सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है! मीना चोपड़ा
कविता संकलन 1
SB
“She unveils shimmering facets of love, possession, mind and self with sensitivity. She is delicate but strong, gentle yet sharp, vulnerable yet proud. Self-actualization is more a matter of routine than effort; it is the moment beyond the ones of self knowledge that she wants to live up to, and become, not a mere rhapsody in search of life but a rhapsody in search of the deeper self. In this sense she is her own Sun…” - Gautam Siddharth The Pioneer (Book reviews), (India) 28.9.1996 “The embryonic bond that she shares with nature forms the keynote of her work. Words freeze the impalpable fears finding their refuge in the womb of earth”. First City Delhi India 1999
“The glimpses of the setting sun
from my childhood nostalgically dissolve in the abundantly spread hues of the setting sun on the skyline of this beautiful country, Canada, to which I now belong and this creates a new sunshine within. This sunshine melts in me and flows out in the form of verses. Distances fade; my past becomes one with my present, rising sun of the East starts blending into the setting sun of the West. The directions merge into each other fading into the moments beyond.”Meena Chopra
“Her works are the rhythmic expression of the state of the subconscious”.- Soumik Mukhopadhyaya -The Statesman, Delhi, (India) 20th August 1999 “A characteristic of her style is that physical sensations beautifully blend with abstract thought .Yearning for fulfillment is attended upon by consciousness of fragmentation.”-Dr. Shalini Sikka The Quest, (India) 1996
“Painting and poems go very well together. There is vitality in the forms, colours and the words chosen by Meena Chopra. Here is a charming feast of lyricism in paintings and poems”. -Dr. L.M. Singhvi London U.K. 1996
“The heightened passionate quality of her verses imbues the images with a strong emotional po wer.”-Manisha Vardhan The Pioneer, New Delhi(India) August 11 1999
Cover and the inside drawings 2 Publisher: Hindi Writers’ Guild
$12.99
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है! ( Adieu to the Dawn)
मीना चोपड़ा
कविता संकलन
प्रकाशक: स्टारबज़ मीविया
ISBN No. : 978-0-9813562-2-8 © Meena Chopra First Edition : 2010 Published simultaneously in Hindi , Urdu and Roman Scripts. Publisher: Publishers : StarBuzz Media Canada 71m Glenn Hawthorne Blvd Mississauga, ON. Canada L5R 2K4 starbuzz.ca@gmail.com Price : $12.99
आिरण एिं अन्य रे ख़ा-वचत्र लेविका के हैं। Cover and the inside drawings are by the Author.
“Art awakens a sense of real by establishing an intimate relationship between our inner being and the universe at large, bringing us a consciousness of deep joy.” -Rabindranath Tagore
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“कविता की भाषा में उनके संग्रह की असंलक्ष्य ्रमम ्ं्य्िवन पनने िाले को, अगर सचमुच िह सहृदय भािुक है, तो उसे एकाएक कौंधेगा कक यह किवयत्री ्ंजना के सहारे ककतनी मार्मिक बात कह रही है और उसके भीतर की करुणा का आकाश ककतनी दूर तक भासमान है। असल में आँिों से दीि पड़ने िाले आकाश से कहीं बड़ा और अपररमेय है बंद आँिों का आकाश।”
- िॉ.कै लाश िाजपेयी सदस्य सावहत्य अकादमी, भारत उनकी कविताएं पररपक्व कविता का ठोस नमूना हैं जो जीिन में संबन्धों को नई ्ाख्या देती हैं। विदेशों में रची जा रही कविताओं में मीना चोपड़ा की कविताओं का स्थान विवशष्ट माना जाएगा। -तेजेन्र शमाि , लंदन, इं गलैंि
Accompanying the cluster of these lovely oil pastels worked out like ’two inches of ivory’ are her versus. The words and the visuals support each other and the viewer is taken on to a journey to the end of the clouds. Look at her art or read her poetry there is a feeling of scaling heights, going to the mist of the mountains and scenting the fragrant pines.” -Nirupama Dutt Indian Express (India), August 22 1999 “ مینا کے رنگ کینو س پر بکھر تے ہیں تو شا عری کر تے ہیں اور جب وہ شا عری مینا-کر تی ہے تو دھنک کے رنگ اس کی شا عری کے کینوس پر بکھر جا تے ہیں کی رو ح فطر ت کے حسن سے جڑی ہو ئ ہے اور جب اسکا حسا س دل اور سو چتی آ نکھیں ان منا ظر سے گزر تے ہیں تو عشق کے آ وے پر ا حسا س کی مور تیا ں ڈ ھا لتے ہا تھ جلتے ہو ئے چر ا غو ں جیسی نظمیں قطا ر در قطا ر سجا تے چلے جا تے "ہیں-Nasim Syed (Meena Chopra ek shaiira hii naheii.n artist bhee hai is liye shaayad jab is ke rang canvas par bikharte hai.n to rang shairii kerte hai.n aur jab woh shairii kartii hai to dhanak ke rang us kii shairii ke canvas par bikhar jate hai.n. Meena kii ruuh fitrat ke husn se ju.dii huii hai aur jab iska hassas dil aur soochte ankheen iin manazir sy guzar te hain to ishq ke aaway per ehssas kii morteyaN dhaltee hath jalte hue charagon jise nazmiin qatar der qatar sajate chalii jate hai.n....Nasim Syed) 5
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समर्पित
मै तुम्हारे संयम को
अपने में धारण कर वनरं तर सुलगती लौ से जीिनधारा को वनष्कलंक करती हुई इस अविरत जीिन अवि में अनाकद तक समर्पित हँ।
सुबह का सूरज
अब मेरा नहीं है।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
विषय सूची समर्पित
5
आमुि—िा. कै लश िाजपैयी
9
भौवतक से अमूति तक की यात्रा—तेजेन्र शमाि
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मेरी िोज—मीना चोपड़ा
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My Search—Meena Chopra कु छ वनशान िक्त के
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कविता
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धुआँ
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ओस की एक बूँद
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एक सीप, एक मोती उन्मुक्त वथरकन
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ACKNOWLEDGMENTS
स्पशि
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कोयला
31
अमािस को—
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पनाह
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अनमोल
34
जीिन गाथा
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और कु छ भी नहीं
37
आगोश िक्त
38
प्रज्िवलत कौन?
39 41
अिशेष
42
अविस्मरणीय
43
अंतरं ग
44
मुट्ठी भर
45
8
चाह — ?
46
आनन्द मठ
48
बेनाम
49
एक ररश्ता
50
और एक अंवतम रचना!
52
ऊँचाई
53
तीथि
54
ये अँधेरे
56
नूर
58
अबद्ध
59
सरहद
60
आितिन
62
वमट्टी की सुगंध
65
संिाद
66
चचंगारी
68
अघटनीय
70
शो-विण्िो
72
जौहर
74
नींद से जागता यह कौन?
76
गूँज
77
कदम
78
बही िोले —
79
इश्क युग
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रात!
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धुंध के वमटते चहरे ।
87
कहाँ ढू नू मैं!
88
9
अंग्रेज़ी मे वलिी कु छ कविताओं के वहन्दी और कु छ वहन्दी कविताओं के अंग्रेज़ी में भािानुिाद
Transcreation of some English poems into Hindi and of some Hindi poems into English बाररश के विलोने Misty Madness
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और एक अंवतम रचना!
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A Stilled Sonata!
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कविता
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Co-travelling with a Poem
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A Death, A Beginning
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अरसे से गूँजती आिाज़ —
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White Canvas
99
मावणक Memories
100
शून्य की परछाईं
102 103
मीना चोपिा का पररचय
104
Meena Chopra, An Introduction
105
Clippings from past reviews on the poems in English
106
वचत्र — Drawings पृष्ठ (Pages):
22 40 47 57 64 73
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आमुि िॉ.कै लाश िाजपेयी
अबसे लगभग पन्रह िषि पूिि मीना जी का एक कविता संग्रह अंग्रेज़ी भाषा में यहीं भारत से प्रकावशत कराने में अपनी भी एक अदनी सी भूवमका थी। इसके बाद मीना जी कब कहाँ िो गईं पता ही नहीं चला। किर एकाएक दूर चली गई मीना जी की आिाज़ दोबारा सुन पड़ी। िे विदेश में इतने लम्बे अंतराल के बाद भी रचनारत रह सकीं यह सुनकर सुिद आश्चयि हुआ। मीना जी की आिाज़ के ठहराि से इतना भर लगा कक िह जैसी पहले थीं िैसी ही अब भी हैं। किर उन्होंने बताया कक िे अब वहन्दी भाषा में एक कविता संग्रह प्रकावशत करने के वलये कृ तसंकल्प हैं। उनके संग्रह की पाण्िु वलवप जब सामने आई तो रचनाएं पनकर स्पष्ट हुआ कक पक्षी चाहे वजतनी भी दूर चला गया हो अपने नीड़ को नहीं भूलता। िे शब्द की अथिछवि को भीतर-भीतर तक जानती हैं। कड़ी सीमा में न बंधने िाली सच्चाई को िे अपने संिेदय सार-गर्भित, प्रौन और तराश दृवष्ट के साथ पूरी तन्मयता के साथ रूपावयत करती हैं। उनकी कविताओं में एक गुज़री हुई दुवनयाँ की टीस या कसक रह-रह कर थपेड़े मारती है वजसे अंग्रेज़ी भाषा का सहारा लें तो ’इम्पलोज़न’ कहा जा सकता है। स्ियं उनके संग्रह का शीषिक ही उनके भीतर की याचना का दस्तािेज़ बनकर सामने आता है। गृहस्थी और उनके आए कदन के संघषों की झलक भी उनकी इन अनुभूवतयों में सुनी जा सकती है जो ’ प्रसाद’ के ’आँसू’ की पंवक्तयों की याद कदलाती है। मीना जी का संग्रह ’सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है’ एक आह है एक ऐसी आह वजसका असर होने देने के वलये एक ही वज़न्दगी काफ़ी नहीं।
मीना जी की छ्टपटाहट यह है कक िे अभी भी जीिन को अवभनय मान कर नहीं जी पाईं। अवभनय को जीिन की प्रवतछवि तो हम सभी मानते हैं मगर जीिन को एक अवभनयधारािावहक मानने की युवक्त उन्हें अभी भी नहीं भाई। स्रष्टा की तरह उन्हें भी अगर अपना जीिन अवभनय जैसा लगने लग जाये तब शायद यह कौंधेगा कक सूरज नहीं हम उदय और
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अस्त हुआ करते हैं। हालाँकक यह तकि घोर तत्ि ज्ञान है और कविता तकि से कहीं आगे जन्म लेती है। कविता की भाषा में उनके संग्रह की असंलक्ष्य ्रमम ्ं्य्िवन पनने िाले को अगर सचमुच िह सहृदय भािुक है तो उसे एकाएक कौंधेगा कक यह किवयत्री ्ंजना के सहारे ककतनी मार्मिक बात कह रही है और उसके भीतर की करुणा का आकाश ककतनी दूर तक भासमान है। असल में आँिों से दीि पड़ने िाले आकाश से कहीं बड़ा और अपररमेय है बंद आँिों का आकाश।
भारत देश में रहकर विदेशी भाषा और विदेश पहुँच कर अपनी भाषा में कविता रचने का दुस्साहस करने िाली इस किवयत्री को ढेर सारा स्नेहयुक्त आशीष। िॉ.कै लाश िाजपेयी सदस्य सावहत्य अकादमी, भारत
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भौवतक से अमूति तक की यात्रा - तेजेन्र शमाि सावहत्य का संसार एक अथाह समुर है। प्रत्येक लेिक उसमें अपने सावहत्य की कु छ बून्दें शावमल कर उस विशाल जलाशय का भाग बना जाता है। टी. एस. ईवलयट ने अपने लेि ट्रैिीशन अण्ि इवण्िविजुअल टेलण्े ट में कहा है कक ककसी भी लेिक के वलये अपनी भाषा के सावहत्य की परम्परा का ज्ञान आिश्यक है। यही उसकी पूज ं ी है। इस पूज ं ी में जब िह अपनी वनवज प्रवतभा को जोड़ता है और नये सावहत्य की रचना करता है, तो श्रेष्ठ सावहत्य का जन्म होता है। विदेशों में रचे जा रहे वहन्दी सावहत्य पर यह आरोप लगता रहता है कक इस सावहत्य में वसिाय नॉस्टेलवजया के और कु छ कदिाई नहीं देता। नॉस्टेलवजया के पक्ष और विपक्ष दोनों में ही बहुत कु छ वलिा जाता रहा है। विदेशों में वहन्दी सावहत्य रचने िाले अवधकांश रचनाकार पहली पीनी के प्रिासी होते हैं। उनके वलये अपनी जड़ों को भूल पाना आसान नहीं होता। इसवलये उनके लेिन में नॉस्टेलवजया सहज रूप से आ जाता है। जब प्रिास में लेिक पहली बार अपनी कलम उठाता है तो उन्ही वस्थवतयों और घटनाओं की तरफ़ यात्रा शुरू कर देता है जहां से नई धती और नये लोगों के बीच रहने के वलये आ पहुंचा है। उसकी कविता में गांि, मंदर, पीपल, गाय, गोबर या किर अपना शहर और उससे जुड़ी सभी यादें उभर कर आती हैं। यकद लेिक कहानीकार है तो उसके चररत्र और घटना्रमम उसके अपने छू टे हुए पररिेश से होते हैं। मीना चोपड़ा अपने नॉस्टे लवजया को बहुत ख़ूबसूरती से अपने पररचय में कु छ इन शब्दों में देती हैं, “िहां नैनीताल की पहाड़ी के पीछे िू बते सूरज को मैं जब भी यहां कै नािा में
अपनी विड़की के सामने िै ले वक्षवतज पर देिती हं तो पूिि का िह सूरज पवश्चम के सूरज में विलीन होता चला जाता है। मेरा कल मेरे आज में ढल जाता है। मुझ में एक नया सूरज जन्म ले लेता है और कविताओं में बहने लगता है।” “मे री कला और कविताओं में अं धे रों और उजालों की गोद में पड़ा एक ररसता
हुआ ररश्ता, पु रु ष और प्रकृ वत के बीच की दू ररयां नापता हुआ , कु छ जलती और बु झ ती कहावनयों में अपनी प्रवतवबवम्बत पहचान को िोजता अक्सर िो जाता है । ”
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मगर मीना चोपड़ा का नॉस्टेलवजया आम लेिक के नॉस्टेलवजया से अलग है। मीना ने अपने नॉस्टेलवजया को अपने ितिमान से जोड़ वलया है। उन्हें नैवनताल की पहाड़ी के पीछे का सूरज अपने घर की विड़की के सूरज में विलीन होता महसूस होता है। िे नैनीताल के अतीत को कै नािा जैसे देश के ितिमान में जीने की कु ित रिती हैं। “उम्र की पीठ थपथपाता / बचपन की
पुरानी कोठरी में / छु प के जा बैठा है / सीलन के कं बल ओने / मेरे अतीत का टुकड़ा / गुमसुम सा सो रहा है। ” आज की आधुवनक कविता या कहा जाए कक पूरा सावहत्य ही विमशि-के वन्रत है। मीना चोपड़ा का कविता संसार मूलतः प्रेम पर आधाररत है। नारी और पुरुष का संबन्ध – चाहे आवत्मक हो, शारीररक हो या किर बौवद्धक – ही उनकी कविताओं का के न्रवबन्दु है। अपनी कविता प्रज्जिवलत कौन में मीना कहती हैं, “देह मेरी / कोरी वमट्टी! / धरा से उभरी / तुम्हारे हाथों में /
तुम्हारे हाथों तक / जीिन धारा से / चसंवचत हुई यह वमट्टी।” मीना चोपड़ा की बहुत सी कविताएं िुलेपन से शुरू होती हैं। संबन्धों में शरीर का महत्ि उन कविताओं में उभरने लगता है। उनमें मांसलता का अनुभि स्पष्ट कदिाई देता है। मगर अपनी पेंटटं्ज़ की ही तरह किर उनकी कविताएं एबस्ट्रैक्ट हो जाती हैं। “सपनों के सपाट
कै निास पर / रे िांए िींचता / असीम स्पशि तुम्हारा / कभी चझंझोड़ता / कभी थपथपाता / कु छ िांचे बनाता / आंकता हुआ वचन्हों को / रं गों से तरं गों को वभगोता रहा / एक रात का अहसास ।” मीना का कविता मावणक कु छ इस तरह से शुरू हो कर हमें बताती है , “ रात रोशन थी / श्वेत चांदनी सो रही थी मुझ में / वनष्कलंक / अंधेरों की मुट्ठी में बन्द / जैसे मवणक हो सपि के िन से उतरा हुआ। ” मीना चोपड़ा एक संिेदनशील कवियत्री होने के साथ साथ एक समथि वचत्रकार भी हैं। उनकी पेंटटं्ज़ अवधकतर एबस्ट्रैक्ट ही होती हैं। ककन्तु उनकी पेंटटं्ज़ भी शारीररक संरचना से बच नहीं पाती हैं। उनकी बहुत से पेंटटं्ज़ नारी और पुरुष के अंगों का आभास देती हैं। कहीं नारी के गभािशय में जैसे बच्चा कदिाई देता है तो कहीं नारी और पुरुष के अंगों का आभास होता है। ठीक उनकी कविताओं की ही तरह उनकी पेंटटं्ज़ में एबस्ट्रै क्ट होने के साथ साथ एन्रीय तत्ि भी मौजूद हैं। आमतौर पर वचत्रकार कविताओं पर पेंटटं्ज़ बनाते हैं जबकक मीना की पेंटटं्ज़ में कविता की लय महसूस होती है तो उनकी कविताएं ख़़ुद -ब-ख़़ुद शब्द वचत्र बनाती चलती हैं। “हाथों को िो छु अन और गरमाहटें / बन्द हैं मुट्ठी में अब तक /
ज्योवतमिय हो चली हैं / हथेली में रक्िी रे िाएं। / लािों जुगनू हिाओं में भर गए हैं / तक़दीरें उड़ चली हैं आसमानों में / सर्दियों की कोसी धूप / वछटक रही है दहलीज़ तक /” मीना के भीतर की प्रेयसी अपने प्रेमी की वनरंतर प्रतीक्षा करती है। िह अपने प्रेमी के साथ 14
वबताए हुए पल िह एक पोटली में बांध कर घर के एक कोने में रि देती है। उसके साथ वबताए हुए पलों की याद में िह उन मांसल पलों को बार बार जीती है - “इंतज़ार हो तो बस
एक ही / कक िह रात एक बार किर लौटे / बूदं बूदं चेहरे से तेरे गुज़रे , / भर के हाथों में उसे सहलाऊं मैं / होठों से चूमूं / पोटली में रि दूं किर से - / इस बार सम्हाल कर / अपनी पलकों तले।” – (मुट्ठी भर) अपने प्रेमी के साथ एक हो जाने की चाह बहुत सी कविताओं में बार बार उभर कर सामने आती है। प्रकृ वत की गोद में, बहती नदी के ककनारे मीना का कवि-हृदय अपने प्रेमी को पा लेने की तमन्ना रिता है। अपनी कविता चाह में भी िे कहती हैं, “ रात के पानी में / बहती नदी के ककनारे / धुल
रहे थे। इसे अमृत मान कर / हाथों में भर कर / घूटं घूटं वपया था मैने / ‘मैं’ को उतार कर / ‘तुम’ को पहन वलया था मैन।ें ” मीना मूलतः प्रेम की कवियत्री हैं। श्रंगार रस उनकी कविता के के न्र में मौजूद है। आदमी और औरत के ररश्तों की पररभाषा उनकी हर कविता ढू ंढती है। एक ऐसी तड़प जो बार बार कवियत्री के कदल को कचोटती है, “कै सा संयोग था यह। कौन सा भोग? / ककसकी
इबादत? / वसजदा ककसको? / िोज कै सी? / कै सा सपना? / चाह ककसकी -? / जो न वमटी न ही बुझी कभी।” एक और स्तर पर जब मैं इन कविताओं को पनता हं तो मुझे उनमें ओशो की सोच भी कदिाई देती है। मीना चोपड़ा भी अपनी कविताओं में संभोग के मा्यम से समावध के सुि तक पहुंच जाना चाहती हैं। कविता में िह मांसलता से शुरूआत करती हैं और इस्लामी इबादत से आगे बनते हुए भगिान की िंदना तक पहुंच जाती हैं, “आसवक्त से अनासवक्त
तक की दौड़ / भोग से अभोग तक की चाह / जीिन से मृत्यु तक की / प्रिाह रे िा के बीच की / दूरीयां तय करती हुई मैं। इस िोने और पाने की होड़ को। अपने में विसर्जित करती गई।” (तीथि) मीना चोपड़ा स्ियं कहती हैं कक उनकी कविताओं में साििभौम द्वैतिाद की िोज है – कताि और कमि के बीच एक ररश्ता; आत्मा और पदाथि के बीच का संबन्ध।
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यह एक प्रयास है अंतःप्रिावहत विरोधाभासों को समग्रता से समझने का; जीिन के रहस्यों को जानने की कोवशश। उनकी कविताओं में एक विशेष ककस्म की गहराई है, “कफ़न में
वलपटा बादलों के / छु पता सूरज / अंधेरी क़ब्र में सो चुका था / न जाने कब से। अपने आप से रूठा सूरज। एक आग के दररया में। बहते ककनारे उफ़क के / न जाने जलते रहे ककसके वलये। / कदन के ढल जाने तक।” (इश्क) वब्रटेन के कवि मोहन राणा की ही तरह मीना चोपड़ा की कविताएं विश्व कविता को अपना लक्ष्य मानती हैं। उनकी कविताएं पररपक्व कविता का ठोस नमूना हैं जो जीिन में संबन्धों को नई ्ाख्या देती हैं। विदेशों में रची जा रही कविताओं में मीना चोपड़ा की कविताओं का स्थान विवशष्ट माना जाएगा। -तेजेन्र शमाि, लंदन, इं गलैंि
कदनांकः 30.11.2009
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मेरी िोज —
मेरा जन्म स्थल 'नैनीताल' उत्तरी भारत में वस्थत एक सुदं र एिं सौम्य पिितीय नगर है और यह सदा ही मेरी आतंररक प्रेरणा का स्रोत रहा है | विवस्मत हँ की मेरी कमि भूवम कै नािा का प्राकृ वतक सौंदयि मुझे मेरे बचपन से जोड़ता हुआ सदैि ही मुझे उसकी याद कदलाता रहता है | विशेषतः यहाँ का असीवमत आकाश और उसके अंत में िू बता सूरज, वक्षवतज पर बहते रं गों के साथ दूर - दूर वनगाहों के छोर तक िै ली धरती, यह सब मुझ में आकर जैसे थम सा जाता है | िहां अपने बचपन से जुड़े नैनीताल की पहाड़ी के पीछे िू बते सूरज को मैं जब भी यहाँ कै नािा में अपनी विड़की के सामने िै ले वक्षवतज पर देिती हँ तो पूिि का िह सूरज पवश्चम के सूरज में विलीन होता चला जाता है | मेरा कल मेरे आज में ढल जाता है | मुझ में एक नया सूरज जन्म ले लेता है और कविताओं में बहने लगता है | अंधेरों और उजालों की गोद में पड़ा एक ररसता हुआ ररश्ता, पुरूष और प्रकृ वत के बीच की दूररयों को नापता हुआ, कु छ जलती और बुझती कहावनयो में अपनी प्रवतवबवम्बत पहचान को िोजता अक्सर िो जाता है | — और इन उड़ते हुए पलों के आभास को अपनी मुट्ठी में बंद कर लेने कक एक अंतहीन तड़प, दृश्य को अदृश्य में पररणत करती हुई इस ठहरे बहाि की एक वनरी सच्चाई, मेरे मूक होते हुए शब्दों में कु छ कहती हुई चुप हो जाती है | मैं अपने रे िावचत्रों की लकीरों में, रं ग भरी तूवलका से अपने कै निास के स्पशि में, पंवक्तयों में वबिरते शब्दों में और इस तरह कई बार अपनी लेिनी और कागज़ के बीच की छटपटाहट में, मानि चेतना के छलािे को अक्सर िोजती हँ | सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है’ मेरी कविताओं का दूसरा संकलन है और वहन्दी में पहला। इस सकं लन की अवधकतर कविताओ़़ की रचना कै नािा में २००४ से अब तक मेरे यहां आने के बाद हुई है। कु छ बहुत पहले भी वलिी गई थी़़ं और यहां शावमल भी हैं।
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अन्त मे कु छ अंग्रेज़ी की चुनी कविताओं के भािाथि भी हैं , जो मेरे अंग्रेज़ी के संकलन ’ इिाइरटि लाइन्स’ से ली गई हैं और इस संकलन में शावमल की गई कु छ वहन्दी की कवितओं के भािाथि भी अंग्रेज़ी में हैं। अंग्रेज़ीं संकलन ’इिाइरटि लाइन्स’ १९९६ मे प्रकावशत हुआ था। चाहती हं कक आने िाले समय में अपनी सभी कवितओं के भािों को समेट कर, अंग्रेज़ी में वलिी सभी कवितओं को वहन्दी में और वहन्दी की कविताओं को अंग्रेज़ी में अनूकदत करके प्रकावशत करूं और आप सबके साथ बाँटू। यह संकलन उदूि वस््रमप्ट में भी उप्लब्ध है। इसे उदूि में वलिने और प्रकावशत करिानें में मैं उदूि शायरा नसीम सैयद की बहुत आभारी हँ। इसके अवतररक्त कु छ प्रवतयाँ उन लोगों के वलये जो वहन्दी या उदूि वस््रमप्ट नहीं पन सकते रोमन वसक्रमप्ट में भी उप्लब्ध हैं। इसे रोमन वस््रमप्ट में लाने के वलये मैं वहन्दी लेिक एिं प्रकाशक सुमन घई की बहुत आभारी हँ। — मीना चोपिा
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My Search………..
Serene surroundings of my birth place ‘Nainital’, a scenic hill resort in North India, have always been a source of inspiration to me . Strangely enough the beauty of Canada reminds me of my birth place a lot. Significantly the immenseness of the sky, the glory of the setting sun with its ever-changing colors and the unlimited wide expanse of the earth stills my nature within. The glimpses of the setting sun from my childhood nostalgically dissolve in the abundantly spread hues of the setting sun on the skyline of this beautiful country, Canada, to which I now belong and this creates a new sunshine within. This sunshine melts in me and flows out in the form of verses. Distances fade; my past becomes one with my present. The rising sun of the East starts blending into the setting sun of the West. The directions merge into each other fading into the moments beyond. My poems search for the universal duality, a relationship between the subject and the object, spirit and the matter, trying to find the totality in this influx of paradoxes, in an effort to unlock the mysteries of life. The eternal agony of human desire within longs in a ceaseless strive to capture the very essence of each and every fleeting moment. Reflections of a passing feeling of being touched by the limitless remain for a while and then disappear into a stark silence of an unknown abstract reality. I search for the elusive reality of human consciousness through the lines, splashes of colors and the impressions of brush strokes on my canvasses and at times through pen and paper in the form verses.
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"Subah ka Suraj ab Mera Nahin Hai"(Adieu to the Dawn) is my second collection of poems and first in my native language which is Hindi. The first collection was in English “Ignited Lines” and was published in 1996. Most of the verses in this new collection were written after I came to Canada, from 2004 and onwards. Towards the end of the collection I have trans-created few of my poems of English from my collection “Ignited Lines” into Hindi and of Hindi from this collection into English.. I do plan to bring out a collection of poems in both the languages trans-creating from either language into the other and share it with you all. Urdu poetess Nasim Syed has been helpful in transliterating and getting this collection published in Urdu script. I am very thankful to her for this. This collection is also available in Roman script for the people who can’t read either Hindi or Urdu scripts. It has been transliterated in Roman by writer and publisher Mr. Suman Ghai. I am thankful to him for doing the same. -Meena Chopra
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ACKNOWLEDGMENTS I would like to express my gratitude to the following people in bringing out this collection: Dr. Kailash Vajpeyi (poet and philosopher from India, author of many books on philosophy, poetry and columns in various newspapers), and a friend, has been a guiding force to me always and to my writings. Shri Tejendra Sharma (story writer and poet from England, author of many novels and story books ), for his immense support and encouragement. Shri Suman Ghai (writer, poet and publisher of a literary Hindi website from Canada) has been a major help in bringing out this collection. His broad thinking process and timely suggestions have been important, right from the beginning to the end, both in literary and in technical points of views. Ms. Nasim Syed (Urdu poetess and writer, President of Canadian Urdu forum), who became very close to my writings and me in a very short span of time. Her suggestions while publishing the book have been very useful. Dr. Shailja Saksena (poet and writer) and Shri Rakesh Tiwari (poet, writer and publisher) for their support and their concrete and useful suggestions. Tahira Masroor (teacher, journalist and writer) for her thorough knowledge of Hindi, Urdu and English,. Her suggestions became very useful, specifically in the final editing of Urdu edition of this book. Ben Girn (photographer) for photographing my paintings. Bhupinder Virdi , my life partner and friend, for his continuous support and suggestions. Taabeer Virdi, my daughter for her frequent inputs, constant support , ideas and inspiration.
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Mississauga Library Systems and Ms. Marian Kutarna (In-charge History and Art department), for their support, encouragement, and in arranging and sponsoring the formal launch of this ‘Hindi Poetry Book’ and the art exhibition in Canada. I am proud to belong, now, to this beautiful country Canada which is truly sensitive to its unique multiculturalism and its magnanimity to embrace all. -Meena Chopra
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भुचपंदर और ताबीर को 23
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कु छ वनशान िक्त के झील से झांकते आसमान की गहराई में बादलों को चूमती पहाड़ों की परछाईयां और घने पेड़ों के बीच िड़िड़ाते अतीत के बुझते चेहरे झरनो के झरझराते मुि से झरते मधुर गीत संगीत हिाओं पर वबिरी गेंदे के िू लों की सुनहरी िुशबू दूर कहीं सजदों में झुकी घंरटयों की गूज ं बांसरु ी की धुन में वलपट कर चोरटयों से धीमे—धीमे उतरती सुबह की सुरीली धूप! पानी में िु बककयाँ लगाती कु छ मचलती ककरणें और उन पर छ्पक—छपक चप्पूओं से सांसे लेती वज़न्दगी की चलती नौका रात की वझलवमलाहटों में तैरती चुवप्पयों की लहरें ककनारों से टकराकर लौटती जुगनुओं की िही पुरानी चमक! उम्मीदों की ठण्िी सड़क पर हिाओं से बातें करती ककसी राह्गीर के सपनों की तेज़ दौड़ती टापें पगिंवियों को समेटे कदमो में अपने पहुंची हैं िहां तक— जहां मंवज़लों के मुका़़म अक़्सों में थम गये हैं झील की गहराई में उतरकर नींद को थपथपाते हुए उगती सुबह की अंगड़ाई में रम गये हैं!
*यह कविता मेरे बचपन और
जन्मस्थल नैनीताल से प्रेररत है।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
कविता
िक्त की वसयाही में तुम्हारी रौशनी को भरकर समय की नोक पर रक्िे शब्दों का कागज़ पर कदम-कदम चलना! एक नए िज़ूद को मेरी कोि में रिकर मावहर है ककतना इस कलम का मेरी उँ गवलयों से वमलकर तुम्हारे साथ-साथ यूँ सुलग सुलग चलना!
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
धुआँ उठता है वमट्टी के अन्तःकरण से िह धुआँ धुआँ क्यों है? वमट्टी जो मेरी हथेली से लगकर बदल जाती थी एक ऐसे क्षण में वजसका न कोई आकद था न ही अन्त! उसी वमट्टी से जो उठता है आज िह धुआँ क्यों है?
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
ओस की एक बूद ँ
ओस में िू बता अन्तररक्ष विदा ले रहा है अँधेरों पर वगरती तुषार और कोहरों की नमी से! और यह बूँद न जाने कब तक वजयेगी इस लटकती टहनी से जुड़े पत्ते के आचलंगन में! धूल में जा वगरी तो किर वमट के जाएगी कहाँ?
ओस की एक बूँद बस चुकी है कब की मेरे ्ाकु ल मन में!
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
एक सीप, एक मोती
बूँद!ें आँिों से टपकें वमट्टी हो जाएँ। आग से गुज़रें आग की नज़र हो जाएँ। रगों में उतरें तो लह हो जाएँ! या कालच्रम से वनकलकर समय की साँसों पर चलती हुई मन की सीप में उतरें और
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मीना चोपड़ा
मोती हो जाएँ |
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
उन्मुक्त
कलम ने उठकर चुपके से कोरे कागज़ से कु छ कहा और मैं स्याही बनकर बह चली मधुर स्िछ्न्द गीत गुनगुनाती, उड़ते पत्तों की नसों में लहलहाती! उल्लवसत जोशीले से ये चल पड़े हिाओं पर अपनी कहावनयाँ वलिने। वसतारों की धूल इन्हें सहलाती रही। कलम मन ही मन मुस्कु राती रही
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
वथरकन
प्रकृ वत की लय पर विचवलत शब्दों ने संिेदनाओं को प्रेररत ककया, नज़र में उट्ठे पानी की तरं गों में वभगो कदया! कई नए प्रवतवबम्ब उभरे कई कहावनयाँ भीरूह का इस तरह से पतझड़ के उड़ते सूिे पत्तों पर एक नया नृत्य और हिाओं पर वथरक-वथरक चलना — जीिन का यह कलरि कु छ अधूरा सा नहीं है क्या?
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
स्पशि
यहीं से उठता है िह नगाड़ा िह शोर िह नाद
जो वहला देता है पत्थरों को झरनों को आकाश को िही सब जो मुझमें धरा है। वसफ़ि नहीं है तो एक स्पशि जहाँ से
यह सब
उठता है|
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
कोयला
कु छ जला सा कु छ बुझा सा कच्चा कोयला। गमी उतरती है हाथों से घरों की ठं िी दीिारों में वछपे ठं िे वजस्मों को जगाने के वलये। चली जाती है वनिर सी कई सुरंगों में। जला था जो िह कच्चा तो नहीं था!
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
अमािस को— अमािस को— तारों से वगरती धूल में चांदनी रात का बुरादा शावमल कर एक चमकीला अबीर बना िाला मैने उजला कर कदया इसको मलकर रात का चौड़ा माथा। सपनों के बीच की यह चमचमाहट सुबह की धुन में ककसी चरिाहे की बांसुरी की गुनगुनाहट बन गूंजती है कहीं दूर पहाड़ी पर। ऐसा लगता है जैसे ककसीने भोर के नशीले होठों पर रात की आंिों से झरते झरनो मे धुला चांद लाकर रि कदया हो िकि से ढकी बफ़ी का िला हो। औरचांदनी कु छ बेबस सी उस धुले चांद को आगोश मे अपने भरकर एक नई धुन और एक नई बांसुरी को ढू ंनती उसी पहाड़ी के पीछे छु पी दोपहर के सुरों की आहट में आती अमािस की बाट जोहती हुई िो चुकी हो|
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
पनाह
माथे पे िुदी तक़दीर की लकीर को वमटाकर ढलते हुए सूरज को वक्षवतज की गोद से उठाकर आगो़़श में तुम्हारे रि कदया था मैंने| एक बार किर िू बने से इसे बचा वलया था मैंने एक बार किर अंधेरों में िू बने से बच गई हँ मैं एक बार किर यह शाम ढलने से रुक सी गई है| इस थमी शाम के चोगे को पहन कर बीते हुए िक्त की धूल और वमट्टी से लथपथ इबादत में — कु छ जले — बुझे लम्हों की लौ वलए रूबरू तुम्हारे आ जाऊं अगर तो क्या पल भर के वलए आगोश में अपने पनाह दे सकोगे मुझे? िही आगो़़श जहाँ मैंने कभी कांपते हाथों से उठाकर
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
अनमोल मदमस्त सुबह लहरों में घुलती मचलती ठं िी हिा सनन—सनन स्मृवतयाँ। हीरे मोती जड़े सुनहरे पंि पहन ऊँची उड़ानें भरती वझलवमल स्मृवतयाँ। सुबह की ठं िक में िोलता स्िप्न लोक का झूला स्मृवतयों को पींगों में पनाह देता जैसे कोई सुबह का भूला। अतीत में भीगे िक़्त के बदलते चोलों में पलती आज रूबरू िड़ी हैं सदृश्य आँिों में भरी हैं, गुपचुप अनजान आिाज़ों में जड़ी हुई ये अनमोल स्मृवतयाँ। अँधेरों में इन्हें मैं िु बो नहीं सकती कावलि से रं गों की इन्हें वभगो नहीं सकती
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
मूँद कर आँिें और ओनकर कफ़न काले मैं सो नहीं सकती। मुआफ़ करना मेरे अज़ीज़ मुझे मैं अपनी स्याही की उजली सुबह के ये कीमती मोती मौत को सूँघती कच्ची नींद के धागों में वपरो नहीं सकती — मैं दफ़न हो नहीं सकती!
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
जीिन गाथा
उठती हैं वगरती हैं दपिण हैं साँसें प्रवतवबम्बों को जन्म देती हैं। प्रवतवबम्ब, जो कई वचह्न बना देते हैं दाग देते हैं प्रश्न -? कई दायरों पर वलि देते हैं दायरे कई सीनों पर। छप जाती है समय के पन्नों पर
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
और कु छ भी नहीं
ख़यालों में िू बे िक्त की वसयाही में कलम को अपनी िु बोकर आकाश को रोशन कर कदया था मैंने और यह लहराते, घूमते -किरते, बहकते बेकफ़्रम से आसमानी पन्ने न जाने कब चुपचाप आ के छु प बैठे कलम के सीने में। नज़्में उतरीं तो उतरती ही गईं मुझमें आयते उभरीं तो उभरती ही गईं तुम तक। आँिें उट्ठीं तो देिा क़ायनात जल रही थी। जब ये झुु्क्कीं तो तुम थे और कु छ भी नहीं।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
आगोश
ककरणों के पानी से धुली सूरज की साँसों में ढली गररमा – चौिट पर मेरे वजस्म की हर रोज़ जला करती है। आँिों में छु पाए परछाई आसमान की दूर मुस्कु राता झरना दूवधया सिे द पानी से बेजान वमट्टी को धोता है िुशबू में बदलता मेरा बदन हिा का हाथ थामें ऊचाइयों को छू ता है। आसमान की विशाल बाहें अनन्त से उठकर समेट लेती हैं मुझे मुझमें वसमट कर। लेककन – मेरी िामोश आिाज़ को ऐसा क्यों लगा कक यह आगोश 40
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
व़क्त
एक वपघलता सूरज देिा है मैंने तुम्हारी आँिों के ककनारे पर! कभी देिा है ककनारों से वपघलता रं ग वगरकर दररया में बहता हुआ और कभी दररया को इन्हीं रं गों में बहते देिा है
देिा है जो कु छ भी बस बहता ही देिा है।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
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प्रज्िवलत कौन? देह मेरी कोरी वमट्टी! धरा से उभरी, तुम्हारे हाथों में तुम्हारे हाथों तक जीिन धारा से चसंवचत हुई यह वमट्टी। अधरों और अँधेरों की उँ गवलयों में गुँथ ती एक कदये में ढलती वमट्टी, वजसमें एक रटमरटमाती रौशनी को रक्िा मैंने और आँिों से लगाकर अशि की ऊँचाइयों को पूजा एक अदृश्य और उद्दीप्त अचिना में। कच्ची वमट्टी का कदया है और कं पकँ पाती हथेवलयाँ मेरा भय! मेरी आराधना और तुम्हारी उदासीनता के बीच की स्पधाि में दीपक का वगरना वचटिना और टू ट जाना, रौशनी का थक के बुझना बुझ के लौट जाना — मेरी इबादत का अन्त क्या यूँही टू ट ना, वबिरना और वमट जाना है ?
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
अिशेष िक्त िवण्ित था, युगों में ! टूटती रवस्सयों में बंध चुका था अँधरे े इन रवस्सयों को वनगल रहे थे। तब ! जीिन तरंग में अविरत मैं तुम्हारे कदमों में झुकी हुई तुम्हीं में प्रिावहत तुम्हीं में वमट रही थी तुम्हीं में बन रही थी| तुम्हीं से अस्त और उकदत मैं तुम्हीं में जल रही थी तुम्हीं में बुझ रही थी! कु छ िाँचे बच गए थे कई कहावनयाँ तैर रही थीं वजनमें
उन्ही मे हमारी
कहानी भी अपना ककनारा ढू ँढती थी! अंत ! वजसका आरम्भ,
एक दृवष्ट और दृश्य से ओझल
भविष्य और भूत की धुन्ध में वलपटा मद्धम सा कदिाई देता था। अविरल ! शायद एक स्िप्न लोक !
और
तब आँि िुल गई हम अपनी तकदीरों में जग गए। टुकड़े - टुकड़े
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मीना चोपड़ा
ज़मीं पर वबिर गए।
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
अविस्मरणीय
धूल थी कपड़ों पर जमी ककतनी आसानी से झड़ गई मैं चेतना के हाथों झटकने मात्र से वमट्टी में भर गई मैं। असहाय से गुनाहों में गनी उलझन बनकर एक काले वचराग के गहरे कु एँ में बंद दम भरती हुई अँधेरों को अँधेरों से जोड़ती चली गई। कहीं अच्छा होता वसफ़ि कु छ समय के वलये अचेतन में चेतन का ईंधन रि एक छोटा सा जुगनू सुलगा देते तुम – हलका सा मुझको कदये में अपने जला लेते तुम मीठी सी नींद में मुझको सुला देते तुम। अवचर ही सही – कु छ तो वबसात होती कहीं कोई आस – चाहे वमट्टी के साथ होती।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
अंतरं ग तुमसे वमली धूप तुम्हीं को अर्पित कर दी मैंने। सुबह की कोि से उकदत होकर यह आसमानों में िबिबाई थी। टपकी वसलेटी अँधेरों में। एक मद्धम सी रोशनी वबिर गई थी। कहती थी कु छ हमसे जो हम सुन ही न सके ।
बूँद बूँद
ककसी चुप सी अमािस को कभी मुड़कर बंद दरिाज़ों के पीछे छु पे अँधेरों को टटोल पाएँ अगर तो शायद छू सकें उस टपकते नूर के कु छ अमूल्य सुनहरे मोती। कु छ वछटक के वगर गए थे इधर-उधर जो समेट के रि वलये थे मैंने पास अपने। सकदयों तक जीने के वलये शायद कािी हों। छोटी सी पूँजी है न तो घटती है न ही टू टती है कभी | हो सके तो इसमें से कु छ तुम भी रि लो। जीिन का मोल और कु छ भी नहीं अंतरं ग, आगे इसके और कु छ भी नहीं। 46
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
मुट्ठी भर मुट्ठी भर िक़्त कु छ पंि यादों के बटोर कर बाँध वलये थे रात की चादर में मैंने। पोटली बनाकर रि दी थी घर के ककसी कोने में बहुत पहले। आज जब भूल से तुम ख़्िाब में आए तो याद आ गई। बैठी हँ िोजने तो कु छ वमलता ही नहीं टटोलती हँ, ढू ँनती हँ नज़रें पसार कर पोटली तो क्या घर के कोने भी गुम हो चुके हैं सारे । इं तज़ार है तो बस एक ही कक िह रात एक बार किर लौटे बूँद-बूँद चेहरे से तेरे गुज़रे , भर के हाथों में उसे सहलाऊँ मैं होठों से चूमूँ पोटली में रि दूँ किर से — इस बार सम्हाल कर अपनी पलकों के तले। 47
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
चाह — ? रात के पानी में बहती नदी के ककनारे घुल रहे थे। इसे अमृत मानकर हाथों में भरकर घूटँ —घूँट वपया था मैंने। ’मैं’ को उतारकर ’तुम’ को पहन वलया था मैंने। अपने अवस्तत्ि की झोली में गुनाहों का शगुन रिकर रूह के दरगाह को अर्पित हो गई थी मैं। शायद तुम भी — ? कु छ पलों के वलए ही सही! कै सा संयोग था यह? कौन सा भोग? ककसकी इबादत? वसजदा ककसको? िोज कै सी? कै सा सपना? चाह ककसकी — ? जो न वमटी न ही बुझी कभी!
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
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आनन्द मठ
हाथों की िो छु अन और गरमाहटें बन्द है मुट्ठी में अब तक ज्योवतमिय हो चली हैं हथेली में रक्िी रे िाएँ। लािों जुगनू हिाओं में भर गए हैं तक़दीरें उड़ चली हैं आसमानों में सर्दियों की कोसी धूप वछटक रही है दहलीज़ तक, और तुम – कहीं दूर – मेरी रूह में अंककत आकाश-रे िा पर चलते हुए – एक चबंदु में ओझल होते चले गए। िू ब चुके हो जहाँ वनयवत – सागर की बूँदों में तैरती है।
मेरी मुट्ठी में बंधी रे िाएँ ज्योवतमिय हो चुकी हैं। तुम्हारी धूप
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
बेनाम
सुबह ने जब अपनी आँिें बंद कर ली थीं और रात सपनों को साथ वलए बुझने लगी थी उस िक्त समय की कोि से एक अनाम से ररश्ते ने जन्म वलया था जो ज़मीन के गुनाहों की दहलीज़ को लांघकर अपने नाम को कायनात की परछाई मे ढू ँढता हुआ अँधेरों मे िो गया था |
िह वजसका कोई नाम नहीं था क्या िह मेरा अपना भी नहीं था — ?
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
एक ररश्ता
लय और प्रलय के बीच की दूररयों को नापता सावज़श में िक्त की वलपटा जल से सघन बादलों के भरा-भरा चमकती वबजवलयों में उलझकर काँपता रहा एक ररश्ता। बादलों से टपकता धुन्ध में लटकता बचता – बचाता आ वगरा वछटक के ज़मीं की गोद में टू ट के कहीं से एक ररश्ता यूँही भटकता– भटकता | मौन हो गई है ज़मीं मेरी सूँघ के साँप रह गई है जल-जल के धुआँ हो चुकी है गवत को अपनी ढू ँढती है !
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
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और एक अंवतम रचना!
िह सभी क्षण जो मुझमें बसते थे उड़कर आकाश गंगा में बह गए। और तब आकद ने अनाकद की गोद से उठकर इन बहते पलों को अपनी अंजली में भरकर मेरी कोि में उतार कदया। मैं एक छोर रवहत गहरे कु एँ में इन संिेदनाओं की गूँज सुनती रही। एक बुझती हुई याद की अंतहीन दौड़! एक उम्मीद! एक संपूणि स्पशि! और एक अंवतम रचना!
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
ऊँचाई
नीले आकाश के बीच से लटकती रवस्सयाँ धरती की ओर वजनके छोर ऊँचे हैं बहुत छोटी हैं बहुत मेरे हाथों की लंबाइयाँ शायद — उस छलाँग की ऊँचाई क्या होगी – वजसे लगाकर रवस्सयों के छोर हाथों में पकड़कर बहती हिा के झोंकों की उठती लहरों के साथ लहरा पाऊँगी मैं?
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
तीथि सौंधी हिा का झोंका मेरे आँचल में
किसल कर आ वगरा।
िक्त का एक मोहरा हो गया। और किर कफ़ज़ाओं को चादर पर बैठा हिाओं को चूमता आसमानों की सरहदों में कहीं
जा के थम
गया। एहसास को एक नई िोज वमल गयी। एक नया िजूद
मेरी देह से गुज़र
गया।
आसवक्त से अनासवक्त तक की दौड़, भोग से अभोग तक की चाह, जीिन से मृत्यु तक की प्रिाह रे िा के बीच की दूररयों को तय करती हुई मैं इस िोने और पाने की होड़ को अपने में विसर्जित करती गई।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
न जाने िह चलते हुए कौन से कदम थे जो ज़मीन की उजड़ी कोि में हिा के झोंके को पनाह देते रहे। इन्हीं हिाओं के घुँघरे ओं को अपने कदमों में पहन कर मैं जीिन रे िा की सतह पर चलती रही—चलती रही—
कभी बुझती रही कभी जलती रही।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
ये अँधरे े धूल और वमट्टी में सने आरज़़ुओं से लथपथ उठकर नींद से गहरी आँिे मलते, पोंछकर आसमान को देिते रहे चेहरा अपना वसतारों के आइने में गुमसुम से ये अँधेरे। िगमगाते रहे – पानी और कीचड़ के छपाकों में छोड़ते गए वमट्टी के वनशान चप्पलों के तले कभी गहरे तो कभी हलके से किसलते कदम बाररश के । सूिते रहे ये वनशान पैरों के तले वमट्टी में सने-सने।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
थम गए चलते-चलते धूप से बने आँगन में पहुँच। धुल गई धूप में धूल और वमट्टी सारी बाररश के गीले तन से। सूि कर झड़ गए आइने सारे आसमानों से उतरके । और अब अँधेरों में वलपटा बाररश का यह कक़स्सा धड़कता है आँगन में अके ला पड़ा पड़ा देिने के वलये चेहरों के नकाब ढू ँनता है आईना धूप का – दूर बहुत दूर कहीं – िड़ी रफ़्तार में पड़ी मृगतृष्णाओं के तले।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
नूर एक हाथ में बुझते चांद का नूर और दूसरे में वमट्टी से वनकली ढेर चचंगाररयां पकड़े चाहा था सूरज के आंगन में उतरना मैने कदम कदम ककरणों की सीकनयां चनके । बाद्लों के पीछे छु पा िह उजला सा आंगन जहाँ ककलकारी भरते जुगनुओं का झुण्ि सूरज के इदि-वगदि मस्ती में घूमता था, रोशवनयों में घुली सुर-मकदरा पीकर कदन और रात के सुर-सागर में झूमता था। लेककन हुआ क्या यह अचानक ही? क्यों आिें मेरी चुंचधंया के रह गईं उट्ठी थीं ये अधर अपने िोले बूंद-बूंद बहते नूर के सुरूर को पीने लेककन! घूंट– घूंट प्यास को अपनी ही पीती हुई चकाचोंध सी बांिली होकर ख़लाओं का कं बल ओने दपिण में सूरज के , कहीं जा के िो गईं। न जाने जुगनुओं की रौशनी में थी कवशश कै सी? जो ये पलकों के वपघलते पंि वलये वनगाहों में दूर– दूर तक उड़ाने भरतीं 60
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
अबद्ध समय बहता हुआ काश बन्द हो पाता मेरी मुट्ठी में और शुरूआत होती एक जीत की, क्या असंभि है? उँ गवलयाँ जो बाँधती कांपती लकीरों को एक मुट्ठी में ढीली पड़ने लगतीं और इन झरीठों से कु छ क्षण वगरने लगते िै लने के वलये अनन्त शून्य की अनदेिी कदशाओं में — कौन से धागे होंगे जो इन्हें रे िाओं में किर बाँध पाएँगे? उन्हीं को िोजती हँ शायद तुम्हारे पहलू में। 61
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
सरहद
मेरी विड़की के बाहर
एक िू बता
सूरज है वजसके रं गों को मैंने आँिों से छु आ और पलकों पे सजाया है। रुकी हँ उस पल के वलये जब ये रं ग मेरे लह में घुलकर मेरी नस—नस में बहेंगे और ये नसें
मेरे वजस्म से
वनकलकर मेरी रूह में बहेंगी। मेरा सूरज
इतने करीब है
मेरे कक मैं अपनी आँिों की रौशनी से उसके वजस्म को छू ती हँ। रुकी हँ उस पल के वलये जब मेरी रूह
आँिों की
रोशनी बनकर वनकलेगी और सूरज वसमटकर
मुझमें आ
ढलेगा, मैं वक्षवतज बनकर
उन रं गों
में नहा लूँगी। 62
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
उस एक पल के सपने को वलये जी रही हँ तो वसफ़ि तुम्हारे वलये। तुम जो मेरी विड़की के बाहर वज़न्दगी की सरहद पर हर रोज़ िू ब जाते हो और मैं अपने िाली हाथों में तुम्हारे रं गों को बटोरे अँधेरों में िो जाती हँ।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
आितिन
टेने और वतरछे रास्तों पर चलती लकीरें नये, पुराने आयामों से वनकल उन्हीं में ढलती ये लकीरें पररवध के ककसी कोने में अटक वबन्दु को अपने तलाशती भटकती रहीं — भटकती रहीं — किर देिा गोल सा सूरज टू ट चुका था, ज़हन में भर चुके थे टु कड़े चापों में बँट चुकी थी रोशनी चप्पा -चप्पा। िक़्त में जमी और रुकी ये चापें आज िड़ी हैं रूबरू मेरे
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
वसफ़ि पत्थर ही पत्थर कदिाई देते हैं। आँिें चुभती हैं वजस्म के हर कोने में। दबी दबी थरािई हुई इं तज़ार में तो बस एक ही कक कब इन चापों में बँधी रोशनी वपघले—? लािा बनकर चज़ंदगी के चक्के में कु छ ऐसी घूमे — बस घूमती ही चली जाए।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
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वमट्टी की सुगध ं
अपनी िोई हुई जड़ों को आकाश में ढू ँना मैंने। नज़र की रफ़्तार रुक गई है इस गंदम ु ी नीले रं ग के बीच कहीं। यहाँ से आगे रोशनी बनती नहीं
वमटती है।
वमट्टी की सुगंध धरती से उठकर मेरे वजस्म के हर कोने में जम गई है। मुझे पकड़कर सटा-सटा कर अपने करीब रिती है। मैं कहीं बािली तो नहीं जड़ों को अपनी आसमानों में ढू ँढती हँ।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
संिाद
एक पल वनरं तर शून्य की गभि में ओझल दूसरी दुवनयाँ की ओट से झाँकता वनःशब्द गूँज में बहते आकाश की छवि को वनहारता ठहरा बहाि ज़मीन में िू बता उभरता वमट्टी भरी गोद से जूझता
अनवगवनत आँिों में चूर अचवम्भत सा भ्रवमत सा देिता रहा कहीं दूर सन्नाटों में वलपटी शब्दािली और सनसनाहटों की वनत नई नृत्य—नारटका।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
चुपचाप चलता रहा एक संिाद
वनरं तर!
ढू ँनता रहा अपनी अंतररत भाषा का मौन — अन्त तक! कई मुिड़ों में उभर कई गीतों से गुज़र सुरों की सुरा में मस्त िगमगाता रहा गुनगुनाता रहा कं पकँ पाता रहा
एक
संिाद — अनन्त तक!
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
चचंगारी
उम्र की पीठ थपथपाता बचपन की पुरानी कोठरी में छु प के जा बैठा है सीलन का कं बल ओने मेरे अतीत का टु कड़ा गुम — सुम सा सो रहा है। आँिें चली जा रही हैं नए मुकाम नई मंवज़लों को पकड़े आगे ही आगे। मुड़ के देिती है जब कभी ये फ़ु रसत में तो दूररयों की धुँध भर जाती है इनमें। एक चचंगारी जलती है कदिाई देती है तैरती है बादलों में कहीं पास आ जाती है
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
समय को तय करती हुई। उठ्ठी थी कभी यह बगूला सी अँगीरठयों में जलते पक्के कोयलों के अंगारों भरे सीने से बस गई थी जा के बाररश के बादलों में ईंट—ईंट अपना घर बनाती हुई। आसमानों में लगी झड़ी पकड़े गहरी नींद को वबसराती वनगाहों में उमड़ आई है आज िही चचंगारी। जलाती जा रही है आँिों में अनवगवनत मशालें और कदये रोशन करने के वलये पड़ािों में पड़े दम भरते सहमे से, सकपकाते 71
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
अघटनीय वबना रफ्तार दौड़ते अँधेरों और दीिारों से वचपकते सायों का शहर की तंग गवलयों में दुबकते जाना कब तक? वझरीठों से वनकलती नुकीली ककरणे पकड़े बंद दरिाज़ों और विड़ककयों में वससकती उदासी का िबिबाना कब तक? बेबस सी — बेरुि और सुन्न वनगाहों का आँगन के अँधेरे कोनों और िुदे आलों में िड़िड़ाना कब तक? कहाँ है — ? कहाँ है — ? रौशनी का िह छलकता पानी बुहार देती वजसे बहाकर मैं अपने आँगन का हर एक दर और ज़मीं 72
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
धो देती कोना-कोना इसका | सजा देती एक -एक आला और झरोिा जलते कदयों की श्रृिलाएँ रिकर। िड़ी हो जाती मैं इस साफ़ सुथरे आँगन के बीच उठाए हुए अचंवभत सी नज़रें और तब — ! घट के रह जाता ररक्त आँिों के स्तवम्भत शून्य में एक वनरा, साफ़ और स्पष्ट नीला आसमान।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
शो-विण्िो
मेनेकक्वन्स की भीड़ – कु छ वपघलते वजस्मों का पानी उभरता है एक शोर िो जाते हैं वजसमें अतीत के गुच्छे साँसों की रस्सी में बँधकर जो चज़ंदगी की शो-विण्िो में सजा करते थे।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
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जौहर एक सुलगन चचंगारी भरी वसरहन सहलाती रही हथेवलयों में दबी नर्मियाँ। न जाने क्यूँ आज छील रही है िह हथेवलयों को कतरा-कतरा िून के कतरों को भेंट होती हुई। किसलती जा रही है कशमकश में मेरी पकड़ के बाहर। बसाना था इसने तो एक ऐसा विशाल गभि जन्म दे पाता जो उस सुलगती लौ को प्रज्िवलत हो उठती िह िीर के माथे का वतलक बनकर चींिती-वचल्लाती भकभकाती हुई भस्म कर देती अँधेरों और उजालों के मुँह से उगलती लपटें, िुद ही भस्म होकर। तोड़ देती धराओं की पररवध उिाड़ देती नीिों समेत समस्त चट्टानें िाड़ देती आकाश के रं गों में ढके
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
आिरण लह के ; चीर देती रफ़्तार की गूँज में टू टती आिाज़ों के चेहरे , मोड़ देती रुि हिा की धाराओं का, वनकल पड़ती यह विजय पताका का तीव्र बाण बनकर; एलान हो जाता एक जंग का एक जीत पर।
चली जाती
वक्षवतज के सीने पर बनी तेज़ धार का किच पहने बेध देती अपने शौयि से उसीका तपता सीना। वक्षवतज की धार पर बैठा िही लथपथ सीना जहाँ हर सं्या एक कायनात िू ब जाती है उस पार चली जाती है।
77
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
नींद से जागता यह कौन? अंगड़ाइयों ने उमड़कर गहरी नींद को विदा दी थी | वझलवमलाहटें दबे पाँि रात की सड़क से गुज़रकर सुबह के आँगन में आ रुकी थीं | छू कर इन्हे हाथों से माथे पे लगाया था मैंने आँिे भर भी गईं थीं और वसहर भी | कं पकपाती, अधीर देिती रहीं ये अतीत की टहनी से लटकते धागे, वपरोकर वजन्हें भविष्य की इकाई में काश मैं अपना ितिमान बुन पाती | एक उजला सा चोगा बना िालती पहनती वजसे िुलके , ठाट-बाट से, चुपचाप ढक लेती अपने ठहरे िजूद के पैबंद सभी िही िजूद, वजसकी पहचान न जाने कबकी सन्नाटों मे िो चुकी है | अतीत के अनजाने से कोहरों के उमड़ते सायों मे गुम हो चुकी है। 78
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
गूज ँ शब्द छू ट गए हैं पीछे और होंठ बनते जा रहे हैं आगे ही आगे ज़बान गले में अटक कर रह गई है रें कती रहती है बदन के वहस्सों में | आिाज़ों के झुंि तैरते हैं वचरागों के ऊपर से वनकलते हुए जहाँ कभी ठं िी हिा ककसी झोंके को भर के बाँहों में सरसराती चला करती थी I कोई सुराग ढू ढंती हुई गीतों के जुगनूओं में सकदयों के पनपने तक सरगोवशयों में जला करती थी | आसमान छंट चुका है
आज यहाँ कोई भी
हरकत नज़र नहीं आती I शब्द छू ट चुके हैं बहत पीछे दूररयों में बह गए हैं I आिाज़ें हलक से उतर के रह गई हैं होंठ वसल चुकें हैं सूवलयों पर लटके हुए सदाँएं ज़मीन पर वगर-वगर कर वमट रहीं हैं गूंजती है यह ज़मीन आज-चुवप्पयों में बँटी-बँटी
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मीना चोपड़ा
चप्पा - चप्पा |
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
कदम
टू टता है वबिर जाता है चांद टु कड़े—टु कड़े धूप से झुलसती लम्बी सड़्कों पर
वपघलते कांच के इन टु कड़ों पर चलते चले जाते हैं िून के धागों मे बंधे लहलुहान नंगे कदम
िही कदम जो कभी जलने से िरा करते थे।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
बही िोले —
मौत को छू ता एक दरिाज़ा कु छ िाली, बेहतरीन लम्हों की इबादत इनसे वमली बूँद-बूँद भीि, भयभीत से झुके सर दौड़ती हुई साँसों के कट जाने का क्षवणक आभास
सन्नाटों की सपाट सी ज़मीन को लांघती लम्बी कू द, पन्नों के बीच की िाई में िसते, औंधें मुहं वगरते पैर, रक्तहीन लिििाती आिाजों की चींिती चुवप्पयाँ|
कु छ सफ़े द चेहरों के बीच जागती मुट्ठी भर ज़दि ककरणे बही िोले उम्र से अपनी मांगती रहीं जन्मो का वहसाब
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
इश्क़
कफ़न में वलपटा बादलों के छु पता सूरज अँधेरी कब्र में सो चुका था न जाने कब से अपने आप से रूठा सूरज एक आग के दररया में बहते ककनारे उिक के न जाने जलते रहे ककसके वलए कदन के ढल जाने तक| कौन था यह? न जाने कबसे िड़ा था जो सामने बाहें पसारे पौ के िटने और भोर के हो जाने तक! कब्र के िटने और कफ़न के उड़ जाने तक! ओस की बूँद में बैठा वछपकर साँसे लेता इश्क का कोई टू टा हुआ टु कड़ा है शायद ककसी वबसरे हुए गीत का कोई भटका हुआ मुिड़ा है शायद!
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
युग फ़ासलों की एक लम्बी सड़क उम्र भर पहचानों के जंगलों से वनकल ज़मीन की तह से गुज़रती है | पसीनों से लथपथ पैरों के वनशान बनते चले जातें हैं हिाओं की सलीब पर चनते चले जाते हैं गानते जातें हैं कोई वत्रशूल या कोई िंिा या कफ़र, सूली पर चने उस शख्स के िून से भीगा चाँद तारे का अम्बर के गुनाहों में एक ररसता ररश्ता। लहराता है, कदशाओं को थामें चूमता हिाओं को बस िही एक अलमएक ही परचम! कई जन्मों के टू टे वबिरे शहर बस जातें हैं इसमें साथ वलए कु छ पंि पटरं दों के और पेड़ों से टू टे पत्तों के
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
चुकते करम! पतझड़ का आगोश घबरा कर और भी बड़ा हो जाता है, जहाँ सकदयों की धूल में वलपटे यही पत्ते सरगोवशयों में उड़ा करतें हैं| धूप की मद्धम ककरणें जड़ देतीं हैं िामोवशयाँ इनके तन पर| बांिाली पतझड़, झूमती है पहनकर वमट्टी की बेपनाह तवपश के कई रं ग उलझकर इन महकते उड़ते रं गों में इतराती है, बलिाती है जैसे नाच उठे बेकि्रम, बेपरिाह सा कोई मस्त मलंग| कफ़र थक हार कर वगर जाती है ज़मीन पर इस छल भरे नृत्य की झीनी चूनर कु छ रंग भरे आलम एक पथराई सी सहर| शीत की िही कड़िी ठण्ि 84
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
वजसके आगास का घूटँ पीकर सो चुके थे हम तनहा से तनहाइयों में बंद। एक बार कफ़र वछटक जाता है कहीं दूर वपछले चाँद का िही नूर भर-भर के उिेल देता है कोई रजावतम, रूपहला अबीर बिीले ठं िे सीनों में भरी दास्तानों के करीब। चमक उठता है बिि पर सोता सन्नाटों का बेचाप रूआब कौंधते ििाबो की हकीकत िनिनाते चेहरों का शबाब रात की हर इस दुशाले को ओढे वनकल पड़ती है अपलक सन्नाटों भरी बेनूर दूररयों की अके ली पगिंवियों पर सकपकाती, िंिहरों से गुज़रती है लांघती है,
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
बचपन की दहलीज़ टोहती है ककसी सूकियानी सुबह का बूँद-बूँद वपघलता साफ़ सुथरा स्िर्णिम वसन्दूर मांग की सिे दी को भरता एक चंपई नूर! और तब, रटमरटमाते ककनारों पर िड़ा अतीत में दम भरता परिती आंिों से िक्त को एक -टक वनहारता अय्यामों में गुम हो जाता है एक पारदशी दॄश्य! रुक जातें हैं रुन्धते गलों के सुरों को टटोलते वनष्कं ठ शब्दों में िसते हलंत ! लेककन इस मौन होती हुई कायनात से छलकते छंदों के बीच कौन बैठा था वबछाए पलकें ? ढूढँ रहा है अब भी बहते रहने की इस होड़ में साँसों के सही हुवलए
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
कोई ठोस वशनाख्त वनयमों में बंद नामदार कोई ्िजों में अंककत उदाहरण देता गुमनाम अलमस्त ही सही।
बस िही पलक झपकाता वसलवसला अपने नसीब से टू टा बस िही टू टी साँसों में भटकती सच्चाई छोर को छोर से बांधती स्िछन्द हर छोर को लांघती वनरी सच्चाई! रटमरटमाते ककनारों पर बैठा बस िही, एक ही वसलवसला कभी कफ़ज़ाओं में बहता कभी घूमता पगिंवियों पर और िंिहरों के बीच से गुज़र झील के ककनारों पर ठहरता कभी सूवलयों पर चनता कभी हिाओं में बंद वनशानों से वगरता धुंधले से नसीब के दौर का बस िही,
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
रात! चाँद से झरते हुए झरने मे नहा कर वनकली थी पूनम के गहनों से सजी दुल्हन बनी रात! वसतारों जड़ी झीनी चूनर ओने चाँदनी का चसंदरू माँग मे अपनी भर के उतरी थी दबे पाँि िक़् के सीने मे कहीं से हाथों में ककरणों के कं गन पहने मदमस्त, महकती हुई रात! रुक गई थी रुख़ पर ककसी अजनबी वचलमन के क़रीब तरसती नज़रों की छटपटाहट का नगीना बनकर! चुभ रही है अब तक झील सी आँिों के ककनारों पर िह वझलवमलाती, मचलती हुई रात! पहन कर उँ गवलयों में अपनी उसी नगीने की अँगूठी जागते सोते सपनों के झरोिों में कहावनयाँ वलिती उमड़-उमड़ सकदयों में िु बककयाँ लेती है सकदयों से सकदयों तक बहती हुई यह रं गों से बनी रं गों भरी रात। 88
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
धुध ं के वमटते चहरे
लटकती रही आँिों के ककनारों से बादलों में वछपी बूंद की िह हल्की सी नमी छू ट कर जा वगरी किर पैरों पर बँधी पायल की छ्नक के बीच कहीं छ्नछ्नाती सी एक वमटती झनकार के सुरों को सजाती सी। तैरता रहा, तसव्िुर अतीत की वमट्टी में वलपटा इन छ्नछनाहटों को एवड़यों मे पहने, देिता रहा मुसलसल, सपनो की अनवगवनत कवड़यों को जोड़े धुंध मे वलपटे हुए धुंध के वमटते चहरे ।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
कहाँ ढू नू मैं!
सूरज को मुरट्ठयों में पकड़ने की कवशश में जले हाथों की लकीरों को कहां ढू नू मैं समय की नब्ज़ सो चुकी है िो गई है अंधेरों में कब की अब इन वसयाह, सुन्न लमहों में गमि लह के कतरों को कहाँ ढू नूँ मै िक्त का वमज़ाज तो बदलता रहता है पल पल इस बदलते िक्त के बदलते तुम में अपने को कहाँ ढू नूँ मैं। गुज़र के छू ट गया है बहुत पीछे रह गया है कल मेरा आज उस िक्त को इस िक्त में अपने पास कहाँ ढू नूँ मैं। चल रहा है ये पवहया सकदयों का सकदयों की सड़्क पर घूमता हुआ सकदयों से, इस घूमती सड़क के उड़ते सैयारों में धुरी अपने वसतारों की कहाँ ढू नूँ मैं। जलते हए सूरज की ककरणों के सागर में वज़न्दगी की राख़ बहाकर सन्नाटों में सुलगता िो महताब कहाँ ढू नूँ मैं! छू भी ले मुझे और छू कर छलनी भी कर दे िह लम्स, िह अहसास, ककस जावनब, कहाँ ढू ढूँ मैं। 90
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
वहन्दी में वलिी कु छ कविताओं के अंग्रेज़ी में भािानुिाद और अंग्रेज़ी मे वलिी कु छ कविताओं के वहन्दी में भािानुिाद।
Trans-creation of some Hindi poems into English and Transcreation of some English poems into Hindi
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
बाररश के विलोने
दौड़ती नज़रें जब गुज़रे समय की सड़क पर देितीं हैं िापस मुड़कर तो कदिाई देते हैं दूर छोर पर िड़े कु छ बाररश के विलोने और धूप की नमी में भीगे पुराने ररश्ते
और कु छ -िक्त की धुन्ध में वमटते पाओं के वनशान।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
Misty Madness
Blank sight sees the vanishing point, the skyline of the past.
I capture the playful rainfall. A soothing touch, the by gone sunshine wet with the kisses of a rainbow.
Footsteps fade in the misty madness of time.
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
और एक अंवतम रचना!
िह सभी क्षण जो मुझमें बसते थे उड़कर आकाश गंगा में बह गए। और तब आकद ने अनाकद की गोद से उठकर इन बहते पलों को अपनी अंजली में भरकर मेरी कोि में उतार कदया। मैं एक छोर रवहत गहरे कु एँ में इन संिेदनाओं की गूँज सुनती रही। एक बुझती हुई याद की अंतहीन दौड़! एक उम्मीद! एक संपूणि स्पशि! और एक अंवतम रचना!
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
A Stilled Sonata!
I soared the heights In the Milky Way sailing a vast panoramic emptiness. The finite dispensed the infinite. Time ticked the circled core. a schismatic dry and dark bottom less pit listened to the echoes, the looped moments, my sensibilities, in the chasm of life. Eternally at run dying reminiscences aspired, a touch a final composition tuned in a stilled sonata.
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
कविता
िक्त की वसयाही में तुम्हारी रोशनी को भरकर समय की नोक पर रक्िे शब्दों का कागज़ पर कदम-कदम चलना। एक नए िज़ूद को मेरी कोि में रिकर मावहर है ककतना इस कलम का मेरी उँ गवलयों से वमलकर तुम्हारे साथ-साथ यूँ सुलग सुलग चलना |
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
Co-travelling with a Poem
I penned down the sun shine You!
in an instance Inscriptions settled down in a hub Structuring words into seething sentences, Spread and Smoothened with the finger tips, Surfaced , A spectacular, ever changing landscape, Spelled a lifetime, Blending a new language, A simmering new journey Co-travelling perpetuity.
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
A Death, A Beginning Have you ever searched? Your lost self unfolding those ruthless cold nights inside me ... ? Ever dreamt-? The blazing honesty of my unyielding unborn unprotected vulnerable naked self in your arms, enslaved in disastrous fantasies, tearing me apart making me a whole grasping a moment beyond bondages, seizing a death, a beginning an eternal embrace unraveling mysteries unknown ... ? Have you ever discovered, worshipped, my primeval existence within you. Recognizing loving the woman in me 98
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
अरसे से गूज ँ ती आिाज़ —
िोजा है कभी तुमने अपनी िोई हुई पहचान को अँधेरी, वसयाह, ठं िी रातों की िुलती हुई परतों के तले ढकी हुई मेरी कोि की सुलगती परतों में।
तसव्िुरि के उस एक एहसास को क्या महसूस ककया है कभी तुमने जहाँ एक अजन्मी कोरी सफ़े द आग की लपटों में वलपटा मेरा कँ पकपाता नाज़़ुक सा वजस्म कई टू टते ख्िाबों में उलझा रहा तुम्हरी बाहों में कभी उधेड़ता रहा और कभी बुनता रहा भटकती साँसो के भटकते हुए सपने।
लम्हों को लम्हों में तलाशता हुआ िही एक आज़ाद सा लम्हा उस मौत के आगा़़ज़ को ढू नता रहा वजसमे का़़यनात के आगोश से उतरा हुआ एक अनजाना सा आगोश तुम्हारा बाँधता रहा मेरी िुलती हुई परतों के पल-पल वपघलते अन्तराल को-
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
पूछ्ती हँ मैं तुमसे कभी ढू नी है तुमने इबादत में झुकी नज़रों में मेरी बरसों से वबछ्ड़ी हुई िही फ़ररयाद जन्मो से जन्मो तक बहती रही मुहोब्बत भरी आँिों की झुकी पलकों में झपकती हुई एक पुकार सकदयों से जूझती वसफ़ि तुम्हारे वलये सकदयों से बनी हमेशाँ से िही तुम्हारी -मैं एक अरसे से गूँजती आिाज़।
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
White Canvas
Your vivid stroke etched in my memory bestirred my stark white canvas. A passing night clasped me replete with colours. Raw impulses wide awake splashed shades tinting the sheet toning the moods.
A splendor bedded with me all night.
A river oozed out in heat. My opaque vision. grasped the forthcoming dawn. A fatigue tarried within me throughout the day.
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
मावणक
सपनों के सपाट कै निास पर रे िाएँ िींचता असीम स्पशि तुम्हारा कभी चझंझोड़ता कभी थपथपाता कु छ िाँचे बनाता आँकता हुआ वचन्हों को रं गों से तरं गों को वभगोता रहा एक रात का एक मख़मली एहसास।
कच्ची पक्की उम्मीदों में बँधा सतरं गी सा उमड़ता आिेग एक छलकता, प्रिावहत इं रधनुष झलकता रहा गली-कू चों में वबिरी वसयाह परछाइयों के बीच कहीं दबा दबा।
रात रोशन थी श्वेत चाँदनी सो रही थी मुझमें वनष्कलंक! अँधेरों की मुट्ठी में बंद जैसे मावणक हो सपि के
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मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
िन से उतरा हुआ। सुबह का झुटपुटा झुकती वनगाहों में बहती मीठी धूप थम गया दपिण कदन का अपने अक़्स में गुम होता हुआ। और तब थका-हारा, भुजंग सा कदन का यह सरसराता धुँधलका सरकता रहा परछाइयों में प्रहर - प्रहर। नींद में िू बी अधिुली आँिों के बीच िासलों को वनभाता यूँ दरबदर साथ चलता रहा मेरे एकटक आठों प्रहर।
103
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
Memories
All the stars engulfed in silence trying to grab the hands of futility.
The day explodes. Whiteness spills the residues of the waning moon.
Death of the night is still alive in the memories of space.
104
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
शून्य की परछाईं
वसतारों में लीन हो चुके हैं स्याह सन्नाटे ख़लाओं को हाथों में थामें
कदन िू ट पड़ा है लम्हा - लम्हा रोशनी को अपनी ढलती चाँदनी की चादर पर वबिराता
अंधेरों की गहरी मौत शून्य की परछाईं में धड़कती है अब तक चजंदा है न जाने कब से — न जाने कब तक —
105
मीना चोपड़ा
सुबह का सूरज अब मेरा नहीं है।
मीना चोपिा का पररचय - मीना चोपड़ा का जन्म उत्तर भारत में वस्थत एक सौम्य पहाड़ी नगर नैनीताल में हुआ। मीना बहुमुिी प्रवतभा की स्िावमनी हैं | इनका का पहला अंग्रेज़ी कविताओं का संकलन ’ इिाइरटि लाईन्स’ १९९६ में इं ्लैंि में लोकार्पित हुआ। इनकी कविताओं का अनुिाद जमिन भाषा में भी हो चुका है। इनकी कविताएँ अनेक राष्ट्रीय एिं अन्तरािष्ट्रीय सावहवत्यक पत्र-पवत्रकाओं में प्रकावशत होती रही हैं। २००४ में कै नेिा में प्रिास के पश्चात वमसीसागा (ओण्टेररयो, कै नेिा) के लाइब्रेरी वसस्टम द्वारा आयोवजत अंग्रेज़ी कविताओं की प्रवतयोवगता में इनकी कविताओं को सम्मावनत ककया गया। इन्होने कदसंबर २००८ में ICCR (इवन्िवयन काऊंसल फ़ोर कल्चरल ररलेशन) के सहयोग से अकशरमु् द्वारा भारत, कदल्ली में आयोवजत ७िें अन्तरराष्ट्रीय वहन्दी उत्सि में कै निा का प्रवतवनवधत्ि ककया। मीना एक किवयत्री होने के साथ-साथ एक वचत्रकार भी हैं। अब तक राष्ट्रीय एिं अन्तरािष्ट्रीय स्तर पर २५ से अवधक कला-प्रदशिवनयाँ लगा चुकी हैं। इन्होंने २००२ में ’ साऊथ एवशयन ऐसोवसएशन ऑफ़ रीजनल कोऑपरे शन’(SAARC) द्वारा आयोवजत कलाकारों की सभा में भारत का प्रवतवनवधत्ि ककया। मीना कला-क्षेत्र में हमेशा से ही बहुत क्रमयाशील रही हैं। भारत में "पोइट्री क्लब" की सवचि भी रही हैं। इसके अवतररक्त कई ्ापाररक एिं कला संस्थाओं की सदस्या भी रह चुकी हैं। बी.एस सी. करने के उपरान्त इनहोने टेक्सटाइल विज़ाइचनंग में वशक्षा ग्रहण की। भारतिषि में क़रीब सात साल फ़ै शन के फ़ील्ि मे काम करने के बाद इन्होने एििटािइचज़ंग का ्िसाय अपनाया, जहाँ यह अपनी एििटािइचज़ंग एजेन्सी का संचालन करती रही हैं। कै नेिा में अपने पवत के साथ "StarBuzz' नामक मनोरंजन और किल्मी पवत्रका का सञ्चालन कर रही हैं, साथ ही Learna नामक एक एजूकेशन सेंटर चला रही हैं | कै नेिा आने के बाद इन्होंने कई कलाकारों और कला प्रेवमयों को संगरठत कर एक कला संस्था का वनमािण ककया, वजसका उद्देश्य वभन्न-वभन्न, जन-जावतयों के लोगों को कला के द्वारा समान स्थल पर लाकर जोड़ना, आपस की भािनाओं को कला के द्वारा समझना और बाँटना है। कला जो हमेशा से सीमाओं में बंधती नहीं, उसे सीमाओं से आगे ले जाना ही इस संस्था का उद्देश्य है। इस संस्था को "्रमॉस-करं ट्स इं िो-कनेवियन इं टरनेशनल आटिस’ के नाम से जाना जाता है। यह संस्था २००५ से लगभग दस से अवधक कला, कविता आकद समारोह एिं प्रदशिवनयाँ आयोवजत कर चुकी है। मीना चोपड़ा के बनाये हुए वचत्र भारत तथा कई अन्य देशों में सरकारी, ्िसावयक तथा संग्रहकतािओं के कला संग्रहों में हैं। Email: meenachopra17@gmail.com http://meenasartworld.blogspot.com/ 106
Meena Chopra, An Introduction -A multi faceted person, painter and poet, Meena Chopra is now settled in Mississauga, Canada, for 5 years after migrating from New Delhi India. She hails from Nainital, a hill resort in India. She has had several art exhibitions in many countries, which includes India, Canada, England. An avid reader of prose and poetry, she writes both in English and her native language Hindi. Her first collection of English poems, "Ignited Lines" was published in 1996 was released in London, England the same year. Her poems have been published in many national and inter-national journals. They have also been translated into German by Carla Kraus, a well known Austrian author. She represented Canada in New Delhi India in 7th Inter-national Hindi Celebration Meet in December 2008 organized by Akshram in association with ICCR (Indian Council for Cultural Relations). She has also represented India in the SAARC (South Asian Association for Regional Cooperation) Artists Meet, New Delhi in December 2002. She received Honourable Mention at Poetry Writing Contest 2003 held by the Mississauga Library System Canada when she landed in Canada. Her paintings are with many Corporates, Government Bodies, Embassies, Hotels and Private Collections in India, Canada, Australia, England, Switzerland, Dubai and many other countries She qualified as a textile and fashion designer and worked in this industry for seven years, then got into advertising. She has had an intense career in advertising for twenty years and was running an advertising agency in New Delhi, India. Now she runs an Entertainment & Life Style news weekly called "STARBUZZ" along with her husband in GTA, Canada and also runs an after school learning centre in Mississauga. Meena is also passionately involved in community arts and has directed many art events and curated many art exhibitions. Most of these have been done under the aegis of 'CROSS CURRENTS - Indo Canadian International Arts' which has a mission of embracing diverse cultures and origins and bringing them on a common platform through arts there by ‘taking arts beyond boundaries’. The organization has had several successful art events in past. This includes an art exhibition "Confluence", which was taken to India, " "Children's Art Competition, Unity In Diversity" and "Beyond Boundaries International Arts Festi107
val". She is also a qualified art educator (Learning Through the Arts) from The Royal Conservatory School (The RCM) Ontario, which means to implement an arts-infused approach in developing the potential of every child and adult. Email: meenachopra17@gmail.com http:// meenasartworld.blogspot.com/ Painting and poems go very well together. There is vitality in the forms, colours and the words chosen by Meena Chopra. Here is a charming feast of lyricism in paintings and poems. - Dr. L.M. Singhvi (the then High Commisioner of India in UK and a well known litterateur and poet) These comments were left by him in in my Visitor’s Book, during my art exhibition and launch of my 1st book of poems ‘Ignited Lines’ in London U.K. 1996
Clippings from some earlier reviews: “Each one of the forty expressions picturise a lived reality, an experienced emotion, a missed heartbeat without being sentimental about it. Nothing comes as after thought or an overstatement. She is precise and matter of fact even in articulations” … - Suresh Kohli The Hindu, Delhi, 1.12 1996 “Meena Chopra will not have too many words getting in between the ignition of an idea and its consummation. It must be having to do with the fact that she also paints. Her poems have neat compactness of paintings; words become colours that fill up the canvas if-or when she is not using her brush. Ignited Lines, Meena’s first volume of verse, is therefore not for the gallery; rather, it is a gallery. You can browse through it, but you will periodically pause, much like when confronted with a new painting that has succeeded in achieving the different, a range and depth of emotions far removed from the every day clichés of existential dilemmas, not existence. She unveils shimmering facets of love, possession, mind and self with sensitivity. She is delicate but strong, gentle yet sharp, vulnerable yet proud. Self-actualization is more a matter of routine than effort; it is the moment beyond the ones of self knowledge that she wants to live up to, and become, not a mere rhapsody in search of life but a rhapsody in search of the deeper self. In this sense she is her own Sun, her own guiding star as is 108
brightly revealed in the poem Fire” - Gautam Siddharth The Pioneer (Book reviews), Delhi, (India) 28.9.1996 “These poems talk of ‘hidden fire/rising with/a smokey thread…..’ A seemingly ordinary enough statement, it might also mirror the extraordinary sensibility of a committed artist.” -Adrian Khare Blitz, Bombay, India 13.3 1993 “...by one who is also an artist, a painter, provides perhaps an alternative and additional medium of self expression to a surcharged personality. It is the story of a soul that is caught in the throes of trying to unravel the mystery of the self in terms of subjective experience.” - Dr. Shalini Sikka The Weekend Observer (Review) Delhi(India) January 4 1997 “A characteristic of her style is that physical sensations beautifully blend with abstract thought – yearning for fulfillment is attended upon by consciousness of fragmentation.” -Dr. Shalini Sikka The Quest, Ranchi (India) 1996 “Ignited Lines, a collection of poems by Meena Chopra, expresses desire for ignition of the mind for illumination in a world of duality and paradoxes.” -Dr. Shalini Sikka The Journal Of The Poetry Society (India), 1996 “Accompanying the cluster of these lovely oil pastels worked out like ’two inches of ivory’ are her versus. The words and the visuals support each other and the viewer is taken on to a journey to the end of the clouds. Look at her art or read her poetry there is a feeling of scaling heights, going to the mist of the mountains and scenting the fragrant pines.” -Nirupama Dutt Indian Express (India), August 22 1999 “Her canvasses have fluid grace and character that is reflected in her persona too. Her paintings are as intense as the poetry she writes”. -Anshu Khanna Savvy (India) 1992 “Images have been made use of in abundance while expressing her feelings, thoughts and views .... The poems are short but very powerful and impressive indeed! Meena strikes with force to show her caliber of thinking which is on par with any Indian modern poet who is of great repute.” -M. Fakhruddin Poets International, (India) December 1996 “Meena Chopra’s poetry mirrors her acute sensibilities which, in turn, enmesh with her deft strokes on canvas.” 109
-S. Rajoo
The Times of India, Delhi, 23. 7. 1996
“In paintings there is a poetic beauty and poems are strong in imagery and spontaneity. And both types of work are intense in movement” -Deshbandhu Singh Rashtriya Sahara, Delhi, (India) August 1996 “Her works are the rhythmic expression of the state of the subconscious. “Sparkling vacuum that glimmers and floats in the morning breeze….” or “A chilly winter blossoming in spring…” Soumik Mukhopadhyaya The Statesman, Delhi, (India) 20th August 1999 “The embryonic bond that she shares with nature forms the keynote of her work. My feet stick to the damp earth / Fearing devastation / My mouth is full of clay / Is it the smell of the soil that I eat?/ Swallowing every bit. Words freeze the impalpable fears finding their refuge in the womb of earth. And the pastels accompanying the words, capture the anonymous smell in a tensile cage that bears the colour of earth. The other elements of nature find beautiful expressions in her works. Swirling flames of orange recalling to protecting warmth and destroying the fury of fire. Ice blue serenity of water… And most of all, it is the interaction with her own self that gets portrayed in her works.” -Critic First City, Delhi, (India) August 1999 “Accompanying her paintings are her verses, and the two compliment each other. In fact, they often seem to flow from and into each other, making one wonder which came first, the word or the image. The heightened passionate quality of her verses imbues the images with a strong emotional power.” -Manisha Vardhan The Pioneer, New Delhi(India) August 11 1999 “One notices a rhythm of universal duality underlying her poetry as well as her paintings. The poems strong in imagery and spontaneity complement the paintings” -Critic First City Magazine, January 1997 “What ever the reason, there is no doubt that this lady packs a lot of talent.
To be a mistress of words and lines is no means a feat by any standards.” -Critic Financial Express July 21 1996 “What adds to her talent is the beautiful poetry she writes ….. Her verses at times influence her paintings and vice versa.” -Akshaya Mukul The Pioneer, Delhi, India, June 13, 1996 “Paintings and poems by Meena Chopra at the Jehangir Art Gallery, turned 110
out to be a veritable feast to the eyes as one drifts from spasms of energy thrust into the portrait to the lovely exterior. -Venkastesh Raghavan Free Press Journal , Bombay, (India )11th March 1993 “The book ‘Ignited Lines’ thus presents a deep insight into the inner passages of delicate human emotions and inner meanings .... It is a beautiful example of simplicity and feeling embedded together, obviously by a very talented writer. The poems, on the whole are charming pieces of more finished art which have surpassed the realms of literature because of embellishingly philosophizing of the subject” - A.H. Naqawi Day After (Delhi, (India) 30th Sept.-14thOct. 1996 “…for she doea succeed to a remarable extent in self-expression. Her thoughts, aspirations struggle and internal conflicts find faithful reflection in her works”. -V.V. Prasad MID-DAY (India) December 9, 1986
Comments by some International Poets and poetry lovers : “I first read Meena’s works here, at ‘Post Poems’. I was intrigued by the vivid imagery portrayed in her beautiful works, and found her to be an extremely multi- talented woman. I contacted her about doing the article.” Bi-weekly Feature Poet - Meena Chopra at postpoems.com Rachelle Wiegand, USA “Your writing is emotive and full of romantic expression, very strong. Thank you for your openness.” “White Canvas” - Deborah Russell painter and a poet USA “I love the vividness in this piece, a combination of Tangible Art and Poetic Art that blends quite nicely”.“Birth Of A Stupor” -Rachelle Wiegand Poet & Journalist, USA “..perhaps dissolution, emptiness, loss of the walls of concepts, and thereby the rebirth of oneness... why? why not? your writing here both real and thought provoking”. -Eric Cockrell USA “you are quite a mystery to me. I've been hearing about the quality of 111
your work. I have to say, excellent piece. ...you have an interesting observation with life and the occurrence of events. you're able to draw meaning into the smallest things. A gift.” “Memories In Space” - Dead Poet (Richard Sinclair) USA “Masterful. Your grasp of subtly explosive imagery is beyond admiration. I found myself holding my breath by the end. Thank you for sharing it. “Reverberation” - Stuart Staub USA “You are a beautiful, talented poet and your words are captivating”. “Unbound” - Marianne Chrisos, USA “I have to tell you that I am of native American heritage and this is the way that we took care of our dead back in history. I thought that you did well with this. It was awesome. Thank you for posting this” “Pyre” - Renee' Quinn USA “I find your poetry very sensual, and very moving...you have a marvelous talent for touching both the heart, and that inner core of sexuality that brightens the day with thoughts of tender, yet passionate love!!!” -HooK USA “Dear Meena--I just wanted to tell you how much I've enjoyed reading Ignited Lines--your poetry is wonderful, and I keep your book with my Neruda, Borges, and Rilke collections.” -Robert Darlington USA “Dear Ms. Meena Chopra, I viewed a few of your poems on Shadow poetry.com and was very impressed. After reading poems such as “A Glimmer It Was”, I can honestly say that you are one of the best poets that I have had the pleasure of reading in a long time. Your words are filled with emotion and depth. Thank you for Sharing your work. =Nav Chandi, India Dear Meena, I enjoy your writing. I love meeting people from all over the world. Thanks for being a part of postpoems. I can't wait to read more of your writing. -Teresa Jacobs USA “Your work expresses a dynamic of power, emotions, and fear. Only a great mind and a multi layered individual could construe the creations that you have set forth. I know I don't know you but through your work, 112
I feel that I do. Your work portrays something more than the picture. It conjures up raw emotion�. -Vique Mora, USA
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“She unveils shimmering facets of love, possession, mind and self with sensitivity. She is delicate but strong, gentle yet sharp, vulnerable yet proud. Self-actualization is more a matter of routine than effort; it is the moment beyond the ones of self knowledge that she wants to live up to, and become, not a mere rhapsody in search of life but a rhapsody in search of the deeper self. In this sense she is her own Sun…” - Gautam Siddharth The Pioneer (Book reviews), (India) 28.9.1996
“The glimpses of the setting sun
from my childhood nostalgically dissolve in the abundantly spread hues of the setting sun on the skyline of this beautiful country, Canada, to which I now belong and this creates a new sunshine within. This sunshine melts in me and flows out in the form of verses. Distances fade; my past becomes one with my present, rising sun of the East starts blending into the setting sun of the West. The directions merge into each other fading into the moments beyond.”Meena Chopra “Painting and poems go very well together. There is vitality in the forms, colours and the words chosen by Meena Chopra. Here is a charming feast of lyricism in paintings and poems”. -Dr. L.M. Singhvi London U.K. 1996
Cover and the inside drawings
“The embryonic bond that she shares with nature forms the keynote of her work. Words freeze the impalpable fears finding their refuge in the womb of earth”. First City Delhi India 1999
“Her works are the rhythmic expression of the state of the subconscious”.- Soumik Mukhopadhyaya -The Statesman, Delhi, (India) 20th August 1999 “A characteristic of her style is that physical sensations beautifully blend with abstract thought .Yearning for fulfillment is attended upon by consciousness of fragmentation.”-Dr. Shalini Sikka The Quest, (India) 1996 “The heightened passionate quality of her verses imbues the images with a strong emotional po wer.”-Manisha Vardhan The Pioneer, New Delhi(India) August 11 1999 114
Publisher: Hindi Writers’ Guild
$12.99