, अन्न, जैव मवमवधता, नैनो पामटाकल , ड्रनस, इमन्डयन स्टॉक माके ट, मनजीकरि, आमथाक मवकास, मवमशि भभू ाग का भौगोमलक, अध्ययन, के मेस्री के कई मवर्षय, सामहत्य में स्त्री, दमलत, सगं ीत में वादन शैमलयाँ, आधमु नकता बोध, यगु बोध, सगं ीत का प्रभाव, वाद्य एवं राष्ट्रीयता, परु ाि एवं गीता में आचरिीय मल्ू य आमद हैं। जैसे एक प्रमतभागी का लक्ष्य कावेरी के जल की शद्ध ु ता-अशद्ध ु ता का अध्ययन करना है। अध्ययनोपरातं उन्होंने पाया मक कावेरी के जल में अशमु द्धयाँ हैं। एक प्रमतभागी ने खममर जमनत अन्न का परीक्षि कर यह मसद्ध मकया मक खमीर करके पकाया गया खाद्य स्वास्थ्य के मलए अच्छा और सपु ाच्य है। एक प्रमतभागी ने उतरांचल राज्य के गठन के पवू ा तथा बाद की मस्थमतयों का अध्ययन कर यह मनष्ट्कर्षा रूप में पाया की उत्तरांचल राज्य के गठन के बाद राज्य एवं मडं ल के आमथाक मवकास में गमत आयी है। सामहत्य के क्षेत्र की अध्ययन कता​ा ने लेखक की आधमु नक एवं वैज्ञामनक दृमि मकस तरह मानवीय मल्ू यों की प्रमतष्ठा में सहायक है इसे स्पि मकया। मवश्व की आधी वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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आबादी स्त्री की नई छमव प्रस्ततु कर लेखक मकस तरह ममहला सशमक्तकरि की प्रमक्रया को मजबतू बना रहा है ; इसकी ओर सक ं े त मकया। तो कुछे क शोधामथायों ने समाज में उपेमक्षत तबका दमलत की व्यथा कथा के माध्यमसे लेखक मकस तरह इनकी मस्थमत में बदलाव चाहता है इसकी ओर संकेत मकया है। योगा के क्षेत्र में शोध काया कर गीता एवं भागवतपरु ाि के आचरिीय तत्वों की खोज कर मल्ू य मशक्षा की राष्ट्रीय नीमत में सहायता की है। कलाएँ संस्कृ मत की संरक्षक होती हैं। संस्कृ मत को बचाना है तो कला को बचाना जरुरी है यह मनष्ट्कर्षा देते हुए एक प्रमतभागी ने कलाकार (वादक) के प्रमत सम्मान की भावना मवकमसत करने की दृमि से प्रयास मकया है। महामवद्यालय के छात्रों पर सगं ीत के प्रभाव का अध्ययन कर एक प्रमतभागी ने सगं ीत के प्रभाव के करि छात्रों में आये पररवतानों को रे खामं कत मकया है।

उपयाक्त ु मवमवध सक ं ायों के मवमवध मवर्षयों के शोध काया का अवलोकन करने के बाद मनष्ट्कर्षात: यह कहा जा सकता है मक इन शोधकायों के उद्देश्य मनमित ही राष्ट्रीय नीमत में सहायक हो सकते हैं। तल ु नात्मक शोध काया भी हो रहे हैं ; पर इस काया में अमधक स्पिता आना आवश्यक है। तल ु नात्मक शोध काया की मनमित मदशा अभी स्पि होना आवश्यक है। तल ु नात्मक शोध काया राष्ट्रीय सांस्कृ मतक एकता को बढ़ावा देनेवाले होते हैं। वतामान समय अतं र अनश ु ासनीय ज्ञान शाखाओ ं का समय है। इन २३ शोधकायों में इसका अभाव मदखाई मदया है। सामहत्य पर अनसु ंधान हो रहे हैं परंतु भार्षाओ ं का अध्ययन Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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नहीं हो पा रहा। भार्षावैज्ञामनक शोधकायों की कमी भी खलती है। इस पररयोजना के शोधकता​ाओ ं का संबध सामहत्य से होने के कारि अन्य संकायों में मकस तरह के शोध काया होना अपेमक्षत है यह बताने में शोधकता​ा असमथा हैं । यह इस शोधकाया की सीमा भी है। इस पररयोजना का लक्ष्य बहुत सीममत है। शोधकता​ाओ ं ने अपने शोधकाया में पररकल्पनाएँ मलखी है या नहीं और उद्देश्य एवं मनष्ट्कर्षा स्पि रूप से मदए गए हैं या नहीं ; के वल इसी का अध्ययन करना है। सनष्ट्कषक : यह पररयोजना य.ू जी.सी. – एच. आर. डी. सी मशमला द्वारा आयोमजत १२४ वे उन्मख ु ी कायाक्रम में समम्ममलत प्रमतभामगयों के शोधकाया में पररकल्पनाएँ, उद्देश्य, मनष्ट्कर्षा स्पि रूप में मदए जा रहे हैं क्या यह देखने से सबं मधत है। अनसु धं ान प्रमवमध से सबं मं धत तथा अतं र अनश ु ासनीय यह शोध बहुत कम समय में परू ा मकया गया है। शोध मवर्षय बहुत सीममत है। मजस समहू का अध्ययन करना है वह के वल ३१ लोगों का समहू है । परंतु इस छोटे से समहू की सबसे अमधक सशक्त बात यह है मक यह समहू करीब – करीब भारत के व्यापक महस्से का प्रमतमनमधत्व करता है। ११ राज्यों से जड़ु े प्रमतभागी, ९ राज्यों में कायारत हैं और १६ मवर्षयों से सबं मं धत हैं ; यह इस छोटे से समहू की मवशेर्षता है। यह एक दल ु ाभ योग है। शोधकाया के प्रारंभ में यह अनुमान लगाया गया था मक शोधकता​ा पररकल्पना के स्वरूप को नहीं समझता और न वह अपने शोध प्रबंध में स्पि रूप से पररकल्पनाएँ दे पाता है। प्रश्नावली के आधारपर यह कहा जा सकता है मक यह बात १९.०४ प्रसतित िच है। यह औसत भी कम नहीं है। अत: यह औसत कम करने की दृमि से प्रयास करने होंगे । मवमभन्न ज्ञान शाखाओ ं में इसका औसत कम वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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अमधक है। परफोममिंग आट्ास में यह बात ५० % सच है तो सबसे कम औसत अथा​ात के वल ११.११ % मवज्ञान शाखा का है। यह भी अनमु ान था मक कला संकाय के लोग पररकल्पनाएँ मलख नहीं पाते। न जाननेवालों में इसी शाखा के लोगों का औसत अमधक होगा। पर शोध काया के अतं में यह पता चला मक ८५.७२ % लोग इस प्रमवमध से पररमचत हैं। साथ ही यह कहना आवश्यक है मक शोधकाया के उद्देश्य से ये शोधकता​ा भली-भाँती पररमचत हैं तथा मनष्ट्कर्षा भी स्पि रूप से मलख रहे हैं। अनसु ंधान कता​ा को शोध के नए – नए मवर्षयों की ओर बढना चामहए। खासकर इन सभी शोध प्रबंधों में एक भी प्रबंध अतं र अनुशासनीय नहीं है। वतामान समय में अतं र अनुशासनीय शोधकायों की ओर बढना अनसु धं ान कता​ा का दामयत्व है। शोधमनदेशक को इस प्रकार के शोध कायों की पहल करनी चामहए। िन्द्दभक ग्रंथ िूची १. शोध प्रमवमध – डॉ. मवनयमोहन शमा​ा, नेशनल पमब्लमशगं हाउस , नयी मदल्ली ११०००२, संस्करि १९८० - पृ. ३५. २. नवीन शोध मवज्ञानं – डॉ. मतलक मसहं , प्रकाशन संस्थान, वसू -२२ नवीन शहादरा, मदल्ली – ११००३२, प्रथम संस्करि १९८२ - पृ. सख्ं या १५५ ३. प्रश्नावली ४. प्रश्नावली ५. प्रश्नावली शोध कताष डॉ. रमा प्रकाश नवले डॉ. प्रेरिा पाण्डेय डॉ. मजं ु परु ी Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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other. It is not applicable in the lower

कला सिमिक/Art Discourse

beings though, as they are directly under the laws of nature. Tribal culture is presently at

FOLK DANCES OF TRIPURI TRIBE: AN ANALYTICAL STUDY

a crossroads. The new generation is not much familiar with our culture and in this age of globalization the ocean of Tripuri culture stands depleted as the new m generation fails to grasp the a relevance of the

Research scholar Department of Rabindra Sangit, Dance, & Drama Sangit vabana, Visva-Bharati Santiniketan, West Bengal Email: surajitdebbarma3@gmail.com Contact no-9002533087(Watsapp), 8388983497.

art forms of the not so distant past. As the new generation does not realize the importance of our traditions the tribal culture of Tripura is being threatened by forces of commercialization. This is why we need to explore and expose our rich heritage which is lying dormant. Key words:- Tripuri community-

Abstract

Relegion-

Garia

deity-Dances-Musical

instruments. India is a culturally very rich land. There is a diversity of cultures present here

Introduction:

which are all interrelated and at the same

Tripura is a tiny tribal dominated state located in the North-East part of India. Entire Geo-topographical areas of Tripura are covered with high tillas and slopes. Green valleys, abundant forest cover, large scale of wild animals inside the forest cover, wild fields, uncountable streams, rivers, fertile land, plenty of edible plants, which have attracted numbers of indigenous tribal communities to enter Tripura in different waves and to settle here adopting jhum based economy to sustain their lives. These tribal communities having their separate ethnic feature with colourful traditions have created a multiethnic cultural assimilation in this state. Culturally conscious , the people of Tripura

time very different from each other. Culture is even varied in the people following the same religion according to various factors like social order and religion. However, a comparative study of different cultures is necessary to come to an understanding of collectiveness and commonality of it. As human beings cannot survive alone there has to be an exchange of thoughts and this is reflected in different cultures. Such a thought process is necessary in the human race as people are interdependent on each

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love to celebrate their own festivals and enjoy the festivity of others too. Each festival comes with an energetic fervour and lots of entertainment. These ethnic components are so colourful that people outside the tribal communities, including research scholars will have immense interest to know about the tribal culture of Tripura. There are 19 tribes in Tripura namely, (1) Tripuri ,(2) Reang, (3) Jamatia ,(4) Chakma, (5) Lusai, (6) Mog ,(7) Garo, (8) Kuki, (9) Chaimal, (10) Uchai, (11) Halam, (12) Khasia, (13) Bhutia, (14) Munda, (15) Orang, (16) Lepcha , (17) Santal, (18) Bhil, (19) Noatia. Tripuri are treated as one of the major tribes of Tripura.

Tripuri community The Tripuris are the largest tribal community in Tripura. They are also found in significant numbers in neighbouring Bangladesh, having similar Culture and language. The Tripuris , who are spread all over the civil subdivisions of Tripura, lived mainly on the slopes of hills in a group of five to fifty families. They lived in a specially built bamboo house raised two to five feet from the ground. The height of the house was considered to be a protection against the depredations by wild animals. This house known is known as “ Gairing” where they now rarely live.

Religion: The most important features of the religious history of Tripura is the synthesis, Aryan and non- Aryan known as Bengali Hindu And Tripuri Hindus. By origin the Tripuri society had no system of idolatry. The deities males or females worshipped by them have no image or patima but of symbolic image made out of green bamboo.

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But due to culture-contact with the Bengali Hindus they turned to be idol-worshiper. Leaving aside the plain dwellers, the Tripuris of interior hill areas also worship the image of some Hindu deities. What is interesting to note here is that the Tripuri society has customary practice to worship an unmarried girl as the representative of the goddess fortune , Laxmi. This worship of goddess Laxmi is held during the harvesting time of jhum cultivation.

Dance: Tripuri people are a beauty-loving and havind good sense of humour and artistry. It is evident from their vogue of dance and music through which their thoughts and emotions are charmingly depicted. They have mainly four types of dances which may be classified into two, ceremonial or ritualistic and recreational. These are Garia, Mamita, Lebangbumani and Mashak Surmani.

Garia deity to the Tripuris Garia is a god of wealth and prosperity and accordingly the Garia had long since been worshiped by them. The worshippers offer their oblation with intense longing for the aim of wealth and prosperity. The worship of Garia deity can also be termed as the cult of jhum cultivation as they hold that having of good crop is essentially interwoven with the blessing of Garia deity whose boon can be acquired only by way of offering puja before they start jhoom cultivation by cutting and burning of forest. Garia Puja is associated with the concept of agro-based rituals followed by dance recital known as Garia dance. Therefore the jhoom cultivators celebrate Garia puja iin an enthusiastic manner commencing from the last day of Chaitra and up to the end of 1st week of Baisakhi. This week-long celebration of Garia puja bears a profound significance of the sociocultural as well as socio-religious life of Tripuris.

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On the other hand Garia dance can be attributed to twofold concepts, socialistic and ritualistic. It is ritualistic as it is performed round the alter of Garia deity when the puja goes on. While it is socialistic as it helps attract large social gathering.

Garia Dance Garia dance recital is performed by a group of dancers to the rhythmic and beat of the flute and drum . Both the male and female join in the dancing troup. The dance begins with slow stepping, and the stepping grows faster and swifter as the drum beating is made faster and faster. Sometimes the dancers go round and round. Arms waving and swinging high and low. While dancing, the dancers sing in a chorus sometimes making loud cry expressing joyous mood. When the dance troup accompanied by the priest set out from one village to another village they proclaim the news of travelling of Garia deity to villages with the slogans “ We the votaries of god Garia are here. The king Garia desires to travel. All the householders keep awakening. The Garia king has appeared before you to bless”. Garia dance is not a magic dance. There is no mystic concept about it. It is a dance to express the feeling of joy and satisfaction at the close of the year as well as in the beginning of happy new year. The striking feature of Garia dance is its different kinds of mudras or movements imitated from the nature as well as from the movements of animals and birds. This imitated mudras made the Garia dance more enjoyable without any dullness monotony.

Some of Mudra or Steps of Goria dance:

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2. Khulumani: movement.

Indian

Salutation

3. Nokfarmani: Sweeping of house. 4. Khum kholmai: flowers.

Plucking

of

5. Chokha bai khul lubmani: Making of thread by spinning wheel. 6. Tapang Muiya faihmani: Breaking of Bamboo shoot. 7. Mai sarmani: Spreading of Paddy seeds. 8. Maikaimani: Sowing of paddy seen in Jhum. 9. Tukumani: Bathing movement. 10. Yakung bai Mainakmani: Separation of paddy by foot. 11. Rwsambo mai sukmani: Husking of paddy. 12. Hor sohmani: Fire making. 13. Yafabumani: Clapping of hands movement. 14. Mwkhra rwkmani: Chasing the monkey. 15. Tok tanlai mani: Cook fighting. 16. Toksa ada tukmani: Birds feeding movement. 17. Tok Mai sukmani: Hen eating of corn. 18. Topsi bahrmani: parakeet

Jumping

like

19. Tok birmani: Birds flying. 1. Luku kobokmani: Invitation.

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20. Abisani Khichumu suhmani: Washing of Baby's nappy.

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21. Tok khitung Jangirimani: Shaking of hen's tail. 22. Harung maikisilmani: Wavy view of paddy field. Tokma yaching malmani: Shaking of hen's leg.

23. Mayung hadul nakmani: elephant dusting. 24. Sikambuk kholmani: Collection of snail movement.

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Labang in high and low slopes of the jhoom field are imitated in the Lebang dance. To conclude it may be recapitulated that due to changing socio-cultural circumstances, the life-style of the Tripuris are also being caught in the vortex of metamorphosis. Consequently the dance is no longer performed by the jhoom cultivators. It has now assumed the form of recreational dance form.

Mashak Surmani Lebang bumani Dance Lebang is akind of insect highly destructive to jhoom crops. Tripuris call it ‘kuk’. These insects at times flock to the jhoom field when the paddy plants shoot up to flowerspike. The ‘kuk’ may be compared to the locust, a terror to Bengals agriculturists. Lebang is a green coloured insect. To protect the jhoom crops from destructive attack of the swarms of insect ‘Lebang’, the jhoom cultivators both men and women adopt a kind of device to drive out the Lebang. From this device is originated the dance. Lebangbumani dance can also be called jhoom dance and it is performed in the jhoom plot. It is a group dance participated by both men and women. the dancers stand in along row with two bamboo sticks in hands and produce a peculiar rhythmic sound that attracts the insect ‘Lebang’ to come out from their hideout. When the Lebangs come out in a body , the dancers tumble down to catch or to kill the insects. The different movements required for driving the

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Mashak is a Tripuri word which means deer. The origin of this dance can be attributed to the fullest expression of joy of the deer hunters following their hunting gain. In a word, the Mashak surmani dance can aptly be called as the dance of trophy. It is performed during return journey of the hunters with game. On their way home two or four strong persons carry the game on their shoulders and the accompanying ones walking side by side frequently, out of great joy, make loud cry and make different gestures while walking sometimes a bit slower to keep pace with the carriers of the game. In the Mashak surmani dance, two forms of dances are performedby the hunters. The hunters who carry the game can hardly move limbs fst due to pressure of the load. So they can make only slow and steady movement while advancing ahead. The persons who are free can make various movement expressing their joy to every beat of walking step. Now-a-days this dance is totally absent from the real scene as deer hunting is totally banned by the government. However this dance

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can be developed into a nice form of dance to perform in any cultural function. It has got great potentials to develop into a popular folk dance of the state.

Mamita Dance The Tripuris have customary practice to eat new harvested jhoom rice ceremonially. The festival of eating rice is called Mamita. It is a Tripurri word(kok Borok) meaning rice-eating. Hence the dance performed during this ceremony is called Mamita dance. The jhoom crops are harvested by the end of the Sep-October month. Then the phase of storing comes in. they build up temporary godown in the jhoom field to store up the unthrased crops. The Mamita festival is not held immediet after harvest. After few days the crops are thrashed and shifted to home and then finding out an auspicious day the Mamita festival is celebrated with the great festive mood. On the eve of Mamita festival there is customary practice to sacrifice fowls at the altar of ‘Randak’. ‘Randak’ is a ricecontainer of large size made of earth. It is symbol of Laxmi , the goddess of fotune. After worship the family members together with invited close relatives sit together and starts eating new rice. To make the ceremony more joyous and vivacious a group of dancers both men and women prform dance recital which is known as Mamita dance.

Musical Instruments Studies on tribal dances are incomplete, without understanding

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music. Tripuris are endowed with innate love for music and dance. They have several kinds of musical instruments of their own. Musical instruments are a must for vocal as well as dance trperformed. The common varieties of their musical instruments are Drum, flute, Changpreng, Sairinda and Dangdu. All these instruments are melodiously played by experts instrumentalists.

Drum It is called ‘Kham’ by them. It is made of wood of which both ends are covered with cowhide. The kham is played on the occasions of music and dance recital. This is also beaten on funeral and other ceremonial occasions.

Flute Tripuris call it Sumu. It is very popular musical instruments of Tripuris. Tripuri young men have innate love to play the note of romantic love-song by flute. It is also played on to the accompaniment of different dance recitals like Garia and other kind of dances.

Sarinda It is sringed musical instrument of common kind. This is also found to be used among the tribes of hilly region of north India and Bihar. Its body is so deeply pinched that it looks as though it is of two parts. The lower portion is a small pearshaped one with a hide covering. The upper part is much bigger which is kept open. Over this, run four strings o twisted cotton, gut or metal. It is played on as the fitting

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accompaniment of romantic love song sung by the lady-love and the beloved. It is surprising that the Sarinda player without having any sort of training for musical notation can set to music to the string.

Changpreng It is a stinged musical instrument made of wood. Changpreng is manufactured by the artist themselves. It is purely indigenous musical instrument of Tripuris. It is also played to the accompaniment of dance recital.

Dangdu It is a kind of mouth organ made of bamboo, the frame having an annular base which does not complete the circle. The ends of the incomplete ring project into two prongs. A thin tongue is fixed in between the two prongs which is kept free at the terminal end. This is called moorsing or moorchang found in Rajasthan and Uttarpradesh. This Dangdu is called jaw’s harp in English. This is set in between the upper and lower lips of the player. The player is to hold the base of it in one hand and is to beat by the index finger of other hand on the hook-shaped end of it. While beating finger on the hook the player has to make sound by oral beathing thereby resonating gentle sound.

Conclusion Now-a-days all this dances has assumed secular character in terms

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of its widespread rendering in and outside state at different occasions at different places of metropolitan cities like Kolkata and New Delhi. Though a few analytical discussions are available on the dance forms of a particular community of the North-Eastern region, but no significant contribution is found in the case of the tribal dances of Tripura. Hence ‘An Introduction to Folk Dances of Tripuri Community’ is my humble effort to meet the dearth of a research-oriented work on the variety of folk dance of Tripuri Community living in Tripura. Discussion has been done with a critical out look and observation has been based on field survey for which I had to visit the tribal dominated areas to observe their life-style, social customs, festivals and ceremonies and rites and rituals which have pretty reflection on their dances. I hope that the compilation will help the young students and readers for the better understanding of the tribal culture and tradition of Tripuri community.

Reference Sandys, E.F. History of Tripura .Agartala : Tribal Reasearch and Cultural Institute, 1915. Print. Chakraborty, Dr. Umashankar. Tribal Dances Of Tripura. Agartala:Vyasdev Prakashani, 2010. Print. Murasingh,Chandrakanta. Tales and Tunes of Tripura Hills. New Delhi: Sahitya Academy, 2007. Print. Ghos,G.K. Tribals and Their Culture in Arunachal Pradesh and

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Tripura Tripura

Chakraborty, Kalyanbrata . Tripurar Bhasha o Sanskriti. Agartala: Tripura Darpan, 2005. Print. Das, Nirmal. Tripurar Upajati Lok Sanskriti. Agartala: Pounami Prakashan, 2014. Print. Dev Barman, S.B.K. THE TRIBES OF TRIPURA A DISSERTATION. Agartala: Tribal Research and Cultural Institute, 1986. Print. Sutradhar, J.L. INDIGENOUS MUSIC AND CULTURE OF TRIPURA. Agartala: Tribal Research & Cultural Institute, 2014. Print. Debbarma, Suren. Garia Sanskriti. Agartala: Nath press, 2010. Print. Chakraborty, Padmini. Tripurar Upajati Nritya Ekti Samikhkha. Agartala: Directorate of Research Department of Welfare for Scheduled Tribes, 1992. Print.

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ISSN: 2454-2725

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ISSN: 2454-2725

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

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ISSN: 2454-2725

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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प्रेमचंद की कहानी ईदगाह का नाट्य रूपांतरण तेजि पूसनया स्नातकोत्तर पवू ा​ाद्धा महदं ी मवभाग राजस्थान कें द्रीय मवश्वमवद्यालय सपं का +919166373652 tejaspoonia@gmail.com

अमीना – उम्र 50-55 साल ( परु ाना घाघरा और मसर पर परु ानी सा मचथड़ा {कपड़ा}) हाममद – उम्र 5 साल ( छोटी सी मनकर और शटा मजसका बटन टुटा हुआ) गाँव के चार-छह बच्चे ऊँचे घराने से गाँव का चौधरी और अन्य लोग मेले में दक ु ानदार मचमटे वाला , ममठाई और मखलौने वाले (गाँव का दृश्य) रमजान के परू े तीस रोजों के बाद आज ईद आई है। सब कुछ मनोहर मदखाई दे रहा है। वृक्षों की हररयाली, खेतों की रौनक, आसमान की लामलमा सरू ज भी शीतल मदखाई दे रहा है। मानों ये सभी ससं ार को ईद की बधाईयाँ दे रहे हों। मेले में जाने की तैयाररयां हो रही है। कोई बटन लगा रहा है। तो जतू े चमका रहा है। बैलों को जल्दी ही सानी -पानी मदया जा रहा है। तीन कोस पैदल का रास्ता, मफर सैकड़ों से भेंट, इन सबमें सबसे अमधक प्रसन्न हैं। लड़के सभी के चेहरे पर ईदगाह जाने की रौनके मदखाई दे रही है। मकसी ने एक रोज़ा रखा है तो मकसी ने दोपहर तक का। ऱोज ईद का नाम लेते हैं। आज वह आ गई है। तो जल्दी है ईदगाह जाने की। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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चौधरी कायमअली के घर अब्बाजान बदहवास दौड़े जा रहे हैं। महमदू – (पैसे मगनते हुए) एक-दो-दस-बारह। मोहमसन भी पैसे मगनता है। – एक-दो-आठ-नौ-पन्द्रह पैसे है। मोहमसन के पास (बच्चे मन में प्रसन्न हैं। और सोच रहें हैं।) इन अनमगनत पैसों से अनमगनत चीजें लायेंगे मखलौने,ममठाइयां,गेन्द और क्या-क्या बच्चों में सबसे ज्यादा खश ु हाममद है। चार-पाँच साल का ग़रीब सरू त दबु ला-पतला। बाप गत वर्षा हैजे की भेंट चढ़ चक ु ा है। और मां भी एक मदन न रही। न जाने क्या मबमारी रही होगी। मदल का मदल में सहती रही। और जब न सहा गया तो मवदा हो गई। (प्रकाश हाममद और अमीना पर पड़ता है। जहां हाममद अपनी दादी के गोद में सोता है। दमु नयादारी से बेख़बर) सत्रू धार – हाममद प्रसन्न है। इसमलए की अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत सी थैमलयाँ लायेंग।े और अम्मी अल्लाह के घर से अच्छी-अच्छी चीजें। आशा ही तो बड़ी चीज है। और मफर बच्चों की आशा। (प्रकाश हाममद पर पड़ता है।) हाममद के पाँव में जतू े नहीं है। ,सर पर परु ानी टोपी है। मजसका गोटा काला पड़ चक ु ा है। मफर भी प्रसन्न है। जब अब्बाजान और अम्मी मनयामतें लेकर आयेंगी तो वह मदल के सारे अरमान मनकालेगा। (प्रकाश अमीना की कोठरी पर पड़ता है।)

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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अभामगन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का मदन और उसके घर में दाना तक नहीं। क्या आमबद होता तो इस तरह ईद आती? अन्धकार और मनराशा में डूबी अमीना सोचती है। मकसने बल ु ाया इस मनगोड़ी ईद को?

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है। थोड़ी दरू पर उसे गोद में ले लेगी। लेमकन सेमवयां कौन पकाएगा यहाँ? पैसे भी तो नहीं है। नहीं तो चटपट सामान जटु ा लेती। फहीमन के कपड़े मसये तो उनसे ममले आठ पैसे को ईमान की तरह बचा रही थी। ईद के मलए। (अठन्नी की ओर देखकर महसाब लगाती है।)

(प्रकाश पनु : हाममद पर पड़ता है।) मजसे मकसी के मरने-जीने से कोई मतलब नहीं उसके अन्दर प्रकाश है। और बाहर आशा।

दो पैसे हाममद के दधू के मलए बचे दो आने तीन पैसे हाममद की ज़ेब में, पाँच अमीना के बटुवे में

मवपमत्त अगर अपना सारा दल-बल लेकर आये। तो हाममद की आनन्द भरी मचतवन उसका मवध्वसं कर देगी।

गाँव मेले में जा रहा है। हाममद भी साथ है। कभी सब दौड़कर सबसे आगे मनकल जाते है। मफर मकसी पेड़ के नीचे खड़े इन्तजार करते है। हाममद के पैरों में तो जैसे पख ं लग गये हैं।

(प्रकाश धीरे -धीरे हाममद से अमीना की ओर पड़ता है। और हाममद अमीना दोनों पर ठहर जाता है।)

(चलते-चलते गाँव का दृश्य शहर में बदलता जा रहा है।)

हाममद – दादी अमीना से तमु डरना नहीं अम्मां ,मैं सबसे पहले आउंगा।

सत्रू धार – (शहर का दृश्य) सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे, पक्की चार मदवारी, पेड़ों पर आम और लीमचयां लगी हुई है। बड़ी-बड़ी इमारतें, अदालत, कॉलेज, क्लब घर आमद। लड़के कंकड़ उठाकर आम पर मनशाना लगाते है। माली को उल्लू बना भाग रहे हैं। (और हसं रहे हैं। खी! खी! खी!)

अमीना का मदल बैठा जा रहा है (गाँव का दृश्य)

(प्रकाश हाममद पर पड़ता है।) प्रकाश बीच मचं पर पड़ता है। जहाँ बच्चे अपने बाप के साथ जा रहे हैं। प्रकाश धीरे -धीरे उनके साथ चलता है। (प्रकाश पनु : अमीना पर पड़ता है।) अमीना सोच रही है। उसके मसवा हाममद का और कौन है। उस नन्हीं सी जान को अके ले कै से जाने दे; तीन कोस चल पायेगा? जतू े भी तो नहीं है। (आखों में आसं ू भरते हुए) पैर में छाले पड़ जायेंग।े वह सोचती Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

हाममद सोचता है। इतने बड़े कॉलेज में मकतने लड़के पढ़ते होंगे? लड़के नहीं सब आदमी है। बड़ी-बड़ी मछु ों वाले अभी तक पढ़ते जा रहे है। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करें गे इतना पढ़कर हाममद के मदरसे में भी दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं। तीन कौड़ी के

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क्लब घर की ओर देखकर हाममद सोचता है। – यहाँ जादू होता है। सनु ा था। मदु े की खोपमड़यां दौडती है। शाम को तमाशे होते हैं। दाढ़ी मछु ों वाले साहब लोग खेलते हैं।

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मोहमसन (जवाब देता है।) – एक-एक आसमान के बराबर होता है। जमीन पर खड़ा हो जाए। तो सर आसमान से जा लगे मगर चाहें तो एक लोटे में घसु जाए।ं

(बच्चे बैट की दक ु ान पर तरह-तरह की बातें करते हैं।) हमारी अम्मां को वह दे दो क्या नाम है? बैट? महमदू – हमारी अम्मां का तो हाथ कापं ने लगे ,अल्लाह कसम! मोहमसन – हमारी अम्मी तो मनो आटा पीस डालती है। जरा सा बैट पकड़ ले तो हाथ कांपने लगे। महमदू – लेमकन दौडती तो नहीं ,उछल-कुद तो नहीं सकती। मोहमसन (फटाक से बोलता है। हाँ उछल कुद नहीं सकती। लेमकन उस मदन गाय खल ु गई। और चौधरी के खेत में जा पड़ी। तो अम्मां इतनी तेज दौड़ी। की मै उन्हें न पा सका ,सच! (आगे चलकर ममठाइयों से सजी दक ु ानों पर बच्चे आपस में बातें कर रहे है।) सनु ा है। रात को मजन्नात आकर खरीद ले जाता है। और सचमचु के रूपये दे जाता है। मबलकुल असली। हाममद यकीन न करने के अदं ाज में कहता है। – ऐसे रूपये मजन्नात को कहाँ से ममल जायेंगे? मोहमसन – मजन्न को रूपये की क्या कमी? चाहे मजस खजाने में चला जाए। लोहे के दरवाजे तक नहीं रोक पाते जनाब को।

हाममद – लोग उन्हें कै से खश ु करते होंगे। कोई मझु े वह मतं र बता दे ,तो एक मजन्न को खश ु कर लँ।ू मोहमसन – अब यह तो मैं नहीं जानता ,लेमकन चौधरी साहब के काबू में बहुत से मजन्न है। जो सारे जहान की खबरें आकर दे जाते हैं। हाममद (सोचते हुए।) – अब समझ में आया चौधरी के पास इतना धन क्यों है। (तभी आगे पमु लस लाइन मदखाई देती है।) मोहमसन (प्रमतवाद करता है।) – यह कामनसटीबल पहरा देते हैं? (मफर आप ही बोलता है।) अजी यही चोरी करवाते है। और दसू रे महोल्ले में बोलते है। जागते रहो। हाममद (पछ ू ता है।) – यह लोग चोरी करवाते तो कोई इन्हें पकड़ता क्यँू नहीं? मोहमसन (हाममद की नादानी पर दया मदखाते हुए।) अरे पागल ,इन्हें कौन पकड़ेगा? पकड़ने वाले तो ये खदु हैं। हराम का माल हराम में जाता है। अल्लाह इन्हें सजा भी खबू देते हैं। (ईदगाह स्थल)

हाममद मफर पछ ू ता है – मजन्नात तो बहुत बड़े बड़े होते होंगे? Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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ईदगाह की ओर जाने वाली टोमपयाँ नजर आने लगती है। और इधर अपनी मवपन्नता से बेखबर हाममद के गाँव का छोटा सा दल चला जा रहा था। ईदगाह स्थल पर नीचे पक्का फशा मजस पर जामजम मबछा हुआ है। यहाँ सब बराबर है। लाखों मसर एक साथ सजदे में झक ु ते हैं। और मफर एक साथ खड़े होते हैं। मानों लाखों बमत्तयां एक साथ प्रदीप्त हो और बझु जाए। नमाज खत्म हो गई है। लोग आपस में गले ममल रहे हैं। तब ममठाइयों ,झल ु ानों पर ू ों और मखलौनों की दक बच्चों के हुजमू इक्कठे हो जाते हैं। कोई महडं ौला लेता है। कोई हाथी ,घोड़े की पीठ पर चक्कर काट रहा है। (झल ू ों के बाद बारी आती है मखलौनों की।) महमदू (मसपाही की और हाथ बढाता है।) – खाकी वदी लाल पगड़ी ,कंधे पर बन्दक ु रखे हुए। मोहमसन मभश्ती पसंद करता है। – कमर झक ु ी हुई। ऊपर मशक का एक हाथ महु ं से ढके हुए। नरु े को वकील से प्रेम हुआ है। सभी दो-दो पैसे के मखलौने है। और हाममद के पास कुल तीन पैसे है। और ऐसे मखलौने मकस काम के जो हाथ से छुटते ही चरू हो जाए। (सभी अपने-अपने मखलौनों की मवशेर्षता बताते है। और उनके द्वारा मकये जाने वाले काम भी) हाममद मखलौनों की मनंदा करता है। परन्तु भीतर ही भीतर उसका बालपन ललचा भी रहा है। (मखलौनों के बाद सब ममठाई की दक ु ान पर हाममद को मचढाने का अमभनय करते हैं।)

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मोहमसन (रे उडी मदखाते हुए।) - हाममद रे उडी ले जा खश ु बदू ार है। हाममद जानता है। सभी उदार नहीं है। मफर भी हाथ बढाता है। मोहमसन हाथ बढ़ा कर पनु : ले लेता है। बच्चे तामलयाँ बजाते हैं। मोहमसन –अच्छा अबकी जरुर देंग।े हाममद (प्रमतउत्तर में) – रखे रहो क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं! ममठाई कौन बड़ी नेमत है! मकताबों में मकतनी बरु ाइयां मलखी हुई हैं! मोहमसन – मदल में कह रहे होंगे ममले तो खा लें। (ममठाई की दक ु ान के बाद कुछ दक ु ाने लोहे,मगल्ट तथा नकली गहनों की है। लड़कों को यहाँ कोई आकर्षाि नहीं मदखाई देता। वे आगे बढ़ जाते हैं। परन्तु हाममद वही ँ मठठक जाता है। उसे तवे से रोमटयाँ उतारती दादी की याद आती है। हाथ का जलना आमद।) हाममद (मठठक कर सोचते हुए।) – दादी को मचमटा ले जाकर दे तो उनके हाथ नहीं जलेंग।े और घर में एक काम की चीज भी हो जाएगी। (बाकी बच्चे शरबत की दक ु ान पर शरबत पी रहे हैं।) हाममद (दक ु ानदार से) – यह मचमटा मकतने का है? दक ु ानदार (हाममद मक ओर देखता है। और अके ला पाकर बोलता है।) – यह तम्ु हारे काम का नहीं है। हाममद (पनु : दक ु ानदार से) – मबकाऊ है या नहीं ?

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दक ु ानदार से मोल भाव कर हाममद वह मचमटा तीन पैसे का ले लेता है और मचमटे को शान से कंधे पर रख कर बाकी सामथयों के पास जाता है।

मोहमसन – लेमकन कोई हमे दआ ु तो नहीं देगा।

सत्रू धार – मचमटे ने सभी को मोमहत कर मलया; लेमकन अब पैसे मकसके पास धरे हैं। मफर मेले से भी तो दरू मनकल आये हैं, नौ कब के बज गए, धपु तेज हो रही है। घर पहुचँ ने की जल्दी भी तो है।

हाममद स्वीकारता है। मक मखलौने को देखकर मकसी की मां इतना खश ु नही होंगी, मजतना उसकी दादी मचमटे को देख होगी। तीन पैसों में ही तो उसे सबकुछ करना था। मफर अब तो मचमटा रुस्तमे-महन्द है।

अब बालकों के दो दल बन गये है। एक ओर हाममद अके ला तो दसू री और बाकी सब। शास्त्राथा हो रहा है। सम्मी तो मवधमी हो गया है। दसू रे पक्ष से जा ममला है। हाममद के पास न्याय का बल है। और नीमत की शमक्त। एक और ममट्टी है। तो दसू री और लोहा।

रास्ते में वामपस लौटते हुए। महमदू को भख ू लगी। उसके बाप ने के ले खाने को मदये। महमदू ने के वल हाममद को साझी बनाया। यह उसके उस मचमटे का प्रसाद था।

(हाममद की तका शमक्त के सामने सभी बच्चे मनरुत्तर हैं।)

नयारह बजे सारे गाँव में हलचल हो गई। मेले वाले आ गये। मोहमसन की बहन ने दौड़ कर मभश्ती उसके हाथ से छीन मलया। और सारी ख़श ु ी के मारे तो ममयां मभश्ती तो नीचे आ रहे। इसी तरह नरु े के वकील का अतं उसके प्रमतष्ठा के अनरू ु प हुआ। उनकी अम्मां ने शोर सनु तो मबगड़ी और दो-दो चांटे भी लगाए।

मवजेता को हारने वालों से जो सत्कार ममलना स्वभामवक है, वह हाममद को भी ममला। ओरों ने तीनतीन, चार-चार आने पैसे खचा मकए। पर कोई काम की चीज न ले सके । हाममद ने तीन पैसों में ही रंग जमा मलया है ,मखलौनों का क्या भरोसा? हाममद का मचमटा बरसों बना रहेगा। (बच्चों में भी समं ध की शतें तय होने लगी।) मोहमसन – जऱा अपना मचमटा दो। हम भी देख।ें (सभी अपने मखलौने हाममद के सामने पेश करते हैं।) हाममद (बाकी बच्चों के आंसू पोंछते हुए।) – मैं तम्ु हे मचढा रहा था, सच। कहाँ? यह लोहे का मचमटा और कहाँ? ये मखलौने। मानो अभी बोल उठें । Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

महमदू – दआ ु को मलए मफरते हो उलटे मार ना पड़े।

(पनु : गाँव का दृश्य)

रहा महमदू का मसपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने बैठा मदया। पालकी सजाई गई। और बच्चों का शोर पीछे -पीछे " छोनेवाले ,जागते लहो " इसी बीच मसपाही की एक टांग टूट जाती है। गल ु र के दधु से जोड़ने का प्रयत्न मकया जाता है। इधर हाममद की आवाज सनु ते ही उसकी दादी दौड़ी। और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में मचमटा देख चौंक पड़ती है। और पछ ू ती है। ' यह मचमटा कहाँ था?' हाममद – मैंने मोल मलया है। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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दादी अमीना – कै पैसे में ? हाममद – तीन पैसे में। अमीना (छाती पीट लेती है। और मन ही मन) – कै सा बेसमझ लड़का है। मक दो पहर हुआ। कुछ खाया न मपया। लाया क्या? यह मचमटा! हाममद (अपराधी भाव से बोलता है।) – तम्ु हारी अगं मु लयाँ तवे से जल जाती थी। इसमलए मैंने इसे ले मलया। बढू ी दादी अमीना का क्रोध तरु ं त गस्ु से से स्नेह में बदल जाता है। यह स्नेह मक ू स्नहे है। मजसमें खबू ठोस ,रस और स्वाद भरा हुआ है। (िारा प्रकाश हासमद और अमीना पर आकर ठहर जाता है।) तभी एक मवमचत्र बात होती है। जहां हाममद बढ़ू े हाममद का पात्र बन जाता है। और बमु ढ़या अमीना बामलका अमीना। वह रो रही है। और दामन फै लाकर दआ ु एं देती जाती है। सारा गाँव हाममद को दआ ु एं दे रहा है। (पदाष सगरता है।)

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आधसु नक सहदं ी नािकों के सचंतन का स्िरुप अजय कुमार िरोज पी-एच.डी. (शोधाथी) प्रदशानकारी कला मवभाग म. गां. अ.ं मह.ं मव. वधा​ा, महाराष्ट्र 442005 ई-मेल: aksaroj2510@gmail.com मो॰ 7888275645

आधमु नक महदं ी रंगमचं की शरु​ु आत सन 1857 से मानी जाती हैं। यह समय महदं ी सामहत्य के इमतहास में भारतेंदु यगु नाम पररमचत हैं। सामहत्य और रंगमचं का बहुत ही करीब ररश्ता हैं। यमद सामहत्य की पहली अमभव्यमक्त मवधा कमवता है तो नाटक एक उसी अमभव्यक्त मवधा को जीवतं रूप देने में सशक्त मवधा है। भारतीय नाटक की उत्पमत्त देखी जाए तो यह उत्पमत्त कब-कै से एवं मकन उपादानों के सयं ोग से हुई इस मवर्षय पर मवद्वानों में मतं व्य नहीं है। परन्तु मकसी मवद्वान् का मत भी अप्रमामिक मसद्ध करना अत्यतं कमठन हैं। क्योंमक नाटक समाज आईना (दपाि) होता हैं। समाज मनरंतर पररवतान शील रहता हैं । आज का सामामजक पररवेश अतीत के सामामजक पररवेश काफी अमधक बदला हैं । प्रेमचंद ने भी सामहत्य की बहुत सी पररभार्षाए दी है पर मेरे मवचार से उनकी सवोत्तम पररभार्षा जीवन की आलोचना है। डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में “सामहत्य का जीवन से गहरा संबंध है : एक मक्रया के रूप में दसू रा प्रमक्रया के रूप में । मक्रया रूप में वह जीवन की आमभव्यमक्त है प्रमतक्रया रूप में उसका मनमा​ाता और पोर्षक ” इसमलए सामहत्य मानव सभ्यता की मवकास का घोतक माना जाता है। आधमु नक सामहत्य के आरम्भ में ही नाटक इस मवधा का प्रारंभ हुआ । नाटक मवधा का उदभव और मवकास का मववेचन करते हुए रामचंद्र शक्ु ल इमतहास में “आधमु नक गध –सामहत्य परम्परा का प्रवतान शीर्षाक Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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पररच्छे द के अतं गात मलखते हैं मक – मवलक्षि बात यह है मक आधमु नक गध –सामहत्य की परंपरा का प्रवतान नाटकों से हुआ ” इस बात पर हेनरी डब्ल्यू वेल्थ भारत का प्राचीन नाटक में मलखते है मक घटनाओ ं का कृ त भी मकतना मवलक्षि हैं। करुि रस अपनें में तो एक ही है लेमकन मवमभन्न पररमस्थमतयों में उनका अलग –अलग रूप हो जाता है जैसे पानी के अलग –अलग रूप भवं र, बल ु बल ु े , तरंगे तो है लेमकन वास्तव में वे सब पानी ही है। इसमलए नाटक एक कला है जहां शब्दों को इस प्रकार से संगमठत मकया जाता है मक उसे प्रतुत करके आनंद की प्रामप्त तो होनी ही हैं उसके साथ –साथ अनुभवों के माध्यम से ज्ञान का मवस्तार होना हैं।मजस प्रकार शब्दों के मबना सामहत्य नहीं रचा जा सकता उसी प्रकार रंगों रे खाओ ं के मबना मचत्रकला की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार इस जीवतं तत्वों के मबना इन प्रदशानकारी कलाओ ं के अमस्तत्व की कोई पहचान नहीं की जा सकती। लेमकन सामहत्य और प्रदशानकारी कलाओ ं को अनभु तू करने की प्रमक्रया ठीक एक-दसू रे के मवपरीत मानी जाती है। नाटक यह मवधा प्रकृ मत से समं श्लि मवधा मानी जाती हैं। इसी बात पर भरत ममु न जो कहा था वह इस प्रकार है “ न ऐसा कोई ज्ञान है, न मशल्प है, न मवधा है, न ऐसी कोई कला है,न कोई योग है न कोई काया ही है जो इस नाट्य में प्रदमशात न मकया जाता हो ” नाटक यह मवधा इस तरह मानी जाती है इसमें ऐसा कोई ज्ञान न हो जो की प्रस्ततु नहीं हुआ हो । मसंध, कला , योग इन सभी बातों का प्रयोग नाटक में होता है। इसके प्रस्तमु तकरि में अनेक कलाकारों साममू हक योगदान होता है। जैसे –नाटक , लेखक , मनदेशक, अमभनेता , सज्जा-सहायक , मचं व्यवस्थापक , प्रकाश चालक तथा इनके पीछे काम करने वाले अनेक मशल्पी तथा कारीगर । इन सभी कलाकारों के मबना नाटक अधरू ा हैं। उनके रचना में इन सबको सहयोग गिु ात्मक होता है। दसू री ओर वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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नाटक अपने प्रकृ मत में साममू हक है। इसे एक साथ अनेक लोग देख सकते। इसमलए इस मवधा को आज जीवतं मवधा माना जाता है । आधमु नक महदं ी नाटकों का मचंतन का स्वरुप पर मचंतन करते समय इस काल के नाटकों को भाग में बांटा गया है – 1. 2. 3. 4. 5.

भारतेंदु पवू ा महदं ी नाटकों का स्वरुप भारतेंदु यगु ीन महदं ी नाटकों का स्वरुप प्रसाद यगु ीन महदं ी नाटकों का स्वरुप प्रसादोत्तर महदं ी नाटकों का स्वरुप साठोत्तरी महदं ी नाटकों का स्वरुप

१) भारतेंदु पूिक सहदं ी नािकों का स्िरुप :भारतीय नाट्य मचं का रचनाकाल मनधा​ाररत करना एक जमटल समस्या है। इस कला प्रियन मकसी एक व्यमक्त द्वारा एक समय में हुआ होगा। भारतीय परंपरा भरत को ही नाट्यशास्त्र का रचमयता मानती है। मकन्तु भारतीय इमतहास में अनेक भरतों का होना काल-मनधा​ारि में एक उलझन उत्पन्न कर देता है। मजसका समाधान अभी तक नहीं हो पाया है। प. मनमोहन घोर्ष भार्षाशास्त्रीय, छंदशास्त्र भौगोमलक तथ्यों के आधार पर कहते है मक “नाट्यशास्त्र के प्रियन का समय ई.प.ू प्रथम शताब्दी तथा ई. मद्वतीय शताब्दी के मध्य मानते है ” आज नाटकों में जो भार्षा शैली अपनाई जाती हैं। वह संस्कृ त और प्राकृ त भार्षा से आई हैं। इस बात के आधार पर नाट्यशास्त्र या नाटक रचना का बहुत ही प्राचीन माना जाता है। आधमु नक यगु के प्रारंभ में जो नाटक मलखे गये वह भारतेंदु यगु पवू ा नाटक के नाम से मवख्यान हैं। आधमु नक यगु लोक मानस को लेकर Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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बहुत ही चमचात नाटक माने जाते हैं। नाटक को लोकवृत का अनक ु रि माना जाता हैं। लोकवृत उसे कहते है जो समाज का अनक ु रि करके रंगमचं के माध्यम से अमभव्यक्त कला है। क्योंमक नाटकों में सामामजक आचरि की सहज अमभव्यमक्त पाई जाती हैं। भारतेंदु यगू पूवा नाटकों में अग्रं ेजों द्वारा स्थामपत प्रथम ‘रंगशाला’ ’प्ले हाउस ’ नाम से सन 1776 ई. में कलकत्ते में स्थामपत की गयी थी। इसके बाद सन 1777 ई. में ‘कलकत्ता मथयेटर ’ की स्थापना हुई। इसी मथयेटर में सन 1789 ई. में कामलदास के ‘अमभज्ञानशाकंु तलम ’ का अग्रं ेजी में अमभनय प्रस्ततु मकया गया है। इन अमभनय शालाओ ं में भारत में रहने वाले सभी मशमक्षत समदु ाय का ध्यान नाट्यकला की ओर आकृ ि मकया था। सर मवमलयम जोन्स द्वारा फोटा मवमलयम कॉलेज में ‘शकंु तला’ के कई अनवु ाद प्रस्ततु मकये जा चक ु े थे । शेक्समपयर के नाटकों का अध्ययन भारतीयों द्वारा प्रमतमदन मदलचस्पी के साथ हो रहा था । आज नाट्य संस्कार अब भी भारतीय कलाकारों के मानस में मवधमान हैं। इसमलए बाबू गल ु ाब राय कहते है मक – “नाटक सामामजकों की अमभवृमत्तयों काया व्यवहारों का अमभनय के माध्यम से रंगमचं पर उपमस्थत करता है , मजसे देखकर सामामजकों का मन प्रसादन होता है। नाटक में सभी वगों जामतयों की अवस्था , गिु ,रूमच के अनसु ार सामग्री उपलब्ध रहती हैं। नाटक की कथा वस्तु में मजन धमा,क्रीडा,श्रम,हास्य,यद्ध ु एवं काम आमद भावों की अमभव्यंजना रहती हैं वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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वास्तव में भाव ही हमारे जीवनगि एवं सामामजक मल्ू य है। मचं पर इन्ही प्रमतफमलत होते देखकर हमें एक प्रकार का आनदं ममलता है। हमारे समामजक भाव की तृमप्त होती है। ” इसमलए नाटक हमारे यथाथा जीवन से जोड़ा गया है। वह सामामजक मल्ू यों की परख अपने अमभनय के माध्यम से मदखाते हैं। कमवता, मनबंध आमद में भी कल्पना के अमतररक्त तथा मवर्षय एवं अमभव्यमक्त की व्यापकता के मलए कम अवसर होने के कारि जीवन-मल्ू यों का मौका नाटक की तल ु ना में कम रहता हैं। जबमक नाटक में मल्ू यामभव्यमक्त की जीवतं एवं अपेक्षाकृ त व्यापक प्रमक्रया उपमस्थत करता हैं। २) भारतेंदु युगीन सहदं ी नािकों का स्िरुप :भारतेंदु पवू ा यगु ीन नाटकों में सन 1700 के आसपास मलखा गया महाराज मवश्वनाथ मसंह कृ त ‘आनंद रघनु न्दन ’ नामक नाटक भारतेंदु यगु के पूवा नाटकों में मगना है। भारतेंदु के मपता गोपालचद्रं उपनाम मगररधर दास द्वारा रमचत नहुर्ष सन 1857 महदं ी का प्रथम आधमु नक नाटक माना जाता है। इसके बाद शीतलाप्रसाद मत्रपाठी रमचत जानकी मगं ल 1868 आमद नाटकों ने भारतेंदु यगु पवू ा महत्त्वपिू ा कृ मतयों स्थान मनभाया हैं । जब से भारतेंदु यगु का आरम्भ हुआ तब से इस यगु के प्रमसद्ध नाटककार स्वयं भारतेंदु ही रहे हैं । भारतेंदु द्वारा अनमु दत तथा मौमलक कृ त सत्रह नाटक हैं मजसमें सवाप्रथम ‘मवधाशक ं र’ बांनला से रूपांतररत नामक Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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नाटक सन 1868 में मलखा गया। उसी वर्षा ‘रत्नावली’ संस्कृ त से अनमु दत पाखण्ड मवडंबन (1872), धनजं य मवजय (1873), कपरू मजं री (1875 ), श्री चंद्रावली नामटका (1873), मवघटन मवर्षमौधम नाटक (1876), भारत ददु श ा ा (1880), नीलदेवी गीतीरुपक (1881), अँधेरी नगरी प्रहसन नाटक (1881), सती प्रताप (1883), प्रेमयोमगनी नामटका (1875) आमद कृ मतयाँ हैं। इस यगु में प्रेम प्रधान रोमानी नाटक भी मलखे गये मजसमें श्री मनवासदास कृ त , रिधीर प्रेम मोमहनी, मकशोरी लाल गोस्वामी कृ त प्रिमयनी पररिय,शालीग्राम शक्ु ल कृ त ‘मयंक मजं री ’, लावण्यवती सदु शान , गोकुलनाथ शमा​ा कृ त ‘पष्ट्ु पवती’आमद नाटक प्रमख ु हैं। वास्तव में इन सभी नाटकों का उद्देश्य मनोरंजन के साथ-साथ जनजागृमत तथा राष्ट्रीय भावना उत्पन्न करना था। भारतीय संस्कृ मत तथा अतीत के गौरव को पनु र जागृत करने एवं भारतीयता की रक्षा करने की मदशा में भी भारतेंदु यगु ीन नाटकों का महत्त्वपिू ा योगदान रहा है। इसमलए नाटक मवधा आज भी प्रासंमगक है। इसमलए भरतममु न अपने रससुत्र में कहते है मक – “मवभावानुभावनयमभचारीसंयोगाद्ररसमनघ मत ” नाटकों का उद्देश्य सामामजको को रसानभु मू त कराना ही नाटक का उद्देश्य माना गया हैं। रस की मनष्ट्पमत मवभावों , अनभु ावों, संचारीभावों और संयोग के द्वारा होती है। इस मत पर मवमवध मवद्वानों ने अपने-अपने मत वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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व्यक्त मकये हैं। इस यगु के नाटकों में प्रकृ मत के अनरू ु प ही इस युग के लेखकों ने नाट्य –रचना की नाटक के सबं धं में आलोचना और समीक्षाएं मलखी तथा नाटकों के प्रस्ततु ीकरि और अमभनय में भी खदु भाग मलया। मकसी भी यगु में इतने पिू क ा ामलक नाटक कम मलखे गए हैं। 3) प्रिाद युगीन सहदं ी नािकों का स्िरुप :भारतेंदु के बाद नाटक आन्दोलन का कुछ समय गमतशील मदखाई देता हैं, महदं ी क्षेत्र के रंगमचं जैसा सक ं े त मकया गया , कुछ तो सामामजक रुमढयों के चलते मवकमसत नहीं हो पाया। मफर यहाँ के नाटकलेखक ने अपने ही से हीन माना और दोनों के बीच सहयोग के बजाय अतं राल बढ़ता गया। अपने रंगमचं नाटक में प्रसाद मलखते है मक –यह प्रत्येक काल में माना जाएगा मक काव्यों के अथवा नाटकों के मलए ही रंगमचं होते हैं । काव्यों की समु वधा जटु ाना रंगमचं का काम है.. रंगमचं के सम्बन्ध में यह भ्रम है मक नाटक रंगमचं के मलए मलखे जाएँग,े प्रयत्न तो यह होना चामहए मक नाटक के मलए रंगमचं हो। इससे यह स्पि होता है मक नाटक पहले या रंगमचं , इस दिु चक्र में पड़कर महदं ी क्षेत्र का रंगमचं लम्बे अरसे तक मशमथल पड़ा रहा। सन 1900 से लेकर 1920 तक महदं ी सामहत्य के इमतहास में मद्रवेदी यगु माना जाता है। इसी यगु में प्रसाद के नाटकों का भी मजक्र मकया गया हैं। महदं ी नाटक में प्रसाद के आने से गिु ात्मक पररवतान होता है। सीधी सपाट भार्षा की तल ु ना में लाक्षमिक और अमधक अथा संपन्न भार्षा का प्रयोग होने लगता है , मजसे उन्होंने छायावादी कमवता के माध्यम तत्वाधान में मवकमसत मकया। प्रसाद ने खदु चन्द्रगप्तु मौया के अमभनय में सक्रीय रूमच ली थी और उसका एक संपामदत संस्करि प्रस्ततु मकया था मजसे बहुत मदनों Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

बाद में ‘अमभनय चन्द्रगप्तु ’ के नाम से प्रकामशत कर मदया गया (1977) । चन्द्रगप्तु मौया का यह अमभनय मदसंबर 1933 में काशी में हुआ था। मजसकें पवू ा​ाभ्यास में स्वयं प्रसाद बैठते थे। उसके बाद 1912 में नागरी प्रचाररिी पमत्रका में ‘कत्यानी पररचय ’ नामक नाटक छपा। बाद में इसी का संशोमधत पररवामधत रूप 1931 में चन्द्रगप्तु नाम से प्रकामशत हुआ । कत्यानी पररिय (1912 ) , चन्द्रगप्तु मौया (1931), अमभनय चन्द्रगप्तु (1933), और अमं तम नाटक ध्रवु स्वाममनी (1933) को उन्होंने , मचं की अनेक समु वधाओ ं को ध्यान में रखकर मलखा। इस नाटक में आकार कम है, तीन अक ं है मजसमें कुल तीन दृश्य –बंध है, पात्रों की संध्या आठ है । और ब्यौरे वार रंग-नदेश हैं। सगं ीत की बहुलतः कम है राष्ट्रीय भाव-बोध की अमभव्यमक्त प्रसाद के नाट्य मवधान का मल ू ाधार कहा जा सकता हैं। 4) प्रिादोत्र सहदं ी नािकों का स्िरुप – प्रसादोत्तर नाटक में गिु ात्मक पररवतान उपमस्थत करने वाले नाटककार में प्रमख ु है भवु नेश्वर । इस काल में पौरामिक और ऐमतहामसक परंपरा को लेकर नाटक मलखे गए। पौरामिक नाटक में उदयशक ं र भट्ट के अम्बा (1935), सागर मवजय (1937), मत्स्यगधं ा (1937), मवश्वाममत्र (1938), राधा (1941), सेठ गोमवन्ददास का किा (1946) , चतरु सेन शास्त्री का मेघवाद (1936), बेचैन शमा​ा उग्र का ‘गगं ा का बेटा’ (1940), डॉ लक्ष्मी स्वरुप का नलदमयंती (1941), श्रीममत तारा ममश्र का देवयानी (1944), आमद प्रमख ु है। प्रस्ततु इन लेखकों का दृमिकोि यगु की वैज्ञामनकता और बौमद्धकता से प्रभामवत है । इसमलए ये लेखक परु ािों की कथा को नवीन अथा गररमा करने में सफल हुए है। वस्ततु ः परु ाि का अथा भी यही हैं। प्रसाद के बाद कई दशकों तक नाटक इसी दष्ट्ु चक्र की इसमें रंगमचं की आवश्यकताओ ं पर ज्यादा ध्यान वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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नहीं मदया गया। नाटक तब तथाकमथत माना जाता जब वह मचं पर प्रस्ततु नहीं हो जाता । नाटक तब तथाकमथत मना जाता जब वह मचं पर प्रस्ततु नहीं हो जाता और इस अवमध की अमधकांश नाट्य कृ मतयों की सफलता मसद्ध होने का साधन ही नहीं रह गया।

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1) भारत का प्राचीन नाटक, हेनरी डब्लू वेल्थ ,

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5) िािोत्री सहदं ी नािकों का स्िरुपसाठोत्तरी महदं ी नाटकों में लक्ष्मीनारायि ममश्र, हररकृ ष्ट्ि प्रेमी, उदयशक ं र भट्ट, गोमवन्द वल्लभ पन्त, भगवती चरि वमा​ा, अमृतलाल नागर आमद उल्लेखनीय है। तो दसू री पीढ़ी में मवष्ट्िप्रु भाकर , भीष्ट्म साहनी, जगदीश चन्द्र माथरु ,लक्ष्मी कान्त वमा​ा , शम्भनु ाथ मसंह, मवनोद रस्तोगी , मोहन राके श, सवेश्वर दयाल सक्सेना, आमद है । आज का स्वर रंगमचं की दृमि से आशावादी बन गया है मानव मल्ू यों के प्रमत अगाध मनष्ठाके कारि आप आज की कुहासा में मकरि देख रहे है । इस बात पर डॉ मगरीश रस्तोगी कहते है मक “समकालीन नाटक और रंगमचं की दृमि से भी भारतेंदु की प्रासमं गकता इसमलए बढ़ जाती है क्यमंू क उन्होंने नाटक के दृिव्य को अपनी कल्पना , पररकल्पना , रचना, पनु रा चना के स्तर पर अनभु व मकया था ” इसी तरह से यमद हम सामहत्य और रंगमचं के इस मल ू भतू अतं र को समझ ले तो उनकी समीक्षा और आलोचना के प्रमतमानों पर खल ु कर बातचीत की जा सकती है इसमलए आधमु नक महदं ी रंगमचं आज समाज को एक नई मदशा देने का काम कर रहा है। नाटक यह दृश्य श्रव्य माध्यम होने के कारि इसका प्रभाव ज्यादा बढ़ गया हैं जामहर है मक रंगमचं के सौन्दया शास्त्र पर गहराई से मवचार करने में असंख्य और प्रस्तमु त , मसद्धांत,और व्यवहार परंपरा और शास्त्र इन सभी चीजों पर ध्यान देना आवश्यक है।

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मोतीलाल बनारसीदास,नई मदल्ली 1977, पृष्ठ 196 महदं ी सामहत्य और संवदे ना का मवकास;रामस्वरूप चतवु दे ी , लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद संस्करि 1986 पृि 147 नाट्यशास्त्र का इमतहास; डॉ पारसनाथ मद्रवेदी , चौखम्बा सरु भारती प्रकाशन, वारािसी, संस्करि -2012 पृष्ठ 99 डॉ लक्ष्मी नारायि का नाट्य सामहत्य; सामामजक दृमि , डॉ करुिा शमा​ा, वािी प्रकाशन, नयी मदल्ली ;संस्करि 2002 पृष्ठ 34 संस्कृ त के प्रमख ु नाटककार तथा उनकी कृ मतयाँ , डॉ गगं ासागर राय, चौखम्बा सस्ं कृ त भवन, वारािसी, सस्ं करि-2001 पृष्ठ 420 महदं ी सामहत्य और सवं दे ना का मवकास; रामस्वरूप चतवु दे ी लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद संस्करि 1986 पृष्ठ 151 समकालीन महदं ी नाटक की संघर्षा चेतना ; डॉ मगरीश रस्तोगी , हररयािा सामहत्य अकादमी चडं ीगढ़ सस्ं करि 1990 पृष्ठ 5

िन्द्दभक ग्रन्द्थ िूचीVol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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इप्िा िे जुड़े भीष्ट्म िाहनी का सहदं ी सिनेमा में योगदान आसदयय कुमार समश्रा पी-एच.डी. प्रदशानकारी कला (मफल्म और नाटक) मवभाग महात्मा गांधी अतं रराष्ट्रीय महदं ी मवश्वमवद्यालय, वधा​ा- महाराष्ट्र, मोबाइल-7020848104 की-िडडकि- इप्टा, सांस्कृ मतक, मवचारधारा, नाटक, महदं ी मसनेमा िोध िारांिमहदं ी सामहत्य जगत में जब भी महत्वपिू ा कहानीकारों, उपन्यासकारों, नाटककारों, जीवनी लेखकों, आत्मकथाकारों और मनबधं कारों की चचा​ा होती है तो उनमें भीष्ट्म साहनी का नाम बड़े ही सम्मान के साथ मलया जाता है। मवभाजन मवर्षय पर रचनाओ ं और मसनेमा की कोई महत्वपिू ा चचा​ा भीष्ट्म साहनी द्वारा मलमखत ‘तमस’ उपन्यास की चचा​ा के मबना परू ी ही नहीं होती। लेखक, अनवु ादक, सम्पादक, सगं ठनकता​ा, अध्यापक, कलाकार, आदं ोलनकारी, बहुभार्षी भीष्ट्म साहनी के व्यमक्तत्व के कई रुप हैं मकन्तु हर रुप में वह ईमानदार, सघं र्षाशील, न्याय, भाईचारा, समानता, प्रगमतशील और मानवता के पक्षधर मदखाई देते हैं। उनकी सामहमत्यक रचनाए,ं इप्टा की मवचारधारा से प्रेररत नाटकों में योगदान, मफल्मों में उनकी अदाकारी, संगठनकता​ा के रुप में उनकी भमू मका हमें मशीनी इसं ान से मानवीय होने की प्रेरिा देती हैं। भटकाव, फै सला, चीफ की दावत, चीलें, ओ हरामजादे, वाड.चू जैसी कहामनयां, तमस, बसन्ती, झरोखे, कमड़यां, मेरे साक्षात्कार जैसे उपन्यास और हानश ू , कमबरा खड़ा बाजार में, मआ ु वजे, माधवी जैसे नाटक Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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के रचमयता, ‘तमस’ मफल्म में ‘हरनाम मसंह’ और ‘मोहन जोशी हामजर हों’ मफल्म में मोहन जोशी की भमू मका मनभाने वाले अमभनेता के तौर पर भीष्ट्म साहनी अनेक रुपों में हमारे सामने हैं। उनके इन सभी रुपों को अथा​ात उनके कृ मतत्व को पढ़कर, सनु कर और देखकर आम इसं ान खदु को बरु ाईयों से दरू करने का जतन मकये बगैर नहीं रह सकता। चीफ की दावत जैसी कहामनयां हमें मां-बाप के प्रमत अपने फजा की याद मदलाती हैं तो ‘तमस’ मफल्म में ‘हरनाम मसंह’ को देखकर पत्थर मदल आदमी भी अतं मान से साम्प्रदामयकता से कोसों दरू भागने की कोमशश करता है। ‘मोहन जोशी हामजर हों’ में मोहन जोशी के रुप में वह (भीष्ट्म) आम आदमी को पदे पर जीवतं कर देते हैं। वह भारतीय न्याय प्रमक्रया के खचीलेपन और मवलबं से गरीबों को होने वाली धनहामन और जनहामन को मदखाते हैं साथ ही वकीलों की मक्कारी का पदा​ाफाश करने से नहीं चक ू ते। महदं ी मसनेमा में भीष्ट्म जी ने मगनती की ही मफल्में की हैं मकंतु इनकी भमू मकाओ ं ने गागर में सागर भरने का काम मकया है। वतामान सामामजक और राजनैमतक पररदृश्य में भीष्ट्मजी जैसे लेखक और कलाकार की रचनाओ ं को सामने लाना, उन पर चचा​ा करना, मवशेर्षकर उनके कृ मतत्यों से छात्रों एवं शोधामथायों का पररचय होना अत्यतं ही अमनवाया और साथाक पहल है। िोध का उद्देश्य1- भीष्ट्म साहनी के रंगमचं ीय और मसनेमाई योगदान की पड़ताल करना, 2- भीष्ट्म साहनी की वैचाररकी को रे खांमकत करना।

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िोध प्रसिसधप्रस्ततु शोध-पत्र में शोध प्रमवमध के रुप में अन्तवास्तु मवश्ले र्षि पद्धमत का उपयोग करते हुए भीष्ट्म साहनी के रंगमचं ीय और मसनेमाई यात्रा का संमक्षप्त अध्ययन एवं मवश्ले र्षि मकया गया है। भीष्ट्म िाहनी का िुरुआती जीिन एिं नािकों की ओर झुकािवर्षा 1915 में तत्कालीन भारत और वतामान में पामकस्तान के रावलमपंडी में जन्में भीष्ट्म जी को अमभनय की आदत बचपन से ही थी। “धरु बाल्यकाल में वे घर के जगं ले पर बैठकर भोर के उस जागरि-दतू की नकल करते थे, जो गली-महु ल्लों में रोजा रखनेवालों को जगाता मफरता था।”1 बलराज साहनी जैसे मझं े हुए कलाकार का छोटा भाई होने का असर भीष्ट्म के व्यमक्तत्व पर पड़ना स्वाभामवक था। “दोनों भाईयों को बचपन से ही नाटक खेलने का शौक था। वे घर के एक कमरे को नाटक का स्टेज मान लेत।े वे उसका दरवाजा ऐसे खोलते, मानों मचं का पदा​ा खल ु रहा हो। मफर वे मफर वे अमभनय करते मजसे घर के लोग देखते। भीष्ट्मजी ने पहली बार असली स्टेज पर अमभनय मकया, जब वे चौथी कक्षा में थे।”2 धीरे -धीरे समय बीता और लड़कपन से यवु ावस्था की ओर अग्रसर भीष्ट्म नाटकों में रंगते-बसते गये। “नाटकों के प्रमत उनका तथा उनके बड़े भाई बलराज साहनी का लाहौर कॉलेज में पढ़ते हुए ही प्रबल रुझान था जो जीवन पयिंत कायम रहा।”3

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साहनी के मपता, कॉलेज की मशक्षा परू ी कर चक ु े अपने दोनों बेटों को व्यवसाय में लगाना चाहते थे। लेमकन बलराज साहनी का मन व्यवसाय में नहीं लगा। वे घर छोड़कर पहले लाहौर और मफर शांमतमनके तन चले गए। भीष्ट्मजी अनमने ढंग से व्यापार में मपता का हाथ बंटाते रहे। शांमत मनके तन से बलराज साहनी ने, भीष्ट्म के मलए आनाल्ड ररडले का मलखा नाटक ‘द घोस्ट रेन’ भेजा। उन्होने इसका महदं ी अनवु ाद मकया।”4 भीष्ट्मजी ने इस नाटक का परू े मनोयोग से मचं न मकया। “यही नाटक भीष्ट्मजी के अनसु ार, पहला नाटक था जो, उन्हें एक देशव्यापी सांस्कृ मतक आदं ोलन की ओर खींच ले गया। यह सांस्कृ मतक आदं ोलन ‘इप्टा’ (इमं डयन पीपल्ु स मथएटर एसोमसएशन) के माध्यम से हुआ था।”5 बलराज साहनी भी इप्टा से जड़ु े थे और मफल्मों में अमभनय भी मकया करते थे। “बलराज साहनी के मपताजी को उनका मफल्मों में काम करना पसदं नहीं था। उन्होंने छोटे बेटे भीष्ट्म को मबंु ई भेजा मक बलराज को समझाबझु ाकर लौटा लाए।ं भीष्ट्म जी ने मबंु ई में देखा मक बलराज साहनी वहां ‘इप्टा’ के नाटकों में डूबे हुए हैं। वे तब ख्वाजा अहमद अब्बास के नाटक जबु ैदा के मनदेशन की तैयारी कर रहे थे। भीष्ट्म जो बलराज को वापस ले जाने आए थे, खदु भी इप्टा के रंग में रंग गए। उन्होंने जबु ैदा में एक छोटी सी भमू मका भी की।”6 भीष्ट्म िाहनी का सर्ल्मों में आगमन-

वर्षा 1937 में लाहौर के ही गवनामटें कॉलेज से भीष्ट्मजी ने अग्रं ेजी सामहत्य में एम.ए. मकया। “भीष्ट्म

“देश के बंटवारे के बाद वे मजन मदनों मबंु ई में इप्टा के नाटक कर रहे थे, तब मफल्मों में अमभनय के प्रमत उनका रुझान नहीं था।”7 बलराज जैसे प्रगमतशील मवचारों वाले भाई और कलाकार का संगत और खदु भी अद्भुत लेखन और अमभनय प्रमतभा के कारि भीष्ट्मजी का समक्रय सम्पका लेखकों और नाट्यकममायों से बना रहा। “अमभनेता के रुप में उनकी पहली मफल्म ‘मोहन जोशी हामजर हो’ थी।”8

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भीष्ट्म िाहनी का इप्िा िे जड़ु ाि-


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मल ू तः वे लेखक थे, यह बात उनके सम्पिू ा जीवन पर नजर डालने से पता चलता है। “वे शौमकया अमभनेता थे। उन्होंने मफल्मों में जो काम मकया आकमस्मक ही था। उसके पीछे उनकी कोई कोमशश या आग्रह नहीं था। कुछ अपनी प्रमतभा थी, कुछ नाटकों के काम का अभ्यास, कुछ बड़े भाई बलराज की सफलता की प्रेरिा और कुछ मनदेशकों का दबाव, वे मफल्मी अमभनय के क्षेत्र में आ गए।”9 भीष्ट्मजी का मफल्मों में बतौर अमभनेता आगमन भी बड़ा मदलचस्प ढंग से हुआ। “मफल्म ‘मोहन जोशी हामजर हो’ के मख्ु य चररत्र मोहन जोशी के मलए सईद अख्तर ममजा​ा को एक गैरपेशवे र अमभनेता की तलाश थी। मकसी ने उन्हें भीष्ट्मजी का नाम सझु ाया। भीष्ट्मजी को भी कहानी पसंद आई।”10 क्योंमक इस मफल्म की कहानी आम आदमी के बेहद करीब है। भारतीय काननू -व्यवस्था पर तीखी चोट करती 1984 में आई मफल्म ‘मोहन जोशी हामजर हो’ में न्यायालय की खचीली और उबाऊ न्याय प्रमक्रया को मदखाया गया है। ‘मोहन जोिी हासजर’ हो सर्ल्म में भीष्ट्म िाहनी‘मोहन जोशी हामजर हो’ मफल्म में मोहन जोशी ( भीष्ट्म साहनी) और उनकी पत्नी (दीना पाठक) एक परु ाने टूटे-फूटे बहुममं जली इमारत के एक छोटे से फ्लैट में गजु र बसर करते हैं। मकान मामलक हर महीने मकराया तो वसल ू ता है लेमकन इसकी मरम्मत नहीं कराता। मोहन जोशी उस पर मक ु दमा कर देता है। उसके बाद मफल्म में लालची वकीलों की मक्कारी और न्यायालय की लंजु -पंजु व्यवस्था को दशा​ाया गया। न्याय की उम्मीद में मोहन जोशी वकील को पैसा देता जाता है। उसे अपनी बीवी के गहने तक बेचने पड़ जाते हैं। आमखर में मक ु दमें को देख रहा जज खदु इमारत देखने आता है तो मकान मामलक आननफानन में उसकी कामचलाऊ मरम्मत करा देता है। जज मकान की मरम्मत के मदखावे में न आ जाए इसके Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मलए मोहन जोशी मकान में लगाए गए लकड़ी के एक खभं े को परू े ताकत से महला देता है। इसी बीच जजार मकान की छत उस पर ही मगर पड़ती है और वह बेमौत मारा जाता है। इस प्रकार मफल्म में मोहन जोशी नाम का मकरदार मकराये के मकान में रह रहे आम आदमी के जीवन की दश्वु ाररयों को सामने लाता है। मोहन जोशी बड़े-बड़े मकानों के मामलकों के सामने एक सवाल छोड़ जाता है मक क्या के वल मकराया वसल ू ना ही उनका धमा है! पैसे के लालच में अधं ा होने की बजाय आदमी की जान की कीमत पहचाने के मलए ये मफल्म प्रेररत करती है। भीष्ट्म िाहनी के उपन्द्याि ‘तमि’ का सिनेमाई िंस्करणभीष्ट्म साहनी ने मवभाजन को बड़े नजदीक से देखा था। अपनी इस पीड़ा और समाज पर साम्प्रदामयकता की चोट को उजागर करते हुए उन्होंने ‘तमस’ नाम का एक उपन्यास मलखा। ‘तमस’ मफल्म इसी उपन्यास पर आधाररत है। देश के मवभाजन के समय रावलमपडं ी और उसके आस-पास के गावं ों में हुए साम्प्रदामयक दगं ों के आधार पर मलखे इस उपन्यास के आधार पर ही पहले दरू दशान के मलए 6 एमपसोड की एक धारावामहक बनाई गई। इसी धारावामहक को सपं ामदत करके मफल्म भी बनाई गई मजसमें खदु भीष्ट्म जी ने भी अमभनय मकया। ‘तमि’ सर्ल्म की कथा-व्यथा‘तमस’ की शरु​ु आत नत्थू (ओमपरु ी) द्वारा मबना मकसी बदमनयमत से एक सअ ू र को मारने की घटना से शरु​ु होती है। मजसे समाज को बांटने की मनयत से एक ठे केदार द्वारा ममस्जद के सामने रखवा मदया जाता है। मजसके मलए ममु स्लम लोग महदं ओ ू ं को मजम्मेदार मानते हैं। ममु स्लमों के मन में महदं ओ ू ं के प्रमत घृिा फै ल जाती है और इलाके में तनाव फै ल जाता है। नत्थू मजसने मबना मकसी बदमनयमत के सअ ू र को वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मारा है इस परू ी घटना के मलए खदु को दोर्षी मानता है और अपनी गभावती पत्नी को परू ा वाक्या बताता है। दसू री तरफ एक समय ऐसा आता है मक देश मवभाजन की बात कांग्रेस और ममु स्लम लीग की बैठक में कांग्रेस के एक सदस्य जरनैल मसंह को सनु ाई देती है। वह अपना आपा खो बैठता है और भरी भीड़ में अग्रं ेजो के मखलाफ आवाज उठाकर मवभाजन का मवरोध करता है। इसी बीच कोई पीछे से उस पर प्रािघातक वार करता है। नत्थू यह दृश्य देखकर दौड़ता हुआ घर पहुचं ता है। परू े इलाके में दगं े की आशक ं ा से वह अपनी गभावती पत्नी और बढ़ू ी मां को साथ लेकर घर छोड़ देता है। ‘तमस’ में आधी मफल्म के बाद भीष्ट्म की भमू मका बढ़ू े मसख ‘हरनाम मसहं ’ के रुप में सामने आती है। जो अपनी पत्नी बतं ो (दीना पाठक) के साथ एक ममु स्लम आबादी वाले गावं में रहता है। जब परू े इलाके में दगं ा शरु​ु हो जाता तब उसकी पत्नी कहती है मक चलो यहां से कहीं और चलें तो वह अपने एक ममु स्लम साथी करीम खान के आश्वासन पर भरोसा जताते हुए गावं में ही रुक जाता है। जब ममु स्लम साथी खतरे का सक ं े त देता है तब वह अपनी पत्नी के साथ गावं छोड़ देता है। अपना गावं छोड़कर वह दरू के एक गावं में पहुचं कर एक घर में पनाह मागं ता है। वह घर भी मकसी मसु लमान का ही होता है मजसमें से एक ममहला मनकलती है। हरनाम और बंतो की बेचारगी पर तरस खाकर, इस बात के मलए सचेत करते हुए वह उन्हें अपने घर में मछपा लेती है मक उसका पमत और बेटा दसू रे धमा के आदमी को स्वीकार नहीं करें ग।े दरअसल उसका पमत एहसान अली और बेटा भी दगं े की रौ में बह चक ु े हैं और दसू रे धमा के लोगों के घरों में हत्या और लटू -पाट करके वह घर लौटते है। एहसान अली अपने बेटे से कुछ समय पहले ही घर पहुचं जाता है। इत्तेफाक से वह मजस घर से सामान लटू कर लाया होता है वह हरनाम का होता

है। जब उसके घर से लटू ा हुआ रंक वह अपने घर के आगं न में रखता है तो उसकी बहू उस रंक में लगे ताले को तोड़ने लगती है। एहसान की आवाज सनु कर हरनाम बाहर मनकलता है और अपने जान-पहचान का आदमी जानकर आवाज देता है। रंक को अपना बताते हुए वह चाभी उसकी बहू की ओर फे कता है। एहसानी अली पर हरनाम के पैसे रहते हैं। परु ाने ररश्ते की दहु ाई देकर एहसान हरनाम को शरि देता है लेमकन अपने बेटे के कट्टर स्वभाव का मजक्र करना नहीं भल ू ता। कुछ ही देर बाद उसका बेटा आता है और अपनी पत्नी द्वारा खबर पाकर वह हरनाम को जान से मारने दौड़ता है। घटनाक्रम में हरनाम बच जाता है और पत्नी बंतो के साथ उसका घर छोड़कर नये मठकाने की तलाश में मनकल पड़ता है। रास्ते में उसकी मल ु ाकात नत्थू से होती है। दगं े से पीमड़त वे सभी जान बचाने की गरज से एक गरु​ु द्वारे में शरि लेते हैं। गरु​ु द्वारे में मसखों का जमावड़ा रहता है। पास के ही ममु स्लम बहुल इलाके से इन मसखों को खतरा रहता है। वे हमथयारों के साथ तैयारी में जटु े रहते हैं। ममु स्लमों से सल ु ह की कोमशश में एक मसख यवु क और उसके साथ नत्थू भी मारा जाता है। बाद में अग्रं ेजी हुकूमत दगं ा पीमड़तों के मलए कै म्प लगाती है। अग्रं ेज सरकार काग्रं ेस, ममु स्लम लीग आमद मसयासी दलों के साथ अमन दल बनाती है। इस दल के मलए आई गाड़ी में दगं े का मख्ु य गनु हगार वह ठे केदार सबसे पहले नारा लगाते और नेतत्ृ व करते मदखाई देता है। जो यह स्पि संकेत देता है मक दगं े में अग्रं जे सरकार का हाथ है। मफल्म का अंत नत्थू की बीवी द्वारा अपने पमत की लाश पहचान लेने के बाद मछु ा​ा आने, मफर कै म्प में ही उसके बच्चा पैदा होने और तमाम दख ु ों के बावजदू वृद्ध हरनाम और उसकी पत्नी के चेहरे पर प्रसन्नता के दृश्य के साथ होता है।

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017

भीष्ट्म िाहनी की अन्द्य सर्ल्में-


Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

वर्षा 1991 में आई, शत्रघ्ु न मसन्हा, रघवु ीर यादव, मनोहर मसंह आमद चमचात कलाकारों के अमभनय से सजी, ‘कस्बा’ मफल्म में भीष्ट्म साहनी ने एक छोटी सी भमू मका मनभाई। “ममस्टर एडं ममसेज अय्यर (2002) भीष्ट्म साहनी द्वारा अमभनीत अमत मवमशि मफल्मों में से एक है। यह मफल्म साम्प्रदामयकता पर चोट करने के साथ धाममाक उन्माद, कट्टरपन और रुमढ़वामदता पर भी अच्छा प्रहार करती है।”11 मफल्म की मख्ु य ममहला पात्र एक बस यात्रा में अनजाने में ममु स्लम युवक के हाथ का पानी पीकर अपराधबोध हो जाती है। रास्ते में महदं -ू ममु स्लम दगं े की वजह से महदं ू दगं ाई बस में आते हैं और हर यात्री से उसका धमा पछ ू ते हैं। वह िाम्हि यवु ती उस ममु स्लम यवु क को अपना पमत ममस्टर अय्यर बताकर उसकी जान बचाती है। घटनाक्रम में उस यवु ती को ममु स्लम यवु क के साथ एक ही होटल में रुकना पड़ता है जहां वे एक-दसू रे के ‘धमा’ को समझते हैं। रात को अचानक दगं ाईयों द्वारा हत्या-बवाल मचाने पर वह यवु क उस यवु ती को ढाढ़ं स बधं ाता है। मफल्म में भीष्ट्मजी ने एक वररष्ठ ममु स्लम व्यमक्त की भमू मका अदा की है जो बस में अपनी वृद्ध पत्नी के साथ दगं ाईयों का मशकार हो जाता है। मफल्म के अतं में वह यवु ती अपने पमत से उस यवु क को ममलवाती है और अपने पमत से गैरमहदं ू यवु क के नेकमदली की खबू तारीफ करती है। सनष्ट्कषकभीष्ट्म साहनी ने मात्र चार-पांच मफल्मों में ही काम मकया लेमकन इन मफल्मों में उन्होंने बहुत ही यादगार भमू मकाएं मनभाई।ं प्रगमतशील मवचारों वाले भीष्ट्मजी ‘इप्टा’ से जड़ु े और उन्होंने नाटकों में भी अमभनय मकया। उनके कायों में उनकी मवचारधारा स्पि रुप से झलकती है। मफल्मों में कभी ‘हरनाम मसंह’ तो कभी ‘मोहन जोशी’ के रुप में उन्होंने ने आम आदमी का Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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प्रमतमनमधत्व बड़ी ही मजम्मेदारी के साथ मकया। तल ु नात्मक रुप से देखें तो भीष्ट्मजी ने महदं ी सामहत्य में मजतना योगदान मदया है उसके सामने मफल्मों में इनका काम नाम मात्र का है, लेमकन ‘तमस’ मफल्म जो इनके ही उपन्यास पर आधाररत है, में ‘हरनाम मसंह’ की जो भमू मका उन्होंने मनभाई है वह इन्हें महदं ी मसनेमा में अमर कर देती है। उदारता, भाईचारा, बहादरु ी, संघर्षा और त्याग जैसे मानवीय गिु ों के जो उदाहरि इनके सामहत्य में ममलते हैं वही तत्व इनकी मफल्मों में हैं जो इन्हें मानवता का पक्षधर सामबत करते हैं। िंदभक िूची1- मसहं , रमेश कुमार (2016 जनवरी-माचा). भीष्ट्म साहनीः एक महान लेखक और कुशल अमभनेता. इन्द्रप्रस्थ भारती, पृ. 65 2- वही, पृ. 66 3- यात्री से. रा (अगस्त 2015). भीष्ट्म साहनी बनाम एक पारदशी व्यमक्त का आख्यान. आजकल, पृ. 18 4- मसंह, रमेश कुमार (2016 जनवरीमाचा).भीष्ट्म साहनीः एक महान लेखक और कुशल अमभनेता. इन्द्रप्रस्थ भारती, पृ. 68 5- वही 6- वही, पृ. 69 7- वही, पृ. 71 8- दबु े शशाक ं (अगस्त 2015). भीष्ट्म साहनी और महदं ी मसनेमा.आजकल, पृ. 30 9- मसंह, रमेश कुमार (2016 जनवरीमाचा).भीष्ट्म साहनीः एक महान लेखक और कुशल अमभनेता. इन्द्रप्रस्थ भारती, पृ. 72 10- वही 11- दबु े शशाक ं (अगस्त 2015). भीष्ट्म साहनी और महदं ी मसनेमा.आजकल, पृ. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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सहन्द्दुस्तानी अदब के प्रचार-प्रिार में निल सकिोर प्रेि का योगदान सहमांिु बाजपेयी शोधाथी- जनसंचार मवभाग, म.गां.अ.ं मह.ं मव.मव. वधा​ा,महाराष्ट्र िोध िारांिप्रस्ततु शोधपत्र का उद्देश्य महन्दस्ु तानी अदब यानी महन्दी-उदाू सामहत्य के प्रचार प्रसार में मश ंु ी नवल मकशोर प्रेस की भमू मका को तलाशता है. नवल मकशोर प्रेस उन्नीसवीं और बीसवीं सदीं में भारत ही नहीं बमल्क दमु नया के सबसे बड़े प्रकाशन संस्थानों में से एक थी. 1858 में शरू ु होकर ये प्रेस 1950 तक लगातार काम करती रही. यंू तो इसने प्रकाशन सम्बन्धी मवमवध कामों को अजं ाम मदया. मिमटश शासन काल में स्टेशनरी और स्कूलबक ु की छपाई के ठे के भी इसको ममले. प्रेस ने दमु नया की अनेक भार्षाओ ं में प्रकाशन मकया. मगर महन्दी-उदाू यानी महन्दस्ु तानी अदब के मलए ये प्रेस ख़ास तौर पर सममपात थी. महन्दी-उदाू सम्बन्धी अपने योगदान के मलए नवल मकशोर प्रेस को कालजयी ख्यामत ममली. प्रस्ततु शोधपत्र इसी योगदान की पड़ताल करता है. की-िडडकि- नवल मकशोर प्रेस, महन्दस्ु तानी, महन्दीउद,ाू सामहत्य, पत्रकाररता प्रस्तािनामहन्दस्ु तानी अदब की दमु नया में मश ंु ी नवल मकशोर और उनके प्रेस का नाम कभी भल ु ाया नहीं जा सकता. उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में मश ंु ी नवल मकशोर प्रेस ने भारतीय सामहत्य के क्षेत्र में अनपु म योगदान मदया है. महन्दी और उदाू सामहत्य के इमतहास में रूमच रखने वाले जानते हैं मक मश ंु ी नवल मकशोर प्रेस ने अपने प्रकाशन व्यवसाय के ज़ररए महन्दस्ु तानी अदब को जो समृमद्ध दी है वो आियाजनक है. इसीमलए सामहत्य Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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जगत के बड़े बड़े परु ोधाओ ं से लेकर आज के छोटे छोटे शोधाथी तक सब इस प्रेस को बहुत ऊंचे दजे पर रखते हैं. उदाू के बड़े शाइरों का दीवान छापना हो या संस्कृ त के प्राचीन ग्रंथों का उदाू और अरबी फारसी में अनवु ाद छापना हो, या उदाू अरबी फारसी ग्रंथों को महन्दी और संस्कृ त में छापना हो या कुरआन शरीफ के अलग अलग भार्षाओ ं में सस्ते संस्करि छाप कर इसे आम मसु लमान के मलए सुलभ बनाना हो अथवा अपने अख़बारों के ज़ररए सामामजक एवं राष्ट्रीय चेतना फै लाना हो..नवल मकशोर प्रेस ने ये काम कुछ इस तरह से अजं ाम मदए हैं मक ये अपनी ममसाल खदु हैं. महन्दस्ु तानी सामहत्य में इसी महान योगदान के मलए इमतहासकार महमदू फारूकी ने उन्हे अद्भुत व्यमक्तत्व बताया है.(फारूकी,2010) िोध-उद्देश्यमहन्दी-उदाू सामहत्य के प्रचार प्रसार में नवल मकशोर प्रेस के योगदान की पड़ताल करना िोध-प्रसिसधप्रस्ततु शोध-पत्र के लेखन में गिु ात्मक अन्तवास्तु मवश्लेर्षि शोध प्रमवमध का इस्तेमाल मकया गया है. मुंिी निल सकिोर: एक पररचय मश ंु ी नवल मकशोर भारतीय सामहत्य जगत के अमर परू ु र्ष हैं. उन्होने 22 साल की अल्पायु में लखनऊ में जो प्रेस शरू ु मकया उसने अगले 92 साल तक ऐसी ऐसी चीज़ें छापीं मक परू ी दमु नया आज इसका लोहा मानती है. ग़ामलब ने अपने एक पत्र में मलखा है मक मश ंु ी नवल मकशोर के छापेखाने का क्या कहना मजसका दीवान छापते हैं, आसमान पर पहुचं जाता है.(ग़ामलब,2010) अपने छापेखाने के साथ साथ अपने सामामजक राजनैमतक सरोकारों के मलए भी मवख्यात मंश ु ी नवल वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मकशोर का जन्म 3 जनवरी 1836 को अपनी नमनहाल मथरु ा के रीढ़ा गांव में हुआ था.(स्टाका ,2012). उनका पररवार एक समृद्ध ज़मीनदार पररवार था. 1850 में उनकी शादी सरस्वती देवी से हो गयी. 1852 में वे पढ़ाई करने आगरा चले गए. इसके बाद वे लाहौर चले गए जहां उन्होने मश ंु ी हर सुखराय जो उनके मपता के जानने वालों में से थे की कोमहनरू प्रेस में काम मकया. दो साल तक यहां काम करते हुए नवल मकशोर ने प्रेस चलाने की सारी बारीमकयों को मेहनत के साथ सीखा. कोमहनरू प्रेस के मामलक हरसुख राय इनके काम से बहुत खश ु थे इसमलए इन्हे प्रेस का मैनेजर बना मदया. फौजदारी के एक मामले में जब हरसख ु राय को तीन साल की सज़ा हो गई तो नवल मकशोर ने ही इनका सबसे ज़्यादा साथ देते हुए इनकी ज़मानत करवाई और प्रेस सभं ाला. उनकी सेवा से प्रभामवत होकर हरसख ु राय ने उन्हे एक छोटा प्रेस भेंट में मदया मजसको लेकर वे लखनऊ आ गए. (भागाव,2012) 1858 में नवल मकशोर ने लखनऊ में अपना खदु का छापाखाना शरू ु मकया. लाहौर से नवल मकशोर के लखनऊ आकर छापाखाना खोलने के कई कारन थे. सबसे पहला तो ये मक लाहौर में रहते हुए नवल मकशोर की दोस्ती दो प्रभावशाली अग्रं ेज़ अफसरों से हो गयी थी. वे दोनो प्रमतमित पद पर लखनऊ स्थानातं ररत हो गए थे. ये थे सर राबटा माटं गमु री और कनाल साडं सा.(भागाव,2012). इसके अलावा लखनऊ अवध की राजधानी था और इल्मो-अदब के मका ज़ के तौर पर परू ी दमु नया में मशहूर था. मदल्ली से बहुत पहले से सामहबे फन लखनऊ आने लगे थे. अत: प्रेस की मल ु ाज़मत चाहने वाले लोगों की यहां कोई कमी नहीं थी. तीसरा ये मक 1857 की क्रांमत के बाद लखनऊ में कोई भी बड़ी प्रेस नहीं बची थी साथ ही अग्रं ेज़ों का दमन इतना बढ़ चक ु ा था मक अग्रं ेज़ों से मकसी की मामल ू ी दोस्ती भी उसे बहुत रूतबा मदला देती थी. नवल मकशोर के सम्बन्ध अग्रं ेज़ Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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अमधकाररयों से अच्छे थे इसमलए उन्हे सरकारी काम भी ममल सकता था और जनता में प्रमतष्ठा भी. 1858 में मश ु मकया ंु ी नवल मकशोर ने जब अपना प्रेस शरू तो सरकारी काम उन्हे जल्द ममलने लगा. इसी साल उन्होने ज्ञान मवज्ञान की पस्ु तकों को छापने का अपना मशहूर काम भी शरू ु मकया. साथ ही अवध अख़बार की इशाअत भी इसी साल शरू ु हुई. मंश ु ी नवल मकशोर ने प्रकाशन व्यवसाय के अलावा लखनऊ के सावाजमनक जीवन में भी गहरी रूमच मदखाई. वे राजनीमत में भी समक्रय रहे. नवल मकशोर जब 1858 में लखनऊ आए तो वे लखनऊ के मलए और लखनऊ उनके मलए एकदम अजनबी था. मगर बाद में वे लखनऊ से ऐसा घल ु ममल गए मक आज लखनऊ उनकी कीमतागाथा का आधार है. वे आत्म-मनमा​ाि की ममसाल हैं. 1875 में वे लखनऊ म्यमू नमसपल कमेटी के मेम्बर चनु े गए, और अगले अिारह साल तक इस पद पर बने रहे. 1881 में वे आनरे री अमसस्टेंट कममश्नर बना मदए गए. और अगले ही साल वे ऑनरे री ममजस्रेट बन गए.(स्टाका ,2012). लखनऊ में डफररन अस्पताल को उन्होने 15000 रूपए का दान मकया. जबु ली हाईस्कूल की शरू ु आत की जो आज भी लखनऊ के सबसे बड़े सरकारी इटं र कालेजों में एक है. काग्रं ेस की स्थापना होने के बाद वे उन लोगों में रहे जो काग्रं ेस का राजनीमत के मवरोधी थे. सर सैयद अहमद खां से उनकी दोस्ती थी. वे उनके साथ यनू ाइटेड इमं डयन पेमरयॉमटक एसोमसएशन में भी शाममल रहे जो मक कांग्रेस की मख ु ालफत के मलए बना था. बाद में साम्प्रदामयकता के मद्दु े पर सर सैयद से उनका मतभेद हुआ और दोनो के रास्ते अलग हो गए. मगर ये बात सही है मक सर सैयद कभी नवल मकशोर के ममत्रों और प्रशसं कों में हुआ करते थे. 1895 में मदल का दौरा पड़ जाने की वजह से नवल मकशोर की मौत हो गयी. इसके साथ ही भारतीय वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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इल्मो अदब का एक मवशालकाय व्यमक्तत्व दमु नया से चला गया.

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लखनऊ में मप्रंमटंग प्रेस की शरु​ु आत बादशाह ग़ामज़उद्दीन हैदर की शाही प्रेस या मतबा-ए-सुल्तानी से मानी जाती है.(स्टाका ,2012). इसके बाद हाजी हरमैन शरीफै न की मोहम्मदी प्रेस का नाम हुआ मजसमें मशहूर कामतब मश ंु ी हादी अली भी काम करते थे जो बाद में नवल मकशोर प्रेस के भी मल ु ामज़म हुए. इसके बाद मस्ु तफा खां की मस्ु तफाई प्रेस वजदू में आई. मलथोग्रामफक मप्रंमटंग में लखनऊ इसी ज़माने में मशहूर होना शरू ु हुआ. 1856 तक ये सभी प्रेस लखनऊ में काम करती रहीं. मस्ु तफाई प्रेस की इनमें ख़ास शोहरत थी. मगर जब 1857 में लखनऊ में क्रांमत हुई तो लखनऊ का प्रकाशन थोड़े मदनों के मलए ठहर सा गया. 1858 में हालात सामान्य होने के बाद अग्रं ेज़ी हुकूमत ने मप्रमं टंग प्रेस को जो सबसे पहला लाइसेंस जारी मकया वो ममला मश ंु ी नवल मकशोर नाम के एक नौजवान को जो लखनऊ से मनतातं अनमभज्ञ था. मगर चमंू क लखनऊ में अग्रं ेज सरकार के दो बड़े अफसरों से उसकी जान-पहचान थी सो ये लाइसेंस उसे ममल गया. अग्रं ेज़ों ने भी क्रामं त को देखते हुए मकसी स्थानीय आदमी को लाइसेंस देने के बजाय एक पररमचत और बाहर वाले को लाइसेंस जारी करना ज़्यादा सही समझा. इसके बाद 1858 में ही लखनऊ में उस नवल मकशोर प्रेस की स्थापना हुई जो आज भी महन्दस्ु तान के प्रकाशन व्यवसाय का सबसे बड़ा नाम है. अब्दल ु हलीम शरर ने अपनी मशहूर मकताब गमु ज़श्ता लखनऊ में भी नवल मकशोर प्रेस का मज़क्र मकया है. शरर के मतु ामबक अरबी फारसी की जैसी मकताबों को मजस व्यावसामयक स्तर पर छाप मदया उसे छापने के मलए महम्मत चामहए.(शरर,1965). नवल मकशोर प्रेस ने उद-ाू अरबी फारसी ही नहीं बमल्क महन्दी-संस्कृ त की

मकताबें भी छापना शरू ु मकया जो लखनऊ में नया चलन था. लखनऊ आने के बाद नवल मकशोर ने अपनी प्रेस सबसे पहले आगा मीर ड्योढ़ी पर लगाई. नाम हुआ- मतबा-ए-अवध अख़बार. मफर काम बढ़ने पर इसे रकाबगंज और गोलागजं में स्थानांतररत मकया. 1861 में नवल मकशोर प्रेस को पहली बार इमं डयन पीनल कोड का उदाू तजमाु ा छापने का ऑडार ममला. इसकी 30,000 प्रमतयां छपीं और इसके बाद से नवल मकशोर की गिना बड़े प्रकाशकों में होने लगी.(स्टाका ,2012). नवल मकशोर प्रेस को बड़ी मज़बतू ी कुरआन एवं दसू रे धमाग्रंथों को छापने से भी ममली. पाठ्य पस्ु तकें , रमजस्टर और दसू रे काननू ी काग़ज़ात तो अग्रं ेज़ों के आदेश पर वे छापते ही थे. इसके अलावा उन्होने लखनऊ में पहली बार महन्दी और सस्ं कृ त पस्ु तकों को भी बड़े पैमाने पर छापना शरू ु मकया. हालामं क उस वक्त भी लखनऊ में महन्दी और सस्ं कृ त की मकताबें छापने वाली ये अके ली प्रेस नहीं थी. पमं डत बृजनाथ की समर-ए-महन्द प्रेस और पमं डत मबहारीलाल की गल ु ज़ारे महन्द प्रेस महन्दी सस्ं कृ त की मकताबें छाप रहीं थीं. 1862 के आस पास जब लखनऊ में रे ल लाइन और डाक सेवा शरू ु हुई तो नवल मकशोर प्रेस को इससे बहुत फायदा हुआ. लखनऊ के प्रभावशाली महन्दू और ममु स्लम यहां तक मक यरू ोमपयन भी इसमें काम करने लगे थे. इसकी तरक्की का अदं ाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है मक 1862 में जब इसको शरू ु हुए महज़ चार साल हुए थे तब ही इसमें 300 कमाचारी काम करने लगे थे. काम और काम करने वाली संख्या बढ़ने पर अंतत: 1870 में ये उस जगह पर स्थानांतररत हुई मजसकी पहचान इसके साथ जड़ु ी है- हज़रतगजं . हज़रतगंज आने के बाद नवल मकशोर ने अपना बक ु मडपो जहां से मकताबें बेची जातीं थीं, भी खोला. आियाजनक रूप से 1870 आते आते इस प्रेस में एक लाख बान्नबे हज़ार पेज रोज़ाना छपते थे. इस साल प्रेस का क्रेमडट

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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निल सकिोर प्रेि का अिदान


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बैलेंस दो लाख पचास हज़ार रूपए था. 1882 में यहां 1200 कमाचारी काम करते थे. सालाना डाकखचा तकरीबन पचास हज़ार रूपए का था. 1871 में कागज की खपत को परू ा करने के मलए नवल मकशोर प्रेस ने लखनऊ में अपनी मनजी पेपर ममल और लोहे का अपना कारखाना भी लगवाया. (स्टाका ,2012). 1895 में नवल मकशोर की मौत के बाद प्रेस को उनके बेटे प्रागनारायऩ भागाव ने संभाला. प्रागनारायन भागाव की मौत के बाद प्रेस को उनके बेटे मबशन नारायन ने संभाला. प्रेस के सनु हरे मदनों में मगरावट तो प्रागनारायन के ज़माने में ही शरू ु हो गयी थी मगर मबशन नारायन की मौत के बाद ये महान संस्थान बहुत ममु श्कलों में मघर गया. 1950 में मबशन नारायन और उनके दोनो बेटों तेज कुमार और रामकुमार के बीच बटं वारा हो गया और इस तरह ऐमतहामसक नवल मकशोर प्रेस दो अलग अलग महस्सों- तेजकुमार बक ु मडपो और रामकुमार बक ु मडपो में बटं कर खतम हो गई.(भागाव,2012) महन्दस्ु तानी सामहत्य के मवकास में नवल मकशोर प्रेस का बड़ा योगदान है. नवल मकशोर प्रेस की महत्ता को ग़ामलब ने अपने ख़तों में स्वीकार मकया है. मशहूर सामहत्यकार अमृतलाल नागर ने कहा मक जो स्थान इस्पात उद्योग में टाटा का है वही स्थान प्रकाशन व्यवसाय में नवल मकशोर का है. (नाहीद,2006). अपने 92 साल के जीवनकाल में नवल मकशोर प्रेस ने तकरीबन दस हज़ार मकताबें छापीं. इनमें मख्ु य रूप से महन्दी-उदाू की मकताबें थीं. प्राचीन और समकालीन ज्ञान मवज्ञान के सारे मवर्षय इनमें समावेमशत थे. धमा, दशान, भार्षा, व्याकरि, सामहत्य, इमतहास, गमित, संगीत, मचमकत्सा आमद अनेकमवर्षयों पर उम्दा और सस्ते ग्रंथ छापे गए. इनमें कई को तो पहली बार जनता से रूबरू करवाने वाले नवल मकशोर प्रेस ही थी. तल ु सीदास की रामचररत मानस, दोहावली, कुरआन का मवश्वप्रमसद्ध महन्दी तजमाु ा और टीका, अवधVol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मवलास, बेताल पच्चीसी, वैमचत्र्य-मचत्रि, नरू नामा, पद्मावत, वेद-परु ाि-उपमनर्षद का महन्दी-उदाू अनवु ाद, दास्ताने अमीर हमज़ा, फसाना-ए-आज़ाद, फएअज़ायब, गामलब का दीवान, वामजद अली शाह की मस्नवी हुज्ने अख्तर, बहादरु शाह रफर का दीवान, उमराव जान अदा,गमु जश्ता लखनऊ आमद मशहूर और कालजयी कृ मतयां इसी प्रेस से छपीं. नवल मकशोर प्रेस ने ज्ञान मवज्ञान के प्रचार प्रसार के मलए लगभग 2000 मकताबें आक्सफोड् ा यमू नवमसाटी को दान में दीं. महन्दी की पमत्रका माधरु ी मजसके संपादकों में मश ंु ी प्रेमचंद शाममल थे नवल मकशोर प्रेस से ही छपती थी.(भागाव,2012). महन्दी सामहत्य को नवल मकशोर प्रेस का एक अमल्ू य योगदान इसकी सामहमत्यक पमत्रका माधरु ी भी है, मजसके सपं ादकों में प्रेमचदं और दल ु ारे लाल भागाव जैसे लोग शाममल रहे. अवध की सामहमत्यक हलचल के रूप में माधरु ी का मवशेर्ष योगदान रहा है. माधरु ी की महदं ी इसमलए भी अपना मवशेर्ष महत्व रखती है मक मजस समय महदं ी की दमु नया में छायावाद की सास्ं कृ मतक लहर चल रही थी और भार्षा के गठन का मशि- सस्ं कृ तमनष्ठ रूप राजनीमत रूप से भी नये अथा ग्रहि कर रहा था, उस समय माधरु ी अवध की अपनी अवधी भार्षा और उसकी लोक मवरासत की देशजता से परहेज करती हुई नहीं मदखाई देती है. महदं ी सामहत्य की पत्रकाररता में जो बड़े पररवतान देखने में आए थे मजनमें सबसे ध्यान आकर्षाि करने का काम सरस्वती (1903) के माध्यम से पं. महावीर प्रसाद मद्ववेदी ने खड़ी बोली महदं ी को गद्य और पद्य दोनों के मलए एक करने की आदं ोलनधमी कमान सम्भाल रखी थी,और महदं ी की मानक मदशा संस्कृ त से शब्द ग्रहि करती हुई, लोक भार्षाओ ं के प्रमत लापरवाह रुख अमख़्तयार मकए हुई थीं. माधरु ी की छमव इन पमत्रकाओ ं से कुछ मभन्न थी. माधरु ी की जो अपनी अलग एक नई पहचान बनती है, उनमें से एक कारि भार्षा नीमत के वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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महसाब से, इसका अपना उदार रवैया रहा है. यह पमत्रका अपने प्रकाशन काल के दौर में बहुत ही महत्वपूिा संपादकों से गजु री, लेमकन इसने अपनी भार्षाई उदारता हमेशा बरकरार रखी . माधरु ी का प्रवेशांक लखनऊ के ऐमतहामसक नवलमकशोर प्रेस से 30 जल ु ाई सन 1922 ई. में दल ु ारे लाल भागाव के सधे हुए सम्पादन कौशल में आता है. माधरु ी का प्रकाशन शरू ु होने से पहले ही नवल मकशोर प्रेस प्रकाशन जगत मवशेर्षकर उदाू प्रकाशन जगत में अपना अमर स्थान बना चक ु ा था. ऐसे में जब प्रेस ने माधरु ी नाम से महन्दी पमत्रका का प्रकाशन शरू ु मकया तो पहले अक ं से ही माधरु ी महन्दी की एक महत्त्वपिू ा पमत्रका बन गयी. एक तरफ़ वो दौर जहां शद्ध ु खड़ी बोली महन्दी के प्रचार प्रसार का था, मजसमें सैकड़ों साल परु ानी लोक-भार्षाओ ं पर अपेक्षाकृ त नई-नवेली महन्दी को तरजीह दी जा रही थी, वहीं माधरु ी महन्दी की समथाक होते हुए भी लोक-भार्षाओ ं से अपना ररश्ता जोड़े हुए थी. इसकी एक वजह शायद ये थी मक माधरु ी के प्रकाशन से पहले नवल मकशोर प्रेस न मसफ़ा उद,ाू अरबी, फ़ारसी और सस्ं कृ त बमल्क अवधी और बृज जैसी लोकभार्षाओ ं में मवपल ु सामहत्य प्रकामशत कर चक ु ी थी इसमलए शद्ध ु खड़ी बोली महन्दी को लेकर वो मकसी कट्टर पवू ा​ाग्रह , श्रेष्ठता बोध या राजनीमत से ग्रमसत नहीं थी. माधरु ी की महन्दी ने अपने दरवाज़े लोक-भार्षाओ ं अथवा आम-फ़हम उदाू के मलए बदं नहीं मकए थे. (पीतमलया,2000) नवल मकशोर प्रेस को अपने उदाू अख़बार अवध अख़बार के मलए भी याद रखा जाएगा. ये अख़बार 26 नवबं र 1858 को शरू ु हुआ. पहले ये एक साप्तामहक अख़बार था जो 1875 से एक दैमनक अख़बार में बदल गया. उत्तर भारत का ये पहला दैमनक उदाू अख़बार था. साथ ही ये नवल मकशोर के लाभकारी प्रकाशनों में से एक था. एक ज़माने में कहावत मशहूर थी मक महन्दस्ु तान के सभी सबू ों में या Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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तो हुकूमत के नमु ाइदं े रहते हैं या नवल मकशोर के . इनं लैण्ड में प्रमसद्ध भार्षाशास्त्री एडवडा हेनरी अवध अख़बार के नमु ाइदं े थे. एक महत्त्वपिू ा बात ये है आरंमभक उदाू मफक्शन का उत्कृ ि नमनू ा रतन नाथ सरशार का फसाना-ए-आज़ाद जो आज उदाू क्लामसक्स में मगना जाता है, पहली बार इसी अख़बार में धारावामहक रूप में छपा.(भागाव,2012). नवल मकशोर के जीवन काल में ये अख़बार अग्रं ेज़ों के प्रमत मकसी हद तक नरम मदखाई देता था. शायद इसमलए क्योंमक अग्रं ेज़ों के सहयोग से ही नवल मकशोर अपनी प्रेस लखनऊ में जमा पाए थे और अग्रं ेज़ों से प्रेस को छपाई का ठे का ममलता था. इसी कारि से गगं ा प्रसाद वमा​ा का अख़बार महन्दस्ु तानी और दसू रे अख़बार इसकी आलोचना करते हुए इसके अग्रं ेज़ों का चापलसू तक कहते थे. मगर इसमें कोई शक नहीं मक 92 साल के अपने लबं े जीवन में इसने कई बदलाव देख.े नवल मकशोर के बाद के दौर में जब देश की राजनीमत में काग्रं ेस खासकर गांधी के नेतत्ृ व में राष्ट्रीय आदं ोलन का अहम मवकास हुआ उस वक्त ये अख़बार खल ु कर काग्रं ेस के समथान में खड़ा हुआ और राष्ट्रीय चेतना से ओत प्रोत सामग्री दी. ममज़ा​ा ग़ामलब और सर सैयद जैसी बड़ी हमस्तयां शरू ु से ही अवध अख़बार के प्रशसं कों में रहीं. साथ ही इसके सम्पादकों की अपनी एक प्रमतष्ठा एक धाक रही. इसके मशहूर सम्पादकों में हादी अली अश्क, मेहदी हुसैन खां, रौनक अली अफसोस, गल ु ाम मोहम्मद तमपश, रतन नाथ सरशार, नौबत राय नज़र अब्दल ु हलीम शरर, प्रेमचंद और शौकत थानवी शाममल रहे.(स्टाका ,2012). अवध अख़बार अपनी सामग्री के मलए तो जाना गया ही अपनी भार्षा के मलए भी जाना गया. अपनी शरु​ु आत से ही उसने उदाू का अख़बार होने के बावजदू उस भार्षा को तरजीह दी मजसे हम महन्दस्ु तानी के करीब मान सकते हैं. बाद के मदनों में तो अख़बार की भार्षा और मवकमसत होती गयी. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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साइमन कमीशन की भारत यात्रा के दौरान इस अख़बार ने मजस तरह के बाग़ी तेवरों का पररचय मदया वो अपने आपमें एक ममसाल है.

Pitalia, R. S. (2000). Hindi Ki Kirtishesh Patra-Patrikaaein. Jaipur: Rajasthan Hindi Granth Academy.

मनष्ट्कर्षा- उपयाक्त ु मवश्ले र्षि के आधार पर कहा जा सकता है मक महन्दी-उदाू अदब के प्रचार प्रसार में मश ंु ी नवल मकशोर ने महत्त्वपूिा भमू मका मनभाई है. उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में जब सामहमत्यक मकताबें छापना बहुत मनु ाफ़े का सौदा नहीं था, तब प्रेस ने न मसफा इन्हे छापने का जोमखम उठाया बमल्क बहुत से सामहत्यकारों को मंज़र-ए-आम पर लाकर उनके सामहत्य को हमेशा के मलए महफूज़ मकया. महन्दी-उदाू में सामहमत्यक पमत्रकाएं और अख़बार छापकर इन्हे इन भार्षाओ ं को जनता के बीच प्रमतमष्ठत मकया. महन्दी-उदाू में मवमभन्न ज्ञानानश ु ासनों की ऐसी ऐसी मकताबें छापीं जो पहले दस्तयाब ही नहीं थीं. अपने मवलक्षि अनवु ाद काया के ज़ररए महन्दी और उदाू को करीब लाकर महन्दस्ु तानी भार्षा के मनमा​ाि और चलन में महत्त्वपिू ा भमू मका मनभाई.

Sharar, A. H. (1965). Guzishta Lucknow. New Delhi: National Book Trust. Stark, U. (2012). An Empire Of Books. Ranikhet: Permanent Black.

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

दसलत एिं आसदिािी सिमिक / Dalit and Tribal Discourse

ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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“निं लगु ड’ं कहानी-िग्रं ह में आसदिािी ‘पारधी िमाज’ का सचिण” रामडगे गगं ाधर महदं ी मवभागहैदराबाद मवश्वमवद्यालय, हैदराबाद Email- gangap3377@gmail.com घमु तं ू आमदवासी समाज के जीवन पर मलखा गया ‘नवं लगु ड़’ रामराजे आत्राम का मराठी कहानीसंग्रह है । इसमें आत्राम जी ने पारमधयों के जीवन का यथाथा और उनकी वास्तमवकता को मदखाया है । ‘पारधी’ जामत एक घमु तं ू समाज है जो आज यहाँ तो कल वहाँ अपने पेट की भक ू को ममटाने के मलए दरदर भटकती है । घमु तं ू आमदवासी समाज के लोग मवकास की ओर अग्रसर नहीं हुए क्योंमक आमदवासी जीवन तो जल-जगं ल-जमीन के सघं र्षा में ही उलझा रहा । आज परु े भारत देश में आमदवासी समाज के लोगों की जल, जगं ल और जमीन की समस्या हैं । पारधी समाज में जन्म लेना मकतना महाभयानक है और उसी समाज में रहकर जीवन मबताना मकतना कमठन एवं मनदायी होता है यह ‘नवं लगु डं’ कहानीसग्रं ह के माध्यम से रामराजे आत्राम ने मदखाने का प्रयास मकया हैं । कहानी-सग्रं ह में सात कहामनयाँ है । अमभजात्य सामहत्य के बाहर एक बहुत बड़ा समाज है जो बरसों से अपने अमधकारों से वमं चत है । मजनके पास आजीमवका का कोई साधन भी नहीं है । मजस समाज की ओर अभी तक सामहत्य की नजर भी नहीं गई लेमकन आज सामहत्य में यह स्वर मख ु र हो चक ू ा है । आज भार्षा और सामहत्य के सामने अनेक प्रकार की चनु ौमतयाँ खड़ी हैं । कुछ समय पवू ा दमलत, आमदवासी, स्त्री तथा अल्पसंख्यक सामहत्य हामशये पर थे परंतु आज सामहत्य में महत्वपूिा बन गया है । पररिाम स्वरूप वतामान सामहत्य में आज मजन मवमशों की मवशेर्ष चचा​ा हो रही है वे ‘दमलत मवमशा’, Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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‘आमदवासी मवमशा’ और ‘स्त्री मवमशा’ है । भारत देश आज मवकास के पथ में मनरंतर आगे बढ़ रहा है । यह मवश्वास दशा​ाया जाता है मक आने वाले समय में भारत तीसरी महासत्ता के रूप में उभरकर आयेगा । यह देश के मलए गौरव की बात है क्योंमक मवकास से मनमित ही देश की जनता आवाम तरक्की पर पहुचँ ेगी; मकन्तु संपिू ा मानव जामत का एक मवभाग उन लोगों का भी है जो सभ्यता के मवकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गये हैं । उन्हें आमदवासी कहा जाता है । इन आमदवामसयों का जीवन अमधकतर जगं लों में बीतता है । जगं ल इनकी संस्कृ मत है और इनका धमा भी । मवमभन्न संस्कृ मतयों, सभ्यताओ ं तथा मवमभन्न परम्पराओ ं से मबलकुल अलग आमदवासी अपनी सस्ं कृ मत का मवकास स्वयं करते हैं । दरअसल आमदवासी अपने श्रम के बल पर सदैव आत्ममनभार और स्वावलम्बी रहा है । अपने समहू और समाज से जड़ु कर, प्रकृ मत का साथी बनकर जीवन जीना उसकी शैली और स्वभाव रहा है । “आमदवासी के देवता आकाश में नहीं रहते । वे उसके घर-द्वार या जहां उसके परु खे दफनाए जाते हैं उन (श्मशानों) में, ज्यादा से ज्यादा हुआ तो पेड़ों पर रहते हैं, मजनकी वह खदु रक्षा करते है । इन देवताओ ं से उसका सवं ाद सतत् जारी रहता है, चाहे जन्म हो या मरि, मववाह हो या कोई उत्सव । यानी सख ु -दःु ख की हर घड़ी में उसके देवता भी उसके साथ शाममल रहते हैं, संवाद करते हैं और खाते-मपते हैं ।”1 भारत में हजारों वर्षों से शोर्षि मबना रूकावट के बेशमों की तरह चलती आ रही है । यहाँ के राजा तो बदलते रहे लेमकन समाज और लोकपरंपरा जस की तस चली आ रही है । इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य आत्रम जी ने ‘नवं लगु डं’ कहानी-संग्रह में मदखाने का प्रयास मकया हैं । भारत के आमदवामसयों के सामने हमेशा से कई समस्याएँ रही हैं । जैसे महाजनी शोर्षि की समस्या, ऋि की समस्या, जमीन वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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की समस्या, बँधआ ु मजदरू ी की समस्या, नशेबाजी की समस्या, स्त्री-शोर्षि की समस्या, अमशक्षा की समस्या, बेरोजगारी की समस्या, मवस्थापन और पनु वा​ास की समस्या, पलायन की समस्या, यमू नयनों द्वारा आमदवासी मजदरू ों के शोर्षि की समस्या और राजनैमतक नेतत्ृ व के दमन की समस्या आमद । इन आमद समस्याओ ं का मचत्रि ‘नवं लगु डं’ कहानी संग्रह में भी देखने को ममलता हैं । ‘मठु भर हुरडा आमि ओजं लभर रक्त’ कहानी दररद्रता के मखलाफ लड़ने वाले आमदवासी पररवार की है । कहानी में भख़ ू की असहनीय पीड़ा, ददा की वेदना को एक आमदवासी पररवार के माध्यम से मदखाया गया है जो चार मदन से भख़ ू की पीड़ा झेल रही हैं । खेत में चारों और ज्वार की फसल है । मकसी की महम्मत नहीं हो पाती मक खेत से ज्वार का एक बट्टु ा लाकर अपने पेट की वेदना को ममटा सके , लेमकन चार मदन से खाली पेट होने के कारि भख़ ू की पीड़ा असह्य होने की वजह से एक आमदवासी ममहला जमींदार से नजरें चरु ायें ज्वार का एक बट्टु ा घर ले आती है । जमींदार को जब पता चला तो वो उसके घर जाता है । जमींदार उस ममहला के सीर पर पत्थर मारता है और उस ममहला के सर से खनू बहने लगता है । एक मनवाले को बत्तीस बार चबाना पड़ता है और बत्तीस मनवाले खाने के बाद एक बदंू खनू बनता है । उस स्त्री को अजं ल ु भर खनू बहाकर मिु ीभर ज्वार की मकमत चक ु ानी पड़ती है । “आमदवासी अपने क्षेत्र से बाहर रोटी की तलाश में पलायन कर जाते हैं...अमशक्षा के चलते आमदवामसयों में आत्ममवश्वास की भारी कमी होती है और आत्ममवश्वास के अभाव में ये पमु लस में भी अपनी मशकायत दजा नहीं करवा पाते हैं ।”2 देश की संपमत्त पर यहाँ के नेता अमधकार जमाये बैठे हैं और देश के अब्जों रुपये हड़प ले जाते हैं । उन्हें इस देश में सम्मान का दजा​ा मदया जाता है तो पेट की भख़ ू ममटाने के मलए ज्वार का बट्टु ा चरु ानेवाले को चोर कहा जाता

है । मट्टु ीभर ज्वार चरु ानेवाले को खनू बहाने की मशक्षा ममलती है तो देश के अब्जों रुपयों का घोटाला करने वाले देशद्रोही को कोन-सी मशक्षा देनी चामहए ? ‘हत्या एका मनष्ट्पाप पारमधनीची’ कहानी में वास्तमवक मस्थमत एवं मानव समाज में घमटत सच्ची घटनाओ ं को मदखाया है जो मनष्ट्ु यता एवं मानव ह्रदय को झकझोरती है । वासना में डूबे नराधम के हाथों से घमटत अमानवीय कृ त्य को इस कहानी में उजागर मकया गया है । सत्ता और पैसों की अमीरी के कारि शराब में डूबे सविा लोगों द्वारा मकया गया घृिास्पद कृ त्य को मदखाया है । नराधम को मजस तरुिी का उपभोग करना था, उसके घर में उसकी सास भी थी । रात के अधं ेरे में वह उसके घर पहुचँ ता है । बमु ढ़या सो रही थी । बमु ढ़या जाग जाएगी तो अपना उद्देश्य साध्य नहीं होगा । इसमलए नराधम उसकी नींदों में ही हत्या कर देता है । मफर उस तरुिी का बलात्कार करता है । नराधम के वासना की भख ू के कारि एक सामान्य पारधी ममहला की हत्या हो गयी । तरुिी पर ही झठू े आरोप लगाकर जेल में बदं मकया जाता है । कोटाकचहरी में ठोस गवाह पेश करने के बावजदू भी अपराधी को मनदोर्ष करार देते हुए बाइज्जत बरी कर मदया जाता है । स्त्री-शोर्षि आमदवासी समाज की एक भयानक समस्या है । “आमदवासी मस्त्रयों के शोर्षि की समस्या इस समाज की एक गभं ीर समस्या है । जब से बाहरी लोगों के साथ इनके सपं का बढ़े, तब से इस शोर्षि में भारी बढ़ोतरी हुई क्योंमक जमीन के साथ ज्यादा आकर्षाि की चीज आमदवासी मस्त्रयाँ ही थीं ।”3 कहानी में राजनीती, पमु लस-प्रशासन और न्यायव्यवस्था के माध्यम से मनम्नजामतयों के लोगों पर होने वाले अत्याचार और शोर्षि को मदखाया है । मनरपरामधयों पर झठू े आरोप लगाकर उन्हें जेल में बंद मकया जाता है । इनका अपराध के वल आमदवासी और जामत से पारधी होना ही है । समाज में इन

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पारमधयों को चोर की नजर से देखा जाता है । इसमलए हमेशा इन पर ही आरोप लगाया जाता है । ‘जन्म घेिे लागे वासनेच्या पोटी’ आमदवासी भील समाज की वतामान मस्थमत और बरसों से उनके माथे पे थोपा गया गनु हेगारी के कलंक का वास्तमवक मचत्रि इस कहानी में मकया गया है । भील समाज के लोगों पर चोरी-डकै त की शक ं ा जताकर पमु लस उन्हें अधारामत्र नींदों से जगाकर जबरदस्ती जेल में बंद कर देते है । आमदवासी समाज में जन्म मलया यही उनका अपराध है । इनके पवू जा ों ने कोन-सा गनु ाह मकया था पता नहीं लेमकन अग्रं ेज शासन काल में इन जमामतयों को अग्रं ेजों ने गनु हगार जमात ही ठहरा मदया । “लम्बे समय से महाजन इनका शोर्षि करते रहे । वे सामतं ी जमींदार बनते चले गये । इन्होंने आमदवामसयों के इन आमदम साम्यवादी क्षेत्रों में सामतं वाद को खड़ा मकया । मामलक बने, गल ु ाम बनाये गये । मफर अग्रं ेज आये । अग्रं ेजों ने अपने स्वाथा की पमू ता के मलए महाजनों-जमींदारों को ज्यादा शमक्तशाली बनाया और ये अग्रं ेजों का समथान पाकर दगु नु े वेग से आमदवामसयों पर टूट पड़े ।”4 ‘कवडी मोल मािसू ’ कहानी में आत्रम ने यह मदखाने का प्रयास मकया है मक आज के समय में मनष्ट्ु य की कोई कीमत नहीं है । व्यमक्त व्यमक्त का जानी-दश्ु मन बना है । कहानी में महाराष्ट्र के लातरू , उस्मानाबाद मजले की सच्ची घटनाओ ं को उजागर मकया गया है । मजस प्रकार मानवता को कामलमा लगाने वाला कसाई मनदायी ह्रदय से गाय काटता है उसी प्रकार प्रत्यक्ष रूप से मनष्ट्ु यों को काटा गया । मस्त्रयों को ननन करके उनके साथ अत्याचार मकया गया । ऐसा अत्याचार एक मनष्ट्ु य द्वारा दसु रे मनष्ट्ु य पर मकया गया । ऐसी अवस्था में अपराध करने वाले आरोपी को खल ु े में छोड़ मदया जाता है और मनरपराध गररब मनष्ट्ु य को जेल की हवा खानी पड़ती है । इस मृत्यु लोक में इसं ानों को कीड़ों-मकौडों की तरह

मसला जा रहा है । उनकी हत्या की जा रही है और उन्हें कोई पछ ू ता तक नहीं लेमकन मकसी प्रािी की हत्या पर प्रमतबंद लगाकर शासन ने इसं ानों की कीमत कम और जानवरों की कीमत अमधक कर मदया है । ‘खल मनग्रहिाय सदरक्षिाय’ भारत में पमु लस प्रशासन का मनमा​ाि मकया गया है मजसका िीद वाक्य है- ‘खल मनग्रहिाय सदरक्षिाय’ । मजसका अथा- अच्छे एवं सत्यप्रवृमत्त के मनष्ट्ु यों की रक्षा करना है और गडंु देशमवधायक, देशद्रोही, मामफया, नक्षलवादी जैसे लोगों का जड़ से समाप्त करना है, जबमक कहानी में पमु लस अमधकारी इसके मवपरीत रक्षक ही भक्षक बनते मदखाई देते है । कहानी का नायक गिेश भोसले पर चोरी, खनू और बलात्कार का झठू ा आरोप लगाकर पमु लस उसे जेल में बदं कर देती है । जबरदस्ती गनु ाह कबल ू करने को कहा जाता है । नमक और ममचा डालकर जानवर की तरह उसे मपटा जाता है; मजसके चलते गिेश की जेल में ही मृत्यू हो जाती है । कहानी में मदखाया गया है मक पमु लस अमधकारी पैसों की लालच के कारि गडंु े और दिु प्रवृमत्त के लोगों का सरं क्षि करती है और सामान्य जनता पर अन्याय, अत्याचार करती है । ‘पारध्याच ं ं आत्मसमपाि’ कहानी में आत्रामजी ने आमदवासी पारमधयों की उस मख्ु य समस्या को उठाया है जो आत्मसमपाि से सबं मं धत है । कहानी में राजनीमतक कायाकता​ा समस्त पारधी लोगों को झठू े आमशम, लोभ मदखाकर उन्हें सरकार और पमु लस के सामने आत्मसमपाि के मलए कहता है । गररब एवं गवं ारू लोग हजारों की संख्या में उपमस्थत होते है । मजसमें बढ़ू े, बाल-बच्चे, गभावती ममहलाएँ भी शाममल होते हैं । मबना कोई गनु ाह मकए इन पारमधयों को आत्मसमपाि के नामपर कै द कर मलया जाता है । राजकीय नेता पारमधयों के स्वेच्छा से नहीं बमल्क अपने अमस्तत्व के मलए, अपनी रोटी सेकने के मलए इन पारमधयों का उपयोग करता है ।

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आज भारत और भारत के बाहर भी आमदवासी समाज के अमस्तत्व के मवरुद्ध मजस तरह राजमनमतक लोग र्षड्यंत्रों और कुटनीमतयों की रचना कर रहे हैं वह मचंताजनक है । नमदयों, पहाड़ों, जगं लों, आमदवासी पड़ोस के मबना उनकी भार्षा और संस्कृ मत, और उससे मनममात होने वाली पहचान कहीं खोती जा रही है । “आमदवामसयों की गमत में नृत्य है- वािी में गीत । जब वह चलता है तो मथरकता है और जब वह बोलता है तो गीत के स्वर फूटते हैं । वह अके ला नहीं, समहू में रहता है- समहू में सोचता है, समहू में जीता है । इतनी समृद्ध संस्कृ मत का स्वामी सभ्यता की दौड़ में एक र्षड्यंत्र और सामजश के तहत दभं ी मवजेताओ ं के समहू द्वारा अलग-थलग कर मदया गया । मवकास के नाम पर मवस्थामपत कर जल, जगं ल और जमीन तीनों से वमं चत कर उसे जगं लों से बाहर खदेड़ा जा रहा है ।”5 आमदवासी को जगं ल से बेदखल मकया जा रहा है । राजनीमतक लोग अपने स्वाथा के इन लोगों से जमीन छीन रहे हैं और वे यायावरी बजं ारों-सी मजदं गी जीने को बाध्य हो रहे हैं । इनकी जरूरत थी जगं ल, जल, जमीन और महाजनों-सामतं ों से ममु क्त । उनके साथ अस्पृश्यता की समस्या उतनी बड़ी नहीं थीं, चमंू क वे समाज से ही अलग-थलग रहते थे । उनका स्वामभमान ही उन्हें आबादी से दरू जगं लों में ले गया था । मवशेर्षत: हम कह सकते है मक आत्राम जी ‘नवं लगु डं’ कहानी-सग्रं ह में समदयों से महाजनों, जमींदारों की लटू व अग्रं ेजी सरकार की जनमवरोधी नीमतयों के मखलाफ मवद्रोह करते मदखाई देते हैं । हमें उन आमदवामसयों की रक्षा के मलये, संस्कृ मत और सभ्यता की रक्षा के मलए संगमठत होकर उनके अमस्तत्व को बचाना होगा । यह आमदवासी लोग मकसी का मवरोध नहीं करते, मकसी को क्षमत नहीं पहुचँ ाते, कोई महसं ा भी नहीं करते बमल्क प्रत्यतु अपने को इतना सबल और समथा बना सकते है मक अन्य

लोग उसके अमस्तत्व के मलए कभी संकट का मवचार भी मन में नहीं ला सकें गे ।

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017

आधार ग्रथ ं 1) रामराजे आत्राम, ‘नवं लुगड़’ (प्र.सं. 2011), ‘मक्त ु रंग प्रकाशन’, लातरू (महाराष्ट्र) िंदभक ग्रंथ िूची1) रममिका गप्तु ा, ‘आमदवासी स्वर और नई शताब्दी’(2002), वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, पृ.08 2) के दार प्रसाद मीिा, ‘आमदवासी समाज, सामहत्य और राजनीती’(2014), अनुज्ञा बक्ु स, मदल्ली, पृ.91 3) वही, पृ.95 4) वही, पृ.81 5) रममिका गप्तु ा, ‘आमदवासी स्वर और नई शताब्दी’, पृ.08


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“िज ं ीि के ‘धार’ उपन्द्याि में आसदिािी सचंतन” मनीष कुमार पी-एच॰ डी॰ शोधाथी महदं ी मवभाग काशी महन्दू मवश्वमवद्यालय, वारािसी मो. - 7725076980 ईमेल - manish2190@gmail.com आमदवासी से हमारा अमभप्राय देश के मल ू एवं प्राचीनतम मनवामसयों से है। आज भारत आमथाक मवकास के पथ पर तेज गमत से आगे बढ़ता जा रहा है, इसके बावजदू आज भी समाज का एक वगा ऐसा है जो हजारों साल परु ानी परम्पराओ ं के साथ जी रहा है। भारत के आमदवासी आज भी जगं ली पररमस्थतयों में मकसी तरह से अपना जीवनयापन कर रहे हैं। आमदवासी जनजीवन के संदभा में डॉ. गोरखनाथ मतवारी ने मलखा है – “संपिू ा मनष्ट्ु य का एक मवभाग उन लोगों का भी है जो सभ्यता की दौड़ में बहुत पीछे छुट गए हैं। उन्हें आमदवासी कहा जाता है।”1 आधमु नक सामामजक व्यवस्था पर यमद कोई मपछड़ा हुआ समाज है तो वह आमदवासी समाज है जो समदयों से जगं लों तथा पवातीय क्षेत्रों में रहने को मववश है और सभी साधन-समु वधाओ ं से वमं चत है। यह आमदवासी समाज अज्ञान तथा अमशक्षा के कारि अभी भी अपनी रूमढ़गत मान्यताओ ं और परम्पराओ ं से बाहर नहीं आ पाया है, इसीमलए समाज में सभी प्रकार से दममत हुआ है, क्योंमक वह अपनी परम्पराओ ं से जकड़ा हुआ है। “आज आमदवामसयों में चेतना जगी है। वह नई-नई मवचारधाराओ ं और क्रांमतयों से पररमचत हुए हैं, मजनके पररप्रेक्ष्य में वह अपनी नई परु ानी मस्थयों को तोलने लगा है। उसमें अपने होने न होने, अपने हकों के अमस्तत्व की वतामान मस्तमथ, अपने साथ हुए भेदभाव व अन्याय Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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का बोध भी जगा है।”2 सामान्यतः यमद कहा जाये तो आमदवासी समाज के मवर्षय में मकया गया मवचार-मचंतन ही आमदवासी मचंतन है। आमदवादी मचंतन वह मचंतन है, मजसमें आमदवासी जनजामतयों के जीवन व्यवहार पर गभं ीरता से मवचार-मवमशा मकया जाता है तथा उसकी समस्याओ ं को समाज के सामने प्रस्ततु मकया जाता है। वस्ततु ः आमदवासी मचंतन वतामान काल की उपज है। आजादी के पिात देश के लोगों को अपनी उन्नमत और मवकास का अवसर ममला मजसमें दमलतों तथा अन्य मपछड़ी जामत के लोगों को थोड़ी-बहुत मात्र में मवकास का अवसर प्राप्त हुआ, मजसका लाभ उठाकर कुछ लोग उन्नमत के मशखर पर पहुचें, मकन्तु आधमु नकता के इस दौर में हमारे देश का आमदवासी समाज जैसा जहाँ था वैसा ही वहीं पड़ा है, जो मक गम्भीर मचंतन का मवर्षय बन गया है। यमद कुछ अपवादों को छोड़ मदया जाये तो यह कहना मबलकुल सही होगा की हमारे समाज में सबसे अमधक आधमु नक संसाधनों से वमं चत उपेमक्षत तथा अभावग्रस्त समाज आमदवासी समाज रहा है। सजं ीव नये उपन्यासकारों में एक चमचात नाम है। 1990 में प्रकामशत सजं ीव का ‘धार’ उपन्यास आमदवासी जीवन की गररमा तथा उपलमब्धयों को उजागर करता है। ‘धार’ उपन्यास सथं ाल परगना में कोयले की खानों में काम करने वाले मजदरू ों का मचत्रि हुआ हैं। उपन्यास के के न्द्र में सथं ाल परगना का बॉसगड़ा अचं ल और आमदवासी हैं। ये आमदवासी मजदरू पेट की आग के कारि कोयले की खदानों में काम करने जाते हैं। कभी जहरीली वायु फै लने के कारि, कभी धरती के धसने के कारि तो कभी पानी भरने के कारि उन्हीं खदानों में समा जाते हैं। इसके आलावा प्रस्ततु इस उपन्यास में पंजू ीवादी व्यवस्था, मबचौमलयों की कुमटलताएँ, अवैध खनन, मामफया मगरोह का आतंक, श्रमजीमवयों का शोर्षि, आमदवामसयों का जीवन आमद का भी मचत्रि हुआ है। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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वतामान समय में आमदवासी समाज की मस्थमत पहले से खराब होती जा रही है। उनसे वह सब कुछ मछनता जा रहा है, मजसे प्राप्त करने का वह हकदार हैं। संजीव के ‘धार’ उपन्यास में इसका सजीव मचत्रि मदखाई देता है, मजसमें संथाल आमदवासी गरीबी तथा बेगारी में जीवन मबताते हैं। उदद्य् ोगपमत महेन्द्र बाबू आमदवासी इलाके में तेजाब का कारखाना शरू ु करतें हैं, मजसके पानी से कुए,ं तालाब सब दमू र्षत हो जाते हैं, अतः आमदवामसयों को नई समस्याओ ं से जझू ना पड़ता है। उपन्यास की मैना अपने समाज की हालत को बयाँ करती हुई कहती है – ‘खेत-खतार’, पेड़, रुख, कुआ,ं तालाब, हम और हमारा बाल-बच्चा तक आज तेजाब में गल रहा है, भख ू में जल रहा है। पहले हम चोरी का चीज है नहीं जनता था, भीख कब्भी नई माँगा..... इज्जत कब्भी नई बेचा, आज हम सब करता।3 मैना के माध्यम से उपन्यासकार ने वतामान कालीन आमदवामसयों के जीवन का कड़वा सच प्रस्ततु मकया है मक आमदवादी समाज आज मकस तरह बेबस जीवन जीने के मलए अमभशप्त है। आज आमदवासी का हर वगा शोर्षि का मशकार है। ऐसा भी नहीं है मक आमदवासी इस शोर्षि के प्रमत मौन रहते हैं। उनमें भी अब चेतना आयी है, वे भी अब सगं ठन शमक्त का महत्व पहचानने लगे हैं। सजं ीव के ‘धार’ उपन्यास में यही मस्थमत अमं कत है, जहाँ अमवनाश शमा​ा तथा मैना खदान में आमदवामसयों के साथ काम करते हैं, मजसमें कोयला मनकलता है, लेमकन शोर्षि का मसलमसला यहाँ भी मदखाई देता है, इसीमलए आमदवासी सामथयों से अमवनाश शमा​ा अपनी संगठन शमक्त का एहसास मदलातें हैं। “तो समथयों यह धार हमारी शमक्त है और धार का भोथरा होना ही मौत...... धार बरकरार रही है तो सारा संसार ही आपका है। इसमलए हमें धार की जरुरत है सतत सान से ताजा होती धार चामहए हमें कोइ भी कुबा​ानी क्यों न देनी पड़े।”4

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उपन्यास की मख्ु य पात्र मैना मदावादी व्यवस्था को तोड़ती आमदवासी नारी है। उसमें स्त्री सल ु भ सामत्वकताएँ संदु रता, दया, ममता, प्रेम, आमद गिु हैं तो दसू री ओर अन्यायी, अत्याचारी, समाज-व्यवस्था और भोगप्रदान परु​ु र्षवादी व्यवस्था से आक्रोश और मवद्रोह कूट-कूट कर भरा हुआ है। मैना की अपनी एक जीवन शैली है और अपनी नैमतकता है। वह अपने समाज और मबरादरी वालो की परवाह न करते हुए मबना शादी के मगं र के साथ रहती है। जब वह पैसे के लालच में खलासी के साथ व्यमभचारी करती रममया को पकडकर उसके बाप के पास ले जाती है तब गाँव वाले उसे ही भला बरु ा कहते हैं और मैना का मवरोध करने लगते हैं। तब वह मनडरता से कहती है – “ मैना का जब मन चाहा मरद मकया, मन से उतर गया छोड़ मदया, मरजी से मकया मजबरू ी से नहीं। असल बाप का बेटा हो तो पहले मैना बनके मदखाना तब बात करना।”5 इस कथन से उसके स्वामभमानी व्यमक्तत्व का पररचय होता है। सथं ालो की इस बॉसगाडा बस्ती में सभी ओर दररद्रता, भख ु मरी, बेकारी है मजससे बेहाल होकर लोग चोरी से रात में कोयला काटकर उसे बेचकर अपनी जीमवका चलाते हैं। इनमें से अमधकतर लोग यहाँ के ममल मामलक, पजंू ीपमतयों के गल ु ाम हैं। उनके पास खदु के बारे के सोचने के मलए समय ही नहीं है। सभी को यहाँ की अथा और समाज व्यवस्था ने लल ू ा-लगं ड़ा और कमज़ोर बनाया है। अगर कोई सचेत होकर इस क्रूर व्यवस्था से सघं र्षा करने की क्षमता और साहस रखता है, तो वह मैना ही है। हैदर मामा उसके बारे में कहता है, “ई लंगड़ा-लल ू ा बीमार इसं ानों के बीच एक तू ही तो साबतु है।”6 मैना अपने समाज से अत्यामधक प्रेम करती है इसमलए वह अमवनाश शमा​ा के जनमोचा​ा से ममलकर सबको रोजगार ममले ऐसी जनखदान का मनमा​ाि करती है। उसके इस काया से उसके प्रगमतवादी चररत्त का पररचय ममलता है। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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सजं ीव ने मैना के माध्यम से समाज की स्त्री वगा को प्रमतकूल व्यवस्था को पररवमतात करने की प्रबल प्रेरिा देने का अमल्ू य काया मकया है। मैना एक साधारि अनपढ़ आमदवासी स्त्री है, जो अपनी सोच और मवचारों से परु​ु र्षवादी समाज व्यवस्था से संघर्षा कर असामान्य बन जाती है। आमदवासी मचंतन की दृमि से संजीव का ‘धार’ उपन्यास का अध्ययन करने पर हमारे सामने के न्द्रीय रूप में आमदवामसयों का पीमड़त व शोमर्षत रूप अमं कत होता है। वतामान समय में यमद देखा जाए तो आमदवासी समाज वह समाज है जो सबसे अमधक वमं चत, उपेमक्षत तथा अभावग्रस्त जीवन जी रहा है। उसमें चेतना तो आयी है, वह अपने अमधकारों के मलए संघर्षा तथा मवद्रोह भी कर रहा है, मकन्तु उसमें अमधक सफल नहीं हो पाया है, क्योंमक समाज के अन्य लोगों ने उन्हें मसफा और मसफा शोर्षि का मशकार बना रखा है। िंदभक : 1.आमदवासी सामहत्य मवमवध आयाम – सपं ा. डॉ. रमेश सम्भाजी कुरे – पृ० 210 2.आमसवासी सामहत्य यात्रा – समं ा. रममिका गप्तु ा पृ० 5 3.सजं ीव, धार, राधा कृ ष्ट्ि प्रकाशन, नई मदल्ली, 1997 पृ० 130 4.सजं ीव, धार, राधा कृ ष्ट्ि प्रकाशन, नई मदल्ली, पृ० 165 5.सजं ीव, धार, राधा कृ ष्ट्ि प्रकाशन, नई मदल्ली, पृ०133 6.संजीव, धार, राधा कृ ष्ट्ि प्रकाशन, नई मदल्ली, पृ० Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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स्त्री- सिमिक/ Feminist Discourse ज्योसतरीश्वर िाकुर का िणकरयनाकरः स्त्री के पररप्रेक्ष्य िे सप्रयंका कुमारी, िोधाथी मैमथल सामहत्य के इमतहास में ज्योमतरीश्वर ठाकुर के यगु को स्विायगु कहा गया है। ये मैमथली के प्रमसद्ध लेखक और संस्कृ त के प्रकाण्ड कमव होने के साथ कुशल संगीत-शास्त्रज्ञ भी थे। इन्होने संस्कृ त में पंचशायक (कामशास्त्र) और धत्तू सा मागम(प्रहसन), मैमथली में विारत्नाकर(गद्य) की रचना की। इनकी उत्कृ ि काव्य रचना धत्तू सा मागम के प्रियन के मलए, उन्हें ‘कमवशेखराचाया’ और ‘अमभनव-भरत’ की उपामध से मवभमू र्षत मकया गया था। अथा, समृमद्ध, संस्कृ मत और मवद्या की दृमि से मैमथल सामहत्य का वह यगु अत्यन्त समृद्ध था। उस यगु में मममथला मशक्षा ओर धमा का ज्ञानपीठ माना जाता था। अत: प्रचरु संख्या में छात्रगि और ज्ञानमपपासु ज्ञानाजान के मलए वहाँ पधारते थे। इनके कालक्रम में ही प्रमसद्ध मवद्वानों की प्रमसद्ध कृ मतयाँ यथा-चण्डेश्वर ठाकुर का वृहत ग्रन्थ ‘स्मृमत-सागर’,लक्ष्मीधर का धमाशास्त्र संबद्ध वृहत ग्रन्थ ‘स्मृमत-कल्पतरु’, हररनाथ का ‘स्मृमतसार’ आमद प्रभृत मैमथल सामहत्य की रचनाएँ रची गयी।

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इस अमवस्मरिीय योगदान को आया भार्षा-सामहत्य समहत महन्दी भार्षा-सामहत्य और महन्दी-भार्षी सदैव ऋिी रहेंग।े प्रमसदध इमतहासज्ञ डा. नगेन्द्र अपने ग्रन्थ ‘महन्दी भार्षा-सामहत्य का इमतहास’ में मलखते हैं मक महन्दी गद्य के मवकास में राउलवेल के पिात विारत्नाकर का योगदान कम नही कहा जा सकता........। ये कृ मतयाँ गद्य धारा के प्रवाह की अखडं ता को मसद्ध करती हैं। गद्य भार्षा के इस युगान्तरकारी प्रिेता के जीवनवृत पर मवद्वानों में मतवैमवध्य हैं। प्रमसद्ध मैमथल मवद्वान नगेन्द्र नाथ के अनसु ार, ज्योमतरीश्वर ठाकुर मवद्यापमत के प्रमपतामह थे। पर अन्य मवद्वानों ने इसे अस्वीकार मकया है। प्रमसद्ध मैमथल मवद्वान रमानाथ झा, ज्योमतरीश्वर ठाकुर का जन्म 1348 के आस पास मानते हैं। इनके मपतामह का नाम रामेश्वर ठाकुर और मपता का नाम धीरे श्वर ठाकुर था। धत्तू सा मागम(पृ.सं 1320) में इन्होनें जो अपना जीवन पररचय मदया है‘महािािनश्रेणीसिखरग्रामयपल्लीजन्द्मभूसमना। ’ इसके अनसु ार इनका जन्म मममथलांचल (नेपाल) के श्रीमत्पल्ली नामक ग्राम के पमलबाड़ िाह्मि कुल में 1290 ई. में हुआ था। इनके वश ं का उपनाम ठाकुर था। ये मशव के अनन्य उपासक थे। ये मममथला के कना​ाटवश ं शासक हररमसंहदेव (सन1् 298-1324ई.) के दरबारी कमव थे। इनकी मृत्यु 1350 ई. में हुई थी।

पद, भार्षा-सामहत्य की एक ऐसी मवधा है, मजसमें सामहत्य की समस्त मवधाओ ं पर रचना कर पाना संभव नही था। पर गद्य के उत्थान के साथ ही भार्षा-सामहत्य में मवधाओ ं के अनेक मागा प्रशस्त्र हुए, मजसपर मनरन्तर अग्रसर होती महन्दी भार्षा एवं सामहत्य आज मवकास और समृदमध के मशखर को स्पशा कर रही है। मैमथली भार्षा-सामहत्य के मवद्वान के

िणकरयनाकर कमवशेखराचाया ज्योमतरीश्वर ठाकुर कृ त ‘विारत्नाकर’ की हस्तमलमखत मल ू प्रमत बंगाल के एमशयामटक सोसाइटी(सरकारी हस्तमलमखत संग्रह) में सरु मक्षत है। यह ग्रंथ 77 तार के पत्ते (38x15 सें.मी.) पर मतरहुता मलमप में 1509 ई. में मलखा गया था, मजसमें से 17 पत्ते (1-

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9,11,12,14,15,17,19,26,27) अनपु लब्ध है। यह ग्रंथ उक्त सोसाइटी के पस्ु तकालय में मचरकाल तक अप्रकामशत रहा। इस ग्रंथ के प्रकाशनाथा कई बार मवमभन्न मवद्वानों के अथक प्रयास मवफल रहे। अन्ततः 1940 ई. में एमशयामटक सोसाइटी,कलकत्ता के सनु ीमत कुमार चटजी और पंमडत बबआ ु जी ममश्र के संपादन में इस ग्रंथ का प्रकाशन संभव हो पाया,वह भी मचरकाल से वहाँ से लप्तु है।इस कारि, इस ग्रंथ के पनु मद्राु ि के मलए, मैमथली अकादमी प्रकाशन(पटना) संस्थान की स्थापना के प्रथम वर्षा (1956 ई.) के कायाक्रम में स्वीकृ त हुआ और इसके संपादन का काया पटना मवश्वमवद्यालय के मैमथली मवभागाध्यक्ष,प्रो. आनन्द ममश्र को मदया गया, मजन्होंने इस ग्रथं का गहन अध्ययन मकया था। अन्ततः इस ग्रथं (मैमथली भार्षा में व्याख्या समहत मल ू ग्रथं ) का प्रकाशन, मैमथली अकादमी द्वारा सपं ादक और व्याख्याकार प्रो. आनन्द ममश्र (मैमथली मवभागाध्यक्ष, पटना मवश्वमवद्यालय) एवं श्री गोमवन्द झा (उपमनदेशक,राज-भार्षा मवभाग,मबहार सरकार,पटना) के सपं ादन में,1980 ई. में, मकया गया। व्याख्या करते समय लौमकक और शास्त्रीय दोनों साधनों का उपयोग मकया गया- लौमकक साधन का उपयोग कम तथा शास्त्रीय साधन, यथा- परु ाि,स्मृमत, धमा-शास्त्र,नाट्यशास्त्र,सगं ीत-शास्त्र आमद, का उपयोग अपेक्षाकृ त अमधक।

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शैली की नवीन पररपाटी मनममात की, जो परवती आयाभार्षा सामहत्य के मलए मागादशाक बना। इन्होंने अपने मौमलक मचन्तन के द्वारा सामहत्य जगत में गद्यमवधा की आधारमशला ‘विारत्नाकर’ (1324) के रुप में रखने का यगु ान्तरकारी सफल प्रयास मकया। इनके द्वारा मलखा गया ‘विारत्नाकर’ का गद्य भले ही पररस्कृ त न हो, पर इसे गद्य-लेखन परंपरा का सरु​ु मचपिू ा सन्ु दर अमभनव प्रयास अवश्य माना जा सकता है। विारत्नाकर मैमथली भार्षा का आद्य गद्य ग्रंथ है। यह आधमु नक उत्तर-भारत के आयाभार्षा का सवाप्रथम और सवाश्रेष्ठ गद्य-ग्रंथ माना जाता है। विारत्नाकर मध्ययगु ीन उत्तर भारत के सामामजक और सांस्कृ मतक अध्ययन हेतु अमल्ू य मनमध तो है ही, भार्षा के मवकास के अध्ययन हेतु भी इसका असाधारि महत्व है। प्रमसद्ध भार्षा वैज्ञामनक डा. सनु ीमत कुमार चटजी ने विारत्नाकर का रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी का पवू ा​ाद्ध माना है।

मममथलांचल के प्रकाण्ड मवद्वान ज्योमतरीश्वर ठाकुर की प्रमसदध कृ मत विारत्नाकर मैमथली सामहत्य की प्रथम और संपिू ा आयाभार्षा सामहत्य की अन्यतम गद्य कृ मत मानी जाती है। गद्य-मवधा के क्षेत्र में पदापिा करने वाले आमदकालीन सामहत्यकार ज्योमतरीश्वर ठाकुर की गिना महन्दी के ख्यामत-लब्ध सामहत्यकार के रुप में की जाती है। इसमलए सामहत्य जगत में समदयों से आती परंपरा को अमवमछन्न कर गद्य भार्षा

‘विारत्नाकर’ के सबं धं में इमतहासज्ञ बच्चन मसहं ‘महन्दी सामहत्य का दसू रा इमतहास’ में मलखते हैं मक इसमें मैमथली के प्राचीन रुप का पता चलता है, तत्कामलन सामामजक व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है। सबसे बड़ी बात है मक इसमें न तो अपभ्रश ं का व्याकरमिक ढ़ाँचा है और न कृ मतम शब्दावली। विारत्नाकर के सपं ादक और व्याख्याकार प्रो. आनंद ममश्र और श्री गोमवन्द झा के अनसु ार विारत्नाकर एक मवमचत्र प्रकार का ग्रन्थ है। विारत्नाकर में राजा हररमसंहदेव को के मन्द्रत कर तत्कालीन नगरीय जनजीवन के सामामजक, सांस्कृ मतक और शास्त्रीय पररवेश का अदभतु विान मकया गया है। विारत्नाकर आठ कल्लोल में मवभक्त है-नगर विान, नामयका विान, आस्थान विान, ऋतु विान, प्रयािक विान ,भट्टामद विान, श्मशान विान। आठवाँ कल्लोल अधरू ा है। इस ग्रंथ में अनेक मवर्षयों

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का विान हुआ है। इस ग्रंथ में लेखक ने विानात्मक और पररगिनात्मक शैली का प्रयोग मकया है। इस ग्रंथ का कुछ अश ु विानात्मक है, जैसे- प्रभात-विान, ं शद्ध ऋत-ु विान आमद; कुछ अश ं विानात्मक और पररगिनात्मक दोनों है,यथा- नृत्यविान; कुछ अश ं के वल पररगिनात्मक है,यथा- 64 कला,12 आमदत्य आमद। अत: इसे एक प्रकार की शैली प्रधान ग्रन्थ की मवमशि श्रेिी में रख पाना संभव नही है। इस ग्रन्थ की रचना लेखक ने मकस उद्देश्य से की थी? इस मवर्षय पर मवद्वानों में पया​ाप्त मतान्तर है। विारत्नाकर के प्रथम अवलोकक महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री के अनसु ार, इसमें कमव पररपाटी का प्रमतपादन मकया गया है। जबमक विारत्नाकर के प्रथम सपं ादक डा.सनु ीमत कुमार चटजी के अनसु ार यह लौमकक और सस्ं कृ त शब्दों का कोश है,मजसमें काव्य विान के मवमवध वस्तु भाव के साथ सभी के उपमा, उपमान और विान पररपाटी का सग्रं ह है। विारत्नाकर के सपं ादक और व्याख्याकार प्रो. आनदं ममश्र और श्री गोमवन्द झा, इनके विान शैली के आधार पर, अपना मतं व्य प्रकट करते हुए कहते हैं मक विारत्नाकर का नामकरि यमद विान रत्नाकर रखा जाए तो कोई अमतशयोमक्त नही होगी, क्योंमक इसमें विान की प्रधानता है। इस ग्रन्थ की रचना लेखक ने मजस मकसी उद्देश्य से भी की हो, इतना तो अवश्य कहा जा सकता है मक प्रमसद्ध मैमथल मवद्वान ज्योमतरीश्वर ठाकुर ने पदरचना की परंपरागत शैली धारा को अमवमछन्न कर गद्य परंपरा की एक नवीन पररपाटी का श्रीगिेश मकया, जो परवती सामहत्य के मलए गद्य के नवीन शैली का सबल आधार बना। विारत्नाकर की भार्षा शैली को पढ़कर ऐसा अनुभतू होता है मक यह संक्रमि काल की पररवतानशील भार्षा है, मजसमें लेखक का Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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ध्यान मसफा उपमा के मवशेर्ष प्रयोग पर के मन्द्रत रहा है। मकसी मवर्षय-वस्तु के विान के मलए ऐसे-ऐसे पैने और सटीक उपमा और उपमानों का प्रयोग मकया गया है, जो वण्यावस्तु के भाव को दपाि सदृश प्रमतमबमम्बत करने में अमत सक्षम है। ऐसा उदाहरि अन्यत्र दल ू ाभ है‘पूसण्णकमाक चान्द्द अमृत पूरल अइिन मुँह। ... अधर कसनअराक कर अइिन नाक िीन्द्दुर मोसत लोिाएल अइिन दान्द्त।...’ िणकरयनाकर में सचसित मैसथली स्त्री विारत्नाकर मैमथल स्त्री के मवमवघ स्वरुपों का रंगमबरंगा मचत्राधार(अलबम) है। स्त्री के प्रत्येक रुप पर मैमथल मपतृसत्तात्मक समाज हावी प्रतीत होता है। विारत्नाकर में स्त्री कहीं धमापरायिा अधािंमगनी के आदशा रुप में है, तो कहीं नामयका के रुप में अपने अलौमकक रुप लावण्य से त्रैलोक को देदाप्यामान कर रही है, कहीं चगु ली करने वाली स्त्री(कुटज्ञ) की कका श वािी से समाज को त्रस्त; कहीं परु​ु र्षों द्वारा बलपवू क ा नताकी, नगरवघू बना मदए जाने पर मववश स्त्री की करुि गाथा है, तो कहीं स्त्री के अगं -उपांग का ऐसा प्रतीकात्मक मचत्र दशा​ाया गया है, जो स्त्री शरीर के प्रमत मैमथल परु​ु र्ष के भोगवादी संकीिा सोच को प्रदमशात करता है। एक स्त्री को देवी से नगरवघू बनाने वाला वचास्ववादी परु​ु र्ष समाज ही होता है। क्योंमक, स्त्री के इन दोनो रुपों से लाभामन्वत परु​ु र्ष समाज ही होता है। जहाँ वह स्त्री के देवी स्वरुप से अपने सभी ममथ्या-कमा को क्षमा करने पर मववश करता है, वहीं नगरवधू बनाकर प्रत्येक वगा और उम्र का परु​ु र्ष उसका उपभोग कर उसे अपमान करके दलदल में धके ल स्वयं मनष्ट्कलंक हो प्रमतष्ठा की ममथ्या पगड़ी बाँधें समाज में बेधरक घमू ता है। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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ज्योमतरीश्वर ठाकुर ने विारत्नाकर में नामयका सौन्दया का जो कोमल, भावपिू ा और नयनामभराम मचत्र खींचा है; इतनी अमधक संख्या में वण्यामवर्षय के मलए उपमेय-उपमान का प्रयोग मकया है; वे शायद संपिू ा संस्कृ त सामहत्य के लक्षि-ग्रन्थों में नही ममल सकते। ज्योमतरीश्वर ठाकुर के सामहत्य में स्त्री मजस रुप में मचमत्रत हुई है, उससे ऐसा प्रतीत होता है मक उस यगु के मैमथल समाज में स्त्री के आतं ररक सौन्दया के मवपरीत शारीररक सौन्दया को प्राधान्य माना जाता था। लेखक ने मजस तन्मयता और भाव-मवभोरता के साथ नामयका का नख-मशख विान, मवशेर्षकर उसके यौन अगं -उपांग का मजस भाव-प्रविता के साथ उपमाउपमान मदया है, वह मैमथल मपतृसत्तात्मक समाज के परु​ु र्ष दृमिकोि में मनममात स्त्री के वस्तु प्रधान स्वरुप को पररभामर्षत करता है मक एक स्त्री का स्वरुप कै सा होना चामहए? रुप-िौन्द्दयक का िणकन प्रस्ततु पमं क्तयों में लेखक ने नामयका के रुप-सौन्दया का विान मकया है। यहाँ मैमथल स्त्री के कामोत्तेजक रुप का अश्लील मचत्रि हुआ है। “[अथ नासयका] िण्णकना-----िुरक्त िा” [पृ.िं.22, पंसक्त िं 5-15] नामयका का चरि उज्जवल आमद पंच गिु ों से यक्त ु है। उसका मनतम्ब पिु , मांसल और कछुआ के पीठ सदृश है। उसके दोनों जांघ मचकने, कोमल, हाथी के सँढू समान हैं। उसकी नामभ गहरी है। उसकी कमट पतली, कोमल, गोल-इन्ही तीन गिु ों से यक्त ु मात्र मिु ी भर है। उसकी रोम-लता काली, मसृि कोमल... छः गिु ों से यक्त ु है। उसके दोनों स्तन अत्यन्त ही मनकटमनकट, पिु , कठोर, उँचे और गोल हैं। उसके बाहु मवशाल, गोल और कमल-नाल सदृश हैं। उसके हाथ कोमल, रक्ताभ, मनमाल, लाल अशोक के पल्लव जैसे हैं। उसकी ग्रीवा तरू जैसी कोमल और तीन रे खाओ ं से Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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यक्त ु हैं। उसके दोनों कान कोमल, वक्र, कुण्डलाकार और स्विा मनममात गहनों से यक्त ु हैं।... विारत्नाकर के मद्वतीय कल्लोल में मैमथल सन्ु दरी के अपवू ा रुप लावण्य का अत्यन्त सरस, कोमल और भाव-प्रवि मचत्रि हुआ है। यहाँ ज्योमतरीश्वर ठाकुर की मैमथल-बाला सोलह श्रंगारों से सजी-सँवरी पमू िामा की वह आकर्षाक चन्द्र-ज्योत्सना है, मजसे सागररुपी परु​ु र्ष अपनी उँची-उँची हाथ रुपी लहरों के द्वारा स्पशा करने के मलए सदैव उमद्वनन रहता है“खुिी, सिङडकली, िूता.......एक कृष्ट्ण चतुभकुज भए गेलाह।”[पृ.िं.22, पंसक्त िं 17-20] लेखक ज्योमतरीश्वर ठाकुर विारत्नाकर के मद्वतीय कल्लोल में मलखते हैं मक नामयका (गहनों)खटु ी(कान का गहना), मसङ्कली (मसकरी), सतू ा, एकवाली, चल ु ी(चड़ू ी), वलया(बाली), मेर्षला, मत्रका(माँग-टीका), पद्मसत्रू , कङ्कि(कंगन), नपू रु (पायल) प्रभृत बारह प्रकार के अनेक अलंकार धारि कर देखने में ऐसी अतीव सन्ु दरी लग रही है, मानो कामदेव परू े मवश्व को जीतकर आया हो और मजसका मवजय-पताका फहर रहा हो; मानो नामयका के रुप को देखने के मलए इन्द्र सहस्त्राक्ष हो गए हो; िह्मा चतम्ु मख ाु हो गए हो तथा कृ ष्ट्ि इस अपवू ा सन्ु दरी के आमलंगनाथा स्वयं को चतभु ाजु बना मलया हो। ज्योमतरीश्वर ठाकुर के मैमथल मत्रभनु व मोमहनी के अलौमकक आभा से मैमथली और महन्दी सामहत्य ही नहीं संपिू ा त्रैलोक्य देदीप्यामान हो उठा है। इनके मैमथल सन्ु दरी के रुप लावण्य की अलौमकक दीमप्त से लमज्जत होकर वसन्ु धरा पर अवमस्थत सौन्दया का एक-एक उपमान अपने मनगात स्थान से पलायन कर जाना ही श्रेयस्कर समझता है। क्योंमक ऐसी अलौमकक सन्ु दरी के उपमान बनने की योनयता उनमें है कहाँ? लेखक का मस्त्रयों के प्रमत इतना कोमल, भावपिू ा मचन्तन और उससे भी अमधक स्त्री सौन्दया के वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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वण्यावस्तु के उपमा और उपमान का ऐसा नवीन और भावप्रवि प्रयोग संपिू ा सामहत्य संसार में दल ू ाभ है। मैमथल सामहत्य के इस प्रकाण्ड मवद्वान की मवद्वता के समक्ष सामहत्य संसार नतमस्तक रहेगा“स्िग्यक, मययक, पातालक...........ियं ुक्त सिभूिनमोसहनी देषु।” [पृ.िं.24, पंसक्त िं 9-20] लेखक ज्योमतरीश्वर ठाकुर विारत्नाकर के मद्वतीय कल्लोल में मत्रभवू न-मोमहनी नामयका के अलौमकक रुप-सौन्दया का विान करते हुए मलखते हैं मक मानो मवधाता ने, मत्रभवू न- स्वगालोक, मृत्यल ु ोक और पाताललोक से सौन्दया को एकमत्रत कर अपवू ा नामयका की रचना मवश्वकमा​ा द्वारा करवाया है; मजसके मख ु की शोभा को देखकर कमल पानी में प्रवेश कर गया; के श की शोभा को देखकर त्वचा पलायन कर गया; दाँत की शोभा को देखकर दामड़म का हृदय मवदीिा हो गया; अधर की शोभा को देखकर प्रवाल द्वीप के अन्दर चला गया; कान की शोभा को देखकर बौद्ध ध्यानावमस्थत हो गए; कंठ की शोभा को देखकर शङ्ख समद्रु में प्रवेश कर गया; स्तन की शोभा को देखकर चक्रवात उमछन्न हो गया; बाहुयगु ल की शोभा को देखकर कमल का नाल पङ्क-मनमनन हो गया; हाथ की शोभा को देखकर पल्लव त्रस्त हो गया; जाँघ-यगु ल की शोभा को देखकर कदली मवपरीत गमत कर मलया; चरि की शोभा को देखकर स्थलकमल मनकुञ्ज में आश्रय ले मलया। ऐसे रत्नालंकार से यक्त ु मत्रभवू नमोमहनी को देमखए। िखी-िणकन प्रस्ततु पंमक्तयों में लेखक ने नामयका की सखी के रुप-सौन्दया का नखमशख विान परु​ु र्षोमचत दृमिकोि से मकया है-

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“अथ िखीिण्णकना।। पसू ण्णकमाक चान्द्द....श्यामा जासत िखी” [प.ृ ि.ं 23, पसं क्त िं 1-13] सखी का महँु देखने में ऐसे लगता है, जैसे अमृत से भरा पमू िामा का चाँद हो; खोपा (जड़ू ा) ऐसे मदखता है, जैसे नमादा का मशला (काला पत्थर का मशवमलंग) फूल-माला से पजू ा गया हो; अधर ऐसे मदखता है, जैसे प्रवाल के पल्लव(मगँू ा) जैसा हो; कान ऐसे मदखता है, जैसे कनेल का फल हो; दाँत ऐसे मदखता है, जैसे मोती मसन्दरू में ममलने से रमक्तभ हो गया हो; बाँह ऐसे मदखता है, जैसे बेंत की छड़ी हो; स्तन ऐसे मदखता है जैसे मछलका हटाया हुआ नारंगी हो; कमट ऐसे मदखता है,जैसे डमरू का मध्य भाग हो। हास्य-िणकन इन पंमक्तयों में लेखक का स्त्री के प्रमत कोमल मवचार की अनभु मू त होती है। नामयका का हास्य लेखक के हृदय को इतना प्रभामवत करता है मक ये अपनी नामयका की एक मस्ु कान पर प्रकृ मत को ही नही अमपतु सपािू िह्मांड को ही न्योछावर कर देते हैं“अथ नासयका हास्यिण्णाक।। कुमुद, ...जनहास्य िच ं ारइते ँ देष।ु । [प.ृ ि.ं 25-26, िं 13-25]

कुन्द्द पसं क्त

प्रस्ततु पंमक्तयों में लेखक ने नामयका का हास्य-विान मकया है। मनमोहनी,वशीकरि,उत्सामहत आमद रस को जगाने, तीनों लोकों को वश में करने तथा नायक में हास्य संचार करने हेतु नामयका ऐसे हँस रही है जैसे कुमदु , कुन्द, कदम्ब, कास, भास, कै लाश, कपरू और पीयर्षू की कामन्त का प्रसार हो; मत्रभवु न के शहरी यवु कों के हृदय को ररझाने का मोहनीमत्रं हो; क्षीरसमद्रु की दमक्षिा लाने चली तरंग का लहर हो; अमृत के सरोवर का तरंग हो; शरद ऋतु के पमू िामा के चाँद की चाँदनी हो; अमभन और प्रकामशत कमलकोर्ष के प्रसार की शोभा हो; कन्दपा(कामदेव) का प्रकाश वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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हो; स्वेद, स्तम्भ, रोमांच, स्वरभगं , कम्प, वैवण्या, अश्रु (प्रलय) आमद आठ सामत्वक भाव का भण्डार हो; संयममत(सदाचारी) योगीजन का मनमनधान(प्रमिधान) हो; कामदेव के बाि के मादन, उन्मादन, प्रक्षोभन, संयोजन एवं सम्मोहन आमद पाँच गिु ों जैसा संधानशमक्त हो। गृहलक्ष्मी-िणकन मैमथल स्त्री को दाम्पत्य जीवन में कमठन पररश्रम करना पड़ता है। मैमथल मपतृसत्त्तामक समाज के द्वारा स्थामपत कठोर मनयम और अनश ु ासन को मैमथल स्त्री पत्नी के रुप में पालन करती है,यथा- पमत को प्रेमपवू क ा खाना मखलाना, महँु -हाथ को अपने आँचल से पोंछना, पीने के मलए दधू देना, दाँत स्वच्छ करने के मलए सींकी देना, ..., पान मखलाकर मख ु शद्ध ु कराना। यह मैमथल स्त्री के पमतप्रेम और अपवू ा कताव्यमनष्ठा के समममश्रि का एक अनोखा स्वरुप है”िुिणकक चौरा.......मुखिुसि उिमल” [पृ.िं.88, पंसक्त िं 5-16] प्रस्ततु पंमक्तयों में कमवशेखराचाया ने मैमथल संस्कृ मत में पगी आदशा गृहलक्ष्मी का स्वरुप दशा​ाते हुए उसके मवशद्ध ु दांपत्य, पमत प्रेम-भाव एवं कताव्यपरायिता का उल्लेख मकया है जो पमत के देखभाल के मलए सदैव समामपत रहती है। धमापत्नी का ऐसा अलौमकक और सामत्वक स्वरुप अन्यत्र दल ू ाभ है। सन्ु दरी(पत्नी) सोना के कटोरे को दधू से भरती है तथा मचउरा पर दही देने लगती है। दही काटते समय तथा मलाई टूटने के समय उसका पल्लव सदृश कर-कमल काँपने लगता है एवं बतान स्तंमभत (महलने-डोलने) होने लगता है। सोना के चम्मच से मलाई को उपर से हटाकर शंख सदृश श्वेत दही को पड़ोसती है। मलाई इतनी मचकनी है, मजससे तालु और जीभ में परस्पर मववाद खड़ा हो जाता है। चीन देश से (पंच बनकर) आये एक प्रकार के शका रे (जो बाद में समस्त भारत में चीनी कहलाने Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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लगा) को देने पर मववाद का अन्त होता है। उसके बाद मगु बा, लमड़बी, सरुआरी, मधक ु ु पी माठ, फे ना, मतलबा इत्यामद पकवान (ममष्ठान) पड़ोसती है। नायक(पमत) दधू पीता है, हाथ महँु धोता है, सींकी से दाँत साफ करता है, नये वस्त्र से हाथ को साफ करता है।उसके बाद, पत्नी तेरह गिु ों से यक्त ु पाँच प्रकार के फलों समहत पान को चाँदी की तस्तरी में पमत को देती है। तत्पिात पमत पान से महँु को शद्ध ु करने लगता है। िेश्या-िणकन विारत्नाकर के चतथु ा कल्लोल में वमिात वेश्याविान का प्रसंग प्राचीनकाल से ही मममथलांचल की मस्त्रयों पर हावी परु​ु र्ष वचास्ववाद को उजागर करता है; साथ ही उसके नैमतक अधोपतन, दोयम नीमत, अमानवीय और असस्ं कृ त मनोवृमत को भी। एक मववश स्त्री को सवाप्रथम पररवार और समाज से मवमछन्न कर उसे एक वमजात स्थान पर रखकर उसे नगरवधू बनाना, अन्धेरे में उसका उपभोग कर यौन सख ु प्राप्त करना, पर उजाले में उसका बमहष्ट्कार और मतरस्कार कर समाज में प्रमतमष्ठत बने रहना, यह परु​ु र्ष समाज का कै सा परु​ु र्षत्व है? यह उसकी कै सी मानवीयता है ? “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” के इस यगु में एक स्त्री को सम्मान देने तथा एक स्वस्थ समाज के मनमा​ाि के मलए स्त्री-परु​ु र्ष में सवाप्रथम परु​ु र्ष को ही पिू ा जोश, नैमतकता और यथाथा आत्मीयता के साथ अग्रसर होना पड़ेगा तभी समाज और स्त्री का क्रमश: मवकास और कल्याि संभव हो सके गा“अथ िेश्यािण्णकना ।।.... नामे िेश्या देष”ु [पृ.ि.ं 44-45, पसं क्त िं 21-13] प्रस्ततु पंमक्तयों में लेखक ने वेश्या का विान मकया है। चौराहा के समीप जो नगर है, उसमें सोना के मदवाल से मघरे हुए वगा​ाकार अनेक भवन हैं; मजसमें नगरवधू (पाननामयका), प्रमतनामयका, सखी, सैरसंधरी, वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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पररचाररका, दासी, मनलाज्ज, मनगामत, मनराश्रम, कामक ु आमद लोगों की भीड़ लगी है। फूलों के मालाएँ बनाये जा रहे हैं। सगु मं धत वस्तओ ु ं के धपू जलाये जा रहे हैं। मसर की सफाई हो रही है। के श के जड़ू े बनाये जा रहे हैं। गहने लाये जा रहे हैं। दलाल इधर-उधर घमू रहा है। चगु लखोर गप्पें मार रहा है। शयनगृह को सजाया जा रहा है। इसी तरह अनेक कायों में व्यस्त आमशक लोगों को देमखए। पनु ः मकस तरह आमशक कृ मत्रम लज्जा, कृ मत्रम यौवन, धनलोलपु , कृ मत्रम मवनय से यक्त शीलवती, मवलासवती, करुिावती, ु हृदयहाररिी, यौवनश्री, सवािंगसन्ु दरी, पररहास पेशली सन्ु दरी के समहू को देखने को मलए अपने चारों परु​ु र्षाथा गिु ों -जामत, लज्जा, धन और प्रमतष्ठा की उपेक्षा कर रहे हैं। कुिनी-िणकन विारत्नाकर के चतथु ा कल्लोल में वमिात चगु ली करने वाली स्त्री के प्रसगं के माध्यम से लेखक ने कुटनी स्त्री का मनोवैज्ञामनक मवश्ले र्षि मकया है। मकसी भी स्त्री या परु​ु र्ष का कुटील स्वभाव कुछ अभाव के कारि ही होता है। मममथलाचं ल में आरंभ से अद्यतन तक मस्त्रयों को दबाकर रखने की कठोर परंपरा बलवती रुप में जीमवत है। स्त्री ही अमधकाश ं त चगु लखोर या कुटनी स्वभाव की क्यों होती है? कारि स्पि है मक जन्म के समय से ही उसके साथ पररवार और समाज की ओर से मवर्षम व्यवहार मकया जाता है। उसके जीवन की अमभलार्षा अधरू ी ही रह जाती है। वह जीमवत रहती है तो अपने बल-बतू े पर। उसके ऊपर मकसी का सहारा या मवशेर्ष छत्रछाया नही होता है। यही कारि है मक उसके जीवन की अलभ्य अमभलार्षा उसे जलन के मलए बाध्य कर देती है और दबी हुई महत्वकांक्षा प्रमतरोध के रुप में प्रबल वेग के साथ फूट पड़ती है। इस प्रकार एक साधारि स्त्री से चगु लखोर या कुटनी स्वभाव वाली स्त्री का जन्म होता हैVol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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“अथकुट्टनीिण्णक... कुिनी देषु” [प.ृ ि.ं 45-46, पंसक्त िं. 14-5] प्रस्ततु पंमक्तयों में लेखक ने कुटनी(चगु ली करनेवाली) स्त्री के स्वरुप का विान मकया है। कुटनी स्त्री देखने में ऐसी लगती है जैसे तीन सौ वर्षा की वृद्धा हो,माका ण्डेय ऋमर्ष की ज्येष्ठ सहोदर बहन हो, नारद की सहोदर घटक हो, मवष्ट्िमु ाया जैसी संघटक हो; मानो सती की सतीत्व भगं करने आयी हो, कुलवधु को कुलटा बनाने आयी हो, कामदेव का रसना फट गया हो, वासना यौवन का त्याग कर मदया हो; उसके भौं पके हुए हैं, गाल धँसे हुए हैं, दाँत टूटे हुए हैं तथा बाल जटु जैसे श्वेत हैं; उसकी त्वचा मसकुड़ी हुई है, काया मासं मवहीन है; उसका मसर उभरा हुआ है; बोलते समय उसका अधर महलने लगता है; उसकी बमु द्ध कुमटल है; उसका स्वभाव लोभी की बेटी जैसी है। कुटनी यमराज से मववाद करती है। यमराज कहता है मक में तम्ु हें यमलोक ले जाउँगा। इसपर कुटनी यमराज से एक वर्षा की अवमध प्रदान करने के मलए याचना करती है,तामक वह इस अवमध में नगर का शेर्ष आनन्द उठा सके । कमवशेखराचाया ज्योमतरीश्वर ठाकुर की रचना ‘विारत्नाकर’ के सवािंग अध्ययन से उस यगु के सामामजक, सांस्कृ मतक,राजनीमतक और धाममाक पररवेश की यथाथा और समु धरु झाँकी मदखाई पड़ती है। इसके साथ ही लेखक ने अपने इस प्रथम गद्य ग्रंथ के माध्यम से तत्कामलन मैमथल समाज के स्त्री के मवमवध स्वरुप,दशा एवं शारीररक सौष्ठव का जो मचत्रधार प्रस्ततु मकया है,उससे लेखक के परु​ु र्षोमचत दृमिकोि के साथ- साथ स्त्री के प्रमत उनके कोमल भाव का भी आभास होता है। सहन्द्दी सिभाग,पांसडचेरी सिश्वसिद्यालय,पुदुचेरी मो.-9443057237, वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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ईमेल-pkcney@gmail.com

िदं भक ग्रन्द्थ 1. विारत्नाकर, संपादक प्रो. आनंद ममश्र और पं. गोमवन्द झा, मैमथली अकादमी, पटना। 2. महन्दी-सामहत्य और मबहार, प्रथम खडं संपादक श्री मशवपजू न सहाय,मबहार-राष्ट्रभार्षापररर्षद, पटना । 3. महन्दी सामहत्य का दसू रा इमतहास,बच्चन मसंह,राधाकृ ष्ट्ि प्रकाशन,नयी मदल्ली।

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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बौिकालीन नारी : दिा और सदिा अरुण कुमार सनर्ाद िोिच्छात्र संस्कृ ि िथा प्राकृ ि भाषा शवभार्ग लखनऊ शवश्वशवद्यालय, लखनऊ िोध िारांि हमारे देि में प्राचीनकाल से ही नाररयों को बहुि सम्मान की दृशष्ट से देखा र्गया है। वैशदककाल में िो उन्हें हर प्रकार की छूट थी। वे सारे कायम परु​ु षों के समान कर सकिी थीं। परन्िु बौद्धकाल में शियों की शस्थशि बहुि अच्छी नहीं थी। पत्रु और पत्रु ी में ही भेदभाव थे। बेटी और बहू में भेदभाव थे। प्रस्ि​िु िोिपत्र में उनकी इन्हीं सब बािों की चचाम की र्गयी है।

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मभक्षा दे दी थी।1 कुछ बहुएँ भी सास-श्वसरु पर अत्याचार करती थीं।2 ये बातें आज भी समाज में देखने को ममलती हैं मक- कोई सास कहीं बहू को प्रतामड़त कर रही है, तो कहीं बहू सास को प्रतामड़त का रही है। पमत ही पत्नी के मलए परमात्मा था। यह बहुत पहले से चला आ रहा है। परन्तु ये धरातल पर बहुत ही कम देखने सनु ने को ममलता है। पत्नी को तो भगवान बद्ध ु ने भी सबसे अच्छी ममत्र बताया है“भररया च परमो िखा।”3 उन्होंने कहा मक- माता कुमटया के समान है और पत्नी घोंसले से समान – “मातरं कसटकं ब्रसु ि, भररयं ब्रूसि कुलावकं।”4 बद्ध ु का तो यह भी कहना था मक- ममहलायें परु​ु र्षों से अमधक बमु द्धमान और गिु वान होती हैं – “इत्थीसप सह एकासच्चया, िेय्या पोिजनासधप मेधासवनी िीलवती, िस्िुिेवा पसतब्बता।

की िडक : नारी-सस्थसत, बौिकाल, ितकमानकाल।

तस्िा यो जायसत पोिो, िूरो होसत सदिम्पसत। तासदिा िुभसगया पत्त ु े, रज्जं सप अनुिािती सत।”5

बौद्धकालीन समय में मस्त्रयाँ संयक्त ु पररवार में रहती थीं। उन्हें पमत के साथ-ही-साथ अपने सासश्वसरु की भी आज्ञा का पालन करना होता था। उनकी की आज्ञा ममलने पर वे अमतमथयों से ममल बोल सकती थीं। मवमानवत्थु में एक जगह मलखा है मकएक सास ने अपनी बहू को मसू र से इसमलए मार डाला, क्योंमक उसने सास से मबना पछ ू े एक श्रमि को

अपवाद स्वरूप कुछ मवपरीत आचरि वाले स्त्री-परु​ु र्ष के उदाहरि भी उस समय में देखने को ममले हैं। जातक में में एक स्थान पर कहा गया है मक- मस्त्रयों पर भरोसा नहीं करना चामहए क्योंमक वे मकसी एक

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बौद्ध सामहत्य में भारतीय समाज, डॉ. परमानन्द मसहं , हलधर प्रकाशन वारािसी, प्रथम सस्ं करि 1996 ई., पृष्ठ 108 2 बौद्ध सामहत्य में भारतीय समाज, डॉ. परमानन्द मसंह, हलधर प्रकाशन वारािसी, प्रथम सस्ं करि 1996 ई., पृष्ठ 113

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

पामल एवं प्राकृ त मवद्या एक तल ु नात्मक अध्ययन, डॉ. मवजय कुमार जैन, मैत्री प्रकाशन, गोमतीनगर, लखनऊ, प्रथम संस्करि 2006 ई., पृष्ठ 157 4 पामल एवं प्राकृ त मवद्या एक तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. मवजय कुमार जैन, मैत्री प्रकाशन, गोमतीनगर, लखनऊ, प्रथम संस्करि 2006 ई., पृष्ठ 157 5 पामल एवं प्राकृ त मवद्या एक तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. मवजय कुमार जैन, मैत्री प्रकाशन, गोमतीनगर, लखनऊ, प्रथम संस्करि 2006 ई., पृष्ठ 157 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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की ममत्र नहीं होती।6 कहीं पर कोई स्त्री पराये परु​ु र्ष के संग रमि कर रही है, तो कहीं कोई परु​ु र्ष पराई नारी के साथ7, पर ऐसे लोग की संख्या आज की अपेक्षा बहुत कम थी। उस समय भी अराजक तत्त्वों से बहू-बेमटयों की अमस्मता का खतरा था।8 बौद्धकालीन समय में मवधवाओ ं की मस्थमत बहुत ही दयनीय थी। समाज में मवधवा होना अमभशाप समझा जाता था। आज भी शभु कायों में मवधवा का प्रवेश वमजात है। लोग सबेरे-सबेरे मवधवा का महँु देखना अपशकुन मानते हैं। कृ शा गौतमी नामक थेरी अपने इस दःु ख के मवर्षय में कहती है“हत भाग्यानारी! तेरे दो पुि काल कवसलत हो गये। मागष में तुमने मृत पीटीआई को देखा ! अपने माता-सपता और भाई को एक सचता में जलाये जाते हुए देखा।”9 और भी“स्त्री होना दु​ुःख है .......(सवद्वेर्ी) िपसत्नयों के िाथ एक घर में रहना दु​ुःख है। कोई कोई जजने वाली मातायें एक बार में ही मृत्यु चाहती हुई अपना गला काट लेती हैं। तासक पुन: उन्द्हें यह

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जातक (मद्वतीय खण्ड), भदन्त आनन्द कौसल्यायन, महन्दी सामहत्य सम्मेलन प्रयाग, सस्ं करि 1985 ई., पृष्ठ 309 7 जातक (मद्वतीय खण्ड), भदन्त आनन्द कौसल्यायन, महन्दी सामहत्य सम्मेलन प्रयाग, संस्करि 1985 ई., पृष्ठ 320, 424 8 पामल एवं प्राकृ त मवद्या एक तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. मवजय कुमार जैन, मैत्री प्रकाशन, गोमतीनगर, लखनऊ, प्रथम संस्करि 2006 ई., पृष्ठ 157 9 बौद्ध सामहत्य में भारतीय समाज, डॉ. परमानन्द मसंह, हलधर प्रकाशन वारािसी, प्रथम सस्ं करि 1996 ई., पृष्ठ 113 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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दु​ुःख न िहना पड़े, कुछ िक ु ु माररया​ाँ सवर् भी खा लेती थी।”10 प्रत्येक काल की तरह उस समय भी मातामपता का स्थान बहुत ही उच्च माना जाता था। ममहलायें व्यापार, खेती-बाड़ी आमद का काया नहीं करती थीं। ये सारे काया परु​ु र्ष के मजम्मे होते थे। उस समय कहीं-कहीं मलखा ममलता है मक- मस्त्रयाँ सावाजमनक स्थानों पर नहीं बोल सकती थीं, तो कहींकहीं मलखा ममलता है की ममहलायें भी परु​ु र्षों के समान शास्त्राथा में भाग लेती थीं। इस समय में मस्त्रयों को पढने-मलखने की छूट थी। राजघरानों में मशक्षा देने वाली ममहलाओ ं को ‘उपाध्यामयका’ कहा जाता था। उस समय की एक उपाध्यामयका पद्मावती का नाम ममलता है। नाररयाँ गीत संगीत में भी मनपिु होती थी। राजा रुद्रायन की पत्नी चन्द्रप्रभा एक प्रमसद्ध नृत्यागं ना थी। मस्त्रयाँ शास्त्राथा में भी भाग लेती थीं। वे प्रव्रज्या ले सकती थी। असामामजक काया करने वाली मस्त्रयों के कान, नाक काट मलए जाते थे।11 उस समय परदा प्रथा नहीं थी। मस्त्रयों का क्रय-मवक्रय भी उस समय होता था।। आज इसका नाम बदल कर ‘रे ड लाइट एररया’ हो गया है। दामसयों (रखैल) रखने का भी प्रचलन था कुछ लोग दामसयों से मववाह भी कर लेते थे, परन्तु तब भी उन दामसयों की समाज में कोई इज्जत नहीं थी। उन दामसयों से अमधक खराब मस्थमत उनके पत्रु ों 10

बौद्ध सामहत्य में भारतीय समाज, डॉ. परमानन्द मसहं , हलधर प्रकाशन वारािसी, प्रथम सस्ं करि 1996 ई., पृष्ठ 108 10 बौद्ध सामहत्य में भारतीय समाज, डॉ. परमानन्द मसंह, हलधर प्रकाशन वारािसी, प्रथम सस्ं करि 1996 ई., पृष्ठ 114 11 बौद्ध सामहत्य में भारतीय समाज, डॉ. परमानन्द मसंह, हलधर प्रकाशन वारािसी, प्रथम सस्ं करि 1996 ई., पृष्ठ 119 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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की होती थी। लोग उन्हें ‘दासीपत्रु ’ कह कर पक ु ारते थे, जो एक गाली थी। राजदरबारों में गमिका रखने का भी चलन था। गमिकाओ ं की सामामजक मस्थमत दामसयों से अच्छी होती थी। उनसे उत्पन्न पत्रु भी समाज में सम्मान की मनगाह से देखा जाता था। गमिकाओ ं का ‘गमिकामभर्षेक’ भी होता था। उच्चकुल की मस्त्रयाँ अपने सेवक सेमवकाओ ं के साथ अच्छा बता​ाव करती थीं। आज की अपेक्षा उस समय की मस्त्रयाँ कम ही थीं, जो शराब आमद का सेवन करती थीं, परु​ु र्षों को धोखा देती थीं। आज तो यह सारी चीजें फै शन हो गयी हैं।अगर कोई स्त्री इस प्रकार के काया करती पायी भी जाती थी तो वह समाज की नजरों में मगर जाती थी और घर के लोग भी उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे। सक्ष ं ेप में कहा जा सकता है मक- आज के समाज और उस समय के समाज में बहुत ज्यादा अन्तर नहीं था। जो बरु ाईयाँ आज समाज में मवद्यमान हैं, उस समय भी वही थी बस उनके प्रमतशत में आज वृमद्ध हुई है। समाज उन चीजों को कभी भी महत्त्व नहीं मदया जो असामामजक हैं। आज आवश्यकता है समाज में समदयों से चली आ रही इन रुमढयों को समाप्त करने की और मलगं भेद ममटाने की।

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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मसहलाओ ं की िुन्द्नत : एक कुप्रथा ममहलाओ ं की सन्ु नत (ख़तना) का उदय कब हुआ इस सम्बन्ध में मतभेद है, मवद्वानों का मानना है मक इसकी शरु​ु आत उत्तर-पमिम अफ्रीका में ईसाई और इस्लाम धमा के आने से पहले हुआ (अस्साद 1980). पैगम्बर मोहम्मद साहब के समय भी ममहलाओ ं की सन्ु नत का मज़क्र ममलता है. सहीह ममु स्लम मकताब 41 हदीस 5251 में कहा है मक “मदीना में एक औरत एक बच्ची का ख़तना कर रही थी रसल ू वहां गए और उस औरत से कहा मक इस बच्ची की योनी को इतनी गहराई से मत मछलना मजससे योनी कुरूप हो जाये और इस बच्ची के पमत को पसंद ना आये”(अहमद 2000). दमु नया भर में ममहलाओ ं का ख़तना सांस्कृ मतक ररवायत का महस्सा है. ममहला सन्ु नत कई धाममाक समहू ों ममु स्लम, ईसाई, और यहूदी के बीच पाया जाता है. हालाँमक मकसी भी धमा में ममहलाओ ं के ख़तने या सन्ु नत का आदेश नहीं है. यह प्रथा उत्तरी अफ्रीका, मध्य पवू ा और एमशया देशों में आज भी प्रचमलत है. ममहलाओ ं की सन्ु नत मपतृसत्तात्मक शमक्त, सांस्कृ मतक मपछड़ापन, सावाभौममक मानवामधकार के प्रमत महसं ा को प्रदमशात करती है. सधु ा अरोड़ा (2009) के मतु ामबक “मजन समदु ायों में यह प्रथा प्रचमलत है, उनमें अक्सर परु​ु र्ष उन लड़मकयों से शादी करने से इनकार कर देता हैं मजनका सन्ु नत नहीं करवाया गया होता. ऐसी मस्थमत में औरतों के सामने सन्ु नत कराने पर राजी होने के अलावा कोई मवकल्प नहीं होता”. सन्ु नत औरतों की स्वछंदता को मनयंमत्रत करने तथा ममहलाओ ं को उनके वैवामहक जीवन में वफ़ादार बनाने का पहला चरि है. ममहलाओ ं के जननांग में मक्लटोररया हुड होती है और इस मक्लटोररया हुड को छे ड़ने अथवा दबाने से ममहलाओ ं में यौन इच्छा तथा सेक्स के प्रमत उत्तेजना बढ़ जाती है Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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तथा सेक्स के दौरान उन्हें आनंद की अनभु मू त देती है. मक्लटोररया को काटना औरतों की यौन इच्छा और कामोत्तेजना की क्षमता को कम या समाप्त कर देता है, यह एक तरह से औरतों की अमनयंमत्रत कामक ु ता को मनयंमत्रत करने का एक तरीका है. ममहलाओ ं का ख़तना इसमलए मकया जाता है तामक वह शादी से पहले मकसी से यौन सम्बन्ध स्थामपत करने की इच्छा न रखें तथा पमत के अलावा मकसी और से सम्बन्ध न बना सकें . यह उनके मानवामधकार का हनन है तथा ममहलाओ ं के साथ एक तरह की सामजश भी मक जहाँ परु​ु र्षों का ख़तना उनकी यौन शमक्त को बढ़ने के मलए मकया जाता है, वही ममहलाओ ं का ख़तना उनकी यौन शमक्त को कम करने के मलए. मख्ु यतः सुडान, सोमामलया और माली (जहाँ मक्लटोररया को काट कर मसल मदया जाता है) में ममहलाओ ं के शरीर पर मनयत्रं ि का बहुत ही नाटकीय रूप देखने को ममलता है. यहाँ पर ममहलाओ ं को वधु मल्ू य देकर ख़रीदा जाता है. शादी की पहली रात औरत का सील तथा प्रसव या बच्चे के जन्म के समय घाव को खल ु ा होना चामहए जोमक ख़तने के समय बदं मकया जाता है. बच्चे के दनु धपान के दौरान सम्भोग प्रमतबमं धत होता है तो ऐसा भी हो सकता है मक योनी के घाव को मफर से बदं कर मदया जाय और मफर पमत की इच्छा के अनसु ार दबु ारा खोल मदया जाय (फी, 1980). सन्ु नत के ज़ररये ममहलाओ ं को अगं -भगं का मशकार बनाने की यह अमानवीय प्रथा मवश्व के लगभग चालीस देशों में प्रचमलत है मजनमें से प्रमख ु हैं – नाइजीररया, इमथयोमपया, सडू ान, और के न्या. संयक्त ु राष्ट्र जनसँख्या कोर्ष की रपट के मतु ामबक मवश्व भर में हर साल लगभग बीस लाख लड़मकयां सन्ु नत के नाम पर की गई बबारता की पीड़ा झेल रहीं हैं. यह बबार प्रथा अफ्रीका के पमिमी तट के देशों, अरब प्रायद्वीप के दमक्षि भागों, फारस की खाड़ी के आसपास तथा अन्य यरू ोपीय एवं उत्तर अमेररका के देशों वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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के मवमभन्न जातीय समदु ायों में प्रचमलत है (अरोड़ा, 2009). अफ़्रीकी देश की ममहलाएं जोमक अन्य देशों में हैं, जैसे इनं लैण्ड और मिटेन में भी उन्हें इस प्रथा का सामना करना पड़ रहा है. जनसंख्या सन्दभा ब्यरू ो(Population Reference Bureau) द्वारा Female Genital Mutilation/Cutting पर एक ररपोटा प्रस्ततु है मजसमें उन क्षेत्रों और ख़तने की प्रमतशतता को दशा​ाया गया है –

Egypt

DHS 2008

85.1

95.5

Eritrea

DHS 2002

86.4

90.5

Ethiopi DHS 2005 a

68.5

75.5

Gambia MICS 2010

74.6

78.1

Ghana

MICS 2011

2.5

5.3

Guinea DHS 2005

93.9

96.4

Guinea MICS -Bissau 2010

41.3

57.2

Iraq

MICS 2011

9.0

5.8

Kenya

DHS 2008-09

16.5

30.6

Liberia DHS 2007

39.5

72.0

Mali

89.1

88.2

78.4

MICS 2010

57.2

80.5

2.1

Maurita MICS nia 2011 Niger

1.2

2.1

Nigeria MICS 2011

32.6

23.8

23.4

27.8

80.7

92.4

PREVELENC E BY SURVEY/Y GEOGRAPHI EAR CAL AREA (%)

Benin Burkin a Faso

ISSN: 2454-2725

URB AN

RUR AL

DHS 2011-12

5.5

8.8

DHS 2010

68.7

Camero DHS 2004 on

0.9

Central MICS 2010 African Rep.

18.1

Chad

MICS 2010

45.5

43.8

Cote DHS 2011 d’lvoire

37.7

38.8

Senegal DHS 2010 -11

Djbouti MICS 2006

93.1

95.5

Sierra Leone

28.7

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

DHS 2012

MICS 2010

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

Somali MICS a 2006

97.1

98.4

Sudan

83.5

89.8

Tanzan DHS 2010 ia

7.8

17.3

Togo

MICS 2010

2.9

4.6

Uganda MICS 2011

1.4

1.4

Yemen PAPFAM 2003

33.1

40.7

MICS 2010

Source: Population Reference Bureau आक ं ड़ों के मतु ामबक, चांड, माली और नाइजीररया को छोड़कर अफ्रीका के अमधकतर देशों में ममहलाओ ं की सन्ु नत (ख़तना) की प्रमतशतता शहरी क्षेत्रों के मक ु ाबले ग्रामीि क्षेत्रों में अमधक है. इन सभी देशों में से सबसे अमधक प्रमतशतता दशा​ाने वाला देश सोमामलया है.इस ररपोटा के मतु ामबक पहले, दसु रे एवं तीसरे स्थान पर क्रमशः सोमामलया, गीमनया एवं इमजप्ट हैं. आक ं ड़ों की प्रमतशतताको देखकर ही अदं ाजा लगाया जा सकता है मक अफ़्रीकी देशों में ममहलाओ ं की सन्ु नत जैसी कुप्रथा मकतने वृहद स्तर पर फै ली हुई है . मवश्वा स्वास्थ सगं ठन (2007) ने ममहला सन्ु नत को चार प्रकार का बताया है- 1. मक्लटोररया को अश ं तः या परू ी तरह से कटा जाता है 2. मक्लटोररया एवं मलमबया मनोरा को परू ी तरह कटा जाता है. 3. लेमबया मनोरा या मेजोर को पकड़कर मसल मदया जाता है. 4. स्त्री जननांग के साथ अन्य नक ु सान देह मक्रयाकलाप मजसमें मछलना दागना इत्यामद शाममल है. मवमशि रूप से, पारंपररक दाइयाँ इस काया को अजं ाम देती हैं, लेमकन कुछ देशों में Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

मचमकत्सकों द्वारा भी सन्ु नत कराया जाता है. सन्ु नत करने के मलए ब्लेड या कांच के टुकड़े का इस्तेमाल मकया जाता है. अगर डॉक्टर सन्ु नत करता है तो एनेस्थीमसया का इस्तेमाल करता है. रक्तस्त्राव को रोकने के मलए तरह-तरह की चीज़े रगड़ दी जातीं हैं मजनसे संक्रमि का खतरा बढ़ जाता है. ख़तना लड़मकयों और ममहलाओ ं के शारीररक और मानमसक स्वास्थ पर बहुत ही गभं ीर प्रभाव डालता है. मख्ु यतः उन ममहलाओ ं /लड़मकयों का मजनके मक्लटोररया और लीमबया मनोरा दोनों को काट तथा मसल मदया जाता है. मवश्व स्वास्थ संगठन (2006) के अध्ययन के मतु ामबक, ममहलाओ ं का ख़तना (Female genital mutilation/cutting) प्रसव की जमटलताओ ं को बढ़ाता है और यहाँ तक की मातृ मृत्यु भी हो जाती है. इसके अलावा और भी कई समस्याएं जैसे- भयानक ददा, नकसीर, मटटनेस, सक्र ं मि, बाँझपन, रसौली और फोड़ा, पेशाब सम्बन्धी असयं म और मनोवैज्ञामनक और सम्भोग सम्बन्धी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं. लड़मकयों का ख़तना करने की उम्र मख्ु यतः चार वर्षा से लेकर दस वर्षा के बीच की होती है, हालाँमक कुछ सस्ं कृ मत में जन्म के कुछ मदन बाद ही या लड़मकयों की शादी से कुछ मदन पहले भी ख़तना कराया जाता है.जनसंख्या रे फरें स ब्यरू ो (2013) ने अपनी ररपोटा में आयु के आधार पर ममहला ख़तने का आक ं ड़ा प्रस्ततु मकया, मजसमें 29 देशों में 15-49, 15-19, एवं 45-49 वर्षा की लड़मकयों/ममहलाओ ं में ख़तने की दर को दशा​ाया है. जोमक इस तामलका के माध्यम से दशा​ाया गया हैPREVELE NCE BY AGE (%)

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SURVEY 15 15 45 /YEAR - - 49 19 49 Benin DHS 2011-12

7. 2. 12 3 0 .0

Burki DHS na 2010 Faso

75 57 89 .8 .7 .3

Came DHS roon 2004

1. 0. 2. 4 4 4

Centr MICS al 2010 Afric an Rep.

24 17 33 .2 .9 .8

Chad MICS 2010

44 41 47 .2 .0 .6

Cote DHS d’lvoi 2011 re

38 31 46 .2 .3 .9

Djbou MICS ti 2006

93 89 94 .1 .5 .4

Egypt DHS 2008

91 80 96 .1 .7 .0

Eritre DHS a 2002

88 78 95 .7 .3 .0

Ethio DHS pia 2005

74 62 80 .3 .1 .8

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ISSN: 2454-2725

Gamb MICS ia 2010

76 77 79 .3 .7 .0

Ghan MICS a 2011

3. 1. 6. 8 5 4

Guine DHS a 2005

95 89 99 .6 .3 .5

Guine MICS a2010 Bissa u

49 48 50 .8 .4 .3

Iraq

8. 4. 10 1 9 .3

MICS 2011

Keny DHS a 2008-09

27 14 48 .1 .6 .8

Liberi DHS a 2007

58 35 78 .2 .9 .9

Mali

MICS 2010

88 87 88 .5 .7 .5

Mauri MICS tania 2011

69 65 75 .4 .9 .2

Niger DHS 2012

2. 1. 1. 0 4 4

Niger MICS ia 2011

27 18 38 .0 .7 .0

Seneg DHS al 2010 -11

25 24 28 .7 .0 .5

Sierra MICS Leone 2010

88 70 96 .3 .1 .4

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Soma MICS lia 2006

97 96 99 .9 .7 .1

Sudan MICS 2010

87 83 89 .6 .7 .1

Tanza DHS nia 2010

14 7. 21 .6 1 .5

Togo MICS 2010

3. 1. 6. 9 1 7

Ugan MICS da 2011

1. 1. 1. 4 0 9

Yeme PAPFAM 38 n 2003 .2 Source: Bureau

Population

-

Reference

जैसा की स्पि है उपरोक्त तामलका को आयु के आधार पर तीन श्रेिी में बांटा गया है. पहला 15-49 वगा, दसू रा 15-19, तीसरा 45-49. इन तीनों आयु वगों को देखकर स्पि होता है की तीसरे वगा (जोमक 4549 वर्षा की ममहलाओ ं का है) में सन्ु नत की प्रमतशतता दर सभी देशों में अमधक है तथा 15-19 आयु वगा में उससे थोडा कम है. इन तीनों वगों में सोमामलया में सबसे ममहला सन्ु नत की दर सबसे अमधक एवं यगु ाडं ा में ख़तने की दर सबसे कम है. Christine De Saint Genois Grand Breucq जोमक नलोबल अलायंस अगेंस्ट फीमेल जेमनटल म्यटू ीलेशन की िाडं एम्बेसडर हैं, कहती हैं मक औरतें तो पहले से ही भेदभाव, शोर्षि, महसं ा जैसी अनेक समस्याओ ं से जझु रही हैं लेमकन अब उनकी शारीररक अखडं ता पर प्रहार कभी नहीं. हमें इसके Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मखलाफ एकजटु होकर इसको ख़त्म करना होगा और लोगों की अभतू पवू ा मानमसकता को बदलना होगा. मक्रमस्टन ममहलाओ ं के अमधकारों को लेकर लड़ रही हैं. Paula Heredia द्वारा मनदेमशत मफल्म अफ्रीका राइसजंग एक डाक्यमु टें री मफल्म है मजसमें एफ़.जी.एम. को परू े अफ्रीका में ख़त्म करने के मलए जमीनी स्तर पर चल रहे आन्दोलनों को मदखाया गया है. मवश्व भर में इस घृमित प्रथा को ख़त्म करने का प्रयास तो मकया जा रहा है लेमकन अभी तक इस मामले में कुछ खास सफलता नहीं पाई जा सकी है. Equality now लड़मकयों और ममहलाओ ं के मानवामधकार के संरक्षि के मलए काम कर रही है. इस संस्था की ररपोटा के मतु ामबक परू े संयक्त ु राज्य अमेररका में 506,795 लड़मकयों एवं ममहलाओ ं पर खतने का सक ं ट है तथा 50 में से 26 राज्यों में ममहला ख़तना के मवरुद्ध कोई काननू नहीं है. हाल ही के वर्षा 2014 में इस्लाममक स्टेट आफ इराक एडं सीररया (आई.एस.आई.एस.)के मजहादी आतक ं वामदयों ने 11 से 46 साल की सभी औरतों का ख़तना करने का फ़तवा जारी मकया है जबमक यह प्रथा इराक में सामान्य नहीं है. इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के मलए अतं रा​ाष्ट्रीय स्तर पर कोमशश हो रही है. 1994 में कामहरा में सपं न्न अतं रा​ाष्ट्रीय सम्मलेन में यह स्वीकार मकया गया मक ममहला सन्ु नत मानवामधकार का उल्लघं न है और इससे ममहलाओ ं स्वास्थ्य व जीवन को खतरा है. कई देशों में इस प्रथा पर रोक लगाने के मलए काननू भी बनाए गए हैं(अरोड़ा, 2009).सवाल यह उठता है की आमख़र कब तक और मकस हद तक औरतों को अमानवीयता सहनी पड़ेगी. भेदभाव, बलात्कार, शोर्षि की मशकार तो वह समदयों से बन ही रही हैं. साथ ही खतने जैसी ददानाक पररमस्थतयों का सामना भी करना पड़ रहा है. मनष्ट्कर्षा यह मनकलता है मक मजन देशों में सन्ु नत की प्रथा को अपनाया जा वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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रहा है वहां की सरकार को इसे खत्म करने के मलए कठोर कदम उठाना चामहए तथा ममहला मानवामधकार संगठन को इसके दोमर्षयों को सरकार से कड़ी सज़ा का आह्वाहन करना चामहए.

िन्द्दभक िूची:-

ISSN: 2454-2725

 http://www.equalitynow.org/take_ action/fgm_action611  http://naidunia.jagran.com/worldiraq-jihadists-order-genitalmutilation-of-all-woman147808#sthash.C1D1T5bA.dpuf  http://www.prb.org/pdf14/fgmwallchart2014.pdf

 Assaad, M.B.(Jan 1980). Circumcision in Egypt : Social Implications, current Research and Prospects for Change. Population Council.  Ahmad, Imad-ad-Dean(2000). Female Genital Mutilation: An Islamic Perspective. Minaret of Freedom Institute.  अरोड़ा, सधु ा (2009). आम औरत मजदं ा सवाल . सामामयक प्रकाशन, नई मदल्ली  Fee, Elizabeth (1980). Review. Women Sex and Sexuality. University of Chicago Press.  Female Genital Mutilation/Cutting: Data and Trend 2014. Population Reference Bureau Websites: http://www.global-alliancefgm.org/en-gb/ambassadors.aspx Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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इक्कीि​िीं िदी की सहदं ी कहासनयों में स्त्री की बदलती िामासजक छसि सप्रयंका िमाक महदं ी एवं तल ु नात्मक सामहत्य मवभाग महात्मा गांधी अतं रराष्ट्रीय महदं ी मवश्वमवद्यालय, वधा​ा ई मेल-priyankasharma673@gmail.com इस धरती पर कुदरत ने स्त्री और परु​ु र्ष दोनों को एक समान बमु द्ध, शमक्त और सामथ्या के साथ पैदा मकया है। जीवन रूपी गाड़ी को आगे बढ़ाने में दोनों की भमू मका महत्वपूिा है, दोनों एक दसू रे के परू क हैं। एक के मबना दसू रे के अमस्तत्व की कल्पना नहीं की जा सकती। भारतीय दशान में जहाँ परु​ु र्षों को आय एवं रक्षा का माध्यम माना गया है वहीं नारी को दगु ा​ा, सरस्वती, लक्ष्मी आमद के रूप में प्रमतमष्ठत मकया गया है। भारतीय समाज में मस्त्रयों को सदा परु​ु र्षों से कमतर आँका गया। अबला, कमजोर और मनबाल कहकर उसका उपहास उड़ाया गया। एक तरफ उसे देवी का दजा​ा मदया गया तो, दसू री तरफ उसके साथ अमानवीय व्यवहार मकया गया। परंपरा और धमा का सहारा लेकर मपतृसत्तात्मक समाज ने उसे बेमड़यों में जकड़ कर रखा। धीरे -धीरे नारी की मस्थमत बद से बदतर होती चली गयी। परु​ु र्षों द्वारा नारी को उसके कोमल गिु ोंदया, ममता, मवश्वास, श्रद्धा आमद की आड़ में छला जाने लगा। रक्षा की आड़ में मपतृसत्तात्मक समाज ने ममहलाओ ं के अमधकारों को सीममत कर उन्हें परू ी तरह से परु​ु र्षों पर आमश्रत कर मदया। पररिामतः समाज में मस्त्रयों की मस्थमत और भी भयावह होती चली गयी। 19वीं सदी के उत्तराद्धा से ममहलाओ ं की सामामजक मस्थमत में सधु ार हेतु वैमश्वक स्तर पर अनेक आदं ोलन मकए गये, मजनमें स्वयं ममहलाओ ं ने अपने अमधकारों के मलये बढ़-चढ़ कर महस्सा मलया और Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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स्त्रीयों के उत्थान हेतु कई कदम भी उठाये। स्वतंत्रता प्रामप्त के बाद मशमक्षत व सक्षम ममहलाओ ं के दृमिकोि में बदलाव आया। वे पररवार व समाज में अपनी भमू मका को लेकर शारीररक व मानमसक रूप से संघर्षा करती रहीं। स्वतंत्रता की प्रामप्त के बाद मस्त्रयों के स्वरूप में होने वाले पररवतानों के संदभा में डॉ॰ वीरें द्र मसंह मलखते हैं- “एक ओर जहाँ पररवार का परंपरागत स्वरूप टूटा, वहीं दसू री ओर स्त्री स्वतंत्रता के कारि नवयवु क मस्त्रयों के स्वरूप में पररवतान आया। जो मस्त्रयाँ आजीमवका के साधन स्वयं जटु ाती थीं उनकी मानमसकता में धीरे -धीरे व्यापक पररवतान आया और इस प्रकार उन्होंने जीवन और मचंतन के स्तर पर परु​ु र्षों के समान ही स्वयं को प्रस्ततु करने की कोमशश की”। स्पि है मक देवी की उपामध के बधं न को तोड़ती आज की बहुमख ु ी प्रमतभाशाली ‘स्त्री’ सतत सघं र्षा का पररिाम है। जहाँ उसने स्वयं को परु​ु र्ष आलबं न से मक्त ु एक स्वतत्रं अमस्तत्व माना है। 21वीं सदी में मस्त्रयों ने सफलता के मवमभन्न आयामों को छुआ है। वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी कामयाबी का परचम लहराते हुए परु​ु र्षों के समकक्ष खड़ी ही नहीं बमल्क उनके वचास्व को भी चनु ौती दे रही हैं। अपनी मेहनत के बल पर उसने स्वयं का एक अलग अमस्तत्व व पहचान कायम की है। आज की स्त्री परंपरा के खोल को तोड़ कर नए-नए आयाम स्थामपत करने में जटु ी है। वे अब परंपरा व रीमत-ररवाज के नाम पर मकसी भी प्रकार का शोर्षि, दमन व अत्याचार सहन नहीं करती बमल्क अन्याय के मखलाफ परू ी ताकत के साथ संघर्षा करने को तत्पर है। आज की जागरूक स्त्री दसू री मस्त्रयों को भी जागरूक करने को तत्पर है। उसकी लज्जा, शमा, सहनशीलता का स्थान उसके अमस्तत्व के होने की जद्दोजहद ने ली। इस बदलते हुए पररदृश्य में हमारे यवु ा कहानीकारों ने स्त्री मजजीमवर्षा के बदलते तेवर को अपनी कहामनयों में रे खांमकत मकया और बदलते समय, पररवेश, वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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पररमस्थमतयों व वातावरि के आधार पर मस्त्रयों की बदलती छमवयों को मवश्लेमर्षत मकया है। वतामान महदं ी कहानी स्त्री के सशक्त होते तमाम रूपों को उद्घामटत करती है मजनका अध्ययन करने से स्वतः मसद्ध हो जाता है मक- स्त्री अब स्वयं को अबला नहीं सबला के रूप में स्थामपत करती है। वे अपनी अन्तः-बाह्य मस्थमतयों पर मचंतन-मनन करती हुई अपने मलए एक नयी राह के अन्वेर्षि में लगी है। आज की कहामनयों की अमधकांश नारी पात्र परंपरागत ढांचे को तोड़ देने को तत्पर हैं। कहानी ‘घरौंदा नहीं,घर’ की ‘सरोजा’ भी अपनी दगु मा त के कारिों को जानकर उस पर मवचार-मथं न करती है। वह सोचती है- “क्यों नहीं मैं लादे हुए बंधनो को तोड़ती हू?ँ सच कहती हूँ मक अपने को मतल-मतल व मारने वाली मैं, क्यों डरती हूँ मक यमद मैं पमत द्रोह करूंगी या उससे अलग हो जाऊंगी तो मेरे चारों ओर ‘मछनाल’ शब्द का भयक ं र शोर मच जाएगा? मेरे सतीत्व पर कीचड़ के छींटे पड़ने लगेंग।े जैसे मेरा सारा व्यमक्तत्व और अच्छाइयाँ ही समाप्त हो जाएगं ी। इसीमलए तो मझु े बार-बार सदं ेह होता है मक मैं मवद्रोह नहीं कर रहीं हू।ँ मवद्रोह करने की क्षमता मझु में नहीं है। है तो मझु में मत्रया-हठ। वरना मझु े मवद्रोह तो कर देना चामहए। यमद ऐसा नहीं करूंगी तो मेरी देह का मरिासन्न रूप में मवर्ष-मथं न होता रहेगा”। अतं तः सरोजा अपने पमत और ससरु के अत्याचारों से तगं आकर, समाज की बनाई गयी खोखली मान्यताओ ं व परंपराओ ं को दरमकनार कर अपने पमत का घर छोड़ देती है। इतना ही नहीं, मशमक्षत सरोजा अपने अमधकारों से पररमचत होने के साथ-साथ उन अमधकारों का प्रयोग करना भी जानती है। वह अपने पमत को चनु ौती देते हुए कहती है- “पत्नी सदा सहन करती है मक घर का नंगापन बाहर न जाये। पर आप तो अन्याय पर अन्याय कर रहें है। समु नये, मैं तीन मदनों की मोहलत देती हूँ मफर मैं अदालत के दरवाजे Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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खटखटाऊंगी”। कहानी के अतं में ऊहापोह की मस्थमत में फसी ‘सरोज’ एक सशक्त और सक्षम चररत्र के रूप में सामने आती है। वह सरकारी नौकरी प्राप्त कर अनाममका को गोद लेकर अपनी एक अलग दमु नयाँ बसाती है। वास्तव में परु​ु र्ष पर स्त्री की मनभारता ने उसे उसके हकों व अमधकारों से वमं चत करने में बड़ी भमू मका मनभाई है। मकंतु आज की नारी ने अपनी शमक्त को पहचाना है। आज की स्त्री परु​ु र्षों द्वारा उनसे छल मकए जाने पर यह कदामप नही सोचती की अब उसका आगे क्या होगा। ‘वाह मकन्नी, वाह’ की ‘मदवाली’ भी अपने पमत के मघनौनेपन को सहने के मलए अमभशप्त नहीं है। वह अपने पमत के मकसी अन्य औरत से संबंध को जानकर टूटती व मभखरती नहीं है। बमल्क वह अपने आत्मसम्मान व अमस्तत्व की रक्षा करते हुए कहती है- “मैं आप जैसे लम्पट पर थक ू ती हू।ँ मैंने आपकी मकतनी इज्जत की है, पर आप मक्कार व लगु ाईखोर हैं। मैं ममनखोरी नहीं हू।ँ के वल पेट भरने के मलए आपके पास नहीं रहूगँ ी। मेरे हाथों-पावों और शरीर में बड़ी ताकत है। मेहनत मजदरू ी करके पेट भर लगंू ी”। इस दौर की महदं ी कहामनयों में ‘स्त्री’ शहरी हो या ग्रामीि वह प्रेमचदं की नामयका ‘गगं ी’(ठाकुर का कुआ)ं के समान मक ू प्रमतरोध दज़ा नहीं करती बमल्क अपने ऊपर होने वाले छोटे बड़े सभी प्रकार के अत्याचारों का खल ु कर प्रमतरोध व प्रमतकार करती नजर आती है। मजबरू ी बस ना तो वो कोई काम करना चाहती है और न ही मकसी को अपना फायदा उठाने देती है। एक ओर अनीता गोपेश की कहानी ‘अन्ततः’ की ‘मदव्या’ जो एक नाटक कंपनी में में काम करती है। मनदेशक द्वारा मदये गए छोटे कपड़े को पहन कर नृत्य करने से इनकार कर देती है। व स्पि शब्दों में कहती है- “ सर ! माफ कररएगा मैं इस पोशाक में डांस नहीं कर पाऊँगी।” मनदेशक द्वारा अनबु ंधन का फायदा उठाये जाने पर वह और जोर देते हुए बोलती वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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है- “मतलब आप नंगा नाचने को कहें तो हम वो भी करें ”। वहीं दसू री तरफ ग्रामीि पररवेश से संबंध रखने वाली ‘सांच है प्रेम’ की सब्जी बेचने वाली ‘हँसली’ बड़ी दबंगई के साथ ‘रत्त’ू से कहती है- “सनु रे रत्त,ू मैं तेरी नीयत को जानती हू।ँ तू जो लप्पर-चप्पर करता है न, वह कुत्ते की भौं-भौं जैसा लगता है। मझु े इधर तेरी आँखों में अजीब-सी चमक आने लगी है जैसे मबल्ली की आँखों में होती है, पर तझु े एक बात साफ-साफ कह द।ंू हँसली ऐसी-वैसी लड़की नहीं है। सड़क का नलका नहीं है मक कोई भी आता-जाता पानी पी ले”। कहानी में हँसली मकसी भी मायने में अपने को कमजोर नहीं मानती। इस मपतृसत्तात्मक समाज में एक स्त्री का परु​ु र्ष के मबना अके ले रहना बड़ा ही कमठन है। लेमकन हँसली पमत और मपता के अभाव में भी अपनी बढ़ू ी माँ के साथ गाँव में बड़ी गररमा और सम्मान के साथ रहते हुए लोगों की ललचाई नजरों से खदु को बचाती है। वह अपने अमस्तत्व पर कुदृमि डालने वाले परु​ु र्षों को महु तोड़ जवाब देते हुए स्पि कहती है मक- “मझु े कोई सड़क की फें की हुई रोटी न समझे मक उठाई और खा ली। मझु े रात का फें का हुआ आटा न जाने मक घर जाकर तवे पर मबछा मदया”। कहानीकार ने इस कहानी के माध्यम से आज की सबल नारी का रूप प्रस्ततु मकया है, जो गलत होने पर भ्रि हवलदार या पमु लस वाले को भी फटकार लगाने से गरु े ज़ नहीं करती। आज लड़मकयां मकसी भी मायने में लड़कों से कम नहीं हैं। वे अपनी मशक्षा और जागरुता के बल पर अपने ससरु ाल के साथ-साथ अपने माता-मपता के प्रमत भी मजम्मेदाररयों का मनवाहन बाखबू ी करती हैं। आज अममू न मस्त्रयाँ अपने बढ़ू े माता-मपता का सहारा बनना चाहती हैं। घर में भाई के ना होने पर वे, बेटी होने के वास्तमवक उत्तरदामयत्व को मनभाना चाहती हैं, इसके मलए वह पमत और ससरु ाल वालों से लड़ने का सामथ्या भी रखती हैं। कहानी ‘जाग उठी है नारी’ की Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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नामयका ‘भमू म’ वतामान स्त्री के इसी रूप का प्रतीक बनकर उभरती है। जो अपने बढ़ू े माँ-बाप के जीवन मनवाहन का सहारा बनने हेत,ु पमत ‘शोभन’ के द्वारा मदए गए तलाक के पेपर तक साइन कर देती है। वह कोटा में बड़े तका पिू ा ढंग से अपनी बातों को जज के सामने रखती है और शोभन के द्वारा लगाए गए झठू े आरोपों को गलत भी सामबत करती है। वह कहती है“मेरे ऊपर लगाया गया आरोप बेबमु नयाद है जज साहब। मैं कोई पैसा शोभन की कमाई का नहीं लटु ाती। मैं तो अपनी तनख्वाह में से बेसहारा माँ-बाप की मदद करके अपना फजा अदा करती हू।ँ मजस माँबाप ने पाल-पोसकर मझु े बड़ा मकया, पढ़ा मलखाकर नौकरी लगवाई। आज वे बढ़ू े और लाचार हैं। उनकी मेरे मसवा कोई और संतान नहीं तो क्या मैं भी अपने कत्ताव्यों से मबमख ु हो जाऊँ। नहीं जज साहब! मैं ऐसा नहीं कर सकती। समाज पतन की ओर जाएगा। यमद बेटी माँ-बाप का सहारा नहीं बन सकती तो कौन देगा पररवार में कन्याओ ं को जन्म? कन्या भ्रिू हत्याएँ होंगी। अब नारी को ही कुछ करना होगा, उसे जागना होगा, आज मै जाग उठी हू,ँ कल कोई और जागेगा”। आज मस्त्रयों की इसी सोच ने बेमटयों को भी घरपररवार में बेटों के समान अमधकार व सम्मान मदलाया है। आज वें घर में बोझ नहीं बमल्क पररवार का बहुमल्ू य महस्सा है। वतामान महदं ी कहानीकारों ने अपनी कहानी के माध्यम से न के वल मववामहत अथवा अमववामहत मस्त्रयों के बदलते सशक्त स्वरूप का मचत्रि मकया है। बमल्क मवधवा तथा तलाकसुदा मस्त्रयों की बदलती छमव को पेश करते हुए उनके पनु मवावाह के प्रमत परंपरागत मानमसकता को पररवमतात करने में भी सफलता हामसल की है। कहानी ‘आचं ’ की बाल मवधवा ‘समु न’ उसकी जमीन हड़पने और इज्जत लटू ने आये पंमडत जगन्नाथ और ठे केदार मामिकलाल की आँखों में ममचा झोंक देती है। अपने वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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शारीररक व मानमसक उत्पीड़न के बावजदू वह टूटती नहीं बमल्क अपने प्रेमी मदलीप से मववाह करने का फै सला लेती है। जब मदलीप गाँव वालों के डर से समु न को गाँव छोड़कर भाग चलने के मलए कहता है तो समु न पलायन की अपेक्षा संघर्षा का रास्ता अपनाती है और गाँव में ही रहने का मनिाय लेती है। जो एक मनबाल व सहमी नहीं बमल्क एक सबल ‘मवधवा’ के प्रमतरोध की अमभव्यमक्त है। यह सच है की वतामान सदी में ममहलाओ ं ने अनेक कीमतामान गढ़े हैं। आज मस्त्रयों ने समाज में अपनी स्वतंत्रता, अपने वचास्व का परचम लहराया है। उसने परु​ु र्ष सत्ता के बरक्स अपना एक अलग एवं अहम अमस्तत्व कायम मकया है। मकंतु मवडंबना यह भी है मक स्त्री-स्वातंत्र्य की इस छीना-झपटी में मस्त्रयों ने अपने नैसमगाक चररत्र का हनन भी मकया है। अमधकार, हक व परु​ु र्ष से बराबरी की इस होड़ में अपनी उच्छृ ं खलता को ही अपनी वास्तमवक स्वतत्रं ता व स्त्री-सशमक्तकरि का वास्तमवक पया​ाय मान बैठी हैं। चमंू क कहानीकार का उद्देश्य होता है पाठक के समक्ष यथाथा को प्रस्ततु करना। अतः वतामान महदं ी कहामनयाँ स्त्री के इस ‘उच्छृ ं खल’ रूप को भी बड़ी बेबाकी से प्रस्ततु करती हैं। कहानी ‘सत्रं ामसत मख ु ौटा’ की ‘रीटा’ के मबचार वतामान मस्त्रयों के उस रूप पर एक तीखा व्यगं करती है, जो परु​ु र्ष जैसा चररत्र धारि कर उसके पदमचह्नों पर चलने को उतावली हैं। वह कहती है- “कभी-कभी लगता है मक भख ू -प्यास से भी अमधक महत्वपिू ा है कामवासना। परु​ु र्षों में होड़ मची है मक रोज मकतनी औरतों को स्पशा करना है। मन ही मन महसाब लगाते हैं। घर में बीबी है तो क्या, वो तो रोज की बात है। मगर नईनई लड़मकयां, जवान मजस्म, आममं त्रत करते अगं उघाडू वस्त्र, यही चलन होता जा रहा है। परु​ु र्ष मनोवृमत्त भी कामक ु होती जा रही है। लड़मकयां भी अपने आपको परु​ु र्षों को आकमर्षात करने का साधन समझने Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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लगी हैं। कहीं-कहीं लड़मकयां भी छे ड़ खानी का आनंद उठाने लगी हैं। आमखर वें भी इसं ान हैं। एजं ॉय करने का हक मसफा मदों को नहीं है”। वहीं अंजु दआ ु जैममनी की कहानी ‘बताना जरूरी है क्या’ आज की उच्छृ ं खल स्त्री को ररप्रजेंट करती है। कहानी की नामयका इतनी बोल्ड है मक बैंककमी द्वारा उसके प्रोफे शन के बारे में पछ ू े जाने पर वह कहती है- “डोंट राइट हाउसवाइफ। मैं प्रोफे शन में हू।ँ आई एम प्रोफे शनल कॉलगला”। इतना ही नहीं वह आगे कहती है- “मेरी कोई मजबरू ी नहीं थी। मेरे साथ कोई हादशा नहीं हुआ। मझु े इस पेशे में मकसी ने जबरदस्ती नहीं धके ला। मैं इसमे अपनी मजी से आई हू।ँ ....अमीर खानदान से हूँ सो धन की कोई कमी नहीं थी। मसफा मस्ती के मलए मैंने इस प्रोफे शन में कदम रखा”। स्पि है मक 21वीं सदी की यह नारी न तो गरीबी के कारि इस धधं े में आयी न तो उसकी कोई अन्य मववशता है। वह मसफा अपने शौक व एजं ॉयमेंट के मलए यह काया करती है। वास्तव में यह आज के समय की सबसे बड़ी सच्चाई है। फरा​ाटेदार अग्रं ेजी बोलने वाली अमधकांश कॉलगला सपं न्न पररवारों की होती हैं। जो कम समय में अमधक से अमधक पैसा कमा लेने और आसानी से आधमु नक सख ु समु वधाओ ं के भोग की ख़्वामहश में इस रास्ते को सहर्षा स्वीकार करती हैं। वस्ततु ः यह सत्य है की मस्त्रयों की भी अपनी भौमतक व शारीररक इच्छाएँ व महत्वाकांक्षाएँ होती हैं और उनकी पमू ता आवश्यक भी है। मकन्तु मवडंबना यह है मक आज मशमक्षत एवं जागरूक मस्त्रयाँ भी इनकी पमू ता के मलए गलत रास्ते अमख़्तयार कर रहीं है। यहाँ तक की अपने कै ररयर को ऊँचाइयों पर ले जाने के मलए अपनी देह का उपयोग करने से भी नहीं कतराती। कहानी ‘वह लड़की’ की ‘रोजी’ ऐसी ही स्त्री है जो अपने बॉस के यौन आमत्रं ि को स्वीकार कर प्रमोशन पा लेती है। तो वहीं कमवता की कहानी ‘उस पार की रोशनी’ की वमताका गृहस्थ नारी के उस रूप को वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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उजागर करती है, मजसके मलए अपनी मजदं गी और महत्वाकांक्षाएँ इतनी जरूरी है मक वह अपने पमत सरू ज को धोखा दे रमव से संबंध बनाती है। इस प्रकार वतामान समय की ऐसी अनेक कहामनयाँ है जो स्त्रीस्वतंत्रता व स्त्री-ममु क्त के नाम पर उच्छृ ं खल होती मस्त्रयों के रूपों को उजागर करती है।

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6. जैममनी अजं ु दआ ु , सीली दीवार (कहानी संग्रह), वर्षा (2002), अनभु व प्रकाशन, सामहबाबाद 7. शमा​ा गोपालकृ ष्ट्ि ‘मफरोजपरू ी’, मोम के ररश्ते (कहानी संग्रह), वर्षा (2011), कल्पना प्रकाशन, मदल्ली

सारांशतः हम कह सकते हैं मक 21वीं सदी की महदं ी कहामनयां वतामान स्त्री के बदलते मवमभन्न रंगों को प्रस्ततु करती है। एक ओर वतामान महदं ी कहामनयां मस्त्रयों के सशक्त होते मवमभन्न प्रमतरूपों को उद्घामटत करती हैं तो वहीं दसू री ओर उसके पथ-भ्रि होते रूपों को भी पेश करती हैं।

िंदभक-ग्रंथ िूची 1. डॉ॰ यादव वीरें द्र मसहं , महदं ी कथा सामहत्य में पाररवाररक मवघटन, वर्षा (2010), नमन प्रकाशन, नई मदल्ली 2. डॉ॰ ममश्र रवीन्द्रनाथ, इक्कीसवीं सदी का महन्दी सामहत्य : समय, समाज और सवं दे ना, वर्षा (2011), लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद 3. शमा​ा यादवेंद्र ‘चद्रं ’, वाह मकन्नी, वाह (कहानी सग्रं ह), वर्षा (2009), वािी प्रकाशन, नई मदल्ली 4. अनीता गोपेश, मकत्ता पानी (कहानी सग्रं ह), वर्षा (2009), भारतीय ज्ञानपीठ, नई मदल्ली 5. जैममनी अजं ु दआ ु , क्या गनु ाह मकया (कहानी संग्रह), वर्षा (2007), कल्यािी मशक्षा पररर्षद, नई मदल्ली

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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“िमकालीन स्त्री कहानीकारों की कहासनयों में असभव्यक्त स्त्री-परु​ु ष िम्बन्द्ध” राम िभ ु ाष ममफल महदं ी द्वारा 2016 में, पवू ोत्तर पवातीय मवश्वमवद्यालय मशलांग, मेघालय से जन्म उत्तर प्रदेश मनवास- मदल्ली फोने न.- 8586876430 आधमु नक समय में ररश्तों में पररवतान देखा जा रहा। वैसे तो सभी ररश्ते पररवमतात मदख रहे हैं परन्तु सब से ज्यादा स्त्री-परु​ु र्ष के सबं धं में पररवतान लमक्षत होता हैं। स्त्री-परु​ु र्ष का सम्बन्ध पमत-पत्नी, मपता-बेटी, भाईबहन आमद मकसी भी प्रकार का हो सकता है, लेमकन सबसे अमधक मजस सम्बन्ध में बदलाव नजर आ रहा है वह है पमत-पत्नी का सम्बन्ध। इनके सबं धं ों की गत्ु थी उलझती जा रही है। मजसे आज के दम्पमत सल ु झा नहीं पा रहे हैं। इस उलझी हुई गत्ु थी के कई कारि हो सकते हैं जैसे अनमेल मववाह, आमथाक दबाव, सामामजक दबाव, दाम्पत्य में स्नेह की कमी, ऊब, घटु न, पािात्य संस्कृ मत का प्रभाव, अधं ा आधमु नकीकरि आमद कुछ ऐसी मस्थमतयाँ हैं मजनको लोग समझ नहीं पा रहे हैं। उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा है मक हमारे सम्बन्धों में चक ू कहाँ हो रही है। “दाम्पत्य संबंधों की तमु शायों, अलगाव और ररक्तता की चरम पररिमत दाम्पत्य संबंधों के मबल्कुल टूट जाने में ही होती है। पमत-पत्नी संबंध का यह अलगाव कभी-कभी काननू ी रूप ले लेता है, तो कभी मबना मकसी काननू ी कायावाही और औपचाररकता से भी दोनो पिू ता ः संबंध-मवच्छे द कर लेता है।”1 आधमु नक जीवन प्रिाली की एक समस्या यह है मक पमत-पत्नी के बीच संबंधों में ऊब, घटु न, मनरसता, अके लापन आ गया है। पमत-पत्नी में अब प्रेम नहीं रहा है, वह के वल ररश्ते को ढो रहे हैं। उर्षा मप्रयंवदा की कहानी Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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‘मकतना बडा झा़ ठू ’ में यह मनरसता देखी जा सकती है। मकरन ढाई महीने की छुरट्टयों के बाद घर वापस लौटने के बारे में सोचकर बहुत खश ु है, लेमकन यह खश ु ी अपने बच्चों या मवश्व(पमत) से ममलने की नहीं है, अमपतु मैक्स से ममलने की है। घर पहुचँ ते ही वह मैक्स को फोन लगाती है, उसे पता चलता है की मैक्स ने मववाह कर मलया है। मकरन के पैरों तले से जमीन मखसक जाती है। “मकरन ने साड़ी के अचं ल से पीठ और बाँहे ढँक ली, एकाएक उसने चाहा मक वह चीखकर रो पड़े, वैसे ही जैसे पमत की अथी उठते हुए देख सद्यः मवधवा रो उठती है, पर इस समय उसने दांत कसकर भींच मलए और पीछे वृक्षों, फूलों और घास को देखती रही। दृश्य रह-रहकर धंधु ला जाता है।”2 मैक्स से मकरन को मकसी प्रकार का प्रेम नहीं है, वह तो के वल उसके स्पशा से वमं चत रह जाएगी। मकसी भी बधं न में बधं ने के बाद उससे स्वतत्रं होना बहुत ही कमठन काम होता है। मकरन और मवश्व के वल इस सम्बन्ध को ढोते नजर आतें हैं। मवश्व जब मकरन से पछ ू ता है मक क्या मैं सदा तम्ु हारे जीवन की पररमध से बाहर रहूगँ ा? तब मकरन का यह जवाब परू े सबं धं के अथा, नीरसता को व्यक्त कर देता है वह कहती है मक“पररमध पर तो नहीं हो। मवश्व से बाधं दी गई थी।”3 न मवश्व के पास कोई चारा है इस सम्बन्ध से मनजात पाने का और न ही मकरन के पास, दोनो ही इस सम्बन्ध को ढोने के मलए मववश हैं। अतं तः “वह अपनी जगह बैठी-बैठी मवश्व की ओर देखती रही, मफर एकाएक ही उठकर उसने मवश्व का हाथ पकड़ मलया और मदं स्वर में कहा, आइए, अब मबस्तर पर चलें।”4 आमथाक दबाव ने संबंधों के बीच तनाव पैदा करने में मख्ु य भमू मका मनभाई है। आमथाक दबाव के चलते आज स्त्री-परु​ु र्ष दोनो को ही नौकरी करनी पड़ रही है। दो वक्त की रोटी जटु ाने के मलए मध्यवगीय पररवार को बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है। उर्षा मप्रयंवदा की कहानी ‘स्वीकृ मत’ इसी आमथाक दबाव के चलते वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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पमत-पत्नी में एक अनकहा तनाव पैदा करती नजर आती है। जपा, अपने पमत सत्य के साथ रहने के सपने देख रही थी, वह नौकरी नहीं करना चाहती है। अब वह सत्य के साथ भारत में एक छोटा सा घर ले कर रहेगी लेमकन सत्य, जपा से मबना पछ ू े हेमशक ं र द्वारा मदए गये नौकरी के ऑफर को जपा के मलए स्वीकार कर लेता है। यह बात जपा को अच्छी नहीं लगती। इस बात को लेकर जपा और सत्य के बीच खींचातानी होती है मक वह अनजान शहर में अके ले कै से रहेगी। सत्य कहता है मक- “हम मजस मस्थमत में हैं, उसमें पन्द्रह सौ डालर का ऑफर अस्वीकार नहीं कर सकतें।”5 इस पर जपा झल्ला जाती है और सत्य पर चीख पड़ती है वह कहती है-“यही होगा न मक आपके नए घर में मखड़मकयाँ कुछ सस्ती लग जाएगं ी, या गसु लखाने में टाइल्स, कहते-कहते उसका गला मभचं गया।”6 पर इन सब बातों का कोई लाभ नहीं हुआ। अतं तः जपा को हार मानकर दसू रे शहर में अके ले नौकरी करने के मलए जाना ही पड़ता है। ममता कामलया की कहनी ‘लैला-मजनँ’ू ऐसे दम्पमत की कहानी है। मजनके मववाह के शरु​ु आती मदनो में प्रेम बहुत होता है पर समय के साथ-साथ उनके बीच में खट-पट होने लगती है। वास्तव में समय के साथ-साथ पररमस्थमतयाँ भी बदलती रहती हैं। परे शानी तब आती है जब हम सब कुछ पहले की तरह ही पाना चाहते हैं। अपने और अपने जीवनसाथी में कोई बदलाव नहीं चाहते हैं, उस समय सम्बन्ध में अपने आप ही कड़वाहट भरने लगती है​ै​ै। यह कहानी शोभा और पंकज की है। शोभा और पंकज में काफी प्रेम होता है। लेमकन समय के साथ-साथ दोनो में ऊब, कड़वाहट, सम्बन्ध में घटु न सी हो गयी है। उनके दाम्पत्य जीवन के बारे में लेमखका के शब्द कुछ इस प्रकार हैं“आजकल जब भी वे अके ले होते, मकचमकचाहट भरी बहस में पड़ जाते। शोभा जो कुछ भी कहती, पंकज उसका एक पैन्तरे बाज जवाब देता, दोधारे Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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ब्लेड-सा तीखा और तेज, संवाद की सभी संभावनाओ ं पर फाटक बंद करता हुआ। उसका जवाब, परस्पर सम्प्रेर्षि पर तेजाब की एक बँदू -सा फै ल जाता।”7 आधमु नक जीवन प्रिाली के चलते दाम्पत्य जीवन में संबंधों की ऊष्ट्मा, प्रेम, संवदे नाएँ समाप्त होती जा रही हैं। पमत-पत्नी संबंधों को के वल मनभा रहे हैं। उसमें एक प्रकार की मववशता मदख रही है। वतामान समय में हर तरफ आगे बढ़ने की ‘रे स’ चल रही है। सब इस रे स में आगे रहना चाहते हैं मजसके कारि भी सम्बन्ध में एक अलग टकराहट देखी जा रही है। ‘रे स’ तथा ‘माई नेम इश ताता’ कहामनयों में संबंधों की टकराहट को देखा जा सकता है। ‘माई नेम इश ताता’ कहानी में सयू ाबाला ने स्वाथा, अवसरवाद और प्रदशानमप्रयता के चलते स्त्री-परु​ु र्ष के बीच आने वाले तनाव के भेद को खोला है। इस कहानी में सयू ाबाला ने शौनक और नीना के जीवन के खोखलेपन को मदखाया है। एक मध्यवगीय दम्पमत की अमभलार्षा मात्र ‘ताता’ को एक अच्छे स्कूल में प्रवेश करवा देना नहीं है अमपतु एक ऐसे स्कूल में प्रवेश करवाना है मजसे वह लोगों को बता सके मक ‘मेरी बेटी ऐसे बड़े स्कूल में पढ़ती’ है। नीना ताता को स्कूल में दामखले के मलए ले जाती है, लेमकन छोटी सी ताता अध्यामपका के सवालों का जवाब नहीं दे पाती है। इससे नीना को बहुत हताशा होती है। उसे लगता है मक एक बार मफर वह अपने ऑमफस के लोंगो से हार गयी। शौनक के यह कहने पर मक ‘मैं’ होता तो’...वह मतलममला जाती है और तमतमा कर बोलती है- “मैं पछ ू ती हूँ क्यों नहीं होते, क्यों नहीं हुआ करते ऐसे मौकों पर? मझु े सब मालमू है। हमेशा ऐसे मौकों पर ऑमफस की इमरजेंसी मीमटंग, वका शाँप आमद के नाम पर झठू -सच बोल, अपना मपंड छुड़ाकर मझु े आगे कर देते हो, मजससे बाद में जरा ऊँच-नीच हो तो तमु अकड़कर अपना सरु मक्षत वाक्य बोल सको.........मैं होता तो।”8 नीना और शौनक के बीच वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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में तनावपिू ा माहौल पैदा हो जाता है। शौनक मकसी भी तरह अब इस बहस को बंद करना चाहता वह नीना को दबाना चाहता है। हाथ उठा कर वह ‘प्लीज शटअप’ बोलता इस पर नीना और ज्यादा तेज हो जाती है और कहती है-“यू शटअप! यहाँ तक मक शौनक का उठा हुआ हाथ नीना ने दांत पीसते हुए बीच में ही रोकर मरोड़ मदया।”9

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नामसरा शमा​ा की कहानी ‘खदु ा की वापसी’ नारी शोर्षि तथा नारी चेतना की एक महत्तवपिू ा कहानी है। जो मसु लमान समाज के परु​ु र्षों का मख ु ौटा खोलता है, मसु लमान परु​ु र्ष मकस प्रकार नारी को ठग रहे हैं, धोखा दे रहे हैं। इसका बखबू ी मचत्रि इस कहानी में मकया गया है। यह के वल मसु लमान समाज में ही नहीं है अमपतु परू े भारतीय समाज में यह मवद्यमान है। जब स्त्री, परु​ु र्ष के धोखे को समझने लगती है तब संबंधों में

दरार आने लगती है। पमत-पत्नी में दरू रयाँ बढ़ने लगती हैं, उनमें अलगाव आने लगता है। कहानी के शरू ु में ही इशा​ाद का यह कहना मक- “मदा-औरत के ररश्ते में महु ब्बत के आलावा अब हजार तरह की गमु त्थयाँ उलझ चक ु ी हैं, वरना ये सब उलझन हमें परे शान क्यों करें ।”12 यह वाक्य वतामान समय में स्त्री-परु​ु र्ष के सम्बन्ध को व्यक्त कर देता है। ‘खदु ा की वापसी’ कहानी फरजाना से शौहर के द्वारा पहली ही रात को मेहर की रकम माफ करवा लेने की कहानी है। फरजाना से वह पहली रात को शता रखता है मक जब तक वह मेहर की रकम माँफ नहीं करे गी तब तक वह उसे छुएगा भी नहीं, फरजाना को यह बात खटकती है लेमकन उस के पास और कोई चारा भी नहीं होता है। वह जबु ैर से मन ही मन मखचं ी- मखचं ी रहने लगती है। वह मेहर की रकम की तह में जाना चाहती है मक मेहर की रकम क्यों दी या ली जाती है। जब वह मौलवी से सारी बात बताती है तब वह कहते हैं- “लाहौल... क्या मजहालत है... यह तो सरासर मदा समाज में मदा की एक चाल है, तामक वह औरत का हर हमथयार छीन ले, कहीं प्यार से, कहीं काननू से, कहीं जल्ु म से... पता नहीं पैसे की लालच में और औरत की आजादी से खौफजदा मदों ने जामहल मौलमवयों को अपना रहबर क्यों मान मलया है।”13 फरजाना जब भी जबु ैर के आस-पास जाती है, तो उसके मन में घृिा का भाव उठने लगता है, वह एक पल भी जबु ैर के साथ नहीं रहना चाहती है, वह जबु ैर से अपने अमधकार को छीन लेने के एवज में काफी लड़ती-झगड़ती है और वह जबु ैर को छोड़ना चाहती है। जबु ैर अदं र से महल जाता है वह फरजाना से कहता है मक- “बस करो फरजाना... मैंने ये सब जानकर, इतना कुछ समझकर यह नहीं मकया था। एक मदा​ाना नशा था, ताकत का, घमडं का अपने बरतर समझने का। उसी नशे में मझु से यह गलती हो गयी। तमु जो चाहो, सजा दे सकती हो, मगर मझु े छोड़ कर मत जाना।”14 जबु ैर की इन बातों का

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017

उर्षा महाजन की कहानी ‘कस्तरू ी’ स्त्री शोर्षि तथा स्त्री चेतना को प्रस्ततु करती एक सशक्त कहानी है। कस्तरू ी मजसका बाल मववाह हो गया था। उसे अपने ससरु ाल में मवमभन्न प्रकार की यातनाओ ं को झेलना पड़ता था। पमत नशे में धत्तु होकर कस्तरू ी को मारतापीटता है-“दल ु महन बनकर आई थी उस घर में तो मनरी बच्ची ही थी। महेसी ने उसे औरत बनाया, सीने में खरोंचे दीं, दारू की बू के साथ, कभी जबरदस्ती, कभी मार-पीट कर और कभी उसकी रजामदं ी से भी।”10 ऐसे में कोई स्त्री क्या कर सकती है? उसके पास के वल दो ही रास्ते बचते हैं, या तो वह परू ी उम्र यह सब झेलती रहे या मफर सब छोड़ कर मवद्रोह करे । कस्तरू ी मजसे अब ठे केदारनी कहा जाता है वह मनिय कर लेती है मक वह महेसी का घर छोड़ देगी । एक मदन वह भाग जाती है-“महेसी के तो साए से भी नफरत हो गई थी उसे। वही तो था उसके सभी क्लेशों का कारि। महेसी क्या, अब तो मरद जात के नाम से ही मघन होने लगी थी उसे।”11


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फरजाना पर कोई असर नहीं होता है। यहाँ तक मक फरजाना के कोख में पलने वाला जबु ैर का बच्चा भी वह अब इस दमु नया में नहीं लाना चाहती है। वह कहती है- “मफर एक नया फरे ब, एक नया जाल मोहब्बत के नाम पर बनु रहे हो?, पछता रहे हो तो प्रायमित भी करना जानते होगे, मैं तो अपने को सजा दे रही हूँ अपनी महमाकत की..यह कोख हमेशा सनू ी रखगँू ी, उस मदा का बच्चा हरमगज कोख में नहीं पलने दगंू ी, जो मोहब्बत के नाम पर सत्ता का परचम लहराये, जो औरत के अमधकार को अपनी चालाकी से छीन ले और उसे मनहत्था बनाकर अपनी जीती जमीन का एलान करे ।”15 वतामान समय में स्त्री मकसी भी परु​ु र्ष का वचास्व नहीं चाहती है। परु​ु र्ष के वचास्व का मख्ु य कारि यह था मक स्त्री आमथाक रूप से गल ु ाम थी, वह पिू ता ः परु​ु र्ष के अधीन थी। लेमकन अब स्त्री आत्ममनभार है, वह इस बात को भली-भामं त जानती है मक अब हम मकसी भी प्रकार से परु​ु र्ष से कम नहीं हैं। आज की स्त्री परु​ु र्ष से बराबरी की बात करती है, आमथाक, सामामजक और राजनीमतक हर प्रकार से वह मकसी भी तरह परु​ु र्ष से कम नहीं रहना चाहती है। क्षमा शमा​ा की कहानी ‘वेलेंटाइन डे’ कहानी की नामयका बराबरी की बात करती हैं। उस परु​ु र्ष के पैसे खचा करने में आपमत्त है क्योंमक वह जानती हैं मक आमथाक गल ु ाम होने का अथा सम्पिू ा रूप से गल ु ाम होना है। ‘वेलेंटाइन डे’ में क्षमा शमा​ा ने प्रस्ततु मकया है मक जब परु​ु र्ष को एक अच्छा ऑप्शन ममल जाता है तो वह स्त्री को छोड़ कर दसू री तरफ हो लेता है। जब दसू री से बात नहीं बनती है तो वह मफर पहले की तरफ ही भागता है। नकुल अपनी पत्नी से ऊब चक ु ा है। वह 25 साल पहले मजस लड़की को छोड़ चक ु ा था उस के करीब मफर आना चाहता है लेमकन वह नकुल में अब मबलकुल रुमच नहीं रखती है। वह कहती है- “तम्ु हें लग रहा होगा मक मैं उन बीते हुए वर्षों की डोर थामकर अब भी तम्ु हारे Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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इतं जार मैं बैठी होऊँगी। मीरा की तरह गा रही होऊँगी मक मेरे तो मगरधर गोपाल दसू रा न कोई-हमेशा मीरा चामहए-आसं ू बहाती हुई- तड़पती हुई-एक कमजोर औरत- मजससे जब चाहों पीछा छुड़ा लो-मववाह के वक्त तम्ु हारी पत्नी तम्ु हारी सबसे बड़ी उपलमब्ध थी। उसके मपता ने तम्ु हे मोटी रकम दी थी। वह खबू सरू त थी।”16 परु​ु र्ष अपने मन को मकसी तरह बहला लेता है, लेमकन स्त्री का मन बहुत कोमल होता है वह प्रत्येक सम्बन्ध की कसक सदैव अपने मदल में समेटे रखती है। वह मकसी भी परु​ु र्ष के साथ बनाने वाले मकसी भी सम्बन्ध को नहीं भल ु ा पाती है, वक्त के साथ वह अपनी भावनाओ ं को इस कदर दबा लेती है मक मफर मकसी परु​ु र्ष के सामने वह उजागर नहीं होते हैं“नकुल सहदैव, मझु े सब कुछ याद रहा है, गजु ारे हुए वक्त एक लम्हा। मैं भावक ु ता से भरी वह लड़की भी नहीं मजसमें तम्ु हारे मलए ढेरों आसं ू बहाए थे और अब तो तम्ु हें कोई शाप देने का मन भी नहीं करता। दरअसल शाप से जो भी ररश्ता बनता है, वह भी अब बचा कहाँ है।”17 समकालीन स्त्री कहानीकारों ने कुछ ऐसे सबं धं ो को भी मचमत्रत मकया है, मजसका कोई नाम नहीं है। स्त्रीपरु​ु र्ष के कुछ ऐसे सम्बन्ध भी आज देखने में आ रहे हैं मजनको कोई नाम नहीं मदया जा सकता। न वह मपता-बेटी, न पमत-पत्नी, न दोस्त और न ही प्रेमीप्रेममका। कुछ ऐसे ररश्ते हैं मजसको मकसी भी बधं न या नाम में बाँध पाना ममु श्कल है। क्षमा शमा​ा की कहानी ‘एक है सुमन’ में समु न, दबु े जी के साथ रहती है, दबु े जी अपने ही घर वालों के मलए बेकार है। उनके घर वाले उन्हें अके ला छोड़ चक ु े हैं, पत्नी की मृत्यु हो चक ु ी है। घर में बेटे, बहुएं, नाती-पोते सब है, जो यह सोचते है मक समु न उनके साथ उनकी प्राैपटी के मलए रहती है। पर वह साफ मना कर देती है मक उसे कुछ नहीं चामहए, उसे के वल दबू े जी चामहए। वह कहती है मक- “मैंने कोई उनसे शादी तो की नहीं है जो वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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अपना नाम बदलँ।ू वैसे भी आजकल शादी के बाद भी कौन बदलता है। मझु े कुछ नहीं चामहए, मसफा दबू े जी...यहाँ तक मक कोई संतान तक नहीं।”18 ‘गोमा हसं ती है’ मैत्रेयी पष्ट्ु पा की अनमेल मववाह पर आधाररत कहानी है। अनमेल मववाह सदैव से ही स्त्रीपरु​ु र्ष के सम्बन्ध में दरार पैदा करने का कारि बना है। मववाह तो हो जाता है लेमकन यह सम्बन्ध के वल झेला जाता है, गोमा एक संदु र और सश ु ील लड़की है। जबमक मकड्ढा एक आंख का काना कुरूप है। वह काना है इस कारि उसका मववाह नहीं हो रहा है। पड़ोस की चाची मकसी तरह अपनी ररश्तेदारी में कहीं उसके मववाह की बात चलाती हैं और बोलती हैं- “मैं जानती हूँ मक बेमल े ररश्ते की बात चलायी है मैंने, पर बैयारवानी हू,ँ करमजली के मलए इतना तो कह ही सकती हूँ मक इस खटंू े बधं जाए। क्या मालमू कौन कसाई मोल देकर हाक ं ले जाए? मकड्ढा जैसा हीरा मफर कहाँ ममलेगा?”19 मकसी तरह मकड्ढा का बापू गोमा के मपता को पैसा देकर, गोमा की शादी मकड्डा से करवा देता है। मकड्ढा गोमा की समु वधा के मलए पानी का नल लगवा देता है। यह देखकर आस-पास के लोग मचढ़ते हैं और व्यनं यात्मक शैली में बोलते हैं“खसम की एक आँख पर सबर मकया है तो ‘नल’ का पानी तो मपयेगी ही। लाड़ली है काने की। गाड़ी-भर रुपया फे ककर लाया है, बाप ने डमलया में धरकर बेची और गरब देख लो पटरानी पद्मनी जी का।”20 स्त्री-परु​ु र्ष कोई भी मकतना भी सुखी रह ले लेमकन कमी कभी भी छुपती नहीं है। मकसी भी स्त्री या परु​ु र्ष को एक भरपरू , मबना मकसी कमी के जीवन साथी चामहए। गोमा मकड्ढा के ममत्र बलीमसंह से यौन सम्बन्ध रखने लगती है। इस बात की भनक मकड्ढा को लगती है वह बौखला जाता है। “उसका मन हुआ, गामलयाँ दे। उठाकर पटक दे गोमा को। साली शोक मना रही है? चमू ड़या-ं मबंमदया फोड़कर रो रही है ! मर गया तेरा Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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खसम? रांड हो गई? मतररया चमलत्तर ! पड़ी रह भख ू ीप्यासी ! देखें मकतने मदन चलेगा तेरा स्वांग?”21 समय मकतना भी बदल जाए, लोग मकतने भी अपने आप को माडना बना लें लेमकन आज भी कोई स्त्री या परु​ु र्ष अपने जीवन साथी के मकसी और के साथ सम्बन्ध नहीं देख सकते हैं। जब बलीमसंह और गोमा का सम्बन्ध मकड्ढा के बदा​ाश्त से बाहर हो जाता है तब वह गोमा पर झपटता है-“आयन्दा यह मेरे घर आया तो तेरा मसर फोड़ डालँगू ा कुमतया इस हरामी को फें क दगंू ा गोद से उठाकर, उस भजु गं को देखकर मखलती है सरू जमख ु ी ! मझु े देखकर तेरा महु ँ तोरई की तरह लटक जाता है।”22 स्त्री- परु​ु र्ष की तल ु ना में सदैव से ही भावक ु और कमजोर मदल की रही है। उससे मकसी का भी दःु ख बदा​ाश्त नहीं होता है, परु​ु र्ष स्त्री की तल ु ना में कठोर मदल का होता है। वह अदं र-बाहर दोनो से ही कठोर होता है। जब परु​ु र्ष स्त्री की भावक ु ता को समझ नहीं पाता तब स्त्री और परु​ु र्ष में तनाव का माहौल बन जाता है। उनके सबं धं ों में एक मबखराव सा आने लगता है। उर्षा यादव की कहानी ‘आदमखोर’ दहेज समस्या पर आधाररत कहानी है, मजसमें दहेज के मलए स्त्री का मकस प्रकार मवमभन्न प्रकार से शोर्षि मकया जाता है यह मदखाया गया है। अतं में उसे जला कर मार मदया जाता है, लेमकन यह सब शोर्षि देखकर उनके पड़ोस में रहने वाले दपं मत्त में तनाव आने लग जाता है। छमव चाहती है मक इस शोर्षि के मखलाफ कुछ करना चामहए लेमकन संदीप की इस मामले में कोई प्रमतमक्रया नहीं ममलती है। वह कहता है मक- “तमु समझती क्यों नहीं, यह उनका व्यमक्तगत मामला है। महज तमाशबीन की तरह वहाँ ताक-झांक करने वाली औरतों की बात छोड़ दो, कोई मजम्मेदार आदमी तम्ु हें इस मामले में संजीदा मदखाई देता है? मकसी शख्स को तमु ने कुछ बोलते देखा है?”23 छमव और संदीप की मानमसकता में काफी अतं र है। संदीप छमव को नहीं वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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समझ पा रहा है। संदीप को लगता है मक छमव फालतू के पचड़ों में पड़ रही है। एक मदन जब छमव संदीप से कहती है मक घर में एक भी सब्जी नहीं है, तब संदीप को अपनी भड़ास मनकालने का मौक ममल जाता है। वह झल्ला कर कहता है मक- “मदन भर में कम-सेकम पचीस सब्जी वाले तो दरवाजे के सामने से मनकलते हैं, दसू रों के घर-आंगन का तमाशा देखने के बजाए मेहरबानी करके उनसे साग-भाजी ले मलया करो। जो भी हो अब इस वक्त तो मैं थैला लेकर इस ड्यटू ी पर मनकलँगू ा नहीं, दाल रोटी बनाकर छुट्टी करो।”24 अतं में दहेज के कारि उस स्त्री को जला कर मार मदया जाता है। छमव को लगता है मक- “तीन सालों की वैवामहक मजन्दगं ी में उसे पहली बार एहसास हुआ इस आदमी के साथ शादी करके क्या वह छली नहीं गयी।”25 इस प्रकार देखा जा रहा मक स्त्री परु​ु र्ष के सम्बन्ध में अनमेल मववाह, आमथाक दबाव, मानमसकता का अलग होना, स्त्री शोर्षि आमद सभी कारिों से तनाव, ऊब, घटु न, उपयोमगतावामदता आमद मस्थमतयों ने अपना स्थान बना मलया है।

8. सयू ाबाला, सयू ाबाला की संकमलत कहामनयाँ, नेशनल बक्ु स रस्ट मदल्ली, वर्षा-2012,पृ.2

17.

वही, पृ.-50

िन्द्दभक िूची

18.

वही, पृ.-106

1. मसहं पष्ट्ु पपाल, समकालीन यगु बोध का सदं भा, नेशनल पमब्लमशगं हाउस मदल्ली, वर्षा-1986, पृ.-162

19. पष्ट्ु पा मैत्रेयी, गोमा हँसती है, मकताब घर प्रकाशन, मदल्ली, वर्षा-2010, पृ.-174 20.

वही, पृ.-181

2. मप्रयम्वदा उर्षा, मकतना बड़ा झठू , राजकमल प्रकशन मदल्ली, वर्षा-2008, पृ.-38

21.

वही, पृ.-188

22.

वही, पृ.-192

9.

वही, पृ.-3

10. महाजन उर्षा, और सावत्री ने कहा, मकताब घर प्रकाशन मदल्ली, वर्षा-1996, पृ.-69 11.

वही, पृ.-71

12. शमा​ा नामसरा, खदु ा की वापसी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, मदल्ली, वर्षा-2001, पृ.-15 13.

वही, पृ.-23

14.

वही, पृ.-30

15.

वही, पृ.-30

16. शमा​ा क्षमा, नेम प्लेट, राजकमल प्रकाशन, मदल्ली, वर्षा-2006, पृ.-50

3.

वही, पृ.-41

4.

वही, पृ.-44

5.

वही, पृ.-68

23. यादव उर्षा, उर्षा यादव सक ं मलत कहामनयाँ, राष्ट्रीय पस्ु तक न्यास भारत,मदल्ली वर्षा-2011, पृ.58

6.

वही, पृ.-68

24.

वही, पृ.-64

25.

वही, पृ.-66

7. कामलया ममता, प्रमतमदन, राजकमल प्रकाशन मदल्ली, वर्षा-2012, पृ.-91 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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“सजंदगी औरत की’ एक नारी सिमिक” -सप्रयंका चाहर नारी मवमशा से तात्पया है नारी का अमस्तत्व और उसकी अमस्मता को बनाये रखना । उसे आमथाक, सामामजक, पाररवाररक, राजनीमतक क्षेत्र में बराबरी का हक देना । नारी मवमशा की बातें तो बड़ी-बड़ी की जाती हैं परंतु वह मसफा मकताबों तक ही सीममत होकर रह गया है । ना ही उस पर अमल मकया जाता है ना ही उसे व्यवहार में लाया जाता है । मकतनी ही मस्त्रयाँ स्वयं के अमधकारों को जान पाती है ? प्रभा खेतान कहती है मक “स्त्री न स्वयं गल ु ाम रहना चाहती है और न ही परु​ु र्ष को गल ु ाम बनाना चाहती है । वह चाहती है के वल मानवीय अमधकार ।” औरत ही क्यों हमेशा छली जाती है ? क्यों बचपन से उसे औरत बनाने की जन्म-घटँू ी मपलाना शरू ु कर मदया जाता है ? एक बच्ची का जब जन्म होता है तो सब के चेहरे पर मायसु ी छा जाती हैं । घर के वातावरि में मवरानापनसा छा जाता है, क्योंमक सब तो इतं जार बेटे का कर रहे थे । कुछ इस तरह शरू ु होता है उसका जीवन जहाँ उसके आने की कोई ख़श ु ी, कोई उल्लास नहीं होता । बचपन से ही उसके साथ भेद-भाव मकया जाता है । भाई पर ही सारा स्नेह लटु ाया जाता है । भाई-बहन के परवररश में बड़ा अतं र देखने को ममलता है जैसेकपडें, मखलौने, खाने, स्कूल और खेलने में आमद । बहन को घर का काम और सलीके से रहना मसखाया जाता है । लड़मकयों को भी मशक्षा, खान-पान, रहनसहन, मवचारों की अमभव्यमक्त, जीवन का लक्ष्य मनधा​ारि व जीवन साथी को चनु ने की स्वतंत्रता होनी चामहए । लड़की हमेशा घटु न भरा जीवन जीती है । लड़की को सब से पहले उसे आमथाक रूप से आत्ममनभार बनने की आवश्यकता है । उसे अपने ही घर में बार-बार एहसास कराया जाता है मक वह लड़के की बराबरी नहीं कर सकती; वह तो वंश चलाएगा, Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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पैसा कमायेगा, बढ़ु ापे में सहारा बनेगा और तमु ससरु ाल चली जाओगी । हजारों पाबंदी उसी पर लगा दी जाती है; यह मत करो, वह मत करो, यहाँ मत जाओ, वहाँ मत जाओ, ऐसे मत बोलो, घर वक्त पे आओ हर बात को लेकर बेटी को टोका जाता है । यही बात लड़कों पर लागु नहीं होती । आमखर क्यों यह परंपराएँ एक लड़के को मदा बना देती है मक उसका औरत पर अमधकार है । वह उसके साथ जो चाहें जैसा चाहें बता​ाव कर सकता है । क्यों उसका वह मामलक बन बैठा है ? वह बचपन से ही असमानता का मशकार होती है । उसे हर भमू मका अच्छी तरह मनभानी है । सब के कहे अनसु ार चलना है; यही हर ररश्ता उससे अपेक्षा रखता है । स्त्री मकसी से क्या अपेक्षा रखती है कोई नहीं जानना चाहता । उस पर क्यों सब मया​ादाएँ, अमधकार थोपें जाते है ? परु​ु र्ष से यह अपेक्षा क्यों नहीं रखी जा सकती मक वह अच्छा मपता, भाई, पमत और बेटा बन सकता है ? स्त्री का जन्म से लेकर मृत्यु तक एक चक्र बनता है और इस चक्र में वह अनेक भमू मकाएँ मनभाती हैं- पत्नी, बेटी, बहु, बहन आमद, परंतु इनमें से कोई भी भमू मका उसकी प्राथममक पहचान नहीं होती । पत्नी मकसी की होती है, बेटी मकसी की होती है, बहु मकसी की और बहन मकसी की होती है । लड़की जब यवु ा हो जाती है तो अपने अमस्तत्व को खोजने के मलए घर से बाहर मनकलती है; तब कदमकदम पर उसे इसं ान के वेश में भेमड़यें ममलते हैं । वह अच्छी मशक्षा प्राप्त कर बेहतर जीवन जीना चाहती है । कुछ बनकर अपने सपने सच करना चाहती है, अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है तभी अचानक कोई परु​ु र्ष प्रेमी बन उसके जीवन में प्रवेश करता है । स्त्री भावक ु होती है इसी बात का वह फायदा उठाता है । वह उसे सब्ज बाग मदखाकर, संदु र-संदु र कल्पनाओ ं में ले जाकर, मीठी-मीठी बातें कर उसकी मववशता का फ़ायदा उठाकर उसका शारीररक व मानमसक शोर्षि वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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करता है और खदु बेदाग बच जाता है क्योंमक वह चपु रहती है । स्त्री भोग तो जैसे उनका जन्म मसद्ध अमधकार है ऐसा सभी परु​ु र्ष समझते हैं । कपटी, चालाक, छलकपट से पररपिू ा परु​ु र्षों के चंगल ु में फँ सकर अपना कररयर व मजदं गी बबा​ाद कर लेती है । एक बार पतन की राह में मगरी तो संभल नहीं पाती; कुएँ के मेंढक की तरह बनी रहती है । प्रेममका ऐसी चामहए जो धरती की तरह सहन करती रहे, भावात्मक और शारीररक अत्याचार को सहन कर करुिा की प्रमतममू ता बनी रहे । प्रेम तो उसकी देह तक पहुचँ ने का एक छलावा है । उसे तो हमेशा देह की ही ज़रूरत थी । वतामान समय में प्रेम जैसे पमवत्र भाव को मजाक बना मदया गया है । प्रेम को मसफा परु​ु र्षों द्वारा देह की भमू म पर आँका जाता है । “स्त्री का सबं धं देह से लेकर देह से परे तक होता है, पर परु​ु र्ष उसे शरीर ही मानकर चलता रहा है । एक स्त्री के नाते उसके देह से परे कई स्तरीय सबं धं हो सकते है । परु​ु र्ष अक्सर स्त्री को शरीर के स्तर पर ही देखना चाहता है, जबमक वह उससे इतर भी होती है ।” प्रेम को शारीररक तृमप्त का साधन बना मलया गया है । अमधकतर परु​ु र्षों का प्रेम वासना पर ही आकर क्यों ठहर जाता है ? प्रेम को मसफा समय व्यतीत करने का अच्छा साधन और भोग-मवलास का माध्यम बना मलया गया है । आज का यवु ा प्रेममका रखना एक फ़ै शन समझता है । परु​ु र्ष आत्मा से आत्मा का पमवत्र ररश्ता क्यों नहीं समझता ? उसके तन-मन को छलता है, उसकी आत्मा को रोंदता है । क्यों बंधक बनी है वह इन परु​ु र्षों की ? मजन्होंने बार-बार अपमान के मसवाय कुछ नहीं मदया । स्त्री प्रेममका हो या पत्नी दोनों ही रूप उसे दःु ख की ओर ले जाते हैं । “प्रेम शारीररक तृमप्त के मलए ज़रूरत के महसाब से मकया, मदया जाता है । परु​ु र्ष प्रेम करने के बदले में देता है, आजीवन दैमहक संबंध । स्त्री परु​ु र्ष के द्वारा छली जाती है, अपमामनत की जाती है और मफर वही ममु क्त में बाधक करार कर दी जाती है । प्रेम व मववाह दोनों में अंतत: Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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स्त्री ही छली जाती है । परु​ु र्ष ही जीतता है स्त्री प्रेममका हो या पत्नी दोनों रूपों में दःु ख पाती है । राधा प्रेम के नाम पर छली गयी, सीता मववाह के नाम पर ।” जब परु​ु र्ष अपना कररयर बनाने या नौकरी पाने में सफलता प्राप्त कर लेता है तो अपनी प्रेममका को छोड़ देता है । मजतना उसे खेलना था प्रेममका रूपी मखलौने से तो खेल मलया; अब पत्नी रूपी मखलौने से खेलना चाहता है । परु​ु र्ष एक हाड़-मांस से भरी-परू ी स्त्री के अलावा और क्या चाहता है स्त्री में ? चाहे वह प्रेममका, पत्नी या कोई और हो ? उसने औरत को एक मजाक बना मदया है । उसका उपभोग करना ही उसकी मानमसकता बन गयी है । “मदावादी मवमशा में ‘इश्कमोहब्बत-प्रेम’ सब मस्त्रयों को मख ु ा बनाने के साधन हैं । एक से मन भरा दसू री सैंकड़ों हामजर हैं । आदममयों के जीवन में मस्त्रयों का स्थान ‘पान’ के शोंक की तरह है । ‘खाया-चबाया-थक ंू ा’ ।” एक परु​ु र्ष अनेक मस्त्रयों के साथ मखलवाड़ कर सकता है वह इस मखलवाड़ को चपु चाप सहन कर लेती है । परु​ु र्ष प्रेम के नाम पर उसकी देह के साथ मखलवाड़ करते हैं । वह बोलेगी तो पररवार व समाज में चररत्रहीन समझी जायेगी । समाज ने क्यों उसके मन पर लाज, शमा, मया​ादा और इज्जत के नाम पर पहरे लगा मदए ? जब एक बेटी, बहन, प्रेममका, पत्नी और माँ मवद्रोह कर देती है तब यह परू ा समाज बोखला जाता है; डरता है उसके मवद्रोह से इसीमलए उसे दबाना चाहता है । इस भगवा चोले की आड़ में जो कुछ कर रहा है कहीं उससे पड़दा न उठ जाये । उसे जानना होगा मक उसकी चप्ु पी में ही परु​ु र्ष सत्ता की जीत है । मकसी सनु सान जगह पर ये प्रेमी बन जाते है भेमड़यें और कर देते है स्त्री के तन-मन को क्षत-मवक्षत । प्रेम के प्यार भरे स्पशा की जगह दररंदगी और वहमशयतपन के मनशान छोड़ देते हैं । “ओह ! चालू मदावादी मवमशा मकन-मकन हमथयारों को लाता है । अपने पंजे और नाख़नू वह कहाँ-कहाँ चभु ोता है, प्रेम के नाम पर ही सही ।” परु​ु र्षप्रधान वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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समाज मस्त्रयों को त्याग, बमलदान की ममू ता बनाकर सहनशीलता का मलवाज पहनाता है । जाने मकतनी लड़मकयाँ प्रेम के झठू े बहकावे में आकर आत्महत्या का रास्ता अपना लेती है । वे अपने प्रमत हुए अत्याचार को अपने पररवार से कहेगी तो कोन उनका साथ देगा ? 80 से 90 % लड़मकयाँ डर के कारि पमु लस में ररपोटा दजा नहीं करवाती । ररपोटा मलखवा भी दे तो उसकी ही समाज में बदनामी होगी और बदचलन भी उसे ही कहा जायेगा । आये मदन न जाने मकतनी ख़बरें अखबारों में पढ़ने को ममलती है मजसमें लड़की आत्महत्या कर लेती है । तसलीमा नसरीन लड़मकयों के आत्महत्या करने के बारें में मलखती है मक “प्यार में असफल होने पर लड़मकयाँ आत्महत्या कर लेती हैं । प्रेमी ने अपमान मकया या मफर धोखा मदया है, वे सोचती हैं इसमलए उन्हें मजदं ा रहने की कोई जरुरत नहीं । समस्या का समाधान अममू न वे इसी तरह करती हैं अपनी मजदं गी को इतना ही तच्ु छ समझती हैं ।” अमधकाश ं परु​ु र्ष पड़दे की आड़ में सज्जनता और सह्रदयता का नाटक कर मस्त्रयों के मनबाल मन का लाभ उठाकर उनके साथ मखलवाड़ करते हैं । एक परु​ु र्ष अपने क्षमिक वासना की पमू ता के मलए न जाने मकतने तरह के दाँव-पेंच इस्तेमाल करता है । प्रेममका को धोखा देने के बाद दमु नया और पत्नी की नजर में सीधा इसं ान बनने की कोमशश करता है । वह तो वैसा ही हुआ जैसे ‘सौ चहू ें खाकर मबल्ली हज को चली ।’ प्रेम मसफा क्या औरतों के मलए बना हैं ? परु​ु र्षों के मलए तो के वल दैमहक सख ु ही बना हैं । अगर ऐसा ही है तो हम लड़मकयों को बदलना चामहए । एक परु​ु र्ष को प्यार करने का मतलब अपनी मजदं गी उस पर न्योछावर करना है । औरत ही इस आग में क्यों जलती है ? सीता को ही क्यों अमनन-परीक्षा देनी पड़ी ? राम भी तो अके ले रहे थे ? क्यों उन पर मकसी ने अगं ल ु ी नहीं उठाई ? राधा ही प्रेम के नाम पर क्यों ठगी गयी ? मनोहर श्याम जोशी के ‘उत्तरामधकाररिी’ उपन्यास में Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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काममनी को मनमथ अपने झठू े प्यार के जाल में फँ साता है । मनमथ काममनी को धोखा देकर भाग जाता है और लौटकर क्षमा-याचना करता है परंतु अब काममनी उसके झठू े प्यार के जंजाल से मनकल चक ु ी है । वह उसके जीवन में दबु ारा प्रवेश करने की कोशीश करता है । जब मनमथ काममनी को लेने उसके घर जाता है तो काममनी दरवाज़ा नहीं खोलती क्योंमक अब वह उस आदमी की असमलयत से वामखफ़ हो चक ु ी थी । आज उसका सच से सामना हो चक ू ा है । मनमथ को ठुकराने में ही उसके जीवन की साथाक पररिमत नजर आती है क्योंमक अब वह आजाद हो चक ु ी है । “वास्तव में ‘उत्तरामधकाररिी’ की काममनी के शरु​ु वाती बेढबपन, भावक ु रोमानीपन और सबसे बढ़कर एहसासे-कमतरी से उबरने की कथा है यह उभरना ही उसके आमखरी कृ त्य में प्रदमशात होता है ।” पमत भी उसे दबाये रखना चाहता है, पाबधं ी लगाता है । उसकी मजदं गी घर की चार मदवारी तक ही मसमट कर रह गयी है । झाड़-बतान, खाना बनाना, पमत की सेवा, बच्चे पैदा करना और इसके अलावा क्या बचा है उसके जीवन में । मपता के घर से लेकर पमत के घर तक उसे परु​ु र्ष के मनगरानी में रहने की महदायतें दी जाती हैं । बड़े-बढ़ू े हर वक्त उसके कानों में एक ही मत्रं फंू कते ममलेंगे मक उसे पमत में सारा जहाँ देखना है । परु​ु र्ष चाहता है स्त्री उस पर आमथाक रूप से मनभार रहे । अगर वह स्वयं आमथाक रूप से मजबतू हो गई तो वह उससे आगे मनकल जायेगी और वह उस पर अनश ु ासन नहीं लगा पायेगा । वह नहीं चाहता मक औरत उसे भल ू कर जीवन में आगे बढ़े वह उसकी दमु नया अपने तक ही सीममत बनाये रखना चाहता है । “अगर तमु उसे छोड़ने के बाद कहीं टीचरी या कोई और मामल ू ी सी नौकरी करके गमु नाम-सी होती तब वो कभी तम्ु हारा मजक्र नहीं करते । पर अब तम्ु हारा नाम है, इसमलए उन्हें दःु ख होता है कोई भी परु​ु र्ष यह वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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नहीं सोच सकता मक औरत उसे छोड़कर बेहतर मजदं गी जी सकती है ।” मववामहत लड़मकयों के मलए उसका घर ही स्वगा समझा जाता है चाहे वह उसके मलए जीते जी नरक ही क्यों न हो । दहेज़ के मलए सतायी गयी, घर में बारबार अपमामनत की गयी, बार-बार मपटी गयी, मदनभर घर के काम में जटु ी रहने वाली, रात में पमत को संतिु करने वाली, घर का वश ं चलाने वाली आमद । बेटे की जगह अगर बेटी पैदा हो गयी तो सबके ताने सहने वाली, बेटा ना पैदा करने के जमु ा में मार दी जाने वाली । सब-कुछ सहन करने के बाद भी चप्ु पी साधे रहे; ससरु ाल वाले उससे यही चाहते है । बार-बार धममकयाँ देना मक अगली बार बेटा ना हुआ तो पीहर चले जाना । अब बताईए कोनसा है उसका घर ? असल में तो उसका कोई घर ही नहीं है । क्या उसका जीवन मसफा दसू रों के मलए ही अपाि है । नारी अपने पररवार और समाज में आजीवन प्रताड़ना व अपमान सहती है । हत्या व आत्महत्या की मशकार बनती है; मपतृसत्तात्मक समाज का मवरोध नहीं कर पाती है । उसकी सहनशीलता पराकािा पर क्यों नहीं पहुचँ पायी ? उसे आजीवन भर समझोता करना ही मसखाया जाता है । समझोते में चक ू हो गयी तो घटु न व त्रासदी की अमधकाररिी बन जाती है । “मववामहत लड़मकयों के मलए ‘अपना घर’ एक भ्रम भी है और एक दश ं भी, जो जीवन के अतं तक उन्हें बंजारे की सी मन:मस्थमत में भटकाए रखता है । ऐसे में सबसे ममािंतक होता है मायके की ओर से अजनमबयों का व्यवहार ।” क्यों औरतों के जीवन में इन परु​ु र्षों ने घनू लगा मदया है ? स्वतंत्रता पर क्या परु​ु र्षों का ही अमधकार है ? पमत मववाह के बाद भी अन्य स्त्री के साथ संबंध रखे मकंतु तमु कुछ मत कहो क्योंमक सवाल करना तम्ु हारा अमधकार नहीं के वल परु​ु र्षों का हैं । पमत की सेवा ही तम्ु हारा धमिं है और उसके मलए तमु अपने सख ु की मतलांजमल देती रहो । एक स्त्री को लेकर ही उसकी Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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पमवत्रता के बारें में सवाल मकया जाता है एक परु​ु र्ष को क्यों नहीं ? तम्ु हें प्रेममका, पत्नी, रखेल सब पमवत्र चामहए तम्ु हारे आनंद के मलए मक तमु ही उसके अमधकारी हो । जीवन में वृद्धावस्था का दौर आया तो बेटों पर मनभार हो गयी और पत्रु ों को माँ बोझ लगने लगी । उन्हें लगता है मक उन्हें माँ की कोई जरुरत नहीं है । अब वे उनके मलए दो वक्त की रोटी का जगु ाड़ नहीं कर सकते । बच्चों के मलए समस्याएँ, मसु ीबतें झेलती रही मफर भी उनको ख़श ु ी देती रही । वही माँ आज उन्हें बोझ लगने लगी । दमु नया की मकसी बही में उनके त्याग, समपाि, प्रेम, ममता, स्नेह का उल्लेख नहीं; उनके मलए सब बेमाने हो गये । “वृद्ध मस्त्रयों की समस्याएँ इतनी गभं ीर है मक इनके आसं ुओ ं से परू ी धरती भीग जाएगी । उम्र के अमं तम पड़ाव में भी उसके साथ मसफा उसके हाथ होते हैं । यह हाथ भी जब उसका साथ छोड़ देते हैं तब उसका अपना घर भी बेगाने पन का अहसास देता है । ग्रामीि वृद्ध मस्त्रयों की पीड़ा की दासता अकथ अपने पररश्रम से पलने वाली मजदं गी जब पररश्रम के लायक नहीं रहती तब मजदं गी दस्ु वार हो जाती है ।” आज हर ममहला को सजग होना पड़ेगा; अपने अमधकारों की मागं करनी होगी । परु​ु र्षसत्तात्मक समाज से संघर्षा करना होगा तभी हम उनकी कै द से आजाद हो पायेंगी । यही है एक औरत की परू ी मजदं गी मजसमें वह अपने मलए प्यार ढुढं ती रही । पहले अपने घर में, मफर प्रेमी में, पमत में, बच्चों में पर उसे कभी प्यार नसीब न हुआ न इतने बड़े जीवन में मकसी ने उसकी इज्जत की और न तकलीफ समझी । सब तो लटु ेरे ही मनकले बस सबका रूप अलग था; कभी मपता के , कभी भाई, कभी प्रेमी, कभी बेटे, कभी पमत के रूप में । सब ने उसका जीवन आमश्रत बना मदया । सब ने उसे जो मदया उसके मलए माफ़ करती आयी है वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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तभी तो देवी बना दी गयी है । यह हर औरत की दास्तान है । न जाने मकतनी कहामनयों को वो अपने में समेटे हुए हैं । आज तक स्त्री चप्ु पी साधकर अत्याचार और शोर्षि को सहन कर रही है क्योंमक समाज और पररवार ने उसके होठों को सील मदया है । आज लगता है हमारे साथ इसं ान ने ही नहीं भगवान ने भी अन्याय मकया है । क्यों बचपन से ही भगवान ने हमें मवद्रोही नहीं बनाया ? लड़की पैदा होकर हम ने कोनसा पाप मकया ? मजतना हक परु​ु र्षों का हैं उतना ही हमारा, मजतनी आजादी परु​ु र्षों की हैं उतनी हमारी भी हैं; मफर क्यों हमें हमारे अमधकारों से वमं चत रखते हो ? हर नारी को अपने अमधकारों के मलए लड़ाई लड़नी होगी । इस लड़ाई की शरु​ु आत अपने घर से ही करनी होगी । हर जगह बराबरी का अमधकार हमें भी चामहए । हमारा भी स्वामभमान है, इज्जत है । हम भी हमारा वचास्व चाहते हैं । हम मकसी के गल ु ाम बनकर जीना नहीं चाहते । लड़की का कन्यादान करने से ही मपता का दामयत्व ख़त्म नहीं हो जाता । हर समय हर क्षेत्र में परु​ु र्ष को अपनी बेटी, अपनी बहू और अपनी पत्नी को सम्मान देना होगा । “लड़की के जैसे-तैसे हाथ पीले करके घर से बाहर धक्का देना है, यह अवधारिा ही दोर्षपिू ा है । लड़की को बाहरवालों के मक ु ाबले अपने घरवालों के अन्याय से पहले बचाना है ।” समाज ने हमें बेमड़यों में कै द कर के रखा है; अब तोड़ना चाहते हैं हम ये बेमड़याँ । लड़मकयाँ अपने जीवन में कुछ करना चाहती हैं, आगे बढ़ना चाहती हैं । परु​ु र्षों को अपनी रुगिु मानमसकता को बदलना होगा । पमत हो या प्रेमी वह स्त्री से शरीर के स्तर पर ही जड़ु ना चाहता है । आज स्त्री खल ु े मवचारों की हैं, आधमु नक हैं, फ़ै शन को अपना रही हैं, उच्च मशक्षा ग्रहि कर रही हैं साथ ही मवमभन्न पदों को प्राप्त कर रही हैं, अपने मवचारों को स्वतंत्र रूप से अमभव्यक्त कर रही हैं; तो जमहर-सी बात है मक उसे देह के स्तर पर न आँका जाये वह देह से परे भी कुछ हैं । हमें भी स्वामभमान से जीना हैं, हमारे

अमस्तत्व को बचाना है उन भावनाओ ं में नहीं बहना जो हमें कमजोर बनाती हैं और भेमड़यों का हमथयार बनती है । क्यों परु​ु र्ष अपनी मानमसकता बदलने के मलए तैयार नहीं हैं ? कहते है मक औरते ज्यादा पढ़मलख कर मबगड़ जाती हैं । हाँ हमारे अमधकार पढ़मलख कर जान मलए तो मबगड़ गयी हम ? तम्ु हारे अत्याचार के मखलाफ आवाज उठा ली, पलटकर जवाब देने लगी और घर की चार मदवारी लांगने लगी तो आपको चबु ने लगी और हमें बदचलन कहने लगे । तम्ु हारे पास अब कोई हमथयार नहीं बचा हमें कै द करने के मलए । “अगर वह अपने पर हुए जल्ु मों-मसतम बयां करती है तो बदचलन कही जाती है । औरत की इज्जत मरद की इज्जत जैसी न हौवे । लगु ाई का भाग मरद के खटंू े से बधं ा होवे ।”

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017

मपता व भाई का दामयत्व बहन को दबाये रखकर खत्म नहीं होता । प्रेमी का दामयत्व मवश्वास घात करके ख़त्म नहीं होता, पमत का दामयत्व भोग की वस्तु और बच्चे पैदा करने की मशीन समझ कर परू ा नहीं होता । बेटे का दामयत्व वृद्ध अवस्था में छोड़कर परू ा नहीं होता । समाज का दामयत्व लड़की को आगे बढ़ते देख उसकी टागं खींचना नहीं होता । एक स्त्री ना तो दानवी है, ना वह देवी है; वह तो मसफा एक मानवी है । िंदभक ग्रंथ:1. डॉ. अनीता नेरे, डॉ. योमगता हीरे , ‘साठोत्तरी महदं ी कथा सामहत्य: स्त्री-मवमशा’, शामं त प्रकाशन, रोतक हररयािा, पृ.138 2. वही, पृ.28 3.ररनू गप्तु ा, ‘स्त्री मन की व्यथा और अमस्मता की कहामनया’, समीक्षा, अक ु ाई-मसतम्बर ं -2, जल 2010, पृ.45


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4.डॉ. अनीता नेरे, डॉ. योमगता हीरे , ‘साठोत्तरी महदं ी कथा सामहत्य: स्त्री-मवमशा’, शांमत प्रकाशन, रोतक हररयािा, पृ.134 5.क्षमा शमा​ा, ‘स्त्रीत्ववादी मवमशा: समाज और सामहत्य’, राजकमल प्रकाशन, नई मदल्ली, पृ.127 6. तसलीमा नसरीन, ‘औरतों का आत्महत्या करना’, हसं , अक ु ाई-2016, पृ.90 ं -12, जल 7. उत्तरामधकाररिी बनने की संघर्षा-कथा, हसं , अक ं 6, जनवरी-2017, पृ.81,82 8.क्षमा शमा​ा, ‘स्त्रीत्ववादी मवमशा: समाज और सामहत्य’, राजकमल प्रकाशन, नई मदल्ली, पृ.109 9.सजु ाता तेवमतया, ‘स्त्री मवमशा से जझु ती कहामनयाँ’, समीक्षा, अप्रैल-जनू , 2010 10.डॉ. अनीता नेरे, डॉ. योमगता हीरे , ‘साठोत्तरी महदं ी कथा सामहत्य: स्त्री-मवमशा’, शामं त प्रकाशन, रोतक हररयािा, पृ.43 11.क्षमा शमा​ा, ‘स्त्रीत्ववादी मवमशा: समाज और सामहत्य’, राजकमल प्रकाशन, नई मदल्ली, पृ.44 12.डॉ. अनीता नेरे, डॉ. योमगता हीरे , ‘साठोत्तरी महदं ी कथा सामहत्य: स्त्री-मवमशा’, शामं त प्रकाशन, रोतक हररयािा, पृ.30

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बाल- सिमिक/ Child Discourse

A Report on “Motherhood experience of disabled child” Garima

Disability as a subject is less talked about and engaged. In twentieth century, Adolf Hitler initiated a “euthanasia” program which was about mass killing of the disabled population who were not “economic worthy”. Earlier a lot of money has been spent on medical treatment of disabled person in order to make them abled or normal. But with the passage of time, the belief about the word disability emerged particularly after World War II when a large number of soldiers who came back home with some kind of disability. In the West, disability movement emerged in 1950s however in India, it started in 1970s. Before all this there was a very pathetic treatment of disabled people. They were not treated as “equal Humans”.

In our daily life, we encounter many disabled people and most of the time, it is not very shocking for us to see them outside the metro station or outside the temple begging and sometimes we see them on road side which sometimes takes or does not take our attention towards them. In India, out of one billion population, around seventy million are disabled people (Ghai, 2002:50). Nevertheless, because of lack of awareness they rarely get the proper treatment of it. At the same time, there is lack of communication or education resources for the disabled community as she pointed out there is only one “televised sign language news bulletin per week for people with hearing impairment” (p.g. 103). Some disability right activists do not take into the account the question of social location as they take the

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Western concept to understand the disability as a singular identity. However, in Indian context, disabled person does not consist with one specific identity but they are oppressed on multiple levels such as caste, gender, class and social location. At the same time, religious conception is too entrenched with the concept of disability. If we talk about India here many people have a lot of religious faith. There are also people who have superstitious belief about disability. There is also some kind of notion among people who think that the person having some kind of disability has committed sin in their previous lives. It has been attached to the idea that the God has given them punishment for their previous life’s sins. Disabled movement has limited itself to few agendas such as demanded for their equal rights and equal opportunities in work places, in education and so on. Even, the disability right movement demanded to change the word disability into differently abled. At the same time, we also need to understand that because of lack of institutions as well as awareness, a lot of families do not able to get the proper treatment or education of their kids where it still comes as disability.

The purpose of my research is to understand how the motherhood experience of a disabled child is different from the motherhood experience of an abled child. I have talked to four mothers. Two mothers whose children have some kind of disability and other two mothers have their abled children. I have further specified that I will talk to those mothers whose children age is from 1 to 10 years only. For methodology, I have employed is ethnographic study. I took all my interviews within four days. I did my field work in afternoon time assuming that it may be a little relaxing time for married women particularly. To conduct this interview, I have used the semi-structured questionnaire format as research methodology. I began my interview with the question of daily routine of all the four mothers.

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FIELD SITES

For the field site, I have chosen my own area, New Usmanpur. This region exists in the North Eartern part of Delhi. This is the area which is not very well-known to people. Like the usual structure, the Jatts or Muslims or comparatively well off “lower” caste people reside in the centre part of the region. However, a large number of “lower” caste people live in the outer part of the region. Largely, we can say that the people of this area has developed economically but still remained backward in social and cultural terms. There are a large number of people who migrate particularly from Bihar state to work as they can find a small room at a comparatively lower cost. There are women who earn by producing many different things at home such as hair clips, Rakhi, birthday cap and so on. They do work at a very cheap rate. One can also find a lot of home tuitions without any nameplates or advertisements that is run by women who give tuitions at their home at a very cheaper price. This is also because most of the families do not prefer to send their women out of the house. So many women do earn some money by teaching at home. Generally, these women teach till 10th standard. Three out of four mothers with whom I have interviewed do some home based earning in these kinds of field if it is possible for them. How did I select my participants? Earlier I myself was little nervous because I was not sure if somebody would be comfortable in talking to me or not. So, for that, I have tried to talk to those mothers who actually knew me before. That is why, I have talked to two mothers to whom I knew before as I was teaching their kids last year. And in order to contact rest two mothers whose child has some kind of disability, I have contacted through my cousin sister. That is how, it become easily accessible to me.

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INSTRUMENNTS USED TO COLLECT THE DATA

To collect the data, I have used my phone to record the interviews of the four participants because writing on paper would have been become a problem to continue the pace with the emotions of the respondents at the same time which can only be done by an experts. During the interview, I have employed the semistructure questionnaire format. Semi-structured Questionnaire 1.

What is your everyday schedule?

2.

How many children do you have?

3.

Do they go to school?

4.

Why does the child not go to school?

5. What is the time when you feel little free from your busy schedule? 6. Do they get to know about the complications that happened to the child when he or she was born? 7. If yes, what was the reaction of the family to deliver the child? 8. If no, then how did the child get any complication? What incident happened which is why the child is in such state of a problem? 9. What was the reaction of the family on the child’s problem? 10. What was mother’s reaction towards the child’s problem? 11. What are the challenges that the family member face initially in order to communicate with their child? 12. What transport they use to go out with the child?

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ANALYSIS OF DATA COLLECTED

I have centred my topic to four mothers. These families either belong to lower class or middlemiddle class. First of all, I would like to talk about those mothers who have their “normal” children and then with the mothers whose children have any kind of disability.

Mrs. Suman (name changed), who has two sons Chirag and Deyansh, gets up around 6 in the morning during the week days and gets fresh. She wakes up her 3-year old son Chirag, who has recently started going to school, and prepares food for him and for her husband. Mrs. Suman tries to complete all household work till Chirag comes back home around 12. At around 12:30, she sends Devyansh, her elder son to school who comes back home around 6 o’ clock. While interviewing her, her younger son constantly tried to divert our attention towards himself by doing different kind of activities. When I asked Mrs. Suman whether is there any time when she gets relaxed in a day? She replied that usually when her children go to the school or tuition. This is only time when she feels little relaxed or finds a little time to watch T.V.

My second interview was with Mrs. Naina (name changed) who is also a mother of two children. I visited her home at around 5 o’ clock in the evening when she was about to finish her tuition. Her 4- year old daughter, Manyata was at home, was playing with the little kids. Mrs. Naina gets up nearly at 6 o’ clock. She goes to temple around 7 o’clock and comes back and then prepares her both the children for the school. After that, she does her household work such as dusting, cleaning, washing and everything till the time her children return from the school. As soon as, her children arrive from school, she gives them food. Later, after sending her children to tuition, she herself gives coaching to little kids till 5th standard. When asked about her leisure time, she replied that usually when the children sleep in the day time,

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this is the time when she feels more relaxed or even on Sunday when she does not have any class on that day.

My third interview was Mrs. Sonia. She is from Schedule Caste category and from a middle class family background. Mrs. Sonia lives in a Joint family system. She also trains other girls for beautician course at her home. She is the mother of two daughters, Garima and Harshita. Garima is 8- year old girl whereas Harshita is 6 year old girl. Garima goes to school however, Harshita does not. Harshita is the child who cannot hear and talk. When it was asked to Mrs. Sonia, when did she realize that Harshita has this problem? She replied that they never realized it that her daughter has this problem. Perhaps, during the childhood when Harshita fell ill, she lost her hearing power. With the passage of time, they also learnt sign language with Harshita since Harshita herself used to use the sign language in order to communicate. Harshita’s family is struggling to get the proper treatment of her hearing problem. Also, in order to get the equipment to hear, she has to cross the 11 levels. In her test, she has cleared 10 tests. Nevertheless, she is facing problems to clear the last test because the doctors as well as her mother are not abled to make Harshita understand about what she has to do in order to clear the final test. Harshita’s family is also struggling to get her PWD Category certificate to get enrol her in any special school for her learning process.

My final participant is Mrs. Shivani (name changed). Shivani’s family belongs to a lower class though they do not have income certificate. She sometimes earns through making birthday caps at her home. Her son, Nitin cannot talk and walk. He can walk only through someone’s support. Nitin is her only son who has been adopted by the family when he was two month old. Earlier, people used to say that Nitin has some kind of weakness and he will recover as he will grow up. His family did not have any option but to keep him with

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themselves. Now, he is 10 year old who neither could get the proper treatment nor any special school for his better upbringing. It is his mother or his grandmother who generally remain with him at all the time for every single step. His mother do all the things from making him eat to change his clothes. The life of Nitin and his mother is so connected with each other. Coming from a very underprivileged background, his family does not know how they should get the proper treatment of Nitin and even his PWD Certificate.

FINDING FROM THIS RESEARCH

1. Through first two participants, I have noticed that since the children of age group from 1 to 10 constantly require the attention of some elder person. At home, usually mother who always looks after them. As mentioned by Mrs. Suman in her interview that she cannot leave her children alone otherwise they either break or create something or the other. That’s why, she either prefers to remain at home with them or go out with them only. Even while making conversion with other people, she has to have an eye on the kids. Therefore, in that case, these mothers find some free time for themselves and even for work when their children either go out to play or study or when they sleep. Whereas, on the weekend day, their day is full of work because of their children or husband remain at home. Whereas in the case of third and fourth respondents, since their children have not got the proper school that is why, these mothers rarely get any free time for themselves. Mother has to be in touch with them regularly. The relationship of mother and child is too entrenched. The mother does not remain just as a mother but also as a friend and a teacher too. These mothers get time when some other women of the family support her such as grandmother or aunty who takes care of the kid when there is absence of mother for some moments.

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2. Because of lack of awareness, these families could not get the PWD Category certificate. Also to get all the procedure done or to visit hospital or school, it almost becomes impossible for their husband to go repeatedly. They cannot manage to have off from their jobs for all these days. In this situation, the mother has to visit these places with the children even if they do not go out so often.

PROBLEMS ENCOUNTERED DURING THE RESEARCH

1. Nitin’s family was also my primary focus for this research. At one point of time, I felt that I have to change the topic because I saw that Nitin’s house was locked so I thought that perhaps they have shifted to their village since they are living in a worse situation here in Delhi. So, because of not having enough respondents, I was thinking to change my topic. But later, they returned and told the problem that because of small family, whenever they have some work outside so they have to go out with everyone (mother, grandmother, Nitin) since his mother does not know much. 2. Before the fieldwork, I was not very clear to me how will I distinguish the “motherhood experience of a disabled child” and the “motherhood experience of a normal child”. But I think after the interview, it was little clear to me. 3. It should also be noticed that I usually visit the places of my respondents (as we live in same area) where one can find many things for instance once I visited Nitin’s place when he had loose motions. During that time, his mother has to take him up to the washroom repeatedly. Such experiences or everyday struggle of mother of a disabled child still could not be brought out in a more detailed to this research. The reason of this may be the hierarchical structure (between the respondent and the researcher) or may be the consciousness of the interview.

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• Ghai, Anita, Disabled women: An excluded agenda of India Feminism, 2002.

 EXPERIENCE OF UNDERTAKING THE PRACTICAL RESEARCH EXERCISE

Ghai, Anita, Disabled women: An excluded agenda of India Feminism, 2002.

1. It was a great experience for me as well as challenging too. Since I took my own area as a research site so it actually helped to study my own area in a better manner and also helped to understand the everyday struggle of married women about which I have not studied with much detail before this research. Earlier, I was little hesitated because I was not sure if they would be comfortable in talking to me even if I know them. But I think during the interview, there was very much equal relationship between me as a researcher and my respondents. This may be because it was an ethnographic study where respondents have some kind of familiarity with me (as a researcher). This may be the reason that this study worked in a smooth manner. It actually helped me to learn more. 2. I think the topic disability has a lot of scope to do research in this field which actually demand. Through this research, I had also observed that many people who have some kind of disability like hearing problem, multiple disability and so on. The family rarely have any kind of awareness about this issue. So in that case, the person, who has disability, does not able to get the proper treatment or the school for that particular kind of disability and there are many cases here when such people just live their lives to be dependent on others. I just hope that if I could create atleast a link among such families for the future purposes. I think it would be a great achievement for me. However, there has been limitations from my side also that I myself do not know much about this area that is why, I have limited myself to children of a particular age group from 1 to 10.

REFERENCE

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

ग्राम बाल िरं क्षण िसमसत की जागरूकता का अध्ययन : देिली तालक ु ा के िंदभक में (Awareness of Village Child Protection Committee: special Reference of Dewali Taluka)

ISSN: 2454-2725

महत्व मदया जाता है। ग्राम बाल संरक्षि समममत के गमतमवमधयों का संचालन मजला बाल संरक्षि समममत के मागादशान से मकया जाता है, इसक्रम में रािीय स्तर पर बाल अमधकार एवं संरक्षि संबंधी सममन्वत नीमतमनयोजन हेतु एकीकृ त बाल सरं क्षि कायाक्रम

दीना नाथ यादि पी-एच. डी. (शोधाथी) समाजकाया म.गा.फ्यजू ी गरु​ु जी समाज काया अध्ययन कें द्र महात्मा गांधी अतं रराष्ट्रीय महदं ी मवश्वमवद्यालय वधा​ा, (महाराष्ट्र)

(ICPS) की मवशेर्ष भमू मका होती है। जो बाल सरं क्षि समममत के स्थापन, मक्रयान्वयन एवं मनगरानी जैसे महत्वपूिा गमतमवमधयाँ पररचामलत होती है। प्रस्ततु शोध मख्ु यत: विानात्मक एवं अश ं त:

िोध-िार ग्राम बाल संरक्षि समममत बच्चों के अमधकार एवं संरक्षि के मलए संचामलत नीमत-मनयोजन को ग्रामीि क्षेत्रों में मक्रयामन्वत करती है। समममत की स्थापना का मल ू आधार बाल न्यास अमधमनयम 2006 के sec. 62-A के द्वारा मजला, तालक ु ा एवं गांव स्तर पर बाल समममत की स्थापना को महत्व मदया गया। समममत का मख्ु य उद्देश्य बच्चों के साथ मदन ब मदन बढ़ रहे अपराध के मखलाफ बच्चों के अमधकार एवं अमधमनयम के द्वारा सरं क्षि प्रदान करना है। मजससे बच्चे बमु नयादी अमधकार व बेहतर अवसर के साथ मवकास कर सके । ग्राम बाल संरक्षि समममत में गांव के जन-प्रमतमनमध, सामामजक कायाकत्ता​ा, ममहला समहू , आगं बाड़ी कायाकत्ता​ा, प्रधान पाठक व बच्चे

मनदानात्मक अमभकल्प के अतं गात आता है। यह शोध पिू ता : मात्रात्मक स्वरूप में है। शोध हेतु देवली तालक ु ा के अतं गात संचामलत ग्राम बाल संरक्षि समममत के 52 गांवों में से 13 गांव का चयन मकया गया। प्रमतदशा चयन हेतु बहुचरिीय यादृमच्छक प्रमतदशा

पद्धमत

(Multiphase

Random

Sampling Methods) का उपयोग मकया गया है। प्रथम चरि में 52 गावं ों में से 13 गावं का चयन मकया गया है। गावं ों का चयन करने हेतु मटपेड्स यादृमच्छक अक ं सारिी का उपयोग मकया गया है। प्रस्ततु शोध में प्राथममक स्रोत से तथ्यों का संकलन करने के मलए साक्षात्कार पद्धमत (Interview Methods) का उपयोग मकया गया है और प्रत्यक्ष रूप से साक्षात्कार करने के मलए संरमचत साक्षात्कार अनसु चू ी

स्वयं सदस्य को शाममल कर जन-सहभामगता को Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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(Structured Interview Schedule) का उपयोग

बच्चों से यौन शोर्षि करना, 18 वर्षा से कम उम्र के

मकया गया है।

बच्चों की शादी कराना व बच्चों को स्कूल न जाने

शोध के माध्यम से ग्राम बाल संरक्षि समममत के

देना, जैसे पहलओ ु ं को अपराध के रूप में स्वीकार

सदस्यों में बाल अमधकार एवं संरक्षि संबंधी

करते हैं। जबमक महज कुछ ही समममत के सदस्य

अमधमनयम की जागरूकता का अध्ययन मकया गया

बच्चों को काम में रखना, बच्चों को स्कूल न जाने

है। इस क्रम में समममत के सदस्यों की समस्याओ ं का

देना व बच्चों को स्कूल में मशक्षक द्वारा मारा जाना

अध्ययन तथा उसके समाधान हेतु सभं ाव्य समाज

जैसे कृ त्यों को अपराध के श्रेिी में नहीं देखते हैं। अतः

काया हस्तक्षेप को शाममल मकया गया है।

सभी समममत के सदस्यों में बाल अपराध के बारे में

अध्ययन के दौरान समममत के सदस्यों में बाल

बहुत अमधक जानकारी है।

अमधकार की जागरूकता से स्पि होता है मक दो

सवा​ामधक समममत के सदस्यों को बाल संरक्षि

मतहाई से अमधक समममत के सदस्यों को बच्चों की

अमधमनयम बाल न्यास अमधमनयम 2000, 2006,

सही उम्र की जानकारी ही नहीं है। सभी समममत के

2015 व 2016, संयक्त ु राष्ट्र बाल अमधकार सम्मेलन

सदस्यों को बाल अमधकार के मवमभन्न पहलुओ ं के

1989 (UNCRC), राष्ट्रीय बाल अमधकार संरक्षि

बारे में जानकारी है तथा सभी समममत के सदस्यों को

आयोग (NCPCR), एकीकृ त बाल संरक्षि योजना

बाल अमधकार संबंधी सभी पहलओ ु ं के बारे में बहुत

(ICPS) के बारे जानकारी नहीं है। जबमक आधे से

अमधक जागरूकता है। सभी शैक्षमिक स्तर के सभी

अमधक समममत के सदस्यों को लैंमगक अपराधों से

समममत के सदस्यों को बाल अमधकार के प्रमत

बालकों का सरं क्षि अमधमनयम के बारे में जानकारी

जागरूकता बहुत अमधक है तथा सभी ममहला एवं

है। ममहला उत्तरदाताओ ं की अपेक्षा परु​ु र्ष

परु​ु र्ष सदस्यों को बाल अमधकार के प्रमत जागरूकता

उत्तरदाताओ ं में जानकारी बहुत अमधक है। तथा

बहुत अमधक है।

उत्तरदाताओ ं में मशक्षा स्तर बढ़ने से उसमें जागरूकता

अध्ययन के दौरान समममत के सदस्यों में बाल संरक्षि

भी बढ़ रही है।

संबंधी अमधमनयम की जानकारी से पता चलता है मक

प्रस्ततु अध्ययन से स्पि होता है मक ग्राम बाल संरक्षि

सभी समममत के सदस्यों ने बच्चों से भीख मँगवाना, बच्चों से नशीले पदाथों का खरीद परोख कराना, Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

समममत के सदस्यों में बाल अमधकार एवं संरक्षि संबधी अमधमनयम के बारे में जानकारी व समममत के वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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बेहतर मक्रयान्वयन हेतु प्रमशक्षि एवं जन-जागरूकता

लेमकन सबसे बड़ा सवाल है मक बच्चों में बढ़ रही

कायाक्रम का आयोजन मकया जाना आवश्यक है। इस

महसं ा, शोर्षि, दव्ु यावहार व अन्य कुकृ त्य जैसे

क्रम में सरकार, ग़ैर-सरकारी संगठन व मजला बाल

जीवनदायी पक्ष के मलए कोई मवमशि नीमत-मनयोजन

संरक्षि समममत के बीच बेहतर समन्वय एवं समदु ाय

हैं..? बच्चों के संरक्षि और उनकी स्वतंत्रता तथा

आधाररत कायाक्रम के माध्यम से ग्राम बाल सरं क्षि

सम्मान के महत्व के बारे में सभी मनकाय व आमजन

समममत की प्रभावी मक्रयान्वयन को महत्व मदया जा

एकमत हैं..? इस पररप्रेक्ष्य में भारतीय समं वधान में

सकता है।

बाल अमधकार, सरं क्षि व स्वतत्रं ता सबं मं धत उपबधं

प्रस्तािना

मवमशि रूप में उल्लेमखत है। बावजदू इसके आज़ादी के बाद भी बच्चों के अमधकारों का घोर उल्लंघन हो

आज के बच्चे कल के भमवष्ट्य है यह कहावत भले ही परु ानी हो गई हो लेमकन आज भी प्रासंमगक है। भारत में मवश्व के 19 प्रमतशत बच्चे रहते हैं, मजसमें 0 से 14 वर्षा के बच्चे, देश की कुल जनसंख्या का एक मतहाई महस्सा है। प्रत्येक बच्चा मजसे फलने-फूलने के मलए अनक ु ू ल वातावरि ममलता है वह जीवन के सभी क्षेत्रों में सफल हो सकता है। बच्चे का जीवन-काल में जीमवत बचे रहना, उसका मवकास और संरक्षि का पररिाम है। बच्चे के अमस्तत्व की रक्षा के मलए सरु मक्षत और मबना मकसी भेदभाव वाले वातावरि में जन्म लेने का बमु नयादी अमधकार है। एक ओर कुपोर्षि और उससे होने वाली शारीररक अक्षमताओ ं में कमी लाना तथा मशक्षा के क्षेत्र में बच्चों को पाठशालाओ ं में भती कराना, उन्हें पाठशालाओ ं में

रहा है। ‘नेशनल क्राइम ब्यरू ो की जानकारी के अनसु ार 96 हजार बच्चे देशभर में हर साल लापता हो रहे हैं मजसमें से 70 प्रमतशत बच्चे 12 से 18 आयु वगा के हैं।’ (सारस्वत, 2012 ) इस प्रकार देश के मवमभन्न महस्सों से बच्चों का गायब होना मकसी संगमठत अपराध की ओर इशारा करता है। मजसे वेश्यावृमत्त, बाल अपराध, व बालश्रम जैसे अनेक कृ त्यों के रूप में देखते हैं। ‘यमू नसेफ के अनसु ार देशभर में 20 प्रमतशत माता-मपता गरीबी के चलते अपनी बेमटयों को बेच देते हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान, के रल व आध्रं प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां 60 प्रमतशत लड़मकयों का सौदा होता है।’ (कान्त, 2012 )इस प्रकार अनेक सामामजक-आमथाक कारि जो बच्चों के अमधकार व संरक्षि के मलए सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है।

पढ़ने व प्रोत्सामहत करने के मलए मवमभन्न कल्यािकारी योजनाएं प्रभावी रूप से मक्रयामन्वत हैं। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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बाल अमधकारों एवं उनके संरक्षि हेतु संयक्त ु राष्ट्र

संरक्षि इकाई को मनगरानी व प्रभावी मक्रयान्वयन के

द्वारा 20 नवबं र 1989 को पाररत बाल अमधकार

मलए 2009-10 में एकीकृ त बाल संरक्षि योजना

संबंधी मवमभन्न पहलुओ ं को शाममल मकया गया।

(ICPS) का संचालन मकया गया, जो बाल अमधकार

मजसमें जीवन जीने का, मवकास करने, सहभामगता का

व संरक्षि के मलए राष्ट्रीय नीमत-मनयोजन व

व सरु क्षा के अमधकार को अतं रराष्ट्रीय स्तर पर

पररमस्थमतजन्य बदलाव को महत्व देते हैं।

काननू ी मान्यता दी गई है मजसे पररचामलत करने के

सरं चनात्मक पृष्ठभमू म भले ही मवमशि क्यों न मदखाई

मलए सभी अनबु मं धत राष्ट्रों को बाध्य भी मकया गया।

देती हो लेमकन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां

भारत ने इस प्रस्ताव को 11 मदसबं र 1992 को

करती है। आज बाल अमधकारों व सरं क्षि के मलए

स्वीकार कर मकशोर न्याय अमधमनयम 2000 व

अनेक नीमत मनयोजन व मनकाय स्थामपत है लेमकन

राष्ट्रीय बाल काया योजना 2005 के माध्यम से बच्चों

उसकी वास्तमवकता का स्वरूप महतग्राही के

के महत व अमधकारों को प्रमख ु ता से बल मदया गया।

अनप्रु योग व उसकी जागरूकता पर मनभार करती है।

बाल अमधकार संरक्षि आयोग 2005 नीमत मनयोजन

इन्ही मल्ू यों के साथाकता के मलए प्रस्ततु शोध गाँव

के प्रभावी मक्रयान्वयन के मलए मवके न्द्रीकरि,

बाल संरक्षि समममत की व्यावहाररक पक्षों को इमं गत

लचीलापन, संस्था मनमा​ाि प्रमक्रयाएं, कें द्रामभमख ु ता

करते हुए सामामजक स्वीकाररता व उसकी भमू मका को

और बच्चों की बात सनु ना जैसे पाँच मसद्धांत को

महत्व देती है।

पररचामलत करते हैं। इस पररप्रेक्ष्य में मकशोर न्याय

िैद्वासन्द्तक पृष्ठभूसम

सश ं ोधन अमधमनयम 2006 में बच्चों के अमधकार व सरं क्षि के मलए ग्राम, तालक ु ा व मजला स्तर पर अलग से समममत (Child Protection Unit) बनाने व प्रभावी रूप से काया करने के मलए जन-सहभामगता को मवशेर्ष महत्व देता है। मजसमें गाँव के आमजन ही समममत के सदस्य होते हैं, जो ग्रामीि स्तर पर बालक -बामलकाओ ं पर होने वाले बाल शोर्षि व अत्याचार के प्रमत प्राथममक सज्ञान लेने के साथ मजला इकाई के पास जानकारी भेजकर उमचत कारवाई करता है। बाल Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

बाल सरं क्षि समममत कें द्र सरकार द्वारा मनदेमशत, राज्य में पररचामलत करने हेतु 13 अगस्त 2010 को महाराष्ट्र ने एकीकृ त बाल सरं क्षि योजना के अतं गात ग्राम, तालक ु ा, और मजला स्तर पर बाल सरं क्षि समममत की स्थापना की गई। इसका मल ू आधार बाल न्याय (देखभाल एवं संरक्षि) 2000, (2006) के sec. 62-A और 2011 के sec. 2 के अनसु ार संस्था की स्थापना को मतू ा रूप मदया गया। इस प्रकार प्रस्ततु वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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शोध में ग्राम बाल संरक्षि समममतयों द्वारा संचामलत

जानकारी प्राप्त होती है। इन्हीं संसाधनों को ध्यान में

गमतमवमधयों व उनके पररचालन संबंधी चनु ौमतयों को

रखते हुए उमचत समाज काया​ात्मक हस्तक्षेप सझु ाया

आलोमकत करती है अतः इस शोध में मक्रयात्मक एवं

गया था। अतः यह शोध अश ं तः मनदानात्मक

मनदानात्मक मक्रयाकलापों द्वारा नवीन ज्ञान सृजन में

अमभकल्प (Diagnostic Research Design) के

नई दृमि ममलेगी।

अतं गात आता है। समाज काया शोध प्रमक्रया में

िोध प्रसिसध

मनदानात्मक अमभकल्प (Diagnostic Research

प्रस्ततु शोध में गाँव की बाल सरं क्षि समममत के मवमभन्न पहलओ ु ं का अध्ययन कर और सग्रं हीत

Design) समस्या मवशेर्ष की उपचारात्मक शैली को स्पि करता है।

तथ्यों का मवस्तृत विान मकया गया है, इसमलए शोध

ग्राम बाल िंरक्षण िसमसतयों में बाल असधकारों

मख्ु यतः विा​ात्मक अमभकल्प (Descriptive

एिं िंरक्षण िंबंधी असधसनयम की जागरूकता

Research Design) में आता है, इसके अतं गात

 दो मतहाई से अमधक 67.7 प्रमतशत

उत्तरदाताओ ं से प्राप्त बाल अमधकार व संरक्षि संबंधी

उत्तरदाताओ ं को बच्चों की सही उम्र की

जानकाररयों को प्राथममक स्रोत के रूप में विान मकया

जानकारी ही नहीं है;

गया है। इस प्रमक्रया में बच्चे मकसे कहते हैं, उनके अमधकार व संरक्षि हेतु अमधमनयम कौन-कौन से बने हैं, ग्राम बाल संरक्षि समममत की वास्तमवकता जैसे महत्वपिू ा पहलओ ु ं को उजागर मकया गया है। चमंू क तथ्य सग्रं हि हेतु सरं मचत साक्षात्कार का प्रयोग मकया गया है मजसके सभी प्राप्त आकड़ें सख्ं यात्मक रूप में है, अतः यह शोध सख्ं यात्मक स्वरूप (Quantitative Research Types) में है।

 शत-प्रमतशत उत्तरदाताओ ं को बच्चों के बमु नयादी अमधकार के बारे में जानकारी है;  सवा​ामधक 89.2 प्रमतशत उत्तरदाताओ ं में समं वधान में उल्लेमखत बाल अमधकार के बारे में जानकारी हैं;  शत-प्रमतशत उत्तरदाताओ ं ने बच्चों से भीख मँगवाना, बच्चों से नशीले पदाथों का खरीद परोख कराना, बच्चों से यौन शोर्षि करना,

अध्ययन के दौरान प्राप्त तथ्यों का मवश्लेर्षि मकया गया

18 वर्षा से कम उम्र के बच्चों की शादी

था। इस प्रमक्रया से प्रमख ु समस्या के कारिों व उसके

कराना व बच्चों को स्कूल न जाने देना, जैसे

समाधान के मलए क्षेत्र मवशेर्ष में उपलब्ध संसाधनों की Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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पहलओ ु ं को अपराध के रूप में स्वीकार मकया है;  1.5 प्रमतशत उत्तरदाता बच्चों को काम में रखना जैसे कृ त्यों को अपराध के श्रेिी में नहीं देखते हैं;  1.5 प्रमतशत उत्तरदाता बच्चों को स्कूल न जाने देना जैसे कृ त्यों को अपराध नहीं मानते है;  3.1 प्रमतशत उत्तरदाता बच्चों से मारपीट करने को अपराध के रूप में नहीं मानते हैं;  20.0 प्रमतशत उत्तरदाता बच्चों को स्कूल में मशक्षक द्वारा मारा जाना जैसे कृ त्यों को अपराध नहीं मानते हैं;  96.9 प्रमतशत उत्तरदाताओ ं को बाल न्यास अमधमनयम 2000 के बारे में कोई जानकारी नहीं है;  वहीं बाल न्यास अमधमनयम 2006 के बारे में 93.8 प्रमतशत उत्तरदाताओ ं जानकारी नहीं है;

ISSN: 2454-2725

 95.4 प्रमतशत उत्तरदाताओ ं को बाल न्यास अमधमनयम 2015 के सबं धं में कोई इसकी जानकारी नहीं है;  बाल मववाह मनर्षेध अमधमनयम 2006 के बारे में शत-प्रमतशत उत्तरदाताओ ं में जानकारी है;  93.8 प्रमतशत उत्तरदाताओ ं को राष्ट्रीय बाल अमधकार संरक्षि आयोग (NCPCR) के बारे में जानकारी नहीं है;  89.2 प्रमतशत उत्तरदाताओ ं को एकीकृ त बाल संरक्षि योजना (ICPS) के संबंध में जानकारी नहीं है;  संयक्त ु राष्ट्र बाल अमधकार सम्मेलन 1989 (UNCRC) के बारे में 90.8 प्रमतशत उत्तरदाताओ ं को कोई जानकारी नहीं है;  सवा​ामधक 96.9 प्रमतशत उत्तरदाताओ ं को बाल सरं क्षि सबं धं ी अमधमनयम की जागरूकता अमधक है; अध्ययन के दौरान समममत के सदस्यों में बाल

 आधे से अमधक 53.8 प्रमतशत उत्तरदाताओ ं

अमधकार एवं संरक्षि अमधमनयम की जागरूकता से

को लैंमगक अपराधों से बालकों का संरक्षि

स्पि होता है मक शत-प्रमतशत समममत के सदस्यों को

अमधमनयम के बारे में जानकारी है;

बच्चों के बमु नयादी अमधकार के बारे में जानकारी है। दो मतहाई से अमधक समममत के सदस्यों को बच्चों की

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

सही उम्र की जानकारी ही नहीं है। वहीं 90 प्रमतशत से वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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अमधक समममत के सदस्यों में बाल न्यास अमधमनयम

मनयोजन समममत द्वारा मनगरानी काया को

2000, लैंमगक अपराधों से बालकों का संरक्षि

महत्व मदया जाना चामहए।

अमधमनयम, बाल न्यास अमधमनयम 2015, राष्ट्रीय

 ग़ैर-सरकारी सगं ठन को समदु ाय आधाररत

बाल अमधकार संरक्षि आयोग (NCPCR),

कायाक्रम के अतं गात बाल अमधकार एवं

एकीकृ त बाल सरं क्षि योजना (ICPS) व सयं क्त ु राष्ट्र

संरक्षि हेतु मवशेर्ष जन-जागरूकता

बाल अमधकार सम्मेलन 1989 (UNCRC) के बारे

कायाक्रम, रै ली तथा प्रमशक्षि जैसे महत्वपिू ा

में जानकारी नहीं है। अतः समममत के सदस्यों की

गमतमवमधयों को प्रमख ु ता से शाममल करना

वास्तमवक मस्थमत को ध्यान में रखते हुए उनके बेहतर

चामहए।

जानकारी व बाल संरक्षि समममत प्रभावी मक्रयान्वयन

 ग़ैर-सरकारी सगं ठन को बाल अमधकार एवं

हेतु महत्वपूिा पहलओ ु ं को संचामलत करना चामहए ।

सरं क्षि सबं धं ी नीमत-मनयोजन हेतु समदु ाय

ग्राम बाल िंरक्षण िसमसतयों में बाल असधकारों

आधाररत कायाक्रम को शाममल करते हुए

एिं िंरक्षण िंबंधी असधसनयम की जागरूकता

जन-स्वीकायाता को महत्व देना चामहए।

हेतु िझ ु ाि  बाल अमधकार एवं सरं क्षि सबं धं ी नीमतमनयोजन के प्रचार-प्रसार के मलए सममु चत ससं ाधन उपलब्ध कराया जाना चामहए।  बाल सरु क्षा संबंधी समु वधाओ ं जैसे स्कूली यातायत,लैंमगक शोर्षि सुरक्षा, बाल अमधकार को महत्व मदया जाना चामहए।  पया​ाप्त मवत्तीय प्रबंधन एवं संसाधन की उपलब्धता को महत्व मदया जाना चामहए।  बाल अमधकार व संरक्षि संबंधी नीमत-

 बाल अमधकार एवं संरक्षि संबंधी मवशेर्ष मनयमावली एवं कायाक्रम की रुपरे खा तैयार करते हुए (ग्राम बाल संरक्षि समममत हेतु मनदेमशका) उसका सभी स्तर में प्रचार-प्रसार जैसे गमतमवमधयों को महत्व मदया जाना चामहए।  बाल अमधकार एवं संरक्षि संबंधी मवशेर्ष मनयमावली एवं कायाक्रम के बेहतर मक्रयान्वयन हेतु मजला बाल संरक्षि समममत (DCPU) के साथ ही साथ तालक ु ा बाल संरक्षि समममत एवं ग्राम बाल संरक्षि

मनयोजन के बेहतर मक्रयान्वयन हेतु मजला Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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समममत के सदस्यों की समक्रय भागीदारी को

बाल सरु क्षा एवं संवधान से संबंमधत नीमत-

महत्व देना चामहए।

मनयोजन व मक्रयाकलापों के प्रमत कोई

 ग्राम स्तरीय बैठक (आम सभा) के माध्यम

जागरूकता नहीं और न ही इन पहलओ ु ं के

से बाल संरक्षि जैसे महत्वपूिा पहलओ ु ं के

प्रमत अपनी मजज्ञासा रखते हैं। लेमकन इन

बारे में समममत के सभी सदस्यों एवं आमजन

तमाम पहलू के बेहतर मक्रयान्वयन व

के बीच बातचीत होनी चामहए।

बालमहतैसी वातावरि मनमा​ाि में प्रशासन,

 ग्राम स्तरीय मतमाही प्रमशक्षि कायाक्रम का आयोजन मकया जाना चामहए।

आमजन, जन-प्रमतमनमध व सदस्यों की उत्तरदामयत्व को तत्परता के साथ मक्रयामन्वत

 बाल अमधकार एवं संरक्षि संबंधी महत्वपिू ा

की जाए तो बाल अमधकार व संरक्षि संबंधी

पहलओ ु ं की ओर उन्ममु खत करने एवं

प्रयास को सकारात्मक मदशा मदया जा

संवदे नशील बनाने हेतु ग्राम स्तरीय संगठन

सकता है।

व प्रशासमनक काया​ालयों ( स्कूल,

िंदभक िूची

आगं नबाड़ी एवं ग्राम पंचायत) की समक्रय भमू मका को महत्व मदया जाना चामहए। मनष्ट्कर्षातः बच्चों के अमधकार एवं संरक्षि

KOTHARI, C. R. (1985). RESEARCH

के मलए लगातार नीमत-मनयोजन बन रहा है

METHEDOLOGY- METHODS AND

मजसका व्यावहाररक अनपु ालन होना अमत

TECHNIQUES . NEW DELHI : WILEY

आवश्यक है मजससे शहरी एवं ग्रामीि क्षेत्रों

GASTERN LIMITED .

में बच्चों की सरु क्षा व सवं धान स्वस्थ्य वातावरि के साथ मकया जा सके । लेमकन

कान्त, म. (2012 , नवम्बर ). बाल संरक्षण में बाल कल्याण सशमशि की भशू मका . योजना , p. 51.

उक्त शोध ग्राम बाल संरक्षि समममत के सदस्यों में समममत के प्रमत जागरूकता को

सारस्वत, ऋ. (2012 , नवम्बर ). लापिा बच्चों की

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

भासषक-सिमिक/Language Discourse िपं कक भाषा के रूप में भारत में अंग्रेजी िे असधक िक्षम है सहदं ी रसश्म रानी, पीएच.डी. (भाषा प्रौद्योसगकी) भार्षा प्रौद्योमगकी मवभाग, भार्षा मवद्यापीठ महात्मा गाँधी अतं रराष्ट्रीय महदं ी मवश्वमवद्यालय, वधा​ा (महाराष्ट्र) मकसी भी भार्षा को संपका भार्षा का दजा​ा ममलना बहुत बड़ी बात होती है क्योंमक संपका भार्षा जोड़ने का काया करती है। परस्पर संपका बनाए रखने के मलए संपका भार्षा का होना बहुत आवश्यक है। एक व्यमक्त को दसू रे भार्षा समदु ाय के व्यमक्त से, एक प्रांत को दसू रे प्रांत से, एक देश को दसू रे देश से संपका स्थामपत करने के मलए मजस भार्षा का प्रयोग मकया जाता है वही संपका भार्षा कहलाती है। संपका भार्षा मातृभार्षा से अलग भार्षा होती है जो हमें अपने भार्षा समदु ाय से मभन्न भार्षा समदु ाय से संपका स्थामपत करने में मदद करती है। मजस प्रकार अतं रराष्ट्रीय स्तर पर अग्रं ेजी को संपका भार्षा का दजा​ा प्राप्त है उसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर भारत में महदं ी को संपका भार्षा का दजा​ा मदया गया है। बोधगम्यता को भार्षा-बोली के मनधा​ारि का आधार माना जाए तो महदं ी को संपिू ा उत्तर भारत की संपका भार्षा माना जा सकता है। दमक्षि भारत में भले ही महदं ी को लेकर मवरोध की मस्थमत बनी रहती है तत्पिात भी कुछ हद तक महदं ी संपका भार्षा का काया कर रही है। हालाँमक अग्रं ेजी भी एक संपका भार्षा के रूप में काया कर रही है। मकंतु एक आम मशमक्षत भारतीय यमद परू े देश की यात्रा पर मनकलता है तो संपका भार्षा के रूप में महदं ी ही उसकी लाठी बनती है। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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इसीमलए सही मायने में महदं ी ही भारत की संपका भार्षा है अग्रं ेजी ने तो भ्रम की मस्थमत उत्पन्न कर रखी है। अग्रं ेजी मसफा पढ़े मलखे उच्च वगा के मलए संपका भार्षा का काया कर सकती है। कुछ लोगों के द्वारा फै लाया गया ये मायाजाल से ममु क्त महदं ी के भले के मलए बहुत आवश्यक है।

स्वतत्रं ता प्रामप्त के दौरान भी महदं ी मभन्न भार्षा-भार्षी लोगों के बीच सपं का स्थामपत करने का साधन रही और उसने देशवामसयों को एकता के सत्रू में मपरोया। महदं ी के इसी महत्त्व के कारि महामा गाँधी ने कहा था- “प्रांतीय भार्षा या भार्षाओँ के बदले में नहीं बमल्क उनके अलावा एक प्रांत से दसू रे प्रांत का संबंध जोड़ने के मलए सवामान्य भार्षा की आवश्यकता है और ऐसी भार्षा तो एकमात्र महदं ी या महन्दस्ु तानी ही हो सकती है।” कोई भार्षा तभी तक चहुमं ख ु ी मवकास कर पाती है जब तक उसका सपं का आम जनता से रहता है। जीमवत भार्षा मनरंतर मवकास की ओर अग्रसर रहती है। महदं ी अपने उद्भव काल से ही मवमभन्न प्रदेशों की सपं का भार्षा रही है। डॉ. राममवलास शमा​ा के अनसु ार अकबर के महल में बोलचाल की भार्षा महदं ी ही थी। अग्रं ेजी शासन स्थामपत हो जाने के बाद अग्रं ेज़ अफसर भारत की आम जनता से सपं का साधने के मलए महदं ी भार्षा सीखते थे। महदं ी स्वतत्रं ता सग्रं ाम के दौरान क्रांमतकाररयों का प्रमख ु हमथयार भी थी। मध्य देश की महदं ी जो दसवीं सदी के आसपास एक सीममत क्षेत्र सरू सेन प्रदेश (मथरु ा के आस पास) में बोली जाती थी वह मवकमसत होते-होते इतनी सक्षम हो गई की भारत के मवमभन्न प्रदेशों की संपका भार्षा के रूप में सहर्षा स्वीकार कर ली गई।

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महदं ी भामर्षयों की संख्या व महदं ी भार्षा का सामथ्या महदं ी को राष्ट्र व सपं का भार्षा का दजा​ा देने के मलए उपयक्त ु है मकंतु महदं ीतर प्रदेश का महदं ी के प्रमत मवरोध महदं ी को संपका भार्षा का दजा​ा देने का मवरोध करता आ रहा है। उन्हें अपनी भार्षा न्यनू होती नज़र आने लगती है जो सत्य नहीं है। मवश्व में अग्रं ेजी के ज्ञान का महत्व सब जानते हैं मकंतु महदं ी को स्वीकार करने का आशय अग्रं ेजी का मवरोध करना मबल्कुल नहीं है। भारत में बोली जाने वाली अन्य भार्षाओँ की अपेक्षा महदं ी का फलक इतना बड़ा है मक मदन-प्रमतमदन महदं ी बोलने वाले भारतीयों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारत की अन्य मकसी भार्षा की अपेक्षा महदं ी में ये योनयता अमधक है मक वो दो समदु ायों की बात समझ व समझा पाए। महदं ी के बढ़ते प्रयोग का अदं ाजा प्रस्ततु आक ं ड़ों पर नज़र डालकर लगा सकते हैं जो ये बताते हैं मक मकस प्रकार महदं ी ने सपं का भार्षा के रूप में अपनी जड़ें जमाई हैंवर्षा 2001 की जनगिना के अनसु ार भारत के लगभग ४१.३ % लोगों द्वारा महदं ी भार्षा का प्रयोग मकया जाता है। times of india अख़बार के 19 जनू 2014 के अक ं के अनसु ार 1971 से मातृभार्षा के रूप में महदं ी बोलने वाले लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है। कुल जनसख्ं या में महदं ी बोलने वालों की सख्ं या 1971 में 36.99 % थी जो 1981 में बढ़कर 38.74% और 1991 में 39.29% हो गई। महदं ी को जनभार्षा और संपका भार्षा बनाने में इलेक्रॉमनक संचार माध्यमों का बहुत बड़ा योगदान रहा है। महदं ी मफल्मों और मफ़ल्मी गीतों ने महदं ी को लोकमप्रय बनाने में महती भमू मका मनभाई है। अमहदं ी भार्षी राज्यों में महदं ी मफल्में और गीत्त बहुत लोकमप्रय हैं। प्राचीन समय की बात की जाए तो महदं ी सामहत्यकारों ने भी महदं ी को प्रचाररत करने में मख्ु य Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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भमू मका मनभाई है। महदं ी के प्रारंमभक उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री ऐसे उपन्यासकार रहे हैं मजनके उपन्यासों को पढ़ने के मलए लोग महदं ी सीखते थे। उनके कुछ उपन्यास जैसे चंद्रकांता, चंद्रकांता संतमत तो परू े भारत में लोकमप्रय हुए। महदं ी को संपका भार्षा बनाने में महदं ी सामहत्यकारों का भी मख्ु य योगदान रहा है। दमक्षि भारतीय महदं ी सामहत्यकार भी महदं ी को दमक्षि में मज़बतू मस्थमत प्रदान करने के काया में लगे हुए हैं। श्री आररगपमु ड रमेश चौधरी, श्री बालशौरर रे ड्डी, के नारायि, डॉ. एन चंद्रशेखरन नायर, डॉ. रामन नायर, डॉ. पी आदेश्वर राव, डॉ. रामन नायर, आनंद शक ं र माधवन, जी. सीतारामय्या, मप. नारायि “नरन” आमद प्रमख ु दमक्षि भारतीय महदं ी सामहत्यकार हैं। इन सामहत्यकारों ने अपनी मातृभार्षा के साथ-साथ महदं ी लेखन के क्षेत्र में भी नाम कमाया। इनकी महदं ी रचनाएं भी महदं ी को दमक्षि भारत से जोड़ने में महत्वपिू ा भमू मका मनभा रही हैं। दमक्षि भारत में महदं ी को भले ही मवरोध का सामना करना पड़े मकंतु सच्चाई यही है मक यमद एक उत्तर भारतीय को दमक्षि भारत में जाना पड़े तो उसे महदं ी का ही सहारा ममलेगा। अग्रं ेजी कम “पढ़े मलखे भारतीयों के मलए सपं का भार्षा का काया नहीं कर सकती। आचाया हजारीप्रसाद मद्ववेदी ने कहा था मक “महदं ी इसमलए बड़ी नहीं है मक हममें से कुछ इस भार्षा में कहानी या कमवता मलख लेते हैं या सभा मचं ों पर बोल लेते हैं। वह इसमलए बड़ी है मक कोमट-कोमट जनता के हृदय और ममस्तष्ट्क की भख ू ममटाने में यह भार्षा इस देश का सबसे बड़ा साधन हो सकती है। यमद देश में आधमु नक ज्ञान-मवज्ञान को हमें जनसाधारि तक पहुचँ ाना है तो इसी भार्षा का सहारा लेकर हम काम कर सकते हैं।” भारतीय संमवधान के अनुच्छे द 343(1) के अनसु ार देवनागरी मलमप में मलमखत महदं ी को भारत संघ की वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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राजभार्षा घोमर्षत मकया गया है । महदं ी को राजभार्षा इसमलए बनाया गया क्योंमक यह भारत की अमधकांश जनता द्वारा बोली तथा समझी जाने वाली भार्षा थी। महदं ी भार्षी क्षेत्र के अमधकांश व्यमक्त सीममत एवं व्यापक तथा औपचाररक संदभों के मलए महदं ी का प्रयोग करते हैं। जबमक अन्य भार्षाओँ के बोलने वालों के मलए देश से खदु को जोड़ने के मलए महदं ी एक संपका भार्षा का काया करती है। मिमटश काल में अतं रभार्षाई संपका के मलए अग्रं ेजी को संपका भार्षा के रूप में मवकमसत मकया गया था। यह दामयत्व अग्रं ेजी मनभाती तो रही लेमकन अत्यंत सीममत क्षेत्र में। अग्रं ेजी की अपेक्षा महदं ी संपका भार्षा के रूप में कहीं अमधक सक्षम है। लोकतांमत्रक शासन व्यवस्था में कोई भी भार्षा मकसी पर अनचाहे रूप से थोपी नहीं जा सकती। भारतीय भार्षा मनयोजन की यह मवशेर्षता रही है मक महदं ी को मकसी अन्य भारतीय भार्षा या अग्रं ेजी के प्रमतस्पधी के रूप में नहीं रखा गया है। यह सवामवमदत है मक कोई भी भार्षा अमभव्यमक्त-माध्यम के रूप में अक्षम या कम क्षमता रखने वाली नहीं होती, मवमभन्न क्षेत्रों में प्रयोग के अवसर ममलने पर ही भार्षा सक्षम बनती चली जाती है। महदं ी को वो अवसर प्राप्त होता चला गया मजसे वो अन्य मकसी भारतीय भार्षा की अपेक्षा अमधक सक्षम रूप में सामने आई। महदं ी भारत में ही नहीं भारत के बहार भी मवश्व के अनेक देशों में बोली, समझी और पढाई जाती है। आज मवश्व के लगभग 150 मवश्वमवद्यालयों में महदं ी के पठन–पाठन की व्यवस्था है। मवदेशों में बसे करोड़ों की संख्या में प्रवासी भारतीयों औरर भारतीय मल ू के लोगों के बीच आत्मीयता के संबंध सत्रू स्थामपत करने और उन्हें भारत, भारतीयता, और भारतीय संस्कृ मत से मनरंतर जोड़े रखने में महदं ी एक सशक्त माध्यम का काम कर रही है और इसी में वे अपनी अमस्मता की पहचान भी देख रहे हैं। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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भारत के प्रथम लोकसभा स्पीकर अनंतशयनम आयंगार के अनसु ार – “अमहदं ी भार्षा-भार्षी प्रांतों के लोग भी सरलता से टूटी –फूटी महदं ी बोलकर अपना काम चला लेते हैं”। पंमडत नेहरु ने महदं ी की सशक्तता का विान करते हुए कहा था मक “महदं ी स्वयं अपनी ताकत से बढ़ेगी”। महदं ी में रोज़गार के बढ़ते अवसर भी महदं ी के प्रसार में महत्वपूिा मसद्ध हुआ है। बढ़ते रोज़गार अवसरों ने भी महदं ी सीखने के प्रमत लोगों की रुमच को बढ़ाया है। महदं ी का क्षेत्र मकसी अन्य भारतीय भार्षा की तल ु ना में अमधक व्यापक है। इस प्रकार भारत में एक राज्य को दसु रे राज्य से यमद कोई भार्षा जोड़ सकती है तो वो मात्र महदं ी ही है। अग्रं ेजी जैसी मवदेशी भार्षा अतं रराष्ट्रीय स्तर पर भले ही देशों को जोड़ने वाली भार्षा हो मकंतु भारत में सपं का भार्षा के रूप में महदं ी अमधक सशक्त सामबत हुई है। यहां तक मक मवदेशी कंपमनयों को भी भारत में अपनी पहचान बनाने के मलए अग्रं ेजी से अमधत महदं ी का सहारा लेना पड़ता है। सच ं ार माध्यम भी महदं ी के द्वारा सचू नाओ ं को प्रसाररत करना अमधक उपयोगी समझते हैं। यही कारि है मक अग्रं ेजी समाचार चैनलों द्वारा अपने महदं ी चैनल भी शरू ु मकए जा रहे हैं। इस प्रकार महदं ी मकतनी सशक्त और मवकास की ओर अग्रसर है इसका अनमु ान सपं िू ा भारत में महदं ी की लोकमप्रयता और मौजदू गी देखकर लगाया जा सकता है। अग्रं ेजी के मायाजाल से मनकलना हमारे मलए आवश्यक है। मनम्नमलमखत मवद्वानों की के ये महदं ी के संपका भार्षा रूप की भमू मका को स्पि करने के मलए पया​ाप्त है देवव्रत शास्त्री के अनसु ार “ महदं ी जानने वाला व्यमक्त देश के मकसी भी कोने में जाकर अपना काम चला लेता है।” वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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अतं रराष्ट्रीय ख्याती के एक मवद्वान राजनमयक डा. स्मेकल ने कहा था मक “भारतवामसयों से बातें करते हुए महदं ी मनरंतर मेरे समीप रही संपका भार्षा के रूप में”

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सिक्षा-सिमिक/Education Discourse

प्राथसमक स्तर की सिक्षा व्यिस्था के पररप्रेक्ष्य में एक अध्ययन सदनेि कुमार शोध छात्र पािात्य इमतहास मवभाग लखनऊ मवश्वमवद्यालय, लखनऊ िोध िार प्रस्ि​िु िोि पत्र में विममान प्राथशमक शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाि डाला र्गया है और उसके साथ ही प्राथशमक शिक्षा को कै से र्गणु वत्तापणू म बनाया जाए शजससे शक सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को उशचि शिक्षा उपलब्ि कराई जा सके और देि का समशु चि शवकास शकया जा सके । शिक्षा के माध्यम से बालक का िोिन एवं मार्गांिीकरण शकय जािा है। कुंजी -िलद:- सवािंगीि, गिु वत्तापरक, शोधन, मागािंतीकरि, मक्रयान्वयन, संलनन, नवाचार, मशक्षाशास्त्री, रोजगारोन्मख ु ी, व्यावसायीकरि, भमवष्ट्योन्मख अध्ययनशील, न्यायालय, ु ी, इलाहाबाद, जनसंख्या आमद। पररचय:मकसी भी देश का सवािंगीि मवकास वहां की मशक्षा व्यवस्था पर मनभार करता है क्योंमक मशक्षा ही मनष्ट्ु य की प्रगमत का आधार है। औपचाररक मशक्षा व्यवस्था के प्रथम स्तर को प्राथममक मशक्षा स्तर कहा जाता है। यह मशक्षा 6 वर्षा की आयु से 14 वर्षा की आयु तक चलती है।1 यह प्रगमत पिू ा रूप से तभी Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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सभं व है, जब प्राथममक स्तर पर ही बालक को उमचत मशक्षा दी जाए और सही मागादशान मकया जाय। प्राथममक मशक्षा छात्र के मागािंतीकरि में महत्वपूिा भमू मका मनभाती है। भारतीय मशक्षा के संबंध में प्रत्येक व्यमक्त न के वल अपनी राय रखता है, बमल्क उसे व्यक्त करने के मलए भी तत्पर रहता है। मशक्षा व्यमक्त, पररवार तथा समाज को मकसी न मकसी रूप से अवश्य प्रभामवत करती है। मशक्षा उसकी मवर्षयवस्तु तथा मवधा समय के साथ गमतमान रहते हुए ही अपनी साथाकता मसद्ध कर सकती है। इसके मलए व्यवस्था तथा मक्रयान्वयन में संलनन सभी व्यमक्तयों को सजग तथा सीखने के मलए प्रमतबद्ध होना आवाश्यक होगा। उनकी नवाचार में रूमच तथा उसे कर सकने की स्वायत्तता ममलनी ही चामहए।2 स्वतत्रं भारत में मशक्षा का जो मवस्तार हुआ है उसे अभी मीलों नहीं बमल्क कोसों लम्बा रास्ता तय करना है। सरकारी प्राथममक मशक्षा ने कई उपलमब्धयां भी हाँमसल की हैं क्योंमक हमारी मशक्षा की नींव यहीं पर मजबतू की जाती है, जो जीवन पयिंत मानव जीवन एवं समाज को साथाक बनाती है। अगर मशक्षा व्यवस्था में ही उसके मल्ू यों के ह्रास का घनु लग जाए, तब उसका समाधान ढूढ़ना अत्यतं कमठन हो जाता है। प्रत्येक व्यमक्त प्राथममक मशक्षा व्यवस्था से पररमचत है। वतामान में यह मशक्षा दो महस्सों में बँट गई है जो आगे आने वाली पीमढ़यों को भी मवभक्त कर रही है। इसका सबसे बड़ा मल ू रूप से कारि है नीमत मनधा​ारकों का स्वाथा। आज लगभग प्रत्येक ग्राम पंचायत में प्राथममक एवं जमू नयर स्कूलों की व्यवस्था की गई है जहां पर हजारों ग्रामीि अँचल के बच्चे अध्ययन के मलए जाते हैं। सरकारी प्राथममक मवद्यालयों की अगर बात की जाय तो इन स्कूलों में सबसे योनय अध्यापक रखे जाते हैं। वह भी बी.एड एवं बी.टी.सी प्रमशमक्षत वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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होते हैं। इन्हें बच्चों के मक्रयाकलापों एवं मकस प्रकार पढ़ाना है पहले ही बता मदया जाता है। इन योनयताओ ं के बावजदू अब तो अध्यापक पात्रता परीक्षा (टी.ई.टी.) भी पास करके आना होता है। इतनी योनयता तो प्राइवेट मवद्यालयों के अध्यापक के पास ममु श्कल से ही ढूंढे ममलेगी। सरकारी मशक्षकों को वेतन से लेकर प्रत्येक प्रकार की सरकार सहायता भी देती है। इन सबके बावजदू हमारे सरकारी स्कूलों की मशक्षि व्यवस्था दयनीय हो गई है। इसकी गिु वत्ता की बात की जाय तो नाम मात्र की हो सकती है इसका अनमु ान इसी से लगाया जा सकता है मैं कुछ स्कूलों को गया जहां बच्चों से राष्ट्रपमत एवं प्रधानमत्रं ी का नाम पंछ ू ा जो मक बच्चे नहीं बता पाए।ं सम्पिू ा साक्षरता अमभयान तो सरकारी कागजों पर ही मदखाई दे रहा है। अगर उसकी वास्तमवकता पता करनी हो तो सरकारी स्कूल जाकर देखी जा सकती है। इसके पिात ले चलते हैं प्राइवेट मशक्षि सस्ं थानों की तरफ मैंने तो जाकर देखा है मक प्राइवेट स्कूल मकसी मशक्षाशास्त्री या मकसी उच्चयोनयता प्राप्त व्यमक्त के कम ही ममलेंगे अमधकतर नेताओ ं एवं मामफयाओ ं के ही ममलेंग।े इन लोगों का स्कूल खोलने का एकमात्र लक्ष्य लाभ कमाना होता है। इनसे गिु वत्ता परक मशक्षा का ख्वाब भी करना बेकार है क्योंमक दोनों एक साथ नहीं चल सकते। इन स्कूलों में ज्यादतर अध्यापकों की योनयता इण्टर एवं स्नातक अथा​ात अनरेंड ममलेंगे। बहुत कम ही व्यमक्त ममलेंगे जो उस क्लास एवं सम्बंमधत मवर्षय को पढ़ाने की योनयता रखते हैं। प्राइवेट स्कूलों को देखकर ऐसा लगता है मक मानों मशक्षा का व्यावसायीकरि सा हो गया है। बच्चों को स्कूल की क्लासों से ज्यादा कोमचंग संस्थान गिु वत्तापरक एवं भमवष्ट्योन्मख ु ी लगने लगते हैं। लखनऊ जैसे शहर में सम्पिू ा मदन मजधर मनकलो प्रत्येक दो या तीन घटं े बाद कोमचंग संस्थानों की इतनी भीड़ मनकलती है। ऐसा लगता है Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मक मकसी स्कूल में छुट्टी हो गई है। इस प्रकार की मशक्षा मजदरू ी करने वाला अमभभावक नहीं दे पाता और सरकारी स्कूलों में मशक्षक ममड-डे-मील मखलाने और पल्स-पोमलयो मपलाने में ही अपना बहुमल्ू य समय मनकाल देते हैं। इसी प्रकार की सरकार की गलत तरीके से मक्रयांमवत नीमतयों का मशकार अबोध मवद्यामथायों को बनना पड़ता है। इन बालकों को इस समय यह समझ ही नहीं होती मक उनके भमवष्ट्य के साथ मखलवाड़ हो रहा है। इन्हीं सब कारिों से सरकारी और प्राइवेट स्कूलों की मशक्षा की गिु वत्ता का दायरा मनरंतर बढ़ता जा रहा है। वतामान मशक्षा की आवश्यकता एवं अमनवायाता को स्वीकार करते हुए अच्छी, गिु वत्तापिू ा एवं नैमतक मशक्षा के मलए प्रयत्न करने होंगे। इसके मलए कमाठ, प्रमशमक्षत, लगनशील, अध्ययनशील एवं सवं दे नशील अध्यापक भी चामहए, जो अपने उत्तरदामयत्व को अतं मनामहत कर चक ु े हों। भारत की नई पीढ़ी को तैयार करने के पमवत्र काया में भागीदारी मनभा सकें । मशक्षा ही ऐसा माध्यम है, मजसके माध्यम से बालक का शोधन एवं मागािंतीकरि मकया जा सकता है। गाँधीजी भी ऐसी मशक्षा के पक्षधर थे मजससे बालक का सवािंगीि मवकास हो सके ।3 सरकारी तत्रं ने इसे समझा नहीं या इसे जानबझू कर नजरअदं ाज कर मदया। मनजी स्कूलों में बच्चों को प्रवेश मदलाने के मकए जो आपाधापी प्रमतवर्षा मचती है, वह मशक्षा के माध्यम से जड़ु ाव का नहीं बमल्क अलगाव की कहानी है। सन् 2015 में न्यायालय का मनिाय भारत की मशक्षा व्यवस्था की वस्तमु स्थमत का बड़ा ही सटीक विान करता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तरप्रदेश सरकार को आदेश मदया मक वे लोग जो सरकारी कोर्ष से वेतन पाते हैं, अपने बच्चों का नाम सरकारी स्कूलों में मलखाए।ं 4 इस आदेश की सरकारी वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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तत्रं खासतौर से नौकरशाही वगा ने इसकी तीखी आलोचना की। न्यायालय का यह मनिाय प्राथममक मशक्षा व्यवस्था को सधु ारने के मलए अमवस्मरिीय कदम था क्योंमक मशक्षा नीमतयां बनाने एवं मक्रयांमवत कराने वालों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते ही नहीं। जब इनके बच्चे इन स्कूलों में नहीं पढ़ते तो सधु ार की बात सोंचेगे ही क्यों?5 शैमक्षक योजनाएँ मक्रयांमवत कराने के नाम पर मदखावा मात्र बनकर रह जाती हैं। इन लोगों को अपने बच्चों की मचंता तो मनरंतर रहती है। उन गरीबों एवं मकसानों के बच्चों को भल ू जाते हैं, जो सरकारी प्राथममक स्कूलों में अध्ययन कर रहे होते हैं। अगर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस मनिाय को ईमानदारी पवू क ा लागू कर मदया जाय तो जल्द ही सरकारी स्कूलों की शक्ल बदल जाएगी। सनष्ट्कषक : प्राथममक मशक्षा बच्चों के मवकास के मलए बहुत ही महत्वपिू ा एवम् मशक्षा की आधारमशला है, मजस प्रकार से एक मकान बनाने के मलए उसकी नींव का मजबतू होना आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार बच्चे के उमचत मवकास के मलए प्राथममक मशक्षा का होना आवश्यक है। भरत एक कृ मर्ष प्रधान देश है इसकी अमधकाश ं जनसख्ं या गावं ों में मनवास करती है, इसमलए गाँवों को भारत की आत्मा कहा जाता है। ग्रामीि क्षेत्र के अमधकाश ं बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं। वतामान में सरकारी मवद्यालयों में मशक्षा की गिु वत्ता का स्तर मनरंतर मगर रहा है और दसू री तरफ मशक्षा का मनजीकरि भी तेजी से हो रहा है मजससे मक मनजी मशक्षि-संस्थानों की संख्या मनरंतर तेजी से बढ़ती जा रही है। इन संस्थानों में मशक्षा बहुत ही महगं ी है मजसके कारि गरीब बच्चे इनमें नहीं पढ़ पते हैं। अत: सरकार को अपने मशक्षि संस्थाओ ं में प्राइवेट स्कूलों की तरह मशक्षकों को जवाबदेही बनाया जाय। अनपु मस्थत रहने वाले मशक्षकों के प्रमत कठोर Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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कायावाही की जाय और सारे स्कूलों की सी.सी.टी.वी. कै मरों से मनगरानी की जाय। प्रत्येक मशक्षक और छात्र की मडमजटल उपमस्थमत भी दजा की जाय। िदं भक :1. गप्तु ा एस.पी, आधमु नक भारतीय मशक्षा की समस्याएँ, शारदा पस्ु तक भवन, इलाहाबाद,2007, पृ० 37 2. शेखावत कृ ष्ट्ि गोपल मसंह, मशक्षा के दाशामनक आधार, तरुि प्रकाशन, जयपरु , 2008, पृ० 21-22 3. भटनागर सरु े श, आधमु नक भारतीय मशक्षा और उसकी समस्याएँ, आर० लाल बक ु मडपो, मेरठ, 2007, पृ० 71 4. महदं स्ु तान समाचार पत्र, लखनऊ सस्ं करि, सम्पादकीय, जनू 17, 2011 5. वही, जल ु ाई 28, 2011

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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िरकार की गैर बराबरी बढ़ाने िाली सिक्षा नीसतः अतीत िे ितकमान तक

मशक्षा के महत्व को फ्रांसीसी क्रांमत के संदभा में भली प्रकार समझा जा सकता है। मशक्षा के अभाव में शायद फ्रांस की क्रांमत कभी न होती मकन्तु उस समय फ्रासं ीसी समाज में मातं ेस्क्यू] वोल्तेयर तथा रुसों आमद मवचारकों की मशक्षा के कारि तका वाद का प्रसार आरंभ हुआ। इन मवचारकों ने अपने सामहत्य द्वारा पादररयों, चचा की सत्ता तथा सामतं ी व्यवस्था की जड़ों को महला मदया।1 यरू ोप के दसू रे देशों में मस्थमत फ्रांस से कहीं अमधक बदतर थी मकन्तु वहाँ क्रांमत नहीं हुई, सबसे पहले गैर बराबरी के मखलाफ क्रांमत फ्रांस में ही हुई। इन सबका एक ही महत्वपिू ा कारि था फ्रासं की उत्तम मशक्षा व्यवस्था व ज्ञान का प्रसार। क्रांमत के संदभा में डॉ अम्बेडकर2 का भी यही मवचार है उन्होनें कहा है मक भारत में दमलतों ने क्रांमत क्यू नहीं मक क्योंमक उन्हें मशक्षा का अमधकार ही नहीं था जबमक यरू ोप में दासों को भले ही सपं मत्त और हमथयार रखने का अमधकार न रहा हो मकन्तु उन्हें मशक्षा का अमधकार अवश्य था। मुख्य िलदः सिक्षा व्यिस्था, िमाज, अिमानता, िरकारी नीसतयां, सनम्न िगक समाज में मशक्षा एक शस्त्र की तरह काया करती है, भेदभाव और शोर्षि से लड़ने के मलए मकन्तु यह शस्त्र भारत में दमलतों अथा​ात शद्रू ो को कभी मदया ही नहीं गया। चाहे स्वतंत्रता से पहले की मस्थमत हो अथवा उसके बाद की, इसमें कोई खास पररवतान नहीं आया है। सरकार की नीमतयों के कारि मनम्न जामत के लोगों के मलए समान मशक्षा का सपना अधरू ा ही है। इसे हम पवू ा स्वतंत्र भारत व उत्तर स्वतंत्र भारत दोनों में ही समान रुप से देख सकते है। I. 1813 से 1854 तक Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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-एकता बबं ई प्रेमसडंसी में मिमटश शासन के दौरान 1815 में बबं ई मशक्षा समममत की स्थापना की गई। इस समममत ने सरू त और थािें में स्थानीय बच्चों को इस समममत के स्कूलों में पढ़ने के मलए प्रोत्सामहत मकया । 1820 में बंबई में स्थानीय बच्चों के मलए चार पृथक स्कूल खोले गए। उसी साल अगस्त में स्थानीय बच्चों की मशक्षा के मलए और उपाय मकए गए। स्थानीय भार्षाओ ं में स्कूली पस्ू तकें तैयार करने और स्थानीय स्कूलों की स्थापना या सहायता करने के मलए समममत ने एक मवशेर्ष समममत मनयक्त ु की परन्तु शीघ्र यह महससू मकया गया मक इस प्रयास का व्यापक क्षेत्र मख्ु यतः गरीब बच्चों की मशक्षा के मलए स्थामपत समममत के उदेश्यों से परे है3 और 1822 में समममत एक पृथक मनगम बन गई। जो आगे चलकर 1856 में भगं हुआ। जब ये भगं हुआ तो बंबई प्रेमसडेंसी में 15 अग्रं ेजी कॉलेज और स्कूल थे। उनमें 256 वना​ाकुलर स्कूल थे। बोडा ने अपनी ररपोटा में बताया मक 24 अगस्त 1855 में उन्हें एक यामचका प्राप्त हुई मजसमें छोटी जामतयों की मशक्षा के मलए एक स्कूल की स्थापना करने का और बाद में बनाए गए नए मनयमों के अनसु ार अध्यापकों को आधा वेतन देने का अनरु ोध मकया गया था। यामचकादाताओ ं ने स्कूल के एक कमरे का मनमा​ाि कर मलया था। इस प्रकार के स्कूल की स्थापना समृद्ध और सविा जामतयों के पवू ा​ाग्रहों के आड़े आती थी परन्तु क्योंमक यामचका अमधसचू ना में दी गई शतो के अनसु ार की गई थी, हमने अनरु ोध को तरु न्त स्वीकार कर मलया और नवम्बर में स्कूल खोल मदया गया।4 प्रेमसडेंसी में छोटी जामतयों के मलए पहली बार स्कूल खोला गया था, यहॉ यह प्रश्न उठता है मक 1855 से पवू ा दमलत जामतयों की मशक्षा के बारे में मिमटश सरकार की क्या नीमत थी? इसका उत्तर हमें 1813 से वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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1855 के बीच की मिमटश सरकार की मशक्षा नीमत पर नज़र डालने से ममल जायेगा। पेशवा सरकार के दौरान दमलत जामतयॉ मशक्षा से परू ी तरह वमं चत थी। राज्य मशक्षा के मकसी भी मवचार में वे शाममल नहीं थे। इसका कारि यह था मक पेश्वा राव मनु के मसद्धातं ों पर आधाररत धमा-तंत्र राज्य था। उसके अनसु ार शद्रू ों और अमतशद्रू ों को जीवन स्वतत्रं ता और सपं मत्त का अमधकार भले ही रहा हो मकन्तु मशक्षा का कोई अमधकार नहीं था। इतनी मववशताओ ं में जी रहीं दमलत जामतयों ने इस घृमित धमातत्रं के पतन पर राहत की सांस ली। मिमटश शासन की स्थापना से दमलत जामतयों में उच्च आकांक्षाएं जगी।5 उन्हें लगा अब कोई ऊंच नीच का व्यवहार नहीं होगा और सभी इसं ान बराबर होंगे, उन्हें मवश्वास था मक अग्रं ेज मवशेर्ष रुप में तो नहीa तो कम से कम अन्य वगो के समान तो उनकी सहायता करें गे ही। परन्तु जब स्थानीय लोगों में मशक्षा को एक सदृु ढ़ और ससु ंगमठत आधार प्रदान करने हेतु संगत प्रयास मकए गए तो दमलत जामतयों को मनराशा ही हाथ लगी। क्योंमक अग्रं ेजी सरकार ने अपनी नीमत के तहत् मशक्षा को के वल उच्च जामतयों तक ही सीममत रखा।6 इसके अलावा यह भी देखा गया मक वना​ाक्यल ू र स्कूल में दी जाने वाली मशक्षा अच्छे स्तर से कोसों दरू है। श्री मवलोबी के मववरि का अमधकांश भाग इन स्कूलों के घमटया स्वरुप और घमटया पररिामों की तीखी आलोचना से भरा पड़ा है।7 वास्तव में अग्रं ेजों ने देश में मसमवल प्रशासन को चलाने के मलए उच्च जामतयों को चनु ा और इसके मलए उनमें ही मशक्षा को बढ़ावा मदया। उच्च जामतयों के तो मनधान बच्चों को भी मशक्षा की समु वधा उपलब्ध

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कराई गई। सच्चाई यह है मक इस अवमध में सरकार ने दमलत जामतयों को मशक्षा के लाभ से वमं चत रखा। II- 1854 से 1882 तक कोटा ऑफ डायरे क्टसा ने अपने 19 जल ु ाई 1954 के पत्र सख्ं या 49 में मटप्पिी की मक अब हमारा ध्यान संभवतः एक बात की ओर जाना चामहए जोमक अभी भी अमधक महत्वपिू ा है मजसकों हमें स्वीकार करना होगा। अभी तक बहुत उपेक्षा की गई अथा​ात जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के मलए आवश्यक उपयोगी और व्यवहाररक ज्ञान मकस प्रकार उन लोगों तक पहुचाया जाए जो अपने प्रयत्नों से मशक्षा प्राप्त करने में सवाधा असक्षम है और हम चाहेंगे मक इस उदेश्य की पमू ता हेतु मवशेर्ष प्रयास करें मजसके मलए हम भारी रामश मजं रू करने के मलए तैयार है।8 यह सही है मक इस पत्र ने इस देश में जन मशक्षा की नींव डाली मकन्तु इसके पररिाम भी संतोर्षजनक नहीं रहे कारि वही मिमटश सरकार की नीमत। भारत सरकार की मान्यता के मवपरीत बंगाल के अमधकाररयों ने यह भार मशक्षा संबंधी मजला समममतयों पर छोड़ मदया। उन्हें इस बात की स्वतत्रं ता दी गई मक वे हर मामले में स्थानीय लोगों की भावनाओ ं को देखते हुए छोटी जामतयों के छात्रों को प्रवेश दे या न दे। इसका पररिाम यह हुआ मक दमलत जामतयां उपेमक्षत ही रही। स्पृश्य जामतयां नें उन्हें मवद्याममं दरों में घसु ने नहीं मदया, मजनकी स्थापना सरकार ने अपने समस्त प्रयजनों के मलए की थी।9 1854 में दमलत जामतयों की मशक्षा पर से प्रमतबंध तो हटाया गया मकन्तु य के वल नाममात्र का प्रयास था। अतः यह कहा जा सकता है मक यह प्रमतबधं पहले के समान ही बना रहा। इन नीमतयों के पररिामों को मनम्न आक ं ड़ो द्वारा समझा जा सकता gS10&

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ईसाई िाहमि अन्य महन्दू ममु स्लम पारसी आमदम जामतयां और पवातीय आमदवासी छोटी जामतयों के महन्दू यहूदी और अन्य

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प्राथममक मशक्षा 1881-82 स्कूलों में छात्र संख्या 1521 63071 202345 39251 3517 2713

छात्रों की कुल संख्या का प्रमतशत

2862 272

-87 -12

-49 20-17 64-69 12-54 1-12 -87

माध्यममक मशक्षा 1881-82 मममडल स्कूलों में छात्रों की संख्या स्कूलों में छात्र संख्या ईसाई 1429 िाहमि 3639 अन्य महन्द-ू कृ र्षक 624 छोटी जामतयां 17 अन्य जामतयां 3823 ममु स्लम 687 पारसी 1526 आमदम जामतयां और 6 पवातीय आमदवासी अन्य (यहुमदयों आमद 103समहत)

छात्रों की कुल संख्या का प्रमतशत 12-6 30-70 5-26 1-4 32-25 5-80 12-87 0-5 -07

हाईस्कूलों में छात्रों की संख्या 111 1978 140

छात्रों की कुल संख्या का प्रमतशत 2-26 40-29 2-85

1573 100 965

32-04 2-04 19-66

92

-86

कॉलेज मशक्षा 1881-82 कॉलेजों में छात्र संख्या Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

छात्रों की कुल संख्या का प्रमतशत वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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ईसाई िाहमि अन्य महन्द-ू कृ र्षक छोटी जामतयां अन्य जामतयां ममु स्लम पारसी आमदम जामतयां और पवातीय आमदवासी अन्य (यहुमदयों आमद समहत)

14 241 5 0 103 7 108 0

3 50 1 0 21-3 1-5 21-5 0

2

-04

उपरोक्त आक ं ड़े सच्चाई अपने आप बयां करते है। इनसे स्पि होता है मक आम आदमी के मलए मशक्षा इतनी ही दल ु ाभ थी मजतनी 1854 से पहले थी और महन्दओ ु ं की मनम्नतर और आमदम जामतयां अभी भी मशक्षा के क्षेत्र में सबसे अमधक मपछड़ी थी। यहां यह तथ्य काफी दख ु द है मक 1881-82 में भी इन समदु ायों का एक भी छात्र कॉलेजों अथवा हाई स्कूलों में नहीं पढ़ता था। प्रेमसडेंसी में लोगों की जनसख्ं यानसु ार क्रम श्रेमियां उन्नत महन्दू चतथु ा मध्य क्रम में महन्दू प्रथम मपछड़े महन्दू मद्वतीय ममु स्लम तृतीय इस दौरान यही आम धारिा रही मक मशक्षा से सरोकार के वल िाहमिों का ही है। के वल चंद लोग ही ऐसे थे मजन्होनें मशक्षा के प्रसार की राजनीमत अपनाई। कहने को तो सरकार द्वारा पिू ता ः सममपात आम स्कूल सभी जामतयों के मलए खल ु े थे मकन्तु छोटी जामतयों को उनमें प्रवेश पाना लगभग ममु श्कल ही था। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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III. 1882 से 1928 तक इस चरि में बंबई प्रेसीडेंसी में प्राथममक मशक्षा प्रांतीय सरकार के स्थान पर स्थानीय मनकायों को सौंप दी गई। इस काल में भी मनम्न जामतयों की शैक्षमिक मस्थमत दयनीय ही रही। जहॉ आबादी की दृमि से उन्हें मद्वतीय जैसा उच्च स्थान प्राप्त था परन्तु मशक्षा के क्षेत्र में उन्हें ऐसा स्थान प्राप्त था जो न के वल अमं तम बमल्क न्यनू तक भी था। यह fuEu सारिी द्वारा स्पि है11 प्राथममक प्रथम तृतीय चतथु ा मद्वतीय

मशक्षानसु ार माध्यममक कॉलेज क्रम प्रथम प्रथम तृतीय तृतीय चतथु ा चतथु ा मद्वतीय मद्वतीय

यह बात महार बालक की उस यामचका को स्पि हो जाती है, जो जनू 1856 में पेश की गई। मजसमें मशकायत की गई थी मक यद्यमप वह स्कूल की फीस देने के मलए तैयार था लेमकन उसे धारवाड़ गवनामटें स्कूल में दामखला नहीं मदया गया।12 मशमक्षत होना हर बच्चे का अमधकार है। उसे जब पढ़ाई का मौका ममलेगा तो वह अपने भमवष्ट्य को वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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स्वमिाम बना सके गा। अतीत की तरह वतामान में भी मशक्षा का मद्दु ा बड़ा है, जहां एक तरफ जामत ने हजारो वर्षो से समाज को मवभामजत मकया अब यही काम मशक्षा कर रही है। मदन बर मदन सरकारी स्कूलों में मशक्षा का स्तर मगरता जा रहा है। अब समाज में एक मवभाजन सा बन गया है। उच्च जामत के बच्चे कान्वेंट स्कूलों में पढ़ते है और छोटी जामत के बच्चें सरकारी स्कूलों में। उच्च जामत के लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को कतई नहीं भेजना चाहते है पररिामस्वरुप एक तरह से मशक्षा समाज में असमानता पैदा करने की वजह बन रही है।13 सरकारी और महं गे स्कूलों में मशक्षा के स्तर पर भेदभाव हैं सरकारी स्कूलों में बच्चों को मामल ू ी समु वधायें भी उपलब्ध नहीं होती, मशक्षक भी पढ़ाने में रुमच नहीं रखते है। आगे चलकर इसी असमानता के कारि बच्चों को प्रमतयोगी परीक्षाओ ं आमद में गिु वत्ता के टैग के नाम पर कमठनाईयों का सामना करना पड़ता है। सरु े न्द्र जोधका अपने पंजाब के सवेक्षि में बताते है मक पंजाब के कुछ गांवों में सरकारी स्कूलों को अब दमलत और हररजन स्कूलों के नाम से ही संबोमधत मकया जाने लगा है।14 इन स्कूलों में सभी बच्चों में अमधकांश मनम्न जामत के ही बच्चे पढ़ते है। उच्च जामत के इनमें कुछ ही बच्चे ममलेंगे। इसका पररिाम यह हो रहा है मक इन स्कूलों में सधु ार के मलए कोई कदम नहीं उठाया जा रहा है अगर इनमें उच्च जामत के बच्चे पढ़ते तो इनमें सधु ार करने की पहल अवश्य की जाती मकन्तु मनम्न जामत के बच्चों के मलए कोई सधु ार नहीं मकया जा रहा हैं सधु ार की तरफ एक कदम इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 19 अगस्त 2015 को बढ़ाया भी मजसमें यह कहा गया मक प्रदेश के स्कूली मशक्षा तभी सधु र सकती है जब ममं त्रयों और अफसरों के बच्चे भी सरकारी स्कूलों में पढेंग।े अदालत का आदेश था मक जो भी अफसर, मत्रं ी या कमाचारी सरकारी कोर्ष से वेतन लेते हैं उन्हें अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना अमनवाया होगा। जब अमधकाररयों के बच्चें भी Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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इन सरकारी स्कूलों में पढेंगे तो सरकार को इन्हें बेहतर बनाना ही पड़ेगा। न्यायाधीश ने प्रदेश के मख्ु य समचव को महदायत भी दी थी मक इस काम के मलए वे जो भी तरीका अपनाएं उसकी परू ी ररपोटा छहः महीने के भीतर जमा करे । साथ ही जो इस मनिाय का पालन नहीं करे सरकार उसके मखलाफ दडं का प्रावधान समु नमित करे ।15 हजारों साल पहले बद्ध ु ने अपने समय में उच्च और मनम्न जामत को एक ही संघ में मशमक्षत मकया। वहॉ कोई उच्च जामत या मनम्न जामत का नहीं था। सभी साथ रहकर मशक्षा ग्रहि करते थे। संघ में सबके मलए समान मशक्षा का प्रावधान था। इतने समये पहले जब बद्ध ु यह काम कर सकते है तो वतामान में इतनी आधमु नक तकनीकों के बावजदू ऐसा क्या है जो हम यह सभं व नहीं कर पा रहे हैं? जवाब है इच्छा शमक्त जब इलाहाबाद हाई कोटा ने इतना अहम् फै सला मदया तो हमें उसे पिू ा इच्छा शमक्त के साथ लागू करना चामहए था मकन्तु हमने वह मौका भी गवं ा मदया। हमारे नीमत मनमा​ाताओ ं को यह पता होना चामहए मक मशक्षा ही एकमात्र साधन है मजसके माध्यम से एक बेहतर समाज का मनमा​ाि करना संभव है। अच्छा होगा मक सरकारें मशक्षा को सधु ारने के साथ ही समान पाठ्यक्रम पर भी मवशेर्ष ध्यान दें। इसमें देरी का कोई औमचत्य नहीं क्योंमक पहले ही बहुत देर हो चक ु ी है।16 1966 में कोठारी आयोग ने मशक्षा में सधु ार के मलए पड़ोस स्कूल की अवधारिा दी। इसका तात्पया है मक हर इलाके का अपना एक स्कूल होगा। मजसमें यह जरुरी होगा मक उस इलाके के सभी बच्चें उसी स्कूल में पढ़े। प्रवेश में गरीब-अमीर, जामत-धमा, मामलक-मजदरू आमद के आधार पर मकसी प्रकार को कोई भेदभाव नहीं मकया जायेगा। इस मदशा में जयप्रकाश नारायि ने भी कोठारी समममत की पड़ोस स्कूल की अवधारिा को लोकमप्रय बनाने में महत्वपूिा भमू मका मनभाई। पर अफसोस इतना कुछ होने के बाद भी मस्थमत नहीं बदली। इस मस्थमत को दशा​ाती हाल ही में एक मफल्म महदं ी मीमडयम प्रदामशात वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017


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हुई है मजसमें इस मवर्षय को गंभीरता से मदखाया गया है। देखना होगा मक यह कदम समाज में मकतनी जागरुकता ला पाता है। िंदभक िूची

1234567-

जे-.बी. गगा (संपा.) (2009) ^भारत और समकालीन मवश्व-I’ सोनीपत: कै मपटल इन्टरप्राइमज़ज, पृ. 25 बी. आर. अबं ेडकर (2007) 'जामतभेद का उच्छे द’, मदल्लीः गौतम बक ु सेंटर डॉ. श्याम मसहं शमश (सपं ा) (1998) ‘बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपिू ा वाड्.मय, खडं -4] मदल्लीः डॉ. अम्बेडकर प्रमतष्ठान, पृ. 124 वही. पृ. 125 वही. पृ. 125 वही. पृ. 126 वही. पृ. 128

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8- वही. पृ. 132 9- वही. पृ. 137 10- वही. पृ. 132-34 11- वही. पृ. 138 12- वही. पृ. 136 13- दैमनक जागरि, शक्रु वार,

19 मई, 2017]

मदल्ली, पृ. 5 14- सरु ेन्द्र, एस. जोधका (2015) ‘कास्ट इन कोंटेम्पोरे री इमं डया’ लंदनः रुटलेज, पृ. 42 15- उदय प्रकाश चोपड़ा (2017) ‘समान मशक्षा का अधरु ा सपना’ मदल्लीः दैमनक जागरि, 13 मई, पृ. 12 -एकता पी. एच. डी स्कालर राजनीसतक सिज्ञान सिभाग सदल्ली सिश्वसिद्यालय सदल्ली-110007

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सिक्षा, िसं िधान एिं पािडयिम : एक पनु सिकचार अधेंदु (Ardhendu), शोध छात्र, राजनीमत अध्ययन कें द्र, समामजक मवज्ञान सस्ं थान, जे.एन.य.ू , नई मदल्ली, 110067. Mail ID- ardhendoo@gmail.com क्या स्कूल मशक्षा के मलए एक ढांचा स्थामपत करना न्याय की बात है ? इस प्रकार हम मनिाय और मवतरि के संबंध में इस प्रश्न को उठाते हैं। पाठ्यक्रम मडजाइन या पाठ्यपस्ु तक मडजाइन के संबंध में सबसे महत्वपिू ा सवाल न्याय का नहीं बमल्क ज्ञान का है; वह भी मवशेर्षज्ञों का ज्ञान जो लेखन या मडजाइन करने के काया के साथ ममलते हैं । यह ज्ञान सावाजमनक क्षेत्र में इन लोगों की मवशेर्षज्ञता और स्वीकृ मत से आता है, लेमकन स्वतंत्र भारत के इमतहास के तहत मवमभन्न लोकतांमत्रक शासनों के दौरान प्रमतवामदताएं की गई हैं और इसमलए ज्ञान का यह अमनवाया प्रश्न भी न्याय का सवाल बन जाता है जब इसे लोकतांमत्रक शासन में संबोमधत मकया जाता है। यह सच है मक हम एक लोकतांमत्रक समाज में रहने के मलए स्वीकार करते हैं, ज्ञान के इस प्रश्न को भी न्याय का सवाल बनाते हैं और मल ू रूप से उन चीजों को मलखने और मडजाइन करने के मलए ढाचं े की मागं करते हैं जो सावाजमनक उपयोग के मलए जाते हैं; और यहां एक बहुत ही संवदे नशील जनता से पहले यह ढाचा हमारे स्कूल जा रहे बच्चों के मलए है । एक और चीज को ध्यान में रखा जाना चामहए जो स्कूल मशक्षा के संबंध में लोकतंत्र की धारिा को कमजोर करने लगता है, जो लोग इन पाठ्यपस्ु तकों का प्रयोग करें गे वे लोकतंत्र के अनबु ंध के मलए एक समान पाटी नहीं हैं, मजसका अथा है मक हमने पहले से ही मान मलया है मक मवद्यालय के छात्रों को अभी तक आदशा नागररकों और गिु वत्ता के योगदानकता​ाओ ं के रूप में संमम्ममलत होने के मलए प्रमशमक्षत नहीं मकया गया है और यही उनका उद्देश्य है मक मजन जनता के मलए

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पाठ्यपस्ु तकें मलखी जा रही हैं, उनके पास उमचत सवं धै ामनक नागररकता का दजा​ा नहीं है, क्योंमक वे बच्चे हैं और उन्हें उसी रूप में देखा जाना चामहए। जब तक वे उस क्षेत्र में योगदान करने में सक्षम न हो तब तक उन्हें राज्य और समाज की अमतररक्त और मवशेर्ष देखभाल की आवश्यकता होती है। भारत के संबंध में जब कोई इस प्रश्न को देख रहा है, तो मद्दु े और मचंताएं हमेशा बढ़ती जा रही हैं, इसका कारि इमतहास, राजनीमत, समाज आमद के सभं ामवत मडजाइनों के मनमा​ाि के मलए उपलब्ध संसाधनों की अमधकता है। इस देश में इमतहास लेखन सबसे ज्यादा चनु ौतीपिू ा राजनीमतक प्रश्नों में से एक है। इतना ही नहीं, मवमवधता के मद्दु ों के माध्यम से, देश में मवमभन्न राजनीमतक ताकतों ने स्कूल जाने वाले बच्चों के मलए पाठ्यपस्ु तकों को बदलने की बार-बार कोमशश की है । राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्य पस्ु तकों का कोई भी अभ्यास करने के मलए असंख्य ऐसी मचंताओ ं को ध्यान में रखना होता है और इनमें से कुछ ऊपर वमिात हैं। ऐसा लगता है मक मशक्षा के मलए चौखटे के मद्दु ों पर मकसी भी समझौते के मलए रास्ता आगे कम है। मस्थमत वास्तव में कमजोर है यमद कोई एकता मदखाने के मसद्धातं ों के बजाय मवमवधता मदखाने के मसद्धातं ों का पालन करता है। हमारा मल ू भतू मसद्धांत एक संयक्त ु लोकतामं त्रक समाज के रूप में खदु को सगं मठत करने में है और हमारे पास इसके मलए और साथ ही पहले से एकजटु उपमस्थत होने के मलए बहुत मजबतू सभं ावनाएं हैं। मेरे मवचार में मशक्षा के मलए सवोत्तम संभव ढांचे के पास देश की संवधै ामनक प्रथाओ ं का आधार होना चामहए और यह अके ले देश में प्रभामवत मन के मलए पाठ्यपस्ु तकों को मडजाइन करने के मलए मागादशाक मसद्धांत होना चामहए। सिक्षा पर िंसिधान भारत का संमवधान, जो भारतीय राजनीमत और समाज पर एक मवशाल पाठ है, मख्ु य रूप से दो भागों वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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में मशक्षा के मद्दु ों को संबोमधत करता है, अथा​ात् मौमलक अमधकारों से सबं मं धत भाग तीन और राज्य नीमत के मनदेशक मसद्धांतों के भाग चार में। भाग तीन के अनच्ु छे द 21 ए और भाग 4 के लेख 41, 45 और 46 क्रमशः शैमक्षक अमधकारों और नीमत बनाने की मदशा मनदेशों के साथ काम करते हैं। संमवधान में लेखन के मख्ु य पहलू का मतलब है समय और मफर हमें न्यायालयों द्वारा प्रामधकरि के साथ और भारत के संबंध में बताया गया है मक कोई मनमितता के साथ मटप्पिी कर सकता है मक न्याय के मख्ु य मद्दु े मख्ु य रूप से मशक्षा के दशान के साथ उत्पन्न नहीं हुए हैं। मफर स्कूल के बच्चों के मलए मशक्षा का उपयक्त ु ढांचा तैयार करने के मलए संवधै ामनक मदशामनदेश क्या हो सकता है? अगर अब तक भारत एक ऐसा देश है जो काननू ी तौर पर मशक्षा के मकसी भी अन्य पहलू की तल ु ना में मशक्षा तक पहुचं ने के मद्दु े में अमधक शाममल है, तो यह हमें मशक्षा के दशान और उस दशान को एक असली अभ्यास के रूप में पहुचं के बीच के अतं र को महससू करता है । ये अतं राल ससं ाधनों की कमी और अकुशल मनयोजन के साथ-साथ मवमभन्न देशों में मवमभन्न प्रकार के समहू ों के सांप्रदामयक और कट्टर मवचारों से उभरने वाले असहममत दोनों के नतीजे हैं। ऐसे मामले में, मख्ु य मसद्धांतों या तत्वों पर वापस जाना हमेशा अच्छा होता है जो एक समं वधान की रूपरे खा तैयार करते हैं जैसे नागररकता के मद्दु ों, इसका अथा और प्रथाए,ं नागररकों की प्राथममकताएं, राज्य की मचतं ां आमद। राज्य की मचतं ाओ ं को ठीक से लागू मकया जा सकता है जब न्यायपामलका मजबतू काया कर रही है मनदोर्षता से। सौभानय से भारत में; यह आमतौर पर न्यायपामलका के साथ मामला रहा है। भारत में, मशक्षा तक पहुचं के बारे में बहस ही मशक्षा की अवधारिा के मलए ज्यादा महत्वपिू ा है; यह इसमलए है क्योंमक आधमु नक मशक्षा के पहले हमें स्वतंत्र भारत में मवकास के मलए औपमनवेमशक प्रशासन द्वारा बनाई गई मशक्षा नीमत में इस आधार के

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मलए बहुत महत्व मदया है मक मशक्षा तक पहुचं महत्वपिू ा है और अमधक से अमधक पहुचं की अनमु मत देकर, एक लोकतांमत्रक समाज में मशक्षा के मवचारों को बदल रहा है। यहां मशक्षा के क्षेत्र में सधु ार लाने और समानता के मवचार में सधु ार के मद्दु े पर मवमभन्न आयोगों और एजेंमसयों द्वारा मकए गए प्रयासों की जाच ं करना महत्वपिू ा है। समानता एक आधार है और साथ ही आधमु नक दमु नया में एक मनष्ट्कर्षा भी है। रोनाल्ड डवोकीन बहुत ही उमचत रूप से एक ऐसे समाज में 'समानतापिू ा गिु 'को समानता कहते हैं जो न्याय और पनु मवातरि के मामलों से मनपट रहा है। सावाजमनक नीमत और न्याय के मामलों में समानता का उपयोग करने के पहले भी एक बहुत महत्वपिू ा सवाल; यह है मक मवमभन्न क्षेत्रों में समानता के बारे में बात करने के मलए मकसी को मकस तरह की भार्षा का उपयोग करना चामहए, इसके बारे में पता होना चामहए। यह अमधक महत्वपूिा हो जाता है क्योंमक उदाहरि के मलए यमद मशक्षा के क्षेत्र में समानता का मवचार होता है तो कुछ मल ू भतू प्रश्न इसके साथ जड़ु जाते हैं; ऐसे प्रश्न जैसे मक कोई भी मशक्षा के मवचार को उपलब्ध कराने के मलए देख रहा है, जो समाज में है और मजस पर लोग बड़े पैमाने पर समझौता कर रहे हैं, या क्या मशक्षा की धारिाओ ं में मववाद है, मवमभन्न समहू ों या वगों के बीच समाज जो उनके संबंमधत दृमिकोिों के कारि चैंमपयन के मलए दावा करते हैं। भारत के मामले में, यह देखना बहुत ममु श्कल नहीं है मक मशक्षा की सामग्री के मवर्षय में भारतीय लोकतंत्र के मवमभन्न समहू ों के बीच समझौता अनपु लब्ध है और हाल के मदनों में, इस समझौते में और कमजोरी पड़ गयी है, और सबसे ठोस स्थान यह असहममत देखने के मलए मवमभन्न शासन के तहत मवशेर्षज्ञों द्वारा तैयार पाठ्यपस्ु तकों की सामग्री के आसपास के मद्दु े हैं। कोठारी आयोग के अनसु ार एक मजबतू मशक्षा प्रिाली एक मजबतू देश के मलए एक शता है, मजसे वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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मजबतू लोकतांमत्रक मानदडं ों तथा सांस्कृ मतक और सभ्यतागत मल्ू यों दोनों पर आधाररत होना चामहए। इस तरह की मशक्षा के मलए सामामजक, राजनीमतक और सांस्कृ मतक आयामों के मामले में मवमवध सामामजक साममग्रयां होनी चामहए और देश के भमवष्ट्य में भी मवश्वास होना चामहए। इसके मलए जनता की उत्थान के मलए पया​ाप्त मचतं ाएं होने की आवश्यकता होती है, मजसे राज्य की तरफ से तत्काल नीमत के हस्तक्षेपों की आवश्यकता होती है। इस उद्यम के मनमा​ाि के मलए एक बहुत ही महत्वपिू ा पहलू होगा नागररकता के आदशा पर ध्यान कें मद्रत करना और मशक्षा नीमतयों द्वारा मकए गए प्रयासों के माध्यम से इसे संवधै ामनक रूप से मजबतू करना। एक तटस्थ प्रशासन और समदु ायों और देश में प्रिाली के मलए आपसी सम्मान देश में सफल होने के मलए मकसी भी शैमक्षक नीमत के मलए कुछ आवश्यक शतें हैं। कोठारी आयोग ने मवद्यामथायों के बीच ऐसे बांडों को बढ़ावा देने के मलए पररसर की जांच की, छात्रों के बीच सामान्य स्कूलीकरि प्रिाली और राष्ट्रीय और सामामजक सेवाओ ं के आवमधक अजान का सझु ाव मदया। आम मशक्षा ने हमें भारत के मलए एक तरह की मशक्षा प्रिाली तैयार करने में बहुत सारे लाभ मदए हैं, क्योंमक यह योजना और नीमतगत मवचारों, मलंग, जामत और समहू मशक्षा के पहलओ ु ं और उनके मलए सबसे अच्छा संभव समाधान साझा करने के मलए है। सामान्य शैमक्षक मचं जो इन असमानताओ ं को कम करने के मलए सक्षम बनाता है क्योंमक नीमत पररपक्व होती है। एक मवकासशील देश के मलए बमु नयादी संसाधन इसकी नागररकता है जो मक लोकतांमत्रक प्रमक्रया में न के वल भागीदारी है, बमल्क यह भी परू ा करने के प्रमत उत्तरदामयत्व के साथ काम करता है, यह अभ्यास पाठ्यक्रम के ढाचं े से परे जाता है और संस्थानों द्वारा मकया जाता है जो छात्रों के भीतर मवकमसत होते हैं। सेवा, रस्टीमशप और राष्ट्र के प्रमत वफादारी और राष्ट्रीय भावना को बढ़ावा देना।

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आयोग के अनसु ार राष्ट्रीय चेतना देश में बनाया जाना चामहए और यह देश की भार्षा, सामहत्य, दशान और संस्कृ मत को अध्यापन के द्वारा बनाया जाएगा। भारतीय वास्तक ु ला और भारतीय सभ्यता के मवर्षयों के बारे में छात्रों को अवगत कराया जाना चामहए। शैमक्षक मवचार देश भर में स्वतत्रं रूप से चलना चामहए, ऐसा तब होगा जब शैमक्षक संसाधनों, मशक्षकों, छात्रों, संसाधनों के बीच स्वतंत्र और खल ु े आदान-प्रदान होते हैं, जरूरतों और आवश्यकताओ ं के अनसु ार साझा होते हैं और यह अतं तः देश में राष्ट्रीय चेतना का मनमा​ाि करे गी। आगे जाकर। यह भी राजनीमतक रूप से मकया जाना चामहए, इस अथा में मक एक देश में संवधै ामनक मसद्धांतों पर इन नीमतयों का आधार होना चामहए जो मक समं वधान के पाठ में अच्छी तरह से प्रलेमखत है, साथ ही प्रस्तावना और जड़ में समानता, राष्ट्र और उसके लोगों के संरक्षि और मवकास के मलए बहस करते हैं। आयोग ने यह भी जोर मदया मक राष्ट्रीय एकीकरि और अतं रा​ाष्ट्रीय समृमद्ध और मचतं ाओ ं के बीच कोई मवरोधाभास नहीं है। मशक्षा, आधमु नकीकरि और समहष्ट्ितु ा भी इस आयोग के मख्ु य मवर्षयों थे क्योंमक यह लगातार ज्ञान और ज्ञान में नए मवकास, मवशेर्ष रूप से मवज्ञान और प्रौद्योमगकी और दशान के क्षेत्र में, समहत मशक्षा के आधमु नकीकरि के मलए तका देते हैं। इससे छात्रों को सबसे अद्यतन और प्रासमं गक ज्ञान और मल्ू य प्रदान करने के मलए मशक्षा प्रिाली तैयार की जाएगी और समाज को मकसी भी सामामजक, राजनीमतक या आमथाक पररवतान के मलए तैयार करना होगा। समहष्ट्ितु ा मकसी भी मशक्षा प्रिाली का एक बहुत महत्वपिू ा महस्सा है और कोठारी आयोग ने यह पहलू पर जोर मदया मक धाममाक मशक्षा और जागरूकता को छात्रों को प्रदान मकया जाना चामहए और यह उन सभी धमों के बमु नयादी मसद्धांतों को बाध्य करके मकया जाएगा और उन्हें सभी धमों के प्रमत समहष्ट्ितु ा और वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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सम्मान की भावना देनी चामहए एक पहचान और मवतरि की समस्या के रूप में मशक्षा को लेने के बजाय समग्र मवकास आयोग ने मवकास की रूपरे खा में और बहुत अमधक मवकास कें मद्रत मकया था। सामामजक न्याय के मद्दु ों की तल ु ना में मवकास और आधमु नकीकरि से संबंमधत मद्दु ों पर कोठारी आयोग में और अमधक ध्यान मदया गया है जो एक दशक से मडं ल के प्रवचन के बाद एक प्रमख ु मवशेर्षता बन गया है। 'सिक्षा'िे 'मानि िंिाधन प्रबंधन' 1980 के दशकों में भारत में मशक्षा के प्रमत दृमिकोि में एक बहुत ही महत्वपिू ा पररवतान हुआ जब भारत के मशक्षा मत्रं ालय को मानव संसाधन मवकास मत्रं ालय के रूप में एक नया अवतार ममला। यह के वल नामकरि का एक पररवतान नहीं था, लेमकन एक नई नीमत प्रमतमान जो पहले से ही मौजदू था लेमकन आमं शक रूप से अब इसे औपचाररक रूप से नीमत बनाने में बढ़ावा ममला। यह नीमत बनाने में एक नया राजनीमतक दृमिकोि था मजसका उद्देश्य उदारवाद की दमु नया के मसद्धातं ों में पररवतान से आया है। एक मसद्धांत है जो प्रशासन पर प्रबंधन को प्राथममकता देता है और मनजी क्षेत्र के साथ-साथ नागररक समाज के सदस्यों को शाममल करके इसे परू ा करने पर अमधक ध्यान कें मद्रत करता है। मशक्षा 1886 पर राष्ट्रीय नीमत इस तरह के पररवतान का तत्काल पररिाम था और यह ऊपर उल्लेमखत रूप में इस दृमिकोि की मसफाररशों में देखा जा सकता है। मशक्षा क्षेत्र में नीमत बनाने की भार्षा की भार्षा बहुत तेजी से बदल रही है, इस बदलाव के बाद मशक्षा के क्षेत्र में कुछ महत्वपिू ा माका र हैं, समं वधान के अनच्ु छे द 45 को अनच्ु छे द 21ए के तहत मल ू भतू अमधकार में बदल मदया गया है, मजसे सही कहा जाता है प्राथममक मशक्षा के मलए मवमभन्न लोकतांमत्रक शासनों के बाद से उन्हें परू ा करने के मलए मशक्षा और चौराहे के मवमभन्न

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अमभयानों को शरू ु मकया गया है और इसके तहत, नीमत बनाने की मदशा में उत्तरदामयत्व के सवाल पतले हैं। यहां यह दमु वधा है मक नीमत बनाने में कई एजेंटों की भागीदारी बढ़ रही है, जबमक के वल मनवा​ामचत लोगों को सीधे लोगों के मलए उत्तरदायी होते हैं। मशक्षा के मलए एक सहकारी उद्यम मवशेर्षज्ञों के मदमाग में नीमत बनाने के मलए अच्छी तरह से मनममात मचंताएं हैं; मनगमों के मलए नीमत बनाने, राज्य के मलए नीमत बनाने और कुछ अन्य एजेंमसयों द्वारा नीमत बनाने के मलए अपने स्वयं के उद्देश्यों और लक्ष्यों को ध्यान में रखते हैं। मशक्षा नीमत का लक्ष्य क्या होना चामहए? क्या यह कल्याि होना चामहए? क्या यह अच्छा नागररक बनना चामहए? क्या यह बहस, असंतोर्ष और नवीनता की भावना पैदा करना चामहए? भारतीय राजनीमत के बारे में पछ ू ने के मलए ये सवाल बहुत ज्यादा हैं लेमकन जवाब कुछ ही क्वाटारों से आते हैं, क्योंमक लोकतंत्र में अमं तम मनिाय एक काननू ी फै सला है और मववाद पर अदालत क्या कहती है, जब लोग काननू नहीं लेते हैं तो उनके हाथों में सहमत होते हैं। और असंतोर्ष और आरोपों का आधार अक्सर सवाल पछ ू रहा है मक एक दोर्षपिू ा नीमत के मलए कौन मजम्मेदार है और अगर कोई नीमत प्रभावी है या नहीं, तो उसे लोगों और उनके प्रमतमनमधयों की भागीदारी समु नमित करके लोकतामं त्रक होना चामहए। मशक्षा को अमनवाया रूप से संवधै ामनकता, मजम्मेदारी और लोगों की भागीदारी के मवचारों के आधार पर सहकारी उद्यम होना चामहए, मजनके मववरिों को नीमत के रूप में तैयार मकया जाना चामहए तामक मशक्षामवदों की मवशेर्षज्ञ सलाह और संमवधान की प्रमतभा के साथ लोगों की भागीदारी समु नमित हो ।

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िमिामसयक सिषय/ Current Affairs

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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ISSN: 2454-2725

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ISSN: 2454-2725

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vkink izc/aku 'kkfey gksA f'k{k.k lkexzh esa

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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vkink izca/ku vf/kfu;e 2005 esa fufgr

vkinkvksa ls feys vuqHkoksa dks ladfyr fd;k

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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सकन्द्नर िमाज: िम्मान की दरकार िदं ना िमाक िोधाथी- हैदराबाद कें द्रीय मवश्वमवद्यालय,हैदराबाद मपन न. 500046 मेल- vandanahcu@gmail.com मो. 9460906022 ‘मकन्नर’ नाम सनु ते ही एक लज्जा का भाव हमारे मदमाग में आ जाता है, लेखन तो दरू नाम लेने मात्र से भी लोग कतराते है शायद आपने भी यह भाव कभी महससू मकया हो ! ‘मकन्नर’ शब्द सनु ते ही हमारे ममस्तष्ट्क में एक मनोग्रमं थ बन जाती है और हम शमा महससू करने लगते है । ‘मकन्नर’ शब्द को मैंने इसीमलए मवशेर्ष जोर देकर कहा तामक आपका ध्यान आकमर्षात हो सके और आप इस शब्द के परे जाकर इनके मलए सोचने और समझने की दृमि उत्पन्न कर सके । मकन्नर समाज मजसके साथ मबल्कुल उपेमक्षत सा व्यव्हार मकया जाता है, उपहास उड़ाया जाता है उसको आज सम्मान की दरकार है । वे आम आदमी की तरह जीने का अमधकार रखते है । आज उनकी व्यथा-कथा, समस्याएँ, उपेक्षा और तकलीफ से हमारे समाज को रू-ब-रू होने की आवश्यकता है । उनको भी समाज की मख्ु य धारा, मख्ु य समाज में रहने, जीने का अमधकार है । आज सामहत्य उनकी पीड़ा की अमभव्यमक्त के मलए तरस रहा है मकंतु उसको उमचत अमभव्यमक्त नहीं ममल पा रही है । मकन्नर समाज को लेकर अभी तक कम ही लेखन हुआ है लेमकन मजतना भी हुआ है उसने सामहत्य के प्रमत हमारे दृमिकोि में खासा पररवतान मकया है । Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

सामामजक पवू ा​ाग्रह से यक्त ु हमारा तथाकमथत सभ्य समाज इस प्रजामत को हेय और घृमित दृमि से देखता है । ऐसे कई अवसर आते है जब उन्हें उनके अमधकारों से वमं चत रखा जाता है । चाहे मवद्यालय हो, प्रमशक्षि संस्थान हो या मफर नौकरी देने की बात हो उनके साथ उपेमक्षत व्यवहार मकया जाता है । हमारे गररमामय भारतीय समवधान में इस बात का साफ-साफ उल्लेख है मक जामत, धमा, मलंग के आधार पर नागररकों के साथ भेदभाव नहीं मकया जाएगा । लेमकन मफर भी इन लोगों के साथ यह भेदभाव क्यों मकया जाता है । लैंमगक दृमि से मववामदत समाज के जो लोग प्राय: ‘महजड़े’ कहकर बल ु ाये जाते है वे जीवन जीने की कशमकश और ऊहापोह के बीच ददानाक जीवन गजु ारने पर मववश हो जाते है । इनको समाज द्वारा पररत्यक्त महस्सा माना जाता है और उपहास मकया जाता है जबमक उनके इस प्रकार जन्म लेने में उनका कदामचत दोर्ष नहीं होता है । महदं ी कथा-सामहत्य में इन पर अमधक मात्रा में लेखन काया नहीं हुआ है लेमकन मजतना भी हुआ है उन सभी से इनको सम्मान की दरकार रही है । यह लोग भी अपनी मल ू भतू आवश्यकताओ.ं अमधकारों और आम आदमी की तरह जीवन यापन करने की आकाक्ष ं ा रखते है । इनके आजीवन संघर्षारत रहने की व्यथा-कथा मचत्रि करने वाले कुछ महत्त्वपिू ा उपन्यासों की चचा​ा मैं यहाँ करना चाहूगँ ी मजनके माध्यम से लेखकों ने जो मवर्षय अब तक शमा का मवर्षय समझा जाता था उसको प्रकाश में लाने का साहमसक कदम उठाया । इसी क्रम में महेंद्र भीष्ट्म द्वारा मलमखत ‘मकन्नर कथा’, नीरजा माधव का ‘यमदीप’ प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ मनमाला भरु ामड़या का ‘गल ु ाम मडं ी’ मचत्रा मद्गु ल का ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ का नाम मलया जा सकता है । वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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ISSN: 2454-2725

इसी कड़ी में ‘मकन्नर कथा’ मकन्नर समाज की पीड़ा की पैरवी में मलखा गया उपन्यास प्रबद्ध ु पाठक वगा का ध्यान आकमर्षात करता है और मकन्नरों को अपने सम्मान और अमधकारों के प्रमत जागरूक करता है । इसमें समाज, परम्परा और खोखले मल्ू यों पर एक साथ चोट करते हुए नवीन जीवन मल्ू यों को अमभव्यमक्त प्रदान की गई है । ‘मकन्नर कथा’ के माध्यम से मकन्नरों की आह और वेदना की उपमस्थमत दजा की गई है जो अपने ही पररवार और समाज से मनरंतर दख ु ों की पीड़ा झेलते रहते है । मानव समाज अपने चरम मवकास के यगु में प्रवेश करके स्वयं को गोरवामन्वत अनभु व कर रहा है मकंतु समाज का यह वगा अभी भी इस मख्ु य धारा से जड़ु नहीं पा रहा है इसके मल ू में अनेक कारि मवद्यमान है मकंतु मल ू कारि है जन सामान्य की इस वगा के प्रमत हेय मानमसक अवधारिा । इस उपन्यास में राजघराने में जन्मी चदं ा की कहानी है मजसके मकन्नर होने का पता चलने पर अपने ही मपता के द्वारा मरवाने का प्रयास मकया जाता है “उसके खानदान की साख को बट्टा न लगे, वश ं में महजड़ा बच्चा पैदा होने के कलक ं से बच जाए । कुल की मया​ादा सरु मक्षत रहे, वह सौंप दे अपनी बेटी को मृत्यु का ग्रास बनने के मलए ।”12 उपन्यास के कथानक में अधरू ी देह की पीड़ा, सामामजक उपेक्षा, पारम्पररक एवं पारस्पररक सघं र्षा, अवसाद एवं मवद्वेर्ष जैसे नकारात्मक भावों को दशा​ाते हुए लेखक ने मकन्नर समाज की कारुमिक कथा को अमभव्यमक्त देने का प्रयास मकया है । शारीररक रूप से यमद कोई मवकलांग हो तो उसको इतना दश ं नहीं झेलना पड़ता मजतना यौमनक रूप से मवकलांग व्यमक्त को । इससे वह मानमसक और शारीररक दोनों ही रूपों में हीन ग्रंमथ का मशकार हो जाता है । इसमें मकन्नरों की अनदेखी, अनसनु ी पीड़ा की खल ु कर अमभव्यमक्त हो पायी है ।

हम इक्कीसवी सदी के मशीनी यगु में जी रहे है मफर भी अपनी परम्परागत धारिाओ ं और मान्यताओ ं से अपना पीछा नहीं छुड़ा पा रहे है । आज मकन्नर समाज की अत्यंत दयनीय मस्थमत के पीछे हाथ हमारे समाज का ही है जो उन्हें चैन और सम्मान से जीने भी नहीं देता है । समाज की वैचाररक मानमसकता मकन्नरों के उत्थान काया के बारे में सोचने से भी महचमकचाती है, नीरजा माधव ने ‘यमदीप’ में मकन्नरों की सामामजक मस्थमत का यथाथा मचत्रि प्रस्ततु मकया है साथ ही इन्हें समाज की मख्ु यधारा में बमु नयादी हक देने का मख्ु य रूप से प्रयास उपन्यास में मकया गया है । मकन्नर को सामामजक, शारीररक और मानमसक भेदभाव और शोर्षि से गजु रना पड़ता है इस सवं दे नशीलता की मस्थमत ने इनकी मस्थमत में और भी अमधक मगरावट उत्पन्न कर दी है । अपनी सामामजक दृमि की सम्पन्नता और जागरूकता के बल पर ही लेमखका ने मकन्नरों की यथाथा मस्थमत से पदा​ा उठाया है सामान्य आम आदमी को मकन्नरों की तकलीफ से कोई लेना-देना नहीं है । उनका मदल मकस प्रकार धड़कता है, कै सी भावनाओ ं की आकाक्ष ं ा करता है इससे उन्हें कोई सरोकार नहीं है क्योंमक वह खदु सामान्य है और मकन्नर असामान्य । मकन्नर समाज अपनी जैमवक असमानता को झेलता है, यमद मातामपता ऐसी सतं ान को स्वीकार करना भी चाहे तो इसे हमारा समाज स्वीकार नहीं करने देता, यही सवाल ‘यमदीप’ में उठाया गया है । नंदरानी के माता-मपता उसे अपने पास रखना चाहते है, नंदरानी की माता उसे पढ़ा-मलखाकर अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती है । नंदरानी की माँ के सामने महताब गरु​ु सवाल उठाते है मक “माता मकसी स्कूल में आज तक महजड़े को पढ़ते मलखते देखा है । मकसी कुसी पर महजड़ा बैठा है । मास्टरी में, पमु लस में, कलेक्टरी में – मकसी में भी अरे

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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! इसकी दमु नयाँ यही है माता जी कोई आगे नहीं आयेगा मक महजड़ों को पढ़ाओ, मलखाओ,ं नौकरी दो जैसे कुछ जामतयों के मलए सरकार कर रही है ।” 13 ऐसे संवाद शायद मकन्नरों के यथाथा जीवन पर प्रकाश डाल रहे है । उपन्यास में कहीं-कहीं मकन्नरों से डर संबंधी संवादों को भी उभारा गया है । सावाजमनक स्थलों पर लोग इनसे बात करने और साथ खड़े रहने से भी कतराते है । इन सभी माममाक प्रसंगों का मचत्रि उपन्यास में खल ु कर हुआ है मजससे मकन्नर समाज की वास्तमवक पीड़ा से हम रू-ब-रू हो सकते है । मकन्नरों की पीड़ा की कुशल अमभव्यमक्त की अगली कड़ी में ‘गल ु ाम मंडी’ आता है । मनमाला भरु ामड़या का यह बहुचमचात उपन्यास मकन्नर मवमशा में अपनी महती भमू मका अदा करता है । जमटल मवर्षय को अपने लेखन का कें द्र बनाने वाली मनमाला जी गहनतम सवं दे ना के स्तर पर गल ु ामी के दश ं को कुशलता से अमभव्यक्त कर पायी है । आज के मतरस्कृ त वगा मकन्नरों की समस्या और मानव तस्करी का भयावह चेहरा उपन्यास में मदखाया गया है । एक ज्वलतं समस्या पर लेखन का प्रयास गल ु ाम मडं ी में मकया गया है, उस सच को बड़ी बारीकी से उघाड़ने का प्रयास मकया गया है मजसे बार-बार दबाने की कोमशश की जाती है । लेमखका अपने अनभु वों को उपन्यास में अमभव्यक्त करती है यथा- “ प्रोजेक्ट आधाररत उपन्यासों से एकदम अलग यह उपन्यास रचनाकार के मल ू सरोकारों से सीधा जड़ु ा हुआ है, जो परू ी संजीदगी से एक इसं ान को इसं ान मानने की वकालत करता है...मफर चाहे वह एक मजदरू स्त्री हो या समाज का मतरस्कार झेलने को मजबरू मकन्नर ।”14

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उन लोगों के प्रमत समाज के मतरस्कार को मजन्हें प्रकृ मत ने तयशदु ा जेंडर नहीं मदया, उन्हें महजड़ा, मकन्नर, वृहनला आमद कई नामों से पक ु ारा जाता है मगर अपमान के साथ । लेमखका एक स्थान पर उल्लेख करती है मक “बचपन से देखती आयी हूँ उन लोगों के प्रमत समाज के मतरस्कार को, मजन्हें प्रकृ मत ने तयशदु ा जेंडर नहीं मदया । इसमें इनका क्या दोर्ष? ये क्यों हमेशा त्यागे गए, दरु दरु ाए गए, सताए गए और अपमान के भागी बने इन्हें कई नामों से पक ु ारा गया मगर मतरस्कार के साथ ही क्यों? आमखर ये बामक इसं ानों की तरह मानवीय गररमा के हकदार क्यों नहीं?”15 इसमें मकन्नरों के जीवन की त्रासदी और सामामजक उपेक्षा के ददा को बहुत ही माममाकता के साथ उभारा गया है । अगला उपन्यास प्रदीप सौरभ का ‘तीसरी ताली’ है । वे उस तीसरी ताली की बात करते है मजसे समाज में मान्यता नहीं ममली है । इस समाज में मजसे हम समाज का महस्सा नहीं मानते, उनकी अपनी समस्याएँ है । जेंडर के अके लेपन और जेंडर के अलगाव के बावजदू समाज में जीने की ललक से भरपरू दमु नयाँ का पररचय करवाता है यह उपन्यास । इसमें ऐसे तमाम सच उभरकर सामने आये हैं, जीवन के ऐसे महत्त्वपिू ा सच मजन्हें हम माने या न माने लेमकन उनका अपना वजदू है । यह उपन्यास प्रदीप सौरभ के साहसी लेखन की ओर हमारा ध्यान आकृ ि करता है । यह कहानी है गौतम साहब और आनदं ी आटं ी की, मजनके बच्चा होने पर आये मकन्नरों को दरवाजा नहीं खोलते है इस डर से मक कहीं वे उनके बच्चे को उठाकर न ले जाएँ । बच्चा होने पर ख़श ु ी के स्थान पर शोक मनाया जाता है । ऐसे बच्चे के पैदा

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होने का के वल अंत आत्महत्या के रूप में पररिीती, मकन्नर जीवन का एक और सच उपन्यास के माध्यम से हमारे सामने आता है । आमथाक मवर्षमता के चलते मकन्नरों के काया कलापों पर भी लेखक ने प्रयास डाला है मजसमें उनको भीख तक मांगनी पड़ती है यथा- “मैं मदा रहू,ँ औरत रहूँ या मफर महजड़ा बन जाऊं, इससे मकसी को कोई फका नहीं पड़ता, पेट की आग तो न जाने बड़े बड़ों को क्या-क्या बना देती है ।”16 यहाँ मकन्नर समाज की उस सच्चाई को सामने रखने का प्रयास मकया गया है मजसे दमु नयाँ से मछपाकर रखा जाता है । उभयमलंगी वमजात समाज के तहखाने में झाँकने का लेखक ने भरपरू प्रयास मकया है । यह उस दमु नयाँ की कहानी है मजसे न तो जीने का अमधकार न और न ही सभ्य समाज में रहने का । अभी हाल ही में मचत्रा मद्गु ल का उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं 203 नाला सोपारा’ प्रकामशत हुआ है । इसमें लेमखका ने मकन्नर समाज की ददानाक पीड़ा को अमभव्यमक्त देने का प्रयास मकया है । यह उपन्यास मकन्नर समाज की दशा और मदशा से हमारा पररचय कराने में अपनी महती भमू मका अदा करता है । उनकी मजन्दगी का हर पाठ यातना, क्रूरता और मचर उपेक्षा का पाठ है । जेंडर के अके लेपन और समाज में सम्मान से जीने की ललक से भरपरू दमु नयाँ के माममाक पहलू को लेमखका ने यहाँ उजागर मकया है । मकन्नरों के दःु ख-ददा को बयाँ करता यह उपन्यास स्त्री-मवमशा के बासी, उबाऊ, अथाहीन दम तोड़ते मद्दु ों से कहीं दरू जाकर मलखा गया है इसके संदभा में ममता कामलया ‘नवभारत टाइम्स’ में मलखती हैं मक “नाला सोपारा मनतांत नई कथावस्तु प्रस्ततु करने वाला नये मशल्प का उपन्यास है मजसमें मलंगभेदी समाज की समस्या को अत्यंत मानवीय दृमि से उठाया गया है ।”17 मवनोद उफ़ा मबन्नी नामक पात्र को मकन्नर होने का Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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वीभत्स दश ं झेलते हुए मदखाया गया है । जब अन्य महजड़ों को उसके मकन्नर होने का पता चलता है तो वे सब उसे लेने आ जाते है लेमकन तभी उसे उनसे उसके छोटे भाई को मदखाकर बचाया जाता है लेमकन बाद में उसकी पहचान ममटा दी जाती है । इस प्रकार का ममु श्कल कथानक मकन्नर समाज पर गहरी दृमि डालने पर मजबरू करता है साथ ही हमें सोचने और समझने पर भी मववश करता है मक कै से इस समाज का मवकास मकया जाये । उपयाक्त ु मववेचन से स्पि है मक हमारे समाज के एक अमभन्न अगं मकन्नर समदु ाय पर मलखे गए यह उपन्यास कहीं न कहीं हमारे समाज को मकन्नरों की पीड़ा, दःु ख-ददा, जीवन जीने की मवभीमर्षका और भयंकर त्रासद मस्थमत से अवगत कराना चाहते है । मकन्नरकथा यमदीप, तीसरी ताली, गल ु ाम मंडी, पोस्ट बॉक्स नं 203 नाला सोपारा इन उपन्यासों में एक मकन्नर होने का ददा क्या होता है? उस नारकीय जीवन में व्याप्त घृिा, अपमान, घटु न और इससे बाहर मनकलने की बैचेनी क्या होती है? इसका सफल मचत्रि मकया गया है । इन सबसे ममु क्त की कामना करता यह समाज आज अपने सम्मान और अमधकारों की मागं के मलए अपनी झोली फै लाए खड़ा है मजसे हमारे समथान की आवश्यकता है । इस क्षेत्र में और भी उपन्यासों के आने की दरकार हमें है मजससे मकन्नरों के वास्तमवक जीवन को हम पहचान पाए, तामक उनके दःु ख ददा, उनकी पीड़ा को समझकर हम उनके अमधकारों तथा सम्मान हेतु सममु चत प्रयास कर सके । यही इस आलेख का उद्देश्य भी है ।

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िदं भक ग्रथ ं :1.महेंद्र भीष्ट्म, ‘मकन्नर कथा’ साममयक बक्ु स, नई मदल्ली, (2011) पृ.31 2.नीरजा माधव, ‘यमदीप’ सनु ील सामहत्य सदन प्रकाशन, नई मदल्ली, (2009) पृ.16 3.मनमाला भरु ामड़या, ‘गल ु ाम मंडी’ साममयक प्रकाशन, नई मदल्ली (2016) फ्लेप पेज से-

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4.मनमाला भरु ामड़या, ‘गल ु ाम मडं ी’ साममयक प्रकाशन, नई मदल्ली (2016) पृ.57 5.प्रदीप सौरभ, ‘तीसरी ताली’ वािी प्रकाशन, नई मदल्ली,(2011) पृ.5 6.ममता कामलया, नवभारत टाइम्स, समाचार पत्र, मसतम्बर (2016) नजररया से-

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िोध आलेख /Research Article

ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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ISSN: 2454-2725

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MkW- jkefoykl “kekZ us *izsepan* ij Hkh

dks Li’V djrs gq, Nk;kokn esa fufgr lkekftd

ewY;kadu fd;k gSA mUgksaus mu ij nks iqLrdsa

lR; dk mn~?kkVu fd;k gSA *Nk;kokn* iqLrd

fy[kh gSaA igyh iqLrd *izsepan* ¼1941 bZ-½ vkSj

esa mUgksua s dqy ckjg v/;k; fy[ks gSaA MkW- ukeoj

nwljh *izsepUn vkSj mudk ;qx* ¼1952 bZ-½ esa

flag ds vuqlkj] **---- tgka ;qx fo”ks’k dh

izdkf”kr gqbZ FkhA *izsepUn* fgUnh vkykspuk esa

dkO;/kkjk ds laca/k esa bu “kCnksa ¼Nk;kokn½ ij

og igyh iqLrd Fkh ftlesa izsepan ds egÙo

fopkj

jgL;okn]

dks le>k vksj le>k;k x;k FkkA bl iqLrd

LoPNanrkokn] Nk;kokn rhuksa ,d gh dkO;/kkjk

esa MkW- “kekZ us Hkkjrh; lekt dh cukoV dk

dh fofo/k izo`fRr;ka ekywe gksrh gSaA**6 *Nk;kokn*

ifjp; nsrs gq, ;g fn[kyk;k fd izsepUn us

iqLrd ukeoj

flag dh lkSan;Z;kfHk:fp]

fofHkUu oxksZa vkSj muds chp ds laca/kksa dk fdl

dyk&foospu vkSj f”kYi ehekalk dk l”kDr

:Ik esa fp=.k fd;k gS vkSj mu oxksZa esa ls dkSu

mnkgj.k gSA oSKkfud fodkl vkSj O;fDr ds

lk oxZ feV jgk gS vkSj dkSu lk oxZ mB jgk

fojkV gksus dh vkdka{kk Nk;kokn ds ewy esa gSA

gSA MkW- “kekZ ds vuqlkj] **izsepUn dk fpUru

MkW- ukeoj flag us bUghsa dks dsUnz esa j[kdj

cgqr dqN ekSfyd Fkk] lektoknh ØkfUr ds lHkh

Nk;kokn dh fo”ks’krkvksa dk o.kZu fd;k gSA og

vaxksa dk lw{e fo”ys’k.k fd, fcuk Hkh mUgksua s

fy[krs gSa] **;fn uwru & izd`fr ifjp; bl

vuqHko fd;k Fkk gekjk vkn”kZ] O;fDrxr laifRr

Lok/khurk dk ifj.kke u Fkk rks Nk;kokn ;qx

ls vyx lef’Voknh gksuk pkfg,A**9 izsepan ds

ls iwoZ f}osnh ;qx vkSkj f}osnh ;qx ls iwoZ

dqN miU;klksa dk vUr d`f=e vksj vkn”kZoknh

HkkjrsUnq ;qx rFkk mlls Hkh ikap N% lkS o’kksZa ds

<ax ls fd;k x;k gS] MkW- “kekZ us bls izsepUn

laiw.kZ ek/;;qx esa ,slk izd`fr izse laHko D;ksa

ds ;qx dh lhek dgk gSA izsepUn ds izeq[k

ugha gks ldkA**7 Nk;kokn ds ewY;kadu esa MkW-

miU;klksa ij MkW- “kekZ us vyx vyx vkSj

ukeoj flag us izxfr”khy n`f’Vdks.k viuk;k gSA

dgkfu;ksa ij ,d gh v/;k; esa fopkj fd;k gSA

oLrqr% ukeoj flag igys dfo ckn esa vkykspd

MkW- “kekZ ekurs gSa fd pUnzdkUrk vkSj frfyLe

cusA Nk;kokn dk LFkkf;Ro dk vk/kkj Li’V

gks”k:ck ds i<+us okys yk[kksa Fks ijarq izsepUn

djrs gq, fy[krs gSa] **Nk;kokn dk LFkkf;Ro

us bu yk[kksa ikBdksa dks lsok lnu dk ikBd

mlds O;fDrokn esa ugha] mldh vkReh;rk esa

cuk;k ;g mudk ;qxkUrdkjh dke FkkA os

gS] lekt Hkh:rk esa ugha] izd`fr izse esa gSA

fy[krs gSa] **ogh gksjh ftlus esgrk dks mBkdj

dYiuk esa ugha] okLrfodrk esa gS] mfDr oSfp=;

ns ekjk Fkk] yw [kkdj eSnku esa fxj iM+rk gSA**10

esa ugha] vfHkO;atuk ds izlkj esa gSA**8 ukeoj

MkW- “kekZ us izsepUn ds ik=ksa ds tfVy vkSj

flag us Nk;kokn dks mPp flagklu ij cSBk;kA

nqgjs fodkl dks ns[kk gSA oLrqr% MkW- jkefoykl

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

fd;k

tkrk

gS

rks


Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

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“kekZ us izsepUn dks dchj] rqylh vkSj HkkjrsUnq

*eksgu jkds”k* ds ckjs esa fy[krs gSa fd **jkds”k

dh ijEijk ls tksM+k gSA ,slk djds MkW- “kekZ us

gj ?kVuk esa dgkuh <w¡< ysrs gSa ysfdu mUgsa

dsoy izsepan dks LFkkfir gh ugha fd;k

vHkh fctyh dh dkSFk gh idM+h gS] *”kfDr

izxfroknh vkykspuk i)fr dks Hkh gekjh tkrh;

ughaA**11

ijEijk ls tksM+k gSA ftl rjg MkW- “kekZ x। ds ys[kdksa dk vkykspukRed ewY;kad.k djrs gSa] mlh izdkj

ftl izdkj *fujkyk* dks Nk;kokn ds dsUnz esa LFkkfir djus dk Js; jkefoykl “kekZ dks gS] Bhd mlh izdkj ubZ dfork esa eqfDrcks/k dks LFkkfir djus dk Js; ukeoj flag dks gSA

ukeoj flag Hkh *dgkuh % u;h dgkuh* esa x।

lu~ 1948 bZ- esa MkW- “kekZ dh iqLrd *fujkyk*

ds ys[kdksa dk ewY;kadu djrs gSaA lkFk gh

izdkf”kr gqbZA ml le; lw;Zdkar f=ikBh

dgkuh vkSj fo”ks’kr% fgUnh dgkuh dh ,d izeq[k

fujkyk vkt tSls izfrf’Br u FksA muij gj

izd`fr ubZ dgkuh ds lS)kafrd vkSj O;kogkfjd

rjQ ls izgkj gks jgs FksA ml le; MkW- “kekZ

i{k ij izdk”k Mkyrs gSaA *dgkuh% u;h dgkuh*

muds lkFk [kM+s gq,A MkW- “kekZ ds bl izse dks

esa ukeoj flag fgUnh dgkuh dk lanHkZxr

ns[kdj ukeoj flag fy[krs gSa] **tSls 1857 dk

v/;;u djrs gq, mldh lhekvksa vksj

dksbZ ohj] lSukuh ;q) NksM+dj lkfgR; ds eSnku

miyfC/k;ksa dks js[kkafdr djrs gSaA fueZy oekZ

esa pyk vk;k gksA**12 fujkyk dks ysdj MkW- “kekZ

dh ifjans tSlh dgkfu;ksa dh fo”ks’k miyfC/k dks

us *fujkyk dh lkfgR; lk/kuk* rhu [kaM+kas esa

Hkh egÙo fn;k gSA ukeoj flag ekurs gSa fd

izdkf”kr dhA MkW- “kekZ ekurs gSa fd mnkUr

dgkuh dh ppkZ esa vu;kl gh ubZ dgkuh “kCn

d:.kk] la?k’kZ dh {kerk] nq%[k dk xgu cks/k]

py iM+k gS vkSj lqfo/kkuqlkj bldk iz;ksx

VªSftMh ds ewy midj.k gSa vkSj fujkyk dks ;s

dgkuhdkjksa us Hkh fd;k gS vkSj vkykspd us HkhA

midj.k l?kuk ek=k esa izkIr FksA oLrqr% og

oLrqr% ubZ dgkuh ;FkkFkZ vkSj thou dh

vius ;qx ds lcls cMs VªSftd dfo FksA fujkyk

okLrfodrkvksa ds vadu ds vk/kkj ij vius dks

dh Hkk’kk ij MkW- “kekZ fy[krs gSa] **fujkyk viuh

fiNyh dgkuh ls vyx djrh gSA ukeoj flag

dfork ds fy, ubZ Hkk’kk x<+rs gSa] blds fy,

ds vuqlkj dgkuh ds dgkuhiu dh j{kk djrs

og laLd`r “kCn laink dk lgkjk ysrs gSa] fdUrq

gq, Hkh dgkuh ds f”kYi esa uohurk mRiUu dh

u rks ml ij iwjh rjg fuHkZj jgrs gSa u gh

tk ldrh gSA ukeoj flag] fueZy oekZ d`r

mldk mi;ksx djus esa laLd`r dfo;ksa dh

*ifjans* dks ubZ dgkuh dh igyh d`fr ekurs gSaA

vfHk:fp dk vuqlj.k djrs gSaA**13 MkW- “kekZ

ukeoj flag us *jktsUnz ;kno* dks *my>ko* vkSj

fujkyk dks ukjh ds lkSUn;Z] iq:’k vkSj ukjh dh

*vokLrfod* dgkuh dk dgkuhdkj ekuk gS rFkk Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

dkepsruk vkSj ml psruk dh LokHkkfod वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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ifj.kfr ds dfo ekurs gSaA MkW- “kekZ us fujkyk

var}aZ} dh tks Nk;k O;fDr ds tkx:d eu esa

ds vUrfoZjks/k vkSj mudh dkO; dyk ij Hkh

izfrfcafcr gks jgh gS] mlh ds ekfeZd fp=.k dk

fopkj fd;k gSA os fujkyk ds dforkvksa]

iz;kl eqfDrcks/k us ckj ckj fd;k gSA mudh

dgkfu;ksa dk Hkh ewY;akdu djrs gSaA muds

dforkvksa esa vkRela?k’kZ ls fNVdh gqbZ

vuqlkj *ljskt Le`fr* esa ,d nwljk uk;d gS

fpuxkfj;ksa dh fp= Ja[kyk feyrh gSA os

tks *jke dh “kfDr iwtk* ds jke dh rjg vius

eqqfDrcks/k dks ;qx ds lQy ugha lkFkZd dfo

ls izcy “k=q dk ;q) dkS”ky ns[krk gSA MkW-

dgykus ds ;ksX; ekurs gSa vkSj dgrs gSa fd

ukeoj flag Hkh ekurs gSa fd fujkyk dk thou

dHkh dHkh lkFkZdrk lQyrk ls Js;Ldj gSA

vR;Ur mFky iqFky dk] la?k’kksa dk thou jgk

lkFk gh MkW- ukeoj flag us MkW- jkefoykl “kekZ

gS] fdUrq mudh dforkvksa esa dsoy O;fDrxr

vkSj eqfDrcks/k dk varj Li’V fd;k gSA D;ksfa d

la?k’kksa dk fp= jgrk rks mudk ;qxkUrjdkjh

moZ”kh dh vkykspuk ds izlax esa ;fn jkefoykl

egRo u gksrkA fujkyk dks O;fDrxr la?k’kZ

“kekZ ,d Nksj ij gSa rks eqfDrcks/k nwljs Nksj ij

muds ;qx ds la?k’kZ dk vax jgk gSA

gSaA oLrqr% MkW- ukeoj flag dks MkW- “kekZ dh

*eqfDrcks/k* ukeoj flag ds fiz; dfo jgs gSaA mUgksaus eqfDrcks/k dh dfork ij *d`fr ¼1958 bZ-½ esa *vkRela?k’kZ

vkSj dfork* uked ys[k

fy[kkA mUgksaus n`<+rkiwoZd bl ckr dks js[kkafdr fd;k fd eqfDrcks/k ds dkO; dh eq[; izo`fRr

*LFkwy* n`f’V vkSj likV *fparu* ls ,rjkt FkkA MkW- jkefoykl “kekZ efqDrcks/k ds ckjs esa fy[krs gSa] **eqfDrcks/k dork ds fy, thrs Fks vkSj mudh dfork dh ,d cqfu;knh leL;k ekDlZokn ls muds O;fDrxr ds laca/k dh FkhA**14

vkRela?k’kZ dh gSA eqfDrcks/k dks u;h dfork ds

jkefoykl “kekZ fgUnh vkykspuk ds

dsUnz esa LFkku fnykus dk lcls igyk lgh

lanHkZ esa jkepanz “kqDy dk egÙo vf/kd

iz;kl MkW- ukeoj flag us *dfork ds u;s

Økafrdkjh ekurs gSa] gtkjhizlkn f}osnh dh

izfreku* esa fd;kA mUgksaus 1964 bZ- esa ,d

rqyuk esAa tcfd ukeoj flag dh n`f’V esa f}osnh

lkfgfR;d dh Mk;jh dh foospuk xks’Bh esa Hkh

th dk egRo “kqDy ds cjkcj gh gSA MkW-

mudh leh{kk dh FkhA os ekurs gSa fd eqfDrcks/k

jkefyokl “kekZ us fgUnh ds vR;Ure vkykspd]

u;h dfork ds ikBdksa ds chp iwoZ ifjfpr rks

ia- jkepUnz “kqDy ij viuh vkykspuk n`f’V

gSa] ysfdu yksdfiz; ugha gS] D;ksafd mudh

foLrkj ls Mkyh gSA mUgksaus “kqDy ij *vpk;Z

dfork,a vDlj yach gksrh gS] my>h fn[kkbZ

jkepanz “kqDy vkSj fgUnh vkykspuk* uked

iM+rh gSa vkSj ckSf)d yxrh gSA os vkxs crkrs

iqLrd fy[kh gSA os fgUnh lkfgR; esa “kqDy dk

gSa fd eqfDrcks/k ds dforkvksa dk dsUnzh; fo’k;

ogh egRo ekurs gSa tks miU;kl esa izsepan ;k

gS] vkt ds O;fDreu dk var}ZUnA lkekftd

dfork esa fujkyk dk gSA os dgrs gSa fd **”kqDy

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th u rks Hkkjr ds :f<+okn dks Lohdkj djrs

“kqDy&gtkjh izlkn f}osnh] nks /kkjkvksa ls tksM+us

gSa u if”pe ds O;fDrokn dksA mUgksaus ckgî

dk iz;kl Hkh gqvk gS] fdarq ukeoj flag us nksuksa

txr vkSj ekuo thou dh okLrfodrk ds

fo}kuksa ds egRo dks Lohdkj djrs gq, f}osnh

vk/kkj ij u;s lkfgR; fl)kUrksa dh LFkkiuk dh

th ds ;ksxnku dks js[kkafdr fd;k gSA ukeoj

vkSj muds vk/kkj ij lkeUrh lkfgR; dk fojks/k

flag ds vuqlkj f}osnh th vkpk;Z “kqDy dh

fd;k vkSj ns”kHkfDr vkSj turU= dh lkfgfR;d

ijaijk ds vkykspd ugha gS D;ksafd og ekurs gSa

ijaijk dk leFkZu fd;kA**15 bl iqLrd esa MkW-

“kqDy th dh n`f’V esa lwj dh xksfi;ksa dk izse

“kekZ us “kqDy th ij fofHkUu fo}kuksa vkSj

,dkafrd gS tcfd f}osnh th dh n`f’V esa og

vkykspdksa us tks vk{ksi fd, gSa mudk leqfpr

yksdoknh gSA “kqDy th leUo; ds vkn”kZ rqylh

mRrj fn;k gS vkSj lexz :i esa “kqDy th dh

ds i{k/kj gSa tcfd f}osnh th fonzksgh dchj ds

vkykspuk n`f’V rFkk muds vkykspuk dk;Z dk

FksA MkW- ukeoj flag us rqylhnkl ds fo’k; esa

ewY;kadu fd;k gSA MkW- “kekZ “kqDy th ds }kjk

fy[kk gS] **fgUnh tkfr ds lcls cM+s] tkrh;

fd xbZ lUr lkfgR; ij mudh vkykspuk vkSj

dfo dh thou dFkk ds }kjk fujkyk us viuh

mu ij dbZ rjg dh ladh.kZrk ds vkjksi dk

lelkef;d ifjfFkfr;ksa esa jkLrk fudkyus dk

mRrj Hkh fn;k gSA os fy[krs gSa] **”kqDy th us

ladsr fn;k gSA**18 MkW- jkefoykl “kekZ us Hkh

rqylh ds bl izse dks igpkuk mls ljkgk] mls

rqylh ij vkykspukRed n`f’V Mkyh gS vkSj

ds”ko&fcgkjh ds izse ls ,dne fHkUu ekuk] ;gh

vius ys[kksa ls muds }kjk viuh ekU;rkvksa dks

mUgsa fgUnh dk egku vkykspd cukrk gSA16 MkW-

Li’V fd;k gSA MkW- “kekZ rqylh ds dkO; dks

“kekZ us bfrgkldkj ds :Ik esa Hkh “kqDy th dh

;FkkFkZoknh ekurs gSa D;ksafd rqylh dh ekuoh;

leh{kk djrs gSaA

lgkuqHkqfr dk vk/kkj lkekftd ;FkkFkZ gSA muds

*nwljh ijaijk dh [kkst* uked iqLrd esa ukeoj flag vius xq: vkpk;Z gtkjhizlkn f}osnh ds fparu vkSj l`tu ds ekSfydrk dks js[kkafdr fd;k gSA os fy[krs gSa] **dchj ds ek/;e ls tkfr/keZ fujis{k ekuo dh izfr’Bk dk

vuqlkj rRdkyhu lekt dk tSlk Hkjk iwjk fp= rqylh dh jpukvksa ls feyrk gS oSlk ml le; ds vkSj dfo;ksa dh jpukvksa esa ugha feyrkA MkW“kekZ us rqylh dh Hkk’kk uhfr dks izxfr”khy n`f’V dk ifjpk;d ekuk gSA

Js; f}osnh th dks gh gSA ,d izdkj ls ;g

ukeoj flag ewyr% dfork ds vkykspd

nwljh ijaijk gSA**17 bl v’Vk/;k;h esa ukeoj

FksA *dfork ds u;s izfreku* esa mUgksaus ubZ

flag us izR;sd v/;k; esa f}osnh th dh ,d ,d

dfork ds ewY;akdu ds u dsoy u, izfreku

jpuk dks vk/kkj cuk dj ml ij xgjkbZ ls

<¡w<s cfYd mudh lkFkZdrk dk ijh{k.k Hkh

fopkj ppkZ dh gSA bl iqLrd dks jkepanz

fd;kA dfork ds u;s izfreku] esa u, oLrq vkSj

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:Ik dk lac/a k dF; dFku laca/k ds :Ik esa fd;k

tSls fd dykRed lkSUn;Z dk vk/kkj] vkLFkk

gSA dfork ds u, izfreku esa jl ds izfreku]

dk iz”u] bfrgkl vkSj vkykspuk ls tqM+s iz”uksa

dkO;fcac vkSj likVc;kuh] dkO; Hkk’kk vkSj

ij Hkh fopkj fd;k gSA MkW- ukeoj flag ds

l`tu”khyrk] vkfn tfVy iz”uksa ij xaHkhjrk ls

vkykspukRed foosd dh lkFkZdrk bl ckr esa

fopkj fd;k gSA og fu’d’kZ crkrs gSa fd **dfork

gS fd mUgksaus laf”y’V lelkef;d cks/k dks

fcac dk Ik;kZ; ugha gSA lkekU;r% ftls fcac

ifjHkkf’kr vkSj laxfBr djus dk iz;Ru fd;k

dgk tkrk gS mlds fcuk Hkh dfork,a fy[kh

gSA mUgksaus Nk;kokn ds izeq[k dfo;ksa dh Hkh

xbZ vkSj os dforkvksa ls fdlh Hkh rjg de

vkykspuk dh gSA fujkyk dh dfork dks dYiuk

vPNh ugha dgh tk ldrh gSaA**19 dfork ds

ds dkuu dh jkuh ekurs gSaA og izlkn dks

u;s izfreku esa gh u;h dfork ds ewY;kadu dk

*fo”o dYiuk*] iar dks *f=Hkqou dh dYiuk

vk/kkj r; djus ds fy, ukeoj th laLd`r

egku* rFkk Nk;k dks *dfo;ksa dh xw<+ dYiuk*

dkO; “kkL= ds [kkl dj jl fl)kar dh leh{kk

lh dgrs gSaA ukeoj flag yksdthou dh

djrs gSa] bruk gh ugha mldh leh{kk djus okys

l`tu”khy “kfDr dh vfuok;Zrk ij cy nsrs gq,

vkykspdksa dh Hkh leh{kk djrs gSaA ukeoj th

fy[krs gSa] yksdthou ,slh “kfDr gS tks

dgrs gsa] **vkpk;Z “kqDy jl dks gzn; dh

lkekftd xfrjks/k dks rksM+us ds lkFk gh

vuqHkwfr dg dj gh larq’V ugha gq, cfYd

lkfgfR;d xfrjks/k dks Hkh lekIr djrh gSA**21

mUgksaus vFkZ ehekalk dh fn”kk esa Hkh fopkj ijaijk

mUgksaus lkfgR; ds fo’k;oLrq ij cy nsrs gq,

vkxs c<kbZ] D;ksafd vFkZ&ehekalk ds fcuk jl

dgk gS fd **fo’k; oLrq ij tksj nsus dk vFkZ

viw.kZ gh ugha] cfYd fujFkZd gSA**20 ukeoj flag

gS ewrZ vkSj Bksl :Ik esa ;qx lR; dks

ekurs gSa fd ftl rjg oS;kdj.k Hkk’kk ds “kCn

igpkuukA**22 og fy[krs gSa fd dfork

ugha cukrk] mlh rjg vkykspd Hkh dkO; ds

jktuhfrd vkSj lkekftd ?kVukvksa dk vfody

ewY;kas dk fuekZ.k ugha djrkA dkO;kuq”kklu dk

vuqokn ugha gSA dkO; esa vfHkO;fDr bruh

vk/kkj gS u;s dkO; l`tu esa fufgr ewY;ksa dk

laf”y’V gksrh gS fd mlesa jktuhfrd vkfFkZd]

izfrfHkKku ;k igpkuA ukeoj flag th us dkO;

/kkfeZd] lkekftd vkfn rRoksa dk fo”ys’k.k

Hkk’kk ds izfreku nsrs gq, mls thou dh

ljyrk ls ugha fd;k tk ldrk gSA oLrqr%

okLrfodrk ls tksM+k gS rFkk 1989 bZ- esa

ukeoj flag us vkykspuk dks oSpkfjd la?k’kZ dk

izdkf”kr *okn fookn laokn* esa ledkyhu Hkk’kk

lk/ku ekuk gSA

lkfgR; rFkk vkykspuk dh ewyHkwr fparkvksa ls lac) fo’k;ksa ij fopkj fd;k gSA bfrgkl vkSj vkykspuk esa ukeoj flag lkfgfR;d vkykspuk

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

MkW- jkefoykl “kekZ us Nk;koknksRrj fgUnh dfork dk vkykspukRed ewY;kadu fd;k gSA os ekurs gSa fd lu~ 1954 bZ- esa ubZ dfork वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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ds izdk”ku ls “kq: gksus okyh ubZ dfork

ukeoj flag dh vkykspuk n`f’V esa ledkyhu

vfLrRooknh dfork gS tks Nk;koknh f”k”kq

laons u”khyrk dh O;atuk gksrh gS vkSj lkFkZd

vkLFkk ds fo:) O;fDrfu’B foods ij cy nsrh

vkykspuk esa ledkyhu laons u”khyrk dh

gS vkSj ekuo dks y?kq ekuo cukdj mldh

O;k[;kA *jkefoykl “kekZ* dyk dh mi;ksfxrk

foo”krk vkSj ijkt; ds Hkksxus dks dfo dh ije

dh LFkk;h ewY; vkSj ewY;kadu] fo’k;oLrq vkSj

miyfC/k ekurs gSaA og ekurs gSa fd jksekafVd

laizs’k.k] thou la?k’kZ ij tksj nsrs gSa rks *ukeoj

dfo;ksa dh fujk”kk] vdsysiu dh Hkkouk vkSj

falg* dyk vkSj jktuhfr] fopkj/kkjk vkSj n”kZu]

bl vko/kkjk ds okfjl dfo;ksa dh dqaBk vkSj

laizs’k.k vkSj :Ik ij cy nsrs gaSA ekDlZoknh

?kqVu bfy;V dh ,dek= Hkkofuf/k gSA og

vkykspuk vkSj lkSUn;Z”kkL= ds l`tu {ks= esa

izxfr”khy dfork dh detksjh ekurs gSa &

jkefoykl “kekZ Hkkjrh; l`tu ds es:naM gS]

fopkj i{k dh vLi’Vrk vkSj dykRed

ogha ukeoj flag mUgsa izxfr”khy vkykspuk ds

f”kfFkyrkA muds vuqlkj] **Nk;koknksRrj fgUnh

vxznrw gksus ds lkFk gh fgUnh tkfr ds izfrfuf/k

dfork vFkok ubZ dfork dh lokZf/kd egRoiw.kZ

lekykspd ds :Ik esa Lohdkjrs gSaA MkW-

/kkjk mldh izxfr”khy vFkok ;FkkFkZoknh /kkjk

jkefoykl “kekZ us cMh yxu] Je vkSj vuojr

gSA**23

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‘रागदरबारी’ और ‘नागपिक’ उपन्द्यािों का

यह आवरि हटाकर अपने अत्यंत मवकृ त एवं मघनौने

तुलनायमक अध्ययन: राजसनसतक एिं

रूप में हमारे समक्ष अट्टहास करती अपनी कुमटल

िामासजक पररप्रेक्ष्य में

जीत के वीभत्स जश्न मना रही है, मजसका यथाथा मचत्रि बड़े ही सहज ढंग से ‘राग दरबारी’ एवं

मुदसस्िर अहमद भट्ट

‘नागपवा’ उपन्यासों में हुआ है ।

शोधाथी महदं ी मवभाग कश्मीर मवश्वमवद्यालय श्रीनगर email: mudasirhindi@gmail.com

‘राग दरबारी’ उपन्यास में उपन्यासकार श्रीलाल शक्ु ल स्वातत्र्ं योत्तर राजनीमत के मवमभन्न पक्षों को मवमभन्न रूपों में मचमत्रत करता है । ग्रामीि पररवेश

तल ु नात्मक प्रवृमत मनष्ट्ु य की जन्मजात प्रवृमत है ।

की राजनीमत स्वतंत्रता पिात् मकन पररवतानों एवं

अपनी इसी प्रवृमत के द्वारा ही मनष्ट्ु य वस्तओ ु ं में

पररवेशों से होकर गजु री है, उसी को उपन्यासकार

अन्तमनामहत अतं र को तथा उनकी श्रेष्ठता को जान

रे खांमकत करता है और एक मवकृ त एवं मवरूप समाज

लेता है। ज्ञान की पररपमु ि एवं समृमद्ध वस्ततु ः तल ु ना

की तस्वीर पाठकों के समक्ष प्रस्ततु करता है । राजेश

के मबना संभव नहीं है। तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा

जोशी इस उपन्यास को एक ऐसा रूपक मानते हैं “जो

मवज्ञान, सामहत्य, कला, उद्योग आमद मवमभन्न क्षेत्रों

आज़ादी की कथा और आज़ादी के बाद बने शमक्त

का अनश ु ीलन एवं मल्ू यांकन मकया जाता है । इसी

के न्द्रों को महीन कुशाग्रता से उजागर करता है ।”1

सन्दभा में श्रीलाल शक्ु ल के ‘राग दरबारी’ तथा

वही डॉ. चंद्रकांत वांमदवडेकर का मानना है- “राग

गरु चरि मसंह के ‘नागपवा’ उपन्यासों का तल ु नात्मक

दरबारी’ स्वातत्र्ं योत्तर पररमस्थमत के सम्यक पररवेश

अध्ययन मकया जा रहा है । इस अध्ययन में आलोच्य

को समेटने वाला जीवतं दस्तावेज़ है ।”2 उपन्यासकार

कृ मतयों में मचमत्रत राजनीमतक एवं सामामजक साम्य-

गरु चरि मसहं ने भी अपने उपन्यास ‘नागपवा’ में भ्रि

वैर्षम्य का मल्ू याक ं न मकया जाएगा ।

राजनीमतक सत्ता तथा पमु लस तंत्र की मवभीमर्षकाओ ं

स्वातंत्र्योत्तर भारत की राजनीमत ने आदशों से स्वाथों तथा मनकृ ि कोमट की महत्वाकांक्षाओ ं तक की यात्रा बहुत कम समय में तय कर ली है तथा अब

को उजागर करने का सफल प्रयास मकया है । इस उपन्यास के सम्बन्ध में डॉ. शैल कुमारी का मत हैं“आज़ादी के बाद देश में मवर्षम राजनीमतक और आमथाक मस्थमतयों के कारि उत्पन्न मानव मल्ू यों का

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हनन करने वाली भ्रि व्यवस्था को लेखक ने

महसं क कायों की लीलाभमू म बन गई है, जहाँ साध्य

‘नागपवा’ उपन्यास में रे खांमकत करने की कोमशश की

महत्त्वपिू ा है, साधन भले कोई भी हो । ‘राग दरबारी’

है ।”3

उपन्यास के एक पात्र रुप्पन के शब्दों में- “देखो दादा, स्वातंत्र्योत्तर भारत में चनु ाव के हलचल के

यह तो पोलमटक्स है । इसमें बड़ा- बड़ा कमीनापन

साथ ही राष्ट्रीय जीवन में एक नया अध्याय प्रारम्भ

चलता है. ... दश्ु मन को जैसे भी हो, मचत्त करना

हुआ । मजन नेताओ ं ने त्याग, बमलदान, तपस्या से

चामहए ।”5 इसी राजनीमत की दावं पेंच को एक अन्य

स्वतत्रं ता प्राप्त की थी, स्वतत्रं ता पिात् उनमें से कुछ उपेमक्षत हुए और कुछ ऐसे लोग स्वयं ही नेता बन बैठे मजन्होंने स्वतंत्रता प्रामप्त के मलए कोई त्याग नहीं मकया था । फलतः राष्ट्र नैमतक दृमि से उन्नमत के स्थान पर अवनमत ही करने लगा । ‘मकसी समय नेता कहलवाना गवा की बात होती थी लेमकन आज शमा की बात क्यों हो गई है ? स्पि है उनमें सम्मानजनक

स्थल पर उपन्यासकार श्रीलाल शक्ु ल ने वैद्यजी के मध्य्यम से इस प्रकार व्यक्त मकया है- “मवरोधी से भी सम्मानपिू ा व्यवहार करना चामहए. देखो न, प्रत्येक बड़े नेता का एक- एक मवरोधी है । सभी ने स्वेच्छा से अपना मवरोधी पकड़ रखा है. यह जनतंत्र का मसद्धांत है । हमारे नेतागि मकतनी शालीनता से मवरोमधयों को झेल रहे हैं ।”6 इसी प्रकार ‘नागपवा’ उपन्यास में

कोई तत्त्व बचा ही नहीं है ।’4 वतामान राजनीमत में

अवसरवामदता, बेईमानी, भ्रिाचार तथा राजनीमतक

मख्ु य धारा के नेता हों या कस्बों के छुटभैया लीडर,

गडंु ागदी से अव्यवस्था तथा अमस्थरता का वातावरि

सत्ता में अपना छोटा स्थान बनाए रखने के मलए तरह-

व्याप्त है । नेताओ ं के मलए ‘कुसी’ अथा​ात् स्वाथा

तरह की चालें चलते रहते है । नेतागरी इनका धधं ा है । चनु ाव के समय नये- नये सधु ार करना, नये पल ु , सडकें बनवाना, गरीबों को मफ्ु त में अन्न, वस्त्र बाटं ना और चनु ाव के उपरान्त जनसेवा के नाम पर जनता का शोर्षि करना इनकी देश भमक्त है । स्वतंत्रता के पिात् राजनीमत में अवसरवादी नेताओ ं की बाढ़ आ गयी । जो पहले अग्रं ेजों के साथ थे वे ही आज स्वतंत्र भारत के देश भक्त बन रहे हैं । राजनीमत मात्र र्षडयंत्रों और Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

साधने का एक साधन है । ‘और जहाँ स्वाथा मदखाई मदया वहां ये नेता कूद पड़ा. कभी मकसी के समथान में सर के बाल कटवाएँगे कभी मकसी के मवरोध में मडंु न करवाएगं े । मजस पर वह थक ू ते है अवसर आने पर वही थक ू चाटने में महचमकचाते नहीं है ।’7 ‘नागपवा’ उपन्यास में ऐसे मनकृ ि राजनीमतक हथकंडों को कई स्थलों पर प्रदमशात मकया गया है- ‘सरकार जानती थी मक मवरोधी दल इस सनु हरी मौके का ज़रूर फायदा वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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उठाएगं े । वह सारे शहर को पोस्टरों से पाट देंगे । धारा

की शमा ढकने के मलए, उसके नंगे बदन पर साफ़-

144 हटते ही भार्षिबाजी पर आजाएगं े । संसद में

सथु री धोती डालने के मलए, उसकी नाक न कटे, वह

शोर मचेगा । पर सरकार भी तो कच्ची गोमलयां नहीं

बेशमा न बने इसमलए चनु ाव होते है परन्तु चनु ावों में

खाई हुई । मख्ु य मवपक्षी नेता को उसी मदन मकसी

लाठी, तमचं े, धन और गडंु ामगरी का प्रयोग मकया

डेमलगेशन का अध्यक्ष बनाकर मवदेश भेज मदया गया

जाता है । इस सब के बल पर चनु ाव जीते जाते है ।

और उसी मदन इस बात को ज़ोर- शोर से प्रसाररत

योमगता को कोई दो टके के मलए नहीं पछ ू ता । इस

मकया गया मक सरकार मकतना मनष्ट्पक्ष है ।’ 8

प्रकार नगं े प्रजातत्रं की शमा ढकने के मलए, जनता की

जहाँ श्रीलाल शक्ु ल ने अपने उपन्यास ‘राग दरबारी’ में वैद्यजी के माध्यम से स्वातंत्र्योतर काल में पैदा हुए नेताओ ं का प्रमतमनमध एवं यथाथा मचत्र खींचा है, वही ँ डॉ. गरु चरि मसंह ने अपने उपन्यास ‘नागपवा’ में बड़े भैया के माध्यम से वतामान राजनीमतज्ञों के कुमत्सत चेहरे का मचत्र खींचा है । वैद्यजी और बड़े

आँखों में धल ू झोंककर चनु ाव का नाटक रचा जाता है। नेता मकस प्रकार से चनु ाव लड़ते है और जीतते है, कै सी- कै सी चाले चलते है। एक दसू रे को नीचा मदखाने के मलए वह कुछ भी कर सकते है । उनके चहरों पर अनेक मख ु ौटे है । ऊपर से सीधे- सरल जनता के महतैर्षी लगने वाले ये नेता अन्दर से मकतने

भैया की राजनीमत भारत की आधमु नक राजनीमत का

काइयां तथा मगरे हुए होते है इसका मचत्रि ‘नागपवा’

प्रमतमनमधत्व करती है । युग की राजनीमतक पररमस्थमत

उपन्यास में गरु चरि मसंह ने बड़ी सहजता से मकया है

को प्रभावी ढंग से मचमत्रत करने में दोनों लेखकों को गजब की सफलता ममली है ।

। ‘नेताजी जानते है गांधीजी के आदशों का, उनके मवचारों का मख ु ौटा पहनकर ही वे अपनी पाटी के मलए वोट बटोर सकते हैं । उन्हें बड़ी ख़श ु ी होती है

प्रजातत्रं का मल ू स्वर है- सरकार जनता की, जनता द्वारा तथा जनता के मलए । अथा​ात् शासन और प्रशासन में जनता की भागेदारी और इसका माध्यम है

जब वह देखते है सभी नेता गाधं ीजी के मख ु ौटे को पहनने के मलए उतावले हैं । प्रत्येक नेता के घर में गाँधी है ।’9

चनु ाव । श्रीलाल शक्ु ल ने कॉलेज, कोआपरे मटव यमू नयन तथा ग्राम पंचायत तीनों में होने वाले चनु ाव

बड़े भैया नेता है, देश के मवत्तमत्रं ी है । उनमें

मदखा कर बता मदया है मक अव्वल तो चनु ाव होते ही

सामदाम दडं भेद के सारे चोंचले अपना मसर उठाये

नहीं, जहाँ तक संभव है उन्हें टाला जाता है । प्रजातंत्र Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

सत्ता की रक्षा के मलए सचेत है । उनकी शतरंजी चाल वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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को समझना आम आदमी के बतू े की बात नहीं । आज

इलेक्शन, पोस्टरबाजी, नारे , भार्षि इन सभी के पीछे

राजनीमत और राजनीमतज्ञों का जो मघनौना चेहरा हमारे

अनैमतक, भ्रिाचार काम करता है।’12

सामने है, ‘नागपवा’ उपन्यास में उसे यथाथापिू ा ढंग से उभारा गया है । बड़े भैया और उनके अमधकारी छलकपट के सहारे प्रधानमत्रं ी तक अपनी पहुचँ बनाएं रखते है और अपने मवरोमधयों का सफाया करते रहते है । वह अपने महत के मलए मकसी भी हद तक जा सकते है, मकसी की भी हत्या करवाना वे एक ज़रूरी काम मानते है, उनके मबछाए जाल में फंसकर डी. सी. पी. वमा​ा का जो नैमतक पतन होता है, वह बहुत ही स्वाभामवक और मवश्वसनीय लगता है । इसी प्रकार ‘राग दरबारी’ उपन्यास के पात्र वैद्यजी दोहरे चररत्र के

वैद्यजी और बड़े भैया जैसा व्यमक्त हर यगु में नेता ही बनकर रहता है । अग्रं ेजों का राज्य हो या भारतीय लोगों का, इनकी नेतामगरी में कोई फका नहीं पड़ता । अमधकार लालसा और स्वाथा के ये पतु ले बहाना इस तरह का करते है मक मानो इनका नेतत्ृ व समाज में कल्याि के मलए ही है । ऐसे नेता न कभी बढ़ू े होते है, न बढ़ु ापा इन्हें अमधकार से वमं चत बना सकता है । पमु लस, सरकारी अफसर सबको ये अपने हाथ का मखलौना बनाते है । इनकी कथनी और करनी में बड़ा अतं र होता है ।

व्यमक्त हैं । बाह्य रूप से वह बड़े ही शीलवान, राजनीमतक उपन्यासकार व्यमक्त को मकसी

चररत्रवान, और प्रजातंत्रवादी व्यमक्त प्रतीत होते है, परन्तु भीतर से इसके मबलकुल मवपरीत भ्रि, महसं क एवं शोर्षक व्यमक्त हैं । “हर बड़े राजनीमतज्ञ की तरह वे राजनीमत से नफरत करते थे और राजनीमतज्ञों का मज़ाक उड़ाते थे ।”10 ‘नागपवा’ उपन्यास में ऐसे मनकृ ि राजनीमतक हथकंडों को कई स्थलों पर दशा​ाया गया है । उदहारि- ‘राजनीमत में वही मटक सकता है जो जड़ों में पानी देने वाले की भी खबर रखें और जड़ों को काटने वालों की भी ।’11 दसु रे स्थल पर देमखए राके श की ममत्र प्रभा का यह कथन ‘पैसा, पाटी,

वाद मवशेर्ष का पक्षधर नहीं बनाते, वे तो पाठक को समाज में खल ु ी आँखों चलने की सलाह देते है । जीवन की नस- नस में व्याप्त राजनीमत को श्रीलाल शक्ु ल ने अपने बहुचमचात उपन्यास ‘रागदरबारी’ में माममाक ढगं से मचमत्रत मकया है । मवमभन्न सस्ं थाएं मकस प्रकार राजनीमत के अखाड़े बनते है तथा मवमभन्न राजनीमतक दलों की गटु बमं दयों की चपेट में देश के सवागीि मवकास की जड़ों पर कठोर- घात मकया जा रहा है, मजसकी अमभव्यमक्त ‘नागपवा’ और ‘रागदरबारी’ दोनों उपन्यासों में बड़ी तीव्रता से हुई है ।

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राजनीमत, प्रशासन का सीधा सम्बन्ध समाज

अपने उपन्यास ‘नागपवा’ द्वारा स्पि मकया है- “जब

के साथ होता है । सामामजक जीवन में उभरने वाली

घर में ही आग लगी हो, अपने ही लोग घर को लटू

समस्याएँ ही राजनीमतक प्रश्न बनते हैं । परन्तु यहाँ

रहे हों, चारों ओर आगजनी, लटू - हत्या- बलात्कार

पररमस्थमतयाँ मवपरीत हैं । राजनीमतक जीवन से

का बाज़ार का गमा हो, चारों ओर आतंक के तले

उत्पन्न समस्याएँ ही सामामजक प्रश्न बने हैं । ‘राग

असरु मक्षत जीवन ज़ी रहे हों- तब हमारा क्या कताव्य

दरबारी’ राजनीमतक जीवन का मचत्र ही नहीं प्रस्ततु

है ?”14 एक अन्य स्थल पर ‘नागपवा’ उपन्यास के

करता, बमल्क स्वातत्र्ं योत्तर समाज में पररवमतात होते

प्रधान पात्र ममस्टर वमा​ा का कथन उल्लेखनीय हैं-

जीवन- मल्ू यों, सबं धं ों के मवघटन आमद की गाथा को

‘व्यमक्त का मवरोध तथा मवद्रोह करना होगा । जब तक

अत्यंत यथाथा रूप में प्रभावशाली ढंग से व्यंमजत

वह चपु चाप सहता रहेगा या तटस्थ भाव से घमटत

करता है । डॉ. नंदलाल कल्ला के शब्दों में “गाँवों की

होते हो देखता रहेगा, मल्ू यों का मवघटन जारी रहेगा ।

समचू ी संवदे नात्मक अनुभमू त और वैचाररक

मल्ू यों के मलए, समाज को आधार देने के मलए, जनता

मानमसकता, सामामजक सम्बन्ध और मल्ू यबोध की

को एक जटु होना होगा ।’15

संक्रमानात्मक अनुभमू त की पररवमतात और गमतशील अमभव्यमक्त इस कृ मत में सम्पिू ा रूप से उपलब्ध है । ग्रामीि जीवन की समस्त मवसंगमतयों, प्राचीन-नवीन मल्ू यों का तनाव, मवर्षमता के बेमल े स्वर की स्वीकारोमक्त की गजंू ‘राग दरबारी’ में कदम- कदम प्रमतध्वमनत होती है । ” 13

उपन्यासकार का सामथ्या सामामजक पररवेश को उसकी अच्छाइयों-बरु ाइयों के साथ समग्रता में यथाथा रूप से मचमत्रत करना है । श्रीलाल शक्ु ल जी की यही खबू ी है मक वे पात्रों को पररमस्थमत, यगु , समाज के पररप्रेक्ष्य के बीच प्रस्ततु करते हैं । समाज को अनश ु ामसत रखने के मलए सामामजक नैमतकता

समाज के स्थामयत्व के मलए व्यमक्तयों का

परम अपेमक्षत है । नैमतकता व्यमक्तगत है और

उमचत और ठीक रूप से काया करना आवश्यक है ।

सामामजक भी । समाज की व्यवस्था के मलए दोनों

यमद प्रत्येक व्यमक्त अपनी आवश्यकताएँ सवोपरर

आवश्यक हैं । ‘राग दरबारी’ उपन्यास में सामामजक

माने और अपनी इच्छानसु ार काया करने लगे तो

नैमतकता सहायक होने के बजाय उपहास का मवर्षय

सामामजक संरचना के भनन होने की संभावना हो जाती

बन गई है । मालवीय जी छंगामल कॉलेज के

है । इस प्रकार की धारिा को डॉ. गरु चरि मसंह ने

मप्रंसीपल तथा प्रबंधक वैद्यजी द्वारा मकए जा रहे कायों

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को लेकर नैमतकता की दहु ाई देते है तो गयादीन

राजनीमतक दलों की गटु बंमदयों की चपेट में देश के

व्यंगात्मक स्वर में कहता है मक- “नैमतकता का नाम

सवािंगीि मवकास की जड़ों पर जो कठोर-घात मकया

न लो मास्टर साहब । मकसी ने सनु मलया तो चलान

है उसकी सशक्त अमभव्यमक्त आलोच्य उपन्यासों में

कर देगा ।”16 इसी प्रकार ‘नागपवा’ उपन्यास में डी.

इस तीव्रता से हुई है मक पाठक मतलममला उठता है.

सी. पी. वमा​ा का नैमतक पतन मदखाया जाता है ।

राजनीमत प्रपच ं ों के मशकार भारतवासी की मज़न्दगी में

वास्तव में वमा​ाजी एक ऐसे समाज में रह रहे है मजसमें

जो धनु लगा जा रहा है, वह एक ननन सत्य बनकर

भ्रि पमु लस तथा भ्रि राजनीमत की सड़ाधं है जो एक

‘राग दरबारी’ तथा ‘नागपवा’ उपन्यासों में उभरा है ।

ईमानदार पमु लस अमधकारी को भी भ्रि हो जाने के मलए मववश करता है । वमा​ाजी ने पमु लस में रहते हुए लोगों को हज़ारों बनाते देखा है, पदोमन्नत पाते तथा सम्मामनत होते देखा है । उपन्यासकार गरु चरि मसंह इस वगा पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं- “पैसे भी न मारे तो पमु लस की नौकरी का क्या लाभ?”17 मनष्ट्कर्षातः राजनीमत व्यमक्त और समाज के मलए वतामान पररप्रेक्ष्य में मनत्य का भोजन जैसी ही हो गई है । पररवार में, स्कूल, कॉलेज, मवमभन्न काया​ालयों, ममं दर, ममस्जद सभी में राजनीमत का मशकंजा इतना जकड़ा हुआ है मक उससे ममु क्त की बात सोंची ही नहीं जा सकती । इस दृमि से श्रीलाल शक्ु ल

िन्द्दभक 1 संपा. प्रेम जनमेजय, श्रीलाल शक्ु ल: मवचार मवश्ले र्षि एवं जीवन, पृ. 30 2 डॉ. चंद्रकांत वांमदवडेकर, उपन्यास: मस्थमत और गमत, पृ. 296 3 संपा. डॉ. अनपु म माथरु , गरु चरि मसंह: स्मृमत, आख्यान और मवमशा, पृ. 83 4 मानचंद खडं ेला, भारतीय राजनीमत मसद्धांत और व्यवहार, पृ. 26 5 राग दरबारी, पृ. 145 6 वही, पृ. 38

और डॉ. मसंह ने अपने उपन्यासों ‘रागदरबारी’ और

7 सधु ीर प्रसाद पांडेय, उपन्यासों में महानगरीय अवबोध, पृ. 207

‘नागपवा’ में वतामान राजनीमत की मवद्रूपता, मवसंगमत,

8 नागपवा, पृ. 35

ईष्ट्या​ा, प्रपंच, स्वाथा, कुरूपता, भटकाव आमद का

9 वही, पृ. 70

प्रभावशाली ढंग से मचत्रि मकया है । वास्तव में

10 राग दरबारी, पृ. 30

जीवन के नस-नस में व्याप्त इस राजनीमत ने मवमभन्न

11 नागपवा, पृ. 118 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

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12 वही, पृ. 95 13 डॉ. नंदलाल कल्ला, व्यंनयात्मक उपन्यास तथा रागदरबारी, पृ. 263 14 नागपवा, पृ. 28 15 देमखए नागपवा, पृ. 32- 34 16 रागदरबारी, पृ. 95 17 नागपवा, पृ. 20

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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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“ययागपि उपन्द्याि में असभव्यक्त व्यसक्त और िमाज के िहिम्बन्द्ध” कल्पना सिहं रािौर शोधाथी, भारतीय भार्षा कें द्र, जवाहरलाल नेहरु मवमश्वद्यालय, नईमदल्ली Email: kalpana24march@gmail.com Mob. +91 9555994261 िोध िमस्या – त्यागपत्र उपन्यास के माध्यम से सामामजक व्यवस्था में स्त्री की मस्थमत का अध्ययन करना। िोध-िारांि – मनष्ट्ु य एक सामामजक प्रािी है। व्यमक्त के सममु चत मवकास में समाज और उसके मनयमों की महत्वपूिा भमू मका होती है। मकन्तु कई बार यही सामामजक मनयम व्यमक्त के पतन का कारि भी बन जाते हैं। समाज जब अपनी मान्यताओ ं को लेकर रूढ़ हो जाता है तभी वह व्यमक्त के मवकास में बाधक बनने लगता है। नतीजतन या तो क्रामन्त होती है या मफर पतन। त्यागपत्र में जैनेन्द्र, व्यमक्त और समाज के सहसंबंधों पर वाद-मववाद करते हुए सामामजक व्यवस्था में स्त्री की मस्थमत की सवं दे नशील व्याख्या करते हैं। मृिाल का प्रेम जो की सामामजक व्यवस्था में स्वीकाया नहीं था उसके वयमक्तक पतन का कारि बनता है। मृिाल इस पतन को समाज की कमी न मानकर अपनी मनयमत मानती है और मकसी कटी पतगं की तरह आसरे की तलाश में मनरंतर भटकती रहती है। मृिाल के चररत्र का यह नैरन्तया ही उपन्यास की कथा को मवस्तार देता है। त्यागपत्र में सामामजक व्यवस्था या उसके सस्ं कारों को लेकर जैनेन्द्र ने जो प्रश्न उठाये हैं वे प्रश्न ही इस उपन्यास को साथाकता प्रदान करते हैं। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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िोध पि व्यमक्त का अमस्तत्व समाज के मलए है या समाज का अमस्तत्व व्यमक्त के मलए, यही द्वद्वं त्यागपत्र उपन्यास की मल ू संवदे ना है। यही वह मल ू प्रश्न है जो पाठक के मन में शरू ु से आमखर तक चलता रहता है और इस प्रश्न के प्रमत पाठक को सचेत करना जैनेन्द्र का मल ू ध्येय भी जान पड़ता है । यह अलग बात है मक उनका तरीका सीधा न होकर थोड़ा घमु ावदार है । यँू तो जैनेन्द्र प्रेमचंद्र के समकालीन थे, समकालीन इस अथा में मक प्रेमचंद के सामने ही जैनेन्द्र के तीन उपन्यास प्रकामशत हो चक ु े थे, लेमकन जैनेन्द्र और प्रेमचंद दोनों की रचना-भमू म अलग-अलग है, एक के के न्द्र में व्यमक्त है तो दसू रे के के न्द्र में समाज। जैनेन्द्र के सामहत्य का के न्द्र मबंदु स्त्री और उसकी मनोभमू म है। त्यागपत्र में जैनेन्द्र, व्यमक्त और समाज के सहसबं धं ों पर वाद-मववाद करते हुए सामामजक व्यवस्था में स्त्री की मस्थमत की सवं दे नशील व्याख्या करते हैं। जैनेन्द्र ने सनु ीता की भमू मका में मलखा भी है मक ‘कहानी कहना मेरा उद्देश्य नहीं है । इसमलए मृिाल की कहानी, कहानी होते हुए भी समस्या का प्रस्ततु ीकरि और साथ ही उसके मनदान का प्रयास भी है । मृिाल की कहानी पाठक को मसफा मनोरंमजत ही नहीं करती है बमल्क वह पाठक को उसकी अपनी सामाज व्यवस्था के प्रमत सोचने के मलए आममं त्रत भी करती है।’ उपन्यास का मवधान फ़्लैश-बैक शैली में रचा गया है और इसके दो के न्द्रीय पात्र हैं – मृिाल और प्रमोद। मृिाल और प्रमोद का बचपन साथ-साथ ही बीता है और दोनों बआ ु -भतीजे से ज्यादा सखा हैं । मृिाल के चररत्र में कई उतार-चढ़ाव आते हैं, इन पररवतानों को बालक प्रमोद भी देखता है और जज प्रमोद भी। वह मृिाल के बचपन से लेकर जीवन के अतं तक का चश्मदीद गवाह रहा है। उसने मृिाल के वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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व्यमक्तत्व की मवशेर्षताओ ं को नजदीक से देखा है। इसमलए उसे लगता है की उसकी बआ ु दोर्षी नहीं हैं। भले ही समाज की नजर में पामपष्ठा हैं। लेमकन यहाँ अतं द्विंद्व यह है मक सब जानने के बाद भी प्रमोद बआ ु के साथ खल ु कर खड़ा नहीं हो पाता है। यहाँ तक मक आमथाक सहायता करने में भी प्रमोद की मठ्ठु ी बंद ही रह जाती है । यहाँ एक ओर बआ ु के मनदोर्ष होने का यकीन भी है और दसू री ओर साममजक संस्कारों की प्रबलता भी। न तो वह बआ ु को सही कह पाता है और न ही साममजक मान्यताओ ं को गलत ठहरा पाता है। क्या सही है क्या गलत, इस बात का द्वद्वं प्रमोद को अन्दर ही अन्दर सालता रहता है। इस मनः मस्थमत में प्रमोद स्वयं को सही और गलत की समीक्षा करने में असमथा महससू करता है। एक तरफ सखी जैसी बआ ु हैं और दसू री ओर सामामजक मान्यताओ ं का दबाव। प्रमोद का यह मामन्सक अतं द्विंद्व ही जजी से इस्तीफे का कारि बनता है। प्रमोद का यह त्यागपत्र मसफा जज की नौकरी से ही नहीं है, बमल्क उस जड़ समाज से भी है, जहाँ के सामामजक सस्ं कार मकसी व्यमक्त के जीवन से ज्यादा ग्राह्य हैं। इस मनमाम साममजक व्यवस्था के दबाव के कारि ही प्रमोद अपनी बआ ु को उसके प्रेम का प्रमतदान नहीं दे पाता है। प्रमोद आत्मसमीक्षा के समय कहता है की ऐसे नामवरी जीवन की क्या उपादेयता है। आज मैं जज हूँ लेमकन स्वयं से झठू बोलकर। ‘मेरे इस भरी-भरकम मोटे जाजी के शरीर में क्या राई मजतनी भी आत्मा है।’ जैनेन्द्र इसी आत्मसमीक्षा के माध्यम से यह उद्घामटत करते हैं की इस व्यवस्था में जो भी बड़ा है या बन सका है वह अपनी आत्मा को कुचलकर ही। और मनमित ही आत्मा की कीमत पर बड़ा बनना श्रेष्ठ तो नहीं कहा जा सकता है।

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के मदनों में प्रेम हो जाता है और इस प्रेम में वह मकसी मचमड़या या पतंग की तरह मक्त ु आकाश में उड़ना चाहती है। लेमकन सनातनी समाज में मकसी भी ममहला को प्रेम करने या साथी चनु ने की आजादी नहीं है। पररिामस्वरूप मृिाल की भाभी को जब उसके प्रेम का पता चलता है, तब वे अपने साममजक संस्कारों का पालन करते हुए अपराधी मृिाल पर बेंत बरसाती हैं। मृिाल के प्रेम का पररिमत एक बेमल े मववाह के रूप में होती है, फलतः उसकी पढाई भी छूट जाती है। मृिाल इसे मनयमत मानकर और मसखाये गए मनयमानसु ार गृहस्थी चलने का प्रयास करती है। लेमकन वह अपने वैवामहक जीवन की शरु​ु आत सच्चाई के साथ करना चाहती है, इसीमलए वह अपने पमत को अपना प्रेम रूपी सच बता देती है। पररिामस्वरुप मृिाल का सच ही उसका शत्रु बन जाता है। स्वयं ‘दहु ाज’ू होने के बाद भी पमत को पत्नी का प्रेम बदा​ाश्त नहीं हो पाता है, और वे मृिाल को मायके भेज देते हैं। मृिाल को सच बोलने के बदले ‘पमत-पररत्यक्ता’ का तमगा ममलता है। पमत द्वारा त्याग मदए जाने के बाद से ही मृिाल की सघं र्षा-गाथा शरू ु होती है, और यहीं से ही जैनेन्द्र, उपन्यास में मनयमतवाद का प्रवेश कराते हैं। मृिाल का सच ही उसका अपराध बन जाता है।

उपन्यास के प्रारंभ से ही मृिाल का चररत्र प्रयोगधमी जान पड़ता है। मृिाल को अपने कॉलेज

मृिाल ने अपने जीवन में कुल तीन अपराध मकये, उसका पहला अपराध की उसने प्रेम मकया,उसका दसू रा अपराध की वह इस प्रेम को अनमु चत या गलत नहीं मानती है, और उसका तीसरा अपराध यह की वह अपने दाम्पत्य जीवन की नींव सच पर रखना चाहती है। मृिाल के ये तीनों अपराध ही उसके परू े जीवन को एक ‘रेजडी’ बना देते हैं। क्योंमक हमारे सामाज में एक स्त्री को प्रेम करने या साथी चनु ने की आजादी नहीं है, इसीमलए मृिाल का प्रेम उसके जीवन की सारी वेदना, सारे कि का मल ू

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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बन जाता है। वह जीवन जीने के मलए तरह-तरह के संघर्षा करती है। जैनेन्द्र मनमित रूप से प्रयोगधमी लेखक हैं त्यागपत्र में वे गांधीवादी सत्याग्रह के मसंद्धांत का प्रयोग नैमतक संबंधो के बीच करते हैं। सत्याग्रह के मसद्धांत के तहत व्यमक्त अपने सत्य के मलए स्वयं को प्रस्ततु करता है और इस प्रस्ततु ीकरि में वह हर प्रकार के कि सहने को तैयार रहता है। मृिाल समाज से समझौता न करते हुए अपने सत्य (प्रेम) पर अमडग रहती है। उसका जीवन भी साममजक व्यवस्था में पररवतान के मलए, स्त्री-परु​ु र्ष संबंधों को सही आधार देने के मलए एक प्रकार का सत्याग्रह ही है। जैनेन्द्र के स्त्री-पात्र साममजक-आमथाक रूप से मजबतू न होकर भी समाज में लगातार संघर्षाशील रहे हैं। इस संघर्षा का मल ू आधार है, उनकी सत्यता और आत्मबल। अपने आत्म बल के सहारे ही वह सामामजक गदं गी को स्वीकारने का सक ं ल्प लेती है। वह प्रमोद से कहती है - “सहायता की मैं भख ू ी नहीं हूँ क्या ! ... सहायता मझु े इसमलए चामहए की मेरा मन पक्का होता रहे की कोई मझु े कुचले, तो भी मैं कुचली न जाऊं। और इतनी जीमवत रहूँ की उसके पाप के बोझ को भी ले लँू और सबके मलए क्षमा प्राथाना करूँ।”(1) वह आगे कहती है - “यह बात तो ठीक है की सत्य को सदा नए प्रयोगों की अपेक्षा है, लेमकन उन प्रयोगों में उन्हीं को पड़ना और डालना चामहए मजनकी जान की अमधक सामाज-दर नहीं रह गयीं है।” सामामजक व्यवस्था से संघर्षा कर रही मृिाल स्वयं भी सनातनी संस्कारों से मक्त ु नहीं हो पाती है। ममशनरी अस्पताल वाले मामले में मध्यवगीय साममजक संस्कारों में बंधी हुई ही नजर आती है, की प्राि भले ही चले जाएँ पर धमा न जाने पाए। मृिाल कहीं भी समाज का नकार नहीं करती है, और अपने जीवन को सामामजक प्रयोग की Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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प्रयोगशाला बना लेती है । समाज के इतने गहरे और पीड़ादाई अनभु वों के बाद भी जैनेन्द्र के पास इस साममजक व्यवस्था का कोई मवकल्प नजर नहीं आता है। मृिाल जो की मख्ु य सामाज द्वारा हामशये पर ढके ली जा चक ु ी है, जो स्वयं को फामहशा औरत तक कहने को मजबरू है, जहाँ स्त्री जब तक ससरु ाल की है तभी तक मैके की है, ससरु ाल से टूटी तब मैके से तो आप ही टूट जाती है। जो कटी पतंग की तरह तमाम सामामजक वगों में डोल रही है। ऐसी दशा में भी वह समाज की सलामती की भावना रखती है वह अपनी हालत का मजम्मेदार खदु को ही मानती है। इस मस्थमत में वह आत्मपीड़न का चनु ाव करती है और खदु को मनढाल छोड़ देती है। वह कहती है - “मैं समाज को तोडना-फोड़ना नहीं चाहती हू।ँ समाज टूटा की मफर हम मकसके भीतर बनेंग?े या की मकसके भीतर मबगड़ेंग?े इसमलए मैं इतना ही कर सकती हूँ की समाज से अलग होकर उसकी मगं लकांक्षा में खदु ही टूटती रहू।ँ ”(2) जैनेन्द्र प्रमोद और मृिाल के माध्यम से स्त्रीपरु​ु र्ष सबं धं ों और रूढ़ सामामजकता में पररवतान के आयाम मदखाते हैं। त्यागपत्र में जैनेन्द्र मृिाल के जीवन सम्बन्घी किों का विान-मववेचन नहीं करते हैं अमपतु मृिाल की मनः मस्थमत के माध्यम से समस्या को और उसके संभामवत सामाधान को प्रस्ततु करते हैं। प्रमोद का आत्मालाप, आत्मा की बची-खचु ी आवाज है। यह आवाज मौजदू तो सबके भीतर है पर सब उसे सनु नहीं पाते हैं । इस आवाज को मख ु ररत करना भी त्यागपत्र का उद्देश्य है , प्रमोद और मृिाल के प्रसंगों द्वारा सामामजक व्यवस्था का जैसा मचत्रि जैनेन्द्र ने मकया है, उसके समाधान में वैसे उत्तर वे नहीं दे पाए हैं। जैनेन्द्र प्रेम को स्त्री-परु​ु र्ष संबंधो का आधार तो स्वीकारते हैं, परन्तु साममजक ढांचे के भीतर ही। उनकी धारिा है की सामाज में व्यमक्त बनता मबगड़ता वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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है अतः मकसी भी प्रकार के ररश्ते के मलए सामाज का रहना अमनवाया है। और इस सामाज के अमस्तत्व को बनाए रखने के मलए ही वे मनयमतवाद रचते हैं। यह सही है मक मृिाल की मस्थमत का मजम्मेदार मनमित रूप से वह समाज ही है जो आज भी स्त्री का प्रेम सहज स्वीकार नहीं कर पाता है। हमारे समाज में पमतपररत्यक्त स्त्री या तो कुलता हो सकती है या मफर मदु ा​ा। उसके मलए दसू रा कोई मवकल्प नहीं बचता है। मृिाल के मपता सामान भाई भी उसे यही समझाते हैं मक – “पमत के घर के अलावा स्त्री का और क्या आसरा है। यह झठू नहीं है मृिाल की पत्नी का धमा पमत है और गृह, पमत-गृह है। उसका धमा-कमा और मोक्ष वही है।”( 3)हमारे समाज की मवडम्बना देमखये मक पमतपररत्यक्ता स्त्री को उनका जन्मदाता पररवार भी स्वीकार नहीं करता है। हमारे समाज में छोड़ी गयी स्त्री का न तो कोई सम्मान है और न ही कोई घर। ऐसे में मृिाल के पास, समाज की ढलान पर खदु को मनढाल छोड़ देने के आलावा उपाय ही क्या था। वह समाज से अपने हक के मलए लड़ने की जगह आत्मोत्पीड़न का रास्ता चनु ती है। समाज में स्त्री के अमधकार सम्बन्धी इस तरह के ज्वलतं प्रश्न उठाने के बाद भी जैनेन्द्र यह कहने को मववश हैं मक – “बहुत कुछ जो इस दमु नया में हो रहा है वह वैसा ही क्यों होता, अन्यथा क्यों नहीं होता – इसका क्या उत्तर है; उत्तर हो अथवा न हो, पर जान पड़ता है भामवत्य ही होता है। मनयमत का लेख बंधा है। एक भी अक्षर उसका यहाँ से वहां न हो सके गा। वह बदलता है, बदलेगा नहीं। जैनेन्द्र सामामजक व्यवस्था की कममयां उजागर तो करते हैं, लेमकन इनका समाधान वे मनयमतवाद में मदखाते हैं। मृिाल जीवन भर परू े आत्मबल के साथ सामामजक मनयमों का पालन करती है। ‘दसू रे परु​ु र्ष’ के मलए भी परू े सेवाभाव से सममपात है, उसको मखलाने के बाद ही स्वयं खाती है। जबमक मृिाल यह

भली भांमत जानती है मक यह व्यमक्त आकर्षाि ख़त्म होते ही इसको छोड़ देगा, मफर भी मृिाल अपने भरतार की तरह उसकी सेवा करती है। यह मृिाल के बहाने जैनेन्द्र का साममजक व्यवस्था का स्वीकार नहीं तो और क्या है। कॉलेज के मदनों की चंचल और मनडर मृिाल कहीं भी सामाज में पररवतान की मांग क्यँू नहीं करती है। वह समाज के आगे खदु को मनढाल छोड़ देती है।

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जैनेन्द्र उपन्यास में तमाम प्रश्न उठाने के बाद भी कोई समाधान नहीं देते हैं। वे बस एक द्वन्द्ध पैदा करके छोड़ देते हैं मक क्या एक स्त्री के प्रेम और सत्य का यही पररिाम होना चामहए था। हाँ, प्रमोद का इस्तीफा जरुर तथाकमथत उच्च सामाज की आत्मनलामन का पमतारूप है। लेमकन मृिाल जैसे सभं ावनाशील जीवन की समामप्त के बाद इस इस्तीफे का क्या लाभ। त्यागपत्र पाठक को थोड़ा ठहरकर यह सोचने के मलए मववश जरुर करता है की शीला की गलती भी अपने सर ले लेने का माद्दा रखने वाली मृिाल के साथ इस समाज ने जो मकया क्या वह सही था? और अगर नहीं तो इस सामाज का मवकल्प क्या होना चामहए? क्या हमें सामामजक व्यवस्था में एक स्त्री की मस्थमत पर पनु मवाचार करने की आवश्यकता नहीं है? इस प्रकार त्यागपत्र उपन्यास पाठक के मन में तमाम प्रश्न छोड़ता है। पाठक के मन को मथने वाले ये प्रश्न ही उपन्यास की बड़ी उपलमब्ध कहे जा सकते हैं। िन्द्दभक िूची आधार ग्रन्थ1- त्याग-पत्र, जैनेन्द्र कुमार, प्रकाशकमहन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर,काया​ालय, बम्बई,


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प्रथम प्रकाशन – अक्टूबर 1937 । पृष्ठ संख्या- 82 । 2- त्याग-पत्र, जैनेन्द्र कुमार, प्रकाशकमहन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर,काया​ालय, बम्बई, प्रथम प्रकाशन – अक्टूबर 1937 । पृष्ठ सख्ं या- 81 । 3- त्याग-पत्र, जैनेन्द्र कुमार, प्रकाशकमहन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर,काया​ालय, बम्बई, प्रथम प्रकाशन – अक्टूबर 1937 । पृष्ठ संख्या- 29 ।

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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रामिक्ष ृ बेनीपरु ी की रचनाओ ं में भारतीय िंस्कृसत की झलक सि​िेक कुमार, vivekmadhuban@gmail.com शोधाथी, मवश्वमवद्यालय महदं ी मवभाग, मत.मा.ं भागलपरु मवश्वमवद्यालय, भागलपरु सारांश मकसी भी समाज की संस्कृ मत, उस समाज का जीवन, प्राि और आत्मा होती है। हर देश की अपनी संस्कृ मत होती है। हमारे देश की मवमशि संस्कृ मत हमारी सांस्कृ मतक धरोहर हैं और हमारा यही वैमशि्य हमें अन्य देशों से मवलग करता है। बेनीपरु ी जी की भारतीय संस्कृ मत के अनन्य उपासक थे। उनकी रचनाओ ं में यत्र-तत्र हमारे देश की सांस्कृ मतक वैमशि्य की झलक स्पि मदखाई देती है। बेनीपरु ी जी की कई रचनाओ ं यथा, तोरी फुलाइल:होरी आइल में होली का, दीप दान में दीवाली का, रूपा की आजी में मशवरामत्र के मेले का, मेरी माँ में भारतीय समाज की रूमढ़वादी परंपराओ ं का, मासानां मागाशीर्षोंहम में अगहन महीने का, रोपनी में खेती के दृश्य और लोकगीतों का विान ममल जाता है। बेनीपरु ी जी भारतीय समाज के सास्ं कृ मतक क्षरि से बहुत आहत थे मजसका विान उन्होंने गेहूँ बनाम गल ु ाब में मकया है। ‘गेहूँ और गल ु ाब’ के माध्यम से उन्होंने बताया मक ‘गेहू’ँ है - मानव के भौमतक मवकास का प्रतीक तथा ‘गल ु ाब’ है हमारी संस्कृ मत और सांस्कृ मतक मवकास का प्रतीक। मनष्ट्ु य के जीवन में ‘गेहू’ँ और ‘गल ु ाब’ दोनों में सम्यक संतल ु न अत्यंत आवश्यक है। भौमतक जगत के आकर्षाि पाश में फँ सकर मानव ‘गेहू’ँ के पीछे रथ में जतु े घोड़े की तरह सरपट दौड़ने लगा, पररिामस्वरूप, ‘गल ु ाब’ अथा​ात हमारे सांस्कृ मतक गिु - क्षमा, दया, तप, त्याग, दान, अमहसं ा, सत्याग्रह, परोपकार, वसधु ैव कुटुम्बकम की भावना का लोप हो Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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गया। परु ानी संस्कृ मत की जमीं पर वे सास्ं कृ मतक पनु मनामा​ाि का काया करना चाहते थे और सभी सामहत्यकारों को भारतीय संस्कृ मत के संरक्षि के मलए आह्वान करते थे। इसमलए स्वतंत्रता संघर्षा के पिात ही अपनी लेखनी के माध्यम से उन्होंने सास्ं कृ मतक पनु जा​ागरि को मख्ु य मद्दु ा बनाया। अपनी रचनाओ ं में भारतीय सस्ं कृ मत को शाममल कर तथा उन पर गहन मचंतन कर भर ही नहीं करते थे बमल्क, इसे उन्होंने अपने आचरि में शाममल भी मकया। यही कारि है मक सामहमत्यक क्षेत्र में सस्ं कृ मत दतू के रूप में उनकी अपनी एक मवमशि पहचान है। की िडडकि बेनीपरु ी, सस्ं कृ मत, रोपनी, मासानां मागाशीर्षोंहम, मेरी माँ, कील, गेहू,ँ गल ु ाब, चड़ु ैल िोधपि सस्ं कृ मत वह है जो हमारे युगों से संमचत मवचारों, आदशों और व्यवहारों को स्वयं में समामहत कर, कालानसु ार नवीनता प्रदान करते हुए, स्वतः प्रत्येक आने वाली पीढ़ी में प्रवेश कर जाती है। संस्कृ मत समाज का जीवन, प्राि और आत्मा होती है। मजस तरह शरीर की बाह्य गमतमवमधयों के माध्यम से उसके आतं ररक प्रािों की अमभव्यमक्त होती है, उसी तरह समाज की मवमभन्न गमतमवमधयों यथा, सामामजक परंपराएँ, रीमत ररवाज, सामामजक अतं स्संबंध तथा दैनंमदन जीवन की गमतमवमधयाँ, अध्यात्म, धमा, कला इत्यामद के माध्यम से उस समाज की संस्कृ मत का बोध होता है। हर देश की अपनी संस्कृ मत होती है जो उस देश में रहने वाले लोगों के जीवन के हरे क अगं में दृमिगत होती है। हमारे देश की परम्पराएँ, नृत्य, संगीत, धमा, कला, मशल्प, भार्षा, पवा-त्यौहार, रीमत-ररवाज, खान-पान इत्यामद हमारी सांस्कृ मतक धरोहर हैं और वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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हमारा यही वैमशि्य हमें अन्य देशों और समाजों से मवलग करता है। महदं ी के प्रमसद्ध कमव रामधारी मसहं मदनकर जी मलखते हैं – “संस्कृ मत मजदं गी का एक तरीका है और यह तरीका समदयों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है, मजसमें हम जन्म लेते हैं इसमलए मजस समाज में हम पैदा हुए हैं, अथवा मजस समाज से ममलकर हम जी रहे हैं उसकी सस्ं कृ मत हमारी संस्कृ मत है, यद्यमप अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा करते हैं वह भी हमारी संस्कृ मत का अगं बन जाता है और मरने के बाद हम अन्य वस्तओ ु ं के साथ अपनी संस्कृ मत की मवरासत भी अपनी संतानों के मलए छोड़ जाते हैं। इसमलए संस्कृ मत वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा मजसकी रचना और मवकास में अनेक समदयों के अनभु वों का हाथ है।”1 सस्ं कृ मत राष्ट्र और समाज का जीवनतत्व होती है। जब तक संस्कृ मत सरु मक्षत रहती है समाज जीमवत रहता है, संस्कृ मत का पतन होते ही समाज का मवनाश अवश्यंभावी है। प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृ मत मवश्व भर में अपना मवमशि स्थान रखती है। हमारी इस महान सस्ं कृ मत का मल ू स्रोत आज भी हमारे समाज में जीमवत है। भारतीय संस्कृ मत के मल ू में स्वाथा मसमद्ध की अपेक्षा परसेवा, समाजसेवा और परमाथा पर अमधक जोर मदया है और यही कारि है मक ‘यनू ान, ममश्र, रोमाँ सब ममट गए जहां से, कुछ बात है मक हस्ती ममटती नहीं हमारी’। सामहमत्यक रचनाओ ं के द्वारा कोई भी रचनाकार अपने समाज को ही नहीं, बमल्क अपने समाज के इमतहास, अपनी परंपरा, संस्कृ मत इत्यामद को भी मबंमबत करता है और इस जगत में स्वयं की साथाकता स्थामपत करता है। हमें बेनीपरु ी जी की रचनाओ ं में यत्र-तत्र हमारे देश की सांस्कृ मतक वैमशि्य की झलक स्पि मदखाई देती है। बेनीपरु ी जी की रचनाएं इस बात की गवाह है मक वे भारतीय संस्कृ मत के अनन्य उपासक थे।

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भारतीय संस्कृ मत में पवों और त्यौहारों का मवशेर्ष महत्त्व है, शायद इसमलए ही भारत को त्यौहारों का देश भी कहा जाता है। मवमवध धाममाक, सांप्रदामयक और जामतगत वैमवध्य वाले इस देश में त्यौहार ही ऐसा मवशेर्ष अवसर है मजसने सामामजक मवमवधता को एकता के सत्रू में मपरो रखा है। अन्य सामहत्यकारों की भामं त बेनीपरु ी जी ने भी अपने सामहत्य में मवमवध अवसरों पर होने वाले मवमभन्न त्यौहारों का विान मकया है। होली का त्यौहार हमारे देश बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता है चाहे गाँव हो या शहर, भले ही मनाने के तरीके में असमानता हो सकती है। ‘तोरी फुलाइल : होरी आइल’ में गाँव में मनाई जा रही होली का जीवतं विान मकया है बेनीपरु ी जी ने – “वह देमखए, होलैयों की जमात चन्दर के दरवाजे पर भी आ गयी। सारा गाँव उमड़ पड़ा है। दरी-जामजम पर अटावं होगा, टाट-चटाई सब जोड़ मदये गये। लोग जमके बैठे। डफ घहरे , ढोलक घटु के , झाल झनझनाए, मजं ीरे मकन् मकन् मकन् मकन् कर उठे । प्रथम पर शरू ु , सप्तम पर समाप्त। ये गाने हैं, ये बाजे हैं? नसों को झकझोर देते हैं, हड्मडयों को झकझोर देते हैं। साल भर का अवसाद एक ही मदन में मनकल जाता है। खनू नया हो जाता है, शरीर नया हो जाता है। ‘जो जीये से खेले फाग, जो मरे से लेखा लाग’।“2 इसी तरह ‘दीप दान’ में दीवाली का विान मकया है – “बाहर चकमक-झकमक, भीतर अजं नोपम अधं कार। दरवाजे पर के ले के खभं ों की हरीमतमा, आँगन में सड़ी हुई मोररयों की गधं । कहीं ममठाइयों की लटू , कहीं टुकड़ों पर क्षमु धत दृमि। कहीं चोसर की बाजी, कहीं जीवन का दीवाला। हम आज उसे ही दीवाली कहते हैं न?”3 भारतीय समाज में मवमभन्न अवसरों पर लगने वाला मेला भी सांस्कृ मतक प्रथा है। यहाँ हर जामत सप्रं दाय के लोग अपनी आमथाक मस्थमत और अभाव को भल ू कर मेलों का आयोजन करते हैं। इसके पीछे सांस्कृ मतक भावना ही प्रमख ु रहती है। ये मेले, धाममाक दृमिकोि से महत्त्व के मदन में या मकसी वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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त्यौहार वाले मदन ही लगते हैं। ये भारतीय सभ्यता के आरंभ से ही सामामजक एकता और समरसता के मलए टॉमनक का काम कर रहे हैं। हमारी संस्कृ मत का मवशेर्ष स्वरुप इन मेलों में झलकता है। डॉ के शव देव शमा​ा मलखते हैं – ‘”जीवन की एकरसता और शष्ट्ु कता से कुछ समय को शांमत के मलए मानव मन को कुछ साधनों की आवश्यकता होती है। इसके मलए वह समयानक ु ू ल आमोद-प्रमोद, हर्षा-उल्लास एवं आनंद प्रामप्त के मलए उत्सव एवं त्यौहारों का आयोजन करता है।"4 लोग इन मेलों में आपसी मतभेदों को भल ू कर महस्सा लेते हैं। यह हमारी सास्ं कृ मतक मवशेर्षता है। बेनीपरु ी जी ने अपने रे खामचत्र 'रूपा की आजी' में मशवरामत्र के मेले का जीवतं विान मकया है"मशवरामत्र का यह मेला। लोगों की अपार भीड़। बच्चे, जवान, बढ़ू े, लड़मकयाँ, यवु मतयाँ, बमू ढ़याँ। मशवजी पर पानी, अक्षत, बेलपत्र, फूल, फल। मफर, एक ही मदन के मलए लगे इस मेले में घमू -मफर, ख़रीदफ़रोख्त। धक्के -पर-धक्के । चलने की जरूरत नहीं, अपने को भीड़ में डाल दीमजए, आप-ही-आप मकसी छोर पर लग जाइएगा। बच्चों और मस्त्रयों की अमधकता। उन्हीं के लायक ज्यादा सौदे। खजं ड़ी, मपपही, झनु झनु े, ममट्टी की मरू तें, रबर के मखलौने, कपड़े के गडु ् डे, रंगीन ममठाइयाँ, मबस्कुट, लेमनचसू । मटकुली, सेंदरू , चमू ड़याँ, रे शम के लच्छे , नकली नोट, चकमक के पत्ते, आईना, कंघी, साबनु , सस्ते एसेंस और रंगीन पाउडर। भाव-साव की छूट, हल्ला-गल्ु ला। गहनों के झमझम में चमू ड़यों की झनझन। सामड़यों के सरसर में हँसी की मखलमखल।"5

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"मैं महीनों में अगहन हू।ँ देखते नहीं, यह नीरभ्र नीला आकाश मेरा श्यामल शरीर है। पके -पके , पीले-पीले धान से भरी धनखेमतयाँ - यह मेरा पीत पट है। परु वा हवा पर कै से लहराता यह। उस हवा के कारि धान की बामलयों से जो सरु ीला स्वर मनकलता है, वहीं तो मेरी वश ं ी-ध्वमन है।" 6 लोकगीत भारतीय संस्कृ मत का अहम अंग है। लोकजीवन का समचू ा इमतहास लोकगीतों में समाया रहता है। लोकगीत बदलती हुई ऋतओ ु ं के अनसु ार गाए गाते हैं। पवों, उत्सवों के अवसर पर तथा खेतों में काम करने समय भी लोकगीत गाए जाते हैं। बेनीपरु ी जी के 'रोपनी' में खेतों में काम करने समय गाए जाने वाले लोकगीतों को देमखए- "मसंहसे र चाचा औरतों के एक झडंु को लेकर बीया उपारने को बीहन के खेत की ओर चले। समु नए, जाती हुई वे गा रही हैं 'कहँमा लगइहौं मैं जहू ी - चमेली, कहँमा लगइहौं अनार हे... नाररयर के गमछया।। दअ ु रे लगइहौं मैं जहू ी -चमेली अँगने लगइहौं अनार हे नाररयर के गमछया।।' उधर बीहन के खेत में झमू र हो रहा है, तो इधर हलवाहों ने रोपनी के खेत में बेरहा की टेर लगाई'आम के गाछ कोइमलया कुहके , बनमा में कुकए मोर। मोरा अँगना में कुहकए सोना के मचड़इया, सनु हुलसे मजया मोर।'

भारत कृ मर्ष प्रधान देश है। भारत में मनाए जाने वाले हर उत्सव प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मकसी फसल की बआ ु ई से पहले या फसल पकने के बाद या कटाई के बाद मनाई जाती है। हमारी कृ मर्ष हमारी संस्कृ मत का अहम महस्सा मानी गई है। बेनीपरु ी जी ने 'मासानां मागाशीर्षोंहम' में अगहन महीने का विान मकया है -

बढ़ू े मगं र की तो सबने ममलकर दगु ता बना दी। कीचड़ से वह बेचारा भतू बना हुआ है और रह-रहकर गामलयाँ बोलने से भी बाज नहीं आता, मकंतु इन रोपनी करनेवाली औरतों को इन गामलयों की क्या

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परवाह? वे मखलमखलाकर हँसती हैं और मानो मगं र को मचढ़ाने के मलए ही गाती हैं'नइहरवा में ठंडी बयार, ससरु वा मैं ना जइहौं। ससरु ा में ममले ला जउआ की रोटी मडुआ की रोटी, नइहरवा में परू ी हजार। ससरु वा मैं ना जइहौं।7

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आमदकाल से ही भारतीय सस्ं कृ मत और महदं ू धमा का अन्योन्याश्रय संबंध रहा है। यह स्थामपत सत्य है मक जब तक सबधं अन्योन्याश्रय बना रहता है, तब तक संस्कृ मत की ध्वजा पताका फहराती रहती है, मकन्त,ु मवश्व का इमतहास साक्षी है, जब कभी मकसी सस्ं कृ मत पर धमा हावी होने लगता है तब धीरे -धीरे उस संस्कृ मत में धाममाक अधं मवश्वासों और रुमढयों का संक्रमि होने लगता है। पररिामस्वरूप, धीरे -धीरे संस्कृ मत कोढ़ग्रस्त होने लगती है और समाज पतनशीलता के मागा पर अग्रसर हो जाता है। शायद इसमलए ही अधं मवश्वास और रूमढ़याँ हमारी सस्ं कृ मत का अटूट अगं बन गई है, जो हमारे समाज को आधमु नक दृमि और आधमु नक मवचारधारा अपनाने में सबसे बड़ा बाधक बन कर खड़ा है। बेनीपरु ी जी अपने आत्मकथ्य 'मेरी माँ' में समाज में प्रचमलत अधं मवश्वास का विान करते हैं - "कहा जाता था, जो माँ छोटे बच्चे को छोड़कर मरती है, वह चड़ु ैल होकर मफर बच्चे को लेने आती है। इसकी रोक यह समझी जाती थी मक मदु े के दोनों पैरों को इकठ्ठा कील ठोंक दी जाए और घर से श्मशान तक सरसों के दाने छींट मदये जाएँ। कील के कारि चल न सके गी और यमद मघसटमघसटकर चली भी तो सरसों के सारे दाने चनु लेने के बाद ही वह आ पाएगी। इतने दाने वह बेचारी कै से चनु ेगी? अतः बच्चा मनरापद रहेगा।"8 भारतीय समाज को पतनशीलता की ओर ले जाने वाली इस तरह की असंवदे नशील परंपराओ ं और प्रथाओ ं से तथा भारतीय संस्कृ मत को यथामस्थमत रखने वालों

और पररवतानशीलता का मवरोध करने वालों से बेनीपरु ी जी बहुत दख ु ी थे। 'मेरी माँ' में समाज के प्रमत तथा यथामस्थवामदयों और अपररवतानगामी शमक्तयों के प्रमत उनका क्रोध स्पि मदखाई देता है - "जब-जब मझु े याद आता है मक मेरी माँ के पैरों को इकिा कर एक लम्बी कील ठोंक दी गयी थी, अपने समाज पर वह गस्ु सा आता है, मजसकी कोई सीमा नहीं। जहाँ माँ का, मातृत्व का, संतान-प्रेम का ऐसा अपमान हो, मनरादर हो, उस समाज को जहन्नमु जाना चामहए।9 बेनीपरु ी जी का मत है - समाज एक ऐसा वृक्ष है, मजसकी जड़ अथानीमत की, आधार राजनीमत और फल संस्कृ मत होती है। वतामान समय में बेरोजगारी, महगं ाई, यांमत्रकता, सामामजकता का ह्रास, पंजू ीवादी सभ्यता का प्रसार, पया​ावरि की दगु मा त इत्यामद से हमारी सस्ं कृ मत पर मवपरीत प्रभाव पड़ा है। समाज में व्याप्त इस तरह की कुरूपता को उन्ममू लत कर समाज में मानवीय गिु ों के मवकास हेतु बेनीपरु ी जी समाज का सांस्कृ मतक पनु मनामाि करना चाहते थे। भारतीय संस्कृ मत की पतनशील मस्थमत को देखकर बेनीपरु ी जी बहुत मचमं तत थे इसमलए स्वतत्रं ता सघं र्षा के पिात ही अपनी लेखनी के माध्यम से उन्होंने सांस्कृ मतक पनु जा​ागरि को मख्ु य मद्दु ा बनाया। ‘गेहूँ और गल ु ाब’ के माध्यम से उन्होंने बताया मक ‘गेहू’ँ है - रोटी, कपडा, आवास, मशक्षा, मचमकत्सा इत्यामद मानव के भौमतक मवकास का प्रतीक तथा ‘गल ु ाब’ है हमारी संस्कृ मत और सांस्कृ मतक मवकास का प्रतीक। मनष्ट्ु य के जीवन में ‘गेहू’ँ अथा​ात भौमतक मवकास और ‘गल ु ाब’ अथा​ात सास्ं कृ मतक जगत, दोनों में सम्यक संतल ु न अत्यंत आवश्यक है। असंतल ु न की मस्थमत में समाज में संघर्षा की मस्थमत पैदा हो जाती है। भौमतक जगत के आकर्षाि पाश में फँ सकर मानव अमधक से अमधक और दसू रे से अमधक इकठ्ठा कर लेने की चाहत में ‘गेहू’ँ के पीछे रथ में जतु े घोड़े की तरह सरपट दौड़ने लगा, पररिामस्वरूप, ‘गल ु ाब’ अथा​ात हमारे सांस्कृ मतक गिु - क्षमा, दया, तप, त्याग, दान, अमहसं ा, सत्याग्रह, परोपकार, वसधु ैव कुटुम्बकम की

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भावना का लोप हो गया। वतामान समाज को पनु ः स्वस्थ और सदृु ढ़ करने हेतु बेनीपरु ी जी हमें सचेत करते हैं - “चलो, पीछे मड़ु ो, गेहूँ और गल ु ाब में हम मफर एक बार संतल ु न स्थामपत करें ” ।10 समाज का मदन-प्रमतमदन जो नैमतक ह्रास होता जा रहा है, उसका सधु ार सास्ं कृ मतक पनु मनामा​ाि के द्वारा ही संभव हो सकता है और यह सांस्कृ मतक पनु मनामा​ाि हम परु ानी संस्कृ मत की जमीं पर ही कर सकते हैं। परु ानी सस्ं कृ मत को बेनीपरु ी जी प्रेरिा ग्रहि करने वाली मवरासत के रूप में स्थामपत करते हैं“परु ाने समाज के खडं हर पर ही नए समाज की अट्टामलका खड़ी होती है, परु ानी संस्कृ मत के सूखे तने से ही नई संस्कृ मत की नई कोपलें फूटेंगी”।11 बेनीपरु ी जी सामहत्यकारों को भारतीय सस्ं कृ मत का सरं क्षक मानते थे और इसीमलए उनसे अपेक्षा रखते थे मक वे सांस्कृ मतक पनु मनामा​ाि में अपना-अपना योगदान देंग,े अन्यथा हमारी संस्कृ मत एक मदन नि हो जाएगी"आमखर यह क्षेत्र भी तो हमारा ही है। गल ु ाब की खेती के माली तो हमीं हैं। हमारी यह गल ु ाब की दमु नया फूलों की दमु नया - रंगों की दमु नया - सगु धं ों की दमु नया - इतनी सक ु ु मार, इतनी नाजक ु दमु नया है मक कहीं अथाशामस्त्रयों के हथौड़े और राजनीमतज्ञों के कुल्हाड़े उसका सवानाश न कर दें या प्रेमचंद के शब्दों में 'रक्षा में हत्या' न हो जाए।"12 मनष्ट्कर्षातः यह कह सकते हैं मक रामवृक्ष बेनीपरु ी ने अपनी रचनाओ ं में भारतीय संस्कृ मत के तत्व को न के वल शाममल मकया है बमल्क सस्ं कृ मत के सबं धं में अपनी नतू न अवधारिाएँ व्यक्त करके तथा संस्कृ मत को संक्रममत करने वाले तत्वों पर प्रहार करके समाज सधु ार का स्तत्ु य प्रयास भी मकया है। अपनी रचनाओ ं में भारतीय संस्कृ मत को शाममल करना तथा उन पर गहन मचंतन करना भर ही उनका उद्देश्य नहीं है बमल्क, वे इसे अपने आचरि में शाममल भी करते हैं। यही कारि है मक वे सामहमत्यक क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना चक ु े हैं। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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िदं भक 1. संस्कृ मत के चार अध्याय - रामधारी मसंह मदनकर, पृष्ठ-653 2. तोरी फुलाइल:होरी आइल - रामवृक्ष बेनीपरु ी रचना संचयन, सं.-मस्तराम कपरू , पृ.-175 3. दीप दान - लाल तारा (रामवृक्ष बेनीपरु ी) 4. आधमु नक महदं ी उपन्यास और वगा संघर्षा- डॉ के शव देव शमा​ा, पृ.-243 5. रूपा की आजी, रामवृक्ष बेनीपरु ी रचना संचयन, सं.-मस्तराम कपरू , पृ.-507 6. मासानां मागाशीर्षोंहम, रामवृक्ष बेनीपरु ी रचना संचयन, सं.-मस्तराम कपरू , पृ.-507 7. रोपनी - गेहूँ और गल ु ाब (रामवृक्ष बेनीपरु ी) 8. मेरी माँ - रामवृक्ष बेनीपरु ी रचना संचयन, सं.-मस्तराम कपरू , पृ.-78 9. मेरी माँ - रामवृक्ष बेनीपरु ी रचना संचयन, सं.-मस्तराम कपरू , पृ.-78 10. गेहूँ बनाम गल ु ाब, रामवृक्ष बेनीपरु ी रचना संचयन, सं.-मस्तराम कपरू , पृ.-211 11. नई संस्कृ मत की ओर - लाल तारा (रामवृक्ष बेनीपरु ी) 12. नई संस्कृ मत की ओर - लाल तारा (रामवृक्ष बेनीपरु ी)

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“कुछ भी तो रूमानी नहीं’ कहानी िग्रं ह में स्त्री पािों के जीिन का उभरता िच” कुलदीप शोधाथी-महदं ी मवभाग महमर्षा दयानद सरस्वती मवद्यालय, अजमेर gmail-yadukul123@gmail.com मनीर्षा कुलश्रेष्ठ ने अपनी कहामनयों के माध्यम से स्त्री की वास्तमवक मस्थमतयों को सामने लेकर आई है । इन कहामनयों में समाज में स्त्री की मस्थमत, उसके साथ घमटत होने वाली घटनाओ ं का बारीकी से मचत्रि मकया गया है । उनकी कहामनयों में यौन शोर्षि, मानमसक शोर्षि, औरत की घटु न, छटपटाहट, आरोप-लांछन, घर व बाहर मपसते रहने का ददा, मया​ादाओ ं को ललकारने की कसमसाहट आमद का विान मकया हैं । स्त्री जीवन के यथाथा का कोई भी पहलु उनसे नजरअंदाज नहीं हुआ है । चहारदीवाररयों का सच लेमखका सामने लेकर आयी है । औरत की लड़ाई उसके अपने ही घर से शरू ु होती है । उसके सगे-संबंधी उसे दबाकर रखने की कोमशश करते है, उसका मानमसक व शारीररक शोर्षि करते हैं । उनकी स्त्री मवर्षयक कहामनयाँ मपतृसत्तात्मक समाज से टकराती मदखाई देती है । ‘मास्टरनी’ कहानी में स्त्री समस्याओ ं को सामने लाया गया हैं । घर व बाहर दोनों जगह उसके सामने आने वाली समस्याओ ं को इस कहानी में समेटा गया हैं । कहानी की पात्र सर्षु मा आमथाक दृमि से सम्पन्न है मफर भी उसका पमत उसे बराबरी का दजा​ा नहीं देता है । घर का काम व बच्चों की देखभाल उसकी मजम्मेदारी है । क्या बच्चे मसफा उसके ही हैं ? पमत-पत्नी दोनों नौकरी करते हैं, दोनों ही एक-एक बच्चे को अपने साथ रखते हैं । पमत पत्नी पर धौंस Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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जमाता है । अपने तबादले के मलए सर्षु मा पमत से कहती है पमत आलस्य के मारे जाना नहीं चाहता और वह स्वयं जाये तो लोगों की गदं ी नजरों का मशकार बनेगी । “छुरट्टयों में आई है महारानी यँू नहीं मक ठीक से खाना-वाना बना कर के मखलाये, साल भर तो खदु ही ठे पते हैं अपनी और तेरे लाड़ले की रोटी । अभी आई है, आते ही साली रांसफर के चक्कर में पड़ गयी ।”18 सर्षु मा अपने पररवार में ही अपनी खमु शयाँ और दमु नया ढूँढ़ती है । स्वयं जहाँ रहती है स:ु खी है परंतु पमत व बच्चे की परवाह करती है । स्वयं पर मनभार होने के बावजदू सास व पमत के ताने सनु ती है । अपने स्वामभमान को भल ू गयी है । ररश्तों में अपने आप को घोल कर उसने अपना अमस्तत्व खो मदया । मजस पररवार के मलए वह मरती है उसी पररवार के सदस्य उसकी परवाह नहीं करते हैं । वतामान समय में भी औरत घर व नौकरी दोनों चीजों के बीच फंस गयी है । आमथाक दृमि से मजबतू ी भी उसे मानमसक रूप से मजबतू नहीं बना पाती । पमत का प्यार भी नहीं बचा, बस शारीररक जरूरतें बची हैं । उसे स्वतत्रं ता तो आमथाक दृमि से सपं न्न होने पर भी नहीं ममली । सर्षु मा प्यार, इज्जत और सम्मान चाहती है पर उसे ममल नहीं पाता । परंपरागत ढरे पर उसे चलने के मलए क्यों मजबरू मकया जाता हैं ? परु​ु र्ष की मानमसकता क्यों नहीं बदल पाती हैं ? “यन्त्रवत-सा ममलन उसे भाता नहीं है । प्रेम, नखरे , छे ड़छाड़ तो कभी थे नहीं उनके ररश्ते में पर एक नयापन सा था स्पशों में...लहरें थीं मजस्म में । ख़दु पर कोफ्त हो रही थी मकसमलए कर मलये पैदा ये बच्चे झटाझट ? दाम्पत्य क्या है, यह समझ पाती तब तक तो ये अनचाहे मेहमान चले आए ।”19 शादी से पहले उसके सपनों को कॉलेज में, घर में मकतना तवज्जो मदया जाता था पर शादी के बाद उसके सपने टूट जाते हैं । ससरु ाल वालों को नौकरी वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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चामहए, गाने बजाने का शौक उनके मलए पालतू की चीज है । “यह मसतार-मवतार क्यों उठा लाई मायके से ? फालतू जगह घेरेगा । वैसे भी हमारे घर में मकसी को पसंद नहीं गाना-बजाना ।”20 सर्षु मा को पमत की लापरवाही के चलते बार-बार एबॉशान्स करवाना पड़ता था । मकतना ददा सहना पड़ता है मफर भी पमत ऑपरे शन नहीं करवाते। ऑपरे शन करवाये तो उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं । पत्नी के स्वास्थ्य पर पमत का कोई ध्यान नहीं जाता है ना उसे कोई फका पड़ता है । ऐसी समस्याएँ मकतनी ही ममहलाओ ं को झेलनी पड़ती हैं । “मकतने एबॉशान्स कराएगी ? नौकरी के साथ यह सब झेलना मकतना ममु श्कल हो जाता है । इनसे मकतना कहा है करवा लो ऑपरे शन...पर कान पर जँू नहीं रें गती । मैं नहीं करवाता यह सब...मपछली अगस्त से अभी एक साल भी नहीं बीता है । ऑपरे शन नहीं करवा सकते...पर लाइटबंद होते ही सबसे पहले वही सब याद आता है । आनाकानी करो तो...अपने अगले तीन मदन कलेश में मनकालो । मफर भी चैन कहाँ है ?”21 दहेज़ की समस्या के चलते, पापा के ना रहते जल्दबाजी में उसका मववाह कर मदया गया जहाँ उससे ना कुछ पछ ू ा ना उसे बताया गया । वह जैसा दाम्पत्य संसार चाहती थी उसके मकतने मवपरीत था सब । “उसे आपमत्त मववाह से नहीं थी पर जो उसने मववाह की कल्पना की थी उससे यह दाम्पत्य जीवन जरा भी मेल नहीं खाता था ।”22 सर्षु मा के पमत का चररत्र अच्छा नहीं था उसकी वजह से घर में कोई कामवाली बाई नहीं मटकती थी । पड़ोस की दीपा भी उनके घर आती जाती रहती थी, यह बात उसका बेटा उसे बताता है । मकतना सहन करे गी सर्षु मा, कौनसा स:ु ख मदया है इस दाम्पत्य जीवन ने उसे नौकरी, घर के काम, पमत की चररत्रहीनता, पमत व सास के ताने, बार-बार एबॉशान्स, शारीररक ददा, पमत की बेरूखी, बच्चों की मजम्मेदारी,

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मववाह के बाद मबखर चक ु े सपने आमद का मचत्रि इस कहानी में मकया गया हैं । सर्षु मा शादी से पहले मकतनी अलग थी, गाना बजाना, पढ़ना, हँसना, सहेमलयों की मीठी छे ड़छाड़, पापा का उसे संगीत मसखाना, घर व कॉलेज में उसके संगीत को सम्मान ममलना, उसकी संदु रता, उसकी आवाज में एक जादू था । यह सब उसे तब याद आया जब वह अपने कॉलेज के सीमनयर को मवधायक के रूप में ममलती है जब उसे अपना तबादला करवाना था, जो उसे पसंद करता था । तब वह अपनी हालत से सक ं ु चा जाती है । लापरवाही से बंधी साड़ी, बालों को कसकर बांधना, थकान व तनाव में मशमथल शरीर, चहरे व मन के रंग फीके पड़े हुए । वह अपने सीमनयर मवधायक के अपनेपन के व्यवहार को देखकर रुआँसी हो जाती है । “अब वह भीगी नजरें टपकने को ही थीं । उसे स्वयं पर नलामन हो रही थी । इस फटीचर हाल में ही उसे इससे ममलना था वह भी अनायास इतने सालों बाद ।”23 यह कहानी पररवार के आपसी ररश्तों, बंधनों तथा परु​ु र्ष सत्ता के कै द में छटपटाती स्त्री के ममु क्त की दबी चाह को व्यक्त करती है । ‘फ़ांस’ कहानी लड़के व लड़की के भेदभाव को रे खांमकत करती है जहाँ पत्रु न होने की वजह से पत्नी को बार-बार अपमामनत मकया जाता है । पत्रु ी का जन्म हो या मरि कोई बात नहीं पर पत्रु ी जन्म ले तो पररवार में मातम छा जाता है साथ ही उसके मववाह व दहेज़ की समस्या सामने आती है जो आज भी एक मवकराल समस्या बनी हुई है; दहेज़ प्रथा पर काननू बनने के बावजदू भी । लगातार चार पमु त्रयों के जन्म से पमत पत्नी के प्रमत संवदे नहीन हो जाता है । पत्नी के जीने मरने से उसे कोई मोह नहीं रह गया है । पत्रु ना देने की वजह से वह पत्नी से महँु फे र लेता है, बरु ा व्यवहार करता है, अन्य स्त्री से संबंध रखता है मफर

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भी वह चपु चाप सहन करती है । उसकी मगरती सेहत के प्रमत वह ध्यान ही नहीं देता है । जैसे वह इसं ान नहीं बच्चे पैदा करने की मशीन हो । औरत की सेहत के प्रमत हर जगह लापरवाही बरती जाती है । “अपनी मगरती सेहत का इलाज वे नीम हकीमों के जररये खदु कराती रहतीं, बाउजी ने तो उसके पैदा होने के बाद अम्मा की तरफ़ मड़ु कर कभी देखा नहीं । कभी-कभी अम्मा के कमरे से हताश फुसफुसाहट उभरी ‘हम से मतलब ही क्या उस रांड नसा रहते आपको । एक मदन हम पैर मघस के मर जाएँग.े ..ब्याह लाना उसे ही ।’ उत्तर में वही दहाड़, “कल की मरती हो तो आज मर ले । तनू े मदया ही क्या हमें ? चार-चार छोररयों के मसवा । तीन तो जस-तस ब्याह दीं ।” वे दाँत मकटमकटाते...“अब ये चौथी...इसे तो मैं कँु ए में ही फें क आऊँगा । अब और करजा लेना मेरे बस का नहीं ।”24 यह कहानी स्त्री की मानमसक प्रताड़ना के साथसाथ शारीररक प्रताड़ना की कहानी है जहाँ मपता ही अपनी पत्रु ी का शोर्षि करता है । घर में मपता के साथ अमं तमा को असरु क्षा महससू होने लगती है । वह दरवाजा बदं मकये रहती है मफर भी उस घृमित कृ त्य से बच नहीं पाती, अतं में शोर्षि के प्रमत मवद्रोह मदखाती है । मपता से बचने के मलए अमं तमा अपनी कोहनी से तेज प्रहार करती है उसके बाद मपता कभी मबस्तर से उठ नहीं पाते । मस्त्रयाँ ना घर में खदु को सरु मक्षत महसूस करती है ना बाहर । दोनों ही जगह शोर्षि की मशकार होती है । स्त्री को देह मात्र ही मान मलया गया है । देह के भीतर वह इसं ान भी है यह कोई नहीं समझता । बलात्कार जैसे मघनौने कृ त्य से न जाने मकतनी मस्त्रयों को मकतने संबंधों के बीच गजु रना पड़ता है । इस यातनादायक स्मृमत को लेकर वह खदु में घटु ती रहती है । कहानी में अमं तमा मपता की मृत्यु के बाद भी उस संबंध के प्रमत शष्ट्ु क हो जाती है । मपता

के मरने का न उसे सख ु था, न दःु ख था, न शोक था, न उल्लास था । “उसके मपछले घावों के खरु ं ट अभी हरे ही थे...वह अपमान और पीड़ा दोनों की भयावह और मघनौनी कल्पना से मसहर गई । मन में मछपे क्रोध की एक मचंगारी सल ु ग कर परु े वजदू को दावानल की तरह सल ु गाने लगी । उसने अपनी कोहनी से परू े दमखम के साथ उसकी पसमलयों पर वार मकया । वह चीख़ कर वहीं बैठ गया । तब का जो मबस्तर से लगा तो मफर...उठा ही नहीं ।”25 यह कहानी अपने पीछे सवाल छोड़ती है कब पत्रु -पत्रु ी में भेदभाव खत्म होगा, कब एक पत्रु ी व पत्नी को घर में सम्मान ममलेगा । कब उसके ररश्तेदार उसका शोर्षि करना बंद कर देंग,े कब दहेज़ की प्रथा बंद होगी । अमं तमा टूटकर मबखर जाती है । जहाँ उसका अके लापन है उसका ददा है उसके घाव है । वह नमसिंग कॉलेज में दामखला लेना चाहती है तामक यातना गृह से भाग जाये ।

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

‘पॉमजमटव’ कहानी दो एड्स रोमगयों की कहानी है । मजसमें परु​ु र्ष स्त्री से मसफा दैमहक सख ु चाहता है और वह प्यार भरे सपने सजाती है जहाँ कोई उसे बेहद चाहे । वह अपना बच्चा चाहती है जो उसका अपना हो । वह माँ बनना चाहती है, अपने होने वाले बच्चे के नए सपनों के साथ खश ु है परंतु परु​ु र्ष मपता नहीं बनना चाहता । वह मजम्मेदारी से भागता है । एक-दो परु​ु र्ष पहले भी उसके जीवन में आये वे प्यार से भरे पिू ा नहीं थे मकंतु अब की बार मजस परु​ु र्ष ने प्रवेश मकया वह तो उसकी मजदं गी को ही मौत की ओर ले जाने लगा । उसकी मजंदगी में आया उसे रोग मदया और भाग गया । मजस वक्त दोनों को एक दसु रे के साथ की जरुरत थी, प्यार की जरुरत थी । परु​ु र्ष को अपने तलाकशदु ा पत्नी व बच्चे याद आये । वह अपनी बची मजदं गी उन अपनों के साथ गजु रना चाहता है और जो तीन साल स्टैला के साथ मबताये


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उसकी मजदं गी को छीन लेना वाला रोग मदया उस स्टैला की आज कोई कीमत नहीं रह गयी । वो उसे अपने नरक का महस्सा बना गया और चलते वक्त कहता है वह अपनों के साथ रहना चाहता है उसे अपने नरक का महस्सा नहीं बनाना चाहता । परु​ु र्ष मकतना स्वाथी है जो लड़की अपनी मजदं गी उसे दे रही है वह उसी की मजदं गी छीन कर भाग रहा है । भागना ही था तो क्यों तीन साल उसकी मजदं गी में ठहरा ? “माफ़ कर देना मैं अपने अतीत का बैग साथ लाया था, उसमें न जाने कब यह रोग बंधा चला आया । बैग फैं क मदया मगर यह फ़ै ल गया हमारे बीच । फुल ब्लोन एड्स का अथा समझती हो न । मैं उस हद तक पहुचँ ू उससे पहले अपनी जमीन पर, अपने लोगों के बीच लौट जाना चाहता हूँ ।”26 साथ ही एड्स पीमड़त ममहलाओ ं को सकारात्मक सोच प्रदान करती है, यह कहानी उनमें जीने की चाहत पैदा करती है मक अभी भी मजदं गी ख़तम नहीं हुई है । मजदं गी के मकतने साल बचे है उन्हें ख़श ु ी से जी लो । सकारात्मक सोच ही हमें मजदं गी जीने की नई प्रेरिा देगी । एड्स पीमड़त ममहलाएँ नौकरी भी करती है, वे मजदं गी को प्यार भी करती है । और मरने के डर को खदु से दरू भगा मदया है । अपनी मजजीमवर्षा की शमक्त को बरकरार रखे हुये है । एड्स पीमड़त ममहलाओ ं को भी खश ु नमु ा जीवन जीने का अमधकार है । जीवन हर मस्थमत में खबु सरू त है अगर उसमें से मरने का डर मनकाल मदया जाये तो अपने नये सपने, नई उमगं ,े नये उल्लास के साथ जीने का मजा ही कुछ ओर है । “हमको टीबी हुआ तो हमने खनू का जाँच कराया । हाँ हमको सरकारी हस्पताल का कंपोटर आके बोलै के ये तम्ु हारा रपोट...तमु एचआईवी पोंमझमटव...तमु पाँच मईना में मर जायेगा ।” हमने रपोट का कागज फाड़ा चाँटा...माटी मैला

बच्चा लोग को क्या तेरा बाप संभालेगा । पन मशस्टर बाद में सब समझाया और हम रै ड लाईट में ‘बी बोल्ड’ की कम्यमु नके टर बन गया । उस बात को पांच साल हो गया होइगं ा । हम मजन्दा न अभीच । धंधा भी बरोबर...।”27

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

‘क्या यही है वैरानय’ कहानी में समु धे ा कायस्थ पररवार की बेटी व जैन पररवार की वधु है । स्वयं डॉक्टर होने के बावजदू भी ससरु ाल की परम्पराओ ं को मबना इक ं ार मकये मनभाती है । खाने पीने में परहेज रहन-सहन तौर तरीके संस्कृ मत आमद । एक तरफ भारतीय ममहलाओ ं के स्वास्थ्य की बात उठायी गई है । जहाँ ममहलाएँ बीमारी पर जब तक ध्यान नहीं देती तब तक वह बड़ी या गंभीर न हो जाए । ग्रामीि ममहलायें ममहला डॉक्टर न ममलने के कारि परु​ु र्ष डॉक्टर के सामने अपनी बीमारी प्रकट करने से कतराती है । दसू री तरफ भी वे पाररवाररक मजम्मेदाररयों में इतनी व्यस्त रहती हैं मक उनका खदु पर ध्यान ही नहीं जाता । इस तरह का समपाि इन्हें बड़ी बीमारी का मशकार बना देता है । “अमधकतर भारतीय ममहलाएँ अपने स्वास्थ्य को तब तक अहममयत नहीं देतीं जब तक वह बड़ी मबमारी बन कर सामने न आ जाए, उस पर आतं ररक समस्याएँ तो सबसे ज्यादा मछपाई और उपेमक्षत की जाती है ।”28 जैन धमा को स्वीकार कर सामध्वयाँ वैरानय धारि कर लेती है । तब इतने मनयम कायदों में खदु को बाधं लेती है मक स्वास्थ्य से बड़ा धमा हो जाता है । जहाँ स्तन कैं सर की बीमारी में वो बाहर अस्पताल नहीं जाएँगी और आश्रम में रहकर इस रोग का ईलाज नहीं होगा । इस तरह बार-बार स्वास्थ्य का मगरना बार-बार तकलीफ सहकर धमा का मनवाहन करना ही तो सबसे बड़ा नहीं । क्यों धमा के नाम पर वह इतनी तकलीफ


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को सहती है । “दवा से ठीक नहीं हुई तो आपको बड़े शहर में जाकर इलाज करवाना होगा । बेटा मझु े तो तेरी ही दवा से काम चलाना होगा । मेरा भानय जो तू स्थानक में आ गई, दवा ममल जायेगी । हमें तो रोगों से भी अके ले ही जीतना होता है, न जीते तो नश्वर देह ही तो है ।29 भारतीय लोग मकताबी जीवन व व्यवहाररकता में आये मसद्धातों को अलग-अलग रखते हैं । हकीकत में परु ापंथी मवचारों में जकड़े रहेंगे और मकताबी ज्ञान को मकताबों तक ही सीममत रख देते है । व्यावहाररकता में अमल नहीं करते । पख ु राज की पत्नी समु धे ा को अगर जैन साधु ने मन ही मन चाह मलया तो सुमधे ा तो कहीं गलत नहीं ठहरती मफर क्यों पख ु राज समु धे ा से चार महीने नहीं ममलता । कौन सा वैरानय है यह ! स्त्री है इसमलए उसके प्रमत मकसी का भाव तम्ु हे पसदं नहीं, इसमें उसकी क्या गलती है । उसे ही दोर्ष मदया जाता है मक तम्ु हे इन परंपरागत चीजों में टागं नहीं अड़ानी चामहए । ‘कामलदं ी’ कहानी वेश्यावृमत्त के जीवन के ददा को बयां करती है मक मकस तरह वह मज़बरू ी में स्वयं को बेचती है । उनको मकतनी शारीररक यातनाओ ं से गजु रना पड़ता है पेट पालने के मलए । वहाँ पैदा होने वाले बच्चों का भमवष्ट्य भी अधं कार में चला जाता है । बच्चों को सही माहोल नहीं ममलता । वेश्या का जीवन जीने वाली स्त्री अपने बेटी को भी उसी में धके ल देती है । अगर वह खदु को इस चगं ल ु से बचाती है तो मकसी और के हाथों में पड़कर, नयेनये गृहस्त जीवन के सपने देखकर शोर्षि का मशकार हो जाती है । “कस्टमर’ शब्द उस गली के हम उम्र के बच्चों के बीच एक डरावना शब्द था । एक मपशाच जो औरतों का गला दबाया करता था, औरतें उसकी मगरफ़्त में कराहतीं...थीं । एक मपशाच मजसके न आने से...कभी कटोरदान में रोटी कम पड़ जाती थी या Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मफर...बचती तो सब्जी या शोरबे के मबना ही खानी होती थीं ।30 कामलंदी वेश्यावृत जीवन से बचना चाहती थी इसीमलए वह उस जीवन से भागना चाहती थी । एक यवु क ने उसे प्यार के सपने मदखाकर इस माहौल से दरू ले जाने का वादा कर उसका शोर्षि करता है । वह युवक पहले से शादीशदु ा था । उसे वापस अजन्मे बच्चे के साथ उसके घर छोड़ जाता है । माँ द्वारा पीटे जाने पर वह सात माह के बच्चे को जन्म देती है । इसके बाद कामलंदी अपनी जीमवका चलाने के मलए वेश्याओ ं के नोंचे हुए मजस्मों की मामलश करती है, उनके कपड़े धोती है और अपने बच्चे को पालने के मलए न्यडू मॉडमलंग का काम करती है । जहाँ नननता को नहीं कला को महत्व मदया जाता है जहाँ एक पोज में घटं ो खड़े रहना पड़ता है मजसमें परू ा शरीर और नसें दख ु ने लग जाती है । यह बहुत मेहनत का काम है । इसी काम के चलते बच्चा अपनी माँ पर शक करता है मक वह धधं ा करती है । कामलदं ी की माँ अपने बच्चों को पालने के मलए धधं ा करती है तब कामलदं ी अपनी माँ का मवरोध करती है मक क्यों चदं पैसों के मलए तमु मकसी के शोर्षि का मशकार बनती हो ।मकंतु कामलंदी की माँ धधं ा न करें तो बच्चों को क्या मखलायें और इस माहोल में वह बदनाम हो चक ु ी है तो कोन उस पर मवश्वास करके उसको काम देगा । वेश्यावृमत्त समाज की बहुत बड़ी समस्या है जहाँ ममहलाओ ं को उसमें धके ल मदया जाता है और वह वहाँ से मनकल नहीं पाती । ताउम्र उसी दलदल में फ़सी रहती है । इस प्रकार मनीर्षा कुलश्रेष्ठ की कहामनयों में ममहलाओ ं के यथाथा जीवन की मस्थमतयों से अवगत कराया गया है मक मकस प्रकार जीवन में वह मभन्नमभन्न पररमस्थमतयों से गजु रती है जहाँ उनका शारीररक व मानमसक हर प्रकार का शोर्षि होता है । वह पढ़ी वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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मलखी है । आमथाक दृमि से खदु पर मनभार है उसके बावजदू भी वह स्वतंत्र नहीं है । वह खटंू े से बंधे बछड़े के समान है जो कुलाचे तो भर सकता है परंतु उस खटंू े से आजाद नहीं हो सकता । उसको उतना ही खोला जाता है मजतना की उसकी जरुरत है । वह घर में कमा के भी लाये मफर भी उसकी स्वतंत्रता परु​ु र्ष के हाथ में रहेगी । जैसे वह ताला है और उसकी चाबी परु​ु र्ष के हाथ में है । वह जब चाहे उसको खोले और जब चाहे उसको बंद करे । मपतृसत्तात्मक समाज आमथाक दृमि सपन्न ममहलाओ ं को भी अपनी मगरफ्त में मलए हुए है ।

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13. वही, पृ. 87 14.वही, पृ. 51 15वही, पृ. 27

िंदभक ग्रंथ:1.मनीर्षा कुलश्रेष्ठ, ‘कुछ भी तो रूमानी नहीं’ (2008), ‘अमं तका प्रकाशन’, गामज़याबाद, पृ. 69 2. वही, पृ. 69 3.वही, पृ. 69 4.वही, पृ. 68 5.वही, पृ. 69 6.वही, पृ. 80 7.वही, पृ. 80 8.वही, पृ.43 9.वही, पृ. 49 10.वही, पृ. 49 11.वही, पृ. 57 12.वही, पृ. 62, 63 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मीरा और िमाज : एक पुनमकूल्यांकन - डॉ. िोमाभाई पिेल मध्यकालीन भमक्त यगु को ‘सवु िा यगु ’ कहलाने में अनेक सतं -कमवयों का प्रदान अहममयत रखता है। भमक्तकालीन कमवयों ने अनेक आयामों पर अपना जो मवचार व्यक्त मकया वह न के वल अपनी सीमा तक सीममत रहा, बमल्क कालजयी मसद्ध हुआ। ऐसे कालजयी मवचार प्रस्ततु करनेवाले सतं -कमवयों के नाम लें तो लम्बी फे हररस्त बन जाएगी। भमक्तकालीन कमवयों की अनेक मवलक्षिताओ ं का जो वतामान पररप्रेक्ष्य में समाज को उपयोगी हो, उसका पनु मल्ाू यांकन होना आवश्यक ही; नहीं अमनवाया है। यों भी मकसी रचना या रचनाकार का सही मल्ू यांकन समय ही करता है। मध्य यगु को स्वमिाम बनाने में मीराबाई का योगदान कम नहीं। मीरा बार-बार याद की जाने वाली महान कवमयत्री हैं। भमक्त आन्दोलन की स्वमिाम मवरासत में मीरा की कमवता हमारे आधमु नक समाज के मलए भी पथप्रदशाक है। “आज यमद स्त्री आन्दोलन को मीरा की कमवता में रौशनी नजर आती है या वे सामहत्य मवमशा के कें द्र में हैं तो इसका उनकी कमवताओ ं का यगु ांतकारी प्रभाव है।”१ मीरा न के वल राजस्थान की; परन्तु समचू े भारतवर्षा की बड़ी अनपु म कवमयत्री हैं। मीरा की कमवता का ममा आज व्यापक समाज तक पहुचें यह जरुरी है। क्योंमक समीक्षकों, शोधकता​ाओ,ं संकलनकता​ाओ ं द्वारा मीरा उतनी मात्रा में याद नहीं की गयी या लोकमप्रय नहीं हुई मजतनी मात्रा में भक्तों, साध-ू संतों या सरल स्त्री-परु​ु र्षों द्वारा। करुिता यह है मक समाज में मीरा की भमक्त को मजतना प्राधान्य मदया है उतना प्राय: उसके जीवन और समाज के पारस्पररक अतं : संबंधों को नहीं मदया। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मीरा के सामामजक, दाशामनक मवचारों को, मीरा को आज तकरीबन पांच सौ से अमधक वर्षा बाद याद मकया जाना उसकी महत्ता को स्वत: ही उजागर करता है। आशीर्ष मससोमदया का कहना है, “भमक्त आन्दोलन के प्रेरिास्रोत रामानजु और रामानंद थे। मकन्तु मध्ययगु ीन भमक्त आन्दोलन की एकमात्र अत्यंत प्रभावशाली ममहला भक्त कवमयत्री मीराबाई थी, मजसने मवरासत में भमक्त का समग्र दशान भावी पीमढयों को मदया। इसीमलए उसे भक्त मशरोममि, भमक्त भागीरथी, भमक्त भगवती आमद मवशेर्षिों से सम्बोमधत मकया जाता है। मीरा जन-जन की पीड़ा को समझती थी। भारतीय महन्दू मजस मगु लकालीन अन्याय के संकट से गजु र रहा था मीरा ने उस पीड़ा को पहचाना।”२ सारा जग जानता है की मीरा की भमक्त ने राष्ट्रीय स्तर पर लोकोन्मख ु , मानवीय, समतामल ू क दृमि स्थामपत की। लेमकन हम यह न भल ू ें मक वतामान नारी सशमक्तकरि के दौर में सामामजक मवर्षमताओ ं के मखलाफ आवाज़ उठाने वाली नाररयों में मीरा का नाम भी अमर है। प्रथम हमारे मलए भारतीय भक्त-कमवमयत्री समाज में मीरा का स्थान मनधा​ाररत करना उमचत होगा। भमक्त आन्दोलन मातृभार्षाओ ं में रचनाशीलता, आत्मामभव्यमक्त की स्वतत्रं ता के साथ-साथ सशक्त स्त्री-स्वर को लेकर आया। इस काल में भारत की अन्य भार्षाओ ं में आदं ाल (तममल), अक्का महादेवी (कन्नड़), बमहिा तथा मक्त ु ाबाई (मराठी) की तरह महदं ी में मीरा की भमू मका महत्वपिू ा मानी जाती है। यंू तो मीरा से पहले कुछ चारि कमवयमत्रयों (झीमा, पद्मा, कक्रेची, मबरज)ू के नाम ममलते हैं, लेमकन सशक्त स्त्री काव्य का आरम्भ मीरा की कमवता से माना जाता है। उनकी आवाज़ में स्त्री-स्वाधीनता की आकांक्षा से प्रेररत स्वर है, मजसे हम स्त्री-चेतना कह सकते हैं। भाव और भार्षा की दृमि से मीरा ने के वल वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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मध्यकाल की स्त्री-काव्यधारा को प्रभामवत नहीं मकया; उनके सामामजक संघर्षा और कमवता से आधमु नक काल की कवमयमत्रयाँ प्रेररत-प्रभामवत हुई हैं। जैसे – आधमु नक मीरा कही जाने वाली महादेवी वमा​ा। कवमयमत्रयाँ ही नहीं; कमव भी प्रभामवत हुए हैं। मीरा के महत्व को व्यक्त करते हुए मैमथलीशरि गप्तु ने कहा है: लाख लोक भय बाधाओ ं से मवचमलत हुए न वीरा, वर गई िज राज पर मामनक मोती महरा धीरा। हरर चरिामृत कर वर मवर्ष भी पचा गई गभं ीरा, नचा गई नट नागर को भी नाची तो बस मीरा। भमक्त आन्दोलन की एक बड़ी उपलमब्ध मीरा से कमव या भक्त समाज मजतना आकमर्षात हुआ उतना आलोचना-समाज नहीं। न तो ममश्र बन्धओ ु ं ने ‘महदं ी नवरत्न’ में उसे स्थान मदया; न तो अन्य इमतहास-ग्रथं ों में उसे प्राधान्य ममला। शक्ु ल, मद्ववेदी, नगेन्द्र, नदं दल ु ारे बाजपेयी; यहाँ तक मक राममवलास और नामवर मसहं ने भी उन्हें उतना महत्त्व नहीं मदया मजतना अन्य मध्यकालीन कमवयों को। कोई भी रचनाकार अपने समय के सामामजक पररवेश से मनममात होता है। मीरा का अवतरि राजनैमतक अमस्थरता के समय हुआ। वह राठौड़ राजघराने की राजकन्या थी। जोधपरु बसानेवाले राव जोधा के पत्रु राव ददू ा मेड़ता को मफर से बसाकर उसके अमधपमत बने। राव ददू ा के सबसे बड़े पत्रु मवरमदेव के चौथे पत्रु रतनमसहं की पत्रु ी मीरा है। मीरा का मववाह मचत्तोड़ के रािा भोजराज के साथ हुआ। मीरा के कृ ष्ट्ि प्रेम को कुल की मया​ादा-भगं करनेवाला कृ त्य माना गया। मचत्तोड़ में मीरा को अपने स्वीकृ त मागा पर चलने के मलए बड़ा संघर्षा करना पड़ा। दभु ा​ानय से पमत भोजराज अमधक समय तक जीमवत नहीं रहे। लेमकन मीरा ने Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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उस समय राजघरानों में प्रचमलत वैधव्य जीवन अपनाने से इक ं ार कर मदया। इस प्रकार मीरा ने सामामजक रूमढवादी व्यवस्था का मवरोध मकया। समाज राजसी सख ु व वैभव की मजन्दगी गजु ारने के मलए आज भी सभी तरह का छल-कपट, पाखडं , ईष्ट्या​ा आमद अपनाता है, जबमक मीरा ने उसे न के वल छोड़ा; घृिापिू ा मतरस्कार भी मकया। उसने सामतं वादी व्यवस्था तथा उसकी सीमा का अपनी कमवता में संकेत मकया है। यमद पांचसौ वर्षा बाद आज भी हमारे पररवेश में सामतं वादी जकडन है तो मीरा की हालत का हम अनुमान लगा सकते हैं। अपने समय मीरा अमद्वतीय एवं असाधारि मानी जाएगी क्योंमक छत्तीसों राजकुलों एवं परू ी राजपतू ी प्रथाओ ं का मवरोध करना सामान्य बात नहीं। ऐसा भी कहा जाता है मक पमत की मृत्यु पर मीरा को सती होने के मलए कहा गया था लेमकन उसने तब श्वसरु से कहा था मक ‘मैं सती न हूगँ ी, मगररधर का गिु गाया करुँगी क्योंमक वही मेरे पमत, माता-मपता, भाई सब कुछ हैं आपसे अब ज्येष्ठ पत्रु वधू का सम्बन्ध ही कहाँ रह गया, अब मैं सेवक मात्र रह गयी हू।ँ ’ मगरधर-गोपाल को पमत मानना छोटी बात नहीं है। अत: मीरा को हम नारी चेतना का आद्य प्रवताक मानेंगे। अरे ! मीरा ने रै दास को गरु​ु मानकर जामतगत भेद को भी नकारते हुए समाज को सन्देश मदया। सत्सगं को लेकर ननद ऊदाबाई ने मीरा को लाख समझाने की कोमशश की लेमकन मीरा का उत्तर रहा, ‘मैंने रात-मदन सत्संग में रहकर ज्ञान प्रामप्त की है। मै तो प्रभु मगररधर नागर के हाथों मबक चक ु ी हू।ँ ’ मीरा ने मनमभाकता के साथ सब सामामजक बन्धनों को तोडने की कोमशश की है। यह पद देमखए : “पग बांध घघँु रयां िाच्या री।।

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लोग कह्याँ ममरां बावरी, सासु कह्याँ कुलनासी री।”३ ररश्तेदार या समाज उसे कुलनासी भले ही कहे, मीरा अपने मवचारों में अटल रहती है। मीरा ने अपने अमस्तत्व को कुचलने नहीं मदया। यगु की ओर दृमिपात करते हैं तो पाते हैं मक उस वक्त मीरा का यगु राजनैमतक की अपेक्षा धाममाक दृमि से बरजोर था। तब मगु लों का शासन कें द्र मदल्ही था। अत: राजस्थान मगु लों की द्वेर्षपिू ा बबारता से सरु मक्षत था। मीरा के जन्म समय ज्ञानयोग की धारा का पिू ा प्रभाव था, जो उसके पदों में सहज ममलता है। मीरा ने अपने पदों में ‘मीरा के प्रभु हरर अमवनाशी, देस्यु प्राि अकोरा’ बार-बार कहा है। ‘मैं मगरधर के घर जाऊ।’, ‘हरर थें हरया जि री भीर।’ आमद पदों में भी मनगिाु समपाि भाव व्यक्त मकया है। उसके यगु में प्रेमानबु ंध धारा भी बरजोर थी। लोग लौमकक भावनाओ ं के माध्यम से अलौमकक तत्व की प्रामप्त में लगे थे। ‘हरर म्हारा जीवन प्राि अधार।’, ‘माई री म्हा मलयाँ गोमवदं ानं मोल।’ जैसे कई पद इस धारा से सम्बमं धत हैं। साथ-साथ भमक्तभाव की धारा भी मवद्यमान थी। अत: मीरा में ज्ञान-योग, प्रेमानबु धं तथा भमक्तभाव; तीनों प्रकार की भमक्त का प्रभाव देखने ममलता है। कह सकते हैं मक मीरा ने तत्कालीन धाममाक मवचारधाराओ ं तथा भमक्तधाराओ ं का सममन्वत रूप स्वीकार मकया था। धाममाक संप्रदाय की जो बात उसे अच्छी लगी; अपनाई। इस प्रकार अपने यगु में प्रवतामान सभी सम्प्रदायों को, धाममाक समाज को मीरा ने अपने धाममाक-जीवन में अपनाया। कुलममलाकर कह सकते हैं मक मीरा का सामतं वादी उन्मल ू न सराहनीय है। उसने पदा​ा प्रथा, सती प्रथा, मवधवा की करुिता जैसी सामतं ी मया​ादाओ ं का सशक्त मवरोध मकया। जीवन-व्यवहार में उसकी त्यागभावना समाज के मलए प्रेरिा समान है। यों तो मीरा के जीवन का महत्वपूिा अगं भमक्त और दशान है, मफर भी Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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उसकी सामामजक पृष्ठभमू म वन्दनीय, सराहनीय है, वतामान प्रासंमगक है। िन्द्दभक-िक ं ेत: १. अरुि चतवु दे ी (सं.), मीरा एक मल्ू यांकन, पृ. प्राक्कथन से २.

वही, पृ. १११

३. डॉ. कृ ष्ट्िदेव शमा​ा (सं.), मीराबाई-पदावली, पृ. १२१ सहदं ी सिभाग, नीमा गल्िक आिडकि कॉलेज,गोज़ाररया-३८२८२५

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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प्रेमचंद-िासहयय में मानिेयतर चेतना -डॉ. मीनाक्षी जयप्रकाश मसंह प्रेमचदं -सामहत्य के हजारों पन्नों का प्रत्येक पन्ना मानव-प्रेम और सच्चे मल्ू यों के उद्गार से भरा पड़ा ह। जहां प्रेम मसफा महलों के राजा के प्रमत या श्रद्धा मसफा आसमान के देवों से नहीं है बमल्क प्रेम खेतों में चरते गाय-बैलों से और श्रद्धा मनम्न-वगा के गृहस्थ-खेमतहरमजदरू ों से भी है। इस सदं भा में भीष्ट्म साहनी कहते हैं –‘‘प्रेमचदं का लेखन हामदाक है। मानतवा के प्रमत उनके गहरे प्यास और जीवन के प्रमत मवश्वास ने उनके लेखन में ऐसी क्रांमत भर दी है, जो बेहद संतोर्षप्रद है। उन्होंने सदैव अनभु मू त की तीव्रता के साथ लेखन मकया और इसने चाहे अपने को क्रुद्ध मवरोध, व्यंनय या मवडंबना के जररए अमभव्यक्त मकया हो, जैसा मक आरंमभक कहामनयों में ममलता है, या मफर गहरी व्यथा या उदासी के जररए जैसा मक बाद की कहामनयों में ममलता है, उनका स्रोत हमेशा समान था। पीमड़त मानवता के मलए गहरी करुिा और प्यार तथा उसके साथ पिू ा तादात्म्य का भाव।‘’ यही प्रेमचंद का संसार है जहां हमें होरी, धमनया, मतमलया, नोहरी, ढपोरसंख, राय साहब, मालती, खन्ना, मेहता, सख ु दा, अमरकांत, मवनय, सोमफया, सरू दास तथा सैंकड़ों ऐसे पात्र ममल जाएगं े जो हमारे अपने ही हैं और इसमलए ये कहामनयां प्रेमचंद की कहामनयां न होकर हमारी अपनी कहानी बन जाती हैं मजन्हें पढ़कर हमारा ममस्तष्ट्क मवचारों के जजं ाल में उधेड़बनु करते हुए उलझता नहीं अमपतु एक अदभतु शांमत व सक ु ू न का अनभु व करता है। उसे इस संसार में अजनबीपन का नहीं, अपनत्व का एहसास होता है क्योंमक यहां उसे अपने ही वगा के लोग, अपने ही पड़ोसी, भाई-दोस्त-पररवारों की कथा ममलती है, Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मजसमें कोई वगा-रंगभेद की गंध तक नहीं होती तथा कहानी आख ं ों के रास्ते हमारे हृदय को छू जाती है। डॉ. दगु ा​ा दीमक्षत ने अपने आलेख में कहा है – ‘‘प्रेमचंद ने गरीबी और पीड़ा को स्वयं भोगा था। देहातों में घमू -मफरकर मनम्नवगा के घृमित जीवन की मवडंबना को जाना था। पररिामत: यगु बोध से संपक्ृ त उनकी अनभु मू त आदशावादी धरातल पर भातरीय मल्ू यों के प्रमत आस्था में अमभव्यक्त हुई। दररद्र, अपढ़ मनम्नवगीय समाज की आत्मा को नि करने वाली शमक्तयों का मचत्रि कर जबदास्त शोर्षि से उत्पन्न पीड़ा, दख ु :ददा को उन्होंने वािी दी। उनका सामहत्य यगु ों-यगु ों से पीमड़त, उपेमक्षत, दीन-दख ु ी, दमलत जीवन के सारे शोर्षि की मवडंबना का दस्तावेज बना मजसमें दमलतों की असहाय मक ू व्यथा, घनीभतू पीड़ा और कठोर शोर्षि का अक ं न है।’’ प्रेमचदं की कहामनयों की मवर्षय मवमवधता को देखकर आश्चया होता है। समाज में ऐसी कोई भी समस्या नहीं थी, जो उनकी कलम की नोंक और उनकी आलोचनात्मक दृमि से होकर न गजु री हो, समाज का कोई ऐसा वगा नहीं, जो पात्र के रूप में उनकी तमु लका का मशकार न हुआ हो, मकंतु इतनी मवमवधताओ ं के बीच भी उनका मकस्सागो मरता नहीं, बमल्क वह हमेशा हँसता ही रहता है, जीमवत रहता है। मजस प्रकार कबीर बड़ी तथ्यात्मक बात, नीरस से नीरस नीमत और उपदेशपिू ा बातों को भी बड़े रोचक ढगं से दो पमं क्तयों में कह देते थे वैसे ही प्रेमचदं ने भी समाज की सभी समस्याओ ं का अवलोकन, समालोचन और मचत्रि अपनी कहामनयों में मकया मफर भी उनकी कहामनयां नीरस नहीं हुई।ं उनकी जीवतं ता ही प्रेमचंद की अपनी जीवतं ता है। प्रेमचंद के सामहत्य में पात्रों के इतने मवमवधरूप हैं मक मानव स्वभाव का कोई पक्ष, भारतीय समाज का कोई भी अगं इनसे छूटा नहीं रह वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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जाता। यहां गरीब, मोची, पासी, चमार, धोबी, मजदरू , मकसान, खेमतहर, मभखारी हैं तो यहां जमींदार, लेखक, संपादक, मवद्वान, शास्त्री और पंमडत भी हैं। यहां कायर, नीच, लालची, स्वाथी और कंजसू हैं तो यहां दयाल,ु भावक ु , उदार, परोपकारी और दानी भी हैं। इन पात्रों की प्रासंमगकता आज लप्ु त नहीं हुई है। आज भी इन पात्रों को हम अपने आस-पास देखते हैं। प्रेमचंद के ये पात्र भले ही अपनी कथा में मसफा अपने जैसा एक है, मकंतु वह अपने परू े वगा का प्रमतमनमध भी बन जाता है क्योंमक प्रेमचंद उसके माध्यम से उस परू े समाज को, समाज के उस वगा को और उस वगा के प्रत्येक अगं को व्यक्त करते हैं। इन पात्रों की साथाकता इस बात में नहीं है मक ये प्रेमचंद द्वारा अपनी कथा में उपयक्ु त हैं, मफट हैं या अमद्वतीय हैं, बमल्क इनकी साथाकता इस बात में है मक ये अपनी असाधारिता में भी अत्यतं साधारि, अपनी मवमशिता में भी अत्यंत सामान्य के प्रतीक बन जाते हैं, ‘‘इसीमलए, मबना मकसी अमतशयोमक्त के यह कहा जा सकता है मक प्रेमचदं -सामहत्य में सपं िू ा भारतीय जनता, अपने सच्चे रूप में अमभव्यक्त हुई है। परंपरागत अधं मवश्वासों और नैमतक आडंबरों को जीतती हुई, भय, आतक ं , दमन के मपशाच को कुचलती हुई, अपनी प्रखर प्रमतभा, अथक मेहनत व सक ं ल्प, मनष्ट्कपट-सहृदयता, सच्चाई की टेक, अमतशय सरसकोमलता, ईमानदारी, भमवष्ट्य में अटूट आशा, करुिा, दया, प्रेम, वात्सलय और भ्रातृत्व के साथ देश की समस्त सांस्कृ मतक मवरासत को अपनी गोदी में मलए, भरतीय जनता के चरि प्रगमत के पथ पर आगे बढ़ रहे हैं।

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दमन। अपने इसी उद्देश्य की पमू ता के मलए उन्होंने सैकड़ों पात्रों को मसरजा है, उन्हें मवचार मदया है, आवाज दी है और उन्हें अपने सामहत्य का अगं बनाया है। प्रेमचंद सामहत्य में जहां मानव जीवन की सक्ष्ू म बारीमकयों का मववेचन-मवश्लेर्षि ममलता है, वहीं उनके सामहत्य में मानवेतर जीवों के अन्यतम रूप के दशान भी होते हैं। उनकी कहामनयों और उनके उपन्यासों में पशओ ु ं के प्रमत संवदे ना का मचत्रि तो है ही, ‘पशओ ु ं की संवदे ना’ का भी बड़ा ही सटीक और हृदयग्राही मचत्रि ममलता है। मानवेतर जीव प्रेमचंद के सामहत्य में मदखाने के मलए या मनोरंजन के मलए नहीं आते बमल्क उनके माध्यम से भी बहुधा प्रेमचंद अपनी सामहमत्यक उपयोमगताओ ं की मसमद्ध करते नजर आते हैं। ग्राम्य जीवन और कृ मर्ष का अधार ही होता है पश-ु पालन। मकसान और गाय-बैल-बकरी एकदसू रे के परू क होते हैं। मकसानों और पशओ ु ं का यह प्रेम प्रेमचदं -सामहत्य में अपने उच्चतम और मवशद्ध ु रूप में ममलता है।

प्रत्येक पात्र का मनमा​ाि प्रेमचंद ने मवमभन्न मल्ू य-दृमियों को नजर में रखते हुए मकया है, मकंतु मल ू त: इन पात्रों के मनमा​ाि का उद्देश्य मसफा एक है और वह है मानवता का उन्नयन और पामश्वकता का

प्रेमचदं ने हमेशा एक सपना देखा था। वे मशीन यगु के पररिाम इस मशीनी जीवन से नाखश ु थे। वे सपं िू ा जीवन गांव में रहकर जीवन-यापन करने का सपना देखते हैं मकंतु उसे साकार न कर पाए। प्रेमचदं पाश्चात्य सभ्यता के मल ू मशीन तथा धन और शहरीकरि से बहुत मनराश थे। उनकी नजर में जीवन जीने का सबसे ऊंचा तरीका गांवों का सीधासादा जीवन है। आज आधमु नक यगु में शहरीकरि और मशीनों की आपाधापी ने मनष्ट्ु य को भी मशीन बना मदया है, उसकी संवदे नाएं मशीनों की आवाज के नीचे दब गई हैं, ऐसे में गांव का वह रमिीय वातावरि जो मनष्ट्ु य की सोई हुई संवदे नाओ ं को जगा सकता है,

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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प्रेमचंद के मलए सवा​ामधक श्रेयस्कर जीवन-शैली है। ग्रामीि मनष्ट्ु य इतने सीधे-सादे और सरल हृदय होते हैं मक मनष्ट्ु य के प्रमत उनकी संवदे ना और सहानभु मू त तो अपार रहती ही है, पशओ ु ं के मलए भी उनके मन में भाईचारगी और प्रेम कूट-कूटकर भरा होता है। होरी को अपने संपिू ा जीवन में एक ही कामना थी मक उसके द्वार पर गाय बंधी रहे और लोग उसके द्वार को देखकर उसके घर को होरी महतो का घर कहें। मकंतु यह गाय लेने के मलए उसके पास बैंक से लोन लेने की जानकारी या साहस नहीं है। मकंतु महाजनों से जो उसके आस-पास रहते हैं उनसे उधार लेने में उसे कोई तकलीफ नहीं है। भोला की गाय देखकर होरी का मन ललचा जाता है। ‘‘वह आगे वाली गाय उसे दे दे तो क्या कहना। रुपये आगे-पीछे देता रहेगा। वह जानता था, घर में रुपये नहीं हैं। अभी तक लगान नहीं चक ु ाया जा सका, मबसेसर साह का देना भी बाकी है, मजस पर आने रुपये का सदू चढ़ रहा है, लेमकन दररद्रता में जो एक प्रकार की अदरू दमशाता होती है, वह मनलाज्जता जो तकाजे, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होती, उसने उसे प्रोत्सामहत मकया। बरसों से जो साध मन को आदं ोमलत कर रही थी, उसने उसे मवचमलत कर मदया। ‘‘महाजन और मकसान के बीच में गामलयों और तकाजों का सबं धं है, उसने होरी को मनमितं कर मदया है। होरी जानता है मक गाय लेकर भोला के रुपये वह चक ु ा नहीं पाएगा मकंतु मफर भी वह इस इच्छा को दबा नहीं पाता क्योंमक वह यह भी जानता है मक जैसी मस्थमत अभी है वैसी मस्थमत उसके साथ मजदं गी भर रहेगी, इसमें सधु ार होने की संभावना नहीं है। अत: जहां दो गामलयां खाते हैं, वहां चार गामलयां और सही मकंतु साध तो परू ी हो जाएगी। गाय की अमभलार्षा होरी और धमनया दोनों की मचर-संमचत अमभलार्षा थी। जब गोबर गाय लाता है तो ‘‘धमनया के मख ु पर जवानी चमक उठी थी।’’ Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मजसे कभी-कभी ही सख ु से साबका पड़े। वह धमनया इतनी बड़ी खश ु ी देखकर भी खश ु नहीं हो पाती। उसे भय है मक कहीं भगवान इसे छीन न ले। ‘‘धमनया अपने हामदाक उल्लास को दबाए रखना चाहती थी। इतनी बड़ी संपदा अपने साथ कोई नई बाधा न लाए, यह शक ं ा उसके मनराश हृदय में कंपन डाल रही थी। आकाश की ओर देखकर बोली –‘‘गाय के आने का आनंद तो जब है मक उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान के मन की बात है। मानो वह भगवान को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान को भी मदखाना चाहती थी मक इस गाय के आने से उसे इतना आनंद नहीं हुआ मक ईष्ट्यालु भगवान सख ु का पलड़ा ऊंचा करने के मलए कोई नयी मवपमत्त न भेज दे।’’ गाय की यह अमभलार्षा इतनी तीव्र है मक साम-दाम-दडं -भेद हर नीमत अपनाकर जब गाय घर आ जाती है तो उसका मकसा तरह ख्याल रखा जाता है – खदु खाएं या न खाएं पर गाय को माता का दजा​ा दे, उसे भख ू ा नहीं रखा जाता। खदु रूखा-सख ू ा मनगल सकते हैं पर गाय को मबना खली-चोकर के खाली भसू ा कै से मदया जा सकता है। अपनी गाय के मरने पर धमनया का प्रेम ही उसके प्रमत ये शब्द कहलवाता है –‘‘इतनी जल्दी सबको पहचान गई थी मक मालमू ही न होता था मक बाहर से आई है। बच्चे इसके सींगों से खेलते थे। मसर तक न महलाती थी। जो कुछ मादं में डाल दो, चाट-पोंछकर साफ कर देती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या रहती। सोना और रूपा यह हलचल सनु कर जाग गई थीं और मबलख-मबलखकर रो रही थीं। उसकी सेवा का भार अमधकतर उन्हीं दोनों पर था। उनकी संमगनी हो गई थी। दोनों खाकर उठती तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने हाथों से मखलाती। कै सा जीभ मनकालकर खा लेती।’’ इन गरीब मकसानों के पास धन नहीं है मकंतु उनके मदल इतने बड़े हैं मक एक गाय, एक बैल या एक वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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जमीन का टुकड़ा भी इनके प्यार का, इनके ममत्वपिू ा स्नेह का अमधकारी हो जाता है। उसके मबना ये अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। अमीरों में यह संवदे ना नहीं क्योंमक ये संवदे नहीन होते हैं। गरीब मजन वस्तओ ु ं का उपयेाग करते हैं उसे वे अपना खास समझते हैं, मसफा भोग के मलए नहीं बमल्क उसके दख ु , उसके सुख को वे अपना लेते हैं मकंतु अमीर यमद मकसी वस्तु का उपयोग करते हैं तो मसफा तब तक जब तक उसकी जरूरत हो, आवश्यकता परू ी हो जाने के बाद उन्हें उस चीज को फें कने में जरा भी देर नहीं लगती – चाहे वह वस्तु हो, चाहे वह कोई जानवर हो, या कोई इन्सान या ररश्ता ही क्यों न हो। मगरधारी अपने खेतों के बारे में उसी प्रकार मचंता करता है जैसे वह अपने बेटों की और अपने पररवार की मचतं ा करता है। मगरधारी के अपनी जमीन के प्रमत उसके प्रेम का विान करते हुए प्रेमचदं कहते हैं –‘‘ये खेत मगरधारी के जीवन के अश ु भमू म ं हो गए थे। उनकी एक-एक अगं ल उसके रक्त से रंगी हुई थी। उनका एक-एक परमािु उसके पसीने से तर हो गया था। उनके नाम उ सकी मजह्वा पर उसी तरह आते थे मजस तरह अपने तीनों बच्चों के । कोई चौबीसों था, कोई बाईसों था, कोई नाले वाला, कोई तलैया वाला। इन नामों के स्मरि होते ही खेतों का मचत्र उसकी आख ं ों के सामने खींच जाता था। वह इन खेतों की चचा​ा इस तरह करता मानो वे सजीव हैं। मानो उसके भले-बरु े के साथी हैं। उसके जीवन की सारी आशाए,ं सारी इच्छाएं, सारे मनसबू े, सारी मन की ममठाइयां, सारे हवाई मकले इन्हीं खेतों पर अवलंमबत थे। इसके मबना वह जीवन की कल्पना ही नहीं कर सकता था।’’ अपने बैल, मजन्हें वह अपने बच्चों की तरह चाहता था, उनको मबछड़ता देख कर उसके मचत्त की दशा पागलों की-सी हो जाती है। जब मंगलमसंह बैलों को खोलकर ले जाने लगता है तब मगरधारी उनके Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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कंधों पर मसर रखकर खबू फूट-फूटकर रोता है। उसका वश चलता तो वह अपनी जमीन, अपने गाय-बैलों से मरते दम तक अलग न होता मकंतु पररमस्थमत और व्यवस्था की मार उसे धीरे -धीरे उन बैलों से, जमीन से, खेती से, उसकी मरजाद से या एक शब्द में कहें तो उसके शरीर से उसके प्रािों को अलग कर देती है। अब उसके पास मजदरू ी के मसवा कोई रास्ता शेर्ष ही नहीं रह जाता। यह परू ी व्यवस्था कुछ ऐसे र्षडयंत्र रचती है जो एक मकसान को मजबरू कर देती है मक वह अपनी मरजाद त्यागकर, अपने हल-बैल की कि खोदकर मजदरू ी का रास्ता अपनाए, मकसानों की यही मान-मया​ादा, उनका अपमान, उनकी हार, व्यवस्था की क्रूर मवजय और इस मवजय पर उनका क्रूर अट्टहास बन जाता है। ‘पसू की रात’ कहानी में हल्कू का साथी कुत्ता जबरा है मजसे हल्कू बहुत प्यार करता है और जबरा भी कड़ाके की सदी में अपने ममत्र का साथ नहीं छोड़ता। खेती की वजह से हल्कू कई मदनों से पाररवाररक सख ु तक नहीं ले पाया है और इस मवपन्नता में वह आधी रात को अपने साथी कुत्ते के साथ कड़कती ठंड का सामना करता है, उससे बात करके अपने दख ु बाटं ता है, उसके साथ खेलकर अपने गम कम करता है, और उसे अपनी देह से मचपटकार इसकी दगु धिं भरी देह से गमी प्राप्त करने की कोमशश करता है। प्रेमचदं कहते हैं –‘‘जब मकसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसके मसर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सल ु ा मलया। कुत्ते की देह से न जाने कै सी दगु धिं आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद से मचपटाये हुए ऐसे सुख का अनभु व कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न ममला था। ’’ पशओ ु ं के प्रमत संवदे ना ओर प्रेम तो प्रेमचंदसामहत्य में भरपरू ममलता है परंतु इनकी कहानी ‘दो वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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बैलों की कथा’ में यह प्रेम ओर संवदे ना इतना मनखर गया है और प्रखर हो गया है मक मानव का पशु से प्रेम तो मदखता ही है, परंतु पशु का मानव के प्रेम के प्रमत जो प्रमतमक्रया अैर उनकी खदु की क्या संवदे नाएं हैं, उसका स्पि मचत्रि ममलता है। यहां प्रेमचंद दो बैलों के हृदय में पैठकर यँू बात करते हैं मानो वे स्वयं उनकी बोली में बात कर रहे हैं – उनकी भार्षा समझ सकते हैं – उनके मनोभाव को अच्छी तरह समझ और व्यक्त कर सकते हैं। प्रेमचंद को अपने इस ग्राम्य जीवन से कोई हीनता का बोध नहीं होता, अमपतु इस सादे जीवन को वे जमटल जीवन-शैली जीने वाले और स्वाथा प्रेममयों के मलए दबु ोध मानते हैं। उन पर तरस खाते हुए प्रेमचंद कहते हैं –‘’स्वाथा, सेवी, माया के फंदों में फँ से हुए मनष्ट्ु यों को यह शामं त, यह सख ु , यह आनदं , यह आत्मोल्लास कहां नसीब ?’’ प्रेमचदं के सपं िू ा सामहत्य का उद्देश्य इसी रामराज्य की स्थापना है, जहां न कोई छल है, न कपट है, जहां द्घेर्ष और ईष्ट्या​ा का साम्राज्य नहीं, धोखा और झठू जहां मकसी को आता नहीं, जहां बैर-भाव दसू री दमु नया के समझे जाते हैं, धन मसफा आवश्यकताओ ं को परू ा करने का माध्यम है और भोग-मवलास के नाम पर लोग पेड़ों की ठंडी छावं तले चैन से पशओ ु ं के साथ खेलते हैं, मीठे बेर खाते हैं। जहां कोई बड़ा या छोटा नहीं है, सभी अपना काम खदु करते हैं और प्रेम का, सत्य का, स्नेह का साम्राज्य चारों ओर छाया हुआ है। जहां अमभमान, अहक ं ार और शासन नहीं अमपतु नम्रता, सौजन्य और सेवा भाव का स्थान है। प्रेमचंद दोनों बौलों के आपसी ररश्ते, उनकी आपसी समझ और प्रेम तथा भाईचारा का विान करते हुए मलखते हैं –‘’झरू ी काछी के दोनों बैलों के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाई ं जामत के थे – देखने में संदु र, काम में चौकस, डील में ऊंचे, बहुत मदनों साथ Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमनेसामने या आस-पास बैठे हुए एक-दसू रे से मक ू भार्षा में मवचार-मवमनमय करते थे। एक-दसू रे के मन की बात कै से समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गप्ु त शमक्त थी, मजससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनष्ट्ु य वमं चत है। दोनों एक-दसू रे को चाटकर और संघू कर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी ममला मलया करते थे – मवग्रह के नाते से नहीं, के वल मवनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घमनष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके मबना दोस्ती कुछ फुसफुसी, हल्की-सी रहती है, मजस पर ज्यादा मवश्वास नहीं मकया जा सकता। मजस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत मदए जाते और गरदन महला-महलाकर चलते, उस वक्त हर एक की यही चेिा रहती थी मक ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गरदन पर रहे। मदनभर के बाद दोपहर या सध्ं या को दोनों खल ु ते, तो एक-दसू रे को चाट-चाटकर अपनी थकान ममटा मलया करते। नादं में खली-भसू ा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नादं में महंु डालते और साथ ही बैठते थे। एक महंु हटा लेता, तो दसू रा भी हटा लेता था।’’ इन बैलों के माध्यम से प्रेमचदं ने न मसफा उनकी सवं दे नआों का प्रदशान मकया है बमल्क यह भी मदखाया है मक श्रेष्ठतम प्रािी मानव भी अपने मसद्धातं ों में मडग जाते हैं, पर पशु अपनी अमं तम सासं तक लड़ते हैं, अपने मसद्धांतों की रक्षा करते हुए। हीरा-मोती न मसफा अपनी रक्षा करते हैं बमल्क संकट काल में वे खदु की जान खतरे में डालकर बाकी सब जानवरों को आजादी मदलवाते हैं पर एक-दसू रे को छोड़कर नहीं भागते। सांड़ से लड़ाई भी वे ममलकर ही लड़ते हैं और अतं त: जीतते भी हैं परंतु कभी भी अपनी शमक्त का इस्तेमाल मकसी वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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मनहत्थे, मकसी स्त्री या घायल बैरी पर नहीं करते बमल्क इसे अपने उसल ू ों के मखलाफ मानते हैं। वे जहां नफरत को समझने की नजर रखते हैं वहीं वे प्यार की भार्षा भी भली-भांमत समझते हैं। कुल ममलाकर कहा जा सकता है मक प्रेमचंद ने मानवेतर जीवों की मनोदशा, उनके द्वद्वं -अतं द्विंद्व और उनकी सक्ष्ू म भावनाओ ं का मचत्रि करने में कोई कसर नहीं छोड़ी बमल्क वे इस क्षेत्र में भी उतने ही मसद्धहस्त सामबत होते हैं मजतना मक अन्य मवर्षयों के मचत्रि में।

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“पहर दोपहर : सफ़ल्मी दुसनया का यथाथक” स्िासत चौधरी शोधाथी, महदं ी मवभाग हैदराबाद मवश्वमवद्यालय, हैदराबाद, 500046 मो. 9461492924, 9828985539 ईमेल- Swatichoudhary212@gmail.com असग़र वजाहत सामामजक संचेतना से जड़ु े हुए उपन्यासकार है । इन्होंने सामामजक जीवन का यथाथा मचत्रि अपने उपन्यासों में मकया है । प्रेमचंद की तरह इन्होंने भी अपने समय और समाज की मवसंगमतयों, मवडम्बनाओ ं और समाज के यथाथा स्वरूप को अपने उपन्यासों में अमभव्यक्त मकया है । वजाहत जी महदं ी के उन मवरले लेखकों में मगने जाते हैं जो अपने पाठकों से तारतम्यता स्थामपत करके रचना को आगे बढ़ाते है । मजसके कारि पाठक और रचना के बीच जीवंत सम्बन्ध स्थामपत हो जाता है । ‘पहर दोपहर’ भी इसी दृमिकोि को ध्यान में रखकर मलखा गया उपन्यास है । यह उपन्यास 2012 में आकृ मत प्रकाशन शाहदरा, मदल्ली से प्रकामशत हुआ । यह आत्मकथात्मक शैली में मलखा गया अत्यंत महत्त्वपिू ा उपन्यास है, मजसमें मफ़ल्मी दमु नया की अदं रूनी हकीकतों का पदा​ाफास मकया गया है । रंगीन जगत् के प्रमत लोगों के मन में आकर्षाि स्वाभामवक है परन्तु इस सन्ु दरता और आकर्षाि के पीछे मछपे सच को देखा जाये तो पटकथा की मजन्दगी यथाथा मजन्दगी से कोसों दरू है । मफल्म की दमु नया पैंतरे बाजी की दमु नयाँ है, शोर्षि की दमु नया है, नशे की दमु नया है, ममदरा और शोर्षि पर मटकी दमु नया है । मफर भी इस दमु नया के प्रमत जनता के मन में आकर्षाि है, मोह है ।

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इन्हीं मफ़ल्मी जगत् की सच्चाइयों को इस उपन्यास में परत-दर-परत उघारने की कोमशश की गई है । ‘मैं शैली’ में मलखे गए इस उपन्यास में लेखक स्वयं असग़र नाम से ही उपमस्थत रहता है और सम्पिू ा उपन्यास लेखक के दोस्त जामलब के फ़्लैट में ही संचामलत होता है । मफ़ल्मों में पैसों की संभावना को देखकर ही लेखक मदल्ली को छोड़कर मबंु ई महानगरी की और रवाना होता है । हर आम इन्सान की तरह लेखक को भी अपनी टूटी-फूटी हालत में पैसे कमाने के मलए मफ़ल्मों की दमु नयाँ की बेहतरीन मजन्दगी आकमर्षात करती है । इसी आकर्षाि के फलस्वरूप ही वह अपने बचपन के दोस्त जामलब के घर मबु ंई पहुचँ ता है । जामलब, असग़र का परु ाना दोस्त है । जब जामलब और असग़र साथ पढ़ा करते थे । तब जामलब अपने खानदान वगैरा के बारे में बताया करता था । जामलब हैदराबाद के मनजाम के प्रमख ु मत्रं ी हश्मतयारगजं के मबगड़ैल बेटे थे । जो ऐशो-आराम से मजन्दगी गजु ारते थे । जब वह साँतवीआठवीं कक्षा में पढ़ता था तब ही उसके पास आमस्टन गाड़ी और रखैल दोनों थी । “रईसों के बेटों की तरह जामलब की आदतें बहुत मबगड़ी हुई थीं । जब वह आठवीं में पढ़ता था तब ही उसके पास ‘आमस्टन’ गाड़ी और रखैल थी । आवारा लोगों की तरह एक फौज उसके साथ रहती थी । चँमू क सबसे बड़ा बेटा था और माँ उसे बेतहाशा चाहती थी इसीमलए मजतना मबगड़ना सभं व हो सकता है उतना वह मबगड़ चक ु ा था” ।31 लेमकन यह अय्याशी ज्यादा मदन नहीं चली और जब जामलब सोलह साल का था तब ही हश्मतयारगंज का इतं काल हो गया । उनके पररवार की हालत इतनी मबगड़ गई मक खाने तक के लाले पड़ गए तब उन्होंने मम्ु बई का रूख मलया था । यह सम्पिू ा

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कहानी उपन्यास के प्रारंभ होने से पवू ा की है । उपन्यास की वास्तमवक शरु​ु आत लेखक के मम्ु बई पहुचँ ने से होती है । जामलब के घर आने पर लेखक की मल ु ाकात सल्ु ताना, ममजा​ा साहब, मानस, हैदर साहब, मपया, रतनसेन, नीना, जमसया आमद से होती है ।ये मफ़ल्मी दमु नया के यथाथा चेहरे है । इन खबु सरू त चेहरों के पीछे मछपे यथाथा और बदसूरती से लेखक वामकफ होता है । यहाँ पर ही जामलब के फ़्लैट में रहकर ही उसे मफ़ल्मी दमु नया के यथाथा का पता चलता है । रंगीन दमु नया के पीछे मछपी बेरंगी से उसका साक्षात्कार होता है । इन्हीं मफ़ल्मी जगत् की कड़ी सच्चाईयों को लेखक ने इस उपन्यास के माध्यम से हमारे सामने प्रस्ततु मकया है ।

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काले-काले गोले मखचं गए हैं ।”33 सल्ु ताना भी जब जामलब के घर आती है तो व्हस्की की बोतल साथ लाती है ममजा​ा भी आते ही सबसे पहले अपनी बोतल ही देखते हैं । “अब उन पर नशा असर कर रहा था । उनके पीने की रफ्तार भी खासी तेज थी । दो-तीन के बाद वे सोडा भी नहीं ममला रही थी मसफा बफा के साथ पी रही थी ।”34 संगीत मनदेशक मानस की भी नशीले पदाथों के उपभोग के कारि असमय मृत्यु होती है ।

मफ़ल्मी दमु नया की चकाचौंध भरी मजन्दगी पैसे और प्रमतष्ठा की झठू ी शान पर मटकी हुई है । यह दमु नया मौज और मस्ती की दमु नया है । यहाँ की दमु नया का नैरन्तया पीने और मपलाने में है । पीने और मपलाने के मबना तो मफ़ल्मी दमु नयाँ ही अधरू ी है । स्त्री हो या परु​ु र्ष सब नशे में चरू है । जामलब की सबु ह की शरु​ु आत दारू से होती है । रात का नशा उतारने के मलए उन्हें सबु ह-सबु ह मफर से दारू के नशे की जरूरत होती है । “जामलब शरू ु होने के बाद रुका नहीं । एक ‘पेग’ के बाद उसने दसू रा और दसु रे के बाद तीसरा और चौथा बनाया । मझु े यह समझते देर नहीं लगी मक वह मदन भर पीता है और नशे में रहता है ।”32 मफ़ल्मी जगत् में प्रमतमष्ठत हमस्तयाँ भी नशे में बबा​ाद हो जाती है । ‘देवी’ भी पहले इतनी टेलेंटेड थी मक लोग उसे नयी मस्मता पामटल कहा करते थे लेमकन चरस गांजे ने उसे बबा​ाद कर मदया । “लेमकन चरस गांजे ने उसे बबा​ाद कर मदया । तमु ने तो कल ही देखा होगा हड्मडयाँ मनकल आयी हैं और आँखों के चारों तरफ

मफ़ल्मी दमु नया में मानवीय मल्ू यों की गजंु ाइश नाम मात्र के मलए भी नहीं है । अमभनेमत्रयों की हालत तो बहुत ही गयी गजु री है । धन और प्रमतष्ठा प्राप्त करने के मलए उन्हें अपना सवास्व खोना पड़ता है । अमभनेमत्रयों की वास्तमवक मस्थमत का मचत्रि मपया, शकुन्तला, देवी, सल्ु ताना आमद स्त्री पात्रों के माध्यम से मकया गया है । यह मफ़ल्मी दमु नया नलैमर की दमु नया है । मफ़ल्मी नामयका बनने के मलए मपया और शकुन्तला अपनी परू ी मजन्दगी स्वाहा कर देती है ‘ऐड’ वाले मपया को ऑफर पर ऑफर देकर मम्ु बई लाए थे और ऑफर के बहाने ही उसे बदनाम मकया गया । ‘ऐड’वालों ने काम तो मदया लेमकन शतों पर...शतों के कारि ही मपया एक हाथ से दसु रे और दसु रे से तीसरे हाथ में चक्कर लगाती रही । वह मफ़ल्मी दमु नया में भी जाती है लेमकन मफ़ल्मी दमु नया ऐड वालों से ज्यादा शरीफ नहीं होती । वहाँ पर भी उसकी वही हालत होती है । “हुआ यह यार मक जल्दी ही मफल्म वालों और ‘ऐड’ वालों को यह पता चल गया मक लड़की उनके ‘रहमोकरम’ पर पड़ी हुई है । मपया मक इज्जत उतनी भी नहीं रही मजतनी रंमडयों की होती है ।”35 प्रमसद्ध मनदेशक धमावीर से शादी होने के बाद भी वह पमतव्रता नहीं रहती और धीरू से अलग रहने लग जाती है । पमत धीरू के मरने के बाद भी वह मनदेशक

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रतनसेन की भोगमपपासा का मशकार बनती है । अतं में जब रतनसेन द्वारा मफल्मों में काम नहीं ममलता तब एन. आर. सजान से शादी कर लेती है । इस प्रकार स्पष्ठ है मक मफ़ल्मी दमु नयाँ की यह वास्तमवक मस्थमत है जहाँ मानवीय मल्ू यों और ररश्तों नातों का कोई महत्त्व नहीं है । अमभनेत्री बनने की इच्छा में शकुन्तला को भी न जाने मकतने लोगों से हममबस्तरी करनी पड़ती है । जब शकंु तला को घर में रखने की बात आती है तो जामलब लेखक से कहता है मक “क्या बरु ा है प्यारे । यहाँ रहेगी तमु भी बहती गगं ा में हाथ धो लेना ।”36 अमभनेमत्रयों के पास जब तक सौन्दया है तब तक ही उनके पास नाम, यश और प्रमतष्ठा है । जब जामलब के घर पर परु ानी महरोइन सल्ु ताना से लेखक की मल ु ाकात होती है तो पता चलता है मक सल्ु ताना के उम्र और सौन्दया के घटने के साथ ही उसकी परु ानी शान भी घट गई है । “यही सल्ु ताना थी । उनकी उम्र का अदं ाजा लगाना आसान न था । भारी मेकअप और कीमती हीरे जड़े जेवरात से इस तरह सजी थी जैसे दल्ु हन।”37 मपया के मलए भी जामलब कहता है मक मपया खबु सरू त है यही उसकी बदनसीबी है, इतनी खबु सरू त न होती तो ये हाल नहीं होता । इस प्रकार आज हमारे समाज में मफ़ल्मी मसतारों को प्रमसमद्ध और प्रमतष्ठा ममल रही है, लेमकन वहाँ की मजन्दगी मकस हद तक मगरी हुई है इस यथाथा को साधारि जनता नहीं देख सकती । एक मफल्म को बनकर आने में न जाने मकतने लोगों को दःु ख, ददा झेलने पड़ते हैं । मफल्म बनकर आने के पीछे की सम्पिू ा यथाथा मस्थमत का मचत्रि उपन्यास में मकया गया है ।

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मफ़ल्मी मनदेशक, संगीत मनदेशक या पटकथा लेखक सभी के जीवन का अमं तम अथा ममदरा और मजस्म ही है । मजसमें पटकथा लेखक जामलब, संगीत मनदेशक मानस दा व मफल्म मनदेशक रतनसेन को देखा जा सकता है । शादीशदु ा जीवन होने के बावजदू भी सभी पर-स्त्री संबंध रखते हैं । नशे के साथ-साथ मस्त्रयों की मजन्दगी से मखलवाड़ करना उनके मलए आम बात है । पटकथा लेखक जामलब शादीशदु ा है, घर में पत्नी नीना है, दो बच्चे है लेमकन मफर भी उसके मलए पर-स्त्री सम्बन्ध आमबात है । नशे में चरू रहना और पर-मस्त्रयों से नाजायज सम्बन्ध उसके मलए साधारि चीज है । “मछछोरी मकस्म की लड़मकयों को फ़्लैट पर लाने का मकस्सा कोई नया नहीं था । यह तो जामलब अक्सर करता रहता था । कभी-कभी तो अहमद बेचारा उसी कमरे में होता था मजस कमरे में जामलब लड़की से हममबस्तरी करता था । वह चपु चाप लेटे रहकर यह जामहर करता रहता था मक सो रहा है ।”38 काम की तलाश में आनेवाली यवु मतयों को भी जाल में फँ साना उसके मलए आमबात थी । जयपरु से आए हुए मनोहर मीना और उसकी ममेरी बहन शकुन्तला को भी उसने फँ सा मलया था । जब मनोहर शकुन्तला को जामलब के घर छोड़ कर जाता है तो पीछे से जामलब उसके साथ भी सम्भोग करता है । “एक मदन मौका पाकर जामलब ने ममेरी बहन के साथ ‘महँु काला’ कर मलया । जामलब संभोग करने को ‘महँु काला’ करना कहता था ।”39 जामलब के मलए पत्नी और बच्चों के ररश्तों की कोई अहममयत नहीं है । जामलब के अनैमतक संबंधों के कारि उनके पाररवाररक ररश्ते भी बनते-मबगड़ते और टूटते हैं । नीना के पैसों से ही वह शराब पीता है और बच्चों का खचा​ा चलाता है । लेमकन मफर भी मकसी

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भी तरह का पिाताप उसके मन में नहीं है । जामलब से संबंधों से वामकफ होकर नीना ही अपनी बहन के पास पिु े चली जाती है लेमकन मफर भी जामलब की मजन्दगी में कोई सधु ार नहीं होता । मानस की भी मजन्दगी ऐसी ही है । वह भी नशा करता है और शादीशदु ा होने के बावजदू अड्डों की तलाश में लगा रहता है । अड्डों पर जाना उसके मलए आमबात है । लड़मकयाँ भी उसकी आदतों से वामकफ होती है जब वह मीना के पास जाता है तो वह जाते ही कहती है “मैं जानती हूँ तुम इसी तरह आते हो और आते ही दारू माँगते हो । इसमलए मैं हमेशा दारू रखती हूँ ।”40 नशे के कारि अतं में उसकी मृत्यु भी हो जाती है । रतनसेन भी मपया के साथ चक्कर चलाता रहता है । इस प्रकार स्पष्ठ है मक यह मफ़ल्मी दमु नया की वास्तमवक सच्चाई है मजसमें सभी का नैमतक पतन हो चक ु ा है उनके मलए अनैमतक काया करना आमबात है । पटकथा लेखक हो या सगं ीत मनदेशक या नायक या अमभनेत्री सभी इस जाल में ऐसे फँ से हुए मक इससे बाहर मनकलना उनके वश की बात नहीं है । इन्हीं चकाचौंध वाली मफ़ल्मी दमु नया की वास्तमवकता का मचत्रि इस उपन्यास में मकया गया है । जमसया जैसे लोग मफल्मों में रोल लेने के मलए मफल्म प्रोड्यसू रों के आगे पीछे घमू ते रहते हैं । मजसका यथाथा मचत्रि इस उपन्यास में मकया गया है । मफ़ल्मी दमु नया में सब नाम, शोहरत, पैसे के पीछे भागते रहते हैं । सभी में आपसी होड़, अमस्तत्व की तड़प, प्रमतयोमगता और कूटनीमत का चक्र चलता रहता है । मजतना ज्यादा काम करोगें उतने ही अमधक पैसे ममलेंगे । इसी वजह से धीरू की भी मौत हो जाती है । जामलब मफ़ल्मी जगत् की वास्तमवकता के सम्बन्ध में लेखक को बताता है । “जैसे यहाँ सब मरते

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हैं । सबसे पहली बात रात-मदन काम । अब रात-मदन काम क्यों ? तो यार ये ‘इडं स्री’ है। ‘शीट्स’ होती है मजतना जल्दी काम करोगे उतना पैसा ममलेगा ।”41 इस मफ़ल्मी दमु नया में सफलता प्राप्त करने के मलए पहले चापलसू ी, चाटुकाररता और दसू रों का मोहताज बनने कला सीखनी पड़ती है । मजसकों ये सब काम नहीं आते वह इसमें नहीं मटक सकता । काम की तलाश में आया हुआ लेखक भी मफ़ल्मी जगत् की वास्तमवकता को देखकर मम्ु बई छोड़ने को मववश होता है । इस प्रकार उपन्यास में असग़र वजाहत ने एक पटकथा लेखक जामलब की मजन्दगी का खल ु ासा करके मफ़ल्मी दमु नया के प्रत्येक क्षेत्र में कायारत प्रमतष्ठा प्राप्त लोगों की मनकटतम मजन्दगी की सच्ची तस्वीर खींची है । मम्ु बई की धूम-मचाती मफ़ल्मी दमु नया के हर एक पहलू को इसमें प्रस्ततु मकया गया है । मफ़ल्मी दमु नया की हकीकत से वास्ता कराना ही इस उपन्यास का मख्ु य उद्देश्य है । इसमें मफल्मी दमु नया के लटकोंझटकों के अलावा भी कई ऐसे प्रसगं हैं, जो वहाँ होने वाली घटनाओ ं को सामने लाते हैं, चमकीली दमु नया के काले सच को उघाड़ते हैं । जैसे जामलब के घर पर जब शकुन और मनोहर कब्ज़ा करने की सोचते हैं तो वह मकस तरह अडं रवल्डा का सहारा लेता है । इसके अलावा प्रोड्यसू र से पैसे वसल ू ने के मलए अडं रवल्डा की मदद ली जाती है, इसकी ओर भी उपन्यास में संकेत मकया गया है । यह उपन्यास साधारि भार्षा में मफ़ल्मी जीवन और जगत् के जमटल सबं धं ों को उजागर करता है। मानवमन की गहराईयों में उतर कर कलात्मक तरीके से पात्रों और उनकी गमतमवमधयों का उद्घाटन करता है । िंदभक ग्रन्द्थ िूची :-

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1. वजाहत, असग़र, ‘पहर दोपहर’ (2012), ‘आकृ मत प्रकाशन’,बी-32, कै लाश कालोनी, ईस्ट ज्योमत नगर के पीछे , शाहदरा, नई मदल्ली,पृ. 06 2. वहीं, पृ. 26 3. वहीं, पृ. 31 4. वहीं, पृ. 39 5. वहीं, पृ. 29 6. वहीं, पृ. 146 7. वहीं, पृ. 35 8. वहीं, पृ. 29 9. वहीं, पृ. 146 10. वहीं, पृ. 30 11. वहीं, पृ. 30

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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mn; çdk”k dh egkdkO;kRed dgkuh ^ihyh Nrjh okyh yM+dh* esa fufgr ewy laosnuk larks’k dqekj र्ोध छाि, सहंदी एिं तुलनात्मक सानहत्य निभाग के रल कें रीय निश्वनिद्यालय मोिाइल- 08737946909 ईमेल- kapoorsantosh10@gmail.com

mn; izdk”k dk ys[ku {ks= o`gn vkSj cgqLrjh; gSA budh dgkfu;ksa esa izrhdksa dk iz;ksx Li’V

ISSN: 2454-2725

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ISSN: 2454-2725

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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-: 1. सृ जनात्मकता के आयाम ,पीली छतरी वाली लड़की : स्त्री पीड़ा का आख्यान - आशुतोष ,पृष्ठ सं ख्या-95-96 2. पीली छतरी वाली लड़की-उदय प्रकाश,वाणी प्रकाशन,आवृ तत सं स्करण -2014,पृष्ठ सं ख्या - 14 3 .पीली छतरी वाली लड़की -उदय प्रकाश , वाणी प्रकाशन , आवृ तत सं स्करण – 2014, पृष्ठ सं ख्या- 7 4. पीली छतरी वाली लड़की -उदय प्रकाश , वाणी प्रकाशन , आवृ तत सं स्करण – 2014, पृष्ठ सं ख्या- 11 5. पीली छतरी वाली लड़की -उदय प्रकाश ,वाणी प्रकाशन ,आवृ तत सं स्करण – 2014,पृष्ठ

सं ख्या- 133

6. पीली छतरी वाली लड़की -उदय प्रकाश , वाणी प्रकाशन , आवृ तत सं स्करण – 2014,पृष्ठ सं ख्या- 132 7. पीली छतरी वाली लड़की -उदय प्रकाश , वाणी प्रकाशन , आवृ तत सं स्करण – 2014, पृष्ठ सं ख्या- 147

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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,d ,sls euksjksxh dk pfj= gS ftUgsa vLlh o’kZ dh voLFkk esa Hkh fL=;k¡ m}sfyr djrh gSaA bl vk/kkj ij ;g dguk vuqfpr ugha gS fd dq¡oj t;Urh izlkn dk pfj= Qzk;M ds euksfo”ys’k.k ds vk/kkj ij dke fod`fr dk eq[kj izrhd gSA “kqDy th dk vf/kdka”k miU;kl lkfgR; ml xzkeh.k ifjos”k ls lEc) gS ftlds Lej.k ls gh ,d “kkar ,oa folaxfr;ksa jfgr lekt dh ifjdYiuk mHkj dj lkeus vkrh gSA izfl) lekt”kkL=h MkW- “;kekpj.k nqcs ds vuqlkj ÞfojkV lekt”kkL=h; dYiuk okys chl fo}ku xzkeh.k ;FkkFkZ ds ckjs esa tks ugha dg lds og “kqDy th us ^jkx&njckjh* ds ek/;e ls dgk gSAß “kqDy th us vius miU;klksa ds }kjk Þvgk ! xzkE; thou Hkh D;k gSß dh mfDr dk lokZf/kd [akMu djrs gq, vius cgqpfpZr miU;kl ^jkx&njckjh* esa xzkeh.k ifjos”k dh dVq lPpkb;ksa dk og foLr`r Qyd izLrqr fd;k gS tks f”koiky xat ds xatgksa dk gh ugha vfirq lai.w kZ ekufld] uSfrd ,oa lkaLd`frd n`f’V ls ifrr bUlkfu;r ds vkoj.k esa fNih gqbZ gSokfu;r dk fp=.k djrk gSA rkss ogha nwljh vksj ^fclzkeiqj dk lar* ledkyhu thou dh ,slh egkxkFkk gS ftldk Qyd vR;ar foLrhZ.k gSA ,d vksj ;g Hkwnku vkUnksyu dh i`’BHkwfe esa LokrU«;ksRrj Hkkjr esa lRrk ds O;kdj.k vkSj mlh dze esa gekjh yksdrkaf=d =klnh dh lw{e iM+rky djrh gS rks ogha nwljh vksj jkT; iky dq¡oj t;Urh izlkn flag dh vardFkkZ ds :i esa egRokdk¡{kk] vkReNy] vr`fIr rFkk dqaBk vkfn euksxzafFk;ksa dh tdM+ esa my>h gqbZ ftanxh dh irZ nj irZ [kksyrh gS] rFkkfi blesa Hkh lkearh izo`fRr;ksa dh âklksUeq[kh dFkk Hkj ugha gS vfirq mlh ds ek/;e ls thou esa lkFkZdrk ds rUrqvksa dh [kkst ds l”kDr ladsr Hkh gSA blh izdkj ^igyk iM+ko* miU;kl jktetwnjksa] fefL=;ks]a Bsdsnkjksa] bathfu;jksa vkSj f”kf{kr csjkstxkjksa ds thou ij dsfUnzr gSaA ftlds izR;sd izeq[k ik=ksa dks miU;kldkj us xgu lgkuqHkwfriwoZd lkekftd euksoSKkfud lgtrk iznku dh gS rFkk muds ek/;e ls fofHkUu

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lkekftd] vkfFkZd varfoZjks/kksa] mUgsa izHkkfor ifjpkfyr djrh gqbZ “kfDr;ksa vkSj euq’; LoHkko dh nqcZyrkvksa dks vR;ar dykRedrk ds lkFk mtkxj fd;k gSA ^lhek,¡ VwVrh gSa* miU;kl esa ftl cgqjaxh lalkj dh jpuk gqbZ gS] ogk¡ okLrfod lalkj tSlk gh my>ko gS tgk¡ /keZ] izse o vijk/k tSlh rdkZrhr o`fRr;ksa esa ca/kh gqbZ ftUnxh bl my>u ls fujUrj tw>rh jgrh gSA bldh lcls cM+h leL;k og gR;k ugha gS] tks gks pqdh gS cfYd mlds ckn ekuoh; lEcU/kksa dh gR;k ds iz;kl vkSj mu lEcU/kksa ds cpko dk ekufld }U} gSA dgrs gSa fd dksey ,oa Hkkoqd dykdkj dks “kjhj ds fy, edku gh ugha vfirq eu ds fy, Hkh vkJ; pkfg,A “kqDy th ds ^edku* miU;kl esa edku ds fy, HkVdrk ukjk;.k viuh iqjkuh f”k’;k “;kek vkSj u;h f”k’;k flEeh ds chp eu dk vkJ; <w¡<+rk gSA “;kek dh e`R;q ds i”pkr flEeh rd igq¡pus esa ukjk;.k fgald mRrstuk dk f”kdkj gksrk gSA “kqDy th dh ;g d`fr ek= jatu gh ugha djrh oju~ fparu ds fy, Hkh ck/; djrh gSA blh izdkj ^vkneh dk tgj* miU;kl ;।fi ,d vijk/k dFkk gS ftlesa bZ’;kyq ifr viuh :iorh iRuh dk ihNk djrs gq, gksVy ds dejs esa tk dj mlds lkFkh dh xksyh ekjdj gR;k dj nsrk gSA ftlds dkj.k ?kVukvksa dk ruko c<+rk tkrk gS vkSj var esa og ftl vizR;kf”kr fcUnq ij VwVrk gS og ukVdh; gksrs gq, Hkh iw.kZ:is.k fo”oluh; gSA ;fn bl izdkj ds ik=ksa dk lkekU; n`f’V ls Hkh voyksdu djsa rks Lor% fofnr gksrk gS fd ,sls vlkekU; pfj=ksa ds ewy esa Hkh euksoSKkfud izo`fRr;k¡ gh lfdz; gSa tks ikBdksa dks fparu djus ds fy, ck/; dj nsrh gSaA blh izdkj ^lwuh ?kkVh dk lwjt* es/kkoh izfrHkk”kkyh xzkeh.k ;qod ds VwVrs liuksa rFkk mlds }kjk ,d jpukRed Hkwfedk dks Lohdkj dh ekfeZd dFkk gSA ftl esa uk;d ;qx ds vkdZ’k.k] vrhr dh izrkM+uk vkSj orZeku dh fujk”kk dks >kM+dj mlh va/ksjh vkSj lqulku ?kkVh esa mrjus dk QSlyk djrk gS] tgk¡ ml dh lokZf/kd vko”;drk gSA blh izdkj “kqDy वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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th dk ^vKkrokl* miU;kl euq’; ds Lo;a dks tkuus dh peRdkfjd euksoSKkfud dFkk gS tks ekuo dks vanj rd >d>ksj dj j[k nsrh gSA oLrqr% ;fn ns[kk tk, rks “kqDy th dk lexz miU;kl lkfgR; euksoSKkfudrk dh i`f’BHkwfe ij vk/kkfjr gSA “kqDy th ds miU;kl lkfgR; dk ek= lkekftd] jktuSfrd ,oa O;aX; dh n`f’V ls ewY;k¡du fd;k gS] fdUrq fdlh us Hkh muds miU;klksa esa fufgr euksoSKkfud i{k dks mn~?kkfVr djus dk ;Ru ugha fd;k( tks lokZf/kd l”kDr i{k gSA vf/kdk¡”k vkykspdksa us mUgsa ek= O;aX; dFkkdkj ds :i esa izfrf’Br dj muds lkfgR; esa fufgr mu euksoSKkfud rRoksa dks misf{kr n`f’V ls ns[kk gS tks oLrqr% muds miU;klksa dk cht rRo gSA fdlh Hkh lkfgfR;d d`fr esa euksfoKku dk lekos”k nks i{kksa }kjk gksrk gS& vkn”kZ ,oa ;FkkFkZ vkSj “kqDy th ds lexz miU;kl lkfgR; esa euksoSKkfud rRoksa dh vfHkO;fDr lkekftd fp=Qyd ij vfr;FkkFkZ ds fp=.k }kjk vfHkO;fDr gqbZ gSA “kqDy th ds izk;% lHkh miU;klksa ds dsUnz esa lekt jgk gS] fdUrq ;gk¡ jaxHkwfe lekt ugha vfirq euq’; dk eu gSA mUgksaus euq’; ds cká lkekftd thou ds vk/kkj ij mlds vkarfjd ekufld thou dk mn~?kkVu fd;k gSA mUgkasus O;fDr dh lkekftd fLFkfr dks lqn`<+ djus dh vis{kk O;fDr esa fufgr uSlfxZd “kfDr dks LFkkfir dj ekuo eu ds >jks[ks ls cká thou dk voyksdu djus dk ;Ru fd;k gSA muds lHkh ik= viuh vkarfjdrk] ,dkfUrdrk vkSj cká LrC/krk ds dkj.k lgt lkekU; n`f’V ls fucZy ,oa fujFkZd izk.kh tku iM+rs gSa] fdUrq okLro esa os vNwrh] vnE; ekuoh; psruk ds okgd vkSj ekuo ds vkarfjd ;FkkFkZ ds fo”oluh; lk{kh gSaA vLrq] “kqDy th us ik=ksa ds ek/;e ls ekuo euksHkwfe dk mn~?kkVu djrs gq, mudh izR;sd fdz;k ds ewy esa vUrfuZfgr ekufld izfdz;kvksa dk fo”ys’k.k dj mUgsa izdkf”kr djus dk iz;Ru fd;k gSA

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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िदु ामा पाण्डेय ‘धसू मल’ के काव्य िज ृ न की िाहसिकता सि​िाल कुमार सिहं महदं ी सामहत्य के क्षेत्र में सन् 1960 के बाद मजस स्वस्थ और जनकें द्रीय काव्यधारा का मवकास हुआ है, उसमें धमू मल का योगदान प्रवताक एवं मनदेशक के रुप में रहा है। क्योंमक साठोत्तरी काल में ‘धमू मल’ ही ऐसे व्यमक्तत्व से संपन्न थे, मजसका प्रभाव इस युग के प्राय: सभी कमवयों पर मकसी न मकसी रूप में पाया जाता है। तभी तो काशीनाथ मसंह ने मलखा है- “धमू मल के आने तक आलोचना का महँु कहानी की ओर था। वह आया और आलोचना का महँु कमवता की ओर कर मदया। अके ले आलोचना का ही नहीं, कमव भी घमू गये। धमू मल ने अकमवता, भख ू ी कमवता, श्मशानी कमवता, दैमनक कमवता आमद की लालसाओ ं को पटरा कर मदया और मछू ों पर गरु ो देता रहा - उस पट्ठे की तरह जो अखाड़े में चनु ौती देते हुए घमु रहा हो मक जो चाहे आये हाथ-ममलाये।”1 धमू मल के अब तक तीन काव्य-सग्रं ह प्रकामशत हुए हैं, जो कुछ इस प्रकार है 1. ‘िंिद िे िड़क तक’ 2. ‘कल िुनना मुझे’ 3. ‘िुदामा पाण्डेय का प्रजातंि’ इनका पहला काव्य-सग्रं ह ‘ससं द से सड़क तक’ 1972 में छपा जो काफी चमचात हुआ। यह आठवें दशक की श्रेष्ठतम काव्य कृ मत है। ‘संसद से सड़क तक’ धमू मल की पहली रचना होते हुए भी अपनी प्रौढ़ता के कारि महदं ी काव्य की मवमशि उपलमब्ध है। ऐसा कहा जाता है मक सन् 1970 के बाद ‘महदं ी Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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कमवता के क्षेत्र में अपनी तल्ख आवाज एवं नये महु ावरे के साथ जो धूमके तु की तरह उभरा वह ‘धमू मल’ कहलाया।’ धमू मल को अपनी इन रचनाओ ं के मलए बहुत सारे सम्मानों से भी नवाज़ा गया। अतः आगे हम उनकी काव्य दृमि की चचा​ा करें ग।े 1. कसि ‘धसू मल’ की काव्य-दृसि कमव धमू मल का काव्य-संसार मजन सामामजक, राजनीमतक आमद धारिाओ ं से मनममात है, उसकी जाँच-पड़ताल मकये मबना न तो धमू मल की कमवताओ ं का सही मल्ू यांकन ही कर सकते हैं न ही इस बात का पता लगा सकते हैं मक उन्होंने कहाँ तक तथा मकस गहराई से अपनी रचनाओ ं में सामामजक दामयत्व का मनवा​ाह मकया है, मजनका वे अपनी कमवता संबंधी धारिाओ ं में दम भरते हैं। कमव ‘धमू मल’ एक ऐसे व्यमक्त हैं, मजन्होंने अपने समय की समकालीन समस्याओ ं से सीधे मठु भेड़ करते हैं और अपने आक्रोश एवं मवद्रोह को व्यनं यात्मक लहजे में उद्वेमलत करने वाली पमं क्तयों के माध्यम से व्यक्त करने का दस्ु साहस करते हैं। इसमलए धमू मल की समस्त कमवताएँ इस बात का साक्ष्य है मक, वे कमवताओ ं को अन्याय और शोर्षि के मवरोध का महत्वपिू ा अस्त्र मानते हैं और यही कारि रहा है मक, धमू मल ने कमवता को समकालीन सदं भा में पनु : पररभामर्षत मकया तथा कमवता के पारंपाररक महु ावरे को तोड़ा और ऐसी अनगढ़ और वमजात कही जानी वाली शब्दावमलयों का प्रयोग मकया है जो अपनी समय के मवसंगती पर तीखा प्रहार करती है। अपनी कमवता संबंधी अवधारिाओ ं को स्पि करते हुए उन्होंने कई कमवताओ ं की रचना की है। उनका मानना है मक, एक सही कमवता पहले एक साथाक वक्तव्य होती है। वे यह भी मानते हैं मक, आज कमवता मकसी के मन को बहलाने का साधन नहीं है वह तो ‘मज़ु रीम वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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बने हुए उन बेकसरू आदममयों का हलफनामा है जो शब्दों के अदालत में खड़े होकर खाता है। अत: भार्षा में कमवता वह अमभव्यमक्त है जो आदमी होने की तमीज़ है।’ वे मलखते हैं- “कमवता क्या है?/ कोई पहनावा है?/ कुता​ा-पाजामा है?/ ना, भाई, ना !/ कमवता/ शब्दों की अदालत में/ मजु रीम के कटघरे में खड़े/ बेकसरू आदमी का हलफनामा है।/ क्या यह व्यमक्तत्व बनाने की-/ चररत्र चमकाने की-/ खानेकमाने की चीज है?/ ना, भाई, ना !/ कमवता/ भार्षा में/ आदमी होने की तमीज है।”2 यहाँ कमव का अमभप्राय आदमी को सहजता से सामहत्य को जोड़ना है। वे तो एक कमवता को बौखलाये हुए आदमी का संमक्षप्त एकालाप मानते हैं। उनका मानना है मक कमवता हमें एक ऐसी समझ और अमभव्यमक्त देती है, मजससे ‘आम’ को आम और ‘चाकू’ को चाकू समझा जा सके । वे कमवताओ ं के माध्यम से टुटते हुए सबं धं ों और मनरंतर खोती हुई मनष्ट्ु यता के कारिों की पड़ताल करती हैं। आमथाक अभाव और समाज में फै ली असमानता को धमू मल पहचानते हैं। उनका मानना है मक, वे अपनी कमवता के माध्यम से ही सघं र्षाशील जन के चररत्र को भ्रि होने से बचा सकते हैं। ऐसे देखा जाए तो धमू मल की कमवता मवचारों की और आदं ोलनों की कमवता है। वे साठोत्तरी पीढ़ी के महत्वपिू ा कमव हैं। उनकी कमवताओ ं को पढ़कर पाठक आदं ोमलत हुए मबना नहीं रह सकते। उनकी कमवताओ ं का पररवेश हमारा देखा-जाना हुआ पररमचत पररवेश है। उनकी कमवताओ ं के कें द्र में ‘आदमी’ है। यह आदमी कई मद्रु ाओ ं वाला आदमी है। वह कहीं सीधा-सरल, शोमर्षत-पीमड़त आदमी है, कहीं मख ु ौटे को ओढ़े हुए आदमी है, कहीं हाथ फै ला कर भीख माँगता आदमी है और कहीं हाथ उठा कर मिु ी बांधा हुआ आदमी है। धमू मल के तीनों संग्रहों की कमवताएँ इस बात का Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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प्रमाि है, वे आदमी के अमश्लयत को पाठक के सामने रखना चाहते थे। ‘संसद से सड़क तक’ में संकमलत जो-जो कमवताएँ हैं वे आज भी इस दृमि से महत्वपिू ा हैं। आगे ‘संसद से सड़क तक’ में संकमलत कमवताओ ं की चचा​ा प्रस्ततु की जा रही है। 2. ‘ि​ि ं द िे िड़क तक’ धमू मल का यह काव्य-संग्रह स्वयं उन्हीं के द्वारा चयमनत शीर्षाक से उनके सामने प्रकामशत हुआ था। मजसमें उन्होंने शव्दों का जान-बझू कर जीवन के ननन यथाथा को प्रत्यक्ष रूप से उभारा। संग्रह में संगमृ हत सभी कमवताएँ मभन्न-मभन्न पहचान मलए अपनीअपनी भमू मका बनाती है, लेमकन कुछ कमवताएँ ऐसी हैं मजनके कारि ‘संसद से सड़क तक’ संग्रह आज भी जानी जाती है। पाठक आज भी धमू मल के ‘मोचीराम’ को नहीं भल ु े। 2.1. ‘बीि िाल बाद’ की कमवता में ‘धमू मल’ झडं ा को प्रतीक बनाकर सवाल करते हैं- “क्या आजादी मसफा तीन थके हुए रंगों का नाम है,/ मजन्हें एक पमहया ढोता है/ या इसका कोई खास मतलब होता है?”3 स्वतत्रं ता के इतने वर्षों बाद भारतीय जनमानस में एक तरह की बेचैनी पैदा हुई नजर आती है। राजनीमत में भाई-भतीजावाद, पररवारवाद और भ्रिाचार बढ़ने के साथ-साथ सामान्य जन के ममस्तष्ट्क में जो आमथाक खश ु हाली, सख ु मय जीवन एवं अपनी महत्ता के सपने पल रहे थे वे टूटने लगे थे। प्रजातंत्रीय व्यवस्था में घसु े अप्रजातंत्रीय तत्वों के पररिाम स्वरूप शोमर्षत, उपेमक्षत जनता की मोहभगं मानमसकता के साथ-साथ हमें तथाकमथत राजनीमत में फै ली भ्रिाचार की छमव भी साफ नजर आती है। यह कमवता राजनैमतक ढोंग, छल, पाखडं और उसकी मानव-मवरोधी हरकतों पर वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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प्रहार करती नजर आती है। ‘संसद भवन’ प्रवचं ना भवन बनता जा रहा है। यहाँ ध्यान मदया जाना चामहए मक, ‘प्रजातंत्रीय-व्यवस्था’ में धमू मल की आस्था है। अन्यथा इसका उल्लेख बारम्बार नहीं होता। धमू मल ऐसे रचनाकार हैं, मजन्होंने ‘मदनकर’ की तरह यह आह्वान नहीं करते मक ‘मसंहासन खाली करो मक जनता आती है’ बमल्क जनता की ओर से चुने गये सांसदों से मनममात संसद को अपने शब्दों के नक ु ीले हमथयारों से आहत करते हैं। प्रजातंत्र पर धारदार कमवताएँ मलखने की अगवु ाई धमू मल ने की। ‘जनतंत्र के सयू ोदय में’, ‘शहर में सयू ा​ास्त’ जैसी कमवताएँ इसके उदाहरि हैं। 2.2. ‘मोचीराम’इस कमवता में धमू मल ने जतू ों के प्रकार के द्वारा वगावादी दृमिकोि को लमक्षत मकया है। कमवता का आरम्भ ही बड़े नाटकीय ढगं से होता है- “राँपी से उठी हुई आँखों ने मझु /े क्षि-भर टटोला/ और मफर/ जैसे पमतयाये हुए स्वर में/ वह हँसते हुये बोला-/ बाबजू ी ! सच कहूँ - मेरी मनगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/ मेरे मलए, हर आदमी एक जोड़ी जतू ा है/ जो मेरे सामने/ मरम्मत के मलए खड़ा है।”4 यहाँ मोचीराम का ‘हर आदमी एक जोड़ी जतू ा है’ का कथन वस्ततु : उसके पेशे की दृमि से हर आदमी को एक जोड़ी जतू े के रूप में देखना है। यह उनका एक तरह का समतावादी दृमिकोि है। लेमकन वह मनष्ट्ु य-मनष्ट्ु य में समतावादी दृमिकोि अपनाकर भी विा-भेद की कल्पना से अपने आप को अलग नहीं रख सकता। वह कहता है- “मफर भी मझु े ख्याल रहता है/ मक पेशवे र हाथों और फटे हुये जतू ों के बीच/ कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है/ मजस पर टाँके पड़ते हैं,/ जो जतू े से झाँकती हुई अँगल ु ी की चोट छाती पर/ हथौड़े की तरह सहता है।”5 मोचीराम को स्वीकारना पड़ता है मक Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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‘पेशवे र हाथों’ और ‘फटे हुए जतू े’ के बीच कोई आदमी है। मोचीराम उस आदमी का ख्याल हमेशा रखता है। इसके बाद मोचीराम जतू ों के प्रकार के आधार पर दो वगों के लोगों की चचा​ा करता है। मोचीराम कहता है- “यहाँ तरह-तरह के जतू े आते हैं/ और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’/ बतलाते हैं/ सबकी अपनी-अपनी शक्ल है/ अपनी-अपनी शैली है/ मसलन एक जतू ा है/ जतू ा क्या है - चकमतयों की थैली है।”6 उपयाक्त ु उद्धरि में मोचीराम एक मवशेर्ष वगा के लोगों की बात करते हैं मजसके पास जतू ा नहीं बमल्क ‘चकमतयों का थैला’ लेकर आता है और उसकी मरम्मत करवाने को कहता है। मजसे देखकर मोचीराम को भी लगता है मक उस जतू े पर बेकार ही पैसा फँू का जा रहा है। पर दसू रे ही क्षि वह सभं ल जाता है और महससू करता है मक जो वह सोच रहा है अगर बोल देगा तो अपने ही जामत पर थक ू े गा। वह भी तो इसी वगा का आदमी है। धमू मल ने इस कमवता के माफा त मोचीराम के बड़प्पन को और उसके जीवन को आँकने वाली सक्ष्ू म दृमि को उसकी शब्दावली में कुछ इस तरह अमं कत करते हैं- “बाबजू ी ! सच कहूँ - मेरी मनगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/ मेरे मलए, हर आदमी एक जोड़ी जतू ा है/ जो मेरे सामने/ मरम्मत के मलए खड़ा है।”7 यहाँ मोचीराम का ‘हर आदमी एक जोड़ी जतू ा है’ का अथा उसके पेशे की दृमि से प्रेररत है, मोचीराम अपने पेशे की दृमि से ही हर आदमी को एक जोड़ी जतू े के रूप में देखता है। मोचीराम अलग-अलग आदममयों की मनयती एवं प्रकृ मत का खल ु ासा करता है, जो आज की भागदौड़ और अहं कार को मबमम्बत करता है। मोचीराम अपनी मजजीमवर्षा और संघर्षा चेतना और आदममयत का बयान करता है। धमू मल इस कमवता के माध्यम से हर मस्थमत और पररमस्थमत में एक अदद वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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आदमी की समख्सयत और स्वामभमान को तलाशने की चेिा करते हैं। धमू मल मोचीराम के द्वारा यह कहलवाते हैं- “और बाबजू ी !/ असल बात तो यह है मक मजदं ा रहने के पीछे / अगर सही तका नहीं है/ तो रामनामी बेचकर या रमण्डयों की/ दलाली करके रोज़ी कमाने में कोई फका नहीं है।”8 इस तरह हम देखते हैं मक, धमू मल साधारि आदममयों के पास मसफा दया और करूिा लेकर नहीं उपमस्थत होते बमल्क उनके रोजमरा​ा के संघर्षा का साक्षी बनते हुए उनकी मवचार दृमि एवं बमु नयादी लोगों के प्रमत उनकी भावनात्मक मक्रया-प्रमतमक्रया को भी अंमकत करते हैं। कमवता की अमं तम पंमक्तयों में वे यह मदखाते हैं मक, गरीब की चीख और चप्ु पती दोनों अपने-अपने जगह पर सहीं हैं- “जबमक मैं जानता हूँ मक ‘इनकार से भरी हुई एक चीख’/ और ‘एक समझदार चपु ’/ दोनों का मतलब एक है-/ भमवष्ट्य गढ़ने में, ‘चपु ’ और ‘चीख’/ अपनी-अपनी जगह एक ही मकस्म से/ अपना-अपना फजा अदा करते हैं।”9 इस कमवता में ‘धमू मल’ ने अपनी प्रगमतशील मचतं न का एक सशक्त उदाहरि मदया है । मजसमें उन्होंने आम आदमी के मवसगं मतयों का एवं दयनीय जीवन का यथाथा मचत्रि प्रस्ततु मकया है। 2.3 ‘प्रौढ़ सिक्षा’धमू मल इस कमवता में जनशमक्त की महत्ता को प्रमतपामदत करते हुए कहते हैं मक, कृ र्षक जो सही मायनों में पृथ्वी-पत्रु है, जो संसार का अन्नदाता है, ये सब ऊँची-ऊँची संज्ञाएँ उसे ठगने के मलए बनायी गयी है। असमलयत में उसकी अमशक्षा और मनरक्षरता उसे शोर्षकों के गलत इरादों से उसे दरू अथवा अपररमचत रखती है। भारत का इतना बड़ा महस्सा या वगा स्वयं आधी पेट रह कर, दमु नया को ढकना चाहता है वह अपना हस्ताक्षर करने में भी असक्षम एवं अयोनय है। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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आजाद भारत के मलए इससे ज्यादा शरममदं गी और क्या हो सकती है। भार्षा जो प्रमतवाद की प्रबल क्षमता रखती है, मनरक्षर के मलए वह कै से व्यथा हो जाती है उसे धमू मल ‘प्रौढ़ मशक्षा’ कमवता के माफा त कुछ यँू बताते हैं- “कल मैंने कहा था मक वह दमु नया/ मजसे ढकने के मलए तमु नंगे हो रहे थे/ उसी मदन उघर गयी थी/ मजस मदन हर भार्षा/ तम्ु हारे अगं ठू ा-मनशान की/ स्याही में डुबकर मर गयी थी।”10 प्रकृ मत के साथ परू े तरह घल ु े ममले, अपनी खेती और खमलहान के प्रमत पिू ा मनष्ठा के साथ जड़ु े लोग यद्यमप आगे आने वाले खतरों के प्रमत मकंमचत आगाह हो रहे हैं। हर बात के समथान में हाथ उठाकर हाँ-हाँ करना मकसानों को महत में नहीं है, जमीनी सच्चाई से जड़ु कर साक्षर होकर दमु नया को बदलने का सक ं ल्प लेने का समय आ गया है। तभी तो धमू मल ललकारते हुए कहते हैं- “तनो/ अकड़ो/ अमरबेली की तरह मत मजयो/ जड़ पकड़ो/ बदलो-अपनेआपको बदलो/ यह दमु नया बदल रही है/ और यह रात है, मसफा रात/ इसका स्वागत करो/ यह तम्ु हें/ शब्दों के नये पररचय की ओर लेकर चल रही है।”11 इस कमवता में धमू मल ने मशक्षा के महत्व को उजागर मकया है। यह बताया है मक देश के साधारि आदमी की दयनीय दशा का कारि उसकी अज्ञानता है। इस जनतत्रं देश की सबसे अमधक आबादी गरीब, मकसान और मजदरू आदमी ही अमधक मपसता है क्योंमक चालाक-चररत्रहीन नेता जो जनतंत्र को चलाते हैं, वे अपने नर-भक्षी शोर्षि नीमत का मशकार इन गरीब मजदरू और मकसानों को बनाते हैं। ये स्वाथी नेता और समु वधापरस्त लोग इन अनपढ़ और साधारि लोगों का अनेक प्रकार से शोर्षि करते हैं। 2.4. ‘मकान’वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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मकान कमवता के जररये धमू मल ने टूटते हुए स्वप्नों, गरीबी, घटु न का जीवतं मचत्रि मकया है। धमू मल अक्सर ऐसे मकानों की बात करते हैं मजनकी छतें कबतू र की बीट से मैली हो गयी है, मजनके आँगन में धपू कभी नहीं जाती, मजनके शौचालयों में खासी मकवाड़ों की काम करती है। जहाँ बढ़ू े और जवान लड़मकयाँ खाना खाने के बाद अधं े हो जाते हैं, बच्चे अगं ठू ा चसू ते हैं और नौजवान लोग रोजगार के मलए दफ्तरों का चक्कर काटते हैं। ऐसे मकानों की आड़ में ऐसे लोग भी रहते हैं जो दसू रों को नमक की ढेले की तरह गला देते हैं। मकान जब कमरा बनता है यानी गरीब आदमी जब थोड़ा ऊपर उठने की कोमशश करता है तब उसकी हत्या कर दी जाती है। धमू मल के बारे में यह माना जाता है मक, जब राजकमल चौधरी की मृत्यु हुई तब धमू मल ने जीवन की अनेक मवसगं मतयों, मवड़म्बनाओ ं को भार्षा के नये महु ावरे में ढालने का प्रयास मकया। कमवयों और कमवताओ ं पर भी उन्होंने मवमशा मकया है- “मकान/ मारे गये आदमी के नाम पर/ छतों की सामज़श है जहाँ रात/ ररश्तों की आड़ में/ पशओ ु ं को पालतू बनाती है।”12 2.5. ‘पिकथा’पटकथा धमू मल की कमवताओ ं में सबसे लबं ी कमवता है। ‘ससं द से सड़क तक’ की यह अमं तम कमवता लगभग 30 पृष्ठों में फै ली हुई है। सन् 47 से लेकर 70-71 तक का समय भारतीय राजनीमत के मलए, सामामजक जीवन के मलए बहुत द:ु ख-पिू ा समय था। या यँू कहे तो यह दौर नैमतक मल्ू यों का ह्रास का समय था। इस कमवता को पढ़कर लगता है मक, यह ममु क्तबोध की कमवता का मवस्तार है। जैसे- “जब मैं बाहर आया/ मेरे हाथों में/ एक कमवता थी और मदमाग में/ आँतों का एक्स-रे ।”13 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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‘मैं’ जो काव्य नायक है, वह बाहर आता है जहाँ हवा है, धपू है, घास है लेमकन उसे वास्तमवक सक ु ू न आजादी से ममलती है। कमवता के एक बड़े भाग में कमव का उल्लास और उत्साह मदखाई पड़ता है। कमवता में इस व्यमक्तगत उल्लास के साथ आजादी के बाद राजनीमत में बनावटी उल्लास देखने लायक है। आगे चलकर कमव का भ्रम टूट जाता है। अन्य देशवामसयों की तरह स्वतंत्रता को लेकर कमव ने जो सपने संजोये थे वे एक-एक कर टूटने लगता है। काव्य नायक यह महससू करता है मक जनता त्याग, संस्कृ मत और मनष्ट्ु यता यह सारे भारी भरकम शब्द मात्र हैं। धीरे -धीरे कमवता के ‘मैं’ को यह समझ में आ जाती है मक कथनी और करनी में मकतना बड़ा फ़ासला होता है। तभी तो धमू मल कहते हैं- “मैं इतं जार करता रहा.../ इतं जार करता रहा.../ इतं जार करता रहा.../ जनतत्रं , त्याग, स्वतत्रं ता.../ सस्ं कृ मत, शामं त, मनष्ट्ु यता.../ ये सारे शब्द थे/ सनु हरे वादे थे/ खश ु फहम इरादे थे।”14 धमू मल काव्य नायक द्वारा उस यद्ध ु की ओर इशारा कर रहे हैं जो नये-नये स्वतत्रं हुए देश को एक भयानक यद्ध ु की ओर ढके ल रहा था। मबना काम मकये लाभ पाने की तकनीक का मवकास हो चक ु ा था। मजसे देख काव्य नायक का मोहभगं हो जाता है- “मैंने अचरज से देखा मक दमु नया का/ सबसे बड़ा बौद्ध-मठ/ बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है।”15 कमवता के माफा त धमू मल यहाँ कहना चाहते हैं मक, जनता ने यह कभी नहीं सोचा था की नेता उसके आस-पास एक अधं ा कुआँ का मनमा​ाि करते जा रहे हैं और उसके मनगाहों की रोशनी छीनती जा रही है जो उसे परावलम्बी और पंगु बनाती जा रही है“गोदाम अनाज से भरे पड़े थे और लोग/ भख ू ों मर रहे थे... सहानभु मू त और प्यार/ अब ऐसा छलावा है मजसके जररये/ एक आदमी दसू रे को, अके ले/ अधं ेरे वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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में ले जाता है और/ उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है।”16 सन् 70 के बाद की भारतीय राजनीमत में ‘आम आदमी’ के मन के बहुत सारे भ्रम को तोड़ मदया है। ‘धमू ममल्जस’ समय ‘पटकथा’ शीर्षाक कमवता मलख रहे थे उस समय देश में जनतंत्र एक तमाशा बन कर रह गयी थी। लोगों के पास कोई मवकल्प नहीं था। ऐसे में ‘पटकथा’ का नायक उस खो गयी वास्तमवक आजादी को ढूँढता है। कमवता की ‘मैं’ को कहीं आजादी नजर नहीं आती। मसफा मदखते हैं टूटे हुए पल ु और वीरान सड़कें । देश का जनतंत्र एक जगं ल में बदल गया है। एक ऐसे जंगल में जहाँ मसफा जगं ल का काननू चलता है और जगं ल के काननू में कोई व्यवस्था नहीं होती। यह काननू खख ँू ार दररंदों का काननू है। इस प्रकार ‘ससं द से सड़क तक’ में सक ं मलत कमवताएँ प्रजातामं त्रक शासन व्यवस्था, स्वातत्र्ं योत्तर ग्रामीि व्यमक्त की संघर्षाशीलता, आम आदमी की मवशेर्षता, ससं द में मववाद और महदं स्ु तान का स्वरूप, लोकतत्रं का भीड़तत्रं में बदल जाना आमद मस्थमतयों को व्यमं जत कराने वाली कमवताएँ हैं। इसमें यथाथा का मचत्रि अत्यतं माममाक बन पड़ा है। 3. ‘िंिद िे िड़क तक’ काव्य-िंग्रह की कुछ महयिपूणक सबंदुएँ इस काव्य-सग्रं ह की कुछ महत्वपूिा मवशेर्षताएँ ही इसे अपने यगु की श्रेष्ठतम कृ मत के रूप में मववेमचत कराती है। अत: आगे हम इसके महत्वपिू ा मबंदओ ु ं की चचा​ा प्रस्ततु कर रहे हैं1.िामासजक िंदभक के रूप में धमू मल कमवता को सामामजक कमा मानते थे। वे इस बात में मवश्वास रखते थे मक कमवता का उपयोग Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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समाज की भलाई के मलए होना चामहए। वे पिू ा रूप से जनवादी कमव थे। उनका काव्य साधारि जन के मलए था। वे जन साधारि के जीवन को, समकालीन मवडम्बनाओ ं को एवं असंगमतयों से भरे पररवेश को न के वल भली-भाँमत जानते थे बमल्क उसे पूिता ा से भोगे भी थे, इसमलए वे साधारि जनता के जीवन की असह्य वेदना को अच्छी तरह जानते थे। धमू मल ने समकालीन सामामजक समस्याओ ं को राजनीमतक समस्याओ ं के साथ जोड़ कर देखा है। उन्होंने तत्कालीन सामामजक व्यवस्था की मवसंगमतयों के मल ू में मख्ु यत: राजनीमतक मवडम्बनाओ ं को स्वीकारा है। उनका सम्पिू ा काव्य सामामजकराजनीमतक मवर्षमता का ही काव्य है मजसे उन्होंने कठोर व्यनं य के धरातल पर व्यक्त मकया है। 2. व्यिस्था के प्रसत घोर सिद्रोह इस काव्य-सग्रं ह के जररये धमू मल ने भारतीय राजनीमत में व्याप्त भ्रिाचार को मदखाया है। वे यह बताते हैं मक, जनता का मवश्वास काग्रं ेस सरकार से उठता जा रहा था, जो स्वाभामवक था क्योंमक वह तत्कालीन देश की व्यवस्था में पररवतान लाने में असफल रही थी। जनता ने काग्रं ेस सरकार के स्थान पर कई राज्यों में मवरोधी दलों की सरकारों को स्थामपत मकया था, परंतु इन सबके बावजदू देश की मस्थमत ज्यों-का-त्यों बना रहा, उसमें पररवतान कहीं भी नज़र नहीं आया। धमू मल इन सब को देख यह मनष्ट्कर्षा मनकालते हैं मक, देश की व्यवस्था चाहे मकसी भी सरकार के पास हो देश की हालत में सधु ार नहीं होगा। इसमलए धमू मल कहते हैं- ‘हाँ यह सही है मक कुमसायाँ वहीं हैं मसफा , टोमपयाँ बदल गयी हैं।’ धमू मल यहाँ तक कहते हैं मक, तत्कालीन जनतंत्र देश की जनता के मलए मात्र धोखा है। स्वाथी नेता देश की गरीब जनता को झठू े आश्वासन मदलाकर भमवष्ट्य के सनु हरे सपने मदखाते हैं। वे अपनी मीठी-मीठी बातों से वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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जनता को आकमर्षात कर लेते हैं और अपना उल्लू सीधा करते हैं। समकालीन जनतंत्र की सच्ची तस्वीर खींचते हुये धमू मल ने मलखा है- “यह जनता..../ जनतंत्र में/ उसकी श्रद्धा/ अटूट है/........../ दरअस्ल, अपने यहाँ जनतंत्र/ एक ऐसा तमाशा है/ मजसकी जान/ मदारी की भार्षा है।”17 उसी प्रकार स्वतंत्रता के पिात देश में फै ली दगु ता ी को देख वे अपने आप से प्रश्न करते हैं- “बीस साल बाद/ मैं अपने आप से एक सवाल करता हू/ँ जानवर बनने के मलये मकतने सि की जरूरत होती है ?”18 धमू मल के वल सवाल खड़े करने वाले कमव नहीं थे। वे इस दख ु द पररमस्थमत के पीछे मछपी राज को समझ गये थे। वे उन कारिों के जान गये थे मजसके कारि आम आदमी भख ू और गरीबी से परे शान रहते थे। तभी तो वे कहते हैं- “उस महु ावरे को समझ गया हू/ँ जो आजादी और गाँधी के नाम पर चल रहा है/ मजससे न भख ू ममट रही है, न मौसम बदल रहा है।”19 प्रजातत्रं के नाम पर हो रही लटू -पाट एवं राजनीमतक व्यवस्था में व्याप्त मवसगं मतयों को धमू मल इन शब्दों के जररये हमारे समक्ष प्रस्ततु करते हैं- “मैं उन्हें समझता हू/ँ वह कौन सा प्रजातामं त्रक नस्ु खा है/ मक मजस उम्र में/ मेरी माँ का चेहरा/ झरु रा यों की झोली बन गया है/ उसी उम्र की मेरी पड़ोस की ममहला/ के चेहरे पर/ मेरी प्रेममका के चेहरे सा/ लोच है।”20 3. िाधारण आदमी का सचिण साठोत्तरी कमवता के कें द्र में स्थान बनाने वाले कमव धमू मल का जन्म एक साधारि मकसान पररवार में हुआ था। इसमलए एक साधारि आदमी की क्याक्या तकलीफें होती है उसको उन्होंने भली-भाँमत महससू मकया था। वे देश के तत्कालीन पररमस्थमत को देख अत्यंत मचंमतत थे। साधारि आदमी की दशा पहले से भी बदत् र और भयावह होने लगी थी। 1962 में भारत-चीन की लड़ाई, 1965 में भारत-पाक का Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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यद्ध ु और सबसे बड़ी रेजडे ी ताशकंद समझौते में तत्कालीन भारत के प्रधानमत्रं ी लाल बहादरु शास्त्री की मृत्यु से देश की मस्थमत पहले से भी खराब हो गयी। ऐसे समय में साधारि आदमी देखता है मक देश में मानवता नाम की कोई चीज अब नहीं रही। वह महससू करने लगता है मक- “मैंने महससू मकया मक मैं वक्त के / एक शमानाक दौर से गजु र रहा हू/ँ अब ऐसा वक्त आ गया है जब कोई/ मकसी का झल ु सा हुआ चेहरा नहीं देखता है/ अब न तो कोई मकसी का खाली पेट/ देखता है, न थरथराती हुई टाँग/ें और न ढला हुआ ‘सयू ाहीन कंधा’ देखता है/ हर आदमी, मसफा , अपना धंधा देखता है।”21 देश में गरीबी, बेरोजगारी, भ्रिाचार जैसी समस्या अपने चरम पर थीं। देश की असमलयत नवयवु कों के समक्ष थी, देश प्रेम की मचगं ारी बेरोजगारी की पसीने से बझु ती हुई नजर आ रही थी। ऐसे में देश-प्रेम की भावना से सबं मं धत नवयवु कों का सरकार पर से मोहभगं होने लगा, लबं े समय तक उनको बेरोजगारी का सामना करना पड़ा। ऐसा लगता है मक- “देश प्रेम/ बेकारी की फटी हुई जेब से मखसककर/ बीते हुए कल में मगर पड़ता है।”22 इस प्रकार हम देखते हैं मक धमू मल अपनी कमवताओ ं के माध्यम से एक साधारि आदमी का मचत्रि, उसकी आशा-मनराशा का विान माममाक ढगं से करते हैं। देश के कुमटल राजनेताओ ं के चररत्रों को अच्छी तरह समझते हुए, वे देश की व्यवस्था की सच ं ालक ससं द से पनु : प्रश्न करते हैं मक वे अब तक मौन क्यों बैठे है? गरीबों की रोटी के साथ खेलने वाले राजनेताओ ं एवं संसद के कुसी से मचपके हुए अमधकाररयों के भ्रिाचार का यहाँ पदा​ाफाश हुआ है। ‘रोटी और संसद’ इसी का उदाहरि है, जो इस प्रकार है- “एक आदमी/ रोटी बेलता है/ एक आदमी रोटी खाता है/ एक तीसरा आदमी भी है/ जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/ वह मसफा रोटी से खेलता है/ मैं पछ ू ता हूँ - -/ यह वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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तीसरा आदमी कौन है?/ मेरे देश की संसद मौन है।”23 कै सा समय रहा होगा जब एक तरफ सत्ताधारी लोग रोटी के साथ खेलते थे वहीं दसू री तरफ साधारि जन गरीबी के कारि पानी- पी-पी कर अपने भख ू ी पेट को समझाते थे। मकतनी भयावह जीवन है भख ू की समस्या, मजसका स्वाद खदु धमू मल भी चखे हुए थे। वे मलखते हैं- “लेमकन एक जरुरत मदं चेहरे के अलावा/ वह धमू मल नहीं - -/ एक डरा हुआ महदं ु है/ उसके बीबी है/ बच्चे हैं/ घर है/ अपने महस्से का देश/ ईश्वर की दी हुई गरीबी है/ (यह बीबी का तक ु नहीं 24 है।)” धमू मल की एक और कमवता है ‘प्रजातंत्र के मवरुद्ध’। इस कमवता के माध्यम से धमू मल ने यह बताने का प्रयास मकया है मक मकस तरह हमारे देश में भख ू की समस्या मवद्यमान है। भख ू की समस्या ‘रमजान’ भाई और ‘रामनाथ’ दोनों के मलए है। भख ू का कोई धमा नहीं होता, इस उमक्त को अपनी कमवता में चररताथा करके मदखाया है। देश की जनसख्ं या में मदन प्रमतमदन वृमद्ध होती जा रही है, इसके मजम्मेदार कौन हैं। उन मस्थमतयों का मचत्रि स्पि रूप से देखा जा सकता है- “पेट में धँसे छुरे के साथ भागती है अलारक्खी/ सस्ते गल्ले की दक ु ान की बाहरी/ दीवार से टकराती है/ उसकी खनू भरी मठु ठी में मभचा हुआ/ राशन काडा, हररत क्रामन्त के मवरुद्ध/ उसकी टाँगों में आफत है/ मौत के मसरे पर एक मजन्दगी/ शरू ु हो रही है/ ए भाई रमजान ! ए रामनाथ !!/ पेट में छुरा मनकालने के पहले/ उसकी टाँगों में फटती हुई आफत को/ मनकालो/ और उस आततायी की तलाश करो, हाय हाय/ इस बच्चे के मपता इस औरत के पमत की तलाश करो/ यहीं कहीं/ हाँ-हाँ- यही कहीं होगा/ मकसी बट्टू महु ावरे की आड़ में/ खदु खश ु ी की रस्सी लटकाता हुआ/ पेट से लड़ते-लड़ते मजसका हाथ अपने प्रजातंत्र पर उठ गया है ।”25 4. नारी के प्रसत निीन दृसिकोण Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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धमू मल के काव्य में नारी के अनेक रूप देखने को ममलते हैं। उनके काव्य में नारी माँ, पत्नी, लड़की, प्रेममका, पड़ोसन, खानाबदोश औरत, पागल औरत, मबमटया, वेश्या, रंडी आमद न जाने मकतने रूप में मचमत्रत की गई हैं। यौन मवकृ मतयाँ का विान उनके काव्य में बहुत अमधक हुआ है। धमू मल ने अपने काव्य-संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ की पहली कमवता में मलखते हैं- “एक सम्पिू ा स्त्री होने के पहले ही/ गभा​ाधान की मक्रया से गजु रते हुए/ उसने जाना की प्यार/ घनी आबादीवाली बमस्तयों में/ मकान की तलाश है/ लगातार बाररश में भीगते हुए/ उसने जाना मक हर लड़की/ तीसरे गभापात के बाद/ धमाशाला हो जाती है।”26 यमद इस काव्यांश का हम मवश्ले र्षि करें तो हमें इससे धमू मल के ‘प्यार’ सम्बन्धी दृमिकोि का पता चलता है उक्त काव्याश ं का अथा है- ‘मजस प्रकार से मकान मजदं गी की एक बमु नयादी आवश्यकता है। आज के समाज में प्यार पाना उतना ही कमठन है मजतना मक घनी आबादीवाले शहर में मकान की तलाश करना है। मबना घरवाले उस व्यमक्त के मलए घनी आबादी वाले शहर में मकान न ममलना एक बहुत बड़ी समस्या है। आज के समाज में प्यार तलाशने पर भी नहीं ममलता। इस प्यार को प्राप्त करने का अतं में पररिाम यह होता है मक प्रायः हर लड़की एक सम्पिू ा स्त्री होने के पहले ही गभा​ाधान और गभापात की मक्रया से उसे गजु रना पड़ता है, अमधकतर उन लड़मकयों को मजन्हें “बाररश में भीगना पड़ता है।” और उसे अतं में मालमू होता है मक वह जीवन की बमु नयादी आवश्यकता “प्यार” को तलाशते-तलाशते एक धमाशाला बन गयी है।’ इस प्रकार धमू मल ने यहाँ यौन संबंधों के एक कटु सत्य को मचमत्रत मकया है। मजस प्रकार मकान के मबना घर संसार नहीं चल सकता, उसी प्रकार प्यार के मबना मानव जीवन नहीं चल सकता और प्यार के मबना उसका जीवन वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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सख ू ी नदी के समान सख ू जाता है। धमू मल ने अपनी एक कमवता में मलखा है- “मझु े पता है/ स्त्री/ देह के अधं ेरे में / मबस्तर की/ अराजकता है/ स्त्री पँजू ी है/ बीड़ी से लेकर/ मबस्तर तक/ मवज्ञापन में फै ली हुई।”27 उपयाक्त ु कमवता में धमू मल ने परु​ु र्ष समाज की नारी के प्रमत भोगवादी दृमि का मचत्रि मकया है, जहाँ पँजू ीपमत वगा अपनी उत्पाद्य वस्तओ ु ं की मबक्री हेतु मवज्ञापनों में नारी के देह-प्रदशान का सहारा लेता है। धमू मल की एक ओर कमवता ‘उस औरत की बगल में लेटकर’ से उनकी देहवादी दृमिकोि पिु होती मदखाई देती है“उस औरत की बगल में लेटकर/ मैंने महससू मकया है मक घर/ छोटी-छोटी समु वधाओ ं की लानत से/ बना है।”28 कमव इस कमवता के माध्यम से लादी हुई गृहस्थ जीवन को इमं गत कर रहे हैं। हैं। वे यह भी कहते हैं मक, मानव में लादी हुई गृहस्थी जीवन के प्रमत उदासीनता का भाव मदखायी देना स्वाभामवक है। इस प्रकार धमू मल ने अपनी कमवताओ ं में नारी को मदखाया है। अगर उनके काव्यों का सही मवश्लेर्षि मकया जाए तो यह लगता है मक, धमू मल नारी को के वल देह नहीं मानते बमल्क उससे आगे और बहुत कुछ मानते हैं। वे मलखते हैं- “औरत : आँचल है/ जैसा मक लोग कहते हैं-स्नेह है, मकन्तु मझु े लगता है.../ इन दोनों से बढ़कर/ और एक देह है/ मेरी भजु ाओ ं में कसी हुई/ तमु मृत्यु की कामना कर रही हो/ और मैं हू-ँ -मक इस रात के अँधेरे में/ देखना चाहता हू.ँ ... धपू का/ एक टुकड़ा तम्ु हारे चेहरे पर।”29 धमू मल की कुछ कमवताएँ ऐसी भी हैं मजनमें उनका स्त्री के प्रमत स्वच्छ एवं साफ-सथु री दृमि का पता चलता है। जो लोग यह आरोप लगाते हैं मक धमू मल के काव्य में नारी का मचत्रि के वल भोग की वस्तु के रूप में मकया गया है वे स्वयं देख लें मक धमू मल ने नारी को मात्र भोनया न मानकर जीवन-साथी के रूप में स्वीकार करने की बात की है। वे नारी संबंधों Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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में माँ और बेटी के रूप पर भी ज्यादा बल देते हैं। नारी के प्रमत उनका दृमिकोि कुछ इस प्रकार है-“ररश्तों को सोचते हुए/ आपस में प्यार से बोलते,/ कहते मक ये मपता हैं/ यह प्यारी माँ है, यह मेरी बेटी है/ पत्नी को थोड़ा अलग/ करते- तू मेरी/ हम मबस्तर नहीं- मेरी/ हमसफ़र है।”30 धमू मल नारी के अदम्य साहस और देश प्रेम वाले रूप को अत्यमधक सम्मान की दृमि से देखते हैं।ऐसी नाररयों के प्रमत उनके मन में अपार श्रद्धा एवं प्रेम है। इसीमलए तो कमव धमू मल ने अपनी कमवता का द्वार उनके मलए खोल मदया था। धमू मल कहते हैं“ममु मकन था यह भी मक अपने देशवामसयों की गरीबी से/ साढ़े तीन हाथ अलग हटकर/ एक लड़की अपने प्रेमी का मसर छाती पर रखकर/ सो रहती देह के अँधेरे में/ अपनी समझ और अपने सपनों के बीच/ मैं उसे कुछ भी न कहता मसफा कमवता का दरवाजा उसके मलए/ बदं रहता/ लेमकन क्या समय भी उसे यँू ही छोड़ देता।”31 उपयाक्त ु उदाहरि से हमें एक बात स्पि मदखाई देती है मक धमू मल ने स्त्री को के वल देह ही नहीं माना है, बमल्क उससे आगे देश की स्वतत्रं ता के मलए अपना बमलदान कर देने वाली एक वीर और साहसी नारी भी माना है। 5. भाषा पक्ष सामहत्य में भार्षा की भमू मका अत्यतं महत्वपिू ा है। पर जहाँ तक धमू मल की भार्षाई चेतना के बारे में कहा जाता है, उनके काव्य में अश्लील शब्दों का प्रयोग अत्यमधक हुआ है। जैसे- “जनता और जरायम पेशा/ औरतों के बीच की/ सरल रे खा को काट कर।”32 लेमकन सामहत्य में अगर कोई कमव इस तरह के शब्दों का प्रयोग कर रहा है तो उसके मलए यह वमजात नहीं है क्योंमक मचत्रि में भी उसका एक लक्ष्य रहता है। और वह इन शब्दों के माध्यम से पाठकों को यह संदश े भेजता है मक समाज के ऐसे घृमित रूप को सामहत्य के माध्यम से देख कर उसमें कुछ सधु ार का वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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प्रयास करे । दसू री तरफ कमव धमू मल भार्षा को मबम्ब या उपमान की तरह उभारने की चेिा कई स्थानों पर करते हैं। यह देखा गया है मक धमू मल की कमवताओ ं में शब्दों का कोशीय अथा उतना महत्वपिू ा नहीं होता मजतना उसका सामामजक अथा महत्वपिू ा होता है। जैसे- ‘धमू मल की भार्षा गँवार औरत की भार्षा है जो गस्ु से में आकर गामलयों का महु ावरा बनने लगती हैं।’ उनकी भार्षा हर मस्थमत में संलाप करती है। उन्होंने भार्षा के आम बोलचाल रूप को अपनी कमवताओ ं के द्वारा मदखाया है, उनकी एक व्यंनयात्मक कमवता द्रिव्य है- “अपने यहाँ संसद/ तेली की वह घानी है/ मजसमें आधा तेल है/ और आधा पानी है।”33 इस तरह हम देखते हैं मक, धमू मल भार्षाई जादगू र हैं। उनके मदमाग में जो मबम्ब उभरता है उसका प्रयोग वे बेमहचक करते हैं। व्यनं य करने की कला उनके काव्य में साफ मदखता है। शब्दों के चयन और सम्वेदनाओ ं के प्रमतकूल भार्षा गढ़ने में वे मामहर हैं। वे भार्षा के आमभजात्य व्याकरि को तोड़ते नजर आते हैं। यही उनकी भार्षाई मवशेर्षताएँ हैं। मनष्ट्कर्षा के रूप में यह कह सकते हैं मक, महदं ी-सामहत्य की साठोत्तरी कमवता में धमू मल मजनका परू ा नाम सदु ामा पाण्डेय ‘धमू मल’ है, अपना प्रमख ु स्थान रखते हैं। धमू मल ने अपनी कमवताओ ं में परु ाने शब्दों और महु ावरों को नये प्रतीक,मबम्ब और अथों में व्यक्त मकया है। धमू मल का काव्य उन पररमस्थमतयों की उपज हैं जो सातवें दशक से शरू ु होती हैं और यह भयावह पररमस्थमतयाँ है- 1962 में हुआ भारत-चीन का सीमा व्यापी अकाल, 1965 में हुआ भारत-पाक का यद्ध ु , 1967 में हुआ भार्षाई आदं ोलन, 1967 में हुआ आम चनु ाव में कुछ राजनीमतक पररवतान, राजनीमत अमस्थरता और नक्सली क्रांमत का मवस्फोट एवं आमथाक और सामामजक संकट आमद। अपनी समकालीन पररवेश की जमटल और भयावह Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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पररमस्थमतयों को उन्होंने न के वल अपनी कमवताओ ं का मवर्षय बनाया बमल्क उन्हें मजया भी है। कथनी और करनी की समानता ही उन्हें मवमशि बनाये रखे हैं और यही उनकी प्रासंमगकता भी है। िपं कक – सि​िाल कुमार सिहं , िोध छाि, सहदं ी सिभाग, अंग्रेजी एिं सिदेिी भाषा सिश्वसिद्यालय, हैदराबाद -500 007, मो.न.ं 9441376867, Mail IDvishalhcu@gmail.com

िंदभक िूचीमहदं ी सामहत्य का इमतहास, माधव सोनटक्के , पृष्ठ- 404 से उद्धतृ 2. संसद से सड़क तक, (मनु ामसब काररवाही), धमू मल, पृष्ठ-85 3. संसद से सड़क तक, (बीस साल बाद कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-10 4. वही, (मोचीराम कमवता से), पृष्ठ37 5. सस ं द से सड़क तक, (मोचीराम कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-37 6. संसद से सड़क तक, (मोचीराम कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-38 7. वही, पृष्ठ-37 8. संसद से सड़क तक, (मोचीराम कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-40 9. वही, पृष्ठ-41 10. सस ं द से सड़क तक, (प्रौढ़ मशक्षा कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-46 11. संसद से सड़क तक, (प्रौढ़ मशक्षा कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-48 12. संसद से सड़क तक, (मकान कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-49 1.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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13. संसद से सड़क तक, (पटकथा

30. सदु ामा पाण्डेय का प्रजातंत्र, (घर

कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-98 14. संसद से सड़क तक, (पटकथा कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-101 15. वही, पृष्ठ-104 16. वही, पृष्ठ-108 17. सस ं द से सड़क तक, (पटकथा कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-105 18. संसद से सड़क तक, (बीस साल बाद कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-11 19. संसद से सड़क तक, (अकाल दशान कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-18 20. संसद से सड़क तक, (अकाल दशान कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-20 21. सस ं द से सड़क तक, (पटकथा कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-105 22. संसद से सड़क तक, (पतझड़ कमवता से), पृष्ठ- 65 23. कल सनु ना मझ ु ,े धमू मल, पृष्ठ-33 24. सस ं द से सड़क तक, (कमव नामक कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-68 25. कल सनु ना मझ ु ,े (प्रजातंत्र के मवरुद्ध कमवता से), धमू मल, पृष्ठ19 26. सस ं द से सड़क तक, (कमवता नामक शीर्षाक कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-7 27. सस ं द से सड़क तक, धमू मल, पृष्ठ91 28. संसद से सड़क तक, (उस औरत की बगल में लेटकर कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-28 29. कल सनु ना मझ ु ,े (गृहस्थी : चार आयाम), धमू मल, पृष्ठ-50

में वापसी कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-37 31. कल सनु ना मझ ु ,े धमू मल, पृष्ठ-23 32. सस ं द से सड़क तक, (शहर में सयू ा​ास्त कमवता से), धमू मल, पृष्ठ44 33. संसद से सड़क तक, (पटकथा कमवता से), धमू मल, पृष्ठ-127

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उदय प्रकाि की रचना िसृ ि का राजनीसतक आयाम नाम : सिनय कुमार समश्र vinaymishra.cu11@gmail.com 9748085097 पता : 6/1, क्षेत्रा चटजी लेन, सालमकया, हावड़ा। मपन- 711106 मपछले तीन दशकों से भारत की तथाकमथत लोकतामं त्रक राजनीमत का स्वरूप पहले से कई मायनों और कई रूपों में बदला है। इस दौरान भारतीय राजनीमत में क्षेत्रीय छोटे दलों का वचास्व तेजी से बढ़ा है। सरकार के गठन में दसू रे और तीसरे मोचे ने अहम भमू मका मनभाई। मबना मकसी ठोस मद्दु े, कायाक्रम और नीमत के गठजोड़ की राजनीमत और जोड़-तोड़ की राजनीमत ही राजसत्ता का चररत्र बन गया। धमा, जामत और स्थानीय मद्दु ों के सहारे राजनीमत में क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ। जन प्रमतमनमधसांसद -मवधायक खरीदे जाने लगे। व्यमक्तगत तच्ु द स्वाथों के वश राजनेता सरकारें बनाने-मगराने लगे। सरकारी नीमतयों को कॉरपोरे ट, देशी-मवदेशी पंजू ीपमत घराने तय करने लगे। राजनीमत का अपराधीकरि हो गया। मामफयाओ ं का अवैध मशकंजा, राजनीमत, प्रशासन और दैमनक नागररक जीवन पर कसता चला गया। इनमें संमदनध मकस्म के मबल्डसा और ठे केदार हैं, छोटेबड़े उद्यमी और उद्योपमत हैं, सटोररये और प्रॉपटी का धंधा करने वाले दलाल हैं। यही लोग राजनेताओ ं के चहेते बन गए हैं। ये अनौमतकता, बबारता और महस्रं ता की मकसी भी सीमा को लाघं सकते हैं। मकशन पटनायक ने ठीक लमक्षतत मकया है मक “व्यापाररयों, राजनेताओ ं और अपरामधयों का गठजोड़ हमारी राजनीमत की मख्ु यधारा बन गया है।”1 प्रश्न है क्या Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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राजनीमत में शमु चता कायम हो सके गी ? सरकारी नीमतयों में पंजू ीपमतयों का हस्तक्षेप कब बंद होगा ? उदय प्रकाश की रचनात्मक प्रमतबद्धता ऐसे कई सवालों से रुबरु होती है। इस दौर के राजनीमतक कलेवर और तेवर पर साथाक, समु चंमतत, पारदशी, बेबाक और यथोमचत मटप्पिी उदय प्रकाश की कथा दृमि की एक महत्त्वपिू ा मवशेर्षता है। यह एक प्रधान राजनीमतक लक्षि बन गया है मक राजनीमतक दल अपने वायदों, घोर्षिाओ ं या मेमनफे स्टों की बातों को शायद ही परू ा करते हों। इनकी बातें प्रायः खोखली होती हैं। इनकी बातें राजनीमतक लफ्फाजी से अमधक कुछ नहीं होती हैं। इसी कारि जन सामान्य के बीच राजनेताओ ं की मवश्वसनीयता मनरंतर घटती जा रही है। रोचक बात यह है मक इस तथ्य से ये राजनीमतक भी परू ी तरह वामकफ होते हैं। मफर भी आत्मशोधन की बजाय जनमत को प्रभामवत करने के मलए कई हथकंडे अपनाते हैं। इस राजनीमतक मवडंबनाओ ं पर एक मटप्पिी में उदय प्रकाश मलखते हैं- “मतदाता तो हर बार मकसी एक राजनीमतक दल को सजा देता है, मजसका फायदा दसू री राजनीमतक पाटी को अपने आप ममल जाता है और वह सरकार बना लेता है। यह सच्चाई हर राजनीमतक नेता जानता है मक शायद ही कोई नागररक उस पर मवश्वास करता हो, इसमलए वह स्वयं जनता पर अमवश्वास करता है। उसके प्रमत सदं हे और शक ं ा से भरा होता है। यही कारि है मक उसे जनता का वोट पाने के मलए मसनेमा, खेल, टीवी, फै शन-नलौमर आमद इलाकों से उन लोगों को अपने प्रचार में उतारना पड़ता है, मजनकी मवश्वसनीयता, साख और लोकमप्रयता जनता के बीच उन राजनीमतक पाटी के नेताओ ं से ज्यादा होती है।”2 समाज के मवमवध क्षेत्रों में समक्रय मशहूर लोगों का राजनीमतक इस्तेमाल एक प्रचलन सा हो गया है। ऐसे लोग भी भारतीय लोकतंत्र के प्रमत अपेमक्षत दामयत्व का वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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मनवहान नहीं कर पाते हैं। इस संदभा में आशीर्ष नंदी मलखते हैं- “संसद में टीवी और मफल्मी दमु नया से आये लोगों की संख्या भी मपछले मदनों काफी बढ़ी है। मशहूर मखलाड़ी, मवज्ञान के प्रबंधक, प्रचार-लोभी कलाकार और ऐसे ही कई गौर-राजनीमतक लोग, राजनीमत की बाजारू संस्कृ मत को गढ़ने में योगदान दे रहे हैं। यही लोग जनता की राय को उत्तरोत्तर अमस्थर करने के कारक भी बनते हैं।” 3 राजनीमतक दलों का लक्ष्य देश का सवािंगीि मवकास नहीं रह गया है। राजनीमतक दलों में कई तरह की संकीिाताएं भर गई हैं। सत्ता को येन के न प्रकारे ि हामसल करना और बचाये रखना ही इनका प्रमख ु उद्देश्य बन गया है। राजनीमत के इस आयाम पर श्यामाचरि दबु े कहते हैं- “राष्ट्रीयता, सामामजक एकीकरि, मवकास, आत्ममनभारता और समता के लक्ष्य आज अथाहीन हो गए हैं, क्योंमक तात्कामलक राजनीमतक लाभ के मलए उनकी पररभार्षाएं बदली हैं। अवसरवादी राजनीमत ने जातीय भावना, क्षेत्रीयता, भार्षावाद, साप्रं दामयकता और जामतवाद का बड़ी बेशमी से दोहन मकया है। इस दृमि से हमारा कोई भी दल बेदाग नहीं है।”4 उदय प्रकाश की कथा दृमि समसाममयक राजनीमतक मन और मश ं ा को सहजता से भापं लेती है। साप्रं दामयकता आज के राजनीमतक पररदृश्य की एक प्रमख ु प्रवृमत्त है। इसका बारीक वृत्तातं उदय प्रकाश की कथासृमि में भयावह यथाथा के साथ मौजदू है। वर्षा 1992 में हसं के अगस्त और मसतंबर अक ं में... ‘और अतं में प्राथाना’ कहानी का प्रकाशन होता है। इसमें उदय प्रकाश मलखते हैं- “ये वे मदन थे जब मध्य प्रदेश ही नहीं देश के अन्य तीन राज्यों में भारतीय जनता पाटी की सरकार बन गई थी। डीजल से चलने वाले रक के ऊपर रखे गए रथ के मॉडल के साथ एक बढ़ू े राजनीमतक महदं ू नेता ने देश भर में रथ यात्रा की थी। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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अयोध्या में ममं दर ममस्जद मववाद से परू े देश का एक अतामका क, अमानवीय और डरावना ध्रवु ीकरि पौदा हो रहा था।”5 कहना न होगा उदय प्रकाश का डर सही सामबत हुआ और मदसंबर 1992 ई. में ममस्जद ध्वसं के बाद देश भर में सांप्रदामयक तनाव अनेक मदनों तक कायम रहा। जामतयों का राजनीमतकरि इस दौर के राजनीमतक पररदृश्य की दसू री प्रमख ु प्रवृमत्त है। इसकी शरु​ु आत दमलतों के साथ-साथ मपछड़ी जामतयों को नौकररयों और मशक्षि संस्थानों में आरक्षि हेतु मडं ल आयोग की मसफाररस लागू होने से मानी जा सकती है। इस दौरान दमलत और मपछड़ी जामतयों का जबरदस्त राजनीमतक उभार हुआ। इन वगों के लोगों का उत्साह मतदान से लेकर राजनीमतक दलों का सदस्य बनने तक सभी राजनीमतक गमतमवमधयों में मदखाई देता है। इस उभार का भारतीय समाज पर कोई खास सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। योगेन्द्र यादव जैसे राजनीमतक मचतं क का मानना है मक “दमलतों और मपछड़ों के फलस्वरूप जो आस्थाएं राजनीमत के कें द्र में आयी, अपने चररत्र में वे प्रायः सबको जोड़नेवाली न होकर खमं डत थी। उनकी मचतं ाएं अक्सर एक वगा और एक मद्दु े को लेकर रहती थी।”6 इन राजनीमतक दलों ने कभी यह प्रयास नहीं मकया मक मपछड़ों, अनसु मू चत जामतयों, अनसु मू चत जनजामतयों तथा अन्य दमलत वगों के साथ तालमेल मबठाकर सभी के सवािंगीि मवकास का एजेंडा अपनाया जाए। सरकार गठन में इन वगों की भमू मका अब नजरअदं ाज नहीं की जा सकती। इस संबंध में धीरुभाई शेठ कहते हैं“कांग्रेस, भाजपा और कम्यमु नस्ट सरीखे राष्ट्रीय दलों का राजनीमतक समथान प्राप्त करने के मलए अन्य मपछड़े वगों, अनसु मू चत जामतयों या जनजामतयों के सामामजक-राजनीमतक संगठनों या इनके द्वारा गमठत क्षेत्रजामत-दलों के साथ सीधी बातचीत करना वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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अमनवाया हो गया।”7 संमवधान के 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायती और स्थानीय मनकायों के चनु ावों में अनसु मू चत जामतयों, अनसु मू चत जनजामतयों और मस्त्रयों के मलए आरक्षि का प्रावधान मकया गया। फलतः मनचले तबके के लोगों की व्यापक स्तर पर राजनीमतक भागीदारी, राजनीमतक सचेतनता और राजनीमतकरि इस दौर की महत्त्वपिू ा उपलमब्ध है। हालांमक कई जगहों पर इसका मवडंबनात्मक स्वरूप भी मदखाई पड़ता है। मनचले तबके के लोगों का महज राजनीमतक इस्तेमाल मकया जाता है। ये प्रभत्ु वशाली वगा के महु रे भर होते हैं। उदय प्रकाश की कहानी ‘और अतं में प्राथाना’ का ढींगर गांव “आमदवासी जनजामतयों के मलए सरु मक्षत संसदीय क्षेत्र। लेमकन चनु ाव और राजनीमत के सारे मोहरे गौर-आमदवासी लोगों द्वारा ही सचं ामलत होते थे। भल ु ई साधो यहां के मनवा​ामचत सासं द थे, लेमकन इस आमदवासी सासं द के बारे में हर कोई जानता था मक वह मजले के मामफया मकंग मत्रभवु न मसहं का नौकर है।”8 ऐसे जन प्रमतमनमध जनता और जनतत्रं के मकतने महत साधक हो सकें गे, इसे आसानी से समझा जा सकता है। राजनीमतक भ्रिाचार और अपराधीकरि इस दौर की राजनीमत की तीसरी प्रमख ु प्रवृमत्त है। प्रायः सभी राजनीमतक दलों में आतं ररक लोकतत्रं का अभाव है। ये दल व्यमक्तवाद और पररवारवाद के ऊपर नहीं उठ पाते हैं। दलों के शीर्षा नेताओ ं के चारों तरफ दरबारी पररवेश सामान्य बात हो गई है। इस पररवेश में आगे बढ़ने के मलए कामबमलयत की बजाय नेता के प्रमत वफादारी या चाटुकाररता ज्यादा जरूरी है। दसू री बात यह मक शायद ही कोई दल अपने आय-व्यय का लेखा जोखा पारदशी ढंग से सबके मलए प्रकामशत करता है। क्योंमक ये राजनीमतक दल प्रायः पंजू ीपमतयों से प्राप्त काले धन पर ही मनभार रहते हैं। इसीमलए भारतीय राजनीमत पर पंजू ीपमतयों का ही प्रभाव Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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सवा​ामधक है। ये पंजू ीपमत घराने अपने लाभ के मलए सरकारी नीमतयों को परोक्ष रूप से मनधा​ाररत करते हैं। लगातार खचीली होती चनु ाव प्रमक्रया जनतंत्र को मनरंतर भ्रि बनाती जा रही है। प्रायः सभी दल चनु ाव आयोग द्वारा मनधा​ाररत खचा की सीमा और आचार संमहता को तोड़ते रहते हैं। राजनीमत भी एक व्यवसाय या धंधे का रूप लेती जा रही है। जनता और सरकार को अपने पक्ष में करने के मलए राजनेता पंजू ीपमतयों के अलावा अपरामधयों से भी संबंध बनाते हैं। मतदान के बाद बहुमत न ममलने की मस्थमत में सांसदों मवधायकों की खरीद फरोख्त मकसी भी दल या दलीय मोचों की सामान्य प्रवृमत्त हो गई है। इस पड़ाव पर कई बार भारतीय संमवधान, काननू और चनु ाव आयोग भी लाचार से मदखते हैं। वर्षा 1996 के आम चनु ाव के ठीक बाद ऐसी ही पररमस्थमत के मद्देनजर उदय प्रकाश ने 11 मई 1996 को राष्ट्रीय सहारा के एक कॉलम में मलखा- “मकसी भी राजनीमतक दल को स्पि बहुमत नहीं ममला है और सरकार बनाने के मलए ससं दीय इमतहास का सबसे बड़ा पशु मेला या घोड़ा बाजार जल्दी ही हमारी आख ं ों के सामने होगा। यह वह मबदं ु है जहां भारतीय मतदाता मसफा दशाक की तरह अपने मतदान से मनममात होने वाली ससं द का मनमा​ाि सत्ता के बाड़े के बाहर खड़ा होकर देखगें े और मख्ु य चनु ाव आयक्त ु टी.एन. शेर्षन की कोई भी हेकड़ी या कोई भी आतक ं वहां काम नहीं आएगा। यह वह दौर है मजसमें नरमसंह राव, अटल मबहारी वाजपेयी, ज्योमत बसु, लालू यादव, वी.पी. मसंह या नारायि दत्त मतवारी जैसे राजनीमतक मदनगज कुछ समय के मलए इस महामचं के ग्रीन रूम में छुप गए हैं और जो अमभनेता संसदीय खरीद-फरोख्त के घोड़ा बाजार मचं पर अवतरमत है उनके नाम कुछ इस प्रकार हैं : अमर मसंह, जयंत मल्होत्रा, भजनलाल, प्रेम गप्तु ा, मतहाड़वासी चंद्रास्वामी आमद इत्यामद। यानी राजधानी में काले वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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धन और संमदनध पंजू ी की वह काली भमू मका शरू ु हो चक ु ी है।”9 यही वजह है मक सरकार बनने के बाद तरह तरह के घोटालों का मसलमसला शरू ु हो जाता है। प्रायः गौर जरूरी मद्दु ों पर सरकार संकटग्रस्त होती मदखती है। अपराध का धनत्व इतना बढ़ जाता है मक बड़े-बड़े नेताओ ं तक की हत्या कर दी जाती है। पॉल गोमरा भी द्रुत गमत से पररवमतात व्यवस्था में देखते हैं मक “सरकारें बनती और मगर जातीं। कोई प्रधानमत्रं ी बनता, मफर या तो मगरा मदया जाता या मार मदया जाता। लोगों की स्मृमत उस कै सेट की तरह थी, मजसमें हर रोज नई छमवयां और नई आवाजें टेप की जातीं और रात में उन्हें पोंछ मदया जाता। सबु ह वे सबके सब स्मृमतहीन होकर उठते। उन्हें मपछला कुछ याद नहीं रहता।”10 स्मृमतहीनता और मवकल्पहीनता के कारि ही राजनीमतक दलों द्वारा वायदा परू ा न करने और धोखे खाने के बाद भी जन सामान्य उन्हीं चमु नदं ा भ्रि नेताओ ं में से ही मकसी को चनु ने के मलए मववश होता है।

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पर दबाव डालने वालों में टी पी मसंह और बड़े अफसरों के अलावा - “मजले के जाने-माने अपराधी गडंु ू भइया भी मौजदू थे। पाटी बदलकर वे भी इन दल में आ गए थे और टी पी मसंह के दामहने हाथ माने जाते थे।”11 आज राजनीमत में गडंु ू भइया जैसे अवसरवादी -अपराधी तत्वों की जमात बढ़ती जा रही है।

मौकापरस्ती इस दौर की राजनीमत का चौथा प्रमख ु लक्षि है। कई दल और राजनेता अपने मसद्धातं ों और आदशों को दरमकनार कर समु वधानसु ार राजनीमतक खेमा बदल लेते हैं। कुछ राजनीमतक चेहरे या छोटे और क्षेत्रीय दल मकसी भी मोचे (चाहे काग्रं ेस के नेतत्ृ व में पहला मोचा​ा या भाजपा के नेतत्ृ व में दसू रा मोचा​ा या गौर काग्रं ेस और गौर भाजपाई दलों का तीसरा मोचा​ा हो) की सरकार में मत्रं ीमडं ल की शोभा जरूर बढ़ाते हैं। चनु ाव के दौरान जो दल एक दसू रे के धरु मवरोधी प्रतीत होते हैं, चनु ाव के बाद सरकार गठन में वे एक दसू रे को प्रत्यक्ष या परोक्ष समथान देते मदखाई देते हैं। ‘और अतं में प्राथाना’ में कोतमा के मवधायक टी पी मसंह मवमध मत्रं ी हैं, जो संघ के परु ाने कायाकत्र्ता हैं। तौमफक अहमद की हत्या के बाद अनक ु ूल पोस्टमाटाम ररपोटा मलखवाने के मलए डॉ. वाकिकर

गठबधं न की राजनीमत इस दौर के राजनीमतक पररदृश्य पांचवां प्रधान लक्षि है। मपछले तीन दशकों में वर्षा 2014 के चनु ाव के पहले मकसी एक राजनीमत दल को सरकार गठन हेतु पिू ा बहुमत नहीं ममला है। इस दौरान सरकार गठन हेतु जो गठबंधन बने उनमें नीमत, मद्दु े और कायाक्रम के प्रमत मवशेर्ष प्रमतबद्धता का मनतांत अभाव था। ऐसी सरकारें भानमु ती के कुनबे की तरह कहीं से ईटं तो कहीं से रोड़ा लेकर बनायी गयीं। गठबधं न की सरकार में शाममल हर दल का क्षेत्रगत, सप्रं दायगत, जामतगत, भार्षागत अपना-अपना एजेंडा होता है। ये गठबधं न सशक्त एकता के प्रतीक न होकर, आरंभ से ही अशक्त और अस्थायी रूप में हमारे सामने आते हैं। बार-बार सरकारें मगरती हैं और मध्यावमध चनु ाव होते हैं। मवकास की गमत मथं र होने लगती है। पजंू ीपमत घराने इसे अपने ढगं से सच ं ामलत करते मदखाई देते हैं। ‘पीली छतरी वाली लड़की’ कहानी में सत्ता के शीर्षा पर बौठे मनखलािी द्वारा पावर, आई टी, हेल्थ आमद को प्राइवेट करने की मागं पर प्रधानमत्रं ी की असहायता साफ झलकता है “बस-बस जरा सि करें भाई... बदं ा लगा है ड्यटू ी पर। मेरा प्राब्लम तो आपको पता है। मखचड़ी सरकार है। सारी दालें एक साथ नहीं गलतीं मनखलािी जी।”12 नौमतक मल्ू यों के अभाव में तच्ु छ मनमहत स्वाथों ने हमारी राजनीमत को मवशृंखल बना मदया है। इस संदभा में श्यामाचरि दबु े मलखते हैं - “आज की राजनीमत में दरू दशी और दरू गामी नीमतयों का अभाव है। तात्कामलक लाभ की दृमि से उसमें आसानी से

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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पररवतान मकया जा सकता है। यही कारि है मक जनसंख्या मवस्फोट, पया​ावरि, प्रदर्षू ि, पाररमस्थमतकीय असंतल ु न, ऊजा​ा का प्रश्न, खाद्य सरु क्षा, यद्ध ु और शांमत जैसे गभं ीर प्रश्नों पर न तो राष्ट्रीय सहममत है, न कोई साथाक कायाक्रम। जनता की भावनाएं गौर जरूरी मद्दु ों पर भड़कायी जाती है पररिाम होता है मदशाहीन राजनीमत का मवस्तार।”13 वर्षा 1991 में नई आमथाक नीमत के लागू होने से राजनीमतक पररदृश्य भी प्रभामवत हुआ है। उदारीकरि, मनजीकरि और भमू डं लीकरि ने बाजार को शीर्षा मनयामक के रूप में ला खड़ा मकया है। सरकार अपने उत्तरदामयत्व से मवमख ु हो रही है। रजनी कोठारी लमक्षत करते हैं मक - “राज्य की भमू मका में होते ह्ै्रास और नये प्रौद्योगीकीय दबाव में आमथाक गमतमवमधयों के बहुराष्ट्रीयकरि की इन दो प्रमक्रयाओ ं के साथ हम जनोन्मख ु ी राजनीमत के यगु का पतन भी देख सकते हैं। आमथाक रूप से यह अराजनीमतककरि और ‘राजनीमत की मगरती साख’ का पररिाम है।... यह गरीब तबके को हामशए पर फें के जाने का नतीजा है। भमवष्ट्य की तरफ बढ़ रही इस व्यवस्था को वमं चतों की कोई जरूरत नहीं है।”14 इस दौर की राजनीमत को पजंू ी और कॉरपोरे ट घराने ही तय करने लगे हैं। इनका लक्ष्य अपना लाभ है, जनसामान्य का नहीं। इस दौर की राजनीमतक बेहद जमटल होती गई। इस जमटल राजनीमत के चक्रव्यहू में मघरा लोकतत्रं अभी पिू ता ः धराशायी नहीं हुआ है। लोकतंत्र में जनता की आशा और आस्था अभी बनी-बची है। लोकतंत्र की मवश्वसनीयता को बचाने में चनु ाव आयोग और ईमानदार, प्रमतबद्ध चनु ाव आयक्त ु की भमू मका सवा​ामधक महत्त्वपिू ा है। टी.एन. शेर्षन, जे.एम. मलंनदोह जैसे चनु ाव आयक्त ु ों की मक्त ु प्रशसं ा उदय प्रकाश करते हैं। उदय प्रकाश वर्षा 2004 के चनु ाव पर मलंनदोह फै क्टर को ही सबसे महत्त्वपिू ा मानते हैं। “ ‘मलंनदोह Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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फै क्टर’ मकसी भतू की तरह मपछले छह साल से, हर बार चनु ावों के समय नेताओ ं के मसर पर मडं राता रहता है। वे हेमलकॉप्टर पर चढ़े हुए हों या अपने राजकाज की उपलमब्धयों की सचू ी के साथ मकसी बौनर या कट आउट में दैत्याकार हाथ जोड़े मस्ु कुरा रहे हों, ‘मलंनदोह-फै क्टर’ का भय उनके मसर पर सवार रहता था।... ‘मलंनदोह फै क्टर’ ने भारतीय लोकतंत्र की लाज बचाकर उसे राजनीमतक वैधता मदलाई।”15 भ्रिाचार, क्षेत्रवाद, जामतवाद, अपराध और काले धन से बजबजाती राजनीमत में तेज तरा​ार ईमानदार जन प्रमतबद्ध उच्च अमधकाररयों की भमू मका अमत महत्त्वपिू ा है। ऐसे संस्थाओ ं और अमधकाररयों की बदौलत ही सामान्य लोगों का लोकतंत्र में मवश्वास बरकरार है। साथ ही मीमडया की समक्रयता तथा अनेक घटनाक्रमों पर सवोच्च न्यायालय के कारगर हस्तक्षेप से ही लोकतत्रं की साख बनी और बची हुई है। िंदभक-िूची

1. पटनायक, मकशन, तीसरी दमु नया का जनतत्रं (लेख), भारत का राजनीमतक सक ं ट, स.ं - राजमकशोर, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, सस्ं करि-1994, पृष्ठ स.ं 152 2. उदय प्रकाश, नयी सदी का पचं तत्रं , वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि 2008, पृष्ठ सं.-3233 3. नंदी, आशीर्ष, नयी राजनीमतक संस्कृ मत (लेख), लोकतंत्र के सात अध्याय, सं.- अभय कुमार दबु े, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, 2005, पृष्ठ सं.-193 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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4. दबु े, श्यामाचरि, राजनीमतक संस्कृ मत का आयाम (लेख), भारत का राजनीमतक संकट, सं.राजमकशोर, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, 1994, पृष्ठ सं.-22

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15. उदय प्रकाश, नयी सदी का पचं तंत्र, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-2008, पृष्ठ सं.53-54

5. उदय प्रकाश, और अतं में प्राथाना, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-2006, पृष्ठ सं.-173 6. यादव, योगेन्द्र, कायापलट की कहानी (लेख), लोकतंत्र के सात अध्याय, सं. अभय कुमार दबु े, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, 2005, पृष्ठ सं. 55 7. सेठ, धीरु भाई, नये मध्यवगा का उदय (लेख), उपरोक्त, पृष्ठ सं.-110 8. उदय प्रकाश, और अतं में प्राथाना, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-2006, पृष्ठ सं.-132 9. उदय प्रकाश, नयी सदी का पचं तंत्र, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, सस्ं करि-2008, पृष्ठ स.ं -258 10. उदय प्रकाश, पॉल गोमरा का स्कूटर, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, सस्ं करि2006, पृष्ठ स.ं -61 11. उदय प्रकाश, और अतं में प्राथाना, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, सस्ं करि-2006, पृष्ठ स.ं -195 12. उदय प्रकाश, पीली छतरी वाली लड़की, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, 2009, पृष्ठ स.ं -13 13. दबु े, श्यामाचरि, राजनीमतक सस्ं कृ मत के आयाम (लेख), भारत का राजनीमतक सक ं ट, स.ं राजमकशोर, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, 1994, पृष्ठ स.ं -23 14. कोठारी, रजनी, बहुसास्ं कृ मतक समाज और मध्यमागी राज्य के प्रभाव में मगरावट (लेख), लोकतंत्र के सात अध्याय, सं.- अभय कुमार दबु े, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, 2005, पृष्ठ सं. 152 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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लीलाधर मंडलोई का पररिेि-बोध और काव्य दृसि सिकाि कुमार यादि, शोध छात्र, भारतीय भार्षा कें द्र, जवाहरलाल नेहरू मवश्वमवद्यालय, 110067.) Email ID- vikash1992jnu@gmail.com

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अतः लीलाधर मडं लीई की काव्य-दृमि पर बात इनके वधामान होते पररवेश-बोध के समानांतर करना करना ज्यादा उमचत होगा । जीवन में संभतः सभी व्यमक्तयों का सबसे पहला बोध मां के रूप में होता है । सभं तः पद का प्रयोग इसमलए मक दभु ा​ानयवश कुछ लोगों को मां का प्यार नसीब नहीं होता है । मां

मकसी भी व्यमक्त की दृमि के मनमा​ाि में उसके पररवेश की महत्वपिू ा भमू मका होती है मफर वह चाहे कमव हो या कोई और इससे फका नहीं पड़ता । जैसेजैसे व्यमक्त के पररवेश का दायरा बढ़ता है वैसे-वैसे उसकी दृमि का भी मवस्तार होता जाता है । पररवेशबोध की मभन्नता के कारि हर एक का अपना पररवेश होता है । इसमलए हर व्यमक्त की दृमि भी मभन्न-मभन्न होती है । दृमि से अमभप्राय चीज़ों को देखने-परखने की हमारी मववेक-क्षमता से है । चँमू क पररवेश वह है जो हमारी चेतना को छूता है । मजससे हमारी दृमि का मवकास होता है । पररवेश में बहुता सारी चीजें हैं जो हमारी चेतना को नहीं छूती है अतः हमारी दृमि के मनमा​ाि में उनकी कोई भमू मका नहीं होती है । चेतना और पररवेश एक-दसू रे को मनरूमपत-मनधा​ाररत करते है यानी दोनों मे परस्पर वधामान का ररस्ता होता है ।

को बच्चा सबसे पहले चीन्हता है । मां सबसे पहले बच्चे की चेतना को छूती है । अतः बच्चे पहला पररवेश उसकी मां होती है । इसके पिात् मपता, पररवार, समदु ाय, समाज, प्रकृ मत आमद का बोध होता है । इस तरह से व्यमक्त के परवेश-बोध मवस्तार होता जाता है । इसी पररवेश-बोध से हमारी दृमि (मकसी भी वस्तु के देखने का नज़ररया) का मनमा​ाि होता है । लीलाधर मडं लोई की दृमि, काव्य-दृमि, संवदे ना-दृमि आमद के मनमा​ाि की भी प्रमक्रया यही है । उनके ही शब्दों में ‘‘छुटपन से चीजों तक जाने, देखने, छूने, चखने औक सनु ने का एक भारा-परू ा मन था मेरे पास । और हमारा पररवार सतपड़ु ा की तलहटी में था सो सौंदया की सवात्र उपमस्थमत थी’’42 इसी तरह वह अपने पररवेश की के मज़दरू ों तथा आमदवामसयों के रहन-सहन तथा खान-पान तथा प्रकृ मत से पररमचत हुए ‘‘इस क्रम में हम कोरकू, गोंड और भाररया

42

मंडलोई लीलाधर, मेरी रचना प्रक्रिया के सत्र ू

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

संपादक; सत्यकाम, समीक्षा/ समीक्षा एवं शोध त्रैमाससक, अक्टूबर-माचच, 2017, वर्च 49, अंक 3-4, प.ृ 6

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आमदवामसयों तक जगं ल में पहुचे और उनके जीवन

सृमि का जीवन अनंत है और वे इसे जीने

समाज और गीत, संगीत व संस्कृ मत से जड़ु गया ।

की चेिा में जोमखम उठाते हैं । जोमखम उठाने में

सतपड़ु ने हमें लोक कथाएँ, कमवताए,ं धनु ें और उसके

अमदखे-अमलखे जीवन के पते ठीकाने हैं । और वे उन

आचं ल से अनेक नाट्य तत्व मदए । इस तरह हमनें उस

तक पहुचते हैं और कमवता के मलए कच्चा माल

सामहमत्यक पजंू ी से अवचेतना को भरा, मजसे मैं अब

अबेरते हैं । वहाँ भार्षा में नये मकरदार ममलते हैं । मजसे

सामहत्य की तरह देख और मलख पा रहा हूं ।’’43 अतः

वे उनकी अपनी भार्षा में बोलने की कोमशश करते हैं

कहा जा सकता है मक जगं ल में घर से यह मनवा​ासन

। उनकी कमवताओ ं में हमें भार्षा और मशल्प के स्तर

उनकी सामहत्य और सस्ं कृ मत की समझ और

पर तोड़-फोड़ और ख़ाररज़ होने की हद तक जोमखम

सौंदयाबोध के मनमा​ाि के मलए था । सौंदयाबोध के

उठाने का स्वभाव मदखाई दाता है । एक कमव को

मनमा​ाि की इसी समझ और बोध ने उन्हें संघर्षारत

अपनी जड़ता को तोड़ने के मलए ऐसी कोमशश ज़रूर

बेहाल आमदवासी, दमलत और मनम्न वगा से जोड़ा

भी है क्योंमक इसी से उसकी काव्य दृमि का मनमा​ाि

और शोर्षि को समझने की बमु द्ध दी । इसी से उनके

होता है । इसके सत्यापन के मलए उनकी आग कमवता

मलखे में मजरू , आमजवासी, दमलत, मपछड़े लोगों का

को देख सकते हैं-

गान है, सतपड़ु ा की छमवयां हैं । और हो क्यों न क्योंमक

मेरी मेज़ पर

इन्हीं रास्तों से गजु रते हुए ही उनकी प्रगमतशील दृमि और मवचार बने, मजसने उनकी कमवता को एक बृहत्तर आधार मदया । अतः कमव की काव्य दृमि में अगर कुछ है तो वह बचपन के इसी गजु ारे सच है जो दमु नया के अनेक छोरों से जड़ु जाती है; जैसे मक इनकी मनष्ट्ु य

टकराते हैं शब्द से शब्द एक मचंगारी उठती है और कमवता में आग की तरह फै ल जाती है आग नहीं तो कमवता नहीं44 आग तड़प है जो पवार-सी पीर को मपघला-

और सृमि के बीच की एकता की पक्षधरता, जो एक बेहतर दमु नया के बनाने का मवकल्प पेश करता है ।

कर हमारी ममु क्त के मागा को पशस्त करती है । तभी तो दष्ट्ु यतं कुमार ने कहा है मक ‘‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही/ हो कहीं भी आग, लेमकन आग

43

वही

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http://kavitakosh.org/kk/आग_लीलाधर_/_मंडलोई

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जलनी चामहए’’ । यह सृमि को बचाए रखने की प्रेमामनन है मजससे चमन में नहीं फूल मदल में मखलते

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क्या उस देश के मजसकी पसं दं का प्रधान हमारे देश का हुक़्मरान है अब’’46

हैं । आज के समय में लोगों के मदल नहीं ममल रहें, कमव बच्चों की तरह कोमल शब्दों का

इसमलए उनके मदलों को मफर से ममलाने के मलए यह आग ज़रूरी है । लबों की साफ़गोई और बरु ाई को देख लेने वाली दृमि का नाम है आग । आग, अधं ेंरे में अधं ेंरे के मख़लाफ मवद्रोह है । उदास मौसम के मख़लाफ लड़ना है आग क्यों मक लड़े मबना कुछ नहीं ममलता । मजजीमवर्षा है आग, जो सृजनशीलती मवरोधी ताकतों के हर मकए धरे पर घास की तरह उग आती है । सपने का न टूटना है आग, इस सपने को बचाए रखने के

महमायती है न मक बनावटी, कठोर व कका र्ष । कोमल शब्दों की तान मचत्ताकर्षाक व मनोहर होती है मजससे मन शीतल हो जाता है । जैसे मक रहीम दास ने भी कहा है मक - बानी ऐसी बोमलये, मन का आपा खोय। औरन को सीतल करै , आपहु सीतल होय॥ यह कथन िब्द बच्चों की िरह कमवता से सत्यमपत हो जाता है –

मलए काल से होड़ है आग ‘क्योंशक सबसे ख़िरनाक

मेरे भीतर कोमल शब्दों की एक डायरी होगी ज़रूर

होिा है हमारे सपनों का मर जाना ।’45 संक्षेप में आग

मेरे कमवता में मस्त्रयाँ बहुत हैं

इस सृमि को बचाए और बनाए रखने के मलए संघर्षा

मेरा मन स्त्री की तरह कोमल है

की मशाल है । मजसकी सत्यता के मलए हुक्मरान

मझु से सभं व नहीं कठोरता

कमवता की मनम्नमलमखत पंमक्तयों को देखा जा सकता

मैं नमागदु ाज़ शब्दों से ढका हूँ

है-

अगर सरू ज भी हूँ तो एकदम भोर का और नमस्कार करता हूँ अभी भी झक ु कर मैं न परू ी विामाला याद रख पाता हूँ

‘‘आग भरोसा है सृमि का जो इस भरोसे के मख़लाफ़ है उन्हें पहचानों उन्हें पहचानों ? 45

वही,सबसे ख़तरनाक/पाश

न व्याकरि हर बार लौटता हूँ और भल ू ा हुआ याद आता है ठोक- पीटकर जो गढ़ते है ँ शब्द

46

संपादक; सत्यकाम, समीक्षा/ समीक्षा एवं शोध

त्रैमाससक, अक्टूबर-माचच, 2017, वर्च 49, अंक 3-4, प.ृ 5

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मैं उनमें से नहीं हूँ मेरे भीतर शब्द बच्चों की तरह बड़े होते हैं अपना- अपना घर बनाते हैं कुछ गस्ु से में छोड़कर घर से बाहर मनकल जाते हैं मझु े उनकी शैतामनयों से कोफ़् नहीं मैं उन्हें करता हूं प्यार लौट आने के इतं जार में मेरी दोस्तीकुछ और नए बच्चों से हो जाती है घर छोड़कर गए शब्द जब युवा होकर लौटते हैं मैं अपने सफे द बालों से उन्हें खेलते देख एक सरु मई भार्षा को बनते हुए देखता हूँ ।47 पृ. 19 यह संकेत है मक उनके यहां सजानात्मकता जीवन से भार्षा की यात्रा करती है न मक भार्षा से जावन । तभी तो उनके भीतर शब्द बच्चों की तरह बड़े होते हैं । अतः लीलाधर मडं लोई की काव्य दृमि सृमि की पाररमस्थमतकीय तंत्र को बचाने की पक्षधर है । उनकी काव्य दृमि हर उस वस्तु के मलए पक ु ार है जो ख़तरे की ज़द में हैं । इस कथन की सत्यता के मलए मलखे में दक्ु ख कमवता मशर्षाक की पंमक्तयों को देखा जा सकता है- ‘‘मरे मलखे में/ अगर दक्ु ख नहीं/ और सबका नहीं/ मेरे मलखे का आग लगे ।’’48

47

मंडलोई लीलाधर, दानापानी (ततथिहीन डायरी: 1987-

2004), ददल्ली: मेधा बुक्स, 2008, प.ृ 19

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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आधसु नकताबोध और के दारनाथ सिहं डॉ. सिमलेि सिपािी संपका : साहा इमं स्टट्यटू ऑफ न्यमु क्लयर मफमजक्स, 1/ए.एफ., मवधान नगर, कोलकाता-64. ब्लॉग: http://anahadkolkata.blogspot.com Email: starbhojpuribimlesh@gmail.com Mobile: 09088751215

आधमु नकता के जो लक्षि मवद्वानों ने मगनाए हैं उनमें महत्वपिू ा हैं – परम्परा से मवद्रोह, स्वकीय सत्ता की स्थापना, तका और वैज्ञामनक पद्धमत की मचंतन प्रमक्रया, संशय, एकाकीपन और ‘न्यमु क्लयर’ होते जाने का दश ं , शहरीकरि के कारि पैदा हुई मवडंबनाएँ इत्यामद। साथ ही आधमु नकता के ये सारे लक्षि स्थान काल के साथ पररवमतात होते रहे हैं – जब हम मकसी भारतीय कमव के आधमु नकता बोध को समझते का प्रयास करते हैं तो हमें यह ध्यान में रखना होगा मक भारत में घमटत हुई आधमु नकता का एक अलग स्वरूप है और यहाँ के रचनाकारों-कलाकारों ने आधमु नकता को ठीक उसी तरह ग्रहि नहीं मकया मजस तरह यरु ोप के लेखक-कलाकारों ने। इसमलए जब हम के दार की कमवताओ ं का मल्ू यांकन करने चलते हैं तो हमें यह ध्यान रखना होगा मक उनकी आधमु नकता की अपनी जड़ें कहाँ है, और साथ ही आधमु नकता को लेकर उनकी अपनी समझ क्या और कै सा है। के दारनाथ मसहं आधमु नकताबोध के कमव हैं, लेमकन उन्हें आधमु नकताबोध का कमव मानने के पहले इस स्वीकारोमक्त को ध्यान में रखना बेहद जरूरी है – “बहैमसयत एक रचनाकार मेरे मलए आधमु नकता सबसे पहले मेरा अनभु व है। यह अनभु व बहुत-सी Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मानमसक प्रमतमक्रयाओ,ं दृश्यों, घटनाओ,ं उम्मीदों और मोहभगं ों का ममला-जल ु ा घोल है, जोमक असल में मेरी दमु नया है। मेरी आधमु नकता का एक बड़ा महस्सा बेशक वैज्ञामनक और तकनीकी मवकास के गभा से पैदा हुआ है, परन्तु मेरी मवमशि ऐमतहामसक मस्थमत की मबडंबना यह है मक मेरी आधमु नकता के स्वरूप को मनधा​ाररत करने में वे वास्तमवकताएं भी एक खास तरह की भमू मका मनभाती हैं, जो आधमु नकता से सपु ररमचत दायरे से लगभग बाहर हैं। मेरी आधमु नकता की एक मचन्ता यह है मक उसमें लालमोहर कहाँ है ?” 1

उनकी आधमु नकता ठीक वैसी ही नहीं है, जो पमिम के मकसी आधमु नक कमव की हो सकती है, या मकसी ऐसे भारतीय कमव की है जो उनके समकालीन है और उसकी रचना प्रमक्रया में आधमु नकता ने महत्त भमू मका का मनवा​ाह मकया है। उनकी आधमु नकता में कई खरोंचे हैं मजनको समझना परखना बेहद जरूरी है। यही कारि है मक आधमु नकताबोध का यह कमव अपने मलए मबबं और शब्द अपने लोक से लेकर आता है। वह लोक मजसे शामस्त्रय शब्दावली में मपछड़ी सस्ं कृ मत या अधं मवश्वासों का गढ़ माना जाता है, के दार की कमवता की मनममामत में एक महत्वपिू ा और कई बार मनिा​ायक की भमू मका में आता है। हमें के दार की कमवताओ ं में आधमु नकता के सारे लक्षि प्राप्त होते हैं जो अन्य भार्षा के समकालीन कमवयों में हैं, लेमकन उनकी आधमु नकता महज वैचाररक न होकर अपने देश और अपनी जमीन से पैदा हुई वह आधमु नकता है जो पमिम की आधमु नकता के लक्षिों से मभन्न और ठे ठ भारतीय है। के दार के मलए आधमु नकता कोई ‘फै शन’ नहीं है, और न ही अपनी कमवता को वैमश्वक बनाने का सप्रयास प्रमतफलन। उनके मलए आधमु नकता सबसे पहले वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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उनका अपना अनुभव है। के दार की आधमु नकता को इसीमलए ‘ठे ठ भारतीय आधमु नकता’ के संदभा में ही समझना और समझाना उमचत होगा। बकौल के दार जी – “मेरी आधमु नकता में मेरे गाँव और शहर के बीच का संबंध मकस तरह घमटत होता है, इस प्रश्न की मवकलता मेरे भाव-बोध का एक अमनवाया महस्सा है। ये दोनों मेरे भीतर हैं और दोनों में जो एक चपु चाप सहअमस्तत्व है, उसका संतल ु न हमेशा एक-जैसा बना रहता हो, ऐसा नहीं है। इससे भारतीय कमव के भीतर एक नए ढंग का भाव-बोध पैदा होता है, जो पमिम से काफी मभन्न है।”2 यहाँ डॉ. श्यामसंदु र दास की बातों का उल्लेख करना भी अप्रासंमगक न होगा – “पमिमी व्यमक्त की मनयमत हमारी मनयमत मबलकुल नहीं बन सकती। उसके यहाँ के अमानवीयपिू ा अजनबीपन से उत्पन्न जीवन मवरोधी तत्व हमारे मलए प्रासमं गक नहीं हो सकते। हम अपनी ही जमीन से नए की तलाश करके आधमु नक बनने की कोमशश को इस सदं भा में सही मानने को तैयार हैं। हमारा यथाथा अनेक मायनों में पमिमी दमु नया के यथाथा से एकदम मभन्न है।”3 आशय यह मक के दार की आधमु नकता को समझने के मलए पमिम की आधमु नकता के ‘टूल’ कई बार बेमानी सामबत हो सकते हैं, इसमलए यहाँ हम उनकी कमवताओ ं की माफा त उनकी आधमु नकता और उनके बोध को समझने का प्रयास करें ग।े

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मबल्कुल अभी’ में कमव का वह नतू न रूप मख ु र होता है। कमव ने इस संग्रह में ‘मैं’ की चेतना की पहचान की है। लेमकन यह ध्यान देने लायक बात है मक यह ‘मैं’ उसका व्यमक्त में सीममत न होकर नई संवदे ना का आधार खड़ा करने के मलए उत्सक ु मदखायी पड़ता है। आधमु नकता ने व्यमक्त की स्वकीय सत्ता और उसकी अमस्मता को स्थामपत करने की पहल की। परु ानी परम्पराएं व्यमक्त को एक समामजक उपकरि समझती थीं, वहाँ व्यमक्त के ‘स्व’ की पहचान मतरोमहत थी। आधमु नकताबोध ने पहली बार ‘स्व’ का दरवाजा खोला, फलतः व्यमक्त की सत्ता स्थामपत हुई, यह ‘मैं’ की सत्ता हमें महन्दी कमवता में मनराला और अन्य छायावादी कमवयों में भी मदखायी पड़ती है, लेमकन यही ‘मैं’ 50 के दशक के बाद जब के दार के यहाँ आता है तो एक मभन्न भार्षा और सवं दे ना के साथ – छोटे से आँगन में माँ ने लगाए हैं तल ु सी के मबरवे दो मपता ने लगाया है बरगद छतनार

[1] के दार की कई कमवताएँ एक साथ पहली बार अज्ञेय के संपादन में मनकलने वाले ‘तारसप्तक’ में प्रकामशत हुई,ं तभी से यह कमव एक नए भावबोध के कमव के रूप में जाना-पहचाना जाने लगा। इससे पहले भी जब के दार की कमवताएँ लयबद्ध गीत के रूप में होती थी, तब भी उनके अदं र एक नए भावबोध की झलक ममलनी शरू ु हो गई थी। लेमकन ‘अभी

मैं अपना नन्हा गल ु ाब कहाँ रोप द!ंू 4 इस कमवता में नन्हा गल ु ाब रोपने की जो आकाक्ष ं ा है, उसं ‘मैं’ की चेतना कहा जा सकता है। लेमकन इस आकांक्षा के पीछे एक मवद्रोह भी है। वह मवद्रोह है परम्परा के प्रमत। तल ु सी और बरगद भारतीय परम्परा के प्रतीक समझे जाय,ं तो उन परम्पाराओ ं के बरक्श कमव नन्हे गल ु ाब के रूप में अपनी एक नतू न चेतना को स्थामपत करने का आकांक्षी है। यह आकांक्षा ‘मैं’ से उत्पन्न जरूर होती है, लेमकन इसके गहरे सामामजक सरोकार से इनकार नहीं मकया जा सकता। यह है के दार की अपनी आधमु नकता जो

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इनकी कमवताओ ं में मदखायी पड़ती है। इसी तरह के कुछ उदाहरि मवश्वनाथ प्रसाद मतवारी ने एक लेख में मदए हैं, यहाँ उन कमवताओ ं को देखा जा सकता है – मिु ी में प्रश्न मलए दौड़ रहा हूँ वन-वन पवात-पवात लाचार.. 5 xx xx जाने कहाँ कौन पवात है मजनसे रोज लढ़ु ककर मेरे पास चला आता है नीला पत्थर जब मैं कभी अके ला बहुत अके ला होता हू।ँ 6 या ‘हम जो सोचते हैं’ कमवता में वे मलखते हैं हर जेब के भीतर कुछ दबे-दबे फूल हैं और हर फूल के नीचे एक मरी हुई भार्षा मजसे सरू ज समझता है ... समद्रु वहाँ नहीं है वहाँ मदन के सतरंगे घोड़े उतरते हैं वह हमारे आस-पास हमारी छाती में हमारे बंद पन्नों के भीतर है जहाँ रात के सन्नाटे में हम सोचते-से रहते हैं। 7 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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उपरोक्त कमवताओ ं में कमव के अदं र अके लापन, उदासी और बेचैनी के जो दृश्य हैं वे पमिम के आधमु नक कमवयों की याद मदलाते हैं। आधमु नकता की एक खास मवशेर्षता अके लापन और उदासी भी है। यमद इसे नाकारात्मक अथा में न मलया जाय तो यह व्यमक्त का स्वयं से साक्षात्कार है, उसके जो अपने दख ु हैं, उसके नजदीक जाकर उससे बोलना-बमतयाना है। के दार इन कमवताओ ं में खदु के अदं र समामहत होकर अपने छोटे-छोटे दख ु ों से साक्षात्कार करते हुए मदखायी पड़ते हैं। नन्हें गल ु ाब को रोपने की आकाक्ष ं ा कमव को ‘मैं’ तक ले जाती है, और वही ‘मैं’ उसे अपने व्यमक्त के अदं र प्रवेश कर खदु को पड़ताल करने का रास्ता बताता है। और यह खदु के अदं र प्रवेश करना नाकारात्मक तो कतई नहीं, यहाँ से एक और रास्ता खल ु ता है। कमव के ही शब्दों में – और एक सबु ह मैं उठूँगा मैं उठूँगा पृथ्वी-समेत जल और कच्छप-समेत उठूँगा मैं उठूंगा और चल दगँू ा उससे ममलने मजससे वादा है मक ममलँगू ा। 8 के दार जब ‘मैं’ मक तरफ जाते हैं तो नई ऊजा​ा के साथ लौटते भी हैं, उनकी यह मवशेर्षता ही उन्हें अमद्वतीय बनाती है। इस तरह वे अपने पाठकों को वहाँ ले जाना चाहते हैं, जहाँ सृजनात्मक ऊजा​ा के द्वार हैं, कटु यथाथा है और है जीने की एक अदम्य लालसा, मजनके मबना यह जीवन लगभग बेमानी है – मैं आपको मसफा आममं त्रत करूंगा मक आप आएं और मेर साथ सीधे उस आग तक चलें उस चल्ू हे तक-जहाँ वह पक रही है एक अद्भुद ताप और गररमा के साथ वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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समचू ी आग को गधं में बदलती हुई दमु नया की सबसे आियाजनक चीज वह पक रही है

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और पकना लौटना नहीं है जड़ों की ओर वह आगे बढ़ रही है धीरे -धीरे उसकी गरमाहट पहुचँ रही है आदमी की नींद और मवचारों तक ”9 जामहर है मक के दार हर बार एक नई यात्रा की शरू ु आत करते हैं और वे हर बार ठीक वहीं पहुचँ ते हैं, जहाँ पहुचँ ना है । [2] आधमु नकता ने मनष्ट्ु य को जो एक अन्य चेतना प्रदान की - उसने मनष्ट्ु य के अदं र सवाल पछ ू ने की प्रवृमत को पैदा मकया। ‘क्यों’ और ‘कै से’ के सवाल पहली बार मनष्ट्ु य ने पछ ू ना शरू ु मकया। आधमु नकता का ही एक रूप वह प्रजातत्रं है, मजसमें मनष्ट्ु य को अमभव्यमक्त की आजादी प्रदान की गई। मनष्ट्ु य पहली बार सवाल पछ ू ने की स्वतत्रं ता प्राप्त कर सका। हर चीज को पहले प्रश्नामं कत करना और सममु चत उत्तर प्राप्त होने के पिात ही उसे स्वीकार करना आधमु नकता बोध ने मसखाया। के दार एक कमवता में स्पि मलखते हैं – इतं जार मत करो जो कहना है कह डालो क्योंमक हो सकता हा मफर कहने का कोई अथा न रह जाए सोचो जहाँ खड़े हो वहीं से सोचो चाहे राख से ही शरू ु करो ....

पछ ू ो चाहे मजतनी बार पछ ू ना पड़े चाहे पछ ू ने में मजतना तकलीफ हो मगर पछ ू ो पछ ू ो मक गाड़ी मकतनी लेट है 10 के दार बार-बार सोचने और पछू ने की प्रवृमत को अपनी कमवता में उकसाते हैं। भारत जैसे देश में जामहर है मक पछ ू ना और सोचना कई बार तकलीफ देह भी हो सकती है – मफर भी वे ‘पछ ू ना’ और ‘सोचना’ मक्रया पर बल देते हैं। यह या उनकी कमवता में आई इस तरह की मक्रयाएं उन्हें गहरे आधमु नकबोध का कमव सामबत करती हैं। एक दसू री कमवता में वे मलखते हैं – पर असल में अपना हर बयान दे चक ु ने के बाद होठों को चामहए मसफा दो होंठ जलते हुए खल ु ते हुए बोलते हुए। 11 के दार जब होंठ पर कमवता मलखते हैं तो उनकी आकाक्ष ं ा ‘जलते हुए’ और ‘बोलते हुए’ होंठों की है। ऐसे होंठ जो बोल सकते हों, प्रश्न कर सकते हों, जो चपु न हों, मजनकी चमक से अमधक उनकी जलन हो – उनमें भार्षा की आँच हो। यह पछ ू ना मसफा बाहर से पछ ू ना नहीं है – कई बार यह पछ ू ना कमव के अपने जगत में प्रवेश कर खदु से भी पछ ू ना है – आधमु नकता की पररयोजना में प्रश्न बहुत महत्वपिू ा हैं। मवज्ञान भी सबसे पहले प्रश्न करता है – और मवज्ञान के मवकास के साथ पैदा हुई आधमु नकता भी प्रश्न करती है- प्रश्न करना मसखाती हैयह अलग बात है मक सामहत्य और कला के प्रश्न अलग तरह के हैं – लेमकन दोनों का उद्देश्य ही मनष्ट्ु य

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को बेहतर मनष्ट्ु य बनाना है। यह आधमु नकता का एक साकारात्मक सरोकार है, मजन्हें हम महत्वपिू ा मानकर चलते हैं, मक चामहए भी। के दार भी पछ ू ते हैं – क्या मैं रख सकता हूँ एक टूटा हुआ बाल काया और कारि के बीच में मझु े मकस तरह पता चलेगा मेरी भख ू में मेरी पीठ का दख ु ना शाममल है या नहीं

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मैं क्यों और मकस तका से महन्दू हूँ क्या मैं कभी जान पाऊँगा ?12 एक खास बात उक्त कमवता में लमक्षत करने लायक है। कमव अतं में यह सवाल करता है मक वह मकस तका से महन्दू है। धमा से सवाल करना और धमा - जहाँ तका के मलए बहुत ही कम अवकास है - से तका की आकाक्ष ं ा करना एक ऐसा साहस है मजसके तार कहीं न कहीं आधमु नकताबोध से जड़ु ते हैं। और हमें ओढ़ी हुई आधमु नकता के बरक्श सही और मौमलक आधमु नकता की ओर ले जाते हैं, मक उधर जाने की भमू मका तैयार करते हैं। यह बोलना या पछ ू ना कई तरीके से के दार की कमवताओ ं में आता है। कलाकार से कमवता में कमव ने वही स्वाल उठाया है – यह कलाकार की अपनी आजादी है – कहने की, रचने की और एक नई दमु नया के मलए आवाज उठाने की। इस कमवता में के दार कहने-मलखने की महत्ता को प्रमतपामदत करते हैं – वह जो कलाकार के मन में गजंू ता हुआ एक नाम है, वह उसकी चेतना है मजसे मलख देने से पत्थर नाव में तब्दील हो सकता है। यह कोई जादू नहीं है – यह एक यथाथा है जो के दार अपनी

कमवता में जादू की तरह रचते है। कमवता का अश ं देमखए अब उसे मफर से उठाओ अबकी ले जाओ मकसी नदी या समद्रु के मकनारे छोड़ दो पानी में उस पर मलख दो वह नाम जो तम्ु हारे अदं र गजंू रहा है वह नाव बन जाएगी 13 के दार की कमवता की एक अन्यतम मवशेर्षता यह है मक वे मनराश होकर भी अपनी कमवता में कभी नाकरात्मक नहीं होते। उनकी कमवता आधमु नकता के नाकारात्मक तत्वों से गरु े ज करती है – शायद इसका कारि यह है मक उनकी आधमु नकता की जडें उनके लोक की ममट्टी में है, जो मक्रयाशीलता, रचनात्मकता और साकारात्क कदम में मवश्वास करता है। के दार की कमवताएँ इसमलए ही आद्यन्त उम्मीद की रोशनी की कमवताएँ हैं। उनकी उदासी और उनके अके लेपन में भी उन्मीद की गजँू साफ-साफ सनु ाई पड़ती हैइन्ही शब्दों में कहीं चलते होंगे लोग कहीं मगरती होगी वफा कहीं गदान तक धसं ा हुआ वफा में खडा होगा ईश्वर .. कहीं एक बढ़ू े मल्लाह की मचलम से उठता होगा धआ ु ं इन्ही शब्दों में इन्हीं शब्दों में कहीं होगा एक शहर जहाँ वे रहते हैं कहीं होगा एक घर जहाँ मैं नहीं रहता।14

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इसी तरह ‘बनु ने का समय’ कमवता में के दार मलखते हैं – उठो झाड़न में मोजों में टाट में दररयों में दबे हुए धागों उठो उठो मक कहीं गलत हो गया है उठो मक इस दमु नया का सारा कपड़ा मफर से बनु ना होगा15 दहु राने की जरूरत नहीं मक के दार की आधमु नकता के मायने दमु नया को बेहतर बनाने के मलए तत्परता और समक्रयता में खोजना होगा। यही कारि है मक के दार की कमवता की आधमु नकता पमिन की जड़ आधमु नकता से अलग अपनी जमीन की जड़ों में है। बकौल के दारनाथ मसहं – “..मैंने और मेरे बहुत-से समकालीन रचनाकारों ने अपने अध्ययन और अनभु व से मजस आधमु नकताबोध को अमजात मकया है, उसमें अपनी जड़ों से आई हुई स्मृमतयां और अमभप्राय भी चपु चाप शाममल हो गए हैं। इससे अमजात बोध को एक प्रामामिकता ममलती है, जहाँ रचना अपना पावं मटकाकर खड़ी होती है।”16

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[3] के दार की सवं दे ना की एक खामसयत यह है मक उस वगा के साथ है जो समदयों से वमं चत हैं, संघर्षारत हैं, कमारत हैं और अपनी असीम ऊजा​ा की बदौलत पृथ्वी के भार को अपने कंधे पर थामे हुए हैं। इस तरह का बोध छायावादी कमवता में हमें मनराला को छोड़कर बहुत कम ममलता है। बाद के कमवयों में मजस तरह की मनर्षेधवादी प्रवृमत पैदा हुई, और जामहर है मक वह प्रवृमत पमिमी आधमु नकता के अधं ानक ु रि का प्रमतफल थी, उसने कमवता का भला तो नहीं ही

मकया, उनके सामामजक सरोकार पर भी एक बड़ा और अथापिू ा प्रश्नमचन्ह लटका हुआ है। यह साठ के दशक में शरू ु हुआ मनर्षेधवाद है, मजसके अनवु ती कई काव्यान्दोलन भी हैं जो समय के साथ उभर कर लप्तु हो जाने वाले थे। के दार इस तरह की ‘मनगेमटमवटी’ से खदु को बचा ले जाते हैं। धमु मल का ‘लाउडनेस’ भी उनके अदं र नहीं है और रघवु ीर सहाय की तरह का दहु रावपन भी नहीं, ममु क्तबोध का रास्ता भी उनसे साफ-साफ अलग मदखाई पड़ता है। के दार अपने समकालीन कमवयों में एक नई भार्षा की ऊजा​ा और एक अमद्वतीय सरोकार लेकर आते हैं। इसका तात्पया यह कतई नहीं लगाया जाय मक उनके समकालीन कमवयों के सरोकार जनमानस से अलग मकसी मभन्न वस्तु पर मटका हुआ है – लेमकन के दार उस सरोकार को खदु के सरोकार में ढालकर मफर उसे कमवता में प्रस्ततु करते हैं। इसमलए के दार अपनी बात कहते हुए भी अपने आस-पास के लोगों की बात कहते हुए लगते हैं। कुछ इस तरह मक जैसे वे खदु वही हो जाते हैं अपनी कमवता में, मजनके सरोकारों पर वह कमवता मलख रहे होते हैं। मबल्कुल प्रमसद्ध जमान कमव गाटफ्रीड बेन की इन पमं क्तयों की तरह मक ‘ यमद तमु अपने आप को वस्तओ ु ं से स्वतं त्रं कर लोगे तो तम्ु हें एक रंगहीन मनयमत का सामना करना पड़ेगा।’17 जामहर है मक के दार शरू ु से अतं तक इन पमं क्तयों को ध्यान में रखते हैं। वे हर क्षि महससू करते हैं मक वे वस्तओ ु ं के एक मवशाल जगं ल में साँस ले रहे हैं। मक यह वस्तुओ ं का जगं ल गाँव, खेत-बधार, कस्बा, शहर से लेकर मवदेश की धरती तक फै ला हुआ है, जो के दार की कमवता के मलए जरूरी सामग्री है, और उनकी संवदे ना इन तामाम वस्तुओ ं के प्रमत है। यह एक बड़ी मवशेर्षता है के दार जी के आधमु नकताबोध की जो उनके समकालीन कमवयों से उन्हें अलग करती है, उन्हें मवमशि बनाती है। ‘माँझी का पल ु ’ और उसमें आए

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लालमोहर और झपसी, घरु हुआ, झम्ु मन ममयां, नरू ममयां, इिामहम ममयां ऊंटवाले, कै लासपमत मनर्षाद, समझु हज्जाम, जगदीश से लेकर कबीर, मनराला, मत्रलोचन, मभखारी ठाकुर जैसे लोग हैं वहीं सबु हसबु ह टहलने के मलए मनकले बढ़ू े हैं, टमाटर बेचती बमु ढ़या है, टूटा हुआ रक है, सायमकल है, पत्रकार, लेखक, कमव, पत्राकार यहाँ तक की रामचमद्र शक्ु ल की मछू ें भी हैं। चमकया, आक ं ु सपरु , मदल्ली, पडरौना, बनारस, मत्रमननाद, माररशस आमद तो हैं। के दार का यह संसार इतना व्यापक और समृद्ध है मक इसे ‘एक जगं ल’ कहना उप्रयक्त ु ही लगता है और उस जगं ल में मसयार, गाय, खरहा समहत भेड़ और ‘बाघ’ भी हैं। और वह ‘बाघ’ तो इतना मायावी और अथावान है मक एक परू े समय का मवमशा उसके होने में शाममल है। आशय यह है मक के दार की कमवता की सवं दे ना और सरोकार उन तमाम चीजों के साथ है, जो एक आम आदमी के मलए ध्यान का मवर्षय नहीं है – यहाँ तक मक वह आम आदमी भी। उनकी आधमु नकता की मचतं ा में वे तमाम चीजें चपु चाप शाममल हैं। कई बार प्रत्यक्ष मदखती हुई ंऔर कई बार कमवता की ओट में बाघ की तरह छुपी हुई। माझी का पल ु में लालमोहर मकस तरह आता है, यह देखना मदलचस्प अनभु व है – लालमोहर हल चलाता है और ऐन उसी वक्त उसे खैनी की जरूरत महससू होती है बैलों के सींगों के बीच से मदख जाता है माँझी का पल ु 18 यहाँ कमारत लालमोहर नाम का एक मकसान है मजसके मलए माझी का पल ु मकसी राहत की छाया की तरह आता है। के दार अपनी तरफ से कुछ नहीं कहते, मसफा एक मचत्र आक ं देते हैं - लेमकन पाठकों के सामने एक बड़ा संसार और उसके प्रश्न आकर खड़े

हो जाते हैं उन्हें बेचैन करते हैं। यह है के दार की संवदे ना की अमद्वतीयता। आधमु नकबोध ने कमवता के ररश्ते को प्रकृ मत और मनष्ट्ु य के साथ उन वस्तुओ ं के साथ भी जोड़ा जो काव्य के स्थामपत दायरे से अब तक बाहर थे। पहली बार यह काम मकया मनराला ने। लेमकन मनराला भी मभक्षक ु से आगे नहीं आ सके , मनराला के बाद अज्ञेय ने कई अपररमचत दायरों में प्रवेश मकया लेमकन के दार के यहाँ सड़क पर मरा हुआ कीड़ा पहली बार मदखायी पड़ता है। इस तरह की उपेमक्षत चीजों का कमवता में आना एक अपवू ा घटना की तरह थी – यह बोध के दार को अपने पवू वा ती के साथ अपने समकालीन कमवयों से भी अलग करता है, उन्हें और अमधक चेतस और आधमु नक बनाता है। कीड़े की मृत्यु पर के दार की कमवता देखें – मरा पड़ा है कीड़ा उसको देख पड़ा यों गमु समु क्यों होती है पीड़ा क्यों मैं मठठक गया हूँ क्यों मैं खोज रहा हूँ उसमें तड़पन कोई हरकत क्यों मझु े लगता है उसका होना बहुत जरूरी था क्या हो जाता उस होने से ? क्या लेबनान में जो कुछ घमटत हुआ है वह रूक जाता ?19 इसी तरह, झरबेर, कुदाल, धल ू , नक्शा, छाता टूटा हुआ रक, बाघ, पांडुमलमपयां, लख ु री, दांत, मक्रके ट, खरहे, शीर्षा​ासन आमद पर के दार ने कमवताएँ मलखी हैं और उनमें नए अथा भरे हैं, उनकी माफा त नई संवदे ना को अमबव्यक्त मकया है- टटके और अछूते मबंब रचने का सफल और अमद्वतीय साहस मकया है। ये सारी चीजें के दार की कमवता में साँस लेने

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लगते हैं, बोलने चालने लगते हैं और के दार की कमवता का एक नया महु ावरा रचते हैं। के दार की यह अपनी आधमु नकता है, जो आमजात आधमु नकता से मभन्न उनकी अपनी अनभु वजन्य आधमु नकता है मजसका उल्लेख वे यह कहकर करते हैं मक उनके मलए आधमु नकता सबसे पहले उनका अपना अनुभव है। कहना चामहए मक उनके अनभु व का मवस्तार बहुत व्यापक है।

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[4] आधमु नकता एक सतत मवकासमान और सातत्य प्रमक्रया है। समय, काल और पररवेश के साथ इसके स्वरूप और अवधारिा में पररवतान होता रहता है। उपर कहा गया है मक हर लेखक की भी आधमु नकता की अपनी अलग अवधारिा होती है, जो उसकी जमीन और पररवेश से संचामलत और मनयमं त्रत होती है। आधमु नकता का एक अथा नयापन और उन वमजात क्षेत्रों में प्रवेश भी है जहाँ तक पहुचँ ने की समदयों से घोमर्षत मनाही रही है। यह एक तरह का नतू न ‘एडवेंचर’ है, जो नए की तालाश के मलए मकया जाता है। कला के क्षेत्र में इसका अथा मवचारों के साथ ही रूप में भी नतू न मवकास और स्थापना के रूप में समझा जाना चामहए। के दार की कमवताओ ं में शरू ु दौर से ही यह नयापन और बदलाव देखने को ममलता है। पहली बार के दार की कई कमवताएँ एक साथ उनकी मटप्पिी के साथ तार सप्तक में प्रकामशत हुई।ं तारसप्तक में कमवताओ ं का प्रकामशत होना के दार जैसे यवु ा कमव के मलए एक उपलमब्ध की तरह थी। बहरहाल के दार ने कमवताओ ं के साथ जो वक्तव्य मदए हैं उसे पढ़ना और समझना उनके बोध को समझने में मददगार हो सकता है। के दार तारसप्तक के अपने वक्तव्य में मलखते हैं – “कमवता में मैं सबसे अमदक ध्यान देता हूँ मबम्ब-

मवधान पर। मबम्ब मवधान का सबं ंध मजतना काव्य की मवर्षय वस्तु से होता है, उतना ही उसके रूप से। ...मानवीय संस्कृ मत का इमतहास चेतना के मवकास का इमतहास है। इस मवकास के साथ-साथ काव्यात्मक मबंबों के स्वरूप तथा पद्धमत में भी अतं र आता गया है।... मानव संस्कृ मत के मवकास में कमव का योग दो प्रकार से होता है – नवीन पररमस्थमतयों के तल में अतं ःसमलला की तरह बहती हुई अनुभतू लय से अमवश्कार के रूप में, तथा अछूते मबंबों की कलात्मक योजना के रूप में।”20 वे आगे उसी वक्तव्य में उल्लेख करते हैं – “ मबना मचत्रों, रूपकों और मबम्बों की सहायता के मानव-अमभव्यमक्त का अमस्तत्व प्रायः असंभव है...मबंब मनमा​ाि की यह प्रमक्रया परू े मानव-जीवन में फै ली हुई है।”21 उसी वक्तव्य में वे एक बहुत महत्वपिू ा और रूमचकर बात भी कहते हैं मजसपर अलग से ध्यान देने की जरूरत है। मलखते हैं – “नयी कमवता की मवमशिता की परीक्षा न तो चररत-मचत्रि की पवू -ा प्रचमलत पद्धमत पर हो सकती है, न प्राचीन रसवाद के मनयमों के आधार पर; यद्दमप में यह मानता हूँ मक रस की सत्ता से इनकार करना काव्य की सत्ता से ही इनकार करने के समान है। पर आधमु नक कमवता में रस की धारिा बदल गई है। .. एक आधमु नक कमव की श्रेष्ठता की परीक्षा उसके द्वारा आमवष्ट्कृत मबबं ों के आदार पर ही की जा सकती है। उसकी मवमशिता और उसकी आधमु नकता सबसे अमधक उसके मबंबों में ही व्यक्त होती है।” 22 के दार के उपरोक्त वक्तव्य अश ं ों से जो मनष्ट्कर्षा मनकलते हैं उनमें पहला यह है मक उनका सबसे अमधक ध्यान मबंबों पर है। दसू रे वे रस की सत्ता को स्वीकार करते हुए भी प्राचीन रस मसद्धांत के आधार पर आधमु नक कमवता के मल्ू यांकन को खाररज करते हैं और तीसरे मक मकसी कमव की आधमु नकता सबसे अमधक उसके द्वारा प्रयक्त ु मबंबों में प्रकट होती है। के दार के उपरोक्त

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यह मेरा नगर है ..।24

वक्तव्यों के आधार पर जब हम उनकी कमवताओ ं को आधमु नकता और आधमु नकता बोध की कसौटी पर कसते हैं तो हम यह पाते हैं मक कमव ने अपनी कमवता में उक्त वक्तव्यों का आद्यन्त मनवा​ाह मकया है। के दार की एक बड़ी मवशेर्षता उनकी नवीन भार्षा और उनके द्वारा व्यक्त सवाथा नतू न और अछूते मबंब भी हैं। के दार जी द्वारा प्रयक्त ु आधमु नक और अछूते मबंबों के कुछ उदाहरि यहाँ देखे जा सकते हैं – [4.1] इस अनागत को करें क्या? जो मक अक्सर मबना सोचे, मबना जाने सड़क पर अचानक चलते दीख जाता है हर नवागतं क ु उसी की तरह वह दरपनों में कौंध जाता है हाथ उसके हाथ में आकर मपघल जाते स्पशा उसका धममनयों को रौंद जाता है पक ं फसकी सनु हली परछाइयों में खो गए हैं पावं उसके कुहासे में छटपटाते हैं।23

[ 4.3 ] खोल दँू यह आज का मदन मजसे मेरी देहरी के पास कोई रख गया है एक हल्दी-रंगे ताजे , दरू दशी पत्र-सा थरथराती रोशनी में हर संदसे की तरह यह भटका संदश े ा भी अनपढ़ा ही न रह जाय सोचता हूँ खोल दँू इस सपं मु टत मदन के सनु हरे पत्र को जो द्वार पर गमु समु पड़ा है खोल दँू ..हाथ मजसने द्वार खोला मक्षमतज खोले मदशाएँ खोली न जाने क्यों इस महकते मक ू , हल्दी रंगे, ताजे मकरि-ममु द्रत सदं श े े को खोलने में काँपता है।25 xx xx आप पाएँगे वहाँ शब्दों ने पीसकर समय को बराबर कर मदया है और अब वहाँ सारा समय एक जगह इस

[ 4.2 ] एक लकीर पृथ्वी के सारे आक्षाश ं ों से होती हुई जहाँ सौर सौर-मडं ल के पास खो जाती है वहाँ मैं खड़ा हूँ मछुए का एक जाल नदी से मनकालकर धरा हुआ मेरे मचर आमदम कन्धों परVol.3, issue 27-29, July-September 2017.

तरह है मक आपको लगेगा जैसे िह्मसूत्र पढ़ रहा है ममु क्तबोध को और शाकंु तल का महरन कुछ कह रहा है पद्मावत को तोते से और बीजक का कोई पद वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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मकसी पोथी से मछटककर मनु से बहस कर रहा है और रासो की कोई सबसे परु ानी प्रमत धीरे -धीरे गनु गनु ा रही है मकसी यवु ा कमव की अप्रकामशत कोई कमवता 26 उपरोक्त अमद्वतीय मबंबों के अलावा के दार एक नई मशल्प, काव्य का एक नया महु ावरा और एक मबल्कुल नई भार्षा लेकर महन्दी काव्य जगत में उपमस्थत होते हैं। कहा गया है मक आधमु नकता मवचारों में बदलाव के साथ कला माध्यमों के मशल्प और उसकी अमभव्यमक्त के तरीके में भी बदलाव करती है। के दार जब गीत मलखते हैं, तब भी उनकी भार्षा की ताजगी में उस नयेपन को महससू मकया जा सकता है। के दार की भार्षा की एक ताकत उनकी सहजता और लोक शब्दावमलयों का कमवता में स्वाभामवक और समटक प्रयोग भी है। के दार कई बार अपनी भार्षा की अमद्वतीयता से चमत्कृ त करते हैं, एक जादू का-सा भाव-जगत रचने में सफल होते हैझरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की उड़ने लगी बझु े खेतों से झरु -झरु सरसों की रंगीनी धसू र धपू हुई मन पर ज्यों – समु धयों की चादर अनबीनी..।27 ‘माँझी का पल ु ’ भार्षा और संवदे ना के संगफ ु न का अद्भुद काव्य है। इस कमवता की एक पंमक्त देखें – मछमलयां अपनी भार्षा में क्या कहती हैं पल ु को ? संसू और घमड़याल क्या सोचते हैं ? कछुओ ं को कै सा लगता है पल ु जब वे दोपहर बाद की रे ती पर Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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अपनी पीठ फै लाकर उसकी मेहराबें सेंकते हैं ?28 के दार की उक्त कमवताओ ं से हमें उनके भामर्षक सजगता और और उसके प्रयोग की नवीनता का अहसास हो जाता है। ऐसी अनेक कमवताएँ हैं जो उदाहरि स्वरूप यहाँ रखी जा सकती हैं। बकौल के दारनाथ मसंह – “कमवता का सबसे सीधा संबंध भार्षा से हैं। भार्षा प्रेर्षिीयता का सवासल ु भ माध्यम है। अतः ‘शद्ध ु कमवता’ जैसी मकसी चीज की कल्पना मबलकुल बेमानी है।”29 जामहर है के दार के मलए भार्षा का महत्व कमवता से भी अमधक है – यह भामर्षक सजगता उन्हें आधमु नकता के एक स्वकीय संसार में ले जाती है, जहाँ के दार सबके के मलए सवा सल ु भ लगने लगते हैं। उनकी लोक मप्रयता का एक कारि यह भी है। इस पर ध्यान मदया जाना चामहए। [5] आधमु नकताबोध को जातीय चररत्र ममलता है लोक जीवन से जो आज भी मख्ु यतः गाँव का जीवन है। यह अचं लवाद नहीं है, बमल्क आधमु नकता को ममट्टी के सोंधे भरु भरु े पन से जोड़ने का आग्रह है। माझी का पल ु के कमव के दारनाथ मसहं में नागाजनाु की तरह देसीपन ममलता है। उन्होंने नई सभ्यता द्वारा मानवीय मल्ू य और संवदे ना पर उपमस्थत सक ं ट को ‘अकाल और सारस’ के अकाल के रूपक में बाधं ा है। इस संकट के माहौल में भी आशा के कुछ बचे मजह्न हैं। कोई कह सकता है मक तच्ु छता, मवखडं ता, और ढोंग के इस सवाग्रासी माहौल में आशावाद बैठेठाले की कल्पना है, यह कमवता के स्वराज में एक सामामजक घसु पैठ है। वस्ततु ः जीवन का असल तत्त्व यह आशा ही है। कमवता भी तभी तक है, जब तक आशा है। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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यहाँ यह समझने की जरूरत है की के दार की कमवताएँ आद्यन्त अपने कलेवर और कथ्य में उम्मीद की रोशनी छुपाए हुए हैं। आधमु नकता की तमाम अच्छाइयों के बावजदू हमें यह तो स्वीकार करना ही होगा मक उसने मनष्ट्ु य को अके ला बनाकर एक अजनबीयत के संसार में भेजा। आधमु नकता से उपजा आधमु नकीकरि कई तरह की मबडंबनाओ ं को भी साथ लेकर आया। मकन्तु यह गौर करने लायक बात है मक के दार की कमवताएँ आधुमनकताबोध से संमश्लि होते हुए भी मनराशा, हताशा और अजनबीयत का वह अमतरे क अपमस्थत नहीं करती, जो प्रायः आधमु नक कमवयों में पाई जाती है। इसके कारिों की पड़ताल करते हुए हमें के दार की कमवताओ ं में लोक की वह चेतना ममलती है, जो समदु ायबोध, संस्कृ मत और आशावाद में यकीन करती है। के दार स्वयं स्वीकार करते हैं मक वे शहरी जीवन की मबडंबनाओ ं से जब भी उबते हैं, अपने गाँव की ओर लौटकर जाते हैं। असल में यह लौटना आशावाद और लोक सस्ं कृ मत के समदु ाय में लौटना है, जो के दार की कमवता की ताकत है, ऊजा​ा है। के दार के मलए लोक ‘बैठेठाले की कल्पना’ न होकर एक जातीय चेतना है, मजसकी भमू मका इस कमठन समय में स्वयमं सद्ध है। लोक उनकी कमवता को अनश ु ामसत तो करता ही है, एक नई भार्षा और अमभव्यमक्त का अलहदा तकनीक भी प्रदान करता है। के दार जोड़ने वाले कमव हैं। मनष्ट्ु य-मनष्ट्ु य के भीतर रागात्मक संवदे ना के तार झक ं ृ त कर भावात्मक एकता के मलए प्रयत्नशील। के दार मक कमवता घृिा के आवेग में भी कभी असंयममत नहीं होती – आधमु नकता में एक असंयम है, लोक में संयम। एक कमवता उदाहरि स्वरूप देखी जा सकती है – अधं ेरा बज रहा है अपनी कमवता की मकताब रख दो Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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एक तरफ और सनु ो सनु ो अधं ेरे में चल रहे हैं लाखओ ं करोड़ों पैर।30 उसी तरह ‘अकाल में सारस’ संग्रह की अनेक कमवताओ ं में लोक की वह चेतना देखी जा सकती है, जो के दार की आधमु नकताबोध को एक जातीय चररत्र प्रदान करती है, जामहर है मक वहाँ लोक और आधमु नकता का द्वन्द्व भी है। लेमकन आधमु नकताबोध और लोक की अतं मक्राया के फलस्वरूप एक ऐसी चेतना प्रकट होती है, मजसका लक्ष्य मनष्ट्ु य है। अकाल और सारस कमवता में कमव मलखता है – तीन बजे मदन में आ गए वे जब वे आए मकसी ने सोचा तक नहीं था मक ऐसे भी आ सकते हैं सारस .... सारे आसमान में धीरे -धीरे उनके क्रेंकार से भर गया सारा का सारा शहर वे देर तक करते रहे शहर की पररक्रमा देर तक छतों और बारजों पर उनके डैनों से झरती रही धान की सख ू ी पमत्तयों की गन्ध अचानक एक बमु ढ़या ने उन्हें देखा ज़रूर-ज़रूर वे पानी की तलाश में आए हैं वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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उसने सोचा वह रसोई में गई और आँगन के बीचोबीच लाकर रख मदया एक जल-भरा कटोरा लेमकन सारस उसी तरह करते रहे शहर की पररक्रमा न तो उन्होंने बमु ढ़या को देखा न जल भर कटोरे को सारसों को तो पता तक नहीं था मक नीचे रहते हैं लोग जो उन्हें कहते हैं सारस पानी को खोजते दरू -देसावर से आए थे वे सो उन्होंने गदान उठाई एकबार पीछे की ओर देखा न जाने क्या था उस मनगाह में दया मक घृिा पर एक बार जाते-जाते उन्होंने शहर की ओर मड़ु कर देखा ज़रूर मफर हवा में अपने डैने पीटते हुए दरू रयों में धीरे -धीरे खो गए सारस 31 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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इस कमवता में कमव ने सारस शहर और बमु ढ़या के माध्यम से लोक और आधमु नकता का एक महत्वपूिा रूपक रचा है। दरू देसावर से आए सारस शहर में जल की खोज के मलए आए हैं, दरू देसावर में जल नहीं है, यह एक मबंडबना है, शहर जो उनकी तरफ नहीं देखता, वह आधमु नकता का अमतरे क है, और वह बमु ढ़या वह लोक है, जो शहर की ओर मवस्थामपत होता जा रहा है, मजसने अपने अदं र मल्ू य चेतना को बचाए रक्खा है। इस तरह हम देखते हैं मक के दार के यहाँ आधमु नकता के कई चेहरे हैं, जो कमव की कमवता में मशद्दत के साथ प्रस्ततु हैं। के दार के यहाँ आधमु नकताबोध एक मल्ू य और लोक के साथ समं श्लि होकर एक जातीय चेतना की तरह आया है। कुमार कृ ष्ट्ि के शब्दों में - “के दारनाथ मसहं की कमवताएँ आधमु नकतावाद और उग्र क्रामं तकारी भटकाव के खतरे से अपने को बचाते हुए बेहतर दमु नया बनाने की मचतं ा मलए हुए आगे बढ़ती है। मनमित रूप से के दार जी को आत्मसंघर्षा करना पड़ा होगा एवं नयी कमवता से लड़ने, उबरने की चेिा भी उनके भीतर मौजदू रही होगी। हर महान कमव महान सभं ावनाओ ं के साथ नये मसरे से लड़ाई लेने का जोमखम लेता है और के दार की कमवताएँ उसी जोमखम की कमवताएँ हैं जो आलोचकों को भी जोमखम उठाने के मलए मजबरू करती हैं।”32 इस तरह हम देखते हैं मक के दार की आधमु नकता का मवकास भी पमिम के मानकों पर हुआ है लेमकन उनकी आधमु नकता की अमद्वतीयता यह है मक वह पिू ता ः यरू ोपीय न होते हुए भारतीय आधमु नकता है मजसकी जड़े भारत की जमीन में मौजदू हैं। उनकी कमवताओ ं में व्यक्त आधमु नकता इसका साक्ष्य प्रस्ततु करती है। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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िदं भक ग्रन्द्थः1. मसहं के दारनाथ, मेरे समय के शब्द, राधाकृ ष्ट्ि प्रकाशन, 1993, पृ.- 14 2. वही, पृ.- 16 3. दबु े डॉ. श्यामसदंु र, लोकः परम्परा, पहचान एवं प्रवाह, राधाकृ ष्ट्ि प्रकाशन, प्रथम सस्ं करि- 2003, पृ. 53 4. मसंह के दारनाथ, प्रमतमनमध कमवताएँ, राजकमल प्रकाशन, पररवमद्धात संस्करि, 1985 पृ- 99 5. वही – पृ - 99 6. वही – पृ- 99 7. मसंह के दारनाथ, यहाँ से देखो, राधाकृ ष्ट्ि प्रकाशन,मदल्ली, 1999, पृ.- 46 8. प्रसाद गोमवन्द, के दारनाथ मसंह, पचास कमवताएँ, नयी सदी के मलए चयन, वािी प्रकाशन, मदल्ली, 2012, पृ.-30 9. मसंह के दारनाथ, जमीन पक रही है, प्रकाशन सस्ं थान, पचं म सस्ं करि, 2012, पृ. 24 10. मसंह के दारनाथ, अकाल में सारस, राजकमल प्रकाशन, दसू रा सस्ं करि-1990, पनु ममाु द्रत-1996, पृ.- 26 11. मसहं के दारनाथ, यहाँ से देखो, राधाकृ ष्ट्ि प्रकाशन,मदल्ली, 1999, ( पानी एक रोशनी है), पृ.-45-46) 12. वही, – (कुछ सवाल अपने आप से), पृ.- 26 13. वही, (कलाकार से), पृ.- 43 14. वही, (इन्हीं शब्दों में), पृ.- 48 15. वही, (कलाकार से), पृ.- 50-51 16. मसहं के दारनाथ, मेरे समय के शब्द, राधाकृ ष्ट्ि प्रकाशन, 1993, पृ.17 17. वही, पृ.- 28

18. मसंह के दारनाथ, जमीन पक रही है, प्रकाशन सस्ं थान, मदल्ली, पच ं म सस्ं करि2012, पृ.-95 19. मसंह के दारनाथ, यहाँ से देखो, राधाकृ ष्ट्ि प्रकाशन,मदल्ली, 1999, पृ.- 35 20. अज्ञेय, संपादक एवं संकलनकता​ा, तीसरा सप्तक, भारतीय ज्ञानपीठ,10वां संस्करि, 2005 (के दार का वक्तव्य) पृ. 122 21. वही, पृ.- 123 22. वही, पृ.- 123 23. वही, पृ.- 126 24. मसंह के दारनाथ, अभी मबलकुल अभी, राजकमल प्रकाशन, पृ.- 64 25. मसहं के दारनाथ, अभी मबलकुल अभी, राजकमल प्रकाशन, खोल दँू यह आज का मदन नामक कमवता। पृ- 31 26. मसंह के दारनाथ, ताल्सताय और सायमकल, राजकमल प्रकाशन, संस्करि2005, पहली आवृमत-2010, पृ.- 18 27. अज्ञेय, संपादक एवं संकलनकता​ा, तीसरा सप्तक, भारतीय ज्ञानपीठ, 10वां सस्ं करि, 2005, (दपु हररया), पृ. -130 28. जमीन पक रही है, के दारनाथ मसंह, माँझी का पल ु , पृ. 97 29. अज्ञेय, संपादक एवं संकलनकता​ा, तीसरा सप्तक, भारतीय ज्ञानपीठ, 10 वां सस्ं करि, 2005, ( के दारनाथ मसहं का वताव्य), पृ.- 124 30. मसंह के दारनाथ, जमीन पक रही है, प्रकाशन संस्थान, मदल्ली, पंचम संस्करि2012, पृ.- 46 31. मसहं के दारनाथ, अकाल में सारस, राजकमल प्रकाशन, दसू रा संस्करि-1990, पनु ममाु द्रत-1996, पृ.- 22

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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32. यायावर भारत, खश ु गाल राजा (स.ं ), कमव के दारनाथ मसंह, वािी प्रकाशन, मदल्ली, संस्करि-2004, पृ.- 144

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उत्रमध्यकालीन प्रमुख सनगकण ु िन्द्त िम्प्रदाय: िामान्द्य पररचय डॉ॰अनरु ाधा िमाक सहायक प्रवक्ता, स्नातकोत्तर महन्दी मवभाग डी॰ए॰वी॰ महामवद्यालय अमृतसर। महन्दी सोमहत्येमतहास का मध्यकाल अत्यंत बृहद् ,एवं सावािंमगक रूप से अमत महत्वपूिा काल है। इसकी सीमा-मनधा​ारि सम्वत् 1375 से सम्वत् 1900 तक मकया गया है। इस मवस्तृत काल के अध्ययन की समु वधा हेतु सामहत्येमतहासकारों ने इसे दो भागों में मवभक्त मकया है। पवू ा मध्यकाल (सम्वत् 1375 से 1700 तक) मजसे ‘भमक्तकाल‘ नाम से अमभमहत मकया गया है तथा उत्तर मध्यकाल (सं० 1700 से 1900) मजसे ‘रीमतकाल‘ काल नाम मदया है। इन नामकरि को काल मवशेर्ष की सवाप्रमख ु प्रवृमत्त के आधार पर चनु ा गया है। इन दोनों कालों में मात्र ‘भमक्त‘ ,वं ‘रीमत‘ ही सवात्र व्याप्त नहीं थी अमपतु इन दोनों कालों में रामकाव्य,कृ ष्ट्िकाव्य, नीमतकाव्य, रीमतकाव्य, वीरकाव्य ,एवं संतकाव्य की धाराएँ प्रवामहत होती रही हैं। उत्तरमध्यकाल में यद्यमप रस छन्द, अलक ं ार, नायक-नामयका भेद, गिु -दोर्ष, शब्दशमक्तयों आमद का ही मनरूपि प्रमख ु रूप से मकया गया है तद्यमप यह यगु सतं मत के मवस्तार का ‘स्विा यगु ‘ कहा जा सकता है, यमद सक्ष्ू मतर दृमि से इस काल का अध्ययन मकया जाए, तो इस काल में सतं मत के मवस्तार के साथ साम्प्रदामयक मनोवृमत्त का प्राधान्य भी दृमिगोचर होता है । मजस काल में 40 से ऊपर सतं सम्प्रदाय दृमिगत होते हों उसे के वल रीमतकाल कहना समीचीन नहीं इसमलए, मैं इस काल को उत्तरमध्यकाल कहना ही उमचत समझती हू।ँ Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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भमक्त सदैव सगिु एवं मनगािु दोनों को साथ लेकर चली है, सन्तों ने प्रायः मनगिाु भमक्त-पथ का ही अनगु मन मकया है,मनगिाु से अमभप्राय है जो गिु ों से मवहीन है यह गिु हैं-सत्व, रज् तम। मनगिाु भमक्त से परिह्म का मनराकार रूप ही भमक्त का आलम्बन बनता है। जबमक सगिु भमक्त में मनराकार परिह्म को भक्त सगिु रूप देकर उसकी अचाना करते हैं उसका िह्म गिु ों से यक्त ु हो कर अवतार धारि करता है,उनका यही अवतारी परु​ु र्ष सगिु भमक्त का आधार बनता है। मनगािु मवचारधारा के अनसु ार प्रत्येक प्रािी बमु द्ध तत्त्व, मनस तत्त्व ,एवं आत्म तत्त्व स यक्त ु होता है परन्तु यह सब तत्त्व मल ू तः मनराकार ही हैं मफर भी देहधारी कहकर मानव को साकार ही कहा जाता है, अतः मनगिाु सतं ों का िह्म साकार भी है और मनराकार भी। महन्दी सामहत्य में इस मनगािु काव्यधारा का उद्भव आकमस्मक नहीं हुआ अमपतु इसकी ,एक सदु ीधा परम्परा रही है। उत्तर मध्यकाल में सतं ों ने मनगिाु एवं सगिु दोनों रूपों में िह्म को अमभव्यमं जत मकया है, ज्ञान-योग-भमक्त की मत्रवेिी को इन मनगिाु सन्तों ने अपने-अपने दृमिकोि से संवमधात कर सप्तु जनमानस को जागृत मकया है। इस काल में काव्य रूप की दृमि से ‘रीमतबद्ध, ‘रीमतमसद्ध एवं रीमतमक्त ु तीनों वगों का प्रयोग देखा जा सकता है। परन्तु सन्तों ने काव्य का प्रियन सामहत्य में अपनी प्रमतष्ठापना हेतु नहीं मकया था। सन्तों ने न तो काव्य सम्बधं ी तत्त्वों का अध्ययन कर उन्हें रचा अमपतु काव्य अत्यंत सहज रूप से प्रिीत मकया, संतों ने न अलंकारों का, न छंद का, न ही काव्य रूप का ध्यान रखा। अतः संतों के काव्य में बन्धन मवहीन रीमतमक्त ु रूप ही दृमिगोचर होता है। संतों ने अपनी वािी को मकसी कलाकृ मत के रूप में सजाने का प्रयास नहीं मकया क्योंमक संत मकसी भी प्रकार के बाह्याडम्बरों में मवश्वास नहीं रखते थे। संत काव्य में सौन्दया का अभाव होते हुए भी उसके सहज वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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रूप में ए,क ऐमन्द्रजामलक मोहपाश है मजसमें बंधकर जन मानस का अमवकल हृदय, संतमृ प्त एवं तोश का अनभु व करता रहा है। मवमभन्न संत पंथ एवं सम्प्रदायों का पररचय: पवू मा ध्यकाल की मनगािु शाखा के संत सम्प्रदायों का उत्तरोत्तर मध्यकाल में मवकास हुआ मजसके अतं गात लगभग 45 संत सम्प्रदाय एवं उपसम्प्रदाय मवकमसत हुए , मजनमें से प्रमख ु सम्प्रदायों का पररचय इस प्रकार है: नानक एवं मसक्ख सम्प्रदाय: समस्त सन्त सम्प्रदाय अथवा पन्थों में नानक द्वारा स्थामपत परवती नौ गरु​ु ओ ं द्वारा पिु नानक पंथ, जो मसख मत के रूप में प्रमसद्ध हुआ, ही ऐसा पंथ है जो संगमठत स्वरूप में मवकमसत हुआ, इस पंथ के अतं गात मसख धमा का अत्यामधक उत्कर्षा उजागर हुआ। इस पथं का मख्ु य के न्द्र पजं ाब रहा है, जो आक्रान्ताओ ं के कारि सदैव मवचमलत होता रहा है, कदामचत यही कारि है मक यहाँ इस पथं का इतना अमधक उत्कर्षा हुआ। इस पथं के प्रवताक, मसखों के आमदगरु​ु , गरु​ु नानकदेव थे। इनका आमवभा​ाव कबीर की मृत्यु के इक्कीस वर्षा पिात् सं० 1526 में लाहौर के समीप तलवडं ी नामक गाँव में हुआ। सं० 1595 में इनका देहावसान हुआ।1 बाल्यकाल से ही नानक अध्यामत्मक प्रवृमत्त वाले थे, इन्हें पजं ाबी सस्ं कृ त, महदं ी ,वं फारसी का अच्छा ज्ञान था। नानक जी ने बहुत से पदों का प्रियन मकया इनके द्वारा प्रिीत रचनाओ ं में ‘जपजु ी‘ अत्यन्त प्रमसद्ध है। इनकी वािी ‘श्री गरु​ु ग्रंथसामहब‘ में संग्रमहत हैं, गरु​ु नानकजी ने अपनी वािी के माध्यम से सप्तु प्रायः मानव जामत को जाग्रमत प्रदान करने का काया मकया। उन्हों ने मानव सेवा का सवोत्तम मसद्धान्त स्थामपत मकया, मानव धमा Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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के माध्यम से समाज में समता उनकी सबसे बड़ी देन है। गरु​ु नानक द्वारा प्रवता सम्प्रदाय को गरु​ु गोमबन्द मसंह ने स०ं 1756 में खालसा पंथ (सम्प्रदाय) का रूप दे मदया।2 गरु​ु नानक देव के पत्रु श्री चन्द ने उदासी नामक सम्प्रदाय को प्रवता मकया, इस सम्प्रदाय की चार प्रधान शाखाऐ ं हैं जो धआ ु ं कहलाती हैं फुलासामहब की शाखा, बाबा हसन की शाखा, अलमस्त सामहब की शाखा, गोमवदं सामहब की शाखा। इस पंथ में मनगािु एवं सगिु -सामंजस्य दृमिगोचर होता है।3 मसखों की शस्त्रधारी एवं मवद्याधारी प्रवृमत्त को ध्यान में रखते हुए गोमबन्द मसंह ने श्स्त्रधारी को ‘खालसा‘ तथा मवद्याधारी को ‘मनरमल भेर्ष‘ की संज्ञा दी। ‘मोरव‘ पंथगरु​ु गोमबन्द मसहं को मनमाला सम्प्रदाय का प्रवताक मानता है। खालसा पथं और मनमाल सम्प्रदाय में अन्तर इतना ही है मक खालसा के मसख गृहस्थ भेर्ष हैं और मनमाल मसखों के मलए मववाह का मनर्षेध है।4 एक अन्य मतानसु ार गरु​ु गोमबन्द मसहं की आज्ञा से वीरमसहं ने मनमाला सम्प्रदाय की स्थापना की।5 राम मसहं नामक मसख ने ‘नामधारी सम्प्रदाय‘ की स्थापना की थी। इस सम्प्रदाय के अनयु ायी ‘कूका‘ नाम से भी प्रमसद्ध हैं। इस सम्प्रदाय के प्रवताक राममसहं को रंगनू में मनवा​ामसत मकया जाना प्रमसद्ध है, क्योंमक उनके अनयु ामययों ने बहुत से कसाइयों की हत्या कर दी थी। ‘सचू ा‘ नामक िाह्मि अथवा सथु राशाह ने सथु राशाही सम्प्रदाय की स्थापना की, इन्हें गरु​ु हरगोमवन्द तथा गरु​ु अजनाु देव जी से सम्बमन्धत माना जाता है। इसी प्रकार भाई कन्हैया द्वारा सेवा पन्थी सम्प्रदाय प्रवता हुआ है। मसख मतांतगात अकाली सम्प्रदाय का भी नाम आता है। खालसा सम्प्रदाय की उत्पमत से पवू ा अथा​ात् सं० 1747 के लगभग मानमसंह के नायकत्व में अकाली सम्प्रदाय का आमवभा​ाव वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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हुआ, इस सम्प्रदाय ने अमृतसर में अकाल तख्त को सवा​ामधक प्रमतष्ठा प्रदान की है।6 इन मवमवध मसख सम्प्रदायों के अमतररक्त गल ु ाब दास द्वारा संचामलत गल ु ाबदासी7 भाई देयाल दास द्वारा प्रवृत्त मनरंकारी8 सम्प्रदाय ,एवं पृथीचन्द द्वारा ‘मीना पन्थी पंथ‘, ‘हन्दल‘ नामक जाट द्वारा ‘हन्दल-मत‘ गरु​ु हरराय के पत्रु रामराय द्वारा रामैया पंथ एवं भगतपन्थी सम्प्रदाय के नाम उल्लेखनीय हैं।9 दादू पन्थ: दादू पन्थ के प्रवताक दाददू याल का जन्म सं० 1601 तथा देहावसान ज्येष्ठ कृ ष्ट्ि 8, स०ं 1660 में हुआ।10 इनके पन्थ मनमा​ाि का उद्देश्य था मक प्रत्येक सामामजक व्यमक्त आध्यामत्मक भाव रखे तथा सामत्त्वक जीवन व्यतीत करे , सब में सेवा,समहष्ट्ितु ा, आत्मत्याग, परमाथा आमद लोक कल्यािकारी भाव जागृत हों,मजसके आधार पर व्यमक्त इहलौमकक एवं पारलौमकक भमवष्ट्य सधु ार सके । यह पथं ‘िह्म सम्प्रदाय‘ के नाम से भी जाना जाता था जो आगे चलकर ‘परिह्म‘ सम्प्रदाय भी कहलाया।11 परन्तु इस का प्रमसद्ध नाम ‘दादू पथं ‘ ही है, दाददू याल ने अपने जीवनकाल में कई यात्राएं की-सीकरी, आमेर, द्यौंसा, मारवाड़, बीकानेर, कल्यािपरु आमद। इन स्थानों पर इनके अनयु ामययों की मगनती बढ़ती रही, इसीमलए, इनके मशष्ट्यों की वास्तमवक सख्ं या मकतनी थी यह मनमित रूप में नहीं कहा जा सकता, परन्तु इनके 52 मशष्ट्य प्रमसद्ध हुए, हैं मजनमें भी रज्जब, छोटेसन्ु दरदास, गरीबदास, रै दास मनरंजनी प्रािदास, जगजीवनदास, बमजदं जी, बनवारीलाल, मोहनदास, जनगोपाल, सन्तदास, जगन्नाथदास, खेमदास, चम्पाराम, बड़े सन्ु दरदास, बकना माधोदास आमद अत्यंत प्रमसद्ध हुए, इनमें भी रज्जब एवं छोटे सन्ु दर दास दादू के आदशा मशष्ट्य कहे जा सकते हैं।12 दादू पंथ के अतं गात पाँच प्रकार के साधु कहे गये हैं जो Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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िह्मचारी एवं सद्गहृ स्थ होते हैं: 1- ‘खालसा‘ मजसमें अनेक साधु उपासना अध्यापन और मशक्षि में मनरत रहते थे। 2- ‘नाग साध‘ु साधु सैमनकों का काया करते थे। 3- उत्तराड़ी साधु मडं ली में मवद्वान होते थे जो साधओ ु ं को पढ़ाते तथा वैद्य का काया करते थे। उपरोक्त तीनों साधओ ु ं को जीमवका ग्रहि करने का अमधकार था। 4- चौथे प्रकार के साधु मवरक्त थे वे न जीमवकोपाजिंन न मशक्षि का काया करते थे। 5- पाँचवें प्रकार के साधु मनरन्तर भस्म लपेटे तपस्या में मनरत रहते थे।13- इस पंथ में, दादू द्वारों में, के वल दादू पंथी साधओ ु ं द्वारा हाथ की मलखी बानी की अचाना की जाती है।

बावरी पंथ: बावरी पथं का प्रवतान मकसने मकया इसका उत्तर मनमित रूप से नहीं मदया जा सकता। इस पथं के आमद प्रवताक के रूप में रामानदं का नाम मलया जाता है, परन्तु इन्हें प्रवताक नहीं माना जा सकता, क्योंमक स्वामी रामानदं के मसद्धातं ों एवं उपदेशों को दयानदं तथा मायानन्द ने ग्रहि मकया और उत्तरामधकार में यही उपदेश प्राप्त कर ‘बावरी सामहबा‘ नामक सयु ोनय ममहला ने ‘बावरी पथं ‘ का प्रवतान मकया। बावरी सामहबा अकबर के समकालीन थीं अनमु ानधार से इनका समय सवं त् 1566-1662 के लगभग बताया गया है और इन्हें दाददू याल वा हररदास मनरंजनी के समकालीन ठहराया गया है।14 इनकी मशष्ट्य परम्परा में अत्यंत प्रमसद्धी प्राप्त करने वाले बीरु साहब का नाम आता है, इस पंथ की आचाया गद्धी गाजीपरु मज़ला के अतं गात मड़ु कुड़ा नामक ग्राम में मस्थत है। इसकी अन्य शाखाओ ं में चीट बड़ा गाँव, अयोध्या के उटला, अमहरौला तथा मोकलपरु एवं बरौली प्रमख ु हैं।15 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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इस पंथ का वश ं वृक्ष अत्यंत समृद्ध है और इस पंथ का महन्दी संत सामहत्य में अमल्ू य योगदान है। इसमें यारीसाहब, उनके पाँच मशष्ट्य, के सोदास, हस्तमहु म्मद, सफ ू ी शाह, शेखनशाह, बल ू ासामहब के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके पिात् बल ू ा सामहब के दो मशष्ट्य जगजीवन साहब तथा गल ु ाल सामहब का नाम आता है। गल ु ाल सामहब के प्रमसद्ध मशष्ट्यों में भीखा सामहब, ,वं हरलाल सामहब प्रमख ु हैं। इसके पिात भीखा सामहब के मशष्ट्य गोमवन्द सामहब तथा गोमवन्द सामहब के मशष्ट्य पलटू सामहब अत्यंत प्रमसद्ध रहे। मलक ू पंथ: इस पंथ के प्रवताक मलक ू दास कहे जाते हैं, मलक ू दास नाम से ,एकामधक संतों का उल्लेख मवद्वानों ने मकया है, डॉ॰श्यामसन्ु दर दास ने कबीर ग्रथं ावली की भमू मका में कबीरपथं ी मलक ू दास का विान मकया है।16 मथरु ादास की ‘मलक ू पररचई‘ के अनसु ार प्रयाग के मनकट कड़ा नामक कस्बे में मलक ू दास का आमवभा​ाव वैशाख कृ ष्ट्ि पचं मी सं० 1631 में और मतरोभाव स०ं 1739 में हुआ।17 इनके मपता सन्ु दरदास खत्री थे। बाल्यकाल से ही मलक ू भगवद् भजनी थे, परमहत मचन्तन की उदार मचत्तवृमत्त के स्वामी थे। इनका मववाह भी हुआ था और एक पत्रु ी भी हुई थी, परन्तु पत्नी और पत्रु ी दोनों की मृत्यु हो गई थी। मलक ू दास सासं ाररक अनभु व से यक्त ु प्रमसद्ध महात्मा थे, आपकी प्रमसद्धी से प्रभामवत होकर ही गरु​ु तेगबहादरु एवं औरंगजेब ने इनसे भेंटकर इन्हें सम्मामनत मकया। आपके अनुयामययों की संख्या भी कम नहीं थी, पवू ा में परु ी तथा पटना से लेकर पमिम की ओर काबल ु तथा मल्ु तान तक इनके अनयु ायी देखे जा सकते हैं। इनकी गद्दी एवं मत, प्रयाग, लखनऊ, मल्ु तान, आध्रं , काबल ु , जयपरु , गजु रात, वृदं ावन, पटना, नेपाल आमद क्षेत्रों में मस्थत हैं। इनके मशष्ट्यों की सही संख्या तो ज्ञात नहीं है परन्तु प्रमख ु Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मशष्ट्यों में रामसनेही,गोमतीदास, सथु रादास, परू नदास, दयालदास, मीरमाधव मोहन दास, हृदयराम आमद उल्लेखनीय हैं। इनके पिात् मशष्ट्य वश ं ावली में कृ ष्ट्िस्नेही, कान्हनवाल, ठाकुरदास,गोपालदास, कंु जमबहारीदास, रामसेवक, मशवप्रसाद, गगं ाप्रसाद, अयोध्याप्रसाद18 आमद के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अनंतर गद्दी समाप्त हो गई। सत्तनामी सम्प्रदाय: सत्तनामी सम्प्रदाय, भाव सत्यनाम या ईश्वर से पररचय कराने वाला सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय के मल ू प्रवताक के मवर्षय में मनमित मववरि का अब तक अभाव है, मवद्वानो द्वारा इनका सम्बंध ‘साधसम्प्रदाय‘ से जोड़ा गया है तो कहीं इसके प्रवताक के रूप में दादू पंथी जगजीवन दास का नाम मलया जाता है। मवद्वानो द्वारा सत्तनामी मवद्रोह की चचा​ा की गई है, मजसमें भाग लेने वाले अमधकतर ग्रामीि कृ र्षक थे, ये सत्तनामी लोग थे, इन लोगों का स्वभाव उत्तम था। मवद्रोह के समय ये सत्तनामी नारनौल के समीप क्षेत्र में थे, औरंगजेब ने इनका समल ू मवनाश करने का प्रयत्न मकया। नारनौल क्षेत्र को सत्तनाममयों की नारनौल वाली शाखा माना जाता है। इस सम्प्रदाय का पनु ःसगं ठन उत्तर प्रदेश में जगजीवन साहब द्वारा हुआ, इनका बावरी पथं के बल ु ा सामहब तथा गोमवन्द सामहब से प्रभामवत होना चमचात रहा है लोगों की ईष्ट्या​ा भावना को देखते हुए जगजीवन साहब कोटावा गए ।यहीं उनका देहावसान हुआ ।19 जगजीवन साहब के चार प्रधान मशष्ट्य दल ू नदास, गोसाईदास, देवीदास,एवं खेमदास, चारपावा नाम से प्रमसद्ध हुए। दल ू नदास के मशष्ट्य मसद्धदास हुए इनके पिात् इनके मशष्ट्य पहलवान दास हुए हैं, तीसरी शाखा, छत्तीसगढ़ी के प्रवताक घासीदास कहे जाते हैं, इनके उत्तरामधकारी के रूप में उन्हीं का बेटा बालकदास सामने आता है और इनके बाद अज्जबदास का नाम आता है।20 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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प्रिामी-सम्प्रदाय:

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‘रामस्नेही‘ शब्द का अथा राम से स्नेह करने वाला या राम का स्नहे पात्र है। इस पथं का नाम रामस्नेही कदामचत् इसमल, रखा गया क्योंमक इसके अनयु ायी राम नाम की ही उपासना करते थे, और अपने राम नाम से स्नेह के कारि अनयु ामययों की परम्परा रामस्नेही कहलायी। इस सम्प्रदाय का उद्भव मवक्रम की 18वीं शताब्दी में राजस्थान में हुआ, रामस्नेही सम्प्रदाय के आद्याचाया दररयासाहब (मारवाड़ वाले) ही कहे जा सकते हैं क्योंमक इनका

जन्म स०ं 1733 की भाद्रपद शक्ु ल अिमी को मारवाड़ के जैतारि नामक ग्राम में हुआ, आप रै ि शाखा के प्रवताक थे। दसू री तरफ मसंहथल खेड़ापा शाखा के प्रवताक हरर रामदास हैं, मजनका जन्म सं० 1750 से 1755 के लगभग अनमु ामनत मकया जाता है तथा तीसरी शाखा ‘शाहपरु ा‘ के प्रवताक रामचरि कहे जाते हैं इनका जन्म सं० 1776 में हुआ।23 अतः जन्म-काल को देखते हुए दररया साहब (मारवाड़ वाले) ही इस सम्प्रदाय के प्रवताक कहे जा सकते हैं। संत दररया साहब तथा हरररामदास की मशष्ट्य परम्परा से सम्बमन्धत मववरि प्राप्त नहीं होता। परन्तु इतना अवश्य है मक इनके अनेक मशष्ट्य रहे होंगे। संत रामचरि के 225 मशष्ट्य कहे जाते हैं मजनमें 12 प्रमख ु हैं - बल्लभराम, रामसेवक, रामप्रताप, चेतनदास, कान्हड़ दास,द्वारकादास, भगवानदास, राजन, देवदास, मरु लीदास, तल ु सीदास ,एवं नवलराम।24 इस सम्प्रदाय में मनराकारोपासना की प्रमतष्ठा मख्ु य रूप से की गई है। इनके उपासना गृह मसख गरु​ु द्वारों की भामं त सनू े होते हैं तथा मध्य भाग में सम्प्रदाय प्रमख ु की वािी ससु मज्जत रूप में मवराजमान रहती है। पजू ा गृहों को रामद्वारा कहा जाता है। ‘रामस्नेही‘ समन्वय की तीनों शाखाओ ं के अलग-अलग रामद्वारे प्रमसद्ध हैं। रै िाशाखा के मद्वतीय आचाया हरखाराम हुए तृतीय आचाया रामकरि, चतथु ा आचाया भगवद्दास तत्पिात् पाच ं वें आचाया रामगोपाल बने तथा उसके पिात् क्षमाराम। मसंहथल, खेड़ापा शाखा के मद्वतीय आचाया हरररामदास के पत्रु मबहारीदास मनयक्त ु हुए परन्तु वे शीघ्र ही परमधाम मसधार गए, उन के अनंतर उनका पत्रु हरदेवदास पीठाचाया मनयक्त ु हुए मफर खेड़ापा से हरररामदास के मशष्ट्य रामदास ने रामस्नेही शाखा स्थामपत की, इस शाखा के दसू रे आचाया के रूप में रामदास ने अपने पत्रु दयालु राम को खेड़ापा गद्दी का महन्त बनाया, उनके पिात् पािू दास इस महतं गद्दी

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

‘प्रिामी‘ या ‘धामी‘ सम्प्रदाय के प्रवताक सन्त प्रािनाथ कहे जाते हैं। सतं प्रािनाथ ने समन्वय के आधार पर इस पन्थ का प्रवतान मकया। इन्होंने समकालीन धमा का पूिा रूप से अनश ु ीलन मकया। इसके अमतररक्त इन्हें अरबी, फारसी, महन्दी ,वं संस्कृ त का भी अच्छा ज्ञान था, वेदों, कुरान, ईसाइयों की तथा यहूमदयों की धाममाक पस्ु तकों का भी इन्होंने अध्ययन मकया था। इसी कारि इनके मवचार अत्यंत पररष्ट्कृत हुए , इनके समन्वय का उदाहरि इनके द्वारा प्रिीत ‘कुलजम स्वरूप‘ नामक बृहद् ग्रन्थ है मजसका एक नाम ‘तारतम्यसागर‘ भी है। इस ग्ररन्थ में मवमभन्न भार्षाओ ं के साथ-साथ ईसाइयों यहूमदयों आमद के धाममाक मसद्धान्त भी ममलते हैं। इस ग्रंथ को मसखों के गरु​ु ग्रन्थ सामहब की तरह धामी सम्प्रदाय में भी पजू ा जाता है। इस पथं का प्रमख ु के न्द्र पन्ना नगर का धामी ममन्दर है।21 इस पथं का एक अन्य नाम ‘महाराज पथं ‘ भी है। इस पथं के पवू ा नामों में मेराजपन्थ मखजड़ा एवं चकला कहा जाते हैं, परन्तु ‘धामी‘एवं प्रिामी (प्रािनाथी) सम्प्रदाय नामकरि ही सवाप्रमसद्ध है। इस सम्प्रदाय के अनयु ायी ‘साचीभाई‘ या ‘भाई‘ कहलाते हैं।22 रामस्नेही सम्प्रदाय:


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पर बैठकर परमधाम पधारे । शाहपरु ा शाखा के मद्वतीय आचाया रामजन वीतराग हुए इसके पिात् गद्दी आचाया का चनु ाव जनतंत्र पद्धमत से होने लगा। राजस्थान के अमतररक्त उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद बरे ली, मेरठ, बम्बई, मदल्ली तक इस सम्प्रदाय का क्षेत्र मवस्तृत है।25 दररयादासी सम्प्रदाय: दररया नाम से दो संत हुए हैं। एक दररया साहब मबहार में उत्पन्न हुए अतः मबहार वाले कहलाये और दसू रे दररया साहब मारवाड़ में उत्पन्न हुए इसमलए मारवाड़ वाले कहलाये। ‘दररयादासी‘ सम्प्रदाय स्वतत्रं रूप से दररयासाहब (मबहार वाले) द्वारा प्रवृत्त मकया गया था। इनका जन्म कामताक सदु ी 15 स०ं 1691 में हुआ तथा उन्होंने सं० 1837 में अपना शरीर त्याग मदया।26 सतं दररया को पद्रं हवें वर्षा में वैरानय उत्पन्न हुआ तथा तीस वर्षा की आयु में इन्होंने उपदेशों का काया करना आरम्भ कर मदया। इनके कई मशष्ट्य हुए मजनमें दलदास सबसे अमधक प्रमसद्ध हुए। सतं दररया ने पथं प्रचार हेतु काशी मगहर बाईसी मज़ला गाजीपरु , हरदी तथा लहठान् मज़ला शाहाबाद जाकर उपदेश मदये, परन्तु इनकी प्रधान गद्दी धरकन्धे में है। इसके अमतररक्त तेलपा (सारन) ममजा​ापरु (सारन) तथा मनआ ु ं (मजु फ्फरपरु ) में इनकी अन्य गद्दी स्थामपत होना कहा जाता है।27 दररयागद्दी दो शाखाओ ं में मवभक्त हैं 1- मबन्दु 2- नाद। प्रथम में दररया जी के पररवारी तथा मद्वतीय में उनके मशष्ट्य आते हैं। इस पंथ को मानने वालों के दो भेर्ष हैं-1-साधु 2-गृहस्थ। इस पंथ के लोग प्रायः तंबाकू मपया करते हैं। गृहस्थ टोपी पहनते हैं। इनका मल ू मत्रं ‘वेबाहा‘ कहलाता है।28 गरीबदासी पंथ:

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इस पंथ के प्रवताक सन्त गरीबदास कहे जाते हैं। इनका जन्म रोहतक मज़ले के छुड़ानी गाँव में स०ं 1774 में एक जाट पररवार में हुआ।29 इस पंथ का प्रचार मदल्ली, अलवार, नारनोल, मबजेसर तथा रोहतक क्षेत्र तक हुआ है। गरीबदास आजीवन गृहस्थ रहे, अपने जीवनकाल में गरीबदास ने एक मेला लगाया था जो छुड़ानी गाँव में आज तक लगता है, इस अवसर पर इस पंथ के अनयु ायी एकमत्रत होकर गरीबदास के प्रमत श्रद्धा प्रकट करते हैं। इनके देहावसान के उपरांत इनके गरु​ु मख ु चेले सलोत जी गद्दी पर बैठे, रोहतक मजले में एक गाँव के साहूकार सन्तोर्षदास और उनकी पत्नी,गरीब दास के पहले अनयु ायी थे। इनकी छठी पीढ़ी में संत दयालदु ास हुए मजन्होंने पथं का पनु गाठन मकया।30 इस पथं की परम्परा में जैतराम, तरु तीराम, दानीराम, शीलवन्त राम, मशवदयाल, रामकृ ष्ट्िदास, गगं ा सागर आमद के नाम मवशेर्ष रूप से उल्लेखनीय है। इस पथं के कई डेरे हैं - रोहतक मजले में करोधा, कािौंदा, छारा, घरावर ,असौदा, सापं ला, माड़ौठी गाँव में तथा अलवर में गगं ा ममन्दर नाम से भगवानदास पािू दास का डेरा तथा रामपरु में गरीबदासी आश्रम है।31 धरनीश्वरी सम्प्रदाय: बाबा धरनीदास के नाम पर धरनीश्वरी सम्प्रदाय प्रवता हुआ, इनके अनयु ामययों ने पथं प्रचार हेतु कोई प्रयास नहीं मकया। इसी कारि इस सम्प्रदाय को अमधक प्रमसमद्ध प्राप्त नहीं हुई। धरनीदास के आमवभा​ाव काल को लेकर मवद्वानों में मतभेद हैं, कहीं स०ं 1713 इनका जन्मकाल माना जाता है और कहीं इनके मपता के देहावसान का काल कहा जाता है। इस अन्य मतानसार इनका आमवभा​ाव सं० 1632 में हुआ। इतना अवश्य है मक इनका आमवभा​ाव काल इन्हीं प्रस्ततु कालों में ही रहा होगा।32 धरनीदास के मशष्ट्य ,एवं प्रमशष्ट्यों में अमरदास, मायादास, रत्नदास, वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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बालमक ु ु न्द दास, रामदास, सीताराम दास, हरनंदनदास इनके मशष्ट्य प्रमशष्ट्य हु,। इनका प्रधान के न्द्र माँझी की Ûद्दी है। इस सम्प्रदाय के अनयु ायी बमलया में ममलते है मजनका मल ू सम्बन्ध परसा के मठ से है। इसी मठ से चैनराम बाबा प्रमसद्ध हुए। चैनराम बाबा के मशष्ट्य प्रमशष्ट्यों में महाराज बाबा, समु दष्ठ बाबा तथा रघपु मतदास सामत्त्वकी हुए। इनके अन्तर लक्ष्मिदास, रामप्रसादजी, गोपालदास, पीतांबरदास, सीतारामदास, श्रीपालदास, संतरामदास आमद की परम्परा आती है।33 चरनदासी सम्प्रदाय: चरनदासी सम्प्रदाय को इसके अनयु ायी शक ु सम्प्रदाय ही कहते हैं। इस सम्प्रदाय के संस्थापक व्यास पत्रु शक ु देव माने जाते हैं, तथा प्रचारक, सम्प्रदाय के प्रवताक आचाया के रूप में चरनदास की ही प्रमतष्ठा हुई है, इनका जन्म सं० 1760 में माना गया है।34 चरनदास ने मदल्ली को प्रमख ु के न्द्र बनाकर उत्तर प्रदेश, मबहार, बल ं , मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा पजं ाब में प्रचार के न्द्र स्थामपत मक,, मजनमें 52 के न्द्रों को प्रमख ु के न्द्रों या ‘बड़ा थाभं ा‘ के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। इनके लगभग 52 मशष्ट्य कहे जाते हैं मजनमें जगु तानदं , सहजोबाई, दयाबाई आमद प्रमख ु हैं। चरनदास ने अपना उत्तरामधकारी जगु तानदं को बनाया था, इस सम्प्रदाय का स्थापना काल स॰ं 1781 माना गया है तथा स०ं 1781 में ही चरनदास द्वारा मशष्ट्य परम्परा का प्रारम्भ कर इसे सम्प्रदाय का स्वरूप मदया गया।35 इनके द्वारा प्रवता सम्प्रदाय एक ऐसा समन्वय का रूप था जहां दाद,ू दररया, मनरंजनी आमद मवमभन्न मत ,क ही मचं पर ममलते थे। इस सम्प्रदाय में मभक्षा वृमत का, पंचदेव (मवष्ट्ि,ु सयू ा, मशव, देवी गिेश) यक्त ु पजू ा का मनर्षेध था परन्तु पंचदेवों में वे िह्मा, मवष्ट्िु , महेश को मवशेर्ष प्रधानता देते थे। वास्तव में यह सम्प्रदाय मनगिाु एवं सगिु समन्वयात्मक स्वरूप Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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प्रस्ततु करता है, मदल्ली में इस सम्प्रदाय की तीन गमद्दयां हैं यथा – जगु तानंद, सहजोबाई ,एवं रामरूप जी की गमद्दयाँ। इनके अनंतर सहजोबाई गद्दी के महतं ों में गगं ादास, वृन्दावन, शक ु कंु ज मनवासी िह्मचारी प्रेमस्वरूप, रूप माधरु ी शरि तथा सरस माधरु ी शरि एवं अखैराम प्रभृमत महतं हुए हैं ।36 मनरंजनी सम्प्रदाय: ‘मनरंजन‘ शब्द को आधार बनाकर मनरंजनी सम्प्रदाय का प्रवतान स्वामी हररदास मनरंजनी ने 12वीं शताब्दी के लगभग राजस्थान के मवस्तृत क्षेत्र में मकया गोमवन्द मत्रगिु ायत इस सम्प्रदाय को नाथ पन्थ की एक शाखा न कहकर सहमजया बौद्ध मसद्धों की ही प्रशाखा माना है।37 परन्तु यह राजस्थान में आमवभातू एक स्वतंत्र सम्प्रदाय है, मकसी मत की शाखा नहीं, इस सम्प्रदाय की अपनी अलग मान्यताएँ हैं।38 इस सम्प्रदाय मे ‘मनरंजन‘ शब्द का प्रयोग सतं कमवयों ने मनगिाु िह्म के अथा में मकया है। यह मनरंजनी शब्द इस सम्प्रदाय के सन्तों के नाम के अन्त में अवश्यमेव व्यवहृत मकया जाता हैं, जैसे हररदास मनरंजनी, भगवानदास मनरंजनी, जगजीवन दास मनरंजनी, मनोहरदास मनरंजनी प्रभृमत। हररदास मनरंजनी इस सम्प्रदाय के प्रवताक थे। इनके कई मशष्ट्य प्रमसद्ध हुए इनके मशष्ट्यों-प्रमशष्ट्यों में जगजीवनदास, ध्यानदास, मोहनदास, र्षेमदास बड़े, भगवानदास, मनोहरदास ,पीपा, हरररामदास, अमरपरू ु र्ष, सेवादास प्रभृमत सन्तों के नाम उल्लेखनीय हैं।39 मशवनारायिी सम्प्रदाय: सन्त मशवनारायि द्वारा मशवनारायिी सम्प्रदाय प्रवता हुआ, मशवनारायि का आमवभा​ाव गज़ीजीपरु मजले (बमलया) में हुआ था, सम्प्रदाय के प्रारमम्भक के न्द्र भी इसी मजले में है, इस सम्प्रदाय का मवस्तार प्रायः सम्पिू ा भारत के प्रमख ु नगरों में हो चक ु ा वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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है। मशवनारायि के चार प्रमख ु मशष्ट्य हुए हैं - रामनाथ, सदामशव, लखनराम, तथा लेखराज, सम्प्रदाय के मवस्तार का श्रेय मशवनारायि के प्रमख ु मशष्ट्यों लखनराम तथा सदामशव को है। इस सम्प्रदाय के चार प्रमख ु घामघर हैं यथा- संत मशवनारायि का जन्म स्थान ‘चंदवार‘ उनका मृत्यस्ु थान ‘ससना‘ , प्रमख ु मशष्ट्य लखनराम का जन्मस्थान ‘बड़सरी‘ तथा गाजीपरु नगर का ‘ममयाँ टोला‘। इन धामघरों में प्रथम तीन आधमु नक बमलया मजले में है, चौथा गाजीपरु शहर के ममयां टोला महु ल्ले में मस्थत है, इनके अमतररक्त बमलया मजले मक अन्य गमद्दयों में मडह्वा, रतसड़, बलआ ु , दोहरी घाट आमद उल्लेखनीय है।40 सम्प्रदाय के पवों में कामताक सदु ी तीज, अगहन सदु ी त्रयोदशी, माघसदु ी पचं मी, श्रावि शक्ु ल, सप्तमी का मवशेर्ष महत्त्व है।41 रमवभाि पथं : ‘रमवराम साहब‘ तथा ‘भाि साहब‘ गजु रात के प्रमसद्ध सन्तों में मगने जाते हैं। रमवराम साहब भाि साहब के मशष्ट्य थे, इन दोनों सन्तों के नाम पर यह पथं प्रवता हुआ। रमव साहब के प्रमख ु मशष्ट्य ‘मोरार साहब‘ हुए हैं। मोरार सामहब की मशष्ट्य - परम्परा में महन्दू व मसु लमान दोनों कौमों के लोग थे। सतं होथी (मसु लमान) इनके प्रमख ु मशष्ट्य थे। महन्दओ ु ं में चरनदास (लोहािा) छोटालाल (दजी) तथा रिमल मसहं इनके मशष्ट्य थे। भाि साहब की मशष्ट्य परम्परा में खीमसाहब का नाम भी उल्लेखनीय है। इस पंथ के अनयु ायी गजु रात, सौराष्ट्र तथा पमिमी राजस्थान में ममलते हैं।42 सामहब पंथ: सामहब पंथ के प्रवताक ‘तुलसी साहब‘ हाथरस वाले थे, मजन्हें सामहब जी के नाम से भी जाना जाता है। तल ु सी साहब ने अपने द्वारा प्रवता मत को Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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‘सतं -मत‘ नाम मदया है।43 तल ु सीसाहब का पवू ा नाम श्यामराव था, आप बाजीराव मद्वतीय के बड़े भाई थे, परन्तु वैरानय भाव के कारि , आप इस संसार से मवरक्त हो हाथरस में ही रहने लगे। वहीं काला कंबल ओढ़कर हाथ में लेकर उपदेश मदया करते थे। इनके मशष्ट्य प्रमशष्ट्यों में सरू स्वामी, दरसन साहब, मथरु ादास साहब, संतोर्ष दास, ध्यान दास तथा प्रकाश दास प्रभृमत सन्त आते हैं, तल ु सीदास साहब की समामध हाथरस में वतामान है जहाँ ज्येष्ठशक्ु ल 2 को प्रमतवर्षा भडं ारा होता है।44 लाल पन्थ: लाल पन्थ के प्रवताक सन्त लालदास का जन्म अलवर राज्यान्तगात धौलीधपू ग्राम में स०ं 1597 में हुआ, ये मेव जामत तथा मनधान पररवार से सम्बमन्धत थे। बाल्यकाल से ही सन्त लालदास ,कान्तसेवी तथा भगवद्भक्त थे। सतं लालदास साक्षर,एवं मशमक्षत नहीं थे परन्तु इनके उपदेशों में भाव गम्भीया की कमी न थी। इनका मववाह भी हुआ था तथा इनका एक पत्रु एवं एक पत्रु ी थी। इनका देहावसान स०ं 1705 में हुआ।45 सन्त लालदास के अनयु ायी जो अलवर राज्यान्तगात पाए जाते हैं वे ‘लालपन्थी‘ कहलाते हैं। इनके मशष्ट्यों अथवा गद्दी परम्परा के बारे में कोई मववरि प्राप्त नहीं होता, परन्तु सतं लालदास को चमत्कार एवं मदव्यता के कारि मफर भी प्रमसमद्ध प्राप्त है। इनकी बामनयों का एक सग्रं ह ‘लालदास की चेतावनी‘ शीर्षाक से हस्तमलमखत रूप में संग्रमहत है। जसनाथी सम्प्रदाय: जसनाथी सम्प्रदास ‘मसद्ध सम्प्रदाय‘ भी कहा जाता है, इसके प्रवताक मसद्ध जसनाथ का जन्म स०ं 1539 की कामताक शक्ु ल को बीकानेर राज्यान्तगात कतररयासर के अमधपमत जािी जाट वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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हमीर के घर में हुआ, एक अन्य जनश्रमु त के अनसु ार हमीर जाट जसनाथ जी के पोर्षक मपता थे, मसद्ध जसनाथ का पवू ा नाम जसवतं था। आपने गरु​ु गोरखनाथ से दीक्षा ग्रहि की तबसे आपका नाम जसनाथ हो गया। मसद्ध जसनाथ सं०1563 की आमश्वन शक्ु ल 7 को जीमवत समामधस्थ हुए।46 इस सम्प्रदाय की प्रमख ु गद्दी, कतररयासर (बीकानेर) में है, इसके अमतररक्त इस सम्प्रदाय का प्रचार एवं प्रसार पसल,ू मलखमादेसर, छाजसू र, पनु रासर तथा मात्नासर में हुआ, इस सम्प्रदाय की मशष्ट्य परम्परा में हारोजी, हांसोजी, पालोजी, टोडाजी, रूस्तम जी, रामनाथजी तथा लालनाथजी के नाम उल्लेखनीय हैं। इस सम्प्रदाय के प्रमख ु मसद्ध कहलाते हैं। ये मसद्ध भगवा कपड़े पहनते हैं।47 इस सम्प्रदाय में मनगिाु मत को ही महत्त्व मदया जाता है तथा मकसी भी देवता का इस सम्प्रदाय में कोई स्थान नहीं है। पानप-पथं : सतं पानपदास के नाम पर पानप पथं प्रवता हुआ। इनका जन्म बीरबल वश ं में िह्मभट्ट जामत के अतं गात सं० 1776 को मबजनौर के मजले में नगीना धामपरु जैसे मकसी नगर में होना माना गया है।48 पानपदास का महात्मा मगं नी राम के द्वारा दीमक्षत होना माना गया है। उनके सवाप्रथम दीमक्षत मशष्ट्य थे, उनके पिात् पाच ं और व्यमक्तयों को उन्होंने दीमक्षत मकया, मजनमें मबहारीदास, अचलदास, ख्यालीदास गगं ादास ,वं हररदास का नाम आता है।49 मदल्ली में इनकी गद्दी तेलीबाड़ा में स्थामपत हुई। धामपरु में लोमहया नामक स्थान पर इनका महल है जो ‘पानपदास जी महाराजा का स्थान‘ नाम से प्रमसद्ध है। इसी को पानप-पंथ का प्रधान के न्द्र कहा जाता है तथा इस सम्प्रदाय की मख्ु य गद्दी भी यहीं धामपरु में है। स०ं 1830 में इनका देहान्त हुआ। इनके मशष्ट्यों में मानसदास का नाम आता है तथा इनके प्रमशष्ट्यों में धरमदास, प्रेमदास, Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मजलसदास, गाधोदास, बरदास, हीरादास, श्यामदास, मनहालदास, स्वरूपदास, भजनदास, परू नदास, जगदीशानंद, दयाप्रकाश, प्रीतमदास के नाम उल्लेखनीय हैं ।50 सखी सम्प्रदाय: मभनकराम बाबा के मशष्ट्य मनपतराम की मशष्ट्य परम्परा में लामछमी (लक्ष्मी) सखी का नाम प्रमसद्ध है। इनका जन्म सारन मजले के अमनौर नामक ग्राम में सं० 1898 में हुआ। ये जामत के कायस्थ थे, स०ं 1971 में इनका देहावसान हुआ, इनके मशष्ट्यों में मसद्धनाथ, त्यागी, प्रदीप एवं कामता सखी प्रमख ु हैं। छपरा में इनका प्रधान के न्द्र ‘सखीमठ‘ मवद्यमान है।51 हीरादासी-पथं : हीरादासी पथं का प्रवतान एक कबीर पथं ी सतं मनवा​ािदास के मशष्ट्य ने मकया। हीरा-दास का जीवनकाल स०ं 1551 से 1636 मव० कहा जाता है। इस परम्परा में गजु रात के समथादास का नाम भी मलया जाता है। इस पथं में कुछ नवीनता नहीं है यह पथं न होकर एक परम्परा ही कही जा सकती है।52 राधास्वामी पथं : राधास्वामी पथं के मल ू प्रवताक मशवदयाल साहब कहे जाते हैं। इनका जन्म सं० 1875 में ,एक खत्री पररवार में हुआ। सं० 1917 में इन्होंने मशष्ट्यों को उपदेश देने का काया आरम्भ मकया। इनका देहावसान स०ं 1935 में हुआ। इनके अन्तर रायबहादरु सामलग्राम उत्तरामधकारी बने। इस पंथ की शाखाओ ं में फौजी सैमनक, बाबा जयमल मसंह की डेरा व्यास वाली शाखा है। इनकी मृत्यु के उपरान्त इनके दो उत्तरामधकाररयों ने दो गमद्दयां स्थामपत की, मजनमें एक व्यास में सावनमसंह की गद्दी तथा वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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तरनतारन में बनगामसंह की गद्दी। सामलग्राम के एक मशष्ट्य िह्मशक ं र ममश्र (महाराज सामहब) हुए हैं। इनका जन्म स०ं 1917 में तथा देहान्त सं० 1964 में हुआ। इनका समामध स्थल स्वामीबाग नाम से मवख्यात है। इनके अनंतर इनकी बड़ी बहन श्रीमती माहेश्वरी देवी (बआ ु जी सामहबा) गद्दी की उत्तरामधकारी बनी। महाराज साहब के दो अन्य मशष्ट्य कामता प्रसाद तथा ठाकुर अनक ु ू ल चन्द्र भी क्रमश आगरा तथा पवना (पवू ा बंगाल) में अपनी गमद्दयाँ स्थामपत की, बआ ु जी सामहबा का देहान्त स०ं 1969 में हुआ। इनके उत्तरामधकारी माधवप्रसाद मसंह (बाबजू ी साहब) बने, कामताप्रसाद (सरकार सामहब) का देहावसान स०ं 1971 में हुआ तथा उनकी गद्दी पर उत्तरामधकारी के रूप में सर आनदस्ं वरूप (साहेबजी) बैठे। इनके देहान्त के उपरान्त राय साहब गरु​ु चरन दास मेहता इसी गद्दी के उत्तरामधकारी बने। तरनतारन में बनगामसहं की गद्दी के उत्तरामधकारी बाबा देवा मसहं बने, इसके सावनमसहं (व्यास) के मशष्ट्य-प्रमशष्ट्यों में जगतमसहं , चरनमसहं के नाम उल्लेखनीय हैं।53 उपसहं ार: उत्तर मध्यकाल में लगभग 45 सतं सम्ं प्रदाय और मवमभन्न पथं ों में दीमक्षत सतं ों की एक लबं ी परम्परा ममलती है। इन सन्तों ने अपने पथं प्रचार के तथा मानव महत के मनममत्त जो उपदेश मद, वे ही सन्त वािीके रूप में सामहत्य की अमल्ू य मनमध हैं। प्रत्येक पंथ के सभी संतों ने वािी प्रिीत नहीं की, मल ू त: सन्त वामियाँ मौमखक रूप में थी, मजन्हें मशष्ट्यों-प्रमशष्ट्यों द्वारा मलमखत रूप में प्रस्तुत मकया गया। उत्तर मध्यकाल एक ऐसा काल रहा है, मजसमें संतों का उत्कर्षा हुआ, चाहे उनमें सम्प्रदायों की होड़ लग गयी थी, परन्तु मझु े तो यह प्रतीत होता है मक यह संत Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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समाज का स्विा-यगु कहा जा सकता है क्योंमक इसमें लगभग 96 संत अवतररत हुए । इनका पररचय भी अपने आप में शोध का मवर्षय है। िहायक ग्रथ ू ी: ं िच 1-पीताम्बरदत्त बडथ्वाल, महन्दी काव्य में मनगािु सम्प्रदाय (लखनऊ: अवध पमब्ल० हाऊस) पृ० 122, 128 2-मवष्ट्िदु त्त राके श, उत्तर भारत के मनगिाु पंथ सामहत्य का इमतहास (इलाहाबाद: सामहत्य भवन प्रा० मल०1975) पृ० 114 3-मत्रलोकी नारायि दीमक्षत, महदं ी संत सामहत्य (मदल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1983) पृ० 57 4-मवष्ट्िदु त्त राके श, उत्तर भारत के मनगिाु पंथ सामहत्य का इमतहास (मदल्ली: राजकमल प्रकाशन, 1963) पृ० 118 5-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की सतं परम्परा (इलाहाबाद: भारती भ.डार, 1964), पृ० 291 6-वही, पृ० 427, 428 7-मत्रलोकी नारायि दीमक्षत (महन्दी सन्त सामहत्य (पवू ोक्त)), पृ० 58 8-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की सतं परम्परा (पवू ोक्त), पृ० 431 9-मत्रलोकी नारायि दीमक्षत (महन्दी सन्त सामहत्य (पवू ोक्त)), पृ० 58 10-सतं नारायि उपाध्याय, दादू दयाल (कलकत्ता: ईश्वर गांगल ु ी स्रीट, 1969), पृ० 22 11-वही, पृ० 52, 53

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12-सतं नारायि उपाध्याय, दादू दयाल (पवू ोक्त), पृ० 74 13-महन्दी मवश्वकोश (भाग-10), सम्पा० नगेन्द्रनाथ वसु (मदल्ली: बी० आर० पमब्ल० कौरपरे शन्ज़, 1986), पृ० 340

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पृ०ा़ 12 27-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पवू ोक्त), पृ० 661 28-मवष्ट्िदु त्त राके श, उत्तर भारत के मनगिाु पंथ सामहत्य का इमतहास (पवू ोक्त) पृ० 175-176

14-भगवती प्रसाद शक्ु ल, बावरी पंथ के महन्दी कमव (नई मदल्ली: आया बक ु मडपो, 1972), पृ० 58, 60

29-गरीबदास की बानी, (प्रयाग : बेलवेमडयर मप्र० वक्र्स, 1985), भमू मका पृ० 1

15-वही, पृ० 54

30-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पवू ोक्त), पृ० 733 31-मवष्ट्िदु त्त राके श, उत्तर भारत के मनगिाु पंथ सामहत्य का इमतहास (पवू ोक्त) पृ० 211, 212

16-कबीर ग्रंथावली (सम्पा०) श्याम सन्ु दर दास (काशी: नागरी प्रचाररिी सभा, 1928) भमू मका, पृ०ा़ 2 17-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पवू ोक्त), पृ० 571 18-वही, पृ० 576, 577 19-वही, पृ० 638, 612 20-मवष्ट्िदु त्त राके श, उत्तर भारत के मनगिाु पथं सामहत्य का इमतहास (पवू ोक्त) पृ० 189 21-वही, पृ० 194 22-मत्रलोकीनारायि दीमक्षत, महन्दी सन्त सामहत्य, (पवू ोक्त), पृ० 73 23-मशवशक ं रपाण्डेय, रामस्नेही सम्प्रदाय की दाशामनक पृष्ठभमू म, (मदल्ली: रामस्नेही सामहत्य शोध सस्ं थान, 1976), पृ०28, 34, 38 24-वही, पृ०ा़ 41 25-मशवशक ं र पाण्डेय , रामस्नेही सम्प्रदाय की दाशामनक पृष्ठभमू म, (पवू ोक्त), पृ० 87, 92 26-सतं दररया साहब (मबहार वाले) (सम्पा०) काशीनाथ उपाध्याय (पंजाब: राधास्वामी सत्संग ), Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

32-वही, पृ० 190 33-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पवू ोक्त), पृ० 632, 633 34-शम्भनु ारायि ममश्र, चरनदासी सन्त जगु तानदं और उनका काव्य (मदल्ली: राधा पमब्लके शन्स, 1990), पृ० 2 35शम्भनु ारायि ममश्र, चरनदासी सन्त जगु तानदं और उनका काव्य (पवू ोक्त), पृ० 7 36-वही, पृ० 24 37-गोमवन्द मत्रगनु ायत, महन्दी की मनगिाु काव्यधारा और दाशामनक पृष्ठभमू म (कानपरू : सामहत्य मनके तन), पृ० 345 38-सत्यनारायि ममश्र, तल ु सीदास मनरंजनी: सामहत्य और मसधान्त (कानपरु : सामहत्य मनके तन, 1974), पृ० 9 39-वही, पृ० 22 से 32 40-रामचन्द्र मतवारी, मशवनारायिी सम्प्रदाय और उसका सामहत्य (वारािसी: मवश्वमवद्यालय प्रकाशन, वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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1972), पृ० 41-वही, पृ० 179-181

162,

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42-मवष्ट्िदु त्त राके श, उत्तर भारत के मनगिाु पंथ सामहत्य का इमतहास (पवू ोक्त), पृ० 196 43-त०ु सा०, घट॰ रा०, भाग-1, पृ० 143 44-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की संत परम्परा (पवू ोक्त), पृ० 786 45-वही, पृ० 484-485 46-रामप्रसाद दाधीच, राजस्थान संत सम्प्रदाय (जोधपरु : राजस्थानी ग्रंथाकार, 1995), पृ० 20 47-वही, पृ० 21 48-पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, महन्दी काव्य में मनगिाु सम्प्रदाय (लखनऊ: अवध पमब्लश- हाउस), पृ० 441 49-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की सतं परम्परा (पवू ोक्त), पृ०ा़ 478 50-वही, पृ० 736, 740, 741 51-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की सतं परम्परा (पवू ोक्त), पृ० 700, 701 52-मवष्ट्िदु त्त राके श, उत्तर भारत के मनगिाु पथं सामहत्य का इमतहास, (पवू ोक्त), पृ० 219 53-परशरु ाम चतवु दे ी, उत्तरी भारत की सतं परम्परा (पवू ोक्त), पृ० 804

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सकतने पासकस्तानः मानिता का दस्तािेज भगिती देिी,िोधछािा सहदं ी सिभाग, जम्मू सिश्वसिद्यालय ,जम्मू ई-मेल-musicmusic176@gmail.com र्ोन-8713076753 भारतीय समाज को कमजोर बनाने में सबसे बेहतरीन भमू मका विा-व्यवस्था ने मनभाई है,इस व्यवस्था को तोड़ा नहीं जा सकता है। विावाद सम्बन्धी मवचारधारा वट वृक्ष की जड़ों की भांमत भीतर ही भीतर फै ल चक ु ी है तथा समाज को खोखला कर चक ु ी है। मल ू तः समाज में प्रत्येक विा अपने आप में िाह्मिवादी मवचारधारा को ओढ़कर बैठा है। सामहत्य के क्षेत्र में विाव्यवस्था के मवरुध आवाज़ उठाई जा रही है और समानता का परचम लहराये जाने का प्रयास मकया जा रहा है, लेमकन समाज में जो बड़ा बनने की होड़ लगी है अन्ततः वही नफरत एवं तनाव में बदलती हुई एक नया पामकस्तान बनाने पर मज़बू र कर देती है। कमलेश्वर इस उपन्यास के माध्यम से उन मानकों को प्रस्ततु करते हैं, मजनके आधार पर पामकस्तान खड़े मकए जाते रहे हैं और मकए जा सकते हैं। भारत के भीतर पहला पामकस्तान बनाये जाने का सक ं े त सलमा के माध्यम से अमभव्यक्त होता हैं और उपन्यासकार के मलए पामकस्तान का अथा नफरत, सत्ता प्रामप्त की होड़ में दसू रे का शोर्षि, अनाचार, यद्ध ु से है। सलमा, अदीब के समक्ष जामतवाद के मवरुद्ध कहती है मक ‘‘तम्ु हारे िाह्मि ग्रन्थों के आधार पर !‐‐‐तमु ने अपना विा​ाश्रम धमा बना मलया था- हर बच्चा माँ के पेट से पैदा होता है पर तम्ु हारे िाह्मिों और उनके ग्रन्थों में माँ की कोख का अपमान करते हुए मनष्ट्ु य को िह्मा के अलग-अलग अगं ों से पैदा करने का मसद्धान्त पैदा मकया..... आज के शब्दों में कहूँ तो Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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तम्ु हारे िाह्मिों ने अपना पामकस्तान बना मलया।’’1 इसी के साथ ही कमलेश्वर िह्मा के मख ु से एवं पैरों से पैदा हुए की धारिा को नकारते हुए स्त्री अमस्तत्व पर सवाल खड़ा करते है। प्राचीन काल से ही िाह्मिवादी मसद्धान्त ने स्त्री कोख से जड़ु े यथाथा एवं स्त्री अमस्मता को गौि बनाया है। आयों के मजस दैवी मवधान में मस्त्रयों की अमस्मता को गौि बनाया वह मसद्धान्त कमलेश्वर के मलए अनगाल है। बोमध वृक्ष के माध्यम से लेखक ने विावादी मसद्धान्त को तका के आधार पर कसते हुए कहा है मक ‘‘हम िह्मा के पैरों से पैदा नहीं हुए हैं‐‐‐‐आयो का विावाद एक अप्राकृ मतक मसद्धान्त है, क्योंमक िाह्मिों की पमत्नयों को भी मामसक धमा के चक्र से गज़ु रना पड़ता है। वे भी गभावती होती हैं। वे भी बच्चों को जन्म देती है, उन्हें दधू मपलाती और उनका पालन पोर्षि करती हैं....इतने पर भी यह आया िाह्मि, मजनका जन्म मस्त्रयों की कोख से होता है, यह दावा करते हैं मक वे िह्मा के मख ु से पैदा हुए हैं..... िह्मा के मख ु में गभा​ार्षय नहीं है....।’’2 इस तरह से कहा जा सकता है मक स्त्री को अमस्तत्वहीन समझे जाने की धारिा विाव्यवस्थओ ं के मसद्धान्त से भी बहुत गहरा सम्बन्ध रखती है। जामतवाद की समस्या का मशकार के वल भारतीय समाज ही नहीं बमल्क ममु स्लम समाज भी रहा है और मजस समाज में भी जामतगत भेदभाव रहेगा वहां एकता का अभाव रहेगा। विाव्यवस्था एक बहुत बड़ा कारि रही है भारतीय अखण्डता को समाप्त करने के मलए, क्योंमक जहां जामत के आधार पर एकता स्थामपत की जाती है अगर क्षमत्रय समाज पर संकट के बादल छाये तो वह क्षमत्रय समाज देखे यमद दमलत समाज पर कोई खतरा मडं राए तो यह दमलत समाज की समस्या है। समाज के इसी भीतरी तनाव का लाभ बाहरी शासकों ने उठाया और एकजटु ता की कमी के कारि भारत वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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धीरे -धीरे गल ु ाम बनता गया और भीतर से खोखला होता गया। लेखक ने हज़ाज के माध्यम से भारतीय समाज की कमजोरी जामतवाद को बताते हुए कहा है मक ‘‘हुजरू ! जगं के वक्त हमारा तो बच्चा-बच्चा लड़ता है, लेमकन हज़ाज ने हमें यह राज़ बताया था मक महन्द में परू ी कौंम नहीं लड़ती। रवायत के मतु ामबक वहाँ मसफा क्षमत्रय लड़ता है। क्षमत्रय हारता था तो सब हार जाते थे।’’3 जामतवाद की यह धारिा के वल महन्दस्ु तान में ही नहीं बमल्क इस मसद्धान्त का मशकार ममु स्लम समाज भी हुआ। मख्ु यतः ममु स्लम समाज में जामतवाद प्रत्यक्ष रूप से नहीं मदखाई देता लेमकन हाँ गौि रूप से देखा जरूर जा सकता है। ममु स्लम समाज की अखण्डता को जामतवादी अवधारिा ने ही खमण्डत मकया। इस्लाम की रूहानी आत्मा से सफ ू ी उदारवाद जन्मा उसे इस्लाम के कट्टरपथं ी िाह्मिवामदयों ने स्वीकार नहीं मकया और इसी कट्टरता ने ममु स्लम समाज की भीतर की नींव को कमज़ोर बनाया। ‘‘नहीं तो क्या वजह थी मक जो भी महन्दस्ु तानी कलमा पढ़ कर मस्ु लमान बना, मग़ु मलया सल्तनत में वह खामदम और चोबदार के ओहदे से ऊपर नहीं जा सका...यही था मगु लों का जामतवाद...इसी जामतवाद के चलते समदयों पहले महन्दू हारा था और इसी के चलते मल्ु की-मसु लमान की मदद से मग़ु ल महरूम थे। जैसे महन्दू क्षमत्रय का साथ महन्दू दमलत ने नहीं मदया था, वैसे ही मग़ु लक्षमत्रय का साथ मल्ु की-ममु स्लम-दमलत नें नहीं मदया था..इसी इस्लामी-िाह्मिवाद ने अकबर की कोमशशों को नाकाम मकया था…।”4 मकसी भी संस्कृ मत को सीमाओ ं में नहीं बांधा जा सकता और न ही उस पर एकामधकार ज़माया जा सकता है हर मजहब मानवता की भार्षा मसखाता है मजसमें प्रेम, ममत्रता, संवदे नशीलता, मववेक जैसे तत्व मवद्यामान रहते हैं। कोई भी मजहब आत्माओ ं को नहीं Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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बांटता है इसी सन्दभा में सलमा, अदीब को कहती है मक ‘‘ इस्लाम की नज़र से पामकस्तान का बनना ही गनु ाह है... क्योंमक इस्लाम नफरत नहीं मसखाता, पर पामकस्तान की बमु नयाद नफ़रत पर रखी गई है....इस्लाम जैसा मज़हब मकसी मल्ु क की सरहदों में कै द कै से मकया जा सकता है! कोई मजहब कै द नहीं मकया जा सकता है... इस्लाम तो खासतौर से नहीं।’’5 लेखक ने स्पि करना चाहा है मक मनष्ट्ु य की पहचान उसकी मानवता के आधार पर नहीं बमल्क जामतयों के आधार पर, धमा के आधार पर की जा रही है। 1947 में एक पामकस्तान बना लेमकन प्राचीन काल से लेकर अब तक प्रत्येक देश के भीतर कई पामकस्तान बनते आये हैं, और बनाये जाने की प्रमक्रया जारी है। हर व्यमक्त नफरत की आग जलाकर दसू रे व्यमक्त के मखलाफ एक दसू रा पामकस्तान बनाने की तैयारी में जटु ा है। इसी सन्दभा में लेखक कहता है मक ‘‘अब तो सब मल्ु कों में नफरत का एक पामकस्तान बनाने की कोमशशे जारी हैं..... क्या हुआ बोमस्नया में, क्या हुआ है साइप्रस में, क्या हुआ है तब के टूटे सोमवयत यमू नयन और अब के बने रमशयन फे डरे शन में। क्या हो रहा है आज के अफगामनस्तान में ? हर व्यमक्त नफरत के सहारे अपने ही लोगों के मखलाफ एक दसू रा पामकस्तान ईजाद करना चाहता है।’’6 जब तक जामत, धमा, नस्ल की सवोच्चता तथा मवश्व शमक्त बनने का नशा नहीं टूटता तब तक पामकस्तान से पामकस्तान ही पैदा मकए जाते रहेंग।े कमलेश्वर इस सवोच्चता के नशे को तोड़ने के पक्षधर हैं और उस समाज का सपना देखते हैं जहाँ व्यमक्त मानवता के आधार पर पहचाना जाए न मक वगा, विा, धमा या नस्ल के आधार पर। भारतीय समाज ने धमा मनरपेक्षता की संस्कृ मत का पाठ सम्पिू ा मवश्व को पढ़ाया और अपनी इसी मवशेर्षता के कारि अपनी अलग पहचान भी बनाए हुए है। भारतीय देश में मवमभन्न प्रकार के लोग रहते हैं और वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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हर व्यमक्त को अपने महसाब से जीने का अमधकार भी है, अपनी इसी मवमवधता के कारि भारतीय सामाज मवश्व के समक्ष एक आदशा रूप स्थामपत करता है, लेमकन आदशा के भीतर का इमतहास बहुत खोखला है। मकसी भी देश में मवशेर्ष प्रकार के धमा को लेकर कट्टरता उस देश की खण्डता का कारि बनती है। सामामजक प्रािी होने के नाते हमें एक दसू रे के धमा, संस्कृ मत को जानने का अमधकार है, लेमकन कई बार मस्थमतयां ऐसी हो जाती हैं मक धमा को थोपे जाने की परम्परा भी चल पड़ती है। अध्यापक की भमू मका मनष्ट्पक्ष रहती है और उसकी जहां भी मनयमु क्त हो उसे वहां जाना ही है लेमकन मवशेर्ष प्रकार के कट्टर धाममाक देवता मकसी भी अध्यापक को बोलने, खाने, पहनने, पढ़ाने और जाने की प्रमक्रया तय करते हैं। वतामान समय में यह मसलमसला और भी तेजी से बढ़ चक ु ा है। इन देवताओ ं का मशकार के वल अध्यापक ही नहीं बमल्क मानवता की भार्षा बोलनें वाला कोई भी व्यमक्त हो सकता है। उपन्यास में काली मेम और महन्दवू ादी लड़कों के सवं ाद से इस बात का स्पिीकरि हो जाता है ‘‘तमु महन्दू हो ? हाँ, क्यों ? मफर तमु ईसाई बस्ती में रोज क्यों जाती हो ? मैं वहाँ प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हू।ँ यह झठू बोल रही है...यह बताती नहीं, पर यह इसाई हो चक ु ी है।यह उनके मगरजाघर में प्राथाना करने जाती है....।”7 इस संदभा से दो बातें मख्ु य रूप से उभरकर आती हैं एक तो यह मक मवभाजन की त्रासदी में महन्दोस्तान एवं पामकस्तान की आड़ में कई मस्त्रयाँ यौन शोर्षि का मशकार हुई और दसू रा कुछ कट्टरपंमथयों द्वारा अपनेVol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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अपने धमा स्थापना की प्रमक्रया में मानवता का पतन हुआ। लेखक मवमभन्न संस्कृ मतयों को सम्माननीय दृमि से देखता है उनका मानना है मक संस्कृ मतयों में मानवता मजन्दा रहती है प्रेम के प्रमत सत्कार की भावना रहती है नफरत जैसी चीजों का संस्कृ मत रूपी उपजाऊ जमीन में कोई स्थान नहीं रहता है संस्कृ मतयाँ नफरत में जीना नहीं मसखाती बमल्क प्रेम की भार्षा बोलने का आदशा स्थामपत करती है, वह बांटने में मवश्वास नहीं रखती बमल्क जोड़ने में अपनी साथाकता समझती है इसी संदभा में कमलेश्वर का कहना है मक ‘‘कोई भी संस्कृ मत पामकस्तानों के मनमा​ाि के मलए जगह नहीं देती। संस्कृ मत अनदु ार नहीं, उदार होती है..........वह मरि का उत्सव नहीं मनाती, वह जीवन के उत्सव की अनवरत श्रृख ं ला है.... इसी सामामसक सस्ं कृ मत की ज़रूरत हमें है क्योंमक वह जीवन का सम्मान करती है।’’8 कमलेश्वर की दृमि में पामकस्तान कोई एक मल्ु क नहीं बमल्क उस मानमसकता का प्रतीक है जो महसं ा के नाम पर अपना स्वाथा साधकर अपनी जीत हामसल करती है, न जाने इस आड़ में मकतनों के घर जले होंगे, मकतने मौत के घाट उतारे गए होंगे , मकतने बच्चे अनाथ हुए होगें। उपन्यास में महन्दओ ु ं एवं मस्ु लमानों के झगड़ों एवं फसादों की जड़ बाबरी ममस्जद के मनमा​ाि से माना जाता है। इमतहासकारों के अनसु ार यह धारिा स्थामपत की गई मक बाबर ने राम ममं दर हटाकर बाबरी ममस्जद का मनमा​ाि मकया था। लेमकन कमलेश्वर के मलए यह तथ्य भ्रामक एवं असत्य है। कमलेश्वर तमाम शोध के उपरान्त उपन्यास के पात्रों के माध्यम से बाबरी ममस्जद का सच उभार कर सामने लाते हैं। अदीब की सभा में जब बाबर को पेश मकया जाता है तब वह अपने बारे में स्पि करते हुए कहता है मक ‘‘मैंने कोई ममन्दर ममसमार नहीं मकया और न महन्दस्ु तान में कोई ममस्जद अपने नाम से कभी वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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बनवाई। इस्लाम तो महन्दस्ु तान में मेरे पहुचँ ने से पहले मौजदु था।”9 अदीब के समक्ष बाबर स्वीकार करता है मक बाबरी ममस्जद से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। उपन्यास में बाबर की गवाही हेतु ए.फ्यहू र को सभा में हामजर होने का ऐलान मदया जाता है मजसमें अदीब उसे प्रश्न पछ ू ता है मक ‘‘तमु ने बाबरी ममस्जद का वह मशलालेख पढ़ा था, जो अब पढ़ा नहीं जा सकता।”10 ए.फ्यहू र स्पिता कहते हैं मक‘‘महजरी 930 यानी करीब 17 मसतम्बर सन1् 523में इिाहीम लोदी ने उस ममस्जद की नींव रखवाई थी, और जो 10 मसतंबर 1524 में बन कर तैयार हुई, मजसे अब बाबरी ममस्जद कहा जाता है। यही बताने मैं बाबर के पास गया था!..... इस खतु बे को वक्त ने नहीं, उन लोगों ने बरबाद मकया है जो इस बाबरी ममस्जद और राम जन्मभमू म ममन्दर को मजन्दा ा़ रखना चाहते हैं।’’11 यही वह ए.फ्यहू र सल्तनते बता​ामनयां के आमका यालॉजीकल सवे आफ इमण्डया का डायेरक्टर जनरल है “मजसने 1889 में वह मशलालेख पढ़ा था, जो मेरे नाम पर थोपी जा रही ममस्जद में लगा हुआ था...आज वह मशलालेख पढ़ा नहीं जा सकता क्योंमक जामहलों ने उसे पढ़ने लायक नहीं छोड़ा।’’12 कट्टर महन्दु और ममु स्लम समाज को भ्रममत कर ममन्दर और ममस्जद के झगड़ों को मजन्दा रखकर अपना स्वाथा साधकर इन दोनों पर अपनी-अपनी सत्ता जमाना चाहते थे। आज तक इिाहीम लोदी पर उंगली न उठाए जाने के लेखक ने दो कारि बताए हैं। ‘‘पहली बात-वहाँ ममन्दर था ही नहीं और दसू री बात मक...इिाहीम लोदी की दादी महन्दू थी...महन्दू दादी का खनू उसकी रगों में बहता था, इसमलए भी उस पर इल्जाम नहीं लगाया गया ....इसमलए मक वो वतनी था और उस की दादी महन्दू थी।’13’ इसी भ्रम के कारि आज पररमस्थमतयां इतनी मबगड़ चक ु ी है मक मानवता आज कराह उठी है। सत्ता को पाने के मलए नफरत और

महसं ा की आड़ में न जाने दमु नया भर में मकतने पामकस्तान बनाये जाने की ममु हम चलती जा रही है। मशमक्षत समाज में भी इन पररमस्थमतयों में कोई सधु ार आने के बजाए माहौल और अमधक मबगड़ता जा रहा है। इसी सन्दभा में नदीम अपने बेटे परवेज़ से कहता है मक ‘‘तो अब मकतने पामकस्तान बनेंगे भाई ?...खदु पामकस्तान में से मकतने पामकस्तान पैदा होंगे ? पंजाब के सरायकी अपना सबू ा माँग रहे हैं। परु ाने मसंधी अपना मसन्धु देश बनाना चाहते हैं। जैसे यहाँ लोगों ने पंजाबी-उदाू की लड़ाई-छे ड़ दी है, वैसे ही वहाँ मसन्धीउदाू की लड़ाई चल रही है। और...पख्तनू अपना पख़्तमू नस्तान चाहते हैं। अताउल्ला मेंगल आजाद बलमू चस्तान माँग रहा है। और अपने महु ामजर भाई मसन्ध कराँची में अपना एक और पामकस्तान बनाना चाहते हैं...सनु ा है मक वहाँ महन्दस्ु तान में महन्दू भी महन्दस्ु तामनयों से अपना महन्दत्ु ववादी पामकस्तान माँग रहे हैं.... लक ं ा में तममल अपना लक ं ा अलग करना चाहते हैं...सरहद पर मारकाट चल रही है छंबजोररयाँ, खेमकरन की पहामडयाँ ा़ और मैदान खनू से नहा रहे हैं।’’14

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

अतः कहा जा सकता है मकतने पामकस्तान परू े मवश्व की घटनाओ ं को समेटकर मलखा गया उपन्यास है इसमें आतक ं वाद,साम्प्रदायमकता,जामतगत और रंगभेद के आधार पर मकये जा रहे अत्याचारों का ऐमतहामसक मचत्रि है। हर देश में नये-नये पामकस्तान बनाने के र्षड़यन्त्र रचे जा रहे हैं,मजन्हें धमा के नाम पर की जा रही घृमित राजनीमत अजं ाम दे रही है। हजारों साल के इमतहास और अपने समाज को समझने के मलए यह उपन्यास संवदे नशीलता का काम करते हुए मानवता की भार्षा बोलता है। उपन्यास मवश्वभर के तमाम कटु सत्यों को उभारते हुए अन्ततः इस मनष्ट्कर्षा पर पहुचँ ता है मक प्राचीन समय से चली आ रही बांटने


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की प्रमक्रया बंद हो जानी चामहए नहीं तो नफरत की नींव पर कई पामकस्तान खड़े मकये जाते रहेंग।ें

13 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़. पृ. 72

िन्द्दभक िच ू ी

14 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़. पृ. 336

1 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़ .पृ,103 2 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़ . पृ,257 3 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़ .पृ,152 4 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़ .पृ.145 5 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़ .पृ.110 6 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़ .पृ.93 7 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़. पृ. 329 8 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़. पृ.182 9 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़. पृ. 69 10 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़. पृ. 71 11 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़. पृ. 72 12 कमलेश्वर. 2000. मकतने पामकस्तान. मदल्ली कशमीरी गेट: राजपाल एण्ड सन्ज़. पृ. 71 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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कबीर: कल और आज िसु मत कुमार चौधरी शोधाथी- जवाहरलाल नेहरू मवश्वमवद्यालय कमरा न. 236 झेलम छात्रावास नई मदल्ली-110067 मो.9654829861 "साधो देखौ जग बौराना सांची कहूँ तो मारन धावै झठू े जग पमतयाना"1 कबीर पर बात शरू ु करने से पहले हमें यह देख लेना चामहए मक क्या कारि है मक कबीर कल भी हमारे बीच मौजदू थे और आज भी हमारे बीच मौजदू हैं? जामहर सी बात है मक मकसी भी कमव या समाज सधु ारक की कही गई बामियों का फ़लक इतना व्यापक होता है मक वह अपने समय के साथ-साथ दरू गामी भमवष्ट्य पर भी अपनी छाप छोड़ देती है। यही व्यमक्तव कमव, समाज सधु ारक संत कबीर और उनकी रचनाओ ं की रही है। जो आज भी आम जन मानस के बीच लोकमप्रय बनी हुई है। सतं कबीर मजस समय पैदा हुए थे। उस समय भारतीय सामामजक व्यवस्था में काफी उथल-पथु ल थी। उस समय समाज में सस्ं कृ मत, धमा और सम्प्रदाय का काफी जोर था। महन्दू धमा और इस्लाम धमा के बीच आम जनता मपस रही थी। राज सत्ताओ ं को के वल मसघं ासन ही मदखाई दे रहा था। इन्हीं दोनों के बीच मपसती हुई आम जनता के शोर्षि की बात कबीर ने अपनी सामखयों में की है। जो समय का सच था। उस साखी का एक पाठ देमखए"चलती चक्की देखकर, मदया कबीरा रोय। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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दो पाटन के बीच में, साबतु बचा न कोय।।"2 सतं कबीर की मनभीकता ही उनकी क्रांमतकारी वैचाररकता का आधार स्रोत था जो उन्हें जनता के बीच सम्मोमहत करता था। इनकी वैचाररकता का परू ा का परू ा अश ं जनता के पक्ष में था और इनकी सामखयों का तेवर भी जन संस्कृ मत को बचाए रखने के पक्ष में था। प्रो. मैनेजर पाण्डेय के अनसु ार, "कबीर की कमवता की दो बमु नयादी मवशेर्षताएं हैं- अथक आलोचनात्मक चेतना और प्रश्न की प्रवृमत्त। उनकी आलोचनात्मक चेतना मल ू गामी है। वह जनता को जगाने वाली है और रूमढ़यों को चनु ौती देने वाली। इस आलोचना की एक मवशेर्षता है- प्रश्न करने की प्रवृमत्त। यह प्रवृमत्त मजतनी प्रखर कबीर की कमवता में है, उतनी उस काल के मकसी अन्य कमव की कमवता में नहीं। उस समय का समाज उसका धमा और उसकी व्यवस्था का कोई ऐसा पक्ष नहीं है जो कबीर के प्रश्नों से बच पाया हो। वे भौमतक यथाथा के बारे में प्रश्न करते हैं और अमधभौमतक संभावनाओ ं के बारे में भी, सामामजक व्यवस्था से जड़ु े प्रश्न पछ ू ते हैं और मानमसक अवस्था से जड़ु े प्रश्न भी। कभी-कभी वे धाममाक व्यवस्था की रूमढ़यों को अपने प्रश्नों के कठघरे में लाकर सवाल-दर-सवाल करते हुए उसके अतं मवारोधों को उजागर करते हैं।"3 जामहर सी बात है मक मैनेजर पाण्डेय का कथन कबीर के रचनात्मक जीवन का एक आईना है। जो मबलकुल साफ़ है। मजसमें आम जनता अपने आप को देख सकती है। तभी कबीर ने जनता का ख़याल रखते हुए अपने सरु को जनता के सरु में ममलाया और जनता के पथप्रदशाक के रूप में अग्रसर हुए। इसमलए कबीर का व्यमक्तव बहुआयामी रूप में हमारे समक्ष मौजदू है।

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कबीर ने अपनी बात मजस समय, समाज सधु ार के पक्ष में रखी थी, उस समय भारत के भगू ोल में ऐसा कोई कमव नहीं था जो कबीर की तरह लोकजीवन में प्रचमलत अधं मवश्वासों को चनु ौती दे सके । उन्होंने दोनों धमों (महन्दू और इस्लाम) को खल ु ी चनु ौती दी। क्योंमक दोनों ही धमा जनता के वसल ू ों के मवपरीत जा रहे थे। इसीमलए कबीर इन धमों के वसल ू ों का मवरोध मकया। उनका मानना था मक समाज में जो दमलतउत्पीमड़त लोग हैं उनको धमा के ठे केदारों से अलग मकया जाना चामहए। यह अलगाव इसमलए था मक, कबीरदास उत्तर भारत में मनगािु भमक्त आदं ोलन के परु​ु र्षकता​ा थे। वह दास्य भमक्त से साधारि जनता को अलग करके मनगािु मनरंकार की ओर ले जाना चाहते थे। क्योंमक वह मानते थे मक जो सत्य सृिी में मवद्यमान है वह सत्य मवश्व के मल ू में मवद्यमान रहस्यमयी सत्ता को कि-कि में अनभु मू त मकया जा सकता है, रहस्यवाद के जररए। इसी मवराट सत्ता को लेकर कबीरदास दोनों धमों के धाममाक उन्माद को चनु ौती देते थे। और मानव मात्र की एकता और स्वतत्रं ता पर बल देते थे। सत्य बात तो यह है मक भारतीय सन्दभा में ऐसा कोई समाजशास्त्री नहीं हुआ जो सतं कबीर की तरह सामामजक चेतना और समाज का समाजशास्त्रीय मवश्ले र्षि कर सके । यह बात परू े दावे के साथ इसमलए कह रहा हूँ क्योंमक भारत में मजस जातीय राजनीमत का ताडं व आज के समय में मचा है और जामत-धमा पर ही राजनीमत की जा रही है।उसका लेखा-जोखा कबीर ने अपने समय में कर मदया था। इतना ही नहीं समाज के जातीय आधार पर तो उनका कहना ही कुछ और है। दरअसल, कबीर ने अपने समय के जीवन-जगत को खल ु े नेत्रों से देखा था। वे 'आँमखन देखी' पर मवश्वास करते थे न मक 'कागद लेखी' पर। क्योंमक कबीर को वेदों, परु ािों और शास्त्रीय परम्परा के अधं मवश्वासों पर Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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तमनक भी भरोसा नहीं था। उन्होंने जो भी कुछ कहा है उसके पीछे उनका भोगा हुआ यथाथा और अनुभव मवद्यमान है। इसीमलए वह डटकर दोनों धमों पर करार व्यंनय मकया करते थे। तभी उनकी सामखयां अपने समय तथा आज के समय का प्रमतरोध करती हैं। कल और आज के बीच एक लकीर खींच दी हैं समय के यथाथा को लेकर और आज प्रासंमगक बन बैठी हैं। आज के इस दौर में फासीवादी संस्कृ मतयां मजस तरह अपना बल्ु डोजरी महँु फै ला रही हैं, वह सब कबीर साहब के यहाँ लगभग सात सौ साल पहले मौजदू था और आज भी है। मजस जातीय समीकरि और धाममाक समीकरि को आधार बना कर भारत मवभाजन मध्यकाल में मकया जा रहा था उसका हजा​ाना हमें आधमु नक भारत में देश स्वतंत्र होने के पिात हमें भगु तना पड़ा। कहने का आशय यह है मक कबीर के समय जामत का बधं न और धमा का बधं न इतना सघं नन था मक उसे तोड़ना असभं व था। तभी मैंने ऊपर कहा है मक कबीर के समय का यथाता आज भी बरकरार है। मजस रक्त शद्ध ु ता की वकालत मध्यकाल में कबीर कर रहे थे और एकता की डोर में बाधं रहे थे वह आज भी नहीं सभं व हो पाई है। आज भी वही खाई समाज में मौजदू है। कबीर को देख-ें "जो तू बाँभन-बाँभनी जाया आन बाट ह्वै क्यों नमह आया।"4 आज के सन्दभा में कबीर के मवचार बहुत जीवतं हैं। उन्होंने मजस जातीय सरं चना का मवरोध अपने समय में मकया था, उसका मवकराल रूप आज हमारे सामने मौजदू है। 'हररजन दहन', महन्द-ू ममु स्लम के बीच साम्प्रदामयक दगं ा इतना भीर्षि रूप लेता जा रहा है मक इससे देश की जनतांमत्रक व्यवस्था ख़तरे की ओर बढ़ती हुई नजर आ रही है। यह मववाद साधारि जनता की सामामजक-आमथाक ढांचे को वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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नक ु सान तो पहुचं ा ही रही है साथ ही साथ देश की अखण्डता को भी ख़तरा पैदा कर रही है। वस्ततु ः इन पररमस्थमतयों में कबीर के काव्य के सन्देश और अमधक प्रासंमगक बन गए हैं। लोकतंत्र में इन्हीं सब मवसंगमतयों को देख कर कबीर का समय और उनका काव्य बार-बार हमें झगझोरता है। क्योंमक कबीर ने अपने समय में जनतांमत्रक समाज की स्थापना की बात कर चक ु े थे। मजसका अनपु ालन हम आज संमवधान सम्मत राष्ट्र-राज्य में कर रहे हैं। मफर भी हम आज असमानता का डंस झेल रहे हैं। सही मायने में कहा जाए तो देश और समाज की उन्नमत उसके मवकासगामी मल्ू यों में है न मक जामतय संरचना में। और यह तब संभव हो पाएगा, जब हम जातीय आधार और धाममाक आधार को दर मकनार करके भाई चारे का पाठ पढ़ाए। एकता बनाए।ं तभी सफल राष्ट्र का मनमा​ाि हो सकता है और देश का मवकास भी। इसीमलए कबीर ने बार-बार कहा है मक हम सब एक हैं। एक ही ईश्वर है। प्रकृ मत ने सबके साथ समानता बरती है, मफर मानव-मानव में कलह, भेद-भाव क्यों? ऊँच-नीच की खाई खोदकर मानव-मात्र को अलग करने और घृिा का प्रचार करने की क्या आवश्यकता है? कबीरदास इस सन्दभा में कहते हैं"एक बँदू एक मलमतू र एक चाम एक गदू ा। एक जामत तै सब उपजा कौन बाभन कौन सदू ा।।"5 इतना ही नहीं कबीरदास प्रबलता के साथ यह भी कहते हैं मक, सामतं ी समाज की उच्चता झठू े दम्भ पर मटक है और इसे समाप्त मकया जाना चामहए। यह दम्भ समाज के उत्पीमड़त जनता में हीनता बोध पैदा करती है। इसीमलए उनका प्रहार सामंती समाज के प्रमत होकर मनम्न जामतयों में आत्ममवश्वास का भाव पैदा करती है। इसी मानवतावादी दृिीकोि के कारि पांडे अथवा पंमडत को संबोमधत कर बार-बार पंछ ू ते हैंVol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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"पाँड़े छूत कहा ते आई।" अथवा "संतों पाँडे मनपनु कसाई।"6 इस तरह से देखा जाए तो यह आभास होता है मक मध्यकालीन समाज धमा, जामत, सम्प्रदाय के नाम पर मवमभन्न वगों, सम्प्रदायों में बटा हुआ था। और आज भी यही हाल है। कल भी सब अधं मवश्वास में जकड़े हुए थे और आज भी जकड़े हुए हैं। इसी जकड़न और आत्मालोचन को लेकर संत कबीर ने दोनों धमों के लोगों को उनके बड़प्पन की ख़बर ली है। देमखए कबीर साहब के शब्दों में"महन्दू अपनी करै बड़ाई, गागर छुअन न देई। वेश्या के पावन तर सोए, यह देखो महदं आ ु ई।।"7 ममु स्लमों के प्रमत भी देमखए उनका नज़ररया"मसु लमान के पीर औमलया मगु ा​ा-मगु ी खाई। खाला के री बेटी व्याहै घर में करै सगाई।।"8 इस तरह कबीर की दृमि समधमी थी। वह आलोचना और आत्मालोचना का भरपरू प्रयोग करते थे। मबना लाग लपेट के दोनों धमों पर जमकर बरसते थे। तभी डॉ.रामकुमार ने इस सन्दभा में कहा है मक, "कबीरदास ने सफलता पवू क ा दोनों धमों की 'अधाममाकता' पर कुठाराघात मकया और नए सम्प्रदाय का सत्रू पात मकया जो 'सतं मत' नाम से प्रख्यात हुआ।"9 वास्तव में सतं मत एक नया आयाम था मजसको आगे ले जाने में तमाम सतं आगे आए। जैसेरै दास, दाद,ू धन्ना, सेना,पीपा और दररया। मजन्होंने कबीर के मवचारों को आत्मसात मकया और मानव मात्र की एकता, स्वतंत्रता और समानता पर बल मदया। यह सामामजक समरसता और एकतावादी दृमि संत कबीर को अपने वामस्तवक जीवन में बड़ा मनष्ट्ु य वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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होना का पररचय मदया है। कबीर साहब ने जो अमभयान मध्यकाल में छे ड़ा था वह भले ही अधरू ा रहा हो लेमकन समाज में आज वह मौजदू है। आज भी लोग प्रमतरोध की शैली का अनसु रि कर रहे हैं। धाममाक नीमतयों के मखलाफ, सामामजक उत्पीड़न के मखलाफ, भेद-भाव के मखलाफ मवरोध जता रहे हैं और एकता और स्वतंत्रता का राग गा रहे हैं लेमकन देखना यह है की यह एकता, समानता और स्वतंत्रता कब हामशल होती है। आज जब हम इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे हैं और हमारे समय में राष्ट्रीय-अन्तरा​ाष्ट्रीय मद्दु े या घटनाएं समाधान के मलए महँु बाए खड़ी हैं तब हम धाममाक मसलों में पड़कर देश के भमवष्ट्य के साथ खेल रहे हैं। जबमक ऐसे चनु ौती भरे वातावरि में हमें धाममाक मसलों को भल ू कर उसका मनदान करना चामहए, लेमकन यह मसला धमा के आगे बौना पड़ जाता है और हमें ऐसे मवस्फोटक मवन्दु पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ से कोई मागा ममल पाना ममु श्कल सा जान पड़ता है। इसीमलए कबीर ने कहा था मक-

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1. डॉ. मतवारी पारसनाथ, कबीर-बािी सधु ा, राका प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011, 2. उपरोक्त. 3. आलोचना पमत्रका, राजकमल प्रकाशन, नई मदल्ली, अप्रैल-जनू , 2000, पृ.सं. 277. 4. डॉ. मतवारी पारसनाथ, कबीर-बािी सधु ा, राका प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011, 5. 6. 7. 8. उपरोक्त. 9. चौधरी उमा शक ं र, मवमशा में कबीर, आधार प्रकाशन, हररयािा, 2011, पृ.सं. 39. 10. डॉ. मतवारी पारसनाथ, कबीर-बािी सधु ा, राका प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011,

"अरे इन दोउन राह न पाई। महन्दनु की महदं वु ाई देखी तरु कन की तरु काई। कहै कबीर सनु ो भाई साधो कौन राह ह्वै जाई।"10 इस तरह अगर सामामजक व्यवस्था, धाममाक व्यवस्था और राजनीमतक व्यवस्था को देखा जाए तो सतं कबीर कल भी हमारे बीच मौजदू थे और आज भी हमारे बीच मौजदू हैं। जो हमारे 'मपछड़नेपन' की ओर संकेत करते हैं। िंदभक ग्रन्द्थ-िूची

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सि​िप्रिाद सिहं की कहासनयों में ग्रामीण जीिन

मकया है। इस सन्दभा में मववेकी राय कहते हैं, “बदले

और िामासजक पररप्रेक्ष्य

हुए गाँव और मबन बदली हुई गाँव के गरीबों की

कंचन लता यादि

मनयमत से संबंमधत सवालों को कथाकार मशवप्रसाद

भारतीय भार्षा कें द्र जवाहरलाल नेहरू

मसंह मवमवध कोिों से उठाते हैं। आमथाक सवालों से

मवश्वमवद्यालय, नई मदल्ली

तीखे सामामजक सवाल हैं।”1 इनकी कहामनयों का

मोबाइल. 9868329523, ईमेल –

मल ू कथ्य ग्राम जीवन पर आधाररत होने के कारि,

klyjnu26@gmail.com

इन्हें प्रेमचदं की परम्परा से जोड़कर देखा जाता है। दोनों लेखक ग्रामीि जीवन के कथाकार हैं लेमकन

मशवप्रसाद मसंह स्वतंत्रता के बाद और नयी

अलग-अलग देश, काल, वातावरि के कारि, दोनों

कहानी के प्रमख ु रचनाकार हैं। भारतीय स्वाधीनता

लेखकों की रचना-प्रमक्रया, कथ्य-मशल्प आमद में

आन्दोलन के बाद बदले हुए ग्रामीि पररवेश का

मभन्नता है। प्रेमचंद के समय साम्राज्यवाद और

यथाथापरक और ननन मचत्रि उनकी कहामनयों में

सामन्तवाद से जनता संघर्षा कर रही थी मजसे उन्होंने

मदखाई देता है। उन्होंने व्यमक्त और सममि के

कहानी का मवर्षय बनाया। लेमकन मशवप्रसाद मसंह के

मवघटनकारी मल्ू यों की बारीमकयों को पकड़ा ही नहीं

समय देश आज़ाद हो गया था, जमींदारी उन्मल ू न भी

बमल्क उसका नकार भी मकया। उन्होंने जब कथा

हो गया था, जमींदार के रूप में ठे केदार और पंजू ीपमत

लेखन में प्रवेश मकया तब देश औद्योमगकीकरि,

जैसी शोर्षिकारी शमक्तयाँ पनप रहीं थीं लेमकन

पच ं वर्षीय योजना आमद तमाम मवकासमान मल्ू यों की

सामामजक ढ़ाच ं े में कोई बदलाव नहीं आया। जमींदारी

तरफ गमतमान था। अम्बेडकर और गाँधी के प्रयास से

खत्म होने के बाद भी जमींदारों द्वारा शोर्षि बरकरार

दमलतों में चेतना सगु बगु ा रही थी। गाँव का साममजक

है। इस सन्दभा में बच्चन मसहं ने मलखा है, “परम्परा

ढ़ाच ं ा टूट रहा था। इस तरह की मस्थमत में गाँव का एक

पर मवचार करते समय स्मरि रखना होगा मक प्रेमचदं

बदला हुआ पररदृश्य मदखाई मदया मजसे मशवप्रसाद

का जमाना और था तथा मशवप्रसाद का जमाना और

मसंह ने अपनी कहानी में रूपामयत मकया। उन्होंने

है। प्रेमचंद परतंत्र भारत में मलख रहे थे जो

अपनी कहामनयों में सामामजक, राजनीमतक, आमथाक,

साम्राज्यवाद और सामन्तवाद से जझू रहा था,

जामतगत आमद मवमवध समस्याओ ं को अमभव्यक्त

महाजनी सभ्यता से टकरा कर मकसान चकनाचरू हो

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रहा था। मशवप्रसाद जी स्वतंत्र भारत की सनु हरी

स्वातंत्र्य को इतं हा तक स्वीकार नहीं करता, अमल में

मकरिों की ऊष्ट्मा में मलख रहे थे।”2 मशवप्रसाद मसंह

लाना चाहता हू।ँ मैं मशवप्रसाद-परम्परा का आरमम्भक

प्रेमचंद की परम्परा में होते हुए भी आधमु नक कथाकार

और अमं तम लेखक हू।ँ ”4 लेमकन यह सच है मक

हैं। इन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनायी जो

प्रेमचंद ने मजस ग्राम जीवन को व्यापकता से देखा था

इनकी कहामनयों में द्रिव्य है। इनकी कहामनयों में

उसे मशवप्रसाद मसहं गहराई में ले गये। अत: इनकी

परम्परा जड़ या रूमढ़ नहीं बमल्क आधमु नकता के

कहामनयों में व्यमि-सममि के व्यापकता और गहराई

नवीन सन्दभों को रे खामं कत करती है। इस सदं भा में

का सम्पटु योग है। उन्होंने चररत्रों के बाह्य समस्याओ ं

बच्चन मसहं ने मलखा है-“परम्परा में बहुत सारे लोग

को ही नहीं बमल्क आन्तररक मन:मस्थमत को पकड़ने

आते हैं। प्रेमचन्द की परम्परा का मतलब यह नहीं है

की कोमशश की है। उन्होंने स्वयं कहा है, “मैंने ग्राम-

मक प्रेमचंद की अनक ु ृ मत करना। परम्परा जड़ नहीं

जीवन से ही अमधकांश चररत्र चनु ें। यह मेरी मववशता

गत्यात्मक होती है। अपनी गत्यात्मकता में वह कुछ

इसमलए है, क्योंमक मैं इन चररत्रों के बाह्य-आभ्यंतररक

चीजों को छोड़ती है, कुछ चीजों को लेती है तथा कुछ

रूपों को ज्यादा आसानी से समझता हू।ँ ”5 इन पात्रों में

नया जोड़ती चलती है। प्रेमचंद की परम्परा में गाँव के

मबंदा महाराज, नन्हों, माटी की औलाद का टीमल

माध्यम से मनम्नवगा के प्रामियों की पीड़ा, उच्चतर

कुम्हार, पापजीवी का बदल,ू इन्हें भी इतं जार है की

नैमतकता तथा संघर्षा मदखाई पड़ता है वह अपने मकस्म

कबरी, कलंकी अवतार का रोपन आमद हैं, मजनके

का मशवप्रसाद में भी है।”3 मशवप्रसाद मसंह का

अतं :मन की जीवन्तता कहामनयों के माध्यम से द्रिव्य

अनभु व क्षेत्र गाँव जीवन की पैदावार है। उनके चेतन

है। उनकी कहामनयों के चररत्र उनके आस-पास के

और अवचेतन में ग्रामीि जीवन की यथाथा स्मृमतयाँ

लोग हैं। उनके दैमनक जीवन की समस्याओ ं को इन्होंने

व्याप्त हैं। अत: मशवप्रसाद मसहं सहज ही इस परम्परा

बहुत नजदीक से देखा-परखा है। मशवप्रसाद मसहं को

से जड़ु े हुए हैं। उन्होंने इस सदं भा में कहा है, “प्रेमचदं

“गाँव जीवन का गहरा बोध है। बोध क्या; उन्होंने

भारतीय संस्कृ मत की यथाथा जमीन की महत्वपिू ा

काफी हद तक मजया भी है। मकसी तथ्य घटना और

पैदावार हैं, इसमलए उनकी परम्परा में होना खश ु ी की

पररवेश को जीकर या झेल करके ही अनभु मू त में

बात है, पर मैं मकसी भी लेखक की परम्परा के नाम

तीखापन आता है। इसी को अपना कमाया हुआ सत्य

अपने को मगरवी नहीं रखना चाहता। मैं लेखकीय

कहा जा सकता है। यही सत्य उनकी कहामनयों का

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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मल ू ाधार है। उनकी दृमि ऐसे पात्रों पर भी पड़ती है जो

अपेक्षाकृ त मवस्तृत मानवीय संवदे ना से यक्त ु करूँ मक

मबना मकसी अपराध के यातना पाते हैं। दशान की भार्षा

लोगों को वह आचं मलक न लगे।”8

में इसे ‘अनकममटेडसफररंग’ कहते हैं।”6 उनकी

‘ममं जल और मौत’ कहानी में एक व्यमक्त के जीवन

कहानी ‘मबंदा महाराज’ ऐसा ही पात्र है जो मबना

की लालसा को बड़े ही माममाक ढंग से अमभव्यक्त

मकसी अपराध के अनेक सामामजक समस्याओ ं का

मकया गया है। इस कहानी का पात्र ‘बौड़म’ स्वतत्रं

सामना कर रहा है। नयी कहानी में ‘पररवेश की

भारत में मजन्दगी की तमाम मवपरीत पररमस्थयों से लड़

मवश्वनीयता’, ‘अनभु मू त की प्रामामिकता’ और

रहा है। उसकी पत्नी ने बौड़म को पागल कह कर

‘अमभव्यमक्त की ईमानदारी’ का आग्रह था, उसका

ठुकरा मदया और ठाकुर के इशारे पर उसके नौकर की

प्रमतरूप मशवप्रसाद मसंह की कहामनयों में मदखाई देता

रखैल बन गयी। तब से उसके मन की इच्छा है मक

है। मशवप्रसाद मसंह कहते हैं, “मेरी कहामनयों में,

रुन-झनु पायलों वाली एक बहू लाये। उसके घर की

उपन्यासों में जो पात्र आये हैं वे परू े के परू े कल्पना द्वारा

खमु शयाँ पनु : लौट आये। इस कहानी में लेखक कुएं

नहीं मनममात मकए गये हैं। यह अलग बात है मक

के पास की परु ानी सीमढ़यों का प्रमतकात्मक रूप

पररवार, ररश्ते, पररवेश और वातावरि मभन्न हैं

प्रस्ततु करता है जो बौड़म की मजन्दगी की तरह

लेमकन वो सब मेरे जाने हुए और देखे हुए हैं। कहीं न

मबल्कुल जजार हो गयी “मजसके सहारे पीठ को

कहीं मेरा उनसे मानवीयता के धरातल पर, संवदे ना के

अड़ाकर, अपने दोनों घटु नों के बीच मसर को गड़ाकर

स्तर पर संपका रहा है। चाहे वे बझु ारत हों या

बौड़म मनिेि बैठा रहेगा, जैसे मजन्दगी के असह्य भार

खदु ाबख्श, या मबदं ा महाराज, सब मेरे देखे हुए पात्र

को क्षि भर के मलए उतारकर कोई थका-हारा बटोही

हैं, काल्पमनक नहीं।”7 इन्होंने अपने आस-पास के

मवश्राम करता है।”9 इस मवर्षम पररमस्थमत में उसके

प्रत्यक्ष अनभु व को कहानी का मवर्षय बनाया। इस

अन्दर मजजीमवर्षा है। बौड़म की इस असह्य मस्थमत में

सन्दभा में उन्होंने कहा है-“ये अनभु व मेरे लेखक के

भी परू ा गाँव उसे मनोरंजन का साधन मानता है। बच्चे,

मलए वरदान भी थे और चनु ौती भी। वरदान इस अथा

बढ़ू े, अधेड़, औरतें सब ममलकर बौड़म को मबना पैसे

में मक मझु े अपनी कहामनयों के प्लाट खोजने के मलए

का खेल समझते हैं। मकसी गीत द्वारा या उसके कंधे

कहीं भटकना नहीं पड़ता था और चनु ौती इस अथा में

की चादर खींच कर उसे उकसाया जाता है। उसके

मक अपने व्यमक्तगत अनभु वों को मैं मकस प्रकार एक

लाल-लाल आँखों में क्रोध, दीनता, कच्ची नींद के

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टूटने की खमु ारी, जान पाना ममु श्कल है। वह अपनी

सन्दभा में कहते हैं- “संत्रास के मदनों में भी यमद व्यमक्त

चादर लेने के मलए वहाँ खड़े प्रत्येक व्यमक्त को करुिा

में मनष्ठा और उसकी मजजीमवर्षा है तो मवश्व की बड़ी

भरी बोमझल दृमि से देखगे ा। उसकी आँखों में बेबसी

से बड़ी समस्या का सामना कर सकता है।”11 बौड़म

और आग्रह की ममू ता मदखाई देती है; ‘अरे दे न दो !

का परू ा जीवन संत्रास से भरा हुआ है। वह मजन्दगी से

वे हँसते हैं, मदा हैं, मजबतू हैं। तमु तो औरत हो, गरीब

लड़ रहा है लेमकन अपनी ममं जल की उम्मीद में

हो, मेरी तरह कमजोर हो, तमु मझु े परे शान क्यों करती

मजन्दगी से हार भी नहीं मान रहा है। उसके मन में पल

हो।’10 इस आग्रह में मकतना ममा मछपा है, मजसे यह

रही आशा की मकरि, उसे हारने नहीं देती है। अत:

समाज समझना नहीं चाहता है। उसके दःु ख को

अतं तक उसके सपनों का मचराग जलता रहता है। वह

समझने वाला कोई नहीं है। उसके जीने का एक मात्र

तब तक हार नहीं मानता है जब तक अपनी ममं जल

आसरा ममिू कुत्ता है, जो एक महीने पहले से मदखाई

नहीं पा लेता है। लेमकन आज जब वह अपनी ममं जल

पड़ रहा है। अब यह कुत्ता सोते-जागते हमेशा बौड़म

पा मलया। उसका घर दल ु महन के रुन-झनु पायलों की

के साथ रहता है। उस कुत्ते के आ जाने से बौड़म व्यस्त

आवाज से गंजू उठा। बौड़म ने मनयमत के क्रूर पंजे को

हो गया और जो भी बौड़म के करीब आने की कोमशश

मरोड़कर घर में खश ु ी ला दी। बौड़म के घर के “चारों

करता कुत्ता गरु ा​ा उठता। प्रेमचंद की कहानी ‘पसू की

तरफ उल्लास था, आनन्द था, और इस अपार खश ु ी

रात’ में हल्कू का एक मात्र सहारा झबरा कुत्ता बनता

की रात के सबेरे लोगों ने देखा मक आनंद के महासागर

है। हल्कू की तरह ही बौड़म का सहारा ममिू कुत्ता

में तैरते हुए बौड़म का शरीर ठंडा हो गया। मरा-सा तो

बनता है मजसके साथ वह अपने को व्यस्त रखता है।

वह था ही, पर इच्छा का जोर उसे खींचता गया,

लेमकन बौड़म की यह व्यस्तता गाँव वालों के

ममं जल पर आकर राही मौन हो गया।”12 मशवप्रसाद ने

मनोरंजन में बाधक बनी अत: उसके ममिू को जहर दे

ऐसे पात्रों के सन्दभा में मलखा है, “उनके कथा-चररत्रों

मदया गया। हमारा समाज मकतना स्वाथी और मनरीह

में जहाँ पाररवाररक जीवन का उच्छल राग, आत्मीय

है मक अपने मनोरंजन के मलए बौड़म की खश ु ी का

अनश ु ासन, सामामजक उदारता और एक खास मकस्म

एकमात्र सहारा भी छीन मलया। लेमकन इन मवपरीत

की नैमतक चेतना बहुत दरू से भी मदखाई पड़ती है,

पररमस्थमत में भी उसके अदं र एक ऐसी मजजीमवर्षा है,

वहीं गरीब की दारुि यातना, असमान सामामजक

जो उसे मरने भी नहीं देती है। मशवप्रसाद मसंह इस

मल्ू यों से पैदा होने वाली द:ु सह यन्त्रिा, सामामजक

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कुरीमतयों के घोर अमभशाप और सब ओर से

सहु ामगन बनी बैठी है।”14 फुलमत को कुलदीप का यह

मतरस्कृ त-त्याज जीवन की बेधक मवद्रूपता भी पाठक

शारीररक संबन्ध भले ही पाप न लगे लेमकन परू ा गाँव

की चेतना को झकझोर देने वाले वेग के साथ मौजदू

पाप बोध की पीड़ा से कराह रहा है। परू े गाँव का

हैं। मशवप्रसाद के चररत्र घोर मवपरीत पररमस्थमतयों में

मानना है मक कमानाशा की बाढ़ फुलमत के पाप के

भी अपनी अमडग मजजीमवर्षा की शमक्त के कारि

कारि आयी है। मजसके कारि फुलमत और उसके

पाठक की चेतना पर बरजोरी छा जाते हैं।”13 यह

दधु महंु े बच्चे को कमानाशा की बमल देना चाहता है।

मजजीमवर्षा चाहे मजन्दगी को लेकर बौड़म में हो या

लेमकन इस बमल का मवरोध भैरो पाडं े आकर करता

आज़ादी को लेकर रोपन में, मशवप्रसाद मसहं के पात्रों

है। मजस नदी की बाढ़ को बाधं द्वारा रोका जा सकता

को मनराश नहीं होने देती है। वे मन में आशा का दीप

है, उसे परू ा गाँव एक स्त्री और अबोध मशशु की बमल

जलाये, अतं तक संघर्षारत हैं।

से रोक रहा है। इस कहानी में समाज की अमानवता

‘कमानाशा की हार’ कहानी में समाज में फै ले

और कुरूपता को बड़े ही यथाथापरक ढंग से रे खांमकत

अन्धमवश्वासों और सामामजक रूमढ़यों पर करारा चोट

मकया गया है। उन पर सामामजक रूमढ़याँ और

मकया गया है। इसी परम्परागत समाज का एक व्यमक्त

अन्धमवश्वास इतना हावी है मक उनके मलए मानवता

भैरो पांडे भी है जो इस सामामजक रूमढ़ के सामने खड़ा

और अमानवता में फका करना ममु श्कल हो गया है।

ही नहीं होता है बमल्क उसे परास्त भी करता है।

उनकी सामामजक रूमढ़याँ मानवता का गला घोट रही

कमानाशा के मकनारे बसे हुए लोगों में एक मवश्वास

है। मजसकी संवदे नाएँ मबल्कुल मर गयी हैं। क्या हमारा

प्रचमलत था मक यमद एक बार नदी बढ़ आये तो मबना

समाज मकसी कमानाशा से कम है? भैरो पाडं े कहते हैं

मनष्ट्ु य की बमल मलए लौटती नहीं। इसी गाँव में मवधवा

मक “मैं आपके समाज को कमानाशा से कम नहीं

फुलमत रहती है। मजसका भैरो पाडं े के भाई कुलदीप

समझता। मकन्त,ु मैं एक-एक के पाप मगनाने लगँू तो

के साथ प्रेम सम्बधं है। फुलमत कुलदीप के बच्चे की

यहाँ खड़े सारे लोगों को पररवार समेत कमानाशा के

माँ बनने वाली थी इसी दौरान कुलदीप सामामजक

पेट में जाना पड़ेगा ...है कोई तैयार जाने को..?”15 इस

मान-मया​ादा के भय से गाँव छोड़कर भाग गया। परू े

कहानी की शरु​ु आत होती है-“काले सांप का काटा

गाँव में यह खबर फै ल जाती है मक “ फूलममतया रांड़

आदमी बच सकता है, हलाहल जहर पीनेवाले की

मेमना ले के बैठी है। मवधवा लड़की बेटा मबयाकर

मौत रुक सकती है, मकन्तु मजस पौधे को एक बार

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कमानाशा का पानी छू ले, वह मफर हरा नहीं हो

‘नन्हों’ कहानी में नन्हों के वैवामहक जीवन की

सकता।”16 जबमक उसी कमानाशा के पास एक नीम

मवडम्बनाओ,ं परम्परागत दाम्पत्य जीवन और प्रेम

का पेड़ भी है मजसे कमानाशा की लहरें सुखा नहीं

सबं ंधों को रे खांमकत मकया गया है। इस कहानी में

पायी। “मजन उध्दत लहरों की चपेट से बड़े-बड़े

नन्हों का वैवामहक जीवन मसफा और मसफा एक

मवशाल पीपल के पेड़ धराशायी हो गये थे; वे एक टूटे

मवडम्बना या जीवन एक सत्रं ास बनकर रह गया है,

नीम के पेड़ से टकरा रहीं थी, सख ू ी जड़ें जैसे सख्त

मजसमें उसे आत्मपीड़ा के अलावा कुछ नहीं ममलता

चट्टान की तरह अमडग थीं, लहरें टूट-टूटकर पछाड़

है। नन्हों की शादी के मलए लड़का रामसभु ग (जो

खाकर मगर रहीं थीं। मशमथल... थकी...परामजत”17

सदंु र, सडु ौल है) मदखाया जाता है लेमकन शादी एक

मजस समाज में भैरो पाडं े जैसे नयी चेतना के व्यमक्त

अनदेखे लड़के ममसरीलाल (पैर से मवकलांग) से

रहेंगे वहाँ की कमानाशा को परामजत होना ही है।

होती है। यह बात नन्हों के मपता को मालमू है लेमकन

गोपाल राय ने मलखा है, “इससे कहानीकार की नयी

बेटी के अच्छे घर और वर के मलए दहेज़ देने की

सोच और संवदे ना का पता चलता है। कमानाशा नदी

औकात नहीं है। अत: वह इस बात का मजक्र भी नहीं

यमद उस रूमढ़वादी परम्परा का तो भैरो पांडे उस नयी

करता है। हाथ भर घघँू ट के नीचे आँसओ ु ं को सख ु ाती

चेतना का प्रतीक हैं मजसके सामने कमानाशा को

हुई नन्हों सहु ामगन बनी। शादी के बाद से ही नन्हों की

झक ु ना ही पड़ता है।”18 इस कहानी में बदलते ग्रामीि

मनयमत का चक्र परू े जीवन मकसी न मकसी रूप में

जीवन के पारम्पररक मल्ू यों-मान्यताओ ं की ओर

आस-पास मंडराता रहता है। शादी के धोखे की पीड़ा

सक ं े त मकया गया है। इस सन्दभा में मशवप्रसाद मसहं

से वह उबर नहीं पाई थी मक पमत की मृत्यु हो गयी। ये

कहते हैं,“कमानाशा की हार मनष्ट्ु य के कमा को नि

“काँच की चमू ड़याँ भी मकस्मत का अजीब खेल खेला

करके उसके ऊपर सामामजक रूमढ़ और मनयमत का

करती हैं। नन्हों जब इन्हें पहनना नहीं चाहती थी तब

अमभशाप लादने वाली समचू ी प्रवृमत्त के मवरोध का

तो ये जबदास्ती उसके हाथों में पहना दी गयीं और अब

प्रतीक है। कमानाशा हमारे समाज के वैर्षम्य का प्रतीक

जब इन्हें उतारना नहीं चाहती तो लोगों ने जबदास्ती

है, मजसे परामजत करना नयी मानवता का सही संकल्प

हाथों से उतरवा मदया।”20 नन्हों अपना परू ा जीवन

होना चामहए। कहानी इसी ओर संकेत करती है।”19

सामामजक मया​ादा और नैमतक दबाव में काट देती है। ह्रदय में आत्मपीड़ा को दबाये वह अके ले जीवन के

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संघर्षों से लड़ रही है। आधमु नकता के इस दौर में

मवरोधी भाव पनप रहा है। उसे लगता है मक शायद वह

सामामजक ढ़ांचा बदल रहा है। इस पररवतान को

नाजायज सन्तान है। उसकी प्रश्न भरी दृमि को देखकर

देखकर मशवप्रसाद मसंह ने नन्हों कहानी के संदभा में

मरिासन्न माँ कहती है, “गगं ा के पेट में दमु नया भर की

कहा है, “नन्हों मध्यवगीय नारी का प्रमतमनमधत्व

गदं गी समाई रहती है, पर पानी कभी अपमवत्र नहीं

करती है, उसे शायद इतनी छूट ममल जाये मक वह

होता। तेरे में कोई पाप नहीं...”22 मजस बेटे के मलए

भमवष्ट्य में अपनी मजबरू रयों से बचने के मलए कोई

उसने परू ा जीवन सघं र्षा मकया। आज उसी बेटे को

रास्ता ढूढं ले, क्योंमक समाज का नैमतक ढ़ाचं ा काफी

सफाई देनी पड़ रही है। उसमें सनु ील का दोर्ष नहीं है।

तेजी से बदल रहा है।”21

हमारी सामामजक मवडम्बना ही ऐसी है।

‘गगं ा तल ु सी’ कहानी में एक मवधवा स्त्री की

‘टूटे तारे ’ कहानी स्त्री जीवन की मनयमत को

मनयमत और असरु मक्षत जीवन को मचमत्रत मकया गया

आधार बनाकर मलखी गयी है। इस कहानी की के न्द्रीय

है। कहानी की के न्द्रीय पात्र गगं ा अपने इकलौते बेटे

पात्र श्यामा की मनयमत ही वेश्या बनना है। श्यामा

को पढ़ाना चाहती है लेमकन उसकी आमथाक मस्थमत

मनोहर के प्रेम जाल में फँ स कर उसके साथ संबंध

दयनीय है। बेटे को पढ़ाने की लालसा को परू ा करने

बनाती है। लेमकन बाद में मनोहर उससे शादी करने से

के मलए वह जमींदार के घर चल्ू हा-चौका का काम

इक ं ार कर देता है। गभावती श्यामा एक मदन बाप को

करने लगती है जहाँ उसे मजबरू न जमींदार से संबंध

बेइज्जती से बचाने के मलए घर से भाग जाती है।

भी बनाना पड़ता है। गगं ा इस बात को अच्छी तरह

महीनों बाद उसे एक लड़की हुई, मजसे अपमान की

समझती है मक अगर वह ज़मीदार के कूकृ त्य का

आग से बचाने के मलए वह नाच-गाकर तथा अपने

मवरोध करे गी तो उसके बेटे का पढ़ना तो दरू उसका

शरीर का सौदा करके पैसे इकिा करती रही। बेटी की

इस गाँव में रहना भी ममु श्कल हो जायेगा । अत: वह

शादी के मदन वह खदु को रोक नहीं पाती है। लेमकन

अपनी आत्मा को मार कर उस पररमस्थमत से समझौता

उसकी मनयमत वहाँ भी उसका पीछा नहीं छोड़ती है।

कर लेती है । गंगा और जमींदार के संबंध की चचा​ा

शादी के मंडप में वर का मपता ब्याह रुकवा देता है।

परू े गाँव में फै ल जाती है। यह बात जब उसके बेटे को

वह कहता है मक “वेश्या की लड़की से शादी करने

पता चलती है तो उसी बेटा के अन्दर सनु ी-सनु ाई बातों

चले हैं ! क्या यह लड़की आप की है। धोखा मत

से माँ के प्रमत मन में घृिा और ममता का परस्पर

दीमजए, मझु े सब मालमू है। आपने इसका पालन

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पोर्षि मकया है क्योंमक इसकी माँ आप को बहुत रुपया

मजसके अन्दर पीड़ा का बोध, मानवीय पीड़ा को भी

देती है। इसकी माँ वेश्या है जो आप की छत पर बैठी

लाँघ जाता है। जो परु​ु र्ष नहीं दे पाता, नारी नहीं दे

है।”23 वह चाहकर भी उस दलदल से मनकल नहीं पा

पाती, वह एक महजड़ा दे जाता है।”24

रही है। समाज उसे मनकले ही नहीं दे रहा है। श्यामा

मशवप्रसाद मसंह की कुछ कहामनयों में जैसे सँपेरा

को वेश्या बनाने का मजम्मेदार कौन है? क्या वह

आमद को छोड़कर अधं मवश्वास का नकार मदखाई देता

स्वेच्छा से वेश्या बनने गयी थी?

है। इस तरह की कहामनयों में ‘पापजीवी’, ‘कलक ं ी

‘मबदं ा महाराज’ कहानी का मख्ु य पात्र मबदं ा

अवतार’, ‘कमानाशा की हार’ आमद हैं। मशवप्रसाद

महजड़ा है। उसके अन्दर मानवीय व्यापकता और

मसहं इस बात को अच्छी तरह समझ गये थे मक हमारे

संवदे नशील हृदय की गहराई है लेमकन स्त्री-परु​ु र्षेतर

समाज में सामामजक, आमथाक शोर्षि से ज्यादा

होने के कारि उसे उपेमक्षत जीवन व्यतीत करना

भयावह धाममाक शोर्षि होता है मजसमें व्यमक्त छटपटा

पड़ता है। मबंदा महाराज जैसे तमाम स्त्री-परु​ु र्षेतर

भी नहीं सकता। जब तक व्यमक्त के अन्दर से ईश्वरीय

व्यमक्त इस तरह के उपेमक्षत जीवन व्यतीत करते हैं।

डर, अधं मवश्वास आमद नहीं मनकलेगा, तब तक

इन्हें सामान्य जीवन धारा से मबल्कुल अलग करके

शोर्षि की जड़ें ऐसे ही मजबूती के साथ गरीबों का

देखा जाता है। क्या इस तरह के व्यमक्तयों की यही

शोर्षि करें गी। इसी मलए इनकी कहामनयों में ईश्वर,

मनयमत है? क्या समाज द्वारा उपेमक्षत यह पात्र, अपनी

अन्धमवश्वास और अवतारी पुरुर्ष को प्रश्न मचह्न के

इस मस्थमत के मलए स्वयं मजम्मेदार है? अगर नहीं, तो

कटघरे में लाकर खड़ा मकया है। ‘कलंकी अवतार’

आमखरकार क्यों वह समाज में सामान्य जीवन जीने

कहानी में रोपन सफे द घोड़े पर सवार व्यमक्त को देखता

का अमधकारी नहीं है? क्यों समाज में अलग-थलग

है तो उसे पजु ारी की बातें याद आती हैं। कमलयगु में

जीवन जीने के मलए मजबरू है? क्या हमारा समाज

अत्याचाररयों के सहं ारक श्वेत घोड़े पर सवार

इतना क्रूर और मनमाम है मक प्रकृ मत प्रदत्त इस कमजोरी

कृ ष्ट्िकाय कामं त वाले भगवान ‘कलक ं ी अवतार’

में उस व्यमक्त का साथ देने की जगह उपेमक्षत जीवन

लेंग।े उस अवतारी परु​ु र्ष को देखकर रोपन की आँखों

जीने के मलये मजबरू करें ? जबमक इसमें उस व्यमक्त

से झरझर आँसू मगरने लगता है। वह सोचता है मक

का कोई दोर्ष नहीं। मशवप्रसाद मसंह कहते हैं मक “मैं

आज अत्याचारी जमींदार भेदमु संह के कुकमों की

उस उपेमक्षत जीवन को भी एक मल्ू य देना चाहता था,

सजा ममल कर रहेगी। वह उस अवतारी परु​ु र्ष के पीछे -

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पीछे चला जाता है। लेमकन मजसे वह जमींदार भेदमु संह

सजगता पारम्पररक अधं मवश्वासों, अवतारीय

को दडं देने वाला कलंकी अवतार समझता है वह तो

धारिाओ,ं पजू ा-व्रतों आमद को लाँघ रही है। उसका

अपनी बहन के मववाह के मलए भेदमु संह के बेटे को

मवश्वास करतार पर नहीं, कर-तार पर आकर ठहर गया

देखने आया है। रोपन हारे हुए जआ ु री की तरह घोड़े

है। यही उसका क्षमाबोध है, आस्था है, जो मनष्ट्ु य को

पर सवार व्यमक्त को देखता रह जाता है। इस कहानी

धरती का मनष्ट्ु य बनने को बाध्य करती है।”26

में एक पात्र शोभन है जो इस चीज को बहुत अच्छे से

िन्द्दभक ग्रन्द्थ िूची

समझ गया था। वह रोपन से कहता है- “नये ज़माने के

1. मववेकी राय, महदं ी कहानी : समीक्षा

लोग ही परु ाने लोगों को ठीक करें गे दादा। गाँठ बाध

और सन्दभा, राजीव प्रकाशन,

लो। हमें अवतार नहीं करतार चामहए। करतार यानी

इलाहाबाद, संस्करि-1985, पृष्ठ

अपना हाथ ही तारे गा।”25 ‘पापजीवी’ कहानी में

सं.27

‘बरम बाबा की परती’ पांच सौ बीघे की है। इस परती में मकसी की जाने की महम्मत नहीं है क्योंमक परु ाने जमाने में ठाकुरों ने यहाँ मकसी िाह्मि की हत्या की थी। एक मदन सरकार ने ‘बरम बाबा’ की परती जमीन को नीलाम कर दी। देखते ही देखते ठे केदार का बँगला भी बनकर तैयार हो गया। बदलू को मवश्वास था मक ‘बरम बाबा’ बदला लेग,ें लेमकन जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो उसे भी मानना पड़ता है की बरम बाबा का तेज ममद्धम पड़ गया है। ‘कमानाशा की हार’ कहानी में भैरव पांडे कहते हैं मक बढ़ी हुई कमानाशा की बाढ़ दधु महु ें बच्चे की बमल से नहीं बमल्क पसीना बहाकर बांध बनाने से रुके गी। इस कहानी में वर्षों से चला आ रहा अधं मवश्वास टूटता हुआ नजर आता है।

2. कामेश्वर प्रसाद मसंह, कथाकार : मशवप्रसाद मसहं , सजं य बक ु सेंटर, वारािसी, संस्करि-1985, पृष्ठ सं.क 3. वही, पृष्ठ सं.क 4. मशवप्रसाद मसंह, मेरे साक्षात्कार, मकताबघर, नई मदल्ली, संस्करि1995, पृष्ठ सं.19-20 5. मशवप्रसाद मसहं , दस प्रमतमनमध कहामनयाँ, मकताबघर प्रकाशन, असं ारी रोड दररयागजं , नई मदल्ली, सस्ं करि 1994, पृष्ठ स.ं 8 6. कामेश्वर प्रसाद मसंह, कथाकार : मशवप्रसाद मसंह, संजय बक ु सेंटर, वारािसी, संस्करि-1985, पृष्ठ सं.ख

मशवप्रसाद मसंह की कहामनयों में “अमस्तत्वगत Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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7. मशवप्रसाद मसंह, मेरे साक्षात्कार, मकताबघर, नई मदल्ली, संस्करि1995, पृष्ठ स.ं 72 8. वही, पृष्ठ सं.67 9. मशवप्रसाद मसंह, अधं कूप, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, सस्ं करि2005, पृष्ठ सं.68 10. वही, पृष्ठ सं.69 11. मशवप्रसाद मसंह, मेरे साक्षात्कार, मकताबघर प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-1995, पृष्ठ सं.41 12. मशवप्रसाद मसंह, अधं कूप, अधं कूप, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-2005, पृष्ठ सं.75 13. मशवप्रसाद मसहं , मेरे साक्षात्कार, मकताबघर प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-1995, पृष्ठ सं.48 14. मशवप्रसाद मसहं , अधं कूप, अधं कूप, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-2005, पृष्ठ सं.52 15. वही, पृष्ठ स.ं 61 16. वही, पृष्ठ सं.50 17. वही, पृष्ठ सं.61 18. गोपाल राय, महदं ी कहानी का इमतहास, राजकमल प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-2014, पृष्ठ स.ं 112

ISSN: 2454-2725

19. मशवप्रसाद मसंह, मेरे साक्षात्कार, मकताबघर प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-1995, पृष्ठ सं.22 20. मशवप्रसाद मसंह, एक यात्रा सतह के नीचे, अधं कूप, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, सस्ं करि-2005, पृष्ठ स.ं 27 21. मशवप्रसाद मसहं , मेरे साक्षात्कार, मकताबघर प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-1995, पृष्ठ सं.13 22. मशवप्रसाद मसहं , अधं कूप, अधं कूप, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-2005, पृष्ठ सं.231 23. मशवप्रसाद मसहं , एक यात्रा सतह के नीचे, अधं कूप, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-2005, पृष्ठ स.ं 49 24. मशवप्रसाद मसंह, मेरे साक्षात्कार, मकताबघर प्रकाशन, नई मदल्ली, सस्ं करि-1995, पृष्ठ स.ं 51 25. मशवप्रसाद मसंह, एक यात्रा सतह के नीचे, अधं कूप, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि-2005, पृष्ठ स.ं 287 26. शमश भर्षू ि ‘शीतांश’ु , मशवप्रसाद मसंह : स्रिा और सृमि, वािी प्रकाशन, नई मदल्ली, संस्करि1995, पृष्ठ सं.290

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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सिलोचन िास्त्री के िासहयय में मानिीयता की तलाि - डॉ.िभ ु ाष चन्द्द्र पाण्डेय

मत्रलोचन शास्त्री का समचू ा सामहत्य ही मानवीय संवदे ना से आद्यन्त आपरू रत है। उनकी संवदे ना के दायरे में मानव मात्र ही नहीं अमपतु इस सृमि की समस्त जड़चेतन सत्ता समाई है। इस सृमि के जीवजन्तु वनस्पमतयाँ आमद सभी कमव के सहभागी हैं। स्वयं कमव के शब्दों में-“इस पृमथवी की रक्षा मानव का अपना कताव्य है/इसकी वनस्पमतयां मचमड़या और जीव जन्तु /उसके सहभागी हैं।”1 वस्ततु ः कमवता सामामजक समस्याओ ं का अमवकल अनवु ाद नहीं हुआ करती, न ही हो सकती है। कमवता में कमव की कल्पना का अपना अलग महत्व हुआ करता है। कमव की यह कल्पना भी यथाथा से सवाथा असम्पृक्त हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंमक वह यथाथा की ही मवधामयका होती है। कमवता जीवन के कटुसत्यों के प्रमत स्वीकृ मत और उसके समाधान के नए मागों का अन्वेर्षि भी मकया करती है। कमव मत्रलोचन की कमवता यथाथा का मजतना समचत्र मचत्राक ं न करती है उतना ही सामामजक समस्याओ ं को समाधान भी प्रस्ततु करती है। मनष्ट्ु य की अमस्मता को, उसके स्वत्व को अक्षत रखते हुए उसे रचनात्मक कायों के प्रमत प्रेररत करती है। प्रेरिा ऐसी की व्यमक्त सवं दे ना एवं ज्ञान का मवमशि एवं मजं ल ु समन्वय बनाए रख सके , क्योंमक व्यमक्त संवदे ना मवहीन होकर यन्त्र बन जायेगा और ज्ञान मवहीन होकर मनधा​ाररत जीवन लक्ष्यों से वमं चत रह जायेगा। इन्हीं अथो में मत्रलोचन की कमवता ज्ञानात्मक संवदे ना एवं संवदे नात्मक ज्ञान का अद्भुत साक्ष्य प्रस्ततु करती है।प्रगमतशील महन्दी कमवता के Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मध्य मत्रलोचन की मस्थमत अन्य कमवयों से थोड़ा हट कर है जहाँ लोग समाज के दीन-हीन व्यमक्त से अपना के वल रचनात्मक सम्बंध बनाए रखना पसंद करते हैं वहीं मत्रलोचन समाज के अमन्तम उपेमक्षत सदस्य के साथ भी अपना आत्मीय संम्बध रखते हैं और यही मत्रलोचन की कमवता है-‘‘मैं तमु से, तम्ु हीं से बात मकया करता हूँ /और यह बात मेरी कमवता है।’’2 वस्ततु ः कोई भी व्यमक्त हो या मफर लेखक समाज को सवादा उपेमक्षत करके श्रेष्ठ सामहत्य सृमजत ही नहीं कर सकता। इसी संन्दभा में मत्रलोचन की मान्यता है- ‘‘आदमी को सामान्यतः सामामजक कहा गया है। लेखक आदमी है। आदमी सामामजक है। अतः लेखक भी अमनवायातया सामामजक है। समाज को घेरने वाली समस्याएं अथवा मस्थमतयाँ उसको भी पकड़ती हैं। कोई भी लेखक इन पररमस्थमतयों को छोड़कर लेखक नहीं है।’’3 कमव मत्रलोचन समाज के सदस्यों की बोली भार्षा को चाहे वह गृही, असभ्य सभ्य व शहराती हो उसे बड़ी यथाथाता के साथ अमभव्यमक्त प्रदान करते हैं-“सबकी बोली/बोली लाग-लपेट, टेक भार्षा महु ावरा/भाव आचरि इमं गत मवशेर्षता मफर भोली/भल ू ी इच्छाए.ं .....गृही असभ्य सभ्य शहराती या देहाती/सबके मलए मनमत्रं ि है अपना जन जाने/और पधारें इसको अपना ही घर मानें।’’4 मत्रलोचन के सामामजक सरोकारों के सन्दभा में पष्ट्ु पा अग्रवाल की मान्यता है- “काव्य सृजन की प्रमक्रया में मत्रलोचन की वैयमक्तक संवदेना मनवैयमक्तक होकर आम आदमी से जड़ु कर सामामजक धरातल का आधार पाती है और समाज के शोमर्षत दमलत और कमजोर वगा के जीवन संघर्षा की पीड़ा यातना का दख ु और अदं रूनी छटपटाहट के साथ साथ गत्यात्मक होकर सामामजक सत्य की अमभव्यमक्त के मलए वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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सृजनशील हो उठती है। मत्रलोचन ने के वल जीवन सत्यों का ही चयन नहीं मकया है, बमल्क जीवन की संपिू ता ा को ग्रहि मकया है। जीवन सत्य का उजागर उसमें रम कर ही मकया जा सकता है। वे इसमें पिू रू ा पेि रमे हुए हैं। जीवन को नैरंतया में मनत नएपन का आभास कमव के कमा रूप में होता रहता है। इसी से कमवता में जीवतं ता आती है। यह जीवन्तता मत्रलोचन की कमवताओ ं में सवात्र ममलती है।”5 वस्ततु ः कमव मत्रलोचन जीवन के मवमवध पक्षों के समथा एवं कुशल मचत्रकार हैं जीवन के तमाम सख ु दख ु से सजी उनकी कमवताएं पाठकों से अपनापन स्वतः स्थामपत कर लेती हैं-मैं जीवन का मचत्रकार हू/ँ मचत्र बनाता घमू रहा हूँ ।6 कमव मत्रलोचन की सामामजक संचेतना की पररमध असीम है। वे मकसी एक को अपना नहीं मानते वरन् सब उनके अपने हैं इसी तरह वे मकसी व्यमक्त मवशेर्ष के न होकर के सभी व्यमक्त के मलए मवशेर्ष हैं। उनकी प्रेम सधु ा से सभी तृप्त होते हैं वह चाहे कहीं रहे या मफर वह कोई भी हो- “मैं इन आवतों में बधं ा हुआ आज कहाँ अपना हूँ /अपने लोगों का हूँ /अपनी दमु नया का हूँ /आज मैं तम्ु हारा हूँ / मबलकुल तम्ु हारा हू,ँ /के वल तम्ु हारा हू,ँ / कहीं रहो कोई हो।’’7 मत्रलोचन माक्र्सवादी चेतना सम्पन्न ऐसे सामहत्यकार हैं जो समाज की मवर्षमता को समता में पररमित करने के मलए सदैव ही प्रयत्नशील रहे। समाज में उठने वाली हर ध्वमनयों को उन्होंने बड़ी ही कुशलता से ग्रहि मकया है- ‘’ध्वमनग्राहक हूँ मैं/समाज में उठने वाली/ध्वमनयाँ पकड़ मलया करता हूँ ।’’8 कमव मत्रलोचन अपने सभी काव्य संग्रहों में समाज में प्रेम एवं सद्भाव को अक्षण्ु ि बनाए रखने की बात करते हैं। वस्ततु ः प्रेम ही वह तत्व है मजससे Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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समाज में आपसी सामजं स्य मृदतु ापिू ा रहता है कमव के शब्दों में ही-“प्रेम व्यमक्त व्यमक्त से/समाज को पकड़ता है/जैसे फूल मखलता है उसका पराग मकसी और जगह पड़ता है। फूलों की दमु नया बन जाती है।”9 समाज के सभी सदस्यों सभी वगों से सम्बन्ध बनाये रखने की अमभलाशा उनकी सबसे बड़ी ख्वामहश है मजसके अभाव में वे अपने को अके ला महससू करते हैं और अके लेपन के इस अवसाद को वे सहन नहीं कर पाते हैं सख ु हो अथवा दख ु सभी में वे समाज के साथ सख ु दख ु बाँटना पसंद करते हैं और वे यह बात बड़ी सहजता से स्वीकार करते हैं- “आज मैं अके ला हू/ँ अके ले रहा नहीं जाता/...सख ु दख ु एक भी/अके ले सहा नहीं जाता।”10 कमव मत्रलोचन शास्त्री की सामामजक चेतना का फलक अत्यतं व्यापक है। वैयमक्तक दःु ख को वे नजर अदं ाज करते हैं मकन्तु सामामजक दःु ख को वे स्वीकार नहीं कर पाते वरन् उसे दरू करने के मलए यथाशमक्त सल ं नन हो जाते हैं। उनसे मजतना हो सकता उतना करने का वे प्रयास करते हैं-“औरों का दख ु ददा नहीं वह सह पाता है/यथा शमक्त मजतना बनता है कर जाता है।”11 मत्रलोचन की कमवताओ ं का वण्र्य मवर्षय ही समाज के अभावमय लोग हैं जो अभाव से हार मान कर हाथ पर हाथ रख कर बैठते नहीं हैं अमपतु अपनी उन्नमत के मलए प्रयत्नर्षील हैं- “भाव उन्हीं का सबका है जो थे अभावमय /पर अभाव से दबे नहीं जागे स्वभावमय।”12 वे कमाशील व्यमक्त का बड़ा ही सम्मान करते हैं। इसकी वजह है मक मक्रयाशील व्यमक्त आत्मसम्मानी होता है। वह बैठ कर खाना नहीं पसंद करता है उसे मभक्षावृमत्त कतई पसंद नहीं होती है। मक्रयाशील या कमारत व्यमक्तयों को वे अपना काव्य वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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सममपात करते हुए कहते हैं-‘‘मैंने उनके मलए मलखा है मजन्हें जानता/ हूँ जीवन के मलए लगाकर अपनी बाजी/जझू रहे हैं जो फांके टुकड़ों पर राजी/कभी नहीं हो सकते हैं।’’13 कमव मत्रलोचन की कमवता समाज के संघर्षाशील व्यमक्त की कमवता है इसका तात्पया यह है मक कमव ने सदैव ही मक्रयारत व्यमक्त के पररश्रम के महत्व को जाना समझा है। उसे अपना आदशा माना है मकन्तु वह पररश्रम करने वाला व्यमक्त भी आदमी ही तो है। उसे भी थकान, मनराशा, कंु ठा आमद से सामना करना पड़ता है ऐसी ही मवर्षम अवस्था में मत्रलोचन की कमवता उसे ऊजा​ा प्रदान करती है उसकी मछू ा​ा को हरती है-“अभी तम्ु हारी शमक्त शेर्ष है/अभी तम्ु हारी सांस शेर्ष है मत अलसाओ मतचपु बैठो/तम्ु हें पक ु ार रहा है कोई।”14 मत्रलोचन की मानव से यह अपील देखने योनय है- “नर रे /तम में द्यमु त में आया। बस कर/बीता, जीता समु ध साहस कर/स्वर पर मनभार, स्वर-जीव अपर जग देख रहा तझु को आया, भर मख ु र तृर्षा की लहर अधर रे ।”15 मत्रलोचन समाज के अलगाव को सहन नहीं कर पाते हैं उन्हें वगामवहीन समाज की अमभलार्षा है। वे यह बदा​ास्त नहीं कर पाते मक मेहनत से मरे कोई और मेहनतकशों की कमाई पर गल ु छरे उड़ाए कोई।वस्ततु ः मत्रलोचन ऐसे समाज की सरं चना के महमायती हैं मजसमें सभी पररश्रमशील हों और उनके पररश्रम के पररिाम पर उनका अमधकार हो। वे यह कतई बदा​ाश्त नहीं कर सकते हैं मक मेहनतकशों के हक को मार कर पँजू ीपमत अपनी पँजू ी बढ़ाते जाएं बमल्क उनके सामहत्य का लक्ष्य ही है मक मेहनतकशों को उनकी मेहनत का हक मदया जाय वह भी परू े सम्मान के साथ क्योंमक उनका सामहमत्यक लक्ष्य ही Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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है-मानवीय अमस्मता की प्रमतष्ठा। वे सच्चे अथों में जनवादी सामहत्यकार हैं। वे भलीभाँमत जानते हैं मक मानवीय सभ्यता इन्हीं के खरु दरे हाथों में नवीन रूप प्राप्त करती है- ‘‘जब तमु मकसी बड़े या छोटे कारखाने में/कभी काम करते हो मकसी भी पद पर/तब मैं तम्ु हारे इस काम का महत्व खबू जानता हू।ँ और यह भी जानता हूँ – “मानव की सभ्यता/तम्ु हारे ही खरु दरे हाथों में नया रूप पाती है।”16 मत्रलोचन की काव्य संवदे ना का के न्द्र रहा हैग्रामीि; मकन्तु मत्रलोचन का समाज महज ग्रामीि समाज ही नहीं है उनकी सामामजकता के वृहत्तर दायरे में जहाँ एक ओर लोकजीवन की नाना मचत्रावमलयाँ अवलोकनीय हैं वहीं दसू री ओर उनका काव्य अपनी व्यापकता में समाज के मशि वगा की अनभु मू तयों से भी सम्पृक्त है। लोक और मशि का यह अद्वैत उनकी सामामजक चेतना को वृहत्तर आयाम प्रदान करता है। मानव समाज के प्रमत एक गहरी आसमक्त उनके काव्य में सवात्र अवलोकनीय है। वे मात्र मानव जीवन के प्रमत आकमर्षात नहीं हैं बमल्क प्रकृ मत के एक एक रे शे से गहरा रागात्मक लगाव उनकी काव्य सवं दे ना का अमनवाया अगं रहा है। उनकी कमवता का लक्ष्य समाज की वेदना का शमन कर उनके जीवन में हर्षा, ऊजा​ा और शमक्त का सच ं ार करता है वस्ततु ः सामहत्य का सृजन ही वेदना के साक्षात्कार से ही उद्भूत हुआ करता है क्योंमक सामहत्यकार का लक्ष्य ही सामामजक वेदना का शमन हुआ करता है मत्रलोचन का सामहत्य भी उनकी इसी सामामजक वेदना के साक्षात्कार से ही मनममात है। वे मलखते हैं- “जब पीड़ा बढ़ जाती है/बेमहसाब/तब जाने अनजाने लोगों में/जाता हूँ /उनका हो जाता हूँ /हँसता हँसाता हूँ ।”17 मत्रलोचन मात्र समाज की बेमहसाब पीड़ा का ही मचत्रि नहीं करते बमल्क वे पीड़ा को उत्पन्न करने वाले सारे कारकों की जाँच पड़ताल करते हुए प्रतीत वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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होते हैं। वे जानते हैं मक समाज में जो भी समस्याएँ हैं उनका मल ू कारि है लोगों की स्वाथा वृमत्त, कृ मत्रम जीवन जीने की आकांक्षा, झठू ी प्रदशानकारी जीवन पद्धमत। यही कारि है मक वे काव्य के समान जीवन में भी सहजता की बात को महत्वपूिा अथों में प्रमतष्ठामपत करते हैं। सहजता, सरलता एवं वास्तमवकता के प्रमत यह गहरा लगाव ही उनकी काव्य चेतना को स्फूमता एवं ताजगी से भरकर मवश्वसनीयता प्रदान करता रहा है। उनकी काव्य चेतना वास्तमवक जीवन संदभों से मनममात है। यही कारि है मक मानव का वास्तमवक जीवन उन्हें सदैव आकमर्षात करता रहा है, उनके मन को मनु ध करता रहा है- “मझु े मानव जीवन की माया सदा मनु ध करती है, अहोरात्र आवाहन। सनु कर धाया धपू ा, मन में लाया/ध्यान एक से एक अनोखे।”18 मत्रलोचन को ऐसा सामहमत्यक रचाव मबलकुल ही अभीि नहीं है जो प्रदशान मल ू क हो और यही कारि है मक वे अपने काव्य में स्थान स्थान पर लोकजीवन के नानानभु वों, उनकी वेदना, उनके हर्षा-मवर्षाद, एवं उनके रहन-सहन को बड़ी ही आत्मीयता के साथ मचमत्रत करते हैं। क्योंमक वे जानते है मक सामहत्य की ममु क्त के मलए या उस की लोकमप्रयता के मलए जनता का प्रेम पाना परम आवश्यक है। जनता के प्रेम को पाने के मलए ही वे उनकी अनभु मू तयों को ही अपनी काव्यवस्तु का आधार बनाते हैं। यह उनकी सजग समाज चेतना का ही प्रमाि है मक वे लोक जीवन की नाना अथाछमवयों एवं ध्वमनयों को अपनी पैनी लेखनी में आबद्ध कर लेते हैं। इन्हीं अथों में वे सच्चे ध्वमन ग्राहक हैं, प्रबद्ध ु समाज चेता भी हैं। उनके ही शब्दों में- “ध्वमन ग्राहक हूँ मैं/समाज में उठने वाली/ध्वमनयाँ पकड़ मलया करता हूँ ।’’19 लोक जीवन की इन ध्वमनयों को पकड़ना आसान नहीं हुआ करता। वस्ततु ः इन लोक ध्वमनयों Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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को वही सामहत्यकार पकड़ सकता है मजसे लोक से गहरी आसमक्त हो एवं उसके प्रमत सवास्व समपाि का उदात्त भावोन्मेर्ष हो। मत्रलोचन के लोक जीवन के प्रमत गहरे लगाव का एक कारि यह भी रहा है मक आज लोग प्रदशान मल ू क संस्कृ मत को अपनाने के क्रम में अपने वास्तमवक सांस्कृ मतक मल्ू यों को भल ू ते जा रहे हैं मत्रलोचन अपने सांस्कृ मतक मल्ू यों की रक्षा में इसमलए अमधक सजग रहते हैं क्योंमक वे जानते हैं मक यमद एक बार अपनी परम्परागत संस्कृ मत के मल्ू यों का क्षरि होने पर उन्हें पनु ः उत्पन्न नहीं मकया जा सकता है। इसीमलए वे अपने काव्य में बराबर इस बात पर जोर देते चलते हैं मक अपनी संस्कृ मत से उद्भूत जीवन्त मवचारों को सदैव सँजोकर रखा जाय। वे समाज को सावधान करते हुए कहते हैं- “अब समाज में/वे मवचार रह गये नहीं हैं/ मजनको ढोता/चला आ रहा है वह।”20 मनष्ट्कर्षातः मत्रलोचन की सामामजक चेतना मानवतावादी मल्ू यों पर ही अवलमम्बत है। यहाँ प्रत्येक व्यमक्त की उन्नमत की कामना सवात्र दृमिगोचर होती है चाहे वह सभ्य हो अथवा असभ्य, शहराती हो या ग्रामीि, सबकी भार्षा, सबकी बोली, सबके भाव, सबके आचरि एवं सबकी अमस्मता को परू ा सम्मान मदया गया है। उनका काव्य मवमशि वगा से सवा सामान्य वगा के मवकास को आममन्त्रत करता है। यह उनकी भार्षा में रमचत उनके ही भावों की सशक्त अमभव्यमक्त का काव्य है। िंदभक ग्रंथ िूची 1.

ताप के ताए हुए मदन: मत्रलोचन, पृ. 64

2.

ताप के ताए हुए मदन: मत्रलोचन, पृ. 63 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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3. आधारमशला: मत्रलोचन मवशेर्षांक 2009 प.ैृ 65 4.

ताप के ताए हुए मदन: मत्रलोचन, पृ. 53

5.

आजकल: अप्रैल 2010, पृ. 40

6.

मदगतं : मत्रलोचन, पृ. 56

7.

तम्ु हें सौंपता हू:ँ मत्रलोचन, पृ. 66

8.

मदगतं : मत्रलोचन, पृ. 29

9.

अरघान: मत्रलोचन, पृ. 42

10.

धरती: मत्रलोचन, प. 60

11.

ताप के ताए हुए मदन: मत्रलोचन, पृ. 49

12.

मदगतं : मत्रलोचन, पृ. 67

13.

मदगन्त: मत्रलोचन, पृ. 25

14.

तम्ु हें सौंपता हू:ँ मत्रलोचन, पृ. 33

15.

तम्ु हें सौंपता हू:ँ मत्रलोचन, पृ. 32

16.

ताप के ताए हुए मदन: मत्रलोचन, पृ. 63

17. 21

प्रमतमनमध कमवताए:ं स.ं के दारनाथ मसहं , पृ.

18.

मदगन्त: मत्रलोचन, पृ. 66

19.

मदगन्त: मत्रलोचन, पृ. 24

20.

उस जनपद का कमव हू:ँ मत्रलोचन, पृ. 17 डॉ.िुभाष चन्द्द्र पाण्डेय अमेिी (उ.प्र.) 9473831621

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मध्यकालीन िामंती प्रसतरोध और नागमती का चररि

इस प्रश्न को सनु कर तोता पदमावती का स्मरि करके हँस देता है और कहता है -

छाया चौबे 319 ,गगं ा छात्रावास जवाहरलाल नेहरू मवश्वमवद्यालय मदल्ली-110067 मो. 9868366186

जेसह िरिर महं हि ु ा तेसह िर हि ं न आिा। बगल ं कहािा। 3

जायसी के पदमावत में ’नागमती’ का शमक्तशाली चररत्र अपनी अलग कहानी बयाँ करता है। यमद नागमती इस कथा में नहीं होती तो क्या पदमावत महाकाव्य बन पाता । पदमावती का अलौमकक जगतव्यापी मशख-नख विान, नागमती के मवयोग विान के आगे धमू मल जान पड़ता है और दोनों का सतीत्व, महाकाव्य को एक नयी ऊँचाई देता है । नागमती गौड़ी भमक्त का प्रतीक है जहाँ वह राजममहमर्ष के पद पर राज्यामधकार के साथ के वल पत्नी का सचू क है उसके सामनध्य से रत्नसेन को उस सामत्वक प्रेम का आभास नहीं होता जो पदमावती के रूपश्रवि मात्र से अनभु तू होता है। नागमती मचत्तौड़ की राजममहर्षी है वह रत्नसेन की पटरानी है। पदमावत के कथानक में वह उपनामयका के चररत्र में प्रस्ततु है। पदमावती से अमधक चनु ौतीपिू ा चररत्र नागमती का है। वह सवाप्रथम ‘रूपगमवाता’ नारी के रूप में हमारे सामने आती है ‘‘नागमती रूपिंती नारी। िबरसनिाि पाि परधानी।।’’ 1 नागमती को अपने सौंदया पर बड़ा अमभमान है । वह खबू शृगं ार-पटार करके वह हीरामन सआ ु से कहती है ‘‘बौलहु िुआ सपयारे नाहॉ। मोरे रूप कोई जग माहॉ।।’’ 2 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

तोते के इस उत्तर से नागमती के कलेजे में आग लग जाती है क्योंमक नागमती मजस समाज में है वहाँ तो हसं मौजदू ही नहीं हैं,वहॉ कौवा ही हसं होगा। तोता कहता है ‘‘का पूँछहू सिंघल रानी। सदनसहं न पूजै सनसि अँसधयारी।।’ 4 तोते के व्यंनय से यह भाव भी प्रकट होता है मक जगत ने इस रूप को अनपु म बनाया है मजसमें रूपों की मवमवधता है जहाँ प्रश्न की साथाक तब होगी जब उसका पमत उससे प्रेम करे । पदमावत में सौंदया के दो मानक ममलते हैं, पहला तो वह जो प्रेम की प्रतीती कराता है जो पदमावती का है और दसू रा जो अमधकार तक सीममत है जो भोगवस्तु वह नागमती का। नागमती को अपने पमत से अमतसय प्रेम है मकन्तु वह तत्कालीन परु​ु र्ष मनोवृमत्त से भी बखबू ी पररमचत है उसे ज्ञात है मक उस समय राजा सौंदया पर मनु ध होकर चढ़ाई करते थे, यद्ध ु करके उन्हें छीन लेते थे। वह पदमावती के सौन्दया से भयभीत होकर अपनी दरू दमशाता का पररचय देते हुए धाय से तोते को मारने का आदेश देती है। अतः वह धाममनी से कहती हैपासख न रासखउन होइ कुभाखी। तहँ लै मारू जहाँ नसहं िाखी। जेसह सदन कहज है सनसत डरौ रे सन छपािौं िूर। लै चह दीन्द्ह के िल कह मोकहँ होइ मँजूर।। 5 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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जब रत्नसेन के आखेट से लौटकर ‘सएु ’ की खोज करता है तो नागमती कहती है मक ‘वह सआ ु शठ है, उसे मसर चढ़ाना अच्छा नहीं, क्योंमक जो आभरि कान को कि दे, उसका प्रयोजन ही क्या। 6 यह सनु ते ही रत्नसेन उसे प्रािदण्ड का आदेश देते हुए कहता है ‘‘कै परान घि आनहु मती। कै चसल होहु िआ ु िगं िती। 

*

*

जासन जानहु कै औगुन मंसदर होइ िुख िाज। आएिु मेसि कंि कर काकर भा न अकाजा।। 7 और तब नागमती का गवा चरू -चरू हो जाता है वह सोचती थी मक मैं पटरानी हू,ँ मेरे पास अमधकार भी है,मेरा पमत मझु से प्रेम करता है, मकन्तु अब उसे सब कुछ मनरथाक लगता है अैिें गरब न भूलै कोई। जेसह डर बहुत सपआरी िोई।। 8 और वह अपनी धाय से कहती है - ‘‘मैंने अब तक अपने पसत की जो िेिा की, िह िब व्यथक गया, िेंमल के र्ल की आिा में उिका िेिन करने िाले िुए को भुआ समला।’’ 9 इस गहरे मवर्षाद के बाद वह कहती है -

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धाय मक दरू दमर्षाता सआ ु को बचा लेती है सआ ु के कारि ही नागमती को रत्नसेन के वास्तमवक स्वरूप का ज्ञान होता है, वह कहती है िेिा करै जो बरहौ मािा। एतसनक औगनु करह सिनािा। जौ तुम्ह देइ नाि कै गीिा। छाँड़हु नसहं सबनु मारे जीिाँ।। 11 वह कहती है मात्र इतने से अवगिु से तमु मझु े मार दोगे भले ही मैंने बारह मास तुम्हारी सेवा की । और यमद कोई गदान झक ु ाए तो तमु उसे मार डालोगे ? यहाँ नागमती परू े मध्ययगु ीन मानमसक ढाँचे पर प्रहार करती है जो कृ पाभाव वाली है, भगवान, राजा, पमत सभी उसके ‘रक्षक’ सचू क शब्द है। नागमती पमत के परमेश्वर रूप को भी प्रष्ट्नांमकत करते हुए कहती है समलतासह मह जनु अहहु सननारे। तुम्ह िौं अहै अदेि सपयारे मैं जाना तुम्ह मोंही माहाँ। देखौं तासक तौ हुह िब पाहाँ। का रानी का चेरी कोई। जा कहँ मया करहु भसल िोइ।। 12

यहाँ रोर्ष की बेड़ी में गहरी अमभव्यंजना है एक स्त्री की। जो अपने समस्त सख ु ों को पमत के अधीन समझती है, मकंतु वह सब के वल मात्र मदखावा प्रतीत होता है।

इन पमं क्तयों में नागमती ने गहरी अमभव्यंजना की है मक हे परमेश्वर मैं जानती थी तमु मेरे भीतर हो, मकंतु ताक कर देखती हूँ तो तमु सवात्र हो, चै ू मक पमत-पत्नी की मस्थमत एक-दसू रे के भीतर है और तमु मजतने मेरी और हो उतना ही अन्यत्र भी, तमु मजतना मेरी ओर हो उतना पदमावती की ओर भी। अतः तमु महान हो। यहाँ जायसी ने एक स्त्री के भाव से जड़ु े अनेक मभनमभनाते अथों की व्यंजना की।

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

‘‘मैं सपय प्रीसत भरोिे गरब कीन्द्ह सजअ माँह। तेसह ररसि हौं परहेसलउँ सनगड़ रोि सकउन नाहँ। 10


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नागमती अपने अमस्मता की खोज भी जानेअनजाने करती है -

भलेसहं पदुसमनी रूप अनपू ा। हमतें कोई न आगरर रूप।

पसहले आपु खोइ कै करै तुम्हारी खोज।। 13

भिै भले सह परु​ु षन्द्ह कै डीिी। सजन्द्ह जाना सतन्द्ह दीन्द्ही पीिा।। 15

यामन जब तक अपनी अमस्मता का लोप नहीं करूंगी मैं तम्ु हें प्राप्त नही करती। जो स्त्री अनगु ाममनी नहीं है, मजसने अपना व्यमक्तत्व मवलीन नहीं मकया उसे अपने पमत की अनक ु म्पा भी प्राप्त नहीं हो सकती। इस प्रकार का ‘काम्प्लेक्स’ मध्ययगु की मकसी रचना में नहीं है।यहॉ नागमती अपने बहुआयामी चररत्र के द्वारा समाज का भी चररत्र प्रस्ततु करती है। नागमती नारी की अमस्मता, उसकी पराजय, परु​ु र्ष के भगवनपरक तथा वास्तमवक रुप को उजागर करने के साथ मध्ययगु की कृ पाभाव वाली संस्कृ मत के मवरुद्ध भी आवाज उठाती है। नागमती के अनेक प्रयासो के बावजदू रत्नसेन ‘जोगी’ बनकर पदमावती की खोज में मनकल पड़ा। तब नागमती के चररत्र में जो पररवतान आता है उसे ममु क्तबोध की शब्दावली में कहें तो उसका ‘व्यमक्तत्वान्तरि’ हो जाता है। वह रत्नसेन से साथ जाने का आग्रह करती है अब को हमसहं कररसह भोसगनी। हमूहँ िाथ होइब जोसगनी कै हम लािहु अपने िाथा। कै अब मारर चलहु िैं हाथाँ। 

*

*

जै लसह सजउ िंग छाड़ न काया। कररहौं िेब पखररहौं पाया। 14 इतनी मवनम्र याचना पर भी रत्नसेन के न रूकने पर वह अपने रूप का लोभ पनु ः स्मररत कराती है Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

और रत्नसेन द्वारा ‘‘तम्ु ह मतररआ ममत हीन तम्ु हारी’’ कहने पर भी उसे दःु ख नहीं होता बमल्क पनु ः पनु ः याचना करती है। ‘‘ि​िसत न होसि तू बैररसन, मोर कंत जेसह हाथ। आसन समलाि एक बेर, तोर पाय मोर हाथ।।’’ 16 इतना मगड़मगड़ाने पर भी रतनसेन नहीं रुका और तब नागमती अपने पमत की मवयोगदयशा में ‘‘हृदय के अमतव्यापक फलक’’ की अवस्था का मवस्तार करती है। मजसे आचाया मद्ववेदी ने ‘पमवत्र पण्ु यदान’ कहा है ‘‘नागमती की सिरहािस्था िह पसि​ि पुण्यदान है सजिमें िभी जड़-चेतन अपने िगे-िगे िे सदखाई देते हैं।’’ 17 एक वर्षा की लम्बी प्रतीक्षा में नागमती उस अमतदीघा समयान्तराल का अनभु व करती है जो उसे प्रकृ मत के जड़-चेतन सभी रूपों से जोड़ देता है। अब वह स्वयं को िह्माण्ड की सदंु र नारी नहीं समझना चाहती अब प्रश्न पमतप्रेम का है जो उसके प्रािों को ले गया ‘‘िुिा काल होइ लै गा पीउ। पीउ नसह लेत लेत बरू जीऊ।।’’ 18 अिाढ़, िािन, भादों, कुआर, कासतक, अगहन, पूि, माघ, र्ागुन चैत, बैिाख, जेि, जेिअिाढ़ी... इन बारहमहीनों में नागमती के सिरह दुःख का व्यापक प्रभाि प्रकृसत के माध्यम िे पररलसक्षत होता है जो नागमती के गहरे प्रेम के िाथ जायिी के काव्योयकषक को भी िूसचत करते वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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हैं। आचायक िक्ु ल ने इिे असद्वतीय मानते हुए सलखा है - ‘‘नागमती का सिरहिणकन सहदं ी िासहयय में असद्वतीय िस्तु है... रानी नागमती सिरहदिा में अपना रानीपन भूलकर अपने को िाधारण स्त्री के रूप में देखती है।’’ 19

पमत के प्रमत अमतशय प्रेम की भावना शक ं ा, ईष्ट्या जैसे भावों को उत्पन्न करते हैं जो सहज या स्वाभामवक कहा जाता है। नागममत भी अपनी सौत पदममनी के आने पर ‘सौमतयाभाव’’ से भरी है तभी तो पदमावती दसू रे महल में उतारी जाती है -

नागमती मचत्तौड़ के इतने बड़े राजमहल में पमत के मबना मृतक अवस्था में पड़ी है -

‘‘िही न जाइ ि​िसत कै झारा। दुिरे मंसदर दीन्द्ह उतारा।’’ 24

‘‘रहौ अके सल गहें एक पािी। नैन पिासि भरौं सहय कारी।।’’ 20

इिके उपरांत िह रयनिेन िे प्रश्न करती है -

वह कौवे के माध्यम से अपना संदश े देती है ‘‘सपय िौ कहेहु िंदेिरा ऐ भंिरा ऐ काग।

जौं पदुमािसत है िुसि लोनी। मोरे रूप सक िरबरर होनी। 

*

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िो धसन सबरहें जरर गयी, तेसहक छुआ हम लागा।’ 21

भँिर पुरुख अि रहै न राखा। तजै दाख महुआ रि चाखा।

वह एक आदशा भारतीय नारी की भाँमत पमत के चरि रज से ही धन्य हो जाना चाहती है -

तसज नागेिरर र्ूल िोहािा। कॅ िल सबिैंधे िो मन लािा।।’’ 25

‘‘यह तन जारौं छार कै कहौं सक पिन उड़ाउ।

सौमतयाभाव के कारि ही स्वयं को द्राक्षा तथा पदमावती को महुआ कहती है।

मकु तेसह मारग होइ परौं, कंतधरै जहँ पाउ।।’’ 22 यही नहीं वह एक चेरी बनकर याचना करती है रकत न रहा ररह तन गरा।रती रती होइ नैंनसन्द्ह ढरा। पािॅ लासग चेरी धसन हाहा।चूरा नेहु जोरु रे नाहा।। 23 अब नागमती को अपने पमत के अमतररक्त दमु नया का कोई ऐश्वया-भोग नहीं चामहए। नागमती के इस कथन में ; मान से रमहत, सख ु भोग की लालसा से मवलग, अत्यंत नम्र, शीतल और मवशद्ध ु प्रेम की झलक ममलती है। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ईष्ट्यावश दोनों रामनयाँ आपस में ‘कहा-सनु ी’ भी करती हैं, जहाँ एक-दसू रे को नीचा मदखाने का प्रयास हो रहा है। नागमती कहती है‘‘जौ उसजगार चाँद होइ उई। बदन कलंक डोिे कै छुई। औ मोसह तोसह सनसि सदनकर बीचू। राहु के हाथ चाँद कै मीचू।।’’ 26 अब पदमावती नागमती के मलए अगं ार बन गयी है तो उसका शोला बनना भी स्वाभामवक है दोनों रामनयों में दगं ल की भाँमत मार-पीट फन जाती है -

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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‘‘ओई सआह कहं ओसह कहं गहा। गहा गहसन जि जाइ न कहा। दुऔ निल भर जोबन गाजी। अछरी जानु अखारे बाजीं। भा िॉहसन िॉहसन िौं जोरा। सहया सहया िो बाग न मोरा। कुंच िौं कुच जौं िौंहे आने। निसह न जाए िूिसह ताने। कुंभ स्थल जेउ गज मैंमता। दूनौ अल्हर सभरै चै दतं ा। देि लोक देखत मुए िाढ़े। लागे बन सहयं जासहं न काढ़े।।’’ 27 राजा रयनिेन द्वारा ‘िेि करहु समसल दुनहु औ मानहु िुख भोग’’ 28 दोनों में समझौता होता है। अतं में जब राजा रत्नसेन वीरगमत को प्राप्त होता है तब दोनों रामनयाँ मचत्ताड़ की राजपतू ाना परम्परा की मया​ादा के साथ अपने अलौमकक प्रेम का पररचय देती हुई सती होती हैं ‘‘नागमती पदुमापसत रानीं। दुिौ महारत िाती बखानी। दुिौ आइ चसढ़ खाि बईिी। औ सि​िलोक परा सतन्द्ह डीिी।। 

*

*

आजु िूर सदन अथिा आजु रैसन िसि बसू ड़। आजु नॉसच सजय दीसजअ, आजु आसग हम जूसड़।।’’ 29

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जाती है मजतनी अलौमकक पदमावती। श्याममनोहर पाण्डेय ने नागमती के सतीत्व को पदमावती से अमधक महत्वपिू ा माना-’’ िह नारी सजिको पसत सक उपेक्षा समली,सजिके रहते पसत ने दूिरी नारी को अंगीकार सकया,िह पसत के सलए िती हो जाती है तो उिका ययाग अपेक्षाकृत असधक महयिपण ू क िमझा जाना चासहए।’’ 30 आचाया शक्ु ल ने इस उत्सगामय छमव के रूप पर मनु ध होकर कहा है मक - ‘‘पसत परायणा नागमती जीिनकाल में अपनी प्रेमज्योसत िे गृह को आलोसकत करके अंत में िती की सदगं तव्यासपनी प्रभा िे दमकर इि लोक िे अदृश्य हो जाती है।’’ 31 नागमती का चररत्र समाज के कई पहलओ ु ं से रूबरू होता हुआ एक स्त्री की व्यथा-कथा के साथ समाज का भी आइना प्रस्ततु करता है। नागमती भारतीय नारी के चररत्र का सवोच्च आदशा​ात्मक प्रमतमबबं है। नागमती को नारी का शद्ध ु रुप मानते हुए श्याममनोहर पाण्डेय मलखते है-’’पदमािती िे असधक ि​िक्त चररि नागमसत का है। िह नारी ह्रदय की िमस्त सनबकलताओ ं िे पररपूणक हैं। पदमािती िाधना और तप का आलंबन अिश्य है पर नारी का िुि मानिीय रुप तो नागमती में ही प्रकि हुआ है।’’ 32

िन्द्दभक िूची . 1. 83

पदमावत : सं. माताप्रसाद गप्तु , पृ.129, पद

2.

वही पृ.129, पद 83

पमत धमा और प्रेम की अमनन में खदु को आहूत करके नागमती भी उतनी ही उजा​ावान तथा प्रकाशमान हो Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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3 . पदमावत : सं. माताप्रसाद गप्तु , पृ.129, पद 83

ISSN: 2454-2725

22 . वही, पृ.343, पद 352 23.

वही, पृ.348, पद 357

24.

माता प्रसाद गप्तु , पृ.400,पद-426

4.

वही पृ.130, पद 74

5. 75

पदमावत : सं. माताप्रसाद गप्तु , पृ.131,पद-

25. वही, पृ.402, पद 429

6. 85

पदमावत : सं. माताप्रसाद गप्तु , पृ.139, पद

26 पदमावत : सं. माताप्रसाद गप्तु , वही, पृ.411, पद 411

7.

वही पृ.134,पद-88

27 444

पदमावत : सं. माताप्रसाद गप्तु , पृ.413, पद

8.

वही, पृ.134, पद 88

पदमावत : सं. माताप्रसाद गप्तु , पृ.414, पद

9. 89

पदमावत : सं. माताप्रसाद गप्तु , पृ.135, पद

28 445

10.

वही, पृ.135, पद 89

29 पदमावत : सं. माताप्रसाद गप्तु , वही, पृ.565, पद 649

11. वही, पृ.136,पद 91 12.

वही, पृ.136, पद 91

13.

वही, पृ.136, पद 91

14. पदमावत : स.ं माताप्रसाद गप्तु , वही, पृ.170, पद 130

30 मध्ययगु ीन प्रेमाख्यान,श्याममनोहर पाण्डेय लोकभारती प्रकाशन, मदल्ली, 1982 ,पृ.241 31

जायसी ग्रथं ावली,आ. शक्ु ल, पृ.92

32

जायसी ग्रथं ावली,आ. शक्ु ल, पृ. 243

15. पदमावत : स.ं माताप्रसाद गप्तु , , पृ.170, पद 130 16.

वही, पृ.170, पद 131

17.

मद्ववेदी ग्रथं ावली-5, पृ.375

18. 34

पदमावत : स.ं माताप्रसाद गप्तु , , पृ.33, पद

19.

जायसी ग्रथं ावली पृ.34

20.

पदमावत, माताप्रसाद गप्तु , पृ.346

21

वही, पृ.346

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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हि ं राज रहबर के िासहसययक कृसतयों में राष्ट्रिाद और माक्िकिाद का द्वंद पंकज कुमार हसं राज रहबर माक्सावादी भी हैं और राष्ट्रवादी भी हैं, लेमकन माक्सावाद हो या राष्ट्रवाद दोनों का ढोंग उन्हें पसंद नहीं। अपने उपन्यास ‘मबना रीढ़ का आदमी’ में रहबर ने महु म्मद हसन ररजवी के ढोंग को इस प्रकार व्यक्त मकया है मक ‘‘मजस इसं ान के मदल में एक बार मामकिं मसज्म का नरू दामखल हो गया, वह ‘हमेशा क्रामं तकारी बना रहेगा और मौमलक मचंतन करे गा।’’1 मनष्ट्ु य को क्रांमतकारी अथवा माक्सावादी बने रहने के मलए एक ही जीवन में कई जन्म लेने पड़ते हैं। हसं राज’ क्रांमतकारी अथवा माक्सावादी अध्ययन लम्बे अनभु व के ‘बहुत बाद ‘रहबर’ बने। अपनी आत्मकथा ‘मेरे सात जन्म में उन्होंने उल्लेख मकया है मक ‘‘मैं अगस्त 1942 के भारत छोड़ों आदं ल े न में मगरफ्तार हुआ। दो वर्षा जेल में रहा। दसू रा मवश्व यद्ध ु चल रहा था। पररमस्थमतयाँ तेजी से बदल रही हैं। मैंने गांधीवाद, राष्ट्रवाद, माक्सावाद और इमतहास का अध्ययन मकया। समझ बढ़ी और जेल में कम्यमु नष्ठ बन गया। यह मेरा पाचवाँ जन्म था’’2 रहबर के व्यमक्तत्व एवं कृ मतत्व के आलोक में इनकी मवचारधारा का सहज ही मल्ू याक ं न मकया जा सकता है। यमद उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘‘मैं सैद्धामन्तक रूप से सन् 1942 तक समाजवादी या आदशावादी ही था। कहने की जरूरत नहीं। इसके बाद से माक्सावाद और जीवन ही मेरा प्रेरिास्रोत है।’’3 जो व्यमक्त इस प्रकार की उद्घोर्षिा करता हुआ आगे बढ़ता है, उसके माक्सावाद होने की संमदनध दृमि से नहीं देखा जा सकता। ‘रहबर’ 1943 सं. कम्यमू नि पाटी के समक्रय सदस्य रहे। माक्सावादी मवचारधारा को, उन्होंने भारतीय पररप्रेक्ष्य में आत्मसात मकया, इन्होंने इसे आँख मदंू कर नहीं, बमल्क व्यवहार की कसौटी पर परखकर इन्हें जो सही और साथाक लगा, उसी का समथान मकया, अन्यथा Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मवरोध में खड़े हो जाते। चाहे इसकी कीमत उन्हें जो भी चक ु ानी परे चनु ौती के मलए तैयार रहते थे। इस संदभा में दो घटनाओ ं का उल्लेख अपररहाया है। पहला ‘‘सन् 63-64 के मदनों में में कम्यमू नस्ट पाटी पर डांगे का एकामधकार था। उन्हीं मदनों मकसी बात पर इन्होंने नेशनल कौमन्सल के प्रस्ताव से मवरोध जामहर मकया और जब बात बढ़ी तो मलख कर दे मदया मक मैं नेशनल कौमन्सल प्रस्ताव को नहीं मानता और उस पर अमल नहीं नहीं करूँगा। मजसके पररिामस्वरूप इन्हें सन् 64 में पाटी से मनकाल मदया, मकन्तु ये झक ु े नहीं और लड़ाई जारी रखी।’’4 दसू रा अपने इसी व्यमक्तत्व का पररचय इन्होंने तब भी मदया जब ये ‘योद्धा सन्यासी मववेकानन्द’ मलख रहे थे। यह तथ्य जगजामहर है मक ‘रहबर’ उस मवचारधारा के प्रबल समथाक हैं। मजसे माक्सावादी ‘लेमननवादी’ कहा जाता है। जब दल के नेतत्ृ व को पता चला मक ‘रहबर’ मववेकानन्द पर पस्ु तक मलख रहे हैं, तो फरमान आया और तलब करके पछ ू ा गया मक क्या ‘रहबर’ भी वही काम करें गे जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कर रहे हैं? तब रहबर जी अमडग रहे तो चेताया मक प्रकाशन से पवू ा मदखा लेना। इस प्रकार रहबर माक्सावादी चेतना के आयामतत रूप अथवा मकसी मापदडं ों को स्वीकार करने के बजाय भारतीय पररप्रेक्ष्य में लोकतामं त्रक मवमध का सहारा मलया, मजससे माक्सावादी मवचारधारा का उमचत उपयोग भारतीय जनमानस पर हो सके न मक मकसी रुढ़गत् नीमत को अपनाया जो इन्हें प्रगमतशील वैचाररकी का यगु परु​ु र्ष बनाता है। इस बात में स्पिीकरि उनके आत्मकथा में ममलता है। ‘‘पौधा धरती से और मनष्ट्ु य अपने अतीत से जीवन शमक्त ग्रहि करता है।’’4 रहबर जी ने उल्लेख मकया है मक माओत्सेतंगु को पाटी मवभामजत होने के बाद मैंने पढ़ा, उसने मलखा है‘‘सस्ं कृ मत मवहीन सेना मन्द बमु द्ध सेना है, वह शत्रु को नहीं नहीं हरा सकती। हमारी क्रांमत के मलए हमें दो तरह के मसपामहयों की जरूरत है। बन्दक ू के मसपाही वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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और कलम के मसपाही लेमकन हमारे कम्यमू नि नेता कलम को कोई महत्व नहीं देते। वे सस्ं कृ मत के बारे में न कुछ जानते हैं और न जानना चाहते हैं।’’5 चीन में कम्यमू नस्ट पाटी की सहायता का रहस्य बताते हुए रहबर जी ने उल्लेख मकया है मक उसने सस्ं कृ मत और सामहत्य के इस क्रामं तकारी पक्ष की कभी अवहेलना नहीं की। जहा-जहाँ लाल सेना ने मक्त ु क्षेत्र कायम मकए वहाँ तरु न्त सांस्कृ मत कायाक्रम के द्वारा उस क्षेत्र की मवमशि जन संस्कृ मत को बढ़ावा मदया और उसका माका सी मवश्ले र्षि करके जनचेतना को सही मदशा प्रदान की। कोचीन की कम्यमू नस्ट पाटी में बन्दक ू के साथ कलम को और बन्दक ू ें कन्धे पर रखकर लड़ने वाले सैमनकों के साथ-साथ सांस्कृ मतक, कायाकता​ाओ,ं लेखकों और बुमद्धजीमवयों को हमेशा एक महत्वपिू ा स्थान प्राप्त रहा है और पाटी के नेता कामरे ड माओत्सेतंगु ने उनकी रहनमु ाई के मलये येनान सम्मेलन में सामहत्य और संस्कृ मत पर प्रमसद्ध थीमसत प्रस्ततु मकया। इसी समझ और दरू दमशाता के कारि चीन की कम्यमू नस्ट पाटी एक जटु रही। इसी कारि क्रामं त सफल रही और इसी कारि देश को संशोधनवाद के खतरे से बचाना सम्भव हो सका। क्रामं त न के वल व्यमक्त, बमल्क समचू े राष्ट्र के मवकास की जमानत है। इससे परु ाने दरु ाग्रह एवं भ्रम टूटते हैं और जीवनदायक मवचारों की सृमि होती है। लोग मवशेर्षकर यवु क क्रांमतकारी पाटी और क्रांमतकारी आन्दोलन में इसमलये शाममल होते हैं उन्हें अपना मवकास मप्रय होता है। वे अपने समचू े राष्ट्र के व्यमक्तत्व का सवािंगीि मवकास चाहते हैं। इसी कारि हजारों लोग बड़ी-बड़ी आशाएँअमभलार्षाएँ और आकांक्षाएँ लेकर पाटी के करीब आए। उसके सदस्य बने लेमकन पाटी के भीतर आकर उन्हें सख्त मायसू ी हुई। चँमू क पाटी के लोगों ने सस्ं कृ मत के क्रांमतकारी पक्ष पर कभी ध्यान नहीं मदया और Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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सांस्कृ मतक समस्याओ ं को समझने समझाने और उनका राजनीमत से द्वन्दात्मक सम्बन्ध स्थामपत करने की कभी चेिा नहीं की। इसमलये कम्यमू नस्ट पाटी की हालत मकसी भी बजु आ ाु तथा पैटी बजु आ ाु पाटी से बेहतर नहीं थी। बजु आ ाु और पैटी बजु आ ाु क्रामन्त मवरोधी प्रवृमत्तयों से इसका भीतरी वातावरि इतना भ्रि था मक व्यमक्तत्व के मवकास का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। उल्टा इस माहौल में भले आदमी का दम घटु ता था। अगर उसे सस्ं कृ मतमवहीन जोड़-तोड़ और गटु बाजी में ग्रस्त बनना स्वीकार न होता, वहां कोई भी भाग खड़ा होता और मफर पाटी की ओर देखने से भी तौबा कर लेता था। अगर मेरे जैसा सख्त जान मजसने अनुभव से सीख मलया हो मक मकसी दसू री जगह भी व्यमक्तत्व का मवकास सम्भव नहीं है। हमारा कम्यमू नज्म आन्दोलन अपने प्रारम्भ् से ही राष्ट्रीयता को नकार कर अन्तरा​ाष्ट्रीय बन गया था। पररिाम यह मक इमतहास और परम्परा को नकारा गया। पररिाम यह मक देशभक्त और राष्ट्रवादी कहलाना रुमढ़वाद अैर प्रमतमक्रयावादी समझा जाने लगा। साथ ही यह मक हमारे वामपक्ष ने प्रेमचन्द जी की ‘कफन’ कहानी के ‘घीसमू ाधव’ पैदा मकये मजनकी न कोई मान्यता है और न नैमतकता। माक्सावाद लेमननवाद के मसद्धान्त को अगर जनता के क्रामन्तकारी व्यवहार से न जोड़ा जाये तो वह हवाई माक्सावाद है। खोखला माक्र्सवाद है। ऐसे माक्सावादी क्रांमत की पंमक्त में क्रामन्त के शत्रु हैं। जैसे-जैसे उत्पादन ऊँचा उठा है, मवचार भी ऊँचा उठा सवाहारा वगा अमस्तत्व में आया। मजसका वह जीवनदशान है। सभी राष्ट्रों की अपनी-अपनी मवमशिता है। इन मवमशिताओ ं से जड़ु कर माक्सावादी हर देश में अपना एक राष्ट्रीय रूप धारि करे गा। अपनी आत्मकथा में रहबर मलखते हैं- मवचार और सामहत्य का अपना एक वगा चररत्र होता है, लेमकन वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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भौगोमलक सीमा नहीं होती। मजस मवचार और सामहत्य से शोर्षक-शासक वगा का महत पोमर्षत होता है, वह उसे प्रचाररत प्रसाररत करता है, चाहे वह मकसी भी देश का हो। उदाहरि के मलयो तालस्ताय और कनफ्यमू शस के मवचार और सामहत्य से हमारे पस्ु तकालय भरे पड़े हैं, और उन्हें पाठ्य पस्ु तकों में भी पढ़ाया जाता है, मफर अगर हम लेमनन और माओत्सेतंगु का सामहत्य पढ़े और उनके मवचारों को शोमर्षत उत्पीमड़त और मनष्ट्पेमशत जनता में प्रचाररतप्रसाररत करें तो हो-हल्ला क्यों मचता है? उन पर मवदेशी होने का लेमवल क्यों लगाया जाता है? मसफा इसमलये न मक उससे शोर्षक-शासक वगा के महतों पर आँच आती है। जन साधारि की चेतना मवकमसत होती है।6 अपनी समीक्षात्मक कृ मत मतलक से आज तक में रहबर मलखते हैं- ‘‘हमारे देश की यह मवडम्बनापिू ा मानमसकता बन गई है मक जो भी व्यमक्त रुमढ़यों का मवरोध करता है, उन्हें तोड़ने का प्रयास करता है, उसका यथा शमक्त डटकर मवरोध मकया जाता है। महावीर, बद्ध ु , कबीर, नानक दयानन्द, राजाराममोहन राय, सभी के साथ ऐसा ही मवरोध सामने आया। लेमकन वे मजन्हें मवरोध स्वीकार ही नहीं, अपने पथ पर अमडग हो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं। हर वाद में कुछ रुमढ़या और रुमढ़वामद बन जाते हैं। और वे रुमढ़ जनमानस में रच बस जाती हैं। चाहे उसका पररिाम ऋिात्मक ही क्यों न हो। ये मजस मान्यता को अपनाते हैं उस पर भली प्रकार सोच मवचार करके ही अपनाते। इनकी इस प्रवृमत्त को हम अन्तरा​ाष्ट्रीयता के सम्बन्ध में इन मवचारों को देखकर लगा सकते हैं। इनका कहना है मक ‘अन्तरा​ाष्ट्रीयता में राष्ट्रीयता भी शाममल है, उसमें से राष्ट्रीयता मनकाल दीमजए तो शेर्ष क्या रह जायेगा। के वल ‘अन्तर’’7। रहबर जी की व्यापक दृमि कदम-कदम पर मवमवध आयामों में दृमिगोचर होती है। इनकी दृमि में इतना Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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पैनापन पाया गया मक मजसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसी सन्दभा में एक बात यह भी ध्यान देने की है, मक राष्ट्रीय संग्राम में तथाकमथत सनातनी मजन्हें रुमढ़वादी और न जाने क्या-क्या कहा गया था वही गमा दलीय थे, उन्होंने ही माक्सा को भली प्रकार समझ कर आत्मसात् मकया था। देश की स्वतन्त्रता के मलये फांसी पर झल ू ने वाले मजन क्रामन्तकाररयों के पास माक्सा सामहत्य ममलता था। जो रूस की क्रामन्त से प्रेरिा लेते थे उन्हीं के पास मतलक की गीता-रहस्य और मववेकानन्द सामहत्य ममलता था। जबमक उन मदनों के प्रगमतशील मवचारों वाले अग्रं ेज-भक्त गांधी के चरखावाद में अपनी शमक्त का अपव्यय कर रहे थे। कौन सी शमक्तयाँ इन रुमढ़वामदयों (?) को माक्सा की ओर अग्रसर होने को प्रेररत कर रही थीं, जबमक गाधं ी उनके अमधक करीब थे। यह शोध का मवर्षय हो सकता है। मकन्तु इस मान्यता के बारे में दो राय नहीं हो सकतीं मक इन उग्रवादी कहे जाने वालों का दृमिकोि सही अथा में प्रगमतशील था जो अपने राष्ट्रीय दामयत्व को भलीभाँमत समझते थे। ‘रहबर’ ने अपनी कृ मतयों में एक-एक कर इस तथ्य की ओर ध्यानाकमर्षात मकया है और माक्सा एवं माओ को राष्ट्रीय पररप्रेक्ष्य में देखते हुए जन साधारि तक पहुचँ ाया है।’’8 ‘प्रगमतशीलता’ वस्ततु ः एक मवशेर्ष अथा में रूढ़ हो गई हैं। मजसका सीधा अथा माक्सा से सम्बद्ध मकया जाता है। जो मक इस यगु के मलये कोई नवीन नहीं बमल्क परु ातन दशान है। शायद इसीमलये कुछ लोग इसे जनवाद के नाम से फै शन में ला रहे हैं। ‘प्रगमत’ के इस रुढ़ अथा में ही स्वनामधन्य समालोचक तल ु सीदास के महत्व को नकारते हैं जबमक अपने समय में तल ु सी भी प्रगमतशील थे। मववेकानन्द और मतलक ने भी प्रगमतवादी दृमिकोि का प्रचार-प्रसार मकया। मववेकानन्द की दृमि में ‘मनष्ट्ु य सारे प्रामियों से श्रेष्ठ है, सारे देवताओ ं से श्रेष्ठ हैं, उससे वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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श्रेष्ठ और कोई नहीं अतएव मलखा है: ‘‘आज हमारे देश को मजस चीज की आवश्यकता है, वह है लोहे की मांसपेमशयों और फौलाद के स्नाय,ु प्रचण्ड इच्छा शमक्त, मजसका अवरोध दमु नया की कोई ताकत न कर सके । और मजस उपाय से भी हो अपने उद्देश्य की पमू ता करने में समथा हों, मफर चाहे समद्रु में क्यों न जाना पड़े, साक्षात मृत्यु का ही सामना क्यों न करना पड़े। और देमखए प्राचीन धमा ने कहा ‘‘वह नामस्तक है जो ईश्वर में मवश्वास नहीं करता।’’ नया धमा कहता है ‘‘नामस्तक हुआ है जो स्वयं में मवश्वास नहीं करता।’’9 वे अपने समय के जनमानस से जड़ु े थे जबमक आज के प्रगमतशील मधश ु ालाओ ं और क्लबों से जड़ु कर ‘प्रगमत के नाम पर यगु को, पररमस्थमतयों को नकार रहे हैं। ‘रहबर’ ने इन सब की मचन्ता मकये मबना अपनी परम्परा और सस्ं कृ मत को समझबझू कर ही प्रस्ततु मकया है मक मतलक का उत्तरामधकारी वह व्यमक्त बन सके गा जो माक्सावाद का ज्ञाता होने के साथ-साथ संस्कृ त का भी पमण्डत हो और मजसने अपने अतीत का आत्मसात कर मलया हो। वही व्यमक्त हमारी राष्ट्रीय मवमशिताओ ं को समझ सके गा और वही माक्सावाद को राष्ट्रीय रूप दे सके गा तब देश की जनता उसे सहज में हृदयंगम करके , क्रांमतकारी भौमतक शमक्त में रूपान्तररक कर देगी, आत्म-मवश्वास की बमु नयाद मजबतू होगी। इसीमलये कहा जाता है मक ‘रहबर जी’ माक्सावादी होने के साथ-साथ सही अथा में राष्ट्रवादी और प्रगमतशील थे। ‘‘राष्ट्रवादी के सही अथा में कहने का तात्पया स्पितः अधं राष्ट्रीयता का मवरोध करना है। जो इन्होंने ‘मवजयी मवश्व मतरंगा प्यारा’ गीत की इस भावना का मवरोध करके भी मकया है मक हम मवश्व पर मवजय हामसल करें ग,े जबमक सही दृमिकोि तो यह है मक हम भी मवश्व के अन्य देशों के साथ कंधे से कंधा ममलाकर आत्ममवश्वास पिू ा जीवन यापन करें ग।े ’’10 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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रहबर की मवचारधारा को देखने पर मालमु होता है मक ‘रहबर’ आदशों के पक्षधर थे, आदशावाद के नहीं आदशा जीवन के मलये इनका कथन एक दम स्पि था। ‘मनष्ट्ु य का जब मनमित मसद्धान्त हो और वह सतत् सघं र्षा का मागा अपनाएं तो धीरे -धीरे इसकी प्रमतभा का सममु चत मवकास होता रहता है, लेमकन इसके मवपरीत अगर मसद्धान्त छोड़कर आदशाहीनता और मवलामसता का मागा अपना ले और जनता से अपना सम्बन्ध मवच्छे द कर ले तो धीरे -धीरे उसकी प्रमतभा का हास्य भी हो जाता है।’’11 स्वच्छन्द मवचरि पर भी रहबर जी की मवचारधारा नकारात्मक थी वे अक ं ु श के पक्षधर थें अब यह स्वच्छन्दता चाहे नारी की हो या चाहे परु​ु र्ष की। इनके सम्पिू ा कथा सामहत्य में जो भी पात्र मदशाहीन स्वच्छन्दता की लीक पकड़ता है। पिू ता ः असफल होता है। मस्त्रयों के स्वातन्त्र्य यानी मवमैनमलव की बात उठाकर अपने आपको पमिमी सभ्यता के रंग में रंगने को प्रयत्नशील ममहलाअें के अत्यन्त सन्ु दर मचत्रि ‘इनके कुछ उपन्यासों में ममलते हैं। मसलन, अममता, उन्माद, पख ं हीन मततली तथा मकस्सा तोता पढ़ाने का तो मख्ु यतः यही मवर्षय है। उन्हीं के शब्दों में उपन्यास की प्रमख ु नारी पात्र का कथन देखें ‘‘मैं जो इस देश की मशमक्षत और सजग नारी हू.ँ ... तम्ु हारे इस ऐश्वया में भागी बनने से, पैसे की इस गल ु ामी को अपने ऊपर ओढ़ने से इन्कार करती हू.ँ .. मैं तम्ु हारी थी पर तमु मेरे नहीं बन पाये’’12 जामहर है मक इन्होंने नारी को मात्र भोनय नहीं, बमल्क सहधममािी माना। इनके समक्ष इनके पत्नी होने के साथ-साथ माँ, बहन, और बेटी के सम्बन्ध भी इतने ही महत्वपूिा हैं, बमल्क कहीं-कहीं तो और अमधक हैं। ‘रहबर’ जी के मवचार से मशक्षा नौकरी का जररया मात्र नहीं है। वह मात्र ज्ञान प्राप्त करने में सहायक है। देश भमक्त में सहायक हैं, इन्होंने अपनी कहानी में मलखा है ‘‘पढ़े-मलखे ही अगर देश की सेवा न करें गे तो और कौन करे गा।’’13 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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वह ज्ञान वह मशक्षा बेकार ही है मजसका उपयोग देश महत में न हो। ‘रहबर जी’ के कृ मतत्व के आलोक में इनकी मवचार धारा पर दृमिपात करते समय मजस पक्ष को मवशेर्ष रूप से देखना है, वह है राजनैमतक चेतना। यद्यमप राजनैमतक प्रमतबद्धता अन्धानक ु रि को जन्म देती है। तथामप इसे अनदेखी करना इससे मनरपेक्ष रहना, अपने समय और समाज के साथ-साथ अपने साथ गद्दारी करना है। मजस व्यमक्त में राजनैमतक चेतना का अभाव है, वह स्वयं कठमल्ु लापन और अन्धानक ु रि का मशकार हुए मबना नहीं रह सकता। इस तथ्य के कारि ही तो हम देखते हैं ‘रहबर’के सम्पिू ा कृ मतत्व में समकालीन राजनीमत, जो मक भमवष्ट्य का इमतहास है और अपनी परम्परा के इमतहास से कदम-दर-कदम साक्षात् होता है। कहानी हो या उपन्यास, व्यमक्तत्व समीक्षा हो या सामहमत्यक समीक्षा इनका मवमवध लेखन साममयक राजनीमत के रु-ब-रु होकर ही खड़ा है जो प्रमतमबम्ब स्वरूप अपना मचत्र भी प्रस्ततु करता है और शत्रु के सामने चनु ौती भी देता है। इनके लेखन में सामामजक एवं राजनैमतक इमतहास के दशान मजस ढगं और स्पिता के साथ होते हैं, ऐसा मचत्रि इमतहास की पस्ु तकों में भी सल ु भ नहीं है और यही कारि है मक जब हमारे देश का मनरपेक्ष इमतहास मलखा जायेगा और वह मदन अब दरू नहीं लगता... उस समय इनका कृ मतत्व पया​ाप्त सहायक होगा।’’14 बजु मदली से रहबर जी का काफी घृिा थी और तो और अपने जीवन में इस कमजोरी को इन्होंने अपने पास भी फटकने नहीं मदया। वे कहते ‘मैं बजु मदली और मजबरू ी की मौत नहीं मरना चाहता जब तक मजस्म में खनू का एक भी कतरा बाकी है। मैं इस जामलम मौत का मक ु ाबला करूंगा।15 और मजस व्यमक्त को बजु मदली से इतनी नफरत है; उसका परतन्त्रता के प्रमत मवचार भी अनमु ामनत नहीं रहने चामहये, ‘कोई बात नहीं। मेरा बच्चा शहीद है। उसने Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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इन्कार मकया है- इन्कार मकया है गल ु ामी की मफ़जा में साँस लेने से।16 रहबर की राष्ट्रीयता, मशक्षा तथा न्यायमप्रयता और माका सीय मवचारधारा प्रश्नातीत है। ये अपनी सस्ं कृ मत के रक्षक और परम्परा एवं पररमस्थमत से सीखने के पक्षधर रहे। रहबर जी कभी भी मकसी प्रकार के दबाव के सामने नहीं झक ु े यही उनका स्वभाव था और यही शान। वे कहते थे‘‘पेड़े के पत्ते मगनने वालों तमु ‘रहबर’ को क्या जानो।’’ कपड़ा-लत्ता ठीक न हो पर बात तो उसकी भारी है।17 ‘रहबर’ की बात हमेशा भारी रही, उनके मवचार उनकी सोच उथली नहीं थीं उसमें हल्कापन नहीं था, बमल्क पररपक्वता थी गरु​ु ता थी। रहबर जी ने कथासामहत्य मलखा हो कहानी उपन्यास या आलोचना, समीक्षा सभी में अपनी स्पिवामदता और मबना मकसी लाग लपेट के बात को कहा है। मवचारधारा में घटनाओ,ं पररमस्थमतयों का समावेश होता है। रहबर की कहामनयों के माध्यम से मद्वतीय मवश्व यद्ध ु के उपरान्त भारत में साम्यवादी मवचारधारा को समझने में सहायता ममलती है जो खदु लेखक के ही शब्दों में कहते हैं। ‘‘मैं कौन-कौन सा मदया अपने मदये से जलाऊँ? यहाँ तो हर घर में अधं ेरा है।’’ सन् 1943 में रहबर जेल में थे। इस दौरान इन्होंने ‘हाथ में हाथ’ तथा ‘कंकर’ दो उपन्यास, दजानों कहामनयाँ और नज्मे-गजलें भी मलखीं। इसके साथ ही अनेक महत्वपूिा सामहत्य की सजाना की है मजनमें प्रेमचन्द, जीवन, कला और कृ मतत्व, प्रगमतवाद पनु ामल्ू याक ं न, नेहरू बेनकाब, गामलब बेनकाब, गान्धी बेनकाब, राष्ट्रनायक, गरु​ु गोमवन्द मसंह, भगतमसंह, एक जीवनी तथा योद्धा सन्यासी मववेकानन्द, मेरे सात जन्म (चार खण्डों में) के साथ-साथ अनेक कहामनयाँ व उपन्यास वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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में माक्सावादी मवचारधारा और आलोचक रूप के साथ सजग कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में सामने आते हैं। रहबर का मानना है मक भारत में अभी तक माक्सावाद आया ही नहीं है, जो है, सब खोखला है तथा वे भारत की आजादी को आजादी नहीं, अमपतु सत्ता स्थानान्तरि मात्र मानते हैं।

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15. उपहास, मजन्दगी की उमंग, इमं डयन पमब्लशर, इलाहाबाद, प्रकाशन 1947, पृ. 33 16. उपहास जननी कहानी से, इमं डयन पमब्लशर हाऊस, इलाहाबाद प्रकाशन 1947, पृ. 4 17. एहसास काव्य सग्रं ह, हसं राज रहबर, पृ. 15

िंदभक 1. मबना रीढ़ का आदमी, हसं राज रहबर, प्रभात प्रकाशन, मद. 1977, पृ. 109 2. मेरे सात जन्म भाग-3, हसं राज रहबर, वािी प्रकाशन, 1980, पृ. 7 3. नया सामहत्य: मदसंबर, 1963, पृ.-3, मेरा प्रेरिास्रोत-हसं राज रहबर 4. मेरे सात जन्म भाग-3, हसं राज रहबर वािी प्रकाशन, मदल्ली-1988, पृ. 17. 5. माओत्से तंगु , लेखक- हसं राज रहबर आलेख प्र. मद. 1982, पृ. 51 6. मेरे सात जन्म भाग-4, वािी प्रकाशन, मद. 1989, पृ. 130 7. मतलक से आज तक मनमध प्रकाशन मदन. 1980 पृष्ठ 141 8. रहबर एक चनु ौती, श्री मवश्रांत वमशि, पृ.182-183. 9. गांधी बेनकाब, हसं राज रहबर, मदशा प्रकाशन, मदल्ली-1971, पृ. 270-71 10. रहबर एक चनु ौती, श्री मवश्रांत वमशि, पृ.182-183. 11. प्रगमतवाद: पनु मल्ाू याक ं न, नवयगु -प्रकाशन, मदल्ली-1966, पृ. 227 12. मकस्सा तोता पढ़ाने का, लेखक हसं राज रहबर, राजपाल एण्ड सन्स, प्रकाशन-1971, पृ. 137 13. उपहास, कहानी संग्रह, (प्रमतध्वमन) इमं डयन पमब्लशर, इलाहाबाद, प्र. 1947, पृ. 5 14. रहबर एक चनु ौती, मवश्रांत वमशि, पृ. 50 Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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िमकालीन सहन्द्दी कहानी में िामासजक आसथकक लोकतन्द्ि डॉ. धनज ं य कुमार िाि िार हमारी सामामजक संरचना में दमलत जन –समदु ाय की मस्थमत भयावह है । आज समकालीन सामामजकसांस्कृ मतक एवं सामहमत्यक पररदृश्य में जो दमलत मवमशा या दमलत आदं ोलन या मफर दमलत जन उभार है, वह मनमित ही दमलत जनजीवन के अपने चतमु दाक पसरी प्रमतकूल मस्थमतयों के प्रमत स्वतंत्र चेतना और आत्मसजगता है । समकालीन पररदृश्य में उभरा दमलत मवमशा मल ू क सामहमत्यक स्वर जो समदयों से चले आ रहे जामतवाद से ग्रस्त समाज व्यवस्था में दमलतों की सामामजक-ऐमतहामसक-सास्ं कृ मतक अमस्मता को नकारने वाले सोच-सस्ं कार को ध्वस्त करने की प्रेरिा मलए हुए है । लोकतन्त्र को मसफा राजनीमतक पया​ाय के रूप में, या के वल उस क्षेत्र में ग्रहि करने के बजाय उसे सामामजक, आमथाक लोकतन्त्र के साथ सपं क्त ृ कर देखने की जरूरत है । ‘बोधन की नगमड़या’ ‘सलाम’ ‘नो बार’ ‘बहुरूमपया’ आमद कहामनयाँ सामामजक और आमथाक लोकतन्त्र को आहत करने वाले, उसे ध्वस्त करने वाले तत्त्वों को मचमन्हत करती है तथा इसके पर जाने की समदच्छा अमं कत करती हैं । इसी समदच्छा के साथ लोकतन्त्र के मल ू -‘जामत नहीं, मनष्ट्ु यता ही आमखरी सामामजक पहचान’ लक्ष्य को हामसल मकया जा सकता है । िोध सिस्तार “दःु खों से हैं जो दनध मदनध होंगे उनके बाि । Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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धनु उठाएँ – भर, समय मसखाएगा शर संधान ।।”(मनराला) मनष्ट्ु य और समाज का संबंध अन्योन्यामश्रत है । मनष्ट्ु य की सामामजक चेतना ही समाज में उसके अमस्तत्व का मनधा​ारि करती है । उसकी पहचान को गढ़ती है । पर वह समाज, जहाँ मकसी मनष्ट्ु य या समदु ाय की अमस्मता ‘जामतवाद’ की घृिामल ू क- कसौटी पर कसा गया हो, जहाँ जामतवाद के घृिामल ू क सोच – संस्कार द्वारा व्यमक्त की स्वतन्त्रता, समानता का हनन हुआ हो, मनष्ट्ु य –मनष्ट्ु य के बीच व्यवधान उत्पन्न मकया गया हो, जहाँ समाज के एक समदु ाय मवशेर्ष को प्रमतकूल पररमस्थमतयों के मध्य रहने को बाध्य मकया गया हो, वहाँ सामामजक संकट का उत्पन्न होना लाज़मी है । कहना न होगा मक यह सामामजक संकट मानवीय सभयता के समक्ष एक बड़ा प्रश्न है और एक मवचारशील मद्दु ा भी । दःु ख शब्द और उसकी व्यजं ना से हम सभी पररमचत हैं । कहना न होगा मक दःु ख मकसी भी व्यमक्त समाज या समदु ाय की प्रमतकूल पररमस्थमतयों का सक ं े तक होता है । भारतीय सामामजक पररप्रेक्ष्य में यह सहज ही कहा जा सकता है मक दमलत जन -समदु ाय प्रमतकूल पररमस्थमतयों के चतमु दाक रहने को समदयों से अमभशप्त है । हमारी िामासजक िंरचना में दसलत जन –िमुदाय की सस्थसत भयािह है । इस भयावह मस्थमत के प्रमत उनकी आत्मसजगता ही कहीं-न-कहीं सामामजक, सास्ं कृ मतक एवं सामहमत्यक पररदृश्य में दमलत जन उभार, दमलत आदं ोलन या दमलत मवमशा का रूप ले रहा है । उनकी यह आत्मसजगता आवेगआक्रोशपूिा भी है, जो स्वाभामवक है । क्योंमक, यह दःु खों से त्रस्त होने पर ही उपजी है । इसकी स्वाभामवक अमभव्यमक्त ही दमलत स्वर और मवमशा को एक अलहदा रूप प्रदान करती है । िच्चाई है सक िमकालीन सहन्द्दी दसलत सिमिक अपनी वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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असभव्यसक्त में िामासजक पररितकन की महतड आकांक्षा सलए हुए है । दमलत मवमशा का उभार सामामजक जड़ताओ ं पर प्रहार है । दसू रे शब्दों में कहा जाय तो यह एक नए िामासजक –आसथकक लोकतंि गढ़ने की िसदच्छा है । इस समदच्छा ने समकालीन महन्दी सामहत्य को एक नए आयाम से आवेमित मकया है, मवशेर्षकर कथा –सामहत्य को । यहाँ श्यौराज मसंह बेचैन का मनम्न कथन अवलोकनीय है –“दमलत सामहत्य उन अछूतों का सामहत्य है मजन्हें सामामजक स्तर पर सम्मान नहीं ममला । सामामजक स्तर पर जामतभेद के जो लोग मशकार हुए हैं, उनकी छटपटाहट ही शब्दबद्ध होकर दमलत सामहत्य बन रही है ।”1(बेचैन, डॉ. श्यौराज मसहं , - एक बेचैन रास्ता है दमलत कथा का – ‘अगं त्तु र’, जल ु ाई-अगस्त-मसतबं र, 1997, पृ.70) समकालीन पररदृश्य में उभरा दमलत मवमशा मल ू क सामहमत्यक स्वर अपने पवू वा ती स्वरों से मभन्न है । क्योंमक, यह के वल दमलत व्यथा, यातना और शोर्षि का उल्लेख भर नहीं करता, या मफर यह उसका गलदश्रु भावक ु ता पिू ा मववरि देता है, बमल्क यह अपनी अपनी आत्मसजगता में समदयों से चली आ रही जामतवाद से कंु मठत समाज –व्यवस्था का बमहष्ट्कार करता है । यहाँ इस सदं भा में ओमप्रकाश वाल्मीमक के मनम्न कथन को पढ़ा जा सकता है – “भारतीय समाज- व्यवस्था ने विा –व्यवस्था का एक ऐसा मजरहबख्तर पहन रखा है, मजस पर लगातार हमले होते रहे हैं मफर भी वह टूट नहीं पाई । बीसवीं सदी में सबसे बड़ा हमला अबं ेडकर ने मकया … इस व्यवस्था को तोड़ने के मलए जामत –व्यवस्था का टूटना जरूरी है, तभी समाज में समरसता उत्पन्न हो सकती है ।”2(वाल्मीमक, ओमप्रकाश, दमलत सामहत्य का सौंदयाशास्त्र, राधाकृ ष्ट्ि प्राइवेट, मलममटेड, प्र. सं 2001, पृ.59-60) कहना न होगा मक

दसलत सिमिकमूलक िासहयय उन सिचारों, िस्ं कारों, आचरणमूलक व्यिहारों िे मुसक्त की आकांक्षा रखने िाला िासहयय है, जो जासतिाद के हसथयार द्वारा पैने सकए गए हैं । सजिके कारण मानिीय असधकारों का हनन हुआ है और िमाज में ऊंच-नीच, श्रेष्ठ –हीन का भाि भरा गया है ।

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

मवमदत है मक महन्दी दमलत सामहत्य का प्रारमम्भक स्वर कमवता के रूप में था । कहामनयों का दौर बाद का है । महन्दी सामहत्य के समकालीन पररदृश्य अथा​ात् 1990 के आसपास दमलत मवमशा मल ू क स्वरों के साथ महन्दी दमलत कहानी भी चचा​ा का मवर्षय बनती है । कहना न होगा मक समकालीन महन्दी कहामनयों में दमलत जीवन मस्थमतयों और चररत्रों के साथ जो सामामजक प्रश्न उभरता है, वह एक मवमशि उद्देश्य को मलए हुए होता है । मजसे ओमप्रकाश वाल्मीमक के मनम्न कथन में लक्ष्य मकया जा सकता है - “महन्दी दमलत कहानी का समकालीन पररदृश्य आठवें दशक में तेजी से उभरता है मजसमें कई नए रचनाकार उभरकर अपनी उपमस्थमत दज़ा करते हैं, और अपनी कहामनयों के द्वारा दमलत सामहत्य को एक मजबतू आधार देने की कोमशश करते हैं। दमलत कथाकारों का यह प्रयास जहाँ सजानात्मक आवेग से स्वयं को तलाशने की प्रमक्रया के साथ –साथ सामामजक पररवेश की गभं ीर चनु ौमतयों से टकराता है, वहीं महन्दी कहानी का पररचय उन मस्थमतयों और चररत्रों से कराता है मजनसे महन्दी रचनाकार अनमभज्ञ था ।”3(वाल्मीमक, ओमप्रकाश, दमलत सामहत्य का सौंदयाशास्त्र, राधाकृ ष्ट्ि प्राइवेट मलममटेड, नई मदल्ली, प्र. सं. 2001, पृ.108-109) ध्यान मदया जाय तो यहाँ ऐसी कई बातें उभरती हैं, जो दमलत मवमशा के नये स्वर से हमारा पररचय कराती हैं । पहली, समकालीन महन्दी कहानी में दमलत स्वर का उभार आठवें दशक में प्रारम्भ होता है । दसू री, कहानी मवधा में दमलत स्वर


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दमलत सामहत्य को समृद्ध करता है । तीसरी, दमलत कहामनयों का समकालीन स्वर और उसका उभार दमलत कथाकारों के अतं रबाह्य संघर्षा को सूमचत करता है । चौथी, समकालीन महन्दी दमलत कहामनयों के माध्यम से नारकीय एवं अपमानजनक जीवन मस्थमतयों के इदा-मगदा रहनेवाले, उसे भोगनेवाले पात्रों –चररत्रों से महन्दी कहानी पहली बार मख ु ामतब होती है । अतः साफ कहा जा सकता है मक दमलत कहामनयाँ समकालीन महन्दी कहानी लेखन को सशक्त करती हैं । दमलत मचंतन को मदशा देने वाले डॉ. अबं ेडकर ने कहा था मक गाँव जामतगत भेदभाव और धाममाक पाखडं के कल –कारखाने हैं । उनका ऐसा कहने का स्पि प्रयोजन था । उन्होंने अपने जीवनानभु वों में यह देखा और महससू ा था मक ग्रामीि समाज –व्यवस्था में न कहीं सामामजक लोकतन्त्र है, ना आमथाक लोकतन्त्र । अबं ेडकर लोकतन्त्र को मसफा राजनीमतक अथा में देखने के बजाय उसे सामामजक, आमथाक कोि से सपं क्त ृ करते हैं । ‘इमं डयन फे डरे शन ऑफ लेबर’ के तत्त्वावधान में 8 से 17 मसतबं र, 1943 में मदल्ली में ‘अमखल भारतीय काममाक सघं ’ में डॉ. आबं ेडकर ने ससं दीय लोकतन्त्र की असफलताओ ं का मल ू कारि सामामजक –आमथाक लोकतन्त्र के के वास्तमवक रूप में अमस्तत्वहीन होने को करार मदया है-“सामामजक और आमथाक लोकतन्त्र राजनीमतक लोकतन्त्र के स्नायु और तत्रं हैं । ये स्नायु और तत्रं मजतने अमधक मजबतू होते हैं, उतना ही शरीर सशक्त होता है । लोकतन्त्र समानता का दसू रा नाम है । संसदीय लोकतन्त्र ने स्वतन्त्रता की चाह का मवकास मकया, परंतु समानता के प्रमत इसने नकारात्मक रुख अपनाया ।”4 (चन्द्र, सभु ार्ष,(संपादक), अम्बेडकर से दोस्ती : समता और ममु क्त; इमतहास बोध प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2006,पृ.191) आगे भी उनके इस Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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मनम्न कथन को देखा जाय तो लोकतन्त्र के मल ू अथा को समझा जा सकता है “प्रजातंत्र सरकार की एक स्वरूप मात्र नहीं है । यह वस्तुतः साहचया की मस्थमत में रहने का एक तरीका है, ... प्रजातंत्र का मल ू है, अपने सामथयों के प्रमत आदर और मान की भावना ।”5 (वही, पृ.50) भारतीय सामामजक संरचना में समानता की भावना और अपने साथी को आदर देने की मनोवृमत्त ही सही प्रजातांमत्रक मानस को मनममात कर सकती है । कहने मक जरूरत नहीं है मक सामामजक-आमथाक लोकतन्त्र का अभाव स्वातंत्र्योत्तर मवकास को एकांगी और मनरथाक बनाता है । स्वातंत्र्योत्तर पररदृश्य में प्रजातन्त्र की स्थापना, पंचायती राज की प्रमतष्ठा आमद मवमवध मवकासमल ू क कायाक्रम राजनीमतक पहल के रूप में हुए जो प्रकरान्तर से राजनीमतक लोकतन्त्र को स्थामपत करने की समदच्छा थी पर इन सबका मक्रयान्वयन आधाअधरू ा था, पिू ता ः एकागं ी । इसकी समचू ी प्रमक्रया में सामामजक और आमथाक लोकतन्त्र को आहत करने वाले, उसे ध्वस्त करने वाले तत्त्वों को न तो मचमन्हत मकया गया, न उसे दरू करने की प्रचेिा की गई । यहाँ, दमलत जीवन की कुछे क कहामनयों के मववेचनमवश्ले र्षि द्वारा इस कटु सच से अवगत हुआ जा सकता है। इस प्रसगं में सबसे पहले पन्ु नी मसहं की कहानी ‘बोधन की नगमड़या’ की चचा​ा स्वाभामवक है । यह कहानी स्वातत्र्ं योत्तर ग्रामीि जीवन पररवेश की है । आलोच्य कहानी में मजस ग्रामीि सामामजक संरचना का मज़क्र है, उसमें बोधन एक दमलत है । वह और उसकी जामत के तमाम लोग गाँव के भीतर न रहकर उसके उसके बाहरी छोर पर रहने को बाध्य हैं, जो स्वातंत्र्योत्तर ग्रामीि समाज में सामामजक लोकतन्त्र के अभाव की तस्वीर पेश करता है । यहाँ यह भी समझा जा सकता है मक बोधन जैसों को स्वातंत्र्योत्तर वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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राजनीमतक या संसदीय लोकतन्त्र का कोई लाभ नहीं ममला है । सरपंच के द्वारे दो रोटी और थोड़ी सी कच्ची शराब पाने के एवज़ में बोधन मदन- रात पररश्रम करता है । इस तरह वह न मसफा अपने को भल ू े रहता है, अमपतु अपने पररवार और समदु ाय के प्रमत भी लापरवाह बना रहता है । आत्मसजगता नाम की कोई चीज उसकी मज़दं गी में नहीं होती है । मनरुद्देश्यपिू ा जीवन यापन करना मानों उसकी मनयमत है । दरअसल, स्वातंत्र्योत्तर मवकासमल ू क पररवतान ने बोधन और उस जैसे तमाम लोगों को कोई मवकल्प ही नहीं मदया मजससे मक वे इस मनरुद्देश्यता के पार जा सके । बोधन का बेटा भोजराज अपने मपता तथा गाँव के तमाम दमलत मपताओ ं की इस मनयमत को भलीभाँमत जानता है, मजसे आलोच्य कहानी में उसके इस स्वगत कथन में लक्ष्य मकया जा सकता है -–“… वह यह भी जानता है मक वह इस तरह का अके ला बाप नहीं है, इसी परु ा में ऐसे तमाम बाप हैं जो लगभग एक ही धातु के बने हैं । वे अधं े बैलों की तरह मज़दं गी की गाड़ी में जतू े हुए हैं । कोई भी मकसी भी कीमत पर लीक तोड़कर चलना नहीं चाहता ।”6( कुशवाह, सभु ार्ष चन्द्र (सपं ादक), जामतदश ं की कहामनयाँ, साममयक प्रकाशन, नई मदल्ली, प्र.स.ं 2009, पृ.95) बोधन की सामामजक पहचान एक मनरीह मजदरू के मसवा कुछ नहीं, जो स्वातत्र्ं योत्तर पररदृश्य में भी दमलतों की आमथाक दरु वस्था के बदस्तरू कायम रहने की सच्चाई की ओर संकेत करती है । आलोच्य कहानी में यह स्पि देखने को ममलता है मक आमथाक दरु वस्था में जी रहे इन लोगों की सामामजक संरचना में कोई जगह नहीं है । ग्रामीण िामासजक व्यिस्था में दसलतों को िम्मान समलना तो दूर, उन्द्हें मनुष्ट्य िमझने की िोच तक सिकसित नहीं हुई है । ग्रामीि समाज में बद्धमल ू ऊंच-नीच, श्रेष्ठ-हीन जैसी अलोकतांमत्रक सोच ने सदा बोधन और उसके पररवार जैसों के साथ

अन्याय मकया है । कहना न होगा मक इस अलोकतांमत्रक व्यवहार और मानमसकता के बने रहने में समाज की दमकयानसू ी मान्यताएँ प्रमख ु रूप से मज़म्मेवार रही हैं, मजन्हें परमपरा, समाज और संस्कृ मत के नाम पर स्थामपत मकया गया है । आिया नहीं है मक सविा जामतयाँ इन मान्यताओ ं में अपना भला देखती हैं और इस कारि भी इसे सदैव बनाए रखना चाहती हैं । प्रस्ततु कहानी में भी एक ऐसी ही ररवायत का मज़क्र है, –गाँव के भीतर रहने वाली सविा जामतयों का गाँव के बाहर परू े में रहने वाली दमलत जामत की मस्त्रयों के साथ होली खेलना । स्पि ही यह समझा जा सकता है मक त्योहार की आड़ में यह ररवायत गैर दमलत जमतयों की अपनी श्रेष्ठता सामबत करने का एक उपक्रम है । प्रकरान्तर से यह उनके स्वयं के बड़े और ऊंचे कहलवाने के दभं का प्रकाशन होता है । यह ररवायत गैर दमलत शमक्तयों को दमलत - मस्त्रयों के साथ बदसलक ू ी करने, उसकी देह पर कब्जा जमाने, जबरन उनका यौन –शोर्षि करने की खल ु ी छूट देती है । बोधन की पत्नी राधा भी अतीत में इस ररवायत की आड़ में यौन शोमर्षत और अपमामनत हो चक ु ी है। आलोच्य कहानी में यह सदं मभात है मक गाँव का सरपच ं उसका यौन- शोर्षि करता है । मवडम्बना यह है मक गाँव में वह अके ली ऐसी स्त्री नहीं है, उसकी जैसी कई और हैं । राधा जैसी मस्त्रयों की मख ु ालफत की आवाज इन त्योहारों की पारंपररकता और शोर में घटु कर रह जाती है- –“आमखर में एक बार होली की पड़वा को सरपचं बोधन के घर होली खेलने आया । उसी मदन उसने राधा को उसके घर में घसु कर धार दबोचा । वह खबू चीखी मचल्लाई लेमकन होली के हुड़दगं में उसकी आवाज़ घटु कर रह गयी ।”7 (यथोपरर, पृ.94) जामतगत श्रेष्ठता के दभं का ननन उदाहरि आलोच्य कहानी के कई प्रसंग में देखा जाता है । जब बोधन सरपंच के द्वारे अपनी नगमड़या बजाने

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से इनकार करता है । जब बोधन के बेटे भोजराज जैसे यवु कों का दल समदयों से चली आ रही ररवायतों के नाम पर दमलत समाज के साथ अपमान पिू ा व्यवहार की मखलाफत करने को तैयार होता है । उस वक़्त, गाँव के सविों की भार्षा और उसमें मलपटी घृिा स्पि उजागर होती है –“क्यों रे कमीन, तू इतनो नकचढ़ है गओ ... दाऊ के बल ु ावे पे उनकी चौपाल पे नई गओ? ं ...गाँव में रहवे है की नई...ं बोल !जा, सीधी तरह से नगमड़या उठा के ला … अपनी जानी को बल ु ा– मोंड़ा की बहू कोऊ बल ु ा... हम मबन के संग होरी खेलेंगे ... वे हमए सामने नाचेंगी … नंगी नाचेंगी ...हम मबन के गाल से गल ु ाल लगायेंगे ...गाल नोचेंगे ...।”8 (वही, पृ.101-102) गाँव की सविा जमतयों का नेता रघवु ीर और उसका मगरोह भोजराज और बोधन के पररवार की मस्त्रयों का जब मतरस्कार करता है तो भोजरज उसका प्रमतवाद करता है । पर इस प्रमतवाद में उसके प्राि चले जाते हैं । तलवार के एक वार से ही वह कटे पेड़ की तरह धरती पर मगर पड़ता है। रघवु ीर अपने मगरोह के साथ होली खेलने की आड़ में दमलत बस्ती में खनू ी खेल खेलता है । मस्त्रयों की इज्ज़त लटू ने से लेकर आगजनी तक । बोधन अपने बेटे का कटा सर और चारों तरफ पसरा खनू ी मज़ं र देखता है तो काँप उठता है । कहानी का अतं इस मबदं ु पर होता है मक परु ानी पीढ़ी का बोधन अपनी परंपरागत समझौता परस्ती वाली छमव के उलट प्रमतवाद व्यक्त करता है । िह उि भेदभाि पूणक िमाज की सखलार्त करता है जो सकिी एक िगक को सनयंता बनाए रखने के छल-छद्म को िभ्यता और िंस्कार कहता है । बोधन का अपने बेटे का कटा सर हाथ में लेने के बाद उसके समक्ष अपनी नगमड़या बजाना गभं ीर मनहाताथा मलए रहता है । वह उसका वह प्रमतकार होता है, मजसे वह वह सरपंच आमद सविा समदु ाय के प्रमत व्यक्त करता है –

“तू रोज –रोज कहते रओ मक मैं अपने दरवाज़जे पे बैठके नगमड़या क्यों न बजात हों ! लै, सनु , आज मैं अपयें दरवाज़जे पे नगमड़या बाजा रओ हों ? तू ध्यान दै के समु नए, मेए लाल, आज ऐसी नगमड़या बजौंगों जैसी कबहुँ नई बजाई । और वह सच में डूबकर बजाने लगा ।”9(वही, पृ.103) कहना न होगा मक यह िब कुछ हमारी िामासजक िरं चना में िामासजक और आसथकक लोकतन्द्ि के अभाि का ही प्रसतर्लन है, सजिे राजनीसतक लोकतन्द्ि के िाथ अंतभकुक्त कर देखने की जरूरत है, सि​िेषकर सिकािमूलक कायकिमों को लागू करने की िसदच्छाओ ं के िक़्त ।

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

ओमप्रकाश वाल्मीमक की कहानी ‘सलाम’(1991) भी इस संदभा में अवलोकनीय है । आलोच्य कहानी में भी सलाम के रूप में एक अलोकतामं त्रक ररवायत का मज़क्र है, जो सामामजक व्यवस्था में व्याप्त जामतगत भेद –भाव के घृिामल ू क व्यवहार को उजागर करती है । सलाम प्रथा के अनसु ार नव मववामहत दमलत जोड़े को सविों के द्वारे - द्वारे घमू ने का काया सम्पन्न करना होता है । मजसके बदले में उन्हें नेग मदया जाता है । दरअसल, इस ररवायत की आड़ में सविा जामतयों के श्रेष्ठता के दभं को समाज में बनाए रखने की एक चालाकी होती है । ‘िलाम’ दसलत चेतना की कालजयी कहानी इिसलए भी है सक इिमें कहानीकार ने हरीि जैिे पाि को उि िाहसिक कृयय को करते हुए सदखाया है, जो दसलत सिमिक का मूल स्िर है, जासतगत भेदभाि को ध्िस्त करते हुए पररितकन कामी चेतना को व्यक्त करना । हरीश का सलाम पे न जाने का संकल्प समचू े गाँव में हलचल पैदा करता है -–“दोपहर होते – होते बात परू े गाँव में फ़े ल गयी ।... ऐसा लग रहा था जैसे जोहड़ के पानी में मकसी ने कंकड़ फें क मदये हों गोल –गोल लहरें घमू कर मकनारों तक फ़े ल गई थीं ।”10


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(वही,पृ.155) ‘सलाम’ कहानी ग्रामीि जीवन में व्याप्त सविा- दमलत के सामामजक सम्बन्ध को माममाक ढगं से व्यक्त करती है । ‘िलाम’ कहानी में सजि गाँि पररिेि और िामासजक िरं चना का सज़ि है, िहाँ लोकतासन्द्िक ि​िं ेदना का परू ा अभाि है । िहाँ लोकतन्द्ि की मूल सनष्ठािमानता की भािना परू ी तरह नदारद है । आलोच्य कहानी में गाँव के सामामजक व्यवहार परक संबंध में जामत का मद्दु ा मकतना अहम और सवोपरर है, उसे कमल और चायवाले या कमल या गाँव के सींमकया पहलवान रामपाल रांघड़ के समचू े प्रसंग में देखा जा सकता है । जहाँ प्रथम तो चायवाले से यह पछ ू ने पर मक चाय ममलेगी एक सहज आश्वासन ममलता है - ममलेगी । पर ज्योंही, यह रहस्य खल ु ता है मक कमल एक दमलत के घर आया बाराती हैचायवाले का व्यवहार तरु ं त बदल जाता है –“... ये सहर नहीं गाँव है, यहाँ चहू ड़े-चमारों को मेरी दक ु ान में तो चाय ना ममलती, कहीं और जाके मपयो ।”11(वही,पृ.149) िषों बीत जाने के बाद भी ग्रामीण जीिन में व्यसक्त की पहचान एकमाि उिकी जासत िे होना हमारे उि दभ ं को किघरे में खड़ा करता है सजि​िे पररचासलत हो हम मानिीय िभ्यता के कई पड़ाि पार कर लेने की बात अक्िर कहते हैं । आलोच्य कहानी का कमल उपाध्याय, जो एक गैर दमलत होकर दमलत(हरीश) की शादी में जाता है(बाराती होकर), उसके साथ ग्रामीि समाज जैसा वरताव करता है, वह इस बात का संकेतक है मक तमाम ग्रामीि मवकास का दावा मकतना खोंखला है । दरअिल, िच्चाई यह है सक ग्रामीण िमाज की सिकाि –प्रसिया में िामासजक और आसथकक लोकतन्द्ि स्थासपत करने की कोई पहल ही नहीं हुई है ––“... ये सहर नहीं गाँव है, यहाँ चहू ड़े-चमारों को मेरी दक ु ान में तो

चाय ना ममलती, कहीं और जाके मपयो । ... –“ओ, सहरी ज़नख़े हम तेरे भाई हैं? – साले जबान मसभाल के बोल, नहीं तो डांडा दाल के उलट दगंू ा । जाके जम्ु मन चहू ड़े से ररश्ता बिा”12(वही,पृ.149-150)

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

स्ितन्द्िता के िषों बाद भी जासतगत भेद –भाि का सकला ध्िस्त नहीं हुआ है, क्योंसक ि​ि ं दीय या राजनीसतक लोकतन्द्ि को िामासजक और आसथकक लोकतन्द्ि िे अलगाकर देखने की िदा चेिा हुई है । कहना न होगा मक ग्रामीि समाज में जामतगत भेद-भाव और घृिा जहाँ अपने प्रकट रूप में हैं, वहीं वह शहरी जीवन में सप्तु और छद्म रूप में है । इस संदभा में जयप्रकाश कदाम की कहानी ‘नो बार’ का मज़क्र करना स्वाभामवक प्रतीत होता है । आलोच्य कहानी यह दशा​ाती है मक मध्यिगीय प्रगसतिीलता के मध्य िुप्त जासतिादी घृणा का िोता चुपचाप कै िे बहा करता है । आलोच्य कहानी के कें द्र में उच्च मशक्षा प्राप्त नौकरीशदु ा एक दमलत है । वह अखबार के मैरीमोमनयल पेज में एक मवज्ञापन देखता है, जो एक मशमक्षत प्रगमतशील पररवार द्वारा अपनी कन्या के मववाह के मलए मदया गया होता है । जहाँ, जामत के मलए ‘नो बार’ मलखा रहता है । कहानी का दमलत पात्र खश ु होता है मक समाज बदल रहा है । सामामजक व्यवस्था में जामतवाद मनरस्त हो रहा है । समाज एक नयी प्रगमतशील राह पर है । वह इस खश ु फ़ै मी में इस कारि ही अपने मपता को इस बात के मलए बरजता है मक जब कन्या पक्ष जामत की बात नहीं करना चाहता है तो खदु – ब- खदु इस मद्दु े को उठाना अपनी रूमढ़वादी मानमसकता को जामहर करना होगा । क्योंमक, कन्या के मपता से हुई बातचीत में वह देख -सनु चक ु ा होता है मक उसका पररवार अन्तजा​ातीय मववाह को समथान देता है –“हमारे पररवार में मजतनी भी शामदयाँ हुई हैं, वे सब अन्तजा​ातीय हुई हैं । अब देखो, मैं िाह्मि हूँ और मेरी पत्नी कायस्थ पररवार से


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यहाँ इस सदं भा में यह उल्लेख करना अप्रासामं गक न होगा मक िामासजक –आसथकक लोकतन्द्ि का िमाज में िुसचसन्द्तत ढंग िे स्थासपत न होने का एक कारण दसलत िसक्तयों का गुमराह होना भी है । इसमें दो राय नहीं है मक दमलत जमतयों की समक्रय समामजकता का ही प्रमतफलन है दमलत राजनीमतक दलों का उभरना । पर दमलत राजनीमतक शमक्त का सही उपयोग सामामजक –आमथाक लोकतन्त्र की प्रमतष्ठा में ही है । िामासजक पररितकन की िसदच्छा की अिहेलना करने िाली दसलत ित्ा दसलतों के सकिी काम की नहीं है । राजनीसतक िसक्त का प्रयोग िामासजक न्द्याय ि उयपीड़न के सखलार् न हो तो उिकी िांसतकाररता कपकरू की भांसत

गायब हो जाती है । ऐसे दृिांत भारतीय राजनीमतक जीवन में हैं । जहाँ हम देख चक ु े हैं मक मसफा सत्ता में बने रहने की उच्चाकांक्षा दमलत राजनीमतक शमक्त को अधोपतन में धके ल देने को संभव हुई है । कहने का तात्पया यह है मक दमलत संवदे नाओ ं को गमु राह करने की पररिमत भयानक है । कभी ‘मतलक तराजू और तलवार इनको मारो जतू े चार’ कहने वाली दमलत राजनीमतक शमक्त के वल सत्ता में बने रहने की मज़द में जब यह कहने की आतरु ता और चालाकी मदखाती है मक ‘हाथी नहीं गिेश है, िह्मा, मवष्ट्ि,ु महेश है’ तो उसका मल ू उद्देश्य ही ओझल हो जाता है । ऐसा कहने –करने के साथ ही दमलत जमतयों की राजनीमतक शमक्तमत्ता सामामजक आमथाक लोकतन्त्र को स्थामपत करने के मखलाफ चली जाती है । कहना न होगा मक वह मजन लोगो का उद्धार या सेवा करने के नाम पर राजनीमत करती है, वह उसी को गमु राह करती है । जो दमलत मवमशा या आदं ोलन की अवधारिा के ठीक उलट है । इसी तरह भीमशमक्त और मशवशमक्त का गँठजोड़ खतरनाक है । जहाँ वाल्मीमक को दमलत नेता या भगवान बताते हुए प्रकरान्तर से उग्र महदं त्ु ववाद का प्रछन्न एजेंडा साधने की चेिा होती है । दमलत जन – जीवन को समझने की जरूरत है मक इस तरह का प्रयास के वल सामामजक आमथाक लोकतन्त्र को धमकयाने की सामजश है, और कुछ नहीं । इस समचू े प्रसगं को हम सरू जपाल चौहान की कहानी ‘बहुरूमपया’ में भली –भांमत देख सकते हैं । आलोच्य कहानी में यह स्पि देखने को ममलता है मक दमलत आदं ोलन को कंु द करने हेतु अबं ेडकर के क्रांमतकारी मवचारों को गलत ठहराने की सामजश होती है । और यह सब दमलतों को बांटकर मकया जाता है । वाल्मीमक को भगवान बताकर । उसका ममं दर स्थामपत कर । दमलतों को भजन-कीतान की ओर मोड़कर गमु राह करकर –“ तू मकसी चमार का दीखै,

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है । हमारी बड़ी बेटी की शादी अग्रवाल लड़के के साथ हुई है, और हमारे घर में जो बहू आई है, वह पंजाबी खत्री है ।”13(वही,पृ.208) पर कहानी के दमलत पात्र की खश्ु फ़ै मी बहुत जल्द ही ध्वस्त हो जाती है, जब उसकी और कन्या के प्रगमतशील (?) मपता की देश के हालात और उसकी राजनीमत पर चचा​ा होती है । जैसे ही वह दमलत जामतयों और उसके राजनीमतक दल के उभरने की बात कहता है, कन्या के मपता को उसकी जामत और उसकी तरफदारी का आभास हो जाता है । कन्या के मपता की मध्यवगीय प्रगमतशीलता के मध्य कंु डली मारे सप्तु जामतवादी घृिा सतह पर आ जाती है । उसका अपनी कन्या से यह कहना –“वह सब तो ठीक है मक हम जामत –पामत को नहीं मानते और हमने मैरीमोमनयल में ‘नो बार’ छपवाया था, लेमकन मफर भी कुछ चीजें देखनी ही होती हैं । आमखर नो ‘बार’ का वह मतलब तो नहीं मक मकसी चमार –चहु ड़े के साथ ...।”14(वही, पृ.215) कहना न होगा मक छद्म प्रगसतिीलता की आड़ में सछपी यह िुप्त घृणा िामासजक आसथकक लोकतन्द्ि की सदिा में एक बड़ी बाधा है ।


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तभी इतनी देर सू चमार –राग अलापे जा रहौ है, अरे महा-मरू ख, हमरे गरु​ु तो भगवान महमर्षा वाल्मीमक स्वामी हैं, हमे अबं ेडकर से का लेनो –देनो, बंद कर अपनी यू बकवास ।”15(चौहान, सरू जपाल, नया िाह्मि, वािी प्रकाशन, प्रथम संस्करि, 2009, पृ. 24) कहने की जरूरत नहीं है मक दमलत जनजीवन और आन्दोलन को इस मदशाहीनता से बचने की जरूरत है, मजसकी ओर कहानीकार ने साफ इशारा मकया है । तभी दमलत मवमशा अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सके गा और अपनी पररवतानकामी समदच्छा मलए एक नए जामतमक्त ु समाज को गढ़ने की ओर उन्मख ु हो सके गा, जो लोकतन्त्र की मल ू संवदे ना है । हम सहज ही देख सकते हैं मक इन दसलत जीिन –िंदभक की कहासनयों में दसलतों की व्यथा, यातना, चेतना, और मुसक्तकामी िंघषक का अंकन िमकालीन सहन्द्दी कहानी लेखन को एक नयी सदिा की ओर ले जाता है ।

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िहायक प्राध्यापक, सहन्द्दी सिभाग, कासलयागंज कॉलेज पो. कासलयागंज, सजला, उत्र सदनाजपुर, पसिम बगं ाल सपन.733129 मो. 09474439158 ईमेल- shawdhananjay10@gmail.com

समग्रता में कहा जाय तो समकालीन महन्दी कहामनयों में व्यक्त दमलत मवमशा का स्वर एक नए समाज को गढ़ने की ओर प्रमतबद्ध मदखाई देता है, जहाँ राजनीमतक लोकतन्त्र को सामामजक –आमथाक लोकतामन्त्रक समदच्छा के साथ सपं क्त ृ कर देखने की पहल मदखाई देती है । दसू रे अथों में कहा जाय तो इन कहामनयों में इस बात का साफ सक ं े त ममलता है मक राजनीमतक लोकतामन्त्रक समदच्छा को लागू करने के पहले सामामजक आमथाक भेदभाव पिू ा ररवायतों, मान्यताओ,ं संस्कारों, और ढंभपिू ा चालामकयों को आगे ध्वस्त करना होगा, तभी लोकतन्त्र की मल ू संवदे ना - मनष्ट्ु यता के धरातल पर सब समानस्थामपत हो सके गी । डॉ. धनंजय कुमार िाि Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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“काल के अनतं प्रवाह में कभी-कभी ऐसा अद्भुत क्षि आता है जब काल स्वयं मनष्ट्ु य को अपना इमतहास बनाने तथा अपनी मनयमत का मनयंता बनने का अवसर प्रदान करता है।” - डॉ. करुणािक ं र उपाध्याय

मबंु ई मवश्वमवद्यालय के महदं ी मवभाग में महदं ी प्राध्यापक के रूप में कायारत प्रमसद्ध सामहत्यकार, आलोचक एवं मागादशाक गरु​ु वर डॉ. करुिाशक ं र उपाध्याय जी के जीवन, व्यमक्तत्व तथा सामहमत्यक जगत से संबंमधत हाल ही में डॉ. प्रमोद पाण्डेय द्वारा की गई बातचीत के कुछ अश ं :१- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपका जन्म कब और कहाँ हुआ? डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ मजले में 'घोरका तालक ु ादारी' नामक गाँव में 15 अप्रैल सन् 1968 को हुआ था। मेरा गाँव सई नदी के तट पर मस्थत है। प्राकृ मतक दृमि से बहुत ही रमिीय जगह है। २- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप अपनी आरंमभक व उच्च मशक्षा के बारे में बताइए । डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: जहाँ तक आरंमभक मशक्षा का सवाल है तो मैंने आठवीं तक अपने गाँव Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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में ही मशक्षा प्राप्त की। उसके बाद बारहवीं तक की मशक्षा कालरू ाम इटं र कॉलेज, शीतलागजं , उत्तर प्रदेश में संपन्न हुई। जनू 1986 में 12वीं की परीक्षा उत्तीिा करने के उपरांत मैं मंबु ई आ गया और मैंने अधं ेरी मस्थत एम. वी. एडं एल.य.ू कॉलेज में बी.ए. की कक्षा में प्रवेश मलया। सन् 1989 में प्रथम श्रेिी से मैंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीिा की। उसके बाद मबंु ई मवश्वमवद्यालय के तत्कालीन महदं ी मवभागाध्यक्ष डॉ. चंद्रकांत बांमदवडेकर जी के मनदेश पर मैंने महदं ी मवर्षय में एम.ए. मकया। सन् 1991 में एम.ए. प्रथम श्रेिी से उत्तीिा हुआ। उसके बाद मैंने पीएच.डी. उपामध हेतु शोध काया आरम्भ मकया। ३- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपके बचपन की कोई ऐसी घटना जो आपके जीवन में प्रेरिादायी बन गई हो? डॉ. करुणािंकर उपाध्याय:जहाँ तक बचपन का सवाल है, तो एक बार मैं सई नदी पार कर रहा था, उसी समय हमारे गाँव के दसू री तरफ बाबा बेलखरनाथ धाम से एक बढ़ू ा माली अपने दो पोतों को सई नदी में नहलाने के मलए लाया था। चँमू क बढ़ू े माली को देखने में तकलीफ थी और नहाते समय जैसे ही उसके हाथ से दोनों बच्चों की उंगमलयाँ छूटीं वे दोनों नदी में बहने लगे। मैंने अपनी साइमकल फें क करके उन दोनों बच्चों को बचाया और उस माली को बाहर मनकलकर ठीक से समझाया। यह मेरे जीवन की एक महत्वपूिा घटना है। ४- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपने अध्यापन की शरु​ु आत कहाँ से की? डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: जहाँ तक अध्यापन के आरंभ का सवाल है तो मैंने अगस्त 1991 से फरवरी 1992 तक मसद्धाथा महामवद्यालय, मबंु ई में अध्यापन काया मकया। 14 फरवरी 1992 को मैं के .सी. महामवद्यालय, चचागटे के मडग्री कॉलेज में मनयक्त ु हुआ। तब से लेकर मैं मसतंबर- 2001 तक के .सी. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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कॉलेज में कायारत रहा। उसके बाद मेरी मनयमु क्त पिु े मवश्वमवद्यालय के महदं ी मवभाग में रीडर पद पर हुई। ५- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: मबंु ई मवश्वमवद्यालय में आप कब आए? डॉ. करुणािक ं र उपाध्याय: जब मैं पिु े मवश्वमवद्यालय में पढ़ा रहा था तो उसी समय मेरी मनयमु क्त मबंु ई मवश्वमवद्यालय के महदं ी मवभाग में रीडर के पद पर हुई और मैंने मदसंबर- 2003 में मबंु ई मवश्वमवद्यालय में रीडर पद का कायाभार सभं ाला। ६- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: मबंु ई मवश्वमवद्यालय का आपका आरंमभक अनुभव कै सा रहा? डॉ. करुणािक ं र उपाध्याय: मैं मबंु ई मवश्वमवद्यालय में अपनी पी-एच.डी. पिू ा होने के उपरातं सन् 1997 से ही अमतमथ प्राध्यापक के रूप में एम.ए. की कक्षाएं ले रहा था। मैंने अपनी पी-एच.डी. डॉ. चंद्रकांत बांमदवडेकर जी के मागादशान में संपन्न की थी। अतः मैं कह सकता हूँ मक मैं 1989 से ही मबंु ई मवश्वमवद्यालय के महदं ी मवभाग से जड़ु ा रहा और वहाँ की तमाम गमतमवमधयों से पररमचत था। इसमलए जब मैंने मबंु ई मवश्वमवद्यालय में अपना कायाभार संभाला तो मझु े मकसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं हुई। ७- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपकी सामहमत्यक यात्रा की शरु​ु आत कब और कै से हुई? डॉ. करुणािक ं र उपाध्याय: जहाँ तक मेरी सामहमत्यक यात्रा का सवाल है तो मैंने 11वीं और 12वीं के अध्ययन के दौरान ही मीराबाई नामक एक काव्य नाटक मलखा जो अभी तक प्रकामशत नहीं हुआ है। उसके बाद मबंु ई आकर मैंने कहानी, कमवता और मनबंध लेखन के क्षेत्र में अपनी रुमच का पररचय मदया। लेमकन एम.ए. करने के दौरान ही मैं आलोचना के क्षेत्र में आ गया और मल ू रूप से आलोचक ही बन गया। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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८- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप अपनी सामहमत्यक यात्रा के मलए मकसे प्रेरिा स्रोत मानते हैं? डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: जहाँ तक सामहमत्यक यात्रा के प्रेरिा स्रोत का सवाल है तो मैं अपनी सामहमत्यक यात्रा के प्रेरिा स्रोत के रूप में डॉ. चंद्रकांत बांमदवडेकर, डॉ. रोशन डुमामसया और अपने बड़े भाई साहब को श्रेय देता हूँ क्योंमक इन लोगों ने मझु े सामहत्य के क्षेत्र में समक्रय होने के मलए प्रेररत मकया। ९- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप एक प्रमसद्ध सामहत्यकार एवं आलोचक के रूप में प्रमसद्ध हैं, इतनी लंबी यात्रा आपने कै से तय की? डॉ. करुणािक ं र उपाध्याय: इस सदं भा में कहना चाहूगं ा मक मैंने एम.ए. के दौरान आलोचनात्मक लेख मलखने आरंभ मकए थे। जब मैं पी-एच.डी. कर रहा था, उस समय 1995 में मेरी दो आलोचना की पस्ु तकें , "सजाना की परख," "सामहत्यकार बेकल: संवदे ना और मशल्प" प्रकामशत हुई। इसके बाद सन् 1999 में मेरा पी-एच.डी. का शोध प्रबधं "आधमु नक महदं ी कमवता में काव्य मचंतन" शीर्षाक से प्रकामशत हुआ। उसके बाद 2001 में "पािात्य काव्य मचंतन के मवमवध आदं ोलन" मवर्षय पर मवश्व मवद्यालय अनदु ान आयोग की अध्येतावृमत्त पर मेरा पोस्ट डॉक्टर ररसचा सपं न्न हुआ। सन-् 2002 में मेरी पस्ु तक "मध्यकालीन काव्य मचंतन और संवदे ना" तथा 2003 में "पािात्य काव्य मचंतन" नामक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ प्रकामशत हुआ। इसी क्रम में पत्र-पमत्रकाओ ं में लगातार लेखन होता रहा। सन् 2007-08 में 5 पस्ु तकें प्रकामशत हुई। इन पस्ु तकों में "महदं ी कथा सामहत्य का पनु पा​ाठ," "मवमवधा," "आधमु नक कमवता का पनु पा​ाठ," "महदं ी का मवश्व संदभा" इत्यामद का समावेश है। इसके बाद कई पस्ु तकें प्रकामशत हुई, मजनमें आवां मवमशा, वक्रतंडु ममथक की समकालीनता, ब्लैक होल मवमशा, सृजन के अनछुए संदभा, महदं ी सामहत्य मल्ू यांकन और मल्ू यांकन, सामहत्य और संस्कृ मत के वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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सरोकार, जैसे ग्रंथों का उल्लेख मकया जा सकता है। इस दौरान पािात्य काव्य मचतं न तथा महदं ी का मवश्व संदभा के 3 संस्करि प्रकामशत हुए हैं और पािात्य काव्य मचंतन का छात्र संस्करि भी दो बार प्रकामशत हुआ है। १०- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: अतं रा​ाष्ट्रीय सामहमत्यक यात्रा के मवर्षय में कृ पया बताएं? डॉ. करुणािक ं र उपाध्याय: इस सदं भा में मैं कहना चाहूगं ा मक मैं मारीशस, सयं क्त ु राज्य अमेररका, सयं क्त ु अरब अमीरात जैसे देशों की यात्रा कर चक ु ा हूँ और मैंने इन देशों की तमाम सामहमत्यक, सांस्कृ मतक संदभा और महदं ी भार्षा की अद्यतन मस्थमत का मववरि अपनी पस्ु तक महदं ी का मवश्व संदभा में मदया है। ११- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपकी अब तक की प्रकामशत पस्ु तकों के बारे में बताइए? डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: जहाँ तक मेरी प्रकामशत पस्ु तकों का सवाल है तो अब तक मेरी 16 मौमलक आलोचनात्मक पस्ु तकें और 12 सपं ामदत आलोचनात्मक पस्ु तकें प्रकामशत हो चक ु ी हैं। इसके अलावा मवमभन्न पत्र-पमत्रकाओ ं में 300 से अमधक शोध लेख भी प्रकामशत हो चक ु े हैं। १२- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपकी पस्ु तक 'महदं ी का मवश्व संदभा' काफी चचा​ा में रही है। कृ पया इस पस्ु तक के संदभा में हमें बताए?ं डॉ. करुणािंकर उपाध्याय:इस संदभा में मैं कहना चाहूगं ा मक महदं ी का मवश्व संदभा मनमित रूप से अत्यंत चमचात पस्ु तक रही है। यहाँ तक मक 10 जनवरी2017 को मवश्व महदं ी मदवस के अवसर पर महदं ी के सबसे बड़े अखबार, जो मवश्व का भी सबसे बड़ा अखबार है "दैमनक जागरि" में यह पस्ु तक मख्ु य ख़बर (हेडलाइन) के रूप में प्रकामशत हुई है। अपने 40 से ज्यादा संस्करिों में इस पस्ु तक को मख्ु य खबर के रूप में प्रकामशत करके "दैमनक जागरि" ने Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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सराहनीय काया मकया । इस पस्ु तक की मवशेर्षता यह है मक इसमें न के वल मवश्व भर में महदं ी बोलने वालों की अद्यतन जानकारी दी गई है अमपतु मवश्व के मजनमजन देशों में महदं ी पठन-पाठन की व्यवस्था है तथा मजन मवश्वमवद्यालयों और मशक्षि सस्ं थाओ ं में महदं ी का प्रमशक्षि मदया जा रहा है उसकी भी जानकारी दी गई है। इसके अलावा मवदेशों में जो रचनाकार महदं ी में रचना कर रहे हैं और जो पत्र-पमत्रकाएं महदं ी में प्रकामशत हो रही हैं, उन तमाम चीजों की जानकारी एकत्र ममल जाती है। इस कारि यह पस्ु तक बहुचमचात रही है। १३- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप रक्षा मवशेर्षज्ञ के रूप में कई महदं ी समाचार चैनलों पर अपना मतं व्य व्यक्त कर चक ा ु े हैं, कृ पया इस संदभा में हमें मवस्तारपवू क बताए?ं डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: इस संदभा में मैं कहना चाहूगं ा मक मैंने बी.ए. और एम.ए. की कक्षाओ ं के दौरान अतं रराष्ट्रीय मवर्षय पर पया​ाप्त अध्ययन मकया था और मैं आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा था। इस कारि मझु े अतं रराष्ट्रीय मामलों और रक्षा से सबं मं धत तमाम प्रश्नों की गहन जानकारी है। महदं ी के कई समाचार चैनल, जैसे- ज़ी न्यज़ू , न्यज़ू २४, सहारा समय, मजयो न्यजू समेत अनेक चैनलों ने रक्षा मवशेर्षज्ञ और अतं रराष्ट्रीय मामलों के जानकार के रूप में कई बार मेरा साक्षात्कार मलया है। अनेक प्रश्नों पर उन्होंने एक मवशेर्षज्ञ के रूप में मेरी मटप्पिी भी ली है। यह मेरी रुमच और शौक का क्षेत्र है, मजसे मैं सामहत्य के अलावा लगातार मवकमसत और अद्यतन करता रहता हू।ँ १४- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप मबंु ई मवश्वमवद्यालय में महदं ी प्राध्यापक के पद पर कायारत हैं, आपका अब तक का अनभु व कै सा रहा? डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: इस संदभा में मैं कहना चाहूगं ा मक महदं ी प्राध्यापक के रूप में मेरा स्वयं का वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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अनभु व बहुत अच्छा है। मैंने परू ी मनष्ठा से अपना काया सपं न्न मकया है। अपने कताव्यों का पालन करते हुए अपनी जवाबदेही को बड़ी ही ईमानदारी के साथ मनष्ठापवू क ा मनभाया है। इस कारि तमाम छात्र-छात्राएं, सहयोगी और महदं ी के मवद्वान मझु े अपना स्नेह और सम्मान देते हैं।

डॉ. करुणािक ं र उपाध्याय: अभी तक मझु े राष्ट्रीय और अतं रा​ाष्ट्रीय स्तर पर 12 परु स्कार ममले हैं। इसके अमतररक्त राज्य स्तर पर और स्थानीय स्तर पर जो परु स्कार और सम्मान ममले हैं, उनकी संख्या दजानों में है। मझु े मबंु ई मवश्वमवद्यालय का सवोत्तम मशक्षक का भी परु स्कार ममला है ।

१५- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपके मागादशान में अभी तक मकतनी पी-एच.डी. व एम.मफल. हुई है? डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: अब तक मेरे मागादशान में 25 पी-एच.डी. और 50 छात्र एम.मफल. की उपामध प्राप्त कर चक ु े हैं। यह अपने आप में एक मवमशि उपलमब्ध है।

१८- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप मेरे मलए प्रेरिा स्रोत हैं।अतः आप आने वाले मवद्यामथायों के मलए प्रोत्साहन स्वरूप क्या कहना चाहेंगे? डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: आपने स्वयं यह स्वीकार मकया है मक मैं आपके मलए प्रेरिास्रोत हू।ँ मैं दसू रे या आने वाले छात्रों के मलए भी यही कहना चाहूगं ा मक जीवन में कमठन पररश्रम का कोई मवकल्प नहीं है। हम अपने अध्ययन-अध्यापन, लेखन और पररश्रम के द्वारा उपलमब्धयों के तमाम बड़े मशखर पार कर सकते हैं। इसके मलए जरूरी है मक हम अपने व्यमक्तत्व को संघमटत रखें और अपने समय और ऊजा​ा का सही मदशा में साथाक उपयोग करें ।

१६- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप मबंु ई मवश्वमवद्यालय के महदं ी मवभागाध्यक्ष पद पर भी रह चक ु े हैं, आपका अनभु व कै सा रहा? डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: मैंने महदं ी मवभागाध्यक्ष के पद पर रहते हुए दो बड़े काया मकए हैं। पहला काया यह मक हमारे मवभाग में वर्षों से कई पद ररक्त थे, तो मैंने पाँच अध्यापकों की मनयमु क्त करवाई। दसू रा बड़ा काया यह मक मैंने महाराष्ट्र शासन के मजलामधकारी से मबंु ई मवश्वमवद्यालय के कालीना पररसर में महदं ी भार्षा भवन मनमा​ाि हेतु 5 करोड़ रुपए की रामश स्वीकृ त कराई। इन दोनों चीजों को मैं अपनी उपलमब्ध मानता हू।ँ इसके अलावा मेरे कायाकाल के दौरान 27 संगोमष्ठयां हुई। मजनमें एक अतं रराष्ट्रीय और 10 राष्ट्रीय सगं ोमष्ठयां शाममल हैं। मैंने अपने कायाकाल के दौरान महदं ी मशक्षि और मशक्षा के स्तर को यथासंभव ऊपर उठाने का प्रयत्न मकया और उस दौरान जो भी सामहमत्यक अनष्ठु ान संपन्न हुए हैं वे सब इस बात के गवाह हैं मक सामहमत्यक स्तर मकतना ऊपर रहा है। १७- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपको अभी तक प्राप्त परु स्कार एवं सम्मान के संदभा में बताए।ं

१९- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: महदं ी को राष्ट्रभार्षा का दजा​ा मदलाने हेतु आपने काफी प्रयास मकया। इस संदभा में आप क्या कहना चाहते हैं? डॉ. करुणािक ं र उपाध्याय: हम न के वल महदं ी को राष्ट्रभार्षा का दजा​ा मदलाने के मलए प्रयास कर रहे हैं अमपतु हम लगातार भारत सरकार से यह आग्रह कर रहे हैं मक महदं ी को संयक्त ु राष्ट्र संघ की आमधकाररक भार्षा बनाई जाए। वह इसमलए क्योंमक आज परू े मवश्व में महदं ी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भार्षा है। मजसके प्रयोक्ताओ ं की संख्या एक अरब तीस करोड़ है। मवश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भार्षा होने के बावजदू भी यमद महदं ी संयक्त ु राष्ट्र संघ की आमधकाररक भार्षा नहीं बन पाई है तो यह मवश्व के हर छठे व्यमक्त के मानवामधकार का उल्लंघन है। अतः मैं भारत सरकार से यह आग्रह करता हूँ मक वह न के वल महदं ी को संयक्त ु राष्ट्र संघ की आमधकाररक

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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भार्षा बनाने का प्रयास करे अमपतु आज ऐसे कई स्वाथी तत्व जो महदं ी को तोड़ने में लगे हैं उनसे महदं ी की रक्षा भी करे । आज कमतपय तत्त्व महदं ी की बोमलयों को संमवधान की आठवीं अनसु चू ी में शाममल करवा कर महदं ी के सयं क्त ु पररवार को तहसनहस करना चाहते हैं। ऐसा करने से न के वल महदं ी मबखर जाएगी अमपतु जो महदं ी, राष्ट्रीय एकता और अखडं ता को बनाए रखने तथा राष्ट्रीय और वैमश्वक स्तर पर संवाद कायम करने का सबसे सशक्त माध्यम है वह भी खतरे में पड़ जाएगा अतः आज महदं और महदं ी दोने के अखडं ता की रक्षा करना हमारा सबसे बड़ा दामयत्व है।

भी इनके मन में मकसी प्रकार की ईष्ट्या​ा, द्वेर्ष व अहक ं ार नहीं है। ‘सादा जीवन, उच्च मवचार’ रखने वाले डॉ. करुिाशक ं र उपाध्याय ने हमेशा मवद्यामथायों के प्रमत आत्मीय एवं ममत्रवत व्यवहार रखते हुए उन्हें उमचत मागादशान प्रदान मकया है। इस साक्षात्कार से मनमित ही भावी सामहमत्यक पीढ़ी एवं मवद्याथी न मसफा लाभामन्वत होंगे अमपतु उनकी मवद्वत्ता का भी अनसु रि करें ग।े ऐसे ख्यामतप्राप्त आलोचक, सामहत्यकार, मवद्वान तथा मबंु ई मवश्वमवद्यालय के पवू ा महदं ी मवभागाध्यक्ष एवं वतामान महदं ी प्राध्यापक गरु​ु वर डॉ. करुिाशक ं र उपाध्याय की महानता व उनकी मवद्वत्ता के प्रमत मैं नतमस्तक हू।ँ

२०- डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपका मवद्यामथायों के प्रमत हमेशा आत्मीय व्यवहार रहा है। अतः मवद्यामथायों के उज्ज्वल भमवष्ट्य के मलए क्या कहना चाहेंग?े डॉ. करुणािंकर उपाध्याय: मैं सदैव अपने सभी मवद्यामथायों के उज्ज्वल भमवष्ट्य की कामना करता आया हूँ और पनु ः सभी मवद्यामथायों के प्रमत इस साक्षात्कार के माध्यम से अपनी शभु कामनाएं प्रेमर्षत करता हू।ँ मैं चाहता हूँ मक मेरे पढ़ाए हुए छात्र जीवन और कै ररयर के तमाम क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करते हुए यश की प्रामप्त करें तामक उनकी उपलमब्धयों से हमारा भी नाम चतमु दाक ख्यामत प्राप्त करे । इन्हीं शभु कामनाओ ं के साथ।

डॉ. करुणािंकर उपाध्याय की कुछ प्रकासित पुस्तकें

कहना ना होगा मक बहुमख ु ी प्रमतभा के धनी डॉ. करुिाशक ं र उपाध्याय सामहमत्यक क्षेत्र के मवमवध सोपानों को पार करते हुए उच्च मशखर पर पहुचँ े हैं। मवद्यामथायों के प्रमत उनका आत्मीय व्यवहार रहा है। पठन-पाठन में रुमच रखने वाले तथा हँसमख ु एवं मचतं नशील स्वभाव वाले डॉ. करुिाशक ं र उपाध्याय महदं ी सामहत्य को नई मदशा प्रदान करने के साथ-साथ महदं ी भार्षा को नया आयाम मदलाने के मलए प्रयत्नशील हैं। इतनी प्रमतष्ठा एवं ख्यामत के बावजदू Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

डॉ. प्रमोद पाण्डेय (सहा. महदं ी प्राध्यापक तथा कायाकाररिी सदस्यमबंु ई प्रातं ीय राष्ट्रभार्षा प्रचार सभा, मबंु ई) वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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पता- ए/ 201, जानकी मनवास, तपोवन, रानी सती मागा, मलाड (पवू )ा , मबंु ई- 400097. मोबाइल: 09869517122 ईमेल: drpramod519@gmail.com

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अनुिाद िासहसययक अनिु ाद : ज्ञान का लोकतंिीकरण एिं अनिु ादक की स्िायत्ा का प्रश्न श्वेता राज शोधाथी, (महदं ी अनवु ाद) भारतीय भार्षा कें द्र, जवाहरलाल नेहरू मवश्वमवद्यालय नई मदल्ली-110067 rajshweta08@gmail.com, 9968914002 िारांि प्रस्ि​िु आलेख साशहशत्यक अनवु ाद पर के शन्द्रि है। इस लेख के माध्यम से अनवु ाद-कमम के वृहद् शवस्िार के साथ उसके माध्यम से ज्ञान के लोकित्रं ीकरण की प्रशिया िथा मौशलकिा की अविारणा पर शवचार करिे हुए, परू े अनवु ाद-कमम में अनवु ादक की भशू मका, उसकी स्वायत्ता पर शवचारशवमिम का प्रयास शकया र्गया है। प्रमुख िलद: अनवु ाद, अनवु ादक, मल ू , मौमलक, भमू डं लीकरि, सामहत्य, सामहमत्यक, संस्कृ मत, भाव पक्ष, ज्ञान, लोकतंत्रीकरि, स्वायत्ता, सैद्धांमतक, समाज । वतामान समय में अनवु ाद हमारे सामान्य जीवन– व्यवहार का अगं बन चक ु ा है। भमू डं लीकरि के इस में दौर में जहां मवमवध संस्कृ मतयों में आपसी टकराहट जारी है, वहीं अनवु ाद की महत्ता तेजी से बढ़ रही है। इसके पीछे मवश्व के अनेक भेदों व तथ्यों को जान लेने 49

डॉ. अनुज प्रताप ससंह, ‘अनुवाद ससदधांत और

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की मजज्ञासा है। सामहत्य, इमतहास, राजनीमत, दशान, मवज्ञान, कला सभी एक भार्षा से दसू री भार्षा में अनमू दत हो रहे हैं और मानव जामत के खाते में नए अनभु वों, मसद्धांतों व तथ्यों को जोड़ रहे हैं। “मवश्व संस्कृ मत के मवकास में अनवु ाद का बड़ा योगदान है... अनवु ाद के सहारे ही मवश्व भर में उत्तम सामहत्य पहुचँ रहा है।”49 सवामवमदत है मक सामहत्य का काम मानव को संवदे नशील बनाना है। वह समाज के एक बड़े फलक पर क्रामं तकारी चेतना का संचार करता है। इसका मवस्तार ही सामहत्य का उद्देश्य है; मजसमें अनवु ाद ने आगे बाद बढ़कर अपनी भमू मका मनभायी है। ज्ञान की नई-नई शाखाओ ं से पररमचत होकर आज का नागररक मन अमधक उदार हुआ है। उसमें एक दसू रे को जानने की बेचैनी बढ़ी है। प्रमसद्ध मराठी रचनाकार सयू ानारायि रिसभु े सही कहते हैं मक “एक वृहत्तर समाज या मनष्ट्ु य के साथ जड़ु ने की छटपटाहट से ही समान अनवु ाद-प्रमक्रया शरू ु हो जाती है... मनष्ट्ु य सभी और समान है, उनके दख ु भी समान है, सभी और उनकी मनयमत भी समान है – सृजनात्मक सामहत्य के अनवु ाद में इस दृमि की मनतांत आवश्यकता है।”50 इसीमलए “दमु नया की मजस जामत में जनतामं त्रकता अमधक है, वहां सवा​ामधक अनवु ाद

50

सूयन च ारायण रणसुभे, ‘अनुवाद प्रक्रिया और

व्यवहार’, ग्रंिलोक प्रकाशन, ददल्ली, प्रिम संस्करण-

व्यवस्िा’, सं.-राजेंद्र यादव, ‘हं स’ पत्रत्रका, अक्षर प्रकाशन

2008, प ृ सं.-232

प्रा. सल., नई ददल्ली, अंक-अक्टूबर 1997, प.ृ सं.-77

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होते हैं और अनवु ाद तथा अनवु ादक – दोनों की

मवर्षयवस्तु के स्पि और सटीक अतं रि की अपेक्षा

प्रमतष्ठा होती है।”51 उल्लेखनीय है मक इस प्रसगं में

की जाती है ।”53 लेमकन सामहमत्यक अनवु ाद करते

सामहमत्यक अनवु ाद सवा​ामधक कारगर सामबत हुआ

समय यह मजम्मेदारी और बढ़ जाती है। वहां अथा की

है।

संप्रेर्षिीयता के साथ-साथ सृजन का प्रश्न अहम् हो सामहमत्यक अनवु ाद को मभन्न–मभन्न समयों में

उठता है। कला पक्ष और भाव पक्ष दोनों को परू ी

पररभामर्षत मकया जाता रहा है। मकसी ने उसे पनु रा चना

सावधानी के साथ मनभाना अनवु ादक की मजम्मेदारी

कहा है तो मकसी ने पनु सृाजन, मकसी ने अनसु जृ न कहा

होती है। “सामहमत्यक अनवु ाद के मसद्धातं में एक

है तो मकसी ने सामहमत्यक पनु जीवन।”52

अनवु ादक से यह अपेक्षा की जाती है मक वह स्रोत पाठ में दजा वस्तमु नष्ठ यथाथा को पनु ःसृमजत

अन्य सभी शाखाओ ं के अनवु ाद की तल ु ना में सामहमत्यक अनवु ाद अमधक कमठन होता है क्योंमक

करे ...अनवु ादक सावधानीपवू क ा लेखक की शैली एवं पद्धमत के अनसु रि का भी प्रयास करता है।”54

वहां संस्कृ मत व संवदे ना की संप्रेर्षिीयता का प्रश्न सामहमत्यक अनवु ाद करते समय एक अनवु ादक

महत्वपूिा हो उठता है। पी. एम. पाण्डेय वैज्ञामनक पाठ के अनवु ाद तथा सामहमत्यक अनवु ाद का अतं र समझाते हुए कहते है मक “वैज्ञामनक एवं तकनीकी पाठ के अनवु ाद के क्षेत्र में अमधकतर मसद्धांतकार कमोबेश स्पि हैं मक वहां अनुवादक से स्रोत पाठ की

51 52

वही, प.ृ सं.-78

रचनाकार (लेखक)”55 तीनों की होती है। इसीमलए लेखक एवं अनवु ादक में भेद करना गलत है। सामहमत्यक “अनवु ाद एक सृजनात्मक प्रमक्रया है, मल ू

54

कृष्ण कुमार गोस्वामी, ‘अनव ु ाद ववज्ञान की

भूसमका’, राजकमल प्रकाशन, नई ददल्ली, पहला छात्र संस्करण-2012, प.ृ सं.-273

“In the field of scientific and technical translation, theoreticians more or less are clear that the demands made upon the translators with regards to the exact transmission 53

of the content of the original, its clarity and accuracy

की भमू मका “आलोचक (पाठक), भार्षामवद, और

.” P.

M. Pande, ‘Some Problems of Theory and Practice of Translation’, सं.-गोपीनािन एवं कंदस्वामी, अनुवाद की

|“The theory of literary translation expects a translator

to recreate the objective reality which has been depicted in the original work…he will also make a conscious attempt to follow the author’s style and method.” वही, प.ृ सं.-19 55

कृष्ण कुमार गोस्वामी, ‘अनव ु ाद ववज्ञान की

भूसमका’, राजकमल प्रकाशन, नई ददल्ली, पहला छात्र संस्करण-2012, प.ृ सं.-274

समस्याएं, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रिम संस्करण-1993, प.ृ सं.-19

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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का पनु का थन नहीं।”56 यह जोमखम व मजम्मेदारी का

के वल भाव को प्रकट करने के मलए होता है। अतएव

काम है। तब यह जोमखम और बढ़ जाता है, जब

भाव प्रदशान अनवु ाद ही उत्तम अनवु ाद है।”60

मवदेशी भार्षा के पाठ का अनवु ाद करना हो। इस

िुक्ल जी, “अनवु ाद की भार्षा में मौमलक लेखन

सन्दभा में सरु े श मसंघल की मान्यता है मक “सांस्कृ मतक

जैसा प्रभाव उत्पन्न मकया जाए”61, इस बात के

तथा ऐमतहामसक दरू ी मजतनी बढ़ती जाती है। अनवु ाद

समथाक थे। अपने अनवु ाद कमा में उन्होंने अपने

की कमठनता उतनी ही बढ़ती जाती है।”57 ड्राइडन के शब्दों में इसे “पैराफ्रेज कह सकते हैं (जो मेराफ्रेज

कथनानसु ार परू ी छूट ली और जरूरत के अनसु ार अश ं काटे-छाटे व जोड़े भी।

यामन अक्षरशः अनवु ाद नहीं होते)”58 वहां भावहररिंि राय बच्चन जो मक एक कमव के साथ-

प्रविता एवं संप्रेर्षिीयता अमधक महत्त्वपिू ा है।

साथ सफल अनुवादक भी थे, उन्होंने जोर देकर कहा पािात्य से लेकर भारतीय मवद्वानों ने अक्षरशः अनवु ाद को कमजोर अनवु ाद माना है। भारतेंदु “अनमू दत ग्रंथ को अपनी भार्षा के पाठकों द्वारा सहजता से ग्रहि मकये जाने के मलए मल ू भार्षा के महु ावरों का भी शामब्दक अनुवाद करने की अपेक्षा उसके समतुल्य अपनी भार्षा के प्रचमलत महु ावरों का समावेश करने के पक्ष में थे।”

59

मक “अपने अनवु ाद के मवर्षय में मझु े के वल इतना ही कहना है मक मैं शब्दानवु ाद करने के फे र में नहीं पड़ता। भावों को ही मैंने प्रधानता दी है।”62 डॉ. गागी गुप्त ने अनवु ाद को मल ू का पनु का थन न मानकर, पनु रा चना माना और कहा मक “सफल अनवु ाद वही होता है जो अनवु ाद होकर भी अनवु ाद जैसा प्रतीत न हो और एक मौमलक का-सा आनंद दे।”63

महािीर प्रिाद सद्विेदी, ‘कुमारसंभव’ के अनवु ाद की भमू मका में कहते हैं मक “शब्दों का प्रयोग तो डॉ. सुरेश ससंहल, अनुवाद : संवेदना और सरोकार,

56

संजय प्रकाशन, नई ददल्ली, प्रिम संस्करण-2006, प.ृ सं.-17 57 58

वही, प.ृ सं.-17

डॉ. इंद्रनाि चौधुरी, लेख-‘सादहत्त्यक अनुवाद के

59

सरोकार’, संजय प्रकाशन, नई ददल्ली, प्रिम संस्करण2006, प.ृ सं.-13 60 61

संदभच में अनुवाद अध्ययन का स्वरूप’, प्र. सं.-डॉ. गागी

62

अनव ु ाद पररर्द, नई ददल्ली, प.ृ सं.-120

63

गुप्त, सं.-पूरन

चंद्र टं डन, ‘अनुवाद बोध’, भारतीय

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

डॉ. सुरेश ससंहल, ‘अनुवाद : संवेदना और

वही, पष्ृ ठ सं. – 15 वही, प.ृ सं.-15

हररवंशराय बच्चन, ‘बच्चन रचनावली’, खंड-4,

राजकमल प्रकाशन, ददल्ली, 1983, प.ृ सं.-283

डॉ. आरस,ू ‘सादहत्यानव ु ाद : संवाद और संवेदना’,

वाणी प्रकाशन, ददल्ली, 1995, प.ृ सं.-34

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रैनेत्ो पोसिओली ने अपने लेख ‘अनवु ाद क्या

सके ।’ उन्नीसवीं शताब्दी के अनवु ाद-मचन्तक

है?’ में इस तथ्य को साफ-साफ मलखा है मक

सर्िडजेराल्ड ने शामब्दक अनवु ाद को ‘मल ू की

“अनवु ाद के वल ‘Verandernde’ अथा​ात् शब्दों का

आत्मा का हनन’ कहा है।

रूपांतरि न होकर भावों का रूपांतरि है।”64

एक ही पाठ को अलग-अलग समय में कई

इस संदभा में एगं ेल्ि, माक्िक को मलखी एक मचिी

अनवु ादकों ने अनवु ाद मकया है जैसे मक ‘बाइमबल’

में कहते हैं मक “जहां कमठन अमभव्यमक्तयां ममलती हैं,

का अनवु ाद, ‘खैयाम की रुबाइयों’ का अनवु ाद, या

वहां खाली जगह छोड़ देना बेहतर है, बजाय इसके

मफर ‘अमभज्ञानशाकंु तलम’् का अनवु ाद। प्रत्येक

मक शामब्दक अनवु ाद के बहाने ऐसी चीज मलखी जाए

अनवु ाद में पाठ को नए तरीके को समझने और

जो... सवाथा अथाहीन हो।”65

पनु सृामजत करने की कोमशश की गयी है। यहां

ड्राइडन ने सवाप्रथम अनवु ाद के सैद्धांमतक पक्षों पर मवचार मकया। “उन्होंने तीन प्रकार के अनवु ादों की चचा​ा की- (i) शब्दानवु ाद (ii)भावानवु ाद (iii) अनक ु रि”66 मजसमें भावानुवाद को श्रेष्ठ माना है। सि​िलर ने अपनी पस्ु तक ‘Essays On The

अनवु ादक की भमू मका एक आलोचक की भी है। इस संदभा डेसिड सिस्िल का कहना है मक “सामहमत्यक काया में रूप और मवर्षयवस्तु दोनों पर गभं ीर मवचार की आवश्यकता होती है। मजससे एक ही पाठ के कई अनवु ाद सामने आ जाते हैं।”67

Principles of Translation’ में अनवु ाद सबं धं ी

सामहमत्यक अनवु ाद के संदभा में मवचारकों ने

महत्त्वपिू ा मवचार मदए है मक ‘अनवु ाद को मल ू रचना

अलग-अलग समय में अपने मवचार प्रस्ततु मकये हैं ।

के साथ साधारिीकरि की अवस्था में जाना चामहए

लेमकन इन सभी मवचारकों में एक तारतम्य मदखाता

तामक मल ू रचना और अनमु दत पाठ में भेद न पता चल

15

रै नेत्तो पोववओली, लेख-‘अनुवाद क्या है ’, ‘अनुवाद-

बोध’, प.ृ सं.-23

माक्सच-एंगेल्स, ‘सादहत्य और कला’, राहुल फाउं डेशन, लखनऊ, प्रिम संस्करण-2006, प.ृ सं.-114 65

66

“Literary work requires sensitive consideration of form as well as content, and may prompt several translation , each of which emphasizes a different aspect of the original.” 67

David Crystal, ‘The Cambridge Encyclopedia of Language’, Pub. By-University of Cambridge, second edition, pg. no.-346

डॉ. सुरेश ससंहल, ‘अनुवाद : संवेदना और

सरोकार’, संजय प्रकाशन, नई ददल्ली, प्रिम संस्करण2006, प.ृ सं.-3

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है। वह है, सामहमत्यक अनवु ाद में भाव पक्ष की

अनवु ाद–कमा मात्र एक भार्षा से दसू री भार्षा में

प्रधानता।

रूपांतरि है ? या उसका कोई सांस्कृ मतक, राजनीमतक

सामहमत्यक अनवु ाद एक सृजनात्मक कमा है, अनवु ादक कुछ काट-छाट या जोड़ने की छूट ले सकता है। इन सब बातों को कहने के बावजदू , क्या अनमू दत पाठ की अपनी स्वतं त्र सत्ता हो सकती है? इस पर एक मौन मदखता है। अनवु ादक पर बार-बार

तथा वैचाररक उद्देश्य भी है ? वह मकसके मलए मकया जा रहा है ? अनवु ाद-प्रमक्रया में एक अनवु ादक कहां है ? उसके क्या अमधकार है ? ये प्रश्न तब और अमधक महत्त्वपिू ा हो जाते हैं, जब वह पाठ एक सामहमत्यक पाठ हो।

‘ईमानदारी’ का प्रश्न उठाया जाता है मक “अनवु ादक

“सामहत्य के अमस्तत्व, महत्त्व, उत्थान, और

अपनी तरफ से मकतनी स्वतंत्रता ले सकता है। यह

प्रभाव की व्याख्या समचू ी व्यवस्था के समग्र

अपने-आप स्पि है मक सामहमत्यक अनवु ाद करते हुए

ऐमतहामसक संदभा में ही की जा सकती है। सामहत्य का

अथा में आमं शक लोप और संयोजन के आधार पर

उद्भव और मवकास समग्र ऐमतहामसक-सामामजक

रूपांतरि अमनवाया है। मगर इसका अथा यह नहीं की

प्रमक्रया का अगं है। सामहमत्यक रचनाओ ं का

मल ू के प्रमत ईमानदार रहने की जरूरत नहीं।”68 यह

सौंदयागत सारतत्त्व और मल्ू य और इसमलए उनका

संदहे वाचक प्रश्नमचह्न अनवु ादक के ऊपर सदैव

प्रभाव उस सामान्य और सममन्वत सामामजक प्रमक्रया

मडं राता रहता है।

का अगं है।”69 समाज से काटकर सामहत्य को नहीं

अब मवचारिीय है मक मजसे बार–बार ‘मल ू -

समझा जा सकता। “सामहत्य एक सामामजक रचना

पाठ’ कहा जाता रहा है, वह क्या वास्तव में मौमलक

है।”70 वह एक ‘ऐमतहामसक सामामजक प्रमक्रया’ का

है ? उसकी रचना–प्रमक्रया क्या है ? मजसे मौमलक

अगं है। इसीमलए मकसी भी पाठ को तथा उसकी रचना

कहा जा रहा है, क्या वह स्वयं पनु रा चना नहीं ? क्या

प्रमक्रया को समझने के मलए दोनों के द्वद्वं ात्मकता को समझना आवश्यक है। प्रत्येक रचना अपने देश-

68

डॉ. इंद्रनाि चौधरु ी, लेख-‘सादहत्त्यक अनव ु ाद के

संदभच में अनुवाद अध्ययन का स्वरूप’, प्र. सं.-डॉ. गागी गुप्त, सं.-पूरन चंद्र टं डन, ‘अनुवाद बोध’, भारतीय अनुवाद पररर्द, नई ददल्ली, प.ृ सं.-115 69

जॉजच लक ु ाच, लेख-सौंदयचशास्त्र के बारे में माक्सच

कला’, राहुल फाउं डेशन लखनऊ, प्रिम संस्करण-2006, प.ृ सं.-445 70

मैनेजर पांडय े , सादहत्य और इततहास दृत्ष्ट, वाणी

प्रकाशन, ददल्ली, 2009, प.ृ सं.-7

और एंगेल्स के ववचार, माक्सच-एंगल् े स, ‘सादहत्य और

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काल-वातावरि से प्रभामवत होती है। लेखक अपने

क्लामसक रचना का “कला-उत्पादन एक ही बार

व्यमक्तगत तथा सामामजक जीवन के अनभु व, जो

सभं व है।”73 लक ु ाच मानते हैं मक इस तरह की मवधाएं

उसके अपने भी हो सकते है या मकसी और से सनु े हुए

“कलात्मक मवकास की मकसी कम मवकमसत ममं जल

भी हो सकते है, को सामहमत्यक भार्षा में पनु रुत्पामदत

में ही संभव होती है।”74 मजसे मौमलक रचना कहा

करता है। ‘मल ू -रचना’ भी मकसी घटना, अनभु व या

जा रहा है वह दरअसल ‘यथाथा का कलात्मक

मवचार का ही पनु सृाजन है। एक ऐमतहामसक प्रमक्रया

पनु रुत्थान’ है तो मफर ईमानदारी का यह बोझ

का महस्सा है। उसी ऐमतहामसक प्रमक्रया का, मजसका

अनवु ादक के कंधे पर ही क्यों? ‘ईमानदारी’ का यह

महस्सा लेखक और अनवु ादक दोनों है। मफर एक

प्रश्न दरअसल नैमतक प्रश्न न होकर, एक राजनीमतक

मौमलक और दसू रा गैर-मौमलक कै से हो सकता है?

प्रश्न है। जो मक हमेशा ‘मल ू पाठ’ को उच्चत्तर

लुकाच इस संदभा में साफ-साफ कहते है मक “मवश्व

(Superior) और अनमू दत पाठ को मनम्नतर

सामहत्य के सारे महान लेखक सहज भाव से या थोड़ा

(Inferior) सामबत करना चाहता है।

बहुत चेतन ढंग से, अपनी रचना में प्रमतमबंबन की

रामायि के 300 संस्करि अगल-अलग

मसद्धांत का अनसु रि करते रहे है और अपने कला

भार्षाओँ में उपलब्ध हैं । कहीं राम नायक है और कहीं

मसद्धांतों को स्पि करने में इस मसद्धांत का अनसु रि

रावि खलनायक तो कहीं रावि नायक है और राम

करते रहे है। सारे महान लेखकों का प्रमख ु उद्देश्य

खलनायक। कहीं राम-सीता को ‘आदशा दम्पमत’ के

यथाथा का कलात्मक पनु रुत्पादन रहा है...माक्सावादी सौन्दयाशास्त्र इस कें द्रीय प्रश्न का समाधान, मकसी

रूप में प्रस्ततु मकया गया है तथा कहीं राम–सीता– लक्ष्मि भाई–बहन है। कहीं सीता रावि की पत्रु ी है।

बमु नयादी मौमलकता का दावा मकया बगैर, खोज लेता

अब मकसे ‘मल ू पाठ’ कहा जाये और मकसे

है।”71 लेमकन ‘यथाथा का कलात्मक पनु रुत्पादन’

‘ईमानदार’ न होने की वजह से खाररज कर मदया

“इमं द्रयजन्य तथ्यों का फोटोग्रामफक पनु रा चना”72 नहीं

जाये? ये सारी कहामनयां अपने सांस्कृ मतक व

होनी चामहए। जो लोग यह मानते है मक मकसी

71

जॉजच लुकाच, लेख-सौंदयचशास्त्र के बारे में माक्सच

ऐमतहामसक पररवेश में उपजी है। सबके अपने 72

और एंगेल्स के ववचार, माक्सच-एंगल् े स, ‘सादहत्य और

73

कला’, राहुल फाउं डेशन लखनऊ, प्रिम संस्करण-2006,

74

प.ृ सं.-456

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वही, प.ृ सं.-449 वही, प.ृ सं.-449 वही, प.ृ सं.-457

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राजनीमतक और सामामजक उद्देश्य है। ध्यान देने योनय

अपनी पस्ु तक ‘अनिु ाद सिज्ञान की भूसमका’ में

बात है मक ये सारी कहामनयां एक ही भारतीय

मलखते है मक “अनवु ादकमी एक ऐसा कलाकार है

उपमहाद्वीप की कहामनयां हैं।

मजसे आलोचक (पाठक), भार्षामवद् और रचनाकार

मजसे ‘मौमलक पाठ’ कहा जा रहा है, यमद वह पनु रुत्पादन है तो वह एक लेखक की व्यमक्तगत सपं मत्त

(लेखक) तीनों मस्थमतयों में एक साथ गजु रना पड़ता है। वह आलोचक या पाठक के रूप में मल ू कृ मत में

कै से हो सकती है? और कोई भी सामहमत्यक पाठ,

बीज का पता लगाता है। भार्षामवद् के रूप में उस बीज

मजसका उद्देश्य मानवतावाद का मवकास करना है, वह

को अन्य भार्षा की जमीन की जलवाय,ु वातावरि

ज्ञान के लोकतामं त्रकरि की प्रमक्रया का माध्यम होगा मक नहीं ? या मफर के वल एक लेखक या कमव की मनजी संपमत्त हो कर रह जाएगा ? यमद “सामहत्य का अमस्तत्व समाज से अलग नहीं होता...सामहत्यकार रचनाशील चेतना उसके सामामजक अमस्तत्व से

आमद को समझते हुए उस जमीन पर प्रमतरोमपत करता है और रचनाकार के रूप में उसे सवांरता है। तभी वह पौधा बनकर अनमु दत कृ मत के रूप में प्रस्फुमटत और पल्लमवत होता है।”76 यहां मफर से एक प्रश्न उठता है की क्या मकसी कृ मत के ‘बीज’ का पता लगा लेने तक

मनममात होती है। सामहमत्यक कमा की परू ी प्रमक्रया

की ही आलोचक की मजम्मेदारी है, मक अमक ु पाठ

सामामजक व्यवहार का ही एक मवमशि रूप है।”75 तो

में क्या कहा गया है? उसके क्या गिु दोर्ष है? या मफर

अनवु ादक भी तो उसी समाज का महस्सा है, जहां ज्ञान (सामहमत्यक पाठ) पर कोई पहरा नहीं होना चामहए। वह मकसी की व्यमक्तगत सपं मत्त न हो। उसपर सबका अमधकार हो। वह सबके मलए सल ु भ हो। यही अनवु ाद–कमा का उद्देश्य है और सामहमत्यक-कमा का भी। ज्ञान को सल ु भ बनाने की इस प्रमक्रया में एक अनवु ादक कहां है? उसके क्या अमधकार है? इस पर मवचार करना आवश्यक है। कृष्ट्ण कुमार गोस्िामी

75

मैनज े र पांडय े , ‘सादहत्य और इततहास दृत्ष्ट’, वाणी

प्रकाशन, ददल्ली, 2009, प.ृ सं.-7

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

मकसी पाठ की एक नयी व्याख्या प्रस्ततु करना भी आलोचक का काम है। इस मायने में “आलोचक सृजन की प्रमक्रया का अपररहाया अगं है... सामहत्यालोचन जहां तक एक मवज्ञान है, वह कृ मत मवशेर्ष का पररक्षि करता है, उसका गिु दोर्ष-मनरुपि करता है और आवश्यकतानसु ार नवीन मसद्ध ं ातों की उद्भावना भी करता है। इसके साथ ही साथ कला के रूप में वह उत्पेरक कृ मतयों के मनमा​ाि में भी संलनन

76

कृष्ण कुमार गोस्वामी, ‘अनव ु ाद ववज्ञान की

भूसमका’, प.ृ सं.-274

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रहता है।”77 एक आलोचक के रूप में अनवु ादक को

व्यमक्त तो है ही, सौंदया का पारखी भी है। उसे समझने

भी यह मजम्मेदारी उठानी होती है उसे अपने अनवु ाद-

में देर नहीं लगती मक डूबते मगु मलया राज की तमाम

कमा में नई व्याख्याएं देनी होती है। एक रचनाकार के

मवकृ मतयों को दरू करने के मलए वह पैदा नहीं हुआ है।

रूप में उसी सृजन-पीड़ा से होकर गजु रना होता है और

ये मवकृ मतयां कोई एक मदन में पैदा नहीं हुई हैं, अमपतु

एक नई कृ मत को जन्म देना होता है। मफर अनवु ादक

कई-कई दशकों या परू ी एक शताब्दी में पैदा हुई है।”79

तथा अनमु दत कृ मत की अपनी स्वतत्रं सत्ता क्यों न हो?

सत्यजीत राय के यहां वामजदअली शाह का परू ा

इस संदभा में “याकोलिन ने सृजनात्मक पाठ के

चररत्र शासक-वगा द्वारा गढ़े गए एक शासक के

अनवु ाद को मल ू पाठ का प्रमतरूप न मानकर

मदावादी चररत्र को बार-बार चनु ौती देता है।

सृजनात्मक रूपातंरि कहां है। यह एक ऐसी स्वायत

मीर साहब की बेग़म मजस “अज्ञात कारि”80 से मीर

सृजानात्मक मवधा है मजसकी अपनी सत्ता है।”78

साहब को घर से दरू रखना उपयक्त ु समझती थी,

प्रेमचंद की कहानी ‘ितरंज के सखलाड़ी’ का

सत्यजीत राय उस ‘अज्ञात कारि’ का भेद खोल देते

िययजीत राय द्वारा मकया गया मफ़ल्मी रूपातंरि

हैं मक महल के अदं र बेग़मों की जो उपेमक्षत अतृप्त

(मसनेममे टक रासं लेशन) अच्छा उदाहरि है। जहां

इच्छाएं थी, वह मकस प्रकार अलग-अलग माध्यमों

सत्यमजत राय कहानी की मल ू संवदे ना को संजीदगी

से परू ी होती हैं।

के साथ पकड़ते है मक मकस प्रकार उस दौर का राजनीमतक पतन हो चक ु ा था, वही नई व्याख्याएं भी

प्रेमचंद के यहां, जहां “अपने बादशाह के मलए मजनकी आख ं ों से एक बंदू आसं ू न मनकला, उन्हीं

देते हैं। प्रेमचदं के यहां वामजदअली शाह को एक

दोनों प्रामियों ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राि दे

पतनशील राजा के रूप में मचमत्रत मकया गया है। जोमक

मदए।”81 वहीं सत्यजीत राय के यहां “अतं में, जब

एक औपमनवेमशक समझदारी है। वहीं सत्यजीत राय

अग्रं ेज लखनऊ में प्रवेश कर जाते हैं तब भी वह

के यहां वह “स्वभाव से कमव, मवद्वान और ससु ंस्कृ त 77

संकलन, गोपेश्वर ससंह, ‘नसलन ववलोचन शमाच :

संकसलत तनबंध’, प्रकाशन-नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडडया, नई ददल्ली, 2011, प.ृ सं.78

62

कृष्ण कुमार गोस्वामी, ‘अनव ु ाद ववज्ञान की

भसू मका’, प.ृ सं.-274

79

नेशनल बक ु ट्रस्ट, इंडडया, नई ददल्ली, संस्करण-1997, प.ृ सं.-77 80

सं.-भीष्म साहनी, ‘प्रेमचंद : प्रतततनथध कहातनयां’,

राजकमल प्रकाशन, नई ददल्ली, 2010, प.ृ सं.-74 81

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

थचदानंद दास गप्ु ता, ‘सत्यत्जत राय का ससनेमा’,

वही, प.ृ सं.-80

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शतरंज खेल रहे होते है। मकंतु इस बार वे मितानी शैली का शतरंज खेलते हैं।”82 सत्यजीत राय, प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के मखलाड़ी’ की नई व्याख्याएं पाठक व दशाक के सामने प्रस्ततु करते हैं जो मक प्रेमचदं की कहानी से अमधक प्रौढ़ जान पड़ती है। अतः अनवु ाद-प्रमक्रया एक राजनीमतक व वैचाररक प्रमक्रया है मजसका उद्देश्य ज्ञान को सबके मलए सल ु भ बनाना है। उसका जनतामं त्रकरि करना है। वह सृजनात्मक प्रमक्रया है, मजसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता है। अनवु ाद मसद्धांत व् प्रमक्रया पर मवचार करते हुए इस महत्वपिू ा प्रश्नों पर मवचार व् बहस आवश्यक है, जो अक्सर अनछुए रह जाते हैं।

82

थचदानंद दास गुप्ता, ‘सत्यत्जत राय का ससनेमा’,

नेशनल बक ु ट्रस्ट, इंडडया, नई ददल्ली, संस्करण-1997, प.ृ सं.-79

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(अनसू दत रूिी कहानी )

मारे य नाम का सकिान मूल कथाकार : फ़्योदोर दोस्तोयेव्स्की अनुिाद : िुिांत िुसप्रय वह ईस्टर के हफ़्ते का दसू रा मदन था । हवा गमा थी , आकाश नीला था । सरू ज गमा​ाहट देता हुआ देर तक आकाश में चमक रहा था , पर मेरा अतं मान बेहद अवसाद-ग्रस्त था । टहलता हुआ मैं जेल की बैरकों के पीछे जा मनकला । सामान स्थानातं ररत करने वाली मशीनों को मगनते हुए मैं बंदी-गृह की मज़बतू चारदीवारी को घरू ता रहा । हालाँमक उनको मगनने का मेरा कोई इरादा नहीं था , पर यह मेरी आदत ज़रूर थी । बंदी-गृह में यह मेरी ' छुरट्टयों ' का दसू रा मदन था । आज बंमदयों को काम करने के मलए नहीं ले जाया गया था । बहुत सारे लोग ज़्यादा पी लेने के कारि नशे में थे । हर कोने से लगातार गाली-गलौज और लड़ने-झगड़ने की ऊँची आवाज़ें आ रही थीं । मबस्तरों के साथ बने चबतू रों पर ताश-पामटायों और बेहूदा , घमटया गानों का प्रबंध मकया गया था । महसं ा में मलप्त होने की वजह से कई कै मदयों को उनके सहकममायों ने अधमरे होने तक पीटे जाने की सज़ा सनु ाई थी । परू ी तरह ठीक हो जाने तक वे सभी भेड़ों की खालें लपेटे मबस्तरों पर मनढाल पड़े थे । लड़ाई-झगड़ों के दौरान यहाँ बात-बात पर चाकू-छुरे मनकल जाते थे । मपछले दो मदनों की छुरट्टयों के दौरान मझु े इन सब ने इतना उत्पीमड़त कर मदया मक मैं बीमार हो गया । नशेमड़यों का इतना ज़्यादा घृमित शोर-शराबा और इतनी अव्यवस्था मैं वाकई कभी नहीं सह सकता था , मवशेर्ष कर के इस जगह पर । ऐसे मदनों के दौरान बंदी-गृह के अमधकारी भी बंदीगृह की कोई सधु नहीं लेते थे । इन मदनों वे यहाँ कोई Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

ISSN: 2454-2725

तलाशी नहीं लेते थे , न वोदका की अवैध बोतलें ढूँढ़ मनकालने के मलए छान-बीन ही करते थे । उनका मानना था मक इन बमहष्ट्कृत लोगों को भी साल में एकाध बार मौज-मस्ती करने की अनमु मत ममलनी चामहए । यमद ऐसा नहीं हुआ तो मस्थमत और ख़राब हो सकती है । आमख़रकार मेरा मन इस मस्थमत के मवरुद्ध ग़स्ु से से भर उठा । इस बीच एम. नाम का एक राजनीमतक बंदी मझु े ममला । उसने मझु े मवर्षाद भरी आँखों से देखा । अचानक उसकी आँखों में एक चमक आई और उसके होठ काँपे । " सब के सब डाकू-बदमाश हैं " , गस्ु से से उसने कहा और आगे बढ़ गया । मैं बंदी-कक्ष में लौट आया , हालाँमक के वल पंद्रह ममनट पहले मैं दौड़कर यहाँ से बाहर मनकल गया था , जैसे मझु पर पागलपन का दौरा पड़ा हो । दरअसल छह हट्टे-कट्टे बदं ी नशे में धत्तु तातार गमज़न पर टूट पड़े थे । उसे नीचे दबा कर उन्होंने उसकी मपटाई शरू ु कर दी थी । वे उसे मजस बेवकूफ़ाना ढगं से मार रहे थे उससे तो मकसी ऊँट की भी मौत हो सकती थी । पर वे जानते थे मक हरक्यमू लस जैसे इस तगड़े आदमी को मार पाना इतना आसान नहीं था । इसमलए वे उसे मबना मकसी सक ं ोच या घबराहट के पीट रहे थे । अब वापस लौटने पर मैंने पाया मक सबसे दरू वाले कोने के मबस्तर पर गमज़न लगभग मबना मकसी जीवन के मचह्न के बेहोश पड़ा था । उसके ऊपर भेड़ की खाल डाल दी गई थी । सभी बंदी मबना कुछ बोले उसके चारो ओर से आ-जा रहे थे । हालाँमक उन सभी को परू ी उम्मीद थी मक अगली सबु ह तक वह होश में आ जाएगा , पर यमद उसकी मकस्मत ख़राब रही होती तो यह भी सम्भव था मक इतनी मार खाने के बाद वह मर जाता । मैं मकसी तरह वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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जगह बनाता हुआ लोहे की छड़ों वाली मखड़की के सामने मौजदू अपने मबस्तर तक पहुचँ ा , जहाँ मैंने अपने हाथ अपने मसर के पीछे रख मलए और पीठ के बल लेट कर अपनी आँखें मँदू लीं । मझु े इस तरह लेटना पसंद था ; सोए हुए आदमी को आप तंग नहीं कर सकते । और इस अवस्था में आप सोच सकते हैं और सपने देख सकते हैं । लेमकन मैं सपने नहीं देख सका । मेरा मचत्त अशांत था । बार-बार एम. के कहे शब्द मेरे कानों में गजँू रहे थे । पर मैं अपने मवचारों की चचा​ा क्यों करूँ ? अब भी कभी-कभी रात में मझु े उन मदनों के बारे में सपने आते हैं , और वे बेहद यंत्रिादायी होते हैं । शायद इस बात पर ध्यान मदया जाएगा मक आज तक मैंने बंदी-गृह में मबताए अपने जीवन के बारे में मलमखत रूप में शायद ही कभी कोई बात की है। पद्रं ह वर्षा पवू ा मैंने ' मृतकों का घर ' नामक मकताब एक ऐसे काल्पमनक व्यमक्त के चररत्र पर मलखी थी जो अपराधी था और मजसने अपनी पत्नी की हत्या की थी । यहाँ मैं यह बता दँू मक तब से बहुत सारे लोगों ने यह मान मलया है मक मझु े बदं ी-गृह इसमलए भेजा गया क्योंमक मैंने ही अपनी पत्नी की हत्या कर दी थी ! धीरे -धीरे मैं भल ु क्कड़पन की अवस्था में चला गया , और मफर यादों में डूब गया । बदं ी-गृह में मबताए अपने परू े चार साल के दौरान मैं लगातार अपने अतीत की घटनाओ ं को याद करता रहता , और लगता था जैसे उन यादों के सहारे मैं अपना परू ा जीवन दोबारा जी रहा था । दरअसल ये स्मृमतयाँ खदु -ब-खदु मेरे ज़हन में उमड़-घमु ड़ आती थीं , मैं जान-बझू कर इन्हें याद करने की कोमशश नहीं करता था । कभीकभी मकसी अलमक्षत घटना से इनकी शरु​ु आत होती , और धीरे -धीरे ज़हन में इनकी परू ी जीवतं तसवीर बन जाती । मैं इन छमवयों का मवश्लेर्षि करता , बहुत पहले घटी मकसी घटना को नया रूप दे देता , और सबसे Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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अच्छी बात यह थी मक मैं अपने मज़े के मलए इन्हें लगातार सधु ारता रहता । इस अवसर पर मकसी कारिवश मझु े अचानक अपने बचपन का एक अलमक्षत पल याद आया जब मैं नौ वर्षा का था । यह एक ऐसा पल था मजसके बारे में मझु े लगा था मक मैं इसे भल ू चक ु ा था । पर उस समय मझु े अपने बचपन की स्मृमतयों से मवशेर्ष लगाव था । मझु े गाँव में बने अपने घर में मबताए अगस्त माह की याद आई । वह एक शष्ट्ु क , चमकीला मदन था जब तेज़ , ठंडी हवा चल रही थी । गमी का मौसम अपने अमं तम चरि में था और जल्दी ही हमें मास्को चले जाना था , जहाँ ठंड के महीनों में हम फ़्रांसीसी भार्षा के पाठ याद करते हुए ऊब जाने वाले थे । इसमलए मझु े ग्रामीि इलाके में बने अपने घर को छोड़ने का बेहद अफ़सोस था । मैं मसू ल से कूट-पीट कर अनाज मनकालने वाली जगह के बगल से चलता हुआ गहरी , सक ं री घाटी की ओर मनकल गया । वहाँ मैं घनी झामड़यों के झरु मटु तक गया मजसने उस सक ं री घाटी को कौप्से तक ढँका हुआ था । मैं सीधा उन झामड़यों के बीच घसु गया , और वहाँ मझु े लगभग तीस मीटर दरू बीच की ख़ाली जगह में खेत को जोतता हुआ एक मकसान मदखा । मैं जानता था मक वह खड़ी ढलान वाली पहाड़ी पर जतु ाई कर रहा था , और उसके हाँफ़ते हुए घोड़े को बहुत प्रयास करना पड़ रहा था । अपने घोड़े का हौसला बढ़ाने वाली मकसान की आवाज़ हर थोड़ी देर बाद तैरती हुई मेरी ऊँचाई तक पहुचँ रही थी । मैं अपने इलाके में रहने वाले लगभग सभी गल ु ाम मकसानों को जानता

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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था । पर इस समय कौन-सा मकसान खेत जोत रहा था , यह मझु े नहीं पता था । सच पूमछए तो मैं यह जानना भी नहीं चाहता था क्योंमक मैं अपने काम में डूबा हुआ था । आप कह सकते हैं मक मैं अखरोट के पेड़ की डंमडयाँ तोड़ने में व्यस्त था । मैं उन डंमडयों से मेंढकों को पीटता था । अखरोट के पेड़ की पतली डंमडयाँ अच्छे चाबक ु का काम करती हैं , लेमकन वे ज़्यादा मदनों तक नहीं चलती हैं । पर भोज-वृक्ष की पतली टहमनयों का स्वभाव इससे ठीक उलट होता है । मेरी रुमच भौंरों और अन्य कीड़ों में भी थी ; मैं उन्हें एकत्र करता था । इनका उपयोग सजावटी था । काले धब्बों वाली लाल और पीले रंग की छोटी , फुतीली मछपकमलयाँ भी मझु े बहुत पसंद थीं , लेमकन मैं साँपों से डरता था । हालाँमक साँप मछपकमलयों से ज़्यादा मवरल थे ।

भी है , मकंतु सभी उसे मारे य नाम से ही बल ु ाते थे । वह गठीले बदन वाला पचास साल का मोटा-तगड़ा मकसान था , मजसकी भरू ी दाढ़ी के कई बाल पके हुए थे । मैं उसे जानता था , हालाँमक मझु े पहले कभी उससे बात करने का मौका नहीं ममला था । मेरी चीख़ सनु कर उसने अपना घोड़ा रोक मलया और हाँफ़ते हुए जब मैंने एक हाथ से उसके हल को और दसू रे हाथ से उसकी कमीज़ के कोने को पकड़ा , तब उसने देखा मक मैं मकतना डरा हुआ था ।

वहाँ बहुत कुकुरमत्तु े होते थे । खमँु बयों को पाने के मलए आपको भोज-वृक्षों के जगं ल में जाना पड़ता था और मैं वहाँ जाने ही वाला था । परू ी दमु नया में मझु े और मकसी चीज़ से उतना प्यार नहीं था मजतना उस जगं ल से और उसमें पाई जाने वाली चीज़ों और जीव-जतं ओ ु ं से -- कुकुरमत्तु े और जगं ली बेर , भौंरे और रंग-मबरंगी मचमड़याँ , साही और मगलहररयाँ । जगं ल में ज़मीन पर मगरी नम , मरी पमत्तयों की गधं मझु े अच्छी लगती थी । इतनी अच्छी मक यह पमं क्त मलखते समय भी मैं भोज-वृक्षों के उस जगं ल की गधं को सँघू रहा हूँ । ये छमवयाँ जीवन भर मेरे साथ रहेंगी । उस गहरी मस्थरता के बीच अचानक मैंने स्पि रूप से मकसी के मचल्लाने की आवाज़ सनु ी -- " भेमड़या ! " यह सनु कर मैं बरु ी तरह डर गया और ज़ोर से चीख़तेमचल्लाते हुए मैं सीधा बीच के ख़ाली जगह में खेत जोत रहे उस मकसान की ओर भागा ।

" कहाँ है भेमड़या ? "

अरे , वह तो मारे य नाम का हमारा गल ु ाम मकसान था । मझु े नहीं पता मक ऐसा कोई नाम होता Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

" यहाँ कहीं एक भेमड़या है । " मैं हाँफ़ते हुए मचल्लाया । एक पल के मलए उसने अपना मसर चारो ओर ऐसे घमु ाया जैसे उसे मेरी बात पर लगभग यकीन हो गया हो ।

" कोई मचल्लाया था -- ' भेमड़या ' ... । " मैं हकलाते हुए बोला । " बकवास । मबल्कुल बेकार बात । भेमड़या ? अरे , वह तम्ु हारी कल्पना होगी ! यहाँ भेमड़या कै से हो सकता है ? " मझु े आश्वस्त करते हुए वह बोला । लेमकन मैं अभी भी डर के मारे थर-थर काँप रहा था और मैंने अभी भी उसकी कमीज़ का कोना पकड़ रखा था । मैं काफ़ी डरा हुआ लग रहा हूगँ ा । उसने मेरी ओर एक मफ़क्रभरी मस्ु कान दी । ज़ामहर है , मेरे कारि वह तनावग्रस्त और मचमं तत महससू कर रहा था । " अरे , तमु तो बेहद डर गए हो ! " वह मसर महलाते हुए बोला । " मेरे प्यारे बच्चे ... सब ठीक होगा ! " अपना हाथ आगे बढ़ा कर वह मेरे गालों को थपथपाने लगा । वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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" आओ , आओ ; ईश्वर सब ठीक करे गा । ईश्वर का नाम लो ! " लेमकन मैंने ऐसा नहीं मकया । मेरे महँु के कोने अब भी फड़क रहे थे , और उसने इसे देख मलया । उसने अपनी काले नाख़नू वाली मोटी , ममट्टी लगी उँगली आगे बढ़ाई और हल्के -से मेरे फड़कते हुए होठों को छुआ । " चलो , शाबाश , शाबाश , " माँ-जैसी कोमल , हल्की मस्ु कान देते हुए उसने कहा , " प्यारे बच्चे , कुछ नहीं होगा । चलो , शाबाश ! " आमख़र मैं समझ गया मक वहाँ कोई भेमड़या नहीं था , और जो चीख़ मैंने सनु ी थी वह महज़ मेरी कल्पना की उपज थी । हालाँमक वह चीख़ बेहद स्पि थी , पर मैं ऐसी चीख़ों ( के वल भेमड़यों के बारे में ही नहीं ) की कल्पना पहले भी एक-दो बार कर चक ु ा था । मैं यह बात जानता था । ( जैसे-जैसे मैं बड़ा होता गया , मेरे ये मनमल ाू भ्रम ख़त्म होते गए । ) " ठीक है , तो अब मैं चलँगू ा , " मैंने सहमी आवाज़ में उससे कहा । " ठीक है , मैं तम्ु हें जाते हुए दरू तक देखता रहूगँ ा । मैं भेमड़ये को तम्ु हारे पास नहीं आने दगँू ा । " वह अब भी माँ-जैसी कोमल मस्ु कान मबखेरता हुआ बोला , " ईश्वर तम्ु हारी रक्षा करें । चलो शाबाश , भागो । " मफर उसने ज़ोर से ईश्वर का नाम मलया । मैं हर दसवें कदम पर मड़ु कर पीछे देखते हुए आगे बढ़ने लगा । मारे य अपने घोड़े के साथ वहीं मस्थर खड़ा था । मजतनी बार मैं पीछे मड़ु कर उसे देखता , वह मसर महला कर मेरा हौसला बढ़ाता । मझु े यह मानना होगा मक मारे य के सामने खदु को इतना डरा हुआ पा कर मैं शममिंदा महससू कर रहा था । पर सच्चाई यही थी मक मैं अब Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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भी भेमड़ए के बारे में सोच कर डरा हुआ था । चलतेचलते उस सँकरी घाटी की आधी ढलान पार करके मैं पहले भसु ौरे तक पहुचँ ा । वहाँ पहुचँ कर मेरा डर परू ी तरह ग़ायब हो गया । उसी समय मेरा झबरा कुत्ता वॉल्तचोक पँछ ू महलाते हुए दौड़ कर मेरे पास पहुचँ ा । कुत्ते के आ जाने से मैं खदु को सरु मक्षत महसूस करने लगा । मैंने मड़ु कर अमं तम बार मारे य की ओर देखा । हालाँमक अब मझु े उसका चेहरा साफ़-साफ़ नहीं मदख रहा था , पर मझु े लगा जैसे वह अब भी मेरी ओर देख कर मसर महला रहा था और प्यार से मस्ु करा रहा था । मैंने उसकी ओर अपना हाथ महलाया । जवाब में उसने भी मेरी ओर अपना हाथ महलाया और मफर वह अपने घोड़े से मख़ ु ामतब हो गया , " चल, शाबाश ! " दरू वहाँ मैंने दोबारा उसकी आवाज़ सनु ी और मफर उसके घोड़े ने खेत जोतना शरू ु कर मदया । पता नहीं क्यों , मझु े ये सारी छोटी-छोटी बातें भी असाधारि रूप से अचानक याद आ गई ं । कोमशश करके मैं अपने मबस्तर पर उठ कर बैठ गया । मझु े याद है , अपनी स्मृमतयों के बारे में सोच कर मैंने स्वयं को चपु चाप मस्ु कराता हुआ पाया । मैं उस सब के बारे में थोड़ी देर और सोचता रहा । जब उस मदन मैं घर वापस आया तो मैंने मकसी को भी मारे य के साथ हुए अपने ' सक ं टपिू ा ' अनभु व के बारे में कुछ नहीं बताया । और सच कहूँ तो इसमें सक ं टपिू ा जैसा कुछ भी नहीं था । और वास्तमवकता यही है मक जल्दी ही मैं मारे य और इस घटना के बारे में भल ू गया । यदा-कदा जब भी मेरी उससे मल ु ाकात हो जाती तो मैं उससे भेमड़ये या उस मदन की घटना के बारे में कभी बात नहीं करता । पर बीस बरस बाद अचानक आज साइबेररया में मझु े मारे य के साथ हुई अपनी वह मल ु ाकात और उसकी एक-एक बात मबल्कुल स्पि रूप से याद आई । इस घटना की याद अवश्य ही मेरी आत्मा में कहीं मछपी वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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हुई थी , हालाँमक ऊपर-ऊपर से मझु े इसके बारे में कुछ भी नहीं पता था । और जब मझु े इसकी ज़रूरत महसूस हुई तो यह अचानक मेरी स्मृमत में परू ी मशद्दत से उठ खड़ी हुई । मझु े उस बेचारे गल ु ाम कृ र्षक के चेहरे पर मौजदू माँ-जैसी मृदु मस्ु कान याद आई , और यह भी याद आया मक कै से उसने अपनी उँगमलयों से मझु पर ईसाई धमा के क्रॉस का मचह्न बनाया तामक मैं हर मसु ीबत से बचा रहूँ । मझु े उसका यह कहना भी याद आया , " अरे , तमु तो बेहद डर गए हो । मेरे प्यारे बच्चे , सब ठीक होगा । " और मझु े मवशेर्ष रूप से ममट्टी लगी उसकी उँ गमलयाँ याद आई ं मजनसे उसने संकोचपिू ा कोमलता से भर कर मेरे फड़फड़ाते होठों को धीरे से छुआ था । यमद मैं उसका अपना बेटा रहा होता तो भी वह इससे अमधक स्नेह-भरी चमकती आँखों से मझु े नहीं देखता । और मकस चीज़ ने उसे ऐसा बना मदया था ? वह तो हमारा गल ु ाम कृ र्षक था और कहने के मलए मैं उसका छोटा मामलक था । वह मेरे प्रमत दयालु था , इस बात का पता न मकसी को चलना था , न ही कोई उसे इसके मलए इनाम देने वाला था । क्या शायद छोटे बच्चों से उसे बहुत प्यार था ? कुछ लोगों का स्वभाव ऐसा होता है । वीरान खेत में यह मझु से उसकी अके ली मल ु ाकात थी । शायद यह के वल ईश्वर ने ही ऊपर से देखा होगा मक एक रूसी गल ु ाम कृ र्षक का हृदय मकतने गहरे , मानवीय और सभ्य भावों से और मकतनी कोमल , लगभग मस्त्रयोमचत मृदतु ा से भरा था । यह वह गल ु ाम मकसान था मजसे अपनी आज़ादी का न कोई ख़्याल था , न उसकी कोई उम्मीद थी । क्या यही वह चीज़ नहीं थी जब कौंस्टैंमटन अक्साकोव ने हमारे देश के कृ र्षकों में मौजदू उच्च कोमट की मशिता और सभ्यता की बात की थी ? Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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और जब मैं अपने मबस्तर से उतरा और मैंने अपने चारो ओर देखा तो मझु े याद है , मझु े ऐसा महससू हुआ जैसे मैं इन दख ु ामों को मबल्कुल ु ी ग़ल अलग मकस्म की मनगाहों से देख सकता हूँ । जैसे अचानक मकसी चमत्कार की वजह से मेरे भीतर मौजदू सारी घृिा और क्रोध परू ी तरह ग़ायब हो गए थे । चलते हुए मैं ममलने वाले लोगों के चेहरे देखता रहा । वह मकसान मजसने दाढ़ी बना रखी है , मजसके चेहरे पर अपराधी होने का मनशान दाग मदया गया है , जो नशे में धत्तु कका श आवाज़ में गाना गा रहा है , वह वही मारे य हो सकता है । मैं उसके हृदय में झाँक कर नहीं देख सकता । उस शाम मैं एम. से दोबारा ममला । बेचारा ! उसकी स्मृमतयों और उसके मवचारों में रूसी मकसानों के प्रमत के वल यही भाव था -- " सब के सब डाकू-बदमाश हैं । " हाँ , पोलैंड के बमं दयों को मझु से कहीं ज़्यादा कटुता का बोझ उठाना पड़ रहा था । A-5001, गौड़ ग्रीन सि​िी, िैभि खंड, इसं दरापुरम, ग़ासज़याबाद – 201014 ( उ. प्र. ) मो : 8512070086 ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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प्रिािी िासहयय

सि​िे न के पररप्रेक्ष्य में प्रिािी िासहययकार एिं लेखक: एक पररचयायमक अध्ययन डॉ. उसमकला पोरिाल िेसिया बेंगलोर अनेक भारतीय ऐसे हैं जो भारत से इतर देशों में महदं ी रचना व मवकास के काम में लगे हुए हैं। इनमें दतू ावास के अमधकारी और मवदेशी मवश्वमवद्यालयों के प्राध्यापक तो हैं ही, अनेक सामान्य जन भी हैं जो मनयममत लेखन व अध्यापन से मवदेश में महदं ी को लोकमप्रय बनाने के काम में लगे हैं। मवदेश में रहने वाले महदं ी सामहत्यकारों का महत्व इसमलए बढ़ जाता है क्यों मक उनकी रचनाओ ं में अलग-अलग देशों की मवमभन्न पररमस्थमतयों को मवकास ममलता है और इस प्रकार महदं ी सामहत्य का अतं रा​ाष्ट्रीय मवकास होता है और समस्त मवश्व महदं ी भार्षा में मवस्तार पाता है। बीसवीं शती के मध्य से भारत छोड़ कर मवदेश जा बसने वाले लोगों की संख्या में काफी वृमद्ध हुई। इनमें से अनेक लोग महदं ी के मवद्वान थे और भारत छोड़ने से पहले ही लेखन में लगे हुए थे। ऐसे लेखक अपने अपने देश में चपु चाप लेखन में लगे थे पर उनमें से कुछ भारत में धमायगु जैसी पमत्रकाओ ं में प्रकामशत होकर काफी लोकमप्रय हुए, मजनका लोहा भारतीय सामहत्य संसार में भी माना गया। ऐसे सामहत्यकारों में उर्षा मप्रयंवदा और सोमावीरा के नाम सबसे पहले आते हैं। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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बीसवीं सदी का अतं होते होते लगभग १०० प्रवासी भारतीय अलग अलग देशों में अलग अलग मवधाओ ं में सामहत्य रचना कर रहे थे। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ होने तक पचास से भी अमधक सामहत्यकार भारत में अपनी पस्ु तकें प्रकामशत करवा चक ु े थे। वेब पमत्रकाओ ं का मवकास हुआ तो ऐसे सामहत्यकारों को एक खल ु ा मचं ममल गया और मवश्वव्यापी पाठकों तक पहुचँ ने का सीधा रास्ता भी। अमभव्यमक्त और अनभु मू त पमत्रकाओ ं में ऐसे सामहत्यकारों की सचू ी देखी जा सकती है मजसमें प्रवासी सामहत्यकारों के सामहत्य को रखा गया है। १० जनवरी २००३ को प्रवासी मदवस मनाए जाने के साथ ही मदल्ली में प्रवासी महदं ी उत्सव का श्रीगिेश हुआ। प्रवासी महदं ी उत्सव में ऐसे लोगों को रे खांमकत करने और प्रोत्सामहत करने के काम की ओर भारत की कें द्रीय और प्रादेमशक सरकारों तथा व्यमक्तगत सस्ं थाओ ं ने रुमच ली, जो मवदेश में रहते हुए महदं ी में सामहत्य रच रहे थे। भारत की प्रमख ु पमत्रकाओ ं जैसे वागथा, भार्षा और वतामान सामहत्य ने भी प्रवासी मवशेर्षाक ं प्रकामशत कर के इन सामहत्यकारों को भारतीय सामहत्य की प्रमख ु धारा से जोड़ने का काम मकया। इस तरह इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में आधमु नक सामहत्य के अतं गात प्रवासी महदं ी सामहत्य के नाम से एक नए यगु का प्रारंभ हुआ। इसी आधार पर प्रत्येक देश का अध्ययन कर उस में मनवास करने वाले और महदं ी की ममहमा में वृमद्ध करने वाले प्रवासी सामहत्यकारों का अध्ययन करने की प्रवृमत्त वतामान समय में सवात्र देखी जा सकती है इसी तारतम्य में मिटेन देश की सामहत्य वृमद्ध और लेखन परंपरा को समृद्ध करने वाले सम्मानीय सामहत्यकारों का अध्यन कर उनके बारे में संमक्षप्त रूप से पररचय देने के उद्देश्य से शोध आलेख लेखन प्रारंभ मकया गया और पररिाम स्वरुप अद्भुत और आियाजनक वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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पररिाम प्राप्त हुए वास्तव में महदं ी सामहत्य परंपरा प्रवासी सामहत्यकारों द्वारा मकतनी समृद्ध है यह इस शोध आलेख के अध्ययन के माध्यम से समझा जा सकता है प्रत्येक प्रवासी सामहत्यकार अपनी अपनी मवमवध प्रमतभा के माध्यम से सामहत्य को समृद्ध कर रहा है प्रत्येक सामहत्यकार के बारे में संमक्षप्त रूप से उनके योगदान के बारे में संमक्षप्त रूप से लेखन का पिू ा रुप ही यह शोध आलेख है।

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चररत्रों की सही मानमसकता की पकड़ और एक ऐसी भार्षा का प्रयोग जो चररत्रों और मस्थमतयों के अनक ु ूल होती है। उनके रे मडयो नाटकों में प्रवासी भारतीयों की दसू री एवं तीसरी पीढ़ी की मानमसकता एवं संघर्षा का भी सटीक मचत्रि देखने को ममलता है। बदा​ाश्त बाहर, सख ू ा हुआ समद्रु तथा मध्यांतर उनके चमचात कहानी संग्रह हैं। सरू ीनाम मवश्व महन्दी सम्मेलन में अचला शमा​ा को मिटेन के महन्दी सामहत्य में उत्कृ ि योगदान के मलए सम्मामनत मकया गया।

१) अचला शमा​ा लंदन मे रहने वाली भारतीय मल ू की महदं ी लेमखका है। उनका जन्म भारत के जालंधर शहर में हुआ तथा मशक्षा मदल्ली मवश्वमवद्यालय से प्राप्त की। वे लदं न प्रवास से पवू ा भारत में ही कहानीकार एवं कमव के रूप में स्थामपत हो गई थीं। रे मडयो से भी वे भारत में ही जड़ु चक ु ी थीं, बाद में वे लदं न में बी.बी.सी. रे मडयो की महन्दी सेवा से जड़ु ीं और अध्यक्ष के पद तक पहुचँ ीं। बीबीसी से जड़ु ने के पिात उनके व्यस्त जीवन में कहानी और कमवता जहाँ पीछे छूटते गये, वहीं हर वर्षा एक रे मडयो नाटक मलखना उनके दैमनक जीवन का महस्सा बन गया। इन रे मडयो नाटकों के दो सक ं लन `पासपोटा'[1] एवं `जड़ें'[2] के मलए उन्हें वर्षा २००४ के पद्मानदं सामहत्य सम्मान[3] से सम्मामनत मकया गया। ‘पासपोटा’ में बीबीसी महन्दी सेवा से प्रसाररत उन नाटकों को सक ं मलत मकया गया है मजनमें मिटेन में बसे भारतीय मल ू के प्रवासी अपनी पहचान को लेकर संभ्रम में मदखाई देते हैं और दोहरी या मचतकबरी संस्कृ मत जीतने पर मववश मदखाई देते हैं, जबमक ‘जड़ें’ में बीबीसी से प्रसाररत उन नाटकों को संकमलत मकया गया है मजनकी के न्द्रीय समस्याओ ं का सम्बन्ध भारत से है। अचला शमा​ा के लेखन की मवशेर्षता है मस्थमतयों की सही समझ, Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

२) उर्षा राजे सक्सेना यनु ाइटेड मकंगडम मे बसी भारतीय मल ू की लेखक है। वे भारत में भी काफी लोकमप्रय है। लक्ष्मीमल मसंघवी, कमलेश्वर, मशवमगं ल मसहं 'समु न', रामदरश ममश्र, महमाश ं ु जोशी, अशोक चक्रधर, मचत्रा मद्गु ल एवं हरीश नवल जैसे सामहत्यकारों ने समय-समय पर उर्षा राजे के सामहत्य की सराहना की है। कहानी, कमवता, लेख जैसी मवधाओ ं में उर्षा राजे ने अपनी एक शैली मवकमसत की है। मकमन्चत आलोचको के अनसु ार,् उनकी कहामनयों की एक पहचान है मक उन्हें यात्रा में कोई चररत्र ममलता है जो उन्हें या तो अपनी कहानी सनु ाता है या वो कुछ ऐसा कर जाता है मजससे उर्षा राजे को कहानी ममल जाती है। मकन्तु उनकी कहानी इससे भी कुछ अमधक है। प्रवास मे भारतीय सोच, जो सन्कीिाताओ से मक्त ु मकन्तु शाश्वत सत्यो से गथंु ी हुई है, सौम्यता, सहोदरता और मवश्व-बन्धत्ु व को साधारि से मवमशि होते हुए पात्रो के माध्यम से अमभव्यक्त करती है। उनकी कहानी मे सदयता के साथ, मानवीय सत्ता के प्रमत मवश्वास् और मवपरीत पररमस्थमत मे साहस उत्तर आधमु नक काल मे एक प्रकाश-स्तम्भ की भामत उभरते है। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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४) ममट्टी की सगु धं नामक कहानी संग्रह संपामदत कर उर्षा राजे सक्सेना ने यनु ाइटेड मकंगडम के कथाकारों को पहली बार एक संगमठत मचं प्रदान मकया। वे `परु वाई' पमत्रका की सह-संपामदका हैं। उर्षा राजे सक्सेना के सामहत्य पर भारत में एम. मफल. की जा चक ु ी है। उर्षा राजे सक्सेना की नवीनतम पस्ु तक मिटेन में महन्दी ने पहली बार य॰ू के ॰ में महन्दी भार्षा और सामहत्य को एक ऐमतहामसक पररपेक्ष्य में रखने का प्रयास मकया है। उनकी इस पस्ु तक का भारत एवं मिटेन में समान स्वागत हुआ है।

३) उर्षा वमा​ा मिटेन मे बसी भारतीय मल ू की लेखक है। राजधानी लदं न की चहल-पहल से दरू यॉका जैसे छोटे शहर में रहते हुए सामहत्य साधना में लगी हुई उर्षा वमा​ा का रचना ससं ार छोटा है, पर वह मानव मनोमवज्ञान से सपु ररमचत एक मसद्धाथा लेमखका हैं। उनकी मसमद्ध का आधार मानवीय करुिा और अन्याय के प्रमत तीका मवरोध का भाव है। उनकी कमवताएं तथा कहामनयां सजीव और सस्पदं हैं, मजनमें प्रश्न है, पीड़ा है और एक ईमानदार पारदशी अमभव्यमक्त है। सामहत्य अमृत, समकालीन भारतीय सामहत्य, आजकल, कथन, कादमम्बनी आमद पमत्रकाओ ं में आपकी कमवताएं तथा कहामनयां छपती रहती हैं। आप `परु वाई' में समीक्षा कॉलम मलखती हैं। उनके द्वारा संपामदत कहानी संग्रह सांझी कथा यात्रा की काफ़ी चचा​ा रही है।

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

कादबं री मेहरा का नाम मिटेन के उन प्रवासी कथाकारों के साथ मलया जाता हैं मजन्होंने मपछले दशक में अपनी उपमस्थमत से समस्त महदं ी सामहत्यकारों का ध्यान अपनी ओर खींच। उनके लेखन की शरु​ु आत वारािसी के 'आज' अखबार से हुई और बाद में वे स्कूल व कॉलेज की सामहमत्यक गमतमवमधयों से जडु ी रहीं।

अग्रं ेजी सामहत्य से स्नातकोत्तर उपामध लेने के बाद वे लंदन चली गयीं जहां अध्यापन को अपना कायाक्षेत्र बनाया और 25 वर्षों तक इससे जडु ी रहीं।

अवकाश प्रामप्त के बाद अब मफर से कहानी और उपन्यास की दमु नया में प्रवेश मकया है। 'कुछ जग की' शीर्षाक से उनका एक कहानी सग्रं ह भी प्रकामशत हुआ है।

५) जन्म- १ जनवरी, १९३४ को उत्तर प्रदेश के उन्नाव मज़ले के नईमपरु गाँव में एक कायस्थ पररवार में उनका जन्म हुआ था। कीमता चौधरी का मल ू नाम कीमता बाला मसन्हा था। मशक्षा- उन्नाव में जन्म के कुछ बरस बाद उन्होंने पढ़ाई के मलए कानपरु का रुख़ मकया। १९५४ में एम.ए. करने के बाद 'उपन्यास के कथानक तत्व' जैसे मवर्षय पर उन्होंने शोध भी मकया। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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कायाक्षेत्र- सामहत्य उन्हें मवरासत में भी ममला और मफर जीवन साथी के साथ भी सामहत्य, संप्रेर्षि जड़ु े रहे। उनके मपता ज़मींदार थे और माँ, समु मत्रा कुमारी मसन्हा जानी-मानी कवमयत्री, लेमखका और गीतकार थीं। तीसरा सप्तक’ (1960) के संपादक अज्ञेय ने 60 के दशक में प्रयाग नारायि मत्रपाठी, के दारनाथ मसंह, कँु वर नारायि, मवजयदेव नारायि साही, सवेश्वर दयाल सक्सेना और मदन वात्स्यायन जैसे सामहत्यकारों के साथ कीमता चौधरी को भी तीसरा सप्तक का महस्सा बनाया। मनधन- १३ जनू २००८ को लंदन में उनका देहांत हो गया।

६) गोमवन्द शमा​ा लदं न मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। श्री गोमवन्द शमा​ा को हाल ही में लदं न के हाउस ऑफ़ लाडास में उनकी मफ़ल्मी पटकथा पर मलखी गई पस्ु तक के मलये पद्मानदं सामहत्य सम्मान 2006 से सम्मामनत मकया गया। गोमवन्द शमा​ा ने महन्दी मफ़ल्मों पर मलखे अपने लेखों को सामहत्यक स्तर प्रदान करने का भरपरू एवं सफल प्रयास मकया है। उनका मानना है मक बॉलीवडु का पटकथा लेखन हॉलीवडु से एकदम मभन्न है।

७) ज़मकया ज़बु ैरी (१ अप्रैल १९४२) मिटेन की प्रवासी महन्दी लेमखका और राजनमयक हैं। उन्होंने भारत एवं पामकस्तान की अनेक सामहमत्यक एवं सांस्कृ मतक संस्थाओ ं के मवकास का काम मकया है। उनका जन्म लखनऊ में हुआ और बचपन आज़मगढ़ में बीता। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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प्रारंमभक मशक्षा आज़मगढ़ की सरकारी कन्या पाठशाला में हुई। सातवीं कक्षा के बाद इलाहाबाद के सरकारी स्कूल में पढ़ाई हुई। इटं रमीमडयेट में अपने महामवद्यालय की यमू नयन की अध्यक्ष बनीं और बनारस महदं ू मवश्वमवद्यालय से स्नातक की मडग्री प्राप्त की। उन्हें बचपन से ही मचत्रकला एवं कमवता व कहानी मलखने का शौक रहा है। वे लंदन में एमशयन कम्यमू नटी आट्ास नाम की संस्था की अध्यक्षा हैं मजसके द्वारा वे नृत्य, संगीत, गीत एवं लेखन क्षेत्र में बहुत से नये नताकों, गायकों, एवं लेखकों को लंदन में मचं प्रदान कर चक ु ी हैं। वे भारत एवं पामकस्तान से लंदन आने वाली सामहमत्यक एवं सांस्कृ मतक हमस्तयों के सम्मान में समारोह आयोमजत और कथा य॰ू के ॰ के साथ ममल कर अनेक कायाक्रमों का आयोजन भी करती हैं। वे मिटेन की लेबर पाटी के समक्रय सदस्या हैं। लेबर पाटी के मटकट पर आप दो बार चनु ाव जीत कर काउंसलर मनवा​ामचत हो चक ु ी हैं। वतामान में वे लदं न के बारनेट ससं दीय क्षेत्र के कॉमलडं ेल वाडा की पहली और एकमात्र ममु स्लम ममहला काउंसलर हैं।

८) डॉ॰ कृ ष्ट्ि कुमार बममिंघम मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। में डॉ॰ कृ ष्ट्ि कुमार एक लम्बे असे से भारतीय भार्षाओ ं की ज्योमत `गीताजं मल बहुभार्षी समाज' के माध्यम से जगाये हुए हैं। गीताजं मल मिटेन की एकमात्र ऐसी संस्था है जो भारत की तमाम भार्षाओ ं को साथ लेकर चलने का प्रयास करती है। डॉ॰ कुमार 1999 के मवश्व महन्दी सम्मेलन, लंदन के अध्यक्ष भी थे। डॉ॰ कुमार की कमवताएं गहराई और अथा का संगीतमय ममश्रि होती हैं। मवचार उनकी कमवताओ ं पर हावी रहता है। उन्हें एक अथा में यमद वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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कमवयों का कमव कहा जाय तो शायद गलत न होगा क्योंमक गीतांजमल के माध्यम से वे बममिंघम के कमवयों कवमयमत्रयों को एक नई राह भी मदखा रहे हैं। उनके अब तक दो कमवता संग्रह प्रकामशत हो चक ु े हैं। गीतांजमल के सदस्यों में मवमभन्न भारतीय भार्षाओ ं के कमव शाममल हैं। अजय मत्रपाठी, स्विा तलवार, रमा जोशी, चंचल जैन, मवभा के ल आमद काफी असे से कमवता मलख रहे हैं। मप्रयंवदा देवी ममश्र की रचनाओ ं में महादेवी वमा​ा का प्रभाव साफ महससू मकया जा सकता है।

९) डॉ॰ पद्मेश गप्तु मिटेन मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। डॉ॰ पद्मेश गप्तु ने य॰ू के ॰ महन्दी समममत एवं `परु वाई' पमत्रका के माध्यम से महन्दी को इस देश में प्रमतमष्ठत करने में महत्त्वपिू ा भमू मका मनभाई है। वे स्वयं मल ू त: कमव हैं लेमकन बीच-बीच में कहामनयां भी मलख लेते हैं। कथा य॰ू के ॰ की कथा गोष्ठी में कहानी पाठ भी कर चक ु े हैं। कृ मत य॰ू के ॰ द्वारा आयोमजत एक प्रमतयोमगता में (मजसके मनिा​ायक भारत और अमरीका से थे) डॉ॰ पद्मेश गप्तु को कमवता में प्रथम एवं कहानी में मद्वतीय स्थान ममला। पद्मेश की कमवताओ ं की मवशेर्षता यह है मक वे पढ़ने में भी उतना ही प्रभामवत करती हैं मजतनी मक सनु ने में। उनकी कमवताएं समकालीन मवर्षयों को उठाती हैं और बहुत से नए मबम्ब भी प्रस्ततु करती हैं।

१०) डॉ॰ महेन्द्र वमा​ा मिटेन मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। यॉका मवश्वमवद्यालय में डॉ॰ महेन्द्र वमा​ा Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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महन्दी का बीड़ा उठाए हुए हैं। 1999 के मवश्व महन्दी सम्मेलन के किाधारों में से एक महेन्द्र वमा​ा कमवता भी करते हैं। वे मिटेन के एकमात्र ऐसे प्राध्यापक हैं मजन्होंने मवश्वमवद्यालय में महन्दी के कथाकारों को मनममं त्रत करके वहां कायाशालाएं करवाई हैं। स्थानीय महन्दी लेखक एवं मवद्यामथायों के बीच यह एक अनठू ा अनभु व पैदा करता है।

११) तेजद्रें शमा​ा जन्म 21 अक्टूबर 1952 (आयु 64 वर्षा) जगरांव, पंजाब, भारत उपजीमवका कहानीकार, नाटककार, कमव, लेखक राष्ट्रीयता मिटेन मवर्षय सामहत्य प्रमख ु परु स्कार डॉ॰ मोटूरर सत्यनारायि सम्मान (२०११) हररयािा राज्य सामहत्य अकादमी सम्मान (२०१२)[1] डॉ॰ हररवश ं राय बच्चन सम्मान (२००८) अतं रराष्ट्रीय स्पदं न कथा सम्मान (२०१४) तेजद्रें शमा​ा (जन्म २१ अक्टूबर १९५२)[2] मिटेन में बसे भारतीय मल ू के महदं ी कमव लेखक एवं नाटककार है।[3][4] इनका जन्म 21 अक्टूबर 1952 में पंजाब के जगरांव शहर में हुआ। तेजन्े द्र शमा​ा की स्कूली पढ़ाई मदल्ली के अधं ा मग़ु ल क्षेत्र के सरकारी स्कूल में हुई। मदल्ली मवश्वमवद्यालय से अग्रं ेजी मवर्षय में एम.ए. तथा कम्प्यटू र में मडप्लोमा करने वाले तेजन्े द्र शमा​ा महन्दी, अग्रं ेजी, पंजाबी, उदाू तथा गजु राती भार्षाओ ं का ज्ञान रखते हैं।[5] उनके द्वारा मलखा गया धारावामहक 'शांमत' दरू दशान से १९९४ में अतं रा​ाष्ट्रीय लोकमप्रयता प्राप्त कर चक ु ा है। अन्नू कपरू मनदेमशत मफ़ल्म 'अमय' में नाना पाटेकर के साथ उन्होंने प्रमख ु वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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भमू मका मनभाई है। वे इदं ु शमा​ा मेमोररयल रस्ट के संस्थापक तथा महदं ी सामहत्य के एकमात्र अंतरा​ाष्ट्रीय सम्मान इन्दु शमा​ा अतं रा​ाष्ट्रीय कथा सम्मान प्रदान करनेवाली संस्था 'कथा य॰ू के ॰' के समचव हैं।

प्रकामशत कृ मतयाँ कहानी संग्रह- काला सागर[6], मढबरी टाईट[7], देह की कीमत[8], ये क्या हो गया[9], पासपोटा के रंग, बेघर आख ं ें[10], सीधी रे खा की परतें[11], कि का मनु ाफा[12], प्रमतमनमध कहामनयां[13] मेरी मप्रय कथाए[ं 14], दीवार में रास्ता[15]

कमवता एवं गजल संग्रह- ये घर तम्ु हारा है[16]

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देशान्तर- प्रवासी कहानी संग्रह (मदल्ली महन्दी अकादमी-2012) दो वर्षा तक मिटेन से प्रकामशत होने वाली पमत्रका परु वाई का संपादन। परु स्कार व सम्मान भारत मेंके न्द्रीय महन्दी संस्थान, आगरा का डॉ॰ मोटूरर सत्यनारायि सम्मान-२०११[17][18] य.ू पी. महन्दी संस्थान का प्रवासी भारतीय सामहत्य भर्षू ि सम्मान-२००३ हररयािा राज्य सामहत्य अकादमी सम्मान२०१२[19]

अनमू दत सामहत्य- मढबरी टाइट नाम से पजं ाबी (2004), पासपोटा का रंगहरू नाम से नेपाली (2006), ईटों​ं का जगं ल नाम से उदाू (2007) में उनकी अनमू दत कहामनयों के सग्रं ह प्रकामशत हुए हैं।

मढबरी टाइट के मलये महाराष्ट्र राज्य सामहत्य अकादमी परु स्कार-१९९५ प्रधानमत्रं ी श्री अटल मबहारी वाजपेयी के हाथों

सपं ादन

सपु थगा सम्मान-१९८७

समद्रु पार रचना ससं ार-2008(21 प्रवासी लेखकों की कहामनयों का सक ं लन)

प्रथम संकल्प सामहत्य सम्मान- मदल्ली (२००७)

यहाँ से वहाँ तक-2006 (मिटेन के कमवयों का कमवता सग्रं ह)

सहयोग फ़ाउंडेशन का यवु ा सामहत्यकार परु स्कार१९९८

मततली बाल पमत्रका का सामहत्य सम्मान - बरे ली (२००७) मवदेश में-

मिटेन में उदाू कलम-2010 समद्रु पार महन्दी ग़ज़ल-2011 प्रवासी संसार कथा मवशेर्षांक-2011 सृजन संदभा पमत्रका का प्रवासी सामहत्य मवशेर्षांक2012

भारतीय उच्चायोग, लन्दन द्वारा डॉ॰ हररवश ं राय बच्चन सम्मान (२००८)

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

कृ मत य॰ू के ॰ द्वारा वर्षा २००२ के मलये बेघर आख ं ें को सवाश्रेष्ठ कहानी का परु स्कार


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अतं रराष्ट्रीय स्पंदन कथा सम्मान (२०१४)[20]

१२) तोर्षी अमृता मिटेन मे बसी भारतीय मल ू की महदं ी लेखक है। तोर्षी अमृता शृगं ार रस की कवमयत्री हैं। उनके गीतों में प्रेम एवं शृगं ार मख ु र रूप से मदखाई देते हैं। उनकी भार्षा सरल, पठनीय एवं सरु ीली होती है। वैसे उन्होंने कुछ छुटपटु कहामनयां भी मलखी हैं लेमकन मल ू त: वे गीतकार हैं और महन्दी सामहत्य को कुछ सन्ु दर से प्रेमगीत देने की तैयारी में हैं।

१३) मदव्या माथरु मिटेन मे बसी भारतीय मल ू की महदं ी लेखक है। कमवता और कहानी समान रूप से मलखती रही हैं। उनके कहानी सग्रं ह `आक्रोश' के मलए उन्हें वर्षा 2001 का पद्मानदं सामहत्य सम्मान प्राप्त हो चक ु ा है। उनकी कमवताओ ं में जहां तीखा क्षोभ है, वहीं माममाकता भी है, सवं दे नशील बनु ावट है तो भावात्मक कसावट भी है। उनके कहानी सग्रं ह में सग्रं महत अमधकतर ररश्तों और मस्थमतयों में मपस रही औरत की कहामनयां हैं। उनके रचना ससं ार में सास और पमत आमतौर पर ज़ल्ु म का प्रतीक बनकर उभरते हैं। उनकी कहामनयों का अनवु ाद कई भार्षाओ ं में हुआ है। उनकी कहामनयों एवं कमवताओ ं को भी कई सक ं लनों में शाममल मकया गया है। उनके अब तक चार कमवता सग्रं ह प्रकामशत हो चक ु े हैं। भारत में उनके रचना ससं ार पर एम. मफल. भी की जा चक ु ी है। सामहत्य रचने के अमतररक्त मदव्या माथरु `वातायन' संस्था की अध्यक्षा, `य॰ू के ॰ महन्दी समममत' की उपाध्यक्षा एवं `नेहरू के न्द्र' की कायाक्रम अमधकारी हैं। Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

देश-मवदेश के बीच आवागमन करती कहामनयां मदव्या माथरु प्रवासी महदं ी लेखन की प्रमतमनमध रचनाकार हैं। मैमथलीशरि गप्तु प्रवासी लेखन सम्मान से सम्मामनत मदव्या जी की सामहमत्यक प्रमतभा गद्य और पद्य दोनों मवधाओ ं में समानांतर रूप से गमतशील है। मदव्या जी 1984 में भारतीय उच्चायोग से जड़ु ी और 1992 से नेहरु कें द्र में वररष्ठ कायाक्रम अमधकारी के पद पर कायारत हैं। लंदन में बसे प्रवासी भारतीय लेखकों के बीच मदव्या जी अह्म स्थान रखती हैं। उनके सद्य प्रकामशत कहानी संग्रह ‘2050 तथा अन्य कहामनयां’ में संकमलत कहामनयां देश और मवदेश के बीच के पररवेश को सामने लाती हैं। इन कहामनयों का कथ्य भारत तथा लंदन दोनों देशों से जड़ु कर बनता है। प्रवासी जीवन सख ु द और आकर्षाक लगता है। परंतु इन कहामनयों में प्रवासी जीवन की जो मवड़म्बनायें मचमत्रत हुई हैं, वे मवदेश के प्रमत हमारे मोह को तोड़ती हैं और स्वदेश से जोड़ती हैं। अथाकेंद्रीत पाररवाररक तथा सामामजक सरं चना की जकड़न में सवं दे नाओ ं और भावनाओ ं का दम घटु ने लगता है तो हमें देश और मवदेश का फका साफ-साफ मदखाई देता है। यह फका मदव्या जी की कहामनयों में प्रमख ु ता से उद्घामटत हुआ है। ये कहामनयां इस ममथक को भी तोड़ती हैं मक सेक्सअ ु ल इमं डपेडेंसी सेक्स अपराध को रोकती है। ‘वैलेन्टाइन्स डे’ और ‘नीली डायरी’ जैसी कहामनयां इस सदं भा में उल्लेखनीय हैं। ‘मफक्र’ में अपनी दसू री मां के प्रमत बेटी की घृिा प्रकट हुई है। ‘परु​ु और प्राची’ कहानी बाजारवादी शमक्तयों द्वारा मनष्ट्ु य को गल ु ाम बनाये जाने को रे खांमकत करती है। झठू ी प्रमतष्ठा और शान के मलए अपना सब कुछ दांव पर लगा देने वाले बद्रीनारायि ओसवाल और उसके पत्रु -पत्रु वधू चंद्रमा की यात्रा पर चले तो जाते हैं परंतु इस यात्रा में मसवाय खीझ और दख ु के उन्हें कुछ नहीं ममलता। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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‘वैलेन्टाइन्स-डे’ मांसल प्रेम पर चोट करती है। ‘फै सला’ की भारतीय सास अपनी मिमटश बहू से सांमजस्य नहीं मबठा पाती। पत्रु और मां दोनों ही मिमटश बहू के प्रमत दरु ाग्रहों से ग्रस्त हैं जबमक रे चल अपने पमत और सास के प्रमत सममपात रहती है। अन्ततः सास अमृत को अपनी गलती का अहसास होता है और वह अपने बेटे-बहू से माफी मांग लेती है। कहामनयों में महन्दी, अग्रं ेजी और पंजाबी तीन भार्षाओ ं का मममश्रत सौंदया पाठकों को आकमर्षात करता है। महदं ी भार्षा की शमक्त, सामथ्या तथा संप्रेर्षनीयता को एक प्रवासी लेमखका द्वारा मजस अदं ाज में बयान मकया गया है, वह प्रशसं नीय है। ‘सौ सनु ार की’ शीर्षाक कहानी का संवाद महु ावरों-लोकोमक्तयों में चलता है। यह सवं ाद न के वल कथा को रोचक तथा सरस बनाता है अमपतु महन्दी के दजानों महु ावरोंलोकोमक्तयों को सदं भा समहत प्रस्ततु करता है। इन कहामनयों में प्रफ ू सश ं ोधन का अभाव है। वतानी तथा वाक्य अशमु द्ध के साथ कहीं-कहीं शब्दों का अनावश्यक प्रयोग ममलता है। इन त्रमु टयों के प्रमत प्रकाशक तथा लेमखका दोनों को सचेत रहने की आवश्यकता है। सग्रं ह की शीर्षाक कहानी ‘2050’ प्रजामत-भेद पर आधाररत श्रेष्ठ कहानी है। तथाकमथत आधमु नक देशों में नस्ल और रंग-रूप के आधार पर होने वाले भेदभाव को मजस काल्पमनक शैली में उभारा गया है, वह दशानीय है। कहानी के एमशयन दपं मत ऋचा और वेद बच्चा पैदा करना चाहते हैं परंतु समाज सरु क्षा पररर्षद के अमधकारी उन्हें अनमु मत नहीं देते। भावी पीढ़ी को परफै क्ट बनाने की बात कहकर समाज सरु क्षा पररर्षद एमशयन जोडों को बच्चा पैदा करने की अनमु मत नहीं देती जबमक उनके अपने नागररकों के मलए मनयमों में काफी छूट है। ऋचा द्वारा अमधकाररयों को मनाने की तमाम कोमशशें असफल रहती है। अवसादग्रस्त ऋचा जब आत्महत्या की

इच्छा जताती है तो अमधकाररयों द्वारा उसे आत्महत्या परामशा पररर्षद का पता बता मदया जाता है। कहानी उत्तर आधमु नक सभ्यता के खोखलेपन तथा नस्लवाद के मघनौने यथाथा को उभारती है। मदव्या जी की इन कहामनयों में परंपरा और आधमु नकता तथा प्रेम और सेक्स के बीच के अतं र को दशा​ाया गया है। लेमखका सेक्स और आधमु नकता को तटस्थ रहकर व्यक्त करती हैं, वे अपनी मनजी सोच और मवचारधारा से घटनाओ ं को संचामलत नहीं करती, अमपतु कथानक को अपने जीवतं रूप से आकार लेने की स्वतंत्रता देती हैं। मदव्या जी न तो यथाथा के प्रमत आग्रहशील हैं, न ही आदशा थोपना उनकी नीयत है। इस संग्रह की सभी कहामनयां इस कसौटी पर खरी उतरती हैं।

Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

१४) नरे श भारतीय (नरे श अरोड़ा) मिटेन मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। एक लम्बे असे से बी.बी.सी. रे मडया महन्दी सेवा से जड़ु े रहे। उनके लेख भारत की प्रमख ु पमत्रकाओ ं में प्रकामशत होते रहे हैं। पस्ु तक रूप में उनके लेख सग्रं ह `उस पार इस पार' के मलए उन्हें पद्मानदं सामहत्य सम्मान (2002) प्राप्त हो चक ु ा है। उनके इस सक ं लन की मवशेर्षता यह है मक उनके जो लेख पहले पमत्रकाओ ं में प्रकामशत हो चक ु े थे उन्होंने सक ं लन में आवश्यक बदलाव करने में कोई गरु े ज़ नहीं मकया। महन्दी लेखकों के मलए यह एक अनक ु रिीय कदम है। वर्षा 2003 में आतंकवाद पर उनकी पस्ु तक `आतंकवाद' प्रकामशत हुई है। नरे श भारतीय कमवता भी मलखते हैं मकन्तु लेख उनकी मप्रय मवधा है। नरे शजी मकसी भी प्रकार की सामहमत्यक राजनीमत से दरू मनरंतर लेखन में व्यस्त रहते हैं। उनके पहले उपन्यास मदशाए बदल गई का मवमोचन भारत की राजधानी मदल्ली में मकया गया।


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१५) मनमखल कौमशक मिटेन मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। वेल्स मनवासी मनमखल कौमशक पेशे से डॉक्टर हैं लेमकन उनका व्यमक्तत्व कमवतामय ही है। उनके अब तक दो कमवता संग्रह प्रकामशत हो चक ु े हैं। उनकी कमवताओ ं में नॉस्टेलमजया मौजदू है तो इस देश की समस्याओ ं की परू ी पकड़ भी। उनकी कमवताओ ं में व्यंनय की एक पैनी धार महससू की जा सकती है। मनमखल कमव सम्मेलनों में अपनी कमवताओ ं को अपनी सरु ीली आवाज़ में गाकर भी सनु ाते हैं। मनमखल मसनेमा को भी सामहत्य की एक धारा ही मानते हैं। हाल ही में उन्होंने एक चलमचत्र का मनमा​ाि भी मकया है मजसके वे मनमा​ाता, मनदेशक, लेखक, गीतकार सभी कुछ हैं। १६) प्रमतभा डावर मिटेन में बसी भारतीय मल ू की महदं ी लेखक है। लदं न में प्रमतभा डावर ने दो उपन्यासों की रचना की है : `वह मेरा चादं ' एवं `दो चम्मच चीनी के '।

ISSN: 2454-2725

मलखी थी। भारत के सामहत्य से पमत्रकाओ ं के जररए ररश्ता बनाए रखने वाले प्राि शमा​ा अपने ममत्र एवं सहयोगी श्री राममकशन के साथ कॉवेन्टरी में कमव सम्मेलन एवं मश ु ायरा भी आयोमजत करते हैं। उन्हें कमवता, कहानी और उपन्यास की गहरी समझ है। १७) कै लाश बधु वार मिटेन मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। अब तक के एकमात्र भारतीय हैं जो बी.बी.सी. रे मडयों में महन्दी एवं तममल मवभागों के अध्यक्ष रह चक ु े हैं। एक लम्बे असे तक बी.बी.सी. रे मडयो में काम करने के पश्र्चात आजकल समक्रय अवकाश प्राप्त जीवन जी रहे हैं। लंदन का शायद ही कोई ऐसा कायाक्रम होगा मजसमें मशरकत या अध्यक्षता कै लाशजी न कर चक ु े हों। महन्दी के यह कमाठ मसपाही कमवता भी मलखते हैं और मचं पर कमव सम्मेलनों का सच ं ालन भी करते हैं। मचं से उनका ररश्ता पृथ्वी मथयेटर के मदनों से है। पापाजी पृथ्वीराज कपरू का असर उनके रे मडयो प्रसारि एवं नाटक दोनों ही क्षेत्रों में महससू मकया जा सकता है।

१७) प्राि शमा​ा मिटेन में बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। कॉवेन्टरी के प्राि शमा​ा मिटेन में महन्दी ग़ज़ल के उस्ताद शायर हैं। प्रािजी बहुत मशद्दत के साथ मिटेन के ग़ज़ल मलखने वालों की ग़ज़लों को पढ़कर उन्हें दरु​ु स्त करने में सहायता करते हैं। महन्दी ग़ज़ल पर उनका एक लंबा लेख चार-पांच मकश्तों में ‘परु वाई’ में प्रकामशत हो चक ु ा है। कुछ लोगों का कहना है मक मिटेन में पहली महन्दी कहानी शायद प्राि शमा​ा ने ही Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

१८) भारतेन्दु मवमल मिटेन मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। उपन्यास `सोन मछली' के लेखक भारतेन्दु मवमल बी.बी.सी. रे मडयो से जड़ु े हैं। कमलेश्वरजी ने इस उपन्यास को गटर गगं ा की संज्ञा देते हुए इस उपन्यास की भमू मका में इसकी भरू र-भरू र प्रशसं ा की है। भारतेन्दु मवमल ग़ज़ल एवं कमवता भी मलखते हैं। वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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मबंु ई के मफल्म जगत से जड़ु े मवमलजी को वर्षा 2003 के मलए अपने उपन्यास `सोन मछली' के मलए पद्मानंद सामहत्य सम्मान प्राप्त हो चक ु ा है। वे मकसी भी गटु बाज़ी या वाद-मववाद का महस्सा नहीं बनते और मकसी शांत कोने में आराम से अपना काम करते रहते हैं। मवमलजी मिटेन भर के बहुत से कमव सम्मेलनों का कुशल संचालन भी कर चक ु े हैं।

कमवताएँ मस्थमतयों पर तात्कामलक प्रमतमक्रया मात्र नहीं होती हैं। वे पहले अपने भीतर के कमव और कमवता के मवर्षय में एक तटस्थ दरू ी पैदा कर लेते हैं। मफर होता है सशक्त भावनाओ ं का नैसमगाक मवस्फोट। उनकी कमवता पढ़कर महससू होता है मक जैसे वे सच की एक मनरंतर खोज यात्रा कर रहे हों।[1][2]

१९)

कमव-आलोचक नंदमकशोर आचाया के अनसु ार महदं ी कमवता की नई पीढ़ी में मोहन रािा की कमवता अपने उल्लेखनीय वैमशिय के कारि अलग से पहचानी जाती रही है, क्योंमक उसे मकसी खाते में खमतयाना संभव नहीं लगता। यह कमवता यमद मकसी मवचारात्मक खाँचे में नहीं अँटती तो इसका यह अथा नहीं मलया जाना चामहए मक मोहन रािा की कमवता मवचार से परहेज करती है – बमल्क वह यह जानती है मक कमवता में मवचार करने और कमवता के मवचार करने में क्या फका है। मोहन रािा के मलए काव्य रचना की प्रमक्रया अपने में एक स्वायत्त मवचार प्रमक्रया भी है।[1]

महावीर शमा​ा (२० अप्रैल १९३३-१७ नवम्बर २०१०) आप्रवासी महदं ी लेखक थे, मजन्होंने मिटेन को अपना कायाक्षेत्र बनाया। उन्होंने महदं ी में एम.ए. मकया तथा लंदन यमू नवमसाटी तथा िाइटन यमू नवमसाटी में मॉडना गमित, ऑमडयो मवज़अ ु ल एड्स तथा स्टमटमस्टक्स की मशक्षा ली। उन्होंने उदाू भी पढ़ी थी और वे कुशल गजलकार के रूप में भी जाने जाते थे।

२०) जन्म 9 माचा 1964 (आयु 53 वर्षा) मदल्ली, भारत

प्रकामशत कृ मतयाँ सपं ामदत करें

नस्ल भारतीय व्यवसाय कमव

कमवता सग्रं ह-

मोहन रािा का जन्म 1964 में मदल्ली में हुआ। वे मिटेन में बसे भारतीय मल ू के महदं ी कमव हैं और बाथ (इनं लैंड की समरसेट काउंटी में एक रोमन शहर) में मनवासी हैं।[1]}} उनकी कमवताओ ं में जीवन के सक्ष्ू म अनभु व महससू मकये जा सकते हैं। बाज़ार संस्कृ मत की शमक्तयों के मवरुद्ध उनकी सोच भी कमवता में उभरकर सामने आती है।[1] उनकी

'जगह' (1994), जयश्री प्रकाशन

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'जैसे जनम कोई दरवाजा' (1997), साराश ं प्रकाशन 'सबु ह की डाक' (2002), वािी प्रकाशन ‘इस छोर पर' (2003), वािी प्रकाशन वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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'पत्थर हो जाएगी नदी' (2007), सयू ा​ास्त्र 'धपू के अँधेरे में' (2008), सयू ा​ास्त्र ‘रे त का पल ु ’ (2012), अमं तका प्रकाशन 'शेर्ष अनेक' (2016), कॉपर कॉइन पमब्लमशगं प्रा. मल.

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समान अमधकार रखती हैं। उनके लेखन का कै नवस अत्यंत मवस्तृत है। उनकी कहामनयां मानव मन की सक्ष्ू म अमभव्यंजना प्रस्ततु करती हैं तो कमवताएं अपनी एक मवशेर्ष छाप छोड़ती हैं। उनके लेखन में बनारस की ताज़गी और मिटेन की समझ दोनों की झलक देखी जा सकती है। उनका एक कहानी संग्रह 'ध्रवु तारा' और एक कमवता संग्रह 'सममधा' प्रकामशत हो चक ु ा है।

अग्रं ेजी में अनवु ामदत कमवता सग्रं हप्रकामशत कृ मतयाँ 'With Eyes Closed' (मद्वभार्षी संग्रह, अनवु ादक लसू ी रोजेंश्ताइन) 2008 ‘Poems’ (मद्वभार्षी संग्रह, अनवु ादक - बना​ाडा ओ डोनह्यू और लसू ी रोज़ेंश्ताइन) 2011

कहानी-सग्रं ह :'ध्रवु -तारा' काव्य-संग्रह 'सममधा' व 'नेमत-नेमत' २३)

२१) रमेश पटेल मिटेन मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। वर्षा 2006 में अपने जीवन के 70 वर्षा परू े करने वाले रमेश पटेल प्रेमोमी मिटेन में भारतीय संगीत और कला के सच्चे राजदतू माने जा सकते हैं। `नव कला' नामक संस्था की स्थापना कर लंदन में भारतीय कलाकारों को अपनी कला का प्रदशान करने का मौका दे चक ु े हैं। उनका रमचत काव्य संग्रह `हृदय गंगा' नौ भार्षाओ ं में प्रकामशत हो चक ु ा है। उसके अमतररक्त उनका एक गीत सग्रं ह भी प्रकामशत हुआ है। रमेश पटेल के गीतों में प्रेम एवं भमक्त रस की प्रधानता है।

२२) शैल अग्रवाल (जन्म २१ जनवरी १९४७)[1]) मिटेन मे बसी भारतीय मल ू की महदं ी लेखक है। उनका जन्म बनारस में हुआ था। वे गद्य एवं पद्य दोनों मवधाओ ं में Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

सत्येन्द्र श्रीवास्तव मिटेन मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। यनु ाइटेड मकंगडम में महन्दी के वररष्ठतम लेखक हैं। कमवता, नाटक एवं लेख उनकी मप्रय मवधाएं हैं। महन्दी के अमतररक्त उनके तीन कमवता संग्रह अग्रं ेजी भार्षा में भी प्रकामशत हो चक ु े हैं। सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने टोरोंटो एवं लदं न मवश्वमवद्यालयों में अध्यापन के बाद पच्चीस वर्षों तक के मम्िज मवश्वमवद्यालय में महन्दी सामहत्य पढ़ाया है। के मम्िज मवश्वमवद्यालय से सेवा मनवृमत्त के पश्र्चात सत्येन्द्र श्रीवास्तव ने दमक्षि अफ्रीका, जापान, के न्या, जामम्बया आमद देशों की यात्रा करते हुए वहां व्याख्यान मदये हैं व कमवता पाठ मकये हैं।

सत्येन्द्र श्रीवास्तव के लेखन की एक मवशेर्षता यह भी है मक उनका लेखन के वल नॉस्टेलमजक सामहत्य नहीं है। वे के वल भारत के साथ भावनात्मक ररश्तों को ही नहीं भनु ाते, वे यनु ाइटेड मकंगडम की राजनीमतक, वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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सामामजक और सांस्कृ मतक समस्याओ ं पर भी गहरी नज़र रखते हैं। उन्हें अपनी पस्ु तक टेम्स में बहती गंगा की धार के मलए पहले पद्मानंद सामहत्य सम्मान से अलंकृत मकया गया। सत्येन्द्र श्रीवास्तव की कमवताओ ं में गहराई है तो लेखों में मवर्षय की पकड़ एवं भार्षा का मनवा​ाह। ममसेज जोन्स और वह गली एवं मवन्सटन चमचाल मेरी मां को जानते थे जैसे उदाहरि इस बात का सबतू है मक सत्येन्द्र श्रीवास्तव सही मायने में मिमटश महन्दी सामहत्य का प्रमतमनमधत्व करते हैं।

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और संस्कृ मत के आलोक में हमारे महदं ी सामहत्य के मवकास में सहयोग प्रदान कर रहे हैं। िदं भक प्रवासी सामहत्य एवं सामहत्यकार पस्ु तकें । इटं रनेट और Wikipedia माध्यम स्वयं लेखक और लेखक संघ स्रोत

२४) सोहन राही मिटेन मे बसे भारतीय मल ू के महदं ी लेखक है। सरे मनवासी सोहन राही इगं लैण्ड में गीत और ग़ज़ल मवधा के बेहतरीन कलाकार हैं। वे इस देश के पहले सामहत्यकार हैं मजनकी ग़ज़लों एवं गीतों के कै सेट एवं सी. डी. तैयार हुए। इनं लैण्ड के कई गायक एवं गामयकाएं उनके गीत एवं ग़ज़लों को मचं से भी गा चक ु े हैं। सोहन राही के अनसु ार गीत मवधा सामहत्य की सबसे कमठन एवं श्रेष्ठ मवधा है। उनका कहना है मक जब तक कोई कमव गीत नहीं रच लेता तब तक उसका सृजनात्मक मवकास पिू ा नहीं माना जा सकता। सोहन राही मचं से अपने गीत एवं ग़ज़लों का स्वयं भी सरु में पाठ करते हैं। उदाू के अमतररक्त उनके ग़ज़ल एवं गीतों का एक सग्रं ह महन्दी में भी प्रकामशत हो चक ु ा है।

मनष्ट्कर्षातः इस प्रकार हम देखते हैं की प्रवासी सामहत्यकार मिटेन में रहकर महदं ी परंपरा को मनरंतर समृमद्ध कर रहे हैं और मिटेन में रहकर वहां की परंपरा Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017


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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

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ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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csgrj dke muds gksrs tks u xksjs Fks u gh

izoklh Hkkjrh;ksa dks bZlkbZ cukus ds fy,

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वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितबं र 2017

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fxjfefV;k etnwjksa dks feyus okyh etnwjh

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका

ISSN: 2454-2725

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Vol.3, issue 27-29, July-September 2017.

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